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Channel: Osho Amrit/ओशो अमृत
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स्वर्णिम बचपन (सत्र–1) –ओशो

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बहुत सुंदर सुबह है। सूरज रोज-रोज उगता है और वह सदा नया है। वह कभी पुराना होता ही नहीं। वैज्ञानिक कहते है कि यह लाखों साल पुराना है। व्‍यर्थ की बात है, मैं तो राज उसे देखता हूं। वह हमेशा नया है। परंतु वैज्ञानिक तो गड़े मुर्दे उखाड़ने बाले होते है। इस लिए मैं कहता हूं कि वे इतने गुरु-गंभीर दिखते है। आज सुबह, फिर से अस्तित्‍व का चमत्‍कार, यह तो हर क्षण हो रहा है किंतु बहुत ही कम लोग, बहुत ही कम लोग उसका साक्षात्‍कार कर सकते है।
आज सूर्योदय इतना सुंदर है कि एक क्षण के लिए मुझे हिमालय के सूर्योदय के अनुपम सौंदर्य की याद आ गई। वहां जब बर्फ तुमको चारों और से घेरे होती है। और वृक्षों पर जब मानो बर्फ के सफेद फूल खिल जाते है और वे नई-नवेली दुलहनों की तरह सज जाते है, तो इस संसार के प्रधानमंत्रियों, राष्‍ट्रपतियों, राजाओं और रानियों का अस्तित्‍व केवल ताश के पत्‍तों में ही रह जाएगा क्‍योंकि उनका स्‍थान वहीं पर है। और राष्‍ट्रपति और प्रधानमंत्री ताश के ‘जोकर’ बन जाएंगे। इससे ज्‍यादा उनकी कीमत नहीं है।
वे पर्वतीय वृक्ष के सफेद फूलों के साथ…..और जब भी मैने उनकी पत्तियों से बर्फ को गिरते हुए देखा है मुझे अपने बचपन के एक पेड़ की याद आ गई है। वैसा पेड़ भारत में ही हो सकता है। उसका नाम है ‘मधुमालती’ मधु अर्थात मीठा और मालती का अर्थ तुम्‍हें मालूम हैं कि मुझे सुगंध से एलर्जी है। इसलिए मुझे पता चलता है। मैं सुगंध के प्रति बहुत संवेदनशील हूं।
बर्फ से आच्‍छादित पेड़ सदा मुझे ‘मधुमालती’ की याद दिलाते है। निश्चित ही उनमें सुगंध नहीं होती। और मेरे लिए यह अच्‍छा है कि बर्फ में कोई सुगंध नहीं होता। अफसोस है कि अब मैं दुबारा मधुमालती के फूलों को अपने हाथों में न ले सकूंगा। मधुमालती की सुगंध इतनी तेज होती है कि वह मीलों तक फैल जाती है। और याद रखना कि मैं अतिशयोंत्कि नहीं कर रहा हूं। मधुमालती का सिर्फ एक पेड़ पूरे मोहल्‍ले को महक से भरने के लिए काफी होता है।
मुझे हिमालय बहुत प्रिय है। मैं वहीं मरना चाहता था। वह मरने के लिए अत्‍यंत सुंदर जगह है—निश्चित ही जीने के लिए भी। किंतु मरने के लिए यह अत्‍यंत उपयुक्‍त स्‍थान है। यहीं पर तो लाओत्से मरा था। बुद्ध, जीसस, मोजेज—ये सब लोग हिमालय की गोद में ही मरे थे। कोई और पर्वत मोजेज, जीसस, लाओत्‍से, बुद्ध, वोधिधर्म, मिलोरपा, मापा, तिलोपा और नरोपा जैसे हजारों लोगों को अंतिम आश्रय देने का दावा नहीं कर सकता है।
मैं वहीं पर मरना चाहता था। और आज सुबह जब मैं सूर्योदय देख रहा था तो मुझे यह सोच कर बहुत राहत महसूस हुई कि अगर मैं यहां पर मर जाऊँ तो यह भी ठीक है, खास कर आज जैसे सुंदर दिन। और मैं मरने के लिए ऐसा दिन चुनूंगा जब मुझे महसूस होगा कि मैं हिमालय का हिस्‍सा बन गया हूं। मृत्‍यु मेरे लिए एक अंत या पूर्ण विराम नहीं है। नहीं, मृत्‍यु मेरे लिए एक उत्‍सव है।
मैरा जन्‍म स्‍थान, कुच वाड़ा, एक ऐसा गांव था जहां कोई पोस्‍ट आफिस नहीं था, कोई रेलवे लाइन नहीं थी। वहां पर छोटी-छोटी पहाडियाँ थी या टीले थे और सुंदर झील थी और फूस की कुछ झोपड़ियों थी। ईंटों से बना पक्‍का मकान एक ही था जहां मेरी जन्‍म हुआ। और वह भी कोर्इ बहुत बड़ा मकान नहीं था। एक छोटा से मकान था।
अभी मैं उसे देख सकता हूं और पूरा ब्‍योरा दे सकता हूं। लेकिन उस मकान और गांव से ज्‍यादा मुझे वहां के लोग याद है। मैं लाखों लोगों से मिला हूं किंतु उस गांव जैसे सरल लोग और कहीं नहीं है। क्‍योंकि वे ग्रामीण लोग थे। उनको दुनिया के बारे में कुछ भी पता नहीं था। उस गांव में एक भी अख़बार कभी नहीं आया। अंब तुम समझ सकते हो कि वहां कोई स्‍कूल क्‍यों नहीं था, प्राइमरी स्‍कूल तक नहीं था। क्‍या सौभाग्‍य था। आज के किसी बच्‍चे को यह सौभाग्‍य नहीं मिल सकता।
उन वर्षो में मैं अशिक्षित ही रहा और बहुत सुंदर समय था।
मैं अभी भी उस छोटे से गांव को देख सकता हूं—तालाब के पास थोड़ी सी झोपड़ियों और कुछ ऊंचे-ऊंचे पेड़ जिनके नीचे मैं खेलता था। गांव में कोई स्‍कूल नहीं था। यह बात बहुत महत्‍वपूर्ण है, क्‍योंकि लगभग नौ साल तक मैं बिलकुल पढ़ा लिखा नहीं था। यह समय( व्‍यक्ति के निर्माण के लिए) बहुत ही महत्‍वपूर्ण होता है। ।फिर तुम कोशिश भी करों तो शिक्षित नहीं हो सकते। तो एक प्रकार से मैं अभी भी अशिक्षित हूं, यद्यपि डि़ग्रियां मेरे पास बहुत है। कोई भी अशिक्षित व्‍यक्ति यह कर सकता था। और साधारण डिग्री नहीं, एम. ए. की प्रथम श्रेणी की डिग्री—वह भी कोई भी बेवकूफ प्राप्‍त कर सकता है। इसका कोई महत्‍व नहीं है, क्‍योंकि प्र‍तिवर्ष हजारों बेवकूफ इसे प्राप्‍त करते है। महत्‍वपूर्ण केवल यह है कि अपने आरंभिक वर्षो में मुझे कोई शिक्षा नहीं मिली। बाद में उस गांव से दूर जाकर भी मैं उसी दुनियां में रहा—अशिक्षित।
उस गांव के पास एक पुराना तालाब था, बहुत पुराना, और उसके चारों और बहुत पुराने वृक्ष लगे हुए थे—शायद सैकड़ों वर्ष पुराने—और चारों और बड़ी सुंदर चट्टानें थीं। और निश्चित ही मेंढ़क कूदते थे। दिन-रात छपाक की आवाज तुम बार-बार सुन सकते थे। मेढकों के कूदने की आवाज वहां की नीरवता को और बढ़ा देती थी, और अघिक अर्थपूर्ण कर देती थी। बाशो की यही विशेषता है: बिना वर्णन किए बहुत कुछ वर्णन कर सकता था। ‘छपाक’….. तालाब में मेढक कूदने की आवाज का वर्णन कोई भी शब्‍द नहीं कर सकता, परंतु ‘बाशो’ ने कर दिखाया।
उस गांव को बाशो की जरूरत थी। शायद उसने सुंदर चित्र बनाए होते, सुंदर हाइकू लिखे होते….। उस गांव के लिए मैने कुछ भी नहीं किया। तुम पुछोगे कि क्‍यों, मैं वहां दुबारा गया ही नहीं। एक बार काफी है। मैं किसी भी जगह दुबारा नहीं जाता। मेरे लिए नंबर दो है ही नहीं। मैने बहुत से गांव और बहुत से शहर छोड़े है, फिर वापस कभी नहीं। तो उस गांव में वापस नहीं गया। गांव वालों ने कई बार संदेश भेजे कि एक बार आओ। किंतु मैने संदेश लाने बालों के द्वारा यही उत्‍तर उन्‍हें भेजा कि मैं एक बार वहां रह चुका हुं दुबारा मैं कहीं जाता नहीं।
बुद्ध पुरूष संसार के सौंदर्य को प्रतिबिंबित नहीं करना चाहते और संसार भी बुद्धो द्वारा प्रतिबिंबित नहीं होना चाहता, किंतु वह प्रतिबिंबित होता है। कोई भी कुछ करना नहीं चाहता, किंतु ऐसा होता है। और जब कुछ होता है तो बहुत सुंदर है। जब कुछ किया जाता है तो वह बिलकुल साधारण होता है। जब कुछ किया जाता है तो तुम केवल एक टेक्‍नीशियन होते हो। किंतु बिना प्रयास के घटना है, तो तुम मास्‍टर हो। बातचीत, कम्यूनिकेशन तकनीशियन के संसार का हिस्‍सा है; संवाद, कम्यूनियन गुरु के सान्निध्‍य की सुगंध है। यह है संवाद।


Filed under: स्‍वणिम बचपन-- ओशे की आत्‍म कथा Tagged: ओशो

‘’जन्‍म का चुनाव’’–सत्र—2 (ओशो)

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सब लोग अपने सुनहरे बचपन बात करते हैं, पर कभी-कभार ही यह सच होता है। अधिकतर तो यह झूठ ही होता है। लेकिन जब बहुत लोग एक ही झूठ बोल रहे हों तो किसी को पता नहीं चलता कि यह झूठ है। कवि भी अपने सुनहरे बचपन के गीत गाते रहते हैं—उदाहरण के लिए वर्डसवर्थ—उसकी कवि‍ताएं अच्‍छी हैं, लेकिन सुनहरा बचपन बहुत ही दुर्लभ घटना हैं। साधारण से कारण से कि तुम इसे पाओगें कहां से।
सबसे पहले तो व्यक्ति को अपना जन्‍म चुनना पड़ता है। जोकि बिलकुल ही असंभव है। जब तक तुम ध्‍यान की स्थिति में न मरे हो तब तक तुम अपने जन्‍म का चुनाव नहीं कर सकते। यह चुनाव तो केवल ध्यानी ही कर सकता है। वह होश पूर्वक मरता है, इसलिए होश पूर्वक जन्‍म लेने का अधिकार हासिल करता है। मैं होश पूर्वक मरा था। असल में मैं मरा नहीं था, मारा गया था। मैं तीन दिन के बाद मरने बाला था। पर वे लोग इंतजार न कर सके, तीन दिन का भी इंतजार न कर सके। लोग इतनी जल्‍दी में है।
तुम्‍हें यह जान कर आश्‍चर्य होगा कि जिस आदमी ने मुझे मारा था वह अब मेरा संन्‍यासी है। वह फिर मुझे मारने आया था, संन्‍यास लेने नहीं आया था। पर अगर वह अपनी जिद नहीं छोड़ता तो मैं भी अपनी जिद छोड़ने वाला नहीं। संन्‍यासी होने के सात साल बाद उसने स्‍वयं स्‍वीकार किया। उसने कहा: ‘प्‍यारे सदगुरू, अब मैं बिना भय के आपके सामने स्‍वीकार करता हूं कि अहमदाबाद में मैं आपको मारने आया था।
मैंने कहा: ’हे परमात्‍मा, फिर से दुबारा?’
उसने कहा: ‘दुबारा से आपका क्‍या मतलब है?’
मैंने कहा: ‘ यह दूसरी बात है। तुम अपनी बात कहो।‘
उसने कहा: ‘सात साल पहले अहमदाबाद में मैं आपकी मीटिंग में रिवाल्‍वर लेकर आया था। हॉल इतना भरा हुआ था कि संयोजकों ने लोगों को मंच पर बैठने दिया था।‘
तो उस आदमी को, जो रिवाल्‍वर लेकर मुझे मारने आया था। मेरी बगल में बैठने दिया गया। कितना अच्‍छा अवसर था। मैने कहा: ‘तुम इस अवसर को चूके क्‍यों?’
उसने कहा: ‘मैने आपको इससे पहले कभी सुना नहीं था। मैने सिर्फ आपके बारे में सुना था। जब मैने आपको सुना, तो मुझे लगा कि आपको मारने की बजाय आत्‍महत्‍या कर लेनी बेहतर है। इस लिए मैने संन्‍यास लिया—यहीं मेरी आत्‍महत्‍या है।‘
सात सौ साल पहले इस आदमी ने मेरी हत्‍या की थी। इसने मुझे जहर दिया था। उस समय भी यह मेरा शिष्‍य था…..लेकिन जुदास के बिना जीसस का होना बहुत मुश्किल है। मैं होश पूर्वक मरा। इसलिए मुझे होशपूर्वक जन्‍म लेने का अवसर मिला। मैंने अपने माता-पिता को चुना।
पृथ्‍वी पर हजारों मूर्ख प्रतिक्षण संभोग कर रहे है और लाखों अजन्‍मी आत्‍माएं किसी भी गर्भ में प्रवेश करने को तैयार है। मैंने उपयुक्‍त क्षण की प्रतीक्षा में सात सौ साल इंतजार किया। और अस्तित्‍व का धन्‍यवाद कि वह क्षण मुझे मिल गया। लाखों वर्षो की तुलना में सात सौ साल कुछ भी महत्‍व नहीं रखते है।
केवल सात सौ साल! हां मैं कह रहा हूं, केवल!
और, मैंने एक बहुत ही गरीब, लेकिन बहुत ही अंतरंग दंपति को चुना।
मेरे पिता के ह्रदय में मेरी मां के लिए इतना प्रेम था कि मैं नहीं सोचता हूं कि कभी उन्‍होंने किसी दूसरी स्‍त्री को उस दृष्टि से देखा हो। यह कल्‍पना करना भी असंभव है—मेरे लिए भी, जो कि कुछ भी कल्‍पना कर सकता है—कि मेरी मां ने स्‍वप्‍न में भी किसी और पुरूष के बारे में सोचा हो—यह असंभव है। मैंने दोनों को जाना है। वे इतने घनिष्‍ठ थे, एक-दूसरे के प्रति इतने प्रेमपूर्ण थे, इतने संतुष्‍ट थे,
हालांकि गरीब थे—गरीब फिर भी अमीर। इस घनिष्‍ठता और परस्‍पर प्रेम के कारण ही वे गरीबी में भी इतने समृद्ध थे।
जब मेरे पिता की मृत्‍यु हुई तो मैं अपनी मां के बारे में चिं‍तित था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि वे जिंदा रह पाएंगी। उन दोनों ने एक-दूसरे को इतना प्रेम किया था कि लगभग एक ही हो गए थे। वे बच पाईं क्‍योंकि वे मुझे प्रेम करती है। उनके बारे में मैं हमेशा चिंति‍त रहा हूं। मैं उन्‍हें अपने sपास ही रखना चाहता था, ताकि उनकी मृत्‍यु परम संतुष्टि में हो सके। अब तुम्‍हारे द्वारा एक दिन सारे संसार को मालूम होगा—कि वे बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हो गई है। मैं उनका अंतिम मोह था। अब उनके लिए कोई मोह नहीं रह गया है। वे एक संबुद्ध महिला हैं–
अशिक्षित, सरल, उनको तो यह भी नहीं मालूम कि बुद्धत्‍व क्‍या होता है। यही तो सौंदर्य है। कोई बुद्ध हो सकता है, बिना यह जाने कि बुद्धत्‍व क्‍या है। और इससे उल्‍टा भी हो सकता है: कोई बुद्धत्‍व के बारे में सब जान सकता है और फिर भी अबुद्ध बना रहा सकता है।
मैंने इस दंपति को चुना—सीधे-सादे सरल ग्रामीण। मैं राजाओं और रानियों को भी चुन सकता था। यह मेरे हाथ में था। सब प्रकार के गर्भ उपलब्‍ध थे। पर मैं बहुत ही सरल और सादी रूचि का व्‍यक्ति हूं—मैं हमेशा सर्वोत्‍तम से संतुष्‍ट हो जाता हूं। यह दंपति गरीब थी, बहुत गरीब। तुम समझ न सकोगे कि मेरे पिता के पास केवल सात सौ रूपये थे। यही उनकी कुल संपत्ति थी। फिर भी मैंने उनको अपना पिता चुना। उनके पास एक संपन्‍नता थी, जिसे आंखें नहीं देख सकतीं; एक अभिजात्‍य था जो दिखाई नहीं देता।
तुममें से बहुतों ने उन्‍हें देखा है और निश्चित ही उनके सौंदर्य को अनुभव किया होगा। वे सीधे, बहुत सीधे और सरल थे, तुम उन्‍हें ग्रामीण कह सकते हो। लेकिन वे समृद्ध थे—सांसारिक अर्थों में नहीं, लेकिन अगर कोई पारलौकिक अर्थ है…;। सात सौ रूपये, यहीं उनकी कुल पूंजी थी। मुझे तो पता भी न चलता लेकिन जब उनके व्‍यापार का दिवाला निकल रहा था। और वे बहुत प्रसन्‍न थे। मैंने उनसे पूछा: ‘दद्दा’—‘मैं उन्‍हें दद्दा कहता था।‘ आप जल्‍दी ही दिवालिया होने वाले है और आप खुश है, क्‍या बात है, क्‍या अफवाहें गलत है?’
उन्‍होंने कहा: ‘नहीं अफवाहें बिलकुल सही है। दिवाला निकलेगा ही। लेकिन मैं खुश हूं क्‍योंकि मैंने सात सौ रूपये बचा लिए है। जिससे मैने शुरूआत कि थी। और वो जगह तुम्‍हें दिखाऊ……वे सात सौ रूपये अभी भी जमीन में कहीं गड़े हुए है और वे वहीं गड़े रहेगें जब तक कि संयोगवश कोई उन्‍हें पा न लें। मैंने उनसे कहा, ‘हालांकि आपने मुझे वो जगह दिखा दी है, लेकिन मैने देखा नहीं है।‘
उनहोंने पूछा: ’क्‍या मतलब है तुम्‍हारा?’
‘मैं किसी भी विरासत का हिस्‍सा नहीं हूं—बड़ी या छोटी, अमीर या गरीब।‘
लेकिन उनकी और से वे बहुत ही प्‍यार करने बाले पिता थे। जहां तक मेरा सवाल है, मैं प्‍यार करने वाला बेटा नहीं हूं—‘मुझे माफ करो।‘
अच्‍छा है कि मेरे पिता अब नहीं है, नहीं तो मैं उन्‍हें परेशान करता। लेकिन उनके ह्रदय में इस आवारा बेटे के लिए इतना प्रेम था और इतनी करूणा थी। मैं तो आवारा ही हूं। मैंने अपने परिवार के लिए कभी कुछ नहीं किया। किसी भी प्रकार से वे मेरे प्रति ऋणी नहीं है। उन्‍होंने मेरे लिए सब कुछ किया।
मैंने इस दंपति का चुनाव विशेष कारण से ही किया—उनमें घनिष्‍ठता, उनकी अंतरंगता के कारण। वे दो होते हुए भी एक ही थे। इस प्रकार सात सौ साल बाद मैंने पुन: शरीर में प्रवेश किया।
मेरा बचपन सुनहरा था। मैं यूं ही नहीं कह रहा हूं। मैं फिर दोहरा दूँ, सभी कहते है कि उनका बचपन सुनहरा था, लेकिन ऐसा होता नहीं। लोग सिर्फ सोचते है कि उनका बचपन सुनहरा था। क्‍योंकि उनकी जवानी बेकार होती है और उनका बुढ़ापा तो और भी बदतर होता है। स्‍वभावत: बचपन सुनहरा हो जाता है। इस अर्थ में बचपन सुनहरा नहीं था। मेरी जवानी हीरे जैसी थी और अगर मैं बुढ़ापे तक जीवित रहा तो मेरा बुढ़ापा प्‍लैटिनम होगा। लेकिन मेरा बचपन निश्चित ही सुनहरा था—प्रतीक की तरह नहीं, सच में सुनहरा; काव्‍य की तरह नहीं बल्कि शब्दशः:, तथ्‍यगत।
अपने आरंभिक वर्षो में मैं अधिकतर अपने नाना-नानी के घर रहा। वे वर्ष भुलाए नहीं जा सकते। अगर मैं स्‍वर्ग में भी पहुंच जाऊँ तो भी उन वर्षो को याद रखूंगा। एक छोटा सा गांव, गरीब लोग। पर मेरे नाना बहुत बड़े दिल के आदमी थे। अत्‍यंत उदार। वे गरीब थे, लेकिन उदारता में वे बहुत अमीर थे। उनके पास जो भी था, उन्‍होंने सबको दिया। मैंने भी देने की कला उन्‍हीं से सीखी। इतना मुझे स्‍वीकार करना पड़ेगा। मैंने उन्‍हें किसी भिखारी को या किसी और को न कहते नहीं सुना।
मेरी नानी भारतीय कम, युनानी अधिक दिखाई देती थी। जब ‘मुक्‍ता’ को हंसते देखता हूं तो मुझे उनकी याद आ जाती है। शायद इसीलिए मेरे ह्रदय में मुक्‍ता के लिए विशेष स्‍थान है। शायद उनमें कुछ यूनानी खून था। कोई भी जाती बिलकुल शुद्ध होने का दाव नहीं कर सकती। विशेषकर भारतीयों को तो शुद्ध खून का दावा बिलकुल नहीं करना चाहिए। हूणों ने, मुग़लों ने, यूनानियों ने, और दूसरी अन्‍य जातियों ने कई बार भारत पर आक्रमण किए, भारत को जीता और उस पर शासन किया। वे भारतीय खून में घुल-मिल गए। मेरी नानी में बिलकुल स्‍पष्‍ट था। उनके नैन-नक्‍श भारतीय नहीं थे। वे यूनानी दिखाई देती थी। और वे बहुत शक्ति शाली स्‍त्री थी—बहुत मजबूत। मेरे नाना पचास वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनकी मृत्‍यु हो गई। मेरी नानी अस्‍सी साल तक जीवित रहीं और वे पूरी तरह स्‍वस्‍थ थी। तब भी कोई नहीं सोचता था कि वे मरने बाली है। मैने उनसे एक वादा किया था कि जब वे मरेगी तो मैं आऊँगा। और वह परिवार में जाने का मेरा अंतिम मौका होगा। उनकी मृत्‍यु उन्‍नीस सौ सत्‍तर में हुई। मुझे अपना वादा पूरा करना पडा।
मैं अपने आरंभिक वर्षो में नानी को ही मां समझता था। यह समय था जब बच्‍चा धीरे-धीरे बड़ा होता है। उस समय मैं नानी के पास था। मेरी मां उसके बाद आर्इं। तब तक मैं बड़ा हो चुका था और एक खास ढंग में ढल चुका था। मुझे एक घटना याद आती है जो मैने इससे पहले कभी नहीं बताई। एक अंधेरी रात थी, बारिश हो रही थी और एक चोर हमारे घर में घुस आया। स्‍वभावत: मेरे नाना डर गए। सब देख सकते थे वे डरे गए है, लेकिन वे पूरी कोशिश कर रहे थे यह दिखाने की कि वे डरे नहीं है। चोर हमारे छोटे से घर के एक कोने में शक्कर की बोरियों के पीछे छुपा हुआ था।
मेरे नाना हमेशा पान खाते रहते थे। वे सार दिन पान बनाते रहते और खाते रहते थे। तो उन्‍होंने पान खाना शुरू किया और कोने में छिपे हुए बेचारे चोर पर थूकने लगे। मैने यह गंदा दृश्‍य देखा और नानी से कहा: ‘यह ठीक नहीं है। माना की वह चोर है, फिर भी इस तरह से उस पर थूकना नहीं चाहिए। हमें सज्‍जनता से व्‍यवहार करना चाहिए। थूकना…., या तो उससे लड़ों या थूकना बंद करो।’
मेरी नानी ने पूछा: ‘तुम क्‍या करना पसंद करोगे?’
मैंने कहा: ‘मैं उसे थप्‍पड़ मार कर बाहर भगा दूँगा।‘ उस समय मैं नौ वर्ष का भी नहीं था।
वे ऊंचे कद की थी। मेरी मां उन जैसी नहीं है—न ही शारीरिक सौंदर्य में और न ही आंतरिक साहस में। मेरी मां तो सीधी-सादी है, मेरी नानी साहसी थी।
मैं तो हैरान रह गया, मैं तो भरोसा न कर सका, जब मैंने देखा कि चोर कोई और नहीं मुझे पढ़ाने आने वाला व्‍यक्ति ही था, मेरा टीचर, मैने जोर से उसे मारा, इसलिए नहीं कि वह मेरा टीचर था। मैंने उससे कहा: ‘अगर तुम केवल चोर होत तो मैं तुम्‍हें क्षमा कर देता, लेकिन तुम मुझे बड़ी-बड़ी बातें सिखाते हो और रात में तुम ऐसी हरकतें करते हो। अब जितनी तेजी से हो सको भाग जाओ, इससे पहले कि मेरी नानी तुम्‍हें पकड़े, अन्‍यथा वे तुम्‍हारा भुरता बना देगी।‘
मुझे वह मास्‍टर याद है—गांव का पंडित, जो मुझे कभी-कभी पढ़ाने आता था। वह गांव के मंदिर का पुजारी था। उसने कहा: ‘तुम्‍हारे नाना ने मुझ पर थूकते रहे। क्‍या हालत हो गई है मेरे कपड़ों की, उन्‍होंने मेरे कपड़े खराब कर दिए।‘
मेरी नानी हंसी और कहा: ‘कल आ जाना। मैं तुम्‍हें नये कपड़े दे दूंगी।‘ और उन्‍होंने सचमुच उसे नये कपड़े दिए। वह तो नहीं आया, उसकी हिम्‍मत नहीं पड़ी। लेकिन नानी चोर के घर गईं, मुझे भी अपने साथ ले गई। और उसे नये कपड़े देते हुए कहा: ‘हां मेरे पति ने तुम्‍हारे कपड़े खराब करने का भद्दा काम किया। यह ठीक नहीं है। तुम्‍हें जब भी कपड़ों की जरूरत हो तो मेरे पास आ सकते हो।‘
वह मास्‍टर दुबारा मुझे पढ़ाने नहीं आया….ऐसा नहीं कि किसी ने उसे आने के लिए माना किया, लेकिन उसे आने कि हिम्‍मत ही नहीं हुई।
मेरे नाना चाहते थे कि भारत के बड़े से बड़े ज्‍योतिषी मेरी जन्‍मपत्री बनाएं। हालांकि वे बहुत अमीर नहीं थे—अमीर ही नहीं थे, बहुत अमीर की तो बात अलग-लेकिन उस गांव में वे सबसे अमीर थे। मेरी जन्‍मपत्री बनाने के लिए वे कुछ भी कीमत देने को तैयार थे। वे लम्‍बी यात्रा करके वाराणसी गए और वहां के प्रसिद्ध ज्‍योतिषियों से मिले। मेरे नाना द्वारा दी गई मेरी जन्‍मतिथि और जन्‍मस्‍थान आदि को देख कर सबसे ज्‍योतिषी ने कहा: ‘मुझे दुख है, कि मैं यह जन्‍म-कुंडली केवल सात साल बाद ही बना सकता हूं। अगर यह बच्‍चा जीवित रहा तो मैं उसकी जन्‍म पत्री मुफ्त में बना दूँगा। पर मुझे नहीं लगता कि यह बचेगा। यदि यह बच गया तो यह चमत्‍कार होगा, क्‍योंकि तब उसके बुद्ध हो जाने की संभावना है।‘
मेरे नाना रोते हुए घर आए। मैने उनकी आंखों में आंसू कभी नहीं देखे थे। मैने पूछ: ‘क्‍या बात है?’
उन्‍होंने कहा: ‘तुम्‍हारे सात साल के होने तक मुझे इंतजार करना पड़ेगा। कोन जानता है‍ की तब तक मैं बचूगां भी या नहीं?’ कौन जानता है कि वह ज्‍योतिषी खुद बचेगा कि नहीं, क्‍योंकि वह काफी बूढ़ा है। और मुझे तुम्‍हारी थोड़ी चिंता होती है।‘
मैंने कहा: ‘इसमें चिंता की क्‍या बात है?’
उन्‍होंने कहा: ‘चिंता इस बात की नहीं है कि कहीं तुम मर न जाओ। मेरी चिंता इस बात की है कि कहीं तुम बुद्ध न हो जाओ।‘
मैं हंसा, और वे भी आंसुओं के बीच हंसने लगे। फिर उन्‍होंने खुद कहा: ‘आश्‍चर्य है कि मुझे चिंता थी। हां बुद्ध होने में बुराई क्‍या है?’
जब मेरे पिता ने सुना कि ज्‍योतिषियों ने मेरे नाना को क्‍या कहा, तो वे स्‍वयं मुझे वाराणसी ले गए। लेकिन उसकी चर्चा बाद में करेंगे।
जब मैं सात साल का था तो एक ज्‍योतिषी मुझे खोजते हुए मेरे नाना के गांव आया। जब एक सुंदर घोड़ा हमारे घर के सामने रुका तो हम बाहर निकल आए। घोड़ा बहुत शानदार दिख रहा था और उसका सवार कोई और नहीं, वहीं प्रसिद्ध ज्‍योतिषी था जिसे मैं मिल चुका था। उसने मुझे कहा, ‘तो तुम अभी तक जीवित हो, मैने तुम्‍हारी जन्‍म-कुंडली बना दी है। मैं डर रहा था, क्‍योंकि तुम्‍हारे जैसे लोग अधिक समय तक जीवित नहीं रहते।‘
मेरे नाना ने घर के जेवर बेच दिए, आस-पास के गांव को भोज देने के लिए कि मैं बुद्ध होने बाला हूं इसका उत्‍सव मनाने के लिए। और मुझको नहीं लगता कि उन्‍हें ‘बुद्ध’ शब्‍द का अर्थ मालूम था। वे जैन थे, और शायद उन्‍होंने इससे पहले कभी यह शब्‍द सुना भी न होगा। लेकिन वह बहुत खुश थे और नाच रहे थे, क्‍योंकि मैं बुद्ध होने बाला था। उस क्षण मैं विश्‍वास ही न कर सका कि सिर्फ बुद्ध शब्‍द से वे इतने प्रसन्‍न हो सकते है। जब सब लोग चल गये तो मैंने उनसे पूछा, ‘बुद्ध शब्‍द का अर्थ क्‍या है, उन्‍होंने कहा, ‘मुझे नहीं मालूम। सुनने में अच्‍छा लगता है। और मैं तो जैन हूं किसी बौद्ध से पूछ लेंगे।‘
लेकिन वे बहुत प्रसन्‍न थे, क्‍योंकि ज्‍योतिषी ने कहा कि मैं बुद्ध बनूंगा। फिर उन्‍होंने मुझसे कहा: ‘मेरा अनुमान है कि बुद्ध का मतलब ब‍हुत बुद्धिमान व्‍यक्ति होना चाहिए।‘ बुद्धि का अर्थ होता है समझ, इसलिए उन्‍होंने सोचा कि बुद्ध का मतलब बुद्धिमान, समझदार व्‍यक्ति होना चाहिए।
उनका अनुमान काफी सही था, वे अर्थ के बहुत करीब पहुंच गए—अफसोस कि अब वे जीवित नहीं हैं, नहीं तो वे देख लेते कि बुद्ध होने का क्‍या अर्थ है—शब्‍दकोश का अर्थ नहीं, वरन जीवित जाग्रत व्‍यक्ति के साथ साक्षात्‍कार। और उनका नाती बुद्ध हो गया है—इस खुशी में मैं उन्‍हें नाचते हुए देख सकता हूं। उनके समाधिस्‍थ होने के लिए यही पर्याप्‍त होता। लेकिन उनकी मृत्‍यु हो गई। उनकी मृत्‍यु मेरे लिए बहुत ही महत्‍वपूर्ण अनुभव था। उसके बारे में बाद में बात करेंगे।
रूकने का समय हो गया है। पर यह बहुत सुंदर रहा, और मैं बहुत आभारी हूं।
धन्यवाद।


Filed under: ओशो अमृत कण-

ज्‍योतिषी की भविष्यवाणी–सत्र—3 (ओशो)

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बार-बार सुबह का चमत्‍कार…..सूरज और पेड़ । संसार बर्फ के फूल की तरह हैं: इसको तुम अपने हाथ में लो और यह पिघल जाता है—कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ गीले हाथ रह जाते है। लेकिन अगर तुम देखो, सिर्फ देखो, तो बर्फ का फूल भी उतना ही सुंदर है जितना संसार में कोई दूसरा फूल। और यह चमत्‍कार हर सुबह होता है, हर दोपहर, हर शाम, हर रात, चौबीस घंटे, दिन-रात होता है…..चमत्‍कार। और लोग परमात्‍मा को पूजने मंदिरों, मसजिदों और गिरजाघरों में जाते है। यह दुनिया मूर्खों से भरी हानि चाहिए—माफ करो, मूर्खों से नहीं वरन मूढ़ों से—असाध्‍य, इतने मंद बुद्धि लोगों से।
क्‍या परमात्‍मा को खोजने के लिए मंदिर जाने की जरूरत है, क्‍या वह अभी और यहीं नहीं है।
खोज का खयाल ही मूढ़तापूर्ण है। खोज तो उसकी करते है जो दूर है। और परमात्‍मा तो इतने करीब है, तुम्‍हारी ह्रदय की घड़कना से भी अधिक करीब है। कोई स्‍त्रष्‍टा नहीं है, केवल सृजन की ऊर्जा है। लाखों रूपों में वह ऊर्जा प्रकट होती, पिघलती, मिलती, प्रकट होती, अदृश्‍य होती, एकत्रित होती और फिर बिखर जाती है।
इस लिए मैं कहता हूं कि पुरोहित सत्‍य से बहुत दूर है और कवि बहुत नजदीक है। निश्चित ही कवि को भी वह उपलब्‍ध नहीं है। केवल रहस्‍यदर्शी ही उसे उपलब्‍ध करता है…; ‘उपलब्‍ध’ शब्‍द ठीक नहीं है, या यूं कहो कि उसे मालूम हो जाता है कि वह सदा से बही है।
वह बूढ़ा ज्‍योतिषी आया। मेरे नाना अपनी आंखों पर विश्‍वास न कर सके। वह ज्‍योतिषी इतना प्रसिद्ध था कि अगर वह किसी राजा के महल में भी जाता तो वह राजा भी आश्‍चर्यचकित होता। और वह मेरे बूढ़े नाना के घर आया। उसे घर कहना पड़ता है, लेकिन ज्‍यादा कुछ था नहीं बस मिट्टी की दीवालों से बना मकान था। उसमें अलग गुसलखाना भी नहीं था। तो वह हमारे घर आया और मैं तुरंत उस बूढ़े व्‍यक्ति का मित्र बन गया। उसकी आंखों में देखते हुए—यद्यपि मैं केवल सात साल का था। और एक शब्‍द भी नहीं पढ़ सकता था। लेकिन उसकी आंखें पढ़ सका, उसके लिए किसी पढ़ाई की जरूरत नहीं है—मैंने उस ज्‍योतिषी से कहा, ‘बड़ी अजीब बात है कि आप इतनी दूर से मेरी जन्‍म–कुडली बनाने आए है।‘
उन दिनों, और आज भी, वाराणसी उस छोटे से गांव से ब‍हुत दूर है। ज्‍योतिषी ने कहा: ‘मैने वाद किया था, और वायदे को तो पूरा करना पड़ता है।’ वह मुझे रोमांचित कर गया। तो यह जिंदा आदमी है।
मैने कहा: ‘यदि आप अपना वादा पूर करने आए है तो मैं आपके बारे में भविष्‍यवाणी कर सकता हूं।’
उसने कहां: ‘क्‍या, तुम मेरा भविष्‍य बता सकते हो।’
मैने कहा: ‘हां, निश्चित ही तुम बुद्ध तो नहीं बनोगे, लेकिन तुम एक भिक्षु, एक संन्‍यासी अवश्‍य बनोगे।’
वह हंसा और बोला: ‘यह असंभव है।’
मैने कहा: ‘आप शर्त लगा सकते है।’
उसने मुझसे पूछा: ‘अच्‍छा ठीक है, कितने की शर्त।’
मैने कहा: ‘उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। आप जितने की चाहे उतने की शर्त लगा लें। क्‍योंकि यदि मैं जीता तो मैं जीता; लेकिन यदि मैं हारा तो मैं कुछ भी नहीं हारू गा, क्‍योंकि मेरे पास कुछ है ही नहीं। आप सात साल के बच्‍चे के साथ शर्त लगा रहे है। क्‍या आप यह देख नहीं सकते कि मेरे पास कुछ भी नहीं है।’
तुम्‍हें जान कर आश्‍चर्य होगा कि मैं वहां नंगा खड़ा था। उस गरीब गांव में यह वर्जित नहीं था—कम से कम सात साल के बच्‍चे के लिए नंगे इधर-उधर भागना-दौड़ना वर्जित नहीं था। वह कोई इंग्लैंड का गांव नहीं था। सारा गांव इकट्ठा हो गया था और सब लोग हम दोनों की बातचीत सुन रहे थे। उस ज्‍योतिषी ने कहा: ‘ठीक है, यदि मैं संन्‍यासी बना, भिक्षु बना,–और उसने अपनी हीरे-जड़ी सोने की पाकेट-घड़ी दिखाई—मैं यह तुम्‍हे दे दूँगा, और यदि तुम हार गए ताक तुम क्‍या करोगे।’
मैने कहा: ‘मैं बस हार जाऊँगा। मेरे पास कुछ नहीं है—आपको देने के लिए कोई सोन की घड़ी नहीं है। मैं केवल आपके धन्‍यवाद दूँगा।’
वह हंसा और चला गया।
मैं ज्‍योतिष में विश्‍वास नहीं करता। यह 99.9 बकवास है। लेकिन 0.1‍ बिलकुल सच है। कोई भी आंतरिक पवित्रता और अंतर्दृष्टि वाला व्‍यक्ति भविष्‍य को देख सकता है। क्‍योंकि भविष्‍य अस्तित्‍व-विहीन नहीं है, वह सिर्फ हमारी आंखों से छिपा है। शायद केवल विचारों का एक झीना सा पर्दा है जो वर्तमान और भविष्‍य को अलग करता है। लेकिन आश्‍चर्य है कि वह मेरा भविष्‍य देख सका—भले ही धुंधला-धुंधला सी, अस्‍पष्‍ट सा, अनेक संभावनाओं के साथ—लेकिन वह अपना भविष्‍य न देख स‍का। इतना ही नहीं, जब मैने कहा कि वह भि‍क्षु बनेगा, तो वह मेरे साथ शर्त लगाने को तैयार था।
मैं चौदह वर्ष का था और अपने दादा के साथ वाराणसी के आस पास घूम रहा था। वे कुछ काम से गए थे और मैन उनके साथ जाने की जिद की थी। वाराणसी और सारनाथ के बीच सड़क पर एक बूढ़े भिक्षु को मैने रोका और कहा, ‘क्‍या आप मुझे पहचानते है।’
उसने कहा: ‘मैने तो तुम्‍हें पहले कभी नहीं देखा, फिर पहचानने का सवाल ही—नहीं उठता।’
मैने कहा: ‘आपको मेरी याद नहीं है, लेकिन मुझे तो आपकी याद है। वह हीरे से जड़ी सोने की घड़ी कहां है। मैं वही बच्‍चा हूं जिसके साथ आपने शर्त लगाई थी। अब समय आ गया है कि मैं पूछूं। मैने भविष्‍यवाणी की थी कि आप भिक्षु हो जाएंगे और अब आप हो गए है। अब वह घड़ी मुझे दे दीजिए।’
वह हंसा और अपनी जेब से उसने वह सुदंर घड़ी निकाली और मुझे दी। उसकी आंखें आंसुओं से भरी हुई थी और—तुम भरोसा नहीं करोगे—उसने मेरे पैर छुए। मैने कहा: ‘नहीं-नहीं, आप भिक्षु है, संन्‍यासी है, आप मेरे पैर नहीं छू सकते।’
उसने कहा: ‘वह सब छोड़ो, तुम मुझसे बड़े ज्‍योतिषी सिद्ध हुए। मुझे तुम्‍हारे पैर छूने दो।’
मैने वह घड़ी अपनी पहली संन्‍यासिन को दे दी। मेरी पहली संन्‍यासिन का नाम है, मा आनंद मधु*,हां, एक स्‍त्री, क्‍योंकि मैं चाहता था। जिस तरह मैने स्त्रियों को संन्‍यास दिया, किसी ने कभी नहीं दिया। इतना ही नहीं, मैं अपनी पहली संन्‍यास दीक्षा किसी स्‍त्री को ही देना चाहता था—संतुलन के लिए।
स्त्री को संन्‍यास देने में बुद्ध तक हिचकिचाए—बुद्ध तक। उनके जीवन की सिर्फ यही एक बात मुझे कांटे की तरह खटकती है, और कुछ नहीं। बुद्ध झिझके…क्‍यों, उन्‍हें डर था कि स्‍त्री सन्यासिनियॉं उनके भिक्षुओं को डांवाडोल कर देगी। क्‍या बकवास है, एक बुद्ध और डरे। अगर उन मूर्ख भिक्षुओ को ध्‍यान भंग होता था तो होने देते।
महावीर ने कहा कि स्‍त्री के शरीर से किसी को निर्वाण, परम मुक्ति नहीं हो सकती। अभी भी स्त्रियों को मस्जिद में आने की अनुमति नहीं है। सिनागॉग में भी स्त्रीयां गैलरी में अलग बैठती है, पुरूषों के साथ नहीं बैठती।
इंदिरा गांधी मुझे बता रही थी कि जब वे इसरायल की यात्रा पर थी और जेरूसलम गई, तो उन्‍हें भरोसा ही नहीं हुआ कि इजरायल की प्रधानमंत्री और वे स्‍वयं, दोनों बालकनी में बैठी हुई थी और सारे पुरूष नीचे मुख्‍य हॉल में बैठे हुए थे। उसे खयाल नहीं आया कि इजरायल की प्रधानमंत्री भी, स्‍त्री होने के कारण, मुख्‍य सिला गॉग में प्रवेश नहीं कर सकती थी। वे केवल बालकनी से देख सकती थी।
यह आदरपूर्ण नहीं है, यह अपमानजनक है।
मुझे मोहम्‍मद, मोजेज, महावीर, बुद्ध के लिए माफी मांगनी है। और जीसस के लिए भी, क्‍योंकि उनहोंने अपने खास बारह शिष्‍यों में एक भी स्‍त्री नहीं चुनी। और जब उन्‍हें सूली लगी तो वे बारह मूर्ख वहां नहीं थे, केवल तीन स्त्रीयां उनके पास थी—मेगदलीन, मेरी और मेगदलीन की बहन। पर इन तीन स्त्रियों को भी जीसस ने नहीं चुना; वे चुने खास शिष्‍यों में नहीं थी। चुने हुए खास शिष्‍य तो भाग गए थे। वे अपनी जान बचाने की कोशिश में थे। खतरे के समय केवल स्त्रीयां ही आई।
इन सब लोगों के लिए मुझे भविष्‍य से माफी मांगनी है, और मेरी पहली माफी थी कि स्त्री को संन्‍यास देना। तुम्‍हें पूरी कहानी जान कर खुशी होगी। आनंद मधु के पति चाहते थे कि सबसे पहले उन‍को दीक्षा दी जाए। यह हिमालय में हुआ। मैं मनाली में ध्‍यान शिविर ले रहा था। मैने पति को यह कहते हुए अस्‍वीकार कर दिया कि तुम द्वितीय हो सकते हो, प्रथम नहीं। वे इतने नाराज हो गए कि उसी समय शिविर से चले गए। इतना ही नहीं, वे मेरे दुश्‍मन हो गए और मोरारजी देसाई से मिल गए।
बाद में जब मोरा जी देसाई प्रधानमंत्री थे तो इस आदमी ने उन्‍हें राज़ी करने की पूरी कोशिश की कि मुझे जेल भेज दिया जाए। लेकिन मोरा जी देसाई में उतनी साहस नहीं है। अपनी पेशाब पीने बाले व्‍यक्ति में इतना साहस हो भी नहीं सकता। वह तो महा मूर्ख है—फिर से माफ़ करना—महा मूढ़ है। ‘मूर्ख’ शब्‍द को तो मैंने केवल देव गीत के लिए छोड़ रखा है।
आनंद मधु अभी भी संन्‍यासिन है। वह हिमालय में रहती है—मौन, चुपचाप। तभी से हमेशा स्त्रियों को जितना हो सके उतना आगे लाने का मेरा प्रयास रहा है। शायद कभी-कभी मैं पुरूषों के प्रति अन्‍यायी भी दिखूं।
पहली महिला जिसको मैंने बहुत चाहा वह मेरी सास थी। तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा कि क्‍या मैं विवाहित हूं? नहीं, मैं विवाहित नहीं हूं। वह स्‍त्री गुड़िया की मां थी। पर मैं मजाक में उसे अपनी सास कहता था। मेरी सास असाधारण महिला थी, खास कर भारत में। वह अपने पति को छोड़ पाकिस्‍तान चली गई और स्‍वयं ब्राह्मण होते हुए भी एक मुसलमान से शादी कर ली। उसमें साहस था। उसमें हिम्‍मत थी, क्‍योंकि तुम जितना साहस करते हो उतने ही तुम ‘घर’ के नजदीक आते हो। स्‍मरण रहे कि केवल दुस्‍साहसी लोग ही बुद्ध पुरूष बनते है। हिसाबी-किताबी लोग पैसा तो इकट्ठा कर लेते है, लेकिन बुद्धपुरूष्‍ नहीं बन सकते।
मैं उस व्‍यक्ति का आभारी हूं जिसने मेरे बारे में केवल सात वर्ष की उम्र में ही भविष्‍य बाणी कर दी थी। सिर्फ मेरी जन्‍म-कुंडली बनाने के लिए उसने मेरे सात साल के होने तक प्रतीक्षा की—कितना धैर्य था, और इतना ही नहीं, वह वाराणसी से उतनी दूर गांव आया। न सड़कें थी, न रेलगाड़ी थी। उसे घोड़े पर सवारी करके इतनी लंबी यात्रा करनी पड़ी। उस ज्‍योतिषी की आंखों में मैने एक दिव्‍य असंतोष देखा, मैं देख सकता था कि इस संसार की कोई भी चीज तुम्‍हें संतुष्‍ट नहीं कर सकती है। जब आदमी को दिव्‍य असंतोष होता है, केवल तभी वह संन्‍या‍सी बनता है।
हां, वह सुनहरा समय था। असल में सुनहरे से भी अधिक सुदंर। क्‍योंकि मेरे नाना न सिर्फ मुझसे प्रेम करते थे, बल्कि मैं जो कुछ भी करता उससे भी प्रेम करते थे। और मैने वह सब किया जिसे तुम उपद्रव कह सकते हो।
मैं बहुत शैतान था। मैं लगातार उपद्रव करता रहता। उन्‍हें सारा दिन मेरे बारे में शिकायतें सुननी पड़ती, और उन शिकायतों को सुन कर उन्‍हें बड़ा मजा आता। उनकी यह एक बड़ी विशेषता थी। उन्‍होंने मुझे कभी दंड नहीं दिया। उन्‍होंने कभी यह तक नहीं कहा कि यह करो और यह मत करो। उन्‍होंने मंझे मेरे जैसा ही होने की पूरी छूट दे रखी थी। इस प्रकार, न जानते हुए भी, मुझे ताओ का स्‍वाद मिला।
वे आरंभिक वर्ष ऐसे थे। मुझे पूरी छूट थी। मेरे खयाल से हर बच्‍चे को वैसा समय मिलना जरूरी है। अगर दुनिया में हर बच्‍चे को हम वैसा समय दे सकें तो हम एक सुनहरी दुनिया बना सकते है।
उन दिनों एक भी क्षण खाली न जाता। कभी कुछ हो रहा है तो कभी कुछ, फुर्सत ही न रहती। इतनी बातें, इतनी घटनाएं जो कि मैंने कभी किसी को कहीं नहीं…..
मैं झील में तैरता था। स्‍वभावत: मेरे नाना को डर लगा रहता था। उन्‍होंने मेरी सुरक्षा के लिए एक अद्भुत आदमी को नाव में तैनात किया। उस पुराने गांव में तुम सोच भी नहीं सकते कि नाव का क्‍या मतलब है। उसे डोंगी कहते है। यह और कुछ नहीं एक पेड़ का खोखला तना होता है। यह सामान्‍य नाव जैसी नहीं होती, गोल होती है, और खतरा है, जब तक तुम कुशल न होओ तब तक उसे चला नहीं सकते। थोड़ा सा भी संतुलन बिगड़ा और तुम हमेशा के लिए गए।
डोंगी को खेकर ही मैने संतुलन सीखा। उससे ज्‍यादा सहायक और कुछ नहीं हो सकता है। मैंने मध्यमार्ग सीखा, क्‍योंकि तुम्‍हें ठीक मध्य में होना होता है। जरा सा भी इधर-अधर और तुम गए। तुम्‍हें श्‍वास भी नहीं ले सकते, और तुम्‍हें बिलकुल चुपचाप बैठना पड़ता है, केवल तभी तुम डोंगी खै सकते हो। जो आदमी मेरी रक्षा के लिए तैनात किया गया था उसे मैंने ‘अद्भुत’ कहा है। क्‍योंकि उसका नाम भूरा था। और इसका अर्थ है गोरा आदमी। हमारे गांव में सिर्फ वही एक गोरा आदमी था। यह यूरोपियन नहीं था। सिर्फ संयोग से यह भारतीय जैसा नहीं दिखता था। शायद उसकी मां ब्रिटिश फौज की किसी छावनी में काम करती थी और गर्भवती हो गई थी। वह अच्‍छे ड़ील-ड़ोल का आदमी था। वह बचपन से ही मेरे नाना से पास काम करने लगा था। वह यदपि नौकर था, फिर भी उसे परिवार के सदस्‍य जैसा ही व्‍यवहार मिलता था।
मैंने उसे अदभुत इसलिए भी कहा, क्‍योंकि यद्यपि मैंने दुनिया में अनेक लोग देखे है, फिर भी भूरा जैसा कोई नहीं देखा। वह आदमी था जिस पर तुम भरोसा कर सकते हो, उससे कुछ भी कहा जा सकता है और वो गोपनीय रखेगा। इस बात का पता मेरे परिवार को तब चला जब मेरे नाना की मृत्‍यु हुई। मेरे नाना ने घर की चाबियॉं, घर के सब काम काज जमीन की देख भाल भूर को सौंपी हुई थी। जैसे ही हम गाड़रवारा पहुंचे मेरे परिवार के लोगो ने मेरे नान के स्‍वामीभक्‍त नौकर से पूछा: ‘चाबियां कहां है।’
उसने कहा: ‘मेरे मालिक ने मुझसे कहा था। मेरे सिवाय कभी किसी को ये चाबियां मत देना। माफ़ करें, पर जब तक वह स्‍वयं मुझसे न कहे तब तक मैं चाबियां आपको नहीं दे सकता।
और चाबियां उसने कभी नहीं दी। इसलिए हम नहीं जानते कि चाबियां कहां छुपी थी।
बहुत वर्षो बाद, जब मैं बंबई में रह रहा था। तो भूरा का बेटा मेरे पास आया और चाबियां मुझे दी और कहा: ‘हम लोग आपके आने का इंतजार करते रहे, लेकिन कोई नहीं आया। हमने जमीन की और फसल की अच्‍छी तरह से देखभाल की और उसके सारे पैसे भी अलग रखे है।‘
मैंने चाबियां उसको वापस कर दी और कहा: ’अब सब कुछ तुम्‍हारा है
वाह, क्‍या आदमी था, भूरा। लेकिन वैसे लोग कभी इस जमीन पर होते थे। वे धीरे-धीरे लुप्‍त होते जा रहे है। और ऐसे लोगो की जगह सब तरह के चालबाज और धूर्त लोग लेते जा रहे है। भूरा जैसे लोग ही इस पृथ्‍वी का नमक है। मैं भूरा को अदभुत आदमी इसलिए कहता हूं क्‍योंकि इस चालाक दुनिया में सीधा होना अदभुत है। सीधा होना, इस दुनिया का नहीं, बल्कि अजनबी होना है।
मेरे नाना के पास इतनी जमीन थी कि कोई सोच भी नहीं सकता है। क्‍योंकि उन दिनों भारत के उस भाग में जमीन बिलकुल मुफ्त था। तुमको बस राजधानी के सरकारी दफ्तर में जाकर जमीन लेने के लिए कहना होता था, उतना काफी था। हमारे पास चौदह सौ एकड़ जमीन पर खेती थी जिसकी देख भाल भूरा करता था।
जब मेरे नाना मरणासन्‍न थे तो हम लोग उनको कुच वाड़ा से गाड़रवाड़ा ले गए, क्‍योंकि कुचवाड़ा में इलाज की कोई सुविधा नहीं थी। मेरे नाना का मकान ही एक मात्र मकान था उस गांव में। जब कुचवाड़ा छोड़ा तो भूरा ने चाबियां अपने बेटे को दे दी थी। गाडरवाड़ा जाते-जाते मेरे नाना की मृत्‍यु हो गई। और इस सदमे के कारण दूसरे दिन सुबह भूरा नींद से उठा ही नहीं, वह रात को ही मर गया। मेरी नानी और मेरे माता-पिता वापस कुच वाड़ा जाकर दुःखी नहीं होना चाहते थे।
भूरा का बेटा लगभग मेरी अम्र का है। अभी कुछ साल पहले मेरा भाई निकलंक और चैतन्‍य भारती उस घर के और तालाब के फोटो लेने वहां गए थे। जिस घर में मैं जन्‍मा था उस घर के लिए अब वे दस लाख रूपये मांग रहे है, यह सोच कर कि शायद मेरा कोई शिष्‍य खरीदने में इच्‍छुक हो। दस लाख, और तुम्‍हें पता है, जब मेरे नाना की मृत्‍यु हुई तब उसकी कितनी कीमत थी कुल तीस रूपये, वो भी बहुत ज्‍यादा ही थे। आश्‍चर्य है उतना भी हमें कोई देने को तैयार होता।
मनुष्‍य को केवल अपने बैंक-बैलेंस की ही चिंता नहीं करनी चाहिए। वह तो बहुत ही क्षुद्र बात है। उसका अर्थ है कि मनुष्‍य मर गया है। उसे गाड़ दो उत्‍सव मनाओ, उसे जला दो, बैंक- बैलेंस ही मनुष्‍य नहीं है, मनुष्‍य को पहाड़ियों, चट्टानों, नदियों और फूलों की भाति होना चाहिए।
मेरे नाना ने यह जानने में ही मेरी सहायता नहीं की कि सरलता क्‍या है, जीवन क्‍या हैं, वरन उन्‍होंने मृत्‍यु को जानने में भी मेरी सहायता की। उसकी मृत्‍यु मेरी गोद में हुई। उसके बार में कभी बाद में।
–ओशो


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स्‍वर्णिम बचपन—(सत्र—4 ) ओशो

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खजुराहो
मैं तुमसे उस समय कि बात कर रहा था जब ज्‍योतिषी से मिला जो अब संन्‍यासी हो गया था। उस समय मैं चौदह वर्ष का था और अपने दादा के साथ था। मेरे नाना अब नहीं रहे थे। उस वृद्ध भिक्षु, भूतपूर्व‍ ज्‍योतिषी ने मुझसे पूछा, ‘मैं धंधे से ज्‍योतिषी हूं, लेकिन शौक से मैं हाथ, पैर और माथे की रेखाएं इत्‍यादि‍ भी पढ़ता हुं। तुम यह कैसे बता सके कि मैं संन्‍यासी बनुगां, पहले मैंने सन्‍यास के बारे में सोचा भी नहीं था। तुम्‍हीं ने इसका बीज मेरे भीतर डाला और तब से मैं केवल संन्‍यास के बारे में ही सोचता हूं। तुमने ये कैसे किया।’
मैंने अपने कंधे बिचकाए। आज भी यदि कोई मुझसे पूछे कि मैं कैसे करता हूं, तो मैं सिर्फ कंधे बिचका सकता हूं। क्‍योंकि मैं कुछ करता नहीं, कोई प्रयास नहीं करता। में तो बस जो हो रहा है उसे होने देता हूं। सिर्फ चीजों से आगे-आगे रहने की कला सीखने की जरूरत है, ताकि सब लोग समझें कि तुम उन्‍हें कर रहे हो। अन्‍यथा कोई कुछ कर नहीं रहा है, विशेषकर उस दुनिया में जिससे मेरा संबंध है।
उस बूढ़े ज्‍योतिषी से मैंने कहा: ‘मैंने बस तुम्‍हारी आंखों में झाँका और इतना पवित्रता देखी कि मुझे विश्‍वास ही नहीं हुआ कि तुम अभी तक संन्‍यासी नहीं हुए हो। अब तक तो तुम्‍हें हो जाना चाहिए था। पहले ही बहुत देर हो चुकी थी।’
एक अर्थों में संन्‍यास के लिए हमेशा बहुत देर हो जाती है और दूसरे अर्थों में संन्‍यास हमेशा समय से पहले होता है। और दोनों बातें एक साथ सच है।
अब बूढ़े आदमी की बारी थी अपने कंधे बिचकाने की। उसने कहा: ‘तुम मुझे उलझन में डाल रहे हो। मेरी आंखें कैसे तुम्‍हें बता सकती थी।’
मैंने कहा: ‘अगर आंखें नहीं बता सकती तो फिर किसी ज्‍योतिष की कोई संभावना नहीं रह जाती।’
निश्चित ही, ज्‍योतिष शब्‍द का आंखों से संबंध नहीं है, उसका संबंध तारों से हे, लेकिन क्‍या अंधा आदमी तारे देख सकता है, नहीं तो तारे देखने के लिए आंखे चाहिए।
मैंने उस वृद्ध व्‍यक्ति से कहा: ‘ज्‍योतिष तारों का विज्ञान नही है, वरन देखने का विज्ञान है। तारों को दिन के भरपूर प्रकाश में भी देखने का विज्ञान है।’
आज ही मुझे एक नई पुस्‍तक का अनुवाद मिला जिसे वे जर्मनी में प्रकाशित कर रहे है। मैं जर्मन नहीं जानता, इसलिए किसी को उस अंश का अनुवाद करना पडा जिसका मुझसे संबंध है। मैं इतना किसी भी चुटकुले पर कभी नहीं हंसा। और यह मजाक नहीं है, यह बहुत गंभीर पुस्‍तक है।
लेखक ले पचपन पृष्‍ठों में यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि मैं केवल इल्‍युमिनेदेड़ हुं, एनलाइटेंड नहीं हूं। वाह, बहुत खूब, सिर्फ इल्‍युमिनटेड, एनलाइटेंड नहीं। और तुम्‍हें यह जान कर आश्‍चर्य होगा कि कुछ ही दिन पहले इसी श्रेणी के एक और मूढ़, एक डच प्रोफेसर की पुस्‍तक मुझे मिली थी। डच जर्मन से कोई विशेष अलग नहीं है, वे एक ही श्रेणी के लोग है।
मैं सिर्फ एनलाइटेंड हूं, इल्‍युमिलटेड नहीं, अब इन दोनों मूढ़ों को मिलना चाहिए और कुश्‍ती लड़नी चाहिए और अपनी किताबों और अपने तर्कों से एक-दूसरे को मारना चाहिए।
जहां तक मेरा सवाल है, मुझे हमेशा के लिए और अंतिम रूप से दुनिया से कह देना है: न तो मैं इल्‍युमिनेटेड हुं और न ही एनलाइटेंड हूं। मैं तो बस एक बहुत साधारण और बहुत सरल व्‍यक्ति हूं—बिना किसी विशेषण के और बिना किसी डिग्री के। मैने अपने सब सर्टिफ़िकेटों को जला दिया है।
मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं कि तुम मुझे एनलाइटेंड मानते हो या नहीं। इससे क्‍या फर्क पड़ता है। लेकिन यह आदमी इतनी चिंतित है कि इसकी छोटी सी पुस्‍तक में पचास पृष्‍ठ केवल इस बात के लिए बर्बाद कर दिये कि मैं एनलाइटेंड हूं या नहीं। इससे एक बात तो पक्‍की सिद्ध होती हे यह प्रथम श्रेणी का मूढ़ है।
मैं बस हूं, मुझे क्‍यों एनलाइटेंड या इल्युमिनटेड होना चाहिए, क्‍या विद्वता है इसमें, क्‍या इल्‍युमिनेशन एनलाइटेनमेंट से भिन्‍न है। शायद बिजली की रोशनी हो तो तुम एनलाइटेंड होते हो और जब केवल मोमबत्‍ती की रोशनी होतो तुम सिर्फ इल्युमिनटेड होते हो।
मैं दोनो नहीं हूं। मैं तो स्‍वयं प्रकाश हूं—न एनलाइटेंड़ हूं, न इल्‍युमिनेटेंड हूं। इन शब्‍दों को मैने बहुत पीछे छोड़ दिया है। मैं उन्‍हें बहुत दूर उस रास्‍ते पा अभी भी उड़ती धूल की तर देख सकता हूं। जिस रास्‍ते पर मैं फिर कभी नहीं जाऊँगा। ये रेत पर छूट गए पद चिन्‍ह हैं।
मेरे नाना अचानक बीमार पड़ गए। अभी उनकी मृत्‍यु का समय नहीं था। वे पचास से अधिक उम्र के न थे, पचास से भी कम थे। शायद अभी मेरी जो उम्र है उससे भी कम। मेरी नानी सिर्फ पचास साल की थी, उसका सौंदर्य निखार पर था। तुम्‍हें जान कर आश्‍चर्य होगा कि उनका जन्‍म तांत्रिकों के प्राचीनतम गढ़ खजुराहो में हुआ था। वे मुझसे हमेशा कहा करती थी। ‘’तुम जब थोड़े बड़े हो जाओ तो खजुराहो जाना कभी ना भूलना। मैं नहीं सोचता कि कोई माता-पिता अपने बच्‍चे को ऐसी सलाह देंगे। लेकिन मेरी नानी अद्भुत थी, खजुराहो जाने के लिए मुझे फुसलाती रही।
खजुराहो में मंदिरों में हजारों सुंदर मूर्तियां खुदी है—सब नग्न और संभोग रत। वही सैकड़ों मंदिर है। उनमें से अधिक तो खंडहर हो चूके है, लेकिन कुछ बच गए है, शायद क्‍योंकि लोग उन्‍हें भूल थे। महात्‍मा गांधी इन बचे हुए मंदिरों को भी मिटटी में दबा देना चाहते थे, क्‍योंकि ये मूर्तियां बहुत ही लुभावनी है। और फिर भी मेरी नानी मुझे खजुराहो जाने के लिए उत्‍साहित कर रही थी। वे स्‍वयं भी मूर्ति की भांति बहुत सुंदर थीं—हर प्रकार से यूनानी दिखाई देती थी।
जब मुक्‍ता की बेटी सीमा मुझसे मिलने आई तो एक क्षण के लिए तो मैं भरोसा न कर सका, क्‍योंकि मेरी नानी का रंगरूप और चेहरा बिलकुल वैसा था। सीमा यूरोपियन दिखाई नहीं देती। उसका रंग थोड़ा गहरा है और उसकी कद—काठी और चेहरा मेरी नानी जैसा है। मैने सोचा, दुःख है कि मेरी नानी मर चुकी है, नहीं तो मैं सीमा को उनसे मिलवाना चाहता। और क्‍या तुम्‍हें मालूम है कि अस्‍सी साल की उम्र में भी वे बहुत सुंदर थी, जो कि असंभव ही है।
जब मेरी नानी की मृत्‍यु हुई तो मैं बंबई से उन्‍हें देखने गया। मरने के बाद भी वे सुंदर थी। मैं विश्‍वास ही नहीं कर सका कि वे मर गई है। और अचानक खजुराहों की सारी मूर्तियां मेरे लिए जीवत हो गई। उनके मृत शरीर में मैने खजुराहो के समस्‍त दर्शन को देख लिया। उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने का यही एक मात्र तरीका था। कि मैं खजुराहो जाऊँ, अब खजुराहो पहले से भी अधिक सुंदर लगा, क्‍योंकि रह मूर्ति में, हर जगह मैं उनको देख सकता था।
खजुराहो अनुपम है, अतुलनीय है, दुनिया में हजारों मंदिर हैं, लेकिन खजुराहो जैसा कोई भी नहीं है। मैं इस आश्रम में एक जिंदा खजुराहो बनाने की कोशिश कर रहा हूं। पत्‍थर की मूर्तियां नहीं वरन जीवित लोग, जिनमें प्रेम करने की क्षमता हो, जो सच में जीवित हो, इतने जीवित कि वे संक्रामक हों, कि सिर्फ उनको छूना काफी हो एक करंट, एक बिजली का शॉक अनुभव करने के लिए।
मेरी नानी ने मुझे बहुत कुछ दिया—सबसे महत्‍वपूर्ण था उनका जोर देना कि मैं खजुराहो जरूर जाऊँ। उन दिनों खजुराहो को कोई जानता भी न था। लेकिन उन्‍होंने इतना जोर दिया कि मुझे जाना ही पडा। वे बहुत जिद्दी थी। शायद मैने भी यह गुण या तुम इसे अवगुण कह सकते हो—उन्‍हीं से पाया है।
उनके जीवन के अंतिम बीस वर्षो में मैं पूरे भारत में घूम रहा था। हर बार जब भी मैं उस गांव से गुजरता, वे मुझसे कहती, ‘सुनो कभी भी चलती गाड़ी में चढ़ना मत और चलती गाड़ी से उतरना मत। दूसरी बात, यात्रा करते समय डिब्बे में किसी भी मुसाफिर से बहस मत करना। तीसरी बात, यात्रा करते समय सदा याद रखना कि मैं जिंदा हूं और तुम्‍हारे घर आने की प्रतीक्षा कर रही हूं। क्‍योंकि तुम सारे देश में घूमते फिर रहे हो जब कि मैं तुम्‍हारी फिक्र करने के लिए यहां प्रतीक्षा कर रही हूं। तुम्‍हें देखभाल की जरूरत है, और दूसरा कोई तुम्‍हारी इतनी अच्‍छी देखभाल नहीं कर सकता जितनी कि मैं।’
पहली बार जब खजुराहो गया था तो नानी के बार-बार कहने पर ही गया था, लेकिन उसके बाद मैं सैकड़ों बार वहां गया हूं। दुनिया में और किसी जगह मैं इतनी बार नहीं गया था। कारण सीधा साफ है। वह अनुभव तुम कभी भी पूरा नहीं कर सकते, वह असीम है, वह पूरा हो ही नहीं सकता। जितना ज्‍यादा जानो और अधिक जानने की इच्‍छा होती है। पूरा हो ही नहीं सकता। एक-एक मंदिर के कण-कण में रहस्य है। एक-एक मंदिर को बनाने में हजारों कलाकार और सैकड़ों वर्ष लगे होंगे। और खजुराहो के अलावा मैंने कुछ भी नहीं देखा जिसे कि परिपूर्ण कहा जा सके—ताजमहल भी नहीं। ताजमहल में भी कुछ कमियाँ है, लेकिन खजुराहो में कोई कमी नहीं है। और फिर ताजमहल सिर्फ एक सुंदर कलाकृति है, लेकिन खजुराहो नये मनुष्‍य का पूरा दर्शन और मनोविज्ञान है।
जब मैंने उन ने किड़… मैं ‘न्‍यूड’ नहीं कह सकता, माफ करना। ‘न्‍यूड़’ अश्‍लील है। नकिड़ बिलकुल ही अलग बात है। शब्‍दकोश में शायद उनका एक ही अर्थ हो, लेकिन शब्‍दकोश सब कुछ नहीं है। अस्तित्‍व में और बहुत कुछ है। वे मूर्तियां नेकिड़ है पर न्‍यूड नहीं। ….शायद कभी मनुष्‍य उसको उपलब्‍ध कर सकेगा। यह एक स्‍वप्‍न है, खजुराहो एक स्‍वप्‍न है। और महात्‍मा गांधी उसे मिट्टी से दबा देना चाहते थे। ताकि कोई भी उन सुंदर मूर्तियों से मोहित न हो सके। हम रवींद्रनाथ टैगोर के आभारी है जिन्‍होंने गांधी को ऐसा करने से रोका। उन्‍होने कहा: ‘मंदिर जैसे है उन्‍हें वैसा ही रहने दो।’ वे कवि थे और वे उनके रहस्‍य को समझ सकते थे।
असल में, तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा—तुम्‍हें मालूम है कि मैं कितना खतरनाक हूं—जिस पहरेदार को मैने रिश्‍वत दी, वह मेरा संन्‍यासी बन गया। अब किसने किसको रिस्‍वत दी। पहले मैने उसको रिश्‍वत दी यह कहने के लिए कि मैं भीतर नहीं हूं। फिर धारे-धीरे वह मुझसे और-और उत्‍सुक होने लगा। उसने मेरी दी हुई सारी रिश्‍वत वापस कर दी। वही शायद एक ऐसा आदमी है जिसने ली हुई सारी रिश्‍वत वापस कर दी। संन्‍यासी बनने के बाद वह उसे न रख सका।
खजुराहो—इस नाम से ही मुझमें आनंद की घंटियों बजने लगती है, जैसे कि वह स्‍वर्ग से पृथ्‍वी पर उतारा हो। पूर्णिमा की रात में खजुराहो को देखना ऐसे है जैसे, जो भी देखने योग्‍य है, सब देख लिया हो।
उस समय कि स्थिति का जब हम आने नाना को ले कर जा रहे थे करना चाहिए…..
हम लोग बैलगाड़ी में अपने नाना के गांव से पिताजी के गांव जा रहे थे। क्‍योंकि एकमात्र अस्‍पताल वहीं था। मेरे नाना बहुत बीमार थे; बीमार ही नहीं बेहोश भी थे, करीब-करीब कोमा में थे। उनके अतिरिक्‍त केवल मैं और नानी बैलगाड़ी में थे। मेरे प्रति नानी की करूणा; को मैं समझ सकता हूं। वे अपने प्रिय पति की मृत्‍यु पर रोई भी नहीं, सिर्फ मेरे कारण; क्‍योंकि मैं ही अकेला वहां था। और मुझे सांत्‍वना देने के लिए कोई भी वहां नहीं था। मैंने कहा, ‘चिंता मत करो। यदि तुम बिना आंसुओं के रह सकती हो तो मैं भी बिना आंसुओं के रह सकता हूं।’ और विश्‍वास करो या न करो, एक सात साल का बच्‍चा बिलकुल नहीं रोया। यहां तक कि उन्‍हें भी आश्‍चर्य हुआ। उन्‍होंने कहा, ‘तुम रो नहीं रहे।’ मैने कहा, मैं तुम्‍हें दिलासा नहीं देना चाहता।
उस बैल गाड़ी में अदभुत लोग इकट्ठे थे। भूरा, जिसका मैंने सुबह जिक्र किया, गाड़ी चला रहा था। वह जानता था कि उसके मालिक की मृत्‍यु हो गई है, लेकिन फिर भी उसने गाड़ी के भीतर नहीं देखा, क्‍योंकि वह सिर्फ नौकर था और मालिक के व्‍यक्तिगत मामलों में दखल देना उचि‍त न था। यही उसने मुझसे कहा, ‘मृत्‍यु निजी मामला है, मैं किसे देख सकता हूं, गाड़ी चलाते हुए अपनी जगह से मैने सब सुना। मैं रोना चाहता था। मैं उनसे बहुत प्रेम करता था। मैं अनाथ जैसा अनुभव कर रहा हूं। लेकिन मैं गाड़ी में पीछे मुड़ कर नहीं देख सकता था। अन्‍यथा वे मुझे कभी क्षमा नहीं न करते।‘
अनूठे लोग—और नाना मेरी गोद में थे। मैं सात साल का बालक मृत्‍यु के साथ था—कुछ सेकेंड के लिए नहीं लगातार चौबीस घंटे तक। वहां सड़क नहीं थी, और मेरे पिता के गांव तक पहुंचा मुश्किल था। चौबीस घंटे हम मृत शरीर के साथ रहे। सच मेरी नानी लोहे की बनी सच्‍ची स्‍त्री थी।
जब पिता के गांव पहुंचे वो मेरे पिताजी ने डाक्‍टर को बुलवाया। और क्‍या तुम कल्‍पना कर सकते हो कि मेरी नानी हंसी, उन्‍होंने कहां; ‘तुम पढ़े लिखे लोग सब मूर्ख हो। वे मर चूक हैं, अब उन्‍हें किसी डाक्‍टर की जरूरत नहीं है। पहले ही देर हो चुकी है जितनी जल्‍दी हो सके उतनी जल्‍दी इनका दाह-संस्‍कार करों।’
ये शब्‍द सुन कर सब स्‍तब्‍ध रह गए सिवाय मेरे, क्‍योंकि मैं उन्‍हें जानता था। वे चाहती थी कि मृत-शरीर मूल तत्‍वों में विलीन हो जाए। तुम समझ सकते हो।
जब उन्‍होंने कहा कि वे वापस उस गांव में रहने नहीं जा रहीं, तो उसका यह अर्थ भी था कि अब मैं उनसे मिलने वहां फिर नहीं जा सकता था। लेकिन वे मेरे पिता के परिवार के साथ भी नहीं रहीं। वे अलग थीं। जब मैंने अपने पिता के गांव में रहना शुरू किया तो मैं उस गांव में बहुत हिसाब से रहा, सार दिन अपने पिता के घर उनके परिवार के साथ बिताता और सारी रात मेरी नानी के साथ रहता। वे अकेली एक सुंदर बंगले में रहती थीं। वह छोटा सा घर था, लेकिन बहुत सुंदर था।
मेरी मां मुझसे पूछती: ‘तुम रात को घर पर क्‍यों नहीं रहते।’
मैंने कहा: ‘यह असंभव है। मुझे नानी के पास ही जाना है, विशेषकर रात को, जब बिना नाना के वे बहुत अकेलापन महसूस करती है। दिन में तो ठीक है, वे काम-काज में व्‍यस्‍त रहती है और बहुत से लोग आस-पास होते है, लेकिन रात को अगर मैं वहां न होऊं तो अकेले कमरे में वे शायद रोना शुरू कर दें। मुझे वहां जाना ही है। मैं हमेशा वहां रहा, हर रात, बिना किसी अपवाद के।’
दिन में मैं स्‍कूल में रहता। केवल सुबह और दोपहर को मैं कुछ घंटे अपने परिवार के साथ बिताता—मेरे माता-पिता, मेरे चाचा। वह बड़ा परिवार था और वह मेरे लिए अजनबी ही रहा, वह कभी भी मेरा अंग न बना।
मेरी नानी मेरा परिवार थी। और वे मुझे समझती थीं, क्‍योंकि मेरे बचपन से ही उन्‍होंने मुझे बढते देखा था। और कोई मुझे उतना नहीं जानता था जितना वे जानती थी, क्‍योंकि उन्‍होंने मुझे सब कुछ करने दिया….सब कुछ।
भारत में जब दीवाली आती है तो लोग जुआ खेल सकते है। यह अजीब रिवाज है: तीन दिन के लिए जुआ खेलना गैर-कानूनी नहीं है। उसके बाद तुम पकड़े जा सकते हो और सज़ा हो सकती है। मैंने अपनी नानी से कहा: ‘मैं जुआ खेलना चाहता हूं।’
उन्‍होंने मुझसे पूछा: ‘कितने रूपये चाहिए तुम्‍हें।’
मैं भी अपने कानों पर विश्‍वास न कर सका। मैंने सोचा था कि वे कहेगी कि जुआ कभी नहीं खेलना। लेकिन उन्‍होंने कहा, ‘अच्‍छा तो तुम जुआ खेलना चाहते हो, फिर उन्‍होंने मुझे सौ रूपये का नोट दिया और मुझसे कहा जाओ जहां खेलना हो खेलो।’
इस प्रकार से उन्‍होंने मेरी बहुत सहायता की है।
एक बार मैं एक वेश्‍या के पास जाना चाहता था। मैं सिर्फ पंद्रह वर्ष का था और मैंने सुना कि गांव में एक वेश्‍या आई है। मेरी नानी ने मुझसे पूछा: ‘तुम वेश्‍या का मतलब समझते हो, मैंने कहा: मैं एक दम ठीक-ठीक तो नहीं समझता हुं।’ तुम्‍हें जाकर देखना चाहिए, लेकिन पहले सिर्फ नाचते और गाते देखने के लिए जाओ।‘
भारत में वेश्‍याएं पहले नाचती और गाती है। लेकिन वह स्‍त्री इतनी कुरूप थी और उसका नाचना-गाना इतना भद्दा था कि मुझे उल्‍टी हो गई। नाचना-गाना खत्‍म हो और वेश्या वृति शुरू हो, उसके पहले ही बीच में ही मैं घर आ गया। मेरी नानी ने पूछा, ‘तुम इतनी जल्‍दी घर आ क्‍यों आ गए।’
मैंने कहा: ‘मुझे उलटी आ रही थी।’
बाद में जब ज्याँ पाल सार्त्र की पुस्‍तक नॉसिया पढ़ी, तब मेरी समझ में आया कि उस रात मुझे क्‍या हुआ था।
लेकिन मेरी नानी ने मुझे वेश्‍या के पास जाने दिया। मुझे याद नहीं आता कि उन्‍होंने कभी मुझे न कहा हो। मैं सिगरेट पीना चाहता था। उन्‍होंने कहा: ‘एक बात याद रखना सिगरेट पीना ठीक है, लेकिन हमेशा अपने घर में ही पीना।’
मैंने पूछा: ’क्‍यों।’
उन्‍होंने कहा: ‘दूसरों को शायद आपती हो। इसलिए तुम घर में पी सकते हो। मैं तुम्‍हें सिगरेट लाकर दूंगी। और वे तब तक मुझे सिगरेट लाकर देती रही जब तक मैने नहीं कहां।’
‘बस, मुझे और नहीं चाहिए।‘
मुझे स्‍वयं अनुभव प्राप्‍त हो, इसके लिए मेरी नानी किसी हद तक जाने को तैयार थी।
जानने का रास्‍ता है: स्‍वयं अनुभव करना। बताने से कोई लाभ नहीं। यहीं माता-पिता से चिढ़ पैदा होती है: वे सदा तुम्‍हें बताते रहते है। बच्‍चा परमात्‍मा का पुनर्जन्‍म है। उसका आदर होना चाहिए और उसको बढ़ने और होने का पूरा मौका दिया जाना चाहिए—तुम्‍हारे हिसाब से नहीं, बल्कि उसकी अपनी क्षमताओं और संभावनाओं के अनुसार।
–ओशो


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स्‍वर्णिम बचपन—(सत्र—5 ) ओशो

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जब बचपन में मैं अपने नाना के पास रहता था तो यही मेरा तरीका था, और फिर भी मैं सज़ा से पूरी तरह सुरक्षित था। उन्‍होंने कभी नहीं कहा कि यह करो और वह मत करो। इसके विपरीत उन्‍होंने अपने सबसे आज्ञाकारी नौकर भूरा के मेरी सेवा में मेरी सुरक्षा के लिए नियुक्‍त कर दिया। भूरा अपने साथ सदा एक बहुत पुरानी बंदूक रखता था। और थोड़ी दूरी पर मेरे साथ- साथ चलता था। लेकिन गांव वालों को डराने के लिए इतना काफी था। मुझे अपनी मनमानी करने का मौका देने के लिए इतना काफी था।
कुछ जो भी तुम सोच सकते हो…..जैसे भैंस पर उलटी सवारी करना, और भूरा पीछे-पीछे चल रहा है। बहुत समय बाद विश्वविद्यालय के म्‍यूजियम में मैंने भेस पर उलटे बैठे हुए लाओत्से की मूर्ति देखी। मंए इतनी जोर से हंसा की म्‍यूजियम का निदेशक भागा हुआ आया कि क्‍या हो गया, क्‍या कुछ गड़बड़ है, क्‍योंकि मैं हंसी के कारण पेट पकड़ कर जमीन पर बैठा हुआ था। उसने पूछा ‘क्‍या कोई तकलीफ है।’
विशेष कर मेरे गांव में और पूरे भारत में कोई भी भेस की सवारी नहीं करता। लेकिन चीनी अद्भुत लोग है, और यह व्‍यक्ति लाओत्से तो सबसे अद्भुत था। लेकिन परमात्‍मा जाने—और परमात्‍मा ही जानता है, मुझे भी नहीं पता—कि कैसे मुझे बाजार में भेस पर उलटी सवारी करने की सूझी, मैं सोचता हूं शायद इसलिए क्‍योंकि मुझे बेतुकी बातें हमेशा बहुत पसंद रही है।
बचपन के वे दिन—अगर वे फिर से मुझे मिल सकें तो मैं दुबारा जन्‍म लेने को तैयार हो जाऊँगा, लेकिन तुम जानते हो और मैं भी जानता हूं कि कुछ भी पुनरुक्त नहीं होता और न किया जा सकता। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि मैं दुबारा जन्‍म लेने को तैयार हो जाऊँगा, अन्‍यथा कौन चाहता है, चाहे वो दिन कितने ही सुंदर क्‍यों ने हो।
मैं गलत-नक्षत्र में पैदा हुआ था। मुझे दुःख है कि मैं बड़े ज्‍योतिषी से पूछना भूल गया कि मैं इतना शैतान क्‍यों था। मैं शैतानी के बीना जी नहीं सकता। वही मेरा पोषण है।
मैं अपने बूढे नाना को और मेरी शैतानी यों से उन्‍हें जो परेशानियां हुई उन्‍हें समझ सकता हूं। दिन भर वे अपनी गद्दी पर बैठे अपने ग्राहकों को कम और मेरी शिकायत करने बालों की अधिक सुनते। लेकिन वे उनसे कहते, ‘उसने जो नुकसान किया हो उसका मैं हर्जाना देने को तैयार हूं, लेकिन या रखिए, मैं उसको सज़ा नहीं दूँगा।’
शायद उनका वह धैर्य, मेरे जैसे शैतान बच्‍चे के साथ…. यहां तक कि मैं भी सहन नहीं कर सकता। अगर वैसा बच्‍चा मुझे दिया जाता और सालों तक…हे भगवान, — कुछ ही मिनटों के लिए भी, तो मैं उसे हमेशा के लिए घर से बाहर निकाल देता।
शायद वे वर्ष मेरे नाना के लिए चमत्‍कार साबित हुए। उस असीम धैर्य का परिणाम हुआ, वे और-और मौन होते गए। मैंने रोज-रोज इसे बढ़ते देखा। कभी-कभी मैं कहता, ‘नाना आप मुझे दंड दे सकते है। आपको इतना सहनशील होने की जरूरत नहीं है।’ और तुम भरोसा कर सकते हो, वे रोने लगते, उनकी आंखों में आंसू आ जाते, और वे कहते ‘तुम्‍हें सज़ा दूँ, वह मैं नहीं कर सकता। मैं अपने आप को सज़ा दे सकता हूं, लेकिन तुम्‍हें नहीं।’
मैंने कभी एक क्षण के लिए भी उनकी आंखों में मेरे लिए गुस्‍से की परछाई तक नहीं देखी। और मेरा भरोसा करो, मैने वह सब किया जो हजार बच्‍चे कर सकते है। सुबह से, नाश्‍ते से भी पहले से लेकर देर रात ते मुझे शैतानी सूझती। कभी-कभी तो में रात को इतनी देर से घर आता-सुबह तीन बजे। लेकिन वे भी क्‍या आदमी थे। उन्‍होने कभी नहीं कहा, तुमने बहुत देर कर दी। यह एक बच्‍चे के घर आने का समय नहीं है। नहीं एक बार भी नहीं। सच तो यह है कि मेरे सामने वे दिवाल पर लगी हुई घड़ी की तरु भी न देखते।
इस तरह मैंने धार्मिकता सीखी। वे मुझे कभी मंदिर नहीं नहीं ते गए, जहां वे जाने थे। मैं भी उस मंदिर में जाता था, लेकिन सिर्फ तब जब वह बंद होता था। केवल प्रिज्‍म चुराने के लिए क्‍योंकि उस मंदिर में प्रिज्‍म से बने बड़े सुंदर फानूस लगे हुए थे। मैं सोचता हूं, धीरे-धीरे लगभग मैंने सब प्रिज्‍म चुरा लिए। जब मेरे नाना को यह बताया गया तो उन्‍होंने कहा, तो क्‍या हुआ, मैंने ये फानूस दान दिए थे। मैं और दे सकता हूं। वह कोई चोरी नहीं कर रहा है। यह तो उसके नाना की संपत्ति है। मैंने वह मंदिर बनवाया था।‘’
पुजारी ने शिकायत करनी बंद कर दी। क्‍या फायदा था? वह तो सिर्फ नाना का नौकर था।
नाना रोज सुबह मंदिर जाते थे। फिर भी उन्‍होंने कभी नहीं कहा, ‘तुम मेरे साथ चलो। ’उन्‍होंने कभी कोई सिद्धांत मेरे दिमाग में नहीं डाला। यह बहुत बड़ी बात है। कोई सिद्धांत न थोपना। एक असहाय बच्‍चे को जबरदस्‍ती अपनी मान्‍यताए्ं मनवाना बहुत सहज है। लेकिन वे प्रलोभन में नहीं आए…..हां, मैं इसे सबसे बड़ा प्रलोभन कहता हुं। जैसे ही तुम किसी को अपने पर किसी तरह से निर्भर देखते हो, वैसे ही शिक्षा देने लगते हो। उनहोंने मुझसे कभी यह तक नहीं कहा, ‘तुम जैन हो।’
मुझे अच्‍छी तरह याद है—एक बार जब जनगणना हो रही थी, जनगणना अधिकारी हमारे घर आया। उसने बहुत तरह की पूछताछ की उसने नाना के धर्म के बारे में पूछा तो उन्‍होंने कहा कि उनका धर्म जैन है। फिर उसने नानी के बारे में पूछा, मेरे नाना ने कहा: ‘आप खुद उनसे पूछ सकते है। धर्म व्‍यक्ति गत मामला है। मैंने खुद कभी उनसे नहीं पूछा।’ क्‍या व्‍यक्ति थे।
मेरी नानी ने उत्‍तर दिया, ‘मैं किसी भी धर्म को नहीं मानती, सब धर्म मुझे बचकाने लगते है।’ वह अफसर भौचक्‍का रह गया। मैं भी बहुत हैरान हुआ। वे किसी धर्म को में विश्वास नहीं करती। भारत में ऐसी स्‍त्री खोजना असंभव है जो किसी धर्म में विश्वास न करती हो। लेकिन वे खजुराहो में जन्मी थी, शायद तांत्रिकों के परिवार में, जो कभी किसी धर्म में विश्वास नहीं करते। वे ध्‍यान करते है, लेकिन वे किसी धर्म में कभी विश्वास नहीं करते।
पश्चिमी मन को यह बहुत असंगत लगता है: बिना धर्म के ध्‍यान; हां…सच तो यह है कि अगर तुम किसी धर्म में विश्वास करते हो तो तुम ध्‍यान नहीं कर सकते। धर्म तुम्‍हारे ध्‍यान में बाधा है। ध्‍यान के लिए किसी परमात्‍मा, किसी स्‍वर्ग या नरक, किसी दंड के डर या सुख के लोभ की कोई आवश्‍यकता नहीं है। ध्‍यान का मन से कुछ लेना-देना नहीं है, ध्‍यान मन के पान है। और धर्म केवल मन के भीतर है।
मैं जानता हूं कि नानी कभी मंदिर नहीं गई, लेकिन उन्‍होने मुझे कभी एक मंत्र सिखाया जो आज मैं पहली बार बताऊगां। वह जैन मंत्र है, लेकिन उसका संबंध केवल जैनियों से नहीं है। यह तो केवल संयोग है कि यह मंत्र जैन धर्म के साथ संबंधित है……
नमो अरिहंताणं नमो नमो।
नमो सिद्धाणं नमो नमो।
नमो उवज्‍झायाणं नमो नमो।
नमो लोए सव्‍वसाहूणं नमो नमो।
एसो पंच नमुक्‍कारो
ओम् शांति शांति शांति ……..
यह मंत्र बहुत सुंदर है। अब मैं अनुवाद करने की कोशिश करता हूं, ‘मैं अरिहंतों के चरणों में झुकता हूं, जैन धर्म में अरिहंत उसे कहते है जिसे बौद्ध धर्म में बोद्यिसत्व क‍हते है—जिसने परम सत्‍य को पा लिया, लेकिन किसी और कि चिंता नहीं करता। वह अपने धर पहुंच गया और संसार की और उसने पीठ कर ली। वह कोई धर्म नहीं बनाता, वह कोई उपदेश भी नहीं देता, वह कोई धोषणा भी नहीं करता। निश्चित ही सबसे पहले उसको ही याद किया जाना चाहिए। सबसे पहले उन सब लोगों का स्‍मरण जिन्‍होंने स्‍वयं को जाना और चुप रह गए। पहला आदर शब्‍दों के लिए नहीं, वरन मौन के लिए है, दूसरों की सेवा के लिए नहीं, वरन स्‍वयं को जानने के लिए है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरों की सेवा होती है या नहीं, वह प्राथमिक नहीं है, गौण है। प्राथमिक है कि उसने स्‍वयं को जाना और इस दुनिया में स्‍वयं को जानना बहुत मुश्किल है।
लाग कल्‍पनाओं में जी रहे है, वही उनका जीवन है—एक कल्‍पना मात्र, जो कही है नहीं, होली घोस्‍ट, लेकिन उससे क्‍या फर्क पड़ता है कि घोस्‍ट होली है या अनहोली। असल में वह है ही नहीं। बेवकूफी की हद है कि ईसाई त्रिमूर्ति में होली घोस्‍ट को सम्मिलित किया गया है, परमात्‍मा, बेटा और होली घोस्‍ट। सिर्फ स्‍त्री से बचने के लिए उन्‍होंने होली घोस्‍ट को वहां रखा हुआ है। मां को हटा कर होली घोस्‍ट को वहीं रखा है। इस होली घोस्‍ट ने पूरी ईसाइयत को बरबाद किया है। क्‍योंकि एकदम शुरूआत से ही, एक दम बुनियाद से ही यह झूठ और भ्रमों पर आ‍धारित है।
लेकिन इस होली घोस्‍ट जैसे घिनौना व्‍यक्ति को त्रिमूर्ति में सम्मिलित करने के लिए ईसाइयों को क्षमा नहीं किया जाएगा, और इस पवित्र घोस्‍ट ने बेचारी मेरी को गर्भवती बनाने का अपवित्र काम किया। किसने तुम सोचते हो बेचारे बढ़ई की पत्‍नी को गर्भ वती बनाया? होली घोस्‍ट ने, वाह, महान पवित्रता है, तो फिर अपवित्रता क्‍या होगी।
एक बात निश्चित है कि ईसाइयत स्‍त्री से पूरी तरह बचने की, उसे पूरी तरह से मिटा देने की कोशिश करती रही है। उन्‍होंने एक परिवार तक बना दिया। अगर कोई बच्‍चा परिवार का चित्र बनाए—पिता, बेटा और होली घोस्‍ट—तो तुम कहोगे, यह क्‍या मूर्खता है, मां कहां है।
बिना मां के पिता कैसे हो सकता है, बिना मां के बेटा कैसे हो सकता है, एक छोटा बच्‍चा भी तुम्‍हारे तर्क को समझ सकता है। लेकिन ईसाई धर्मशास्‍त्री नहीं वह बच्‍चा नहीं है, वह मंदबुद्धि बच्‍चा है। उसके दिमाग में कुछ गड़बड़ है, विशेषकर बाई और का उसका दिमाग या तो खाली है या उसमें कचरा भरा हुआ है।
जैन ‘अरिहंत’ उस व्‍यक्ति को कहते हैं जिसने स्‍वयं को उपलब्‍ध कर लिया है, और उस आत्‍म-अपलब्धि के सौंदर्य से इतना खोया हुआ है कि वह समस्‍त संसार को भूल गया है। अरिहंत शब्‍द का अर्थ है: जिसने शत्रु को मार डाला। और शत्रु है अहंकार, मंत्र के पहले भाग का अर्थ है: मैं उसके चरणों में झुकता हूं जिसने स्‍वयं को अपलब्‍ध कर लिया है।
दूसरा भाग है: ‘नमो सिद्धाणं नमो-नमो।‘
यह मंत्र प्राकृत में है, संस्‍कृत में नहीं। प्राकृत जैनियों की भाषा है। यह संस्‍कृत से ज्‍यादा प्राचीन है। संस्‍कृत शब्‍द का अर्थ होता है परिष्‍कृत। तुम परिष्‍कृत शब्‍द से ही समझ सकते हो कि इसके पहले अवश्‍य कुछ रहा होगा, अन्‍यथा तुम किसे परिष्‍कृत करोगे? प्राकृत का अर्थ‍ है बिना परिष्‍कृत के, स्‍वाभाविक, अनगढ़। और जैन का यह कहना बिलकुल ठीक है कि उनकी भाषा दुनियां में सबसे प्राचीन है। उनका धर्म भी अति‍ प्राचीन है।
हिंदुओं के ग्रंथ ऋग्‍वेद में जैनियों के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का उल्‍लेख है। निश्चित ही इसका मतलब हुआ कि वह ऋग्‍वेद से बहुत पुराना है। ऋग्‍वेद दुनिया में सबसे प्राचीन पुस्‍तक है। और इसमें जैन तीर्थंकर आदिनाथ का उल्‍लेख इतने आदर के साथ किया गया है की एक बात निश्चित है कि वे उन लोगों के समकालीन नहीं हो सकते जिन्‍होंने ऋग्‍वेद लिखा है।
समकालीन गुरु को पहचानना बहुत मुश्किल है। उसकी किस्‍मत में तो निंदा ही होती है – चारों और से हर प्रकार की निंदा। उसको आदर नहीं मिलता। वह आदर योग्‍य व्‍यक्ति नहीं होता। समय लगता है, उसको क्षमा करने में लोगों को हजारों साल लगते है। केवल तभी वे उसका आदर दे पाते है। जब वे उसकी निंदा करने के अपराध-भाव से मुक्‍त होते है, तो वे उसका आदर करने लगते है, उसकी पूजा करने लगते है।
मंत्र प्राकृत में है, अपरिष्‍कृत एवं अनगढ़।
दुसरी पंक्ति है: ‘नमो सिद्धाणं नमो नमो।’
मैं उसके चरणों में झुकता हूं जो अपने स्‍वभाव में पहुंच गया है।
तो पहले और दूसरे में क्‍या अंतर है?
अरिहंत कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखता, कभी किसी प्रकार की सेवा की चिंता नहीं करता
–क्रिश्चियन सेवा या कोई और सेवा। लेकिन सिद्ध कभी-कभी डुबती मानवता को बचाने के लिए अपना हाथ बढ़ा देता है। लेकिन कभी-कभी ही, हमेशा नहीं। यह कोई अनिवार्यता नहीं है, यह कोई जरूरी नहीं है। यह उसका चुनाव है कि वह ऐसा करे या न करे।
इसलिए तीसरी पंक्ति है: ’नमो आयरियाणं नमो नमो।’
मैं आचार्यों, गुरूओं के चरणों में झुकता हूं।
उन्‍होंने भी उसी को उपलब्‍ध किया है, लेकिन वे संसार की और मुख किए हुए हैं। वे संसार की सेवा करते है। वे संसार में रहते हुए भी नहीं रहते…..फिर भी संसार में है।
चौथी ओम् शांति शांति शांति ……..
यह मंत्र बहुत सुंदर है। अब मैं अनुवाद करने की कोशिश करता हूं, ‘मैं अरिहंतों के चरणों में झुकता हूं, जैन धर्म में अरिहंत उसे कहते है जिसे बौद्ध धर्म में बोद्यिसत्‍व क‍हते है—जिसने परम सत्‍य को पा लिया, लेकिन किसी और कि चिंता नहीं करता। वह अपने धर पहुंच गया और संसार की और उसने पीठ कर ली। वह कोई धर्म नहीं बनाता, वह कोई उपदेश भी नहीं देता, वह कोई धोषणा भी नहीं करता। निश्चित ही सबसे पहले उसको ही याद किया जाना चाहिए। सबसे पहले उन सब लोगों का स्‍मरण जिन्‍होंने स्‍वयं को जाना और चुप रह गए। पहला आदर शब्‍दों के लिए नहीं, वरन मौन के लिए है, दूसरों की सेवा के लिए नहीं, वरन स्‍वयं को जानने के लिए है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दूसरों की सेवा होती है या नहीं, वह प्राथमिक नहीं है, गौण है। प्राथमिक है कि उसने स्‍वयं को जाना और इस दुनिया में स्‍वयं को जानना बहुत मुश्किल है।
लाग कल्‍पनाओं में जी रहे है, वही उनका जीवन है—एक कल्‍पना मात्र, जो कही है नहीं, होली घोस्‍ट, लेकिन उससे क्‍या फर्क पड़ता है कि घोस्‍ट होली है या अन होली। असल में वह है ही नहीं। बेवकूफी की हद है कि ईसाई त्रिमूर्ति में होली घोस्‍ट को सम्मिलित किया गया है, परमात्‍मा, बेटा और होली घोस्‍ट। सिर्फ स्‍त्री से बचने के लिए उन्‍होंने होली घोस्‍ट को वहां रखा हुआ है। मां को हटा कर होली घोस्‍ट को वहीं रखा है। इस होली घोस्‍ट ने पूरी ईसाइयत को बरबाद किया है। क्‍योंकि एकदम शुरूआत से ही, एक दम बुनियाद से ही यह झूठ और भ्रमों पर आ‍धारित है।
लेकिन इस होली घोस्‍ट जैसे घि‍नौने व्‍यक्ति को त्रिमूर्ति में सम्मिलित करने के लिए ईसाइयों को क्षमा नहीं किया जाएगा, और इस पवित्र घोस्‍ट ने बेचारी मेरी को गर्भवती बनाने का अपवित्र काम किया। किसने तुम सोचते हो बेचारे बढ़ई की पत्‍नी को गर्भ वती बनाया? होली घोस्‍ट ने, वाह, महान पवित्रता है, तो फिर अपवित्रता क्‍या होगी।
एक बात निश्चित है कि ईसाइयत स्‍त्री से पूरी तरह बचने की, उसे पूरी तरह से मिटा देने की कोशिश करती रही है। उन्‍होंने एक परिवार तक बना दिया। अगर कोई बच्‍चा परिवार का चित्र बनाए—पिता, बेटा और होली घोस्‍ट—तो तुम कहोगे, यह क्‍या मूर्खता है, मां कहां है।
बिना मां के पिता कैसे हो सकता है, बिना मां के बेटा कैसे हो सकता है, एक छोटा बच्‍चा भी तुम्‍हारे तर्क को समझ सकता है। लेकिन ईसाई धर्मशास्‍त्री नहीं वह बच्‍चा नहीं है, वह मंदबुद्धि बच्‍चा है। उसके दिमाग में कुछ गड़बड़ है, विशेषकर बाई और का उसका दिमाग या तो खाली है या उसमें कचरा भरा हुआ है।
जैन ‘अरिहंत’ उस व्‍यक्ति को कहते हैं जिसने स्‍वयं को उपलब्‍ध कर लिया है, और उस आत्‍म-अपलब्धि के सौंदर्य से इतना खोया हुआ है कि वह समस्‍त संसार को भूल गया है। अरिहंत शब्‍द का अर्थ है: जिसने शत्रु को मार डाला। और शत्रु है अहंकार, मंत्र के पहले भाग का अर्थ है: मैं उसके चरणों में झुकता हूं जिसने स्‍वयं को अपलब्‍ध कर लिया है।
दूसरा भाग है: ‘नमो सिद्धाणं नमो-नमो।‘
यह मंत्र प्राकृत में है, संस्‍कृत में नहीं। प्राकृत जैनियों की भाषा है। यह संस्‍कृत से ज्‍यादा प्राचीन है। संस्‍कृत शब्‍द का अर्थ होता है परिष्‍कृत। तुम परिष्‍कृत शब्‍द से ही समझ सकते हो कि इसके पहले अवश्‍य कुछ रहा होगा, अन्‍यथा तुम किसे परिष्‍कृत करोगे? प्राकृत का अर्थ‍ है बिना परिष्‍कृत के, स्‍वाभाविक, अनगढ़। और जैन का यह कहना बिलकुल ठीक है कि उनकी भाषा दुनियां में सबसे प्राचीन है। उनका धर्म भी अति‍ प्राचीन है।
हिंदुओं के ग्रंथ ऋग्‍वेद में जैनियों के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का उल्‍लेख है। निश्चित ही इसका मतलब हुआ कि वह ऋग्‍वेद से बहुत पुराना है। ऋग्‍वेद दुनिया में सबसे प्राचीन पुस्‍तक है। और इसमें जैन तीर्थंकर आदिनाथ का उल्‍लेख इतने आदर के साथ किया गया है की एक बात निश्चित है कि वे उन लोगों के समकालीन नहीं हो सकते जिन्‍होंने ऋग्‍वेद लिखा है।
समकालीन गुरु को पहचानना बहुत मुश्किल है। उसकी किस्‍मत में तो निंदा ही होती है – चारों और से हर प्रकार की निंदा। उसको आदर नहीं मिलता। वह आदर योग्‍य व्‍यक्ति नहीं होता। समय लगता है, उसको क्षमा करने में लोगों को हजारों साल लगते है। केवल तभी वे उसका आदर दे पाते है। जब वे उसकी निंदा करने के अपराध-भाव से मुक्‍त होते है, तो वे उसका आदर करने लगते है, उसकी पूजा करने लगते है।
मंत्र प्राकृत में है, अपरिष्‍कृत एवं अनगढ़।
दुसरी पंक्ति है: ‘नमो सिद्धाणं नमो नमो।’
मैं उसके चरणों में झुकता हूं जो अपने स्‍वभाव में पहुंच गया है।
तो पहले और दूसरे में क्‍या अंतर है?
अरिहंत कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखता, कभी किसी प्रकार की सेवा की चिंता नहीं करता
–क्रिश्चियन सेवा या कोई और सेवा। लेकिन सिद्ध कभी-कभी डुबती मानवता को बचाने के लिए अपना हाथ बढ़ा देता है। लेकिन कभी-कभी ही, हमेशा नहीं। यह कोई अनिवार्यता नहीं है, यह कोई जरूरी नहीं है। यह उसका चुनाव है कि वह ऐसा करे या न करे।
इसलिए तीसरी पंक्ति है: ’नमो आयरियाणं नमो नमो।’
मैं आचार्यों, गुरूओं के चरणों में झुकता हूं।
उन्‍होंने भी उसी को उपलब्‍ध किया है, लेकिन वे संसार की और मुख किए हुए हैं। वे संसार की सेवा करते है। वे संसार में रहते हुए भी नहीं रहते…..फिर भी संसार में है।
चौथी पंक्ति हैं: ‘नमो उवज्‍झायाणं नमो नमो।’
मैं उपाध्‍यायों, शिक्षकों, के चरणों में झुकता हूं।
शिक्षक और गुरू के सूक्ष्‍म अंतर को तुम जानते हो। गुरु ने जाना है, और जो जाना है उसे वह दूसरों को बाँटता है। शिक्षक ने जानने बाल से प्राप्‍त किया है। और उसका ज्‍यों का त्‍यों संसार को दे देता है। लेकिन उसने स्‍वंय नहीं जाना है।
इस मंत्र के रचयिता सचमुच अद्भुत है। वे उनके चरणों में भी झुकते है। जिन्‍होंने स्‍वयं नहीं जाना है। लेकिन कम से कम सद गुरूओं का संदेश लोगों तक पहुंचा रहे है।
पाँचवीं पंक्ति उन सबसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण वाक्‍यों में से जिनसे संपर्क में मैं अपने जीवन में कभी भी आया। यह बड़ी अद्भुत बात है कि जब मैं छोटा सा बच्‍चा था तभी मेरी नानी ने इसे मुझे दिया। जब मैं तुम्‍हें यह समझाऊंगा तो तुम भी इसके सौदर्य को देखोगे। केवल उनमें ही इसको मुझे देने कि क्षमता थी। यद्यपि सब जैन इसको अपने मंदिरों में दोहराते है, लेकिन मैं किसी और को नहीं जानता जिसमें इसकी घोषणा करने का साहस रहा हो। लेकिन दोहराना एक बात है और अपने किसी प्रिय व्‍यक्ति के जीवन में इसे उतारना बिलकुल दूसरी बात है।
‘नमो लाए सव्‍वसाहूणं नमो नमो।’
मैं उन सब लोगों के चरणों में झुकता हूं जिन्‍होंने स्‍वयं को जाना है।
बिना किसी भेद भाव के—चाहे वे हिंदू हो, चाहे वो जैन हो, चाहे बौद्ध, चाहे ईसाई, चाहे मुसलमान। मंत्र कहता है, मैं उन सबके चरणों में झुकता हूं जिन्‍होंने स्‍वयं को जाना है।
जहां तक मैं जानता हूं, यही एकमात्र मंत्र है जो पूर्णत: धर्म निरपेक्ष है।
जानने का कोई विषय नहीं है, जानने को कुछ नहीं है, केवल जानने वाला है।
यह मंत्र एकमात्र धार्मिक बात थी–अगर‍ तुम इसे धार्मिक कह सको—जो मुझे मेरी नानी द्वारा दी गई। और वह भी मेरे नाना के द्वारा नहीं, बल्कि मेरी नानी के द्वारा दी गई। क्‍यों‍कि एक रात मैंने उनसे पूछा।……एक रात उन्‍होंने कहा: ’तुम जागे हुए लगते हो, क्‍या नींद नहीं आ रही, क्‍या तुम कल करने वाली शैतानियों के बारे में सोच रहे हो।’
मैंने कहा: ‘नहीं। लेकिन पता नहीं क्‍यों एक प्रश्‍न मुझमें उठ रहा है। सबका कोई न कोई धर्म होता है। और जब लोग मुझसे पूछते हैं कि तुम कौन से धर्म के हो। तो मैं कंघे बिचका देता हूं। अब कंधे बिचकाना तो कोई धर्म नहीं है। तो मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि मुझे क्‍या करना चाहिए।‘
उन्‍होंने कहा: ‘मैं स्‍वयं किसी धर्म को नहीं मानती, लेकिन मुझे यह मंत्र बहुत प्रिय है और यही मैं तुम्‍हें दे सकती हूं। इसलिए नहीं की यह परंपरागत जैन मंत्र है, बल्कि सिर्फ इसलिए कि मैने इसके सौदर्य को अनुभव किया है। मैंने इसे लाखों बार दोहराया है और हमेशा मुझे बहुत शांति मिली है। केवल इस भाव से कि उन सबको प्रणाम है जिन्‍होंने जाना है। यह मंत्र मैं तुम्‍हें दे सकती हूं। इसलिए इससे अधिक मेरे लिए संभव नहीं है।’
अब मैं कह सकता हूं कि वे सचमुच महान थी। क्‍योंकि जहां तक धर्म का संबंध है, सब झूठ बोल रहे है। ईसाई, यहूदी, जैन, मुसलमान, सब झूठ बोल रहे है। वे परमात्‍मा की, स्‍वर्ग और नरक की देवताओं की और सब तरह की बकवास करते है। जब कि पता उन्‍हें कछ नहीं है। वे महान थी। इसलिए नहीं कि वे जानती थी, बल्कि इसलिए कि वे एक बच्‍चे से झूठ नहीं बोल सकती थी।
किसी को झूठ नहीं बोलना चाहिए—कम से कम बच्‍चे से झूठ बालना तो अक्षम्‍य है। सदियों से बच्‍चों का शोषण किया गया है, क्‍योंकि वे विश्‍वास करने को तैयार रहते है। बहुत आसानी से तुम उनसे झूठ बोल सकते हो। और वे तुम्‍हारा विश्‍वास कर लेते है, अगर तुम पिता हो, मां हो, तो वे सोचते हैं कि तुम सच ही बोलोगे। इसी तरह पूरी मनुष्‍यता भ्रष्‍टता में जीती है, झूठ के गहरी कीचड़ में, जो बच्‍चों से कह रहे है।
अगर हम एक काम कर सकें, एक छोटा सा काम: हम बच्‍चों से झूठ न बोले और उनके सामने अपने अज्ञान को स्‍वीकार कर लें, तो हम धार्मिक हो जाएंगे और हम उन्‍हें धर्म के मार्ग पर ले आएंगे। बच्‍चे तो सरल होते है। उनके ऊपर अपना तथाकथित ज्ञान मत थोपों। लेकिन पहले तुम्‍हें स्‍वयं सत्‍य और सरल होना चाहिए, भले ही इससे तुम्‍हारा अहंकार टूटता हो—और इससे टूटे गा, ये तोड़ते ही वाला है।
मेरे नाना ने मुझसे मंदिर जाने के लिए या उनके साथ चलने के लिए कभी नहीं कहा। मैं उनके पीछे बहुत बार जाता था, लेकिन वे कहते, ‘अगर तुम मंदिर जाना चाहते हो तो अकेले जाओ। मेरे पीछे मत आओ।’
वे कठोर व्‍यक्ति नहीं थे, लेकिन इस बात पर वे बहुत सख्‍त थे। मैंने बहुत बार उनसे पूछा, क्‍या आप अपने कुछ अनुभव मुझे बता सकते है। और वे हमेशा टाल जाते। जब बैलगाड़ी में ते मेरी गोद में अंतिम साँसे ले रहे थे तो उनहोंने अपनी आंखे खोली और पूछा, समय क्‍या है, मैंने कहा: ‘नौ बज रहे होंगे, एक क्षण के लिए वे चुप रहे और फिर उनहोंने कहां:’
‘’नमो अरिहंताणं नमो नमो।
नमो सिद्धाणं नमो नमो।
नमो उवज्‍झायाणं नमो नमो।
नमो लोए सव्‍वसाहूणं नमो नमो।
ओम् शांति: शांति: शांति:…..।’’
इसका क्‍या अर्थ हुआ, इसका अर्थ हुआ ‘’ओम्’’—ध्वनि रहित की परम ध्‍वनि।
और वे सूर्य की पहली किरणों में ओस की बूंद की भांति लुप्‍त हो गए।
वहां केवल शांति है, शांति है, शांति है……… अब मैं इसमें प्रवेश कर रहा हूं…….


–ओशो


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स्वणिम बचपन–(सत्र—6 ) ओशो

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नानी—नानी का प्रेम….

लेकिन दुर्भाग्‍य से ‘सैड’ शब्‍द से फिर उस जर्मन आदमी एकिड़ सैड कि याद आ गइ, है भगवान, उसे मैं जीवन में फिर कभी कुछ कहने वाला नहीं था। मैं उसकी पुस्‍तक से यह जानने की कोशिश कर रहा था कि उसको मुझमें ऐसा क्‍या गलत दिखाई दिया कि जिसके आधार पर वह यह कह रहा है कि मैं एनलाइटेंड नहीं हूं। उत्‍सुकता वश मैं यह देखना चाहता था कि उसने क्‍यों इस तरह का निष्‍कर्ष निकाला। और जो मुझे मालूम हुआ वह सचमुच हंसने जैसा है। मैं इल्युमिनटेड हूं, ऐसा मानने का उसका कारण यह है कि मैं जो कह रहा हूं वह निश्चित ही समस्‍त मानवता के लिए बहुत महत्‍वपूर्ण है। लेकिन मैं एनलाइटेंड नहीं हूं, ऐसा मानने का उसका कारण है मेरे बोलने का ढंग से मैं बोलता है।
क्‍योंकि ऐसा लगता है जैसे कि यह व्‍यक्ति अनेक एनलाइटेंड लोगों से मिल चुका है। अनेक एनलाइटेंड लोगों को जानता है। मेरे बोलने के ढंग इसे उन लोगों जैसा नहीं लगता है।
मैं उसके लिए एक अमरीकन शब्‍द का प्रयोग करना चाहता हूं: यह सन-ऑफ-ए-बिच, सिर्फ जड़बुद्धि है। वोधिधर्म को अगर यह अभिव्‍यक्ति मालूम होती तो वह चीन के सम्राट वू से जरूर कहता, ‘यू सन-ऑफ-ए-बि‍च’, जहन्‍नुम में जाओ और मुझे अकेला छोड़ दो।‘’ लेकिन उन दिनों यह अमरीकन अ‍भिव्‍यक्ति थी ही नहीं। नहीं की अमरीका नहीं था। यह तो यूरोपियन मान्‍यता है कि कोलंबस ने अमरीका की खोज की, कई बार उसे खोजा जा चूका है, लेकिन हमेशा उसे दबा दिया गया।
क्‍या मैं तुम्‍हें याद दिलाऊ कि मैक्सिको शब्‍द संस्‍कृत के मक्षिका शब्‍द से आता है। और मैक्सिको में ऐसे हजारों प्रमाण मिलते है जिनसे सिद्ध होता है। जिसस क्राइस्‍ट से बहुत पहले वहां पर हिंदू धर्म प्रचलित था—कोलंबस तो बहुत बाद में आया। सच तो यह है कि अमरीका, विशेषकर दक्षिण अमरीका एक ऐसे महाद्वीप का हिस्‍सा था जिसमें अफ्रीका भी सम्मिलित था। भारत ठीक मध्‍य में था। अफ्रीका नीचे था और अमेरिका ऊपर था वे। एक बहुत ही उथले सागर से विभक्‍त थे। तुम उसे पैदल चल कर पार कर सकते थे। पुराने भारतीय शास्‍त्रों में इसके उल्‍लेख है। वे कहते है कि लोग एशिया से अमरीका पैदल ही चले जाते थे। यहां तक कि शादियाँ भी होती थी। कृष्‍ण के प्रमुख शिष्‍य और महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अर्जुन ने मैक्सिको की एक लड़की से शादी की थी। निश्चित ही वे मैक्सिको को मक्षिका कहते थे। लेकिन उसका वर्णन बिलकुल मैक्सिको जैसा ही है।
मैक्सिको में हिंदुओं के देवता गणेश की मूर्तियां है, इंग्‍लैड में गणेश की मूर्ति का मिलना असंभव है। कहीं भी मिलना असंभव है, जब वक कि वह देश हिंदू धर्म के संपर्क में न आया हो। जैसे सुमात्रा, बाली, और मैक्सिको में संभव है—लेकिन और कहीं नहीं, जब तक वहां हिंदू धर्म न रहा हो। मैं तो यह कुछ उल्‍लेख कर हरा हूं, अगर तुम इसके बारे में और अधिक जानकारी पाना चाहते हो तो तुम्‍हें भिक्षु चमन लाल की पुस्‍तक ‘’हिंदू अमरीका’’ देखनी पड़ेगी, जो कि उनके जीवन भर का शोधकार्य है। यह बड़े आश्‍चर्य की बात है कि कोई भी उनकी पुस्‍तक पर ध्‍यान नहीं देता। ईसाई तो‍ निश्चित ही ध्‍यान नहीं द सकते, लेकिन प्रतिभाशाली लोगों को कोई पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए।
लेकिन एनलाइटेंड या इल्युमिनटेड व्‍यक्ति को कैसे बोलना चाहिए, इसका निर्णय करने बाले ये कोन है। क्‍या इन्‍होंने वोधिधर्म को जाना है, क्‍या इन्‍होंने उनके चित्र को देखा है? ये तो तुरंत इस नतीजे पर पहुंच जाएंगे कि एनलाइटेंड व्‍यक्ति‍ ऐसा दिखार्इ नहीं दे सकता। वह बहुत ही डरावना दिखता है। उसकी आंखें जंगली शेर जैसी है। और वह तुम्‍हारी तरफ देखता है तो ऐसा लगता है मानो अभी यह चित्र में से कूदेगा और तुम्‍हारे उपर झपटेगा और तुम्हे मार डालगा। ऐसा वह था। लेकिन छोड़ो वोधिधर्म को, क्‍योंकि अब चौदह सदियां बीत गई है।
मैं वोधिधर्म को व्‍यक्तिगत रूप से जानता था। मैंने उसके साथ कम से कम तीन महीने यात्रा की थी। जैसे मैं उसे प्रेम करता था वैसे ही वह मुझसे प्रेम करता था। तुम्‍हें यह जानने की उत्‍सुकता होगी कि यह मुझे क्‍यों प्रेम करता था। यह मुझे इसलिए प्रेम करता था क्‍योंकि मैंने उससे कभी कोई प्रश्‍न नहीं पूछा। उसने मुझसे कहां, ‘’मुझे मिलने वालों में तुम ऐसे पहले व्‍यक्ति हो जो कोई प्रश्‍न नहीं पूछता। और मैं प्रश्‍नों से सिर्फ ऊबता हूं। तुम एकमात्र व्‍यक्ति हो जो मुझे बोर नहीं करते।‘’
मैंने कहा: ‘’इसका एक कारण है।‘’
उसने पूछा: ‘’क्‍या कारण है?’’
मैने कहा: ‘’मैं केवल उत्‍तर देता हूं, मैं कभी प्रश्‍न नहीं पूछता। अगर तुम्‍हारे पास कोई प्रश्‍न हो तो तुम मुझसे पूछ सकते हो। अगर तुम्‍हारे पास प्रश्न नहीं है तो अपना मुहँ बंध रखो।‘’
हम दोनों हंसे, क्‍योंकि हम दोनों एक जैसे पागल थे। उसने मुझे अपने साथ यात्रा जारी रखने को कहां, लेकिन मैंने कहा, ‘’मुझे माफ करो। मुझे अपने रास्‍ते जाना है। और अब वह तुम्‍हारे रास्‍ते से अलग होता है।‘’
वह भरोसा न कर सका। उसने इससे पहले अपने साथ चलने के लिए कभी किसी को नहीं कहा था। वह वही आदमी था जिसने अस जमाने के सबसे बड़े साम्राज्‍य से महान चीनी सम्राट बू को भी ऐसे इनकार कर दिया था जैसेकि वह कोर्इ भिखारी हो। वोधिधर्म को भरोसा नहीं आया कि मैंने उसके साथ निमंत्रण को अस्‍वीकृत कर दिया है।‘’
मैंने कहा: ‘’अब तुम्‍हें मालूम हुआ कि अस्‍वीकृत होने पर कैसा लगता है। मैं तुम्‍हें इसका स्‍वाद देना चाहता था। अलविदा’’ लेकिन वह चौदह सौ साल पहले कि बात है।
या अगर उसे सि‍र्फ भारतीय बुद्धत्‍व से प्रयोजन है, जो एक मूर्खों को प्रभावित करता लगता है, अन्‍यथा भारत का इससे क्‍या लेना-देना है। बुद्धत्‍व तो सभी जगह घटा है। लेकिन अगर उसे केबल भार‍तीय बुद्धत्‍व से प्रयोजन है, तो रामकृष्‍ण हमारे बहुत निकट है। उनके शब्‍दों को भी ज्‍यों का त्‍यों प्रस्‍तुत नहीं किया गया है। क्‍योंकि वे देहाती थे और देहाती भाषा का ही प्रयोग करते थे। लोगों के अनुसार जिन शब्‍दों को प्रयोग समाधिस्‍थ व्‍यक्ति को नहीं करना चाहिए, वे सब निकाल दिए गए थे। मैंने बंगाल में धूम-धूम कर ऐसे लोगों से पूछा है जो अभी जीवित है कि रामकृष्‍ण कैसे बोलते थे। उन सब ने बताया कि वे भयंकर थे। वे ऐसे बोलते थे जैसे आदमी बोलना चाहिए—सीधा साफ, बिना लाग-लपटे के।
मैं अपने नाना की मृत्‍यु के बारे में बसत कर रहा था।
वह हमेशा के लिए बिछुड़ना था। हम दुबारा नहीं मिलेंगे। फिर भी इसमें एक सौंदर्य था। और उनहोंने मंत्र जाप से इसे सुंदर, और प्रार्थना पूर्ण बना दिया—इसमें सुगंध आ गई। वे बूढे थे और मर रहे थे, शायद जबरदस्‍त हार्ट-अटैक से। हमे इसके बारे में कुछ पता न था। क्‍योंकि गांव में कोई डाक्‍टर नहीं था, कोई दवा की दुकान तक नहीं थी। तो हमें‍ उनकी मृत्‍यु का कारण नहीं मालूम। लेकिन मैं सोचता हूं कि वह जबरदस्‍त हार्ट-अटैक था।
मैंने उनके कान में पूछा: ‘’नाना, विदा होने से पहले क्‍या आप मुझे कुछ कहना चाहते है। कोई अंतिम शब्‍द, या आप मुझे कुछ देना चाहते है। जो सदा आपकी याद दिलाता रहे।‘’
़ उन्‍होंने अपनी अंगूठी निकाल कर मेरे हाथ में रख दी। वह अंगूठी अब किसी संन्‍यासी के पास है। मैंने वह किसी को दे दी।
लेकिन वह अंगूठी हमेशा एक रहस्‍य थी। वे बार-बार उस अंगूठी के भीतर देखते रहते थे। लेकिन अपने पूरे जीवन में उन्‍होंने कभी-कभी किसी को नहीं देखने दिया कि उसके भीतर क्‍या है। उस अंगूठी के दोनों और कांच की खिड़की थी जिसमें से देखा ज सकता था। ऊपर ऐ हीरा लगा हुआ था और दोनों और कांच की खिड़की थी। भीतर जैन तीर्थ कर महावीर की एक बहुत छोटी लेकिन बहुत सुंदर मूर्ति थी। और दोनों खिड़कियों में मैग्नीफ़ाइंग ग्‍लासेस थी। जिसके कारण वह बहुत बड़ी दिखाई देती थी। वह मेरे काम की न थी, क्‍योंकि पूरी कोशिश की लेकिन मुझे अफसोस है कि कभी महावीर से उतना प्रेम नहीं कर सका जितना मैं बुद्ध से करता हूं। यद्यपि वे दोनों समकालीन थे।
महावीर में कमी है, और उसके बिना मेरा ह्रदय उनके लिए नहीं धड़क सकता। वे बिलकुल पत्‍थर की मूर्ति जैसे दिखाई देते है। बुद्ध अधिक जीवंत दिखाई देते है, लेकिन मेरे स्‍तर की जीवंतता तक नहीं। इसीलिए मैं चाहता हूं कि वे जो़रबा भी बने। अगर कभी वे मुझे परलोक में कहीं मिले तो बडी मुश्किल होने बाली है। वे मुझ पर जोर से चिल्‍लाएंगे, तुम चाहते हो कि मैं जो़रबा बन जाऊँ।
न तो जो़रबा अकेले बच सकता है—वह हिरोशिमा में समाप्‍त हो जाएगा—न ही बुद्ध मनुष्‍य के भावी मनोविज्ञान को अध्‍यात्‍म और भौतिकवाद, पूर्व और पश्चिम के बीच एक सेतु होने की जरूरत है। किसी दिन संसार मेरा आभार मानेगा कि मेरा संदेश पश्चिम पहुंच रहा है। अन्‍यथा आज तक तो मुमुक्षु पूर्व जाते रहे है। लेकिन इस बार एक जीवित बुद्ध का संदेश पश्चिम में पहुंच रहा है।
पश्चिम नहीं जानता की बुद्धो को कैसे पहचाना जाए, क्‍योंकि उसने कभी किसी बुद्ध को जाना ही नहीं। उसने आंशिक बुद्धो को जाना है। जीसस को, पाइथागोरस को, डायोजनीज को। उन्‍होंने कभी समग्र बुद्ध को नहीं जाना। यह आश्‍चर्यजनक नहीं है कि वे मेरे बारे में वाद-विवाद
कर रहे है।
क्‍या तुम्‍हें मालूम है कि भा‍रतीय समाचार-पत्रों में वे क्‍या छाप रहे है। वे एक‍ कहानी छाप रहे है कि शायद दुश्‍मनों ने मेरा अपहरण कर लिया है और मेरा जीवन खतरे में है। अब मैं यहां पर हूं और उनको मुझसे कोई मतलब नहीं है। भारत सड़ा-गला देश है। लगभग दो हजार वर्षो से यह सड़ा गला देश, दुर्गंध आती है इससे। भारतीय आध्‍यात्मिकता से अधिक दुर्गंध और किसी चीज से नहीं आती। यह लाश है और बहुत पुरानी लाश है—दो हजार वर्ष पुरानी।
लोग भी कैसी कहानियां गढ़ लेते है कि दुश्‍मनों ने मेरा अपहरण कर लिया है और अब मेरा जीवन खतरे में है। सच तो यह है कि पिछले पच्‍चीस वर्षो से लगातार मेरा जीवन खतरे में है। यह चमत्‍कार ही है कि मैं अभी तक जीवित हूं।
मैं तुम्‍हें कह रहा था मेरे नाना ने मृत्‍यु से पहले अपनी सर्वाधिक प्रिय वस्‍तु मुझे दी—महावीर की मूर्ति, जो अंगूठी में हीरे के पीछे छिपी हुई थी। आंखों में आंसू भर कर उन्‍होंने कहा, तुम्‍हें देने के लिए मेरे पास और कुछ नहीं है। क्योंकि जो कुछ भी मेरे पास है। तुमसे भी ऐसे ही छीन लिया जाएगा जैसे मुझसे छीन लिया गया है। जिसने स्‍वयं को जाना है, उसके प्रति अपना प्रेम ही मैं तुम्‍हें दे स‍कता हूं।
यद्यपि मैंने उनकी अंगूठी अपने पास नहीं रखी, फिर भी मैंने उनकी इच्‍छा को पूरा कर दिया है। मैंने उस एक को जाना है, और मैंने उसे अपने भीतर जाना है। एक अंगूठी में होने से क्‍या फर्क पड़ता है। लेकिन बेचारे वृद्ध आदमी, उनहोंने अपने गुरु महावीर को प्रेम किया, और उन्‍होंने अपना प्रेम मुझे दिया। अपने गुरु के प्रति उनके प्रेम का मैं आदर करता हूं। नाना के होठों पर अंतिम शब्‍द थे: ‘’चिंता मत करो, क्‍योंकि मैं मर नहीं रहा हूं।‘’
हम सबने इंतजार किया कि शायद वे और कुछ कहेंगे, लेकिन वे अंतिम शब्‍द थे। उनकी आंखें बंद हुई और वे नहीं रहे।
अभी भी मुझे वह मौन याद है। बैलगाड़ी एक नदी के पाट में से गुजर रही थी। मुझे सब विस्‍तार से याद है। मैं कुछ नहीं बोला, क्‍योंकि मैं अपनी नानी को परेशान नहीं करना चाहता था। वे कुछ न बोली। कुछ क्षण बित गये, फिर मुझे उनकी कुछ चिंता हुई और मैंने कहा: ‘कुछ बोलों, इतनी चुप मत रहो, यह असहनीय है।’
क्‍या तुम भरोसा कर सकते हो, उनहोंने एक गीत गाय, ऐसे मैंने सीखा कि मृत्‍यु का भी उत्‍सव मनाया जा सकता है, उन्‍होंने वो गीत गया जो मेरे नाना से पहली बार प्रेम हुआ था उस समय गया था।
यह भी उल्‍लेखनीय है कि नब्‍बे वर्ष पहले, भारत में नानी में प्रेम करने का साहस था। वे चौबीस साल की उम्र तक अविवाहित रहीं। यह विरली बात थी। एक बार मैंने उनसे पूछा कि आप इतनी उम्र तक अविवाहित क्‍यों रहीं। वे इतनी सुंदर थी…….मैंने मजाक में उनसे कहा कि छतर पुर का राजा भी शायद आपके प्रेम में पड़ गया होता।
वे बोली: ‘आश्‍चर्य है, तुमने यह बात कैसे कही, क्‍येांकि वह मेरे प्रेम में पड़ गया था। लेकिन मैंने उसे इनकार कर दिया। और केवल उसको ही नहीं और बहुतों को भी।
उन दिनों भारत में लड़कियों की शादी सात साल की उम्र में या ज्यादा से ज्‍यादा नौ साल की उम्र में कर दी जाती थी। प्रेम का भय….अगर वे बड़ी हुई तो शायद वे प्रेम में पड़ सकती है, लेकिन नानी के पिता कवि थे। उनके गीत अभी भी खजुराहो तथा आस-पास क गांवों में गाए जाते है। उन्‍होंने जोर दिया कि जब तक वह राज़ी नहीं होती तक वे उसकी किसी से शादी नहीं करेंगे। संयोग से नानी का प्रेम मेरे नाना से हो गया। मैंने उनसे पूछा, ‘यह और आश्‍चर्य की बात है कि आपने छतर पुर के राजा को इनकार कर दिया और इस गरीब आदमी के प्रेम में पड़ गई। किस लिए, निश्चित ही वे कोई बहुत सुंदर नहीं थे, और न किन्‍हीं और अर्थों में असाधारण थे। तुम उनके प्रेम में क्‍यों पड़ी?’
उन्‍होंने कहा: ‘तुम गलत सवाल पूछ रहे हो, प्रेम में ‘क्‍यों’ नहीं होता। मैंने सिर्फ उनको देखा, और बस कुछ हो गया। मैंने उनकी आंखों देखी और मुझे गहन विश्वास पैदा हो गया—एक अटूट विश्‍वास जो आज तक डांवाडोल नहीं हुआ।’
मैंने अपने नाना से पूछा था, ‘’नानी कहती है कि उनको आपसे प्रेम हो गया था। उनकी तरफ से तो ठीक है, लेकिन आप क्‍यों विवाह के लिए राज़ी हो गए।‘’
उनहोंने कहां: ‘मैं कवि या विचारक नहीं हूं, लेकिन मैं सौंदर्य को देखूं तो उसे पहचान सकता हूं।’
मैंने अपनी नानी से अघिक सुंदर स्‍त्री कभी नहीं देखी। मैं स्‍वयं उनके प्रेम में था, और उनके पूरे जीवन उनसे बहुत प्रेम करता रहा। अस्‍सी साल की अवस्‍था में जब उनकी मृत्‍यु हुई तो मैं तुरंत घर पहुंचा। वहां वे लेटी हुई थी—मृत। सब लोग मेरा इंतजार कर रहे थे। क्‍योंकि नानी ने उनसे कहा था कि जब तक मैं न पहुंच जांऊ तब तक उनका अंतिम संस्‍कार न किया जाए। और उन्‍होंने जोर देकर कहा था कि उनकी चिता को मैं ही अग्नि दूँ। तो वे मेरा इंतजार कर रहे थे। मैं अंदर गया और उनके चेहरे से कपड़ा हटाया…….और में अभी भी सुंदर थी। असल में पहले से भी सुंदर, क्‍योंकि सब बिलकुल शांत था—जीवन की भाग दौड़ समाप्‍त हो गई थी। श्‍वास की हलन-चलन भी बंद हो गई थी। वे केवल उपस्थिति मात्र थी।
उनकी चिता को आग देना मेरे जीवन को सबसे कठिन काम था। यह वैसे ही था जैसे कि मैं लियोनार्डो या विन सेंट वान गॉग के सबसे सुंदर चित्र को आग लगा रहा होऊं। निश्चित ही, मेरे लिए वे मोना लिसा से भी अधिक मूल्‍यवान थी। क्लियोपैट्रा से भी अधिक सुंदर थी। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
सौंदर्य की जो परख जो मेरे भीतर है यह उन्‍हीं की देन है। मैं जो हूं, वैसा होने में उन्‍होंने सब तरह से मेरी मदद की है। उनके बिना मैं शायद एक दुकानदार होता, या डाक्‍टर, या इंजीनियर होता। क्‍योंकि जब मैंने अपनी मैट्रिक की परीक्षा पास की तो मेरे पिता इतने गरीब थे कि मुझे विश्‍वविद्यालय भेजने के लिए कर्ज तक लेने को तैयार थे। उनका पूरा आग्रह था कि मैं विश्‍वविद्यालय जाऊँ। मैं जाना चाहता था, लेकिन मेडिकल कालेज नहीं जाना चाहता था और इंजीनियरिंग कालेज भी नहीं जाना चाहता था। मैंने डाक्टर या इंजीनियर बनने से साफ मना कर दिया। मैंने उनसे कहा, ‘अगर आप सच जानना चाहते है तो सच यह है कि मैं संन्‍यासी बनना चाहता हूं, एक घुमक्कड़।’
उन्‍होंने कहा: ‘क्‍या, एक घुमक्‍कड़?’
मैंने कहा: ‘हां, में विश्‍वविद्यालय दर्शनशास्‍त्र, ये फिलासफी पढ़ना चाहता हूं, ताकि मैं एक दार्शनिक घुमक्‍कड़ बन सकूँ।’
वे मना करते हुए बोले: ‘इसके लिए तो मैं कर्ज के झंझट नहीं लूँगा।’
मेरी नानी ने कहा: ‘बेटा, तुम फ़िकर न करो, तुम जाओ और जो करना चाहते हो करो। मैं जिंदा हूं। मैं अपना सब कुछ बेच-बाच कर भी तुम्‍हारी इच्‍छा पूरी करूंगी। मैं तुमसे कभी नहीं पूछूंगी कि तुम कहां जाना चाहते हो और क्या पढ़ना चाहते हो।’
उनहोंने कभी नहीं पूछा, और वे बराबर मुझे पैसे भेजती रही, तब भी जग मैं प्रोफेसर बन गया। मुझे उन्‍हें कहना पडा कि अब तो मैं स्‍वयं कमा रहा हूं और अब तो मुझे उनको पैसे भेजने चाहिए।
लोग आश्‍चर्य करते थे, कि इतनी पुस्‍तकें खरीदने के लिए मेरे पास इतना पैसा कहां से आता है क्‍योंकि मेरे पास हजारों पुस्‍तकें थी। जब मैं हाईस्‍कूल में पढ़ता था उस समय भी मेरे घर में हजारों पुस्‍तकें थी। मेरा सारा घर पुस्‍तकों से भरा हुआ था। और सब आश्‍चर्य करते थे कि मेरे पास पैसा कहां से आता है। मेरी नानी ने मुझसे कहा हुआ था, कभी किसी को मत बताना कि तुमको मुझसे पैसा मिलता है। वे मुझे बराबर पैसे भेजती रही। तुम्‍हें जान कर आश्‍चर्य होगा कि जिस महीने उनकी मृत्‍यु हुई उस महीने भी उन्‍होंने हमेशा की तरह मुझे पैसे भेजे। जिस दिन उनकी मृत्‍यु हुई उस सुबह उन्‍होंने चेक पर हस्‍ताक्षर किए थे। और तुम्‍हें यह जान कर और भी आश्‍चर्य होगा कि वही अंतिम रकम थी उनके बैंक में। शायद किसी तरह उन्‍हें मालूम था कि अब कोई कल नहीं होगा।
मैं अनेक प्रकार से भाग्‍यवान हूं, लेकिन ऐसे नाना-नानी पाने के लिए विशेष भाग्‍यवान हूं …… और वे सुनहरे आरंभिक वर्ष।

–ओशो


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स्‍वर्णिम बचपन–सत्र—7 (ओशो)

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जैन मुनि से संवाद

ओशो का जन्‍म स्‍थल कुछवाड़ा (मध्‍य प्रदेश)

ओशो का जन्‍म स्‍थल कुछवाड़ा (मध्‍य प्रदेश)

गुड़िया को मालूम है कि मैं नींद में बोलता हूं, लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि मैं किससे बोलता हूं। सिर्फ मैं जानता हूं यह। बेचारी गुड़िया, मैं उससे बातें करता हुं और वह सोचती है और चिंता करती है कि क्‍यों बोल रहा हूं और किससे बोल रहा हूं। लेकिन उसे पता नहीं कि मैं इसी तरह उससे बातें करता हूं। नींद एक प्राकृतिक बेहोशी है। जीवन इतना कटु है कि हर आदमी को रात में कम से कम कुछ घंटे नींद की गोद में आराम करना पड़ता है। और उसको आश्‍चर्य होता है कि मैं सोता भी हूं या नहीं। उसके आश्‍चर्य को मैं समझ सकता हूं। पिछले पच्‍चीस सालों से भी अधिक समय से मैं सोया नहीं हूं।

देव राज, चिंता मत करो। साधारण नींद तो मैं सारी दुनिया में किसी भी व्‍यक्ति से अधिक सोता हूं—तीन घंटे दिन में और सात, आठ या नौ घंटे रात में—अधिक से अधिक जितना कोई भी सो सकता है। कुल मिला कर पूरे दिन में मैं बारह घंटे सोता हूं। लेकिन भीतर मैं जागा रहता हूं। मैं अपने को सोते हुए देखता हूं। और कभी-कभी रात के समय इतना अकेलापन होता है कि मैं गुड़िया से बात करने लगता हूं। लेकिन उसकी बहुत मुश्किलें है। पहली तो यह कि जब मैं नींद में बोलता हूं तो हिंदी में बोलता हूं। नींद में मैं अंग्रेजी में नहीं बोल सकता, मैं कभी नहीं बोलुगां, हालांकि अगर मैं चाहूं तो बोल सकता हूं, एक आध बार मैंने कोशिश भी की है और मैं सफल भी रहा हूं। लेकिन मजा किरकिरा हो जाता है।

तुम्‍हें मालूम होगा मैं उर्दू की प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का एक गीत रोज सुनता हूं। रोज यहां आने से पहले मैं उसको बार-बार सुनता हू। इतनी बार सून कर तो कोई पागल हो जाएगा। मैं रोज गुड़िया पर उसी गीत की ड्रि‍लिंग करता हूं। उसे सुनना ही पड़ता है, उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। जब मेरा काम पूरा हो जाता है। तो मैं फिर उस गीत को सुनता हूं। मैं अपनी भाषा को प्रेम करता हूं,…इस लिए नहीं की वो मेरी भाषा है, लेकिन वह इतनी सुंदर है कि अगर वह मेरी न भी होती तो भी मैं उसे सिखा होता।

जो गीत वह रोज सुनती है और जो उसे बार-बार सुनना पड़ेगा, उसमें कहा है: ‘तुम्‍हें याद हो के न याद हो, वह जो हममें तुममें करार था। कभी तुम कहा करते थे‍ कि तुम दुनिया में सबसे खूबसूरत स्‍त्री हो। अब मुझे नहीं मालूम कि तुम मुझे पहचान पाओगें या नहीं। शायद तुम्‍हें याद नहीं, लेकिन मुझे अभी भी याद है। मैं न उस करार को भूल सकती हूं, न तुम्‍हारे शब्‍दों को जो तुमने मुझसे कहे थे। तुम कहा करते थे कि तुम्‍हारा प्रेम पावन है। क्‍या तुम्‍हें अभी भी याद है। शायद नहीं, लेकिन मुझे याद है—निश्चित ही पूरी तरह से नहीं, समय ने कुछ-कुछ भुला दिया है।’

‘मैं तो जीर्ण शीर्ण महल हूं, लेकिन अगर तुम देखो, अगर तुम ध्‍यान से देखो तो पाओगें कि मैं वैसी ही हूं। मुझे अभी भी तुम्‍हारा करार और तुम्‍हारे शब्‍द याद है। वह करार जो कभी हमारे बीच था, क्‍या वह तुम्‍हे अभी भी याद है के नहीं? मैं तुम्‍हारे बारे में नहीं जानती, लेकिन मुझे अभी भी याद है।

मेरी नींद में जब मैं गुड़िया से बातें करता हूं तो फिर हिंदी में बोलता हूं, क्योंकि मुझे मालूम है कि उसका अचेतन अभी भी अंग्रेजी नहीं है। वह इंग्‍लैड में सिर्फ कुछ वर्षो तक ही थी। उसके पहले वह भारत में थी और अब वह फिर भारत में है। इन दोनों कालों के बीच जो घटा, वह सब मैं पोंछ डालने की कोशिश करता रहा हूं। इसके बारे में बाद में, जब समय आएगा….’

आज मैं जैन धर्म के बारे में कुछ कहने बाला था। मेरा पागलपन तो देखो। हां, मैं बिना किसी सेतु के एक शिखर से दूसरे शिखर पर कूद सकता हूं। लेकिन तुम्‍हें एक पागल आदमी को थोड़ा सहन करना पड़ेगा। तुम प्रेम में पड़े हो, यह तुम्‍हारी जिम्‍मेवारी है, मैं इसके लिए जिम्‍मेवार नहीं हूं।

संसार में सबसे कठिन तपश्‍चर्या बाला धर्म जैन धर्म है, या दूसरें शब्‍दों में सर्वाधिक आत्‍मपीड़क और परपीडक धर्म जैन धर्म है। जैन मुनि स्‍वयं को इतना सताते है कि संदेह होने लगता है कि ये पागल तो नहीं है।

मैं चार या पाँच साल का रहा होऊगां जब मैंने पहली बार एक दिगंबर जैन मुनि को देखा। वह मरी नानी के घर पा आमंत्रित था। मैं अपनी हंसी न रोक सका। मेरे नाना ने मुझे कहा: ‘चुप रहो, में जानता हूं कि तुम शरारती हो। जब तुम जब तुम पडोसियों को परेशान करते हो तो मैं तुम्‍हें माफ कर सकता हूं, लेकिन यदि तुमने मेरे गुरू के साथ कोई शैतानी की तो मैं तुम्‍हें क्षमा नहीं कर सकता। ये मेरे गुरु है। इन्‍होंने मुझे घर्म के आंतरिक रहस्‍यों में दीक्षा दी है।

मैंने कहा: ‘आंतरिक रहस्‍यों से मेरा कोई संबंध नहीं हैं। मेरा तो दिलचस्‍पी बाहरी रहस्‍यों में है जो वह इतने साफ दिखा रहे है। ये नगन क्‍यों है। क्‍या ये कम से कम चडढी या ल्ंगोटी नहीं पहल सकते है?’

मेरे नाना भी हंस पड़े। उन्‍होंने कहा: ‘तुम समझते नहीं हो।’

मैंने कहा: ‘ठीक है, मैं खुद ही उनसे पूछ लूंगा।’ फिर मैंने अपनी नानी से पूछा, ‘क्‍या मैं इस बिलकुल पागल आदमी से कुछ प्रश्‍न पूछ सकता हूं जो इस प्रकार पुरूष और स्त्रियों के सामने नग्‍न चले आते है?’

मेरी नानी ने हंस कर कहा: ‘जो पूछना हो पूछो, और तुम्‍हारे नाना क्‍या कहते है, इसकी फ़िकर मत करो। मैं तुम्‍हें इजाजत देती हूं। अगर ते कुछ कहें तो तुम इशारा कर देना। मैं उन्‍हें ठीक कर दूंगी।’

नानी बहुत ही अच्‍छी थीं, बहुत साहसी थी; बिना किसी सीमा के पूर्ण स्‍वतंत्रता देने को तैयार थी। उनहोंने मुझसे यह भी नहीं पूछा कि मैं क्‍या पूछने जा रहा हूं। उन्होंने बस इतना ही कहा: ‘जो पूछना हो पूछो।’

गांव के सब लोग जैन मुनि के दर्शन के लिए इकट्ठे हो गए थे। उनके तथाकथित उपदेश के बीच में मैं खड़ा हो गया। यह करीब चाल साल पहले की बात है। और तब से आज तक मैं निरंतर इन मूढ़ों से लड़ाई लड़ रहा हूँ। जिसका अंत मेरी मृत्‍यु के साथ ही होगा। शायद तब भी समाप्‍त न हो, मेरे लोग शायद उसे जारी रखें।

मैंने सरल से प्रश्‍न पूछे, लेकिन वह उत्‍तर न दे सका। मुझे बडी हैरानी हुई और मेरे नाना को बहुत शर्म आई। मेरी नानी ने मेरी पीठ थपथपाई और कहा, ‘शाबाश तुमने कर दिखाया। मुझे पता था कि तुम कर सकोगे।’

क्‍या पूछा था मैने? सिर्फ सीधा-सरल प्रश्‍न पूछे थे। मैंने पूछा था, ‘आप दुबारा जन्‍म क्‍यों नहीं लेना चाहते, जैन धर्म में यह सरल सा प्रश्‍न है, क्‍योंकि जैन धर्म की कुल कोशिश है कि दुबारा जन्‍म न लेना पड़े। यह दुबारा जन्‍म को रोकने का पुरा विज्ञान है। तो मैने उससे बुनियादी प्रश्‍न पूछा। क्‍या आप दुबारा जन्‍म नहीं लेना चाहते?’

उसने कहा: ‘नहीं, कभी नहीं।’

तो फिर मैंने पूछा: ‘आप आत्‍महत्‍या क्‍यों नहीं कर लेते, आप अभी भी श्‍वास क्‍यों लिए जा रहे है। क्‍यों खाना, क्‍यों पानी पीना? खत्‍म करो, आत्‍महत्‍या कर लो। छोटी सी बात के लिए क्‍यों इतना उपद्रव करना।‘

वह चालीस साल से ज्यादा उम्र का न था। मैंने उससे कहा: ‘अगर आप इस प्रकार चलते रहे तो शायद आपको और चालीस साल तक या उससे भी अधिक जीना पड़ेगा।’

यह एक वैज्ञानिक तथ्‍य है कि जो लोग कम खाते है वे लंबा जीते है। देवराज निश्चित ही मुझसे सहमत होगा, यह तो बार-बार प्रमाणित किया जा चूका है कि अगर आप किसी भी प्राणी को उसकी आवश्‍यकता से अधिक भोजन दें तो वे मोटे और सुंदर और सुडौल जरूर हो जाते है, लेकिन वे जल्‍दी मर जाते है। अगर आप उनकी आवश्‍यकता से आधा भोजन दें, ता यह आश्‍चर्य की बात है कि वे सुंदर तो नहीं दिखाई देते, लेकिन औसत आयु से करीब-करीब दुगुनी आयु तक जीवि‍त रहते है। आधा भोजन और दुगुनी आयु: दुगुना भोजन और आधी आयु।

तो मैंने जैन मुनि से कहा: ‘ये सब तथ्‍य उस समय मुझे मालूम नहीं थे—अगर आप दुबारा पैदा नहीं होना चाहते तो आप जी‍वित क्‍यों है, क्‍या केवल मरने के लिए, तो फिर आत्‍महत्‍या क्‍यों नहीं कर लेते?’

मुझे नहीं लगता कि ऐसा प्रश्‍न उससे कभी किसी ने पूछा होगा शिष्‍टाचार की इस दुनिया में अभी कोई असली प्रश्न नहीं पूछता है। और आत्‍महत्‍या का प्रश्‍न सबसे असली प्रश्‍न है। ‘अगर आप दुबारा पैदा नहीं होना चाहते तो, तो आप आत्‍महत्‍या कर ले, मैं आपको रास्‍ता बता सकता हूं। यद्यपि दुनिया के रास्‍तों के बारे में मैं अधिक नहीं जानता, लेकिन जहां तक आत्‍म हत्‍या का सवाल है मैं आपको कुछ सु1झाव अवश्‍य दे सकता हूं, आप गांव की पहाड़ी से कूद सकते है या आप नदी में छलांग लगा सकते है।’

मैंने जैन मुनि से कहा: ‘बरसात के दिनों में आप मेरे साथ नदी में कूद सकते हो। थोड़ी देर हमारा साथ रहेगा, फिर आप मर स‍कते है, और में दूसरे किनारे पहुंच जाऊँगा। मैं अच्‍छा तैर सकता हूं।’ वह बहुत चौड़ी नदी थी, विशेषकर बरसात के दिनों में तो मीलों चौडी, करीब-करीब समुद्र जैसी लगती था। जब उसमें खूब बाढ़ आती तब मैं उसमें कूद पड़ता—दूसरे किनारे पहुँचे के लिए या मरने के लिए, ज्‍यादा संभावना यही होती थी कि मैं दूसरे किनारे कभी नहीं पहुंचूंगा।

उन्‍होंने मेरी और इतने गुस्‍से से देखा कि मुझे उनसे कहना पडा याद रखो, आपको दुबारा जन्‍म लेना ही पड़ेगा, क्‍योंकि आप में अभी क्रोध है। चिंताओं के संसार से मुक्‍त होने का यह तरीका नहीं है। आप इतने गुस्‍से से मुझे क्‍यों देख रहे है। मेरे प्रश्न का उत्‍तर शांति से दीजिए। सुखपूर्वक उत्‍तर दीजिए। अगर आप उत्‍तर नहीं दे सकते तो कह दीजिए कि मैं नहीं जानता। लेकिन इतना क्रोध मत कीजिए।

उसने कह: ‘आत्‍महत्‍या पाप है, मैं आत्‍महत्‍या नहीं कर सकता। लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरा दुबारा जन्‍म न हो। सभी वस्‍तुओं का धीरे-धीरे त्‍याग करके मैं उस स्थिति को प्राप्‍त कर लूँगा।’

मैंने कहा: ‘कृपया मुझे आप बताइए कि आपके पास है क्‍या। क्‍योंकि जहां तक मैं देख सकता हूं, आप नग्न हैं और आपके पास कुछ भी नहीं है।’

मेरे नाना ने मुझे रोकने की कोशिश की। मैंने अपनी नानी की और इशारा किया और उनसे कहा, ‘याद रखिए, मैंने नानी से इजाजत ले ली है। और अब मुझे कोई भी रोक नहीं सकता, आप भी नहीं। मैंने नानी से आपके बारे में बात कर ली थी, क्‍योंकि मुझे डर था कि आप मुझसे नाराज हो जाएंगे। नानी ने कहा था बस मेरी तरफ इशारा कर देना। चिंता मत करों जैसे ही मैं उनकी तरफ देखूंगी, वे चुप हो जाएंगे।’

और आश्‍चर्य, ठीक ऐसा ही हुआ। नानी ने देखा भी नहीं और नाना चुप हो गए। बाद में मैं और मेरी नानी खूब हंसे। मैंने उनसे कहा: ‘उन्‍होंने आप की तरफ देखा तक नहीं।’

असल में उन्‍होंने अपनी आंखे बंद कर ली, जैसे कि ध्‍यान कर रहे हो। मैंने उनसे कहा: ‘नाना, बहुत खूब, आप क्रोधित हैं, उबल रहे है, आग जल रही है आपके अन्‍दर, फिर भी आप आंखें बंद करके ऐसे बैठे है, जैसे ध्‍यान कर रहे है। क्‍योंकि आपके गुरु अत्‍तर नहीं दे पा रहे है, लेकिन मैं कहता हूं कि यह आदमी जो यहां उपदेश दे रहा है, मूर्ख है।’

और मैं चार या पाँच साल से ज्‍यादा का न था। उसी समय से यही मेरी भाषा रही है। मैं मूढ़ को एकदम पहचान लेता हूं, वह कही भी हो, मेरी एक्‍सरे आंखों से कोई नहीं बच सकता है। मैं मानसिक-अपंगता को या किसी भी चीज को तुरंत देख लेता हूं।

अभी उस दिन मैंने अपने एक संन्‍यासी को वह फाउंटेन पेन दिया जिससे मैंने उसका नया नाम लिखा था। सिर्फ यादगार के कि यही है वो पेन जिसका मैंने उसके नये जीवन की, संन्‍यास की शुरूआत में अपयोग किया था। लेकिन उसकी पत्‍नी भी वहां थी। मैंने उसकी पत्‍नी को भी संन्‍यास लेने के लिए आमंत्रित किया, वह राज़ी थी, और नही भी, डांवाडोल थी—वह हाँ कहना चाहती थी और फिर भी कह नहीं पा रही थी। फिर मैंने उसे फुसलाने की कोशिश की—मेरा मतलब है संन्‍यास के लिए। मैंने थोड़ी देर अपना खेल जारी रखा और वह हां कहने के बहुत करीब आ गई थी, अचानक मैं रूक गया। मैं भी तो उतना सीधा नहीं हूं जितना बाहर से दिखाई देता हूं। मेरा मतलब यह नहीं है कि मैं जटिल हूं, मेरा मतलब यह है कि मैं चीजें इतनी स्‍पष्‍ट देख सकता हूं कि कभी-कभी मुझे अपना सीधापन और उसका निमंत्रण वापस लेना पड़ता है।

वह डर रहा था। मैं इस संन्‍यासी और उसकी पत्‍नी के आर-पार देख सकता था। उन दोनों के बीच कोई सेतु न था। और कभी रहा भी नहीं था, वे बस एक अंग्रेज दंपति थे, तुम जानते हो…..परमात्‍मा ही जाने कि उन्‍होंने शादी क्‍यों की थी? और परमात्‍मा तो है नहीं, मैं बार-बार यह दोहराता हूं, क्‍योंकि मुझे हमेशा लगता है कि तुम शायद सोचो कि परमात्‍मा सच में ही जानता है।

परमात्‍मा नहीं जानता हैं, क्‍योंकि वह है ही नहीं। परमात्‍मा तो ऐसा शब्‍द है जैसे ‘जीसस’ इसका कोई अर्थ नहीं है। यह केवल एक विस्‍मयबोधक शब्‍द है। जीसस को अपना नाम कैसे मिला, उसकी ऐसी ही तो कहानी है।

जोसेफ और मेरी अपने बच्‍चे के साथ बेथलेहम से घर वापस जा रहे है। मैरी बच्‍चे के साथ गधे पर बैठी है। जोसेफ गधे की रस्‍सी हाथ में पकड़े आगे-आगे चल रहा है। अचानक उसका पैर एक पत्‍थर से टकराया, उसे जोर की ठोकर लगी। वह चीख पडा, ‘जीसस’ और तुम स्त्रियों के ढंग तो जानते ही हो,…मैरी ने कहा, ‘जोसेफ’ मैं सोच रही थी कि अपने बच्‍चे का नाम क्‍या रखें। और अभी-अभी तुमने सही नाम ले दिया—‘जीसस।’

इस प्रकार बेचारे बच्‍चे को अपना नाम मिला। यह संयोग नहीं है कि जब तुम गलती से अपने हाथ पर हथौड़ा मार लेते हो तो चिल्‍ला पड़ते हो—जीसस, ऐसा मत सोचो कि तुम कोई जीसस को याद कर हरे हो। चोट लगने से जोसेफ की भांति चिल्‍ला पड़ते हो—जीसस।

मैं यह कह रहा था कि जिसस—यहां तक कि जीसस भी नाम नहीं है, बल्कि सिर्फ एक विस्‍मयबोधक शब्‍द है जिसे जोसेफ ने ठोकर लगने पर कहा था। इसी प्रकार है परमात्‍मा। जब कोई कहता है, ‘हे भगवान’ तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह भगवान में विश्‍वास करता है। वह तो केवल यह कह रहा है कि यह शिकायत कर रहा है—अगर यहां आकाश में कोई सुनने के लिए बैठा है तो। जब वह कहता है भगवान तो यह ऐसे ही है जैसे सरकारी कागजातों पर लिखा होता है—जिस किसी से भी संबंधित हो। ‘हे भगवान।’ का इतना ही अर्थ है—‘जिस किसी से भी संबंधित हो।’ और अगर वहां कोई नहीं है तो ‘माफ करे, ये किसी से भी संबंधित नहीं है।’ और इसका प्रयोग करने से मैं अपने को रोक नहीं सका’।

ओशो

स्‍वर्णिम बचपन


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होश के वो दो कदम बस—(कविता)

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मैं तो चल बस दो कदम।
इस तिमिर अंधकार में भी,
बंद आंखों के सहारे,
किस डगर पर,
किस सफर पर,
दौड़ते सब चले जा रहे थे।
किस तरफ ये कौन जाने,
पर समझते थे बेचारे!
पहुंचने को है किनारे।
मैं सिमट कर दूर पथ के,
ताकता रह गया हूं पथ को,
कौन से पथ पर चलू अब,
कितने पथ और कितने पथिक है,
सब ये कहते जा रहे है,
ये ही पथ सच का सफर है,
लोग सब अपने पथों को,
कैसे सजाते और संवारे,
दूर एक वीरान पथ था,
वो बड़ी बीहड़ जगह थी,
कंटक भरी नीरव डगर थी,
वह देखने में अनजान सा था।
क्योंभकि अभी गुमनाम सा था।
झाड़ झक्कीड़ उस पर उगे थे,
किन क्षणों ने आन मुझमें,
भर दिया था इक भरोसा,
हाथ पकड़ कर कोई कहने लगा था,
तू चला चल….तू चला चल।
मैं निडर-निस्कंप हो गया,
देखते सब रह गये थे ,
पागल मुझे सब कह रहे थे।
ये क्योंक भटकना चाहता है?
गुम नाम पथ पर खो रहा है।
भर कर समर्पण, साहस मन में,
मैं चला मदमस्तर होकर,
उस डगर को चूम, छू कर
होश के वो दो कदम भी,
जीवन में उन्माद भर गये,
एक टूटे साज में वो,
राग और मधु गान दे गये।
गंतव्य हीन भटकने से अच्छे ,
होश के वो दो कदम थे
ऐ मुसाफिर थकना नहीं अब
तू चला-चल तू चला चल……..

–स्वामी आनंद प्रसाद ‘’मानस’’


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गाड़रवाड़ा—एक परिक्रमा—

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मुल्‍ला जी—(आनंद मोहम्‍मद)Click to view slideshow.

मुल्‍ला जी, हां ये नाम सुन का आप भी जरूर थोड़ा चोंकोगे। मैं भी उसे देख कर थोड़ी दे के लिए अवाक सा रह गया। मन पर चल रहा विचारों का शोर थोड़ी देर के लिए थम गया था, वह पथ कुछ क्षण के लिए सूना हो गया था। मैं उसे अपलक देखा ही रह गया। सफेद नमाजी टोपी, चेहरे पर हल्‍की दाढ़ी, रंग का थोड़ा सांवला, मोटे होठ, और गहरी काली आंखे…..जो आपको कुछ क्षण के लिए किसी गहरे-शीतल एकांत में ले जायेंगे। जी हां, ‘’ओशो’’ का एक सन्‍यासी का नाम है, मुल्‍ला जी( आनंद मोहम्‍मद) जो एक कट्टर मुसलिम परिवार में पैदा हुआ। और अपने लड़क पन में ही बगावत कर ओशो से जूड़ गया। जिस उम्र में बच्‍चें को कुछ समझ नहीं होती, या यूं कह लो वह यार दोस्‍तों में मौज़ मस्‍ती कर के अपने जीवन को खत्‍म कर रहे होता है। उस समय यह अंजान और बेबूझी सी उस डगर वर बालक ओशो के उस अथाह समुद्र में कैसे गोते लगा गया, गोते ही नहीं लगाये, वह संन्‍यास ले कर उस में पूर्णता से डूब भी गया।

इस उम्र में उसकी प्रौढ़ता किसी से उधार ली हुई नहीं हो सकती, ये सब उसने में जन्‍म-जन्‍म अर्जित किया होगा। बूंद-बूंद जब गागर पूरी तरह से भर गई होगी। जिस के आगे कोई रस-रस नहीं रहता। वह उस महारस को चख लेता है। जिसे आनंद मोहम्‍मद ने ओशो में डूब कर चखा। कितनी मार, यातना, तिरस्‍कार, और अपमान सहने के बाद भी उसका सहसा टूटा नहीं। इस सब के बाद और-और उस सन्‍यास में निखार आता चला गया। सच उस उतंग हिमालय को देख मन किन्‍हीं दूर उड़ चला था। जो उसकी शीतलता और धवलता का दीदार करा सके। नमन है, उस साहसी-सूफ़ी फकीर को जो अपनी साधना को पूर्ण करने के लिए ओशो चरणों में गया। और मिटा दिया अपना अहंकार और जाति बंधन। धन्‍य है वो मां, जिसने ऐसा सपूत पैदा किया। इस के बाद एक चाह की लकीर सी बनी क्‍या उस मां के दर्शन हो सकेगें…..जिस ने ऐसे अनमोल रतन को जन्‍म दिया है।…..

गाड़रवाड़ा जाना हमारे जीवन का एक नया और रोमांचकारी अनुभव है। क्‍योंकि गाड़ वाड़ा एक सोई हुई काशी है, जहां ओशो ने अपने बाल पन में न जाने कितनी ही, शरारतें और, बाल क्रीड़ा, के अलावा यह उनकी साधना स्‍थली भी रही है। इस सब को चुनने में भी कुछ तो रहस्‍य जरूर होगा जो हम नहीं देख पा सकते। शायद अंधकार में ही बीज का अंकुरण हो सकता है। ताकी उसे कोई देख न सके। परंतु ये बड़ा अचरज कर देनी वाली बात है। चाहे जबलपुर हो, चाहे पुणे हो, सभी एक सोइ हुई नगरी है। और एक मजेदार बात, ओशो एक रहस्‍य दर्शी व्‍यक्‍ति थे। जो जहां से एक बार गुजर जाते थे फिर लोट कर नहीं देखते थे पीछे की और। इस बात का रहस्‍य मुझे जबलपुर और गाडरवारा में ही जाकर पता चला। क्‍योंकि ओशो से जुड़ने के बाद यह मेरी पहली यात्रा है उन स्‍थानों को देखने की। क्‍यों ओशो जी ऐसा करते थे? आज भी ओशो के शरीर छोड़ने के बाद ओशो आश्रम में कण-कण में ओशो की उर्जा समाई हई है, समाधि और बुद्धा हाँ में ही नहीं आप उसे किसी भी कोने में महसूस कर सकते हो। परंतु, वह मौलसरी, वह कमरा जहां ओशो जी रहते थे, वह मकान, वह स्‍कूल, वह घाट, वह शक्‍कर नदी, या यू कह लो चाहे वह जगह गाडरवारा की हो या जबलपुर की। वहां ओशो जी उर्जा को आपको जरा भी महसूस नहीं होगी। ये शायद ओशो की ना लौटने वाली बात ही कोई रहस्‍य छूपाये हुए है। ओशो जी जब अमरीका से वापस आये थे। और मुम्‍बई में रहते थे, तब वह लोट कर पूना नहीं जाना चाहते थे। और उस समय के पूना आश्रम का ये हाल था कि बुद्धा हाल में कोई सफाई करने वाल व्‍यक्‍ति नहीं था, वहां पर घास उग गई थे। परंतु गुरु ने न चाहते हुए भी जीवन में पहली बार हमारे लिए हार मान का पूना आना पडा। ये हम भारत वासियों का सौभाग्य कह ली जिए वरना, अगर ओशो जी पूना लोट कर नहीं आते तो, आज जिस उर्जा से लबरेज हम पूना आश्रम को जी रहे है उस से वंचित रह जाते। और अगर किसी दूसरी जगह….जो शायद भारत से बहार होती…तो इतना धन-सामथ्‍र्य कितने कम संन्यासियों में होता जो वहाँ आ जा सकते।

खेर एक दिन की उस गाडरवारा की यात्रा में जब हम, सुबह-सुबह, स्‍टेशन पर उतरे, तब वहां मधुर सीतलता ने हमारा स्‍वागत किया। सबसे पहले हमने( अदवीता और मैंने) वह पूल देखने की सोची जो सक्‍करा नदी पर था। हम पैदल ही चल दिये रेलवे लाई के साथ-साथ। अभी अप्रैल होने पर भी धूप में इतनी गर्मी नहीं थी। आस पास काफी पेड़ थे। रेल की पटरी के साथ-साथ हमें एक कच्‍चे रस्‍ते को पकड़ कर जब उस पूल के पास पहुचे, तब वहां लगा, की ये ओशो की नगरी है, और उससे भी ज्‍यादा जो हमें अपनी और खींचा, वह था एक बरगद का वृक्ष। हम दोनों उस के नीचे बैठ गये। पीपल के पत्‍तों से हवा का टकरना, और जल प्रपात की तरह कलरव करना। और उन पत्‍तों का बल खाकर झूमना, इठलाना और उस की सुस्पष्टता कितनी सुकोमल थी। पल में ही उनके संग ने हमारे शरीर को किसी अपूर्व तृप्‍ति से भर दिया। कुछ न जानते हुए भी मन किसी अनंत गहराई में खोने लगा। तब अचानक मैने अदवीता को कहां, स्‍वामी निखिलंक से जब हमारा मिलना हुआ था, तब उन्‍होंने एक बता बताई थी। कि जब हम और चैतन्य भारती जी गाडरवारा( शायद—1975) फोटो खींचने ओशो जी के कहने पर जा रहे थे। तब स्‍वामी निखिलंक( जो ओशो जी के छोटे भाई है) ने ओशो जी से पूछा था कि हम उस वृक्ष को कैसे पहचाने, जिस पर से एक बार आप ध्‍यान करते हुए रात को टहनी से नीचे गिर गये थे। और कई घंटे आप शरीर से बहार रहे थे। तब वहां से कुछ औरतें का गुजरना हुआ। जो ग्वाली थी, तब उनमें से एक ने अचानक ने कहां की न जाने ये बच्‍चा क्‍यों रास्‍ते में गिरा है। और उसने अचानक ओशो जी के आज्ञा चक्र को हाथ लगया और ओशो जी शरीर में प्रवेश कर गये। तब निखिलंक ने ओशो जी से पूछा की वहां पर तो अनेक वृक्ष है, आप हमें उस वृक्ष के बारे में कुछ तो हींट दीजिए। तब ओशो जी हंसे और उन्‍होंने निखिलंक और चैतन्य भारती जी से कहा की वह वृक्ष तुम्‍हें खुद ही बता देगा की वह मैं हूं, और ऐसा ही हुआ। जब वह फोटो खींच कर लाये और उन्‍होंने वह फोटो ओशो जी को दिखाए तब ओशो जी ने कहां हां, ठीक, यहीं वह वृक्ष है।

फिर आज जब हम ठीक उसी वृक्ष के पास जब आकर बैठे तो उसने हमें अपने आगोश में ले लिया। जैसे एक मां अपने बिछुड़े हुए बच्‍चे को सीने से लगा लेती है। हम घंटो उस की छांव में बैठे कर ध्‍यान करते रहे। उसका संग साथ, पीते रहे, उसे छूते रहे, निहारते रहे। और एक मजेदार बात, ओशो जी के जमाने में वहां पर एक ही पूल हुआ करता था, जो आज दो हो गये है। और दूसरे पूल और पहले पूल में काफी दूरी है, परंतु यह कुदरत का चमत्कार कह लीजिए की पूल का निर्माण ठीक उन दो पेड़ों की सीध में हो रहा था। परंतु न जाने क्‍यों अचानक वहाँ रेलवे लाईन को मोड़ दिया गया। और वह दोनों प्‍यारे वृक्ष बच गये। आज भी वहां वहीं कच्‍ची पगडंडी है, जिस से आज भी ग्‍वाले दूध लेकर गुजरते है, परंतु आज दूध सर पर रख कर नहीं लाते आज वह साईकिल पर डिब्बों में भर का लाते है।

हम इसके बाद सीधा लीला आश्रम पहुँचे, यह वहीं स्‍थान है, जहां पर ओशो जी बैठ कर ध्‍यान किया करते थे, और मां विवेक उन्‍हें सताया करती थी। जब ओशो जी चौदह वर्ष के हो गये, और जोतषी की भविष्‍य वाणी को पूरा करने के लिए स्कूल से छुट्टी ले कर, उस मंदिर के पुजारी से आज्ञा ले कर वहां पर सात दिन रहे थे। ओशो जी ने अपने स्‍वर्णिम बचपन में उसके विषय में कुछ इस तरह से लिखा है। ‘’ एक ज्‍योतिषी ने मेरी जन्‍म-कुंडली तैयार करने का वादा किया था, लेकिन उससे पहले कि वह यह काम कर पाता उसकी मृत्‍यु हो गई, इसलिए उसके बेटे को जन्‍म-कुंडली तैयार करनी पड़ी। लेकिन वह भी हैरान था। उसने कहा: ‘यह करीब-करीब निश्चित है कि यह बच्‍चा इक्‍कीस वर्ष की आयु में मर जाएगा। प्रत्‍येक सात साल के बाद उसको मृत्‍यु को सामना करना पड़ेगा।’

इसलिए मेरे माता-पिता, मेरा परिवार सदैव मेरी मृत्‍यु को लेकर चिंति‍त रहा करते थे। जब कभी मैं नये सात वर्ष के चक्र के आरंभ में प्रवेश करता, वे भयभीत हो जाते। और वह सही था। सात वर्ष की आयु में मैं बच गया। लेकिन मुझे मृत्‍यु का गहन अनुभव हुआ—मेरी अपनी मृत्‍यु का नहीं बल्कि मेरे नाना की मृत्‍यु का। और मेरा उनसे इतना लगाव था कि उनकी मृत्‍यु मुझको अपनी स्‍वयं की मृत्‍यु प्रतीत हुर्इ। अपने स्‍वयं के बचपन के ढंग से मैंने उनकी मृत्‍यु की अनुकृति की। मैंने लगातार तीन दिनों तक भोजन नहीं किया, पानी नहीं पिया, क्‍योंकि मुझको लगा कि यदि मैं यह सब करता तो यह नाना के साथ विश्‍वासघात होता।……….–ओशो

वहीं पर हमारी पहली मुलाकात मुल्ला जी से हुई, तब परिक्रमा शुरू होती है, गाडरवारा की, वह हमारा सारथी बन एक-एक स्‍थान दिखाता जाता है, ये ओशो जी का घर है, ये ओशो जी के पिता का घर ‘’टिमरनी वाले’’….ये झंडा चौक, ये स्‍कूल , और ये कबीर पंथीयों का आश्रम है, जो आज सुकड़ का बहुत छोटा हो गया है। आधे स्‍थान पर तो सब्‍जी मंडी बन गई है, कुछ में बस स्टैंड और कुछ आबादी के बोझ तले दब सुकड़ कर एक कुएँ और एक अखाडे तक ही सीमित रह गया है। इस बीच उसे कुछ देर के लिए घर जाना हुआ। हम वहां एकांत का आनंद लेने लगे, और देखने लगे क्‍या ओशो जी इसी कुएँ में उतर कर, नहाते थे, कहां वह अमरूद का बाग़ होगा। कहां रहते थे…वे महंत…लेकिन समय के थपेड़ों ने सब खत्‍म कर दिया था।

तब तक दोपहर हो गई थी। और इसके बाद जाना था ‘’राम घाट’’ जहां ओशो जी अपना सबसे ज्‍यादा समय गुज़ारते थे। वहीं नहाते थे। तैरते थे, नदी जो ओशो जी को बहुत प्‍यारी थी, के जमाने में स्‍वछ जल से भरी होती थी। आज सुकड़ कर गंदा नाला हो गई थी। उसका चौड़ा पाटा तो था, परंतु पानी उसमे नहीं था। करीब डेढ-दो मील चलने के बाद एक सुंदर रमणीक स्‍थान आया। जो आज भी उस सक्करा नदी की पवित्रता को बनाये हुए है। आज भी वहां पर वही नीला जल है। बच्‍चे दूर-दूर से गर्मी के कारण वहां नहाने के लिए आते है। ग्वाले अपनी गाये और बकरियां पानी पिलाते है। दूर सफेद वक के झुंड-के झुंड, पानी में किलोल कर रहे थे। इस सूखे में उन हजारों सफेद परिंदों को देखना बहुत सुखद लग रहा था। नदी तट के पास ही एक छोटा सा बरगद का वृक्ष था, जो अभी दो तीन साल काही होगा। पर उसकी छांव घनी थी। सूरज अब सर पर आ कर आग बरसाने लगा था। हम उसी नन्‍हें वृक्ष के नीचे चददर बिछा कर बैठ गये। दूर तक जहां तक आंखे जाती थी एक खुबसूरत नजारा दिखाई दे रहा था। मीलों चलने की जो थकान और धूप की गर्मी ने मानों पल में हर लिया। हम वहां पर करीब दो घंटा बैठे रहे, यहीं मुल्ला ने अपने ओशो से जुड़ने के घटना क्रम को विस्‍तार से बताया कि कैसे मुझे ओशो की माला देख कर लगा। कि ये तो हमारे गले में भी होनी चाहिए। और हमनें उसे संन्‍यास ले कर पा भी लिया। लेकिन पिता ने जब ओशो जी फोटो वाले लाकेट को देखा तो आग बबूला हो गये। और हमे कहां कि इस अभी उतार दो। हमारे न चाहने पर भी हम उसे बचा न सके। लेकिन अगले दिन से हमें लगा कि हमारे पास से कुछ अनमोल छिन गया है…दूसरों के गले में माल देख हमे तड़प गये। हमने अब्‍बा को कहा की वो माला हमें दे दो। तब उन्‍होंने हम माला तो नहीं दी पर चार झॉंपट रसीद कर दिया। कि यह कुफ्र है। किसी की फोटो गले में लटका कर घूमते हो। परंतु हम तो अकड़े रहे…….कि फिर ये शादी के सारे फोटो फाड़ दो, अजमेर शरीफ़ पर जो आपने फोटो खिंचवा कर घर में लगा रखे है। उन्‍हें भी उतर क्‍यों नहीं देते हो। ये भेद भाव क्‍यों…परंतु हम बच्‍चें थे हमें दबाया जा सकता था। परंतु हम झुके नहीं..हमने वह माला ढूंढ कर पहन ली। लेकिन इस बार कपड़ों के अंदर। परंतु एक दिन अब्‍बा की नजर पड़ गई। और उन्‍हें पकड़ कर वह माला खिंच ली माला टूट गई। उसके मनके चारों और बिखर गये….टूट गया हमारा नाजुक सा दिल, परंतु ये अंत नहीं था। उन्‍होंने ओशो जी के फोटो वाला लाकेट जलती गैस पर रख कर पिंगला दिया। परंतु….इस सब से हमारा साहस और भी बढ़ता गया…..दो घंटे का समय कब गुजरा इसका पता ही नहीं चला।

एक दिन कि ये गाडरवारा यात्रा, जब लीला आश्रम से चल कर अपने अंतिम पड़ाव रेलवे स्‍टेशन पहुँचती है, तब तक मुल्ला जी हम में इतना लीन हो गया की उसका मैं पन बचा ही नहीं। जैसे एक बर्फ जो पानी में पिघल रही हो। वह थी तो पानी ही पर उसने एक आकार ले लिया था। हर कदम पर वह तरल से तरल तम होता चला गया। आखिर कार वह वाष्प बन गया। और जब हम एक दूसरे से विदा ले रहे थे, तो वह बादल कि तरह आँखो से आंसू बन कर छलक-छलक जा रहे थे। वह चाह रहा था हम न जाये। पर हम क्‍या करते हमने तो वापसी का टिकट लिया हुआ था। किसी तरह से उसे झूठ बोला कि हमें अभी हम 12ता. को दिल्‍ली जाना है, हमारे पास काफी टाईम है और हम अपना सामान ले कर गाडरवारा जरूर आयेंगे। लेकिन अंदर से हम जानते थे कि हम झूठ बोल रहे है। किसी तरह से रेल चली। रात के अंधेरे को चीर कर वह हमे अपनी गोद में लिए सरपट दौड़ रही थी। परंतु मुल्ला जी से विदा होने पर, उसके हाथ, से हाथ छूट जाने के बाद भी कुछ ह्रदय में साथ अंधेरे को चीरता हुआ साथ चल रहा था, बीना किसी आहट के। एक अनजानी डोल…बंधी चली आ रही थी हमारे न चाहने पर भी पीछे-पीछे।

गाडर वाड़ा का वह एक दिन हमारे लिए….एक तीर्थ यात्रा बन गया। जिसे हम अपने अचेतन में कहीं छुपा कर रख लेना चाहते थे। फिर बार-बार मुल्ला जी का फोन आता रहा कि आ जाओं और हम टालते रहे कि आ रहे है, परंतु हमारा जाने का कोई विचार नहीं था। परंतु उसकी सच्‍ची चाहत ने हमें खींच लिया। अचानक हमने अपना सामान उठाया और चलने की तैयारी करने लगे। जब आनंद विजय के आश्रम में उनके कार्य करता को पता चला की हम जा रहे है। तब उनका व्यवहार ही बदल गया, जो हमे देख कर मौन में चले जाते थे न जाने कहां से वाणी में मिठास आ गया, असल में हम लोगों पहले भी उन्‍हें ने दिग्भ्रमित किया था की गाड़रवाड़ा में रहने की कोई जगह नहीं है, आप एक गाड़ी कर लो और गाडरवारा और कुचवाड़ा एक दिन में देख कर आ सकते है। ध्‍यान के वो पवित्र स्‍थान भी अब व्यवसाय के केंद्र बन गये है। हम संन्‍यासियों के कम आने के कारण उनकी आमदनी कम होती जा रही है, वह और रेट बढ़ा रहे है, एक दुस्चक्र की तरह, और सन्‍यासी कम होते जा रहे है।

वह जानते थे की हमें दिल्‍ली 12 को जाना है, तब मैंने कहां, हम तो ‘’पंच मढ़ी’’ देखने जाना चाहते है, और दो तीन दिन बाद लोट कर आ जायेगे। और जाना तो यहीं से ही है, तब आपके ही यहां आकर रूकेंगे। इतने पर भी उसे भरोसा नहीं हुआ। और वह खुद पंच मढ़ी का टिकट ( पीपरिया) ले कर आ गया। हमने जहां जाना था हम वहीं उतर गये। गाडरवारा। टिकट की क्‍या चिंता करनी।

यहां रह कर मुल्ला जी को और अधिक पास से जाना। उसका नाच, उसके हाव भाव, उसके जीने की शैली, एक सूफी को अपने अंदर समाएँ चल रही थी। परंतु आज जो समाज का ढांचा बन गया है, जो मनुष्‍य की सोच है, उस सब के हिसाब से ही ओशो ने संन्‍यास को नया रंग रूप दिया। क्‍योंकि आज वह संन्यास फली भूत नहीं हो सकता। जो समाज पर बोझ हो। परंतु किसी-किसी साधक पर पिछले जन्‍मों की परत भारी होती है। उनकी वही जीवन शैली बनी होती है। शायद कम ध्‍यान करने की वजह से….वह अपना पुराना आवरण उतार नहीं पाते। और एक ढांचे में फंसे रह जाते है। और यही मुल्ला जी के साथ हो रहा था। न वह कोई काम करता था, न उसने शादी ही की थी, एक मस्‍त आजाद फक्‍कड़ की तरह जी रहा था, परंतु आज वह आजादी लोगों की समझ के बहार है, यही मुल्ला जी अगर सौ साल पहले इसी गाड़ वाड़ा में पैदा हुए होते तो यहां पीर की तरह पूजे जाते, और आज बेचारे जग हंसाई के पात्र बन गये है।

ओशो को समझना इतना आसान नहीं है, वह एक अथाह समुद्र है, एक किनारे से उन्‍हें नहीं पहचाना जा सकता, फिर कितने ही किनारे है, सब की समझ अलग-अलग होगी। उन्‍हें केवल डूब कर समझा जा सकता है। उन्‍हें चखा जा सकता है….वह भी ध्‍यान के माध्‍यम से। लेकिन हम सोये हुए लोग, शब्‍दों को भी पकड़ते है, अपनी समझ के अनुसार जीते है। अब जबलपुर….गाड़रवाड़ा के आस पास जो लोग, ओशो सत्‍संग करते है, वह इतना तेज संगीत बजाते है, की आप बहरे हो सकते हो, जब मैंने पूछा की आप इतना तेज संगीत क्‍यों बजाते है, जो सर में दर्द कर देता है, तब उन्‍हें तपाक से कहा….ओशो जी ने ही तो कहा है, तेज संगीत बजा कर नाचो, मैंने अपना सर पीट लिया, कि लाउड…नहीं फास्‍ट, यानि की उसकी गति द्रुत हो….ताकी आपके नृत्‍य में गति बनी रहे।

इस सब छोटी-छोटी बातों के कारण ही हम, सदगुरू के संदेश का चूक जाते है, और जो कहां गया है, वह समय में दब कर रह जाता है, परंतु इस सब के बाद भी मुल्ला जी में जो साहस और धैर्य है, वह बेजोड़ है, इस की एक झलक हमें उसके घर जाने पर पता चली, उसने बड़े भाव से हमें अपने घर पर खाने का निमंत्रण दिया। एक बार तो मन ने कहां, की तुमने तो सालों से शादी विवाह का भी त्‍याग कर रखा है, बजार का भी कभी न के बार ही खाते हो, और अचानक एक मुसलमान के घर पर खाना…….लेकिन मन की इस चालबाजी को मैंने पल में ही पकड़ लिया। कि ये सब अहंकार की ही बात है, और हम रात उसके घर खाना खाने के लिए चल दिये। उसने हमारे लिए दाल, चावल, सलाद…. बनवाया, क्‍योंकि उसने खुद भी सालों से मांसाहार छोड़ रखा था। उनकी एक चाचा ने जो पढ़ी लिखी थी, शायद (बी. ए.) ने हमारा स्‍वागत किया। कुछ देर बातें करने के बाद उन्‍होंने दस्‍तक खान बिछवाया। दस्तरख़ान पर यह हमारे जीवन का पहला भोजन था। परिवार पूरी तरह से प्रेम पूर्व था। आज के जमाने में जब साझी परिवार टुट रहे है। कहीं-कहीं है, इस का आस्‍तित्‍व आप देखते है तो आप मंत्र मुग्ध हो जाते हो, वहां मैंने देखा उस घर में प्रेम था, अपना पन था, जहां प्रेम होगा वहां आपका अहंकार बहुत कम हो जाता है। आज तो ‘’मेरा घर मेरे बच्‍चे’’ वाले स्‍लोगन दिखायें जाते है, साझी परिवार में रहने के लिए, आपके ह्रदय में अनेक लोगों के लिए स्‍थान चाहिए, उसमें बड़े भी होंगे, छोटे भी होगें, किसी को आप सम्‍मान और प्‍यार दे रहे होंगे और कोई आपको। वह आदमी का मैं पन बहुत छोटा हो जाता है और अपना पन बहुत विस्तृत हो जाता है। वहां के छोटे बच्‍चे चाचा को एक अजीब से मजाक के रूप में देख रहे थे। उन्‍हें लगता था, चाचा हमारे लोक का आदमी नहीं है। फिर मेरे देखें पूरे परिवार में अगर किसी को सबसे अधिक प्रेम किसी को था तो वह थी उनकी माता जी। अब मां-बाप अपने बच्‍चों पर न जाने कितनी ही अरमान और सपने संजो कर रखते है। और जब वह पूरे न हो , और उनके सपने चकनाचूर हो जाये। उन्‍हें एक प्रकार की खीज होती है। क्‍योंकि भाई का लड़का या उन्‍ही का दूसरा लड़का वो सब कर रहा है। जो उन्‍हें समाज में सम्‍मान दिला रहा है। और ये जग हंसाई बना हुआ है।

जब उसकी मां आई तब वह क्रोध और उफान से भरी हुई थी। कुछ ऐसा जो उनके अंदर दबा सुलग रहा था बरसों से। जो किसी के सामने नहीं कहां जा सकता वह भी आज कह देना चाहती थी। उसने रो-रो कर उसे बहुत कोसा। सालों दबा कर उसने जो रखा था, जो उसे साल रहा था सब उसने कह दिया। पर मोहम्‍मद भी एक ही था। हंसता रहा। वह सब जानता था, की हमें घर ले जाने पर उसके साथ क्‍या होगा….फिर भी उसने साहस किया। परंतु जितनी बहार से उनकी मां कठोर थी अंदर से उतनी ही मुलायम। कुछ देर में जब बहार का कड़ा पन हट गया तब वह कितनी, मधुर और प्रेम पूर्ण हो गई। ये उनका रूप और स्‍वभाव देख ही मैं जान सकता की मुल्ला जी को पैदा करने वाली कोई महान ही मां होगी। इतनी बागी और साहसी बेटे को, कोई साधारण मा तो गर्व दे नहीं सकती।

धीरे-धीरे जब मन का उफान कम हो गया तब मैंने कहां कि तुम बहुत भाग्‍य शाली हो, जो मुल्‍ला जैसा सपूत पैदा किया। आज तुम जिस की कदर नहीं जानते। वह समय की गति का ही फैर है। वरना आज से सौ साल पहले…..अगर आपने इसे जन्‍म दिया होता। तब आप को ही नहीं गर्व होता आपके पूरे गाड़रवाड़े को इस पर गर्व होता। उसने गौर से मेरा चेहरा देखा। ऐसा तो उसने इससे पहले किसी के मुख से भी नहीं सूना होगा। सब तो उसे नक्‍कारा, नालायक ही कहते थे। जो सारा दिन इधर उधर को धक्‍के खा सकता है, किसी काम का नहीं था। ये हमारा समाज एक ही भाषा जानता है। वह पद और पैसे की। इसी लिए ओशो ने आज के मनुष्‍य को नया संन्‍यास दिया है। जहां भी रहो, वहीं जागों, भागों मत। परन्‍तु कुछ अभागे…जो अपने पिछले जन्‍मों की परत को नहीं तोड़ पाते वह …..या तो पागल हो जाते है। या समाज उन्‍हें कुचल देता है।

महावीर-बुद्ध, शंकर का सन्‍यास आज के समाज के काम का नहीं है। आज अगर ध्‍यान और प्रेम का आनंद लेना है। तो उसी समाज में उन्‍ही की तरह रहना होगा। कम से कम पैसा तो कमाना ही होगा। फिर आप अपने जीवन में प्रथम किसी को रखे-चाहे ध्‍यान को चाहे पैसे को। ध्‍यानी आदमी को पैसा कमाना उतना ही कठिन है, जितना संसारी आदमी को ध्‍यान क्‍योंकि वह अंदर से जानता है। ये पैसा हमारे किसी काम का नहीं है, फिर मैं इसके लिए जीवन के अनमोल क्षण क्‍यों गँवाऊ। परंतु—ओशो जानते थे। साधक की मन स्‍थिति। और इसे खत्‍म करने के लिए ही उसने ऐसा मार्ग चुना। ताकी, तुम समाज पर बोझ न बनों।

और तुम समाज में भी रहो।

आखिर आते….आते मुल्ला जी की मां जो पहले इतनी कठोर लग रही थी। अब मोम की तरह मुलायम हो गई। उसके चेहरे पर एक अजीब प्रसन्‍नता थी। आपने पुत्र, को लेकर, शायद ये हमारे समाज का ही प्रभाव है, कि हम किसे आज अच्‍छा कह रहे है, और कल वही बात गलत हो सकती है। उपर छत पर मुल्ला जी जो बाग़ लगया, था फिर वह घंटो हमें दिखलाती रही। जहां पर गुलाब, डलिया, मोगरा, चंपा, जूही, कनेर…मौलसरी, बादाम और न जाने कितने ही पौधे उसने छत पर गमलों में उगा रखे थे। जहां मध्‍यम रोशनी में, तारों की छाव तले एक अजीब शांति थी। मन ने किया यहां दस मिनट बैठा जाये। उन दस मिनट में ही हमें उन पेड़ पौधों ने वहां की उर्जा ने, शांत और शीतल कर दिया। अभी तक नीचे जो तूफान उठ रहा था। लगा यहां तारें के नीचे ठंडी छाव बरस रही है। फिर तो उनकी मां हमें वह घरे से निकलने ही नहीं दे रहे थे। कि कुछ देर तो और रुको…..चाय के बाहने। या कुछ भी कर के। अदवीता का तो हाथ पकड़ कर उन्‍हें अपने अंदर बसा लिया अपने ह्रदय से लगा लिया। जब हम आने लगे। तब उनकी मां की आंखों में ही आंसू नहीं उनकी चाची, दादी-भतीजी भी उदास थी। परन्‍तु एक बात वहां जो हमें देखने को मिली। उस पर्दा नशीन परिवार में कोई पुरूष हमारे बीच नहीं आया। सारी की सारी औरतें ही औरत हमे घेरे रही। या हो सकता है। पुरूष अभी काम से ही नहीं आये हो। कुछ भी हो…ये अनुभव शानदार था…विश्‍वास और प्रेम के ओतप्रोत से भरा हुआ।

कुछ देर पहली हम अंजान थे। और दो घंटे में ही उनके परिवार का हिस्‍सा बन गये। यहीं है वह प्रेम….जिसे मनुष्‍य का मस्‍तिष्‍क नहीं समझ पाता। परंतु यह उसका काम नहीं है, यह तो ह्रदय का काम है। मस्‍तिष्‍क तो तर्क कर सकता है। शंका कर सकता है। ये उसका मार्ग नहीं है। ह्रदय के मार्ग में केवल मधुर अहसास है। और जो जिसका काम है उसे ही करने देना चाहिए। जो अति सुंदर और रहस्‍य पूर्ण है। मुल्ला जी के जीवन दर्शन की तरह।

स्‍वामी आनंद प्रसाद और मां अदवीता नियति

दिनांक: 30-4-2012


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विद्रोह धर्म की बुनियाद (सत्र–8 ओशो)

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दुनिया में केवल जैन धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो आत्‍महत्‍या का आदर करता है। अब यह हैरान होने की तुम्‍हारी बारी है। निश्चित ही वे इसे आत्‍महत्‍या नहीं कहते। वे इसको सुंदर धार्मिक नाम देते है—संथारा।

स्‍वर्णिम बचपन--सत्र--8 ओशो

स्‍वर्णिम बचपन–सत्र–8 ओशो

मैं इसके खिलाफ हूं। खासकर जिस ढंग से यह किया जाता है—यह बहुत ही क्रूर और हिंसात्‍मक है। यह आश्‍चर्य की तो बात है कि जो धर्म अहिंसा में विश्‍वास करता है। वह धर्म संथारा, आत्‍महत्‍या का उपदेश देता है। तुम इसको धार्मिक आत्‍म हत्‍या कह सकते हो। लेकिन आत्‍महत्‍या तो आत्‍महत्‍या ही है। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी तो मरता ही है।

मैं इसके खिलाफ क्‍यों हूं, मैं किसी आदमी के आत्‍महत्‍या करने के अधिकार के विरोध में नहीं हूं। नहीं, यह तो मनुष्‍य का मूलभूत अधिकार होना चाहिए। अगर मैं जीवित रहना नहीं चाहता तो किसी दूसरे को मुझे जीवित रखने का कोई अधिकार नहीं है। मैं जैनियों के आत्‍महत्‍या के विचार के विरोध में नहीं हूं। लेकिन वह विधि…उनकी विधि है कुछ न खाना, खाना छोड़ देते है, बिलकुल नहीं खाते। इस प्रकार बेचारे आदमी को मरने में करीब-करीब नब्‍बे दिन लगते है। यह यातना है। सताना है, तुम इसे और नहीं सुधार सकते, इससे अधिक कष्‍ट सोचा भी नहीं जा सकता। अडोल्‍फ हिटलर को लोगो को सताने का बढ़ीया तरीका नहीं सूझा।

वे अपने बालों को कभी नहीं काटते, वे उन्‍हें अपने हाथों से उखाड़ते है1 देखो, कितना बढ़िया तरीका है।

हर साल जैन मुनि अपने बालों को उखाड़ता है—मुछ और दाढ़ी और शरीर के सभी बालों को अपने हाथों से उखाड़ता है। वे कोई यंत्र के, टेक्नोलॉजी के खिलाफ है। और वे इसे तर्क कहते है। किसी बात की तर्कित अंत तक जाना। अगर तुम उस्‍तरे का उपयोग करो तो वह टेक्नोलॉजी है। यहां तक कि ये तथाकथित पर्यावरण के हिमायती भी अपनी दाढ़ी बनाते रहते है। बिना यह जाने कि वे प्रकृति के विरूद्ध एक अपराध कर रहे है।

जैन मुनि अपने बाल उखाड़ता है—चुपचाप एकांत में नहीं, क्‍यों‍कि एकांत तो उन्‍हें कभी मिलता ही नहीं। कोई भी बात गुप्‍त न रखना, पूरी तरह से सार्वजनिक होना, अपने आपकेा सताने का हिस्‍सा है। वे बाजार में नग्‍न खड़े होकर अपने बाल उखाड़ते है। भीड़ निश्चित ही ताली बजा-बजा कर सराहना करती है। और जैन, यद्यपि उनको बडी हमदर्दी अनुभव होती है……तुम उनकी आंखों में आंसू भी देख सकते हो। अचेतन में उन्‍हें भी बड़ा मजा आता है—और बीना टिकट बिना पैसे के।

लेकिन किसी को भी या स्‍वयं को कष्‍ट पहुंचाना, सताना एक अपराध है।

इसके साथ तुम समझ पाओगें कि में कोर्इ अपमानजनक, कोई अशिष्‍ट व्‍यवहार नहीं कर रहा था। मैं बहुत ही संगत, प्रासंगिक प्रश्‍न पूछ रहा था। उस दिन से मैंने जीवन भर के लिए सब प्रकार की मूख्रताओ, अंधविश्‍वासों—संक्षिप्‍त से धामिर्क कचरा, बुलशिट—के खिलाफ झगड़ा किया। बुलशिट शब्‍द अच्‍छा है, बहुत कुछ कह देता है, संक्षिप्‍त में।

उस दिन मैंने अपना जीवन एक खेल, विद्रोही की तरह शुरू किया और मैं अपनी अंतिम सांस तक विद्रोही ही बना रहूंगा—या शायद उसके बाद भी, किसे पता है। जब मेरे पास शरीर नहीं होगा तो मेरे पास मेरे प्रेमियों के हजारों शरीर होंगे। में उन्‍हें उकसा सकता हूं—और तुम जानते हो कि मैं बहकाने बाला हूं। आने वाली सदियों तक मैं उनके दिमाग में विचार डाल सकता हूं। ठीक वही मैं करने बाला हूं। इस शरीर की मृत्‍यु के साथ मेरा विद्रोह नहीं मर सकता। मेरी क्रांति और भी अधिक तीव्रता से चलती रहेगी, क्‍योंकि तब इसे आगे बढ़ाने के लिए अनेक शरीर होगें, अनगिनत हाथ होंगे और बहुत आवाजें होंगी।

वह दिन बहुत महत्‍वपूर्ण था, ऐतिहासिक रूप से महत्‍वपूर्ण था। उस दिन के साथ मैंने हमेशा उस दिन को याद किया है जब जीसस ने यहूदियों के मंदिर में रबाईयों से बहस की थी। वे मुझसे कुछ बड़े थे, शायद आठ साल के या नौ साल के। उन्‍होंने जिस प्रकार से बहस की उसने उनके समस्‍त जीवन-प्रवाह को निर्धारित किया।

मुझे जेन मुनि का नाम याद नहीं है, शायद उसका नाम शांति सागर था। निश्चित ही वह शांति का सागर नहीं था। इसलिए उसका नाम तक मैं भूल गया। उसका अर्थ हो सकता है शांति, या मौन। ये वे बुनियादी अर्थ है। उसमें दोनों नहीं थे। न तो वह शांत था। न ही मौन था। बिलकुल भी नहीं। न ही तुम कह सकते हो कि उसमें कोई तूफान न था। क्‍योंकि वह इतना क्रोधित हो गया कि उसने चिल्‍ला कर मुझे बैठ जाने को कहा।

मैंने कहा: ‘मुझे अपने घर में बैठ जाने के लिए कोई नहीं कह सकता। हाँ में आपको जाने के लिए कह सकता हूं। लेकिन मैं आपको जाने के लिए भी नहीं कहूंगा, क्‍योंकि अभी कुछ और प्रश्‍न पूछने है। कृपया नाराज न हो। याद रखें आना नाम, शांति सागर –शांति और मौन के सागर। आप छोटे बच्‍चे से इतना परेशान मत होइए।’

वे शांत थे कि नहीं इसकी फ़िकर किये बिना मैंने अपनी नानी से पूछा, जो इस बात चीत को सुन कर बहुत हंस रही थी। आप क्‍या कहती है नानी। क्‍या मुझे इनसे और प्रश्‍न पूछने चाहिए या इन्‍हें अपने घर से जाने के लिए कहूं, नानी ने कहा: ‘तुम जो पुछना है पूछ सकते हो अगर ये अत्‍तर न देते इन्‍हें कह दो दरवाजा खुला है, वे जा सकते है।’

यही वह महिला थी जिन्‍हें मैंने प्रेम किया। यही वह महिला थी जिन्‍होंने मुझे विद्रोही बनाया। यहां तक कि मेरे नाना भी भौचक्‍के रह गए कि इस प्रकार उन्‍होंने मेरा साथ दिया वह तथाकथित तुरंत चुप हो गया जिस क्षण उसने देखा कि मेरी नानी मेरे पक्ष ले रही है। केबल वे ही नहीं, सारे गांव के लोग तुरंत मेरे पक्ष में हो गए। बेचारा जैन मुनि बिलकुल ही अकेला रह गया।

मैंने उससे कुछ और प्रश्‍न पूछे: ‘आपने कहा किसी बात में तब तक विश्‍वास नहीं करना जग तक कि तुमने स्‍वयं उसका अनुभव न किया हो। मुझे इसमें सच दिखाई देता है इसलिए यह प्रश्‍न………’

जैनी मानते है कि सात नरक है। छठवें नरक तक वापस आने की संभावना है, लेकिन सातवां शाश्‍वत है। शायद सातवां ईसाइयों का नरक है, क्‍योंकि वहां भी एक बार तुम उसमें गए तो हमेशा के लिए गए।

मैंने कहा: ‘आपने सात नरकों की बात की, इसलिए प्रश्‍न उठता हैं कि क्‍या आपने सातवें नरक की यात्रा की है, क्‍या आप सातवें नरक में गए है? अगर वहां गए होते तो यहां नहीं हो सकते थे। अगर आप वहां गए तो किस अधिकार से कहते है कि सातवां नरक है, या अगर आप सात पर जोर देना चाहते है तो यह सिद्ध करें कि कम से कम एक आदमी शांति सागर सातवें नरक से वापस आया है।‘

उसकी तो बोलती बंद हो गई। वह अवाक रह गया। वह विश्‍वास ही न कर सका कि एक बच्‍चा ऐसे प्रश्‍न पूछ सकता था। आज मुझे भी विश्‍वास नहीं हो सकता। मैं कैसे इस प्रकार का प्रश्‍न पूछ सका। इसका एक ही उत्‍तर में दे सकता हूं कि मैं अशिक्षित था, बिलकुल ही अज्ञानी था। ज्ञान, जानकारी तुम्‍हें बहुत चालबाज बना देती है। मैं चालाक नहीं था। मैंने वही प्रश्‍न पूछा जो कोई भी कोई बच्‍चा पूछ सकता था अगर वह शिक्षित न होता तो शिक्षा मासूम बच्‍चों के प्रति किया गया सबसे बड़ा अपराध है। शायद बच्‍चों की स्‍वतंत्रता इस संसार की अंतिम स्‍वतंत्रता होगी।

मैं बिलकुल ही अज्ञानी, अंजान और सरल था। मैं पढ-लिख नहीं सकता था। अंगुलियों से ज्‍यादा गिन भी नहीं सकता था। यहां तक कि आज भी जब मुझे कुछ गिनना हाता है तो अपनी अंगुलियों से शुरू करता हूं। और अगर ऐ अंगुलि छूट गई तो गड़बड़ हो जाती है।

वह उत्‍तर नहीं दे सका। मेरी नानी खड़ी हुई और कहा: ‘आपको उत्‍तर देना ही होगा। ऐसा मत सोचो कि एक बच्‍चा पूछ रहा है। मैं भी पूछ रही हूं, और आपकी मेजबान हूं।’

अब फिर से मुझे एक अन्‍य जैन परंपरा के बारे में बताना पड़ेगा। जब जेन मुनि भोजन लेने के लिए किसी के घर आता है तो भोजन करने के बाद वह आशीर्वाद के रूप में परिवार को उपदेश देता है। उपदेश गृहिणी को संबोधित होता है।

मेरी नानी ने कहा कि ‘आज आपने हमारे यहाँ भोजन किया है, इस घर की गृहिणी होने के कारण मैं भी यही प्रश्‍न पूछ रही हूं। क्‍या आप सातवें नरक में गए है। लेकिन तब आप यह नहीं कह सकते कि सात नरक है।‘

बेचारा मुनि मेरी नानी जैसी सुंदर स्‍त्री का सामना न कर सका। वह इतना घबरा गया कि वह उठ कर घर के बहार जाने लगा। मेरी नानी ने चिल्‍ला कर कहा: ‘रुको, जाओ मत। मेरे बच्‍चें के प्रश्न का अत्‍तर कौन देगा? वह और भी कुछ पूछना चाहता है। आप किस तरह के आदमी हैं। बच्‍चें के प्रश्‍नों से भाग रहे है।‘

चारों और सन्नाटा छा गया—ठीक जैसा यहां पर है—किसी ने कुछ न कहा मुनि ने आंखें झुका ली और तब फिर मैंने कहा कि मुझे कुछ नहीं पुछना। मेरे पहले दो प्रश्‍नों का अत्‍तर नहीं दिया गया और तीसरा मैंने इसलिए नहीं पूछा क्‍योंकि मैं घर के मेहमान को लज्जित नहीं करना चाहता। मैं पीछे हटता हुं। और मैं सच में ही वहाँ से चला दिया और मुझे यह देख कर बडी खुशी हुई कि मेरी नानी भी मेरे पीछे-पीछे चली आई।

मेरे नाना ने मुनि को विदा किया। लेकिन जैसे ही वह घर से बाहर निकला मेरे नाना तुंरत घर के भीतर आए और मेरी नानी से पूछा, ‘तुम पागल तो नहीं हो गर्इ हो, पहले तो तुमने इस लड़के का साथ दिया जो जन्‍मजात मुसीबत खड़ी करने वाला लड़का है। और फिर तुम मेरे गुरु को बिना प्रणाम किए ही इसके साथ चली गई।‘

मेरी नानी ने कहा: ‘वह मेरा गुरु नहीं है। और जिसे तुम जन्‍म जात मुसीबत खड़ी करने बाला समझ रहे हो वह तो अभी बीज है। कोई नहीं जानता की वह आगे चल कर क्‍या बनेगा।‘

अब मुझे मालूम हे कि उस बीज ने कौन सा रूप धारण किया। जब तक कोई पैदाइशी उपद्रवी न हो तब तक वह बुद्ध पुरूष नहीं बन सकता।

और मैं कोई गौतम बुद्ध जैसा पारंपरिक बुद्ध ही नहीं हूँ, वे तो बहुत पारंपरिक है। मैं जो़रबा दि बुद्धा हूं। मैं पूर्व और पश्चिम का मिलन हूं, सच तो यह ही कि मैं पूर्व और पश्चिम में उचे और नीचे में, पुरूष और स्त्री में, अच्‍छे और बुरे में, परमात्मा और शैतान में बाँटता ही नहीं हूं। नहीं, हजार बार नहीं। मैं कभी किसी चीज को खँड़-खंड नहीं करता। अभी तक जो खंड़-खंड़ किया गया है। मैं उसे मिलाता हूं, यहीं मेरा काम है।‘

मेरे पूरे जीवन में क्‍या हुआ, इसे समझने के लिए वह दिन बहुत महत्‍वपूर्ण है। क्‍योंकि जब तक तुम बीज को न समझोगे, तुम वृक्ष और फूलों और शाखाओं से झाँकते हुए चाँद से चूक जाओगे।

उसी दिन से मैं हमेशा हर प्रकार की यातना के खिलाफ रहा हूँ। मैं हर तरह की तपश्‍चर्या के खिलाफ रहा हूं। निश्चित ही ये शब्‍द मैंने काफी बाद में जाने, पर शब्‍दों से क्‍या फर्क पड़ता है। मुझे त‍ब भी कुछ बदबू आ रही थी। तुम जानते हो कि मुझे सब तरह की यातनाओं से एलर्जी है मैं चाहता हूं कि हर मनुष्‍य पूरी तरह से जीए। जीवन का पूरी तरह से भोग करे।

न्‍यूनतम पर जीना मेरा ढंग नहीं है। मैं तो चाहता हूं कि हर व्‍यक्ति जीने के अंतिम बिंदु को छू ले। और वह अंतिम बिंदु के पार जा सके तो और भी अच्छा है। आगे बढ़ो। इंतजार मत करो, इंतजार में समय बरबाद मत करो।

न्‍यूनतम तो कायर का तरीका है। अगर मेरा बस चले तो उनकी अधिकतम सीमा को न्‍यूनतम सीमा बना दूँ। हम तारों पर पहुंचने की कोशिश कर रहे है। फ़िज़िक्स का भी यही लक्ष्‍य है, अंतत: हमारी गति प्रकाश की गति के बराबर हो जाए। अगर उस गति को हमने प्राप्‍त न किया तो हम नष्‍ट हो जाएंगे। अगर हम प्रकाश की गति उपलब्ध कर लें तो हम किसी भी मरती हुई पृथ्‍वी से या ग्रह से हट सकते है। एक न एक दिन हर पृथ्‍वी, हर ग्रह, हर तारा मरेगा, नष्‍ट होगा। इससे तुम कैसे बचोगे, तुम्‍हें बडी तीव्र टैकनॉलॉजी की जरूरत होगी। यह पृथ्‍वी सिर्फ चार हजार वर्ष में मर जाएगी। तुम कुछ भी करो, इसे बचाया नहीं जा स‍कता। प्रतिदिन यह अपनी मृत्‍यु के करीब आ रही है……और तुम एक घंटे में तीस मील की गति से जाने की कोशिश कर रहे हो। अरे, प्रति सेकेंड एक सौ छियासी हजार मील की गति से चलने की कोशिश करो। यही प्रकाश की गति है।

मैं जीवन को समाप्‍त कर देने के खयाल के खिलाफ नहीं हूं, अगर कोई अपने जीवन का अंत कर देना चाहता है तो निश्चित ही यह उसका अधिकार है। ले‍किन इसके लिए शरीर को लंबे समय तक पीडित करने और सताने के मैं बिल‍कुल खिलाफ हुं। जब ये शांति सागर मरे तो इन्‍हें मरने के लिए कम से कम एक सौ दिन भूखा रहना पड़ेगा। एक सामान्‍य स्‍वस्‍थ आदमी को नब्‍बे दिन तक भूखा रहने की क्षमता है। अगर वह असाधारण रूप से स्‍वस्‍थ तो वह और भी अधिक दिन तक भूखा रह सकता है।

तो याद रखो कि मैं उस व्‍यक्ति के साथ कठोर नहीं था। उस संदर्भ में मेरा प्रश्‍न बिलकुल उचित था—शायद और भी उचित था, क्‍योंकि वह उत्‍तर नहीं दे सका था। और आश्‍चर्य है आज तुम्‍हें बताना कि वह सिर्फ मेरे प्रश्‍न पूछने की ही शुरूआत नहीं थी बल्कि लोगों के उत्‍तर ने देने की भी शुरूआत थी। पिछले पैंतालीस वर्षो में किसी ने भी मेरे प्रश्‍नों के उत्‍तर नहीं दिया। मैं अनेक तथाकथित आध्‍यात्मिक लोगों से मिला हूं, लेकिन किसी ने कभी भी मेरे कोई भी प्रश्‍न का उत्‍तर नहीं दिया। एक प्रकार से उस दिन ने ही मेरे समस्‍त जीवन कि दिशा को निश्चित कर दिया।

शांति सागर बहुत नाराज हो गए, लेकिन मैं बहुत खुश था। और मैंने इसे मैंने अपने नाना से छिपाया नहीं। मैंने उनसे कहा: ‘नाना, वे भले ही नाराज हो गए, लेकिर मुझे तो बिलकुल सही लग रहा है। आपका गुरु साधारण योग्‍यता का आदमी है। आपको उससे अधिक अच्‍छे गुरु की खोज करनी चाहिए।’

यहां तक वे हंस पड़े और उन्‍होंने कहा: ‘शायद तुम ठीक कहते हो, लेकिन अब इस उम्र में गुरु बदलना बहुत व्‍यावहारिक नहीं होगा।’ उन्होंने मेरी नानी से पूछा: ‘क्‍यों तुम्‍हारा क्या विचार है।‘

मेरी नानी—जैसी कि वे स्‍पष्‍ट वक्‍ता थी—ने कहा: ‘बदलने के लिए कभी देर नहीं होती। इसमें देर-अबेर का कोई सवाल ही नहीं उठता। अगर आप देखते हो कि आपने जो चुना है वह सही नहीं है, तो उसे बदल डालों। जल्‍दी करों उतना अच्‍छा है, अब तुम बूढे हो गये हो। ऐसा मत करो कि कहो कि मैं बूढा हो रहा हूं इसलिए बदल नहीं सकता। एक युवक न बदले तो चलेगा, लेकिन बूढा आदमी ऐसा नहीं कर सकता—और तुम काफी बूढे हो गए हो।‘

और बस कुछ वर्ष बाद ही वे गुजर गये। लेकिन वे अपना गुरु बदलने का साहस न कर सके। वे उसी पुरानी लीक पर चलते रहे।

मेरी नानी ऐ अदभुत प्रभावशाली शक्ति बन सकती थी। वे सिर्फ ऐ गृहि‍णी बनने के लिए नहीं थी। वे उस छोटे से गांव में सीमित रहने के लिए नहीं बनी थी। उनके बारे में पूरे विश्‍व को जानना चाहिए था। शायद मैं उनका माध्‍यम हूं। शायद उनहोंने स्‍वयं को मुझमें उड़े़ल दिया हो। उनका मुझसे इतना गहरा प्रेम था कि मैंने अपनी असली मां को कभी असली मां नहीं समझा मैं हमेशा अपनी नानी को ही अपनी असली मां समझता रहा।

नानी ने ही मुझे पहली बार यह ब‍ताया कि सही भी गलत आदमी के हाथ में गलत हो जाता है। और गलत भी सही आदमी के हाथ में सही हो जाता है। इसलिए तुम इसकी चिंता मत करो कि तुम क्‍या कर रहे हो। केवल एक ही बात याद रखो कि तुम क्‍या हो रहे हो। ‘’करना’’ और ‘’होना’’ यही एकमात्र प्रश्‍न है। सभी धर्म करने पर जोर देते है, लेकिन में तो होने को महत्‍व देता हूं। अगर तुम्‍हारा होना, तुम्‍हारी बीइंग सही है। तो फिर तुम जो भी करोगे वह सही हो्गा। तब फिर तुम्‍हारे लिए कोई और आदेश नहीं है। केवल एक यही है कि तुम्‍हारा मात्र ‘होना’ इतनी समग्रता से हो कि उसमें कोई छाया भी न आ सके। त‍ब तुम कुछ भी गलत नहीं कर सकते हो। सारी दुनिया भले ही कहे कि यह गलत है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, केवल तुम्‍हारी अपनी बीइंग, अपनी आत्‍मा ही महत्‍वपूर्ण है।

मुझे इसकी चिंता नहीं कि क्राइस्‍ट को सूली लगी। क्‍योंकि मुझे मालूम है कि सूली पर भी वे अपने भीतर पूर्ण विश्राम में थे। वे इतने विश्राम में थे कि वे प्रार्थना कर सके: ‘हे पिता, सच तो यह है कि उन्होंने पिता भी नहीं कहा। ‘अब्‍बा’ जो कि और भी सुंदर शब्‍द है। ‘अब्‍बा। इन लोगो को माफ़ कर देना, क्‍योंकि ये नहीं जानते कि ये क्‍या कर रहे है।’

फिर करने पर जोर दिया जा रहा है, अफसोस कि वे सूली पर लटके हुए इस आदमी के ‘होने’ को देख सके। केवल ये होना ही महत्‍वपूर्ण है।

मैं नहीं मानता कि मैंने उस जेन मुनि से इस प्रकार के अजीब और परेशान करने बाले प्रश्‍न पूछ कर कोर्इ गलती की। शायद मैंने उसकी सहायता ही की। शायद एक दिन उसकी समझ में आ जाए, और अगर उसमें साहस होता तो वह समझ जाता, लेकिन वह कायर था, वह भग खड़ा हुआ। और तब से मेरा अनुभव है कि ये सब तथाकथित महात्‍मा और संत कायर है। मैंने आज तक कोई ऐसा महात्‍मा—हिंदू, मुसलमान, ईसाई, या बौद्ध—नहीं देखा, जो कहा जो सके कि सच में विद्रोही है। जब तक कोई विद्रोही न हो तक कोई धार्मिक नहीं हो सकता। विद्रोह धर्म की बुनियाद है।

ओशो
स्‍वर्णिम बचपन


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पोनी–एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा—(अध्‍याय—28)

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मैंने भी प्रेम किया—

पोनी एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा--

मैंने भी प्रेम किया—

अचानक एक दिन घर में गहमागहमी शुरू हो गई। मैं बहुत समझने की कोशिश कर रहा था परंतु मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। भैया-दीदी की स्‍कूल की छुटियां थी। दिसम्बर माह था। दिन की घूप बहुत अच्‍छी लगती थी। और रात को कड़ाके की ठंड शरीर की हड्डियों को भी सिहरा देती थी। और इन दिनों एक बात और थी मैं रोज ही पापा जी के साथ जंगल में सुबह -सुबह जाता था। पापा जी शहर कर के आते और में उस धूल भरे रस्‍ते पर बहुत ताकत के साथ दौड़ लगाता। मुझे अपने पूरे जोर से दौड़ने में बहुत मजा आता था। रात का अँधेरा होता था। आस पास कोई नहीं होता था। दूर रह-रह कर कभी-कभार गीदड़ों की हाऊ….हाऊ की पूकार सुनाई देती थी। आज कर जंगल में कुत्‍ते रहते थे उन में से दो कुतियाँ जो जंगल में रहती थी उन्‍होंने बहुत प्‍यारे-प्‍यारे बच्‍चे दे रखे थे। मैं और सब करता था परंतु बच्‍चे मुझे बहुत अच्‍छे लगते थे। कुछ कुत्‍ते बच्‍चों से बहुत चिड़ते है और मैंने सूना था कुछ तो उनको जान से भी मार देते थे। परंतु मैं ऐसा नहीं करता था। मुझे बच्‍चे बहुत अच्‍छे लगते थे। और इसमें से एक जो काली सफेद कुतियाँ है उस के साथ तो मेरा मिलन भी हुआ था। उस दिन पापा जी मेरा कितना इंतजार करते रहे। पहले तो मैं गायब हो गया। और फिर हम चिपक गये। ये चिपकने वाला मामला पूरी पृथ्‍वी पर हमारा ही होता है। और किसी पशु में ऐसा नहीं होता। फिर चाहे भेड़िया हो या लोमड़ी…या शायद सियार भी। इस के बारे में अधिक नहीं जानता परंतु भेड़िया के बारे में मैं पक्‍का कह सकता हूं। हम जब नर-मादा चिपकते है। वहीं तो सहवास का आनंद है। उत्‍तेजना के बाद विराम का क्षण है। उत्पात के बाद जो शांति आती है वह केवल हम ही महसूस करते है।

परंतु मनुष्‍य ने तो इसे गलत ही समझा है। क्‍योंकि गली मोहले में हम जहां मरजी चिपक कर खड़े हो जाते है। आती जाती बहुत बेटियाँ देख कर शरमा कर दोहरी हो जाती है। ये सब समाज की परंपरा के लिहाज से अच्‍छा नहीं है। परंतु न जाने प्रकृति ने क्‍या सोच कर बनाया। जगत हंसाई हमारे ही नाम क्‍यों कि। जंगल में तो ठीक था परंतु शहर में मनुष्‍य के बीच एक असभ्‍य सा लगता है। इस के बारे में अनेक-अनेक कथा सुनने में आती है। परंतु एक कथा मैंने सूनी है। एक बार एक कुत्‍ता जंगल में घूमता हुआ। एक ऋषि के आश्रम में आ गया। वहाँ पर एक ऋषि और उनकी पत्‍नी एकांत में एक निर्जन स्‍थान पर प्रेम क्रीड़ा कर रहे थे। न जाने उन के इस प्रेम आलाप को देख कर हमारा एक पूर्वज क्‍यों इतना मंत्र मुग्‍ध हो गया की अपलक उन्‍हें निहारने लगा। जब ऋषि का प्रेम क्रीड़ा खत्‍म हुई और उसने एक कुत्‍ते को अपनी और इस तरह से ताकते हुए देखा तो वह झेप गया। और उसे अपने अंदर एक निर्लजता का एहसास हुआ। कि मैं जो कर रहा था वह किसी प्राणी ने देख लिया। क्‍योंकि प्रेम प्रसंग में कुछ ऐसा किया जा जाता है कि उसके बाद आदमी को सोचने में लज्‍जा महसूस होती है। और ऋषि तो महान होता है। उसकी महानता पर इस तरह से किसी की नजर पड़े तो वह क्रोध में आ जाता है। और भारतीय ऋषि तो दुर्वासा का अवतार है। वह तो जरा सी बात पर आदमी को क्‍या किसी पहाड़ को पेड़ को श्राप दे सकता है। और सच में कहते है ऐसा ही हुआ। उस ऋषि ने क्रोध में आकर हमारी परी जाति को श्राप दे दिया। कि तुमने किसी की प्रेम क्रीड़ा को देखा है। तो आज के बाद जब भी तुम प्रेम क्रीड़ा करोगे तो तुम्‍हें सारा जगत देखेगा। देखेगा ही नहीं वह उसे दुतकार देगा। तुम्‍हें भगाया जायेगा। मारा जायेगा। परंतु ऋषि को ऐसा तो समझना चाहिए था कि हमारा पूर्वज हमारी जाती के पास भाषा नहीं है। फिर हम इस बात का विस्‍तार या विवेचन नहीं कर सकते। एक कुत्ते ने देखा वह शायद दूसरे से संवाद कर कह भी नहीं सकता। और हो सकता है उसे कुछ अचरज लगा हो कि ये दो मनुष्‍य किस मुद्रा में बैठे है या लेटे है। ये क्‍या कर रहे है। कहीं कोई कुछ गलत तो नहीं कर रहा । या मार तो नहीं रहा। अब भला लाखों साल पहले हम इतने बुद्धि मान थोड़े ही होंगे। आज कौन हमारी बुद्धि के चार चाँद लगे है।

खेर उस ऋषि महाराज ने हमारी जाति को श्राप दे दिया। और हम आज भी उसे गली मोहलो में ढोये और घसीटते चले जा रहे है। कोई हम पर हंसता है कोई लात मारता है। कोई-काई नई नवेली घूँघट की ओट से हंस कर शरमाती जरूर है पर उसे कोई खास देखना नहीं कहां जा सकता। खेर ये हमारी जाती के सब अच्‍छी बात नहीं है। मनुष्‍य ने जितनी भी बुराईयां हमारी जाती में ढूंढनी चाही ढूँढी परंतु हम भी एक ढीठ प्राणी ठहरे जरा भी टस से मस नहीं हुए। लात, दुतकार खाकर भी हमने उसके पैरो को ही सहलाया उन्‍हें चाटा उनके आव भगत में हम पूछ हिला-हिला कर स्‍वागत किये। ये ही मेरी वफादारी है जो कोई भी दुनियां का आदमी देख ले सकता है। और इसी सब के कारण आज हम पशुओं में श्रेष्‍ठ तरह से जी रहे है। कोई भी जाती हमसे महान नहीं है। कभी किसी जमाने में शायद कृष्‍ण भगवान के जमाने तक गाय मनुष्‍य की प्रिय पशु हुआ करती थी। क्‍योंकि वह बहुत उपयोगी थी। उसके बच्‍चे, उसका गोबर….सब काम का था। वैसे हम तीनों प्राणी जो पहले-पहले मनुष्‍य के संग आये उनमें से समय-समय पर अपनी पहचान बनाते रहे। कभी गाय का युग था। जब देश स्‍वर्ण युग था। आश्रम थे, चरागाह थी। और उसके बाद आया घोड़े का समय जब चारों और युद्ध ही युद्ध और मारा मारी होती थी। तब परिवहन का साधन भी घोड़ा ही हुआ करता था जो द्रुत गति से भाग सकता था। खेर अब कलयुग आ गया है। न दूध की जरूरत है, न परिवहन की जरूर है। उनके और विकल्‍प आ गये है। आज के संग साथ की जरूरत है। आज में मनुष्‍य के बहुत करीब आ गया हूं। आगे जाने अब किस का समय आये। संभावना तो और किसी की नहीं है।

जब भी मैं पापा जी के साथ जंगल में जाता तो वह एकांत में जिन दो कुतियाओं ने बच्‍चे दे रखे थे उनमें से दो-दो बच्‍चे मेरे रंग रूप के थे। और पापा जी उन के खाने के लिए हमेशा कुछ ने कुछ ले ही जाते थे वह तो मोरों और पक्षियों के लिए दाना, जब छुट्टी का दिन होता तो सब बच्चे भी साथ होते। उस दिन बहुत मस्ती होती थी। गीदड़ों के लिए ब्रेड….किसी के रस्‍क, और किसी के बाजरा….आदी। उस चितकबरी कुतियाँ के साथ मुझे पापा जी ने चिपका हुआ देखा भी लिया था। पापा जी उस दिन कितनी ही देर तक मुझे आवाज दे-दे कर ढूंढते रहे। और मैं हूं कि उस कुतियाँ के पीछे लगा था। आखिर कार बाद में जब मिला तो पापा जी कितने परेशान चुके थे। पूरे जंगल के कितने ही चक्‍कर लगा चुके थे। इस तरह से वह मुझे जंगल में छोड़ कर घर जा भी नहीं सकते थे। और आखिर कर उन्‍होने मुझे एक पेड़ के नीचे छाव में उस कुतियाँ के साथ चिपका हुआ देख लिया। तब जाकर उन्‍हें चैन मिला। जैसे ही पापा जी ने मुझे देखा तो मुझे बहुत शरम आई और मैंने कोशिश की उस अलग होने की। कि किसी तरह से अलग हो जाऊं परंतु हो नहीं सका। पापा जी मुझे इस अवस्‍था में देख कर दूर एक पेड़ के नीचे बैठ गये। उन्‍हें शायद कम से कम यह तो तसल्ली हुई होगी की मैं यहां पर सकुशल हूं। और मुझे इस अवस्‍था में देख कर वह अति प्रश्न थे। कितनी ही देर वह मेरा वहां बैठ कर इंतजार करते है। मैं समझता था कि वह गुस्‍सा करेंगे। परंतु ऐसा नहीं हुआ। जब काफी देर बाद मे चिपक से छूटा तो पहले तो अपने अंग को चाटता रहा उस समय मेरे उस अंग में काफी जलन हो रही था। वह निचोड़ कर एक दम से लाल हो गया था। थोड़ी सूजन भी आ गई थी। जब वहां चाटनें से कुछ राहत महसूस की तो मैं उसके बाद में पूंछ हिलाता हुआ। पापा जी के पास गया और उनके हाथ को चाटनें लगा। उनके हाथ में मेरी चेन और डंडा था। अब में समझने की कोशिश कर रहा था की कोन मेरे गले का हार बनेगा। परंतु पापा जी ने मरे शरीर को प्‍यार से सहलाया और मेरे कान के पास आकर कहने लगे की खुब जालिम, धोखा दिया और फिर चुप से कहां कि ये सब क्‍या हो रहा था….. उस समय शर्म के मारे मेरा चेहरा लाल हो गया। कि जेसे मेरे चौरी पकड़ी गई हो। और मैंने अपनी पूछ को खुब जोर से हिलाया और शर्म के मारे सर झुका लिया। परंतु पापा जी खुश थे। एक प्रकृति का मिलन देख कर। उनके मन में इस को लेकर कुछ भी विरोध नहीं था। उसके बाद पापा जी ने मेरे गले में पट्टा बाँध दिया। मेरा मन भी घर जाने को उतावला था। एक मन तो चाहता था कि यही रह जाऊं, उस के संग साथ कुछ और समय बिताने को कर रहा था। शायद यह प्रकृति का रासायन था जो मुझे सम्‍मोहित कर रहा था। परंतु मनुष्‍य के संग साथ और उसका प्रेम इस के सामने बड़ा हो गया और यह फिका पड़ गया। ये तो प्रकृति का एक खेल था। शायद मन कुछ विकसित हो गया था। प्रकृति के सम्मोहन को तोड़ रहा था। ऐसा केवल मनुष्‍य कर सकता है। और मैं शायद पापा जी के संग साथ रह कर ऐसा कर सका नहीं तो हम पशु कहां प्रकृति के पाश को तोड़ सकते है। इसी लिए तो हमारा नाम पशु है। फिर मेरे ख्‍याल में जो मनुष्‍य भी इस में प्रकृति के सम्मोहन में हमारी तरह ही बंधा हो तो उसे पशु ही कहना चाहिए। उस का शरीर चाहे मनुष्य का हो। खेर ये बात तो बहुत उँची है……ओर मैं ज्ञानी बनना नहीं चाहता परंतु में बस एक अनुभव आपको कह रहा हूं जो मुझे हुआ फिर आप चाहे मुझे अहंकारी ही क्‍यों न कहो। बस मैं जल्‍दी से जल्‍दी घर जाकर आराम से सो जाना चाहता था। मुझे न जाने क्‍यों नींद सी आ रही थी। दूसरी और शरीर तोर पर भी मुझे बहुत थकावट महसूस हो रही थी। किसी तरह से अपने शरीर को मैं खुद ही घिसटता हुआ घर पहुंचा। पेर और शरीर इतना भारी हो गया था की उसे उठाने को मन नहीं कर रहा था। किसी तरह से घर पर पहूंच ही गयाद्यजाकर पापा जी ने मम्‍मी के कान में कुछ कहां, मम्‍मी जी ने मुझे खाने के लिए पेडी गिरी दी और दूध भी दिया। मैं तिरछी नजरों से देख रहा था कि मम्‍मी जी के चेहरे पर शरारती हंसी थी। किसी तरह से पेडी गिरी और दूध मैं खत्‍म किया ओर उस के बाद मैं घोड़े बेच कर सो गया। कितनी ही देर सोता रहा मुझे पता नहीं चला।

सपने में भी वही सब में देखता है। दौड़ता रहा। और न जाने क्‍या–क्‍या सब मैंने देखा। दूर कहीं पर अपना घर दिखाई दे रहा था। और में घर की और भाग रहा था और धीरे-धीरे घर बहुत दूर जा रहा है। और उसी सब के बीच में मुझे लगा मैं अपनी मां का दूध पी रहा हूं। कभी मुझे अपनी मां का चेहरा नजर आता और कभी उस चितकबरी कुतियाँ का…..मैं समझ नहीं पार रहा था ये क्‍या हो रहा था। परंतु इस सब के बीच भी मुझे कोई अचरज नहीं हो रहा था। शायद स्‍वप्‍न बहुत लम्‍बा चला जो पूरा याद नहीं रख सका। कहीं मुझे अपना परिवार नजर आता है। कहीं अपने बच्‍चे। और मैं उनके साथ खेल रहा हूं, वह मुझ पर चढ़ कर खेल रहे है। कोई मेरी पूंछ पकड़ रहे है। कोई मेरा कान पकड़ कर ही खेल रहा। और मुझे इस सब में बहुत आनंद आ रहा था। लग रहा था पूरा संसार झूम रहा है। अपने पन का ऐसा आनंद मैंने कभी जीवन में महसूस नहीं किया। हालाकि बाद मे सचमुच ही वे बच्‍चे मेरे साथ खेले। परंतु स्‍वप्‍न तो बहुत कुछ ऐसा दे जाता है जो हकीकत में संभवन हीं हो सकता।

कुछ ही पशु पक्षियों में परिवार बना कर या झुंड बना कर रहने की प्रवृति होती है। उनमें हमारी जाती भी आगे है। हाथी, शेर, खरगोश…आदि परिवार की देख भाल दोनों ही करते है। परंतु अब यहां तो हमारी कोई जिम्‍मेदारी नही है। वह खुद बेचारी बच्‍चो को पैदा करेगी। और फिर उनका भरन पोषण करेगी। अपना पेट और साथ में इतने बच्‍चों को….खेर पापा जी इतना जरूर करते थे की जब तब उन बच्‍चों की मम्‍मी को कितनी ही बाद दूध पिलाने के लिए आते थे। और उन सब के लिए एक रस्‍क का पैकिट लेकिर आते थे। मुझे ये देख कर अच्‍छा लगता परंतु मैं तो कुछ कर नहीं सकता था। परंतु मन में एक गुमान होता है कि मेरा मालिक जो कुछ कर रहा है वह मैं ही कर रहा हूं। बच्‍चे मेरे पास आकर मेरे दूध पीने की कोशिश करते। और सच में उस समय मुझे अच्‍छा भी लगता और गुदगुदी भी होती । जंगल में पापा जी काफी पीछे छोड़ कर उन बच्‍चों के पास पहूंच जाता था। और मेरे आने की उपस्थिति को वह बहुत पहले जान जाते थे और मेरे साथ निकल कर रास्‍ते पर आ जाते थे। पापा जी समझ जाते थे कि मैं ही उन्‍हें बुला कर लाया हूं। तब वह रस नहीं खा सकते थे। केवल उनकी मम्‍मी ही खाती थी। उनके लिए तो बाद में जब वह दो महीने के हो गये थे। दूध आने लगा। लेकिन एक बात मैंने देखी उनकी मम्मी भी काफी प्रेम पूर्ण थी। जब दूध एक वर्तन में डला जाता। तो वह दूर खड़ी हो जाती। बच्‍चों को पीने देती थे। खूद नहीं पीती थी। खेर मेरा तो सवाल ही नहीं उठता। मेरे लिए तो घर पर इतना दूध होता था कि में तो उसे देखता भी नहीं था। खेर इन के लिए तो दूध एक इनायत है। और सच मैने देखा वो जो पापा जी ने उन बच्‍चों को 10-20 बार जाकर दूध पिलाया वह उनके जीवन के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। उनके शरीर हृष्ट-पुष्ट हो गये। और वह प्रकृति के कुरूर हाथों से बचने में सामर्थ्य हो गये। और देखा की वह चारों ही बच्‍चे जीवत बच गये। किसी तरह से वह आनंद उत्‍सव से जंगल में रहते थे। जब मैं जाता तो वह मेरे साथ भागते खेलते। और दूर तक मेरे ही साथ रहते। लेकिन उनकी मम्‍मी मेरे साथ नहीं आती थे। वह तो अपना पेड़ भरने के बाद दूर खड़ी रह जाती थी।

क्रमश: अगले अंक में…….

स्‍वामी आनंद प्रसाद


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पंतजलि: योगसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–14

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बीज ही फूल है–प्रवचन–चौदहवां

दिनांक 4 जनवरी, 1976;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार:

1—कृपया समझायें कि समय के अतराल के बिना एक बीज कैसे विकसित हो सकता है?

2—क्या ईश्वर को समर्पण करना और गुरु को समर्पण करना एक ही है?

3—क्या सतोरी के पश्चात गुरु की आवश्यकता होती है?

4—श्रवण की कला क्या होती है? कृपया मार्गदर्शन करें।

पहला प्रश्‍न:

कृपया समझायें कि समय के अंतराल के बिना एक बीज कैसे विकसित हो सकता है?

बीज तुम वह हो ही, समय की जरूरत पड़ती। तो समय लेने वाली विधि जरूर होगी। बीज विकसित लर हो सकता है बिना अंतराल के, बिना बीज वाले समयांतर के, क्योंकि बीज विकसित ही है। तुम वह हो ही, जो तुम हो सकते हो। यदि ऐसा न होता, तो बीज बिलकुल अभी खिल न सकता। तब समय की जरूरत पड़ती। तब झेन संभव न होता। तब केवल पतंजलि का मार्ग होता। यदि तुम्हें कुछ होना हो, तो समय लेने वाली विधि जरूरी होगी। लेकिन यही है बात समझ लेने की—जिन्होंने जाना है उन्होंने यह भी जाना कि कुछ होने की संभावना एक स्वप्न है। तुम अंतस सत्ता ही हो; तुम जैसे हो संपूर्ण हो।

अपूर्णता प्रकट हुई लगती है क्योंकि तुम गहरी नींद में हो। फूल खिल ही रहा है, केवल तुम्हारी आंखें बंद हैं। अगर बीज को फूल होने तक बढ़ना होता, तब ज्यादा समय की जरूरत होती। और यह कोई साधारण फूल नहीं; परमात्मा को खिलना है तुममें। तब शाश्वतता भी पर्याप्त न होगी, तब यह लगभग असंभव है। यदि तुम्हें खिलना हो, तब तो यह लगभग असंभव है। यह घटने वाला नहीं; यह घट सकता नहीं। अनंतकाल की आवश्यकता होगी।

नहीं, बात यह नहीं है। यह बिलकुल अभी घट सकता है इसी क्षण। एक क्षण भी नहीं गंवाना है। प्रश्न बीज के फूल होने का नहीं है, प्रश्न है आख खोलने का। तुम बिलकुल अभी अपनी आख खोल सकते हो, और तब तुम पाओगे कि फूल तो सदा से खिलता रहा है। वह कभी अन्यथा न था; यह दूसरे ढंग से हो नहीं सकता था।

परमात्मा सदा तुम्हारे भीतर होता है। जरा ध्यान से देखो और वह प्रकट हो जाता है। ऐसा नहीं है कि वह बीज में छिपा हुआ था; तुम्हीं उसकी ओर नहीं देख रहे थे। तो केवल इतने भर की जरूरत होती है कि तुम उसकी ओर ध्यान से देख लो। जो कुछ भी तुम हो, उस ओर देख लो, उसके प्रति जागरूक हो जाओ। नींद में चलने वाले की भांति मत चलो—फिरो।

इसीलिए ऐसा बतलाया जाता है कि बहुत सारे झेन गुरु जब वे संबोधि को उपलब्ध हुए, ठहाका मारकर हंसने लगे थे। उनके शिष्य समझ न सकते थे, उनके सहयात्री नहीं समझ सकते थे कि क्या घट गया। क्यों वे पागलपन से अट्टहास कर रहे हैं? क्यों है यह हंसी? वे हंस रहे होते हैं इस सारे बेतुकेपन पर। वे उसे खोज रहे थे जो मिला ही हुआ है; वे उस चीज के पीछे भाग रहे थे जो पहले ही उनके भीतर थी; वे कहीं और खोज रहे थे उसे, जो स्वयं खोजने वाले में ही छिपा था।

खोजी ही है खोज्य यात्री स्वयं ही है मंजिल। तुम्हें कहीं और नहीं पहुंचना है। तुम्हें केवल स्वयं तक पहुंचना है। ऐसा केवल एक क्षण में घट सकता है; एक क्षणांश भी काफी होता है। यदि बीज को फूल होना होता, तब तो अनंतकाल पर्याप्त न था क्योंकि फूल है परमात्मा। यदि परमात्मा तुममें पहले से ही है, तो बस मुड़कर देखना, जरा भीतर झांक लेना और यह घट सकता है।

फिर पतंजलि की जरूरत क्या? पतंजलि की जरूरत है तुम्हारे कारण। तुम इतना लंबा समय लेते हो तुम्हारी नींद में से निकलने के लिए! तुम इतना लंबा समय लेते हो तुम्हारे सपनों में से बाहर आने के लिए! तुम इतने उलझे हुए हो सपनों में! तुमने अपना इतना कुछ लगा दिया है सपनों में, कि इसीलिए समय की जरूरत है। समय की जरूरत इसलिए नहीं है कि बीज को फूल होना है, समय की जरूरत इसलिए है क्योंकि तुम अपनी आंखें नहीं खोल सकते। तुम बंद आंखों के इतने ज्यादा आदी हो गये हो कि यह एक गहरी आदत बन चुकी है। केवल यही नहीं—तुम बिलकुल भूल गये हो कि तुम बंद आंखों सहित जी रहे हो। इसे तुम बिलकुल ही भूल गये हो। तुम सोचते हो, ‘कैसी नासमझी की बात है यह! मेरी आंखें तो खुली ही हुई हैं।’ और तुम्हारी आंखें हैं बंद।

यदि मैं कहता हूं ‘ अपने सपनों से बाहर आ जाओ’, तो तुम कह देते हो, ‘मैं जागा ही हुआ हूं।’ लेकिन यह भी एक सपना है। तुम सपना ले सकते हो कि तुम जागे हुए हो; तुम सपना ले सकते हो कि तुम्हारी आंखें खुली हैं। तब अधिक समय की जरूरत होगी। ऐसा नहीं है कि फूल पहले से ही नहीं खिला हुआ था, बल्कि यह तुम्हारे जाग जाने की बात ही इतनी कठिन थी।

तुम्हारे बहुत सारे न्यस्त स्वार्थ हैं। इनको समझ लेना है। अहंकार बुनियादी स्वार्थ है। यदि तुम अपनी आख खोल लो, तो तुम तिरोहित हो जाते हो। आख का खुलना मृत्यु की भांति प्रतीत होता है। ऐसा है। इसीलिए तुम इसके बारे में बातें करते हो; तुम इसकी चर्चा सुनते हो, तुम इसके बारे में सोचते हो, लेकिन तुम अपनी आख कभी नहीं खोलते क्योंकि तुम भी जानते हो कि यदि तुम वास्तव में अपनी आख खोल लो तो तुम मिट जाओगे। तब कौन होओगे तुम? एक न—कुछ। एक शून्यता। शून्यता यहां है, यदि तुम अपनी आंखें खोल लो तो। इसलिए यह सोचना बेहतर होता है कि तुम्हारी आंखें खुली ही हुई हैं। और तब तुम ‘कुछ’ बने रहते हो।

अहंकार पहला न्यस्त स्वार्थ है। अहंकार केवल तभी बना रह सकता है जब तुम सोये हुए हो। जैसे कि सपने केवल तभी बने रह सकते हैं जब तुम सोये हुए हो—आध्यात्मिक रूप से सोये हुए, अस्तित्वगत रूप से सोये हुए। आंखें खोलो अपनी। पहले तुम मिटते हो; फिर परमात्‍मा प्रकट होता है—यह है समस्या। और तुम भयभीत हो कि तुम कहीं मिट न जाओ। लेकिन वही है द्वार। तो तुम इसके बारे में चर्चा सुनते हो, तुम सोचते हो इसके बारे में, लेकिन तुम स्थगित किये चलते कल, और कल और कल के लिए।

इसलिए पतंजलि की आवश्यकता है। पतंजलि कहते हैं, तुरंत आख खोलने की कोई जरूरत नहीं, बहुत सारे सोपान हैं। तुम सोपानों द्वारा क्रमश: तुम्हारी नींद से बाहर आ सकते हो। कुछ चीजें तुम आज कर सकते हो कुछ चीज कल कर सकते हो, फिर कुछ चीजें परसों कर सकते हो, और इस सबमें लंबा समय लगने ही वाला है। पतंजलि तुम्हें रुचते हैं क्योंकि वे तुम्हे सोने को समय देते हैं। वे कहते हैं बिलकुल अभी तुम्हें अपनी नींद से बाहर आने की कोई जरूरत नहीं, बस करवट भर बदलना भी काम देगा। फिर थोड़ा सो लेना; फिर कुछ और कर लेना। फिर कुछ समय बाद, क्रम में चीजें घटेंगी।

वे बड़े लुभावने हैं। वे तुम्हें तुम्हारी नींद में से बाहर आने को फुसलाते हैं। झेन तुम्हारी नींद से तुम्हें झटके से बाहर लाता है। इसीलिए एक झेन गुरु तुम्हारे सिर पर चोट कर सकता है, लेकिन पतंजलि कभी नहीं। एक झेन गुरु तुम्हें खिड़की से बाहर फेंक सकता है, लेकिन पतंजलि कभी नहीं। एक झेन गुरु चौंकानेवाली विधि का उपयोग करता है। तुम झटके द्वारा तुम्हारी नींद में से बाहर लाये जा सकते हो, तो क्यों कोई तुम्हें राजी करने की कोशिश करता रहे? क्यों समय गंवाना?

पतंजलि थोड़ा— थोड़ा करके, धीरे— धीरे तुले साथ—साथ ले आते हैं। वे तुम्हें नींद से बाहर लाते हैं, और तुम जान भी नहीं पाते वे क्या कर रहे है। वे मां की भांति हैं। वे बिलकुल विपरीत बात करते हैं, लेकिन वे इसे करते हैं मां की भांति ही। मां बच्चे को सोने के लिए राजी करती है, वे तुम्हें नींद से बाहर आने के लिए राजी करते हैं। वह लोरी गा सकती है बच्चे को महसूस कराने को कि वह मौजूद है वहां, इसलिए उसे डरने की जरूरत नहीं। एक ही पंक्ति बार—बार दोहराने से, बच्चा नींद में बहला दिया जाता है। वह मां का हाथ थामे नींद में उतर जाता है। उसे चिंता करने की जरूरत नहीं होती। मां है और वह गा रही है, और गाना सुंदर है। और मां नहीं कह रही कि ‘सो जाओ’, क्योंकि वह बात अड़चन देगी। वह अप्रत्यक्ष रूप से ही राजा करवा रही है। और वह बच्चे को कम्बल ओढ़ा देगी और कमरे से बाहर चली जायेगी, और बच्चा गहरी नींद सो जायेगा।

बिलकुल यही पतंजलि करते हैं विपरीत क्रम में। धीरे— धीरे वे तुम्हें तुम्हारी नींद से बाहर ले आते हैं। इसीलिए समय की जरूरत पड़ती है; वरना फूल तो पहले से ही खिला हुआ है। देखो! यह पहले से ही है वहां। आख खोलो और वह वहां होता ही है; द्वार खोलो और वह वहां खड़ा प्रतीक्षा कर रहा है तुम्हारी। वह सदा से वहां खडा है।

यह निर्भर करता है तुम पर। यदि तुम्हें चौंकाने वाली विधि पसंद है, तब झेन है मार्ग। यदि तुम पसंद करते हो बहुत धीरे— धीरे होने वाली प्रक्रिया, तब योग है मार्ग। चुन लेना। चुनने में भी तुम बहुत चालाक हो। तुम मुझसे कहते हो ‘कैसे चुन सकता हूं मैं?’ यह भी एक चालाकी है। हर चीज साफ है। यदि तुम्हें समय की जरूरत है, पतंजलि को चुन लेना। यदि तुम झटकों से भयभीत हो, चुन लेना पतंजलि को। लेकिन चुन लेना। अन्यथा गैर—चुनाव स्थगन बन जायेगा। फिर तुम कह देते हो, ‘चुनना कठिन है, लेकिन जब तक मैं चुन न लूं मैं कैसे आगे बढ सकता हूं!’

झटका देने की विधि सीधी होती है। यह फौरन तुम्हें सहज यथार्थ तक उतार देती है। मेरी अपनी विधियां चौंकाने वाली है। वे क्रमबद्ध नहीं हैं। मेरे साथ तुम इसी जन्म में प्राप्त करने की आशा कर सकते हो; पतंजलि के साथ बहुत—से जन्मों की आवश्यकता होगी। मेरे साथ तुम बिलकुल अभी प्राप्त कर लेने की आशा भी रख सकते हो। लेकिन फिर भी तुम्हें बहुत सारी चीजें करनी होंगी इससे पहले कि तुम प्राप्त करो।

तुम जानते हो अहंकार मिट जायेगा, तुम जानते हो कामवासना तिरोहित हो जायेगी। तब कामवासना की कोई संभावना नहीं होती। एक बार तुम उपलब्ध हो जाओ, ये बातें बेतुकी हो जाती हैं, हास्यास्पद। तो तुम सोचते हो, ‘ थोड़ी देर और। प्रतीक्षा करने में हर्ज क्या है? मुझे थोड़ा और रस लेने दो।’ क्रोध संभव न होगा, हिंसा की संभावना नहीं हलोई, ईर्ष्या नहीं होगी, मालकियत, चालाकियोभरी योजनाएं नहीं होंगी। वे सारी चीजें तिरोहित हो जायेंगी।

तुम अचानक अनुभव करते हो, ‘यदि ये सब मिट जायेंगी, तो मैं क्या रहूंगा?’ क्योंकि इन सबके सम्मिश्रण के, इन सबकी गठरी के अतिरिका तुम कुछ हो नहीं। यदि ये सब मिट जायें, तो केवल शून्यता बची रहती है। वह शून्यता तुम्हें डरा देती है। यह अगाध खाई जैसी जान पड़ती है। तुम अपनी आंखें बंद कर लेना चाहते हो और थोड़ी देर और सपने देख लेना चाहते हो। यह ऐसे है जैसे जब तुम सुबह उठते हो, और पांच मिनट के लिए दूसरी तरफ करवट लेना चाहते हो और थोड़ी ज्यादा देर सपना देखना चाहते हो क्योंकि इतना सुंदर था वह सपना।

एक रात मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी को जगाया और उससे बोला, ‘मेरा चश्मा फौरन लाओ। मैं इतना सुंदर सपना देख रहा था, और उससे भी ज्यादा अच्छे का आश्वासन था।’

इच्छाएं हमेशा तुम्हें विश्वास दिलाये जा रही हैं। अधिक का हमेशा आश्वासन है। वे कहती हैं, यह कर लो। वह कर लो। जब संबोधि हमेशा संभव है तो क्यों जल्दी करनी? तुम कभी भी प्राप्त कर सकते हो; कोई जल्दी नहीं है। तुम इसे स्थगित कर सकते हो। यह अनंतकाल का प्रश्न है, अनंतकाल से संबंधित है, तो क्यों न इस क्षण आनंद मना लें? तुमने कभी आनंद मनाया नहीं, क्योंकि बिना आंतरिक समझ वाला आदमी किसी चीज का आनंद मना नहीं सकता है। वह सिर्फ पीड़ा भोगता है, हर चीज उसके लिए पीड़ा बन जाती है। प्रेम, प्रेम जैसी चीज—उसमें भी वह पीड़ा पाता है। सोये हुए आदमी के लिए सबसे अधिक सुंदर घटना संभव है प्रेम की, लेकिन वह उसके द्वारा भी पीड़ा भोगता है। जब तुम सोये हुए होते हो तो इससे बेहतर बात संभव नहीं। प्रेम महानतम संभावना है, लेकिन तुम इसके द्वारा भी पीड़ा पाते हो। क्योंकि सवाल प्रेम का या दूसरी किसी चीज का नहीं है। नींद है पीड़ा; अत: जो कुछ भी घटता है, उससे तुम पीड़ा पाओगे। नींद हर स्वप्‍न को दुःस्वम्न में बदल देती है। यह बड़े सुंदर ढंग से शुरू होता है, लेकिन कोई न कोई चीज हमेशा गलत हो जाती है कहीं न कहीं। अंत में तुम नरक तक पहुंच जाते हो।

हर इच्छा नरक तक ले जाती है। कहते हैं कि हर रास्ता रोम तक ले जाता है। मैं इस बारे में नहीं जानता, लेकिन एक चीज के प्रति निश्चित हूं—हर इच्छा नरक तक ले जाती है। आरंभ में इच्छा तुम्हें बहुत आशा देती है, सपने देती है—वही चालाकी है। इसी तरह तो तुम जाल में फंसते हो। यदि बिलकुल प्रारंभ से ही इच्छा कह दे, ‘सजग रहना; मैं तुम्हें नरक की ओर ले जा रही हूं, तो तुम उसके पीछे चलोगे नहीं। इच्छा तुम्हें विश्वास दिलाती है स्वर्ग का, और यह तुम्हें विश्वास दिलाती है कि मात्र कुछ कदम चलने से तुम इस तक पहुंच जाओगे। यह कहती है, ‘बस, मेरे साथ चलो।’ यह तुम्हें लुभाती है, तुम्‍हें सम्मोहित करती और तुम्हें बहुत सारी चीजों का आश्वासन देती, और तुम पीड़ा में होने के कारण सोचते हो, ‘कोशिश करने में क्या बुराई है? मुझे थोड़ा इस इच्छा को भी आजमा लेने दो।’

यह बात भी तुम्हें नरक तक ले जायेगी क्योंकि इच्छा अपने में ही नरक का मार्ग है। इसीलिए बुद्ध कहते हैं, ‘जब तक इच्छाविहीन नहीं हो जाते, तुम आनंदमय नहीं हो सकते।’ इच्छा है पीड़ा, इच्छा है स्वप्न। और इच्छा तभी विद्यमान होती है जब तुम सोये हुए होते हो। जब तुम जागे हुए और सजग होते हो, तब इच्छाएं तुम्हें मूर्ख नहीं बना सकतीं। तब तुम उनके पार देख सकते हो। तब हर चीज इतनी स्पष्ट होती है कि तुम मूर्ख नहीं बनाये जा सकते। तब पैसा तुम्हें कैसे मूर्ख बना सकता है और कह सकता है कि जब धन हो तो तुम बहुत—बहुत खुश होओगे? धनी व्यक्तियों की ओर देख लो—वे भी नरक में हैं—शायद समृद्ध नरक में हों, लेकिन समृद्ध नरक बदतर ही होने वाला है दरिद्र नरक से। अब उन्होंने धन प्राप्त कर लिया है, और वे एकदम निरंतर बेचैनी की अवस्था में ही हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन ने बहुत धन इकट्ठा कर लिया, और फिर वह एक अस्पताल में दाखिल हुआ क्योंकि वह सो न सकता था। वह घबड़ाया हुआ था और निरंतर कंपता हुआ और डरा हुआ—किसी एक खास बात से डरा हुआ नहीं। एक गरीब आदमी भयभीत होता है किसी विशेष कारणवश; एक धनी आदमी तो मात्र भयभीत होता है। यदि तुम किसी विशेष बात के लिए भयभीत होते हो, तो किया जा सकता है कुछ। लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन तो बस भयभीत मात्र था और वह जानता नहीं था कि ऐसा क्यों है। क्योंकि जब उसके पास हर चीज थी तो भयभीत होने की कोई जरूरत न थी, लेकिन वह तो एकदम भयभीत था और कंप रहा था।

वह अस्पताल में दाखिल हुआ, और सुबह नाश्ते में कुछ चीजें लायी गयीं। उन कुछ चीजों में हिलते—कंपते जिलेटिन का एक कटोरा था। वह बोला, ‘नहीं, मैं नहीं खा सकता इसे।’ डॉक्टर ने पूछा, तु_म इस बारे में इतनी जिद क्यों करते हो?’ वह बोला, ‘मैं अपने से अधिक बेचैन चीज को नहीं खा सकता।’

धनी व्यक्ति बेचैन होता ही है। कौन—सी है उसकी घबड़ाहट, उसका भय? वह क्यों इतना डरा हुआ है? क्योंकि हर इच्छा पूरी हो चुकी है, और फिर भी हताशा बनी हुई है। अब वह सपना भी नहीं देख सकता, क्योंकि उन सारे सपनों में से गुजर चुका है और उसने देख लिया है कि वे कहीं नहीं ले जाते हैं। वह सपना नहीं देख सकता और न ही आख खोलने का साहस जुटा सकता है, क्योंकि न्यस्त स्वार्थ हैं। उसने अपनी नींद में बहुत सारी चीजों का वचन दिया हुआ है।

जब एक रात बुद्ध अपने महल से चले गये, वे अपनी पली को बता देना चाहते थे कि वे जा रहे हैं। वह उस बच्चे को सहलाना चाहते थे जो एक दिन पहले ही पैदा हुआ था, क्योंकि उन्हें फिर वापस न आना था। वे कमरे के एकदम द्वार तक गये। उन्होंने अपनी पत्नी की ओर देखा। वह गहरी निद्रा में सोयी हुई थी। वह जरूर सपना देख रही होगी। बालक को बाहों में लिये उसका चेहरा सुंदर था, मुसकुराता हुआ। उन्होंने कुछ क्षण प्रतीक्षा की द्वार पर, फिर वे लौट गये। वे कहना चाहते थे कि वे जा रहे हैं, लेकिन फिर वे भयभीत हो गये। यदि वे कुछ कह देते, तो पत्नी जरूर रोने लगती और चीखने लगती और एक तमाशा बना डालती।

और वे स्वयं से भी भयभीत थे, क्योंकि यदि वह रो पड़ती और चीखने—चिल्लाने लगती, तब शायद उन्हें अपने उन वचनों का खयाल आ जाता कि ‘मैं तुम्हें हमेशा और हमेशा प्रेम करता रहूंगा, और मैं हमेशा—हमेशा के लिए तुम्हारे साथ रहूंगा।’ और यह बच्चा जो मात्र एक दिन का है इसका क्या करना होगा? वह तो, निस्संदेह, बच्चे को मेरे सामने ले आयेगी, उन्होंने सोचा, और वह कहेगी, ‘देखो जरा, तुम मेरे साथ क्या कर रहे हो! फिर तुमने इस बच्चे को पैदा ही क्यों होने दिया था? और अब कौन होगा इसका पिता? क्या सिर्फ मैं ही इसके लिए जिम्मेदार हूं? तुम कायर की तरह भाग रहे हो।’ ये सारे विचार उनके मन में आये, क्योंकि नींद में तो हर कोई वचन देता है। हर कोई वचन दिये चला जाता है यह न जानते हुए कि वह उन्हें कैसे पूरा कर सकता है। लेकिन नींद में ऐसा होता है क्योंकि किसी को होश नहीं होता कि क्या हो रहा है।

अकस्मात वे सजग हो आये कि ये—ये बातें कही जायेंगी और फिर सारा परिवार इकट्ठा हो जायेगा—पिता और सब दूसरे। और वे पिता के इकलौते बेटे थे, और पिता उनकी ओर देख रहे होंगे; और अपनी नींद में उन्होंने वचन दिये हैं उन्हें भी। इसलिए वे बस निकल भागे। वे एकदम चोर की भांति भाग आये।

बारह वर्ष के पश्चात, जब वे वापस लौटे तो पहली बात जो पत्नी ने पूछी वह ठीक वही थी जिसके बारे में घर छोड़ने की रात उन्होंने सोचा था कि उसके मन में आयेगी। पत्नी ने उनसे पूछा, ‘आपने मुझसे कह क्यों न दिया? यही पहली बात मैं आपसे पूछना चाहूंगी। इन बारह वर्षों से मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही थी। आपने मुझसे कहा क्यों नहीं मे किस प्रकार का है यह प्रेम? आप तो मुझे एकदम छोड़ गये। आप कायर है।’

बुद्ध शांतिपूर्वक सुनते रहे। जब पत्नी शांत हुई, चुप हो गयी तो वे बोले, ‘ये सारे विचार मुझमें उठे थे। मै बिलकुल द्वार तक आ गया था, मैने द्वार खोल भी दिया था। मैंने तुम्हारी ओर देखा था। नींद में मैंने बहुत सारी चीजों का आश्वासन दिया था। लेकिन यदि मुझे जागना था, यदि मैं नींद से बाहर आने ही वाला था, तब मैं नींद में दिये वचनों को पूरा नहीं कर सकता था। और यदि मैंने वचनों को पूरा करने की कोशिश की होती, तो मैं जाग न सकता था।

‘तो तुम ठीक ही हो। तुम सोच सकती हो कि मैं कायर हूं; तुम सोच सकती हो कि मैं महल से पलायन कर गया चोर की भांति; योद्धा की भांति नहीं, साहसी व्यक्ति की भांति नहीं। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं ठीक विपरीत है सचाई। क्योंकि जब मैं पलायन कर रहा था, मेरे लिए वह क्षण महानतम वीरता का क्षण था, क्योंकि मेरा संपूर्ण अंतस कह रहा था, यह अच्छा नहीं, कायर मत बनो। और यदि मैं रुक गया होता, यदि मैंने अपने सोये हुए अस्तित्व की सुन ली होती, तो फिर मेरे जाग जाने की कोई संभावना न होती।

‘और अब मैं तुम्हारे पास आया हूं। अब मैं कुछ पूरा कर सकता हूं। केवल वही व्यक्ति जो संबोधि को उपलब्ध है, कुछ पूर्ण कर सकता है। वह व्यक्ति जो अज्ञानी होता है, कैसे कुछ पूर्ण कर सकता है? अब मैं तुम्हारे पास आया हूं। यदि मैं उस क्षण ठहर गया होता तो मैं तुम्हें कुछ न दे सकता था, लेकिन अब मैं एक विशाल निधि लाया हूं अपने साथ, और अब मैं इसे तुम्हें दे सकता हूं। रोओ—चिल्लाओ मत। अपनी आंखें खोलो और मेरी ओर देखो। मैं वही व्यक्ति नहीं हूं जो उस रात चला गया था। एक बिलकुल अलग मनुष्य आया है तुम्हारे द्वार। मैं तुम्हारा पति नहीं हूं। तुम मेरी पत्नी हो सकती हो, क्योंकि वह तुम्हारा भाव है, लेकिन मेरी ओर देखो। मैं समग्र रूप से अलग व्यक्ति हूं। अब मैं तुम्हारे लिए खजाना लाया हूं। मैं तुम्हें भी जाग्रत और बुद्ध बना सकता हूं।

पत्नी सुनती थी सब। वही समस्या हमेशा हर एक को आती है। उसने बच्चे के बारे में सोचना शुरू कर दिया। अगर वह संन्यासी हो जाती है और इस भिक्षु के साथ चल देती है, अपने पुराने पति के साथ, यदि उसके साथ चल पड़े, तो क्या होगा इस बालक का? वह कुछ न बोली थी पर बुद्ध बोले, ‘मैं जानता हूं क्या सोच रही हो तुम, क्योंकि मैं उस कालावधि से गुजर चुका हूं जहां निद्राभरी अवस्था में वचन दिये जाते हैं जो सब भीड़ की तरह इकट्ठे हो जाते है और कहने लगते हैं. क्या कर रहे हो तुम? तुम सोच रही हो, जरा यह बच्चा कुछ बड़ा हो जाये। फिर इसका विवाह हो जाये। फिर वह महल और राज्य का भार ले सकता है, और फिर मैं तुम्हारा अनुगमन करूंगी। लेकिन ध्यान रहे, कोई भविष्य नहीं, कोई कल नहीं। या तुम बिलकुल अभी मेरे पीछे आओ या आना ही मत पीछे।’

लेकिन सी का मन पुरुष—मन की अपेक्षा ज्यादा सोया हुआ है। और इसके कारण हैं। सी ज्यादा बड़ी स्‍वप्‍नजीवी होती है। वह सपनों में और आशाओं में ज्यादा जीती है। उसे गहन निद्रा में होना ही होता है अन्यथा उसका मां के रूप में उपयोग करना प्रकृति के लिए कठिन होगा। सी का गहन सम्मोहित अवस्था में रहना जरूरी होता है। केवल तभी वह नौ महीने तक बच्चे को गर्भ में संभाल सकती है और कष्ट पा सकती है। और फिर इस बच्चे का पालन—पोषण कर सकती है और दुख उठा सकती है। और फिर एक दिन यह बच्चा उसे छोड़ जाता है और दूसरी सी के पास चला जाता है, और वह व्यथित होती है।

यह एक इतना लंबा दुख है, कि एक सी के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह पुरुष की अपेक्षा अधिक नींद में हो। अन्यथा कोई कैसे इतनी लंबी पीड़ा झेल सकता है? और वह सदा आशा रखती है। फिर दूसरे बच्चे को लेकर आशा करती है, और फिर तीसरे बच्चे को लेकर, और उसका सारा जीवन व्यर्थ हो जाता है।

इसलिए बुद्ध ने कहा, ‘मैं जानता हूं तुम क्या सोच रही हो। और मैं जानता हूं तुम मुझसे ज्यादा बड़ी स्वप्‍नद्रष्टा हो। लेकिन अब मैं आया हूं तुम्हारी निद्रा की तमाम जड़ों को काट देने के लिए। बच्चे को ले आओ। कहां है मेरा बेटा? ले आओ उसे।’ स्‍त्री—मन फिर एक चाल चल गया। वह राहुल को ले आयी, वह बच्चा जो अब बारह वर्ष का हो गया था, और वह कहने लगी, ‘ये हैं तुम्हारे पिता। इनकी ओर देखो, ये भिखारी हो गये हैं! पूछो इनसे, क्या है इनका दाय? क्या दे सकते हैं ये तुम्हें? ये तुम्हारे पिता हैं। कायर हैं, चोर की भांति चले गये थे मुझसे कुछ कहे बिना ही। और वह एक दिन के शिशु को छोड़ चले गये थे। उनसे पूछो, देने को क्या है उनकी संपत्ति?’

बुद्ध हंस पडे और वह आनंद से बोले, ‘मेरा भिक्षा पात्र लाओ।’ उन्होंने भिक्षा पात्र राहुल को दे दिया, और वह बोले, ‘यह है मेरी कुल संपत्ति। मैं तुम्हें भिक्षु बनाता हूं। तुम दीक्षित हुए। तुम अब एक संन्यासी हो।’ और उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, ‘मैंने जड़ ही काट दी हैं। अब सपने देखने की कोई जरूरत न रही। तुम भी जाग्रत हो जाओ क्योंकि यही है जड़। राहुल संन्यासी हो ही गया है, इसलिए तुम भी जाग जाओ। यशोधरा, तुम भ?ऐाई जाग जाओ और संन्यासी हो जाओ।’

ऐसा समय सदा आता है जब तुम उस संक्रमण—काल में होते हो जहां से निद्रा जागरण में परिवर्तित होती है। सारा अतीत तुम्हें रोकेगा। और अतीत शक्तिशाली होता है। भविष्य निर्बल होता है निद्रागत व्यक्ति के लिए। वह आदमी जो सोया हुआ नहीं है उसके लिए भविष्य शक्तिशाली होता है, उस आदमी के लिए जो गहरी निद्रा में है, अतीत शक्तिशाली होता है। जो आदमी गहरी नींद सोया है, उसकी पहचान केवल उन सपनों से है जो उसने अतीत में देखे थे। वह किसी भविष्य के प्रति जागरूक नहीं है। यदि वह भविष्य के बारे में सोचता भी है, तो वह सिर्फ अतीत का ही प्रतिबिंब होता है। अतीत ही फिर से प्रक्षेपित हो जाता है। जो व्यक्ति जागरूक है केवल वही भविष्य के प्रति जागरूक होता है। तब अतीत कुछ नहीं रहता।

इसे जरा खयाल में ले लेना। तुम शायद बिलकुल अभी न समझ पाओ लेकिन किसी दिन तुम समझ सकते हो। सोये हुए आदमी के लिए, कारण अधिक शक्तिशाली होता है परिणाम की अपेक्षा; फूल की अपेक्षा बीज अधिक शक्तिशाली होता है। जो व्यक्ति जागा हुआ है उसके लिए, कार्य अधिक शक्तिशाली होता है कारण से, फूल अधिक शक्तिवान होता है बीज से।

निद्रा का तर्क यही है कि कारण निर्मित करता है कार्य को, बीज निर्मित करता है फूल को। जागरण का तर्क इसके बिलकुल विपरीत है। वह है कि फूल निर्मित करता है बीज को, कार्य निर्मित करता है कारण को। यह भविष्य ही होता है जो उत्‍पन्‍न करता है अतीत को; न कि अतीत उलन्न करता है भविष्य को। लेकिन निद्रामय—चित्त के लिए, अधिक शक्तिशाली होता है अतीत, मृत, व्यतीत—जो कि है नहीं।

जो अभी होने को है, वह अधिक शक्तिशाली है। जो अभी जन्मने को है वह अधिक शक्तिशाली है क्योंकि जीवन रहता है वहां। अतीत के कोई प्राण नहीं। कैसे हो सकता है वह शक्तिशाली? अतीत तो पहले से ही कब्रिस्तान है। जीवन तो पहले से ही वहां से जा चुका है इसलिए यह होता है बीता हुआ। जीवन इसे छोड़ चुका। लेकिन कब्रिस्तान शक्तिशाली होते हैं तुम्हारे लिए। जो व्यक्ति जागरूकता के लिए है उसके लिए अभी जो होने को है, जो जन्म लेने को है अभी, ताजा, वह जो होने जा रहा है, ज्यादा शक्तिशाली बन जाता है। अतीत उसे रोके नहीं रख सकता।

अतीत रोकता है। तुम सदा पीछे की वचनबद्धताओं के बारे में सोचते हो; तुम सदा कब्रिस्तान के इर्द—गिर्द मंडराते रहते हो। तुम फिर—फिर जाते कब्रिस्तान की यात्रा करने और मृत को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने। हमेशा अपनी श्रद्धा उसे दो, जो होने को है क्योंकि जीवन वहां होता है।

‘कृपया समझायें कि बिना समय के अंतराल के बीज विकसित कैसे हो सकता है?’

हां, यह विकसित हो सकता है क्योंकि यह विकसित है ही; खिला हुआ ही है। फूल निर्मित करता है बीज को, न कि बीज फूल को। फूल जो खिल रहा है, उसने संपूर्ण बीज का निर्माण किया है। लेकिन तुम्हें ध्यान में रख लेना है कि केवल द्वार खोलने की आवश्यकता होती है। खोलो द्वार; सूर्य वहां प्रतीक्षा कर रहा है। वस्तुत: यथार्थ में जीवन विकास नहीं है। निद्रा में यह विकास जैसा प्रतीत होता है।

अंतस सत्ता (बीईंग) वहां पहले से ही है। हर चीज जैसी है, पूर्ण ही है; पहले से ही परम है, आनंदमयी है। कोई चीज जोड़ी नहीं जा सकती; इसे संशोधित करने का कोई तरीका नहीं। फिर जरूरत किसकी होती है? केवल एक चीज की, कि तुम बोधपूर्ण हो जाओ और इसे देखो। ऐसा दो ढंग से घट सकता है या तो तुम्हें झटके से तुम्हारी नींद से बाहर लाया जा सकता है—जो है झेन। या तुम्हें नींद से बाहर लाने के लिए राजी किया जा सकता है, जो है योग। को। बीच में ही लटके मत रहना।

दूसरा प्रश्‍न:

क्या ईश्वर को समर्पण करना और गुरु को समर्पण करना एक ही है?

समर्पण, विषय पर निर्भर नहीं करता। यह एक गुणवत्ता है, तुम अपने अस्तित्व में ले आते हो। किसे करते हो तुम समर्पण, इससे कुछ संबंध नहीं। विषय कोई भी हो सकता है। तुम एक वृक्ष को कर सकते हो समर्पण; तुम नदी को कर सकते हो समर्पण; तुम किसी को कर सकते हो समर्पण—तुम्हारी पत्नी को, तुम्हारे पति को; तुम्हारे बच्चे को। पात्र की समस्या नहीं; किसी भी पात्र से बात बनेगी। समस्या है समर्पण करने की।

घटना घटती है समर्पण के कारण, तुम किसे समर्पण करते हो इस कारण नहीं। और यह सबसे सुंदर चीज है समझ लेने की—तुम जिस किसी को करते हो समर्पण, वह पात्र ईश्वर हो जाता है। ईश्वर को समर्पण करने का प्रश्न नहीं है। समर्पण करने के लिए ईश्वर को कहां पाओगे? तुम उसे कभी न पाओगे। समर्पण करो और जिसे भी तुम समर्पण करते हो, ईश्वर वहां है। बच्चा बन जाता है भगवान, पत्नी बन जाती है भगवान, गुरु बन जाता है भगवान, एक पत्थर भी हो सकता है भगवान।

पत्थरों के द्वारा भी लोग उपलब्ध हुए हैं, क्योंकि तुम किसे समर्पण करते हो इसका बिलकुल कोई सवाल ही नहीं। तुम समर्पण करते हो और वही सब कुछ उत्‍पन्न कर देता है, द्वार खोल देता है। समर्पण, समर्पण करने का प्रयास एक खुलापन ले आता है तुम तक। और अगर तुम एक पत्थर के प्रति खुले होते हो, तो तुम संपूर्ण अस्तित्व के प्रति खुले हो जाते हो, क्योंकि यह केवल खुलने की बात है। जब एक बार तुम खुलेपन को जान जाते हो और जो सुख—बोध यह घटना ले आती है उसका आनंद, वह आनंदोल्लास—जो मात्र एक पत्थर के प्रति खुले होने से घटता है, उसे पा लेते हो एक बार, तो तुम इतना नासमझ व्यक्ति नहीं खोज सकते जो तुरंत बाकी के सारे अस्तित्व के प्रति स्वयं को बंद कर लेगा। जब एक पत्थर के प्रति खुलना भी इतना आनंदपूर्ण अनुभव दे सकता है, तो फिर क्यों न संपूर्ण के प्रति खुले हो जाओ?

आरंभ में व्यक्ति किसी को समर्पण करता है, और फिर समस्त को समर्पण कर देता है। गुरु को समर्पण करने का यही अर्थ है; समर्पण करने के अनुभव में तुम एक सूत्र जान लेते हो, अब तुम सभी को समर्पण कर सकते हो। गुरु तो एक मार्ग बन जाता है गुजर जाने के लिए। वह एक द्वार बन जाता है, और उस द्वार के द्वारा तुम देख सकते हो संपूर्ण आकाश को।

ध्यान रहे, तुम समर्पण करने के लिए ईश्वर को नहीं पा सकते। लेकिन बहुत लोग इस ढंग से सोचते हैं। वे बहुत चालाक लोग हैं। वे सोचते हैं, ‘जब ईश्वर हो तब हम समर्पण करेंगे।’ यह असंभव है क्योंकि ईश्वर केवल तभी होता है जब तुम समर्पण करते हो। समर्पण किसी चीज को भगवान बना देता है। समर्पण तुम्हें आख देता है। और हर चीज जो इस आख तक आती है दिव्य हो जाती है। दिव्यता, भगवत्ता समर्पण द्वारा दी गयी गुणवत्ता है।

भारत में ईसाई, यहूदी और मुसलमान हिंदुओं पर हंसते हैं क्योंकि वे वृक्ष की पूजा कर सकते है और वे पत्थर की पूजा कर सकते है। यह चाहे गढ़ा हुआ भी न हो; यह चाहे मूर्ति भी न बना हो। वे सड़क के किनारे का पत्थर खोज सकते हैं और फौरन इसी को ईश्वर बना सकते है। किसी कलाकार की आवश्यकता नहीं, किसी मूल्यवान प्रकार के पत्थर की भी नहीं; संगमरमर की भी नहीं। कोई साधारण पत्थर जो उपेक्षित हो चुका हो, वह भी काम दे देगा। शायद ऐसा हो कि यह पत्थर बाजार में न बिक सकता हो और इसीलिए यह वहां सड़क के किनारे पड़ा हुआ हो, लेकिन हिंदू तुरंत इसको ईश्वर बना सकते हैं। यदि तुम समर्पण कर सको तो यह दिव्य हो जाता है। समर्पण की दृष्टि दिव्य के अतिरिका कोई दूसरी चीज खोज ही नहीं सकती।

गैर—हिंदू हंसते रहे; वे नहीं समझ सकते थे। वे समझते हैं कि ये लोग पत्थर—पूजक हैं, मूर्तिपूजक। वे नहीं हैं। हिंदुओं को समझने में गलती हुई। वे मूर्तिपूजक नहीं हैं। उन्होंने कुंजी खोल ली है, और वह कुंजी यह है कि अगर समर्पण कर दो तो तुम किसी चीज को दिव्य बना सकते हो। और यदि तुम समर्पण नहीं करते तो तुम लाखों जन्मों तक ईश्वर को खोजते रह सकते हो, लेकिन तुम उससे कभी न मिलोगे, क्योंकि तुम्हारे पास वह गुणवत्ता नहीं है जिसका मिलन होता है; जो मिल सकती है, जो पा सकती है। तो प्रश्न है आत्मगत समर्पण का, समर्पण करने वाले विषय या पात्र का नहीं।

लेकिन निस्संदेह समस्‍याएं हैं। तुम ऐसे अकस्मात पत्थर को समर्पण नहीं कर सकते क्योंकि तुम्हारा मन कहे चला जाता है, ‘यह तो मात्र एक पत्थर है। कर क्या रहे हो तुम? ‘ और अगर मन कहता ही जाये, ‘यह तो पत्थर ही है, इस प्रकार क्या कर रहे हो तुम? ‘— तो तुम नहीं कर सकते समर्पण क्योंकि समर्पण को आवश्यकता होती है तुम्हारी समग्रता की।

इसीलिए गुरु की सार्थकता है। गुरु का अर्थ है वह, जो सीमा पर खड़ा हुआ—मनुष्य और दिव्यता की सीमा पर। वह जो तुम्हारी तरह मानवप्राणी रहा है, लेकिन जो अब तुम्हारी भांति नहीं रहा। वह जिसे कुछ और घट गया है, जो अतिरिका है—एक मनुष्य और कुछ और। इसलिए यदि तुम उसके अतीत को देखते हो, तो वह तुम्हारी तरह ही होता है लेकिन यदि तुम उसके वर्तमान और भविष्य को देखते हो, तब तुम उस ‘कुछ और’ को, अतिरिका को देखते हो। तब वह दिव्यता होता है।

पत्थर को, नदी को समर्पण करना कठिन है, बहुत—बहुत कठिन। यदि गुरु को समर्पण करना भी इतना कठिन है तो पत्थर को समर्पण करना जरूर बहुत कठिन होगा ही; क्योंकि जब कभी तुम गुरु को देखते हो तो फिर तुम्हारा मन कह देता है, ‘यह मेरी तरह का मनुष्य—प्राणी है, तो उसे समर्पण क्यों करना? ‘ तुम्हारा मन वर्तमान को नहीं देख सकता; मन केवल अतीत को देख सकता है कि वह आदमी तुम्हारी तरह पैदा हुआ था, कि वह तुम्हारी तरह भोजन करता है और वह तुम्हारी तरह सोता है, तो क्यों करना उसे समर्पण? वह तो बिलकुल तुम्हारी तरह ही है।

वह तुम्हारी तरह है और फिर भी वह नहीं है। वह जीसस और क्राइस्ट दोनों है। जीसस जो मानव है, मानव—पुत्र और क्राइस्ट—अतिरिका, कुछ और। यदि तुम केवल प्रकट दृश्य को देखते हो, तो वह पत्थर की भांति होता है। तब तुम समर्पण नहीं कर सकते। यदि तुम प्रेम करते हो, यदि तुम आत्मीय हो जाते हो, यदि तुम उसकी मौजूदगी को अपने में गहरे उतरने देते हो, यदि तुम गहन एकात्मता खोज सकते हों—यही है सही शब्द, उसके अस्तित्व के साथ गहन एकात्मता (रैपर्ट) —तब अचानक तुम उस ‘कुछ और’ के प्रति जागरूक हो जाते हो। वह मनुष्य से कुछ ज्यादा होता है। किसी अज्ञात ढंग से, उसके पास कुछ है जो तुम्हारे पास नहीं। किसी अदृश्य ढंग से, वह मनुष्य की सीमा के पार उतर चुका है। लेकिन इसे तुम तभी महसूस कर सकते हो जब एक गहन एकात्मता हो।

यही है जिसे पतंजलि कहते हैं, श्रद्धा; श्रद्धा एकात्मता निर्मित करती है। एकात्मता (रैपर्ट) आंतरिक समस्वरता है दो अदृश्यों की। प्रेम है एक घनिष्ठता। किसी के साथ तुम्हारा एकदम तालमेल बैठ जाता है जैसे कि तुम दोनों एक—दूसरे के लिए ही उलन्न हुए। तुम इसे प्रेम कहते हो। एक क्षण में, पहली दृष्टि में ही, बस किसी का तुम्हारे साथ तालमेल हो जाता है, जैसे कि तुम साथ—साथ निर्मित हुए और अलग हुए, और अब तुम फिर मिल गये हो।

दुनिया भर के पुराणों की कथाओं में यह कहा गया है कि सी और पुरुष एक साथ बनाये गये। भारतीय पौराणिक कथाओं में एक बहुत सुंदर कथा है। वह पौराणिक कथा है कि पत्नी और पति की रचना बिलकुल प्रारंभ से जुड़वों की भांति की गयी; भाई और बहन की भांति। वे पति और पत्नी एक साथ उलन्न हुए थे जुड़वां की भांति; एक गर्भ में साथ—साथ। बिलकुल प्रारंभ से ही एक आत्मीयता थी। पहले क्षण से ही गहन एकात्म था। वे गर्भ में साथ—साथ थे एक—दूसरे को थामे हुए— और यही घनिष्ठता है। फिर, किसी दुर्भाग्य के कारण, वह घटना पृथ्वी पर से मिट गयी।

लेकिन पौराणिक कथा कहती है कि अब तक खी और पुरुष के बीच एक नाता बना हुआ है। पुरुष यहां पैदा हो जाये और सी हो सकता है अफ्रीका में, अमरीका में पैदा हो, लेकिन एक गहरा संबंध होता है। और जब तक वे एक—दूसरे को खोज नहीं लेते, कठिनाई रहेगी। और उनके लिए एक—दूसरे को खोज लेना बहुत कठिन होता है। संसार इतना बड़ा है, और तुम जानते नहीं कहां खोजना है और कहां पता लगाना है। अगर यह घटता है, तो यह संयोगवशांत घटता है।

अब वैज्ञानिक भी मानते हैं कि कभी न कभी हम इस रैपर्ट को, इस एकात्‍म्‍य को औक लेंगे वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा। और इससे पहले कि कोई विवाह करे, उस जोड़े को प्रयोगशाला में जाना होगा जिससे वे पता लगा सकें कि उनकी जीव—ऊर्जा का मेल बैठता है या नहीं। यदि यह ठीक नहीं बैठता, तो वे भ्रम में पड़े हैं। यह विवाह चल नहीं सकता। वे शायद सोच रहे हों कि वे बहुत सुखी रहेंगे, लेकिन वे नहीं रह सकते क्योंकि भीतर की जीव—ऊर्जा का तालमेल नहीं बैठता।

इसलिए हो सकता है शायद तुम्हें खी की नाक पसंद आये और सी को तुम्हारी आंखें पसंद आ सकती हैं, लेकिन उसमें कोई मतलब नहीं है। आंखें पसंद करना मदद न देगा, नाक पसंद करना काम न देगा, क्योंकि दो दिन के बाद कोई नहीं देखता नाक की तरफ और आंखों की तरफ। फिर तो जीव—ऊर्जा की समस्या हो जाती है। आंतरिक ऊर्जाएं एक—दूसरे से घुलती—मिलती रहनी चाहिए, अन्यथा वे दोनों विद्रोह कर देंगी। यह बिलकुल ऐसा है जैसे कि तुम रकादान लो, तो या तो तुम्हारी देह इसे ग्रहण कर लेती है या फिर उसे अस्वीकृत कर देती है। क्योंकि रका के कई प्रकार होते हैं। यदि रका उसी प्रकार का होता है, केवल तभी शरीर इसे ग्रहण करता है; वरना यह एकदम अस्वीकृत ही कर देता है।

यही विवाह में घटता है। यदि जीव—ऊर्जा स्वीकार करती है तो यह स्वीकार होता है। और कोई सचेतन ढंग नहीं है इसे जानने का। प्रेम बहुत भांति पैदा करवाता है क्योंकि प्रेम सदा किसी खास चीज पर केंद्रित होता है। सी की आवाज अच्छी हो, और तुम मोहित हो जाते हो। लेकिन पूरी बात यह नहीं है। यह एक आशिक चीज है। संपूर्ण का तालमेल होना चाहिए। दो जीव—ऊर्जाओं को इतनी समग्रता से एक—दूसरे को ग्रहण करना चाहिए कि गहन तल पर तुम एक प्राण हो जाओ। यह होती है एकात्मता। ऐसा बहुत कम घटता है प्रेम में क्योंकि सही साथी को खोजने की समस्या है। यह तो और भी दुःसाध्य है। मात्र प्रेम में पड़ना पकी कसौटी नहीं है। हजार प्रेम—संबंधों में से नौ सौ निन्यानबे बार प्रेम असफल होता है। प्रेम एक असफलता सिद्ध हुआ है।

इससे कहीं ज्यादा गहन आत्मीयता घटती है गुरु के साथ। यह प्रेम से ज्यादा बड़ी होती है। यह श्रद्धा है। केवल तुम्हारे प्राण—ऊर्जा का ही नहीं, बल्कि तुम्हारी आला का ही समग्र तालमेल बैठ जाता है। इसीलिए जब कभी कोई शिष्य हो जाता है तो सारा संसार सोचता है कि वह पागल है; क्योंकि संसार समझ नहीं सकता कि बात क्या है। क्यों तुम पागल हुए जा रहे हो इस आदमी के पीछे? और तुम उसे समझा भी नहीं सकते, क्योंकि यह समझाया नहीं जा सकता है। शायद तुम चेतन रूप से जान भी न पाये हो कि क्या घट गया, लेकिन किसी पर अचानक तुम्हारी श्रद्धा हो जाती है। अकस्मात कुछ मिल जाता है, एक हो जाता है। यह है रैपर्ट—एकात्‍म्‍य।

वह एकात्‍म्‍य पत्थर के साथ होना कठिन है। क्योंकि जीवित गुरु के साथ भी वह एकात्‍म्‍य हो पाना कठिन होता है तो इसे तुम पत्थर के साथ कैसे पा सकते हो? लेकिन यदि ऐसा होता है तो तत्‍क्षण गुरु भगवान हो जाता है। शिष्य के लिए गुरु हमेशा भगवान होता है। वह गुरु और किसी के लिए भगवान न भी हो, लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन इस शिष्य के लिए वह भगवान है और उसके द्वारा भगवत्ता के द्वार खुलते हैं। तब तुम चाबी पा लेते हो। चाबी है यह आंतरिक घनिष्ठता, यही समर्पण। तुम इसे आजमा सकते हो। उदाहरण के लिए, किसी नदी को समर्पण कर दो।

तुमने पढ़ी होगी हरमेन हेस की ‘सिद्धार्थ’। सिद्धार्थ बहुत सारी बातें सीखता है नदी से। तुम उन्हें बुद्ध से नहीं सीख सकते। वह बस नदी को देखता रहता, नदी की अनेक—अनेक भाव भंगिमाओं को। उसके आस—पास की हजारों जलवायु परिवर्तनों को देखते—देखते वह नाविक हो जाता है। कई बार नदी खुश होती और नाच रही होती। और कई बार बहुत—बहुत उदास होती, जैसे कि बिलकुल निश्चल हो। कई बार वह बहुत क्रोध में होती—सारे अस्तित्व के विरुद्ध, और कई बार बहुत प्रशांत और शांतिमय होती बुद्ध की भांति। और सिद्धार्थ मात्र एक नाविक है। वह नदी से गुजरता है, नदी के करीब रहता है, नदी को देखता है। कुछ और करने को नहीं है। यह बात एक गहरा ध्यान और गहन एकाक्य बन जाता है। और नदी द्वारा तथा उसकी ‘नदीमयता’ द्वारा वह प्राप्त कर गया। वह उसी झलक को उपलब्ध हो गया जैसी हेराक्लतु को मिली।

तुम उसी नदी में उतर सकते हो और नहीं भी उतर सकते। नदी वही है और वही नहीं भी है। यह एक बहाव है, और नदी तथा उसमें बनी आत्मीयता के द्वारा वह सारे अस्तित्व को नदी के रूप में जान पाया—नदीमयता के रूप में।

ऐसा किसी भी चीज के साथ घट सकता है। बुनियादी चीज है समर्पण; इसे ध्यान में रखो।

‘क्या ईश्वर को समर्पण करना और गुरु को समर्पण करना एक ही बात है? ‘ हां। समर्पण हमेशा वही होता है। यह तुम पर निर्भर है कि तुम किसे समर्पण कर पाओ। व्यक्ति को ढूंढो, नदी को खोजो, और समर्पण कर दो। यह एक जोखम है। बड़े से बड़ा जोखम है। तुम अशांत प्रदेश में विचर रहे होते हो और तुम इतनी ज्यादा शक्ति दे रहे होते हो उस व्यक्ति को या उस चीज को, जिसे कि तुम समर्पण करते हो।

यदि तुम मुझे समर्पण करते हो तो तुम मुझे समग्र शक्ति दे रहे हो। तब मेरी हां तुम्हारी हां है, मेरी नहीं तुम्हारी नहीं है। यदि मैं दिन में भी कहता हूं यह रात है, तुम कहते हो, ‘हां, यह रात है।’ तुम किसी को समग्र शक्ति दे रहे हो। अहंकार रोकता है। मन कहता है, यह अच्छा नहीं। स्वयं पर नियंत्रण रखो। कौन जाने यह आदमी तुम्हें कहां ले जाये? कौन जाने, वह कह दे, पहाड़ के शिखर से कूद पड़ी। और फिर तुम मर जाओगे। कौन जाने, यह आदमी तुम्हें चालाकी से चलाये, तुम पर नियंत्रण करे, तुम्हारा शोषण करे। मन ये तमाम चीजें बीच में ले आयेगा। यह एक जोखम है, और मन सुरक्षा के सारे उपाय कर लेता है।

मन कहता है, ‘सचेत रहना। इस आदमी को थोडा और परख लो।’ यदि तुम मन की सुनते हो, तो समर्पण संभव नहीं। मन ठीक कहता है। यह एक जोखम है। लेकिन जब कभी तुम समर्पण करते हो, यह एक जोखम ही बनने वाला है। जांचना—परखना कोई बहुत मदद न देगा। तुम सदा ही जांच करते रह सकते हो और शायद तुम निर्णय न ले सको क्योंकि मन कभी निर्णय नहीं ले सकता। मन उलझाव है। यह कभी निर्णायक नहीं होता। तुम्हें मन से बच निकलना होता है किसी न किसी दिन, और तुम्हें मन से कहना ही होता है, ‘तुम ठहरो, मैं जाऊंगा, मैं कूद जाऊंगा और देखूंगा क्या घटता है!’

वस्तुत: क्या खोना है तुम्हें? मैं हमेशा आश्चर्य करता हूं कि तुम्हारे पास है क्या, जिसे खोने में तुम इतने भयभीत हो? जब तुम समर्पण करते हो तो तुम ला क्या रहे हो? कुछ नहीं है तुम्हारे पास। तुम इससे कुछ पा सकते हो, लेकिन तुम कुछ भी गंवा नहीं सकते क्योंकि तुम्हारे पास कुछ है नहीं गंवाने को।

तुमने सुना होगा कार्ल मार्क्स का प्रसिद्ध घोषवाक्य— ‘दुनिया के मजदूरों, एक ,हो जाओ क्योंकि तुम्हारे पास गंवाने को कुछ भी नहीं, सिवाय तुम्हारी जंजीरों के।’ शायद यह सच हो, शायद यह सच न हो। लेकिन एक खोजा के लिए ठीक यही बात है। तुम्हारे पास खोने को है क्या, सिवाय तुम्हारी जंजीरों के, तुम्हारे अज्ञान के, तुम्हारे दुःख के? लेकिन लोग अपने दुख के प्रति भी बड़े आसक्त हो जाते हैं। अपने दुख से ही वे यूं चिपकते हैं जैसे कि यह कोई खजाना हो! यदि कोई उनका दुख दूर करना चाहे, वे हर तरह की अड़चनें खड़ी कर देते हैं।

मैं हजारों लोगों को देखता रहा हूं जिनके साथ ये अड़चनें और ये चालाकियां लगी हैं। यदि तुम उनका दुख दूर करना भी चाहो, तो वे चिपके रहते हैं। यह बात किसी तथ्य की ओर इशारा करती है—उनके पास कुछ और नहीं है। यही है एकमात्र ‘खजाना’ जो उनके पास है, इसलिए वे सोचते हैं, ‘इसे मत ले जाओ क्योंकि कुछ भी न होने से हमेशा बेहतर होता है कुछ पास में होना।’ यह उनका तर्क है। कुछ पास में होना हमेशा बेहतर होता है कुछ भी पास न होने की अपेक्षा। कम से कम यह दुख तो होता है वहां।

यद्यपि तुम दुखी हो, तो भी तुम कुछ तो हो। तुम नरक लिये हुए हो तुम्हारे भीतर, लेकिन कम से कम तुम्हारे पास कोई चीज है तो! लेकिन इसे जरा देखना, इसका निरीक्षण करना। और जब तुम समर्पण करते हो तो ध्यान रखना कि तुम्हारे पास कुछ और नहीं है देने को। गुरु तुम्हारा दुख लेता है, और कुछ नहीं। वह तुम्हारा जीवन नहीं ले रहा; तुम्हारे पास यह है नहीं। वह केवल तुम्हारी मृत्यु ले रहा है। वह कोई मूल्यवान चीज नहीं ले रहा तुमसे। वह तो तुम्हारे पास है ही नहीं। वह केवल रही—कूडा ले रहा है; वह कबाड़खाना, जो तुमने बहुत जन्मों से इकट्ठा किया है और तुम बैठे हुए उस कूडे—कबाड़े के ढेर पर, सोचते हो कि यह तुम्हारा राज्य है!

कुछ नहीं ले रहा है वह। यदि तुम तैयार हो अपना दुख देने को, तो तुम उसका आशीष पाने के योग्य हो जाओगे। यह है समर्पण। और तब गुरु भगवान हो जाता है। कोई चीज, कोई व्यक्ति जिसे तुम समर्पण कर दो, वह दिव्य हो जाता है। समर्पण दिव्यता निर्मित करता है। समर्पण एक सृजनात्मक शक्ति है।

तीसर प्रश्‍न:

क्या सतोरी के पश्चात गुरु की आवश्यकता होती है?

हां। कुछ ज्यादा ही। क्योंकि सतोरी मात्र झलक है। और झलक खतरनाक होती है क्योंकि अब तुम अज्ञात क्षेत्र में प्रवेश करते हो। इससे पहले गुरु आवश्यक न था। इससे पहले तुम शांत संसार में बढ़ रहे थे। केवल सतोरी के बाद वह परम रूप से आवश्यक हो जाता है। क्योंकि अब किसी की आवश्यकता है जो तुम्हारा हाथ थामे और तुम्हें उसकी ओर ले जाये जो मात्र झलक नहीं है, बल्कि जो परम यथार्थ बन जाता है। सतोरी के बाद तुमने स्वाद पा लिया है। और स्वाद, और आकांक्षा निर्मित करता है। और स्वाद इतना चुंबकीय बन जाता है कि तुम इसमें पागलों की भांति तेजी से बढ़ जाना चाहोगे। अब होती है गुरु की आवश्यकता।

सतोरी के बाद और बहुत चीजें घटने वाली हैं। सतोरी ऐसी है जैसे एवरेस्ट के, गौरीशंकर के शिखर को साफ—साफ देख लेना। एक दिन किसी निर्मल स्वच्छ सुबह, उज्वल सुबह, जब धुंध नहीं होती, तुम हजारों मील दूर से देख सकते हो ऊंचे, खुले आकाश में उठते गौरीशंकर के सुंदर शिखर को। यह होती है सतोरी। अब वास्तविक यात्रा आरंभ होती है। अब सारा संसार व्यर्थ जान पड़ता है।

यह एक क्रांतिकारी मोड होता है। अब वह सब व्यर्थ हो जाता है जो तुम जानते थे। वह सब जो तुम्हारे पास था, एक बोझ हो जाता है। अब वह संसार, वह जीवन जिसे तुमने अब तक जीया था, एकदम तिरोहित हो जाता है स्वप्‍न की भांति, क्योंकि अब विराट घट गया है। और यह केवल सतोरी है, एक झलक। जल्दी ही धुंध वहां होगी, और शिखर दिखायी न देता रहेगा। बादल चले आयेंगे और शिखर खो जायेगा। अब तुम चेतना की एक नितांत अनिश्चित अवस्था में होओगे।

पहली बात समझने की होगी कि जो कुछ तुमने देखा, वास्तविक था या मात्र एक सपना था, क्योंकि कहां चला गया अब वह? वह तिरोहित हो गया। वह तो बस एक झरोखा था, मात्र एक अंतराल था। और तुम वापस आ गये हो, तुम्हारी अपनी दुनियां की ओर फेंक दिये गये हो।

संदेह उठ खड़े होंगे। जो कुछ देखा है तुमने, क्या वह सच था? क्या यह वस्तुत: था या कि तुमने उसका सपना देखा या उसकी कल्पना की? और कल्पना करने की संभावनाएं होती हैं। बहुत लोग्र कल्पना कर लेते हैं, अत: आशंका गलत नहीं होती है। बहुत बार तुम कल्पना करोगे। और तुम भेद नहीं कर सकते इसका कि क्या वास्तविक है और क्या अवास्तविक है। केवल गुरु बता सकता है, ‘हां, चिंतित मत होओ। यह वास्तविक था’, या गुरु कह सकता है, ‘छोड़ो इसे। फेंको इसे। यह मात्र काल्पनिक बात थी।’

केवल वही जिसने शिखर को जान लिया— और केवल दूर मैदान पर रह कर ही नहीं जाना, वह स्वयं शिखर को पा गया है; केवल वही जो स्वयं शिखर हो गया है, बता सकता है तुम्हें, क्योंकि उसके पास है कसौटी, उसके पास है निष्कर्ष। वह कह सकता है, ‘फेंको भी इसे। कूड़ा—करकट है यह। केवल तुम्हारी कल्पना है यह।’ क्योंकि जब खोजी इन चीजों के बारे में सोचता चला जाता है, तो मन सपने देखना शुरू कर देता है।

बहुत लोग आते हैं मेरे पास। उनमें से केवल एक प्रतिशत के पास होती है वास्तविक चीज; निन्यानबे प्रतिशत लोग अवास्तविक बातें ले आते हैं। लेकिन यह कठिन होता है उनके लिए निर्णय लेना—कठिन ही नहीं, असंभव। वे नहीं निर्णय कर सकते। अकस्मात ऊर्जा का उफान अनुभव करते हो रीढ़ में, पीठ के मेरुदंड में। कैसे तुम इसका निर्णय करोगे कि यह वास्तविक है या अवास्तविक? तुम इसके बारे में बहुत ज्यादा सोचते रहे हो, तुम इसकी आकांक्षा भी करते रहे हो। अचेतन रूप से तुम इसके बीज बोते रहे हो कि ऐसा घटना चाहिए—कुंडलिनी जगनी चाहिए। और तुम पढ़ते रहे हो पतंजलि को, और तुम इस बारे में बातें करते रहे हो, और फिर तुम लोगों से मिलते हो जो कहते हैं कि उनकी कुंडलिनी जग गयी है।

तुम्हारा अहंकार बीच में चला आता है, और तब हर चीज मिश्रित हो जाती है। अकस्मात एक दिन तुम ऊर्जा का उफान अनुभव करते हो, लेकिन यह मन के निर्माण के सिवाय कुछ नहीं है। मन तुम्हें संतुष्ट करना चाहता है, यह कह कर कि, ‘चिंतित मत होओ—इतने ज्यादा मत होओ चिंतित। जरा देखो। तुम्हारी कुंडलिनी तो जाग गयी।’ और यह है मन की कल्पना मात्र। तो कौन करेगा निर्णय? और कैसे करोगे तुम निर्णय? तुम सच को जानते नहीं। केवल सत्य का अनुभव कसौटी बन सकता है कि यह सत्य है या कि असत्य यह निर्णय करने के लिए।

प्रथम सतोरी के पश्चात गुरु की जरूरत ज्यादा ही होती है। तीन होती हैं सतोरी। पहली सतोरी तो मात्र झलक है। यह कई बार नशों के द्वारा भी संभव होती है; यह संभव हो जाती है दूसरी बहुत सारी चीजों द्वारा; कई बार दुर्घटनाओं द्वारा भी। कई बार जब वृक्ष पर चढ़ते हुए, तुम नीचे गिर जाते हो, और यह ऐसा झटका होता है कि मन क्षण भर को ठहर जाता है। तब झलक होती है वहां, और तुम इतना सुख—बोध अनुभव करते हो कि तुम देह से बाहर ले जाये जाते हो। तुम कुछ जान लेते हो।

एक पल के भीतर तुम लौट आते हो। मन फिर सक्रिय हो उठता है। यह एक आघात मात्र था। बिजली के आघात द्वारा ऐसा सम्भव होता है, ईक्ष्लन के आघात द्वारा ऐसा सम्भव होता है, नशों द्वारा यह सम्भव होता है। कई बीमारियों में भी हो जाता है ऐसा। तुम इतने दुर्बल होते हो कि मन सक्रिय नहीं हो सकता, अत: अचानक तुम झलक पा लेते हो। कामवासना द्वारा यह सम्भव होता है। कामोन्माद में, जब सारा शरीर कैप जाता है, तब यह सम्भव हो जाता है।

जरूरी नहीं है कि पहली झलक आध्यात्मिक प्रयास द्वारा ही मिले। इसीलिए एल एस डी, मैस्कलीन, मारिजुआना, इतनी महत्वपूर्ण और आकर्षक हो उठी हैं। पहली झलक सम्भव है। और तुम नशे की पकड़ में आ सकते हो पहली झलक के कारण। यह स्थायी नशा बन सकती है, लेकिन तब यह बहुत खतरनाक होती है।

झलकियां मदद न देंगी। वे मदद कर सकती हैं लेकिन जरूरी नहीं कि कोई मदद उनसे पहुंचे। वे मदद कर सकती हैं केवल गुरु के आसपास ही, क्योंकि तब वह कहेगा, ‘ अब झलक के पीछे मत पड़े रहो। तुम्हें मिल गयी झलक, तो अब शिखर तक पहुंचने के लिए यात्रा शुरू करो।’ लक्ष्य केवल शिखर तक पहुंचने भर का ही नहीं है, अंततः स्वयं शिखर होना होता है।

तो ये तीन अवस्थाएं हैं। पहली है झलक पाना। यह बहुत तरीकों द्वारा सम्भव है, जरूरी नहीं कि वे धार्मिक किस्म के ही तरीके हों। एक नास्तिक भी पा सकता है झलक, वह व्यक्ति जो धर्म में रुचि नहीं रखता उसे मिल सकती है झलक। नशे, रासायनिक द्रव्य तुम्हें दे सकते हैं झलक। किसी ऑपरेशन के बाद भी जब तुम क्लोरोफार्म से बाहर आ रहे होते हो, तुम झलक पा सकते हो। और जब तुम्हें क्लोरोफार्म दी जा रही होती है और तुम गहरे से गहरे जा रहे होते हो, तुम झलक पा सकते हो।

बहुत लोग उपलब्ध हुए पहली सतोरी को; यह कोई बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हैं। यह दूसरी सतोरी तक पहुंचने के लिए एक पिछले चरण की तरह उपयोग की जा सकती है। दूसरी सतोरी संयोगवशात कभी नहीं घटती। वह घटती है केवल विधियों, तरकीबों और रहस्य विद्यालयों में गहन अभ्यास द्वारा क्योंकि दूसरी सतोरी तक पहुंचना एक लम्बा प्रयास होता है।

और फिर होती है तीसरी सतोरी, जिसे पतंजलि कहते हैं समाधि। वह तीसरी है, स्वयं शिखर हो जाना। दूसरी से भी तुम नीचे पहुंच सकते हो। तुम पहुंच जाते हो शिखर तक, और शायद यह असहनीय हो जाये।

आनन्द भी कई बार बरदाश्त के बाहर होता है—केवल दर्द ही नहीं, बल्कि आनन्द भी। यह बहुत ज्यादा हो सकता है, अत: व्यक्ति वापस समतल में लौट आता है।

ऊंचे शिखर पर रहना कठिन है, बहुत कठिन। कोई वापस लौट आना चाहेगा। जब तक कि तुम स्वयं शिखर ही नहीं बन जाते, जब तक अनुभवकर्त्ता अनुभव नहीं बन जाता, यह बात खो सकती है। इसलिए तीसरी सतोरी तक, समाधि तक गुरु की आवश्यकता है। केवल जब अंतिम समाधि, वह परम समाधि घटती है तभी गुरु की आवश्यकता नहीं रहती।

चौथा प्रश्‍न:

आपको सुनते हुए छत बार कुछ शब्द गहरे उतर जाते हैं और अकस्मात एक स्पष्टता तथा समझ होती है 1 जब मैं आपके द्वारा बोले शब्दों के प्रति स्तुत एकाग्र रहूं तभी ऐसा होता है फिर भी आपके शब्दों की ओर खास ध्यान दिये बिना आपको सुन रहे हों तो शांति उतरती है। वह भी उतनी ही आनन्ददायिनी होती है लेकिन तब शब्द और उनके अर्थ खो जाते है। कृपया आपको सुनने की कला के विषय में हमारा मार्गदर्शन कीजिए क्योंकि यह आपके श्रेष्ट ध्यानों में से एक है।

शब्दों और उनके अर्थों की बहुत फिक्र मत लेना। यदि तुम शब्दों और उनके अर्थोंपर ज्यादा मनोयोग लगाते हो तो यह एक बौद्धिक चीज है। निस्संदेह कई बार तुम स्पष्टता प्राप्त कर लोगे। अचानक बादल छंट जाते हैं और सूर्य होता है वहां, लेकिन ये केवल क्षणिक बातें होंगी और यह स्पष्टता ज्यादा मदद न देगी। अगले पल यह जा चुकी होती है। बौद्धिक स्पष्टता ज्यादा काम की नहीं होती।

यदि तुम सुनते हो शब्दों और उनके अर्थों को तो हो सकता है तुम बहुत सारी चीजें समझ लो, लेकिन तुम मुझे न समझ पाओगे और तुम स्वयं को भी न समझ पाओगे। वे बहुत सारी चीजें बहुत लाभप्रद नहीं हैं। शब्दों की और अर्थ की फिक्र मत करना। मुझे सुनो जैसे कि मैं वक्ता नहीं हूं बल्कि एक गायक हूं जैसे कि मैं शब्दों में नहीं बोल रहा तुमसे, बल्कि ध्वनियों में बोल रहा हूं जैसे कि मै कोई कवि हूं।

अर्थ खोजने की जरा भी आवश्यकता नहीं कि मेरा अर्थ क्या है। शब्दों और अर्थों पर कोई ध्यान दिये बगैर मात्र मुझे सुनते हुए, स्पष्टता की अलग गुणवत्ता तुम्हारे पास चली आयेगी। तुम आनन्दमय अनुभव करोगे। तुम शांति, मौन और चैन अनुभव करोगे। यह है वास्तविक अर्थ।

मैं यहां तुम्हें निश्‍चित बातें समझा देने को नहीं हूं बल्कि तुम्हारे अस्तित्व के भीतर एक निश्‍चित गुणवंत्ता का सृजन कर देने को यहां हूं। मैं व्याख्या करने के लिए तुमसे बातें नहीं कर रहा हूं मेरा बोलना एक सृजनात्मक घटना है। मैं तुम्हें कोई चीज समझाने की कोशिश नहीं कर रहा। वह बात तुम पुस्तकों द्वारा भी कर सकते हो। लाखों दूसरे ढंग हैं ऐसी बातों को समझने के। मैं यहां हूं तुम्हें रूपांतरित करने के लिए।

मुझे सुनो सरलता से, निदोंषतापूर्वक, शब्दों और उनके अर्थों के बारे में कोई चिंता बनाये बिना। उस स्पष्टता को गिरा दो; वह बहुत काम की नहीं है। जब तुम सिर्फ मुझे सुनते हो, पारदर्शी रूप से, बुद्धि अब वहां न रही—हृदय से हृदय, गहराई से गहराई, अंतस से अंतस—तब बोलने वाला खो जाता है और सुनने वाला भी। तब मैं यहां नहीं होता और तुम भी यहां नहीं रहते। एक गहन एकात्‍म्‍य बनता है; सुनने वाला और बोलने वाला एक बन जाते हैं। और उस एकात्‍म्‍य में तुम रूपांतरित हो जाओगे। उस एकल को उपलब्ध होना ध्यान है। इसे ध्यान बनाओ—न कि चिंतन—मनन, न कि वैचारिक प्रक्रिया; तब शब्दों से ज्यादा बड़ी कोई चीज सम्प्रेषित होती है—अर्थों से परे की कोई चीज। वास्तविक अर्थ, परम अर्थ अवतरित होता है, चला आता है—कोई वह चीज जो शाखों में नहीं है और हो नहीं सकती।

तुम स्वयं पढ सकते ही पतंजलि को। थोड़ा—सा प्रयास और तुम समझ जाओगे उसे। मैं यहां इसलिए नहीं बोल रहा कि इस प्रकार तुम पतंजलि को समझने के योग्य हो जाओगे; नहीं, यह तो बिलकुल उद्देश्य नहीं है। पतंजलि तो एक बहाना भर हैं, एक खूंटी। मैं उन पर कुछ ऐसा टांग रहा हूं जो शास्त्रों के पार का है।

यदि तुम मेरे शब्दों को सुनते हो तो तुम पतंजलि को समझ जाओगे; एक स्पष्टता होगी। लेकिन यदि तुम मेरे नाद को सुनते हो, यदि शब्दों को नहीं बल्कि मुझे सुनते हो, तब वास्तविक अर्थ तुम्हारे लिए उद्घाटित हो जायेंगे। और उस अर्थ का पतंजलि से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। वह शाखों से पार का सम्प्रेषण है।

आज इतना ही।


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पंतजलि: योगसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–15

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गुरूओं का गुरु—प्रवचन—पंद्रहवां

दिनांक 5 जनवरी, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र:

पूवेंषामपिगुरु कालेनानवच्छेदात्।। 26।।

समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

तस्य वाचक: प्रणव:.।। 27।।

उसे ओम् के रूप में जाना जाता है।

तजपस्तदर्थभावनमू।। 28।।

ओम को दोहराओ और इस पर ध्यान करो।

ततः प्रत्यक्येतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्र।। 29।।

ओम् को दोहराना और उस पर ध्यान करना सारी बाधाओं का विलीनीकरण और एक नवचेतना का जागरण लाता है।

पतंजलि परमात्मा की घटना के बारे में कह रहे है। परमात्मा स्रष्टा नहीं है। पतंजलि के लिए परमात्‍मा है अ? वैयक्तिक चेतना का परम रूप से खिलना। हर कोई और हर चीज परमात्मा होने के मार्ग पर है। न केवल तुम्हीं, बल्कि पत्थर, चट्टानें, अस्तित्व की प्रत्येक इकाई परमात्मा होने के मार्ग पर है। कई हो ही चुके है; कई हो रहे हैं; कई होंगे।

परमात्मा स्रष्टा नहीं है, बल्कि परमोत्कर्ष है, अस्तित्व का परम शिखर। वह आरम्भ में नहीं है, वह अन्त में है। और निस्संदेह एक अर्थ में वह आरम्भ में भी है, क्योंकि अन्त में केवल वही खिल सकता है जो वहां एकदम आरम्भ से ही बीज रूप में सदा रहा है। परमात्मा है एक अंतस संभावना, एक प्रच्छन्न सम्भावना। इस बात को ध्यान में रख लेना है। अत: पतंजलि के लिए एक ईश्वर नहीं है; अनन्त ईश्वर हैं। सारा अस्तित्व भरा हुआ है ईश्वरों

पतंजलि की ईश्वर की अवधारणा को तुम एक बार समझ लेते हो, तो ईश्वर वस्तुत: पूजा करने के लिए ही नहीं होता। तुम्हें वही होना होता है; वही होती है एकमात्र पूजा। यदि तुम ईश्वर की पूजा किये चले जाते हो, तो यह बात मदद न देगी। वस्तुत: यह नासमझी होती है। पूजा, वास्तविक पूजा तो तुम्हारे स्वयं के ईश्वर हो जाने से होती है। सारा प्रयास होना चाहिए तुम्हारी क्षमता को उस बिंदु तक ले आने का जहां यह वास्तविकता में विस्फोटित होती है, जहां बीज प्रक्तटित होता है और जो अनन्त काल से वहां छिपा हुआ था, वह प्रकट हो जाता है। तुम अव्यक्त परमात्‍मा हो। और अव्यक्त को व्यक्त के स्तर तक ले आने का प्रयास होता है—इसे अभिव्यक्ति के तल तक ले आने का।

समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

पतंजलि अपनी परमात्‍मा की अवधारणा के विषय में कह रहे है। जब कोई पूरी तरह खिल जाता है, जब किसी का अस्तित्व खिला हुआ कमल बन जाता है, तब उसे बहुत चीजें घटती हैं और उसके द्वारा बहुत चीजें अस्तित्व में घटनी शुरू हो जाती हैं। वह व्यक्ति एक विशाल शक्ति बन जाता है, अपरिसीम शक्ति; और उसके द्वारा बहुत ढंग से, अपने सच्चे रूप से ईश्वर होने में दूसरे मदद पाते हैं।

‘समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

तीन प्रकार के गुरु होते हैं। एक जो है वह गुरु नहीं होता; बल्कि वह शिक्षक होता है। शिक्षक वह है जो शिक्षा देता है, जो चीजों को जानने में लोगों की मदद करता है, स्वयं उन्हें समझे बिना। कई बार शिक्षक हजारों लोगों को आकर्षित कर सकते हैं। केवल एक बात की आवश्यकता होती है कि उन्हें अच्छा शिक्षक होना चाहिए। हो सकता है उन्होंने स्वयं न जाना हो, लेकिन वे बतला सकते है, वे तर्क दे सकते हैं, वे उपदेश दे सकते है, और बहुत लोग उनके वचनों द्वारा, उनके धमोंपदेशों द्वारा, उनके प्रवचनों द्वारा आकर्षित हो जाते हैं। निरंतर परमात्‍मा की बातें करते हुए शायद वे स्वयं को मूर्ख बना रहे है। हो सकता है धीरे-धीरे वे अनुभव करने लगते हों कि वे जानते हैं।

जब तुम किसी चीज की बात करते हो, तो सबसे बड़ा खतरा होता है कि शायद तुम यकीन ही करने लगो कि तुम जानते हो। शिक्षा देने का आकर्षण है क्योंकि यह बात बहुत अहंकार को भरती है। जब कोई बहुत एकाग्रता से तुम्हें सुनता है, कहीं बहुत गहरे में वह तुम्हारे अहंकार की परिशुइrत करता है क्योंकि तुम अनुभव करते हो कि तुम जानते हो और वह नहीं जानता है। तुम ज्ञानी हो और वह अज्ञानी है।

ऐसा हुआ कि एक पादरी को, बड़े पादरी को पागलखाने में बुलाया गया वहां रहने वालों से कुछ शब्द कहने को। पादरी ज्यादा अपेक्षा न करता था, बल्कि वह तो हैरान हो गया। एक पागल आदमी इतनी एकाग्रता से उसे सुन रहा था, और उसने किसी व्यक्ति को न देखा था उसे इतनी एकाग्रता से सुनते हुए। वह बिलकुल आगे झुका हुआ था। वह हर शब्द को हृदय में बैठा रहा था। आदमी पलक तक न झपका रहा था। वह इतना एकाग्र था कि वह जैसे सम्मोहनावस्था में हो।

जब पादरी ने अपना प्रवचन समाप्त किया, उसने देखा कि वह आदमी सुपरिटेंडेंट के पास गया है और उससे कुछ कहा है उसने। पादरी को जिज्ञासा हुई। जैसे ही सम्भव हुआ, उसने सुपरिटेंडेंट से पूछा, ‘वह आदमी आप से क्या कह रहा था! क्या वह मेरे प्रवचन के बारे में कुछ कह रहा था? ‘ सुपरिटेंडेंट बोला, ‘हां।’ पादरी ने पूछा, ‘क्या आप मुझे बता सकेंगे जो उसने कहा?’ सुपरिटेंडेंट थोड़ा-सा हिचकिचाया, लेकिन फिर वह बोला, ‘ही, उस आदमी ने कहा था, जरा देखो तो, मैं यहां भीतर हूं और वे बाहर हैं।’

शिक्षक ठीक उसी स्थान पर है, उसी नाव में सवार है, जिस पर तुम हो। वह भी पागलखाने का अंतेवासी है। उसके पास तुमसे कुछ ज्यादा नहीं है-बस थोड़ी-सी ही ज्यादा जानकारी है। जानकारी का कोई अर्थ नहीं है। तुम भी इसे इकट्ठा कर सकते हो। साधारणतया, औसत बुद्धिमानी की आवश्यकता होती है जानकारी एकत्रित करने के लिए, बहुत विशिष्ट होने की जरूरत नहीं है, बहुत प्रतिभाशाली होने की जरूरत नहीं है। मात्र औसत बुद्धिमानी काफी है। तुम सूचनाएं एकत्रित कर सकते हो। तुम किये चले जा सकते हो एकत्रित; तुम बन सकते हो शिक्षक।

शिक्षक वह है जो बिना जाने जानता है। यदि वह अच्छा वक्ता है, अच्छा लेखक है, यदि उसके पास व्यक्तित्व है, यदि उसके पास उसका निश्रित जादू भरा आकर्षण है, चुम्बकीय आंखें है, ओजस्वी शरीर है, तो वह लोगों को आकर्षित कर सकता है। और धीरे- धीरे वह अधिकाधिक कुशल बन जाता है। लेकिन उसके आस-पास के लोग शिष्य नहीं हो सकते। वे विद्यार्थी रहेंगे। चाहे वह दावा करता भी रहे कि वह गुरु है, वह तुम्हें शिष्य नहीं बना सकता। अधिक से अधिक वह तुम्हें एक विद्यार्थी बना सकता है। विद्यार्थी वह है जो और ज्यादा जानकारी की तलाश में है, और शिक्षक वह है जो ज्यादा जानकारी इकट्ठी कर चुका है। यह पहली प्रकार का गुरु होता है, जो बिलकुल गुरु नहीं होता।

फिर होता है एक दूसरी प्रकार का गुरु-वह जिसने स्वयं को जान लिया है। जो कुछ वह कहता है, वह हेराक्लतु की भांति कह सकता है- ‘मैंने खोज लिया।’ या बुद्ध की भांति कह सकता है वह ‘मैंने पा लिया।’हेराक्लतु ज्यादा विनम्र हैं। वे उन लोगों से बोल रहे थे जो नहीं समझ सकते थे यदि वे बुद्ध की भांति बोले होते, कि मैंने पा लिया। बुद्ध कहते हैं अब तक जितने बुद्धपुरुष हुए हैं उनमें मैं सबसे अधिक संपूर्ण बुद्धपुरुष हूं। यह अहंकारपूर्ण मालूम पड़ता है, तो भी है नहीं। वे अपने शिष्यों से बोल रहे थे, जो समझ सकते थे कि कोई अहंकार बिलकुल नहीं है। हेराक्लतु उन लोगों से बोल रहे थे जो शिष्य नहीं थे, मात्र साधारण मनुष्य थे। वे नहीं समझते होंगे। विनम्रतापूर्वक वे कहते, ‘मैंने खोजा है’, और यह शेष भाग- ‘मैंने पा लिया है’, वे छोड़ देते हैं तुम्हारी कल्पनाशक्ति पर। बुद्ध कभी नहीं कहते, ‘मैंने खोजा है।’वे कहते हैं, ‘मैंने पा लिया। और ऐसी सम्बोधि पहले कभी नहीं घटी। यह पूर्णरूपेण चरम है।’

जिसने पा लिया है वह गुरु है। वह शिष्यों को ग्रहण करेगा। विद्यार्थी रोक दिये जाते हैं; विद्यार्थी अपने आप वहां नहीं जा सकते। यदि वे बेमतलब आ जायें और किसी तरह पहुंच भी जायें तो जितनी जल्दी सम्भव हो वे चल देंगे क्योंकि वह अधिक ज्ञान एकत्रित करने में तुम्हारी मदद न कर रहा होगा। वह तुम्हें रूपांतरित करने की कोशिश करेगा। वह तुम्हें देगा तुम्हारी अंतस सत्ता, बीइंग, न कि ज्ञान। वह तुम्हें देगा अधिक अस्तित्व, न कि अधिक ज्ञान। वह तुम्हें केन्द्र में अवस्थित करेगा। और केन्द्र है कहीं नाभि के निकट, सिर में नहीं है।

जो कुछ सिर में रहता है वह एकसेंट्रिक होता है, विकेंद्रित होता है। यह शब्द सुन्दर है: अंग्रेजी के शब्द एकसेंट्रिक का अर्थ है, केन्द्र से दूर। वस्तुत: जो कोई मस्तिष्क में रहता है पागल होता है। मस्तिष्क बाहर की चीज है। तुम रह सकते हो तुम्हारे पैरों में या तुम रह सकते हो तुम्हारे सिर में। केन्द्र से बनी दूरी वही होती है। केन्द्र है कहीं नाभि के निकट।

एक शिक्षक मस्तिष्क में बद्धमूल होने में तुम्हारी मदद करता है; गुरु तुम्हारे सिर से तुम्हें उखाड़ देगा और तुम्हें पुनरापित करेगा। यह यथार्थत: पुनरोंपण ही है। इसमें बहुत अधिक पीड़ा होती है। यह होनी ही है। पीड़ा है, व्यथा है, क्योंकि जब तुम पुनरोंपण करते हो, तो पौधे को जमीन से उखाड़ना ही होता है। हमेशा ऐसा ही होता रहा है। और तब फिर से इसे नयी मिट्टी में रोपना होता है। इसमें समय लगेगा। पुराने पत्ते गिर जायेंगे। सारा पौधा एक पीड़ा में से, अनिश्रितता में से गुजरेगा, न जानते हुए कि वह बचने वाला है या नहीं। यह पुनर्जन्म होता है। शिक्षक के साथ कोई पुनर्जन्म नहीं; गुरु के साथ पुनर्जन्म होता है।

सुकरात ठीक है। वह कहता है, ‘मैं हूं मिडवाइफ, एक दाई।’ हां, गुरु दाई होता है। पुनजार्वित होने में वह तुम्हें मदद देता है। पर इसका अर्थ होता है तुम्हें मरना होगा-केवल तभी तुम पुनजग़ॅवत हो सकते हो। अत: गुरु केवल दाई ही नहीं होता; सुकरात केवल आधी बात कहता है। गुरु मार डालने वाला भी होता है-एक वधिक और एक दाई का जोड़। पहले वह तुम्हें मारेगा-तुम जिस रूप में हो, और केवल तभी नया बाहर आ सकता है तुममें से। तुम्हारी मृत्यु में से होता है पुनर्जन्म।

एक शिक्षक तुम्हें कभी नहीं बदलता। जो कुछ तुम होते हो, जो कोई तुम होते हो, वह सिर्फ तुम्हें और अधिक सूचनाएं दे देता है। वह तुममें कुछ जोड़ देता है; वह उसी सातत्य को बनाये रखता है। हो सकता है वह तुम्हें किंचित परिवर्तित कर दे। वह तुम्हारा परिष्कार कर सकता है। शायद तुम ज्यादा सुसंस्कृत हो जाओ, ज्यादा परिष्कृत। लेकिन तुम वही रहोगे; आधार वही रहेगा।

गुरु के साथ एक अंतराल घटता है। तुम्हारा अतीत यूं हो जाता है जैसे कि वह कभी तुम्हारा न था; जैसे वह किसी और से सम्बन्धित था, जैसे तुमने इसका सपना देखा था। यह वास्तविक नहीं था; यह एक दुःखस्‍पन था। निरंतरता टूटती है। एक अंतराल होता है। पुराना गिर जाता है और नया आ जाता है, और बीच में होती है खाली जगह, एक अंतराल। वही अंतराल है समस्या; उस अंतराल को गुजरने देना है। उस अंतराल में बहुत लोग घबड़ा ही जाते हैं और वापस चले जाते हैं। वे शीघ्रता से दौड़ते हैं और पुराने अतीत से जा चिपकते हैं।

इस अंतराल को पार करने में गुरु तुम्हारी मदद करता है, लेकिन शिक्षक के लिए ऐसा कुछ नहीं होता है; कोई समस्या नहीं होती। शिक्षक तुम्हें मदद देता है ज्यादा सीखने में, जबकि गुरु का पहला काम है अनसीखा होने में तुम्हारी मदद करना। यही है भेद।

किसी ने रमण महर्षि से पूछा, ‘मैं बहुत दूर से आया हूं आपसे सीखने। मुझे शिक्षा दीजिए।’ रमण हंस दिये और बोले, ‘यदि तुम सीखने आये, तो किसी दूसरी जगह जाओ क्योंकि हम यहां सीखे को अनसीखा करते हैं। हम यहां सिखाते नहीं। तुम बहुत ज्यादा जानते ही हो। यही है तुम्हारी समस्या। ज्यादा सीखने से ज्यादा समस्थाएं बढेगी। हम सिखाते है कैसे अनसीखा हुआ जाये, कैसे शांत हुआ जाये।’

गुरु आकर्षित करता है शिष्यों को, शिक्षक आकर्षित करता है विद्यार्थियों को। शिष्य क्या होता है? हर चीज सूक्ष्म रूप से समझ लेनी है; केवल तब तुम समझ पाओगे पतंजलि को। कौन होता है शिष्य? एक विद्यार्थी और एक शिष्य के बीच भेद क्या हैं? विद्यार्थी ज्ञान की खोज में होता है, शिष्य होता है रूपांतरण की, अंतस क्रांति की खोज में। वह स्वयं के साथ हताश हो चुका होता है। वह उस स्थल तक पहुंच चुका है जहां वह जान लेता है, ‘जैसा मैं हूं मैं बेकार हूं धूल हूं कुछ और नहीं। जैसा मैं हूं किसी मूल्य का नहीं हूं।’

वह आया है नया जन्म पाने को, नयी अंतस सत्ता पाने को। वह तैयार है सूली से गुजरने के लिए, मृत्यु और पुनर्जन्म की टोस और पीड़ाओं से गुजरने के लिए इसलिए, यह शब्द आया शिष्य, ‘डिसाइपल।’ ‘डिसाइपल’ शब्द आया है डिसिप्लिन से-वह तैयार होता है किसी डिसिप्लिन, किसी अनुशासन से गुजर जाने के लिए। जो कुछ गुरु कहता है, वह उसका अनुकरण करने के लिए तैयार रहता है। अब तक वह अपने मन के पीछे चलता रहा है बहुत जन्मों से और वह पहुंचा कहीं नहीं। उसने अपने मन की ही सुनी और वह अधिकाधिक मुसीबत में पड़ता रहा है। अब वह जगह आ गयी जहां वह अनुभव करता है, ‘यह बहुत हुआ।’

तब वह आता है गुरु के पास और समर्पण कर देता है। यह है अनुशासन, पहला सोपान। वह कहता है, ‘अब मैं आपकी सुनूंगा। मैंने अपने मन की बहुत सुन ली है। मैं अनुयायी रहा मन का, उसका शिष्य रहा, और यह बात कहीं नहीं ले जाती। मैंने यह जान लिया है। अब आप मेरे गुरु हैं। इसका अर्थ है, अब आप मेरे मन हैं। आप जो कुछ कहते हैं, मैं सुनूंगा। जहां कहीं आप ले जाते हैं, मैं जाऊंगा। मैं आपसे पूछूंगा नहीं क्योंकि वह पूछना आयेगा मेरे मन से।’

शिष्य वह है जिसने जीवन से एक बात सीख ली है, कि मन है गड़बड़ी मचाने वाला; मन है उसके दुखों का मूल कारण। मन हमेशा कह देता है, मेरे दुखों का कारण कोई दूसरा है, मैं नहीं हूं। ‘शिष्य वह है जो जान चुका है कि यह तो एक चालाकी, है, यह मन का एक जाल है। यह हमेशा कहता है, कोई और है जिम्मेवार; मैं जिम्मेवार नहीं हूं। इस तरह यह स्वयं का बचाव करता है, संरक्षण करता है, स्वयं को सुरक्षित बनाये रहता है। शिष्य वह है जो समझ गया है कि यह गलत है, कि यह चालाकी है मन की। वह अनुभव करने लगा है मन के इस सारे पागलपन को।

यह तुम्हें आकांक्षाओं की ओर ले जाता है; आकांक्षाएं तुम्हें ले जाती हैं हताशा की ओर। यह तुम्हें ले जाता सफलता की ओर; प्रत्येक सफलता बन जाती है विफलता। यह तुम्हें आकर्षित करता है सुन्दरता की ओर; प्रत्येक सुन्दरता सिद्ध होती है असुन्दरता। यह तुम्हें आगे ही आगे ले जाता है, यह कोई वादा पूरा नहीं करता। यह तुम्हें आशा दिलाता है, लेकिन नहीं, एक भी आशा पूरी नहीं होती। यह तुम्हें संदेह देता है। संदेह हृदय में बन जाता है एक कीड़ा—एकदम विषैला। यह तुम्हें आस्था रखने नहीं देता, और बिना आस्था के कोई विकास नहीं होता। जब तुम समझ लेते हो यह सारी बात, केवल तभी तुम शिष्य हो सकते हो।

जब तुम गुरु के पास आते हो, तो प्रतीकात्‍मक—रूप से तुम अपना सिर उसके चरणों पर रख देते हो। यह होता है तुम्हारे सिर का गिरना। तुम्हारा सिर उसके चरणों पर रख देने का यही है अर्थ। तुम कहते हो, ‘ अब मैं सिरविहीन बना रहूंगा। अब जो कुछ तुम कहते हो वही मेरा जीवन होगा। ‘यह होता है समर्पण। गुरु के शिष्य होते हैं जो मरने के लिए और पुन: जन्मने के लिए तैयार रहते हैं।

फिर आती है तीसरी कोटि—गुरुओं का प्रधान गुरु। पहली कोटि; विद्यार्थियों का शिक्षक; दूसरी—शिष्यों का गुरु होता है; और फिर तीसरी, गुरुओं का गुरु होता है। पतंजलि कहते हैं कि जब गुरु भगवान हो जाता है—और भगवान होने का अर्थ होता है समय के बाहर होना; वह हो जाना जिसके लिए समय अस्तित्व नहीं रखता है, जिसके लिए समय कुछ है नहीं; वह हो जाना जो समयातीतता को समझ चुका है; अनंतता को समझ चुका है, जो केवल बदला ही नहीं और जो केवल भगवान ही नहीं हुआ, जो केवल परिवर्तित और जाग्रत ही नहीं हुआ, बल्कि जो समय के बाहर जा चुका है, वह गुरुओं का गुरु हो जाता है। अब वह भगवान हो जाता है।

तो करता क्या होगा वह गुरुओं का गुरु? यह अवस्था केवल तभी आती है जब गुरु देह छोड़ता है, उसके पहले कभी नहीं। देह में तुम जाग्रत हो सकते हो, देह में रह तुम जान सकते हो कि समय नहीं है। लेकिन देह के पास जैविक घड़ी है। वह भूख अनुभव करता है, और समय के अंतराल के बाद फिर अनुभव करता है भूख—परितृप्ति और भूख; नींद, रोग, स्वास्थ्य। रात में देह को निद्रा में चले जाना होता है, सुबह इसे जगाना होता है। देह की जैविक घड़ी होती है। अत: तीसरे प्रकार का गुरु केवल तभी घटता है जब गुरु सदा के लिए देह छोड़ देता है; जब उसे फिर से देह में नहीं लौटना होता।

बुद्ध के पास दो शब्द हैं। पहला है निर्वाण, सम्बोधि। जब बुद्ध सम्बोधि को उपलब्ध हुए, तो भी देह में बने रहे। यह थी सम्बोधि, निर्वाण। फिर चालीस वर्ष के पश्चात उन्होंने देह छोड़ दी। इसे वे कहते है परम निर्वाण— ‘महापरिनिर्वाण’। फिर वे हो गये गुरुओं के गुरु, और वे बने रहे हैं गुरुओं के गुरु।

प्रत्येक गुरु, जब वह स्थायी रूप से देह छोड़ देता है, जब उसे फिर नही लौटना होता, तब वह गुरुओं का गुरु हो जाता है। मोहम्मद, जीसस, महावीर, बुद्ध, पतंजलि, वे प्रत्येक गुरुओं के गुरु हुए और वे निरंतर रूप से गुरुओं को निर्देशित करते रहे हैं न कि शिष्यों को।

जब कोई पतंजलि के मार्ग पर जाता हुआ गुरु हो जाता है, तो फौरन पतंजलि के साथ एक सम्पर्क सध जाता है। उनकी आत्मा असीम में तैरती रहती है उस वैयक्तिक चेतना के साथ, जिसे कि भगवान कहा जाता है। जब कभी कोई व्यक्ति पतंजलि के मार्ग का अनुसरण करता हुआ गुरु हो जाता है, संबोधि को उपलब्ध हो जाता है, तो तुरंत उस आदिगुरु के साथ जो कि अब भगवान है, एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।

जब कभी कोई बुद्ध का अनुसरण करते हुए सम्बोधि को उपलब्ध होता है, तो कुल एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है; अकस्मात वह बुद्ध के साथ जुड़ जाता है। बुद्ध के साथ जो अब देह में नहीं रहे, जो समय में नहीं रहे और काल में नहीं रहे, लेकिन जो अब भी हैं; उन बुद्ध के साथ जुड़ जाता है जो समग्र समष्टि के साथ एक हो चुके हैं, लेकिन जो अब भी हैं।

यह बहुत विरोधाभासी है और समझना बहुत कठिन है क्योंकि हम वह कोई चीज नहीं समझ सकते जो समय के बाहर की होती है। हमारी सारी समझ समय के भीतर होती है; हमारी सारी समझ स्थान से जुड़ी होती है। जब कोई कहता है कि बुद्ध समयातीत और स्थानातीत हैं, तो यह बात हमारी समझ में नहीं आती।

जब तुम कहते हो कि बुद्ध समयातीत हैं, इसका अर्थ होता है कि वे कहीं विशेष स्थान में अस्तित्व नहीं रखते। और कैसे कोई अस्तित्व रख सकता है बिना किसी कहीं विशेष स्थान में अस्तित्व रखे हुए? वे विद्यमान रहते है; वे मात्र अस्तित्व रखते है। तुम दिखा नहीं सकते कि कहां; तुम नहीं बता सकते कि वे कहां होते हैं। इस अर्थ में वे कहीं नहीं हैं और एक अर्थ में वे सभी जगह है। मन समय में रहता है अत: उसके लिए समय के पार की किसी चीज को समझना बहुत कठिन है। लेकिन जो बुद्ध की विधियों के पीछे चलता है और गुरु हो जाता है, कुल उसका एक सम्पर्क हो जाता है। बुद्ध अब भी उन लोगों को मार्ग दिखाते रहते है जो उनके मार्ग पर चलते हैं। जीसस अब तक उन लोगों का पथ-प्रदर्शन करते रहते हैं जो उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं।

तिब्बत में कैलाश पर एक स्थान है, जहां प्रत्येक वर्ष जिस दिन बुद्ध ने संसार त्यागा, वैशाख की पूर्णिमा की रात्रि, पांच सौ गुरु एक साथ एकत्रित होते हैं। जब पांच सौ गुरु इस जगह हर वर्ष इकट्ठे होते हैं, तो उन्हें बुद्ध फिर से अवतरित होते हुए दिखते हैं। बुद्ध फिर से दृश्य रूप ग्रहण करते हैं।

यह एक पुराना अभिवचन है, और बुद्ध अब तक इसे पूरा करते हैं। पांच सौ गुरुओं को आना होता है वहां। एक भी कम नहीं होना चाहिए, क्योंकि तब यह बात सम्भव न होगी। ये पांच सौ गुरु बुद्ध के अवतरण के लिए मदद देते हैं वजन की भांति, लंगर की भांति। एक भी गुरु की कमी हो, तो घटना घटती ही नहीं-क्योंकि कई बार ऐसी अवस्था हुई कि वहां पांच सौ गुरु मौजूद नहीं थे। तब उस वर्ष कोई सम्पर्क नहीं घटा, कोई प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं हुआ।

लेकिन तिब्बत में बहुत गुरु हैं, अत: यह कोई कठिनाई न थी। तिब्बत सर्वोधिक प्रज्ञावान देश है; अब तक यह ऐसा ही बना रहा। भविष्य में यह ऐसा नहीं रहेगा-माओ की कृपा के कारण! उसने उस सारे सूक्ष्म ढांचे को नष्ट कर दिया है जिसे तिब्बत ने निर्मित किया था। सारा देश एक ध्यान का मठ था। दूसरे देशों में आश्रमों का अस्तित्व होता है, लेकिन पूरा तिब्बत ही आश्रम था।

ऐसा नियम था कि हर परिवार में से एक व्यक्ति को संन्यस्त हो जाना होता और लामा होना होता। और ऐसा नियम बनाया गया था जिससे कि हर साल कम से कम पांच सौ लामा सदा मौजूद रहते। जब पांच सौ गुरु एक साथ कैलाश पर मध्यरात्रि को इकट्ठे होते बारह बजे, तो बुद्ध फिर प्रकट होते। वे समय और स्थान में उतर आते।

वे मार्ग दिखाते रहे हैं। प्रत्येक गुरु मार्ग-निर्देशन करता रहा है। एक बार तुम गुरु के निकट हो लेते हो-शिक्षक के निकट नहीं-तो तुम श्रद्धा रख सकते हो। चाहे तुम इस जीवन में सम्बोधि न भी पाओ, सूक्ष्म मार्ग-दर्शन सदा निरंत्तर रूप से रहेगा तुम्हारे लिए-चाहे तुम जानो भी नहीं कि तुम निर्देशित किये जा रहे हो। गुरजिएफ से सम्बन्धित बहुत लोग मेरे पास आ गये है। उन्हें आना ही है क्योंकि गुरजिएफ उन्हें मेरी ओर फेंकता रहा है। कोई और है नहीं जिसकी तरफ गुरजिएफ उन्हें फेंक सकता या धकेल सकता। और यह खेदजनक है, लेकिन ऐसा है कि अब गुरजिएफ की पद्धति में कोई गुरु नहीं है, अत: वह सम्पर्क नहीं बना सकता। गुरजिएफ के बहुत लोग कभी न कभी आयेंगे ही और वे सचेत रूप से नहीं आते, क्योंकि वे नहीं समझ सकते क्या घट रहा है। वे सोचते हैं कि यह तो मात्र संयोगिक है।

यदि गुरु समय और स्थान में एक निश्रित मार्ग पर विद्यमान होता है, तब आदिगुरु आदेश भेजता रह सकता है। और इसी तरह धर्म सदा जीवंत रहे हैं। एक बार श्रृंखला टूट जाती है, तो धर्म मुरदा हो जाता है। उदाहरण के लिए जैन धर्म मुरदा हो गया है क्योंकि एक भी ऐसा गुरु नहीं है जिसके पास महावीर नये निर्देश भेज सकते हों। क्योंकि हर युग के साथ चीजें बदल जाती हैं; मन बदल जाते हैं, इसलिए विधियों को बदलना ही होता है, विधियां आविष्कृत की ही जानी होती है, नयी चीजों को जोड़ना ही होता है, पुरानी चीजों को काट देना होता है। हर युग में बहुत-सा कार्य आवश्यक है।

किसी भी परम्परा में यदि गुरु होता है, तब आदिगुरु जो अब भगवान है, सतत आगे बढ़ा सकता है। लेकिन यदि गुरु ही नहीं होता पृथ्वी पर, तब श्रृंखला टूट जाती है और धर्म मुरदा हो जाता है और ऐसा बहुत बार होता है। उदाहरण के लिए जीसस ने कभी नया धर्म निर्मित नहीं करना चाहा था, उन्होंने इसके बारे में कभी सोचा भी नहीं। वे यहूदी थे, और उन्हें सीधे निर्देश मिल रहे थे पुराने यहूदी गुरुओं से, जों-भगवान हो गये थे, लेकिन यहूदी नये निर्देश को सुन नहीं सकते थे। वे कह देते, ‘ऐसा तो धर्मशास्त्रों में लिखा नहीं। तुम किसकी बात कह रहे हो? ‘ शास्त्रों में तो यह लिखा है कि यदि कोई तुम्हें ईंट मारे तो तुम्हें उस पर चट्टान फेंक देनी चाहिए-आख के बदले आख, जीवन के बदले जीवन। और जीसस ने कहना शुरू कर दिया कि ‘ अपने शत्रु से प्रेम करो। और यदि वह एक गाल पर मारे तो दूसरा उसकी ओर कर दो।’

ऐसा यहूदी धर्मग्रन्थों में नहीं लिखा हुआ था, लेकिन यह नया शिक्षण था क्योंकि युग बदल चुका था। चीजों को कार्यान्वित करने की यह नयी विधि थी, और जीसस सीधे भगवानों से निर्देश ग्रहण कर रहे थे-पतंजलि के अनुसार जो भगवान हैं उनसे; पुराने पैगम्बरों से। लेकिन जो उन्होंने सिखाया वह धर्मग्रन्धों में नहीं लिखा हुआ था। यहुदियों ने उन्हें मार दिया, न जानते हुए कि वे क्या कर रहे थे। इसलिए अन्तिम क्षणों में जीसस ने कहा था, जब वे सूली पर चढ़े हुए थे, ‘परमात्मा, इन लोगों को क्षमा करो, क्योंकि वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं। वे आत्महत्या कर रहे है। वे मार रहे है स्वयं को क्योंकि वे स्वयं अपने गुरुओं से सम्बन्ध तोड़ रहे हैं।’

और यही हुआ। जीसस की हत्या यहूदियों के लिए सबसे बड़ी दुर्घटना बनी और दो हजार वर्षो से उन्होंने दुःख झेला है क्योंकि उनके पास कोई सम्पर्क नहीं है। वे जीते है धर्मशास्त्रों को साथ चिपकाये; वे इस पृथ्वी पर सर्वोधिक शाखोसुखी लोग हैं। वे शाखों के साथ जीते हैं-तालमुद के, तोरा के साथ, और जब कभी समय-स्थान के पार के ऊंचे स्रोतो से प्रयत्न किया गया, वे सुनते नहीं।

ऐसा बहुत बार हुआ है। इसी प्रकार नये धर्म उत्‍पन्न होते हैं। यह अनावश्यक है। इसकी कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन लोग सुनेंगे नही। वे पूछेंगे, ‘कहा लिखा है ऐसा?’ नहीं लिखा है यह। नयी देशनाएं है ये, एक नया धर्मशास्त्र। और यदि तुम नये शाख को नहीं सुनते, तो नयी देशनाएं नया धर्म बन जायेंगी। और तुम देख सकते हो कि नया धर्म सदा ज्यादा शक्ति शाली लगता है पुराने से। क्योंकि इसके पास नवीनतम अनुदेश होते है, यह व्यक्ति की ज्यादा मदद कर सकता है।

यहूदी वैसे ही रहे। ईसाइयत आधी पृथ्वी पर फैल गयी। अब आधा संसार ईसाई है। भारत में जैन एक बहुत छोटा अल्पसंख्यक वर्ग बन चुके हैं क्योंकि वे सुनेगे नही। और उनके पास कोई जीवत गुरु नहीं है। उनके यहां बहुत साधु हैं, मुनि हैं बहुत हैं, क्योंकि वह उनकी सामर्थ्य है। वे एक समृद्ध जमात हैं। लेकिन वहाँ एक भी जीवत गुरु नहीं है। कोई अनुदेश उन्हें उच्चतर स्रोत द्वारा नहीं दिया जा सकता है। इस युग में, सारे संसार भर में-भारत की थियोसॉफी के सबसे बडे रहस्योद्घाटनों में से एक यह था कि गुरु सतत निर्देश दिये चला जाता है। पंतजलि कहते हैं, यह गुरुओं की तीसरी कोटि होती है-गुरुओ के गुरु की। यही अर्थ वे भगवान का करते ?

समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

क्या है समय और कैसे कोई समय के पार चला जाता है? इसे समझने की कोशिश करना। समय इच्छा है क्योंकि इच्छा के लिए समय की जरूरत होती है। समय इच्छा का निर्माण है। यदि तुम्हारे पास समय न हो, तो कैसे तुम इच्छा कर सकते हो? इच्छा के सरकने के लिए कोई जगह ही नहीं होती है। इच्छा को आवश्यकता होती है भविष्य की। इसलिए वे लोग जो लाखों इच्छाओं में जीते हैं हमेशा मृत्यु से भयभीत होते हैं। क्यों होते हैं वे मृत्यु से भयभीत मे क्योंकि मृत्यु तुरत्त समय को काट डालती है। कोई समय रहता नहीं। और तुम्हारी लाखों इच्छाएं हैं, और मृत्यु सदा द्वार पर खड़ी है।

मृत्यु का अर्थ है : अब कोई भविष्य न रहा। मृत्यु का अर्थ है : अब और समय न रहा। घड़ी भले ही टिकटिक करती धड़कती रहे, लेकिन तुम्हारी धड़कन नहीं टिकटिक कर रही होगी। और इच्छा की परिपूर्ति के लिए चाहिए समय, भविष्य। तुम वर्तमान में रह कर इच्छा में नहीं जी सकते; वर्तमान में इच्छाओं का अस्तित्व नहीं होता। क्या तुम किसी चीज की इच्छा कर सकते हो वर्तमान में रह कर? कैसे करोगे तुम इसकी इच्छा? यदि तुम इच्छा करते हो, तो फौरन भविष्य प्रवेश कर चुका होता है। कल भीतर आ पहुंचा या अगला पल आ गया। तुम इस पल में यहीं और अभी कैसे कर सकते हो इच्छा?

समय के बगैर इच्छा असम्भव होती है। समय भी असम्भव है इच्छा के बगैर। एक साथ वे एक घटना हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब कोई इच्छाविहीन हो जाता है, तो समयविहीन हो जाता है। भविष्य थम जाता है, अतीत बंद हो जाता है। केवल वर्तमान होता है वहां। जब इच्छाएं थम जाती हैं तो यह बात उस घड़ी की भांति होती है, जिसके कांटे निकालने के बाद, वह टिकटिक किये जाती है। जरा उस घड़ी की कल्पना कर लेना जो बिना सुइयों के टिकटिक किये जाती है। तुम नहीं बता सकते कि कितना समय है।

बिना इच्छाओं के व्यक्ति वह घड़ी है जो बिना सुइयों के टिकटिक किये चला जा रहा है। ऐसी होती है बुद्ध की अवस्था। वे शरीर में जीते हैं; ‘घड़ी’ धड़कती जाती है-क्योंकि शरीर की अपनी जैविक प्रक्रिया होती है जारी रहने को। यह भूखा होगा और यह भोजन मांगेगा। यह प्यासा होगा और यह पेय की मांग करेगा। यह निद्रा अनुभव करेगा और यह सो जायेगा। शरीर की मांग होगी, अत: यह धड़के जा रहा है। लेकिन अन्तरतम अस्तित्व के पास समय नहीं; घड़ी बिना कांटे की है।

लेकिन उस शरीर के कारण ही तुम अटके हुए होते हो, संसार में लंगर डाले हुए होते हो-समय के संसार में। तुम्हारे शरीर का वजन है, और उसी वजन के कारण गुरुत्वाकर्षण अब भी तुम पर कार्य करता है। जब देह छोड दी जाती है, जब कोई बुद्ध अपनी देह छोड़ता है, तब टिकटिक स्वयं बंद हो जाती है। तब वह शुद्ध चेतना होता है। कोई शरीर नहीं, कोई भूख नहीं और कोई तृप्ति नहीं; शरीर नहीं तो प्यास नहीं, शरीर नहीं तो मांग नहीं।

इन दो शब्दों को खयाल में लेना-इच्छा और आवश्यकता। इच्छा होती है मन की; आवश्यकता होती है शरीर की। इच्छा रहित, तुम बिना सुइयों की घड़ी हो। और जब आवश्यकता भी गिर जाती है, तब तुम समय के पार हो जाते हो। यह होती है शाश्वतता। समयातीत है शाश्वतता।

उदाहरण के लिए, यदि मैं घड़ी की ओर नहीं देखता, तो मैं नहीं जानता कि कितना समय है। समय जानते रहने के लिए, मुझे सारा दिन लगातार देखना पड़ता है। यदि मैंने पांच मिनट फ्टले देखा भी हो, तो मुझे फिर देखना होता है क्योंकि मैं एकदम ठीक समय नहीं जानता। क्योंकि भीतर कोई समय नहीं; केवल शरीर टिकटिक कर रहा है।

चेतना के पास कोई समय नहीं। समय निर्मित होता है जब चेतना की कोई इच्छा होती है। तब यह कुल निर्मित हो जाता है। अस्तित्व में कोई समय नहीं। यदि मनुष्य यहां इस धरती पर न होता, तो समय तुरन्त तिरोहित हो गया होता। वृक्ष टिकटिक करते, चट्टानें टिकटिक करतीं। सूर्य उदित होता और चन्द्रमा विकास पाता और चीजें जैसी हैं वैसी बनी रहतीं, लेकिन समय नहीं होता। क्योंकि समय वर्तमान के साथ नहीं आता; यह आता है अतीत की स्मृति से और भविष्य की कल्पना से।

बुद्ध का कोई अतीत नहीं। उनके लिए खत्म हो गया यह; वे इसे नहीं ढो रहे है। बुद्ध का कोई भविष्य नहीं। उनके लिए वह भी समाप्त हो गया क्योंकि उनकी कोई इच्छा नहीं। लेकिन आवश्यकताएं हैं क्योंकि शरीर है। थोड़े और कर्मों को पूरा करना है। थोड़े और दिनों के लिए शरीर धड़कता जायेगा। बस पुराना संवेग जारी रहेगा। तुम्हें घड़ी को चाबी देनी होती है। चाहे तुम चाबी भरना बंद कर भी दो, यह कुछ घंटों या कुछ दिनों के लिए टिकटिक करती ही रहेगी। पुरानी गति का बल जारी रहेगा

समय की सीमाओं के पार होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।

जब आवश्यकता और इच्छा दोनों तिरोहित हो जाते हैं तो समय तिरोहित हो जाता है। और इच्छा तथा आवश्यकता के बीच भेद कर लेने की बात ध्यान में रखना; अन्यथा तुम बहुत गहरी झंझट में पड़ सकते हो। आवश्यकताओं को गिराने की कोशिश कभी मत करना। कोई नहीं गिरा सकता उन्हें, जब तक कि शरीर ही न गिर जाये। और इन दोनों को एक मत मान लेना। हमेशा खयाल में रखना कि आवश्यकता क्या है और इच्छा क्या है।

आवश्यकता आती है शरीर से और इच्छा आती है मन से। आवश्यकता होती है पशु की, इच्छा होती है मानवीय। निःसंदेह, जब तुम भूख अनुभव करते हो तो तुम्हें भोजन की आवश्यकता होती है। रुक जाते हो, जब आवशाकता खत्म हो जाती है। तुम्हारा पेट कुरु कह देता है, बस करो लेकिन मन कहता है, ‘थोड़ा-सा और। यह इतना स्वादिष्ट है।’ यह है इच्छा। तुम्हारा शरीर कहता है, ‘मैं प्यासा हूं।’ लेकिन शरीर कोकाकोला के लिए ही तो कभी नहीं कहता है! शरीर कहता है, ‘प्यासा हूं,, तो तुम पी लेते हो। जितने की आवश्यकता होती है तुम उससे ज्यादा पानी नहीं पी सकते। लेकिन कोकाकोला तुम ज्यादा पी सकते हो। यह मन की घटना है।

कोकाकोला एकमात्र सार्वभौमिक चीज है इस युग में, सोवियत रूस तक में भी है। दूसरी किसी चीज ने वहां प्रवेश नहीं किया है, लेकिन कोकाकोला प्रवेश कर चुका है। लोहे के परदे से भी कुछ फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मानवीय मन तो मानवीय मन ही है।

हमेशा ध्यान रखना कि कहां आवश्यकता समाप्त होती है और कहां इच्छा आरम्भ होती है। इसे निरंतर एक सजगता बनाये रहना। यदि तुम भेद कर सकते हो, तो तुमने कुछ पा लिया है, एक सूत्र अस्तित्व का पा लिया है। आवश्यकता सुन्दर होती है, इच्छा असुन्दर होती है। लेकिन ऐसे लोग हैं जो इच्छा किये चले जाते हैं, और वे अपनी आवश्यकताएं काटते चले जाते हैं। वे छू हैं, नासमझ हैं। तुम उनसे ज्यादा बडे मूढ़ नहीं पा सकते दूनिया में, क्योंकि वे बिलकुल विपरीत बात कर रहे हैं।

ऐसे लोग हैं जो कई दिनों का उपवास करेंगे और इच्छा करेंगे स्वर्ग की। उपवास करना आवश्यकता को काटना है और स्वर्ग की इच्छा करना इच्छाओं को बढ़ावा देना है! उनके पास तुम्हारी अपेक्षा कहीं ज्यादा समय है क्योंकि उन्हें स्वर्ग की सोचनी होती है। उनके पास बड़ी राशि होती है समय की। स्वर्ग शामिल होता है इसमें। तुम्हारा समय मृत्यु पर समाप्त हो जाता है। वे तुम्हें कहेंगे, ‘तुम पदार्थवादी हो।’ वे अध्यात्मवादी हैं क्योंकि उनका समय और-और आगे बढ़ता जाता है। यह स्वर्ग को शामिल करता है-और केवल एक नहीं, सातों स्वर्ग। और मोक्ष भी, अंतिम मुक्ति-वह भी है उनकी सीमाओं के भीतर। उनके पास बड़ी मात्रा होती है समय की, और तुम हो पदार्थवादी क्योंकि तुम्हारा समय समाप्त होता है मृत्यु पर।

ध्यान रहे, आवश्यकताओं को गिराना आसान है। क्योंकि शरीर इतना मौन है, तुम इसे उयीडित कर सकते हो। और शरीर इतना अधिक लचीला होता है कि यदि तुम इसे सताते हो बहुत लम्बे समय के लिए तो यह तुम्हारे उत्यीड़न के, सताने के प्रति समायोजित हो जाता है। और यह गुंगा होता है। यह कुछ कह नहीं सकता। यदि तुम उपवास करते हो, तो दो या तीन दिन तक यह कहेगा, ‘मैं भूखा हूं मैं भूखा हूं।’ लेकिन तुम्हारा मन सोच रहा है स्वर्ग की बात, और भूखे रहे बिना तुम प्रवेश नहीं कर सकते। ऐसा शास्त्रों में लिखा है कि उपवास करो। तो तुम शरीर की सुनते नहीं। यह भी लिखा है शास्त्रों में, ‘मत सुनो शरीर की, शरीर शत्रु है।’

और शरीर एक गूंगा जानवर है। तुम इसे सताये चले जा सकते हो। कुछ दिन यह कुछ नहीं कहेगा। यदि तुम लम्बा उपवास शुरू कर दो, अधिक से अधिक यह होगा कि पहले हफ्ते या पांच या छह दिन शरीर कुछ नहीं कहेगा। शरीर चुप हो जाता है क्योंकि कोई नहीं सुन रहा होता इसकी। फिर शरीर अपनी ही व्यवस्थाएं बिठाना शुरू कर देता है। इसके पास भोजन संग्रहित है नब्बे दिनों का। प्रत्येक स्वस्थ शरीर के पास नब्बे दिनों की चरबी का संग्रह होता है किसी आपात स्थिति के लिए—उपवास करने के लिए नहीं।

कई बार शायद तुम किसी जंगल में खो जाओ, भोजन नहीं पा सको। कई बार अकाल पड़ सकता है और तुम भोजन नहीं पा सकोगे। शरीर के पास नब्बे दिनों का संग्रह होता है। यह स्वयं पर चलेगा। यह स्वयं को ही खाता है। और इसकी दो गियर की व्यवस्था होती है। साधारणतया यह भोजन की मांग करता है। यदि तुम भोजन प्रदान करते हो, तो वह भीतर का खजाना, संचय अक्षुण्ण बना रहता है। यदि तुम भोजन प्रदान नहीं करते तो दो या तीन दिन यह मांग किये ही जाता है। अगर तुम फिर भी प्रदान नहीं करते, तो यह गियर ही बदल देता’ है। गियर बदल जाता है; तब यह स्वयं को ही खाने लगता है।

इसलिए उपवास करने से तुम प्रतिदिन एक किलो वजन खो देते हो। कहां जा रहा होता है यह वजन? यह वजन खो रहा होता है क्योंकि तुम अपनी चरबी खा रहे होते हो, तुम्हारा अपना मांस खा रहे होते हो। तुम नरमांस भक्षक बन गये हो, एक नरभक्षी। उपवास करना नरभक्षण है। नब्बे दिन। के भीतर तुम सूख कर हड्डियों का ढांचा हो जाओगे, सब संचित चरबी समाप्त हो गयी। तब तुम्हें मरना पड़ता है।

शरीर के प्रति हिंसात्‍माक होना सरल होता है। यह इतना गूंगा है। लेकिन मन के साथ ऐसा करना कठिन है क्योंकि मन बहुत बोलने वाला है। यह सुनेगा नहीं। और वास्तविक बात है मन को आज्ञाकारी बनाना तथा इच्छाओं को काट देना। स्वर्ग और स्वर्गिक परलोक की मत पूछना।

जापान के नये धर्मों के बारे में एक पुस्तक मै इधर पढ़ता था। जैसा कि तुम जानते हो, जापानी तकनीकी तौर पर बहुत निपुण लोग होते है। उन्होंने जापान में दो स्वर्ग निर्मित कर लिये हैं, मात्र तुम्हें झलक दे देने को। उन्होंने पहाड़ी स्थान पर एक छोटा स्वर्ग निर्मित कर लिया है रु हे दिखाने के लिए कि वहां वास्तविक स्वर्ग में कैसा क्या है। बस, तुम चले जाओ और झलक पा लो। इतनी सुन्दर जगह उन्होंने बना ली है और वे इसे बिलकुल साफ—सुथरा रखते है। वहां फूल ही फूल है और वृक्ष है और रंगछटा है, छाया है, और सुन्दर छोटे बंगले हैं। और वे तुम्हें दे देते हैं स्वर्ग की झलक ताकि तुम आकांक्षा करना शुरू कर दो।

कहीं कोई स्वर्ग नहीं होता है। स्वर्ग मन की निर्मिति है। और कोई नरक नहीं है। वह भी मन की ही निर्मिति है। नरक और कुछ नहीं है सिवाय स्वर्ग के अभाव के; बस इतना ही। पहले तुम इसे रचते हो, और फिर तुम इसे गंवा देते हो क्योंकि यह वहा है नहीं। और ये लोग, ये पंडित—पुरोहित, विषदायी हैं, वे हमेशा तुम्हें मदद देते हैं इच्छा करने में। पहले वे इच्छा का निर्माण करते हैं। फिर पीछे चला आता है नरक, फिर वे चले आते हैं तुम्हें बचाने को!

एक बार मैं एक बड़ी कच्ची सड़क पर से गुजर रहा था। गर्मियों के दिन थे और अचानक मैं सड़क के इतने कीचड़ भरे खंड पर आ पहुंचा कि मैं विश्वास नहीं कर सकता था कि कैसे यह सड़क ऐसी बन गयी! बारिश बिलकुल नहीं हुई थी। जमीन का वह टुकड़ा कोई आधा मील लम्बा था, लेकिन मैंने सोचा कि यह बहुत गहरा नहीं हो सकता इसलिए मैं कार चलाता गया। मैं चला गया इसी में, फिर फंस गया। वह केवल कीचड़ से ही नहीं भरा था, उसमें बहुत सारे गडुए थे। फिर मैंने प्रतीक्षा की किसी के द्वारा मदद पाने की, कोई ट्रक ही आ जाये।

एक किसान ट्रक लिये आ पहुंचा। जब मैंने उसे मेरी मदद करने को कहा, वह बोला, वह बीस रुपये लेगा। तो मैंने कहा, ‘ठीक है। तुम ले लो बीस रुपये, पर मुझे इसमें से बाहर तो निकालो। जब मैं बाहर आया, तो मैंने कहा उस किसान से, ‘इस कीमत पर तो तुम दिन—रात काम कर रहे होओगे। ‘वह बोला, ‘नहीं, रात में नहीं। क्योंकि तब मुझे इस सड़क के लिए नदी से पानी लाना होता है। आप क्या सोचते हैं कि यहां कीचड़ किसने बना दिया? और फिर मुझे थोड़ी नींद भी लेनी पड़ती है क्योकि एकदम सुबह यह व्यापार शुरू हो जाता है!’

तो ऐसे पंडित—पुरोहित हैं। वे पहले कीचड़ बनाते हैं; वे दूर—दराज की नदी से पानी ढोकर लाते हैं। और तब तुम दलदल में फंस जाते हो, और फिर वे तुम्हारी मदद करते हैं। कहीं कोई स्वर्ग नहीं है और कोई नरक नहीं है। न स्वर्ग है और न नरक; तुम्हारा शोषण हो रहा है। और तुम शोषित किये जाओगे, जब तक कि तुम इच्छा करना समाप्त न कर दो।

वह व्यक्ति जो इच्छा नहीं करता, शोषित नहीं किया जा सकता। फिर कोई पुरोहित—पादरी शोषण नहीं कर सकता, फिर कोई मंदिर—चर्च उसका शोषण नहीं कर सकता। शोषण घटता है क्योंकि तुम इच्छा करते हो। तब तुम शोषित होने की सम्भावना निर्मित कर लेते हो। जितना बन सके, अपनी इच्छाओं को अलग कर दो क्योंकि वे अस्वभाविक हैं। अपनी आवश्यकताओं को कभी मत मारना क्योंकि वे सहज—स्वाभाविक हैं। अपनी आवश्यकताओं की परिपूर्ति कर लेना।

और इस सारी बात पर ध्यान दो। आवश्यकताएं बहुत नहीं हैं; बिलकुल ही ज्यादा नहीं है। और वे इतनी सीधी—सरल है। क्या चाहिए तुम्हें ‘ भोजन, पानी, मकान का आश्रय, कोई जो तुम्हें प्रेम करे और जिसे तुम प्रेम कर सको। और क्या चाहिए तुम्हें? प्रेम, भोजन, घर—ये सीधी—साफ आवश्यकताएं हैं। और धर्म इन्हीं सारी आवश्यकताओं के विरुद्ध हो जाते हैं। प्रेम के विरुद्ध, वे कहते हैं ब्रह्मचर्य साधो। भोजन के विरुद्ध वे कहते है, उपवास रखा करो। घर की शरण के विरुद्ध वे कहते है, मुइन बन जाओ और घूमो—फिरो, भ्रमण करने वाले हो जाओ—अगृही। वे आवश्यकताओं के विरुद्ध है। इसीलिए वे नरक का निर्माण करते हैं। और तुम अधिकाधिक दुख में पड़ते हो। और ज्यादा और ज्यादा तुम उनके हाथों में पड़ते जाते हो। फिर तुम सहायता की मांग करते हो, और सारी घटना एक स्वरचित स्वांग है।

आवश्यकताओं के विरुद्ध कभी मत जाना, और इच्छाओं को हमेशा अलग करने की याद रखना। इच्छाएं व्यर्थ होती हैं। इच्छा है क्या? मकान का आश्रय चाहिए, यह इच्छा नहीं है। बेहतर मकान चाहिए यह इच्छा है। इच्छा सापेक्ष होती है। आवश्यकता सीधी—सरल होती है—तुम्हें एक रहने का स्थान चाहिए। इच्छा चाहती है महल। आवश्यकता बहुत सीधी—सादी होती है। तुम्हें प्रेम करने को सी या पुरुष चाहिए। लेकिन इच्छा? इच्छा को तो चाहिए क्लियोपेट्रा। इच्छा तो बस असम्भव के लिए होती है। आवश्यकता होती है सम्भव के लिए और यदि सम्भव की परिपूर्ति हो जाती है., तुम निश्रित होते हो। एक बुद्ध को भी उसकी जरूरत होती है।

इच्छाएं बेवकूफियां है। इच्छाओं को काट दो और जाग्रत हो जाओ। तब तुम समय के बाहर हो जाओगे। इच्छाएं समय का निर्माण करती हैं, लेकिन यदि तुम इच्छाओं को मार देते हो तो तुम समयातीत हो जाओगे। जब तक शरीर है, तब तक शारीरिक आवश्यकताएंबनी रहेंगी। लेकिन यदि इच्छाएं तिरोहित होजातीहै, तबयह तुम्हारा अंतिम या, अधिक से अधिक तुम्हारा शेष दो जन्म ही होगा। जल्दी ही तुम भीतिरोहितहो जाओगे। जिसनेइच्छाविहीनताप्राप्तकरलीहैवहदेर—अबेर आवश्यकताओकेपार भीहोजायेगाक्योकितबशरीरकी आवश्यकता नहीं रहती है। शरीर वाहन है मन का। यदि मन नहीं रहा, शरीर की फिर और जरूरत नहीं रह सकती।

उसे ओम के रूप में जाना जाता है।

यह परमात्मा, यह सम्पूर्ण विकास, ओम् के रूप में जाना जाता है।

ओम् सर्वव्यापक नाद का प्रतीक है। स्वयं में तुम सुनते हो विचारों को, शब्दों को, लेकिन तुम्हारे अस्तित्व की ध्वनि को, नाद को कभी नहीं सुनते। जब कहीं कोई इच्छा नहीं होती, आवश्यकता नहीं होती, जब शरीर गिर चुका होता है, जब मन तिरोहित हो जाता है, तो क्या घटेगा? तब स्वयं ब्रह्मांड का वास्तविक नाद सुनाई पड़ता है, जो है ओम्।

और सारे संसार भर में इस ओम् का अनुभव किया गया है। मुसलमान, ईसाई, यहूदी इसे कहते हैं आमीन। यह है ओम्। जरथुस्र के अनुयायी, पारसी, इसे कहते हैं, ‘ आहुरमाजदा ‘। वह अ और म है ओम्— आह्य’ है अ से और माजदा है म से। यह होता है ओम्। उन्होंने इसे देवता बना लिया है।

वह नाद सर्वव्यापी है। जब तुम थम जाते हो, तुम इसे सुन सकते हो। अभी तो तुम इतनी ज्यादा बातचीत कर रहे हो, भीतर इतने ज्यादा बडबडा रहे हो कि तुम इसे सुन नहीं सकते। यह है मौन ध्वनि। यह इतनी मौन होती है कि जब तक तुम पूरी तरह रुक नहीं जाते, तुम इसे सुन नहीं पाओगे। हिन्दुओं ने अपने देवताओं को प्रतीकाअक नाम से बुलाया है— ओम्। पतंजलि कहते हैं, ‘वह ओम् के रूप में जाना जाता है। ‘ और यदि तुम गुरु को खोजना चाहते हो, गुरुओं के गुरु को, तो तुम्हें ‘ ओम्’ की ध्वनि से अधिकाधिक तालमेल बैठाना होगा।

ओम को दोहराओ और इस पर ध्यान करो।

पतंजलि इतने वैतानिक ढंग से अवस्थित हैं कि वे एक भी आवश्यक शब्द नहीं छोड़ेंगे, और न ही वे कोई अतिरिक्त शब्द प्रयुक्त करेंगे। ‘दोहराओ और ध्यान करो’ —जब कभी वे कहते, ‘ ओम् को दोहराओ’, वे सदा जोड़ देते ‘ ध्यान करो। ‘ भेद को समझ लेना है। ‘दोहराओ और ध्यान करो ओम् पर। ‘

ओम को दोहराना और उस पर ध्यान करना सारी बाधाओं का विलीनीकरण और एक नवचेतना का जागरण लाता है

यदि तुम दोहराओ और ध्यान मत करो, तो यह बात हो जायेगी महर्षि महेश योगी का भावातीत ध्यान, ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन-टी एम। यदि तुम दोहराते हो और ध्यान नहीं करते, तो यह बात एक हिप्राटिक चाल हो जाती है। तब तुम्हें नींद आ जाती है। यह अच्छा है क्योंकि निद्रा में उतर जाना सुंदर होता है। यह बात स्वस्थ है। तुम अधिक शांत होकर निकलोगे इसमें से। तुम कहीं अधिक स्वस्थता अनुभव करोगे, अधिक ऊर्जा, अधिक जोश अनुभव करोगे। लेकिन यह ध्यान नहीं।

यह एक साथ शामक दवा और पेप-पिल लेने की भांति है। यह तुम्हें अच्छी नींद देगी, और फिर तुम सुबह बहुत अच्छा अनुभव करते हो। ज्यादा ऊर्जा मौजूद होती है। लेकिन यह ध्यान नहीं है। और यह बात खतरनाक भी हो सकती है यदि तुम इसका उपयोग लम्बे समय तक करते हो। तुम्हें उसकी लत पड़ जाती है। और जितना ज्यादा तुम उपयोग करते हो इसका, उतना ज्यादा तुम समझ जाओगे कि एक स्थल ऐसा आ जाता है जहां तुम अटक जाते हो। अब यदि तुम इसे नहीं करते, तो तुम अनुभव करते हो कि तुम कुछ चूक रहे हो। यदि तुम इसे करते हो, तो कुछ घटता नहीं।

इस बात के सार-निचोड़ को खयाल में ले लेना है- ध्यान में, जब कभी तुम अनुभव करते हो कि अगर तुम इसे नहीं करते तो तुम इसे चूक रहे होते हो और यदि करते हो इसे तो कुछ घटता नहीं, तो तुम अटके हुए होते हो। तब तुरंत कुछ करने की जरूरत होती है। यह बात एक आदत हो गयी है-वैसे ही जैसे कि सिगरेट पीना। यदि तुम सिगरेट नहीं पीते, तो तुम अनुभव करते हो कि कुछ चूक रहा है। तुम निरंतर अनुभव करते हो कि कुछ किया जाना चाहिए तुम बेचैन अनुभव करते हो। और यदि तुम सिगरेट पीते हो, तो कुछ प्राप्त नहीं होता है। आदत की परिभाषा यही है। यदि कुछ प्राप्त होता है तो ठीक; लेकिन कुछ प्राप्त नहीं होता। यह एक आदत हो गयी है। यदि तुम इसे नहीं करते, तो तुम दुखी अनुभव करते हो। यदि तुम इसे करते हो, तो कोई आनन्द नहीं आता इससे।

दोहराओ और ध्यान करो। दोहराओ ‘ ओम् ओम् ओम्’ और इस दोहराव से अलग खड़े रहो।’ ओम् ओम् ओम्’ -यह ध्वनि तुम्हारे चारों ओर है और तुम सचेत हो, ध्यान दे रहे हो, साक्षी बने हुए हो। यह ध्यान करना होता है। ध्वनि को अपने भीतर निर्मित कर लो और फिर भी शिखर पर खड़े द्रष्टा बने रहो। घाटी में, ध्वनि सरक रही है- ‘ ओम् ओम् ओम्’ -और तुम ऊपर खड़े हो और देख रहे हो साक्षी बने हुए हो। यदि तुम साक्षी नहीं होते, तो तुम सो जाओगे। यह सम्मोहक निद्रा होगी। और पश्रिम में भावातीत ध्यान लोगों को आकर्षित कर रहा है क्योंकि उन्होंने ठीक से सोने की क्षमता गंवा दी है।

भारत में कोई परवाह नहीं करता महर्षि महेश योगी की क्योंकि लोग इतनी गहरी नींद सोये हुए हैं, खरटे भर रहे है! उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं। लेकिन जब कोई देश अमीर हो जाता है और लोग कोई शारीरिक श्रम नहीं कर रहे होते, तो निद्रा विलीन हो जाती है। तब या तो तुम ट्रैकिलाइजर ले सकते हो या टी एम! और टी एम, निस्संदेह बेहतर है क्योंकि यह बहुत रासायनिक नहीं होता है। लेकिन फिर भी यह बहुत गहरी सम्मोहक चाल होती है।

सम्मोहन का कुछ निश्रित अवस्थाओं में प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन इसे आदत ही नहीं बना लेना चाहिए, क्योंकि अंततः यह तुम्हें सोया हुआ अस्तित्व देगा। तुम ऐसे जीयोगे जैसे हिप्रासिस में हो। तुम जादू द्वारा संचालित शव (झोम्बी) की भांति लगोगे। तुम जागरूक और सचेत नहीं होओगे। और ओम् की ध्वनि एक ऐसी लोरी होती है, क्योंकि यह सम्पूर्ण ध्वनि है। यदि तुम इसे दोहराते जाते हो, तुम इसके द्वारा पूर्णरूपेण मादक हो जाते हो, मदहोश हो जाते हो। और फिर खतरा है, क्योंकि वास्तविक बात है मदहोश न होना। वास्तविक बात है अधिकाधिक जागरूक होना। अत: दो सम्भावनाएं होती हैं इसकी कि कैसे तुम तुम्हारी चिंताओं से अलग हो सकते हो।

मनसविद मन को तीन परतों में बांटते हैं। पहली को वे कहते हैं चेतन, दूसरी को वे कहते हैं उपचेतन और तीसरी को वे कहते हैं अचेतन। चौथी से वे अभी भी परिचित नहीं हुए। पतंजलि इसे कहते हैं परम चैतन्य। यदि तुम ज्यादा सचेत हो जाते हो, तुम चेतन से आगे बढ़ जाते हो और परम चैतन्य तक पहुंच जाते हो। यह होती है एक भगवान की अवस्था-परम चैतन्य, परम जागरूक।

लेकिन यदि तुम मंत्र का जाप करते हो बिना ध्यान किये, तो तुम उपचेतन में जा पड़ते हो। यदि तुम चले जाते हो उपचेतन में तो यह तुम्हें अच्छी नींद देगा, अच्छी तन्दरुस्ती, अच्छा स्वास्थ्य। लेकिन यदि तुम इसी तरह जप जारी रखते हो, तो तुम अचेतन में जा पडोगे। तब तुम सम्मोहन-संचालित मूढ़, झोम्बी बन जाओगे, और यह बहुत ही बुरी बात है। यह बात ठीक नहीं होती।

मंत्र का प्रयतो किया जा सकता है सम्मोहन विद्या की भांति। यदि तुम्हारा ऑपरेशन किया जा रहा है अस्पताल में तो यह ठीक है। क्लोरोफार्म लेने की अपेक्षा, सम्मोहित हो जाना अच्छा होता है। यह कम बुराई है। यदि तुम निद्रालु अनुभव नहीं करते, तो यह जप करना बेहतर है ट्रैकिलाइजर लेने की अपेक्षा। यह कम खतरनाक होता है, कम हानिकारक होता है। लेकिन यह ध्यान नहीं है।

अत: पतंजलि निरंत्तर जोर देते हैं, ‘दोहराओ और ध्यान करो ओम् पर।’ दोहराओ और अपने चारों तरफ ओम् की ध्वनि निर्मित कर लो लेकिन इसी में खो मत जाना। यह इतनी मीठी ध्वनि होती है, तुम खो सकते हो। सचेत बने रहो। अधिकाधिक जागरूक बने रहो। ध्वनि जितनी ज्यादा गहरे में जाती है, उतने ही और अधिक तुम जाग्रत होते जाते हो। तब ध्वनि तनावहीन कर देती है तुम्हारे स्रायु-तंत्र को, लेकिन तुम्हें नहीं। ध्वनि तुम्हारे शरीर को हलका कर देती है, लेकिन तुम्हें नहीं। ध्वनि तुम्हारे सारे शरीर को और शारीरिक व्यवस्था को निद्रा में भेज देती है, लेकिन तुम्हें नहीं।

तब दोहरी प्रक्रिया शुरू हो जाती है- ध्वनि तुम्हारे शरीर को शान्त अवस्था में गिरा देती है और जागरूकता तुम्हारी मदद करती है परम चेतना की ओर उठने में। शरीर अचेतन की ओर बढ़ता है, बेजान बन जाता है, गहरी निद्रा में होता है, और तुम परम चेतन अस्तित्व हो जाते हो। तब तुम्हारा शरीर तल में पहुंच जाता है और तुम शिखर तक पहुंच जाते हो। तुम्हारा शरीर बन जाता है घाटी और तुम बन जाते हो शिखर। और यही बात है समझने की।

दोहराओ और ध्यान करो। ओम को दोहराना और ओम पर ध्यान करना सारी बाधाओं का विलीनीकरण ले आता है और एक नयी चेतना का जागरण होता है।

नवचेतना ही चौथी चेतना है-वह परम चेतना-तुरीय। लेकिन ध्यान रहे, मात्र दोहराना ठीक नहीं। दोहराना तो बस तुम्हें मदद देता है ध्यान करने में। दोहराव निर्मित करता है विषय को और सबसे अधिक सूक्ष्म विषय होता है ओम् की ध्‍वनि। और यदि तुम सबसे अधिक सूक्ष्म के प्रति जागरूक हो सकते हो, तो तुम्हारी जागरूकता भी सूक्ष्म हो जाती है।

जब तुम स्थूल वस्तु पर ध्यान देते रहते हो, तुम्हारी जागरूकता स्कूल होती है। जब तुम एक कामवासनायुक्त देह को देखते ‘हो, तो तुम्हारी जागरूकता काम बन जाती है। जब तुम किसी ऐसी चीज को देखते, उस पर ध्यान देते हो जो लोभ की वस्तु होती है तो तुम्हारी जागरूकता लोभ बन जाती है। जो कुछ तुम देखते रहते हो, तुम वही हो जाते हो। निरीक्षण करने वाला निरीक्षित बन जाता है-इसे खयाल में ले लेना।

कृष्णमूर्ति फिर-फिर जोर देते हैं कि निरीक्षक निरीक्षित बन जाता है। जिस पर तुम ध्यान देते हो, तुम वही हो जाते हो। अत: यदि तुम ओम् की ध्वनि पर ध्यान करते हो, वह ध्वनि जो गहनतम ध्वनि है, जो परम संगीत है, जो अनाहत है, वह नाद जो अस्तित्व का ही स्वभाव है, यदि तुम इसके प्रति जागरूक हो जाते हो, तो तुम यही हो जाते हो-तुम परम नाद बन जाते हो। तब दोनों ही, विषय और विषयी मिलते हैं और घुल-मिल जाते हैं और एक हो जाते हैं। यह होती है परम चेतना, जहां विषय और विषयी विलीन हो चुके होते हैं; जहां ज्ञाता और ज्ञेय नहीं रहे। केवल एक बना रहता है, विषयी और विषय किसी सेतु से बंध गये हैं। यह एकाक्यता योग है।

यह शब्द योग आया है ‘युज’ धातु से। इसका अर्थ है मिलना, एक साथ जुड़ना। ऐसा घटता है जब विषयी और विषय वस्तु एक साथ आ जुड़ते हैं। अंग्रेजी शब्द ‘योक’ भी आता है ‘क्यू’ से, उसी मूल से जहां से योग आया। जब विषयी और विषय वस्तु साथ जुड़ जाते हैं, एक साथ सी दिये जाते हैं जिससे कि वे फिर अलग नहीं रहते, बंध जाते हैं, अंतराल मिट जाता है। तुम परम चेतना को उपलब्ध होते हो।

यही अर्थ है पतंजलि का जब वे कहते, हैं. ‘ओम् को दोहराना और ओम् पर ध्यान करना सारी बाधाओं का विलीनीकरण और एक नवचेतना का जागरण लाता है।’

आज इतना ही।


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पंतजलि: योगसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–16

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मैं एक नूतन पथ का प्रारंभ हूं—प्रवचन—सौलहवां

दिनांक 6 जनवरी, 1975;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—क्या आप किसी गुरुओं के गुरु द्वारा निर्देश ग्रहण करते हैं?

2—गुरुओं को किसी प्रधान गुरु द्वारा निर्देश पाने की क्या आवश्यकता होती है?

3—हम अपनी स्तुइर्च्छत और अहंकारग्रस्त अवस्था में हमेशा गुरु के संपर्क में नहीं होते लेकिन क्या गुरु हमेशा हमारे संपर्क में होता है?

4—इच्छाओं का दमन किये बगैर उन्हें कैसे काटा जा सकता है?

पहला प्रश्‍न:

क्या आप किसी गुरुओं के गुरु द्वारा निर्देश ग्रहण करते हैं?

मैं किसी प्राचीन मार्ग पर नहीं हूं अत: कुछ बातें समझ लेनी हैं। मैं महावीर की भांति नहीं हूं जो चौबीस तीर्थंकरों के लंबे क्रम के अंतिम छोर थे। वे चौबीसवें थे। अतीत में, पिछले तेईस में से प्रत्येक तीर्थंकर गुरुओं का गुरु हो गया था, भगवान हो गया था, उसी मार्ग पर, उसी विधि से उसी जीवन-क्रम से, उसी उपाय से।

प्रथम तीर्थंकर थे ऋषभ और अंतिम थे महावीर। ऋषभ के पास निर्देश लेने को अतीत में कोई न था। मैं महावीर की भांति नहीं, ऋषभ की ही भांति हूं। मैं एक परंपरा का आरंभ हूं अंत नहीं। बहुत आ रहे होंगे इसी मार्ग पर। इसलिए मैं निर्देशों के लिए किसी की प्रतीक्षा नहीं कर सकता; ऐसा होना संभव नहीं। एक परंपरा जन्मती है और फिर वह परंपरा मर जाती है, बिलकुल ऐसे ही जैसे व्यक्ति जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। मैं आरंभ हूं अंत नहीं। जब कोई श्रृंखला के मध्य में होता है या अंत में होता है, तो वह गुरुओं के मूल गुरु से निर्देश प्राप्त करता है।

मैं किसी मार्ग पर नहीं हूं इसका कारण यह है कि मैंने बहुत सारे गुरुओं के साथ कार्य किया है, लेकिन मैं शिष्य कभी नहीं रहा। मैं एक घुमक्कड़, एक यायावर था। बहुत सारी जिंदगियों में से भ्रमण करता रहा, बहुत परंपराओं को आड़े-तिरछे ढंग से पार करता रहा, बहुत समुदायों के साथ, संप्रदायों के साथ, विधियों के साथ रहा लेकिन किसी के साथ संबंधित कभी नहीं हुआ। मुझे प्रेम सहित स्वीकारा गया, लेकिन मैं हिस्सा कभी न बना। ज्यादा से ज्यादा मैं एक मेहमान था, रात भर ठहरने वाला! इसीलिए मैंने इतना ज्यादा सीख लिया। तुम एक मार्ग पर इतना ज्यादा नहीं सीख सकते; यह बात असंभव है।

यदि तुम एक मार्ग पर बढ़ते हो, तो तुम उसके बारे में सब कुछ जानते होते हो लेकिन किसी और चीज के बारे में कुछ नहीं जानते। तुम्हारा सारा अस्तित्व इनमें समाविष्ट हो जाता है। मेरा ढंग ऐसा नहीं रहा। मैं एक फूल की भांति एक फूल से दूसरे तक जाता रहा दूं बहुत सुरभियां एकत्रित करता रहा हूं। इसीलिए मैं झेन के साथ एक लय में हूं मोहम्मद के साथ एक लय में हूं जीसस के साथ एक लय में हूं यहुदियों के साथ एक लय में हूं पतंजलि के साथ एक लय में हूं-भिन्न मार्गों के साथ जो कई बार बिलकुल ही विपरीत होते हैं।

लेकिन मेरे लिए, एक छिपी हुई स्वरसंगति बनी रहती है। इसीलिए वे लोग जो किसी एक मार्ग का अनुसरण करते हैं, मुझे समझने में असमर्थ हैं। वे एकदम चकरा जाते हैं, हक्के-बक्के रह जाते हैं। वे किसी एक विशिष्ट तर्क को जानते हैं, एक विशिष्ट ढांचे को। यदि बात उनके ढांचे में ठीक बैठती है, तो वह ठीक होती है यदि वह ठीक नहीं बैठती तो वह गलत होती है। उनके पास सीमित-संकुचित कसौटी होती है। मेरे लिए कोई कसौटी अस्तित्व नहीं रखती। क्योंकि मैं बहुत से ढांचों के साथ रहता रहा हूं। मैं कहीं भी निश्रित रह सकता हूं। कोई मेरे लिए पराया नहीं है और मैं किसी के लिए अजनबी नहीं। लेकिन यह बात एक समस्या बना देती है। मैं किसी के लिए अजनबी नहीं हूं लेकिन हर कोई मेरे प्रति अजनबी बन जाता है; ऐसा ही होना होता है।

यदि तुम एक विशिष्ट पंथ से संबंधित नहीं होते तो हर कोई तुम्हारे बारे में यूं सोचता है जैसे कि तुम कोई शत्रु हो। हिंदू मेरे विरुद्ध होंगे, ईसाई मेरे विरुद्ध होंगे, यहूदी मेरे विरुद्ध होंगे, जैन मेरे विरुद्ध होंगे, और मैं किसी के विरुद्ध नहीं। क्योंकि वे अपना ढांचा मुझमें नहीं पा सकते, वे मेरे विरुद्ध हो जायेंगे।

और मैं किसी एक ढांचे की बात नहीं कर रहा, बल्कि मैं ज्यादा गहरे ढांचे के बारे में कह रहा हूं जो सारे ढांचों को पकड़े रखता है। एक ढांचा होता है, दूसरा ढांचा होता है, फिर दूसरा ढांचा-ऐसे लाखों ढांचे हैं। फिर सारे ढांचे किसी छिपी हुई चीज द्वारा पकड़ लिये जाते हैं जो कि ढांचों का मूल ढांचा होती है-जो है छिपी हुई समस्वरता। वे इसे देख नहीं सकते, लेकिन वे गलत भी नहीं हैं। जब तुम एक निश्चित परंपरा के साथ जीते हो, एक निश्चित-दर्शन के साथ, चीजों को देखने के एक निश्चित ढंग के साथ, तो तुम उसके साथ समस्वर में होते हो।

एक ढंग से, मैं कभी किसी के साथ मिला हुआ नहीं था; इतना ज्यादा नहीं कि मैं उनके ढांचे का एक हिस्सा बन सकता। एक अर्थ में यह दुर्भाग्‍य है, लेकिन दूसरे अर्थ में यह बात वरदान साबित हुई। जिन्होंने मेरे साथ कार्य किया उनमें से कईयों ने मुक्ति प्राप्त कर ली मुझसे पहले ही। मेरे लिए यह दुर्भाग्य था। मैं पीछे देर लगाता रहा और देर लगाता रहा, इस कारण कि कभी समग्र रूप से किसी के साथ कार्य नहीं किया, बढ़ता रहा एक जगह से दूसरी जगह।

जिन्होंने आरंभ किया मेरे साथ उनमें से बहुत उपलब्ध हो गये। जिन्होंने मेरे बाद आरंभ किया उनमें से भी कुछ मुझसे पहले ही पा गये। यह दुर्भाग्य था, लेकिन एक दूसरे अर्थ में यह बात वरदान रही क्योंकि मैं हर घर की जानता हूं। हो सकता है मैं किसी घर से संबंधित न होऊं, लेकिन मैं परिचित हूं हर किसी से।

इसलिए मेरे लिए कोई गुरुओं का प्रधान गुरु नहीं। मैं कभी शिष्य न था। गुरुओं के गुरु से निर्देशित होने के लिए, तुम्हें किसी निश्चित गुरु का शिष्य होना होता है। तब तुम निर्देशित किये जा सकते हो। तब तुम जान लेते हो उस भाषा को। अत: मैं किसी के द्वारा निर्देशित नहीं किया जाता हूं बल्कि बहुतों द्वारा मदद पाता हूं। इस भेद को समझ लेना है। मैं निर्देशित नहीं होता। मैं ग्रहण नहीं करता इस प्रकार की आशाएं- ‘यह करो या कि वह मत करो।’ बल्कि मैं बहुतों द्वारा मदद पाता हूं।

शायद जैन यह महसूस न करते हों कि मैं उनसे संबंधित हूं लेकिन महावीर इसे अनुभव करते हैं। क्योंकि कम से कम वे देख सकते हैं ढांचों के मूल ढांचे को। जीसस के अनुयायी शायद मुझे समझने के योग्य न हों, लेकिन जीसस समझ सकते हैं। तो मैं बहुतों से पाता रहा हूं मदद। इसीलिए बहुत लोग विभिन्न स्रोतों से आ रहे हैं मेरे पास। इस समय तुम खोजियो का ऐसा समूह इस पृथ्वी पर कहीं और नहीं पा सकते। यहूदी हैं, ईसाई हैं, मुसलमान, हिंदू जैन, बौद्ध, सभी है, संसार भर से आये हुए। और भी बहुत ज्यादा जल्दी ही आते होंगे।

बहुत सारे गुरुओं से मिलने वाली मदद है यह। वे जानते हैं कि मैं उनके शिष्यों के लिए सहायक हो सकता हूं और वे भेज रहे होंगे और भी बहुतों को। लेकिन निर्देश कोई नहीं, क्योंकि मैंने शिष्य के रूप में किसी गुरु से कोई निर्देश कभी नहीं पाये। अब कोई जरूरत भी नहीं। वे तो बस मदद भेज देते हैं। और वह बेहतर है। मैं ज्यादा स्वतंत्र अनुभव करता हूं। कोई इतना स्वतंत्र नहीं हो सकता जितना कि मैं।

यदि तुम महावीर से निर्देश ग्रहण करते हो, तो तुम इतने स्वतंत्र नहीं हो सकते जितना कि मैं हूं। एक जैन को जैन ही रहना पड़ता है। उसे बौद्धत्व के विरुद्ध, हिंदुत्व के विरुद्ध बोलते जाना होता है। उसे ऐसा करना पड़ता है, क्योंकि बहुत सारे ढांचों और परंपराओं का एक संघर्ष होता है। और परंपराओं को संघर्ष करना होता है यदि वे जीवित रहना चाहती हैं तो। शिष्यों के लिए उन्हें विवादप्रिय होना होता है। उन्हें कहना ही होता है कि वह गलत है, क्योंकि केवल तभी एक शिष्य अनुभव कर सकता है, यह ठीक है। गलत के विरुद्ध, शिष्य अनुभव कर लेता है कि क्या सही है।

मेरे साथ तुम असमंजस में पड़ जाओगे। यदि तुम मात्र यहां हो तुम्हारी बुद्धि के साथ, तो तुम दुविधा भरे हो जाओगे। तुम पागल हो जाओगे क्योंकि इस क्षण मैं कुछ कहता हूं और अगले क्षण मैं इसके विपरीत कह देता हूं। क्योंकि इस क्षण मैं एक परंपरा की बात कर रहा था, और दूसरे क्षण में दूसरे के बारे में कह रहा होता हूं। और कई बार मैं किसी परंपरा के बारे में नहीं कह रहा होता हूं; मैं अपने बारे में कह रहा होता हूं। तब तुम इसे नहीं पा सकते कहीं किसी शास्त्र में।

लेकिन मैं मदद पा लेता हूं। और यह मदद सुंदर होती है क्योंकि इसका अनुसरण करने की मुझसे अपेक्षा नहीं की जाती है। मैं इसके पीछे चलने को बाध्य नहीं हूं। यह मुझ पर है। मदद बिना शर्त दी जाती है। यदि मैं इसे लेने जैसा अनुभव करता हूं तो ले लूंगा इसे; यदि मैं ऐसा अनुभव नहीं करता, तो मैं नहीं लूंगा इसे। किसी के प्रति मेरा कोई आबंध नहीं है।

लेकिन यदि तुम किसी दिन संबोधि को उपलब्ध हो जाते हो, तो तुम निर्देश प्राप्त कर सकते हो। यदि मैं देह में न रहूं तब तुम मुझसे निर्देश प्राप्त कर सकते हो। ऐसा सदा घटता है पहले व्यक्ति के साथ, जब परंपरा प्रारंभ होती है। यह एक प्रारंभ होता है, एक जन्म। और तुम जन्मने की प्रक्रिया के निकट होते हो। और यह सुंदरतम बात होती है जब कोई चीज जन्म लेती है क्योंकि तब यह सवाधिक जीवंत होती है। धीरे—धीरे जैसे कि बच्चा बढ़ता है, तो वह बच्चा मृत्यु के और—और निकट पहुंच रहा होता है। परंपरा सबसे ज्यादा ताजी होती है जब वह जन्मती है। इसका एक अपना ही सौंदर्य होता है जो अतुलनीय होता है, बेजोड़ होता है।

जो लोग ऋषभ को सुनते थे, प्रथम जैन तीर्थंकर को, उनकी गुणवत्ता अलग थी। जब लोगों ने महावीर को सुना, परंपरा हजारों वर्ष पुरानी हो गयी थी। वह तो बस मरने के किनारे पर ही थी। महावीर के साथ ही वह मर गयी।

जब किसी परंपरा में और गुरु उत्‍पन्न नहीं होते, तब वह मृत हो जाती है। इसका अर्थ होता है कि परंपरा अब और नहीं बढ़ रही। जैनों ने इस बंद कर दिया। चौबीसवें के बाद वे बोले, ‘ अब और गुरु नहीं, और तीर्थंकर नहीं। ‘नानक के साथ होना सुंदर था क्योंकि कुछ नया बाहर आ रहा था गर्भ से—ब्रह्मांड के गर्भ से। यह बच्चे को पैदा होते देखने जैसा ही था। यह रहस्य है-अशात का ज्ञात में अवतरित होना, अमूर्त का मूर्त रूप में आना। यह ओस कणों के समान ताजा है। जल्दी ही हर चीज ढंक जायेगी धूल से। जल्दी ही, जैसे-जैसे समय गुजरता है, चीजें पुरानी पड़ती चली जायेंगी।

लेकिन सिखों के दसवें गुरु के समय तक, दसवें गुरु तक चीजें मृत हो गयीं। तब उन्होंने श्रृंखला बंद होने की घोषणा की और वे बोले, ‘अब और गुरु नहीं। अब धर्मग्रंथ स्वयं ही होगा गुरु।’ इसीलिए सिख अपने धर्मग्रंथ को कहते हैं, ‘गुरु ग्रंथ।’ अब और व्यक्ति वहां नहीं होंगे; अब तो बस मरा हुआ शास्त्र ही गुरु होगा। और जब कोई शास्त्र मृत हो जाता है, तब वह व्यर्थ हो जाता है। न ही केवल व्यर्थ होता है, वह विषैला होता है। किसी मरी हुई चीज को अपने में मत आने दो। यह विष उत्‍पन्न करेगी; यह तुम्हारी समस्त व्यवस्था को विनष्ट कर देगी।

यहां कुछ नया जन्मा है; यह एक प्रारंभ है। यह ताजा है लेकिन इसीलिए बहुत कठिन भी है इसे समझना। यदि तुम गंगोत्री पर जाते हो गंगा के स्रोत तक, यह इतना छोटा होता है वहां-ताजा होता है निस्संदेह; फिर कभी गंगा इतनी ताजी नहीं होगी क्योंकि जब यह बहती है तो बहुत सारी चीजें एकत्रित कर लेती है, संचित कर लेती है, और-और अधिक गंदी होती जाती है। काशी में यह सबसे अधिक गंदी होती है, लेकिन वहां तुम इसे कहते हो ‘पवित्र गंगा’ क्योंकि अब यह इतनी बड़ी होती है। यह इतनी अधिक बढ़ती जाती है। अब एक अंधा आदमी भी देख सकता है इसे। गंगोत्री पर, प्रारंभ पर, स्रोत पर तुम्हें बहुत संवेदनशील होने की जरूरत होती है। केवल तभी तुम इसे देख सकते हो, वरना तो यह टपकती बूंदों की क्षीण धारा ही होती है। तुम विश्वास भी नहीं कर सकते कि बूंदों से बनी यह क्षीण धारा गंगा हो जाने वाली है। यह बात अविश्वसनीय होती है।

बिलकुल अभी यह देख पाना कठिन है कि क्या घट रहा है क्योंकि यह बहुत ही छोटी धारा है, बच्चे की भांति ही। लोग चूक गये ऋषभ के साथ, उन प्रथम जैन तीर्थंकर के साथ, लेकिन वे पहचान सकते थे महावीर को-समझे न? पहले के-ऋषभ के प्रति जैनों के मन में कोई बहुत श्रद्धा नहीं है। वस्तुत: वे अपनी सारी श्रद्धांजलि देते हैं महावीर को। तथ्य यह है कि पश्चिमी मन के अनुसार, महावीर प्रवर्तक हैं जैन धर्म के। क्योंकि भारत में महावीर पर इतनी श्रद्धा रखी जाती है, तो कैसे दूसरे अनुभव कर सकते हैं कि कोई और है प्रवर्तक? ऋषभ विस्मृत हो गये हैं, कोई दंतकथा हो गये हैं, भुलाये जा चुके हैं। शायद वे हुए हों, शायद न हुए हों। वे ऐतिहासिक नहीं प्रतीत होते। वे धुंधले अतीत के हैं, और तुम उनके बारे में ज्यादा कुछ जानते नहीं। महावीर ऐतिहासिक हैं और वे हैं गंगा की भांति, बनारस के निकट की गंगा-जो बहुत विस्तृत होती है।

ध्यान रहे कि प्रारंभ छोटा होता है, लेकिन फिर कभी रहस्य इतना गहन न होगा जितना कि शुरू में होता है। प्रारंभ जीवन है और अंत में मृत्यु। महावीर के साथ जैन परंपरा में मृत्यु प्रविष्ट हो जाती है। ऋषभ के साथ जीवन प्रविष्ट होता है, ऊंचे हिमालय से उतर आता है पृथ्वी तक।

मेरे पास कोई नहीं जिसके प्रति मैं उत्तरदायी बनूं कोई नहीं है जिससे कि निर्देश पाऊं, लेकिन बहुत मदद उपलब्ध है। और यदि इसे तुम इसकी समग्रता में लेते हो, तब यह उससे कहीं बहुत ज्यादा है जो कि कोई एक गुरु बता सकता है। जब मैं पतंजलि के विषय में बोल रहा होता हूं तो पतंजलि सहायक होते हैं। मैं ठीक उसी तरह बोल सकता हूं जैसे कि वे यहां बोल रहे होते। वस्तुत:, मैं नहीं बोल रहा हूं; ये कोई व्याख्याएं नहीं हैं। यह तो वे स्वयं मेरा उपयोग माध्यम की भांति कर रहे हैं। जब मैं हेराक्लतु के विषय में बोल रहा होता हूं वे होते हैं वहां, लेकिन सिर्फ एक मदद के रूप में। यह बात तुम्हें समझ लेनी है, और तुम्हें अधिक संवेदित हो जाना है ताकि तुम प्रारंभ को देख-समझ सको।

जब कोई परंपरा बहुत बड़ी शक्ति बन जाती है तो उसमें बढ़ना कोई ज्यादा सूक्ष्म दृष्टि और संवेदनशीलता की मांग नहीं करता है। उस समय आना कठिन है जब चीजें प्रारंभ हो रही हों, एकदम प्रभातकालीन हों। सांझ होने तक बहुत आ जाते हैं। लेकिन तब वे आते हैं क्योंकि चीज बहुत बड़ी और शक्तिशाली बन चुकी होती है। सुबह में केवल थोड़े-से चुनिंदा लोग आ जाते हैं जिनके पास यह अनुभव करने की संवेदना होती है कि कोई महान चीज उत्‍पन्न हो रही है। तुम बिलकुल अभी इसे प्रमाणित नहीं कर सकते। समय प्रमाणित करेगा इसे। क्या-क्या जनम ले रहा था इसे प्रमाणित होने में हजारों साल लगेंगे, लेकिन यहां होने में तुम सौभाग्यशाली हो। और अवसर को, सुयोग को खोना मत। क्योंकि यह एक सबसे ज्यादा ताजी बात है और सर्वाधिक रहस्यमय।

यदि तुम इसे अनुभव कर सको, यदि तुम इसे अपने में गहरे उतरने दो, तो बहुत सारी चीजें संभव हो जायेंगी बहुत थोड़े समय में ही। यह अभी प्रतिष्ठा की बात नहीं है मेरे साथ होना; यह कोई प्रतिष्ठापूर्ण नहीं है। वस्तुत: केवल जुआरी मेरे साथ हो सकते हैं जो परवाह नहीं करते और इसकी फिक्र नहीं लेते कि दूसरे क्या कहते हैं। जो लोग कुइनया में सम्मानित हैं वे नहीं आ सकते। कुछ वर्षों पश्चात, जब परंपरा धीरे- धीरे मृत हो जाती है, तो वह प्रतिष्ठित हो जाती है; तब वे आयेंगे- अहंकार के कारण।

तुम यहां अहंकार के कारण नहीं हो; बल्कि मेरे साथ इसलिए हो क्योंकि कम से कम अहंकार के लिए प्राप्त करने को तो कुछ नहीं है। तुम गंवाओगे। ऋषभ के साथ केवल वही व्यक्ति बहे थे जो जीवंत थे और साहसी थे और निर्भीक थे और जीवट थे। महावीर के साथ थे, मृत व्यापारी-जुआरी नहीं। इसलिए जैन लोग व्यापारी समुदाय बन चुके हैं। उनका सारा समाज व्यापारी समाज है, वे और कुछ नहीं करते सिवाय व्यापार के। व्यापार संसार की सबसे कम साहसिक बात है। इसीलिए व्यापारी लोग कायर बन जाते हैं। पहले से ही वे कायर थे; इसीलिए वे व्यापारी बने।

एक किसान ज्यादा साहसी होता है, क्योंकि वह अशात के साथ जीता है। वह नहीं जानता, क्या घटने जा रहा है। बारिश होगी या नहीं होगी, कोई नहीं जानता। और कैसे तुम बादलों पर विश्वास कर सकते हो? तुम विश्वास कर सकते हो बैंकों पर, लेकिन तुम बादलों पर विश्वास नहीं कर सकते। कोई नहीं जानता, क्या घटित होने जा रहा है; वह अशात पर निर्भर रहता है। लेकिन वह ज्यादा साहसी जीवन जीता है-एक योद्धा की भांति।

महावीर स्वयं एक योद्धा थे। जैनों के चौबीसों तीर्थंकर योद्धा थे। और कैसा दुर्भाग्य घटा, क्या हुआ कि सारे अनुयायी व्यापारी बन गये? महावीर के साथ वे व्यापारी हो गये क्योंकि वे केवल महावीर के साथ ही आये थे-जब परंपरा ख्याति पा गयी थी, जब पहले से ही उसके पास एक पौराणिक अतीत था उसके बाद आये; जबकि वह पहले से ही एक दंतकथा जैसी बन चुकी थी और उसके साथ होना प्रतिष्ठादायक था।

मृत व्यक्ति केवल तभी आते हैं जब कोई चीज मृत हो जाती है। जीवंत व्यक्ति केवल तब आते हैं जब कोई चीज जीवंत होती है। युवा व्यक्ति ज्यादा आयेंगे मेरे पास। यदि कोई वृद्ध मेरे पास आता भी है तो वह हृदय से युवा ही होता है। ज्यादा उम्र के लोग तलाश करते हैं प्रतिष्ठा की, सम्मान की। वे जायेंगे मुरदा चर्च और मंदिरों की तरफ, जहां कुछ नहीं है सिवाय रिक्तता के और बीते हुए अतीत के। अतीत है क्या? एक रिक्तता ही तो!

कोई चीज जो जीवंत है वह यहीं और अभी है। और जो चीज जीवंत है उसका भविष्य होता है। भविष्य उसमें से उपजता है। जिस क्षण तुम अतीत की तरफ देखना प्रारंभ करते हो, कोई विकास नहीं हो सकता।

क्या आप किसी गुरुओं के गुरु से निर्देश ग्रहण करते है?

नहीं। फिर भी मैं ग्रहण करता हूं मदद, जो ज्यादा सुंदर है। और मैं रहा हूं एकाकी, एक बिना घर का बंजारा-सीखता, आगे बढ़ता, घूमता कहीं एक स्थान पर न रुकता। अत: मेरे ऊपर कोई नहीं जिससे मैं आदेश पाऊं। यदि मुझे कुछ खोजना होता, तो मुझे स्वयं ही खोजना पड़ता। बहुत मदद मौजूद थी, लेकिन मुझे स्वयं श्रमपूर्वक उसका हल निकालना पड़ता था। और एक तरह से वही बड़ी मदद बन जाने वाली है क्योंकि तब मैं निर्भर नहीं करता किसी नियमावली पर। मैं शिष्यों पर ध्यान देता हूं। कोई नहीं है मेरा गुरु जिस पर मैं निर्भर रहूं। मुझे शिष्य की ओर ज्यादा गहराई से देखना पड़ता है कोई सूत्र पा लेने को। कौन-सी चीज मदद देगी तुम्हें, इसके लिए मुझे तुममें झांकना पड़ता है।

इसीलिए मेरी उपदेशना, मेरी विधियां, हर शिष्य के साथ अलग हैं। मेरे पास कोई सार्वभौमिक, सार्वकालिक फार्मूला नहीं है। मेरे पास हो नहीं सकता। कोई बिना किसी मूलाधार के मुझे ही उत्तर देना पड़ता है। मेरे पास पहले से ही तैयार बना-बनाया कोई अनुशासन नहीं है। बल्कि एक विकसित होने वाली घटना है। प्रत्येक शिष्य इसमें कुछ जोड़ देता है। जब मैं नये शिष्य के साथ कार्य करना शुरू करता हूं तो मुझे उसमें झांकना पड़ता है, खोजना पड़ता है, पता लगाना होता है कौन-सी चीज उसे मदद देगी, कैसे वह विकसित हो सकता है। और हर बार हर शिष्य के साथ, एक नयी नियमावली उत्‍पन्‍न हो जाती है।

तुम सचमुच बड़ी उलझन में पड़ने वाले हो मेरे जाने के बाद-क्योंकि हर शिष्य की ओर से इतनी ज्यादा कहानियां होंगी और तुम कोई ताल-मेल नहीं बना पाओगे, कोई ओर-छोर इसमें से नहीं बना पाओगे। क्योंकि मैं हर व्यक्ति से बोल रहा हूं एक व्यक्ति के रूप में। पद्धति उसके द्वारा ही निर्मित हो रही है। और यह विकसित हो रही है बहुत-बहुत दिशाओं में। यह एक विशाल वुक्ष है। बहुत सारी शाखाएं हैं, जो समस्त दिशाओं में जा रही ?

मैं कोई निर्देश गुरुओं द्वारा ग्रहण नहीं करता। मैं निर्देश ग्रहण करता हूं तुमसे ही। जब मैं तुममें झांकता हूं तुम्हारे अचेतन में, तुम्हारी गहराई में, मैं वहां से निर्देश पाता हूं और मैं इसे कार्यवन्तित करता हूं तुम्हारे लिए। यह सदा ही नया उत्तर होता है।

दूसरा प्रश्‍न:

गुरुओं को किसी प्रधान गुरु द्वारा निर्देश पाने की आवश्यकता क्यों होती है? जब वे संबोधि प्राप्त कर लेते हैं तो क्या वे स्वयं में काफी नहीं होते? क्या सम्बोधि की भी अवस्थाएं होती हैं?

नहीं, वस्तुत: अवस्थाएं नहीं होतीं, लेकिन जब गुरु देह में होता है, और जब गुरु देह छोड़ देता है और देहविहीन हो जाता है, तो इन दो बातों में भेद होता है-लेकिन ये वास्तव में अवस्थाएं नहीं हैं। यह तो ऐसा है जैसे तुम वृक्ष के नीचे सड़क के किनारे खड़े हुए हो—तो तुम देख सकते हो सड़क का एक टुकड़ा, लेकिन तुम उस टुकड़े के पार नहीं देख सकते। फिर तुम वृक्ष पर चढ़ते हो। तुम वही रहते हो, तुममें या तुम्हारी चेतना में कुछ नहीं घट रहा। लेकिन तुम चढ़े हो वृक्ष पर, और वृक्ष से तुम अब मीलों तक इस ओर से देख सकते हो और मीलों तक उस ओर से देख सकते हो।

फिर तुम हवाई जहाज में उड़ान भरते हो। कुछ नहीं घटा है, तुममें; तुम्हारी चेतना वैसी ही बनी रहती है। लेकिन अब तुम हजारों मील तक देख सकते हो। देह में तुम सड़क पर हो—सड़क के किनारे होने जैसे हो—देह से सीमित। देह अस्तित्व का निम्नतम बिन्दु है क्योंकि इसका अर्थ होता है पदार्थ के साथ ही प्रतिबद्ध होना। शरीर और पदार्थ है सबसे नीचे का बिन्दु और परमात्‍मा है उच्चतम बिन्दु।

जब कोई गुरु देह में रहते हुए सम्बोधि को उपलब्ध होता है, तो देह को परिपूर्ति करनी होती है अपने कर्मों की, पिछले संस्कारों की। हर खाता बन्द करना पड़ता है, केवल तभी देह को छोड़ा जा सकता है। यह इस प्रकार होता है—तुम्हारा हवाई जहाज आ पहुंचा है, लेकिन तुम्हारे पास बहुत सारे काम पडे हैं समाप्त करने को। सारे लेनदार वहां मौजूद है, और तुम्हारे चले जाने से पहले वे खाता बन्द करने की मांग कर रहे हैं। और लेनदार बहुत हैं, क्योंकि बहुत जन्मों से तुम वचन दे रहे हौ, कई चीजें कर रहे हो—कर्म कर रहे हो और व्यवहार कर रहे हो—कई बार अच्छा, कई बार बुरा; कई बार पापी की भांति और कई बार संत की भांति। तुमने बहुत कुछ एकत्रित कर लिया है। इससे पहले कि तुम चले जाओ, सारा अस्तित्व मांग करता है कि तुम हर चीज समुर्ण कर दो।

जब तुम सम्बोधि प्राप्त कर लेते हो तो तुम जानते हो कि तुम देह नहीं हो, लेकिन तुम देह के और भौतिक संसार की बहुत चीजों के ऋणी होते हो। समय की आवश्यकता होती है। बुद्ध सम्बोधि को उपलब्ध होने के पक्ष्‍चात चालीस वर्ष तक जीवित रहे, महावीर भी लगभग चालीस वर्ष ही जीवित रहे, चुकाने को ही—वह हर चीज चुका देने को जिसके वह देनदार होते थे; वह हर चक्र पूरा कर देने को जो उन्होंने शुरू किया था। कोई नया कर्म नहीं है, लेकिन पुरानी लटकने वाली चीजें समाप्त करनी ही होती है; पुराना मंडराता हुआ प्रभाव समाप्त करना ही पड़ता है। जब सारे खाते बन्द हो जाते हैं, तो अब तुम तुम्हारे हवाई जहाज पर चढ़ सकते हो।

अब तक पदार्थ सहित, तुम क्षैतिजिक गति से बढ़ रहे थे—बैलगाड़ी में ही थे जैसे। अब तुम ऊर्ध्व गति से बढ़ सकते हो। अब तुम ऊपर की ओर जा सकते हो। इसके पहले, तुम हमेशा आगे जा रहे थे या पीछे जा रहे थे; कोई ऊर्ध्व गति नहीं थी। परमात्‍मा या गुरुओं का गुरु वह उच्चतम बिन्दु है जहां से बोध समग्र होता है। चेतना वही है; कुछ नहीं बदला है। सम्बोधि को उपलब्ध हुए व्यक्ति की वही चेतना है जैसे कि परम अवस्था की चेतना की होती है—जैसे कि एक भगवान की होती है। चेतना का कोई भेद नहीं लेकिन बोध, बोध का क्षेत्र, वह भिन्न होता है। अब वह चारों ओर देख सकता है।

बुद्ध और महावीर के समय में एक बड़ा विवाद हुआ था, इस प्रश्न के लिए इस बिन्दु पर उसे समझ लेना उपयोगी होगा। एक विवाद हुआ था—महावीर के अनुयायी कहा करते थे कि महावीर सर्वशक्तिमान हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वव्यापी हैं, सब कुछ जानते हैं। एक तरह से वे सही हैं। क्योंकि एक बार तुम पदार्थ और देह से मुक्त हो जाते हो तो तुम भगवान हो जाते हो। लेकिन एक तरह से वे गलत थे, क्योंकि देह से तो तुम शायद मुक्‍त हो सकते हो, लेकिन तुमने अभी भी इसे छोड़ा नहीं है। तादात्म्‍य टूट चुका है; तुम जानते हो कि तुम देह नहीं हो। पर फिर भी तुम हो तो उसी में।

यह ऐसा है जैसे कि तुम किसी घर में रहते हो; फिर अचानक तुम जान जाते हो कि यह जो घर है, तुम्हारा नहीं है। यह किसी और का घर है और तुम तो बस इसमें रह रहे थे। लेकिन फिर भी, घर छोड़ने के लिए तुम्हें व्यवस्थाएं तो करनी पड़ेगी, तुम्हें कुछ चीजें हटानी पडेगी। और इसमें समय लगेगा। तुम जानते हो यह घर तुम्हारा नहीं, इसलिए तुम्हारा भाव बदल गया है। अब तुम्हें इस घर की चिन्ता नहीं, इसकी चिन्ता नहीं कि इसका क्या होगा। यदि अगले दिन यह ग़ीर जाता है और खण्डहर हो जाता है, तो तुम्हें इससे कुछ नहीं होता। यदि अगले दिन तुम्हें इसे छोड़ना है और आग लग जाती है, तो इससे तुम्हें कुछ नहीं होता। यह किसी और का है। कुछ देर पहले ही तुम्हारा घर के साथ तादात्‍म्‍य बना हुआ था; वह तुम्हारा घर था। यदि आग लगती, यदि मकान गिर जाता, तुम चिंतित हो जाते। अब वह तादात्‍म्‍य टूट गया है।

एक अर्थ में महावीर के अनुयायी सही हैं, क्योंकि जब तुम स्वयं को जान लेते हो, तो तुम सर्वज्ञ बन चुके होते हो। लेकिन बुद्ध के अनुयायी कहा करते थे कि यह बात सही नहीं है। बुद्ध जान सकते हैं यदि वे चाहते ही हों कुछ जानना, लेकिन तो भी वे सर्वज्ञ नहीं हैं। वे कहा करते थे कि यदि बुद्ध चाहें, वे अपना ध्यान किसी भी दिशा में केन्द्रित कर सकते हैं। और जहां कहीं वे अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, वे जानने में सक्षम होंगे। वे सर्वत्रता पाने में सक्षम हैं, लेकिन वे सर्वज्ञ नहीं हैं। भेद सूक्ष्म है, नाजुक है, मगर सुन्दर है। वे कहते थे कि यदि बुद्ध हर बात और सारी चीजें निरंतर रूप से जानते, तो वे पगला ही जाते। यह शरीर इतना ज्यादा बरदाश्त नहीं कर सकता

वे भी ठीक हैं। देहधारी बुद्ध कोई भी चीज जान सकता है यदि वह उसे जानना चाहे तो। उनका चैतन्य देह के कारण एक टॉर्च की भांति होता है। तुम टॉर्च लेकर अंधेरे में जाते हो, तुम कुछ भी जान सकते हो यदि उसे कहीं तुम फोकस कर दो, केन्द्रीभूत कर दो; प्रकाश तुम्हारे साथ है। लेकिन एक टॉर्च टॉर्च ही है, वह कोई ज्योति नहीं है। ज्योति तमाम दिशाओं में प्रकाश पहुंचायेगी, टॉर्च एक विशिष्ट दिशा में केन्द्रित होती है-जहां कहीं तुम चाहो वहीं। एक टाँर्च का कोई चुनाव नहीं होता। तुम उसे उत्तर की ओर केन्द्रित कर सकते हो, और तब यह उत्तर को उद्घाटित कर देगी। तुम इसे दक्षिण की ओर केन्द्रित कर सकते हो, और तब यह दक्षिण को उद्घाटित कर देगी। लेकिन चारों की चारों दिशाएं एक साथ उद्घाटित नहीं होती हैं। यदि तुम टॉर्च को दक्षिण की ओर घुमा दो, तब उत्तर बंद हो जाता है। यह प्रकाश का एक सीमित प्रवाह होता है।

यह बुद्ध के अनुयायियों का दृष्टिकोण था। महावीर के अनुयायी कहा करते थे कि वे टॉर्च की भांति नहीं हैं, वे दीपक की भांति हैं; सारी दिशाएं उद्घाटित हो जाती हैं। लेकिन मैं पसन्द करता हूं बुद्ध के अनुयायियों के दृष्टिकोण को। जब देह होती है तो तुम संकुचित हो जाते हो। देह सीमित होती है। तुम टाँर्च की भांति बन जाते हो क्योंकि तुम हाथों से तो देख नहीं सकते, तुम केवल आंखों से देख सकते हो। यदि तुम केवल आंखों से देख सकते हो, तो तुम तुम्हारी पीठ से नहीं देख सकते क्योंकि वहां तुम्हारी कोई आंखें नहीं होती हैं। तुम्हें अपना सिर घुमाना ही पड़ता है।

शरीर के साथ तो हर चीज केन्द्रित हो जाती है और सीमित हो जाती है। चेतना तो अकेन्द्रित होती है और सब दिशाओं में बह रही होती है। लेकिन यह माध्यम, यह शरीर, सभी दिशाओं में प्रवाहित नहीं हो रहा। यह हमेशा केन्द्रित होता है, अत: तुम्हारी चेतना भी इसकी ओर अधोगामी होकर संकुचित हो जाती है। लेकिन जब देह नहीं बच रहती, जब बुद्ध देह छोड़ चुके होते हैं, तब कोई समस्या नहीं रहती। सारी दिशाएं एक साथ उद्घाटित हो जाती हैं।

यही सारी बातें हैं समझने की। इसीलिए संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति भी निर्देशित किया जा सकता है, क्योंकि वह संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति अभी तक देह की खूंटी से बंधा है, देह में ही लंगर डाले हुए है, सीमित है देह में ही। और एक देहरहित भगवान अनबंधा होता है, उच्चतम आकाश में तैरता हुआ, प्रवाहित होता हुआ। वहां से वह सारी दिशाओं को देख सकता है। वहां से वह अतीत देख सकता है, भविष्य देख सकता है, वर्तमान देख सकता है। वहां उसकी दृष्टि साफ होती है, धुंधली नहीं होती। इसीलिए वह मदद कर सकता है।

देह से आयी तुम्हारी दृष्टि, चाहे तुम संबोधि को उपलब्ध हो भी जाओ, धुंधले आवरण से घिरी ही होती है। देह तुम्हारे चारों ओर बनी है। चेतना की स्थिति वैसी ही होती है, चेतना का अंतरतम यथार्थ वही होता है, प्रकाश की गुणवत्ता वही होती है। लेकिन एक प्रकाश देह से बंध जाता है और सीमित-संकुचित हो चुका होता है, और एक प्रकाश है जो किसी चीज से बिलकुल ही नहीं बंधा हुआ होता है। यह मात्र तैरता हुआ प्रकाश होता है। उच्चतम खुले आकाश में मार्ग-निर्देशन संभव होता है।

‘गुरुओं को क्यों आवश्यकता होती है किसी प्रधान गुरु के निर्देशन की? ‘ यही है कारण।’क्या वे स्वयं में काफी नहीं होते, जब वे संबोधि को उपलब्ध हो चुके हों; या संबोधि की भी अवस्थाएं होती हैं? ‘

वे बहुत काफी हैं। वे काफी हैं शिष्यों का मार्ग-निर्देशन करने को; वे पर्याप्त है शिष्यों की मदद करने को। किसी चीज की जरूरत नहीं है। लेकिन फिर भी वे बंधे होते हैं। और जो अनबंधा होता है वह सदा ही एक अच्छी मदद होता है। तुम नहीं देख सकते सारी दिशाओं में, लेकिन वह देख सकता है।

गुरु भी कार्यवाही कर सकता है और देख सकता है, तो भी यह करना पड़ता है। यही तो कर रहा हूं मैं-कोई निर्देशक ऊपर नहीं; मुझे निर्देश देने को कोई नहीं है; मुझे निरंतर कार्य में बढ़ते रहना पड़ता है। इस और उस दिशा से देख रहा हूं इस दिशा से और उस दिशा से ध्यान दे रहा हूं। तुम्हारी ओर देख रहा हूं बहुत सारे दृष्टिकोणों से जिससे तुम्हारी समग्रता देखी जा सके। मैं तुम्हारे आर-पार देख सकता हूं लेकिन मुझे तुम्हारे चारों ओर गतिमान होना पड़ता है। मात्र एक झलक, एक सरसरी दृष्टि मदद न देगी क्योंकि वह झलक देह द्वारा सीमित हो जायेगी। मै टॉर्च लिये हुए हूं और तुम्हारे चारों ओर घूम कर देख रहा हूं हर संभव दृष्टिकोण से देख रहा हूं।

एक तरह से यह कठिन है क्योंकि मुझे ज्यादा कार्य करना पड़ता है। एक तरह से यह बहुत सुंदर है कि मुझे ज्यादा कार्य करना पड़ता है और यह कि मुझे प्रत्येक संभव दृष्टिकोण से देखना पड़ता है। मैं बहुत सारी चीजों को जान लेता हूं जिन्हें बने-बनाये तैयार आदेश अपने में नहीं समा सकते हैं। और जब गुरुओं के गुरु, जो पतंजलि की विचारधारा में भगवान हैं-अनुदेश देते हैं, तो वे कोई व्याख्या, कोई स्पष्टीकरण नहीं देते; वे तो मात्र अनुदेश दे देते है। वे केवल कह देते हैं, ‘यह करो; वह मत करो।’

जो इन अनुदेशों के पीछे चलते हैं, वे ऐसे लगेंगे जैसे कि वे बने-बनाये तैयार हों। ऐसा होगा ही क्योंकि वे कहेंगे, ‘ऐसा करो।’ उनके पास स्पष्टीकरण नहीं होगा। और बहुत सांकेतिक अनुदेश दिये जाते है। स्पष्टीकरण बहुत कठिन होता है। और उसकी कोई जरूरत भी नहीं होती, क्योंकि जब अनुदेश दिये जाते हैं उच्चतर दृष्टिकोण से तो वे ठीक ही होते हैं। मात्र आज्ञाकारी ही होना होता है।

गुरु आदेशग्राही होता है गुरुओं के गुरु के प्रति, और तुम्हें गुरु के आदेश का पालन करना होता है। आज्ञापालन पीछे चला ही आता है। यह सेना-तंत्र की भांति है; बहुत ज्यादा स्वतंत्रता नहीं होती। ज्यादा की अनुमति नहीं दी जाती। आशा तो आज्ञा है। यदि तुम स्पष्टीकरण की मांग करते हो, तो तुम विद्रोही होते हो और यही है समस्या, बड़ी समस्याओं में से एक है जिसका सामना अब मानवता को करना है। अब मनुष्य आज्ञाकारी नहीं हो सकता उस तरह, जैसे कि अतीत में था। कोई एकदम ही नहीं कह सकता, ‘यह मत करो।’ स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है। और कोई साधारण स्पष्टीकरण काम न देगा। बड़ी प्रामाणिक स्पष्टता की जरूरत होती है क्योंकि मानवता का मन ही आज्ञाकारी नहीं रहा है। अब विद्रोहात्मकता भीतर ही निर्मित हुई होती है; अब एक बच्चा जन्मजात विद्रोही होता है।

बुद्ध और महावीर के समय में यह समपरूपेण विभिन्न बात थी। अब हर एक को सिखाया जाता है व्यक्ति होना, स्वयं अपने बल पर होना, स्वयं में विश्वास करना। आस्था कठिन बात हो गयी है। आज्ञापरायणता संभव नहीं रही। यदि कोई बिना पूछे अनुसरण कर लेता है, तो तुम समझते हो, वह अधानुयायी है। वह निदिंत हो जाता है। तो अब केवल वह गुरु ही जिसके पास सारी व्याख्याएं हैं-जितनी तुम्हें चाहिए उससे ज्यादा, जो तुम्हें पूरी तरह थका सके, तुम्हारी मदद कर सकता है। तुम पूछते चले जाओ-वह दिये जा सकता है उत्तर। एक घड़ी आती है जब तुम पूछने से थक जाते हो, और तुम कहते हो, ‘ठीक, मैं अनुसरण करूंगा।’

पहले कभी ऐसा न था। बात सीधी-सरल थी। जब महावीर ने कहा था, ‘यह करो’, हर एक ने किया था। लेकिन अब यह संभव नहीं क्योंकि आदमी ही इतना अलग हो गया है। आधुनिक मन विद्रोही मन है, और तुम इसे बदल नहीं सकते। विकास क्रम ने इसे इसी तरह का बना दिया है और कुछ गलत नहीं है इसमें। इसीलिए पुराने गुरु मार्ग से अलग पड़ रहे हैं। कोई नहीं सुनता उनकी। तुम जाओ उनके पास। उनके पास आदेश हैं सुंदर आदेश, लेकिन वे कोई व्याख्या देते नहीं हैं, और पहली चीज ही व्याख्या होती है। अनुदेश तो तर्कसरणी के साथ ही पीछे आना चाहिए। पहले सारा स्पष्टीकरण, सारी व्याख्याएं दे दी जानी चाहिए, और तब गुरु कह सकता है, ‘इसीलिए यह करना है।’

यह लम्बी प्रक्रिया है, लेकिन ऐसी ही है। कुछ नहीं किया जा सकता। और एक अर्थ में यह सुंदर विकास है, क्योंकि जब तुम मात्र आस्था रखते हो, तो तुम्हारी आस्था में कोई त्वरा नहीं होती, कोई तीव्रता नहीं होती। तुम्हारी आस्था में कोई तीखापन नहीं होता। वह एक मिली-जुली खिचडीनुमा चीज होती है- आकारविहीन। किसी रंगरूप का विन्यास नहीं होता; इसमें कोई रंग नहीं होता। यह मात्र धुंधली होती है। लेकिन जब तुम संदेह कर सको, जब तुम तर्क कर सको, और सोच-विचार कर सको और गुरु तुम्हारे सारे तर्कों को, विवादों को और संदेहों को संतुष्ट कर सकता हो, तब उदित होती है आस्था जिसका कि अपना एक सौदर्य होता है क्योंकि इसे उपलब्ध किया गया है संदेह की पृष्ठभूमि से।

सारे संदेहों के विपरीत इसे उपलब्ध किया है, सारी चुनौतियों के विरुद्ध इसे पाया गया है। यह बात एक संघर्ष बनी रही है। यह कोई सीधी या सस्ती बात नहीं थी; यह मूल्यवान बात बनी रही है। और जब तुम कुछ प्राप्त करते हो लंबे संघर्ष के बाद, तो उसका एक अपना ही अर्थ होता है। यदि तुम इसे सड़क पर ही पा लेते हो, जब यह वहां पड़ा ही होता है और तुम इसे घर ले जाते हो, तो इसका कोई सौदर्य नहीं होता। यदि कोहिनूर संसार भर में पड़े होते, तो कौन फिक्र करता उन्हें घर ले जाने की? यदि कोहिनूर मात्र एक साधारण पत्थर होता कहीं भी पड़ा हुआ, तो कौन करता परवाह?

पुराने समय में आस्था उन कंकड़-पत्थरों की भांति थी जो सारी पृथ्वी पर पड़े रहते हैं। अब यह होती है एक कोहिनूर। अब इसे होना होता है कोई कीमती उपलब्धि। आदेश काम न देंगे। गुरु को अपने स्पष्टीकरण में, व्याख्या में इतने गहरे जाना होता है कि वह तुम्हें थका देता है। इसलिए मैं तुमसे कभी नहीं कहता कि मत पूछो। वस्तुत: विपरीत है अवस्था। मैं तुमसे कहता हूं पूछो और तुम्हें प्रश्न मिलते नहीं हैं।

मैं तुम्हारे अचेतन से सारे संभव प्रश्न ले जाऊंगा बाहरी तल तक, और मै उन्हें सुलझा दूंगा। कोई तुमसे न कह पायेगा कि तुम अधानुगामी हो। और मैं तुम्हें एक भी अनुदेश नहीं दूंगा, तुम्हारे तर्क को, बुद्धि को पूरी तरह संतुष्ट किये बिना-नहीं; क्योंकि वह बात किसी तरह तुम्हें मदद नहीं देने वाली।

निर्देश दिये जाते है गुरुओं के गुरु द्वारा, लेकिन वे होते है मात्र उद्धृत शब्द-सूत्र : ‘यह करो, वह मत करो।’ नये युग में यह बात काम न देगी। आदमी अब इतना बुद्धिवादी हो गया है कि चाहे तुम अतर्कमयता ही सिखा रहे हो तो भी तुम्हें इसके बारे में तर्कयुक्त होना होता है। यही कर रहा हूं मैं-तुम्हें सिखा रहा हूं असंगत, अतार्किक, तुम्हें सिखा रहा हूं कुछ गढ़ बात-और तर्क द्वारा। तुम्हारे तर्क का, बुद्धि का इतना ज्यादा प्रयोग कर लेना है कि तुम स्वयं जागरूक हो जाओ कि यह व्यर्थ है, तो तुम फेंक दो इसे। तुम्हारे तर्क के बारे में तुमसे इतना ज्यादा कहना होता है कि तुम इसके साथ थककर चूर हो जाते हो। तुम गिरा देते हो इसे स्वयं ही; किसी निर्देश द्वारा नहीं।

निर्देश दिये जा सकते है, लेकिन तुम चिपक जाओगे। वे काम न देंगे। मैं तुमसे नहीं कहने वाला कि, ‘केवल आस्था रखो मुझ पर।’ मैं संपूर्ण स्थिति का निर्माण कर रहा हूं जिसमें कि तुम कुछ और कर ही न सको। तुम्हें रखनी ही होगी आस्था। इसमें समय लगेगा। थोड़ा ज्यादा समय; तब चली आयेगी सीधी-सरल आज्ञापरायणता। लेकिन यह मूल्यवान होगी।

तीसरा प्रश्‍न:

हम अपनी मूर्च्छित और अहंकारप्रस्त अवस्था में हमेशा गुरु के संपर्क में नहीं होते लेकिन क्या गुरु हमेशा हमारे साथ संपर्क में होता है?

हां, क्योंकि गुरु तुम्हारी चारों परतों के साथ संपर्क रखता है। तुम्हारी चेतन परत मात्र एक है चार परतों में से। लेकिन यह तभी संभव है जब तुमने समर्पण कर दिया हो और उसे अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया हो, उससे पहले यह संभव नहीं। यदि तुम मात्र एक विद्यार्थी होते हो, सीख रहे होते हो, तब जब तुम संपर्क में होते हो तभी गुरु संपर्क में होता है; जब तुम संपर्क में नहीं होते तब वह भी संपर्क में नहीं होता।

इस घटना को समझ लेना है। तुम्हारे चार मन होते है-वह परम मन जो भविष्य की संभावना है जिसके तुम केवल बीज लिये हुए हो। कुछ प्रस्कृटित नहीं हुआ; केवल बीज होते हैं, मात्र क्षमता होती है। फिर होता है चेतन मन-एक बहुत छोटा टुकड़ा जिसके द्वारा तुम विचार करते हो, सोचते हो, निर्णय करते हो, तर्क करते हो, संदेह करते हो, आस्था करते हो। यह चेतन मन गुरु के साथ संपर्क में होता है जिसे तुमने समर्पण नहीं किया है। तो जब भी यह संपर्क में होता है, गुरु संपर्क में होता है। अगर यह संपर्क में नही, तो गुरु सपर्क में नही। तुम एक विद्यार्थी हो, और तुमने गुरु को गुरु के रूप में नही धारण किया है। तुम अब भी एक शिक्षक के रूप में ही उसके बारे में सोचते हो।

शिक्षक और विद्यार्थी चेतन मन में अस्तित्व रखते हैं। कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि तुम खुले हुए नही हो। तुम्हारे दूसरे तीनों द्वार बन्द है। परम चेतना मात्र एक बीज होती है। तुम इसके द्वार नहीं खोल सकते।

उपचेतन जरा ही नीचे है चेतन से। वह द्वार खुलना संभव है यदि तुम प्रेम करो। यदि तुम यहाँ मेरे साथ हो केवल तुम्हारी तर्कणा के कारण, तो तुम्हारा चेतन द्वार खुला हुआ है। जब कभी तुम खोलते हो इसे, तो मैं वहा होता हूं। यदि तुम इसे नहीं खोलते, तो मैं बाहर होता हू। मैं प्रवेश नहीं कर सकता। चेतन के नीचे ही उपचेतन है। यदि तुम मेरे प्रेम में हो, यदि यह मात्र शिक्षक और विद्याथीं का सबंध नहीं है बल्कि कुछ ज्यादा आत्मीयता का संबंध है, यदि यह प्रेम-जैसी घटना है, तो उपचेतनीय द्वार खुला होता है। बहुत बार चेतन द्वार तुम्हारे द्वारा बंद हो जायेगा। तुम मेरे विरुद्ध तर्क करोगे; कई बार तुम नकाराअत्‍म हो जाओगे; कई बार तुम मेरे विरुद्ध हो जाओगे। लेकिन वह बात महत्व नहीं रखती। प्रेम का उपचेतनीय द्वार खुला होता है, और मैं सदा रह सकता हूं तुम्हारे सपर्क में।

लेकिन वह भी एक संपूर्ण श्रेष्ठ द्वार नहीं है क्योंकि कई बार तुम मुझ से घृणा कर सकते हो। यदि तुम मुझे घृणा करते हो, तो तुमने वह द्वार भी बंद कर दिया है। प्रेम है वहां, लेकिन वह विपरीत बात घृणा भी वहा है। यह हमेशा होती है प्रेम के साथ। द्वितीय द्वार ज्यादा खुला होगा प्रथम से, क्योंकि पहला तो अपनी मनोदशा इतनी तेजी से बदलता है कि तुम जानते ही नहीं कि क्या घट सकता है। किसी भी क्षण यह बदल सकता है। एक क्षण पहले यह मौजूद था यहां अगले क्षण यह यहां नहीं होता। क्षण मात्र की घटना होती है।

प्रेम थोड़ी ज्यादा देर बना रहता है। यह भी अपनी भाव दशाएं बदलता है, लेकिन इसकी मनोदशाओ की थोड़ी ज्यादा लंबी तरंगे होती है। कई बार तुम मुझे घृणा करोगे। तीस दिनो में करीब आठ दिन ऐसे रहते होगे-कम से कम एक सप्ताह तो होता ही होगा-जिसके दौरान तुम मुझे घृणा करोगे। लेकिन तीन सप्ताह के लिए तो वह द्वार खुला होता है। बुद्धि के साथ एक सप्ताह बहुत लंबा है। यह एक अनंतकाल होता है। बुद्धि के साथ एक क्षण तुम यहां होते हो, दूसरे क्षण तुम विरुद्ध होते हो। पक्ष में होते हो, फिर विरुद्ध, और यही चलता जाता है। यदि दूसरा द्वार खुला होता है और तुम प्रेम में होते हो, चाहे तर्क का द्वार बंद भी हो, तो मैं संपर्क में बना रह सकता हूं।

तीसरा द्वार उपचेतन के नीचे होता है-जो है अचेतन। तर्क प्रथम द्वार खोल देता है-यदि तुम मेरे साथ कायल होने का अनुभव करो। प्रेम द्वितीय द्वार खोल देता है जो पहले से ज्यादा बड़ा होता है। यदि तुम मेरे प्रेम में होते हो-कायल नही, बल्कि प्रेम में होते हो, एक घनिष्ठ संबंध अनुभव करते हो, एक समस्वरता, एक स्नेही भाव अनुभव करते हो।

तीसरा द्वार खुलता है समर्पण द्वारा। यदि तुम मेरे द्वारा संन्यस्त हुए हो, यदि तुम संन्यास में छलांग लगा चुके हो, यदि तुमने छलांग लगा दी है और मुझसे कह दिया है, ‘ अब— अब तुम होओ मेरे मन। अब ‘तुम थाम लो मेरी बागडोर। अब तुम मेरा मार्ग—निर्देशन करो और मैं पीछे चलूंगा। ‘ ऐसा नहीं है कि तुम इसे हमेशा ही कर पाओगे, लेकिन मात्र यह चेष्टा ही कि तुमने समर्पण किया, तीसरा द्वार खोल देता है।

तीसरा द्वार खुला रहता है। हो सकता है तार्किक रूप से तुम मेरे विरुद्ध होओ। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता; मैं संपर्क में होता हूं। हो सकता है तुम मुझे घृणा करो। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता; मै संपर्क में होता हूं। क्योंकि तीसरा द्वार सदा खुला रहता है। तुमने समर्पण कर दिया है। और तीसरे द्वार को बंद करना बहुत कठिन होता है, बहुत—बहुत कठिन। खोलना कठिन है, बंद करना भी कठिन है। खोलना कठिन होता है, पर इतना कठिन नहीं जितना कि इसे बंद करना। लेकिन वह भी बंद किया जा सकता है क्योंकि तुमने इसे खोला है। वह भी किया जा सकता है बंद। किसी दिन तुम निर्णय कर सकते हो तुम्हारे समर्पण को लौटा लेने का। या तुम जा सकते हो और स्वयं का समर्पण किसी दूसरे के प्रति कर सकते हो। लेकिन ऐसा कभी नहीं, करीब—करीब कभी नहीं घटता है। क्योंकि इन तीनों द्वारों सहित गुरु चौथे द्वार को खोलने का कार्य कर रहा होता है।

अत: लगभग असंभव संभावना होती है कि तुम तुम्हारा समर्पण वापस लौटा लोगे। इससे पहले कि तुमने इसे लौटा लिया हो, गुरु अवश्य चौथा द्वार खोल चुका होता है, जो तुम्हारे बाहर होता है। तुम इसे खोल नहीं सकते, तुम इसे बंद नहीं कर सकते। जो द्वार तुम खोलते हो, इसके तुम मालिक रहते हो और तुम उसे बंद भी कर सकते हो। लेकिन चौथे को तुमसे कुछ लेना—देना नहीं होता है। वह है परम चेतना। इन तीनों द्वारों को खोलना आवश्यक है। जिससे कि गुरु चौथे द्वार के लिए चाबी गढ़ सके, क्योंकि तुम्हारे पास नहीं है चाबी। अन्यथा तुम स्वयं उसे खोलने के योग्य हो जाते। गुरु को इसे गढ़ना होता है। यह एक जालसाजी, एक फोर्जरी है क्योंकि स्वयं मालिक के पास चाबी नहीं है।

गुरु का सारा प्रयास यही है कि इन तीनों द्वारों से चौथे में प्रवेश करना और चाबी गढ़ना और इसे खोलना, इसके लिए उसे पर्याप्त समय मिले। एक बार यह खुल जाता है, तो तुम नहीं रहते। अब तुम कुछ नहीं कर सकते। तुम तीनों के द्वार बंद कर सकते हो, लेकिन उसके पास चाबी है चौथे की और वह हमेशा संपर्क में है। तब चाहे तुम मर भी जाओ, इससे कुछ नहीं होता। यदि तुम पृथ्वी के बिलकुल अंत तक चले जाओ, यदि तुम चांद पर चले जाओ, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता; उसके पास चौथे की चाबी है। और वस्तुत: सच्चा गुरु कभी भी चाबी रखता नहीं। वह सिर्फ खोल देता है चौथे को और चाबी फेंक देता है समुद्र में। अत: कोई संभावना नहीं होती इसे चुराने की या कुछ करने की। कुछ नहीं किया जा सकता।

मैंने तुममें से बहुतों के चौथे द्वार की चाबी गढ़ ली और फेंक दी है। अत: स्वयं को नाहक परेशान मत करो; यह व्यर्थ है। अब कुछ नहीं किया जा सकता। एक बार चौथा द्वार खुल जाता है तो कोई समस्या नहीं रहती। सारी समस्याएं इससे पहले की ही होती है। ठीक अंतिम क्षण गुरु तैयार कर रहा होता है चाबी क्योंकि चाबी कठिन होती है।

लाखों जन्मों से द्वार बंद रहा है, इसने तमाम तरह की जंग इकट्ठी कर ली है। यह दीवार की भांति लगता है, द्वार की भांति नहीं। ताला कहां है, इसे खोजना कठिन होता है। और हर किसी के पास अलग ताला है। अत: कहीं कोई मास्टर—की, कोई परम कुंजी नहीं है। एक चाबी काम न देगी क्योंकि हर कोई उतना ही अनूठा है जितना कि तुम्हारे अंगूठे का चिह्न। कोई दूसरा वह चिह्न कहीं नहीं पा सकता-न तो अतीत में, न ही भविष्य में। तुम्हारे अंगूठे का चिह्न तो बस तुम्हारा होगा, एकमेव घटना। यह कभी दोहराई नहीं जाती है।

तुम्हारे अंतर-कोष्ठ का ताला भी तुम्हारे अंगूठे के चिह्न की भांति ही होता है। यह नितांत वैयक्तिक होता है। कोई परम कुंजी मदद नहीं कर सकती। इसीलिए गुरु की जरूरत होती है, क्योंकि परम कुंजी खरीदी नहीं जा सकती है। वरना एक बार चाबी तैयार हो जाये, तो हर किसी का द्वार खोला जा सकता है। नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के पास अलग ढंग का द्वार है, अलग प्रकार का ताला है। उस ताले के बंद होने, खुलने का अपना ढंग होता है। गुरु को ध्यान देना है और खोजना है और चाबी गढनी है-कोई विशिष्ट चाबी।

एक बार तुम्हारा चौथा द्वार खुल जाता है, तब गुरु सतत तुम्हारे साथ गहन संपर्क में होता है। तुम चाहे उसे बिलकुल ही भूल जाओ; इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। तुम उसे याद न करो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। गुरु देह छोड़ दे, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जहां कहीं वह हो, जहां कहीं तुम हो, द्वार खुला ही होता है। और यह द्वार समय-स्थान के पार रहता है। इसीलिए यह परम मन है, यह परम चेतन है।

‘हम अपनी मूर्च्छित और अहंकारी अवस्था में सदा ही गुरु के संपर्क में नहीं होते लेकिन गुरु क्या सदा हमारे संपर्क में होता है? ‘-हां, लेकिन सिर्फ तभी, जब चौथा द्वार खुला हो। अन्यथा तीसरे द्वार पर, वह कुछ अंश तक संपर्क में होता है। दूसरे द्वार पर करीब आधे समय वह संपर्क में होता है। पहले द्वार पर, वह केवल क्षणमात्र संपर्क में होता है।

अत: मुझे तुम्हारा चौथा द्वार खोलने दो। और चौथा द्वार एक निश्रित घड़ी में ही खुलता है। वह घड़ी आती है जब तुम्हारे तीनों द्वार ही खुले हों। यदि एक भी द्वार बंद हो, तो चौथा द्वार नहीं खुल सकता है। यह एक गणित भरी पहेली है। और ऐसी अवस्था की जरूरत होती है-कि तुम्हारा पहला-वह चेतन द्वार खुला रहना चाहिए। फिर तुम्हारा दूसरा द्वार खुला होना चाहिए-तुम्हारा उपचेतन, तुम्हारा प्रेम। यदि तुमने समर्पण कर दिया है, यदि तुमने दीक्षा में कदम रख लिया है, तब तुम्हारा तीसरा, अचेतन द्वार खुला होता है।

जब तीनों द्वार खुले होते हैं, जब तीनों के तीनों द्वार खुले होते हैं तो एक निश्रित घड़ी में चौथा द्वार खोला जा सकता है। तो ऐसा घटता है कि जब तुम जागे हुए होते हो, चौथा द्वार कठिन है खोलना। जब तुम सोये हुए होते हो, केवल तभी। अत: मेरा वास्तविक कार्य दिन में नहीं होता। यह रात्रि में होता है जब तुम गहरी नींद में खराटे भर रहे होते हो, क्योंकि तब तुम कोई मुश्किल नहीं खड़ी करते। तुम गहरी नींद में सोये होते हो, इसीलिए तुम उल्टे तर्क नहीं करते। तुम तर्क करने की बात भूल चुके होते हो।

गहरी नींद में तुम्हारा हृदय ठीक कार्य करता है। तुम इस समय ज्यादा प्रेममय होते हो उसकी अपेक्षा, जिस समय कि तुम जागे हुए हो। क्योंकि जब तुम जागे हुए होते हो, बहुत सारे भय तुम्हें घेर लेते हैं। और भय के कारण ही प्रेम संभव नहीं हो पाता। जब तुम गहरी नींद में सोये हुए होते हो, भय तिरोहित हो जाते हैं, प्रेम खिलता है। प्रेम एक रात्रि-पुष्प है। तुमने देखा होगा रात की रानी को-वह फूल जो रात्रि में खिलता है। प्रेम रात की रानी है। यह रात में खिलता है-तुम्हारे कारण ही; और कोई दूसरा कारण नहीं। यह खिल सकता है दिन में, लेकिन तब तुम्हें स्वयं को बदलना होता है। इससे पहले कि प्रेम दिन में खिल सके, भारी परिवर्तन की आवश्यकता होती है।

इसीलिए तुम देख सकते हो कि जब लोग नशे की मस्ती में होते हैं तो वे ज्यादा प्रेममय होते हैं। चले जाओ किसी मधुशाला में जहां लोगों ने बहुत ज्यादा पी रखी हो; वे लगभग सदा ही प्रेममय होते हैं। देखना दो शराबियों को सड़क पर चलते हुए एक-दूसरे के कंधों पर झूलते हुए-इतने प्रेममय-जैसे कि एक हों। वे सोये हुए हैं।

जब तुम भयभीत नहीं होते, तब प्रेम खिलता है। भय है विष। और जब तुम नींद में गहरे उतरे होते हो तो तुम पहले से ही समर्पित हो ही, क्योंकि निद्रा है ही समर्पण। और यदि तुमने गुरु को समर्पण कर दिया है, तो वह तुम्हारी निद्रा में प्रवेश कर सकता है। तुम सुन भी न पाओगे उसकी पगध्वनि। वह चुपचाप प्रवेश कर सकता है और कार्य कर सकता है। यह एक कूट-रचना, एक फोर्जरी है, बिलकुल वैसी है जैसे कि चोर उस समय रात में प्रवेश करे, जबकि तुम सोये होते हो। गुरु एक चोर है। जब तुम गहरी निद्रा में होते हो और तुम नहीं जानते कि क्या घट रहा है, वह प्रवेश करता है तुममें, और चौथा द्वार खोल देता है।

एक बार चौथा द्वार खुल जाता है, तो कोई समस्या नहीं रहती। हर कोशिश और हर मुसीबत जो तुम बना सकते हो, तुम उसे निर्मित कर सकते हो केवल चौथे के खुलने से पहले ही। वह चौथा द्वार ना-वापसी है। एक बार चौथा खुल जाता है, तो गुरु चौबीसों घंटे तुम्हारे साथ रह सकता है। तब कोई मुश्किल नहीं है।

प्रश्‍न चौथा:

कोई इच्छाओ को दबाये बिना उन्हे कैसे काट सकता है?

इच्छाएं सपने हैं, वे वास्तविकताएं नहीं हैं। तुम उन्हें परिपूर्ण नहीं कर सकते और तुम उन्हें दबा नहीं सकते, क्योंकि तुम्हारे किसी निश्रित चीज को परिपूर्ण करने के लिए उसके वास्तविक होने की जरूरत होती है। तुम्हारे किसी निशित चीज को दबाने के लिए भी उसके वास्तविक होने की आवश्यकता होती है। आवश्यकताएं परिपूर्ण की जा सकती हैं और आवश्यकताएं दबायी जा सकती हैं। इच्छाएं न तो परिपूर्ण की जा सकती हैं और न ही ये दबायी जा सकती हैं। इसे समझने की कोशिश करना क्योंकि यह बात बहुत जटिल होती है।

इच्छा एक सपना है। यदि तुम इसे समझ लो, तो यह तिरोहित हो जाती है। इसका दमन करने की कोई जरूरत नहीं होगी। इच्छा का दमन करने की क्या जरूरत है? तुम बहुत प्रसिद्ध होना चाहते हो-यह एक सपना है, इच्छा है, क्योंकि शरीर को परवाह नहीं रहती प्रसिद्ध होने की। वस्तुत: शरीर बहुत ज्यादा दुख उठाता है जब तुम प्रसिद्ध हो जाते हो। तुम्हें पता नहीं शरीर किस तरह दुख पाता है जब तुम प्रसिद्ध हो जाते हो। तब कहीं कोई शांति नहीं। तब निरंतर दूसरों द्वारा तुम परेशान किये जाते हो, पीड़ित किये जाते हो क्योंकि इतने प्रसिद्ध हो तुम।

वोलेयर ने कहीं लिखा है, जब मैं प्रसिद्ध नहीं था, तो मैं हर रात ईश्वर से प्रार्थना किया करता था कि ‘मुझे प्रसिद्ध बना दो। मैं ना-कुछ हूं अत: मुझे ‘कुछ’ बना दो। और फिर मैं प्रसिद्ध हो गया। फिर मैंने प्रार्थना करनी शुरू कर दी, बस, बहुत हो गया। अब मुझे फिर से ना-कुछ बना दो क्योंकि इससे पहले, जब मैं पेरिस की सड्कों पर जाया करता था, कोई मेरी ओर नहीं देखता और मुझे इतना बुरा लगता था। कोई मेरी ओर जरा भी ध्यान नहीं देता था, जैसे कि मैं बिलकुल कोई अस्तित्व नहीं रखता था। मैं रेस्तराओं में घूमता-फिरता रहता और बाहर चला आता। कोई नहीं, बैरे तक मेरी ओर ध्यान नहीं देते थे।’

फिर राजाओं की तो बात ही क्या? उन्हें पता ही नहीं था कि वोलेयर विद्यमान था।’फिर मैं प्रसिद्ध हो गया’, लिखता है वह, ‘तब सड्कों पर घूमना र्का१3एन हो गया था क्योंकि लोग इकट्ठे हो जाते। कहीं भी जाना कठिन था। कठिन था रेस्तरां में जाना, और आराम से खाना खा लेना। भीड़ इकट्ठी हो जाती।’

एक घड़ी आयी जब उसके लिए घर से बाहर निकलना लगभग असंभव हो गया क्योंकि उन दिनों पेरिस में, फ्रांस में एक अंधविश्वास चलता था कि यदि तुम किसी बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति के कपड़े का टुकड़ा ले सको और उसका लॉकिट बना लो, तो यह अच्छी किस्मत होती थी। तो जहां-कहीं से वह चला जाता, वह लौटता वस्रविहीन होकर क्योंकि लोग उसके कपड़े फाड़ देते! और वे उसके शरीर को भी हानि पहुंचा देते। जब वह कहीं जाता या किसी दूसरे शहर से वापस लौटता पेरिस, पुलिस की जरूरत पड़ती उसे घर वापस लाने को।

अत: वह प्रार्थना किया करता था, ‘मैं गलत था। बस मुझे फिर से ना-कुछ बना दो, क्योंकि मैं जा नहीं सकता और नदी को देख नहीं सकता। मैं बाहर नहीं जा सकता और सूर्योदय नहीं देख सकता। मैं पहाड़ों पर नहीं जा सकता; मैं घूम-फिर नहीं सकता। मैं एक कैदी बन गया हूं।’

जो प्रसिद्ध हैं वे हमेशा कैदी ही होते हैं। शरीर को जरूरत नहीं है प्रसिद्ध होने की। शरीर इतनी पूरी तरह से ठीक है, उसे इस प्रकार की किन्हीं निरर्थक चीजों की जरूरत नहीं होती है। उसे भोजन जैसी सीधी-सादी चीजों की आवश्यकता होती है। उसे जरूरत होती है पीने के पानी की। इसे मकान की जरूरत होती है जब बाहर बहुत ज्यादा गरमी होती है। इसकी जरूरतें बहुत, बहुत सीधी होती हैं।

संसार पागल है इच्छाओं के कारण ही, आवश्यकताओं के कारण नहीं। और लोग पागल हो जाते हैं। वे अपनी आवश्यकताएं काटते चले जाते हैं, और अपनी इच्छाएं उपजाये और बढ़ाये चले जाते हैं। ऐसे लोग हैं जो हर दिन का, एक समय का भोजन छोड़ देना पसंद करेंगे, पर वे अपना अखबार नहीं छोड सकते। सिनेमा देखने जाना नहीं बंद कर सकते; वे सिगरेट पीना नहीं छोड़ सकते। वे किसी तरह भोजन छोड़ देते हैं। उनकी आवश्यकताएं गिरायी जा सकती हैं, उनकी इच्छाएं नहीं। उनका मन तानाशाह बन चुका है।

शरीर हमेशा सुंदर होता है-इसे ध्यान में रखना। यह आधारभूत नियमों में एक है जिसे मैं तुम्हें देता हूं-वह नियम जो बेशर्त रूप से सत्य है, परम रूप से सत्य है, निरपेक्ष रूप से सत्य है-शरीर तो हमेशा सुंदर होता है, मन है असुंदर। वह शरीर नहीं है जिसे कि बदलना है। इसमें बदलने को कुछ नहीं है। यह तो मन है, जिसे बदलना है। और मन का अर्थ है इच्छाएं। शरीर आवश्यकता की मांग रखता है, लेकिन शारीरिक आवश्यकताएं वास्तविक आवश्यकताएं होती हैं।

यदि तुम जीना चाहते हो, तो तुम्हें भोजन चाहिए। प्रसिद्धि की जरूरत नहीं होती है जीने के लिए, इज्जत की जरूरत नहीं है जीवित रहने के लिए। तुम्हें जरूरत नहीं होती बहुत बड़ा आदमी होने की या कोई बड़ा चित्रकार होने की-प्रसिद्ध होने की, जो सारे संसार में जाना जाता है। जीने के लिए तुम्हें नोबेल पुरस्कार विजेता होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि नोबेल पुरस्कार शरीर की किसी जरूरत की परिपूर्ति नहीं करता है।

यदि तुम आवश्यकताओं को गिराना चाहते हो, तो तुम्हें उनका दमन करना होगा-क्योंकि वे वास्तविक होती हैं। यदि तुम उपवास करते हो, तो तुम्हें भूख का दमन करना पड़ता है। तब दमन होता है। और हर दमन गलत है क्योंकि दमन एक भीतरी लड़ाई है। तुम शरीर को मारना चाहते हो, और शरीर तुम्हारा लंगर होता है, तुम्हारा जहाज जो तुम्हें दूसरे किनारे तक ले जायेगा। शरीर खजाना सम्हाले रखता है, तुम्हारे भीतर ईश्वर के बीज को सुरक्षित रखता है। भोजन की आवश्यकता होती है उस संरक्षण के लिए, पानी की आवश्यकता होती है, मकान की आवश्यकता होती है, आराम की आवश्यकता होती है-शरीर के लिए। मन को किसी आराम की जरूरत नहीं होती है।

जरा आधुनिक फर्नीचर को देखो; यह बिलकुल आरामदेह नहीं होता। लेकिन मन कहता है, ‘यह आधुनिक है और तुम यह क्या कर रहे हो, पुरानी कुर्सी पर बैठे हो? जमाना बदल गया है और नया फर्नीचर आ गया है।’ आधुनिक फर्नीचर सचमुच ही भयंकर (वीयर्ड) होता है। तुम उस पर बैठे बेचैनी महसूस करते हो; तुम बहुत देर उस पर नहीं बैठ सकते। पर फिर भी यह आधुनिक तो होता है। मन कहता है आधुनिक को तो वहां होना ही चाहिए क्योंकि कैसे तुम पुराने हो सकते हो? आधुनिक होना है!

आधुनिक पोशाकें असुविधा भरी होती हैं, लेकिन तो भी वे आधुनिक हैं, और मन कहता है कि तुम्हें तो फैशन के साथ ही चलना है। और आदमी बहुत सारी भद्दी चीजें कर चुका है फैशन के ही कारण। शरीर कुछ नहीं चाहता; ये मन की मांगें हैं और तुम उन्हें पूरा नहीं कर सकते-कभी नहीं, क्योंकि वे अवास्तविक होती हैं। केवल अवास्तविकता ही परिपूर्ण नहीं की जा सकती। कैसे तुम अवास्तविक आवश्यकता को परिपूर्ण कर सकते हो जो कि वस्तुत: वहां हो ही नहीं?

प्रसिद्धि की क्या आवश्यकता है? जरा ध्यान करना इस बात पर। आंखें बंद करो और देखो। शरीर में इसकी आवश्यकता कहां पड़ती है? यदि तुम प्रसिद्ध हो तो क्या तुम ज्यादा स्वस्थ हो जाओगे? क्या तुम ज्यादा शांतिपूर्ण, ज्यादा मौन हो जाओगे, यदि प्रसिद्ध हो जाओ तो? क्या मिलेगा तुम्हें इस बात से?

सदा शरीर को बनाना कसौटी। जब कभी मन कुछ कहे, शरीर से पूछ लेना, ‘क्या कहते हो तुम?’ और यदि शरीर कहे, ‘यह मूढ़ता है’, तो उस बात को छोड़ देना। और इसमें दमन जैसा कुछ नहीं है क्योंकि यह एक अवास्तविक बात है। कैसे तुम अवास्तविक बात का दमन कर सकते हो?

सुबह तुम बिस्तर से उठते हो और तुम याद करते हो कोई सपना। क्या तुम्हें इसका दमन करना होता है या कि तुम्हें इसे परिपूर्ण करना होता है? उस सपने में तुमने देखा कि सारे संसार के सम्राट हो गये हो। अब क्या करोगे? क्या तुम्हें इसे एक यथार्थ बना देने की कोशिश करनी होगी? वरना प्रश्न उठता है, यदि हम कोशिश नहीं करते, तो यह दमन हो जाता है। लेकिन सपना तो सपना होता है। कैसे तुम सपने का दमन कर सकते हो मे सपना तो स्वयं ही तिरोहित हो जाता है। तुम्हें तो केवल सजग रहना है। तुम्हें केवल जानना है कि यह एक सपना था। जब सपना एक सपना हो और उसी रूप में जाना जाता हो, तो यह तिरोहित हो जाता है।

खोजने का प्रयत्न करो कि इच्छा क्या होती है और आवश्यकता क्या होती है। आवश्यकता देहोन्‍मुखी है, इच्छा की अवस्थिति देह में नहीं होती है। इसकी कोई जड़ें नहीं होतीं। यह मन में तैरता विचार-मात्र है। और लगभग हमेशा ही तुम्हारी शारीरिक आवश्यकताएं तुम्हारे शरीर से आती हैं और तुम्हारी मानसिक आवश्यकताएं दूसरों से आती हैं। कोई एक सुंदर कार खरीदता है। किसी दूसरे ने एक सुंदर कार खरीद ली है, एक इंपोर्टेड कार, और अब तुम्हारी मानसिक आवश्यकता उठ खड़ी होती है। कैसे तुम इसे बरदाश्त कर सकते हो?

मुल्ला नसरुद्दीन कार चला रहा था और मैं उसके साथ बैठा हुआ था। बहुत गर्मी का दिन था वह। जिस घड़ी वह पड़ोस में दाखिल हुआ, उसने तुरंत कार की सारी खिड़कियां बंद कर दीं। मैंने कहा, ‘क्या कर रहे हो?

वह बोला, आपका मतलब क्या है? क्या मैं अपने पड़ोसियों को पता चलने दूं कि मेरे पास एअरकंडीशंड कार नहीं है? ‘

वह पसीने से तरबतर था, और मैं भी उसके साथ—साथ पसीना बहा रहा था। भट्टी की भांति थी जगह एकदम गर्म, लेकिन फिर भी पड़ोसियों को यह कैसे जानने दिया जाये कि तुम्हारे पास एअर—कंडीशंड कार नहीं है ‘ यह होती है मन की जरूरत। शरीर तो कहता है, ‘गिरा दो इसे। क्या तुम पागल हुए हो? ‘इसे पसीना आ रहा है, यह कह रहा है, ‘नहीं। शरीर की सुनो; मत सुनो मन की। ‘मन की जरूरतें दूसरों द्वारा निर्मित होती हैं जो कि तुम्हारे चारों ओर होते हैं। वे मूर्ख हैं, छू हैं, जड़बुद्धि हैं।

शरीर की आवश्यकताएं सुंदर होती हैं, सीधी—सरल। शरीर की जरूरतें पूरी करना, उनका दमन मत करना। यदि तुम उनका दमन करते हो, तो तुम अधिकाधिक रुग्ण और अस्वस्थ हो जाओगे। एक बार तुम जान लो कि कुछ बातें मन की जरूरतें हैं, तो मन की आवश्यकताओं की परवाह मत करना। और जानने में क्या कोई बहुत ज्यादा कठिनाई होती है? कठिनाई क्या है? यह इतना सुगम है जानना कि कोई बात मन की जरूरत ही है। शरीर से पूछ भर लेना; शरीर में जांच—पड़ताल कर लेना; जाओ और ढूंढ लो जड़ को। क्या वहां कोई जड़ है इसकी?

तुम नामसमझ मालूम पड़ोगे। तुम्हारे सारे राजा और सम्राट नासमझ हैं। जोकर हैं—जरा देखना! हजारों पदकों से, तमगों से सजे हुए, वे छू जान पड़ते हैं! क्या कर रहे हैं वे? और इसके लिए उन्होंने बहुत लंबा दुख उठाया है। इसे प्राप्त करने को वे बहुत तकलीफों से गुजरते रहे हैं और फिर भी वे तकलीफ में ही हैं। उन्हें होना ही होता है दुखी। मन है नरक का द्वार, और द्वार कुछ नहीं है सिवाय इच्छा के। मार दो इच्छाओं को। तुम उनसे कोई रक्त रिसता हुआ नहीं पाओगे क्योंकि वे रक्तविहीन होती हैं।

लेकिन आवश्यकता को मारते हो तो रक्तपात होगा। आवश्यकता को मार दो, और तुम्हारा कोई हिस्सा मर जायेगा। इच्छा को मार दो, और तुम नहीं मरोगे। बल्कि इसके विपरीत, तुम ज्यादा मुक्त हो जाओगे। इच्छाओं को गिराने से ज्यादा स्वतंत्रता चली आयेगी। यदि तुम इच्छाओं से शून्य और आवश्यकता युक्त बन सकते हो, तो तुम मार्ग पर आ ही चुके हो। और तब स्वर्ग बहुत दूर नहीं है।

आज इतना ही।


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अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–3) प्रवचन–13

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प्रभु की प्रथम आहट—निस्‍तब्‍धता में—प्रवचन—तैहरवां

दिनांक 23 नवंबर, 1976;

रजनीश आश्रम, पूना।

अष्‍टावक्र उवाच।

यत्‍वं पश्यसि तत्रैकस्लमेव प्रतिभाससे।

किं पृथक भासते स्वर्णात्कट कांगदनुपरम्।। 139।।

अयं सोउहमयं नाहं विभागमिति संत्यज।

सर्वमात्मेति निश्चित्य नि:संकल्य सुखी भव!! 140।।

तवैवाज्ञानतो विश्व त्वमेक: परमार्थत:।

त्वत्तोउन्यो नास्ति संसारी नासंसारी व कश्चन।। 141।।

भ्रांतिमात्रमिदं विश्व न किचिदिति निश्चयरई।

निर्वासन: स्फर्तिमात्रो न किचिदिवि शाम्यति।। 142।।

एक एव भवाभोधावासीदस्ति भविष्यति।

न ते बंधोउस्ति मोक्षो वा कृतकृत्य: सुख चर।। 143।।

मा संकल्यविकल्याथ्यां चित्त क्षोभय चिन्मय।

उपशाम्ब सखं तिष्ठ स्वात्ययानंदविग्रहे।। 144।।

त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किचियदि धारय।

आत्मा त्वं मुक्त श्वामि किविमृश्य करिष्यसि।। 145।।

पहला सूत्र:

अष्‍टावक्र ने कहा, ‘जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है। क्या कंगना, बाजूबंद और नूपुर सोने से भिन्न भासते हैं?’

यत्वं पश्यसि तत्रैकस्लमेव प्रतिभाससे।

जगत जैसे दर्पण है; हम अपने को ही बार—बार देख लेते हैं; अपनी ही प्रतिछवि बार—बार खोज लेते हैं। जो हम हैं, वही हमें दिखाई पड़ जाता है। साधारणत: हम सोचते हैं, जो हमें दिखाई पड़ रहा है, बाहर है। फूल में सौंदर्य दिखा तो सोचते हैं, सुंदर होगा फूल। नहीं, सौंदर्य तुम्हारी आंखों में हैं। वही फूल दूसरे को सुंदर न भी हो। किसी तीसरे को उस फूल में न सौंदर्य हो, न असौंदर्य हो, कोई तटस्थ भी हो। किसी चौथे को उपेक्षा हो। जो तुम्हारे भीतर है वही झलक जाता है। किसी बात में तुम्हें रस आ जाता है—रस तुम्हीं उडेलते हो। किसी दूसरे को जरूरी नहीं कि उसी में रस आ जाये। तुम डोल उठते हो किसी गीत को सुनकर और किसी दूसरे प्राण की वीणा जरा भी नहीं बजती।

मनस्विद, तत्वविद, दार्शनिक सदियों से चेष्टा करते रहे हैं परिभाषा करने की—सौदर्य की, शिवम् की, सत्यम् की। परिभाषा हो नहीं पाती। पश्चिम के बहुत बड़े विचारक जी. ई मूर ने एक किताब लिखी है, प्रिंसिपिया इथिका। अनूठी किताब है, बड़े श्रम से लिखी गई है। सदियों में कभी ऐसी कोई एक किताब लिखी जाती है। चेष्टा की है शुभ की परिभाषा करने की कि शुभ क्या है। व्हाट इज गुड! दो ढाई सौ पृष्ठों में बड़ी तीव्र मेधा का प्रयोग किया है। और आखिरी निष्कर्ष है कि शुभ अपरिभाष्य है। द गुड इज इनडिफाइनेबल। यह खूब निष्पत्ति हुई!

सौदर्यशास्त्री सदियों से सौंदर्य की परिभाषा करने की चेष्टा करते रहे हैं, सौंदर्य क्या है? क्योंकि परिभाषा ही न हो तो शास्त्र कैसे बनें! लेकिन अब तक कोई परिभाषा कर नहीं पाया। पूरब की दृष्टि को समझने की कोशिश करो। पूरब कहता है, परिभाषा हो नहीं सकती। क्योंकि व्यक्ति—व्यक्ति का सौंदर्य अलग है। और व्यक्ति—व्यक्ति का शुभ भी अलग है। व्यक्ति वही देख लेता है जो देखने में समर्थ है। व्यक्ति अपने को ही देख लेता है।

‘जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है।’

कृष्णमूर्ति का आधारभूत विचार है : ‘द आब्जर्वर इज द आब्जर्ब्द।’ वह जो दृश्य है, द्रष्टा ही है। पीछे हमने अष्टावक्र के सूत्रों में समझने की कोशिश की कि जो दृश्य है वह द्रष्टा कभी नहीं है। अब एक कदम और आगे है। इसमें विरोधाभास दिखेगा।

किसी ने प्रश्न भी पूछा है कि आप कहते हैं, जो दृश्य है वह द्रष्टा कभी नहीं; और कृष्णमूर्ति कहते हैं, दृश्य द्रष्टा ही है। ये दोनों बातें तो विरोधाभासी हैं, कौन सच है?

ये बातें विरोधाभासी नहीं हैं—दो अलग तलों पर हैं। पहला तल है, पहले शान की किरण जब फूटती है तो वह इसी मार्ग से फूटती है, जान कर कि जो दृश्य है वह मुझसे अलग है। समझने की कोशिश करें। तुम जो देखते हो, निश्चित ही तुम देखने वाले उससे अलग हो गये। जो भी तुमने देख लिया, तुम उससे पार हो गये। तुम, जो दिखाई पड़ गया, वह तो न रहे। दृश्य तो तुम न रहे। दृश्य तो दूर पड़ा रह गया। तुम तो खड़े हो कर देखने वाले हो गये।

तुम यहां मुझे देख रहे हो तो निश्चित ही तुम मुझसे अलग हो गये। तुम मुझे सुन रहे हो, तुम मुझसे अलग हो गये। जो भी तुम देख लेते, छू लेते, सुन लेते, स्पर्श कर लेते, स्वाद ले लेते, जिसका तुम्हें अनुभव होता है, वह तुमसे अलग हो जाता है। यह ज्ञान की पहली सीढ़ी है।

जैसे ही यह सीढ़ी पूरी हो जाती है और तुम दृश्य से अपने द्रष्टा को मुक्त कर लेते हो, तब दूसरी घटना घटती है। पहला तुम्हें करना होता है, रूस अपने से होता है। दूसरी घटना बड़ी अपूर्व है। जैसे ही तुमने दृश्य से द्रष्टा को अलग कर लिया, फिर द्रष्टा द्रष्टा भी नहीं रह जाता। क्योंकि द्रष्टा बिना दृश्य के नहीं रह सकता; वह दृश्य के साथ ही जुड़ा है। जब दृश्य खो गया तो द्रष्टा भी खो गया। तुम द्रष्टा की परिभाषा कैसे करोगे? दृश्य के बिना तो कोई परिभाषा नहीं हो सकती। दृश्य को तो लाना पड़ेगा। और जिस द्रष्टा की परिभाषा में दृश्य को लाना पड़ता है वह दृश्य से अलग कहां रहा? वह एक ही हो गया। दृश्य के गिरते ही द्रष्टा भी गिर जाता है। पहले दृश्य को गिरने दो, फिर दूसरी घटना अपने से घटेगी। तुमने दृश्य खींचा, अचानक तुम पाओगे द्रष्टा भी गया। तब तुम्हें कृष्णमूर्ति का दूसरा वचन समझ में आयेगा. ‘दि आब्जर्वर इज दि आब्जर्ब्द।’ वह जो दृश्य है, द्रष्टा ही है।

और आज के सूत्र में अष्टावक्र भी वही कह रहे हैं। यह सूत्र थोड़ा आगे का है, इसलिए अष्टावक्र कम से इसकी तरफ बढ़े हैं। पहले उन्होंने कहा, दृश्य से मुक्त कर लो, फिर द्रष्टा से तो तुम मुक्त हो ही जाओगे। दृश्य और द्रष्टा दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

यत्वं पश्यसि तत्र एक? त्वं एव प्रतिभाससे।

‘जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है।’

फिर देखते हैं, पूर्णिमा की रात चांद निकला! हजार—हजार प्रतिफलन बनते हैं। कहीं झील पर, कहीं सागर के खारे जल में, कहीं सरोवर में, कहीं नदी—नाले में, कहीं पानी—पोखर में, कहीं थाली में पानी भर कर रख दो तो उसमें भी प्रतिबिंब बनता है। पूर्णिमा का चांद एक, और प्रतिबिंब बनते हैं अनेक। लेकिन क्या तुम यह कहोगे, गंदे पानी में बना हुआ चांद का प्रतिबिंब और स्वच्छ पानी में बना चांद का प्रतिबिंब भिन्न—भिन्न हैं? क्या इसीलिए गंदे पानी में बने प्रतिबिंब को गंदा कहोगे क्योंकि पानी गंदा है? क्या पानी की गंदगी से प्रतिबिंब भी गंदा हो सकता है? प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो सकता।

रवींद्रनाथ ने एक स्मरण लिखा है। जब वे पहली—पहली बार पश्चिम से प्रसिद्ध हो कर लौटे,

नोबल प्राइज ले कर लौटे, तो जगह—जगह उनके स्वागत हुए। लोगों ने बड़ा सम्मान किया। जब वे अपने घर आये तो उनके पड़ोस में एक आदमी था, वह उनको मिलने को आया। उस आदमी से वे पहले से ही कुछ बेचैन थे, कभी मिलने आया भी न था। लेकिन उस आदमी की आंख ही बेचैन करती थी। उस आदमी की आंख में कुछ तलवार जैसी धार थी कि सीधे हृदय में उतर जाये। वह आया और गौर से उनकी आंख में आंख डाल कर देखने लगा। वे तो तिलमिला गये। और उसने उनके कंधे पकड़ लिये और जोर से हिलाकर कहा, तुझे सच में ही ईश्वर का अनुभव हुआ है? क्योंकि गीतांजलि, जिस पर उन्हें नोबल पुरस्कार मिला, प्रभु के गीत हैं, उपनिषद जैसे वचन हैं। उस आदमी ने उनको तिलमिला दिया। कहा, सच में ही तुझे ईश्वर का दर्शन हुआ है? क्रोध भी उन्हें आया। वह अपमानजनक भी लगा। लेकिन उस आदमी की आंखों की धार कुछ ऐसी थी कि झूठ भी न बोल सके और वह आदमी हंसने लगा और उसकी हंसी और भी गहरे तक घाव कर गई। और वह आदमी कहने लगा, तुझे मुझमें ईश्वर दिखाई पड़ता है कि नहीं 2: यह और मुश्किल बात थी। उसमें तो कतई नहीं दिखाई पड़ता था, और सब में दिखाई पड़ भी जाता। जो फूलमालायें ले कर आये थे, जिन्होंने स्वागत किया था, सम्मान में गीत गाये थे, नाटक खेले थे, नृत्य किये थे—उनमें शायद दिख भी जाता। वे बड़े प्रीतिकर दर्पण थे। यह आदमी! वह आदमी खिलखिलाता, उन्हें छोड्कर लौट भी गया।

रवींद्रनाथ ने लिखा है, उस रात मैं सो न सका। मुझे मेरे ही गाये गये गीत झूठे मालूम पड़ने लगे। रात सपने में भी उसकी आंख मुझे छेदती रही। वह मुझे घेरे रहा। दूसरे दिन सुबह जल्दी ही उठ आया। आकाश में बादल घिरे थे, रात वर्षा भी हुई थी। जगह—जगह सड़क के किनारे डबरे भर गये थे। मैं समुद्र की तरफ गया—मन बहलाने को। लौटता था, तब सूरज उगने लगा। विराट सागर पर उगते सूरज को देखा। फिर राह पर जब घर वापिस आने लगा तो राह के किनारे गंदे डबरों में, जिनमें भैंसें लोट रही थीं, लोगों ने जिनके आस—पास मलमूत्र किया था, वहां भी सूरज के प्रतिबिंब को देखा। अचानक आंख खुल गई। मैं ठिठक कर खड़ा हो गया कि क्या इन गंदे डबरों में जो प्रतिबिंब बन रहा है सूरज का, वह गंदा हो गया? विराट सागर में जो बन रहा है, क्या विराट हो गया? क्षुद्र डबरे में जो बन रहा है, क्या क्षुद्र हो गया? प्रतिबिंब तो एक के हैं।

रवींद्रनाथ ने लिखा है, जैसे सोये से कोई जग जाये, जैसे अंधेरे में बिजली कौंध जाये, ऐसा मैं नाचता हुआ उस आदमी के घर पहुंचा। उसे गले लगा लिया। उसमें भी मुझे प्रभु दिखाई पड़ा। प्रतिबिंब तो उसका ही है। चाहे तेज तलवार की धार क्यों न हो, वह धार तो उसी की है। चाहे फूल की कोमलता क्यों न हो, कोमलता तो उसी की है।

वह आदमी फिर मेरी तरफ गौर से देखा, लेकिन आज मुझे उसमें वैसी पैनी धार न दिखाई पड़ी। आज मैं बदल गया था। और वह आदमी कहने लगा, तो निश्चित तुझे अनुभव हुआ है। अभी—अभी हुआ है, कल तक न हुआ था। अभी—अभी तूने कुछ जाना है, तू जागा है। मैं तेरा स्वागत करता हूं। नोबल पुरस्कार के कारण नहीं, न तेरे गीतों की प्रसिद्धि के कारण—अब तू शांता बन कर लौटा है; तुझे कुछ स्वाद मिला, तूने कुछ चखा है।

अष्टावक्र कहते हैं ‘क्या कंगना, बाजूबंद, नूपुर सोने से भिन्न भासते हैं?’

सोने के कितने आभूषण बन जाते हैं, ऐसे ही परमात्मा के कितने रूप बनते! रावण भी उसका

ही रूप। अगर रामकथा पढ़ी और रावण में उसका रूप न दिखा तो रामकथा व्यर्थ गयी। अगर राम में ही दिखा और रावण में न दिखा तो तुमने व्यर्थ ही सिर मारा। तो द्वार न खुले। रामकथा लोग पढ़ते हैं, रामलीला देखते हैं और रावण को जलाये जाते हैं। समझे नहीं। बात ही पकड़ में नहीं आई, चूक ही गए। अगर राम में ही राम दिखाई पड़े तो तुम्हारे पास आंखें नहीं हैं। जिस दिन रावण में भी दिखाई पड़ जायें, उसी दिन तुम्हारी आंखें खुलीं। शुभ में शुभ दिखाई पड़े’, यह कोई बड़ा गुण है। अशुभ में भी शुभ दिखाई पड़ जाये तब?.।

सब आभूषण उस एक के ही हैं। कहीं राम हो कर, कहीं रावण हो कर; कहीं कृष्ण, कहीं कंस कहीं जीसस, कहीं जुदास; कहीं प्रीतिकर, कहीं अप्रीतिकर; कहीं फूल, कहीं कांटा—लेकिन कांटा भी उसका ही रूप है। और जब कांटा चुभे तब भी उसे स्मरण करना। तो तुम धीरे— धीरे पाओगे, एकरस होने लगे। जो एक को देखने लगता है वह एकरस होने लगता है। जो एकरस होने लगता है, उसे फिर एक दिखाई पड़ने लगता है।

मौन तम के पार से यह कौन मेरे पास आया

मौत में सोये हुए संसार को किसने जगाया

कर गया है कौन फिर भिनसार, वीणा बोलती है

छू गया है कौन मन के तार, वीणा बोलती है।

मृदु मिट्टी के बने हुए मधुघट फूटा ही करते हैं

लघु जीवन ले कर आये हैं प्याले टूटा ही करते हैं

फिर भी मदिरालय के अंदर मधु के घट हैं, मधु प्याले हैं।

जो मादकता के मारे हैं वे मधु लूटा ही करते हैं

वह कच्चा पीने वाला है जिसकी ममता घट, प्यालों पर

जो सच्चे मधु से जला हुआ, कब रोता है चिल्लाता है

जो बीत गई सो बात गई।

छू गया है कौन मन के तार, वीणा बोलती है!

वह कच्चा पीने वाला है जिसकी ममता घट, प्यालों पर!

रूप में जो उलझ गया, आकृति में जो उलझ गया, अरूप को न पहचाना, आकृति— अतीत को न पहचाना, वह कच्चा पीने वाला है। जिसने राम में देख लिया, रावण में न देखा—वह पक्षपाती है, अंधा है। अंधे के पक्षपात होते हैं; आंख वाले के पक्षपात नहीं होते। आंख वाला तो उसे सब जगह देख लेता है, हर जगह देख लेता है।

अट्ठारह सौ सत्तावन की गदर में एक नग्न संन्यासी को एक अंग्रेज सैनिक ने छाती में भाला भोंक दिया। भूल से! यह नंगा फकीर गुजरता था। रात का वक्त था। यह अपनी मस्ती में था। सैनिकों की शिविर के पास से गुजरता था, पकड़ लिया गया। लेकिन इसने पंद्रह वर्ष से मौन ले रखा था। यह तो उन्हें पता न था। एक तो नंगा, फिर बोले न—लगा कि जासूस है। लगा कि कोई उपद्रवी है। बोले न, चुप खड़ा मुस्कुराये—तो और भी क्रोध आ गया। उसने कसम ले रखी थी कि मरते वक्त ही बोलूंगा, बस एक बार। तो जिस अंग्रेज सैनिक ने उसकी छाती में भाला भोंका, भाले के भोंकने पर वह बोला। उसने कहा : ‘तू मुझे धोखा न दे सकेगा। मैं तुझे अब भी देख रहा हूं। तत्वमसि!’ और वह मर गया।’वह तू ही है! तू मुझे धोखा न दे सकेगा। तू हत्यारे के रूप में आया, आ, लेकिन एक बार तुझे पहचान चुका तो अब तू किसी भी रूप में आ, फर्क नहीं पड़ता।’

उसे अपने हत्यारे में भी प्रभु का दर्शन हो सका। मुक्त हो गया यह व्यक्ति, इसी क्षण हो गया। इसकी मृत्यु न आई—यह तो मोक्ष आया। इस भाले ने इसे मारा नहीं; इस भाले ने इसे जिलाया, शाश्वत जीवन में जगाया।

किं पृथक भासते स्वर्णात्कटकांगदनूपुरम्।

अलग— अलग दिखाई पड़ते हैं तुम्हें स्वर्ण के आभूषण, तो फिर तुम अंधे हो। सबके भीतर एक ही सोना है। ऊपर के आकार से क्या भेद पड़ता है।

तो दो बातें इस सूत्र में हैं। एक, कि जो तुम्हें दिखाई पड़ता है, तुम्हीं हो। सारा जगत दर्पण है और सारे संबंध भी। सारे अनुभव दर्पण हैं और सारी परिस्थितियां भी। तुम ही अपने को झांक—झांक लेते हो अनेक— अनेक रूपों में—पहली बात। दूसरी बात. ये जो अनेक— अनेक रूप दिखाई पड़ रहे हैं, इन सबके भीतर भी एक ही व्याप्त है। ये अनेक रूप भी बस ऊपर—ऊपर अनेक हैं। जैसे सागर पर लहरें हैं, कितनी लहरें हैं, कितने—कितने ढंग की लहरें हैं—छोटी, बड़ी विराट, लेकिन सबके भीतर एक ही सागर तरंगित है! एक ही सागर लहराया है! ये सब एक ही सागर के चादर पर पड़ी हुई सलवटें हैं! इनमें जरा भी भेद नहीं है। इनके भीतर जो छिपा है, एक है। ये दोनों सूत्र इस एक सूत्र में छिपे हैं। दोनों अदभुत हैं!

तुम जरा—जरा रूप को पार करना सीखो, अरूप को खोजो। चेहरे को कम देखो; चेहरे के भीतर जो छिपा हुआ है, उसे जरा ज्यादा देखो। तन को जरा कम देखो, तन के भीतर जो छिपा है, उस पर जरा ज्यादा ध्यान दो। शब्द में जो सुनाई पड़ता है उसे जरा कम सुनो, शब्द के भीतर जो शून्य का भिनसार है, वह जो वीणा शून्य की बज रही, उसे सुनो। ऐसे अगर तुम शांत होते गये.. शांत हो ही जाओगे, क्योंकि अशांति है अनेक के कारण। अशांति अनेक की छाया है। जब एक दिखाई पड़ने लगता है तो अशांत होने की सुविधा नहीं रह जाती। एक ही है तो अशांति कैसी! और जब तुम्हीं हो सब तरफ झलकते, कोई दूसरा नहीं, तो भय किसका! जन्म भी तुम्हीं हो, मृत्यु भी तुम्हीं। सुख भी तुम्हीं हो, दुख भी तुम्हीं। फिर भय किसका! फिर सर्व—स्वीकार है। फिर उस सर्व—स्वीकार में ही शांति का फूल खिलता है—अपरिसीम फूल खिलता, अम्‍लान पारिजात! जो कभी नहीं छुआ गया, ऐसा कोरा कुंवारा फूल खिलता है। कहो सहस्रार, सहस्रदल कमल! लेकिन खिलता है एकत्व की घटना में—जब सब तरफ तुम्हें एक दिखाई पड़ने लगता है। पहले मैं और तू का भेद नहीं रह जाता, फिर बाहर रूप के भेद नहीं रूह जाते।

खयाल करना, अगर हम दो शून्य व्यक्तियों को एक कमरे में बिठा दें तो क्या वहां दो व्यक्ति होंगे या एक? वहां दो तो हो नहीं सकते। इतना तो तय है कि दो नहीं हो सकते। क्योंकि दो शून्य मिलने से दो नहीं बनते, दो शून्य मिलने से एक ही बनता है। एक भी हम कहते हैं, क्योंकि कहना पड़ता है। वस्तुत: एक भी वहां नहीं। इसलिए भारत में हम कहते हैं अद्वैत बनता है। दो नहीं बनते, एक की बात हम करते नहीं। क्योंकि एक के लिए भी तो सीमा चाहिए। तुम तीन शून्य ले आओ, चार शून्य ले आओ, सब खोते चले जाते हैं।

ऐसा हुआ, बुद्ध के समय में अजातशत्रु सम्राट बना। उसके पिता तो बुद्ध के भक्त थे, लेकिन वह तो पिता को कारागृह में डाल कर सम्राट बना था। तो बुद्ध के विपरीत था। स्वभावत: एक तो बुद्ध के भक्त थे उसके पिता, फिर दूसरे उसने जो किया था वह इतना अधार्मिक कृत्य था कि बुद्ध के पास जाये तो कैसे जाये! बड़ी अपराध की भावना थी। फिर बुद्ध उसकी नगरी से गुजरे तो उसके आमात्यों ने, उसके मंत्रियों ने कहा : ‘यह अशोभन होगा। यह उचित न होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इसके बड़े परिणाम बुरे होंगे। आप दर्शन को चलें। आप एक ही बार दर्शन करके औपचारिक ही लौट आना। लेकिन बुद्ध गांव में आयें और सम्राट न जाये, प्रजा पर बुरा परिणाम होगा। पिता को कारागृह में डाल देने से जितनी आपकी बेइज्जती नहीं हुई, उससे भी ज्यादा बड़ी बेइज्जती होगी। क्योंकि इस देश में सदा ही सम्राट फकीर के सामने झुकता रहा है। छोड़े, आप चलें। सिर्फ औपचारिक ही सही।’

बात तो समझ में उसे आई; हिसाब की थी। पिता के साथ जो पाप किया है वह भी पुंछ जायेगा। लोग कहेंगे कि नहीं, ऐसा बुरा नहीं; बुद्ध को सुनने भी गया, चरण भी छुए।

तो वह चला। लेकिन जो आदमी पाप करता है, भयभीत होता है। वह अपने आमात्यों से भी डरा था। जो दूसरे को डराता है वह डरता भी है। जो दूसरे की हत्या करता है वह डरा भी होता है कि कोई उसकी हत्या न कर दे। जो दूसरे को चोट पहुंचाता है उसे आयोजन भी करने पड़ते हैं कि कोई उसे चोट न पहुंचा दे। तो वह डरा था। और जब बुद्ध के पड़ाव के पास पहुंचने लगा—वृक्षों की ओट में पड़ाव है—तो उसने अपने आमात्यों को कहा. ‘सुनो, तुम कहते थे दस हजार भिक्षु वहां मौजूद हैं, आवाज जरा भी सुनाई नहीं पड़ती। कुछ धोखा मालूम पड़ता है, कोई षड्यंत्र।’ उसने तलवार खींच ली। आमात्य हंसने लगे। उन्होंने कहा : ‘ आप नासमझी न करें। आपको बुद्ध का पता नहीं। आपको बुद्ध के पास बैठे दस हजार लोगों का भी पता नहीं। थोड़ा धैर्य रखें। कोई षड्यंत्र नहीं है, आप आयें।’

वह नंगी तलवार लिए ही चला। जब तक उसने वृक्षों के पार जा कर देख न लिया कि दस हजार भिक्षु मौजूद हैं तब तक उसने तलवार भीतर न रखी। फिर बुद्ध से उसने जो पहला प्रश्न पूछा, वह यही था कि मैं तो बड़ा हैरान हो रहा हूं। दस हजार लोग बैठे हैं, बाजार मच जाता है, कीचड़ मच जाती है, बड़ा शोरगुल होता है—ये चुप क्यों बैठे हैं?

तो बुद्ध ने कहा ‘एक शून्य हो कि दस हजार, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। शून्य जुड़ते नहीं। शून्य एक—दूसरे में खो जाते हैं। ये ध्यान कर रहे हैं। ये अभी शून्य की दशा में बैठे हैं। अभी ये नहीं हैं।’

जिस क्षण तुम नहीं हो, उसी क्षण तुम्हें फिर कोई भी दिखाई नहीं पड़ता। फिर तो तुम एक ही रह जाते हो, न कोई देखने वाला, न कोई दृश्य, न कोई द्रष्टा। दृश्य और द्रष्टा खो गये, ज्ञाता और ज्ञेय खो गये, जो बच रहता है उसे हम दर्शन कहते हैं। इस बात को खयाल में लेना।

साधारण भाषा में हम दर्शन कहते हैं द्रष्टा और दृश्य के बीच के संबंध को, शान कहते हैं ज्ञाता और ज्ञेय के बीच के संबंध को। लेकिन यह तो व्यावहांरिक परिभाषा है। पारमार्थिक परिभाषा, आत्यंतिक परिभाषा बिलकुल उलटी है. जहां द्रष्टा और दृश्य नहीं रह गये, सिर्फ दर्शन बचा, शुद्ध दर्शन बचा, चिन्मात्ररूपम्; जहां ज्ञाता और ज्ञेय खो गये, बस ज्ञानमात्र बचा। उसी को तो बार—बार अष्टावक्र कहते हैं : इति ज्ञान! फिर जो बचता है, वही ज्ञान है। और फिर जो बचता है, वही मुक्ति है। ज्ञान मुक्त करता है।

तो ज्ञान के पहले चरण.. ‘जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है।’

यह कोई सिद्धात नहीं है कि तुम सुन लो और मान लो। ये कोई गणित की परिभाषायें भी नहीं हैं कि सुन लीं और मान लीं। ये तो जीवंत प्रयोग से ही तुम्हें पता चल सकते हैं। तुम जरा जिंदगी में झांकना शुरू करो इस तरह से, इस नये कोण से, कि तुम्हीं दिखाई पड़ रहे। जब कोई तुम्हें गाली देता है और तुम्हें दिखाई पड़ता है कि यह आदमी दुष्ट है, तब तुम जरा गौर से देखना. ‘इसकी दुष्टता में तुम्हारा ही कुछ तो दिखाई नहीं पड़ा है? तुम्हारा अहंकार ही तो नहीं इसको चोट कर गया, तिलमिला गया? यह तुम्हारे अहंकार की ही लौटती हुई प्रतिध्वनि तो नहीं है?’

अगर अहंकार न हो तो तुम्हारा कोई अपमान नहीं कर सकता है। अपमान का उपाय ही नहीं है। तुमने कभी देखा, पैर में चोट लग जाये तो फिर दिन भर उसी—उसी में चोट लगती है! देहरी से निकले, देहरी की लग जाती है; दरवाजा खोला, दरवाजा लग जाता है; जूता पहनते, जूता लग जाता है। छोटा बच्चा आ कर उसी पर चढ़ जाता है। तुम बड़े हैरान होते हो कि आज क्या सबने कसम खा ली है कि जहां मुझे चोट लगी है वहीं चोट मारेंगे! नहीं, किसी ने कसम नहीं खा ली, किसी को पता भी नहीं है। लेकिन जहां तुम्हें चोट लगी है अगर कल वहां किसी ने पैर रखा होता तो पता न चलता, आज पता चल जाता है, प्रतिध्वनि होती है—क्योंकि चोट है।

अहंकार घाव की तरह है। घाव तुम्हीं लिए चलते हो, जरा धक्का लगा किसी का और चोट वहां पहुंच जाती है। कोई तुम्हें चोट पहुंचाने के लिए आतुर भी नहीं है, फुर्सत किसको है! लोग अपने ही जीवन में इतने उलझे हैं कि किसके पास समय, किसके पास सुविधा है कि तुम्हारा अपमान करें। इसलिए कई बार ऐसा होता है कि तुम अपमानित हो जाते हो और जब तुम कहते हो दूसरे व्यक्ति को कि तूने मेरा अपमान किया, वह चौंकता है। वह कहता है, ‘क्या कह रहे हैं? मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं की।’ और यह दुश्मनों की तो छोड़ दें, जिसको हम प्रियजन कहते हैं, मित्र कहते हैं, उनके साथ रोज होता है। पति कुछ कहता है, पत्नी कुछ सुन लेती है। और पति लाख समझाये कि यह मैंने कहा नहीं, तो वह कहती है ‘अब बदलो मत! यही तुमने कहा है।’ पत्नी कुछ कहती है, पति कुछ अर्थ लगा लेता है। अर्थ तुम अपने भीतर से लगाते हो। जो सुनते हो, वही नहीं सुनते हो। फिर जहां चोट लगी हो, वहां चोट पहुंचती है। लेकिन तुम्हारी चोट के कारण ही ऐसा होता है।

एक छोटा बच्चा डाक्टर से अपने हाथ में हुए फोड़े का आपरेशन कराने गया था। आपरेशन करके जब वह पट्टी बांधने लगा तो बायें हाथ का आपरेशन किया था, उसने बायां हाथ पीछे छिपा लिया और दायां हाथ आगे कर दिया। उसने कहा, पट्टी इस पर बांधें। डाक्टर ने कहा : ‘तू पागल हुआ है बेटे! स्कूल में जाएगा, चोट लग जाएगी। यह पट्टी तो चोट से बचाने के लिए ही बांध रहा हूं।’ उसने कहा : ‘आप स्कूल के बच्चों को नहीं जानते हैं; जहां पट्टी बंधी हो, वहीं चोट मारते हैं। आप पट्टी इस हाथ पर बांध दो; उनका उस पर ध्यान ही न जाएगा।’

वह बच्चा भी ठीक कह रहा है, थोड़े—से अनुभव से कह रहा है। क्योंकि जहां पट्टी बंधी हो वहीं चोट लगती है; मारता है कोई, ऐसी बात नहीं। तो वह कहता है, दूसरे हाथ में बांध दो। चोट इसमें लगती रहेगी और जिसमें चोट है वह बचा रहेगा।

तुम जीवन में गौर से देखोगे तो तुम पाओगे यही हो रहा है—यही होता है। जो तुम्हें दिखाई पड़ता है वह तुम्हारी छाया है। तुम अपने को ही देख कर उलझ जाते हो।

और ध्यान रखना कि बाहर ये जो इतने—इतने अनेक रूप दिखाई पड़ रहे हैं, एक ही समुद्र में, एक ही चैतन्य के सागर में अलग—अलग लहरें हैं। तुम भी एक लहर हो और ये भी सब लहरें हैं और जो लहराया है वह लहरों के भीतर छिपा है। वह सभी का आधार है।

‘यह वह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं ऐसे विभाग को छोड़ दे। सब आत्मा है, ऐसा निश्चय करके तू संकल्प—रहित हो कर सुखी हो।’

यह मैं हूं वह मैं हूं; यह मैं नहीं हूं, वह मैं नहीं हूं —ऐसे विभाग को छोड़ दे। हम जीवन भर विभाग ही बनाते हैं। हमारे जीवन भर की अथक चेष्टा यही होती है कि हम ठीक—ठीक परिभाषा कर दें कि मैं कौन हूं।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें यह पता नहीं कि हम कौन हैं। कोई रास्ता बताये कि हम जान लें कि हम कौन हैं।

क्या जानना चाहते हो? तुम एक परिभाषा चाहते हो, सीमा चाहते हो, जिसके भीतर तुम कह सको : यह मैं हूं! यही हम कोशिश भी कर रहे हैं। सांसारिक ढंग से या धार्मिक ढंग से, हमारी चेष्टा एक ही है कि साफ—साफ प्रगट हो जाए कि मैं कौन हूं!

तुम देखे, जरा किसी को धक्का लग जाए, वह खड़े हो कर कहता है. आपको मालूम नहीं कि मैं कौन हूं! वह क्या कह रहा है? वह यह कह रहा है. ‘धक्का मार रहे हो? पता नहीं, मैं कौन हूं? महंगा पड़ेगा यह धक्का! मुश्किल में पड़ जाओगे। क्षमा मांग लो।’

उसे भी पता नहीं कि वह कौन है। किसको पता है! नहीं पता है, इसलिए झूठे—झूठे हमने लेबल लगा रखे हैं। कोई कहता है, मैं हिंदू हूं। यह भी कोई होना हुआ! पैदा हुए थे तो हिंदू की तरह पैदा न हुए थे। गीता साथ लेकर आए न थे, न कुरान लेकर आए थे, न बाइबिल लेकर आए थे। खाली हाथ चले आए थे। सिर पर भी कुछ लिखा न था कि हिंदू हो, कि मुसलमान हो, कि ईसाई हो। बिलकुल खाली, निपट कोरे कागज की तरह आए थे। किसी और ने लिख दिया है कि हिंदू हो। किसी और ने लिख दिया है कि मुसलमान हो। किसी ने किताब खराब कर दी है तुम्हारी। इस दूसरे की लिखावट को तुम अपना स्वभाव—स्वरूप समझ रहे हो? और जिसने लिख दिया है हिंदू उसको भी पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। उसके बाप—दादे उस पर लिख गये कि हिंदू हो। दूसरों की सुन कर चल रहे हो? अपना अभी कोई अनुभव नहीं है।

फिर कोई कहता है, मैं सुंदर। यह भी लिख दिया किसी और ने। किसी ने कहा, सुंदर! पकड़ लिया तुमने। अब जिसने कहा सुंदर, उसकी धारणा है या उसके अपने कारण होंगे।

दुनिया में सौंदर्य की अलग—अलग धारणाएं हैं। चीन में एक तरह का चेहरा सुंदर समझा जाता है, हिंदुस्तान में कोई वैसे चेहरे को सुंदर न समझेगा। अफ्रीका में दूसरे ढंग का चेहरा सुंदर समझा जाता है; वैसे चेहरे को अमरीका में कोई सुंदर न समझेगा। और जिसको इंग्लैंड में सुंदर समझते हैं, अफ्रीका में लोग उसको बीमार समझते हैं कि ये क्या पीला—सा पड़ गया आदमी! पीत—मुख कहते हैं। यह भी कोई बात हुई! यह कोई सौंदर्य हुआ! जरा—सी धूप नहीं सह सकता है! यह कोई स्वास्थ्य हुआ!

सौंदर्य की बड़ी अलग धारणाएं हैं। कौन सुंदर है? किसकी धारणा सच है? कौन कुरूप है? फिर तुम भी देखते होओगे, तुम्हारा कोई मित्र किसी के प्रेम में पड़ जाता है, तुम सिर ठोक लेते हो. किस औरत के पीछे दीवाने हो! वहां कुछ भी नहीं रखा है। लेकिन वह दीवाना है। वह कहता है : ‘मिल गई मुझे मेरे हृदय की सुंदरी! जिसकी तलाश थी जन्मों —जन्मों से, उसका मिलन हो गया। हम एक—दूसरे के लिए ही बने हैं। अब तो जोड़ बैठ गया; अब मुझे कोई खोज नहीं करनी, आ गया पड़ाव अंतिम।’

तुम हैरान होते हो कि ‘तुम्हारी बुद्धि खो गई, पागल हो गये। कुछ तो अकल से काम लो! कहां की साधारण स्त्री को पकड़ बैठे हो!’ लेकिन तुम समझ नहीं पा रहे। जो तुम्हें सुंदर दिखाई पड़े वह दूसरे को सुंदर हो, यह आवश्यक तो नहीं। कोई तुम्हें सुंदर कह जाता है, कोई तुम्हें बुद्धिमान कह जाता है। और हर मां—बाप अपने बेटे को समझते हैं कि ऐसा बेटा कभी दुनिया में हुआ नहीं। तो भ्रम पैदा हो जाता है। बेटा अकड़ से भर कर घर के बाहर आता है और दुनिया में पता चलता है, यहां कोई फिक्र नहीं करता तुम्हारी। बड़ी पीड़ा होती है। हर मां—बाप समझते हैं कि बस परमात्मा ने जो बेटा उनके घर पैदा किया है, ऐसा कभी हुआ ही नहीं; अद्वितीय!

तुम देखो जरा, मां —बापों की बातें सुनो। सब अपने बेटे —बच्चों की चर्चा में लगे हैं. बता रहे हैं, प्रशंसा कर रहे हैं। अगर वे निंदा भी कर रहे हों तो तुम गौर से सुनना, उसमें प्रशंसा का स्वर होगा कि मेरा बेटा बड़ा शैतान है। तब भी तुम देखना कि उन्हें रस आ रहा है बताने में कि बड़ा शैतान है; कोई साधारण बेटा नहीं है; बड़ा उपद्रवी है! उसमें भी अस्मिता तृप्त हो रही है।

तो कुछ मां—बाप दे जाते हैं; कुछ स्कूल, पढ़ाई—लिखाई, कालेज—सर्टिफिकेट, इनसे मिल जाता है; कुछ समाज से मिल जाता है——इस सब से तुम अपनी परिभाषा बना लेते हो कि मैं यह हूं! फिर कुछ जीवन के अनुभव से मिलता है।

शरीर के साथ पैदा हम हुए हैं। जब आंख खोली तो हमने अपने को शरीर में ही पाया है। तो स्वभावत: हम सोचते हैं, मैं शरीर हूं। फिर जैसे—जैसे बोध थोड़ा बढ़ा—बोध के बढ़ने का मतलब है मन पैदा हुआ—वैसे—वैसे हमने पाया अपने को मन में। तो हम कहते हैं : मैं मन हूं!

यह कोई भी हम नहीं हैं। हमारा होना इन किन्हीं परिभाषाओं में चुकता नहीं। हम मुक्त आकाश की भांति हैं, जिसकी कोई सीमा नहीं है।

तो दूसरा सूत्र है. ‘यह वह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं ऐसे विभाग को छोड़ दे।’

विभाग ही भटका रहा है—अविभाग चाहिए।

अयं सोउहमयं नाहं विभागमिति संत्यज़

सर्वमात्येति निश्चित्य निसंकल्य सुखी भव। 1

‘इन सबको सम्यकरूपेण त्याग कर दे। संत्यज!’

‘संत्यज’ शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। सिर्फ त्याग नहीं, सम्यक त्याग। क्योंकि त्याग तो कभी—कभी कोई हठ में भी कर देता है, जिद में भी कर देता है। कभी—कभी तो अहंकार में भी कर देता है। तुम जाते हो न किसी के पास दान लेने तो पहले उसके अहंकार को खूब फुसलाते हो कि आप महादानी, आपके बिना क्या संसार में धर्म रहेगा! खूब हवा भरते हो। जब देखते हो कि फुग्गा काफी फैल गया है, तब तुम बताते हो कि एक मंदिर बन रहा है, अब आपकी सहायता की जरूरत है। वह जो आदमी

एक रुपया देता, शायद सौ रुपये दे। तुमने खूब फूला दिया है। लेकिन दान आ रहा है, वह सम्यक त्याग नहीं है। वह तो अहंकार का हिस्सा है। अहंकार से कहीं सम्यक त्याग हो सकता है?

मैंने सुना है कि एक राजनीतिज्ञ अफ्रीका के एक जंगल में शिकार खेलने गया और पकड़ लिया गया। जिन्होंने पकड़ लिया, वे थे नरभक्षी कबीले के लोग। वे जल्दी उत्सुक थे उसको खा जाने को। कढाए चढ़ा दिए गये। लेकिन वह जो उनका प्रधान था, वह उसकी खूब प्रशंसा कर रहा है। और देर हुई जा रही है। ढोल बजने लगे और लोग तैयार हैं कि अब भोजन का मौका आया जा रहा है। और ऐसा सुस्वादु भोजन बहुत दिन से मिला नहीं था। देर होने लगी तो एक ने आ कर कहा अपने प्रधान को कि इतनी देर क्यों करवा रहे हो? उसने कहा कि तुम ठहरो, यह राजनीतिज्ञ है, मैं जानता हूं। पहले इसको फूला लेने दो, जरा इसकी प्रशंसा कर लेने दो, जरा फूल कर कुप्पा हो जाए तो ज्यादा लोगों का पेट भरेगा। नहीं तो वह ऐसे ही दुबला-पतला है। ठहरो थोड़ा! मैं जानता हूं राजनीतिज्ञ को। पहले उसके दिमाग को खूब फूला दो।

तुम्हारा अहंकार कभी-कभी त्याग के लिए भी तैयार हो जाता है। तुमने देखा न, कभी अगर त्यागी की शोभायात्रा निकलती है कि जैन मुनि आए, शोभायात्रा निकल रही है, राह के किनारे खड़े हो कर तुम्हें भी देख कर मन में उठता है : ऐसा सौभाग्य अपना कब होगा जब अपनी भी शोभायात्रा निकले! एक दफे मन में सपना उठता है कि हम भी इसी तरह सब छोड़-छाड़ कर-रखा भी क्या है संसार में-शोभायात्रा निकलवा लें! लोग उपवास कर लेते हैं आठ-आठ दस-दस दिन के, क्योंकि दस दिन के उपवास के बाद प्रशंसा होती है, सम्मान मिलता है, मित्र-प्रियजन, पड़ोसी पूछने आते हैं सुख-दुख, सेवा के लिए आते हैं। बड़ा काम कर लिया! छोटे-छोटे बच्चे भी अगर घर में उपवास की महिमा हो तो उपवास करने को तैयार हो जाते हैं। सम्मान मिलता है।

अगर अहंकार को सम्मान मिल रहा हो तो त्याग सत्यता नहीं है; फिर वही पुराना रोग जारी है। कोई क्रांति नहीं घटती। क्रांति के लिए भी हमारे पास दो शब्द हैं क्रांति और संक्रांति। तो जो क्रांति जबर्दस्ती हो जाए किसी मूढ़तावश हो जाए, आग्रहपूर्वक हठपूर्वक हो जाए, वह क्रांति। लेकिन जब कोई क्रांति जीवन के बोध से निकलती है तो संक्रांति। सहज निकलती है तो संक्रांति।

‘संत्यज’ का अर्थ होता है. सम्यकरूपेण बोधपूर्वक छोड़ दो। किसी कारण से मत छोड़ो। व्यर्थ है, इसलिए छोड़ दो। धन को इसलिए मत छोड़ो कि धन छोड़ने से गौरव मिलेगा, त्यागी की महिमा होगी या स्वर्ग मिलेगा या पुण्य मिलेगा और पुण्य को भंजा लेंगे भविष्य में। तो फिर सम्यक त्याग न हुआ, असम्यक हो गया। इसलिए छोड़ दो कि देख लिया कुछ भी नहीं है।

तुम एक पत्थर लिए चलते थे सोच कर कि हीरा है, फिर मिल गया कोई पारखी, उसने कहा: ‘पागल हो? यह पत्थर है, हीरा नहीं।’

एक जौहरी मरा। उसका बेटा छोटा था। उसकी पत्नी ने कहा कि तू अपने पिता के मित्र एक दूसरे जौहरी के पास चला जा। हमारे पास बहुत से हीरे-जवाहरात तिजोरी में रखे हैं, वह उनको बिकवा देगा तो हमारे लिए पर्याप्त हैं।

वह जौहरी बोला. मैं खुद आता हूं। वह आया। उसने तिजोरी खोली, एक नजर डाली। उसने कहा, तिजोरी बंद रखो, अभी बाजार- भाव ठीक नहीं। जैसे ही बाजार- भाव ठीक होंगे, बेच देंगे।

और तब तक कृपा करके बेटे को मेरे पास भेज दो ताकि वह थोड़ा जौहरी का काम सीखने लगे।

वर्ष बीता, दो वर्ष बीते, बार—बार स्त्री ने पुछवाया कि बाजार— भाव कब ठीक होंगे। उसने कहा, जरा ठहरो। तीन वर्ष बीत जाने पर उसने कहा कि ठीक, अब मैं आता हूं, बाजार— भाव ठीक हैं। तीन वर्ष में उसने बेटे को तैयार कर दिया, परख आ गई बेटे को। वे दोनों आए तिजोरी खोली। बेटे ने अंदर झांक कर देखा। हंसा। उठा कर पोटली को बाहर कचरे—घर में फेंक आया। मां चिल्लाने लगी कि पागल, यह क्या कर रहा है त्र: तेरा होश तो नहीं खो गया?

उसने कहा कि होश नहीं, अब मैं समझता हूं कि मेरे पिता के मित्र ने क्या किया। अगर उस दिन वे इनको कहते कि ये कंकड़—पत्थर हैं तो हम भरोसा नहीं कर सकते थे। हम सोचते कि शायद यह आदमी धोखा दे रहा है। अब तो मैं खुद ही जानता हूं कि ये कंकड़—पत्थर हैं। इन तीन साल के अनुभव ने मुझे सिखा दिया कि हीरा क्या है। ये हीरे नहीं हैं। हम धोखे में पड़े थे।

यह सम्यक त्याग हुआ, बोधपूर्वक हुआ।

जब तक तुम त्याग किसी चीज को पाने के लिए करते हो, वह त्याग नहीं, सौदा है, सम्यक त्याग नहीं। सम्यक त्याग तभी है जब किसी चीज की व्यर्थता दिखाई पड़ गई। अब तुम किसी के लिए थोड़े ही छोड़ते हो। सुबह तुम घर का कचरा झाड़—बुहार कर कचरे—घर में फेंक आते हो तो अखबार में खबर थोड़े ही करवाते हो कि आज फिर कचरे का त्याग कर दिया! वह सम्यक त्याग है। जिस दिन कचरे की तरह चीजें तुम छोड़ देते हो उस दिन सम्यक त्याग, बोधपूर्वक, जान कर कि ऐसा है ही नहीं…।

एक आदमी है जो मानता है, मैं शरीर हूं। और एक दूसरा आदमी है जो रोज सुबह बैठ कर मंत्र पढ़ता है कि मैं शरीर नहीं हूं मैं आत्मा हूं। इन दोनों में भेद नहीं है। यह दोहराना कि मैं शरीर नहीं हूं इसी बात का प्रमाण है कि तुम्हें अब भी एहसास हो रहा है कि तुम शरीर हो। जिस आदमी को समझ में आ गया कि मैं शरीर नहीं हूं, बात खत्म हो गई। अब दोहराना क्या है? दोहराने से कहीं झूठ को सत्य थोड़े ही बनाया जा सकता है। ही, झूठ सत्य जैसा लग सकता है, लेकिन सत्य कभी बनेगा नहीं।’यह वह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं ऐसे विभाग को छोड़ दे।’

और छोड़ने में खयाल रखना, सम्यक त्याग हो, संत्यज, बोधपूर्वक छोड़ना। किसी की मान कर मत छोड़ देना। खुद ही पारखी बनना, जौहरी बनना, तभी छोड़ना। खुद के बोध से जो छूटता है, बस वही छूटता है; शेष सब छूटता नहीं, किसी नये द्वार से, किसी पीछे के द्वार से वापस लौट आता है। और ऐसे सब विभाग को.. विभागमिति संत्यज!

मन की एक व्यवस्था है कि वह हर चीज में विभाग करता है। देखते हैं, पश्चिम में आज से दो हजार साल पहले सिर्फ एक विज्ञान था जिसको वे फिलासफी कहते थे! फिर विभाग हुए; फिर साइंस अलग टूटी, फिलासफी और साइंस अलग हो गईं; फिर साइंस अलग टूटी, फिजिक्स और केमिस्ट्री और बायोकेमिस्ट्री और बायोलाजी अलग हो गईं, मेडिकल साइंस अलग हो गई, इंजिनीयरिंग अलग हो गई। फिर उनमें भी टूट होने लगी, तो आर्गेनिक केमिस्ट्री, इनागेंनिक केमिस्ट्री अलग हो गईं। फिर मेडिकल साइंस हजार टुकड़ों में टूट गई। जल्दी ही ऐसा वक्त आ जाएगा कि बाईं आंख का डाक्टर अलग, दाईं आंख का डाक्टर अलग। विभाजन होते चले जाते हैं। हर चीज का स्पेशियलाईजेशन हो जाता है। फिर उसमें भी शाखाएं—प्रशाखाएं निकल आती हैं।

वे पुराने दिन गये जब तुम किसी डाक्टर के पास चले जाते थे, कोई भी बीमारी हो तो वह तुम्हें सहायता दे देता था। वे पुराने दिन गये। अब पूरे आदमी का डाक्टर कोई भी नहीं। अब तो खंड—खंड के डाक्टर हैं। कान खराब तो एक डाक्टर, आंख खराब तो दूसरा डाक्टर, गला खराब तो तीसरा, पेट में कुछ खराबी तो चौथा। और मजा यह है कि तुम एक हो; तुम्हारी आंख, गला, पेट सब जुड़ा है—और डाक्टर सब अलग हैं!

इसलिए कभी—कभी ऐसा हो जाता है, पेट का इलाज करवा कर आ गये, आंख खराब हो गई। आंख ठीक करवा ली, कान बिगड़ गए_। कान ठीक हो गये, टासिल में खराबी आ गई। टासिल निकलवा लिया, अपेन्दिक्स खड़ी हो गई!

जो लोग आज चिकित्साशास्त्र पर गहरा विचार करते हैं, वे कहते हैं, कि यह तो बड़ा खतरा हो गया। आदमी इकट्ठा है तो चिकित्साशास्त्र भी इकट्ठा होना चाहिए। यह तो खंडों का इलाज हो रहा है। और एक खंड वाले को दूसरे खंडों का कोई पता नहीं है। तो एक खंड वाला जो कर रहा है उसके क्या परिणाम दूसरे खंड पर होंगे, इससे कुछ संबंध नहीं रह गया है। पूरे को जानने वाला कोई बचा नहीं। अब बीमारियों का इलाज हो रहा है, बीमार की कोई चिंता ही नहीं कर रहा है। व्यक्ति की कोई पकड़ नहीं रह गई—अखंड व्यक्ति की। खंड—खंड! और ये खंड बढ़ते जाते हैं। और इनके बीच कोई जोड़ नहीं है।

फिजिक्स एक तरफ जा रही है, केमिस्ट्री दूसरी तरफ जा रही है। और दोनों के जो आत्यंतिक परिणाम हैं उनका संश्लेषण करने वाला भी कोई नहीं है, सिंथीसिस करने वाला भी कोई नहीं है। कोई नहीं जानता कि सब विज्ञानों का अंतिम जोड़ क्या है। जोड़ का पता ही नहीं है। सब अपनी—अपनी शाखा—प्रशाखा पर चलते जाते हैं; उसमें से और नई फुनगियां निकलती आती हैं, उन पर चलते चले जाते हैं। छोटी—से छोटी चीज को जानने में पूरा जीवन व्यतीत हो रहा है और समग्र चूका जा रहा है। धर्म की यात्रा बिलकुल विपरीत है। धर्म और विज्ञान में यही फर्क है। विज्ञान खंड करता है, खंडों के उपखंड करता है, उपखंडों के भी उपखंड करता है, और खंड करता चला जाता है। तो विज्ञान पहुंच जाता है परमाणु पर। खंड करते—करते—करते वहां पहुंच जाता है जहां और खंड न हो सकें; या अभी न हो सकें, कल हो सकेंगे तो कल की कल देखेंगे। धर्म की यात्रा बिलकुल दूसरी है। धर्म दो खंडों को जोड़ता—जोड़ता चला जाता है—अखंड की तरफ। फिर ब्रह्म बचता है, एक बचता है। कहो आत्मा, कहो सत्य, निर्वाण, मोक्ष—जो मर्जी।

ऐसा समझो कि विज्ञान चढ़ता है वृक्ष की पीड़ से और विभाजन हो जाते हैं—शाखाएं, प्रशाखाएं, पत्तों —पत्तों पर, डाल—डाल, पात—पात फैल जाता है। एक पत्ते पर बैठे वैज्ञानिक को दूसरे पत्ते पर बैठे वैज्ञानिक का कोई भी पता नहीं। है भी दूसरा, इसका भी पता नहीं। क्या कह रहा है, यह भी कुछ पता नहीं। धर्म चलता है दूसरी यात्रा पर—पत्तों से प्रशाखाएं, प्रशाखाओं से शाखाएं, शाखाओं से पीड़ की तरफ—स्व की तरफ। विज्ञान पहुंचता क्षुद्र पर, धर्म पहुंचता विराट पर। विज्ञान पहुंच जाता है अनेक पर, धर्म पहुंच जाता है एक पर।

इसलिए इस सूत्र को खयाल रखना।

विभागमिति संत्यज…..।

तू विभाग करना छोड़। तू बांटना छोड़। तू उसे देख जो अविभाजित खड़ा है। अविभाज्य को देख। उस एक को देख जिसके सब रूप हैं। तू रूपों में मत उलझ।

और जब भी हम कहते हैं, मैं यह हूं तभी हम कोई एक विभाग पकड़ लेते हैं। कोई कहता है, मैं ब्राह्मण हूं। तो निश्चित ही ब्राह्मण पूरा मनुष्य तो नहीं हो सकता। कोई कहता है, मैं शूद्र हूं। तो वह भी पूरा मनुष्य नहीं हो सकता। जिसने कहा, मैं ब्राह्मण हूं उसने शूद्र को वर्जित किया। उसने अखंडता तोड़ी। जिसने कहा, मैं शूद्र हूं उसने ब्राह्मण को वर्जित किया, उसने भी अखंडता तोड़ी। जिसने कहा, मैं हिंदू हूं वह मुसलमान तो नहीं है निश्चित ही, नहीं तो क्यों कहता कि हिंदू हूं! और जिसने कहा, मैं मुसलमान हूं वह भी टूटा, ईसाई भी टूटा। ऐसे हम टूटते चले जाते हैं। फिर उनमें भी छोटे—छोटे खंड हैं। खंडों में खंड हैं। आदमी ऐसा बटता चला जाता है।

तुम जब भी कहते हो, यह मैं हूं तभी तुम एक छोटा—सा घेरा बना लेते हो। सच तो यह है कि यह कहना कि मैं मनुष्य हूं यह भी छोटा घेरा है। मनुष्य की हैसियत क्या है? संख्या कितनी है? इस छोटी—सी पृथ्वी पर है और यह विराट फैलाव है, इसमें मनुष्य है क्या! क्या—मात्र! क्यों तुम मनुष्य से जोड़ते अपने को? क्यों नहीं कहते मैं जीवन हूं? तो पौधे भी सम्मिलित हो जाएंगे, पक्षी भी सम्मिलित हो जाएंगे। फिर ऐसा ही क्यों कहते हो कि मैं जीवन हूं ऐसा क्यों नहीं कहते कि मैं अस्तित्व हूं? तो सब सम्मिलित हो जाएगा।

‘अहं ब्रह्मास्मि’ का यही अर्थ होता है कि मैं अस्तित्व हूं मैं ब्रह्म हूं। सब कुछ जो है, उसके साथ मैं एक हूं वह मेरे साथ एक है। ऐसे विभागों को छोड़ते जाने वाला व्यक्ति सागर की अतल गहराई को अनुभव करता है। सागर की सतह पर लहरें हैं, गहराई में एक का निवास है।

चट जग जाता हूं

चिराग को जलता हूं

हो सजग तुम्हें मैं देख पाता हूं

कि बैठे हो

पास नहीं आते हो

पुकार मचवाते हो

तकसीर बतलाओ,

क्यों यह बदन उमेठे हो?

दरस दीवाना

जिसे नाम का ही बाना

उसे शरण विलोकते भी

देव—देव ऐंठे हो!

सींखचों में घूमता हूं

चरणों को अता हूं

सोचता हूं मेरे इष्टदेव पास बैठे हो!

पास कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि पास में भी दूरी आ गई। इष्टदेव भीतर बैठे हैं। पास कहना भी ठीक नहीं।

सींखचों में घूमता हूं

चरणों को अता हूं

सोचता हूं _ मेरे इष्टदेव पास बैठे हो!

चट जग जाता हूं

चिराग को जलाता हूं

हो सजग तुम्हें मैं देख पाता हूं बैठे हो!

परमात्मा पास है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं। दूर है, यह तो बिलकुल ही भ्रांत है। तुमने जब भी हाथ उठा कर आकाश में परमात्मा को प्रणाम किया है तभी तुमने परमात्मा को बहुत दूर कर दिया है—बहुत दूर! अपने हाथ से दूरी खड़ी कर ली है और विलग हो गये, पृथक हो गये!

देखते हो, इस देश में पुरानी प्रथा है. किसी को, अजनबी को भी तुम गांव में से गुजरते हो तो अजनबी कहता है : ‘जय राम जी!’ मतलब समझे? पश्चिम में लोग कहते हैं, गुड मार्निंग! लेकिन यह उतना मधुर नहीं है। ठीक है, सुंदर सुबह है! बात मौसम की है, कुछ ज्यादा गहरी नहीं। प्रकृति के पार नहीं जाती। इस देश में हम कहते हैं. जय राम जी! हम कहते हैं : राम की जय हो! अजनबी को देख कर भी…। शहरों में तो अजनबी को कोई अब जय राम जी नहीं करता है। अब तो हम जय राम जी में भी हिसाब रखते हैं—किससे करनी और किससे नहीं करनी! जिससे मतलब हो, उससे करनी; जिससे मतलब न हो, उससे न करनी। जिससे कुछ लेना—देना हो उससे खूब करनी, दिन में दस—पांच बार करनी। जिससे कुछ न लेना—देना हो, या जिससे डर हो कि कहीं तुमसे कुछ न ले—ले उससे तो बचना, जय राम जी भूल कर न करनी।

‘जय राम जी’ जैसा सरल मंत्र भी व्यावसायिक हो गया है। लेकिन देहात में, गांव में अब भी अजनबी भी गुजरे तो सारा गांव, जिसके पास से गुजरेगा कहेगा : ‘जय राम जी! जय हो राम की!’ वह तुमसे यह कह रहा है कि तुम अजनबी भला हो लेकिन तुम्हारा राम तो हमसे अजनबी नहीं। तुम ऊपर—ऊपर कितने ही भिन्न हो, हम राम को देखते हैं। वह जो कहने वाला है चाहे समझता भी न हो लेकिन इस परंपरा के भीतर कुछ राज तो है। लोग प्रकाश को जलाते हैं और लोग हाथ जोड़ लेते हैं; दीया जलाया, हाथ जोड़ लेते हैं। हम सोचते हैं, गांव के गंवार हैं। शहर में भी आ जाए गांव का प्राणी, तुम बिजली की बत्ती जलाओ तो वह हाथ जोड़ता है। तो तुम हंसते हो। तुम सोचते हो. ‘पागल! अरे यह बिजली की बत्ती है, इसमें अपने हाथ से जलाई—बुझाई, इसमें क्या हाथ जोड़ना है!’ लेकिन वह यह कह रहा है. जहां प्रकाश है वहां परमात्मा है। पास है, प्रकाश जैसा पास है।

चट जग जाता हूं

चिराग को जलाता हूं

हो सजग तुम्हें मैं देख पाता हूं कि बैठे हो

सींखचों में घूमता हूं

चरणों को अता हूं

सोचता हूं? मेरे इष्टदेव पास बैठे हो!

सींखचों में घूमता हूं! इसीलिए ‘पास’ मालूम होता है। सींखचों का फासला रह गया है।

तुमने देखा, अपने बेटे को छाती से भी लगा लेते हो, फिर भी सींखचे बीच में हैं! अपनी पत्नी को हृदय से लगा लेते हो, फिर भी सींखचे बीच में हैं। मित्र को गले से मिला लेते हो, फिर भी सींखचे बीच में हैं।

पास नहीं है परमात्मा। दूर तो है ही नहीं, पास भी नहीं है। परमात्मा ही है—दूर और पास की भाषा ही गलत है। वही बाहर, वही भीतर। वही यहां, वही वहां। वही आज, वही कल, वही फिर भी आगे आने वाले कल। वही है। एक ही है।

सूर्योदय!

एक अंजुली फूल

जल से जलधि तक अभिराम

माध्यम शब्द अद्धोंच्चारित

जीवन धन्य है

आभार

फिर आभार

इस अपरिमित में

अपरिमित शांति की अनुभूति

अक्षम प्यार का आभास

समर्पित मत हो त्वचा को

स्पर्श गहरे मात्र

इससे भी श्रेष्ठतर मूर्धन्य सुख

जल बेड़ियों के ऊपर कहीं

कहीं गहरे ठहर कर

आधार, मूलाधार

जीवन हर नये दिन की निकटता

आत्मा विस्तार

सूर्योदय!

एक अंजुली फूल

जल से जलधि तक अभिराम!

एक ही फैला है। छोटी—सी बूंद में भी वही है, बड़े—से सागर में भी वही है। छोटे—से दीये में भी वही है, बड़े—से सूरज में भी वही है। कहे गये शब्दों में भी वही है, अनकहे गये शब्दों में भी वही है। आधे उच्चारित शब्दों में भी वही है।

मंत्र का यही अर्थ है : अद्धोंच्चारित शब्द। पूरा उच्चार नहीं कर पाते, क्योंकि वह इतना बड़ा है, शब्द में समाता नहीं। बिना उच्चार किए भी नहीं रह पाते, क्योंकि वह इतना प्रीतिकर है—बार—बार

मन उच्चार करने का होता है। इसका नाम मंत्र। मंत्र का अर्थ है : बिना बुलाए नहीं रहा जाता; हालांकि शब्दों से तुम्हें बुलाया भी नहीं जाता। अपनी असमर्थता है, इसलिए मंत्र।

माध्यम शब्द अद्धोंच्चारित

जीवन धन्य है

आभार, फिर आभार!

एक को देखो तो आभार ही आभार फैल जाएगा। अनेक को देखो तो अशांति ही अशांति। तुम धार्मिक आदमी की कसौटी यह बना लो : जिस आदमी के जीवन में आभार हो, वह आदमी धार्मिक। जिसके जीवन में शिकायत हो, वह अधार्मिक। तब तुम जरा मुश्किल में पड़ोगे। अगर मंदिर में जाकर खड़े हो कर देखोगे आते आराधकों को तो अधिक को तो तुम शिकायत करते पाओगे; धन्यवाद देने तो शायद ही कोई आता है। कोई कहता है, बच्चे को नौकरी नहीं लगी; कोई कहता है, पत्नी बीमार है, कोई कहता है कि बेईमान तो बढ़े जा रहे हैं, हम ईमानदारों का क्या? तुम जरा लोगों के भीतर झांक कर देखना, सब शिकायत करते चले आ रहे हैं। सब मांगते चले आ रहे हैं।

और यह अधार्मिक आदमी का लक्षण है : असंतोष। शिकायत, मांग—अधार्मिक आदमी का लक्षण है। स्वभावत: अधार्मिक अशांत भी होगा।

आभार ही आभार! फिर—फिर आभार! तुम्हें जितना मिला है, तुम्हें प्रतिपल इतना मिल रहा है, द्वार—द्वार रंध्र —रंध्र से फूट कर इतना प्रकाश आ रहा है, सब तरफ से परमात्मा ने तुम्हें घेरा है—और क्या चाहते हो? सूरज की किरणें उसे लातीं, हवाओं के झोंके उसे लाते, फूलों की गंध उसे लाती, पक्षियों की पुकार उसे लाती—स्ब तरफ से उसने तुम्हें घेरा है, सब तरफ से तुम पर बरस रहा है! सब तरफ से वही तुम्हें स्पर्श कर रहा है।

जीवन धन्य है।

आभार, फिर आभार!

इस ‘ आभार’ को ही मैं प्रार्थना कहता हूं। प्रार्थना शब्द अच्छा नहीं, उसमें मांगने का भाव है। शायद लोग मांगते रहे, इसलिए हमने धीरे— धीरे प्रभु की आराधना को प्रार्थना कहना शुरू कर दिया, क्योंकि प्रार्थी वहां पहुंचते, मांगने वाले भिखमंगे वहां पहुंचते। प्रभु की प्रार्थना वस्तुत: धन्यवाद है : इतना दिया है, अकारण दिया है!

इस अपरिमित में

अपरिमित शांति की अनुभूति!

और जैसे ही तुमने मांगना छोड़ा, आभार तो अपरिमित है। उसका कोई ओर—छोर नहीं। धन्यवाद की कोई सीमा थोड़े ही है! धन्यवाद कंजूस थोड़े ही होता है। धन्यवाद ही दे रहे हो तो उसमें भी कोई शर्त थोड़े ही बांधनी पड़ती है। धन्यवाद तो बेशर्त है।

अपरिमित शांति की अनुभूति

अक्षय प्यार का आभास

और तुमने आभार दिया और उधर परमात्मा का प्यार तुम्हें अनुभव होना शुरू हुआ। बह तो सदा से रहा था, बिना आभार के तुम अनुभव न कर पाते थे। आभार प्यार को अनुभव कर पाता है। आभार पात्रता है प्यार को अनुभव करने की।

समर्पित मत हो त्वचा को!

ऊपर—ऊपर चमड़ी—चमड़ी पर मत जा। रूप—रंग में मत उलझ। स्पर्श कर गहरा।

स्पर्श गहरे मात्र

इससे भी श्रेष्ठतर मूर्धन्य सुख

जल बेड़ियों से कहीं ऊपर

यह जो त्वचा का सुख है, यह जो ऊपर—ऊपर थोड़े—से सुख की अनुभूति मिल रही है, इसमें उलझ मत जा। यह तौ खिलौना है। यह तो केवल खबर है कि और पीछे छिपा है, और गहरा छिपा है। ये तो कंकड़—पत्थर हैं, हीरे जल्दी आने को हैं। इन कंकड़—पत्थरों में भी थोड़ी—सी आभास, थोड़ी—सी झलक है। तो उस पूर्ण सुख का तो क्या कहना! अगर तू बढ़ा जाए, चला जाए…।

कहीं गहरे ठहर कर

आधार, मूलाधार!

गहरे उतर, त्वचा में मत ठहर। परिधि पर मत रुक, केंद्र की तरफ चल।

जीवन हर नये दिन की निकटता

आत्मा विस्तार।

और इस विस्तार को अनुभव कर लेना ब्रह्म को अनुभव कर लेना है।’ब्रह्म’ शब्द का अर्थ ही विस्तार होता है—जो फैला हुआ, विस्तीर्ण; जो फैलता ही चला जाता है।

अलबर्ट आइंस्टीन ने तो अभी इस सदीं में आकर यह कहा कि विश्व फैलता चला जाता है— एक्सपैंडिंग यूनिवर्स! इसके पहले सिर्फ हिंदुओं को यह बोध था, किसी को यह बोध नहीं रहा। सारे जगत के दर्शनशास्त्र र सारे जगत के धर्म ऐसा ही मान कर चले हैं कि विश्व जैसा है वैसा ही है, बड़ा कैसे होगा और 2: बड़ा है, लेकिन और बड़ा कैसे होगा? पूर्ण है, तो और पूर्ण कैसे होगा? अपनी जगह है। अलबर्ट आइंस्टीन ने इस सदी में घोषणा की कि जगत रुका नहीं है। बढ़ रहा है, फैल रहा है, फैलता चला जा रहा है। अनंत गति से फैलता चला जा रहा है। बढ़ता ही जा रहा है।

हिंदुओं के ‘ब्रह्म’ शब्द में वह बात है। ब्रह्म का अर्थ है : जो फैलता चला जाता है; विस्तीर्ण होता चला जाता है, जिस पर कभी कोई सीमा नहीं आती; जिसके फैलाव का कोई अंत नहीं, अंतहीन फैलाव!

‘सब आत्मा है, ऐसा निश्चय करके तू संकल्प—रहित हो कर सुखी हो।’

अयं स अहं अस्मि अयं अहं न इति विभाग संत्यज़।

‘यह मैं, यह मैं नहीं—ऐसे विभाग को छोड़ दे, बोधपूर्वक छोड़ दे।’

सर्वम् आत्मा—स्व ही आत्मा है, एक ही विस्तार, एक ही व्यापक!

इति निश्चित्य—ऐसा निश्चयपूर्वक जान!

त्वं निसंकल्प सुखी भव—और तब तेरे सुख में कोई बाधा न पड़ेगी।

क्योंकि जब कुछ और है ही नहीं, तृ_ ही है, तो शत्रु कहां, मृत्यु कहां! जब कुछ भी नहीं, तू ही है, तो फिर और आकांक्षा क्या! फिर पाने को क्या बचता है! फिर भविष्य नहीं है। फिर अतीत नहीं है। फिर तू सुखी हो सकता है।

सुख उस घड़ी का नाम है जब तुमने अपने को सबके साथ एक जान लिया। दुख उस घड़ी का नाम है जब तुम अपने को सबसे भिन्न जानते हो। इसे अगर तुम जीवन की छोटी—छोटी घटनाओं में परखोगे तो पहचान लोगे। जहां मिलन है वहां सुख है। साधारण जीवन में भी। मित्र आ गया अनेक वर्षों बाद, गले मिल गये—सुख का अनुभव है। फिर मित्र जाने लगा, फिर दुख घिर आया। तुमने गौर किया? जहां मिलन है वहां सुख की थोड़ी प्रतीति है और जहां बिछुड़न है वहां दुख की। मिलन में एक होने की थोड़ी—सी झलक आती है; बिछुड़न में फिर हम दो हो जाते हैं। जिसे तुम प्रेम करते थे, वह पति या पत्नी या मित्र मर गया—दुखी हो जाते हो। नाचे—नाचे फिरते थे, प्रिय तुम्हारे पास था; आज प्रिय मृत्यु में खो गया, आज तुम छाती पीटते हो, मरने का भाव उठने लगता। लेकिन गौर किया, मामला क्या है? मिलन में सुख था, विरह में दुख है।

लेकिन ये छोटे—छोटे मिलन—विरह तो होते रहेंगे, एक ऐसा महामिलन भी है, फिर जिसका कोई विरह नहीं। उसी को हम परमात्मा से मिलन कहते हैं।

सब आत्मा है। फिर कोई बिछुड्न नहीं हो सकती। फिर विरह नहीं हो सकता। फिर मिलन शाश्वत हुआ, फिर सदा के लिए हुआ। और जो सदा के मिलन को उपलब्ध हो गये, धन्यभागी हैं। सुखी भव! अष्टावक्र कहते हैं, फिर सुख ही सुख है। फिर तू सुख है। सुखी भव!

‘तेरे ही अज्ञान से विश्व है। परमार्थत: तू एक है। तेरे अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है—न संसारी और न असंसारी।’

‘तेरे ही अज्ञान से विश्व है।’

अज्ञान यानी भेद। ज्ञान यानी अभेद। अज्ञानी यानी अपने को अलग मानना। अपने को अलग मानने में ही सारा उपद्रव खड़ा हो जाता है। ज्ञान यानी अपने को एक जान लेना, पहचान लेना कि मैं एक हूं।

तवैवाज्ञानतो विश्व त्वमेक: परमार्थत:

और वस्तुत: हम एक हैं, इसलिए एक होने में सुख मिलता है। क्योंकि जो स्वाभाविक है, वह सुख देता है। हम अनेक नहीं हैं, इसलिए अनेक होने में दुख मिलता है। क्योंकि जो स्वभाव के विपरीत है, वह दुख देता है। दुख बोधक है केवल, सूचक है कि कहीं तुम स्वभाव के विपरीत जा रहे हो। सुख संकेतक है कि तुम चलने लगे स्वभाव के अनुकूल। जहां स्वभाव से संगीत बैठ जाता है, वहीं सुख है। जिस व्यक्ति से तुम्हारा स्वभाव मेल खा जाता है, उसी के साथ सुख मिलने लगता है। जिस घड़ी में किसी भी कारण से किसी भी परिस्थिति में तुम जगत के साथ बहने लगते हो, जगत की धारा में एक हो जाते हो, वहीं सुख मिल जाता है।

सुख तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। सुख कभी—कभी अनायास भी मिलता है। राह पर तुम चले जा रहे थे, सुबह घूमने निकले थे और अचानक एक घड़ी आ जाती है, एक झरोखा खुल जाता है, एक गवाक्ष, एक क्षण को तुम पाते हो महासुख। फिर खो जाता है, तुम्हारी समझ में नहीं आता हुआ क्या! शायद आकस्मिक रूप से, अकारण, तुम्हारी बिना किसी चेष्टा के, तुम ऐसी जगह थे, चित्त की ऐसी दशा में थे जहां जगत से मेल हो गया, तुम जगत की धारा के साथ बहने लगे। चलते थे;

विचार न था, सूरज निकला था, पक्षी गीत गाते थे, सुबह की हवा सुगंध ले आई थी, नासापुट सुगंध से भरे थे, प्राण उत्कुल्ल थे, सुबह की ताजगी थी, तुम नाचे —नाचे थें—स्व क्षण को मेल खा गया, अस्तित्व से मेल खा गया, अस्तित्व के साथ तुम लयबद्ध हो गये! तुम्हारे किए न था, अन्यथा तुम सदा लयबद्ध रहो। आकस्मिक हुआ था, इसलिए खो गया। फिर तुम उतर गये। फिर पटरी से गाड़ी नीचे हो गई।

उसी व्यक्ति को हम ज्ञानी कहते हैं, जिसने इसे बोधपूर्वक पहचान लिया और अब जिसकी पटरी नीचे नहीं उतरती। अब तुम लाख धक्का दो, ऐसा—वैसा करो!

तुमने एक जापानी खिलौना देखा? दारुमा गुड्डी कहलाती है।’दारुमा’ शब्द आता है बोधिधर्म से। एक भारतीय बौद्ध भिक्षु कोई चौदह सौ वर्ष पहले चीन गया। वह बड़ा अनूठा व्यक्ति था, जिसकी मैं बात कर रहा हूं ऐसा व्यक्ति था। जीवन से उसका मेल शाश्वत हो गया था, छंदबद्ध था। तुम उसे धक्का नहीं दे सकते थे। तुम उसे गिरा नहीं सकते थे। तुम उसकी लयबद्धता को क्षीण नहीं कर सकते थे। वह हर हालत में अपनी लयबद्धता को पा लेता था। कैसी भी दशा हो, बुरी हो भली हो, रात हो दिन हो, सुख हो दुख हो, सफलता— असफलता हो, इससे कोई फर्क न पड़ता था। उसके भीतर का संगीत अहर्निश बहता रहता था।

बोधिधर्म का जापानी नाम है दारुमा। और उन्होंने एक गुड़िया बना ली है। तुमने गुड़िया देखी भी होगी। उस गुड़िया की एक खूबी है : उसे तुम कैसा ही फेंको, वह पालथी मार कर बैठ जाती है। उसकी पालथी बजनी है. भीतर लोहे का टुकड़ा रखा है, या शीशा भरा है और सारा शरीर पोला है। तो तुम कैसा भी फेंको, तुम चाहो कि सिर के बल गिर जाये दारुमा, वह नहीं गिरता। तुम धक्का मारो, ऐसा करो, वैसा करो, वह फिर अपनी जगह बैठ जाता है। यह गुडिया बड़ी अदभुत है बच्चों को शिक्षण देने के लिए कि तुम्हारा जीवन भी ऐसा हो जाए—दारुमा जैसा हो जाए। कुछ तुम्हें गिरा न पाये। तुम्हारी पालथी लगी रहे। तुम्हारा सिद्धासन कायम रहे। तुम्हारी छंदबद्धता बनी रहे। इसी को अष्टावक्र स्वच्छंदता कहते हैं।

स्वच्छंदता का अर्थ उच्छृंखलता मत समझ लेना। स्वच्छंदता का अर्थ है : स्वयं के छंद को उपलब्ध हो गये; स्वभाव के साथ एक हो गये; छंदबद्ध हो गये अपनी भीतर की आत्मा से। और जो भीतर है वही बाहर है, तो छंद पूरा हो गया। लयबद्ध हो गए, तुम्हारा सितार बजने लगा। तुमने अस्तित्व के हाथों में दे दिया अपना सितार; अस्तित्व की अंगुलियां तुम्हारे सितार पर फिरने लगीं, गीत उठने लगा।

‘तेरे ही अज्ञान से विश्व है। परमार्थत: तू एक है। तेरे अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है—न संसारी और न असंसारी।’

तो कोई भेद मत करना। यह मत कहना कि यह संसारी है और यह संन्यासी है। इसलिए तुम देखते हो, मैंने सारा भेद छोड़ दिया है।

लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, संन्यास लेना है; लेकिन हम तो अभी संन्यासी होने के योग्य नहीं हैं; अभी घर में हैं, पत्नी—बच्चे हैं। मैं कहता हूं : तुम फिक्र छोड़ो। संन्यासी और संसारी में कोई भेद थोड़े ही है—एक ही है। इतना ही फर्क है कि संसारी अभी जिद किए है सोने की और संन्यासी

जागने की चेष्टा करने लगा है। भेद थोड़े ही हैं। दोनों एक से ही हैं। संसारी सिर के बल खड़ा है, संन्यासी अपने पैर के बल खड़ा हो गया; मगर दोनों में कुछ फर्क थोड़े ही है। दोनों के भीतर एक ही परमात्मा, एक ही स्फूर्ति!

तन के तट पर मिले हम कई बार पर

द्वार मन का अभी तक खुला ही नहीं।

जिंदगी की बिछी सर्प—सी धार पर

अश्रु के साथ ही कहकहे बह गये।

ओंठ ऐसे सिये शर्म की डोर से

बोल दो थे, मगर अनकहे रह गये।

सैर करके चमन की मिला क्या हमें?

रंग कलियों का अब तक घुला ही नहीं।

पूरी जिंदगी गुजर जाती है और कलियों का रंग भी नहीं घुल पाता। पूरी जिंदगी गुजर जाती है, कली खिल ही नहीं पाती। पूरी जिंदगी गुजर जाती है और तार छिड़ते ही नहीं वीणा के।

सैर करके चमन की मिला क्या हमें?

रंग कलियों का अब तक घुला ही नहीं।

तन के तट पर मिले हम कई बार पर

द्वार मन का अभी तक खुला ही नहीं।

तो हम मिलते भी हैं, तो भी मिलते नहीं। अहंकार अकड़ाये रखता है। झुकते हैं तो भी झुकते नहीं। सिर झुक जाता है, अहंकार अकड़ा खड़ा रहता है।

तुम जरा गौर से देखना, जब तुम झुकते हो, सच में झुकते हो? जब हाथ जोड़ते हो, सच में हाथ जोड़ते हो? या कि सब धोखा है? या कि विनम्रता भी औपचारिकता है? या कि सब सामाजिक व्यवहांर है? कुछ सत्य है या सब झूठ ही झूठ है? तुम किसी से कहते हो, मुझे तुमसे प्रेम है; लेकिन यह तुम सच में मानते हो? है ऐसा? या किसी प्रयोजनवश कह रहे हो?

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही है कि अब तुम्हें मुझसे पहले जैसा प्रेम न रहा। अब तुम घर उस उमंग से नहीं आते जैसे पहले आते थे। अब तुम मुझे देख कर खिल नहीं जाते, जैसे पहले खिल जाते थे।

मुल्ला अपना अखबार पढ़ रहा है। उसके सिर पर सलवटें पड़ती जाती हैं। और पत्नी कहे चली जा रही है, बुहारी लगाये जा रही है और कहे चली जा रही है। फिर वह कहती है कि नहीं, तुम्हें मुझसे बिलकुल प्रेम नहीं रहा; सब प्रेम खत्म हो गया। मुल्ला ने कहा कि है तुझसे, प्रेम मुझे तुझसे ही है और पूरा प्रेम है। अब सिर खाना बंद कर और अखबार पढ़ने दे!

कहे चले जाते हैं हम, जो कहना चाहिए। और जीवन कुछ और कहे चला जाता है। ओंठ कुछ कहते, आंख कुछ कहती है। ओंठ कुछ कहते हैं, पूरा व्यक्तित्व कुछ और कहता है। तुम जरा लोगों की आंखों पर खयाल करना, जब वे तुमसे कहते हैं हमें प्रेम है, तो उनकी आंख में कोई दीये नहीं जलते। सूनी पथराई आंखें! जब तुम्हें वे नमस्कार करते हैं और कहते हैं कि धन्यभाग कि आपके दर्शन हो गये, तब उनके चेहरे पर कोई पुलक नहीं आती। कोरे शब्द, थोथे शब्द! सब झूठा हो गया है। इस झूठ से जागने का नाम ही संन्यास है। कहीं भागने का नाम संन्यास नहीं है। यहीं तुम सच होना शुरू हो जाओ, प्रामाणिक होना शुरू हो जाओ, और तुम पाओगे कि जैसे—जैसे तुम प्रामाणिक होते हो, वैसे —वैसे जीवन में स्वर, संगीत, सुगंध, सौरभ खिलता है। सत्य की बड़ी गहरी सुगंध है! तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई

चुंबनों सांवली—सी घटा छा गई।

एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण

पर गगन से उतर चंचला आ गई।

प्राण का दान दे, दान में प्राण ले

अर्चना की अधर चांदनी छा गई।

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।

थोड़ा सत्य की झलक आनी शुरू हो जाए, थोड़ा उस परम प्रियतम से मिलना शुरू हो जाए थोड़ा ही उसका आचल हाथ में आने लगे..।

तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई!

तुम मिले, प्राण में रागिनी आ गई!

धार्मिक व्यक्ति कोई उदास, थका—हारा, मुर्दा व्यक्ति नहीं है—जीवत, उल्लास से भरा, नाचता हुआ! धार्मिक व्यक्ति है मुस्कुराता हुआ। जिसको इस बात का अहसास होने लगा कि परमात्मा ने सब तरफ से मुझे घेरा है, वह उदास रहेगा? जिसके भीतर यह प्रतीति होने लगी कि वही परमात्मा मेरे घर में भी विराजमान है, इस मेरी अस्थिपंजर की देह को भी उसने पवित्र किया है, इस मिट्टी की देह में भी उसी का मंदिर है—वह फिर उदास रहेगा? फिर तुम उसे थका—हारा देखोगे? उसमें तुम एक उमंग के दर्शन पाओगे। बस उतना ही फर्क है। लेकिन चाहे तुम उमंग से नाचो और चाहे थके, उदास, हारे बैठे रहो, मूलत:, परमार्थत: कोई फर्क नहीं है—न संसारी में न असंसारी में।

परमार्थत: त्वं एक:!

वस्तुत: तो तुम एक ही हो। उदास भी वही है। हंसता हुआ भी वही है। स्वस्थ भी वही, बीमार भी वही। अंधेरे में खड़ा भी वही, रोशनी में खड़ा भी वही। फर्क इतना ही है कि एक ने आंख खोल ली है, एक ने आंख बंद रखी है। फर्क कुछ बहुत नहीं। पलक, जरा—सी पलक का फर्क है। आंख खुल गई—संन्यासी। आंख बंद रही—संसारी।

‘यह विश्व भ्रांति मात्र है और कुछ नहीं है, ऐसा निश्चयपूर्वक जानने वाला वासना—रहित और चैतन्य—मात्र है। वह ऐसे शांति को प्राप्त होता है मानो कुछ नहीं है।’

जरा इस भाव में जीयो! जरा इस भाव में पगो! जरा इस भाव में डूबो!

‘यह विश्व भांति मात्र है।’

यह ध्यान की एक प्रक्रिया है। यह कोई दार्शनिक सिद्धात नहीं; जैसा कि हिंदू समझ बैठे हैं कि यह इनका दार्शनिक सिद्धात है कि यह जगत माया है, भ्रांति है, इसको सिद्ध करना है। यह कोई तर्क की प्रक्रिया नहीं है।

शंकराचार्य के अत्यंत तार्किक होने के कारण एक बड़ी गलत दिशा मिल गई। शंकराचार्य ने बात को कुछ ऐसे सिद्ध करने की कोशिश की है जैसे यह कोई तार्किक सिद्धात है कि जगत माया है। उसके कारण दूसरे सिद्ध करने लगे कि जगत माया नहीं है। और सच तो यह है कि किसी भी तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता कि जगत माया है। कोई उपाय नहीं है। इसलिए उपाय नहीं है कि जब तुम सिद्ध करने जाते हो कि जगत माया है, तब भी तुम्हें इतना तो मानना ही पड़ता है कि जगत है; नहीं तो सिद्ध किसको कर रहे हो कि माया है? जब तुम सिद्ध करने जाते हो किसी के सामने कि जगत माया है तो तुम इतना मानते हो कि जिसके सामने तुम सिद्ध कर रहे हो, वह है। इतना तो मानते हो कि किसी की बुद्धि तुम्हें सुधारनी है, रास्ते पर लानी है; कोई गलत चला गया है, ठीक लाना है। लेकिन यह तो मान्यता हो गई संसार की। यह तो तुमने मान लिया कि दूसरा है। शंकराचार्य किसको समझा रहे हैं? किससे तर्क कर रहे हैं?

नहीं, यह तर्क की बात ही नहीं। मेरा कोण कुछ और है। मैं मानता हूं यह ध्यान की एक प्रक्रिया है। यह सिर्फ ध्यान की एक विधि, एक उपाय है। इसका तुम प्रयोग करके देखो ध्यान के उपाय की तरह और तुम चकित हो जाओगे।

‘यह विश्व भ्रांति मात्र है।’

तुम ऐसा मान कर एक सप्ताह चलो कि जगत सपना है। कुछ फर्क नहीं करना है; जैसा होता है वैसे ही होने देना है। सपना है तो फर्क क्या करना है? सपना है तो फर्क करोगे भी कैसे? होता तो कुछ फर्क भी कर लेते। सपना है तो बदलोगे कैसे? बदलना हो भी कैसे सकता है? यथार्थ बदला जा सकता है, सपना तो बदला नहीं जा सकता। सिर्फ दृष्टि— भेद है। दफ्तर जाना, इतना ही जानना कि सपना है। दफ्तर का काम भी करना, यह मत कहना कि अब फाइलें हटा कर बगल में रख दीं, जैसा कि भारत में लोग किए हैं, फाइलें रखीं हैं, वे टेबल पर पैर पसारे बैठे हैं—जगत सपना है! करना भी क्या है! फाइलों में धरा क्या है!

दो कवि एक कवि—सम्मेलन में गये थे, एक साथ ठहरे थे। जो जवान कवि था, वह कुछ कविताएं लिख रहा था। के ने उसको उपदेश दिया। के ने कहा. ‘लिखने में क्या धरा है! अरे पागल, लिखने में क्या धरा है! परमात्मा बाहर खड़ा है।’

जवान ने सुन तो लिया, लेकिन उसे बात अच्छी न लगी। थोड़ी देर बाद बूढ़े ने कहा. ‘बेटा, सेरीडान बुलवाओ, सिर में दर्द हुआ है।’ तो उस जवान कवि ने कहा. ‘सेरीडान! सेरीडान!! सेरीडान में क्या धरा है? परमात्मा बाहर खड़ा है। और जब सिर में दर्द उठे, बहाना करो, न—न— —। न—न करो! सब भ्रांति है गुरुदेव! सिरदर्द इत्यादि में रखा क्या है! जब दर्द उठे, बहाना करो, न—न—न। न—न—न करो। इनकार कर दो, बस खत्म हो गई बात।’

न तो इनकार करने से सिरदर्द जाता और न फाइलें सरकाने से कुछ हल होता। नहीं, यह तो प्रयोग ध्यान का है। दफ्तर जाओ, फाइल पर काम भी करो—सपना ही है, बस इतना जान कर करो। घर आओ, पत्नी से भी मिलो, बच्चों के साथ खेलो भी—सपना ही है, ऐसा ही मान कर चलो। एक सात दिन तुम एक अभिनेता हो, कर्ता नहीं। बस कोई फर्क न पड़ेगा, किसी को कानोंकान खबर भी न होगी। कोई जान भी न पाएगा और तुम्हारे भीतर एक क्रांति हो जाएगी। तुम अचानक देखोगे, कर

तुम वही रहे हो, लेकिन अब बोझ न रहा। कर तुम वही रहे हो, लेकिन अब अशांति नहीं। कर तुम वही रहे हो, लेकिन अब तुम अलिप्त, दूर कमल जैसे; पानी में और फिर भी पानी छूता नहीं।

‘यह विश्व भांति मात्र है और कुछ नहीं है, ऐसा निश्चियपूर्वक जानने वाला वासना—रहित और चैतन्य मात्र हो जाता है।’

तुम करके देखो। तुम पाओगे कि वासना गिरने लगती है। काम जारी रहता है, कामना गिरने लगती है। कृत्य जारी रहता है, कर्ता विदा हो जाता है। सब चलता है, जैसा चलता था; लेकिन भीतर आपाधापी नहीं रह जाती, तनाव नहीं रह जाता। तुम उपकरण—मात्र हो जाते हो, निमित्त मात्र! और तब तुम्हें अनुभव होता है कि तुम तो सिर्फ चैतन्य हो, साक्षी—मात्र हो।

यह प्रयोग ध्यान का है। अगर जगत सपना है तो कर्ता होने का तो कोई उपाय न रहा। जब यथार्थ है ही नहीं, तो कर्ता हो कैसे सकते हो? रात तुम सपना देखते हो, उसमें कर्ता तो नहीं हो सकते! सुबह जाग कर तुम पाते हो साक्षी थे, कर्ता नहीं। देखा, तुम सुबह उठ कर ऐसा तो नहीं कहते कि सपने में ऐसा—ऐसा किया; तुम कहते हो, रात सपना देखा। तुम जरा भाषा पर खयाल करना। तुम यह नहीं कहते हो सुबह उठ कर कि रात सपने में चोरी की। तुम कहते हो, रात देखा, सपना आया कि चोरी हो रही है मुझसे। रात देखा, सपना आया कि मैं हत्यारा हो रहा हूं। तुम कहते हो, मैंने देखा। सपना देखा जाता है; किया थोड़े ही जाता है। बस इस भेद को समझो। सपने के साथ करना जुड़ता नहीं है, सिर्फ देखना जुड़ता है।

तो अगर तुम जगत को सपना मात्र मान कर प्रयोग करो तो अचानक तुम पाओगे, तुम चैतन्य मात्र रह गये, द्रष्टा—मात्र, साक्षी—मात्र!

‘और ऐसा व्यक्ति ऐसी शांति को प्राप्त हो जाता है मानो कुछ है ही नहीं।’

अशांत होने का उपाय ही नहीं बचता।

भ्रांतिमात्रमिद विश्व न किचिदिति निश्चयी

निर्वासन: स्फूर्तिमात्रो न किचिदिव शाम्यति

सब सपने भूमिकायें हैं

उस अनदेखे सपने की

जो एक ही बार आएगा

सत्य की भीख मांगने

आंख के द्वार पर।

सब सपने भूमिकायें हैं!

यह सारा जगत, तुम देखने की कला सीख लो, इसकी ही पाठशाला है। ये इतने दृश्य, ये इतने कथापट, इतने नाटक, सिर्फ एक छोटी—सी बात की तैयारी हैं कि तुम द्रष्टा बन जाओ।

सब सपने भूमिकायें हैं

उस अनदेखे सपने की

जो एक ही बार आएगा

सत्य की भीख मांगने

आंख के द्वार पर।

तुम संसार के देखने वाले बन जाओ, एक दिन अचानक परमात्मा तुम्हारे द्वार पर खड़ा हो जाएगा। उसी परम दर्शन के लिए सारी तैयारी चल रही है। यह तो आंखों पर काजल आजना है—यह संसार जो है। यह तो आंखों को साफ करना है—यह संसार जो है। आंखें स्वच्छ हो जाएं, देखने की कला आ जाए, स्फूर्ति आ जाए, बोध आ जाए, फिर द्वार पर परमात्मा खड़ा है। और एक बार द्वार पर खड़ा हो गया कि सदा के लिए हो गया।

जो एक ही बार आएगा

सत्य की भीख मांगने

आंख के द्वार पर।

आंखें शून्य हो जाएं तो सत्य मिल जाए! मन मौन हो जाए तो प्रभु की वाणी प्रगट हो उठे। तुम मिट जाओ, तो परमात्मा इसी क्षण जाहिर हो उठे।

मात्र है राजमार्ग अभिव्यक्ति का,

शब्द, छंद, मात्रा,

होती है शुरू मौन के बीहड़ से

अनुभूति की यात्रा।

जब तुम चुप हो जाते हो—सब अर्थों में! आंख जब चुप हो जाती है, तब तुम वही देखते हो जो है। जब तक आंख बोलती रहती है, तुम वही देखते हो जो तुम्हारी वासना दिखलाना चाहती है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक राह से जा रहा है। अचानक झपटा। कोई चीज उठाई। फिर बड़े क्रोध से फेंकी और गालियां दीं। मैंने उससे पूछा : ‘नसरुद्दीन!’ मैं उसके पीछे—पीछे ही था।’यह मामला क्या हुआ। झपटे बड़ी तेजी से, कुछ उठाया भी, कुछ फेंका भी!’

उसने कहा : कुछ ऐसे दुष्ट हैं कि अठन्नी जैसी खखार यूकते हैं।

अठन्नी जैसी खखार! वह उनको गाली दे रहा है। जैसे उसके लिए किसी ने अठन्नी जैसी खखार यूंकी। वे खखार को उठा लिए। नाराज हो रहे हैं।

आदमी वही देखता है, जो देखना चाहता है, जो उसकी वासना दिखलाना चाहती है।

तुमने भी कई बार खखार उठा लिया होगा अठन्नी के भ्रम में। वह दिखाई नहीं पड़ता जो है। आंख के पास अपने प्रक्षेपण हैं। आंख वही दिखलाना चाहती है।

तुम कभी ऐसा भी देखो। तुम रोज जिस बाजार में जाते हो, उसमें जब तुम जाते हो अलग—अलग भावनाएं ले कर तुम्हें अलग—अलग चीजें दिखाई पड़ती हैं। अगर तुम भूखे जाओ, तुम्हें होटल, रेस्तरा इसी तरह की चीजें दिखाई पड़ेगी; जूते की दूकान बिलकुल दिखाई न पड़ेगी। अगर तुम्हारा दिमाग खराब हो तो बात अलग है; नहीं तो जूते की दूकान नहीं दिखाई पड़ेगी। उपवास करके बाजार में जाना, सब तरफ से तुम्हें. बाकी सब चीजें फीकी पड़ जाएंगी, हट जाएंगी, उनका महत्व न रहा। लेकिन जब तुम भरे पेट जाते हो, तब बात अलग हो जाती है। तुम देखने वाले हो। तुम चुनाव कर रहे हो।

इस घड़ी की कल्पना करो, जब तुम सारे जगत को स्वप्‍नवत मान लेते हो। तब तुम्हें बड़ी हैरानी होती है। वही दिखाई पड़ने लगता है जो है। और जो है वह एक है, अनेक नहीं।

‘यह विश्व भ्रांति मात्र है और कुछ नहीं, ऐसा निश्चयपूर्वक जानने वाला वासना—रहित चैतन्य मात्र है। वह ऐसी शांति को प्राप्त होता है मानो कुछ नहीं है।’

जब तुम्हारे भीतर कोई मांग नहीं तो बाहर कुछ नहीं बचता है—एक विराट शून्य फैल जाता है, एक मौन, एक निस्तब्धता! उस निस्तब्धता में ही प्रभु के चरण पहली बार सुने जाते हैं।

‘संसाररूपी समुद्र में एक ही था, है, और होगा। तेरा बंध और मोक्ष नहीं है। तू कृतकृत्य होकर सुखपूर्वक विचर!’

देखते हैं इन वचनों की मुक्ति! इन वचनों की उदघोषणा!

एक एव भवांभोधावासीदस्ति भविष्यति

एक ही है, एक ही था, एक ही रहेगा। इससे अन्यथा जो भी देखा हो, सपना है, झूठा है, मनगढ़ंत है।

न ते बंधोउस्ति मोक्षो वा कृतकृत्य: सुखं चर।

और न कहीं कोई बंध है, न कोई मोक्ष है। अगर ऐसा तू देख ले तो न कोई बंध है न कोई मोक्ष। तू मुक्त, मुक्त तेरा स्वभाव है।

न ते बंधोऽस्ति मोक्षो वा कृतकृत्य: सुखं चर

और फिर तू कृतार्थ हुआ। फिर प्रतिपल तेरा धन्य हुआ। फिर तू सुख से विचर।

‘हे चिन्मय, तू चित्त को संकल्पों और विकल्पों से क्षोभित मत कर, शांत होकर आनंदशइरत अपने स्वरूप में सुखपूर्वक स्थित हो।’

बैठा है कीचड़ पर जल

चौंका मत!

घट भर और चल

बनाया जा सकता है अंधेरा पालतू

पर मर जाती है बंद करते ही धूप

मुक्ति का द्वार अभिन्न अंग है कारा का

बलि वासनाओं की दो

नारियल कुंठा का तोड़ो

चंदन अहं का घिसो

बन जाएगा तुम्हारा पशु ही प्रभु

बैठा है कीचड़ पर जल

चौंका मत!

घट भर और चल!

वासनाएं हैं, उन वासनाओं को जगाने, प्रज्वलित करने की कोई जरूरत नहीं। अपना घड़ा भरो और चलो। जल के नीचे बैठी है मिट्टी, बैठी रहने दो। लेकिन हम घड़ा तो भरते नहीं, जीवन के रस से तो घड़ा भरते नहीं; वह जो तलहटी में बैठी मिट्टी है. वासनाओं की, उसी की उधेड़बुन में पड़ जाते हैं। और उसके कारण सारा जल अस्वच्छ हो जाता है।

तो अगर जल भरना हो किसी झरने से तो उतर मत जाना झरने में; झरने के बाहर से चुपचाप आहिस्ता से अपना घड़ा भर लेना। झरने में उतर गये, जल पीने योग्य न रह जाएगा। अभी—अभी कैसा स्वच्छ था, स्फटिक मणि जैसा! उतर गये, उपद्रव हो गया। कर्ता बन गये—उतर गये। साक्षी रहे कि किनारे रहे। भर लो घड़ा।

बैठा है कीचड़ पर जल

चौंका मत!

घट भर और चल।

कृतकृत्य हो जा!

बनाया जा सकता है अंधेरा पालतू।

यह तुमने देखा, अंधेरे को तुम बंद कर सकते हो कमरे में, लेकिन धूप को नहीं!

बनाया जा सकता है अंधेरा पालतू

पर मर जाती है बंद करते ही धूप।

जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर है, जो भी सत्य है, वह मुक्त ही होता है। उसे बांधा नहीं जा सकता। शास्त्र में बांधा, मर जाता है सत्य। सिद्धात में पिरोया, निकल जाते हैं प्राण। तर्क में डाला, हो गया व्यर्थ। तर्क तो कब है सत्य की। शब्द तो लाश है सत्य की।

बनाया जा सकता है अंधेरा पालतू

पर मर जाती है बंद करते ही धूप।

शब्दों में बंद करने की चेष्टा न करो; मौन में उघाड़ो! विचारों में मत उलझो; शून्य में जागो! आंखों में अगर सपने भरे हुए हो तुम, तो तुम कारागृह में ही रहोगे। आंखों को खाली करो।

मुक्ति का द्वार अभिन्न अंग है कारा का!

यह बड़े मजे की बात है। संसार में ही मुक्ति का द्वार है। होना ही चाहिए। जेलखाने से जब कोई निकलता है तो जिस द्वार से निकलता है वह जेलखाने का ही द्वार होता है।

मुक्ति का द्वार अभिन्न अंग है कारा का।

वह द्वार मुक्ति का कारा से अलग थोड़े ही है। मोक्ष कहीं संसार से अलग थोड़े ही है। मोक्ष संसार में ही एक द्वार है। तुम साक्षी हो जाओ, द्वार खुल जाता है। तुम कर्ता बने रहो, तुम्हें द्वार दिखाई नहीं पड़ता। तुम दौड़— धूप आपाधापी में लगे रहते हो।

‘संसाररूपी समुद्र में एक ही था, एक ही है, एक ही होगा। तेरा बंध और मोक्ष नहीं। तू कृतकृत्य हो कर सुखपूर्वक विचर।’

ते बंध: वा मोक्ष न त्वं सुखं चर!

कृतकृत्य हो कर! यह बड़े मजे का शब्द है। कर्ता होने से बचते ही आदमी कृतकृत्य हो जाता है। और हम सोचते हैं. बिना कर्ता बने कैसे कृतकृत्य होंगे; जब करेंगे तभी तो कृतकृत्य होंगे! और करने वाले कभी कृतकृत्य नहीं होते। देखते हो नेपोलियन, सिकंदर! उनकी पराजय देखते हो! संसार जीत लेते हैं और फिर भी पराजय हाथ लगती है। धन भर जाता है और हाथ खाली रह जाते हैं। प्रशंसा मिल जाती है और प्राण सूखे रह जाते हैं।

अष्टावक्र कहते हैं : कृतकृत्य होना है, कर लेना है जो करने योग्य है—तो कर्ता मत बन! तो साक्षी बन! साक्षी बनते ही तत्‍क्षण परमात्मा तेरे लिए कर देता है जो करने योग्य है। तू नाहक ही परेशान हो रहा है। तू व्यर्थ की दौड़— धूप कर रहा है।

‘हे चिन्मय, तू चित्त को संकल्पों और विकल्पों से क्षोभित मत कर। शांत हो कर आनंदपूर्वक अपने स्वरूप में सुखपूर्वक स्थित हो।’

मा संकल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय

उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मयानदविग्रहे

‘हे चिन्मय! हे चैतन्य! तू चित्त को संकल्पों—विकल्पों से क्षोभित मत कर।’

यह मत सोच : क्या करूं क्या न करूं; क्या मानूं क्या न मानूं; कहां जाऊं कहां न जाऊं! इन संकल्प—विकल्पों में मत पड़। तू तो जहां है वहीं शांत हो जा। जैसा है वैसा ही शांत हो जा। क्या करूं क्या न करूं कि शांति मिले, अगर इस विकल्प में पड़ा तो तू अशांत ही होता चला जाएगा।

शांति के नाम पर भी लोग अशांत होते हैं। शांत होना है, यही बात अशांति का कारण बन जाती है। ऐसे लोग मेरे पास रोज आ जाते हैं। वे कहते हैं, शांत होना है; अब चाहे कुछ भी हो जाए, शांत हो कर रहेंगे। उनको यह बात दिखाई नहीं पड़ती कि उनके ही कर्तापन के कारण अशांत हुए; अब कर्तापन को शांति पर लगा रहे हैं। अब वे कहते हैं, शांत होकर रहेंगे! अभी भी जिद कायम है। अभी भी टूटी नहीं जिद। अहंकार मिटा नहीं, कर्ता गिरा नहीं। रस्सी जल गई, लेकिन रस्सी की अकड़न नहीं गई। अब शांत होना है। अब यह नया कर्तृत्व पैदा हुआ।

इतना ही तुम जान लो कि तुम्हारे किए कुछ भी नहीं होता है। फिर कैसी अशांति! इतना ही जान लो, तुम्हारे किए क्या कब हुआ! कितना तो किया, कभी कुछ हुआ? कभी तो कुछ न हुआ। आशा बंधी और सदा टूटी। निराश ही तो हुए हो। जन्मों—जन्मों में निराशा के अतिरिक्त तुम्हारी संपत्ति क्या है? इसको देख कर जो व्यक्ति कह देता है, अब मेरे किए कुछ न होगा—ऐसे भाव में कि अब मेरे किए कुछ भी न होगा, तो मैं देखूंगा जो होता है, देखूंगा और तो करने को कुछ बचा नहीं; देखूंगा चुपचाप बैठ कर…!

मेरे दादा, मेरे पिता के पिता, बूढ़े हो गए थे। तो उनके पैरों में लकवा लग गया। वे चल भी नहीं सकते थे। लेकिन उनकी पुरानी आदत! तो घसिट कर भी वे दूकान पर पहुंच जाते, मकान के भीतर से दूकान पर आ जाते। अब उनकी कोई जरूरत भी न थी दूकान पर। उनके कारण अड़चन भी होती। लेकिन वे फिर भी…….।

मैं एक बार गांव गया था। विश्वविद्यालय में पढ़ता था, लौटा था। उनको मैंने देखा तो मैंने उनको कहा कि अब तुम्हारा करना सब खतम हो गया, अब तुम्हारे पैर भी जाते रहे, अब चलना—उठना भी नहीं होता, अब कोई जरूरत भी नहीं है, तुम्हारे बेटे अच्छी तरह कर भी रहे हैं, अब तुम्हें कुछ अड़चन भी नहीं है, अब तुम शांत क्यों नहीं बैठ जाते?

वे बोले, शांत तो मैं बैठना चाहता हूं। तो मैंने कहा : अब और क्या बाकी है? अब तुम शांत बैठ ही जाओ। तुम मेरी मानो—मैंने उनसे कहा—चौबीस घंटे आज तुम दूकान पर मत जाओ। तुम्हारी वहां कोई जरूरत भी नहीं है। सच तो यह है कि तुम्हारे बेटे परेशान होते हैं तुम्हारी वजह से। काम में बाधा पड़ती है। जमाना बदल गया है। जब तुम दूकान चलाते थे, वह और दुनिया थी; अब दूकान किसी और ढंग से चल रही है।

वे पुराने ढंग के आदमी थे। दस रुपये की चीज बीस रुपये में बताएंगे। फिर खींचतान होगी, फिर ग्राहक मांगेगा, फिर वे समझायेगे—बुझायेगे, फिर चल—फिर कर वह दस पर तय होने वाला है। लेकिन आधा घंटा खराब करेंगे, घंटा भर खराब करेंगे। अब दूकान की हालत बदल गई थी। अब दस की चीज है तो दस की बता दी, अब बात तय हो गई। उनको यह बिलकुल जंचता ही नहीं। वे कहते. ‘यह भी कोई मजा रहा! अरे चार बात होती हैं, ग्राहक कहता कुछ, कुछ तुम कहते; कुछ जद्दोजहद होती, बुद्धि की टक्कर होती।’ और वे कहते, ‘बिगड़ता क्या है? दस से कम में तो देना नहीं है, तो कर लेने दो उसको दौड़— धूप। उसको भी मजा आ जाता है। वह भी सोचता, खूब ठगा! कोई अपन तो ठगे जाते नहीं।’ वह उनका पुराना दिमाग था, वे वैसे ही चलते थे। वे दूकान पर पहुंच जाते तो वे गड़बड़ करते। मैंने उनसे कहा कि तुमसे सिर्फ गड़बड़ होती है। और फिर अब, कब मौत करीब आती है.. …अब तुम ऐसा करो, कर्तापन छोड़ दो, साक्षी हो जाओ।

मेरी वे सदा सुनते थे कि कुछ कहूंगा तो शायद पते की हो। तो उन्होंने कहा, अच्छा आज चौबीस घंटे प्रयोग करके देखता हूं। अगर मुझे शांति मिली तो ठीक, नहीं मिली तो फिर मैं नहीं झंझट में पडूंगा। मुझे जैसा करना है करने दो, कम से कम व्यस्त तो रहता हूं।

वे चौबीस घंटे अपने बिस्तर पर पड़े रहे। दूसरे दिन सुबह जब मैं गया, मैंने ऐसा उनका चेहरा, ऐसा सुंदर भाव कभी देखा ही न था। वे कहने लगे. हद हो गई! मैंने इस पर कभी ध्यान ही न दिया। पैर भी टूट गए, फिर भी मैं दौड़ा जा रहा, मन दौड़ा जा रहा। अब कुछ करने को भी मुझे नहीं बचा, सब ठीक चल रहा है मेरे बिना, और भी अच्छा चल रहा है; फिर भी मैं पहुंच जाता हूं सरक कर। परमात्मा ने मौका दिया कि पैर भी तोड़ दिए, फिर भी अकल मुझे नहीं आती। तुमने ठीक किया। ये चौबीस घंटे! पहले तो चार—छ: घंटे बड़ी बेचैनी में गुजरे, कई बार उठ—उठ आया; फिर याद आ गई, कम से कम चौबीस घंटे में क्या बिगड़ता है! फिर लेट गया। कोई दस—बारह घंटे के बाद कुछ—कुछ क्षण सुख के मालूम होने लगे। अब कुछ करने को नहीं बचा। सांझ होते—होते जब सूरज ढलता था और मैंने खिड़की से सूरज को ढलते देखा, तब कुछ मेरे भीतर भी ढल गया। कुछ हुआ है! रात बहुत दिनों बाद मैं ठीक से सोया हूं और सपने नहीं आये।

फिर उस दिन के बाद वे दूकान नहीं गये। फिर दों—चार साल जीये, जब भी मैं घर जाता तो मैं पहली बात पूछता कि वे दूकान तो नहीं गये हैं। उनके बेटे भी परेशान हुए—मेरे पिता, मेरे काका वे सब परेशान हुए कि मामला क्या है, तुमने किया क्या! तो मैंने कहा : मै, कुछ किया नहीं हूं जो अपने से होना था, सिर्फ एक निमित्त बना। उनको याद दिला दी कि अब पैर भी टूट गये, अब क्यों आपाधापी! अब सब हार भी गये, बात खतम भी हो गई, अब प्राण जाने का क्षण आ गया, श्वास आखिरी आ गई, अब थोड़े साक्षी बन कर देख लो!

आखिरी दिन उनके परम शांति के दिन थे। मरते वक्त मैं घर पर नहीं था जब वे मरे, लेकिन दो दिन बाद जब मुझे खबर मिली और मैं पहुंचा तो सबने कहा कि वे तुम्हारी याद करते मरे। और उनसे पूछा कि क्यों उसकी याद कर रहे हो; और सब तो मौजूद हैं, उसी की क्यों याद कर रहे? तो उन्होंने कहा, उसकी याद करनी है, उसे धन्यवाद देना था! उसने जो मुझे कहा कि अब कर्ता न रहो, मैं कृतकृत्य हो गया! धन्यवाद देना था। मैं तो न दे सकूंगा, लेकिन जब वह आये तो मेरी तरफ से धन्यवाद दे देना कि मैं साक्षी— भाव में मरा हूं और जीवन में जो नहीं मिला था वह मरने के इन क्षणों में मुझे मिल गया है। पृ।

‘हे चिन्मय, तू चित्त को संकल्पों और विकल्पों से क्षोभित मत कर। शांत होकर आनंदपूर्वक अपने स्वभाव में, अपने स्वरूप में स्थित हो।’

‘सर्वत्र ही ध्यान को त्याग कर हृदय में कुछ भी धारण मत कर। तू आत्मा, मुक्त ही है, तू विमर्श करके क्या करेगा?’

ये सुनते हैं सूत्र!

‘सर्वत्र ही ध्यान को त्याग कर हृदय में कुछ भी मत धारण कर!’

धन पर ध्यान है, उसको भी त्याग दे! प्रतिमा पर ध्यान है, उसको भी त्याग दे। वासना पर ध्यान है, उसको भी त्याग दे। स्वर्ग पर ध्यान है, उसको भी त्याग दे। कहीं ध्यान ही मत धर। हृदय को कोरा कर ले, सूना कर ले।

त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किचिद्धृदि धारय

आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि

और सोच—विचार करने को क्या है? विमर्श करने को क्या है? तू एक, तू आत्मा, तू मुक्त! छोड़ सोच—विचार, बस इतना ही कर ले कि ध्यान को सब जगह से खींच ले!

कृष्ण का सूत्र है गीता में. ‘सर्व धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज! सब धर्म छोड़ कर तू मेरी शरण में आ जा!’ यह मेरी शरण कृष्ण की शरण नहीं है। यह मेरी शरण तो तुम्हारे भीतर छिपे हुए परमात्मा की शरण है। वही कृष्ण हैं।

वही इस सूत्र का अर्थ है : त्यजैव ध्यानं सर्वत्र!

‘सर्वत्र ध्यान को त्याग कर दे और हृदय में कुछ भी मत धारण कर।’

यह सूत्र कृष्ण के सूत्र से भी थोड़ा आगे आता है, क्योंकि कृष्ण के सूत्र में एक खतरा है कि तुम सब छोड़ कर कृष्ण के चरणों में ध्यान लगा लो। वह खतरा है। वह तो हो गया कृष्ण— भक्तों को। उन्होंने सब तरफ से ध्यान हटा लिया, कृष्ण के चरण पकड़ लिए। मगर ध्यान कहीं है।

समाधि तब फलित होती है जब ध्यान कहीं भी नहीं रह जाता। ध्यान जब शून्य होता है, तब समाधि। जब तुम्हारे ध्यान में कुछ भी नहीं रह जाता, कोरा प्रकाश रह जाता है, कहीं पड़ता नहीं, किसी चीज पर पड़ता नहीं, कहीं जाता नहीं, बस तुम कोरे प्रकाश रह जाते हो!

ऐसा समझो कि साधारणत: आदमी का ध्यान टार्च की तरह है, किसी चीज पर पड़ता है, एक दिशा में पड़ता है और दिशाओं में नहीं पड़ता। फिर दीये की तरह भी ध्यान होता है, सब दिशाओं में पड़ता है, किसी चीज पर विशेष रूप से नहीं पड़ता। कोई चीज हो या न हो, इससे कोई संबंध नहीं है; अगर कमरा सूना हो तो सूने कमरे पर पड़ता है, भरा हो तो भरी चीजों पर पड़ता है। सब हटा लो तो दीये का प्रकाश शून्य में पड़ता रहेगा। जिस दिन तुम्हारा चैतन्य ऐसा हो जाता है कि शून्य में प्रकाश होता है, उसी घड़ी तू मुक्त है, तू आत्मा है! जिस दिन विचार करने को कुछ शेष नहीं रह जाता, उस दिन तुम तो शांत होओगे ही, दूसरे भी देख कर प्रफुल्लित हो जाएंगे, भरोसा न कर सकेंगे।

नहीं गत, आगत, अनागत

निर्वधि जिसकी उपलब्धि

वह तथागत।

गया गया, आने वाला भी छूटा। कोई पकड़ न रही। उसको हम कहते हैं तथागत की अवस्था। गया भी गया, आने वाला भी न रहा; जो है बस वही बचा, वही प्रकाशित हो रहा है।

चंदा की छांव पड़ी सागर के मन में

शायद मुख देखा है तुमने दर्पण में।

अधरों के ओर—छोर, टेसू का पहरा

आंखों में बदरी का रंग हुआ गहरा

केसरिया गीलापन, वन में उपवन में

शायद मुख धोया है तुमने जल—कण में।

और तुम्हीं को नहीं अहसास होगा, जिस दिन यह घड़ी घटती है, तुम्हारे आसपास के लोग भी देखेंगे! तुम एक अपूर्व स्वच्छता से, एक कुंवारेपन से भर गये! तुमसे एक सौरभ उठ रहा नया—नया!

धो लिया है चेहरा तुमने प्रभु के चरणों में!

यह अमर निशानी किसकी है!

बाहर से जी, जी से बाहर तक

आनी जानी किसकी है!

दिल से आंखों से गालों तक

यह तरल कहानी किसकी है!

यह अमर निशानी किसकी है!

रोते—रोते भी आंखें मुंद जाएं

सूरत दिख जाती है

मेरे आंसू में मुसक मिलाने

की नादानी किसकी है!

यह अमर निशानी किसकी है!

सूखी अस्थि, रक्त भी सूखा

सूखे दृग के झरने

तो भी जीवन हरा

कहो मधुभरी जवानी किसकी है!

यह अमर निशानी किसकी है!

रैन अंधेरी, बीहड़ पथ है

यादें थकीं अकेली

आंखें मुंदी जाती हैं

चरणों की बानी किसकी है!

यह अमर निशानी किसकी है!

जैसे ही तुम शांत हुए, तुम पाओगे वही आता है श्वास में भीतर, वही जाता श्वास में बाहर! वही आता, वही जाता। वही है, वही था, वही होगा! एक ही है!

हरि ओंम तत्सत्!


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पंतजलि: योगसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–17

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ध्‍यान की बाधाएं—प्रवचन—सत्रहवां

दिनांक 7 जनवरी 1975;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र:

व्याधिख्यानसंशयप्रमादालस्थाविरति भ्रातिदर्शन

अलब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तराया:।। 30।।

रोग, निर्जीवता, संशय (संदेह), प्रमाद, आलस्य, विषयासक्ति, भांति, दुर्बलता और अस्थिरता वे हैं जो मन में विक्षेप लाती हैं

दु:खदौर्मनस्थांगमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुव:।। 31।।

दुख, निराशा, कंपकंपी और अनियमित श्वसन विक्षेपयुक्त मन के लक्षण हैं।

तअतिषेधार्थमेकतत्वाथ्यास:।। ३२।।

इन बाधाओ को दूर करने के लिए एक तत्व पर ध्यान करना।

पतंजलि विश्वास करते है-और केवल विश्वास ही नहीं करते, वे जानते भी है-कि ध्वनि अस्तित्व का आधारभूत तत्व है। जिस प्रकार भौतिकीविद कहते हैं कि विद्युत है आधारभूत तत्व, योगी कहते हैं कि ध्वनि है, नाद है आधारभूत तत्व। सूक्ष्म तौर पर वे परस्पर सहमत होते हैं।

भौतिकीविद कहते हैं, ध्वनि और कुछ नहीं है सिवाय विद्युत के रूपांतरण के। और योगी कहते हैं कि विद्युत कुछ नहीं है सिवाय ध्वनि के रूपांतरण के। दोनों सही हैं। ध्वनि और विद्युत एक ही घटना के दो रूप हैं। और मेरे देखे, वह घटना अभी तक जानी नहीं गयी है और कभी जानी जायेगी नहीं। जो कुछ भी हम जानते हैं, इसका रूपांतरण मात्र ही होगा। चाहे तुम इसे विद्युत कह लो, चाहे तुम इसे ध्वनि कह लो। हेराक्लतु की भांति तुम कह सकते हो इसे अग्रि; तुम इसे लाओत्सु की भांति कह सकते हो पानी। वह तुम पर निर्भर करता है। लेकिन ये सब रूपांतरण ही हैं-अरूप के रूप हैं। वह अरूप, वह निराकार सदा अज्ञात ही बना रहेगा।

कैसे तुम जान सकते हो निराकार को? ज्ञान सम्भव होता है केवल जब एक रूप या आकार होता है। जब कोई चीज प्रकट हो जाती है, तब तुम जान सकते हो उसे। तुम अप्रकट को, अदृश्य को ज्ञान का विषय कैसे बना सकते हो? अदृश्यता का पूरा स्वभाव ही यही है कि इसे विषयगत नहीं बनाया जा सकता। जहां यह होता है, जो यह होता है, तुम इसका ठीक-ठीक पता नहीं लगा सकते। केवल कोई प्रकट हुई चीज एक विषय बन सकती

अत: जब कभी कोई चीज ज्ञात हो, तो वह मात्र एक रूपांतरण होगी अज्ञात का। अज्ञात बना रहता है अज्ञात ही। यह अज्ञेय होता है। तो जिस नाम से तुम इसे बुलाते हो, तुम पर निर्भर करता है। और यह निर्भर करता है उस उपयोगिता पर जिसमें कि तुम इसे रखने जा रहे हो। योगी के लिए विद्युत असंगत है, वह अंतस की, स्व-सत्ता की प्रयोगशाला में कार्य कर रहा है। वहां नाद का ज्यादा महत्व है, क्योंकि ध्वनि द्वारा वह भीतर बहुत घटनाएं बदल सकता है और ध्वनि द्वारा वह आंतरिक विद्युत भी बदल सकता है। योगी इसे कहते हैं ‘प्राण’ -आंतरिक जीव-ऊर्जा या प्राण-विद्युत। ध्वनि द्वारा वह तुरंत परिवर्तित की जा सकती है।

इसीलिए जब शास्त्रीय संगीत को सुन रहे होते हो, तुम अनुभव करते हो एक निश्रित मौन तुम्हें घेरे हुए है; तुम्हारी आंतरिक देह-ऊर्जा बदल चुकी है। एक पागल को सुनो और तुम अनुभव करोगे कि तुम पागल हुए जा रहे हो। क्योंकि पागल व्यक्ति देह-ऊर्जा की अव्यवस्था में है और उसके शब्द तथा ध्वनियां उस विद्युत को तुम तक ले आते है। किसी बुद्ध पुरुष के पास बैठो और अचानक तुम अनुभव करते कि तुम्हारे भीतर की हर चीज एक लय में डूब रही है। अचानक तुम अनुभव करते हो ऊर्जा की एक अलग ही गुणवत्ता तुममें जाग रही है। इसीलिए पतंजलि कहते हैं कि ओम् का दोहराया जाना और इस पर ध्यान किया जाना सारी बाधाओं को समाप्त कर देता है। बाधाएं होती कौन-सी हैं? अब वे प्रत्येक बाधा की व्याख्या करते हैं, और बताते हैं कि कैसे वह समाप्त की जा सकती है ओम् के नाद को दोहराने द्वारा और उस पर ध्यान करने द्वारा। हमें उस पर विचार करना होगा।

‘रोग निर्जीवता संदेह प्रमाद आलस्य विषयासक्ति भ्रांति दुर्बलता और अस्थिरता हैं वे बाधाएं जो मन में विक्षेप लाती हैं’

प्रत्येक पर विचार करो-पहले है, रोग। पतंजलि के लिए, रोग का अर्थ है आंतरिक जीव-ऊर्जा का गैर-लयात्मक ढंग। तुम बेचैनी अनुभव करते हो। यदि बेचैनी, यह रोग, लगातार जारी रहे तो कभी न कभी यह सब तुम्हारे शरीर को प्रभावित करेगा।

पतंजलि अकुपंक्चर के साथ पूर्णतया सहमत होंगे और सोवियत रूस में किरलियान नामक व्यक्ति पतंजलि से सहमत होगा पूरी तरह से। अकुपंक्चर का संबोधि के साथ कोई संबंध नहीं है, अकुपंक्चर का तो सिर्फ संबंध है इसके साथ कि किस प्रकार शरीर रोगग्रस्त हो जाता है, कैसे अस्वस्थता घटित होती है। और अकुपंक्चर ने शरीर में सात सौ बिन्दु ऐसे खोज लिये हैं जहां आंतरिक प्राण-ऊर्जा स्पर्श करती है भौतिक शरीर को। ये सात सौ स्पर्श-बिंदु शरीर में सर्वत्र हैं।

जब कभी विद्युत वर्तुल में प्रवाहित नहीं हो रही होती, इन सात सौ बिंदुओं में कुछ अंतराल होते हैं, कुछ बिंदु-स्थल कार्य ही नहीं कर रहे होते, कुछ स्थलों द्वारा विद्युत अब गतिमान नहीं हो रही होती, अवरुद्धता आ जाती है वहां। विद्युत अलग हो जाती है, वर्तुल नहीं रहा यह-तब रोग घटता है। अत: अकुपंक्चर पांच हजार वर्षों से विश्वास करता आया है कि बिना किसी इलाज के, यदि तुम प्राण-ऊर्जा के प्रवाह को एक वर्तुल बनने दो, तो रोग तिरोहित हो जाता है। अकुपंक्चर लगभग उसी समय के दौरान पैदा हुआ जब पतंजलि जीवित थे।

जैसा कि मैंने कहा था तुमसे, ढाई हजार वर्षों के बाद मानव-चेतना का शिखर आ पहुंचता है। चीन में ऐसा हुआ लाओत्सु और च्चांगत्सु के साथ, कन्‍फ्यूसियस के समय में; भारत में बुद्ध, महावीर तथा औरों के साथ घटा; ग्रीस में हेराक्लतु के साथ, ईरान में जरथुस्त्र के साथ, शिखर-घटना घटित हुई। जो धर्म तुम अब देखते हो संसार में, वे उअन्न हुए मानव-चेतना के उसी महत्वपूर्ण घड़ी में?। उस शिखर से, हिमालय से, सारे धर्मों की सारी नदियां बहती आ रही हैं इन्ही ढाई हजार वर्षों से।

इसी प्रकार बुद्ध से ढाई हजार वर्ष पूर्व शिखर-घटना घटी थी। पतंजलि, ऋषभ-जैनवाद के प्रवर्तक, वेद, उपनिषद, चीन में अकुपंक्चर, भारत में योग और तंत्र, ये सब घटित हुए। एक शिखर, एक ऊंचाई थी। फिर कभी उस शिखर से ऊंचा शिखर नहीं छुआ गया। और उसी सुदूर अतीत द्वारा, पांच हजार वर्ष पहले, योग, तंत्र अकुपंक्चर बहते रहे हैं नदियों की भांति।

एक निश्रित घटना है जिसे जै ने कहा है ‘सिंक्रानिसिटी ‘, समकालिकता। जब कोई निश्रित सिद्धांत जन्म लेता है, केवल एक व्यक्ति ही उसके प्रति सजग नहीं होता, बल्कि पृथ्वी पर बहुत से हो जाते हैं सचेत-जैसे कि सारी पृथ्वी तैयार होती है इसे ग्रहण करने को। सुना जाता है कि आइंस्टीन ने कहा था, यदि मैंने सापेक्षता का सिद्धांत न खोजा होता, तो एक वर्ष के भीतर ही किसी और ने इसे खोज लिया होता। क्यों? क्योंकि सारी पृथ्वी पर बहुत लोग इसी दिशा में कार्य कर रहे थे।

जब डार्विन ने क्रम विकास का सिद्धांत खोजा, कि आदमी बंदरों द्वारा विकसित हुआ है, कि निरंतर संघर्ष होता है योग्यतम के जीवित रहने के लिए, एक दूसरा व्यक्ति-वैलेस रसेल-उसने इसे खोज लिया था। वह फिलिपाइन्स में था, और दोनों मित्र थे। लेकिन बहुत वर्षों से एक-दूसरे की खास खबर न थी। डार्विन लगातार बीस वर्षों तक काम करता रहा था, लेकिन वह एक सुस्त किस्म का आदमी था। उसके पास बहुत सारे अंश थे और हर चीज तैयार थी, लेकिन वह इनके द्वारा पुस्तक तैयार नहीं करता था और उन दिनों की साइंटिफिक सोसाइटी के सामने वह इसे प्रस्तुत नहीं करता था।

मित्र फिर-फिर अनुरोध करते, करो यह काम वरना और कोई कर लेगा इसे। और तब एक दिन, फिलिपाइन्स से एक पत्र आया और सारा सिद्धांत उस पत्र में रसेल द्वारा प्रस्तुत कर दिया गया था। और वह मित्र था, लेकिन वे दोनों अलग-अलग अपना कार्य कर रहे थे। वे बिलकुल नहीं जानते थे कि दोनों एक ही चीज पर कार्य कर रहे थे। और फिर वह भयभीत हो गया। अब क्या करूं? मित्र आविष्कारक बन जायेगा, और बीस वर्षों से वह जान चुका था सिद्धांत। वह तो तेजी से जुट गया। किसी प्रकार उसने विवरण लिखने की व्यवस्था की, और उसने इसे वैज्ञानिक संघ के सामने प्रस्तुत कर दिया।

तीन महीने पश्रात हर कोई जान गया कि रसेल ने भी इसे खोज लिया था। रसेल वस्तुत: बहुत अद्भुत व्यक्ति था। उसने घोषणा कर दी कि आविष्कार का श्रेय डार्विन को मिलना चाहिए क्योंकि बीस वर्षों से वह कार्य कर चुका था इस पर, चाहे उसने इसे प्रस्तुत किया या नहीं। आविष्कारक तो वही था।

और ऐसा बहुत बार घटा है। अकस्मात कोई विचार बहुत प्रभावशाली हो जाता है, जैसे कि वह विचार कहीं कोई गर्भधारण करने की कोशिश कर रहा हो। और जैसा कि प्रकृति का स्वभाव है, वह कभी जोखम नहीं उठाती। हो सकता है कि एक आदमी चूक जाये, तब बहुत आदमियों को करनी होती है कोशिश। प्रकृति कभी खतरा नहीं लेती। एक वृक्ष लाखों बीज गिरायेगा। एक बीज चूक सकता है; शायद वह सही भूमि पर न गिरे, शायद वह नष्ट हो जाये। लेकिन लाखों बीज हों तो कोई संभावना नहीं होती कि सारे के सारे बीज नष्ट ही हो जायेंगे।

जब स्री-पुरुष संभोग करते हैं, तो एक वीर्य-स्खलन में पुरुष द्वारा लाखों बीज फेंके जाते हैं। उनमें से एक पहुंचेगा सी के डिम्बाणु तक, पर फिर भी थे तो लाखों। एक स्खलन में एक आदमी त्याभग उतने ही बीज छोड़ देता है जितने कि अभी पृथ्वी पर आदमी है। एक आदमी एक स्‍खलन में संपूर्ण पृथ्वी को जन्म दे सकता है, पृथ्वी की सारी जनसंख्या को जन्म दे सकता है। प्रकृति कोई जोखम नहीं उठाती है। यह बहुत तरीके आजमाती है। एक चूक सकता है, दो चूक सकते हैं, लाख चूक सकते हैं, लेकिन लाखों में कम से कम एक तो पहुंचेगा और जीवंत होगा।

जै ने एक सिद्धांत खोजा जिसे उसने कहा, ‘सिंक्रानिसिटी’ -समकालिकता। यह विरल चीज है। हम एक सिद्धांत जानते हैं कारण और कार्य का-कारण उअन्न करता है कार्य को। समकालिकता कहती है जब कभी कोई चीज घटती है, तो इसके समानांतर बहुत-सी उसी प्रकार की चीजें घटती हैं। हम जानते नहीं क्यों ऐसा घटता है, क्योंकि यह कोई कारण और कार्य की घटना तो है नहीं। वे परस्पर संबंधित नहीं है कारण और कार्य द्वारा।

कैसे तुम बुद्ध और हेराक्लतु का संबंध बैठा सकते हो? लेकिन सिद्धांत वही है। बुद्ध ने हेराक्लतु के विषय में कभी सुना नहीं; हम कल्पना तक नहीं कर सकते कि हेराक्लतु कभी बुद्ध को जानते भी थे। वे अलग-अलग संसारों में जीते थे। कोई संपर्क-संबंध न था। लेकिन दोनों ने संसार को एक ही सिद्धांत दिया। जो था गति का सिद्धांत, नदी-समान अस्तित्व का, क्षणभंगुर अस्तित्व का। वे एक-दूसरे को प्रेरित नहीं कर रहे थे। वे समानांतर थे। एक समकालिकता अस्तित्व रखती है; जैसे कि उस क्षण सारा अस्तित्व ही किसी निश्रित सिद्धांत को तैयार कर देना चाहता हो और उसे प्रकट कर देना चाहता हो, व्यक्त करना चाहता हो। अत: यह व्यक्त हो जाता है। और ऐसा केवल बुद्ध पर या केवल हेराक्लतु पर ही निर्भर नहीं करेगा, सिद्धांत बहुतों पर आजमाइश करेगा। और दूसरे भी थे, जो गुमनामी में चले गये। वे इतने प्रतिष्ठित नहीं थे। बुद्ध और हेराक्लतु सबसे अधिक प्रमुख बन गये। वे सबसे अधिक शक्तिशाली गुरु थे।

पतंजलि के समय में एक सिद्धांत का जन्म हुआ। तुम इसे ‘प्राण’ का सिद्धांत कह सकते हो-प्राण-ऊर्जा। चीन में इसने अकुपंक्चर का रूप ले लिया, भारत में इसने रूप ले लिया योग की संपूर्ण पद्धति का। यह किस प्रकार घटता है कि देह-ऊर्जा ठीक प्रकार से नहीं गतिमान हो रही होती तो तुम अशुविधा अनुभव करते हो? ऐसा है क्योंकि तुममें एक अभाव विद्यमान होता है, एक अनुपस्थिति। और तुम अनुभव करते हो कोई चीज चूक रही है। यह आरंभ में डिस-ईज-गैर-शुइवधा अर्थात अस्वस्थता होती है। पहले यह अनुभव किया जायेगा मन में। जैसा मैंने तुमसे कहा था, पहले यह अनुभव किया जायेगा अचेतन में।

हो सकता है तुम्हें इसकी खबर न हो, लेकिन यह पहले तुम्हारे सपनों में चली आयेगी। तुम्हारे सपनों में तुम देखोगे बीमारी, रोग, किसी का मरना, कुछ गलत बात। दुःस्वप्र घटेगा तुम्हारे अचेतन में क्योंकि अचेतन देह के निकटतम है और प्रकृति के निकटतम है। अचेतन से यह आ पहुंचेगा उपचेतन तक; तब तुम चिड़चिड़ाहट अनुभव करोगे। तुम अनुभव करोगे कि भाग्य कुछ साथ नहीं दे रहा, कि जो कुछ तुम करते हो गलत हो जाता है। तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करना चाहोगे और तुम करते हो कोशिश प्रेम करने की लेकिन तुम प्रेम नहीं कर सकते। तुम किसी की मदद करना चाहते हो, तो भी तुम केवल बाधा ही डालते हो। हर चीज गलत पड़ जाती

तुम सोचते हो यह कोई दुअभाव है, दूर ऊंचे आकाश के किसी नक्षत्र का प्रभाव, लेकिन नहीं, यह उपचेतन में ही कुछ बेचैनी है वहां। तुम चिड़चिड़े हो जाते हो, क्रोधित हो जाते हो, और कारण होता है कहीं अचेतन में। तुम कहीं और ढूंढ रहे होते हो कारण। फिर कारण चेतन तक आ पहुंचता है। तब तुम अनुभव करने लगते हो कि तुम बीमार हो, और फिर यह शरीर तक सरक आता है यह सदा सरकता रहा है शरीर तक, और अचानक तुम बीमार महसूस करते हो।

सोवियत रूस में एक फोटोग्राफर है, एक अनूठा वैज्ञानिक है, किरलियान उसने आविष्कार किया है कि इससे पहले कि व्यक्ति बीमार हो, छह महीने पहले से ही बीमारी का चित्र लिया जा सकता है। और यह बीसवीं शताब्दी के संसार के महानतम आविष्कारों में से एक आविष्कार होने वाला है। यह मनुष्य की संपूर्ण धारणा का रूप परिवर्तित कर देगा-रोग का, दवाइयों का, हर चीज का रूप परिवर्तित करेगा। यह एक क्रांतिकारी अवधारणा है। और वह तीस वर्षों से इस पर काम करता रहा है। उसने लगभग सिद्ध ही कर दिया है वैज्ञानिक रूप से कि जब रोग शरीर तक आ पहुंचता है, तो पहले यह आता है शरीर के चारों ओर के विद्युत-घेरे तक। एक खाली जगह बन जाती है।

शायद ऐसा हो कि तुम्हारे पेट में छह महीने बाद टयूमर होने वाला हो। बिलकुल अभी कोई आधार विद्यमान नहीं। कोई वैज्ञानिक तुम्हारे पेट में कोई गडबड़ी नहीं पा सकता। हर चीज ठीक होती है; कोई समस्या नहीं है। तुम पूरी तरह से जांच करवा सकते हो और ऐसा पाया जा सकता है कि तुम पूरी तरह से ठीक हो। लेकिन किरलियान शरीर का चित्र खींचता है बहुत सूक्ष्म प्लेट पर; उसने विकसित की है सवाधिक संवेदनशील सूक्ष्म प्लेटें। उस प्लेट पर केवल तुम्हारे शरीर का ही चित्र नहीं खिंचता, बल्कि शरीर के चारों ओर का प्रकाश-वर्तुल जिसे कि तुम हमेशा. साथ लिये रहते हो, इसका भी चित्र खिंच जाता है। उस प्रकाश वर्तुल में पेट के निकट, एक सूराख होगा। यह ठीक-ठीक तौर पर भौतिक शरीर में नहीं होता, लेकिन कोई चीज अस्त-व्यस्त हो जाती है। अब वह कहता है कि वह भविष्यवाणी कर सकता है कि छह महीने के भीतर वहां टयूम्‍बर हो जायेगा। और छह महीने पक्षात, जब टयूम्‍बर हो जाता है शरीर में, एक्सटरे बता देगा वही चित्र जो वह खींच चुका था छह महीने पहले। अत: किरलियान कहता है कि अभी तुम बीमार हुए भी नहीं होते, कि बीमारी की भविष्यवाणी की जा सकती है। और यदि दैहिक-ऊर्जा वृत्त ज्यादा संचारशील हो जाता है, तो यह दूर की जा सकती है इससे पहले कि यह कभी शरीर तक आये। वह नहीं जानता कि यह कैसे ठीक हो सकती है, लेकिन अकुपंक्चर जानता है, पतंजलि जानते हैं कि कैसे यह ठीक की जा सकती है।

पतंजलि के विचार से दैहिक-ऊर्जा वृत्त में, प्राण में, प्राण-ऊर्जा में, शरीर-विद्युत में किसी गड़बडी का होना ही रोग का होना है। इसलिए यह ठीक हो सकता है ओम् द्वारा। कभी अकेले बैठ जाओ किसी मंदिर में। किसी पुराने मंदिर में जाकर अनुभव करो जहां कोई नहीं जाता और बैठ जाओ वहां गुंम्बज के नीचे। वृत्ताकार गुंम्बज ध्वनि को परावर्तित करने के लिए ही होता है। तो बैठ जाना उसी के नीचे, जोर से उच्चारण करना ओम् का और ध्यान करना उस पर। ध्वनि को वापस परावर्तित होने देना और उसे बरसने देना स्वयं पर बरखा की भांति। और कुछ क्षणों बाद अकस्मात तुम पाओगे कि तुम्हारा सारा शरीर शांत, स्थिर, मौन हो रहा है; देह-ऊर्जा स्थिर हो रही

पहली बात है रोग। यदि तुम बीमार हो, तुम्हारे प्राणों में, तुम्हारी ऊर्जा में तो तुम ज्यादा दूर नहीं जा सकते। तुम्हारे चारों ओर बादल के समान लटकी हुई बीमारी के साथ, तुम ज्यादा दूर कैसे जा सकते हो? तुम ज्यादा गहरे आयामों में प्रवेश नहीं कर सकते। एक निश्रित स्वास्थ्य की जरूरत होती है। यह भारतीय शब्द ‘स्वास्थ्य’ बहुत अर्थपूर्ण है। इस शब्द का अर्थ है स्व में स्थित हो जाना, केन्द्रित हो जाना। अंग्रेजी शब्द ‘हेल्थ’ भी सुंदर है। यह आया है उसी शब्द से, उसी मूल से, जहां से ‘होली’ या ‘होल’ आते हैं। जब तुम ‘होल’ अर्थात संपूर्ण होते हो तो तुम ‘हेल्दी’ होते हो और जब तुम ‘होल’ होते हो तो ‘होली’ अर्थात पवित्र भी होते हो।

शब्द के मूल तक चले जाना सदा अच्छा होता है क्योंकि वे उभरते है मानवता के लंबे अनुभव से। शब्द संयोगिक रूप से नहीं आये हैं। जब कोई व्यक्ति संपूर्ण अनुभव करता है, तब उसकी दैहिक ऊर्जा वर्तुल में गतिमान हो रही होती है। वर्तुल संसार की सबसे ज्यादा पूर्ण चीज है। पूर्ण वर्तुल परमात्मा का एक प्रतीक है। ऊर्जा व्यर्थ नहीं हो रही यह चक्र में घूमती है बार-बार। यह चक्र की भांति स्वयं बनी रहती है।

जब तुम ‘होल’ होते हो तो तुम स्वस्थ होते हो, और जब तुम स्वस्थ होते हो तो पवित्र भी होते हो। क्योंकि वह शब्द ‘होली ‘ भी आता है ‘होल’ से। एक संपूर्णतया स्वस्थ व्यक्ति पवित्र होता है। लेकिन तब समस्याएं खड़ी होंगी। यदि तुम चले जाओ मठों में, वहां तुम पाओगे सब प्रकार के बीमार व्यक्ति। स्वस्थ व्यक्ति तो पूछेगा कि उसे किसी मदिर-मठ में क्या करना है! बीमार लोग जाते हैं वहां, अस्वाभाविक लोग जाते है वहां। बुनियादी तौर से कुछ गलत होता है उनके साथ। इसीलिए वे दुनियां से पलायन करते और वहां चले जाते हैं।

पतंजलि इसे पहला नियम बना लेते हैं कि तुम्हें स्वस्थ होना चाहिए, क्योंकि अगर तुम स्वस्थ नहीं हो तो तुम ज्यादा दूर नहीं जा सकते। तुम्हारी बीमारी, तुम्हारी बेचैनी, तुम्हारा आंतरिक ऊर्जा का टूटा हुआ वर्तुल, तुम्हारे गले को घेरता-दबाता हुआ एक पत्थर होगा। जब तुम ध्यान करते हो, तुम अनुभव करोगे अशांति, बेचैनी। जब तुम प्रार्थना करना चाहोगे, तब तुम न कर पाओगे प्रार्थना। तुम आराम करना चाहोगे। ऊर्जा का निम्न-तल होगा वहां। और किसी ऊर्जा के न रहते कैसे तुम आगे जा सकते हो? कैसे तुम परमात्मा तक पहुंच सकते हो? और पतंजलि के लिए परमात्मा दूरतम तत्व है। ज्यादा ऊर्जा की आवश्यकता होती है। स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन, स्वस्थ स्व-सत्ता की आवश्यकता होती है। रोग ‘डिसीज’ है डिस-ईज-देह-ऊर्जा में असहजता। ओम् मदद देगा और दूसरी चीजें भी। हम उनकी चर्चा करेंगे। लेकिन यहां पतंजलि बात कर रहे है इस विषय में कि ओम् की ध्वनि किस प्रकार भीतर तुम्हें मदद देती है संपूर्ण हो जाने में।

पतंजलि के लिए और बहुतों के लिए जिन्होंने गहरे रूप से मानव-ऊर्जा में खोज की है, एक तथ्य तो बहुत सुनिश्रित हो चुका है, और तुम्हें इसके बारे में जान लेना चाहिए-वह यह कि, जितने ज्यादा तुम बीमार होते हो, उतने ज्यादा तुम विषयासक्त होते हो। जब तुम पूर्णतया स्वस्थ होते हो तो तुम विषयासक्त नहीं होते। साधारणतया हम एकदम विपरीत सोचते है-कि एक स्वस्थ व्यक्ति को विषयासक्त, कामुक और बहुत कुछ होना होता है। उसे संसार और शरीर में रस लेना होता है। ऐसी नहीं है अवस्था। जब तुम बीमार होते हो, तब ज्यादा विषयासक्ति, ज्यादा कामवासना तुम्हें जकड़ लेती है। जब तुम पूर्णतया स्वस्थ होते हो, तो कामवासना और विषयासक्ति तिरोहित हो जाती है।

क्यों घटता है ऐसा? क्योंकि जब तुम संपूर्णतया स्वस्थ होते हो तुम स्वयं के साथ ही इतने प्रसन्न होते हो कि तुम्हें दूसरे की आवश्यकता नहीं होती। जब तुम बीमार होते हो, तब तुम इतने अप्रसन्न होते हो तुम्हारे साथ कि तुम्हें दूसरा चाहिए होता है। और यही है विरोधाभास; जब तुम बीमार होते हो, तुम्हें दूसरे की आवश्यकता होती है, और दूसरे को भी तुम्हारी आवश्यकता होती है जब वह बीमार होता है या वह बीमार होती है। और दो बीमार व्यक्तियों के मिलने पर बीमारी दुगुनी ही नहीं होती, वह कई गुना बढ़ जाती है।

ऐसा ही विवाह में घटता है-दो बीमार व्यक्तियों का मिलन बीमारी को कई गुना बढ़ा देता है और फिर सारी बात ही कुरूप हो जाती है। और एक नरक बन जाता है। बीमार व्यक्तियों को दूसरों की जरूरत होती है। और वे ठीक वही व्यक्ति हैं जो मुसीबत खड़ी कर देंगे जब वे संबंधित हो जायें तो। एक स्वस्थ व्यक्ति को आवश्यकता नहीं है। यदि स्वस्थ व्यक्ति प्रेम करता है, तो यह कोई आवश्यकता नहीं होती है, यह तो हुआ, परस्पर बांटना। सारी घटना बदल जाती है। उसे किसी की जरूरत नहीं रहती। उसके पास इतना ज्यादा है कि वह बांट सकता

एक बीमार व्यक्ति को जरूरत होती है कामवासना की, स्वस्थ व्यक्ति तो प्रेम करता है। और प्रेम समग्र रूपेण अलग बात है। और जब दो स्वस्थ व्यक्ति मिलते हैं, तो स्वस्थता कई गुना बढ़ जाती है। तब वह परम सत्य को पाने में एक-दूसरे के सहायक बन जाते हैं। वह परम सत्य के लिए एक साथ मिलकर कार्य कर सकते हैं, परस्पर सहायता करते हुए। लेकिन मांग समाप्त हो जाती है, यह अब कोई निर्भरता न रही।

जब कभी तुम्हें कोई अशुविधाजनक अनुभूति हो स्वयं के साथ, तो इसे कामवासना में और विषयासक्ति में डुबोने की कोशिश मत करना। बल्कि और ज्यादा स्वस्थ होने की कोशिश करना। योगासन मदद करेंगे। हम बाद में उनकी चर्चा करेंगे जब पतंजलि उनकी बात कहें। अभी तो वे कहते हैं, यदि तुम ओम् का जाप .और उसी का ध्यान करो, तो रोग तिरोहित हो जायेगा। और वे सही हैं। न ही केवल रोग जो कि वहां था वही तिरोहित हो जायेगा, बल्कि वह रोग भी जो भविष्य में आने को था, वह भी तिरोहित हो जायेगा।

यदि आदमी एक संपूर्ण जाप बन सकता है जिससे कि जाप करने वाला पूर्णतया खो जाये, यदि वह केवल एक शुद्ध चेतना बन सकता है-प्रकाश की एक अग्निशिखा-और चारों ओर होता है जाप ही जाप, तो ऊर्जा एक वर्तुल में उतर रही होती है। तो वह एक वर्तुल ही बन जाती है। और तब तुम्हारे पास होता है जीवन का सबसे अधिक सुखात्मक क्षणों में से एक क्षण। जब ऊर्जा एक वर्तुल में उतर रही होती है और एक आंतरिक समस्वरता बन जाती है तो कोई विसंगति नहीं रहती, कोई संघर्ष नहीं होता। तुम एक हो गये होते हो। लेकिन साधारणतया भी, रोग एक बाधा बनेगा। यदि तुम बीमार हो, तो तुम्हें इलाज की आवश्यकता होती है।

पतंजलि की योग-प्रणाली और चिकित्सा-शाख की हिन्दू-प्रणाली, आयुर्वेद, साथ-साथ इकट्ठी विकसित हुईं। आयुर्वेद समग्रतया विभिन्न है एलौपैथी से। एलोपैथी रोग के प्रति दमनाअत्‍मक होती है। एलोपैथी ईसाइयत के साथ ही साथ विकसित हुई; यह एक उप-उअत्ति है। और क्योंकि ईसाइयत दमनात्मक है, यदि तुम बीमार हो तो एलोपैथी तुरंत बीमारी का दमन करती है। तब बीमारी कोई और कमजोर स्थल आजमाती है जहां से उभर सके। फिर किसी दूसरी जगह से यह फूट पड़ती है। तब तुम इसे वहां दबाते हो, तो फिर यह किसी और जगह से फूट पड़ती है। एलोपैथी के साथ, तुम एक बीमारी से दूसरी बीमारी तक पहुंचते जाते हो, दूसरी से तीसरी तक, और एक कभी न खअ होने वाली प्रक्रिया होती है।

आयुर्वेद की अवधारणा पूर्णत: अलग ही होती है। अस्वस्थता को दबाना नहीं चाहिए, यह मुक्त की जानी चाहिए। रेचन की जरूरत होती है। बीमार आदमी को आयुवेदिक दवा दी जाती है इसलिए कि बीमारी बाहर आ जाये और फेंकी जाये। यह एक रेचन होता है। इसलिए हो सकता है कि प्रारंभिक आयुर्वेद की खुराक की मात्रा तुम्हें और ज्यादा बीमार कर दे, और इसमें बहुत लंबा समय लग जाता है क्योंकि यह कोई दमन नहीं है। यह बिलकुल अभी कार्य नहीं कर सकती-यह एक लंबी प्रक्रिया होती है। बीमारी को फेंक देना होता है, और तुम्हारी आंतरिक ऊर्जा को एक समस्वरता बन जाना होता है ताकि स्वस्थता भीतर से उमग सके। दवाई बीमारी को बाहर फेंकेगी और स्वास्थदायिनी शक्ति उसका स्थान भरेगी तुम्हारे अपने अस्तित्व से आयी स्वस्थता द्वारा।

आयुर्वेद और योग एक साथ विकसित हुए। यदि तुम योगासन करते हो, यदि तुम पतंजलि का अनुसरण करते हो तो कभी मत जाना एलोपैथिक डॉक्टर के पास। यदि तुम पतंजलि का अनुसरण नहीं कर रहे, तब कोई समस्या नहीं है। लेकिन यदि तुम अनुसरण कर रहे हो योग-प्रणाली का और तुम्हारी देह-ऊर्जा की बहुत सारी चीजों पर कार्य कर रहे हो, तो कभी मत जाना एलोपैथी की ओर क्योंकि दोनों विपरीत हैं। तब ढूंढना किसी आयुवेदिक डॉक्टर को या होम्योपैथी या प्राकृतिक चिकित्सा को खोज लेना-कोई ऐसी चीज जो विरेचन में मदद करे।

लेकिन यदि बीमारी है तो पहले उससे जूझ लेना। बीमारी के साथ रहना मत। मेरी विधियों के साथ यह बहुत सरल होता है बीमारी से छुटकारा पा लेना। पतंजलि की ओम् की विधि, जाप करने की और ध्यान करने की, वह बहुत मृदु है, सौम्य है। लेकिन उन दिनों वह पर्याप्त सशक्त थी क्योंकि लोग सीधे-सच्चे थे। वे प्रकृति के साथ जीते। अस्वस्थता असामान्य बात थी, स्वास्थ्य सामान्य बात थी। अब बिलकुल विपरीत है अवस्था-स्वस्थता है असामान्य और अस्वस्थता है सामान्य। और लोग हैं बहुत जटिल, वे प्रकृति के करीब नहीं रहते।

लंदन में एक सर्वेक्षण हुआ। एक लाख लड़के-लड़कियों ने गाय नहीं देखी थी। उन्होंने केवल तस्वीरें ही देखी हुई थीं गाय की। धीरे- धीरे, हम मनुष्य निर्मित संसार के चौखटे में बंध जाते हैं-कंकरीट की इमारतें, तारकोल की सड़के, टेक्यालॉजी, बड़ी मशीनें, कारें, सब मनुष्य निर्मित चीजें हैं। प्रकृति कहीं अंधकार में फेंक दी गयी है। और प्रकृति है एक उपचार-शक्ति। तो आदमी अधिकाधिक जटिल होता जाता है। वह अपने स्वभाव की नहीं सुनता है। वह सुनता है सभ्यता की मांगों की, समाज के दावों की। वह सर्वथा संपर्करहित हो जाता है अपने स्वयं के आंतरिक अस्तित्व के साथ।

तो पतंजलि की मृदुल विधियां कुछ ज्यादा मदद न देंगी; इसीलिए हैं मेरी सक्रिय, अराजक विधियां। क्योंकि तुम तो लगभग पागल हो, तुम्हें चाहिए तीव्र पागल विधियां जो उस सबको बाहर ला सकें और बाहर फेंक सकें जो कि तुम्हारे भीतर दबा हुआ है। लेकिन स्वास्थ्य एक जरूरी बात है। वह जो चल पड़ता है लंबी यात्रा पर उसे देख लेना चाहिए कि वह स्वस्थ हो। बीमार के लिए, शय्यापस्त के लिए आगे बढ़ना कठिन होता है।

दूसरी बाधा है निर्जीवता। निर्जीवता संकेत करती है उस आदमी की ओर जिसका कि बहुत निम्न ऊर्जा तल होता है। वह ढूंढना और खोजना चाहता है लेकिन उसकी बहुत निम्न ऊर्जा है-शिथिल। वह विलीन हो जाना चाहता है, लेकिन यह बात संभव नहीं होती। ऐसा व्यक्ति सदा बात करता है ईश्वर की, मोक्ष की, योग की, इसकी और उसकी, लेकिन वह केवल बातें ही करता है। निम्न ऊर्जा तल द्वारा तो तुम केवल बातें कर सकते हो; उतना भर ही तुम कर सकते हो। यदि तुम कुछ करना चाहते हो, तो तुम्हें चाहिए होती है इसके लिए अपार ऊर्जा।

ऐसा एक बार हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन गया किसी शहर में अपने घोड़े और बग्घी को साथ लेकर। वह एक ग्रीष्म-दिवस था और मुल्ला पसीने से तर था। अकस्मात सड़क पर घोड़ा रुक गया, पीछे मुल्ला को देखा और बोला, ‘अरे राम-राम, बहुत गर्मी है।’ मुल्ला इस पर विश्वास नहीं कर सका। उसने सोचा कि वह पागल हो गया है इस गर्मी के कारण, क्योंकि घोड़ा कैसे कुछ कह सकता है? घोडा कैसे बोल सकता है?

उसने चारों ओर देखा यह जानने को कि किसी और ने सुना था क्या? लेकिन कोई न था वहां सिवाय उसके कुत्ते के जो बग्घी में बैठा हुआ था। किसी को न पाकर, बस सिर्फ इस बात से छुटकारा पाने को, वह कुत्ते से बोला, ‘क्या तुमने सुना जो वह बोला?’ कुत्ता कहने लगा, ‘ ओह, वह तो आम आदमी की भांति ही है-हमेशा बातें करते रहता है मौसम की और करता कुछ नहीं।’

यह है निर्जीव व्यक्ति-बात कर रहा है हमेशा ईश्वर की और कर कुछ नहीं रहा। वह सदा बात करता है महान विषयों की। और यह बातचीत होती है जख्म को छुपाने भर के लिए ही। वह बात करता है जिससे कि वह भूल सके यह बात कि इस बारे में वह कुछ नहीं कर रहा है। बातों की धुंध में से वह पलायन कर जाता है। फिर-फिर उसके बारे में बात करते हुए, वह सोचता है कि वह कुछ कर रहा है। लेकिन बातचीत कोई कार्य नहीं है। तुम किये चले जा सकते हो मौसम की बातें। तुम ईश्वर के बारे में बातें किये जा सकते हो। लेकिन यदि तुम कुछ करते नहीं, तो तुम मात्र अपनी ऊर्जा व्यर्थ गंवा रहे हो।

इस प्रकार का व्यक्ति धर्मगुरु बन सकता है, पादरी-पुरोहित, पंडित बन सकता है। वे मंद ऊर्जा के व्यक्ति हैं। और वे बहुत निपुण बन सकते हैं बातों में-इतने निपुण कि वे धोखा दे सकते हैं, क्योंकि वे हमेशा सुंदर और महान चीजों के विषय में बोलते हैं। दूसरे उन्हें सुनते हैं और धोखे में आते हैं। उदाहरण के लिए दार्शनिक है-ये तमाम लोग हैं निर्जीव, शिथिल। पतंजलि कोई दार्शनिक नहीं हैं। वे स्वयं एक विज्ञानिक हैं, और वे चाहते हैं दूसरे भी वैज्ञानिक हो जायें। ज्यादा प्रयास की आवश्यकता है।

ओम् के जप द्वारा और उस पर ध्यान करने द्वारा, तुम्हारा निम्न ऊर्जा तल उच्च हो जायेगा। कैसे घटता है ऐसा? क्यों तुम सदा मंद ऊर्जा-तल पर होते हो, हमेशा निढाल अनुभव करते हो, थके हुए होते हो? सुबह को भी जब तुम उठते हो, तुम थके होते हो। क्या हो रहा होता है तुम्हें? कहीं शरीर में सुराख बना है; तुम ऊर्जा टपकाते रहते हो। तुम्हें होश नहीं, पर तुम हो सुराखोंवाली बाल्टी की भांति। रोज-रोज तुम बाल्टी भरते, तो भी वह खाली ही रहती, खाली ही होती जाती है। यह टपकाव, यह रिसाव बंद करना ही पड़ता है।

ऊर्जा शरीर से कैसे बाहर रिसती है, ये गहरी समस्याएं हैं जीव-ऊर्जा शास्त्रियों के लिए। ऊर्जा हमेशा रिसती है हाथों की उंगलियों से और पैरों से, और आंखों से। ऊर्जा सिर से बाहर नहीं निकल सकती है। यह तो वर्तुलाकार होता है। कोई चीज जो गोलाकार, वर्तुलाकार है, शरीर की ऊर्जा को सुरक्षित रखने में मदद देती है। इसीलिए योग की ये मुद्राएं तथा आसन, सिद्धासन, पद्यासन-ये सब शरीर को एक वर्तुल बना देते हैं।

वह व्यक्ति जो सिद्धासन में बैठा होता है, अपने दोनों हाथ इकट्ठे जोड़ कर रखता है क्योंकि देह-ऊर्जा उंगलियों से बाहर निकलती है। यदि दोनों हाथ एक-दूसरे के ऊपर साथ-साथ रखे जायें, तो ऊर्जा एक हाथ से दूसरे हाथ तक घूमती है। यह एक वर्तुल बन जाती है। पैर की टांगें भी एक-दूसरे पर रखी जाती हैं जिससे कि ऊर्जा तुम्हारे अपने शरीर में बहती रहती है और रिसती नहीं है।

आंखें बंद रहती हैं क्योंकि आंखें बाहर छोड़ती हैं तुम्हारी प्राण-ऊर्जा के लगभग अस्सी प्रतिशत को। इसीलिए यदि तुम लगातार यात्रा कर रहे होते हो और तुम कार या रेलगाडी से बाहर देखते रहते हो, तो तुम बहुत थका हुआ अनुभव करोगे। यदि तुम आंखें बंद रख यात्रा करते हो, तो तुम ज्यादा थकान अनुभव नहीं करोगे। और तुम अनावश्यक चीजों की ओर देखते जाते हो, दीवारों के विज्ञापनों तक को पढ़ते हो! तुम अपनी आंखें बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते हो, और जब आंखें थकान से भरी होती हैं तो सारा शरीर शका हुआ होता है। आंखें यह संकेत दे देती हैं कि अब यह बहुत हुआ।

जितना ज्यादा से ज्यादा संभव हो, योगी आंखें बंद किये रखने की कोशिश करता है। साथ ही हाथों और टांगो को परस्पर मिलाये रहता है, ताकि इन हिस्सों से ऊर्जा इकट्ठी पहुंचे। वह रीढ़ की हड्डी सीधे किये बैठा रहता है। यदि रीढ़ सीधी होती है और तुम बैठे हुए हो, तो तुम ज्यादा ऊर्जा बनाये रखोगे किसी अन्य तरीके की अपेक्षा। क्योंकि जब रीढ़ सीधी बनी रहती है, तो पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण तुममें से बहुत ऊर्जा नहीं ले सकता। गुरुत्वाकर्षण रीढ़ के आधार पर केवल एक स्थल का स्पर्श करता है। जब तुम झुकी हुई मुद्रा में बैठे हुए होते हो, अधलेटे झुके हुए, तो तुम सोचते हो, तुम आराम कर रहे हो। लेकिन पतंजलि कहते हैं, तुम ऊर्जा बाहर निकाल रहे हो, क्योंकि तुम्हारे शरीर का ज्यादा भाग तो गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में होता है।

यह बात मदद नहीं देगी। सीधी रीढु सहित, साथ जुड़े हाथों और टांगों सहित, आंखें बंद रखे हुए तुम एक वर्तुल बन चुके होते हो। वह वर्तुल, वह चक्र निरूपित होता है शिवलिंग द्वारा। तुमने देखा है न शिवलिंग-लिंग-प्रतीक, जिस रूप का वह पश्चिम में जाना जाता है। वस्तुत: वह है आंतरिक प्राण-ऊर्जा का घेरा, बिलकुल अंडे के आकार का।

जब तुम्हारी देह-ऊर्जा ठीक प्रकार से प्रवाहमान होती है, तो यह अंडाकार हो जाती है। अंडे की भांति ही आकार होता है, ठीक एकदम अंडे की भांति। वही प्रतीक के रूप में उतरता है शिवलिंग में। तुम हो जाते हो शिव। जब ऊर्जा बार-बार तुममें प्रवाहित होती है, बाहर नहीं जा रही होती तब निर्जीवता तिरोहित हो जाती है। यह बातें करने से नहीं होगी तिरोहित, यह शाख पढ़ने द्वारा तिरोहित नहीं होगी, यह चिंतन-मनन करने से तिरोहित नहीं होगी। यह केवल तभी तिरोहित होगी जब तुम्हारी ऊर्जा बाहर न जा रही हो।

इसे सुरक्षित रखने की, संजोए रखने की कोशिश करना। जितना ज्यादा तुम इसे बनाये रहते हो, उतना ही अच्छा होता है। लेकिन पश्चिम में बिलकुल विपरीत बात ही सिखायी जा रही है-कि कामवासना द्वारा ऊर्जा को निष्कासित कर देना अच्छा होता है। किसी न किसी बात द्वारा ऊर्जा मुक्त कर देना। ऐसा अच्छा होता है यदि तुम इसका किसी दूसरे तरीके से प्रयोग नहीं कर रहे होते; अन्यथा तो तुम पागल हो जाओगे। और जब कभी बहुत ज्यादा हो जाती है ऊर्जा तो उसे कामवासना द्वारा निष्कासित कर देना बेहतर ही है। कामवासना सरलतम विधि है इसे मुक्त करने की।

लेकिन इसका उपयोग हो सकता है। इसे सृजनात्मक बनाया जा सकता है। यह तुम्हें पुनर्जन्म दे सकती है, पुनर्जीवन दे सकती है। इसके द्वारा तुम लाखों सुखद अवस्थाओं को जान सकते हो; इसके द्वारा तुम ज्यादा और ज्यादा ऊंचे उठ सकते हो। यह सीढ़ी है परमात्मा तक पहुंचने की। यदि तुम इसे हर रोज निष्कासित किये जाते हो, तो तुम कभी परमात्मा की ओर पहला कदम बढाने के लिए भी पर्याप्त ऊर्जा का निर्माण नहीं कर पाओगे। इसे संचित करो।

पतंजलि कामवासना के विपरीत है। और यही भेद है पतंजलि और तंत्र में। तंत्र कामवासना का प्रयोग एक विधि की भांति करता है; पतंजलि चाहते हैं तुम इससे कतरा कर इसके बाजू से आगे निकल आओ। और ऐसे लोग हैं, लगभग पचास प्रतिशत जिन्हें तंत्र अनुकूल पड़ेगा। और लोग हैं वे भी पचास प्रतिशत हैं, जिनके अनुकूल होगा योग। व्यक्ति को खोजना पड़ता है कि उसके क्या अनुकूल पड़ेगा। दोनों का ही प्रयोग किया जा सकता है और दोनों के द्वारा लोग पहुंचते हैं। और न तो कोई गलत है और न ही कोई सही है। यह तुम पर निर्भर करता है। एक तुम्हारे लिए ठीक होगा, और कोई एक गलत होगा तुम्हारे लिए—पर खयाल रहे, तुम्हारे लिए ही। यह परम निरपेक्ष कथन नहीं होता है।

कोई बात तुम्हारे लिए सही हो सकती है और किसी के लिए गलत। और दोनों प्रणालियां—तंत्र और योग, दोनों एक साथ जन्मी थीं। ठीक एक समय पर ही। वे जुड़वां प्रणालियां हैं। यही है समकालिकता। जैसे खी और पुरुष को एक—दूसरे की आवश्यकता होती है, तंत्र और योग को एक—दूसरे की आवश्यकता है। वे एक संपूर्ण चीज बनते हैं। यदि केवल योग ही अस्तित्व में आया होता, तो केवल पचास प्रतिशत ही पहुंच सकते थे। दूसरे पचास प्रतिशत तो तकलीफ में पड़ जाते। यदि केवल तंत्र ही होता तो भी केवल पचास प्रतिशत पहुंच सकते थे। बाकी दूसरे पचास प्रतिशत तकलीफ में पड़ गये होते। और ऐसा घट चुका है।

कभी यदि तुम गुरु के बिना चलते हो न जानते हुए कि तुम कहां बढ़ रहे हो, तुम क्या कर रहे हो, कौन हो तुम और क्या अनुकूल होगा तुम्हारे, तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। हो सकता है तुम एक खी हो पुरुष के रूप में सजे हुए, और तुम स्वयं को सोचते हो एक पुरुष; तब तो मुश्किल में पड़ोगे। हो सकता है कि तुम पुरुष हो सी के वेश में सजे हुए, और तुम सोचते हो स्वयं को सी; तुम मुश्किल में पड़ोगे।

मुश्किल खड़ी होता है तब जब तुम नहीं समझते कि तुम हो कौन। गुरु की जरूरत होती है तुम्हें एक सुस्पष्ट दिशा देने को ही कि क्या—क्या है तुम्हारे अनुरूप। तो खयाल रहे, जब कभी मैं कहता हूं कि यह या वह तुम्हारे लिए है, तो उसे दूसरे तक मत फैलाना। क्योंकि इसे विशेष रूप से कहा गया है तुम्हें ही। लोग तो कुतूहलभरे है। यदि तुम उन्हें यह कह देते हो, तो वे इसे आजमायेंगे। हो सकता है यह उनके लिए न हो। यह हानिकारक भी हो सकता है। और ध्यान रखना, यदि यह लाभकर नहीं तो यह हानिकर ही होनेवाला है। दोनों के बीच की कोई बात नहीं होती है। कोई चीज या तो सहायक होती है या गैर सहायक।

शिथिल निर्जीवता सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है, लेकिन यह तिरोहित हो जाती है ओम् के जप द्वारा। ओम् तुम्हारे भीतर निर्मित करता है शिवलिंग को, अंडाकार ऊर्जा—वृत्त को। अब तुम्हारा बोध सूक्ष्म हो जाता है। तुम इसे देख भी सकते हो। यदि कुछ मास तक आंखें बंद करके ओम् का जप करते हो, ध्यान करते हो, तो तुम इसे तुम्हारे भीतर देख पाओगे। तुम्हारी देह तिरोहित हो चुकी होगी। वहां होगी मात्र प्राण—ऊर्जा ही, वह विद्युत—घटना ही। और वह आकार होगा शिवलिंग का आकार।

जिस घड़ी ऐसा तुम्हें घटता है, तो शिथिल निष्‍क्रियता तिरोहित हो चुकी होती है। अब तुम एक उतुंग ऊर्जा होते हो। अब तुम पर्वत—शिखरों की ओर बढ़ सकते हो। अब तुम अनुभव करोगे कि बातचीत काफी नहीं है, कुछ करना ही है। और ऊर्जा का स्तर इतना ऊंचा है कि अब कुछ किया जा सकता है। लोग मेरे पास आते हैं और वे पूछते है, क्या करना होगा? मैं तो सिर्फ उनकी ओर देखता हूं और मै देखता हूं : वे ऊर्जा बहा रहे हैं; वे कुछ नहीं कर सकते। पहली बात है इस बहाव को, रिसाव को गिरा देना। केवल तभी पूछो कि क्या किया जा सकता है, जब तुम्हारे पास ऊर्जा हो।

‘संशय’ —संस्कृत में बहुत सारे शब्द हैं संशय के लिए अंग्रेजी में मात्र एक शब्द है डाउट। तो समझने की कोशिश करना। मैं इसकी व्याख्या करूंगा। एक संदेह है जो उठता है आस्था के विरुद्ध। संस्कृत में इसे कहा जाता है ‘शंका’। यह एक युग्म है—आस्था के विरुद्ध शंका। फिर एक संदेह है जो कहलाता है संशय। अभी पतंजलि संशय के विषय में कह रहे हैं-निश्चितता के, दृढ़ता के विरुद्ध है संशय। अनिश्चितता से भरा व्यक्ति, वह व्यक्ति जो दृढ़ नहीं होता, संशय में होता है। यह आस्था के विरुद्ध नहीं क्योंकि आस्था है किसी में आस्था रखना। यह एक अलग ही बात है।

तो जो कुछ भी तुम करते हो, तुम निश्चित नहीं होते कि तुम इसे करना चाहते भी हो या नहीं। अनिश्चितता होती है। अनिश्चित मन के साथ तुम मार्ग पर प्रवेश नहीं कर सकते, पतंजलि के मार्ग पर तो बिलकुल ही नहीं। तुम्हें निश्चित होना होता है, निर्णायक होना होता है। तुम्हें निर्णय लेना ही पड़ता है। यह कठिन होता है क्योंकि तुम्हारा एक हिस्सा सदा नहीं कहे चला जाता है। तो कैसे लोगे निर्णय? इसके बारे में जितना सोच सकते हो सोच लेना; इसे तुम जितना समय दे सकते हो देना। सारी संभावनाओं पर विचार कर लेना, सारे विकल्पों पर, और फिर निर्णय कर लेना। और तब, एक बार जब तुम निर्णय कर लेते हो समस्त संशय को गिरा देना।

इससे पहले इसका प्रयोग कर लो-संशय को लेकर तुम जो कुछ भी कर सकते हो कर लेना। सारी संभावनाओं पर विचार करना और फिर चुन लेना। निस्संदेह, यह बात कोई समग्र निर्णय नहीं बनने वाली है, आरंभ में ऐसा संभव नहीं होता। यह एक बहुमत का निर्णय होगा। तुम्हारे मन का बहुमत, अधिकांश कहेगा हां, एक बार तुम निर्णय ले लो, तो कभी संशय नहीं करना। संशय उठायेगा अपना सिर। तो तुम कह भर देना, ‘मैने निर्णय कर लिया है।’ बात खत्म हो गयी। यह समग्र निर्णय नहीं होता; सारे संशय फेंके नहीं गये। लेकिन जो कुछ भी किया जा सकता था, तुमने कर लिया। जितना संभव हो सकता था तुमने इसके बारे में उतनी संपूर्णता से सोच लिया है और तुमने चुनाव कर लिया है।

एक बार चुन लेते हो तुम तो फिर संशय को कोई सहयोग मत देना, क्योंकि तुम्हारे सहयोग द्वारा संशय बना रहता है तुममें। तुम उसे ऊर्जा दिये चले जाते हो, और फिर-फिर तुम इसके बारे में सोचने लगते हो। तब एक अनिश्चितता निर्मित हो जाती है। अनिश्चितता एक बहुत बिगडी हुई अवस्था होती है। तब तुम बहुत बिगड़े हुए आकार में होते हो। यदि तुम किसी बात का निर्णय नहीं ले सकते, तो कैसे तुम कुछ कर सकते हो? किस प्रकार तुम कार्य कर सकते हो?

‘ ओम्’ -निनाद और ध्यान-कैसे देगा मदद 2: यह देता है मदद, क्योंकि एक बार तुम निस्तरंग, मौन हो जाते हो, तो निर्णय लेना ज्यादा आसान हो जाता है। तब तुम एक भीड़ न रहे, अब कोई अव्यवस्था न रही। अब बिना तुम्हारे जाने कि कौन-सी आवाज तुम्हारी है, बहुत सारी आवाजें इकट्ठी नहीं बोलतीं। ओम् सहित-उसका जप करते हुए, उस पर ध्यान करते हुए-आवाजें शांत, मौन हो जाती हैं। अब तुम समझ सकते हो कि सारी आवाजें तुम्हारी नहीं हैं। तुम्हारी मां बोल रही होती है, तुम्हारे पिता बोल रहे होते हैं, तुम्हारे भाई, तुम्हारे शिक्षक बोल रहे होते हैं। आवाजें तुम्हारी नहीं हैं। उन्हें तुम आसानी से अलग कर सकते हो क्योंकि उन्हें मनोयोग से संभालने की जरूरत नहीं होती है।

जब ओम् के जप तले तुम शांत हो जाते हो, तो तुम आश्रय पा जाते हो; शांत, मौन, एकजुट हो जाते हो। उसी स्वाभाविक सुव्यवस्था में तुम देख सकते हो कि तुमसे आ रही वह वास्तविक आवाज कौन-सी है, जो कि प्रामाणिक है। इसे ऐसा समझो जैसे कि तुम बाजार में खड़े हुए हो, और बहुत लोग बातें कर रहे हैं और बहुत सारी चीजें चल रही हैं वहां, और तुम निर्णय नहीं ले सकते कि क्या घट रहा है। शेयर मार्केट में लोग चिल्लाते रहते है। उन्हें अपनी भाषा का पता रहता है, लेकिन तुम नहीं समझ सकते कि क्या हो रहा है—कि वे पागल हो गये है या नहीं।

फिर तुम जाते हो हिमालय के आश्रय की ओर। तुम एक गुफा में बैठ जाते हो और बस जप करते हो। तुम मात्र शांत कर लेते हो स्वयं को और सारी घबड़ाहट गायब हो जाती है। तुम एक हो जाते हो। उस क्षण में निर्णय लेना संभव होता है। तब निर्णय करना और फिर वापस मुड़कर नहीं देखना। फिर भूल जाना। निर्णय हो गया है। अब वापस लौटना नहीं होगा। अब आगे बढ़ जाना।

कई बार संशय पीछे आयेगा। यह एक कुत्ते की भांति ही भौं— भौं करेगा तुम पर। लेकिन यदि तुम मत सुनो, यदि तुम कोई ध्यान न दो, तो धीरे— धीरे यह समाप्त हो जाता है। इसे मौका देना। जो संभव है उन तमाम संभावनाओं पर विचार कर लेना, और एक बार तुम निर्णय ले लेते हो, तो गिरा देना संशय को। और ओंकार, ओम् का ध्यान तुम्हारी मदद करेगा निश्चितता तक आ पहुंचने में। यहां संशय का अर्थ है अनिश्चितता।

तीसरी बाधा है असावधानी। संस्कृत शब्द है प्रमाद। प्रमाद का अर्थ होता है, वह अवस्था जो कि ऐसी होती जैसे कोई नींद में चल रहा है। असावधानी इसी का हिस्सा है। ठीक—ठीक बात का ऐसा अर्थ होगा, ‘जीवित शव मत बनो। सम्मोहनावस्था के अंतर्गत मत चलो। ‘

लेकिन तुम हिप्नासिस में, सम्मोहनावस्था में जीते हो, इसे बिलकुल न जानते हुए। सारा समाज तुम्हें सम्मोहित करने का प्रयत्न कर रहा है कुछ निश्चित बातों के लिए, और यह बात प्रमाद निर्मित करती है। यह तुममें एक निद्रावस्था निर्मित कर देती है। क्या होता होगा? तुम्हें होश नहीं। अन्यथा तुम एकदम चकित हो जाओगे उस पर जो कि घट रहा है। यह इतना जाना—पहचाना है। इसीलिए तुम जाग्रत नहीं होते। तुम बहुत सारे होशियारों द्वारा चलाये जा रहे होते हो। और उनकी विधि तुम्हें चालाकी से प्रभावित करने की यह होती है कि तुममें हिप्नासिस को, सम्मोहन को निर्मित कर देते हैं।

उदाहरण के लिए, हर रेडियो पर, हर टीवी. पर, हर फिल्म में, हर अखबार और पत्रिला में, विज्ञापक किसी निश्चित चीज को विज्ञापित किये जाते हैं—उदाहरण के लिए ‘लक्स टॉयलेट साबुन। तुम सोचते हो तुम प्रभावित नहीं होते, लेकिन प्रतिदिन तो तुम सुनते हो, ‘लक्स टॉयलेट साबुन, लक्स टॉयलेट साबुन, लक्स टॉयलेट साबुन। यही एक निरंतर गान। रात्रि में सड्कों पर नियॉन बिजलियां कहतीं— ‘लक्स टॉयलेट साबुन। ‘ और अब वे इस बात का पता पा गये है कि यदि तुम बिजली को झिलमिल करो तो यह अधिक प्रभावकारी होती है। यदि यह जलती—बुझती रहती है, तो यह और भी प्रभावकारी हो जाती है क्योंकि तब तुम्हें इसे फिर पढ़ना होता है— ‘लक्स टॉयलेट साबुन। ‘ फिर बिजली जाती और फिर आ जाती, और तुम्हें इसे फिर पढ़ना पड़ता है— ‘लक्स टॉयलेट साबुन।

तुम जप करते हो ओम् का। यह तुम्हारे उपचेतन में ज्यादा गहरे उतर रहा होता है। तुम सोचते हो तुम प्रभावित नहीं हुए, तुम सोचते हो तुम इन लोगों द्वारा फुसलाये नहीं गये—ये सब सुंदर नग्र स्रियां लक्स टॉयलेट साबुन के निकट खड़ी हुई है और कह रही है, ‘मैं सुंदर क्यों हूं? मेरा चेहरा इतना सुंदर क्यों है? लक्स टॉयलेट साबुन के कारण। तुम सोचते हो कि तुम सुंदर नहीं हो, अत: तुम प्रभावित हो जाते हो। अचानक, एक दिन तुम बाजार चले जाते हो, दुकान पर जाते हो, और तुम लक्स टॉयलेट साबुन के बाबत पूछते हो। दुकानदार पूछता है, ‘कौन सा साबुन?’ तो अकस्मात यह बात बाहर फूट पड़ती है, ‘लक्स टॉयलेट साबुन! ‘

तुम व्यापारियों, राजनेताओं, शिक्षाविदों, पंडित-पुरोहितों द्वारा सम्मोहित हो रहे हो। क्योंकि अगर तुम सम्मोहित हुए हो तो हर किसी ने तुम पर कोई घेरा डाला है। तब तुम इस्तेमाल किये जा सकते हो। राजनेता कहे चले जाते हैं, ‘यह मातृभूमि है, और अगर मातृभूइम कठिनाई में है तो जाओ युद्ध पर, बनो शहीद।’

कैसी नासमझी है! सारी पृथ्वी तुम्हारी माता है। क्या पृथ्वी भारत, पाकिस्तान, जर्मनी, इंग्लैंड में बंटी हुई है, या यह एक है? लेकिन राजनेता निरंतर तुम्हारे मन पर इसकी चोट कर रहे हैं कि पृथ्वी का केवल यही हिस्सा तुम्हारी माता है और तुम्हें इसे बचाना ही है। यदि तुम्हारा जीवन भी चला जाये, तो यह बहुत अच्छी बात है। और वे और-और कहते जाते हैं- ‘देश की सेना, राष्ट्रीयवाद, देशभक्ति’ -सारी मूढ़ताभरी परिभाषाएं। लेकिन यदि वे निरंतर ठोक-पीट किये जाते है, तो तुम सम्मोहित हो जाते हो। तब तुम स्वयं का बलिदान कर सकते हो। तुम सम्मोहनावस्था में तुम्हारी जिंदगी का बलिदान कर रहे होते हो नारों के कारण ही। झंडा, एक साधारण टुकड़ा कपड़े का, सम्मोहन द्वारा इतना ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। यह हमारा राष्ट्रीय झंडा है, अत: लाखों लोग मर सकते है इसके लिए। यदि दूसरे ग्रहों पर प्राणी है, और यदि उन्हें कभी पृथ्वी पर देखना होता हो, तो वे सोचते होंगे, ‘ये लोग तो एकदम पागल हैं।’ कपड़े के लिए-कपड़े के एक टुक्के के लिए-तुम मर सकते हो क्योंकि किसी ने हमारे झंडे का अपमान कर दिया है, और इसे बरदाश्त नहीं किया जा सकता।

फिर धर्म तुम्हें उपदेश दिये चले जाते है कि तुम ईसाई हो, हिंदू हो, कि मुसलमान हो, कि यह हो और वह हो। वे तुम्हें अनुभव करवा देते कि तुम ईसाई हो, और फिर तुम धर्मयुद्ध में होते हो- ‘उन दूसरे लोगों को मार दो जो ईसाई नहीं है। यह तुम्हारा कर्तव्य है।’ वे तुम्हें ऐसी बेतुकी बातें सिखाते है, लेकिन तुम फिर भी उनमें विश्वास करते हो क्योंकि वे उन्हें कहे जाते हैं। एडॉल्फ हिटलर ने कहा है अपनी आत्‍मकथा ‘मेन कैष्फ’ में, कि यदि तुम निरंतर किसी झूठ को दोहराओ तो वह सच बन जाता है। और वह जानता है। कोई इस तरह नहीं जानता जिस तरह वह जानता है क्योंकि उसने स्वयं दोहराया झूठ को और एक चमत्कृत करने वाली घटना का निर्माण कर दिया।

प्रमाद का अर्थ है सम्मोहन की वह अवस्था जिसमें तुम चालाकी से चलाये जाते हो, खोये हुए जी रहे होते हो। तब असावधानी आयेगी ही क्योंकि तुम, तुम नहीं होते। तब तुम हर चीज बिना किसी सावधानी के करते हो। तुम जैसे ठोकर खाते चलते हो। चीजों के, व्यक्तियों के संबंध में, तुम निरंतर ठोकर खा रहे हो; तुम कहीं नहीं पहुंच रहे। तुम तो बस शराबी की भांति हो। लेकिन हर आदमी तुम्हारी भांति ही है, अत: तुम्हारे पास अवसर नहीं इसे अनुभव करने का कि तुम शराबी हो।

सचेत रहना। ओम् सचेत होने में किस प्रकार मदद करेगा तुम्हारी? यह तुम्हारा सम्मोहन गिरा देगा। वस्तुत: यदि तुम मात्र ओम् का जप किये जाओ बिना ध्यान किये, तो यह बात भी एक सम्मोहन हो जायेगी। मंत्र का साधारण जप करने में और पतंजलि के मार्ग में अंतर यही है। इसका जप करो और सचेत बने रही।

यदि तुम ओम् का जप करते हो और सचेत हुए रहते हो, तो यह ओम् और इसका जप सम्मोहन दूर करने की शक्ति बन जायेगा। यह तोड़ देगा उन तमाम सम्मोहनावस्थाओं को जो तुम्हारे चोरों ओर बनी रहती हैं; जो तुममें निर्मित होती रही हैं समाज द्वारा और चालाकियों से प्रभावित करने वालों द्वारा और राजनेताओं द्वारा। यह होगा सम्मोहन दूर करना।

एक बार ऐसा पूछा गया था अमरीका में, किसी ने पूछा था विवेकानंद से, ‘साधारण सम्मोहन और तुम्हारे ओम् के जप में क्या अंतर है? ‘ वे बोले, ‘ ओम् का जप सम्मोहन को दूर करता है। यह विपरीत गियर में सरकना है।’ प्रक्रिया वैसी ही मालूम पड़ती है, लेकिन गियर विपरीत होता है। और कैसे यह उल्टा हो जाता है? यदि तुम ध्यान भी कर रहे हो, तो धीरे-धीरे तुम इतने शांत हो जाते हो और इतने जाग्रत, इतने सावधान हो जाते हो, कि कोई तुम्हें सम्मोहित नहीं कर सकता। अब तुम इन विषैले पुरोहितों और राजनेताओं की पहुंच से परे होते हो। अब पहली बार तुम एक व्यक्ति होते हो, और तब तुम सचेत, सावधान हो जाते हो। फिर तुम सावधानी से आगे बढ़ते हो; तुम हर कदम सावधानी से उठाते हो क्योंकि तुम्हारे चारों ओर लाखों फंदे होते हैं।

‘आलस्य’। बहुत आलस्य तुममें इकट्ठा हो चुका है। यह कुछ कारणवश चला आता है। क्योंकि तुम कुछ करने की कोई तुक नहीं समझ पाते। और यदि तुम कुछ करते भी हो, तो कोई प्राप्ति नहीं होती। यदि तुम नहीं करते, तो कुछ गंवाया नहीं जाता। तब आलस्य हृदय में पैठ जाता है। आलस्य का मात्र इतना अर्थ है कि तुमने जीवन के प्रति उत्साह खो दिया है।

बच्चे आलसी नहीं होते हैं। वे ऊर्जा से लबालब भरे होते है। सोने के लिए तुम्हें उन्हें मजबूर करना पड़ता है; तुम्हें उन्हें मजबूर करना पड़ता है चुप रहने के लिए तुम्हें उन्हें विवश करना पड़ता है कि वे कुछ मिनटों के लिए शांत बैठ जायें जिससे कि वे आराम कर लें; तुम्हें लगता है कि वे तनावपूर्ण नहीं हैं। वे ऊर्जा से भरे हुए हैं। इतने छोटे प्राणी और इतनी ज्यादा ऊर्जा! कहां से आती है यह ऊर्जा? वे अभी हताश नहीं हैं। वे नहीं जानते कि इस जीवन में, चाहे जो भी कर लो, तुम्हें कुछ नहीं प्राप्त होता है। वे अजाग्रत होते हैं-आनंदपूर्ण अजाग्रत इसीलिए होती है इतनी ज्यादा ऊर्जा।

और तुम करते रहे हो बहुत कुछ, और कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ है। इसीलिए आलस्य की परत जम जाती है। मानो तुममें धूल इकट्ठी होती है-तुम्हारी सारी असफलताओं और हताशाओं की धूल, हर उस सपने की धूल जो कीचड़ हो गया। तो यह जम जाता है। तब तुम आलसी हो जाते हो। सुबह तुम सोचते हो, ‘किसलिए उठे फिर? आखिर किसलिए?’ कोई उत्तर नहीं है। तुम्हें उठना होता है क्योंकि किसी भी तरह रोटी तो पानी है और फिर पली है, और बच्चे हैं, और तुम जाल की पकड में आ गये हो। किसी तरह तुम आफिस की ओर चलते हो, जैसे-तैसे वापस लौटते हो। कोई उत्साह नहीं। तुम धकेले जाते हो। कोई बात करते हुए तुम खुश नहीं होते।

ओम् का जप और उस पर किया ध्यान कैसे मदद करेगा? यह मदद देता है। निश्रित ही यह बात मदद करती है क्योंकि जब पहली बार तुम ओम् का जप करते और ध्यान देते और ध्यान करते, तुम्हारे जीवन का यह ऐसा प्रयास होता है जो परिपूर्णता लाता हुआ मालूम पड़ता है। इसका जप करते हुए तुम इतनी प्रसन्नता अनुभव करते हो, इसका जप करते हुए तुम इतना आनंदमय अनुभव करते हो, कि प्रथम प्रयास सफल हुआ है।

अब नया उत्साह उदित हुआ है। धूल फेंक दी गयी है। एक नया साहस, एक नया विश्वास उपलब्ध हुआ है। अब तुम सोचते हो कि तुम भी कुछ कर सकते हो, तुम भी कुछ उपलब्ध कर सकते हो। हर चीज असफलता ही नहीं है। हो सकता है बाहरी यात्रा एक असफलता हो, लेकिन भीतरी यात्रा असफलता नहीं है। पहला चरण भी बहुत सारे फूलों को ले आता है। अब आशा उमग आती है। भरोसा फिर से आ बसता है। तुम फिर से एक बालक हो आंतरिक संसार के। यह एक नया जन्म होता है। तुम फिर से हंस सकते हो, खेल सकते हो। फिर से हुआ है तुम्हारा जन्म।

इसे हिंदू कहते हैं द्विजन्मा-द्विज। यह है अगला जन्म, दूसरा जन्म। एक बाहरी संसार में हुआ था, वह असफल सिद्ध हुआ; इसीलिए तुम इतना निर्जीव अनुभव करते हो। और जब तक कोई चालीस की उम्र तक पहुंचता है, मृत्यु की सोचने लगता है-कैसे मरूं, कैसे समाप्त होऊं, इसकी सोचने लगता है।

यदि लोग आत्महत्या नहीं करते, तो ऐसा नहीं है कि वे खुश हैं। ऐसा मात्र इसीलिए है कि वे मृत्यु में भी कोई आशा नहीं देखते। मृत्यु भी आशारहित जान पड़ती है। वे आत्महत्या नहीं कर रहे तो इसलिए नहीं कि वे बड़ा प्रेम करते हैं जीवन से-नहीं। वे इतने हताश है कि वे जानते है मृत्यु भी कोई चीज देने वाली नहीं। तो क्यों अनावश्यक तौर से ही आत्महत्या करें? क्यों मुसीबत उठायें? तो जैसा है, जो है चलाते चलो।

‘विषयासक्ति’; क्यों तुम अनुभव करते हो विषयासक्त, कामुक? तुम कामयुक्त अनुभव करते हो क्योंकि तुम संचित कर लेते हो ऊर्जा, अप्रयुक्त ऊर्जा; और तुम जानते नहीं कि क्या करना है उसका। अत: स्वभावतया काम के पहले केंद्र पर वह इकट्ठी हो जाती है। और तुम्हें किन्हीं दूसरे केंद्रों का पता नहीं है। और कैसे ऊर्जा ऊपर की ओर बहती है यह तुम जानते नहीं।

यह ऐसा है कि जैसे तुम्हारे पास हवाई जहाज है, लेकिन तुम जानते नहीं कि यह है क्या। इसलिए तुम उसकी जांच करते हो। फिर तुम सोचते हो, ‘इसके पहिये है, तो यह किसी प्रकार का वाहन ही होगा।’ तब तुम उसके साथ घोड़े जोत देते हो और उसका प्रयोग करते हो बैलगाड़ी की भांति। इसका प्रयोग हो सकता है इस ढंग से। फिर किसी दिन संयोगवशात, तुम खोज लेते हो कि बैलों की जरूरत नहीं। इसमें इसका एक अपना इंजन है, तो तुम इसका प्रयोग कर लेते हो मोटरकार के रूप में। फिर तुम तुम्हारी खोज में गहरे और गहरे उतरते जाते हो। फिर तुम्हें आश्रर्य होता कि ये पंख हैं क्यों? फिर एक दिन तुम इसका प्रयोग वैसे ही करते हो जैसे कि इसका प्रयोग किया जाना चाहिए-हवाई जहाज की भांति ही।

जब तुम भीतर उतरते हो, तो तुम बहुत चीजें खोज लेते हो। लेकिन यदि तुम नहीं उतरते, तो वहां केवल कामवासना ही होती है। तुम ऊर्जा इकट्ठी कर लेते हो, फिर तुम नहीं जानते कि उसका करना क्या है। तुम बिलकुल ही नहीं जानते कि तुम ऊपर की ओर उड़ान भर सकते हो। तुम एक छक्का, एक बैलगाड़ी बन जाते हों-कामवासना छक्के की भांति व्यवहार कर रही होती है। तुम ऊर्जा एकत्रित कर लेते हो। तुम भोजन करते हो, तुम पानी पीते हो और ऊर्जा निर्मित होती है, ऊर्जा इकट्ठी हो जाती है। यदि तुम उसका उपयोग नहीं करते तो तुम पागल हो जाओगे। तब ऊर्जा तुम्हारे भीतर तीव्रता से घूमती है। यह तुम्हें पगला देती है। तुम्हें कुछ करना ही पड़ता है। यदि तुम कुछ नहीं करते, तो तुम पागल हो जाओगे, तुम विस्फोटित हो जाओगे। कामवासना सबसे आसान सेफ्टी वाल्व है। इसके द्वारा ऊर्जा प्रकृति में लौट चलती है।

यह छूता है क्योंकि ऊर्जा आती ही है प्रकृति से। तुम भोजन करते हो; यह है प्रकृति को खाना। तुम पानी पीते हो-यह प्रकृति को ही पिया जा रहा है। तुम धूपस्रान करते हो-यह है सूर्य का भोजन। निरंतर ही तुम प्रकृति को खा रहे हो और फिर तुम ऊर्जा बाहर फेंक देते हो प्रकृति में। स्की बात ही असंगत, व्यर्थ, अर्थशून्य लगती है। क्या उपयोग है इसका? तो तुम आलसी हो जाते हो।

ऊर्जा को ज्यादा ऊंचे जाना चाहिए। तुम्हें रूपांतरकार होना होगा। तुम्हारे द्वारा प्रकृति को दिव्य प्रकृति हो जाना चाहिए केवल तभी वहां होता है कोई अर्थ, कोई सार्थकता। तुम्हारे द्वारा विषय को मन बनना है; मन को बनना है उच्च मन। तुम्हारे द्वारा स्वभाव को पहुंचना चाहिए परम स्वभाव तक, निम्रतम को बनना होगा उच्चतम। केवल तभी वहां कोई महत्ता होती है-एक अनुभवित महत्ता।

तब तुम्हारे जीवन का कोई गहरा, गहन अर्थ होता है। तुम व्यर्थ नहीं रहते; तुम मैली धूल की भांति नहीं होते। तुम एक ईश्वर होते हो। जब तुम्हारे स्वयं के द्वारा तुमने स्वभाव को परम स्वभाव तक पहुंचा दिया हो, तो तुम भगवान हो गये होते हो। पतंजलि हैं भगवान। तुम हो जाते हो गुरुओं के गुरु।

लेकिन साधारणतया कामुकता का, विषयासक्ति का अर्थ है ऊर्जा का एकत्रित हो जाना। और तुम्हें इसे बाहर फेंक देना होता है। तुम्हें मालूम नहीं कि क्या करना है इसका। पहले तुम इसे इकट्ठा कर लेते हो। पहले तुम जाते हो भोजन खोजने। बहुत प्रयास करते हो रोटी की जुगाडू करने में। फिर तुम रोटी पचा लेते हो और ऊर्जा निर्मित कर लेते हो। काम-ऊर्जा सबसे परिष्कृत ऊर्जा होती है तुम्हारे शरीर की, सर्वाधिक सूक्ष्म। और तुम बाहर फेंक देते हो इसे, और तब तुम फिर से चक्र में जा पड़ते हो।

यह एक दुष्चक्र है। तुम बाहर फेंक देते हो ऊर्जा, और शरीर को आवश्यकता होती है ऊर्जा की। तुम खाते हो, जमा करते हो, फेंक देते हो। कैसे तुम अनुभव कर सकते हो कि तुम्हारे पास कोई अर्थ है? तुम उस लीक में पहुंच गये जान पड़ते हो जो कहीं नहीं ले जा रही। किस प्रकार मदद देगा यह ओम्? इस पर ध्यान करना कैसे मदद देगा? एक बार जब तुम ओम् का ध्यान करने लगते हो, दूसरे केंद्र क्रियान्वित होने लगते हैं।

जब ऊर्जा भीतर बहती है, तो यह एक वर्तुल बन जाती है। तब कामवासना का केंद्र ही एकमात्र ऐसा केंद्र नहीं होता जो क्रियान्वित होता है। तुम्हारा संपूर्ण शरीर एक वर्तुल हो जाता है। काम-केंद्र से ऊर्जा दूसरे केंद्र की ओर उठती है, तीसरे की ओर, चौथे की ओर, पांचवें की ओर, छठे की ओर, और फिर सातवें केंद्र की ओर। दोबारा यह छठे पर जाती, पांचवें पर, चौथे पर, फिर तीसरे पर, दूसरे पर, फिर पहले पर। यह एक आंतरिक वर्तुल बन जाती है और यह दूसरे केंद्रों से गुजरती है।

ऊर्जा संचित हो जाती है इसीलिए यह ऊंची उठती है-ऊर्जा का स्तर ऊंचा होता चला जाता है। यह किसी बांध की भांति होता है। पानी नदी से आता जाता है, और बांध इसे बाहर नहीं जाने देता। तब पानी ऊंचा उठता है। और दूसरे केंद्र, तुम्हारे शरीर के दूसरे चक्र, खुलने शुरू हो जाते हैं। क्योंकि जब ऊर्जा बहती है तो वे केंद्र सक्रिय शक्तियां बन जाते हैं-डायनामो। वे क्रियान्वित होने लगते हैं।

यह ऐसा है जैसे कि झरना और डायनामो कार्य करने लगें। जब झरना सूखा होता है, डायनामो नहीं शुरू हो सकता। जब ऊर्जा ऊपर की ओर बहती है, तुम्हारे उच्चतम चक्र कार्य करने लगते है, क्रियान्वित होने लगते हैं। इसी प्रकार ही मदद देता है ओम्। यह तुम्हें एक कर देता है, शांत बना देता है, प्रकृतिस्थ। ऊर्जा ऊंची उठती है; विषयासक्ति तिरोहित हो जाती है। कामवासना अर्थहीन हो जाती है, बचकानी हो जाती है। यह अभी गयी नहीं लेकिन यह बचकानी बात लगने लगती है। तब तुम विषयासक्त हुआ अनुभव नहीं करते; तुममें इसके लिए कोई ललक नहीं होती।

यह अभी भी है वहां। यदि तुम सावधान नहीं होते तो यह तुम्हें फिर से जकडु लेगी। तुम गिर सकते हो क्योंकि यही परम घटना नहीं है। तुम अभी केन्द्रीभूत नहीं हुए हो, लेकिन झलक घट चुकी है और अब तुम जानते हो कि ऊर्जा तुम्हें आंतरिक आनंदपूर्ण अवस्था दे सकती है और कामवासना निम्नतम आनंदोल्लास है। उच्चतर आनंद संभव है। जब उच्चतर संभव हो जाता है, तो निम्न अपने आप ही तिरोहित हो जाता है। तुम्हें उसे त्यागने की आवश्यकता नहीं पडती। यदि तुम त्यागते हो, तो तुम्हारी ऊर्जा ऊंची नहीं बढ़ रही। यदि ऊर्जा ऊंची बढ़ रही है, तो कोई जरूरत ही नहीं होती त्यागने की। यह बिलकुल व्यर्थ हो जाती है। यह एकदम स्वयं ही गिर जाती है। यह निष्कि्रय हो जाती है। यह एक श्रम होती है।

जैसे कि तुम हो, यदि तुम सपने देखना बंद कर दो तो मनोविश्लेषक कहते कि तब तुम पागल हो जाओगे। सपनों की आवश्यकता होती है। भ्रांतियों की, भ्रामकताओं की, धर्मों की, सपनों की जरूरत है क्योंकि तुम सोये हुए हो। और नींद में, सपने एक आवश्यकता हैं।

वे अमरीका में प्रयोग करते रहे हैं और उन्होंने पाया है कि यदि तुम्हें सात दिन तक सपने न देखने दिये जायें तो तुम तुरंत श्रम पूर्ण यात्रा शुरू कर देते हो। जो चीजें हैं ही नहीं वे तुम्हें दिखाई पड़ने लगती हैं। तुम पागल हो जाते हो। बस सात दिन गुजरते हैं बिना सपनों के, और तुम भ्रमित हो जाते हो। भ्रांतियां घटित होने लगती हैं। तुम्हारे सपने एक रेचन हैं; एक अंतर्निर्मित रेचन। तो हर रात तुम स्वयं को बहका लेते हो। सुबह होने तक तुम कुछ शांत हो जाते हो, लेकिन शाम तक फिर तुमने बहुत ऊर्जा एकत्रित कर ली होती है। रात को तुम्हें सपने देखने ही होते हैं और इस ऊर्जा को बाहर फेंकना ही पड़ता है।

ऐसा घटता है ड्राइवरों के साथ, और इसी कारण बहुत-सी दुर्घटनाएं होती हैं। रात को चार बजे के करीब दुर्घटनाएं घटती हैं-सुबह चार बजे, क्योंकि ड्राइवर सारी रात गाड़ी चलाता रहा है। वह सपना नहीं देख सका, अब स्वप्न-ऊर्जा संचित होती है। वह गाड़ी चला रहा है और खुली आंखों से भ्रांतियां देखने लगता है।’सड़क सीधी है’, वह कहता है, ‘कोई नहीं है, कोई ट्रक नहीं आ रहा।’ खुली आंखें लिये ही वह किसी ट्रक से जा भिड़ता है। या, वह देखता है किसी ट्रक को आते हुए और केवल उससे बचने को ही-और कोई ट्रक था नहीं वहां-केवल उससे बचने को वह अपनी कार की टक्कर लगवा लेता है पेडू के साथ।

बहुत खोज की गयी है इस पर कि क्यों चार बजे के करीब इतनी सारी दुर्घटनाएं होती हैं। वस्तुत: चार बजे के करीब तुम बहुत सपने देखते हो। चार से लेकर पांच या छह बजे तक, तुम ज्यादा सपने देखते हो, यह होता है स्वप्न-काल। तुम अच्छी तरह सो चुके हो; अब नींद की कोई आवश्यकता नहीं, तो तुम सपने देख सकते हो। सुबह तुम सपने देखते हो। और यदि उस समय तुम सपने नहीं देखते या तुम्हें सपने नहीं देखने दिये जाते तो तुम भ्रम निर्मित कर लोगे। तुम खुली आंखों से सपने देखने लगोगे।

भ्रम का अर्थ होता है-खुली आंखों का सपना। लेकिन हर कोई इसी ढंग से सपने देख रहा है। तुम एक सी को देखते और तुम सोचते हो कि वह परम सुंदरी है। हो सकता है ऐसी बात न हो। तुम शायद भ्रम को उस पर प्रक्षेपित कर रहे हो। हो सकता है कामवासना के कारण तुम भूखे हो। तब ऊर्जा होती है और तुम मोहित होते हो। दो दिन के बाद, तीन दिन के बाद सी साधारण दिखने लगती है। तुम सोचते हो तुम्हें धोखा दिया गया है। कोई नहीं दे रहा है तुम्हें धोखा सिवाय तुम्हारे स्वयं के। तुम सम्मोहित हो गये थे। प्रेमी एक-दूसरे को मोहित करते हैं। वे सपने देखते हैं खुली आंखों से और फिर वे हताश हो जाते हैं। किसी का दोष नहीं होता। ऐसी तुम्हारी अवस्था ही है।

पतंजलि कहते हैं भ्रम तिरोहित हो जायेगा यदि तुम ध्यानपूर्वक ओम् का जप करो। कैसे घटेगा यह? भ्रम का अर्थ होता है स्वप्नमयी अवस्था-वह अवस्था जहां तुम खो जाते हो। तुम अब होते ही नहीं, केवल सपना होता है वहां। यदि तुम ओम् का ध्यान करो, तो तुम ओम् का नाद निर्मित कर लेते हो और तुम होते हो एक साक्षी। तुम हो वहां। तुम्हारी मौजूदगी किसी सपने को घटित नहीं होने दे सकती। जब कभी तुम मौजूद हो, कोई सपना नहीं होता। जब कभी सपना मौजूद होता है, तुम नहीं होते हो। दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। यदि तुम होते हो वहां तो सपना तिरोहित हो जायेगा या तुम्हें तिरोहित होना होगा। तुम और सपना, दोनों एक साथ नहीं बने रह सकते। स्वप्र और जागरूकता कभी नहीं मिलते। इसीलिए श्रम तिरोहित हो जाता है ओम् के नाद का साक्षी बनकर।

असमर्थता-असमर्थता, दुर्बलता भी निरंतर अनुभव की जाती है। तुम स्वयं को निस्सहाय अनुभव करते हों-यही है असमर्थता। तुम अनुभव करते हो कि तुम कुछ नहीं कर सकते, कि तुम व्यर्थ हो, किसी काम के नहीं। तुम दिखावा करते होओगे कि तुम कुछ हो, लेकिन तुम्हारा दिखावा भी दिखाता है कि गहरे में तुम उस ना-कुछपन को महसूस करते हो। तुम शायद दिखावा करो कि तुम बहुत शक्तिशाली हो, लेकिन तुम्हारा दिखावा और कुछ नहीं है सिवाय एक छुपाव के।

मुल्ला नसरुद्दीन एक शराबखाने में दाखिल हुआ अपने हाथ में एक कागज लिये हुए और घोषणा कर दी, ‘ये रहे उन लोगों के नाम जिन्हें मैं पीट सकता हूं।’ कोई सौ नाम थे वहां। एक आदमी खड़ा हो गया, वह छोटा-सा आदमी था; मुल्ला उसे पीट सकता था। लेकिन उस आदमी के पास उसकी पेटी के इर्द-गिर्द दो पिस्तौलें थीं। वह अपने हाथ में पिस्तौल लिये निकट आया और कहने लगा, ‘क्या मेरा नाम भी है वहां? ‘

मुल्ला ने उसकी ओर देखा और बोला, ‘हां।’ वह आदमी कहने लगा, ‘तुम मुझे पीट नहीं सकते।’ मुल्ला बोला, ‘तुम्हें पका विश्वास है? ‘वह आदमी बोला, ‘बिलकुल पका विश्वास है जरा देखो तो।’ और उसने पिस्तौल दिखा दी। मुल्ला बोला, ‘तो ठीक है। मैं इस सूची में से तुम्हारा नाम काट दूंगा।’

तुउइrमु? दिखावा कर सकते हो कि तुम बहुत शक्तिशाली हो, लेकिन जब कभी तुम्हें सामना करना पड़ता है तब तुम अनुभव करने लगते हो निस्सहायता और शक्तिविहीनता। आदमी दुर्बल है क्योंकि केवल संपूर्ण ही शक्तिशाली हो सकता है, आदमी नहीं। कोई अंश शक्तिशाली नहीं हो सकता। केवल परमात्मा है शक्तिशाली; आदमी होता है दुर्बल।

जब तुम ओंकार का जप करते हो, ओम् के नाद का, तो पहली बार तुम अनुभव करते हो कि तुम अब कोई द्वीप न रहे। तुम संपूर्ण सर्वव्यापक नाद का एक हिस्सा बन जाते हो। पहली बार तुम स्वयं को शक्तिमय अनुभव करते हो, लेकिन अब इस शक्तिमयता को हिंसाअक होने की आवश्यकता नहीं होती, आक्रामक होने की आवश्यकता नहीं होती। वस्तुत: एक शक्तिशाली आदमी कभी भी आक्रामक नहीं होता-केवल दुर्बल व्यक्ति आक्रामक हो जाते हैं अपने को सिद्ध करने के लिए-यह दिखाने के लिए कि वे शक्तिशाली हैं।

‘.. ….और अस्थिरता है उन्हीं बाधाओं में से एक जो मन में विक्षेप लाती हैं।’

तुम एक चीज आरम्भ करते हो और फिर छोड़ देते हो। तुम आगे बढ़ते और हटते हो। तुम फिर से प्रारंभ करते और फिर छोड़ देते हो। कोई चीज संभव नहीं होती इस अस्थिरता के साथ। व्यक्ति को सतत प्रयास करना होता है, निरंतर उसे एक ही स्थान पर गड्डा खोदते चले जाना होता है। यदि तुम अपना प्रयास छोड़ देते हो, तो तुम्हारा मन ऐसा है कि कुछ दिनों बाद तुम्हें फिर से क, ख, ग, से प्रारंभ करना होगा। मन स्वयं को उलटा चला लेता है, वह फिर से लौट जाता है। थोड़े दिनों तक तुम कुछ करते हो, फिर तुम इसे छोड़ देते हो। तुम वापस फेंक दिये जाओगे कार्य के तुम्हारे पहले दिन पर ही—फिर से क,ख,ग से शुरू करना होगा। या तुम बहुत कुछ करोगे बिना कोई चीज प्राप्त किये ही। ओम् तुम्हें कुछ अलग ही चीज का स्वाद देगा।

क्यों तुम आरंभ करते और रुक जाते हो? लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि उन्होंने एक वर्ष तक ध्यान किया, फिर उन्होंने बंद कर दिया। और मैं पूछता हूं उनसे, ‘कैसा अनुभव कर रहे थे तुम? ‘हम बहुत—बहुत अच्छा अनुभव कर रहे थे। मैं पूछता हूं उनसे, ‘तो फिर भी तुमने क्यों बंद कर दिया? कोई बंद नहीं करता जब कोई बहुत अच्छा अनुभव कर रहा हो तो! ‘वे कहते हैं, ‘हम बहुत खुश थे; फिर हमने बंद कर दिया। ‘ मैं उनसे कहता हूं ‘यह असंभव है। यदि तुम प्रसन्न थे, तो कैसे कर सकते हो तुम बंद? ‘तब वे कह देते हैं, ‘एकदम प्रसन्न तो नहीं।’

तो वे मुश्किल में पड़े होते है। वे दिखावा भी कर लेते हैं कि वे प्रसन्न हैं। यदि तुम किसी निश्रित बात में प्रसन्न होते हो, तो तुम उसे बनाये रहते हो। तुम केवल तभी बंद करते हो जब वह उंबाऊ बात होती है, एक ऊब, एक अप्रसन्नता होती है। पतंजलि कहते हैं, ओम् के द्वारा तुम पहला स्वाद पाओगे, संपूर्ण समष्टि में समा जाने का। वही स्वाद तुम्हारी प्रसन्नता बन जायेगा और अस्थिरता चली जायेगी। इसीलिए वे कहते हैं कि ओम् का जप करने से, उसका साक्षी बनने से सारी बाधाएं गिर जाती हैं।

दुख निराशा कंपकंपी और अनियमित श्वसन विक्षेपयुक्त मन के लक्षण हैं।

ये होते हैं लक्षण। दुख का अर्थ ही होता है कि तुम सदा तनाव से भरे होते हो, चिंताग्रस्त होते हो, सदा बंटे—बिखरे होते हो। हमेशा चिंतित मन लिये, हमेशा उदास, निराश—भाव में होते हो। तब सूक्ष्म कंपकंपी होती है देह—ऊर्जा में, क्योकि जब देह—ऊर्जा एक वर्तुल में नहीं चल रही होती; तुममें होता है सूक्ष्म कंपन, कंपकंपी, और अनियमित श्वसन। तब तुम्हारा श्वसन लयबद्ध नहीं हो सकता। यह एक अनियमित श्वासोच्छूवास होता

ये लक्षण है विक्षेपयुक्त मन के। और इसके विपरीत लक्षण होते है उस मन के जो केन्द्रीभूत होता है। ओम् का जप तुम्हें केन्द्रित बनायेगा। तुम्हारा श्वसन लयबद्ध हो जायेगा। तुम्हारी शारीरिक कपकंपाहटें तिरोहित हो जायेंगी, तुम घबड़ाये हुए नहीं रहोगे। उदासी का स्थान एक प्रसन्न अनुभूति ले लेगी। एक प्रसन्नता। तुम्हारे चेहरे पर एक सुकोमल आनंदमयता होगी, बिना किसी कारण के ही। तुम बस प्रसन्न होते हो। तुम्हारे होने मात्र से तुम प्रसन्न होते हो; मात्र सांस लेते हुए ही तुम प्रसन्न होते हो। तुम कुछ बहुत ज्यादा की मांग नहीं करते। तब संताप, मनोव्यथा की जगह आनंद होगा।

इन बाधाओं को दूर करने के लिए एक तत्व पर ध्यान करना।

विक्षेपयुक्त मन के ये लक्षण हटाये जा सकते है एक सिद्धांत पर ध्यान करने द्वारा। वह एक सिद्धांत है-प्रणव, ओम् वह सर्वव्यापी नाद।

आज इतना ही।


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अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–3) प्रवचन–14

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शूल है प्रतिपल मुझे आग बढ़ाते—प्रवचन—चौदहवां

दिनांक 24 नवंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

पहला प्रश्न :

आपके शिष्य वर्ग में जो अंतिम होगा, उसका क्या होगा?

ईसा ने कहा है. जो अंतिम होंगे, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम हो जायेंगे। लेकिन अंतिम होना चाहिए। अंत में भी जो खड़ा होता है, जरूरी नहीं कि अंतिम हो। अंत में भी खड़े होने वाले के मन में प्रथम होने की चाह होती है। अगर प्रथम होने की चाह चली गई हो और अंतिम होने में राजीपन आ गया हो, स्वीकार, तथाता, तो जो ईसा ने कहा है, वही मैं तुमसे भी कहता हूं : जो अंतिम हैं वे प्रथम हो जायेंगे।

प्रथम की दौड़ पागलपन है। संसार में तो ठीक, सत्य की खोज में तो बाधा है। संसार तो पागलखाना है। वहां तो दौड़ है, महत्वाकांक्षा है, स्पर्धा है, संघर्ष है। सत्य की यात्रा पर जो निकला है वह दौड़ से मुक्त हो तो ही पहुंचेगा। प्रतिस्पर्धा जाये, प्रतियोगिता मिटे। दूसरे से कोई संघर्ष नहीं है। सत्य कोई ऐसी संपदा नहीं है कि दूसरा ले लेगा तो तुम्हें कुछ कम हो जायेगा। संसार का धन तो ऐसा है कि दूसरे ने ले लिया तो तुम वंचित हो जाओगे; किसी ने कब्जा कर लिया तो तुम दरिद्र रह जाओगे। इसके पहले कि कोई और कब्जा करे, तुम्हें कब्जा कर लेना है। इसलिए दौड़ है।

संसार का धन तो सीमित है। चाहें बहुत हैं, धन बहुत थोड़ा है। चाहक बहुत हैं, धन बहुत थोड़ा है। अब किसी को राष्ट्रपति होना हो तो साठ करोड़ के देश में एक आदमी राष्ट्रपति हो पायेगा। साठ करोड़ को ही राष्ट्रपति होने का नशा है। तो कठिनाई तो होगी, संघर्ष तो होगा, ज्वर तो पैदा होगा, विक्षिप्तता जन्मेगी। इनमें जो सबसे ज्यादा विक्षिप्त होगा, वह राष्ट्रपति हो जायेगा। जो इस दौड़ में बिलकुल पागल हो कर दौड़ेगा, सब होश—हवास गंवा देगा, सब कुछ दांव पर लगा देगा, वही जीत जायेगा। यहां पागल जीतते हैं, बुद्धिमान हार जाते हैं। यहां जीत सिर्फ विक्षिप्तता का प्रतीक है।

जिनके तुम नाम इतिहास में लेते हो, उनके नाम पागलखानों के रजिस्टरों में होने चाहिए। जिनके आसपास इतिहास बुनते हो वही रुग्णतम लोग थे—चंगेज और तैमूर और नेपोलियन और सिकंदर और हिटलर और माओ। एक दौड़ है आदमी की कि सब पर कब्जा कर ले। और खुद न कर पाये तो दूसरा तो कर ही लेगा।

इसलिए देर करनी नहीं। इसलिए तो इतनी आपाधापी है, इतनी जल्दी है। चैन कहां, शांति कहां! बैठ कैसे सकते हो! एक क्षण विश्राम किया तो चूके। सब तो विश्राम नहीं करेंगे। दूसरे तो दौड़े चले जा रहे हैं। तो दौड़े चलो, दौड़े चलो! मरघट में पहुंच कर ही रुकना। कब में गिरो, तभी रुकना। लेकिन सत्य की संपदा तो असीम है। बुद्ध की महावीर से कोई प्रतिस्पर्धा थोड़े ही है, कि बुद्ध को मिल गया तो महावीर को न मिलेगा, कि महावीर को मिल गया तो कृष्ण को न मिलेगा, कि अब कृष्ण को मिल गया तो अब मुहम्मद को कैसे मिले! सत्य विराट है, खुले आकाश जैसा है; तुम्हें जितना पीना हो पीओ; तुम्हें जितना डूबना हो डूबो—तुम चुका न पाओगे।

इसलिए सत्य के जगत में क्या प्रथम क्या अंतिम! प्रथम और अंतिम तो वहां उपयोगी हैं जहां संघर्ष हो।

और शिष्य तो अंतिम ही होना चाहिए। शिष्यत्व का अर्थ ही यही है : अंतिम खड़े हो जाने की तैयारी; पंक्ति में पीछे खड़े हो जाने की तैयारी। गुरु के लिए सर्वाधिक प्रिय वही हो जाता है जो सबसे ज्यादा अंतिम में खड़ा है। और अगर गुरु को वे प्रिय हों केवल जो प्रथम खड़े हैं तो गुरु गुरु भी नहीं। शिष्य तो शिष्य हैं ही नहीं, गुरु भी गुरु नहीं है। जो चुप खड़ा है, मौन प्रतीक्षा करता है, जिसने कभी माया भी नहीं, जिसने कभी शोरगुल भी नहीं मचाया, जिसने कभी यह भी नहीं कहा कि बहुत देर हो गई है, कब तक मुझे खड़ा रखेंगे; दूसरों को मिला जा रहा है और मैं वंचित रहा जा रहा हूं—जिसने यह कोई बात ही न कही; जिसकी प्रतीक्षा अनंत है; और जिसका धैर्य अपूर्व है—ऐसी अंतिम स्थिति हो तो निश्चित ही मैं तुमसे कहता हूं. जो अंतिम हैं वही प्रथम हैं।

लेकिन अंतिम खड़े हो कर भी अगर प्रथम होने का राग मन में हो और प्रथम होने की आकांक्षा जलती हो तो तुम खड़े ही हो अंतिम, अंतिम हो नहीं। ध्यान रखना, अंतिम खड़े होने से अंतिम का कोई संबंध नहीं।

भिखारी के मन में भी तो सम्राट होने की वासना है। तो सम्राट और भिखारी में फर्क क्या है? इतना ही फर्क है कि एक समृद्ध है और एक समृद्धि का आकांक्षी है। भेद बहुत नहीं है। भिखारी को भी मौका मिले तो सम्राट हो जाएगा। मौका नहीं मिला, असफल हुआ, हारा—यह दूसरी बात है; लेकिन मस्त तो नहीं है, जहां है। आकांक्षा तो वही है रुग्ण, घाव की तरह।

तो दरिद्र होना जरूरी नहीं है कि तुम वस्तुत: त्यागी हो। दरिद्र होना सिर्फ पराजय हो सकती है। संसार को छोड़ देना आवश्यक नहीं है कि संन्यास हो। संसार को छोड़ देना विषाद में हो सकता है। थक गये, जीत दिखाई नहीं पड़ती, मन को समझा लिया कि छोड़े देते हैं, हटे ही जाते हैं—कम से कम यह तो कहने को रहेगा कि हम इसलिए नहीं हारे कि हम कमजोर थे, हम लड़े ही नहीं।

देखा, स्कूल में विद्यार्थी परीक्षा देने के करीब आता है तो कई विद्यार्थी परीक्षा देने से बचना चाहते हैं—कम से कम यह तो कहने को रहेगा कि कभी फेल नहीं हुए; बैठे ही नहीं, बैठते तो उत्तीर्ण तो होने ही वाले थे, लेकिन बैठे ही नहीं। परीक्षा के करीब विद्यार्थी बीमार पड़ने लगते हैं।

मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था। एक विद्यार्थी तीन साल तक मेरी कक्षा में रहा। मैं थोड़ा हैरान होने लगा। और हर वर्ष ठीक परीक्षा के दो—चार दिन पहले उसे बड़े जोर से बुखार, सर्दी—जुकाम और सब तरह की कठिनाइयां हो जाती हैं। एक सौ पांच, एक सौ छ: डिग्री बुखार पहुंच जाता। मगर यह होता है हर साल परीक्षा के पहले। मैंने तीन साल के बाद उसे बुलाया और मैंने कहा कि यह बीमारी शरीर की मालूम नहीं पड़ती; यह बीमारी मन की है। क्योंकि ठीक तीन—चार दिन पहले परीक्षा के हो जाता है नियम से। और जैसे ही तय हो जाता है कि अब परीक्षा में तुम न बैठ सकोगे, कि बस एकाध पेपर चला गया, वह चंगा हो जाता है, बिलकुल ठीक हो जाता है। शायद उसे भी पता नहीं है, लेकिन मन बड़ा धोखा कर रहा है। मन यह कह रहा है. ‘अब हम कर भी क्या सकते हैं! बीमार हो गये इसमें हमारा तो कुछ बस नहीं है। बैठते परीक्षा में तो उत्तीर्ण ही होने थे, स्वर्ण—पदक ही मिलना था; बैठ ही नहीं पाये। तो कम से कम अनुत्तीर्ण होने की बदनामी से तो बचे।

बहुत संन्यासी इसी तरह से संन्यास लेते हैं। जिंदगी में तो दिखाई पड़ता है यहां जीत होगी नहीं; यहां तो हम से बड़े पागल जूझे हुए हैं। यहां तो बड़ा मुश्किल है। बड़ी छीन—झपट है। गला—घोंट प्रतियोगिता है। यहां तो प्राण निकल जाएंगे। यहां जीतने की तो बात दूर, धूल में मिल जाएंगे। लाश पर लोग चलेंगे। यहां से हट ही जाओ। ऐसी पराजय और विषाद की दशा में जो हटता है वह अंतिम नहीं है। उसके भीतर तो प्रथम होने की आकांक्षा है ही। अब वह संन्यासियों के बीच प्रथम होने की कोशिश करेगा; त्यागियों के बीच प्रथम होने की कोशिश करेगा। अगर इस संसार में नहीं सधेगा तो कम से कम परमात्मा के लोक में.।

जीसस की मृत्यु के दिन उनके शिष्य रात जब विदा करने लगे तो पूछा कि एक बात तो बता दें जाते—जाते : जब प्रभु के राज्य में हम पहुंचेंगे तो आप तो निश्चित ही प्रभु के बिलकुल बगल में खड़े होंगे, आपकी बगल में कौन खड़ा होगा? हम बारह शिष्यों में से वह सौभाग्य किसका होगा? उगपका तो पक्का है कि आप परमात्मा के ठीक बगल में खड़े होंगे, वह तो बात ठीक। आपके पास कौन खड़ा होगा? हम बारह हैं। इतना तो साफ कर दें, हमारा क्रम क्या रहेगा?

सोचते हैं? इनको संन्यासी कहिएगा? यही जीसस के पैगंबर बने, यही उनका पैगाम ले जाने वाले बने! इन्होंने जीसस की खबर दुनिया में पहुंचाई। ये जीसस को समझे होंगे, जो आखिरी वक्त ऐसी बेहूदी बात पूछने लगे? जुदास तो धोखा दे ही गया है, इन्होंने भी धोखा दे दिया है। जुदास ने तो तीस रुपये में बेच दिया, पर ये भी बेचने को तैयार हैं; इनकी भी बुद्धि वही की वही है। इस संसार में इनमें से कोई मछुआ था, कोई बढ़ई था, कोई लकड़हारा था, इस दुनिया में ये हारे हुए लोग थे, इस दुनिया को छोड्कर अब ये सपना देख रहे हैं कि वहां दूसरी दुनिया में चखा देंगे मजा—धनपतियों को, सम्राटों को, राजनीतिज्ञों को, कि खड़े रहो पीछे! हम प्रभु के पास खड़े हैं! हमने वहां दुख भोगा!

ऐसी आकांक्षा हो तो तुम अंतिम नहीं। तो अंतिम का अर्थ समझ लेना। अंतिम जो खड़ा है, ऐसा अतिमू का अर्थ नहीं है। जो अंतिम होने को राजी है; जिसकी प्रथम होने की दौड़ शांत हो गई है, शून्य हो गयी है; जिसने कहा, मैं जहां खड़ा हूं यही परमात्मा का प्रसाद है; मैं जहां खड़ा हूं बस इससे अन्यथा की मेरी कोई चाह नहीं, मांग नहीं, तृप्त हूं यहां—ऐसा जो अंतिम हो तो प्रथम हो जाना निश्चित है!

दूसरा प्रश्न :

अलबर्ट आइंस्टीन ने जगत के विस्तार को जाना, ब्रह्म को जाना। क्या आप उन्हें ब्राह्मण का संबोधन देंगे?

जन्मजात ब्राह्मण से तो ज्यादा ही ब्राह्मण आइंस्टीन को कहना होगा। जो केवल पैदा हुआ है ब्राह्मण के घर में, इसलिए ब्राह्मण, उससे तो आइंस्टीन ज्यादा ही ब्राह्मण हैं। यज्ञोपवीत धारण करके जो ब्राह्मण हो गया है उससे तो आइंस्टीन ज्यादा ही ब्राह्मण हैं।

मरने के दो दिन पहले आइंस्टीन से किसी ने पूछा : ‘दुबारा अगर पैदा हों तो क्या होना चाहेंगे? फिर वैज्ञानिक बनना चाहेंगे?’ आइंस्टीन ने आंख खोली और कहा. ‘नहीं—नहीं, भूल कर भी नहीं। जो भूल एक बार हो गई, हो गई; दुबारा मैं कुछ भी विशिष्ट न बनना चाहूंगा। प्लंबर बन —जाऊंगा, कोई छोटा—मोटा काम, विशिष्ट होना अब नहीं। देख लिया, कुछ पाया नहीं। अब तो साधारण होना चाहूंगा।’

यही तो ब्राह्मण का भाव है—यह विनम्रता! फिर भी उनको मैं पूरा ब्राह्मण नहीं कह सकता, क्योंकि ब्रह्मांड तो उन्होंने जाना, वह जो बाहर था वह तो जाना; लेकिन जो भीतर था उसको नहीं जाना। फिर भी ब्राह्मणों से बेहतर, क्योंकि यह कहा कि जो भीतर है उसका मुझे कुछ पता नहीं। जिन्होंने शास्त्र पढ़ लिया है और शास्त्र से रट लिया है, उस रटन को जो अपना शान दावा करते हैं उनसे तो ज्यादा ब्राह्मणत्व आइंस्टीन में है—कम से कम कहा तो कि मुझे भीतर का कुछ भी पता नहीं! भीतर मैं कोरा का कोरा, खाली का खाली हूं! इस जगत की बहुत—सी पहेलियां मैंने सुलझा लीं, लेकिन मेरे अपने अंतस की पहेलियां उलझी रह गई हैं।

उपनिषद कहते हैं : जो कहे मैं जानता हूं जानना कि नहीं जानता। और जो कहे कि मैं नहीं जानता, रुक जाना, शायद जानता हो।

आइंस्टीन कहता है : मुझे कुछ पता नहीं भीतर का। बाहर के ज्ञान ने यह भ्रांति कभी पैदा न होने दी कि भीतर का जान लिया है। बाहर की प्रतिष्ठा ने किसी तरह का भ्रम न पैदा होने दिया। बाहर की प्रतिष्ठा बड़ी थी। मनुष्य—जाति के इतिहास में दो—चार लोग मुश्किल से इतने प्रतिष्ठित हुए हैं जैसा आइंस्टीन प्रतिष्ठित था। लेकिन फिर भी इससे कोई अस्मिता, अहंकार खड़ा न हुआ। इससे मैं— भाव पैदा न हुआ। तो ब्राह्मण से तो ज्यादा ब्राह्मण हैं। लेकिन जो जाना वह बाहर का था। ब्रह्मांड का विस्तार जाना। पदार्थ का विस्तार जाना। दूर—दूर चांद—तारों की खोज की। लेकिन स्वयं के संबंध में कोई गहरा अनुभव न हुआ। स्वयं के संबंध में कोई यात्रा ही न हुई।

तो ब्राह्मण तो वही है जो स्वयं के भीतर के ब्रह्म को जान ले। ब्राह्मण तो वही है जो स्वयं के भीतर के ब्रह्म को और बाहर के ब्रह्मांड को एक जान ले। ब्राह्मण तो वही है, जो भीतर और बाहर एक का ही विस्तार है, ऐसा जान ले।

और याद रखना, जब मैं कहता हूं, जान ले, तो मेरा मतलब है अनुभव कर ले। सुन कर न जान ले, पढ़ कर न जान ले। पढ़ कर सुना हुआ तो खतरनाक है। उससे भ्रांति पैदा होती है। लगता है जान लिया और जाना कुछ भी नहीं। अज्ञान छिप जाता है, बस ऊपर ज्ञान की पर्त हो जाती है।

उधार ज्ञान, बासा ज्ञान अज्ञान से भी बदतर है।

उद्दालक ने अपने बेटे श्वेतकेतु को कहा है..। जब श्वेतकेतु वापिस लौटा गुरु के घर से सब जान कर—मेरे जानने के अर्थ में नहीं; जानने का जैसा अर्थ शब्दकोश में लिखा है वैसे अर्थ में—सब जान कर, पारंगत हो कर, वेद को कंठस्थ करके जब लौटा तो स्वभावत: उसे अकड़ आ गई। बाप इतना पढ़ा —लिखा न था। जब बेटे विश्वविद्यालय से लौटते हैं तो उनको पहली दफा दया आती है बाप पर कि बेचारा, कुछ भी नहीं जानता! ऐसा ही उद्दालक को देख कर श्वेतकेतु को हुआ होगा। श्वेतकेतु सारे पुरस्कार जीतकर लौट रहा है गुरुकुल से। उसको ऐसी भीतर अकड़ आ गई कि उसने अपने बाप के पैर भी न छुए। उसने कहा : ‘मैं और पैर छुऊं इस बूढ़े अज्ञानी के जो कुछ भी नहीं जानता!’ बाप ने यह देखा तो उसके आंखों में आसू आ गये। नहीं कि बेटे ने पैर नहीं छुए, बल्कि यह देख कर कि यह तो कुछ भी जान कर न लौटा। इतना अहंकारी हो कर जो लौटा, वह जान कर कैसे लौटा होगा!

तो जो पहली बात उद्दालक ने श्वेतकेतु को कही कि सुन, तू वह जान लिया है या नहीं जिसे जानने से सब जान लिया जाता है? श्वेतकेतु ने कहा. ‘यह क्या है? किसकी बात कर रहे हो? मेरे गुरु जो सिखा सकते थे, मैं सब सीख आया हूं। मेरे गुरु जो जानते थे, मै सब जान आया हूं। इसकी तो कभी चर्चा ही नहीं उठी, उस एक को जानने की तो कभी बात ही नहीं उठी, जिसको जानने से सब जान लिया जाता है। यह एक क्या है?’

तो उद्दालक ने कहा. ‘फिर तू वापिस जा। यह तू जान कर अभी आ गया, इससे तू ब्राह्मण नहीं होगा। और हमारे कुल में हम जन्म से ही ब्राह्मण नहीं होते; हमारे कुल में हम जान कर ब्राह्मण होते रहे हैं। तू जा। तू जान कर लौट। ऐसे न चलेगा। तू शास्त्र सिर पर रख कर आ गया है, बोझ तेरा बढ़ गया है। तू निर्भार नहीं हुआ है, शून्य नहीं हुआ, तेरे भीतर ब्रह्म की अग्नि नहीं जली, अभी तू ब्राह्मण नहीं हुआ। और ध्यान रख, हमारे कुल में इस तरह हम ब्राह्मण होने का दावा नहीं करते कि पैदा हो गये तो बस ब्राह्मण हो गये; अब ब्राह्मण घर में पैदा हो गये तो ब्राह्मण हो गये! ब्रह्म को जान कर ही हमारे पुरखे दावे करते रहे हैं। और जब तक यह जानना न हो जाए, लौटना मत अब।’

गया श्वेतकेतु वापिस। बड़ी कठिन—सी बात मालूम पड़ी। क्योंकि गुरु जो जानते थे, सब जान कर ही आ गया है। जब गुरु को जाकर उसने कहा कि मेरे पिता ने ऐसी उलझन खड़ी कर दी है कि वे कहते हैं, उस एक को जान कर आ, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है; और जिसे बिना जाने सब जानना व्यर्थ है। वह एक क्या है? आपने कभी बात नहीं की!

तो गुरु ने कहा. उसकी बात की भी नहीं जा सकती। शब्द में उसे बांधा भी नहीं जा सकता। लेकिन अगर तू तय करके आया है कि उसे जानना है तो उपाय हैं। शब्द उपाय नहीं है। शास्त्र उपाय नहीं, सिद्धात उपाय नहीं। वह तो मैंने तुझे सब समझा दिया। तू सब जान भी गया। तू उतना ही जानता है जितना मैं जानता हूं। लेकिन अब तू जो बात उठा रहा है, यह बात और ही तल की है, और ही आयाम की है। एक काम कर—जा गौओं को गिन ले आश्रम में कितनी गौएं हैं, इनको ले कर जंगल चला जा। दूर से दूर निकल जाना; जहां आदमी की छाया भी न पड़े, ऐसी जगह पहुंच जाना। आदमी

की छाया न पड़े, ताकि समाज का कोई भी भाव न रहे।

जहां समाज छूट जाता है वहां अहंकार के छूटने में सुविधा मिलती है। जब तुम अकेले होते हो तो अकड़ नहीं होती। तुम अपने बाथरूम में स्नान कर रहे हो तब तुम भोले— भाले होते हो; कभी मुंह भी बिचकाते हो आईने के सामने; छोटे बच्चे जैसे हो जाते हो। अगर तुम्हें पता चल जाए, कोई कुंजी के छेद से झांक रहा—तुम सजग हो गये, अहंकार वापिस आ गया! अकेले तुम जा रहे हो सुबह रास्ते पर, कोई भी नहीं, सन्नाटा है, तो अहंकार नहीं होता। अहंकार के होने के लिए ‘तू का होना जरूरी है।’मैं’ खड़ा नहीं होता बिना ‘तू के।

तो गुरु ने कहा. दूर निकल जाना जहां आदमी की छाया न पड़ती हो। गौओं के ही साथ रहना, गौओं से ही दोस्ती बना लेना। यही तुम्हारे मित्र, यही तुम्हारा परिवार।

निश्चित ही गौएं अदभुत हैं। उनकी आंखों में झांका! ऐसी निर्विकार, ऐसी शांत!

कभी संबंध बनाने की आकांक्षा हो श्वेतकेतु तो गौओं की आंखों में झांक लेना। और तब तक मत लौटना जब तक गौएं हजार न हो जाएं। बच्चे पैदा होंगे, बड़े होंगे।

चार सौ गौएं थीं आश्रम में, उनको सबको ले कर श्वेतकेतु जंगल चला गया। अब हजार होने में तो वर्षों लगे। बैठा रहता वृक्षों के नीचे, झीलों के किनारे, गौएं चरती रहती; सांझ विश्राम करता, उन्हीं के पास सो जाता। ऐसे दिन आए, दिन गये; रातें आईं, रातें गईं; चांद उगे, चांद ढले; सूरज निकला, सूरज गया। समय का धीरे — धीरे बोध भी न रहा, क्योंकि समय का बोध भी आदमी के साथ है। कैलेंडर तो रखने की कोई जरूरत नहीं जंगल में। घड़ी भी रखने की कोई जरूरत नहीं। यह भी चिंता करने की जरूरत नहीं कि सुबह है कि सांझ है कि क्या है कि क्या नहीं है। और गौएं तो कुल साथी थीं, कुछ बात हो न सकती थी। गुरु ने कहा था, कभी—कभी उनकी आंख में झांक लेना तो झांकता था, उनकी आंखें तो कोरी थीं, शून्यवत! धीरे— धीरे श्वेतकेतु शांत होता गया, शांत होता गया! कथा बड़ी मधुर है। कथा है कि वह इतना शांत हो गया कि भूल ही गया कि जब हजार हो जाएं तो वापिस लौटना है। जब गौएं हजार हो गईं तो गौओं ने कहा : ‘श्वेतकेतु, अब क्या कर रहे हो? हम हजार हो गये। गुरु ने कहा था…। अब वापिस लौट चलो आश्रम। अब घर की तरफ चलें।’ गौओं ने कहा, इसलिए वापिस लौटा। कथा बड़ी प्यारी है! गौओं ने कहा होगा, ऐसा नहीं। लेकिन इतनी बात की सूचना देती है कि ऐसा चुप हो गया था, मौन कि अपनी तरफ से कोई शब्द न उठे; खयाल भी न उठा। अतीत जा चुका। मन के साथ ही गया अतीत—मन के साथ ही चला जाता है। इस मौन क्षण में एक जाना जाता है।

लौटा! गुरु द्वार पर खड़े थे। देखते थे, गुरु ने अपने और शिष्यों से कहा : ‘देखते हो! एक हजार एक गौएं लौट रही हैं।’

एक हजार एक! क्योंकि गुरु ने श्वेतकेतु को भी गौओं में गिना। वह तो गऊ हो गया। ऐसा शांत हो गया जैसे गाय। वह उन गऊओं के साथ वैसा ही चला आ रहा था जैसे और गायें चली आ रही थीं। गऊओं और उसके बीच इतना भी भेद नहीं था कि मैं मनुष्य हूं और तुम गाय हो।

भेद गिर जाते हैं शब्द के साथ; अभेद उठता है निःशब्द में। जब वह आकर गुरु के सामने खड़ा हो गया और उसने कहा कि अब कुछ आज्ञा? तो गुरु ने कहा. ‘ अब क्या त्र तू तो जान कर ही लौटा, अब क्या समझाना है! तेरी मौजूदगी कह रही है कि तू जान कर ही लौटा है, अब तू अपने घर लौट जा सकता है। अब तेरे पिता प्रसन्न होंगे, तू ब्राह्मण हो गया है।’

तो आइंस्टीन को ब्राह्मण इस अर्थ में तो नहीं कह सकते; लेकिन आइंस्टीन ब्राह्मण होने के मार्ग पर था। बाहर को जान लिया था, भीतर को जानने की प्रगाढ़ जिज्ञासा उठी थी। लेकिन फिर भी मैं फिर से दोहरा दूं : तुम्हारे तथाकथित ब्राह्मणों से, पुरी के शंकराचार्य से तो ज्यादा ब्राह्मण थे।

तीसरा प्रश्न :

कृष्णमूर्ति बार—बार अपने श्रोताओं से कहते हैं न ‘सुनो गंभीरतापूर्वक; यह गंभीर बात है! लिसन सीरियसली; इट इज ए सीरियस मैटर।’ पर आप अपने संन्यासियों से ऐसा नहीं कहते : ‘सुनो गंभीरतापुरर्वक; यह गंभीर बात है!’

पहली तो बात : या तो जो कुछ है सभी गंभीर है, या कुछ भी गंभीर नहीं। ऐसा विशेष रूप से कहना कि यह गंभीर बात है, भेद खड़ा करना होगा; जैसे कि कुछ बात गैर—गंभीर भी हो सकती है! सभी बात गंभीर है या तो, या कोई बात गंभीर नहीं।

बोध हो तो सभी बातें रहस्यपूर्ण हैं। वृक्ष से एक सूखे पत्ते का गिरना भी! क्योंकि कभी ऐसा हुआ है, लाओत्सु जैसा कोई व्यक्ति वृक्ष से सूखे गिरते हुए पत्ते को देखकर ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। तो गंभीर बात हो गई। बैठा था नीचे, वृक्ष से पत्ता गिरा, सूखा था, लटका था, जरा हवा का झोंका आया और गिरा। पता ऐसा नीचे गिरने लगा हवा में धीरे—धीरे और लाओत्सु भीतर गिर गया। उसने कहा, यहां तो सब आना—जाना है! आज हैं, कल चले जाएंगे! अब यह पत्ता वृक्ष पर लगा था, अभी— अभी छूट गया; देखते—देखते छूट गया! ऐसे ही एक दिन मैं मर जाऊंगा। इस जीवन का कोई मूल्य नहीं।

बात गंभीर हो गई।

एक को साधिका घड़े में पानी भरकर लौटती थी कुएं से। पूर्णिमा की रात थी और घड़े में देखती थी पूर्णिमा के चांद का प्रतिबिंब। अचानक रस्सी टूट गई, काबर टृf गई, घड़ा गिर, फूट गया, पानी बिखर गया—प्रतिबिंब भी बिखर गया और खो गया। और कहते हैं साध्वी ज्ञान को उपलब्ध हो गयी। नाचती हुई लौटी। एक बात समझ में आ गई. वही मिटता है जो प्रतिबिंब है। इसलिए प्रतिबिंबों में मत उलझो। इस जगत में तो सभी मिट जाता है, इसलिए यह जगत प्रतिछाया है, सत्य नहीं है। घड़ा क्या टूटा, काबर क्या बिखरी, उसके जीवन की सारी वासना का जाल बिखर गया। तो गंभीर बात हो गई। जिससे विराट जाना जा सके वही गंभीर बात हो जाती है। और फिर ऐसे भी लोग हैं कि तुम्हारे सामने कोई उपनिषद को दोहराता रहे और तुम ऐसे बैठे रहो जैसे भैंस के सामने कोई बीन बजाये—तो भी गंभीर बात न हुई। लाख दोहराओ उपनिषद, क्या होगा?

बोध हो तो जीवन की प्रत्येक घड़ी संदेश ला रही है। बोध हो तो पत्ते—पत्ते पर उसका नाम लिखा है। जाग सको तो हर बात महत्वपूर्ण है; न जाग सको तो कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। तुम्हारे सिर पर कोई चोट करके कहता रहे कि बड़ी महत्वपूर्ण बात है, सुनो! सुनने की क्षमता ही नहीं है तो कहने से क्या होगा?

निश्चित, कृष्णमूर्ति का प्रेम प्रगट होता है, क्योंकि वे बार—बार चेष्टा करते हैं कि तुम सुन लो बार—बार तुम्हें हिलाते, झकझोरते हैं। उनकी करुणा पता चलती है। नाराज भी होते हैं कृष्‍णमूर्ति कभी। क्योंकि लाख समझाये चले जाते हैं, फिर भी मजा है।

एक मित्र मुझसे कह रहे थे। गये होंगे सुनने। और एक का आदमी सामने ही बैठा था। और कृष्णमूर्ति समझा रहे थे ध्यान से कुछ भी न होगा; कोई विधि की जरूरत नहीं है; तुम जाग जाओ यहीं और अभी! और फिर उन्होंने कहा, किसी को कोई प्रश्न तो नहीं पूछना है? वह बूढ़ा खड़ा हो गया और बोला कि ध्यान कैसे करें महाराज? उन्होंने अपना सिर ठोंक लिया। यह जो घंटे भर सिर पचाया..। वह आदमी पूछता है कि ध्यान कैसे करें!

ऐसे कृष्णमूर्ति को सुननेवाले तीस—तीस चालीस—चालीस साल से सुन रहे हैं, बैठे हैं। वे सुनेंगे मरते दम तक, मगर सुना नहीं। इन मुर्दों को हिलाने के लिए बार—बार वे कहते हैं. ‘सुनो, गंभीर बात है! इसे तो सुन लो कम से कम। और चूके सो चूके, इसे तो सुन लो!’ ऐसा बार—बार कहते हैं। मगर वे बैठे जो हैं, बैठे हैं। वे इसको भी कहां सुनते हैं! यह गंभीर बात है, इसे सुनो—इसके लिए भी तो सुननेवाला चाहिए। वे इसको भी नहीं सुनते। वे बैठे जैसे, वैसे बैठे हैं। थोड़े और सम्हल कर बैठ जाते हैं कि ठीक, चलो! मगर सुनने की बात जरा कठिन है।

सुनने के लिए एक तरह का बोध, एक तरह का ‘ अबोध बोध’ चाहिए। बुद्धिमान का बोध नहीं, निर्दोष बालक का।’अबोध बोध’ कहता हूं। निर्दोष बालक का बोध चाहिए। सजगता चाहिए। शांत भाव चाहिए। भीतर शब्दों की, विचारों की श्रृंखला न चलती हो। भीतर तर्क का जाल न हो। भीतर पक्षपात न हो।

‘सुनो’ का क्या अर्थ होता है? ‘सुनो’ का अर्थ होता है. अपनी मत बीच—बीच में डालो, जरा अपने को हटाकर रख दो। सीधा—सीधा सुन लो! सुनने का यह अर्थ नहीं होता है कि मेरी मान लो। सुनने का इतना ही अर्थ होता है. मानने न मानने की फिक्र पीछे कर लेना; अभी सुन तो लो; जो कहा जा रहा है, उसे ठीक—ठीक सुन तो लो।

तुम वही सुनते हो जो तुम सुनना चाहते हो। तुम वही सुनते हो जो तुम्हारे मतलब का है। वहीं तक सुनते हो जहां तक तुम्हारे मतलब का है। तुम बड़ी काट—पीट करके सुनते हो। तुम उतना ही भीतर जाने देते हो जितना तुम्हें बदलने में समर्थ न होगा। तुम उतना ही भीतर जाने देते हो जितना तुम्हारे पुरानेपन को और मजबूत करेगा; तुम्हें और प्रगाढ़ कर जाएगा; तुम्हारे अहंकार को और कठोर, मजबूत, शक्तिशाली बना जाएगा। तुम थोड़े और ज्ञानी हो कर चले जाओगे।

मैं तुमसे यह नहीं कहता। नहीं कहता इसीलिए कि कृष्णमूर्ति चालीस साल कहकर भी किसको सुना पाये! मुझे तो जो कहना है, तुमसे कहे चला जाता हूं। गंभीर है या गैर—गंभीर है, इसको दोहराने से कुछ भी न होगा। सुनने को तुम आये हो तो सुन लोगे। सुनने को तुम नहीं आये हो तो नहीं सुनोगे। तुम पर छोड़ दिया। मेरा काम मैं पूरा. कर देता हूं बोलने का। मैं परिपूर्णता से बोल देता हूं। मैं अपनी समग्रता से बोल देता हूं। अगर तुम भी सुनने की तैयारी में हो, कहीं मेरा तुम्हारा मेल हो जाए, तो घटना घट जाएगी। बोलनेवाला अगर परिपूर्णता से बोलता हो और सुननेवाला भी परिपूर्णता से सुन ले तो श्रवण में ही सत्य का हस्तांतरण हो जाता है। जो नहीं दिया जा सकता, वह पहुंच जाता है। जो नहीं कहा जा सकता, वह भी कह दिया जाता है। अव्याख्य की व्याख्या हो जाती है। अनिर्वचनीय एक हाथ से दूसरे हाथ में उतर जाता है। लेकिन बोलनेवाले और सुननेवाले का तालमेल हो जाए, एक ऐसी घड़ी आ जाए, जहां बोलनेवाला भी अपनी परिपूर्णता में, पूरे भाव में और तुम भी अपनी परिपूर्णता में हो, पूरे भाव में। अगर ऐसा मिलन हो जाए न तो बोलनेवाला बोलनेवाला रह जाता है, न सुननेवाला सुननेवाला रह जाता है। गुरु और शिष्य एक—दूसरे में खो जाते हैं, लीन हो जाते हैं! इसको दोहराना क्या है कि गंभीरता से सुनो!

जो भी मैं कह रहा हूं, या तो सभी गंभीर है, या कुछ भी गंभीर नहीं। दोनों में से मैं किसी भी बात से राजी हूं : या तो तुम मान लो कि सब गंभीर है तो भी मैं राजी हूं क्योंकि तब गंभीर कहने का कोई अर्थ न रहा, सभी गंभीर है; या तुम कहो कुछ भी गंभीर नहीं, तो भी मैं राजी हूं।

अगर तुम मुझसे पूछो कि क्या है, गंभीर है या नहीं? तो मैं तो तुमसे कहूंगा, सब लीला है। कई बार तो ऐसा होता है कि तुम्हारी गंभीरता के कारण ही तुम नहीं सुन पाते। गंभीर हो कर तुम बोझिल हो जाते हो, हलके नहीं रह जाते; तनाव से भर जाते हो। मैं तुम्हें तनाव से नहीं भरना चाहता।

अगर मैं तुमसे कहूं गंभीर बात कह रहा हूं सुनो! तो तुम रीढ़ सीधी करके बैठ जाओगे। क्या करोगे और? तुमने देखा है, स्कूल में शिक्षक कहता है : ‘बच्चो, एकाग्र हो जाओ! महत्वपूर्ण बात कही जा रही है!’ सब बच्चे सम्हलकर बैठ गए। लेकिन बच्चे बच्चे हैं, सम्हलकर बैठ गए तो वे बच्चे सम्हलकर बैठे हैं, आंखें गड़ाते हैं, सिर पर तनाव लाते हैं, सब तरह से दिखलाते हैं कि बड़े गंभीर हो कर देख रहे हैं, मगर उन्हें बोर्ड पर कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है। बाहर एक पक्षी पंख फड़फड़ा रहा है, वह सुनाई पड़ रहा है। बाहर कोई फिल्मी गीत गाता गुजर रहा है, वह सुनाई पड़ रहा है। बैठे हैं आंख गड़ाये बोर्ड पर, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। शिक्षक क्या कह रहा है, सुनाई नहीं पड़ता। लेकिन दिखावा कर रहे हैं।

वैसा ही दिखावा फिर जीवन भर चलता है। जब कोई कहता है, गंभीर बात, तो तुम गौर से सुनने लगते हो। लेकिन गौर से तुम सुनोगे! तुम गौर से सुनते हो, ऐसा दिखलाते हो।

नहीं, मैं चाहता हूं कि तुम हलके हो कर सुनो। तुम लीलापूर्वक सुनो। विश्राम में सुनो। तने हो कर मत बैठो। यहां हम एक खेल में लीन हैं। यहां कोई बड़ा काम नहीं हो रहा है। तुम ऐसे सुनो जैसे संगीत को सुनते हो। संगीत को तुम गंभीर होकर थोड़े ही सुनते हो, लवलीन होकर सुनते हो। गंभीर हो कर संगीत को तुम सुनो तो उसका अर्थ हुआ कि तुमने सुना ही नहीं। लीन हो कर तुम डुबकी लगा लेते हो, भूल ही जाते हो।

यहां सुनते समय तुम ऐसे सुनो कि तुम्हें तुम्हारी याद भी न रहे। गंभीर में तो तुम्हें याद बनी रहेगी। गंभीर में तो तुम स्वचेतन बने रहोगे। गंभीर में तो तुम डरे रहोगे, कुछ चूक न जाए, कोई एकाध शब्द खो न जाए! हलके हो कर, लीलापूर्वक, विश्रांति में सुनो, तो शायद बात हृदय तक जगदा पहुंच जाए।

तुम नहीं सुन पाते तो मैं नाराज नहीं हूं। तुम नहीं सुन पाते, यह बिलकुल स्वाभाविक है। कृष्णमूर्ति नाराज हो जाते हैं। उनकी बड़ी आग्रहपूर्वक चेष्टा है कि तुम सुन लो। और कारण भी समझ में आता है—वे चालीस साल से समझाते हैं, कोई समझता नहीं है। एक सीमा होती है। अब उनके जाने के दिन करीब आ गये; अब भी कोई सुनता हुआ नहीं मालूम पड़ता, कोई समझता हुआ मालूम नहीं पड़ता। जो दावा करते हैं कि हम समझते हैं, उनके दावे झूठे हैं। एक व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई पड़ता जिस पर कृष्णमूर्ति को लगे कि हां, यह ठीक—ठीक समझ गया है। तो विदा होने के क्षण आने लगे; जीवन भर की चेष्टा व्यर्थ गई मालूम होती है; कोई सुनता—समझता हुआ नहीं मालूम पड़ता। करुणावश ही नाराज होते हैं, किसी क्रोधवश नहीं।

लेकिन मैं करुणावश भी नाराज होने को राजी नहीं हूं। मेरी मौज थी, मैंने कह दिया; तुम्हारी मौज थी, तुमने सुन लिया; तुम्हारी मौज थी, तुमने नहीं सुना। बात खतम हो गई। नहीं सुनना है, तुम्हारी मर्जी। मैं कौन हूं जो नाराज होऊं! और मैं क्यों यह जुम्मा अपने सिर लूं कि तुम्हें सुनाकर ही जाऊंगा। यह मेरी मौज है कि मुझे सुनाना है, कुछ मुझे मिला है, वह मुझे गुनगुनाना है; कुछ पाया है उसे बांटना है। यह मेरी तकलीफ है, इससे तुम्हें क्या लेना—देना है!

यह बादल की पीड़ा है कि भरा है और बरसना है; अब पृथ्वी उसे स्वीकार करेगी या नहीं, पलक—पांवड़े बिछाकर अंगीकार करेगी या नहीं, चट्टानों पर से जल ऐसे ही बह जाएगा और चट्टानें पहले की जैसी सूखी रह जाएंगी या मरुस्थल में पानी गिरेगा और फिर भाप बनकर आकाश में उठ आयेगा, कहीं कोई हरियाली पैदा न होगी या कहीं कोई भूमि स्वीकार कर लेगी, प्यासे कंठ को, भूमि को तृप्ति मिलेगी, उस तृप्ति से हरियाली जगेगी, फूल खिलेंगे, खुशी होगी, उत्सव होगा—क्या फर्क पड़ता है! बादल को बरसना है तो बादल बरस जाता है—पहाड़ों पर भी, मरुस्थलों में भी खेत—खलिहानों में भी, सीमेंट की सड़कों पर भी। सब तरफ बादल बरस जाता है। उसे बरसना है। जो ले ले, ले ले, जो न ले, न ले।

मैं इस अर्थ में गंभीर नहीं हूं जिस अर्थ में कृष्णमूर्ति गंभीर हैं। कृष्णमूर्ति अति गंभीर हैं; मैं गंभीर नहीं हूं। इसलिए तुम्हारे साथ हंस भी लेता हूं तुम्हें हंसा भी लेता हूं। धर्म मेरे लिए कोई ऐसी बात नहीं है कि उसका बड़ा बोझ बनाया जाए। धर्म मेरे लिए सरल बात है। उसके लिए बुद्धि का बहुत तनाव नहीं चाहिए; थोड़ा निर्दोष हलकापन चाहिए। मजाक—मजाक में तुमसे मैं गंभीर बात कहता हूं। जब मुझे जितनी गंभीर बात कहनी होती है उतनी मजाक में कहता हूं। क्योंकि मजाक में तुम हलके रहोगे, हंसते रहोगे; हंसी में शायद गंभीर बात रास्ता पा जाए, तुम्हारे हृदय तक पहुंच जाए। तुमसे यह बात कहना कि गंभीर बात कह रहा हूं सुनो, तुमको और अकड़ा देना है। तुम्हारी गंभीरता के कारण ही न पहुंच पाएगी।

तुमने देखा, जो बात तुम्हारे भीतर पहुंचानी हो उसको पहुंचाने के लिए कुछ और उपाय होना चाहिए। तुम ऐसे तल्लीन हो कि तुम अपने पहरे पर नहीं हो। जब तुम पहरे पर नहीं हो तब कोई बात पहुंच जाती है।

देखते हो, सिनेमा देखने जाते हो, तब तुम अपने पहरे पर नहीं होते, फिल्म देखने में तल्लीन हो, बीच में विज्ञापन आ जाता है लक्स टायलेट साबुन! वह जिसने बीच में विज्ञापन रख दिया है, वह जानता है कि अभी तुम गंभीर नहीं हो, अभी तुम इसकी फिक्र भी न करोगे, शायद तुम इसे पढ़ो भी नहीं, लेकिन आंख की कोर में छाप पड़ गई. लक्स टायलेट साबुन! अभी तुम गैर—गंभीर थे। अभी तुम तने न बैठे थे। अभी तुम उत्सुक ही न थे इस सब बात में। अभी तो तुम डूबे थे कहीं और। इस डुबकी की हालत में यह लक्स टायलेट साबुन चुपचाप भीतर प्रवेश कर गई। पहरेदार नहीं था द्वार पर। यह ज्यादा सुगम है तुम्हारे भीतर पहुंचा देना।

कभी तुमसे मजाक करता हूं; कुछ बात कहता हूं हंसी की; तुम हंसने में लगे हो, तभी कोई एक पंक्ति डाल देता हूं जो तुम्हारे भीतर पहुंच जाये। तुम हंसी में भूल गये थे; उसी बीच तुम्हें थोड़ा—सा देने योग्य दे दिया।

मुझसे कई मित्र पूछते हैं कि कभी भी किसी धर्मगुरु ने इस तरह हंसी में बातें नहीं कही हैं। तो मैं कहता हूं तुम देखते हो, नहीं कहीं, तो नहीं पहुंची। अब मुझे जरा प्रयोग करके देख लेने दो। गंभीर लोगों ने प्रयोग करके देख लिया है, नहीं पहुंचा है, मुझे जरा गैर—गंभीर प्रयोग करके देख लेने दो। तो तुम देखोगे धर्मगुरुओं की सभा में बूढ़े आदमियों को; मेरी सभा में तुम्हें जवान भी मिल जाएंगे, बच्चे भी मिल जाएंगे; उनकी संख्या ज्यादा मिलेगी। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह उन्हें गंभीर बनाने की जबर्दस्ती नहीं है।

मेरे साथ जवान भी उत्फुल्ल हो सकता है और बच्चा भी हंस सकता है और बूढ़ा भी उत्सव में सम्मिलित हो सकता है। मेरा अपना प्रयोग है। ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं कि कृष्णमूर्ति गलत करते हैं। वे जो करते होंगे, ठीक करते होंगे। वह उनकी जानकारी। वह वे जानें। तुलना नहीं कर रहा हूं। तुलना हो भी नहीं सकती। मैं अपने ढंग से कर रहा हूं वे अपने ढंग से करते हैं। जो गंभीर हों, उन्हें उनसे सुन कर समझ लेना चाहिए। जो गंभीर न हों, उन्हें मुझसे सुन कर समझ लेना चाहिए। कहीं तो समझो!

चौथा प्रश्न :

क्या जल्दी ही आप गद्य को छोड़ कर पद्य में ही हमें समझायेंगे? और क्या फिर मौन में चले जाएंगे?

पद्य निश्चित ही प्रार्थना के ज्यादा करीब है गद्य से। और तुमने अगर मुझे सुना है तो मैं पद्य में ही समझाता रहा हूं गद्य बोला ही कब? पद्य का अर्थ क्या होता है? —जो गाया जा सके; जो गेय है; जो नाचा जा सके। पद्य का अर्थ क्या है? —जिसमें एक संगीत है, एक लयबद्धता है, एक छंद है। तुम अगर मुझे ठीक से सुन रहे हो, तो जब मैं गद्य बोलता मालूम पड़ता हूं तब भी पद्य ही बोल रहा हूं। क्योंकि सारी चेष्टा यही है कि तुम गुनगुना सको, गा सको, नाच सकी, तुम्हारे जीवन में छंद आ सके। कविता के ढांचे में बांका तभी तुम पहचानोगे?’

बुद्ध ने जो बोला है, वह सभी पद्य है। महावीर ने जो बोला है, वह सभी पद्य है। गद्य तो बोला नहीं जा सकता। प्रार्थना के जगत से पद्य ही निकलता है। नहीं कि मैं यह कह रहा हूं बुद्ध कोई कवि हैं, कवि तो जरा भी नहीं हैं। मात्रा और व्याकरण और भाषा का उन्हें कुछ पता नहीं है। लेकिन तुकबंदी को तुम पद्य मत समझ लेना। तुकबंद तो बहुत हैं। तुकबंदी में पद्य नहीं है। पद्य जरा कुछ बड़ी बात है। सभी कविताओं में पद्य नहीं होता, और सभी गद्य में पद्य नहीं है, ऐसा भी नहीं है।

तुम्हें अगर मुझे सुनते समय एक गुनगुनाहट पैदा होती हो, मेरी बात तुम्हारे भीतर जा कर मधुर रस बन जाती हो, मेरी बात तुम्हारे भीतर जा कर एक तरंग का रूप लेती हो, तुम डावांडोल हो जाते होओ, तो पद्य हो गया। पद्य परमात्मा को प्रगट करने के लिए ज्यादा सुगम है।

इसलिए आश्चर्यजनक नहीं है कि उपनिषद पद्य में हैं, कि वेद पद्य में है, कि कुरान गेय है, कि बाइबिल जैसी पद्यपूर्ण भाषा न कभी पहले लिखी गई है न फिर बाद में लिखी गई। माधुर्य है एक। एक अपूर्व रस है। गद्य होता है सूखा—सूखा, कामचलाऊ, मतलब का, अर्थपूर्ण। पद्य होता है अर्थहीन, अर्थमुक्त, अर्थशून्य; रसपूर्ण जरूर, अर्थपूर्ण नहीं।

फूल खिला। पूछो, क्या अर्थ है? गद्य तो नहीं है वहां। क्योंकि अर्थ क्या है? गुलाब का फूल खिला, क्या अर्थ है? क्या प्रयोजन है? न खिलता तो क्या हानि थी? खिल गया तो क्या लाभ है? नहीं, बाजार की दुनिया में गुलाब के फूल में कुछ भी अर्थ नहीं। लेकिन पद्य बहुत है। गुलाब न खिलता तो सारी दुनिया बिना खिली रह जाती। गुलाब न खिलता तो सूरज उदास होता। गुलाब न खिलता तो चांद—तारे फीके होते। गुलाब न खिलता तो पक्षी गुनगुनाते नहीं। गुलाब न खिलता तो आदमी स्त्रियों के प्रेम में न पड़ते; स्त्रियां आदमियों के प्रेम में न पड़ती। गुलाब न खिलता तो बच्चे खिलखिलाते न, यह सारी खिलखिलाहट के साथ ही है गुलाब। यह गुलाब का खिलना इस महोत्सव का अनिवार्य अंग है। अर्थ कुछ भी नहीं है। गद्य नहीं है यह, पद्य है।

पक्षी गीत गाते हैं; सार तो कुछ भी नहीं है। लेकिन क्या तुम निस्सार कह सकोगे? हाथ में पकड़ कर बाजार में बेचने जाओगे, कोई खरीददार न मिलेगा। लेकिन क्या तुम इसीलिए कह सकोगे कि इनका कोई मूल्य नहीं है? मूल्य बाजार में भला न हो, लेकिन किसी और तल पर इनका मूल्य है—हृदय के तल पर इनका मूल्य है। पक्षी की गुनगुनाहट हृदय के किन्हीं बंद तालों को खोल जाती है।

तो मैं जो बोल रहा हूं वह पद्य ही है। मैं कोई कवि नहीं हूं निश्चित ही। लेकिन जो मैं तुमसे कहना चाह रहा हूं वह कविता है। और तुम उसे सुनोगे, तुम उसे हृदय में धारण करोगे, तुम उसे अपने भीतर स्वागत करोगे, तो तुम पाओगे. अनंत— अनंत फूल तुम्हारे भीतर उससे खिलेंगे!

जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह पद्य है और तुम्हारे भीतर प्रार्थना बन सकता है। थोड़ी राह दो। थोडा मार्ग दो। तुम्हारे हृदय की भूमि में यह बीज पड़ जाये तो इसमें फूल निश्चित ही खिलने वाले हैं। यह पद्य ऊपर से प्रगट न हो, लेकिन यह पद्य तुम्हारे भीतर प्रगट होगा।

और निश्चित ही जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह मौन से आ रहा है। मौन से ही कहना चाहता हूं, लेकिन तुम सुनने में समर्थ नहीं हो। लेकिन जो मैं तुमसे कह रहा हूं, वह मौन के लिए है; मौन से है और मौन के लिए है। जो शब्द मैं तुमसे कहता हूं वह मेरे शून्य से आ रहा है, शून्य से सरोबोर है। तुम जरा उसे चबाना। तुम उसे जरा चूसना। तुम जरा उसे पचाना। और तुम पाओगे. शब्द तो खो गया, शून्य रह गया। अगर तुमने चबाया न, पचाया न, तो शून्य का तो तुम्हें पता ही न चलेगा, शब्द खटकता रह जाएगा। तो शब्द को तुम इकट्ठे करके पंडित हो जाओगे। अगर मेरे शब्दों में से तुमने शून्य को संगृहीत किया और शब्द की खोल को फेंक दिया तो तुम्हारी प्रज्ञा, तुम्हारा बोध जागेगा, तुम्हारा बुद्धत्व जागेगा। शब्द तो खोल हैं; जैसे कारतूस चल जाए तो चली कारतूस को क्या करोगे? चली कारतूस तो खोल है, असली चीज तो निकल गई।

असली चीज जो मैं तुमसे कह रहा हूं, शून्य है, मौन है। तुम शब्द की खोल को तो फेंक देना। जैसे फल के ऊपर के छिलके को फेंक देते हो और भीतर का रस चूस लेते हो—ऐसे शब्द पर ध्यान मत देना, शून्य पर ध्यान देना। पंक्ति—पंक्ति के बीच में पढ़ना, बीच—बीच में पढ़ना और शब्द—शब्द के बीच जो अंतराल हो वहां ध्यान रखना। जब कभी बोलते—बोलते मैं चुप रह जाता हूं? तब ज्यादा उड़ेल रहा हूं। तब तुम अपने पात्र को खूब भर लेना।

कहीं मिलन हो जाये।

तुम बरसो, भीगे मेरा तन

तुम बरसो, भीगे मेरा मन

तुम बरसो सावन के सावन

कुछ हलकी छलकी गागर हो

कुछ भीगी भारी हो काँवर

जब तुम बरसो तब मैं तरसूं

जब मैं तरसूं तब तुम बरसो।

हे धाराधर!

कहीं मिलन हो जाये।

जब मैं बरसूं तब तुम तरसो।

जब तुम तरसो तब मैं बरसूं।

कहीं मिलन हो जाये! तुम्हारी प्यास और जो जल ले कर मैं तुम्हारे द्वार पर खड़ा हूं उसका कहीं मिलन हो जाये।

तुम बरसो, भीगे मेरा तन

तुम बरसो, भीगे मेरा मन

तुम बरसो सावन के सावन

कुछ हलकी छलकी गागर हो

कुछ भीगी भारी हो कावर

जब तुम बरसो तब मैं तरसूं

जब मैं तरसूं तब तुम बरसो।

हे धाराधर!

शब्द से कुछ न कहूंगा मैं

नयनों के बीच रहूंगा मैं

जो सहना मौन सहूंगा मैं’

मेरी धड़कन मेरी आहें

मांगेंगी तुमसे प्रत्युत्तर

जब तुम बरसों तब मैं तरसूं

जब मैं तरसूं तब तुम बरसो।

हे धाराधर!

यह भार तुम्हीं पर भारी है

ऊपर बिजली की धारी है

क्या मेरी ही लाचारी है?

कुछ रिक्त भरा हो जाऊं मैं

कुछ भार तुम्हारा जाये उतर

जब तुम बरसो तब मैं तरसूं

जब मैं तरसूं तब तुम बरसों।

हे धाराधर!

एक अपूर्व घटना घट सकती है; कभी—कभी क्षण भर को घटती भी है; कभी किसी को घटती भी है—जब अचानक संवाद फलित होता है; मेरा पद्य तुम्हें भर लेता है; मेरी आंखें तुम्हारी आंख से मिल जाती हैं, क्षण भर को तुम रिक्त हो जाते हो, तुम्हारी गागर मेरी तरफ उन्‍मूख हो जाती है। तो रस बहता है। तो संगीत उतरता है। और सारा संगीत और सारा रस शून्य का है। क्योंकि धर्म की सारी चेष्टा यही है कि तुम किसी भांति मिट जाओ ताकि परमात्मा तुम्हारे भीतर हो सके। तुम शून्य हो जाओ तो पूर्ण उतर सके।

पांचवां प्रश्न :

आनंद के अनुभव के लिए व्यक्ति का होना अनिवार्य—सा लगता है। लेकिन अगर सब तरफ मेरा ही विस्तार है तो फिर आनंद को अनुभव कौन करेगा? जीवन आनंदित हो सके, इसके लिए जैसे संन्यास अनिवार्य है वैसे ही आनंद के अनुभव के लिए व्यक्ति अनिवार्य नहीं है क्या?

व्‍यक्ति के कारण ही आनंद नहीं हो पा रहा है। आनंद की अपेक्षा के लिए व्यक्ति अनिवार्य है, आनंद के अनुभव के लिए बाधा है। आनंद की आकांक्षा के लिए व्यक्ति की जरूरत है, आनंद की वासना के लिए व्यक्ति की जरूरत है; लेकिन आनंद की अनुभूति के लिए व्यक्ति की कोई भी जरूरत नहीं है। जब आनंद होता है तो तुम थोड़े ही होते हो! तुम नहीं होते हो तभी आनंद होता है। और ‘इसे तुमने भी कभी—कभी किन्हीं अनायास क्षणों में पाया होगा : जब तुम नहीं होते तब थोड़ी—सी झलक मिलती है। प्रेमी घर आ गया है तुम्हारा, तुम हाथ में हाथ ले कर बैठ गये हो। एक क्षण को प्रेमी की उपस्थिति तुम्हें इतना लीन कर देती है कि तुम मिट जाते, कुछ खयाल नहीं रह जाता अपना। एक बूंद सरक जाती है। रस झरता है।

कभी सूरज को उगते देखा है त्र: बैठ गये नदी तट पर, उठने लगा सूरज। यह सुबह की हवा, यह नदी की शीतलता, यह शांति, यह खुला आकाश, यह सूरज का उठना, यह सूरज की किरणों का फैलता हुआ सौंदर्य का जाल— क्षण भर को तुम ठगे रह गये! भूल गये कि तुम हो। क्योंकि स्वयं को बनाये रखने के लिए स्वयं को सदा स्मरण रखना जरूरी है, यह खयाल रखना।

अहंकार कोई ऐसी चीज नहीं है कि पत्थर की तरह तुम्हारे भीतर रखी है। अहंकार तो ऐसा ही है जैसा मैं बार—बार कहता : जैसे कोई साइकिल चलाता, पैडल मारो तो साइकिल चलती है; पैडल मारना भूल गये थोड़ी देर को कि साइकिल गिरी। अहंकार कुछ ऐसा थोड़े ही है कि पत्थर की तरह रखा है, तुम जब तक याद रखो तभी तक है। याददाश्त रखने में ही पैडल चलता है। जैसे ही तुमने याददाश्त भूली कि गया।

तो कभी संगीत सुन कर सिर डोलने लगा, तो गया अहंकार। उस क्षण में तुम्हें रस झरता है, आनंद मालूम होता है। सौंदर्य हो, प्रेम हो, ध्यान हो, संगीत हो या कोई और कारण हों—कभी—कभी तो ऐसी चीजों से भी रस झर जाता है कि दूसरों को देख कर आश्चर्य होता है। तुम क्रिकेट का मैच देखइrएंने गये, तुम्हें क्रिकेट के मैच में रस है; दूसरे समझेंगे पागल हो गये हो, लेकिन तुम बैठे हो वहां मंत्रमुग्ध, आंखें ठगी रह गई हैं, पलकें नहीं झपकती हैं, भूल ही गये अपने को, मूर्तिवत। जैसे कभी बुद्ध बैठ गये होंगे बोधिवृक्ष के नीचे, ऐसे तुम कभी—कभी क्रिकेट देखते समय, फुटबाल—हाकी देखते समय बैठ जाते हो। वहां से तुम बड़े आनंदित लौटते हो; कहते हो कि बड़ा रस आया! क्या, हो क्या जाता है? तुम थोड़ी देर को अपने को भूल जाते हो। जहां भूले कि मिटे। आत्मविस्मरण अनिवार्यरूपेण अहंकार का विसर्जन हो जाता है।

इधर मुझे सुनते —सुनते कई बार तुम्हें जब भी सुख मिलता हो तो खयाल रखना, वह घड़ी वही होगी जब तुम सुनते—सुनते खो जाते हो, भूल जाते हो, याद नहीं रह जाती।

अहंकार श्वास जैसा नहीं है; साइकिल के पैडल मारने जैसा है। याद न रहे तो भी श्वास चलती है। श्वास प्राकृतिक है। तुम रात सो गये तो भी श्वास चलती है। लेकिन रात नींद में अहंकार रह जाता है? सम्राट को पता रहता है मैं सम्राट हूं? भिखारी को पता रहता है मैं भिखारी हूं? सुंदर को पता रहता है मैं सुंदर हूं? धनी को पता रहता है बैंक—बैलेंस का? जब तुम रात सो जाते हो, तुम्हें याद रहता है तुम्हारी पत्नी भी कमरे में सोई है? कुछ याद नहीं रह जाता। यह मकान तुम्हारा है, यह भी याद नहीं रह जाता। अगर रात नींद में तुम्हें उठा कर स्ट्रेचर पर रखकर अस्पताल में रख दिया जाता है तो तुम्हें पता नहीं रहता है। सुबह तुम आंख खोलते हो तब पता चलता है। लेकिन सांस चलती रहती है। राजमहल में, गरीब के झोपड़े में, नंगे आदमी की, सोने से लदे आदमी की श्वास चलती रहती है। आदमी बिलकुल बेहोश हो जाता है, कोमे में पड़ जाता है, महीनों तक बेहोश पड़ा रहे तो भी श्वास चलती रहती है। श्वास का तुमसे कुछ लेना—देना नहीं है। श्वास प्राकृतिक घटना है।

अहंकार श्वास जैसा नहीं है। जब तक पता चले तभी तक है। जैसे ही पता न चला वैसे ही गया। इस सत्य को समझो। जैसे ही गया, एक क्षण को भी गया, तो एक ही क्षण को द्वार खुल जाता है। सदियों —सदियों का अहंकार भी क्षण भर को भूल जाये तो झरोखा खुल जाता है। तुम वातायन से झांक ले सकते हो।

तो जब भी तुम्हें कभी कोई सुख की झलक मिली है तो मिली ही इसलिए है कि तुम मिट गये हो। काम—संभोग में कभी आदमी मिट जाता है तो सुख की झलक मिलती है। कभी शराब पीने में भी आदमी मिट जाता है तो सुख की झलक मिलती है।

इसलिए शराब का इतना आकर्षण है। सारी दुनिया की सरकारें चेष्टा करती हैं शराब बंद हो। धर्मगुरु लगे रहते हैं कि शराब बंद हो। कानून बनते हैं कि शराब बंद हो। शराब बंद नहीं होती। शराब में कुछ कारण है। आदमी अहंकार से इतना थका — थका है कि भूलना चाहता है। कोई और उपाय नहीं मिलता, ध्यान कठिन मालूम होता है, लंबी यात्रा है, समाधि तक पहुंचेंगे, इसका भरोसा नहीं आता। और समाधि तक पहुंचाने वाला वातावरण खो गया है। लेकिन शराब तो मिल सकती है। थोड़ी देर आदमी शराब पी लेता है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शराब पीने लगना। मैं इतना ही कह रहा हूं कि शराब से भी जो घटना घटती है वह यही है कि थोड़ी देर को तुम्हारी अस्मिता खो जाती है। यह तुमने बड़ा महंगा उपाय खोजा। जहर डाला शरीर में अहंकार को भूलने के लिए। अहंकार तो बिना जहर डाले भूला जा सकता है। अहंकार तो भूल जाओ तो अमृत ढलने लगता है, जहर डालने की तो जरूरत ही नहीं रह जाती। महंगा सौदा कर रहे हो। बड़ा बुरा सौदा कर रहे हो। खो बहुत रहे हो, पा कुछ भी नहीं रहे हो।

लेकिन फिर भी तुमसे मैं कहूंगा कि शराब का आकर्षण भी, अहंकार खोने में जो रस है, उसी का आकर्षण है। तुमने देखा उदास—उदास आदमी, थका— थका आदमी शराब पी कर प्रफुल्लित हो जाता है, अकड़ कर चलने लगता है!

एक सैनिक शराब पीता था। उसका जनरल उससें कह—कह कर थक गया था कि अब बंद करो यह तुम, बहुत हो गया। एक दिन उसे बुलाया कि देख, तू नासमझ; सैनिक ही रह जाएगा जिंदगी भर, अगर यह शराब पीता रहा। अगर शराब न पीता होता तो अब तक कैप्टन हो जाता। और अगर

अभी तू शराब पीना बंद कर दे तो मैं तुझे भरोसा दिलाता हूं कि रिटायर होते—होते तक तू कम से कम कर्नल हो जाएगा।

वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा, छोड़ो जी, जब मैं पी लेता हूं तो मैं जनरल हो जाता हूं। ये तुम बातें किससे कर रहे हो!

आदमी शराब पी कर जो है वह तो भूल जाता है। वह याद नहीं रह जाती है। मुक्त हो जाता है थोड़ी देर को। यह महंगा सौदा है, खतरनाक सौदा है। यह अपनी आत्मा को बेच कर थोड़ा—सा रस लेने की बात है। यह तो ऐसे ही है जैसे तुमने देखा हो : कुत्ते के मुंह में हड्डी दे दो तो हड्डी को चूसता है और बड़ा रस आता है उसे; लेकिन हड्डी में कुछ रस तो है नहीं, आ कैसे सकता है! हड्डी के कारण उसके मुंह के भीतर जबड़े और चमड़ी कट जाती है, उससे खून बहने लगता है। वह खून का रस उसे आता है। अपना ही खून! लेकिन वह सोचता है, हड्डी से आ रहा है। अब कुत्ते को तुम्हें क्षमा करना पड़ेगा, क्योंकि कुत्ता बेचारा जाने भी कैसे कि कहां से आ रहा है! दिखाई तो उसे कुछ पड़ता नहीं, हड्डी को चूसता है, तभी खून बहने लगता है भीतर। वह प्रसन्न होता है। गले में उतरते खून को देख कर स्वाद लेता है। वह अपना ही खून पी रहा है और घाव पैदा कर रहा है अलग। लेकिन सोचता है, हड्डी से आ रहा है। सूखी हड्डी भी कुत्ता छोड़ने को राजी नहीं होता है।

शराब का सुख ऐसा ही है। लेकिन सचाई उसमें थोड़ी है। सचाई इतनी ही है कि थोड़ी देर को तुम अपने को भूल जाते हो। और मैं यह कहना चाहता हूं दूनिया से शराब तब तक न जाएगी जब तक हम और ऊंची शराबें न पैदा कर लें। दुनिया से शराब तब तक न जाएगी जब तक लोग ध्यान की शराब में न उतर जायें। दुनिया से शराब तब तक न जाएगी तब तक परमात्मा की शराब उन्हें उपलब्ध न होने लगे। जब मंदिर मधुशाला जैसे हों तब मधुशालाएं बंद होंगी, उसके पहले बंद नहीं हो सकती हैं। .लाख उपाय करें सरकारें, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।

जो उपाय करते हैं, वे खुद पी रहे हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है। जो बंद करवाना चाहते हैं, ‘वे खुद पीते हैं। क्योंकि वे भी बंद करवाने की कोशिश से इतने थक जाते हैं कि फिर विस्मरण तो थोड़ा करना ही पड़े न! राजनीतिज्ञ को भी तो थोड़ा अपने को भूलना पड़ता है। उसकी तकलीफ तो समझो। दिन भर दौड़— धूप, झूठी हंसी, मुंह फैलाये रहता है, अभ्यास करते रहता है, हाथ जोड़े खड़ा है और हजार तरह की गालियां खा रहा है और सड़े टमाटर झेल रहा है और जूते और जूते फेंके जा रहे, और यह सब चल रहा है—और इसको वह हाथ जोड़ कर मुस्कुरा रहा है! इसकी भी तो तुम तकलीफ समझी! और कुछ हल नहीं होता दिखता। बड़ी समस्याएं हैं, बड़े वायदे किए हैं। कोई हल नहीं हो सकता है, क्योंकि समस्यायें बड़ी हैं, वायदे भयंकर हैं, हल होने का कोई उपाय नहीं है। उन्हीं वायदों को कर—करके इस पद पर आ गया है; अब कुछ हल होता दिखाई नहीं पड़ता। अब रात —शराब न पीये तो क्या करे!

आदमी अपने को भूलना चाहता है। भूलने में ही कहीं सुख है। लेकिन शराब से क्या भूलना? यह कोई भूलना हुआ? यह तो आदमी से नीचे गिर जाना हुआ। और ऊपर की शराब हम सिखाते हैं। तुम जरा अहंकार को विस्मरण करने की कला सीखो। बजाय शराब भीतर डालने के, अहंकार को जरा बाहर उतार कर रखो। थोड़ी— थोड़ी देर, घड़ी आधा घड़ी…… तेईस घंटे अहंकार को दे दो, एक घंटा अहंकार से माफी मांग लो। एक घंटा बिना अहंकार के ना —कुछ हो कर बैठ जाओ। यही ध्यान है। इसी ना —कुछ होने में व्यक्ति धीरे — धीरे अपनी सीमा—रेखा खोता है और निराकार का अवतरण होता है। जहां तुम्हारी सीमा धुंधली होती है वहीं से निराकार प्रवेश करता है।

तो आनंद के अनुभव के लिए व्यक्ति का होना बिलकुल भी जरूरी नहीं है, क्योंकि व्यक्ति का अनुभव नहीं है आनंद। व्यक्ति के अभाव में जो घटता है, वही आनंद है। जहां तुम नहीं हो वहीं आनंद है। तुम जहां हो वहीं नर्क है। तुम जहां हो वहीं दुख है। ही, इस दुख के कारण तुम भविष्य में आनंद की अपेक्षा करते हो, आकांक्षा करते हो। तुम होते नर्क में हो और स्वर्ग की योजना बनाते रहते हो। बस यही तुम्हारे जीवन की पूरी कथा है। अथ से लेकर इति तक यही तुम्हारी जीवन—कथा है। हो दुख में, लेकिन अब दुख को कैसे काटो, तो सुख की कल्पना करते रहते हो कि कल होगा, परसों होगा! कभी तो होगा। देर है, अंधेर तो नहीं! कभी तो होगा। कभी तो प्रभु ध्यान देगा! कभी तो फल मिलेगा! प्रतीक्षा व्यर्थ तो न जाएगी! प्रार्थना खाली तो नहीं रहेगी! चेष्टा का कोई तो परिणाम होगा! आज नहीं, कल होगा। आज झेल लो दुख, कल सुख है! ऐसा मन समझाये रखता है। यह तुम्हारा अहंकार है।

और जब वस्तुत: सुख घटता है तो कल नहीं घटता, आज घटता है। लेकिन आज अगर कोई चीज घटानी हो, अभी और यहीं अगर घटानी हो, तो एक ही उपाय है कि अहंकार को हटा कर रख दो। अहंकार समय की यात्रा बन जाता है। अहंकार को हटाते ही आकाश की यात्रा शुरू होती है। यही मैंने पीछे तुमसे कहा। कर्म का सवाल नहीं है। विचार का सवाल नहीं है। आकाश उपलब्ध है अभी और यहीं। तुम जरा पुरानी आदत के ढांचे से हट कर देखो।

तुम हो नहीं, है तो परमात्मा ही। तुमने अपने को मान रखा है। मान रखा है तो तुम झंझट में पड़ गये हो। तुम्हारी मान्यता तुम्हारा कारागृह बन गई है।

क्रांति सिर्फ मान्यता से मुक्ति है, कुछ वस्तुत: बदलना नहीं है, एक गलत धारणा छोड़नी है। यह मामला ठीक ऐसे ही है जैसे कि तुमने दो और दो पांच होते हैं, ऐसा मान रखा है। अब तुम झंझट में पड़े हो। क्योंकि दो और दो पांच होते नहीं और तुमने सारा खाता —बही दो और दो पांच के हिसाब से कर लिया है। अब तुम डरते हो कि सब खाते —बही फिर से लिखना पड़ेंगे। लेकिन जब तक तुम ये खाते —बही बदलोगे न, आगे भी तुम उसी हिसाब से लिखते चले जाओगे, ये खाते—बही बड़े होते जा रहे हैं। यही तो सारे कर्म का जाल है कि दो और दो पांच समझ लिए हैं। दो और दो चार समझते ही क्रांति घट जाती है। तुमने अपने को कर्ता मान लिया है, यही भ्रांति है। तुमने यह मान लिया कि मैं हूं यही भांति है। तुम जरा सोचो, खोजो—तुम हो?

बोधिधर्म चीन गया तो चीन के सम्राट ने कहा कि मैं बड़ा अशांत रहता हूं, महामुनि, मुझे शांति का कोई उपाय बतायें! बोधिधर्म बड़ा अनूठा संन्यासी था। उसने कहा. ‘शांत होना है? सच कहते हो, शांत होना है?’ सम्राट थोड़ा बेचैन हुआ कि यह भी कोई बात पूछने की है; मैंने कहा आपसे कि बहुत अशांत हूं शांति का कोई मार्ग बतायें!

तो बोधिधर्म ने कहा. ‘ऐसा करो रात तीन बजे आ जाओ। अकेले आना! और खयाल रखना, अशांति ले कर आना। खाली हाथ मत चले आना।’ तो वह समझा, सम्राट समझा कि यह तो आदमी पागल मालूम होता है। अशांति ले कर आना! खाली हाथ मत आ जाना! रात तीन बजे आना! अकेले

में आना! और यह बोधिधर्म एक बड़ा डंडा भी लिए रहता था। और इस एकांत में इसके इस मंदिर में, और पता नहीं यह क्या उलटा—सीधा करना करवाने लगे!

रात भर सम्राट सो न सका। लेकिन फिर उसको आकर्षण भी मालूम होता था इस आदमी में, इसमें थी तो कुछ खूबी! इसके पास कुछ तरंग थी, कोई ज्योति थी। इसके पास ही जाते से कुछ प्रफुल्लता प्रगट होती थी, कुछ उत्सव आने लगता था। तो सोचा क्या करेगा, बहुत—से—बहुत दो चार डंडे मारेगा, मगर यह कोशिश करके देख लेनी ही चाहिए; कौन जाने, आदमी अनूठा है, शायद कर दे! अब तक कितनों से ही पूछा, ऐसा जबाब भी किसी ने नहीं दिया। और यह जबाब भी बड़ा अजीब है। उसने कहा कि ले ही आना तू अशांति अपनी, शांत कर ही दूंगा, मगर अकेला मत आ जाना। तो किसी ने दावा किया है कि कर दूंगा शांत, ले आना। चलो देख लें।

वह आया डरते—डरते, झिझकते—झिझकते। बोधिधर्म बैठा था वहां डंडा लिए अंधेरे में। उसने कहा. ‘आ गये! अशांति ले आये?’ सम्राट ने कहा: ‘क्षमा करिये, यह भी कोई बात है! अशांति ले आये! अब अशांति कोई चीज है?’

‘तो क्या है अशांति?’ बोधिधर्म ने पूछा।’शांत करने के पहले आखिर मुझे पता भी तो होना चाहिए, किस चीज को शांत करूं! क्या है अशांति?’

उन्होंने कहा : ‘सब मन का ऊहापोह है, मन का जाल है।’ तो बोधिधर्म ने कहा. ‘ठीक, तू बैठ जा, आंख बंद कर ले और भीतर अशांति को खोजने की कोशिश कर; जैसे ही मिल जाये, वहीं पकड़ लेना और मुझसे कहना मिल गई। उसी वक्त शांत कर दूंगा।’ और डंडा लिए वह बैठा है सामने। सम्राट ने आंख बंद कर ली। वह खोजने लगा। कोने—कातर देखने लगा। कहीं अशांति मिले न। वह जैसे—जैसे खोजने लगा, वैसे—वैसे शांत होने लगा। क्योंकि अशांति है कहां, मान्यता है! तुम खोज थोड़े ही पाओगे। सूरज उगने लगा, सुबह हो गई। घंटे बीत गये। सूरज की रोशनी में बू का चेहरा ऐसा खिल आया जैसे कमल हो।

बोधिधर्म ने कहा : ‘अब बहुत हो गया, आंख खोलो। मिलती हो तो कहो; न मिलती हो तो कहो।’ वह चरणों पर झुक गया। उसने कहा कि नहीं मिलती। बहुत खोजता हूं कहीं नहीं मिलती, और आश्चर्य कि खोजता अशांति को हूं और मैं शांत होता जा रहा हूं। यह क्या चमत्कार तुमने किया है? बोधिधर्म ने कहा. ‘एक बात और पूछनी है, तुम भीतर गये, इतनी खोज बीन की, तुम मिले?’ उसने कहा कि वह भी कहीं कुछ मिलता नहीं। जैसे —जैसे खोज गहरी होती गई वैसे—वैसे पाया कि कुछ भी नहीं है। एक शून्य सन्नाटा है!

तो बोधिधर्म ने कहा. ‘अब दुबारा यह सवाल मत उठाना। शांत कर दिया। और जब भी अशांति पकड़े, भीतर खोजना कहां है। और जब भी अहंकार पकड़े, भीतर खोजना कहां है। खोजोगे, कभी न पाओगे। माने बैठे हो।’

तुम हो नहीं। तुम्हारा होना एक भ्रांति है। है तो परमात्मा ही। और तुम्हारी भ्रांति के कारण जो है, वह दिखाई नहीं पड़ रहा और जो नहीं है वह दिखाई पड़ रहा है।

अब तुम्हारा प्रश्न मैं समझता हूं। यह भय उठता है। यह भय उठता है कि यह तो मामला, हम शांत होने आये थे, आनंदित होने आये थे और ये कह रहे हैं कि मिट जाओ! तो फिर फायदा क्या!

जब मिट ही गये तो फिर कौन शांत होगा! तो फिर कौन आनंदित होगा! यह तुम्हारा प्रश्न तर्कपूर्ण है। इसके पीछे तर्क मेरी समझ में आता है, बात साफ है। तुम पूछते हो कि जब हमीं न बचे तो शांत कौन होगा! और मैं तुमसे कह रहा हूं कि तुम्हारे न बचने का नाम ही शांति है। कोई शांत होता नहीं और कोई आनंदित नहीं होता। आनंदित होना और किसी का होना दो चीजें नहीं हैं। जब तुम नहीं होते तो आनंद होता है। जब तुम नहीं हो तो शांति होती है।

अगर तुम्हारी यह जिद हो कि मैं तो शांति ऐसी चाहता हूं कि मैं भी रहूं और शांति हो, तो तुम अशांत रहोगे; तो तुम कभी शांत नहीं हो सकते। अगर तुम्हारी यह जिद है कि मैं तो रहते हुए आनंद चाहता हूं तो फिर तुम कभी आनंदित न हो सकोगे। फिर तुम्हें दुख से राजी रहना चाहिए। फिर तुम आनंद की तलाश बंद कर दो। तुम अगर यह कहते हो कि मैं तो खुद रहूं और परमात्मा का साक्षात्कार करूं—तो तुम इस भ्रांति में पड़ो मत, यह जाल तुम्हारे लिए नहीं, तुमसे न हो सकेगा। प्रेम गली अति सीकरी तामें दो न समाय! या तो तुम बचोगे या परमात्मा।

हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हेराई। खोजते—खोजते कबीर खो गया। कबीर ने कहा : यह भी खूब मजा है! जब तक हम थे, तुम नहीं। अब तुम हो, हम नाहिं। खोजते फिरते थे, रोते फिरते थे गली—कूचे, चिल्लाते फिरते थे—’हे प्रभु कहां हो!’ तब तक तुम न थे, हम थे। अब तुम हो, हम नाहिं। यह भी खूब मजा रहा! अब तुम सामने खड़े हो, लेकिन इधर भीतर खोजते हैं तो किसी का पता नहीं चलता। कहां गया यह कबीर! हेरत—हेरत हे सखी रह्या कबीर हेराई।

एक ही होगा। इसलिए तुम्हें यह बात अजीब—सी लगेगी, लेकिन मैं कहना चाहता हूं : आज तक किसी व्यक्ति ने व्यक्ति की हैसियत से परमात्मा को नहीं जाना है। आज तक किसी ने परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया है। साक्षात्कार कौन करेगा? साक्षात्कार करने वाला ही तो बाधा है। इधर तुम मिटे उधर परमात्मा हुआ। तुम्हारे होने के कारण ही परमात्मा नहीं हो पा रहा है।

आखिरी प्रश्न :

ऐसा क्यों है कि मेरे पति और स्वजनों को मुझमें प्रगति नहीं दिखती और अभी तक रजनीश के लिए उनके मुंह से गालियां ही गालियां निकलती हैं? क्या इसमें मुझसे कुछ भूल’ तो नहीं हो रही है?

प्रश्न थोड़ा जटिल है। ’मंजू, ने पूछा है। उसे मैं जानता हूं। पति इसीलिए परेशान है कि प्रगति हो रही है। कोई पति बर्दाश्त नहीं करता कि पत्नी आगे निकल जाये। यह बड़ा कठिन है। यह अहंकार को बहुत भारी पड़ता है। पत्नी तक पसंद नहीं करती कि पति आगे निकल जाये, तो पति की तो बात ही छोड़ दो। पति तो परमेश्वर है! उससे आगे!

एक महिला मेरे पास आई और उसने कहा कि अगर मैं ध्यान करूं तो मेरे गार्हस्थ्य जीवन में कोई अड़चन तो न आयेगी? फिर यह देख कर कि यह प्रश्न कुछ अजीब—सा है, उसने कहा कि— नहीं—नहीं अड़चन क्यों! खुद ही कहा कि अड़चन क्यों आयेगी! ध्यान कर रही हूं कोई शराब तो पीने जा नहीं रही। कोई बुरा काम तो कर नहीं रही, अड़चन क्यों आयेगी!

मैंने कहा कि तू गलती कहती है। अड़चन आयेगी। शराब पीने से शायद न भी आये, लेकिन ध्यान करने से निश्चित आयेगी।

वह बहुत चौंकी। उसने कहा, क्या प्रयोजन है आपका कहने का? कोई बुरा काम तो नहीं है? मैंने कहा, बुरा काम करने से उतनी अड़चन कभी नहीं आती। यह जरा मनुष्य की जटिलता है। अगर पति शराब पीता हो तो पत्नी को इतनी अड़चन कभी नहीं आती, क्योंकि शराब पीने वाले पति से पत्नी बड़ी हो जाती है, ऊपर हो जाती है, और मजा लेती है, एक तरह का रस आता है। डाटती—डपटती है पति को। सुधारने की चेष्टा.. .सुधारने में बड़ा मजा आता है। किसको मजा नहीं आता! चार के सामने चर्चा करती है, सिर नीचे झुकवा देती है। जहां जाती है, पति वहां डरा—डरा पूंछ दबाये—दबाये चलता है। तो पत्नी बिलकुल मालिक हो जाती है। और क्या चाहिए! लेकिन पति अगर ध्यान करने लगे तो अड़चन आती है, क्योंकि वह तुमसे ऊपर होने लगा। और पत्नी अगर ध्यान करने लगे तो अड़चन और भी गहरी हो जाती है, क्योंकि पुरुष को तो यह मान्यता संभव ही नहीं होती कि स्त्री और आगे!

तुमने देखा, पुरुष अपने से लंबी स्त्री से शादी नहीं करते। क्यों पर इसमें क्या अड़चन है? मगर कोई पुरुष बर्दाश्त नहीं करता कि स्त्री लंबी हो। शारीरिक रूप से लंबी बर्दाश्त नहीं करते तो आत्मिक रूप से जरा ऊंची, बिलकुल असंभव! अपने से छोटी पत्नी खोजते हैं लोग। हर हालत में छोटी होनी चाहिए। पुरुष अपने से ज्यादा शिक्षित स्त्री भी पसंद नहीं करता। वह अपने से कम शिक्षित स्त्री खोजता है। तो ही तो परमेश्वर बना रहेगा। नहीं तो परमेश्वर गैर—पढ़े—लिखे और दासी पढ़ी—लिखी, तो बड़ा मुश्किल हो जायेगा! अड़चन आयेगी।

पत्नी अगर ध्यान में थोड़ी गतिमान हो जाये या पति, कोई भी ध्यान में गतिमान हो जाये, तो दूसरा व्यक्ति जो पीछे छूट गया, अड़चन आनी शुरू होती है। तुम एक तरह के व्यक्ति के साथ रहने को राजी हो गये हो। तुमने एक ढंग के व्यक्ति के साथ विवाह किया है। फिर पति ध्यान करने लगा, यह नई बात हो गई। तुमने ध्यान करने वाले पति से कभी विवाह किया भी नहीं था। तुमने ध्यान करने वाली पत्नी से कभी विवाह किया भी नहीं था। यह कुछ नई बात हो गई। यह तुम्हारे संबंध को डावांडोल करेगी। इसमें अड़चन आयेगी।

एक पत्नी ने मुझसे आ कर कहा कि मैं और सब सह लेती हूं; लेकिन मेरे पति अब नाराज नहीं होते, यह नहीं सहा जाता। तुम चकित होओगे, यह बात उलटी लगती है। क्योंकि पत्नी को प्रसन्न होना चाहिए। लेकिन तुम मनुष्य के मनोविज्ञान को समझो। वह कहने लगी, मुझे बड़ी हैरानी होती है, बड़ी बेचैनी होती है; वे पहले नाराज होते थे तो कम से कम स्वाभाविक तो लगते थे। अब वे बिलकुल बुद्ध बने बैठे रहते हैं। हम सिर पीटे ले रहे हैं, वे बुद्ध बने बैठे हैं। इधर हम उबले जा रहे हैं, उन पर कोई परिणाम नहीं है। यह थोड़ी अमानवीय मालूम होती है बात और ऐसा लगता है, प्रेम खो गया। अब क्रोध भी नहीं होता तो प्रेम क्या खाक होगा!

पत्नी कहने लगी, अब प्रेम कैसे होगा? वे ठंडे हो गये हैं! यह आपने क्या कर दिया? उनमें थोड़ी गर्मी लाइये। वे बिलकुल ठंडे होते जा रहे हैं। उनको न क्रोध में रस है न अब कामवासना में रस है।

इधर यह भी अनेक पति—पत्नियों से मुझे सुनने को खबर मिलती है कि जैसे ही पति ध्यान करने लगता है, स्वभावत: उसकी काम में रुचि कम हो जाती है। पत्नी, जो इसके पहले कभी भी काम में रुचि नहीं रखती थी बहुत. स्त्रियां साधारणत: रखती नहीं। क्योंकि वह भी एक मजा है लेने का, उसमें भी वह पति को नीचा दिखलाती हैं कि ‘क्या गंदगी में पड़े हो। तुम्हारी वजह से हम तक को घसिटना पड़ रहा है।’ हर स्त्री यह मजा लेती है। भीतर— भीतर चाहती है, ऊपर—ऊपर ऐसा दिखलाती है कि सती— साध्वी है।’तुम घसीटते हो तो हम घसिट जाते हैं, बाकी है गंदगी।’ तो स्त्रियां मुर्दे की भांति घसिट जाती हैं कामवासना में और पति की निंदा कर लेती हैं, रस ले लेती हैं, उसको नीचा दिखा लेती हैं।

जैसे ही मैं देखा हूं कि पति की ध्यान में थोड़ी गति होनी शुरू होती है और कामवासना उसकी शिथिल होती है, पत्नियां एकदम हमला करने लगती हैं। वे ही पत्नियां, जो मेरे पास आ कर कह गई थीं कि किसी तरह हमें कामवासना से छुटकारा दिलाइये, पति आपके पास आते हैं, इतना सुनते हैं—मगर यह रोज—रोज की कामवासना, यह तो गंदगी है! जो मुझसे ऐसा कह गई थीं, वही पति के पीछे पड़ जाती हैं कि रोज कामवासना की तृप्ति होनी ही चाहिए। क्योंकि अब उनको खतरा लगता है कि यह तो पति दूर जा रहा, यह तो हाथ के बाहर जा रहा है। अगर यह बिलकुल ही कामवासना से मुक्त हो गया तो निश्चित ही पत्नी से भी मुक्त हो गया। तो पत्नी को लगता है, अब तो मेरा कोई मूल्य न रहा। तो अड़चन आती है।

मंजू को मैं जानता हूं। उसकी प्रगति निश्चित हो रही है। लेकिन यही कठिनाई है। और तुम्हारी प्रगति को तुम्हारे पति या तुम्हारे परिवार के लोग स्वीकार न करेंगे। क्योंकि तुम्हारी प्रगति को स्वीकार करने का अर्थ उनके अहंकार की पराजय है। वे इनकार करेंगे।

मीरा को मीरा के परिवार के लोगों ने स्वीकार किया? जहर का प्याला भिजवाया कि यह मर ही जाये? क्योंकि यह तो बदनामी का कारण हो रही है। राजपरिवार की स्त्री और राजस्थान में, जहां कोई पर्दे के बाहर नहीं आता, इसने सब लोक—लाज छोड़ दी! यह रास्तों पर नाचती फिरती है। भिखारियों से मिलती है, साधु—संतों के पास बैठती है। घर के लोग दुखी थे, परेशान थे। प्रगति नहीं दिखाई पड़ती थी, दीवानापन दिखाई पड़ता था। यह पागल हो गई है!

जीसस अपने गांव गये एक ही बार। फिर गांव से लौट कर उन्होंने अपने शिष्यों को कहा, वहां जाने का कोई अर्थ नहीं। क्योंकि गांव के लोग यह मानने को राजी नहीं होते थे कि बढ़ई का छोकरा और एकदम ईश्वर का पुत्र हो गया।

‘छोड़ो भी, किसी और को चराना! किसी और को बताना ये बातें!’ गांव के लोग यह मानने को राजी न थे। गांव के लोगों की भी बात समझ में आती है। जिसको उन्होंने लकड़ी को चीरते —फाड़ते देखा, बाप की दूकान पर काम करते देखा, संदूके बनाते देखा—अचानक एकदम ईश्वर—पुत्र. जोसेफ का बेटा ईश्वर का बेटा हो गया एकदम! किसको समझा रहे हो! किसी और को समझा लेना। गांव के लोग सुनने को राजी नहीं थे।

बुद्ध जब अपने गांव लौटे तो बाप भी राजी नहीं थे बुद्ध को स्वीकार करने को कि तुम्हें ज्ञान हो गया है। बाप ने यह कहा कि छोड़, मैं तुझे बचपन से जानता हूं। मैंने तुझे पैदा किया। तेरा खून मेरा खून है। तेरी हड्डी में मैं हूं। मैं तुझे भलीभांति पहचानता हूं। यह बकवास छोड़ और यह फिजूल के काम छोड़। हो गया बहुत, अब घर लौट आ। और मैं बाप हूं तेरा, मेरे हृदय का द्वार तेरे लिए अभी भी खुला है। क्षमा कर दूंगा; यद्यपि तूने काम जो किया है वह अक्षम्य अपराध है। बुढ़ापे में बाप को छोड़ कर भाग गया, पत्नी को छोड़ कर भाग गया, बेटे को छोड़ कर भाग गया! तू ही हमारी आंख का तारा था!

बुद्ध सामने खड़े हैं और यह बाप यह कह रहा है! थोड़ा सोचो, मामला क्या है! क्या बाप को बिलकुल दिखाई नहीं पड़ रहा है? बाप को दिखाई पड़ने में अड़चन है। जो दूसरों को दिखाई पड़ गया, इसे दिखाई नहीं पड़ रहा है। अहंकार को बड़ी बाधा है। बाप कैसे मान ले कि बेटा आगे चला गया! मान ले तो बड़ी क्रांति होगी।

बहुत कम लोग इतने विनम्र होते हैं कि अपने निकट जनों को आगे जाते देख कर स्वीकार कर लें। तो प्रगति तो निश्चित हो रही है। उसी प्रगति के कारण वे अड़चन में हैं। अगर प्रगति न हो रही हो तो वे मुझे गालियां देना बंद कर दें; गालियां देने का क्या प्रयोजन है! मैंने उनका कुछ बिगाड़ा नहीं। पर वे देखते हैं कि पत्नी कुछ ऊपर उठती जाती है; कुछ श्रेष्ठतर होती जाती है। यह बर्दाश्त के बाहर है। मुझे जो गालियां दे रहे हैं, वे बड़ी सूचक हैं। वे मुझसे बदला ले रहे हैं। उनके अहंकार पर जो चोट पड़ रही है, वे मुझसे बदला ले रहे हैं। हालांकि मुझसे उनका कुछ लेना—देना नहीं है।

जब तक वे गालियां देते हैं, शांति से उनकी गालियां सुनना और ध्यान किए जाना। गालियां उनकी उसी दिन बंद होंगी, जिस दिन उनके भीतर यह सदभाव जगेगा, आंख खुलेंगी और वे देखेंगे कि कुछ अंतर हुआ है। उसी दिन गालियां बंद होंगी। लेकिन यह तुम्हारे हाथ में नहीं है। और भूल कर भी यह चेष्टा मत करना कि उनको समझाना है। क्योंकि जितनी ही समझाने की चेष्टा होगी, उतना ही उनका समझना मुश्किल हो जायेगा। यह बात ही छोड़ दो। यह उनका है। न उनकी गालियों को ध्यान दो, न उनकी गालियों में रस लो। तुम जो कर रही हो, किए जाओ। जो हो रहा है, उसे होने दो। तुम चेष्टा भी मत करना भूल कर कि तुम्हें उन्हें राजी करना है या मेरे पास लाना है। भूल कर यह मत करना। तुम जितनी चेष्टा लाने की करोगी, उतनी ही मुश्किल हो जायेगी; उतना ही अहंकार बाधा बनेगा।

एक महिला ने मुझे आ कर कहा—पूना की ही महिला है—उसने कहा कि मेरे पति कहते हैं कि ‘उनको भूल कर सुनने मत जाना। तुझे जो भी पूछना हो, मुझसे पूछ!’ आपकी किताबें फेंक देते हैं। आपका चित्र घर में नहीं रहने देते।

यह ठीक है। पति को ऐसा लगता होगा कि यह तो मामला गड़बड़ हुआ जा रहा है। किसी और की सुनने लगी! अब पत्नी की भी अड़चन समझो। पत्नी और पति से पूछे प्रश्न! पति भला ज्ञानी ही क्यों न हो, हो भी सकता है ज्ञानी ही हो, मगर पत्नी पति से पूछे प्रश्न, यह भी संभव नहीं है! और पति यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उनकी पत्नी और उनके रहते किसी और से प्रश्न पूछे!

ये अहंकार के जाल हैं! लेकिन इन सबका लाभ उठाया जा सकता है। ये गालियां भी तुम्हारे राह पर फूल बन सकती हैं, अगर इन्हें शांति से स्वीकार कर लो। इनसे उद्विग्न मत होना। इनसे विचलित भी मत होना। इसे स्वाभाविक मानना।

पति का तुम्हारे ऊपर इतना कब्जा था, वह कब्जा खो गया। पति की मालकियत थी, वह मालकियत चली गई। पति चाहता है, तुम यहां मुझे सुनने मत आओ। पति चाहता है, तुम ध्यान मत करो। लेकिन तुम पति की नहीं सुनती, मेरी सुनती हो। ध्यान करती हो। पति को लगता है, कब्जा गया। तो पति मुझ पर नाराज हैं। जिस आदमी के कारण कब्जा चला गया, उस आदमी को गालियां न दें तो बेचारे क्या करें! और कुछ कर भी नहीं सकते तो गालियां दे लेते हैं; कम से कम उनको

गालियां तो देने की सुविधा रहने दो! उस पर झगड़ा मत करना।

प्यार की तो भूल भी अनुकूल मेरे

फूल मिलते रोक ही रखते रिझाते

शूल हैं प्रतिपल मुझे आगे बढ़ाते

इस डगर के शूल भी अनुकूल मेरे

प्यार की तो भूल भी अनुकूल मेरे

इन गालियों को भी तुम चाहो तो अनुकूल बना ले सकती हो।

शूल हैं प्रतिपल मुझे आगे बढ़ाते

फूल मिलते रोक ही रखते रिझाते

पत्थर सीढ़ियां बन जाते हैं, अगर स्वीकार कर लो।

प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है

जानता हूं दूर है नगरी प्रिया की

पर परीक्षा एक दिन होनी हिया की

प्यार के पथ की थकन भी तो मधुर है

प्यार के पथ में जलन भी तो मधुर है।

आग ने मानी न बाधा शैल—वन की

गल रही बुझ पास में दीवार तन की

प्यार के दर पर दहन भी तो मधुर है

प्यार के पथ में जलन भी तो मधुर है।

यह प्रार्थना, प्रेम, भक्ति, ध्यान, परमात्मा का मार्ग—इस पर बहुत तरह की जलन तो होगी। बहुत तरह की आगों से मुकाबला तो होगा। इसे आनूंद से नाचते और गीत गुनगुनाते गुजार देना, तो हर चीज सहयोगी बन जायेगी। ऐसा तो भूल कर मत सोचना कि साधना का पथ फूल ही फूल से भरा है। फूल तो कभी—कभी, शूल ही शूल ज्यादा हैं। और जैसे—जैसे आत्यंतिक घड़ी करीब आने लगेगी, वैसे—वैसे परीक्षाएं तीव्र और प्रगाढ़ होने लगती हैं। आखिरी कसौटी में तो सारी परीक्षायें गर्दन पर फासी की तरह लग जाती हैं। उस घड़ी में भी जो निर्विकार, उस घड़ी में भी जो शांत, मौन, अहोभाव से भरा रहता है, वही प्रभु के दर्शन को उपलब्ध हो पाता है।

हरि ओंम तत्सत्!


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पंतजलि: योगसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–18

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ओम् के साथ विसंगीत से संगीत तक—प्रवचन—अठारह

दिनांक 8 जनवरी 1975;

श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

1—यह मार्ग तो शांति और जागरूकता का मार्ग है, फिर आपके आस—पास का हर व्यक्ति और हर इतनी अव्यवस्था में क्यों है?

2—ओम् की साधना करते समय इसे मंत्र की तरह दोहरायें या एक आंतरिक नाद की तरह सुनें?

3—पहले आप ‘हूं, के मंत्र पर जोर देते थे, अब ‘ओम् पर क्यों जोर दे रहे हैं?

4—हमें आपके पास कौन—सी चीज ले आयी—शरीर की आवश्यकता या मन की आकांक्षा?

5—क्या योग और तंत्र के बीच कोई संश्लेषण खोजना संभव है?

6—आपके सान्निध्य में ऊर्जा की लहरों का संप्रेषण और हृदय—द्वार के खुलने का अनुभव—यह कैसे घटता है? और इसे बारंबार कैसे घटने दिया जाये?

पहला प्रश्‍न:

यह मार्ग तो जान पडता है शांति और जागरूकता की ओर जाता हुआ। लेकिन आपके आस—पास का हर व्यक्ति और हर चीज इतनी अव्यवस्थित है? अव्यवस्था में क्यों है?

क्‍योंकि मैं एक अव्यवस्था हूं। और केवल अव्यवस्था से ही सुव्यवस्था जन्म लेती है; और कोई मार्ग नहीं है? तुम पुराने, बहुत पुराने, प्राचीन भवनों की भांति हो, तुम्हे नया नहीं किया जा सकता। लाखों जन्मों से तुम यही हो। पहले तो तुम्हे पूर्णतया मिटा देना होता है, और केवल तभी तुम पुनर्निर्मित हो सकते हो।

जीणोंद्धार संभव है, लेकिन वह बहुत समय तक काम न देगा। वह केवल सतह को सज़ाना भर ही होगा। तुम्हारी गहन बुनियादी तहों में तुम पुराने ही बने रहोगे, और सारा ढांचा सदा अस्थिर ही बना रहेगा। वह किसी भी दिन गिर सकता है। नयी बुनियादों की जरूरत होती है। हर चीज नयी ही होनी चाहिए। तुम्हें सपूर्णतया पुन र्जन्म लेना होता है; अन्यथा यह एक बाह्य रूप बदलना ही होगा। तुम बाहर से रंग दिये जा सकते हो, लेकिन भीतर को रंगने का कोई उपाय नही। भीतर वैसा ही रहेगा—वही पुरानी सडी हुई चीज।

एक गैर—सातत्य की आवश्यकता होती है। तुम्हारे सातत्य को बना नहीं रहने दिया जाना चाहिए। एक अंतराल की आवश्यकता है। पुराना तो बस मर जाता है। और उसमें से—उस मृत्यु में से बाहर आता है नया। और एक अंतराल होता है नये और पुराने के बीच, अन्यथा पुराना निरंतर बना रह सकता है। सारे परिवर्तन वस्तुत पुराने को बचाने के लिए ही होते है, और मैं कोई रूपांतरकार नहीं हू। और तुम्हारे लिए अव्यवस्था ही बनी रहेगी अगर तुम प्रतिरोध करते हो तो। तब यह लंबा समय लेती है।

यदि तुम इसे घटित होने दो, तो बात एक क्षण में भी घट सकती है। यदि तुम इसे घटने दो, तो पुराना मिट जाता है और नयी स्व—सत्ता आ जाती है अस्तित्व में। वह नया अस्तित्व ईश्वरीय होगा क्योंकि वह अतीत में से नही आया होगा; वह समय, काल में से नहीं आया होगा। वह समय शून्य होगा—कालातीत। वह तुममें से नहीं आयेगा; तुम उसके जनक नहीं होओगे। यह अकस्मात ही आसमान से फूट पड़ेगा।

इसीलिए बुद्ध जोर देते है कि यह सदा आता है शून्य से। तुम कुछ हो—यही है दुख। वस्तुत: तुम हो क्या? मात्र अतीत ही तो। तुम संचित किये चले जाते हो अतीत को इसीलिए तुम खंडहरों की भांति बन गये हो—बहुत प्राचीन खंडहर। जरा बात को देखो और पुराने को बनाये रखने की कोशिश मत करो। गिरा दो उसे।

इसीलिए मेरे चारों ओर सदा अव्यवस्था ही बनी रहने वाली है क्योंकि मैं लगातार मिटाये जा रहा हूं। मैं विध्वंसात्मक हूं क्योंकि वही एकमात्र तरीका है सृजनात्मक होने का। मैं हूं मृत्यु की भांति क्योंकि केवल तभी तुम मेरे द्वारा पुनर्जीवित हो सकते हो। यह बात सही है—अव्यवस्था तो है। यह हमेशा बनी रहेगी क्योंकि नये लोग आ रहे होंगे। तुम मेरे आस—पास ठहरी हुई व्यवस्था कभी न पाओगे। नये लोग आ जायेंगे और मैं उन्हें मिटाता रहूंगा।

अव्यवस्था तुम्हारे लिए समाप्त हो सकती है व्यक्तिगत तौर पर। यदि तुम मुझे तुम्हें संपूर्णतया खत्म करने दो, तो तुम्हारे लिए अव्यवस्था तिरोहित हो जायेगी। तुम बन जाओगे सुव्यवस्था, एक आंतरिक समस्वरता, एक गहन व्यवस्था। तुम्हारे लिए तिरोहित हो जायेगी अव्यवस्था। आस—पास तो यह जारी रहेगी क्योंकि नये लोग आते होंगे। ऐसा ही होता है; यह इसी तरह होता रहा है सदा से।

यह पहली बार नहीं हुआ ‘कि तुमने मुझसे ऐसा पूछा है। यही पूछा गया था बुद्ध से; यही पूछा गया था लाओत्सु से; यही पूछा जायेगा बार—बार क्योंकि जब भी सद्गुरु होता है तो तुम्हारा पुनर्जन्म हो इसके लिए वह मृत्यु का एक विधि की भांति प्रयोग करता है। तुम्हें मरना ही होगा; केवल तभी तुम पुनर्जीवित हो सकते हो।

अव्यवस्था सुंदर है क्योंकि यह गर्भ है। और तुम्हारी तथाकथित व्यवस्था असुंदर है क्योंकि वह बचाव करती है केवल मृत का। मृत्यु सुंदर होती है; मृतक सुंदर नहीं होता; यह भेद ध्यान में रखना। मृत्यु सुंदर है, मैं फिर से कहता हूं क्योंकि मृत्यु एक जीवंत शक्ति है। मृतक सुंदर नहीं क्योंकि मृत वह स्थान है जहां से जीवन जा ही चुका है। वह तो मात्र खंडहर है। मृत व्यक्ति मत बनो; अतीत को मत ढोते रहो। गिरा दो उसे, और गुजर जाओ मृत्यु में से। तुम भयभीत हो मृत्यु से, लेकिन फिर भी तुम मृतवत होने से भयभीत नहीं हो।

जीसस ने दो मछुओं को पुकारा, पीछे चले आने को कहा। और जिस घड़ी वे शहर छोड़ रहे थे एक आदमी दौडता हुआ आ पहुंचा। वह मछुओं से बोला, ‘कहां जा रहे हो तुम? तुम्हारे पिता मर गये है। वापस चलो।’ उन्होंने जीसस से पूछा, ‘हमें कुछ दिनों के लिए रुकने दें, ताकि हम जा सकें और जो कुछ करना है कर सकें। हमारे पिता मर गये हैं और अंतिम संस्कार करना है।’ जीसस बोले, ‘मृतवत लोगों को ही संस्कार करने दो उनके मृतक का। तुम चिंता में मत पड़ो। तुम मेरे पीछे चले आओ।’ क्या कहते हैं जीसस? वे कह रहे हैं कि सारा शहर मुरदा है, तो उन्हें ही ध्यान रखने दो—मुरदों को ही अंतिम—क्रिया करने दो मुरदे की। तुम मेरे पीछे चले आओ।

यदि तुम अतीत में जीते हो तो तुम मुरदा होते हो। तुम कोई जीवंत शक्ति नहीं होते। और केवल एक ही तरीका है जीवंत होने का, और वह है अतीत के प्रति मरना, मृत के प्रति मरना। और ऐसा अंतिम रूप से नहीं घटने वाला। एक बार तुम रहस्य जान लेते हो, तो हर क्षण तुम्हें अतीत के प्रति मरना होता है, जिससे कि तुम पर कोई धूल न जमे। तब मृत्यु बन जाती है एक सतत पुनर्जीवन, एक सतत पुनर्जन्म।

हमेशा ध्यान रखना—अतीत के प्रति मरना। जो कुछ भी गुजर गया, वह गुजर गया है। वह अब नहीं रहा वह कहीं नहीं रहा। वह केवल तुम्हारी स्मृति से चिपका हुआ है। वह केवल तुम्हारे मन में है। मन जमा रखने वाला है उस सबको जो मृत है। इसीलिए मन जीवन के प्रवाहित होने में एकमात्र बाधा है। मृत ढांचे इकट्ठे होते रहते है प्रवाह के चारों ओर; वह बन जाती है जमी हुई बाधा।

मैं यहां जो कुछ कर रहा हूं वह इतना ही, कि तुम्हें मरने की कला सिखा रहा हूं। क्योंकि वह पुनर्जन्म का पहला पहलू है। मृत्यु सुंदर है क्योंकि जीवन उसमें से आता है—ओस कणों की भांति, एकदम ताजा। इसलिए अव्यवस्था का उपयोग हो रहा है, और तुम इसका अनुभव मेरे आस—पास करोगे। और ऐसा हमेशा ही रहेगा क्योंकि कहीं न कहीं मैं किसी को मिटा रहा होता हूं। हजारों तरीकों से—जो तुम्हें ज्ञात है और जो तुम्हें जात नहीं हैं—मैं तुम्हें मिटा रहा हूं। मैं तुम्हारी मृत्यु में से तुम्हें झकझोर रहा हूं तुम्हारे अतीत में से तुम्हें झकझोर रहा हूं तुम्हें ज्यादा जागरूक और ज्यादा जीवंत बनाने की कोशिश कर रहा हूं।

पुराने प्राचीन शास्त्रों में ऐसा कहा जाता है कि गुरु मृत्यु है। वे जानते थे कि गुरु को मृत्यु ही होना है, क्योंकि उसी मृत्यु में से चली आती है क्रांति, उत्क्रांति, रूपांतरण, अतिक्रमण। मृत्यु एक कीमिया है। प्रकृति इसका प्रयोग करती है। जब कोई बहुत वृद्ध और पुराना हो जाता है तो प्रकृति उसे मार देती है।

तुम भयभीत हो क्योंकि तुम अतीत से चिपकते हो। अन्यथा तुम प्रसन्न हो जाओगे और मृत्यु का स्वागत करोगे। तुम प्रकृति के प्रति अनुगृहीत अनुभव करोगे क्योंकि प्रकृति सदा मार देती है पुराने को, अतीत को, मृत को, और तुम्हारा जीवन एक नयी देह में प्रवेश कर जाता है।

एक वृद्ध व्यक्ति एक नवजात शिशु बन जाता है—अतीत से बिलकुल अछूता। इसीलिए प्रकृति तुम्हारी मदद करती है अतीत को याद न रखने में। तुम्हें बीते हुए को न याद रखने देने के लिए प्रकृति तरीके इस्तेमाल करती है; वरना जिस क्षण तुम जन्मते हो उसी क्षण बूढ़े हो जाओगे। बूढ़ा आदमी मरता है और जन्म ले लेता है नये बच्चे के रूप में। इसलिए यदि वह अतीत याद रख सकता हो तो वह पहले से ही बूढ़ा होगा। सारा प्रयोजन ही खो जायेगा

प्रकृति तुम्हारे लिए अतीत को बंद कर देती है, अत: प्रत्येक जन्म नया जन्म जान पड़ता है। लेकिन तुम फिर संचित करने लगते हो। जब यह बहुत ज्यादा हो जाता है, प्रकृति तुम्हें फिर मार डालेगी। कोई व्यक्ति अपने पिछले जन्मों को जानने में सक्षम होता है केवल तभी, जब वह अतीत के प्रति मर चुका हो। तब प्रकृति द्वार खोल देती है। तब प्रकृति जानती है कि अब उसे तुमसे छुपाने की जरूरत न रही। तुम सतत नवीनता को, जीवन की ताजगी को उपलब्ध हो चुके। अब तुम जानते हो कि कैसे मरा जाये। प्रकृति को तुम्हें मारने की आवश्यकता नहीं।

एक बार तुम जान लेते हो कि तुम अतीत नहीं हो, तुम भविष्य नहीं हो बल्कि चीजों की सच्ची वर्तमानता हो, तब सारी प्रकृति अपने रहस्यद्वारों को खोल देती है। तुम्हारा संपूर्ण अतीत, बहुत—बहुत ढंग से जीये हुए लाखों जन्म, सब उद्घाटित हो जाते हैं। अब यह अतीत उद्घाटित हो सकता है क्योंकि तुम इसके द्वारा बोझिल नहीं होओगे। अब कोई अतीत तुम्हें बोझ नहीं दे सकता। और अगर तुमने निरंतर नये बने रहने की कीमिया जान ली है तो यह तुम्हारा अंतिम जन्म होगा, क्योंकि तब तुम्हें मारने की और पुनर्जन्म लेने में तुम्हें मदद देने की कोई आवश्यकता ही न रही। कोई आवश्यकता नहीं। तुम स्वयं ही यह कर रहे हो हर क्षण।

बुद्ध के मिटने और फिर कभी वापस न लौटने का, बुद्ध पुरुष के फिर कभी जन्म न लेने का यही है अर्थ; यही है रहस्य। ऐसा होता है क्योंकि अब वह मृत्यु को जानता है, और वह निरंतर इसका उपयोग करता है। हर क्षण जो कुछ गुजर गया, वह गुजर गया और मर चुका। और वह उससे मुक्त रहता है। हर क्षण वह मरता है अतीत के प्रति और जन्म लेता है पुन:। यह बात एक प्रवाह बन जाती है; नदी का ऐसा प्रवाह, जो हर क्षण ताजा जीवन पा रहा है। तब प्रकृति को कोई आवश्यकता नहीं रहती सत्तर वर्षों की मूढ़ता, सड़ांध एकत्र करने की और आदमी की इस जर्जरता को नष्ट करने की, उसे फिर जन्म लेने में सहायता देने की और उसे फिर से उसी चक्र में डालने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। वह फिर वही कूड़ा—करकट एकत्र करेगा।

यह एक दुश्‍चक्र है। हिंदुओं ने इसे कहा है ‘संसार’। संसार का अर्थ है चक्र। वह चक्र फिर—फिर उसी मार्ग पर घूमता जाता है। बुद्ध पुरुष वही होता है जो बाहर गिर चुका है, बाहर हो चुका है उस चक्र से। वह कहता है, ‘ अब और नहीं। प्रकृति को मुझे मारने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि अब मैं हर क्षण मारता हूं स्वयं को।’

और यदि तुम ताजे होते हो, तो प्रकृति को तुम्हारे लिए मृत्यु का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन तब जन्म पाने की भी कोई भी आवश्यकता नहीं होती। तुम निरंतर जन्म का उपयोग कर रहे हो। हर क्षण तुम अतीत के प्रति मरते हो और वर्तमान में जन्म लेते हो। इसीलिए तुम बुद्ध के पास एक सूक्ष्म ताजगी का अनुभव पाते हो, जैसे कि उन्होंने बिलकुल अभी खान किया हो। तुम उनके निकट आते हो और तुम्हें एक सुवास अनुभव होती है—ताजेपन की सुवास। तुम उन्हीं बुद्ध को फिर से नहीं मिल सकते। हर क्षण वे नये होते हैं।

हिंदू बहुत समझदार हैं क्योंकि हजारों वर्षों से बुद्धों, जिनों—जीवन के विजेताओं, संबोधि को उपलब्ध व्यक्तियों, जाग्रत प्रज्ञा पुरुषों का साक्षात्कार करने के कारण वे बहुत सारे सत्य जान चुके हैं। उनमें से एक सत्य तुम हर कहीं देखोगे। कोई बुद्ध वृद्ध के रूप में चित्रित नहीं किया गया, कोई महावीर चित्रित नहीं किया गया वृद्ध के रूप में। उनकी वृद्धावस्था की कोई मूर्ति या तस्वीर अस्तित्व नहीं रखती। कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, उनमें से कोई वृद्ध की भांति चित्रित नहीं हुआ।

ऐसा नहीं है कि वे कभी वृद्ध नहीं हुए। वे हुए वृद्ध। बुद्ध हुए ही थे वृद्ध जब वे अस्सी वर्ष के हुए। वे उतने ही वृद्ध थे जितना कि कोई भी अस्सी वर्ष का व्यक्ति होगा। लेकिन उनका चित्रण वृद्ध के रूप में नहीं किया गया है। कारण आंतरिक है। क्योंकि जब कभी कोई उनके निकट आयेगा, वह उन्हें युवा और ताजा ही पायेगा। तो पुरानापन मात्र शरीर में था, उनमें नहीं था। और मुझे तुम्हें मिटाना पड़ता है क्योंकि तुम्हारा शरीर युवा हो सकता है, लेकिन तुम्हारा आंतरिक अचेतन बहुत—बहुत पुराना और प्राचीन है। यह एक खंडहर है—पर्सेपोलिस के ग्रीक खंडहरों और कई दूसरे खंडहरों की भांति ही।

तुम्हारे भीतर अचेतन का एक खंडहर है। इसे मिटाना ही है। और मुझे तुम्हारे लिए एक अग्रि कुंड, एक अग्रि, एक मृत्यु होना है। केवल इसी भांति मैं मदद कर सकता हूं और तुम्हारे भीतर एक सुसंगति, एक व्यवस्था ला सकता हूं। और मैं तुम पर किसी सुव्यवस्था को लादने का कार्य नहीं कर रहा हूं क्योंकि वह बात मदद न करेगी। कोई व्यवस्था जो बाहर से थोपी जाती है, मात्र एक आधार होगी पुराने—प्राचीन खंडहर के लिए। यह मदद न देगी।

मैं आंतरिक सुव्यवस्था में विश्वास करता हूं। वह घटता है तुम्हारी अपनी जागरूकता और पुनर्जीवन के साथ। वह आता है भीतर से और फैलता है बाहर की ओर। एक फूल की भांति यह खिलता है और पंखुडियां फैलती है बाहर, केंद्र से बाह्य सतह की ओर। केवल वह सुव्यवस्था ही वास्तविक और सुंदर होती है जो तुम्हारे भीतर खिलती है और फैल जाती है तुम्हारे सब ओर। यदि व्यवस्था, संगति बाहर से लागू की जाती है, यदि ‘यह करो और वह न करो’, का अनुशासन तुम्हें दे दिया जाता है और तुम कैदी होने को बाध्य होते हो, तो यह बात मदद न देगी क्योंकि यह तुम्हें बदलेगी नहीं।

बाहर से कुछ नहीं बदला जा सकता है। क्रांति केवल एक ही होती है, और वह वही होती है जो भीतर से आती है। लेकिन इससे पहले कि वह घटे, तुम्हें पूरी तरह से मिटना होगा। केवल तुम्हारी कब्र पर ही कुछ नया जन्म लेगा। इसीलिए मेरे आसपास एक अव्यवस्था है—क्योंकि मैं हूं एक अव्यवस्था। और मैं अव्यवस्था का एक विधि की भांति उपयोग कर रहा हूं।

दूसरा प्रश्‍न:

ओम की साधना करते समय इसे मंत्र की तरह दोहराना अधिक अच्छा होता है या इसे आंतरिक नाद की भांति सुनने का प्रयत्न करना अच्छा है?

ओम— का मंत्र तीन अवस्थाओं में करना होता है। पहले तुम्हें इसे बहुत जोर से दोहराना चाहिए। इसका अर्थ है यह शरीर से आना चाहिए। पहले शरीर से आना चाहिए क्योंकि शरीर ही है मुख्य द्वार। और शरीर को पहले इसमें सराबोर होने दो, डूबने दो।

अत: इसे जोर से दोहराओ। मंदिर में चले जाओ या तुम्हारे कमरे में, या वहां कहीं जहां तुम जितना चाहो उतने जोर से इसे दोहरा सको। पूरे शरीर का उपयोग करो इसे दोहराने में; अनुभव करो जैसे कि हजारों लोग तुम्हें सुन रहे है माइक्रोफोन के बिना। और तुम्हें बहुत प्रबल होना पड़ता है ताकि सारा शरीर कंप पाये, इसके साथ हिल जाये। और कुछ महीनों के लिए, लगभग तीन महीनों के लिए तुम्हें किसी दूसरी चीज की फिक्र नहीं लेनी चाहिए। पहली अवस्था बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि यह दे देती है बुनियाद। जोर से जप करो, जैसे तुम्हारे शरीर का प्रत्येक अणु यही चिल्ला रहा है और इसी का जप कर रहा है।

तीन महीनों के बाद जब तुम अनुभव करते हो कि तुम्हारा शरीर संपूर्णतया आपूरित हो गया है, तब गहन तल पर यह शारीरिक कोशाणुओं में प्रवेश कर चुका होगा। और जब तुम इसे जोर से कहते हो, तो यह केवल मुंह से ही नहीं आता; सिर से लेकर पांव तक, सारा शरीर इसे दोहरा रहा होता है। यह घटता है। यदि तुम प्रतिदिन कम से कम एक घंटा निरंतर दोहराते हो इसे, तो तीन महीनों के भीतर तुम अनुभव करोगे कि मुंह ही नहीं दोहरा रहा है इसे; सारा शरीर ही दोहरा रहा है। ऐसा घटता है। ऐसा बहुत बार घटा है।

यदि तुम वस्तुत: ईमानदारी से करते हो ऐसा, प्रामाणिक रूप से, और तुम स्वयं को धोखा नहीं दे रहे होते, यदि यह शिथिल नहीं होता बल्कि सौ डिग्री की घटना होता है, तब दूसरे भी सुन सकते है। वे अपने कान लगा सकते हैं तुम्हारे पांव की ओर, और जब तुम इसे जोर से कहते हो, वे इसे तुम्हारी हड्डियों से आता हुआ सुन लेंगे, क्योंकि सारा शरीर आत्मसात कर सकता है नाद को और सारा शरीर निर्मित कर सकता है नाद को। कोई समस्या नहीं इसमें। तुम्हारा मुंह तो एक हिस्सा ही है शरीर का, एक विशिष्ट हिस्सा, बस इतना ही। यदि तुम प्रयास करो, तो तुम्हारा सारा शरीर इसे दोहरा सकता है।

ऐसा हुआ कि एक हिंदू संन्यासी, स्वामी राम, बहुत वर्षों से जोर से जपते थे राम—राम। एक बार वे अपने एक मित्र के साथ हिमालय के किसी गांव में ठहरे हुए थे। मित्र था सुप्रसिद्ध सिख लेखक सरदार पूर्णसिंह। आधी रात को अकस्मात पूर्णसिंह ने सुना ‘राम—राम—राम’ का जप। वहां और कोई नहीं था—केवल थे स्वामी राम, और वह स्वयं। वे दोनों सो रहे थे अपने बिस्तरों पर, और गांव था बड़ी दूर—लगभग दो या तीन मील दूर। कोई न था वहां।

पूर्णसिंह उठा और झोपड़े के चारों ओर घूम आया, लेकिन कोई न था वहां। और जितना ज्यादा वह स्वामी राम से दूर गया, कम और कम होता गया नाद। जब वह वापस लौटा, तो नाद फिर से ज्यादा सुनाई दिया। फिर वह ज्यादा निकट आ गया राम के जो गहरी नींद सोये थे। जिस क्षण वह ज्यादा निकट आया, नाद और भी ऊंचा हो गया। फिर उसने राम के शरीर के एकदम निकट रख दिया कान। सारा शरीर प्रकम्पित हो रहा था राम के ‘नाद’ से।

ऐसा होता है। तुम्हारा सारा शरीर आपूरित हो सकता है। यह तीन महीने या छह महीने का पहला चरण है, किंतु तुम्हें आपूरित होने का अनुभव करना चाहिए। और यह आपूरण उसी भांति है जैसे तुमने भोजन किया हो भूखे रहने के बाद, और तुम अनुभव करते हो इसे जब पेट भरा हुआ संतुष्ट होता है। शरीर संतुष्ट किया जाना चाहिए पहले। और यदि तुम जारी रखते हो इसे, तो यह घट सकता है तीन महीने या छह महीने में। तीन महीने एक औसत सीमा है। कुछ लोगों के साथ ऐसा पहले भी घटित हो जाता है, कुछ के साथ यह बात थोडा ज्यादा समय लेती है।

यदि यह सारे शरीर को आपूरित करता है, तो कामवासना पूर्णतया तिरोहित हो जायेगी। सारा शरीर इतना संतोषमय होता है, यह इतना शांत हो जाता है प्रदोलित नाद के साथ, कि ऊर्जा को बाहर फेंकने की आवश्यकता ही नहीं रहती। उसे विमुक्त करने की जरूरत नहीं रहती, और तुम बहुत—बहुत शक्तिशाली अनुभव करोगे। लेकिन इस शक्ति का उपयोग मत करना। क्योंकि तुम इसका उपयोग कर सकते हो, और तमाम उपयोग दुरुपयोग ही सिद्ध होगा। क्योंकि यह तो एक पहला चरण ही होता है।

ऊर्जा को एकत्रित होना ही होता है जिससे तुम दूसरा कदम उठा सकी। तुम कर सकते हो इसका प्रयोग। क्योंकि शक्ति इतनी ज्यादा होगी कि तुम बहुत चीजें करने योग्य हो जाओगे। तुम कुछ कह सकते हो और वह सच हो जायेगा। इस अवस्था में तुम्हारे लिए सक्रिय होना निषिद्ध है। तुम्हें कुछ नहीं कहना चाहिए। तुम्हें क्रोध में किसी से नहीं कहना चाहिए, ‘मर जाओ।’ क्योंकि यह घट सकता है। तुम्हारा नाद इतना शक्तिशाली बन सकता है कि जब यह जुड़ जाता है तुम्हारी संपूर्ण देह—ऊर्जा सहित तो यह कहा जाता है कि इस अवस्था में कोई नकारात्मक बात नहीं कही जानी चाहिए—अनजाने में भी नहीं। कोई नकारात्यक बात नहीं कहनी चाहिए।

तुम हैरान होओगे, पर फिर भी तुमसे कह देना उचित होगा। हम इस घर के पिछवाड़े एक छत बना रहे थे, और वह गिर पड़ी। वह गिर पडी तुममें से बहुतों के कारण। तुम ध्यान में जबरदस्त प्रयास कर रहे हो और कम से कम बीस आदमी ऐसे थे जो सोच रहे थे कि वह गिर जायेगी। उन्होंने मदद की। उसे गिरने में मदद की उन्होंने। कम से कम बीस व्यक्ति लगातार सोच रहे थे कि यह गिर जायेगी। जब वे थे वहां, वे उसकी ओर देखते और वे सोचते कि यह गिर जायेगी, क्योंकि उसका आकार ऐसा था कि उनके हिसाब से यह बात असंभव थी कि वह बनी रह सकती।

वह गिर गयी। और जब वह गिरी, उन्होंने सोचा, ‘निस्संदेह, हम सही थे।’ यह है दुष्‍चक्र। तुम्हीं हो कारण और तुम सोचते हो तुम सही थे। और तुम सब बहुत प्रयास कर रहे हो ध्यान में। जो कुछ तुम सोचते हो, घट सकता है। जब तुम ध्यान कर रहे हो तो नकारात्मक विचार पर कभी मत विचारो। उसका सच हो जाना संभव है क्योंकि तुम्हें कुछ शक्ति प्राप्त है। और फिर मुझे कुछ लेना—देना नहीं कि छत गिर गयी। इसके गिरने के कारण तुममें से बहुतों ने शक्ति की एक निश्चित मात्रा खो दी है, और इसी बात का ज्यादा ध्यान है मुझे। तुम्हारी शीत: प्रयुक्त हुए बिना कुछ नहीं घटता।

जो कह रहे थे कि यह गिर जायेगी उन्हीं के कारण वह छत गिर गयी। और वे स्वयं देख सकते हैं। कुछ दिनों तक वे बहुत अशक्त, उदास, निराश रहे। उन्होंने अपनी शक्ति खो दी। शायद वे सोच रहे होंगे कि वे उदास थे क्योंकि छत गिर गयी है, पर नहीं। वे उदास थे क्योंकि उन्होंने शक्ति की एक निश्चित मात्रा खो दी। और जीवन है एक ऊर्जात्मक घटना।

जब तुम ध्यान नहीं करते, तो कोई ज्यादा मुश्किल नहीं होती। तुम जो चाहो कह सकते हो क्योंकि तुम अशक्त होते हो। पर जब तुम ध्यान करते हो, तुम्हें जागरूक होना चाहिए उस एक—एक शब्द के प्रति जो तुम कहते हो, क्योंकि हर एक शब्द कुछ निर्मित कर सकता है तुम्हारे चारों ओर।

पहला चरण है सारे शरीर को आपूरित करने का जिससे कि सारा शरीर एक नाद—शक्ति बन जाता है। जब तुम संतुष्ट अनुभव करते हो, तब दूसरा चरण बढ़ाना। और कभी प्रयोग मत करना इस शक्ति का क्योंकि यह शक्ति एकत्रित करनी होती है और प्रयुक्त करनी होती है दूसरे चरण के लिए।

दूसरा चरण है अपने मुंह को बंद करो और दोहराओ और मन ही मन जप करो ओम् का—पहले शारीरिक रूप से और फिर मानसिक रूप से। अब शरीर का उपयोग बिलकुल नहीं होना चाहिए। गला, जीभ, होंठ, हर चीज बंद रहनी चाहिए। सारा शरीर बंद होना चाहिए और जप होना चाहिए केवल मन में ही। लेकिन जितना संभव हो उतना जोर से ही। वही प्रबलता रहे जैसी तुम शरीर के साथ प्रयोग कर रहे थे। अब मन को जुड्ने दो इसके साथ। फिर तीन महीने के लिए अब मन को संपृक्त होने दो इस नाद से।

उतना ही समय मन लेगा जितना शरीर द्वारा लिया जाता रहा। यदि तुम शरीर सहित एक महीने के भीतर आपूरण प्राप्त कर सकते हो, तो तुम मन सहित भी एक महीने के भीतर प्राप्त कर लोगे। यदि तुम शरीर द्वारा सात महीनों में प्राप्त कर सकते हो, तो सात महीने ही लगेंगे मन द्वारा, क्योंकि शरीर और मन ठीक—ठीक दो नहीं हैं बल्कि वे हैं एक मनोशारीरिक, साइकोसोमैटिक घटना। एक भाग है शरीर, दूसरा भाग है मन। शरीर है प्रकट मन, मन है अप्रकट शरीर।

अत: दूसरे हिस्से को, तुम्हारे अस्तित्व के सूक्ष्म हिस्से को आपूरित होने दो। भीतर ओम् को जोर से दोहराओ। जब मन परिपूर्ण होता है, और भी शक्ति खुलती है तुम्हारे भीतर। पहली अवस्था के साथ कामवासना तिरोहित हो जायेगी। दूसरी के साथ, प्रेम तिरोहित हो जायेगा। वह प्रेम जो तुम जानते हो। वह प्रेम नहीं जिसे बुद्ध जानते हैं, सिर्फ तुम्हारा प्रेम तिरोहित हो जायेगा।

कामवासना दैहिक अंश है प्रेम का और प्रेम है कामवासना का मानसिक अंश। जब प्रेम तिरोहित होता है, तब और भी खतरा है। तुम बहुत—बहुत घातक होते हो दूसरों के प्रति। यदि तुम कुछ कहते तो वह तुरंत घट जायेगा। इसीलिए दूसरी अवस्था के लिए समग्र मौन लक्षित किया गया है। जब तुम दूसरी अवस्था में होते हो, संपूर्णतया मौन हो जाओ।

और प्रवृत्ति होगी शक्ति का प्रयोग करने की, क्योंकि तुम बहुत जिज्ञासु होओगे इसके प्रति। बचकाने भाव से भरे हुए होओगे। और तुम्हारे पास इतनी ज्यादा ऊर्जा होगी कि तुम जानना चाहोगे कि क्या घट सकता है। पर इसका उपयोग मत करना, और बाल—उत्साह मत बरतना, क्योंकि तीसरा सोपान अभी भी बाकी है और ऊर्जा की आवश्यकता है। इसलिए कामवासना तिरोहित हो जाती है। क्योंकि ऊर्जा को संचित करना होता है। प्रेम तिरोहित हो जाता है, क्योंकि ऊर्जा को संचित करना होता है।

अत: तीसरा सोपान मन को आपूरित अनुभव करने के बाद आता है। और तुम इसे जान लोगे जब यह घटता है; पूछने की जरूरत नहीं है कि कोई इसे कैसे अनुभव करेगा? यह है भोजन करने की भांति। तुम अनुभव करते हो कि ‘ अब पर्याप्त है।’ मन अनुभव कर लेगा जब यह पर्याप्त होता है। तब तुम तीसरे चरण का प्रारंभ कर सकते हो। तीसरे में, न तो शरीर का और न ही मन का उपयोग करना होता है। जैसे शरीर को बंद किया, अब तुम मन को बंद कर देते हो।

और यह आसान होता है। जब तुम तीन या चार महीनों से जप कर रहे होते हो, तो यह बहुत आसान होता है। तुम शरीर को ही बंद कर दो, और तुम सुनोगे तुम्हारे अपने अंतरतम से तुम तक आते हुए उस नाद को। ओम् होगा वहां जैसे कि कोई और जप कर रहा है और तुम मात्र सुनने वाले हो। यह होता है तीसरा चरण। और यह तीसरा चरण तुम्हारे समग्र अस्तित्व को बदल देगा। सारी बाधाएं गिर जायेंगी और सारी अड़चनें तिरोहित हो जायेंगी। अत: यह प्रक्रिया औसत रूप से लगभग नौ महीने ले सकती है यदि तुम तुम्हारी समग्र ऊर्जा इसमें डाल देते हो तो।

तीसरा प्रश्‍न:

ओम् की साधना करते हुए इसे मंत्र की भांति दोहराना बेहतर है या अंतर्नाद की भांति इसे सुनने का प्रयत्न करना बेहतर है?

बिलकुल अभी तो तुम इसे अंतर्नाद की भांति नहीं सुन सकते। अंतर्नाद है वहां, लेकिन बहुत मौन है, बहुत सूक्ष्म, और तुम्हारे पास वह कान नहीं है इसे सुनने के लिए। कान को विकसित करना होता है। जब शरीर आपूरित होता है, और मन आपूरित होता है, केवल तभी तुम्हारे पास होगा वह कान—अर्थात तीसरा कान। तब तुम सुन सकते हो उस नाद को जो सदा वहां होता है।

यह सर्वव्यापी नाद है। यह अंदर और बाहर है। अपना कान वृक्ष से लगा दो और यह वहां होता है; अपना कान चट्टान से लगा दो और यह वहां होता है। लेकिन पहले तुम्हारे शरीर और मन का अतिक्रमण हो जाना चाहिए और तुम्हें अधिकाधिक ऊर्जा प्राप्त कर लेनी चाहिए। सूक्ष्म को सुन पाने के लिए विराट ऊर्जा की आवश्यकता पड़ेगी।

पहले चरण के साथ कामवासना तिरोहित हो जाती है, दूसरे चरण के साथ प्रेम तिरोहित हो जाता है और तीसरे चरण के साथ हर वह चीज जिसे तुम जानते हो, तिरोहित हो जाती है। यह ऐसा होता है जैसे कि तुम बचे ही नहीं, मृत हो, जा चुके हो, समाप्त हो गये हो। यह एक मृत्यु की घटना होती है। ऐसा घटता है यदि तुम पलायन नहीं

करो और घबड़ाओ नहीं। क्योंकि तुममें हर प्रवृत्ति उठेगी पलायन करने की। क्योंकि यह अगाध शून्य की भांति लगता है, और तुम इसमें गिर रहे हो। और वह अथाह—अतल है जिसका कोई अंत नहीं जान पड़ता। तुम अतल—अथाह में पड़ते हुए एक पंख की भांति बन जाते हो—गिर रहे हो और गिर रहे हो, और इसका कोई अंत आता नहीं जान पड़ता।

तुम घबड़ा जाओगे। तुम इससे भाग जाना चाहोगे। यदि तुम इससे भागते हो, तो सारा प्रयास ही व्यर्थ हो जायेगा। और यह भागना ऐसा होगा कि तुम फिर ओम् के मंत्र का जप करने लगोगे। तुम वहां से भागने लगोगे तो पहली बात जो तुम करोगे वह यही होगी—ओम् का जप। क्योंकि यदि तुम जप करते हो तो तुम मन में ही लौट आते हो। यदि तुम जोर से जप करते हो तुम शरीर में लौट आते हो।

तो जब कोई ओम् का नाद सुनना शुरू कर देता है तो उसे जप नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह जप करना एक पलायन हो जायेगा। मंत्र का जप करना होता है और फिर उसे गिरा देना होता है। मंत्र केवल तभी संपूर्ण होता है जब तुम उसे गिरा सको। यदि तुम उसका जप किये ही जाते हो, तो तुम एक आश्रय के रूप में उससे चिपके रहोगे। तब जब कभी तुम भयभीत होओगे तुम फिर वापस आओगे और इसका जप करोगे।

इसीलिए मैं कहता हूं इसका जप इतनी गहराई से करो कि शरीर आपूरित हो जाये। तब फिर से शरीर में इसका जप करने की कोई आवश्यकता न रहेगी। यदि मन आपूरित हो जाता है, तो इसका जप करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। यदि यह परिपूर्णता से उमड़ रहा हो, तो कोई जगह नहीं बचती इसमें ज्यादा जप उड़ेलने की। तो तुम पलायन नहीं कर सकते। केवल तभी उस अनाहत नाद को सुनना संभव होता है।

चौथा प्रश्‍न:

एक और मित्र ने पूछा है— ‘इससे पहले आप ‘हू’ के मंत्र के बारे में बात किया करते थे। तो अब आप ‘ओम्’ के मंत्र पर क्यों जोर दे रहे हैं?’

मैं जोर नहीं दे रहा हूं। मैं मात्र तुम्हें समझा रहा हूं पतंजलि के बारे में। मेरा जोर तो ‘हू पर ही है। और जो कुछ मैं ओम्’ को लेकर कह रहा हूं वही प्रयुक्त होता है ‘हू पर। लेकिन मेरा जोर ‘हू पर ही है।

जैसा कि मैंने तुमसे कहा, पतंजलि हुए पांच हजार वर्ष पहले। लोग सीधे—सरल थे, बहुत सीधे, निर्दोष। वे सरलता से आस्था कर सकते थे; उनके पास इतना उलझा हुआ मन न था। वे मस्तिष्कोन्मुखी नहीं थे; वे हृदयोमुखी थे। ओम् एक सौम्य नाद है, शांत है, गैर—हिंसात्‍मक है, अनाक्रमक है। यदि तुम ओम् का जप करते हो, यह कंठ से हृदय तक जाता है, उससे नीचे कभी नहीं। उन दिनों में वे हृदयपूर्ण लोग होते थे। ओम् उनके लिए काफी होता था। एक हल्की खुराक, होम्योपैथिक खुराक उनके लिए पर्याप्त होती थी।

तुम्हें इससे ज्यादा मदद न मिलेगी। तुम्हारे लिए ‘हू ज्यादा सहायक होगा। ‘हू एक सूफी मंत्र है। उसी भांति जैसे कि ओम् एक हिंदू मंत्र है, ‘हू सूफी मंत्र है। ‘हू सूफियों द्वारा विकसित हुआ उस देश और जाति के लिए जो बहुत आक्रामक, हिंसात्‍मक थी—उन लोगों के लिए जो सीधे—सादे न थे, निर्दोष न थे, बल्कि चालाक और होशियार थे, जो योद्धा थे। उनके लिए ‘हू खोजा गया था।

‘हू’ अल्लाह का अंतिम भाग है। यदि तुम लगातार दोहराते हो ‘ अल्लाह—अल्लाह—अल्लाह’, तो धीरे— धीरे यह रूप ले लेता है ‘ अल्लाहू—अल्लाहू—अल्लाहूं का। तब धीरे—धीरे पहला भाग गिर जाने देना होता है। यह बन जाता है ‘लाहू—लाहू—लाहू।’ फिर ‘लाहू भी गिर जाने देना है। यह हो जाता है ‘हू—हू—हू।’ यह बहुत शक्तिशाली होता है और यह सीधे तुम्हारे काम—केंद्र पर चोट करता है। यह तुम्हारे हृदय पर चोट नहीं करता है, यह तुम्हारे काम—केंद्र पर चोट करता है।

तुम्हारे लिए ‘हूं सहायक होगा क्योंकि अब तुम्हारा हृदय लगभग निष्कि्रय हो गया है। प्रेम तिरोहित हो चुका है; केवल वासना बच रही है। तुम्हारा काम—केंद्र सक्रिय है, तुम्हारा प्रेम—केंद्र नहीं। तो ओम् कोई ज्यादा मदद न करेगा।’हूं ज्यादा गहरी मदद देगा क्योंकि अब तुम्हारी ऊर्जा हृदय के निकट नहीं है। तुम्हारी ऊर्जा निकट है काम—केंद्र के, और काम—केंद्र पर सीधी चोट पड़नी चाहिए जिससे कि ऊर्जा ऊपर उठे।

कुछ समय तक ‘हू, पर कार्य करने के बाद तुम अनुभव कर सकते हो कि अब तुम्हें उतनी ज्यादा मात्रा की आवश्यकता नहीं है। तब तुम ओम् की ओर मुड़ सकते हो। जब तुम अनुभव करना शुरू कर देते हो कि अब तुम हृदय के निकट रह रहे हो, काम—केंद्र के निकट नहीं, केवल तभी तुम प्रयोग कर सकते हो ओम् का, उसके पहले नहीं। लेकिन कोई जरूरत नहीं।’हू सब कुछ संपन्न कर सकता है।

फिर भी यदि तुम ऐसा करना चाहो, तुम इसे बदल सकते हो। यदि तुम अनुभव करते हो कि अब कोई जरूरत न रही और तुम कामवासना अनुभव नहीं करते; कि कामवासना तुम्हारे लिए चिंता का विषय नहीं और तुम उसके बारे में नहीं सोचते; यह कोई मस्तिष्कगत कल्पना नहीं है और इसके द्वारा वशीभूत नहीं हो। एक सुंदर सी गुजर जाती है और तुम मात्र इतना ही देख पाते हो कि ‘हां, एक सी गुजर गयी है।’ लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ उठता नहीं; तुम्हारे काम—केंद्र पर चोट नहीं पड़ती और कोई ऊर्जा तुममें हलचल नहीं करती; तब तुम ओम् का आरंभ कर सकते हो।

लेकिन कोई आवश्यकता नहीं। तुम जारी रख सकते हो ‘हू को।’हू, एक ज्यादा सशक्त मात्रा है। जब तुम ‘हू, पर कार्य करते हो, तब तुम तुरंत अनुभव कर सकते हो कि यह पेट में पहुंचता है—हारा के केंद्र पर और फिर काम—केंद्र पर। यह तुरंत बाध्य करता है काम—ऊर्जा को ऊपर की ओर पहुंचने के लिए। यह काम—केंद्र पर चोट करता है।

लेकिन तुम मस्तिष्कोमुखी ज्यादा हो। ऐसा हमेशा घटता है : लोग, देश, सभ्यताएं जो सिर की ओर ज्यादा झुके हैं, कामुक होते हैं—हृदयोसुमुखी व्यक्तियों से कहीं ज्यादा कामुक। हृदयोसुखी व्यक्ति प्रेमपूर्ण होते है। कामवासना प्रेम की छाया की भांति आती है; यह स्वयं में महत्वपूर्ण नहीं होती है। हृदयोमुखी लोग अधिक नहीं सोचते। क्योंकि वस्तुत: यदि तुम चौबीस घंटे ध्यान दो, तो तुम देखोगे कि तेईस घंटे तुम कामवासना के विषय में ही सोच रहे हो।

हृदयोमुखी लोग कामवासना के विषय में बिलकुल ही नहीं सोचते। जब यह घटित होता है, तो होता है। यह मात्र शारीरिक आवश्यकता की भांति होती है। और यह प्रेम की छाया के रूप में पीछे चली आती है। यह सीधे तौर पर कभी नहीं घटती। वे मध्य में रहते हैं। हृदय, सिर और काम—केंद्र के बीच मध्य में होता है। तुम सिर में और कामवासना में रहते हो। तुम इन्हीं दो अतियों में घूमते रहते हो; तुम मध्य में कभी नहीं रहते। जब कामवासना तृप्त हो जाती है, तुम मन की ओर बढ़ते हो। जब कामवासना की इच्छा उठती है, तो तुम काम—केंद्र की ओर जा सकते हो; लेकिन तुम मध्य में कभी नहीं ठहरते। पेंडुलम दायें—बायें घूमता रहता है; यह मध्य में कभी नहीं ठहरता।

पतंजलि ने ओम् के जप की विधि विकसित की थी बहुत सीधे—सरल लोगों के लिए—प्रकृति के साथ रहने वाले निर्दोष ग्रामीणों के लिए। तुम आजमा सकते हो इसे। यदि यह मदद करता है तो अच्छा है। लेकिन तुम्हारे बारे में मेरी समझ ऐसी है कि यह तुममें से एक प्रतिशत से ज्यादा लोगों की मदद न करेगा। निन्यानबे प्रतिशत सहायता पायेंगे ‘हू, द्वारा। यह तुम्हारे ज्यादा निकट है।

और ध्यान रहे, जब ‘हू सफल होता है, जब तुम सुनने के बिंदु तक पहुंचते हो, तब तुम सुनोगे ओंकार को, ‘हू, को नहीं। तुम ओम् को सुनोगे। परम घटना वही होगी।’हू की आवश्यकता है केवल जब तुम मार्ग पर होते हो, क्योंकि तुम लोग कठिन हो। ज्यादा बलवान मात्रा की जरूरत है; बस इतना ही। लेकिन परम अवस्था में तुम उसी घटना को अनुभव करोगे।

मेरा जोर रहता है ‘हूं पर क्योंकि मेरा जोर तुम पर निर्भर है—जो तुम्हारी जरूरत है उस पर। मैं न तो हिंदू हूं और न ही मुसलमान। मैं कोई नहीं, अत: मैं मुक्त हूं। मैं कहीं से किसी भी चीज का उपयोग कर सकता हूं। एक हिंदूग्लानि अनुभव करेगा अल्लाह का उपयोग करने में; मुसलमान अपराध अनुभव करेगा ओम् का उपयोग करने में। लेकिन मैं ऐसी बातों को लेकर उलझता नहीं हूं। यदि अल्लाह से मदद मिलती है तो यह सुंदर है; यदि ओंकार मदद करता है तो यह सुंदर। मैं तुम्हारी आवश्यकता के अनुसार तुम तक हर विधि ले आता हूं।

मेरे देखे, सारे धर्म एक ही ओर ले जाते हैं, साध्य एक ही है। और सारे धर्म एक ही चरम शिखर की ओर ले जा रहे मार्गों की भांति हैं। शिखर पर हर चीज एक हो जाती है। अब यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम कहां हो। और कौन—से मार्ग के ज्यादा निकट पड़ोगे। ओम् बहुत दूर होगा तुमसे, ‘हू, बहुत निकट है। यह तुम्हारी आवश्यकता है। मेरा जोर तुम्हारी आवश्यकता पर निर्भर करता है। मेरा जोर कोई सैद्धांतिक बात नहीं है; यह सांप्रदायिक नहीं है। मेरा जोर नितांत रूप से व्यक्तिगत है। मैं तुम्हें देखता हूं और फिर निर्णय करता हूं।

पांचवां प्रश्‍न:

आपने कहा कि आवश्यकताएं शरीर से जुड़ी है और आकांक्षाएं मन से। इन दोनों में से कौन—सी चीज हमें आप तक ले आयी?

इससे पहले कि मैं इसका उत्तर दूं एक बात और समझ लेनी है; तब तुम्हारे लिए इस प्रश्न के उत्तर को समझना संभव होगा। तुम केवल शरीर और मन ही नहीं हो, तुम कुछ और भी हो—आत्मा हो, आत्म—तत्व हो। तुम हो आत्‍मन। शरीर की आवश्यकताए हैं आत्‍मा की भी आवश्यकताएं होती हैं। इन दोनो के ठीक बीच मे मन है जिसकी आकांक्षाएं हैं। शरीर की आवश्यकताए है—भूख—प्यास को परितृप्त करना। सिर पर छत की जरूरत है, भोजन की आवश्यकता है, पानी की आवश्यकता है। शरीर की आवश्यकताएं हैं लेकिन मन के पास आकाक्षाएं है। इसे किसी चीज की जरूरत नहीं, तो भी मन झूठी आवश्यकताएं गढ लेता है।

आकांक्षा एक झूठी आवश्यकता है । यदि तुम इसकी ओर ध्यान नहीं देते, तो तुम हताशा अनुभव करते हो, किसी असफल की भांति ही। यदि तुम इसकी ओर ध्यान देते हो तो कुछ प्राप्त नहीं होता। क्योंकि पहली बात, वह कभी आवश्यकता थी ही नहीं। आवश्यकता की भांति कभी अस्तित्व न था उसका।

तुम परिपूर्ण कर सकते हो आवश्यकता को; तुम आकांक्षा को पूर्ण नहीं कर सकते। आकांक्षा एक सपना है। सपने को परिपूर्ण नहीं किया जा सकता; इसकी जड़ें नहीं है—न धरती में, न ही आकाश में। इसकी जड़ें नहीं है। मन एक स्वप्‍नमयी घटना है। तुम प्रसिद्धि की, मान—सम्मान की मांग करते हो। और यदि तुम प्राप्त कर भी लेते हो तो तुम पाओगे कुछ भी नहीं क्योंकि प्रसिद्धि किसी आवश्यकता को संतुष्ट न कर पायेगी। यह कोई आवश्यकता नहीं है। तुम हो सकते प्रसिद्ध। यदि सारा संसार तुम्हारे बारे में जान ले, तो क्या—फिर क्या? क्या घटेगा तुम्हें? क्या कर सकते हो इसका? यह न तो भोजन है और न पानी। जब सारा संसार तुम्हें जान लेता है, तब तुम हताश अनुभव करते हो। क्या करोगे इसका? यह व्यर्थ है।

आत्मा की भी आवश्यकताएं हैं। जैसे कि शरीर को आवश्यकता है भोजन की, बिलकुल उसी तरह आत्मा को आवश्यकता है भोजन की। निस्संदेह तब भोजन परमात्मा है। तुम्हें याद होगा जीसस बहुत बार अपने शिष्यों से कहते रहे, ‘मुझे खाओ। मैं हूं तुम्हारा भोजन। और मुझे ही होने दो तुम्हारा पेय।’ क्या मतलब है उनका? यह एक बिलकुल ही भिन्न आवश्यकता है। जब तक कि यह संतुष्ट न हो, जब तक तुम परमात्मा का भोजन न कर सको, उसे खाकर जब तक तुम परमात्मा ही न हो जाओ, उसे आत्मसात न कर लो, जब तक वह रक्त की भांति तुम्हारी आत्मा में प्रवाहित ही न होने लगे, जब तक वह तुम्हारी चेतना ही न बन जाये—तुम असंतुष्ट ही बने रहोगे।

आत्मा की आवश्यकताएं हैं; धर्म उन आवश्यकताओं को परिपूर्ण करता है। शरीर की आवश्यकताएं हैं, विज्ञान उन आवश्यकताओं को पूरा करता है। मन की आकांक्षाएं हैं और वह उन्हें पूरा करने का प्रयत्न करता है, लेकिन वह उन्हें पूरा कर नहीं सकता है। मन तो मात्र सीमास्थल है जहां देह और आत्मा का मिलन होता है। जब देह और आला पृथक होते हैं, तब मन बिलकुल तिरोहित हो जाता है। उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है।

छठवां प्रश्‍न:

अब इस प्रश्न को ही लो— ‘आपने कहा कि आवश्यकताएं शरीर से जुड़ी है और आकांक्षाएं मन से। इन दोनों में से कौन—सी चीज हमें आप तक ले आयी?’

यहां मेरे आस—पास तीन प्रकार के व्यक्ति है। एक वे हैं जो आये है उनकी शारीरिक आवश्यकताओं के कारण। वे कामवासना के कारण हताश हैं, प्रेम के कारण हताश हैं, शरीर के साथ दुखी हैं। वे आते है और उनकी मदद की जा सकती है। उनकी समस्या ईमानदार है। और एक बार उनकी शारीरिक आवश्यकताएं तिरोहित हो जाती है, तो आत्‍मिक आवश्यकताएं उठ खड़ी होंगी।

फिर है दूसरा वर्ग, जो आया है आत्मिक आवश्यकताओं के कारण। उनकी मदद भी की जा सकती है क्योंकि उनके पास वास्तविक आवश्यकताएं हैं। वे अपनी कामवासना की समस्याओं के लिए नहीं पहुंचे हैं, प्रेम की समस्याओं या शारीरिक बेचैनियों या बीमारियों के कारण नहीं आये। वे इसके लिए नहीं आये। वे सत्य को खोजने आये है। वे जीवन के रहस्य में प्रवेश करने को आये हैं, वे जानने को आये है कि यह अस्तित्व है क्या। और फिर है एक तीसरा वर्ग, और तीसरा ज्यादा बड़ा है इन दोनों से। वे लोग आये है अपने मन की आकांक्षाओं के कारण। उनकी मदद नहीं की जा सकती है। वे कुछ समय तक मेरे आस—पास बने रहेंगे और फिर गायब हो जायेंगे या, यदि वे ज्यादा समय तक मेरे पास बने रहे तो मैं उन्हें या तो शारीरिक आवश्यकताओं तक ला सकता हूं या आत्मिक आवश्यकताओं तक, लेकिन उनकी मनोगत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती। क्योंकि पहली बात तो यह है कि वे आवश्यकताएं हैं ही नहीं।

कुछ लोग जो यहां हैं, वे अहंकार के कारण हैं। संन्यास उनके लिए एक अहंकार—यात्रा है। वे विशिष्ट बन गये हैं। असाधारण। वे जीवन में असफल हो चुके हैं। वे राजनैतिक शक्ति नहीं पा सके; वे सांसारिक प्रसिद्धि तक नहीं पहुंचे; वे धन, सम्पति और भौतिक पदार्थ प्राप्त नहीं कर सके। वे स्वयं को कुछ नहीं अनुभव करते, और अब मै उन्हें दे देता हूं संन्यास। अपनी ओर से कुछ किये बिना वे महत्वपूर्ण हो गये हैं, कुछ विशिष्ट। मात्र गैरिक वस्त्र धारण करने से वे सोचते हैं कि अब वे साधारण व्यक्ति न रहे। वे कुछ चुनिंदा हैं, दूसरे लोगों से भिन्न। वे संसार में जायेंगे और हर किसी की निंदा करेंगे। यह कह कर कि ‘तुम मात्र सांसारिक प्राणी हो। तुम सर्वथा गलत हो। हम उद्धारित व्यक्ति हैं, थोड़े—से चुने हुओं में से।’

ये हैं मन की आकांक्षाएं। ध्यान रहे, किन्हीं आकांक्षाओं के कारण यहां मत रहना। अन्यथा तुम बिलकुल व्यर्थ कर रहे हो तुम्हारा समय; उन्हें परिपूर्ण नहीं किया जा सकता। मैं यहां हूं तुम्हारे सपनों में से तुम्हें बाहर ले आने के लिए। मैं यहां तुम्हारे सपनों की पूर्ति के लिए नहीं हूं। ये लोग रहा सब प्रकार की राजनीतिया ले आते हैं क्योंकि वे अपनी अहंकार—यात्राओं पर निकले हुए है। वे सब प्रकार के संघर्ष ले आयेंगे, वे गुट निर्मित करेंगे। वे एक छोटा संसार बना लेंगे यहां, और एक ऊंच—नीच का तंत्र वे निर्मित करेंगे। यह कहेंगे कि ‘मैं ज्यादा ऊंचा हूं तुमसे, ज्यादा पवित्र हूं तुमसे।’ वे खेलेंगे सदा ऊंचा दिखने के खेल को।

लेकिन वे छू हैं। पहली बात तो यह कि उन्हें यहां होना ही नहीं चाहिए। उन्होंने अपनी अहंकार यात्राओं के लिए गलत स्थान चुन लिया है क्योंकि मैं यहां हूं उनके अहंकारों को संपूर्णतया मार देने के लिए, उन्हें तोड़ देने के लिए। इसीलिए तुम मेरे आस—पास इतनी ज्यादा अव्यवस्था का अनुभव करते हो।

ध्यान रहे, तुम ठीक स्थान पर हो सकते हो गलत कारणों से। तब तुम चूक जाते हो, क्योंकि सवाल जगह का नहीं है। सवाल है : तुम यहां हो क्यों? यदि तुम अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के कारण यहां हो, तो कुछ किया जा सकता है, और जब तुम्हारी शारीरिक आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं, तो तुम्हारी आत्मिक आवश्यकताएं जाग्रत हो जायेगी।

यदि तुम यहां मन की इच्छाओं के कारण हो, तो गिरा देना उन इच्छाओं को। वे आवश्यकताएं नहीं हैं, वे सपने है। उन्हें जितनी संपूर्णता से गिराना संभव हो, गिरा देना। और मत पूछना कि उन्हें कैसे गिराना है क्योंकि उन्हें गिरा देने को कुछ किया नहीं जा सकता है। मात्र इतनी समझ कि वे मन की आकांक्षाएं हैं, काफी है; वे स्वत: गिर जाती है।

सातवां प्रश्‍न:

क्या योग और तंत्र के बीच कोई संश्लेषण खोजना संभव है? क्या एक मार्ग दूसरे तक ले जाता है?

नहीं, यह असंभव है। यह उतना ही असंभव है जितना कि सी और पुरुष के बीच कोई संश्लेषण खोजने का प्रयत्न करना। तब क्या बनेगा संश्लेषण? एक तीसरा लिंग—स्व नपुंसक व्यक्ति होगा संश्लेषण। और वह न तो पुरुष होगा न ही सी। ऐसा व्यक्ति जडविहीन होगा। वह व्यक्ति कहीं का न होगा।

तंत्र सर्वथा विपरीत है योग के—विपरीत ध्रुव है। तुम कोई संश्लेषण निर्मित नहीं कर सकते। और ऐसी चीजों के लिए कभी प्रयत्न मत करना क्योंकि तुम अधिकाधिक भ्रमित हो जाओगे। एक ही काफी है तुम्हें भ्रमित करने को; दो तो बहुत ज्यादा होंगे। और वे विभिन्न दिशाओं की ओर ले जाते हैं। वे एक ही चोटी तक पहुंचते हैं। संश्लेषण है ऊंचाई पर, चरम शिखर पर, लेकिन पहला कदम जहां पड़ता है उस आधार पर जहां यात्रा प्रारंभ होती है, वे सर्वथा भिन्न हैं। एक जाता है पूर्व की ओर, दूसरा जाता है पश्चिम की ओर। वे एक—दूसरे को विदा कह देते हैं; परस्पर पीठ किये हुए हैं वे। वे पुरुष और सी की भांति हैं। उनकी मनोवृत्तियां अलग हैं।

अपनी भिन्नता में वे सुंदर हैं। यदि तुम संश्लेषण बनाते हो, तो वह अस्त्र हो जाता है। एक सी, स्‍त्री ही होती है—इतनी ज्यादा सी कि वह पुरुष के लिए एक विपरीत ध्रुव बन जाती है,। अपनी ध्रुवताओं में वे सुंदर हैं क्योंकि अपनी विपरीतताओं में वे परस्पर आकर्षित हुए रहते हैं। उनकी अपनी ध्रुवताओं में वे पूरक होते हैं, लेकिन तुम संश्लेषण नहीं कर सकते। संश्लेषण तो मात्र दुर्बल होगा, संश्लेषण तो अशक्त ही होगा। उसमें कोई बल न होगा।

शिखर पर वे मिलते हैं, और वह मिलन है चरम सुख का बिंदु। जब सी और पुरुष मिलते हैं, जब उनके शरीर विलीन हो जाते हैं, जब वे दो नहीं रहते, जब ‘यिन’ और ‘यांग’ एक होते हैं, तो ऊर्जा एक वर्तुल का रूप ले लेती है क्षण भर को। प्राण—ऊर्जा की उस पराकाष्ठा पर, वे मिलते और फिर से वे दूर होते हैं।

यही बात घटती है तंत्र और योग के साथ। तंत्र स्‍त्रैण है, योग पौरुषेय है। तंत्र है समर्पण, योग है संकल्प। तंत्र है प्रयासविहीनता, योग है प्रयास, जबरदस्त प्रयास। तंत्र निष्क्रिय है, योग है सक्रिय। तंत्र है धरती की भांति, योग है आकाश की भांति। वे मिलते हैं पर कोई संश्लेषण नहीं है। शिखर पर वे मिल जाते हैं, लेकिन आधारतल पर जहां यात्रा प्रारंभ होती है, जहां तुम सभी खड़े हो, तुम्हें मार्ग चुनना पड़ता है।

मार्ग संशिलष्ट नहीं किये जा सकते हैं। और जो लोग इसके लिए प्रयत्न करते हैं, वे मानवता को भ्रमित कर देते हैं। वे दूसरों को बहुत गहरे तौर पर भ्रमित करते हैं और वे सहायक नहीं होते। वे बहुत हानिकारक होते हैं। मार्गों का संश्लेषण नहीं किया जा सकता, केवल अंत को संश्लिष्ट किया जा सकता है। एक मार्ग को दूसरे मार्ग से अलग होना ही होता है—पूर्णतया अलग, अपने पूरे भाव—रंग में ही अलग, अपने अस्तित्व में अलग। जब तुम तंत्र का अनुसरण करते हो, तो तुम यौन के द्वार से आगे बढ़ते हो। वह है तंत्र का मार्ग। तुम प्रकृति का समग्र समर्पण होने देते हो। यह होने देना है। तुम लड़ाई नहीं करते; यह एक योद्धा का मार्ग नहीं है। तुम संघर्ष नहीं करते; तुम समर्पण करते हो, भले ही प्रकृति तुम्हें कहीं भी ले जाये। यदि प्रकृति काम—भाव में ले जाती है, तुम काम—भाव को समर्पण कर देते हो। तुम संपूर्णतया इसमें उतरते हो बिना किसी अपराध—भाव के, बिना पाप की किसी धारणा के।

तंत्र के पास पाप की धारणा नहीं, कोई अपराध—भाव नहीं। तो कामवासना में उतरते हो। मात्र सचेत बने रहो, जो घट रहा है उसके प्रति जागरूक बने रहो। सचेत, जो हो रहा है उसके प्रति सावधान। लेकिन उसे नियंत्रित करने का प्रयत्न मत करना; स्वयं को रोकने की कोशिश मत करना। प्रवाह को चले आने दो। सी में

गति करो और सी को गति करने दो तुम्हारे भीतर; उन्हें एक वर्तुल बनने दो। और तुम साक्षी बने रहो। इसी देखने और होने देने द्वारा, तंत्र रूपांतरण को प्राप्त कर लेता है। कामवासना तिरोहित हो जाती है। यह एक तरीका है प्रकृति के पार जाने का क्योंकि कामवासना के पार जाना प्रकृति के पार जाना है।

सारी प्रकृति कामयुक्त है। फूल हैं क्योंकि वे कामभावमय है। समस्त सौंदर्य विद्यमान है किसी कामभाव की घटना के कारण। एक निरंतर खेल चल रहा है। पेडू एक—दूसरों को आकर्षित कर रहे है, पक्षी एक—दूसरे को पुकार रहे हैं। हर कहीं कामक्रीड़ा चल रही है। प्रकृति काम है, और पुरुष—सी के वर्तुल को पाना काम के पार जाना है। लेकिन तंत्र कहता है काम का उपयोग सीढ़ी की भांति करो। उसके साथ संघर्ष मत करो। उसका उपयोग करो और उससे बाहर हो जाओ। उसमें से आगे बढ़ो, उसमें से गुजरो, और अनुभव द्वारा रूपांतरण को उपलब्ध हो जाओ। ध्यानपूर्ण अनुभव रूपांतरण बन जाता है।

योग कहता है ऊर्जा व्यर्थ मत गंवाना। काम से पूर्णतया दूर हट कर बाहर निकल जाना। इसमें जाने की कोई जरूरत नहीं। तुम एकदम इससे कतरा कर निकल सकते हो। ऊर्जा को सुरक्षित रखो, और प्रकृति के धोखे में मत आओ। प्रकृति के साथ संघर्ष करो। संकल्पशक्ति ही बन आओ। नियंत्रित जीव हो जाओ जो कहीं नहीं बह रहा। योग की सारी विधियां इसलिए है कि तुम्हें ऐसा बनाया जाये जिससे कि प्रकृति में बहने की जरूरत न हो। योग कहता है प्रकृति को अपने रास्ते जाने देने की कोई जरूरत नहीं। तुम इसके मालिक हो जाओ और तुम अपने से चलो—प्रकृति के विरुद्ध। यह योद्धा का मार्ग है— ‘निर्दोष योद्धा’ जो लगातार लड़ता है, और लड़ने द्वारा वह रूपांतरित होता है।

ये समग्रतया विभिन्न हैं। दोनों एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते है, अत: एक को चुन लेना। संश्लेषण करने का प्रयत्न मत करना। कैसे तुम कर सकते हो संश्लेषण? यदि तुम सेक्स द्वारा बढ़ते हो, योग गिरा दिया जाता है। संश्लेषण कैसे कर सकते हो तुम? यदि तुम सेक्स को छोड़ते हो तो तंत्र गिर जाता है। कैसे तुम संश्लेषण कर सकते हो? पर ध्यान रहे, दोनों एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं; वह लक्ष्य है—अतिक्रमण।

तुम्हें कौन—सा मार्ग चाहिए यह तुम पर निर्भर करता है—तुम्हारे ढंग पर। क्या तुम योद्धा के ढंग के हो? वह व्यक्ति हो जो लगातार संघर्ष करता है? तब योग है तुम्हारा मार्ग। यदि तुम योद्धा के प्रकार के नहीं हो, यदि तुम निष्क्रिय हो, सूक्ष्म तौर पर स्‍त्रैण, यदि तुम किसी के साथ लड़ना पसंद न करोगे, यदि तुम वस्तुत: अहिंसक हो, तब तंत्र है मार्ग। और चूंकि दोनों एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते है, इसलिए संश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं।

मेरे देखे, संश्लेषणकारी, लगभग हमेशा गलत होते हैं। सारे गांधी गलत हैं। जो कोई संश्लेषण करता है गलत है। क्योंकि यह एलोपैथी को आयुर्वेद से संश्लेषित करना है, यह होम्योपैथी को एलोपैथी से संश्लेषित करना है; यह हिंदू और मुसलमान को संश्लेषित करना है, यह बुद्ध और पतंजलि को संश्लेषित करना है। संश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं। हर मार्ग स्वयं में पूर्ण है। प्रत्येक मार्ग स्वयं में इतना संपूर्ण है कि इसमें कुछ जोड़े जाने की कोई जरूरत नहीं है। और कोई भी जोड़ खतरनाक हो सकता है। क्योंकि एक हिस्सा जो शायद एक खास मशीन में कार्य कर रहा हो, दूसरी में बाधा बन सकता है।

तुम इम्पाला कार से एक हिस्सा ले सकते हो जो उसमें ठीक कार्य कर रहा था। लेकिन यदि तुम इसे फोर्ड में लगा सकते, तो यह शायद समस्याएं खड़ी कर दे। एक हिस्सा एक ढांचे में कार्य करता है। हिस्सा ढांचे पर निर्भर करता है, संपूर्ण पर। तुम एक हिस्से मात्र का उपयोग नहीं कर सकते कहीं। और ये संश्लेषणकर्ता क्या करते हैं? वे एक ढांचे से एक हिस्सा उठा लेते हैं, दूसरा हिस्सा दूसरे ढांचे से, और वे सब घोल—मेल बना देते हैं। यदि तुम इन व्यक्तियों के पीछे चलते हो, तो तुम एक घोलमेल ही बन जाओगे। संश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं। सिर्फ तुम्हारा ढांचा खोज लेने का प्रयत्न करो; तुम्हारे ढांचे को अनुभव करो। और कहीं कोई जल्दी नहीं है। ध्यान से अपने ढांचे को अनुभव करो।

क्या तुम समर्पण कर सकते हो? प्रकृति को समर्पण कर सकते हो? तो कर देना समर्पण। यदि तुम अनुभव करते हो ऐसा असंभव है, कि तुम समर्पण नहीं कर सकते, तो निराश मत हो जाना क्योंकि एक दूसरा मार्ग है जो इस ढंग से समर्पण की मांग नहीं करता; जो तुम्हें तमाम अवसर देता है संघर्ष करने के। और दोनों एक ही बिंदु पर ले जाते हैं शिखर पर। जब तुम गौरीशंकर पर पहुंच चुके होते हो, धीरे—धीरे जैसे तुम शिखर के और—और निकट पहुंचते हो, तुम देखोगे कि दूसरे भी पहुंच रहे हैं जो कि विभिन्न मार्गों पर यात्रा कर रहे थे।

मनुष्यता के पूरे इतिहास में रामकृष्ण ने महानतम प्रयोगों में से एक प्रयोग करने का प्रयत्न किया। उनके संबोधि प्राप्त करने के पश्चात, उनकी संबोधि के पश्चात, उन्होंने बहुत सारे मार्गों को आजमाया। किसी ने कभी ऐसा नहीं किया क्योंकि कोई जरूरत नहीं है। यदि तुमने शिखर पा लिया है, तो क्यों फिक्र लेनी कि दूसरे मार्ग उस तक पहुंचते हैं या नहीं? किंतु रामकृष्ण ने मानवता पर बडा उपकार किया। वे फिर से आधारतल तक नीचे लौट आये और दूसरे मार्गों को आजमाया, देखने को कि वे भी शिखर तक पहुंचते हैं या नहीं। उन्होंने बहुतों को आजमाया, और हर बार वे उसी शिखर बिंदु तक पहुंचे।

यह उन्हीं की उपमा है—कि आधारतल पर मार्ग अलग होते हैं। वे विभिन्न दिशाओं की ओर बढ़ते हैं और विपरीत भी लगते हैं, परस्पर विरोधी भी, लेकिन शिखर पर वे मिल जाते हैं। संश्लेषण घटता है शिखर पर। प्रारंभ में विविधताएं होती हैं, बहुलताएं होती है; अंत में होता है एकत्व, ऐक्य।

संश्लेषण की परवाह मत करना। तुम सिर्फ तुम्हारा मार्ग चुन लेना और उस पर बने रहना। और दूसरों द्वारा प्रलोभित मत होओ, जो अपने मार्गों पर तुम्हें बुला रहे होंगे इस कारण, कि वह लक्ष्य तक ले जाता है। हिंदू पहुंचे हैं, मुसलमान पहुंचे हैं, यहूदी पहुंचे हैं, ईसाई पहुंचे हैं। और परम सत्य की कोई शर्त नहीं है जो कहे कि यदि तुम केवल हिंदू हो तो ही पहुंचोगे।

केवल एक बात जो चिंता करने की है वह यह कि तुम्हारे प्रकार को, ढांचे को पहचानना और चुनाव करना। मैं किसी बात के विरुद्ध नहीं हूं; मैं हर बात के पक्ष में हूं। जो कुछ भी तुम चुनो, मैं उसी ढंग से तुम्हारी मदद कर सकता हूं। लेकिन कोई संश्लेषण नहीं चाहिए। संश्लेषण के लिए प्रयत्न मत करना।

आठवां प्रश्‍न:

कई बार जब आप हमसे बातें करते है, तब ऊर्जा की लहरें हम तक उमड़ कर आती है और हमारा ह्रदय खोल देती है। और कृतज्ञता के आंसू ले आती है। आपने कहा है कि आप हमें भर देते है जब हम खुले हों। और कई बार यह शक्‍ति पात सदृश्‍य घटना एक ही समय बहुत लोगों को घटती है। आप हमें यक अद्भुत अनुभव अधिक बार क्‍यों नहीं देते?

यह तुम पर है। यह ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हे कोई अनुभव दे रहा हूं। यह तुम पर है। तुम ग्रहण कर सकते हो इसे। यह कोई देना नहीं है क्योंकि मैं तो दे ही रहा हूं हर समय। यह तुम पर निर्भर है कि खुले रहो और ग्रहण करो। और यह ठीक है, कि ऐसा बहुत बार बहुत लोगो को एक साथ घटता है। तब तर्क संगत मन कहता है कि मैं ही कुछ कर रहा होऊंगा, वरना क्यों ऐसा एक साथ घट रहा है बहुत लोगों को?

नहीं, मैं कुछ नहीं कर रहा। लेकिन जब कोई खुला होता है, तो वह किसी का खुलना संक्रामक होता है। दूसरे तुरंत शुरू कर देते हैं खुलना। यह ऐसा है जैसे जब कोई खासना शुरू करता है, तो दूसरे भी खांसना शुरू कर देते हैं। यह संक्रामक होता है। एक खुलता है, और तुम अकस्मात अनुभव करते हो तुम्हारे चारों और घट रहा है कुछ, तो तुम भी खुले हो जाते हो।

मैं निरंतर मौजूद हूं। जब कभी तुम खुले होते हो, तुम मुझमें शामिल हो सकते हो, मुझे ग्रहण कर सकते हो, जब तुम बंद होते हो, तब तुम ग्रहण नहीं कर सकते। और यह मुझ पर ही निर्भर नहीं करता, यह तुम पर निर्भर करता है कुछ करना। निस्संदेह ऐसा घटता है जब तुम इकट्ठे होते हो क्योंकि एक खोल देता है दूसरो को। और फिर यही चलता जाता है। और यह बात जल प्रवाह—सदृश कोई घटना बन सकती है।

इंडोनेशिया में एक विशिष्ट विधि है जो जानी जाती है ‘लतिहान’ के नाम से। वे ‘खुलना’ शब्द का उपयोग करते हैं। वह जो खुला है दूसरों को खोल सकता है। वह गुरु अभी इस धरती के उन बहुत—बहुत महत्वपूर्ण व्यक्तियो में से एक है—लतिहान का गुरु, वह व्यक्ति है बापाक सुबुद। उसने कुछ लोगों को खोला, और फिर उसने उन लोगो से कह दिया पृथ्वी भर घूमने को और दूसरो को खोलने को।

और क्या करते हैं वे? बहुत सरल विधि अपनाते हैं। तुम समझ पाओगे क्योंकि तुम उसी तरह की रूपरेखा की बहुत सारी विधियां कर रहे हो। बापाक गुरू के द्वारा जो खुल गया है, वह नये साधक के साथ होता है—जिसे खुलना है उसके साथ, उस शिष्य के साथ। वे एक बंद कमरे में खड़े होते हैं। वह जो पहले से ही खुला है, वह अपने हाथों को आकाश की और उठा देता है। वह स्वय को खोलता है, और दूसरे सिर्फ वहा खड़े रहते हैं। कुछ पलों के भीतर दूसरे कंपित होने लगते हैं। कुछ घट रहा है। और जब वह खुला होता है, असीम आकाश के प्रति खुला, उस पार की अपरिसीम ऊर्जा के प्रति, तब दूसरो को खोलने की उसे अनुमति दी जाती है।

और कोई नहीं जानता कि वे क्या कर रहे होते है। स्वय करने वाला भी कभी नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है। वह तो बस वहां खड़ा रहता है और दूसरा, नवागत मात्र खड़ा रहता है निकट। वे नहीं जानते क्या घट रहा है, अत: वे बापाक सुबुद को पूछते है, ‘क्या है यह ?’ वे करते हैं यह घटता है। किंतु बापाक सुबुद कभी कोई व्याख्या नहीं करता। वह उस ढंग का आदमी नहीं है। वह कहता है, ‘तुम सिर्फ ऐसा करो। इसकी फिक्र मत लेना कि ऐसा क्यों घटता है। बस यह घटता है।’

वही कुछ यहां घटता है। कोई एक खुलता है। अकस्मात ऊर्जा उसके चारो और गतिमान हो उठती है, वह एक वातावरण निर्मित कर देती है। तुम उसके निकट हो, और अचानक तुम ऊर्जा के एक उमडाव को ऊपर उठता अनुभव करते हो। आंसू बहने लगते हैं, तुम्हारा हृदय भरा हुआ है। तुम खुलते हो, तब तुम दूसरे को मदद देते हो। यह बात एक शृंखला बद्ध प्रतिक्रिया बन जाती है। सारा संसार खुल सकता है। और एक बार तुम खुले हुए हो जाते हो, तब तुम इसका गुर जान लेते हो। यह कोई विधि न रही। तुम इसका गुर ही जान लेते हो। तब तुम अपने मन को एकदम रख देते हो एक निशित स्थिति में; तुम रख देते हो अपनी स्व—सत्ता को एक निश्चित ढंग में। यही है जिसे मैं कहता हूं प्रार्थना।

मेरे लिए प्रार्थना कोई शाब्दिक संवाद नहीं है ईश्वर के साथ। कैसे तुम भाषा को साथ लिये संपर्क कर सकते हो ईश्वर के साथ? दिव्यता की कोई भाषा नहीं होती। और जो कुछ भी कहते हो तुम, वह समझ में नहीं आयेगा। तुम्हें भाषा द्वारा नहीं समझा जा सकता है, बल्कि तुम्हारे अस्तित्व द्वारा समझा जा सकता है। अंतस अस्तित्व ही है एकमात्र भाषा।

एक छोटी प्रार्थना—विधि आजमाना। रात्रि में, जब तुम सोने जा रहे होते हो, बस घुटने टेक बैठ जाना बिस्तर के समीप। बिजली बुझा देना, अपने दोनों हाथ उठा लेना, आंखें बंद रहें, और मात्र अनुभव करना जैसे तुम किसी झरने तले हो, आकाश से उतरती ऊर्जात्मक जलधार तले। प्रारंभ में यह बात एक परिकल्पना होती है। दो या तीन दिनों के भीतर तुम अनुभव करने लगोगे कि यह एक वास्तविक घटना है। जैसे कि तुम वास्तव में ही जलधार तले हो; और तुम्हारा शरीर आंदोलित होने लगता है। तुम तेज हवा के झोंके में पड़े पत्ते की भांति अनुभव करते हो। और वह जलधार इतनी सशक्त और प्रबल होती है कि तुम उसे भीतर सम्हाल नहीं सकते। यह तुम्हारे रोएं—रोएं को आपूरित करती है, सिर से लेकर पांव तक। तो तुम एक खाली पात्र ही होते हो, और वह तुम्हें पूरी तरह से भरने लगती है।

जब तुम कम्पन्नों को अपने तक पहुंचता अनुभव करते हो, तो उसके साथ सहयोग देना। कम्पन्नों को ज्यादा होने में मदद देना, क्योंकि जितने ज्यादा तुम आंदोलित होते हो, तुममें असीम ऊर्जा उतर आने की उतनी ही ज्यादा संभावना होती है। क्योंकि तुम्हारी अपनी अंतरऊर्जा सक्रिय हो जाती है। जब तुम सक्रिय होते हो, तुम सक्रिय शक्ति से मिल सकते हो। जब तुम गतिहीन होते हो, तब तुम सक्रिय शक्ति से नहीं मिल सकते।

जब तुम आंदोलित होते हो, तब ऊर्जा तुम्हारे भीतर निर्मित हो जाती है। ऊर्जा अधिक ऊर्जा को खींचती है। पात्र हो जाओ—शून्य पात्र, और फिर आपूरित हो जाओ, पूरी तरह आप्लावित। जब तुम अनुभव करते हो कि अब यह बहुत हुआ, असह्य है, कि जलधार बहुत ज्यादा हुई और तुम और ज्यादा इसे सह नहीं सकते, तो धरती की ओर झुक जाओ, धरती को चूम लो और मौन हुए रही जैसे कि तुम धरती में ऊर्जा उंडेल रहे हो।

आकाश से ग्रहण करो; वापस दे दो धरती को। तुम बीच में केवल माध्यम बन जाओ। पूर्णतया झुक जाओ, फिर से खाली हो जाओ। जब तुम अनुभव करो कि अब तुम खाली हो, तो तुम अनुभव करोगे—बहुत मौन, बहुत शांत, बहुत सहज। फिर दोबारा अपने हाथ उठा लो। ऊर्जा को अनुभव करो। नीचे झुको और चूम लो जमीन को—ऊर्जा को वापस धरती को लौटा दो।

ऊर्जा है आकाश, ऊर्जा है धरती। वे दो प्रकार की ऊर्जाएं हैं। आकाश सर्वदा पुरुष—तत्व कहलाता है क्योंकि वह देता है, और धरती सर्वदा स्‍त्री—तत्व कहलाती है क्योंकि वह ग्रहण करती है। वह है गर्भ की भांति। अत: ग्रहण करो आकाश से और दे दो धरती को। और ऐसा सात बार करना है, इससे कम नहीं, क्योंकि हर बार ऊर्जा तुम्हारे शरीर के किसी एक चक्र में आयेगी। और सात चक्र होते हैं।

हर बार ऊर्जा तुममें ज्यादा गहरे चली जायेगी; तुम्हारे भीतर वह ज्यादा गहरे तलों को अनुप्राणित करेगी। सात बार करना जरूरी है। इससे कम नहीं; क्योंकि यदि तुम कम बार करते हो तो सो न पाओगे। ऊर्जा वहां होगी भीतर और तुम बेचैनी अनुभव करोगे। इसे सात बार दोहराना। तुम अधिक भी कर सकते हो। ज्यादा करने में कोई हानि नहीं है, लेकिन कम नहीं। ऐसा सात बार या इससे ज्यादा बार करना।

और जब तुम पूर्णतया खाली अनुभव करो तब सो जाना। तुम्हारी संपूर्ण रात्रि एक अंतस घटना बन जायेगी। नींद में तुम अधिकाधिक शांत हो जाओगे। सपने समाप्त हो जायेंगे। सुबह, तुम पूर्णतया नये जीवन को उठता हुआ अनुभव करोगे, जैसे कि तुम पुनजर्वित हुए हो। तुम अब वही पुराने न रहे। अतीत गिर चुका है; तुम ताजे और युवा हो।

हर रात ऐसा करना। तीन महीने के भीतर बहुत सारी चीजें संभव हो जायेंगी। तुम खुले होओगे। और तब तुम दूसरों को खोल सकते हो। तीन महीने तक खोलने की इस घटना को क्रियान्वित करने के बाद तुम किसी के पास खड़े होने और स्वयं को खोलने के बिलकुल योग्य हो जाओगे। और तुरंत तुम अनुभव करोगे कि दूसरा कंपायमान हो रहा है, आंदोलित हो रहा है। चाहे दूसरा जानता भी न हो, दूसरे के जाने बिना भी तुम किसी को खोल सकते हो। लेकिन ऐसा करना मत क्योंकि दूसरा तो सिर्फ घबड़ा ही जायेगा। वह सोचेगा कि कुछ भयावह घट रहा है।

एक बार खुल जाते हो, तो तुम दूसरों को खोल सकते हो। यह एक संक्रामकता है। और सुंदर संक्रामकता है; संक्रामकता संपूर्ण स्वास्थ्य की, किसी रोग की नहीं। समग्रता की संक्रामकता है, पवित्रता की संक्रामकता, एक संक्रामकता पावनता की।

आज इतना ही।


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पंतजलि: योगसूत्र–(भाग–1) प्रवचन–19

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समुचित मनोवृतियों का संवर्धन—प्रवचन—उन्‍नीसवां

दिनांक 9 जनवरी, 1975;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र:

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां

भावनातश्चित्तप्रसादनम्।। 33।।

आनंदित व्यक्ति के प्रति मैत्री, दुखी व्यक्ति के प्रति करुणा, पुण्यवान के प्रति मुदिता तथा पापी के प्रति उपेक्षा—इन भावनाओं का संवर्धन करने से मन शांत हो जाता है।

प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्थ।। 34।।

बारी—बारी से श्वास बाहर छोडने और रोकने से भी मन शांत होता है।

विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनस: स्थितिनिबधनी।। 35।।

जब ध्यान से अतींद्रिय संवेदना उत्‍पन्न होती है तो मन आत्मविश्वास प्राप्त करता है और इसके कारण साधना का सातत्य बना रहता है।

विशोका वा ज्योतिष्मह।।। 36।।

उस आंतरिक प्रकाश पर भी ध्यान करो, जो शांत है और सभी दुखों के बाहर है।

वीतरागविषय वा चित्तम्।। 37।।

या, जो वीतरागता को उपलब्ध हो चुका हो उसका ध्यान करो।

आनंदित व्यक्ति के प्रति मैत्री दुखी व्यक्ति के प्रति करुणा पुण्यवान के प्रति मुदिता तथा पापी के प्रति उपेक्षा—इन भावनाओं का सवर्धन करने से मन शांत हो जाता है।

इससे पहले कि तुम इस सूत्र को समझो, बहुत सारी चीजें समझ लेनी है। पहली, स्वाभाविक मनोवृत्ति—जब कभी तुम किसी को प्रसन्न देखते हो, तो तुम अनुभव करते हो ईर्ष्या—प्रसन्नता नहीं, प्रसन्नता हरगिज नहीं। तुम दुखी अनुभव करते हो। यह है स्वाभाविक मनोवृत्ति। यह अभिवृत्ति तुम्हारे पास पहले से ही है। और पतंजलि कहते हैं मन शांत हो जाता है प्रसन्न के प्रति मित्रता का भाव करने से। यह बहुत कठिन होता है। जो प्रसन्न है उसके साथ मैत्रीपूर्ण होना जीवन की सर्वाधिक कठिन बातों में से एक है। साधारणतया तुम सोचते हो, यह बहुत सरल है। यह सरल नहीं है। ठीक इसके विपरीत है अवस्था। तुम ईर्ष्या अनुभव करते हो, तुम दुखी अनुभव करते हो। हो सकता है तुम प्रसन्नता दर्शाओ, लेकिन वह मात्र एक ऊपरी बात होती है; एक दिखावा, एक मुखौटा होती है। कैसे प्रसन्न हो सकते हो तुम? कैसे हो सकते हो तुम शांत, मौन, यदि तुम्हारी ऐसी भावावस्था हो तो?

सारा जीवन उत्सव है, सारे संसार भर में लाखों प्रसन्नताएं घटित हो रही हैं, लेकिन यदि तुम्हारी मनोवृत्ति ईर्ष्या की है तो तुम दुखी होओगे, तुम सतत एक नरक में होओगे। और तुम ठीक नरक में होओगे क्योंकि सब ओर स्वर्ग है। तुम स्वयं के लिए एक नरक निर्मित कर लोगे—स्व निजी नरक—क्योंकि सारा अस्तित्व उत्सव मना रहा है।

रा। र्युइrाउइ_द कोई प्रसन्न होता है तो सबसे पहले तुम्हारे मन में क्या बात आती है? ऐसा होता है जैसे कि प्रसन्नता तुमसे ले ली गयी हो, जैसे कि वह जीत गया और तुम हार गये हो, जैसे कि उसने तुम्हें छल लिया हो। प्रसन्नता कोई प्रतियोगिता नहीं है, अत: चिंतित मत होना। यदि कोई प्रसन्न होता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम प्रसन्न नहीं हो सकते, कि उसने ले ली तुम्हारी प्रसन्नता इसलिए अब तुम प्रसन्न नहीं हो सकते। प्रसन्नता कहीं एक जगह अस्तित्व नहीं रखती। अत: यह प्रसन्न व्यक्तियों द्वारा खअ नहीं की जा सकती है।

तुम क्यों अनुभव करते हो ईर्ष्या? यदि कोई धनवान है, हो सकता है तुम्हारे लिए धनवान होना कठिन हो, क्योंकि धन—दौलत परिमाण में विद्यमान होती है। यदि कोई व्यक्ति भौतिक ढंग से शक्तिशाली है, तो शायद तुम्हारे लिए कठिन हो शक्तिशाली होना क्योंकि शक्ति के लिए प्रतियोगिता होती है। लेकिन प्रसन्नता कोई प्रतिर्याप्ताता नहीं है। प्रसन्नता अस्तित्व रखती है अपरिसीम मात्रा में। कोई व्यक्ति कभी इसे समाप्त करने के योग्य नहीं हुआ; कोई प्रतियोगिता बिलकुल ही नहीं है। यदि कोई व्यक्ति प्रसन्न होता है तो क्यों तुम ईर्ष्या अनुभव करते हो? और ईर्ष्या के साथ नरक तुममें प्रवेश करता है।

पतंजलि कहते है, जब कोई व्यक्ति प्रसन्न हो, तो प्रसन्नता अनुभव करो, मैत्रीपूर्ण अनुभव करो। तब तुम्हारे स्वयं में तुम भी द्वार खोलते हो प्रसन्नता की ओर। जो प्रसन्न होता है उसके प्रति तुम अगर मैत्रीपूर्ण अनुभव कर सकते हो, तो सूक्ष्म ढंग से तुरंत तुम उसकी प्रसन्नता में हिस्सेदार बनने लगते हो; वह तुम्हारी भी हो जाती है। तत्क्षण ही। और प्रसन्नता कोई ऐसी चीज नहीं है कि कोई उससे चिपका रह सके। तुम उसे बांट सकते हो। जब एक फूल खिलता है, तो तुम उसमें हिस्सेदार बन सकते हो। जब कोई पक्षी चहचहाता है, तुम उसमें हिस्सा ले सकते हो। जब कोई व्यक्ति प्रसन्न होता है, तो तुम उसमें हिस्सा ले सकते हो।

और इसका सौंदर्य ऐसा है कि यह उस व्यक्ति के बांटने पर निर्भर नहीं करता है। यह तुम्हारे उसमें सम्मिलित होने पर निर्भर है।

यदि यह उसके बांटने पर निर्भर करता, इस पर कि वह बांटता है या नहीं, तब यह कोई बिलकुल ही अलग बात होती। हो सकता है वह बांटना पसंद न करे। लेकिन इसका तो बिलकुल कोई सवाल ही नहीं; यह उसके बांटने पर निर्भर नहीं करता है। जब प्रात: सूयोंदय होता है तो तुम प्रसन्न हो सकते हो, और सूर्य इस विषय में कुछ नहीं कर सकता है। वह तुम्हें प्रसन्न होने से रोक नहीं सकता है। कोई प्रसन्न है, तुम मैत्रीपूर्ण हो सकते हो। यह समयरूपेण तुम्हारा अपना भाव है, और वह अपनी प्रसन्नता न बांटकर तुम्हें रोक नहीं सकता है। तुरंत तुम खोल देते हो द्वार, और उसकी प्रसन्नता तुम्हारी ओर भी प्रवाहित होती है।

तुम्हारे चारों ओर स्वर्ग निर्मित कर लेने का यही राज है। और केवल स्वर्ग में तुम शांत हो सकते हो। नरक की ज्वाला में कैसे तुम शांत हो सकते हो? और कोई दूसरा निर्मित नहीं कर रहा है उसे, तुम कर रहे हो उसे निर्मित। अत: बुनियांदी बात समझ लेनी है कि जब कभी दुख हो, नरक हो, तुम्हीं हो उसके कारण। कभी किसी दूसरे पर जिम्मेदारी मत फेंकना क्योंकि वह जिम्मेदारी का फेंकना आधारभूत सत्य से भागना है।

यदि तुम दुखी हो, तो केवल तुम, नितांत तुम ही जिम्मेदार हो। भीतर देखो और उसका कारण ढूंढो। और कोई दुखी नहीं होना चाहता है। यदि तुम तुम्हारे स्वयं के भीतर कारण खोज लो, तो तुम उसे बाहर फेंक सकते हो। कोई तुम्हारे रास्ते में नहीं खड़ा है तुम्हें रोकने को। कोई भी बाधा नहीं है तुम्हें प्रसन्न होने से रोकने के लिए।

प्रसन्न व्यक्तियों के प्रति मैत्रीपूर्ण होने से तुम प्रसन्नता के साथ अपना स्वर साध लेते हो। वे खिल रहे है और तुम मित्रता से भर जाते हो। हो सकता है वे न हों मैत्रीपूर्ण; इससे तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं। हो सकता है वे तुम्हें जानते भी न हों; इससे कुछ नहीं होता। लेकिन जहां कहीं खिलाव है, जहां आनंद है, जहां कोई खिल रहा है, जब कोई नाच रहा है और खुश है और मुस्करा रहा है, जहां कहीं उत्सव है, तुम स्नेहपूर्ण हो जाओ, तुम उसके हिस्से बन जाओ। तब वह तुम्हारे भीतर प्रवाहित होने लगता है। और कोई नहीं रोक सकता उसे। और जब तुम्हारे चारों ओर प्रसन्नता होती है, तुम शांत अनुभव करते हो।

प्रसन्न व्यक्ति के प्रति भावना का संवर्धन करने से मन शांत हो जाता है:….।

प्रसन्न व्यक्ति के साथ तुम ईर्ष्या अनुभव करते हो—एक सूक्ष्म प्रतियोगिता के रूप में। प्रसन्न लोगों के साथ तुम स्वयं को निम्न अनुभव करते हो। तुम आस—पास रहने को उन लोगों को चुन लेते हो सदा जो अप्रसन्न है। तुम मित्रता बनाते हो अप्रसन्न व्यक्तियों के साथ क्योंकि अप्रसन्न व्यक्तियों के साथ तुम अपने को ऊंचा अनुभव करते हो। तुम हमेशा उस किसी को चुन लेते हो जो तुमसे नीचे है। तुम हमेशा अधिक ऊंचे से भयभीत हो जाते हो; तुम हमेशा किसी निम्न को चुन लेते हो। और जितना तुम ज्यादा निम्न को चुनते हो, उतना नीचे तुम गिरोगे। तब फिर और ज्यादा निम्न व्यक्तियों की आवश्यकता होती है।

उनका साथ खोजो जो तुमसे ज्यादा ऊंचे हों—विवेक में ऊंचे, प्रसन्नता में ऊंचे, शांति में, मौन में, एकजुट होने में। हमेशा ज्यादा ऊंचे का साथ खोज लेना क्योंकि उसी तरह ही तुम ज्यादा ऊंचे हो सकते हो। तुम घाटियों के पार हो सकते हो और ऊंचे शिखरों तक पहुंच सकते हो। यह बात सीढ़ी बन जाती है। सदा ज्यादा ऊंचे का साथ खोज लेना, सुंदर का, प्रसन्न का साथ। जब तुम ज्यादा सुंदर हो जाओगे; तुम ज्यादा प्रसन्न हो जाओगे।

और एक बार रहस्य जान लिया जाता है, एक बार तुम जान लेते हो कि कैसे कोई ज्यादा प्रसन्न होता है, कि कैसे तुम दूसरों की प्रसन्नता के साथ अपने लिए भी प्रसन्न होने की स्थिति निर्मित कर सकते हो, फिर कोई अड़चन नहीं रहती। तब तुम जितना चाहो उतना आगे बढ़ सकते हो। तुम हो सकते हो भगवान जिसके लिए कोई अप्रसन्नता अस्तित्व ही नहीं रखती।

कौन होता है भगवान? वह होता है भगवान जिसने कि जान लिया है यह रहस्य, कि संपूर्ण विश्व के साथ, प्रत्येक फूल के साथ और प्रत्येक नदी के साथ और प्रत्येक चट्टान के साथ और प्रत्येक तारे के साथ किस प्रकार प्रसन्न रहना है। वह जो इस सतत चिरंतन उत्सव के साथ एक हो गया है; जो उत्सव मनाता है, जो चिंता में नहीं पड़ता कि यह किसका उत्सव है; जहां कहीं होता है उत्सव, वह भाग लेता है। प्रसन्नता में भाग लेने की यह कला बुनियादी बातों में से एक बात है—यदि तुम प्रसन्न होना चाहते हो तो इसी का अनुसरण करना है।

तुम बिलकुल विपरीत बात करते रहे हो। यदि कोई प्रसन्न होता है, तो तुरंत तुम्हें झटका लगता है कि यह कैसे संभव है? कैसे हुआ कि तुम प्रसन्न नहीं हो और वह प्रसन्न हो गया है? यह तो अन्याय हुआ। यह सारा संसार तुम्हें धोखा दे रहा है और परमात्मा कहीं है नहीं। यदि परमात्मा है तो यह कैसे हुआ कि तुम अप्रसन्न हो और दूसरे प्रसन्न हुए जा रहे है? और ये व्यक्ति जो प्रसन्न हैं, वे शोषक हैं, चालाक है, धूर्त हैं। वे तुम्हारे रक्त पर पलते हैं। वे दूसरों की प्रसन्नता चूस रहे है।

कोई किसी की प्रसन्नता नहीं चूस रहा है। प्रसन्नता एक ऐसी घटना है कि उसे चूसने की कोई जरूरत नहीं है। यह एक आंतरिक खिलना है; यह बाहर से नहीं आता है। प्रसन्न व्यक्तियों के साथ प्रसन्न होने मात्र से तुम वह स्थिति निर्मित कर लेते हो जिसमें तुम्हारा अपना अंतर्पुष्प खिलने लगता है।

मन शांत होता है मित्रता की मनोवृत्ति का संवर्धन करने से:..। पर तुम निर्मित कर लेते हो शत्रुता की मनोवृत्ति। तुम उदास व्यक्ति के साथ मित्रता अनुभव करते हो, और तुम सोचते यह बहुत धार्मिक बात है। तुम उस किसी के साथ मित्रता अनुभव करते हो जो निराश होता है, दुख में होता है। और तुम सोचते हो यह कोई धार्मिक आचरण है, कोई नैतिकता जिसे तुम संपन्न कर रहे हो। लेकिन तुम क्या कर रहे हो, तुम्हें पता नहीं।

जब तुम मित्रता अनुभव करते हो उसके साथ जो उदास होता है, निराश, अप्रसन्न, दुखी होता है तो तुम स्वयं के लिए दुख निर्मित कर लेते हो। पतंजलि का यह विचार बहुत अधार्मिक मालूम पड़ता है। ऐसा नहीं है, क्योंकि जब तुम उनका संपूर्ण दृष्टिकोण समझोगे तो तुम उसे अनुभव करोगे जो अर्थ वे देते हैं। वे अत्यंत वैज्ञानिक हैं। वे कोई भावुक व्यक्ति नहीं हैं। और भावुकता तुम्हारी मदद न करेगी।

तुम्हें बहुत साफ, स्पष्ट होना है ‘.. .दुखी के प्रति करुणा’…..। मित्रता नहीं, करुणा। करुणा एक भिन्न गुणवत्ता है और मित्रता एक अलग ही गुणवत्ता है। मैत्रीपूर्ण होने का अर्थ है, तुम एक स्थिति निर्मित कर रहे हो जिसमें कि तुम वही होना चाहोगे जैसे दूसरा व्यक्ति है। तुम उसी भांति होना चाहोगे जैसा तुम्हारा मित्र है। करुणा का अर्थ है कि कोई अपनी अवस्था से गिर गया है। तुम उसकी मदद करना चाहते हो, किंतु उसकी भांति नहीं होना चाहोगे। तुम उसे हाथ दे देना चाहोगे, तुम उसका ध्यान रखना चाहोगे, उसे प्रसन्न करना चाहोगे लेकिन तुम उस भांति नहीं होना चाहोगे क्योंकि वह कोई सहायता न होगी।

कोई रो रहा है और बिलख रहा है, और तुम निकट बैठ जाते हो और तुम रोना—चीखना शुरू कर देते हो—क्या तुम उसकी मदद कर रहे हो? किस ढंग की है यह मदद? यदि कोई दुखी है और तुम भी दुखी हो जाओ, तो क्या तुम उसकी मदद कर रहे हो? तुम तो उसका दुख दुगुना कर रहे होओगे। वह अकेला ही दुखी था; अब दो व्यक्ति हो गये हैं जो दुखी है। बल्कि दुखी के प्रति सहानुभूति प्रकट करने से तो तुम फिर एक चालाकी चल रहे होते हो। तुम दुखी के प्रति सहानुभूति दिखाते हो, किंतु ध्यान रहे, गहरे में सहानुभूति कोई करुणा नहीं है, सहानुभूति मैत्रीपूर्ण बात है। जब तुम सहानुभूति और मित्रता दिखाते हो निराश, उदास, दुखी व्यक्ति के प्रति, तो गहरे तल पर तुम प्रसन्नता अनुभव कर रहे होते हो। वहां हमेशा प्रसन्नता की अंतर्धारा होती है। उसे वहां होना ही है क्योंकि यह एक सीधा—साफ गणित है—जब कोई व्यक्ति प्रसन्न होता है, तुम दुखी अनुभव करते हो; अत: जब कोई दुखी होता है, गहरे तल पर तुम बहुत प्रसन्न अनुभव करते हो।

लेकिन तुम यह बात दर्शाते नहीं। यदि तुम गहराई से ध्यानपूर्वक देखो, यदि सहानुभूति प्रकट करते हो तो ऐसा पाया जायेगा कि तुम्हारी सहानुभूति में भी प्रसन्नता की सूक्ष्म धारा है। तुम अच्छा अनुभव करते हो कि तुम सहानुभूति दिखाने की स्थिति में हो। वस्तुत: तुम प्रसन्न अनुभव करते हो कि यह तुम नहीं हो जो अप्रसन्न है। तुम तो ज्यादा ऊंचे हो, बेहतर हो।

लोग हमेशा अच्छा अनुभव करते हैं जब वे दूसरों के प्रति सहानुभूति दिखाते हैं। वे हमेशा इस बात से खुश हो जाते हैं। गहरे तौर पर वे अनुभव करते हैं कि वे बहुत दुखी नहीं हैं, कृपा है परमात्मा की। जब कोई मरता है, तो तुरंत तुममें एक अंत—प्रवाह उमड़ आता है, जो कहता है कि कृपा है परमात्मा की कि तुम अभी जिंदा हो। और तुम सहानुभूति प्रकट कर सकते हो। इसमें कोई कीमत नहीं लगती। सहानुभूति दिखाने में तुम्हारा कुछ खर्च नहीं होता। लेकिन करुणा एक अलग बात है।

करुणा का अर्थ है कि तुम दूसरे व्यक्ति की मदद करना चाहोगे। तुम वह करना चाहोगे जो कुछ किया जा सकता है। उसे उसके दुख में से बाहर लाने में तुम उसकी मदद करना चाहोगे। तुम उसके कारण प्रसन्न नहीं हो, किंतु तुम दुखी भी नहीं हो।

ठीक इन दोनों के बीच है करुणा। बुद्ध करुणामय हैं। वे तुम्हारे साथ दुखी अनुभव नहीं करेंगे क्योंकि उससे किसी को मदद नहीं मिलने वाली। और वे प्रसन्न भी नहीं अनुभव करेंगे। क्योंकि प्रसन्नता अनुभव करने में कोई तुक नहीं है। जब कोई दुखी ही न हो, तो वह कैसे प्रसन्न अनुभव कर सकता है गु लेकिन वे अप्रसन्न भी अनुभव नहीं कर सकते क्योंकि उससे मदद नहीं मिलने वाली। वे करुणा अनुभव करेंगे। करुणा है ठीक इन दोनों के बीच में। करुणा का अर्थ है, तुम्हारे दुख में से तुम्हें बाहर लाने में मदद करना चाहेंगे। करुणा का अर्थ है, वे तुम्हारे लिए हैं, लेकिन विरुद्ध है तुम्हारे दुख के। वे तुम्हें प्रेम करते है, तुम्हारे दुख को नहीं। वे तुम पर ध्यान देना चाहेंगे, लेकिन तुम्हारे साथ लगे तुम्हारे दुख पर नहीं।

जब तुम सहानुभूतिपूर्ण होते हो, तब तुम दुख को प्यार करने लगते हो, दुखी को नहीं। और यदि अकस्मात वह व्यक्ति प्रसन्न हो जाता है और कहता है, कोई फिक्र नहीं, तो तुम्हें झटक्रा लगेगा। क्योंकि वह तुम्हें अब अवसर नहीं देता सहानुभूतिपूर्ण होने का और उसे दिखा देने का कि तुम कितने ज्यादा ऊंचे, बेहतर और प्रसन्न व्यक्ति हो।

जो दुखी है उस व्यक्ति के साथ दुखी मत हो जाना। इसमें से बाहर आने में मदद देना उसे। दुख को कभी प्रेम का विषय मत बनाना, दुख को कोई स्नेह मत देना। क्योंकि यदि तुम इसे स्नेह देते हो और इसे प्रेम का विषय बनाते हो, तो तुम इसके लिए एक द्वार खोल रहे होते हो। देर—अबेर तुम दुखी होओगे। अलगाव बनाये रहो। करुणा का अर्थ है, तटस्थ बने रहो। हाथ बढ़ा दो अपना, पर अलग बने रहो। करो मदद, लेकिन दुखी अनुभव मत करना और सुखी अनुभव मत करना; क्योंकि दोनों एक ही है। जब सतही तौर पर किसी व्यक्ति के दुख में तुम दुखी अनुभव करते हो, गहरे तल पर सुखी होने की धारा दौड़ जाती है। दोनों बातें ही गिरा देनी हैं। करुणा तुम तक मन की शांति ले आयेगी।

बहुत लोग आते हैं मेरे पास जो समाज—सुधारक है, क्रांतिकारी है, राजनेता है, आदर्शवादी हैं। और वे कहते है, ‘कैसे जब संसार में इतना ज्यादा दुख है तो आप लोगों को ध्यान और मौन सिखा सकते हैं? वे मुझसे कहते है, ‘यह स्वार्थ है। ‘ वे चाहते है कि मैं लोगों को दुखियों के साथ दुखी होने की शिक्षा दूं। वे नहीं जानते कि वे क्या कह रहे है। लेकिन वे बहुत अच्छा महसूस करते है। समाजसुधार का कार्य करने से, समाज—सेवा करने से वे बहुत अच्छा अनुभव करते है। और यदि अकस्मात यह संसार स्वर्ग बन जाये, और ईश्वर कहे, अब हर चीज ठीक हो जायेगी’, तो तुम समाज—सुधारकों और क्रांतिकारियों को परम कष्ट में पड़ा पाओगे, क्योंकि उनके पास करने को कुछ नहीं होगा!

खलील जिब्रान ने एक छोटी—सी कथा लिखी है। एक शहर में, एक बड़े शहर में, एक कुत्ता था जो उपदेशक और मिशनरी था और वह दूसरे कुत्तों को उपदेश दिया करता था, ‘ भौंकना बंद करो। हमारी करीब निन्यानबे प्रतिशत ऊर्जा हम अनावश्यक रूप से गंवा देते हैं भौकने में। इसलिए हम विकसित नहीं हो रहे। बेकार भौंकना बंद करो। ‘

लेकिन यह भौंकना बंद करना कठिन है कुत्तों के लिए। यह एक स्वनिर्मित प्रक्रिया है। वस्तुत: वे केवल तभी सुखी अनुभव करते है जब वे भौंकते है, जब वे भौंक चुके होते है। फिर भी उन्होंने सुनी नेता की, उस क्रांतिकारी की, स्वप्‍नद्रष्टा की जो देवताओं के राज्य के बारे में सोच रहा था, या कुत्तों के राज्य के बारे में—जो कहीं आने वाला है किसी भविष्य में, जहां हर कुत्ता सुधर चुका होगा और धार्मिक बन गया होगा; जहां कहीं कोई भौंकना इत्यादि न होगा, न कोई लड़ाई होगी, और हर चीज शांत होगी। वह मिशनरी जरूर कोई शांतिवादी रहा होगा!

लेकिन कुत्ते कुत्ते ही हैं। उन्होंने सुनी उसकी और वे बोले, ‘तुम एक महान जीव हो, और जो कुछ तुम कहते हो सच है। र्लोकेन हम निस्सहाय है। क्षुद्र कुत्ते! हम इतनी बड़ी बातें नहीं समझते। ‘तो सारे कुत्तों ने स्वयं को अपराधी अनुभव किया क्योंकि वे भौकना बंद नहीं कर सकते थे। और वे नेता के संदेश में विश्वास रखते थे। और वह सही था, तर्कसंगत था, वे अनुसरण कर सकते थे। लेकिन शरीरों का क्या करें? शरीर अतर्क्य है। जब कभी कोई अवसर होता—कोई संन्यासी पास से जा रहा होता, कोई पुलिस का आदमी, कोई डाकिया, तो वे भौंकते, क्योंकि वे वर्दियों के विरुद्ध होते है!

यह उनके लिए लगभग असंभव था। और उन्होंने यह बात तय कर ली थी कि वह कुत्ता एक महान प्राणी है पर फिर भी हम उसके पीछे नहीं चल सकते। वह अवतार की भांति है। दूसरे किनारे का कोई जीव! इसलिए हम उसे पूजेंगे, पर हम अनुसरण कैसे कर सकते है उसका? और वह नेता अपने वचनों के प्रति सदा सच्चा रहता था। वह कभी नहीं भौंका। लेकिन एक दिन पांसा पलट गया। एक रात, एक अंधेरी रात कुत्तों ने निर्णय लिया कि ‘यह महान नेता हमेशा हमें बदलने की कोशिश में रहा है, और हमने इसकी कभी नहीं सुनी। वर्ष में कम से कम एक बार नेता के जन्म दिवस पर हमें पूर्ण उपवास रखना चाहिए और कोई भौकना वगैरह नहीं होगा—परम मौन चाहे कितना ही कठिन क्यों न लगे। कम से कम वर्ष में एक बार हम ऐसा कर ही सकते है। ‘ उन्होंने कर लिया निश्चय।

और उस रात एक भी कुत्ता नहीं भौंका। वह नेता देखने को जाता रहा, इस कोने से उस कोने तक, इस गली से उस गली तक, क्योंकि जहां कुत्ते भौंकते हों, वह उपदेश देगा। वह बहुत दुखी अनुभव करने लगा क्योंकि कोई नहीं भौंक रहा था। सारी रात वे पूरी तरह चुप थे, जैसे कि कोई कुत्ता रहा ही न हो। वह बहुत स्थानों पर गया, देखता रहा। और आधी रात होने पर बात उसके लिए इतनी कठिन हो गयी, वह एक अंधेरे कोने में सरक गया और भौंकने लगा।

जिस घड़ी दूसरे कुत्तों ने सुना कि कोई एक शांति भंग कर चुका है, वे बोले, अब कोई समस्या न रही। वे जानते न थे कि नेता ने ऐसा किया था। उन्होंने सोचा कि उन्हीं में से किसी एक ने तोड़ दिया है वचन। तो अब उनके लिए असंभव था स्वयं को रोके रखना। सारे शहर में भौंकने की आवाज गज उठी! वह नेता बाहर आया और उसने उपदेश देना शुरू कर दिया।

यह होगी हालत तुम्हारे सामाजिक क्रांतिकारियों की, सुधारकों की, गांधीवादियों की, मार्क्सवादियों की और भी दूसरों की—सारे वादों की। यदि यह संसार वास्तव में ही बदल जाये तो वे बहुत कठिनाई में पड़ जायेंगे। यदि संसार वस्तुत: उनके मन के आदर्श लोक की बातों को और परिकल्पनाओं को परिपूर्ण कर दे, तो वे आत्‍महत्या कर लेंगे या पागल हो जायेंगे। या, वे बिलकुल उल्टी बात सिखानी शुरू कर देंगे, एकदम विपरीत; ठीक उसके उल्टी जो कि वे अभी सिखा रहे होते हैं।

वे मेरे पास आते है और कहते है, ‘कैसे आप लोगों से कह सकते हैं शांत होने के लिए जब कि संसार इतने दुख में है? क्या वे सोचते हैं कि पहले दुख मिटा देना होता है और फिर लोग शांत होंगे? नहीं, यदि लोग शांत होते हैं तो ही दुख मिटाया जा सकता है, क्योंकि केवल शांति ही दुख मिटा सकती है। दुख एक दृष्टिकोण है। इसका संबंध भौतिक अवस्थाओं से कम होता है, ज्यादा संबंध होता है अंतर्मन से, अंतचेंतना से। एक गरीब आदमी भी प्रसन्न हो सकता है और तब बहुत सारी चीजें एक क्रम में घटनी शुरू हो जाती है।

जल्दी ही वह दरिद्र न रहेगा। कैसे कोई दरिद्र हो सकता है जब वह खुश हो तो? जब तुम प्रसन्न होते हो, तो सारा संसार तुम्हारे साथ सम्मिलित होता है। जब तुम अप्रसन्न होते हो हर चीज गलत हो जाती है। तुम तुम्हारे चारों ओर ऐसी स्थिति निर्मित कर लेते हो जो तुम्हारी अप्रसन्नता को वहां बने रहने देने में मदद करती है। यह मन का गति—विज्ञान है। यह एक स्वविनाशी ढंग है। तुम दुखी अनुभव करते हो, तब ज्यादा दुख तुम्हारी ओर खिंचा चला आता है। जब ज्यादा दुख खिंचा चला आता है तो तुम कहते हो, ‘कैसे मैं शांत हो सकता हूं? इतना दुख है! ‘ तब और भी दुख तुम्हारी ओर खिंच जाता है। तब तुम कहते हो, ‘ अब यह असंभव है। और वे जो कहते है कि वे आनंदित है, जरूर झूठ बोलते होंगे। वे बुद्ध, वे कृष्ण—वे जरूर झूठे होंगे। क्योंकि जो वे कहते है, वह कैसे संभव हो सकता है इतने ज्यादा दुखों के बीच मे ‘

तब तुम एक स्व—पराजयी व्यवस्था में होते हो। तुम दुख को आकर्षित करते हो और न केवल तुम इसे आकर्षित करते हो अपने लिए बल्कि जब एक व्यक्ति दुखी होता है, तो वह दूसरों की भी मदद करता है दुखी होने में। क्योंकि वे भी छू है तुम्हारी भांति ही। तुम्हें दुख—तकलीफ में देखकर, वे सहानुभुति प्रकट करते है। जब वे सहानुभूति प्रकट करते है, तो वे खुले हुए हो जाते है। तो यह ठीक ऐसा है जैसे कि एक बीमार व्यक्ति सारे समूह को संदूषित कर देता है।

मुल्ला नसरुद्दीन के डॉक्टर ने उसे बिल भेजा। वह बहुत ज्यादा था। उसका बच्चा बीमार था। नसरुद्दीन का छोटा बेटा बीमार था। उसने डॉक्टर को फोन किया और कहने लगा, ‘यह तो बहुत ज्यादा हुआ।’ डॉक्टर बोला, ‘किंतु मुझे नौ बार आना पड़ा तुम्हारे बेटे को देखने के लिए, इसलिए उसका हिसाब भी तो रखना है।’ नसरुद्दीन बोला, ‘ और यह मत भूलिए कि मेरे बेटे ने सारे गांव में छूत फैला दी, और आप बहुत ज्यादा कमाते रहे है। वास्तव में आपको मुझे देना चाहिए कुछ! ‘

जब एक आदमी दुखी होता है, तब वह संक्रामक होता है। जैसे प्रसन्नता संक्रामक है ऐसे ही दुख संक्रामक है। और जैसे कि तुम हो, तुम दुख के प्रति खुले हुए हो क्योंकि तुम अनजाने ही हमेशा खोज रहे हो इसे। तुम्हारा मन दुख खोजता है क्योंकि दुख के साथ तुम सहानुभूति अनुभव करते हो। प्रसन्नता के साथ तुम्हें ईर्ष्या अनुभव होती है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक बार मुझसे कहने लगी, ‘सर्दियां आ रही है, इसलिए अगर आप नयी दिल्ली जा रहे हों तो मेरे लिए ड्रॉप—डेड कोट लेते आयें।’ मैं चकित हुआ। मैं नहीं समझा, क्या था उसका मतलब। फिर भी मैंने उससे कहा, ‘मैं कोट इत्यादि के विषय में ज्यादा जानता नहीं तो भी मैने ऐसे किसी कोट के बारे में तो कभी सुना भी नहीं। कैसा होता है यह ‘ड्रॉप—डेड कोट?’ वह बोली, ‘आपने कभी नहीं सुना इसके बारे में? ‘ फिर उसने हंसना शुरू कर दिया और कहने लगी, ‘ड्रॉप—डेड कोट वह कोट होता है, जिसे आप पहनते है, तो उसे देखकर पड़ोसी तत्क्षण मर कर गिर जाते है।’

जब तक कि दूसरे मरने जैसी हालत में न हों, तुम जीवित अनुभव नहीं करते। जब तक दूसरे दुख में न हों, तुम प्रसन्न अनुभव नहीं करते। लेकिन कैसे तुम प्रसन्न अनुभव कर सकते हो जब दूसरे अप्रसन्न हों? और कैसे तुम वास्तव में जीवंत अनुभव कर सकते हो जबकि दूसरे मुरदा हों? हम एक साथ अस्तित्व रखते है और कई बार तुम कारण बन सकते हो बहुत लोगों के दुख का। तब तुम अर्जित कर रहे होते हो कोई कर्म फल। हो सकता है तुमने सीधे कोई चोट न की होगी उन्हें; तुम उनके प्रति हिंसात्मक न रहे होओगे। सूक्ष्म है यह नियम। जरूरी नहीं कि तुम हत्यारे ही हो, लेकिन यदि तुम अपने दुख द्वारा मात्र संक्रामक होते हो लोगों के प्रति, तो तुम उसमें सम्मिलित हो रहे हो; तुम दुख निर्मित कर रहे हो। और तुम इसके लिए जिम्मेदार होते हो। और तुम्हें कीमत चुकानी होगी इसकी। बहुत सूक्ष्म होती है यह प्रक्रिया।

अभी दो या तीन दिन पहले ही ऐसा हुआ कि एक संन्यासी ने आक्रमण कर दिया लक्ष्मी पर। तुमने शायद ध्यान भी न दिया हो कि तुम सब जिम्मेदार हो इसके लिए। क्योंकि तुममें से बहुत लोग शत्रुता अनुभव कर रहे थे लक्ष्मी के प्रति। वह संन्यासी तो मात्र प्रभावित है, पीड़ित है सिर्फ, एक दुर्बलतम क्ली है तुम्हारे बीच की। उसने तुम्हारे विरोध को ही अभिव्यक्त कर दिया है, बस। वह सबसे दुर्बल था। वह प्रभावित हो गया। और अब तुम्हें लगेगा कि वही जिम्मेदार है। यह सच नहीं है। तुमने भी इसमें हिस्सा लिया है। सूक्ष्म है नियम।

कैसे लिया तुमने हिस्सा? जब कभी कोई व्यवस्था सम्हाल रहा होता है—और यहां की तमाम चीजों की व्यवस्था लक्ष्मी सम्हाल रही है। तो बहुत सारी स्थितियां होंगी जिनसे गहरे तल पर तुम प्रतिरोध अनुभव करोगे। जिनके लिए उसे तुम्हें ‘नहीं’ कहना होगा; जिनमें तुम आहत अनुभव करोगे कि पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है तुम्हारी ओर; जिनमें तुम अनुभव करोगे कि तुम्हें ऐसा समझा जा रहा है जैसे कि तुम कुछ नहीं हो। इससे बचा नहीं जा सकता है। तब तुम्हारा अहंकार चोट अनुभव करेगा और तुम शत्रुता अनुभव करोगे।

अगर बहुत सारे लोग किसी एक व्यक्ति के प्रति शत्रुता अनुभव करते हैं, तो उसमें से सबसे दुर्बल व्यक्ति शिकार बन जायेगा; वह कुछ करेगा। वह तुममें सर्वाधिक पागल था, यह ठीक है, लेकिन केवल वह अकेला ही जिम्मेदार नहीं है। यदि तुमने कभी भी लक्ष्मी के प्रति विरोध अनुभव किया हो, वह इस बात का हिस्सा बना और तुमने अर्जित कर लिया एक कर्म। इसलिए जब तक तुम बहुत सूक्ष्म रूप से जागरूक नहीं हो जाते, तुम संबोधि को उपलब्ध नहीं हो सकते। चीजें बहुत उलझी हुई हैं।.

अब तो पश्चिम में भी मनोविश्लेषकों ने जान लिया है कि यदि एक व्यक्ति पागल हो जाता है तो सारा परिवार जिम्मेदार होता है—समस्त परिवार। अब वे सोचते हैं कि सारे परिवार का इलाज करना होता है, किसी एक व्यक्ति का नहीं। क्योंकि जब एक व्यक्ति पागल हो जाता है तो इससे केवल यही प्रकट होता है कि सारे परिवार में आंतरिक तनाव है। यह व्यक्ति उन सबमें सवांधिक दुर्बल है, अत: तुरत्त वह सारी बात ही प्रकट कर देता है। वह सारे परिवार की अभिव्यक्ति बन जाता है। और अगर तुम उसका इलाज करते हो तो यह बात मदद न देगी। अस्पताल में वह शायद ठीक भी हो जाये, लेकिन घर लौटने पर वह फिर बीमार पड़ जायेगा क्योंकि सारे परिवार में आंतरिक तनाव हैं और वह सबसे दुर्बल है।

बच्चे बहुत ज्यादा कष्ट पाते हैं माता—पिता के कारण। माता—पिता लड़ते—झगड़ते रहते हैं; घर में वे हमेशा चिंता तथा तनाव ही बनाते रहते हैं। सारा घर शांतिपूर्ण समूह के रूप में अस्तित्व नहीं रखता, बल्कि आंतरिक युद्ध और संघर्ष का रूप बना होता है। बच्चा ज्यादा नाजुक होता है। वह अजीब—अजीब तरीकों से व्यवहार करना शुरू कर देता है। और अब तुम्हारे पास बहाना होता है कि तुम तनावमुक्त और चिंतित हो बच्चे के ही कारण। अब मां और बाप दोनों बच्चे को लेकर चिंतित हो सकते हैं। वे उसे मनोविश्लेषक के पास और डॉक्टर के पास ले

जायेंगे। और इस तरह वे अपना संघर्ष भूल सकते हैं।

यह बच्चा एक जोड़ने वाली शक्ति बन जाता है। अगर वह बीमार होता है, तो उन्हें ज्यादा ध्यान देना होता है उसकी ओर। और अब उनके पास एक बहाना है इसके लिए कि क्यों वे चिंतित है और तनावपूर्ण हैं और व्यथित हैं—क्योंकि बच्चा बीमार है। वे नहीं जानते कि बात ठीक उल्टी है। वे चिंतित हैं, तनावपूर्ण हैं और संघर्षरत है इसलिए बच्चा बीमार है। बच्चा निर्दोष होता है, सुकोमल। वह तुरंत प्रभावित हो सकता है। उसके चारों ओर उसके पास अभी कोई बचाव नहीं है। और अगर बच्चा वास्तव में स्वस्थ हो जाता है, तो माता—पिता ज्यादा कठिनाई में पड़ जायेंगे। क्योंकि तब कहीं कोई बहाना नहीं है।

यह एक अंतरंग समुदाय है। तुम यहां एक परिवार के रूप में रहते हो। बहुत सारे तनाव होंगे ही, इसलिए सजग रहना। उन तनावों के प्रति सचेत रहना क्योंकि तुम्हारे तनाव एक शक्ति निर्मित कर सकते हैं। वे संचित हो सकते हैं और अकस्मात ही जो व्यक्ति दुर्बल हो, भेद्य हो, सीधा—सरल, वह आश्रय—स्थल बन सकता है संचित शक्ति के लिए। तब वह किसी न किसी ढंग से प्रतिक्रिया करेगा ही। और तब तुम सब उस पर जिम्मेदारी लाद सकते हो। लेकिन ऐसा ठीक नहीं है। अगर तुमने कभी प्रतिरोध अनुभव किया हो, तो तुम उसका हिस्सा होते हो। और यही बात सच होती है ज्यादा बड़े संसार में भी।

गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी, तो भी मैं कभी नहीं कहता कि गोडसे जिम्मेदार है। वह दुर्बलतम कड़ी था; यह बात सच है। पर सारा हिंदू मानस था जिम्मेदार। गांधी के विरुद्ध धाराएं थीं हिंदू प्रतिरोध की। यह भाव कि वे मुसलमानों की ओर हैं, संचित हो रहा था। यह एक वास्तविक घटना है। विरोध: संचित हो जाता है। बादल की भांति यह मंडराता है। और फिर कहीं कोई कमजोर हृदय, कोई बहुत अरक्षित व्यक्ति शिकार बन जाता है। बादल उसमें एक आधार पा लेते हैं और फिर विस्फोट। और तब हर कोई मुक्त हो जाता है। गोडसे जिम्मेदार है गांधी की हत्या करने के लिए अत: तुम मार सकते हो गोडसे को और खत्म कर सकते हो बात। तो सारा देश एक ही ढंग से चलता है, और हिंदू—मन वही बना रहता है। कोई परिवर्तन नहीं। सूक्ष्म है नियम।

हमेशा खोज लेना मन के गति—वितान को। केवल तभी तुम्हारा रूपांतरण होगा; अन्यथा नहीं।

‘मन शांत होता है आनंदित के प्रति मित्रता, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यवान के प्रति मुदिता…।’ जरा ध्यान दो। पतंजलि सीढ़ियां बना रहे हैं। सुंदर और बहुत सूक्ष्म सीढ़ियां, लेकिन एकदम वैज्ञानिक।’पुण्यवान के प्रति प्रसन्नता, पापी के प्रति उपेक्षा।’ जब तुम अनुभव करते हो कि कोई भला, धार्मिक व्यक्ति है, प्रसन्नचित्त है, तो साधारण रवैया यही होता है कि वह जरूर धोखा दे रहा होगा। कैसे कोई तुमसे ज्यादा भला हो सकता है? इसलिए इतनी ज्यादा आलोचना चलती रहती है।

जब कभी कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो कि भला और गुणवान होता है, तुम तुरंत आलोचना करना शुरू कर देते हो, तुम उसकी बुराइयां खोजने में लग जाते हो। किसी न किसी तरह तुम्हें उसे नीचे लाना होता है। वह भला आदमी हो नहीं सकता। तुम यह मान नहीं सकते। पतंजलि कहते हैं, ‘पुण्यवान के प्रति प्रसन्नता’, क्योंकि अगर तुम पुण्यवान व्यक्ति की आलोचना करते हो, तो गहरे तल पर तुम पुण्य की आलोचना कर रहे होते हो। अगर तुम अच्छे आदमी की आलोचना कर रहे हो, तो तुम उस बिंदु तक पहुंच रहे हो जहां तुम मानोगे कि इस संसार में अच्छाई असंभव है। तब तुम निशित अनुभव करोगे। तब तुम अपने दुष्ट तरीकों द्वारा आसानी से चलोगे।

क्योंकि ‘कोई नहीं है भला और नेक, हर कोई मेरी भांति ही है, मुझसे भी बदतर।’ इसीलिए इतनी ज्यादा निंदा चलती रहती है—आलोचना और निंदा।

यदि कोई कह देता है, ‘वह फलां व्यक्ति बहुत सुंदर है’, तो तुरंत तुम कुछ खोज लेते हो आलोचना करने को। इसे तुम बरदाश्त नहीं कर सकते। क्योंकि अगर कोई गुणवान है और तुम गुणवान नहीं हो, तो तुम्हारा अहंकार चकनाचूर हो जाता है। तब तुम्हें लगने लगता है, ‘मुझे अपने को बदलना है और यह तो एक कठिन प्रयास है।’ आसान बात यही होती है कि निंदा करो; आसान यही होता है कि आलोचना करो। आसान बात यही है कि कहो, ‘नहीं। सिद्ध करो इसे। क्या कह रहे हो तुम? पहले सिद्ध करो कि वह कैसे पुण्यवान है।’ और पुण्य को सिद्ध करना कठिन होता है, और किसी चीज की निंदा कर उसे अस्वीकार करना बहुत आसान होता है। सिद्ध करना बहुत कठिन है।

महान रूसी कथा लेखकों में से एक है तुर्गनेव। उसने एक कहानी लिखी है। कहानी है कि एक छोटे गांव में एक व्यक्ति को मूर्ख समझा जाता था, और वह था मूर्ख। सारा शहर उस पर हंसता था। उसे समझा जाता था मात्र एक मूढ़, और शहर का प्रत्येक व्यक्ति उसकी मूर्खता का मजा लेता। पर वह अपनी मूर्खता से थक गया था, इसलिए उसने एक विद्वान व्यक्ति से पूछा, ‘क्या करूं मै?’

वह बुद्धिमान व्यक्ति बोला, कुछ नहीं। बस यही करो कि चाहे कौई किसी की प्रशंसा कर रहा हो, तुम उसकी निंदा करो। यदि कोई कह रहा हो।’वह पुरुष तो संत है’, तो कह देना तुरंत, ‘नहीं। मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि वह एक पापी है।’ यदि कोई कहे, ‘यह पुस्तक बड़ी महान है।’ तुरंत कह दो, ‘मैंने पढ़ा है इसे और अध्ययन किया है इसका।’ इसकी चिंता में मत पड़ना कि तुमने इसे पढ़ा है या नहीं। मात्र कह देना, ‘रही है यह।’ यदि कोई कह रहा हो, ‘यह पेंटिंग कला की उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है’, तो एकदम कह देना, ‘लेकिन कैसी है यह—मात्र कैनवास और रंग! एक बच्चा बना सकता है इसे।’ आलोचना करो, नकारों, प्रमाण मांगो और सात दिन बाद मेरे पास आना।

सात दिनों के भीतर शहर ने अनुभव करना शुरू कर दिया कि यह आदमी तो बड़ा प्रतिभावान था। वे कहने लगे, ‘हम कभी न जानते थे उसकी प्रतिभाओं के बारे में। और हर चीज की इतनी प्रतिभा उसमें है। तुम उसे कोई पेंटिंग दिखाओ और वह दिखा देता है उसके अवगुण। तुम उसे कोई बड़ी किताब दिखाओ और वह बता देता है गलतियां। उसके पास इतना महान विवेचनात्मक मन है। एक विश्लेषक है। एक महान प्रतिभावान।’ सातवें ?? वह उस बुद्धिमान व्यक्ति के पास आया और वह कहने लगा, ‘ अब तुमसे सलाह लेने की कोई जरूरत न रही। तुम नासमझ हो।’ सारा शहर उस विद्वान पंडित में विश्वास रखता था, और वे सभी कहने लगे, ‘हमारे प्रतिभा संपन्न विशिष्ट व्यक्ति ने कहा है कि वह नासमझ है, तो वह ऐसा जरूर होगा ही।’

लोग हमेशा नकारात्मक में आसानी से विश्वास कर लेते है क्योंकि ‘नहीं’ को असिद्ध करना बहुत कठिन होता है। कैसे तुम सिद्ध कर सकते हो कि जीसस ईश्वर का बेटा है? कैसे करोगे तुम इसे प्रमाणित? दो हजार वर्ष हो चले और ईसाई धर्म—शाख सिद्ध करता आ रहा है इसे बिना सिद्ध किये हुए ही। लेकिन कुछ ही पलों के भीतर यह सिद्ध हो गया था कि वह अपराधी है, आवारा आदमी, और उन्हें मार दिया गया—कुछ ही पलों में। कहा था किसी ने, ‘मैंने इस आदमी को वेश्या के घर से बाहर आते देखा था।’ बस खत्म! किसी ने यह जानने की परवाह नहीं की थी कि यह व्यक्ति जो कह रहा है, ‘मैने देखा है’, विश्वास करने योग्य है या नहीं? किसी ने नहीं की परवाह।

नकारात्मक का सदा ही सरलता से विश्वास कर लिया जाता है क्योंकि वह तुम्हारे अहंकार को पोषित कर रहा होता है। विधायक पर विश्वास नहीं होता।

तुम नकार सकते हो जब कहीं अच्छाई होती है। पर तुम अच्छे व्यक्ति को हानि नहीं पहुंचा रहे हो, तुम अपने को ही हानि पहुंचा रहे होते हो। तुम आत्म—घातक हो। तुम वस्तुत: धीमी आत्महत्या कर रहे हो, स्वयं को विषाक्त कर रहे हो। जब तुम कहते हो, ‘यह आदमी अच्छा नहीं है, वह आदमी भला नहीं है’, तो वस्तुत: तुम क्या निर्मित कर रहे होते हो? तुम एक वातावरण निर्मित कर रहे हो जिसमें तुम विश्वास कर पाओ कि अच्छाई असंभव ही है। और जब अच्छाई असंभव होती है, तो कोई जरूरत नहीं होती उसके लिए प्रयास करने की। तब तुम नीचे गिर जाते हो। तब तुम वहीं ठहर जाते हो जहां तुम होते हो। विकास असंभव हो जाता है। और तुम जड़ होना, ठहर जाना चाहोगे, लेकिन तब तुम दुख में विजड़ित होते हो क्योंकि तुम दुखी हो।

तुम सब पूरी तरह ठहर चुके हो। यह ठहरना, यह जड़ता तोड़नी है; तुम्हें अपनी जगह से हिलना है। जहां भी तुम हो वहां से तुम्हें उखडूना होता है और अधिक ऊंचे तल पर पुनआrरोपित होना होता है। और यह तभी संभव होता है जब तुम गुणवान के प्रति प्रसन्नता अनुभव करते हो।

पुण्यवान के प्रति मुदिता (प्रसन्नता) और बुरे के प्रति उपेक्षा।

निंदा भी मत करना बुराई की। निंदा करने का प्रलोभन तो होगा। तुम अच्छाई की भी निंदा करना चाहोगे। लेकिन पतंजलि कहते है बुराई की निदामत करना। क्यों? वे मन के आंतरिक गति—तंत्र को जानते है कि यदि तुम बुराई की बहुत ज्यादा निंदा करते हो, तो तुम बहुत ज्यादा ध्यान देते हो बुराई पर। और धीरे—धीरे तुम ताल—मेल बिठा लेते हो उसके साथ, जिस किसी पर तुम ध्यान देते हो। यदि तुम कहते हो, ‘यह गलत है’, वह गलत है तो तुम गलत पर बहुत ज्यादा ध्यान दे रहे हो। तुम गलत के साथ आसक्त हो जाओगे। यदि तुम किसी चीज पर बहुत ज्यादा ध्यान देते हो, तो तुम सम्मोहित हो जाते हो। और जिस किसी चीज की तुम निंदा कर रहे हो, तुम उसे करोगे। क्योंकि वह बात एक आकर्षण बन जायेगी, एक गहन आकर्षण। अन्यथा क्यों चिंता करनी? वे दुष्ट हैं, पापी है, लेकिन तुम कौन होते हो उनके बारे में चिंता करने वाले?

जीसस कहते है, ‘तुम मूल्यांकन मत करना।’ यह अर्थ करते है पतंजलि उपेक्षा का—किसी भी ढंग से आलोचना मत करना, तटस्थ बने रहना। मत कहना हां या नहीं। मत करना निंदा, मत करना प्रशंसा। बस इसे छोड़ देना दिव्यता पर। इससे कुछ लेना—देना नहीं है तुम्हारा। एक आदमी चोर है, यह उसका काम है। यह उसकी और ईश्वर की बात है। उन्हें स्वयं निर्णय करने दो; तुम मत पड़ो बीच में। कौन कह रहा है तुम्हें बीच में पड़ने को? जीसस कहते है, ‘तुम आलोचना मत करो।’ पतंजलि कहते है, ‘तुम तटस्थ बने रहो।’

एमिल कुए संसार के सबसे बड़े सम्मोहनविदों में से एक था। उसने एक नियम खोजा—सम्मोहन का एक नियम। वह इसे कहता है उल्टे परिणाम का नियम। अगर तुम किसी चीज के बहुत ज्यादा विरुद्ध—होते हो, तो तुम उससे प्रभावित हो जाओगे। जरा सड़क पर किसी नये आदमी को साइकिल चलाना सीखते हुए देखना। वह सड़क शायद साठ फीट चौड़ी होती हो लेकिन मील का पत्थर होता है सड़क के किनारे। भले ही तुम बहुत अच्छे साइकिल चलाने वाले हो और तुम पत्थर को अपना निशाना बना लेते हो। तुम सोचते हो कि मैं जाकर टकरा जाऊंगा पत्थर से। शायद कई बार तुम चूक जाओ लेकिन नया सीखने वाला नहीं चूकता। कभी नहीं। वह मील के पत्थर को चूकता नहीं। अनजाने तौर से, उसकी साइकिल पत्थर की ओर ही बढ़ती है। और वह सड़क होती है साठ फीट चौड़ी। तुम्हारी आंखों पर पट्टी भी बंधी हो तो तुम बढ सकते हो बिना पत्थर से टकराये। चाहे कोई भी न हो सड़क पर और वह संपूर्ण रूप से निर्जन हो, और कोई न चल—फिर रहा हो।

क्या घटता है इस नौसिखिए को? एक नियम काम कर रहा होता है। एमिल कुए इसे कहता है, विपरीत परिणाम का नियम। अभी वह सीख रहा है इसलिए वह घबड़ाया हुआ है; इसलिए वह आस—पास देखता है यह देखने को कि कहां है खतरे का स्थल, वह स्थल, जहां वह भूल कर सकता है। सारी सड़क ठीक है, लेकिन यह पत्थर, कोने का यह लाल पत्थर—यही खतरनाक है। वह ऐसा सोचता है, ‘शायद मै इससे टकरा जाऊं।’ अब एक जोड्ने वाली बात निर्मित हो जाती है। अब उसका ध्यान पत्थर की ओर लगा है; सारी सड़क भूल जाती है। और वह एक नौसिखिया ही होता है। उसके हाथ कांपते रहते हैं, और वह देख रहा होता है पत्थर की ओर। धीरे— धीरे वह अनुभव करता है कि साइकिल अपने से चल रही है।

साइकिल को तो तुम्हारे मन के ध्यान का अनुसरण करना है। साइकिल का अपना कोई संकल्प नहीं है। यह तुम्हारे पीछे आती है—जहां भी तुम जा रहे होते हो। तुम अपनी आंखों का अनुसरण करते हो और तुम्हारी आंखें एक सूक्ष्म सम्मोहन का, एक एकाग्रता का। तुम देख रहे हो पत्थर की ओर, और हाथ उसी तरफ सरकते हैं। तुम और ज्यादा भयभीत होते जाते हो। जितने ज्यादा तुम भयभीत होते हो, उतने ज्यादा तुम पक्क में आ जाते हो, क्योंकि अब पत्थर कोई अनिष्टकारी शक्ति मालूम पड़ने लगता है। जैसे कि पत्थर तुम्हें खींच रहा हो। सारी सड़क भुलायी जा चुकी है, साइकिल भुला दी गयी है, सीखने वाला खो गया है। केवल वह पत्थर है वहां; तुम सम्मोहित हो गये हो। तुम जा टकराओगे पत्थर से। अब तुमने अपने मन की बात पूरी कर ली। अगली बार तुम ज्यादा भयभीत होओगे। तो फिर कैसे छुटकारा पाओगे इस चक्र से?

जाओ मंदिर—मठों में और सुनो साधु—संतों को कामवासना की निंदा करते हुए। कामवासना मील का पत्थर बन चुकी है। चौबीसों घंटे वे इसके बारे में सोच रहे हैं। इससे बचने की कोशिश करना है, इसके बारे में सोचते रहना है। जितना ज्यादा तुम इससे बचने की कोशिश करते हो उतने ज्यादा तुम सम्मोहित हो जाते हो। इसीलिए पुराने शास्त्रों में यह बताया है कि जब संत एकाग्रता साध रहा होता है, तो स्वर्ग की अप्सराएं आ पहुंचती हैं, उसकी मनोदशा को भंग करने का प्रयत्न करती हैं। क्यों आकृष्ट होंगी सुंदर अप्सराएं? अगर कोई व्यक्ति आंखें मूंदे वृक्ष के तले बैठा हुआ है तो क्यों रुचि लेंगी वे सुंदरियां इस आदमी में?

कोई नहीं आता कहीं से, लेकिन व्यक्ति ही कामवासना के इतना विरुद्ध होता है कि यह बात एक सम्मोहन बन जाती है। वह इतना ज्यादा सम्मोहित होता है कि अब सपने सच्चे हो जाते हैं। वह अपनी आंखें खोलता है और देखता है कि एक सुंदर नग्‍न सी खड़ी हुई है वहां। तुम्हें कामवासना से भरी अश्लील किताब चाहिए होती है नग्‍न सी देखने के लिए। लेकिन यदि तुम मंदिर—मठों में जाओ तो कामवासना से भरी किताब की जरूरत न रहेगी तुम्हें। चारों तरफ तुम स्वयं निर्मित कर लेते हो तुम्हारी नग्न कामवासना। और तब वह मुनि, वह व्यक्ति जो एकाग्रता साध रहा था, ज्यादा भयभीत हो जाता है। वह अपनी आंखें बंद कर लेता है और अपनी मुट्ठियां भींच लेता है। अब वह सी भीतर खड़ी हुई है।

और तुम इतनी सुंदर स्त्रियां इस धरती पर नहीं पा सकते क्योंकि वे स्वप्न की निर्मितिया हैं, सम्मोहन द्वारा उपजी हैं। और जितना ज्यादा वह भयभीत होता है, उतनी ज्यादा वे वहां होती हैं। वे उसके शरीर के साथ आ सटेंगी, वे उसके सिर का स्पर्श करेंगी। वे उससे चिपक जायेंगी और उसे आलिंगनबद्ध करेंगी। वह तो पूर्णतया पागल हुआ है, पर ऐसा घटता है। ऐसा तुम्हें भी घट रहा है। मात्राओं का भेद हो सकता है, लेकिन ऐसा ही है कुछ जो घट रहा है। जिस—किसी के तुम विरुद्ध होते हो, गहरे तल पर उसके साथ जुड़ जाओगे।

किसी चीज के विरुद्ध मत होना। बुराई के विरुद्ध होना उसी का शिकार हो जाना है। तब तुम बुराई के हाथ पड़ रहे होते हो। तटस्थता बनाये रखना। यदि तुम तटस्थता का अनुसरण करते हो, इसका अर्थ हुआ कि जो कुछ घट रहा है उससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं। कोई चोरी कर रहा है तो यह उसका कर्म है। वह समझ लेगा इसके बारे में और वह दुख भोगेगा ही। इससे तुम्हें जरा भी लेना—देना नहीं। तुम इसके बारे में कुछ मत सोचना इस पर कोई ध्यान मत देना। यदि कोई वेश्या है और वह अपना शरीर बेच रही है, तो वह उसकी समस्या है। तुम अपने भीतर कोई निंदा मत बना लेना; अन्यथा तुम आकर्षित हो जाओगे उसकी ओर।

ऐसा हुआ, और यह बहुत पुरानी कथा है कि एक साधु और एक वेश्या एक साथ रहते थे। वे पड़ोसी थे, और फिर वे मर गये। वह साधु बहुत प्रसिद्ध था। मृत्यु आ पहुंची और साधु को नरक की ओर ले चलने का प्रयत्न करने लगी। वे दोनों एक ही दिन मरे थे। वह वेश्या भी मर गयी थी।

साधु तो चकित था क्योंकि वेश्या को स्वर्ग के मार्ग पर ले जाया गया था। अत: वह कहने लगा, ‘यह क्या है? कुछ भूल हो गयी मालूम पड़ती है। असल में मुझे ले जाया जाना चाहिए था स्वर्ग की ओर। और यह तो एक वेश्या है।’

‘ श्रीमान यह बात हम जानते हैं’, उससे ऐसा कह दिया गया।’लेकिन अब, अगर आप चाहें तो इसे हम आपको समझा सकते है। कोई भूल नहीं हुई। यही है आज्ञा, कि वेश्या को स्वर्ग ही लाना है और साधु को फेंक देना है नरक में।’ वह साधु कहने लगा, ‘लेकिन क्यों?’ वह वेश्या भी इस पर विश्वास न कर सकती थी। वह बोली, ‘कोई न कोई भूल जरूर हुई है। मुझे स्वर्ग भेजना है? और वे एक साधु हैं, एक महान साधु। हम उन्हें पूजते रहे हैं। उन्हें ले जाओ स्वर्ग।’

मृत्यु बोली, ‘नहीं, यह संभव नहीं, क्योंकि वह मात्र सतह पर ही साधु था। वह निरंतर सोच रहा था तुम्हारे बारे में। जब तुम रात्रि में गाना गाती, वह आता और तुम्हें सुनता। वह बिलकुल अहाते के निकट आ खड़ा होता और तुम्हें सुनता। लाखों बार उसने चाहा होगा जाकर तुम्हें देखना, तुम्हें प्यार करना, लाखों बार उसने तुम्हारा सपना देखा। वह लगातार तुम्हारे बारे में सोच रहा था। उसके होठों पर तो नाम रहता भगवान का; उसके हृदय में छबि होती थी तुम्हारी।’

और यही बात ठीक दूसरे छोर से वेश्या के साथ थी। वह अपना शरीर बेच रही होती, तो भी हमेशा सोच रही होती कि वह इस साधु के समान जीवन पाना चाहेगी, जो कि मंदिर में रहता है। कितना शुद्ध है वह। वह यही

सोचती। वह साधु का सपना देखती, शुचिता का, संतत्व का, उस अच्छाई कार सपना देखती जिसे कि वह चूक रही थी। और जब ग्राहक जा चुके होते, तब वह भगवान से प्रार्थना करती,।’!अगली बार फिर मत बनाना मुझे वेश्या। मुझे पुजारी बना देना; मुझे ध्यानी बना देना। मैं मंदिर में समर्पित हो सेवा करना चाहूंगी।’

और बहुत बार उसने मंदिर जाने की बात सोची, लेकिन उसे लगा कि वह पाप में इतनी फंसी हुई है कि मंदिर में प्रवेश करना ठीक नहीं।

‘वह स्थान इतना पवित्र है और मै इतनी पापी हूं,, वह ऐसा सोचती। और बहुत बार उसने चाहा साधु के चरणों को छू लेना, लेकिन उसने सोचा कि यह अच्छा न होगा। मैं इतनी योग्य नहीं कि उनके चरणों को स्पर्श करूं, वह सोचती रहती। तो जब साधु वहां से गुजरता, वह केवल धूल संजो लेती उस मार्ग की जहां उसके चरण पड़े थे, और वह पूजा करती उस चरणरज की, उस धूल की।

बाहर से तुम क्या हो इसका सवाल नहीं। जो तुम्हारा आंतरिक सम्मोहन है वह तुम्हारे जीवन के भावी क्रम को निश्चित करेगा। बुराई के प्रति तटस्थ रहना। तटस्थता का, उपेक्षा का अर्थ भावशून्यता नहीं है, इतना ध्यान रहे। ये सूक्ष्म भेद हैं। तटस्थता का अर्थ भावशून्यता नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि तुम अपनी आंखें मींच लो। क्योंकि अगर तुम उन्हें मींचते भी हो तो एक दृष्टिकोण बना लेते हो, एक मनोवृत्ति। इसका अर्थ यह नहीं होता कि परवाह ही मत करो, क्योंकि वहां भी, एक सूक्ष्म निंदा उसमें छुपी हुई होती है। तटस्थता इतना ही सूचित करती है, ‘तुम कौन होते हो निर्णय करने वाले, मूल्यांकन करने वाले?’ तटस्थता के साथ तुम सोचते हो तुम्हारे स्वयं के बारे में, ‘कौन हो तुम? कैसे बता सकते हो तुम कि क्या बुरा है और क्या अच्छा है? कौन जानता है?’

जीवन इतना संश्लिष्ट है कि बुराई अच्छाई बन जाती है और अच्छाई बुराई बन जाती है। वे परिवर्तित होती रहती है। पापी को परम सत्य तक पहुंचते पाया गया है; साधु—संतों को नरक में फेंक दिया पाया गया है। तो कौन जानता? और तुम कौन हो? कौन पूछ रहा है तुमसे? तुम अपने को ही सम्हालो। यदि तुम यह भी कर सको तो तुमने बहुत कर लिया। तुम हो जाओ अधिक सचेत और जागरूक; तब तटस्थता तुम तक चली आती है बिना किसी पूर्वविचार के।

ऐसा हुआ कि विवेकानंद अमरीका जाने से पहले और संसार—प्रसिद्ध व्यक्ति बनने से पहले, जयपुर के महाराजा के महल में ठहरे थे। वह महाराजा भक्त था विवेकानंद और रामकृष्ण का। जैसे कि महाराजा करते है, जब विवेकानंद उसके महल में ठहरने आये, उसने इसी बात पर बड़ा उत्सव आयोजित कर दिया। उसने स्वागत—उत्सव पर नाचने और गाने के लिए वेश्याओं को भी बुला लिया। अब जैसा महाराजाओं का चलन होता है; उनके अपने ढंग के मन होते हैं। वह बिलकुल भूल ही गया कि नाचने—गाने वाली वेश्याओं को लेकर संन्यासी का स्वागत करना उपयुक्त नहीं है। पर कोई और ढंग वह जान सकता नहीं था। उसने हमेशा यही जाना था कि जब तुम्हें किसी का स्वागत करना हो, तो शराब, नाच—गान, यही सब चलना चाहिए।

विवेकानंद अभी परिपक्व न हुए थे, वे अब तक पूरे संन्यासी न हुए थे। यदि वे पूरे संन्यासी होते, यदि तटस्थता बनी रहती, तो फिर कोई समस्या ही न रहती; लेकिन वे अभी भी तटस्थ नहीं थे। वे अब तक उतने गहरे नहीं उतरे थे पतंजलि में। युवा थे, और बहुत दमनात्मक व्यक्ति थे। अपनी कामवासना और हर चीज दबा रहे थे। जब उन्होंने वेश्याओं को देखा तो बस उन्होंने अपना कमरा बंद कर लिया और उससे बाहर आते ही न थे।

महाराजा आया और उसने क्षमा चाही उनसे। वह बोला, ‘हम जानते न थे। इससे पहले हमने किसी संन्यासी के लिए उत्सव आयोजित नहीं किया। हम हमेशा राजाओं का अतिथि—सत्कार करते हैं, इसलिए हमें राजाओं के ढंग ही मालूम है। हमें अफसोस है, पर अब तो यह बहुत अपमानजनक बात हो जायेगी, क्योंकि यह सबसे बड़ी वेश्या है इस देश की, और बहुत महंगी है। और हमने इसे इसका रुपया दे दिया है। उसे यहां से हटने को और चले जाने को कहना तो अपमानजनक होगा। और अगर आप नहीं आते तो वह बहुत ज्यादा चोट महसूस करेगी। इसलिए बाहर आयें।’

किंतु विवेकानंद भयभीत थे बाहर आने में। इसीलिए मैं कहता हूं कि वे तब तक अप्रौढ़ थे, तब तक भी पके संन्यासी न हुए थे। अभी भी तटस्थता मौजूद नहीं थी, मात्र निंदा थी। एक वेश्या? —वे बहुत क्रोध में थे, और वे बोले, ‘नहीं।’ फिर वेश्या ने गाना शुरू कर दिया उनके आये बिना ही। और उसने गाया एक संन्यासी का गीत। गीत बहुत सुंदर है। गीत कहता है, ‘मुझे मालूम है कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं, तो भी तुम तो जरा ज्यादा करुणामय हो सकते थे। मैं राह की धूल सही; यह मालूम है मुझे। लेकिन तुम्हें तो मेरे प्रति इतना विरोधात्मक नहीं होना चाहिए। मैं कुछ नहीं हूं मैं अज्ञानी हूं एक पापी। पर तुम तो पवित्र आत्मा हो, तो क्यों मुझसे भयभीत हो तुम?’

कहते हैं, विवेकानंद ने अपने कमरे में सुना। वह वेश्या रो रही थी और गा रही थी, और उन्होंने अनुभव किया—उस पूरी स्थिति को अनुभव किया उन्होंने कि वे क्या कर रहे थे। बात अप्रौढ़ थी, बचकानी थी। क्यों हों वे भयभीत? यदि तुम आकर्षित होते हो तो ही भय होता है। तुम केवल तभी सी से भयभीत होओगे यदि तुम सी के आकर्षण में बंधे हुए हो। यदि तुम आकर्षित नहीं हो तो भय तिरोहित हो जाता है। भय है क्या? तटस्थता आती है बिना किसी विरोधात्यकता के।

वे स्वयं को रोक न सके, इसलिए उन्होंने खोल दिये थे द्वार। वे पराजित हुए थे वेश्या के द्वारा। वेश्या विजयी हुई थी; उन्हें बाहर आना ही पड़ा। वे आये और बैठ गये। बाद में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, ‘ईश्वर द्वारा एक नया प्रकाश दिया गया मुझे। भयभीत था मैं। जरूर कोई लालसा रही होगी मेरे भीतर, इसीलिए भयभीत हुआ मैं। किंतु उस सी ने मुझे पूरी तरह पराजित कर दिया था, और मैंने कभी नहीं देखी ऐसी विशुद्ध आत्मा। वे अश्रु इतने निर्दोष थे और वह नृत्य—गान इतना पावन था कि मैं चूक गया होता। और उसके समीप बैठे हुए, पहली बार मैं सजग हो आया कि बात उसकी नहीं जो बाहर होता है। महत्व उसी का है कि भीतर क्या है।’

उस रात उन्होंने लिखा अपनी डायरी में, ‘ अब मैं उस सी के साथ बिस्तर में सो भी सकता था और कोई भय न होता।’ वे उसके पार जा चुके थे। उस वेश्या ने उन्हें मदद दी पार जाने में। यह एक अद्भुत घटना थी। रामकृष्ण न कर सके मदद, लेकिन एक वेश्या ने कर दी मदद।

अत: कोई नहीं जानता कहां से मदद आयेगी। कोई नहीं जानता, क्या है बुरा और क्या है अच्छा? कौन कर सकता है निश्चित? मन दुर्बल है और निस्सहाय है। इसलिए कोई दृष्टिकोण तय मत कर लेना। यही है अर्थ तटस्थ होने का।

मन शांत होता है बारी—बारी से श्वास छोड़ने और रोके रखने से भी।

पतंजलि देते हैं दूसरे विकल्प भी। अगर तुम आनंदित व्यक्ति के साथ प्रसन्न और मैत्रीपूर्ण हो सको, दुखी के प्रति करुणा, पुण्यवान के प्रति मुदिता और पापी के प्रति उपेक्षा रख सको—अगर यह संभव हो तो मन परम मन में रूपांतरित होना शुरू हो गया है। यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते— और यह कठिन है, सरल नहीं है—तो दूसरे मार्ग हैं। निराश मत होना।

पतंजलि कहते हैं, ‘बारी—बारी से श्वास छोड़ने और रोके रखने द्वारा भी मन शांत होता है।’ तब तुम शरीर वितान के द्वारा प्रवेश करते हो। पहली बात है मन के द्वारा प्रवेश, दूसरी बात है शरीर—विज्ञान के द्वारा प्रवेश। श्वास और विचार गहरे रूप से संबंधित हैं, जैसे कि वे एक ही चीज के दो छोर हों। यदि तुम थोड़ा भी ध्यान देते हो तो कई बार तुम भी जान लेते हो, कि जब कभी मन परिवर्तित होता है, श्वास परिवर्तित हो जाती है। उदाहरण के लिए, तुम क्रोधित हो—तुरत श्वसन—क्रिया बदल जाती है; लय जा चुकी। श्वास की अलग गुणवत्ता है। यह लयबद्ध नहीं है।

जब तुम भावातिरेक में होते, कामातुर होते हो, जब कामवासना वशीभूत कर लेती है, तब श्वसन—क्रिया बदल जाती है। यह उत्तेजित हो जाती है, विक्षिप्त। जब तुम मौन होते हो, कुछ नहीं कर रहे होते, बिलकुल विश्राम अनुभव कर रहे होते हो, तो श्वास की अलग ही लय होती है। यदि तुम गहराई से ध्यान दो, तुम जान सकते हो किस प्रकार की श्वास—लय किस प्रकार के मन को निर्मित करती है। यदि तुम मैत्रीपूर्ण अनुभव करते हो, तो श्वसन—क्रिया अलग होती है। यदि तुम प्रतिकूल, क्रोधित, अनुभव करते हो तो श्वास—क्रिया अलग होती है। इसलिए या तो मन को बदलो और श्वास—क्रिया बदल जायेगी, या तुम इसके विपरीत कर सकते हो—श्वास—क्रिया बदलो और मन बदल जायेगा। श्वास की लय बदलो, और मन तुरंत बदल जायेगा।

जब तुम अनुभव करते हो प्रसन्न, मौन, आह्लादित, तो श्वास की लय को ध्यान में रखना। अगली बार जब क्रोध आये तो श्वास को बदलने मत देना। जब तुम प्रसन्न होते हो तो जो लय होती है उसी लय को बनाये रखना। तब क्रोध संभव नहीं होता क्योंकि श्वास—क्रिया स्थिति का निर्माण कर देती है। श्वास—क्रिया नियंत्रित करती है शरीर की उन पंथियों को जो रक्त में रसायन छोड़ती हैं।

इसीलिए तुम लाल हो जाते हो जब तुम क्रोध में होते हो। निश्चित रसायन पहुंच चुके होते हैं रक्त में। और ज्वरित उत्तेजना से भर जाते हो। तुम्हारा तापमान बढ़ जाता है। शरीर तैयार होता है संघर्ष करने को या पलायन करने को। शरीर आपातस्थिति में होता है। श्वास की चोट पड़ने से यह परिवर्तन घटता है।

श्वास को मत बदलना। बस बनाये रखना श्वास की उसी लय को जो मौन में होती है। श्वास—क्रिया को तो मौन ढांचे का अनुसरण भर करना है; तब क्रोधित होना असंभव हो जायेगा। जब तुम बहुत आवेश अनुभव कर रहे होते हो, कामातुर होते हो, कामवासना पकड़ लेती है तब अपने श्वसन में शांत होने का प्रयत्न करना और तुम अनुभव करोगे कि कामवासना तिरोहित हो गयी है।

पतंजलि एक विधि का सुझाव देते हैं— ‘बारी—बारी से श्वास बाहर निकालने और रोकने द्वारा भी मन शांत होता है।’ जब कभी तुम अनुभव करते हो कि मन शांत नहीं, वह तनावपूर्ण है, चिंतित है, शोर से भरा है, निरंतर सपने देख रहा है, तो एक काम करना—पहले गहरी सांस छोड़ना। सदा प्रारंभ करना सांस छोड़ने द्वारा ही। जितना हो सके उतनी गहराई से सांस छोड़ना; वायु बाहर फेंक देना। वायु बाहर फेंकने के साथ ही मनोदशा बाहर फेंकी जायेगी, क्योंकि श्वसन ही सब कुछ है।

फिर जितना संभव हो, श्वास को बाहर निकाल देना। पेट को भीतर खींचना और उसी तरह बने रहना कुछ सेकेंड के लिए, सांस मत लेना। वायु को बाहर होने देना, और कुछ सेकेंड के लिए सांस मत लेना। फिर शरीर को सांस लेने देना। गहराई से सांस भीतर लेना जितना तुमसे हो सके। फिर दोबारा ठहर जाना कुछ सेकेंड के लिए। यह अंतराल उतना ही होना चाहिए जितना बाहर श्वास छोड़ने के बाद तुम बनाये रखते हो। यदि तुम श्वास छोड़ने को तीन सेकेंड के लिए बनाये रहते हो, तो श्वास को भीतर भी तीन सेकेंड तक बनाये रखना। इसे बाहर फेंको और रुके रहो तीन सेकेंड तक। इसे भीतर लो और रुके रहो तीन सेकेंड तक। लेकिन इसे पूर्णतया बाहर फेंक देना होता है। समग्रता से सांस छोड़ो और समग्रता से सांस लो, और एक लय बना लो। सांस खींचने के बाद रुके रहना, सांस छोड़ने के बाद रुके रहना। तुरंत तुम अनुभव करोगे कि एक परिवर्तन तुम्हारे संपूर्ण अस्तित्व में उतर रहा है। वह मनोदशा जा चुकी होगी। एक नयी आबोहवा तुममें प्रवेश कर चुकी होगी।

क्या घटता है? क्यों ऐसा होता है? बहुत—से कारण हैं—एक, जब तुम यह लय निर्मित करने लगते हो, तब तुम्हारा मन पूर्णतया उस ओर मुड़ा हुआ होता है। तुम क्रोधित नहीं हो सकते, क्योंकि एक नयी बात शुरू हो गयी। और मन एक साथ दो चीजें नहीं कर सकता। तुम्हारा मन अब श्वास छोड़ने, भीतर लेने, रोकने, लय निर्मित करने से भरा होता है। तुम पूरी तरह डूब चुके होते हो इसमें, इसलिए क्रोध के साथ सहयोग टूट जाता है—यह एक बात हुई।

श्वास छोड़ना और श्वास भीतर लिया जाना शुद्ध करता है सारे शरीर को। जब तुम श्वास बाहर छोड़ते हो और तीन सेकेंड तक या पांच सेकेंड तक रोके रहते हो—जितना ज्यादा तुम चाहते हो, जितना ज्यादा तुमसे हो सकता हो—तो क्या घटता है भीतर? सारा शरीर उस सबको फेंक देता है जो—जो विषाक्त होता है रक्त में। वायु बाहर हो गयी और शरीर के पास एक अंतराल है। उस अंतराल में ही सारे विष बाहर फेंक दिये जाते हैं। अक्सर वे हृदय तक आ पहुंचते हैं; वे वहां संचित हो जाते हैं—नाइट्रोजन, कार्बन डाइ—आक्साइड, ये जहरीली गैसें, ये सब वहां एक साथ एकत्रित हो जाती हैं।

अक्सर तुम उन्हें अवसर नहीं देते वहां एक साथ एकत्रित होने का। तुम सांस बाहर— भीतर किये जाते हो बिना किसी अंतराल के या ठहराव के। ठहराव के साथ एक अंतराल निर्मित हो जाता है, एक शून्यता निर्मित हो जाती है। उसी शून्यता में, हर चीज भीतर प्रवाहित हो जाती है और उसे भर देती है। फिर तुम गहरी श्वास भीतर लेते हो और फिर तुम रोके रहते हो। वे सारी विषैली गैसें श्वास के साथ घुलमिल जाती है; तब तुम फिर सांस बाहर छोड़ते और उन्हें बाहर निकाल देते। फिर तुम विराम देते। विषाक्त चीजों को एकत्र होने दो। यह एक तरीका है चीजों को बाहर फेंक देने का।

मन और श्वसन, दोनों बहुत ज्यादा संबंधित हैं। उन्हें होना होता है क्योंकि श्वास जीवन है। एक आदमी बिना मन के हो सकता है, लेकिन वह श्वास लिये बिना नहीं रह सकता। श्वास—क्रिया ज्यादा गहरी है मन से। तुम्हारे मस्तिष्क की पूरी शल्य—क्रिया हो सकती है; तुम जीवित रहोगे अगर तुम श्वास ले सको तो। यदि श्वसन बना रहे तो तुम जीवित रहोगे। मस्तिष्क पूरी तरह बाहर निकाला जा सकता है। तुम निष्क्रिय जीवन लिये पड़े रहोगे, तो भी तुम जीवित रहोगे। तुम आंखें नहीं खोल पाओगे या बात नहीं कर पाओगे या कुछ नहीं कर पाओगे, लेकिन बिस्तर पर पड़े हुए तुम जीवित रह सकते हो और जीवन बिता सकते हो वर्षोंतक। लेकिन मन जीवित नहीं रह सकता। यदि श्वास थम जाती है तो मन तिरोहित हो जाता है।

योग ने खोज लिया था यह आधारभूत तथ्य—कि श्वास—क्रिया ज्यादा गहरी होती है विचार से। यदि तुम श्वास परिवर्तित करते हो, तो तुम सोचना परिवर्तित कर देते हो। और एक बार तुम पा लेते हो कुंजी कि श्वास के पास है कुंजी तो फिर तुम जो दशा चाहो बना सकते हो—यह तुम पर निर्भर है। जैसे तुम श्वास लेते हो, यह उस ढंग पर निर्भर है। बस एक काम करना—सात दिन तक तुम केवल विवरण लिख लेना उन विभिन्न प्रकार की श्वास—क्रियाओं के जो अलग—अलग मनोदशाओं के साथ घटती हैं। तुम क्रोधित होते हो—एक नोटबुक लेना और तुम्हारी श्वास को गिनना—कितनी तुम भीतर भरते हो और कितनी बाहर छोड़ते हो। यदि पांच की गिनती तक श्वासें तुम भीतर खींचते हो और तीन गिनती तक बाहर छोड़ते हो, तो इसे लिख लेना।

कई बार तुम बहुत सुंदर अनुभव करते हो, अत: लिख लेना कि सांस लेने और छोड़ने का अनुपात कितना है, क्या वहां कोई विराम है। लिख लेना इसे और सात दिन तक एक डायरी ही बना लेना अपनी स्वयं की श्वास—क्रिया अनुभव करने के लिए, कि कैसे यह तुम्हारी मनोदशाओं के साथ संबंधित होती है। तब तुम इसे छांट सकते हो। तब जब कभी तुम कोई मनोदशा गिरा देना चाहते हो, तो ठीक इसका विपरीत ढांचा प्रयुक्त करना। या, अगर तुम किसी मनोदशा को उत्पन्न करना चाहते हो, तो इसके ही ढांचे का प्रयोग करना।

अभिनेता, जाने या अनजाने, यह जान लेते हैं क्योंकि कई बार उन्हें क्रोधित होना होता है बिना क्रोधित हुए ही। तो क्या करते होंगे वे? उन्हें उपयुक्त श्वसन—ढांचा निर्मित करना होता है। शायद उन्हें पता भी न होता हो, पर वे शुरू कर देते है ऐसा श्वास लेना जैसे कि वे क्रोधित हों। तब जल्दी ही रक्त तेजी से दौड़ने लगता है और विष प्रवाहित हो जाते हैं। बिना उनके क्रोधित हुए ही उनकी आंखें लाल हो जाती हैं, और वे एक सूक्ष्म क्रोधावस्था में होते हैं बिना क्रोधित हुए ही। उन्हें प्रेम करना होता है बिना प्रेम में पड़े ही; उन्हें प्रेम प्रकट करना पडता है बिना प्रेम अनुभव किये ही। यह कैसे करते होंगे वे? वे एक निश्चित रहस्य जानते हैं योग का।

इसलिए मैं हमेशा कहता हूं कि एक योगी सर्वश्रेष्ठ अभिनेता हो सकता है। वह होता ही है। उसका मंच विशाल है; बस यही। वह अभिनय कर रहा होता है। किसी रंगमंच पर नहीं, बल्कि संसार के रंगमंच पर। वह अभिनेता होता है, वह कर्ता नहीं है। और भेद यही है कि वह एक विशाल नाटक में भाग ले रहा होता है और वह उसका साक्षी बन सकता है। वह अलग बना रह सकता है और निर्लिप्त रह सकता है।

जब ध्यान से अतींद्रिय संवेदना उत्पन्न होती है तो मन आत्मविश्वास प्राप्त करता है और इसके कारण साधना का सातत्य बना रहता है।

अपने श्वसन—ढांचे को जानो, और मन के वातावरण को किस प्रकार परिवर्तित किया जाता है, मनोदशाओं को कैसे बदला जाता है इस बात की कुंजियां तुम पा जाओगे। और यदि तुम दोनों छोरों से कार्य करते हो, तो ज्यादा बेहतर होगा। प्रसन्न के प्रति मैत्रीपूर्ण होने का प्रयत्न करो, बुरे के प्रति तटस्थ होने का, और तुम्हारे श्वसन—ढांचे को भी बदलना और रूपांतरित करना जारी रखो। तब चली आयेगी अतींद्रिय संवेदना।

यदि तुमने एल एस डी, मारिजुआना, हशीश लिया हो, तो तुम जान लेते हो कि अतींद्रिय संवेदना जगती है। तुम साधारण चीजों की ओर देखते हो, और वे असाधारण हो उठती हैं।

अल्‍डुअस हक्सले अपने संस्मरणों में कहता है कि जब उसने एल एस डी पहली बार ली थी, तब वह एक साधारण कुर्सी के सामने बैठा हुआ था। और जब वह अधिकाधिक जुड़ता गया नशे के साथ, जब उस पर चढ़ गया नशा, तो कुर्सी तुरंत रंग बदलने लगी। वह चमक उठी। एक साधारण कुर्सी जिस पर कभी उसने कोई ध्यान न दिया था इतनी सुंदर हो गयी, उसमें से बहुत सारे रंग फूटने लगे। वह ऐसी हो गयी थी जैसे वह हीरों की बनी हुई हो। इतने सुंदर आकार और सूक्ष्म घटाएं थीं वहां कि अपनी आंखों पर विश्वास न कर सका। वह उस पर विश्वास न कर सका जो घट रहा था। बाद में उसे ध्यान आया कि यही घटित हुआ होगा वॉन गॉग को, क्योंकि उसने एक कुर्सी का चित्र बनाया था जो करीब—करीब बिलकुल वैसा ही था।

एक कवि को कोई जरूरत नहीं है एल एस डी लेने की। उसके पास अंतर्निर्मित व्यवस्था होती है शरीर में एल एस डी उंडेलने की। यही है भेद एक कवि और एक साधारण व्यक्ति में। इसीलिए कहा जाता है कि कवि जन्मजात होता है, बनाया नहीं जाता। क्योंकि उसके पास असाधारण शारीरिक ढांचा होता है। उसके शरीर के रसायनों में अलग ही परिमाण और गुणवत्ता होती है। इसीलिए जहां तुम्हें कोई चीज दिखायी नहीं पड़ती, वह अद्भुत चमत्कार देख लेता है। तुम देखते हो एक साधारण वृक्ष, और वह देखता है कुछ अविश्वसनीय। तुम देखते हो साधारण बादल, लेकिन एक कवि, यदि वह वास्तव में ही कवि है, वह कभी नहीं देखता कोई साधारण चीज। हर चीज असाधारण रूप से सुंदर हो उठती है।

यही घटता है योगी को। क्योंकि जब तुम अपने श्वसन को और अपनी मनःस्थितियों को बदलते हो, तो तुम्हारे शारीरिक रसायन अपना ढांचा बदलते हैं; तुम रासायनिक रूपांतरण में से गुजरते हो। और तब तुम्हारी आंखें साफ हो जाती है, एक नयी संवेदनक्षमता घटती है। वही पुराना वृक्ष एकदम नया हो जाता है। तुम कभी न जान पाये थे इसकी हरीतिमा। यह आलोकित हो जाता है। तुम्हारे चारों ओर का सारा संसार नया रूपाकार ले लेता है। अब यह एक स्वर्ग हो जाता है; वही साधारण पुराना रही संसार नहीं रहता।

तुम्हारे चारों ओर के लोग अब वही न रहे। तुम्हारी साधारण पत्नी सबसे सुंदर सी हो जाती है। तुम्हारी अनुभूति की स्पष्टता के साथ ही हर चीज बदल जाती है। जब तुम्हारी दृष्टि बदलती है तो हर चीज बदल जाती

पतंजलि कहते हैं, ‘जब ध्यान अतींद्रिय संवेदना जगाता है, तो आत्मविश्वास प्राप्त होता है और यह बात मदद देती है साधना में सातत्य बनाये रखने में।’ तब तुम आश्वस्त हो जाते हो कि तुम सम्यक मार्ग पर हो। संसार और—और सुंदर हो रहा है, असुंदरता तिरोहित हो रही है। संसार अधिकाधिक एक घर बन रहा होता है; तुम इसमें और ज्यादा निश्चित अनुभव करते हो। यह मित्रता से, भरा होता है। तुम्हारे और ब्रह्मांड के बीच एक प्रेम—क्रीड़ा चलती है। तुम ज्यादा आश्वस्त, ज्यादा आत्मविश्वासी होते हो और ज्यादा धैर्य चला आता है तुम्हारे प्रयास में।

उस आंतरिक प्रकाश पर भी ध्यान करो जो शांत है और सभी दुखों से बाहर है।

ऐसा केवल तभी किया जा सकता है जब तुमने संवेदनक्षमता की एक निश्चित गुणवत्ता प्राप्त कर ली होती है। तब आंखें बंद कर सकते हो और पा सकते हो उस अग्रि कों—हृदय के पास की वह सुंदर अग्रिशिखा—एक नीला प्रकाश। लेकिन बिलकुल अभी तो तुम उसे नहीं देख सकते। वह है वहां; वह सदा से ही है वहां। जब तुम मरते हो, तब वह नीला प्रकाश तुम्हारे शरीर से बाहर चला जाता है। लेकिन तुम उसे नहीं देखते तब क्योंकि जब तुम जीवित थे तब नहीं देख सकते थे उसे।

और दूसरे भी नहीं देख पायेंगे कि कोई चीज बाहर जा रही है, लेकिन सोवियत रूस में किरलियान ने बहुत संवेदनशील फिल्म द्वारा तस्वीरें उतारी हैं। जब कोई व्यक्ति मरता है तब कुछ घटता है उसके चारों ओर। कोई जीवऊर्जा, कोई प्रकाश जैसी चीज छूट जाती है, चली जाती है और तिरोहित हो जाती है ब्रह्मांड में। प्रकाश सदा है वहां; वह तुम्हारे अस्तित्व का केंद्र बिंदु है। यह हृदय के समीप होता है एक नीली ज्योति के रूप में।

जब तुम्हारे पास संवेदनशीलता हो तब तुम देख सकते हो तुम्हारे चारों ओर के सुंदर संसार को—जब तुम्हारी आंखें साफ होती हैं। फिर तुम उन्हें बंद कर लेते हो और हृदय के ज्यादा करीब बढ़ते हो। तुम जानने का प्रयत्न करते हो, वहां क्या है। पहले तो तुम अंधकार अनुभव करोगे। यह ऐसा है जैसे कि तुम किसी गर्मी के दिन बाहर के तेज प्रकाश से कमरे के भीतर आ जाओ, और तुम अनुभव करो कि हर चीज अंधकारमयी है। लेकिन प्रतीक्षा करना। अंधकार के साथ आंखों को समायोजित होने दो, और जल्दी ही तुम देखने लगोगे घर की चीजों को। तुम लाखों जन्मों से बाहर ही रहे हुए हो। जब पहली बार तुम भीतर आते हो तो वहां अंधकार के और शून्यता के सिवाय कुछ नहीं होता। लेकिन प्रतीक्षा करना। थोड़ा समय लगेगा इसमें। कुछ महीने भी लग सकते हैं, लेकिन प्रतीक्षा करना। आंखें बंद कर लेना और भीतर झांकना हृदय में। अकस्मात एक दिन यह घटता है—तुम देख लेते हो प्रकाश को, उस ज्योति को। तब एकाग्रता करना उस अग्रि की ज्योति पर।

और कुछ इससे ज्यादा आनंदमय नहीं। और कुछ भी ज्यादा नृत्यपूर्ण और गानपूर्ण नहीं है। और कुछ भी तुम्हारे हृदय के भीतर के इस अंतर प्रकाश से ज्यादा संगतिपूर्ण या सुसंगत नहीं होता है। और जितने ज्यादा तुम एकाग्र होते हो, उतने ज्यादा हो जाते हो शांतिमय, मौन, प्रशांत, एकजुट। फिर तुम्हारे लिए कहीं कोई अंधकार नहीं रहता। जब तुम्हारा हृदय प्रकाश से भरा होता है, तो समस्त लोक प्रकाश से भरा होता है। इसीलिए ‘ अंतस के प्रकाश पर भी ध्यान करो, जो उज्जवल और शांत है और सभी दुखों के बाहर।

या, जो वीतरागता को उपलब्ध हो चुका है उसका ध्यान करो।

यह भी! सभी विकल्प पतंजलि तुम्हें दे रहे हैं। वीतराग वह है, जो सारी आकांक्षाओं के पार जा चुका होता है—उस पर भी ध्यान करो। महावीर, बुद्ध, पतंजलि या वह जो तुम्हारी पसंद हो—जरथुस्र, मोहम्मद, क्राइस्ट या कोई भी, जिसके प्रति तुम लगाव और प्रेम अनुभव करते हो। उस पर ध्यान केंद्रित करो, जो आकांक्षाओं—इच्छाओं के पार जा चुका हो। तुम्हारे सद्गुरु पर ध्यान केंद्रित करो, जो इच्छाओं के पार जा चुका है। यह कैसे मदद देगा? यह बात मदद देती है, क्योंकि जब तुम ध्यान करते हो उसका जो आकांक्षाओं के पार जा चुका होता है, तो वह तुम्हारे भीतर एक चुंबकीय शक्ति बन जाता है। तुम उसे तुम्हारे भीतर प्रवेश करने देते हो; वह तुम्हें तुम्हारे से बाहर खींचता है। यह बात उसके प्रति तुम्हारा खुलापन बन जाती है।

यदि तुम ध्यान करते हो उस पर जो आकांक्षाओं के पार जा चुका होता है, तो तुम देर—अबेर उसी की भांति हो जाओगे। क्योंकि ध्यान तुम्हें ध्यान की विषयवस्तु की भांति ही बना देता है। यदि तुम ध्यान लगाते हो धन पर, तो तुम धन की भांति हो जाओगे। जाओ और देखो किसी कंजूस को—उसके पास अब आत्मा नहीं बची है। उसके पास केवल बैंक—बैलेंस है; भीतर कुछ नहीं है उसके। यदि तुम ध्यान से सुनो, तुम सिर्फ सुनोगे नोटों, रुपयों की आवाज। तुम न सुन पाओगे हृदय की किसी धड़कन को।

जिस किसी पर तुम अपना ध्यान देते हो, उसी की भांति हो जाते हो। अत: जागरूक रहना। किसी ऐसी चीज पर ध्यान मत देना जिसकी भांति तुम होना ही न चाहते हो। केवल उसी चीज पर ध्यान देना जिसकी भांति तुम होना चाहते हो, क्योंकि यही है प्रारंभ। बीज बो दिया गया है, ध्यान सहित, और जल्दी ही वह वृक्ष बन जायेगा। तुम नरक के बीज बोते हो और जब वे वृक्ष बन जाते हैं तब तुम पूछते हो, ‘मैं इतना दुखी क्यों हूं? ‘ तुम हमेशा गलत चीज पर ध्यान लगाते हो, तुम हमेशा उसकी ओर देखते हो जो नकारात्मक है। तुम हमेशा ध्यान देते हो, दोषों पर, तब तुम दोषपूर्ण हो जाते हो।

दोष पर ध्यान मत देना। सुंदर पर देना ध्यान। क्यों गिनना कांटों को? क्यों नहीं देखते फूलों को? क्यों गिनना रातों को? क्यों नहीं महत्व देते दिनों को? यदि तुम केवल रातों को ही गिनते हो, तब दो रातें होती है, और केवल एक ही दिन होता है इन दोनों के बीच। यदि तुम दिनों को महत्व देकर उनकी गणना करते हो, तब दो दिन होते हैं और उन दोनों के बीच केवल एक ही रात्रि होती है।

और इससे बहुत अंतर पड़ता है।

यदि तुम प्रकाश होना चाहते हो तो प्रकाश की ओर देखना। अंधेरे की ओर देखना यदि तुम्हें अंधकार ही होना हो तो।

पतंजलि कहते हैं, ‘उस पर ध्यान केंद्रित करो जो वीतरागता को उपलब्ध हो चुका है।’

सद्गुरु खोजना; सद्गुरु को समर्पण करना। उसके प्रति एकाग्र रहना। उसे सुनना, देखना, खाना और पीना। उसे प्रवेश करने दो तुममें, अपने हृदय को उससे आपूरित होने दो। जल्दी ही तुम यात्रा पर चल पड़ोगे, क्योंकि तुम्हारे ध्यान का विषय अंततः तुम्हारे जीवन का लक्ष्य बन जाता है। और सजग दर्शन एक रहस्यपूर्ण संबंध है। एकाग्र ध्यान द्वारा तुम तुम्हारे ध्यान का विषय बन जाते हो।

कृष्णमूर्ति कहे जाते हैं, ‘द्रष्टा दृश्य बन जाता है।’ वे ठीक हैं। जो कुछ तुम ध्यान से देखते हो, तुम वही बन जाओगे। इसलिए सचेत रहना। सजग रहना। कोई ऐसी चीज मत देखने लगना ध्यान से, जो तुम होना ही न चाहते हो। क्योंकि जो तुम देखते हो वही तुम्हारा लक्ष्य होता है। तुम बीज बो रहे होते हो।

वीतरागी के निकट रहना, उस व्यक्ति के जो सारी आकांक्षाओं के पार जा चुका है। उस र्व्याक्ते के सान्निध्य में रहना जिसके पास यहां पूरा करने को अब कुछ नहीं रहा; जो परिपूर्ण हो चुका। उसकी वही पूर्णता ही तुम्हें आप्लावित कर देगी, और वह एक उद्येरक बन जायेगा।

वह कुछ भी नहीं करेगा। क्योंकि वह व्यक्ति जो आकांक्षातीत है, कुछ नहीं कर सकता है। वह तुम्हारी मदद भी नहीं कर सकता क्योंकि मदद भी एक आकांक्षा ही है। उससे बहुत ज्यादा मदद मिलती है, फिर भी वह नहीं करता है तुम्हारी मदद। उत्‍प्रेरक बन जाता है कुछ किये बिना ही।

यदि तुम उसे आने देते हो, वह तुम्हारे हृदय में उतर आता है। और उसकी वही मौजूदगी तुम्हें जोड़ देती है, एक बना देती है।

आज इतना ही।


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अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–3) प्रवचन–15

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धर्म एक आग है—प्रवचन—पंद्रहवां

दिनांक 25 नवंबर, 1976;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

आचक्ष्‍व श्रृणु वा तात नानाशास्त्रोण्यनेकश:।

तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाद्वते।। 146।।

भोगं कर्म समाधिं वा कुरु विज्ञ तथापि ते।

चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थं रोचयिष्यति।। 147।।

आयासत्सकलो दु:खी नैनं जानाति कश्चन।

अनेनैवोयदेशेन धन्य: प्राम्मोति निर्वृतिम्।। 148।।

व्यापारेखिद्यते यस्तु निमेषोत्मेषयोरपि।

तस्यालस्यधुरीणस्थ सुख नान्यस्य कस्यचित्।। 149।।

हदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तं यदा मन:।

धर्मार्श्रकाममोक्षेषु निरयेक्ष तदा भवेत।। 150।!

विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलय।

ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो न रागवान्। 151।।

आचक्ष्‍व श्रृयु वा तात नानाशास्त्रोण्यनेकश:।

तथापि न तव स्वास्थ्य सर्वविस्मरणादृते ।।

अनेक शास्त्रों को अनेक प्रकार से तू कह अथवा सुन, लेकिन सबके विस्मरण के बिना तुझे शांति न मिलेगी, स्वास्थ्य न मिलेगा।’

एक जर्मन विचारक महर्षि रमण के दर्शन को उगया। दूर से आया था, बड़ी आशायें ले कर आया था। उसने रमण के सामने निवेदन किया कि बहुत कुछ आशायें ले कर आया हूं। सत्य की शिक्षा दें मुझे। सिखायें, सत्य क्या है?

रमण हंसने लगे। उन्होंने कहा. फिर तू गलत जगह आ गया। अगर सीखना हो तो कहीं और जा। यहां तो भूलना हो तो हम सहयोगी हो सकते हैं। विस्मरण करना हो तो हम सहयोगी हो सकते हैं। स्कूल है, कालेज है, विश्वविद्यालय है, समाज, सभ्यता, संस्कृति—सभी का जोर सिखाने पर है—सीखो! संस्कार पर। धर्म तो आग है। जला दो सब! भस्मीभूत हो जाने दो सब जो सीखा!

शिक्षा और धर्म में एक मौलिक विरोध है। शिक्षा भरती है संस्कारों से; धर्म करता है शून्य। शिक्षा भरती है स्मृति को; धर्म करता है स्मृति से मुक्त। जब तक कुछ याद है तब तक कांटा गड़ा है। चित्त ऐसा चाहिए कि जिसमें कोई काटा गड़ा न रह जाये। इसका यह अर्थ नहीं कि ज्ञानी को कुछ याद नहीं रहता, कि उसे अपने घर का पता भूल जाता है या अपना नाम—ठिकाना भूल जाता है; या लौट कर आयेगा तो पहचान न सकेगा कि यह मेरी पत्नी है, यह मेरा बेटा है। स्मृति होती है, लेकिन स्मृति मालिक नहीं रह जाती। स्मृति यंत्रवत होती है।

साधारणत: हालत उल्टी है, स्मृति मालिक हो गई है। स्मृति के अतिरिक्त तुम्हारे पास कोई खुला आकाश नहीं। स्मृति के बादलों ने सब ढांक लिया है। तुम गुलाब के .फूल को देखते हो, देख भी नहीं पाते कि तुम्हारी स्मृति सक्रिय हो जाती है; कहती है : गुलाब का फूल है, सुंदर है, पहले भी देखे थे, इससे भी सुंदर देखे हैं। स्मृति ने पर्दे डाल दिये; जो सामने था, चूक गये। यह जो सामने मौजूद था गुलाब का फूल, यह जो उपस्थिति थी परमात्मा की गुलाब के फूल में, इससे संबंध न बन पाया, बीच में बहुत—सी स्मृतियां आ गईं।

कल किसी ने तुम्हें गाली दी थी, आज तुम उसे मिलने गये, राह पर मिल गया या तुम्हारे घर मिलने स्वयं आ गया। कल की गाली अगर बीच में खड़ी हो जाये तो स्मृति के तुम गुलाम हो गये। हो सकता है, यह आदमी क्षमा मांगने आया हो। लेकिन तुम्हारी कल की गाली, इसने कल गाली दी थी, वैसी याद तुम्हें तव्यण बंद कर देगी; तुम इस मनुष्य के प्रति मुक्त न रह जाओगे, खुले न रह जाओगे। इसकी क्षमा में भी तुम्हें क्षमा न दिखाई पड़ेगी, कुछ और दिखाई पड़ेगा. ‘शायद धोखा देने आया। शायद डर गया, इसलिए आया। शायद मैं कहीं बदला न लूं इसलिए आया।’ कल की गाली अगर बीच में खड़ी है तो इस आदमी के भीतर जो क्षमा मांगने का भाव जगा है, वह तुम न देख पाओगे, वह विकृत हो जायेगा। तुम गाली की ओट से देखोगे न, गाली की छाया पड़ जायेगी! कल गाली दे गया था, ऐसा तो ज्ञानी को भी होता है, लेकिन कल की गाली आज बीच में नहीं आती। बस इतना ही फर्क होता है।

शास्त्र पढ़ो, सुनो, लेकिन शास्त्र सत्य के और तुम्हारे बीच में न आये। बीच ‘में आ गया तो स्वास्थ्य तो मिलेगा ही नहीं, तुम और अस्वस्थ हो जाओगे। पंडित और अस्वस्थ हो जाता’ है; भर जाती है बुद्धि बहुत—से शब्दों—सिद्धातों से, लेकिन भीतर सब कोरा का कोरा रह जाता है। प्राण खाली रह जाते, खोपड़ी भर जाती है। खोपड़ी वजनी हो जाती है। प्राण में कुछ भी नहीं होता—राख ही राख! अष्टावक्र के सूत्र अपूर्व हैं! ऐसे दग्ध अंगारों की भांति कहीं और दूसरे सूत्र नहीं हैं। जितनी बार यह दोहराया जाये कि अष्टावक्र के सूत्र महाक्रांतिकारी हैं, उतना ही कम है। सात बार कहो, सतत्तर बार, सात सौ सतत्तर बार, तो भी अतिशयोक्ति न होगी।

इस सूत्र को गहरे से समझें।

‘अनेक शास्त्रों को अनेक प्रकार से तू कह अथवा सुन, लेकिन सबके विस्मरण के बिना तुझे शांति नहीं, स्वास्थ्य नहीं।’

जब तक स्मृति मन पर डोल रही है, मन का आकाश विचारों से भरा है, तब तक शांति कहां! विचार ही तो अशांति है! किन्हीं के मन में संसार के विचार हैं और किन्हीं के मन में परमात्मा के—इससे भेद नहीं पड़ता। किन्हीं के मन में हिंदू विचार हैं, किन्हीं के मन में ईसाइयत के—इससे भेद नहीं पड़ता। किसी ने धम्मपद पढ़ा है, किसी ने कुरान—इससे भेद नहीं पड़ता। आकाश में बादल हैं तो सूरज छिपा रहेगा। बादल न तो हिंदू होते हैं न मुसलमान; न सांसारिक न असांसारिक—बादल तो बस बादल हैं, छिपा लेते हैं, आच्छादित कर लेते हैं।

विचार जब बहुत सघन घिरे हों मन में तो तुम स्वयं को न जान पाओगे। स्वयं को जाने बिना स्वास्थ्य कहां है! स्वास्थ्य का अर्थ समझ लेना। स्वास्थ्य का अर्थ है जो स्वयं में स्थित हो जाये; जो अपने घर आ जाये, जो अपने केंद्र में रम जाये। स्वयं में रमण है स्वास्थ्य। स्व में ठहर जाना है स्वास्थ्य। और अष्टावक्र कहते हैं, तभी शांति है। शांति स्वास्थ्य की छाया है। अपने से डिगा, अपने से स्मृत कभी शांत न हो पायेगा, डांवांडोल रहेगा। डांवांडोल यानी अशांत रहेगा!

और हर विचार तुम्हें स्मृत करता है। हर विचार तुम्हें अपनी धुरी से खींच लेता है।

इसे देखो। बैठे हो शांत, कोई विचार नहीं मन में, तुम कहां हो फिर? जब कोई विचार नहीं तो तुम वहीं हो जहां होना चाहिए। तुम स्वयं में हो। विचार आया, पास से एक स्त्री निकल गई और स्त्री अपने पीछे धुएं की एक लकीर तुम्हारे मन में छोड़ गई। नहीं कि स्त्री को पता है कि तुम इधर बैठे हो, शायद देखा भी न हो। तुम्हारे लिए निकली भी नहीं है। सजी भी होगी तो किसी और के लिए सजी होगी; तुमसे कुछ संबंध भी नहीं है। लेकिन तुम्हारे मन में एक विचार सघनीभूत हो गया—सुंदर है, भोग्य है! पाने की चाह उठी। तुम स्मृत हो गये। तुम चल पड़े। यह विचार तुम्हें ले चला कहीं—स्त्री का पीछा करने लगा। मन में गति हो गई। क्रिया पैदा हो गई। तरंग उठ गई। जैसे शांत झील में किसी ने कंकड़ फेंक दिया! अब तक शांत थी, क्षण भर पहले तक शांत थी, अब कोई शांति न रही। कंकड़ ने तरंगें उठा दीं। एक तरंग दूसरे को उठाती है, दूसरी तीसरी को उठाती है—तरंगें फैलती चली जाती हैं; दूर के तटों तक तरंगें ही तरंगें!

एक छोटा सा कंकड़ विराट तरंगों का जाल पैदा कर देता है। यह स्त्री पास से गुजर गई। जरा—सी तरंग थी, जरा—सा कंकड़ था। लेकिन जिन स्त्रियों को तुमने अतीत में जाना उनकी स्मृतियां उठने लगीं। जिन स्त्रियों को तुमने चाहा उनकी याददाश्त आने लगी। अभी क्षण भर पहले झील बिलकुल शांत थी, कोई कंकड़ न पड़ा था. तुम बिलकुल मौन बैठे थे, थिर, जरा भी लहर न थी। लहर उठ गई।

लेकिन ध्यान रखना, यह लहर स्त्री के कारण ही उठती हो, ऐसा नहीं है। कोई परमहंस पास से निकल गया, सिद्ध पुरुष, उसकी छाया पड़ गई, और मन में एक आकांक्षा उठ गई कि हम भी ऐसे सिद्ध पुरुष कब हो पायेंगे। बस हो गया काम। कंकड़ फिर पड़ गया। कंकड़ परमहंस का पड़ा कि पर—स्त्री का पड़ा, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। फिर चल पड़े। फिर यात्रा शुरू हो गई। मन फिर डोलने लगा।’कब मिलेगा मोक्ष! कब ऐसी सिद्धि फलित होगी!’ वासना उठी, दौड़ शुरू हुई। दौड़ शुरू हुई, अपने से तुम चूके।

जैसे ही मन में एक विचार भी तरंगायित होता है वैसे ही तुम अपनी धुरी पर नहीं रह जाते; तुम इधर—उधर हो जाते हो। फिर जितना प्रबल विचार होता है उतने ही दूर निकल जाते हो।

निर्विचार चित्त में ही कोई स्वस्थ होता है। इसलिए निर्विचार होना ही ध्यान है। निर्विचार होना ही समाधि है। निर्विचार होना ही मोक्ष की दशा है। क्योंकि स्वयं में बैठ गये, कहीं कोई जाना— आना न रहा! अष्टावक्र कहते हैं. न आत्मा जाती, न आती; बस मन आता—जाता है। तुम अगर मन के साथ अपना संबंध जोड़ लेते हो तो तुम्हारे भीतर भी आने—जाने की भ्रांति पैदा हो जाती है। तुम तो वहीं बैठे हो जिस वृक्ष के नीचे बैठे थे। स्त्री नहीं गुजरी थी, परमहंस का दर्शन नहीं हुआ था—तब तुम जहां बैठे थे अब भी वहीं बैठे हो। शरीर वहीं बैठा है, आत्मा भी वहीं है जहां थी; लेकिन मन डांवांडोल हो गया। और मन से अगर तुम्हारा लगाव है तो तुम चल पड़े। न चल कर भी चल पड़े। कहीं न गये और बड़ी यात्रा होने लगी।

कोई अपने स्वभाव से कहीं गया नहीं है। हमने सिर्फ स्वप्न देखे हैं अशांत होने के, हम अशांत हुए नहीं हैं। अशांत हम हो नहीं सकते। शांति हमारा स्वभाव है। लेकिन अशांति के सपने हम देख सकते हैं। अशांत होने की धारणा हम बना सकते हैं। अशांत होने का पागलपन हम पैदा कर सकते हैं। फिर एक पागलपन के पीछे दूसरा पागलपन चला आता है। फिर कतार लग जाती .है।

‘अनेक शास्त्रों को अनेक प्रकार से तू कह अथवा सुन.।’

शास्त्र को कहने और सुनने से भी क्या होगा? नये—नये विचार, नई—नई तरंगें उठेगी। नये —नये भाव उठेंगे। उन नये —नये भावों को प्राप्त करने की आकांक्षा, अभीप्सा उठेगी। उन्हें पूरा करने की जिज्ञासा, मुमुक्षा होगी। नये स्वर्ग, नये मोक्ष की कल्पना सजग हो जाएगी। दौड पैदा होगी। और सत्य तो यहां है, वहां नहीं।

इसलिए कहीं जाने की कोई बात नहीं है। तुम जब कहीं नहीं जाते, तभी तुम सत्य में होते हो। तो अष्टावक्र कहते हैं. ‘लेकिन सबके विस्मरण के बिना शांति नहीं।’

तो स्मरण से शांति नहीं होगी, विस्मरण से होगी। जो जाना है, उसे भूलने से होगी। जानने से कोई नहीं जान पाता, मूलने से जान पाता है। और जब भी तुम ऐसी विस्मरण की दशा में होते हो कि कोई विचार नहीं, बिलकुल भूले, बिलकुल खोये, लुप्त, लीन, तल्लीन—वहीं, उसी क्षण प्रकाश की किरण उतरने लगती है।

कल संध्या ही एक संन्यासी से मैं बात कर रहा था। संन्यासी जार्ज गुरजिएफ के विचारों से प्रभावित रहे हैं। पश्चिम से उनका आना हुआ है और गुरजिएफ की साधना—पद्धति से उन्होंने प्रयोग भी किया है वर्षों से। गुरजिएफ की साधना—पद्धति में एक शब्द है : ‘सेल्फ—रिमेंबरिंग, आत्मॅस्मरण।’ बड़ा कीमती शब्द है। उसका अर्थ वही होता है जो ध्यान का अर्थ होता है। उसका वही अर्थ होता है जो कबीर, नानक और दादू की भाषा में सुरति का होता है। स्वयं की स्मृति यानी सुरति। लेकिन शब्द में खतरा भी है, क्योंकि हम जिन लोगों से बात कर रहे हैं उनसे अगर कहो स्वयं की स्मृति सेल्फ—रिमेंबरिंग तो खतरा है, क्योंकि उन्हें स्वयं का तो कोई पता नहीं है, वे स्वयं की स्मृति कैसे करेंगे? वे तो उसी स्वयं की स्मृति कर लेंगे, जिसको वे जानते हैं। उनका ‘स्वयं’ तो उनका अहंकार है। तो सेल्फ—रिमेंबरिंग, आत्मस्मरण, आत्मस्मरण तो न बनेगा, अहंकार की पुष्टि हो जाएगी।

तो मैंने उस संन्यासी को कहा कि तुम कुछ दिन के लिए यह बात ही भूल जाओ। मैं तो तुमसे कहता हूं आत्मविस्मरण। कुछ दिनों के लिए तो तुम अपने को भूलना शुरू करो। यह याद करने की बात ठीक नहीं है। जब एक बार भी तुम अपने को बिलकुल भूल जाओगे, कोई सुध—बुध न रहेगी, ऐसी मस्ती में आ जाओगे, उसी क्षण किरण उतरेगी और आत्मस्मरण जागेगा। आत्मस्मरण तुम्हारे किए नहीं होगा। आत्मा की स्मृति तो उठेगी तब, जब तुम सब विस्मरण कर दोगे।

यह बात बड़ी विरोधाभासी मालूम पड़ती है और आगे के सूत्र और भी विरोधाभासी हैं, इसलिए विरोधाभास को समझ लेना। जीवन में एक बड़ा गहरा नियम है, और वह नियम यह है कि बहुत ऐसी घटनाएं हैं कि जब तुम जो चाहते हो उसका उल्टा परिणाम होता है।

जैसे एक आदमी रात सोना चाहता है और सोने के लिए बहुत चेष्टा करता है, उसकी हर चेष्टा सोने में बाधा बन जाती है। करता तो कोशिश सोने की है, लेकिन जितनी कोशिश करता है उतनी ही नींद मुश्किल हो जाती है। क्योंकि नींद के लिए सब प्रयास छूट जाना चाहिए, तभी नींद आती है। नींद लाने का प्रयास भी नींद के आने में बाधा है।

तो अक्सर ऐसा हो जाता है कि जिन लोगों को नींद नहीं आती, उनका असली उपद्रव यही है कि वे नींद लाने की बड़ी कोशिश करते हैं। भेड़ें गिनते हैं, मंत्र पढ़ते हैं, न मालूम क्या—क्या उपाय करते हैं; जो जो बता देता है, उसका उपाय करते हैं। लेकिन जितने उपाय करते हैं, उतने ही जागे हो जाते हैं, क्योंकि हर उपाय जगाता है। चेष्टा तो श्रम है। श्रम तो कैसे विराम में जाने देगा?

मेरे पास कोई आ जाता है, जिसे नींद नहीं आती। और जब मैं उसे पहली दफा सलाह देता हूं तो वह चौंक कर कहता है : ‘आप कह क्या रहे हैं? मैं वैसे ही मरा जा रहा हूं और आपकी बात मान लूंगा तो और झंझट हो जायेगी।’ मैं उससे कहता हूं : ‘नींद नहीं आती तो चार मील का चक्कर लगाओ, दौड़ो।’ वह कहता है. ‘आप कह क्या रहे हैं, वैसे ही तो मैं परेशान हूं, दौड़ से तो और मुश्किल हो जायेगी। थोड़ी—बहुत जो आ भी रही थी, वह भी चली जायेगी; मैं और ताजा हो जाऊंगा।’ मैं उससे कहता हूं: ‘तुम प्रयोग करके देखो।’

जीवन में कई नियम विरोधाभासी हैं। तुम दौड़ कर जब थके—मांदे आओगे, नींद आ जायेगी। इसलिए तो जो दिन भर में थक गया है, उसे रात नींद आ जाती है। जो दिन भर विश्राम करता रहा, उसे नींद नहीं आती। अगर जिंदगी तर्क से चलती होती हो जो दिन भर अपनी आराम कुर्सी पर रहा है, बिस्तर पर लेटा रहा, उसको गहरी नींद आनी चाहिए रात में, क्योंकि दिन भर अभ्यास किया है नींद का तो रात में नींद गहरी हो जानी चाहिए। लेकिन जीवन गणित नहीं है। जीवन बड़ा विरोधाभासी है। जो दिन भर मिट्टी खोदता रहा, पत्थर तोड़ता रहा, वह रात घर्राटे ले कर सोता है। और जिसने दिन भर विश्राम किया, वह रात भर जागा रहता है, नींद आती नहीं। मगर इस विरोधाभास में बात सीधी है। जब तुमने दिन भर विश्राम कर लिया तो विश्राम की जरूरत न रही। जिसने दिन भर विश्राम नहीं किया, उसने विश्राम की जरूरत पैदा कर ली। जीवन उल्टे से चलता है।

तो अगर स्वयं की स्मृति लानी हो तो स्वयं को स्मरण करने का प्रयास भर मत करना, अन्यथा भटक हो जायेगी, भूल हो जायेगी, बड़ी भ्रांति होगी। तुम तो विस्मरण करना। डूब जाना कीर्तन में, कि नृत्य में, कि गान में, कि संगीत में। तुम भूल ही जाना अपने को, बिलकुल भूल जाना, विस्मरण कर देना। यह भी भूल जाना, कौन हो तुम, क्या तुम्हारा पता—ठिकाना, जानते नहीं जानते, पंडित— अपडित, पुण्यात्मा—पापी—सब भूल जाना। ऐसे छंदबद्ध हो जाना किसी घड़ी में कि कुछ भी याद न रहे। सब पांडित्य भूल जाये, सब पुण्य एक तरफ रख देना—जहां जूते उतार आये वहीं पुण्य भी, वहीं पांडित्य भी, वहीं छोड़ आना सारी अस्मिता और अहंकार को और डूब जाना। अचानक तुम पाओगे, उसी डुबकी में से कोई चीज उभरने लगी। तुम्हारे भीतर एक नया प्रकाश आने लगा। बादल छंट गये, सूरज दिखाई पड़ने लगा। आत्मस्मरण हुआ।

विस्मरण की प्रक्रिया से होता है आत्मस्मरण। और शान की भी प्रक्रिया वही है। जो याद करने में लगे रहते हैं, वे भूल जाते हैं। जो जितनी ज्यादा याद करने की चेष्टा करते हैं उतनी ही भूल हो जाती है। जो भूल जाते, उन्हें याद आ जाता है।

यह धर्म की आधारशिला है—यह विरोधाभासी जीवन की प्रक्रिया। इसलिए धर्म के सारे सूत्र पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी हैं। और धर्म में तुम तर्क मत खोजना, नहीं तो चूक हो जायेगी।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सुबह—सुबह अपने डाक्टर के घर गया, खांसता—खखारता भीतर प्रवेश किया। डाक्टर ने कहा : ‘ आज तो खांसी कुछ ठीक मालूम होती है।’ उसने कहा ‘होगी क्यों नहीं, सात दिन से अभ्यास जो कर रहा हूं! ठीक मालूम क्यों न होगी? रात भर अभ्यास किया है।’ तुम जो अभ्यास कर रहे हो, तुम्हारे अभ्यास से तुम्हीं तो मजबूत होओगे न! रात भर अगर खांसी का अभ्यास किया है तो खांसी मजबूत हो गई। अगर तुमने आत्मस्मरण का अभ्यास किया तो तुम जिससे आत्मस्मरण का अर्थ लेते हो, वही तो मजबूत हो जायेगा। तुम्हारा तो अहंकार ही तुम समझते हो आत्मा है। तुम्हारा तो अज्ञान ही तुम समझते हो आत्मा है। वही और मजबूत हो कर बैठ गया। तो जितना तुम आत्मस्मरण का अभ्यास करने लगे, वस्तुत: उतना ही वास्तविक आत्मा का विस्मरण हो गया। तुम्हारा यह झूठा स्मरण हटे, यह झूठे का विस्मरण हो, तो सत्य का स्मरण हो जाये। झूठ हटे तो सत्य अपने से प्रगट हो जाये। सूरज तो मौजूद है, बादल हटने चाहिए। बादल हट गये कि सूरज प्रगट हो गया। सूरज को प्रगट थोड़े ही करना है, सूरज प्रगट ही है।

अष्टावक्र कहते हैं कि ज्ञान तो मनुष्य का स्वभाव है, इसलिए शास्त्र में कहां खोजता है! शास्त्र से अगर सीख लेगा कुछ तो पर्तें बन जायेंगी स्मृति की और उन्हीं के नीचे वह तेरा जो स्वाभाविक था वह दब जायेगा। स्वभाव को प्रगट होने दे। बाहर से मत ला, भीतर से आने दे।

ज्ञान, जिसको हम कहते हैं, वह तो बाहर से आता है। समझो कि मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं या तुम अष्टावक्र की गीता ही पढ़ो, तो भी बाहर से कुछ आ रहा है। मैंने तुमसे कुछ कहा, बाहर से कुछ आया। इसे तुमने इकट्ठा कर लिया। यह तुम्हारा स्वभाव तो नहीं है। यह तो बाहर से आयो, विजातीय है। यह विजातीय अगर बहुत इकट्ठा हो गया तो तुम्हारे भीतर जो पड़ा हुआ था उसके प्रगट होने में अड़चन हो जायेगी। यह बाधा बन जायेगा।

जैसे हम कुआ खोदते हैं तो पानी तो है ही, पानी थोड़े ही हमें लाना पड़ता है कहीं से। पानी तो जमीन के नीचे बह ही रहा है। उसके झरने भरे हैं। हम इतना ही करते हैं कि बीच की मिट्टी की पर्तों को अलग कर देते हैं, पानी प्रगट हो जाता है।

अष्टावक्र कहते हैं, ज्ञान तो स्वभाव है। उसके तो झरने तुम्हारे भीतर हैं ही। तुम बस जो बीच में मिट्टी की पर्तें जम गई हैं, उन्हें अलग कर दो। और मिट्टी की बड़ी से बड़ी पर्तें जम गई हैं ज्ञान के कारण। किसी की पर्त वैद से बनी, किसी की कुरान से, किसी कि बाइबिल से, किसी ने कहीं से सुन कर इकट्ठा किया, किसी ने कहीं से सुन कर इकट्ठा किया। बिना जाने तुमने सुन—सुन कर जो इकट्ठा कर लिया है, उसे भूलो।

तथापि न तव स्वास्थ्य सर्वविस्मरणादृते।

‘जब तक तू सब न भूल जाये तब तक तुझे स्वास्थ्य उपलब्ध न होगा।’

लेकिन हमारा तो शब्द पर बड़ा भरोसा है और हमें शब्द के माधुर्य में बड़ी प्रीति है। शब्द मधुर होते भी हैं। शब्द का भी संगीत है और शब्द का भी अपना रस है। इसलिए तो काव्य निर्मित होता है। इसलिए शब्द की जरा—सी ठीक व्यवस्था से संगीत—निर्माण हो जाता है। फिर शब्द में हमें रस है क्योंकि शब्द में बडे तर्क छिपे है। और तर्क हमारे मन को बड़ी तृप्ति देता है। अंधेरे में हम भटकते हैं, वहां तर्क से हमें सहारा मिल जाता’ लगता है कि चलो कुछ नहीं जानते; लेकिन कुछ तो हिसाब बंधने लगा, कुछ तो’ बात पकड में आने लगी, एक धागा तो हाथ में आया, तो धीरे— धीरे इसी धागे के सहारे और भी पा लेंगे। और हमारा छपे हुए शब्द पर तो बड़ा ही आग्रह है।

एक मित्र मुझे मिलने आये। वे कहने लगे. ‘आपने जो बात कही, वह किस शास्त्र में लिखी है?’ मैंने कहा ‘किसी शास्त्र में लिखी हो तो सही हो जायेगी? सिर्फ लिखे होने से सही हो जायेगी? अगर सही है तो लिखी न हो शास्त्र में तो भी सही है और गलत है तो सभी शास्त्रों में लिखी हो तो गलत है। बात को सीधी क्यों नहीं तौलते?’ वे कहने लगे : ‘वह तो ठीक है, लेकिन फिर भी आप यह बतलाये कि किस शास्त्र में लिखी है?’ तो मैंने उसे कहा कि मुल्ला नसरुद्दीन की दुर्घटना हो गई, कार टकरा गई एक ट्रक से, बड़ी चोट लगी। अस्पताल में भर्ती हुआ। डाक्टर ने मरहम—पट्टी की और कहा कि ‘घबरा मत नसरुद्दीन, कल सुबह तक बिलकुल ठीक हो जाओगे। बड़े मियां, सुबह तशरीफ ले जाना।’ लेकिन दूसरे दिन सुबह डाक्टर भागा हुआ अंदर आया और बोला कि बड़े मियां, रुको—रुको, कहां जा रहे हो? अभी— अभी अखबार में मैंने पढ़ा है कि आपका जबर्दस्त ऐक्सीडेन्ट हुआ है, मुझे दुबारा देखना पड़ेगा।

अखबार में जब पढ़ा तब बात और हो गई!

रामकृष्ण कहते थे कि उनका एक शिष्य था, वह सुबह अखबार पढ़ रहा था। उसकी पत्नी बोली. ‘क्या अखबार पढ़ रहे हो! अरे रात पडोस में आग लग गई!’ उसने कहा. ‘अखबार में तो खबर ही नहीं है, बात झूठ होगी।’ पड़ोस में आग लगी, मगर वह आदमी अखबार में देख रहा है!

हमें छपी बात पर बड़ा भरोसा है। इसलिए तो बात को छाप कर धोखा देने का उपाय बड़ा आसान है। इसलिए तो विज्ञापन इतना प्रभावी हो गया है दुनिया में। छपा हुआ विज्ञापन एकदम प्रभाव लाता है। बड़े —बड़े अक्षरों में लिखी हुई बात एकदम छाती में प्रवेश कर जाती है। बड़े अक्षर को इंकार कैसे करो! जब इतना छपा हुआ है तो ठीक ही होगा। छपी बात कहीं गलत होती है! और अगर बड़े —बड़े लोग, प्रतिष्ठा है जिनकी, साख है जिनकी, बात को कह रहे हों तब तो फिर गलत होती ही नहीं।

लेकिन सत्य का छपे होने से क्या संबंध है? शब्द से हमारा मोह थोड़ा क्षीण होना चाहिए। सत्य का संबंध शून्य से ज्यादा है, निःशब्द से ज्यादा है। परमात्मा की कोई भाषा तो नहीं, लेकिन सब दुनिया के धर्म दावा करते हैं। हिंदू कहते हैं ‘संस्कृत देववाणी है। वह परमात्मा की भाषा है।’ यहूदी कहते हैं ‘हिलू परमात्मा की भाषा है।’ मुसलमानों से पूछो तो कहेंगे : ‘ अरबी।’ जैनों से पूछो तो कहेंगे ‘प्राकृत।’ बौद्धों से पूछो तो कहेंगे ‘पाली।’

दूसरे महायुद्ध में एक जर्मन और एक अंग्रेज जनरल की बात हो रही थी युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद। वह जर्मन जनरल पूछ रहा था कि मामला क्या है, हम हारते क्यों चले गये? हमारे पास तुमसे बेहतर युद्ध की साधन—सामग्री है, ज्यादा वैज्ञानिक। तकनीकी दृष्टि से हम तुमसे ज्यादा विकसित हैं, तो फिर हम हारे क्यों?

तो उस अंग्रेज ने कहा. हार का कारण और है। हम युद्ध के पहले परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

जर्मन बोला: यह भी कोई बात हुई! प्रार्थना तो हम भी करते हैं।

वह अंग्रेज हंसने लगा। उसने कहा कि करते होओगे, लेकिन कभी सुना तुमने कि परमात्मा को जर्मन भाषा आती है? अंग्रेजी में की थी प्रार्थना?

हर भाषा का बोलने वाला सोचता है कि उसकी भाषा परमात्मा की भाषा है, देववाणी! इलहाम की भाषा!

कोई भाषा परमात्मा की नहीं है। सब भाषायें आदमी की हैं। परमात्मा की भाषा तो मौन है। तो परमात्मा—रचित कोई भी शास्त्र तो हो नहीं सकता। सब शास्त्र मनुष्य के रचित हैं। हिंदू कहते हैं, वेद अपौरुषेय हैं, पुरुष ने नहीं बनाये। मुसलमान कहते हैं, कुरान उतरी, बनाई नहीं गई। सीधी उतरी आकाश से! मुहम्मद ने झेली, यह बात और; मगर बनाई नहीं। इलहाम हुआ, वाणी का अवतरण हुआ।

इस तरह के दावे सभी करते हैं। इन दावों के पीछे एक आकांक्षा है कि अगर हम यह दावा कर दें कि हमारा शास्त्र परमात्मा का है तो लोग ज्यादा भरोसा करेंगे। परमात्मा का है तो भरोसे योग्य हो जायेगा। फिर ये सारे दावेदार स्वभावत: यह भी दावा करते हैं कि दूसरे का शास्त्र परमात्मा का नहीं है, क्योंकि अगर सभी शास्त्र परमात्मा के हैं तो फिर दावे का कोई मूल्य नहीं रह जाता। तो कुरान वेद के खंडन में लगा रहता है; वेद कुरान के खंडन में लगे रहते हैं। हिंदू मुसलमान से विवाद करते रहते हैं, ईसाई हिंदू से विवाद करते रहते हैं। यह विवाद चलता रहता है।

शास्त्र से विवाद पैदा हुआ है, सत्य तो पैदा नहीं हुआ। और शास्त्र से संघर्ष पैदा हुआ है, संप्रदाय पैदा हुए हैं, लोग बंटे और कटे और हिंसा और हत्या हुई है।

परमात्मा की भाषा मौन है। इसका यह अर्थ नहीं है कि शब्द कोई शैतान की भाषा है। इसका इतना ही अर्थ है कि सत्य तो तभी अनुभव होता है जब कोई मनुष्य परिपूर्ण मौन को उपलब्ध होता है। लेकिन जब मनुष्य कहना चाहता है तो उसे माध्यम का सहारा लेना पड़ता है। तब जो उसने जाना है वह उसे शब्द में रखता है; बस रखने में ही अधिक तो समाप्त हो जाता है।

ऐसा ही समझो कि तुम गये समुद्र के तट पर और तुमने उगजे सूरज को देखा, फैली देखी लाली तुमने सारे सागर पर, पक्षियों के गीत, सुबह की ताजी हवा, मदमस्त तुम हो गये! तुमने चाहा कि घर आओ, अपनी पत्नी—बच्चों को भी यह खबर दो। तो तुमने एक कागज पर चित्र बनाया सूरज के उगने का, पानी की लहरों का, वृक्ष हवा में झुके—झुके जा रहे हैं! वह चित्र ले कर तुम घर आये। क्या तुम्हारा चित्र वही खबर लायेगा जो तुम्हें अनुभव हुआ था? तुम्हारा चित्र तो मर गया; यद्यपि तुम्हारा चित्र तुम्हारे अनुभव से पैदा हुआ, तुमने सागर देखा, सुबह का उगता सूरज देखा। लेकिन जैसे ही तुमने इस अनुभव को कागज पर उतारा, यह तो मुर्दा हो गया। या कि तुम एक संदूक में बंद करके ला सकते हो? सागर की हवा, सूरज की किरणें, एक संदूक में बंद कर लेना, घर ले आना ताला लगा कर—जब घर आ कर खोलोगे तो संदूक खाली मिलेगी। न तो ताजी हवा होगी और न धूप की किरणें होंगी।

अंधेरे को तो पालतू बना भी लो, धूप को तो बंद नहीं किया जाता। धूप तो बंद होते ही मर जाती है। सौंदर्य को कैसे बांध कर लाओगे? कविता लिखोगे? गीत बनाओगे?

अब हमारे पास और भी बेहतर साधन हैं, सुंदर से सुंदर और बहुमूल्य से बहुमूल्य कैमरा ले जा सकते हो। रंगीन चित्र ले आ सकते हो। फिर भी चित्र मरा हुआ होगा। चित्र में कोई प्राण तो न होंगे। वह जो सूरज वहां उगा था, बढ़ रहा था, उठा जा रहा था आकाश की तरफ। तुम्हारे चित्र का सूरज तो रुका हुआ होगा, वह तो फिर बढेगा नहीं। वह जो सूरज तुमने सागर पर देखा था, वह थोड़ी देर बाद, दोपहर का सूरज हो जायेगा, थोड़ी देर बाद सांझ का हो जायेगा, डूबेगा, अस्त हो कर अंधेरे में खो जायेगा, विराट अंधकार छा जायेगा। तुम्हारा चित्र तो अटका रह गया। वह तो फिर दोपहर नहीं होगी, सांझ नहीं होगी, अंधेरा नहीं घिरेगा। तुम्हारा चित्र तो मरा हुआ है। वह तो एक क्षण की खबर है। जो तुमने देखा था, वह जीवंत था। उस जीवंत को तुमने सिकोड़ लिया एक मुर्दा फोटोग्राफ में और बंद कर लिया। वह एक क्षण की खबर है! वह वास्तविक नहीं।

तुम्हें कई बार यह अनुभव हुआ होगा—अनेक लोगों को अनुभव होता है। फोटोग्राफर आ कर तुम्हारा फोटो उतारता है और तुम कहते हो. नहीं, जंचता नहीं। अब फोटोग्राफ झूठा तो हो ही नहीं सकता, एक बात। क्योंकि कैमरे को कुछ तुमसे दुश्मनी नहीं है। कैमरा तो वही कहेगा जो था। फिर भी तुम कहते हो, मन भरता नहीं; नहीं, यह मेरे चेहरे जैसा चेहरा लगता नहीं, बात क्या है? बात इतनी ही है कि तुमने अपने चेहरे को जब भी दर्पण में देखा है तो वह जीवित था। तुम्हारी जो भी याददाश्त है, वह जीवित चेहरे की है और यह फोटोग्राफ तो मरा हुआ है। इससे जीवित और मुर्दे में मेल नहीं बैठता।

जो शून्य में जाना है, जब शब्द में कहा जाता है तो बस इतना ही अंतर हो जाता है। अंतर बड़ा है। यद्यपि निश्चित ही यह चित्र तुम्हारा ही है, तुम्हारे ही चेहरे की खबर देता है, तुम्हारे ही नाक—नक्या की खबर देता है, किसी और का चित्र नहीं है, बिलकुल तुम्हारा है, फिर भी तुम्हारा नहीं है; क्योंकि तुम जीवित हो और यह चित्र मुर्दा है। तो शब्द भी ऐसे तो अनुभव से ही आते हैं, लेकिन शब्द के माध्यम से जब सत्य गुजरता है तो कुछ विकृत हो जाता है।

तुमने देखा, एक सीधे डंडे को पानी में डालो, पानी में जाते ही तिरछा मालूम होने लगता है। पानी का माध्यम, सूरज की किरणों का अलग ढंग से गुजरना, सीधा डंडा तिरछा मालूम होने लगता है पानी में। बाहर खींचो, सीधा का सीधा! फिर पानी में डालो, फिर तिरछा। वैज्ञानिक से पूछो। वह कहता है, किरणों के नियम से ऐसा होता है। किसी नियम से होता हो, लेकिन एक बात पक्की है कि सीधा डंडा पानी में डालने पर तिरछा दिखाई पड़ने लगता है, झुक जाता है।

सत्य को जैसे ही शब्द में डाला, तिरछा हो जाता है, सीधा नहीं रह जाता; हिंदू बन जाता, मुसलमान बन जाता, ईसाई बन जाता, जैन बन जाता, सत्य नहीं रह जाता है। सत्य को जैसे ही शब्द में डालो, संप्रदाय बन जाता है, सिद्धात बन जाता है, सत्य नहीं रह जाता। और फिर उसको तुम याद कर लो तो अड़चन होती है।

शब्द भी परमात्मा के हैं, इससे कोई इंकार नहीं। शब्द भी उसी के हैं, क्योंकि सभी उसी का है। लेकिन फिर भी शब्द से जिसने परमात्मा की तरफ जाने की कोशिश की वह मुश्किल में पड़ेगा।

ऐसा ही समझो कि तुम राह से गुजर रहे हो, राह पर तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया बन रही है—छाया निश्चित ही तुम्हारी है; लेकिन अगर मैं तुम्हारी छाया को पकडूं तो तुम्हें कभी न पकड़ पाऊंगा। फिर भी मैं यह नहीं कह सकता कि छाया तुम्हारी नहीं है। छाया तुम्हारी ही है। तो भी छाया को पकड़ने से तुम्हें न पकड़ पाऊंगा। ही, उल्टी बात हो सकती है. तुम्हें पकड़ लूं तो तुम्हारी छाया पकड़ में आ जाये।

रामतीर्थ एक घर के सामने से निकलते थे और एक छोटा बच्चा—सर्दी की सुबह होगी, धूप निकली थी और धूप में धूप ले रहा था—उसको अपनी छाया दिखाई पड़ रही थी, उसको पकड़ने को वह बढ़ रहा था और पकड़ नहीं पा रहा था तो बैठ कर रो रहा था। उसकी मां उसे समझाने की कोशिश कर रही थी कि पागल… रामतीर्थ खड़े हो कर देखने लगे। लाहौर की घटना है। खड़े हो कर देखने लगे। देखा कि बच्चे की चेष्टा, मां का समझाना—लेकिन बच्चे की समझ में नहीं आ रहा है। आये अंदर आगन में और उस बच्चे का हाथ पकड़ कर बच्चे के सिर पर रखवा दिया। जैसा ही बच्चे ने अपने सिर पर हाथ रखा, उसने देखा छाया में भी उसका हाथ सिर पर पड़ गया है। वह खिलखिला कर हंसने लगा। रामतीर्थ ने कहा. तेरे माध्यम से मुझे भी शिक्षा मिल गई। छाया को पकड़ो तो पकड़ में नहीं आती; मूल को पकड़ लो तो छाया पकड़ में आ जाती है। छाया को पकड़ने से मूल पकड़ में

नहीं आता।

अगर निःशब्द समझ में आ जाये तो सब शब्द समझ में आ जाते हैं। अगर निःशब्द का अनुभव हो जाये तो सभी शास्त्रों की व्याख्या हो जाती है; सभी शास्त्र सत्य सिद्ध हो जाते हैं। लेकिन शास्त्र को पकड़ने से मूल की पकड़ नहीं आती।

शब्द तुमने रचे

जैसे मेंहदी रची

जैसे बैंदी रखी

शब्द तुमने रचे

प्रेम अक्षर थे ये दो अनर्थ के

अर्थ तुमने दिया

मैं, यह जो ध्वनि थी

अंध बर्बर गुफाओं की

अपने को भर कर

उसे नूतन अस्तित्व दिया

बाहों के घेरे

ज्यों मंडप के फेरे

ममता के स्वर

जैसे वेदी के मंत्र

गुंजरित मुंह अंधेरे

शब्द तुमने रचे

जैसे प्रलयंकर लहरों पर

अक्षयवट का एक पत्ता बचे

शब्द तुमने रचे।

शब्द भी आते तो उसी मूल स्रोत से हैं जहां से मौन आता है।

शब्द तुमने रचे

वे भी प्रभु के हैं। शास्त्र भी उसके हैं। लेकिन ध्यान रहे, शास्त्र से उसकी तरफ जाने का मार्ग नहीं है। उसकी तरफ से आओ तो शास्त्र को समझने की सुविधा है।

इसलिए मैं एक बात तुमसे कहना चाहूंगा : शास्त्र को पढ़ कर किसी ने कभी सत्य नहीं जाना; लेकिन जिसने सत्य जाना उसने सब शास्त्र जान लिए। शास्त्र को पढ़ने का मजा सत्य को जानने के बाद है, यह तुम्हें अनूठा लगेगा। क्योंकि तुम कहोगे, फिर पढ़ने का सार क्या! लेकिन मैं तुमसे फिर कहता हूं शास्त्र को पढ़ने का मजा सत्य को जानने के बाद है। एक बार तुमने सत्य को जान लिया थोड़ा स्वाद मिल गया; फिर तुम्हें जगह—जगह उसकी ही झलक मिलेगी। फिर छाया पकड़ में आने लगेगी। फिर तुम पढ़ो गीता को, पढ़ो कुरान को, पढ़ो धम्मपद को—अचानक तुम पाओगे. ‘अरे वही! ठीक!’ तुम्हारे प्राणों से अचानक स्वीकार का भाव उठेगा कि ठीक यही, यही तो मैंने भी जाना!

सब शास्त्र तुम्हारे गवाही हो जायेंगे। शास्त्र साक्षी हैं।

और जिन महामुनियों ने शास्त्रों को रचा, उन्होंने इसलिए नहीं रचा है कि तुम कंठस्थ करके ज्ञानी हो जाओ। उन्होंने इसलिए रचा है कि जब तुम्हें स्वाद लगे तब तुम्हें गवाहियां मिल जायें। तुम अकेले न रहो रास्ते पर। ऐसा न हो कि तुम घबरा जाओ कि यह क्या हो रहा है! यह किसी को हुआ पहले कि नहीं हुआ? जो मुझे हो रहा है, वह कल्पना तो नहीं है? जो मुझे हो रहा है, वह कोई मन— का जाल ही तो नहीं है? जो मुझे .हो रहा है, वह मैं ठीक रास्ते पर चल रहा हूं या भटक गया हूं?

शास्त्र तुम्हारी गवाहियां हैं। जब तुम अनुभव करने लगोगे तो शास्त्र तुम्हें सहारा देने लगेंगे। और शास्त्र तुम्हें हिम्मत देंगे, पीठ थपथपायेंगे कि तुम ठीक हो, ठीक रास्ते पर हो, ऐसा ही हुआ है,. ऐसा ही सदा होता रहा है—और आगे बढ़े चलो! जैसे—जैसे तुम आगे बढ़ोगे सत्य की तरफ, वैसे—वैसे तुम्हें शब्द में भी उसी की छाया और झलक मिलने लगेगी।

ऐसा समझो, अगर मैं तुम्हें जानता हूं तो तुम्हारे फोटोग्राफ को भी पहचान लूंगा। इससे उल्टी बात जरूरी नहीं है। तुम्हारे फोटोग्राफ को पहचानने से तुम्हें जान लूंगा, यह पक्का नहीं है। क्योंकि फोटोग्राफ तो थिर है। तुम्हारे बचपन का चित्र आज तुम्हारे चेहरे से कोई संबंध नहीं रखता। तुम तो जा चुके आगे, बढ़ चुके आगे। और एक ही आदमी के चित्र अलग— अलग ढंग से लिए जायें, अलग— अलग कोण से लिए जायें, तो ऐसा मालूम होने लगता है कि अनेक आदमियों के चित्र हैं।

ऐसा हुआ, स्टेलिन के जमाने की घटना है। एक आदमी ने चोरी की और उसके दस चित्र—उसी एक आदमी के दस चित्र— एक बांये से, एक दाये से, एक पीछे से, एक सामने से, एक इधर से, एक उधर से, दस चित्र उसके भेजे गये पुलिस स्टेशन में कि इस आदमी का पता लगाओ। सात दिन बाद जब पूछताछ की गई कि पता लगा? तो उन्होंने कहा कि दसों आदमी बंद कर लिए गये। दसों! वे एक आदमी के चित्र थे। उन्होंने कहा कि अब बहुत देर हो चुकी, क्योंकि दसों ने स्वीकार भी कर लिया है अपराध। तो रूस की तो हालत ऐसी है कि जो चाहो स्वीकार करवा लो। अब तो देर हो चुकी है, उन्होंने कहा, कि वे दस स्वीकार भी कर चुके, दस्तखत भी कर चुके कि ही, उन्होंने ही चोरी की है। दस आदमी पकड़ लिए एक आदमी के चित्र से! यह संभव है। इसमें अड़चन नहीं है।

तुम्हीं कभी अपने अलबम को उठा कर देखो। अगर गौर से देखोगे तो तुम्हीं कहोगे, तुम कितने बदलते जा रहे हो! कितने बदलते जा रहे हो! दो—चार—दस साल के बाद तुम्हें मित्र मिल जाता है तो पहचान में नहीं आता।

मुल्ला नसरुद्दीन एक पुल पर से गुजर रहा था। उसने सामने एक आदमी को देखा। जा कर जोर से उसकी पीठ पर धप्पा मारा और कहा. ‘ अरे प्यारे, बहुत दिन बाद दिखे, कई साल बाद दिखे!’ वह आदमी बहुत चौंका भी, गिरते—गिरते बचा भी। यह कौन प्रेमी मिल गया! उसने लौट कर देखा, कुछ पहचान में भी नहीं आया। तो उसने कहा कि क्षमा करिए, शायद आप किसी और आदमी के धोखे में हैं।

‘अरे’, मुल्ला ने कहा, ‘तुम मुझे मत चराओ! हालांकि यह मैं देख रहा हूं कि तुम बड़े मोटे—तगड़े थे, एकदम दुबले हो गये। इतना ही नहीं, तुम छ: फीट लंबे थे, एकदम पांच फीट के हो गये! मगर तुम मुझे धोखा न दे सकोगे। तुम वही हो न अब्दुल रहमान?’

उस आदमी ने कहा : ‘ क्षमा करिए, मेरा नाम फरीद है।’ उसने कहा : ‘हद हो गई, नाम भी बदल लिया! मगर तुम मुझे धोखा न दे सकोगे।’

दस साल के बाद मित्र को भी पहचानना मुश्किल हो जाता है। दस साल के बाद अपने बेटे को भी पहचानना मुश्किल हो जाता है। दस साल अगर देखो न..। रोज—रोज देखते रहते हो, इसलिए आसानी है; क्योंकि रोज—रोज धीरे — धीरे परिवर्तन होता रहता है और तुम धीरे — धीरे परिवर्तन से राजी होते जाते हो।

नहीं, चित्र से पता लगाना संभव नहीं। ही, असली आदमी पता हो तो चित्रों में उसकी झलक तुम खोज ले सकते हो। असली से छाया का सदा पता मिल जाता है।

इस सूत्र का इतना ही अर्थ है कि तुम शब्दों में मत खो जाना, निःशब्द की तलाश करना। और निःशब्द की तलाश करना हो तो शास्त्र को, सिद्धात को, फिलासफी को विस्मरण करना।

‘हे विश, भोग, कर्म अथवा समाधि को भला साधे, तो भी तेरा चित्त उस स्वभाव के लिए जिसमें सब आशायें लय होती हैं, अत्यंत लोभायमान रहेगा।’

यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। अष्टावक्र कहते हैं कि तू चाहे शास्त्र को पढ़ कर कितना ही ज्ञानी हो जा, विज्ञ बन जा, महाज्ञानी हो जा; तू शास्त्र को पढ़ कर कितना ही भोग कर ले, कर्म कर ले; इतना ही नहीं, समाधि को भी साध ले शास्त्र को पढ़ कर—तो भी तू पायेगा कि तेरे भीतर स्वास्थ्य को पाने की आकांक्षा अभी बुझी नहीं; स्वयं होने की आकांक्षा अभी प्रज्वलित है। क्योंकि समाधि को भी तू पा ले शास्त्र को पढ़ कर, सम्हाल ले अपने को, शांत भी बना ले, जर्बदस्ती ठोकपीट कर बैठ जा बुद्ध की तरह आसन में, शरीर को, मन को समझा—बुझा कर, बाध—बांध कर व्यवस्था में, अनुशासन में किसी तरह चुप भी कर ले—तो भी तू स्वस्थ न हो पायेगा।

भोग कर्म समाधि वा कुरु विज्ञ तथापि ते

चाहे तू भोग कर, कर्म कर, चाहे तू समाधि को साध ले, शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर…।

चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थ रोचयिष्यति।

फिर भी तेरे भीतर तू जानता ही रहेगा कि अभी मूल से मिलन नहीं हुआ; कुछ चूका—चूका है; कुछ खाली—खाली है।

इसलिए पतंजलि भी समाधि के दो विभाग करते हैं। एक को कहते हैं : सविकल्प समाधि। सविकल्प समाधि ऐसी है कि अभी स्मरण समाप्त नहीं हुआ; शास्त्र अभी पुंछे नहीं। मन शांत हो गया है। तुलनात्मक ढंग से मन अब पहले जैसा अशांत नहीं है। घर के करीब आ गये हैं। शायद सीढ़ी पर खड़े हैं। लेकिन अभी भी द्वार के बाहर हैं। सविकल्प समाधि का अर्थ है. अभी विचार शेष है; विकल्प मौजूद है। अभी शास्त्र से छुटकारा नहीं हुआ। अभी सिद्धातों की जकड़ है। अभी हिंदू हिंदू है, मुसलमान मुसलमान है। अभी ब्राह्मण ब्राह्मण है। शूद्र शूद्र है। अभी मान्यताओं का घेरा उखड़ा नहीं। तो पतंजलि भी कहते हैं, जब तक निर्विकल्प समाधि न हो जाये, विचार—शून्यता न आ जाये, सब न खो जाये, आत्यंतिक रूप से सारे विचार विदा न हो जायें, तब तक अंतर्गृह में प्रवेश न होगा।

इसे समझो! आदमी चेष्टा करके बहुत कुछ साध सकता है। धोखे देने के बड़े उपाय हैं। समझो, ब्रह्मचर्य साधना है, उपवास करने लगो। धीरे— धीरे भोजन कम होगा शरीर में, वीर्य—ऊर्जा कम पैदा

होगी। वीर्य—ऊर्जा कम पैदा होगी, वासना कम मालूम पड़ेगी। मगर यह तुम धोखा दे रहे हो। यह वास्तविक ब्रह्मचर्य न हुआ। स्त्रियों से दूर हट जाओ, जंगल में चले जाओ, उपवास करो, रूखा—सूखा भोजन करो, पुष्ट भोजन न लो, शरीर में ऊर्जा न बने, शक्ति न बने, स्त्रियों से दूर रहे, कोई स्मरण न आये, कोई दिखाई न पड़े, कोई उत्तेजना न मिले— थोड़े दिन में तुम्हें लगेगा कि ब्रह्मचर्य सध गया। वह ब्रह्मचर्य नहीं है। फिर भोजन करो, फिर लौट आओ बाजार में—अचानक ऊर्जा पैदा होगी, फिर स्त्री दिखाई पड़ेगी, फिर वासना पैदा हो जायेगी।

यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कि सूखे दिनों में, गर्मी के दिनों में नदी का पानी सूख जाता है, सिर्फ पाट पड़ा रह जाता है—सूखा पाट, रेत ही रेत! फिर वर्षा होगी, फिर पानी भरेगा, फिर नदी पूर से आ जायेगी। गर्मी की नदी को देख कर यह मत सोच लेना कि नदी मिट गई। इतना ही जानना कि पानी सूख गया। वर्षा होगी, फिर पानी भर जायेगा।

इसलिए तुम्हारे साधु—संन्यासी डरे—डरे भोजन करते हैं। एक बार भोजन करते हैं। उसमें भी नियम बांधते—यह न खायेंगे, वह न खायेंगे; यह न पीयेंगे, वह न पीयेंगे। रूखा—सूखा ताकि किसी तरह शरीर में ऊर्जा पैदा न हो। ऊर्जा पैदा होती है तो अनिवार्य रूप से शारीरिक—प्रक्रिया से वीर्य निर्मित होता है। वीर्य निर्मित होता है तो भीतर वासना पैदा होती है। फिर तुम्हारा संन्यासी भागा— भागा फिरता है, छिपा—छिपा रहता है। आंखें नीची रखता है—स्त्री दिखाई न पड़ जाये, कहीं सौंदर्य का पता न चल जाये। यह डर, यह भय, यह भोजन की कमी, यह एक जगह रहना, छिप कर रहना, दूर रहना समाज से—ये सब नदी को सुखा तो देते हैं, मिटाते नहीं।

तुम्हारे संन्यासी को कहो कि एक महीने भर के लिए ठीक से भोजन करो, ठीक से विश्राम करो ठीक से सोओ, आ कर समाज में रहो—फिर देखेंगे! वर्षा होगी नदी में, फिर पूर आ जायेगा! यह कोई ब्रह्मचर्य न हुआ, यह ब्रह्मचर्य का धोखा हुआ। यह शास्त्र के आधार पर ब्रह्मचर्य हुआ, सत्य के अनुभव पर नहीं। सत्य का अनुभव बड़ा और है। तब कोई इस तरह के आयोजन नहीं करने पड़ते हैं। तुम्हारा बोध ही इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि उस बोध के प्रकाश में वासना क्षीण हो जाती है। फिर स्त्री से दूर रहो कि पास, कोई फर्क नहीं पड़ता है। फिर यह भोजन करो कि वह भोजन करो, कोई फर्क नहीं पड़ता।

लेकिन घबराहट बनी रहती है। महात्मा गांधी भैंस का दूध नहीं पी सकते थे। घबराहट थी ब्रह्मचर्य खंडित हो जाने की। फिर तो गाय से भी डरने लगे। फिर तो बकरी का दूध पीने लगे। फिर तो बकरी की साथ ले कर चलने लगे। कारण—बकरी के दूध में वीर्य को उत्पन्न करने की क्षमता बहुत कम है न के बराबर है। मगर यह कोई बात हुई? यह तो कोई बात न हुई। यह तो भय हुआ। और इस भांति जो ब्रह्मचर्य ऊपर से थोप भी लिया, वह भीतर से तो नहीं आ जायेगा। भीतर तो मौजूद रहेंगे बीज; वर्षा हो जायेगी, फिर अंकुरित होने लगेंगे।

इसी तरह तुम ध्यान भी कर सकते हो। अष्टावक्र कहते हैं, समाधि भी साध लो। समाधि साधने के कई ऊपरी उपाय हैं। जैसे प्राणायाम को अगर कोई ठीक से साधे और धीरे— धीरे श्वास पर नियंत्रण कर ले और श्वास को रोकना सीख जाये तो श्वास के रुकते ही विचार भी रुक जाते हैं, क्योंकि बिना श्वास के विचार तो चल ही नहीं सकते। अब यह झूठी तरकीब है। तुम बैठ गये श्वास को रोक कर

तो जितनी देर श्वास रुकी रहेगी, उतनी देर विचार भी रुक जायेंगे। क्योंकि श्वास रुक गई तो मन शरीर दोनों ही निर्जीववत पड़े रह जाते हैं। लेकिन कब तक श्वास को रोके रहोगे? श्वास लौटेगी लेनी पड़ेगी। जैसे ही श्वास को लोगे, फिर सारे विचार पुनरुज्जीवित हो जायेंगे। तो आदमी श्वास लेने से डरने लगेगा। यह भी सच है कि इस भांति से एक तरह की शांति भी आ जायेगी; जब विचार नहीं होंगे तो शांति आ जायेगी। लेकिन यह शांति जड़ता की होगी।

इसलिए जिन्होंने जाना है, उन्होंने समाधि के दो रूप कहे। एक रूप को ‘जड़ समाधि’ कहा है।’जड़ समाधि’ का अर्थ होता है जो समाधि है नहीं, सिर्फ जड़ता है। और जड़ता के कारण समाधि मालूम पड़ती है।

तुमने देखा, मूढ़ व्यक्ति चिंतित नहीं होता! चिंता होने के लिए भी तो खोपड़ी में कुछ बुद्धि होनी चाहिए न! मूढ़ हैं तो कोई चिंता का सवाल ही नहीं है। तो मूड बैठा रहता है। दुनिया में कुछ भी होता रहे, उसे कोई चिंता नहीं है। घर में आग लग जाये तो वह शांति से बैठा हुआ है। देखो उनकी निर्विकल्प समाधि! उनको कोई विकल्प ही नहीं उठ रहा है।

मगर मूढ़ता समाधि नहीं है, जड़ता समाधि नहीं है। तुम अनेक साधु—संन्यासियों की आंखों में जड़ता पाओगे, चैतन्य का प्रकाश नहीं, आंखों में विभा नहीं; एक तरह की सुस्ती पाओगे, एक तरह की उदासी पाओगे। उन्होंने जीवन— धारा को क्षीण कर लिया है। श्वास कम ले रहे हैं। यां श्वास पर नियंत्रण कर लिया है।

शरीर के ऐसे आसन हैं जिन आसनों को ठीक से साधने पर विचार की प्रक्रिया मंद हो जाती है। तुमने देखा, जब कभी तुम उलझ जाते हो तो सिर खुजलाने लगते हो। एक विशेष मुद्रा में चिंता प्रगट होती है।

एक बहुत बड़े वकील को आदत थी कि जब वह उलझ जाता तो अपने कोट का बटन घुमाने लगता अदालत में विवाद करते वक्त। विरोधी इसको देखते रहे। एक बड़ा मामला था प्रीवी कौंसिल में। जयपुर स्टेट का कोई मुकदमा था। तो विरोधी ने तरकीब की। मिला लिया वकील के शोफर को और उससे कहा कि जब गाड़ी में कोट रखा हो तो तू ऊपर का बटन तोड़ देना, फिर हम निपट लेंगे। वकील तो अपना कोट ले कर अंदर आ गये, कोट पहन कर अपना काम शुरू कर दिया। जब उलझन का मौका आया और उन्होंने बटन पर हाथ रखा, अचानक सब विचार बंद हो गये, पाया कि बटन नहीं है, घबरा गये! वह धक्का ऐसा लगा—पुरानी आदत, सदा की आदत—एकदम विचार रुक गये!

तुमने देखा, चिंतित हो जाते हो, सिगरेट पीने लगते हो! राहत मिलती है, धुआ बाहर— भीतर करने लगे। पुरानी आदत है। उससे राहत मिलने का संबंध हो गया है। कम से कम मन दूसरी जगह उलझ गया। चिंतित आदमी से कहो, सिगरेट मत पीओ, सिगरेट पीना छोड़ दो—वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। क्योंकि सिगरेट पीना तो छोड़ दे _ लेकिन जब चिंता पकड़ती है तब क्या करे!

शरीर और मन जुड़े हैं। तो योग में बहुत— सी प्रक्रियाएं खोजी गई हैं कि विशेष आसन में बैठने से मन में विचार कम हो जाते हैं।

तुम देखो, अगर तुम लेट कर पुस्तक पढ़ो तो तुम्हें याद न रहेगी, क्योंकि लेट कर पढ़ने से जब तुम लेट कर पढ़ते हो तो खून की धारा मस्तिष्क में तीव्र होती है, तो जो भी स्मृति बनती है वह पुंछ जाती है। इसलिए लेट कर पढ़ने वाला याद नहीं कर पायेगा, भूल— भूल जायेगा। बैठ कर पढ़ोगे, ज्यादा याद रहेगा। अगर रीढ़ बिलकुल सीधी रख कर बैठ कर पढ़ा तो ज्यादा याद रहेगा, बहुत ज्यादा याद रहेगा।

इसलिए जब भी तुम्हें कोई चीज याद रखनी होती है, तुम्हारी रीढ़ तत्क्षण सीधी हो जाती है। अनजाने! अगर कोई महत्वपूर्ण बात कही जा रही है, तुम रीढ़ सीधी करके सुनते हो। कोई साधारण बात कही जाती है, तुम फिर अपनी कुर्सी से टिक गये कि ठीक है। रही याद तो ठीक, न रही याद तो ठीक। महत्वपूर्ण बात को तुम अचानक रीढ़ सीधी करके सुनते हो, क्योंकि शरीर की विशेष स्थितियों में मन की विशेष दशायें निर्मित होती हैं।

तो योग ने बड़ी प्रक्रियायें खोजी। एक विशेष आसन में बैठ जाओ, पद्यासन में, तो शरीर की विद्युत धारा वर्तुलाकार घूमने लगती है। रीढ़ बिलकुल सीधी हो तो शरीर पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव कम हो जाता है। श्वास बिलकुल शांत और धीमी हो तो विचार क्षीण हो जाते हैं। आंख नाक के नासाग्र पर अटकी हो तो आस—पास से कोई चीज निम्न नहीं देती। कोई गुजरे, निकले—कुछ पता नहीं चलता। ऐसी दशा का अगर निरंतर अभ्यास किया जाये तो धीरे — धीरे तुम पाओगे, एक तरह की जड़ समाधि पैदा हो गई। शरीर के माध्यम से तुमने मन पर एक तरह का कब्जा कर लिया। बाहर से तुमने भीतर को दबा दिया।

अष्टावक्र कहते हैं. यह सच्ची समाधि नहीं है। यह चेष्टा से पैदा हुई समाधि है।

भोग कर्म समाधि वा कुरु विज्ञ तथापि ते।

तू चाहे भोग कर, चाहे कर्म कर, चाहे समाधि लगा.।

चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थं रोचयिष्यति।

फिर भी तेरे गहन चित्त में एक बात बनी ही रहेगी कि जो मिलना चाहिए अभी मिला नहीं। ऊपर—ऊपर सब शांत हो जाये, भीतर— भीतर आग का दावानल बहेगा। ऊपर—ऊपर सब मौन मालूम होने लगे, भीतर ज्वालामुखी जलेगा। उस स्वभाव के लिए मन में बार—बार तरंग उठेगी, जिसमें सब आशायें लय हो जाती हैं।

यह समाधि भी एक वासना ही है, जो जबर्दस्ती साध ली गई। यह चेष्टा से जो आ गई है, यह वास्तविक नहीं है। इससे कुछ हल न होगा।

अब सुनना आगे का सूत्र! एक के बाद एक सूत्र और अदभुत होता जाता है!

‘प्रयास से सब लोग दुखी हैं!’

सुना तुमने कभी किसी शास्त्र को यह कहते?

‘प्रयास से सब लोग दुखी हैं, इसको कोई नहीं जानता! इसी उपदेश से भाग्यवान निर्वाण को प्राप्त होते हैं।’

‘प्रयास से सब लोग दुखी हैं!’

तुम्हारी चेष्टा के कारण तुम दुखी हो। इसलिए तुम्हारी चेष्टा से तो तुम कभी सुखी न हो सकोगे। तुम्हारी चेष्टा यानी तुम्हारा अहंकार। तुम्हारी चेष्टा यानी तुम्हारा यह दावा कि मैं यह करके दिखा दूंगा, धन कमा लूंगा, पद कमा लूंगा, समाधि लगा लूंगा, परमात्मा को भी मुट्ठी में ले कर दिखा दूंगा! तुम्हारी चेष्टा यानी तुम्हारी अहंकार की घोषणा कि मैं कर्ता हूं!

आयासत्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन।

आयास से, प्रयास से, चेष्टा से दुख पैदा हो रहा है—इसे बहुत. शायद ही कोई विरला जानता हो। जो जान लेता है वह धन्यभागी है।

अनेनैवोपदेशेन धन्य:।

जो ऐसा जान ले, इस उपदेश को पहचान ले, वह धन्यभागी है, वह भाग्यशाली है। क्योंकि निर्वाण उसका है। फिर उसे कोई निर्वाण से रोक नहीं सकता।

इसका अर्थ समझो।

निर्वाण का अर्थ है. सहज समाधि। निर्वाण का अर्थ है : जो समाधि अपने से लग जाये, तुम्हारे लगाने से नहीं; जो प्रसाद—रूप मिले, प्रयास—रूप नहीं। तुम जो भी कमा लाओगे वह तुमसे छोटा होगा। कृत्य कर्ता से बड़ा नहीं हो सकता। तुमने अगर कविता लिखी तो तुमसे छोटी होगी; कविता कवि से बड़ी नहीं हो सकती। और तुमने अगर चित्र बनाया है तो तुमसे छोटा होगा; चित्र चित्रकार से बड़ा नहीं हो सकता। तुम अगर नाचे तो तुम्हारा नृत्य तुम्हारी सीमा से छोटा होगा, क्योंकि नृत्य नर्तक से बड़ा नहीं हो सकता। तो तुम्हारी समाधि, तुम्हारी ही समाधि होगी, विराट नहीं हो सकती। तुम क्षुद्र हो, तुम्हारी समाधि तुमसे भी ज्यादा क्षुद्र होगी। विराट को बुलाना हो तो चेष्टा से नहीं, समर्पण से, प्रयास से नहीं, सब उसके, अनंत के चरणों में छोड़ देने से।

अष्टावक्र का मार्ग संकल्प का मार्ग नहीं है। इसलिए महावीर, पतंजलि को जो लोग जानते हैं, वे अष्टावक्र को न समझ पायेंगे। अष्टावक्र का मार्ग है समर्पण का। अष्टावक्र कहते हैं : तुम जरा कर्ता न रहो तो परमात्मा अभी कर दे। तुम जरा हटो तो परमात्मा अभी कर दे। तुम बीच—बीच में न आओ तो अभी हो जाये। तुम्हारे आने से बाधा पड़ रही है।

तुम्हारी चेष्टा तुम्हें तनाव से भर देती है, अशांत कर देती है। स्वीकार कर लो; जो है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लो। तुम समस्त के साथ संघर्ष न करो, बहने लगो इस धार में। और नदी जहां ले जाये, वहीं चल पड़ो। नदी से विपरीत मत तैसे। उल्टे जाने की चेष्टा मत करो। उसी उल्टे जाने में अशांति पैदा होती है। उसी लड़ने में तुम हारते, पराजित होते, विषाद उत्पन्न होता है और चित्त में संताप घिरता है।

‘प्रयास से सब लोग दुखी हैं, इसको कोई नहीं जानता। इसी उपदेश से भाग्यवान निर्वाण को प्राप्त होते हैं।’

आयासात् सकला दुःखी।

सब दुखी हैं प्रयास के कारण। यह बड़ी अनूठी बात है। तुम तो सोचते हो, हम प्रयास पूरा नहीं कर रहे हैं, इसलिए दुखी हैं; चेष्टा पूरी नहीं हो रही, नहीं तो सफल हो जाते। जो पूरी चेष्टा करते हैं, वे सफल हो जाते हैं। जो दौड़ते हैं, वे पहुंच जाते हैं।

अष्टावक्र कह रहे हैं : आयासात् सकला दुःखी। सब दुखी हैं प्रयास के कारण। दौड़े कि भटके। रुक जाओ तो पहुंच जाओ।

लाओत्सु से यह वचन मेल खाता है। अष्टावक्र और लाओत्सु की प्रक्रिया बिलकुल एक है। लाओत्सु कहता है लड़े कि हारे। हार जाओ कि जीत गये। जो हारने को राजी है, उसे फिर कोई हरा न सकेगा। तुम्हें लोग हरा पाते हैं क्योंकि तुम जीतने को आतुर हो। तो संघर्ष पैदा होता है।

एनं कश्चन न जानाति।

इस महत्वपूर्ण सूत्र को कोई भी जानता हुआ नहीं मालूम पड़ता।

अनेन एव उपदेशेन धन्य निवृत्तिम्।

और इसे जान ले, वह धन्यभागी है। वह निवृत्त हो गया। उसे प्राप्ति हो जाती है।

तुमने मलूकदास का वचन सुना होगा.

अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।

दास मक्का कह गये सबके दाता राम।।

वह पूरी व्याख्या है अष्टावक्र की महागीता की। वह महासूत्र है।

प्रभु सब कर रहा है। तुम सिर्फ उसे करने दो, बाधा न दो। परमात्मा चल ही रहा है, तुम्हारे अलग चलने से कुछ भी होने वाला नहीं। यह धारा बही जा रही है। तुम इसके साथ लीन हो जाओ, तुम तैसे भी मत।

इसके आगे का सूत्र तुम्हें और भी घबडायेगा—

‘जो आंख के ढंकने और खोलने के व्यापार से दुखी होता है, उस आलसी शिरोमणि का ही सुख है, दूसरे किसी का नहीं।’

अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।

दास मज्जा कह गये सबके दाता राम।।

अष्टावक्र कहते हैं : जो आंख के पलक झपने में भी सोचता है कौन पंचायत करे; जो इतना कर्ता— भाव भी नहीं लेता है कि अपनी आंख भी झपकुं वह भी परमात्मा पर ही छोड़ देता है कि तेरी मर्जी तो खोल, तेरी मर्जी तो न खोल, जो अपना सारा कर्तृत्व— भाव समर्पित कर देता है..।

व्यापारेखिद्यते यस्तु निमेषोत्मेषयोरपि।

तस्य आलस्य धुरीणस्य सुखं…।।

उसका ही सुख है—उस धुरीण का, जो आलस्य में आत्यंतिक है।

अभी पश्चिम में एक किताब छपी है। उस किताब के लिखने वाले को अष्टावक्र की गीता का कोई पता नहीं, अन्यथा वह बड़ा प्रसन्न होता। लेकिन किताब जिसने लिखी है, अनुभव से लिखी है। किताब का नाम है. ‘ए लेजी मैन्स गाइड टू एनलाइटेनमेन्ट।’ आलसियों के लिए मार्गदर्शिका निर्वाण की! उसे कुछ पता नहीं है अष्टावक्र का, लेकिन उसकी अनुभूति भी करीब—करीब वही है।

अष्टावक्र कहते हैं : जो आंख ढंकने और खोलने के व्यापार में भी पंचायत अनुभव करता है कि कौन करे, मैं हूं कौन करने वाला.!

और तुम जरा गौर करो, तुम आंख झपते हो? यह तुम्हारा कृत्य है? आंख अपने से झपक रही है। अगर तुम्हें झपकनी और खोलनी पड़े, बुरी तरह थक जाओ, दिन भर में थक जाओ, करोड़ों बार झपकती है। यह तो अपने से हो रहा है। एक मक्खी आंख की तरफ भागी आती है तो तुम झपते थोड़े ही हो, झपक जाती है। क्योंकि अगर तुम झेपो तो देर लग जाये, उतनी देर में तो मक्खी टकरा जाये। इसको तो वैज्ञानिक कहता है. रिफ्लैक्स है। यह अपने से हो रहा है। वैज्ञानिक इसको रिफ्लैक्स कहता है। यह अपने से हो रहा है। यह तुम कर नहीं रहे हो। धार्मिक इसको कहता है प्रभु कर रहा है। श्वास तुम थोड़े ही ले रहे हो, चल रही है। इसलिए तो तुम सो जाते हो, तब भी चलती रहती है, नहीं तो किसी दिन भूल गये नींद में तो बस.. सुबह फिर न उठे। यह तुम पर छोड़ा ही नहीं है। तुम बेहोश भी पड़े रहो तो भी श्वास चलती रहती है, प्रभु लेता रहता है।

जीवन का जो भी महत्वपूर्ण है, तुम पर कहां छोड़ा है! जन्म तुमसे पूछा था कि लेना चाहते हो? जवानी तुमसे पूछी थी कि अब जवान होने की इच्छा है या नहीं न: जन्म हुआ, बचपन हुआ, जवानी आई, हजार—हजार वासनाएं उठीं—तुमसे किसी ने पूछा नहीं कि चाहते भी हो कि नहीं? सब हुआ। बुढ़ापा आ गया, मौत आने लगी, मौत भी आ जायेगी। सब हो रहा है। इस होने में काश तुम अपने को बीच में न डालो तो कैसी अपूर्व शांति न फल जाये! इस होने में तुम कर्ता बनते हो, इससे अशांत हो जाते हो। तुम जितना ही सोचते हो, मुझे करना है, उतनी उलझन बढ़ती है, क्योंकि करने को इतना है!

अब तुम जरा सोचो, तुम भोजन कर लेते हो, फिर अगर तुम्हें पचाना भी हो.। गले के नीचे उतरा कि तुम भूले। और जिसको नहीं भूलता उसका पेट खराब हो जाता है। तुम एक दिन प्रयोग करके देखो, चौबीस घंटे कोशिश करो। भोजन कर लिया, अब याद रखो कि पच रहा है कि नहीं, पक्वाशय में पहुंचा कि आमाशय में पहुंचा कि कहां गया, क्या हो रहा है भीतर! जरा खयाल रखो, पगला जाओगे और पेट खराब हो जायेगा अलग। दूसरे दिन तुम पाओगे गड़बड़ी हो गई, डायरिया हो गया कि कब्जियत हो गई, कि पेट में दर्द उठ आया।

तुम तो जान कर हैरान होओगे कि जब उनादमी मर जाता है, तब भी पेट पचाने का काम चौबीस घंटे तक करता रहता है। चौबीस घंटे का मौका मान कर चलता है कि शायद लौट आये, क्या पता! चौबीस घंटा पेट का काम जारी रहता है। सांस बंद हो जाती है। मस्तिष्क तो चार मिनिट के बाद समाप्त हो जाता है। इधर श्वास बंद हुई उधर मस्तिष्क चार मिनिट के भीतर समाप्त हो गया। फिर उसको लौटाया नहीं जा सकता। इसलिए जो लोग अचानक हृदय के धक्के से मरते हैं, अगर चार मिनिट के भीतर जिला लिए जायें तो ही जिलाये जा सकते हैं, अन्यथा गये तो गये। क्योंकि फिर तब तक चार मिनिट के बाद मस्तिष्क की स्मृति डावांडोल हो गई; मस्तिष्क के तंतु बहुत छोटे हैं, वे टूट गये। मस्तिष्क बहुत कमजोर है।

लेकिन पेट की बड़ी हिम्मत है। चौबीस घंटे बाद भी पेट अपना काम जारी रखता है, पचाता रहता है, रस पहुंचाता रहता है, कि क्या पता! तुम रात सो जाते हो, तब भी पेट पचाता रहता है। कोमा में पड़े हुए आदमी महीनों पड़े रहते बेहोशी में, तब भी पेट पचाता रहता है। मर जाने पर भी चौबीस घंटे तक पचाता है। तुम पर नहीं छोड़ा है। कोई विराट हाथ सब सम्हाले हुए है।

तुम जरा देखो, इन हाथों को जरा पहचानो! कोई विराट हाथ तुम्हारे पीछे खड़े हैं! तुम नाहक परेशान हुए जा रहे हो। तुम्हारी हालत वैसी है जैसे कि एक छोटा बच्चा अपने बाप के साथ जा रहा है और परेशान हो रहा है। उसे परेशान होने की कोई जरूरत ही नहीं। बाप साथ है, परेशानी का कोई कारण नहीं।

बर्नार्ड शा के पिता की मृत्यु हुई तो बर्नार्ड शा ने अपने मित्रों को कहा कि आज मैं बहुत डरा—डरा हुआ हो गया हूं। तब तो उसकी उम्र भी साठ के पार हो चुकी थी। उन्होंने कहा. ‘डरे—डरे हो गये, मतलब क्या?’ उन्होंने कहा ‘ आज पिता साथ नहीं, यद्यपि वर्षों से हम साथ न थे, पिता अपने गांव पर थे, मैं यहां था। लेकिन फिर भी पिता थे तो मैं बच्चा था, एक भरोसा था कि कोई आगे है। आज पिता चल बसे, आज मैं अकेला रह गया। आज डर लगता है। आज कुछ भी करूंगा तो मेरा ही जुम्मा है। आज कुछ भी करूंगा तो भूल—चूक मेरी है। आज कोई डांटने—डपटने वाला न रहा। आज कोई चिंता करने वाला न रहा। आज बिलकुल अकेला हो गया हूं।’

नास्तिक अशांत हो जाता है, क्योंकि कोई परमात्मा नहीं! तुम नास्तिक की पीड़ा समझो, उसकी तपश्चर्या बड़ी है! वह नरक भोग लेता है। क्योंकि कोई नहीं है, खुद ही को सब सम्हालना है। और इतना विराट सब जाल है और इस विराट जाल में अकेला पड जाता है। और सब तरफ संघर्ष ही संघर्ष है, काटे ही कांटे हैं, उलझनें ही उलझनें हैं और कुछ सुलझाये नहीं सुलझता। बात इतनी बड़ी है, हमारे सुलझाये सुलझेगा भी कैसे!

आस्तिक परम सौभाग्यशाली है। वह कहता है तुम बनाये, तुम जानो, तुम चलाओ। तुमने मुझे बनाया, तुम्हीं मुझे उठा लोगे एक दिन। तुम्हीं मेरी सांसों में, तुम्हीं मेरी धड़कन में। मैं क्यों चिंता करूं? ‘जो आंख के ढंकने और खोलने के व्यापार से दुखी होता है, उस आलसी—शिरोमणि का ही सुख है।’

आलस्य की ऐसी महिमा! अर्थ समझ लेना। तुम्हारे आलस्य की बात नहीं हो रही है। तुम तो अपने आलस्य में भी सिर्फ जी चुराते हो, समर्पण थोड़े ही है। तुम्हारे आलस्य में कर्ता— भाव थोड़े ही मिटता है। यह इसलिए शिरोमणि शब्द का उपयोग किया। आलसियों में शिरोमणि वह है जिसने कर्म नहीं छोड़ा, कर्ता भी छोड़ दिया। अगर कर्म ही छोड़ा तो सिर्फ आलसी, वह शिरोमणि नहीं। कर्म तो छोड़ कर कई लोग बैठ जाते हैं। पत्नी कमाती है तो पति घर में बैठ गये, आलसी हो गये। मगर चिंतायें हजार तरह की करते रहते हैं बैठै—बैठे—ऐसा होगा, वैसा होगा, होगा कि नहीं होगा! सच तो यह है कि काम न करने वाले लोग ज्यादा चिंता करते हैं काम करने वालों की बजाय, क्योंकि काम करने वाला तो उलझा है। फुरसत कहां! आलसी तो बैठा है, कोई काम नहीं! तो वह चिंता ही करता है।

बुढ़े देखे, बहुत चिंतित हो जाते हैं! अब कोई काम नहीं है उन पर। काम था तब तक तो निश्चित थे, लगे थे, जुटे थे, जुते थे बैलगाड़ी में, फुरसत कहा थी! अब खाली बैठे हैं!

रस्किन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैंने जितने आदमी सुखी देखे, वे वे ही लोग थे जो इतनी बुरी तरह उलझे थे काम में कि उन्हें फुरसत ही न थी जानने की कि सुखी हैं कि दुखी हैँ।

उलझा रहता है आदमी तो पता ही नहीं चलता कि सुखी हैं कि दुखी! किसी तरह पिटे —कुटे घर लौटे, रात सो गये, फिर सुबह दौड़े; फुरसत कहां है कि पता लगायें कि कौन सुर्ख।, कौन दुखी, हम सुखी कि दुखी हैं! इतना समय कहां! लेकिन रिटायर हो गये, अब बैठे—ठाले, कुछ काम नहीं है, बस यही सोच रहे हैं कि सुखी कि दुखी! और हजार चिंतायें घेर रही हैं कि दुनिया में ऐसा होगा कि नहीं होगा। सारा संसार इनके लिए समस्या बन जाता है।

आलसी शिरोमणि का अर्थ है. ऐसा व्यक्ति, जिसने कर्म नहीं, कर्ता भी छोड़ दिया। कर्ता के

छोड़ते ही सारी चिंता भी छूट जाती है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दफ्तर में काम करता है। मालिक ने उससे कहा कि नसरुद्दीन, तुमने सुना, अब दुनिया में ऐसी—ऐसी मशीनें बन गई हैं जो एक साथ दस आदमियों का काम कर सकती हैं! क्या तुम्हें यह सुन कर डर नहीं लगता? नसरुद्दीन ने कहा : ‘बिलकुल नहीं सरकार! क्योंकि आज तक कोई मशीन ऐसी नहीं बनी जो कुछ न करती हो। आदमी का कोई मुकाबला ही नहीं है। जो कुछ न करती हो, ऐसी कोई मशीन बनी ही नहीं है।’

नसरुद्दीन से मैंने एक दिन कहा कि तू कभी छुट्टी पर नहीं जाता, क्या दफ्तर में तेरी इतनी जरूरत है? उसने कहा कि अब सच बात आपसे क्या छिपानी। दफ्तर में मेरी जरूरत बिलकुल नहीं है, इसीलिए तो छुट्टी पर नहीं जाता, छुट्टी पर गया तो उनको पता चल जायेगा कि इसके बिना सब ठीक चल रहा है, कोई जरूरत ही नहीं है। मैं छुट्टी पर जा ही नहीं सकता, तो ही भ्रम बना रहता है कि मेरी वहां जरूरत है।

आदमी कर्म छोड़ दे तो आलसी; और कर्तापन छोड़ दे तो आलसी—शिरोमणि।

तस्यालस्य धुरीणस्य……।

तब तो वह धुरीण हो गया, शिखर हो गया आलस्य का। क्योंकि सब परमात्मा पर छोड़ दिया; अब वह जो करवाये करवाये, जो न करवाये न करवाये। अब अपनी कोई आकांक्षा बीच में न रखी। अब उसकी जो मर्जी!

‘यह किया गया और यह नहीं किया गया, ऐसे द्वंद्व से मन जब मुक्त हो, तब वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रति उदासीन हो जाता है।’

ये आखिरी चरण हैं। आदमी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सबसे मुक्त हो जाता है, क्योंकि फिर कोई बात ही न रही, करने को कुछ रहा ही नहीं। किसी को धन कमाना है, किसी को पुण्य कमाना है। किसी को वासना तृप्त करनी है और किसी को स्वर्ग का सुख लेना है। और किसी को मुक्ति का सुख लेना है। मगर इन सबके पीछे हमारा कर्ता का भाव तो बना ही रहता है कि मुझे कुछ करना है, मेरे बिना किए कुछ भी न होगा।

अष्टावक्र कहते हैं. जिसे यह बात ही भूल गई कि यह किया गया, यह नहीं किया गया, सब बराबर हो गया, हो तो ठीक, न हो तो ठीक; हो गया तो ठीक, न हुआ तो भी उतना ही ठीक—ऐसी जिसकी सरल चित्त—दशा हो गई, उसका सबके प्रति उदासीन भाव हो जाता है। अब मोक्ष भी सामने पड़ा हो तो भी उसे आकांक्षा नहीं होती। और की तो बात ही क्या, स्वर्ग भी उसे निमंत्रण नहीं देता अब। और जिसके लिए कोई वासना का निमंत्रण नहीं है, वही मुक्त है, वही मोक्ष को उपलब्ध है।’विषय का द्वेषी विरक्त है। विषय का लोभी रागी है। और जो ग्रहण और त्याग दोनों से रहित है, वह न विरक्त है न रागवान है।’

इर्द कृतमिद नेति द्वंद्वैर्मुक्तं यदा मन:।

धर्मार्थकाममोक्षेगु निरपेक्ष तदाभवेत।।

और जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सभी से शांत और मुक्त हो गया, वही वीतराग है। यहां तीन शब्द समझ लेने चाहिए। एक है भोगी, दूसरा है योगी और तीसरा है दोनों के पार। एक है आसक्त,

एक है विरक्त, और एक है दोनों के पार।

विरक्तो विषयद्वेष्टा—वह जो विरक्त है, उसकी विषयों में घृणा हो गई है।

रागी विषयलोलुप—और वह जो रागी है, भोगी है, वह लोलुप है विषय के लिए।

ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो न रागवान्।

लेकिन परमदशा तो वही है जहां न राग रह गया न विराग; न तो प्रेम रहा वस्तुओं के प्रति, न घृणा। ऐसी वीतराग दशा परम अवस्था है। वही परमहंस दशा है। परम समाधि!

इसे हम समझें। किसी का धन में मोह है; वह पागल है धन के लिए, इकट्ठा करता जाता है बिना फिक्र किए कि किसलिए इकट्ठा कर रहा है, क्या इसका होगा! यह सब चिंता भी नहीं है उसे। बस धन इकट्ठा कर रहा है। एक पागलपन है। फिर एक दिन जागा, लगा कि यह तो जीवन गंवाया; इससे तो कुछ पाया नहीं; धन तो इकट्ठा हो गया, मैं तो निर्धन का निर्धन रह गया। छोड़ दिया धन। भागने लगा छोड़ कर। अब उसने दूसरी उल्टी दिशा पकड़ ली। अब अगर उसके हाथ में पैसा रखो तो वह ऐसे छोड़ कर खड़ा हो जाता है चिल्ला कर कि जैसे बिच्छू रख दिया। अब वह पैसे की तरफ देखता नहीं। अब वह कहता है : ‘ धन, धन तो पाप है! बचो, कामिनी—कांचन से बचो! भागते रहो!’ अब उसने दूसरी दौड़ शुरू कर दी। यह विरक्त तो हो गया, आसक्त न रहा। जो संबंध प्रेम का था, वह घृणा में बदल लिया। लेकिन संबंध जारी है।

घृणा का भी संबंध होता है। प्रेम का भी संबंध होता है। जिसके तुम मित्र हो, उससे तो तुम जुड़े ही हो; जिससे तुम शत्रुता रखते हो, उससे भी जुड़े हो। अष्टावक्र कहते हैं : ये दोनों बंधे हैं। एक पाप से बंधा होगा, एक पुण्य से बंधा है; मगर बंधे हैं। एक की जंजीरें लोहे की हैं, एक की सोने की हैं। मगर जंजीरें दोनों के ऊपर हैं। और ध्यान रखना कभी—कभी सोने की जंजीरें ज्यादा खतरनाक सिद्ध होती हैं; क्योंकि लोहे की जंजीरों से तो कोई छूटना भो चाहता है, सोने की जंजीरों से कोई छूटना नहीं चाहता। सोने की जंजीरें तो आभूषण मालूम होती हैं। लगता है, छाती पर सम्हाल कर रख लो। अगर कारागृह गंदा हो तो हम निकलना भी चाहते हैं; लेकिन कारागृह स्वच्छ, साफ—सुथरा, सजा, सुंदर हो तो कौन निकलना चाहता है! जा कर भी क्या सार है! जाओगे कहां! यहीं बेहतर है।

पाप तो बांधता है, पुण्य और भी गहरे रूप से बांध लेता है। और भोग तो बांधता ही है, योग भी बांध लेता है।

अष्टावक्र कहते हैं : विरक्त और सरक्त, इन दोनों से जो विलक्षण है, वही उपलब्ध है, वही वीतराग पुरुष है। राग का अर्थ होता है : रंग। रागी का अर्थ होता है : जो इंद्रियों के रंग में रंग गया। विरागी का अर्थ होता है : जो इंद्रियों के विरोधी रंग में रंग गया; जो उल्टा हो गया। रागी खड़ा है पैर के बल; विरागी शीर्षासन करने लगा, उल्टा हो गया, लेकिन दौड़ जारी रही। कोई स्त्री के पीछे भागता था, कोई स्त्री से भागने लगा; लेकिन दौड़ जारी रही।

दोनों से जो विलक्षण है, विरक्त—सरक्त से विलक्षण, उस वीतराग पुरुष को ही सत्य का अनुभव हुआ है। और ऐसे सत्य के अनुभव के लिए शास्त्रों की कोई जरूरत नहीं। किसी से पूछने का कोई सवाल ही नहीं है। यह सत्य तुम्हारी संपदा है। यह तुम्हें मिला ही हुआ है। तुम शास्त्रों में खोज रहे हो, उतना ही समय गंवा रहे हो।

मुल्ला नसरुद्दीन एक बार घर लौटा यात्रा से। उसकी पत्नी ने पूछा, सफर कैसा कटा? मुल्ला ने कहा; सफर में बेहद तकलीफ रही। ट्रेन में ऊपर वाली बर्थ पर जगह मिली थी और पेट खराब होने के कारण बार—बार नीचे उतरना पड़ता था।

तो श्रीमती ने कहा. ‘तो आप नीचे वाले यात्री से कह कर बर्थ क्यों न बदल लिए?’

उसने कहा : ‘सोचा तो मैंने भी था, पर नीचे वाली बर्थ पर कोई था ही नहीं, पूछता किससे?’ कुछ लोग हैं जो सदा पूछने को उत्सुक हैं—किसी से पूछ लें। और अगर कोई नहीं है तो बड़ी मुश्किल! भीतर से कुछ बोध जैसे उठता ही नहीं! शास्त्र में खोज ले, स्वयं में खोजने की आकांक्षा ही नहीं उठती है।

और जो है, स्वयं में है। ये शास्त्र जो निकले हैं, ये भी उनसे निकले हैं जिन्होंने स्वयं में खोजा। यह कृष्ण की गीता किन्हीं और वेदों को पढ़ कर नहीं निकली है। यह कृष्ण की गीता कृष्ण के अनुभव से निकली है। इसका यह अर्श नहीं है कि वेद पढ़ना व्यर्थ है। इसका इतना ही अर्थ है वेद कौ पढ़ो साहित्य की तरह, बहुमूल्य साहित्य की तरह! लेकिन शब्दों को सत्य मत मान लेना। वेद को पढ़ो महत्वपूर्ण परंपरा की तरह। मनीषियों के वचन हैं—सत्कार से पढ़ो, सम्मान से पढ़ो! मगर उन पर ही रुक मत जाना।

उन पर रुकना ऐसा होगा जैसे कोई पाकशास्त्र की किताब को रख कर बैठ गया और भोजन बनाया ही नहीं। और भोजन बिना बनाये तो पेट भरेगा नहीं, भूख मिटेगी नहीं, क्षुधा तृप्त न होगी। पढ़ो! रस लो! वेद अदभुत साहित्य हैं! उपनिषद अदभुत साहित्य हैं! कुरान—बाइबिल अनूठी किताबें हैं! पढ़ो! मगर पढ़ने से सत्य मिल जायेगा, इस भांति में मत पड़ना। पढ़ने से तो प्यास मिल जाये तो काफी है; सत्य को खोजने की आकांक्षा बलवती हो जाये तो काफी है।

सदगुरुओं का सत्संग करो। उससे सत्य नहीं मिल जायेगा, लेकिन सदगुरुओं के सत्संग में शायद सत्य को खोजने की आकांक्षा प्रबल हो जाये, प्रज्वलित हो जाये, लपट बन जाये। सत्य तो भीतर ही मिलेगा।

सदगुरु वही है जो तुम्हें तुम्हारे भीतर पहुंचा दे 1 और शास्त्र वही है जो तुम्हें तुमसे ही जुड़ा दे।’विषय का द्वेषी विरक्त, विषय का लोभी रागी; पर जो ग्रहण और त्याग दोनों से रहित है, वह न विरक्त है और न रागवान है।’

वही है सत्य को उपलब्ध। वही वीतराग है।

इन प्रवचनों पर खूब मनन करना, ध्यान करना। इन वचनों का सार कबीर के इस वचन में है:

जाको राखे साइयां, मार सके न कोय।

बाल न बांका कर सके जो जग वैरी होय।।

छोड़ दो सब परमात्मा पर! जाको राखे साइयां! तुमने जब नहीं छोड़ा है, तब भी वही रखवाला है, तुम छोड़ दो, तब भी वही रखवाला है। फर्क इतना ही पड़ेगा कि तुम छोड़ दोगे तो तुम्हारी चिंता मिट जायेगी। तुम तो पलक भी न झंपो अपनी तरफ से। तुम सुरक्षा भी न करो। तुम आयोजन भी मत करो। तुम तो वह जो करवाये, करो। इसका यह मतलब नहीं कि तुम चादर ओढ़ कर लेट जाओ। अगर वह चादर ओढ़ कर लेटने को कहे तो ठीक। तुम अपनी तरफ से यह मत करना कि तुम कहो

कि फिर करना क्या!

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, समझ गये अष्टावक्र को तो अब करने को तो कुछ भी नहीं है! अगर तुम समझ गये तो करने को तो बहुत है, कर्ता होने को कुछ भी नहीं है। अगर नहीं समझे तो तुम ऐसा पूछोगे आ कर कि ‘ अब करने को तो कुछ भी नहीं है, तब हम विश्राम करें! तब ध्यान इत्यादि करने से क्या सार है।’ तो तुम करने से बचने लगे, तो तुम आलसी हो जाओगे।

ये सूत्र शिरोमणियो के लिए हैं। ये सूत्र उनके लिए हैं जो कहते हैं : अब हम कर्ता न रहे। परमात्मा तुमसे बहुत कुछ करवायेगा जब तुम कर्ता न रह जाओगे। फिर करने का मजा और, रस और। फिर करने में एक उत्सव है, एक नृत्य है। फिर करना ऐसा है जैसा कबीर ने कहा कि मैं तो बांस की पोंगरी हूं! तू गीत गाता है तो मेरे से ग।त गुजर जाता है; तू चुप हो जाता है तो चुप्पी प्रगट होती है! अब तो मैं बांस की पोगरी हूं खाली पोंगरी! तू जो करवाये!

यही कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं गीता में कि तू बांस की पोगरी हो जा! निमित्त—मात्र! अर्जुन चाहता है, कर्म छोड़ दे और भाग जाये जंगल में, वह आलसी होना चाहता है। और कृष्ण कहते हैं, तू आलसियों का शिरोमणि हो जा, कर्ता— भाव छोड़ दे और कर्म तो परमात्मा करवाये तो होने दे। वही तुझे वृद्ध के मैदान पर ले आया। अगर वही युद्ध करना चाहता है तो होने दे। तू न भी करेगा तो कोई और करेगा। तू न मारेगा तो कोई और मारेगा। ये हाथ तेरे न उठायेंगे गांडीव को, तो किसी .और के उठायेंगे। तू कर्म छोड़ कर मत भाग; सिर्फ कर्ता मत रह जा। कर्ता— भाव छूटते ही जीवन स्वस्थ हो जाता है, शांत हो जाता है।

हरि ओंम तत्सत्!

भाग—3 समाप्‍त

समाप्‍त


Filed under: अष्‍टावक्र महागीता—(भाग—3) ओशो Tagged: अदविता नियती, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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