सहजस्फूर्त अनुशासन है भक्ति– चौथा प्रवचन
दिनांक 14 जनवरी,
1976, श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्न-सार
1–जीवन की व्यर्थता का बोध ही क्या जीवन में अर्थवत्ता का प्रारंभ-बिंदु बन जाता है?
2–इस विराट अस्तित्व में मैं नाकुछ हूं, यह अप्रिय तथ्य स्वीकारने में बहुत भय पकड़ता है। इस भय से कैसे ऊपर उठा जाए?
3–आपसे मिलकर भी यदि हमारा उद्धार न हुआ, तब तो शायद असंभव ही है। कम से कम मुझ निरीह पर तो रहम खाइए।
4–कल के सूत्र में कहा गया कि लौकिक और वैदिक कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं और निरोध भक्ति का स्वभाव है। : और फिर, यह भी कहा गया कि भक्त को शास्त्रोक्त कर्म विधिपूर्वक करते रहना चाहिए। कृपया इस विरोध को स्पष्ट करें।
5–जिसे भक्ति में अनन्यता कहा है, क्या वही दर्शन का अद्वैत नहीं है?
पहला प्रश्न:
जीवन की व्यर्थता का बोध ही क्या जीवन में अर्थवत्ता का प्रारंभ-बिंदु बन जाता है?
बन सकता है, न भी बने। संभावना खुलती है, अनिवार्यता नहीं है। जीवन की व्यर्थता दिखायी पड़े तो परमात्मा की खोज श्दुरू हो सकती है–शुरू होगी ही, ऐसा जरूरी नहीं है।
जीवन की व्यर्थता पता चले तो आदमी निराश भी हो सकता है, आशा ही छोड़ दे, व्यर्थता में ही जीने लगे, व्यर्थता को स्वीकार कर ले, खोज के लिए कदम न उठाये–तो जीवन तो दूभर हो जाएगा, बोझ हो जाएगा, परमात्मा की यात्रा न होगी।
इतना तो सच है कि जिसने जीवन की व्यर्थता नहीं जानी, वह परमात्मा की खोज पर नहीं जाएगा; जाने की कोई जरूरत नहीं है। : अभी जीवन में ही रस आता हो तो किसी और रस की तरफ आंख उठाने का कारण नहीं है।
फिर जीवन की व्यर्थता समझ में आये तो दो संभावनाएं हैं: या तो तुम उसी व्यर्थता में रुककर बैठ जाओ और या उस व्यर्थता के पार सार्थकता की खोज करो–तुम पर निर्भर है। नास्तिक और आस्तिक का यही फर्क है, यही फर्क की रेखा है।
नास्तिक वह है जिसे जीवन की व्यर्थता तो दिखायी पड़ी, लेकिन आगे जाने की, ऊपर उठने की, खोज करने की सामर्थ्य नहीं है, रुक गया, नहीं में रुक गया, “हां’’ की तरफ न उठ सका, निषेध को ही धर्म मान लिया, विधेय की बात ही भूल गया।
आस्तिक नास्तिक से आगे जाता है।
आस्तिक नास्तिक का विरोध नहीं है, अतिक्रमण है। आस्तिक के जीवन में नास्तिकता का पड़ाव आता है, लेकिन उस पर वह रुक नहीं जाता। वह उसे पड़ाव ही मानता है और उससे मुक्त होने की चेष्टा में संलग्न हो जाता है। क्योंकि जहां “नहीं’’ है, वहां “हां“ भी होगा। और जिस जीवन में हमने व्यर्थता पहचान ली है, उस जीवन के किसी तल की गहराई पर सार्थकता भी छिपी होगी; अन्यथा व्यर्थता का भी क्या अर्थ होता है?
जिसने दुख जाना वह सुख को जानने में समर्थ है, अन्यथा दुख को भी न जान सकता। जिसने अंधकार को पहचाना उसके पास आखें हैं जो प्रकाश को भी पहचानने में समर्थ हैं।
अंधों को अंधेरा नहीं दिखायी पड़ता। साधारणत: हम सोचते हैं कि अंधे अंधेरे में जीते होंगे–गलत है खयाल। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। अंधेरा भी आंख की ही प्रतीति है। तुम्हें अंधेरा दिखायी पड़ता है आंख बंद कर लेने पर, क्योंकि अंधेरे को तुमने देखा है। जन्म से अंधे, जन्मांध व्यक्ति को अंधेरा भी दिखायी नहीं पड़ता। देखा ही नहीं है कुछ, अंधेरा कैसे दिखायी पड़ेगा?
तो जिसको अंधेरा दिखायी पड़ता है, उसके पास आंख है; अंधेरे में ही रुक जाने का कोई कारण नहीं है। और जब अंधेरा अंधेरे की तरह मालूम पड़ता है तो साफ है कि तुम्हारे भीतर छिपा हुआ प्रकाश का भी कोई स्रोत है, अन्यथा अंधेरे को अंधेरा कैसे कहते? कोई कसौटी है तुम्हारे भीतर, कहीं गहरे में छिपा मापदंड है।
अंधेरे पर कोई रुक जाए तो नास्तिक; अंधेरे को पहचान कर प्रकाश की खोज में निकल जाए तो आस्तिक। अंधेरे को देखकर कहने लगे कि अंधेरा ही सब कुछ है तो नास्तिक; अंधेरे को जानकर अभियान पर निकल जाए, खोजने निकल जाए, कि प्रकाश भी कहीं होगा, जब अंधेरा है तो प्रकाश भी होगा। क्योंकि विपरीत सदा साथ मौजूद होते हैं।
जहां जन्म है वहां मृत्यु होगी। जहां अंधेरा है वहां प्रकाश होगा। जहां दुख है वहां सुख होगा। जहां नरक अनुभव किया है तो खोजने की ही बात है, स्वर्ग भी ज्यादा दूर नहीं हो सकता। स्वर्ग और नरक पड़ोस-पड़ोस में हैं, एक-दूसरे से जुडे हैं।
अगर तुमने जीवन में क्रोध का अनुभव कर लिया तो समझ लेना कि करुणा भी कहीं छिपी है–खोजने की बात है। तुमने पहली परत छू ली करुणा की! क्रोध पहली परत है करुणा की। अगर तुमने धूणा को पहचान लिया तो प्रेम को पहचानने में देर भला लगे, लेकिन असंभावना नहीं है। प्रश्र महत्वपूर्ण है।
जीवन की व्यर्थता तो अनिवार्य है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। उतना जरूरी है। उतना तो चाहिए ही। पर उस पर तुम रुक भी सकते हो।
पश्चिम में बड़ा विचारक है: ज्या पाल सार्त्र। वह कहता है, अंधेरा ही सब कुछ है। दुख ही सब कुछ है। दुख के पार कुछ भी नहीं है। दुख के पार तो सिर्फ मनुष्यों की कल्पनाओं का जाल है। विषाद सब कुछ है। संताप सब कुछ है। संत्रास सब कुछ है। बस नरक ही है, स्वर्ग नहीं है।
बुद्ध ने भी एक दिन जाना था : दुख है। सार्त्र ने भी जाना कि दुख है। यहां तक दोनों साथ-साथ हैं, फिर राहें अलग हो जाती हैं। फिर बुद्ध ने खोजा कि दुख क्यों हैं। और दुख है तो दुख के विपरीत दुख का निरोध भी होगा। तो वे खोज पर गये। दुख का कारण खोजा। दुख मिटाने की विधियां खोजीं, और एक दिन उस स्थिति को उपलब्ध हो गये, जो दुख- निरोध की है, आनंद की है।
सार्त्र पहले कदम पर रुक गया। बुद्ध के साथ थोड़ी दूर तक चलता है, फिर ठहर जाता है। वह कहता है, “आगे कोई मार्ग नहीं है, बस यहीं सब समाप्त हो जाता है।
तो सार्त्र अंधकार को ही स्वीकार करके जीने लगा, ऐसे ही तुम भी जी सकते हो। तब तुम्हारा जीवन एक बड़ी उदासी हो जाएगी। तब तुम्हारे जीवन से सारा रस सूख जाएगा। तब तुम्हारे जीवन में कोई फूल न खिलेंगे, कांटे- ही- कांटे रह जाएंगे। अगर कोई फूल खिलेगा भी तो तुम कहोगे कि कल्पना है, तुम उसे स्वीकार न करोगे। अगर किसी और के जीवन में फूल खिलेगा तो तुम इनकार करोगे कि झूठ होगा, आत्मवचना होगी, धोखा होगा, बेईमानी होगी, फूल होते ही नहीं। तो तुमने अपने ही हाथ कारागह में बंद कर लिया। फिर तुम तड़पोगे। कोई दूसरा तुम्हें इस कारागृह के बाहर नहीं ले जा सकता। अगर तुम्हारी ही तडुफ तुम्हें बाहर उठने की सामर्थ्य नहीं देती और तुम्हारी ही पीड़ा तुम्हें नयी खोज का संबल नहीं बनती, तो कौन तुम्हें उठायेगा, लेकिन एक-न-एक दिन उठोगे, क्योंकि पीड़ा को कोई शाश्र्वत रूप से स्वीकार नहीं कर सकता। एक जन्म में कोई सार्त्र हो सकता है, सदा-सदा के लिए कोई सार्त्र नहीं हो सकता, आज सार्त्र हो सकता है, सदा-सदा के लिए सार्त्र नहीं हो सकता, क्योंकि दुख का स्वभाव ऐसा है कि उसे स्वीकार करना असंभव है।
दुख का अर्थ ही होता है कि जिसे हम स्वीकार न कर सकेंगे। घड़ी-भर को समझा लें, बुझा लें कि ठीक है, यही सब कुछ है, इससे आगे कुछ भी नहीं है, लेकिन फिर- फिर मन आगे जाने लगेगा। क्योंकि मन जानता है गहरे में, सुख है। उसी आधार पर तो हम पहचानते हैं दुख को। हमने जाना है, शायद गहरी नींद में सुख का थोड़ा-सा स्वाद मिला है। पतंजलि ने योग-सूत्र में समाधि की व्याख्या सुषुप्ति से की है कि वह प्रगाढ़ निद्रा है। जैसा सुषुप्ति में सुख मिलता है सुबह उठकर, रात गहरी नींद सोये, कुछ याद नहीं पड़ता, लेकिन एक भीनी-सी सुगंध सुबह तक भी तुम्हें घेरे रहती है। कुछ याद नहीं पड़ता कहां गये, क्या हुआ, लेकिन गये कहीं और आनंद से सराबोर होकर लौटे! कहीं डुबकी लगायी!
अपने में ही कोई गहरा तल छुआ!
कहीं विश्राम मिला!
कोई छाया के तले ठहरे!
वहां धूप न थी!
वहां गहरी शांति थी!
वहां कोई विचारों की तरंगें भी न पहुंचती थी।
कोई स्वप्न के जाल भी न थे!
अपने में ही कोई ऐसी गहरी शरण,
कोई ऐसा गहरा शरण-स्थल पा लिया।
सुबह उसकी सिर्फ हलकी खबर रह जाती है।
दूर सुने गीत की गुन-गुन रह जाती है।
रात गहरी निद्रा सोये तो सुबह तुम कहते हो,
बड़ी गहरी नींद आयी, बड़े आनंदित उठे!
शायद गहरी निद्रा में तुम वहीं जाते हो जहां योगी समाधि में जाता है। गहरी निद्रा में तुम वहीं जाते हो जहां भक्ति भाव की अवस्था में पहुंचाती है। गहरी निद्रा में तुम उसी तल्लीनता को छूते हो जिसको भक्त भगवान में डूबकर पाता है। थोड़ा फर्क है। तुम बेहोशी में पाते हो, वह होश में पाता है। वही फर्क बड़ा फर्क है।
इसलिए सुबह तुम इतना ही कह सकते हो,”सुखद है! अच्छी रही रात। “ लेकिन भक्त नाचता है, क्योंकि यह कोई बेहोशी में नहीं पाया अनुभव, होश में पाया।
तो कभी नींद के किन्हीं क्षणों में तुमने भी जाना है, तभी तो तुम दुख को पहचानते हो, नहीं तो पहचानोगे कैसे,शायद बचपन के क्षणों में जब मन भोला- भाला था और संसार ने मन विकृत न किया था, वासनाएं अभी जगी न थीं, कामनाओं ने अभी खेल शुरू न किया था, अभी तुम ताजेताजे परमात्मा के घर से आये थे—तब शायद सुबह की धूप में बैठे हुए, फूलों को बगीचे में चुनते हुए, या तितलियों के पीछे दौड़ते हुए, तुमने कुछ सुख जाना है जो विचार के अतीत है, तुमने कोई तल्लीनता जानी है जहां तुम खो गये थे, कोई विराट सागर रह गया था, बूंद ने अपनी सीमा छोड़ दी थी! फिर अब भूली- सी बात हो गयी, भूली- बिसरी बात हो गयी। अब याद भी नहीं आता।
बस इतना ही लोग कहे चले जाते हैं कि बचपन बड़ा स्वर्ग जैसा था। कोई जोर डाले तुम पर तो तुम सिद्ध न कर पाओगे कि क्या स्वर्ग था! अगर कोई तर्कयुक्त व्यक्ति मिल जाए, कहे कि सिद्ध करो, “क्या था बचपन में स्वर्ग? तो तुम सिद्ध न कर पाओगे। वह भी गहरी नींद का अनुभव हो गया अब। अब याद रह गयी है। खुद भी तुम्हें पक्का भरोसा नहीं है कि ऐसा हुआ था, भूल ही गया है। क्योंकि जिसकी तुम्हारे जीवन से संगति नहीं बैठती, वह धीरे-धीरे विस्मरण हो जाता है। धीरे-धीरे तुम उसी को याद रख पाते हो, जिसका तुम्हारे मन के ढांचे से मेल बैठता है, बेमेल बातों को हम छोड़ देते हैं। बेमेल बातों को याद रखना मुश्किल हो जाता है।
तो कहीं-न-कहीं कोई अनुभव तुम्हारे भीतर है। कभी प्रेम के गहरे क्षण में, किसी से प्रेम हुआ हो, मन ठिठक गया हो, सौंदर्य के साक्षात्कार में, या कभी चांदनी रात में आकाश को देखते हुए, मन मौन हो गया हो, तो तुमने सुख की झलक जानी। एक किरण तुम्हारे जीवन में कभी- न-कभी उतरी है। उसी से तो तुम पहचानते हो कि यह अंधेरा है। किरण न जानी हो तो अंधेरे को अंधेरा कैसे कहोगे, अंधेरे की प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी, पहचान कैसे होगी, पहचान तो विपरीत से होती है।
तो जो रुक जाए जीवन की व्यर्थता पर, वह नास्तिक। इसलिए नास्तिक को मैं आस्तिक जितना साहसी नहीं कहता। जल्दी रुक गया। पड़ाव को मुकाम समझ लिया! आगे जाना है। और आगे जाना है!
एक बड़ी पुरानी सूफी कथा है कि एक फकीर जंगल में बैठा था। वह रोज एक लकड़हारे को लकड़ियां काटते हुए, ले जाते जाते देखता था। उसकी दीनता, उसके फटे कपड़े, उसकी हड्डियों से भरी देह! उसे दया आ गयी! वह लकड़हारा जब भी निकलता था तो उसके चरण छू जाता था। एक दिन उसने कहा कि कल जब तू लकड़ी काटने जाए, तब आगे जा, और आगे जा! लकड़हारा कुछ समझा नहीं, लेकिन फकीर ने कहा है तो कुछ मतलब होगा। ऐसे कभी यह फकीर बोलता न था, पहली दफा बोला है : आगे जा, और आगे जा!”
तो जहां वह लकड़ियां काटता था, जंगल में थोड़ा आगे गया, चकित हुआ : सुगंध से उसके नासापुट भर गये! चंदन के वृक्ष थे। वहां तक यह कभी गया ही न था। उसने चंदन की लकड़ियां काटीं। चंदन को बेचा तो उस रात खुशी में रोया, दुख में भी खुशी में भी, कि अगर यही लकड़ियां अब तक काटकर बेची होतीं तो करोड़पति हो गया होता। पर अब गरीबी मिट गयी।
दूसरे दिन जब चंदन की लकड़ी फिर काट रहा था तो उसे खयाल आया कि फकीर ने यह नहीं कहा था कि चंदन की लकड़ी तक जा, उसने कहा था, “और आगे, और आगे!” तो उसने चंदन की लकड़ियां न काटीं, और आगे गया, तो देखा कि चांदी की एक खदान है। फिर तो उसके हाथ में एक सूत्र लग गया। फिर और आगे गया तो सोने की खदान! फिर और आगे गया तो हीरों की खदान पर पहुंच गया।
और आगे, जब तक कि हीरों की खदान न आ जाए! उसको ही हम परमात्मा कहते हैं।
तुम लकड़हारा की तरह लकड़ियां ही बेच रहे हो, थोड़ी ही दूर आगे चंदन के वन हैं। तुम विचारों में ही उलझे हो जहां लकड़ियां ही लकड़ियां हैं। बड़ी सस्ती उनकी कीमत है।
थोड़े निर्विचार में चलो : चंदन के वन हैं।
बड़ी सुगंध है वहां!
और थोड़े गहरे चलो तो समाधि ही खदानें हैं!
और गहरे चलो तो निर्बीज समाधि,
निर्विकल्प समाधि की खदानें हैं!
और गहरे चलो तो स्वयं परमात्मा है!
योगी कदम-कदम जाता है, रुक-रुककर जाता है, कई पड़ाव बनाता है। भक्त सीधा जाता है, नाचता हुआ जाता है, रुकता नहीं, पड़ाव भी नहीं बनाता। वह सीधा तल्लीनता में डूब जाता है।
योगी से भी ज्यादा हिम्मत भक्त की है। नास्तिक से ज्यादा हिम्मत आस्तिक की है। योगी से भी ज्यादा हिम्मत भक्त की है। क्योंकि भक्त सीढ़ियां भी नहीं बनाता, एक गहरी छलांग लेता है। जिसमें अपने को डुबा देता है, मिटा देता है।
इस अनुभव पर आना अत्यंत जरूरी है कि जीवन व्यर्थ है।
“अंधेरी रात काने तलातुम नाखुदा गाफिल
यह आलम है तो फिर किश्ती, सरे मौजेरवा कब तक?
“अंधेरी रात!” सब तरफ अंधेरा है। कुछ सूझता नहीं है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। “ काने तलातुम “! बड़ी आधिया हैं, बड़े तूफान हैं, सब उखड़ा जाता है, कुछ ठहरा नहीं मालूम पड़ता, बड़ी अराजकता है। “नाखुदा गाफिल “! और जिसके हाथ में कश्ती है, वह जो मांझी है, वह सोया हुआ है, बेहोश है।” “यह आलम है “, ऐसी हालत है, तो फिर किश्ती सरे मौजेरवा कब तक, “ तो इस किश्ती का भविष्य क्या है? यह नाव अब डूबी तब डूबी! इस नाव में आशा बांधनी उचित नहीं। इस नाव के साथ बंधे रहना उचित नहीं।
लेकिन जाओगे कहां, भागोगे कहां, यही कश्ती तो जीवन है। तुम सोये हो मूर्च्छित, तूफान भयंकर है, अंधेरी रात है, डूबने के सिवाय कोई जगह दिखायी नहीं पड़ती।
लेकिन डूबना दो ढंग का हो सकता है। एक : कश्ती डुबाये तब तुम डुबो और एक, कि कश्ती में बैठे-बैठे तुम डूबने के लिए कोई सागर खोज लो। उस सागर को ही हम परमात्मा कहते है।
“अच्छा यकीं नहीं है तो कश्ती डुबो के देख
एक तू ही नाखुदा नहीं, जालिम! खुदा भी है। “
तो फिर हिम्मत आ जाती है, फिर आदमी कहता है कि ठीक है। तो अगर मांझी! तू चाहता ही है कि कश्ती डुबानी है तो डुबाकर देख! एक तू ही नाखुदा नहीं जालिम! खुदा भी है। “ तू ही अकेला नहीं है, मांझी! तुझसे ऊपर खुदा भी है।
फिर अंधेरी रात, तूफान, कश्ती का अब डुबा तब डुबा होना, सब दूर की बातें हो जाती हैं। तुम भीतर कहीं एक ऐसी जगह लंगर डाल देते हो, जहां तूफान छूते ही नहीं, जहां रात का अंधेरा प्रवेश ही नहीं करता। और जहां किसी नाखुदा की, किसी मांझी की जरूरत नहीं है, क्योंकि वहां परमात्मा ही मांझी है।
जरूरी है कि जीवन की व्यर्थता दिखायी पड़ जाए। बहुत हैं जो जीवन की व्यर्थता बिना देखे आस्तिकता में अपने को डुबाने की चेष्टा करते हैं, वे कभी न डूब पाएंगे। वे चुल्लूभर पानी में डूबने की चेष्टा कर रहे हैं। वे अपने को धोखा दे रहे हैं।
जब तक तुम्हारे जीवन की जड़ें उखड़ न गयी हों, जब तक तुमने गहन झंझावात नास्तिकता के न झेले हों, जब तक तुम्हारा रोआ-रोआ कैप न गया हो जीवन के अंधकार से, जब तक तुम्हारी छाती भयभीत न हो गयी हो–तब तक तुम जिस आस्तिकता की बातें करते हो, वह सांत्वना होगी, सत्य नहीं, तब तक तुम जिन मंदिरों और मस्जिदों में पूजा- उपासना करते हो, वह पूजा-उपासना धोखा- धड़ी है। वह तुम्हारा औपचारिक व्यवहार है। वह संस्कारवशात है। उससे तुम्हारे जीवन का सीधा कोई संबंध नहीं है। उसे तो तुम्हें अपने को चुकाकर ही, अपने को दान में देकर ही, अपना सर्वस्व लुटाकर ही पाना होगा। वह तो तुम जब तक सूली पर न लटक जाओ, तब तक उस सिंहासन तक न पहुंच पाओगे।
तो पहली तो स्मरण रखने की बात यह है कि कहीं जल्दी में आस्तिक मत हो जाना। यह कोई जल्दी का काम नहीं है। बड़ी गहन प्रतीक्षा चाहिए। और यह कोई सांत्वना नहीं है कि तुम ओढ़ लो, संक्रांति है। सांत्वना नहीं है परमात्मा, संक्रांति है, महाक्रांति है। तुम जो हो, मिटोगे, और तुम जो होने चाहिए वह प्रगट होगा।
तो सस्ती आस्तिकता कहीं नहीं ले जाती। सस्ती आस्तिकता से तो असली नास्तिकता बेहतर है, कम-से-कम उस परिधि पर तो खड़ा कर देती है, जहां से कदम चाहो तो उठा सकते हो। झूठी आस्तिकता से तो कोई कभी नहीं गया है, जा ही नहीं सकता। झूठी प्रार्थना कभी नहीं सुनी गयी है। तुम कितने ही जोर से चिल्लाओ, तुम्हारी आवाज के जोर से प्रार्थना का कोई संबंध नहीं है, तुम्हारे हृदय की सच्चाई से, तुम्हारी विनम्रता से, तुम्हारे निरहंकार- भाव से, तुम्हारे असहाय-भाव से, जब तुम्हारी प्रार्थना उठेगी तो पहुंच जाती है, तो जर्रा-जरी, कण-कण अस्तित्व का तुम्हारा सहयोगी हो जाता है।
तो पहले तो झूठी आस्तिकता से बचना, फिर नास्तिकता में मत उलझ जाना। नास्तिक होना जरूरी है, बने रहना जरूरी नहीं है। एक ऐसी घड़ी आएगी जब अंधेरा ही अंधेरा दिखायी पड़ेगा, तूफान ही तूफान होंगे, कहीं कोई सहारा न मिलेगा, सब सहारे झूठ मालूम होंगे, राह भटक जाएगी, तुम बिलकुल अजनबी की तरह खड़े रह जाओगे, जिसका कोई सहारा नहीं, जो एकाकी है–तब घबड़ा कर बैठ मत जाना, यहीं से शरुआत होती है। यहीं से अगर तुमने आगे कदम उठाया, तो उपासना, भक्ति! यहीं से आगे कदम उठाया तो संसार के पार परमात्मा की शरुआत होती है।
झूठी नास्तिकता से बचना है, झूठी आस्तिकता से बचना है। नास्तिकता सच्ची हो तो भी उसको घर नहीं बना लेना है। असली नास्तिकता के दुख को झेलना है ताकि उस पीड़ा के बाहर असली आस्तिकता का जन्म हो सके।
दूसरा प्रश्न :
इस विराट अस्तित्व में मैं नाकुछ हूं, यह अप्रिय तथ्य स्वीकारने में बहुत भय पकड़ता है। इस भय से कैसे ऊपर उठा जाए?
“अप्रिय “ कहोगे तो शुरू से ही व्याख्या गलत हो गयी, फिर भय पकड़ेगा। “ अप्रिय “ कहना ही गलत है।
फिर से सोचो : नाकुछ होने में अप्रिय क्या है, वस्तुत : कुछ होने में अप्रिय है। क्योंकि जीवन के सारे दुख तुम्हारे “कुछ होने “ के कारण पैदा होते हैं। अहंकार घाव की तरह है। और जब तुम्हारे भीतर घाव होता है–और अहंकार से बड़ा कोई घाव नहीं, नासूर है–तो हर चीज की चोट लगती है, हर चीज से चोट लगती है, हर चीज से पीड़ा आती है, जरा कोई टकरा जाता है और पीड़ा आती है, हवा का झोंका भी लग जाता है तो पीड़ा आती है, अपना ही हाथ छू जाता है तो पीड़ा आती है।
अहंकार का अर्थ है : मैं कुछ हूं।
अगर तुम जीवन की सारी पीड़ाओं की फेहरिश्त बनाओ तो तुम पाओगे कि वे सब अहंकार से ही पैदा होती हैं। लेकिन तुमने कभी गौर से इसे देखा नहीं। तुम तो सोचते हो कि पीड़ा तुम्हें दूसरे लोग देते हैं।
किसी ने तुम्हें गाली दी, तो तुम सोचते हो, यह आदमी गाली देकर मुझे पीड़ा दे रहा है। व्याख्या की भूल है। विश्लेषण की चूक है। दृष्टि का अभाव है। आंख खोलकर फिर से देखो। इस आदमी की गाली में अगर कोई भी पीड़ा है तो इसीलिए है कि तुम्हारे भीतर अहंकार उस गाली से छूकर दुखी होता है। अगर तुम्हारे भीतर अहंकार न हो तो इस आदमी की गाली तुम्हारा कुछ भी न बिगाड़ पाएगी। तुम उस आदमी की गाली को सुन लोगे और अपने मार्ग पर चल पड़ोगे। हो सकता है, इस आदमी की गाली तुम्हारे मन में करुणा को भी जगाये कि बेचारा नाहक ही व्यर्थ की बातों में पड़ा है। लेकिन गाली उसकी तुम्हें पीड़ा दे जाती है, क्योंकि तुम्हारे पास एक बड़ा मार्मिक स्थल है, जो तैयार ही है पीड़ा पकड़ने को। बड़ा संवेदनशील है! बड़ा नाजुक है! और हर घड़ी तैयार है कि कहीं से पीड़ा आये तो…वह पीड़ा पर ही जीता है।
तो जरूरी नहीं कि कोई गाली दे, राह पर कोई बिना नमस्कार किये निकल जाए तो भी पीड़ा आ जाती है। कोई तुम्हें देखे और अनदेखा कर दे तो भी पीड़ा आ जाती है। राह पर दो आदमी हंस रह हों तो भी पीड़ा आ जाती है कि शायद मुझ पर ही हंस रहे हैं। दो आदमी एक-दूसरे के कान में खुसरफुसर कर रहे हों तो पीड़ा आ जाती है कि शायद मेरे लिए ही…। यह जो “मैं “ है, बड़ा रुग्ण है! इसको लेकर तुम कभी भी स्वस्थ और सुखी न हो पाओगे। और यही अहंकार तुमसे कहता है, “डरो, प्रेम से डरो, क्योंकि प्रेम में इसे छोड़ना पड़ेगा। भक्ति से डरो, क्योंकि भक्ति में तो यह बिलकुल ही डूब जाएगा, प्रेम में क्षणभर को डूबेगा, भक्ति में शाश्वत, सदा के लिए डूब जाएगा। बचो!
यह अहंकार कहता है, “ऐसी जगह जाओ ही मत जहां डूबने का हर हो। बचकर चलो!
संभलकर चलो। “
और यही अहंकार तुम्हारी पीड़ा का कारण है!
ऐसा समझो कि नासूर लिये चलते हो और चिकित्सक से बचते हो।
“इस विराट अस्तित्व में मैं नाकुछ हूं, यह अप्रिय तथ्य स्वीकारने में बहुत भय पकड़ता है।
“यह भय तुम्हें नहीं पकड़ रहा है, यह भय उसी अहंकार को पकड़ रहा है जो कि डूबने से, तल्लीन होने से भयभीत है। क्योंकि तल्लीनता का अर्थ मौत है—अहंकार की मौत, तुम्हारी नहीं! तुम्हारे लिए तो जीवन का नया द्वार खुलेगा। उसी मृत्यु से तुम पहली बार अमृत का दर्शन करोगे। लेकिन तुम्हारे लिए, अहंकार के लिए नहीं!
यह जो तुम्हारे भीतर “मैं “ की गांठ है, यह गांठ दुख दे रही है। इस अप्रिय “मैं “ को पहचानो, तो तुम पाओगे कि निरहकारिता से ज्यादा प्रीतिकर और कुछ भी नहीं।
और जिसे निरहकारिता आ गयी, सब आ गया! फिर उसे किसी मंदिर में जाने की जरूरत नहीं। निरहकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, वह पत्थरों के मंदिरों में जाए भी क्यों!
निरहकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, उसके तो अपने ही भीतर के मंदिर के द्वार खुल गये!
“अदब-आमोज है मैखाने का जरा-जर्रा
सैकड़ों तरफ से आ जाता है सिजदा करना।
इश्क पाबंदेवफा है, न पाबंदे-रसूम
सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिजदा करना। “
“अदब-आमोज है मैखाने का जरी-जर्रा। “
अगर तुम गौर से देखो तो अस्तित्व का कण-कण विनम्रता सिखा रहा है। पूछो वृक्षों से; पूछो पर्वतों से, पहाड़ों से; पूछो झरनों से, पक्षियों से, पशुओं से कहीं अहंकार नहीं हैं।
“अदब-आमोज है मैखाने का जुरी-जूरी। “
एक-एक कण पूरा अस्तित्व एक ही बात सिखा रहा है नाकुछ हो जाओ।
“सैकड़ों तरह से आ जाता है सिजदा करना।
और अगर तुम इन बातों को सुनो जो अस्तित्व में गूंज रही हैं सब तरफ से, सब दिशाओं से, तो सैकड़ों रास्ते हैं जिनसे उपासना का सूत्र तुम्हारे हाथ में आ जाएगा, सिजदा करना आ जाएगा, झुकने की कला आ जायेगी।
जरूरी नहीं है कि तुम शास्त्र ही पढ़ो; अस्तित्व के शास्त्र से बड़ा कोई और शास्त्र नहीं है। जरूरी नहीं है कि तुम ज्ञानियों से ही सीखो; तुम अगर आंख खोलकर देखो तो सारा अस्तित्व तुम्हें सिखाने को तत्पर है।
यहां आदमी के सिवाय कोई अहंकार से पीड़ित नहीं है और इसलिए सिवाय आदमी के यहां कोई भी पीड़ित नहीं है। आदमी ही परेशान है। वृक्ष परेशान नहीं; सिजदा में खड़े हैं। सतत चल रही है पूजा।
आदमी की पूजा घड़ी दो घड़ी की होती है; अस्तित्व की पूजा सतत है। तुम कभी आरती उतारते हो; तारे, चांद, सूरज उतारते ही रहते हैं आरती। चौबीस घंटे। सतत।
तुम कभी एक फूल चढ़ा आते हो; वृक्ष रोज ही चढ़ाते रहते हैं फूल। तुम कभी जाकर मंदिर में एक गीत गुनगुना आते हो; पक्षी सुबह से सांझ तक गुनगुना रहे हैं। अगर गौर से देखो तो तुम सारे अस्तित्व को सिजदा करता हुआ पाओगे। सारा अस्तित्व झुका है, घुटनों पर हाथ जुड़े हैं, आखों से आसुओ की धार बह रही है, हृदय से सुगंध उठ रही है।
फिर से देखो। देखा तो तुमने भी है इसे, ठीक से आंख से नहीं देखा। फिर से देखो तुम हर वृक्ष को झुका हुआ पाओगे प्रार्थना में; हर झरने को उसी का गीत गाता हुआ पाओगे।
“अदब-आमोज है मैखाने का जुरी-जूरी
सैकड़ों तरह से आ जाता है सिजदा करना। “
“इश्क पाबंदेवफा है…..।
प्रेम आस्था की बात है, श्रद्धा की बात है, भरोसे की बात है।
“इश्क पाबंदेवफा है, न कि पाबंदे-रज्य! “
वह कोई नीति-नियम की बात नहीं है, कोई रज्य की बात नहीं है, कोई नियम के आचरण की, विधि-अनुशासन की बात नहीं है—सिर्फ आस्था की बात है। कोई मुसलमान होना जरूरी नहीं है, कोई हिंदू होना जरूरी नहीं है, कोई ईसाई होना जरूरी नहीं है—क्योंकि ये सब तो रीति- नियम की बातें हैं, धार्मिक होने के लिए इनकी कोई भी जरूरत नहीं है, सिर्फ आस्था काफी है। आस्था न हिंदू है न मुसलमान, आस्था न जैन है न बौद्ध—आस्था वि शेषण- रहित है, उतना ही विशेषण- रहित है जितना कि परमात्मा।
“इश्क पाबंदेवफा है, न कि पाबंदे-रज्य। “
तो तुम कोई रीति- नियम से प्रार्थना मत करने बैठ जाना। सीख मत लेना प्रार्थना करना, क्योंकि वही अड़चन हो जाएगी असली प्रार्थना के जन्म होने में। प्रार्थना सहजस्फूर्त हो!
सूर्य के सामने सुबह बैठ जाना, जो तुम्हारे हृदय में आ जाए, कह देना, न कुछ आये, चुपचाप रह जाना। सूरज कुछ कहे, सुन लेना, न कहे तो उसके मौन में आनंदित हो लेना। बंधी हुई प्रार्थनाएं मत दोहराना, क्योंकि बंधी हुई प्रार्थनाएं कंठों में हैं, उससे नीचे नहीं जातीं, बस कंठों तक जाती हैं, कंठों से आती हैं।
इसलिए अक्सर तुम पाओगे कि जिनको प्रा र्थनाएं याद हो गयी हैं, वे प्रार्थनाएं से वंचित हो गये हैं। वे प्रार्थना करते रहते हैं, उनके ओंठ दोहराते रहते हैं मंत्रों को और उनके भीतर विचारों का जाल चलता रहता है। फिर धीरे-धीरे तो यह इतनी आदत हो जाती है दोहराने की कि उससे कोई बांधा ही नहीं पड़ती, भीतर दुकान चलती रहती है, ओंठों पर मंदिर चलता रहता है।
“इश्क पाबंदेवफा है, न कि पाबंदे- रज्य! “
प्रेम जानता ही नहीं रीति – रिवाज, क्योंकि प्रेम आखिरी नियम है। किसी और व्यवs था की जरूरत नहीं है, प्रेम पर्याप्त है। प्रेम की अराजकता में भी एक अनुशासन है। वह अनुशासन सहजस्फूर्त है।
“सर झुकाने को नहीं कहते हैं सिजदा करना! “
और सिर्फ सिर झुकाने का नाम प्रा र्थना नहीं है, खुद के झुक जाने का नाम प्रा र्थना है। सिर झुकाना तो बड़ा आसान है।
मेरे पास लोग बच्चों को लेकर आ जाते हैं। वे खेद सिर झुकाते हैं, बच्चे खड़े रह जाते हैं, तो मां उसका सिर पकड़कर चरणों में झुका देती है। मैं उनको कहता हूं, “यह तुम क्या ज्यादती कर रहे हो, “ वह बच्चा अकड़ रहा है, वह खडा है, उसके सिर नहीं झुकाना है, कोई कारण नहीं है सिर झुकाने का, उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है, मां उसका सिर झुका रही है, रसूम सिखाया जा रहा है, नियम सिखाया जा रहा है। वह धीरे-धीरे अभ्यस्त हो जाएगा। बड़ा होते-होते किसी को झुकाने की जरूरत न रह जाएगी, खुद ही झुकने लगेगा, लेकिन हर झुकने में वह मां का हाथ इसकी गर्दन पर रहेगा। यह बुढापे तक जब भी झुकेगा, तब इसे कोई झुका रहा है वस्तुत : यह खुद नहीं झुक रहा है।
तुमने कभी खयाल किया, तुम मंदिर में जाकर झुकते हो, यह सिर्फ एक आदत है या आस्था है, क्योंकि बचपन से मां-बाप इस मंदिर में ले गये थे, झुकाया था, एक दिन तुम्हारी गर्दन को… तुम्हें सभी को याद होगा कि किसी न किसी दिन मां-बाप ने तुम्हारी गर्दन को झुकाया था किसी पत्थर की मूर्ति के सामने, किसी मंदिर में, किसी शास्त्र के सामने, किसी गुरु के सामने। याद करो उस दिन को। फिर धीरे-धीरे तुम अम्यस्त हो गये। फिर तुम भी संसार के रीति-नियम समझने लगे। फिर तुमने भी औपचारिकता सीख ली। वह बच्चा ज्यादा श्दुद्ध है जो सीधा खड़ा है। उसे झुकना नहीं, बात खत्म हो गयी। झुकने का उसे कोई कारण समझ में नहीं आता, बात खत्म हो गयी। मां उसे एक झूठ सिखा रही है। समाज सभी को झूठ सिखा रहा है, औपचारिक आचरण सिखा रहा है। फिर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे परम पर परत जमते-जमते ऐसी घड़ी आ जाती है कि तुम बड़ी सरलता से झुकते हो, और बिना जाने कि यह भी तुम्हारा झुकना नहीं है। यह सरलता भी झूठी है। इस सरलता में भी समाज के हाथ तुम्हारी गर्दन को दबा रहे हैं। इस सरलता में भी तुम्हारी गुलामी है।
और प्रेम, गुलामी से कहीं पैदा हुआ, परतंत्रता से कहीं पैदा हुआ, भक्ति तो परम स्वतंत्रता है। इसलिए छोड़ दो वह सब जो तुम्हें सिखाया गया हो, ताकि “अन-सीखे “ का जन्म हो सके। हटा दो वह सब जो दूसरों ने जबरदस्ती से तुम्हारे ऊपर लादा हो! निर्बोझ हो जाओ!
फिर से सीखना पड़ेगा पाठ।
तुम्हारी स्लेट पर बहुत कुछ दूसरों ने लिख दिया है। खाली करो उसे! धो डालो! ताकि फिर से तुम अपने स्वभाव के अनुकूल कुछ लिख सको।
“इश्क पाबंदेवफा है, न कि पाबंदे-रसूम
सर झुकाने का नहीं कहते हैं सिजदा सिजदा करना। “
प्रार्थना बड़ी अभूतपूर्व घटना है।
झुकना! उसके आगे तो फिर कुछ और नहीं वह तो आखिरी बात है। क्योंकि जो झुक गया, उसने पा लिया! जो झुक गया वह भर गया! वह भर दिया गया!
तुम तो रोज झुकते हो, कुछ भरता नहीं। तुम तो रोज झुकते हो, खाली हाथ आ जाते हो। धीरे, धीरे तुम्हें ऐसा लगने लगता है कि जिसके सामने झुक रहे हैं वह परमात्मा झूठ है, क्योंकि इतनी बार झुके, कुछ हाथ नहीं आता। मैं तुमसे कहता हूं, वह परमात्मा तो सच है, तुम्हारा झुकना झूठा है। तुम कभी झुके ही नहीं।
दुनिया में नास्तिकता बढ़ती जाती है, क्योंकि झूठी आस्तिकता कब तक साथ दे! जबरदस्ती झुकाई गयी गर्दनें कभी न कभी अकड़कर खड़ी हो जायेगी। और इतने बार झुकने के बाद जब कुछ भी न मिलेगा, तो स्वाभाविक है कि आदमी कहे, “क्या सार है, क्यों झुके?
और स्वाभाविक है कि आदमी कहे, “इतनी बार झुककर कुछ न मिला, कोई परमात्मा नहीं है।”
यह तुम्हारी झूठी आस्तिकता का परिणाम है।
सच्ची आस्तिकता आस्था से पैदा होती है।
आस्था का अर्थ है… जैसा तुम समझते हो वैसा नहीं। तुम समझते हो, आस्था का अर्थ है : विश्वास।
नहीं, आस्था का अर्थ विश्वास नहीं है। आस्था का अर्थ है : अनुभव। विश्वास तो दूसरे देते हैं, आस्था वह है जो तुम्हारे भीतर तुम्हारी स्वाभाविकता से पैदा होती है।
प्रेम सीखो!
नियम भूलो!
प्रेम पर दांव लगाओ, जोखिम है! नियम में कभी कोई जोखिम नहीं, इसलिए तो लोग नियम में जीते हैं। लेकिन जिसने जोखिम न उठायी, उसने कुछ पाया ही नहीं। इसलिए तो लोग बिना पाये रह जाते हैं।
पूछा है : “इस विराट अस्तित्व में मैं नाकुछ हूं, यह अप्रिय तथ्य स्वीकार करने में भय पकड़ता है। “ पकड़ने दो भय! भय की मौजूदगी रहने दो। भय से कहो, “तू रह, लेकिन हम झुकते हैं “।
तुम भय को एक किनारे रखो!
मैं जानता हूं कि भय को एक दम मिटा न सकोगे, लेकिन एक किनारे रख सकते हो। भय के रहते हुए भी तुम झुक सकते हो। भय की सुनना जरूरी नहीं है। तुम सुनते हो, स्वीकार करते हो, मान लेते हो, इसलिए भय मालिक हो जाता है।
भय से कहो, “ठीक, तेरी बात सुन ली, फिर भी झुककर देखना है : तू कहता है, जोखिम है! होगी। लेकिन जोखिम उठाकर देखनी है। तू कहता है, मिट जाओगे!… सही। रहकर देख लिया, अब मिटकर देखना है। रह- रहकर कुछ न पाया, जब यह आयाम भी खोज में मिटने का!
“कोई भय को दबाने की जरूरत नहीं है, ध्यान रखना। दबाया हुआ भय तो फिर- फिर उभरेगा। न, भय को पूरा स्वीकार कर लो कि ठीक हो। माना, तुम्हारी बात में भी बल है। तुम्हारे तर्क से कोई इनकार नहीं। लेकिन तुम्हारे साथ रहकर इतने दिन देख लिया और जीवन का कोई अनुभव न हुआ, अब कुछ और भी कर लेने दो।
तर्क उठेंगे मन में। उनसे कहो, ठीक है। तुम्हारी बात जंचती थी, इसलिए तो इतने दिन तक तुम्हारा संग- साथ रहा। इतने दिन तक तुम्हें ओढ़ा, लेकिन कुछ पाया नहीं, हृदय कोरा है, आत्मा रिक्त है, अब बहुत हुआ, अब तुमसे विपरीत दिशा में भी थोड़ा जाकर देख लेने दो।
डर तो लगेगा, क्योंकि जिस दिशा में कभी न गये, उस दिशा में जाते मन घबड़ाता है, पैर कंपते हैं। मन चाहता है : “जाने-माने रास्ते पर चलो। कहां जंगल में जा रहे हो बियाबान में?
भटक जाओगे। भीड़ जहां चलती है वहीं चलो! कम से कम संगी-साथी तो हैं! भीड़ है, तो राहत है, अकेले नहीं हैं। “
पर एक न एक दिन भीड़ के रास्तों को छोड्कर पगडंडी की राह लेनी पड़ती है।
परमात्मा तक कोई राजपथ नहीं जाता, बस पगडंडी जाती हैं। कोई राजपथ परमात्मा तक नहीं जाता, अन्यथा समाज परमात्मा तक पहुंच जाए। व्यक्ति ही पहुंचते हैं, समाज कभी नहीं। पगडंडियां! पगडंडियां भी ऐसी कि तुम चलो तो बनती हैं, कोई तैयार नहीं हैं पहले से, कि किसी ने तुम्हारे लिए बनाकर रखी हों। तुम्हारे चलने से ही बनती हैं। जितना तुम चलते हो उतनी ही निर्मित होती हैं।
यह राह ऐसी है कि तैयार नहीं है, चलने से तैयार होती है। और बड़ा सुंदर है यह तथ्य। नहीं तो आदमी एक परतंत्रता हो जाए, राह तैयार है, उस पर तुम्हें चले जाना है! तब तो तुम रेलगाड़ियों के डब्बों जैसे हो जाओ। लोहे की पटरियों पर दौड़ते रहो। फिर तुम्हारे जीवन में गंगा की स्वतंत्रता न हो। फिर वह मौज न रह जाए, जो अपनी ही खोज से आती है।
गंगा सागर पहुंचती है—लोहे की पटरियों पर नहीं, चलती है, चल- चलकर अपनी राह बनाती है, मार्ग बनाती है : अनजान की खोज पर! सागर है भी आगे, इसका भी क्या पक्का पता तो भय स्वाभाविक है। लेकिन भय के साथ रहकर हम बहुत दिन देख लिये। अब भय को कहो, रहने दो भय को एक किनारे—तुम चलो!
कंपते हुए पैरों से सही, पगडंडी पर उतरो!
डरते हुए, धड़कते हुए हृदय से सही, भीड़ को छोड़ो! घबड़ाहट होगी, लौट- लौट जाने का मन होगा—कोई चिंता नहीं।
कभी लौट जाने का मन हो, कभी घबड़ाहट हो तो इतना ही याद रखना कि भय की और मन की मानकर बहुत दिन चले थे, कहीं पहुंचे न थे। नये को एक अवसर दो!
जिस दिन तुम नये को अवसर देते हो उसी दिन तुम परमात्मा को अवसर देते हो। जब तक तुम पुराने को दोहराते हो, लीक को पीटते हो, लकीर के फकीर हो, तब तक तुम समाज के हिस्से होते हो, भीड़ के हिस्से होते हो।
व्यक्ति बनो!
अकेले का साहस जुटाओ!
और सबसे बड़ा साहस यही है : इस तथ्य को स्वीकार कर लेना कि मैं इस विराट का अंश हूं, अलग- थलग नहीं हूं, द्वीप नहीं हूं, इस पूरे विराट का एक अंश हूं। मैं नहीं हूं, अस्तित्व है!
यही तो भक्ति की सारी की सारी व्यवस्था है कि भक्त खो जाए भगवान में, कि भगवान खो जाए भक्त में, कि एक ही बचे, दो न रह जाएं।
तीसरा प्रश्न :
आपसे मिलकर भी यदि हमारा उद्धार न हुआ, तब तो शायद असंभव ही है कम से कम मुझ निरीह पर तो रहम खाइए। न तो मुझसे ध्यान सधता है न भक्ति। भक्ति की लहरियां आती हैं अवश्य, पर बहुत झीनी, और वह भी कभी-कभी, और संसार का भयंकर तूफान तो सदा हावी है।
ध्यान साधना होता है, भक्ति साधनी नहीं होती।
भक्ति की जो छोटी-छोटी लहरियां आ रही हैं उनमें डूबो, उनमें रस लो। तुम्हारे डूबने से लहरें बड़ी लगेंगी। दूर किनारे पर मत बैठे रहो, अन्यथा लहरें आएंगी और खो जाएंगी और तुम अछूते रह जाओगे। उतरो! लहरों को तुम्हारे तन-प्राण पर फैलने दो। अगर छोटी-छोटी लहरें आ रही हैं तो भरोसा रखो, लहरों में सागर ही आया है। छोटी से छोटी लहर में विराट से विराट सागर छिपा है!
ध्यान साधना पड़ता है। ध्यान साधना है। भक्ति! भक्ति साधना नहीं है, उपासना है।
भेद समझ लो।
साधना का अर्थ है: तुम्हें कुछ करना है। उपासना का अर्थ है: तुम्हें सिर्फ परमात्मा को मौका देना है। साधना में तुम्हें चेष्टा करनी पड़ती है; उपासना में तुम बेसहारा होकर अपने को परमात्मा पर छोड़ देते हो–तुम कहते हो, “अब जो तेरी मर्जी! अब तू जैसे रखे! अब तू जो करवाये! डुबाये तो वही किनारा! अब मैं नहीं हूं।
“ भक्ति साधनी पड़ती। साधने में तो तुम बने रहते हो। उपासना में तुम खो जाते हो, तुम जैसे-जैसे पास आते हो।
उपासना शब्द का अर्थ है: परमात्मा के पास आना। उप-आसन–”उसके “ पास बैठना। बस बैठना ही काफी है। तुम “उसे “ मौका दो। तुम बैठ जाओ–”उसके “ पास! “उस “ पर छोड्कर! और “उसे” मौका दो।
बिलकुल ठीक हो रहा है: “भक्ति की लहरियां आती हैं अवश्य, पर बहुत झीनी, और वह भी कभी-कभी। “
इसे भी सौभाग्य समझो कि आती हैं। बस उन लहरों को ही पकड़ो, उनमें डूबो! एक धागा भी हाथ में आ जाए तो बस काफी है। इसलिए तो भक्ति के इस शास्त्र को भक्ति-सूत्र कहा है, योग के शास्त्र को योग-सूत्र कहा है–धागा! सूत्र यानी धागा। यह पूरा शास्त्र नहीं है, बस सूत्र है। पर सूत्र हाथ में पकड़ आ गया, तो बात खत्म। उसी सूत्र के सहारे चलते-चलते तो…! एक किरण पकड़ लो सूरज की तो सूरज तक पहुंचने के लिए सहारा मिल गया। उसी किरण के सहारे चलते जाना, तो उसके स्रोत तक पहुंच जाओगे, जहां से किरण आती है।
मगर हमारा मन बड़ा लोभी है। वह कहता है “कभी-कभी आती हैं यह भी कोई कम सौभाग्य है? एक बार भी जीवन में लहर आ जाए और तुम अगर होशियार हो, तुम अगर जरा समझदार हो तो तुम उस एक ही लहर के सहारे उसके सागर को पा लोगे।
“कभी-कभी आती हैं! “–जरूरत से ज्यादा आ रही हैं।
तुम्हारी पात्रता क्या है? योग्यता क्या है? कमाई क्या है? कुछ भी नहीं है। उसकी अनुकंपा से आती होंगी। प्रसाद स्वरूप आती होंगी।
धन्यवाद दो, शिकायत मत करो! शिकायत करोगे तो जो लहरें आती हैं वे भी धीरे-धीरे खो जाएंगी। क्योंकि शिकायती चित्त के पास उपासना असंभव है। जितनी ज्यादा तुम्हारी शिकायत होगी उतना ही परमात्मा से फासला हो जाएगा। बिना शिकायत उसके पास बैठ रहो। धन्यवाद दो!
मैंने सुना है, मुसलमान बादशाह हुआ: महमूद। उसका एक नौकर था। बड़ा प्यारा था। इतना उसे प्रेम था उस नौकर से और उस नौकर की भक्ति-भाव से, उसके अनन्य समर्पण से कि महमूद उसे अपने कमरे में ही सुलाता था। उस पर ही एक भरोसा था उसको।
दोनों एक दिन शिकार करके लौटते थे, राह भटक गये, भूख लगी। एक वृक्ष के नीचे दोनों खड़े थे। एक फल लगा था–अपरिचित, अनजान। महमूद ने तोड़ा। जैसी उसकी आदत थी, चाकू निकालकर उसने एक टुकड़ा काटकर अपने नौकर को दिया, जो वह हमेशा देता था, पहले उसे देता था फिर खुद खाता था। नौकर ने खाया। बड़े अहोभाव से कहा कि “एक कली और…! एक कली और दे दी, उसने फिर कहा, “एक कली और…!” तो तीन हिस्से वह ले चुका, एक हिस्सा ही बचा। महमूद ने कहा, “अब एक मेरे लिए छोड़। “ पर उसने कहा कि नहीं मालिक, यह फल तो पूरा ही मैं खाऊंगा। महमूद को भी जिज्ञासा बढ़ी कि इतना मधुर फल है, ऐसा इसने कभी आग्रह नहीं किया! तो छीना-झपटी होने लगी। लेकिन नौकर ने छीन ही लिया उसके हाथ से।
उसने कहा, “रुक! अब यह जरूरत से ज्यादा हो गयी बात। तीन हिस्से तू खा चुका। एक ही फल है वृक्ष पर। मैं भी भूखा हूं। और मेरे मन में भी जिज्ञासा उठती है कि इतनी तो तूने कभी किसी चीज के लिए मांग नहीं की। यह मुझे दे दे वापस।
नौकर ने कहा “मालिक, मत लें, मुझे खा लेने दें। “
पर महमूद ने न माना तो उसे देना पड़ा। उसने चखा तो वह तो जहर था। ऐसी कड्वी चीज उसने अपने जीवन में कभी चखी ही न थी। उसने कहा, “पागल! यह तो जहर है, तूने कहा क्यों नहीं। “
तो उसने कहा कि जिन हाथों से इतने स्वादिष्ट फल मिले, उन हाथों से एक कडुवे फल की क्या शिकायत!
शिकायत दूर ले जाएगी, धन्यवाद पास लाएगा।
थोड़ा सोचो: उस दिन वह नौकर महमूद के हृदय के जितने करीब आ गया…। महमूद रोने लगा। वह तो बिलकुल जहर था फल। वह तो मुंह में ले जाने योग्य न था। और उसने इतने अहोभाव से, इतनी प्रसन्नता से उसे स्वीकार किया, छीना-झपटी की! वह नहीं चाहता था कि महमूद चखे। क्योंकि चखेगा तो महमूद को पता चल जाएगा कि फल कडुवा था। यह तो कहने का ही एक ढंग हो जाएगा कि फल कडुवा है–न कहा लेकिन कह दिया। यह तो शिकायत हो जाएगी। इसलिए छीन-झपटी की। जिन हाथों से इतने मधुर फल मिले, उस हाथ से एक कडुवे फल की क्या चर्चा करनी! यह बात ही उठाने की नहीं है।
परमात्मा ने इतना दिया है कि जो शिकायत करता है वह अंधा है।
थोड़ी लहरें आती हैं, उन लहरों में डूबो! और लहरें आएगी।
धन्यवाद, अनुग्रह का भाव : बड़ी लहरें आएगी। एक दिन सागर का सागर तुम में उतर आएगा। एक दिन तुम्हें बहाकर ले जाएगा। सब कूल- किनारे टूट जाएंगे।
लेकिन सूत्र यही है कि तुम उसके प्रसाद को पहचानो और अनुग्रह के भाव को बढ़ाते चले जाओ। होता अक्सर ऐसा है कि जो तुम्हें मिलता है तुम उसके प्रति अंधे हो जाते हो, तुम उसे स्वीकार ही कर लेते हो ठीक है, यह तो मिलता ही है, और चाहिए!
अक्सर ऐसा होता है जितना ज्यादा तुम्हें मिल जाता है, उतने ही तुम दरिद्र हो जाते हो। क्योंकि उसको तो तुम स्वीकार ही कर लेते हो, उसकी तो तुम बात ही भूल जाते हो जो मिल गया।
एक मनोविज्ञानशाला में बंदरों पर कुछ प्रयोग किया जा रहा था। तो एक कटघरे में दस बंदर रखे गये थे जिनका रोज नहलाना-धुलाना होता था। ठीक भोजन मिलता था। बड़ी उस कटघरे में सफाई रखी गयी थी, एक मक्खी न थी।
दूसरे कटघरे में दस उन्हीं के साथी बंदर थे। उनको नहलाया- धुलाया न जाता था। उन पर गंदगी इकट्ठी हो गयी थी, जूं पड़ गये थे, मक्खियां भनभनाती रहती थीं। सफाई का कोई इंतजाम नहीं किया गया था। यह तो प्रयोग था एक।
तीन महीने में मनोवैज्ञानिकों ने जो निष्कर्ष निकाला था वह था कि वे जो गंदे बंदर थे, जिन पर मक्खियां झूमती रहती थीं और जिनके शरीर में जूं पड़ गयी थीं, और जिनको नहलाया-धुलाया न गया था–वे ज्यादा शांत और ज्यादा प्रसन्न! और जिनको नहलाया- धुलाया जाता था, ठीक भोजन दिया जाता था, वक्त पर दिया जाता था, और सब तरह की साज-संभाल रखी गयी थी, एक मक्खी नहीं जाने दी गयी थी—वे बड़े परेशान!
फिर यही प्रयोग कुत्तों पर भी दोहराया गया और यही परिणाम पाया गया।
तो मनोवैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि जब तुम्हारी जिंदगी में बहुत परेशानी होती है, तब तुम ज्यादा शांत होते हो। तुम परेशानी में उलझे होते हो, अशांत होने की भी तुम्हें सुविधा नहीं होती। जैसे- जैसे तुम्हारे पास सुविधा होती जाती है, वैसे- वैसे तुम अशांत होते जाते हो, क्योंकि सुविधा होती है, व्यस्तता नहीं होती, उलझाव नहीं होता–करो भी तो करो क्या! तो तुम शिकायतों में पड़ जाते हो!
यह मेरा अनुभव है कि जिनके जीवन में भी ध्यान की थोड़ी- सी झलक मिलती है, वे और लोभ से भर जाते हैं। जिनको नहीं मिली है, वे उतने लोभ में भरे नहीं हैं, वे ज्यादा प्रसन्न मालूम पड़ते हैं। जिंदगी का उलझाव काफी है। उन्हें स्वाद ही नहीं मिला तो लोभ कहां से लगे?
तुम गौर करो, गरीब आदमी को तुम ज्यादा शांत पाओगे अमीर आदमी की बजाय! कारण साफ है : वही जो बंदरों के कटघरे में हुआ। अमीर को सब मिल रहा है, अब वह करे क्या! शिकायत ही करता है।
जो बाहर की अमीरी- गरीबी के संबंध में सच है, वही भीतर की अमीरी- गरीबी के संबंध में भी सच है।
अगर तुम्हें झलकें मिल रही हैं थोड़ी झीनी सही… झीनी भी तुम कहते हो, वह भी तुम्हारा शिकायती चित्त है, जो उन्हें झीनी बता रहा है। “ कभी- कभी मिलती हैं, “चलो कभी- कभी सही। कभी- कभी भी तुम कहते हो, वह भी तुम्हारा शिकायती चित्त है। उसमें भी लोभ है। जो मिलता है वह तो स्वीकार कर लिया। वह तो जैसे तुम मालिक थे, मिलना ही चाहिए था, तुम अधिकारी थे उसके! बाकी जो नहीं मिल रहा है उसकी शिकायत है। तो तुमने भक्ति का राज नहीं समझा, तुम्हें उपासना की कला न आयी।
जो नहीं मिलता उसकी बात ही मत उठाओ। वह बात उठानी अशिष्ट है। उससे असंस्कार पता चलता है। जो मिलता है उसकी बात करो, उसका गुणगान करो, उसकी महिमा गाओ, उसके गीत गुनगुनाओ। और तुम जल्दी ही पाओगे : और द्वार खुलने लगे। तुम जल्दी ही पाओगे : और नयी हवाएं आने लगीं, और नयी झलकें मिलने लगीं।
जैसे- जैसे आदमी को मिलना शुरू होता है कुछ, वैसे- वैसे उसके पैर शिथिल होने लगते हैं। यह भी मन की प्रकृति समझ लेनी जरूरी है।
तुमने कभी खयाल किया। अगर तुम कहीं यात्रा पर गये हो, पदयात्रा पर, किसी ती र्थयात्रा पर, जैसे- जैसे मंदिर करीब आने लगता है, वैसे- वैसे पैर शिथिल होने लगते हैं, अक्सर ऐसा है, अक्सर तुमने देखा होगा या अनुभव किया होगा कि ठेठ मंदिर के सामने जाकर यात्री सीढ़ियों पर बैठ जाता है। अब ज्यादा दूर नहीं है मामला। अब पांच सीढ़ियां, दस सीढ़ियां चढुनी हैं, और मंदिर…! दस मील चल आया, पहाड़ चढ़ आया, कभी बैठा नहीं बीच में कहीं, ठीक मंदिर के सामने आकर बैठ जाता है। लगता है : आ ही गये!
लेकिन तुम मंदिर की सीढ़ियों पर बैठो या हजार मील की दूर मंदिर से बैठो, फर्क क्या है, सीढ़ियों पर जो है वह भी मंदिर के बाहर है। हजार मील दूर जो है, वह भी मंदिर के बाहर है। और परमात्मा का मंदिर कुछ ऐसा है कि तुम बैठे कि चूके। यह कोई जड़- पत् थर का मंदिर नहीं है कि तुम सीढ़ियों पर बैठे रहे तो मंदिर भी वहां रुका रहेगा, यह तो चैतन्य मंदिर है, तुम बैठे कि चूके! तुम बैठे कि मंदिर दूर गया! तुम रुके कि खोया! “सामने मंजिल है और आहिस्ता उठते हैं कदम
पास आकर दूर हो रहे हैं मंजिल से हम। “
सावधान रहना!
जब ध्यान की लहरें उठने लगें, भक्ति की उमंग आने लगे, थोड़ी रसधार बहे, थोड़ी मस्ती छाये, तो दो खतरे हैं। एक खतरा यह है, तो इस प्रश्र करनेवाले ने पूछा है, वह खतरा यह है कि तुम कहो कि यह तो कुछ भी नहीं है, और चाहिए! तो भी तुम दूर हो जाओगे! दूसरा खतरा यह है कि तुम कहो, बस हो गया! पहुंच गये। “ और बैठ जाओ, तो भी तुम खो गये!
फिर करना क्या है?
चलते जाना है और शिकायत नहीं करनी है!
चलते जाना है और अहोभाव से भरे रहना है।
चलते जाना है और धन्यवाद देते जाना है!
ओंठ पर गीत रहे धन्यवाद का, और पैर, पैर रुके न! धन्यवाद तुम्हारा रुकावट न बन जाए। अक्सर ऐसा होता है कि शिकायती चलते हैं और धन्यवादी बैठ जाते हैं। दोनों खतरे हैं। पहुंचता वही है जिसने उस गहरे संयोग को साथ लिया, धन्यवादी है, और चलता है। बड़ा गहरा संतुलन है, लेकिन अगर होश रखो तो सध जाता है।
चौथा प्रश्र :
कल के सूत्र में कहा गया है कि लौकिक और वैदिक कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं और निरोध भक्ति का स्वभाव है। और फिर यह भी कहा गया कि भक्त को शास्त्रोक्त कर्म विधिपूर्वक करते रहना चाहिए। कृपया इस विरोध को स्पष्ट करें।
विरोध नहीं है, दिखायी पड़ता है। जो भी पढ़ेगा, तत्क्षण दिखायी पड़ेगा कि पहले तो कहा लौकिक और वैदिक कर्म, सबका त्याग हो जाता है, निरोध हो जाता है, छूट जाते हैं, और फिर कहा, करते रहना चाहिए।
विरोध दिखायी पड़ता है, विरोध है नहीं। जानकर ही दूसरा सूत्र रखा गया है कि जब तुम्हारे जीवन से लौकिक और वैदिक, इस लोक के और परलोक के, सारी आकांक्षाएं और सारे कर्म छूट जाते हैं, तो कहीं ऐसा न हो कि तुम कर्म को छोड़ ही दो। कर्म तो छूट जाते हैं, लेकिन तुम करते रहना। इसका अर्थ हुआ कि अब तक तुमने कर्ता की तरह किया था, अब अभिनेता की तरह करता। फिर तत्क्षण विरोध खो जाता है। अब तक तुमने किया था कि मैं कर्ता हूं, अब तुम अभिनेता की तरह करना। क्योंकि जिस विराट समूह के तुम हिस्से हो, वह मानता है कि कर्म उचित हैं। इनका अभिनय करना है। तुम्हारे लिए इनका कोई मूल्य नहीं है।
ऐसा ही समझो, जब शहर में आते हो तो बाएं चलने लगते हो, जंगल में जाकर फिर बाएं- दाएं का हिसाब रखने की कोई जरूरत नहीं। जंगल में तुम अकेले हो : बाएं चलो, दाएं चलो, बीच में चलो, जैसा चलना हो चलो, क्योंकि वहां कोई पुलिसवाला नहीं खड़ा है, रास्ते पर कोई तख्तियां नहीं लगी हैं। वहां कोई और है ही नहीं तुम्हारे सिवाय।
अगर जंगल में भी जाकर तुम बाएं-ही-बाएं चलो तो तुम पागल हो, फिर तुम्हारा दिमाग खराब है। क्योंकि बाएं चलने का कोई संबंध चलने से नहीं है, बाएं चलने का संबंध भीड़ में चलने से है। जब अकेले हो तब मुक्त हो।
तो, जो व्यक्ति भक्त की दशा को उपलब्ध हुआ, अपने भीतर अपने एकांत में, तो सभी नियमों के बाहर हो जाता है। वहां न तो कोई शास्त्र है, न कोई नियम है, न कोई रीति है, न कुछ पाना है, न कहीं जाना है। वह तो अपने भीतर परम अवस्था को उपलब्ध हो गया है। वह तो परमात्मा के साथ एकरस हो गया! भीतर, जहां सब एकांत है, वहां तो अद्वैत हो गया, वहां तो अनन्यता सध गयी!
लेकिन बाहर, जब वह राह पर जाएगा, तब? तब बाएं चलेगा। कहीं ऐसा न हो कि जो तुमने भीतर अनुभव किया है, तुम उसे बाहर भी थोपने की चेष्टा में न पड़ जाओ, इसीलिए स्पष्ट सूत्र पीछे दिया है : करने चाहिए! उस व्यक्ति को शास्त्रोक्त कर्म विधिपूर्वक करने चाहिए। “ जानकर, होश से, उन नियमों का पालन करना चाहिए। वे अभिनय होंगे अब। उनकी कोई अर्थवत्ता नहीं है।
लेकिन अगर तुम अंधों के भी रहते हो तो अंधों के नियम मानो। अगर तुम अज्ञानियों के बीच रहते हो तो अज्ञानियों के नियम मानो।
इसे थोड़ा समझने जैसा है।
भारत में एक बड़ी प्राचीन धारणा है कि जब व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हो जाए तो वह चेष्टापूर्वक नियमों को वैसा ही मानता रहे जैसा पहले मानता था जब ज्ञान को उपलब्ध न हुआ था। शायद यही कारण है कि भारत में महावीर, बुद्ध, पतंजलि, नारद, कबीर किसी को भी जीसस जैसी सूली नहीं लगानी पड़ी, सूली पर नहीं लटकाना पड़ा, और न सुकरात जैसा जहर पिलाकर मारना पड़ा।
इसके पीछे बहुत-से कारणों में एक बुनियादी कारण यह भी है कि बुद्ध ने जो भीतर पाया, उसे जबरदस्ती उन लोगों पर नहीं थोपा जो अभी उसको समझ भी न सकते थे। भीड़ से अकारण संघर्ष न लिया। भीड़ को फुसलाया, समझाया, जगाने की चेष्टा की, ऊपर उठाने के उपाय किये, लेकिन अकारण संघर्ष न लिया।
जीसस सीधे संघर्ष में आ गये। शायद जीसस के मुल्क में, यहूदियों के समाज में, ऐसा कोई सूत्र नहीं था। ऐसे किसी सूत्र को मैं अब तक नहीं देख पाया हूं यहूदियों के किसी भी शास्त्र में, जिसमें यह कहा गया हो कि परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति समाज कि नियमों को मानकर चले। टकराहट स्वाभाविक हो गयी।
और जब टकराहट होगी तो एक बात पक्की है कि जानी तो एक है, अज्ञानी करोड़ हैं। भीड़ उनकी है। वे जानी को मार डालेंगे। जानी अज्ञानियों को तो न उठा पाएगा, अज्ञानी को मिटा देंगे।
तो, भीड़ को मानकर चलना सिर्फ अपनी सुरक्षा ही नहीं है–क्योंकि जानी को अपनी सुरक्षा की क्या चिंता! भीड़ की मानकर चलना, भीड़ पर करुणा है। अन्यथा भीड़ तुम्हारे विपरीत हो जाएगी, तुम उसे फुसला भी न सकोगे, राजी भी न कर सकोगे, तुम उसे दिशा भी न दे सकोगे।
ऐसा समझो कि तुम मेरे साथ हो, तुम्हारी निन्यानबे बातें मैं मान लेता हूं तो तुम भी मेरी एक बात मानने को तैयार हो सकते हो, हालांकि मेरी एक तुम्हें बिलकुल बर्बाद कर देगी, तुम जहां हो वहां से उखाड़ देगी। और तुम्हारी निन्यानबे मेरा कुछ बिगाडनेवाली नहीं है। तुम्हारी निन्यानबे मेरे लिए अभिनय होंगी। मेरी एक तुम्हारे लिए जीवन-क्रांति हो जाएगी।
आखिरी प्रश्र :
जिसे भक्ति में अनन्यता कहा है, क्या वही दर्शन का अद्वैत नहीं है?
अर्थ तो वही है, लेकिन स्वाद में बड़ा भेद है।
अनन्यता में रस है। अद्वैत बड़ा रूखा- सूखा शब्द है। अद्वैत तर्क का शब्द है, अनन्यता प्रेम का। अद्वैत कहता है : दो न रहे।
बात तो वे एक ही कहते हैं। लेकिन “दो न रहे “ इसमें बड़ा तर्क है। अद्वैत यह भी नहीं कहता कि “एक “ हो गये, क्योंकि “एक “ कहने से “दो “ का खयाल आ सकता है। “एक “ में “दो “ का खयाल रहे, इसलिए अद्वैत। क्या हुआ, इसके संबंध में बात नहीं कही जा रही है।
“अनन्यता “ बड़ा प्यारा शब्द है। दूसरा दूसरा न रहा : अनन्य का अर्थ है। अन्य अन्य न रहा, अनन्य हो गया! दूसरा दूसरा न रहा, एक हो गये! अद्वैत से ज्यादा है यह बात। इसमें थोड़ा रस है जो अद्वैत में नहीं है।
“अद्वैत “ गणित और तर्क का शब्द है, “अनन्यता “ प्रेम और काव्य का। अद्वैत पर किताब लिखनी हो तो रूखी-सूखी होगी। अनन्यता पर किताब लिखनी हो तो काव्य होगा, तो गीत होगा। अनन्यता प्रगट करनी हो तो नाचकर प्रगट हो सकती है, जैसे नर्तक नृत्य से एक हो जाता है, ऐसा अनन्य। अनन्यता प्रगट करनी हो तो मस्ती से प्रगट होगी। अद्वैत प्रगट करना हो तो मस्ती की कोई जरूरत नहीं, नृत्य को बीच में लाने में बाधा पड़ेगी, सीधे तर्क के नियम कफिा हैं।
इसलिए वेदांत के शास्त्र बड़े रूखे-सूखे हैं, मरुस्थल जैसे हैं! वे भी परमात्मा के ही शास्त्र हैं, क्योंकि मरुस्थल भी परमात्मा के ही हैं। लेकिन वहां हरियाली नहीं उगती। वहां फूल नहीं लगते और पक्षियों का कोई कलरव नहीं होता। झरनों का कलकल नाद वहां नहीं है। राह से गुजरोगे तो मरुस्थल में भी खजूर के पेड़ मिल जाते हैं, वे भी वेदांत में न मिलेंगे।
इसलिए वेदांत ने एक बड़ा रूखा-सूखा शास्त्र दिया है। इसलिए वेदांती तर्क करते रहे, खंडन- मंडन करते रहे, शास्त्रार्थ करते रहे। भक्त नाचा! उतना समय उसने इसमें न गंवाया।
चैतन्य नाचे! ले लिया तंबूरा, गांव-गांव नाचे! नहीं किया कोई विवाद।
मीरा नाची! पग घुंघरू बांध नाची!
कोई विवाद नहीं किया!
विवाद में कहां वह स्वाद जो पग-घुंघरुओं में है!
विवाद में कहां वह स्वाद जो वीणा की झंकार में है!
और जब इतने मधुर उपाय उपलब्ध हों तो क्या तर्क जैसा रूखा-सूखा उपाय खोजना! मीरा बरसी!
जिसने देखा वह डूबा! जो पास आया, भूला! विस्मृत किया अपने को! एक डुबकी लगायी! कुछ लेकर गया!
चैतन्य के जीवन में तो दोनों घटनाएं हैं, क्योंकि पहले वे बड़े तर्कशास्त्री थे, न्यायविद थे। और एक ही काम था उनके जीवन में: विवाद। उन जैसा विवादी नहीं था। बंगाल में उनकी बड़ी ख्याति थी। बड़े-बड़े पंडितों को उन्होंने हराया। लेकिन धीरे-धीरे एक बात समझ में आयी; पंडित हार जाते हैं, वे जीत जात हैं–लेकिन भीतर कोई रसधार नहीं बह रही; इस जीत को भी इकट्ठा करके भी क्या करेंगे! ऐसे जीवन बीता जाता है। यह प्रमाण-पत्र इकट्ठे करके क्या होगा कि कितने लोगों को जीत लिया और कितने लोगों को तर्क में पराजित किया! यह तर्क के जाल से क्या होगा!
एक दिन होश आया कि यह तो समय को गंवाना है। फिर उन्होंने सब तर्क छोड़ दिया। शास्त्र नदी में डुबा दिया। ले लिया मंजीरा, नाचने लगे! तब उन्होंने किसी और ढंग से लोगों को जीता। तर्क से नहीं जीता, प्रेम से जीता! तब उनके चारों तरफ एक, एक अलग ही माहौल चलने लगा। उनकी हवा में एक और गंध आ गयी! जहां उनके पैर पड़े, वहीं विजय-यात्रा हुई। जिसने उन्हें देखा, वही हारा। लेकिन इस हार में कोई हराया न गया। इस हार में कोई अहंकार न था जीतनेवाले का। इस हार में हारने वाले को पीड़ा न हुई। यह प्रेम की हार थी जो कि जीतने का एक ढंग है।
प्रेम की हार में कोई हारता नहीं, दोनों जीतते हैं।
प्रेम में जीते तो जीत, हारे तो हार। वहां हार-जीत में भेद नहीं है। अनन्यता बड़ा मधुर शब्द है, अद्वैत बिलकुल रूखा, सूखा!
अनन्यता ऐसा है कि जैसा हरा फल, रस- भरा!
अद्वैत ऐसा है जैसे सूखा फल, झुर्रियां पड़ा, सब रस खो गया! गुठली ही गुठली है अद्वैत!
पर अद्वैत की भाषा अहंकार को जमती है, क्योंकि अहंकार को गंवाने की शर्त नहीं है वहां। इसलिए तुम देखोगे: अद्वैतवादी संन्यासी हैं भारत में, उनको तुम बड़ा अहम्मन्य पाओगे, बड़े भक्ति की लोच, भक्त का सौंदर्य, वहां उसका अभाव होगा!
भारत ने अद्वैत के नाम पर बहुत खोया। भारत अकडा अद्वैत के कारण, अहंकारी हुआ, दंभ बढ़ा, शास्त्र बढ़े, तर्कजाल फैला। लेकिन भारत का हृदय धीरे-धीरे रस से श्ल्य होता चला गया। तो ऐसा कुछ हो गया जैसे कि उत्तम गर्मी पृथ्वी सूख जाती है और दरारें पड़ जाती हैं!
भक्ति की वर्षा चाहिए
ताकि फिर दरारें खो जाएं! धरती का कंठ फिर भीगे! धरती के प्राण तृप्त हों!
तृषा मिटे!
के दिन आते हैं, सूरज तपता है और
और धरती धन्यवाद में आकाश को हजारों-हजारों वृक्षों के फूल भेंट करे।
भक्ति वर्षा है। अद्वैत उत्तल सूर्य है।
पर अपनी-अपनी मौज। अद्वैत से भी कोई पहुंचना चाहे तो पहुंच जाता है। लेकिन तब बड़ा ध्यान रखना जरूरी है कि कहीं यह तर्कजाल अहंकार को मजबूत न करे।
भक्ति सुगम है। और भक्ति में भटकना कम संभव है। क्योंकि भक्ति की पहली ही शर्त है अहंकार को छोड़ना।
भक्ति का सारा जोर “उस” पर है।
अद्वैत कहता है “अहं ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं। “ ठीक है बिलकुल बात। अगर जोर ब्रह्म पर हो तो ठीक है, कहीं जोर “मैं” पर हुआ तो बिलकुल गलत है। कौन तय करेगा, किस पर जोर है; अहं ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं। “ जब मैं यह कहूं कि मैं ब्रह्म हूं तो तुम कैसे तय करोगे कि मेरा जोर कहां है “मैं” पर या ब्रह्म पर; अगर ब्रह्म पर हुआ तो सब ठीक, अगर मैं पर हुआ तो सब गलत। वाक्य वही है।
लेकिन भक्ति “मैं” पर बात ही नहीं उठाती। भक्ति कहती है “उसके” अनन्य प्रेम में डूब जाना “उसके” परम प्रेम में डूब जाना भक्ति है। “उसके”!
आज इतना ही।
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