पत्र—पाथय—49
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर (म. प्र.)
आर्चाय रजनीश
दर्शन विभाग
महाकोशल महाविद्यालय
मां,
नयी सुबह। नया सूरज। नई धूप। सोकर उठा हूं। सब नया—नया है। जगत् में कुछ भी पुराना नहीं है।
कई सौ वर्ष पहले यूनान में किसी ने कहा था, ‘‘एक ही नदी में दो बार उतरना असंभव है।’’
सब नया है पर मनुष्य पुराना पड़ जाता है। मनुष्य नये में जीता ही नहीं इसलिए पुराना पड़ जाता है। मनुष्य जीता है स्मृति में, अतीत में, मृत में। यह जीना ही है, जीवन नहीं है। पर अर्ध—मृत्यु है।
कल एक जगह यही कहा हूं। मनुष्य अपने में मृत है। जीवन योग से मिलता है। योग चिर—नवीन में जगा देता है। योग चिर—वर्तमान में जगा देता है।
मानव—चित्त स्मृति के भार से मुक्त हो तो ‘‘जो है’‘ वह प्रगट हो जाता है। स्मृति भूल का संकलन है। इससे जीवन को नहीं पाया जा सकता है। वह ज्ञान में भटकता है। उससे जो अज्ञान है, उसके द्वार नहीं खुलते हें।
ज्ञान को जाने दो ताकि अज्ञान प्रगट हो सके। मूल को जाने दो ताकि जीवित प्रगट हो सके—योग का सार—सूत्र यही है।
28 मार्च 1963
रजनीश के प्रणाम
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