Quantcast
Channel: Osho Amrit/ओशो अमृत
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1170

गीता दर्शन–(भाग–8)

$
0
0

गीता दर्शन—(भाग—आठ)

ओशो

(ओशो द्वारा श्रीमदभगवद्गीता के अध्‍याय सत्रह ‘श्रद्धात्रय—विभाग—योग’ एवं अध्‍याय अठारह ‘मोक्ष—संन्‍यास—योग’ पर दिए गये बत्‍तीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

 भूमिका:

(ओशो कृष्‍ण चेतना)

गीता एक महावाक्य, एक महाश्लोक, एक महाकाव्य है—किन शब्दों, किस भाषा में इसे परिभाषित किया जाए! जैसे अमृतमय, अव्याख्येय, अनूठे—अनमोल बोल कृष्ण ने गीता में बोले हैं वैसे बोल अन्य किसी देश में न तो कभी बोले गए और न कभी सुने गए। इसमें कविता है, संगीत है, सुगंध है। न जाने किस—किस प्रकार के रस अपने में समाए है यह गीता! रागी के लिए इसमें जगह है तो विरागी के लिए भी इसमें स्थान है। संन्यासी भी इसमें रस ले सकता है तो गृहस्थ भी इसमें डूब सकता है। लगता है कि गीता में कोई व्यक्ति नहीं, कोई समाज नहीं, कोई देश विशेष नहीं, समस्त अस्तित्व ही बोल रहा है। यह किसी जाति, किसी संप्रदाय का ग्रंथ नहीं, यह सार्वभौम शाश्वत वाणी है। वेद न रहे, कुरान न रहे, इंजील न रहे, बाइबिल न रहे तो कोई बात नहीं। यदि गीता है तो सारे ग्रंथ मौजूद हैं, सारे प्रज्ञा—पुरुष—महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट, मोहम्मद—सभी हमारे पास हैं। चिंतन के दर्शन के जितने आयाम हो सकते हैं वे सभी इस एक ग्रंथ में समाहित हो गए हैं। यह ग्रंथों का ग्रंथ है। भारतीय मनीषा के मानसर में खिला हुआ गीता वो नील कमल है जिसकी सुगंध, जिसकी रूपाभा शताब्दियां बीत जाने के बाद भी आज तक कम नहीं हुई है।

जीवन और जगत के इतने सारे आयाम एक साथ समेटने के लिए जिस विराट—चेतना की आवश्यकता है—वही कृष्ण—चेतना है। और इस कृष्ण—चेतना को ग्रहण करने के लिए जो समर्पण— भाव अपेक्षित है—वही अर्जुन है। लेकिन गीता के अनेक भाष्यकार समर्पण की इस मुद्रा तक पहुंच नहीं सके हैं। सभी ने मात्र पंडित बनकर इसकी व्याख्याएं की हैं, अर्जुन बनकर इसे आत्मा में उतारा नहीं है और कृष्ण होना तो बहुत दूर की बात है। सच तो ये है कि लोगों ने गीता की व्याख्या न करके अपनी—अपनी पूर्व—निर्धारित मान्यताओं को ही अपनी—अपनी वृत्ति के अनुसार निरूपित किया है। किसी ने इसमें भक्तियोग, किसी ने कर्मयोग, किसी ने ज्ञानयोग और किसी ने सांख्ययोग की तलाश इसमें की है। जितने मुसाफिर हैं उतनी ही मंजिलें हैं। ऐसा इसलिए भी संभव हो सका है कि गीता एक ऐसा महासागर है कि इसमें जो भी छलांग लगाएगा, उसे अवश्य ही कुछ न कुछ प्राप्त होगा, भले ही वो शंख हो, सीप हो या मोती।

कृष्ण—चेतना के नाम से आज संसार में कितने ही आंदोलन चल रहे हैं—लेकिन कृष्ण—चेतना का अर्थ न तो छापा—तिलक ही है और न भजन—संकीर्तन ही। वह वैश्विक चेतना है—अस्तित्व के साथ तदाकार की स्थिति। और अस्तित्व जिसका नाम है वह सर्वग्राही, सर्वांगी है—एकांगी नहीं। वहा राग और विराग, जय और पराजय, जन्म और मृत्यु, योग और भोग, भौतिकता और आध्यात्मिकता सभी का समन्वय है। कृष्ण ही वो चेतना हैं जहां बांसुरी और पाञ्चजन्य, मोरपंख और राजदंड, परिग्रह और अपरिग्रह सभी एकाकार हो गए हैं। वहा पग—पग पर समन्वय के साथ विरोध भी है। इसलिए कृष्ण—चेतना को समग्रत: ग्रहण करना अथवा उसके साथ एकाकार हो जाना अत्यंत दुष्कर है।

ओशो के रूप में युगों बाद संसार में वास्तविक कृष्ण—चेतना का जन्म हुआ है। उनकी मुस्कान—मुद्रा, उनकी प्रेम—मुद्रा, उनकी शान—मुद्रा, उनकी ध्यान—मुद्रा को यदि मिला दिया जाए तो लगेगा कि समस्त अस्तित्व ही जैसे ओशो—कृष्ण के रूप में मूर्तिमंत हो गया है। संत ज्ञानेश्वर, तिलक, गांधी—विनोबा आदि अनेक विद्वानों के गीता— भाष्य मैंने पढ़े हैं, लेकिन सभी ने गीता को देखा है एक विद्वान की तरह, एक टीकाकार की तरह—अर्जुन की तरह गीता को किसी ने भी आत्मसात नहीं किया है और न ही कोई कृष्ण—चेतना में प्रवेश पा सका है। गीता समझने—समझाने की चीज नहीं, वह तो आत्मा से पान किया जाने वाला अमृत है। ओशो ही एकमात्र वह व्यक्ति हैं जो एक साथ कौन्तेय—चेतना और कृष्ण—चेतना के स्वर्ण—सेतु पर आरूढ़ होकर गीता—रहस्य को उद्घाटित करते हैं। इसलिए आत्मा के जिस स्तर तक ओशो की गीता पहुंचती है वहा तक अन्य किसी भाष्य की गीता नहीं।

गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक ”धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे……. मामका: पाण्डवाश्चैव….. ” महाभारत की भूमिका है और इसका अंतिम अठारहवा अध्याय उपसंहार है। धृतराष्ट्र संजय से पूछता है— ”कुरुक्षेत्र जो धर्मक्षेत्र है उसमें युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए, हे संजय! मेरे तथा पांडु—पुत्रों ने क्या किया? ” सचमुच ही यह संसार कर्मक्षेत्र है और इसके द्वारा ही धर्म की प्राप्ति होती है। लेकिन जब अहंकार—ग्रस्त चेतना इसे मेरे और तेरे (मामका: पाण्डवाश्चैव) में बांटकर देखने लगती है तब द्वंद्व, संघर्ष और महाभारत का जन्म होता है। मेरे—तेरे में उलझा हुआ मन सत्य को नहीं, तथ्य को देखता है। शब्द के पीछे जो मौन है, गणना के पीछे जो शून्य है, रूप के पीछे जो अरूप, अनश्वर, अविनाशी आत्मा है, उस तक उसकी दृष्टि नहीं जाती। इसलिए ऐसी दृष्टि अंध—दृष्टि ही कही जाती है—तभी तो धृतराष्ट्र अंधा है।

समस्त जीवन—संग्राम, समस्त महाभारत इसी अंध—दृष्टि का ही परिणाम है। गीता इसी अहंकार—ग्रस्त अंध—दृष्टि से मोक्ष तक की महायात्रा है। अहंकार का विसर्जन ही मोक्ष है। इस महायात्रा के दौरान त्रिगुणात्मक प्रकृति के जाल में भी मनुष्य फंसता है। इससे छूटने का उपाय है संन्यास और संन्यास ही मोक्ष का मार्ग है। एक साधन है, एक साध्य। संसार की अन्य संस्कृतियां अर्थ से चलकर धर्म तक तो पहुंचीं, लेकिन मोक्ष की कल्पना भारतीय मनीषा की सर्वथा मौलिक और अनूठी कल्पना है। और यह मोक्ष भी संसार से भागकर नहीं, संसार में रहते हुए भी घटित हो सकता है। गीता का यही सार है।

गीता के सत्रहवें और अठारहवें अध्यायों में प्रकृति की सात्विक, राजस और तामस वृत्तियों को भिन्न—भिन्न आयामों और परिवेशों में रखकर ओशो ने जिस तरह देखा और परखा है और संन्यास तथा मोक्ष की अनेक सरणियों और रूपों की जो व्याख्या उन्होंने की है, वह इतनी सहज और सुगम है कि उसे सामान्य से सामान्य पाठक भी बड़ी सरलता से ग्रहण कर सकता है। यह उनकी वाणी का चमत्कार है। ओशो के बोल सचमुच ही अनूठे, अनुपम और अप्रतिम हैं।

गोपालदास ‘नीरज’

सुप्रसिद्ध महाकवि

जनकपुरी, मेरिस रोड

अलीगढ़ ( उ. प्र.)

इस युग को कृष्ण की जरूरत है

अहंकार पक गया है।

संकल्प प्रगाढ हुआ है।

मनुष्य के हाथ में बड़ी ऊर्जा है।

यह ऊर्जा नर्क ले जाएगी।

यह ऊर्जा पृथ्वी को हिरोशिमा और नागासाकी में बदल देगी।

अगर जल्दी ही इस ऊर्जा का रूपांतरण न हुआ,

अगर यह ऊर्ज। संकल्प से हटकर समर्पण की तरफ न बही,

तो यह रेगिस्तान में खो जाएगी, मरुस्थल में खो जाएगी।

इसके साथ आदमी। भी खो जाएगा। एक महा अग्‍नि होगी,

महा विस्फोट होगा। मनुष्य की प्रौढ़ता पकी है,

और कृष्ण के संदेश की ऐसे क्षण में जरूरत है।

ओशो


Filed under: गीता दर्शन--भाग--8 (ओशो) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1170

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>