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Channel: Osho Amrit/ओशो अमृत
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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–61)

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उसकी अनुकंपा अपार है……(अध्‍याय—इक्‍ष्‍ठवां)

मारे देश में गुटखा और तंबाखू का खूब चलन है। पान की लाली रचाकर, हर कहीं उस लाली के निशान छोडना आम बात है। जिन लोगों को यह लत नहीं होती शायद वे कभी भी नहीं समझ पाते हैं कि आखिर क्यों कोई इस गुटखे या तंबाखू का ऐसा आदी हो जाता है। लेकिन जिन लोगों को इसकी लत लग जाती है वे कितनी ही कोशिश कर ले यह लत या तो उन्हें मौत तक ले जाती है या मौत आने पर यह लत उन्हें छोड देती है।

गुटखे या तंबाखू से कैंसर हो सकता है, यह बात संभवतया सभी जानते हैं। जिनको इसकी लत होती है वे भी अच्छे से जानते हैं कि यह छोटी सी पुड़िया उन्हें कैंसर जैसे खतरनाक रोग तक ले जा रही है। लेकिन मनुष्य की बेहोशी ऐसी है या कृत्य और अंजाम की दूरी इतनी है कि कृत्य के दौरान अंजाम का आभास तक नहीं होता है और अंजाम कितना खतरनाक से खतरनाक हो सकता है इसका अंदाजा तो कतई नहीं लगता है।

मैंने अपने प्यारे मित्र को तंबाखू से मुंह का कैंसर और कैंसर से मरते देखा है, कितनी पीड़ा, कितनी यातना, कितना नर्क.. .एक—एक पल दर्द से कराहते हुए मौत की तरफ सरकते देख हर किसी की आंखों में आंसू आ जाते थे।

आज हम यहां इस लाइलाज रोग कैंसर और गुटखे की लत पर स्वामी आनंद स्वभाव से खुली चर्चा करने वाले हैं। ओशो जगत में स्वामी स्वभाव इतने चर्चित, प्रसिद्ध, और पहचाने जाते हैं कि संभवतया देश के कोने—कोने में उनकी उपस्थिति दर्ज होती है।

लगभग बीस साल से अधिक समय तक ओशो के धर्मदूत बनकर पूरे देश के चप्पे—चप्पे में ओशो के ध्यान के संदेश को पूरे मन से पहुंचाया है। पिछले लगभग दो साल से स्वामी आनंद स्वभाव कैंसर से पीडित हैं और इस बीमारी का हर दिन अपने पर होते असर को देख रहे हैं। कैसे हुआ ये कैंसर और इस दर्द के साथ कैसे रही उनकी यात्रा… ओशो कहते हैं न कि समझदार के हाथ में जहर भी अमृत बन जाता है और नासमझ के हाथ में अमृत भी जहर.. .इन अर्थों में यह निश्चित ही बहुत प्रेरक और ज्ञानवर्द्धक अनुभव है।

मैं स्वयं इन दो सालों में स्वामी आनंद स्वभाव से लगातार मिलता रहा हूं और बीमारी की हर कड़ी को निकट से देखा है। इस कष्टकारी लेकिन सिखावन से भरपूर अनुभव के बारे में स्वामी आनंद स्वभाव जी ने इस बीमारी के बारे में अपने अनुभव की एक—एक बात पूरी ईमानदारी, निष्ठा व प्रामाणिकता से कह दी…….

सालों पहले जब ओशो वापस भारत आए और मनाली में मुझे बुलाकर पुणे के आश्रम की देखभाल करने की बात कही। मैं जब पुणे आया और आश्रम की हालत देखी तो हर तरफ चीजें इतनी अस्त—व्यस्त हो चुकी थीं कि उन्हें संभालना और पटरी पर लाना टेढी खीर लगा। पानी—बिजली के बड़े—बड़े बकाया, इन्कम टैक्स, प्रापर्टी टैक्स, प्रापर्टी का रखरखाव, लोगों के रहने खाने—पीने की व्यवस्था और पैसों की भयंकर कमी.. .या यूं कहें कि पैसा था ही नहीं। अब काम की अधिकता और समय पूरा करने की ऐसी कठिन परिस्थिति बनी थी कि पता नहीं कैसे गुटखा खाने लगा। मुंह में गुटखा दबा कर उसकी पिनक में रात दिन काम में लगा रहता था।

कठिन परिश्रम और मेहनत से हर समस्या का निदान निकल आया और जब ओशो पुन: पुणे आए तो आश्रम अपने पैरों पर पूरी तरह से खडा हो चुका था।

उस समय पड़ी यह लत हमेशा के लिए साथ हो गई। समय के साथ इसकी मात्रा बढ़ती चली गई। एक दिन में दस—पंद्रह गुटखे खा लेना बडी आम बात हो गई थी। पता तो था कि इससे कैंसर हो सकता है, लेकिन हो ही सकता है न! जब होगा तब देखेंगे और जब हुआ और जब देखा तो पता चला कि लापरवाही में की गई गलती कितनी बड़ी समस्या बन जाती है।

कुछ वर्ष पूर्व मुंह में छाले हुए, मिर्ची खाने में तकलीफ होने लगी, जबान पर एक सफेद रंग का एक इंच लंबा चिह्न भी बन गया तब भी समझ नहीं आया कि ये सारे चिह्न भयंकर बीमारी के विजटिंग कार्ड हैं…। कभी ठीक से इस कार्ड को नहीं देखा कि इस पर जिन साहब का नाम लिखा है वे कितने खतरनाक हो सकते हैं। मिर्ची तेज लगने लगी तो बिना मिर्ची का भोजन शुरू कर दिया, मुंह अधिक नहीं खुलता था तो धीरे— धीरे मुंह से काम लेते रहे, लेकिन डॉक्टर को दिखा कर इलाज का खयाल ही नहीं आया।

इसी बीच किसी मित्र ने सुझाया कि एंटीबायोटिक ले लो। तो वह कर लिया, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ, मुंह में छाले और सफेद रंग का दाग बड़ा होता चला गया। कुछ समय में तो वह सफेद दाग थोड़ा मोटा होने लगा, बोलने में भी तकलीफ होने लगी। तब डाक्टर के पास गये। डाक्टर ने जांच की तो पता चला कि कैंसर हो गया है। सुन कर डर लगा, जो नहीं होना था वही हो गया।

अपने बड़े भाई साहब को जाकर यह बताया तो वे गुस्सा हुए, कहा कि कितना कहते थे कि ये गुटखा मत खाओ। खैर, उनकी पहचान के एक डाक्टर भादुड़ी से मिले। उन्होंने कहा कि आपरेशन करना पड़ेगा थोडा गाल और जुबान को काटना पडेगा। मैंने पूछा कि, ‘खाना खा सकूंगा, मैं बात कर सकूंगा?’ डाक्टर ने कहा कि ‘ कोशिश करेंगे कि आप खाना भी खा सको और बात भी कर सको।’

आपरेशन हो गया, थोडी सी जुबान और गला काटा गया। आपरेशन के दौरान नाक से एक नली पेट में डाली गयी जिससे खाना डाला जाता, गले, जुबान का काटना उनके टीके बहुत दर्द करते। अस्पताल के बिस्तर पर पड़े—पड़े रात—दिन दर्द से कराहता रहता। दस—पंद्रह दिनों में घर आ गये। जुबान के काटने के कारण खाना खाने में तकलीफ होने लगी, जुबान के छोटे पड़ जाने से खाना निगलने में कठिनाई होने लगी, हर समय यूं लगता जैसे किसी ने गला दबा रखा हो। बहुत दर्द होता लेकिन किसी गोली या दवाई से कोई फर्क नहीं पड़ता। पर राहत की बात यह थी कि डॉक्टर ने कहा कि कैंसर निकल गया है।

लेकिन जैसे—जैसे समय गुजरा मुंह का दर्द कम नहीं हुआ तो रूबी हॉल के डाक्टर देशमुख से सलाह ली। उन्होंने एक आर आई करवाया। तो पता चला कि कैंसर तो दाए गाल और जबड़े तक फैल चुका था। इसी बीच किसी ने बताया कि मुंबई में डॉक्टर सुलान हैं जो इसके बहुत बड़े विशेषज्ञ हैं कि लेकिन उनका अपाइंटमेंट मिलना बहुत मुश्किल होता है। भाई साहब ने जैसे—तैसे उनका अपाइंटमेंट लिया। उन्होंने भी यही बताया कि कैंसर ने मुंह, गाल और जबडे को भी खराब कर दिया है और सिवाय आपरेशन के कोई निदान नहीं है।

27 जनवरी 2011 को आधा जबड़ा और गाल काट दिया गया। बहुत बड़ा आपरेशन था, गाल की जगह सीने की चमड़ी काट कर लगाई गई। दर्द ऐसा कि जो भोग उसे ही पता चले। जरा आप अनुमान लगाओ, मुंह में छोटा सा छाला भी हो जाए तो जुबान वहां बार—बार जाती है और चैन नहीं पड़ता है। मुंह के अंदर दाएं हिस्से का पूरा जबडा ही काट दिया जाए.. .कुछ भी खाना कैसे खाओ? सिर्फ पेय पदार्थ को एक तरफ से मुंह में डाल कर गटक भर लो। न तो कोई स्वाद और न ही कोई अहसास। इस पर हर पल दर्द ऐसा कि एक पल चैन से बैठ नहीं पाता। कुछ समय बाद जब फिर डॉक्टर को बताया तो पता चला कि अब बाए तरफ भी कैंसर का असर होने लगा है। और उसका भी आपरेशन होगा। रात—दिन की इस पीड़ा और अस्पतालों की आवाजाही ने पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया। न जाने कितनी बार अपने आपको कोसता कि ये कैसा रोग पाला। समझते हुए भी क्यों गुटखा खाया… अब क्या कर सकते हैं.. .बहुत देरी हो चुकी थी।

बार—बार के आपरेशन से मैं डर चुका था, मैं पूरी तरह से घबरा गया था इस सब से। किसी ने सुझाया कि होमियोपैथी की दवाई लो। एक बहुत ही अच्छे होमियोपैथी के डाक्टर अनिल हब्यू से मिले। उनकी दवाई ली। थोड़े समय में दर्द भी कम होने लगा। एम आइ आर करवाया तो पता चला कि बाए गाल का इन्क्रेक्यान कम हो रहा है। दवाई का असर हो रहा है। अब पता नहीं दवाई का असर था या आपरेशन और अस्पताल के डर से शुरू में यूं आभास होता कि दर्द ठीक हो रहा है, या किसी तरह से यह बात मन में बिठाने की कोशिश कर रहा था कि अब बीमारी ठीक ही हो जाए तो ठीक…। मान भर लेने से कैंसर जैसे रोग से छुटकारा हो गया होता तो बात ही क्या थी। दर्द फिर बढ़ने लगा, असहनीय होने लगा, हार कर फिर से एलोपैथी की शरण ही जाना पड़ा। डॉक्टरों ने बोला कि रेडिएशन व केमोथैरेपी लेनी होगी। फिर से अस्पताल के चक्कर, रेडिएशन, केमोथैरेपी. .इतना दर्द, इतनी पीड़ा, परिवार और प्रेमी मित्र सब परेशान…., एक छोटी— सी गलती का दुष्परिणाम कितना बड़ा हो सकता है स्वयं का यह अनुभव सभी मित्रों को बताना चाहता हूं। आशा है कि इससे सभी मित्र कुछ तो सीख लेंगे।

केमोथैरेपी के कारण मुंह से भोजन करना मुश्किल हो गया तो डॉक्टरों ने पेट में आपरेशन कर सीधे नली लगा दी। अब समय—समय पर वहां से सिर्फ पेय पदार्थ, दूध, जूस वगैरह दिये जाते हैं। बोलना लगभग मुश्किल हो गया है। एकाध शब्द जैसे—तैसे कभी—कभार बोल पाता हूं। मुंह में हर समय इतना दर्द रहता है कि एक पल भी चैन से बैठना संभव नहीं हो पाता। अनेक बार ओशो के साथ बिताये सुनहरे पल याद आते हैं, अनेकानेक मित्रों के साथ बिताये सुंदर पल याद हो आते हैं.. .हंसना, नाचना, गाना, घूमना, हर समय मित्रों से घिरे रहना… ओशो संदेश की मशाल लिये चारों दिशाओं में घूमना… आज अपने बंद कमरे में अपने साथ.. .दर्द और पीड़ा से कराहती देह.. .पता नहीं कब तक यह सब चलना है। जीवन के खेल बहुत अजीब होते हैं.. .कितनी बार ओशो हमें सजग करते हैं.. .जागो.. .जागो.. .इसके पहले कि मौत आए, जाग जाओ। हां, मित्रों जीवन के इस सुनहरे अवसर का भरपूर सदुपयोग समय रहते कर ही लेना चाहिए.. .पता नहीं किसी अगले मोड पर जीवन कौन—सी दिशा ले ले.. .इसके पहले कि देर हो जाए.. .जाग जाना जरूरी है।

एक बात मुझे यह लगती है कि गुटखा और तंबाखू शायद इतना नुकसान नहीं करते हैं यदि सफाई का पूरा—पूरा ध्यान रखा जाए। मुंह की नियमित अच्छी सफाई और उसकी शुद्धि का पूरा ध्यार रखें तो संभवतया इसके बुरे असर को कम किया जा सकता है। हालांकि शुभ तो यही है कि इस खतरनाक पुड़िया से जितना दूर रह सकें उतना बेहतर, पहले तो इसकी आदत ना डालें और आदत पड़ ही चुकी हो तो समय रहते इससे छुटकारा पा लें….. गुटखा छोड़ने के लिए जितना भी कष्ट देखना पड़े उठा लेना बेहतर… इतने भयंकर तकलीफों से तो गुटखा छोडने का कष्ट बड़ा हो ही नहीं सकता न!

यह बात तो हुई शरीर की अब बात करते हैं मन की। जब पहली बार पता चला कि गुटखा खाने से कैंसर हो गया है तो पहली ही बात यह खयाल में आई कि जितने भी लोग मुझे जानते हैं उन पर क्या असर पड़ेगा? वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे.. .इतनी सी बात का खयाल नहीं रखा। बड़ा अपराध बोध हुआ, बहुत आत्म—ग्लानि हुई। अब सिवाय इसके कि इस सत्य को स्वीकारा जाए, इसे खुली आंख देखा जाये और तो कोई चारा था नहीं, आत्म—ग्लानि से भरने से कोई फायदा तो होने वाला था नहीं फिर ओशो कभी भी नहीं चाहते कि कोई भी परिस्थिति हो, कुछ भी हो जाए, अपराध भाव में जाने की जरूरत नहीं है। यह तो यूं होता है कि एक तो करेला और ऊपर से नीम चढ़ा। ओशो के प्रेम को, करुणा को उनके आशीर्वाद को स्मरण किया। धीरे— धीरे यह अपराध बोध चला गया। फिर यह भी खयाल आया कि कितने ही तो बुद्ध पुरुषों को भी कैंसर हुआ है, रामकृष्‍ण परमहंस, रमण…।

इसी के साथ दूसरी बात यह हुई कि अब मैं भारत में घूम—घूम कर ओशो के ध्यान शिविर नहीं ले पाऊंगा। ओशो के काम का कितना नुकसान होगा.. .सुंदर ढंग से चल रहे काम को अचानक ही ब्रेक लग गया। इस बात ने भी मुझे बहुत पीड़ा दी। मैं अपने को माफ नहीं कर पा रहा था कि कैसी मूर्खता मेरे से हो गई। क्यों गुटखा खाया, क्यों इसकी लत लगाई और क्यो नहीं इससे बाहर आने का प्रयास किया, क्यों इससे बचने के लिए डॉक्टर से सलाह नहीं ली, क्यों समय रहते सावधानी नहीं बरती… .क्यों क्यों, क्यों। ये क्यों के प्रश्नवाचक अंदर ही अंदर इतने व्यथित करते कि शरीर की पीड़ा को मैं भूल जाता।

इसी बीच थोड़ा शरीर ठीक हुआ तो कुछ शिविर लिये। इससे थोड़ी राहत मिली। इसी बीच खयाल आया कि अपने सभी अनुभवों को पुस्तक का रूप दे देना चाहिए ताकि इस राह पर जो भी मित्र चल रहे हैं, उन्हें कुछ फायदा हो सके। मुझे यह भी खयाल आया कि आज इंटरनेट का जमाना है, बहुत लोग इंटरनेट से जुड़े हैं ओशो इंटरनेट पर पहले ही सुंदर ढंग से उपलब्ध हैं, तो मैंने सोचा कि यह भी एक ढंग हो सकता है काम करने का, मैंने इंटरनेट का यूज सीखा और उसके द्वारा भी ओशो संदेश को फैलाने के लिए अपनी तरफ से प्रयास करने लगा। अब मैं ठीक होने लगा। ओशो संदेश को सुनता तो बात भीतर तक चली जाती। मेरा मन स्वस्थ हो गया। मैं फिर से सकारात्मक होता चला गया।

एक मजेदार बात यह कि कैंसर होने व इस घातक बीमारी के परिणामों से सचेत होने के बावजूद कभी मृत्यु का भय नहीं पकड़ा। पर हां, एक भय जरूर लगा कि केमोथैरेपी और रेडिएशन से बाल झड़ जाते हैं तो मन बड़ा दुखी हुआ कि सारे बाल चले जाएंगे और आपरेशन से गाल खराब हो जाएगा तो चेहरा भी भद्दा हो जाएगा.. .इससे मन बड़ा व्यथित होता था लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं और फिर अब समय के साथ इतना स्वीकार भाव भी आ चुका है कि जो हो, सो हो.. .जब इस देह को एक दिन चले ही जाना है तो इन छोटी—छोटी बातों की इतनी चिंता क्या लेना?

मैं अपनी बात का अंत इस बात के साथ करना चाहूंगा कि परिवार में कोई एक सदस्य भी गलती करे या गलती हो जाती है तो उसका परिणाम पूरा परिवार और सभी प्रियजन भी देखते हैं। मेरे अपने व्यक्तिगत कष्टों के साथ ही परिवार जनों का रात—दिन सब तरह की समस्याओं से निपटते देख दुख तो होता है। मैं सभी को यही कहता कि जो है सो है सिवाय इस परिस्थिति के सामने लेट गो हों कोई और चारा नहीं। एक दिन जाना तो है ही… आगे या पीछे.. .कहते हैं ना कि हम सभी क्यू में लगे हैं, चलो हम क्यू में थोडा आगे सरक गये… ओशो के चरणों में जीवन बहुत ही सुंदर व हर आयाम में श्रेष्ठ रहा… अब आंखरी उत्सव.. .मृत्यु उत्सव… ओशो! मैं हर शिविर में सालों तक ध्यान के दौरान लगातार कहता रहा हूं……’उसकी अनुकंपा अपार है… ‘आज भी यही दोहराऊंगा. .उसकी अनुकंपा अपार है।

 

आज इति।

 


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

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