Quantcast
Channel: Osho Amrit/ओशो अमृत
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1170

मैं कहता आंखन देखी–(प्रवचन–21)

$
0
0

अहिंसा क्या है?—(प्रवचन—इक्किसवां)

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

मैं अहिंसा पर बहुत विचार करता था। जो कुछ उस संबंध में सुनता था, उससे तृप्ति नहीं होती थी। वे बातें बहुत ऊपरी होती थीं। बुद्धि तो उनसे प्रभावित होती थी, पर अन्त: अछूता रह जाता था। धीरे—धीरे इसका कारण भी दिखा। जिस अहिंसा के संबंध में सुनता था, वह नकारात्मक थी। नकार बुद्धि से ज्यादा गहरे नहीं जा सकता है। जीवन को छूने के लिए कुछ विधायक चाहिए। अहिंसा, हिंसा का छोड़ना ही हो, तो वह जीवनस्पर्शी नहीं हो सकती है। वह किसी का छोड़ना नहीं, किसी की उपलब्धि होनी चाहिए। वह त्याग नहीं, प्राप्ति हो, तभी सार्थक है।

अहिंसा शब्द की नकारात्मकता ने बहुत भांति को जन्म दिया है। वह शब्द तो नकारात्मक है, पर अनुभूति नकारात्मक नहीं है। वह अनुभूति शुद्ध प्रेम की है। प्रेम राग हो तो अशुद्ध है, प्रेम राग न हो तो शुद्ध है। राग—युक्त प्रेम किसी के प्रति होता है, राग—मुक्त प्रेम सबके प्रति होता है। सच यह है कि वह किसी के प्रति होता है। बस, केवल होता है। प्रेम के दो रूप हैं। प्रेम संबंध हो तो राग होता है। प्रेम स्वभाव हो तो, स्थिति हो, वीतराग होता है। यह वीतराग प्रेम ही अहिंसा है।

प्रेम के संबंध से स्वभाव में परिवर्तन अहिंसा की साधना है। वह हिंसा का त्याग नहीं, प्रेम का स्‍फुरण है। इस स्‍फुरण में हिंसा तो अपने आप छूट जाती है, उसे छोड़ने के लिए अलग से कोई आयोजन नहीं करना पड़ता है। जिस साधना में हिंसा को भी छोड़ने की चेष्टा करनी पडे वह साधना सत्य नहीं है। प्रकाश के आते ही अंधेरा चला जाता है। यदि प्रकाश के आने पर भी उसे अलग करने की योजना करनी पड़े तो जानना चाहिए कि जो आया है, वह और कुछ भी हो, पर कम—से—कम प्रकाश तो नहीं है। प्रेम पर्याप्त है। उसका होना ही, हिंसा का न होना है।

प्रेम क्या है? साधारणत: जिसे प्रेम करके जाना जाता है, वह राग है और अपने—आप को भुलाने का उपाय है। मनुष्य दुख में है और अपने—आप को भूलना चाहता है। तथाकथित प्रेम के माध्यम से वह स्वयं से दूर चला जाता है। वह किसी और में अपने को भुला देता है। प्रेम मादक द्रव्यों का काम कर देता है। वह दुख से मुक्‍ति नहीं लाता, केवल दुखों के प्रति मूर्च्छा ला देता है। इसे मैं प्रेम का संबंध—रूप कहता हूं। वह वस्तुत: प्रेम नहीं, प्रेम का भ्रम ही है। प्रेम का यह भ्रम—रूप दुख से उत्‍पन्‍न होता है। दुखानुभव व्यक्ति चेतना को दो दिशाओं में ले जा सकता है।

एक दिशा है उसे भूलने की, और एक दिशा है उसे विसर्जित करने की। जो दुख विस्मृति की दिशा पकड़ता है वह जाने—अनजाने किसी न किसी प्रकार की मादकता और मूर्च्छा की खोज करता है। दुख—विस्मरण में आनन्द का आभास ही हो सकता है, क्योंकि जो है उसे बहुत देर तक भूलना असम्भव हो सकता है। यह आभास ही सुख है। निश्चय ही यह सुख बहुत क्षणिक है। साधारण रूप से प्रेम नाम से जान।) जानेवाला प्रेम ऐसे ही…..मूर्च्छा और विस्मरण की चित्तस्थिति है। वह दुख से उत्‍पन होता है, और दुख को भुलाने के उपाय से वह ज्यादा नहीं है।

मैं जिस प्रेम को अहिंसा कहता हूं वह आनन्द का परिणाम है। उससे दुख—विस्मरण नहीं होता है, वरन उसकी अभिव्यक्ति ही दुख—मुक्ति पर होती है। वह मादकता नहीं, परिपूर्ण जागरण है। जो चेतना दुख—विस्मरण नहीं, दुख—विसर्जन की दिशा में चलती है, वह उस सम्पदा की मालिक बनती है, जिसे प्रेम कहते हैं। भीतर आनन्द हो तो बाहर प्रेम फलित होता है। वस्तुत: जो भीतर आनन्द है, वही बाहर प्रेम है। वे दोनों दो नहीं हैं, वरन एक ही अनुभूति की दो प्रतीतिया हैं। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

आनन्द स्वयं को अनुभव होता है। प्रेम जो निकट आते हैं, उन्हें अनुभव होता है। आनन्द केन्द्र है, तो प्रेम परिधि है। ऐसा प्रेम संबंध नहीं, स्वभाव है। जैसे सूरज से प्रकाश निसृत होता है, ऐसे ही वह स्वयं से निसृत होता है। प्रेम के इस स्वभाव और रूप में कोई बाह्य आर्कषण नहीं, आन्तरिक प्रवाह है। उसका बाहर से न कोई संबंध है, न कोई अपेक्षा है। वह बाहर से मुक्त और स्वतंत्र है। इस प्रेम को मैं अहिंसा कहता हूं।

मैं यदि दुख में हूं तो हिंसा में हूं। मैं यदि आनन्द में हो जाऊं तो अहिंसा में हो जाऊंगा। इसलिए स्मरणीय है कि अहिंसा की नहीं जाती है। वह क्रिया नहीं, सत्ता है। उसका संबंध कुछ करने से नहीं, कुछ होने से है। वह आचार—परिवर्तन नहीं, आत्म क्रान्ति है। दुख से जो प्रवाहित होता है, वह हिंसा है। आनन्द से जो प्रवाहित होता है, वह हिंसा—निरोध है। मैं क्या करता हूं यह सवाल नहीं है। मैं क्या हूं यह सवाल है।

मैं दुख हूं या आनन्द है यह प्रत्येक को अपने से पूछना है। उस उत्तर पर ही सब कुछ निर्भर करता है। तथाकथित आनन्द के पीछे झांकना है, भुलावों और आत्मवंचनाओं के आवरणों को उघाड़कर देखना है। उसे जो वस्तुत: है’ जानने को स्वयं के समक्ष नग्र होना जरूरी है। आवरणों के हटते ही दुख की अतल गहराइयां अनुभव होती हैं। धने अंधेरे और सन्ताप का दुख अनुभव होता है। भय लगता है, वापिस अपने आवरण को ओढ़ लेने का मन होता है। इस भांति भयभीत होकर जो अपने दुख को ढांक लेते हैं, वे कभी आनन्द को उपलब्ध नहीं होते हैं। दुख को ढांकना नहीं, मिटाना है और उसे मिटाने के लिए उसका साक्षात करना होता है। यह साक्षात ही तप है।

दुख का विस्मरण संसार में ले जाता है। दुख का साक्षात स्वयं में ले जाता है। जो उससे भागता है और उसे भूलना चाहता है, वह मूर्च्छा को आमंत्रण देता है। वह स्वयं ही मूर्च्छा की खोज करता है। साधारणत: जिसे हम जीवन कहते हैं, वह मूर्च्छा के अतिरिक्त और क्या है? और जिसे हम सफल जीवन कहते हैं वह मूर्च्छा के अतिरिक्त और क्या है? और जिसे हम सफल जीवन कहते हैं, वह सफलता पा लेने के सिवाय और क्या है? जीवन में सन्निहित दुख को जो धन की, या यश की, या काम की मादकता में भूलने में सफल मालूम होते हैं उन्हें हम सफल कहते हैं। पर सत्य कुछ अन्यथा ही है। ऐसे लोग जीवन को पाने में नहीं, गंवाने में सफल हो गए हैं। उन्होंने दुख को भुलाकर आत्मघात ही कर लिया है। दुख के प्रति जागरण आनन्द को आत्मा में प्रतिष्ठित कर देता है।

दुख साक्षात अमूर्च्छा लाता है। उससे निद्रा टूटती है। जो व्यक्ति दुख या संताप से घबराकर पलायन नहीं करता, और किन्हीं सपनों में स्वयं को नहीं खो लेता है, वह अपने भीतर एक अभूतपूर्व चैतन्य को जागृत करता है। वह एक क्रांति का साक्षी बनता है। चैतन्य का यह जागरण उसे आमूल परिवर्तित कर देता है। वह अपने भीतर अंधेरे को टूटते हुए देखता है और देखता है कि उसकी चेतना के रंध—रंध से प्रकाश परिव्याप्त हो रहा है। इस प्रकाश में पहली बार वह स्वयं को जानता है। पहली बार उसे दिखता है कि वह कौन है!

दुख—साक्षात के दबाव में ही आत्म—जागरण होता है। आन्तरिक पीडा का आत्यंतिक बोध अपनी चरम स्थिति पर विस्फोट बन जाता है। जो इस सीमा तक पीड़ा से गुजरने को राजी होते हैं, वे पीड़ा के बाहर पहुंच जाते हैं। जो इतना साहस करता है, उसके लिए सत्य अपना द्वार खोल देता है।

मैं कौन है यह जान लेना ही सत्य को जान लेना है। इस बोझ के साथ ही दुख विसर्जित हो जाता है। दुख स्व—अज्ञान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मैं अपने को जानते ही आनन्द का अधिकारी हो जाता हूं। वह जो प्रत्येक के भीतर है, सच्चिदानंद है। उस ब्रह्म की अनुभूति आनन्द है। ब्रह्म को, आत्मा को जानना सत्य को जानना है। सत्य को जानना आनन्द को पा लेना है।

सत्य पाया जाता है। आनन्द और प्रेम उसमें फलित होते है। जो अंतस में आनन्द होता है, वही आचरण में अहिंसा होकर दिखता है। अहिंसा सत्यानुभूति का परिणाम है। वह सत्य के दीए का प्रकाश है।

समाधि के पौधे में सत्य के फूल लगते है और अहिंसा की सुगन्ध आकाश में परिव्याप्त हो जाती है।

‘मैं कौन हूं?’

से संकलित क्रांतिसूत्र, 1966—67


Filed under: मैं कहता आंखन देखी-- Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1170

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>