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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–47)

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मोरारी बापू ऐ प्‍यारे इंसान—(अध्‍याय—सैतालिसवां)

एकबार हम कुछ मित्र मोरारी बापू से मिलने गए। मैंने उनसे पूछा, ‘ आप रामायण की कथा करते हैं, मुझे एक प्रश्न पूछना है।’ वे मुस्कराकर बोले, ‘ स्वामी जी हमारे पूर्वज कथा सुनाते आते रहे हैं, हम भी सुना रहे हैं, हम तो अपने वाकचातुर्य से लोगों को खुश कर रहे हैं, लोगों का प्रेम हमें मिल रहा है, राम की कथा सुनाकर लोगों को सात्वनाभर देते हैं, अब प्रश्नों से क्या लेना—देना, ‘इस तरह से उन्होंने बात को टाल दिया। पर हां, वे एक बहुत ही प्यारे, भावुक इंसान हैं।

उनसे बात करते ‘आपुई गई हिराय’ श्रृंखला में ओशो द्वारा कही गई बात याद हो आई

‘अच्छी बात है यह कि तुम समझते हो कि यह वाकचातुर्य ही है, कहीं कोई सत्य नहीं है इसमें; केवल शब्द हैं, कहीं कोई निःशब्द का संगीत नहीं है। यह अच्छा लक्षण है। यह प्यारा लक्षण है। यह शुभ संकेत है। तुम कहते हो कि मैंने वाकचातुर्य से अपने पास एक समूह खड़ा किया है और समाज का मुझे बहुत प्रेम मिलता रहा है।

वह प्रेम नहीं है। वह तुम्हारे वाकचातुर्य को दिया गया आदर है। और वाकचातुर्य को भी क्यों आदर दिया गया है? वह भी इसीलिए कि तुम्हारा वाकचातुर्य या तो कृष्ण के पैरों में फूल चढ़ा रहा है या राम के चरणों पर सिर झुका रहा है या वेद की प्रशंसा है, स्तुति है। वह प्रेम तुम्हारे लिए नहीं है। तुम इस गलती में मत पड़ जाना।

यह ऐसा ही है जैसे गांव में रामलीला होती है, तो जो आदमी राम बनता है उसके चरणों में भी लोग सिर झुकाते हैं। हालांकि भलीभांति जानते हैं कि यह कौन है। गांव का ही आदमी है। लुच्चा—लफंगा भी हो सकता है। और अक्सर रामलीला वगैरह कौन करेंगे? कोई भलेमानुस करेंगे? ऐसे ही गांव के आवारा, जिन्हें और कोई काम नहीं। बरसात में आल्हा—ऊदल पढेंगे। फिर रामलीला खेलेंगे। यूं ही फिजूल के लोग। सबको पता है कौन सज्जन हैं ये। यूं तो घर में भी नियंत्रण न दें इनको। लेकिन अभी इनकी शोभायात्रा निकल रही है। अभी बारात जा रही है जनकपुरी। तो लोग उनके चरणों में फूल चढ़ा रहे हैं, पैसे चढ़ा रहे हैं, आरती उतार रहे हैं। दो दिन बाद इन्हीं को कोई पूछेगा नहीं। रामलीला खतम कि ये भी खतम।

अभी गांव की स्त्रियां इनके पैर दबा रही हैं। और दो दिन बाद अगर यह आदमी किसी स्त्री की तरफ गौर से देख लेगा—उन्हीं स्त्रियों की तरफ, अभी भी देख रहा है, मगर अभी रामचंद्र जी हैं, अभी तो बड़ी इनकी कृपा है, कृपा—कटाक्ष! अभी अगर मुस्कुरा दें तो क्या कहना! अभी तो राम का वाहन है। दो दिन बाद जब रामलीला खतम हो जाएगी, ये ही उन्हीं स्त्रियों में से किसी को गौर से देख लेगा, तो लोग कहेंगे कि लुच्चा है, उचक्का है।

लुच्चा का मतलब समझते हो? गौर से देखना! लुच्चा यानी लोचन। आंख गड़ा कर देखना! और उचक्का यानी ऊंचे हों—हों कर देखना। पैर के बल, अंगुलियों के बल खड़े हो—हो कर देखना। बड़े प्यारे शब्द हैं—लुच्चा, उचक्का, उठंगा! उठ—उठ कर देखना। मतलब बैठ कर देखने में अड़चन हो रही है तो घुटने टेक—टेक कर देख रहा है।

यही आदमी अभी अगर देख दे उन्हीं देवियों को तो कृपा की वर्षा हो गई, प्रसाद बरसा। और अभी भी इसके देखने का ढंग वही है। आदमी यह वही है। लेकिन दो दिन बाद सब बात बदल जाएगी। अभी यह शायद सोचता होगा कि अहा, मुझे कितना स्वागत मिल रहा है! कितना सम्मान मिल रहा है! दो दिन बाद जो मिलेगा वही इसका है, अभी तो जो इसको मिल रहा है वह राम को मिल रहा होगा। किसी और को मिल रहा है, यह तो केवल प्रतीक मात्र है। इसका काम तो पोस्टमैन से ज्यादा नहीं है।

यूं तो पोस्टमैन भी अच्छा सा पत्र ले आता है, शुभ—संवाद ले आता है, तो तुम उसे भी मिठाई खिला देते हो, शरबत पिला देते हो, बिठा कर दो प्रेम— भरी बातें कर लेते हो। लेकिन इसका यह मतलब मत समझ लेना, पोस्टमैन इस भ्रांति में न पड़ जाए कि यह स्वागत उसे मिल रहा है।

तुम यह गलती छोड़ दो कि लोगों से तुम्हें बहुत प्रेम मिला है। वह तुम्हें नहीं मिला है, तुम्हारी कथाओं के कारण मिला है, कथाओं को मिला है।’

 

आज इति।

 

 


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

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