है देव—तरू की कोमलता,
कांटे की कठोरता,
में भी वह पस्फुेटित नही होता,
क्या वहीं जीवन नहीं परिवर्तित,
क्या उस कठोर कंटक में भी नहीं
बहती वही सरस सुकोमल धारा।
पर क्याी उस कठोरता में दंभ नहीं है मैं का,
और उस कठोरता में छिपी नहीं कहीं मृत्युा।
वह अहं खो नहीं देता,
उस जीवन की सरलता-सरसता,
उसका झूमना इठलाना,
छीन नहीं लेता उसके जीवन से,
और भर देता एक झूठा दंभ।
—खो देता है अपनी नैसर्गिता को,
और चूक जाता है,
उस सरस माधुर्य से जो जीवन में श्रेष्ठक को।
सुकोमलता में ही जीवन का रहस्ये छुपा है,
वहीं वो रहता और रचाता-बसता है,
वहीं जन्महता है नया जीवन,
कितना कोमल और नाजुक होता है,
जब कहीं भी बनता है जीवन,
और मर कर हो जाता है कठोर,
क्या हम हो जाते होते है कठोर,
जब नहीं सरक जाते मृत्युर के कुछ करीब।
क्या इसमें कहीं छुपा हो है अहं,
जो जीवित है वो तरल है,
स्फुीटन भरा है।
है देव—फिर हम क्यों हो जाते है कठोर।
पाषाणता क्या— हमारी
पूजा की नियति है।
क्यों पुजते है, उस कठोर को,
उन देवालयों में
क्याे हम वैसा होना चाहते है।
नहीं देखते पल-पल जीवन का फेलाव,
प्लवित पुष्पोंज में, पक्षियों के कंठों के नाद में,
नदी के बहते जल में…………..
और जहां तहाँ तू भाषिता सा दिखता है।
क्या हम अंदर से पाषाण से नहीं हो गये है।
और वंचित हो रहे है,
उस जीवन धारा से,
तू तो जाना है।
फिर कभी क्योंै नहीं कहता,
किसी निशब्दी में चुप से,
हमारे कानों में आकर…..कि कठोरत्म. है मृत्युं तुल्यय।
स्वाेमी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’
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