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किताबे–ए–मीरदाद–(अध्‍याय–22)

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अध्याय—बाईस

मीरदाद जमोरा को उसके रहस्य के भार से मुक्त करता है

और पुरुष तथा स्त्री की, विवाह की, ब्रह्मचर्य की

तथा आत्म— विजेता की

बात करता है

मीरदाद : नरौंदा मेरी विश्वसनीय स्मृति। क्या कहते हैं तुमसे ये कुमुदिनी के फूल?

नरौंदा : ऐसा कुछ नहीं जो मुझे सुनाई देता हो, मेरे मुर्शिद।

मीरदाद : मैं इन्हें कहते सुनता हूँ, ”हम नरौंदा को प्यार करते हैं और अपने प्यार के प्रतीक—स्वरूप अपनी सुगन्धित आत्मा उसे प्रसन्नतापूर्वक भेंट करते हैं। ”नरौंदा मेरे स्थिर हृदय! क्या कहता है तुमसे इस सरोवर का पानी?

नरौंदा : ऐसा कुछ नहीं जो मुझे सुनाई देता हो, मेरे मुर्शिद।

मीरदाद : मैं इसे कहते सुनता हूँ, ”मैं नरौंदा से प्यार करता हूँ बुझाता हूँ, इसलिये मैं उसकी प्यास और उसके प्यारे कुमुदिनी के फूलों की प्यास भी।”

नरौंदा मेरे सदा जाग्रत नेत्र। क्या कहता है तुमसे यह दिन, उन सब चीजों को अपनी झोली में लिये जिन्हें यह धूप में नहाई अपनी बाहों में इतनी कोमलता से झुलाता है?

नरौंदा : ऐसा कुछ नहीं जो मुझे सुनाई देता हो, मेरे मुर्शिद।

मीरदाद : मैं इसे कहते सुनता हूँ, ”मैं नरौंदा से प्यार करता हूँ इसलिये मैं अपने प्रिय परिवार के अन्य सदस्यों सहित उसे धूप में नहाई अपनी बाहों में इतनी कोमलता से झुलाता हूँ।”

जब प्यार करने के लिये और प्यार पाने के लिये इतना कुछ है तो नरौंदा का जीवन क्या इतना भरपूर नहीं कि सारहीन स्वप्न और विचार उसमें अपना घोंसला न बना सकें, अपने अण्डे न से सकें?

सचमुच, मनुष्य ब्रह्माण्ड का दुलारा है। सब चीजें उससे बहुत लाड़—प्यार करके प्रसन्न होती हैं। किन्तु इने—गिने हैं ऐसे मनुष्य जो इतने अधिक लाड़ —प्यार से बिगड़ते नहीं, तथा और भी कम हैं ऐसे मनुष्य जो लाड़—प्यार करने वाले हाथों को काट नहीं खाते।

जो बिगड़े हुए नहीं हैं उनके लिये सर्प —दंश भी स्नेहमय चुम्बन होता है। किन्तु बिगड़े हुए लोगों के लिये स्नेहमय चुम्बन भी सर्प —दंश होता है। क्या ऐसा नहीं है, जमील?

नरौंदा : ये बातें कह रहे थे मुर्शिद एक सुनहरी दोपहर जब खिली धूप में जमील और मै नौका की फुलवाड़ी में कुछ क्यारियों को सींच रहे थे। जमोरा जो पूरा समय काफी खोया —खोया सा, अनमना और उदास था, मुर्शिद का प्रश्न सुन कर मानों होश में आया और चौंक उठा।

जमोरा : जिस बात को मुर्शिद सच कहते हैं वह अवश्य सच होगी।

मीरदाद : क्या तुम्हारे सम्बन्ध में यह सच नही है, ज़मोरा? क्या तुम्हें बहुत—से प्रेमपूर्ण चुम्बनों का विष नहीं चढ़ गया है ‘ क्या तुम्हें अपने विषैले प्रेम की स्मृतियाँ अब दुःखी नहीं कर रही हैं?

ज़मोरा : (नेत्रों से अश्रु —धारा बहाते हुए मुर्शिद के पैरों में गिर कर) ओह, मुर्शिद! किसी भेद को हृदय के सबसे गहरे कोने में रख कर भी आपसे छिपाना मेरे लिये — या किसी के लिये भी — कैसा बचपना है कैसा वृथा अभिमान है।

मीरदाद : (ज़मोरा को उठा कर हृदय से लगाते हुए) कैसा बचपना है, कैसा वृथा अभिमान है इन कुमुद—पुओ से भी उसे छिपाना!

ज़मोरा : मैं जानता हूँ कि मेरा हृदय अभी पवित्र नहीं है. क्योंकि मेरे गत रात्रि के स्वप्न अपवित्र थे।

मेरे मुर्शिद, आज, मैं अपने हृदय का शोधन कर लूँगा। मैं इसे निर्वस्त्र कर दूँगा, आपके सामने, नरोंदा के सामने, और इन कुमुद —पुष्पों तथा इनकी जड़ों में रेंगते केंचुओं के सामने। कुचल डालने वाले इस रहस्य के बोझ से मैं अपनी आत्मा को मुक्त कर लूँगा। आज इस मन्द समीर को मेरे इस रहस्य को उड़ा कर संसार के हर प्राणी, हर वस्तु तक ले जाने दो।

अपनी युवावस्था में मैंने एक युवती से प्रेम किया था। प्रभात के तारे से भी अधिक सुन्दर थी वह। मेरी पलकों के लिये नींद जितनी मीठी थी, मेरी जिह्वा के लिये उससे कहीं अधिक मीठा था उसका नाम। जब आपने हमें प्रार्थना और रक्त के प्रवाह के सम्बन्ध में उपदेश दिया था तब, मैं समझता हूँ, आपके शान्तिप्रद शब्दों के रस का पान सबसे पहले मैंने किया था, क्योंकि मेरे रक्त की बागडोर होगला (यही नाम था उस कन्या का) के प्रेम के हाथ में थी, और मैं जानता था कि एक कुशल संचालक पाकर रक्त क्या कुछ कर सकता है।

होगला का प्रेम मेरा था तो अनन्तकाल मेरा था। उसके प्रेम को मैं विवाह की अँगूठी की तरह पहने हुए था। और स्वयं मृत्यु को मैंने कवच मान लिया था। मैं आयु में अपने आप को हर बीते हुए कल से बड़ा और भविष्य में जन्म लेने वाले अन्तिम कल से छोटा अनुभव करता था। मेरी भुजाओं ने आकाशों को थाम रखा था, मेरे पैर धरती को गति प्रदान करते थे, जब कि मेरे हृदय में थे अनेक चमकते सूर्य।

परन्तु होगला मर गई, और जमोरा आग में जल रहा अमरपक्षी राख का ढेर होकर रह गया। अब उस बुझे हुए निर्जीव ढेर, में से किसी नये अमरपक्षी को प्रकट नहीं होना था। जमोरा जो एक निडर सिंह था, एक सहमा हुआ खरगोश बन कर रह गया। जमोरा जो आकाश का स्तम्भ था, प्रवाह —हीन पोखर में पड़ा एक शोचनीय खण्डहर बन कर रह गया।

जितने भी जमोरा को मैं बचा सका उसे लेकर मैं नौका की ओर चला आया, इस आशा के साथ कि मैं अपने आप को नौका की प्रलयकालीन स्मृतियों और परछाइयों में जीवित दफना दूँगा। मेरा सौभाग्य था कि मैं ठीक उस समय यहाँ पहुँचा जब एक साथी ने संसार से कूच किया ही था, और मुझे उसकी जगह स्वीकार कर लिया गया। पन्द्रह वर्ष तक इस नौका में साथियों ने जमोरा को देखा और सुना है. पर जमोरा का रहस्य उन्होंने न देखा न सुना। हो सकता है कि नौका की पुरातन दीवारें और धुँधले गलियारे इस रहस्य से अपरिचित न हों। हो सकता है कि इस उद्यान के पेडों, फूलों और पक्षियों को इसका कुछ आभास हो। परन्तु मेरे रबाब के तार निश्चय ही आपको मेरी होगला के बारे में मुझसे अधिक बता सकते हैं, मुर्शिद।

आपके शब्द जमोरा की राख को हिला कर गर्म करने ही लगे थे और मुझे एक नये जमोरा के जन्म का विश्वास हो ही रहा था कि होगला ने मेरे सपनों में आकर मेरे रक्त को उबाल दिया, और मुझे उछाल फेंका आज के यथार्थ के उदास चट्टानी शिखरों पर — एक बुझ चुकी मशाल, एक मृत —जात आनन्द, एक बेजान राख का ढेर।

आह, होगला, होगला।

मुझे क्षमा कर दें, मुर्शिद। मैं अपने आँसुओं को रोक नहीं सकता। शरीर क्या शरीर के सिवाय कुछ और हो सकता है? दया करें मेरे शरीर पर। दया करें जमील पर।

मीरदाद : स्वय दया को दया की जरूरत है। मीरदाद के पास दया नहीं है। लेकिन अपार प्रेम है मीरदाद के पास सब चीजों के लिये शरीर के लिये भी, और उससे भी अधिक आत्मा के लिये जो शरीर का स्थूल रूप केवल इसलिये धारण करती है कि उसे अपनी निराकारता से पिघला दे। मीरदाद का प्रेम ज़मोरा को उसकी राख में से उठा लेगा और उसे आत्म—विजेता बना देगा।

आत्म—विजेता बनने का उपदेश देता हूँ मैं — एक ऐसा मनुष्य बनने का जो एक हो चुका हो, जो स्वयं अपना स्वामी हो।

स्त्री के प्रेम द्वारा बन्दी बनाया गया पुरुष और पुरुष के प्रेम द्वारा बन्दी बनाई गई स्त्री, दोनों स्वतन्त्रता के अनमोल मुकुट को पहनने के अयोग्य हैं। परन्तु ऐसे पुरुष और स्त्री पुरस्कार के अधिकारी हैं जिन्हें प्रेम ने एक कर दिया हो, जिन्हें एक दूसरे से अलग न किया जा सके जिनकी अपनी अलग —अलग कोई पहचान ही न रही हो।

वह प्रेम प्रेम नहीं जो प्रेमी को अपने अधीन कर लेता है।

वह प्रेम प्रेम नहीं जो रक्त. और मास पर पलता है।

वह प्रेम प्रेम नहीं जो स्त्री को पुरुष की ओर केवल इसलिये आकर्षित करता है कि और स्त्रियाँ तथा पुरुष पैदा किये जायें और इस प्रकार उनके शारीरिक कन्धन स्थायी हो जायें।

आत्म—विजेता बनने का उपदेश देता हूँ मैं — उस अमरपक्षी जैसा मनुष्य बनने का जो इतना स्वतन्त्र है कि पुरुष नहीं हो सकत।….. और इतना महान और निर्मल कि स्त्री नहीं हो सकता।

जिस प्रकार जीवन के स्थूल क्षेत्रों में पुरुष और स्त्री एक हैं उसी प्रकार जीवन के सूक्ष्म क्षेत्रों में वे एक हैं। स्थूल और सूक्ष्म के बीच का अन्तर नित्यता का केवल एक ऐसा खण्ड है जिस पर द्वैत का भ्रम छाया हुआ है। जो न आगे देख पाते हैं न पीछे, वे नित्यता के इस खण्ड को नित्यता ही मान लेते हैं। यह न जानते हुए कि जीवन का नियम एकता है, वे द्वैत के भ्रम से ऐसे चिपके रहते हैं जैसे वही जीवन का सार हो। द्वैत समय में आने वाली एक अवस्था है। द्वैत जिस प्रकार एकता से निकलता है. उसी प्रकार यह एकता की ओर ले जाता है। जितनी जल्दी तुम इस अवस्था को पार कर लोगे, उतनी ही जल्दी अपनी स्वतन्त्रता को गले लगा लोगे।

और पुरुष और स्त्री हैं क्या? एक ही मानव जो अपने एक होने से बेखबर है. और जिसे इसलिये दो टुकड़ों में चीर दिया गया है तथा द्वैत का विष पीने के लिये विवश कर दिया गया है कि वह एकता के अमृत के लिये तड़पे; और तड़पते हुए दृढ़ निश्चय के साथ उसकी तलाश करे; और तलाश करते हुए उसे पा ले, तथा उसका स्वामी बन जाये जिसे उसकी परम स्वतन्त्रता का बोध हो।

घोड़े को घोडी के लिये हिनहिनाने दो, हिरनी को हिरन को पुकारने दो। स्वयं प्रकृति उन्हें इसके लिये प्रेरित करती है, उनके इस कर्म को आशीर्वाद देती है और उसकी प्रशंसा करती है, क्योंकि सन्तान को जन्म देने से अधिक ऊँची किसी नियति का उन्हें अभी बोध ही नहीं

जो पुरुष और स्त्रियाँ अभी तक घोड़े और घोड़ी से तथा हिरन और हिरनी से भिन्न नहीं हैं, उन्हें काम के अँधेरे एकान्त में एक —दूसरे को खोजने दो। उन्हें शयन कक्ष की वासना में विवाह —बन्धन की छूट का मिश्रण करने दो। उन्हें अपनी कटि की जननक्षमता तथा अपनी कोख की उर्वरता में प्रसन्न होने दो। उन्हें अपनी नस्ल को बढ़ाने दो। स्वयं प्रकृति उनकी प्रेरिका तथा धाय बन कर खुश है; प्रकृति उनके लिये फूलों की सेज बिछाती है, पर साथ ही उन्हें काँटों की चुभन देने से भी नहीं चूकती।

लेकिन आत्म —विजय के लिये तड़पने वाले पुरुषों और स्त्रियों को शरीर में रहते हुए भी अपनी एकता का अनुभव अवश्य करना चाहिये; शारीरिक सम्पर्क के द्वारा नहीं, बल्कि शारीरिक सम्पर्क की भूख और उस भूख द्वारा पूर्ण एकता और दिव्य शान के रास्ते में खड़ी की गई रुकावटों से मुक्ति पाने के संकल्प द्वारा।

तुम प्राय: लोगों को ”मानव—प्रकृति’ के बारे में यों बात करते हुए सुनते हो जैसे वह कोई ठोस तत्त्व हो, जिसे अच्छी तरह नापा —तोला गया है, जिसके निश्चित लक्षण हैं, जिसकी पूरी तरह छान—बीन कर ली गई है और जो किसी ऐसी वस्तु द्वारा चारों ओर से प्रतिबन्धित है जिसे लोग ”काम’ कहते हैं।

लोग कहते हैं काम के मनोवेग को सन्तुष्ट करना मनुष्य की प्रकृति है, लेकिन उसके प्रचण्ड प्रवाह को नियन्त्रित करके काम पर विजय पाने के साधन के रूप में उसका उपयोग करना निश्चय ही मानव— स्वभाव के विरुद्ध है और दु:ख को न्योता देना है। लोगों की इन अर्थहीन बातों की ओर ध्यान मत दो।

बहुत विशाल है मनुष्य और बहुत अनबूझ है उसकी प्रकृति। अत्यन्त विविध हैं उसकी प्रतिभाएँ और अटूट है उसकी शक्ति। सावधान रही उन लोगों से जो उसकी सीमाएँ निर्धारित करने का प्रयास करते हैं।

काम—वासना निश्चय ही मनुष्य पर एक भारी कर लगाती है। लेकिन यह कर वह कुछ समय तक ही देता है। तुममें से कौन अनन्तकाल के लिये दास बना रहना चाहेगा? कौन —सा दास अपने राजा का जुआ उतार फेंकने और क्या—मुक्त होने के सपने नहीं देखता?

मनुष्य दास बनने के लिये पैदा नहीं हुआ था, अपने पुरुषत्व का दास भी नहीं। मनुष्य तो सदैव हर प्रकार की दासता से मुका होने के लिये तड़पता है; और यह मुक्ति उसे अवश्य मिलेगी।

जो आत्म —विजय प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखता है. उसके लिये खून के रिश्ते क्या हैं? एक बश्वन जिसे दृढ़ संकल्प द्वारा तोड़ना जरूरी है।

आत्म—विजेता हर रक्त के साथ अपने रक्त का सम्बन्ध महसूस करता है। इसलिये वह किसी के साथ बँधा नहीं होता।

जो तड़पते नहीं, उन्हें अपनी नस्‍ल बढ़ाने दो। जो तड़पते हैं, उन्हें एक और नस्ल बढ़ानी है — आत्म —विजेताओं की नस्‍ल।

आत्म—विजेताओं की नस्य कमर और कोख से नहीं निकलती। बल्कि उसका उदय होता है संयमी हृदयों से जिनके रक्त की बागडोर विजय पाने के निर्भीक संकल्प के हाथों में होती है।

मैं जानता हूँ कि तुमने तथा संसार में तुम जैसे अन्य अनेक लोगों ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा है। किन्तु अभी बहुत दूर हो तुम ब्रह्मचर्य से, जैसा कि जमोरा का गत रात्रि का स्‍वप्‍न सिद्ध करता है।

ब्रह्मचारी वे नहीं हैं जो मत की पोशाक पहन कर अपने आप को मोटी दीवारों और विशाल लौह —द्वारों के पीछे बन्द कर लेते हैं। अनेक साधु और साध्वियाँ अति कामुक लोगों से भी अधिक कामुक होते हैं, चाहे उनके शरीर सौगन्ध खाकर कहें, और पूरी सच्चाई के साथ कहें, कि उन्होंने कभी किसी दूसरे के साथ सम्पर्क नहीं किया। ब्रह्मचारी तो वे हैं जिनके हृदय और मन ब्रह्मचारी हैं, चाहे वे मठों में रहते हों चाहे खुले बाजारों में।

स्त्री का आदर करो, मेरे साथियो, और उसे पवित्र मानो। मनुष्य —जाति की जननी के रूप में नहीं, पत्नी या प्रेमिका के रूप में नहीं, बल्कि द्वैतपूर्ण जीवन के लम्बे श्रम और दु:ख में कदम—कदम पर मनुष्य के प्रतिरूप और बराबर के भागीदार के रूप में। क्योंकि उसके बिना पुरुष द्वैत के खण्ड को पार नहीं कर सकता। स्त्री में ही मिलेगी पुरुष को अपनी एकता और पुरुष में ही मिलेगी स्त्री को द्वैत से अपनी मुक्ति। समय आने पर ये दो मिल कर एक हो जायेंगे — यहाँ तक कि आत्म —विजेता बन जायेंगे जो न नर है न नारी, जो है पूर्ण मानव।

आत्म—विजेता बनने का उपदेश देता हूँ मैं — ऐसा मनुष्य बनने का जो एकता प्राप्त कर चुका हो, जो स्वयं अपना स्वामी हो। और इससे पहले कि मीरदाद तुम्हारे बीच में से अपने आप को उठा ले, तुममें से प्रत्येक आत्म—विजेता बन जायेगा।

जमोरा : आपके मुख से हमें छोड़ जाने की बात सुन कर मेरा हृदय दु:खी होता है। यदि वह दिन कभी आ गया जब हम आपको ढूँढें और आप न मिलें. तो जमोरा निश्चय ही अपने जीवन का अन्त कर देगा।

मीरदाद : अपनी इच्छा—शक्ति से तुम बहुत —कुछ कर सकते हो, जमोरा — सब —कुछ कर सकते हो। पर एक काम नहीं कर सकते और वह है अपनी इच्छा —शक्ति का अन्त कर देना, जो जीवन की इच्छा है, जो प्रभु —इच्छा है। क्योंकि जीवन, जो अस्तित्व है, अपनी इ च्छा शक्ति से अस्तित्व —हीन नहीं हो सकता, न ही अस्तित्व—हीन की कोई इच्छा हो सकती है। नहीं, परमात्मा भी जमोरा का अन्त नहीं कर सकता।

जहाँ तक मेरा तुमको छोड जाने का प्रश्न है, वह दिन अवश्य आयेगा जब तुम मुझे देह —रूप में ढूँढोगे और मैं नहीं मिलूँगा, क्योंकि इस धरती के अतिरिक्त कहीं और भी मेरे लिये काम है। — पर मैं कहीं भी अपने काम को अधूरा नहीं छोडुता। इसलिये खुश रहो। मीरदाद तब तक तुमसे विदा नहीं लेगा जब तक वह तुम्हें आत्म —विजेता नहीं बना देता — ऐसे मानव जो एकता प्राप्त कर चुके हों, जो पूर्णतया अपने स्वामी बन गये हों।

जब तुम अपने स्वामी बन जाओगे और एकता प्राप्त कर लोगे, तब तुम अपने हृदय में मीरदाद को निवास करता पाओगे, और उसका नाम तुम्हारी स्मृति में कभी कूमइल नहीं होगा।

यही शिक्षा थी मेरी नूह को।

यही शिक्षा है मेरी तुम्हें।

 


Filed under: ओशो की प्रिय पुस्‍तके..... Tagged: अदविता नियति, ओशो, डेरा बाबा जैमलसिंह सेक्रेटरी, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

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