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सहज योग–(प्रवचन–09)

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फागुन पाहुन बन आया घर—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 29 नवंबर,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—तालमुद का वचन है: “जो तुझे आदिष्ट है उससे परे भी, उससे ऊपर भी तू पवित्र आचरण कर।’ कृपा करके इस वचन का आशय हमें कहिए।

 2—कोरा कागज था ये मन मेरा, लिख लिया नाम जिस पे तेरा! चैन गंवाया मैंने, निंदिया गंवाई; सारी-सारी रात जागूं, दूं मैं दुहाई!

 3—बस एक ही प्रार्थना है कि आपके पास जो आग है, उसमें पूरी-पूरी जल जाऊं और खो जाऊं।

 4—सिद्ध सरहपा ने महासुख की बात कही। यह महासुख क्या है?

 

5—विश्वास तो नहीं होता था कि कृष्ण के साथ लोग नाचे होंगे। आपके आश्रम   को देखकर भरोसा आया है कि ऐसा भी कभी हुआ होगा।

      हम तो खुदा के कभी कायल ही न थे,

      आपको देखा, खुदा याद आया।

 

 

पहला प्रश्न:

 

तालमुद का वचन है: “जो तुझे आदिष्ट है, उससे परे भी, उससे ऊपर भी, तू पवित्र आचरण कर।’ कृपा करके इस वचन का आशय हमें कहिये।

 

रेन्द्र! आदिष्ट का अर्थ होता है: जो श्रेष्ठ पुरुषों ने तुमसे कहा है। लेकिन जो दूसरे ने तुमसे कहा है वह उधार होगा। तुम्हारे निज अनुभव में उसकी कोई जड़ें न होंगी। वह आचरण तो बनेगा, अंतःकरण नहीं। तुम चल पड़ोगे।

बुद्ध कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे, कोई कारण नहीं है कि गलत कहें। बुद्ध के वक्तव्य पर बुद्ध की प्रामाणिकता की छाप है, उनके हस्ताक्षर हैं। जो बुद्ध के प्रेम में पड़ गया, जो उनकी आभा से परिचित हुआ, वह उनकी बात मानकर चलेगा। लेकिन फिर भी यह बात तो बाहर से आई है; भीतर से नहीं उमगी है। यह तुम्हारी आत्मा का फूल नहीं है। यह फूल तुम बाजार से खरीद लाये हो। इसकी तुमने माला बना ली है। इसे तुमने गले में डाल लिया है। लेकिन यह फूल तुम्हारी अपनी आत्मा की बगिया में नहीं खिला है।

इसलिये तालमुद कहता है…आदिष्ट ठीक है। आदिष्ट यानी जिसका आदेश दिया गया है, उसका अनुसरण करो, पर उतने पर ही जीवन की परिसमाप्ति न समझ लेना। उसके पार भी एक आचरण है। वही आचरण धर्माचरण है। आदिष्ट से बनती है नीति; अनुभव से बनता है धर्म। अनुकरण से बनती है नीति; आत्मसाक्षात से बनता है धर्म। शास्त्र कहते हैं, सदगुरु कहते हैं; तुम मानते हो और चलते हो। मगर मान्यता मान्यता है, विश्वास है, ऊपर-ऊपर है। जरा-सी संदेह की किरण आ जायेगी और सब नष्ट हो जायेगा। जरा-सा संदेह का कांटा चुभ जायेगा और गैल भटक जायेगी। तुम्हारी राह को चुका देने में अड़चन नहीं है, कोई भी चुका दे सकता है। कोई भी संदेह तुम्हारे भीतर डाल दे सकता है। क्योंकि श्रद्धा अभी तुम्हारा स्वयं का अनुभव नहीं है, तुम्हारी बुनियाद नहीं है कोई। तुमने मंदिर तो बना लिया, लेकिन बिना आधार के बना लिया है, अधर में बना लिया है। यह गिरेगा। न होने से अच्छा है; मगर यह वास्तविक मंदिर नहीं है।

फिर, नीति सामाजिक घटना है, इसलिये अलग-अलग समाजों में अलग-अलग नीति होती है। दुनिया में हजारों तरह के समाज हैं और हजारों तरह की नीतियां हैं। जो एक की नीति है, दूसरे के लिये अनीति हो सकती है। जो एक के लिए सदाचरण है, दूसरे के लिए असदाचरण हो सकता है। नीति की कोई आत्यंतिक मूल्यवत्ता नहीं है; सामाजिक उपयोगिता है। इसलिये नैतिक होने के लिये कोई आस्तिक होना भी आवश्यक नहीं है। नास्तिक की भी नीति होती है। आखिर रूस कोई अनैतिक देश नहीं है; सच तो यह है कि तथाकथित धार्मिक देशों से कहीं ज्यादा नैतिक है। नास्तिक भी किन्हीं नीति के नियमों को मानकर चलेगा–चलना ही पड़ेगा। जहां एक से ज्यादा लोग हैं वहां कोई-न-कोई नियम जरूरी हो जायेंगे। नहीं तो जीना असंभव हो जायेगा।

नीति का उतना ही अर्थ है, जितना रास्ते पर नियम है बायें चलो, उसका। अमरीका में लोग दायें चलते हैं, भारत में लोग बायें चलते हैं; कुछ भेद नहीं है। नियम विपरीत हैं, मगर कोई-न-कोई नियम मानकर चलना होगा। सब नियमों के भीतर एक नियम स्वीकृत है कि जहां एक से ज्यादा लोग हों वहां नियम की जरूरत है। नहीं तो अड़चन होगी। अगर कोई बायें चले, कोई दायें चले, कोई बीच में चले, तो रास्ते पर दुर्घटनाएं ही दुर्घटनाएं हो जायेंगी। लेकिन बायें चलो, इसका कोई आत्यंतिक मूल्य नहीं है। ऐसा नहीं है कि तुम बायें चले तो स्वर्ग जाओगे। बायें चले तो जल्दी स्वर्ग न जाओगे, दुर्घटना से स्वर्ग न जाओगे, इतना ही तय है। एकदम स्वर्गीय न हो जाओगे। लेकिन बायें चलने से कोई स्वर्ग पहुंच जाओगे, ऐसा मत समझ लेना कि मैं जिंदगी-भर बांये चला तो मैं हकदार हो गया स्वर्ग का। बायें चले तो टांग नहीं टूटी। बायें चले तो रिक्शे के नीचे नहीं आये। बायें चले तो बस के नीचे नहीं पड़े। इतना ही लाभ है। स्वर्ग नहीं मिल जायेगा। और यह भी मत सोचना कि कभी कोई अगर दायें चल गया तो नरक चला जायेगा। न तो दायें चलने से कोई नरक जाता है न बायें चलने से कोई स्वर्ग जाता है, लेकिन जीवन की सुविधा हो जाती है।

सुविधा के लिये नीति है। धर्म सुविधा के लिये नहीं है, सत्य के लिये है। इसलिये नैतिक व्यक्ति का जरूरी नहीं है धार्मिक होना। धार्मिक व्यक्ति जरूर नैतिक होगा, लेकिन नैतिक व्यक्ति आवश्यक रूप से धार्मिक नहीं होता। कोई आवश्यकता नहीं है। नैतिक व्यक्ति न माने ईश्वर को, न माने आत्मा को, तो भी नीति को मानकर चलेगा।

धार्मिक व्यक्ति कौन है फिर? वह–जिसके आदेश बाहर से नहीं आते; जिसके आदेश उसकी अंतरात्मा से उठते हैं; जिसकी अंतरवाणी जाग गई है; जिसकी भीतर की हृदयत्तंत्री बज उठी है; जिसके भीतर का नाद जग गया है और अब जो उस नाद के अनुसार जीता है।

यह तालमुद का वचन प्यारा है: “जो तुझे आदिष्ट है उससे परे भी, उससे ऊपर भी तू पवित्राचरण कर!’ आचरण तभी पवित्र होता है जब आदिष्ट से परे उठ जाओ; जब नीति-नियम से परे उठ जाओ; जब नियम तुम्हारे लिए कर्तव्य ही न हों, बल्कि जीवन की सहजता हो जाये। उसी को सरहपा सहजऱ्योग कह रहे हैं। एक तो होता है कि ऐसा चलने से लाभ होगा, ऐसा करने से समाज में प्रतिष्ठा मिलेगी। जीवन सुविधापूर्ण रहेगा। अड़चन कम पैदा होगी। ज्यादा सुरक्षा होगी, सम्मान मिलेगा, सत्कार मिलेगा। एक तो ऐसा आचरण होता है; वही नीति का आचरण है।

मां-बाप अपने बच्चों को समझाते हैं कि नीति से चलो, ताकि समाज में प्रतिष्ठा रहे। मगर प्रतिष्ठा क्या है? अहंकार का आभूषण है। शिक्षक स्कूल में समझाते हैं: “ज्ञान अर्जित करो, क्योंकि धनी का धन छिन जाये, मगर ज्ञानी का ज्ञान नहीं छिनता।’ मगर यह तो लोभ ही हुआ। छिनने के डर से ज्ञान अर्जित करो! “ज्ञानी की प्रतिष्ठा वहां भी है’–शिक्षक स्कूलों में समझाते हैं–“जहां सम्राटों की भी प्रतिष्ठा न हो। सम्राट भी विद्वान की प्रतिष्ठा करते हैं।’ मगर यह सब तो अहंकार को फुसलाना है; यह तो बच्चे के अहंकार को गुदगुदाना है। यह तो उसे अहंकारी बनाने का उपाय है।

सारी नीति अहंकार पर खड़ी होती है; और धर्म, निर-अहंकार पर। इसलिये धर्म और नीति एक अर्थ में विपरीत हैं। तुम चौंकोगे यह जानकर कि धर्म और नीति विपरीत हैं–इस अर्थ में विपरीत हैं कि धर्म अहंकार पर खड़ा नहीं होता। धर्म यह नहीं कहता कि करुणा करो, क्योंकि इससे स्वर्ग मिलेगा। धर्म कहता है: करुणा करो, क्योंकि करुणा करना आनंदपूर्ण है। मिलेगा की बात ही नहीं है, भविष्य की बात ही नहीं है, फल की बात ही नहीं है। करुणा में ही रस है।

जो ध्यान में उतरा है, करुणा करेगा ही। इसलिये नहीं कि करुणा करने से कुछ मिलेगा, बल्कि इसलिये कि कुछ मिल चुका है जो करुणा में बहेगा। उसके भीतर ध्यान में आनंद को जन्माया है। अब आनंद बांटने की आकांक्षा पैदा होती है–वैसे ही जैसे फूल खिलता है तो सुवास लुटती है। कोई फूल सुवास को लुटाता नहीं। फूल खिला कि सुवास लुटी। ऐसे ही ध्यान हुआ कि करुणा बटी। भीतर चित्त शांत हुआ कि तुम्हारे आसपास शांति की सुगंध फैलने लगेगी। भीतर ध्यान की बदली सघन हुई कि प्रेम की बूंदाबांदी शुरू हो जायेगी।

यह अपने से होगा। इसे साधना नहीं पड़ता। इसलिये यह सहज है। नीति साधनी पड़ती है; धर्म सहज है। नीति को पकड़-पकड़कर आरोपित करना होता है; जबरदस्ती थोपना होता है; आग्रहपूर्वक अपने को अनुशासनबद्ध करना होता है। क्योंकि नीति में लाभ है; नीति के विपरीत जाने में हानि है। नीति में सम्मान है; अनीति में अपमान है। ऐसा सोच-विचारकर गणित बिठाकर चालबाज आदमी नीति को आयोजित कर लेता है।

इसलिये अकसर एक चकित कर देने वाली बात अनुभव में आती है कि जिनको तुम अपराधी कहते हो वे तुम्हारे तथाकथित सम्मानित व्यक्तियों से ज्यादा सीधे-सरल लोग होते हैं। तुम उनकी आंखों में झांको तो तुम पाओगे कि तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्माओं से उनकी आंखें ज्यादा निर्मल हैं। क्यों? उनकी आंखों में वैसी ही निर्मलता है जैसी पशुओं की आंखों में है। उन्होंने जबर्दस्ती कुछ नहीं थोपा है; जो हुआ है होने दिया है। उनके भीतर बुराई की सहजता है। इसे समझना। वे पशु के तल पर जी रहे हैं। वहां बुराई सहज है। फिर एक बुद्धों का तल है, वहां अच्छाई सहज है। और पशुओं और बुद्धों के बीच में मनुष्य का तल है; वहां बुराई भी असहज है, भलाई भी असहज है।

मनुष्य के तल पर बड़ा तनाव है। एक हिस्सा पीछे खींचता है कि बुराई की सहजता पा लो। शराब पीने में एक तरह की सहजता है; विस्मरण हो गया चिंताओं का सब, छूट गये झंझट मन के, घड़ी-भर को मस्ती छा गई। तुम देखते हो, शराब पीने वाले लोग अकसर मिलनसार होंगे। जो शराब नहीं पीते हैं, तुम उन्हें उतना मिलनसार न पाओगे। उनमें कोई बुराई ही नहीं है तो उसकी वजह से अकड़ होगी।

मुल्ला नसरुद्दीन डाक्टर के पास गया और कहा कि मेरे सिर में बड़ा दर्द रहता है, जैसे कोई चीज मुझे जोर से सिर को बांधे हुए है, कोई अदृश्य लोहे का घेरा मेरे सिर को जकड़े हुए है! यह दर्द मिटता ही नहीं। यह जिंदगी-भर से मैं तड़प रहा हूं। कोई उपाय बतायें।

डाक्टर ने परीक्षा की और पूछा: शराब पीते हो? मुल्ला ने कहा: नहीं, कभी नहीं।

“सिगरेट पीते हो?’

मुल्ला ने कहा: “नहीं।’

“पान खाते हो?’

“नहीं।’

“सुंघनी सूंघते हो?’

“नहीं।’

“पराई स्त्रियों के पीछे चक्कर काटते हो?’

मुल्ला ने कहा: क्या बातें कर रहे हो फिजूल की? मैं धार्मिक आदमी हूं!

डाक्टर ने कहा: तब मैं समझ गया, यह तुम्हारी धार्मिकता का ही अदृश्य गोल लोहे का घेरा तुम्हारे सिर को कसे हुए है। यही तुम्हारे दर्द का कारण है। तुम्हारा अहंकार का आभामंडल बहुत चुस्त है। थोड़ी-बहुत भूल-चूकें करो तो थोड़े हल्के हो जाओ।

यह डाक्टर ने बात पते की कही। जो आदमी थोड़ी भूल-चूकें करता है, वह दूसरे को भी भूल-चूकें करते पाता है तो क्षमा कर सकता है। जो आदमी भूल-चूक करता ही नहीं, वह किसी को क्षमा भी नहीं कर सकता। इसलिये तुम्हारे साधु-संत कठोर हो जाते हैं, अति कठोर हो जाते हैं। करुणा की बात, लेकिन व्यक्तित्व कठोर हो जाता है। अपने को क्षमा नहीं करते, दूसरे को कैसे करेंगे? अपने पर इतने कठोर हैं तो तुम पर तो और भी ज्यादा कठोर हो जायेंगे। जब अपने को ही सता रहे हैं तो वे किसको छोड़ेंगे? उनका चित्त दूसरे को दंडित करने के लिये बड़ा आतुर और लालायित रहता है। मौका भर मिल जाये उन्हें तुम्हारी कुछ भूल पकड़ लेने का–छोटी-छोटी भूलें, मानवीय भूलें–कि किसी ने पान खा लिया है, कि बस पर्याप्त हो गया नरक जाने के लिये! पागल हो गये हो, कहीं पान खाने से कोई नरक गया है! कि किसी ने धूम्रपान कर लिया तो वह नरक चला गया है!

लेकिन एक बात तुम्हें समझ में आ जायेगी कि जो लोग नीति को मानकर चलते हैं उनके चित्त अकड़ जाते हैं, अस्मिता और अहंकार से भर जाते हैं। साधारणतया जिसको तुम अपराधी कहते हो, कभी जेल-घर में जाकर देखो, तो तुम पाओगे सरल लोग, सीधे लोग। शायद इसलिये भूल कर बैठे। बुराई की एक सहजता पाओगे। या फिर बुद्धों में तुम्हें सहजता मिलेगी–भलाई की सहजता। मध्य में दोनों के आदमी है–अटका हुआ, त्रिशंकु की भांति लटका हुआ। एक हिस्सा पीछे खींचता है कि लौट आओ पशु के जगत में, क्योंकि वहां सरलता थी; एक हिस्सा आगे खींचता है कि चलो बढ़ो बुद्धों के जगत में, क्योंकि वहां सरलता है। मगर जहां मनुष्य है वहां खिंचाव ही खिंचाव है। जो नीति को मानकर चलेगा, खिंचावों से कभी मुक्त नहीं होगा, तनावों से मुक्त नहीं होता; नीति उसके चित्त को और तनती चली जाती है।

मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि नीचे गिर जाओ, पशु के तल पर चले जाओ। क्योंकि वस्तुतः गिरने के कितने ही उपाय करो गिर न पाओगे, लौट-लौट आना पड़ेगा। जीवन का एक परम नियम है: जो जान लिया गया जान लिया गया, उससे लौटने का अब कोई उपाय नहीं है। जो जान लिया उसे अनजाना नहीं किया जा सकता। आदमी आदमी हो गया है, पशु को पीछे छोड़ आया है। चेष्टा करके कभी क्षण-दो-क्षण को पशु हो जाये, मगर फिर वापिस लौट आयेगा। अब मनुष्य से पीछे जाने की कोई सुविधा नहीं है। अब तो सहजता पानी हो तो पशुओं में नहीं पाई जा सकती, अब तो परमात्मा में ही पाई जा सकती है। उस सहजता को ही कहा है तालमुद ने, आदिष्ट के ऊपर उठ जाना।

बुद्ध किसी उपनिषद को मानकर थोड़े ही चलते हैं, कि किसी वेद को मानकर चलते हैं। बुद्ध का तो अपना वेद है; अपने ही भीतर उपनिषद जगा है, उसी के अनुसार चलते हैं। इसलिये तनाव नहीं होता, द्वंद्व नहीं होता। जब तुम किसी और की मानकर चलते हो तो दो हो जाते हैं व्यक्ति: एक तो तुम जो चलना नहीं चाहते, जबरदस्ती चलाते हो अपने को; और एक, जो तुम्हें चला रहा है। तुम्हारे भीतर द्वंद्व स्वाभाविक है।

हम छोटे बच्चों को ही द्वंद्व देना शुरू कर देते हैं। छोटा बच्चा अभी खेलना चाहता है, लेकिन पिता ने कहा मत खेलो, शांत बैठो; तो शांत बैठा है। तुमने कभी किसी छोटे बच्चे को शांत बिठाकर देखा? बैठा रहेगा शांत, हाथ-पैर हिलायेगा, सिर अकड़ायेगा, मुंह बनायेगा, करवट बदलेगा। तुमने कहा है शांत, तो बैठा है शांत; मगर उसके प्राण आतुर हैं दौड़ने को, भागने को, नाचने को। अभी ऊर्जा अतिशय है। अभी बाढ़ है ऊर्जा की। अभी वह कैसे बूढ़ों की तरह शांत बैठ जाये? उसके भीतर तुमने द्वंद्व पैदा कर दिया। वह भीतर तो नाचना चाहता है, कूदना चाहता है, दौड़ना चाहता है, तितलियां पकड़ने को निकल जाना चाहता है, वृक्षों पर चढ़ना चाहता है, छप्पर पर खड़े होकर आकाश के तारे तोड़ लेना चाहता है। और तुमने कहा शांत बैठो, तो बैठा है शांत; भीतर-भीतर कुढ़ रहा है; भीतर-भीतर विपरीत हुए जा रहा है तुम्हारे; भीतर-भीतर सोच रहा है कि कैसे छुटकारा हो यहां से। तुमने उसके भीतर दो व्यक्ति पैदा कर दिये: एक, जो बाहर से शांत बनकर बैठा है, परिधि पर; और एक केंद्र पर, जो अभी उछलना-कूदना चाहता है। बस तुमने आदमी के भीतर तनाव का सूत्र डाल दिया। अब जिंदगी-भर यही होगा। उसे करना कुछ है; लोग कहते हैं कुछ करो। वही करेगा, जो लोग कहते हैं। पत्नी कहती है ऐसा करो तो वैसा करेगा। दफ्तर में कोई कहता है ऐसा करो, तो वैसा करेगा। राजनेता कहता है ऐसा करो तो वैसा करेगा। अब यह जिंदगी-भर थपेड़े ही खायेगा। यह आदिष्ट को मानकर चलेगा। यह बड़ा आज्ञाकारी रहेगा। और इसको, जितनी आज्ञाकारिता दिखलायेगा उतना सम्मान मिलेगा। वह सम्मान खुशामद है आज्ञा की। वह सम्मान इसको फुसलाना है।

जो तुम्हारी आज्ञा मानता है, तुम उसको बड़ा समादृत करते हो। तुम कहते हो: अहा, मनुष्य हो तो ऐसा हो। तुम आज्ञाकारी को सम्मान देकर, उसकी स्तुति करके रिश्वत दे रहे हो। और आज्ञाकारी तुम्हारी रिश्वत के जहर से भरता जा रहा है। यह पर्याप्त नहीं है। इससे वह आदमी तो भला रहेगा, किसी की बुराई उससे होगी नहीं, लेकिन उसकी आत्मा कुढ़ती रहेगी, जलती रहेगी–नरकाग्नि में। उसके जीवन में कभी तुम फूल खिलते न देखोगे, उसके जीवन में बसंत न आयेगा।

इसलिये तुम्हारे तथाकथित धार्मिक आदमी, जो धार्मिक नहीं हैं मात्र नैतिक हैं, सदा उदास और गंभीर और लंबे चेहरोंवाले मालूम पड़ते हैं। उनके लंबे चेहरे, उनकी उदासी, उनकी गंभीरता ऊपर से थोपी गई है। वे कभी हंसे नहीं हैं। वे कभी नाचे नहीं हैं। वे कभी हंसेंगे भी नहीं। वे कभी नाचेंगे भी नहीं। वे जगत पर एक बोझ हैं। यद्यपि उनसे कभी कोई बुराई न होगी। वे किसी की चोरी न करेंगे। वे किसी की हत्या न करेंगे। मगर किसी की चोरी न करना और किसी की हत्या न करना नकारात्मक हैं।

तालमुद में जहां यह वचन है कि जो तुझे आदिष्ट है उससे परे भी, उससे ऊपर भी तू पवित्राचरण कर, यह वचन उन दस आज्ञाओं के संबंध में है जो यहूदियों के नियम हैं–टेन कमांडमेंट्स। उन दस आज्ञाओं में यही बताया गया है ऐसा न करो, ऐसा न करो, ऐसा न करो। वे नकारात्मक हैं। आज्ञायें सदा नकारात्मक होती हैं। आज्ञायें कभी विधायक नहीं हो सकतीं। सब नियम नकारात्मक होते हैं: ऐसा न करो…। तो ऐसा न करोगे तो तुमसे कुछ बुराई तो न होगी, यह तो सच है; लेकिन क्या इतना ही जीवन काफी है कि तुमसे कोई बुराई न हो? तो फिर मरने में और जीने में फर्क क्या हुआ? मरे हुए आदमी से भी बुराई नहीं होती। जो मर गया, वह सदा के लिये भला है। अब उससे कभी बुरा न होगा।

तुमने मुर्दों को कभी बुराई करते देखा? मुर्दों को कभी धूम्रपान करते देखा? मुर्दों को कभी तुमने किसी की जेब काटते देखा? मुर्दे तो सदा के लिये भले हो गये।

इसलिये तुमने एक मजे की बात देखी होगी: जैसे ही कोई आदमी मर जाता है, लोग उसकी प्रशंसा करने लगते हैं। मुर्दों की लोग प्रशंसा करते हैं! आदमी मर जाये, बस तत्क्षण प्रशंसा शुरू हो जाती है।

फ्रांस के बड़े विचारक रूसो का एक दुश्मन था, जिससे जिंदगी-भर उसका विवाद चलता रहा और दोनों ने एक-दूसरे को खूब खंडन-मंडन किया। जानी दुश्मन थे। एक-दूसरे का चेहरा नहीं देखते थे। और रास्ते पर अगर मिल जाते थे तो मुंह बचाकर निकल जाते थे या बगल की गली में सरक जाते थे, ताकि आमना-सामना न हो। दुश्मन के मरने की खबर आई। किसी ने आकर खबर दी कि रूसो, पता है तुम्हें, तुम्हारा दुश्मन मर गया है? तो रूसो ने कहा: अगर यह खबर सच है तो मैं यह कह सकता हूं कि वह आदमी महान था। अगर यह खबर सच है। प्रोवाइडेड इट इज ट्रू। तो मैं कह सकता हूं कि, ही वाज़ ए ग्रेट मैन। कि बड़ा आदमी था वह। मगर एक बात पक्की हो जाये कि मर गया हो। अगर न मरा हो तो फिर मैं यह नहीं कह सकता।

मरे आदमी की हम प्रशंसा करने लगते हैं। एक गांव में एक आदमी मरा–राजनेता था गांव का। गांव-भर उससे परेशान था, जैसा नेताओं से लोग परेशान हैं। मरा, तो गांव का नियम था कि जब कोई मर जाये तो उसकी प्रशंसा में कुछ व्याख्यान दिया जाये मरघट पर। कोई व्याख्यान देने को राजी नहीं, क्योंकि बहुत लोगों ने सिर मारा कि कोई एकाध बात तो खोज लें उसकी जिंदगी में जिसकी प्रशंसा हो सके। कोई बात ही न मिले, बात हो तो मिले! गांव-भर उसकी नस-नस से परिचित था। गांव-भर प्रसन्न था कि वे विदा हो गये। यह बड़ा ही अच्छा हुआ। यद्यपि लोग उदासी का ढोंग रचे बैठे थे, मगर अंदर प्रसन्न हो रहे थे। कोई प्रशंसा में बोलने को खड़ा न हो। गांव का नियम यह था कि जब तक प्रशंसा में बोला न जाये, तब तक अर्थी में आग नहीं लगाई जा सकती।

आखिर गांव का एक पंडित खड़ा हुआ। उसने कहा: “भाइयो! नेता जी तो मर गये, मगर अपने पांच भाई छोड़ गये हैं। वह उन पांच भाइयों का स्मरण करो। उन पांच भाइयों के मुकाबले नेता जी देवता पुरुष थे।’ इस तरह उसने प्रशंसा की। सीधी तो प्रशंसा का कोई उपाय नहीं था। उन पांच भाइयों के मुकाबले! क्योंकि वे उनसे भी पहुंचे हुए उपद्रवी हैं। उन पांच के मुकाबले नेता जी देवता पुरुष थे! प्रशंसा हो गई, लोग जल्दी से झपटकर आग लगाये। छुटकारा हो!

मरते ही सभी लोग स्वर्गीय हो जाते हैं, चाहे वे दिल्ली में ही मरें, तो भी स्वर्गीय हो जाते हैं! फिर नरक कौन जाता होगा? फिर तो नरक खाली पड़ा होगा, अगर दिल्ली में मरनेवाले लोग स्वर्ग चले जाते हैं। नहीं, लेकिन जो मर गया उसकी हम प्रशंसा करते हैं। यह शिष्टाचार है। अब किसी को, कोई मर गया है, उसको नारकीय तो नहीं कहता। सभी मरनेवालों को हम स्वर्गीय कहते हैं। यह शिष्टाचार है, लेकिन शिष्टाचार के पीछे एक बहुत महत्वपूर्ण बात छिपी है: मुर्दा आदमी अब बुरा नहीं कर सकता। अब किसी का बुरा नहीं कर सकता, इसलिये बेचारे की अब क्या बुराई करो? अब तो बुराई करने के पार हो गया।

जिनको तुम तथाकथित धार्मिक कहते हो, वे मुर्दा लोग हैं, उनसे किसी की बुराई नहीं होती, यह तो सच है; मगर उनके जीवन में उत्सव नहीं है, तो उनका जीवन नकारात्मक है।

ऐसा ही समझो कि कोई किसी गुलाब की झाड़ी की प्रशंसा में कहे कि इस झाड़ी में एक भी कांटा नहीं है। क्या तुम समझोगे यह पर्याप्त है? गुलाबों की झाड़ी की प्रशंसा कि इस झाड़ी में एक भी कांटा नहीं? प्रशंसा तो तब होगी जब कोई कहे इस झाड़ी में कैसे प्यारे फूल खिले हैं! नैतिक व्यक्ति ऐसा होता है, जिसकी झाड़ी में कांटा नहीं है और धार्मिक व्यक्ति ऐसा होता है जिसकी झाड़ी में फूल खिले हैं। इस भेद को स्पष्ट समझ लो। धार्मिक व्यक्ति नाचता है, आनंद-मग्न होता है। धार्मिक व्यक्ति मस्त होता है, मदमस्त होता है! धार्मिक व्यक्ति वह है जिसके जीवन में बसंत आ गया; जिसके जीवन में सुरभि उठी; जिसके जीवन में ज्योति जली। इतना ही काफी नहीं है कि कांटे नहीं हैं; जब तक फूल न हों तब तक तृप्त मत हो जाना।

तालमुद का यही अर्थ है: जो तुझे आदिष्ट है वह तो करो, लेकिन उतने से ही तृप्त मत हो जाना। उतने से मंजिल नहीं आ जाती। उससे परे भी, उससे ऊपर भी तू पवित्र आचरण कर। उसके परे क्या है? क्योंकि आदिष्ट में तो सारे शास्त्र आ गये, सब बाइबिलें, सब वेद, सब धम्मपद, सब कुरान आ गये। आदिष्ट का मतलब है: जो-जो आदेश दिये गये हैं आज तक, वे सब आ गये। उससे परे क्या है? उससे परे तुम्हारी अंतरात्मा है। उससे परे तुम्हारा ध्यान का जगत है। उससे परे तुम्हारे जीवन का केंद्र है।

आदिष्ट तो परिधि को छूता है। जैसे किसी के चेहरे पर हमने रंग रंग दिया; आदिष्ट तो बस मुखौटा बनाता है, लेकिन भीतर तुम्हारी आत्मा को तो कोई नहीं रंग सकता। जब तक कि तुम्हारी आत्मा ही अपने रंग बिखेरने न लगे, जब तक कि तुम्हारी आत्मा में ही इंद्रधनुष न जन्मे–तब तक कोई बाहर से तो नहीं रंग सकता। तुम्हारी आत्मा तक किसी के हाथ नहीं पहुंच सकते, कोई तूलिका नहीं पहुंच सकती, तुम्हीं पहुंच सकते हो, बस केवल तुम्हीं पहुंच सकते हो!

दूर-वीक्षणऱ्यंत्र से तुम व्योम को ही देखते हो?

एक ग्रह यह भूमि भी तो है।

कभी देखो इसे भी यंत्र के बल से।

 

न समझो यह कि धरती तो

हमारी सेज है, उत्संग है, पथ है,

उसे क्या चीर कर पढ़ना?

यहां के पेड़-पौधे, फूल, नर-नारी

सभी हर रोज मिलते हैं।

 

अरे, ये पेड़-पौधे, फूल-फल, नर-नारी

किसी प्रच्छन्न लौ के आवरण हैं।

जानते हो, बीज है वह कौन

ये जिसकी त्वचाएं हैं?

ज्ञात है वह अर्थ जो इन अक्षरों के पार भूला है?

 

दूर पर बैठे ग्रहों की नाप, यह भी शक्ति ही है।

किंतु, नापोगे नहीं गहराइयां

जो छिपी हैं पेड़-पौधे में, मनुज में फूल में?

 

ला सको तो ज्योतिषी! लाओ मुकुर कोई।

नहीं वह यंत्र केवल क्षेत्रफल, आकार या घन नापने वाला।

किंतु वह लोचन सुरभि से, रंग से नीचे उतर कर

पुष्प के अव्यक्त उर में झांकने वाला।

तुम भी एक फूल हो। तुम्हारे फूल के ठीक अंतर-हृदय में कोई सुवास छिपी है। उसमें झांको, उसको परखो। वहां पहुंचो। उस अंतर्यात्रा पर निकलो। तब वह पवित्र आचरण प्रगट होगा, जो समस्त आदेशों से ऊपर है। तब तुम स्वयं शास्त्र बनोगे। तब तुम स्वयं सत्य की एक अभिव्यक्ति होओगे।

मैं अपने संन्यासियों को निश्चित ही तालमुद के इस वचन की याद दिला देना चाहता हूं। यह वचन महत्वपूर्ण है। मैं चाहता हूं कि जो तुम मुझे सुन रहे हो, जो तुम मेरे साथ चल रहे हो, मेरी ही सुनकर, मेरी ही मानकर मत चलते रहना। मेरी तो इतनी मानो जितने से तुम अपनी जान सको, बस। मेरी इतनी मानो जिससे तुम अपनी अंतरात्मा में प्रवेश कर सको, बस। मेरी अंगुलियों के इशारों को समझो और अपने भीतर डुबकी मारो। वहां तो तुम्हीं को जाना पड़ेगा। वहां तुम्हीं जा सकते हो, कोई और नहीं जा सकता। और उस अनुभव के बाद तुम्हारे जीवन में एक प्रकाश होगा, एक आभा होगी, एक आनंद होगा, एक पवित्रता होगी, एक निर्दोषता होगी। वही धर्म है। और वैसा व्यक्ति ही परमात्मा को जान पाता है।

नैतिक सुविधा से जीता है; सत्य का उसे कभी कोई पता नहीं चलता। धार्मिक को बड़ी असुविधाएं झेलनी पड़ती हैं, लेकिन उसे सत्य का अनुभव होता है। और सत्य के अनुभव के लिये सारी असुविधाएं झेल लेने जैसी हैं। क्यों धार्मिक को असुविधा झेलनी पड़ती है? क्योंकि बहुत बार ऐसा होगा कि तुम्हारी अंतरात्मा का जो उदघोष है वह आदिष्ट के विपरीत पड़ जायेगा, तब अड़चन शुरू होगी। उस समय अपनी ही सुनना। फिर सारे शास्त्र व्यर्थ हैं। फिर सारी मान्यताएं व्यर्थ हैं। फिर तुम्हें जो भी कीमत चुकानी पड़े, चुकाना। अपनी ही सुनना। जब तुम्हारी भीतर की अंतरात्मा आवाज देने लगे, और जब अंतरात्मा की आवाज पैदा होती है तो तत्क्षण पहचान ली जाती है, कि परमात्मा तुम्हारे भीतर बोलने लगा। इतनी प्रामाणिक होती है, इतनी स्वसंवेद्य होती है, इतनी स्व-आलोकित होती है कि तुम भूल में कभी न पड़ोगे। ऐसी भूल कभी नहीं होती कि पता नहीं यह मेरे मन की ही बात हो, मेरी आत्मा की न हो! नहीं, ऐसी भूल कभी नहीं होती। तुम्हें मन की बातों का पता है। जब आत्मा की आवाज गूंजती है तो तुम्हें ऐसी मालूम ही नहीं होती कि मेरी आवाज है; तुम्हें मालूम होती है कि सारा अस्तित्व मेरे भीतर बोला। वह ध्वनि आलोकित होती है, आंदोलित कर जाती है, रोएं-रोएं को कंपा जाती है। जिस दिन वैसी आवाज गूंजती है–इल्हाम कहो उसे, जैसा मुहम्मद ने कहा, या प्रेरणा कहो, या जो भी शब्द तुम देना पसंद करो–जब तुम्हारे भीतर से अनंत बोलता है तब स्वभावतः तुम बहुत-से सामाजिक नियमों के विपरीत पड़ जाओगे। क्योंकि सामाजिक नियम तो सामाजिक सुविधा-असुविधा को सोचकर बनाये गये हैं और अंधों ने ही बनाये हैं। तुम्हारे पास जब अपनी आंखें आ जायेंगी तब थोड़ी मुश्किल होगी। आवश्यक नहीं है कि तुम अंधों से टकराओ। जहां तक बन सके, मत टकराना, क्योंकि उनका कोई कसूर भी नहीं है। लेकिन अगर टकराहट मजबूरी ही हो जाये तो अंतरात्मा की आवाज को झुठलाना भी मत। क्योंकि उसे कोई भी कीमत पर छोड़ना नहीं है; फिर चाहे सब खोना पड़े तो सब दांव पर लगा देना।

काढ़ लो दोनों नयन मेरे,

तुम्हारी ओर अपलक देखना तब भी न छोडूंगा।

तुम्हारे पांव की आहट इसी सुख से सुनूंगा,

श्रवण के द्वार चाहे बंद कर दो।

 

चरण भी छीन लो यदि,

तुम्हारी ओर यों ही रात-दिन चलता रहूंगा।

कथा अपनी तुम्हारी सामने कहना न छोडूंगा,

भले ही काट लो तुम जीभ, मुझको मूक कर दो।

 

भुजाएं तोड़ कर मेरी भले निर्भुज बना दो,

तुम्हें आलिंगनों के पाश में बांधे रहूंगा।

हृदय यदि छीन लोगे,

उठेंगी धड़कनें कुछ और होकर तीव्र मानस में।

 

जला कर आग यदि मस्तिष्क को भी क्षार कर दोगे,

रुधिर की वीचियों पर मैं तुम्हें ढोता फिरूंगा।

जिसने भीतर की आवाज सुनी है, उसके हाथ भी कट जायें तो उसके आलिंगन में बाधा नहीं पड़ती। उसके पैर भी कट जायें तो भी उसकी यात्रा अवरुद्ध नहीं होती। उसकी जीभ भी काट लो तो भी परमात्मा की प्रार्थना जारी रहती है–उसके मौन में, उसके शून्य में। जिसके भीतर अंतरात्मा जगी उसके भीतर अब सारे आदेशों का आदेश आ गया–अपना आदेश आ गया! फिर सब दांव पर लगाने का साहस चाहिए। जिनमें इतना साहस होता है वे ही धार्मिक हो पाते हैं।

 

दूसरा प्रश्न:

 

ओशो,

कोरा कागज था यह मन मेरा

लिख लिया नाम जिस पे तेरा

चैन गंवाया मैंने, निंदिया गंवाई

सारी-सारी रात जागूं दूं मैं दुहाई

नैना कजरारे मतवाले, ये न जानें

खाली दर्पण था यह मन मेरा

देख लिया मुख जिसमें तेरा

कोरा कागज था यह मन मेरा।

 

वीणा! कागज कोरा हो तो इससे बड़ी और कोई बात नहीं, क्योंकि कोरे कागज पर ही वेद उतरते हैं। सिर्फ कोरे कागज पर उपनिषदों का जन्म होता है, कुरानें अवतरित होती हैं सिर्फ कोरे-कागजों पर। जिसने चित्त को कोरा कागज बना लिया, बस उसने सब पा लिया। वहीं तो अड़चन है। वहीं कठिनाई है। तुम्हारे चित्त के कागज इतने गुदे पड़े हैं, इतनी लिखावटें, इतने हाथों से लिख दी गई हैं कि अब उन पर कुछ परमात्मा लिखना भी चाहे तो अंकित न हो सकेगा; अंकित हो भी जाये तो समझ में न आ सकेगा कि क्या लिखा गया है।

मन को कोरा बनाना पहला कदम है परमात्मा की यात्रा में। वही तीर्थ है। जिसने मन को कोरा बना लिया, तीर्थ पहुंच गया। उसका काबा आ गया। अब कहीं जाना नहीं है। अब तो इसी कोरे मन में परमात्मा उतरेगा।

लेकिन मन को कोरा करने में बड़ी अड़चन है। कोई मन हिंदू है तो कोरा नहीं है। कोई मन मुसलमान है तो कोरा नहीं है। कोई मन जैन है तो कोरा नहीं है। कोई मन कम्यूनिस्ट है तो कोरा नहीं है। मन का कोई भी पक्षपात हुआ, कोई भी धारणा हुई, कोई भी दृष्टि हुई, कोई भी दर्शन-शास्त्र हुआ–कि मन कोरा नहीं है। फिर मन गुदा है, न मालूम कितने शब्दों से भरा है। और सब शब्द उधार, सब बासे, सब पराये, दूसरों से लिये हुए, अपना अनुभव कोई भी नहीं। अपना अनुभव तो कोरे मन में जगता है।

तुम्हारे चित्त में इतना शोरगुल है कि अगर परमात्मा अपना इकतारा बजाये भी तो सुनाई पड़ेगा? नक्कारखाने में तूती की आवाज होगी। कहां सुनाई पड़ेगा? जैसे भरे बाजार में एक कोयल बोलने लगे, किसको सुनाई पड़ेगा? लोगों के चित्त इतने उपद्रव से भरे हैं कि परमात्मा बहुत बार आता है तुम्हारे द्वार तक, दस्तक देकर लौट जाता है, तुम उसकी दस्तक सुनते नहीं। बहुत बार तुम्हें झंझोड़ देता है, मगर तुम सोये हो गहरी तंद्रा में; तुम जागते नहीं, तुम और करवट लेकर दुबारा नया सपना देखने लगते हो।

तुम जरा कोरे हो जाओ तो उसका बादल घिरे, बरसे जिस अमृत की तलाश तुम कर रहे हो, वह अमृत बरसने को आतुर है। तुम्हीं तलाश नहीं कर रहे हो, अमृत भी तुम्हारी तलाश कर रहा है। प्यासा ही सरोवर नहीं खोज रहा है, सरोवर भी प्यासे की राह देख रहा है, क्योंकि जब प्यासे की प्यास बुझती है तो प्यासे की ही प्यास नहीं बुझती, सरोवर भी सार्थक होता है। यह बात खूब मन में संजोकर रख लेना।

तुम्हीं नहीं खोज रहे परमात्मा को, परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है। जिस दिन मिलन होगा, तुम्हीं आनंदित नहीं होओगे, परमात्मा भी नाच उठेगा। इसलिये कथाएं हैं कि जब बुद्ध को ज्ञान हुआ तो बेमौसम फूल खिल गये। ये तो प्रतीक हैं, काव्य-प्रतीक। ये इतना ही बताते हैं कि सारा अस्तित्व आनंदमग्न हो गया–बेमौसम फूल खिल गये, कि सूखे वृक्षों में हरे पत्ते आ गये, कि देवताओं ने आकाश में दुंदुभी बजाई, कि आकाश से फूल झरे, झरते ही चले गये।

नहीं, कोई फूल दिखाई पड़ने वाले झरे हैं, नहीं कोई सूखे वृक्षों पर पत्ते आये हैं, नहीं बेमौसम कोई फूल खिले हैं–इनको तुम ऐतिहासिक तथ्य मत समझ लेना, अन्यथा भूल-चूक हो जायेगी। और जो इस तरह की बातों को इतिहास समझ   लेता है वह बुद्ध को भी झुठला देता है। उसके जीवन में धीरे-धीरे बुद्ध भी एक कहानी और कथा हो जाते हैं–परिकथा, एक मिथ, एक पुराण। उनका यथार्थ खो जाता है।

ये काव्य-प्रतीक हैं। प्यारे प्रतीक हैं, लेकिन कविताएं इतिहास नहीं हैं। कविताएं कुछ कहती हैं, जरूर कुछ कहती हैं–कुछ अलौकिक कहती हैं। मगर कविताएं लौकिक यथार्थ के संबंध में कोई प्रमाण नहीं हैं। अदृश्य के संबंध में संकेत हैं, लेकिन उनको निचोड़कर तुम अगर इतिहास बनाने लगोगे तो मुश्किल हो जायेगी। इतना ही अर्थ है, इतना ही अभिप्राय है कि बुद्ध को जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तो सारा अस्तित्व आनंद-मग्न हो गया। इसको कैसे कहें?…देवताओं ने दुंदुभियां बजाईं, कि फूल आकाश से झरे, झरते ही गये, कि बेमौसम फूल आ गये, कि सूखे वृक्ष हरे हो गये। यह कहने का एक ढंग है, एक लहजा–और सुंदर और प्यारा।

मन जब कोरा हो गया बुद्ध का तो आकाश बरसा। जब तक बुद्ध विचारों से भरे रहे, तब तक यह घटना न घटी; जब निर्विचार हो गये, तब।

इसलिये समस्त धर्मों का मौलिक संदेश एक ही है: निर्विचार हो जाओ। मगर कैसे तुम निर्विचार होओ? तुम तो उन्हीं शास्त्रों को अपने सिर में भरे बैठे हो जो कहते हैं कि निर्विचार हो जाओ।

एक पंडित कुछ वर्ष हुए मुझे मिलने आये। मैं काशी विश्वविद्यालय में मेहमान था। बड़े पंडित हैं। पतंजलि के योग-सूत्रों पर उन्होंने बड़ी भारी व्याख्या लिखी है। मैंने उनसे पूछा: निर्विचार साधा? वे थोड़े चौंके। ऐसा उनसे किसी ने पूछा न होगा। लोगों ने पूछा होगा उनसे कि पतंजलि की निर्विकल्प समाधि का क्या अर्थ है और वह उन्होंने समझाया होगा। मैंने उनसे पूछा: आपको निर्विकल्प का अनुभव हुआ? इधर-उधर देखने लगे। कहा कि नहीं। आपसे कैसे झूठ बोलूं? निर्विकल्प का मुझे अनुभव नहीं हुआ है।

और मैंने कहा: पतंजलि पर जिंदगी हो गई व्याख्या करते आपको, आपको पतंजलि से इतना भी संकेत नहीं मिला कि निर्विचार होना है, निर्विकल्प होना है? वही तो सार है।

कहा: वह तो सार है, मगर मैंने इस तरह कभी नहीं सोचा। मैं तो नये-नये अर्थ निकालता रहा, नई-नई व्याख्याएं करता रहा, पतंजलि के लिये नये-नये समर्थन खोजता रहा। पाश्चात्य मनोविज्ञान से, विज्ञान से, सबसे मैंने समर्थन खोजकर व्याख्याएं लिखीं।

लेकिन मैंने कहा: निर्विचार कब होओगे? यह तो उलटी ही बात हो गई। अब पतंजलि ही तुम्हारे लिये विचार बन गये। अब यही पतंजलि के शब्द तुम्हारे चित्त में घूमते रहते हैं दिन-रात, तुम इन्हीं पर नई-नई व्याख्याएं, नई-नई सूझ की कलमें लगाते रहते हो। मगर निर्विचार कब होओगे? पतंजलि से कब छुटकारा पाओगे?

बुद्ध का बहुत अदभुत वचन है: अगर मैं तुम्हें राह में मिल जाऊं तो तलवार उठाकर मेरे दो टुकड़े कर देना।

सदगुरु यही कहते रहे हैं कि हम इशारा कर रहे हैं निर्विचार का, कहीं ऐसा न हो कि तुम हमारे ही विचार पकड़ लो!

मन कोरा हो जाये…कोरे मन का अर्थ है: न हिंदू न मुसलमान न ईसाई न जैन न बौद्ध। कोरे मन का अर्थ है: न अब वेद है मन में, न कुरान है, न बाइबिल है। कोरे मन का अर्थ है: अब कोई पक्षपात नहीं, कोई बदली नहीं। खाली आकाश! निर्विचार, निर्विकल्प! बस क्रांति की घड़ी आ गई। मंदिर के द्वार खुलने का क्षण आ गया। अब घिरेंगे मेघ–तुम्हारे विचार के नहीं। परमात्मा सघन होगा तुम्हारे ऊपर।

बुद्ध ने इस अवस्था को धर्म-मेघ-समाधि कहा है। धर्म का बादल तुम्हारे ऊपर घिरेगा और अमृत की वर्षा होगी। बस वीणा! मन कोरा कागज हो, तो वर्षा हो जाये।

धरा की भींगती चूनर खनकते रिमझिमी पायल,

लहर जाता क्षितिज के छोर तक हर प्राण कर घायल!

 

विरह सावन उमड़ आया मचलती स्नेह की बदली

सजल आकाश के दृग में चमकती रूप की बिजली,

भटकती वायु बन बोझिल पिलाकर मोह की मदिरा

मचल गाता हृदय में नित प्रणय का सिंधु-मधु-लहरा;

 

मलय का मधुमयी झोंका, विहग कुल का मधुर कलरव,

सिहर जाता विपिन के छोर तक हर प्राणकर पागल।

 

पपीहा स्वाति की निर्मम बदलियां निरख सकुचाता

सजल संगीत पल पल श्वास से सौ बार दुहराता,

कुसुम दल का उनींदापन मुखर अलि का थिरक चुंबन

पिघलती सांझ की अमराइयों में गंध-मधु-नर्तन,

भटकती कुंज में कोकिल, मयूरी थिरकती बन-बन,

फहर सुधि द्वार तक जाता सुभग सौगात का आंचल।

 

खिले विश्वास के सरसिज, विहंसते धूलकण में तृण

धरा से झांकते अंकुर, स्वरों में मूल आकर्षण

उमड़ती भाव की गंगा, लहराती साध की यमुना,

बहक जाती तरी निःश्वास की लख सावनी सपना;

बिखरता रूप-रंग-सौरभ, बहारों का खिला शतदल,

बरस जाता निमिष में खोल पलकें बावरा बादल।

एक क्षण में वर्षा हो जाती है। बरस जाता निमिष में खोल पलकें बावरा बादल! जैसे बाहर बादल बरसते हैं, ऐसे ही भीतर भी बादल बरसते हैं। जितना बड़ा आकाश बाहर है इतना ही बड़ा आकाश भीतर है। पर कोरे हो जाओ तो उसका मुख दिखाई पड़ जाये।

तूने कहा वीणा: देख लिया मुख जिसमें तेरा, कोरा कागज था यह मन मेरा।

कोरे हो जाओ तो चारों तरफ मौजूद है। कोरे हो गये कि तुम दर्पण हो गये। फिर उसे खोजने कहीं जाना नहीं पड़ता। वह आया ही हुआ है। अतिथि आया ही हुआ है, लेकिन आतिथेय बेहोश है, मूर्च्छित है। बादल बरसने को तत्पर हैं, लेकिन तुम्हारा पात्र उल्टा रखा है। बरसे भी तो व्यर्थ जाये।

तुम अपने अहंकार से इतने भरे हो कि तुम्हारे भीतर खाली जगह ही नहीं है। परमात्मा प्रवेश भी पाना चाहे तो कहां स्थान है तुम्हारे भीतर? तुम तो स्वयं ही सिंहासन पर बैठे हो। तुमने तो अपने अहंकार को ही सिंहासन पर बिठा दिया है। खाली करो सिंहासन! रिक्त करो सिंहासन! कोरा करो कागज!

 

तीसरा प्रश्न:

 

बस, एक प्रार्थना है कि आपके पास जो आग है, उसमें पूरी-पूरी जल जाऊं और खो जाऊं।

 

माधि, जलना शुरू हो गया है, खोना शुरू हो गया है। खोना शुरू हो गया है, इसलिए तो और खोने की आकांक्षा जगी है। जलना शुरू हो गया है, जलने का रस आना शुरू हो गया है। इसलिए तो पूरे-पूरे जल जाने की अभीप्सा जगी है।

जो इस आग को पहचान लेंगे–स्वाद से; दूर से देखेंगे तो घबड़ा जायेंगे। और अनेक लोग हैं जो दूर से ही इस आग को देख रहे हैं। शायद दूर से स्वयं भी नहीं देख रहे हैं; दूसरों ने दूर से देखा है, उनकी बातें सुन-सुनकर देख रहे हैं।

जो इस आग को अनुभव से देखेंगे, पास आकर देखेंगे, थोड़े निकट, वे निश्चित ही जल जाने को आतुर होंगे, क्योंकि यह जलना ऐसा है जैसे नया जीवन उपलब्ध होता है। और मिटे बिना तो पाया नहीं जा सकता।

धन्यभागी वही हैं जो स्वयं को गंवा देंगे, क्योंकि वही स्वयं को पा लेने का उपाय है।

जब कोई तामीर बेतखरीब हो सकती नहीं।

खुद मुझे अपने लिए बरबाद होना चाहिए।।

इस जगत में बिना मिटाये कुछ भी नहीं बनता। जब कोई तामीर बेतखरीब हो सकती नहीं, जब कोई चीज बन ही नहीं सकती बिना मिटाये, बिना विध्वंस के सृजन होता ही नहीं है…खुद मुझे अपने लिए बरबाद होना चाहिए…तो फिर एक सूत्र समझ लो: मिटना होगा तुम्हें, अगर स्वयं को पाना है। जलना होगा तुम्हें, अगर ज्योतिर्मय हो जाना है।

बीज मिटता है तो वृक्ष होता है और नदी मिटती है तो सागर हो जाती है। जिस घड़ी तुम मिटने को राजी हो गये, उसी घड़ी तुम्हारे भीतर परम का आविर्भाव हो जाता है। वह फिर कभी नहीं मिटता।

तुम तो क्षणभंगुर हो, पानी के बबूले हो; बचे भी तो कितनी देर बचोगे?

ज्यादा देर बच न सकोगे। यहां बचने का कोई उपाय नहीं है। मौत तो आ ही जायेगी। मौत तो मिटा ही जायेगी। और जब मौत मिटा ही देती है तो फिर अपने ही हाथ से छलांग क्यों न लगा लेनी। जो स्वयं मर जाता है वही ध्यान को उपलब्ध हो जाता है। समाधि आत्ममरण है।

और खयाल रखना, मरने से कोई शारीरिक मरने की बात नहीं है। शरीर तो बहुत बार मरा है और फिर-फिर तुम वापिस आ गये। इस बार अहंकार को मर जाने दो कि फिर वापिस आना न होगा। फिर तुम सुगत हो जाओगे। जो ठीक-ठीक चला गया, फिर वापिस नहीं आता।

सुगत बुद्ध का एक नाम है, उसका अर्थ होता है: जो ठीक-ठीक चला गया। इतने ठीक-ठीक चला गया कि फिर वापिस नहीं आता है।

यहां जीवन में कुछ पकड़ने जैसा है भी तो नहीं। कैसे लोग पकड़ लेते हैं इंद्रधनुषों को, यह भी आश्चर्य की बात है! कैसे मृग-मरीचिकाओं में भटकते रहते हैं, यह भरोसा नहीं आता कि कैसे यह चमत्कार घटता है!

पल छिन में धूप कहीं छांव!

खिड़की से दीख रहा खुला आसमान

मेघों के छितराए तिरते जलयान,

गलियों का कोलाहल करता संकेत

सागर को नाप रहा लहरों का पांव।

पल छिन में धूप कहीं छांव।।

फूलों पर बैठ अलि ऊंघ रहा आज

सपन गीत गाता ले भावों का साज,

पल में उड़ जाता फुर फहराके पंख

गंधऱ्हीन फूल बना सपनों के गांव।

पल छिन में धूप कहीं छांव।।

प्राणों की गागर से सांसों की गंध।

रीत गयी बिन पूछे तब का संबंध,

अंतर्मन पूछ रहा उनका घर-द्वार

बिन पूछे उनको बह जाये किस ठांव।

पल छिन में धूप कहीं छांव।।

क्षण-क्षण में सब बदलता है यहां। अभी सुबह, अभी सांझ। अभी जन्म, अभी मौत। अभी बसंत था, आ गया पतझड़। अभी बाढ़ थी नदी में, अब सब सूख गई धार। अभी जवानी, अभी बुढ़ापा। अभी सुख, अभी दुख। अभी सफलता, अभी असफलता।

पल छिन में धूप कहीं छांव!

सागर को नाप रहा लहरों का पांव।

पल छिन में धूप कहीं छांव।

इस जगत में पकड़ने योग्य कुछ है भी तो नहीं। सागर की लहरों पर देखी है झाग, सुबह के सूरज में चमकती झाग, ऐसी लगती है जैसे हीरे-मोती हों! हाथ में लोगे, पानी रह जायेगा। इससे ज्यादा इस जगत में कुछ है भी नहीं। यहां जो जीने की आकांक्षा रखते हैं वे सिर्फ मरते हैं।

समाधि, यह शुभ है कि तुझे जलने का भाव उठ रहा है कि पूरे जल जायें। यहां जो मर जाते हैं–स्वेच्छा से, वे ही शाश्वत जीवन को जान पाते हैं।

जीसस ने कहा है: अपने को बचाना मत, अन्यथा खो दोगे। जीसस ने कहा है: धन्यभागी हैं वे जो अपने को खो देते हैं, क्योंकि फिर वे कभी भी खो न सकेंगे; वे अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं।

यहां एक ही चीज थिर है; उसको एक तरफ से देखो तो उसका नाम ध्यान है, दूसरी तरफ से देखो तो उसका नाम प्रेम है। शेष सब अथिर है। इस जगत में एक ही चीज थिर है। अगर भक्तों की नजर से देखो तो उसका नाम प्रेम है; अगर ज्ञानियों की नजर से देखो तो उसका नाम ध्यान, साक्षी है। मगर वह एक ही घटना है। क्योंकि जहां ध्यान घटता है वहां प्रेम की धारा बह जाती है और जहां प्रेम की धारा बहती है वहां ध्यान घट जाता है। वे दोनों साथ-साथ आते हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

मैं नहीं चिर हूं

न तुम हो

प्राण का अस्तित्व शिव से सत्य है

प्रस्फुटित आनंद मन का

सुभग सुंदर है

फूल नश्वर है!

हंसी पागल पंखुड़ियों की

सरस मधु-गंध कलियों की

तरल चिर है

किन्तु

फूल नश्वर है।

दीप की अभिव्यक्ति लौ से दूर है,

शलभ देता प्राण का उत्सर्ग

गाता प्रणय का संगीत

लौकिक देह-बल्ली को

जलाता ज्योति में

स्नेह-क्रीड़ा में निरत

वह सिसकनों में भर रहा स्वर है!

स्नेह ही चिर है!

वह जो पतंगा जल जाता है दीपक पर, उसकी देह तो जल जाती है। देह तो निश्चित जल जाती है। देह तो जल्दी ही पड़ी रह जायेगी राख होकर, मगर जिस प्रेम ने उसे जलाया वह प्रेम शाश्वत है। वह प्रेम बच जाता है।

संन्यास प्रेम की यात्रा है या कहो ध्यान की यात्रा है। वही संन्यासी है जो मेरी आग में मर जाने को पतंगा होकर आ गया है।

तुम जानते हो, गैरिक वस्त्र अग्नि के प्रतीक हैं! तुम उनमें मर जाओ, पूरी तरह, जैसे हो वैसे–तो तुम्हें जैसे होना चाहिये वैसे स्वरूप का आविर्भाव हो।

तूने पूछा: एक ही प्रार्थना है कि आपके पास जो आग है, उसमें पूरी-पूरी जल जाऊं और खो जाऊं। यह होना शुरू हो गया है। नहीं तो यह प्रश्न ही नहीं उठता। प्रश्न भी समय पर उठते हैं। प्रश्नों का भी अपना क्षण होता है। तुझे रस लग गया मिटने का तो फिर अब ज्यादा देर नहीं है। जिसे मिटने में रस आने लगा, उसे कौन रोक सकता है? उसे इस जगत की कोई शक्ति नहीं रोक सकती। जिसे अपने अहंकार को गला देने में रस आने लगा, उसे अब कोई नहीं रोक सकता। तुम्हारे अहंकार की पूर्ति में तो हजार लोग बाधाएं डाल सकते हैं, लेकिन तुम्हारे निर-अहंकार की पूर्ति में कोई बाधा नहीं डाल सकता। यह बड़े मजे की बात है!

संसार में कुछ पाना हो तो लोग बाधा डाल सकते हैं, लेकिन परमात्मा में कुछ पाना हो तो कोई बाधा नहीं डाल सकता, कोई की सामर्थ्य नहीं है बाधा डालने की। परमात्मा के साथ तुम्हारा सीधा संबंध है। तुम्हारे और परमात्मा के बीच में कोई खड़ा नहीं रह सकता–कोई पर्वत, कोई पहाड़। हां, संसार में कुछ पाना हो तो हजार अड़चनें हैं। धन कमाना हो तो हजारों लोग धन कमाने निकले हैं। उन सबसे प्रतियोगिता होगी। जरूरी नहीं कि तुम जीतो। बहुत संभावना तो हारने की है। बड़ा पद पाना है।

अब यह साठ करोड़ का देश है। किसी को राष्ट्रपति होना है, तो एक ही व्यक्ति राष्ट्रपति हो सकता है और साठ करोड़ प्रतियोगी हैं। होना तो सभी को है। एक हो पायेगा। बड़ी बाधाएं होंगी। बड़ा उपद्रव होगा। बड़ी छीन-झपट, गलाघोंट प्रतियोगिता होगी। बहुत इसमें मरेंगे, बहुत इसमें टूटेंगे, बहुत इसमें उखड़ेंगे, बहुत विषादग्रस्त हो जायेंगे, बहुत हताश हो जायेंगे, तब कोई एकाध पहुंच पायेगा। लेकिन पहुंचते-पहुंचते वह भी इतना कुट-पिट चुका होगा, इतनी पिटाई हो चुकी होगी उसकी कि पहुंचकर भी किसी मतलब का नहीं होगा–मुर्दे की भांति पहुंच पायेगा।

पहुंचते-पहुंचते लोग मर ही जाते हैं। प्रधान-मंत्री होतेऱ्होते कोई साठ साल का हो जाता है, कोई सत्तर साल का, कोई अस्सी साल का। होतेऱ्होते जिंदगी हाथ से निकल गई होती है और इतना संघर्ष कि उस संघर्ष में प्राणों में जो भी गरिमापूर्ण है, सब मर जाता है। और इतनी वीभत्स प्रतियोगिता, इतनी घृणित प्रतियोगिता, कि जो भी मानवीय है उसकी तो सांसें कभी की घुट गई होती हैं। पहुंचते-पहुंचते आदमी आदमी नहीं रह जाता।

इस जगत में सफल होना विफल होना है, क्योंकि सफलता के लिये जो आत्मा देनी पड़ती है वही तुम्हारी विफलता है। मुफ्त तो कुछ मिलता नहीं; आत्मा बेचो और ठीकरे इकट्ठे कर लो। लेकिन परमात्मा के जगत में बात बिलकुल भिन्न है। वहां कोई प्रतियोगी ही नहीं है। वहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वहां तुम अकेले हो। वहां तुम नितांत अकेले हो। वह यात्रा अकेले की है। कोई बाधा नहीं है। सिर्फ एक बाधा रहती है: वह तुम्हारी ही है।

और समाधि, वह बाधा तेरी टूट गई है। तुम डरो मरने से, बस उतनी बाधा है। तुम भयभीत रहो, उतनी बाधा है। वह भय चला गया है। अब भय की जगह तेरे मन में मिटने की प्रार्थना उठ रही है। और सभी प्रार्थनाएं, सच्ची प्रार्थनाएं मिटने की ही प्रार्थनाएं हो सकती हैं। बस, प्रार्थना उठी तो पूर्ति होने में देर नहीं है।

 

चौथा प्रश्न:

 

सिद्ध सरहपा ने महासुख की बात कही। महासुख क्या है?

 

हले तो समझें कि सुख क्या है? सुख तुम्हें कभी-कभी मिला है, इसलिये सुख को समझना आसान भी होगा। फिर समझें कि दुख क्या है। क्योंकि दुख तो तुम्हें बहुत मिला है। सुख-दुख दोनों समझ में आ जायें तो महासुख की समझ आ सकती है।

सुख क्या है? एक क्षण भर को अहंकार का मिट जाना सुख है। तुम चौंकोगे: अहंकार का मिट जाना सुख! हां, जब भी तुमने सुख जाना है, सोचना अब, विचारना अब, ध्यान करना उन क्षणों का। जब भी तुमने सुख जाना है, अहंकार मिट गया है; वह पक्की कसौटी है। सांझ सूरज को डूबते देखा, पहाड़ों पर सूरज की लालिमा छा गई, बादलों पर रंगीन रंग फैल गये, पक्षी अपने नीड़ों को लौटने लगे, सांझ का सौंदर्य, उतरती रात की गरिमा! किसी पहाड़ी एकांत में तुमने सांझ के सूरज को डूबते देखा, तुम चकित भाव-विभोर हो उठे। सुख की एक पुलक आई और गई। एक लहर आई और तुम नहा गये।

यह कैसे हुआ? सूरज का सौंदर्य इतना प्यारा था, आकाश के रंग ऐसे अनूठे थे, पहाड़ों की शांति इतनी गहरी थी, पक्षियों का नीड़ों को लौटना, उनकी चहचहाहट, सब तुम्हारे हृदय को इस भांति से तरंगित कर दिये कि तुम एक छंद में बंध गये। तुम उस पर्वतीय एकांत में डूबते हुए सांझ के सूरज के साथ, आकाश के साथ एक हो गये। लीन हो गये। एक क्षण को अहंकार विस्मृत हो गया। एक क्षण को तुम भूल गये कि मैं हूं। सूरज इतना था कि तुम एक क्षण को भूल गये कि मैं हूं। बादलों में रंग ऐसे थे कि एक क्षण तुम्हें याद न रही कि मैं हूं। लौटते पक्षी, सांझ का सन्नाटा, पहाड़ का एकांत…तुम भूल गये एक क्षण को, इस शराब में डूब गये एक क्षण को! तुम्हें याद ही न रही कि मैं हूं। बस उसी घड़ी एक लहर उठी। इसी लहर का नाम सुख है।

फिर जल्दी ही तुम वापिस लौट आते हो, क्योंकि सूरज कितनी देर तक सुंदर रहेगा! यहां तो सब पल-छिन का मामला है। अभी था अभी गया। अभी डूब गया। रात गहरी होने लगी। तुम चौंककर उठ आये। लौट पड़ने का समय आ गया। रात अंधेरा हो रहा है, सांप हो, बिच्छू हो, जंगली-जानवर हों! पहाड़ का मौका। तुम वापिस लौट आये। अहंकार फिर अपनी जगह खड़ा हो गया…शंकित, भयभीत। सुख की जो क्षण-भर को झलक मिली थी, खो गई।

ऐसे ही सुख मिलता है। कभी संगीत को सुनते समय…किसी ने वीणा बजाई और तुम तल्लीन हो गये और तुमने कहा: बड़ा सुख मिला! या अपनी प्रेयसी से मिलना हुआ, उसका हाथ हाथ में लेकर बैठे, सांझ के उगते पहले तारे को देखते रहे और तुमने कहा: बड़ा सुख मिला! लेकिन सुख का कोई संबंध न तो सूरज से है न सांझ के तारे से है, न प्रेयसी के हाथ से है, न संगीत से है! अगर तुम समझोगे तो इन सब के बीच तुम एक ही बात पाओगे कि बहाना कोई भी हो, बात एक ही घटती है तुम्हारे भीतर: अहंकार भूल जाता है। और यह तुम्हें समझ में आ जाये तो फिर महासुख को समझने में ज्यादा देर न लगेगी।

महासुख का अर्थ हुआ: अहंकार सदा को भूल जाये; भूला सो भूला, फिर लौटे ही न। दुख का अर्थ होता है: अहंकार। जितना ज्यादा अहंकार होता है उतना ज्यादा दुख। अहंकार की मात्रा से दुख की मात्रा नापी जाती है। इसलिये तुम अहंकारी को बहुत दुखी पाओगे; निर-अहंकारी को उतना दुखी नहीं पाओगे।

तुम खुद ही सोचो। जब भी तुम्हारा अहंकार बहुत सघन होकर तुम्हें पकड़ लेता है कि मैं हूं, कि मैं कुछ खास हूं, तो फिर छोटी-छोटी बातें दुख देने लगती हैं। कोई आदमी जो तुम्हें रोज नमस्कार करता था आज उसने नमस्कार नहीं की; यही छाती में छुरे की तरह चुभ जाती है बात कि अच्छा, तो यह अपने को क्या समझने लगा! इसको मजा चखाकर रहूंगा! इसे बता कर रहूंगा कि मैं कौन हूं!

तुम जहां भी, जब भी अहंकार से भर जाते हो, अड़चन होती है। तुम कभी परदेस गये? तुम कभी विदेशऱ्यात्रा को गये? तुम कभी ऐसी जगह गये, जहां तुम्हें कोई भी न जानता हो? वही यात्रा का सुख है। यात्रा का सुख यात्रा में नहीं है। यात्रा का सुख कश्मीर में नहीं है और नेपाल में नहीं है। यात्रा का सुख इस बात में है कि वहां तुम्हें कोई जानता नहीं है। इसलिये अकड़ने का कोई कारण नहीं है। अकड़ने से सार भी क्या है? वहां कोई नमस्कार भी नहीं करता, कोई कारण नहीं है दुख मानने का। वहां तुम कुछ भी नहीं हो। वहां तुम नाकुछ हो। इसलिये तुम्हें थोड़ा सुख मिलता है। यात्रा का यही सुख है: थोड़ी देर के लिये तुम नाकुछ हो जाते हो। जो समझ लेते हैं, वे अपनी ही जगह नाकुछ हो जाते हैं। इतनी दूर जाने की क्या जरूरत? वे घर में बैठे-बैठे ही नाकुछ हो जाते हैं।

शून्य में मिलता है सुख। अहं में मिलता है दुख। अहंकार कांटा है। अहंकार पीड़ा है। शून्य संगीतपूर्ण है। लेकिन तुम कभी सोचते ही नहीं इस बात को। तुम्हारा सुख, तुम्हारे सुख के बहुत-से अनुभव, उन सबका निचोड़ निकालो, उन सबका मूल बिंदु खोजो।

सुख क्या है? बतला सकते हो?

पंडुक की सुकुमार पांख या लाल चोंच मैना की?

चरवाहे की बंसी का स्वर?

याकि गूंज उस निर्झर की जिसके दोनों तट

हरे, सुगंधित देवदारुओं से सेवित हैं?

सुख कोई सुकुमार हाथ है,

जिसे हाथ में लेकर हम कंटकित और पुलकित होते हैं?

 

अथवा है वह आंख

बोलती जो रहस्य से भरी प्रेम की भाषा में?

या सुख है वह चीज स्पर्श से जिसके मन में

कंपन-सा होता, आंखों से

मूक अश्रु ढल कर कपोल पर रुक जाते हैं?

 

सुख कहां पर वास करता है?

सुख? अरे, यह ज्योतिरिंगन तो नहीं है

जो द्रुमों की पत्तियों की छांह में दिन भर छिपा रहता?

 

याकि सौरभ पुष्प के उर का?

कि कोई चीज ऐसी जो

हवा में नाचती है रात को नूपुर पहन कर?

 

सुख! तुम्हारा नाम केवल जानता हूं।

मैं हृदय का अंध हूं;

मैंने कभी देखा नहीं तुमको।

इसलिये प्यारे! तुम्हें अब तक नहीं पहचानता हूं।

 

पर,कहो, तुम, सत्य ही, सुंदर बहुत हो?

पुष्प से, जल से, सुरभि से

और मेरी वेदना से भी मधुर हो?

तुमने जानकर भी सुख जाना नहीं है। अंधे की तरह कभी सोचा कि सांझ का डूबता सूरज सुख दे रहा है। कभी सोचा कि प्रेयसी से मिलन हुआ, सुख मिल रहा है। कभी सोचा मित्र घर आया है इसलिये सुख मिल रहा है। कभी सोचा सुस्वादु भोजन से। कभी सोचा इससे, कभी सोचा उससे। मगर तुमने कभी मूल बात न पकड़ी।

जब भी सुख मिला हो, किसी घड़ी में, तब एक बात अनिवार्य रूपेण घटती है: अहंकार मिट जाता है। तो फिर अहंकार का मिट जाना ही सुख है; न तो सुख है सूरज का डूबना न उगना।

सुख क्या है? बतला सकते हो?

पंडुक की सुकुमार पांख या लाल चोंच मैना की?

चरवाहे की बंसी का स्वर?

या कि गूंज उस निर्झर की जिसके दोनों तट

हरे, सुगंधित देवदारुओं से सेवित हैं?

नहीं! सुख तो वह घड़ी है जब तुम नहीं हो। मैं सुखी हूं, ऐसा वाक्य भाषा की दृष्टि से सही है, अनुभव की दृष्टि से सही नहीं है, क्योंकि जहां सुख होता है वहां मैं नहीं होता। सुख होता है तो मैं नहीं होता। मैं होता है तो सुख नहीं होता। इसकी क्षणभर को झलक मिलती है तो उसका नाम सुख है और फिर झलक खो जाती है। महीनों-बरसों के लिये, उस अंधेरे का नाम दुख है। और जब यह झलक थिर हो जाती है, यह तुम्हारा स्वभाव बन जाती है–उस घड़ी का नाम महासुख है।

सरहपा ने महासुख शब्द का ऐसा ही प्रयोग किया है, जैसे उपनिषद आनंद का करते हैं। लेकिन क्यों सरहपा ने आनंद शब्द का प्रयोग न किया, महासुख का क्यों किया? उसके पीछे भी कारण है। जब आनंद शब्द का हम उपयोग करते हैं तो ऐसा लगता है कि हमारे सुख का और आनंद का कोई संबंध नहीं है। उससे एक भ्रांति पैदा होती है, जैसे हमारा सुख और आनंद दो अलग ही लोक हैं, इनके बीच कोई सेतु नहीं है। उस सेतु को निर्मित करने के लिये सरहपा ने आनंद शब्द का उपयोग नहीं किया, महासुख का उपयोग किया, ताकि तुम्हें यह याद रहे कि तुम दूर कितने ही होओ, लेकिन जुड़े हो।

तुम्हारा सुख कितना ही क्षणभंगुर क्यों न हो, उसी महासुख की एक तरंग है। और यह बात महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर तुमसे कोई भी संबंध नहीं है उस महासुख का तो तुम उसे पाओगे कैसे? किस धागे को पकड़कर चलोगे उसकी तरफ? और यही सहजऱ्योग का दान है।

सहजऱ्योग कहता है: मनुष्य अभी जहां है वहीं से परमात्मा से जुड़ा है; जरा पहचानने की बात है; जरा गैल पकड़ लेने की बात है। रास्ता है; एक अदृश्य सेतु हमें जोड़े हुए है। हम सुख को तो जानते हैं, तो फिर   महासुख हमसे बहुत दूर नहीं है, विजातीय नहीं है। हम सुख जानते हैं तो महासुख भी जान सकते हैं। हमने बूंद जानी है तो सागर को भी जान लेंगे, क्योंकि सागर बूंदों का जोड़ है, और क्या है? ऐसे ही महासुख सुखों का जोड़ है, और क्या है? सुख होगी बूंद, महासुख होगा सागर। जो भेद है सहजऱ्योग की दृष्टि से, वह मात्रा का है, गुण का नहीं है।

बस यही सहजऱ्योग का क्रांतिकारी उदघोष है।

शरीर-सुख में और आत्म-सुख में भी जो भेद है वह मात्रा का है–सहजऱ्योग के अनुसार–गुण का नहीं है। बाहर के सुख में और भीतर के सुख में भी जो संबंध है, जो भेद है, वह मात्रा का है। भीतर का महासुख है, बाहर का बिलकुल छोटा-सा सुख है; मगर दोनों जुड़े हैं एक से।

मनुष्य की गरिमा की घोषणा है यह। और मनुष्य कितना ही नीचे गिरा हो, इस बात की खबर है कि तुम जहां हो वहीं से सीढ़ी लगी है।

तुम, हो सकता है, बिलकुल नीचे के पायदान पर हो सीढ़ी के; मगर यह उसी सीढ़ी का पायदान है, जिस सीढ़ी के आखिरी पायदान पर परमात्मा है। यही तंत्र की घोषणा है। सहजऱ्योग तांत्रिक है।

जब मैंने कहा कि संभोग और समाधि दोनों जुड़े हैं, तो वह तंत्र की धारणा को ही प्रस्तावना देनी थी। तंत्र यही कहता है कि संभोग में जो सुख जाना जाता है, वह एक बूंद है और समाधि में जो सुख जाना जाता है, वह एक सागर है, अनंत सागर! मगर दोनों में जोड़ है। दोनों जुड़े हैं।

क्षुद्रतम में भी वही विराट मौजूद है। अणु में भी वही विराट मौजूद है। तुमने अपना द्वार खोला, तुम्हारे छोटे-से द्वार से जो आकाश दिखाई पड़ता है, वह विराट आकाश ही है। उन दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं है।

सुख को थोड़ा समझो। सुख को थोड़ा जीयो। सुख को थोड़ा पहचानो। जहां सुख मिलता हो उन घड़ियों में अपने को ले जाओ।

यौवन पकता है निमग्न अपने ही रस में।

कला सिद्ध होती जब सुषमा की समाधि में

विपुल काल तक कलाकार खोया रहता है।

वह सब होगा पूर्ण; एक दिन तुम चमकोगे

जैसे ये नक्षत्र चमकते हैं अंबर पर।

 

बनो संत-से चारु कि जैसे यूनानी थे

जो अदृश्य हैं देव उन्हें पूजा सन्मन से।

और मर्त्य मनुजों से भी मत आंख चुराओ।

 

परिभाषा मत पढ़ो; न दो उपदेश किसी को;

गुरु से मिले न ज्ञान, भ्रांतियां और सघन हों,

तब जा पूछो बात कहीं एकांत प्रकृति से।

अगर शास्त्र उलझन में डाल देते हों, अगर गुरुओं की बातें सुनकर कुछ समझ में न आता हो और समझ उलझ जाती हो, तो अच्छा हो चले जाओ प्रकृति में। पूछो झरनों से। पूछो वृक्षों की हरियाली से। पूछो केतकी, जुही, बेला के फूलों से। पूछो बदलियों से, चांदत्तारों से। चले जाओ एकांत में। परिभाषा मत गढ़ो बैठकर मत सोचने लगो। बैठकर कुछ नहीं होगा। सोचने से कुछ नहीं होगा। जानने चलो, परिभाषा मत गढ़ो, न दो उपदेश किसी को।

अकसर ऐसा हो जाता है, खुद पता न हो तो आदमी दूसरे को समझाने लगता है। दूसरे को समझाने से ऐसी भ्रांति होती है कि मुझे पता होगा और जब दूसरे समझने लगते हैं और मानने लगते हैं कि हां तुम जानते हो, तो आदमी खुद भी मानने लगता है, कि जब इतने लोग मानते हैं कि मैं जानता हूं तो इतने लोग गलत कैसे हो सकते हैं? एक बड़ा धोखा पैदा होता है। तुम लोगों को समझाकर, अपने को समझा लेते हो कि मैं जानता हूं। न तो परिभाषा गढ़ो। अपनी मनगढ़न्त परिभाषा का कोई अर्थ नहीं है। अनुभव से आने दो परिभाषा। और न दूसरों को समझाने बैठ जाओ।

परिभाषा मत गढ़ो; न दो उपदेश किसी को;

गुरु से मिले न ज्ञान…

अगर न मिल सके गुरु से ज्ञान…। पहली तो बात गुरु मिल सके गुरु न मिल सके, शायद, मिल भी जाये गुरु तो शायद तुम समझ न पाओ वह क्या कह रहा है। शायद उतनी सामर्थ्य तुममें न हो कि किसी मनुष्य के सामने झुक जाओ, क्योंकि मनुष्य के सामने झुकने में अहंकार बड़ी बाधा लाता है। अपने ही जैसे मनुष्य के सामने झुकना अहंकार को बड़ा कष्टपूर्ण हो जाता है। तो चले जाओ एकांत में, किसी वृक्ष के पास झुक जाना; उसमें तो उतनी अड़चन नहीं होगी! किसी झरने के पास झुक जाना। चले जाओ एकांत में। घुटने टेक देना पृथ्वी पर। सिर लगा देना पृथ्वी पर। अगर मंदिरों की चौखट पर सिर पटकने में संकोच लगता है कि तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और मंदिरों की चौखट पर सिर पटके, तो चले जाओ एकांत में। पृथ्वी पर सिर रख देना। आकाश के तारों से बातें कर लेना। शायद तुम्हें सुख की पुलक मिलने लगे।

गुरु से मिले न ज्ञान, भ्रांतियां और सघन हों,

तब जा पूछो बात कहीं एकांत प्रकृति से।

प्रकृति परमात्मा का प्रगट रूप है। प्रकृति से जो मिलता है, वह सुख है। परमात्मा के प्रगट रूप से जो मिलता है, वह सुख है। और, परमात्मा के अप्रगट रूप से जो मिलेगा, वह महासुख। प्रकृति से क्षण-भर को मिलता है; परमात्मा से शाश्वत मिलता है। पर दोनों एक ही धागे में जुड़े हैं।

इसलिये ठीक ही किया सरहपा ने कि सुख और महासुख शब्द का प्रयोग किया, आनंद का प्रयोग नहीं किया। शब्दों के प्रयोग में भी बड़े अर्थ होते हैं।

 

पांचवां प्रश्न:

 

ओशो, विश्वास तो नहीं होता था कि कृष्ण के साथ लोग नाचे होंगे। आपके आश्रम को देखकर भरोसा आया है कि ऐसा भी कभी हुआ होगा।

हम खुदा के कभी कायल ही न थे,

तुम्हें देखा तो खुदा याद आया।

 

सीताराम! धर्म जब भी जीवित होता है तब नाचता हुआ होता है; जब मर जाता है तब गुरु-गंभीर हो जाता है। धर्म जब जीवित होता है तो हंसता हुआ होता है। धर्म जब जीवित होता है तो आंखों में आंसू भी आनंद के ही आंसू होते हैं।

धर्म जब जीवित होता है तो पैरों में घूंघरु बंधते हैं, बांसुरी पर टेर उठती है, एकतारा बजता है। क्योंकि धर्म के जीवित होने का एक ही अर्थ हो सकता है: उत्सव। धर्म के जीवित होने का एक ही अर्थ हो सकता है: यौवन।

धर्म जब युवा होता है तो कृष्ण जैसे लोग पैदा होते हैं; धर्म जब सड़ जाता है, मर जाता है, तो फिर पंडित-पुरोहित लाश के पास बैठकर लाश की दुर्गंध को ढांकने के लिए चंदन इत्यादि का लेप करते रहते हैं। फिर लाश को कैसे सुंदर बनाया जाए, लाश को कैसे सड़ने न दिया जाए, लाश को कैसे सुरक्षित रखा जाए–यही उनकी चिंतना हो जाती है।

और, जीवित तो धर्म कभी-कभी होता है, क्योंकि कृष्ण जैसा व्यक्ति ही कभी-कभी होता है। मुर्दा धर्म की लंबी परंपराएं होती हैं; कृष्ण तो कभी-कभी घटते हैं। मनुष्य अधिकतर तो मुर्दा धर्मों के साथ रहता है। इसलिए अकसर ऐसा हो जाता है, जब भी कृष्ण घटित होंगे तभी सारा मुर्दा धर्म और उसकी परंपरा उनके विपरीत खड़ी हो जाएगी। कृष्ण जीवित कभी स्वीकार नहीं हो सकते, क्योंकि तुम करीब-करीब मुर्दा जी रहे हो। तुम से मुर्दा धर्म का तो संबंध हो जाता है, जीवित धर्म के साथ तुम नहीं नाच पाते।

तुम नाचना ही भूल गए हो। तुम प्रेम भूल गए हो। तुम प्रेम की भाषा भूल गए हो। इसलिए तुम्हारे चर्च हैं, गुरुद्वारे हैं, गिरजे हैं, मंदिर हैं–सब बाहरी आयोजन तो वहां हो रहा है, भीतर की आत्मा नहीं है। सुंदर पिंजड़े हैं, पक्षी कभी का उड़ गया है, या कि मर गया है। अब पूजा चल रही है। और लोग बड़ी गुरु-गंभीरता से पूजा कर रहे हैं।

यहां तुम्हें देखकर कठिनाई होगी। अगर समझोगे तो ही समझ पाओगे। अगर थोड़ी संवेदनशीलता होगी तो ही समझ पाओगे। नहीं तो तुम हैरान होकर लौटोगे।

मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं: आश्रम ऐसा नहीं होना चाहिए, कि जहां लोग नाच रहे हैं, कि गले मिल रहे हैं, कि प्रसन्न हैं, कि हंस रहे हैं। आश्रम तो गुरु-गंभीर होना चाहिए, कि लोग झाड़ों के नीचे झोपड़े बनाकर बैठे हैं, उदास, माला फेर रहे हैं, कि उनके चेहरों पर मुर्दगी है, कि जीवन में उनके निषेध है, नकार है।

इंग्लैंड से कुछ दिन पहले एक टेलीविजन कंपनी ने आश्रम की फिल्म बनायी है। पता नहीं सरकार को पता नहीं चला या क्या हुआ, वह फिल्म बन भी गई, वह फिल्म इंग्लैंड में प्रदर्शित भी हुई। अब न मालूम कितने पत्र वहां से आए हैं! उन सारे पत्रों में एक बात जरूर स्मरण की गई है और वह यह–“कि आश्रम हंसता हुआ भी हो सकता है! लोग नाचते हुए भी हो सकते हैं, खिलखिलाते हुए भी हो सकते हैं! यह हमारे खयाल में ही नहीं था।’ न मालूम कितने लोगों ने लिखा है कि हम उत्सुक हैं आने को। पृथ्वी पर कोई एक जगह तो है, जहां लोग हंसते हैं; जहां परमात्मा जीवन-विरोधी नहीं है; जहां परमात्मा जीवन का ही नाम है।

शायद मोरारजी देसाई इसीलिए परेशान हैं कि इस आश्रम की फिल्में न बनें, देश के बाहर प्रदर्शित न हों, क्योंकि जो तुम नहीं समझ सकते हो वह सारी दुनिया समझ लेगी। क्योंकि तुम तो बहुत जड़ हो गए हो, परंपरा का बोझ इतना है तुम्हारे ऊपर…।

लेकिन पश्चिम से परंपरा का बोझ हट गया है। पश्चिम में धर्म की परंपरा खंडित ही हो गई है। पश्चिम में तो ईश्वर से लोग छुटकारा ही पा लिए हैं। और ईश्वर से छुटकारा हुआ तो उसके साथऱ्ही-साथ उसके पंडित-पुरोहितों से छुटकारा हो गया है, उसके चर्च-मंदिरों से छुटकारा हो गया है। पश्चिम नास्तिक है। नास्तिक का मतलब यह है कि अब परंपरा का, धार्मिक परंपरा का कोई कूड़ा-करकट नहीं है।

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मुझमें पश्चिम से आनेवाले लोग बड़ी संख्या में उत्सुक हो रहे हैं, जबकि भारतीय कभी आते भी हैं तो दर्शक की भांति। लेकिन पश्चिम से कोई आता है तो तत्क्षण डुबकी मार लेता है। कारण क्या होगा? उसके पास परंपरा का पक्षपात नहीं है। वह कोई अपेक्षा लेकर नहीं आता। वह यह मानकर नहीं आता कि झोपड़ों में बैठे हुए होने चाहिए लोग, तो ही आश्रम सच्चा है। वह यह मानकर नहीं आता कि लोग उदास होने चाहिए, सूखे होने चाहिए, उपवास करते हुए होने चाहिए। वह यह मानकर नहीं आता, इसलिए उसे कोई अड़चन नहीं होती। वह तत्क्षण जुड़ जाता है। जब कोई भारतीय आता है तो वह हिसाब पहले से रखकर आया है; उसके पास सब मापदंड तय हैं; उसने निर्णय ही ले लिया है कि धर्म कैसा होना चाहिए। धर्म का उसे कुछ पता नहीं है और निर्णय ले लिया है। और जिस धर्म का उसे पता है, वह सिर्फ सड़ी हुई लाश है। पांच हजार साल पहले कृष्ण को उसने देखा होता तो शायद समझता।

अब तो हालत बड़ी अड़चन की है, जो धार्मिक है वह भी नहीं समझता कृष्ण को। और जो नास्तिक है भारत में, वह तो समझेगा ही कैसे?

कल मैं सरिता में एक लेख पढ़ रहा था। सरिता में लेख है कृष्ण के खिलाफ, कि वे हजारों स्त्रियों के प्रेम में पड़े। और यह तो ठीक है, मगर वे कुब्जा नाम की तीन जगह से तिरछी, आड़ी-टेढ़ी स्त्री के प्रेम में भी पड़ गए। खिलाफ और भद्दा लेख है। कोशिश यह बताने की की गई है कि यह सब लम्पटता है। उस पर मुकदमा चल रहा है अदालत में। जिन पंडितों ने अदालत में, विपरीत में वक्तव्य दिए हैं; उनकी बातें और मूढ़तापूर्ण हैं। वे लीपा-पोती करने की कोशिश करते हैं। वे समझाने की बात करते हैं कि नहीं ऐसा इसका मतलब नहीं है, ऐसा इसका अर्थ नहीं है। मगर दोनों की चेष्टा एक ही है मेरे देखे। दोनों में से कोई, जैसे कृष्ण हैं, वैसा स्वीकार करने को राजी नहीं है। क्यों अड़चन है? कृष्ण भोजन करते हैं तो तुम्हें अड़चन नहीं है, स्नान करते हैं तो अड़चन नहीं है; अगर किसी स्त्री से प्रेम हो गया है तो तुम्हें अड़चन है? कृष्ण का न होगा तो किसका होगा?

लेकिन हम डर गए हैं, हम कंप गए हैं। हम तो मानते हैं प्रेम सांसारिक है, प्रेम तो बात ही गलत है। प्रेम और परमात्मा, ये तो विपरीत मामले हैं।

तो कृष्ण के विपरीत जो हैं, जैसे सरिता का लेखक और सरिता का संपादक, उनका तर्क भी वही है कि यह कैसा भगवान! और जो पक्ष में हैं वे केवल सुरक्षा कर रहे हैं। उनको भी भीतर तो शक है कि ऐसा भगवान नहीं हो सकता। इसलिए यह व्याख्या ठीक नहीं है। इसलिए व्याख्या को तोड़-मोड़ करो, यहां-वहां से जमाओ। और संस्कृत भाषा में सुविधा है, एक शब्द के बहुत अर्थ होते हैं, उसको इरछा-तिरछा किया जा सकता है, चालबाजी की जा सकती है। हालांकि कहानी बिलकुल साफ है और कहानी में कोई न तो एतराज होने की जरूरत है न छिपाने की कोई जरूरत है। कृष्ण का प्रेम है। अनेकों से हुआ, अड़चन क्या है? परमात्मा प्रकृति के प्रेम में है, इतना ही तो अर्थ हुआ! अगर परमात्मा प्रकृति के प्रेम में नहीं है तो प्रकृति हो ही न। परमात्मा अनंत रूपों को प्रेम कर रहा है, इसलिए तो अनंत रूप प्रगट हो रहे हैं, नहीं तो अनंत रूप प्रगट न हों। परमात्मा आह्लादित है। कृष्ण उस आह्लाद के एक प्रतीक हैं। इसलिए जब हिंदू हिम्मतवर थे तो उन्होंने कृष्ण को पूर्णावतार कहा।

यह जानकर तुम हैरान होओगे कि हिंदू पुराण एक अदभुत बात कहते हैं। वे कहते हैं कि यह कुब्जा नाम की जो दासी थी कंस की, यह पहले जन्म में जब कृष्ण राम की तरह पैदा हुए थे क्योंकि वे भी विष्णु का ही अवतार हैं, तब भी मौजूद थी। बड़ी सुंदरी थी! और राम से उसकी अनुरक्ति हो गई थी। किस की न हो जाए! राम जैसा व्यक्ति दिखाई पड़े तो कौन मोहित न हो जाए! सिर्फ अंधे शायद मोहित न हों! इसमें कुछ आश्चर्य की तो बात नहीं कि कोई सुंदरी स्त्री राम पर मोहित हो गई थी। मोहित होने में कोई पाप तो नहीं। वह इतनी दीवानी हो गई कि एक रात पहुंच ही गई राम के महल। राम और सीता सो रहे हैं। उसने जाकर राम को आहिस्ते से हिलाया। राम ने आंख खोली। उन्होंने कहा कि तू क्षमाकर और वापिस जा, कहीं सीता न जग जाए! वही पुरानी कथा, पति-पत्नी का उपद्रव, कहीं सीता न जग जाए! राम भी डरे हुए हैं कि कहीं सीता न जग जाए! मगर उसने कहा कि मैं निवेदन करने आई हूं कि मुझे आपसे बहुत लगाव हो गया है, मैं क्या करूं?

तो राम ने कहा कि अगले जन्म में जब मैं कृष्ण होऊंगा…अभी तो मैं मर्यादा पुरुषोत्तम हूं, अभी तो एक पत्नी-व्रत को मानता हूं, अभी तो आदिष्ट के हिसाब से चल रहा हूं, जब अगले जन्म में कृष्ण होऊंगा, तब तू कुब्जा के नाम से पैदा होगी और जब मैं आऊंगा द्वारिका, तू मेरे मामा कंस के घर दासी होगी, तब तेरा आमंत्रण स्वीकार कर सकूंगा।

सीता तो जग गई। सुन ही रही होगी पड़ी-पड़ी, यह सब हो रहा था जो। और नाराज भी हुई, क्योंकि यह कोई बात हुई! यह तो ऐसे ही हुआ कि आज एकादशी है, आज हम शराब न पियेंगे, कल पियेंगे। यह कोई बात हुई! यह तो बात साफ जाहिर हो गई कि राम कह रहे हैं कि अगले जन्म में, अभी इस जन्म में तो फंस गए हैं, यह एकादशी है, एक पत्नी-व्रत ले लिया, मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं! अभी बाई तू जा! अगले जन्म में जब मैं कृष्ण के रूप में पैदा होऊंगा…।

सीता इतनी नाराज हो गई। उन्होंने कहा कुब्जा को कि तू सुंदरी तो होगी क्योंकि राम ने तुझे आशीष दिया, लेकिन मैं तुझे अभिशाप देती हूं कि तू तीन जगह से तिरछी होगी। इसलिए वह कुब्जा हुई। इसलिए वह तीन जगह से आड़ी-टेढ़ी हुई।

मगर एक बात मजे की है इस कथा में, कि राम को मर्यादा अनुभव होती है, कि राम को सीमा का बोध है, कि राम सीमित हैं। जिन्होंने यह कहानी लिखी होगी….ऐसा हुआ या नहीं हुआ, यह सवाल नहीं है…जिन्होंने पुराण में यह कथा जोड़ी वे बड़े हिम्मतवर लोग रहे होंगे, एक बात तो जाहिर वे कह रहे हैं कि राम की सीमा है, कृष्ण की सीमा नहीं है! राम तक को कहना पड़ा कि जब मैं कृष्ण की तरह आऊंगा, जब मैं पूर्णावतार होऊंगा, जब मैं परमात्मा का पूरा उल्लास लेकर प्र्रगट होऊंगा, सब रंगों में! अभी तो मैं एक रंग का हूं, जब मैं सातों रंगों का होऊंगा, तब।

बड़े हिम्मत के लोग रहे होंगे तब! जीवित धर्म था तो कृष्ण को उन्होंने पूर्णावतार कहा। राम को अंशावतार कहा। अगर कमजोर लोग होते तो राम को पूर्णावतार कहते, और कृष्ण को तो अवतार भी नहीं कहते, अंशावतार की भी बात कहने की जरूरत नहीं है। लेकिन कृष्ण को पूर्णावतार कह सके जो लोग, उस समय देश जिंदा रहा होगा। परंपरा की बहुत पकड़ न रही होगी। लोगों के शास्त्र सिर पर ज्यादा नहीं बैठ गए होंगे। अभी मुर्दा धर्म का बहुत बोझ नहीं हुआ होगा। अभी जिंदगी ताजी थी, लोग युवा थे। कृष्ण को भी स्वीकार कर सके!

अब एक मुर्दा देश है। उसमें कोई विपक्ष में लिखता है, उसकी भी नजर वही है कि अगर कृष्ण के जीवन में ऐसा उल्लेख हुआ है, अगर यह सच है तो कृष्ण का जीवन फिर धार्मिक जीवन नहीं है। क्यों? प्रेम का धर्म के जीवन से कोई संबंध नहीं? तुम प्रेम को धार्मिक न होने दोगे? तुम धर्म को प्रेमपूर्ण न होने दोगे? तुम धर्म और प्रेम को दुश्मन की तरह ही मानकर चलते रहोगे?

और जो पक्ष में हैं उनमें भी कुछ भेद नहीं। वे कोशिश करते हैं लीपा-पोती करने की। वे कहते हैं कि नहीं इसका ऐसा अर्थ नहीं, इसका वैसा अर्थ नहीं, यह ठीक नहीं, आलोचना करनी ठीक नहीं, वह तो भगवान हैं, उनके लिए सब ठीक है। इसके बड़े गहरे अर्थ हैं, वे कहते हैं, इसके साधारण अर्थ नहीं। हालांकि कुछ गहरे अर्थ बता नहीं पाते हैं कि क्या गहरे अर्थ हैं। मगर दोनों की बात एक संबंध में एक ही है कि कृष्ण को ऐसा नहीं होना चाहिए।

मैं इसलिए उल्लेख कर रहा हूं कि आज देश इतना मर गया है कि यहां आस्तिक और नास्तिक दोनों मुर्दा हैं। जीवन का उल्लास धर्म का सबूत है। और धर्म जब भी होता है तब वह अपूर्व प्रेम की वर्षा अपने साथ लेकर आता है।

मधुमय कंपन ले तन-मन में

फागुन पाहुन बन आया घर।

जीवन की असीम मुसकानें

संचय कर निस्पंद हृदय में,

इंद्रधनुष का बिखराने रंग

लाया फागुन घोल मलय में;

श्रांत पथिक की आशाओं का–

स्वप्न संजो फागुन आया घर!

दुर्गमतम निःश्वासों का फल

निर्वासित होकर हृत्तल से,

सरल हास का सौरभ बिखरा

पोत रहा रोली करतल से

परिमालय अनुराग दृष्टि में–

सृष्टि मधुर फागुन लाया घर!

स्नेहमयी चंदन-सी शीतल

जीवन की लघु परिभाषा यह,

क्षितिजपार के निर्मित नभ से

प्रतिध्वनि आती है अब रह रह,

विश्वासों के अधर-पात्र में

सप्तरंग फागुन लाया भर!

जब भी आता है धर्म, जीवंत, सतरंगा होता है, पूरा इंद्रधनुष होता है। एक स्वर नहीं होता, पूरे सातों स्वर होते हैं। लेकिन आदमी की छाती छोटी पड़ गई है। आदमी बहुत सिकुड़ गया है, विस्तार भूल गया है। खासकर इस देश में हम इतने सिकुड़ गए हैं कि हम अपने ही हाथों अपनी फांसी लगा लिए हैं। हमारी सांसें रुंधी जा रही हैं। हमारा जीवन कठिन हुआ जा रहा है। मगर फिर भी हम जिद्द किए जाते हैं कि हम ऐसे ही जियेंगे। फांसी ही हमारे जीने की शैली हो गई है।

सीताराम! तुम सौभाग्यशाली हो कि तुम इस इस आश्रम को, इस आश्रम के नृत्य को, इस आश्रम के गीतऱ्हंसी को, मुस्कराहट को देखकर भी विचलित नहीं हो गए, भाग नहीं गए, दुश्मन नहीं हो गए। नहीं तो मैं एक दोस्त पैदा करता हूं और हजार दुश्मन पैदा होते हैं। तुम भाग्यशाली हो। तुम्हारे पास थोड़ा हृदय है–थोड़ा विस्तीर्ण हृदय है। इसलिए तुम आंख खोलकर देख पाए। जो तुमने देखा है, जो तुम देखने के लिए राजी हो सके हो, वह तुम्हारे जीवन को बदलने वाला भी सिद्ध होगा।

जो बसंत को पहचान ले वह बसंत के रंग में रंग जाता है। यहां बंसत आया है। डूबो इसमें! रंग जाओ इसमें! ऐसी घड़ी इतिहास में कभी-कभी होती है। मुर्दा धर्म तो सदा उपलब्ध होते हैं, जीवंत धर्म कभी-कभी उपलब्ध होता है–जब राख नहीं होती, अंगार होते हैं। लेकिन अंगार तो कुछ थोड़े-से साहसी लोगों को ही आकर्षित कर पाते हैं। नहीं तो ऐसा उल्टा खेल चलता रहता है।

मोरारजी देसाई की कल मैंने एक किताब देखी, गीता पर किताब लिखी है। मोरारजी देसाई कृष्ण को समझ कैसे सकते हैं? गीता पर क्या खाक किताब लिखेंगे! मैंने गीता पर बहुत किताबें देखी हैं। इस देश में जिसको भी लिखना आता है वही गीता पर किताब लिख देता है। तृतीय श्रेणी की इतनी टीकायें गीता पर हैं, मगर मोरारजी देसाई ने उन सबको मात कर दिया! वह तृतीय श्रेणी में भी नहीं आती। एकदम कचरा है। गीता का नाम उसके साथ जोड़ना अपमानजनक है। कृष्ण की पहचान मोरारजी देसाई को क्या हो सकती है? और अगर मोरारजी देसाई को कृष्ण की पहचान हो जाए, तो फिर सभी मुर्दों को हो जाएगी।

कृष्ण एक जीवंत धर्म हैं। धर्म–अपनी समग्रता में, अपने सब रंगों में! कृष्ण के साथ धर्म कोई नैतिकता नहीं है। कृष्ण के साथ धर्म अस्तित्व है, संपूर्ण अस्तित्व है। समग्र स्वीकार है। वही मेरी दृष्टि भी है–समग्र स्वीकार की।

निश्चित ही हम एक छोटा-सा विश्व बनाने जा रहे हैं–गैरिक संन्यासियों का–जो नाचेगा, जो आह्लादित होगा, जो उत्सव मनायेगा। नाच ही जिसकी पूजा होगी, उल्लास ही जिसकी अर्चना होगी। मस्ती के फूल परमात्मा के चरणों पर चढ़ाने का आयोजन हो रहा है।

तुम समझ सके, तुम नाराज न हो गए; तुम्हारे पास अभी जिंदा आत्मा है–तुम सौभाग्यशाली हो!–ठीक ही तुमने कहा: “हम खुदा के कभी कायल ही न थे, तुम्हें देखा तो खुदा याद आया!’ अब डूबो! अब सब होश-हवास छोड़कर डूबो। अब हिसाब-किताब छोड़कर डूबो। नाचो तुम भी! बहुत दिन हो गए, नहीं नाचे। रास फिर हो! फिर बांसुरी बजे! फिर हम परमात्मा को पुकार सकें पृथ्वी पर।

परमात्मा को खोजना एक बात है; वह व्यक्तिगत खोज है। परमात्मा को पुकारना पृथ्वी पर दूसरी बात है; वह सांघिक खोज है। इसीलिए संन्यासियों का यह समुदाय पैदा किया जा रहा है। व्यक्तिगत खोज से आदमी परमात्मा तक पहुंच जाता है, लेकिन जब तक अनंत आत्माएं नाचकर उसे पुकारें न तब तक परमात्मा पृथ्वी पर नहीं आ पाता। दोहरे काम करने हैं। प्रत्येक संन्यासी को परमात्मा को खोजना है–व्यक्तिगत रूप से; और समूहगत रूप से एक इतनी बड़ी चुंबकीय शक्ति पैदा करनी है कि इस पृथ्वी से जहां से परमात्मा का संबंध करीब-करीब विच्छिन्न हो गया है, उसे हम फिर उतार लायें। फिर जगत धर्ममय हो। हो सकता है। अथक चेष्टा और प्रयास चाहिए। और मेरे पास धीरे-धीरे लोग इकट्ठे हुए जा रहे हैं; साहसी, जो वैसी चेष्टा करने को तैयार हैं, जो वैसे अभियान पर जाने को तैयार हैं।

निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है।

हजारों हैं सफें जिनमें न मैं आई न जाम आया।।

इस जगत का जो ढंग है, सलीका है, बदलने की जरूरत है। निजामे मैकदा साकी! मधुशाला के नियम बदलने की जरूरत है।

निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है।

हजारों हैं सफें जिनमें न मैं आई न जाम आया।।

यहां कितने लोग हैं, जिनकी प्याली खाली की खाली पड़ी है, जिनमें न कभी कोई शराब आई है न कोई उत्सव उतरा!

निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है।

हजारों हैं सफें जिनमें न मैं आई न जाम आया।।

बहार आते ही खूं रेजी हुई वोह सहने गुलशन में।

खिजल कांटे थे यूं फूलों को जोशे इंतकाम आया।।

न जाने कितनी शमाएं गुल हुई कितने बुझे तारे।

तब इक खुरशीद इतराता हुआ बालाए-बाम आया।।

बहुत-से तारों को बुझना पड़ेगा और बहुत-सी शमों को गुल होना पड़ेगा, तब चांद उगेगा। तैयारी करो!

न जाने कितनी शमाएं गुल हुईं कितने बुझे तारे।

तब इक खुरशीद इतराता हुआ बालाए-बाम आया।।

बुलाना है परमात्मा को–उसके सूरज को, उसके चांद को, उसकी रोशनी को! इसके लिए बहुत-से लोगों को अपनी आहुति दे देनी पड़ेगी। बहुत-से लोग मिटें परमात्मा की राह पर, तो परमात्मा की वर्षा इस पृथ्वी पर हो सकती है। और ऐसी वर्षा बहुत जरूरी हो गई है, अन्यथा आदमी बचेगा नहीं।

आने वाले पच्चीस वर्ष मनुष्य के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होने वाले हैं: या तो परमात्मा उतरेगा और आदमी बचेगा; अगर परमात्मा नहीं उतर सकता, अगर हम नहीं उसे अपनी आत्माओं में समा सकते, तो आदमी के भी बचने की अब कोई उम्मीद नहीं है। फांसी बहुत कस गई है। आदमी आत्मघात करने को तत्पर है। या तो परमात्मा को पुकारो, या बचने का कोई उपाय नहीं।

 

आज इतना ही।

 

 


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सहज योग–(प्रवचन–10)

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तरी खोल गाता चल माझी—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 30 नवंबर,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—आपने इस प्रवचनमाला को शीर्षक दिया है–सहजऱ्योग। क्या सहज और योग परस्पर-विरोधी नहीं लगते?

 2—भक्त प्रभु-विरह में कभी हंसता है कभी रोता है, यह विरोधाभास कैसा?

 3—जाति-बिरादरी वालों ने मुझे छोड़ दिया है। यहां तक कि पंचायत बिठायी और चार व्यक्तियों ने मिलकर मुझे पीटा भी। संन्यास, बाल, दाढ़ी और गैरिक वस्त्र का त्याग करो–ऐसा कहकर मुझे पीटा गया–तथाकथित ब्राह्मणों और पंडितों द्वारा। ऐसा क्यों हुआ? अपने ही पराये क्यों हो गए?

 4—क्या यह अच्छा नहीं होगा कि पृथ्वी पर एक ही धर्म हो? इससे भाईचारे में बढ़ौतरी होगी और हिंसा, वैमनस्य और विवाद बंद होंगे।

 

5—क्या कभी मेरी पूजा-प्रार्थना भी स्वीकार होगी? मैं अति दीन और दुर्बल हूं, कामी, लोभी, अहंकारी…सब पाप मुझ में हैं।

 

पहला प्रश्न:

 

आपने इस प्रवचनमाला का शीर्षक दिया है–सहजऱ्योग। क्या सहज और योग परस्पर-विरोधी नहीं लगते?

 

आनंद मैत्रेय! विरोधी लगते ही नहीं, विरोधी हैं। लेकिन जीवन का कोई भी परम सत्य बिना विरोधाभास के प्रगट हो ही नहीं सकता। जीवन बना है विरोधों से–अंधेरा और प्रकाश, दिन और रात, स्त्री और पुरुष, ऋण विद्युत-धन विद्युत, जन्म-मृत्यु।

जीवन की संरचना विरोधों से है। इसलिए विरोधी विरोधी ही नहीं हैं, एक-दूसरे के परिपूरक भी हैं। दिन भर श्रम किया खूब तो गहरी नींद सो सकोगे। श्रम और विश्राम विरोधी हैं, पर जिसने श्रम किया है वही गहरा विश्राम कर सकेगा। और जिसने श्रम नहीं किया वह गहरा विश्राम भी न कर सकेगा। तो विरोधी विरोधी ही नहीं हैं, एक-दूसरे के परिपूरक भी हैं। और जिसने रात्रि गहरा विश्राम किया है वही सुबह जागकर फिर श्रम में संलग्न हो सकेगा। जो रात-भर विश्राम नहीं कर सका वह सुबह श्रम में भी न लग सकेगा।

जीवन को गौर से देखो। सभी तरफ तुम विरोध पाओगे। वृक्ष को ऊपर जाना है तो जड़ों को नीचे जाना पड़ता है। जितना वृक्ष ऊपर जाएगा उतनी ही जड़ें पाताल की तरफ नीचे जाएंगी। अगर वृक्ष सिर्फ ऊपरऱ्ही-ऊपर जाना चाहे, सोचे कि जड़ों को नीचे भेजना तो बड़ी विरोधी बात है, मुझे ऊपर जाना है तो जड़ों को नीचे क्यों भेजूं, जड़ों को भी ऊपर ले चलूं–तो फिर वृक्ष कभी भी ऊपर न जा सकेगा। नीचे जानेवाली जड़ों में ही ऊपर उठी हुई शाखाओं के प्राण हैं।

जब जीवन के विरोधाभास परिपूरक दिखाई पड़ने लगें तब समझना कि तुम्हारे पास तीसरी आंख का जन्म हुआ। यह तीसरी आंख समस्त विरोधों को जोड़ देती है, दो आंखों को एक कर देती है।

सहजऱ्योग जीवन के इसी विरोधाभास को संयुक्त कर लेने का नाम है। सहज का अर्थ है: अक्रिया, अकर्म, विश्राम। योग का अर्थ है: श्रम, क्रिया, यत्न, प्रयास। लेकिन दोनों मिल जाने चाहिए, दोनों संयुक्त हो जाने चाहिए। और जहां भी शब्द और शून्य का मिलन होता है वहीं महासंगीत है। जहां योग का और सहज का मिलन हो जाता है वहां जीवन में परम का अवतरण हो जाता है।

लाओत्सु ने इसी को वू-वे कहा है। वू-वे का अर्थ होता है: अकर्म के द्वारा कर्म, या कर्म के द्वारा अकर्म।

बुद्ध ने छह वर्ष तक अथक योग साधा, फिर वे सहज को उपलब्ध हुए। फिर एक दिन थक गए, साध-साधकर थक गए, खूब सोचा खूब विचारा, जो-जो विधियां संभव थीं कीं। जिसने जो बताया वही किया। सब मार्गों पर चले। मगर मंजिल न मिली सो न मिली। एक दिन थक गए, हताश, सब व्यर्थ हो गया। ऐसी प्रतीति साफ हो गई। उस क्षण योग छूट गया, प्रयास छूट गया। उसी रात निर्वाण घटा। उसी रात समाधि फली।

अब सवाल है कि क्या यह रात्रि बिना छह वर्ष के श्रम के आ सकती थी? तब तो तुम भी आज की रात निर्वाण को उपलब्ध हो जाओ। यह रात्रि विशिष्ट थी। इस रात्रि की विशिष्टता क्या थी? यह छह वर्ष के श्रम के बाद आई थी। यद्यपि यह भी सच है कि इस रात्रि को तुम छह वर्षों का निष्कर्ष नहीं कह सकते हो। यह छह वर्षों के कारण नहीं आई थी, क्योंकि छह वर्षों के कारण आती होती तो श्रम तो बहुत किया था, श्रम के दिनों में ही आ जाती। श्रम के दिनों में नहीं आई–आई विश्राम में। मगर विश्राम बिना श्रम के संभव नहीं है। तो श्रम भूमिका बनती है विश्राम की।

बुद्ध थक गए। उस थकान में चिंतन भी गया, विचार भी गया, योग भी गया, सब समाप्त हो गया। उस रात्रि बिलकुल सहज हो गए, जैसे पशु सहज होते हैं–सिर्फ एक भेद के साथ कि पशुओं को कोई बोध नहीं है, बुद्ध को पूरा बोध है, होश है। उसी रात परम घटना घट गई।

बुद्ध ने सहज को जाना, लेकिन सहज तक पहुंचना एक लंबी यात्रा थी। श्रम से अश्रम में पहुंचे। इसलिए बुद्ध की प्रक्रिया को सहजऱ्योग कहा जा सकता है। सरहपा बुद्ध की परंपरा का ही हिस्सा है। सरहपा भी एक बुद्ध है।

जो लोग तर्क से जीते हैं उन्हें बड़ी कठिनाई हो जाती है। वे कहते हैं: या तो योग या सहज, दोनों कैसे साथ? तर्क एकांगी होता है–और वही तर्क की भ्रांति है, वही तर्क की व्यर्थता है। तर्क एकांगी होता है। तर्क कहता है: या यह या वह। तर्क के सोचने का ढंग ही यही है: एक को चुन लो। लेकिन तर्क से अस्तित्व नहीं चलता।

यह बिजली जल रही है; इस बिजली में ऋण और धन दोनों जुड़े हैं। तर्क कहेगा ऋण ही ऋण से जमा लो या धन ही धन से जमा लो, ऋण-धन दोनों को क्यों जमाना? ये तो विपरीत हैं। मगर बिजली तर्क की नहीं सुनती। बिजली द्वंद्वात्मक है; द्वंद्व से ही जन्मती है। द्वंद्व में ही घर्षण है। जैसे दो चकमक के पत्थर कोई टकराए और आग पैदा हो जाए। तुमसे कोई कहे एक ही चकमक पत्थर से क्यों नहीं पैदा कर लेते हो?

स्त्री और पुरुष के मिलन से जीवन का प्रवाह होता है, बच्चे का जन्म होता है। पुरुष ही पुरुष निपटा लें, कि स्त्रियां ही स्त्रियां निपटा लें, नहीं यह हो सकेगा। और पुरुष और स्त्री विपरीत हैं।

ऐसा ही योग पुरुष है, सहज स्त्री है। योग है श्रम; सहज है विश्राम। योग है आक्रमक, सहज है स्वीकार। योग जाता बाहर की तरफ; सहज जाता भीतर की तरफ। योग सक्रियता है; सहज निष्क्रियता है। जो सिर्फ योग ही योग साधेगा विक्षिप्त हो जाएगा; क्योंकि उसे विश्राम न मिल सकेगा। उसे सहज की छाया न मिल सकेगी; वह धूप ही धूप में जिएगा, जल मरेगा। और जो सहज ही सहज साधेगा वह सुस्त हो जायेगा, आलसी हो जाएगा, अकर्मण्य हो जाएगा, निस्तेज हो जाएगा। छाया ही छाया में रहेगा, धूप न मिलेगी, तो जीवन कैसे विकसित होगा? धूप भी चाहिए और छाया भी चाहिए। दोनों चाहिए, दोनों का दान है जीवन को।

ऐसा हुआ, एक किसान बहुत परेशान हो गया। हर वर्ष कुछ गड़बड़ कभी कुछ…कभी बाढ़ आ जाए, कभी आंधी तूफान आ जाएं, कभी पाला पड़ जाए, कभी ओले गिर जाएं, कभी वर्षा कम कभी वर्षा ज्यादा। किसान थक गया। एक दिन उसने परमात्मा से कहा कि तुम्हें किसानी नहीं आती। तुमने कभी किसानी की है? तुमने कभी कृषि-शास्त्र को समझा? इधर मेरी जिंदगी बीत गई और तुम्हारी भूल-चूकें देखते-देखते थक गया हूं। एक वर्ष मुझे मौका दे दो, मैं तुम्हें दिखाऊं कि खेती कैसी होती है!

पुराने दिन की कहानी है। परमात्मा उन दिनों बहुत करीब हुआ करता था। इतने फासले न थे, सीधी-सीधी बात हो जाती थी। फासले आदमी ने खड़े कर लिए, अब सीधी बात करनी मुश्किल है। सीधी बात श्रद्धा में हो सकती है। उस किसान ने बड़ी श्रद्धा से आकाश की तरफ मुंह उठाकर कहा था कि एक दफा मुझे, इस साल मुझे मौका दे दो। जिंदगी-भर मैंने तुम्हें मौका दिया और तुम हमेशा जो भी किए, उसमें कोई तुक नहीं है कोई तर्क नहीं है। खेत लहलहा रहा है, खड़ा है कि पाला पड़ गया, कि ओले गिर गए, कि ज्यादा वर्षा हो गई कि कम वर्षा हो गई। कोई नापत्तौल होना चाहिए।

परमात्मा ने कहा: ठीक है, आने वाले वर्ष तू सम्हाल। और आने वाले वर्ष किसान ने सम्हाला और तर्क से सम्हाला। न तो ज्यादा वर्षा हुई, न ओले पड़े, न तूफान, न आंधी, न झंझावात उठे। सब बड़ा शांति से चला। और खेत भी ऐसे बढ़े कि किसान की छाती न फूली समाए। इतने बड़े पौधे कभी हुए न थे। दुगने, आदमी छिप जाए उनमें, इतने बड़े पौधे! कोई बाधा ही न आई थी। किसान ने कहा: अब दिखाऊंगा परमात्मा को! इसको कहते हैं फसल! और बालें बड़ी-बड़ी! और किसान को लगता था कि गेहूं के दाने भी होंगे तो दुगने-तिगने बड़े होंगे। दिखाऊंगा परमात्मा को कि तुम जिंदगी हो गई, यही उपद्रव करते। पूछ लेते उनसे जो जानते हैं।

फिर फसल कटी और किसान छाती पीटकर रोने लगा। बालें तो बड़ी थीं, मगर उनमें दाने न पड़े थे। और उसने परमात्मा से पूछा कि यह माजरा क्या है? परमात्मा ने कहा: तूने शीतलता दी, शांति दी, पर तूफान न दिए। बिना तूफानों के दाने कैसे पड़ सकते हैं? बिना पीड़ा के प्रसव कैसे? तूने सब सुविधा दे दी, मगर सुविधा-सुविधा में जीवन का जन्म ही न हुआ। तूने एक ही चकमक से आग पैदा करने की कोशिश की। इससे पौधे बड़े हो गए, मगर व्यर्थ। तूफान भी चाहिए और आंधी भी चाहिए और पाला भी और कभी ओले भी और कभी ज्यादा वर्षा भी और कभी ज्यादा धूप भी–ताकि चुनौती रहे। ये बालें लड़ ही न पायीं। इनका संघर्ष ही न हुआ। इनके जीवन में द्वंद्व ही न आया।

तुम देखते हो न, धनपतियों के बेटे अकसर बहुत बुद्धिमान नहीं हो पाते! और कारण इतना ही होता है कि न तूफान, न आंधी, न पाला। सब सुविधा, सब सुरक्षा, तो चैतन्य को जगने का अवसर नहीं मिलता। चैतन्य जगता है, जैसे चकमक से आग पैदा होती है। द्वंद्व चाहिए। द्वंद्व का स्वीकार चाहिए।

इसलिए मैंने इसे सहजऱ्योग कहा है। योग जोड़ना ही होगा। श्रम तो तुम्हें करना ही होगा। इतना ही ध्यान रहे कि श्रम मंजिल नहीं है, मार्ग है। मंजिल तो सहज है। मंजिल तो स्वभाव है। पहुंचना तो विश्राम में है। इसलिए जो भी तुम कर सको उस विश्राम को पाने के लिए करना और यह भी ध्यान रखना कि तुम्हारे करने से सीधा-सीधा वह मिलेगा नहीं; लेकिन तुम्हारे करने से ही वह अवसर निर्मित होता है जिसमें विश्राम के फूल खिलते हैं।

उदाहरण के लिए, तुम ध्यान के लिए कितना ही श्रम करो ध्यान नहीं होगा; लेकिन तुम्हारा किया हुआ श्रम रास्ता बनाएगा जिसमें से ध्यान एक दिन उतर आएगा। अकसर ऐसा होता है कि जब तुम ध्यान करने बैठते हो तब ध्यान नहीं होता; लेकिन बैठते रहो, बैठते रहो, बैठते रहो एक दिन अचानक तुम पाओगे, तुम ध्यान करने बैठे भी नहीं थे और ध्यान घटा! हो सकता है, तुम बगीचे में काम करते थे कि सुबह घूमने निकले थे, कि अकेले बैठे थे, कुछ भी न कर रहे थे, घर में कोई भी न था, सन्नाटा था–और अचानक एक ज्योतिपुंज ने तुम्हें घेर लिया। और अचानक तुम्हारे भीतर ऊर्जा छलांगें लेने लगी। और अचानक अतिथि आ गया द्वार पर। अचानक तुमने उसकी दस्तक सुन ली। पहली दफे उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ी, नाद पैदा हुआ। और तुम चौंकोगे, क्योंकि अभी तुम ध्यान करने बैठे ही न थे। लेकिन तुम जो ध्यान करने बैठे हो बहुत बार, उसके बिना यह घटना नहीं घटने वाली थी। और बहुत बार बैठे और नहीं घटी।

ऐसा समझो कि राह पर तुम्हें एक आदमी दिखाई पड़ा और तुम्हें लगा कि चेहरा तो पहचाना मालूम पड़ता है, नाम भी जबान पर रखा मालूम पड़ता है, मगर नहीं आता, नहीं आता याद। बहुत तुमने चेष्टा की। बहुत सिर मारा। पहचाना पक्का मालूम होता है। एक-एक रेखा चेहरे की परिचित है, एक-एक झुर्री परिचित है। उसकी चाल पहचानी हुई है। उसकी आवाज पहचानी हुई है। उसका नाम जबान पर रखा है। मगर नहीं आता। तुमने बहुत हाथ-पैर मारे और नहीं आया, नहीं आया। फिर तुमने कहा, जाने भी दो, क्या करोगे? कोई उपाय नहीं है। उस दुविधा का तुम खयाल करो, जब कभी ऐसा हो जाता है कोई चीज जबान पर रखी मालूम पड़ती है और नहीं आती, तब कैसी तुम संकट की अवस्था में हो जाते हो! मालूम है कि मालूम है और फिर भी नहीं मालूम। फिर तुम थक जाते हो। उस दशा में ज्यादा देर नहीं रह सकते। वह दशा बड़ी बेचैनी की है। तुम छोड़-छोड़कर अखबार पढ़ने लगे कि अपना हुक्का उठा लिया, कि निकल गए बाहर, कि बगीचे में चले आए, कि फूलों को देखने लगे और अचानक इधर हुक्का गुड़गुड़ाया कि उधर एकदम से नाम याद आया! लेकिन जब तुम याद कर रहे थे तब न आया और अब आया। तो क्या तुम सोचते हो तुमने कभी याद ही न किया होता तो भी आता? फिर तो कैसे आता?

इस विरोधाभास को ठीक से समझ लो: जिसने याद किया है, खूब मेहनत की है याद करने की और नहीं याद आ सका, क्योंकि जितना उसने श्रम किया उतना चित्त तनता गया, तनावग्रस्त हो गया। तनावग्रस्त चित्त संकीर्ण हो जाता है। संकीर्ण चित्त में से कुछ भी उठ नहीं सकता, जगह नहीं रह जाती। फिर उसी स्थिति को उसने विश्राम दे दिया। चला गया बगीचे में, अपना हुक्का गुड़गुड़ाने लगा कि अखबार पढ़ने लगा, कि बच्चे के साथ खेलने लगा। चित्त का विश्राम आया, तनाव गया, चित्त की संकीर्णता मिटी, चित्त जरा विराट हुआ–और तत्क्षण अचेतन से उठी लहर और चेतन नहा गया उस लहर में! याद आ गई।

मैडम क्यूरी ने तीन वर्ष तक गणित के सवाल को हल करने की कोशिश की और न कर पायी। वही हुआ जो बुद्ध के साथ हुआ था। वही हुआ जो सभी के साथ सदा हुआ है। उस पर सब दारमदार था। वह सवाल हल हो जाए तो एक बड़ी वैज्ञानिक उपलिब्ध होगी। उसी सवाल के हल होने पर मैडम क्यूरी को नोबल पुरस्कार मिला। मगर तीन साल सारी बुद्धिमता लगा दी, कुछ हल न हुआ और एक सांझ…।

ये कहानियां बिलकुल एक जैसी मालूम होती हैं और इनके पीछे एक ही सूत्र है। एक सांझ थक गई। उसने उस सवाल को छोड़ ही दिया उस सांझ कि अब नहीं। बहुत हो गया, तीन साल खराब हो गए, यह नहीं होना है मालूम होता है। ऐसा सोचकर उस रात वह सोयी और बीच रात सपने में उठी। नींद में ही, सपने में ही सवाल का उत्तर आ गया था। गई टेबल पर नींद में और टेबल पर जाकर सवाल का जवाब लिखकर वापस बिस्तर पर सो गई। सुबह जब उठी और अपनी टेबल साफ करती थी तो चकित हुई: उत्तर मौजूद था! यह आया कहां से, उसे तो याद भी नहीं रही थी! कमरे में कोई दूसरा व्यक्ति था भी नहीं और होता भी तो मैडम क्यूरी जिसको तीन साल में हल नहीं कर पायी उसको दूसरा व्यक्ति कौन हल कर लेता! कमरे में कोई था भी नहीं। ताला भीतर से बंद था, रात जब वह सोयी थी। ताला अभी भी बंद था। कमरे में कोई आ नहीं सकता। फिर उसने गौर से देखा, हस्ताक्षर थोड़े अस्त-व्यस्त थे लेकिन उसी के हैं। तब उसने याद करने की कोशिश की आंख बंद करके, तो उसे याद आया कि उसने एक सपना देखा था रात कि सपने में वह उठी है और कुछ लिख रही है। तब उसे पूरी बात याद आ गई। यह उत्तर उसी के भीतर से आया है। तीन साल तक सतत श्रम करने से नहीं आया है। आज की रात क्यों? तीन साल योग सधा, आज की रात सहज फला। मगर उस योग की खाद है, उस खाद से ही सहज फूल खिलता है।

इसलिए मैंने सहजऱ्योग कहा। विरोधाभासी है। है ही नहीं, दिखाई ही नहीं पड़ता–वस्तुतः है। आभास ही नहीं है, विरोध ही है। सहज और योग में विरोध है। सहज विश्राम है, योग श्रम है; मगर श्रम से ही विश्राम पर पहुंचा जाता है। जैसे जीवन मृत्यु में ले जाता है ऐसे ही श्रम विश्राम में ले जाता है।

श्रम करना, पर ध्यान रखना विश्राम का। बस उतनी स्मृति बनी रहे। श्रम को ही सब न समझ लेना, नहीं तो योग में ही अटक जाओगे, और सहज को ही सब मत समझ लेना, नहीं तो यात्रा शुरू ही नहीं होगी, आलस्य में ही पड़े रह जाओगे। ये दोनों पंख चाहिए ताकि तुम उड़ सको। ये दोनों पैर चाहिए, ताकि तुम चल सको।

इसलिए तुम्हें समस्त विश्व के संतों के वचनों में विरोधाभासी वक्तव्य मिलेंगे। जीसस ने कहा है: जो बचाएगा मिट जाएगा। जो मिट जाएगा, वही बच रहता है। और जीसस ने कहा है: जो अंतिम है वह प्रथम हो जाएगा और जो प्रथम है वह अंतिम पड़ जाएगा। और जीसस ने कहा है: धन्यभागी हैं वे जो दीन हैं, दुर्बल हैं, क्योंकि परमात्मा का राज्य उन्हीं का है। इस देश में भी हमने कहा है: दुर्बल के बल राम! निर्बल के बल राम!

जानते हैं लोग कि ऐसे भी क्षण होते हैं जीवन में जब हार जीत हो जाती है। उसी को हम प्रेम का क्षण कहते हैं। वही प्रेम का जादू है: जहां हार जीत हो जाती है।

हार ही अब तो हृदय की,

जीत होती जा रही है!

 

वे अधूरे स्वप्न ही जो,

हो नहीं साकार पाए।

एक प्रिय वरदान ले फिर,

इन दृगों में आ समाए।

साधना ही अब हृदय की,

मीत होती जा रही है!

हार ही अब तो हृदय की,

जीत होती जा रही है!

खो दिया अस्तित्व मैंने,

अब किसी का पा सहारा।

हार कर भी कह रहा मन,

मैं न हारा, मैं न हारा।

आज जीवन से मुझे कुछ,

प्रीत होती जा रही है!

हार ही अब तो हृदय की,

जीत होती जा रही है!

 

बंधनों में बंध गया है,

स्वयं ही उन्मुक्त जीवन।

मुक्ति से प्यारा मुझे है,

कल्पना का मधुर बंधन।

वेदना उर की अमर,

संगीत होती जा रही है!

हार ही अब तो हृदय की,

जीत होती जा रही है!

हार जीत हो जाती है, ऐसा प्रेम का जादू है। और योग सहज हो जाता है, ऐसी समझ की कीमिया है।

 

दूसरा प्रश्न:

 

भक्त प्रभु-विरह में कभी रोता है कभी हंसता है, यह विरोधाभास कैसा?

 

वैसा ही जैसा मैंने अभी तुम्हें सहजऱ्योग के लिए कहा। रोने और हंसने में विरोध दिखाई पड़ता है, है भी, पर गहरे में जोड़ भी है। यहां गहरे में सब विरोध जुड़े हैं, संयुक्त हैं। जो दो शाखाएं आकर वृक्ष की अलग हो गई हैं, वे ही नीचे इकट्ठी हैं। किसी अतल गहराई में आंसुओं में और मुस्कुराहटों में तादात्म्य है।

और भक्त की दशा सभी भंगिमाओं से गुजरती है। कभी रोता है जरूर, कभी हंसता है। कभी आकाश बादलों से घिरा होता है और बड़ी उदासी होती है और सूरज के कहीं दर्शन नहीं होते; और कभी आकाश से सूरज का सोना बरसता है, बदलियों का कोई पता नहीं होता, निरभ्र आकाश होता है, आनंद की मस्ती होती है। कभी भक्त डूब जाता है विरह की पीड़ा में और कभी मिलन के आनंद में नाच उठता है। कभी रोता है, कभी हंसता है।

भक्ति के बहुत पहलू हैं और भक्त सभी पहलुओं से गुजरता है–कभी उदास, कभी उत्फुल्ल; कभी हारा-थका, कभी बड़ा उत्साहित, बड़े उन्माद में; कभी बिलकुल टूटा, जैसे अब जी ही न सकेगा; और कभी ऐसे जैसे अमृत जीवन मिल गया है! ये सारी भाव-भंगिमाएं हैं। ये सब परमात्मा की प्रार्थनाओं के अलग-अलग ढंग हैं। लेकिन भक्त एक तरकीब जानता है कि सभी उसी को समर्पित कर देता है। उदासी भी तो उसी की और उत्साह भी तो उसी का, जीवन भी उसी का, मृत्यु भी उसी की। तो भक्त सभी कुछ उसी पर समर्पित करता जाता है। आती तो बड़ी अदभुत अनुभूतियां हैं। और ऐसा ही नहीं कि बाहर से…जैसा तुमने बाहर से पूछा है कि भक्त विरह में रोता है कभी हंसता है, यह विरोधाभास कैसा? ऐसा ही नहीं कि तुम्हें विरोधाभास मालूम होता है; भक्त को भी भीतर से यह लगता है कि मामला क्या है, मैं पागल तो नहीं हो गया हूं! और कभी-कभी तो ऐसा होता है, आंखों से आंसू झरते हैं और ओंठों पर मुस्कुराहट होती है। कभी ऐसा होता है कि रोता है और नाचता भी है। कभी दोनों साथ-साथ ही घटते हैं। तब तो भक्त बिलकुल ही पागल मालूम होता है। इसलिए भक्तों को लोगों ने दीवाना समझा है।

ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री या रब!

हम भी क्या याद रखेंगे कि खुदा रखते थे।।

कभी तो बड़े उदास, बड़े दुख और विषाद के दिन होते हैं।

ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री या रब!

हम भी क्या याद रखेंगे कि खुदा रखते थे।।

एक-एक क्षण बिताना मुश्किल हो जाता है। एक-एक क्षण महासंकट हो जाता है। बीतेगा कैसे यह क्षण, यह समझ में नहीं आता है–इतना दुख का बोझ होता है, इतनी विरह की प्रज्वलित अग्नि होती है! भक्त तड़फा जाता है, जैसे मछली तड़फ जाए कोई सागर के बाहर फेंक दे उसे तट पर, तो लेकिन बस ये घड़ियां आती हैं, चली जाती हैं।

यह वहम हो कि हकीकत, सुकूं इसी से है दिल को।

समझ रहा हूं कि तू बेकरार मेरे लिए है।।

भगवान दिखाई भी नहीं पड़ता भक्त को। ऐसे क्षण होते हैं जब बड़ी अंधेरी अमावस की रात होती है। मगर इतने से ही बड़ा सुकूं होता है, बड़ी शांति होती है, बड़ी तसल्ली होती है। यह वहम हो कि हकीकत…और फिर लोग कुछ भी कहें। लोग कहते हैं कि यह सब वहम है, कि भम्र है, कि तेरे मानसिक प्रक्षेपण हैं।

यह वहम हो कि हकीकत, सुकूं इसी से है दिल को।

समझ रहा हूं कि तू बेकरार मेरे लिए है।।

दिखाई नहीं पड़ता परमात्मा कहीं, लेकिन भक्त को ऐसी प्रतीति होती है कि परमात्मा उसके लिए बेकरार है, जैसे वह परमात्मा के लिए बेकरार है। और तब उसे बड़ी शांति भी मिलती है। तब उदास से उदास रात भी अचानक सुबह हो जाती है। तब अमावस से अमावस एकदम से पूर्णिमा हो जाती है। फिर भक्त इसकी भी फिकिर नहीं करता कि यह वहम है कि हकीकत है।

उनकी बेजा भी सुनूं, आप बजा भी न कहूं।

आखिर इन्सान हूं मैं भी, कोई दीवार नहीं।।

फिर कभी जूझ भी बैठता है परमात्मा से। और भक्त ही जूझ सकता है, क्योंकि प्रेमी ही लड़ सकता है। औरों की तो सामर्थ्य क्या?

उनकी बेजा भी सुनूं, आप बजा भी न कहूं।

आख़िर इन्सान हूं मैं भी, कोई दीवार नहीं।।

तो नाराजगी में कभी पूजा भी नहीं करता, द्वार-दरवाजे बंद कर देता है परमात्मा के। कभी प्रार्थना भी नहीं करता और हजार तरह की शिकायतें भी उठती हैं।

न शाख में यह कहीं सूख जायें फूल मेरे।

जो तोड़ना हो तो अब तोड़ इंतिज़ार न कर।।

आखिर सीमा होती है एक!

या यही कह दे कि राहत तेरी किस्मत में नहीं।

मुझको देना है तो दे आज, कयामत में नहीं।।

आखिर प्रतीक्षा भी कब तक? और फिर जानता भी है, समझता भी है–

उनसे शिकवा फजूल है सीमाप

काबले इल्तिफाक तू ही नहीं

शिकायत क्या करूं, यह भी जानता है। मेरी पात्रता क्या है! अभी मैं उनकी करुणा के योग्य भी कहां हूं!

आजुरदा इस कदर हूं सराबे-ख़याल से।

जी चाहता है तुम भी न आओ ख़याल में।।

तंग आके तोड़ता हूं, ख़याले तिलस्म को।

या मुतमइन करो कि तुम्हीं हो ख़याल में।।

कभी ऐसा परेशान हो जाता है याद करते-करते, याद करते-करते, रोते-रोते जार-जार हो जाता है, कि कहता है: इतना थक गया हूं, इतना व्यथित हो गया हूं…आजुरदा इस कदर हूं सराबे-ख़याल से…तुम्हारे खयाल में, तुम्हारे ध्यान में, तुम्हारी स्मृति में इस तरह व्यथित हो गया हूं कि अब तो जी चाहता है तुम भी न आओ खयाल में। मगर बस यह क्षण-भर को बात टिकती है और दूसरे ही क्षण कहता है–

तंग आके तोड़ता हूं, ख़याले-तिलस्म को।

या मुतमइन करो कि तुम्हीं हो ख़याल में।।

मुझे विश्वास दिला दो कि यह तुम्हीं हो जो मेरे खयाल में आए। और नहीं तो तोड़ दूंगा ये सारे विचारों के तिलिस्म को। अगर तुम नहीं हो तो कुछ भी नहीं है।

क्या कहीं भूल गया मुझको बनाने वाला

कि मेरी बात बिगड़ती ही चली जाती है।

क्या कभी मौत के तेवर नहीं इसने देखे।

ज़िंदगी है कि अकड़ती ही चली जाती है।।

हजार रंग हैं भक्ति के। हजार ढंग हैं भक्ति के। सारी ऋतुएं हैं भक्ति की। कभी बसंत है और कभी पतझड़। और कभी वर्षा है और कभी धूप। और कभी सर्दी है और कभी गर्मी।

हज़ार ऐश की सुबहें निसार हैं जिस पर।

मेरी हयात में ऐसी भी इक शबे-ग़म है।।

और भक्त यह भी कहता है गौरव से, कि तेरी याद में जो रात बीती, तेरे विरह में जो रात बीती, वह कुछ ऐसी है कि हजार ऐश की सुबहें निसार हैं जिस पर–कि सुख की, सफलता की, विलास की, वैभव की, हजार सुबहें उस एक रात पर निसार हैं, जो तेरी याद में बीती। क्योंकि तेरी याद पीड़ा तो देती है, मगर पीड़ा बड़ी मधुर है। तेरी याद तिक्त भी बहुत है, मादक भी बहुत है। शराब है न, तिक्त! स्वाद तो कुछ शराब के ढंग का नहीं होता। अनुभव कुछ और होता है, स्वाद कुछ और होता है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बहुत परेशान थी उसकी शराब पीने की आदत से। सब उपाय कर चुकी। कोई और उपाय न सूझा तो उसने आखिरी उपाय किया। मुल्ला गया है शराब-घर, वह भी पहुंच गई। बुर्के में रहने वाली स्त्री। उसने सोचा कि यह आखिरी चोट होगी, शराब-घर में पहुंच जाए। उसने बुर्का उलट दिया और जाकर मुल्ला की टेबिल के पास की कुर्सी लेकर बैठ गई। मुल्ला तो थरथरा गया, लोग क्या कहेंगे, यह तो हद हो गई! स्त्रियां शराब-घर में! पर्दानशीं स्त्रियां शराब-घर में! मगर मुल्ला कुछ यह कह भी नहीं सकता कि तू यहां कैसे आयी, क्योंकि यही तो उसकी पत्नी उससे जिंदगी भर से कह रही है वहां मत जाओ। और पत्नी ने कहा कि आज मैं भी पीऊंगी। और इसके पहले कि मुल्ला उसे रोके या रोक सके उसने तो ली और बोतल उंडेल दी गिलास में और लेकर पहला घूंट चखा। चखते ही गिलास रख दिया और मुंह में जो शराब गई थी, थूक दी और कहा कि अरे, इतनी तिक्त, इतनी कड़वी! मुल्ला ने कहा: और तू सदा यही समझती थी कि हम मजा कर रहे हैं! अब समझी?

स्वाद तो तिक्त है। विरह का स्वाद तो तिक्त है। शराब जैसा ही है विरह, लेकिन अनुभव बड़ा मादक है, बड़ा आह्लादकारी है।

भला मेरी यह हिम्मत थी कि तुमसे अर्जे-दिल करता।

जबीने बेसिकन देखी तो कुछ कहने की ताब आई।।

मुझे धोखा न देती हों कहीं तरसी हुई नज़रें।

तुम्हीं हो सामने या फिर वही तस्वीरे-ख्वाब आई।।

भक्त के अनुभव भक्त ही समझ सकते हैं। दूसरों को तो सब सपने की बातें हैं, कि मानसिक खेल है। भला मेरी यह हिम्मत थी कि तुमसे अर्ज़े-दिल करता…कि अपने हृदय की बात तुमसे कहता कि अपनी शिकायत कि अपनी प्रार्थना कि अपनी मांग तुम्हारे सामने रखता।

भला मेरी यह हिम्मत थी कि तुमसे अर्ज़े-दिल करता।

जबीने बेसिकन देखी तो कुछ कहने की ताब आई।।

तुम्हारा मस्तक देखा और चिंता-रहित देखा और तुम प्रसन्न मालूम हुए और तुम ऐसे लगे कि यह घड़ी है कि अभी कह दूं। मुझे धोखा न देती हों कहीं तरसी हुई नजरें। यही कहना है मुझे कि मेरी आंखें इतनी तरस गई हैं तुम्हें देखने के लिए कि कहीं ऐसा न हो कि तरसी नजरें मुझे धोखा दे रही हों।

मुझे धोखा न देती हों कहीं तरसी हुई नज़रें।

तुम्हीं हो सामने या फिर वही तस्वीरे-ख्वाब आई।।

कहीं फिर मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा हूं…। क्योंकि भक्त बहुत बार सपना भी देख लेता है। जिसकी तुम निरंतर याद करते हो वह सपने में भी प्रगट हो जाता है। जिसकी तुम बहुत-बहुत याद करते हो, वह दिन में भी खुली आंखों से भी मौजूद हो जाता है; लेकिन होता सपना ही है।

भक्त सपनों में से गुजरता है। सपनों से गुजर-गुजरकर सपनों की पर्त उघाड़-उघाड़कर एक दिन सत्य का आविर्भाव होता है। और बड़ी मुश्किल में होता है भक्त, क्योंकि परमात्मा इतने करीब मालूम होता है उसे। वे तो कैसे समझेंगे जो जानते ही नहीं कि परमात्मा है? वे भी कैसे समझेंगे जो मानते हैं कि परमात्मा है लेकिन बहुत दूर है, अभी घटने वाला नहीं है, जन्मों-जन्मों में कभी घटेगा, मृत्यु के बाद कभी घटेगा, परलोक में कभी घटेगा!

खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं।

साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं।।

और चिलमन से लगे बैठे हैं, ऐसा भक्त को दिखाई पड़ता है। दिखाई भी पड़ रहे हैं–झीने पर्दे में से, चिलमन में से झलक भी मालूम हो रही है।

खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं।

साफ़ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं।।

तो भक्त की पीड़ा है, भक्त का आनंद भी है।

नज़र का इक इशारा चाहिये अहले-मुहब्बत को।

जब?ीने-शौक झुक जाये जिधर कहिये, जहां कहिए।।

बस राह देखता है कि तुम्हारा इशारा हो जाए, कि गर्दन उतारनी हो तो गर्दन उतार दूं। रोता है, लेकिन जानता है कि मेरे रोने की भी क्या समार्थ्य!

ऐ ग़मे-इश्क तेरे ज़र्फ में कुछ आग भी है?

अपने से ही पूछता है–

ऐ ग़मे-इश्क तेरे जर्फ में कुछ आग भी है?

आंसुओं से तो इलाजेत्तपिशे-दिल न हुआ।।

दग्ध हृदय की चिकित्सा आंसुओं से तो हो नहीं सकी, रो तो मैं खूब लिया, रो तो मैं खूब चुका। अब अपने से ही पूछता है कि मेरे हृदय-पात्र! तुझमें कुछ आग भी है? आग हो तो अब जल।

ऐ ग़मे-इश्क तेरे जर्फ में कुछ आग भी है?

आंसुओं से तो इलाजेत्तपिशे-दिल न हुआ।।

बहुत रो लिया, मगर आग खोजता है अपने हृदय में। और मिल जाती है एक दिन आग। विरह ही तो धीरे-धीरे सघन होकर आग बन जाता है, प्रगाढ़ होतेऱ्होते प्रज्वलित हो उठता है। उसी प्रज्वलित अग्नि में भक्त समाहित हो जाता है, जैसे पतंगा जल जाए शमा पर। और पतंगे की मृत्यु ही उसकी मुक्ति है। भक्त का मर जाना ही उसका मोक्ष है। भक्त जब मर जाता है, फिर न आंसू हैं न हंसी है, न नाच है न गीत है, न दुख है न सुख है। भक्त जब मर जाता है तब महासुख है, शाश्वत सुख है। जहां अहंकार गया वहां परमात्मा ही बचता है; भक्त नहीं बचता, भगवान ही बचता है। उस घड़ी के आने के पहले तो सभी भाव-भंगिमाओं से भक्त को गुजरना पड़ता है।

भक्त का जगत बड़ा रंगीन है। ज्ञानी का जगत बहुत रंगीन नहीं है; उसमें एक ही रंग है, ज्ञानी का जगत इकतारा है; उसमें एक ही स्वर उठता है, एक ही तार है। भक्त के वाद्य पर सब तार हैं। भक्त के पास सभी तरह के वाद्य हैं। भक्त तो समस्त वाद्यों के बीच उठने वाला समवेत स्वर है। भक्त तो सातों रंग लिए हैं–इंद्रधनुष है।

भक्ति की वैविध्यता को समझो। ज्ञानी के पास बहुत रंग नहीं होते। इसलिए ज्ञानी इस जगत को कोई सुंदर काव्य नहीं दे सके। ध्यानी इस जगत को कोई सुंदर संगीत नहीं दे सके। भक्तों ने दिए संगीत। भक्तों ने दिए गीत। भक्तों ने दी मूर्तियां और पत्थरों को सजीव कर दिया! पत्थरों में प्राण डाल दिए। पत्थरों से गीत उठने लगे।

भक्तों ने इस जगत को बहुत सौंदर्य दिया है, क्योंकि भक्त के पास वैविध्य है। और विविधता में ही रस की धारा बह सकती है। ज्ञानी तो होता है मरुस्थल जैसा; भक्त होता है बगीचे जैसा, जिसमें सब तरह के फूल खिलते हैं, सब गंधें उठती हैं।

गुम कितने कारवां हुए ईमां के नूर में।

अच्छे रहे जो सायाए-उल्फ़त में आ गये।।

वोह दिल फिर उसके बाद न तारीक हो सका।

जिसमें दीये वोह अपनी नजर से जला गये।।

गुम कितने कारवां हुए ईमां के नूर में! बड़ा अदभुत वचन है। धर्मांधता के तथाकथित प्रकाश में कितने यात्रीदल भटक नहीं गए हैं। तथाकथित प्रकाश में अनेक यात्रीदल भटक गए हैं। गुम कितने कारवां हुए ईमां के नूर में! कोई हिंदू के प्रकाश में, कोई मुसलमान के प्रकाश में, कोई ईसाई के प्रकाश में। कहने को प्रकाश हैं और यात्रीदल भटक गए हैं। प्रकाश में भटक गए हैं। भरे-दिन भरी-दुपहरी में भटक गए हैं।

गुम कितने कारवां हुए ईमां के नूर में।

अच्छे रहे जो सायाए-उल्फत में आ गये।।

लेकिन धन्यभागी हैं वे जो अंधेरे में आ गए प्रेम के! अगर ये प्रकाश हैं, ये मंदिर-मस्जिदों में जलने वाले दीए अगर दीए हैं, तो प्रेमी का फिर इन दीयों से कुछ लेना-देना नहीं। प्रेमी तो कहता है; फिर हम भले, हमारे प्रेम के अंधेरे में भले। हमारे प्रेम का अंधेरा तुम्हारे प्रकाश से बेहतर है, क्योंकि तुम्हारे प्रकाश में हमने यात्रियों को भटकते देखा है और हमारे अंधेरे में हमने यात्रियों को पहुंचते देखा है।

गुम कितने कारवां हुए इमां के नूर में।

अच्छे रहे जो सायए-उल्फत में आ गये।।

वो दिल फिर उसके बाद न तारीक हो सका।

जिस दिल में परमात्मा के प्रेम का दीया जला है, वहां फिर कभी अंधेरा नहीं हुआ है; बाकी तो सब जो बाहर से उधार दीए लेकर चल रहे हैं, भटके हैं–और भटकेंगे और लोगों को भी भटकायेंगे।

वोह दिल फिर उसके बाद न तारीक हो सका।

जिसमें दिये वोह अपनी नज़र से जला गये।।

भक्त तो उसकी आंख को ही दीया मानता है। जब तक उसकी आंख से आंख न मिल जाए तब तक मानता है अंधेरा ही अंधेरा है। और भक्त प्रेम के इस अंधेरे को पसंद करता है बजाए शास्त्रों के उजेले के, क्योंकि शास्त्रों में सिर्फ लोग भटक गए हैं, शास्त्रों के वनों में भटक गए हैं, शब्दों के जाल में भटक गए हैं।

प्रेम एकमात्र उपाय है। अगर जाना हो परमात्मा तक, अगर पहुंचना हो परमप्रिय तक, तो प्रेम का दीवानापन स्वीकार करो। प्रेम का अंधेरा स्वीकार करो, क्योंकि प्रेम की अमावस भी एक दिन पूर्णिमा बनने में समर्थ है। और तथाकथित शास्त्रों की रोशनी सिर्फ तुम्हें उलझाए रखती है, रोशनी का धोखा देती रहती है। भक्त तो दीवाने होते हैं। उनके तो अपने ही ढंग हैं, अपनी ही शैली है।

संगे-दर सर पै है, दर पर नहीं अब सर मेरा।

अहले-काबा मेरे सिज्दों का सलीका देखें।।

वे जो जानकार हैं मंदिर-मस्जिदों के, जरा मेरा ढंग भी देखें, मेरा सलीका भी देखें! हमने परमात्मा के पत्थर पर, उसकी चौखट के पत्थर पर सिर नहीं रखा है–उसके चौखट के पत्थर को ही सिर पर रख लिया है! हम क्या सिर कहीं पटकें, हम तो उसको सिर पर लिए चल रहे हैं!

संगे-दर सर पै है, दर पर नहीं अब सर मेरा।

अहले-काबा मेरे सिज्दों का सलीका देखें।।

और वे जो जानकार हैं, काबे के मंदिरों के, मस्जिदों के, शास्त्रों के, वे जरा प्रेमियों की शैली भी देखें, प्रेमियों की भाव-भंगिमाएं भी देखें, प्रेमियों के तौरत्तरीके भी देखें! प्रेमियों का अदभुत दीवाना शिष्टाचार भी देखें! प्रेमी के रहने के ढंग और, जीने के ढंग और। दीवानगी उसके जीने का सार है। मगर दीवाने ही हैं, जो अतियों को जोड़ पाएं। और दीवाने ही हैं जो विरोधों को जोड़ पाएं। और दीवाने ही हैं जो आंसुओं में और मुस्कुराहटों में सेतु बना लें। दीवाने ही हैं, जो जीवन और मृत्यु को एक जान पाएं। तार्किक वंचित रह जाते हैं; प्रेमी जान लेता है। प्रेम तर्क नहीं है। और जो तर्क से भरे हैं वे प्रेम से वंचित रह जाते हैं। वे अभागे हैं। धन्य है वह, जो प्रेम के जगत में पागल हो सकता है, क्योंकि परमात्मा उसी का है।

 

तीसरा प्रश्न:

 

ओशो, जाति-बिरादरी वालों ने मुझे छोड़ दिया है। यहां तक कि पंचायत बिठायी और चार व्यक्तियों ने मिलकर मुझे पीटा भी। संन्यास, बाल, दाढ़ी और गैरिक का त्याग करो–ऐसा कहकर मुझे पीटा गया–तथाकथित ब्राह्मणों और पंडितों द्वारा। न तो मैं उन्हें समझ सका, न वे मुझे समझ सके।

ओशो, ऐसा क्यों हुआ? अपने ही पराये क्यों हो गये हैं?

 

कृष्णानंद, ऐसा ही होना था, ऐसा ही होता है। इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं हुआ है। जब भी कोई व्यक्ति भीड़ से भिन्न होने लगे तो भीड़ नाराज हो जाती है, क्योंकि तुम्हारी भिन्नता भीड़ के जीवन पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर देती है। अगर तुम सही हो तो वे गलत हैं। अगर वे सही हैं तो तुम्हें गलत होना ही चाहिए। भीड़ बरदाश्त नहीं करती उस व्यक्ति को जो अपनी निजता की घोषणा करे। भीड़ तो भेड़ों को चाहती है, सिंहों को नहीं। और संन्यास तो सिंह-गर्जना है, सिंहनाद है।

संन्यास का तो अर्थ ही यह है कि अब मैंने छोड़ दिए रास्ते पिटे-पिटाए; लकीर का फकीर अब मैं नहीं हूं। अब चलूंगा अपनी मौज से, अपनी मर्जी से! अब खोजूंगा परमात्मा को अपने ढंग से, अपनी शैली से। सम्हालो तुम अपनी परंपराएं, मेरी अब कोई परंपरा नहीं। मैं अपनी पगडंडी खुद चलूंगा और बनाऊंगा।

संन्यास का अर्थ है कि मैं सत्य की खोज में व्यक्ति की तरह चल पड़ा; किसी भीड़ का अंग नहीं। हिंदू नहीं अब मैं, मुसलमान नहीं अब मैं, ईसाई नहीं अब मैं, जैन नहीं अब मैं। अब सारे धर्म मेरे हैं और कोई धर्म मेरा नहीं।

और तब सारे, जिनको तुम अपने समझते थे, तत्क्षण पराए हो जाएंगे। सबसे पहले वे ही पराए हो जाएंगे, क्योंकि सबसे पहले उन्हीं के साथ तुम्हारा संघर्ष शुरू हो गया। ऐसा नहीं कि तुम उनसे लड़ने चले हो, मगर तुम्हारी यह भाव-भंगिमा, तुम्हारी यह निजता की घोषणा, उनकी आंखों में अपराध हो जाएगी।

कृष्णानंद! उन्होंने वही किया, जिसकी अपेक्षा थी। तुम्हें अपेक्षा नहीं थी इसकी–इसलिए तुम चौंके, इसलिए तुम आश्चर्यचकित हुए। भीड़ सदा से यही करती रही है। और जिनको तुम जाति-बिरादरी वाले कहते हो, उनसे तुम्हारा नाता क्या था? सांयोगिक नाता था। नदी-नाव संयोग। संयोग की बात थी कि तुम एक घर में पैदा हुए, वह घर एक जाति का था, एक बिरादरी का था। मान्यता की बात थी। और सबसे पहले वे ही नाराज होंगे, क्योंकि उन्होंने यह न सोचा था कि तुम और इतनी कूवत, तुम और इतनी जुर्रत कर सकोगे। यह बगावत है। यह विद्रोह है।

अपनी कूवत आज़माकर अपने बाजू तोलकर।

अर्शि-ए-हस्ती में उड़ना है तो उड़ पर खोलकर।।

आकाश में जो उड़ने चला है अपने पंख खोलकर, उसने घोषणा कर दी–अपनी कूवत की, अपनी बाजू की, अपने बाजुओं की।

अपनी कूवत आज़माकर अपने बाजू तोलकर।

अर्शि-ए-हस्ती में उड़ना है तो उड़ पर खोलकर।।

जीवन के आकाश में तो वे ही उड़ सकते हैं, अन्यथा तो लोग सरकते रहते हैं जमीन पर। भीड़ तो उन्हीं की है। और भीड़ तुम्हें बरदाश्त न करेगी। और जब भीड़ तुम्हें चोट पहुंचाए तो परेशान न होना। स्वीकार कर लेना इसे। यह स्वाभाविक है। यह तुम्हारे साथ ही हुआ है, ऐसा नहीं है; यह सभी के साथ हुआ है। यह तो उनके साथ भी हुआ है…जीसस जैसे पुरुषों के साथ भी हुआ है।

जीसस अपने गांव में गए और उनके गांव ने उन्हें पहाड़ पर ले जाकर, धक्का देकर मार डालने का आयोजन किया। उनके ही गांव ने, उनके ही लोगों ने…। उसी दिन जीसस का प्रसिद्ध वचन प्रगट हुआ। जीसस ने कहा: “पैगंबर अपने ही गांव में अपने ही लोगों द्वारा नहीं पूजे जाते।’ फिर जीसस दुबारा अपने गांव नहीं गए। कोई सार भी न था।

एक बार एक पटेल ने तीर्थयात्रा करने का फैसला किया। उसने यह भी फैसला किया कि सारी यात्रा पैदल ही करूंगा। जिस समय वह घर से चलने को हुआ, उसने देखा कि जहां उसके साथी-संगाती और रिश्ते-नाती उसे विदा दे रहे हैं, वहीं उसका पालतू कुत्ता भी विह्वल होकर उसकी ओर देख रहा है। उसने सोचा, जब पदयात्रा ही करनी है तो क्यों न इस कुत्ते को भी साथ ले लिया जाए। और सबकी राय लेकर उसने अपनी यात्रा में कुत्ते को भी साथी बना लिया। एक से दो भले!

तीर्थयात्रा के दौरान पटेल जहां-जहां ठहरता, वहां-वहां गांव वाले उसका सत्कार करते, उसे मालाएं पहनाते तथा अच्छी आवभगत करते। इस आवभगत का कुछ अंश कुत्ते को भी मिलता। कहीं-कहीं लोग उसे भी मालाएं पहना देते और खाने को पकवान देते। यात्रा कई महीनों चलती रही और एक दिन धूमधाम से उसका समापन हो गया।

पटेल ने यात्रा का समापन-समारोह किया। लोगों ने पटेल के चरण छुए और उसके साथ-साथ कुत्ते को भी आदर दिया। समारोह की समाप्ति के बाद उस कुत्ते से उसी की गली के दूसरे कुत्तों ने यात्रा के समाचार पूछे। खास सवाल यह कि यात्रा के दौरान मालिक ने तो उसे कोई कष्ट नहीं दिया?

यात्री कुत्ते ने आंखों में आंसू भरकर कहा: भैया! मालिक ने तो मेरी बहुत सेवा की। सारे रास्ते उसने ध्यान रखा कि कहीं मैं भूखा न रह जाऊं, कहीं बिछड़ न जाऊं। मेरी जरूरतों को वह अपनी जान पर भी खेलकर पूरी करता रहा। कष्ट मुझे मालिक से नहीं हुआ, अपनी ही बिरादरीवालों से हुआ। जहां-जहां जिस-जिस गांव से मैं गुजरता वहां-वहां उस-उस गांव के कुत्ते मुझ पर टूट पड़ते और मेरी जान के प्यासे हो जाते। अगर मालिक साथ न होता तो ये बिरादरीवाले मुझे न तो जिंदा छोड़ते न तीर्थयात्रा का पुण्य लेने देते।

सब कुत्तों ने बिरादरी की निंदा के अपराध में उस कुत्ते को जाति से बाहर कर दिया…। क्योंकि बिरादरी की निंदा तो कोई सुन सकता नहीं।

पंडित-पुरोहित, तुम्हारे प्रियजनों ने तुम्हें मारा-पीटा, उन्होंने तुम्हारा त्याग कर दिया है, तुम सौभाग्यशाली हो। इससे उन्होंने स्वीकृति दी है कि तुम्हारा संन्यास सच्चा है।

लाओत्सु का प्रसिद्ध वचन है: ज्ञानी बोले और अज्ञानी नाराज न हों तो समझना कि ज्ञानी ने कुछ कहा ही नहीं। ज्ञानी बोले, अज्ञानी हंसें न, तो समझना ज्ञानी ने जो कहा वह सत्य नहीं है। ज्ञान की बात कही जाए, अज्ञानी तो उसे मूढ़ता की बात समझेगा ही। उन्होंने तुम्हें मारा-पीटा, उन्होंने एक बात स्वीकार कर ली, तुम्हारी विशिष्टता स्वीकार कर ली। उन्होंने मान लिया कि कुछ तुम्हारे जीवन में हुआ है। वे तुम्हारे जीवन से उसे पोंछ देने का आतुर हो गए। तुम्हारे जीवन ने उनको अपने   जीवन के संबंध में सोचने को विवश कर दिया। और सोचना कोई भी नहीं चाहता। सोचना बड़ा कष्टपूर्ण मालूम होता है। कौन झंझट में पड़े सोचने की! सब चुपचाप चलता था, सब ठीक-ठाक चलता था, आप आ गए संन्यास लेकर! जिंदगी चली जाती थी, एक रौ में बही जाती थी। आप गैरिक वस्त्र पहनकर खड़े हो गए। उन सारे लोगों को चौंका दिया। यह तो अब उनकी आत्मरक्षा का सवाल है। उन्होंने तुम पर हमला नहीं किया है। तुम्हारी मौजूदगी ने उनको इतना दहला दिया कि आत्मरक्षा में उन्होंने हमला किया है। यह आक्रमण नहीं है, यह सिर्फ आत्मरक्षा है। वे यह कह रहे हैं कि हम तुम्हें पाठ सिखाएंगे, हम तुम्हें रास्ते पर लाएंगे। तुम रास्ते पर आ जाओगे तो वे बड़े खुश होंगे! उनके रास्ते पर! तो उनके आनंद का अंत न होगा। वे शायद तुम्हारा स्वागत-समारोह भी करें, भोज इत्यादि का भी आयोजन करें। जिन्होंने पीटा है वे ही शायद भोज इत्यादि भी दें।

लेकिन, अगर तुम अपनी राह पर चलते रहे तो उनका विरोध बढ़ता ही जाएगा। क्योंकि तुम्हारी मौजूदगी चिंता का कारण है। कहीं तुम ठीक ही तो नहीं हो, यही चिंता है। हो सकता है तुम ठीक हो और वे गलत हैं, ऐसा संदेह उनके मन में जगा है। उस संदेह को छिपाने के लिए वे मारपीट कर रहे हैं, शोरगुल मचाएंगे। हंसना, आनंद से उसे स्वीकार कर लेना, ताकि उनका संदेह और गहरा हो। अगर तुम आनंद से उनके विरोध को स्वीकार कर लोगे तो तुम उनके भीतर से और भी संदेहों को जगा दोगे कि जब जो व्यक्ति हमारे मारने-पीटने पर भी इतना प्रसन्न है और जरा भी परेशान नहीं है, तो जरूर उसे कुछ हुआ है–कुछ, जो मूल्यवान है!

यही रास्ता है उनको चुनौती देने का। तुम अपना ध्यान करना। तुम अपनी मस्ती में मस्त रहना! जल्दी ही…एक सीमा तक विरोध जाएगा, लेकिन हर चीज की सीमा है और उस सीमा के बाद विरोध ही तुम्हारे प्रति सन्मान में भी बदल सकता है। सब कुछ तुम पर निर्भर है कि क्या तुम धैर्य रख सकोगे। और संन्यासी को धैर्य तो सीखना ही होगा, क्योंकि संन्यासी को जीना होगा समाज में।

मेरा संन्यासी भगोड़ा नहीं है, नहीं तो आसानी थी। तुम भाग जाते हिमालय, उनको भी तकलीफ न होती, तुमको भी तकलीफ न होती। लेकिन तुम वहीं रहोगे, यही तकलीफ है। दुकान पर बैठोगे, बाजार में काम करोगे, तुम्हारी पत्नी होगी, बच्चे होंगे, तुम्हारा घर-द्वार होगा! यही तकलीफ है। वे तुमसे यही कह रहे हैं कि अगर संन्यास लेना है तो हिमालय चले जाओ, सब छोड़-छाड़ दो। फिर सब ठीक है; तुमने उनकी परंपरा का अनुसरण किया।

मैंने जानकर अपने संन्यासी को कहा है कि तुम छोड़ना मत, क्योंकि छोड़ना अब पिटी-पिटाई बात हो गई, अब उसका कोई मूल्य नहीं, वह दो कौड़ी की बात हो गई, जब पहले-पहल लोगों ने छोड़ा था तो उसमें मूल्य था, क्योंकि तब छोड़नेवाले पीटे गए थे।

तुम समझना मेरी बात को। एक दिन, जब पहली दफा छोड़ा था संन्यासियों ने घरों को, परिवारों को, तो वे पीटे गए थे। अब तो वह स्वीकृत हो गई बात। अब उसमें कोई सार नहीं है। इसलिए मैंने तुमने कहा: छोड़ना मत, बाजार में ही रहना, वहीं ध्यान करना, वहीं जीवन को जीना। अब फिर अड़चन मैंने पैदा कर दी परंपरा को। लक्ष्य वही है। छोड़नेवाला भी लीक को छोड़कर जा रहा था, लेकिन अब छोड़नेवाले की लीक बन गई। अब हम छोड़नेवाले की लीक को भी तोड़ रहे हैं। छोड़नेवाले को एक सुविधा थी। हट ही गया समाज से। फिर कभी-कभार आता दो-चार दस साल में तो समाज को उससे ज्यादा अड़चन नहीं होती थी। दिन-दो-चार दिन रुकेगा…तीन दिन से ज्यादा एक जगह रुकने का संन्यासी को आयोजन भी नहीं था…दिन-दो-दिन रुकेगा, चला जाएगा। उससे कुछ जीवन में व्यवधान नहीं पड़ता था।

अब मेरा संन्यासी वहीं पैर जमाकर खड़ा रहेगा। वह जीवन में व्यवधान डालेगा। वह जो उनका चलता हुआ ढर्रा है उसमें हर जगह अड़चन खड़ी हो जाएगी। इसलिए वे नाराज होंगे, यह स्वाभाविक है। चिंता न करो। इस नाराजगी को, उनके विरोध को साधना का अंग समझो। इसे चुनौती मानो। और इसमें अपनी शांति को थिर रखो। अब जब वे तुम्हें मारें-पीटें तो शांत बैठ जाना। और उनकी मारपीट सह लेना। ऐसे शांत बैठे रहना, जैसे परमात्मा फूल बरसा रहा है। उनको अनुभव करने देना तुम्हारी शांति का, तुम्हारे खिले हुए आनंद का और तुम्हारे अनुग्रह के भाव में जरा भी भेद न पड़े। तुम उन्हें धन्यवाद ही देना। जल्दी ही रूपांतरण होगा। उनमें से कुछ की आंखें खुलनी शुरू हो जाएंगी। उनमें से कुछ रात के अंधेरे में, एकांत में, तुमसे मिलने भी आने लगेंगे। वे ही जो तुम्हें मार रहे हैं, जिज्ञासु भी हो सकते हैं। आखिर मारने के द्वारा उन्होंने एक बात तो जाहिर कर दी कि तुम्हारी उपेक्षा नहीं की जा सकती। बस यही महत्वपूर्ण बात है। जो उपेक्षा नहीं कर सकता उसे या तो घृणा करनी होगी या प्रेम करना होगा। और घृणा से किसी को भी रस नहीं मिलता। इसलिए कोई कितनी देर तक घृणा कर सकता है। तुम अगर धीरज रखो तो घृणा अपने-आप प्रेम में रूपांतरित हो जाती है।

यह सारी मनुष्य-जाति के बगावतियों का अनुभव है कि घृणा प्रेम में रूपांतरित हो जाती है, तुम बस धीरज रखो। तुम्हारे अभी अपने जो थे पराये हो गए हैं, क्योंकि वे अपने थे ही नहीं, सिर्फ दिखावा था। अब पहली दफे तुम्हें अपने मिलेंगे। अब तुम धीरज रखो। अब पराये भी अपने हो जाएंगे। थोड़े ही लोग मिलेंगे, लेकिन उन थोड़े लोगों के साथ एक मैत्री होगी, एक रस बहेगा, एक मस्ती होगी, एक सत्संग जमेगा।

रुकना नहीं है, चाहे कुछ भी हो, रुकना नहीं है। यात्रा जारी रखनी है।

तरी खोल गाता चल माझी

अभी किनारा दूर है!

 

निर्मम निःश्वासों के पल का

चंचल पंख न फैलाओ,

परिचयहीन व्यथा-सांसों का

हीरक-कण मत बिखराओ,

विस्मृत सपनों के क्षण तो

रह रह आते-जाते रहते

विस्मय-क्रीड़ा के विनिमय-पल

नयनों में है मधु भरते!

सुरभि घोल सांसों में माझी

गा, तट अभी सुदूर है।

 

तरी खोल गाता चल माझी

अभी किनारा दूर है!

मगर गीत ही गाकर यात्रा पूरी करनी है। कोई तुम्हारे संन्यास में बाधा नहीं डाल सकता है। न तो मारने से संन्यास मारा जा सकता है, न काटने से काटा जा सकता है। और जो मारने से मर जाए और काटने से कट जाए, वह संन्यास ही नहीं; समझना वह दो कौड़ी की बात थी। उसका कोई मूल्य नहीं था। वे तुम्हें कसौटी दे रहे हैं, परीक्षा दे रहे हैं।

नयन के अश्रु रुक जाते,

अधर की आह रुक जाती!

न रोके से मगर आकुल,

हृदय का गान रुकता है!

विकट उत्तुंग शिखरों से,

जलद की राह रुक जाती!

न जीवन दान देने का,

मगर अरमान रुकता है!

 

युगों से तृषित चातक

प्यास अपनी रोकता आया!

जलद को देख पर उसका,

नहीं आह्वान रुकता है!

 

मिलन की चाह रुक जाती,

न अंतर्दाह रुक पाती!

किसी के रोकने से कब,

शलभ-बलिदान रुकता है!

 

लहरियां सिंधु की हिय–

ज्वाल को बरबस छिपा लेती।

न उनके रोकने पर,

विकल तूफान रुकता है!

 

नयन के अश्रु रुक जाते,

अधर की आह रुक जाती!

न रोके से मगर आकुल,

हृदय का गान रुकता है!

यह संन्यास तो हृदय का गीत है। यह रुकेगा नहीं!

नयन के अश्रु रुक जाते,

अधर की आह रुक जाती!

न रोके से मगर आकुल,

हृदय का गान रुकता है!

यह संन्यास तो परवाने का प्रेम है शमा से। यह रुक नहीं सकता।

मिलन की चाह रुक जाती,

न अंतर्दाह रुक पाती!

किसी के रोकने से कब,

शलभ-बलिदान रुकता है!

पतंगा कभी रुका है? लाख रोको, चल पड़ा ज्योति की तरफ, तो चल पड़ा। संन्यास तो ज्योतिर्मय की खोज है। तमसो मा ज्योतिर्गमय! यह तो परवानों की यात्रा है। अब इसके रुकने का कोई उपाय नहीं है। और इसलिए धन्यवाद करना उनका जो रोकते हैं, क्योंकि उनके रोकने से ही तुम्हारे भीतर कोई चीज संगठित होगी, मजबूत होगी।

याद करो उस किसान को, जिसकी मैंने अभी तुमसे कहानी कही। आएं आंधी, आएं तूफान, वर्षा हो ज्यादा कि धूप पड़े गहन, कि ओले बरसें, कि बिजलियां कड़कें–उन सबसे ही गेहूं का दाना पनपता है, जन्मता है। जिसके जीवन में बिजलियां न चमकीं, बादल न गरजे, उसके जीवन में कभी भी आत्मा का प्रारंभ नहीं होता। उसकी आत्मा सोई ही रह जाती है।

 

चौथा प्रश्न:

 

क्या यह अच्छा नहीं होगा कि पृथ्वी पर एक ही धर्म हो? इससे भाईचारे में बढ़ोतरी होगी और हिंसा, वैमनस्य और विवाद बंद होंगे।

 

ह कैसे हो? इतने ढंग के लोग हैं, इतने रंग के लोग हैं! यह कैसे हो सकता है कि एक धर्म हो? कोई ध्यान   करेगा–बुद्ध की भांति, और कोई नाचेगा कृष्ण की भांति।

धर्म तो भिन्न-भिन्न होंगे, क्योंकि लोग भिन्न-भिन्न हैं। इतने प्रकार के लोग हैं। परमात्मा ने इतना वैविध्य रचा है! तुम तो ऐसी बात कर रहे हो जैसे एक ही किस्म का फूल हो दुनिया में: बस गुलाब ही गुलाब हों, न जुही, न चमेली, न केतकी। दुनिया बड़ी उदास हो जायेगी–गुलाब ही गुलाब! और गुलाब बड़ा प्यारा है, लेकिन गुलाबा का प्यारापन तभी है जब केतकी भी है और केवड़ा भी है और जुही भी है और चमेली भी है और मधुमालती भी है और रजनीगंधा भी है। गुलाब के फूल का रस और आनंद तभी है जब इतने वैविध्य की पृष्ठभूमि है। जरा सोचो एक जगह जिसमें गुलाब ही गुलाब हैं, कौन देखेगा गुलाब को? गुलाब का सारा मजा ही चला जाएगा। घास-पात हो जाएगा। गऊएं चरेंगी, भैंसें चरेंगी। और क्या करोगे?

आखिर कोहिनूर हीरे का मूल्य क्या है? यही न कि वह विशिष्ट, अपने ढंग का अलग है। सारे जगत में कोहिनूर ही कोहिनूर हों, रास्तों के किनारे पड़े हों, कंकड़-पत्थरों की तरह, तो क्या मूल्य होगा? फिर क्या तुम सोचते हो, इंग्लैंड की महारानी कोहिनूर को अपने ताज में लगाएगी? कोई मूल्य ही न रह जाएगा, कंकड़-पत्थर हो गया। कोहिनूर की इतनी कीमत क्यों है, क्योंकि अकेला है, अद्वितीय है, विशिष्ट है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी शीघ्र ही विवाहित होनेवाली पत्नी को हीरे की अंगूठी भेंट की। स्त्री बड़ी खुश हुई। उसने अंगूठी पहनी और कहा कि मुल्ला, हीरा असली है न? मुल्ला ने कहा: अगर असली नहीं है तो मेरे तीन रुपये बेकार गए।

तीन रुपये में कहीं असली हीरे मिलते हैं? तीन रुपये में तो आजकल नकली हीरे भी नहीं मिलते। यह तो नकल की भी नकल होगा। मगर मुल्ला सोच रहा है कि तीन रुपये खर्च किये…तो कह रहा है कि तीन रुपये बेकार गए अगर असली न हो! असली हीरे इतने सस्ते नहीं मिलते। और जितनी विशिष्ट होती है कोई चीज उतनी मूल्यवान होती है।

फिर, वैविध्य में मूल्य होता है। इस जगत में अगर एक ही एक स्वर हो तो बड़ी ऊब पैदा हो जाए। मुल्ला नसरुद्दीन सीखता था सितार बजाना, मगर बस वह एक ही रें रें…रें रें…करता रहता। बस एक ही तार को घिसता ही रहता, घिसता ही रहता, घिसता ही रहता। उसके पड़ोस के लोग परेशान हो गए, पत्नी परेशान हो गई, बच्चे परेशान हो गए। एक दिन सारे मोहल्ले के लोग इकट्ठे हुए। उन्होंने कहा कि नसरुद्दीन, हमने बहुत बजानेवाले देखे हैं, मगर तुम अदभुत हो…बस यह रें रें रें रें एक ही स्वर! एक ही तार को घिसते-घिसते तुम थक नहीं जाते? हम सब थक गए हैं। और तार भी बजाओ, कुछ और स्वर भी उठाओ! हमने बहुत बजानेवाले देखे, वे तो काफी हाथ बदलते हैं।

मुल्ला ने कहा कि वे खोज रहे हैं अपना स्वर, मुझे मिल गया है! उनकी अभी तलाश चल रही है, मैंने पा लिया है, अब क्यों खोजूं?

जगत को तुम गौर से देखो, यहां सभी चीजें विविध हैं। यहां हर चीज अनूठी है। यहां अनंत धर्म होने ही चाहिए, क्योंकि यहां अनंत ढंग के लोग हैं। लेकिन अनंत धर्म होने का अर्थ यह नहीं है कि वे लड़ें ही। आखिर जुही को प्रेम करनेवाला गुलाब को प्रेम करनेवाले का सिर तो नहीं काट देता। और गुलाब को प्रेम करनेवाला यह तो नहीं कहता कि जब तक तुम गुलाब को प्रेम न करोगे तब तक तुम्हारा स्वर्ग नहीं हो सकता। गुलाब को प्रेम करनेवाला अगर यह कह देता है कि मुझे जुही नापसंद है, तो जुही को माननेवाले लट्ठ लेकर खड़ा नहीं हो जाता कि हमारी धार्मिक भावना को चोट पहुंच गई, धार्मिक जजबात को चोट पहुंच गई। यह मर्जी-मर्जी की बात है। किसी को गुलाब रुचा है, किसी को कमल रुचा है, किसी को कुछ और रुचा है। इसमें किसी की क्या भावना को चोट पहुंचनी चाहिए? तो तुम्हारी भावना ही गलत है, जिसको चोट पहुंच जाती है।

भावना निजी बात है। तुम्हारी भावना का तुम्हारे भीतर सम्मान है, ठीक है। किसी को किसी और चीज का रस है, वह भी ठीक है।

लोग आनंदित हों, लोग प्रभु-समर्पित हों–किस बहाने होते हैं, किस निमित्त होते हैं, इससे क्या भेद पड़ता है? कोई गीता को पढ़कर मस्त हो गया, बस मस्ती की बात है। कोई कुरान को गुनगुनाते-गुनगुनाते रस में डूब गया, बस रस में डूब जाना बात है।

लेकिन तुम कहते हो: क्या यह अच्छा नहीं होगा कि पृथ्वी पर एक ही धर्म हो? नहीं, यह अच्छा बिलकुल नहीं होगा। जगत बहुत दरिद्र हो जाएगा। जरा सोचो, बस कुरान ही कुरान जगत में, न कोई गीता, न कोई धम्मपद, न ताओत्तेह-किंग, न वेद, न उपनिषद। जरा सोचो, बस बाइबिल ही बाइबिल…हरेक आदमी बाइबिल लिए चला जा रहा है। बड़ी उदास हो जाएगी दुनिया, बड़ी बेरौनक हो जाएगी। धर्म तब एक जीवंत घटना न रह जाएगी–मुर्दा हो जाएगा धर्म। मंदिर भी चाहिए गांव में, मस्जिद भी चाहिए, गुरुद्वारा भी चाहिए, गिरजा भी चाहिए। इन सबसे जिंदगी में रस आता है। इनसे जीवन में अनेक रंग आते हैं। ये सब सुंदर हैं। और तुम्हारे मन में यह खयाल है कि इससे भाईचारे में बढ़ौतरी होगी, अगर एक धर्म होगा और हिंसा-वैमनस्य और वाद-विवाद बंद होंगे–तो तुम गलती में हो।

आदमी जब तक लड़ना चाहता है, नए-नए बहाने खोज लेगा। लड़नेवाले को बहाने चाहिए। लड़ाई असली चीज है।

तुम्हें पता है, भारत उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले एक था! हिंदू-मुसलमान लड़ते थे। बड़ा दंगा-फसाद था। सोचा कि चलो दोनों अलग हो जाएं, पाकिस्तान हिंदुस्तान बन जाए, दंगा-फसाद कम हो जाएगा। तब तक कभी हिंदू हिंदू से न लड़े थे और मुसलमान मुसलमान से न लड़े थे, क्योंकि हिंदू मुसलमान से लड़े रहे थे तो लड़ाई का मजा तो आ ही रहा था। हिंदू-हिंदू से क्यों लड़ें? जैसे ही हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बटवारा हो गया, बड़े आश्चर्य की घटनाएं घटनी शुरू हो गईं। गुजराती-मराठी में विरोध हो गया। उत्तर-भारतीय दक्षिण-भारतीय में विरोध हो गया। हिंदीभाषा गैर-हिंदीभाषी में छुरेबाजी होने लगी। नए बहाने हैं। कोई भी बहाना काफी है। बंबई गुजरात में रहे कि महाराष्ट्र में…करो छुरेबाजी। बंबई वहीं की वहीं है, मगर आदमी छुरेबाजी करने लगे। एक जिला कर्नाटक में रहे कि महाराष्ट्र में…करो छुरे बाजी।

पाकिस्तान में भी वही हुआ। बंगाली मुसलमान पंजाबी मुसलमान से लड़ने लगा। पाकिस्तान दो हिस्सों में टूट गया। अभी भी पंजाब में पंजाबी मुसलमान और सिंधी मुसलमान में झगड़ा है। यह कभी किसी ने सोचा ही नहीं था कि पंजाबी मुसलमान और सिंधी मुसलमान में झगड़ा होगा, पंजाबी मुसलमान और बंगाली मुसलमान में झगड़ा होगा! दोनों कुरान को मानते, दोनों एक ही मस्जिद में जाते, दोनों का एक पैगंबर है–मगर एक बंगाली बोलता है और एक पंजाबी बोलता है और झगड़ा हो गया। और देखा बंगला देश में कितना भयंकर रक्तपात हुआ! मुसलमानों ने मुसलमानों को भून डाला। तुम सोचते थे कि मुसलमान हिंदू का ही झगड़ा होता है, तो तुम गलती में हो। और जैसा पाकिस्तान में हुआ कि बंगला देश अलग हुआ तो मुसलमानों ने मुसलमानों को भून डाला, कभी तुम्हारे देश में होगा तो तुम भी देख लेना, हिंदू हिंदू को भून डालेंगे। जरा दक्षिण उत्तर भारत से अलग होने की कोशिश तो करे, फिर तुम देखना किस तरह हिंदू हिंदुओं को भून डालते हैं! फिर तुम इसकी बिलकुल फिक्र न करोगे कि ये उसी मंदिर में जाते हैं, उसी गीता को मानते हैं। फिर कौन फिक्र करता है!

झगड़े के लिए तो आदमी बहाने खोज लेगा। राजनैतिक विचारधाराओं के झगड़े शुरू हो जाएंगे। आखिर फासिस्ट और कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट, ये भी लड़ते हैं और काटते हैं। इससे कुछ हल न होगा। समझ आनी चाहिए। धर्म एक हो जाएं तो दूसरे बहानों से झगड़ा होगा। आदमी किसी भी बात से लड़ सकता है। तुम चकित होओगे जानकर कि ऐसी छोटी बातों पर आदमी लड़ते हैं…समझ लो कि एक गांव में दो फुटबाल की टीम हैं, उसमें भी झगड़ा हो जाता है। एक फुटबाल की टीम को माननेवाले दूसरी फुटबाल की टीम को माननेवालों को छुरे भोंक देते हैं। और भेद क्या है उनमें…कि एक हरी ड्रेसवाली टीम को मानता है, एक नीली ड्रेसवाली टीम को मानता है। और जब दोनों की प्रतियोगिता होती है टीमों की, तो दोनों के भक्त इकट्ठे हो जाते हैं: फिर मारपीट होनी है, झगड़ा होना है।

कैसी क्षुद्र बातों पर झगड़े होते हैं! जरा गौर से देखो तो तुम एक बात समझ जाओगे कि आदमी झगड़ना चाहता है, वह असली बात है। बहाने कोई भी हो सकते हैं। कोई धर्म से झगड़ा नहीं हो रहा है; आदमी के भीतर झगड़े की वृत्ति है, धर्म निमित्त बन जाता है।

तो धर्म एक हो जाए, इससे झगड़ा नहीं मिट जाएगा। फिर झगड़े मिटाने के लिए धर्म एक करना हो तो पहले तो बहुत झगड़ा करना पड़ेगा, तब एक हो पाएगा, यह भी सोच लो। पहले तो बड़ी मारधाड़ होगी। वही तो हो रही है। मुसलमान भी तो कोशिश यही कर रहे हैं कि एक ही धर्म हो जाए और यही ईसाई कोशिश कर रहे हैं कि एक ही धर्म हो जाए और यही कोशिश बौद्धों की है कि एक ही धर्म…। सभी यही तो कोशिश कर रहे हैं, जो तुमने पूछा। कोशिश अलग नहीं है, उनकी कोशिश एक ही है; हालांकि सबके मन्तव्य अलग हैं। मुसलमान चाहता है कि सारी दुनिया में एक धर्म रह जाए–इस्लाम, बस; एक ईश्वर, एक पैगंबर, एक ही उसका धर्म, दुनिया में सब शांति हो जाएगी। मगर तुम गलती में हो। शिया सुन्नी से लड़ते हैं, छुरेबाजी होती है। हत्याएं होती हैं, आगजनी होती है।

और पहली तो बात है यह कि एक धर्म हो कैसे जाए, कोई पांच हजार साल से यही तो कोशिश चल रही है कि एक धर्म हो जाए। उस एक धर्म की कोशिश में कितनी हत्या हुई है! कौन करेगा एक? और एक करने पर अगर तुम्हें एक भी आदमी ऐसा मिल गया जिसने कहा कि मैं सम्मिलित नहीं होता इसमें, फिर तुम उसका क्या करोगे? इतनी बड़ी दुनिया, चार अरब आदमी हैं, एक आदमी ने कह दिया कि मैं सम्मिलित नहीं होता इसमें, फिर उसका क्या करोगे?…मारो उसको! काटो उसको!

फिर, सारे लोग धार्मिक हैं भी नहीं। अब जैसे रूस है, चीन है; ये तो अब नास्तिक देश हैं। ये तो कहते हैं कि धर्म होना ही नहीं चाहिए, तभी एकता हो पाएगी। एक धर्म नहीं, धर्म होना ही नहीं चाहिए। उनका भी एक खयाल है। वे कहते हैं: धर्म की वजह से झंझट होती है, झंझट ही छोड़ दो। सब धर्मों को विदा कर दो। मगर मजा यह है कि चीन में माओ की किताब की वैसी ही पूजा होती है जैसे कि मुसलमान कुरान की करते हैं और हिंदू गीता की करते हैं। तुम जानकर हैरान होओगे कि माओ की लाल किताब बाइबिल के बाद दुनिया में सर्वाधिक छपी किताब है! और रूस में माक्र्स की किताब का उसी तरह सम्मान है, दास कैपिटल का, जैसे हिंदुस्तान में गीता का और अरब में कुरान का। वही सम्मान!

और खयाल रखना, न तो सम्मान के लिए कोई कुरान को पढ़ता है, न सम्मान के लिए कोई वेद को पढ़ता है और न कोई दास कैपिटल को पढ़ता है। मैं बहुत कम्युनिस्टों को जानता हूं, जिन्होंने दास कैपिटल कभी पढ़ी ही नहीं; मगर वैसे ही जैसे कोई हिंदू वेद को पढ़ता है? चतुर्वेदी भी कहां चार वेद को जानते हैं? बस चतुर्वेदी नाम के हैं। दास कैपिटल, नाम भर याद है उन्हें। दास कैपिटल में क्या लिखा है, इसका उन्हें कुछ भी पता नहीं है। न हिंदुओं को पता है कि वेद में क्या लिखा है। चौंक जाओगे तुम अगर तुम्हें बताया जाए कि वेद में क्या लिखा है, जैसे कम्युनिस्ट चौंक जाएगा कि दास कैपिटल में क्या लिखा है। ये किताबें अब पूजा की हो गई हैं। अब इन पर झगड़े शुरू होंगे। क्रेमलिन उसी तरह पूजा का स्थान बन गया है जैसे काबा और जैसे काशी और जैसे गिरनार और जैसे जेरूसलम। कोई फर्क नहीं है।

फिर कौन करेगा एक? कैसे करेगा कोई एक? किसको यह हक है एक कर देने का? नहीं, इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। भाईचारा अनेकता में होना चाहिए, तभी भाईचारा है! विविधता में होना चाहिए, तभी भाईचारा है। सारे धर्म जिएं और सारे धर्म मजे से जिएं और सारे धर्म एक-दूसरे को जीने में सहायता दें, तभी भाईचारा है। भाईचारा बड़ी और बात है। भाईचारा मन से लड़ाई की वृत्ति का विदा हो जाना है। बाहर की कोई रूपरेखा बदलने से भाईचारा नहीं पैदा होगा–अंतरात्मा बदलनी चाहिए।

और फिर मेरी नजर में तो, जितना वैविध्य हो उतना अच्छा। मैं तो चाहता हूं: और धर्म हों। मैं तो असल में ऐसा चाहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना धर्म हो। चार अरब आदमी हैं तो चार अरब धर्म होने ही चाहिए। इससे कम से काम नहीं चलेगा। और तब दुनिया में बड़ी सुगंध होगी।

वुसअते-बज्म? जहां में हम न मानेंगे कभी।

एक ही साकी रहे, और एक पैमाना रहे।।

इतने बड़े विस्तृत जगत में यह बात बेहूदी है कि एक ही साकी रहे, एक ही पैमाना रहे। नहीं, यह हम न मानेंगे।

वुसअते-बज्म? जहां में हम न मानेंगे कभी।

एक ही साकी रहे, और एक पैमाना रहे।।

इतने विस्तार, इतने बड़े आकाश में, इतने अनंत अस्तित्व में एक ही साकी और एक ही मयखाना और एक ही पैमाना…तो जिंदगी बड़ी ओछी हो जाएगी।

सब की अपनी-अपनी राहें

सब राहों से मिलकर बनता

राजमार्ग वह

जिस पर युग के चरण बढ़ रहे!

बढ़ते चरणों को मत रोको

जीवन का सागर असीम है।

जीवन-सत्य नहीं सीमित है

एक व्यक्ति में।

 

बढ़ते चरणों को मत रोको

जीवन का सागर अगाध है,

जीवन-सत्य नहीं सीमित है

एक दृष्टि में!

 

रंग-बिरंगे फूल यहां खिलने दो,

रंग-बिरंगे फूलों से

सजती वह थाली,

जो करती जीवन का अर्चन

जो महान है!

जीवन-सत्य नहीं सीमित है

एक रंग में!

 

सब को अपना सृजन-गीत

मुक्त गाने दो!

सब गीतों से मिलकर बनता

महाराग जो

वंदन करता है जीवन का

जो विशाल है!

जीवन-सत्य नहीं सीमित है

एक गीत में!

जीवन-सत्य को कभी भी सीमित मत करो–न एक गीत में, न एक गीता में! न एक रंग में, न एक ढंग में, न एक शैली में। यह मनुष्य की हिंसात्मक वृत्ति है, जो चाहती है कि दूसरे भी मेरे ढंग से चलें; जो चाहती है, जैसे मैं जगत को देखूं वैसे ही दूसरे भी देखें। यह कोई अच्छे आदमी का लक्षण नहीं है। यह कोई सदपुरुष का लक्षण नहीं है कि मैं जैसा मैं देखता हूं वैसा ही सब देखें; और अगर न देखें तो आंखें फोड़ दो उनकी।

एक मुसलमान खलीफा ने अलग्जेंड्रिया पर हमला किया। अलग्जेंड्रिया में उस समय दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय था। उस पुस्तकालय में इतनी किताबें थीं कि कहते हैं कि उस पुस्तकालय के नष्ट होने से जितनी जगत की हानि हुई है और किसी चीज से नहीं हुई है। उस पुस्तकालय में इतने हस्तलिखित ग्रंथ थे कि आग लगा दी खलीफा ने तो छह महीने तक आग जली, तब बुझी। उस पुस्तकालय में उन सभ्यताओं का सारा उल्लेख था जो खो गई हैं। अतलांतिस नाम के महाद्वीप का उल्लेख था, जो सागर में डूब गया। उस पुस्तकालय में अतीत के सारे रहस्यों का संग्रह था, जो सदियों-सदियों में खोजे गये हैं और फिर आदमी भूल जाता है। वह मनुष्य की बड़ी अपार संपदा थी, लेकिन जिस खलीफा ने उसको आग लगाई, वह तुम्हारे जैसा रहा होगा। उसने एक हाथ में मशाल ली और एक हाथ में कुरान लिया और पुस्तकालयाध्यक्ष के पास जाकर कहा कि मैं तुमसे यह पूछता हूं कि तुम्हारे इस पुस्तकालय में जो है, क्या वह वही है जो कुरान में है? अगर तुम्हारा उत्तर हो कि हां वही है जो कुरान में है, तो फिर इस पुस्तकालय की कोई जरूरत नहीं, कुरान काफी है। और मैं इसे आग लगा दूंगा। और अगर तुम कहो कि इस पुस्तकालय में वह भी है जो कुरान में नहीं है, तब तो इस पुस्तकालय की बिलकुल ही जरूरत नहीं है, क्योंकि जो कुरान में नहीं है वह तो निश्चित ही गलत होगा; अगर वह सही होता तो कुरान में होता ही। तब भी मैं इस पुस्तकालय को आग लगा दूंगा। बोलो तुम क्या कहते हो?

जरा सोचो, वह अध्यक्ष क्या कहे? दो ही उत्तर संभव थे–एक कि जो कुरान में है वही पुस्तकालय में है। खलीफा कहता है: तो आग लगा दूंगा। या दूसरा कि जो कुरान में है उससे बहुत कुछ भिन्न इस पुस्तकालय में है। तब भी खलीफा कहता है कि तब तो और भी जल्दी आग लगा दूंगा। कोई उत्तर नहीं था। अध्यक्ष की आंख से आंसू गिरते रहे। और क्या उत्तर दे सकता था? इस तरह के मूढ़ व्यक्तियों को क्या उत्तर दिए जा सकते हैं? आग लगा दी गई। छह महीने में आग बुझी और मनुष्य-जाति की अपार संपदा नष्ट हो गई।

नहीं, यह धार्मिक व्यक्ति का लक्षण नहीं है। धार्मिक व्यक्ति तो आह्लादित होगा कि कोई कुरान में मस्त होता है कोई गीता में कोई बाइबिल में। मस्ती दुनिया में बनी रहे! किस बोतल से तुम पीते हो…पीनेवाले बने रहें। किस प्याली में तुम पीते हो, इससे क्या लेना-देना है, पीनेवाले बने रहें। यह मधुशाला चलती रहे। यहां से लोग परमात्मा के निकट पहुंचते रहें। कोई पूरब से कोई पश्चिम से, कोई पैदल चलकर, कोई बैलगाड़ी पर, कोई आकाश से उड़कर–कैसे तुम आते हो तुम जानो, तुम्हारी मौज, अपना वाहन तुम तय करो; मगर लोग परमात्मा तक आते रहें, बस इतना ही जरूरी है। न तो एक दृष्टि में सब समाता है, न एक गीत में सब समाता है, न एक रंग में। अस्तित्व विराट है। इस विराट को छोटा न करो।

अलग-अलग हों दीप

मगर है सबका एक उजाला

सबके सब मिल काट रहे हैं

अंधकार का जाला

किसी एक के भी अंतर का

स्नेह न चुकने पाये

तम के आगे ज्योतिपुंज का

शीश न झुकने पाये।

बस इतना ही खयाल रहे। इतना सदभाव पैदा हो। एक धर्म से कुछ भी न होगा–सदभाव पैदा हो। आज धर्म का झगड़ा है, कल संगीत का झगड़ा ले लोगे कि हम तो शास्त्रीय संगीत में मानते हैं, आधुनिक संगीत में नहीं। फिर कहोगे: एक ही संगीत हो। फिर कल भाषा का झगड़ा होगा और कहोगे: एक ही भाषा हो। और कल झगड़ा होगा कि लोगों की लंबाइयां किसी की कम किसी की ज्यादा हैं, एक ही लंबाई हो। और फिर झगड़ा होगा कि किसी की नाक लंबी, किसी की चपटी, किसी के बाल ऐसे, किसी के वैसे, किसी के सफेद बाल किसी के काले बाल और किसी के और रंग के, इन सबको एक करना होगा। तुम करोगे क्या? ऐसे तो तुम आदमी को मिटा डालोगे।

नहीं, स्वीकार करो मनुष्य को उसकी अद्वितीयता में। और प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करो–रंग उसका काला हो कि गोरा, मस्जिद जाता हो कि मंदिर, जरा भी भेद न करो। और इससे कभी बाधा न डालो कि तुम्हारा अपना पक्षपात क्या है। तुम्हारा पक्षपात तुम्हारी निजी बात है। तुम्हारा लगाव क्या है ? तुम्हारा लगाव तुम्हारी बात है। इसे दूसरे पर थोपो मत और न कभी इतने झुको कि दूसरा तुम पर अपना लगाव थोप दे। एक-एक व्यक्ति की निजता का सम्मान बढ़ना चाहिए तो भाईचारा हागा। तो धर्म भी बने रहेंगे, भाषाएं भी बनी रहेंगी, गीत भी अलग-अलग होते रहेंगे–और फिर भी एक महागान पैदा होगा! अलग-अलग पगडंडियां, और सब मिलकर एक राजपथ निर्मित हो सकता है।

 

आखिरी प्रश्न:

 

ओशो, क्या कभी मेरी पूजा-प्रार्थना भी स्वीकार होगी? मैं अति दीन और दुर्बल हूं, कामी, लोभी, अहंकारी…सब पाप मुझ में हैं।

 

स बात का स्वीकार कि सब पाप मुझ में हैं, धर्म की शुरुआत है। यह पहला कदम है। यह पहली सीढ़ी है। यह शुभ है स्वीकार कर लेना कि मैं पापी हूं। इस स्वीकार से ही परमात्मा से संबंध जुड़ जाता है।

तुम्हारे पाप कितने होंगे? उसकी करुणा बहुत बड़ी है! तुम्हारे पाप भी छोटे-छोटे हैं। उसकी करुणा के सागर के सामने तुम्हारे पापों का क्या मूल्य है? बह जाएंगे तिनकों की तरह। लेकिन स्वीकार हो तो बह जाएंगे, छिपाया तो बच जाएंगे। जिसने अपने पापों को छिपाया उसके पाप बचेंगे और बढ़ेंगे।

यह तो ऐसा ही है कि जैसे तुम चिकित्सक के पास जाओ और अपने घावों को छिपाओ, तो छिपाए घाव और बढ़ जाएंगे, नासूर बन जाएंगे उनमें मवाद पड़ जाएगी, सड़ जाएंगे। चिकित्सक को तो सब उघाड़ कर बता देना होता है।

ऐसे ही परमात्मा परम चिकित्सक है। तुम उसके सामने उघाड़ दो–तुम्हारा काम, तुम्हारा लोभ, तुम्हारा अहंकार। उसे सब पता ही है। छिपाने का कोई प्रयोजन भी नहीं है। तुम कह दो कि मैं ऐसा हूं और जैसा भी हूं मुझे अंगीकार करो। बुरा-भला जैसा हूं, तुम्हारी चरण-रज मुझे भी ले लेने दो।

और, तुम पूछते हो कि क्या कभी मेरी पूजा-अर्चना भी स्वीकार होगी?

स्वीकार से तुम्हारा क्या अर्थ है? क्या तुम चाहते हो तुम्हारी पूजा-अर्चना का कुछ प्रतिफल मिले? कोई पुरस्कार मिले? कोई प्रमाण मिले? तो तुम गलती में हो। तो तुमने पूजा-प्रार्थना अभी जानी नहीं। पूजा-प्रार्थना का फल पूजा-प्रार्थना में ही है। प्रार्थना में ही पूजा का फल है। प्रार्थना में ही पुरस्कार है। बाहर नहीं। फलाकांक्षा छोड़ो।

तुम अगर कुछ मांग रहे हो तो बड़ी भूल से भरे हो। मांगना नहीं परमात्मा से। दे तो धन्यवाद देना और मांगना मत। और तब बहुत बरसेगा। और मांगा तो संबंध टूट गया, क्योंकि जब भी कोई परमात्मा से कुछ मांगता है तो वह यह कह ही रहा है कि मुझे तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है, मुझे मेरी मांग से प्रयोजन है, मैं तुम्हारा उपयोग करना चाहता हूं, तुम्हारा शोषण करना चाहता हूं। चूंकि तुम्हारे बिना नहीं मिलेगा, इसलिए तुमसे मांग रहा हूं। तुम्हारे बिना मिल सकता तो सीधा ही ले लेता।

परमात्मा का अपमान है, जब भी तुम कुछ मांगते हो। और खयाल रखो, धर्म की अत्यंत महत्वपूर्ण बुनियादी बात यह है कि धर्म किसी फल की दौड़ नहीं है, फल के पीछे दौड़ नहीं है। धर्म किसी मंजिल की तलाश नहीं है। धर्म है यात्रा को मंजिल बना लेना; प्रार्थना को ही पुरस्कार बना लेना।

ऐ चश्मे-इंतज़ार! यह आलम है, दीदनी

सदियों का फासिला मेरी शामो-सहर में है

लाखों तसल्लियां हैं, मगर सूरते-सुकूं

मेरी नज़र में है, न दिले-चारागर में है

ऐ दोस्त! मेरी सुस्तरवी का गिला न कर,

मेरे लिए तो खुद मेरी मंजिल सफर में है

जिस दिन तुम्हारी मंजिल सफर में हो जाती है; जिस दिन यात्रा ही तुम्हारा गंतव्य हो जाती है; जिस दिन तुमने पूजा की वही तुम्हारा आनंद था–और उसके पार तुम्हारी कोई मांग नहीं और तुम धन्यवाद देते हो परमात्मा को कि तूने आज पूजा का अवसर दिया उसके लिए अनुगृहीत हूं, क्योंकि न मालूम कितने अभागे लोग हैं जिन्होंने आज पूजा नहीं की होगी; जिन्हें होश ही नहीं पूजा का; या जिन्हें होश भी है तो अभी कल पर टालते जाते हैं। अनेक हैं जिन्हें समय नहीं या समय भी है तो व्यर्थ के कामों में उलझाये रखते हैं। अनेक हैं जिन्होंने सोचा कि यह जिंदगी ऊपर-ऊपर की बस सब कुछ है, जिन्हें भीतर की कोई तलाश नहीं, कोई प्यास नहीं। मैं धन्यभागी हूं कि तूने मुझे आज पूजा का अवसर दिया; मैं धन्यभागी हूं कि तूने मुझे अवसर दिया कि मेरी आंखें मैं आकाश के तारों की तरफ उठा सकूं।

मांगो मत, मांगने से सब अड़चन हो जाती है। मांगनेवाला धार्मिक है ही नहीं। मांगनेवाले में और संसारी में कोई भेद नहीं है। संसारी भी मांग रहा है और फिर संन्यासी भी मांगे तो फिर भेद न रह जाएगा। संन्यासी तो जो मिला है उसका धन्यवाद देता है और संसारी वह है जो मिला है उसकी तो बात ही नहीं करता; जो मिलना चाहिए उसकी आकांक्षा करता है। संसारी आकांक्षा में जीता है; संन्यासी आभार में।

एक कोताह-नज़र, एक जरा दूर-अन्देश।

फर्क कुछ ज़ाहिदो-मैनोश की नीयत में नहीं।।

वह जो शराबखाने में शराब पी रहा है उसमें और वह जो जाकर मंदिर-मस्जिद में प्रार्थना कर रहा है कि हे प्रभु बहिश्त में जहां शराब के चश्मे बहते हैं, मुझे बुला, जल्दी बुला–इन दोनों में क्या फर्क है? एक यहां शराब मांग रहा है, एक वहां शराब मांग रहा है। एक कोताह-नजर…एक की दृष्टि जरा ओछी है, एक जरा दूर-अंदेश…दूसरा जरा दूर तक देख रहा है, परलोक तक देख रहा है। भेद क्या है? एक का लोभ जरा छोटा है, एक का लोभ जरा बड़ा है। एक कहता है यहीं कुल्हड़-भर मिल जाए, चलेगा; दूसरा कहता है, इतने से हमारा दिल राजी नहीं होगा, हमें तो झरने के झरने चाहिए।

एक कोताह-नज़र, एक जरा दूर-अन्देश।

फर्क कुछ ज़ाहिदो-मैनोश की नीयत में नहीं।।

वह तुम्हारे तथाकथित तपस्वी और तुम्हारे तथाकथित भोगी की दृष्टि में कोई फर्क नहीं है। जिसने मांगा वह भोगी–और जिसने धन्यवाद दिया, वह त्यागी! जो मिला है, इतना है, उसके लिए धन्यवाद दो। कितना मिला है! यह स्वर्णिम अस्तित्व! यह मधुमय अस्तित्व! एक-एक सांस इतनी बहुमूल्य है! यह जीवन, यह वर्षा, ये हरे वृक्ष, यह बूंदाबांदी का संगीत! ये वृक्षों से बहती हुई हवाओं का नृत्य! यह क्षण! एक-एक क्षण इतना मूल्यवान है, इसके लिए धन्यवाद कब दोगे?

प्रार्थना धन्यवाद होनी चाहिए। प्रार्थना तभी होती है, जब मात्र धन्यवाद की सुवास उसमें होती है।

जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर!

शलभ के अनुराग ने ही,

दीप को जलना सिखाया।

वर्त्तिका का त्याग ही तो,

तिमिर में आलोक लाया।

ज्योति उज्जवल जागरित है,

नेह का उपहार पाकर।

जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर।

एक प्रिय सुधि को संभाले,

एक आशा के सहारे।

फिर रही सरिता दसों-दिशि,

निज तृषित आंचल पसारे।

खो कहीं अस्तित्व देंगे,

प्राण पारावार पाकर।

जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर।

अश्रु ही प्यारे उन्हें,

जिनको न विधि मुसकान देता।

शाप ही लेते संजो,

जिनको न विधि वरदान देता।

मन नहीं फूला समाता,

स्नेह की मनुहार पाकर।

जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर।

हो भले ही या न हो,

पूजन कभी स्वीकार मेरा।

छीन सकता कौन है पर,

अर्चना-अधिकार मेरा।

साध कुछ बाकी नहीं है,

यह अमर अधिकार पाकर।

जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर।

प्रार्थना की तुम्हें सूझ आयी, अब और क्या चाहिए? मिल गए सब पुरस्कार! बरस गया स्वर्ग!

हो भले ही या न हो,

पूजन कभी स्वीकार मेरा।

कौन चिंता करता है अब पूजन को स्वीकार करने की!

हो भले ही या न हो,

पूजन कभी स्वीकार मेरा।

छीन सकता कौन है पर,

अर्चना-अधिकार मेरा।

वही बात बड़ी है–अर्चना का अधिकार; अर्चना का अवसर; अर्चना का बोध।

छीन सकता कौन है पर,

अर्चना अधिकार मेरा।

साध कुछ बाकी नहीं है,

यह अमर अधिकार पाकर।

जो समझते हैं वे प्रार्थना से कुछ मांगते नहीं; उनकी प्रार्थना में मांग नहीं होती। वे प्रार्थना में प्रार्थी नहीं बनते। वे प्रार्थना में सिर्फ आनंदमग्न होते हैं, उत्सव मनाते हैं जीवन का। जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर!

उसने पुरस्कार दे ही दिए हैं; तुम उसके बिना एक क्षण नहीं हो सकते। वह बरसा ही रहा है तुम पर जीवन। वह तुम्हारी जीवन-वर्तिका को जला रहा है। वही तो जल रहा है तुम में। वही तो चल रहा है तुम में। वही तो बोल रहा है तुम में। वही तो सुन रहा है तुममें। उसके अतिरिक्त कोई यहां है नहीं। और तब फिर आंसू भी प्यारे हो जाते हैं।

अश्रु ही प्यारे उन्हें,

जिनको न विधि मुसकान देता।

फिर कौन फिकिर करता है मुसकान की! आंसू भी मुस्कुराने लगते हैं, जब धन्यवाद की यह समझ आ जाती है।

शाप ही लेते संजो,

जिनको न विधि वरदान देता।

वे अभिशाप को भी सजा लेते हैं, छाती से लगा लेते हैं। वे अभिशाप को भी सिर-माथे रख लेते हैं।

शाप ही लेते संजो,

जिनको न विधि वरदान देता।

मन नहीं फूला समाता,

स्नेह की मनुहार पाकर।

जल रहा दीपक किसी के, प्यार का आधार पाकर।

उसी के प्यार का आधार तो तुम्हारे दीपक को जला रहा है। अब और न मांगो। अब यह मत कहो कि क्या कभी मेरी पूजा-प्रार्थना भी स्वीकार होगी! स्वीकार हो ही गई। स्वीकार पहले हो गई, तब तो तुम पूजा कर सके, तब तो तुम प्रार्थना कर सके। उसने तुम्हें पहले ही पुकार लिया, तभी तो तुम पुकार सके। उसने तुम्हें पहले ही चुन लिया, तब तो तुम झुक सके; अन्यथा तुम्हारी सामर्थ्य कहां थी?

और मत समझो अपने को दीन और दुर्बल। इतना बड़ा अधिकार तुम्हारा है। प्रार्थना का, और क्या चाहिए? और कैसा बल चाहिए? इसी अधिकार में तो सारा मोक्ष छिपा है। यही अधिकार का बीज तो एक दिन मोक्ष बन जाएगा। मत चिंता करो दुर्बलता की और मत चिंता करो काम की, लोभ की, अहंकार की। तुम प्रार्थना में डूबो–अहंकार भी जाएगा, काम भी जाएगा, लोभ भी जाएगा। उल्टी बातें मत करो। तुम यह मत कहो कि पहले लोभ जाए, काम जाए, अहंकार जाए, तो मैं प्रार्थना करूंगा। तब तो प्रार्थना कभी न हो सकेगी।

मैं तुम्हें कुछ और ही कहता हूं। मैं उल्टी ही बात कहता हूं। मैं कहता हूं: प्रार्थना करो, अहंकार भी जाएगा, लोभ भी जाएगा, मोह भी जाएगा; ये शर्तें नहीं हैं, जो प्रार्थना करने के लिए पहले पूरी करनी हों। यह तो वैसा ही पागलपन हो जाएगा कि कोई कहे कि पहले अंधेरा हटाओ, फिर दीया जलेगा।

नहीं-नहीं पहले दीया जलाओ, अंधेरा तो दीए के जलते ही मिट जाता है।

 

आज इतना ही।

 

 



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सहज योग–(प्रवचन–11)

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खोलो गृह के द्वार—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 1 दिसंबर ,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र :

वढ़ अणं लोअअ गोअर तत्त पंडित लोअ अगम्म।

जो गुरुपाअ पसण तंहि कि चित्त अगम्म।।1।।

 सहजें चित्त विसोहहु चंग।

इह जम्महि सिद्धि मोक्ख भंग।।2।।

 सचल णिचल जो सअलाचर।

सुण णिरंजण म करू विआर।।3।।

 

हंउ जग हंउ बुद्ध हंउ णिरंजण।

हंउ अमणसिआर भवभंजण।।4।।

 

तित्थ तपोवण म करहु सेवा।

देह सुचिहि ण स्सन्ति पावा।।5।।

 

देव म पूजहू तित्थ ण जावा।

देव पूजाहि ण मोक्ख पावा।।6।।

 

 

सिद्ध सरहपा की परंपरा में चौरासी सिद्ध हुए। चौरासी प्रतीक है चौरासी कोटि योनियों का। चौरासी के प्रतीक का अर्थ है कि प्रत्येक योनि अधिकारी है मोक्ष की। पत्थर भी एक दिन मुक्त होगा, देर-अबेर। भेद है तो समय का। लंबी यात्रा करनी होगी पत्थर को। पत्थर में और मनुष्य में अस्तित्वगत भेद नहीं है, सिर्फ चैतन्य का भेद है। पत्थर सोया है गहरी निद्रा में, मनुष्य थोड़ा-सा जागा है, बुद्ध पूरे जाग गये हैं।

बुद्ध की प्रतिमायें पत्थर की बनाई गईं। इस पृथ्वी पर सबसे पहले बुद्ध की ही प्रतिमायें बनाई गईं। और क्यों पत्थर की बनाई गईं? उसके पीछे छिपा हुआ राज है। इसलिए पत्थर की बनाई गईं कि पत्थर इस जगत में सबसे सोई हुई चीज है और बुद्ध इस जगत में सबसे जाग्रत चैतन्य हैं। दोनों के बीच सेतु बनाया, दोनों के बीच संबंध जोड़ा। पत्थर से लेकर बुद्ध तक एक का ही विस्तार है। पत्थर में भी वही छिपा है जो बुद्ध में प्रगट होता है। पत्थर की प्रतिमा का यही संकेत है।

इन चौरासी सिद्धों की संख्या में यही बात बतायी है कि प्रत्येक योनि अधिकारी है सिद्धावस्था की। यहां कोई भी नहीं है जो सिद्ध होने से वंचित रह सके, यदि निर्णय करे सिद्ध होने का। अगर कोई रोकेगा तो तुम स्वयं ही अपने को रोक सकते हो। इसलिए महावीर ने कहा है: तुम्हीं हो अपने मित्र और तुम्हीं हो अपने शत्रु। सिद्ध होने से अपने को रोका तो शत्रु और सिद्ध बनने में सहयोग दिया तो मित्र। और कोई दूसरा न तुम्हारा मित्र है और न कोई दूसरा तुम्हारा शत्रु है! तुम ही हो अपने नर्क, तुम ही हो अपने स्वर्ग। दोनों तुम्हारे हाथ में हैं। चुनाव तुम्हारा है। निर्णायक तुम हो। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है।

और फिर यदि तुमने दुख चुना हो, नर्क चुना हो, तो नाहक दूसरों को दोष मत देना। स्मरण रखना कि यही मैंने चाहा है। जो चाहा है वही तुम्हें मिला है।

इस जगत में बिना चाहे कुछ मिलता ही नहीं। तुम जो चाहते हो वही मिल जाता है। हो सकता है चाह में और मिलने में वर्षों का अंतर हो, कि जन्मों का अंतर हो, पर याद रखना जब भी कुछ तुम्हें मिले तो कहीं न कहीं तुमने चाह के बीज बोये होंगे, अब फसल काट रहे हो। भूल गये हो शायद कि कब ये बीज डाले थे। स्मरण भी नहीं आता। मगर फसल है तो प्रमाण है कि बीज तुमने बोये थे और कभी भी जीवनऱ्यात्रा पर मोड़ लिया जा सकता है। किसी भी क्षण तुम लौट पड़ सकते हो। कोई रोक नहीं रहा है। हर क्षण तुम संसार की राह, संसार के मार्ग को छोड़कर, मोक्ष के मार्ग पर गतिमान हो सकते हो।

इन्हीं चौरासी सिद्धों की परंपरा में तिलोपा भी हुए। अब कुछ दिन हम तिलोपा के साथ चलेंगे। सरहपा और तिलोपा, ये दो नाम चौरासी सिद्धों में बड़े अपूर्व हैं।

तिलोपा का भिक्षु नाम था: प्रज्ञाभद्र। लेकिन अपने गुरु विजयपाद के आश्रम में तिल कूटने का काम ही करते रहे, सो उनका मूल नाम लोग धीरे-धीरे भूल ही गये। फिर तिल्लोपाद या तिलोपा कहने लगे।

यह बात भी बड़ी सोचने जैसी है। तिल कूटने वाला व्यक्ति तिलोपा एक दिन इतना बड़ा सिद्ध हो गया कि आज उसके गुरु विजयपाद का नाम सिर्फ उसी के कारण स्मरण किया जाता है, अन्यथा विजयपाद को कोई जानता भी नहीं। विजयपाद को लोग भूल ही गये होते अगर तिलोपा न होता। तिलोपा के फूल ने विजयपाद के वृक्ष को भी शाश्वत कर दिया और तिलोपा तिल कूटते-कूटते सिद्धावस्था को   उपलब्ध हो गया।

मैंने तुम्हें बहुत बार चीन की एक प्रसिद्ध कहानी कही है, कि एक युवक गुरु के पास पहुंचा और उसने कहा कि मुझे भी जानना है, मुझे भी सत्य जानना है। गुरु ने कहा: सत्य जानना है या सत्य के संबंध में जानना है? शिष्य ने क्षण-भर सोचा, गुरु के पैर पकड़े और कहा: जब आ ही गया आपके पास, तो सत्य के संबंध में क्यों जानूंगा, सत्य ही जानूंगा! फिर गुरु ने कहा: बात थोड़ी कठिन है। सत्य के संबंध में जानना आसान है, सत्य को जानना कठिन। क्योंकि सत्य के संबंध में जानना तो जानकारी है, पांडित्य है; सत्य को जानना तो प्रज्ञा के दीये को प्र्र्रज्वलित करना होगा, तो जीवन को रूपांतरित करना होगा। फिर तू सोच ले: सत्य के संबंध में जानना है कि सत्य जानना है?

उस युवक ने कहा: अब तक तो मैंने कभी इस पर विचार न किया था कि इन दोनों में भेद है, मगर अब तुम्हें देखकर भेद साफ हो गया। पंडित मैंने बहुत देखे हैं, सत्य के संबंध में जाननेवाले बहुत देखे हैं। और अब तक तो सोचता था कि यही जानना है; आज तुम्हें देखकर सारी भ्रांतियां टूट गईं; आज रोशनी पहली दफा देखी; अब तक तो अंधेरे देखे थे। अब तो सत्य ही जानना है। जैसा तुमने जाना वैसा ही जानना है। और कीमत जो भी हो मैं चुकाने को तैयार हूं। ये मेरे प्राण लेने हों तो प्राण ले लो।

गुरु ने कहा: फिर तब तू ऐसा कर, आश्रम में पांच सौ भिक्षु हैं, इनके चावल कूटने का काम सम्हाल ले। और अब दुबारा मेरे पास मत आना। चावल कूट सुबह से सांझ तक। थक जा तो सो जा। सुबह नींद खुले तो फिर चावल कूट। चावल ही कूटता रह। अब न कुछ और सोचना, न कुछ विचारना, न किसी वाद-विवाद में पड़ना। तेरी यही साधना। और अब लौटकर मेरे पास मत आना। जब जरूरत होगी, मैं खुद आ जाऊंगा।

ऐसे बारह वर्ष बीत गये, युवक चावल ही कूटता रहा, चावल ही कूटता रहा। थोड़ा सोचो, रोज सुबह उठ आना, मुंह अंधेरे, जब कोई न जागे, चावल कूटने में लग जाना…क्योंकि जल्दी ही भिक्षु जागेंगे, उनका नाश्ता तैयार होगा। और रात देर तक चावल कूटते रहना, बड़ा आश्रम पांच सौ भिक्षुओं का इंतजाम! और जब थक जाये तो वहीं सो जाता था, उसी कोठरी में जिसमें चावल कूटता था। और सुबह जब आंख खुल आए तो उठकर वहीं चावल कूटना शुरू कर देता था। थोड़े दिन तक पुराने विचार चलते रहे, लेकिन जब विचारों को नया-नया, रोज-रोज भोजन न मिले, तो अपने-आप क्षीण हो जाते हैं, अपने-आप दुर्बल हो जाते हैं, अपने-आप निष्प्राण हो जाते हैं। चावल ही कूटना, चावल ही कूटना…विचार की सुविधा भी कहां थी? धीरे-धीरे विचार क्षीण होते गये, लीन होते गये। वर्ष-दो-वर्ष के बाद तो बस चावल कूटना, चुपचाप, मौन, और चित्त खो गया!

बारह वर्ष बीत गये। बारह वर्ष बीतने के बाद गुरु ने एक दिन घोषणा की कि अब मेरी मृत्यु करीब आती है और मुझे एक व्यक्ति चुनना है जो इस आश्रम का प्रधान होगा मेरे जाने के बाद। तो यह मैंने व्यवस्था खोजी है कि जिस व्यक्ति को भी अनुभव हो गया हो वह मेरे दरवाजे पर रात चार पंक्तियां लिख जाये–ऐसी पंक्तियां, जिसमें उसका सारा अनुभव समाहित हो।

बहुत लोगों ने सोचा। जो प्रधान पंडित था आश्रम का, उसने चार पंक्तियां जाकर लिखीं। प्यारी पंक्तियां लिखीं। पंडित शब्दों के धनी होते हैं, शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं। उसने बड़ी सार बातें लिख दीं। उसने लिखा कि मन एक दर्पण है, जिस पर विचार की, विकार की, वासना की धूल जम जाती है। धूल को झाड़ देना ध्यान है। और जिसकी धूल झड़ गई और दर्पण निर्मल हो गया, वही मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है।

बात तो कही पते की। बात तो कह दी कहने योग्य, लेकिन गुरु जब सुबह उठा और उसने ये पंक्तियां लिखी देखीं द्वार पर, तो उसने कहा कि यह किस नासमझ ने मेरी दीवाल को गूदा है? पंडित भी डर के कारण दस्तखत नहीं कर गया था। उसने भी होशियारी रखी थी। रखनी ही पड़ी थी। पता तो उसे भी था कि मुझे अभी पता नहीं है। यह तो सब शास्त्रों का निचोड़ था। ऐसा दर्पण जैसा चित्त उसका भी अभी हुआ नहीं था। अभी धूल जमी ही थी। जमी थी ही नहीं, खूब जम गई थी। जितने शास्त्र बढ़ते गये थे उतनी धूल जमती गई थी। दर्पण तो न मालूम कहां धूल के अंबार में कहीं खो गया था। यह तो शास्त्रों का सार लिख दिया था, यह अपनी प्रतीति न थी, अपना साक्षात न था। यह अपना अस्तित्वगत अनुभव न था। वह स्वयं इसका गवाह न था। ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। पढ़ा-लिखा आदमी था। तोते की तरह था। सुंदर शब्द जानता था। सुंदर पंक्तियां रची थीं उसने।   इसलिए दस्तखत नहीं कर गया था डर के कारण। उसने सोचा था…मन तो चालबाज होता है, चालाक होता है…उसने सोचा: अगर गुरु प्रशंसा करेगा तो मैं घोषणा कर दूंगा कि मैंने लिखी हैं और अगर गुरु कहेगा कि नहीं, ये पंक्तियां ठीक नहीं, तो मैं चुप ही रह जाऊंगा, बोलूंगा ही नहीं कि मैंने लिखी हैं।

मन सदा बेईमान है। और जितना मन पंडित हो जाता है उतना ही ज्यादा बेईमान हो जाता है। साधारण लोग इस जगत की साधारण-सी बेईमानियां करते हैं, पंडितों के चित्त परमात्मा तक के साथ बेईमानियां करने लगते हैं। गुरु के साथ भी पंडित शिष्य बेईमानी कर गया। सारा आश्रम चकित था, क्योंकि सारे आश्रम के लोगों को लगा कि पंक्तियां सुंदर हैं। इससे श्रेष्ठ और क्या अभिव्यक्ति होगी, धर्म को सार में कह दिया! चार पंक्तियों में कहना था, निचोड़ रख दिया सारे शास्त्रों का। सारे बुद्धों का वचन यही तो है कि चित्त निर्मल हो जाये, निर्दोष हो जाये, कि चित्त का दर्पण धूल-रहित हो जाये; फिर जानने को और क्या है? उसी दर्पण में सत्य की प्रतिछवि बनती है, परमात्मा पहचाना जाता है।

वचन तो ठीक थे, लेकिन गुरु कठोर है। और लोगों को यह बात अच्छी न लगी, क्योंकि और लोग भी पंडित थे, छोटे-मोटे पंडित थे। वह बड़ा पंडित था, बाकी छोटे थे। जंची नहीं लोगों को गुरु की बात। किसी ने तो कहा कि बुढ़ापे में सठिया गया है। किसी ने कहा कि जरूरत से ज्यादा अपेक्षा। बड़े-बड़े बुद्ध भी इससे सुंदर और क्या कहे हैं? यह बात चली, खूब गरमागरम चर्चा थी। चावल कूट रहा था वह बारह वर्ष पहले आया हुआ व्यक्ति, दो भिक्षु उसके पास से गुजरते थे यही चर्चा करते। उनकी बात सुनकर वह हंसने लगा। इन बारह वर्षों में किसी ने उसे हंसते भी नहीं देखा था। उन दोनों युवकों ने पूछा: तुम हंसे क्यों? इसलिए पूछा क्योंकि वह कभी हंसा नहीं, किसी से कुछ बोला नहीं। लोग तो उसको भूल ही गये थे। उसकी कोई गिनती ही नहीं थी आश्रम में। चावल कूटता था, कौन उसकी गिनती करता था। वहां बड़े ज्ञानी थे, बड़े पंडित थे, बड़े साधक थे, योगी थे। कौन इस चावल कूटनेवाले को पूछता था! इसकी तो गिनती कोई साधुओं में थी भी नहीं, भिक्षुओं में थी भी नहीं। यह नाममात्र का भिक्षु था। इसका कुल काम चावल कूटना था, न कभी इसे किसी ने शास्त्र पढ़ते देखा, न कभी किसी ने इसे ध्यान करते देखा। वे दोनों उसकी हंसी सुनकर हैरान हुए और उन्होंने कहा: तुम पागल तो नहीं हो? तुम हंसे क्यों?

उस चावल कूटनेवाले ने कहा: मैं हंसा इसलिए कि गुरु ठीक कहते हैं। ये चारों पंक्तियां कूड़ा-करकट हैं। इनका दो कौड़ी मूल्य नहीं।

तो उन युवकों ने पूछा कि क्या तुम कह सकते हो चार पंक्तियां, जो इनसे श्रेष्ठ हों? क्या तुम लिख सकते हो?

उसने कहा: लिख तो मैं न सकूंगा, क्योंकि मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं। लेकिन कह सकता हूं तुम अगर लिख दो तो मैं अभी चलने को तैयार हूं।

वह युवक गया। उसने चार पंक्तियां बोलीं, किसी दूसरे ने दीवाल पर लिख दीं, उसने अपने दस्तखत भी करवा दिये, यद्यपि वह दस्तखत भी कर नहीं सकता था। उसने चार पंक्तियां कौन-सी लिखीं? उसकी पंक्तियां बड़ी अदभुत हैं, झेन साहित्य के इतिहास में बेजोड़ हैं! उसने लिखवाया: मन का कोई दर्पण नहीं, धूल जमेगी कहां? जो ऐसा जान लेता है वही सिद्ध है। मन का दर्पण ही नहीं है तो विचार की धूल जमेगी कहां? जिसने ऐसा जाना, उसने ही सत्य जाना।

और उसने कहा कि लिख दो मेरा नाम भी। और जब गुरु ने ये पंक्तियां देखीं तो गुरु आधी रात उस युवक के पास आया, उसे सोते से जगाया और कहा कि यह सम्हाल मेरा डंडा…झेन गुरु अपना डंडा ही वसीयत में देते हैं।…और यह मेरा चोगा। मगर भाग जा, अभी आधी रात है, जितने दूर निकल सके निकल जा इस आश्रम से। तू मेरा वसीयतदार है, पर मैं जानता हूं इस आश्रम में इतने पंडित हैं वे तेरी हत्या कर देंगे। वे बरदाश्त न कर सकेंगे कि चावल कूटनेवाला और महाज्ञानी हो जाये! तू भाग जा। जितने दूर भाग सके, निकल जा पहाड़ों में। तेरे पास मेरी संपदा है। तूने पा लिया। चावल कूट-कूटकर पा लिया!

चावल कूटते-कूटते ध्यान जम गया। कोई भी कृत्य ध्यान बन जाता है। यहां इस आश्रम में खयाल रखना इस बात का। तिल कूटते-कूटते प्रज्ञाभद्र “सिद्ध तिलोपा’ हो गये। यहां इस आश्रम में जब संन्यासियों को कोई काम दिये जाते हैं तो स्मरण रखना इस बात का: कोई काम न तो छोटा है न बड़ा है। अब “कृष्णा’ है, गेहूं ही बीनती रहती है; “मंजु’ है, चावल ही बीनती रहती है। अब कभी भी इनमें से कोई तिल्लोपाद हो जाये तो हैरान मत होना। यह मत सोचना कि गेहूं बीनने वाला कोई कैसे सिद्ध हो गया।

क्या तुम करते हो, इसका मूल्य नहीं है; किस भांति करते हो, इसका मूल्य है। अगर गेहूं भी बीने, आनंदमग्न हो, शांत चित्त से, समर्पित हो, ध्यानपूर्वक, बोध को रखते हुए, तो बस गेहूं बीनते-बीनते ही सारे जगत की पहेलियां सुलझ जायेंगी। यह मत सोचना किसी दिन अगर “संत’ या “दयाल’ पहरा देते-देते और ज्ञान को उपलब्ध हो जाएं…अगर पहरा देना भी जागरूक होकर किया है। और पहरा देना हो तो जागरूक होकर ही किया जा सकता है।

जब किसी सदगुरु के पास तुम हो तो जीवन के सारे छोटे-मोटे कृत्य भी बड़ी महिमा से गौरवान्वित हो जाते हैं। तिल कूट-कूटकर प्रज्ञाभद्र, सिद्ध तिलोपा हुआ और उसने जो वचन कहे वे अपूर्व हैं।

सूत्र–

वढ़ अणं लोअअ गोअर तत्त पंडित लोअ अगम्म।

जो गुरुपाअ पसण तंहि कि चित्त अगम्म।

“जो तत्व, जो सत्य मूढ़जनों के लिए अगोचर है वह पंडितों के लिए भी अगम्य है।’ सुनते हो! मूढ़ में और पंडित में जरा भेद नहीं, रंच-भर भेद नहीं! और अगर कोई भेद हो तो समझना कि पंडित मूढ़ से भी महामूढ़ होता है। क्योंकि मूढ़ को तो कम-से-कम यह पता होता है कि मैं मूढ़ हूं, इससे एक विनम्रता होती है, एक निरहंकारिता होती है। जानता है कि मेरी क्या पात्रता, मेरी क्या योग्यता! पंडित अपात्र ही नहीं है, जहर-भरा पात्र है। मूढ़ तो सिर्फ अपात्र है, लेकिन खाली है। पंडित अपात्र ही नहीं है, कुपात्र है, जहर-भरा पात्र है। मूढ़ पर तो ज्ञान की वर्षा होगी तो भर जायेगा। पंडित पर तो ज्ञान की वर्षा होगी तो भी न भर पायेगा, क्योंकि वह तो पहले से ही भरा हुआ है। उसमें तो भरने को जगह ही नहीं है।

इसलिए ध्यान रखना: जो लोग सत्य की यात्रा पर चले हैं, वे अगर अज्ञानी हों तो उतना हर्ज नहीं, लेकिन पंडित तो नहीं ही होने चाहिये। पापी हों, चलेगा; पंडित हों, नहीं चल सकता है। पापी क्षमा मांग सकता है और क्षमा किया जा सकता है। लेकिन पंडित क्षमा ही नहीं मांग सकता, तो क्षमा तो कैसे किया जा सकता है? पापी झुक जाता है, जानता ही है कि मैं पापी हूं। पंडित झुक नहीं सकता, उसकी अकड़ भयंकर है।

इस जगत में धन की भी अकड़ इतनी नहीं होती और पद की भी इतनी अकड़ नहीं होती, जितनी पांडित्य की अकड़ होती है। पांडित्य इस जगत में अहंकार का जितना बहुमूल्य आभूषण है, उतनी कोई और चीज नहीं। इसलिए तो तुम ब्र्राह्मण में एक अकड़ देखते हो। उसकी अकड़ क्या है? उसके पास है क्या? शब्द हैं, थोथे शब्द हैं, जो उसने सीख लिए हैं तोतों की भांति, जिन्हें वह दोहराता जाता है ग्रामोफोन के रिकार्ड की भांति।

तिलोपा का यह वचन बड़ा महत्वपूर्ण है। तिलोपा कहते हैं: वढ़ अणं लोअअ गोअर तत्त पंडित लोअ अगम्म। मूढ़ के लिए जो अगोचर है वह पंडित के लिये भी अगम्य है। मूढ़ और पंडित में जरा भी भेद नहीं कर रहे हैं। और तुम ऐसा मत सोचना कि तिलोपा कोई ब्राह्मण-विरोधी थे। तिलोपा ब्राह्मण थे! मगर गुरु के आश्रम में, जब विजयपाद ने उन्हें तिल कूटने का काम दे दिया, तो तिलोपा ने यह नहीं कहा कि मैं ब्राह्मण, पंडित और तिल कूटूं! यह काम नीची जातियों से लो, मैं इसके लिए नहीं बना हूं! नहीं गुरु ने कहा तिल कूटो, तो तिलोपा तिल कूटता रहा। और तिल कूटते-कूटते एक दिन सिद्ध हो गया। ऐसा कूटा तिल, इस ढंग से कूटा तिल, इस प्रेम से, इस आनंद से, इस ध्यान से, ऐसी समाधि से कूटा तिल, कि तिल कूटते-कूटते ही सब विसर्जित हो गया। भीतर शून्य का जन्म हो गया।

ठीक कहते हैं कि जो तत्व मूढ़जनों के लिए अगोचर है, वह पंडितों के लिए भी अगम्य है। “सत्य का साक्षात्कार तो उसी पुण्यवान व्यक्ति को होता है, जिस पर कि सदगुरु प्रसन्न होते हैं।’ सुनते हो! गुरु ने कहा कि तिल कूटो और न मालूम कितने वर्षों तक तिलोपा से तिल कुटवाया, फिर भी तिलोपा कहते हैं कि जिस पर सदगुरु प्रसन्न हो जाये। यह भी अनुग्रह है उसका कि उसने तिल कूटने की आज्ञा दी। उसने आज्ञा दी, यही अनुग्रह है। उसने कुछ काम सौंपा, यही अनुग्रह है, यही उसकी प्रसन्नता है। उसने इस योग्य माना यही क्या कम है! साक्षात्कार सत्य का तो उसी पुण्यवान व्यक्ति को होता है। पांडित्य से नहीं होता सत्य का साक्षात्कार–गुरु के प्रसाद से होता है। और गुरु का प्रसाद किसको मिलता है? उसको ही जो अहंकार को समर्पित करता है।

तो मूल बात यह हुई कि जो व्यक्ति अहंकार को छोड़ देता है उसे सत्य का साक्षात्कार हो जाता है। गुरु तो अहंकार छोड़ने की सिर्फ एक प्रक्रिया है–एक निमित्त, एक बहाना, बस एक बहाना। तुम्हें कठिनाई होगी बिना गुरु के अहंकार छोड़ने में, इसलिए गुरु की जरूरत है। अगर तुम बिना गुरु के अहंकार छोड़ सको तो गुरु के बिना भी घटना घट जायेगी। मगर अति कठिन है। गुरु के रहते भी अहंकार नहीं छूट पाता, तो अकेले में तुम कैसे छोड़ पाओगे? तुम्हें कोई बहाना चाहिए। किसी के चरणों में रखने का मौका हो तो सिर तुम रख दो। कोई चरण ही न हों तो तुम सिर कहां रखोगे?

मगर मैं तुम्हें याद दिला दूं: अगर तुम सिर कहीं भी झुका लो, जहां तुम्हारा सिर झुका, वहीं सत्य तुममें प्रविष्ट हो जाता है। सत्य मिलता उन्हें है जो विनम्र हैं। फिर विनम्रता कहां से सीखी, इससे भेद नहीं पड़ता। लेकिन सौ में निन्यानबे मौकों पर यह करीब-करीब असंभव है बिना गुरु के अहंकार को छोड़ देना। और जो बिना गुरु के छोड़ दे सकते हैं, शुभ है। लेकिन अकसर तो ऐसा हो जाता है कि बिना गुरु के अहंकार छोड़ना तो मुश्किल है, अहंकार के कारण ही कुछ लोग मान लेते हैं कि हम तो बिना गुरु के ही अहंकार छोड़ देंगे। इसलिए यह कोई चकित होने की बात नहीं कि कृष्णमूर्ति जैसे प्रज्ञावान पुरुष के पास तुम्हें इस पृथ्वी के सारे अहंकारी इकट्ठे मिलेंगे, क्योंकि कृष्णमूर्ति कहते हैं: गुरु की कोई जरूरत नहीं। कृष्णमूर्ति कहते हैं: गुरु के बिना ज्ञान हो जायेगा। और बिलकुल ठीक कहते हैं। जरा भी गलत नहीं है बात। क्योंकि मौलिक बात समर्पण है किसके प्रति यह बात अर्थहीन है। अगर बिना किसी के प्रति निवेदित भी समर्पण हो सके, सिर्फ तुम अपने अहंकार की भूल भर समझ लो, अपने ही भीतर जागकर अपने अहंकार की भूल समझ लो और अहंकार को गिर जाने दो, तो घटना घट जायेगी। क्योंकि घटना घटती है अहंकार के गिरने से।

कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं। मगर जो लोग सुनने के लिए इकट्ठे होते हैं वे गलत समझते हैं। वे कुछ का कुछ समझते हैं। वे इसलिए इकट्ठे होते हैं कृष्णमूर्ति के पास कि यहां झुकने की कोई जरूरत ही नहीं। न कोई गुरु है न कोई शिष्य है। तो जिनको भी झुकने में अड़चन है वे सभी कृष्णमूर्ति के आसपास इकट्ठे हो जाते हैं। फिर वर्षों बीत जाते हैं, न वे झुकते न क्रांति घटित होती। सुनते हैं कृष्णमूर्ति को और सुन-सुनकर अहंकार को सजाते हैं।

सौ में एक व्यक्ति बिना गुरु के पहुंच सकता है और जो बिना गुरु के पहुंच सकता है उसको हम अपवाद मान लें, उसको हमें नियम के भीतर मानने की कोई जरूरत नहीं। वह तो पहुंच ही जायेगा, उसकी बात ही क्या करनी! कृष्णमूर्ति उसी एक व्यक्ति की बात कर रहे हैं और वह एक व्यक्ति खयाल रखना, कृष्णमूर्ति के पास जायेगा भी नहीं। क्योंकि कृष्णमूर्ति के पास भी क्यों जायेगा? अगर बिना ही गुरु के हो सकता है, इतनी जिसकी क्षमता है समझने की, वह इस बात को समझने के लिये कृष्णमूर्ति के पास थोड़े ही जायेगा। अगर यह बात भी कृष्णमूर्ति के पास जाकर समझनी है तो गुरु की जरूरत तो हो ही गई। यह तो वह समझ ही लेगा। यह तो वह अपने से ही समझ लेगा। यह तो उसकी सहज अनुभूति होगी। उसके ही अंतर्तम में उठेगा यह भाव। वह तो कृष्णमूर्ति को सुनने जायेगा नहीं। जिसके लिये कृष्णमूर्ति बोल रहे हैं, वह उन्हें न कभी सुनने गया है न कभी सुनने जायेगा। और निन्यानबे प्रतिशत लोग जो सुनने जायेंगे, उनके लिये कृष्णमूर्ति बोल नहीं रहे हैं। इसलिये कृष्णमूर्ति के पचास सालों का श्रम बिलकुल पानी में बह गया है। उसका कोई परिणाम नहीं हुआ। जिस एक के लिये बोलते हैं वह तो आयेगा नहीं। वह आयेगा ही क्यों? और जो आते हैं वे तो गुरु की ही तलाश में आये हैं। मगर यह बात सुनकर बड़ा उनका अहंकार प्रफुल्लित हो जाता है कि चलो, सुनो भी, समझो भी, ज्ञान भी इकट्ठा करो और झुकना भी नहीं। अब तक सारे सदगुरुओं ने कहा है: गुरु बिन ज्ञान नहीं। तो तुम यह मत सोचना कि कृष्णमूर्ति उनके विपरीत कह रहे हैं। सदगुरुओं ने निन्यानबे प्रतिशत लोगों का ध्यान में विचार रखा है। वे एक प्रतिशत के लिए नहीं बोले हैं, उसके लिए बोलने की कोई जरूरत ही नहीं है। जो अपने से पहुंच जायेगा उसको निर्देश भी क्या देना है? जो अपने से नहीं पहुंच सकते हैं, उन्हीं के लिये निर्देश देना है।

इसलिये जगत के सारे सदगुरुओं ने कहा: गुरु के बिना ज्ञान नहीं होगा। वे निन्यानबे प्रतिशत के लिये बोले। कृष्णमूर्ति कहते हैं: गुरु के बिना ज्ञान होगा। वे एक प्रतिशत के लिये बोलते हैं। और सुननेवाले जो आते हैं, वे निन्यानबे प्रतिशत से आते हैं। इसलिए कृष्णमूर्ति बोले चले जाते हैं सुननेवाले सुनते चले जाते हैं, कोई परिणाम घटता हुआ कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। न कहीं कोई रोशनी पैदा होती, न कहीं कोई समाधि के मेघ घिरते, न कहीं कोई अमृत की वर्षा होती।

“जो तत्व, जो सत्य मूढ़जनों के लिए अगोचर है वह पंडितों के लिए भी अगम्य है।’ इसलिए जानकारी से धोखा मत खा जाना। कितना तुम जानते हो शास्त्रों को, इससे यह मत सोचने लगना कि तुमने सत्य को जान लिया। कितना ही पांडित्य हो, तुम अज्ञानी हो, यह बात न भूले, तो ही तुम कभी पहुंच पाओगे। यह बात अगर भूल गई तो आंख ऐसी बंद होगी कि फिर खुलना मुश्किल हो जायेगी।

जर्मनी का एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ जब भी कोई उसके पास संगीत सीखने आता था तो उससे पूछता था कि तुमने पहले और कहीं संगीत तो नहीं सीखा है? तुम संगीत के संबंध में कुछ जानते तो नहीं हो? तुमने कुछ अभ्यास तो नहीं किया है? अगर कोई कहता कि मैंने कोई अभ्यास नहीं किया है, तो वह एक फीस बताता और अगर कोई कहता कि मैंने काफी अभ्यास किया है, दस वर्षों से श्रम कर रहा हूं, तो उससे दुगनी फीस मांगता। चौंकाने वाली बात थी। कि यह कौन-सा तर्क है, कौन-सा गणित है! जिन लोगों ने अभ्यास किया है उन से दुगनी फीस मांग रहे हो! तो स्वभावतः वे लोग एतराज करते कि हम दस साल मेहनत करके आये हैं, हमसे दुगनी फीस और जो बिलकुल कुछ नहीं जानता, कोरा का कोरा है, उससे आधी! तो वह संगीतज्ञ कहता था: हां, क्योंकि पहले मुझे तुम जो जानते हो उसे मिटाना पड़ेगा। वह श्रम अलग है। उसका भी तो तुम्हें मूल्य चुकाना होगा। जो कुछ भी नहीं जानते, उनके साथ श्रम आधा है, उनसे मैं सीधी ही शुरुआत कर सकता हूं।

यह संगीतज्ञ जरूर कुछ जानता था, कुछ गहरी कुंजी इसके हाथ में थी। पंडितों के साथ बहुत सिरपच्ची करनी पड़ती है और व्यर्थ। यहां तो पंडित आ जाते हैं तो उनको हम बाहर से ही समझा-बुझाकर विदा कर देते हैं। उनके साथ कौन समय खराब करे! समय थोड़ा, समय बहुमूल्य। यह समय तो उन्हीं के लिये है जो पीने को आतुर हैं। पंडित तो सोचकर आया है, कि मैं तो जानता ही हूं। पहले इसकी जानकारी गिराओ; पहाड़ों जैसी जानकारी है, इसके पहाड़ खोदो। और पहाड़ खोदोगे तो यह कुछ तुमसे प्रसन्न नहीं होगा, यह नाराज होगा। यह बहुत नाराज होगा। क्योंकि उन्हीं पहाड़ों में तो इसने अपनी प्रतिष्ठा बनाई है। वे पहाड़ तो इसकी संपदा हैं। उन्हीं पहाड़ों के कारण तो इसकी अकड़ है और तुम उन्हें तोड़ो और यह छोटा होने लगे, क्योंकि जैसे-जैसे पहाड़ कटेगा ज्ञान का, यह छोटा होने लगेगा। और छोटा तो कोई अपने को मान नहीं सकता।

एक सर्द सुबह की बात, एक हाथी धूप ले रहा है। एक चूहा भी उसे देखने चला आया। उसने चारों तरफ उसके चक्कर लगाये, फिर उसने ऊपर सिर उठाकर हाथी से कहा कि भाई तुम्हारी उम्र कितनी? हाथी ने कहा: मेरी उम्र दो साल। था तो दो साल का ही बच्चा, लेकिन हाथी तो हाथी। चूहा कुछ सोच विचार में पड़ गया। हाथी ने पूछा कि और भाई तुम्हारी उम्र कितनी? तो चूहे ने कहा कि उम्र तो मेरी भी दो ही साल है, मगर मेरी तबियत जरा ठीक नहीं रहती।

चूहा भी यह मान तो नहीं सकता कि मैं चूहा हूं…तबियत मेरी जरा ठीक नहीं रहती!

दो गधे धूप में खड़े थे। एक गधा बड़ा प्रसन्न हो रहा था, दुलत्ती झाड़ रहा था और लोट रहा था। दूसरे ने पूछा कि बड़े आनंदित हो, बड़े मस्त हो, बात क्या है? सदा तुम्हें उदास देखा, आज बड़े आनंदमग्न हो रहे हो! बात क्या है?

उसने कहा कि बस अब मजा ही मजा है, आ गई सौभाग्य की घड़ी जिसकी प्रतीक्षा थी। दूसरे गधे ने पूछा कि हुआ क्या, कुछ कहो भी! पहेली न उलझाओ और सीधी-सीधी बात कहो।

उसने कहा: बात यह है कि मैं जिस धोबी का गधा हूं, उसकी लड़की जवान हो गई है। दूसरे गधे ने कहा: लेकिन उसकी लड़की जवान होने से तुम क्यों मस्त हो रहे हो? उसने कहा: तू सुन तो पहले पूरी बात। जब भी लड़की कुछ भूल-चूक करती है तो धोबी गुस्से में आ जाता है और कहता है कि देख अगर तूने ठीक से काम न किया तो गधे से शादी कर दूंगा। अब बस दिन-दो दिन की बात है। किसी भी दिन, जिस दिन लड़की ने कोई बड़ी भूल की और धोबी गुस्से में आ गया…और तुम तो जानते ही हो मेरे मालिक को कि कैसा गुस्से में आता है कि जब मुझ पर गुस्से में आ जाता है तो ऐसे डंडे फटकारता है…कि जिस दिन भी जोश में आ गया उस दिन यह शादी हुई ही हुई है। अब सौभाग्य का दिन आ गया। मगर तुम उदास न होओ, बारात में तुम्हें भी ले चलेंगे।

गधे भी सपने देखते हैं! मूढ़ भी बड़ी-बड़ी ज्ञान की राशियां इकट्ठी कर लेते हैं। उन राशियों को जब तुम काटोगे, तब पीड़ा होगी, अड़चन होगी, दुख होगा। तो पंडित बचाने की कोशिश करेगा, जद्दोज़हद करेगा, सुरक्षा के उपाय करेगा। इसलिये व्यर्थ समय जाया होता है।

जो सत्य की तलाश में निकले हैं, उन्हें पांडित्य को तो गिरा ही देना चाहिये। उन्होंने जो जाना है, सब कचरा है। क्योंकि जब तक स्वयं नहीं जाना तब तक जो भी जाना कचरा है। स्वयं के साक्षात पर ही भरोसा करना। उसी पर श्रद्धा करना। उसी की अथक खोज करनी है। खोदते चले जाना है उस घड़ी तक जब तक कि अपना ही जीवन-जलस्रोत न मिल जाये।

“जो तत्व, जो सत्य मूढ़जनों के लिये अगोचर है वह पंडितों के लिए भी अगम्य है।’

“सत्य का साक्षात्कार तो उसी पुण्यवान व्यक्ति को होता है जिस पर कि सदगुरु प्रसन्न होते हैं।’

फिर कैसे होगा सत्य का साक्षात्कार? तिलोपा कहते हैं: जिस पर सदगुरु प्रसन्न हो जाये। सदगुरु तो प्रसन्न ही रहता है। इस बात के कहने का क्या अर्थ है कि जिस पर सदगुरु प्रसन्न हो जाये? सदगुरु यानी प्रसन्नता। तो फिर यह शर्त कैसी? सदगुरु तो ऐसे–जैसे सूरज निकला; अब कुछ ऐसा थोड़े ही कि सूरज किसी पर प्रसन्न होगा, उसके घर पर रोशनी होगी और किसी पर अप्रसन्न होगा, उसके घर पर अंधेरा रहेगा। नहीं, लेकिन अर्थ है। सूरज तो निकल आया, तुम्हारे द्वार पर खड़ा है, मगर तुम आंख खोलो तब न। तुम तो आंख बंद किये बैठे हो। तो तुम्हारे लिये तो अभी भी रात है। दिन तो उनके लिये है जिन्होंने आंख खोली। और आंख तो उनकी ही खुलती है, जो अहंकार के घूंघट को हटा देता है। और जब आंख खुलेगी तभी तो तुम जानोगे कि सदगुरु प्रसन्न हुआ। सदगुरु तो प्रसन्न ही है। सदगुरु तो प्रसाद ही है। प्रकाश के अतिरिक्त और सदगुरु कुछ दे भी नहीं सकता। उसके चारों तरफ तो उत्सव की ही तरंग है। मगर उनके लिये ही उत्सव की तरंग है जो नाचने का साहस कर सकें; जो उस तरंग के साथ लीन हो सकें, तल्लीन हो सकें, लयबद्ध हो सकें। तत्क्षण तुम्हें सदगुरु की प्र्रसन्नता का अनुभव होगा। उसका प्रसाद तुम्हारी तरफ बहने लगा। उसकी रोशनी की धारा तुम्हारी तरफ आने लगी।

और सदगुरु तुम्हें देता थोड़े ही है कुछ, सिर्फ तुम्हारे चारों तरफ अपनी प्रकाश की धारा को ऐसा आंदोलित करता है कि तुम्हारे भीतर सोया हुआ प्रकाश उसके आघात में सजग हो जाता है। सदगुरु कुछ और थोड़े ही करता है; सदगुरु का काम वही है जो अलार्म घड़ी का। सुबह तुम नींद में पड़े हो, अलार्म की घंटी बजने लगी, जोर से घंटी बजने लगी। अलार्म की घंटी से तुम्हें जागरण थोड़े ही मिलता है। जागरण तो तुम्हारे भीतर से आता है, लेकिन अलार्म की घंटी वातावरण पैदा कर देती है बाहर, कि उसकी उत्तेजना में तुम्हारे भीतर जो जागरण सोया था रातभर, वह फिर उठ आता है, तुम फिर सजग हो जाते हो।

सदगुरु कुछ देता नहीं। सत्य कोई वस्तु तो नहीं है कि कोई दे देगा। सत्य का कोई हस्तांतरण नहीं होता। लेकिन फिर भी सदगुरु एक अनिवार्य परिस्थिति पैदा कर देता है, जिसमें कि तुम सोये न रह सकोगे। सिर्फ उन्हीं लोगों पर सदगुरु सार्थक नहीं हो पाता, जिन्होंने सोये रहने की जिद ही कर रखी है। तो फिर अलार्म भी क्या करेगा? तुमने अगर जिद ही कर रखी है सोये रहने की, तो तुम करवट लेकर फिर सो जाओगे। और अगर तुमने जिद बहुत गहरी कर रखी है सोये रहने की तो अलार्म बजता रहेगा और तुम भीतर एक सपना देखोगे कि अहा, शिव जी के मंदिर में घंटी बज रही है! तुम एक सपना देख लोगे कि शिव जी के मंदिर में घंटी बज रही है, यह तुमने तरकीब निकाल ली अलार्म से बचने की। अब तुम्हें यह खयाल ही नहीं उठता कि अलार्म बज रहा है और जागना है। शिव जी के मंदिर में घंटी बज रही है। भोलेबाबा का नाम लेकर तुम फिर करवट लेकर सो गये। तुमने बाहर के अलार्म को भीतर का सपना बना लिया।

तो जिसे सोये ही रहना है वह सदगुरु के पास आकर भी…सदगुरु की सारी चेष्टाओं का परिणाम इतना ही होगा उस पर कि उससे वह जानकारी इकट्ठी कर लेगा और पंडित होकार लौट जायेगा। सदगुरु के पास से तुम पंडित होकर भी लौट सकते हो।

जिस आदमी ने झेन गुरु के द्वार पर लिखा था कि मन एक दर्पण है, दर्पण पर विचार की धूल जम जाती है, धूल को झाड़ दो तो धर्म उपलब्ध हो जाता है–वह भी उसी सदगुरु के पास वर्षों से था। और जिस चावल कूटनेवाले ने लिखा कि मन का कोई दर्पण ही नहीं, धूल जमेगी कहां, जिसने ऐसा जान लिया वही सिद्ध है–वह भी उसी सदगुरु के पास था। लेकिन दोनों अलग-अलग ढंग से रहे होंगे। एक को तो मिल गई प्रसन्नता गुरु की और दूसरे को केवल जानकारी हाथ पड़ी।

सदगुरु तो लुटाता है, लेकिन कुछ हैं जो कंकड़-पत्थर ही बीन लेंगे, कुछ हैं जो हीरे-जवाहरातों से भर जायेंगे। हीरे-जवाहरात तुम्हारे भीतर हैं। बाहर के सदगुरु के संघात में तुम्हारे भीतर की संपदा प्रगट होनी चाहिए। तो सार्थक हुआ संग-साथ। तो सत्संग हुआ। और अगर तुमने बाहर के शब्द इकट्ठे कर लिये भीतर, भीतर की संपदा तो वैसी पड़ी रही, इस संपदा पर तुमने बाहर से शब्दों के और-और ढेर लगा दिये, तो तुम जैसे आये थे, उससे भी ज्यादा बुरी स्थिति में जाओगे।

पंडित मत हो जाना गुरु के पास, नहीं तो चूक गये–चूक गये प्रसाद!

खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायान खोलो,

मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।

धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

लिये आ रहा फूलों का स्वर्णिम विकास मैं,

लिये आ रहा हूं सुगंध उन्मुक्त बिपिन की;

लिये आ रहा स्वर्णातप अपनी मयूख का,

लिये आ रहा हूं शीतलता मैं हिमकण की।

 

उठो, उठो, उपधानों पर से शीश उठाओ,

पलक खोल कर देखो, कैसी लाल विभा है।

मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे द्वार खड़ा हूं,

धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

 

दारु-सद्म-से निज उर के वातायन खोलो,

वातायन जो बहुत दिनों से बंद पड़े हैं।

और मुझे छितराने दो अपने मंदिर में

आभा, आतप, ओस, पुष्प औ’ गंध बिपिन की।

 

खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायन, खोलो,

मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।

धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

सदगुरु की उपस्थिति तो सूर्य की उपस्थिति है। मगर तुम आंख बंद किये रहो तो सूर्य व्यर्थ हो जाता है। या तुम अपने द्वार-दरवाजे बंद रखो, परदे डाले बैठे रहो, तो सूर्य व्यर्थ हो जाता है। सूर्य को व्यर्थ करना, सार्थक करना तुम्हारे हाथ में है।

झुको, खुलो, आवरण हटाओ, तो सूर्य सार्थक हो जाये। और मजा यह है कि अगर तुम आवरण हटाओ तो सूर्य कुछ और नहीं करता, सूर्य की मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट हो जाती है। सूर्य की मौजूदगी तुम्हारे भीतर सोये हुए महासूर्य को जन्म दे देती है। गुरु से शिष्य तक कुछ जाता नहीं बस गुरु की मौजूदगी में शिष्य के भीतर कुछ घटता है। गुरु को देखकर तुम्हें याद आ जाती अपने भीतर छिपे गुरु की। गुरु के बोध को देखकर तुम्हारा बोध तिलमिला उठता है। गुरु की अग्नि को देखकर तुम्हें स्मरण आता है कि मैं राख में क्यों खो गया हूं; मेरे भीतर भी अंगारा है। गुरु तुम्हें आत्म-स्मरण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देता है।

खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायन खोलो,

मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।

धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

अज्ञानी को पता नहीं है, ज्ञानी को झूठा पता है। दोनों भटके हैं। किसी ऐसे व्यक्ति का संग-साथ अनिवार्य है, जो अज्ञानी भी न हो और तथाकथित ज्ञानी भी न हो; जो जानता हो, अपने निज से जानता हो; जो किन्हीं अतीत के बुद्धों को न दोहरा रहा हो, जो स्वयं बुद्ध हो; जो अतीत के बुद्धों को गवाही दे रहा हो अपनी कि हां तुम भी ठीक थे, मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि तुम भी ठीक थे।

इस भेद को समझ लेना। पंडित कहता है: गौतम बुद्ध ने ऐसा कहा, तो ठीक ही कहा होगा, क्योंकि गौतम बुद्ध ने कहा है। वेद में लिखा है तो ठीक ही लिखा होगा, क्योंकि वेद के मनीषियों ने लिखा है; द्रष्टाओं ने, ऋषियों ने लिखा है। कुरान में कहा है तो ठीक ही कहा होगा क्योंकि परमात्मा मुहम्मद से बोला है। मगर पहले तो तुमने यह मान लिया कि परमात्मा है। यह भी मान्यता हुई। पता नहीं, है या नहीं। फिर तुमने यह मान लिया कि मुहम्मद से बोला है। पता नहीं मुहम्मद से बोला है या नहीं बोला। और कौन जाने मुहम्मद को भ्रांति हो कि परमात्मा मुझसे बोला है! फिर जो बोला गया है वह तो इन्हीं मान्यताओं पर आधारित है कि परमात्मा बोला मुहम्मद से बोला, इसलिए ठीक ही होगा फिर परमात्मा ही बोला हो, मुहम्मद से ही बोला हो तो भी जरूरी क्या है कि परमात्मा ठीक ही बोलेगा? इसका प्रमाण क्या है? इसका आधार क्या है?

इसलिए बुद्ध ने कहा है: मेरी बातों को इसलिए मत मान लेना कि मैं कह रहा हूं। मेरी बातों को तभी मानना जब वे तुम्हारे अनुभव के द्वारा प्रमाणित हों। मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं, इसे तब तक मत मान लेना जब तक कि तुम्हारी ध्यान की क्षमता ही गवाही न दे दे कि हां ठीक है। किसी और कारण से मत मानना, क्योंकि और सब कारण संदिग्ध हैं। और सब कारणों पर पक्का भरोसा नहीं किया जा सकता है। पक्का भरोसा तो सिर्फ अपनी ही अनुभूति का किया जा सकता है।

पंडित कहता है कि बुद्ध ने कहा, ठीक ही कहा होगा। इतने सच्चरित्र व्यक्ति थे, क्यों गलत कहेंगे? लेकिन यह भी तो हो सकता है, खुद ही गलती में पड़े हों। गलत जानकर न कहा हो, खुद ही भ्रांति खा गये हों। आखिर अच्छे से अच्छे चरित्र का व्यक्ति भी कभी-कभी सांझ के अंधेरे में रस्सी में सांप देख लेता है। अच्छे से अच्छे चरित्र का व्यक्ति, जिसका जीवन सब तरह से कसा गया है, जिसके कभी कोई झूठ नहीं बोला, जिसने कभी कोई बेईमानी नहीं की, चोरी नहीं की, जिसके बाबत सभी सहमत हैं कि वह सज्जन है, उसको भी रात अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी सांप जैसी मालूम पड़ जाती है। तो क्या करोगे? बुद्ध अच्छे व्यक्ति थे, मगर जो उन्होंने सत्य के संबंध में कहा है, धुंधलके में धोखा खा गये हों, कौन जाने!

पंडित कहता है कि वेद कहते हैं, इसलिये ठीक होगा; कुरान कहती है, इसलिए ठीक होगा; बाइबिल कहती है, इसलिये ठीक होगा। प्रज्ञापुरुष इसलिये नहीं कहते कि कुरान कहती है, बाइबिल कहती है, वेद कहता है, बुद्ध कहते हैं, महावीर कहते हैं। जो स्वयं बुद्ध हैं वे कहते हैं: मैंने जाना है और मैंने अपने जानने से पाया है कि वेद ठीक कह रहे हैं। मैं गवाह हूं। बुद्ध ठीक कह रहे हैं, मैं गवाह हूं। कुरान ठीक कह रही है, मैं गवाह हूं।

लेकिन प्रज्ञापुरुष यह भी कहेंगे कि तुम भी तभी मानना जब तुम गवाह हो जाओ, मेरे जैसे जब तुम भी गवाह हो जाओ, उससे पहले नहीं। अपनी ही अनुभूति का भरोसा करना। पराई अनुभूतियों का जो भरोसा करता है उसका जीवन उधार होता है, नगद नहीं होता। और सत्य नगद अनुभव है।

पंडितों से सावधान! शास्त्रों के जानकारों से सावधान! किसी सदगुरु को खोजो, जिसने जाना हो स्वयं। क्योंकि उसकी सन्निधि में तुम्हारे भीतर भी क्रांति घट सकती है, जैसे एक कोयल बोले और दूसरी कोयल के कंठों में गुदगुदी हो जाये! जैसे कोई गीत गाता है और तुमने नहीं देखा कि तुम्हारे भीतर भी गुनगुन होने लगती है! कि कोई नाचता है तो तुम्हारे पैर भी थिरकने लगते हैं! कि कोई सुंदर वाद्य बजाता है तो तुम अपने हाथ से अपने कुर्सी पर ही ताल देने लगते हो। यह तुमने देखा कि नहीं? यह कैसे घट रहा है? कोई तबला बजा रहा है कि मृदंग ठोंक रहा है, इससे तुम्हारे हाथ ताल क्यों दे रहे हैं? तुम्हारे हाथ का उसकी मृदंग के बजने से क्या संबंध है? कोई वीणा बजा रहा है, तुम्हारा सिर क्यों डोल रहा है? तुम क्यों मस्त हो गये हो? क्योंकि वीणा के बजने से कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है। वीणा बजे तो सिर हिलना ही चाहिये, ऐसा नहीं है, क्योंकि अनेकों के नहीं हिलते। और अगर तुम भी तय कर लो कि नहीं हिलाना है तो नहीं हिलेंगे। कोई मृदंग बजाये तो इससे पैर तुम्हारे थाप देने लगें, यह कोई अनिवार्य नहीं है; यह कोई कार्य-कारण का सिद्धांत नहीं है। बजाता रहे कोई मृदंग, तुम्हें अगर नहीं पैर हिलाना तो नहीं हिलाओगे। लेकिन मृदंग के बजने से कभी-कभी पैर हिलते हैं, हाथ से थाप पड़ती है, गर्दन मस्ती में झूमने लगती है। क्या हो रहा है?

बस ऐसी ही घटना सदगुरु के साथ घटती है, सत्संग में घटती है। उसकी मृदंग बज उठी है, तुम्हें भी अपनी मृदंग की याद आ जाती है। तुम्हारे हाथों में भी सिरहन दौड़ जाती है। तुम्हारे भीतर भी विद्युत का प्रवाह होता है। उसकी वीणा बज रही है; उसकी बजती वीणा के तार तुम्हारी वीणा के तारों को हिला देते हैं, जिसकी तुम्हें याद ही न थी। वह नाच उठा है। उसके घूंघर बज रहे हैं। तुम्हारे पैरों में भी घूंघर बांधने की अभिलाषा जग जाती है। तुम्हारे भीतर भी स्मरण आता है कि पैर तो मेरे पास भी हैं, नाच तो मैं भी सकता हूं; अगर यह व्यक्ति नाच सकता है तो मैं क्यों नहीं नाच सकता? उसी हड्डी-मांस-मज्जा का मैं भी बना हूं और उसी प्रकृति से मैं भी आया हूं, उसी स्रोत से मेरा आगमन हुआ है।

कौन, कहां, किस दिशि में प्रच्छन्न

कोई मुझको तनिक बता दे?

बस तनिक! कोई जरा-सी

अंगुली उठा दे!

कौन, कहां, किस दिशि में प्रच्छन्न

कोई मुझको तनिक बता दे?

 

श्वासों की राहों पर चलता

उर में दीपक सा नित जलता,

दुख में आंसू बन कर ढलता

पल पल परिवर्तन बन छलता

मेरे अकुलाते कानों को

उसका कुछ संदेश सुना दे!

 

सघन तिमिर में क्षीण प्रकाशा

अमित निराशा में मृदु आशा,

क्षण क्षण गिरते का विश्वासा

जो है भाग्य-खेल का पासा,

मेरे विकल दृगों को कोई

उसका शुभ दर्शन करवा दे!

 

पथ-दर्शक पाथेय वही है

अंतिम जीवन-ध्येय वही है,

प्यासे उर का पेय वही है

गद्य वही है, गेय वही है,

उस सूनेपन के सरगम की

कोई मृदु झंकार सुना दे!

 

खोज कहां उसको पाऊंगी

या निज को खोती जाऊंगी?

कौन साधना होगी ऐसी

जिसमें मैं भी खो जाऊंगी?

कौन पंथ पहुंचता उस तक

इतना कोई भेद बता दे!

 

दुनिया की दुविधा के धागे

उसके उलझे कदम के आगे,

मेरे कुंठित भाव अभागे

कह कब, नई चेतना जागे?

जिसके बल पर चरण बढ़ चलें

मुझको मंजिल तक पहुंचा दे!

बस थोड़ा-सा, तनिक-सा इशारा, एक किरण, एक भनक–और शिष्य के भीतर सोया हुआ प्राण जागने लगता है, आंदोलन शुरू हो जाता है! एक बीज हृदय में पड़ जाये तो हृदय अपनी सारी संपदाओं को लेकर अनंत-अनंत फूलों से भर जाता है, अनंत-अनंत दीये जल उठते हैं। बस कोई एक याद तो दिला दे–जरा-सी, तनिक-सी याद!

“सत्य का साक्षात्कार तो उसी पुण्यवान व्यक्ति को होता है जिस पर कि सदगुरु प्रसन्न होते हैं।’

सहजें चित्त विसोहहु चंग। इह जम्महि सिद्धि मोक्ख भंग।।

“सहज की साधना से तू चित्त को अच्छी तरह विशुद्ध कर ले। इसी जीवन में तुझे सिद्धि प्राप्त होगी, और मोक्ष भी।’

सदगुरु सदा ही सहज होने का संदेश देता है। सहज का अर्थ होता है: कृत्रिम आवरण, आचरण मत ओढ़ो। झूठे पाखंडों में मत पड़ो। मुखौटे मत लगाओ। जीवन की जैसी सचाई है, नग्न, उसे स्वीकार करो और आनंदमग्न-भाव से उसे जीयो। तुम जैसे हो सुंदर हो। तुम जैसे हो प्रभु को अंगीकार हो। ऐसे ही, बिलकुल ऐसे ही! तुम्हें रंग-रोगन नहीं लगाना है। तुम्हें चेहरे को पोतना नहीं है। जीवन को नाटक का मंच न बनाओ। जीवन को सरलता से जीयो–अकृत्रिम, निष्कपट। जैसे भी हो बुरे-भले, जरा भी भय न खाओ। जैसे भी हो उसके हो। जैसे भी हो उसके बनाये हो। जैसे भी हो उस पर उसके हस्ताक्षर हैं। होगा कसूर तो उसका होगा। तुम नाहक अपने को और सुंदरतर, और श्रेष्ठतर, और शिवतर बनाने की चेष्टा में न लगो, क्योंकि वे सब चेष्टायें अहंकार की ही चेष्टायें हैं। यह कौन है जो तुम्हारे भीतर कहता है मुझे श्रेष्ठ होना चाहिये, कि मुझे साधु होना चाहिये, कि मुझे संत होना चाहिये? यह कौन है जो तुम्हारे भीतर तुमसे कहता है कि तुम ऐसे होओ कि सारा जगत तुम्हें पूजे? यह अहंकार ही है जो तुम्हारे भीतर बोल रहा है। और अहंकार बड़े शास्त्रों के उद्धरण देता है। अहंकार शास्त्रों का बड़ा ज्ञाता है। यह कहता है: “देखो, किताबों में लिखा है ऐसा होना चाहिये। सत्यवादी बनो, राजा हरीशचंद्र जैसे!’ राजा हरीशचंद्र को वह सहज बात थी और तुम्हारे लिये असहज हो जायेगी। तुम राजा हरीशचंद्र नहीं हो। तुम जो हो वही हो। राजा हरीशचंद्र के लिये जो सहज था तुम्हारे लिये असहज हो जायेगा।

महावीर नग्न खड़े हो गये; वह उनके लिये सहज था। तुम नग्न खड़े होओगे; वह तुम्हारे लिये अभ्यास होगा, सहज नहीं। जबर्दस्ती आरोपित करोगे अपने पर। तुम्हारी नग्नता में कपट होगा, नाटक होगा, असत्य होगा, पाखंड होगा।

जो कृष्ण के लिये सहज है वह तुम्हारे लिये सहज नहीं है और जो तुम्हारे लिये सहज है वह कृष्ण के लिये सहज नहीं होगा।

सहज का अर्थ होता है: अपने स्वभाव को परखो और अपने स्वभाव के अनुसार चलो। नहीं कोई आदर्श थोपो अपने ऊपर। सिद्धों का यह अदभुत संदेश है कि अपने ऊपर आचरण न थोपो और कोई आदर्श निर्मित न करो। आदर्श ने ही लोगों को पाखंडी बनाया हुआ है। जितने बड़े आदर्श उतना बड़ा पाखंड। क्योंकि उन आदर्शों को पूरा तो किया नहीं जा सकता। जैसे गुलाब जुही बनना चाहे, जुही बन तो सकता नहीं, तो अब एक ही उपाय है कि गुलाब अपने गुलाबपन को ढांक ले और बाजार से जुही के प्लास्टिक के फूल खरीद लाए और अपने गुलाबपन के ऊपर जुही के फूल थोप दे, मगर वे जुही के फूल झूठे हैं।

तुम जो हो उसी को निखारो, कुछ और होने की कोशिश न करो। यही मेरी देशना भी है। मैं समस्त आदर्शों के विपरीत हूं। मैं तुम्हें कोई आदर्श नहीं दे रहा हूं। इसलिये आदर्शवादी जब यहां आ जाते हैं तो बहुत चौंकते हैं। वे कहते हैं: आप अपने संन्यासियों को कोई आदर्श दें, कोई आचरण का नियम दें, कोई मर्यादा दें।

मैं कौन हूं किसी को नियम, मर्यादा, आदर्श, आचरण देने वाला? मैं तो सिर्फ बोध देता हूं, ताकि बोध को लेकर तुम, परमात्मा ने तुम्हें जैसा बनाया है वैसे जी सको समग्रता से।

मैं तुम्हें पूर्णता का कोई लक्ष्य नहीं देता, बल्कि समग्रता की प्रतीति देता हूं। इन दोनों में बड़ा भेद है। पूर्णता का लक्ष्य होता है–बहुत दूर, ऊपर…ऐसा होना चाहिये मनुष्य को। समग्रता का अर्थ होता है: जैसा मनुष्य है, उसमें ही पूरा लीन हो जाना चाहिये। तुम जो हो बस वही। कोई नाच सकता हो तो नाचे समग्रता से। अब लंगड़े-लूले भी नाचने की कोशिश करें तो गिरेंगे, चारों खाने चित गिरेंगे, और हाथ-पैर तोड़ लेंगे। कोई गा सकता हो तो गाये, लेकिन कौवे अगर कोयल की तरह गाना चाहेंगे तो जहां होंगे वहीं तिरस्कृत होंगे।

एक कौवा भागा जा रहा था। एक कोयल ने पूछा कि चाचा, कहां भागे जा रहे हो, बड़ी तेजी में हो! उस कौवे ने कहा कि मैं पूरब की तरफ जा रहा हूं। यहां के लोग बेहूदे हैं, नासमझ हैं, शास्त्रीय संगीत समझते ही नहीं। मैं जब भी शास्त्रीय संगीत छेड़ता हूं, बस लोग भगाते हैं, ताली बजाने लगते हैं कि हटो, भागो! मैं पूरब की तरफ जा रहा हूं। मैंने सुना है कि पूरब के लोग शास्त्रीय संगीत के बड़े पारखी हैं। मैं तो अब पूरब में ही जाकर अपना गीत गाऊंगा।

कोयल ने कहा: चाचा, जैसी तुम्हारी मर्जी। जहां जाना हो जाओ, मगर खयाल रखो, लोग सब जगह एक जैसे हैं और तुम्हारा शास्त्रीय संगीत कहीं भी पसंद नहीं किया जायेगा। अच्छा तो यही हो कि तुम इसे संगीत समझना छोड़ो। अच्छा तो यही हो कि तुम जैसे हो वैसा अपने को स्वीकार करो।

और ध्यान रखना, तुम जैसे हो जरूरी नहीं कि दूसरे तुम्हें वैसा स्वीकार करें। इसलिए जो सबसे बड़ा प्रश्न है साधक के लिये यही है कि जब दूसरे स्वीकार न करें तो क्या करें? क्योंकि हमारी आम आकांक्षा तो यही होती है कि सब हमें स्वीकार करें। उसी आम आकांक्षा के कारण तो हम झूठे हो जाते हैं। क्योंकि लोग जिसको स्वीकार करते हैं हम वैसा ही अपने को दिखलाने लगते हैं। क्योंकि हमारे मन में बड़ी गहरी आकांक्षा है कि दूसरे सम्मान दें, सत्कार दें।

संन्यासी वही है, जो कहता है: न मुझे सत्कार चाहिये न सम्मान चाहिये, न मुझे अपमान की चिंता है। मैं तो जैसा हूं, वैसा ही जीऊंगा। तुम सम्मान दो तो ठीक, तुम अपमान दो तो ठीक; वह तुम्हारा प्रश्न है, तुम्हारी समस्या है, मेरा उससे कुछ लेना-देना नहीं। न मैं तुम्हारे सम्मान से प्र्रसन्न होऊंगा और न तुम्हारे अपमान से अप्रसन्न होऊंगा। मैं तुम्हारे सम्मान-असम्मान के सिक्कों को कोई मूल्य ही नहीं देता। तुम मुझे चालित न कर सकोगे। और तुम मेरे मालिक न हो सकोगे।

यही तो सिक्के हैं, जिनके आधार पर दूसरे हमारे मालिक हो जाते हैं। लोग कहते हैं: हम सम्मान देंगे, अगर हमारी बात मानकर चलो। स्वभावतः आखिर सम्मान लेना चाहते हो तो कुछ चुकाना भी पड़ेगा। और जब तुम उनकी बात मानकर चलोगे, झूठे हो जाओगे। जिसे सहज होना है उसे इस बात को समझ ही लेना होगा कि न अब मुझे दूसरों से सम्मान चाहिये, न अपमान का भय होगा। अब तो मैं जैसा हूं, हूं; इसकी ही घोषणा करूंगा। इस सहज भाव से चित्त शुद्ध होता है।

तिलोपा कहते हैं: सहज की साधना से तू चित्त को अच्छी तरह विशुद्ध कर ले। क्यों चित्त विशुद्ध हो जाता है सहज की साधना से? क्योंकि जहां पाखंड नहीं है। वहां शुद्धि है। जहां जबरदस्ती कोई चीज आरोपित नहीं की गई है, जहां विजातीय भीतर नहीं लाया गया है, वहां शुद्धि है।

शुद्ध का क्या अर्थ होता है? तुम दूध में पानी मिला देते हो, उसको अशुद्ध क्यों कहते हो? क्या तुम समझते हो अशुद्ध पानी मिला दिया, इसलिये? तो शुद्ध पानी मिला दो, बिलकुल शुद्ध से शुद्ध पानी गंगाजल या डिस्टिल्ड वाटर ले आओ, क्योंकि गंगाजल का आज-कल कोई खास भरोसा नहीं है, डिस्टिल्ड वाटर तुम दूध में मिला दो तो क्या फिर दूध अशुद्ध नहीं होगा। दूध तो फिर भी अशुद्ध होगा। शुद्ध जल शुद्ध दूध में मिलाने से भी अशुद्ध होता है। क्यों? और तुम यह मत सोचना कि सिर्फ दूध ही अशुद्ध होता है, पानी भी अशुद्ध हो रहा है। हालांकि पानी की कोई कीमत नहीं, इसलिये कोई फिकिर नहीं करता; नहीं तो पानी भी अशुद्ध हो रहा है, दूध भी अशुद्ध हो रहा है। यह बड़ा अजीब गणित है। दो शुद्ध चीजें मिल रही हैं और दोनों अशुद्ध हो गईं! अशुद्ध का अर्थ होता है: विजातीय। दूध दूध है, पानी नहीं है। इसलिये तुम कितना ही शुद्ध पानी डालो, तुमने विजातीय डाल दिया, तुमने दूध की स्वाभाविकता नष्ट कर दी। और पानी भी अशुद्ध हो गया, क्योंकि तुमने पानी की स्वाभाविकता भी नष्ट कर दी।

अशुद्धि का अर्थ होता है: मेरे स्वभाव से भिन्न को थोप लेना। शुद्धि का अर्थ होता है: अपने स्वभाव में जीना। जैसा मैं हूं वैसा ही जीना। रंचमात्र समझौते न करना। और जो समझौता नहीं करता वही संन्यासी है। चाहे प्राण जाएं तो जाएं, मगर समझौता नहीं करता। न खुद समझौता करता है, न दूसरे पर दवाब डालता है कि कोई दूसरा उससे समझौता करे।

खयाल रखना: जब भी तुम दूसरे पर दवाब डालोगे कि वह मुझसे समझौता करे, तुम्हें उससे समझौता करना पड़ेगा। मालिक अपने गुलामों के गुलाम हो जाते हैं। होना ही पड़ता है, क्योंकि जिससे भी तुमने समझौते का रिश्ता बनाया उसके साथ समझौते करने पड़ेंगे। तुम्हें भी थोड़ा झुकना पड़ेगा, उसे भी थोड़ा झुकना पड़ेगा। यह तो लेन-देन से चलेगा काम। और मुश्किल हो जायेगी, दोनों अशुद्ध हो जाओगे।

लेकिन लोग अच्छे-अच्छे नामों में अशुद्धियां छिपाते हैं। तुम महावीर बनने की कोशिश मत करना, अन्यथा अशुद्ध हो जाओगे। और तुम बुद्ध बनने की कोशिश मत करना अन्यथा अशुद्ध हो जाओगे। तुम तो तुम ही बनने का भाव रखना। और तुम्हें तुम्हीं रहना हो तो कोशिश की कोई जरूरत नहीं–तुम हो ही! बस इसकी उदघोषणा कर देनी है। और कोई भी कीमत हो, इसको जीना है। तुम्हारा चित्त शुद्ध हो जाये।

यह चित्त शुद्ध करने की सहजऱ्योग की अपनी प्रक्रिया है। तुमने बहुत और बातें सुनी होंगी, चित्त कैसे शुद्ध होता है। कोई कहता है: चित्त शुद्ध होता है जब तुम कामवासना छोड़ोगे। कोई कहता है: चित्त शुद्ध होगा, जब तुम लोभ छोड़ोगे। कोई कहता है: चित्त शुद्ध होगा, जब तुम आसक्ति छोड़ोगे। सहजऱ्योग बड़ी अदभुत बात कह रहा है। सहजऱ्योग कह रहा है: चित्त शुद्ध है, तुम सिर्फ विजातीय मत डालो। यह कोई काम, लोभ, मोह इत्यादि छोड़ने का सवाल नहीं है; इतना ही है कि पाखंड छोड़ दो। जो तुमने ऊपर से ओढ़ लिये हैं वस्त्र, वे फेंक दो। मुखौटे लगा दिये हैं, गिरा दो। और तुम शुद्ध हो। यह शुद्धि की बड़ी और धारणा है।

इसलिये तुम जानकर हैरान होओगे, ये अदभुत सिद्ध हुए चौरासी, मगर इनका कोई संप्रदाय नहीं बन सका। क्यों? क्योंकि तालमेल ही न बैठा लोगों का इनकी बातों से। लोगों ने तो समझा कि ये तो बड़ी खतरनाक बातें हैं। लोगों ने इन चौरासी सिद्धों की परंपरा को कभी भी सामान्य जीवन पर छाया नहीं डालने दी।

मैं तुमसे फिर एक सिद्ध की भाषा बोल रहा हूं। लोग विरोध करेंगे, पंडित विरोध करेंगे, पुरोहित विरोध करेंगे, राजनेता विरोध करेंगे, समाज के अग्रणी विरोध करेंगे, सब तरफ से विरोध होगा। क्योंकि मैं जो भाषा बोल रहा हूं वह सिद्धों की भाषा है। मैं तुमसे यही कह रहा हूं कि तुम अपनी निजता को गौरव दो, गरिमा दो। तुम्हें परमात्मा ने जैसा बनाया है, बस वैसे ही जीयो, बेशर्त! और जरा भी इंच भर भी यहां-वहां हिलना-डुलना मत। और तुम चित्त की विशुद्धि को उपलब्ध हो जाओगे। और जहां चित्त विशुद्ध है वहां परमात्मा उपलब्ध है।

और तिलोपा कहते हैं कि इस जीवन में ही तुझे सिद्धि प्राप्त होगी और मोक्ष भी। और वे यह नहीं कहते कि मरने के बाद। यहीं, अभी! सच्चा धर्म नगद होता है। सिर्फ नकली धर्म उधार होते हैं, वे कहते हैं: मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा। अब कौन मरने के बाद की बात देख आया! कोई मरकर कहता भी नहीं कि क्या मिला, क्या नहीं मिला। मरने के बाद का आश्वासन! इससे बड़ी जालसाजी कोई और हो सकती है? लोगों से तुम कह रहे हो उपवास करो, भूखे मरो, शरीर को सड़ाओ-गलाओ, कांटों पर सोओ, क्योंकि मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा; अभी नर्क में जीयो–भूख में, प्यास में, धूप में। अभी सड़ाओ अपने को, गलाओ, क्योंकि मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा! और कैसे मूढ़जन हैं कि हाथ की आधी रोटी मरने के बाद जो पूरी रोटी मिलेगी उसके लिये छोड़ देते हैं। यह कोई समझदारी तो नहीं। यह कोई जीवन का अर्थपूर्ण गणित तो नहीं। और कितना बड़ा जाल चल रहा है। और ऐसे धोखे पर भी कितने धंधे चल रहे हैं! कितने मंदिर, कितने मस्जिद, कितने गुरुद्वारे! सारा जाल इस पर है कि मरने के बाद यह हो जायेगा।

मैं सूरत में मेहमान था। एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि आपको पता है, यहां हमारा एक संप्रदाय है। इस संप्रदाय में बड़ी अजीब धारणा है! उस संप्रदाय के प्रमुख सूरत रहते हैं। धारणा यह है कि कोई भी आदमी मर जाये, वह जो धर्म-प्रमुख हैं उनको दान कर जाता है और धर्म-प्रमुख चिट्ठी लिख देते हैं। परमात्मा के नाम, चिट्ठी लिख देते हैं कि इस आदमी ने लाख रुपये दिये, इसका खयाल रखना। जोग लिखी इत्यादि इत्यादि…। और वह आदमी जब मर जाता है तो उसकी छाती पर वह चिट्ठी रखकर उसको कब्र में रख देते हैं। वह लाख रुपये दे गया, वह तो मिल गया पुरोहित को और एक चिट्ठी पड़ी हाथ मुर्दे के, जो पता नहीं कहीं जायेगा भी कि नहीं जायेगा और जायेगा भी तो चिट्ठी कैसे ले जायेगा?

मैंने उनसे कहा कि तुम एकाध कब्र खोदकर तो देखो, चिट्ठियां वहीं की वहीं पड़ी हैं। तो तुम्हें पक्का हो जायेगा कि चिट्ठी कहीं नहीं गई, चिट्ठी यहीं पड़ी है।

उन्होंने कहा: यह बात तो हमें खयाल में ही न आई। मगर कब्र खोदना ठीक बात नहीं है।

यह तुम्हारी मर्जी, पर मैंने कहा, तुम कब्रें खोद कर देख लो, सब चिट्ठियां मिल जायेंगी तुम्हें वहीं। आदमी अपने शरीर को नहीं ले जा सका, चिट्ठी ले जायेगा?

मगर धोखे चल रहे हैं। मरने के बाद…! सच्चा धर्म कहता है: अभी, यहीं। मैं तुमसे कहता हूं: आनंद यहां उपलब्ध है। नृत्य यहीं हो सकता है और अभी हो सकता है। तुम कल पर क्यों टाल रहे हो? कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम भी दुख के साथ इतने जुड़ गये हो कि तुम्हें भी यह भरोसा नहीं आता कि आज हो सकता है। तुम्हें भी यही पक्की बात लगती है कि मरने के बाद होगा। तुम दुख के इतने आदी हो गये हो कि जो तुम्हें सुख की बात कहता है, लगता है झूठ ही कहता होगा। सुख और हो सकता है कहीं?

तुम्हारी दुख की आदत तुम्हें शोषण का शिकार बनाती है। तुम्हारी आदत कि सुख अभी हो नहीं सकता, मरने के बाद हो तो हो–रास्ता मिल गया पंडित, पुरोहित, मौलवी को, कि तुम्हें स्वर्ग के बाद के सुंदर सपने दिखा दे और तुम्हें लूटता रहे।

तिलोपा कहते हैं: इसी जीवन में तुझे सिद्धि प्राप्त होगी, और मोक्ष भी। न तो मोक्ष कोई भौगोलिक अवस्था है कि कहीं और…न सिद्धि का मृत्यु से कोई अनिवार्य संबंध है। सिद्धि है तुम्हारी सहज अवस्था का आविर्भाव। तो अभी हो सकता है। और मोक्ष क्या है? आचरण, आदर्श, पाखंड, इन सबसे मुक्ति। तुम्हारे भीतर की स्वतंत्रता की उदघोषणा मोक्ष है। वीणा मौजूद है, शायद तार थोड़े उलझें हों तो सुलझा लो; कि तार थोड़े ढीले हों तो कस लो; कि ज्यादा कसे हों तो थोड़े ढीले कर लो। किसी सत्संग में बैठकर अपनी वीणा को सम्हल जाने दो–और गीत उठेगा!

मैंने गीत कहां गाया है?

अपने ही नीरस जीवन में,

मैंने नव उल्लास भरा है!

अपने सूने प्राण-विपिन में,

प्रिय! मैंने मधुमास भरा है!

अपने ही वीणा के उलझे,

तारों को बस सुलझाया है!

मैंने गीत कहां गाया है?

 

नहीं मुझे संकोच कि मेरी,

भाषा में कुछ जान नहीं है!

नहीं मुझे संकोच कि भावों

पर सुंदर परिधान नहीं है!

नहीं जगत के लिये लिखा है,

अपना ही मन बहलाया है!

मैंने गीत कहां गाया है!

 

तुमने ही मेरी खुशियों को,

आंसू पी जाना सिखलाया!

तुमने ही अंतर के स्वर को,

ओंठों पर आना सिखलाया!

तुमने जो कुछ सिखलाया था,

मैंने उसको दोहराया है!

मैंने गीत कहां गाया है?

तुम जरा सम्हल जाओ, परमात्मा तुमसे गीत गाये!

अपने ही नीरस जीवन में,

मैंने नव उल्लास भरा है!

नाचो! उमंग से भरो, उत्साह से भरो!

अपने सूने प्राण-विपिन में,

प्रिय! मैंने मधुमास भरा है!

भीतर उठेगा बसंत! बाहर की ऋतुएं वृक्षों पर आती हैं, तुम्हारी ऋतु भीतर आनेवाली है।

अपने ही वीणा के उलझे,

तारों को बस सुलझाया है!

मैंने गीत कहां गाया है?

गीत गाना ही नहीं पड़ता, बस तार सुलझ जायें कि गीत गाया जाता है! कोई अपूर्व, कोई अनजान हाथ, कोई अलौकिक हाथ तुम्हारी वीणा पर अपनी अंगुलियों को छेड़ देता है।

यहीं है सिद्धि, यहीं है मुक्ति। और जो यहां नहीं है वह कहीं भी नहीं है। और जो यहां है वह सब जगह है। जिसने जीते-जी जीवन का अर्थ समझा, वह मरते-मरते भी जीवन का अर्थ समझेगा। मरकर भी जीवन का अर्थ समझेगा। जो तुम मृत्यु के बाद पाना चाहते हो उसे आज पा लो, तो ही मृत्यु के बाद पा सकोगे, क्योंकि तुम तो तुम ही रहोगे। कौआ पूरब से पश्चिम जाये कि पश्चिम से पूरब जाये कांव-कांव ही करता रहेगा। तुम तो तुम ही रहोगे। मरने से ही क्या हो जायेगा? यही मन, यही अहंकार, यही रोग, यही बीमारियां लेकर तुम नई देह में प्रवेश कर जाओगे। नहीं, कुछ भी न होगा मरने से।

मृत्यु नहीं, जीवन को बदलना है। और जीवन को बदलना है किसी और के आदर्श को मानकर नहीं, अपने स्वभाव को स्वीकार करके।

“जितने सब आचार-व्यवहार हैं वे या तो सचल हैं यह निश्चल।’

सचल णिचल जो सअलाचर।

“किंतु शून्य निरंजन सकल विकल्पों से रहित है। उसका विचार नहीं करना चाहिये; विचार से वह परे है।’

सुण णिरंजण म करू विआर।।

तिलोपा कहते हैं कि आचार-व्यवहार तो विचार की बात है, सोच-विचार की, सामाजिक नीति-व्यवस्था की। जो बात एक जगह आचरण है, दूसरी जगह अनाचरण है। जो बात एक जगह अच्छी समझी जाती है, दूसरी जगह बुरी समझी जाती है। जो एक जाति में शुभ है वही दूसरी जाति में अशुभ है।

एक किताब परसों आई मेरे पास। कीड़े-मकोड़ों को कैसे भोजन बनाया जाये, इस संबंध में। सब कीड़े-मकोड़े! चींटियों पर कैसे चाकलेट चढ़ाकर खाया जाये। और तितलियों को कैसे सुखाकर और तला जाये। किताब का नाम ही है: बटर फ्लाई, बटर फ्लाई! विवेक उस किताब को पढ़ने लगी तो उसे बहुत घबड़ाहट हुई। उसका नाम ही ऐसा है…अंग्रेजी में तो बटर फ्लाई तब कहते हैं जब तुम्हारे पेट में हड़बड़ी मच जाये, तब कहते हैं कि बटर फ्लाई, पेट में बटर फ्लाई पैदा हो गई। अब जब उसने पढ़ा, विवेक ने, कि बटर फ्लाई को कैसे सुखाओ और कैसे तलो और कैसे-कैसे उसके ऊपर चाकलेट चढ़ाओ, तो उसके पेट में गड़बड़ होने लगी। उसने कहा: यह तो बहुत खतरनाक किताब है! क्या ऐसे लोग भी हैं जो तितली खाते हैं और चींटे और चींटियें और इनको इकट्ठा करके कैसे सुस्वादु ढंग से बनाया जाये…।

मैंने उसे कहा कि दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे खाने वाले लोग न हों। चीन में लोग सांप को खाते हैं। सिर काट देते हैं और फिर सांप की सब्जी बनाते हैं। सांप! बिच्छू को भी नहीं छोड़ते! बिच्छू भी जब तला जाता है तो बड़ा कुरमुरा हो जाता है। सारी दुनिया में सब चीजों को खानेवाले हैं। मैंने विवेक को कहा कि तू तो इंग्लैंड में रही, अंडे खाते वक्त तुझे कभी बेचैनी नहीं हुई, मांसाहार करते वक्त तुझे कभी बेचैनी नहीं हुई। तब वह चौंकी कि अब सोच में आता है। सात साल यहां शाकाहारी रहने के बाद अब सोच में आता है कि मैं कैसे अंडे खा सकी, कैसे मांसाहार कर सकी! लेकिन जो मांसाहार करता है उसको यह समझ में नहीं आता कि चींटे खाने में क्या अड़चन है। जो चींटे खाता है वह नहीं मान सकता कि अंडा खाना ठीक बात है।

तुम भी कहोगे कि यह सांप-बिच्छू खाना तो जरा जंचता नहीं, मछली इत्यादि ठीक है। मगर जो सांप-बिच्छू खानेवाले हैं, हो सकता है मछली खाना पसंद न करें। सारे जगत में इतने आचरण हैं और सब अपने आचरण को ठीक मानकर चलते हैं और दूसरे के आचरण को भूल मानते हैं।

तिलोपा कहते हैं: “जितने सब आचार-व्यवहार हैं या तो सचल हैं या निश्चल। किंतु शून्य निरंजन सकल विकल्पों से रहित है।’

तुम आचार-विचारों में मत उलझो। तुम तो उसकी तलाश करो, जो तुम्हारे भीतर है और शून्य है। उस शून्य निरंजन को खोजो, जो समस्त विकल्पों से रहित है; जिसका न कोई पक्ष है, न कोई धारणा है, न कोई नीति है, न कोई अनीति है; जहां न पुण्य है न पाप है। तुम तो उस साक्षी को खोजो जो सब का देखनेवाला है। करने की बात में तो बहुत विकल्प हैं, देखने की बात में कोई विकल्प नहीं है इस बात को खयाल में लेना। कोई आदमी रोटी खा रहा है, कोई अंडा खा रहा है, कोई मछली, कोई सांप। खाने में तो बड़े विकल्प हैं, लेकिन देखने वाला एक ही है। चाहे मछली खाओ चाहे सांप देखने वाला द्रष्टा एक ही है।

अब दो तरह के लोग हैं दुनिया में कुछ लोग यही बदलते रहते हैं कि क्या खायें, क्या न खायें। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे।

एक क्वेकर ईसाई मेरे पास मेहमान हुआ। सुबह, जैसा स्वाभाविक था, मैंने उससे पूछा कि आप दूध लोगे, चाय लोगे, काफी लोगे? उसने कहा: “दूध! आप दूध पीते हैं!’ वैसे ही समझ लो कि तुम चीन गये और किसी के घर मेहमान हुए और उसने कहा कि आप सुबह-सुबह नाश्ते में बिच्छू लेंगे कि सांप? तो तुम्हारी क्या गति हो जाये! तुम एकदम चौंककर खड़े हो जाओगे बिच्छू-सांप, मजाक कर रहे हो! यह कोई खाने की चीज है, यह कोई नाश्ता है?…मगर सांप में बड़े विटामिन हैं! नाश्ते जैसा नाश्ता है!

उसने मुझसे ऐसा पूछा कि दूध! एक क्षण को तो मैं भी सकते में आ गया कि बात क्या है, दूध! फिर मुझे खयाल आया कि क्वेकर दूध नहीं पीते क्योंकि दूध को वे खून मानते है। है भी खून। इसलिए तो दूध पीने से खून बढ़ जाता है। मां के स्तन से मां का खून दो हिस्सों में बंट जाता है। उसके लाल कण अलग हो जाते हैं और सफेद कण दूध बन जाते हैं। खून में दो हिस्से हैं सफेद और लाल कण के। मां अपने बच्चे को अपना खून ही तो पिला रही है! क्वेकर कहते हैं: दूध! बहुत बुरी बात है, यह तो मांसाहारी जैसा ही है; खून हुआ कि मांस हुआ, बराबर है। क्वेकर दूध नहीं पीते, दही नहीं खाते, मक्खन नहीं खाते, घी नहीं खाते।

अब भारतीय चित्त तो बड़ी मुश्किल में पड़ जायेगा; दूध तो सात्विक आहार है! दूध से सात्विक और क्या है भारत में? तो जो आदमी सिर्फ दूध ही दूध पीता है, दुग्धाहारी, उसकी तो लोग पूजा करते हैं। और वे सज्जन सिर्फ खून ही खून पीते हैं दुग्धाहारी नहीं कहना चाहिये उनको–रक्ताहारी!

मैं रायपुर में था तो वहां एक आश्रम ही है दूधाधारी आश्रम उसका नाम है; उसमें दूध ही दूध पीना पड़ता है। जब मैं उनके महंत को मिला, मैंने उनसे कहा: यह क्या पाप करवा रहे हो, दूध ही दूध, यह तो खून ही खून है! वे मुझसे बोले: आप कैसी बातें कर रहे हैं! दूध और खून! दूध तो ऋषि-मुनि सदा से पीते रहे हैं। मैंने कहा: ऋषि-मुनि ऋषि-मुनियों कि जानें। अब कौन ऋषि-मुनियों की फिकिर करे, सचाई तो सचाई है।

दू्ध तो रक्त है। तब तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी। खाओगे क्या, पियोगे क्या? जीयोगे कैसे? लेकिन कुछ इसी में लगे रहते हैं–इसी आचरण-व्यवहार में लगे रहते हैं। फिर तुम्हारे ऋषि-मुनि दूध पीते रहे, चीन के ऋषि-मुनि खाते रहे सांप को, छोड़ा नहीं ऋषि-मुनियों ने भी!

एक झेन फकीर की प्रसिद्ध कहानी है कि एक मेहमान घर आया है फकीर के और भोजन बना और जब मेहमान आया तो सांप कटे। और जब उस झेन फकीर ने अपना भोजन का कौर उठाया तो बहुत चकित हुआ, क्योंकि सांप को जब बनाते हैं सब्जी तो उसका मुंह काटकर अलग कर देते हैं, क्योंकि उसके मुंह में तो जहर की ग्रंथि होती है, खतरनाक है। उसने पहला ही कौर उठाया कि उसके हाथ में सांप का मुंह आया। तो जिस भिक्षु ने भोजन बनाया था…आश्रम था तो भिक्षु ही भोजन बनाते थे, उसने भिक्षु को बुलाया और कहा: यह क्या है? मगर भिक्षु भी एक अद्भुत भिक्षु था। उसने जल्दी से उसे हाथ में लिया, खा गया। कहा: धन्यवाद, आपने मेरी याद की! खा गया उसको! गुरु बहुत प्रसन्न हुआ। यही किया जा सकता था, और तो क्या?

तो ऋषि-मुनि भी सांप खा रहे हैं। तो ऋषि-मुनियों से कुछ नहीं होगा। और अब ऋषि-मुनि हैं कहां?

एक मां अपने बेटे को कह रही थी कि तू जल्दी उठाकर, सुबह देर तक सोया रहता है, ऋषि-मुनि सदा जल्दी उठते हैं। उस बेटे ने कहा कि नहीं उठते। मुझे पक्का मालूम है ऋषिकपूर नौ बजे के पहले नहीं उठता और दादामुनि अशोककुमार, वे तो दस बजे उठते हैं।

अब तो ऋषि-मुनि भी बदल गये। अब तुम कहां ऋषि-मुनियों की बात छेड़ रहे हो? मगर क्या खाओगे, क्या पियोगे? कुछ तो खाओगे, कुछ तो पियोगे। सांस लेने में भी हिंसा हो रही है। क्योंकि न मालूम कितने कीटाणु एक सांस में मर जाते हैं, लाखों!

तो आचार-व्यवहार पर सहजऱ्योग का कोई जोर नहीं है। सहजऱ्योग कहता है कि आचार-व्यवहार जैसा जहां उचित हो चला लेना, उसकी बहुत चिंता मत करना। इसलिये रामकृष्ण मछली खाते रहे, क्योंकि बंगाली और मछली न खाये…। बंगाल में और मछली न खाओ…! तो जीसस मांसाहार करते रहे और शराब भी पीते रहे। वह स्वीकृत अंग था।

सहजऱ्योग कहता है कि जहां हो, जो सुविधापूर्ण है, जैसा है आचार-व्यवहार लोगों का, और जिसमें तुम बड़े हुए हो, वैसे ही चलाये जाना; उसका कोई मूल्य बहुत नहीं है। असली मूल्य तो किसी और बात का है–वह है शून्य निरंजन सकल विकल्पों से रहित! वह जो तुम्हारे भीतर साक्षी है उसको जगाओ। मछली खाओ कि दूध पियो, मगर साक्षी को जगाये रहो। जानते रहो कि मैं द्रष्टा हूं; मैं खानेवाला नहीं हूं, पीनेवाला नहीं हूं। मैं केवल द्रष्टा हूं, मैं कर्ता नहीं हूं।

और इस निरंजन का, इस सकल विकल्पों से रहित साक्षी का विचार करने मत बैठ जाना कि बैठकर सोच रहे हैं: अहं ब्रह्मास्मि, कि मैं साक्षी हूं! विचार मत करना इसका, इसका अनुभव करना। क्योंकि वह सकल विचारों से परे है, उसका विचार नहीं करना चाहिये। वह विचार से परे है।

हंउ जग हंउ बुद्ध हंउ णिरंजण।

बड़ा क्रांतिकारी उदघोष है: “मैं जगत हूं, मैं बुद्ध हूं, और मैं ही निरंजन हूं!’

हंउ जग हंउ बुद्ध हंउ णिरंजण।

हंउ अमणसिआर भवभंजण।।

“मैं ही मानसिक अकर्ता हूं। और सबका, सब भव का भंजन करनेवाला भी मैं ही हूं।’ यह जो भीतर तुम्हारे साक्षी बैठा है, यह जो तुम्हारा आत्यंतिक “मैं’, तुम्हारी आत्मा है, यह सब कुछ है; बस इसके प्रति तुम जागो, इसको जगाओ। मैं जगत हूं…और तब तुम पाओगे यही तुम्हारा जगत है। मैं ब्रह्म हूं, मैं बुद्ध हूं, मैं निरंजन हूं, मैं ही सत्य हूं। अनलहक, जो मंसूर ने कहा। और अहं ब्रह्मास्मि, जो उपनिषदों ने कहा। इस घोषणा को और भी गहरा कर दिया तिलोपा ने।

वियोगी हरि ने अपनी प्रसिद्ध किताब संत-सुधा-सार में इस वचन के संबंध में लिखा है कि अद्वैतवादियों की भांति तिलोपा ने भी कहा है: मैं जगत हूं, मैं बुद्ध हूं और मैं ही निरंजन हूं! वियोगी हरि की बात से मैं राजी नहीं हूं। अद्वैतवादी इतनी हिम्मत नहीं करते। वे तो इतना ही कहते हैं कि मैं ब्रह्म हूं, अहं ब्रह्मास्मि। वे यह नहीं कहते कि मैं माया भी हूं। वह हिम्मत तो सिर्फ सिद्ध कर सकता है। भेद समझ लेना। वियोगी हरि को भेद साफ समझ में नहीं आया। उन्होंने तो वही उदघोषणा अहं ब्रह्मास्मि की समझी कि वही उदघोषणा यह भी है। “हंउ जग’ किसी ब्रह्मवादी ने किसी अद्वैतवादी ने यह नहीं कहा कि मैं जगत भी हूं। इतना तो कहा कि मैं ब्रह्म हूं। ब्रह्म के साथ एक हो जाने में कौन अड़चन है! कौन नहीं हो जाना चाहता! मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू! लेकिन सिद्ध मीठे को भी गप्प कर जाते हैं, कड़वे को भी गप्प कर जाते हैं। सिद्ध की छाती बड़ी है। अद्वैतवादी की छाती उतनी बड़ी नहीं है।

हंउ जग हंउ बुद्ध हंउ णिरंजण।

“मैं जगत, मैं बुद्ध और मैं ही निरंजन। मैं ही मानसिक अकर्ता हूं।’

बस अकर्ता को जान लो तो तुम सब जान लोगे। साक्षी-भाव को पहचान लो तो तुम सब पहचान लोगे।

“भव का भंजन करनेवाला भी मैं ही हूं।’ और जिस दिन तुमने साक्षी को जाना उसी दिन सारे भव का भंजन हो गया। हो गये पार सारे स्वप्नों के।

तित्थ तपोवण म करहु सेवा।

देह सुचिहि ण स्सन्ति पावा।।

“न तीर्थ सेवन करो, न तपोवन को जाओ। तीर्थों में स्नानादि करने से मोक्ष-लाभ होने का नहीं।’ अगर स्नान करना हो तो साक्षी-भाव में करो। वही तीर्थ है, वही गंगा है। वहीं मुक्त होओगे, वहीं शुद्ध होओगे। व्यर्थ न भटको बाहर।

देव म पूजहू तित्थ ण जावा।

देव पूजाहि ण मोक्ख पावा।।

“न देव-प्रतिमा की पूजा करो, न तीर्थयात्रा। देवाराधन में तुम्हें मोक्ष मिलने का नहीं।’

पत्थरों को मत पूजो, चैतन्य को जगाओ। न देव-प्रतिमा की पूजा करो, न तीर्थयात्रा। बाहर की यात्राओं से भीतर कैसे पहुंचोगे? बाजार भी बाहर है, मंदिर भी बाहर है; तुम भीतर हो। किसी को मारा तो बाहर और किसी की पूजा की तो बाहर; और तुम भीतर हो। देवाराधन से तुम्हें मोक्ष मिलने का नहीं। बाहर से छूटो, भीतर आओ। वह तुम्हारे भीतर मौजूद है।

मैं चेतना के अतल अम्बुधि की लहर,

मैं जागरण का सत्य शिव सुंदर प्रहर,

मैं ज्ञान के आलोक की चेतन किरण,

मैं सृजन-शक्ति अनंत का अलोक कण!

मृत्तिका की देह है मेरा न कारागार,

स्वप्न जीवन मरण भी मेरे नहीं व्यापार,

मैं किसी के हाथ की मादक स्वरों की बीन,

सृष्टि के तागे सम-असम स्वर जिसमें हुए सब लीन!

स्मरण करो, स्मरण करो–कौन हो तुम? तुम साक्षी मात्र हो। तुमने बहुत दृश्य देखे हैं–अच्छे, बुरे, सफलता-असफलता के, दुख के सुख के। तुमने अंधेरे देखे हैं, रोशनियां देखी हैं। यश देखे हैं, अपमान देखे हैं। तुमने जवानी देखी, बुढ़ापा देखा, बचपन देखा। तुमने स्वास्थ्य देखा, बीमारियां देखीं। तुमने सब देखा है, सिर्फ एक तुम्हारे देखे के बाहर रह गया है–देखने वाला। अब उसको देख लो। उसको पहचानते ही मोक्ष, उसको पहचानते ही सिद्धि। और वह तुमसे जरा भी दूर नहीं, वह तुम ही हो।

हंउ जग हंउ बुद्ध हंउ णिरंजन।

तिलोपा की इस उदघोषणा के साथ हम कुछ दिन चलेंगे, ध्यान करेंगे। जागना। जगाना भीतर जो सोया है।

खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायन खोलो

मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।

धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

 

लिये आ रहा फूलों का स्वर्णिम विकास मैं,

लिये आ रहा हूं सुगंध उन्मुक्त विपिन की;

लिये आ रहा स्वर्णाताप अपनी मयूख का,

लिये आ रहा हूं शीतलता मैं हिमकण की।

 

उठो, उठो, उपधानों पर शीश उठाओ,

पलक खोल कर देखो, कैसी लाल विभा है।

मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे द्वार खड़ा हूं,

धूप रोकनेवाला सब आवरण हटा दो।

 

दारु-सद्म-से निज उर के वातायन खोलो,

वातायन जो बहुत दिनों से बंद पड़े हैं।

और मुझे छितराने दो अपने मंदिर में

आभा, आतप, ओस, पुष्ट औ’ गंध विपिन की।

 

खोलो गृह के द्वार, मुंदे वातायन खोलो,

मैं जीवन का सूर्य तुम्हारे घर आता हूं।

धूप रोकनेवाले सब आवरण हटा दो।

 

आज इतना ही।

 

 


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सहज योग–(प्रवचन–12)

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प्रेम: कितना मधुर, कितना मंदिर—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 2 दिसंबर ,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—मैंने मांगा कुछ, और मिला कुछ और। मांगी मन की मृत्यु–मिली मन की मगनता। मेरे मन में ज्ञानऱ्योग का महत्व ज्यादा है, परंतु अब प्रेम-भक्ति के भाव भी सघन हो रहे हैं। मन और शरीर जैसे रस के सरोवर में डूब गये हों! यह सब क्या है?

 2—जहां सिद्ध सरहपा और तिलोपा के नाम सुदूर तिब्बत, चीन और जापान में उजागर नाम हैं, वहां अपने ही जन्म के देश में वे उजागर न हुए–इसका क्या कारण हो सकता है?

 3—आप कहते हैं कि बुद्ध जहां रहते हैं उनके आस-पास के सूखे हुए वृक्ष भी हरे-भरे हो जाते हैं, मगर ये पूनावासी क्यों सूखते जा रहे हैं?

 

4—मैं टूटता हूं, मैं डूबता ही जा रहा हूं। आपकी शरण आया हूं। प्रभु, मेरा स्वीकार करो!

 

5—जो सबका देखनेवाला है और सबके अंतर में ही रहता है, फिर भी जानने में क्यों नहीं आता?

 

6—आपकी अनुकंपा का कैसे धन्यवाद करूं?

 

7—हे परमात्मा! आपको सुनकर झूमने लगती हूं। और विराट जीवन, सब रंगों से भरी दुनिया, यह अनंत विस्तार…मैं कैसे आरती उतारूं?

 

 

पहला प्रश्न:

 

मैंने मांगा कुछ, और मिला कुछ और। मांगी मन की मृत्यु–मिली मन की मगनता!

मेरे मन में ज्ञानऱ्योग का महत्व ज्यादा है, परंतु अब प्रेम-भक्ति के भाव भी सघन हो रहे हैं। यहां बीस दिनों से प्रवचन, सक्रिय और कुंडलिनी ध्यान में एवं आश्रम-संगीत में भी भाग लेता हूं। परिणाम-स्वरूप शांति एवं शून्यता के अलावा रस-लीनता बढ़ती जाती है। मन एवं शरीर जैसे रस के सरोवर में डूब गये हों!

यह सब क्या है–बताने की कृपा करें।

 

नंद मनु! जो मांगा वही मिला। मांगते समय मांगनेवाले को भी शायद पता नहीं होता कि क्या मांग रहा है; यह तो मिलने पर ही ठीक-ठीक पता चलता है।

बीज बोते समय पता भी कैसे हो कि कैसे फूल लगेंगे, कैसे फल आयेंगे, कैसे वृक्ष होंगे? यह तो जब फूल लग जाते हैं तभी पता चलता है। बीज के साथ तो हमारी अभीप्सा होती है, प्रार्थना होती है, लेकिन फूल के साथ हमने जो चाहा था, जो सपना देखा था वह सत्य बनता है।

तुम कहते हो: “मैंने मांगा कुछ, और मिला कुछ और।’ ऐसा कभी होता ही नहीं। जो मांगते हो वही मिलता है। तुम कहते हो: “मांगी मन की मृत्यु, मिली मन की मगनता।’ जो भी मन की मृत्यु मांगेगा उसे मन की मगनता ही मिलती है, क्योंकि मन की मगनता ही मन की मृत्यु है। मन की मृत्यु है तुम्हारा जीवन। जब तक मन है तब तक तुम नहीं। जब तक मन है तब तक तुम जीवित ही कहां हो? तब तक एक थोथा जीवन है, एक झूठा जीवन है, एक बोझ है, एक भार है, जो ढोते हो। तब तक तो मृत्यु ही मृत्यु है जब तक मन है। तब तक तुम्हारा पूरा जीवन जन्म से लेकर मरण तक मृत्यु की ही एक धीमी-धीमी यात्रा है। आहिस्ता-आहिस्ता मरने का नाम ही तुमने जीवन समझ लिया है।

जब तुम मन की मृत्यु मांगोगे तो तुमने मृत्यु की मृत्यु मांग ली, क्योंकि मन यानी मृत्यु। मन मरा तो मृत्यु मर गई। फिर है जीवन, फिर है महाजीवन, फिर है शाश्वत जीवन। अमृत के द्वार खुलते हैं फिर। फिर है मगनता, फिर है नृत्य, उत्सव। फिर प्रभु के धन्यवाद में जीवन सिवाय आनंद के और कुछ भी नहीं है।

तुमने जो मांगा था वही मिला है, यद्यपि तुम्हें साफ-साफ नहीं था कि तुम क्या मांग रहे हो। और ऐसा अकसर हो रहा है। ऐसा अकसर अधिक लोगों के जीवन की यही कथा है। कोई धन मांगता है, मिलती है निर्धनता–और तब वह छाती पीटता है और सोचता है मैंने मांगा था धन। लेकिन धन ने कभी किसी को धनी किया? अगर धन धनी करता होता तो इस जगत में जिनके पास धन है वे आनंद-मगन हो गये होते। तो फिर बुद्ध राजमहल क्यों छोड़ते? फिर महावीर नग्न क्यों खड़े होते?

नहीं, धन में धन नहीं है। इसलिए जिन्होंने धन मांगा उन्होंने अनजाने निर्धनता मांग ली है। और जब निर्धनता टूट पड़ेगी, उनकी मांग जब पूरी होगी, तब वे छाती पीटकर रोयेंगे और वे कहेंगे: क्या मांगा और क्या मिला!

जिन्होंने पद मांगा है, उन्होंने हीनता मांग ली है, दीनता मांग ली है। क्योंकि पद पर होने से कोई कभी शक्तिशाली नहीं हुआ है। शक्तिशाली तो केवल वे ही हुए हैं जो ना कुछ हो गये। जिन्होंने शून्य मांगा उन्हें शक्ति मिली और जिन्होंने शक्ति मांगी उन्होंने केवल रिक्तता के अतिरिक्त कुछ भी न पाया।

तुमने सुख मांगा, मिला कहां? मिलता तो दुख है। तब तुम्हारी समझ में तर्क नहीं आता, जीवन का गणित नहीं आता। तुम कहते हो: मैंने सुख मांगा, सुख की सारी चेष्टा भी की और मिला दुख। लेकिन सुख तुम जिसे कहते हो वह दुख का ही दूसरा नाम है। तुम्हें अभी असली सुख का पता ही नहीं। तुमने नकली सुख मांगा; ऊपर-ऊपर सुख, भीतर-भीतर दुख होगा। तुमने मृगमरीचिका मांगी। दूर से सुहावने लगेंगे वे ढोल, पास आने पर हाथ कुछ भी न लगेगा, हाथ खाली के खाली रह जायेंगे।

अधिक लोगों के जीवन का यही अनुभव है कि उन्होंने कुछ मांगा और कुछ मिला। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं: तुम जो मांगते हो वही मिलता है। कभी तुम्हारी मांग गलत होती है, तो तुम्हें जो मिलता है वह गलत होता है और कभी तुम्हारी मांग सही होती है तो चाहे दुनिया-भर को लगे कि तुम गलत मांग रहे हो…। अब जैसे कि तुमने मन की मृत्यु मांगी, देखने पर तो लगेगा: यह भी कोई मांग हुई? मांगना था अमृत जीवन, मांगना था महाजीवन, मांगना था आत्मज्ञान। मांगी मन की मृत्यु! यह कोई मांगना है?

लेकिन मन की मृत्यु जो मांगता है उसे ही मिलता है आत्मज्ञान। और जो आत्मज्ञान मांगता रहता है, उसे कभी कुछ नहीं मिलता। क्योंकि आत्मज्ञान की मांग तो मन को ही मजबूत कर जाती है। जो शाश्वत जीवन को मांगता है वह तो मृत्यु से भयभीत है। और जो मृत्यु से भयभीत है वह कैसे शाश्वत जीवन जान सकेगा? जो कहता है मैं सदा-सदा रहूं, वह तो डरा हुआ है। उसे तो पता है कि मरना होगा। वह मरने के खिलाफ मांग कर रहा है। वह जीवन के विरोध में मांग कर रहा है। वह जीवन के विपरीत जाना चाहता है। वह नदी में उल्टी धारा में तैरना चाहता है। हारेगा, थकेगा, टूटेगा। लेकिन जिसने कहा कि ले लो यह मन, ले लो यह जीवन, इससे न कुछ मिला है न कुछ मिल सकता है, छीन लो मुझसे मेरी ये सारी आकांक्षायें।…इन आकांक्षाओं में परमात्मा की आकांक्षा भी सम्मिलित है। इन   आकांक्षाओं में मोक्ष की आकांक्षा भी सम्मिलित है।…छीन लो मुझसे मेरी सारी आकांक्षायें, दग्ध कर दो मेरे वासना के बीज को।…जिसने ऐसा मांगा उसके जीवन में अमृत बरस जाता है।

और तुम कहते हो कि ज्ञानऱ्योग का महत्व मेरे मन में ज्यादा है। ज्ञानऱ्योग अकसर सिर में ही अटका रह जाता है। ज्ञानऱ्योग सिर्फ जानकारी बनकर समाप्त हो जाता है। जब तक तुम्हारा हृदय न छू लिया जाये, जब तक तुम्हारा हृदय गदगद न हो, रस-विभोर न हो, तब तक कहां ज्ञान? ज्ञान के नाम पर कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लोगे, जानकारियों का संग्रह बढ़ा लोगे। जानकारियों के पहाड़ भी हों तुम्हारे पास तो भी रत्ती-भर ज्ञान नहीं होता।

ज्ञान से कहीं ज्ञान होता है? ध्यान से ज्ञान होता है; प्रेम से ज्ञान होता है। जिसने प्रेम जाना उसने परमात्मा जाना। और जो शास्त्रों में ही खोजता रहा वह घूरे पर बैठा रहा। कुछ लोग घूरे पर बैठकर खोजते रहते हैं धन को–किसी का पैसा पड़ा हो, किसी का गहना कचरे में आ गया हो। शायद घूरे पर बैठे-बैठे कोई एकाध पैसा, कोई एकाध गहना कभी मिल भी जाये, मगर शास्त्रों के घूरे पर बैठनेवाले को उतना भी नहीं मिलता; वहां कुछ भी नहीं है। जो हृदय के द्वार खटखटाता है, वह पाता है।

अच्छा ही हुआ कि यहां तुम पागलों की इस दुनिया में आ गये, नाच सके, गा सके, संगीत में डूब सके, ध्यान कर सके, मेरी अटपटी बातें सुन सके। धन्यभागी हो! रस जगा है, इसे भूल मत जाना। यह अभी छोटा-सा अंकुर है, पौधा है। इसे सम्हालना, इसे प्राणों की खाद देकर सम्हालना। इसे बचा सको तो एक दिन तुम्हारे जीवन में मुक्ति का फल भी लगेगा। वह मगनता की ही अंतिम पराकाष्ठा है।

लेकिन अकसर तो जो लोग ज्ञान में उत्सुक होते हैं, प्रेम में उत्सुक होते ही नहीं। उनको तो प्रेम पागलपन मालूम पड़ता है। वे तो कसमें खा लेते हैं कि प्रेम की झंझट में हमें नहीं पड़ना है। वे तो सोचते हैं कि ज्ञान पर्याप्त है। वे तो ज्ञान का गणित ही बिठालते-बिठालते समाप्त हो जाते हैं। ज्ञान का गणित कभी बैठता ही नहीं। प्रेम की रसायन न हो, तो ज्ञान का गणित कभी बैठता ही नहीं। और प्रेम की रसायन हो, तो ज्ञान का गणित एकदम बैठ जाता है। प्रेम के आधार पर तो ज्ञान का मंदिर भी खड़ा हो सकता है। लेकिन प्रेम का आधार न हो तो निराधार मंदिर खड़ा नहीं हो सकता।

तुम कितना ही साज-सामान इकट्ठा करते रहो, साज-सामान पड़ा रहेगा, मंदिर कभी बनेगा नहीं। जोड़नेवाला तत्व ही नहीं है, ईटें इकट्ठी करने से क्या होगा? सीमेंट भी चाहिये न! प्रेम सीमेंट है, जो ईटों को जोड़ देती है।

तुम्हारे हाथ जोड़नेवाला तत्व लगा है, यह छिटक न जाये। खयाल रखना जितनी बहुमूल्य चीजें होती हैं उतने आसानी से छिटक जाती हैं। व्यर्थ की चीजें तो चिपकी रह जाती हैं, बहुमूल्य चीजें छिटक जाती हैं। क्योंकि बहुमूल्य को सम्हालकर रखने में बड़ा प्रयास करना होता है। उसे बचाना हो तो सतत जागरूकता चाहिये।

यह जो तुम्हारे भीतर थोड़ी-सी रस की बूंद पड़ी है, यह सागर हो सकती है, अगर सम्हाला।

बहुत लोगों ने धर्म को मात्र थोथा ज्ञान बना लिया है। उन्होंने कसमें खा ली हैं कि वे प्रेम की झंझट में न पड़ेंगे। कारण भी हैं। जीवन में जिसको उन्होंने प्रेम करके जाना, उसने इतना कष्ट दिया है कि अब वे प्रेम शब्द से भी चौकन्ने हो जाते हैं। कहते हैं न, दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीने लगता है। उनके जीवन में जिसे उन्होंने प्रेम करके समझा था उससे सिवाय पीड़ा के कुछ भी न पाया। प्रेम ने कांटे ही कांटे बो दिये, कमल कभी खिले नहीं। प्रेम के नाम से चिंतायें और चिंतायें और विषाद और विफलतायें…। प्रेम ने ऐसी अंधेरी रात दे दी और ऐसे दुखस्वप्न दिये कि प्रेम शब्द सुनते ही वे चौंक जाते हैं। उन्होंने कसमें खा लीं कि हम कभी प्रेम ही न करेंगे।

मगर खयाल रखना, प्रेम करना ही पड़ेगा। और जब प्रेम की घड़ी आ जाये तो सब कसमें छोड़ देना, भय मत करना। क्योंकि यह कोई और ही प्रेम है। इसे तुमने जाना ही नहीं। जिसे तुमने जाना था वह प्रेम नहीं था। इसीलिये कष्ट पाया। प्रेम कहीं कष्ट देता है? प्रेम बड़ा मधुमय है, प्रेम तो मदिर है। प्रेम से ज्यादा मदमस्त करनेवाली कोई मदिरा नहीं है। हां, तुमने गलत जगह खोजा होगा। तुमने व्यक्तियों में खोजा। पुरुषों ने स्त्रियों में खोजा, स्त्रियों ने पुरुषों में खोजा, मां-बाप ने बच्चों में खोजा, बच्चों ने मां-बाप में खोजा, भाई-बहन में खोजा, मित्रों में खोजा। तुम गलत जगह खोजते रहे।

अब कोई अगर रेत से तेल निचोड़ना चाहे और तेल न निचुड़े, तो रेत का कोई कसूर है? रेत में तेल है ही नहीं। तुम जिनके सामने प्रेम का भिक्षापात्र फैलाकर खड़े हुए थे, वे भी तो भिखारी थे तुम जैसे ही! वे भी तुम्हारे सामने भिक्षापात्र फैलाये थे। दो भिखारी एक-दूसरे के सामने भिक्षापात्र फैला दें, क्या मिलेगा? कैसे मिलेगा? मालिक के पास ही मिल सकता है…या मालिक! उस परमात्मा से ही प्रेम हो सकता है, उसकी तरफ आंखें उठाओ। और तुम्हारी आंख थोड़ी-सी उठी, आंख की कोर में थोड़ी-सी प्रकाश की किरण पड़ी है, छोड़ो पुरानी कसमें!

साकी की निगाहों में तो मुजरिम न बनूंगा

टूटेंगे तो टूटें मेरे तौबा के इरादे

वे तुमने जो कसमें खा रखी हैं प्रेम न करने की, अब टूटती हों तो टूट जाने दो।

साकी की निगाहों में तो मुजरिम न बनूंगा

टूटेंगे तो टूटें मेरे तौबा के इरादे

तुमने बहुत बार कसमें खा ली होंगी कि अब प्रेम नहीं, अब प्रेम नहीं, बहुत कष्ट पा लिया। मगर जिससे तुमने कष्ट पाया वह प्रेम था ही नहीं।

मैं समझता था कि अब रो न सकूंगा ऐ जोश

दौलते-सब्र कभी खो न सकूंगा ऐ जोश

इश्क की छांव भी देखूंगा तो कतराऊंगा

काबा-ए-अक्ल से बाहर न कभी जाऊंगा

आबरू इश्क के बाजार में खोते हैं कहीं

जिन्से-हिकमत के ख़रीदार भी रोते हैं कहीं

चुभ सकेगा न मेरे दिल में इशारा कोई

नोके-मिज़गां पे न दमकेगा सितारा कोई

अब न याद आयेगा रंगे-लबो-रुख्स?ार कभी

दिल में गूंजेगी न पाज़ेब की झंकार कभी

अब कभी मुझसे न रूठा हुआ दिल बोलेगा

अब तसव्वुर किसी घूंघट के न पट खोलेगा

अब पयाम आयेगा फूलों का न गुलशन से कोई

अब न झांकेगा महो-साल के रौज़न से कोई

लेकिन अफसोस कि ये संगेऱ्यक़ीं टूट गया

दामने-सब्र मेरे हाथ से फिर छूट गया

जल उठी रूह में फिर शम्मअ सनमख़ाने की

ख़ाके-परवाना में आग आ गई परवाने की

जिससे रातें कभी रोशन थीं वो जुगनू जागा

चश्मे-ख़ू बस्ता में सोया हुआ आंसू जागा

अक्ल की धूप ढली, इश्क के तारे निकले

बर्फ महताब से पिघली तो शरारे निकले

प्रेम से तो कसम खा ही लेनी पड़ती है, क्योंकि प्रेम तो हमारा गलत ही है। और जिनके सामने हमने अपने मदिरा-पात्र किये थे वे साकी नहीं थे। उनके पास मदिरा देने को नहीं थी। वे खुद ही प्यासे थे–हम जैसे ही प्यासे थे। वे भी साकी की तलाश में थे।

मैं समझता था कि अब न रो सकूंगा ऐ जोश…तो बहुत बार यह खयाल आ जाता है कि रो-रोकर भी क्या पाया? आंसू गिरा-गिराकर भी क्या मिला? तो आदमी तय कर लेता है…

मैं समझता था कि अब रो न सकूंगा ऐ जोश

दौलते-सब्र कभी खो न सकूंगा ऐ जोश

…अब अपने धीरज को न कभी खोऊंगा। अब कभी अधैर्य न करूंगा। अब कभी कुछ चाहूंगा नहीं, मांगूंगा नहीं। अब आंखों को सम्हालकर रखूंगा, अब रोऊंगा नहीं, अब कभी दिल गीला न करूंगा।

इश्क की छांव भी देखूंगा तो कतराऊंगा

काबा-ए-अक्ल से बाहर न कभी जाऊंगा

अब तो अक्ल के काबा से, अक्ल के तीर्थ से कभी बाहर न निकलूंगा। अब तो ज्ञान में ही रहूंगा, अब प्रेम के पागलपन में कभी न उतरूंगा।

इश्क की छांव भी देखूंगा तो कतराऊंगा

काबा-ए-अक्ल से बाहर न कभी जाऊंगा

आबरू इश्क के बाज़ार में खोते हैं कहीं

अब समझदार हो गया हूं; अब प्रेम के बाजार में अपनी इज्जत गंवाने जानेवाला नहीं हूं। अब इतना दीवाना मैं कभी न बनूंगा।

आबरू इश्क के बाजार में खोते हैं कहीं

जिन्से-हिकमत के ख़रीदार भी रोते हैं कहीं

जो दार्शनिक विचारों से भरे हुए लोग हैं, जिनके पास दार्शनिक बुद्धि है, जिन्होंने दार्शनिकता सीखी है, ज्ञानयोगी हैं जो… जिन्से-हिकमत के ख़रीदार भी रोते हैं कहीं…कहीं समझदार, पंडित, ज्ञानी रोते हैं?

चुभ सकेगा न मेरे दिल में इशारा कोई

नोके-मिज़गां पे न दमकेगा सितारा कोई

अब न याद आयेगा रंगे-लबो रुख़सार कभी

दिल में गूंजेगी न पाज़ेब की झंकार कभी

अब कभी मुझसे न रूठा हुआ दिल बोलेगा

अब तसव्वुर किसी घूंघट के न पट खोलेगा

खा ली थी कसम कि अब नहीं कोई घूंघट उठाऊंगा। मगर एक घूंघट है जो उठाना पड़ेगा उठाना ही पड़ेगा! परमात्मा का घूंघट तो उठाना ही पड़ेगा। उस परमप्रिय या परमप्रेयसी की पाजेब की झंकार तो सुननी ही पड़ेगी।

अब पयाम आयेगा फूलों का न गुलशन से कोई

अब न झांकेगा महो-साल के रौज़न से कोई

लेकिन अफसोस कि ये संगेऱ्यकीं टूट गया

यह विश्वास-रूपी पत्थर टूट गया।

लेकिन अफसोस कि ये संगेऱ्यकीं टूट गया

दामने-सब्र मेरे हाथ से फिर छूट गया

और वह जो धीरज और तथाकथित ज्ञान का आंचल पकड़ रखा था वह हाथ से छूट गया।…अफसोस नहीं है यह, यह सौभाग्य की बात है।

लेकिन अफसोस कि ये संगेऱ्यकीं टूट गया

दामने-सब्र्र मेरे हाथ से फिर छूट गया।

जल उठी रूह में फिर शम्मअ सनमख़ाने की

अब उस प्यारे के मंदिर की शमा फिर जल उठी, मेरी रूह फिर पुकारी जाने लगी।

जल उठी रूह में फिर शम्मअ सनमख़ाने की

ख़ाके-परवाना में आग आ गई परवाने की

और वह जो राख होकर गिर गया था, वह परवाना फिर से जीवित हो उठा है। वह जो प्रेम सोचा था कि गया, गया नहीं था, कहीं छिपकर बैठ रहा था।

जल उठी रूह में फिर शम्मअ सनमख़ाने की

ख़ाके-परवाना में आग आ गई परवाने की

जिससे रातें कभी रौशन थीं वो जुगनू जागा

चश्मे-ख़ूबस्ता में सोया हुआ आंसू जागा

अक्ल की धूप ढली, इश्क के तारे निकले

बर्फ महताब से पिघली तो शरारे निकले

यह सौभाग्य की घड़ी है जब अक्ल की धूप ढल जाती है, और प्रेम की छाया आती है, प्रेम की रात्रि आती है और आकाश में तारे उगते हैं।

इस घड़ी को चूक मत जाना, यह घड़ी कभी-कभी, बामुश्किल आती है, क्योंकि इस जगत में अक्ल के मंदिर और मस्जिद तो बहुत हैं, प्रेम की मधुशालायें बहुत कम हैं। कभी किसी बुद्ध के पास, कभी किसी कृष्ण के पास, और कभी किसी जीसस के पास मधुशाला होती है प्रेम की। वहां आनंद की शराब ढाली जाती है और पीयी जाती है और पिलायी जाती है। फिर तो सदियों तक उनके नाम के पीछे सिद्धांतों की चर्चा होती रहती है। शराब की चर्चा होती है। शराब शब्द दोहराया जाता है फिर। लेकिन न शराब ढाली जाती; न शराब पीयी जाती, न पिलायी जाती। शास्त्रों में शराब की चर्चा है। सत्संग वहां है जहां शराब अभी ढलती हो।

अच्छा हुआ आनंद मनु कि रसलीनता बढ़ रही है, पियो और। जितना पी सको उतना पियो। जी भर के पियो!

सर्द मीना का तसव्वुर, सुर्ख़ पैमाने की याद

ऊद की खुशबू में फिर आई है मैख़ाने की याद

गोशा-ए-दिल में पछाड़ें खा रही है देर से

मस्त झोंकों में जुनूं के रक्स फर्माने की याद

आई है रह-रहके गिरती बिजलियों के रूप में

एक शब पर्दा उठाकर उनके दर आने की याद

परमात्मा ने, परम प्रेमी ने, परम प्रेयसी ने तुम्हारा द्वार खटखटाया है, सुनो। उसने तुम्हारा पर्दा उठाया है, स्वागत करो! उसे भीतर आने दो।

जाने दो सारा ज्ञान, दो कौड़ी का है सारा ज्ञान। क्योंकि असली ज्ञान तो प्रेम में ही पकता है। एक ज्ञान है, जो स्मृति है और एक ज्ञान है जो प्रेम है। स्मृति का ज्ञान किसी मूल्य का नहीं–उधार और बासा। प्रेम से जो ज्ञान जन्मता है वही है नगद, वही है सच्चा क्योंकि वही है तुम्हारा। तुम्हारे भीतर जन्मता है। तुम्हारे भीतर उसका गर्भाधान होता है वह तुमसे ही पैदा होता है।

 

दूसरा प्रश्न:

 

जहां सिद्ध सरहपा और सिद्ध तिलोपा के नाम सुदूर तिब्बत, चीन और जापान में उजागर नाम हैं, वहां अपने ही जन्म के देश में वे उजागर न हुए–इसका क्या कारण हो सकता है?

 

ह देश पांडित्य से पीड़ित देश है। इस देश का बड़े से बड़ा दुर्भाग्य यही है कि इस देश की छाती पर पांडित्य का बोझ है। भारी बोझ है, सदियों पुराना बोझ है! इसलिए जब भी कोई सरहपा, कोई तिलोपा, कोई कबीर, कोई गोरख आवाज देता है तो पंडितों के शोरगुल में खो जाती है। और पंडित बड़ी संख्या में हैं, सरहपा तो कोई कभी एक होगा। पंडितों की तो बड़ी जमात है, और जब सरहपा जैसा व्यक्ति कुछ कहता है तो स्वभावतः पंडितों के विपरीत जाती है उसकी बात। जायेगी ही…। पंडितों के पास सिद्धांत हैं, तर्कजाल हैं। और जब सरहपा बोलता है तो सत्य बोलता है। सत्य का तर्क से क्या लेना-देना? सत्य का सिद्धांतों से क्या लेना-देना? सत्य का सूरज निकलता है तो सिद्धांतों की रात टूटने लगती है। सत्य का सूरज निकलता है तो सिद्धांतों के बादल बिखरने लगते हैं। घबड़ाहट फैल जाती है।

और पंडितों के न्यस्त स्वार्थ हैं। वही उनकी रोजी है। वही उनका जीवन है। सरहपा जैसे लोग उनके पैर के नीचे की जमीन खींच लेते हैं। यह बरदाश्त नहीं किया जा सकता। पंडित बड़ा शोरगुल मचाते हैं। सरहपा की आवाज खो जाए शोरगुल में, इसकी पूरी चेष्टा करते हैं।

आनंद मैत्रेय, तुम तो कम-से-कम यह मत पूछो, क्योंकि तुम तो यह रोज यहां होते देख रहे हो। मेरी आवाज को दबा देने की सब तरह से कोशिश की जा रही है, हर कोशिश की जा रही है। मेरी आवाज लोगों तक न पहुंच सके, या पहुंचे तो इतनी विकृत होकर पहुंचे कि उन्हें समझ में ही न आ सके, या वे कुछ का कुछ समझें, इसकी सारी चेष्टा की जा रही है। यह तो यहां घट रहा है। तुम सरहपा की क्यों पूछते हो? यह कोई सैद्धांतिक चिंतन की बात ही नहीं है तुम्हारे लिए; यह तुम्हारे सामने घट रहा है; यह तुम्हारे साथ घट रहा है। मेरी आवाज दूर-दूर के देशों में सुनी जा रही है। तुम जानकर हैरान होओगे, यूनानी भाषा में किताबें अनुवादित हो रही हैं, अंग्रेजी में, जर्मन में, स्पेनिश में, डच में, इटालियन में, फ्रेंच में, डेनिश भाषा में, जापानी में, सारी दुनिया की भाषाओं में किताबें अनुवादित हो रही हैं, लेकिन भारतीय भाषाओं में नहीं–बंगाली में नहीं, तमिल में नहीं, तेलगु में नहीं, पंजाबी में नहीं, उर्दू में नहीं। यूनान में अनुवादित हो रही हैं और जापान में अनुवादित हो रही हैं और फ्रांस में अनुवादित हो रही हैं और हालैंड में अनुवादित हो रही हैं और इंग्लैंड, जर्मनी, इटली, स्पेन, मैक्सिको, ब्राजील, डेनमार्क और अमरीका में अनुवादित हो रही हैं। यह तुम्हें थोड़ा हैरान करनेवाली बात मालूम होती है, मगर होनी नहीं चाहिए। यह तो घट रहा है, फिर घट रहा है। यही बार-बार घटता रहा है। तिलोपा को तिब्बत में लोग जानते हैं, बड़े आदर से जानते हैं। जगत में जो थोड़े-से बुद्धपुरुष हुए हैं, उनमें तिलोपा एक हैं–और बहुत ज्योतिर्मय! और जापान में भी जानते हैं और चीन में भी जानते हैं और कोरिया में भी। सारा एशिया जानता है, सिवाय भारत को छोड़कर।

क्या हुआ? यह कैसा दुर्भाग्य? भारत के सिर पर पांडित्य बहुत चढ़कर बैठ गया है। बड़े शास्त्र और उन शास्त्रों को दोहराने वाले तोते इतने हैं कि उन तोतों के बीच में जब कोई आदमी सीधा-सीधा हृदय से बोलता है तो तोते नाराज हो जाते हैं। क्योंकि तोतों को साफ दिखाई पड़ने लगता है, अगर इस आदमी की आवाज सुनाई पड़ गई लोगों को तो हमारी आवाज का क्या होगा? हम तोतों का क्या होगा? सारे पंडित इकट्ठे हो जाते हैं।

अब तुम चकित होओगे कि मेरे खिलाफ हिंदू, मेरे खिलाफ मुसलमान, मेरे खिलाफ जैन, मेरे खिलाफ बौद्ध–जो आपस में सब एक-दूसरे के दुश्मन हैं, लेकिन मेरे विरोध में सब इकट्ठे हो जाते हैं। मेरे खिलाफ अगर जनसंघी हो, चलो समझ लो कि ठीक है; लेकिन कल मैंने देखा कि कम्युनिस्ट पार्टी ने प्रस्ताव किया है कि मुझे भारत में जमीन या आश्रम बनाने का कोई सहारा सरकार को नहीं देना चाहिए, कम्युनिस्ट पार्टी ने। जनसंघी और कम्युनिस्ट पार्टी इस मामले में सहमत हो जायेंगे। बड़े आश्चर्य की बात मालूम पड़ती है, मगर नहीं होना चाहिए आश्चर्य की, क्योंकि यही सदा होता रहा है। यह आवाज ऐसी है!

अंधों के जगत में प्रकाश की बात करनी हो तो बड़ी खतरनाक है; वे तुम्हारी आंख फोड़ देंगे। क्योंकि उनको अपनी आंखें सुधार करना तो बहुत लंबा और महंगा काम मालूम पड़ता है, लेकिन तुम्हारी आंखें फोड़ देना ज्यादा आसान मालूम पड़ता है।

कहां यह देहर कुहना और कहां जौके-जवां मेरा

कोई दुनिया नई होती, कोई आलम नया होता

यह बड़ी पुरानी सड़ी-सड़ाई दुनिया है। कहां यह देहर कोहना और कहां जौके-जवां मेरा। और जब भी सत्य बोलता है तो कहां सत्य की नई-नई ताजी जबान, जैसे सुबह की ओस, कि सुबह की पहली किरण और कहां यह सड़ी-गली दुनिया! इसमें मेल नहीं बैठ पाता। कोई दुनिया नई होती, कोई आलम नया होता! कोई नई दुनिया हो, कोई नया आलम हो, तो सत्य की नई आवाज पहचानी जा सके, पकड़ी जा सके।

मगर ऐसा तो अब तक नहीं हो सका और संदिग्ध है कि कभी हो सकेगा। क्योंकि दुनिया की आदत सड़े होने की हो गई है। जितना पुराना सत्य हो उतना ज्यादा लोग अंगीकार करते हैं, जबकि सत्य नितनूतन होता है। लोग झगड़ा करते हैं कि किसकी किताब ज्यादा पुरानी है। हिंदू कहते हैं हमारे वेद सबसे ज्यादा पुराने। इतिहासज्ञ मानते हैं कि तीन हजार साल या ज्यादा से ज्यादा पांच हजार साल से ज्यादा पुराने नहीं हैं, लेकिन हिंदू इससे राजी नहीं हैं। बाल गंगाधर तिलक ने लिखा है कि कम से कम नब्बे हजार वर्ष पुराने हैं, कम से कम! वैज्ञानिक इतिहासज्ञ कहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा तीन हजार, बहुत खींचो तो पांच हजार। लेकिन लोकमान्य तिलक कहते हैं कि नब्बे हजार कम से कम। क्यों, इतना आग्रह क्या है पुराना खींचने का? धारणा यह है कि जितना पुराना सत्य होगा उतना ही बहुमूल्य, क्योंकि इतने दिन से लोग मान रहे हैं तो कुछ होगी ही बात तभी मान रहे हैं।

लेकिन जैन कहते हैं कि ऋग्वेद से भी ज्यादा पुराने हम हैं, क्योंकि ऋग्वेद में हमारे पहले तीर्थंकर का नाम उल्लेख है। बात तो पते की कहते हैं। क्योंकि जब ऋग्वेद में हमारे पहले तीर्थंकर का नाम उल्लेख है तो हमारा पहला तीर्थंकर ऋग्वेद से पुराना होना ही चाहिए। और इतने सम्मान से नाम उल्लेख है कि ऋग्वेद के समसामयिक होते तो इतना सम्मान नहीं मिल सकता था। समसामयिक को तो हम सम्मान देना जानते नहीं, सिर्फ अपमान देना जानते हैं। तो बात में वजन है। जरूर पुराने हो चुके होंगे जब ऋग्वेद लिखा गया। इतने पुराने हो चुके होंगे कि लोग आदर देने लगे होंगे। लोग आदर ही पुराने को देते हैं, खयाल रखना। तो बात तो ठीक है। तब तो फिर जैन धर्म हिंदू से भी पुराना धर्म है।

मगर यही दावे औरों के भी हैं। जितना पुराना हो सके उतना पुराना करो। क्यों? क्योंकि पुराने की साख है। जैसे दुकानों की साख होती है न, पुरानी दुकान, साख भी बिकती है बाजार में! सिर्फ साख के लाखों रुपये मिल सकते हैं, सिर्फ पुराने नाम के, क्योंकि यह दुकान पुराने दिन से चल रही है इतने दिन से चली है तो इस बात का प्रमाण है कि कुछ बल होगा तभी चली है।

मगर असत्य सत्य से बहुत ज्यादा पुराने हैं। सच तो यह है असत्य सदा ही पुराने होते हैं। असत्य नए हो ही नहीं सकते। नया तो केवल सत्य हो सकता है, क्योंकि सत्य ही जीवंत होता है। असत्य मुर्दा होते हैं। परमात्मा रोज नया है। परमात्मा न पांच हजार साल पुराना है न पचास हजार साल पुराना है। परमात्मा प्रतिपल नया है, नितनूतन है। यही तो उसकी शाश्वतता है कि वह कभी पुराना नहीं पड़ता। उस पर कभी धूल नहीं जमती। उसका दर्पण सदा ही दमदमाता रहता है बिना धूल के। परमात्मा की ज्योति के पास कभी धुआं इकट्ठा नहीं होता सदियों का। उसकी ज्योति निर्धूम है।

तिलोपा बोले होंगे, ऐसे जैसे मैं तुमसे बोल रहा हूं। यही हुआ होगा जो मेरे साथ हो रहा है। कुछ आश्चर्य न होगा कि मेरे जाने के बाद भारत में लोग मुझे भूल जाएं और भारत के बाहर लोग याद रखें। कुछ आश्चर्य न होगा। यहां के मंदिर-मस्जिद सत्य को कभी भी स्वीकार न कर सकेंगे। और मंदिर-मस्जिद के सामने ही तुम सत्य की मधुशाला खोलो तो अड़चन तो होगी ही।

खुदा के हाथ है बिकना न बिकना मै का ऐ साकी!

बराबर मस्जिदे-जामअ के हमने तो दुकां रख दी

अब जामा मस्जिद के सामने दुकान रखकर बैठोगे शराब की तो झंझट तो आने ही वाली है। और ये सब शराब के दुकानदार हैं–तिलोपा, सरहपा, कबीर, गोरख। सभी जानने वाले तुम्हारे लिए मस्त होने का एक संदेश लेकर आए हैं। मगर यहां सब जानने वाले हैं। यहां सभी को भ्रांति है। रास्ते के किनारे बैठा भिखमंगा भी जानता है कि वेद में क्या है, उपनिषद में क्या है! कुछ भी न जानता हो, लेकिन दो-चार शब्द तो उसे भी याद हैं; वह भी कह सकता है: अहं ब्रह्मास्मि! तत्वमसि! ऐसे-ऐसे वचन तो उसे भी याद हैं।

कल मैंने एक घटना पढ़ी कि एक गांव के चौपाल में चर्चा चलती थी। रामायण की बात उठ गई, तो गांव का पंडित बोला: “अरे बा में का है। एक थो राम, एक रावण। बा ने बा की तिरिया हर लई। बा ने बा को राजान्ना। तुलसी ने रचदओ पोथन्ना!’ लीजिये चार पंक्तियों में और रामायण समाप्त! सब तो कह दिया अब, बचा और क्या कहने को!

इस देश के पास पिटे-पिटाये शब्द इकट्ठे हो गए हैं, थोथे! और इस देश को यह भ्रांति हो गई है कि हम धार्मिक हैं, पुण्यभूमि है!

और जब भी सत्य आएगा तब इस देश की जमी हुई आधारशिलाएं हिलने लगेंगी। जब भी सत्य आएगा तब तुम्हारे स्तंभ कंपने लगेंगे। तुम अपना मकान बचाओगे कि सत्य को सम्हालोगे?

चीन और तिब्बत में तिलोपा और सरहपा को सम्मान मिल सका, क्योंकि चीन और तिब्बत में पांडित्य का ऐसा बोझ कभी नहीं रहा। सारा एशिया बुद्ध को स्वीकार कर सका, सिर्फ भारत को छोड़कर, क्योंकि बुद्ध की बात ताजी थी, नई थी। और एशिया के विराट चित्त में कहीं कोई बोझ नहीं था, कोई भारी बोझ नहीं था। सरलता से लोग बुद्ध को समझ सके। यहां समझना मुश्किल हो गया। यहां से तो हमने जड़ें ही काट दीं बुद्ध की।

और सरहपा-तिलोपा बुद्ध की परंपरा में ही आते हैं। ये भी बुद्धपुरुष हैं–उसी धारा के, उसी धारा में उठी लहरें हैं! मौजूद जब थे तब तो कुछ प्रेम करने वाले उनके आस-पास इकट्ठे जरूर हो गये थे। मौजूद जब थे, जब उनकी ज्योति जलती थी, तो लोग लाख इनकार करते रहें तो भी ज्योति के पास कुछ परवाने तो आ ही जायेंगे, कुछ प्राण तो आंदोलित हो ही जायेंगे। लेकिन जैसे ही तिलोपा विदा होते हैं देह से, वैसे ही हमारा गहन अंधकार वापिस घिर जाता है। इस देश का बड़े से बड़ा दुर्भाग्य है, कि यह देश नया होने की कला भूल गया। और इस बात का हम गौरव करते हैं। हम निरंतर इस बात को दोहराते हैं, हमारे राजनेता इस बात को दोहराते हैं कि आज यूनान कहां है, मिस्र कहां है, बेबीलोन कहां है, असीरिया कहां है? खो गईं सारी सभ्यतायें, लेकिन हम! हम अभी भी हैं!

न तो मिस्र खो गया है, न यूनान खो गया है। कोई खो नहीं गया, लेकिन हां, वे रोज नए होते चले गए हैं। उन्होंने नए-नए आवरण ले लिए, नए वस्त्र अंगीकार कर लिये। हम अपने पुराने ही वस्त्रों को पकड़े बैठे हैं। सड़ गये हैं पुराने वस्त्र वे हमें भी सड़ाये डाल रहे हैं। हम दीनऱ्हीन हो गए हैं। मगर हम अपने वस्त्रों को पकड़कर बैठे हैं। हम छोड़ नहीं सकते। हमारे बाप-दादे भी इन्हीं को पहनते थे, उनके बाप-दादे भी इन्हीं को पहनते थे।

हम अतीतोन्मुख हैं। हम पीछे की तरफ नजर लगाए हुए हैं। जिंदगी चलती है आगे की तरफ और हमारी आंखें पीछे की तरफ। हम ऐसे ड्राइवर हैं, जिसकी गाड़ी तो आगे की तरफ जा रही है लेकिन जो देख पीछे की तरफ रहा है। तो अगर हम रोज गङ्ढों में गिरते हैं और रोज दुर्घटना हो जाती है तो आश्चर्य नहीं है। देखना भी आगे होगा।

भविष्य की तरफ देखो। पीछे तो उड़ती धूल है अब, जहां से तुम गुजर चुके। उसी धूल का गुणगान मत करते रहो।

जब भी कोई सदगुरु जागेगा, जीयेगा, तो वह तुम्हारी आंखों को भविष्य की तरफ मोड़ना चाहता है। और तुम्हारी गर्दन को लकवा लग गया है; वह पीछे देखने की आदी हो गई है, वह आगे देख ही नहीं सकती। हमारे सब स्वर्णयुग अतीत में थे, हो चुके। रामराज्य हो चुका, अब क्या होना है। जो अच्छा घटना था घट चुका, अब क्या घटना है! आगे तो बस कलियुग, और गहन कलियुग है!

यह उदास-निराश सभ्यता है। इसके प्राणों में अब कोई भी जीने की आतुरता नहीं रह गई। यह मरणधर्मी सभ्यता है। इसलिए जब भी कोई जीवंत व्यक्ति पैदा होता है, तुमसे उसके तालमेल नहीं बैठ पाते। हां, कुछ हिम्मतवर लोग उसके पास इकट्ठे हो जाते हैं, मगर कुछ इस बड़ी भीड़ में। जैसे ही दीया बुझ जाएगा, वे थोड़े-से लोग जैसे सागर में शक्कर खो गई, ऐसे खो जायेंगे।

वे ही समझ सकते हैं सरहपा-तिलोपा को, जो समझने के लिए ही तत्पर हैं; जो सारे पक्षपात छोड़ने को राजी हैं। प्रेमी समझ सकते हैं, ज्ञानी नहीं समझ सकते। पंडित नहीं समझ सकते। सत्य के खोजी समझ सकते हैं। शास्त्रों से बंधे लोग नहीं समझ सकते। जिनकी अभीप्सा मुक्त है और जिनकी धारणायें मुक्त हैं और जो कहते हैं अभी हमें पता नहीं है, हम जानना चाहते हैं–वे ही समझ सकते हैं। और तब जरूर तिलोपा जैसे व्यक्ति की अंगुलियां तुम्हारे हृदय की वीणा को छेड़ दे सकती हैं। मगर तुम्हें आना पड़ेगा अपनी वीणा को लेकर उनके पास।

मुसकान, पुष्प, चुंबन, सुगंध से भरो प्रमन

सुरभित, प्रसन्न; मादक निशीथ का मंद पवन।

मन की तरंग पर दीप धरो,

रस का प्रकाश फैलाओ री!

आओ, बरसाओ अलस-दृष्टि से

अंग-अंग पर अमृत, चमेली-जुही

कुसुम-रज, केसर, चंद्रविभा, चंदन।

 

मैं विरह-विकल,

मैं श्रांत, क्लांत,

मैं मूर्च्छित हरियाली, मुझको दो वारिधार।

मैं बजने को हूं विकल, दसों अंगुलियों से

मोहिनी! झंकृत करो, झंकृत करो तार।

जब कोई प्राणों से ऐसा पुकारता है कि हे प्रिय, कि हे प्रीतम! झंकृत करो, झंकृत करो तार! मैं बजने को हूं विकल, दसों अंगुलियों से! झंकृत करो, झंकृत करो तार! जब कोई इतनी प्रार्थना, इतने समर्पण से किसी जाग्रत पुरुष के पास आता है तो वीणा बजती है। लेकिन जो अपने अहंकार से भरे हैं, जो सोचते हैं कि वे पहले से ही जानते हैं; वे तो आयें क्यों? प्रयोजन क्या आने का? उनका अहंकार उन्हें कैसे आने देगा?

इस देश का सौभाग्य था कि यहां अनंत बुद्ध पैदा हुए और एक दूसरी दृष्टि से देखो तो इस देश का दुर्भाग्य है। काश, वे बुद्धपुरुष कहीं और पैदा हुए होते तो शायद हमने उन्हें थोड़ा सम्मान भी दिया होता! क्योंकि जितना जो निकट होता है उससे हम उतने ही दूर हो जाते हैं। जितना जो दूर होता है उसको जानने की हमारी आतुरता भी उतनी ही सघन होती है।

 

इस संबंध में ही सुमित्रा ने पूछा है: ओशो आप कहते हैं कि बुद्ध जहां रहते हैं उनके आस-पास के सूखे हुए वृक्ष भी हरे-भरे हो जाते हैं, मगर ये पूनावासी क्यों सूखते जा रहे हैं? जब हजारों मील दूर काठमांडू वाले सिर्फ आपकी आवाज सुनकर अपने को रोक नहीं पाते हैं, वे आनंद से पूछते हैं कि क्या ओशो यहां नहीं आयेंगे? मैं तो सिर्फ इतना ही कह पाती हूं कि ओशो यहां हैं। यद्यपि इतने से ही उनका मन तो नहीं भरता। आशीष रजनीश ध्यान केंद्र में रोज नए-नए पत्ते ही नहीं, फूल भी नए-नए खिल रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? इस पर प्रकाश देने की कृपा करें।

 

सुमित्रा! यही होता रहा है, यही सदा का नियम है। पूना का दुर्भाग्य कि मैं यहां हूं। जब तक मैं यहां हूं तब तक पूना के लोगों से मेरा संबंध न जुड़ सकेगा। मैं यहां से हटूं तो थोड़ा संबंध जुड़े। संकोच है आने में। इस मधुशाला के द्वार पर प्रवेश करने की भी हिम्मत चाहिए।…लोग देख लेंगे तो क्या कहेंगे कि आप और वहां! भय है कि फिर लौटकर क्या उत्तर देंगे बाजार में भीड़ को, घर में परिवार को? पत्नी आये तो डरती आती है कि लौटकर पति को उत्तर क्या देगी? पति आये तो डरता आता है कि लौटकर पत्नी को उत्तर क्या देगा, कि आप और वहां!

फिर, पूना महाराष्ट्र की काशी है; यहां पंडित ही पंडित हैं! एक तो पंडित और फिर महाराष्ट्रियन…एक तो करेला और नीम चढ़ा! तो और अड़चन हो जाती है।…तो बड़ी अकड़ है। अकड़ को न छोड़ें तो यहां आने का उपाय नहीं। अकड़ छोड़ सकते नहीं।

और कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि अकड़ भी न हो…सभी पंडित हैं भी नहीं…अकड़ भी न हो, तो भी जो पास ही उपलब्ध है, तो आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, कभी हो आयेंगे, जल्दी क्या है!

लंदन में एक सर्वे किया गया। कि लंदन का जो टावर है, उसे देखने दुनिया-भर से लोग आते हैं; लंदन में कितने लोग हैं जिन्होंने उसे नहीं देखा? दस लाख आदमियों ने लंदन में उसे नहीं देखा था। लंदन का टावर, जिसे देखने सारी दुनिया से लोग आते, दस लाख आदमी लंदन में ही रहते हैं जिन्होंने नहीं देखा! जो मनोवैज्ञानिक यह सर्वे कर रहे थे, उन्होंने उन लोगों से पूछा कि क्यों? तो लोगों ने कहा कि कभी भी देख लेंगे, जल्दी क्या है?

दूसरे महायुद्ध में जब हिटलर लंदन पर बम फेंकने की आयोजना करने लगा और बम गिरने लगे और यह खबर फैल गई कि उसकी नजर लंदन के टावर को गिरा देने की है, तो हजारों लोग जो जिंदगी-भर से लंदन में रहे थे और टावर नहीं देखा था, वे टावर देखने पहुंच गए। कतारें लग गईं। पूछा टावर के अधिकारियों ने कि आज अचानक इतने लोग क्यों? तो उन्होंने कहा, हमने खबर सुनी है कि हिटलर बम गिराने वाला है; गिर जाये बम, उसके पहले देख लेना जरूरी है। हम तो यहीं रहते हैं तो कभी भी देख लेते, यह खयाल था; मगर अब जब बम ही गिरने वाला है, तो अब देख लेना उचित है।

मैं जबलपुर वर्षों रहा। जबलपुर में इस जगत का, इस पृथ्वी का एक सुंदरतम स्थल है–भेड़ाघाट। मेरे हिसाब में शायद पृथ्वी पर इतनी सुंदर कोई दूसरी जगह नहीं है। दो मील तक नर्मदा संगमरमर की पहाड़ियों के बीच से बहती है। दोनों तरफ संगमरमर की पहाड़ियां हैं। एक तो संगमरमर की पहाड़ी…हजारों ताजमहल का सौंदर्य इकट्ठा! फिर बीच से नर्मदा का बहाव। बड़ा अपूर्व जगत है! मैं अपने एक वृद्ध प्रोफेसर को, जिन्होंने मुझे पढ़ाया था, दिखाने ले गया। वे आनंद से रोने लगे। बूढ़े हो गए थे। अब तो जा भी चुके दुनिया से। जब मैं उन्हें नाव में बिठाकर अंदर ले गया तो वह कहने लगे कि यह जो मैं देख रहा हूं, यह सच में है? क्योंकि मुझे लगता है सपना। नाव को, उन्होंने कहा कि किनारे लगाओ मांझी, मैं इन संगमरमर की पहाड़ियों को छूकर देखना चाहता हूं कि ये सच में हैं? पूर्णिमा की रात में इतना ही जादू हो जाता है।

भरोसा नहीं आता कि इस पृथ्वी पर इतना सौंदर्य हो सकता है! लेकिन जबलपुर में ऐसे हजारों लोग हैं, जो तेरह मील दूर भेड़ाघाट देखने नहीं गये। उनके घरों में मेहमान आते हैं जो भेड़ाघाट देखने के लिए आते हैं। मगर उनको खयाल नहीं आया कि देखने जाना है। इतने पास है, कभी भी देख लेंगे। जो पास होता है, उसे कभी भी देख लेंगे।

तुम्हें अगर भरोसा न हो तो तुम चैतन्य और चेतना से पूछना। बंबई मैं वर्षों रहा। जिसा मकान में मैं रहा, वुडलैंड में, उसी में चेतना और चैतन्य रहते थे, उसी मकान में रहते थे, मगर मुझे मिलने कभी आए नहीं। एक ही मकान में थे। सोचा होगा: कभी भी मिल लेंगे। और फिर डर भी रहा होगा कि वुडलैंड के और दूसरे रहने वाले लोग, पता चल जाए उन्हें कि उस दीवाने के पास ये भी जाने लगे, तो झंझट होगी। फिर जब मैं बंबई छोड़ दिया तब वे यहां आए और तब ऐसे डूबे कि फिर लौटे ही नहीं बंबई। फिर संन्यस्त होकर यहीं रह गए। फिर भूल ही गए बंबई, छोड़ दिया सब धंधा, छोड़ दिया सब काम-धाम। इतनी हिम्मत दिखाई, पूना में आ गया तो। और बंबई में थे तो इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि मुझसे मिल लेते। ऐसा मनुष्य का मन है।

जबलपुर जो मुझे कभी मिलने नहीं आए, वे अब यहां मिलने आते हैं। अब यहां आकर वे मुझे पत्र लिखते हैं कि हम जबलपुर से हैं, इसलिए हमसे तो आपको मिलना ही पड़ेगा। मैं उनको पूछता हूं, जबलपुर में कहां थे? मैं जबलपुर कोई बीस साल था; जबलपुर तुम कभी मिलने नहीं आए, न मैंने तुम्हें कभी देखा, न तुम्हें मैं जानता हूं। आज तुम यहां दावेदार होकर आते हो! वे पत्र लिखते हैं कि हम तो जबलपुर से हैं, इसलिए हमें तो विशेष मिलने का मौका मिलना ही चाहिए।

ऐसा ही अदभुत जगत है यह!…तो सुमित्रा, काठमांडू के लोग सौभाग्यशाली हैं। इतने दूर हैं कि उनके मन में आतुरता आती होगी, प्रेम जगता होगा, यहां दौड़ आने का भाव होता होगा।

सुमित्रा दौड़ी आती है। वृद्ध है, उम्र हो गई, मगर भागी आती है। सब तकलीफें झेलकर काठमांडू से यहां आना, इसलिए उसको स्वाभाविक सवाल उठा है कि आप कहते हैं कि जहां बुद्ध होते हैं वहां सूखे वृक्ष भी हरे-भरे हो जाते हैं।

मैंने ठीक ही कहा है; इन वृक्षों के संबंध में कहा था, आदमियों के संबंध में नहीं कहा था। वृक्ष तो तू देख कितने हरे-भरे हैं! पूना के आदमियों के संबंध में मैंने कुछ नहीं कहा है। और न बुद्ध के ही जीवन में कहानी है। ऐसा तो है कि जब बुद्ध गुजरते थे कहीं से तो सूखे वृक्ष हरे हो जाते; मगर बुद्धू ज्ञानी हो जाते थे, ऐसा कहीं नहीं है; कि मूढ़ों को कुछ बोध आ जाता था, ऐसा किसी कथा में उल्लेख नहीं है। असमय में फूल खिल जाते थे वृक्षों में, यह तो है; लेकिन असमय में किन्हीं के भीतर ध्यान का कमल खिल जाता था, ऐसा नहीं है।

वृक्ष सीधे-सरल हैं, भोले-भाले हैं; आदमी जैसे जटिल नहीं हैं। वृक्ष न तो ब्राह्मण हैं न पंडित हैं, न चतुर्वेदी न त्रिवेदी न द्विवेदी।

एक मित्र मुझे पत्र लिखते थे। कुछ भूल हो गई। मैं समझता था वे द्विवेदी हैं, तो उत्तर में मैं उनको द्विवेदी लिख देता था। वे थे त्रिवेदी। आखिर उन्होंने एक बार मुझे लिखा कि मुझे बार-बार द्विवेदी लिखते हैं, इससे मुझे दुख होता है; मैं त्रिवेदी हूं। तो मैं उन्हें चतुर्वेदी लिखने लगा। मैंने कहा कि पुराना सब हिसाब पूरा हो जाए। चलो तुम चारों वेद के जानेवाले सही।

वृक्ष इतने मूढ़ नहीं हैं; कौन द्विवेदी, कौन त्रिवेदी, कौन चतुर्वेदी! न हिंदू हैं वृक्ष, न मुसलमान, न ईसाई। न उन्हें कुरान से कुछ लेना, न धम्मपद से कुछ लेना। वृक्ष तो सीधे-सादे हैं; भोले-भाले हैं। परमात्मा में हैं। इसलिए वृक्ष हरे हो गए होंगे और उनमें फूल भी लग गए होंगे, इस पर भरोसा आता है। यह कहानी कितनी ही असंभव मालूम पड़े, संभव हो सकती है, लेकिन अगर एक भी ऐसा उल्लेख होता कि बुद्ध निकले और एक बुद्धू बैठा था और वह एकदम से ज्ञानी हो गया, तो मैं न मानता। यह तो मैं मान सकता हूं कि वृक्ष में फूल आ गए होंगे; हो सकता है। क्योंकि वृक्षों को मैं भी जानता हूं और आदमियों को भी मैं जानता हूं। आदमियों ने तो पत्थर मारे बुद्ध को। यह हो सकता है कि वृक्ष का फल टपकने-टपकने को हो और वृक्ष ने रोक लिया हो कि नीचे बुद्ध बैठे ध्यान कर रहे हैं, कहीं चोट न लग जाए। यह हो सकता है। मगर आदमियों ने पत्थर मारे। आदमियों ने चट्टानें सरकाई पहाड़ों से कि बुद्ध जहां नीचे ध्यान कर रहे हैं, चट्टान की लपेट में आ जायें। कहते हैं, चट्टान ऐसा बचाकर निकल गई। आते-आते बचाकर निकल गई।

पागल हाथी छोड़ा बुद्ध के ऊपर, आदमियों ने! और कहते हैं, जब हाथी बुद्ध के पास आया तो सिर झुकाकर खड़ा हो गया। पागल हाथी में भी इतना बोध है, मगर छोड़ने वालों की क्या कहो! और जिसने छोड़ा था वह कोई दूर का आदमी न था, बुद्ध का चचेरा भाई था, देवदत्त। चचेरे भाई को सर्वाधिक पीड़ा थी, क्योंकि दोनों एक साथ बड़े हुए, समान उम्र के थे। फिर बुद्ध को इतनी प्रतिभा मिल गई, बुद्ध को ऐसी महिमा, बुद्ध ऐसे ज्योतिर्मय! और देवदत्त वैसा का वैसा रहा।र् ईष्या जगी। बुद्ध के परिवार के लोगों मेंर् ईष्या जगी, गांवों के लोगों मेंर् ईष्या जगी, स्वजन प्रियजनों मेंर् ईष्या जगी। जो निकट थे उनमेंर् ईष्या जगी। जो दूर थे उनमेंर् ईष्या नहीं जगी। जो दूर थे वे तो पास आना चाहे। जो पास थे वे दूर होने लगे। ऐसे मनुष्य के जीवन की व्यवस्था है।

फिर मैं जो सिखा रहा हूं, वह कुछ ऐसा है…कि कसूर मेरा है। कसूर सरहपा और तिलोपा, कसूर बुद्ध और महावीर का है। लोगों का क्या कसूर है? लोग तो जैसे हैं वैसे हैं। जो उन्हें बदलना चाहते हैं, कसूर होगा तो उन्हीं का होगा।

मैं जो बातें कह रहा हूं, वे अंगारे हैं। जो दग्ध होना चाहते हैं, केवल वे ही अपनी झोली फैलाकर उन अंगारों को ले सकते हैं। जो जल जाने को तैयार हैं, सिर्फ परवानों के लिए ये बातें हैं, सबके लिए नहीं।

इसलिए ऐसा भी मत सोचो कि पूना में कोई भी नहीं आ रहा है। परवाने तो आ गए हैं, परवाने यहां मौजूद हैं। परवाने तो थोड़े ही होंगे।

इस बात को भी खयाल में रख लेना, काठमांडू में दस पच्चीस लोग इकट्ठे होते हैं, नाचते हैं, गीत गाते हैं, तो तुम्हें लगता है काठमांडू में इतने लोग उत्सुक हो रहे हैं! दस-बीस-पच्चीस लोग पूना में भी उत्सुक हैं। पूरा पूना उत्सुक नहीं है, पूरा काठमांडू भी उत्सुक नहीं है। इसलिए यह अनुपात भी खयाल में रखना। फिर मैं काठमांडू में मौजूद नहीं हूं, इसलिए जो मुझमें उत्सुक हैं वे मुझमें उत्सुक हैं, शेष मेरे दुश्मन नहीं हैं। जहां मैं मौजूद होऊंगा वहां तो बंट ही जाना पड़ेगा लोगों को; या तो मित्र या शत्रु, बीच में नहीं रह सकते। बीच में रहने का कोई उपाय नहीं है। ये मेरे जैसे आदमियों का भाग्य ही नहीं है कि कोई आदमी बीच में रह सके; उसे या तो मित्र हो जाना पड़ेगा या शत्रु हो जाना पड़ेगा; या तो मेरे प्रेम में पड़े या मेरे प्रति घृणा से भर जाए; मुझसे संबंध तो जोड़ना ही पड़ेगा।

अब इसमें फर्क पड़ जाता है। काठमांडू में या रंगून में या टोकियो में जो मुझे प्रेम करते हैं, वे मुझे प्रेम करते हैं, शेष को मुझसे कोई संबंध नहीं है, कुछ लेना-देना नहीं है। यहां पूना में जहां मैं मौजूद हूं वहां एक भी व्यक्ति तटस्थ नहीं रह सकता; या तो प्रेम या घृणा, कोई न कोई नाता मुझसे बनाना ही पड़ेगा। मैं इतना मौजूद हूं कि कुछ न कुछ नाता बनाना ही पड़ेगा। यहां कोई व्यक्ति तुम्हें पूना में ऐसा नहीं मिलेगा जो कहे हमें कुछ लेना-देना नहीं, न हम पक्ष में हैं न हम विपक्ष में। ऐसा आदमी नहीं मिलेगा। यह स्वाभाविक है।

फिर, जो मैं कह रहा हूं, वह बात ही आग की है।

मेरा कुफ्रे-मुहब्बत है फरोग़े-जाद-ए-ईमां।

वोह शमए-दैर हूं मैं रोशनी जिसकी हरम तक है।।

मेरा कुफ्रे-मुहब्बत है। मैं तो प्रेम का धर्म सिखा रहा हूं। मैं तो कुछ और ही धर्म सिखा रहा हूं। जिसको कि तथाकथित धार्मिक लोग कुफ्र कहेंगे, मुझे तो काफिर कहेंगे। क्योंकि मैं परमात्मा नहीं सिखा रहा हूं, प्रेम सिखा रहा हूं। क्योंकि मैं जानता हूं जिसने प्रेम सीख लिया उसे परमात्मा मिल ही जाता है, परमात्मा की बात ही उठानी व्यर्थ है। और परमात्मा की बातों में जो उलझ गया उसके जीवन में कभी प्रेम ही पैदा नहीं हो पाता, तो परमात्मा कैसे मिलेगा?

मेरा कुफ्रे-मुहब्बत है फरोगे-जाद-ए-ईमां। और जो मैं सिखा रहा हूं, वह न तो हिंदू का है न मुसलमान का है न ईसाई का है; वह सारे धर्मों की सीमाओं के पार है। सारे धर्मों की जो सार-वस्तु है वह मैं कह रहा हूं। और सार को तो कितने लोग पहचानते हैं? असार से परिचय है। हिंदू सोचता है जनेऊ पहन लिया तो वह हिंदू हो गया है। जनेऊ से क्या हिंदू का लेना-देना है? कि चोटी बढ़ा ली तो हिंदू हो गया। चोटी से क्या हिंदू का लेना-देना है? कि मुसलमान सोचता है कि खतना हो गया तो मुसलमान हो गया। खतने से क्या मुसलमान का लेना-देना है?

क्षुद्र और असार बातों को लोग समझ लेते हैं धर्म। इसलिए जब तुम कभी सार की बात करो तो उनकी निन्यानबे प्रतिशत बातों की तो बात होती ही नहीं। वे निन्यानबे प्रतिशत बातें उनके जीवन में बड़ी महत्वपूर्ण हो गई हैं। तो जब भी कभी धर्म की कोई बात कही जाएगी, वह न तो हिंदू होगी, न मुसलमान, न ईसाई। सभी नाराज हो जायेंगे।

वोह शमए-दैर हूं मैं रोशनी जिसकी हरम तक है। मैं मंदिर का ऐसा दीया हूं जिसकी रोशनी मस्जिद तक पड़ रही है, मस्जिद तक जा रही है। वोह शमए-दैर हूं मैं रोशनी जिसकी हरम तक है। जिनको दिखाई पड़ेगा, वे तो चकित हो जायेंगे कि मुझमें मंदिर और मस्जिद एक हो गये हैं, कि मैं दीया तो मंदिर का हूं लेकिन मेरी रोशनी मस्जिद पर पड़ रही है। लेकिन जो लोग नहीं समझ पायेंगे…और कम ही लोग समझ पायेंगे। नासमझ ज्यादा हैं, उनकी भीड़ है। वे मेरी प्रेम की बातें और मेरी प्रेम की उपासना से बड़े परेशान होंगे।

परिस्तारे-मुहब्बत की मुहब्बत ही शरीअत है।

यह जो प्रेम की उपासना है; इसके लिए कुछ और चाहिए नहीं; इसकी कोई और शैली नहीं होती; इसका कोई और क्रियाकांड नहीं होता।

परिस्तारे-मुहब्बत की मुहब्बत ही शरीअत है।

किसी को याद करके आह कर लेना इबादत है।।

मैं तो छोटी-सी बात कर रहा हूं–सूत्र की बात–आधारभूत, बीज की बात। परिस्तारे-मुहब्बत की मुहब्बत ही शरीअत है। बस मुहब्बत ही उसकी शैली है। मुहब्बत ही नियम है, मुहब्बत ही अनुशासन है। किसी को याद करके आह कर लेना इबादत है। बस काफी है, तुम्हारी आंख से दो आंसू टपक गए प्रेम के, कि तुम्हारी आंखें उठीं आकाश की तरफ आनंदमग्न, कि तुम नाच लिए क्षण भर को, कि तुम डूब गए इस विराट अस्तित्व के सौंदर्य में–बात हो गई। न पढ़ी कुरान, न पढ़े वेद के मंत्र–और बात हो गई! बिना बात किए बात हो गई। इसे कितने लोग समझ पायेंगे? थोड़े ही लोग समझ पायेंगे। और जो समझ पायेंगे उन्हें बड़ी वेदना से गुजरना होगा, क्योंकि प्रेम असह्य वेदना में ले जाता है।

प्रेम अग्नि है। जैसे सोना तपाया जाता है आग में, सुमित्रा ऐसे ही प्रेम की आग में तपना होता है।

वह तो सोने को हम आग में डाल देते हैं। अगर सोने को खुद ही आग में गिरने की स्वेच्छा से चुनाव की सुविधा हो तो कोई सोना आग में न गिरे, भाग ही खड़ा हो कि हमें नहीं पड़ना आग में। उसे क्या पता कि आग में पड़ने से ही परिष्कार है!

दो, निरंतर टीस दो, छोड़ो न मुझको,

मांस में यों ही शलाकाएं चुभाओ,

देह को यों ही रहो धुनती, तपाती, एंठती

मेरी मनोरम वेदने!

 

हर टीस, हर एंठन नया कुछ स्वाद लाती है;

तोड़ कर पपड़ी हृदय में ताजगी भरती,

और आत्मा को चुभन देकर जगाती है।

 

तुम्हारे श्याम पंखों की कड़क-सी फड़फड़ाहट पर

उमंगों की उड़ानें और भी ऊपर पहुंचती हैं;

व्यथा से चीखता तन, किन्तु आत्मा गीत है गाती,

जलाती आग जो तुम वह

किसी खरतर अनल का ताप पीकर शांत हो जाती।

 

दिवस निस्तेज थे जो

अब नयी कुछ रौशनी उनमें दमकती है,

भुवन जो शुष्क था उसमें, न जाने,

विभा यह किस अलभ सौंदर्य की क्षण-क्षण चमकती है

सभी कुछ दिव्य है, नूतन प्रखर है

चतुर्दिक प्रेरणा निर्माण की लहरा रही है;

चुभन है, टीस है, अथवा मुझे तंत्री बना कर,

रगों की तांत पर कोई परी कुछ गीत गा रही है।

वेदना को जो समझेंगे और वेदना में से जो गुजरेंगे वे हैरान हो जायेंगे। वेदना निखारती है, मांजती है। और प्रेम करोगे तो वेदना में पड़ना ही पड़ेगा। प्रेम सस्ता सौदा नहीं है। और लोगों ने धर्म को बहुत सस्ता बना रखा है। प्रेम महंगा सौदा है; प्राणों से कीमत चुकानी होती है। जो चुका सकते हैं; वे ही मेरे पास आयेंगे।

शमा जल गई है, परवानों को निमंत्रण दे दिया गया है; अब जो परवाने होंगे, आयेंगे। तुम औरों की चिंता भी मत करो सुमित्रा। उनकी मौज, उनकी स्वतंत्रता। अगर उन्हें मुझे घृणा करनी है तो उन्हें घृणा करने दो। अगर उन्हें मेरा अपमान करना है तो उन्हें अपमान करने दो। उन्हें अगर मुझसे शत्रुता रखनी है तो शत्रुता रखने दो। उनकी फिकिर ही न लो। उनके संबंध में चिंतन करके समय गंवाओ भी मत। जब उनकी घड़ी आयेगी, जब उनका समय पकेगा, जब उनके जीवन में परमात्मा की पुकार सुनाई पड़ेगी…अगर मैं यहां हुआ तो मेरी आवाज खींच लेगी उन्हें, अन्यथा किसी और की। कोई और शमा उनके जीवन को बदलने का कारण बनेगी।

मगर सब ऋतु आने पर ही होता है। तुम जो मेरे पास आ गए हो, आकस्मिक नहीं है। तुम्हारी ऋतु आ गई। तुम तैयार हो, इसलिए आ गए हो। जो तैयार नहीं हैं, जब तैयार होंगे, तब आ जायेंगे। मैं नहीं रहा तो कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई और होगा। जब भी कोई सत्य को खोजना चाहता है तो कोई न कोई मार्गदर्शक उपलब्ध हो जाता है। जब भी शिष्य तैयार होता है, गुरु प्रगट हो जाता है।

 

चौथा प्रश्न:

 

मैं टूटता हूं। मैं डूबता ही जा रहा हूं। आपकी शरण आया हूं। प्रभु, मेरा स्वीकार करो।

 

वेदांत सागर! और भी टूटना है, और भी बिखरना है, और भी डूबना है। मिट ही जाना है। मरण को अंगीकार करो। इस मन को तो तोड़ ही डालना है। इसे तो बिलकुल ही समाप्त कर देना है। तभी तुम जानोगे कि तुम कौन हो।

और बहुत-सी असफलतायें मार्ग में मिलेंगी, और बहुत-से कष्ट भी। मंजिल आये, इसके पहले मार्ग में न मालूम कितने कांटे हैं। मार्ग कंटकाकीर्ण है। घबड़ा न जाना।

मैं नहीं दुर्भाग्य के सम्मुख झुकूंगा।

आज जीवन में हुआ असफल भले ही!

एक पल को साधना की भावना सोई नहीं,

और जाऊं हार, ऐसी बात भी कोई नहीं,

मैं नहीं सुनसान राहों पर थकूंगा

दूर, बेहद दूर हो मंजिल भले ही!

मैं नहीं दुर्भाग्य के सम्मुख झुकूंगा

आज जीवन में हुआ असफल भले ही!

 

आज छाया है अमावस-सा अंधेरा सब तरफ,

पर, अभी कल मुसकराएगा सबेरा सब तरफ,

मैं न मन की पंगु दुविधा में रुकूंगा

पास में चाहे न हो संबल भले ही!

मैं नहीं दुर्भाग्य के सम्मुख झुकूंगा

आज जीवन में हुआ असफल भले ही!

बहुत बार हार हाथ लगेगी। हारऱ्हारकर ही तो कोई जीतने की कला सीखता है। मिट-मिटकर ही तो कोई हो पाता है। बहुत बार हाथों में कांटे चुभेंगे। जो फूल बीनने चला है, उसे कांटों से चुभने की तैयारी रखना ही चाहिए।

जल्दी न करो। अधैर्य न करो। चलते चलो।

हिम्मत न हारो!

कंटकों के बीच मन-पाटल खिलेगा एक दिन

हिम्मत न हारो!

यदि आंधियां आएं तुम्हारे पास

उनसे खेल लो,

जितनी बड़ी चट्टान वे फेंकें तुम्हारी ओर

उसको झेल लो!

तुम तो जानते हो

आजकल बरसात के दिन हैं;

गगन में खलबली है,

दौर-दौरा है घटाओं का,

तुम्हारे सामने अस्तित्व हो उनका सदाओं का!

लरजती बिजलियां;

माना,

तुम्हारे सामने हो खेल

आतिशबाजियां नाना!

निरंतर राह पर चलते रहोगे तो

तुम्हारा लक्ष्य तुमसे आ मिलेगा एक दिन!

हिम्मत न हारो!

कंटकों के बीच मन-पाटल खिलेगा एक दिन!

हिम्मत न हारो!

हारने का तो कोई कारण ही नहीं है। हार तो जीत की सीढ़ी है।

तुम कहते हो: “मैं टूटता हूं, मैं डूबता ही जा रहा हूं।’ जरा भी भय न करो। मूर्तिकार मूर्ति को बनाता है तो छैनी उठाकर तोड़ता है पत्थर को। काश, पत्थर को होश होता तो चिल्लाने लगता कि मत काटो मुझे, मत तोड़ो मुझे। वह तो भला है कि पत्थर को कुछ होश नहीं; टूट जाने देता है अपने अंगों को, भंग हो जाने देता है। और एक दिन उभरती है प्रतिमा बुद्ध की, कि जीसस की।

ऐसे ही तुम भी जब आते हो तो एक अनगढ़ पत्थर हो। मुझे उठाने दो छैनी, मुझे चलाने दो हथौड़ा। मुझे तोड़ने दो तुम्हें। बीच में ही भाग मत जाना।

हिम्मत न हारो! घटना घटेगी। अगर टिके रहे, अगर रुके रहे, तो एक दिन तुम्हारे भीतर भी बुद्ध की प्रतिमा प्रगट होगी। सभी के भीतर बुद्ध की प्रतिमा छिपी है। हर पत्थर के भीतर छिपी है। बस जरा-सा व्यर्थ का असार हिस्सा तोड़ देना है। वही तुम्हारा मन है। वही तुम्हारी तृष्णा है, वासना है। उसे जरा काट देना है। काटना पीड़ादायी है, क्योंकि कितने जन्मों से हमने उसे अपना माना है; आज अचानक छोड़ते, विदा करते अड़चन होती है, बेचैनी होती है, घबड़ाहट होती है।

और तुम कहते हो: “प्रभु, मेरा स्वीकार करो!’ वह तो मैंने किया है। मैंने उनका भी स्वीकार किया है। जिन्होंने मुझे स्वीकार नहीं किया है। मेरी तरफ से स्वीकार पूर्ण है। अड़चन आयेगी, तुम्हारी तरफ से आयेगी, मेरी तरफ से कोई अड़चन नहीं, कोई बाधा नहीं। मैं तो तुम्हें दूर की यात्रा पर ले जाने को तत्पर हूं। पुकारे चला जाता हूं। मैंने तो स्वीकार किया ही है। तुम स्वीकार कर सको, वहां अड़चन आती है। और स्वाभाविक है कि अड़चन तुम्हें आये, क्योंकि टूटना तुम्हें पड़ेगा। अंग भंग तुम्हारे होंगे। पीड़ा तुम्हें झेलनी पड़ेगी।

हिम्मत न हारो!

कंटकों के बीच मन-पाटल खिलेगा एक दिन,

हिम्मत न हारो!

 

पांचवां प्रश्न:

 

ओशो, जो सब का देखनेवाला है और सबके अंदर में ही रहता है, फिर भी जानने में क्यों नहीं आता? वह सर्व का द्रष्टा और साक्षी जो है, वह कैसे जानने में आता है? कृपया समझायें।

 

बालकृष्ण चैतन्य, इसीलिये वह जानने में नहीं आता क्योंकि वह सबका जाननेवाला है। तुम्हारे भीतर जो जानने वाला तत्व है वही वह है। उसे तुम कैसे जानोगे? और किससे जानोगे? जिसको भी तुम जानोगे वह तुम नहीं हो। जो भी तुम जान लोगे, जान लेना कि यह मैं नहीं हूं। यही तो नेति-नेति की प्रक्रिया है। जो भी जान लिया जाये, कहना: नेति, यह मैं नहीं। मैं तो जाननेवाला हूं। मैं जाना जा नहीं सकता। मैं विषय नहीं हो सकता ज्ञान का, मैं तो ज्ञाता हूं। मैं दृश्य नहीं हो सकता, मैं तो द्रष्टा हूं।

द्रष्टा को कैसे दृश्य करोगे? और दृश्य अगर द्रष्टा को कर दोगे तो वह फिर किसके सामने दृश्य होगा? यह तो ऐसे ही है जैसे कि तुम एक चमीटे से उसी चमीटे को पकड़ने की कोशिश करो, पागल हो जाओगे। जरा कोशिश करना एक दिन, चमीटे से उसी चमीटे को पकड़ने की कोशिश करना। पगलाने लगोगे। थोड़ी ही देर में घबड़ाने लगोगे। अपनी आंख से अपनी ही आंख को देखने की कोशिश करना। मुश्किल में पड़ जाओगे। सबको तो देख लेती है आंख, अपने को नहीं देख सकती, कैसे देखेगी अपने को? और अपने को देख लेगी तो तत्क्षण जो देख लिया गया, उससे भिन्न हो गई। आंख को तो केवल तुम दर्पण में देख सकते हो। मगर दर्पण में जो तुम देखते हो वह आंख की केवल छांई है, परछांई है, आंख नहीं है।

इसलिये आत्मज्ञान तो प्रेम में ही होता है; प्रेम दर्पण है। जिससे तुम प्रेम करते हो वह दर्पण बन जाता है। उसमें तुम्हें अपनी प्रतिछवि दिखाई पड़ जाती है। मगर वह छांई है। खयाल रखना, दर्पण में तुमने जो देखा है वह केवल छाया मात्र है। प्रेम में स्वयं ही छाया मात्र दिखाई पड़ती है।

लेकिन बस प्रेम निकटतम है, जो ज्ञान के आता है; और इसके बाद फिर कोई और ज्ञान नहीं है। अगर तुमने आंख बंद करके अपने को देखना चाहा, तुम अपने को कभी न देख सकोगे।

“आत्मज्ञान’ बड़ा विरोधाभासी शब्द है। आत्मज्ञान का वस्तुतः अर्थ वैसा नहीं है जैसा शब्द का है। आत्मज्ञान का अर्थ होता है: जहां जानने को कुछ भी न बचा, देखने को कुछ भी न बचा, कोई दृश्य न रहा, कोई विषय न रहा; जहां सब विषय-वस्तु खो गई; जहां सिर्फ देखनेवाला बचा। ऐसा नहीं कि तुम इसको देख लोगे; मगर जहां सिर्फ देखनेवाला बचा उसकी अनुभूति होगी, उसकी अंततः प्रतीति होगी, कि अब अकेला मैं ही बचा, अब बस मैं ही हूं, अब कुछ दिखाई नहीं पड़ता। इस शून्य अवस्था में आत्मज्ञान घटता है।

मगर आत्मज्ञान शब्द से भ्रांति में मत पड़ जाना, क्योंकि आत्मज्ञान से ऐसा ही लगता है कि जैसे हम और किसी को जानते हैं ऐसे ही आत्मा को भी जानेंगे; जैसे वृक्ष दिखाई पड़ रहा है, ये स्तंभ दिखाई पड़ रहे हैं, ये लोग दिखाई पड़ रहे हैं, ऐसे ही एक दिन हम भीतर बैठे-बैठे देखेंगे–यह रही आत्मा! तो तुम गलती में हो। आत्मा को तुम कभी भी इस तरह न देख पाओगे।

आत्मज्ञान का इतना ही अर्थ है कि देखने को कुछ भी न रहेगा, तो देखने की जो क्षमता है वह स्वयं की प्रतीति करेगी। प्रतीति! सिर्फ एहसास! सिर्फ हल्की-हल्की अनुभूति। तुम पकड़ न लोगे झपटकर कि यह रही आत्मा, कि मिल गये। किसको मिलोगे? वहां दो नहीं हैं, वहां एक है। कौन जानेगा? किसके द्वारा जाना जायेगा?

तुम पूछते हो: “जो सब का देखनेवाला है और सबके अंदर में ही रहता है, फिर भी जानने में क्यों नहीं आता?’ इसीलिए! इसीलिए जानने में नहीं आता है!

नित हृदय-गति में निरंतर

धड़कनों से कौन हो तुम?

प्राण पर मेरे अंधेरा

छा रहा दुख की घटा का,

आज तो दुर्लभ बना है

देखना तेरी छटा का

श्वास के स्वर में निरंतर

सरगमों से कौन हो तुम?

 

चिर व्यथा के विकट पथ में

थक रहे पद आज मेरे,

और खोजे मिल न पाते

धूमिल से पद-चिह्न तेरे,

शांत से, विश्रांति में गति-

से निरंतर कौन हो तुम?

 

मिट न पाते आज मुझसे

सबल सुधि के चित्र तेरे,

अश्रु बनकर ढुलक जाते

हृदय के ये रत्न मेरे

आज अविरल यातना में

सांत्वना से कौन हो तुम?

 

श्वास भी परिहास करते

आज थकते जा रहे हैं,

सघन तम में पंथ पर

पद अब भटकते जा रहे हैं,

चिर-निराशा के तिमिर में

आस दीपक कौन हो तुम?

 

अश्रु तेरी अर्चना को,

ढुलक जाते नित अजाने

पीर-दीपों से दिवाली

उर उगा है अब मनाने

मौन दीपक की शिखा में

उजाले से कौन हो तुम?

नित हृदय-गति में निरंतर

धड़कनों से कौन हो तुम?

उसकी तो सिर्फ ऐसी हल्की-हल्की प्रतीति होगी, आभास होगा। लेकिन तुम उसे देख न पाओगे। तुम उसे हाथ में पकड़ न पाओगे। वह अपरिहार्य-रूपेण द्रष्टा है और दृश्य नहीं हो सकता है। इसलिये क्या करें? फिर क्या करें? एक ही काम किया जा सकता है: दृश्य को विदा करो। जो-जो दृश्य है उसे विदा करते जाओ। दृश्य-पटल पर कोई दृश्य न रह जाये।

कभी तुमने खयाल किया कि तुम सिनेमा गये फिल्म देखने, फिल्म चली, सफेद कोरे पर्दे पर धूप-छाया का खेल शुरू हुआ, तुम तल्लीन हो गये। जब तुम फिल्म को देखने में पूरे तल्लीन हो जाते हो, जब कथा तुम्हारे प्राणों को पकड़ लेती है, तब तुम्हें अपनी याद नहीं रह जाती…तब तुम भूल जाते हो कि मैं देखनेवाला हूं। तब दृश्य ही सब कुछ हो जाते हैं, द्रष्टा शून्य हो जाता है। द्रष्टा की विस्मृति हो जाती है, दृश्य सब कुछ हो जाते हैं। अगर दृष्य कोई दुखांत होता है, तुम्हारी आंखों से झर-झर आंसू टपकते हैं। अगर दृश्य कोई उत्तेजक होता है तो तुम कुर्सी को छोड़कर रीढ़ सीधी करके बैठ जाते हो। अगर दृश्य कोई भयानक होता है तो तुम्हारे मुंह से आवाज तक निकल जाती है। लेकिन फिर फिल्म समाप्त हुई, पर्दा फिर कोरा हो गया, धूप-छाया का खेल विलीन हो गया। तब तुम खयाल करना, एकदम से चौंककर तुम्हें खयाल आता है अपना, कि अरे फिल्म खतम हो गई, अब घर चलें। उठे तुम। इस दो घंटे तक तुम बिलकुल भूल गये थे कि तुम हो कोई और तुम्हारा घर भी है कोई, कि पत्नी घर राह देखती होगी। सब भूल गये थे। न कोई चिंता थी न कोई फिकिर थी। तुम ही न थे तो कैसी चिंता कैसी फिकिर! अब सब लौट आया एकदम से। होश आया। अपना होश आया। आंखें साफ करके चल पड़े घर की तरफ।

यह जगत एक चित्र-कथा है। यहां तुमने और सब देखा है मगर और सबको देखने में अपने को भूल गये हो, अपनी याद नहीं रही है। क्षीण-सी भी याद नहीं रही है।

संन्यास का इतना ही अर्थ है: अपनी याद को जगाओ। अब धीरे-धीरे द्रष्टा को सजग करो। और जैसे-जैसे द्रष्टा जगेगा वैसे-वैसे जगत का पट शून्य होता जाएगा। समाधि की अवस्था का अर्थ इतना ही होता है कि जहां दृश्य सब खो गये और द्रष्टा अकेला रह गया। पर्दे पर कुछ भी नहीं है अब, फिल्म खतम हो गई, अब घर जाने के सिवा कुछ भी न बचा। यह घर जाती चेतना मुक्त चेतना है। यह अपने स्रोत में जाती चेतना मुक्त चेतना है। यही निर्वाण है।

ध्यान के सारे प्रयोग मौलिक रूप से एक ही काम करते हैं–विधियां कितनी ही भिन्न हों मगर मौलिक प्रयोजन एक है–कि कैसे तुम्हारे चित्त के पर्दे पर चलते हुए चित्रों को विदा किया जाये। धीरे-धीरे धीरे-धीरे सारे चित्र विदा हो जाते हैं, खाली एक शून्य रह जाता है तुम्हें घेरे हुए। उसी शून्य में आत्मस्मरण होता है। स्मरण कहना ठीक होगा, दर्शन कहना ठीक नहीं होगा; ज्ञान कहना ठीक नहीं होगा, बोध कहना ठीक होगा। एक बोध जग उठता है: मैं साक्षी हूं।

और खयाल रखना, जब मैं कह रहा हूं कि ऐसा बोध जगता है कि मैं साक्षी हूं, ऐसे शब्द नहीं बनते कि मैं साक्षी हूं। यह तो मुझे तुमसे कहना पड़ रहा है इसलिए शब्दों से कह रहा हूं। बस ऐसा बोध होता है, निःशब्द बोध–मैं साक्षी हूं! बस उसी क्षण में क्रांति घट गई। उसी क्षण में दृश्य से तुम द्रष्टा पर छलांग लगा गये। वही छलांग निर्वाण है। वही छलांग परम आनंद है। गये सब दुख, गये सब सुख–महासुख आया अब! आनंद का आविर्भाव हुआ अब!

 

छठवां प्रश्न:

 

ओशो, कल्पवृक्ष के नीचे जो मांगो, वह मिलता है–ऐसा सुना है। मगर यहां वह भी वृक्ष है, जिसके नीचे बिना मांगे मिलता है! और खूब-खूब मिलता है! ओशो, आपकी अनुकंपा का कैसे धन्यवाद करूं?

 

मुक्ति! गाओ, नाचो! तुम जितना नाचो उतना तुम्हारा धन्यवाद। तुम जितना गाओ उतना तुम्हारा धन्यवाद। मुझे सीधा धन्यवाद देने की जरूरत ही नहीं है। मस्त हो जाओ। मस्ती से जीयो। रस से भरपूर जीयो। एक-एक क्षण रस-मग्न हो, आनंद-विभोर हो–बस वही धन्यवाद है।

मुझे धन्यवाद देने की कोई और जरूरत ही नहीं है; तुम्हें आनंदित देख लूंगा, मुझे धन्यवाद मिल गया।

यह किसकी पहचान अधर का गान हुई जाती है!

 

जिसकी सुधि में तारों ने,

आंखों में रात बिता दी,

उसकी ही छबि नयनों में,

छविमान हुई जाती है!

यह किसकी पहचान अधर का गान हुई जाती है!

 

नहीं जानती कैसे होगा,

चित्र अधूरा पूरा!

धूमिल-सी रेखा भी,

अंतर्ध्यान हुई जाती है।

यह किसकी पहचान अधर का गान हुई जाती है!

 

श्वास-पृष्ठ पर कैसे लिख दूं,

अंतरत्तम का लेखा!

चिर-पीड़ा भी अधरों की,

मुसकान हुई जाती है!

यह किसकी पहचान अधर का गान हुई जाती है!

 

स्वप्न मिलन की बात,

प्राण इतना तुम-मय हो बैठे!

दो पल की देरी, युग का

व्यवधान हुई जाती है!

यह किसकी पहचान अधर का गान हुई जाती है!

मुझसे तुम्हारी पहचान हो तो तुम्हारे अधर पर गान होना चाहिए। इसके अतिरिक्त मेरे संन्यासी का और कोई लक्षण नहीं होगा, और कोई चरित्र नहीं होगा, और कोई आचरण नहीं होगा। मेरा संन्यास जाना जायेगा उसके आनंद-भाव से। मेरा संन्यासी पहचाना जायेगा उसकी मस्ती से। मेरे संन्यासी को परमात्मा की शराब पी लेनी है।

औरों ने कुछ और लक्षण दिये होंगे। किन्हीं ने कहा है कि तुम अपने चरित्र को सम्हालना। किन्हीं ने कहा है कि तुम अपने व्यक्तित्व को ऐसा बनाना, वैसा बनाना, शुद्ध करना। मेरे संन्यासी की पहचान एक ही होगी: उसका प्रतिपल उत्सवमय होना। वही तुम्हारा धन्यवाद है। मेरी पहचान तुम्हारे अधर का गान हो जाये, बस।

 

आखिरी प्रश्न: हे परमात्मा, आपको सुनकर झूमने लगती हूं। अस्तित्व सब दिशा से बोध बरसा रहा है यह झेलने की क्षमता देने की कृपा करें। और यह विराट जीवन, सब रंगों से भरी दुनिया, यह अनंत विस्तार…मैं कैसे आरती उतारूं?

आरती कैसे करूं गोसाईं

तुम्हीं व्यापि रहे

व्यापि रहे सब ठाईं

आरती कैसे करूं गोसाईं!

 

तरु, जब ऐसा लगे कि आरती कैसे करूं गोसाई, तभी आरती हो पाती है। जब तक तुम सोचते हो कि आरती की जा सकती है, तब तक आरती नहीं होती। आदमी के किये क्या हो सकता है! हम जो भी करेंगे, छोटा है; हमारे हाथ की उस पर छाप होती है। हम उस विराट की आरती भी करेंगे तो हमारी आरती भी छोटी होती है। हम तो विवशता का ही निवेदन कर सकते हैं। हम अपनी असहाय अवस्था में रो सकते हैं।

आरती कैसे करूं गोसाईं

तुम्हीं व्यापि रहे

व्यापि रहे सब ठाईं

आरती कैसे करूं गोसाईं!

यही भाव आरती है। आरती का कोई संबंध थालियों से नहीं है–फूल सजाई गई, धूप-दीप जलाई गई। आरती का संबंध भाव की एक दशा से है–असहाय! इतना दिया है परमात्मा ने, इतना, हम धन्यवाद भी दें तो हमारी जबान छोटी है। हमारे शब्द ओछे हैं। हम सिर भी उसके चरणों पर रखें तो हमारे सिर में भी क्या है, भुस ही तो भरा है। हम अपने को निछावर भी कर दें तो भी क्या खाक, क्योंकि हम उसी की देन हैं, उसी को वापिस दे दिया। त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये! तेरी चीज थी, तुझी को लौटा दी, धन्यवाद भी क्या है! इतनी असहाय अवस्था की जो प्रतीति है, वही आरती है।

जो मेरी जीवन-वीणा के

तारों में स्वर बन लहराया।

जिसने स्वयं हाथ फैलाकर

मेरी पूजा को अपनाया।

जग उसको पाहन कह दे,

पर मैं पाहन कह पाऊं कैसे?

मन का गीत सुनाऊं कैसे?

जिसका गृह आलोकित करने

रवि-शशि स्वयं दीप्त हो जाते।

जिसके चरणों पर ढुलने को

शत-शत सागर उमड़े आते।

उस आराधित के चरणों पर

आंसू अर्ध्य चढ़ाऊं कैसे?

मन का गीत सुनाऊं कैसे?

सागर भी उसके चरणों पर अपने को चढ़ा रहे हैं, हमारे आंसू तो कितने छोटे हैं! हमारे आंसुओं का अर्ध्य…कहां अनंत-अनंत सागर उसके चरणों पर लोट रहे हैं! हम दीये भी जलायें आरती के थाल में तो क्या होगा? चांद भी उसी के लिये जलता है और सूरज भी उसी की आरती है और सारे तारे, अनंत तारे उसकी आरती में परिभ्रमण कर रहे हैं।

जिसका गृह आलोकित करने

रवि-शशि स्वयं दीप्त हो जाते।

जिसके चरणों पर ढुलने को

शत-शत सागर उमड़े आते

उस आराधित के चरणों पर

आंसू अर्ध्य चढ़ाऊं कैसे?

मन का गीत सुनाऊं कैसे?

बड़ी कठिनाई है, भक्त की बड़ी कठिनाई है। अवाक रह जाता है भक्त, मौन रह जाता है, शब्द नहीं बनते और जब शब्द नहीं बनते तभी आरती है। निःशब्द आरती है। कुछ कहा नहीं जाता और सब कह दिया जाता है।

जो मेरी जीवन-वीणा के

तारों में स्वर बन लहराया।

जिसने स्वयं हाथ फैलाकर

मेरी पूजा को अपनाया।

जग उसको पाहन कह दे,

पर मैं पाहन कह पाऊं कैसे?

मन का गीत सुनाऊं कैसे?

और जब गीत गाने का प्राण होता है लेकिन गीत गाने की असमर्थता होती है, तब वह स्वयं ही तुम्हारी पूजा को अपने हाथ से ले लेता है। और मजा तो तभी है। तुमने चढ़ाया, इसमें मजा नहीं है; उसने लिया, तब मजा है। तुम्हारे चढ़ाने में तो तुम्हारा ही खेल है। लेकिन जिस दिन भक्त शून्य-भाव से असहाय अनुभव करता है उस क्षण परमात्मा स्वीकार कर लेता है–खुद ही स्वीकार कर लेता है। उसके हाथ स्वयं ही बढ़े चले आते हैं। तब जीवन में बसंत छा जाता है। तब खूब फूल खिल जाते हैं।

उलट गयी अबीर की झोली!

स्वर्ण मुकुट सज्जित गिरि से उषा ने खेली होली!

डाल-डाल पर पंछी बोले

कलियों ने अवगुंठन खोले,

बहने से सुरभित समीर के

कोमल तरु पल्लव दल डोले!

मुक्त भ्रमर करने के हित सरजित ने पलकें खोलीं!

उलट गयी अबीर की झोली!

जब उसका हाथ हमारी तरफ बढ़ता है तो सारा जगत अपने को हम पर उंडेल देता है–सारे रंगों में, सारे स्वरों में! सारा जगत पूरे सरगम से गीत गा उठता है।

भक्त शून्य हो तो भक्ति पूर्ण हो जाती है, क्योंकि शून्य में ही पूर्ण उतरता है।

आरती कैसे करूं गोसाईं

तुम्हीं व्यापि रहे

व्यापि रहे सब ठाईं

आरती कैसे करूं गोसाईं

यही आरती है तरु! इसी में डूब, इसी में धीरे-धीरे खो जाओ।

दिया जिन्होंने स्नेह

सभी का ऋण मुझ पर है,

मेरा क्या है

मैं तो लघु दीपक की बाती!

दान उन्हीं का किरण-जाल यह

मेरा क्या है,

कोमल कर

जो सौंप गये ज्वाला की थाती!

जलने के पल ही तो हैं

जीवन की घड़ियां,

संध्या की उषा से जोड़ें

ऐसी कड़ियां!

मिट्टी का यह पात्र सलोना

मेरा क्या है,

दो निशि भी तो

इससे नाता जोड़ न पाती!

 

मैं तो चलती नहीं

राह कैसी, क्या जानूं?

रुदन हंसी को भिन्न

कहो मैं कैसे मानूं!

प्राणों को दी व्यथा जिन्होंने

सब कुछ उनका!

मेरा क्या है

रिक्त हाथ मैं आती-जाती!

मेरा क्या है

मैं तो लघु दीपक की बाती!

हमारे हाथ तो खाली हैं।

आरती कैसे करूं गोसाईं

तुम्हीं व्यापि रहे

व्यापि रहे सब ठाईं

आरती कैसे करूं गोसाईं!

हमारे हाथ तो रिक्त हैं। मगर रिक्त हाथ ही पर्याप्त हैं। इसी रिक्तता में वह उतरेगा। उतरता है, उतरता रहा है। जब भी भक्त का पात्र खाली और शून्य हुआ है, तभी वह आ गया है और पात्र भर गया है।

प्राणों को दी व्यथा जिन्होंने

सब कुछ उनका!

मेरा क्या है

रिक्त हाथ मैं आती जाती!

मेरा क्या है

मैं तो लघु दीपक की बाती!

भक्त अपने को मिटा देता है; वही उसकी आरती है। भक्त नहीं हो जाता है; वही उसकी आरती है।

 

आज इतना ही।

 


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प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन–05)

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मेरी त्वचा और अरिथयां स्वर्णमय हो गईं—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 जून 1976;

श्री ओशो आश्रम, पूना।

बउलगीत:

आओ! मेरे पास आओ

यदि तुम किसी अलग तरह के नूतन और स्वाभाविक मनुष्य से भेंट

करना चाहते हो

तो मेरे पास आओ।

उसने उस झोली के लिए

जो भिखारी अपने कंधे पर लटकाये रहते हैं

अपनी सारी सांसारिक सम्पत्ति को व्यर्थ जान कर छोड़ दिया है।

जब भी वह गंगा में नहाने उतरता है

वह काल की देवी शाश्वत मां काली का नाम लेता है।

साधारण शब्द भी अज्ञान और अविश्वास को मिटा सकते हैं,

काली और कृष्ण, प्रकृति और पुरुष एक ही हैं।

शब्दों में फर्क हो सकता है, लेकिन अर्थ ठीक ठीक वही हैं।

वह—जिसने शब्दों के सारे अवरोध तोड दिए,

उसने सारी सीमाओं पर विजय प्राप्त कर ली।

अल्लाह या जीसस मोजेज अथवा काली

गरीब या अमीर

साधू या मूरख

ये सभी एक हैं, और उसके लिए इनमें कोई फर्क नहीं।

अपने ही खयालों में खोया हुआ वह व्यक्ति,

 

दूसरे लोगो को पागल लगता है।

वह पूरे संसार का स्वागत करने के लिए अपनी बांहें फैलाकर

उन सभी को अपनी नाव पर

जो अभी जीवन के किनारे से बंधी हुई है उस पार ले जाने के लिए

आमंत्रित करता है।

दि तुम उस नूतन मनुष्‍य से मिलना चाहते हो, तो मेरे पास आओ।

बाउलों की पूरी खोज ही उस नए मनुष्य अथवा ‘ आधार मानुष ‘ की खोज है। कौन है यह नया मनुष्य?

तुम अपने जीवन को दो तरह से जी सकते हो या तो तुम एक ऐसा मनुष्य बनकर रहो, जो स्वयं अपने होने में मस्त है। अथवा तुम एक ऐसा मनुष्य बनकर जियो, जिसके पास वस्तुएं हों। या तो तुम अपने आप में डबे हो सकते हो, अथवा तुम्हारे पास बहुत सी सांसारिक चीजें हो सकती हैं। या तो तुम चीजों को इकट्ठा कर सकते हो और उनके द्वारा अधिकार में लिए जा सकते हो अथवा तुम स्वयं को प्राप्त कर स्वयं के ही मालिक हो सकते हो और किसी की भी गुलामी में नहीं रहते। वस्तुओं का संग्रह करने वाले व्यक्ति की पूरी तरह से दिशा ही भिन्न होती है। ऐसे ही मनुष्य को बाउल सांसारिक मनुष्य कहते हैं। ऐसा मनुष्य केवल धन सम्पत्ति के सम्बन्ध में, वस्तुओं और पदार्थों के सच्चपध में और बैंक बैलेंस के सम्बंध में ही सोचता है। वह यह भी सोचता है कि उसके पास यह सब कुछ जितना अधिक होगा, वह उतना ही अधिक महत्त्वपूर्ण होगा। यही उसको भटकाने वाले तर्कों का सबसे आधारभूत तर्क है।

तुम्हारे पास पूरे संसार का भी वैभव हो सकता है और तुम फिर भी भिखारी हो सकते हो। तुम्हारे पास वह सब कुछ हो सकता है जो भी पूरा संसार तुम्हें दे सकता है और फिर भी तुम खाली के खाली ही रहोगे।

महान— सिकंदर की मृत्यु हुई। वह सांसारिक मनुष्य का एक सशक्त प्रतीक है। वह पूरे विश्व पर विजय प्राप्त करना चाहता था और उसने ऐसा लगभग किया भी। लेकिन अपने मरने से पहले उसने अपने सेनापतियों से कहा—’‘ मरने पर मेरे दोनों हाथ ताबूत के बाहर लटके रहने देना।’’ उन्होंने कहा—’‘ ऐसा हमने कभी सुना ही नहीं. .फिर ऐसी परम्परा भी नहीं है। और आप ऐसी व्यर्थ की चीज आखिर क्यों करना चाहते हैं?” सिकंदर ने कहा—’‘ यह व्यर्थ की बात नहीं है। इसका मेरे जीवन के साथ एक विशिष्ट सम्बन्ध है। मैं चाहता हूं कि लोग देखें कि मैं खाली हाथों ही जा रहा हूं। मैं खाली हाथों ही इस दुनिया में आया था और मैं खाली हाथों से इस दुनिया से विदा हो रहा हूं। और मेरा पूरा जीवन ही व्यर्थ गया।’’

एक व्यक्ति को निश्चित ही कुछ समझदार होना ही चाहिए क्योंकि अधिकतर लोग मरते समय भी चीजों से ही बंधे रहते हैं, वे फिर भी सजग नहीं होते कि उनके हाथ खाली के खाली ही हैं, वे फिर भी नहीं समझते कि उनके हृदय रीते हैं, वे फिर भी इसके प्रति सचेत नहीं होते कि उन्होंने अपना पूरा जीवन व्यर्थ ही नष्ट कर दिया और वह केवल एक भयानक स्वप्न बनकर रह गया।

वस्तुओं पर पकड़ रखने वाला परिग्रही मनुष्य अधिक से अधिक इकट्ठा ही किए चला जाता है। आवश्यक बात यह नहीं है कि वह क्या इकट्ठा करता है, उसका जोर संग्रह करने पर होता है। उसकी आत्मा उसकी चीजों के संग्रह में ही बसती है।

वह क्‍या संग्रह कर रहा है, वह महत्‍वपूर्ण नहीं है। वह धन सम्पति इकट्ठी कर सकता है, वह जानकारी बटोर कर ज्ञानी बन सकता है, वह अहंकार इकट्ठा कर सकता है, वह विनम्रता और दीनता जोड़ कर विनम्रता का अवतार बन सकता है। वह इस ससार की वस्‍तओं का संग्रह करे अथवा वह दूसरे संसार की अच्‍छाईयों और नैतिक गुणों का संचय करे, लेकिन वह संग्रह अवश्य करता है। उसका अस्तित्व चीजों के कारण ही होता है।

उसे तभी अच्छा लगता है, जब उसके पास बहुत कुछ होता है, जब वह अनुभव करता है कि उसके हाथ भरे हुए हैं, कम से कम बाहर से तो भरे— भरे लगते हैं। उसे यह अनुभव करने में अच्छा लगता है कि वह कुछ प्राप्त कर रहा है। वह सफल होता जा रहा है। बाउलों के पारभाषिक शब्दों में यही पुराना मनुष्य है। यह पुराना मनुष्य सदा अस्तित्व में रहा है। यह मनुष्य सड़ा हुआ दुखी और रुग्ण है। यह एक तरह की बीमारी है, यह विचार ही कि तुम्हारे पास बहुत सारी चीजें होनी चाहिए तुम्हारा समय और ऊर्जा बरबाद करती है। और तुम्हें यह जानने नहीं देती कि तुम हो कौन? बाउल उस दिशा को उत्तम कहते हैं, जिसमें तुम अस्तित्वगत दशा के सम्बंध में, एक विशिष्ट आंतरिक अकेलेपन के सम्बंध में, एक विशिष्ट आंतरिक चेतना और उसके केंद्रित होने और गहरी जड़ों के सम्बन्ध में विचार करना शुरू कर देते हो और तुम्हें इसकी एक विशिष्ट अनुभूति होनी शुरू हो जाती है कि तुम कौन हो।

क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया है कि कभी तुम ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आते हो, जिसमें कोई भी बात दिखाई तो नहीं देती, लेकिन फिर भी तुम उसके चारों ओर एक तीव्र ऊर्जा का अनुभव करते हो। उसका प्रभाव लगभग चुम्बकीय और सम्मोहक होता है। वह तुम्हारी आंखों की ओर देखता है और तुम उसकी आंखों की ओर नहीं देख सकते। उसमें एक महान शक्ति होती है और वह शक्ति किन्हीं वस्तुओं की नहीं होती क्योंकि उसके पास कोई भी वस्तु नहीं हो सकती। वह राह पर चलने वाला एक भिखारी भी हो सकता है। वह राजनीति से आने वाली शक्ति भी नहीं है। वह हो सकता है एक प्रधानमंत्री या एक राष्ट्रपति भी हो, क्योंकि उसकी वह शक्ति भी बोगस होती है। वह शक्ति कुर्सी की होती है, व्यक्ति की नहीं। वह कुर्सी में निहित होती है, कुर्सी पर बैठने वाले में नहीं। एक बार वह कुर्सी से उतरा नहीं, फिर वह उतना ही शक्तिहीन होता है जितने तुम।

रिचर्ड निक्सन को देखो, जब वह राष्ट्रपति थे तो उसके पास अत्यधिक शक्ति थी। अब वे केवल मात्र एक सामान्य नागरिक हैं। उनकी वह सभी शक्ति गायब हो गई। वह शक्ति उनकी नहीं थी, वह एक प्रतिबिंबित गौरव था।

और तुम इसे देख सकते हो, वह बहुत कठिन नहीं है। तुम ऐसे व्‍यक्‍तियों को जानते हो जिनके पास बहुत अधिक शक्ति है—वस्तुओं की शक्ति, बड़े महलों की शक्ति, राजनीति की शक्ति, धन प्रतिष्ठा और पैतृक विरासत की शक्ति लेकिन तुम देख सकते हो कि वे सभी दीन व्यक्ति हैं। उनके पास अपनी कोई भी शक्ति नहीं है। उनकी आत्माओं में कोई चुम्बकीय शक्ति नहीं होती। यदि तुम उनकी सभी वस्तुएं उनसे अलग हटा दो, तो वे सामान्य मनुष्य से भी कहीं अधिक साधारण हैं। उनकी सारी असाधारणता विलुप्त हो जाती है। राजा और रानियां, जब वे राजा और रानियां नहीं रह जातीं, केवल साधारण मनुष्य मात्र रह जाते हैं…..लगभग पूरी तरह खाली होती हैं, जिनमें कुछ भी नहीं रह जाता।

लेकिन जब कभी तुम किसी ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आते हो, जिसमें बाहर की कोई शक्ति नहीं होती, जिसकी शक्ति किसी आंतरिक स्रोत और किसी अंदर के झरने से आ रही होती है तो वह शक्ति का सरोवर जैसा होता है। वह जहां कहीं भी बैठता है, वह स्थान पावन बन जाता है। वह जिस स्थल पर भी बैठता है। वह स्थान एक सिंहासन बन जाता है, वह जहां कहीं भी जाता है, वह मनुष्यों के मध्य एक सम्राट की भांति विचरण करता है। लेकिन उसका साम्राज्य उसके अपने अंदर का होता है।

यह वही शक्ति है जिसके बारे में जीसस कहा करते हैं परमात्मा का साम्राज्य तुम्हारे ही अंदर है। जो उसके अंदर है, वह उसे जानता है। उसके अपने स्वयं के अंदर जो है, उसी का वह साक्षात्कार करने ही यहां आया है। उसकी दृष्टि अंदर मुड़ कर अंतर्मुखी हो जाती है। वह फिर बाहर के संसार पर निर्भर नहीं रह जाता। उसका गौरव और ख्याति प्रतिबिंबित न होकर उसकी अपनी और प्रामाणिक होती है। वह कारागार में बंदी बनाया जा सकता है, लेकिन वह वहां भी रहेगा एक सम्राट की ही भांति।

सिकंदर महान के समकालीन डायोजनीज के बारे में यह कहा जाता है कि सिकंदर भी डायोजनीज से ईर्ष्या करने लगा। वह पूरी तरह नग्न रहने वाला एक फकीर था, जिसके पास कुछ भी नहीं था। उसने हर चीज छोड़ दी थी। वह अपने आंतरिक संसार की खोज कर रहा था। उसके बारे में यह कहा जाता है कि उसने जब यह संसार छोड़ा, तो वह अपने साथ एक छोटा सा भिक्षा—पात्र रखा करता था। लेकिन तब एक दिन उसने नदी से एक कुत्ते को पानी पीते हुए देखा। उसने तुरंत अपना भिक्षा—पात्र फेंक दिया और कहा, यदि कुत्ता बिना उसके पानी पी सकता है, तो क्या मैं कुत्ते से भी गया बीता हूं? तब उसने अपने पास की हर चीज फेंक दीं, वस्त्र भी फेंक दिए और नंगा ही रहने लगा।

सिंकदर को उसके बारे में बहुत सी अफवाहें और कहानियां सुनने में आ रही थीं कि उस शख्स के अंदर कुछ खास बात है। उससे सम्मोहित होकर अंत में सिकंदर स्वयं उससे मिलने गया और यह देख सका कि उस व्यक्ति के अंदर कुछ ऐसा है जो उसके पास नहीं है। जाड़ों की वह एक सर्द सुबह थी सूर्योदय हो रहा था और वह रेत पर लेटा हुआ था। वह नदी किनारे लेटा हुआ कुनकुनी धूप का आनंद ले रहा था। सिकंदर ने उससे कहा—’‘ क्या मैं आपके लिए कुछ भी कर सकता हूं श्रीमान? मेरे पास काफी कुछ है और आप जो कुछ भी चाहें, उसे आपके लिए करने में मुझे प्रसन्नता होगी।’’

डायोजनीज हंसा और उसने कहा—’‘आप केवल एक ही काम कर सकते हैं कि कृपया हटकर खड़े हो जाए और मुझ तक आती हुई धूप न रोकें। इसके आलवा मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए। और इसे याद रखिएगा कि कभी भी धूप और किसी भी व्यक्ति के बीच में खड़े मत होना क्योंकि आप एक खतरनाक व्यक्ति दिखाई देते हैं। कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति के जीवन में व्यवधान मत डालिए। बस इतना ही काफी है और इसके अलावा मैं आपसे कुछ भी नहीं चाहता क्योंकि जो कुछ मैं चाहता हूं वह सब कुछ मेरे अंदर ही है।’’

और सिकंदर यह अनुभव कर सका कि यह व्यक्ति सच्चा और प्रामाणिक है अपने अकेलेपन में आनंदित एक ऐसा व्यक्ति जिसकी चेतना एकीकृत और केंद्रित होकर थिर हो गई है, जिसके चारों ओर की तरंगें, उसके बोध को उपलब्ध होने की जैसे घोषणा कर रही है। उसे लगा जैसे उसके आस पास की आबोहवा उसके आंतरिक प्रकाश, आंतरिक अनुभव और अंदर की समृद्धि से महक रही हो। वह देख सका और महसूस कर सका। उसने झुककर प्रणाम करते हुए कहा—’‘ यदि अगली बार मुझे इस संसार में आने का अवसर मिला तो मैं परमात्मा से कहूंगा कि तू मुझे सिकंदर न बनाकर डायोजनीज बनाना।’’

डायोजनीज हंसा और उसने कहा—’‘ इतना लंबा इंतजार करने की कोई जरूरत नहीं है। और ठीक अभी भी डायोजनीज हो सकते हैं आप। निरंतर इधर— उधर घूम—घूम कर व्यर्थ लड़ाइयां लड़ते लोगों को जीतने का संघर्ष आखिर क्यों कर रहे हैं आप?”

सिंकदर ने कहा—’‘ पहले मैं मध्य एशिया और फिर हिंदुस्तान जीतना चाहता ”

हूं फिर सुदूर पूरब में…….।

डायोजनीज ने पूछा—’‘ फिर उसके बाद और फिर उसके भी बाद।’’

अंत में जब सिकंदर ने कहा कि वह पूरा विश्व जीतने के बाद विश्राम करेगा तो डायोजनीज ने कहा—’‘ मुझे तो आप लगभग एक मूर्ख दिखाई देते हैं, क्योंकि मैं दुनिया को बिना जीते हुए ही यहां विश्राम कर रहा हूं। आप भी अभी मेरी बगल में लेट कर विश्राम कर सकते हैं, क्योंकि नदी तट बहुत विस्तृत है और हम दोनों यहां मजे से रह सकते हैं। कोई दूसरा यहां आता भी नहीं है। आप अपने हृदय की कामना को पूरी करते हुए अभी विश्राम कर सकते हैं।’’

आपको आखिर रोक कौन रहा है? और मुझे ऐसा नहीं लगता कि अंत में विश्राम करने के लिए किसी को पहले पूरी दुनिया जीतना ही पड़े। आप किसी भी क्षण विश्राम में जा सकते हैं।

उसी क्षण सिकंदर ने अपनी निर्धनता को जरूर महसूस किया होगा। उसने कहा—’‘ आप कहते तो ठीक हैं लेकिन मैं ही पागल हूं। क्योंकि अभी तो यह मेरे लिए बहुत कठिन है कि मैं अपनी मुहिम से वापस लौट सकूं। मुझे तो पूरा संसार जीतना ही है, केवल तभी मैं वापस आ सकता हूं यहां।’’

और जब वह वहां से जाने लगा तब डायोजनीज ने कहा—’‘ स्मरण रखियेगा, कोई भी कभी भी वापस नहीं आ सकता, जब तक कि वह होशपूर्ण न हो। और यदि आप अभी भी इसी क्षण सजग है तो यात्रा स्वयं रुक जाती है। यदि आप सजग नहीं रहे तो कभी भी वापस न लौट सकेंगे।’’

और सिकंदर वहां कभी वापस न लौट सका।

वह घर लौटने से पहले ही मर गया।

जो मनुष्य अपने स्वयं के होने में आनंदित है, वही नूतन मानुष या नया मनुष्य है। उसे नया क्यों पुकारते हैं? क्योंकि एक अर्थ में वह उतना ही पुराना है जितनी कि मनुष्यता। लेकिन वह इतना दुर्लभ है, कि वह जब कभी भी आता है, वह हमेशा नया ही होता है—यहां बुद्ध होना दुर्लभ है, जीसस और कृष्ण का होना बहुत कम होता है। इस सड़ी बुसी मनुष्यता की भीड़ में ऐसा बहुत कम और कभी—कभी ही होता है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति अपने प्रामाणिक अस्तित्व के साथ जन्मे और यह घोषणा करे कि उसका साम्राज्य स्वयं उसके अंदर ही है। यह घटना इतनी अधिक दुर्लभ है कि बाउल लोग इसे ठीक ही आधार—मानुष अर्थात् नया मनुष्य कहते हैं। इसलिए भेद समझने जैसा है, वह मनुष्य जो अधिक से अधिक पाने के बाद भी अपनी आत्मा को अधिक से अधिक खोता जायेगा। क्योंकि अधिक से अधिक पाने के लिए उसकी कीमत आत्मा को ही चुकानी होगी। तब तुम्हें अपने अस्तित्व से कट कर अलग हो जाना पड़ेगा और तुम अपनी आत्मा को फेंककर कर दोगे। यहां कुछ भी मुक्त नहीं मिलता और हर चीज की कीमत अदा करनी पड़ती है। यहां तक कि व्यर्थ चीजों की भी कीमत चुकानी होती है।

एक दिन यह मनुष्य जो चीजों का संग्रह करता है, उसे लगभग चुक ही जाना है। उसके पास वस्तुएं बहुत हैं) लेकिन आंतरिक सम्पदा कुछ भी नहीं है। उसने अपनी आत्मा बेचकर उसके एवज में डालर, रुपये और पाउंड इकट्ठे किए हैं, लेकिन उसके अंदर आत्मा नहीं रही। बस उसके अन्दर एक नकारात्म्‍क खालीपन है। वह है भिखारी, लेकिन वह तुम्हें एक राजा जैसा दिखाई पड़ सकता है। उसकी बाह्य आकृति और रूप से धोखा मत खाओ। जो लोग राजा जैसे दिखाई देते हैं, वे राजा हैं नहीं। उन्हें जरा और गौर से देखो। गहराई से उनका निरीक्षण करो। उन्होंने भले ही ऐसा कुछ प्राप्त कर लिया हो, जो गिना जा सकता हो, जिसे दिखा कर उसका प्रदर्शन किया जा सकता हो, लेकिन उन लोगों ने कुछ अदृश्य वस्तु कोई चीज अपने आत्मा की खो दी है।

क्या तुमने कभी यह देखा नहीं? जहां कहीं भी तुम किसी चीज को खरीदते हो, तुम्हें उसका भुगतान करना होता है। यदि तुम्हें लोगों के साथ स्पर्धा करनी होती है, तो तुम्हें उसकी कीमत चुकानी होती है। तुम कम से कम प्रेमपूर्ण होते जाओगे। एक व्यक्ति जो प्रतिस्पर्धा में लगा हो, वह साथ—साथ प्रेमपूर्ण नहीं बना रह सकता। यह असंभव है। एक व्यक्ति जो स्पर्धा करने का प्रयास कर रहा हो और जो महत्वाकांक्षी हो, वह प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता। वह उसका मूल्य प्रेम के द्वारा चुका रहा है।

राजनीतिज्ञ प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते, वे केवल युद्ध और संघर्ष जानते हैं। यह स्वाभाविक भी है। संघर्षों के द्वारा ही उनका अस्तित्व है। इसलिए वे शांतिवार्ता करते दिखाई देते हैं, लेकिन उनकी पूरी बातचीत बस व्यर्थ की बकवास, या ठीक जिबरिश है। वे शांति के बारे में बातचीत करते हैं और तैयारी करते हैं युद्ध की। वे शांति के लिए कभी तैयार होते ही नहीं, वे तैयार होते हैं युद्ध के लिए। लेकिन युद्ध के बाबत कभी बातचीत नहीं करके, बात शांति की ही करते हैं। और जब समय आता है तो वे युद्ध करने भी जाते हैं, और शांति स्थापना करने के नाम पर ही युद्ध करते हैं। वे कहते हैं कि शांति स्थापना करने के लिए ही यह सब कुछ करना ही पड़ा। लेकिन आधारभूत रूप से, प्रतियोगी का मन हिंसक ही होता है। वह व्यक्ति जो महत्त्वाकांक्षी है, हिंसक है वह प्रेमपूर्ण हो ही नहीं सकता।

हिप्पियों का नारा—’‘युद्ध नहीं प्रेम करो अत्यंत अर्थपूर्ण है। यदि संसार अधिक प्रेमपूर्ण हुआ होता, तो युद्ध स्वत: समाप्त हो जाते, क्योंकि लड़ने के लिए तैयार होता ही कौन? और किसके लिए?”

कोई भी देश नहीं चाहता कि उसमें रहने वाले लोग प्रेमपूर्ण हों। कोई भी देश नहीं चाहता कि उसके लोग प्रेम में गहरे डूबें क्योंकि यदि वे प्रेम की गहराई में उतर जाते हैं, तो युद्ध करने में अक्षम हो जाते हैं। उनको सेक्स और प्रेम का दमन करना ही होता है।

जब प्रेम और सेक्स दमित होते हैं, तो लोग अपने बाहरी खोल से बाहर आकर उछाल भरने को तैयार रहते हैं। वे लोग सदा ही इतने अधिक उबल रहे हैं कि वे हमेशा लड़ने को तैयार रहते हैं। यही कारण है कि निर्धन देश एक धनी देश की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह से युद्ध कर सकता है। वियतनाम की यही कहानी है।

अमेरिकन सैनिक प्रेम के बारे में थोड़ा बहुत जानता है उसके पास सुविधाएं हैं और साधन हैं वह इतना दमित नहीं है। अब अमेरिका के साथ यही समस्या है कि वहां लोग इतने अधिक दमित नहीं है। लोगों ने प्रेम का स्वाद चखा है। लेकिन जब तुम वियतनाम जैसे छोटे से देश से लड़ते हो, तो तुम जीत नहीं सकते, क्योंकि उनके सैनिक बहुत अधिक दमित हैं। अतीत में ऐसा हमेशा होता रहा है, एक धनी और सम्पन्न देश हमेशा ही गरीब देशों द्वारा हमला किये जाने के खतरे से ग्रस्त रहता है।

ऐसा ही भारत में भी कई बार हुआ। दो तीन हजार वर्षों से निरंतर भारत पर बर्बर लोगों के द्वारा जो न तो अधिक धनी थे, न अधिक सुसंस्कृत, आक्रमण कर उसे जीता गया। भारत निरंतर पराजित होता रहा। वहां लोग प्रेमपूर्ण थे वे भूल ही गए थे कि कैसे युद्ध किया जाये, युद्ध करने में उनकी कोई रुचि ही नहीं रह गई थी। उनके लिए निरंतर युद्ध करने की उनके अंदर कोई चाह या जरूरत ही नहीं रह गई थी। जब कभी कोई सभ्यता उस बिंदु पर पहुंच जाती है, जहां वह बहुत अधिक सम्पन्न और धनी हो जाती है, उस पर बर्बर लोगों द्वारा आक्रमण किये जाने का खतरा बढ़ जाता है। यह है दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन ऐसा होता ही है।

इसीलिए प्रत्येक देश और प्रत्येक राजनीतिज्ञ लोगों को अधिक प्रेम करने की इजाजत नहीं देते। यह अनुमति केवल अल्प मात्रा में दी जाती है। यदि प्रेम मुका है तो लोग बहुत अधिक प्रेम में डब जाते हैं और प्रेम के सागर में मग्न रहते हैं। उनके लिए युद्ध करना असम्भव हो जाता है। और बिना युद्ध के राजनीति करना सम्भव नहीं है। और बिना राजनीति के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनना भी सम्भव नहीं है। वे सभी मिट जाएंगे।

राजनीतिज्ञों के लिए हिप्पी लोग खतरे के सबसे बड़े निशान हैं। पूरे इतिहास में पहली बार ही एक नये तरह की पीढ़ी का उदय हो रहा है। यदि यह पीढ़ी निरंतर विकसित होती रही, फलती और फूलती रही, तो राजनीति समय के बाहर की चीज बन जाएगी। अब राष्ट्रपतियों और मंत्रियों के दिन बीत रहे हैं। पूरी चीज ही प्रेम पर निर्भर है, क्योंकि प्रेम ही अपने स्वयं में होने का गुण है। प्रतियोगिता वस्तुओं के लिए होती है, महत्त्वाकांक्षा भी वस्तुओं के लिए होती है, बिना साम्राज्य महत्त्वाकांक्षा किसके लिए? अपने ही अंदर परमात्मा का साम्राज्य, किसी प्रतियोगिता को नहीं जानता। तुम उसमें इसी क्षण प्रसन्न और आनंदित हो सकते हो। उसके लिए किसी भविष्य की कोई आवश्यकता नहीं, उसके लिए तुम्हें किन्हीं उपलब्धियों की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम पहले ही से जैसे भी हो तुम उसमें प्रसन्न और आनंदपूर्ण होकर उत्सव मना सकते हो। तुम किसी भी चीज से नहीं चूक रहे हो। प्रत्येक वस्तु जैसी वह होनी चाहिए वह है और तुम्हें हर चीज उपलब्ध है। तुम्हें केवल अपने महत्वाकांक्षी मन को ही गिरा देना है और उत्सव प्रारंभ हो जाता है। क्या तुम उसे देख सकते हो? यदि तुम इसे देख सकते हो, केवल तभी तुम नूतन मानुष को समझने में समर्थ हो सकोगे।

बाउल कहते हैं—’‘ वह मनुष्य जो वस्तुओं की व्यर्थता को समझ जाता है, वही धार्मिक बनता है।’’ यदि तुम वस्तुओं के संग्रह करने के पीछे भाग रहे हो, तो तुम निरंतर दूसरों के साथ संघर्ष करते हुए निरंतर दूसरों को इस तरह अथवा उस तरह से कुचलने का प्रयास कर रहे हो, यदि तुम सभी के नियंत्रक बनकर शिखर पर पहुंचने का प्रयास कर रहे हो, तो तुम अपनी सभी स्वाभाविकता, सहजता और गौरव खो दोगे।

अपने होने में मग्न मनुष्य, नूतन मनुष्य सहज, स्वाभाविक और स्वयं प्रवर्तित होता है। वह अभी और यहीं क्षण— क्षण जीता है। वह रहने का कोई दूसरा अन्य तरीका जानता ही नहीं, उसके बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तुम प्रतियोगिता करने वाले मनुष्य के सम्बंध में पहले से बतला सकते हो। तुम उसके बारे में भविष्यवाणी इसलिए कर सकते हो क्योंकि प्रतियोगी का मन गणित के नियम के अनुसार गतिशील होता है। उसके निष्कर्ष तर्कपूर्ण होते हैं। लेकिन उस व्यक्ति का मन, जो अंदर की ओर गतिशील है, आत्मवान है, उसका मन लगभग विसर्जित हो रहा है। जिस अंतर्यात्री का मन विसर्जित हो रहा है, तुम उसके बारे मे कुछ भी भविष्यवाणी नहीं कर सकते। उसके बारे में गणित का कोई भी सिद्धांत लागू नहीं होता। वह बस क्षण— क्षण जीता है, हर क्षण से ही उसका उत्तर स्वयं आता है।

वस्तुओं का संग्रह करने वाले मनुष्य के बारे में अब मैं एक बात बतलाना चाहता हूं जो बहुत स्पष्ट है ऐसे व्यक्ति की पूरी तरह स्पष्ट एक लक्ष्य या मंजिल होती है। यदि वह अमेरिका का राष्ट्रपति या भारत का प्रधानमंत्री बनना चाहता है, तो उसका लक्ष्य बहुत स्पष्ट होता है। और क्या आत्मवान व्यक्ति की भी कोई मंजिल होती है? नहीं, उसकी कोई मंजिल या लक्ष्य होता ही नहीं। उसकी दिशा तो बहुत सूक्ष्म होती है, लेकिन कोई मंजिल नहीं होती। उसके कुछ विशिष्ट गुण होते हैं, उसका अंतर्तम प्रकाशवान होता है, और वह जहां भी होता है वह पथ आलोकित हो उठता है। उसके पास दिशा देखने को आंखें तो होती है, लेकिन कोई लक्ष्य नहीं होता। वह आनंद मनाते हुए इधर—उधर आता—जाता तो है, लेकिन वह पूर्व— निर्धारित नहीं होता। उसके पास कोई योजना नहीं होती। वह एक रेलगाड़ी की तरह न होकर एक नदी की भांति होता है। उसकी एक दिशा तो होती है, लेकिन एक रेलगाड़ी की तरह नहीं, जो एक ढांचे में दौडती है। उसका जीवन टेढ़ा—मेढ़ा होता है। कभी वह उत्तर की तरफ चलेगा और कभी दक्षिण की ओर चल पड़ेगा, वह कभी भी बहुत नियमित नहीं हो सकता, क्योंकि नियमितता तर्कशील मन का ही एक भाग है, वह अस्तिवगत नहीं है। वह कई बार अनयिमित होगा और साथ में विरोधाभासी भी, लेकिन वे विरोधाभास केवल परिधि पर होंगे। यदि तुम गहराई से देखो तो तुम एक सूक्ष्म दिशा मार्ग पाओगे। विरोधाभास में भी वहां दिशामार्ग होता ही है।

पर इस आत्मवान् मनुष्य को पहचानने के लिए तुम्हें बहुत गहरी और अंतर्वेधी दृष्टि की जरूरत है। वस्तुओं का संग्रह करने वाले सांसारिक व्यक्ति को पहचानने के लिए कुछ भी नहीं चाहिए। बस थोड़े से सामान्य मन का उपयोग ही यथेष्ट होगा। क्योंकि यह सांसारिक परिग्रही व्यक्ति भी साधारण मन वालों की ही श्रेणी का है। लेकिन तुम जब आंतरिक संसार की ओर गतिशील होते हो तो सारी परिधिया मिट जाती हैं। और अंनत गहराई ही रह जाती है।

बाउल इस स्वयं प्रवर्तित मनुष्य को ‘ सहज मानुष ‘ या ‘ नूतन मनुष्य ‘ कहते हैं। यही नया मनुष्य है। वह ऐसा व्यक्ति है, जैसा प्रत्येक को होना चाहिए। और जब तक तुम नूतन मानुष नहीं बने, तुम चूक जाओगे। तुम चूक जाओगे महान सम्पदा से, परमांनद से और उन आशीर्वादों से जो तुम पर चारों ओर से बरस रहे थे, लेकिन तुम अंधे थे और उन्हें देख न सके।

मैंने सुना है:

मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में पागल हो रहा था। उसने अपनी प्रेयसी से कहा— ” देखो प्रियतमे! तुम्हारे लिए विवाह समारोह पर पहनाई जाने वाली हीरे की अंगूठी यह रही।’’

उस स्त्री ने कहा—’‘ ओह! यह तो बहुत सुंदर है। लेकिन शहद से मीठे मेरे प्रिय तुम! इस हीरे में तो खरोंच का निशान है।’’

मुल्ला ने कहा—’‘ तुम्हें उस ओर ध्यान नहीं देना चाहिए तुम प्रेम में आखिर पडी और तुम जानती हो कि सभी लोग कहते हैं कि प्रेम अंधा होता है।’’

” हां अंधा तो होता है, लेकिन हीरा तो अंधा नहीं होता।’’

 

यहां तक कि प्रेम में भी तुम बाहर के ही मनुष्य बने रहना जारी रखते हो। तुम प्रेम में भी, धन, प्रतिष्ठा, और शक्ति की भाषा में सोचना जारी रखते हो। तुम प्रेम में भी उस अज्ञात को स्पष्ट और मुखर होने की अनुमति नहीं देते। तुम अपने आंतरिक अस्तित्व को भी अपनी बात कहने की अनुमति नहीं देते। तुम फिर भी एक नियत्रंक बने रहते हो।

हमारे मन हमेशा लगभग बहुत सामान्य चीजों में रुचि रखते हैं। ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि वे बाहर की ओर ही उन्यूख होते हैं। किसी विशिष्ट दिशा की ओर मुड़ना ही बाहर की ओर उन्यूख होना है। ऐसे ही जीसस को भी न समझा जा सका, वह भी एक बाउल जैसे थे—नूतन मनुष्य। यदि वह बाउलों की भूमि बंगाल में जन्मे होते, तो वहां कहीं अधिक अच्छी तरह से समझे जाते। वहां लोगों ने उन्हें क्रास पर नहीं चढ़ाया होता। सदियों से लोगों ने उन्हें परमात्मा पागल प्रेमियों के रूप में ही जाना है। इन लोगों ने उनकी भाषा को अच्छी तरह समझ लिया होता।

यहूदी उनकी भाषा न समझ सके। उनकी भाषा मस्तिष्क या मन की भाषा नहीं थी। उनकी भाषा धन और बाहर के संसार की भाषा नहीं थी। वे साम्राज्य धन और बाहर के संसार की भाषा नहीं थी। वे साम्राज्य के बारे में बता रहे थे, और उन यहूदियों ने उनसे पूछा—’‘ कहां है तुम्हारा वह साम्राज्य? तुम किस साम्राज्य की बात कर रहे हो?” क्योंकि वे लोग सोच रहे थे कि वह उस साम्राज्य की बात कर रहे हैं, जो बाहर है। उन्होंने कहा— ” मैं ही सम्राट हूं। और वे लोग चिंतित हो गए और उन्हें संदेह हुआ कि वह समाज को बरबाद करने की कोशिश कर रहे हैं। अथवा वह समाज को जीतकर उसका सम्राट बनने की कोशिश कर रहे हैं। उन लोगों ने समझा कि वे एक क्रांतिकारी हैं। वह क्रांतिकारी न होकर एक विद्रोही थे। वह किसी क्रांति की योजना नहीं बना रहे थे, वह कोई राजनीतिज्ञ नहीं थे।’’

लेकिन यहूदी भयभीत थे। वे सोचते थे वह संसार पर विजय प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं और रोमन भी भयभीत थे। वे इसलिए भयभीत थे, क्योंकि लोगों का ऐसा खयाल था कि वह मनुष्यों पर राज्य करने के लिए राजा के रूप में जन्मे हैं। जब रोम के सम्राट ने यह सुना कि ऐसा एक बच्चा जन्म लेने जा रहा है, जो सभी मनुष्यों का सम्राट बनेगा, तो वे इतने अधिक भयभीत हो गए और उन्होंने दो वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों के कल्लेआम करने का आदेश दे दिया। जब पूरब से आएं

तीन बुद्धिमान व्यक्ति जीसस नाम के बच्चे की तलाश में राजधानी में आए तो सम्राट ने उनके बारे में सुनकर उन्हें अपने महल में आमंत्रित कर उससे पूछा कि वह यहां किसलिए आए हैं? उन्होंने बताया कि वह उस सम्राट के दर्शन के लिए आए हैं, जिसका जन्म इस देश में हुआ है। उन्होंने कहा— ” आपको तो प्रसन्न होना चाहिए कि इस सम्राट का जन्म आपके देश में हुआ और वह महान सम्राट आपके देश की पृथ्वी पर चलेगा।’’

लेकिन सम्राट यह सुनकर बहुत डर गया, क्योंकि उसने सोचा—’‘ एक ही देश में दो सम्राट कैसे रह सकते हैं, और तब मुझे सिंहासन से हटना होगा।’’ लेकिन उसने राजनीति का खेल खेलते हुए उन बुद्धिमान लोगों से कहा—’‘ मैं भी बहुत खुश हूं। और यदि आपको उसे खोजने में सफलता मिल जाए तो कृपया यहां पधार कर मुझे भी सूचित कीजियेगा।’’

लेकिन वह उस बच्चे की हत्या करने की योजना बना रहा था। उन तीन बुद्धिमान लोगों ने उसकी योजना को भली— भांति समझ लिया क्योंकि वह उन्हें उसकी आंखों में देख रहे थे। वह एक चालाक व्यक्ति था। राजनीतिज्ञ चालाक होते ही हैं।

इसके बाद उन लोगों ने जीसस के दर्शन किए और उनकी वंदना की। उन्होंने इस बार लौटने का दूसरा मार्ग चुना, क्योंकि उन्हें भय था कि सम्राट उनकी प्रतीक्षा कर रहा होगा और वे लोग उस गहरे संकट से बचना चाहते थे। वे जीसस की हत्या किए जाने में सहभागी होने के पाप से अपने को अलग रखना चाहते थे। इसलिए उन्हें काफी लंबी यात्रा करनी पड़ी। उन्हें लंबे रास्ते से जाना पड़ा, क्योंकि छोटा रास्ता वही था जिससे वे लोग आए थे। और वे काफी वृद्ध व्यक्ति थे, लेकिन फिर भी उन्होंने पहाड़ों और रेगिस्तानों से गुजरते हुए अपने देश वापस जाने के लिए उस लम्बे कठिन रास्ते से लौटना ठीक समझा। वे लोग उसी रास्ते से वापस इसलिए नहीं जाना चाहते थे क्योंकि वह रास्ता राजधानी होकर गुजरता था वहां सम्राट बैठा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।

जीसस क्रास पर अपने विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग के कारण ही चढ़ाए गए क्योंकि आंतरिक साम्राज्य को पाने की बात कर रहे थे। यद्यपि वह बाहर के साम्राज्य को पाने की बात नहीं कर रहे थे और न वह उन खजानों को पाने का जिक्र कर रहे थे जिन्हें तुम जानते हो, बल्कि वह तो अज्ञात सम्पदा को पाने की बात कर रहे थे। जहां तक बाहर के संसार का सम्बंध है, सभी खजाने थोथे और नकली है।

मैंने एक सुंदर आख्यान के बारे में सुना है

एक व्यक्ति एक शहर की सड़क पर चलता हुआ एक खुले सीवर के गट्टे में जा गिरा और उसकी टांग टूट गई। उसने नगर—निगम के विरुद्ध केस दायर करने के लिए एक प्रसिद्ध एडवोकेट की सेवाएं लीं, और दस हजार डॉलर का मुआवजा मांगा। आखिरकार वह मुकर्दमा जीत गया। नगर निगम उस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय तक गया लेकिन उसी एडवोकेट ने वहां भी मुकद्दमा जीता। . मुआवजे की रकम निश्चित हो जाने और मिलने के बाद एडवोकेट ने अपने

 

मुवक्किल को बिल के साथ एक डॉलर दिया।

उस व्यक्ति ने डॉलर को देखते हुए पूछा—’‘ आखिर यह है क्या?” एडवोकेट ने उत्तर दिया—’‘ मुआवजे की मिली रकम में मेरी फीस और सभी अपीलों में हुए खर्चों को घटाते हुए शेष रकम।’’

दस हजार डॉलर के हर्जाने में से सिर्फ एक डालर?

उस व्यक्ति ने उस डॉलर को फिर से देखा, उसे उलट पलट कर सावधानी से उसका अध्ययन किया और कहा—’‘ आखिर कुछ भी हो, यह डॉलर तो है। जो कुछ भी हुआ, उसके बदले धोखा देने के लिए यह जाली डॉलर तो है।’’

 

लेकिन बाहर की सारी धन सम्पदा जाली और नकली ही है, सभी डालर नकली हैं। सभी रुपये नकली हैं। असली सम्पदा इस तरह बाहर नहीं मिलती, असली धन सम्पदा बाहर होती ही नहीं। नकली से असली व्यक्ति के रूपातंरण को ही बाउल नूतन मनुष्य का जन्म कहते हैं।

आओ,मेरे निकट आओ,

यदि तुम इस नूतन मनुष्य से भेंट

करना चाहते हो

तो मेरे पास आओ।

उसने उस झोली के लिए

जो भिखारी अपने कंधे पर लटकाये रहते हैं।

अपनी सारी सांसारिक सम्पत्ति को व्यर्थ जान कर छोड़ दिया है।

उसने भिखारी बनने के लिए सारी सांसारिक उपलब्धियां और सुख सम्पत्ति छोड़ दी हैं। सांसारिक उपलब्धियां क्यों छोड़ दीं? सांसारिक सुख दो कारणों से छोड़े जाते हैं। तुम्हें यह फिर समझना होगा वह व्यक्ति जो अपने पूरे जीवन में वस्तुओं का संग्रह करके जीता रहा है, उन्हें लालच के कारण छोड़ सकता है। तब नूतन मनुष्य का जन्म ही न हुआ। वह उन्हें स्वर्ग या बहिश्त में अपना स्थान सुरक्षित करने के लिए त्याग सकता है। वह सांसारिक उपलब्धियां यह देख कर भी त्याग सकता है कि मृत्यु सब कुछ ले जाएगी। यदि यही स्थिति है तो पुराना मनुष्य पुराना ही बना रहता है। भले ही वह सबकुछ त्याग दे।

भारत में ऐसा बहुत बार होता है। अधिकतर इतना ही नहीं कि वे अपनी सारी सम्पत्ति का त्याग कर देते हैं, लेकिन यदि तुम उनका निरीक्षण करो तो तुम देखोगे कि उन्होंने अभी तक अपना लोभ नहीं छोड़ा है। वास्तव में उन्होंने अपने लालच के कारण ही त्याग किया है।

मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूं जिसने कई वर्ष पूर्व दस लाख रुपयों का त्याग किया था, लेकिन वह अब भी उसका जिक्र किए चले जाते हैं। तीस वर्ष व्यतीत होगए और जब भी मैं उनसे मिलता हूं वह बार—बार यह विषय ले ही आते हैं कि उन्होंने दस लाख रुपयों का त्याग किया था। और तुम देख सकते हो कि उनकी आंखों में दस लाख रुपये चमकना शुरू हो जाते हैं।

पिछली बार जब मैंने उन्हें देखा, तो मैंने उनसे पूछा— ” यदि आपने वास्तव में त्याग ही किया है, तो आप उस बारे में बात ही क्यों करते हैं २: उसका जिक्र करने की तुक क्या है? जहां तक मैं देख सकता हूं आपने उनका बिलकुल त्याग किया ही नहीं। नूतन मनुष्य का अभी जन्म नहीं हुआ है। तुम उस दस लाख रुपयों से आज भी उतने ही अधिक जुड़े हो, और सम्भवत: उससे अधिक जुड़े हों, जितने तुम पहले उन्हें पास रखते हुए जुड़े थे। अब यह विचार मात्र ही कि मैंने दस लाख रुपयों का त्याग कर दिया। तुम्हारा बैंक—बैलेंस बन गया है। अब तुम उसी याद में जी रहे हो।’’ मैंने उनसे कहा कि यदि आप परमात्मा के पास गए तो पहली बात जिसके द्वारा आप परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ेंगे वह दस लाख रुपये ही होंगे। वह कहेंगे—’‘ क्या आप जानते हैं कि मैंने दस लाख रुपयों का त्याग कर दिया।’’ और वह इसके बदले में अपने लिए स्वर्ग में भी कुछ विशिष्ट चीज पाने की अपेक्षा कर रहे हैं। यह मनुष्य पहले जैसा ही है, अभी नूतन मनुष्य का जन्म नहीं हुआ है। यह कृत्य उनके लिए एक ऐसा पत्र बन गया है जो अपनी मंजिल पर नहीं पहुंचा।

तुम त्याग कर सकते हो लेकिन यदि तुम अपने अहंकार के द्वारा प्रसन्न हो रहे हो, यदि तुम यह अनुभव करते हो कि तुम एक महान त्यागी हो, एक महान आत्मा अथवा संत हो क्योंकि तुमने त्याग किया है और तुम एक साधारण व्यक्ति नहीं हो, और तुम एक सांसारिक प्राणी नहीं हो तब तुम्हारा त्याग सच्चा नहीं है।

कब होता है सच्चा त्याग? जब तुम उसकी व्यर्थता समझते हो। किसी लालच के कारण नहीं। इसलिए भी नहीं क्योंकि तुमने दूसरे संसार के लिए कुछ चीज अर्जित की है, बल्कि केवल उसकी व्यर्थता जानकर ही तुमने उसे छोड़ दिया है।

त्याग करने में कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, बस एक गहरी अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है। हर सुबह तुम अपने घर की सफाई करते हो और कूड़े कर्कट का ढेर बाहर फेंक देते हो, लेकिन तुम उसकी घोषणा नहीं करते, पूरे शहर में इस बात का विज्ञापन नहीं करते कि तुमने फिर इतने अधिक कूड़े को फेंक दिया, आज सुबह फिर तुमने त्याग का एक महान कार्य किया। नहीं, तुम जानते हो कि यह व्यर्थ कूड़ा कचरा है, बात खत्म हो गई। आखिर इसमें बताने जैसी क्या बात है?

नूतन मनुष्य का जन्म तब होता है, जब तुम्हारे अंदर एक गहरी अंतर्दृष्टि होती है कि सांसारिक वस्तुओं का कोई भी मूल्य नहीं, वे केवल जाली मुद्रा की भांति है। नकली हीरे अथवा नकली भी असली हीरे ही क्यों न हो, सभी एक जैसे हैं। असली डालर उतने ही नकली हैं जितने जाली डालर। जब बाहर का पूरा संसार ही तुम्हारे लिए निर्मूल्य है तो वही सच्चा त्याग है। तब तुम उससे बंधे हुए नहीं हो। मुक्त हो।

 

और बाउल गाते हैं।

मेरे जतन से संवारे गए केश अभी भी संवरे हुए और सूखे हैं।

यद्यपि मैं धारा में खड़ा हुआ

और नदी में लगभग तैरता हुआ पानी उछाल रहा हूं।

लेकिन फिर भी जल मेरा स्पर्श नहीं कर सकता।

तुम जैसे ही सागर तट पर आओ

अपने पैरों के तलुवे सूखे रखो

उसी घर में रहते हुए बंधनों में सहभागी बनो

लेकिन रहो बिना किसी से बंधे हुए।

ओ मेरे मूर्च्छित हृदय!

तू अंतर्धारा की खोज में टटोलते हुए

व्यर्थ ही एक जगह से दूसरी जगह भटक रहा है।

तेरे ही हृदय—सागर में एक अनमोल रतन छिपा है।

उस जीवन को कैसे अच्छा मानें।

यदि तू उस सहज स्वाभाविक मनुष्य से

जो तेरी ही देह में निवास करता है।

सम्पर्क करने में असफल रहा है?

कांच के एक टुकड़े के लिए सोना मत दे

और नरक देखने के लिए स्वर्ग को मत छोड़

संसार की भीड़ में वहां चारों ओर भटकने में शुभ क्या है?

वह शाश्वत नायक तो तेरे अपने ही छोटे से कक्ष में रहता है

ओ मेरे हृदय!

तेरा अपना कहने को वहा है ही कौन?

तू किसके लिए अपने आंसुओ को व्यर्थ बहा रहा है?

भाई और मित्र उन सभी को वहीं बना रहने दे

यहां इस संसार में तेरा अपना प्रिय जीवन भी

मुश्किल से ही तेरा अपना है।

तू अकेला आया है

और अकेला ही जायेगा।

त्याग का पूरा विचार ही दृष्टि और समझ का है, चीजों को उनके वास्तविक रूप में देखने का है। तुम्हें संसार से भाग जाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम संसार में बने रह सकते हो और फिर भी पूरी तरह उससे बंधन मुक्त हो सकते हो। लेकिन यदि तुम अनुभव करते हो—’‘ अनावश्यक रूप से बोझ को क्यों ढोया जाये तो तुम संसार को छोड़ भी सकते हो। लेकिन स्मरण रहे, संसार का इस तरह से या उस तरह से कोई भी मूल्य नहीं है। यदि उसका कोई मूल्य ही नहीं है, तो उसके त्याग का भी कोई मूल्य नहीं हो सकता। यदि वह मूल्यवान है, केवल तभी उसका त्याग करना भी मूल्यवान हो सकता है। लेकिन तब उसको त्यागना जरूरी नहीं है, वह केवल मूल्यहीन है। वह एक सपने की तरह है। जब तुम जागते हो, तो प्रत्येक चीज विलुप्त हो जाती है।’’

तुम अकेले आये हो, तुम अकेले ही जाओगे, और उन दोनों के मध्य में ही स्वप्न का अस्तित्व है। सपने को समझने के लिए और उसके प्रति सजग बनने के लिए ही नूतन मनुष्य का जन्म होता है।

बाउल कहते हैं—’‘ यदि तुम नूतन मनुष्य से मिलना चाहते हो तो तेरे पास आओ।’’

वह पूरे संसार को आमंत्रित करता है, मुझे देखने के लिए आओ, नूतन मनुष्य का जन्म हो गया है।

” उसने उस झोली के लिए जो भिखारी अपने कंधे पर लटकाए रहते हैं, अपनी सभी सांसारिक उपलब्धियों को व्यर्थ जान कर छोड़ दिया है।’’

वह शाश्वत काल की देवी, मां काली का नाम लेता है, जब भी वह गंगा में खान करने के लिए उनमें उतरता है।

नूतन मनुष्य अनंत—समय या नित्यता में रहता है, जब कि साधारण मनुष्य समय में रहता है।

यह शब्द काली समझ लेने जैसा है। काली समय या काल की देवी अर्थात् मां है। संस्कृत में समय को काल कहते हैं और काल की मां—काली, अर्थात् समय की मां। लेकिन समय की मां, समय के पार है। समय का जन्म उससे ही हुआ है, लेकिन वह गर्भ जिससे समय का जन्म हुआ, वह नित्यता या अनंत समय है। यह नित्यता ही समय की मां है, शाश्वतता का मात्र प्रतिबिंब है समय। बाउल काली मां—समय—की ही पूजा करते हैं। वे इसी नित्यता की खोज करते हैं उसकी नहीं, जो बदलती रहती है, लेकिन उसकी जो हमेशा हमेशा बनी ही रहती हैं, जो सभी शब्‍दों की भीड़ से परे है, पूरी तरह थिर और स्‍थाई है। वे अस्‍तित्‍व की उसी धुरी की खोज करते हैं, प्रतीक रूप में उसी को काली कहा जाता है।

यह शब्द काल बहुत अर्थपूर्ण है। एक अर्थ है—तो समय और दूसरा अर्थ है मृत्यु।

उसी शब्द का अर्थ है ‘ समय ‘ और उसी शब्द का अर्थ है ‘ मृत्यु ‘। यह बहुत सुंदर है, क्योंकि समय ही मृत्यु है। जिस क्षण तुम समय में प्रवेश करते हो, तुम मरने के लिए तैयार रहते हो। जन्म के साथ ही मृत्यु तुम्हारे अंदर प्रविष्ट हो जाती है। जब बच्चा जन्म लेता है, वह मृत्यु के क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाता है जो जन्मदिवस है। वही मृत्यु दिवस भी है। अब केवल एक ही चीज निश्चित है, वही मृत्यु दिवस भी है। अब केवल एक ही चीज निश्चित है कि उसे मरना होगा। इसके अलावा हर चीज अनिश्चित है, वह हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। लेकिन जिस क्षण बच्चा जन्म लेता है उसी क्षण अपनी पहली सांस लेता है, अब एक चीज ही पूरी तरह सुनिशिइचत है कि उसकी मृत्यु होगी।

जीवन में प्रवेश करना ही मृत्यु में प्रवेश करना है, समय में प्रवेश करना है, मृत्यु में प्रवेश करना है। समय ही मृत्यु है, इसलिए संस्कृत का शब्द काल बहुत सुंदर है। इसका अर्थ समय और मृत्यु दोनों ही है। और काली का अर्थ है समय और मृत्यु दोनों के पार। नित्यता मृत्युहीनता है। इस नित्यता को कैसे खोजा जाए? इसकी विधि क्या है? इसके लिए तुम्हें समय की विधि अथवा प्रगति को समझना होगा।

समय की प्रगति समानान्तर है? एक क्षण गुजरा है, तब दूसरा क्षण आता है। वह भी गुजर जाता है, तब दूसरा क्षण आता है— क्षणों का एक जुलूस, क्षणों की एक पंक्ति…..एक गुजरता है, तब दूसरा आता है, दूसरा गुजरता है तब एक और दूसरा आता है। यह समानांतर है।

नित्यता लम्बवत है: तुम क्षण में गहरे उतरते हो हो, एक पंक्ति में गति न करते हुए उसकी गहराई में उतरते हो। तुम अपने आपको उस क्षण में डुबो देते हो। यदि तुम किनारे पर खड़े रहो, तब नदी बहती हुई गुजर जाती है। सामान्यतया हम समय के किनारे पर खड़े रहते हैं। नदी आगे बढ़ती जाती है, एक क्षण दूसरा क्षण और फिर अगला क्षण और क्षणों का क्रम जारी रहता है। सामान्य रूप से हम लोग इसी तरह जीते हैं, इसी तरह समय में जीते हैं।

तब वहां एक दूसरी विधि है, नदी में छलांग लगा जाओ क्षण में डब जाओ यहीं और अभी। तब समय अचानक रुक जाता है। तब तुम एक पूरी तरह से भिन्न आयाम में गतिशील होते हो, यह नित्यता का लम्बवत आयाम है। जीसस का क्रॉस का यही अर्थ है।

क्रॉस चिह्न का प्रतीक है। समय का। यह दो लकीरों से बनता है, एक लम्बवत और एक समानांतर। समानांतर लकीर जीसस के हाथ फैले हैं, और लम्बवत लकीर पर उनका पूरा शरीर खड़ा है। हाथ प्रतीक है—कार्य के : करने के, वश में रखने के। ‘ वश में रखना ‘, समय के अंदर होता है— ” होना ” नित्यता में होता है। इसलिए तुम जो कुछ भी करते हो, वह समय में होता है, तुम जो कुछ भी हो, वह नित्यता में है, तुम जो कुछ भी प्राप्त करते हो, वह समय के अंदर है, जैसा कुछ भी तुम्हारा स्वभाव है वह नित्यता में है।

कुछ प्राप्त करने और कुछ करने से ‘ ही ‘ होने की ओर परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। इसी क्षण भी यह मोड़ आ सकता है। इसी क्षण यदि तुम अपना अतीत और भविष्य भूल जाओ, तब समय रुक जाता है। तब कुछ भी गतिशील नहीं होता, तब प्रत्येक चीज पूरी तरह शांत होती है। और तुम अभी और ‘ यहीं ‘ में डूबना शुरू हो जाते हो। यह ‘ अभी ‘ ही नित्यता है।

काली प्रतीक है—’‘ अभी का ” नित्यता का पूर्ण सत्य का। क्षण—— क्षण जीना और भूत तथा भविष्य के बारे में फिक्र न करना ही नूतन मनुष्य बनने का रास्ता है।

 

साधारण शब्द भी अज्ञान और अविश्वास को मिटा सकते हैं

काली और कृष्ण एक ही है।

शब्दों में अंतर हो सकता है

लेकिन अर्थ ठीक—ठीक वही है।

वह जिसने शब्दों के अवरोध तोड़ दिए

उसने सारी सीमाओं पर विजय प्राप्त कर ली।

अल्ला या जीसस,

मोजेज या काली

अमीर या गरीब

साधूया मूर्ख

उसके लिए तो यह सभी एक ही हैं।

 

बहुत ही महत्त्वपूर्ण वाक्य है—’‘ साधारण शब्द भी अज्ञान और अविश्वास को मिटा सकते हैं।’’ यदि तुम सुन सको, तो बहुत साधारण शब्द ही काफी है। यदि तुम ग्राहक बनने में समर्थ हो सको, तो ऐसे व्यक्ति के वचन, जो जानता है यथेष्ट हैं। लेकिन यदि तुम नहीं समझते, तब चीजें बहुत जटिल बन जाती है। तुम्हारा न समझना और तुम्हें ग्राहकता न होने से चीजें जटिल हो जाती हैं। वह भ्रम उत्पन्न करती हैं। तुम्हें उलझाती हैं वह तुम्हारे अस्तित्व में कोलाहल उत्पन्न करती हैं। यदि तुम अपने मन के दखल दिए बिना मौन रहकर सुन सको, तब साधारण शब्द ही अज्ञान और अविश्वास मिटा सकते हैं।

बाउल कहते हैं:

प्रिय मित्र!

यदि तुम मुझे ऐसा करने से रोकते हो, तो मैं असहाय हूं।

मेरे गीतों में ही मेरी प्रार्थनाएं गुंथी हैं।

कछ पुष्प अपने सुंदर रंगों के जादू के द्वारा

और दूसरे पुष्प जो गहरे रंग के हैं,

अपनी सुवास के द्वारा प्रार्थना करते हैं।

जैसे वीणा अपने झंकृत तारों के द्वारा प्रार्थना करती है।

उसी तरह मैं भी

अपने गीतों के द्वारा प्रार्थना ही करता हूं।

बाउल अधिक दर्शनशास्त्र नहीं जानते, वे दार्शनिक नहीं है। वे इसी पृथ्वी के साधारण मनुष्य हैं। वे बहुत सहज और सरल व्यक्ति हैं, जो नृत्य कर सकते हैं और गीत गा सकते हैं। उनके शब्द बहुत सरल हैं। यदि तुम प्रेम करते हो, यदि तुम श्रद्धा करते हो, तो उनकी छोटी—छोटी मुद्राएं ही बहुत कुछ स्पष्ट कर देती हैं।

और यह प्रश्न सदा से ही प्रेम और श्रद्धा का है। क्योंकि जितना अधिक आत्मज्ञान तुम जानते हो तुम उतने ही अधिक उलझ जाते हो। और तुम जितने अधिक दर्शनशास्त्र से परिचित होते हो, तुम्हारी समझ विकसित होने की संभावना उतनी ही कम हो जाती है, तुम जितनी अधिक जानकारी बटोरोगे, तुम्हारी समझ उतनी ही कम होगी। तुम बहुत अधिक बादलों से घिर जाओगे और विचारों का ध्रुंवा तुम्हें स्पष्टता से देखने की अनुमति नही देगा। तुम्हारा दर्पण धूल से भर जाएगा।

साधारण शब्द भी अज्ञान और अविश्वास को मिटा सकते हैं।

काली और कृष्ण एक ही हैं।

बाउल कहते हैं—’‘ हम लोग हिंदू मुसलमान और ईसाई के बीच कोई भेद नहीं करते.. काली और कृष्ण एक ही हैं। वे कहते हैं, हम लोग स्त्री और पुरुष के बीच भी कोई भेद नहीं करते। काली और कृष्ण एक ही हैं, पुरुष और स्त्री एक ही हैं।’’ यह उनकी अंतर्दृष्टियों में से एक है, यदि तुम वास्तव में गहरे प्रेम और श्रद्धा के साथ गीत गाते हुए नृत्य कर सकते हो, तो तुम्हें यह अनुभव होगा कि पुरुष और स्त्री दो अलग— अलग अस्तित्व नहीं हैं। तुम्हारे अंदर एक नई रासायनिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है, और तुम्हारे अंदर का पुरुष पिघलकर अंदर की स्त्री से एक हो जाता है…..काली और कृष्ण एक हो जाते हैं।

वे गाते हैं:

जैसे ही मेरे अंदर स्त्री और पुरुष प्रेम में पिघलकर एक हो जाते हैं

उसके सौंदर्य की द्युति—

दो पंखडियों के कमल में संतुलित होकर

मेरे अंदर ही खिलती है।

उस सौंदर्य की द्युति से मेरी आंखें चौंधा जाती हैं।

चंद्रमा के प्रकाश से दीप्तिवान किरणें

और सर्पों के फणियों पर दमकती मणियों का सुनहरा प्रकाश

मेरी त्वचा और अस्थियों को स्वर्ण में बदल देता है।

ऐसा तभी तो होता है जब मेरे अंदर के ही स्त्री और पुरुष मिलते हैं,

जब अंदर कृष्ण और काली एक हो जाते हैं।

मेरी त्वचा और अस्थियां स्वर्णमयी हो जाती हैं।

मैं हूं प्रेम का अनंत जल— भंडार जो लहरों से जीवंत है,

जबकि इस जल की अकेली एक बूंद ही विकसित होकर

इतना गहरा सागर बन जाती है।

जिसमें नौकायन नहीं हो सकता।

पुरुष की पूरी समस्या ही यही है कि स्त्री से मिलन कैसे हो और स्त्री की भी पूरी समस्या है कि पुरुष से कैसे मिलन हो।

सुदूर पूरब के बहुत देशों में एक बहुत पुरानी कल्पित कथा कही जाती है। वे कहते हैं कि परमात्मा ने पुरुष और स्त्री को एक साथ दो अलग— अलग अस्तित्व के रूपों में बनाकर, एक ही शरीर में जुडा हुआ बनाया। लेकिन तब कठिनाई शुरू हो गई। वहां समस्याएं खड़ी होने लगीं और संघर्ष शुरू हो गया। स्त्री यदि पूरब की ओर जाना चाहती थी तो उस ओर पुरुष नहीं जाना चाहता था। अथवा यदि पुरुष कुछ काम करना चाहता था तो स्त्री विश्राम करना चाहती थी। लेकिन वे एक साथ थे, उन दोनों के शरीर जुडे हुए थे। इसलिए उन्होंने परमात्मा से शिकायत की और परमात्मा ने काट कर उन दोनों के शरीर अलग— अलग कर दिए।

तब से हर पुरुष अपनी उसी स्त्री की खोज कर रहा है और प्रत्येक स्त्री अपने पुरुष की खोज कर रही है। अब तो इतनी बड़ी भीड़ हो गई है कि यह खोज पाना कठिन है कि कौन सी तुम्हारी स्त्री और कौन सा तुम्हारा पुरुष है। इतनी अधिक मुसीबत है और प्रत्येक व्यक्ति गलत गदम उठाता अंधेरे में टटोल रहा है। तुम्हें अपनी स्त्री को खोज पाना लगभग असम्भव हो गया है। तुम उसे खोजोगे कैसे?

कथा कहती है कि यदि तुम उसे खोज सको तो हर चीज ठीक हो जायेगी— तुम दोनों फिर से एक शरीर हो जाओगे। लेकिन यह खोज पाना बहुत कठिन है। लेकिन तुम्हें अपनी स्त्री को खोज लेने का एक रास्ता है, क्योंकि वह स्त्री तुम्हारे बाहर नहीं है। बाहर तो अधिक से अधिक समानांतर समानताएं हैं।

जब तुम किसी स्त्री से प्रेम करने लगते हो, तो वास्तव में होता क्या है? होता यह है कि बाहर की स्त्री थोड़ा बहुत तुम्हारे अंदर की स्त्री की छवि की प्रतिपूर्ति करती है। उस छवि के अनुरूप अपना समायोजन करती है भले ही सौ प्रतिशत न सही लेकिन इतना तो करती है जिससे प्रेम हो सके। जब तुम किसी पुरुष से प्रेम करने लगती हो तो क्या घटता है। तुम्हारे अंदर कोई चीज खटपट करने लगती है और कहती है—’‘ हां! यही है वह पुरुष एक सच्चा पुरुष है।’’ यह कोई तर्क पूर्ण निष्कर्ष नहीं है और न यह तथ्यों के पार कोई तार्किक विवेचना है, यह ऐसा भी नहीं है कि तुम उस पुरुष की सभी अच्छाइयां और बुराइयां, खोज लेती हो, और तब तुम तै करती हो, अथवा तुम उस पुरुष की संसार के अन्य पुरुषों से तुलना करती हो और तब उसे चुनती हो। नहीं, अचानक धुंध और धुवें से कुछ नजर आता है, और कोई चीज घट जाती है। अचानक तुम देखती हो और तुम्हें लगता है यही वह पुरुष जिसके लिए तुम इंतजार कर रही थी, जिसकी तुम्हें जन्म जन्मों से प्रतीक्षा थी।

होता क्या है? तुम अपने साथ एक पुरुष की छवि अपने अंदर लिए चलते हो, तुम अपने अंदर एक स्त्री की छवि बसाये होते हों। तुम स्त्री और पुरुष दोनों ही हो अंदर से, और तुम बाहर ही देखें चले जाते हो। कोई भी सौ प्रतिशत उस छवि के अनुरूप नहीं मिलने का, क्योंकि बाहर तुम जिस स्त्री को पाते हो, उसकी भी तुम्हारे बारे में अपनी एक अलग छवि है, और तुम्हारे अंदर भी अपनी स्त्री की अलग छवि है। दोनों छवियां एक दूसरे से मिल जाएं यह बहुत अधिक कठिन है। इसलिए सभी विवाह हमेशा टूटने की कगार पर होते हैं, और लोग धीमे— धीमे यह सीखते हैं कि कैसे शांति से जीवन गुजारा जाए। वे सीखते हैं कि जीवन की नौका किसी चट्टान से न टकरा जाये। लेकिन बाहर इससे अधिक और कुछ नहीं हो सकता।

बाउल कहते हैं—’‘ तुम्हारे अंदर गहरे में दोनों ही अस्तित्व में हैं—कृष्ण और काली। उनका वहां मिलन होने दो। तंत्र की पूरी विधि यही है, तुम कैसे अपने अंदर के पुरुष को अपने अंदर की स्त्री के साथ मिलने की अनुमति देते हो। और जब इस मिलन के बाद ऊर्जा का एक वर्तुल बन जाता है, तब एक अंतर्संभोग घटता है, एक महान शिखर अनुभव होता है, परमानंद का एक महान विस्फोट होना शुरू हो जाता है, जिसका आरंभ तो ज्ञात है, पर उसका अंत कोई नहीं होता।’’

तब तुम जीवन, एक शिखर अनुभव करते हुए परमानंद में जीते हो।

अकेली पानी की एक बूंद ही

विकसित होकर एक सागर बन जाती है

ऐसा गहरा सागर जिसमें नौकाएं नहीं चलती।

तब तुम फिर सीमित नहीं रह जाते, तुम असीम और अनंत हो जाते हो।

साधारण शब्द भी अज्ञान और अविश्वास को मिटा सकते हैं।

काली और कृष्ण एक ही है।

शब्दों में अंतर हो सकता है।

लेकिन अर्थ ठीक—ठीक वही है।

वह जिसने शब्दों के अवरोध तोड़ दिए

उसने सारी सीमाओं पर विजय प्राप्त कर ली।

शब्दों की सीमाएं तोड़ दो। अब जब मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूं मैं शब्दों का प्रयोग कर रहा हूं। तुम मेरे शब्दों को सुन सकते हो, तब तुमने मुझे सुना ही नहीं। तुम इस तरह भी सुन सकते हो, कि शब्द अधिक समय तक अवरोध न बन सकें, बल्कि वाहन बन जायें। वे और अधिक समय तक समस्याएं उत्पन्न न करें, लेकिन तुम शब्दों के ठीक मध्य में सुनो, दो शब्दों के मध्य अंतराल में। तुम मेरे मौन को सुनो। तब शब्द और उनके अवरोध टूट जाते हैं, तब सीमाओं पर विजय प्राप्त कर ली जाती है।

अल्लाह या जीसस

मोजेज या काली

धनी अथवा निर्धन

साधु या मूर्ख

उसके लिए तो ये सभी एक ही हैं।

यही है वह नूतन मनुष्य।

अब वह कोई द्वैतता नहीं जानता। वह साधू और बेवकूफ व्यक्ति के मध्य कोई अंतर या भेद नही करता। वह स्त्री और पुरुष के मध्य भी कोई अंतर नहीं समझता। सभी द्वैतताएं एक हो जाती हैं, सारी द्वैतता विसर्जित हो जाती है। एक बार तुम शब्दों को गिरा दो, द्वैतता भी गिर जाती है।

भाषा ही द्वैतता उत्पन्न करती है। भाषा का अस्तित्व ही द्वैतता के द्वारा है। वह अद्वैत को अभिव्यक्त नहीं कर सकती। यदि मैं कहता हूं कि ‘ दिन ‘ तुरंत ही मैं ‘ रात ‘ का सृजन कर देता हूं। यदि मैं कहता हूं ‘ अच्छा ‘ तुरंत ही ‘ बुरा ‘ उत्पन्न हो जाता है। यदि मैं कहता हूं ‘ नहीं ‘, बस उसकी बगल में ‘ हां ‘ का भी अस्तित्व है। भाषा का अस्तित्व केवल विरोध के द्वारा ही है।

इसी कारण हम देखते हैं कि जीवन हमेशा विभाजित है परमात्मा और शैतान। भाषा छोड़ दो, भाषा का यह ढांचा गिरा दो। एक बार तुम्हारे मन में भाषा न रहे और तुम वास्तविकता या सत्य में सीधे देख सको। दिन में रात भी है। अचानक तुम हंसने लगोगे कि इतनी लंबी अवधि से उसे चूकते क्यों रहे? दिन प्रत्येक दिन रात में बदलता है, रात, दिन में बदलती है और फिर सुबह आती है और तुम उसे चूकते रहे हो। जीवन सदा ही मृत्यु की ओर गतिशील है। मृत्यु फिर से हमेशा जीवन की ओर बढ़ रही है। और तुम उससे चूकते जा रहे हो। वे दो नहीं है, वे पूरी तरह एक ही हैं। यह दो नहीं है। अद्वैत है। यही सबसे अधिक सारभूत धर्म है।

क्योंकि उसकी चेतना अब और भाषा के द्वारा विभाजित नहीं होती, अब वह संसार को शब्दों के माध्यम से नहीं देख रहा है। वह पागल जैसा दिखाई देता है, वह अब अपने अस्तित्व में ही डूबा हुआ है, वह अपने ही प्रकाश में खो गया है। और यह प्रकाश इतना अधिक व्यापक और प्रखर है, जैसे मानो एक हजार एक सूरज एक साथ उदित हो गए हों। यह प्रकाश बहुत चौंधाने वाला है।

अपने ही खयालों में खोया हुआ

वह दूसरों को पागल जैसा दिखाई देता है।

वह संसार का स्वागत करने के लिए

अपनी भुजाएं फैला कर

उन सभी को अपनी नाव पर

जो अभी जीवन के किनारे से ही बंधी है।

उस पार ले जाने के लिए

आमंत्रित करता है।

और वह पुकारे चले जाता है। आओ मेरे पास आओ। यदि तुम उस नूतन मनुष्य से भेंट करना चाहे हो, और वह नाव तैयार है। और उसकी नाव जीवन के विरोध में नहीं है, वह जीवन तट से ही बंधी हुई है। वह नकारात्मक नहीं है। और वह कह रहा है—’‘ आओ! मैं तुम्हें दूसरे किनारे पर ले जा सकता हूं। आओ! और मैं तुम्हें नूतन बना सकता हूं आओ! और मैं तुम्हें शाश्वतता में ले जा सकता हूं।’’

 

आज बस इतना ही!

 

 

 

 


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सहज योग–(प्रवचन–13)

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प्रार्थना अर्थात संवेदना—(प्रवचन—तैरहवां)

दिनांक 2 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—सिद्ध सरहपा और तिलोपा यह तो बता गए कि क्रियाकांड और अनुष्ठान धर्म नहीं है। कृपया बताएं कि उनके अनुसार धर्म क्या है? उनका संदेश क्या है?

 2—मैं नाच रहा हूं यहां। मैं अपने पर चकित हूं। पूछता हूं कि यह क्या हो गया है मुझे?

 3—जीवन में दुख-ही-दुख क्यों है? परमात्मा ने यह कैसा जीवन रचा है?

 

4—प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं, यह जानते हुए विनम्रतापूर्वक मैं जानना चाहूंगा–मा दर्शन ने गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता को आपके भगवान होने के संबंध में उत्तर दिया। मेरी मंद बुद्धि के अनुसार यह उत्तर वही दे सकता है जिसे स्वयं स्मरण है। और जिसे स्वयं स्मरण है, वह स्वयं को भी तो भगवान कह सकता है। लेकिन तब इस उदघोषणा से बचा क्यों जाए?

 

5—इस मुर्दा देश को क्यों आपने कार्यक्षेत्र की तरह चुना है?

 

 

पहला प्रश्न :

 

सिद्ध सरहपा और तिलोपा यह तो बता गये कि क्रियाकांड और अनुष्ठान धर्म नहीं है। कृपया बतायें कि उनके अनुसार धर्म क्या है? उनका संदेश क्या है?

 

आनंद मैत्रेय, नेति-नेति धर्म की खोज का सार-सूत्र है। यह भी नहीं, यह भी नहीं–ऐसे परखते-परखते, जो है, वह शेष रह जाता है। उसे कहने की कोई आवश्यकता नहीं होती।

निषेध सम्यक धर्म की खोज का उपाय है।

क्रियाकांड धर्म नहीं है, तीर्थयात्रा धर्म नहीं है, पूजा-पाठ धर्म नहीं है। स्वभावतः प्रश्न उठता है कि क्या धर्म नहीं है, यह तो बता दिया, फिर धर्म क्या है? शास्त्र धर्म नहीं हैं, सिद्धांत धर्म नहीं हैं, मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे धर्म नहीं हैं, फिर धर्म क्या है? धर्म है उस सबका निषेध, जिसका निषेध हो सके। जब तक निषेध हो सके निषेध करते जाना। अभी निषेध और गहरा होगा–यह देह भी धर्म नहीं है; यह मन, विचार की प्रक्रिया भी धर्म नहीं है। निषेध करते ही जाना, तब शेष रह जायेगा सिर्फ साक्षी, सिर्फ देखनेवाला। न पूजा करनेवाला बचेगा, न कर्म करनेवाला बचेगा, न देह बचेगी, न मन बचेगा–बचेगा सिर्फ साक्षी। और साक्षी का निषेध नहीं हो सकता है; वही एकमात्र तत्व है जो असंदिग्ध है।

कोई भी यह नहीं कह सकता कि मैं नहीं हूं; क्योंकि ऐसा कहना तो विरोधाभास होगा। जैसे तुम किसी आदमी के द्वार पर दस्तक दो और आदमी भीतर से कहे कि मैं घर पर नहीं हूं, तो क्या अर्थ होगा? उसकी यह घोषणा कि मैं घर पर नहीं हूं, उसके होने का सबूत होगी। वह कह सकता है–मेरी पत्नी घर पर नहीं है, मेरा बेटा घर पर नहीं है–और सबका निषेध कर सकता है, सिर्फ अपना निषेध नहीं कर सकता। यह नहीं कह सकता कि मैं घर पर नहीं हूं। यह तो कहना उलटा हो जायेगा। यह तो प्रमाण हो जायेगा कि वह घर पर है। तुम और जोर से द्वार पीटने लगोगे।

ऐसे ही तुम सबका निषेध कर सकते हो, सिर्फ इस भीतर छिपे साक्षी का नहीं, वही साक्षी तुम्हारा स्वभाव है, स्वरूप है। वही साक्षी तुम्हारी सहजता है। इसलिये सरहपा और तिलोपा खंडन तो करते हैं, मंडन नहीं करते। यह तो बताते हैं कि क्या-क्या छोड़ दो मगर यह नहीं बताते कि क्या पकड़ लो; क्योंकि तुम जो भी पकड़ोगे गलत होगा; क्योंकि तुम जो भी पकड़ोगे वह तुम नहीं हो। जो पकड़ा जा सकता है, वह तुम कैसे होओगे? जो किया जा सकता है, वह तुम कैसे होओगे? तुम तो वह हो जो हर कृत्य का द्रष्टा है–जो सिर्फ देखता है। दर्शन की वह क्षमता तुम हो।

तुम दर्पण हो। दर्पण के सामने जो भी आता है, वह दर्पण नहीं है। अगर कोई दर्पण पूछे कि मैं कौन हूं, तो तुम क्या करोगे? एक स्त्री उसके सामने बाल बना रही है और दर्पण को लगता है कि मैं स्त्री हूं, यही स्त्री! सुंदर भी है, मनमोहक है और दर्पण लुभा जाता है। अगर तुमसे पूछे दर्पण कि मैं कौन हूं, क्या मैं यह स्त्री नहीं हूं, तो तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे कि नहीं, यह स्त्री तुम नहीं हो। फिर कोई पुरुष अपनी दाढ़ी बना रहा है, बड़ा मजबूत है, बड़ा शक्तिशाली है और दर्पण फिर लुभा जाता है और सोचता है यह मैं हूं; स्त्री नहीं हूं तो पुरुष होऊंगा। स्वभावतः लोग विपरीत की तरफ मुड़ जाते हैं: अगर स्त्री नहीं हूं तो पुरुष होना ही चाहिये। और फिर तुम कहते हो कि नहीं, यह भी तुम नहीं हो। तो दर्पण पूछेगा, फिर मैं हूं कौन?

क्या जवाब दोगे? तुम यही कहोगे : तुम प्रतिफलन की क्षमता हो। सब रूप तुममें बनेंगे, सब आकार तुममें बनेंगे। न तो तुम कोई रूप हो न तुम कोई आकार हो, न तुम्हारा कोई नाम है। तुम वह शून्य भाव हो, जिसके सामने सब गुजरता है; जिसके सामने सब दृश्य आते हैं और जाते हैं। संसार बनते हैं और उजड़ते हैं। सृष्टि होती है और प्रलय आती है। तुम वह हो जो सदा देखता रहता है। तुम वह द्रष्टा हो। इस द्रष्टा के लिये कुछ और कहा नहीं जा सकता, क्योंकि जैसे ही कुछ कहोगे–कोई रूप, कोई आकार, कोई नाम दोगे–वैसे ही भूल हो जायेगी।

इसलिये जो परम ज्ञानी हुए हैं उन्होंने धर्म की निषेधपरक व्याख्या की है।

तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। यही आदमी की सदा से तकलीफ रही है। आदमी चाहता है विधेय और बुद्ध पुरुष देते हैं निषेध। आदमी कहता है कि कुछ विधायक बात कहो; हमें बताओ कि क्या धर्म है, तो हम करें। अगर हज जाना धर्म है तो हम हज जायें। अगर काशी की यात्रा करना धर्म है तो हम काशी चले जायें। अगर मंदिर में पूजा धर्म है तो हम वहां पूजा कर लें। अगर फूल चढ़ाना धर्म है तो हम फूल चढ़ा दें। अगर नारियल फोड़ना धर्म है तो हम नारियल फोड़ दें। यह सब हम कर सकते हैं। लेकिन कुछ विधायक बताओ। जनेऊ पहन लें, चोटी रखा लें कि चोटी कटा लें, कि जनेऊ तोड़ दें–कुछ विधायक बताओ।…कि चंदन लगायें, कि किस तरह का चंदन, कि किस तरह का टीका? कुछ विधायक बता दो। कब उठें सोकर, कब सो जायें सांझ, कौन-सी प्रार्थना दोहरायें–वेद की कि कुरान की? कौन-से शब्दों का उच्चार करें? अल्लाह को पुकारें कि राम को? कुछ विधायक बता दो।

हम कुछ पकड़ना चाहते हैं और बुद्धपुरुष कहते हैं : यह भी नहीं, यह भी नहीं। इसलिये बुद्धपुरुष और हमारे बीच मेल नहीं हो पाता, तालमेल नहीं हो पाता। पंडितों से हमारा तालमेल हो जाता है। पंडित विधायक धर्म देता है। वह कहता है : यह रहा धर्म। इस मूर्ति की अगर ठीक-ठीक पूजा की तो जरूर पहुंच जाओगे। और मजा ऐसा है कि पहुंचोगे कभी नहीं, और पंडित कहेगा : ठीक-ठीक पूजा नहीं की। न होगी कभी ठीक पूजा, न कभी तुम पहुंचोगे। पूजा से कोई कभी पहुंचा है? मगर एक तरकीब है उसमें कि कभी ठीक तुमने की नहीं…हम कर भी क्या सकते हैं? ठीक करते जरूर पहुंच जाते। तुम्हारी पूजा में भूल रह गई। तुम्हारी पूजा के पीछे संदेह रहा। तुम्हारी श्रद्धा पूर्ण नहीं थी। तुम्हारे मन में संशय उठते रहे, इसलिये चूक हो गई। यह मंत्र पढ़ो, अगर ठीक से पढ़ोगे, बराबर पहुंच जाओगे।

मगर ठीक से कोई मंत्र पढ़ ही नहीं पाता। मंत्र पढ़नेवाला और ठीक से पढ़ पाये, मंदबुद्धि है यह तो साफ ही है, नहीं तो मंत्र पढ़ने बैठता? अब ठीक से क्या पढ़ पायेगा? और फिर मंत्र में ऐसी शर्तें लगा दी जाती हैं…तुमने प्रसिद्ध कहानी सुनी है न? तिब्बती कहानी। एक आदमी एक फकीर की सेवा में था। बहुत सेवा की और पीछे पड़ा था: बस एक ही बात कि कोई एक मंत्र दे दो, कि उसके पढ़ते ही सिद्धि मिल जाये। कि फिर मैं जो चाहूं वही हो। कल्पवृक्ष मिल जाये, कि जो आशा हो तत्क्षण भर जाये। और उसकी सेवा तो ठीक थी, पैर भी दबाता था, पानी भी भर लाता था, रोटी भी पकाता था, लेकिन बार-बार यही प्रश्न। फकीर भी ऊब गया। उसने कहा कि ठीक, एक दिन…। तू नहीं मानता तो यह ले मंत्र। पांच मिनट इसे पढ़ लेना, सिद्धि हो जायेगी। फिर तुझे जो चाहिये वह मिल जायेगा। इसी के लिये तो वह आदमी तीन साल से सेवा कर रहा था। सेवा भी लोग मेवा पाने के लिये ही करते हैं। अब मेवा मिल गया तो छोड़ा फकीर को तो वह भागा अपने घर की तरफ। जब वह सीढ़ियां उतर रहा था मंदिर की, तो उस फकीर ने कहा: सुन भाई। एक बात तो मैं भूल ही गया। जब तू पांच मिनट तक मंत्र का पाठ करे तो याद रखना, बंदर की याद न आये।

उस आदमी ने कहा : तुम भी क्या फिजूल की बातें कर रहे हो! बंदर की याद मुझे जिंदगी-भर नहीं आई, अब क्यों आयेगी?

मगर बस घर भी नहीं पहुंच पाया, रास्ते में ही बंदर की याद आने लगी। उसने झिड़का भी अपने को, कि मैं यह क्या कर रहा हूं, मगर बंदर थे कि बढ़ते ही चले गये, कि बंदर थे कि झांकने लगे उसके भीतर, कि खिलखिलाकर हंसने लगे, कि मुंह बनाने लगे! वह तो बहुत घबड़ाया कि अगर यही शर्त थी इस मंत्र की तो इस नासमझ फकीर ने बताया ही क्यों, चुप रह जाता। अभी दुनिया का कोई जानवर नहीं आ रहा, मगर यह बंदर…। घर पहुंचा, नहाया-धोया, लेकिन कुछ सार नहीं। बंदर हैं कि पीछे आते ही जा रहे हैं। कतारें लगी हैं उनकी। आंख बंद करे कि बंदर ही बंदर दिखाई पड़ें। रात-भर कोशिश की कि मंत्र पांच मिनट पढ़ ले बिना बंदरों के, नहीं हो पाया। सुबह तक एक बात साफ हो गई कि अब यह जिंदगी-भर भी कोशिश करे तो बंदरों से छुटकारा नहीं, क्योंकि बंदर रात में बढ़ते ही चले गये। सुबह जाकर मंत्र लौटा दिया फकीर को और कहा कि आप भी खूब हो! तीन साल मुझे परेशान किया। तीन साल के बाद यह दिया भी तो यह शर्त लगा दी। अगर यही शर्त थी तो चुप रह जाते, तो मैं पक्का तुम्हें भरोसा दिलाता हूं कि बंदर की मुझे याद न आती।

फकीर ने कहा : मैं भी क्या कर सकता हूं, शर्त तो बतानी ही होगी, बिना शर्त के मंत्र करोगे तो मंत्र से सिद्धि नहीं मिलेगी। हर मंत्र के पीछे शर्त है। तुम्हें चाहे पता हो, चाहे न पता हो, चाहे तुम्हें साफ-साफ कहा गया हो या छुप-छुपकर इशारा किया गया हो, हर मंत्र के पीछे शर्त है : श्रद्धा पूर्ण होनी चाहिये!

जिस आदमी की श्रद्धा पूर्ण है वह मंत्र पढ़ेगा? जिसकी श्रद्धा पूर्ण है वह तो भगवत्ता को उपलब्ध हो जायेगा श्रद्धा की पूर्णता में। जिसके सब संदेह गिर गये उसे बचा क्या पाने को? निःसंदिग्ध चित्त की दशा मिल गई, वही तो भगवत्ता है। अब जिसकी श्रद्धा पूर्ण नहीं है वही तो मंत्र पढ़ेगा। और मंत्र सिद्ध होते नहीं बिना श्रद्धा पूर्ण होने के। यह गणित देखते हो?

जिसके भीतर पूजा का भाव जगा है वह पूजा नहीं करता। भाव काफी है। भाव के सुमन काफी हैं। जिसके भीतर पूजा का भाव नहीं है, वहीं मंदिर में जाकर घंटियां बजाता है, पानी छिड़कता है, फूल चढ़ाता है, धूप-दीप जलाता है। पूजा का भाव नहीं है, इसलिये पूजा का अभिनय करता है। यह अभिनय है। और तुम चाहते हो कि तुम्हें कुछ बता दिया जाये कि धर्म क्या है–विधायक–कि क्या करें, कैसा भोजन करें, कैसे कपड़े पहनें, कैसे उठें, कैसे बैठें, सीधा-साफ हमें नियम दे दिये जायें।

नियम तो तुम्हें दिये गये बहुत बार और जब भी नियम दिये गये, देनेवाले बेईमान थे, लेनेवाले बेईमान थे। नियमों से कुछ हल नहीं हुआ। पृथ्वी वैसी की वैसी अधार्मिक है। नियमों की कोई कमी है? सब तरफ नियमों का पालन किया जा रहा है, लेकिन कहीं भी धर्र्म का सूरज उगता दिखाई नहीं पड़ता। क्षितिज पर लाली नहीं दिखाई पड़ती। आदमी का आकाश बिलकुल अंधेरे से भरा है; एक तारा भी नहीं चमकता। और इतने धर्म और इतने विधायक नियम और पंडित उनका विस्तार किये चले जाते हैं!

तुम्हें कितनी आज्ञायें दी गई हैं, कितने आदेश दिये गये हैं। और ऐसा भी नहीं कि तुमने पूरे नहीं किये। जितना तुमसे बन सकता था, जितना मानवीय क्षमता में था…मंत्र तो उस आदमी ने रात-भर पढ़ा, और खूब स्नान कर-करके, बार-बार स्नान कर-करके पढ़ा, लेकिन कुछ जो मानवीय क्षमता में नहीं है…वह बंदर को कैसे भूले ? जिसे तुम भुलाना चाहते हो, उसे भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि भुलाने की कोशिश में और याद आता है। जितना भुलाओगे उतना याद आयेगा। जितना याद आयेगा उतना भुलाना मुश्किल हो जायेगा। जितना याद आयेगा उतना भुलाना चाहोगे और जितना भुलाना चाहोगे उतना याद आयेगा। तुम उलझ गये एक द्वंद्व में। इस द्वंद्व के बाहर अब तुम कभी न हो पाओगे।

लेकिन पंडित तुम्हारी तृप्ति कर देते हैं। तुम सस्ता धर्म मांगते हो, पंडित तुम्हें सस्ता धर्म दे देता है। विधायक धर्म सस्ता धर्म होता है। उसमें बहुत सीधी-साफ बातें होती हैं : पानी छानकर पी लेना, एकादशी का व्रत कर लेना, मंदिर चले जाना, पूजा कर लेना, रमजान आये तो रमजान के दिन में उपवास कर लेना। कुछ सीधी-सादी बातें होती हैं, जो कोई भी कर ले; जिनमें कुछ बहुत अर्थ नहीं है; जिनका धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है।

लेकिन बुद्धपुरुष हमेशा निषेधात्मक धर्र्म देते हैं। नेति-नेति उसका स्वभाव होता है, स्वरूप होता है। न यह न वह। चलो काटते। करते चलो निषेध। उस जगह आ जाओ जहां निषेध करने को कुछ न बचे। काटते चलो, उस जगह आ जाओ जहां काटने को कुछ न बचे फिर जो बच रहा–अनकटा, जिसको न शस्त्र छेद सकते हैं और न आग जला सकती है, जिसको इनकार भी करना चाहो तो इनकार करने का कोई उपाय नहीं–उसका एक बार स्वाद मिल जाये, उस साक्षी की जरा सी प्रतीति हो जाये कि उग गया धर्म का सूर्य, कि हो गई सुबह, कि कट गई रात लंबी जन्मों-जन्मों पुरानी, कि गया सब अंधेरा, कि मिटी मृत्यु कि बरसा अमृत!

सरहपा और तिलोपा क्रियाकांड और अनुष्ठान को धर्म नहीं कहते। तुम पूछते हो : कृपया बतायें कि उनके अनुसार धर्म क्या है? वैसा चैतन्य, जिसमें न कोई क्रियाकांड है, न कोई अनुष्ठान है, न कोई विचार है, न कोई धारणा है, न कोई सिद्धांत है, न कोई शास्त्र है। वैसा दर्र्पण, जिसमें कोई प्रतिछवि नहीं बन रही–न स्त्री की, न पुरुष की, न वृक्षों की, न पशुओं की, न पक्षियों की। कोरा दर्पण, कोरा कागज, कोरा चित्त…वह कोरापन धर्म है। उस कोरेपन का नाम ध्यान है। उस कोरेपन की परम अनुभूति समाधि है। और जिसने उस कोरेपन को जाना उसने परमात्मा को जान लिया।

और ऐसा नहीं कि परमात्मा बाहर खड़ा हुआ मिलेगा–विषय की तरह नहीं–अपने अंतरतम की तरह। उसी, साक्षी का दूसरा नाम परमात्मा है। जिस दिन तुमने अपने भीतर छिपे साक्षी को जान लिया, तुमने सबके भीतर छिपे साक्षी को जान लिया। तुमने इस जगत के भीतर छिपे हुए चैतन्य का मूलस्रोत पकड़ लिया। तुम जगत के केंद्र पर आ गये।

कर्ता अलग-अलग हैं; साक्षी एक है। दृश्य अनेक हैं; द्रष्टा एक है।

 

दूसरा प्रश्न :

 

मैं नाच रहा हूं यहां। मैं जो कि कभी नाचा नहीं। नाचना तो दूर, कभी सोचा भी नहीं था कि मैं नाचूंगा। मैं अपने पर ही चकित हूं। पूछता हूं कि यह क्या हो गया है मुझे?

 

प्रेम हो गया है तुम्हें, धर्म हो गया है तुम्हें। तुम अपने घर की तरफ आने लगे। तुम लौट पड़े। तुम अपने स्रोत की तरफ चल पड़े। गंगा गंगोत्री की तरफ बहने लगी है। उलटबांसी हो गई। जहां से आये थे उस तरफ तुम्हारे पहले कदम पड़ने लगे।

और उस तरफ जो पहले कदम पड़ते हैं, उन्हीं के कारण नाच पैदा होता है। परमात्मा से जितने दूर जाते हो उतना नाच खोता जाता है। उतना जीवन में उदासी, हताशा, विषाद छाता जाता है। जब तुम बहुत दुख में होते हो तो समझना कि परमात्मा से बहुत दूर होते हो

ऋषियों ने परमात्मा की व्याख्या की है सच्चिदानंद–वह सत है, वह चित है, वह आनंद है। सरहपा कहते हैं, तिलोपा कहते हैं : वह महासुख है। इसका अर्थ हुआ कि जितने तुम दुख में होते हो उतने उससे दूर होते हो। तुम्हारे दुख का अनुपात तुम्हारी दूरी का अनुपात है। तुम्हारे दुख की मात्रा तुम्हारी दूरी की सीमा है। जितना कम दुख उतने उसके पास। जब तुम नाच ही नहीं सकते, जब तुम्हारे भीतर सब रसधार सूख जाती है, जब तुम गा नहीं सकते, जब तुम मस्त नहीं हो सकते, जब तुम बिलकुल पत्थर जैसे हो जाते हो–तो समझना कि परमात्मा से बहुत दूर पड़ गये। जैसे-जैसे करीब आओगे, वैसे-वैसे सुगंध आयेगी उसके फूलों की; वैसे-वैसे उसकी वीणा का नाद सुनाई पड़ेगा; वैसे-वैसे उसकी थाप मृदंग पर; वैसे-वैसे उसकी बांसुरी के स्वर तुम्हारे कानों को छुएंगे। फिर कैसे रुकोगे? फिर अवश नाचना होगा। मस्त होना ही होगा। परमात्मा करीब आ रहा हो तो नाचे बिना कोई उपाय नहीं।

तुम सोचते हो कि मीरा नाच-नाचकर परमात्मा को पा गई, तो तुम गलती में हो। मीरा जैसे-जैसे परमात्मा को पाती गई वैसे-वैसे नाच बढ़ता गया। अगर नाचने से कोई सोचता है परमात्मा मिलेगा तो सब नर्तकियों को मिल जाये। लेकिन परमात्मा मिलने से जरूर नाच पैदा होता है। यहीं तुम्हें भेद समझ लेना होगा। अगर तुमने सोचा नाचने से परमात्मा मिलता है तो नाचना क्रियाकांड हो जायेगा। नाचना नहीं, मटकना होगा। भीतर तो कोई नाचेगा नहीं। भीतर तो सब सन्नाटा रहेगा। भीतर तो तुम वही के वही रहोगे जैसे थे। शरीर को मटका लोगे, हिला-डुला लोगे। एक तरह का व्यायाम होगा। व्यायाम का जितना लाभ है उतना मिलेगा।

लेकिन एक और नाच है–नाच, जो क्रियाकांड नहीं है; जो अंतरउमंग है; जो उल्लास है; जो उत्सव है। यह नाच तो तभी पैदा होता है जब तुम परमात्मा के करीब पहुंचने लगते हो।

तुम कहते हो : मैं नाच रहा हूं यहां। धन्यभागी हो तुम! नाचो। कंजूसी मत करना, कृपणता मत कर जाना।

लोग हर चीज में कृपण हो गये हैं हर चीज में सम्हाल-सम्हालकर चलते हैं, हर चीज में नियंत्रण रखते हैं। लोग मुस्कुराते भी हैं तो ऐसे जैसे कि बड़ा खर्च हुआ जा रहा है। लोग प्रसन्न भी होते हैं तो बहुत सोच-विचारकर। प्रसन्न होने में कुछ खर्च नहीं होता, कुछ खोता नहीं। प्रेम करने में कुछ खर्च नहीं होता, कुछ खोता नहीं। मिलता है बहुत, पाया जाता है बहुत। मगर लोग ऐसे कृपण हो गये हैं कि न मुस्कुरा सकते हैं, न नाच सकते हैं, न गा सकते हैं।

और लोगों का कसूर नहीं है। यही उन्हें सिखाया गया है। सदियों-सदियों का संस्कार यही है कि धर्म यानी गंभीर बात, अति गंभीर। इसलिये तुम्हारे साधु-संन्यासी बिलकुल गंभीर मालूम होते हैं, पथरीले मालूम होते हैं, रेगिस्तानी मालूम होते हैं–कि जिनके हृदय में कोई मरूद्यान नहीं; जिनके हृदय में कोई झरना नहीं बहता जीवन के रस का। यह चारों तरफ जगत नाच रहा है। तुम देखते हो, हर चीज वर्तुलाकार नाच रही है। यह रास चल रहा है। जिस पृथ्वी पर तुम बैठे हो, यह भी भागी जा रही है बड़ी त्वरा से, नाची जा रही है। यह थिर नहीं है। यह नृत्यमय है। यह सूरज का चक्कर लगा रही है। इसका नाच सूरज के पास चल रहा है। सूरज इसका प्रेमी है। सूरज इसका कृष्ण है, यह गोपी है। और ऐसे ही चांद भी नाच रहा है। चांद पहले तो पृथ्वी का चक्कर मार रहा है, फिर पृथ्वी के साथ सूरज का चक्कर मार रहा है ऐसे ही और ग्रह-उपग्रह नाच रहे हैं। ऐसे ही सारे तारे नाच रहे हैं। अनंत-अनंत तारों का यह महोत्सव तुम देखते हो! यहां हर चीज नाच रही है। बड़ी से बड़ी चीज, सूरज भी किसी और महासूर्य के इर्द-गिर्द नाच रहा है। वैज्ञानिक उसकी खोज में लगे हैं कि वह महासूर्य कहां है, जिसके केंद्र को मानकर हमारा सूर्य नाच रहा है? जरूर नाच तो रहा है, इसलिये कोई केंद्र भी होगा। जब कोई नाचेगा तो केंद्र भी बनेगा। परिधि होगी तो केंद्र भी होगा। उस सूरज की खोज चल रही है। बहुत दूर होगा। हो सकता है, वही इस अस्तित्व का केंद्र हो; या कौन जाने, वह भी किसी और केंद्र के पास नाचता हो! कतारों पर कतारें हैं। बीच में कृष्ण हैं, फिर गोपियों की एक कतार है, फिर दूसरी कतार, फिर तीसरी कतार। कतारों पर कतारें हैं। दीपमालिकाओं पर दीपमालिकाएं हैं।

तुम “कृष्ण’ शब्द का अर्थ समझते हो? कृष्ण का अर्थ होता है–जो आकृष्ट करे। कृष्ण शब्द का वही अर्थ होता है जो ग्रेविटेशन का होता है–आकर्षण–कर्षण–कृष्ण। कृष्ण शब्द का अर्र्थ होता है जो केंद्र है सारे आकर्षण का; जिसके आसपास सब नाच चल रहा है। जैसे ही तुम नाचोगे, चाहे कृष्ण कितने ही फासले पर हो, वह तुम्हारा केंद्र बन गया। तुम परमात्मा के पास ही नाच सकते हो! किसी भी कारण से नाचो, परमात्मा का एक झोंका तुम्हारी जिंदगी में आ जायेगा। किसी स्त्री के प्रेम में पड़कर नाचे हो, वह भी परमात्मा का ही झोंका है। यह आई हवा की एक लहर। तुम्हारे घर बेटा पैदा हुआ है और तुम नाच उठे हो, आई उसी की एक लहर! तुम्हारे बगीचे में फूल खिला है गुलाब का और तुम नाच उठे हो, आई उसी की खबर!

आये नूपुर के स्वन झन-झन,

खिंच गये प्राण भर गये श्रवण,

आये नूपुर के स्वन झन-झन!

 

हो उठा तरंगित सुख-समीर,

कांपा अम्बर का वक्ष धीर,

आयी श्रवणों में उत्कंठा

जग गयी जगत की विसुध पीर

जब ध्वनि आयी रुन झुनन-झुनन, जब गूंजा मादक नूपुर स्वन!

 

भग गया दिशाओं में सपना!

जग भूला अहंभाव अपना!

मृण्मय भी बना परम तन्मय!

झंकृति-गुंजार-वितान तना!

स्वर भर लहराया मलय पवन! आये नूपुर के स्वन झन-झन!

 

कोऽहं की तान पुरानी मम,

अब तक थी अनुत्तरित विभ्रम,

पर अब नूपुर-गुंजारों में!

मिल गया समुद्र सोऽहं का सम!

हमने पाया कुछ आश्वासन; आये नूपुर के स्वन झन-झन!

 

हिय का यह हाहाकार निरा,

जिससे यह जीवन आज घिरा,

क्यों अब न शांत, उपरमित बने?

मन अब क्यों डोले फिरा-फिरा?

जब कान पड़ी यह ध्वनि नूतन, आये नूपुर के स्वन झन-झन!

 

झन-झन श्रवणागत अनिल-लहर,

झन-झन यह अनहद नाद गहर,

झन-झन ये ध्वनि-सुरधुनी-भंवर,

झन-झन-झन-अमर प्रणय-अक्षर;

झन-झन-झन गूंजा हिय आंगन; आये नूपुर के स्वन झन-झन!

 

दायें-बायें आगे-पीछे,

बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे,

सब ओर सुनी गुंजार वही,

ध्वनि ने जल-थल अम्बर सींचे;

अनमने प्राण, मन नाद-मगन; आये नूपुर के स्वन झन-झन!

 

आये अग को करते जग वे

अपगा को देते गति-पग वे,

चंचलता का पल्ला पकड़े,

आये धीमे धरते डग वे,

हुलसा सिरजन, गूंजा कण-कण, आये नूपुर के स्वन झन-झन!

 

धरती नाची; नाचा अंबर,

तारक-माला नाची सत्वर;

ता-थइ, ता-थइ कर नाच उठे,

अनगिनत सौर-मंडल थर-थर,

उनने जब किया चरण-नर्तन; आये नूपुर के स्वन झन-झन!

 

उल्लास भरे, उन्माद भरे,

मद भरे और अवसाद भरे,

हम आज पूछते हैं उनसे,

कोई किस तरह विवाद करे,

जब नूपुर बोलें झनन-झनन, हो उठे प्राण-मन, जब उन्मन?

 

जब सप्तदी पूरी होगी,

जब लुप्त द्वैत दूरी होगी,

जब पिय गलबहियां डालेंगे

जब उनकी मंजूरी होगी

तब हम बन उनके नूपुर स्वन, गूंजेंगे झन-झन, झनन-झनन।

एक यात्रा शुरू हुई। नृत्य की यात्रा ही तीर्थ-यात्रा है। तुम जहां नाचो वहीं तीर्थ बन जाता है। तुम जहां नाचो वहीं कृष्ण। तुम जहां नाचो वहीं परमात्मा है। पूरे भाव से नाचो तो तुम उसके पैरों के घूंघर बन जाओगे। पूरे हृदय से गाओ, तुम्हारे कंठ में वही गायेगा। तुम संगीतमय हो उठो तो उसने ही तुम्हारे हृदय की तंत्री को छेड़ा। वही जब छेड़ता है तभी यह स्वर जगते हैं।

तुम कहते हो : “मैं नाच रहा हूं यहां। मैं, जो कि कभी नाचा नहीं!’

नृत्य खो गया है–तुम्हारा ही नहीं, पूरी मनुष्यता का खो गया है। आदमी तो बस सोच-विचार में पड़ा है, वाद-विवाद में पड़ा है, नाचने की फुरसत किसे है! और जब जीवन में नाच नहीं होता तो हम बहाने खोज लेते हैं। हम कहते हैं : आंगन टेढ़ा, नाचें तो कैसे नाचें? हम कहते हैं कि अभी इतना धन नहीं कि नाचें, कि अभी इतना पद नहीं कि नाचें, कि अभी जो चाहा है वही नहीं मिला तो नाचें कैसे? हम नाचने पर शर्तें लगाते हैं। वे शर्तर् कभी पूरी नहीं होतीं। वे शर्तें पूरी होने वाली हैं भी नहीं। तुम कभी न नाच सकोगे। और जो नहीं नाचा वह अभागा था। बहुत पास होकर परमात्मा से बहुत दूर रह गया।

नाचो! तुम कहते हो : “नाचना तो दूर, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं नाचूंगा। मैं अपने पर ही चकित हूं।’ जब पहली बार हृदय में धर्म का आविर्भाव होता है तो सभी चकित होते हैं, आश्चर्यचकित होते हैं। क्योंकि हम धन के पागल कभी ध्यान के लिये पागल हो जायेंगे, इसका विचार ही नहीं उठा था; कि हम पद के पागल, कभी प्रभु के दीवाने हो उठेंगे, इसका स्वप्न भी नहीं जगा था; कि हम कूड़ा-करकट इकट्ठा करनेवाले, कभी भीतर के खजाने से हमारी पहचान हो जायेगी, ऐसा कोई हमसे लाख कहता तो भी हम भरोसा न करते।

और कहा है। जो जागे हैं उनसे पूछो। वे यही कह रहे हैं कि परमात्मा का राज्य तुम्हारे भीतर है। हम सुन भी लेते हैं, लेकिन मन भरोसा नहीं करता। हम सिर भी झुका लेते हैं। हम बुद्धों, क्राइस्टों के चरणों में जाकर नमस्कार भी कर आते हैं, मगर वैसे के वैसे वापिस लौट आते हैं। न कोई स्नान होता, न कोई ध्यान होता, न हमारे जीवन में उस परम का कोई स्वाद जन्मता है।

यहां तो एक जीता-जागता हुआ धर्म पैदा हो रहा है–नाचता हुआ धर्म, हंसता हुआ धर्म। मैं जीवन के गहन प्रेम में हूं और वही तुम्हें सिखा रहा हूं। मैं जीवन विरोधी नहीं हूं। मैं तुम्हें जीवन का त्याग नहीं सिखा रहा हूं। जीवन को कैसे भोगा जाये, यही सिखा रहा हूं। यही तो अड़चन है पंडित-पुरोहितों को, क्योंकि वे समझते हैं मैं भोगी हूं। ठीक ही समझते हैं। क्योंकि मेरी धारणा है कि परमात्मा महाभोगी है। परमात्मा भोग रहा है इन वृक्षों की हरियाली, इन चांदत्तारों के प्रकाश को। परमात्मा बड़ा वैभवशाली है। यह सारा वैभव उसका है। इसलिये तो हम उसे ईश्वर कहते हैं। ईश्वर का अर्थ है : जिसका सारा ऐश्वर्य है।

परमात्मा त्यागी नहीं है। भूलकर भी मत सोचना कि परमात्मा तुम्हें मिलेगा तो लंगोटी लगाये होगा। भूलकर भी मत सोचना। यह तो हो सकता है कि फूलों का हार उसने पहना हो; लंगोटी से कोई संबंध नहीं जुड़ता उसका। यह तो हो सकता है कि चांदत्तारों का हार उसने पहना हो, कि सूरज उसके मुकुट में जड़े हों कि उसके हाथ में बांसुरी हो और अनाहद का नाद हो रहा हो। यह तो हो सकता है मगर लंगोटी…परमात्मा से उसका कोई संबंध नहीं जुड़ता।

तुम सोचते हो लंगोटी लगानेवाला परमात्मा ऐसा प्यारा जगत निर्मित कर सकता है? लंगोटी लगानेवाला परमात्मा गुलाब के फूल बनायेगा, कि कमल खिलायेगा, कि जुही में गंध भरेगा, कि तितलियों के पंख रंगेगा? तुम जरा सोचो। त्यागी परमात्मा इतना सुंदर जगत निर्मित करेगा? क्यों? यह तो महाभोगी परमात्मा ही कर सकता है। यह जगत उसके भोग का शाश्वत प्रमाण है।

और मैं तुम्हें त्यागी नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हें भोग की कला देना चाहता हूं कि कैसे भोगो, कि इतने गहरे भोगो कि तुम्हें उस महाभोगी से मिलन हो जाए। ऐसे नाचो की नाच में खो ही जाओ कि वही रह जाये शेष, तुम मिट ही जाओ। ऐसे गाओ कि तुम्हारा गीत कब उसका गीत हो गया, तुम्हें पता भी न चले। और वैसी घड़ी आ जाती है, गाते-गाते जब तुम्हें स्वयं का विस्मरण हो जाता है तो गीत तुम्हारा नहीं रह जाता। नाचते-नाचते जब तुम्हें याद ही नहीं रह जाती है कि कौन नाच रहा है, नाच ही बचता है, नर्तक नहीं बचता कोई, तब तुम ध्यान रखना, फिर वही तुम्हारे भीतर नाचता है।

यह तो बारीक मामला है, सूक्ष्म मामला है, नाजुक है। यह तो सिर्फ उसी को अनुभव होगा जिसको अनुभव होगा। बाहर से तो पता ही नहीं चलेगा। बाहर से तो तुम मीरा में और नर्तकी में क्या भेद कर पाओगे? यह भी हो सकता है कि नर्तकी ज्यादा अच्छा नाचे, ज्यादा प्रशिक्षित हो। मीरा के नाच में, हो सकता है, थोड़ा अनगढ़पन हो, थोड़ी अल्हड़ता हो। होनी ही चाहिये। इतने मस्त लोग कहां नियम की फिक्र करेंगे! कोई पैरों की गिनती थोड़े ही करेगी मीरा, कि कहीं पैर भूल-चूक का तो नहीं पड़ रहा है! मीरा तो मस्ती में नाचेगी, तो कुछ भूल-चूक भी हो सकती है। नर्तकी बिलकुल गणित से नाचेगी, भूल-चूक नहीं होगी। बाहर से तो शायद तुम्हें नर्तकी के नृत्य में ही ज्यादा कला मालूम पड़े, मगर भीतर नर्तकी मौजूद है, हिसाब-किताब बिठाकर नाच रही है। उसकी नजर तुम्हारे नोटों पर लगी है। उसके नाच में हेतु है। और उसके नाच में अहंकार की तृप्ति है।

मीरा को पता ही नहीं है…लोक-लाज छोड़…। उसे पता ही नहीं है कि कब उसका आंचल सरक गया है। बीच बाजार में नाच रही है, लोग क्या कहेंगे! होश कहां है! यह मैं का भाव कहां है! भीतर कोई नहीं है अब।

तो जब मीरा नाचती है तो जानना कि कृष्ण नाचते हैं। जब भक्त नाचते हैं तो जानना कि भगवान नाचते हैं। मगर यह तो भीतर के स्वाद का भेद है। यह तुम नाचोगे तो पता चलेगा। तुम्हें पता चलता रहेगा: एक घड़ी आयेगी, जब तक तुम रहोगे और फिर अचानक तुम नहीं हो! और जहां से तुम नहीं हो वहीं से नृत्य धार्मिक हुआ, वहीं से नृत्य ध्यान हुआ।

नाचो! सोचो मत, विचारो मत। और-और चकित होने की घड़ियां घटेंगी। और-और आश्चर्य तुम्हारी प्रतीक्षा करते हैं।

 

तीसरा प्रश्न :

 

जीवन में दुख-ही-दुख क्यों हैं? परमात्मा ने यह कैसा जीवन रचा है?

 

जीवन दुख-ही-दुख नहीं है। यह तुमसे किसने कहा? हां यहां दुख भी हैं, लेकिन दुख केवल भूमिकाएं हैं सुख की। जैसे फूल के पास कांटे लगे हैं, वे सुरक्षायें हैं फूल की। कांटे फूलों के दुश्मन नहीं हैं; उनके रक्षक हैं, पहरेदार हैं। कांटे फूलों के सेवक हैं।

जीवन दुख-ही-दुख नहीं है। यद्यपि दुख यहां हैं। पर हर दुख तुम्हें निखारता है और बिना निखारे तुम सुख को अनुभव न कर सकोगे। हर दुख परीक्षा है। हर दुख प्रशिक्षण है। ऐसा ही समझो कि कोई वीणावादक तारों को कस रहा है। अगर तारों को होश हो तो लगेगा कि बड़ा दुख दे रहा है, मीड़ रहा है, तारों को कस रहा है, बड़ा दुख दे रहा है! लेकिन वीणावादक तारों को दुख नहीं दे रहा है; उनके भीतर से परम संगीत पैदा हो सके, इसका आयोजन कर रहा है। तबलची ठोंक रहा है तबले को हथौड़ी से। तबले को अगर होश हो तो तबला कहे : बड़ा दुख है, जीवन में दुख-ही-दुख है! जब देखो तब हथौड़ी, चैन ही नहीं है। मगर तबलची तबले को सिर्फ तैयार कर रहा है कि नाद पैदा हो सके।

दुख नहीं है, जैसा तुम देखते हो वैसा। परमात्मा तुम्हें तैयार कर रहा है। यह सुख की अनंत यात्रा है। लेकिन यात्रा में कुछ कीमत चुकानी पड़ती है, मूल्य चुकाना पड़ता है। सोने को शुद्ध होने के लिये आग से गुजरना पड़ता है। बीज को वृक्ष होने के लिये टूटना पड़ता है। नदी को सागर होने के लिये खोना पड़ता है। इस सबको तुम दुख कहोगे? दुख कहोगे तो चूक गये बात। यह कोई भी दुख नहीं है। ऐसा जो जानता है वही जानता है। यहां दुख भी हैं; सुख भी हैं। लेकिन हर दुख सुख की सेवा में रत है। यहां कांटे भी हैं, फूल भी हैं लेकिन हर कांटा फूल की सेवा में रत है।

हैं नयन में अश्रु भी यदि,

अधर पर मुस्कान भी है।

और जिनकी आंखें कभी रोई नहीं, उनकी मुस्कान बासी होती है। उनकी मुस्कान में तुम धूल जमी पाओगे। उनकी मुस्कान में धुलावट नहीं होती। उनकी मुस्कान में चमक नहीं होती। जो रोये ही नहीं कभी, जिनकी आंखों से आंसू नहीं बहे कभी, उनके ओंठ गंदे होते हैं। आंख से आंसू बहते रहें, तो ओंठ ताजे होते हैं, सद्यःस्नात होते हैं। जो रो सकता है, जब हंसता है, तो उसकी हंसी में फूल झरते हैं। और जो रोने की कला जानता है उसके तो आंसुओं में भी फूल झरने लगते हैं। जो पूरा-पूरा निष्णात हो जाता है उसके आंसू भी सुंदर हैं, उसकी मुस्कराहट भी सुंदर है।

अगर समझ हो तो तुम जब माला गूंथो फूलों की, अगर होशियार हो तो कांटों का भी उपयोग कर सकते हो। देखने की आंख चाहिये।

अब तुम देखते हो, नये युग में गुलाब से भी ज्यादा आदृत कैक्टस हो गया है। देखने की आंख चाहिये। लोगों ने घरों में गुलाब नहीं लगा रखे हैं, लोगों ने घरों में कैक्टस रख छोड़े हैं। कैक्टस! आज से तीन सौ साल पहले या दो सौ साल पहले दुनिया में अगर कोई घर में अपने कैक्टस रखता तो लोग उसको पागल समझते, कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, यह धतूरे का पेड़ कहां भीतर लिये आ रहे हो! यह जहर है! इसका कांटा किसी को गड़ जायेगा, मौत हो जायेगी। लोग इस तरह के कैक्टस के झाड़ तो खेतों की बागुड़ में लगाते थे सिर्फ, ताकि जानवर न घुस जायें, कोई चोरी खेत से न कर ले जाये। इनको कोई घर में लाता था?

लेकिन मनुष्य की संवेदनशीलता विकसित होती गई है, परिष्कार हुआ है। अब कैक्टस में भी एक सौंदर्य है! और निश्चित सौंदर्य है। अब दिखाई पड़ना शुरू हुआ कैक्टस का सौंदर्य। ऐसी ही घटना घटती है। आंखवाले को दुख में भी सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। सुख दिखाई पड़ने लगता है।

हैं नयन में अश्रु भी यदि,

अधर पर मुस्कान भी है।

 

प्रार्थना बेला पुजारिन,

क्यों प्रकम्पित गात तेरा।

है यहां अवहेलना भी,

पर यहां वरदान भी है।

हैं नयन में अश्रु भी यदि,

अधर पर मुस्कान भी है।

 

डगमगाते क्यों चरण,

मंजिल तुझे करती इशारा।

देख इस अनजान पथ की,

एक चिर पहचान भी है।

हैं नयन में अश्रु भी यदि,

अधर पर मुस्कान भी है।

 

अबल है या सबल मानव,

हृदय युग-युग की समस्या।

है यहां यदि प्राप्ति आशा,

तो यहां प्रतिदान भी है।

हैं नयन में अश्रु भी यदि,

अधर पर मुस्कान भी है।

 

आंसुओं की लहरियों पर,

हास का सरसिज खिला है।

है हृदय में करुण क्रन्दन,

पर स्वरों में गान भी है।

हैं नयन में अश्रु भी यदि,

अधर पर मुस्कान भी है।

थोड़ा जागो। थोड़ा खोजो। किसने तुमसे कहा कि जीवन में दुख ही दुख है? ये तुम्हारे तथाकथित त्यागीत्तपस्वी, ये तुम्हें इसी तरह के व्यर्थ बातें कहते रहे हैं : जीवन में दुख ही दुख है, कांटे ही कांटे हैं, सब बुरा ही बुरा है। त्यागो। भागो। छोड़ो।

लेकिन खयाल रखना, जो जीवन को त्यागता है, जीवन को छोड़ता है, उसने परमात्मा का अपमान किया है। वह नास्तिक है। वह आस्तिक नहीं है। क्यों मैं ऐसा कह रहा हूं? खूब सोचकर ऐसा कह रहा हूं। अगर तुम चित्रकार को प्रेम करते हो तो उसके चित्र का त्याग कैसे करोगे? और अगर तुम मूर्तिकार को प्रेम करते हो तो उसकी मूर्ति का त्याग कैसे करोगे? और अगर तुमने संगीतज्ञ को चाहा है तो तुम उसकी वीणा को सिर-माथे धरोगे। परमात्मा ने अगर यह सृष्टि की है तो तुम इसका त्याग कैसे करोगे? इसके त्याग में तो परमात्मा के प्रति शिकायत है। इसके त्याग में तो यह घोषणा है कि यह तूने क्या बनाया? इसके त्याग में तो इस बात की घोषणा है कि तुझसे अच्छा तो हम जानते हैं कि कैसा जगत होना चाहिये था, हम बना लेते तुझसे अच्छा, यह तूने क्या बनाया? यह कैसा दुख ही दुख भर दिया है?

नहीं, दुख ही दुख नहीं है। दुख पृष्ठभूमि है सुख की। और जैसे रात में ही तारे दिखाई पड़ते हैं, दिन में भी तारे होते हैं आकाश में, कहीं भाग नहीं गये हैं, कोई दिन में संन्यास नहीं लेते तारे। दिन में भी आकाश तारों से भरा है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि पृष्ठभूमि नहीं है। अंधेरे की पृष्ठभूमि चाहिये! इसलिये जितनी अंधेरी रात होती है उतने तारे चमकते हैं। अमावस की रात तारों में जैसी ज्योति होती है वैसी कभी नहीं होती। काले ब्लैकबोर्ड पर लिखते हैं न हम सफेद खड़िया से; सफेद दीवाल पर लिखो, कुछ दिखाई न पड़ेगा। लिखावट भी हो जायेगी, कुछ दिखाई न पड़ेगा। ब्लैकबोर्ड पर लिखना पड़ता है, तब कुछ दिखाई पड़ता है। पृष्ठभूमि चाहिये। दुख सुख की पृष्ठभूमि है। कांटे फूलों की पृष्ठभूमि हैं। आंसू मुस्कुराहटों की पृष्ठभूमि हैं। और तुम पृष्ठभूमि को छोड़ दोगे, तो तुम्हारा जीवन बिलकुल नीरस हो जायेगा, अस्त-व्यस्त हो जायेगा। तुम्हारे जीवन की सारी आधारशिला गिर जायेगी। मगर त्यागीत्तपस्वी यही सिखाता रहा है कि भागो। वह तुम्हें अंगुलियां गड़ा-गड़ाकर दिखाता रहा है…तुम्हारी आंख में अंगुलियां डाल डालकर दिखाता रहा है कि यह दुख, यह दुख। वह दुखों की गिनती करवाता रहा है। किसी ने तुम्हें सुखों की गिनती नहीं करवाई अब तक।

और मैं तुमसे कहता हूं : ऐसा कोई दुख ही नहीं है जो सुख का आयोजन न कर रहा हो। हर दुख सुख के लिये पृष्ठभूमि है; सुख के तारों के लिये अमावस की रात है। इसे जानना मैं जीवन की कला मानता हूं। तब यह सारा जगत अपूर्व सौंदर्य से भरा हुआ मालूम होगा। और उस अपूर्व सौंदर्य में ही परमात्मा की पहली झलक मिलती है।

खयाल रखो, जिस जीवन में चुनौतियां नहीं हैं दुख की वह जीवन नपुंसक हो जाता है। जिस जीवन में बड़े प्रश्न नहीं जगते उस जीवन में बड़ा चैतन्य पैदा नहीं होता।

वह जीवन का पथ है सूना

जिसमें कांटों के तार नहीं,

वह मानव का मानस सूना

जिसमें उठते उदगार नहीं!

 

है धूलि-पिण्ड वह मानव-उर

जिसमें यदि दहकी आग नहीं,

वह जीवन का संगीत शून्य

जिसमें करुणा का राग नहीं!

 

वे कांच-खण्ड सी आंखें हैं

जिनमें आंसू की धार नहीं,

वह है पशुओं का-सा जीवन

जिसमें असीम का प्यार नहीं!

 

वह निद्रा क्या है जड़ता है

जिसमें स्वप्निल-संसार नहीं,

वह विजय-हर्ष, क्या विजय-गर्व

जिसने देखी यदि हार नहीं!

 

उस सत्य प्रेम में सिद्धि कहां

जिसमें वियोग का स्वाद नहीं,

वह जीवन क्या बस मौत कहो

जिसमें पीड़ा अवसाद नहीं!

 

उस जीवन में आनंद कहां

जिस पर नैराश्य-प्रहार नहीं,

यदि सूने अधरों के पट पर

आहों की वंदनवार नहीं!

 

यदि सही न पीर प्रतीक्षा की

उस पाने में कुछ सार नहीं

जिसको न व्यथा के नैन मिले

वह देख सका संसार नहीं!

दुख को बदलो। दुख को सुख की सेवा में लगाओ। दुख को सुख का निखार बनाओ। दुख से भागो मत। जो भागता है, बुद्धिहीन है। जो जागता है, बुद्धिमान है। और ध्यान रखना, दुख न हो तो जाग ही न सकोगे।

तुमने एक मजे की बात देखी, कि अगर रात कोई मधुर, मीठा सपना चलता हो तो कभी नींद नहीं टूटती! जैसे तुम सम्राट हो गये, सोने के महल हैं, सुंदर स्त्रियां हैं, शराब की महफिल जमी है, नर्तकियां नाच रही हैं…नींद टूटेगी? क्यों टूटेगी? इतना मधुर सपना चल रहा है, नींद क्यों टूटेगी? मधुर ही मधुर है, नींद क्यों टूटेगी? लेकिन तुम एक दुख-स्वप्न देखते हो कि एक सिंह तुम्हारे पीछे लगा है और पास आता चला जा रहा है और तुम भाग रहे हो, प्राण छोड़कर भाग रहे हो…पहाड़ियां…और भागे जा रहे हो, बड़ी-बड़ी छलांगें मार रहे हो, पत्थरों से टकरा रहे हो, गिर रहे हो, उठ रहे हो, कांटे छिद गये हैं, पैर लहू-लुहान हैं और सिंह है कि चला आ रहा है और उसकी गर्जना और पास और पास सुनाई पड़ती है…और आखिर में सिंह ने तुम्हारी पीठ पर हाथ रख दिया। अब तुम्हारी नींद लगी रहेगी? एकदम नींद खुल जायेगी। हालांकि नींद खुलेगी, तुम पाओगे : कोई नहीं है, पत्नी ने सिर्फ हाथ रखा है पीठ पर। कोई सिंह इत्यादि नहीं है, सिर्फ पत्नी है। वह नींद में भी चिंतित रहती है, कहीं भाग-भूग तो नहीं गये। हाथ रखे हुए है, कि कोई गलत सपना तो नहीं देख रहे हो!

दुख-स्वप्न तत्क्षण नींद तोड़ देता है। इस जगत में जो दुख हैं वे जागरण के लिये उपाय हैं। यह जगत बिलकुल सोया हुआ होता अगर यहां दुख न होते। जरा सोचो, दुख न होता तो इस जगत में बुद्ध न होते। बुद्धत्व हुआ इसलिये कि इस जगत में दुख है। दुख है तो आदमी ने विचार किया, सोचा, ध्यान किया। दुख हैं तो आदमी ने खोज की, अन्वेषण किया। दुख हैं तो कांटे चुभे। कांटे चुभे तो फूलों की तलाश शुरू हुई। मृत्यु है, इसलिये अमृत की खोज शुरू होती है। तो तुम मृत्यु को दुश्मन न समझो।

बुद्ध की कथा तो तुमने सुनी। राह पर रथ पर बैठे हुए उन्होंने देखा एक बीमार बूढ़ा और पूछा सारथी से : इसे क्या हो गया है? तब तक उन्होंने कोई बीमार और बूढ़ा नहीं देखा था। उनके पिता ने ऐसी व्यवस्था की थी, क्योंकि जब वे पैदा हुए थे तो ज्योतिषियों ने कहा था कि इन्हें थोड़े सम्हालकर रखना; या तो यह बच्चा चक्रवर्ती सम्राट होगा और या फिर महाबुद्ध होगा। कौन बाप अपने बेटे को देखना चाहता है कि वह बुद्ध हो जाये! चक्रवर्ती सम्राट सभी बाप चाहते हैं कि हमारे बेटे हो जायें। तो बाप ने कहा कि यह तो बड़ी खतरनाक बात तुमने कह दी। मैं कैसे रोकूं मेरे बेटे को कि वह बुद्ध न हो पाये, चक्रवर्ती सम्राट ही हो? तो समझदारों ने सलाह दी कि इसे कभी बुढ़ापे का पता न चले, बीमारी का पता न चले, मुर्दा इसे कभी दिखाई न पड़े। अब यह सोचते हो, उन्होंने जो सलाह दी, एक अर्थ में बड़ी महत्वपूर्ण सलाह दी! उन्होंने कहा : ये ही चीजें हैं, जिनकी चोट पड़ती है और जिनकी चोट में आदमी जाग जाता है। इस पर चोट ही मत पड़ने देना। इसको सुलाये रखो। इसे सुख के सपनों में सुला दो।

तो बुद्ध के पिता ने महल बनवा दिये, अलग-अलग ऋतुओं के लिये अलग-अलग महल। और हर महल में ऐसा इंतजाम किया कि सुंदरतम स्त्रियां राज्य की इकट्ठी कर दीं, सौंदर्य ही सौंदर्य दिखाई पड़े। मीठा ही मीठा सब। आज्ञा थी मालियों को कि वृक्षों में पत्ते कुम्हलायें, इसके पहले अलग कर दिये जायें, कि कहीं वृक्षों के पत्तों को कुम्हलाया देखकर, सूखा देखकर बुद्ध के मन में यह सवाल न उठ जाये कि कहीं जीवन भी तो इसी तरह कुम्हला न जायेगा! उनकी बगिया से रात में सब फूल अलग कर दिये जाते थे, जो सूखने के करीब होते थे। बुद्ध ने कभी सूखा फूल नहीं देखा था। कोई बूढ़ा महल में प्रवेश नहीं कर सकता था। और बुद्ध को कभी जब राजधानी में निकलना होता था तो रास्ते खाली कर दिये जाते थे, कि रास्तों पर कोई बूढ़ा न हो, कोई बीमार न हो, कोई कुरूप न हो, कोई अपंग न हो, कोई मुर्दे की खबर ही बुद्ध को न मिले।

बुद्ध जब तक जवान हो गये उन्हें पता ही न था कि मौत होती है। तो स्वभावतः जब पहली दफा उन्होंने बूढ़े को देखा तो वे चौंके। सारथी ने कहा कि इसे कुछ हो नहीं गया है, कुछ खास बात नहीं हो गयी सभी इसी तरह बूढ़े हो जाते हैं। बुद्ध ने तत्क्षण पूछा क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा? और सारथी ने कहा कि होना ही पड़ेगा, कोई अपवाद नहीं। और तब बुद्ध ने देखा एक मुर्दा। उन्होंने पूछा : इसे क्या हो गया है? लोग क्यों इसे बांधकर कंधों पर उठाये लिये जाते हैं? सारथी ने कहा: यह आदमी मर गया है। यह बुढ़ापे के आगे का कदम है।

मर गया! मरना यानी क्या? बुद्ध को पहली दफा मृत्यु का आभास हुआ। और बुद्ध ने पूछा : क्या मैं भी मर जाऊंगा? क्या एक दिन मुझे भी लोग इसी तरह बांधकर कंधे पर रखकर ले जायेंगे? फिर क्या करते हैं?

सारथी ने कहा : फिर जला देते हैं, और तो कोई उपयोग नहीं।

“तो मुझे भी एक दिन जला देंगे!’ और बुद्ध ने कहा : तब लौटा लो रथ को वापिस। वे जा रहे थे युवक-महोत्सव का उदघाटन करने, उन्होंने कहा : रथ को वापिस लौटा लो। अब न कोई युवक है न कोई महोत्सव है। अब मुझे जीवन की तलाश करने दो। अब मुझे कुछ ऐसे तत्व को खोजने दो जिसकी मृत्यु नहीं होती और जो बूढ़ा नहीं होता।

देखते हो दुख न होता तो बुद्ध कभी पैदा न होते। दुख न होता तो जगत में धर्म होता ही नहीं। जगत में धर्म इसलिये है कि दुख है और दुख न होता तो तुम्हें परमात्मा की कभी याद ही न आती। सुख में तो सभी लोग परमात्मा को भूल ही जाते हैं। दुख में ही थोड़ी-बहुत याद आती है। इसलिये दुख का तुम उपयोग समझो, दुख का अभिप्राय समझो।

संसार में दुख है, क्योंकि संसार में अमृत छिपा पड़ा है। दुख तुम्हें चौंकायेगा, जगायेगा, तो अमृत के तुम मालिक हो जाओगे। मृत्यु के पीछे अमृत है, दुख के पीछे सुख है। इस जीवन के रसायन को समझो। दुख-दुख कहकर भाग मत खड़े होना। भागकर कहां जाओगे? दुख-दुख कहकर सिकुड़ मत जाना, डर मत जाना, भयभीत मत हो जाना। दुख तो चुनौती है।

वह जीवन का पथ है सूना

जिसमें कांटों के तार नहीं,

वह मानव का मानस सूना

जिसमें उठते उदगार नहीं!

वे कांच-खंड सी आंखें हैं

जिनमें आंसू की धार नहीं,

वह है पशुओं का-सा जीवन

जिसमें असीम का प्यार नहीं!

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपने गांव के महा कंजूस सेठ के पास मस्जिद के लिये कुछ दान मांगने गया। उस सेठ ने कभी किसी को दान दिया ही नहीं था। उसकी यही ख्याति थी कि जीवन में उसने कभी किसी को दान नहीं दिया था। उसके पास था बहुत, मगर वह एक से एक तरकीबें निकालता था। एक दफा कुछ लोग दान मांगने गये थे, उन्होंने कहा कि हम अनाथालय के लिये दान मांगते हैं। तो उसने कहा : सुनो मेरी मां अस्सी साल की बूढ़ी है और भूखों मर रही है। मेरा भाई लंगड़ा है, दाने-दाने को मोहताज है। मेरा पत्नी बीमार पड़ी है, दवा का भी इंतजाम नहीं।

जो लोग आये थे दान मांगने, वे तो बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा : आप इतने कष्ट में हैं, यह तो हमें मालूम ही न था। उसने कहा : कष्ट में मैं नहीं हूं, मगर मेरी मां अस्सी साल की है, उसकी मैं कुछ सहायता नहीं करता; मेरा भाई लंगड़ा है, उसकी मैं कोई सहायता नहीं करता; मेरी पत्नी बीमार पड़ी है, खाट से लगी है, उसकी मैं दवा नहीं करता–तो जब मैं अपनों की ही नहीं करता तो मैं दूसरों की क्यों फिकिर करूं? होंगे अनाथ। मेरे घर में ही काफी अनाथ हैं।

बहुत तरह से लोगों ने कोशिश की थी, लेकिन कभी उसने किसी को दान दिया नहीं था। जब मुल्ला उससे दान मांगने गया और मुल्ला ने बड़ी करुण गाथा सुनाई कि मस्जिद बिलकुल गिरी जा रही है और उपासकों के ऊपर किसी दिन गिर जायेगी तो हत्या हो जायेगी–और आपके रहते…! तो उसने कहा : एक काम कर, मेरी एक आंख नकली है और एक असली है। तू बता दे कि कौन-सी नकली है? अगर तूने ठीक-ठीक बता दिया तो मैं दान दूंगा।

मुल्ला ने एक क्षण उसकी आंखें देखीं और कहा कि आपकी बाई आंख नकली है। सेठ बहुत चौंका। उसने कहा : तूने जाना कैसे? उसने कहा कि जाना इसलिये कि बायीं आंख में थोड़ी दया-ममता मालूम होती है। यह नकली होनी चाहिये आंख। असली आंख तो बिलकुल पत्थर की है, उसमें तो कोई दया-ममता का सवाल नहीं है।

लोग संवेदन-शून्य हो जाते हैं। उनकी आंखें पथरीली हो जाती हैं। अगर सिकुड़ना शुरू किया तो संवेदना खो जायेगी। और संवेदना प्रार्थना है। तुम अगर धीरे-धीरे दुख-ही-दुख देखकर कठोर होते गये…और कठोर न होओगे तो क्या करोगे? अगर दुख देखोगे तो कठोर हो ही जाओगे, क्योंकि दुख से सुरक्षा कठोरता में है। इसलिये तुम्हारे तथाकथित त्यागीत्तपस्वी कठोर हो जाते हैं। उनके हृदय पत्थर हो जाते हैं। उनके जीवन का काव्य खो जाता है। वे बातें करुणा की भला करते हों और प्रेम की भला चर्चा चलाते हों और ब्रह्मसूत्रों पर प्रवचन देते हों, लेकिन उनके भीतर कहीं कोई झरना नहीं होता–आनंद का, रस का, प्रेम का। हो ही नहीं सकता। जीवन में दुख-ही-दुख है। दुख से बचना है तो आदमी को कठोर होना पड़ेगा। जितने तुम कठोर हो जाओगे उतने ही दुख से बचाव हो जायेगा। जितने तुम सदय रहोगे, कोमल रहोगे, उतना ही दुख तुम पर हमला करेगा और पीड़ा देगा। दुख से सुरक्षा कठोरता में है।

इसलिये मैं तुमसे नहीं कहता कि जीवन में दुख-ही-दुख है, क्योंकि इसका अंतिम परिणाम बहुत संघातक है। अगर जीवन में दुख-ही-दुख है तो तुम पत्थर हो जाओगे, तुम पाषाण होकर मरोगे।

नहीं, जीवन में बहुत सुख भी है। दुख नहीं है, ऐसा मैं नहीं कहता, क्योंकि वह तो झूठ होगा। वह तो दूसरी अति हो जायेगी। कोई कहते हैं कि जीवन में सुख है ही नहीं; वह एक अति। मैं तुमसे न कहूंगा कि जीवन में दुख ही नहीं है; दुख है, खूब है! मगर सुख के मुकाबले कुछ भी नहीं। और सारे दुख को सुख की सेवा में नियोजित किया जा सकता है। सीढ़ियां बनाओ दुख की। राह के ऊपर पड़े पत्थरों को पत्थर और बाधायें ही मत समझो, सीढ़ियों में बदल लो। यही जीवन की कला है। इसको ही मैं धर्म कहता हूं। धर्म त्याग नहीं है–महाभोग है।

 

चौथा प्रश्न :

 

प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं, यह जानते हुए विनम्रतापूर्वक मैं जानना चाहूंगा–मा दर्शन ने गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता को आपके भगवान होने के विषय में उत्तर दिया : “भगवान तो आप भी हैं, लेकिन आपको स्मरण नहीं है।’ मेरी मंद बुद्धि के अनुसार यह उत्तर वही दे सकता है, जिसे स्वयं स्मरण है। और जिसे स्वयं स्मरण है, वह स्वयं को भी तो भगवान कह सकता है! यदि स्मरण होते हुए भी नहीं कहा, तो इसका अर्थ है–निर-अहंकार के कारण नहीं कहा। लेकिन तब इस उदघोषणा से बचा क्यों जाये?

 

पूछा है भाई महकवाला, दिल्लीवालों ने। दर्शन भी दिल्ली से है, शायद इसी से अड़चन हुई होगी।

प्रश्न को ठीक से विश्लेषण करना जरूरी है, क्योंकि प्रश्न करीब-करीब उत्तर अपने में लिये हुए है!

पहली तो बात, कहा कि प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं। फिर पूछते क्यों हो? जब इतना पता ही है कि प्रश्न का कोई अस्तित्व ही नहीं, फिर पूछते क्यों हो? यह तो ऐसे ही हुआ कि गये डाक्टर के पास, कहा बीमारी का कोई अस्तित्व नहीं, फिर भी हाथ तो देखें, कुछ उपचार तो लिख दें, इंजेक्शन तो लगा ही दें, यद्यपि बीमारी का तो कोई अस्तित्व नहीं! क्यों शुरुआत की इस बात की कि प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं? शायद दिखाना चाहते हैं कि मैं और प्रश्न, मेरे लिये प्रश्न इत्यादि का कोई अस्तित्व नहीं है! लेकिन भीतर प्रश्न ही प्रश्नों का अंबार भरा होगा।

नाम तो है भाई महकवाला, मगर महक तो निष्प्रश्न चित्त में होती है! प्रश्नों से सिर्फ दुर्गंध ही उठती है, महक नहीं उठती। प्रश्नों से तो सिर्फ बास उठती है, दुर्गंध उठती है। निष्प्रश्न चित्त में समाधि की सुवास आती है। सुना होगा कि प्रश्न नहीं होने चाहिये; निष्प्रश्न होना चाहिए। इसलिये शुरुआत किया, लेकिन बचकर न जा सकोगे। ऊपर-ऊपर से कहोगे, इससे क्या होता है? भीतर तो प्रश्न भरे हैं।

और प्रश्न भी तुम्हारा अपना नहीं, दर्शन के संबंध में। दर्शन को पूछना हो दर्शन पूछे, गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता को पूछना हो गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता पूछें। तुम तो दोनों नहीं हो। तुम नाहक बीच में क्यों उतर आये? यह प्रश्न तुम्हारा नहीं है, फिर भी तुम्हारे मन को मथा होगा, नहीं तो यह पूछते क्यों? पर इतनी ईमानदारी भी नहीं है कि साफ कह दो कि मेरे मन में इससे पीड़ा हो रही है, इसलिये मुझे पूछना है; यह प्रश्न मुझे परेशान कर रहा है, इसलिये मुझे पूछना है।

इस देश में इस तरह का पाखंड बहुत फैल गया है। मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं कि ऐसे तो हमें ध्यान हो गया, मगर सोचा कि आपसे भी पूछ आयें कि ध्यान कैसे करना! यह भी नहीं कह सकते कि हमें ध्यान नहीं हुआ है। ध्यान तो हो ही गया है, समाधि का अनुभव हो रहा है; मगर ऐसे ही पूछने चले आये। मैं कहता हूं : काहे इतनी मेहनत की? नाहक परेशान हुए! जब आपको ध्यान हो ही गया है तो मैं कुछ और न कहूंगा अब। जब तक आप यह नहीं कहेंगे कि मुझे ध्यान नहीं हुआ है तब तक मैं क्यों कुछ कहूं? मेरा समय क्यों खराब करते हो? समाधिस्थ व्यक्तियों को किसी से जाकर पूछने की कोई जरूरत नहीं है। बात घट ही गई।

लेकिन ऐसा पाखंड है हमारे देश में। है कुछ स्थिति, कहेंगे कुछ और। हम मुखौटे ओढ़ने में बड़े कुशल हो गये हैं।

अब तुम पूछते हो : “प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं, यह जानते हुए विनम्रतापूर्वक मैं जानना चाहूंगा!’ अब यह विनम्रतापूर्वक भी कुछ विनम्रता नहीं है इसमें। क्योंकि किसी दूसरे के संबंध में प्रश्न पूछना कैसे विनम्रता हो सकती इसमें? प्रश्न में लांछन है। प्रश्न में निंदा है। दर्शन ने कुछ गलत किया है, इसका आग्रह है। इसमें विनम्रता हो कैसे सकती है? नहीं है तो कहने की कोई जरूरत भी नहीं है।

लेकिन ऐसा ही हमारे देश में चलता है। “विनम्रतापूर्वक पूछना चाहता हूं…।’ प्रश्न ही अविनम्र है। प्रश्न ही अहंकार को लगी चोट से उठा है। शायद आप भी थोड़े-बहुत वेदज्ञाता होंगे। शायद गुरुकुल कांगड़ी से आपका भी कुछ नाता होगा। शायद चोट आपके ऊपर भी वही है जो गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता को थी। लेकिन हटाकर पूछ रहे हैं, खुद बाहर रहकर पूछना चाहते हैं।

ईमानदारी सीखो! कहो कि चोट लगी है मुझे, यह बात मुझे जंची नहीं है, इसलिये पूछना है। तो प्रश्न में कुछ गर्मी होगी। प्रश्न को बिलकुल निस्तेज कर डाला। पूछते हो : “मा दर्शन ने गुरुकुल कांगड़ी के वेदज्ञाता को आपके भगवान होने के विषय में उत्तर दिया–भगवान तो आप भी हैं, लेकिन आपको स्मरण नहीं है। मेरी मंद बुद्धि के अनुसार…।’ सच में तुम समझते हो कि तुम मंदबुद्धि हो? ईमान से मानते हो कि तुम मंदबुद्धि हो? ये आदतें छोड़ो। यहां हर कोई कहता है।

एक सज्जन आये और कहने लगे : मैं तो आपके पैर की धूल हूं। मैंने कहा : यह तो मुझे सदा से पता ही है। बस वे नाराज हो गये। मैंने कहा : आप खुद ही कहते हैं कि पैर की धूल हैं और मैंने स्वीकृति दी, तो आप नाराज क्यों होते हैं? वे यह थोड़े ही कह रहे थे कि मैं पैर की धूल हूं, वे तो यह बता रहे थे देखो मेरी विनम्रता; कि मैं अपने को आपके पैर की धूल बता रहा हूं। वे सुनना यह चाहते थे कि मैं उनसे कहूं कि नहीं-नहीं, आप और पैर की धूल! आप तो सिर पर रखे फूल हैं! तब वे खुश होते।

अब तुम कह रहे हो : “मेरी मंद बुद्धि के अनुसार…।’ अगर बुद्धि मंद ही है तो चुप रहो। अगर बुद्धि मंद नहीं है तो ही इस तरह के प्रश्नों में पड़ना चाहिये। लेकिन इसको हम शिष्टाचार समझते हैं। यह सब पाखंड है, शिष्टाचार नहीं। कहते हो : “मेरी मंद बुद्धि के अनुसार यह उत्तर वही दे सकता है जिसे स्वयं स्मरण है और जिसे स्वयं स्मरण है वह स्वयं को भी तो भगवान कह सकता है।’

दर्शन को स्मरण आ रहा है, पूरा-पूरा नहीं आ गया–जैसे सुबह नींद भी टूट गई और जागे भी नहीं हैं। दूधवाला दूध तौल रहा है द्वार पर खड़े होकर, थोड़ी-थोड़ी भनक पड़ रही है। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे हैं, थोड़ी-थोड़ी भनक पड़ रही है। पत्नी चौके में नाश्ता बना रही है, थोड़ी-थोड़ी बर्तन की आवाज भी आ रही है। पड़ोसी भी उठ गये हैं, पक्षी भी बोल रहे हैं बगीचे में। लेकिन तुम करवट लेकर और चादर ओढ़कर पड़े हो। थोड़े जाग भी गये हो, थोड़े जागे भी नहीं हो, आधे-आधे।

दर्शन वहीं है, आधी-आधी। भनक तो पड़ गई है, एहसास तो होने लगा है। दिन अब करीब ही है, सूरज निकलने को ही है। उसने उत्तर ठीक ही दिया।

चलती ट्रेन के स्लीपर में ऊपर वाले मुसाफिर की नींद खुली तो झुककर नीचे वाले से बोला: भाई साहब, क्या बजा है? “बज के पांच’–जवाब मिला।

बज के पांच! थोड़ी देर बाद समझने की कोशिश कर चुकने के बाद उन्होंने फिर पूछा : भाई साहब, कित्ता बजा है? “बज के दस’–जवाब मिला।

“क्या बज के पांच, बज के दस लगा रखा है। साफ-साफ बताते नहीं कि टाइम क्या है?’ डांटते हुए ऊपरवाले मुसाफिर ने कहा। नीचे वाले ने अपनी घड़ी दिखाते हुए सफाई दी: भाई साहब, जब छोटा कांटा है ही नहीं तो आप ही बताओ, मैं क्या बताऊं?

बज के पांच, बज के दस।…अभी दर्र्शन का एक कांटा रास्ते पर आया है, दूसरा भी आ जायेगा। अभी वह इतना ही कह सकती है : बज के पांच, बज के दस! मगर इतना तो कहेगी! अभी वह मेरे संबंध में कह सकती है कि वे भगवान हैं, अभी अपने संबंध में जरा संकोच करती है। अभी बज के दस, अभी बज के पांच…। मगर जब एक कांटा चल पड़ा तो दूसरा भी चलेगा। घड़ी पूरे काम में लगी है, अब एक ही कांटा बिठाने की बात है। अगली बार तक जब वेदज्ञाता आयेंगे, दर्शन कहेगी : मैं भगवान हूं! तुम सुन लेना या तुम्हीं पूछ लेना उससे अब। अब मैं उसको आज्ञा देता हूं कि तेरा दूसरा कांटा भी आज बिठा दिया, अब तू फिकिर छोड़ कि बज के दस, बज के पांच; अब तो सीधा-सीधा कह देना कि इतने बजकर इतने।

यह जान लेने पर भी कि स्वयं भगवान भीतर बैठा हुआ है, जरूरी नहीं कि सभी उसकी घोषणा करें। बुद्ध ने सिद्धों के दो भेद किये हैं। एक को वे कहते हैं अर्हत और दूसरे को कहते हैं बोधिसत्व। अर्हत तो वे हैं जो जान लेते हैं और चुप रह जाते हैं। बोधिसत्व वे हैं जो जानते हैं और मकानों की मुंडेर पर चढ़कर सारे जगत को जगाते हैं। अर्हत ऐसा समाधिस्थ व्यक्ति है, जिसने जान लिया और चुप हो गया, किसी से कहना नहीं है। उसका तर्क यह है कि कौन समझेगा, कौन पहचानेगा? यह बात इतनी कठिन है कि सौ से कहो तो एकाध समझ पायेगा। और जो एकाध समझेगा उससे अगर न भी कहा होता तो देर-अबेर वह समझ ही लेता। जिसमें इतनी बुद्धिमत्ता थी, वह कितने देर तक रुकता समझने से, समझ ही लेता।

बोधिसत्व घोषणा करता है कि मैंने पा लिया है और तुम भी पा सकते हो। यहां मेरे पास दोनों तरह के फूल लगेंगे–अर्हत भी लगेंगे और बोधिसत्व भी लगेंगे। जो बोधिसत्व होंगे वे घोषणा करेंगे। जो अर्हत होंगे वे चुप रहेंगे। जानकर भी चुप रहेंगे।

तुमने अल हिल्लाज़ मंसूर का नाम सुना है। अदभुत सूफी हुआ। उसे लोगों ने सूली लगा दी, क्योंकि उसने घोषणा कर दी कि मैं ईश्वर हूं। उसके गुरु जुन्नैद ने अल हिल्लाज़ को कहा कि तू यह घोषणा मत कर। क्या तू समझता है मुझे पता नहीं है? मुझे भी पता है लेकिन मैं चुप हूं। तू भी चुप रह।

और जब गुरु ने शिष्य को कहा कि तू भी चुप रह तो अल हिल्लाज़ ने कहा कि आप कहते हैं तो चुप ही रहूंगा। लेकिन परमात्मा कि मर्जी कुछ और थी। अल हिल्लाज़ अर्हत नहीं हो सकता था। वह उसका गुणधर्म नहीं था। वह तो बोधिसत्व ही हो सकता था, तो जब भी मस्ती छाती और जब भी वह ध्यान में गहरा उतरता, फिर चिल्ला देता: अनलहक! जुन्नैद ने कहा देख, तू मानता ही नहीं। अल हिल्लाज़ ने कहा : मैं तो मानता हूं, मगर अब परमात्मा नहीं माने तो मैं भी क्या करूं? मैं जब तक रहता हूं, जब तक होश मैं अपना सम्हालता हूं तब तक मैं चुप रहता हूं; लेकिन एक घड़ी आती है कि मैं खो जाता हूं और तब वही बोल देता है। फिर मैं क्या करूं? मेरा वश क्या?

जुन्नैद अर्हत है। अल हिल्लाज़ बोधिसत्व है। जुन्नैद भी वही जानता है लेकिन चुप रहा। बोधिसत्व चुप नहीं रह सकता। बोधिसत्व को बोलना होगा। अर्हत सदगुरु नहीं बनते; वे एकाकी यात्री होते हैं। अकेले अपनी मंजिल पर पहुंच जाते हैं और अकेले ही समाप्त हो जाते हैं, शून्य में लीन हो जाते हैं। बोधिसत्व सदगुरु होते हैं, वे घोषणा करते हैं। घोषणा करोगे तभी सदगुरु हो सकोगे। और बुद्ध ने कहा है : हो सके तो बोधिसत्व होना। न हो सके तो अर्हत होना ठीक है, क्योंकि बोधिसत्वों से औरों का भी जागरण होता है। जगाना। पुकारना। फिर चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े, चाहे प्राणों से ही कीमत क्यों न चुकानी पड़े। वही हुआ मंसूर के साथ : हत्या कर दी लोगों ने। वही हुआ जीसस के साथ : हत्या कर दी लोगों ने।

बोधिसत्वों की हत्या हो जायेगी, हो सकती है। अर्हतों का कोई नुकसान नहीं होगा। अर्हत बोलेंगे ही नहीं वे चुप रहेंगे। जान लिया, हीरा मिल गया, कबीर कहते हैं गांठ में गठिया लिया, फिर चुप रहे, बताना क्या है? खोल-खोलकर क्या बताना है?

इसलिये यह मत सोचना कि पता होकर अनिवार्यता है घोषणा करने की। पता भी हो तो भी अनिवार्यता की कोई बात नहीं। और ऐसा भी तो जरूरी नहीं है कि जो घोषणा करे उसे पता ही हो, क्योंकि ऐसे भी लोग हैं जो बिना पता हुए घोषणा कर रहे हैं। इस जगत में सभी तरह का वैविध्य है। लेकिन इन चिंताओं में न पड़ो तो अच्छा। कुछ अपनी जिज्ञासाएं उठाओ, कुछ महक तुममें पैदा हो सके, ऐसे प्रश्न पूछो। कुछ अपने प्रश्न पूछो, निज के प्रश्न पूछो। तुम्हारी समस्याएं हल हों ऐसी कुछ बात पूछो।

यह तो दर्शन को पूछना चाहिये। उसे पूछना है तो पूछ लेगी। लेकिन वह तो कभी पूछती नहीं। अनेक वर्षों से मेरे पास है और मेरे जो बहुत निकट हैं उनमें से एक है। लेकिन कभी उसने कोई प्रश्न पूछा नहीं। कभी-कभी मुझे ही उसे उत्तर देना पड़ता है, पूछती नहीं तो देना पड़ता है। उसने कभी मुझे पत्र नहीं लिखा, मैंने ही उसे पत्र लिखा फिर। पूछना उसकी आदत नहीं है। प्रश्न उठाना उसकी आदत नहीं है। चुपचाप पीती है। जो मिल रहा है वह काफी है।

मगर तुम क्यों चिंता में पड़ गये? यह प्रश्न तुम्हें क्यों खलबली उठाया? दूसरों की फिकिर छोड़ो। और जब प्रश्न पूछो तो ईमानदारी से पूछो; फिर उसमें शिष्टाचार मत लाओ कि प्रश्न का कोई अस्तित्व नहीं…कि मैं विनम्रतापूर्वक पूछता हूं। यद्यपि प्रश्न है ही नहीं, फिर भी पूछता हूं। मैं मंदबुद्धि हूं, मंदबुद्धि के अनुसार पूछता हूं।

किसी नगर में एक कवि हैं, जो दो उपनामों से लिखते हैं–एक तो “ढेंचू’ और दूसरा “राही’। एक कवि-सम्मेलन में संचालक ने कहा : अब ढेंचू जी अपनी रचना पढ?ेगे। “मैं आज “राही’ उपनाम से पढ़ूंगा–‘ ढेंचू जी ने कहा–“गंभीर रचना है।’ गंभीर रचना होती है तो वे राही के नाम से पढ़ते हैं, हंसी-मजाक की होती तो ढेंचू नाम से। तो उन्होंने कहा : “मैं आज राही उपनाम से पढ़ूंगा, गंभीर रचना है।’ लेकिन जनता में से आवाज आई, क्या फर्क पड़ता है, आवाज तो वही निकलेगी! अब ढेंचू से तो ढेंचू ही ढेंचू निकलेगा, फिर कितनी ही गंभीर रचना हो। मुखौटे हम कोई भी लगा लें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।

और तुम्हारे मन में यह सवाल तो उठ गया कि दर्शन को अगर पता है तो उसे खुद ही घोषणा करनी थी कि मैं भगवान हूं। मगर तुम्हें यह सवाल न उठा कि तुम्हें पता है कि जिनको पता होता है वे घोषणा करते ही हैं? तुम्हें पता है कि जो चुप रह जाते हैं उन्हें पता होता ही नहीं? तुमने यह सोचा ही नहीं।

ऐसा हुआ, दो दार्शनिक एक नदी पर के पुल से गुजरते थे। एक दार्शनिक ने कहा : अहा, नदी कैसा किलकार कर रही है! पहाड़ी नदी, बड़ा शोरगुल, गीत गाती, नाचती, घूंघर बजाती जा रही थी। तो एक ने कहा कि देखो, कितने उल्लास में, कितने आनंद में नदी भागी जा रही है सागर की तरफ! दूसरे ने कहा : तुम नदी नहीं हो, तुम्हें कैसे पता चलेगा कि नदी को उल्लास है, आनंद है? बात तो बड़ी साफ पूछी : तुम नदी नहीं हो, तुम्हें कैसे पता चल रहा है कि नदी आनंदमग्न है? दूसरे दार्शनिक ने पता है, क्या कहा? उसने कहा : तुम मैं नहीं हो, तुम्हें कैसे पता चल रहा है कि मुझे पता नहीं है?

अगर दार्शनिक-विवादों में पड़ना हो तो बड़ी मुश्किल है। मालूम है पहले दार्शनिक ने क्या कहा? उसने कहा कि ठीक है, तुम नदी नहीं हो इतना मुझे साफ है और यह भी मुझे पता है कि मैं तुम नहीं हूं। लेकिन तुम्हें यह कैसे पता है कि मुझे पता नहीं हो सकता तुम्हारे संबंध में? तुम भी तो “मैं’ नहीं हो।

अब इस विवाद का क्या अंत होगा? अब इसका कोई अंत नहीं हो सकता है। यह तो व्यर्थ की सिरफोड़ होगी। यह तो बाल की खाल निकालनी होगी?

गुरुकुल कांगड़ी के भूतपूर्व कुलपति सत्यव्रत आश्रम देखने आये थे, दर्शन उन्हें दिखाने ले गई थी। सत्यव्रत ने उपनिषदों पर बड़ी महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं, मगर किताबें ही होंगी। क्योंकि उपनिषदों की घोषणा यही है : अहं ब्रह्मास्मि! यह तो उनका मूल स्वर है। उनको बेचैनी एक ही रही होगी, परेशानी एक ही रही होगी, तो उन्होंने दर्शन को पूछा कि आप अपने गुरु को भगवान क्यों कहते हैं? तो दर्शन ने कहा: भगवान वे हैं…उतने ही जितने आप हैं। उन्हें पता है, उन्हें होश है; आप को होश नहीं है।

इसी संदर्भ में यह प्रश्न पूछा गया है। दर्शन ने बिलकुल ठीक ही कहा। इतना ही भेद है। बुद्धों में और गैर-बुद्धों में और जरा भी भेद नहीं है, बस इतना ही भेद है : एक को होश आ गया, एक को होश नहीं आया; एक सोया है; एक जाग गया। जो सोया है वह भी जाग सकता है। जो जाग गया है वह भी कल तक सोया था। दोनों में कोई बुनियादी भेद नहीं है; जो जागा है वह सोया था, जो सोया है वह जाग सकता है।

और दर्शन, जैसा मैंने कहा, अभी आधी-आधी है। थोड़ी-थोड़ी सोई है, थोड़ी-थोड़ी जाग रही है। लेकिन जब भी थोड़ा-थोड़ा जागरण होता है, थोड़ी-थोड़ी नींद होती है, तो जागरण की ही विजय होने वाली है, नींद की विजय नहीं हो सकती। क्योंकि नींद की सत्ता ही क्या है? सामर्थ्य ही क्या है? जागने की एक किरण भी काफी है; गहन से गहन निद्रा को तोड़ जायेगी। छोटा-सा दीया भी काफी है; पुराने से पुराने अंधकार को नष्ट कर देता है। उसने ठीक ही उत्तर दिया। उसे भी थोड़ी-थोड़ी एहसास की झलक मिलने लगी है।

यहां जो मेरे पास इकट्ठे हैं, उन्हें अगर झलक नहीं मिल रही है तो मेरे पास होने का कोई अर्थ ही नहीं है, कोई प्रयोजन ही नहीं है। मेरे पास रुक ही वे लोग सकते हैं, जिनकी जबान पर थोड़ा-थोड़ा स्वाद फैलने लगा, थोड़ा-थोड़ा है अभी, कल बहुत भी हो जायेगा। शुरुआत हो गई तो पूर्णाहुति भी हो जायेगी। मेरे पास किसी और कारण से तो कोई रुक ही नहीं सकता, क्योंकि मेरे पास रहने से कोई समाज में प्रतिष्ठा नहीं मिलती, सम्मान नहीं मिलता, कोई पद नहीं मिल जायेगा। मेरे पास रहने से कोई तुम्हें धन कमाने की सुविधा नहीं हो जायेगी। अड़चनें पड़ जायेंगी। समाज में होगी प्रतिष्ठा तो खो जायेगी। कुछ नाम होगा तो और बदनामी हो जायेगी। जहां होओगे वहीं बेचैनी हो जायेगी।

मेरे संन्यासी होकर और अगर समाज तुम्हें चैन से रहने दे तो चमत्कार होगा–ऐसा ही चमत्कार…एक मित्र मुझे मिले, बहुत दिन बाद मिले। मैंने उनसे पूछा कि कहो कैसे हो? उन्होंने कहा कि बड़ा चकित हूं। बड़ा चमत्कार ही समझो। मैंने कहा : क्या हुआ ऐसा? तो उन्होंने कहा : मेरे बड़े लड़के का नाम संजय, मझले लड़के का नाम सुरेश, छोटे लड़के का नाम कांति–फिर भी घर में शांति! इससे मैं चमत्कृत हूं।

मैंने कहा : यह कुछ नहीं। अगर और चमत्कार देखना है तो संन्यासी हो जाओ। फिर तुम्हारे घर में शांति रहे, तब तुम समझना कि कोई चमत्कार हुआ। पत्नी खिलाफ हो जाएगी, बच्चे खिलाफ हो जाएंगे, मां-बाप खिलाफ हो जाएंगे। फिर जहां जाओगे वहीं लोग उंगली उठाएंगे।

मेरे पास जो हैं उन्हें तो अनिवार्यरूपेण तपश्चर्या से गुजरना पड़ रहा है। दर्शन कोई सस्ते में तो मेरे पास नहीं है। घर-द्वार छोड़कर आई है। पति छोड़कर आई है। सब प्रतिष्ठा, सम्मान, धन छोड़कर आई है। इतना सब छोड़कर जब कोई आता है तो कुछ पाता होगा इसलिये आता है। तुम जरा विचार करना। मंदबुद्धि तो हो मगर फिर भी थोड़ा विचार करना। दर्शन ऐसे ही नहीं आ गई है; बहुत कुछ गंवा कर आई है। और आकर मस्त है, प्रसन्न है, आनंदित है! जरा उसके पास बैठना, उसका सत्संग करना। भाई महकवाला दिल्ली, दर्शन का थोड़ा सत्संग करो! मेरी बात तो शायद तुम्हें बहुत दूर की मालूम पड़े, दर्शन की शायद इतनी दूर की मालूम न पड़े, क्योंकि वह आधी सोई आधी जागी है। कुछ-कुछ तुम्हारी भाषा में बोल सकेगी।

मगर सदा याद रखो, प्रश्न अपने ही संबंध में हों तो अच्छे। दूसरे के संबंध में प्रश्न पूछना बड़ा आसान होता है। लेकिन तुमने देखा, मैंने प्रश्न को तुम्हारे संबंध में ही बदल दिया! क्योंकि मैं यही उचित मानता हूं।

ढब्बू जी ने पूछा चंदूलाल को: चंदूलाल, लगता है तुम्हारा दांत तुम्हें काफी तकलीफ दे रहा है।

अगर मेरा दांत–ढब्बू जी ने कहा–ऐसे परेशान करता तो मैं उसे कब का उखाड़कर फेंक देता। चंदूलाल ने कहा : हां, अगर आपका दांत होता तो मैं भी वैसा ही करता।

दूसरे का दांत उखाड़ने में क्या दिक्कत है, अपना उखड़वाना मुश्किल हो जाता है! मुझसे जब प्रश्न पूछो तो अपने दांतों के संबंध में पूछना।

 

आखिरी प्रश्न :

 

इस मुर्दा देश को क्यों आपने अपने कार्यक्षेत्र की तरह चुना है?

 

सीलिए! मुर्दा है, सो जिलाना है। जो जी रहे हैं, उन्हें क्या जिलाना? बीमार की चिकित्सा करनी होती है, स्वस्थ की तो नहीं!

यह देश मुर्दा है, और सदियों से मुर्दा है। और इसको पुनः प्राण देने हैं। और यह देश मूल्यवान देश है। यह मुर्दा नहीं होना चाहिए। इसका मुर्दा होना महंगा सौदा है। यह देश जीवित होना ही चाहिए। पुनरुज्जीवित होना ही चाहिए, क्योंकि इस देश के पास एक बड़ी संपदा है। यह अगर पुनरुज्जीवित हो जाए, तो सारे जगत को रोशनी मिले।

मगर यह देश मुर्दा पड़ा है। यह अपनी संपदा के ऊपर लाश होकर लेटा है। न यह खुद लाभ ले रहा है उस संपदा का, न किसी और को लाभ दे रहा है उस संपदा का। इस मुर्दे में प्राण फूंकने हैं, इसे जगाना है। क्योंकि इतनी बड़ी संपदा किसी और देश के पास नहीं है। यही मेरी मुसीबत है।

यह देश मुर्दा है, मगर इसके पास बड़ी संपदा है! बुद्धों ने, सिद्धों ने सदियों-सदियों में जो खोजा है वह इस देश के पास है। अभी भी है! यद्यपि हम मुर्दा हैं, इसलिये कोई उपयोग नहीं कर पा रहे हैं; न अपने लिए कर पा रहे हैं न किसी और के लिए कर पा रहे हैं। अगर हम जीवंत हो जाएं, अगर यह संस्कृति नई हो उठे, अगर यह संस्कृति समसामयिक हो जाए, अगर हम बीसवीं सदी में जीने लगें–तो हम सारे जगत के लिए क्रांति के स्रोत हो सकते हैं।

मगर तुम ठीक कहते हो, देश तो बिलकुल मुर्दा है। देश तो इतना मुर्दा है कि जिसका कोई हिसाब नहीं!

कल मैंने अखबार में खबर पढ़ी कि दिल्ली में ओरियण्टल सर्कस का दिवाला निकला जा रहा है, क्योंकि मोरारजी देसाई ने पाबंदी लगा दी है कि बाहर साल से ऊपर की लड़कियां सर्कस में चुस्त कपड़े पहनकर काम नहीं कर सकतीं। बारह साल के ऊपर की लड़कियां! उनको कमीज़-सलवार पहनना चाहिए।

अब तुम जरा सोचा, रस्सी पर कमीज-सलवार पहनकर कोई लड़की चले…जाएगी काम से! या झूले पर पचास फीट ऊंचाई पर झूले, उल्टी लटके और सलवार कहीं उलझ जाए…। और सलवार न उलझे, ऐसा हो नहीं सकता। और कुर्ती और दुपट्टा भी शायद…फरिया। तो कोई महिलाएं जो काम करती हैं सर्कस में, वे राजी नहीं हैं ये कपड़े पहनकर काम करने को, उनकी जान को खतरा है। और मोरारजी राजी नहीं हैं, कि वे चुस्त कपड़े पहनकर काम कर सकें। सर्कस का दिवाला निकला जा रहा है।

अब मोरारजी जैसे लोगों के हाथ में जिस देश की सत्ता हो, वह मुर्दा न हो जाए तो और क्या होगा? इस देश को युवा करना है। बड़ी मेहनत का काम है। बड़ा मुश्किल काम है। क्योंकि मुर्दे जो लोग बहुत दिन तक रहे हैं उनका मुर्दा होने में रस पैदा हो गया है। उनका मुर्दा होने में न्यस्त स्वार्थ हो गया है।

इसलिये तुम पूछते हो, तुम्हारी बात भी मैं समझता हूं। तुम्हारी बात प्रेमपूर्ण है। तुम यह कह रहे हो कि क्यों मैं यहां नाहक मेहनत कर रहा हूं, कोई मुझे समझेगा नहीं। यह सच है। यह असंभव को करने का उपाय है। मेरी बात कोई समझेगा, मेरी बात कोई सुनेगा इस देश में–यह असंभव को करने की चेष्टा है। लेकिन इसलिये मुझे इसमें रस भी है, चुनौती भी है।

अरे, ओ निरगुन फागुन मास!

मेरे कारागृह के शून्य अजिर में मत कर वास

अरे, ओ निरगुन फागुन मास!

यहां राग-रस-रंग कहां है?

झांझन मंदिर-मृदंग कहां है?

अरे चतुर्दिक फैल रही यह

मौत भावना जहांत्तहां है

इस कुदेश में मत आ तू रसमय हंसता सोल्लास

अरे, ओ भोले फागुन मास!

कोल्हू में जीवन के कण-कण

तेलत्तेल हो जाते क्षण-क्षण

प्रति दिन चक्की के घम्मर में

पिस जाता गायन का निकवन

फाग सुहाग भरी होली का यहां कहां रस राग

अरे, ओ मुखरित फागुन मास!

राम-बांस की कठिन गांस में

मूंज-बान की प्रखर फांस में

अटकी हैं जीवन की घड़ियां

यहां परिश्रम-रुद्ध सांस में

यहां न फैला तू अपना लाल-गुलाल विलास

अरे, अरुणारे फागुन मास!

छायी जंजीरों की झनझन

डंडा बेड़ी की यह घनघन

गर्रे का अर्राटा फैला

यहां कहां पनघट की खन खन

कैसे तुझको यहां मिलेगा होली का आभास

अरे, हरि हारे फागुन मास!

अरे, ओ निरगुन फागुन मास!

मेरे कारागृह के शून्य अजिर में मत कर वास

तुम्हारा प्रीतिकर प्रश्न मैं समझा। तुम यह कह रहे हो कि यहां क्यों मैं श्रम कर रहा हूं? यहां लोग नाच न सकेंगे; उनके पैर जड़ हो गए हैं। यहां लोग गा न सकेंगे; उनके कंठ खो गये हैं। यहां लोग प्रेम से अभिभूत न हो सकेंगे; उन्होंने प्रेम की शत्रुता बहुत-बहुत सदियों से की है। यहां मदिरता को फैलाना कठिन है। मगर इसीलिए! इन पत्थरों में फूल खिलाने हैं। इस मरुस्थल को फिर बगिया बनाना है।

अरे, ओ निरगुन फागुन मास!

मेरे कारागृह के शून्य अजिर में मत कर वास

यहां राग-रस-रंग कहां है?

झांझन मंदिर मृदंग कहां है?

अरे चतुर्दिक फैल रही यह

मौत भावना जहांत्तहां है

इस कुदेश में मत आ तू रसमय हंसता सोल्लास

अरे, ओ भोले फागुन मास!

लेकिन फिर फागुन मास और कहां जाए? फिर और कहीं जाने की तो जरूरत नहीं है। जहां मृदंग बज ही रही है, जहां झांझन बज ही रही है और जहां गीत गाए ही जा रहे हैं, वहां फागुन मास के जाने की जरूरत क्या है? मृदंग नहीं है तो मृदंग बनाएंगे। राग-रस-रंग खो गया है, जन्मायेंगे। झांझन बजेगी। यह जो मौत की भावना ने पकड़ लिया है इस देश को, इससे छुटकारा करायेंगे।

मैंने तुम्हें गैरिक रंग दिया है संन्यास का–गैरिक वसंत का रंग है। इस देश को वसंत से भर देना है। यह बुद्धों की, सिद्धों की भूमि मुर्दों के हाथ में पड़ी न रह जाए। इसे वापिस छीन लेना है मुर्दों से। इसे पंडित-पुरोहितों से वापिस छीन लेना है। इसे फिर जीते-जागते, गीत गाते, नाचते लोगों के हाथों में दे देना है। यह हो सकता है। कठिन तो बहुत है; मगर कठिन है इसलिए करने योग्य भी है।

ज़माने के अंदाज बदल गए

नए राग हैं साज़ बदल गए

उजाला है मसरिफ के इवान में

सहर हो गई शामो-लबनान में

नई सुबह है और नया आफताब

मुबारिक ज़माने की यह इन्कलाब

हम्हीं सुबहे-नौ हैं हमीं आफताब

हमीं हैं बगावत हमीं इन्कलाब

अंधेरी शबों के सितारे हैं हम

जो बुझते नहीं वह शरारे हैं हम

दिये बनो! ऐसे अंगार बनो–

जो बुझते नहीं वह शरारे हैं हम

अंधेरी शबों के सितारे हैं हम

थोड़े से ही दीये पैदा हो जाएं, तो रोशनी हो जाये। कोई सारे देश को ही जाग्रत होने की जरूरत नहीं है; थोड़े लोग जाग जायें, तो हवा में बातास आ जाए, माधुर्य आ जाये। थोड़े से लोग जागकर आनंद से जीने लगें, तो दूसरों को भी संक्रामक हो जाएगी बीमारी।

और यह करना ही है। और कोई भी कीमत चुकानी पड़े, यह करना ही है। क्योंकि इस देश के पास इतनी अपार संपदा है! उसे मरे हुए, मुर्दों के भूत-प्रतों से और मुर्दे जो सांप होकर बैठ गए हैं संपदा के ऊपर फन मारकर, उनसे उसका छुटकारा दिलवाना है।

इस देश के पास सूत्र हैं जो सारे जगत को सौरभ से भर दें। इस देश के पास अपरिसीम विज्ञान है–अंतर का विज्ञान।

पश्चिम ने बाहर के विज्ञान को पैदा कर लिया, आधा काम पश्चिम ने पूरा कर दिया है। हमने भीतर का विज्ञान पूरा कर लिया है; आधा काम हम बहुत पहले पूरा कर चुके हैं। अगर ये दोनों काम मिल जायें, तो पहली दफा पूरा मनुष्य पैदा हो और मनुष्य की अखंड समग्र संस्कृति पैदा हो।

मैं जो प्रयास यहां कर रहा हूं, वह यही है–पूरब-पश्चिम को आलिंगनबद्ध कर देने का; पूरब-पश्चिम को एक-दूसरे में डुबा देने का। पश्चिम से आये विज्ञान, पूरब का जागे धर्म, दोनों का हो मिलन–तो पहली दफा पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है। एक अपूर्व अवसर है। अगर हमने श्रम किया, तो जैसा कभी नहीं हुआ था, वैसा आज हो सकता है। बुद्ध लाख कोशिश करते तो भी बाहर का जगत तो दरिद्र था और दरिद्र ही रहता। भीतर का जगत शांत हो सकता था, समृद्ध हो सकता था, मगर बाहर का जगत तो दरिद्र ही रहता। वह आधी संपदा होती। पश्चिम आज लाख कोशिश करे…अच्छे मकान बना लिए, अच्छी कारें हैं, अच्छे रास्ते हैं, अच्छी दवाइयां हैं, सब है, लेकिन आदमी की आत्मा खो गई है। पश्चिम की सारी कोशिश व्यर्थ हो जायेगी। मिलन की एक अपूर्व घड़ी है।

मगर पूरब का धर्म मुर्दों और अंधों के हाथ में पड़ गया है। पश्चिम का विज्ञान जिंदा लोगों के हाथ में है लेकिन उन जिंदा लोगों को अपनी आत्मा का कुछ पता नहीं है। इसलिए कहीं चूक न हो जाये! कहीं ऐसा न हो कि घड़ी आ गई, रोटी भी बन सकती थी–आटा तैयार था, पानी तैयार था, नमक तैयार था, घी तैयार था, चूल्हा भी जला था; मगर रसोइये को यही समझ में न आया कि हम आटे को गूंथे कैसे? बस इतनी कमी है–आटा गूंथने की कमी है। सब तैयार है। इतना तैयार कभी भी नहीं था।

अतीत में दुनिया तो बाहर गरीब थी और गरीब ही रहती। आज बाहर तो दुनिया अमीर होती जा रही है, मगर भीतर गरीब है। अगर हम पुनरुज्जीवित कर सके, बुद्ध, सरहपा, तिलोपा के विज्ञान को और पश्चिम के विज्ञान को–आइंस्टीन, न्यूटन, एडिंग्टन, इन्होंने जो दान दिया है उसको। अगर ये दोनों मिल जायें–अगर आइंस्टीन और बुद्ध का मिलन हो जाए–तो मनुष्य के जगत में सबसे पहली बार…पहली बार मनुष्य के पूरे इतिहास में, एक ऐसी दुनिया होगी जो बाहर-भीतर दोनों तरफ फूलों से भर जाये…।

मैं पश्चिम जा सकता हूं। मुझे सुविधा होगी। मुझे निमंत्रण है पश्चिम के देशों से। मुझे सुविधा होगी। मुझे व्यर्थ की झंझटों में न पड़ना पड़ेगा। मोरारजी देसाई जैसे लोगों से व्यर्थ की बातचीत में न उलझना पड़ेगा। काम सुगम होगा। मेरे लिए तो काम सुगम होगा, लेकिन भारत की संपदा खो जाएगी। यहां मुझे कोई दूसरा नहीं दिखाई पड़ता, जो उसे पुनरुज्जीवित कर ले। असंभव होगा उसे पुनरुज्जीवित करना। और पश्चिम में उसे पुनरुज्जीवित करना बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि पश्चिम के पास वैसी आधारशिला नहीं है।

इसलिए मैं चाहता हूं यह पूरब को पुनरुज्जीवित करने की घटना यहां घटे। यहां आसानी से घट सकती है। और पश्चिम से लोग यहां आसानी से आ सकते हैं। तुम यहां से आसानी से पश्चिम न जा सकोगे। वह भी अड़चन है। मैं तो हट जाऊं यहां से पश्चिम। मुझे सब तरह की सुविधा होगी। काम आसान हो जाएगा, सुगम हो जाएगा। लेकिन तुम जानते हो, तुम तो यहां भी नहीं आ सकते हो जब मैं यहां हूं, तुम पश्चिम कैसे आ सकोगे?

और पश्चिम में तो बड़ी खोज है। और सुविधा भी है। पश्चिम से जिसको आना है वह कहीं भी आ जाएगा। यहां भी चला आ रहा है। हजार बाधाओं के बावजूद चला आ रहा है।

कल ही दिल्ली से डेढ़ सौ संन्यासियों के नाम नोटिस मिला है कि तत्क्षण भारत छोड़ दें। रोज यह उपद्रव चलता है। जो संन्यासी भारत के बाहर भारत के राज-दूतावासों में आज्ञा लेने जाते हैं, जानते ही कि वे मेरे संन्यासी हैं, उनके लिए आज्ञा निषिद्ध हो जाती है। उन्होंने कहा कि उन्हें पूना जाना है कि बस फिर उन्हें भारत आने कि आज्ञा नहीं मिल सकती। फिर भी वे आ जाते हैं। वे हजार उपाय कर लेते हैं। नहीं आते भारत, पहले नेपाल जाते हैं, फिर नेपाल से प्रवेश करते हैं; कि पाकिस्तान जाते हैं, फिर पाकिस्तान से प्रवेश करते हैं; कि लंका जाते हैं, फिर लंका से प्रवेश करते हैं। वे तो हजार उपाय कर लेंगे।

न मालूम कितनी पाश्चात्य संन्यासिनियों ने यहां आकर झूठी शादी की है। कोई मतलब नहीं है शादी से उन्हें। पति से कुछ लेना-देना भी नहीं है। मगर वे हिम्मतवर लोग हैं। उन्हें रहना है यहां मेरे पास, तो उन्होंने किसी भारतीय से शादी कर ली। तुम यह न कर सकोगे। कोई भारतीय स्त्री सिर्फ इसीलिए शादी न कर सकेगी पश्चिम आकर कि उसे मेरे पास रहना है। यह उसकी कल्पना के बाहर होगा। यह उसे असंभव मालूम होगा। हमने साहस ही खो दिया है। हमने अभियान खो दिया है।

इसलिए मैं यहां रुका हूं–रुकूंगा! यहां की संपदा को मुर्दों के हाथ से छीनना ही है। और रही पश्चिम की बात, तो पश्चिम से जिनको आना है वे यहां आ जायेंगे; कोई अड़चन नहीं है। यह मिलन घट सकता है। एक ऐसा तीर्थ बन सकता है जहां पूरब और पश्चिम एक हो जायें; जहां विज्ञान और धर्म एक हो जायें। मैं बाहर की संपदा का विरोधी नहीं हूं। मैं भीतर की संपदा का उतना ही पक्षपाती हूं जितना बाहर की संपदा का पक्षपाती हूं।

अब तक तुमने ऐसे लोग जाने हैं जो बाहर की संपदा के पक्षपाती हैं, तो भीतर की संपदा के विराधी हैं–जैसे चार्वाक, जैसे एपीकुरस, जैसे माक्र्स। तुमने ऐसे लोग भी जाने हैं जो भीतर की संपदा के पक्षपाती हैं, तो बाहर की संपदा के विरोधी हैं–जैसे महावीर, जैसे बुद्ध। तुमने मेरे जैसा आदमी अब तक जाना नहीं है; तुम्हारा कोई कसूर नहीं है अगर तुम मुझे न समझ पाओ। दुनिया ने ही मेरा जैसा आदमी नहीं जाना–जिसमें चार्वाक और बुद्ध का मिलन हो; जिसमें एपीकुरस और याज्ञवल्क का मिलन हो; जो नास्तिक से ज्यादा गहरा नास्तिक हो, जो आस्तिक से ज्यादा गहरा आस्तिक हो; जिसका अध्यात्मवाद भौतिकवाद का विरोधी न हो; जिसका भौतिकवाद अध्यात्मवाद का विरोधी न हो।

मेरे लिए बाहर और भीतर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं बाहर की संपदा का विरोधी नहीं हूं, मैं भीतर की संपदा का परिपूर्ण पक्षपाती हूं। मैं चाहता हूं तुम सब भांति संपन्न होओ–बाहर भी और भीतर भी। बाहर-भीतर का भेद ही व्यर्थ है। जैसे श्वास बाहर आती है, भीतर आती है, वही श्वास बाहर है वही भीतर है। वही परमात्मा बाहर है वही परमात्मा भीतर है।

तुम जरा मेरी कल्पना के मनुष्य को समझो। मेरी कल्पना का मनुष्य बाहर भी सुख, वैभव, आनंद में जीयेगा। और भीतर भी। तो मेरा विरोध तो होने वाला है। मेरा विरोध अध्यात्मवादी करेंगे क्योंकि वे कहेंगे कि मैं भौतिकवादी हूं। और मेरा विरोध भौतिकवादी करेंगे क्योंकि वे कहेंगे मैं अध्यात्मवादी हूं। मेरा विरोध दोनों तरफ से होना है। लेकिन जो जानते हैं, जो थोड़े समझदार हैं, वे दोनों तरफ से मेरा समर्थन भी करेंगे। हालांकि समझदार सदा कम होते हैं–सौ में एक इसलिए निन्यानबे आदमी मेरे दुश्मन होंगे और एक आदमी मेरा मित्र होगा।

मगर चिंता की कोई बात नहीं है। नादान दोस्तों से तो दाना दुश्मन बेहतर होता है। वे निन्यानबे किसी काम के भी नहीं हैं। उनकी दोस्ती का कोई मूल्य भी नहीं। मैं तो थोड़े से दाना दोस्तों की तलाश कर रहा हूं। थोड़े समझदार संन्यासी मुझे चाहिए। और यह काम होगा। यह ज्योति जलेगी! ये इशारे ऊपर से ही आ गए हैं कि ज्योति जलेगी।

दुख को बदलो। दुख को सुख की सेवा में लगाओ। दुख को सुख का निखार बनाओ। दुख से भागो मत। जो भागता है, बुद्धिहीन है। जो भागता है। और ध्यान रखना, दुख न हो तो जाग ही न सकोगे।

 

आज इतना ही।

 

 



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सहज योग–(प्रवचन–14)

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धरती बरसे अंबर भीजे—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 4 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—मैं वर्षों तक एक विरागी संन्यासी रहा हूं, लेकिन आपने मुझे प्रभु-राग में डुबो दिया है। अब आगे क्या आदेश है?

 2—हजारों वर्ष धरती तपश्चर्या करके गर्भ धारण करती है तो कहीं एक बुद्ध का अवतरण होता है। और इस देश में अनंत बुद्ध हो गये। फिर भी जब आप जैसे बुद्धपुरुष वर्तमान हैं, तो भी इस देश के लोगों को, तथाकथित धर्मगुरुओं को तथा शासन में पहुंचे हुए लोगों को आपकी बात समझ में क्यों नहीं आती?

 3—आप प्रभु की परम अनुभूति के लिये कभी-कभी शराब जैसा प्रतीक क्यों प्रयोग करते हैं? क्या कोई अच्छा प्रतीक नहीं मिल सकता है?

 

4—मैं अत्यंत दुखी हूं। मेरी पत्नी की जब से मृत्यु हुई है, मेरे दुख का अंत नहीं है। आपके पास सांत्वना पाने आया हूं।

 

5—जिसे तू देख ले एक बार मस्ती भरी नजर से

तो रजनीश! वो उम्र भर हाथों में अपने जाम न ले।

आपके शब्दों में इतनी मादकता क्यों हैं?

 

 

पहला प्रश्न:

 

मैं वर्षों तक एक विरागी संन्यासी रहा हूं, लेकिन आपने मुझे प्रभु राग में डुबो दिया है। अब आगे क्या आदेश है?

 

विराग एक बीमारी है। राग जीवन है, विराग मृत्यु है। संसार से राग हो तो राग की बुराई नहीं है, बुराई संसार की है। गलत से आंखों को जोड़ दो तो आंखों की क्या भूल? हाथ में हीरे भी ले सकते हो, हाथ में पत्थर भी; हाथ का क्या कसूर?

चूंकि अधिक लोगों ने अपने राग को संसार से जोड़ रखा है, इसलिए उनके विरोध में एक प्रक्रिया शुरू हुई, कि राग तोड़ो। राग की कोई भूल नहीं है, भूल है तो उस कूड़ा-करकट की है जिससे तुमने राग को जोड़ लिया। यही राग परमात्मा की सीढ़ी बन सकता है, बनना चाहिए। और जिसने राग ही छोड़ दिया, उसका तो परमात्मा से जुड़ने का उपाय ही समाप्त हो गया। राग जोड़ता है, विराग तोड़ता है।

राग की महिमा समझो। राग अर्थात प्रेम का रंग। राग शब्द का अर्थ रंग ही है। और राग शब्द का अर्थ संगीत भी है। प्रेम का रंग, प्रेम का संगीत। गलत से प्रेम जोड़ा जा सकता है लेकिन इससे प्रेम गलत नहीं होता। प्रेम तो सत्य से भी जोड़ा जा सकता है, सम्यक से भी जोड़ा जा सकता है–और तब प्रेम ही द्वार बन जाता है।

कोई प्याली में जहर रखकर पी रहा है, प्याली का क्या कसूर? इसी प्याली में अमृत भरा जा सकता है। प्याली मत तोड़ देना, क्योंकि प्याली तोड़ दी तो फिर अमृत कहां भरोगे?

इसलिए मैं तुम्हें राग ही सिखता हूं–परम राग सिखाता हूं, प्रभु-राग सिखाता हूं। मेरा संन्यासी परमात्मा के प्रेम में डूबा हुआ दीवाना है। और एक बड़े मजे की घटना घटती है कि जिसका परमात्मा से राग हो जाता है उसका संसार से राग टूट जाता है। टूट ही जाता है! सार्थक से जो जुड़ गया उसका व्यर्थ से संबंध न रह जाएगा। जिसे सार्थक दिखाई पड़ने लगा उससे व्यर्थ अपने-आप छूट जाएगा। छोड़ना भी नहीं पड़ता, छूट जाता है। और तभी मजा है, जब छूट जाए; छोड़ना पड़े तो मजा नहीं। छोड़ना पड़े तो समझना कि कच्चे थे अभी। कच्चे फल को तोड़ना पड़ता है वृक्ष से। पका फल अपने से गिर जाता है। पके फल के गिरने में एक सौंदर्य है, एक प्रसाद है। वृक्ष को पता भी नहीं चलता कब गिर गया, कोई घाव भी नहीं छूटता पीछे। कच्चे फल को तोड़ते हो तो घाव पीछे छूटता है। किसी चीज को कच्चा मत तोड़ देना, पकने दो–और गिरने दो अपने से।

मेरे जीवन-चिंतना का यह आधारभूत सूत्र है: सत्य की तरफ आंखें उठाओ, असत्य से आंखें अपने-आप हट जाएंगी। रोशनी से प्रेम लगाओ, अंधेरे से प्रेम अपने-आप विदा हो जाएगा। लेकिन सदियों तक इससे उल्टी ही बात की गई है। सदियों तक तुमसे कहा गया है। गलत को छोड़ो, तब सही मिलेगा। मैं तुमसे कहता हूं: सही को पा लो, गलत छूट जाएगा। सदियों तक तुमसे कहा गया है: अंधेरे को हटाओ, तब रोशनी जलेगी। यह न तो विज्ञान है न गणित है। अंधेरे को कोई हटा सकता है? और जो अंधेरे को हटाने में लगेगा, पागल हो जाएगा। मैं तुमसे कहता हूं: रोशनी जलाओ, अंधेरा अपने से हट जाता है। अंधेरे की चिंता छोड़ो। अंधेरे की चिंता सिर्फ अंधे करते हैं। आंखवाले रोशनी जलाते हैं। रोशनी जलाकर फिर कहां अंधेरा? फिर कैसा अंधेरा? अंधेरा तो सिर्फ अभाव है प्रकाश का।

जिसको तुम संसार का राग समझे हो वह केवल परमात्मा के राग की अनुपस्थिति है। तुम्हें हीरे नहीं मिले तो तुमने कंकड़-पत्थरों पर मुट्ठी कस ली है। बच्चे को देखते हो, मां का स्तन नहीं मिलता, अपना अंगूठा ही चूसने लगता है। ऐसे ही संसार को तुम अंगूठा समझो, जिसे तुम चूस रहे हो। उससे कुछ मिलने वाला नहीं है। लेकिन बच्चे को एक सांत्वना मिलती है; मान लेता है कि यही मां का स्तन है। चूसते-चूसते सो जाता है। कम-से-कम नींद तो आ ही जाती है।

बस संसार की सारी सांत्वना तुम्हें थोड़ी-सी निद्रा दे सकेगी। थोड़ी-सी शांति मिल जाती है–बड़ा मकान बना लिया, बहुत धन इकट्ठा कर लिया, बच्चे हैं परिवार है। थोड़ी-सी शांति मिलती मालूम पड़ती है; चादर तानकर थोड़ी देर सो लेते हो, बस।

संसार में तुम्हें जो भी मिलेगा, अंगूठे चूसने से ज्यादा नहीं है। और अगर अंगूठा चूसने में ही लगे रहे तो सिकुड़ते जाओगे, भीतर-भीतर मरते जाओगे क्योंकि पोषण न मिलेगा। पोषण तो परमात्मा से मिलता है, वही पोषण है।

उपनिषद कहते हैं: अन्न ब्रह्म है! मैं तुमसे कहता हूं: ब्रह्म अन्न है। परमात्मा पोषण है। उसे पियो।

तुम कहते हो: “मैं वर्षों तक एक विरागी संन्यासी रहा हूं।’ विरागी रहे होओगे, संन्यासी नहीं। क्योंकि विराग का संन्यास से कैसे संबंध जुड़ेगा? जैसे अंधेरे का और प्र्रकाश का कोई संबंध नहीं जुड़ता वैसे ही विराग और संन्यास का कोई संबंध नहीं जुड़ता। संन्यास तो उत्सव है, विराग कहां? संन्यास तो परम राग है, परम आनंद की अनुभूति है। वहां कहां उदासी, कहां उदासीनता? संन्यास में त्याग है ही नहीं।

और खयाल रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि त्याग नहीं होता। लेकिन संसार छोड़ना नहीं पड़ता। वास्तविक संन्यासी को तो केवल संन्यस्त होना पड़ता है, ध्यानस्थ होना पड़ता है, समाधिस्थ होना पड़ता है, कूड़ा-करकट छूटता चला जाता है, बीमारियां अपने से गिर जाती हैं। सूखे पत्ते अपने से झड़ जाते हैं, कब झड़ जाते हैं, कानोंकान खबर नहीं होती।

विराग और संन्यास का संबंध अब तक रहा है। वह संबंध बड़ा घातक सिद्ध हुआ। उस संबंध ने संन्यास को मार ही डाला। उसी संबंध को विच्छिन्न करना चाहता हूं। उस गांठ को तोड़ देना चाहता हूं। उस समझौते को मिटा देना है। विराग छाती पर चढ़ बैठा है संन्यास की, उससे संन्यासी उदास हो गया। इसलिए तुम्हें संसारी तो कभी हंसता मिल जाए, संन्यासी हंसता नहीं मिलता। होना तो उल्टा था कि संसारी न हंस सकता, उदास मिलता, उदासीन होता और संन्यासी हंसता। संन्यासी के पास तो खिलखिलाहट होनी थी–वही जो पहाड़ से गिरते झरनों में होती है; वही जो हवाएं गुजरती हैं वृक्षों के भीतर से तो वृक्षों के पत्तों में होती है। संन्यास में तो एक नाद होना था। लेकिन संन्यास उदास है। विराग से गलत संबंध जुड़ गया। त्याग से गलत संबंध जुड़ गया। त्याग के क्षयरोग ने संन्यास की छाती जला डाली।

संन्यासी को संसार नहीं छोड़ना है–परमात्मा पाना है। संन्यासी को सत्य पाना है, असत्य नहीं छोड़ना है। संन्यासी को ध्यान पाना है–सार पाना है, असार नहीं छोड़ना है। संन्यासी को तो और बड़े प्रेम को जन्माना है।

संसारी और संन्यासी में यही फर्क है। संसारी का प्रेम छोटा है, क्षुद्र है। और छोटा प्रेम, क्षुद्र प्रेम तुम्हें छुद्र कर देता है। तुम्हारा प्रेम ही तो तुम्हें निर्मित करता है। प्रेम सृजनात्मक है। क्षुद्र से प्रेम करोगे, क्षुद्र हो जाओगे। जो रुपये-पैसे से प्रेम करता है उसकी शकल पर तुम देखना वही घिसे-पिसे रुपये जैसी छाया दिखाई पड़ने लगती है। वही, जैसा नोट कई हाथों से गुजरकर गंदा होता जाता है, वैसे ही कृपण की आंखों में गंदगी हो जाती है! स्वाभाविक है। जिससे प्रेम करोगे वैसे ही हो जाओगे। जो वस्तुओं को प्रेम करता है वह आत्मवान नहीं रह जाता है; वह धीरे-धीरे वस्तुओं जैसा ही हो जाता है; जितना बड़ा प्रेम उतने बड़े तुम।

आंखें उठाओ। आकाश से प्रेम करो। आकाश तुम्हारे भीतर उतर आएगा। विराट को तलाशो!

लेकिन दो ही तरह के लोग हैं इस दुनिया में। कुछ हैं जो क्षुद्र को पकड़े हुए हैं। और कुछ हैं जो क्षुद्र को छोड़ने में लगे हुए हैं। मगर दोनों की आंखें क्षुद्र पर अटकी हुई हैं। दोनों क्षुद्र हो गए हैं। तुम्हारा संसारी क्षुद्र है, तुम्हारे तथाकथित संन्यासी क्षुद्र हैं। और संसारी को तो माफ किया जा सकता है संन्यासी को माफ नहीं किया जा सकता।

लेकिन कैसे यह दुर्घटना घटी? संन्यास का विराग से संबंध कैसे हो गया? संबंध इसलिए हो गया कि हम प्रतिक्रिया से जीते हैं। हम एक अति से दूसरी अति पर चले जाते हैं। हमने संन्यासी की जो प्रतिमा बनाई है, वह संसारी के विपरीत बनाई है; बस वहीं भूल हो गई। जो-जो संसारी करता है उससे विपरीत संन्यासी को होना चाहिए; वहीं चूक हो गई।

संन्यासी संसार का विरोधी नहीं है। संन्यासी परमात्मा का प्रेमी है। और तब तत्क्षण रूपांतरण हो जाएगा। तब तुम्हारी दृष्टि और हो जाएगी। परमात्मा का प्रेमी! और यह संसार भी परमात्मा का है। इसलिए संन्यासी इस संसार को भी प्रेम करेगा, लेकिन परमात्मा के अंग की भांति। और तब पूरा गणित और हो जाता है। तब वह पदार्थ को भी प्रेम करेगा, लेकिन परमात्मा के प्रतीक की भांति। वह अपनी पत्नी को भी प्रेम करेगा, लेकिन उसके भीतर परमात्मा की उपस्थिति अनुभव करेगा। अपने बेटे को भी प्रेम करेगा, लेकिन बेटे में भी आया तो वही है। अब उसके सारे प्रेम में परमात्मा की ही झलक फैलने लगेगी। अब अगर संगीत सुनेगा तो उसे उसीका अनाहत नाद सुनाई देगा। अगर सूरज को उगते देखेगा तो उसे परमात्मा का ही आविर्भाव दिखाई पड़ेगा। रात आकाश तारों से भर जाएगा तो वह परमात्मा की महिमा का गुणगान करेगा। वृक्षों पर फूल खिलेंगे तो वह चमत्कृत होगा। मिट्टी से ऐसे फूल निकल आते हैं, परमात्मा के हाथों के सिवाय यह कला किसी और की नहीं है! उसे हर जगह परमात्मा के हस्ताक्षर दिखाई पड़ेंगे।

पश्चिम के एक बहुत बड़े संत, जैकब बोहमे ने कहा है कि जिस दिन मैंने जाना, उस दिन मैंने उसके हस्ताक्षर पत्ते-पत्ते पर पाए, कण-कण पर पाए। यह सारा जगत उसकी ही लिखी हुई पातियां हैं तुम्हारे लिए। उसी का संदेश आता है हवाओं में। उसी का संदेश आता बादलों की गर्जनों में। उसी का संदेश आता है बिजलियों की तड़फन में। उसी का संदेश आता फूलों में। उसी का संदेश आता मोर के नृत्य में और उसी का संदेश आता कोयल की कुहू-कुहू में।

जो परमात्मा को प्रेम करेगा, उस विराट प्रेम में संसार का प्रेम अपने-आप सम्मिलित हो जाता है। मगर गुणात्मक भेद हो जाता है। संसार से प्रेम नहीं होता, अब तो परमात्मा से ही प्रेम होता है। सृष्टि से प्रेम नहीं होता अब तो स्रष्टा से ही प्रेम होता है। और तब जो-जो व्यर्थ है, जो-जो असार है, वह अपने-आप गिरता जाता है। जैसे तुम रोज अपने घर से कूड़ा-करकट निकालकर बाहर फेंक देते हो, चिल्लाते थोड़े ही फिरते हो कि आज मैंने फिर सारे कूड़ा-करकट का त्याग कर दिया, कि देखो…! छाती थोड़े ही पीटते फिरते हो कि मेरी शोभायात्रा निकालो, कि मैंने कूड़ा-करकट त्याग कर दिया है! लोग तुम्हें पागल समझेंगे ऐसा तुम करोगे तो। कूड़ा-करकट फेंकने के लिए ही है। इसमें त्याग कहां है?

सच्चा संन्यासी कुछ छोड़ता नहीं, यद्यपि बहुत कुछ उससे छूट जाता है। और सच्चा संन्यास संसार-विरोधी नहीं होता; परमात्मा के स्वीकार से जन्मता है।

तुम कहते हो: “मैं वर्षों तक एक विरागी संन्यासी रहा हूं।’ विरागी रहे–संन्यासी नहीं। विराग और संन्यास का मेल नहीं बैठता। जैसे पानी और तेल को न मिला सकोगे, ऐसे ही विराग और संन्यास को नहीं मिलाया जा सकता है। सदियों से चेष्टा की गई है, लेकिन मिलन हो नहीं पाया। हो नहीं सकता। उनका स्वभाव भिन्न है। कहां संन्यासी की मस्ती और कहां विरागी की उदासी, कैसे मेल बिठाओगे?

कहते हो: “लेकिन आपने मुझे प्रभु-राग में डुबा दिया। अब आगे क्या आदेश है?’ अब आगे किसी आदेश की कोई जरूरत नहीं, बस प्रभु-राग में डूबते जाओ। नाव में बैठ गए हो। अब पतवार भी चलाने की जरूरत नहीं है, पाल खोल दो। उसकी हवायें तुम्हें ले चलेंगी। रामकृष्ण ने यही कहा है कि या तो पतवार चलाओ या पाल खोल दो। रामकृष्ण ने कहा: अगर मुझसे पूछते हो तो मैं कहता हूं, पतवार चलाने की झंझट में क्यों पड़ते हो, पाल ही खोल दो! तुम मग्न होकर बैठो, उसकी हवाएं तुम्हें ले चलेंगी।

योगी पतवार चलाता है, भक्त पाल खोलता है। योगी श्रम करता है; सहजऱ्योगी विश्राम में नदी के साथ अपने को छोड़ देता है। और इधर तो हम सरहपा और तिलोपा की बात कर रहे हैं; वे दोनों सहजऱ्योगी हैं। सहजऱ्योग बौद्ध परंपरा में भक्ति-भाव का ही संस्करण है। “भक्ति’ शब्द का उपयोग बौद्ध परंपरा में नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें भगवान को ही मानने की कोई धारणा नहीं है तो भक्ति कैसी? चूंकि भक्ति का कोई उपाय नहीं है लेकिन भक्ति की महिमा को इनकारा भी नहीं जा सकता, इसलिए सहजऱ्योग का जन्म हुआ। सहजऱ्योग वही है बुद्ध भाषा में, जो अन्य भाषाओं में भक्तिऱ्योग है। जरा भी भेद नहीं है।

हंसा उड़े अकास में, पै नहिं छूटयौ शब्द द्वंद्व

मन अरुझायौ ही रह्यौ मानसरोवर-फंद।

 

हम बिराग आकाश में बहुत उड़े दिन-रैन;

पै मन पिय-पग राग में लिपिट रह्यौ बेचैन।

हम सेन्द्रिय, बनिबे चले, निपट निरिन्द्रिय रूप,

इत, मन बोल्यौ: बावरे पिय को रूप अनूप।

 

व्यर्थ भये, असफल भये जोग-साधनाऱ्यत्न,

कौन समेटे धूरि, जब मन में पिय-सो रत्न?

 

कहं धूनी की राख यह? कहं पिय-चरण-पराग?

कहां बापुरी विरति यह? कहां स्नेह, रस राग?

 

प्रिय, हम तैं या देह सौं सधैगौ न वैराग,

फीके-फीके-से लगत सबै जोग-जप-जाग।

 

सदा राउरी अर्चना, संतत राउर ध्यान,

राउर ढिग रहिबौ ललकि, यही हमारी बान।

बस तुम्हारे पास रहे आएं…सदा राउरी अर्चना! तुम्हारे पास रहने में ही प्रार्थना है, पूजा है, अर्चना है। सदा राउरी अर्चना, संतत राउर ध्यान! यही ध्यान है कि तुम दिखाई पड़ते रहो, कि तुम्हारी प्रतीति होती रहे, कि आंखें तुम्हारे रूप से भरी रहें। राउर ढिग रहिबौ ललकि…बस सदा तुम्हारे पास रहें, ऐसी ललक है। यही हमारी बान!

व्यर्थ भये, असफल भये जोग-साधनाऱ्यत्न,

कौन समेटे धूरि, जब मन में पिय-सो रत्न?

सब धूल है, कूड़ा-करकट है। जिसको तुम विराग कहते हो, यत्न कहते हो, प्रयास कहते हो–सब धूल है। प्यारा भीतर बैठा है। उसके प्रेम में पड़ो।

थकित गात, संश्लथ चरण, हिय, मन, प्राण उदास,

अब न नैंक नीकौ लगै, यह प्रवास-आयास।

 

अब तौ यों कछु लगत है, बैठि रहिय वा ठौर,

जहं लखि पिय कौ नेह-घन, नाचि उठै मन मोर।

 

रिम-झिम बरसै नेह-घन, नाचै मत्त मयूर,

ऐसी रहनी रहहु मन, रहहु न पिय तैं दूर।

 

छांड़हु देस-विदेस कौ यह पर्यटन असार,

बैठहु पिय के चरण गहि, करहु सुलोचन चार।

 

विचरहु पिय की डगरिया, बसहु पिया के गांव,

पिय की डयोढ़ी बैठि कैं, रटहु पिया को नांव!

अब डूबो! अच्छा हुआ कि आ गए मेरी भंवर में। अब डूबो!

अब तौ यों कछु लगत है, बैठि रहिय वा ठौर।

जहं लखि पिय कौ, नेह-घन, नाचि उठै मन मोर।

अब नाचो! अब गाओ! अब आनंदमग्न हो उठो!

विचरहु पिय की डगरिया, बसहु पिया के गांव,

पिय की डयोढ़ी बैठि कैं, रटहु पिया कौ नांव!

अब असली संन्यास शुरू हुआ। प्रभु से प्रेम का नाता जुड़ा कि संन्यास हुआ। “संन्यास’ शब्द का अर्थ समझते हो? संन्यास शब्द बनता है: सम्यक न्यास…ठीक-ठीक त्याग। जाहिर है कि कुछ त्याग होता है, जो ठीक नहीं होता। जाहिर है कि कुछ त्याग होता है, जो गलत होता है। कौन-सा त्याग गलत और कौन-सा त्याग ठीक? वह त्याग गलत जो तुम्हें करना पड़े; वह त्याग ठीक, जो हो जाए। वह त्याग गलत, जिसमें चेष्टा हो, प्रयास हो, जबरदस्ती हो, अपने पर हिंसा हो। वह त्याग सम्यक, सही–जो चुपचाप हो जाए, बोध से हो जाए, समझ से हो जाए! वह त्याग गलत, जिसमें दुख हो; वह त्याग सही, जो महासुख के अवतरण से होने लगे।

तुम रोज इस प्रक्रिया से गुजरते हो। अच्छे वस्त्र खरीद लाए, फिर पुराने वस्त्रों का क्या करते हो? त्याग कर देते हो। नया फर्नीचर ले आए, फिर पुराने को बाहर निकाल देते हो। यह तुम रोज कर रहे हो। अगर तुम जीवन की सामान्य व्यवस्था को ही समझ लो तो तुम्हारे हाथ में बड़े से बड़े सत्यों का छोर आ जाए। श्रेष्ठ को ले आओ, निकृष्ट निकाल ही दिया जाता है, अपने-आप! फिर न पीड़ा होती है, न परेशानी होती है। श्रेष्ठ को निमंत्रण दो, उसके निमंत्रण से जो त्याग होता है, वह सम्यक! यही संन्यास का अर्थ है।

तुम पूछते हो: “आगे क्या आदेश है?’ अब प्रेम की पातियां लिखो। अब प्रेम-पत्र भेजो परमात्मा को। अब प्रेम के गीत गाओ।

यही नहीं कि हाथ कंपते हैं, हिय भी कंपता आज,

पूरन कैसे होगा पतिया-लेखन का यह काज?

बड़े जतन से, हिम्मत करके, लिखने बैठा पत्र

पर ना जानूं कैसे यह हो गया आर्द्र सर्वत्र!

हिय धड़के, युग हस्त कंपें, चिट्ठी का ओर न छोर,

थोड़े में समझना बहुत तुम, हे प्राणों की डोर!

मेरे हिय की मंजूषा में नहीं रतन अनमोल,

और नहीं है वहां तरलता की कोई कल्लोल!

फिर भी हूं कर रहा समर्पित श्री चरणों में आज,

इसमें क्या है? तुम मत पूछो, तुम्हें लगेगी लाज!

टूटी सन्दूकची बनी यह, इसमें वंशी एक

कभी-कभी वह रो उठती है करुण-राग की रेख!

भेजो आंसू! भेजो प्रेम! भेजो आनंद! जितना बांट सको अपने को, बांटो। और जितना तुम बांटोगे, उतना परमात्मा करीब आने लगेगा। जितने तुम नाचोगे उतना करीब आने लगेगा। जो मार्ग नाचकर तय हो सके, उसे क्यों उदास होकर तय करना? और उसके मंदिर पर बिना नाचते हुए जाओगे, शोभा होगी? उसके मंदिर पर नाचते ही जाना है। सच तो यह है, जो नाचते जाएगा वही उसके मंदिर को पा सकेगा। उदास गए तो कहीं और पहुंचोगे, उसके मंदिर पर न पहुंचोगे–किसी मरघट में पहुंचोगे, किसी कब्र पर पहुंचोगे। उस पर जीवन के मंदिर पर कैसे पहुंच सकोगे?

फूलों से कुछ सीखो! पक्षियों से कुछ सीखो! वृक्षों से कुछ सीखो! चांदत्तारों से कुछ सीखो! इस सारे अस्तित्व में चल रहा जो प्रतिपल आनंद का उत्सव है, इससे कुछ सीखो! और इस उत्सव में तल्लीन होओ, लवलीन होओ–यही आदेश है।

 

दूसरा प्रश्न:

 

हजारों वर्ष धरती तपश्चर्या करके गर्भ धारण करती है तो कहीं एक बुद्ध का अवतरण होता है। और इस देश में अनंत बुद्ध हो गये। अंतरज्ञान की अपार संपदा इस देश ने खोजी। फिर भी जब आप जैसे बुद्धपुरुष वर्तमान हैं, तो भी इस देश के लोगों को, तथाकथित धर्म-गुरुओं को, तथा शासन में पहुंचे हुए लोगों को आपकी बात समझ में क्यों नहीं आती? भारत पर आपकी कितनी करुणा है, यह आपके ही श्रीमुख से सुनकर मुझे लगता है कि करुणा को भी करुणा आ गई होगी। लेकिन भारतवासियों का हृदय क्यों नहीं पिघलता, कृपा करके समझायें?

 

सा नहीं है कि धर्मगुरुओं को मेरी बात समझ में नहीं आती। समझ में आती है, मगर उनके स्वार्थ के विपरीत है। समझ में न आती होती तो वे मेरा विरोध ही न करते। समझ में तो आती है, मगर वे चाहते नहीं कि समझ में आये।

बहुत बार ऐसा हो जाता है, बात तुम्हारी समझ में आती है, लेकिन तुम्हारे न्यस्त स्वार्थ के विपरीत पड़ती है। अगर बात समझो तो तुम्हें बहुत-सा स्वार्थ तुम्हारे छोड़ना पड़े। उसकी छोड़ने की तुम्हारी तैयारी नहीं है। और कोई सोये को तो जगा सकता है लेकिन जो जागा ही पड़ा है और सोने का अभिनय कर रहा है उसे जगाना बहुत मुश्किल हो जाता है। यह कैसे होगा कि उनको मेरी बात समझ में न आए? क्योंकि मैं वही तो कह रहा हूं जो वेदों ने कहा, उपनिषदों ने कहा। वही तो कह रहा हूं, जो कुरान ने कहा, बाइबिल ने कहा। यह कैसे हो सकता है कि उनकी समझ में न आए?

बात तो उन्हें समझ में आ रही है; यही खतरा हुआ जा रहा है। यहीं झंझट हो रही है। समझ में न आती तो वे मेरी उपेक्षा कर देते। उनको चिंता ही न होती।…होगा कोई पागल! क्या बनता-बिगड़ता था उनका? बात समझ में आ रही है, और यह भी समझ में आ रहा है कि अगर बात को समझा, स्वीकार किया, तो फिर हम अपने न्यस्त स्वार्थों को पकड़े न बैठे रह सकेंगे। लोग अपने स्वार्थ को अपनी समझ से ऊपर बिठाये हुए हैं, यही अड़चन है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी कई दिनों से बीमार चल रही थी। डाक्टर इलाज कर-कर के थक गए थे। सबसे बड़े डाक्टर को बुलाया। उसने कहा कि मैं दुखी हूं नसरुद्दीन, कुछ किया नहीं जा सकता। बीमारी संघातक है। पत्नी तुम्हारी अब दिन-दो-दिन बच जाए तो बहुत। मैं अत्यंत दुखी हूं। कुछ किया नहीं जा सकता।

नसरुद्दीन ने उसकी पीठ ठोंकी और कहा कि नहीं, छी-छी, आप दुखी न हों। अरे जब तीस साल सह लिया तो दो दिन और सह लेंगे।

भीतर बैठे स्वार्थ हैं। स्वार्थों में जब कोई बात पड़ती है जाकर, तो उसके अर्थ भिन्न हो जाते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पांचवीं मंजिल पर खड़ा था। वहां से पान की पिचकारी चला दी, थूक दिया। नीचे किसी भले आदमी के सिर पर उसकी पीक पड़ी। उस भले आदमी ने ऊपर देखा और चिल्लाया कि मुल्ला, आप नीचे देखकर नहीं थूकते?

मुल्ला बोला: आप ऊपर देखकर क्यों नहीं चलते? उस आदमी ने कहा: अगर ऊपर देखकर चलता, तो सिर के बजाय मुंह में गिरती।

अपनी-अपनी फिक्र पड़ी है। अपने-अपने को बचाने की चेष्ठा चल रही है। सिद्धांत इत्यादि तो आड़ हैं। शास्त्र इत्यादि तो बहाने हैं। मनुष्य कहता कुछ है, उसके प्रयोजन कुछ और होते हैं। और आदमी अपने अर्थ की बात निकाल लेने में बड़ा कुशल है। और जो अपने स्वार्थ के विपरीत पड़ती हो, उसे छोड़ देने में भी बड़ा कुशल है।

वीर-रस के एक कवि ने अपने मित्र से–जो नई कविता के कवि थे–कहा: जानते हो, जब मैं मंच पर काव्य-पाठ करता हूं, तो श्रोताओं के रौंगटे खड़े हो जाते हैं! यह तो कुछ भी नहीं–नई कविता वाले कवि बोले–जब मैं कविता-पाठ करता हूं, तो श्रोता स्वयं खड़े हो जाते हैं।

अपना-अपना मतलब होगा। स्वार्थ, निहित स्वार्थ अड़चन डाल रहे हैं। मैं जो कह रहा हूं ऐसा नहीं है कि समझ में नहीं पड़ रहा है। समझ में पड़ रहा है। और वे ही लोग विरोध में हैं, जिनके स्वार्थ के विपरीत बात पड़ रही है। पंडित-पुरोहित, मौलवी होगा ही विरोध में। उसका मंदिर-मस्जिद, उसका पूजा के नाम पर चलता क्रियाकांड, हवन, यज्ञऱ्याज्ञ, अगर मैं सही हूं तो सब गलत है। वही उसकी रोटी है। वही उसकी रोजी है। वही उसका जीवन है। उसके पैर के नीचे से जमीन खिंच जाएगी। उसे बचाना ही होगा अपनी जमीन को।

और ऐसा वह मेरे साथ ही नहीं कर रहा है, यही उसने सदा सभी बुद्धों के साथ किया है। तुम सोचते हो जीसस को सूली देने वाले कोई दुष्ट लोग थे, कोई बुरे लोग थे? नहीं, पंडित-पुरोहित, तथाकथित ज्ञानी…! तुम सोचते हो जिन्होंने सुकरात को जहर पिलाया, वे कोई अपराधी लोग थे? नहीं; समाज के प्रतिष्ठित राजनेता…। क्या कठिनाई थी सुकरात से उनको? यही कठिनाई थी कि सुकरात सत्य बोलता था। और यह सबसे बड़ी कठिनाई है इस जगत में, क्योंकि जिनका धंधा ही असत्य बोलने पर चलता हो, वे सत्य बोलने वाले आदमी को बरदाश्त नहीं कर सकते। सत्य उनके लिए जहर जैसा मालूम होगा।

मेरे एक संन्यासी स्वामी कृष्ण प्रेम कुछ दिन पहले मोरारजी देसाई को मिलकर आये। मोरारजी देसाई ने उनसे कहा कि “तुम्हारे गुरु से कुछ वर्षों पहले मेरा मिलना हुआ था, लेकिन उन्होंने कुछ कठोर शब्द मुझसे कहे।’ मैं सोचने लगा कि कौन-से कठोर शब्द मैंने उनसे कहे! तब मुझे याद आया कि मैंने उनसे कहा था कि जब तक महत्वाकांक्षा है, तब तक जीवन में दुख होगा। और जब तक महत्वाकांक्षा है, तब तक ध्यान संभव नहीं होगा।

उन्होंने पूछा था: ध्यान करना चाहता हूं। मैंने कहा: राजनीति और ध्यान साथ-साथ न चल सकेंगे।

ये कठोर शब्द हो गए! ये कठोर शब्द उन्हें अभी भी कांटे की तरह चुभ रहे हैं। सत्य कठोर मालूम होता है, अगर तुम असत्य से बहुत ज्यादा जुड़े हो। उनको बातें प्यारी लगती हैं…मुक्तानंद ने उनको जाकर कहा कि “धन्यभाग है भारत का! यह देश, धर्म-भूमि, साधुओं की भूमि…और आप जैसा साधु-पुरुष इस देश का प्रधानमंत्री!’ ये मधुर शब्द हैं। ये मैं नहीं कह सकता हूं।

मैंने उनसे कहा था: जब तक राजनीति है मन में तब तक ध्यान न हो सकेगा।

अगर मुझे थोड़ी भी राजनीतिक समझ होती, तो मैं यह बात नहीं कहता। उनसे कहता कि आप तो ध्यानी हैं ही, आपको ध्यान की क्या जरूरत है? तब वह प्रसन्न हो गए होते, उनकी छाती फूल गई होती, वे मेरे विरोध में न होते। लेकिन मैंने वही कह दिया जो सही था।

यह मैं सोच ही नहीं सकता कि महत्वाकांक्षी चित्त और ध्यान कर सकता है। यह असंभव है। महत्वाकांक्षी चित्त कैसे ध्यान कर सकता है? महत्वकांक्षा होती है भविष्य से जुड़ी और ध्यान होता है वर्तमान से जुड़ा। महत्वाकांक्षा का अर्थ है: कल पा कर रहूंगा। और ध्यान का अर्थ होता है: पाने को कुछ है ही नहीं। जो पाने योग्य है, मिला है और जो पानेऱ्योग्य नहीं है, वह नहीं मिला है। महत्वाकांक्षी परितुष्ट हो ही नहीं सकता और ध्यानी को परितुष्ट होना ही पड़ेगा। परितोष की ही पृष्ठभूमि में ध्यान का फूल खिलता है। संतुष्ट जो है, वही ध्यान कर सकता है। संतोष ही ध्यान की भूमिका है।

अब मैंने उनसे सत्य-सत्य कह दिया। कृष्ण प्रेम को उन्होंने कहा कि आपके गुरु ने मुझसे बड़े कठोर शब्द बोले। वर्षों बीत गए…कम-से-कम इस बात को हुए दस साल हो गए, मगर वे कठोर शब्द अभी भी उनको गड़ रहे हैं। मैं तो बहुत सोचकर याद कर पाया कि कौन-से शब्द थे जो कठोर हो सकते हैं। क्योंकि ज्यादा देर बात हुई भी नहीं थी और ध्यान के संबंध में ही बात हुई थी। यही बात उनको चोट कर गई होगी।

राजनीतिज्ञ यह बात नहीं सुन सकता कि महत्वाकांक्षा गलत है, क्योंकि वही तो उसकी आत्मा है। यह तो वह मान ही नहीं सकता कि वह साधु नहीं है; क्योंकि साधु है, इसी प्रचार पर तो वह जीता है। साधु है, यही लोगों को भरोसा दिला-दिलाकर तो वह लोगों का अगुआ बना रहता है।

और मैंने उनसे कहा था कि राजनैतिक व्यक्ति साधु नहीं हो सकता। राजनीति असाधुता की जड़ है। बात कठोर हो गई। बात चोट करनेवाली हो गई। नहीं कि उनकी समझ में नहीं आई, समझ में तो ऐसी आई कि दस साल हो गए अभी भी भूले नहीं। समझ में तो खूब बैठ गई। समझ में तो ऐसी आई है कि मरते समय शायद यही याद रहेगा। समझ में कैसे न आएगा? जिंदगी-भर कचरा-कूड़ा बीनने में गई। और जो मैंने बात कही है, वह उनकी जिंदगी-भर का सार तो प्रगट कर रही है। आखिरी समय में जहां तक संभावना इसी बात की है कि मुझे ही याद करते वे विदा होंगे। वह कठोर जो बात है…। मगर चूंकि मैंने उनके अहंकार को कोई पोषण नहीं दिया…।

और राजनीति में जो लोग हैं, पदों पर जो लोग हैं, वे आदी हो जाते हैं, प्रशंसा के। वे इतने आदी हो जाते हैं कि कोई भी सत्य बात सुनना उनके लिए असंभव हो जाती है। वे उन लोगों से घिरे हैं, जो उनकी प्रशंसा में हर तरह के झूठ गढ़ते हैं। तो लाभ हुआ मुक्तानंद को। मेरे संन्यासी जब भारतीय राजदूतावासों में जाते हैं दुनिया के अलग-अलग देशों में, आज्ञा मांगते हैं कि पूना जाना है, तो राजदूतावास उनसे कहते हैं कि पूना जाने की कोई जरूरत नहीं, तुम मुक्तानंद के आश्रम जाओ। मोरारजी देसाई प्रसन्न हुए, मुक्तानंद ने कहा आप साधु हैं! मुक्तानंद को लाभ हो रहा है कि मोरारजी देसाई के राजदूतावास लोगों को उनके आश्रम में भेज रहे हैं, सुझाव दे रहे हैं। यह पारस्परिक लेन-देन हो गया। लाभ ही लाभ है दोनों का। सत्य बोलना हो तो हानि झेलने को तैयार होना ही होगा। क्योंकि सत्य जिन-जिनके विपरीत पड़ेगा, जो-जो नाराज हो जाएंगे, वे बदला लेंगे। और बदला लोग सीधा नहीं लेते। उतनी निष्ठा और उतनी ईमानदारी भी कहां है? बदला भी परोक्ष लेते हैं। इस ढंग से लेते हैं, जिसका हिसाब नहीं।

अब आज दो वर्षों से मैं चेष्ठा कर रहा हूं एक विस्तीर्ण…संन्यासियों का नगर बन सके। कच्छ के महाराजा ने चार सौ एकड़ जमीन दी है दान। वह पड़ी है। न तो हां भरते हैं, न ना करते हैं। चालबाजी देखो! अगर वे ना करें तो मैं सुप्रीम कोर्ट जा सकता हूं। क्योंकि ना करना गैर-कानूनी होगा। कोई हक नहीं है उन्हें इनकार करने का। चूंकि मैं सुप्रीम कोर्ट न जा सकूं, इसलिए ना भी नहीं करते। और “हां’ तो करनी नहीं है। ये चालबाजियां हैं।

यहां महाराष्ट्र में साढ़े सात सौ एकड़ जमीन खरीदी आश्रम ने। न तो हां भरते, न ना करते। क्योंकि भलीभांति जानते हैं कि ना करना गैर-कानूनी है। और कानून के मामले में फिर जीत न सकेंगे अदालत में। तो इसलिए ना ही मत करो। अब जब तक वे ना न करें, तब तक अदालत में नहीं जाया जा सकता। अदालत पूछती है कि अगर वे ना कर दें, तो ठीक है। हां भी नहीं भरते। टालते रहते हैं–और आठ दिन, और आठ दिन, और महीना भर और दो महीना…ऐसा-वैसा…टालते रहो।

सीधा संघर्ष करने की भी हिम्मत झूठे लोगों में नहीं होती। झूठ हमेशा पीछे से वार करता है, पीठ में छुरा भोंकता है। सामने आने की, आंख चार करने की भी हिम्मत नहीं होती।

और क्या-क्या बहाने लोग खोजते हैं!

कृष्ण प्रेम को मोरारजी देसाई ने कहा कि तुम जो इतने लोग उनसे प्रभावित हो गए हो, उसका कुल कारण इतना है कि उन्होंने तुम्हें सम्मोहित कर लिया है। जो उनके पास जाता है वह सम्मोहित हो जाता है। उनके पास जाना ही नहीं चाहिए।

तो राजनेता मेरे पास आते भी नहीं। मेरे विरोध में बोलते हैं; मेरे पास नहीं आते, क्योंकि भय कि कहीं आंख-से-आंख मिली और कहीं सम्मोहित हो गए! तो यहां आ भी नहीं सकते। क्या-क्या तरकीबें लोग खोज लेते हैं!

ये जो हजारों लोग यहां आ रहे हैं, ये सब सम्मोहित हो गए हैं? जो यहां मेरे पक्ष में है वह सम्मोहित है; और जो मेरे विपक्ष में हैं, वे ठीक हैं। तब तो निर्णय कैसे होगा? तब मैं जो कह रहा हूं वह ठीक है या गलत है, इसका निर्णय कैसे होगा? क्योंकि जो भी मेरे पक्ष में गवाही देगा, वह सम्मोहित है। उसकी बात का तो कोई मूल्य ही नहीं रह गया। और जो मेरे विरोध में बोलेगा वह बुद्धिमान है! और जो मेरे विरोध में बोलता है, वह यहां कभी आया नहीं। ऐसी-ऐसी बातें लोग कहते हैं कि बड़ी हैरानी होती है। न कभी यहां आते, न कभी यहां आकर देखते कि क्या हो रहा है। डर पकड़ा हुआ है, भय पकड़ा हुआ है कि कहीं सम्मोहित न हो जायें! तो सम्मोहन का एक धुआं खड़ा कर लिया। अब सुरक्षा हो गई। आने की जरूरत भी न रही और जो कहना है कहे जाओ। और पद पर हो, इसलिए जो तुम कहते हो वह अखबार भी छापे चले जायेंगे।

नहीं, ऐसा मत समझो कि उनकी समझ में बात नहीं आ रही। इतनी बात तो उनकी समझ में आ रही है कि कुछ हो रहा है यहां। कोई अंगार यहां पैदा हो रही है। कोई आग यहां जल रही है। उससे वे भयभीत हो गए हैं। इस आग को बुझाने की सब तरह से चेष्ठा चल रही है। मगर यह गैरिक आग बुझनेवाली नहीं है। यह वह आग ही नहीं जो बुझ जाए। इसे जितनी बुझाने की कोशिश की जायेगी, उतनी यह भड़केगी, उतनी यह बढ़ेगी। उनके विरोध के कारण बहुत-से लोग आ जाते हैं।

इसलिए मैं चिंता नहीं करता कि मेरे खिलाफ अखबारों में क्या चलता है। चले, खिलाफ भी चले, तो भी ठीक है। कुछ चले…। खिलाफ पढ़कर ही लोग कुछ आ जाते हैं। जो कि शायद न खिलाफ पढ़ा होता तो कभी न आते। और एक मजे की बात है, कि जब बहुत कुछ खिलाफ में पढ़कर आते हैं, तो वे अपेक्षायें करके आते हैं कि इतना-इतना खिलाफ सब देखने मिलेगा। जब उन्हें यहां देखने को कुछ भी नहीं मिलता, वे जो खिलाफ सुनकर आये थे, तो एक रूपांतरण होता है; एक धक्का लगता है कि हम किस तरह की व्यर्थ की बातों को मानते रहे!

नहीं, उससे कुछ हानि नहीं है। समझ में उनके आ रहा है, समझना वे नहीं चाहते हैं। समझना उनके स्वार्थ के विपरीत है। और अपनी भूल तो कभी कोई स्वीकार करता नहीं। जो अपनी भूल स्वीकार कर ले, उसके जीवन में तो धार्मिक क्रांति घट जाती है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी अपनी सहेली से कह रही थी: उन जैसा लापरवाह भी जमाने में शायद ही कोई दूसरा हो! अब यही देखो कि वर्षों मैं इसी चिंता में घुलती रही कि आखिर ये रोजाना सारी-सारी शाम कहां बिताते हैं? वह तो मैं अकस्मात उस दिन शाम को क्लब से जल्दी घर लौट आई, तभी पता चला कि हजरत घर में ही बैठे रहते थे।

अपनी भूल दिखाई ही नहीं पड़ती। और अपनी भूल जिसे नहीं देखनी है, उसे दूसरों की भूल देखते रहने में लगा रहना होता है। दूसरों की भूल में उसे इतनी उत्सुकता लेनी चाहिए, ताकि अपनी भूल देखने का समय ही न बचे। उसे इतने जल्दी दूसरों के विरोध में लग जाना चाहिए कि उसे कभी याद भी न आए कि मेरे भीतर भी कुछ पड़ा है, जिसका विरोध करना है, जिसे तोड़ना है, जिसे गिराना है, जिसे समाप्त करना है, कि मेरे भीतर भी बहुत अंधेरा है, जहां रोशनी जलानी है।

पंडित हैं, पुजारी हैं, उनकी तकलीफ है कि उनका व्यवसाय, उनकी रोजी-रोटी धर्म है। राजनेता हैं, उनकी तकलीफ–कि अहंकार उनके जीवन की आधारशिला है। और जब भी कोई बुद्धपुरुष होगा, तो दोनों पर चोट पड़ेगी। सारे बुद्धों ने अहंकार पर चोट की है। क्योंकि बिना अहंकार के टूटे, तुम्हारे भीतर परमात्मा का आविर्भाव नहीं होगा। इसलिए जो-जो   अहंकारी हैं, वे नाराज होंगे। और सारे बुद्धों ने धर्म के नाम पर चलते क्रियाकांडों का विरोध किया है। क्योंकि धर्म का असली रूप क्रियाकांड का नहीं है, भाव का है। ऊपरी आयोजन से कुछ अर्थ नहीं है। ये ऊपरी आयोजनों के नाम पर अर्थ तो बिलकुल नहीं होता, अर्थी निकल गई है धर्म की। भीतरी भाव की दशा पर जोर होता है। जो भी जागा है वह जोर देगा आंतरिक पर। पंडित-पुजारी नाराज होंगे।

धर्मगुरु और राजनेता, सदा से बुद्धों के विपरीत रहे हैं और सदा विपरीत रहेंगे। इसमें कुछ आज ही ऐसा हो रहा है, ऐसा मत सोचना। यह शाश्वत नियम है। लेकिन कोई सारा देश राजनेताओं और धर्मगुरुओं से नहीं बना है। देश का अधिकांश जन न तो राजनीति में उत्सुक है, न धर्मगुरुओं में उत्सुक है। उस तक ही खबर पहुंचानी है। उसके और मेरे बीच राजनेता और धर्मगुरु खड़े होंगे और खबर नहीं पहुंचने देंगे, लेकिन खबर उस तक ही पहुंचानी है। राजनेताओं और धर्म-गुरुओं की फिक्र छोड़ो। तुम तो इस देश के सामान्य जन तक खबर पहुंचा दो। उसका कोई स्वार्थ नहीं है। और उसके जीवन में बड़ी प्यास है और बड़ी आकांक्षा है। उसके भीतर बड़ी अभीप्सा है। इस देश ने सदियों-सदियों तक परमात्मा को खोजने की अभीप्सा पाली है। वह अब भी जीवित है साधारण जन में। वह जो सामान्य जन है, उसके भीतर अभी भी वह प्यास बुझ नहीं गई है। उसी प्यास के कारण तो पंडित-पुरोहित उसका शोषण कर पाते हैं, नहीं तो शोषण कैसे करेंगे?

अगर कोई आकर तुम्हारे हाथ में नकली चीज पकड़ा जाता है, तो एक बात पक्की है कि तुम्हें असली की तलाश थी। नहीं तो कोई नकली भी कैसे पकड़ाता? नकल चलती है, क्योंकि असल की तलाश है। झूठ चलता है, क्योंकि सत्य की खोज है। मगर प्यास तो निश्चित है; जो पंडित-पुजारी के चक्कर में पड़ा है, वह चक्कर में पड़ता ही क्यों? कोई नास्तिक तो नहीं पड़ता। जिसको ईश्वर से कुछ लेना-देना नहीं है, जिसे धर्म से कुछ प्रयोजन नहीं है, वह तो पंडित-पुरोहित के चक्कर में नहीं पड़ता, लेकिन जो पंडित-पुरोहित के चक्कर में पड़ा है, उसे कुछ लेना है। वह टटोल रहा है, खोज रहा है। उसकी आंखें तलाश कर रही हैं। फिर जो भी उसे मिल जाता है निकट, जो भी कहता है कि ऐसा करने से मिल जाएगा, बेचारा वैसा ही करने लगता है। उस तक मेरी खबर पहुंचाओ। पंडितों की, पुजारियों की फिक्र छोड़ो। उस तक मेरी खबर पहुंचने दो। उस तक खबर पहुंचते ही वह पंडित-पुजारियों के घेरे के बाहर हो जाएगा। यही डर है पंडित-पुजारी को कि उस तक खबर न पहुंच जाये।

इसलिए जितनी गुहार वे मचा सकते हैं मेरे विरोध में, मचायेंगे। मगर उनको पता नहीं है, जीवन के नियमों का उन्हें कुछ पता नहीं है। जितना वे मेरा विरोध करेंगे, उतनी ही खबर पहुंचेगी। वे ही खबर पहुंचा रहे हैं। मैं तो कहीं जाता नहीं। तुम यह चमत्कार देखते हो, मैं अपने कमरे में ही बैठा रहता हूं–और दुनिया में एक देश नहीं है जहां मेरी चर्चा न चल रही हो, विरोध न हो रहा हो, सभाएं न हो रही हों मेरे खिलाफ! अखबारों में लेख लिखे जा रहे हैं। तुमने कभी सुना, ऐसा कोई आदमी अपने कमरे में बैठा रहे और सारी दुनिया में इतना उपद्रव मचता रहे! मैं कमरे से बाहर जाता ही नहीं, तो कौन मेरा काम कर रहा है? पंडित-पुजारी बड़े काम में लगे हैं। उनकी बड़ी कृपा है। वे मानेंगे नहीं, वे पहुंचा ही देंगे खबर लोगों तक।

पिछले दो महीने से जर्मनी में बड़े जोर से मेरा विरोध चल रहा है। शायद ही एक अखबार हो जर्मनी का जिसने मेरे विरोध में नहीं लिखा। लेकिन जब इतने लोग विरोध में लिखते हैं तो कुछ लोग सोचने लगते हैं कि मामला क्या है? आखिर किसी आदमी को, जो न कभी आया यहां न कभी आयेगा, उसकी खिलाफत इतनी क्यों की जा रही है? तो जर्मनी से तलाश करने लोग आने लगे। फिर जो यहां आये, उन्होंने पक्ष में लिखना शुरू कर दिया। सिलसिला शुरू हो गया। अब आने वाले दोत्तीन महीनों में यहां जर्मनी से सर्वाधिक लोग होंगे। रोज जर्मनी से लोग आ रहे हैं, इतना जिसके विरोध में चल रहा है तो जरूर कुछ बात होगी। विरोध करने की ही सही, मगर कुछ बात होगी। उत्सुकता पैदा होती है।

अब मेरे संन्यासी जर्मनी से आ रहे हैं, वे कह रहे हैं कि पहले तो हम बहुत डर गये थे। क्योंकि हम कहीं भी रास्ते पर निकलते थे तो लोग घूर-घूर कर देखते थे कि ये जा रहे हैं! इतना खिलाफत में प्रचार चला कि हम भयभीत होने लगे थे कि क्या होगा! मगर धीरे-धीरे हवा बदल गई है।

मैंने कहा: तुम फिक्र न करो, मैं अपने कमरे में बैठा-बैठा हवा बदलता रहता हूं। तुम चिंता न करो।

अब लोग पास आकर पूछते हैं कि बात क्या है, असली बात क्या है? जिन्होंने कभी नहीं पूछा वे घर भोजन पर निमंत्रित करते हैं कि आओ, जरा बताओ, बात क्या है? कोई किताब पढ़ने को दो। कुछ खबर सुनाओ। हम भी आना चाहते हैं।

नए-नए लोग आना शुरू हुए हैं, जो शायद कभी न आते। और तुम जानते हो, किसने यह सारा आयोजन किया? जर्मनी के प्रोटेस्टेंट चर्च ने यह आयोजन किया। यह सारा विरोध का सिलसिला उन्होंने शुरू करवाया। यहां जासूस भेजे। झूठी कहानियां गढ़वाईं। झूठे वक्तव्य दिलवाये। प्रोटेस्टेंट चर्च को क्या पड़ी थी? स्वभावतः अड़चन होती है। जर्मनी से सैकड़ों युवकऱ्युवतियों ने आकर संन्यास लिया है। और जो संन्यस्त हो जाता है, वह फिर चर्च नहीं जायेगा। चर्च किसलिए जायेगा? उसका तो क्राइस्ट से ही संबंध जुड़ गया, अब उसे क्रिश्चियन होने की जरूरत न रही। तो भय व्याप्त हो गया। घबड़ाहट व्याप्त हो गई।

फिर, जो यहां एक बार आ जाता है, वह जब लौटता है तो दूसरे ही ढंग का आदमी होता है। बहुत-से तो कभी लौटते ही नहीं। तो मां-बाप को फिक्र होती है, सरकारों को फिक्र होती है कि यह हो क्या रहा है? निश्चित ही सम्मोहन चल रहा है। नहीं तो जो लोग गए, वे गए ही, फिर लौटे ही नहीं। सम्मोहन के अतिरिक्त और तो इसका कोई कारण हो ही नहीं सकता। और कुछ उनकी समझ में नहीं आता। यह तो वे मान ही नहीं सकते हैं कि सत्य का भी एक सम्मोहन होता है, कि प्रेम का भी एक सम्मोहन होता है, कि आनंद का भी एक सम्मोहन होता है। यह तो वे मान ही नहीं सकते। वे तो मानते हैं कि कोई जादू-टोना कर दिया गया है लोगों पर…कि लोग उनकी इच्छा के विपरीत जबर्दस्ती रोक लिये गए हैं।

तो फिर जर्मन सरकार ने अपने जासूस भेजने शुरू कर दिये। मगर जल्दी ही सरकारें अपने जासूस भी भेजना बंद करेंगी, क्योंकि जासूसों में से कुछ ने संन्यास ले लिया है। जर्मनी से आए एक प्रोटेस्टेंट पादरी ने संन्यास ले लिया। क्योंकि उसे लगा मैं तो वही कह रहा हूं जो जीसस ने कहा है। आदमी हिम्मतवर था। और अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई है, क्योंकि वह अपने चर्च में मेरे संबंध में बातें कर रहा है, गैरिक वस्त्र पहनकर! अब पूरा उपद्रव खड़ा हो गया है। क्योंकि चर्च के इतिहास में ऐसा कभी किसी ने किया नहीं। इसलिए इसके पक्ष-विपक्ष में कोई नियम नहीं है कि कोई आदमी माला पहनकर किसी की चर्च में बोल सकता है या नहीं, उसे हक है बोलने का या नहीं? गैरिक वस्त्र पहनकर बोल सकता है या नहीं? जर्मनी के चर्च ने उस आदमी को थाइलैंड भेज दिया, वहां से स्थानांतरित कर दिया। मगर वह आदमी खुश है। उसने लिखा है कि मैं बड़ा प्रसन्न हूं, क्योंकि थाइलैंड जाते वक्त फिर पूना रुक सकूंगा। इस बार मेरी पत्नी भी संन्यास लेने आ रही है। और हमें आज्ञा दें कि थाइलैंड में हम आपका क्या काम कर सकते हैं।

घबड़ाओ मत, विरोध से कुछ नुकसान कभी हुआ नहीं है। जो खोज रहे हैं, उन्हें लाभ ही होगा। और जो सामान्यजन है, जिसका कोई स्वार्थ नहीं है, उसका हृदय जल्दी ही आंदोलित होगा। उसके पास हृदय है भी। पंडित-पुजारियों के पास, राजनेताओं के पास हृदय इत्यादि कहां! जरूरत भी नहीं है वहां हृदय इत्यादि की। न हृदय की, न बुद्धि की–इन सब चीजों की वहां जरूरत नहीं है।

मैंने तो सुना है कि एक राजनेता के मस्तिष्क का आपरेशन हुआ। बड़ा आपरेशन था। तो उसकी खोपड़ी में से मस्तिष्क निकालकर सफाई की जा रही थी मस्तिष्क की। राजनेता का मस्तिष्क, सफाई तुम सोच ही सकते हो कि भारी सफाई करनी पड़ेगी! इतनी गंदगी और कहां इकट्ठी होगी? इतनी चोरी-बेईमानी, इतना इरछा-तिरछा-पन…। जब तक चिकित्सक उसके मस्तिष्क की सफाई कर रहे थे, एक आदमी आया और उसने कहा कि आप यहां लेटे क्या कर रहे हैं, आपका तो चुनाव हो गया है, आप तो प्रधानमंत्री बन गए। तो वह नेता तो एकदम से उठ खड़ा हुआ। प्रधानमंत्री कोई बन जाए तो मुर्दा उठ खड़ा हो। वह तो एकदम चला! डाक्टर चिल्लाया कि भाई आप कहां जाते हैं, मस्तिष्क तो लगा देने दें! उसने कहा: अब मुझे मस्तिष्क की क्या जरूरत? अब मैं प्रधानमंत्री हो गया हूं। अब मस्तिष्क तुम रखो।

राजनेता को न तो मस्तिष्क की जरूरत है, न हृदय की। सच तो यह है अगर मस्तिष्क हो, तो राजनेता होता? तो कुछ और सार्थक काम करता–कवि होता, चित्रकार होता, मूर्तिकार होता, संत होता, नर्तक होता, गायक होता; इस जीवन को कुछ सौंदर्य देता; इस जीवन में कुछ काव्य जोड़ता; इस जीवन को कुछ रंग देता। राजनेता होता? हृदय होता, तो कैसे राजनेता हो पाता? तो करुणा होती; प्रेम होता। राजनीति असंभव हो जाती। उनके पास तो हृदय नहीं है।

लेकिन वृहत जन के पास अभी भी हृदय है, अभी भी मस्तिष्क है। उसी तक खबर पहुंचाओ। उस तक खबर पहुंचेगी। कितनी ही बाधाएं हों, उस तक खबर पहुंचेगी। क्योंकि उसकी प्यास है। और जिसकी प्यास है, सरोवर है कहीं तो प्यासा उसे खोजने निकल पड़ता है।

 

तीसरा प्रश्न:

 

आप प्रभु की परम अनुभूति के लिए कभी-कभी शराब जैसा प्रतीक क्यों प्रयोग करते हैं? क्या कोई अच्छा प्रतीक नहीं मिल सकता है?

 

च्छा और बुरा देखने की बात है, नहीं तो शराब से प्यारा प्रतीक और क्या होगा? शराब का अर्थ केवल इतना ही है–मस्ती, विस्मरण, लवलीनता, तल्लीनता। शराब तो सूफियों का बड़ा समादृत प्रतीक है।

उमर खैयाम की रुबाइयात पढ़ी है? उमर खैयाम कोई शराबी नहीं है। उमर खैयाम एक सूफी फकीर है। उमर खैयाम एक परम ज्ञानी है–जैसे सरहपा और जैसे तिलोपा, ऐसा परम ज्ञानी है।

शराब प्रतीक है। और शराब से सुंदर कोई प्रतीक नहीं हो सकता परमात्मा के संबंध में, क्योंकि जो भी उसमें डूबता है सदा के लिए मस्त हो जाता है, अलमस्त हो जाता है। शराब भी और ऐसी शराब कि फिर उतरती नहीं, चढ़ी सो चढ़ी! सिर चढ़कर बोलती है, ऐसी शराब। ऐसी शराब कि बेहोशी ही नहीं लाती, बड़ी विरोधाभासी है–एक तरफ बेहोशी लाती है, एक तरफ होश लाती है। अहंकार तो बेहोश हो जाता है और आत्मा जग जाती है।

नहीं, बनेगा नहीं। शराब का प्रतीक तो लाना ही होगा।

हरचंद हो मुशाहद-ए-हक की गुफ्तगू।

बनती नहीं है, बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर।।

लाख तत्व-चर्चा करो, मगर बनती नहीं है, बात बनती नहीं है। हरचंद हो मुशाहद-ए-हक की गुफ्तगू…कितनी ही ईश्वरीय चर्चा करो, जब तक शराब की मादकता, शराब की सुराही और साकी की बात न आ जाए, बात बनती नहीं है। कुछ रूखा-रूखा रह जाता है, कुछ सूखा-सूखा रह जाता है।

हरचंद हो मुशाहद-ए-हक की गुफ्तगू।

बनती नहीं है, बादा-ओ-सागर कहे बग़ैर।।

सागर तो मधुघट। शराब–मदमस्ती! भक्त–पियक्कड़! साकी–वही परमात्मा पिलानेवाला। लेकिन तुम्हारे मन में शराब का साधारण अर्थ बैठ गया है। साधारण अर्थ अगर तुम्हारे भीतर बैठा है तो तुम्हारा कसूर है। शराब जैसे प्यारे शब्द को वहीं समाप्त मत हो जाने दो, उसे ऊपर उठाओ, उसे मुक्त करो। उसे शराबियों के हाथ से छुड़ाओ, उसे सूफियों के हाथ में दो।

प्यारे-से-प्यारे शब्द की दुर्गति हो सकती है गलत हाथों में और गलत-से-गलत शब्द की सुगति हो सकती है ठीक हाथों में–हाथों की बात है।

अनगढ़-से-अनगढ़ पत्थर ठीक कलाकार के हाथ में पड़ जाए तो सुंदरतम मूर्ति बन जाता है।

ऐसा हुआ कि माइकल एंजिलो एक संगमरमर के पत्थर की दुकान के पास से गुजरता था। उसने दुकान के बाहर दूर सड़क के उस तरफ संगमरमर की एक बड़ी चट्टान पड़ी देखी। उसने दुकानदार से कहा कि इस चट्टान के कितने दाम होंगे? दुकानदार ने कहा: दाम! उसे कोई खरीदता नहीं–इतनी आड़ी-तिरछी, इतनी बेढंगी कि कोई मूर्तिकार उसे खरीदता नहीं। इसलिए मैंने उसे सड़क के उस तरफ डाल दिया है। तुम दाम की पूछो ही मत। अगर तुम ले जा सकते हो अपने खर्चे से उठाकर तो तुम ले जाओ। मेरा छुटकारा हो, मेरी जगह खाली हो।

माइकल एंजिलो उस पत्थर को उठवा ले गया। दो वर्ष बाद उसने दुकानदार को कहा कि आओ घर, चाय भी पीना, नाश्ता भी करना और कुछ तुम्हें दिखाना है। वह दुकानदार तो भूल ही गया था उस पत्थर की बात। चाय पिलाने के बाद जब माइकल एंजिलो उसे ले गया अपने स्टूडियो में और उसने जीसस की प्रतिमा दिखाई…मरियम ने, जीसस की मां ने, जब जीसस को सूली से उतारा गया तो अपनी गोद में लिया हुआ है–ऐसी प्रतिमा उसने बनाई, मरियम और जीसस गोद में! कहते हैं माइकल एंजिलो की यह प्रतिमा उसकी सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा है। और उसकी ही नहीं, शायद पृथ्वी पर इतनी सुंदर प्रतिमा खोजनी दूसरी मुश्किल है। भाव-विभोर हो गया वह दुकानदार। पारखी था वह भी। काम ही उसका संगमरमर बेचना था चित्रकारों, मूर्तिकारों को। उसने कहा: यह पत्थर तुमने कहां से पाया? माइकल एंजिलो हंसने लगा, उसने कहा: तुम्हें याद नहीं, दो साल पहले तुम्हारी दुकान के बाहर तुमने एक पत्थर फेंक दिया था, यह वही पत्थर है! वह दुकानदार तो भरोसा न कर सका। उसने कहा कि तुम इस पत्थर को ऐसा रूप दे दिए हो, यह पत्थर जीवित हो उठा! यह तुम्हें कैसे खयाल आया?

माइकल एंजिलो ने कहा: मुझे खयाल नहीं आया, मैं जब तुम्हारी दुकान के सामने से गुजरता था तो इस पत्थर में छिपे जीसस ने मुझे आवाज दी कि मुझे मुक्त करो, मैं इस पत्थर में बंद पड़ा हूं। वही आवाज सुनकर यह पत्थर मैं उठा लाया था। जो व्यर्थ था वह काटकर अलग कर दिया है, जीसस मुक्त हो गए हैं।

यही प्रतिमा, तुम्हें याद होगा, कोई डेढ़ साल पहले वेटिकन के चर्च में एक पागल आदमी ने हथौड़े से तोड़ दी, यही प्रतिमा थी! सुंदरतम प्रतिमा भग्न कर दी गई। इस दुनिया में लोग हैं, जो पत्थरों को प्रतिमाएं बना देते हैं; इस दुनिया में लोग हैं, जो प्रतिमाओं को भग्न कर देते हैं, यहां सृजनात्मक लोग हैं, यहां विध्वंसात्मक लोग हैं।

मैं तो जीवन में जो है, उस सबको एक रूप देना चाहता हूं, मेरे लिए शराब शब्द में कोई बुराई नहीं है। अंगूरों से ढलती है शराब, आत्माओं से भी ढलती है। एक शराब बाहर की भी है, एक भीतर की भी है। और सच पूछो तो भीतर की शराब की जो खोज कर रहे हैं वे ही बाहर की शराब के चक्कर में पड़ जाते हैं। भीतर जाना तो कठिन, बाहर सस्ती मिल जाती है। लेकिन मेरी अपनी समझ, और मेरी ही समझ नहीं, आधुनिक मनोविज्ञान इसके समर्थन में है कि जो भी लोग शराब पीते हैं उनके भीतर कोई धार्मिक तलाश है। क्यों? क्यों वे शराब पीने लगते हैं? वे अपने अहंकार को विसर्जित करना चाहते हैं, लेकिन उपाय नहीं खोज पाते; शराब उनको थोड़ी देर के लिए अहंकार को विस्मरण करने का बहाना बन जाती है; थोड़ी देर को अहंकार भूल जाता है, चिंता भूल जाती है, विषाद भूल जाता है; जगत भूल जाता है; थोड़ी देर को वे दूसरे जगत में लीन हो जाते हैं।

यह तो तुम्हें पता ही है कि साधु-संन्यासी सदियों से गांजा, भंग, शराब का उपयोग करते रहे हैं। क्यों? साधु-संन्यासी क्यों? तलाश है! इस अहंकार से कैसे छुटकारा हो?

असली छुटकारा तो ध्यान से होगा, समाधि से होगा। मगर समाधि साधना तो लंबी प्रक्रिया है। मिले कोई गुरु, जगाए कोई गुरु, पुकारे कोई गुरु तुम्हारी नींद से–तो होगा। लेकिन शराब सस्ती मिल जाती है, गांजा आसानी से मिल जाता है। बाहर की शराब भीतर की शराब की तलाश में ही पकड़ में आ जाती है। और अगर दुनिया को बाहर की शराब से मुक्त करवाना है तो एक ही उपाय है: भीतर की शराब बहाओ, भीतर की मधुशालाएं खोलो।

यह भी एक मधुशाला है–भीतर की मधुशाला। बाहर की शराब से छूट ही नहीं सकते तुम, जब तक कि तुम्हें भीतर की असली शराब न मिल जाए।

मैकशों ने पी के तोड़े जामे-मै।

हाय वोह साग़र जो रक्खे रह गये।।

लेकिन बहुत हैं यहां, जिनके भीतर भरी हुई सुराहियां रखी थीं शराब की, वैसी ही रखी रह गईं। उन्होंने कभी न पी, न पिलाई। ऐसे ही आए ऐसे ही गए।

इन तल्ख़ आंसुओं को न यूं मुंह बना के पी

ये मै है खुद कशीद इसे मुस्करा के पी

उतरेंगे किसके हल्क से यह दिल ख़राश घूंट

किसको पयाम दूं कि मेरे साथ आ के पी

बुला रहा हूं लोगों को कि यहां एक मधुशाला खोली है, आओ–मेरे साथ बैठो और पीयो। शराब तल्ख़ होती है–बाहर की भी और भीतर की भी। पीते वक्त कड़वी मालूम होती है। सत्य कड़वा मालूम होता है पीते समय; कंठ से नहीं उतरता; तुम्हारे सारे व्यक्तित्व के विपरीत होता है। तुम तो मीठे झूठ पीने के आदी हो गए हो।

इन तल्ख़ आंसुओं को न यूं मुंह बना के पी

ये मै है खुद कशीद इसे मुस्करा के पी

उतरेंगे किसके हल्क से यह दिल ख़राश घूंट

किसको पयाम दूं कि मेरे साथ आ के पी

हिम्मत चाहिए, क्योंकि तल्ख़ हैं ये घूंट, कड़वे हैं ये घूंट, सत्य के हैं ये घूंट। थोड़े हिम्मतवर ही पी सकेंगे। हां, एक बार पी लेंगे और एक बार स्वाद लग जाएगा तो फिर सारी तल्खी भूल जायेंगे। फिर पीते-पीते एक माधुर्य का आविर्भाव होता है, अनुभव से होता है।

नहीं, मेरे लिए शराब के प्रतीक में जरा भी कुछ खराबी नहीं है। मुझे तो यह शब्द बड़ा प्यारा है। मैं पियक्कड़ हूं और तुम्हें भी पियक्कड़ ही बनाना चाहता हूं: और मैं तुम्हें ऐसी शराब देना चाहता हूं जिस पर कोई पाबंदी नहीं हो सकती, जिस पर कभी कोई पाबंदी नहीं होगी। और मैं तुमसे यह भी कहना चाहता हूं कि जो शराब मैं तुम्हें पिला रहा हूं अगर न पी तो बाहर की पाबंदियां तोड़कर भी तुम बाहर की शराब पीते ही रहोगे, चोरी-चपाटी से पीयोगे, खुले न पी सकोगे। खुले आम न पी सकोगे तो बहानों से पीयोगे। कुछ न कुछ रास्ते खोजते रहोगे।

और मजा यह है कि यहां शराब पीने वाले ही शराब पीने वाले नहीं हैं बाहर–कोई धन की शराब पी रहा है! तुमने देखा न धन-मद, कैसी अकड़, कैसी मस्ती!

मुल्ला नसरुद्दीन अपने जवान बेटे के साथ बरसात के दिन एक नाले को पार करता था, एकदम छलांग लगा गया– बुङ्ढा छलांग मारकर उस तरफ पहुंच गया। बेटे ने भी देखा कि जब बाप छलांग मार गया तो अब इज्जत की बात थी, जवान होकर वह छलांग न मारे! उसने भी छलांग मारी, मगर बीच नाले में गिरा। उठकर उसने पूछा कि मेरी कुछ समझ में नहीं आता, आप बूढ़े हो गए और छलांग मार गए! नसरुद्दीन हंसने लगा, उसने कहा: इसका राज है। उसने खीसा बजाकर कलदार खनखनाए। बेटे ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं। उसने कहा: बस पैसा पास में हो तो आदमी में गर्मी होती है, जवानी होती है, सब होता है। अब तेरी जेब खाली है, गिरे बीच में। मैं तो गिर ही नहीं सकता बीच में, क्योंकि नोट, रुपये भीग जाएं।

तुमने देखा, जब तुम्हारी जेब भरी भरी होती है तो पैरों में चाल होती है, गर्मी होती है, बल होता है। जब नोट नहीं पास, बस एकदम प्राण निकल जाते हैं, आत्मा खो जाती है, चलते मुर्दे जैसे।

धन का भी मद है। धन की बड़ी अकड़ है! पद की भी बड़ी अकड़ है। पद का भी बड़ा मद है! ये भी सब शराबें हैं। ये जरा सूक्ष्म शराबें हैं, मगर सब शराबें हैं।

इस दुनिया में या तो तुम्हें बाहर की शराब पीनी पड़ेगी और या भीतर की पीनी पड़ेगी, बचाव नहीं है। और अगर बाहर से बचना हो तो भीतर की पी लो। परमात्मा को पीयो, फिर बाहर कुछ पीने जैसा नहीं रह जाता। फिर सब बेस्वाद है बाहर, सब फीका-फीका है।

मेरा चंचल मन आता है

तेरे रोम-रोम को छू-छू!

इन्द्रिय का व्यापार नहीं है,

तन का भी अभिसार नहीं है!

मेरा कोकिल मन करता है

तेरे प्राण-प्राण में कू-कू!

सभी चाहते इसे पकड़ना;

इस पर अपना कब्जा करना!

मेरा रसमय मन जागा है

तेरे अंग-अंग से चू-चू!

जोड़ो परमात्मा से अपना संबंध, तो उसका संगीत तुमसे बहे, उसका रस तुमसे बहे। रसो वै सः! वह परमात्मा रस-रूप है।

उसी परमात्मा के रस-रूप की चर्चा वेदों ने सोमरस की तरह की है। सोमरस कोई गांजा-भांग का निचोड़ नहीं है। सोमरस कोई पुराने जमाने का एल. एस. डी. और मारिजुआना नहीं है। सोमरस वही शराब है, जिसकी मैं तुमसे चर्चा कर रहा हूं। वैज्ञानिक बड़ी खोज में रहे हैं कि यह सोमरस की जड़ी-बूटी कहां मिले, क्योंकि वेदों ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है! वेद तो उसकी स्तुति से भरे हैं। उसको देवता कहा है: सोम-देवता। और कहा है: जिसने सोमरस पी लिया उसने सब जान लिया। तो स्वभावतः सवाल उठता है कि सोमरस की जड़ी-बूटी है कहां? तो खोजबीन चलती रही है, हिमालय पर न मालूम कितने वैज्ञानिक खोज करने आए हैं। अब तक हाथ नहीं लगी है। कुछ को तो कुछ-कुछ हाथ लग गया, उन्होंने वही सिद्ध करना शुरू कर दिया कि यही सोमरस है।

सोमरस उसी शराब का नाम है, जिसकी मैं बात कर रहा हूं–बाहर की किसी जड़ी-बूटी से नहीं मिलता, आत्मा में निचुड़ता है।

मेरा चंचल मन आता है

तेरे रोम-रोम को छू-छू!

मेरा कोकिल मन करता है

तेरे प्राण-प्राण में कू-कू!

मेरा रसमय मन जागा है

तेरे अंग-अंग से चू-चू!

बुझेगी नहीं तुम्हारी प्यास, अगर तुमने शराब न पी–शराब मेरी, शराब बुद्धों की, शराब कृष्ण की और क्राइस्ट की!

बहुत दिन तक करके विश्वास,

बहुत दिन तक करके उपहास,

बहुत दिन रह करके दूर, बहुत दिन तक रह करके पास!

बुझ सकी नहीं हृदय की प्यास!

 

बहुत दिन किया किसी को प्यार,

बहुत दिन मन पर कर अधिकार,

बहुत दिन तक करके शृंगार, बहुत दिन तक लेकर संन्यास!

बुझ सकी नहीं हृदय की प्यास!

 

बहुत दिन नीड़ों का निर्माण

बहुत दिन प्राणों का अवसान,

बहुत दिन तक पायी है भूमि, बहुत दिन पाया है आकाश!

बुझ सकी नहीं हृदय की प्यास!

बुझेगी भी नहीं! किसी मधुशाला का अंग होना पड़ेगा। किसी सत्संग में डुबकी लगानी पड़ेगी। जो पीकर मस्त हो, उसके हाथ में हाथ दे देना होगा। उस प्रक्रिया का नाम ही शिष्यत्व है। शिष्यत्व है–गुरु के पात्र से उसे पीना, जो अभी तुम्हारे पात्र में नहीं है, जल्दी ही तुम भी योग्य हो जाओगे। शिष्यत्व का अर्थ है–अभी तुम्हें चलना नहीं आता, किसी का हाथ पकड़कर चार कदम चल लेना, जल्दी ही तुम योग्य हो जाओगे, तुम्हारे पैर खुद चलने लगेंगे। मैं तुमसे कहता हूं तुम्हारे भीतर मधुघट, मधुकलश भरा रखा है।

जब से तू इन गीतों में साकार हुआ है।

मुझ को अपने गीतों से कुछ प्यार हुआ है।

 

मेरा जीवन निशा, और तू स्वप्न सुनहला!

निशि का सपने से ही तो शृंगार हुआ है।

मुझ को अपने गीतों से कुछ प्यार हुआ है!

 

दीप सराहे विश्व, सराहूं नेह सदा मैं–

जो दीपक के जलने का आधार हुआ है।

मुझ को अपने गीतों से कुछ प्यार हुआ है!

 

गाती हूं मैं गीत, रागिनी है प्रिय तू ही।

स्वर बिन साथी कौन यहां स्वरकार हुआ है।

मुझ को अपने गीतों से कुछ प्यार हुआ है!

 

उस अज्ञात शक्ति को क्या कह प्राण पुकारे।

जिस से तप्त हृदय में मधु-संचार हुआ है।

मुझ को अपने गीतों से कुछ प्यार हुआ है!

 

चित्रकार तू, छवि तेरी, मैं एक तूलिका।

किस से चित्रित यह तेरा संसार हुआ है।

मुझ को अपने गीतों से कुछ प्यार हुआ है!

 

जब से तू इन गीतों में साकार हुआ है।

मुझ को अपने गीतों से कुछ प्यार हुआ है!

क्या कहकर पुकारें हम उसे?

उस अज्ञात शक्ति को क्या कह प्राण पुकारे।

जिस से तप्त हृदय में मधु-संचार हुआ है।

मुझ को अपने गीतों से कुछ प्यार हुआ है!

उसे तो मधु ही कहना होगा। उसे तो सोमरस ही कहना होगा। वह तो शराब है। नहीं, इससे प्यारा न कोई शब्द है न हो सकता है।

 

चौथा प्रश्न:

 

मैं अत्यंत दुखी हूं। मेरी पत्नी की जब से मृत्यु हुई है, मेरे दुख का अंत नहीं है। आपके पास सांत्वना पाने आया हूं।

 

फिर तुम गलत जगह आ गए। सांत्वना यहां मैं किसी को देता नहीं। सत्य लेना हो तो ले लो, सांत्वना न मांगो। सब सांत्वनाएं झूठी हैं। सब सांत्वनाएं घाव की मलहम-पट्टी हैं, घाव का भरना नहीं।

यहां आए हो तो अच्छा हो कि घाव की मवाद बह जाने दो। अच्छा हो कि घाव खोल दो, खुली हवा और सूरज की रोशनी पड़ने दो। अच्छा हो कि घाव को छिपाओ मत, क्योंकि छिपे घाव भरते नहीं हैं। घाव को प्रगट कर दो, ताकि भर जाए।

तुम कहते हो: मैं अत्यंत दुखी हूं। तो रोओ, बहने दो घाव को, तो खोलो घाव को! घबड़ाते क्यों हो? सुख पाया था पत्नी से, तो दुख कोई और पाएगा? सुख तुमने पाया, तब तुम नहीं आए कि बड़ा सुख पा रहा हूं, थोड़ा आप भी ले लें। अब तुम्हें दुख मिला, अब तुम सांत्वना लेने आ गए!

जो सुख पाएगा वह दुख भी पाएगा; वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जैसे सुख को स्वीकार किया था वैसे दुख को स्वीकार कर लो। जैसे सुख को झेलते वक्त बेचैन न हुए थे, ऐसे ही दुख को झेलते वक्त भी बेचैन न होओ।

सुख के भी साक्षी बनो, दुख के भी साक्षी बनो।

तुम कहते हो: मेरी पत्नी की जब से मृत्यु हुई, मेरे दुख का अंत नहीं है।

पत्नी के लिए रो रहे हो, अपने लिए कब रोओगे? पत्नी की मृत्यु हो गई, क्या तुम सोचते हो तुम सदा जिंदा रहोगे? अब रोने में समय न गंवाओ। कहीं ऐसा न हो कि रोते ही रोते समाप्त हो जाओ और फिर दूसरों को सांत्वना की तलाश करनी पड़े।

सत्य है मृत्यु। उसे जानो, पहचानो। अभी जो पत्नी जिंदा थी, अभी-अभी जागती थी, बोलती थी, चलती-फिरती थी, अभी-अभी गिर गयी–और तुम्हीं चढ़ा आए उसे चिता पर! ज्यादा देर नहीं है, तुम्हें भी दूसरे लोग चढ़ा आएंगे। पत्नी को चिता पर जलते देखकर अपने को जलता हुआ देखो। पत्नी की मृत्यु में अपनी मृत्यु देखो। जब भी कोई अर्थी निकले द्वार से, गौर से देख लेना, तुम्हारी ही अर्थी है। हर मृत्यु में अपनी ही मृत्यु का संकेत पाओ।

सांत्वना मत खोजो। सांत्वना तो झूठी बात है। तुम सोचते होओगे कि मैं कहूं कि मत घबड़ाओ।

अभी कुछ दिन पहले हुआ, सुप्रीम कोर्ट के जज…कोई सोचता है सुप्रीम कोर्ट का जज हो तो कुछ बुद्धिमान होगा; पर नहीं, आदमी तो सब आदमी हैं। पत्नी मर गई है! रो रहे हैं, परेशान हैं। कहते हैं चित्त को शांति नहीं है, सांत्वना लेने आए हैं। तो मैंने पूछा कि मैं क्या करूं जिससे आपको सांत्वना मिले। तो उन्होंने कहा: बस मुझे इतना भरोसा दिला दें कि अगले जन्म में कभी उससे मिलना होगा।

क्या-क्या पागलपन की बातें कर रहे हो? या कोई ऐसा उपाय कर दें, प्लेनचिट या कोई, कि इसी जन्म में कम-से-कम उससे बात हो जाए।

मैंने कहा: तुम तीस साल साथ-साथ रहे, बातचीत कुछ बची करने को? नहीं, कहने लगे, ऐसे तो कुछ बातचीत…। तीस साल साथ-साथ रहे, बात करने को और क्या रह गई है? तीस साल में पूरी नहीं हुई तो प्लेनचिट पर कैसे पूरी हो पाएगी? इस जन्म में साथ रह लिए, क्या पाया? अगले जन्म में भी साथ रहना है? इस जन्म में कुछ नहीं पाया, अगला जन्म भी गंवाना है?

वे तो बहुत चौंके, क्योंकि वे आए थे सांत्वना लेने। दिल्ली से कोई आए सांत्वना लेने…। लेकिन मैं सांत्वना दे ही नहीं सकता। मैं सत्य दे सकता हूं। मैंने उनसे कहा: समझो! तीस साल साथ रहकर गंवाए, अब पत्नी जा चुकी है, अब अकेले में गंवा रहे हो। गंवाते ही रहोगे? उम्र आ गई, अब तो थोड़ा चौंको। पत्नी की मृत्यु से आघात लगा है, इसका सदुपयोग कर लो। इस चोट को क्रांति बना लो। यह चुनौती है।

सांत्वना मत खोजो, मलहम-पट्टियां मत खोजो। यह सत्य है, जो प्रगट हुआ है कि यहां हर जीवन के पीछे मृत्यु छिपी है कि यह जीवन सच्चा जीवन नहीं है; उस जीवन की हम तलाश करें जो कभी समाप्त न होता हो। और उस प्रेमी को खोजो, जिससे मिले तो मिले। पत्नियां तो मिलेंगी और बिछुड़ेंगी, पति मिलेंगे और बिछुड़ेंगे।

मैंने उनसे पूछा: कि तुम अगले जन्म में मिलने की पूछ रहे हो, एक बात तुमसे पूछूं? पिछले जनम में भी तुम्हारी कोई पत्नी रही होगी, उसकी याद आती है?

वे कहने लगे: कोई याद नहीं आती। मैंने कहा: उसके पिछले जनम में? न मालूम कितने जनम हुए होंगे तुम्हारे, उन सारे जन्मों में न मालूम कितनी पत्नियां हुई होंगी। उन सब में से किसी की याद आती है?

उन्होंने कहा कि नहीं, किसी की याद नहीं आती। मुझे याद ही नहीं है पिछले जन्मों की।

तो मैंने कहा: अगले जनम में भी तुम्हें इस जनम की याद नहीं रह जाएगी। पत्नी मिल भी जाएगी तो पहचानोगे नहीं। क्यों फिजूल की बातों में पड़े हो? होश सम्हालो! इतनी बड़ी चोट खाई, इस चोट का कोई सदुपयोग कर लो, कोई सृजनात्मक उपयोग कर लो।

भोर हो गई, मलय-पवन का

आंचल फिर लहराया!

झोंका आया, दीप बुझ गया;

नया फूल मुसकाया!

समय-समय की बात,

किसी की भोर, किसी की संध्या;

समय किसी को मरण,

किसी को जीवन बन कर आया!

 

दीपक और फूल से सीखो

कब बुझना, कब खिलना!

मिट्टी में या सूर्य-किरण में

कब दोनों को मिलना!

दिग्गज को दहलाने वाला

कम्प छिपाए उर में–

धरती से सीखो मलयज में

पल्लव-दल-सा हिलना!

किंतु न आसन से हिलते हम,

हिल जाते सिंहासन!

कभी रुधिर के फागुन आते,

अग्नि-वृष्टि के सावन!

खंभ फोड़ नरसिंह निकलते,

पूछा करते हमसे–

समय मनुज का वाहन है या

मनुज समय का वाहन?

 

माना, शस्य उगाने में

लगते बारह पखवारे;

खेत एक दिन कट जाता,

पर हाथ नहीं हत्यारे!

कभी अगाई, कभी पिछाई

हर खेती कटती है!

बरसा कर या तरसा कर,

हर घिरी घटा हटती है!

सिवा समय के, और सभी के

खेल खत्म हो जाते–

हर युग का दिन ढलता

रजनी जाती, पौ फटती है!

जरा समझो! यह तो क्रम है जीवन का–जो जन्मा, मरेगा; जो उगा, डूबेगा; जो बना, मिटेगा।

सिवा समय के, और सभी के

खेल खत्म हो जाते–

हर युग का दिन ढलता

रजनी जाती, पौ फटती है!

लेकिन नहीं, हम सांत्वना की तलाश करते हैं! मैं तुमसे कह दूं: “घबड़ाओ मत, मिलन होगा, निश्चित मिलन होगा, अगले जनम में होगा। फिर वही तुम्हारी पत्नी होगी। फिर तुम उसके पति होओगे।’ बस कुछ लाभ होगा इससे? ऐसा मानकर चलने से कुछ हल होगा? हां, घाव ढक जाएगा और मौत ने जो एक असवर दिया था चूक जाएगा।

जब भी कोई प्रियजन मरे तो यह ध्यान की घड़ी है। जब भी कोई प्रियजन जाए तो तुम्हारे भीतर से इतना टूट जाता है कुछ कि इस मौके पर अगर तुम जागो तो जाग सकते हो। चोट में ही कोई जागता है। सुख में तो कोई जागता नहीं। सुख में तो आदमी और चादर फैलाकर सो जाता है। दुख में ही कोई जागता है।

इसलिए दुख सुख से ज्यादा बड़ा अवसर है। सुख में तो लोग भूल ही जाते हैं परमात्मा को, दुख में ही याद करते हैं। शायद दुख के कारण ही तुम यहां आ गए। पत्नी न मरती तो शायद तुम अभी यहां आते भी नहीं। पत्नी मर गई है तो तुम यहां आ गए। सोचा होगा कि चलो सांत्वना मिल जाए। लेकिन नहीं, मैं तुम्हें और विचलित करना चाहता हूं।

किन्तु न आसन से हिलते हम,

हिल जाते सिंहासन!

…हम ऐसे लोग हैं! अब तुम्हारा सिंहासन हिल गया; पत्नी तुम्हारे जीवन का आधार रही होगी, तब तो इतना दुख है, तुम्हारी भूमि पैर के नीचे से खिसक गई, मगर तुम किसी तरह अपना आसन जमाए रखना चाहते हो। उसी को तुम सांत्वना मान रहे हो। मैं तुम्हें किसी तरह पीठ ठोंककर कह दूं, सब ठीक है, घबड़ाओ मत, पत्नी मरी नहीं, आत्मा तो अमर है! कि मैं तुम्हें कहूं कि बिलकुल मत घबड़ाओ, तुम्हारी पत्नी स्वर्ग पहुंच गई है! देवी हुई है! और तुम प्रसन्न हो जाओगे? बस इतने से? बस इन शब्दों से तुम्हें तृप्ति मिल जाएगी?

नहीं, तृप्ति तो नहीं मिलेगी। तुम्हें मैंने जहर दे दिया। तुम सो जाओगे फिर चादर ओढ़कर। तुम कहोगे: “अच्छा ही हुआ, पत्नी स्वर्ग में देवी हो गई। बहुत अच्छा हुआ!’ तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलेगी–“होगी क्यों न, आखिर मेरी पत्नी थी।’ तुम देवता, वह देवी! होना ही था। स्वर्ग में उसका सम्मान हो रहा है, तुम निश्चिंत रहो। तुम जब पहुंचोगे, वह तैयारी रखेगी सब?

क्या चाहते हो सांत्वना में? कुछ झूठ चाहते हो। कुछ झूठ, जो प्यारा हो, मधुर हो, मीठा हो। नहीं लेकिन, मैं सांत्वना देता ही नहीं। मैं तो सांत्वना तुम्हें कुछ मिली हो तो छीन लेता हूं। क्योंकि मैं तुम्हें संक्राति देना चाहता हूं। सांत्वना नहीं।

भोर हो गई, मलय-पवन का

आंचल फिर लहराया!

झोंका आया, दीप बुझ गया;

नया फूल मुसकाया!

खेल तो यह चल ही रहा है। इधर कली खिली, उधर फूल गिरा। इधर कोई दीप जला, उधर कोई दीप बुझा।

समय-समय की बात,

किसी की भोर, किसी की संध्या;

समय किसी को मरण,

किसी को जीवन बनकर आया!

तो सीखो कुछ!

दीपक और फूल से सीखो!

कब बुझना, कब खिलना!

मिट्टी में या सूर्य-किरण में

कब दोनों को मिलना।

जल्दी ही तुम्हारी घड़ी भी आती होगी। हम सब कतार में खड़े हैं, पंक्ति में खड़े हैं, क्यू लगा है। आगे से लोग गिरते जा रहे हैं, तुम करीब आते जा रहे हो, प्रतिपल करीब आते जा रहे हो। तुम्हारी मौत रोज-रोज पास सरकती आती है।

तुम्हारी पत्नी तुम्हें याद दिला गई है कि हम मृत्यु की पंक्ति में खड़े हैं। और चूंकि तुमने पत्नी को चाहा था, पत्नी को प्रेम किया था, इसलिए घाव छूट गया है। यह घाव भर मत लेना, झुठला मत लेना, क्योंकि यह घाव एक अपूर्व चुनौती है; इसीसे व्यक्ति धार्मिक होता है। अगर मृत्यु न होती दुनिया में तो लोगों ने शायद परमात्मा को कभी खोजा ही न होता। अगर मृत्यु न होती दुनिया में और दुख न होते दुनिया में, तो मंदिर न होते, मस्जिद न होती, गिरजे-गुरुद्वारे न होते। अगर मृत्यु न होती तो कौन अमृत की बात सोचता? कौन विचार करता, कौन ध्यान करता, कौन समाधिस्थ होता?

यह मृत्यु है, यह मृत्यु की अनुकंपा है कि तुम पर चोट करती है, कि तुम्हें सोने नहीं देती, कि तुम लाख उपाय सोने के करो कि तुम्हें जगा-जगा जाती है। मौत तो एक अलार्म है। लेकिन तुम मुझसे कह रहे हो कि मेरी पीठ थोड़ी थपथपा दो, कि मेरे सिर को थोड़ा दबा दो, कि मैं फिर सो जाऊं, कि इस अलार्म ने मेरी नींद तोड़ दी है।

अच्छा हुआ कि नींद टूटी। जितने जल्दी टूट जाए उतना अच्छा है। तुम सौभाग्यशाली हो कि सपना टूटने का क्षण आ गया। ध्यान में डूबो।

तुम्हारे भीतर वह भी है जिसकी कोई मृत्यु नहीं। और तुम्हारे भीतर वह प्यारा भी छिपा है, जिससे मिल जाओ तो फिर कभी बिछुड़ना नहीं होता; जिससे मिलन आत्यंतिक है। उसको ही पाओगे तो संतोष। उसको ही पाओगे तो शांति। और शेष सब संबंध तो बस संयोग-मात्र हैं। राह चलते लोग साथ हो लिए हैं, फिर घड़ी आ जाएगी विदा की और अपनी-अपनी राह पर चल पड़ेंगे। इनमें ज्यादा मत भटको, ज्यादा मत भूलो।

और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि संसार छोड़कर भाग जाओ, कि अपनी पत्नी को छोड़ दो, कि अपने बच्चों को छोड़ दो कि अपने पिता को छोड़कर भाग जाओ। यह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तो सिर्फ इतना ही कह रहा हूं; रहो यहीं, लेकिन जाग जाओ, जागकर रहो। यह जानते हुए रहो कि यह सब संयोग मात्र है। यही नए संन्यास की अवधारणा है–संसार में रहते हुए और संसार के बाहर।

 

आखिरी प्रश्न:

जिसे तू देख ले एक बार मस्ती भरी नजर से

तो रजनीश–वो उम्र भर हाथों में अपने जाम न ले।

ओशो, आपके शब्दों में इतनी मादकता क्यों है?

 

क्योंकि वे शब्द मेरे नहीं हैं। वे शब्द उसके हैं। मैं तो बांसुरी हूं, गीत उसका है; ओंठ उसके हैं, स्वर उसके हैं, संगीत उसका है। मैं तो वीणा हूं, अंगुलियां उसकी हैं। उसकी अंगुलियां न हों तो इन तारों में क्या है? और उसके ओंठ न हों तो इस बांस की पोंगरी में क्या है? मादकता उसकी है। परमात्मा मादक है।

अगर तुम्हें मेरे पास बैठकर मादकता का अनुभव हो, मुझे धन्यवाद न देना, परमात्मा को धन्यवाद देना। अगर तुम्हें मेरी आंखों में कभी कोई रस दिखाई पड़े तो उसकी याद करना–उसकी ही याद करना! मुझे बीच में मत लेना।

अंबर बरसै धरती भीजै, यह जानैं सब कोई

धरती बरसै अंबर भीजै, बूझै बिरला कोई।

आकाश बरसता है और धरती भीजती है, यह तो हमने देखा; लेकिन धरती भी बरसती है और आकाश भीजता है, यह हमने नहीं देखा, यह कोई बिरला देख पाता है। इसे देखने के लिए बड़ी गहरी आंख चाहिए। यह तो हमने देखा कि लोग बोलते हैं। इसे देखने में कुछ अड़चन नहीं है। यह तो सीधी-सीधी बात है। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि बोलनेवाला चुप होता है और जो पारलौकिक है वही उससे बहता है।

मैं तो चुप हूं। तुम्हें मैं बोलता दिखाई पड़ रहा हूं, मैं चुप हूं। मैं चुप हूं, इसीलिए मेरे भीतर से कुछ बोला जा रहा है। वह मेरा नहीं है। मादकता है तो उसकी है। कुछ भूल-चूक हो जाती हो, मेरी समझना; कुछ ठीक-ठाक हाथ पड़ जाता हो, उसका मानना।

तम का दिग्जाल तोड़

निकल रहा तू किशोर

सूर्य-सा ललाट पर

प्राची के ग्रीष्म-घोर

किरणों के झोंकों से

आज खुला द्वार-द्वार!

ज्योतिर्मय, नमस्कार!

 

छंदों के बंध खुले,

गीतों के प्राण धुले!

सातों स्वर-मंडल में

सातों ही रंग घुले!

वाणी की वीणा का

कांप रहा तारत्तार!

दिनेश! यह तार मेरे हैं, मगर जो इन्हें कंपा रहा है, उसको देखो। इन आंखों से न देख सकोगे। इन आंखों को बंद करो तो भीतर की आंख खुले। इन हाथों से उसे न छू सकोगे। इन हाथों को भूल जाओ तो भीतर हाथ हैं जिनसे छू सकोगे।

प्रत्येक इंद्रिय दोहरी है, आंख बाहर ही नहीं देखती, भीतर भी देख सकती है। कान बाहर ही नहीं सुनते, भीतर भी सुन सकते हैं। और जब तुम्हारी भीतर की इंद्रियां सजग हो उठेंगी तो तुम पहचानोगे–क्यों मादकता है, क्यों उपनिषदों में इतना रस है, क्यों इतना काव्य है कुरान में? मुहम्मद का कुछ हाथ नहीं। वही उतरा है। कुरान में जो रसधार बही है, वह आकाश से उतरी है।

स्वर्गिक सपनों के रथ पर चढ़

नव जीवन का स्वर भर अनंत,

सौंदर्य-शिखाओं को मुखरित–

कर सौरभ भर लाया बसंत!

देखते हो, जब बसंत आता है, अचानक हरे वृक्ष लाल फूलों से भर जाते हैं! चमत्कार हो जाता है। कहां हरे वृक्ष, कहां लाल फूलों का जन्म हो जाता है! हरियाली में लाली उग आती है! देखा बसंत का आगमन! मगर उसकी पगध्वनि तो सुनाई नहीं पड़ती। किसी ने बसंत की पगध्वनि सुनी? हां, फूलों की चटक सुनाई पड़ती है, बसंत की पगध्वनि तो सुनाई नहीं पड़ती। बसंत को देखा कभी? आ-आकर फूल खिला जाता है, लेकिन उसके हाथों का कुछ दर्शन नहीं होता। बसंत सूक्ष्म है।

ऐसा ही परमात्मा का आगमन है। आता है और किसी मनुष्य को छू देता है। और मिट्टी सोना हो जाती है। और बांसुरी में प्राण आ जाते हैं। और वीणा के तार कंपने लगते हैं।

स्वर्गिक सपनों के रथ पर चढ़,

नव जीवन का स्वर भर अनंत,

सौंदर्य-शिखाओं को मुखरित–

कर सौरभ भर लाया बसंत!

 

कोमल कलियों के अंतर में

भर-स्नेह-प्राण से नवल रंग,

अलियों से चुप-चुप आंख बचा

आकुल मन से पी मधुर भंग!

 

गा प्रणय-गान, भर नव प्रवाह

जड़-चेतन का कर अधर लाल,

आया बसंत दिशि, बन, गृह, पथ

को चित्रित कर, बिखरा गुलाल!

 

कोमल किसलय का मृदु शैशव

फूलों का यौवन हिल्लोलित,

इच्छाओं का साम्राज्य मूक

लाया बसंत भर कर अतुलित!

दिनेश! बसंत को देखो! फूल में ही मत उलझ जाना। फूल के ही पास खड़ा है बसंत। बसंत को देखो। उसने चमत्कार कर दिया है। हरे वृक्ष में लाल फूल आ गया–और भी चमत्कार हो रहा है। फूल स्थूल है, फूल से सूक्ष्म सुवास उठ रही है। फूल जमीन के गुरुत्वाकर्षण से भरा है, लेकिन सुवास जमीन के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त है। फूल गिरेगा तो जमीन की तरफ गिरेगा। सुवास आकाश की तरफ गिर रही है। चमत्कार हो रहा है। मगर इस अदृश्य बसंत को देखो।

और ऐसा ही घटता है। किसी तिलोपा के पास, किसी सरहपा के पास परमात्मा आकर खड़ा हो जाता है। मगर तुम्हें वीणा बजती दिखाई पड़ती है, तुम्हें उसकी अंगुलियां दिखाई नहीं पड़तीं।

प्रेम को कभी देखा है? लेकिन जिसके ऊपर प्रेम की वर्षा हो जाती वह दिखाई पड़ता है, उसकी चाल बदल जाती है, उसका रंग-ढंग बदल जाता है, उसकी जीवन-शैली बदल जाती हैं; उसकी आंखें, जो कल बिलकुल धूमिल थीं, एकदम ज्योतिर्मय हो जाती हैं। कल उसके पैर ऐसे थे जैसे जंजीरें बंधी हों, आज ऐसे जैसे घूंघर!

नयनों की भाषा में, जाने क्या गा गयीं।

यूं तो थी अमां निशा, दीप तुम जला गयीं।।

मदमाते यौवन की रतनारी आंखों में,

श्यामल अलकों की घनी-घनी छावों में।

बहियां भर…

अंखियां भर…

दर्द दुलरा गयीं।।

जाने क्या गा गयीं।।

 

कंगना की खन खन से, वातायन गूंज उठा,

नूपुर के द्रुतरव से, गीतों का बोल उठा।

मुग्ध मगन…

चकित नयन…

मुझको तुम भा गयीं।।

जाने क्या गा गयीं।।

 

संवरे-से बालों का, बेना कुछ बोल उठा,

कानों के झुमकों का, हर मोती डोल उठा।

चितवन से…

मधुवन में…

मधु ढरका गयीं।।

जाने क्या गा गयीं।।

प्रेमी को क्या हो जाता है, कौन-सा मधुकलश उस पर उंडल जाता है! किसी को दिखाई नहीं पड़ता कि प्रेम का राजा आया, मिट्टी को सोना कर गया। और यह तो लौकिक घटना है। जब वह परम सम्राट आता है किसी के पास, किसी के ध्यान में गुंजरित होने लगता है, तो खूब शराब बहती है!

मादकता मेरे शब्दों में मेरी नहीं है। वे शब्द मेरे नहीं हैं–इसीलिए मादकता है!

 

आज इतना ही।

 



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सहज योग–(प्रवचन–15)

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प्रेम–समर्पण—स्वतंत्रता—(प्रवचन—पंद्रहवां)

 दिनांक 5 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—आपने कहा कि तुझसे पहले भी मैं ऐसे दो जोड़े बना चुका हूं, तेरा तीसरा जोड़ा है। पर मेरी तो कोई पात्रता भी नहीं, फिर आपने मुझे कैसे चुना?

 2—आप कहते हैं कि जीवन को उसके सभी आयामों में जीयो। इससे आपका क्या प्रयोजन है?

 3—पाखंड का इतना बल और आकर्षण क्या है?

 

4—यहूदी संत मुरजुत्रा का विचार था कि “चेले ऐसे पात्र हैं कि उनमें गुरु का रंग झलकना चाहिए। यदि गुरु की गुरुता के बावजूद शिष्य में अपेक्षित गुण नहीं आए तो उसमें दोष गुरु का है।‘…कृपया इस कथन पर प्रकाश डालें।

 

 

पहला प्रश्न:

 

ओशो, आपने कहा कि “तुझसे पहले भी मैं ऐसे दो जोड़े बना चुका हूं, तेरा तीसरा जोड़ा है।’ पर ओशो मेरी तो कोई पात्रता ही नहीं, फिर आपने मुझे कैसे चुना? बताने की कृपा करें।

 

कृष्ण चेतना, प्रेम एकमात्र तत्व है जो मृत्यु को जीत ले। शेष सब मृत्यु से हार जाता है।

जीवन और मृत्यु में विरोध नहीं है। असली विरोध प्रेम और मृत्यु में है, जीवन और मृत्यु में तो विरोध होगा ही कैसे! क्योंकि जीवन की परिसमाप्ति हमेशा ही मृत्यु में होती है। तो मृत्यु तो जीवन का फल है, उसकी निष्पत्ति है। जीवन है यात्रा, मृत्यु है मंजिल। विरोध कैसे होगा? निरपवाद रूप से प्रत्येक जीवन मृत्यु में लीन हो जाता है। इसलिये मृत्यु तो जीवन का परम शिखर है। मृत्यु जीवन की विरोधी नहीं हो सकती।

फिर किससे विरोध है मृत्यु का? प्रेम से विरोध है। प्रेम एकमात्र तत्व है, जिससे मृत्यु हारती है; जिसके सामने मृत्यु समर्पण करती है। इसे समझना। इसीलिये जिसका हृदय प्रेम से भरा है उसके जीवन में भय विसर्जित हो जाता है। क्योंकि सभी भय मृत्यु का भय है। और जिसके जीवन में भय है उसके जीवन में प्रेम का अंकुरण नहीं हो पाता। भयभीत व्यक्ति धन इकट्ठा करेगा, पद-प्रतिष्ठा की खोज करेगा; लेकिन प्रेम से बचेगा। प्रेमी सब लुटा देगा प्रेम के ऊपर, सब निछावर कर देगा–पद भी, प्रतिष्ठा भी, धन भी, जरूरत पड़े तो जीवन भी।

सिर्फ प्रेम ही जानता है, जीवन का समर्पण भी किया जा सकता है । क्योंकि प्रेम को पता है कि जीवन के बाद भी एक और जीवन है; कि जीवन को छोड़कर भी शाश्वत जीवन शेष ही रह जाता है।

लेकिन, प्रेम बहुत थोड़े-से लोग ही जान पाते हैं। जैसे ध्यान बहुत थोड़े-से लोग जान पाते हैं, ऐसे ही प्रेम भी बहुत थोड़े-से लोग जान पाते हैं। जिन्होंने ध्यान जान लिया उन्होंने परमात्मा को जाना–एकांत में, अकेले में। और, जिन्होंने प्रेम जाना उन्होंने परमात्मा को जाना–संबंध में, संग-साथ में।

प्रेम है–किसी व्यक्ति के साथ इस तरह लीन हो जाना कि जरा भी द्वि न रह जाये, जरा भी भेद न रह जाये, कोई परदा न रह जाये, कोई घूंघट न रह जाये। दो व्यक्ति जब एक-दूसरे के सामने अपनी आत्माओं को परिपूर्ण नग्न कर देते हैं–सचाई में, प्रामाणिकता में; जैसे हैं वैसे ही एक दूसरे के सामने हो जाते हैं–तो उस अपूर्व घड़ी में परमात्मा घटता है। यह एक उपाय है परमात्मा के घटित होने का।

दूसरा उपाय है: यदि प्रेम संभव न हो, यदि इसमें असुविधा मालूम पड़े कि मैं किसी के भी सामने अपने को पूरा-पूरा प्रगट न कर पाऊंगा, लाज-संकोच रहेगा, कुछ दुविधा रहेगी, कुछ द्वंद्व रहेगा, कुछ भीतर संशय रहेगा, प्रगट भी करूंगा तो थोड़ा अभिनय रहेगा, थोड़ा पाखंड रहेगा–तो फिर दूसरा मार्ग है, ध्यान का, कि फिर चुप हो जाओ, मौन हो जाओ, अपने एकांत में डूब जाओ।

दोनों के बीच एक ही घटना घटती है। जब दो व्यक्ति प्रेम में होते हैं तो अहंकार विसर्जित हो जाता है और जब कोई एक व्यक्ति ध्यान में होता है तब भी अहंकार विसर्जित हो जाता है। ध्यान और प्रेम, दोनों ही अहंकार को विसर्जित करने की कलाएं हैं। कुछ लोग हैं जो प्रेम से विसर्जित करेंगे, कुछ लोग हैं जो ध्यान से विसर्जित करेंगे। पुरुष के लिये आसान है ध्यान से विसर्जित करना। स्त्री के लिये आसान है प्रेम से विसर्जित करना। क्योंकि पुरुष का जीवन ज्यादा से ज्यादा दस प्रतिशत प्रेम हो पाता है, नब्बे प्रतिशत प्रेम नहीं हो पाता। स्त्री का जीवन नब्बे प्रतिशत प्रेम हो पाता है–आसानी से, दस प्रतिशत में ही अड़चन होती है।

स्त्री और पुरुष की अंतर्व्यवस्था भिन्न-भिन्न है। इसलिये जिन्होंने परमात्मा जाना है–यदि वे पुरुष थे तो ध्यान से जाना है; यदि वे स्त्रियां थीं तो प्रेम से जाना है। लेकिन, स्त्री-पुरुष के भेद को बहुत जड़ता से मत पकड़ लेना। क्योंकि बहुत-से पुरुष हैं, जिनके पास स्त्रियों जैसा प्रेम करनेवाला हृदय है और बहुत-सी स्त्रियां हैं, जिनके पास पुरुषों जैसा विचार करने वाला मस्तिष्क है। फिर भेद होगा, फिर भिन्नता हो जाएगी।

मीरा ने जाना–प्रेम में, भक्ति में। लल्ला ने जाना–ध्यान में। लल्ला भी स्त्री है और मीरा भी स्त्री है। लेकिन लल्ला ऐसी स्त्री है–जैसे महावीर; जैसे महावीर का नया आविर्भाव। लल्ला अकेली स्त्री है मनुष्य-जाति के फकीरी के इतिहास में, जो नग्न रही। मीरा प्रेम में जानी, तल्लीन होकर जानी–कृष्ण में।

फिर ऐसी ही बात पुरुषों में भी है। बुद्ध ने ध्यान से जाना, चैतन्य ने प्रेम से जाना। बुद्ध ध्यान में अकेले, और अकेले, और अकेले होते गये। और चैतन्य मस्त होते गये नाच में, कृष्ण के प्रेम में। ऐसे डूबे कृष्ण के प्रेम में कि चैतन्य का पुरुष बचा ही नहीं। तो चैतन्य यद्यपि पुरुष हैं, मीरा स्त्री है; लेकिन, दोनों एक ही मार्ग के राही हैं। और लल्ला यद्यपि स्त्री है, महावीर पुरुष हैं; लेकिन दोनों एक ही मार्ग के राही हैं। इसलिये, स्त्री-पुरुष से शारीरिक भेद नहीं कर रहा हूं; स्त्री-पुरुष से तुम्हारी अंतर्व्यवस्था का भेद कर रहा हूं।

प्रेम से जो जान सके, उसे ध्यान की जरूरत नहीं है। जो प्रेम से न जान सके, उसे ही ध्यान की जरूरत है। और, मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि ध्यान दोयम है, नंबर दो है। क्योंकि, ध्यान थोड़ा रूखा-सूखा होगा–प्रेम की हरियाली न होगी, प्रेम के फूल न होंगे, प्रेम के झरने न होंगे।

चेतना को जब मैंने संन्यास दिया तब उसे मैंने नाम दिया “कृष्ण चेतना’; उसके पति को नाम दिया “कृष्ण चैतन्य’। इस नाम में संकेत था, इशारा था–कि दोनों को प्रेम में डूब जाना है। और, उन्होंने समझा। दोनों को एक-दूसरे के प्रेम में इस भांति डूब जाना है कि दो न बचें, एक ही बचे। इसी संदर्भ में चेतना ने पूछा है कि आपने कहा कि तुझसे पहले मैं ऐसे दो जोड़े बना चुका हूं, तेरा तीसरा जोड़ा है।

जोड़े तो बहुत हैं, दुनिया में, बस नाममात्र को हैं; कभी-कभार कोई असली जोड़ा होता है। पति-पत्नी तो होना आसान है–जोड़ा होना मुश्किल है। “जोड़ा’ शब्द का अर्थ समझते हो?–जो जुड़ गये। किसी कानूनी व्यवस्था से नहीं, किसी सामाजिक नियम से नहीं–जो अंतरतम से जुड़ गये। जो दो देह रहे, लेकिन एक प्राण हो गये। ऐसे जोड़े मुश्किल से होते हैं। इस तरह के जोड़े अपने प्रेम को ही परमात्मा का मार्ग बना लेते हैं। इस तरह के जोड?ो के जीवन में प्रेम की शाश्वतता उतर आती है। फिर, प्रेम क्षणभंगुर नहीं होता–कि आज है और कल नहीं, कि अभी है और अभी गया। फिर, प्रेम के ऐसे मौसम नहीं आते। फिर, प्रेम एक थिरता होती है। चेतना में वैसी थिरता है। इसलिये कहा।

और तूने पूछा चेतना कि पर ओशो, मेरी तो कोई पात्रता ही नहीं है…। यही तेरी पात्रता है। प्रेमी मानता ही नहीं कि उसकी कोई पात्रता है। वही तो उसकी गुणवत्ता है। प्रेमी विनम्र होता है। प्रेमी निरहंकारी होता है। प्रेमी घोषणा नहीं कर सकता कि मैं प्रेमी हूं। ज्ञानी घोषणा कर सकता है। प्रेमी घोषणा नहीं कर सकता। प्रेमी तो कहता है, “मैं नहीं हूं’। “नहीं’ होने में ही उसकी सारी पात्रता है। प्रेमी तो खाली होता है, रिक्त पात्र होता है। उसी रिक्त पात्र में तो धीरे-धीरे परमात्मा का रस झरता है और भरता है।

तूने पूछा कि मेरी तो कोई पात्रता ही नहीं है, फिर आपने मुझे कैसे चुना? इसीलिये! पात्रता होती तो ऐसी बात मैं न कहता। पात्रता नहीं है, कोई पात्रता का भाव ही नहीं है। इसलिये, चेतना बहुत शीघ्र मेरे बहुत निकट आ गई है, अनायास; कुछ प्रयास किया है उसने, ऐसा भी नहीं है। जैसे, जन्मों-जन्मों का प्रयास है पीछे, उसकी फलश्रुति हुई है। मेरे पास आती है तो एक शब्द बोल नहीं पाती है, सिवाय आंसुओं के। पास आती है तो रोमांचित हो जाती है, उसका रोआं-रोआं नाचने लगता है। होश खो देती है। जिस शराब की मैं बात कर रहा था, जैसे ही मैं उसे बुलाता हूं, वैसे ही अपने बस में नहीं रह जाती है। कोई एक पार की मस्ती उसे पकड़ लेती है। ये प्रेमी के लक्षण हैं, ये दीवाने के लक्षण हैं।

उसके हृदय से सदा मैंने ऐसी आवाज सुनी है:

पधारो, बैठ रहो इस अमराई की सघन कुंज में आज,

मेरी अमराई में आज!

यहां आने में लगती है निदाघ की दोपहरी को लाज,

दहकती दोपहरी को लाज!

 

लू चलती है हहर-हहर कर

आग बरसती है पृथ्वी पर,

जल रहे हैं पल-क्षण, तुम यहां बिता लो कुछ घड़ियां बिन काज;

पधारो, बैठ रहो इस अमराई की सघन कुंज में आज!

 

अति सूनी है यह अमराई,

यहां अमित नीरवता छाई,

कि केवल कोयल गाती है पंचम में अपने स्वर को साज;

सुघड़, इस समय पधारो गज-गति से तुम अमराई में आज!

 

देखो अमियां गदरायी हैं

मन में सिहरन उठ आयी है,

गुदगुदी अंतर की कहती है तुमसे: आओ, हे रसराज!

पधारो सहज, सलज मुसकाते मेरी अमराई में आज!

ऐसा उसने कभी कहा नहीं। ऐसी बातें कही नहीं जातीं। ऐसी बातें तो बिन-कही ही प्रकट होती हैं। ऐसे निमंत्रण शब्दों में नहीं दिये जाते। ऐसे निमंत्रण तो निःशब्द में दिये जाते हैं, कोरे कागजों पर भेजे जाते हैं। लिखो तो खराब हो जाते हैं। लिखो तो छोटे हो जाते हैं, बोलो तो ओछे हो जाते हैं। इतने विराट आमंत्रण मौन ही वहन कर सकता है।

नहीं चेतना कुछ बोलती है, नहीं चेतना कुछ कहती है; मगर उसका हृदय सब कह जाता है। उसका अबोल सब बोल जाता है।

ओ मेरे गोपाल छबीले कुछ ठुनका दो पांजनियां,

झुन-झुन खुन-खुन-टुन-टुन-धुन की तुम बरसा दो यांकनियां;

पांजनियां-किंकिणियां गूंजे, हुलस उठें ब्रज की जनियां,

 

मैं बलि जाऊं, तुम कुछ ठुनको, डोलो, मम घर-आंगनियां,

प्यासे श्रवण, हृदय अकुलाया, धुन सुनने को नूपुर की

अहो, हठीले जरा ठिठक, टुक आज हरो पीड़ा उर की

 

एक-एक रुन-झुन में उलझीं आकांक्षाएं कई-कई;

तुम क्या जानो, निठुर, जगी हैं क्या-क्या पीड़ा नयी-नयी

रही-सही यह लाज निगोड़ी, बह-बह गयी नयन जल में

उझक-उझक मग जोह रही है कठिन प्रतीक्षा पल-पल में

कुटिया के दरवाजे बैठी कब से कान लगाये मैं,

निष्ठुर, अब तो आ जाओ, इस घनी कुहू के साये में।

चुपचाप, चेतना बढ़ी जाती है। और भी बहुत मित्र हैं, जो चुपचाप बढ़े जाते हैं। कोई घोषणा नहीं है, कोई दुंदुभि नहीं पीटनी है। पता ही न चले, पगध्वनि भी सुनाई न पड़े। यही पात्र का लक्षण है। पात्रता की चर्चा तो सिर्फ अपात्र करते हैं। पात्रता की चर्चा तो वे ही करते हैं, जो हीन ग्रंथि से पीड़ित हैं। जिनके भीतर कोई हीन ग्रंथि नहीं–और जहां प्रेम है, जहां ध्यान है, वहां कैसी हीन ग्रंथि–वे प्रेम की चर्चा नहीं करते, ध्यान की चर्चा नहीं करते। वे पात्रता की चर्चा नहीं करते, योग्यता की चर्चा नहीं करते। लेकिन, उनकी आंखें, उनके आंसू सब कह जाते हैं–सब, जो नहीं कहा जा सकता।

चेतना को मैंने जानकर ही कहा है। यहां मेरे संन्यासियों में तीन जोड़े हैं, मेरे अंकन में–जो एक-दूसरे में डूब जायें तो परमात्मा को पा लेंगे। चेतना और चैतन्य का जोड़ा उनमें एक है।

 

दूसरा प्रश्न:

 

आप कहते हैं कि जीवन को उसके सभी आयामों में जीओ। इससे आपका क्या प्रयोजन है?

 

नुष्य शरीर है, मन है, आत्मा है–और परमात्मा भी! जब मैं कहता हूं कि जीवन को उसके सब आयामों में जीओ, तो मैं कहता हूं–शरीर की भांति भी, मन की भांति भी, आत्मा की भांति भी और परमात्मा की भांति भी, अपनी समग्रता में जीओ। किसी का निषेध न हो, किसी का खंडन न हो। ऐसा न हो कि तुम्हारा परमात्मा तुम अपने देह के विपरीत समझ लो। देह के विपरीत होता तो देह में क्यों होता? विपरीत ही होता तो देह में उतरने की कोई जरूरत ही न थी। उतरा है तो कारण होगा। उतरा है तो रहस्य होगा। इतनी लंबी यात्रा की है, अदृश्य से दृश्य की; तो यूं ही नहीं की होगी।

तो जब मैं कहता हूं कि सब आयाम में जीया जाये जीवन, तो तुम से यह कह रहा हूं कि जीवन का कोई भी अंग त्यागना मत, छोड़ना मत, तोड़ना मत। एक अंग को दूसरे अंग के विपरीत मत मान लेना। तुम्हारे जीवन के सारे अंग एक ही माला में पिरोये हुए फूल हैं, एक ही धागे में अनस्यूत हैं। तुम्हारे सारे जीवन में एक ऐसा संगीत होना चाहिये, जिसमें तुम्हारे सारे वाद्य–देह के, मन के, आत्मा के, परमात्मा के–समवेत हो जायें, एक स्वर में डूब जायें। तुम्हें एक आरकेस्ट्रा बनना है।

संगीत सोलो भी होता है। कोई आदमी सिर्फ बांसुरी बजाता है–सोलो बांसुरी-वादक। लेकिन फिर कोई तबले पर तबले के साथ तबले की संगति में बांसुरी बजाता है। तब रस और गहरा हो जाता है। क्योंकि तबला अपनी भाव-भंगिमा ले आता है। फिर वाद्य बढ़ते जाते हैं। फिर आरकेस्ट्रा तुमने देखा है? पचासों वाद्य एक साथ बजते हैं। सारे वाद्यों के बीच एक अनस्यूत संगीत होता है। जितना बड़ा संगीतज्ञ होगा उतने अधिक वाद्यों को समाहित करेगा, क्योंकि उतना ही उसका संगीत अनंत आयामी हो जायेगा।

अब तक धर्म एक-आयामी रहा है। चुन लो एक दिशा और शेष सब उसी दिशा पर त्याग कर दो। तो धार्मिक व्यक्ति तो पैदा हुए; लेकिन सृजनात्मक व्यक्ति पैदा न हो सके। धार्मिक व्यक्ति तो पैदा हुए, लेकिन बड़े अधूरे, अपंग, अपाहिज। किसी के पास सिर्फ आंखें थीं, कान नहीं थे और किसी के पास सिर्फ पैर थे हाथ नहीं थे और किसी के पास जबान थी, और हाथ नहीं थे–लेकिन अपंग।

मैं एक ऐसे धार्मिक व्यक्ति को पृथ्वी पर जन्म देना चाहता हूं, जिसकी आंखें भी हों, कान भी हों, हाथ भी हों, पैर भी हों–जो सर्वांगीण हो, जो सर्वांग हो। लेकिन, सर्वांग तुम तभी हो सकोगे, जब तुम जीवन में कुछ भी न छोड़ो; जब तुम जीवन का सब समाहित कर लो; जब तुम इतने कुशल हो जाओ कि पूरे जीवन को समाहित करके भी जीवन से बंधो न।

देह तो परमात्मा का मंदिर है। अब तक तुम्हें समझाया गया है कि देह परमात्मा का शत्रु है–देह को गलाओ, जलाओ, उपवास करो, कोड़े मारो, धूप में रखो, कांटो पर सुलाओ।

मैं कहता हूं: देह को अंगीकार करो। देह तुम्हारा सौभाग्य है; परमात्मा की भेंट है, प्रसाद है। हां, देह को चाहो तो जुआघर बन सकती है देह और चाहो तो मंदिर बन सकती है। घर तो घर है–घर में चाहे जुआ खेलो और चाहे पूजा करो, प्रार्थना करो। लेकिन घर के दुश्मन मत हो जाना–सिर्फ इसलिये कि किसी घर में लोग जुआ खेलते हैं। क्या घर को आग लगा दोगे? यह जुआ खेलने वालों की भूल होगी। इसी घर को प्रार्थना-पूजा का गृह बनाया जा सकता है, इसी घर में परमात्मा प्रतिष्ठित हो सकता है। इसी में धूप उठे, दीये जलें; इसी में वीणा बजे। यह घर वही है। घर न तो जुआ खेलने से जुआघर हो जाता है, न पाप करने से पापी हो जाता है, न बुराई करने से बुरा हो जाता है। घर तो निष्पक्ष है; तुम जो करोगे वही हो जाता है। घर तो तुम्हारे साथ है। यह देह तो तुम्हारी सेवक है।

तो मैं एक ऐसा धर्म चाहता हूं जिसमें देह का अंगीकार हो, स्वागत हो, अभिनंदन हो। ऐसा धर्म जो देह को भित्ती बना ले; जो देह के स्वास्थ्य में रस ले; जो देह के आनंदों को अस्वीकार न करे।

देह के आनंद प्यारे हैं। लेकिन, तुम्हें कहा गया है: अस्वाद साधो। मैं तुमसे कहता हूं: स्वाद साधो। ऐसा स्वाद साधो कि भोजन में भी परमात्मा की ही प्रतीति होने लगे। है तो सब परमात्मा ही–जो तुम भोजन कर रहे हो, उसमें भी वही है। अस्वाद साधने का अर्थ हुआ कि स्वाद मत लेना भोजन में। मगर यह तो परमात्मा का अंगीकार नहीं हुआ, अस्वीकार हुआ। यह तो अनादर हुआ। “अन्नं ब्रह्म’। तुम तो अन्न में भी ब्रह्म का ही स्वाद लो। तब तुम्हारे जीवन में शरीर के सारे रहस्य समृद्ध करेंगे तुम्हें।

ऐसे ही मन के रहस्य हैं। संगीत सुनते हो? वह मन का आयाम है। गीत गुनते हो, वह मन का आयाम है। सूरज उगा और तुमने सूरज का सौंदर्य देखा, उगते सूरज को–वह मन का आयाम है। कि तुमने एक सुंदर प्रतिमा देखी कि सुंदर चित्र देखा और तुम अभिभूत हुए–वह मन का आयाम है। तुमने एक सुंदर स्त्री देखी कि सुंदर पुरुष देखा और एक क्षण को तुम ठिठके और अवाक हुए–वह मन का आयाम है। उसे इनकार मत करना, क्योंकि उस स्त्री में भी परमात्मा ने ही एक झलक दी है।

सुबह के सूरज में भी वही उग रहा है, फूल में वही खिल रहा है, किसी सुंदर चेहरे पर उसी की आभा है और किन्हीं सुंदर आंखों में वही झांक रहा है।

अब एक धर्म है, जो कहता है: अगर आंख से सुंदर स्त्री दिखाई पड़े तो आंख फोड़ लो। लोग कहते हैं, इसीलिये सूरदास ने अपनी आंखें फोड़ ली थीं। मैं नहीं मानता। कहानी झूठ होगी। क्योंकि सूरदास का काव्य मुझसे कहता है कि सूरदास सौंदर्य के पारखी हैं, उनके काव्य में इतनी रसमयता है कि मैं यह मान नहीं सकता। इतिहास लाख कहे, लोग कुछ भी कहें; मेरे लिये अंतःप्रमाण हैं कि सूरदास स्त्री को देखकर आंख नहीं फोड़ सकते। हां, इतना मैं जरूर कहूंगा कि किसी भी स्त्री को देखकर सूरदास को कृष्ण की ही याद आयेगी। यह जरूर सच है। अब इसके लिये कोई प्रमाण हो या न हो। मैं इतिहास पर आधार रखता भी नहीं हूं। मेरे आधार आंतरिक हैं। मैं भीतर से यह जानता हूं कि सूरदास आंख नहीं फोड़ सकते और सूरदास आंख फोड़ेंगे तो दो कौड़ी के हो जायेंगे; उनका कोई मूल्य नहीं रह जाता। सूरदास का मूल्य तो तभी है जब सुंदरतम स्त्री में भी उसी परमात्मा की झलक मिले, अभिभूत हो जायें, आनंदित हो जायें। सुंदर स्त्री की पायल की झंकार में भी उसी की पाजेब की झंकार सुनाई पड़े, उसी का घुंघुरू बजे।

हर बांसुरी में उसी का स्वर मालूम होना चाहिये। तो फिर तुम मन के आयाम को भी आत्मसात कर लिये।

फिर आत्मा के दो आयाम हैं–प्रेम और ध्यान। बन सके तो दोनों को एक साथ आत्मसात कर लो। न बन सके तो एक को आत्मसात करना, दूसरा उसके पीछे छाया की तरह अपने-आप आ जायेगा। जिसने प्रेम किया वह ध्यानी हो जायेगा और जिसने ध्यान किया वह प्रेम से भर जायेगा।

लेकिन तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी अगर ध्यान करते हैं, तो उनके जीवन में प्रेम नहीं दिखाई पड़ता। यह प्रमाण है कि उनका ध्यान झूठा है। कैसा वृक्ष जिस पर फूल न खिलें? और कैसी रात जो तारों से न भरी? और कैसी वीणा कि जिसमें स्वर न जगें? कैसा ध्यान, जिससे प्रेम की धारा न बही? कैसा हिमालय, जिससे गंगा न उतरे? झूठा होगा, फिल्मी होगा। ध्यान थोप-थापकर बैठ गये होंगे। मगर अभी अंतःसलिला जगी नहीं, अभी अंतर की गंगा उतरी नहीं। नहीं तो प्रेम में बहेगी।

बुद्ध ने कहा है: जिसे ध्यान होगा उसके जीवन में करुणा होगी ही होगी। अगर न हो करुणा तो समझ लेना कि ध्यान नहीं। करुणा कसौटी है। “करुणा’ बुद्ध का नाम है, “प्रेम’ के लिये।

और अगर कोई कहता है कि मैंने प्रेम को पा लिया और उसके जीवन में ध्यान की एकाग्रता न हो, ध्यान की तन्मयता न हो, ध्यान की थिरता न हो, ध्यान का निश्चल भाव न हो, ध्यान की शांति न हो–तो समझना कि उसने प्रेम अभी पाया नहीं, प्रेम के नाम से उसने वासना को ही पूज लिया होगा, प्रेम के नाम से कामना को ही मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया होगा। उसने अभी प्रेम जाना नहीं; प्रेम का धोखा खाया है, प्रेम की प्रवंचना में पड़ा है। लेकिन प्रेम का परमात्मा अभी उतरा नहीं। नहीं तो उसके साथ आती ही है ध्यान की शांति–अनिवार्यरूपेण, अपरिहार्य रूप से।

प्रेम आये तो ध्यान उसकी छाया की तरह आता है, ध्यान आये तो प्रेम उसकी छाया की तरह आता है। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम एक पहलू घर ले आये, तो तुम सोचते हो दूसरा पहलू साथ न आ जायेगा? उसी के पीछे छिपा-छिपा चला आ रहा है। आयेगा ही। दोनों पहलू साथ ही हो सकते हैं, अलग-अलग करने का कोई उपाय नहीं है। यह आत्मा का आयाम है।

फिर परमात्मा का आयाम भी है। परमात्मा का आयाम का अर्थ है: मैं नहीं हूं। आत्मा तक “मैं’ का थोड़ा-सा भाव, थोड़ी-सी अस्मिता शेष रहती है–शुद्ध अस्मिता, बड़ी सुंदर, बड़ी शांत, आह्लादपूर्ण! प्रेम का विष तो चला गया होता है–जैसे विष वाले सांप के हमने दांत तोड़ दिये, मगर सांप अभी है। ऐसे ही जैसे रस्सी जल गयी, मगर एंठ अभी है। किसी काम की नहीं है अब एंठ, राख ही है अब; छुओगे तो बिखर जायेगी। मगर जली रस्सी में भी एंठ रह जाती है, राख में भी एंठ रह जाती है।

परमात्मा का आयाम है: जहां “मैं’ परिपूर्ण रूप से विसर्जित हो जाता है; जहां बूंद सागर में गिर गई। आत्मा तक बूंद शुद्ध होती है, परिपूर्ण शुद्ध होती है। शुद्ध हो जाये तो ही परमात्मा में गिर सकती है। लेकिन परमात्मा में गिरे तभी बूंद सागर हो, तभी क्षुद्र विराट हो।

ये चार आयाम हैं। कुछ लोग शरीर पर रुक गये हैं। इनको हम नास्तिक कहते हैं, इनको हम भौतिकवादी कहते हैं। इन पर दया करो। ये मंदिर में आये और सीढ़ियों पर ही बैठ रहे। इन्होंने सीढ़ियों पर ही घर बना लिया। इन्होंने समझा कि आ गया मंदिर। इन पर दया करना, नाराज न होना। इन्होंने शायद सीढ़ियां भी कभी नहीं देखी थीं! सीढ़ियां भी इतनी प्यारी हैं, पोर्च भी इतना सुंदर है, कि इन्होंने समझा आ गया घर। बैठ रहे, वहीं रहने लगे, वहीं निवास कर लिया। पूरा भवन पड़ा था, कभी आंख ही न उठाई उस तरफ। ये छोटे बच्चे हैं जो खिलौनों से उलझ गये। सच्चा धार्मिक व्यक्ति इनके विरोध में नहीं होता। सच्चा प्रौढ़ व्यक्ति बच्चों के खिलौनों के विरोध में नहीं होता। और अगर कोई बच्चों के खिलौनों के विरोध में हो तो समझना कि प्रौढ़ व्यक्ति नहीं है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मनोचिकित्सक को कहा कि मेरे बच्चे में कुछ गड़बड़ है, कुछ ठीक करना पड़ेगा, आप कुछ फिक्र करें।

चिकित्सक ने पूछा: क्या गड़बड़ है, क्या तकलीफ है?

तो उसने कहा: वह दिन-भर अपनी गुड़िया को ही लिये रहता है।

तो मनोवैज्ञानिक ने कहा: बच्चा है, इसमें कुछ खराबी नहीं है, इसमें कोई रोग नहीं है। बड़ा हो जायेगा, सब ठीक हो जायेगा। खेलने दो।

मुल्ला ने कहा: वह तो ठीक है, लेकिन फिर मुझे गुड़िया लेने का मौका ही नहीं मिलता। वही दिन भर लिये रहे तो मैं कब लूं?

अब इसका ऐतराज जो है, वह बता रहा है कि मुल्ला खुद भी प्रौढ़ नहीं है।

जो धार्मिक व्यक्ति नास्तिकों का दुश्मन होता है समझ लेना कि वह धार्मिक नहीं है। अभी वह भी पोर्च में ही उलझा है, सीढ़ियों में उलझा है। अभी वह भी भीतर गया नहीं है, अभी विवाद वहीं चल रहा है। सच्चा धार्मिक व्यक्ति तो, जो सीढ़ी पर अटक गया है उस पर दया करेगा, करुणा करेगा। सोचेगा कि क्या करूं, कैसा उपाय करूं कि इसे भी भीतर बुला लूं।

मेरे पास नास्तिक आते हैं, वे कहते हैं हम नास्तिक हैं। क्या आप हमें संन्यास देंगे?

मैं उनसे कहता हूं: तुम्हें तो मैं पहले दूंगा, आस्तिकों से पहले दूंगा। मगर वे कहते हैं, कि हम नास्तिक हैं, नास्तिक संन्यासी हो सकता है? मैंने कहा: संन्यास इतनी बड़ी बात है कि नास्तिकों को भी पी जाये। तुम फिकर न करो।

तुम चिकित्सक से यह तो नहीं कहते कि मैं बीमार हूं, क्या बीमार की भी चिकित्सा हो सकती है? क्या बीमार को भी दवा दी जा सकती है? और अगर कोई चिकित्सक तुमसे यह कहे कि पहले ठीक होकर आओ, तब दवा दूंगा, तो तुम क्या समझोगे? यह चिकित्सक है?

मैं तो नास्तिक को आलिंगन कर लेता हूं, तत्क्षण। प्रतीक्षा ही करता था कि कभी वह राजी हो जाये तो उसे घर के भीतर बुला लिया जाये।

कुछ लोग शरीर पर उलझ गये हैं। उन्होंने स्वाद को ही जीवन का लक्ष्य समझ लिया है या धन को या पद को। काम को, भोग को उन्होंने जीवन का प्रारंभ और अंत, दोनों समझ लिया है। इनके विपरीत तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोग हैं। वे इनसे ही लड़ते रहते हैं और ऊपर ही ऊपर नहीं, भीतर भी इनसे लड़ते हैं। अगर ये भोजन में रस लेते हैं तो वे अस्वाद व्रत साधते हैं। मगर चाहे तुम भोजन में दीवाने हो जाओ और चाहे भोजन के विपरीत दीवाने हो जाओ, तुममें कुछ फर्क नहीं है, तुम दोनों एक ही साथ हो, तुम चचेरे भाई-बहन हो, तुम एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो।

एक स्त्री के पीछे दीवाना है, दूसरा स्त्री से भागा है और हिमालय की तरफ चला गया है। दोनों एक ही साथ हैं। दोनों की दृष्टि स्त्री पर लगी है या पुरुष पर लगी है।

फिर कुछ हैं जो मन में उलझ गये हैं। जो थोड़ा आगे बढ़े, सीढ़ियों से ऊपर गये, दहलान तक पहुंचे हैं, मगर वहीं उलझ गये हैं। उनके लिये मन के ही रस सब-कुछ हैं–काव्य है, संगीत है, साहित्य है, कला है–वे वहीं खो गये हैं। थोड़े तो गये, मगर बहुत आगे न गये।

फिर कुछ हैं जो आत्मा में उलझ गये हैं। जो कहते हैं: कोई परमात्मा नहीं है, इसके आगे और कोई भी नहीं है, बस पा लिया सब। अपनी प्रतीति होने लगी है, अपना अहसास होने लगा है। बूंद शुद्ध हो गई, अब और क्या चाहिये? ये गये, काफी भीतर गये; लेकिन, फिर भी परिपूर्ण रूप से भीतर नहीं गये। क्योंकि बूंद को अभी एक कदम और लेना है, अभी बूंद को सागर भी बनना है।

जब मैं तुमसे कहता हूं सब आयामों में जीयो, तो मैं यह कह रहा हूं: पोर्च भी तुम्हारा, दहलान भी तुम्हारी, भीतर के कक्ष भी तुम्हारे, अंतरतम तुम्हारे भवन का जो गर्भ-गृह है जहां परमात्मा विराजमान है–वह भी तुम्हारा।

और सब रूपों में जीयो। बस एक ही बात ध्यान रहे कि सब रूपों से परमात्मा ही सिद्ध हो। बस सब तरह से केंद्र से जुड़ते जाओ, फिर कोई अड़चन नहीं है।

ऐ शख्स! अगर “जोश’ को तू ढूंढना चाहे

वो पिछले पहर हल्का-ए-इर्फां में मिलेगा

और सुबह को वो नाज़िरे-नज्‍ज़ारा-ए-कुदरत

तरफे-चमनों-सहने बयाबां में मिलेगा

और दिन को वो सरगश्ता-ए-इसरारो-मआनी

शहरे-हुनरो-कूए-अदीबां में मिलेगा

और शाम को वो मर्दे-खुदा रिन्दे-ख़राबात

रहमत कदा-ए-बादा-फूरोशां में मिलेगा

और रात को वो ख़िल्वतों-ए-काकुलो-रुखसार

बज्म?त्तरबो-कूचा-ए-खूबां में मिलेगा

और होगा कोई जब्र तो वो बंदा-ए-मजबूर

मुर्दों की तरह ख़ाना-ए-वीरां में मिलेगा

ऐ शख्स?! अगर “जोश’ को तू ढूंढना चाहे…कवि कहता है कि अगर तुम्हें मुझे खोजना हो…

ऐ शख्स! अगर “जोश’ को तू ढूंढना चाहे

वो पिछले पहर हल्का-ए-इर्फां में मिलेगा

…तो पिछले पहर अध्यात्मवादियों की गोष्ठी में खोजना, वह वहीं होगा। और सुबह को वो नाज़िरे-नज्‍ज़ारा-ए-कुदरत। और अगर सुबह हो और उसे खोजना हो तो फिर प्रकृति के पास खोजना–जहां सूरज उगता हो, पक्षी गीत गाते हों, फूल खिलते हों। क्योंकि वह प्रकृति का प्रेमी है, या तो बगीचों में मिलेगा या जंगलों में मिलेगा।

और सुबह को वो नाज़िरे-नज्‍ज़ारा-ए-क़ुदरत

तरफे-चमनों-सहने बयाबां में मिलेगा।

और दिन को वो सरगश्ता-ए-इसरारो-मआनी

और अगर दिन में खोजना हो तो वह शास्त्रों में, शब्दों की गहराइयों में, काव्य में, काव्य की अनुभूतियों में, भाषा की ऊहापोह में, दर्शन के विचार में–वहां डूबा मिलेगा।

और दिन को वो सरगश्ता-ए-इसरारो-मआनी

शहरे-हुनरो-कूए-अदीबां में मिलेगा

फिर तुम्हें अगर उसे दिन में ढूंढना हो तो वह वहां मिलेगा जहां विद्वानों की महफिल होती है; जहां विचारशील लोग उठते-बैठते हैं; जहां तर्क, चिंतन, मनन की ऊंचाइयां छुई जाती हैं। शहरे-हुनरो-कूए-अदीबां में मिलेगा। तब तुम उसे अदीबों की गली में खोज लेना।

और शाम को वो मर्दे-खुदा रिन्दे-ख़राबात। और अगर शाम की बात हो, तो वह पियक्कड़ है।

और शाम को वो मर्दे-खुदा रिन्दे-ख़राबात। अगर शाम को खोजना हो तो उस पियक्कड़ को तुम एक ही जगह पा सकोगे…रहमत कदा-ए-बादा-फरोशां में मिलेगा…जहां कोई कृपालु हृदय अपने पात्र से मदिरा ढालता हो, तुम उसे वहां खोजना। वह किसी मधुशाला में मिलेगा। और रात को वो खिल्वतों-ए-काकुलो रुख़सार। और वह सौंदर्य का प्रेमी है। अगर रात हो…

और रात को वो खिल्वतों-ए-काकुलो-रुख़सार

बज्म?त्तरबो-कूचा-ए-खूबां में मिलेगा

…तो जहां कहीं आनंद-उत्सव हो रहा हो और सुंदरियां नाचती हों और सौंदर्य का जश्न मनाया जा रहा हो–वहां उसे खोजना, वहां मिलेगा।

और होगा कोई जब्र तो वो बंदा-ए-मजबूर, और अगर कहीं तुम्हें खबर मिल जाये कि कोई परेशान है, कोई पीड़ित है, कोई दुखी है…

और होगा कोई जब्र तो वो बंदा-ए-मजबूर

मुर्दों की तरह खाना-ए वीरां में मिलेगा

…और, अगर कहीं कोई मजबूर होगा, कहीं कोई दुखी होगा, कहीं जिंदगी किसी को तोड़े डाल रही होगी, तो करुणा से भरा हुआ वह तुम्हें किसी वीरान घर में मिलेगा।

जीवन सब आयामों में जीया जाना चाहिये। यह सारा अस्तित्व तुम्हारा है। इसका सौंदर्य तुम्हारा, इसका स्वाद तुम्हारा, इसकी शराब तुम्हारी। मालकियत की घोषणा करो। इसीलिये मैं अपने संन्यासियों को “स्वामी’ कहता हूं–मालकियत की घोषणा करो। यह सारा अस्तित्व तुम्हारा है। मुझे पता नहीं, पुराने लोगों ने क्यों संन्यासी को “स्वामी’ कहा था–उनके मतलब कुछ और थे; मेरे मतलब कुछ और हैं। मेरा मतलब है कि तुम इस सारे अस्तित्व के स्वामी हो, मालिक हो। यह सब तुम्हारा है। ये चांदत्तारे तुम्हारे लिये परिभ्रमण करते हैं, ये वृक्ष तुम्हारे लिये हरे हैं, ये फूल तुम्हारे लिये खिले हैं, ये लोग तुम्हारे लिये हैं। यह सारा अस्तित्व तुम्हारे लिये है। इससे दुश्मनी साधकर दूर मत हट जाओ। इसमें डुबकी मारो, इसमें गहरे डूबो, इसमें विसर्जित हो जाओ और तब तुम्हारे जीवन में एक समृद्धि होगी। इसी समृद्धि का नाम “धर्म’ है।

धर्म कोई दीनता नहीं है, हीनता नहीं है। धर्म परम ऐश्वर्य है। वह ईश्वर की अनुभूति है। धर्म व्यक्ति को समृद्ध बनाता है और तब कभी ऐसा चमत्कार भी देखने में आता है कि बुद्ध जैसा भिखारी रास्ते पर चलता हो तो भी सम्राटों को झेंप आ जाये। धर्म इतना समृद्ध बनाता है व्यक्ति को कि भिखारी के पास भी धर्म की अनुभूति हो तो सम्राट दो कौड़ी के मालूम होते हैं। और यह संसार और यहां की धन-दौलत तुम कितनी ही इकट्ठी कर लो, यहां की कौड़ियां तुम कितनी ही जुटा लो, लेकिन अगर तुमने जीवन के समस्त आयाम अनुभव नहीं किये हैं, अगर तुम जीवन को उसकी समग्रता में नहीं जीये हो, परिपूर्णता में अगर तुमने जीवन को अंगीकार नहीं किया है, अभिनंदन नहीं किया है, तो हो सकता है तुम्हारे पास दुनिया-भर की धन-दौलत हो, मगर तुम्हारी आंखों में भिखमंगापन होगा। तुम सिंहासन पर भला बैठे रहो, मगर तुम रहोगे भिखारी। क्योंकि बादशाहत तो सिर्फ उनकी है जो इस अस्तित्व के साथ अपना सरगम जोड़ लेते हैं; जिनका छंद इस अस्तित्व के साथ जुड़ जाता है; जिनका नाच इस अस्तित्व के साथ जुड़ जाता है। जो इस विराट रासलीला के अंग हो जाते हैं।

थोड़े-थोड़े चलो, एक-एक कदम ही सही। एक-एक कदम से हजारों मीलों की यात्रा पूरी हो जाती है।

मेरी दृष्टि तुम्हें समझने में थोड़ी-सी कठिन मालूम होगी, क्योंकि निषेध और निषेध और निषेध में तुम जीये हो। “नहीं’ तुम्हारा स्वर हो गया है और मैं तुम्हें “हां’ कहना सिखा रहा हूं।

प्यार दे सकते न यदि तुम, प्यार का विश्वास तो दो।

अर्चना का गीत बनकर,

जल रहे हैं प्राण मेरे।

कर रहे हैं आरती सी,

ये सिसकते गान मेरे।

तुम सदय हो ठीक, पर

इसका मुझे आभास तो दो।

प्यार दे सकते न यदि तुम, प्यार का विश्वास तो दो।

 

जल चुका है दीप, कैसे

अब जले बाती बता दो।

हृदय यह कब तक संभाले,

पीर की थाती बता दो।

वेदना ही दे रहे हो,

पर कभी उल्लास तो दो।

प्यार दे सकते न यदि तुम, प्यार का विश्वास तो दो।

 

मैं नहीं हूं अमर फिर भी

अमर मेरी भावना है।

स्वर्ण-सी जो तप रही है,

वह मनोरम कामना है।

विरह श्वासों में छिपा कर

मिलन की इक श्वास तो दो।

प्यार दे सकते न यदि तुम, प्यार का विश्वास तो दो।

 

मैं भिखारिन ही सही,

फिर भी नहीं झोली पसारी।

तुम महादानी अमर,

तुमने कभी ली सुधि हमारी?

शून्य सा यह हृदय-वन,

इसमें कभी मधुमास तो दो।

प्यार दे सकते न यदि तुम, प्यार का विश्वास तो दो।

अगर तुम जीवन को समग्रता में जीयो तो वही तुम्हारी प्रार्थना हो जाएगी, वही तुम्हारी अर्चना हो जायेगी और फिर तुम्हें यह न कहना पड़ेगा: प्यार दे सकते न यदि तुम, प्यार का विश्वास तो दो।

प्यार बरसेगा–चहुं-दिशाओं से, ऊपर से नीचे से, इधर से उधर से, बाहर से भीतर से। प्रेम की बाढ़ आ जायेगी। विश्वास न मांगना पड़ेगा। प्रेम ही आ जायेगा। अनुभव आ जायेगा। मैं उस व्यक्ति को धार्मिक कहता हूं जो जीवन को बेशर्त उसकी समग्रता में जीता है। नहीं कुछ इनकार करता है, नहीं कुछ काटता है।

कहता है: जैसा परमात्मा ने बनाया है, वैसा पूरा-पूरा जिऊंगा, क्योंकि इसमें से कुछ भी काटना परमात्मा का अपमान होगा, अवमानना होगी। इस भाव का नाम “आस्तिकता’ है।

 

तीसरा प्रश्न:

 

सभी ज्ञानियों ने पाखंड का बहुत विरोध किया है। लेकिन पाखंड में कुछ है कि वह उनके ही पीछे चलने वाले संप्रदायों में प्रवेश कर जीवन पाता रहा है। पाखंड का इतना बल और आकर्षण क्या है?

 

पाखंड तो बिलकुल निर्बल है, उसमें जरा भी बल नहीं है। और पाखंड में कोई आकर्षण नहीं है–पाखंड में बड़ा विकर्षण है। लेकिन पाखंड अपने पैरों से चलता ही नहीं है; उसके पास अपने पैर हैं भी नहीं। पाखंड आदर्श की आड़ में चलता है। जहां आदर्श दिये जायेंगे वहां पाखंड अनिवार्य रूप से पैदा होगा। पाखंड आदर्श की छाया है; जैसे भरी दुपहरी में तुम चलोगे तो तुम्हारी छाया बनेगी। इस जीवन में जो भी आदर्श लेकर चलेगा वह पीछे पाखंड की छाया को छोड़ जायेगा।

और, इसे समझना निश्चित ही बहुत कठिन है क्योंकि हम तो सोचते हैं आदर्श और पाखंड विपरीत हैं। विपरीत नहीं, संगी-साथी हैं। अनिवार्यरूपेण संगी-साथी हैं। कोई भी आदर्श पैदा करो, तत्क्षण पाखंड पैदा हो जायेगा।

एक ऐसा धर्म चाहिये, जो आदर्शवादी न हो, यथार्थवादी हो। मैं वही तुमसे कह रहा हूं–एक यथार्थवादी धर्म। फिर पाखंड पैदा नहीं हो सकता।

समझो तुमसे किसी ने कहा कि भोजन में स्वाद मत लेना; यह आदर्श है। ऐसा महात्मा गांधी के आश्रम में नियम था– “अस्वाद-व्रत’, भोजन में स्वाद मत लेना। स्वाद लिया तो यह आदर्श से पतन हो गया। अब जिसने स्वाद लिया है, क्या करे? और स्वाद तो आयेगा, क्योंकि तुम्हारी जीभ पर स्वाद लेने की क्षमता वाले अणु हैं। मीठा मीठा मालूम पड़ेगा और कड़वा कड़वा मालूम पड़ेगा। तुम्हारी जीभ जीवित है। हां, कभी-कभी लंबे बुखार के बाद स्वाद नहीं आता है, क्योंकि जीभ मुर्दा हो जाती है, उसकी संवेदनशीलता क्षीण हो जाती है। क्या तुम सोचते हो सारे लोगों की जीभ ऐसी हो जाये जैसे लंबे बुखार के बाद हो जाती है? तुम जीवन के पक्षपाती हो या दुश्मन हो? तुम मृत्यु के पूजक हो या जीवन के आराधक?

लेकिन बड़ी अड़चन हो जायेगी। अगर तुम महात्मा गांधी के आश्रम में थे तो तुम्हारे लिये दो ही उपाय थे। एक तो यह था कि तुम किसी तरह अपने जीवन की संवेदनशीलता नष्ट कर लो। क्योंकि जो बात जीभ पर लागू है वही आंख पर लागू है, वही कान पर लागू है, वह सभी इंद्रियों पर लागू है। व्रतों का अर्थ ही यही है कि धीरे-धीरे सारी इंद्रियों को मार डालो। तुम क्या करते? एक तो रास्ता यह है कि तुम जीभ की संवेदनशीलता नष्ट कर दो। उसके उपाय गांधी ने किये थे। हर व्यक्ति को वह कहते थे कि भोजन के साथ-साथ नीम की चटनी भी खाओ। अब नीम की भी चटनी होती है कोई? और नीम की चटनी खाओगे तो भोजन का स्वाद मर ही जायेगा।

लुई फिशर नाम के एक विचारक ने लिखा है कि मैं गांधी का आश्रम देखने गया।…गांधी के भक्तों में से एक था लुई फिशर। गांधी ने उसे अपने साथ भोजन पर बिठाया और नीम की चटनी तो खास चीज थी। भोजन भी परोसवाया। जो भोजन परोस रहा था, उसने नीम की चटनी नहीं परोसी–यह सोचकर कि नया आदमी है, आगंतुक, कि नीम की चटनी देना…यह कोई अंतेवासी तो नहीं है आश्रम का, अतिथि है। लेकिन गांधी ने देखा कि नीम की चटनी नहीं दी गई तो उन्होंने कहा: अरे! नीम की चटनी दो। तो नीम की चटनी दी गई। लुई फिशर ने तो सोचा कि यह कोई खास चीज होगी। उस बेचारे को क्या पता! उसने चखा–जहर, शुद्ध जहर! तो बड़ा हैरान हुआ। गांधी ने उसे समझाया कि “अस्वाद-व्रत’ का अंग है; इससे जीभ का स्वाद मर जाता है।

लुई फिशर ने सोचा–पश्चिम का आदमी, हिसाब लगाकर चलता है–गणित से उसने सोचा कि यह तो झंझट है, इसमें पूरा भोजन खराब हो जायेगा, अगर यह चटनी के साथ रोटी खानी, सब्जी खानी। उसने सोचा, ज्यादा आसान रास्ता यह होगा–वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी–कि पहले यह चटनी एक ही गटाक में खतम कर जाओ, पानी पी कर मुंह साफ कर लो और फिर मजे से भोजन करो। तो वह जल्दी से एक ही बार किसी तरह जी संभालकर राम-राम कहकर…और उसने पूरा गोला गटक गया। लेकिन गांधी भी ऐसे छोड़ देने वाले तो नहीं। उन्होंने कहा कि और लाओ। देखो, मैंने कहा था कि नहीं, कि चटनी कितनी पसंद आई! और लाओ चटनी!

और चटनी दे दी गई। अब यह भी उपाय न रहा गटकने का। लुई फिशर ने लिखा है कि पूरा भोजन खराब हो गया। मगर स्वाद नहीं आया।

एक तो उपाय यह है–रुग्ण उपाय। और फिर मैं यह पूछता हूं कि चटनी का स्वाद स्वाद नहीं है? यह किसी ने पूछा नहीं है। यह लुई फिशर ने भी नहीं पूछा। मैं जरूर यह पूछना चाहता हूं कि क्या मिठास का स्वाद ही स्वाद है? कड़वाहट का स्वाद स्वाद नहीं है? अगर नीम का स्वाद आया तो अस्वाद-व्रत कैसे सधा? हां, नीम के स्वाद ने जहर ने और सारे स्वादों को मार डाला। लेकिन “अस्वाद-व्रत’ कैसे सधा? यह तो “नीम के स्वाद का व्रत’ सधा। मगर यह है स्वाद का ही व्रत। तुम नीम के प्रेमी हो, इससे इतना ही पता चलता है। इससे कोई अनासक्ति नहीं हो गई, सिर्फ नीम से आसक्ति हो गई।

और मैं मानता हूं कि यह आसक्ति थोड़ी विकृत है, अस्वाभाविक है–यह सहज नहीं है। सरहपा और तिलोपा भी इसका समर्थन न करेंगे; मैं भी नहीं करता हूं। कोई सहज-जीवन की प्रस्तावना करने वाला व्यक्ति इसका समर्थन न करेगा। किसी भी बच्चे को नीम दे दो और पता चल जायेगा। छोटे-से बच्चे को नीम दे दो, वह फौरन थूक देगा। इससे जाहिर हो गया कि यह स्वभाव के प्रतिकूल है। अब बच्चे को किसी ने कहा नहीं था कि नीम थूक देना। बच्चे को मैंने बिगाड़ा नहीं था, मुझे कसूर न दो सकोगे। बच्चा मुझे सुनने आया भी नहीं था, मेरा संन्यासी भी नहीं था। बच्चा अभी बोल भी नहीं सकता, पढ़ भी नहीं सकता। बिन-बोलते बच्चे को नीम दे दो, वह थूक देगा। इससे जाहिर है कि यह स्वभाव के प्रतिकूल है। और जो स्वभाव के प्रतिकूल है उससे अपने को बांधना दमन है।

तो, एक तो उपाय यह है–जो कि तुम्हें विकृति की तरफ, पैथालाजी की तरफ ले जायेगा, तुम्हें रुग्ण करेगा; तुम्हारे जीवन की सारी सहजता, स्वाभाविकता नष्ट कर देगा, खंडित कर देगा।

अब दूसरा उपाय यह है कि स्वाद भी लेते रहो और लोगों से कहते रहो कि मुझे स्वाद आता ही नहीं है। तब पाखंड पैदा होगा। पाखंड का मतलब क्या होता है? पाखंड का अर्थ होता है: आदर्श मानता हूं मैं और आदर्श पूरा होता नहीं; तो अब मैं झूठा ही दावा करता हूं कि आदर्श पूरा हो रहा है, कि मुझे स्वाद आता ही नहीं।

झूठे, असंभव आदर्श लोगों को दोगे और वे पाखंडी हो जायेंगे तो फिर तुम उनको गाली देते हो कि तुम पाखंडी हो। जीवन को सहज रहने दो, फिर कोई पाखंड नहीं होता। बच्चे पाखंडी नहीं होते। उन्हें जो अच्छा लगता है, कह देते हैं साफ: “अच्छा’; जो अच्छा नहीं लगता, कह देते हैं: “अच्छा नहीं’। पाखंडी तो, जैसे-जैसे हम कुशल हो जाते हैं, जगत के हिसाब में, तब हो जाते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन के घर एक मेहमान आने को थे–बड़े धनपति। मगर एक खतरा था–मुल्ला का छोटा बेटा। क्योंकि वह जो धनपति आ रहे थे उनकी नाक बहुत बड़ी थी–इतनी बड़ी कि नाक ही नाक दिखाई पड़ती थी। मुल्ला भी परेशान था और पत्नी भी परेशान थी कि बेटा कुछ न कुछ कह न दे कि अरे! इतनी बड़ी नाक! और धनपति को ला रहे थे खुशामद के लिये, उससे कुछ काम था कि कहीं वह नाराज न हो जाये! और सबको पता था कि जो भी उनके नाक के संबंध में बात उठा देता, उससे वह नाराज हो जाता। क्योंकि उसकी नाक बड़ी कुरूप थी, बड़ी बेढंगी थी। तो दोनों ने कई दिन तक, तीन-चार दिन तक बेटे को तैयार किया कि देख खयाल रख, और सब करना, नाक की बात मत छेड़ना। नाक की तरफ देखना ही मत तू, इधर-उधर देखना, मगर नाक मत देखना।

बेटा भी हैरान था, कि नाक में ऐसा क्या होगा! तीन दिन हो गये शिक्षण देते-देते। फिर भी डरे थे, क्योंकि बच्चे बच्चे हैं। कितना ही समझाओ, उनको पाखंडी बनाना बड़ा मुश्किल होता है। दोनों शंकित थे और कंप रहे थे। आखिर धनपति आया। मुल्ला ने स्वागत किया: विराजो। पत्नी ने स्वागत किया। लेकिन दोनों डरे, बच्चे पर नजर रखे हुए थे–वह कहीं नाक तो नहीं देख रहा है! और बच्चा एकदम नाक ही देख रहा है, और कुछ देखता ही नहीं है। अगर उसे न कहा होता तो शायद वह और कुछ भी देखता…शायद उसने एकाध दफे नाक देख ली होती और उसने कहा होता: ठीक है, हर तरह की चीज दुनिया में होती है। बच्चों को अड़चन ऐसी खास आती नहीं है। मगर वह एकदम एक टकटकी लगाये और कहीं देखे ही नहीं, आंख की पलक भी न झपे…तीन दिन जिसको समझाया हो।

घबड़ाहट बढ़ती गई। मगर बेटा कुछ बोला नहीं। इतनी ही सांत्वना थी कि कुछ बोल नहीं रहा है। मगर घबड़ाहट बढ़ती चली गई। पत्नी भोजन परोस रही है, मगर हाथ कंप रहा है कि यह उसकी नाक की तरफ ही देख रहा है। अब उससे यह भी नहीं कह सकते कि नाक की तरफ मत देखो। सोच रही है कि जरा जाने दो मेहमान को, इसकी कुटाई करनी पड़ेगी। तीन दिन समझाया मूढ़ को, इसको और कुछ नहीं सूझ रहा है, पलक नहीं झप रहा है। धनी को असमंजस में डाल रहा है।

और मुल्ला भी कुड़बुड़ा रहा है दिल ही दिल, मगर अब कर भी क्या सकते हो? बेटा सामने ही बैठा है और नाक देखे चला जा रहा है। आखिर,पत्नी ने, किसी तरह सब निपटा जा रहा है, प्रसन्न थी, चाय की प्याली लायी आखिर। चाय की प्याली धनपति को दी। मन में तो उसके वही लगा है। फिर उसने कहा कि “आप की नाक में कितनी शक्कर डालूं?’

नाक ही नाक, नाक ही नाक…छिपाये छिपती नहीं बात। कहने गयी थी कि आपकी प्याली में कितनी शक्कर डालूं, मगर प्याली तो छोटी और नाक बड़ी। और उसके मन में तो एक ही शब्द गूंज रहा है–“नाक’ और वह बेटा देखे जा रहा है और काम खराब हुआ जा रहा है।

पाखंड पैदा होते हैं झूठे आदर्श थोप दो तो। इस जगत में इतने पाखंड दिखाई पड़ रहे हैं, ये तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों के कारण।

आनंद मैत्रेय, तुम पूछते हो: “सभी ज्ञानियों ने पाखंड का बहुत विरोध किया है…।’ ज्ञानियों ने अगर सिर्फ पाखंड का विरोध किया है तो वे ज्ञानी थे ही नहीं, सिर्फ पंडित थे। ज्ञानी तो वे हैं जिन्होंने आदर्श और पाखंड दोनों का विरोध किया है। वे ही ज्ञानी हैं। उन्हीं को पता है। क्योंकि जिसने आदर्श का भी विरोध किया है, उसने ही वस्तुतः पाखंड का विरोध किया है–न होंगे आदर्श, न होंगे पाखंड। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।

इसलिये मैं तुम्हें कोई आदर्श नहीं दे रहा हूं। यही सहज-योग की आधारभूत मान्यता है। न सरहपा न तिलोपा कोई आदर्श दे रहे हैं। वे कह रहे हैं: जो व्यर्थ है, क्रियाकांड है, उसे जाने दो। हम तुम्हें कोई भी विधायक आदर्श नहीं दे रहे हैं कि तुम्हें ऐसे होना चाहिये। क्योंकि अगर तुम न हो पाये तो फिर क्या करोगे? और तुम न हो पाओगे, यह सुनिश्चित है। क्यों? क्योंकि, आदर्श आते कहां से हैं? आदर्शों का जन्म कैसे होता है? इसकी प्रक्रिया समझो।

महावीर नग्न हो गये। अब एक आदर्श पैदा हो जायेगा कि जिसको भी ज्ञान पाना है वह नग्न हो जाये। यह महावीर की मौज थी, इसकी ज्ञान से कोई अनिवार्यता नहीं है यह कोई ज्ञान का कारण नहीं है कि नग्न होने से कोई ज्ञान को उपलब्ध होता है। यह महावीर की मस्ती थी।

जीसस बिना नग्न हुए हो गये उपलब्ध ज्ञान को। बुद्ध भी हो गये, कृष्ण भी हो गये। जरथुस्त्र भी हो गये, लाओत्सु भी हो गये। मुहम्मद भी हो गये। ज्ञान को लोग उपलब्ध हो गये–बिना नग्न हुए! तो यह महावीर की अपनी निजी मौज थी। इसका ज्ञान से कोई अनिवार्यरूपेण संबंध नहीं है।

तुमने गोल दीया बनाया, किसी ने तिकोन दीया बनाया। किसी ने सोने का दीया बनाया, किसी ने मिट्टी का, किसी ने चांदी का। किसी ने अपने दीये पर हीरे जड़ दिये, किसी ने यह रूप दिया किसी ने वह रूप दिया। इससे क्या तुम सोचते हो कि ज्योति का कोई अनिवार्य संबंध है? वह जो दीये में ज्योति जलेगी, क्या वह ज्योति भिन्न होगी सोने के दीये में मिट्टी के दीये से? हीरे लगे दीये में भिन्न होगी, साधारण पीतल के दीये से? ज्योति तो एक है, दीयों में भिन्नता है। और अच्छा है। महावीर को मौज आई, उन्होंने वस्त्र छोड़ दिये। लेकिन इससे ज्ञान की कोई अनिवार्यता नहीं है।

लेकिन फिर महावीर के पीछे चलने वाली परंपरा सोचती है कि जब तक नग्न न होओगे तब तक ज्ञान न होगा।

मैं एक जैन मुनि को जानता हूं–गणेश वर्णी। वे जिंदगी-भर कोशिश करते रहे मुनि हो जाने की। जैनों में सीढ़ियां होती हैं। मुनि का मतलब–दिगंबर–जैनों में मुनि का अर्थ होता है नग्न। उसके पहले सीढ़ियां होती हैं–ब्रह्मचारी होता है, फिर कोई क्षुल्लक होता है, फिर एलक होता है। यह सब सीढ़ियां होती हैं–कितने वस्त्र छोड़ते गए, उस हिसाब से। आखिर में लंगोटी रह जाती है, फिर लंगोटी भी छूट जाती है, तब कोई मुनि होता है। गणेशवर्णी ने जीवन भर चेष्टा की कि मुनि हो जायें, लेकिन लंगोटी छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। जरूरत भी नहीं थी। संकोची आदमी रहे होंगे कि नंगा घूमना सड़क पर…नहीं जमा होगा। लेकिन मन में तो भाव था ही कि जब तक नग्न न हुए तब तक ज्ञान न हुआ। फिर मरते समय बेहोश हो गये, बेहोश होते-होते उन्होंने कहा कि जल्दी से मेरी लंगोटी और मेरी चादर अलग कर दो। कम से कम मर तो जायें मुनि होकर! उनकी बेहोशी की हालत में उनकी चादर और उनकी लंगोटी अलग की गई। उनकी बेहोशी की हालत में उनको मुनि की दीक्षा दी गई–बेहोशी हालत में।

क्या खेल कर रहे हो? ऐसे तो तुम अस्पताल में किसी को भी दे सकते हो मुनि-दीक्षा। जरा-सा क्लोरोफार्म सुंघा दो, दे दो मुनि की दीक्षा। तो क्या तुम सोचते हो वह आदमी मरकर मोक्ष चला जायेगा? मगर इस तरह से झंझट खड़ी हो जाती है। जब एक बात पकड़ ली कि नग्न हुए बिना मोक्ष हो ही नहीं सकता तो अड़चन आ गई। अब सबको नग्न होना पड़ेगा। अब यह नग्नता में पाखंड आया।

महावीर नग्न थे तो नग्न ही सोते थे–न कोई बिस्तर, न कोई कंबल–सवाल ही नहीं उठता। यह महावीर के लिये ठीक रहा होगा, कोई अड़चन न आई उन्हें। अब दिगंबर जैन मुनि, उसको तो ठंड लगती है। अलग-अलग तरह के लोग हैं।

मैं एक सज्जन को जानता हूं, जिनको मच्छर नहीं काटते। उनके खून में ऐसी बास है कि मच्छर भी एकदम दूर-दूर भागते हैं। हम दोनों एक ही कमरे में सोये। वह बोले: मच्छरदानी की क्या जरूरत? मैंने कहा: इतने मच्छर हैं यहां! उन्होंने कहा: रहने दो, मच्छर क्या कर लेंगे? मैं चकित हुआ। रात भर में सुबह तक मुझे तो इतने मच्छर काट गये कि सारा शरीर मच्छरों के ही काटे चिह्नों से भर गया। मगर उन सज्जन को एक मच्छर ने न काटा। उन्होंने कहा: मुझे काटते ही नहीं। इसमें जरूर आपकी कोई गलती होगी। नहीं तो मच्छर क्यों काटते आपको?

मैंने उनके पास जाकर उनका शरीर सूंघा और मैंने कहा कि मैं समझ गया, तुम्हारे शरीर से इस तरह की बास आ रही है कि शायद मच्छरों को जमती नहीं। आखिर मच्छरों से बचने की जो दवाइयां बनाई गई हैं, वे भी बास के आधार पर बनाई गई हैं। इसी तरह के लोगों का अध्ययन करके कि जिनके खून में इस तरह की बास है तो फिर इस तरह की दवाइयां बनाई गई हैं–मलहम, उनको लगा लिया और मच्छर नहीं आता; वह एक खास तरह की बास से दूर ही दूर रहता है।

अब हो सकता है महावीर को मच्छर न काटते हों तो वे नग्न रह लिये, मजे में। अब जिसको मच्छर काटते हैं वह नग्न रहेगा तो मुश्किल में पड़ेगा। तो फिर अब उपद्रव करना पड़ेगा। छिपाकर कहीं चोरी से रखे रहो एक मच्छरदानी, कि जब सब चले जायें दरवाजा बंद करके अपनी मच्छरदानी लगा कर सो जाओ। अब यह पाखंड हुआ। महावीर का शरीर, हो सकता है, इस तरह का रहा हो कि उन्हीं जरूरत नहीं थी वस्त्रों की, कि रात उन्हें कंबल ओढ़ने की जरूरत नहीं थी। सबके शरीर भिन्न-भिन्न हैं।

लेकिन अब जैन दिगंबर-मुनि की बड़ी अड़चन है, वह क्या करे? तो उपाय करने पड़ते हैं। उपाय क्या हैं? कपड़े तो ओढ़ाए नहीं जा सकते, तो फिर कमरे को बिलकुल बंद कर देते हैं जहां जैन-मुनि ठहरते है–दीवार-दरवाजा सब बंद कर देते हैं, सब तरह से, ताकि जरा भी हवा अंदर न जा सके। और फिर जमीन पर बिछा देते हैं घास-पूस, ताकि घास-पूस की गरमी बनी रहे। और फिर जब मुनि लेट जाता है तो उसके ऊपर से डाल देते हैं घास-पूस, ताकि वह घास-पूस के अंदर पड़ा रहे। अब अगर तुम जैन मुनि से पूछो कि यह तो कोई बात न हुई–इतना उपद्रव करना, दरवाजा बंद करना, खिड़की बंद करना, फिर घास-पूस बिछाना, फिर घास-पूस ऊपर से डालना–इससे बहेतर है कि एक कंबल बिछा लेते, एक कंबल ओढ़ लेते, ज्यादा आसान था, ज्यादा सुगम था, कम झंझट का था। लेकिन वह तो वह कर ही नहीं सकता। वह कहता: घास-पूस से मुझे क्या लेना? मैंने तो घास-पूस बिछा हुआ पाया, तो मैं सो गया। मैंने तो नहीं बिछाया। अब देखते हो पाखंड कैसे पैदा होता है!…मैंने बिछाया नहीं! वह नहीं बिछाता खुद, इसलिये उसको दोष नहीं है। और जब मैं लेट गया, लोगों ने घास-पूस ऊपर से डाल दिया, मैं क्या करूं! मैंने डाला नहीं! इसका नाम पाखंड।

एक सज्जन मेरे पास आये। हिंदू-संन्यासी। बंबई की बात। ध्यान समझने आये। मैंने कहा कि ध्यान का शिविर ही चल रहा है, कल सुबह तुम शिविर में आ जाओ। ठीक से वहां ध्यान करो दो-चार दिन, फिर पूछ लेना।

तो उन्होंने कहा: वह तो जरा कठिन है, मैं आ न सकूंगा। मैंने कहा: क्या कारण है? उन्होंने कहा: कारण यह है कि मैं पैसे अपने पास नहीं रखता। पैसे का मैंने त्याग कर दिया है। मैं छूता ही नहीं हाथ से।

तो मैंने कहा: मेरी समझ में नहीं आया, पैसा छूने से सुबह ध्यान करने आने का क्या संबंध?

उन्होंने कहा: आपके खयाल में नहीं आ रही है बात। घाटकोपर रुका हूं। उधर से आते में टैक्सी करनी पड़ेगी।

तो मैंने कहा: यहां तक तुम कैसे आये? तो उन्होंने कहा: ये जो मित्र मेरे साथ हैं, ये कल नहीं आ सकते, इनको कल काम है। ये पैसा रखते हैं। ये पैसा चुकाते हैं, लेते हैं, देते हैं। मैं पैसा छूता नहीं।

मैंने पूछा कि यह पैसा इनके पास कहां से आता है? तो उन्होंने कहा: पैसा तो जो लोग मुझे चढ़ाते हैं–वह ये रखते हैं।

पैसा इनको चढ़ता है, एक सज्जन रखते हैं! वे सज्जन खर्चा करते हैं। अब कल चूंकि वे नहीं आ सकते, इनको अस्पताल जाना है, इसलिये कल बड़ी मुश्किल हो गई, ध्यान करने नहीं आ सकते! क्या पाखंड चला रहे हो! एक आदमी से जो काम हो जाता, उसमें दो को लगा रहे हो! पैसे तुमको चढ़ाये जाते हैं, उनको तो कोई चढ़ाता नहीं। ये सिर्फ दलाल हैं। ये सिर्फ तुम्हारे पैसे रखते हैं!

मैंने उनसे पूछा कि ये धोखा-धाखा नहीं करते कि कितने के कितने बनाये? उन्होंने कहा कि नहीं, हिसाब तो मैं रखता हूं। हिसाब मैं रख सकता हूं। अंधा नहीं हूं।

हिसाब तुम रखते हो, पैसा तुम रखते नहीं हो, किस खेल में पड़े हो! और ये सोच रहे हैं कि एक बहुत बड़ा काम इन्होंने कर लिया है, किस खेल में पड़े हो। आदर्श बनाओगे? आदर्श बनाओगे कैसे? किसी को देखकर बनाओगे। बस, किसी को देखकर बनाया कि झंझट शुरू हुई। इस जगत में दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं इसलिये आदर्श से पाखंड पैदा होता है। इस जगत में व्यक्ति-व्यक्ति भिन्न हैं। कृष्ण का आदर्श बनाओगे, बस तुम मुश्किल में पड़ जाओगे; तुम कृष्ण नहीं हो। महावीर का आदर्श बनाओगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे; तुम महावीर नहीं हो। महावीर भी किसी और का आदर्श मानकर नहीं चले थे; चलते तो वे भी पाखंडी हो जाते। वे अपनी सहजता से जीये, इसलिये कोई पाखंड न था। इस बात को खूब समझ लो गहराई से।

जो भी सहजता से जीता है, जिसका कोई आदर्श नहीं है, जो अपने स्वभाव से जीता है–किसी धारणा के अनुसार नहीं; जो किसी तरह का आचरण नहीं बनाता, अपने अंतस से जीता है–उसके जीवन में पाखंड नहीं होता। उसके जीवन में कोई पाखंड कभी नहीं होता। जो स्वाभाविक है वही करता है, पाखंड का सवाल ही नहीं। मगर जो लोग दूसरे का अनुकरण करेंगे वे सब पाखंडी हो जाते हैं।

इसलिये दुनिया में इतना पाखंड है, क्योंकि सारे लोग अनुकरण कर रहे हैं–कोई महावीर का, कोई बुद्ध का, कोई कृष्ण का। ये सब पाखंडी हो जाने वाले हैं।

इसलिये मैं अपने संन्यासी से कहता हूं कि मैं तुम्हारा आदर्श नहीं हूं। मेरे ढंग से जीने की चेष्टा मत करना। मैं नहीं चाहता कि मैं तुम्हारे ऊपर आरोपित हो जाऊं, नहीं तो मुश्किल होगी; नहीं तो कठिनाई में पड़ोगे, पाखंडी हो जाओगे। मैं जैसा जी रहा हूं वह मेरे लिये स्वाभाविक है। मैं किसी को आदर्श मानकर नहीं जी रहा हूं।

यही तो इस देश को अड़चन है कि मैं किसी को आदर्श मानकर नहीं जी रहा हूं, मैं अपने ढंग से जी रहा हूं। देश को अड़चन है कि वे पूछते हैं कि रामकृष्ण परमहंस तो ऐसे जीते थे, आप ऐसे क्यों जी रहे हैं? रामकृष्ण परमहंस अपने स्वभाव से जीते थे, मैं अपने स्वभाव से जी रहा हूं। न तो रामकृष्ण परमहंस को मेरे अनुसार जीने की जरूरत है, न मुझे रामकृष्ण परमहंस के अनुसार जीने की जरूरत है।

वे पूछते हैं कि बुद्ध तो ऐसा जीते थे, आप ऐसा क्यों जी रहे हैं? जैसे बुद्ध ने कोई ठेका ले रखा है कि अब दुनिया में सबको वैसे ही जीना पड़ेगा! तब तो जिंदगी बड़ी उदास हो जायेगी, बड़ी पाखंडी हो जायेगी। बुद्ध बड़े प्यारे हैं, मगर उनकी खूबी यही है कि वे पुनरुक्त नहीं किये जा सकते हैं। कोई उनकी कार्बनकापी नहीं हो सकता है और जो भी होगा वह कुरूप होगा। कार्बन-कापियां सदा कुरूप होती हैं। मौलिक बनो।

आदर्श सीखोगे कहां से? आदर्श सदा दूसरे से सीखोगे और जो भी दूसरे से सीखा गया वह पाखंड पैदा करवायेगा। उसे तुम पूरा कर न सकोगे, क्योंकि तुम्हारे अनुकूल न पड़ेगा, तुम वैसे हो नहीं। तुम तो बस “तुम’ जैसे हो। तुम्हारे जैसा न कभी कोई हुआ न कभी होगा कोई। तुम्हें तो सिर्फ अपना स्वभाव जीना है। फिर पाखंड नहीं होगा।

तो तुम पूछते हो मैत्रेय, कि सभी ज्ञानियों ने पाखंड का विरोध किया है…। लेकिन अगर ज्ञानियों ने सिर्फ पाखंड का विरोध किया हो तो वे ज्ञानी नहीं हैं। असली ज्ञानी पाखंड का विरोध तो पीछे करेगा, पहले आदर्श का विरोध करेगा। क्योंकि आदर्श कट जाये तो जड़ कट गई पाखंड की। यही सरहपा और तिलोपा कह रहे हैं।

इसलिये तुम देखते हो, सरहपा और तिलोपा का नाम ही मिट गया है इस देश से। क्योंकि उन्होंने कोई आदर्श नहीं सिखाया उन्होंने स्वतंत्रता सिखायी है, आदर्श नहीं। उन्होंने अंतस जगाया, आचरण नहीं दिया। उन्होंने तुम्हें चरित्र नहीं दिया, उन्होंने तुम्हें बोध दिया। उन्होंने तुम्हें इतना बोध दिया कि तुम अपने अनुसार जी सको और इतना बल दिया कि चाहे लाख अड़चनें हों, तुम अपने ही अनुसार जीना। टूटना हो तो टूट जाना–मगर झुकना मत, अपने ही ढंग से जीना। मिटना पड़े तो मिट जाना, मगर स्वयं रहकर मिटना। अपनी निजता को किसी कीमत पर खोना मत। कोई सौदा मत करना, कोई समझौता मत करना।

इसलिये तो सरहपा-तिलोपा भूल गये; तुलसीदास याद हैं; तुलसीदास कंठस्थ हैं, क्योंकि आदर्श की बात हो रही है और पाखंड का विरोध हो रहा है। और मजा यह है कि आदर्श से पाखंड पैदा होता है।

जब तक दुनिया में आदर्श हैं तब तक दुनिया में पाखंड रहेगा। अगर चाहते हो दुनिया गैर-पाखंडी हो जाये तो आदर्शों को नमस्कार कर लो, विदा कर दो; फिर तुम देखो कोई पाखंड नहीं। तुमने इतनी छोटी-सी बात, इतनी सीधी-साफ गणित की, विज्ञान की बात भी देखी नहीं कभी। तुम तो थोपे ही जाते हो आदर्श।

हर बाप अपने बच्चों पर आदर्श थोप रहा है, हर समाज अपने बच्चों पर आदर्श थोप रहा है, हर पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी पर आदर्श थोप रही है। और फिर जब आदर्श नहीं माना जाता तो दो ही उपाय हैं: या तो वह व्यक्ति अपराधी हो जाता है या पाखंडी हो जाता है। आदर्श न माने तो पाखंडी, दिखाये सिर्र्फ। और अगर ईमानदार हो तो फिर अपराधी। तुम विकल्प ही नहीं छोड़ते लोगों के लिये, तुमने फांसी लगा दी–या तो अपराधी या पाखंडी।

यह कैसा धर्म है! यह कैसी चिंतन-प्रक्रिया है! तुमने दो ही रास्ते छोड़े हैं लोगों के लिये। तो कुछ अपराधी हो जाते हैं, कुछ पाखंडी हो जाते हैं। दोनों बातें बुरी हैं।

आदर्श से छुटकारा करो। हर बच्चे को क्षमता दो, सहारा दो कि वह स्वयं हो सके। इतनी आत्मा दो कि उसे सारे संसार के विपरीत भी अगर लड़ना पड़े तो लड़े और खड़ा हो अपने बल से, चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। अपनी निजता में जीकर मर जाना लाख गुना बेहतर है–उस जीवन से, जो समझौते पर खड़ा होता है। फिर न तो तुम अपराधी होओगे न तुम पाखंडी होओगे।

इस बात से तुम्हें बहुत बेचैनी होगी क्योंकि तुम तो यही सोचते थे कि आदर्श ज्यादा से त्यादा फैल जायें तो लोग पाखंडी न हों। मैं यह कह रहा हूं: आदर्श जितने फैलेंगे उतने लोग पाखंडी होंगे। दोनों को विदा देना है। कम से कम मेरे संन्यासी को दोनों को विदा देना है।

करो निज की घोषणा। उसी घोषणा में तुम परमात्मा के निकट आने लगोगे, क्योंकि तुम्हारी निजता ही परमात्मा को छिपाए है।

 

इसी से संबंधित प्रश्न है चौथा:

 

ओशो, यहूदी संत मुरजुत्रा का विचार था कि चेले ऐसे पात्र हैं कि उनमें गुरु का रंग झलकना चाहिये। यदि गुरु की गुरुता के बावजूद शिष्य में अपेक्षित गुण नहीं आये तो उसमें दोष गुरु का है; उसे ही अपना दोषी होना चाहिये।

इससे शिष्य को दंड देने के पहले वह अपने को दंड दे लिया करता था।

कृपा करके संत मुरजुत्रा के इस वचन का आशय हमें कहिये।

 

मुरजुत्रा मेरी दृष्टि में संत जरा भी नहीं है। मुरजुत्रा लोगों के ऊपर जबरदस्ती कर रहा है, हिंसात्मक है। तुम कहते हो कि “चेले ऐसे पात्र हैं’, वह कहता था “कि उनमें गुरु का रंग झलकना चाहिये।’ क्यों? गुरु का रंग चेलों में क्यों झलकना चाहिये? गुरु का रंग गुरु का रंग है, चेलों में चेलों का रंग झलकना चाहिये। गुलाब का फूल जूही के फूल में क्यों झलके? चमेली का फूल चंपा के फूल में क्यों झलके? कोई किसी पर क्यों झलके? यह आग्रह तो अहंकार का आग्रह है।

अहंकार चाहता है सारी दुनिया मेरी जैसी हो जाये। और जो मेरे जैसा नहीं है उसे जीने का कोई हक नहीं होना चाहिये।

स्वामी कृष्ण प्रेम और मा मधुरा को मोरारजी देसाई ने कहा: “अगर मेरे बस में होता तो मैं तुम्हारे गुरु के आश्रम को नेस्तनाबूद कर देता।’ क्यों? जो मेरे अनुकूल नहीं है, उसे जीने का भी हक नहीं है! यह लोकतंत्र है! ये लोकतंत्र के दावेदार हैं! “…नेस्तनाबूद कर देता’ यह आकांक्षा अहंकार की आकांक्षा है। यह कोई सदगुण नहीं है।

सच्चा गुरु वही है, जो तुम्हें सहारा देगा ताकि तुम्हारा रंग तुम में प्रगट हो, तुम्हारा फूल खिले। सच्चा गुरु वही है जो अपना रंग तुम्हें देगा ही नहीं, तुम चाहो तो भी नहीं देगा। तुम तो चाहोगे, क्योंकि तुम तो हमेशा सदा सस्ती चीज की आकांक्षा में होते हो। तुम तो चाहोगे कि गुरु बता दे आचरण के सूत्र, बस दे दे कोई पांच-सूत्री कार्यक्रम–कि इतने बजे उठ आना, इतनी लंबी चोटी रख लेना, इस तरह का खाना खा लेना, यह प्रार्थना कर लेना, बस बाकी सब हो जायेगा। तुम तो कुछ सस्ता चाहते हो। तुम जीवन को दांव पर लगाना नहीं चाहते।

कोई सच्चा गुरु तुम्हें इतना सस्ता नहीं छोड़ सकता, और कोई सच्चा गुरु तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी नहीं कर सकता। तुम तो चाहते हो किसी की अनुकृति बन जाओ। मगर सच्चा गुरु वही है जो तुम्हें जगायेगा और कहेगा कि तुम स्वयं हो। तुम स्वयं बनो! तुम अपने ही रंग, अपने ही ढंग, अपने ही गीत को गाते हुए परमात्मा की तरफ जाना। तुम अपनी ही आत्मा को निखारो, फिर कौन जाने चमेली पैदा हो, कि जुही पैदा हो, कि रजनीगंधा पैदा हो क्या पता? तुम्हारा रहस्य अभी छिपा है। तुम गुलाब ही हो, यह जरूरी तो नहीं है कि तुम कमल ही हो, यह जरूरी तो नहीं है। तुम्हारा भविष्य क्या लायेगा, इसकी कोई घोषणा नहीं की जा सकती, कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

तुम रहस्य हो, तुम्हारे रहस्य को खराब नहीं करना है। और अगर कोई गुरु अगर तुम्हारे ऊपर अपना रंग चढ़ा दे, तो फिर तुम्हारी आत्मा का रंग कैसे प्रगट होगा, कब प्रगट होगा? गुरु का रंग चढ़ गया, यह तो ऐसे ही हुआ जैसे स्त्रियों ने अपने ओंठों पर लिपस्टिक लगा लिया। उनके अपने ओंठों का रंग फिर प्रगट होगा ही नहीं। ओंठों में लालिमा होनी चाहिये, यह तो समझ आने वाली बात है। मगर लिपस्टिक से रंग लिया! और इस झूठ को भी लोग सौंदर्र्य समझते हैं।

जरा स्त्रियों की नादानी देखते हो, ओंठों को रंगे चली जा रही हैं बाजारों में और सोचती हैं सुंदर हैं! फूहड़पन है। यह सौंदर्य नहीं है, जड़ता है। और यह जड़ता बढ़ती जा रही है। अब तो पलकों पर झूठे बाल लगाने का उपाय हो गया है। तो आंख की पलकों पर झूठे बाल लगाकर लोग निकल रहे हैं। इस झूठ को तुम जीवन कहते हो! और यही झूठ तुम धर्म की दुनिया में भी ले जाओगे!

मुल्ला नसरुद्दीन ने शादी की। सुहागरात। दोनों बैठे, दोनों चिंतित। कौन शुरुआत करे? मुल्ला ने कहा कि क्षमा कर एक बात अब मैं तुझे बता ही दूं, जो मैंने अभी तक बताई नहीं थी कि मेरे बाल नकली हैं। यह विग लगाये हुए हूं। अब यह बता ही देना ठीक है, क्योंकि अब यह कितनी देर चलेगा! जब तक ऐसे मिलना-जुलना चलता था, सागर के तट पर और फिल्म में और होटल में, तब तक ठीक था कि विग लगाये रहे।

पत्नी तो एकदम प्रसन्न हो गयी, पास आकर उसने मुल्ला का हाथ पकड़ लिया। उसने कहा: तुमने मेरा भार ही उतार दिया। तो अब फिर मैं भी क्यों छिपाऊं!

मुल्ला ने कहा: मतलब?

पत्नी ने कहा: मेरे दांत झूठे हैं। बाल भी झूठे हैं, एक टांग भी झूठी है! अब जब प्रेम ही हो गया, और साथ ही हैं तो सच ही सच बात हो जाये।

ऐसा ही चल रहा है बाहर के जीवन में तो। बाहर के जीवन में चलता हो, ठीक है, चलने दो। लेकिन कम-से-कम अंतस-जीवन में तो ऐसा न चलाओ। जब तुम बुद्ध जैसे बनकर बैठ जाते हो, तो तब तुमने विग लगा लिया, कि तुम खड़े हो गये बिलकुल कृष्ण की भांति पैर पर पैर रखकर और बांसुरी लगाकर। तो नाटक वगैरह में, नौटंकी वगैरह में काम करते हो तो ठीक है, मगर जिंदगी में नहीं हो सकेगा यह। जिंदगी सच्ची होनी चाहिये।

मुरजुत्रा को मैं संत मानने को राजी नहीं हूं। मगर मुरजुत्रा को बहुत से लोगों ने संत माना है, जैसे महात्मा गांधी को बहुत-से लोगों ने महात्मा माना है। दोनों एक जैसे आदमी हैं। दोनों की पकड़ एक जैसी है। दोनों की तर्क-सरणी एक है। मुरजुत्रा कहता है: चेले ऐसे पात्र हैं…। पात्र! जैसे चेलों की कोई आत्मा नहीं है!

“चेले ऐसे पात्र हैं, जिनमें गुरु का रंग झलकना चाहिए।’…क्यों? अगर सदगुरु हो तो शिष्य में सदा ही शिष्य का रंग झलकता है। सिर्फ झूठे गुरु शिष्यों के चेहरे पर रंग-रोगन कर देते हैं। सिर्फ झूठे गुरु उनको अनुकृतियों में बदल देते हैं। सिर्फ झूठे गुरु उनसे कहते हैं: अनुसरण करो। सच्चे गुरु कहते हैं: अपनी आत्मा की तलाश करो। सच्चे गुरु उन्हें व्यक्तित्व देते हैं, मुखौटे नहीं।

मुरजुत्रा कहता है: चेले ऐसे पात्र हैं कि उनमें गुरु का रंग झलकना चाहिये। यदि गुरु की गुरुता के बावजूद शिष्य में अपेक्षित गुण नहीं आये तो उसमें दोष गुरु का है।

कौन करेगा अपेक्षा गुण की? प्रत्येक व्यक्ति इतना भिन्न है और यहां कोई भी किसी की अपेक्षा पूरी करने को आया नहीं है। प्रत्येक को अपनी अंतरात्मा पूरी करनी है, किसी और की अपेक्षा नहीं। यही तो हमारे जीवन का कष्ट है। पति पत्नी की अपेक्षा पूरी कर रहा है और कष्ट भोग रहा है। पत्नी पति की अपेक्षा पूरी कर रही है और कष्ट भोग रही है, बच्चे मां-बाप की अपेक्षाएं पूरी कर रहे हैं और कष्ट भोग रहे हैं। हरेक दूसरे की अपेक्षाएं पूरी कर रहा है। तुम्हारी आत्मा कब पूरी होगी? मैं एक घर में मेहमान था। एक छोटा बच्चा घर का मेरे पास सुबह-सुबह बैठा था। मैंने उससे पूछा: तेरा बनने का इरादा क्या है?

उसने कहा: मैं पागल हुआ जा रहा हूं।

“पागल हुआ जा रहा है? तुझे हुआ क्या? अभी से पागलपन!’

उसने कहा: इसलिये पागल हुआ जा रहा कि मेरी मां चाहती है कि मैं संगीतज्ञ बनूं, मेरे पिता चाहते हैं कि मैं वैज्ञानिक बनूं, मेरे काका चाहते हैं कि मैं इंजिनियर बनूं, मेरी काकी चाहती है कि मैं डाक्टर बनूं। मैं पागल हुआ जा रहा हूं।

ये सारे लोगों की इतनी अपेक्षाएं, किस-किसकी अपेक्षा पूरी करोगे! और जब सभी की अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं–और सभी की हो भी नहीं सकतीं–तो सभी दुखी हो जाते हैं तुम्हारे चारों तरफ, सभी तुमसे खिन्न हो जाते हैं।

तुम जानते हो, बुद्ध जैसे बेटे को पाकर भी बुद्ध के बाप प्रसन्न नहीं थे, क्योंकि अपेक्षा पूरी नहीं हुई। अपेक्षा थी कि बुद्ध चक्रवर्ती सम्राट बनेंगे और बुद्ध बन गये संन्यासी। बुद्ध जैसे बेटे को पाकर भी बाप संतुष्ट नहीं। तब तो समझ लो कि इस जगत में संतुष्ट कोई हो न सकेगा। जीसस को पाकर जीसस के पिता संतुष्ट नहीं थे। क्योंकि जीसस की बगावती बातें पिता को कष्ट देती थीं, ऐसी अपेक्षा न थी।

हम सब अपेक्षाएं थोप रहे हैं। गुरु तो कम से कम ऐसा होना चाहिये जो अपेक्षा न थोपे। यह अपेक्षा थोपने का धंधा तो सारी दुनिया में चल रहा है। यही तो संसार है: अपेक्षा थोपना। गुरु तुम्हें संसार के बाहर ले जाता है। फिर वहां भी अपेक्षा ही थोपी जायेगी!

“मेरे अनुसार चलो’…मैं कौन हूं? यह मेरा अहंकार है कि तुम मेरे अनुसार चलो। हां, तुम्हें जो प्रीतिकर लगे मुझमें, चुन लो; जो अप्रीतिकर लगे, छोड़ दो। जो तुम्हारे अनुकूल लगे उसे ग्रहण कर लो; जो तुम्हारे अनुकूल न लगे उसे चुपचाप भूल जाओ। लेकिन अंततः तुम्हें होना है तुम्हारे जैसा ही।

सदगुरु के पास अनंत फूल खिलेंगे; उसका प्रत्येक शिष्य एक अनूठी प्रतिभा होगा। झूठे गुरुओं के पास बस कतारें लगी होंगी एक से एक लोगों की–बेरौनक, आत्म-हीन, गौरव-रहित, गरिमा-शून्य।

मुरजुत्रा कहता है: “यदि गुरु की गुरुता के बावजूद शिष्य में अपेक्षित गुण नहीं आए…।’ सदगुरु अपेक्षा करता ही नहीं है। देता है, अपेक्षा नहीं करता। लुटाता है, प्रत्युत्तर नहीं मांगता। उसके पास प्रेम है, बांटता है; मगर प्रेम के कारण तुम्हें बांधता नहीं है–“कि अब तुम ऐसे ही करना, देखो मैंने तुम्हें इतना प्रेम दिया, अब तुम्हें ऐसा करना ही होगा!’ जो ऐसा कहता हो, वह न तो सदगुरु है, न ज्ञानी है, न उसे कुछ अनुभव हुआ है। वह अहंकारी है। वह छुपा हुआ राजनेता है। वह अनुयायी खोज रहा है, शिष्य नहीं।

“और वह कहता था कि अगर ऐसा न हो पाए तो उसमें दोष गुरु का है।’ यह भी अहंकार हुआ। अगर तुम मेरे जैसे न बन पाओ तो पहली तो बात, यह अपेक्षा ही गलत थी। फिर तुम न बन पाओ तो इसमें दोष गुरु का हुआ! यह हद हो गई अहंकार की! तुम शिष्य को कुछ भी गौरव दोगे कि नहीं दोगे? इतना भी गौरव नहीं दोगे? ठीक होने का गौरव नहीं दिया, कम-से-कम गैर-ठीक होने का गौरव तो दो–इतनी भी स्वतंत्रता न दोगे? तुमने सारा ठेका ले लिया! तुमने शिष्य के लिये कुछ भी न छोड़ा। जैसे शिष्य की कोई आत्मा ही नहीं है! जैसे शिष्य कैनवास है, तुमने चित्र पोत दिया, अगर ठीक बन गया तो गौरव तुम्हारा, अगर ठीक नहीं बना तो अगौरव तुम्हारा। शिष्य कोई कैनवास तो नहीं है। शिष्य एक आत्मा है। उसके भीतर भी परमात्मा छिपा है। यह कैसा दर्ुव्यवहार कर रहे हो?

मगर मुरजुत्रा ऐसा ही दर्ुव्यवहार करता रहा। मुरजुत्रा का तो तुम्हें कुछ पता नहीं, लेकिन महात्मा गांधी का भी यही ढंग था, यही सलीका था। अगर आश्रम में किसी शिष्य से भूल हो जाती तो गांधी अपने को दंड देते थे। यह भी खूब मजा है! और भूलें भी क्या…किसी ने चाय पी ली, भूल हो गई! क्योंकि किसी को चाय पीने का हक नहीं है, चाय पाप है! चाय और पाप…तो तुम आदमी को जीने दोगे कि नहीं जीने दोगे? फिर तो जीना ही पाप है। अब ऐसी अपेक्षाएं…और फिर जब ऐसी अपेक्षाएं होती हैं तो समझ लेना कि गुरु नजर रखता है। गुरु क्या, वह एक तरह का जासूस हो जाता है। वह पता लगाए फिरता है कि कौन क्या कर रहा है, किसने चाय पी ली, किसने सिगरेट पी ली, कौन पुरुष किस स्त्री से बात कर रहा है, इस सबका पता रखना पड़ता है उसको। वह तो एक तरह की जासूसी हो गई।

यही धंधा चलता था गांधी जी के आश्रम में। अगर पता चल गया कि कौन स्त्री किस पुरुष से बात कर रही है, फौरन हाजिर करो। किसने चाय पी ली, उसको सामने लाओ। और दंड वे अपने को देंगे कि उन्होंने उपवास कर दिया, कि वे तीन दिन का उपवास करेंगे। अब यह तो किसी को सताने का बड़ा ही जालसाज उपाय हो गया। किसी ने चाय पी ली, तुमने तीन दिन का उपवास किया; उस आदमी का भी तो कुछ सोचो, उसका तुम कितना भयंकर अपमान कर रहे हो! और उसे तुम कितनी ग्लानि में डाल रहे हो! पूरा आश्रम उसकी तरफ देखेगा कि ये चले जा रहे हैं सज्जन, गुरुदेव इनके पीछे तीन दिन से भूखे हैं। और इन्होंने क्या किया, जरा-सी चाय के पीछे देखो महात्मा को कष्ट दे रहा है यह आदमी!

तुम जरा उसकी हालत तो सोचो, वह निंदा का पात्र हो गया। वह सब तरफ नजरें उस पर उठेंगी, अंगुलियां उस पर उठेंगी। यह तो हिंसा है। और अच्छा होता कि तुमने उसे एक चांटा मार दिया होता, कम-से-कम उसका सम्मान तो होता, बात खतम हो जाती। तुमने चांटा अपने को मारा, उसको इतना भी सम्मान न दिया! और चांटा अपने को मारकर तुमने उसकी ऐसी अपमानित दशा कर दी कि वह अब कीड़े-मकोड़े जैसे अनुभव करेगा कि एक मैं हूं कि जरा-सी चाय का स्वाद न रोक सका और एक मेरे गुरु हैं कि तीन दिन का उपवास कर रहे हैं। मैं कीड़ा, मैं पापी, वे महात्मा! तुमने उसको कीड़ा बना दिया।

ये सदगुरुओं के लक्षण नहीं हैं। सदगुरु तो कीड़ों में भी परमात्मा को जगाते हैं। ये तो असदगुरुओं के लक्षण हैं कि तुम्हारे आत्मवान व्यक्तित्व को इतना दीन-हीन और छोटा कर देते हैं, इतना अपमानित, इतना ग्लानिपूर्ण कि तुम कीड़े-मकोड़े हो जाते हो।

उसे सदगुरु जानना जिसके पास बैठकर तुम गौरवान्वित होओ; जिसके पास बैठकर तुम्हारे भीतर जिन आकाशों को तुमने कभी नहीं देखा है वे आकाश दिखाई पड़ने लगें। उसके पास बैठकर सदगुरु जानना, जिसके पास बैठकर तुम्हारी महानता का तुम्हें बोध हो, तुम्हारी असीमता का तुम्हें स्मरण आए, तुम्हारे परमात्मा की सुधि जगे।

मगर ये इस तरह के लोग…मुरजुत्रा या महात्मा गांधी…सदगुरु नहीं हैं। ये बहुत चालबाज राजनीतिज्ञ हैं। ये जानते हैं कैसे आदमी की गर्दन कसी जाए, कैसे उसे दबाया जाए; कैसे उसे परेशान किया जाए और कैसे उसे जोर-जबरदस्ती से पीछे चलाया जाए।

गांधी जी के आश्रम में अगर किसी युवक और युवती का प्रेम हो जाए तो महा दुर्घटना घट गई! जैसे प्रेम कोई अस्वाभाविक घटना है! और फिर जानते हो, वे शादी भी करवाएंगे, तो शादी के पहले कई शर्तें हैं। पहली तो यह शर्त है कि दो साल अब किसी से बोलना मत, मिलना-जुलना मत, यह पहली शर्त पूरी करो, तब शादी होगी, ताकि प्रमाण दो कि सच में तुम्हारा प्रेम है। अब दो साल उनको यातना में डाल दिया कि मिल नहीं सकते, बोल नहीं सकते, पत्र नहीं लिख सकते। और अब जासूसी चलेगी, क्योंकि अगर दो साल कोई पत्र लिख दे या कहीं से मिल ले मौके-बे-मौके एक-दूसरे की तरफ देख लें या सभा में सत्संग में साथ-साथ बैठ जाएं, एक-दूसरे को छू लें, कुछ हो जाए, तो अब यह जासूसी चलेगी। दो साल का प्रमाण दो। और दो साल का अगर प्रमाण दे दिया तो गांधी विवाह भी करवा देंगे और विवाह के बाद विवाह का आशीर्वाद देते समय यह कसम भी दिलवा देंगे कि अब जीवन-भर का ब्रह्मचर्य-व्रत ले लो। तुम सोचते हो यह पागलपन। और अब हजारों लोगों के सामने अब उन दोनों को फंसा दिया, अब वे आए थे आशीर्वाद लेने, आशीर्वाद दिया और कहा कि अब यही मेरा आशीर्वाद है कि अब दोनों कसम खा लो कि अब जीवन-भर, आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करेंगे।…तो महाराज इनकी शादी ही काहे के लिए करवायी? अब यह और मुश्किल हो गई। भोजन सामने रखा हो और तुम बैठे रहो उपवास किए, तो यह भोजन की थाली ही किसलिए रखी है?

मैं विनाबा के एक आश्रम में मेहमान था। तो वहां एक युवती ने आकर मुझे कहा कि मैं पागल हो जाऊंगी। विनोबा जी ने मेरी शादी तो करवा दी है, मगर आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत दिलवा दिया हम दोनों को। अब हालत इतनी बिगड़ती जा रही है कि हम विक्षिप्त हुए जा रहे हैं। इससे तो अच्छा था शादी ही न होती। हम एक कमरे में सो भी नहीं सकते, क्योंकि, उसकी आज्ञा नहीं है। तो मेरे पति दूसरे कमरे में सोते हैं, मैं एक कमरे में सोती हूं। और इसमें भी खतरा है, क्योंकि वासना का वेग उठ जाए! कसम खा ली है जीवन-भर ब्रह्मचर्य की। और कहीं हम उठकर एक-दूसरे के कमरे में रात चले जाएं…।

तो मैंने कहा: फिर क्या उपाय किया है? तो उपाय उन्होंने कहा कि बताया गया है यह कि मैं ताला लगा लेती हूं अपनी तरफ से और चाबी उस तरफ फेंक देती हूं। चाबी पति के कमरे में रहती है। सो वह खोल सकता नहीं, क्योंकि ताला वहां नहीं है। ताला मेरे कमरे में रहता है, मैं खोल सकती नहीं, क्योंकि चाबी नहीं है।

अब यह तुम देख रहे हो, दो व्यक्तियों को सताने का कोई और इससे आसान उपाय हो सकता है! और जिनको इतने इंतजाम करने पड़ रहे हैं कि ताला लगाकर चाबी उस तरफ फेंकनी पड़ रही है, ये रात सो सकते होंगे? मैंने उस युवती को कहा कि अगर विनोबा जी ने…अगर एक बाबा ने तुम्हें यह उपद्रव दे दिया, तो मैं दूसरा बाबा…तुम्हें इस उपद्रव से छुटकारा देता हूं। तुम ताला-चाबी दोनों मुझे भेंट कर जाओ और मैं तुम्हें आजीवन प्रेमपूर्ण जीवन रहने की शिक्षा देता हूं। फिर उसी प्रेम में से अगर ब्रह्मचर्य निकल आए जो निकल आए, तो शुभ है। मगर यह कोई ब्रह्मचर्य होगा? यह विक्षिप्तता है।

मगर बड़ी अड़चनें हैं। अगर गुरु अपने को सताने लगे तो शिष्य को पीड़ा बहुत होती है कि मेरे कारण गुरु अपने को सता रहा है; तो अब जो भी कहता है, मान लो। ठीक है कि गलत, यह भी फिकिर करने की गुंजाइश नहीं रह जाती। आखिर शिष्य गुरु को प्रेम करता है, इसलिए तो गुरु के पास आया है। तो उसका प्रेम ही उसको कहता है कि ठीक है अब चलो इतना भी मान लो।

यह मुरजुत्रा कहता है कि उसे अपने को ही दोषी मानना चाहिए। इससे शिष्य को दंड देने के पहले वह अपने को दंड दे लिया करता था। यह हिंसात्मक वृत्ति है। यह सदगुरुओं का लक्षण नहीं है, अज्ञानियों का लक्षण है। यह खुद भी परेशान रहा होगा, यह दूसरों को परेशान कर रहा है। इसे खुद भी कुछ अनुभव नहीं हुआ। इसके पास किसी को कोई अनुभव नहीं हो सकता है।

मेरे पास तुम जो आए हो, मैं तुम्हें सम्मान देता हूं, इसलिए तुम्हें आचरण नहीं देता। तुम्हारा मेरे मन में इतना मूल्य है जितना कि परमात्मा का, उससे जरा भी कम नहीं। इसलिए मैं तुम्हें कोई आदर्श नहीं देता। और मैं तुमसे कहता हूं: तुम अपने मालिक हो। भूल करनी हो तो भूल करना, ठीक करना हो तो ठीक करना। न तो मैं अपने को दंड दूंगा तुम्हारे कारण, न तुम्हें पीड़ा दूंगा। भूल करोगे, उसी में तुम्हें दंड मिलेगा। वही दंड काफी है। भूल करोगे, उससे तुम्हें पीड़ा होगी, वही पीड़ा काफी है जगाने को। अगर वह काफी नहीं है तो फिर कोई और चीज तुम्हें जगा नहीं सकती। और ठीक करोगे तो आनंद होगा; वही पुरस्कार पर्याप्त है। अगर वह पुरस्कार तुम्हारे चित्त को हर्ष और उल्लास से नहीं भरता तो फिर इस जगत का कोई पुरस्कार तुम्हारे किसी काम नहीं आ सकता है।

मैं तुम्हें परिपूर्ण स्वतंत्रता देता हूं। मेरा संन्यासी एक स्वतंत्र व्यक्ति है। उसकी अपनी निजता है। उसकी निजता पर मेरी तरफ से कोई आरोपण नहीं है।

मैं अपना हृदय खोलकर तुम्हारे सामने रख देता हूं; कुछ तुम्हें प्रीतिकर लगे चुन लेना, तुम्हें प्रीतिकर न लगे मत चुनना। नहीं चुना तो तुम मुझे नाराज नहीं कर रहे हो। चुन लिया तो तुम मुझे प्रसन्न नहीं कर रहे हो। मेरा आनंद है तुम्हें दे देना। तुम्हारा आनंद है उसमें से अपने काम की बात चुन लेना।

और फिर तुम्हें अपने ढंग से चलना है, अपने ढंग से जीना है। क्योंकि तुम्हें वही होना है जो तुम होने को पैदा हुए हो। तुम्हें परमात्मा के सामने उत्तर देना पड़ेगा कि तुम तुम हुए या नहीं। बस एक ही उत्तर देना पड़ेगा कि तुम प्रामाणिक रूप से अपनी आत्मा के विकास को, खिलाव को उपलब्ध हो गए थे? तुम्हारा फूल खिला या नहीं? परमात्मा तुमसे यह नहीं पूछेगा कि तुमने किसी और का अनुकरण किया कि नहीं? परमात्मा पूछेगा: तुम जुही थे, जुही हुए? गुलाब थे, गुलाब हुए? कमल थे, कमल हुए?

इतनी ही मेरी तुमसे प्रार्थना है कि तुम जो हो–जुही, कमल, गुलाब, केतकी–वही हो जाना, क्योंकि वही होकर तुम परमात्मा के चरणों में चढ़ जाते हो।

वही है अर्चना। वही है प्रार्थना।

 

आज इतना ही।

 

 


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प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन–06)

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नृत्‍य करने योग्‍य बनो—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 जून 1976;

श्री ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार:

 पहला प्रश्न :

प्यारे ओशो! कल आपने कहा था कि अंतर्यात्री के पास केवल दिशा होती है? और लक्ष्य नहीं। इन दोनों के मध्य क्या अंतर है? क्या आप इसे स्पष्ट करने की कृपा करेने?

 ह उत्तर बहुत सूक्ष्म है, लेकिन यह वैसा ही अंतर है। जैसे वहां मन और हृदय के मध्य होता है, जैसा तर्क और प्रेम के मध्य होता है या यह कहना अधिक उचित होगा, जैसे वहां गद्य और कविता के मध्य होता है।

एक मंजिल या लक्ष्य एक बहुत स्पष्ट चीज है, दिशा गहरे अंतर्ज्ञान द्वारा हुआ अनुभव है। मंजिल कुछ ऐसी चीज है जो तुम्हारे बाहर होती है, वह एक वस्तु की तरह अधिक होती है। दिशा या मार्ग एक आंतरिक अनुभव है, वह वस्तु की तरह नहीं है, लेकिन तुम्हारी अपनी वैयक्तिकता है। तुम दिशा का अनुभव कर सकते हो, लेकिन उसे जान नहीं सकते। तुम मंजिल को जान सकते हो? तुम उसका अनुभव नहीं कर सकते। मंजिल या लक्ष्य भविष्य में होता है। एक बार यदि तुमने तै कर लिया तो तुम अपना जीवन उस ओर व्यवस्थित करना शुरू कर देते हो।

तुम भविष्य को कैसे निश्चित कर सकते हो? तुम अज्ञात को तय करने वाले होते कौन हो? भविष्य को तैयार करना कैसे सम्भव है। भविष्य वह है, जो अभी तक ज्ञात नहीं है, भविष्य एक खुली हुई संभावना है। लक्ष्य को तय करने से तुम्हारा भविष्य एक खुली हुई संभावना हो जाता है। लक्ष्य को तय करने से तुम्हारा भविष्य फिर आगे भविष्य रही नहीं जाता। क्योंकि अब वह आगे के लिए खुला नहीं रहता। अब तुमने बहुत से विकल्पों में से एक विकल्प चुन लिया है। क्योंकि जब सभी विकल्प खुले थे, वह भविष्य था। जब सभी विकल्प छोड़ दिए गए हैं, और केवल एक विकल्प चुन लिया गया है। अब वह आगे भविष्य रह ही नहीं गया, वह तुम्हारा अतीत है।

अतीत ही तै करता है, जब तुम एक लक्ष्य निर्धारित करते हो। तुम्हारे अतीत का अनुभव और तुम्हारे अतीत की जानकारी ही उसे तय करनी है। तुम भविष्य को मार देते हो। तुम भविष्य को मार देते हो। तब तुम अपना ही अतीत दोहराते जाते हो, भले ही वह थोड़ा सा सुधारा हुआ हो, यहां और वहां उसमें थोडा सा परिवर्तन हो, या तुमने अपनी सुविधा के अनुसार उसमें रंग—रोगन लगा दिया हो, या उसका नवीनीकरण किया हो। लेकिन फिर भी वह अतीत से ही है। यही वह तरीका है जिससे कोई भी व्यक्ति भविष्य की लीक खो देता है वह मृत हो जाता है वह एक मशीन की तरह कार्य करना शुरू कर देता है।

दिशा जीवंत होती है, वह इसी क्षण होती है। वह भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं जानती, वह अतीत के बारे में भी कुछ नहीं जानती, लेकिन उसमें स्पन्दन होता है, धड़कन होती है, लेकिन वह अभी और यहीं होती है। और इस स्पन्दित क्षण में से अगले क्षण का जन्म होता है। तुम्हारे द्वारा किसी लिए गए निर्णय के अनुसार नहीं, लेकिन केवल इसलिए क्योंकि तुम इस क्षण को जीते हो, और तुम इसे पूरी समग्रता से जीते हो और तुम इस क्षण को इतनी पूर्णता से प्रेम करते हो, कि इसी पूर्णता और समग्रता से अगले क्षण का जन्म होता है। यह एक दिशा होने जा रहा है। वह दिशा तुम्हारे द्वारा दी नहीं गई, वह तुम्हारे ऊपर थोपी नहीं गई, वह स्वयं प्रवर्तित है। इसी को बाउल ‘सहज मानुष’ अथवा सहज स्वाभाविक और स्वयं प्रवर्तित मनुष्य कहते हैं।

यह सहज मनुष्य ही अथवा सच्चे मनुष्य, सारभूत मनुष्य और परमात्मा तक अथवा अपने ही अंदर जाने का मार्ग है। तुम इसकी दिशा तय नहीं कर सकते, तुम केवल इस क्षण को जी सकते हो, जो तुम्हें उपलब्ध है। जीने से ही दिशा का जन्म होता है। यदि तुम नृत्य करते हो, तो अगला क्षण एक गहन नृत्य बनने जा रहा है। वह नहीं, तुम जिसे तय करते हो, बल्कि इस क्षण तुम केवल नृत्य करते हो तुमने एक दिशा सृजित की है, तुम उसे नियंत्रित नहीं कर रहे हो। अगला क्षण और भी अधिक नृत्यपूर्ण होगा फिर और अधिक नृत्य उसका अनुसरण करेगा।

लक्ष्य मन के द्वारा तय किया जाता है। और दिशा जीते हुए अर्जित की जाती है। लक्ष्य तर्कपूर्ण है: कोई व्यक्ति डॉक्टर बनना चाहता है, कोई व्यक्ति इंजीनियर बनना चाहता है, कोई व्यक्ति वैज्ञानिक अथवा राजनीतिज्ञ बनना चाहता है, कोई व्यक्ति धनी अथवा प्रसिद्ध व्यक्ति बनना चाहता है यह सभी लक्ष्य है। और दिशा? कोई भी व्यक्ति इस क्षण को गहरे विश्वास के साथ केवल जीता है। जिसे जीवन ही तय करेगा। कोई भी व्यक्ति इस क्षण को इतनी समग्रता से जीता है कि उसी समग्रता से एक नवीनता का जन्म होता है। इसी समग्रता और पूर्णता में अतीत विसर्जित हो जाता है और भविष्य अपना रूप लेना शुरू कर देता है। लेकिन यह रूप तुम्हारे द्वारा नहीं दिया गया है, यह तुम्हारे द्वारा अर्जित किया गया है।

झेन सद्गुरु रिन्झाई मर रहा था, वह अपनी मृत्यु शैथ्या पर पड़ा था। किसी शिष्य ने उससे पूछा—’‘ आदरणीय सद्गुरु! आपके जाने के बाद लोग पूछेंगे आपकी सारभूत सिखावन क्या थी? आपने बहुत सी चीजें कही हैं आपने बहुत सी चीजों के बाबत बात की है, उन सभी को सघन और संक्षिप्त करना हम लोगों के लिए कठिन होगा। आप अपना शरीर छोड़ने से पूर्व कृपया स्वयं अपनी सिखावन को संक्षेप में एक वाक्य में बताने की कृपा करें जिसे हम लोग खजाना बनाकर अपने पास रख सकें। और जहां कहीं भी लोग, जो आपको नहीं जानते हैं आपकी सिखावन जानना चाहें तो उन्हें हम आपकी सारभूत सिखावन दे सकें।’’

रिन्‍झाई ने मरते हुए भी अपनी आंखें खोलीं और सिंह गर्जना जैसी एक झेन चीख निकली। वे सभी स्तब्ध रह गए। कैप गए। वे लोग विश्वास ही न कर सके,कि एक मरते हुए व्यक्ति में भी इतनी अधिक शक्ति और ऊर्जा हो सकती है और वे ऐसी आशा भी नहीं कर रहे थे। यह अनूठा व्यक्ति सदा से ऐसा ही था, उसके बारे में निश्चय ही कुछ भी नहीं कहा जा सकता था। लेकिन इस शख्स के अनिश्चित व्यवहार के बावजूद, वे लोग किसी भी तरह से यह अपेक्षा नहीं कर रहे थे कि मरते हुए भी अपने आखिरी क्षण भी वह सिंह जैसी गर्जना भरी चीख निकाल सकते हैं। और उसे सुनकर जब उन्हें आघात लगा तो वे विस्मय विमूढ़ हो गए उनके मन रुक गए तब उन्हें वापस लाते हुए रिन्‍झाई ने कहा—’‘ यही है वह।’’ यह अंतिम शब्द कहते हुए उसकी आंखें मुंद गई और वह मर गया।

यही है वह……

यह क्षण, यह शांत और मौन से आपूरित क्षण यह क्षण जो किसी भी विचार से प्रदूषित नहीं है। पर गहन मौन जो चारों ओर व्यास हो गया था, वह विस्मय, मृत्यु पर आखिरी यह सिंह गर्जना, यही है वह।

हां, दिशा मिलती है, इस क्षण को जीने से। राह कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसकी तुम व्यवस्था करते हो। उसकी योजना बनाते हो। यह घटती है, यह बहुत सूक्ष्म है। और तुम इसके बारे में कभी भी निश्चित न हो सकोगे, तुम उसे केवल महसूस कर सकते हो। यही वजह है कि मैं कहता हूं कि वह एक कविता की भांति है, गद्य जैसी नहीं, प्रेम के समान अधिक है कोई तर्क नहीं, कला जैसी अधिक है, विज्ञान की भांति नहीं। वह अस्पष्ट है, धुंधली है और यही उसका सौंदर्य है इसमें एक झिझक है। जैसे घास की पत्ती पर गिरते हुए ओस झिझकती है, सुबह उगते हुए सूरज की किरणों का स्पर्श पाकर वह बस फिसल जाती है।

दिशा बहुत ही सूक्ष्म, नाजुक और आसानी से टूट जाने वाली चीज जैसी है। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति लक्ष्य का चुनाव करता है। माता—पिता, शिक्षक, संस्कृति, धर्म और सरकारें। यह सभी तुम्हें जीवन का एक बंधा बंधाया ढांचा देने का प्रयास करते हैं। वे नहीं चाहते कि तुम्हें स्वतंत्र और अकेला, अज्ञात में भटकने के लिए छोड़ दिया जाए। लेकिन इस तरह उन्होंने बोरियत या ऊब पैदा कर दी है यदि तुम अपना भविष्य पहले से ही जानते हो तो वह पहले ही से उबाने वाला बन गया। यदि तुम जानते हो कि ‘ तुम यह बनने जा रहे हो, ‘ तो वह पहले ही से उबा देता है।

कुरान में मुहम्मद जिस बहिश्त या स्वर्ग की बात कहते हैं, लेकिन पहले ही से उसकी भविष्यवाणी कर वे उसे एक लक्ष्य या मंजिल की भांति बना देते हैं, वह पहले ही से व्यर्थ लगने लगता है। बहिश्त शब्द अथवा इसी का समानार्थी मुस्लिम शब्द है—’‘ फिरदौस ” यह दोनों का एक ही मूल है जिसका अर्थ है—’ चहारदीवारी से घिरा एक उद्यान ‘ और परमात्मा की चहारदीवारी से घिरे उद्यान में हर चीज पहले से व्यवस्थित हैं, लगभग प्रत्येक वस्तु के विवरण के साथ। वहां बहते चश्मे हैं, शराब के चश्मे हैं और लोग छायादार वृक्षों के नीचे बैठे हैं। वास्तव में मुहम्मद ने जरूर ही रेगिस्तान की गर्मी को शिद्दत से भुगता होगा। वहां लोग वृक्षों की छाया तले अपनी पत्नियों के मजे उड़ा रहे हैं। पत्नी के साथ नहीं, पत्नियों के साथ क्योंकि मुहम्मद की नौ पत्नियां थीं। इसके सिवा वे और क्या कर सकते हैं? वहां बहते चश्मों से शराब पियो, वृक्षों की छाया तले पडे गद्दों पर अपनी पत्नियों के साथ मजे करो, और इसके सिवा करने को कुछ है ही नहीं।

लेकिन तब यह सोचकर वे परेशान हो गए कि जब तुम मरोगे तब तक तुम्हारी पत्नियां भी बूढ़ी हो चुकी होगी। इसलिए अब क्या किया जाए? इसके लिए भी फिर उन्होंने प्रबंध किया। जो भले लोग हैं जिन्होंने अपना जीवन धर्म के अनुसार व्यतीत किया है, परमात्मा उनकी पत्नियों को फिर से युवा बना देगा। इसलिए यह याद रखें यदि तुम भले आदमी नहीं हो, तो तुम्हें अपनी की बीबी के साथ ही रहना होगा और तुम उसके साथ हमेशा के लिए बंध जाओगे। और नौकर भी होगे वहां, जो तुम्हारी प्रत्येक इच्छा को पूरा करेंगे। बस सोचा नहीं कि वह इच्छा पूरी हुई।

लेकिन यह सभी कुछ पहले से ही बना बनाया और निश्चित है कि यह अर्थहीन हो जाता है। इस बारे में हिंदू जैन और बौद्धों ने अधिक सूक्ष्मता से सोचा है। बौद्ध सबसे अधिक गढ़ हैं। वे निर्वाण के बारे में अधिक बात नहीं करते। वे कहते हैं प्रत्येक व्यक्ति को उसे जानना है, और उसे जानने के लिए उसमें होना होगा, अन्य कोई उपाय है ही नहीं। वे इसका वर्णन नहीं करते। वे उसका कोई विवरण नहीं देते, क्योंकि विवरण खतरनाक होंगे, सभी शब्द एक निश्चित अर्थ देते हैं और रहस्य समाप्त हो जाता है।

भविष्य एक दिशा होना चाहिए लक्ष्य नहीं। इसे निर्वाण की भांति ही अधिक होना चाहिए। जो शब्द बुद्ध प्रयुक्त करते हैं, उनका अर्थ है कि वह सब कुछ जो तुम जानते हो, वहां वैसा कुछ भी नहीं होगा। यही उनकी निर्वाण की

परिभाषा है: वह सभी कुछ जिसे तुम जानते हो, वहां नहीं होगा। वह सभी कुछ जिसका तुमने अनुभव किया है, वह वहां नहीं होगा। वह सब कुछ मिलाकर जो तुम हो, वह भी वहां नहीं होगा। कुछ चीज पूरी तरह नई होगी, कुछ चीज ऐसी होगी। जिसे तुम समझ नहीं सकते, क्योंकि तुम्हारे पास समझने वाली वह भाषा ही नहीं है, तुम्हें समझने का कोई अनुभव ही नहीं है। कुछ चीज पूरी तरह से एकदम नई—जिसके बारे में बात भी नहीं की जा सकती। निर्वाण एक दिशा है। फिरदौस और स्वर्ग जिसकी कल्पना मुसलमानों और ईसाइयों ने की है—लक्ष्य या मंजिलें हैं, यह बात बहुत स्पष्ट और साफ है।

औसत दर्जे का मन साफ सुथरे लक्ष्यों को मांगता है, क्योंकि वह इतना अधिक असुरक्षित है कि अपनी जानकारी पर विश्वास नहीं कर सकता और न जीवन पर विश्वास कर सकता है। औसत मन को खोज से बहुत डर लगता है। और खोज ही जीवन का सबसे बड़ा रहस्य है। विस्मयविमूढ़ होने के लिए पहले ही से तैयार होने का अर्थ है कि वह व्यक्ति निर्दोष है, खोजने का प्रयास कर रहा है। और जीवन कुछ ऐसा है कि तुम खोजे ही चले जाओ। जितना अधिक तुम खोजते हो, उतना ही अधिक जानते हो कि अभी भी खोजने को बहुत कुछ और है। यह कभी भी समाप्त न होने वाली प्रक्रिया है। दिशा है यही, कभी भी समाप्त न होने वाली प्रक्रिया। स्मरण रहे यह एक प्रक्रिया या कार्यविधि है, एक गतिशीलता है। जब कि लक्ष्य एक मृत चीज है।

लक्ष्य, अहंकार के अधिकार में होता है, और दिशा होती है जीवन और अस्तित्व के अधिकार में। व्यक्ति को संसार की दिशा में गति करने के लिए गहरे विश्वास की जरूरत होती है। क्योंकि वह व्यक्ति असुरक्षा में गतिशील हो रहा है, वह अंधकार में चल रहा है। लेकिन अंधकार में एक रोमांच होता है, तुम बिना किसी नक्‍शो के बिना किसी पथप्रदर्शक के अज्ञात में जा रहे हो, हर कदम ही एक नई खोज है। और यह खोज केवल बाहर के संसार की ही नहीं है। इसके ही साथ— साथ तुम कुछ चीज अपने अंदर भी खोज लेते हो। एक खोजी केवल वस्तुएं ही नहीं खोजता। जैसे वह अधिक से अधिक अनजाने संसार खोजता है साथ ही साथ वह स्वयं अपने ही अंदर खोजता चल जाता है। उसकी बाहर की प्रत्येक खोज, अंदर की भी खोज होती है। तुम जितना अधिक जानते हो, तुम उतना ही अधिक जानने वाले के बारे में जानते हो। तुम जितना अधिक प्रेम करते हो, उतना ही अधिक तुम प्रेमी के बारे में जानते हो।

मैं तुम्हें कोई लक्ष्य नहीं देने जा रहा हूं। मैं तुम्हें केवल दिशा दे सकता हूं। जागृत, अनजानी, सदा विस्मित करने वाली जिसके बारे में निश्चयपूर्ण कुछ न कहा जा सके ऐसी अनिशिचित और जीव से स्पन्दित। मैं तुम्हें कोई नक्‍शा देने नहीं जा रहा हूं मैं तुम्हें केवल खोजने के लिए उत्कंठा और उत्साह दे सकता हूं। तब मैं तुम्हें अकेला छोड़ दूंगा। तब तुम स्वयं अपनी दिशा में आगे बड़े। विराट और अनंत में गतिशील होकर धीमे— धीमे उस पर विश्वास करना सीखो। अपने आपको जीवन के हाथों में छोड़ दो क्योंकि जीवन ही परमात्मा है। जब जीसस कहते हैं—’‘ तेरा ही साम्राज्य आयेगा, तू जो करेगा वही होगा।’’ वह यही कह रहे हैं यदि परमात्मा मृत्यु भी लाता है तो उससे भी डरने की कोई जरूरत नहीं है। यह वही है जो मृत्यु ला रहा है, इसलिए इसका कुछ कारण होना जरूरी है, उसमें कुछ रहस्य छिपा होना जरूरी है और कुछ सिखावन भी वहां जरूर है। वह ही अपने द्वार खोल रहा है। वह मनुष्य जो विश्वास करता है, वह मनुष्य जो धार्मिक है। वह मृत्यु के द्वार पर जाकर भी पुलकित और रोमांचित हो उठता है। वह वहां भी सिंह की भांति दहाड़ सकता है। भले ही वह मर रहा हो—क्योंकि वह जानता है यहां कुछ भी नहीं मरता है—मृत्यु के अंतिम क्षण भी वह कह सकता है, ‘ वह यही है।’ क्योंकि प्रत्येक क्षण, यह वही है। वह जीवन को सकता है। वह मृत्यु हो सकती है, वह सफलता हो सकती है, वह असफलता हो सकती है, वह प्रसन्नता हो सकती है, वह अप्रसन्नता हो सकती है। प्रत्येक क्षण…… .यह वही है।

यही है वह जिसे मैं सच्ची प्रार्थना कहता हूं। और तब तुम्हें दिशा मिलेगी। तुम्हें उस बारे में फिक्र करने की जरूरत ही नहीं, तुम्हें तैयारी करने की भी कोई जरूरत नहीं तुम श्रद्धापूर्वक अपना कदम आगे बढ़ा सकते हो।

 

दूसरा प्रश्न :

प्यारे ओशो! ऐसा क्यों है कि ग्रीक मंदिर डेल्फी में

लगे शिलालेख में लिखा है— ‘स्वयं को जानो’ और ‘ स्वयं को

प्रेम करो‘ यह नहीं लिखा?

 

यूनानी मन जानकारी या ज्ञान से आवेशित है। यूनानी मन ज्ञान के सम्बन्ध में ही विचार करता है, कैसे जाना जाये। यही कारण है कि ग्रीस ने दार्शनिकों, महान विचारकों तर्कशास्त्रियों और महान विचारशील मस्तिष्क वाले विद्वानों को जन्म दिया। लेकिन तीव्र उत्कंठा है।

इस संसार में जैसा मैं देखता हूं वहां दो ही तरह के मन हैं। यूनानी और हिंदू मन। यूनानी मन की व्यग्रता है जानने की और हिंदू मन की उत्कंठा है—होने की। हिंदुओं का उत्साह जानने के बारे में न होकर ‘ होने के ‘ सम्बन्ध में है।’ सत ‘‘ अस्तित्वगत ‘‘ होने की ‘ ही पूरी खोज है—मैं कौन हूं इसे पूर्ण ढंग से जानना नहीं है। लेकिन अपने ही अस्तित्व में डूबकर इसका स्वाद लेना है, जिससे कोई भी ‘ होने को ‘ उपलब्ध हो सके— क्योंकि वहां वास्तव में जानने का और कोई रास्ता ही नहीं है। यदि तुम हिंदुओं से पूछो तो वे कहेंगे होने की अपेक्षा जानने का और कोई दूसरा रास्ता है ही नही। तुम प्रेम को कैसे जान सकते हो? इसका एक ही रास्ता है। स्वयं प्रेमी बनकर अनुभव करो। प्रेमी बनो और तुम प्रेम को जान जाओगे। और यदि तुम अनुभव से बाहर खड़े केवल एक देखने वाले की तरह से जानने की कोशिश कर रहे हो तो तुम प्रेम के बारे में तो जान सकते हो लेकिन प्रेम को कभी न जान सकोगे।

यूनानी मन के द्वारा ही पूरा वैज्ञानिक विकास हुआ है। आधुनिक विज्ञान ग्रीक मन का बाई प्रोडक्ट है। आधुनिक विज्ञान का आग्रह आवेगरहित होने पर है, बाहर दूर खड़े, बिना किसी पूर्वाग्रह के निरीक्षण करते रहे। वस्तुगत और अवैयक्तिक बनो। यदि तुम वैज्ञानिक बनना चाहते हो तो ये ही उसकी मूल जरूरतें हैं। अपनी भावनाओं द्वारा कोई भी रंग मत दो, बिना किसी उद्देश्य के तटस्थ बने रहो और किसी भी तरह किसी कल्पना में कोई रुचि मत लो, और केवल तथ्यों की ओर ही देखो। उनसे कोई सम्बंध मत जोड़ो और उनके बाहर बने रहो। उनके सहभागी मत बनो। यही है ग्रीक उत्कंठा—जानने के लिए एक उद्वेगरहित खोज।

इसने सहायता की लेकिन केवल एक ही दिशा में सहायता की; और वह दिशा है पदार्थ की। किसी पदार्थ को जानने का यही एक तरीका है। इस तरह से तुम मन को कभी भी न जान सकते, केवल पदार्थ को ही जान सकते हो। इस तरह से तुम कभी भी चेतना को नहीं जान सकते। तुम केवल बाहर ही बाहर जान सकते हो।

तुम कभी भी अंदर नहीं जान सकते, क्योंकि अपने अंदर जाते ही तुम उससे सम्बन्धित हो जाते हो। उससे अलग बाहर खड़े होने का कोई रास्ता ही नहीं है। तुम पहले से ही वहां हो। अंदर तुम स्वयं हो ही—तुम वहां से बहार जा कैसे सकते हो? मैं एक पत्थर, चट्टान या एक नदी को बिना किसी भावावेग के देख सकता हूं क्योंकि मैं उनसे अलग हूं। मैं स्वयं अपने आपको ही भावरहित होकर कैसे देख सकता हूं? मैं उससे सम्बंधित हूं। मैं उससे बाहर नहीं हो सकता। मैं स्वयं को अस्तित्व से घटाकर वस्तु में नहीं बदल सकता। मैं विषय बना ही रहूंगा। और मैं विषय ही बना रहूंगा मैं चाहे कुछ भी करूं, मैं ही जानने वाला ज्ञाता हूं मैं वह नहीं हूं जिसे जान गया, अर्थात् ज्ञेय।

इसलिए यूनानी मन धीमे— धीमे पदार्थ की ओर सरकता गया। उसका मूलमंत्र, जो डेल्की मंदिर के शिलालेख पर खुदा है—’‘ स्वयं को जानो, पूरी वैज्ञानिक प्रगति का स्रोत बन गया। लेकिन धीमे— धीमे आवेगरहित होकर जानने का विचार ही पश्चिमी मस्तिष्क को उसके स्वयं के अस्तित्व से दूर ले गया।’’

हिंदू मन, जो संसार में दूसरे तरह का मन है—की दिशा ही दूसरी है, वह दिशा है—’ होने की ‘ उपनिषद में सद्गुरु उद्दालक ऋषि अपने पुत्र और शिष्य श्वेतकेतु से कहते हैं—’‘ तत्त्वमसि श्वेतकेतु ” वह तू ही है। वहां, ‘ वह और तू ‘ में कोई भी भेद नहीं है। वही तेरी वास्तविकता और सत्य है उनमें कोई भी भेद या अतर नहीं है। यहां जैसे तुम एक चट्टान को जानते हो, वहां उसे जानने की कोई संभावना नहीं है। जैसे तुम दूसरी चीजों को जानते हो, उस तरह वहां उसे जानने की कोई संभावना ही नहीं है, तुम केवल उसमें हो सकते हो।

वास्तव में डेल्की के मंदिर पर यह जरूर लिखा है—’‘ स्वयं को जानो।’’ यह यूनानी मन की ही अभिव्यक्ति है क्योंकि वह मंदिर यूनान में है और शिलालेख भी यूनान का ही है। यदि वह मंदिर भारत में हुआ होता तो शिलालेख पर लिखा होता—’‘ स्वयं वैसा ही बनो।’’ क्योंकि तू वही है। हिंदू धीमे— धीमे गति करता हुआ स्वयं अपने ही अस्तित्व के निकट से निकट पहुंचता है यही कारण है कि वह अवैज्ञानिक है। वह धार्मिक बन गया है लेकिन अवैज्ञानिक होकर, वह अंर्तमुखी बन गया है, लेकिन तब उसने बाहर के संसार रूपी सागर में अपने जीवन रूपी जहाज के सारे लंगर तोड़’ दिए हैं। हिंदू मन अंदर से बहुत समृद्ध बन गया लेकिन बाहर वह बहुत निर्धन हो गया।

एक बहुत बड़े संश्लेषण की या जुड्ने की जरूरत है। हिंदू और यूनानी मन के बीच एक संश्लेषण होना बहुत जरूरी है।

यह पृथ्वी के लिए बहुत बड़ा वरदान हो सकता है। अब तक तो यह संभव नहीं हुआ, लेकिन अब वहां बुनियादी आवश्यकताएं और एक संश्लेषण होना संभव है। पूरब और पश्चिम बहुत सूक्ष्म रूप से एक दूसरे से मिल रहे हैं। पूरब के लोग विज्ञान सीखने पश्चिम जा रहे हैं, जिससे वैज्ञानिक बन सकें और पश्चिम से खोजी लोग पूरब धर्म सीखने के लिए आ रहे हैं। एक दूसरे में लीन होकर एक महान मिश्रण तैयार हो रहा है।

भविष्य में पूरब, पूरब ही नहीं बना रह जायेगा और पश्चिम, पश्चिम ही होने तक ही सीमित रह जाने वाला नहीं है। पूरी पृथ्वी एक विश्वव्यापी गांव बनने जा रहा है। एक ऐसा छोटा स्थान जहां सारे भेद मिट जाएंगे। और तब पहली बार एक महान संश्लेषण का उदय होगा। जैसा आज तक कभी हुआ ही नहीं, जो अतियों के बारे में नहीं सोचेगा, जो यह भी नहीं सोचेगा कि यदि तुम बाहर ज्ञान की खोज में गये तो तुम अस्तित्व में अपनी जड़ें खो दोगे अथवा यदि तुम स्वयं की खोज में अंदर गए तो तुम संसार और विज्ञान के क्षेत्र में अपनी जड़ें खो दोगे। दोनों ही साथ—साथ हो सकते हैं, और जब भी ऐसा होगा। तो मनुष्य के पास दोनों पंख होंगे, वह आकाश में जितनी ऊंचाई तक उड़ना सम्भव होगा उड़ेगा। अन्यथा तुम्हारे पास एक ही पंख है।

जैसा मैं देखता हूं कि हिंदू मन जितना अधिक असुंलित है, ग्रीक मन भी उतना ही अधिक असंतुलित है। दोनों ही वास्तविकता और सत्य के आधा— आधा भाग हैं। आधा धर्म है और आधा विज्ञान। कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे धर्म और विज्ञान को साथ—साथ लाकर एक महान पूर्णता को जन्म दिया जा सके जहां विज्ञान धर्म से इंकार न करे और जहां धर्म विज्ञान की निंदा न करें।

” ऐसा क्यों है कि यूनान के डेल्की मंदिर में लगा शिलालेख कहता है।’ स्वयं को जानो ‘ और यह नहीं कहता कि ‘ स्वयं ‘ को प्रेम करो?”

स्वयं को प्रेम करना केवल तभी संभव है, यदि तुम स्वयं को ही उपलब्ध हो जाओ यदि—’‘ तू ‘ केवल ‘ वह ‘ हो जाए ‘ अन्यथा यह संभव ही नहीं है। अन्यथा केवल यही संभावना है कि तुम यह जानने का प्रयास करते रहो कि तुम कौन हो और वह भी बाहर से, और बाहर से यह निरीक्षण करते रहो कि तुम कौन हो। एक वस्तुगत मार्ग है वह अंतर्यात्रा में अंदर जाना नहीं है।’’

यूनानी मन ने एक अद्भुत तीव्र तार्किक क्षमता विकसित की। अरस्तु इस तर्क प्रणाली और दर्शन का जनक है। पूरब का मन तर्कसंगत नहीं लगता, वह है भी नहीं। ध्यान पर जोर देना अतर्कपूर्ण लगता है क्योंकि ध्यान कहता है तुम केवल तभी जान सकते हो, जब मन को इशरा दो, जब विचारों को भी गिरा दो, और तुम अपने ही अस्तित्व में इतनी समग्रता से लीन हो जाओ कि तुम्हारा ध्यान हटाने को वहां एक भी विचार तक न हो केवल तुम तभी जान सकते हो। और यूनानी मन कहता है तुम केवल तभी जान सकते हो जब विचार, प्रक्रिया, स्पष्ट, तर्कपूर्ण विवेकपूर्ण और व्यवस्थित हो। हिंदू मन कहता है जब विचार प्रक्रिया पूरी तरह विसर्जित हो जाती है, केवल तभी वहां जानने की कोई संभावना होती है। यह दोनों पूरी तरह से एक दूसरे से विपरीत दो विरोधी दिशाएं है। लेकिन दोनों के विश्लेषण या जोड़ होने की भी वहां संभावना है।

एक व्यक्ति पदार्थ पर काम करते हुए अपने मन का प्रयोग कर सकता है, तब तर्क एक महान उपकरण या माध्यम की भांति होता है। और वही व्यक्ति मन को एक ओर अलग रखकर ध्यान की ओर गतिशील होता हुआ अमन में गति करता है। क्योंकि तुम मन नहीं हो और मन केवल ठीक हाथों और पैरों की तरह एक यंत्र या उपकरण है। यदि मैं चलना चाहूं तो पैरों का मैं प्रयोग करता हूं और यदि मैं न चलना चाहूं तो उनका प्रयोग नहीं करता हूं। ठीक इसी तरह से तुम तर्क—वितर्क करने में मन का प्रयोग कर सकते हो, यदि तुम पदार्थ के बारे में जानने का प्रयास कर रहे हो। यह पूर्णत: ठीक भी है और वहां यह जमता भी है। और जब तुम अंदर की ओर गतिवान हो तो मन को उठाकर अलग रख दो। जब चलना नहीं है तो पैरों की भी जरूरत नहीं होती, इसी तरह अब सोचने की जरूरत नहीं है तो मन की भी जरूरत नहीं होती। अब तुम्हें निर्विचार की, एक गहरी मौन दशा की जरूरत है।

और ऐसा किसी व्यक्ति में घट सकता है और जब मैं इसकी बात कर रहा हूं तो अपने अनुभव के आधार पर ही कह रहा हूं। मैं इन दोनों को ही करता रहा हूं। जब जरूरत होती है तब मैं किसी यूनानी की भांति ही तर्कपूर्ण बन सकता हूं। जब इसकी जरूरत नहीं होती तो मैं किसी भी हिंदू जैसा ही तर्करहित और असंगत भी बन सकता है। इसलिए जब मैं जो कुछ कहता हूं वही उसका अर्थ भी होता है, और यह मात्र कोई कल्पना की बात नहीं है। मैंने उस तरह से उसका अनुभव भी किया है। मन का प्रयोग भी किया जा सकता है। और उसे उठाकर अलग भी रखा जा सकता है। वह एक यंत्र है, एक बहुत खूबसूरत उपकरण। उसके साथ इतना अधिक परेशान होने की जरूरत नहीं है, न उसके साथ स्थाई रूप से जुड़ जाने की जरूरत है। तब वह एक बीमारी बन जाती है। जरा उस व्यक्ति के बारे में विचार करें जो बैठना चाहता है लेकिन बैठ नहीं सकता, क्योंकि वह कहता है—’‘ मेरे पास तो पैर हैं, मैं कैसे बैठ सकता हूं?” अथवा एक ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचें और जो शांत और मौन होना चाहता है, और वह चुप और मौन नहीं बैठ सकता क्योंकि वह कहता है : ‘ मेरे पास तो मन है।’ यह भी उसी तरह ही है। मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूं। मैं तुम्हारे साथ समस्याओं पर चर्चा कर रहा हूं यह तर्कपूर्ण है, इसमें मन का प्रयोग किया जा रहा है। और तभी मैं तुमसे कहता हूं मन को गिरा दो, और गहरे ध्यान में चले जाओ। यदि तुम नृत्य कर रहे हो तो इतनी समग्रता से नृत्य करो कि वहां तुम्हारे अंदर एक भी विचार न रहे और तुम्हारी पूरी ऊर्जा नृत्य ही बन जाये। अथवा गीत गाओ, तब केवल गाना ही बन जाओ। अथवा बैठ जाओ तब बैठना ही बन जाओ। झाझेन में बने रहो, अन्य कोई दूसरा काम करो ही मत। एक भी विचार को गुजरने की अनुमति मत दो। बस शांत, पूरी तरह मौन हो जाओ। ये परस्पर विरोधी चीजें हैं।

हर सुबह तुम ध्यान करते हो, और प्रत्येक सुबह तुम मुझे सुनने के लिए आते हो। प्रत्येक सुबह मुझे सुनते आते हो, इसके बाद तुम ध्यान करने के लिए जाते हो। यह विरोधाभासी है। यदि मैं ठीक यूनानी मन होता, तो मैं तुमसे बातचीत ही करता, तुम्हारे साथ एक तर्कपूर्ण संवाद स्थापित करता, लेकिन तब मैं तुमसे ध्यान करने के लिए नहीं कहता। वह मूर्खता होती। यदि बस मैं एक हिंदू मन ही होता तब वहां तुमसे बातचीत करने की कोई जरूरत ही नहीं होती। मैं कह सकता था—’ बस जाओ और जाकर ध्यान करो, क्योंकि बात करने की आवश्यकता क्या है? प्रत्येक व्यक्ति को शांत और मौन हो जाना चाहिए। मैं दोनों एक साथ हूं। और यही मैं तुमसे भी आशा करता हूं। कि तुम दोनों ही बनो क्योंकि तब जीवन बहुत अधिक समृद्ध, अत्यधिक समृद्ध होगा। तब तुम कुछ भी खोओगे नहीं। तब प्रत्येक चीज तुम अपने में अवशोषित कर लोगे तब तुम एक महान आरकेस्ट्रा बन जाओगे। तब दोनों विपरीत ध्रुव तुममें आकर मिल जाएंगे।

यूनानियों के लिए यह विचार ही—’‘ स्वंय से प्रेम करो।’’ असंगत होगा, क्योंकि वे कहेंगे और वे तर्क देकर कहेंगे कि प्रेम तो दो व्यक्तियों के बीच होना ही संभव है। तुम किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम कर सकते हो, तुम अपने शत्रु से भी प्रेम कर सकते हो, लेकिन तुम स्वयं अपने से ही प्रेम कैसे कर सकते हो? केवल तुम ही वहां हो अकेले। प्रेम का अस्तित्व तो द्वैतता के बीच दो विपरीत ध्रुवों के बीच हो सकता है। तुम स्वयं अपने ही से प्रेम कैसे कर सकते हो? केवल तुम ही हो वहां अकेला प्रेम का अस्तित्व तो द्वैतता के बीच दो विपरीत ध्रुवों के बीच हो सकता है। तुम स्वयं से प्रेम कैसे कर सकते हो? यूनानी मन के लिए स्वयं से प्रेम करने का विचार ही व्यर्थ और असंगत है। प्रेम करने के लिए दूसरा होना आवश्यक है।

और हिंदू मन के लिए…… उपनिषदों में वे कहते हैं तुम अपनी पत्नी से प्रेम करते हो, पर पत्नी होने के कारण नहीं, तुम अपनी पत्नी को केवल अपने कारण ही प्रेम करते हो। तुम उसके द्वारा स्वयं को ही प्रेम करते हो, क्योंकि वह तुम्हें आनंद देती है इसी कारण तुम उसे प्रेम करते हो, लेकिन बहुत गहरे में तुम अपने आनंद को ही प्रेम करते हो। तुम अपने पुत्र से प्रेम करते हो, तुम अपने मित्र से प्रेम करते हो, लेकिन उनके कारण नहीं बल्कि तुम अपने ही कारण बहुत गहरे में तुम्हारा बेटा तुम्हें प्रसन्नता देता है, तुम्हारा मित्र तुम्हें सकून देता है। यही है वह जिसकी तुम्हें लालसा थी। इसलिए उपनिषद कहते हैं वास्तव में तुम स्वयं से ही प्रेम करते हो। तुम भले ही यह कहो कि तुम दूसरों से प्रेम करते हो, वह केवल मात्र तुम्हारा स्वयं से प्रेम करने का एक माध्यम मात्र है, स्वयं से ही प्रेम करने का वह एक घुमाव भरा लंबा रास्ता है।

हिंदू कहते हैं कि वहा कोई दूसरी अन्य संभावना है ही नहीं, तुम केवल स्वयं को ही प्रेम कर सकते हो। और यूनानी कहते हैं कि स्वयं को ही प्रेम करने की कोई संभावना है ही नहीं, क्योंकि कम से कम प्रेम करने के लिए दो की जरूरत है। यदि तुम मुझसे पूछो तो मैं हिंदू और यूनानी दोनों एक साथ हूं। यदि तुम मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा प्रेम असंगत है। प्रेम बहुत ही विरोधाभासी घटना है। उसे कम करके एक ही ध्रुव तक लाने की कोशिश मत करो, उसके लिए दोनों ध्रुवों की आवश्यकता है। दूसरा तो जरूरी है ही, लेकिन गहरे प्रेम में दूसरा बचता ही नहीं। यदि तुम दो प्रेमियों को देखो, तो वे दो हैं और एक साथ मिलकर एक हैं। यही प्रेम का विरोधाभास और यही इसका सौंदर्य भी है। वे दो हैं। हां! वे दो हैं : और फिर भी वे दो नहीं है, वे एक ही हैं। यदि यह ईकाई होना या अद्वैत नहीं घटा, तब प्रेम करना व्यर्थ है। वे लोग प्रेम के नाम पर कुछ और ही कर रहे हैं। यदि वे अभी भी दो हैं और इसके ही साथ एक नहीं हुए तब उनके बीच प्रेम घटा ही नहीं। और यदि तुम केवल अकेले हो और वहां कोई अन्य दूसरा नहीं है, तब भी प्रेम होना संभव नहीं है। प्रेम एक विरोधाभासी घटना है। पहले स्थान पर दो की जरूरत होती है और अंतिम स्थान पर उसे दो की जरूरत तो होती है, एक बनकर रहने के लिए। यह सबसे बड़ी पहेली है, यही सबसे बड़ी उलझन है।

यदि तुमने किसी से भी प्रेम किया है, तो जो मेरे कहने का अर्थ है, उसे तुम भली भांति समझ जाओगे। तुम जानते हो कि दूसरा दूसरा ही होता है, लेकिन फिर भी अपनी बहुत गहराई में तुम यह अनुभव करते हो कहीं उसके साथ एक सेतु बन गया है। यह ऐसा ही जैसे मानो सागर में यात्रा करते हुए तुम किसी द्वीप के निकट से गुजरो। वह है महाद्वीप से अलग, लेकिन बहुत गहरे में वह है समुद्र तल के नीचे ही, भूमि एक ही है। वह महाद्वीप से जुड़ा हुआ है वह वास्तव में पृथक नहीं है। वह अलग होते हुए भी अलग नहीं है, यह जो प्रेम है, वह भी ऐसा ही होता है। इसलिए यदि तुम मुझसे पूछते हो तो मैं यही कहूंगा कि तुम्हारे लिए स्वयं से प्रेम करना संभव है, लेकिन तब तुम्हें अपने को दो भागों में विभाजित करना होगा। तब तुम्हें प्रेमी और प्रेमिका दोनों एक साथ बनना होगा। और यह भी संभव है कि तुम किसी दूसरे अन्य से प्रेम करते हो। लेकिन तब तुम्हें दो से एक बनना होगा। प्रेम कुछ ऐसी चीज है, जो दो व्यक्तियों के बीच ही घटता है, लेकिन जब वह घटता है, तो वे अधिक समय तक दो नहीं रह पाते, एक ही हो जाते हैं।

 

तीसरा प्रश्न :

प्यारे ओशो! फिर वही सुबह फिर वही शाम, सब कुछ फिर वही बार— बार पीछा कर रहा है जैसे! वही होशपूर्ण होने के विचार होशपूर्ण होने की फिर वही बातें फिर वही बार— बार वही वही….?

ह निर्भर करता है।

एक तरह से यह वैसा ही है सब कुछ। वह अन्यथा हो भी कैसे सकता है?

वही सूरज, वही सूर्योदय हर सुबह होता है। और वही सूर्यास्त, हां—लेकिन यदि तुम बहुत निकट से निरीक्षण करो, तो क्या तुमने दो सूर्योदय ठीक एक जैसे देखे हैं? क्या तुमने आकाश के रंगों को देखा है? क्या तुमने सूरज के चारों ओर बादलों का बनना देखा है?

दो सूर्योदय एक जैसे नहीं होते, दो सूर्यास्त भी एक जैसे नहीं होते यह संसार रुक—रुक कर चलती हुई निरंतरता है—रुक—रुक कर चलती हुई, क्योंकि प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ नया घट रहा है और फिर भी निरंतरता बनी हुई है। क्योंकि वह पूरी तरह से नया नहीं है। वह जुड़ा हुआ है। इसलिए दोनों कथन ठीक है। यहां एक कहावत कही जाती है। कि इस सूरज के नीचे कुछ भी नया नहीं है, और एक दूसरी कहावत भी कही जाती है, जो ठीक इसके विपरीत है—यहां सूरज के तले कुछ भी पुराना नहीं है। यह दोनों ही सत्य है।

कुछ भी न तो नया है और न कुछ भी पुराना है। प्रत्येक चीज बदल रही है और फिर भी किसी न किसी तरह वह वही रहती है, किसी तरह वही रहती है, और फिर भी बदले जा रही है। यही इसका सौंदर्य है, यही इसकी गढ़ता और यही इसका रहस्य है। तुम इसे कम करके कोई श्रेणी नहीं बना सकते। तुम यह नहीं कह सकते; कि यह वैसी ही है, तुम यह भी नहीं कह सकते कि यह वैसी नहीं है। तुम जीवन को घटाकर उसके संवर्ग नहीं बना सकते। तुम्हारे ये कबूतरों जैसे दड़बे बस निर्मूल्य हैं। जब ये जीवन के निकट आते हैं तो तुम्हें इन कबूतर के दड़बों, सभी संवर्गों और श्रेणियों को छोड़ देना पड़ता है। यह तुम्हारे संवर्गों की अपेक्षा कहीं अधिक विशाल है, यह सभी श्रेणियों के पार है। यह इतना अधिक विराट है कि तुम इसका प्रारंभ और अंत नहीं खोज सकते।

प्रश्नकर्त्ता कहते हैं—’‘ फिर वही सुबह फिर वही शाम। सब कुछ फिर वही बार—बार जैसे पीछा कर रहा है। वही होशपूर्ण होने के विचार, होशपूर्ण होने की फिर वही बातें। फिर वही, बार—बार नहीं…… .नहीं…….।’’

हां, एक तरह से यह वही है, और दूसरी तरह से कुछ भी वैसा नहीं है। मैं कल भी यहां था, लेकिन मैं आज ठीक वैसा ही नहीं हूं। मैं हो भी कैसे सकता हूं? इस बीच गंगा जी में बहुत पानी बह गया। आज मैं चौबीस घंटे पुराना हूं चौबीस घंटों का अनुभव मुझमें और जुड़ गया है। चौबीस घंटों की सघन सजगता और जुड़ गई है। मैं अब अधिक समृद्ध हूं। मैं अब कल जैसा ही नहीं हू। मृत्यु कुछ और निकट आ गई है। तुम भी ठीक वह नहीं हो, और यद्यपि मैं भी वैसा ही दिखाई देता हूं और तुम भी वैसा ही दिखाई देते हो।

तुम्हें वह आवश्यक बात देखनी है। मेरे कहने का यही अर्थ है जब मैं कहता हूं कि जीवन एक रहस्य है, तुम इसका विभाजन कर इसे श्रेणीबद्ध नहीं कर सकते, तुम निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि यह वैसा ही है। जिस क्षण तुम यह कहते हो, तुरंत ही तुम सजग हो जाओगे कि जीवन ने तुम्हें झूठा बना दिया।

क्या ये वृक्ष वैसे ही हैं जैसे कल थे? बहुत से पुराने पत्ते झड़ गए। बहुत से नए पत्ते निकल आए बहुत से फूल झड़ गए। वे और ऊंचे हो गए। वे ठीक वैसे ही हो कैसे सकते हैं? जरा देखो आज उस पर बैठी कोयल गीत नहीं गा रही है। आज कितनी खामोशी है। कल कोयल गीत गा रही थी। वह दूसरी तरह का मौन था, वह गीतों से भरा हुआ था। आज की खामोशी अलग तरह की है, वह गीतों से आपूरित नहीं है। आज हवा भी नहीं चल रही है। जैसे हर चीज रुक सी गई है। कल बहुत तेज हवा चल रही थी। आज वृक्ष ध्यान कर रहे हैं कल वे नृत्य कर रहे थे। यह सब कुछ वैसा ही नहीं हो सकता और फिर भी वह वैसा ही है।

यह तुम पर निर्भर करता है। तुम जीवन को किस तरह से देखते हो। यदि तुम यों देखते हो जैसे मानो वह वैसा ही है तो तुम ऊब जाओगे। तब अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर मत फेंको। यह तुम्हारा ही दृष्टिकोण है। यदि तुम कहते हो कि वह वैसा ही है तब तुम ऊब जाओगे। तुम उसमें निरंतर होते परिवर्तन को एक बाढ़ की तरह, अपने चारों ओर तेजी से घूमती हवा के चक्रवात की तरह और जीवन की सक्रियता के साथ देख सको, जिसमें प्रत्येक क्षण पुराना होकर विलुप्त हो रहा है और नूतन क्षण आ रहा है।

यदि तुम निरंतर कुछ नया जन्म लेते देख सको, यदि तुम निरंतर सृजित करते हुए परमात्मा के हाथों को देख सको, तब तुम आनंदित और रोमांचित हो जाओगे। तुम्हारे जीवन में ऊब नहीं होगी। तुम निरंतर विस्मय विभोर रहोगे— अब आगे क्या……? तुम बुझे—बुझे नहीं रहोगे। तुम्हारी बुद्धि तीक्ष्ण, जीवंत और युवा बनी रहेगी।

अब यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम क्या चाहते हो। यदि तुम एक मृत व्यक्ति की भांति, मूर्ख, जड़ बुद्धि दुखी और बोर बनना चाहते हो, तब तुम विश्वास करो कि यह जीवन और अस्तित्व वैसा ही है। यदि तुम युवा, जीवंत, नूतन और दीप्तिवान बनना चाहते हो तब विश्वास करो जीवन प्रतिक्षण नया और ताजा है। हेराक्लाईटस की एक पुरानी उक्ति है—’‘ तुम उसी नदी के जल में दोबारा कदम नहीं रख सकते।’’ तुम दोबारा उसी व्यक्ति से नहीं मिल सकते, तुम वही वैसा ही सूर्योदय दुबारा नहीं देख सकते। यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है। और यदि तुम मुझे समझ सकते हो तो मैं कहूंगा। चुनाव मत करो। यदि तुम यह विचार चुनते हो कि हर वस्तु पुरानी है तो तुम बूढ़े बन जाते हो। यदि तुम यह चुनते हो कि प्रत्येक वस्तु युवा और नवीन है तो तुम युवा बन जाते हो। यदि तुम मुझे समझ सकते हो तो मैं कहता हूं चुनाव करो ही मत; देखो, वे दोनों ही सत्य है। तब तुम भी श्रेणियों का अतिक्रमण कर जाते हो। तुम न वृद्ध हो और न युवा। तब तुम शाश्वत बन जाते हो, तब तुम परमात्मा जैसे ही हो जाते हो।

 

मैंने एक वृत्तांत सुना है:

न्यूयार्क या वस्तुत: ब्रुकलिन में न्यायाधीश दूने कचहरी में अपनी कुर्सी पर बैठा हुआ था, तभी एक बहुत बहुत मूर्ख गवाह से प्रश्न पूछे जा रहे थे।

सरकारी वकील ने उससे प्रश्न किया—’‘ क्या तुम दुर्घटना के दिन फोर्थ और एल्म के कोने में खड़े हुए थे?”

गवाह ने कहा—’‘ कौन? क्या मैं?”

सरकारी वकील ने कहा—’‘ हां तुम क्या तुमने उस वक्त यह बात नोट नहीं की कि घायल महिला की देखभाल के लिए वहां एम्बुलेंस आई या नहीं?”

”कौन? क्या मैं?”

” हां तुम। क्या तुमने यह नोट नहीं किया था कि वह महिला बुरी तरह घायल थी। थी या नहीं?”

” कौन? क्या मैं?”

इस बीच सरकारी वकील बहुत अधिक क्रोध से भर उठा। उसने झुंझला कर कहा—’‘ निश्चित रूप से तुम! तुम यह क्यों सोच रहे हो कि तुम यहां हो।’’

गवाह ने कहा—’‘ मैं यहां इसलिए आया जिससे न्याय होता देख सकूं।’’ जज दूने ने कहा—’‘ कौन? क्या मैं मुझसे?”

 

यदि तुम यह विश्वास करते हो कि हर चीज वैसी ही है। तब हर चीज थिर और अडिग होगी—कौन? क्या मुझसे? और तुम ऊबने जा रहे हो। बार—बार दोहराना तुम्हें मार ही देगा। तीक्ष्‍ण और जीवंत बनने के लिए एक व्यक्ति को कुछ ऐसी चीज की जरूरत है जिसकी पुनरावृत्ति न हो। कुछ नया हो, निरंतर घट रहा हो, तुम्हें जीवंत बना रहा हो, और तुम्हें जीवंत तथा सजग रख रहा हो।

क्या तुमने किसी कुत्ते को खामोशी से बैठे हुए देखा है? एक चट्टान भी यदि उसके सामने पड़ी हो तो वह फिक्र नहीं करता। लेकिन चट्टान को हिलाना शुरू करो। बस एक रस्सी से उसे बांध दो और उसे खींचो और कुत्ता उछल पड़ेगा। वह भौंकना शुरू कर देगा। गति उसे तीक्ष्‍ण बनाती है। तब सारी सुस्ती चली जाती है। तब वह और अधिक समय तक सोया—सोया नहीं रहता। तब वह और अधिक समय तक मक्खियों और दूसरी चीजों का स्वप्न नहीं देखता रहता। तब वह बस अपनी नींद से उछलकर बाहर आ जाता है। किसी चीज ने उसे बदल दिया।

परिवर्तन तुम्हें गति प्रदान करता है, लेकिन निरंतर परिवर्तन भी तुम्हें समाप्त कर सकता है। जैसे बिना बदली हुई थिर स्थिति जड़ता उत्पन्न करती है, वैसे ही निरंतर परिवर्तन भी जड़ों से उखाडने वाला हो सकता है।

पश्चिम में ऐसा ही हो रहा है, लोग बदल रहे हैं। सांख्यिकी के जानकार बताते हैं कि अमेरिका में एक व्यक्ति की किसी भी कार्य को करने की औसत अवधि तीन वर्ष है। लोग अपनी नौकरी और धंधे बदल देते हैं, शहर बदल लेते हैं, अपना पति या अपनी पत्नी बदल लेते हैं, प्रत्येक वर्ष अपना घर और अपनी कार बदल लेते हैं, वे प्रत्येक चीज बदलने की कोशिश करते हैं। उनके सभी मूल्य ही बदल गए हैं। इंग्लैंड में वे रोल्सरॉयस कार बनाते हैं। उनका विचार है कि उसे ऐसा बनाओ जिससे वह हमेशा चलती ही रहे, कम से कम जीवन पर्यन्त तो चले। अमेरिका में वे सुंदर कारें तो बनाते हैं, उनके टिकाऊपन के गुण के बारे में कोई भी फिक्र नहीं करते, क्योंकि एक ही कार को जीवन पर्यन्त कौन अपने पास रखने जा रहा है? यदि वह एक साल भी चल जाये तो काफी है। जब अमेरिकन कार खरीदने जाता है तो वह उसके टिकाऊपन के बारे में परेशान नहीं होता। वह उसमें परिवर्तन करने के बारे में सोचता हैं। अंग्रेज अभी भी उसकी मजबूती और टिकाऊपन के बारे में पूछते हैं कि कार काफी टिकाऊ है या नहीं, क्योंकि वह उसे एक बार ही खरीदता है और बात खत्म हो गई। वह बहुत पुरानी फैशन का है। वह किसी भी तलाक के बारे में भी नहीं जानता, और ऐसा ही कार के भी साथ है। एक बार शादी कर ली सो कर ली। कार के भी साथ वह यही करता है। वह बहुत ईमानदार है। पर एक अमेरिकन परिवर्तन के संसार में जीता है वह हर चीज बदल रहा है। लेकिन तब अमेरिकन ने अपनी जड़ें खो दी हैं।

अपने पुराने कस्वे में जहां मैं कभी—कभी जाया करता था और मैं देखकर आश्चर्यचकित हो जाता था। हर चीज वहीं की वहीं ठहरी मिलती थी। स्टेशन पर मुझे लेने वही पुराना कुली होता था, क्योंकि केवल एक ही कुली था स्टेशन पर, और वही पुराना तांगा वही सड़क, और मुझे चारों ओर घूमते—फिरते वही लोग दिखाई देते थे। लगभग हर चीज वहां ज्यों की त्यों दिखाई देती थी। कभी—कभार कोई मर जाता था। और कभी—कभार कोई नया जन्म ले लेता था अन्यथा हर चीज लगभग जैसी बनी रहती थी। और जब लोग मर भी जाते थे तो उनका स्थान उनके पुत्र तो लेते थे और वे भी लगभग वैसे ही दिखाई देते थे। कुछ भी तो नहीं बदलता, वही घर थे, वही गप्पें थीं। ऐसा लगता था कि जैसे समय थम गया है।

कस्वे में वापस जाकर मैं हमेशा आश्चर्य में पड़ जाता था। पहली चीज मुझे यही दिखाई देती थी, कि उस कस्वे में जैसे समय का कोई अस्तित्व है ही नहीं। प्रत्येक वस्तु शाश्वत रूप से वैसी की वैसी ही दिखाई देती थी। लेकिन तब वहां के लोगों की अपनी जड़ें थी। वे बुझे—बुझे से ही लगते थे लेकिन अपनी जड़ों से गहरे जुड़े थे। वे बहुत प्रसन्न और बहुत आराम से थे। वे विदेशी जैसे तो नहीं लगते थे। उन्हें देख अजनबीपन का अहसास नहीं होता था। उनके अजनबी होने का अनुभव हो कैसे सकता था? प्रत्येक चीज इतनी समान जो थी। जब वे पैदा हुए थे, तब वे वैसे ही थे। जब वे मर जाएंगे तब भी वैसे ही रहेंगे। प्रत्येक चीज में जैसे एक स्थायित्व था। तुम अजनबी होने का अनुभव कैसे कर सकते हो? पूरा कस्बा एक छोटे परिवार की भांति था।

अमेरिका में प्रत्येक चीज जड़ों से उखड़ी हुई है। कोई भी नहीं जानता कि कहां का रहने वाला है। कहीं के होने का बोध ही जाता रहा है। यदि तुम किसी भी व्यक्ति से पूछो—’‘ तुम कहां के रहने वाले हो?” तो वह अपने कंधे उचका देगा क्योंकि वह अधिक शहरों में रह चुका है, बहुत से कॉलेज और बहुत से विश्व विद्यालयों में पढ़ चुका है। वह निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकता क्योंकि उसकी पहचान बहुत तरल और ढीली है। एक तरह से यह अच्छा भी है क्योंकि मनुष्य तेज तीक्ष्मा और जीवंत बना रहता है। लेकिन अपनी जड़ें खो देता है।

स्वयं, दृढ़ता से थिर रहने और जड़ों से उखड़ने दोनों ही चीजों को ही आजमा चुका हूं। सूरज तले कुछ भी नया नहीं है। हमने कई सदियों तक अतीत में इसे आजमाया है। इसने मनुष्य के मनों में जंग लगा दी है। लोग चिंता मुक्त तो हो गए लेकिन अधिक जीवंत नहीं रहे।

तब अमेरिका में कुछ नई चीज हुई और पूरे विश्व भर में फैल गई। क्योंकि अमेरिका ही संसार का भविष्य है। वहां जो कुछ भी होता है, वह देर—सवेर हर जगह होने लगता है। अमेरिका ही रुख तय करता है। अब लोग बहुत ही जीवंत है, लेकिन अपनी जड़ों से उखड़े हुए हैं, वे यह भी नहीं जानते कि वे कहां के रहने वाले हैं?

कहीं के होने की एक बहुत बड़ी आकांक्षा जाग उठी है। इस बड़ी कामना को कहीं अपनी जड़ें जमाना है, किसी व्यक्ति को अपने अधिकार में लेना है और किसी अन्य व्यक्ति के अधिकार में रहना भी है, कोई ऐसी चीज जो टिकाऊ हो, कोई ऐसी चीज जिसमें स्थायित्व हो, कुछ चीज केंद्र जैसी थिर हो—क्योंकि लोग पहियों की तरह घूम रहे हैं, और वहां विश्राम जैसी कोई चीज दिखाई नहीं देती। निरंतर बदलते और बदलते रहने से, वहा निरंतर एक बहुत बड़ा तनाव है। और इस परिवर्तन की गति दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, और तेज और तेज होती जा रही है।

अब वे कहते हैं कि बहुत बड़ी और मोटी पुस्तकें नहीं लिखी जानी चाहिए क्योंकि जब तक वह बड़ी पुस्तक लिखी जाती है वह समय के बाहर हो जाती है। जानकारियां बड़ी तेजी से बदल रही हैं। इसलिए केवल छोटी छोटी पुस्तिकाएं ही लिखा जाना उचित है। जिससे वे जानकारियां बदलने से पहले ही लोगों तक पहुंच जायें। अन्यथा इससे पहले कि वे बाजार तक पहुंचें, वे पुस्तकें समय के बाहर, व्यर्थ और कूड़ा बन जाती हैं।

प्रत्येक वस्तु इतने अधिक बड़े परिवर्तन, कोलाहल और अव्यवस्था की स्थिति में है, कि मनुष्य बहुत गहराई से तनाव का अनुभव कर रहा है, वह बहुत थकावट और तनाव में है।

दोनों के ही अपने लाभ हैं और दोनों के अपने अभिशाप भी हैं। मेरी दृष्टि में इन दो अलग— अलग दिशाओं में जाने वाली इन दोनों चीजों का एक संश्लेषण बनना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को सजग होना चाहिए कि जीवन दोनों ही पुराना और नया साथ—साथ है, वह एक ही समय होने वाला है—वह पुराना है, क्योंकि पूरा अतीत वर्तमान क्षण में उपस्थित है; वह नया है क्योंकि पूरा भविष्य इस वर्तमान क्षण में पूरी संभावनाओं के साथ उपस्थित है। यह वर्तमान क्षण पूरे अतीत को चरम सीमा और पूरे भविष्य का प्रारंभ है। इस क्षण में वह सभी कुछ छिपा है जो पहले घट चुका है और वह भी छिपा है जो भविष्य में घटने जा रहा है। प्रत्येक क्षण, अतीत और भविष्य दोनों एक साथ है। यह अतीत और भविष्य का एक बिंदु पर मिलन है। इसलिए कुछ चीज नई है और कुछ चीज पुरानी और यदि तुम दोनों के प्रति साथ—— साथ सजग रह सको तो तुम जीवंतता और प्रखरता के साथ, जड़ों से भी जुड़े रह सकते हो। तुम बिना किसी तनाव के विश्राममय रहोगे। तुम बुझे—बुझे से न बने रहकर बहुत सजग और सचेत रहोगे।

 

मैने सुना है:

दोपहर बाद जब श्रीमती मैकमोहन अपनी रसोईघर में गईं, तो उन्होंने वहां रखी प्रत्येक प्लेट और प्याले तोड दिए और प्राय _ उनका साफ सुथरा बिना धब्बों के रहने वाला रसोईघर बेढंगा कबाड बन गया। पुलिस वहां पहुंची और उन्हें शहर के मानसिक चिकित्सालय में ले गई। मुख्य मनोचिकित्सक ने उनके पति को बुलाकर उनसे संकोच के साथ पूछा—’‘ क्या आप जानते हैं कि वजह क्या थी? आपकी पत्नी का अचानक दिमाग खराब क्यों हो गया?”

मि. मैकमेहन ने उत्तर दिया—’‘ जितना आश्चर्य आपको है, उतना मुझे भी है। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि उन्हें हो क्या गया है? वह हमेशा से बहुत शांत और परिश्रम से काम करने वाली महिला रही है, और जाने क्यों बीस वर्षों से वे कभी रसोई घर से बाहर ही नहीं निकलीं।’’

 

तब कोई भी व्यक्ति पागल हो सकता है। यह बहुत साधारण सा दो और दो जोड़ कर चार होने का मामला है। यदि कोई स्त्री बीस वर्षों में रसोई घर से बाहर ही नहीं आई, तो यह पागलपन के लिए काफी है। लेकिन विपरीत स्थिति हमेशा पागल बनाती है। यदि तुम बीस वर्षों में कभी भी अपने घर नहीं गए और बस एक आवारा बन गए हमेशा आते रहे लेकिन कभी भी किसी मंजिल पर नहीं पहुंचे, हमेशा इधर—उधर भटकते रहे और पहुंचे कही भी नहीं, यदि तुम एक घुमक्कड़ जिप्सी बन जाओ और तुम्हारा कोई भी घर न हो, तब तुम भी पागल हो जाओगे। दोनों को अलग— अलग लेना खतरनाक है। दोनों को यदि साथ लिया जाए तो वे जीवन को बहुत समृद्ध बनाते हैं। दो विपरीत ध्रुव जीवन को समृद्ध बनाते हैं। यिन और यांग, पुरुष और स्त्री, अंधेरा और प्रकाश, जीवन और मृत्यु परमात्मा और शैतान, संत और पापी यह दोनों जीवन के दो छोर हैं। सभी छोरों को एक साथ लेकर चलने से ही जीवन धनी होता है। अन्यथा जीवन नीरस बन जाता है।

नीरस और थकाने वाली जीवन शैली मत चुनो। समृद्ध बनो।

 

चौथा प्रश्न :

प्यारे ओशो! प्रत्येक शिविर के बाद मेरे अंदर

गहरार्ड़ में एक निराशा और बेचैनी जैसी रह जाती है? जैसे मानो

मैं कुछ घटने की प्रतीक्षा कर रहा था, जो कभी घटती नही?

और मैं स्वयं अपने आप से कहता हूं ” हीरा! तुम उसी नाव में

फिर से वापस आ गए इस पर टिप्‍पणी करने की अनुकम्पा

करें।

हले मैं तुम्हें एक घटना के बाबत बताना चाहता हूं। एक नया आया अपराधी वार्डेन से शिकायत कर रहा था मुझे न तो यहां का खाना पसंद है, न यह क्वार्टर और न मैं तुम्हारा चेहरा देखना चाहता हूं।

वार्डेन ने कहा—’‘ यह तो ठीक है पर क्या अन्य कोई चीज और भी है जो तुम्हें पसंद न हो?”

अपराधी ने उत्तर दिया—’‘ इस समय तो बस इतना ही काफी है। मैं यह नहीं चाहता कि तुम यह सोचो कि मैं बिलकुल ठीक नहीं हूं।’’

 

हीरा! तुम बिलकुल भी ठीक नहीं हो।

पहली बात तो यह है कि तुमने सैकड़ों जन्मों से ध्यान नहीं किया। ध्यान न करने की बात तुम्हारे हृदय और तुम्हारी अस्थियों में गहरी प्रविष्ट हो गई है…… .वह एक कठोर ढांचा बन चुका है। अब अचानक तुम ध्यान करने लगे हो और तुमने बहुत आकांक्षाएं करना शुरू कर दिया है। यह न्यायसंगत नहीं है।

वास्तव में सभी अपेक्षाएं जरा भी ठीक नहीं है बल्कि जब कोई व्यक्ति ध्यान से कुछ भी मिलने की अपेक्षा करता है वह पूरी तरह गलत होता है। क्योंकि ध्यान का आधार और ध्यान की बुनियाद ही यह समझना है कि सारी अपेक्षाएं छोड दी जाएं। अन्यथा ध्यान की शुरुआत होती ही नहीं। यह आशा और अपेक्षा ही है जो तुम्हारे मन में निरंतर विचारों के ताने—बाने बुनती रहती है। यह अपेक्षा ही है जो तुम्हें तनाव से भर देती है। यह अपेक्षा ही है जब यह पूरी नहीं होती तो तुम्हें निराश और दुखी बनाती है। अपेक्षा करना छोड़ो और ध्यान पुष्पित होगा ही, लेकिन वह केवल तभी खिल सकता है, जब तुम अपेक्षाएं करना छोड़ दो, तुम अनेक जन्मों तक आशा और अपेक्षा ही करते रहोगे और ध्यान को पुष्पित होने की अनुमति ही नहीं दोगे

 

मैंने सुना है:

जब लानाहन के बाल झड़ते ही गए तो उसने अपने नाई से शिकायत करते हुए चीखते हुए कहा—’‘ तुमने जो भी चीज मुझे प्रयोग करने को दी वह खराब है। तुमने कहा था कि उसकी दो बोतलों के प्रयोग से मेरे बाल उगने लगेंगे, लेकिन कुछ भी तो नहीं हुआ।’’

नाई ने उत्तर दिया—’‘ मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। वह तो बालों को पहले जैसी स्थिति में लाने वाली सर्वश्रेष्ठ चीज थी।’’

यह सुनकर लानाहन ने कहा—’‘ ठीक है! फिर मुझे दूसरी बोतल पीने में कोई आपत्ति नहीं, लेकिन उसे अच्छा काम करना चाहिए।’’

 

अब अपेक्षाओं के साथ ध्यान करना भी बाल उगने वाले लोशन की बोतल पीने जैसा है। यह कोई भी असर करने नहीं जा रही। यह तो नुकसान ही अधिक कर सकती है। यह खतरनाक ही हो सकती है।

अपेक्षा के साथ ध्यान करने से अच्छा है कि ध्यान किया ही न जाए क्योंकि कम से कम तुम्हें निराशा तो नहीं भोगनी होगी। मत करो ध्यान। लेकिन यदि तुमने ध्यान करने का निश्चय ही कर लिया है, तब तुम्हें यह स्पष्ट हो जाय कि ध्यान करने से तुम्हें कोई भी चीज मिलने की कोई गारंटी नहीं है। ऐसा नहीं कि उसे करने से कुछ घटता नहीं, वह घटता है, लेकिन उसकी कोई गारंटी नहीं है। अत्यधिक संभावनाओं का द्वार खुलता है, लेकिन उनकी अपेक्षा नहीं कर सकते। यदि तुम अपेक्षा करते हो तो द्वार बंद ही रहते हैं। यह तुम्हारी अपेक्षा ही है जो तुम्हारा मार्ग रोक देती है।

सड़क पर दो मित्र मिले।

उनमें से पहला बोला—’‘ मैं इतना अधिक दुखी हूं कि मैं सिर्फ चीख ही सकता हूं।’’

” आखिर क्यों?”

”दो सप्ताह पूर्व मेरे चाचा की मृत्यु हो गई और वह मेरे लिए दस लाख डालर छोड़ गए।’’

दूसरे ने कहा—’‘ तो इसमें चीखने जैसी क्या बात है?”

पहले ने उत्तर दिया—’‘ यह तो ठीक है कि इस बात से मुझे खुश होना चाहिए। लेकिन इस हफ्ते मेरे दूसरे चाचा भी मर गए है और वह मेरे लिए बीस लाख डालर छोड़ गए।’’

”लेकिन फिर तुम इतने दुखी क्यों हो?”

पहले व्यक्ति ने कहा—’‘ मेरे सिर्फ दो चाचा ही हैं।’’

 

अपेक्षा करना, बहुत बहुत अधिक खतरनाक है। अपेक्षा करने के साथ यदि कुछ भी होता है तो तुम्हें उससे पूर्ण संतुष्टि का अनुभव नहीं होगा, क्योंकि अपेक्षा करना लगभग पागलपन है। तुम अधिक से अधिक की अपेक्षा करते ही चले जाओगे। अब वह व्यक्ति इसलिए दुखी है क्योंकि उसके केवल दो चाचा ही हैं। जो कुछ भी होता है, वह तुम्हें खुश नहीं करने जा रहा, यदि तुम शुरू से ही अपेक्षाएं कर रहे हो। अपेक्षा करना छोड़ो— ध्यान करने में वह ठीक चीज नहीं है और फिर तुरंत ही चीजें घटना शुरू हो जाएंगी।

अगले शिविर में या कल से ही तुम बस ध्यान करो। सहज स्वाभाविक रूप से उसका आनंद लो। परिणाम पाने के लिए वहां देखने की कोई जरूरत ही नहीं है। जो होता है, उसे होने दो। भविष्य को स्वयं अपने आप आने दो। ध्यान करने को कोई लक्ष्य मत बनाओ—बस केवल दिशा सभी कुछ करेगी। आनंद मनाओ, उस बारे में उत्सवपूर्ण रहो।

 

ध्यान करना ही एक महान आनंद है। बस केवल नृत्य करने के योग्य बनो, गीत गाने योग्य बनो, बस शांत होकर बैठ जाने और अपनी श्वांस देखने में समर्थ बनो और तुम्हारा होना ही, आवश्यकता से अधिक है। किसी और चीज के लिए पूछो ही मत। क्योंकि तुम्हारा पूछना ही तुम्हारे अस्तित्व को दूषित कर देता है। तुमने दूसरी तरह से कोशिश की है, अब मेरी बात सुनो और मेरे बताए रास्ते पर चलने की कोशिश करो। तुम बस केवल ध्यान करो।

” प्रत्येक शिविर के बाद, मेरे अंदर गहराई में एक निराशा और बैचेनी ही रह जाती है……. ”

शिविर के बाद यह समस्या खड़ी नहीं होती, यह शिविर से पहले होने वाली समस्या है। पहले तुम अपेक्षाओं के बीज बोते हो…… .तब उसे भोगेगा कौन? कष्ट तुम्हें ही होगा। तुम्हें यह फसल काटनी ही होगी।

”…… .जैसे मानो मैं कुछ चीज घटने की प्रतीक्षा कर रहा था, जो कभी भी घटती नहीं है।’’

यह कभी घटेगी भी नहीं। तुम जिस चीज की भी प्रतीक्षा कर रहे हो, तुम्हारी प्रतीक्षा व्यर्थ है। ऐसा कुछ भी होने नहीं जा रहा है। और जो भी होने जा रहा है, उसका तुम्हारी इच्छाओं और अपेक्षाओं से कुछ भी लेना देना है। तुम बस उसे आने दो, उसका रास्ता मत रोको। तुम अपने रास्ते से स्वयं अपने आप को हटा दो। इस बार बिना किसी अपेक्षा, बिना किसी चाह और बिना आशा के साथ—’‘ बस ध्यान करो।”

”…… और मैं स्वयं अपने आपसे कहता हूं हीरा! तुम उसी नाव में फिर से ”

वापस आ गए।

यदि तुम मुझे सुन रहे हो, तो तुम फिर उसी नाव में होना ही नहीं। यह अपेक्षा की ही नाव है। निराशा उसका प्रतिफलन या बाई प्रोडक्ट है। तुम इस निराशा से छुटकारा पाना चाहते हो, लेकिन तुम अपेक्षा से छुटकारा नहीं पाना चाहते। तब यह असम्भव होगा।

ऐसा कहा जाता है कि बुद्ध ने एक बार कहा—’‘ यदि तुम जन्म और मृत्यु से छुटकारा पाना चाहते हो, यदि तुम दुखों से छुटकारा पाना चाहते हो, यदि तम प्रसन्नता के लिए वासना से मुक्त होना चाहते हैं तो इसका कोई दूसरा मार्ग है ही नहीं, सिवाय कामना मुक्त होने के। कामना पूरी न होने पर दुख होता है।’’

और जब वहां कोई दुख नहीं रह जाता, वहां प्रसन्नता ही होती है। लेकिन यह इसलिए नहीं है, क्योंकि तुमने उसकी कामना की, ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम्हारी कोई कामना थी ही नहीं। कामनारहित होने की गहरी स्थिति में तुम आनंद से भर जाते हो।

 

पांचवां प्रश्न :

प्यारे ओशो! आपके विरोधाभासी वक्तव्य मुझे बहुत अधिक पीड़ा भरी भाव दशा मे फेंक दिया करते थे! अब मैं आपको सुनता हूं! लेकिन निर्विचार में शांत रहते हुए मेरे बर्तन का पानी खौलकर भाप बने? क्या मैं उससे पूर्व ही पलायन कर गया?

हले एक प्रसंग सुनो एक मां कोने वाली दुकान पर एक नये यांत्रिक खिलौने का परीक्षण कर रही थी और उसने आश्चर्यचकित होकर कहा—’‘ क्या यह एक छोटे बच्चे के लिए बहुत अधिक जटिल और उलझन भरा नहीं है?”

विक्रेता ने मुस्कराते हुए कहा—’‘ नहीं जी! यह शिक्षाप्रद खिलौना है। इसे विशेष रूप से इस तरह डिजायन किया गया है जिससे यह बच्चे को हमारी आज की सभ्यता के बारे में कुछ सिखा सके। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्चा इसे कैसे साथ लेकर चलता है। वह गलत ही होगा।

 

तुम मेरे साथ अपना सामंजस्य बिठाकर रखने की कोशिश मत करो, अन्यथा तुम गलती करोगे। इसे इसी तरह से डिजायन किया है। मैं स्वयं अपने कहे का स्वयं विरोध करता रहूं मेरा तरीका ही यही है। तुम्हें कोंचते हुए प्रेरित करता रहा, यही मेरा तरीका है। लेकिन अब तुमने तरकीब सीख ली है, वह अब मुझे गहरी शांत दशा में सुनता है। इस बात की फिक्र करो ही मत कि जो कुछ मैंने पहले कहा था, मैं कुछ और उसके विरोधाभास में कहता हूं। बस मुझे इसी क्षण सुनो—उसके साथ अतीत को मत लाओ। यदि तुम उसे सुनते हुए अतीत को साथ न लाओ, तो वहां कोई भी विरोधाभास नहीं है। यदि तुम उसमें अतीत को साथ ले आते हो, तभी विरोधाभास है। केवल अतीत को साथ मत लाओ और यही होती है शांति। तुम केवल इस क्षण मुझे सुनो। तब कहीं भी विरोधाभास न होगा। और यही मेरा पूरा प्रयास है कि अपने कहे का ही विरोध किये जाऊं। एक न एक दिन तुम्हें यह निर्णय लेना ही पड़ेगा कि यदि तुम्हें इस व्यक्ति का सुनना है तो तुम्हें वह सब कुछ भूलना होगा। जो उसने पहले कहा था। तुम्हें सच्चा बनाने का यह एक मार्ग है कि अतीत उसके साथ न आये। यदि मैं बहुत ही पक्के रूप से नियमित बातें ही कहे जाऊं तो तुम मुझे सुनना बंद कर दोगे—क्योंकि फिर सुनने की कोई जरूरत ही नहीं होगी— ” यह व्यक्ति तो बार—बार एक जैसी बातों को ही कहे जा रहा है।’’

यदि तुम्हें सुनते हुए नींद भी आ जाए तो भी तुम किसी चीज से चूकोगे नहीं। लेकिन मैं तुम्हें सोने नहीं दूंगा, क्योंकि तुम फिर चूक जाओगे, तुम मुझ पर कभी भरोसा नहीं कर सकते।

 

एक समाचार पत्र में वहां एक विज्ञापन था, एक धनी व्यक्ति को रात में एक सुरक्षा गार्ड की जरूरत है। उसकी तीन शर्तें थीं — पहली उसे बहुत लंबा होना चाहिए शक्तिशाली होने के साथ—साथ उसे दिखने में सख्त होना चाहिए। उसे सजग होने के साथ शराब आदि किसी नशे का आदी नहीं होना चाहिए और तीसरी शर्त थी कि उसे विश्वसनीय होना चाहिए।

मुल्ला नसरुद्दीन ने प्रार्थना पत्र भेजा। उसे साक्षात्कार के लिए बुलाया गया, लेकिन वह धनी व्यक्ति उसे देख कर आश्चर्य में पड़ गया क्योंकि वह छोटे कद का था, लंबा तो था ही नहीं, वह देखने में भी सख्त न था और एक विनीत व्यक्ति सा दिखाई देता था।

उस व्यक्ति ने कहा—’‘ मुझे ताजुब इसलिए हुआ कि तुमने यहां आने की व्यर्थ तकलीफ की और तुमने मेरा विज्ञापन पढ़कर प्रार्थनापत्र ही व्यर्थ भेजा। क्या तुमने देखा नहीं, कि उसमें तीन शर्तें लिखी थीं पहली तो यह कि उस व्यक्ति को लंबा होना चाहिए कम से कम छू फीट का और तुम पांच फीट से अधिक लंबे लगते नहीं। दूसरे देखने में उस व्यक्ति को सख्त और हिंसक लगना चाहिए जब कि मैंने तुम्हारे जैसा सरल और लगभग साधारण व्यक्ति अब तक नहीं देखा। तुम तो बहुत विनीत और दब्यू जैसे दिखाई देते हो। तुम यहां क्यों आये हो और तुम शराब पीते हो या नहीं?”

नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ मैं बहुत अधिक शराब पीता हूं।’’

तब तुम मेरा समय बरबाद क्यों कर रहे हो? तुम यहां आये ही क्यों?

नसरुद्दीन ने कहा—’‘ मैं सिर्फ यही कहने के लिए यहां आया हूं कि मैं विश्वसनीय व्यक्ति तो हरगिज भी नहीं हूं।’’

 

मैं भी एक विश्वसनीय व्यक्ति नहीं हूं। मैं यह पूरी तरह भूल ही जाता हूं। कि कल मैंने तुमसे क्या कहा था। मैं एक पियक्कड़ भी हूं। यही वजह है कि मैं इतनी आसानी से अपनी कहीं हुई बात का विरोध करता हूं अन्यथा वह बहुत अधिक कठिन हो जाता। मेरे मन में यह बात कभी आती ही नहीं कि मैं विरोधाभासी हूं। जो कुछ भी मैं कह रहा हूं वह यही है। मैं इस बात की कभी फिक्र ही नहीं करता कि इससे पहले मैंने क्या कहा था। मेरा उससे अब कोई सम्बंध नहीं है। वह उस क्षण का सत्य था, यह इस क्षण का सत्य है और मैं भरोसा करने लायक व्यक्ति नहीं हूं।

मैं ऐसी कोई बात नहीं कह रहा हूं जिसे मैं कल फिर कहने जा रहा हूं। कौन जानता है? मैं स्वयं अपने आप को नहीं जानता। यदि तुम वास्तव में मुझे सुनते हो तो धीमे— धीमे तुम हर क्षण को भी सुनोगे। यही मेरा पूरा प्रयास है।

मैं तुम्हें कोई दर्शनशास्त्र, कोई सिद्धांत या मत देने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। कोई भी मत या सम्प्रदाय ही पक्के और नियमित होते हैं। मैं तुम्हें किसी विशिष्ट विश्वास में तुम्हारा रूपांतरण करने की कोशिश नहीं कर रहा हूं क्योंकि विश्वास तो जड़ बना देता है। मैं तुम्हें उस खिड़की तक लाने की कोशिश कर रहा हूं जिससे उसके पार तुम खुला आकाश और सत्य देख सको। उस सत्य का वर्णन नहीं किया जा सकता। और इस सत्य को मत या विश्वास नहीं बनाया जा सकता और इस सत्य में सभी विरोधाभास समाहित हैं। क्योंकि यह अत्यन्त विराट है। इसलिए मैं तुम्हें इसकी झलकें और सभी पहलुओं का दर्शन कराता रहूंगा। इसका एक पहलू या दृष्टिकोण दूसरे दृष्टिकोण का विरोधाभासी है। लेकिन पूर्ण सत्य में उसके सभी दृष्टिकोण और पहलुओं का मिलन और समन्वय है और सभी मिलाकर एक हैं।

मेरे सुनने का तरीका ठीक यही है। यदि तुम मुझे सुनना चाहते हो तो प्रत्येक को यहीं पहुंचना होगा। यदि तुम मेरे साथ होना चाहते हो तो तुम्हें उस शांति तक पहुंचना होगा जहा तुम अतीत की ओर कोई ध्यान दोगे ही नहीं। जो कुछ मैंने कहा था—’‘ उसे मैं जितनी गहराई से भूल चुका हूं तुम भी उसे भूल जाओ। तुम तो बस मुझे इसी क्षण सुनो। तब वहां कोई भी विरोधाभास न होगा क्योंकि वहां कोई तुलना नहीं होगी। और तब मैं जो भी कहता हूं तुम उससे बंधोगे नहीं। वह केवल एक दिशा है, कोई लक्ष्य नहीं है। वह तुम्हें सजग और सचेत बनाने में केवल सहायता करता है। वह तुम्हें कोई दार्शनिक विचारधारा नहीं देता। वस्तुत: वह तुम्हें एक सूक्ष्म वातावरण देता है, पूरी तरह से भिन्न जीवन की एक दृष्टि देता है। वह मेरी दृष्टि में तुम्हें सहभागी बनाता है।’’

 

एक व्यस्त सरकारी उच्च कार्यालय के आसपास टहलते हुए एक सैल्समैन ने एक अधिकारी से पूछा—’‘ सबसे नई तरह की अत्याधुनिक टाई खरीदने के बारे में आपका क्या खयाल है?”

उस अधिकारी ने कहा—’‘ मुझे कोई जरूरत नहीं उसकी। आप बस रफूचक्कर हो जायें।’’

सेल्समैन ने कहना जारी रखते हुए कहा—’‘ वे शुद्ध सिल्क हैं।’’

उस अधिकारी का धैर्य जवाब दे गया। उसने कहा—’‘ देखो! मैंने कहा था कि तुम भागो नहीं तो मैं तुम्हें पीट दूंगा। और यही मेरा अर्थ भी है।’’ यह कहते हुए उस अधिकारी ने उस सेल्समैन को उठाकर आगे उछाल दिया। नमूने की टाइयों के डिब्बे खुल कर चारों ओर बिखर गए। सेल्समैन निडर होकर उठा, उसने अपने कपड़ों पर से धूल झाड़ी, अपना बिखरा सामान समेटा और आफिस की ओर जाते हुए कहा—’‘ अब तो जो कुछ भी क्रोध आपके अंदर था, बाहर निकल चुका है, अब मैं आपका ऑर्डर लेने के लिए तैयार हूं।’’

मैं यही तुम से कहता हूं— अब जो कुछ भी तुम्हारे हृदय में था, वे विरोधाभास जिनके कारण तुम मुसीबत में पड़े थे और जो तुम्हें भावनात्मक रूप से परेशान कर रहे थे, क्योंकि तुम एक दार्शनिक विचारधारा खोज और मानसिक विश्वास खोज रहे थे और कुछ ऐसा खोजने का प्रयास कर रहे थे जिससे तुम आबद्ध हो जाओ, लेकिन मैं तुम्हें इसकी अनुमति नहीं दूगा, अब तुम्हारा हृदय खुल चुका है और मैं तुम्हारा आर्डर लेने के लिए प्रस्तुत हूं।

 

अंतिम प्रश्न :

प्यारे ओशो! मैं उन सभी चमत्कारों वरदानों

और आनंद के लिए आपको धन्यवाद देना चाहता हूं लेकिन

मैं इसके लिए कोई भी पर्याप्‍त उचित तरीका खोज ही नहीं सकता।

मैं इस सभी से अत्यंत अभिभूत हूं।

क छोटा सा प्रसंग:

एक हिप्पी टाइप का आवारा एक गिरजाघर में गया और वहां से बाहर निकलते हुए उसने पादरी से कहा—’‘ डैडी! आप तो बिना किसी बाधा के मजे से झूम रहे थे।’’

पादरी ने कहा—’‘ फिर से कहें, मैं आपकी बात समझा नहीं श्रीमान! उस आवारा हिप्पी ने कहा—’‘ मेरे कहने का मतलब है. मैं वास्तव में तुम्हारे संगीत और झूमने से हिल उठा। और दादू! मैंने वहां रखी तुम्हारी पुरानी प्लेट में थोड़ी सी रेजगारी रख दी है।’’

पादरी ने झुकते हुए बाहर निकले हाथ को नीचे लाते हुए कहा—’‘ शांत हो जाओ, पूरी तरह शांत।’’

 

यही वजह है कि मैं तुमसे कह रहा हूं—शांत हो जाओ। पूरी तरह शांत। तुम्हें कृतज्ञता व्यक्त करने की कोई जरूरत ही नहीं है। यह कठिन होगा। यदि तुम उसे अभिव्यक्त कर सके तो भी वह निर्मूल्य होगा। यदि वह किसी कीमत का है भी, तो तुम उसे व्यक्त नहीं कर सकते।

लेकिन यदि तुम मुझे केवल औपचारिक रूप से धन्यवाद देना ही चाहते हो तो तुम उसे व्यक्त कर सकते हो। लेकिन मैं उस व्यक्ति को जानता हूं जिसने तुमसे यह कहा है। कुछ चीज जो वास्तव में घट रही हैं, जो अभिभूत करने वाली है, लेकिन उसे अभिव्यक्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

वास्तव में तुम उसे जान पाओ, मैं उससे पहले ही उसे जान लेता हूं। जब कभी भी वह किसी को भी घटती है तो यहां मैं ही उसे सबसे पहले जानता हूं। वह भले ही तुम्हें घट रही हो लेकिन तुम उसे जानने वाले दूसरे व्यक्ति होगे क्योंकि उसे तुम्हारे मन तक पहुंचने में समय लगता है। उसे थोड़ी लंबी यात्रा करनी होती है। वह मेरी ओर अधिक तेजी से यात्रा करती है। मैं जानता हूं कि वह विह्वल कर देती है, लेकिन उसे व्यक्त करने की कोई जरूरत नही, बस शांत हो जाओ। और अधिक शांत बनो और मैं उसे जान जाऊंगा और दूसरे अन्य व्यक्ति भी इसे जान जाएंगे और पूरा संसार यहां तक कि वृक्ष, चट्टानें और नदियां भी इसे जान जाएंगी।

जब यह वास्तव में घटता है, तो उसे कहने की कोई जरूरत ही नहीं। तुरंत ही पूरा अस्तित्व उसे अनुभव करता है कि कुछ घटना घटी है। किसी के लिए अज्ञात का द्वार खुला है। कोई फूल कहीं खिला है, कहीं सहस्त्र दल कमल खिला

 

आज बस इतना ही।

 


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सहज योग–(प्रवचन–16)

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भोग में योग, योग में भोग—(प्रवचन—सोलहवां)

दिनांक 6 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र :

जिम विस भक्खइ विसहि पलुत्ता।

तिम भव भुज्जइ भवहि ण जुत्ता।।7।।

 परम आणन्द भेउ जो जाणइ ।

खणहि सोवि सहज बुजाइ ।। 8।।

 गुण दोस रहिअ एहु परमत्थ ।

सह संवेअण केवि णस्थ ।।9।।

 

चित्ताचित्त विवज्जहु ण णित्त ।

सहज सरूएं करहु रे थित्त ।। 10।।

 

आवइ जाइ कहवि ण णइ ।

गुरु उपएसें हिअहि समाइ ।।11।।

 

हउ सुण जुग सुण तिहुअण सुण।

णिम्मल सहजे ण पाप ण पुण ।।12।।

 

 

लोहे की दीवारें, पंछी!

कैसे तुझे सुहाती होंगी?

 

अन्तर में संघर्ष छिपाए,

तेरा जीवन जलता होगा!

हासों में छिप क्रन्दन तेरा,

भोले जग को छलता होगा!

पर अनजाने में तो तेरी,

अंखियां भी भर आती होंगी!

लोहे की दीवारें, पंछी!

कैसे तुझे सुहाती होंगी!

 

जग की खुशियों पर न्योछावर,

होंगी कब तक तेरी चाहें!

पलकों के डोरों से कब तक,

नापेगा जीवन की राहें?

सोच रही हूं, बुझती कितनी–

यों ही जीवन-बाती होंगी!

लोहे की दीवारें, पंछी!

कैसे तुझे सुहाती होंगी?

 

जागृति का संदेश लिये जब,

लेती होगी वायु हिलोरें!

ऊषा की आभा से रक्तिम,

होती होंगी नभ की कोरें!

जग के आंगन में जब चिड़ियां,

गाती मधुर प्रभाती होंगी!

लोहे की दीवारें, पंछी!

कैसे तुझे सुहाती होंगी?

मनुष्य भी बंद है–लोहे की दीवारों में नहीं, लोहे से भी ज्यादा संघातक चित्त की दीवारों में, विचार की दीवारों में। ऊपर से कितने ही तुम स्वतंत्र मालूम पड़ो, लेकिन तुम्हारे पंख काट दिए गए। उड़ तुम सकते नहीं। आकाश तुम्हारा तुमसे छीन लिया गया है और ऐसे सुंदर शब्दों की आड़ में छीना गया है कि तुम्हें याद भी नहीं आती। तुम्हारी जंजीरों को तुम्हारा आभूषण बना दिया गया है। तुम्हारे कारागृह, समझाया गया है कि तुम्हारे मंदिर हैं। और जिनके बोझ से तुम दबे जा रहे हो, बताया गया है वह ज्ञान है, शास्त्र हैं, सिद्धांत हैं।

यह सारा विराट आकाश तुम्हारा है मगर जीते हो तुम बड़े संकीर्ण आंगन में– हिंदू का आंगन, ईसाई का, मुसलमान का, जैन का। संकीर्ण आंगन हैं। छोटे-छोटे आंगन हैं। परमात्मा में जिसे जीना हो उसे सब जंजीरें तोड़ देनी पड़ती हैं; फिर वे जंजीरें चाहे सोने की ही क्यों न हों।

और ध्यान रखना, लोहे की जंजीरें तोड़ना आसान है, सोने की जंजीरें तोड़ना कठिन है, क्योंकि सोने की जंजीरें प्रीतिकर मालूम होती हैं, बहुमूल्य मालूम होती हैं। आदमी बचा लेना चाहता है सोने की जंजीरों को। और जंजीरों के पीछे सुरक्षा छिपी है। जो पक्षी तुम्हें पींजड़े में बंद मालूम होता है, तुम अगर पींजड़े का द्वार भी खोल दो तो शायद न उड़े। क्योंकि एक तो न मालूम कितने समय से पींजड़े के भीतर बंद रहा है, उड़ने की क्षमता खो चुका होगा। क्षमता भी न खोई हो तो विराट आकाश भयभीत करेगा। क्षुद्र में रहने का संस्कार विराट में जाने से रोकेगा। पंख फड़फड़ाएंगे भी तो आत्मा कमजोर मालूम होगी, आत्मा कायर मालूम होगी।

फिर, पींजड़े की सुरक्षा भी है। भोजन समय पर मिल जाता है, नियत मिल जाता है, खोजना नहीं पड़ता। कभी ऐसा नहीं होता कि भूखा रह जाना पड़े। खुला आकाश, माना कि सुंदर है और वृक्ष हरे हैं और फूल रंगीन हैं और उड़ने का आनंद, सब ठीक, लेकिन भोजन समय पर मिलेगा या नहीं मिलेगा? किसी दिन मिले, किसी दिन न मिले! असुरक्षा है। फिर खतरा भी है। पींजड़े में बंद, कोई हमला तो नहीं कर सकता। पींजड़े में बंद बाहर की दुनिया भीतर तो प्रवेश नहीं कर सकती। पींजड़े के बाहर शत्रु भी होंगे, बाज भी होंगे, हमला भी हो सकता है, जीवन संकट में हो सकता है। पींजड़े में सुरक्षा है, सुविधा है। आकाश असुरक्षित है, असुविधापूर्ण है। तुम द्वार भी खोल दो पींजड़े का तो जरूरी नहीं कि पक्षी उड़ जाए।

मैंने तुम्हारे द्वार खोले हैं, मगर जरूरी नहीं कि तुम उड़ो। सच तो यह है जो तुम्हारा द्वार खोलता है उससे तुम नाराज हो जाते हो, क्योंकि तुम्हारे लिए द्वार खुलने का अर्थ होता है: बाहर से शत्रु के आने के लिए भी द्वार खुल गया। तुमने अपनी एक छोटी-सी दुनिया बना ली है। तुम उस छोटी-सी दुनिया में मस्त मालूम होते हो। कौन विराट की झंझट ले!

इसलिए लोग मंदिरों में परमात्मा को खोजते हैं, जबकि परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। मंदिर छोटा-छोटा आंगन, छोटे-छोटे पींजड़े…। परमात्मा को लोग शास्त्रों में खोजते हैं, जबकि परमात्मा चारों तरफ जीवंत है! उसी का सागर लहरा रहा है। परमात्मा के संबंध में लोग दूसरों से पूछते हैं, जबकि परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है!

यही सहज-योग की घोषणा है। तुम परमात्मा हो, रत्तीभर कम नहीं। लेकिन जरा अपनी स्वतंत्रता को स्वीकार करो। और मजा यह है कि पक्षियों पर तो पींजड़े दूसरे लोगों ने बनाए हैं, तुम्हारा पींजड़ा तुम खुद ही बना लिए हो। पक्षी को तो शायद किसी और ने बंद कर रखा है; तुमने खुद ही अपने को बंद कर लिया है। क्योंकि तुम्हारा पींजड़ा ऐसा है, तुम जिस क्षण तोड़ना चाहो टूट सकता है।

सहज का अर्थ होता है: जहां चेतना परिपूर्ण स्वाभाविक हो गई, सारे बंधन गिर गए, सारी जंजीरें गिर गईं। जंजीरें सूक्ष्म हैं, दिखाई पड़ने वाली नहीं हैं। लेकिन हैं जरूर। हर आदमी बंधा है। और जब भी कोई व्यक्ति यहां बंधन के बाहर हो जाता है तो बुद्ध हो जाता है, महावीर हो जाता है, मुहम्मद हो जाता है, जीसस हो जाता है, सरहपा और तिलोपा हो जाता है।

स्मरण करो, अपनी क्षमता को स्मरण करो। तुम भी यही होने को हो। इससे कम मत होना। होना हो तो ईसा होना, ईसाई मत होना, ईसाई होना बहुत कम होना है। जब ईसा हो सकते हो तो क्यों ईसाई होने से तृप्त हो जाओ? और जब महावीर हो सकते हो तो जैन होने से राजी होना बड़े सस्ते में अपनी जिंदगी बेच देना है।

मैं तुम्हें चाहता हूं बुद्ध बनो, उससे कम नहीं। उससे कम अपमानजनक है। उससे कम परमात्मा का सम्मान नहीं है। क्योंकि तुम्हारे भीतर परमात्मा बैठा है और तुम छोटी-छोटी चीजों में होकर छोटे-छोटे होकर उलझ गए हो। और अगर कोई तुम्हें तुम्हारी उलझन से बाहर निकालना चाहे तो तुम नाराज होते हो, तुम क्रोधित हो जाते हो। तुमने बड़ा मूल्य दे दिया है क्षुद्र बातों को। मूल्य तो सिर्फ एक बात का है–समाधि का। और सब निर्मूल्य है। उसी समाधि के ये सूत्र हैं।

अब तो बहुत थक गये, प्राण;

इधर-उधर, नित कुछ न कुछ खोजते फिरते बहुत हुए हैरान,

अब तो बहुत थक गये, प्राण।

 

पांव थके, हिय थका, जिय थका, लोचन थके, थके अंग-अंग

आशा थकी, प्रतीक्षा हारी, थकी कल्पना–अथक उड़ान,

अब तो बहुत थक गये, प्राण।

 

अन्वेषणमय अष्ट याम की परिक्रमा है श्रांत नितांत,

दरसन-प्यास बढ़ी अधिकाधिक ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी थकान,

अब तो बहुत थक गये, प्राण।

 

नीरस, अति निष्फल यह जीवन, हृदय-रिक्त, मन निपट अशान्त,

केवल व्यर्थ प्रयोगों में ही बीते जीवन क्षण सुनसान,

अब तो बहुत थक गये, प्राण।

 

गत जीवन पर डाल रहे हैं, अब हम हसरत भरी निगाह,

क्या से क्या हो जाते गर हम, यूं से यूं चलते अनजान,

अब तो बहुत थक गये, प्राण।

 

गत कृत अभ्यासों के बंधन हुए बहुत ही हैं मजबूत,

प्रीतम, कठिन दीख पड़ता है इस गति से पाना निर्वाण,

अब तो बहुत थक गये, प्राण।

 

खेल-खेल में तुम मन-मौजी, गर हमको दो झटका एक,

तो बस, उस इकटल्ले से ही हो जाये जीवन-कल्याण,

अब तो बहुत थक गये, प्राण।

जरा देखो गौर से अपने भीतर, कितने थक गए हो! कितने हताश-उदास हो गए हो! कितना बोझ लिए चल रहे हो! कितनी ऊब है तुम्हारे भीतर! तुम्हारे भीतर ऊब ही ऊब है। जीए जाते हो, क्योंकि जीना है। मगर कहां है जीवन का स्पंदन? कहां है जीवन का नृत्य? कहां है जीवन का उत्सव? बांसुरी तो बजती नहीं। वीणा पर तो टंकार उठती नहीं। मृदंग पर तो कोई थाप पड़ती नहीं। कहीं कोई मधुमयता नहीं है, कहीं कोई रसधार नहीं दिखाई पड़ती।

इसे जीवन कहते हैं तो फिर मृत्यु क्या है? इसे जीवन कहते हैं तो फिर जीवन दो कौड़ी का है! जीवन हो सकता था, हो नहीं पाया। तुम चाल ही न चले ऐसी कि जीवन हो जाता। तुम चाल ऐसी चले कि रोज-रोज संकीर्ण होते गए, रोज-रोज सिकुड़ते गए। तुम फैले नहीं, विस्तीर्ण न हुए।

“ब्रह्म’ शब्द का अर्थ होता है: विस्तार। जो फैलता ही चला जाए, जो सब सीमाओं का उल्लंघन कर दे, जो अतिक्रमण कर दे सारी मर्यादाओं का–वही ब्रह्म को उपलब्ध हो पाता है।

सहज-योग एक महाक्रांति है। इसे समझो तो द्वार खुल जाए परम अनुभूति का। इसे समझो तो तुम्हारा जीवन भी कृतार्थ हो।

एक-एक शब्द को गौर से समझना, क्योंकि तिलोपा ने बहुत शब्द नहीं कहे, थोड़े से शब्द हैं। मगर एक-एक शब्द पर्याप्त है तुम्हें मुक्त करने को।

जिम विस भक्खइ विसहि पलुत्ता। तिम भव भुज्जइ भवहि ण जुत्ता।।

“जिस प्रकार विष का शोधक विष खाकर भी मरता नहीं है, उसी प्रकार योगी सांसारिक विषयों को भोगता हुआ भी संसार के बंधनों में नहीं पड़ता।’

सुनो यह घोषणा। यह भगोड़ों की घोषणा नहीं है। यह संन्यास का पलायनवादी रूप नहीं है। यह संन्यास की आत्यंतिक रूप से विधायक धारणा है। तिलोपा कहते हैं कि जो विष का जानकार है वह विष को भी औषधि में बदल देता है। और जब तक तुम विष को औषधि में न बदल सको तब तक समझना तुम्हारे भीतर ज्ञान की किरण ही पैदा न हुई । तब तक समझना तुम्हारी बुद्धिमत्ता न जागी। तब तक तुम बुद्धू हो, तुम बुद्ध न हुए। जिस दिन जीवन के जहर को भी अमृतमय बनाने की कला आ जाती है, जो उस रसायन को जान लेता है वही योगी है।

योगी भगोड़ा नहीं हो सकता। भगोड़ा तो कायर होता है। भगोड़े का अर्थ तो यह है कि जहर देखकर जहर को छोड़कर भाग खड़े हुए। यह तो चुनौती का अस्वीकार हो गया। यह तो पीठ दिखा दी। यह तो जीवन के रण-क्षेत्र से कायर की तरह पूंछ दबाकर भाग गए। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं कि तू सहज-योगी होना, छोड़ना मत, भागना मत। जिंदगी में जो भी परमात्मा ने दिया है वह सभी रूपांतरित हो सकता है अमृत में। ठीक दुकान पर बैठे-बैठे मंदिर का आगमन हो सकता है। और मजा तो तभी है जब तुम्हें मंदिर न जाना पड़े और मंदिर तुम्हारे पास आए। रस तो तभी है जब तुम्हें हिमालय न जाना पड़े, तुम्हारे भीतर हिमालय उमगे; तुम्हारी अंतरात्मा हिमालय जैसी शांत और हरी-भरी हो जाए; तुम्हारी अंतरात्मा में झरने फूटें। हिमालय पर जाकर बैठ गए, जरूर थोड़ी शांति मालूम पड़ेगी, क्योंकि बाजार का शोरगुल न होगा। लेकिन वह शांति तुम्हारी नहीं है, याद रखना। एक क्षण को भी भूलना मत। वह शांति हिमालय की है।

ऐसे ही समझना कि दर्पण के सामने एक सुंदर व्यक्ति आकर खड़ा हो गया और दर्पण सोचने लगे कि मैं सुंदर हो गया!…सुंदर व्यक्ति के हटते ही दर्पण वही का वही रह जाएगा, जैसा था, टेढ़ा-मेढ़ा, गंदा-कुरूप। सुंदर व्यक्ति की छाया बन गई थी। छाया पर भरोसा मत कर लेना। छाया माया है। छाया आत्मा नहीं है।

तुम हिमालय गए, एकांत में बैठ गए, हिमालय का सन्नाटा–कुंआरा सन्नाटा! शांत हवाएं, धूल रहित! हरे वृक्ष, उनकी आकाश को छूने की उमंग! हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों पर सूरज से बरसता हुआ सोना, कि पूर्णिमा की रात में चारों तरफ चांदनी का फैलाव! तुम अभिभूत हो गए। तुम्हें लगा, लगा ध्यान। तुमने समझा कि बनी समाधि, पकी समाधि। और जब उतरकर आओगे वापस मैदान में, सब खो जाएगा। कुछ भी हाथ न लगेगा। छाया थी। छाया ने भ्रम में डाल दिया।

तिलोपा कहते हैं: जो जानता है वह अमृत की तलाश में नहीं जाता; वह तो जहर को अमृत बना लेता है। जहर है ही नहीं, अमृत ही है, सिर्फ जरा तलाश की बात है। परमात्मा ने संसार बनाया ही नहीं है, परमात्मा ही है, जरा तलाश की बात है। संसार तो ऊपर-ऊपर है, बाहर-बाहर है; भीतर-भीतर परमात्मा है।

जरा खोदो, थोड़ी मिट्टी की पर्तों को हटाओ–और जलस्रोत मिल जाएंगे! अपनी पत्नी में ही थोड़ा खोदो और परमात्मा मिल जाएगा। अपने पति में थोड़ा खोदो और परमात्मा मिल जाएगा। अपने बच्चे में थोड़ा खोदो और परमात्मा मिल जाएगा। दुकान पर बैठे-बैठे, थोड़े शांत होने की कला सीखो और परमात्मा मिल जाएगा।

यह संसार जहर उनके लिए है, जो मूढ़ हैं। यह संसार अमृत है उनके लिए, जो बुद्धिमान हैं। संसार न तो जहर है न अमृत, सब तुम पर निर्भर है।

जिम विस भक्खइ विसहि पलुत्ता।

जो जानकार है वह विष को भी पी जाए तो हानि नहीं होती। वह विष को पीने की कला जानता है। जो जानकार है वह जीवन के सारे विष पी जाता है–अहंकार, क्रोध, लोभ, माया, मोह, सब पी जाता है। और मजा यह है कि इन सबको पीकर समृद्ध हो जाता है।

समझो थोड़ा, अगर तुमने क्रोध को काट दिया, पी न सके, तो तुम्हारे जीवन में करुणा कभी पैदा न होगी। अगर क्रोध को काट दिया तो करुणा पैदा न होगी।

ऐसा समझो, थोड़ा और स्थूल उदाहरण लो। तुम्हारे पैर तुम्हें वेश्यागृह में ले जाते हैं, तुमने पैर काट दिए, क्योंकि पैर न होंगे तो वेश्यागृह कैसे जाओगे? न होंगे पैर, न जाना पड़ेगा वेश्यागृह। तुमने पैर काट दिए, लेकिन अब मंदिर कैसे जाओगे? अब तीर्थयात्रा कैसे होगी? तुमने पैर तो काट दिए वेश्यागृह जानेवाले लेकिन पैरों का कोई ठेका थोड़े ही था वेश्यागृह जाने का। तुम ले जाते थे सो जाते थे। तुम मंदिर ले जाते तो मंदिर जाते। तुम काशी ले जाते तो काशी जाते। तुम काबा ले जाते तो काबा जाते। तुम जहां ले जाते वहां जाते। पैर काटकर तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ गए। अब तो तीर्थयात्रा हो ही न सकेगी।

तुम्हारे मुंह से क्रोध निकलता था, गालियां निकलती थीं, तुमने जबान काट दी। लेकिन अब अमृत-वचन भी पैदा न हो सकेंगे, अब गीत भी न गा सकोगे, अब गुनगुना भी न सकोगे।

आंखें रूप पर मोहित हो जाती थीं, तुमने आंखें फोड़ दीं। लेकिन अब जब गुलाब में परमात्मा खिलेगा तो तुम वंचित रहोगे। और जब कमल पर उसके चरण-चिह्न होंगे, तुम वंचित रहोगे। और जब आकाश में सूरज उगेगा, तुम वंचित रहोगे। और इन सभी रूपों में वही प्रगट हो रहा है। तुमने बड़ी भूल कर ली। आंख का कोई कसूर न था। आंख तो निष्पक्ष है। तुम जो देखना चाहते वही देख लेते।

मगर यही हो रहा है। लोग क्रोध को दबा देते हैं, काट देते हैं; लोभ को दबा देते हैं, काट देते हैं। परिणाम क्या होता है? परिणाम ऐसा होता है, तुम अगर गौर से देखो तो तुम्हें अपने महात्माओं में दिखाई पड़ जाएगा। जिसने क्रोध को दबाया, काटा, नष्ट किया, उसके जीवन में करुणा पैदा नहीं होती, क्योंकि करुणा क्रोध का ही रूपांतरण है। करुणा क्रोध नाम के जहर का ही अमृत में रूपांतरण है। और जिसने लोभ काट दिया उसके जीवन से दान कट जाता है, क्योंकि दान तो लोभ की ही परिष्कृत अवस्था है। और जिसने काम काट दिया उसके जीवन से राम विदा हो जाता है, क्योंकि काम-ऊर्जा का ही ऊर्ध्वगमन, सहस्रार में प्रवेश राम का अनुभव है। जब काम की गंगा गंगोत्री की तरफ बहने लगती है तो राम का अनुभव होता है; जब कोई स्रोत की तरफ लौट चलता है। हां, काम की ऊर्जा बाहर की तरफ बहती थी तो राम का अनुभव नहीं होता। काम की ऊर्जा भीतर की तरफ बहने लगे, अंतर्यात्रा हो, तो राम का अनुभव होगा।

काम ने तुम्हें जरूर बहुत झंझटों में डाला है, यह सच है। न मालूम कितनी उलझनों में पड़ गए हो, काम के कारण! कामवासना ही तुम्हें भटका रही है जन्मों-जन्मों से। मगर याद रखना, यह कसूर काम की ऊर्जा का नहीं है। तुम समझ नहीं पाए। तुम जहर का राज नहीं समझ पाए। तुम इस काम की ऊर्जा का रूपांतरण करने की कीमिया नहीं समझ पाए। तुम कलाविद नहीं हो। काम ने नहीं भटकाया है, तुम्हारी नासमझी ने भटकाया है। तुम्हारी बेहोशी ने भटकाया है। होश होता, तब तो काम की ही सीढ़ियां बना लेते।

काम की ही ऊर्जा से ही कोई परमात्मा को उपलब्ध होता है। यह जानकर तुम्हें हैरानी होगी कि पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में कोई नपुंसक समाधि को उपलब्ध नहीं हो सका है। क्यों? नपुंसक को तो सबसे पहले समाधि को उपलब्ध हो जाना चाहिए। उसमें तो काम-ऊर्जा है ही नहीं। लेकिन काम-ऊर्जा नहीं है तो सोपान नहीं बनता, सीढ़ी नहीं लगती। नाव किससे बनाए? कैसे राम की तरफ चले? बाहर ही नहीं जा सकता तो भीतर कैसे जाए? जाने की क्षमता ही नहीं है कहीं, अटका रह जाता है। इसलिए नपुंसक बड़ी दयनीय अवस्था में है।

और कौन लोग नपुंसक की तरह पैदा होते हैं, कभी तुमने इस पर विचार किया है? मैं कहूंगा तो तुम चौंकोगे। जिन लोगों ने भी पिछले जन्मों में कामवासना को जबर्दस्ती दबाया है, तोड़ा है, मरोड़ा है, वे ही लोग नपुंसक की तरह पैदा होते हैं। तुम्हारे तथाकथित ब्रह्मचारी नपुंसक की तरह पैदा होते हैं, क्योंकि वही उनकी इच्छा थी। वही उन्होंने पिछले जन्मों में बार-बार करने की कोशिश की थी। सफल हो गई इच्छा, उनकी कामना पूरी हो गई। जो मांगा था मिल गया। अब रोते हैं। अब परेशान हो रहे हैं।

तुम जरा सोचो, एक बच्चा पैदा हो जिसमें भय न हो, जी सकेगा बच्चा? जी नहीं सकेगा। उसमें अगर भय न हो तो तुम सोचते हो, उसके जीवन में अभय होगा? जिसमें भय ही नहीं है उसमें अभय तो हो ही नहीं सकता। अभय की तो बात छोड़ दो, जीवन ही नहीं बचेगा; आग में हाथ डाल देगा, भय नहीं है उसे, जल जाएगा। सांप को पकड़ लेगा, सांप काट खाएगा, जल जाएगा। रास्ते पर ट्रक का ड्राइवर हार्न बजाता रहेगा, वह बैठा ही रहेगा; उसे कोई भय ही नहीं है। लेकिन इसको तुम बुद्धिमता कहोगे? यह तो बुद्धिहीनता हो गई।

भय आवश्यक है। और भय में ही छिपा हुआ है अभय। जो भय की पर्त को तोड़ देगा, जो भय को शुद्ध कर लेगा, उसके भीतर अभय की धारा पैदा होती है।

स्मरण रखो, तुम्हारे भीतर जो भी हो, काटना मत, त्यागना मत–परिष्कार करना, संशोधन करना। तिलोपा कहते हैं: जिस प्रकार विष का संशोधक विष खाकर भी मरता नहीं, ऐसे तुम संशोधक बनो। तुम जीवन की हर ऊर्जा का संशोधन करो।

विज्ञान ने यही किया है–बाहर के जगत में। धर्म को यही करना चाहिए–भीतर के जगत में। विज्ञान ने क्या किया? कोई नई शक्तियां तो विज्ञान ने पैदा नहीं कर दी हैं; जो शक्तियां मौजूद थीं, उनका संशोधन किया है। आकाश में बिजली तो कब से चमकती थी, सदा से चमकती है। लेकिन जब अतीत में आज से पांच हजार साल पहले ऋग्वेद के जमाने में चमकती थी तो लोग भयभीत हो जाते थे, भयाक्रांत हो जाते थे, छाती दहल जाती थी। उसी भय से उन्होंने सोचा था इंद्र देवता नाराज हैं। सोचते थे कि बिजली इंद्र देवता का धनुष है। बिजली की टंकार धनुष की टंकार है। देवता नाराज है। देवता की पूजा करो, प्रार्थना करो, अर्चना करो, बली चढ़ाओ, हवन-यज्ञ करो–ताकि देवता शांत हो जाए, कुपित न हो।

अब तुमने कभी सोचा कि जो कुपित हो जाए वह देवता कैसा? लेकिन नहीं, इससे इंद्र का कोई लेना-देना नहीं। इंद्र कहीं कोई है भी नहीं। यह मनुष्य के भय ने कथा गढ़ी। आखिर और कोई उपाय भी न था समझने का। और सांत्वना देने की भी कोई व्यवस्था तो करनी ही होगी। आकाश में बिजली चमक रही है, करो क्या? बिजली गिरेगी, गाज गिरेगी, किसी का प्राण ले लेगी। आज तुम्हें इसमें कुछ भय नहीं मालूम होता; आज आकाश में बिजली चमकती है, तो तुम हवन नहीं करते–हां, कुछ मूढ़ों को छोड़कर। आज आकाश में बिजली चमकती है तो तुम जरा भी भयभीत नहीं होते; तुम एकदम से माला लेकर राम-राम राम-राम नहीं जपने लगते। तुम जानते हो कि बिजली से इंद्र के कुपित होने का कोई संबंध नहीं; बिजली एक प्राकृतिक ऊर्जा है। अब तुम भलीभांति जानते हो, क्योंकि तुम्हारे घर में बिजली हजार तरह से सेवा कर रही है। जरा बटन दबाओ और इंद्र देवता हाजिर। पंखा डुलने लगे, इंद्र देवता पंखा डुल रहे हैं। जरा बटन दबाओ, इंद्र देवता हाजिर हैं, चाय बनाने लगे, इंद्र देवता चाय बना रहे हैं! जरा बटन दबाओ, रोशनी हो गई। इंद्र देवता तुम्हारे अंधेरे को तोड़ रहे हैं! अब बिजली तुम्हारे हाथ में है। विज्ञान ने किया क्या?

जो आकाश में बिजली चमकती थी, उसका संशोधन किया, उसको समझने की कोशिश की, उसके सूत्र पकड़े, उसका राज पहचाना। एक दफा राज हाथ में आ गया कि तुम मालिक हो गए। बाहर की बिजली तो हाथ में आ गई, भीतर की बिजली कब हाथ में लाओगे? मैं उसी भीतर की बिजली को हाथ में लाने की बात करता हूं तो लोग नाराज हैं। मगर यह भी समझने जैसी बात है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने भी जब पहली दफा बाहर की बिजली को वश में लाने की बात की तो लोग नाराज थे। क्योंकि लोगों ने कहा: यह कैसी बात! क्या इंद्र देवता को वश में करोगे? यह तो बड़ा अधार्मिक कृत्य होगा। क्या इंद्र देवता से तुम अपने घर में काम करवाओगे? यह तो इंद्र देवता बहुत नाराज हो जाएंगे। फिर तो उनके पास जो आखिरी अस्त्र होगा, ब्रह्मास्त्र, वही निकालकर सबकी गर्दन काट डालेंगे

लेकिन वैज्ञानिक बढ़े चले गए, उन्होंने फिकिर न की तुम्हारे विरोधों की। और आज तुम भूल ही गए अपने विरोध, आज तुम उन्हीं वैज्ञानिकों की खोज पर जी रहे हो, मजे से जी रहे हो। आज तुम सोच भी नहीं सकते कि बिना बिजली के दुनिया कैसी होगी। तुम्हारी सारी सभ्यता खो जाएगी बिना बिजली के। आज हर चीज बिजली पर निर्भर है।

अमेरिका में पिछले दो वर्ष पहले तीन दिन के लिए बिजली खो गई! और लोग चकित हो गये कि तीन दिन में सारी सभ्यता खो गयी। तुम थोड़ा सोचो अमेरिका की हालत तीन दिनों में क्या हो गई! न्यूयार्क में बिजली नहीं थी तीन दिन तक, भाएं-भाएं हो गया नगर। जो आदमी एक सौ बीसवीं मंजिल पर था, प्यासा अटका है, क्योंकि पानी को चढ़ाए कौन, इंद्र देवता मौजूद नहीं। भूखा बैठा है, क्योंकि लिफ्ट काम नहीं कर रही। अब एक सौ बीस मंजिल सीढ़ियां उतरना भोजन लेने जाने और भोजन लेकर आना, इससे तो बेहतर भूखे बैठे रहना, और जो वर्षों से इतनी सीढ़ियां उतरे नहीं, एक सौ बीस मंजिल, वे आज उतरेंगे तो हृदय का दौरा पड़ जाएगा। रास्तों पर लूट मच गयी, क्योंकि रोशनी नहीं है। कोई रास्ते पर जाए, कोई भी पकड़कर उसके पैसे छीन ले, कोई भी! एकदम जंगल का राज्य शुरू हो गया। तीन दिन में हत्याएं हो गयीं, चोरियां हो गयीं, लूट हो गयीं, बलात्कार हो गये। न पुलिस का वश, न कानून की व्यवस्था, सब खो गई। ट्रेनें बंद, रास्ते सब सुनसान पड़े, दुकानें बंद, दफ्तर बंद। सब कानून ठप्प हो गया। जो लोग तीन दिन न्यूयार्क जैसे नगरों में रहे, उन्होंने लिखा है कि हमने जाना कि हमारी सारी सभ्यता बिजली पर खड़ी है। बिजली खो जाए कि सब खो जाएगा। आदमी बच न सकेगा।

आज तुम इतने निर्भर हो गए बिजली पर! और जब पहली दफे वैज्ञानिकों ने ये शोधें शुरू की थीं तो तुम नाराज थे; तुम सोचते थे इंद्र नाराज हो जाएगा कि परमात्मा नाराज हो जाएगा।

वैसे ही लोग मुझ पर नाराज हैं। वैसे ही लोग तिलोपा पर नाराज थे। नाराजगी क्या है? हम भीतर की ऊर्जा को, भीतर की बिजली को वश में करना चाहते हैं। काम-ऊर्जा तुम्हारे भीतर की बिजली है। वही तुम्हें जलाए है। वही तुम्हें जिलाए है। वही तुम्हें चलाती है। हां, अभी इस ढंग से चलाती है जैसे पहले बिजली आकाश में चमकती थी और घबड़ाती थी। यह बिजली बस में की जा सकती है। कामवासना का ध्यान से थोड़ा संबंध हो जाए बस। कामवासना ऊपर की तरफ उठने लगे तो संभोग से समाधि की यात्रा कठिन नहीं है। संभोग से ही समाधि की यात्रा हो सकती है! काम ही राम बनेगा! क्रोध ही करुणा बनेगी। लोभ ही दान बनेगा। और संसार ही ब्रह्म का अनुभव हो जाता है।

“जिस प्रकार विष का शोधक विष खाकर भी मरता नहीं है उसी प्रकार योगी सांसारिक विषयों को भोगता हुआ भी संसार के बंधनों में नहीं पड़ता।’

स्मरण रखना, तिलोपा यह नहीं कह रहे हैं कि योगी भोगता नहीं है। तिलोपा कह रहे हैं: योगी इस कला से भोगता है कि भोगता भी है और बंधता भी नहीं। यही परम गुह्य विज्ञान है। ऐसे भोगो कि भोग भी लो और बंधो भी न।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं आमतौर से। भोगी हैं, जो बंध गए। बंधने के डर से, योगी हैं जो भाग गए। तिलोपा तीसरे मनुष्य की बात कर रहा है, जैसे मैं तीसरे मनुष्य की बात कर रहा हूं। भोगी बंध गया, यह कोई बड़ी सुंदर अवस्था नहीं है। दीन-हीन हो गया, गिड़गिड़ा रहा है, भिक्षापात्र लिये बैठा है। जो-जो किया है उसी में उलझ गया है। इसको उलझा देखकर योगी भाग गया है, भगोड़ा हो गया है, पलायनवादी हो गया है; वह डरता है कि अगर संसार में आए तो बंध जाएंगे। वह जंगलों में छिपा है डर के मारे।

मगर डर से ही तो सिर्फ भीतर की वासना समाप्त न हो जाएगी, वहां भी वासना प्रज्वलित रहेगी। वहां भी वासना उसे बांधती रहेगी। छोटी-छोटी चीजों से बांध लेगी; कोई महल थोड़े ही चाहिए बांधने के लिए, लंगोटी काफी है।

एक सूफी फकीर के पास एक खोजी आया। लेकिन खोजी देखकर दंग हुआ कि सूफी फकीर तो बड़ी शान से रहता था। उसने तो सुना था कि फकीरों को तो दीनता और दरिद्रता में रहना चाहिए। फकीर का अर्थ ही होता है कि जो गरीब है। यह कैसा फकीर! सोने का सिंहासन था उस फकीर का। राजमहल था उसका आश्रम। सब तरह की सुख-सुविधाएं थीं। हीरे-जवाहरात बरसे पड़ते थे। सम्राट उसके शिष्य थे। इस फकीर से बड़ी बेचैनी होने लगी। यह तो बिलकुल उलटा ही हो रहा है!

लेकिन उस सूफी ने कहा कि अब आ ही गए हो, माना कि तुम्हारा मन राजी नहीं हो रहा है, कुछ देर तो मेहमान रहो, फिर जाना है तो चले जाना। थोड़ा और करीब से देखो।

देखा करीब से, लेकिन कुछ दिखाई नहीं पड़ा कि इसमें योग कहां है! भोग तो खूब चल रहा था; योग कहां है, वह दिखाई नहीं पड़ता था। फिर उसे यह भी डर लगा कि अगर यहां ज्यादा देर रुका तो यही गति मेरी हो जाएगी। क्योंकि उसे भी धीरे-धीरे रस आने लगा। अच्छा भोजन मिला। अभी तो रूखा-सूखा खाता था। अच्छा भोजन मिला, स्वाद लगा। अच्छे बिस्तर पर सोने को मिला, तो डर लगने लगा कि अब वृक्षों के नीचे सो सकूंगा या नहीं, नींद आएगी भी कि नहीं? उस सूफी ने दो आदमी लगा रखे थे जो रोज सुबह उसका हाथ-पैर दाबते, मालिश करते। उसने कहा: यह मुसीबत हुई जा रही है! अब बिना मालिश के चैन न पड़ेगी, कौन मेरी मालिश करेगा?

वह घबड़ा गया। आठ-पंद्रह दिन बाद उसने कहा: मुझे आज्ञा दें, मैं जाना चाहता हूं। सूफी ने कहा: घबड़ा गए! डर गए! कला नहीं आती? कहां जाना चाहते हो?

कहा: मैं तो जंगल जा रहा हूं। उस सूफी ने कहा: तो मैं भी चलता हूं। खोजी तो मान नहीं सका कि यह सूफी कैसे जाएगा–इतना बड़ा महल, इतनी व्यवस्था सब छोड़कर! मगर वह चल पड़ा उसके साथ। जब कुछ मील दोनों निकल गए, तब उस खोजी को याद आया कि मैं अपना भिक्षापात्र आपके महल में भूल आया, तो मैं जाकर उसे वापिस ले आऊं? तो उसे सूफी ने कहा: अपना साथ न चलेगा। मैं अपना पूरा महल छोड़ आया, तू भिक्षापात्र भी नहीं छोड़ सकता! फिर नमस्कार! फिर हमारे रास्ते अलग हो गए। फिर हमारी दोस्ती न चलेगी।

वह सूफी फकीर उसे यह स्मरण दिला रहा था कि सवाल क्या पकड़ा है यह नहीं है; सवाल तो पकड़ने का है! लंगोटी कोई पकड़ सकता है, भिक्षापात्र कोई पकड़ सकता है। कोई महल ही थोड़े ही चाहिए बंधने के लिए। कुछ भी हो तो बंध सकता है, अगर कला न आती हो। और कला आती हो तो फिर महल में भी रहकर भी कोई आवश्यक नहीं है कि बंधे। फिर जल में कमलवत हो सकता है।

एक फकीर मर रहा था तो उसने अपने शिष्य से कहा कि देख, एक बात का खयाल रखना, बिल्ली भर मत पालना। वह फकीर मर गया इतना ही कहकर। इसकी व्याख्या भी न कर गया। शिष्य तो बड?ा परेशान हुआ। बिल्ली न पालना, आखिरी संदेश! कोई ब्रह्मज्ञान की बात करनी थी। जीवन-भर इस बुद्धू की सेवा की और आखिर में मरते वक्त यह कह गया कि बिल्ली न पालना! बिल्ली हम पालेंगे ही क्यों! बिल्ली से लेना-देना क्या है! और बिल्ली पाल भी ली तो इससे मोक्ष में कौन-सी बाधा पड़ती है! किसी शास्त्र में लिखा नहीं कि बिल्ली मत पालना। बड़े-बड़े आदेश दिए हैं–ऐसा मत करना, वैसा मत करना; दस आज्ञाएं हैं–मगर बिल्ली मत पालना! चोरी मत करना, बेईमानी मत करना, झूठ मत बोलना–समझ में आता है, मगर बिल्ली मत पालना, यह कौन-सी नैतिकता का आधार है!

उसे हैरान देखकर एक दूसरे बूढ़े आदमी ने कहा: तू परेशान मत हो। मैं तेरे गुरु को जानता हूं, वह ठीक कह गया है। और मैं भी तुझसे कहता हूं कि अगर उसकी बात मानकर चला तो बच जाएगा। उसकी बात न मानी तो मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि वह मुश्किल में पड़ा था।

शिष्य ने पूछा: मुझे पूरी बात समझाकर कह दें, कैसी मुश्किल? क्योंकि मेरी अकल में ही नहीं बात बैठती। मैंने बड़े शास्त्र पढ़े हैं, मगर बिल्ली मत पालना!

तो उसने कहा: सुन, तेरा गुरु कैसी मुसीबत में पड़ा। तेरे गुरु ने संसार छोड़ दिया डर से कि यहां फंस जाऊंगा; जैसे लोग छोड़ देते हैं डर से। शादी नहीं की, दुकान नहीं की, बाजार में नहीं बैठा, भाग गया। जंगल में जाकर रहने लगा। एक मुसीबत आई। सिर्फ दो लंगोटियां थीं उसके पास। बस उतनी दो लंगोटियां ले गया था। लेकिन चूहे उसकी लंगोटियां काट जाते। वह सूखने डालता, रात को चूहे लंगोटी काट देते। उसने गांव के लोगों से पूछा कि क्या करना? उन्होंने कहा एक बिल्ली पाल लो। बस वहीं से सारा उपद्रव शुरू हुआ, सारा संसार शुरू हुआ। बात जंची गुरु को, उसने बिल्ली पाल ली। बिल्ली चूहे तो खा गई, लेकिन जब चूहे खा गई तब बिल्ली भूखी बैठी रहे वहां, सूखने लगी। अब उसकी हत्या का पाप लगेगा।

तो उस फकीर ने लोगों से पूछा कि भाई यह तो ठीक है, तुमने सुझाव दिया, तुम्हारी बात काम कर गई, चूहे खतम कर दिए बिल्ली ने। मगर अब बिल्ली का क्या हो? तो उन्होंने कहा: ऐसा करो, एक गाय पाल लो, तुम्हें भी दूध मिल जाएगा, बिल्ली को भी दूध मिल जाएगा। तुम यह जो रोज-रोज भीख मांगने जाते हो, इस झंझट से भी बचोगे। और गाय हम दे देते हैं, हमारी भी झंझट मिटेगी कि तुम्हें रोज-रोज आना, रोज तुम्हें हमें भिक्षा देना। गायें गांव के पास बहुत हैं, हम एक गाय तुम्हें गांव की तरफ से दे देते हैं।

फकीर को बात जंची, बात सीधी गणित की थी। गाय पाल ली, लेकिन झंझट–अब गाय के लिए घास चाहिए, भोजन चाहिए। गांव के लोगों ने कहा: अच्छा यह हो कि जमीन तो यहां पड़ी ही है ढेर तुम्हारे पास, थोड़ी खेती-बाड़ी करने लगो, बैठे-बैठे करते भी क्या हो! तो घास भी हो जाएगा, गेहूं भी हो जाएंगे, तुम्हारी रोटी का भी इंतजाम हो जाएगा। बिल्ली भी मजा करेगी, गाय भी मजा करेगी, तुम भी मजा करो।

तो बेचारे ने खेती-बाड़ी शुरू की। अब खेती-बाड़ी करे कि भजन-कीर्तन करे? गाय को सम्हाले, बिल्ली को सम्हाले कि शास्त्र पढ़े? फुर्सत ही न मिले भजन-कीर्तन की। शास्त्र इत्यादि भूलने लगे। उसने गांव के लोगों से कहा: तुमने तो यह झंझट बना दी। मुझे समय ही नहीं मिलता।

तो उन्होंने कहा: ऐसा काम करो कि गांव में एक विधवा है, उसका कोई है भी नहीं, वह भी परेशान है। उसको हम रख देते हैं यहां, तुम्हारी सेवा भी करेगी, रोटी भी…तुम मजे से भजन करना, तुम कीर्तन करना, वह रोटी भी बना देगी। और मजबूत विधवा है और किसान रही है, खेती-बाड़ी भी कर देगी।

यह बात भी जंची। गणित फैलता चला गया। विधवा भी आ गई! उसने खेती-बाड़ी भी शुरू कर दी, हाथ-पैर भी दबा देती, बीमारी होती तो सिर भी दबा देती। फिर जो होना था सो हुआ। फिर विधवा से प्रेम लग गया। कुछ बुरा भी न था, आखिर इतनी सेवा करती थी और उस पर प्रेम न उमगे तो क्या हो! वे ही गांव के लोग आ गये कि यह बात ठीक नहीं, अब अच्छा यही होगा कि आप इससे विवाह कर लो, क्योंकि इससे बड़ी बदनामी हो रही है, हमारे गांव की बदनामी हो रहा है। तो विवाह हो गया, बच्चे हुए। फिर उपद्रव फैलता चला गया, फैलता चला गया। फिर बच्चों का विवाह हुआ।

और उस बूढ़े आदमी ने कहा: तुम्हारा गुरु ठीक कह गया है कि बिल्ली मत पालना; यह उसकी जिंदगी भर का सार-निचोड़ है। इस बिल्ली से ही सब उपद्रव शुरू हुआ था।

उपद्रव तो कहीं से भी शुरू हो सकते हैं। और बिल्ली की भी और गहराई में जाओ तो लंगोटी से शुरू हुआ। गुरु को असल में कहना था कि लंगोटी मत रखना। मगर कुछ तो रखोगे। लंगोटी, भिक्षापात्र, कुछ तो रखोगे! नहीं तो जिंदगी चलेगी कैसे? जीओगे कैसे? कोई राजमहल ही नहीं बांधते हैं, कोई भी चीज बांध लेगी।

तो असली सवाल यह नहीं है कि क्या तुम्हारे पास है; असली सवाल यह है कि क्या तुम्हारे पास वह कला है जिससे तुम वस्तुओं के बीच रहते हुए भी वस्तुओं से मुक्त रह सको?

भोगी हैं, बंध गये हैं। योगी हैं, भाग गये हैं। भाग गये हैं, मगर भोगी मरा नहीं है, क्योंकि भागने से कहीं कोई मरता है? भागने से कहीं चित्त बदलता है? योगी हैं, चित्त कह रहा है कि वापस चलो, पता नहीं चूक न हो गई हो, वहीं कहीं रस न हो, यहां बैठे-बैठे क्या कर रहे हो! भोगी हैं, वे सोचते हैं कि कब समय आयेगा, ठीक समय, जब हम छोड़कर जंगल चले जायेंगे! और जंगल में जो बैठे हैं वे सोच रहे हैं कि हम कहां फंस गये हैं, वहीं ठीक थे! लोग वहीं मजा कर रहे हैं, यहां तो और उदासी आ गई है। यहां बैठे-बैठे भी क्या करना है?

ये चित्त की दशायें हैं। मैं योगियों को जानता हूं, भोगियों को जानता हूं। भोगी सोचते हैं योगी मजे में हैं, योगी सोचते हैं भोगी मजे में हैं। तिलोपा कहते हैं: भोग में योग, योग में भोग। ऐसी कला सीखो कि भोग में योग सधे। रहो यहीं, मगर अलिप्त रहो। रहो बाजार में, मगर भीतर रहो। बाहर बाहर है। बाहर का बाहर चलने दो, मगर उसे भीतर प्रवेश न करने दो। भोग में रहो और योग को साधो। और योग में भी परम भोग को साधो, क्योंकि ध्यान में भी लेना तो है रस परमात्मा का। ध्यान में भी आलिंगन तो करना है परमात्मा का। संसार का आलिंगन करके भी आलिंगन मत करना और ध्यान में आलिंगन न करते हुए भी परमात्मा का आलिंगन करना–यह महत कला है। यह सहज-योग है। इसमें आदमी न तो भोगी बनता है, न भगोड़ा बनता है।

मगर यह बात तो भीतरी है और आंतरिक है। दूसरे शायद समझ भी न पायें। दूसरों को पता भी न चलेगा, क्योंकि बाहर की चीजें दिखाई पड़ती हैं। तुमने लंगोटी लगा ली, सिर घुटा लिया, चले जंगल की तरफ–सारे लोग कहेंगे: योगी हो गये! लेकिन तुमने भीतर ध्यान साधा, दुकान पर बैठे रहे, जैसे पहले बैठे थे अब भी बैठे रहे, किसको पता चलेगा? मगर पता किसी को चलाना ही क्यों? पता चलाने में तो अहंकार की ही आकांक्षा है। सारी दुनिया जाने कि मैं योगी हूं, यह तो अहंकार ही है।

और अहंकार तो बड़ी-से-बड़ी बाधा है तुम्हारे और परमात्मा के बीच। किसी को पता ही क्यों चले? चुपचाप, अलिप्त भाव से जी लेना। ध्यान का रस रहे; संसार बाहर चलता है चलता रहे, समानांतर चलने देना। संसार बाहर चले, ध्यान भीतर चले। और खयाल रखना, समानांतर रेखायें कहीं भी मिलती नहीं। रेल की पटरियां देखीं? बिलकुल साथ-साथ दौड़ती हैं। हजारों मील तक साथ-साथ दौड़ती हैं, मगर कहीं मिलती हैं? समानांतर रेखायें कहीं मिलती ही नहीं।

योग और भोग समानांतर रेखायें बन जानी चाहिए, यह सहज-योग है। भोग चलता रहे बाहर, योग चलता रहे भीतर–पास ही पास, सटे-सटे, कदम में कदम मिलाकर, छंदबद्ध! मगर न तो तुम्हारा योग तुम्हारे भोग का दुश्मन हो और न तुम्हारा भोग तुम्हारे योग का दुश्मन हो। दोनों समानांतर हों, संतुलन करें एक-दूसरे का। एक-दूसरे के शत्रु न हों, एक दूसरे के परिपूरक हों–और तब तुम देखते हो! तब एक महिमाशाली व्यक्तित्व का जन्म होता है।

मगर दुनिया उसे शायद न पहचान पायेगी, क्योंकि दुनिया के पास तो दो ही कोटियां हैं–या तो योगी या भोगी। इसलिये तिलोपा पहचाना न जा सका; इसलिये सरहपा पहचाना न जा सका; इसलिए मैं भी पहचाना नहीं जा सकता हूं। किस कोटि में मुझे रखोगे? जिस कोटि में रखोगे वही कोटि छोटी पड़ेगी। और तुम बिना कोटि में रखे मान नहीं सकते, तुम्हें किसी न किसी कोटि में रखना पड़ेगा। लेकिन इस जगत में कुछ थोड़े-से लोगों को कोटि के बाहर रहने दो, क्योंकि वे ही नमक हैं; क्योंकि उन्हीं के कारण इस जगत में थोड़ा सौरभ है। न तो तुम्हारे तथाकथित भोगियों के कारण, न तुम्हारे तथाकथित योगियों के कारण; वरन उनके कारण जो योग में भोग को साध लेते हैं, भोग में योग को साध लेते हैं–उन थोड़े-से लोगों के कारण परमात्मा और प्रकृति मिलती रहती है। उन लोगों के कारण परमात्मा और प्रकृति के बीच एक सुसंवाद चलता रहता है, एक गुफ्तगू होती रहती है। परमात्मा और प्रकृति के बीच वे ही सेतु हैं। उनके ही कारण प्रकृति और परमात्मा छिन्न-भिन्न नहीं हो गये हैं।

तुम्हारा योगी तो प्रकृति में डूबा है, दमन करके डूबा है, दबाकर डूबा है। तुम्हारा भोगी भी प्रकृति में डूबा है; भोग की अति करके डूबा है। उन दोनों में बहुत भेद नहीं है। उन दोनों में से किसी का भी परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। दोनों की नजर एक है।

एक धन से भाग रहा है, एक धन की तरफ भाग रहा है; लेकिन दोनों की नजर एक है। दोनों की नजर में धन का मूल्य है। एक धन की तरफ मुंह करके भाग रहा है, एक धन की तरफ पीठ करके भाग रहा है; मगर दोनों भाग रहे हैं, और दोनों धन के कारण ही भाग रहे हैं। दोनों की जीवनचर्या का आधार धन है, या पद है, या प्रतिष्ठा है, या काम है, या तृष्णा है। मगर दोनों में कोई बुनियादी भेद नहीं है। हां, एक-दूसरे से भिन्न हैं। एक पैर के बल खड़ा है, एक सिर के बल खड़ा है; मगर दोनों एक ही जैसे व्यक्ति हैं, जरा भी भेद नहीं है।

क्या तुम सोचते हो जब तुम शीर्षासन करते हो तो तुम दूसरे व्यक्ति हो जाते हो? क्या सिर के बल खड़े हो जाने से तुम समझते हो क्रांति घट गई, तुम दूसरे व्यक्ति हो गये? तुम वही के वही हो!

मैंने सुना, एक आदमी महा क्रोधी था। इतना क्रोधी था कि उसने अपनी पत्नी को धक्का दे दिया कुएं में। पत्नी मर गई। चौंका। गांव में एक जैन मुनि आये थे, उनके पास गया, चरणों में गिर पड़ा और कहा कि मुझे दीक्षा दें। जैन मुनि ने कहा: इतनी जल्दी दीक्षा! उसने कहा: इसी समय दें। जैन मुनि ने कहा: साध सकोगे? उसने कहा कि जो मैं न साध सकूं, वह कोई नहीं साध सकता। कहो क्या साधना है? जैन मुनि ने कहा: नग्न होना पड़ेगा। उसने तत्क्षण वस्त्र फेंक दिये। जैन मुनि भी चौंका, आदमी बड़ा साहसी था! साहसी नहीं था, था सिर्फ वह क्रोधी। वह हर काम में, उसकी क्रोध की प्रज्वलित अग्नि होती थी। उसको तुमने चुनौती दे दी, उसके क्रोध को जगा दिया।

लेकिन तुम संन्यास लेना क्यों चाहते हो, जैन मुनि ने पूछा। उसने कहा कि मैं महा क्रोधी हूं। मैंने अपनी पत्नी मार डाली। अब बस बहुत हो गया, मुझे शांति का पाठ दें। तो मुनि ने दीक्षा दी और नाम दिया: शांतिनाथ। और मुनि ने बड़ी प्रशंसा भी की कि तुम…मैंने बहुत देखे लोग, वे कहते हैं कल लेंगे संन्यास, परसों लेंगे संन्यास, फिर ले भी लेते हैं तो भी वर्षों लगते हैं नग्न दिगंबर होने में; तुम एक क्षण में कर दिये, तुम साहसी आदमी हो!

आदमी कुल जमा क्रोधी था। यह संन्यास भी उसका क्रोध का ही परिणमन था। यह कोई शांति की घोषणा नहीं थी, यह क्रोध का ही प्रज्वलन था। क्योंकि एकदम से कोई पत्नी को धक्का मारकर शांत हो जाता है! पत्नी को धक्का मारा, अब अपने को धक्का मार दिया कुएं में उसने; बस इतना ही समझना।

फिर उसकी बड़ी ख्याति हो गई। ख्याति होनी ही थी, क्योंकि वह खूब अपने को सताने लगा। दो-दो तीनत्तीन दिन उपवास करे, तब एकाध बार भोजन ले। महीनों का उपवास करने लगा, कांटों पर सोये, पत्थरों पर पड़ा रहे, धूप में खड़ा रहे। सर्दी में जाकर पानी में खड़ा हो जाये, जहां कि बर्फ जम रही हो। उसकी ख्याति फैलने लगी। ऐसे ही लोगों की तो ख्याति फैलती है। लोग दूर-दूर से उसके दर्शन करने आने लगे। अंततः वह दिल्ली पहुंच गया, क्योंकि दिल्ली तो पहुंचना ही पड़ेगा। सारे मुनि धीरे-धीरे दिल्ली पहुंच जाते हैं। और दिल्ली पहुंचे कि फिर नहीं छोड़ते वे।

जैन मुनियों के लिये नियम है कि वे एक जगह तीन दिन से ज्यादा न रुकें। अब यह बड़ी झंझट की बात है। अगर वर्षा काल हो तो चार महीने ज्यादा से ज्यादा एक जगह रुक सकते हैं। तो फिर उन्होंने तरकीब निकाल ली, वे दिल्ली को एक नगर मानते ही नहीं, वे दिल्ली को कई नगर मानते हैं। बंबई को भी वे एक नगर नहीं मानते, कई नगर मानते हैं। तरकीब निकाल ली, गणित तो आदमी हर जगह बिठा लेता है। तो कृष्ण नगर, तिलक नगर…अलग-अलग नगर हैं। तो कृष्ण नगर में रहते हैं, फिर तिलक नगर में चले जाते हैं, फिर तिलक नगर से कृष्ण नगर में आ जाते हैं। मगर दिल्ली नहीं छोड़ते।

शांतिनाथ भी दिल्ली पहुंच गये। उनके गांव से एक आदमी दिल्ली आया था। सोचा कि शांतिनाथ जी बड़े प्रसिद्ध हो गये हैं, इनके दर्शन कर आऊं। बचपन का साथी था उनका, सोचता था कि मान तो मैं नहीं सकता कि इसका क्रोध चला गया हो, क्योंकि आदमी ऐसा क्रोधी है, इसका अगर क्रोध चला जाये तो दुनिया में सबका क्रोध चला जाये। मगर कौन जाने हो भी गया हो, चमत्कार भी तो घट ही जाते हैं! असंभव कुछ तो, लगता हो तो भी होता नहीं, संभव है हो गया हो। गया। शांतिनाथ बैठे थे, सिंहासन पर नग्न। उन्होंने देख तो लिया, पहचान तो लिया कि बचपन का साथी है। पहचानते भी कैसे न! मगर अब वे हो गये थे शांतिनाथ महामुनि। पहचान लिया, मगर पहचाना नहीं। क्या पहचानना ऐरे-गैरे नत्थू खैरे को! देख लिया और अनदेखा कर दिया।

मित्र को भी समझ में तो आ गई आंख कि देख तो लिया है, पहचान भी लिया है और यह भी इधर आंख फेर ली। वह पास सरका। उसने कहा कि महाराज, क्या मैं आपका नाम पूछ सकता हूं? पुराना जानकार था उनके बाबत। उन्होंने कहा: मेरा नाम! अखबार नहीं पढ़ते? कौन मेरा नाम नहीं जानता? नाम पूछने चले आये!

उसने कहा: महाराज, मैं जरा गैर-पढ़ा-लिखा हूं। अखबार वगैरह की फुरसत भी नहीं है। मूढ़ समझें मुझे, नाम बता ही दें।

तो उन्होंने कहा: मेरा नाम शांतिनाथ! मगर जिस ढंग से उन्होंने कहा मेरा नाम शांतिनाथ, मित्र तो समझ गया कि कुछ बदलाहट हुई नहीं है। जो अकड़ थी कहने में…। थोड़ी देर इधर-उधर की बात चलती रही। मित्र ने पूछा: महाराज, मेरी जरा स्मृति कमजोर है, मैं भूल गया, आपका नाम। अब तो महाराज को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा कि सुनते हो कि नहीं, बहरे तो नहीं हो? मैंने कहा–शांतिनाथ।

मित्र ने कहा: धन्यवाद महाराज! फिर इधर-उधर की बात चली, फिर उसने पूछा कि महाराज! अब मैं जा ही रहा हूं, आपका नाम तो बता दें। तो जो कमंडल वे लेकर चलते थे, उठाकर उसकी खोपड़ी में मार दिया। कहा कि हजार दफे कह दिया शांतिनाथ, तुझे होश नहीं आता?

उस मित्र ने कहा: अब मुझे बिलकुल होश आ गया। यह जो आपका कमंडल सिर में लगा, उससे सब बात साफ हो गई। आप वही हो, जरा भी भेद नहीं हुआ है।

कपड़े उतार लेने से कोई भेद नहीं होगा। नग्न खड़े हो जाने से कोई भेद नहीं होगा। सिर के बल खड़े हो जाने से भेद नहीं होगा। बुद्ध की तरह आसन मारकर बैठ जाने से कुछ भेद नहीं होगा। भेद तो करना हो तो चैतन्य को बदलना पड़ता है। ध्यान के अतिरिक्त और कोई भेद नहीं होता।

तो भोग में ध्यान को जोड़ दो और योग हो जायेगा और योग में प्रेम को जोड़ दो और भोग हो जायेगा। और ये दो ही बातें हैं महत्वपूर्ण। भोग में ध्यान का प्रवेश करो, योग बना लो; योग में प्रेम का प्रवेश करो, भोग बना लो। और जब तुम इतने कलाकार हो जाओ कि ध्यान और प्रेम दोनों सध जायें तो किसी को पता चले न पता चले, इससे प्रयोजन नहीं है। परमात्मा जानेगा। तुम्हारे और उसके बीच बात घट गई। जो होने योग्य था हो गया। जो पाने योग्य था पा लिया गया।

जिस दिन ध्यान और प्रेम सध जाते हैं, उस दिन मनुष्य संसार में रहकर ही संसार से मुक्त हो जाता है और संसार से मुक्त होकर भी संसार का परम भोगी होता है।

मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि बुद्धपुरुष जैसा भोगते हैं, तुम क्या भोगोगे। जब बुद्ध देखते हैं एक कमल के फूल को तो उनकी आंखें जैसा रसास्वादन करती हैं, तुम्हारी आंखें क्या खाक करेंगी! तुम्हारी आंखों पर इतनी धूल जमी है कि क्या रसास्वादन होगा! जब बुद्ध देखते हैं हरियाली वृक्षों की तो हरियाली दिखाई पड़ती है, तो वृक्ष भी धन्यभागी होते हैं, क्योंकि किसी ने देखा। तुम तो देखते ही कहां हो! तुमने अपने को नहीं देखा, क्या खाक तुम वृक्षों को देखोगे! तुम स्वयं को देखने में असमर्थ हो, तुम किसे और देख सकोगे? जो स्वयं को नहीं देख सकता, कुछ भी न देख सकेगा। स्वदर्शन सारे दर्शन की आधारशिला है।

और जो भीतर रसमय नहीं है, वह कैसे भोगेगा, क्या भोगेगा? माना कि तुम भोजन कर लेते हो, जरूरत से ज्यादा भी कर लेते हो, मगर भोग नहीं है वहां। भोग तो सिर्फ बुद्ध करते हैं। जब बुद्ध भोजन करते हैं, तो एक-एक कौर भोजन का ब्रह्म का स्वाद लिये होता है। जब बुद्ध पानी पीते हैं तो एक-एक घूंट पानी का अमृत का स्वाद लिये होता है।

तुम तो अमृत भी पीयोगे तो समझोगे कोकाकोला है। तुम तो अमृत भी पीयोगे तो भी शायद ही तुम्हें उसका स्वाद आ सके, क्योंकि स्वाद के लिये ध्यान की जरूरत है। तुम्हें ध्यान ही कहां है! तुम तो गटके जा रहे हो, भरे जा रहे हो, फेंके जा रहे हो चीजें भीतर। और इसलिये तो तुम ज्यादा भोजन कर लेते हो क्योंकि स्वाद नहीं ले पाते हो। तो स्वाद की जो कमी रह गई, वह मात्रा से पूरी करते हो। जो व्यक्ति स्वाद लेकर भोजन करता है, वह ज्यादा भोजन नहीं कर सकता। जरूरत ही न रही। तुम खयाल करना इस बात का।

मेरे पास लोग आते हैं और अगर मुझसे पूछते हैं कि हम ज्यादा भोजन करने की आदत में पड़े हैं, क्या करें ? तो मेरा उनको एक ही सुझाव होता है और वे चौंकते हैं सुनकर मेरा सुझाव। मेरा सुझाव यही होता है कि खूब रसपूर्वक भोजन करो। वे कहते हैं: रसपूर्वक! क्या कह रहे हैं आप? हम मरे जा रहे हैं भोजन से ही, हम ज्यादा कर रहे हैं–और आप कह रहे हैं और रसपूर्वक! जिनके पास भी हम गये उन्होंने कहा कि भोजन छोड़ो, यह मत खाओ वह मत खाओ, आधा कर दो भोजन। आप कहते हैं रसपूर्वक!

मैं कहता हूं: रसपूर्वक! आधा अपने से हो जायेगा। एक-एक कौर को इतना चबाओ, इतना रस लो, जितना कि उसमें रस हो, पूरा का पूरा रस ले लो।

वैज्ञानिक कहते हैं कि एक कौर को कम से कम चवालिस बार चबाना चाहिये तो पूरा रस मिलता है। अब तुम जब एक कौर को चवालिस बार चबाओगे तो एक कौर ने तुमसे उतनी मेहनत करवा ली जितनी चवालिस कौर करवाते। और एक कौर से तुम्हें उतना रस मिल गया जितना शायद चवालिस से भी न मिलता। तृप्ति जल्दी हो जायेगी। आधे भोजन में, शायद एक चौथाई भोजन में तृप्ति हो जायेगी। और वही तृप्ति भोग है।

बुद्धपुरुष जानते हैं कैसे सोना कैसे जगना, कैसे उठना कैसे बैठना। उनके जीवन में सब तरफ प्रसाद ही प्रसाद होता है। उनका जीवन एक कला है, एक काव्य है। भोग को बोध बनाओ। मैं तुम्हें भोग सिखाता हूं। लेकिन अगर तुम ध्यानपूर्वक भोग कर सको तो तुम चकित हो जाओगे: भोग के भीतर से ही योग का शिखर उठने लगा। क्योंकि जैसे-जैसे ध्यान सम्हलेगा वैसे-वैसे योग सम्हलेगा। सार में भोग को ध्यानपूर्वक करो, परिणाम में योग हाथ आयेगा! और जब योग हाथ में आ जाये तब तुम्हें दूसरा सूत्र मैं देता हूं कि अब योग को प्रेमपूर्वक जीयो तो महाभोग हाथ में आये।

योग को प्रेमपूर्वक जीने का क्या अर्थ है? आंख तो स्वच्छ हो गई, ध्यान ने स्वच्छ कर दी। अब तुम फूल को देखते हो तो फूल अपनी परिपूर्णता में दिखाई पड़ता है। यह ध्यान ने एक काम पूरा कर दिया कि दर्पण की धूल झाड़ दी, दर्पण को स्वच्छ कर दिया पोंछकर धो डाला, स्नान करवा दिया। ध्यान स्नान है। दर्पण बिलकुल स्वच्छ हो गया। अब फूल जैसा है वैसा दिखाई पड़ने लगा। यह योग हुआ। लेकिन अभी और थोड़ी बात होनी है। अभी दर्पण सिर्फ ग्राहक है; सिर्फ फूल को अपने भीतर प्रतिबिंबित करता है। फूल को कुछ देता नहीं, लेता है। प्रेम चाहिये अब, ताकि दर्पण फूल को कुछ दे भी; ताकि दर्पण फूल पर बरस पड़े; ताकि दर्पण बह उठे फूल पर। ले ही क्यों, दे भी!

ध्यान ने स्वच्छ किया, लेने के लिये पात्र बनाया; अब प्रेम देने के योग्य बनाया।…बांटो! लुटाओ! दोनों हाथ उलीचिये! फिर जिस पर नजर पड़ जाये, सिर्फ नजर ही न पड़े, उस पर प्रेम भी बरस जाये, मेघ बनो प्रेम के! वृक्ष को देखो तो सिर्फ देखना ही मत, आदान-प्रदान होने देना। वृक्ष ने अपनी हरियाली दी, तुम भी कुछ दो। वृक्ष ने अपने फूल दिये, तुम भी कुछ दो। वृक्ष ने अपने रंग तुम पर डाले, तुम भी कुछ अपना रंग दो। वृक्ष बेचारा इतना दे रहा है, तुम लिये-लिये चले जाओगे? लौटाओगे नहीं? प्रतिध्वनि न करोगे? तो तुम पत्थर हो। तो फिर यात्रा आधी रह गई।

इसलिये जिसने सिर्फ ध्यान साधा और प्रेम नहीं साधा, वह पथरीला हो जायेगा। वह बैठा रहेगा रसहीन, बहेगा नहीं! सरोवर हो जायेगा। स्वच्छ सरोवर। स्फटिक जैसा जल होगा उसका। मगर बहाव न हो तो जीवन नृत्य नहीं हो सकता, उत्सव नहीं हो सकता। बहो।

ध्यान सिखाता है थिर होना, प्रेम सिखाता है बहाव। और जब स्वच्छ जल बहता है तो उतरती है गंगा आकाश से। उसी क्षण तुम भर्तृहरि हो गये। उसी क्षण तुम्हारे भीतर अपूर्व ध्यान और अपूर्व प्रेम दोनों का जन्म होगा।

भर्तृहरि ने दो किताबें लिखी हैं–एक शृंगार शतक और एक वैराग्य शतक। तुम्हारे भीतर दोनों बातें एक साथ घट जायेंगी। तुम्हारे भीतर योग घटेगा, वैराग्य और तुम्हारे भीतर प्रेम घटेगा, शृंगार। तुम्हारे भीतर बुद्ध जैसा ध्यान होगा, मीरा जैसा प्रेम होगा। और जिसके भीतर बुद्ध और मीरा का मिलन हो जाये, वह इस जगत के सर्वोच्च शिखर को छू लिया।

मैं चाहता हूं कि मेरे संन्यासी ऐसे हों कि बुद्ध जैसा उनका ध्यान हो और मीरा जैसा उनका प्रेम हो। इस अपूर्व घड़ी में–जब ध्यान और प्रेम का मिलन होता है, जब ध्यान और प्रेम का संगम होता है–तो एक तीसरी नदी सरस्वती भी आकर प्रगट होती है–जो और किसी को दिखाई नहीं पड़ेगी; सिर्फ उसी को दिखाई पड़ेगी, जिसने ध्यान और प्रेम को साध लिया। जिसने गंगा और यमुना साध लीं उसके जीवन में सरस्वती का आविर्भाव होगा। उसके प्रतीक रूप में ही हमने प्रयाग को तीर्थराज कहा है। और तो सब तीर्थ हैं–प्रयाग तीर्थराज! तीर्थों का तीर्थ! क्यों? वहां तीन नदियां मिल रही हैं, दो दिखाई पड?ती हैं, एक दिखाई नहीं पड़ती। यह सिर्फ प्रतीक है। यह अंतर्तम का प्रतीक है। ध्यान की नदी दिखाई पड़ती है, प्रेम की नदी दिखाई पड़ती है–फिर एक तीसरी नदी पैदा होती है, वह है साक्षी। प्रेम और ध्यान दोनों के प्रति साक्षी-भाव, वह दिखाई नहीं पड़ता। वह अदृश्यतम है। और वह सर्वाधिक बहुमूल्य है। सरस्वती!

सरस्वती है ज्ञान की देवी। साक्षी है ज्ञान का स्रोत, ज्ञान का देवता! वहीं से सारा ज्ञान जन्मा है–वेद, उपनिषद, कुरान, गीता, धम्मपद। सारा ज्ञान साक्षी-भाव से बहा है। मगर साक्षी तक वही पहुंचता है जिसने प्रेम और ध्यान को सम्हाल लिया।

भोगी भी चूक जाते हैं, तथाकथित योगी भी चूक जाते हैं। तुम कुछ ऐसे बनो जो दोनों को साथ-साथ जीओ–समानांतर। कठिन होगी यह यात्रा। मगर जितनी कठिन होगी, उतने ही मीठे फल होनेवाले हैं। बहुत मूल्य चुकाना होता है। लेकिन जो जितना मूल्य चुकाता है उतनी ऊंचाइयों पर उठ जाता है; उतनी ऊंचाइयों पर विराजमान हो जाता है।

परम आणंद भेउ जो जाणइ, खणहि सोवि सहज बुज्झइ।

“अपूर्व आनंद के भेद को जो जानता है, उसे सहज का ज्ञान एक क्षण में प्राप्त हो जाता है।’

भेद मैंने तुमसे कहा। भोग में ध्यान, योग में प्रेम–और तब साक्षी प्रगट होता है। यही राज है, यही विज्ञान है अंतर का। यही रसायन की प्रक्रिया है।

तिलोपा कहते हैं: परम आणंद भेउ जो जाणइ…। और जिसको परम आनंद का ऐसा भेद पता हो गया…खणहि सोवि सहज बुज्झइ। एक क्षण में क्रांति हो जाती है, समय नहीं लगता। एक क्षण में सहज का ज्ञान हो जाता है। एक क्षण में पहुंचना हो जाता है। एक क्षण में हम पहुंच क्यों सकते हैं और कैसे पहुंच सकते हैं, यह सवाल उठता है। एक क्षण में इसीलिये पहुंच सकते हैं, कि वहां हम पहले से ही पहुंचे हुए हैं, सिर्फ हमें होश नहीं है। अगर दूरी होती तो एक क्षण में तय नहीं हो सकती थी।

जैसे कि तुम यहां बैठे, एक क्षण में तुम न्यूयार्क नहीं पहुंच सकते और न पेकिंग पहुंच सकते हो। यात्रा करनी होगी। पूना और पेकिंग के बीच फासला है। लेकिन कोई बैठा-बैठा यहां मेरी बातें सुनते-सुनते सो गया और सपना देख रहा है कि पेकिंग में है; इसको एक क्षण में पूना लाया जा सकता है, जरा हिला दो। ऐसा नहीं है कि यह कहेगा कि अभी मैं कैसे आऊं, अभी मैं पेकिंग में हूं! अभी मैं बहुत दूर हूं! अभी हवाई जहाज पकड़नी पड़ेगी, टिकट खरीदनी पड़ेगी, जब मिलेगा, तब; अभी नहीं आ सकता। नहीं; जरा-सा हिला दो, एक क्षण में आ जायेगा।

वास्तविक यात्रा हो तो समय लगता है। लेकिन तुम वहां हो ही जहां तुम्हें होना है। यही तो सहज का अर्थ है। तुम वहां हो ही, वही जो तुम्हें होना है। यह तुम्हारा स्वभाव है। परमात्मा तुम्हारी सहजता है। सिर्फ सो गये हो, जरा सपना देखने लगे हो, जरा-सा कोई झकझोर दे।

खेल-खेल में तुम मन-मौजी गर हमको दो झटका एक

तो बस, उस इकटल्ले से ही हो जाये जीवन-कल्याण,

अब तो बहुत थक गये प्राण!

जरा-सा धक्का…वही तो गुरु करता है। गुरु कुछ लेता-देता थोड़े ही–जरा-सा धक्का! जरा झकझोर देना और नींद टूट गई और सपने बिखर गये और सत्य प्रगट हो गया!

पत्थर क्या विश्वास करेगा!

चाहे कितने पुष्प चढ़ाओ,

चाहे जितने दीप जलाओ!

जल-जल कर उर दीपक प्रतिपल

अपना ही तो नाश करेगा!

पत्थर क्या विश्वास करेगा!

 

क्या जाने यह मन की चाहें,

क्या जाने अंतर की दाहें!

प्राणों की मनुहारों का,

यह निर्मम क्या आभास करेगा!

पत्थर क्या विश्वास करेगा!

 

क्यों इस पर निज ममता वारूं,

क्यों इस पर निज क्षमता वारूं!

मेरी इस दुर्बलता का यह,

युग-युग तक उपहास करेगा!

पत्थर क्या विश्वास करेगा!

और तुम पत्थरों के सामने पूजा कर रहे हो। किसी सदगुरु को खोजो। पत्थर तुम्हें झकझोर नहीं सकते। पत्थर तुम्हें जगा नहीं सकते, खुद ही सोये हुए हैं। पत्थर तो निद्रा की आखिरी अवस्था है। पत्थरों के सामने दीये जला रहे, समय गंवा रहे। किसी सदगुरु को खोजो। कहीं जहां चैतन्य प्रगट हुआ हो, जहां दीया जल गया हो–वही तुम्हें जगा सकता है। जागा हुआ तुम्हें जगा सकता है।

तुम कारागृह के भीतर हो। जो कारागृह के बाहर हो, उससे संबंध जोड़ो। और माना कि बड़ी अड़चन होती है। कारागृह के भीतर जो है उसका संबंध बाहर से जुड़ना बड़ा कठिन मालूम होता है। सबसे बड़ी कठिनाई यही होती है कि कारागृह की भाषा अलग है, बाहर की भाषा अलग है। सोये की भाषा अलग, जागे की भाषा अलग। संवाद नहीं हो पाता। सोये की धारणायें अलग, जागे की धारणायें अलग। संबंध नहीं जुड़ पाता। इसीलिये तो जागे हुए पुरुषों को हम कभी भी अंगीकार नहीं कर पाये। अंगीकार भी हमने उन्हें किया तो तभी किया जब वे जा चुके थे। फिर हमने उनकी पत्थर की मूर्तियां बना लीं और सदियों तक पूजा हम करते हैं। जिंदा बुद्धों को इनकार करते हैं, मुर्दा बुद्धों की पूजा करते हैं। जैसे पत्थर की मूर्ति से हमारा संवाद ज्यादा आसान होता है! हम भी पत्थर हैं और मूर्ति भी पत्थर है; दोस्ती बन जाती है। बुद्धों से बड़ी मुश्किल हो जाती है।

हम कहते तो हैं कि हमें जगाओ, मगर सच में हम नहीं चाहते कि कोई हमें धक्का मारे, कोई हमें झकझोरे। हम चाहते तो हैं कि जाग जायें, मगर हम चाहते हैं कि हमारे सारे सुंदर सपने भी बच जायें और जाग भी जायें। हां, हम चाहते हैं कि दुख-स्वप्न छूट जायें, मगर सुंदर प्यारे सपने बच जायें! यह नहीं हो सकता। जागोगे तो सब सपने टूट जायेंगे–सुंदर-असुंदर, प्यारे-जहरीले, सब टूट जायेंगे।

हम शर्तें रखकर सदगुरु के पास जाते हैं, इसलिये धक्का नहीं लग पाता। हमारी शर्तों की दीवाल धक्कों को पी जाती है, हम तक नहीं पहुंचने देती। जो सारी शर्तें छोड़कर पहुंचता है, वही जाग सकता है।

जाति, रंग, देश से मनुष्य तू विभिन्न है!

कृष्ण, श्वेत, रक्त, पीत;

हो रहा तुझे प्रतीत!

आत्मा के वस्त्र सभी

अंग-अंग में पुनीत!

रंगों से ऊपर तू

एक वर्ण, एक रंग और अविच्छिन्न है!

 

तुझमें क्या जाति-भेद!

एक रुधिर एक स्वेद!

हे मनुष्य, बंधा हुआ

आज तक महान खेद!

उठ न अभी तक सका?

कौन शत्रु तेरा है? किससे तू भिन्न है?

 

घेर नगर, प्रांत देश,

आप बंध रहा अशेष;

हे असीम, अंतहीन

इतना क्यों क्षुद्र वेश!

क्या स्वदेश, क्या विदेश?

तेरा सम्पूर्ण भुवन, फिर क्यों तू खिन्न है?

थोड़ा जागो! थोड़ा क्षुद्र सीमायें छोड़ो! छोटे-छोटे आग्रह विदा करो। पक्षपात, धारणायें, अंधविश्वास हटाओ। तो शायद किसी जाग्रत से मिलन हो। तो किसी जाग्रत की जागृति तुम्हें झकझोरे। बस उतना ही काफी है। एक क्षण में घटना घट जाती है। एक ही क्षण में घटनी चाहिये, क्योंकि तुम जहां जाना चाह रहे हो वहां तुम हो ही, वहां तुम सदा से ही हो!

गुण दोस रहिअ एहु परमत्थ। सह संवेअण केवि णस्थ।

“परमार्थ अर्थात परम सत्य यही है जिसमें न गुण है न दोष। स्व-संबंध कुछ भी नहीं है–न गुण न दोष।’

परम सत्य एक ही है–तिलोपा कहते हैं–कि वहां न कोई गुण हैं न वहां कोई दोष; न कोई पाप, न कोई पुण्य; न कोई अच्छाई न कोई बुराई; न दिन न रात; न दृश्य न द्रष्टा। वहां सारे द्वंद्व समाप्त हो गये हैं। वहां कोई साधु नहीं है, वहां कोई असाधु नहीं है। वहां सारे द्वंद्वों के पार केवल साक्षी-भाव है। सिर्फ द्रष्टा मात्र रह गया है। द्रष्टा भी दृश्य के विपरीत नहीं। दृश्य के विपरीत जो द्रष्टा है, वह तो गया। सिर्फ बोध मात्र रह गया है। हूं, इतना बोध मात्र रह गया है। एक हुंकार है वहां। होने का एक भाव है। और विराट आकाश जैसा!

आकाश न कभी शुद्ध होता न अशुद्ध। देखा तुमने? काले बादल घिरते हैं तो आकाश काला नहीं हो जाता। और गोरे बादल घिरते हैं तो आकाश गोरा नहीं हो जाता। बादल आते हैं और जाते हैं, आकाश वैसा का वैसा। उसकी निर्दोषता, उसका कुंवारापन अखंड है। ऐसा ही आकाश तुम्हारे भीतर है चैतन्य का। वह भी अखंड है। वहां भी न कोई गुण है न कोई दोष है। इसको कहा तिलोपा ने परम सत्य।

और जब तक इसे न जान लो, रुकना मत। तब तक छोटी-मोटी बातों को सत्य मानकर मत रुक जाना। परम सत्य को न जान लो तब तक समझना कि अभी यात्रा शेष है, अभी और चलना, और चलना; अभी और चुकाना। और जो भी चुकाना पड़े चुकाना। अगर जीवन से भी मूल्य चुकाना पड़े तो चुकाना क्योंकि असली जीवन तभी शुरू होता है जब परम सत्य उपलब्ध हो जाता है।

साक्षी की भांति जो जीता है वह परमात्मा की भांति जीता है। और वही परम जीवन है। और वही आनंद है।

चित्ताचित्त विवज्जहु ण णित्त। सहज सरूएं करहु रे थित्त।

“चित्त और अचित्त को सदा के लिए त्याग दे और सहज स्वरूप में स्थित हो जा।’

“यह मेरा यह तेरा’ छोड़ दो। यह मेरात्तेरा, मैंत्तू छोड़ दो। यह भेद जाने दो। चित्त क्या है? अचित्त क्या है? चित्त है तुम्हारे भीतर विचार की प्रक्रिया और अचित्त है तुम्हारा तन, तुम्हारी देह। चित्त यानी चैतन्य। अचित्त यानी तुम्हारे भीतर जो जड़ देह है। न तो तुम देह हो और न तुम मन हो। तुम तन-मन दोनों के पार हो। न तो तुम गंगा हो, न तुम यमुना हो; तुम सरस्वती हो। उस तीसरे की याद करो। और धीरे-धीरे उस तीसरे के ही साथ लीन हो जाओ। उसी तीसरे में प्रतिष्ठित हो जाओ।

“चित्त और अचित्त को सदा के लिए त्याग दे और सहज स्वरूप में स्थित हो जा।’

आवइ जाइ कहवि ण णइ। गुरु उपएसें हिअहि समाइ।

बहुत प्यारा वचन है। वह परम तत्व, वह परम सत्य न तो कहीं से आता है न कहीं जाता है, न किसी स्थान पर ठहरा है। तथापि गुरु के उपदेश से वह हृदय में प्रविष्ट होता है। वह परम सत्य न आता न जाता। आए तो कहां से, क्योंकि सभी जगह वही है? जाये तो कहां, क्योंकि सभी जगह वही है? वह परम तत्व सर्वव्यापी है। सब कुछ उसी में समाया हुआ है। जैसे आकाश, आकाश आये तो कहां से, जाये तो कहां? न आना न जाना। लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि आकाश ठहरा हुआ है, क्योंकि ठहरता तो वही है जो आ सकता है और जा सकता है। ठहरना तो आने-जाने के बीच का पड़ाव है। इसलिये आकाश को हम यह भी नहीं कह सकते कि ठहरा हुआ है। आकाश हमारे सारे शब्दों के पार है।

ऐसा ही साक्षी है। ऐसा ही तुम्हारे भीतर का अंतराकाश है। न कहीं से आता न कहीं जाता, लेकिन फिर भी एक चमत्कार घटता है–“तथापि गुरु के उपदेश से वह हृदय में प्रविष्ट होता है।’ गुरु कौन? गुरु वह, जो मिट गया है। गुरु वह, जो नहीं है। गुरु वह, जिसके भीतर अब कोई मैं-भाव नहीं है, सिर्फ हुंकार है, सिर्फ हूं-भाव है। गुरु वह, जो साक्षी में जाग गया है। गुरु वह, जो साक्षी की अदृश्य सरस्वती हो गया है।

गुरु एक अदृश्य अवस्था है; सिर्फ शिष्यों की पहचान में आती है, दर्शकों की पहचान में नहीं आ सकती। दर्शकों को तो गंगा दिखाई पड़ती है, यमुना दिखाई पड़ती है। भक्तों को सरस्वती का अनुभव होता है। इसलिए अड़चन है, बड़ी अड़चन है। शिष्य अगर समझाना चाहे तो समझा नहीं सकता। जो मेरे प्रेम में हैं, वे अगर मेरे संबंध में किसी को कुछ भी समझाना चाहें, न समझा सकेंगे। क्योंकि वे कहेंगे कुछ, सुननेवाला सुनेगा कुछ। वे कहेंगे सरस्वती की बात, सुनने वाला समझेगा यमुना-गंगा की बात। और सरस्वती के लक्षण गंगा-यमुना के लक्षण से मेल नहीं खाते। गंगा-यमुना का जल है, रंग है, धार है, रूप है; वे व्याख्य हैं। सरस्वती का न कोई रंग है, न रूप है; सरस्वती अव्याख्य है।

शिष्य को अव्याख्य की प्रतीति होती है। भक्त को ही प्रतीति होती है। वह तो प्रेम की आत्यंतिक घड़ी में ही अनुभव होता है कि वहां जो बोल रहा है, वह जो गुरु है, जो उपदेश दे रहा है, वह है नहीं; उसके भीतर से परमात्मा बोल रहा है। लेकिन यह तो जानने के लिये बड़ी सूक्ष्म आंख चाहिये, बड़ी निकटता चाहिए, बड़ा निष्कपट भाव चाहिये। इसलिए कोई शिष्य कभी अपने गुरु के संबंध में दुनिया को कुछ समझा नहीं सके। गूंगे का गुड़ हो जाता है!

लेकिन चमत्कार, तिलोपा कहते हैं, घटता है। जो न आता है न जाता है, वह भी गुरु के उपदेश से शिष्य के हृदय में समा जाता है।

उपदेश का अर्थ भी समझना। “उपदेश’ शब्द बड़ा प्यारा है। देश का अर्थ होता है: स्थान। उपदेश का अर्थ होता है: उस स्थान में बैठना, उस स्थान में जुड़ना। उपदेश का अर्थ, जो कहा जाता है वह नहीं; उपदेश का अर्थ होता है गुरु की सन्निधि, निकट वास, सत्संग। सत्संग बोलकर भी होता है, अबोल भी होता है। असली सत्संग तो अबोल ही होता है। जब गुरु बोलता भी है, तब भी उसके बोलने में तीनों बातें होती हैं–गंगा-यमुना के रंग के शब्द होते हैं, और शब्दों के बीच में सरस्वती की अदृश्य धारा होती है।

शिष्य वह है जो गुरु के शब्दों को ही नहीं सुनता, शब्दों के बीच में शून्य को भी सुनता है। गुरु की पंक्तियां ही नहीं पढ़ता, पंक्तियों के बीच-बीच में रिक्त स्थान भी पढ़ता है। और तभी सरस्वती की पकड़ आती है। और सरस्वती की पकड़ ही असली बात है।

उपदेश का अर्थ होता है: पास बैठना। यही उपासना का अर्थ होता है। यही उपवास का अर्थ होता है। यही उपनिषद का अर्थ होता है: पास बैठना!

और पास बैठना बड़ी कला है। यह कला पूर्व में ही विकसित हुई, पश्चिम को इसका कुछ भी पता नहीं है। पश्चिम जानता है संभाषण, संवाद; गुरु बोले, शिष्य सुने। पूर्व जानता है वह घड़ी भी कि न गुरु बोले न शिष्य सुने–और बोलना भी हो जाए और सुनना भी हो जाए! चुप-चुप हो जाए! मौन में घट जाए! हृदय से हृदय मिले। बोलना तो मस्तिष्क के बीच आदान-प्रदान है। मौन में हृदय और हृदय का मिलन होता है। और वहीं संप्रेषण है और वहीं जागता है वह जो सोया था। वहीं समाता है वह जो आता है न जाता है।

यदि मेरे नन्हे हाथों में अर्चन का सामान नहीं था,

कैसे कह दूं इन प्राणों में पूजन का अरमान नहीं था।

शिष्य बोलता नहीं, लेकिन अबोल उसकी अर्चना है। गुरु बोलता नहीं, लेकिन मौन उसकी देशना है। मगर यह मौन देशना सिर्फ मौन शिष्य को ही समझ में आ सकती है। इसलिए गुरु का पहला पाठ है कि तुम्हें ध्यान सिखाए, मौन सिखाए, चुप होने का शास्त्र सिखाए।

यदि मेरे नन्हे हाथों में अर्चन का सामान नहीं था,

कैसे कह दूं इन प्राणों में पूजन का अरमान नहीं था।

मन मंदिर में बाला था वह,

मैंने प्रेम प्रदीप अनोखा।

जिसे बुझाने में निष्फल था,

निष्ठुर झंझा का भी झोंका।

तब छवि देखी और विमोहित अधर न यदि हिल पाए मेरे,

कैसे कह दूं इन प्राणों में प्रिय तेरा गुणगान नहीं था।

अर्चना की नहीं जाती–और हो जाती है। गुणगान किया नहीं जाता–और हो जाता है। निवेदन शब्द नहीं बनता और सिर झुक जाते हैं। तब कोई शिष्य…।

यदि मेरे नन्हे हाथों में अर्चन का सामान नहीं था,

कैसे कह दूं इन प्राणों में पूजन का अरमान नहीं था।

 

मन मंदिर में बाला था वह,

मैंने प्रेम प्रदीप अनोखा

जिसे बुझाने में निष्फल था,

निष्ठुर झंझा का भी झोंका।

तब छवि देखी और विमोहित अधर न यदि हिल पाए मेरे,

कैसे कह दूं इन प्राणों में प्रिय तेरा गुणगान नहीं था।

 

कब से पलकें बनी हुई थीं,

आशा का सुकुमार बिछौना।

कब से आंखें अकुलाई थीं,

जैसे आकुल हो मृग छौना।

जिस लघुता की अवहेला की, तूने भी मुसका मुसका कर,

अपनी उस लघुता पर भी तो मुझको कब अभिमान नहीं था?

 

मेरे नयनों के निर्झर ने,

तुझ पर अपना जीवन वारा।

मेरे अंतर की आहों ने,

तुझको सौ सौ बार पुकारा।

कैसे तुझको रिझा न पाया इन प्राणों का मौन समर्पण,

पाषाणों में रहने वाले, प्रिय! तू तो पाषाण नहीं था।

सदगुरु मिला तो बुद्धों और महावीर की पाषाणों की प्रतिमाओं में जो छिपा था वह प्रगट मिला। लेकिन उसके पास पूजा के थाल नहीं ले जाने हैं; हां, हृदय का थाल जरूर ले जाना है। उसके पास शब्दों की प्रार्थनाएं नहीं करनी हैं, लेकिन मौन भाव जरूर निवेदन करना है। उसके पास आंख बंद करके बैठना है। उसके पास झुके-झुके बैठना है। उसके पास झोली फैलाकर बैठना है। फिर कुछ घटता है–अघट घटता है। नहीं घटना चाहिए, वह घटता है। जो आता नहीं, जाता नहीं–वह अचानक एक महान लहर की तरह, एक बाढ़ की तरह हृदय को आपूरित कर देता है।

और ध्यान रखना, गुरु कुछ देता नहीं; तुम्हारे भीतर ही जो सोया पड़ा था उसी को जगाता है, उसी को पुकारता है गुरु केवल पुकार देता है।

मैं तुम्हें परिचित सदा,

फिर तुम मुझे अनजान क्यों हो?

 

जानती हूं दीप मैं हूं,

और तुम आलोक नूतन!

जानती हूं देह मैं हूं,

और तुम हो दिव्य चेतन!

फिर तुम्हारे और मेरे,

बीच में व्यवधान क्यों हो?

मैं तुम्हें परिचित सदा,

फिर तुम मुझे अनजान क्यों हो?

 

ले तुम्हीं से ज्योति जग में,

बांट रवि दानी कहाया!

बन सके जग प्राण, तुमसे–

वायु ने वरदान पाया!

रजकणों में चेतना भर,

तुम बने पाषाण क्यों हो?

मैं तुम्हें परिचित सदा,

फिर तुम मुझे अनजान क्यों हो?

ऐसे निवेदन लेकर जब कोई शिष्य झुकता है तो भर जाता है–सदा के लिए भर जाता है! फिर कभी खाली नहीं हो पाता। इतने शून्य भाव से झुकना है, इतने अपूर्व प्रेम से झुकना है। इतनी समग्रता से जब समर्पण होता है तो उसी शून्य में पूर्ण का आविर्भाव हो जाता है।

कौन प्राणों में समाया जा रहा उल्लास बनकर?

चन्द्र किरणें ले गईं जो

नयन के मोती चुरा कर,

अब बिखरते जा रहे हैं

वे अधर पर हास बनकर,

कौन प्राणों में समाया जा रहा उल्लास बनकर?

 

जिन दृगों की नीड़ में

लेते रहे सपने बसेरा,

अब वहां पर हैं विहंसती

सजगता विश्वास बनकर,

कौन प्राणों में समाया जा रहा उल्लास बनकर?

 

क्यों न पिक पंचम स्वरों में

गाए मेरा गान मधुमय,

आज पतझड़ भी यहां पर

आ गया मधुमास बनकर,

कौन प्राणों में समाया जा रहा उल्लास बनकर?

 

जिस हृदय में युग युगों से

याचना के गान पनपे,

अर्चना का गीत मुखरित

है वहां प्रतिश्वास बनकर,

कौन प्राणों में समाया जा रहा उल्लास बनकर?

 

कौन स्पंदित हो उठा है

आज फिर सूने हृदय में,

कौन छाया भाव भू पर

विमल शरदाकाश बनकर,

कौन प्राणों में समाया जा रहा उल्लास बनकर?

पहली बार जब ज्योति लपटती है, पहली बार जब भीतर का अंकुर उमगता है, पहली बार जब समाधि बरसती है–तो भरोसा ही नहीं आता! भरोसा नहीं आता कि क्या घट रहा है! अघट घट रहा है!

क्यों न पिक पंचम स्वरों में

गाए मेरा गान मधुमय,

आज पतझड़ भी यहां पर

आ गया मधुमास बनकर,

कौन प्राणों में समाया जा रहा उल्लास बनकर?

पतझड़ एक क्षण में मधुमास हो जाता है। मृत्यु एक क्षण में परम जीवन हो जाती है। अंधेरा रोशनी हो जाता है। रात कट गई, सुबह आ गई–और ऐसी सुबह जो फिर कभी मिटती नहीं; और ऐसा सूर्योदय जिसका कोई सूर्यास्त नहीं!

आवइ जाइ कहवि ण णइ। गुरु उपएसे हिअहि समाइ।।

गुरु के पास बैठकर, गुरु के इशारों, इंगित पर चलकर, गुरु के साथ नाचकर, गुरु के साथ गाकर, गुरु के साथ होकर–जो न आता न जाता, वह हृदय में समा उठता है। और तब जीवन में गीत ही गीत हो जाते हैं। तब जीवन में फूल ही फूल हो जाते हैं।

एक सूनी-सी दिशा से सुन पड़ा कुछ ललित मृदु स्वर,

थी किसी की कण्ठ-ध्वनि वह, था किसी का गान मनहर!

 

कण्ठ स्वर के संग ही कुछ मींड-मय झंकार आयी,

गान गंगा में मुदित मन वीण-यमुना धार धायी

कुछ सुपरिचित-सा लगा वह कण्ठ गायन-भारवाही,

थी किसी कर की सुपरिचित अंगुलियों में वीण थर-थर!

सुन पड़ा कुछ हिय-हरण स्वर!

 

मुड़ गयी ग्रीवा उधर को, खिंच गये लोचन बेचारे,

किन्तु उस सूनी दिशा को देख हारे दृग हमारे;

विफल अन्वेषण-उदधि में तैर उट्ठे नयनत्तारे;

शून्य में दृग-किरण बिखरी झर उठे अरमान झर-झर!

सुन पड़ा जब हिय-हरण स्वर!

 

ओ अनिश्चित-सी दिशा से उद्गता तू गान-धारा,–

क्यों समायी है श्रवण में? विकल है यह हिय बिचारा;

सुरत-स्मृतियों का जगा यह आज फिर संसार सारा;

देखना, क्या बीतती है अब हमारे प्राण, मन पर;

सुन पड़ा है जब मृदुल-स्वर!

 

हम कभी का ले चुके थे छन्द-स्वर-संन्यास मन में,

हम विरागी बन चुके थे, मल चुके थे भस्म तन में;

किन्तु गायन धार, तूने धो दिया वैराग्य क्षण में;

हो गये फिर से वही हम एक मजनूं घूम-फिरकर;

सुन पड़ा जब हिय-हरण स्वर!

एक बार जब हृदय को हर लेने वाला वह स्वर सुनाई पड़ता है, तो छूट जाता है सब विराग, छूट जाता है सब राग; छूट जाता है योग, छूट जाता है भोग; छूट जाते हैं सब द्वंद्व। फिर साक्षी की मस्ती है–ऐसी मस्ती, जिससे तुम अभी परिचित नहीं; ऐसी मस्ती जिससे परिचित होना है! होना ही है! जिससे बिना परिचित हुए विदा नहीं हो जाना है, अन्यथा एक जीवन फिर व्यर्थ गया।

हउ सुण जुग सुण तिहुअण सुण। णिम्मल सहजे ण पाप ण पुण।।

“मैं भी शून्य हूं, जगत भी शून्य है, त्रिभुवन भी शून्य है। महासुख निर्मल सहज स्वरूप है। न वहां पाप है न पुण्य।’… तिलोपा का अंतिम वचन। शिष्य ने जान लिया गुरु के पास बैठ-बैठकर जो जानने योग्य है। क्या है वह जानने योग्य? शून्य भाव, शून्याकाश। न जहां कुछ पाप है न जहां कुछ पुण्य है। प्रगट हुई सरस्वती। अदृश्य उतरा।

हउ सुण जुग सुण तिहुअण सुण। तब सब शून्य रह जाता है। मैं भी शून्य, जगत भी शून्य, त्रिभुवन भी शून्य।

शून्य का क्या अर्थ है? शून्य का अर्थ नहीं है कि सब मिट गया। शून्य का अर्थ है सब सीमाएं मिट गईं। शून्य का अर्थ है: सब भेद मिट गए। शून्य का अर्थ है: सब संयुक्त हो गया। अब किस को आदमी कहें और किस को पत्थर कहें और किस को वृक्ष कहें! किस को स्त्री कहें! किस को जवान, किस को बूढ़ा, किस को जीवित किस को मृत! भेद न रहे, परिभाषाएं न रहीं, सब एक-दूसरे में लीन हो गया। एक ही बचा। अव्याख्य बचा।

शून्य से ऐसा मत समझ लेना जैसे बहुतों ने गलती से समझ लिया है कि शून्य कोई नकार है। शून्य नकार नहीं है। शून्य पूर्ण का ही दूसरा नाम है। शून्य शून्य नहीं है। शून्य का मतलब जीरो मत समझ लेना। शून्य तो पूर्ण का गर्भ है। शून्य में से ही सब उठता है और शून्य में ही सब लीन हो जाता है; जैसे आकाश से ही बादल उठते और फिर आकाश में ही लीन हो जाते हैं।

इस शून्य में ही सब समाया हुआ है। यह शून्य तुम्हारे भीतर भी है। जिस दिन पहचान लोगे उसी दिन मुक्त हो जाओगे। उसी दिन तुम्हारे पंख खुल जाएंगे आकाश में। जब तक उसे नहीं पहचाना, जब तक उसे नहीं जाना, तब तक दुख है, नर्क है। तब तक तुम एक पक्षी हो जो पींजड़े में बंद है।

लोहे की दीवारें, पंछी!

कैसे तुझे सुहाती होंगी?

 

अंतर में संघर्ष छिपाए,

तेरा जीवन जलता होगा!

हासों में छिप क्रन्दन तेरा,

भोले जग को छलता होगा!

पर अनजाने में तो तेरी,

अंखियां भी भर आती होंगी !

लोहे की दीवारें, पंछी!

कैसे तुझे सुहाती होंगी?

 

जग की खुशियों पर न्योछावर ,

होंगी कब तक तेरी चाहें!

पलकों के डोरों से कब तक,

नापेगा जीवन की राहें?

सोच रही हूं बुझती कितनी–

यों ही जीवन-बाती होंगी!

लोहे की दीवारें, पंछी!

कैसे तुझे सुहाती होंगी?

 

जागृति का सन्देश लिये जब,

लेती होगी वायु हिलोरें !

ऊषा की आभा से रक्तिम,

होती होंगी नभ की कोरें!

जग के आंगन में जब चिड़ियां,

गाती मधुर प्रभाती होंगी!

लोहे की दीवारें, पंछी!

कैसे तुझे सुहाती होंगी?

मैं गा रहा हूं प्रभाती। जागो! यह जीवन-बाती तुम्हारी ऐसे ही नष्ट न हो जाए, पुकारता हूं, सुनो। इस जीवन को सार्थक कर लेना है। इस जीवन को मधुमय कर लेना है । यह जीवन पतझड़ ही न रह जाए, इसे मधुमास कर लेना है। सूत्र ः भोग में योग, योग में भोग–और तब जागेगा साक्षी–और तुम बन जाओगे तीर्थराज।

 

आज इतना ही।

 

 



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सहज योग–(प्रवचन–17)

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भाई, आज बजी शहनाई—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक 7 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—”नयी दिल्ली’ नामक अंग्रेजी पत्रिका में आश्रम में चलने वाली समूह-मनोचिकित्सा संबंधी कई चित्र प्रकाशित हुए हैं, जिसके संबंध में, मेरे दिल्ली प्रवास के समय, वहां के संपादक मुझसे पूछते थे कि आप इस संबंध में क्या कहते हैं?

 2—भारतीयों को सामूहिक मनोचिकित्सा में क्यों नहीं सम्मिलित किया जाता है?

 3—आप ही मेरे सब कुछ हो। आपके पहले मेरा न किसी संत से मिलना हुआ, न आगे किसी से मिलने की इच्छा है। फिर भी शायद आगे किसी तथाकथित साधु से मिलना हो जाए, तो क्या उसके सम्मोहन का मुझ पर असर हो जाएगा?

 

4—मृत्यु से मुझे इतना भय नहीं लगता जितना वृद्धावस्था के विचार से या वृद्धावस्था से। ऐसा क्यों है?

 

5—रोम-रोम में प्यार बसा क्यों एक तुम्हारा?

दृश्य-दृश्य क्यों रूप दिखाता एक तुम्हारा?

 

 

पहला प्रश्न:

 

ओशो! “नयी दिल्ली‘ नामक अंग्रेजी पत्रिका में हाल ही में आश्रम में चलने वाली समूह-मनोचिकित्सा संबंधी कई चित्र प्रकाशित हुए हैं। जिनको लेकर समाचार-पत्रों तथा अन्यत्र भी काफी चर्चा है, कुछ गलतफहमी भी। मेरे दिल्ली प्रवास के समय वहां के कई संपादक मुझ से पूछते थे कि आप इस संबंध में क्या कहते हैं? कृपापूर्वक इस पर कुछ कहें।

 

कृष्ण प्रेम! नग्नता मनुष्य का जन्म-सिद्ध अधिकार है। परमात्मा ने मनुष्य को नग्न ही बनाया है। वस्त्र तो आदमी की ईजाद है। नग्नता को अस्वीकार करना परमात्मा को अस्वीकार करना है। और वस्त्रों की ईजाद सुविधा के लिए हो, तब तो ठीक। सर्दी हो और कोई वस्त्र पहने, प्रकृति से बचाव के लिए कोई वस्त्र पहने; लेकिन वस्त्रों की मौलिक ईजाद प्रकृति से बचने के लिए नहीं है, अपने को छिपाने के लिए है। वस्त्रों के पीछे पाखंड है। इसलिए जब भी कोई नग्न खड़ा होगा, तो तुम्हारे पाखंड को चोट लगती है।

महावीर नग्न हुए, बहुत विरोध हुआ। उससे भी ज्यादा विरोध हुआ जब लल्ला, कश्मीर की फकीर स्त्री, नग्न हुई। मगर ये इक्के-दुक्के लोग थे। हमने किसी तरह सह लिया।

मेरी दृष्टि में नग्नता सहज स्वाभाविक होनी चाहिए। और जब भी सुविधा हो, व्यक्तियों को नग्न होने का नैसर्गिक अधिकार होना चाहिए। वस्त्र छिपाते हैं। और छिपाने में ही सारी पोर्नोग्रैफी है। छिपाने में ही अश्लीलता है। आदिवासियों में कोई अश्लीलता न मिलेगी, क्योंकि वे नग्न हैं। जितना छिपाओगे, उतनी अश्लीलता मिलेगी। क्योंकि जितना छिपाओगे, उतना दूसरों के मन में कल्पना को जन्म मिलता है–कि पता नहीं जो छिपाया गया है, कितना रसपूर्ण होगा!

छिपाने से रस पैदा होता है, विकृति पैदा होती हैं। जिस चीज को भी हम छिपा लेते हैं, उसे देखने की आतुरता पैदा होती है। बुर्का डालकर, घूंघट डालकर एक स्त्री रास्ते से निकलती है, लोग झुक-झुककर देखने लगते हैं। वही स्त्री बिना बुर्का डाले निकलती है, कोई उसके चेहरे पर ध्यान नहीं देता। स्त्री की तो छोड़ दो, तुम किसी पुरुष को बुर्का पहनाकर निकाल दो रास्ते से और लोग आतुर हो जायेंगे और पीछे चलने लगेंगे। हजार काम छोड़कर देखने की उत्सुकता पैदा हो जायेगी। बुर्के में राज है। जो छिपा है, वह सहज ही जिज्ञासा पैदा करता है। कल्पना भी उसी से जन्मती है। तो थोड़ा छिपाओ और थोड़ा प्रगट रखो–यह अश्लीलता का सूत्र है। जरा-सा प्रगट करो और जरा-सा छिपाये रखो, तो जो प्रगट है वह छिपा है, उसके संबंध में जिज्ञासा को जन्माता रहेगा।

आदिवासी नग्न रहते हैं। न स्त्रियों को चिंता है पुरुषों की, न पुरुषों को चिंता है स्त्रियों की। सारे पशु नग्न हैं। वृक्ष नग्न हैं। तुम्हें कोई अड़चन नहीं हो रही है। मनुष्य को क्या हो गया है?

ईसाइयों की कहानी कहती है कि जैसे ही अदम और ईव ने ज्ञान के वृक्ष का फल खाया, जो पहली बात उन्हें याद आयी वह थी अपनी नग्नता। उन्होंने जल्दी से पत्ते उठाकर अपनी नग्नता ढांक ली। यह कहानी प्रीतिकर है, अर्थपूर्ण है। ज्ञान का फल खाया। जैसे ही अहंकार जगा–ज्ञान का फल अहंकार जगाता है–और इसलिए अदम और ईव को परमात्मा ने स्वर्ग के राज्य से बाहर निकाल दिया। क्योंकि उनमें अहंकार का जन्म हो चुका था। और जहां अहंकार का जन्म होता है, वहां छिपावट, दुराव पैदा होता है।

मैं समस्त दुराव का दुश्मन हूं। मैं समस्त छिपाव का विरोधी हूं। मैं चाहता हूं कि तुम न केवल शारीरिक अर्थों में, मानसिक अर्थों में, आध्यात्मिक अर्थों में सब तलों पर नग्न होने की सामर्थ्य जुटाओ। परमात्मा के सामने नग्न होना है सब तलों पर…। तुम जैसे हो वैसे ही अपने को प्रगट करो। छिपाने से कुछ भी न होगा।

फिर छिपाने के पीछे तुम बीमारियां देखते हो, रोग देखते हो? एक तरफ हम छिपाते हैं; लेकिन जरा गौर से देखो कि जो हम छिपाते हैं, उसी को हम और उभार कर दिखाना चाहते हैं। स्त्रियां स्तन छिपाती हैं। लेकिन छिपाती हैं या उभारती हैं? स्तनों को उभारने के लिए कितने अंग-वस्त्र ईजाद किये जाते हैं, ताकि स्तन सुडौल मालूम पड़ें, बड़े मालूम पड़ें, स्पष्ट दिखाई पड़ें। एक तरफ छिपा रहे हो वस्त्रों में, दूसरी तरफ उभारकर दिखला रहे हो, उछाल रहे हो।

तुम जानकर चकित होओगे, यूनान में और रोम में ठीक इसी तरह की बीमारी अतीत में आदमियों को पैदा हुई थी। तो वे अपनी जनेंद्रिय पर एक चमड़ा चढ़ा लेते थे। चमड़े की एक खोल पहन लेते थे। ऊपर से वस्त्र पहनते, अंदर चमड़े की खोल जनेंद्रिय पर पहन लेते थे, ताकि वस्त्रों के ऊपर से जनेंद्रिय का बड़ा रूप दिखाई पड़ता रहे। इसको तुम रुग्ण कहोगे, या स्वस्थ कहोगे?

स्त्रियों के स्तन के संबंध में भी कुछ भेद नहीं है, यही बात है। झूठे स्तन बाजार में बिकते हैं–रबर और फोम के। झूठे नितंब भी बाजार में बिकते हैं। ऊपर से वस्त्र हैं, भीतर झूठे नितंब हैं, झूठे स्तन हैं। एक तरफ छिपाने का खेल चल रहा है, दूसरी तरफ उछालने का खेल चल रहा है।

कल मैंने अखबार में देखा, लोकसभा में स्त्रियों के अंग-वस्त्रों पर कुछ चर्चा चली। तो मोहन धारिया ने कहा कि जिनको भी इस संबंध में ठीक से समझना हो, वे श्री रजनीश आश्रम, पूना जायें।

मैं स्वागत करता हूं, लोकसभा के सारे मित्र यहां आयें। यह तो उन्होंने व्यंग्य में कहा है। लेकिन मैं निश्चित कहता हूं, उन्हें समझना हो कुछ भी जीवन के संबंध में तो यहां आयें। मोहन धारिया तो पूना ही रहते हैं, कभी आये नहीं यहां। पूछते हैं जो भी मिलता है उससे आश्रम के संबंध में, आने की हिम्मत नहीं जुटाते यहां! इस आश्रम के द्वार पर कमजोरों का काम नहीं है। इतनी भी हिम्मत नहीं जुटाते कि आकर यहां देख लें। पूना ही रहते हैं, पूना ही घर है। लोकसभा में दूसरों को निमंत्रण दे रहे हैं, खुद कभी यहां आये नहीं। और ऐसा भी नहीं है कि पूछत्ताछ नहीं करते। जो भी आश्रम से संबंधित है, उनसे संबंधित है, प्रत्येक से पूछत्ताछ करते हैं कि क्या वहां हो रहा है?

एक पाखंड का लंबा सिलसिला है। उस पाखंड के कारण जरा-जरा सी बातों से उपद्रव हो जाते हैं।

नयी दिल्ली पत्रिका में लीला नाम के समूह-चिकित्सा के प्रयोग के कुछ नग्न चित्र छपे हैं। उससे बहुत उपद्रव मच गया है–बिना समझे बिना बूझे! चित्र भी सब चुराये हुए हैं। क्योंकि चित्र जिसने लिये थे, जिस जर्मन पत्रकार ने, वह अब संन्यासी है। स्टर्न के जर्मन पत्रकार सत्यानंद ने उन चित्रों को लिया था और जर्मनी की पत्रिका स्टर्न में बड़ी महत्वपूर्ण व्याख्या के साथ उन चित्रों को छापा है। व्याख्या तो छोड़ दी नयी दिल्ली की पत्रिका ने; सिर्फ चित्र छाप दिये हैं बिना किसी व्याख्या के; बिना समझाये कि ये क्या हैं और क्या हो रहा है।

ये जालसाजियां हैं। यह अनैतिक व्यवहार है। यह अशोभन, अलोकतांत्रिक व्यवहार है। यह न्याययुक्त बात नहीं है। एक तो चित्र चुराये हैं, स्टर्न से कोई आज्ञा नहीं ली है–जो कि अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है। फिर बिना व्याख्या के छाप दिये हैं–जो कि अनीतिपूर्ण है। उनकी व्याख्या में ही उनका अर्थ छिपा है। सिर्फ चित्र को छाप देने से कुछ भी न होगा। चित्र को छापकर तो सिर्फ लोगों को भड़काने की चेष्टा की जाती है। और इस देश में इतना गहन अज्ञान है, और इस देश में इतना गहन दमन है कि हर छोटी-मोटी चीज लोगों को भड़का देती है।

पहली तो बात, मनुष्य ने वस्त्रों को ओढ़-ओढ़कर अपने को खूब मिस्टिफाई कर लिया है, खूब रहस्यमय बना दिया है। मैं उस रहस्य को तोड़ देना चाहता हूं। वह रहस्य पोर्नोग्रैफी का जन्मदाता है, अश्लीलता का जन्मदाता है। जैसे ही कोई व्यक्ति नग्न हो जाता है डि-मिस्टिफाई हो जाता है, उसका रहस्य विलीन हो जाता है।

तुम्हें खुद भी अनुभव होगा। इसलिए तो तुम्हें अपनी पत्नी में कोई रस नहीं रह जाता, अपने पति में कोई रस नहीं रह जाता; लेकिन पड़ोस की पत्नी में रस होता है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर आया और उसने देखा, उसका निकटतम मित्र उसकी पत्नी का आलिंगन कर रहा है। उसने तो एकदम सिर पीट लिया। मुल्ला ने सिर पीट लिया और कहा कि मैं हैरान हूं, तू यह क्यों कर रहा है, मुझे तो करना पड़ता है!

पत्नियों में क्यों रस समाप्त हो जाता है, कारण तुमने खोजा है? तुम उनकी देह से परिचित हो गये हो। रहस्य खो गया। जिज्ञासा का कोई अर्थ नहीं रहा। कल्पना को खुलकर खेलने का कोई मौका नहीं रहा। लेकिन पड़ोसी की पत्नी है, उसके संबंध में कल्पना को खेलने का मौका है।

नग्न व्यक्ति को कितनी देर तक देखते रहोगे? थोड़ी देर बाद पाओगे, बात खतम हो गयी। आखिर नग्न व्यक्ति में क्या हो सकता है? जो होता है वस्त्रों में। वस्त्रों की छिपावट में सारी अश्लीलता का राज छिपा है।

दुनिया से अश्लीलता न मिटेगी, जब तक नग्नता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार स्वीकृत नहीं हो जाता।

और फिर ये चित्र तो कोई सामूहिक स्थानों पर नहीं लिये गये हैं। ये तो समूह-चिकित्सा में, बंद कमरों में हुए प्रयोगों के चित्र हैं। इससे किसी को कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए। फिर इन चित्रों के पीछे क्या प्रक्रिया है उसको समझने की चेष्टा करनी चाहिए। ये चित्र कोई संभोग के चित्र नहीं हैं। इन चित्रों में स्त्री और पुरुष नग्न हैं, क्योंकि नग्नता में एक मुक्तिदायी तत्व है। जैसे ही तुम बहुत-सी स्त्रियों और बहुत-से पुरुषों को नग्न देख लेते हो, वैसे ही तुम्हारे मन में जो सदा दूसरों को नग्न देखने की आतुरता छिपी है, वह विलीन हो जाती है। उसका विलीन होना बड़ा मुक्तिदायी है। उसके विलीन होने से ही एक कामातुरता नष्ट हो जाती है। तुम सहज, सरल, निश्चल हो जाते हो। तुम्हारे पीछे जो एक रोग पड़ा था, तुम्हारे स्वप्नों में जो नग्न स्त्रियां आ रही थीं और गीता में जो तुम फिल्मी पत्रिकाएं छिपा-छिपाकर पढ़ रहे थे–वह सब बंद हो जाता है। इससे एक बड़ी निश्च्छल स्वतंत्रता उपलब्ध होती है। एक सरलता आती है, जो छोटे बच्चों में होती है।

आखिर स्तन स्तन हैं। जननेंद्रियां जननेंद्रियां हैं। नितंब नितंब हैं। उनमें कुछ भी नहीं है। उनमें कुछ होना भी नहीं चाहिए। लेकिन छिपाने के कारण बहुत कुछ हो गया है।

तुम जरा अपने दरवाजे पर एक तख्ती लगा दो कि यहां झांकना मना है। फिर उस रास्ते से एक भी इतना हिम्मतवर आदमी न निकल सकेगा, जो बिना झांके निकल जाये।

एक मेरे मित्र हैं; उनके मकान की दीवाल के पास लोग पेशाब कर जाते थे। उन्होंने मुझ से कहा: मैंने कहा: तुम एक बड़ी तख्ती लगा दो कि यहां पेशाब करना सख्त मना है। उन्होंने तख्ती लगा दी। पांच-सात दिन बाद मेरे पास आये और बोले: आपने और मुसीबत कर दी! जो बिना पेशाब किये निकलते थे, वे भी करने लगे। क्योंकि जब तख्ती पढ़ी कि यहां पेशाब करना सख्त मना है, तो अड़चन पैदा हो जाती है, एकदम याद आ जाती है–जिनको याद नहीं भी थी; जो अपने मजे से काम पर चले जा रहे थे।

मैं रोज सुनता हूं, जैसे ही मैत्रेय जी खड़े होते हैं, मुझे पता चल जाता है कि वह खड़े हो गये, क्योंकि लोग एकदम खांसने लगते हैं। उनकी आवाज तो बाद में सुनाई पड़ती है, लेकिन तुम्हारी खांसी की आवाज सुनकर मैं समझ जाता हूं कि मैत्रेय जी खड़े हो गये। उन्हें देखकर ही…उसके पहले तुम बिलकुल शांत बैठे थे, न कोई गले में खराश थी, न कोई खांसी थी। लेकिन मैत्रेय जी क्या खड़े हुए, बस एकदम सबके गले में खराश हो जाती है! इसे तुम रोज देखते हो, रोज अनुभव करते हो।

निषेध में एक तरह का निमंत्रण हो जाता हैं। वस्त्रों ने निषेध पैदा कर दिया है और निमंत्रण पैदा कर दिया है।

मोहन धारिया को जरूर मैं कहता हूं: आओ और दिल्ली के बाकी पागलों को भी अपने साथ ले आओ।

यहां पश्चिम से मेरी संन्यासिनियां हैं, वे किसी तरह का अंग-वस्त्र नहीं पहनतीं। भारतीय स्त्रियों को अड़चन होती है। मुझसे एक-दो भारतीय स्त्रियों ने कहा है कि आप पश्चिमी संन्यासी स्त्रियों को क्यों नहीं कहते कि बाडी पहनें, अंगिया पहनें। लेकिन बाडी या अंगिया तो सिर्फ अंगों को उभारने के लिए पहनी जाती हैं। वह तो जो स्तन ढल गये हैं, नहीं ढले हैं ऐसा दिखलाने के लिए पहनी जाती हैं। लेकिन भारतीय स्त्रियां सोचती हैं कि उसमें शील है, लाज है, संकोच है। उल्टी बात है। उन्होंने, मेरी पाश्चात्य संन्यासिनियों ने अंग-वस्त्र छोड़ दिया है, क्योंकि उसमें लाज नहीं है, अश्लीलता है। उसमें निमंत्रण है। उसमें दूसरे की आंखों पर हमला है। तुम्हारे उभरे हुए स्तन सिर्फ दूसरों के भीतर लुच्चाई पैदा करते हैं और कुछ भी नहीं।

लुच्चे का मतलब–घूर-घूरकर देखने की आकांक्षा पैदा करते हैं।

लुच्चा शब्द बनता है “लोचन’ से आंख से। और जैसे ही तुम्हारे अंग-वस्त्रों में उभरे हुए झूठे स्तन कोई देखता है, उसकी आंख अटक जाती है। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि सारी दुनिया के लोगों का यह अनुभव है कि भारतीय स्त्रियां दुनिया की किसी भी जाति की स्त्रियों से ज्यादा आकर्षक मालूम होती हैं! राज? राज है उनकी धोती, राज है उनकी साड़ी, उनके अंग-वस्त्र। छिपा-छिपाकर लाज में सकुची-सकुची चलती हैं। जितनी छिपी-छिपी हैं, उतनी ही आकर्षक मालूम होती हैं।

कुरूप से कुरूप स्त्री भी घूंघट में सुंदर हो जाती है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने शादी की। पत्नी घर आयी। जैसा मुसलमानों में रिवाज है, पत्नी ने पहली ही बात जो पूछी वह यह कि मैं अपना बुर्का किन-किन के सामने उठा सकती हूं? इसके पहले मुल्ला ने उसका चेहरा तो देखा नहीं था। विवाह के पहले देखने का तो कोई रिवाज था नहीं तब। पहली दफा चेहरा देखा।…सांस भी रुक गयी। उसने कहा: मुझे छोड़कर, जिसके भी सामने तुझे चेहरा दिखाना हो दिखाना, बस मुझे भर छोड़कर!

बुर्के में तो कुरूप से कुरूप स्त्री सुंदर मालूम होती है। घूंघट कुरूप स्त्रियों का आविष्कार है। बुर्का कुरूप स्त्रियों की खोज है।

और वस्त्रों में तुम क्यों अपने को छिपा रहे हो? क्योंकि वस्त्र तुम्हें एक तरह के झूठ में जीने की सुविधा देते हैं। समझो, तुम पुरुष हो। तुम ने एक सुंदर स्त्री देखी। अगर तुम नग्न हो, तो तुम्हारी देह कह देगी कि तुम आकर्षित हो; तुम्हारे अंग-प्रत्यंग कह देंगे कि तुम आकर्षित हो गये हो। अगर तुम स्त्री हो, तो भी। तुमने एक पुरुष को देखा और तुम्हारे चित्त में आकर्षण जगा, तत्क्षण तुम्हारा शरीर सत्य को प्रगट कर देगा। इस सत्य को कैसे छिपायें? एक ही रास्ता है वस्त्र ओढ़ लो, तो मन में कुछ भी चलता रहे, देह प्रगट न कर पाये।

खयाल करना, देह बड़ी ईमानदार है। देह को तुम झुठला नहीं सकते। देह झूठ नहीं बोलती। मन को तुम झुठला सकते हो, क्योंकि मन भीतर है; दूसरे को पता न चलने दो तो न चलने दो। लेकिन देह तो बाहर है, उपलब्ध है। अगर कोई पुरुष किसी स्त्री में उत्सुक हो गया है, उसकी जननेंद्रिय सूचना दे देगी कि वह उत्सुक हो गया है। अगर स्त्री उत्सुक हो गयी है, उसके स्तन सूचना दे देंगे कि वह उत्सुक हो गयी हैं। मगर यह तो बड़ी अड़चन हो जायेगी; इसको कैसे छिपाना? वस्त्रों ने तरकीब दे दी, आड़ दे दी, तुम उत्सुक भी होते रहते हो दूसरों में और शरीर जिन सत्यों को प्रगट करता, उनको तुम वस्त्रों की आड़ में छिपाते रहते हो। ऐसे एक बेईमानी का जाल चल रहा है। मैं इस जाल को तोड़ देना चाहता हूं।

ये समूह-चिकित्सा के प्रयोग इस जाल को तोड़ने के प्रयोग हैं। फिर मैं कोई अभी जाकर बाजार में और सड़क पर तुम से ये प्रयोग करने को कह भी नहीं रहा हूं। इसलिए किसी को क्यों चिंता होनी चाहिए? जो इस उपद्रव से छूटना चाहते हैं, स्वेच्छा से, उनके लिए समूह-चिकित्सा का आयोजन किया जा रहा है। फिर जब स्त्री और पुरुष, बहुत-सी स्त्रियां और बहुत-से पुरुष नग्न होते हैं, एक दूसरे की आंखों में झांकते हैं, एक-दूसरे के हाथ में हाथ लेते हैं, नाचते हैं, कुछ प्रयोग ऊर्जा को जगाने के करते हैं, वर्तुलाकार घूमते हैं…। यह कोई संभोग नहीं हो रहा है, सिर्फ एक-दूसरे की ऊर्जा को चुनौती दे रहे हैं। ऊर्जा जगनी शुरू होती है…।

खयाल रखना, ऊर्जा जग जाये तो उसके दो परिणाम हो सकते हैं। या तो संभोग हो, तो ऊर्जा स्खलित होती है। और अगर संभोग न हो और ऊर्जा जग जाये और जागती चली जाये, तो उसका ऊर्ध्वगमन शुरू हो जाता है। या तो अधोगमन होगा, या ऊर्ध्वगमन होगा।

नयी दिल्ली पत्रिका में जो चित्र छिपे हैं, वे लीला नाम के समूह-चिकित्सा के चित्र हैं। लीला, ऊर्जा की लीला का प्रयोग है। स्त्रियों को देखकर, पुरुषों को देखकर दोनों के भीतर ऊर्जा का प्रवाह जगता है। उस प्रवाह को इतनी चुनौती देनी है कि तुम्हारे भीतर जो सोये पड़े हुए हैं जन्मों-जन्मों के स्रोत, वे सब सजग हो जायेंगे। और फिर उसे अधोगामी नहीं होने देना है, उसे ऊर्ध्वगमन की तरफ ले जाना है।

ये कुंडलिनी जागरण के ही प्रयोग हैं। ये कुछ नये प्रयोग नहीं हैं, ये सदियों से तंत्र के मार्ग पर चलने वाले साधक करते रहे हैं, सरहपा और तिलोपा और कणहपा सदियों से इन प्रयोगों को करते रहे हैं। मैं पहली बार इन प्रयोगों को एक वैज्ञानिक आधार-भूमि देने की चेष्टा कर रहा हूं। ये प्रयोग चुपचाप किये जाते रहे हैं। शास्त्रों में इनका उल्लेख भी है। लेकिन सामान्य-जन को इनकी कभी कोई खबर नहीं दी गयी है। क्योंकि सामान्य-जन का कभी सम्मान नहीं किया गया है। मैं सामान्य-जन का सम्मान कर रहा हूं। मैं कहता हूं कि क्यों सामान्य-जन का इतना अपमान हो। आखिर उसे भी इन अनूठे प्रयोगों का अवसर मिलना चाहिए। क्योंकि वह क्यों न जाने कि ऊर्जा के ऊपर जाते हुए आयाम भी हैं? वह क्यों वंचित रह जाये? जो ऊर्जा जननेंद्रिय से स्खलित होती है, वह क्यों न सहस्रार में चढ़े और क्यों न सहस्रार का कमल खिले?

जो अब तक छिपा-छिपा था, गुप्त-गुप्त था, उसे मैं प्रगट कर रहा हूं, यही मेरा कसूर है। यह मेरा अपराध है। इस अपराध के लिए मुझे हजार तरह की परेशानियां झेलनी पड़ रही हैं और झेलनी पड़ेंगी। क्योंकि मैं इस प्रक्रिया को बंद करनेवाला नहीं हूं, परिणाम कुछ भी हों। इस प्रक्रिया को और गहन करूंगा। इस प्रक्रिया को और-और लोगों तक पहुंचाऊंगा। जो भी सुनने को राजी होंगे, समझने को राजी होंगे, उनको जीवन की ऊर्जा का रूपांतरण कैसे किया जाये, नीचे जाती ऊर्जा को ऊपर कैसे ले जाया जाये–ये अनूठे प्रयोग मैं अब जगत के सामने प्रगट करना चाहता हूं। अब इनको थोड़े-बहुत लोग चुपचाप अपने-अपने मठों में, छिपकर करते रहें, इतने से नहीं होगा। पूरी मनुष्य-जाति कामवासना से तड़प रही है, परेशान हो रही है। और औषधि हमारे पास हो और कुछ लोग इसका उपयोग करते रहें, यह ठीक नहीं। यह औषधि सर्वसुलभ होनी चाहिए। यह सब को मिल जानी चाहिए, क्योंकि यह सभी का रोग है।

वे जो चित्र “नयी दिल्ली’ पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं, इसी तरह के प्रयोग के चित्र हैं। स्त्री और पुरुष नग्न, एक-दूसरे का हाथ में हाथ लिये, या एक-दूसरे की देह को स्पर्श करते हुए; या एक-दूसरे की आंख में आंख डाले हुए–चुनौती दे रहे हैं, वह जो भीतर छिपा है उसे जागने के लिए, जगाने के लिए। इससे संबंध संभोग का कोई भी नहीं है। यह तो संभोग के बिलकुल विपरीत दिशा है। ऊर्जा पहले जगनी चाहिए–और जगती है विपरीत के आघात से। पुरुष है धन विद्युत, स्त्री है ऋण विद्युत; और दोनों का एक-दूसरे पर आघात हो, तो ही ऊर्जा जगती है। तुम भी जानते हो कि ऊर्जा जगती है, मगर तुम उसे दबा जाते हो।

इन प्रयोगों में उस ऊर्जा को दबाना नहीं है, उस ऊर्जा को सहारा देना है। उस ऊर्जा को उठाना है; जितना उठ सके उठाना है। और एक खास सीमा पर जाकर रूपांतरण होता है। जैसे सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाता है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर जब सौ डिग्री ऊर्जा जगती है, तो नीचे न जाकर ऊपर जाने लगती है: तुमने देखा, पानी तो नीचे की तरफ जाता है, भाप ऊपर की तरफ जाती है!…क्रांति घट गयी! और जैसे ही काम-ऊर्जा ऊपर की तरफ जाती है, राम की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।

मगर यह तो वे ही समझ पायेंगे, जो इन प्रयोगों को करने का साहस करेंगे। मोहन धारिया नहीं समझ पायेंगे। मोहन धारिया तो इस आश्रम के दरवाजे के भीतर प्रवेश करने की हिम्मत नहीं कर सकते। और बिना समझे-बूझे वक्तव्य देना, सिर्फ मूढ़ता के लक्षण हैं, और कुछ भी नहीं।

यहां एक अनूठा रासायनिक प्रयोग हो रहा है। यह प्रयोग हिम्मतशालियों के लिए है। मनुष्य ऊर्जा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और प्रत्येक मनुष्य में दोनों ऊर्जाएं छिपी हैं। पुरुष के भीतर अचेतन में स्त्री छिपी है। स्त्री के भीतर अचेतन में पुरुष छिपा है। अब यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। कार्ल गुस्ताव जुंग के अन्वेषणों ने इस प्राचीन सत्य को आधुनिक कलेवर में, आधुनिक तर्क से सिद्ध कर दिया है। हम तो इसे जानते रहे हैं सदियों से। तभी तो हमने अर्धनारीश्वर की प्रतिमा बनाई थी। अर्धनारीश्वर की प्रतिमा क्या कहती है? शिव आधे स्त्री हैं, आधे पुरुष। यह तो केवल प्रतीक है। प्रत्येक व्यक्ति, फिर वह पुरुष हो या स्त्री, आधा-आधा है। होना ही चाहिए। क्योंकि तुम्हारा जन्म मां और पिता के मिलन से हुआ है। आधा हिस्सा मां ने दिया है, आधा पिता ने दिया है, तब तुम बने हो। तो तुम्हारे भीतर आधी स्त्री है आधा पुरुष है। अगर तुम पुरुष हो शारीरिक दृष्टि से, तो चेतन मन में तुमने अपने को पुरुष जाना है; उसके पीछे ही छिपा हुआ अचेतन मन है, उसमें तुम स्त्री हो। और अगर तुम स्त्री हो शारीरिक रूप से तो चेतन मन में स्त्री और अचेतन में पुरुष छिपा है।

ये जो लीला के प्रयोग हैं, ऊर्जा के प्रयोग हैं। इनमें बाहर की स्त्री का, बाहर के पुरुष का सहारा लेकर भीतर छिपी स्त्री और भीतर छिपे पुरुष को उकसाया जा रहा है, जगाया जा रहा है। तुम जब भी किसी बाहर की स्त्री में आतुर होते हो, उत्सुक होते हो, तो तुम्हें पता हो या न हो, कहीं न कहीं किसी अनजान अर्थों में, अज्ञात अर्थों में तुम्हारे भीतर की स्त्री की झलक तुम्हें बाहर की स्त्री में मिली है। नहीं तो तुम हर स्त्री के प्रेम में क्यों नहीं पड़ जाते हो? तुम ने कभी इस पर विचार किया है? हर पुरुष तुम्हें आकर्षित नहीं करता, हर स्त्री तुम्हें आकर्षित नहीं करती। कभी अकस्मात किसी व्यक्ति को पहली दफा देखते हो और आकर्षित हो जाते हो। क्या होगा इसका कारण? इसका कारण एक ही है, वह जो बाहर की स्त्री है, वह किसी रूप में तुम्हारे अचेतन में छिपी स्त्री का प्रतिबिंब है। उसकी झलक दे रही है। उसने तुम्हारे भीतर की स्त्री को सप्राण कर दिया, सोये को जगा दिया।

लीला-चिकित्सा में इसको जानकर प्रयोग किया जाता है। लीला-चिकित्सा की पूरी प्रक्रिया और पद्धति ऐसी है कि जिसमें बाहर की स्त्री का सहारा लेकर भीतर की स्त्री को सोये से झकझोर देना है; और बाहर के पुरुष का सहारा लेकर भीतर के पुरुष को झकझोर देना है। जब तुम्हारे भीतर की स्त्री और पुरुष दोनों जग जाते हैं, तो एक अपूर्व मिलन घटित होता है। तुम्हारे भीतर घटित होता है! एक अपूर्व स्त्री और पुरुष ऊर्जा का सम्मिलन तुम्हारे भीतर घटित होता है! उस सम्मिलन में तुम पूर्ण हो जाते हो, क्योंकि फिर अधूरा-अधूरापन नहीं रह जाता।

और आश्चर्य की बात तो यह है, जिसके भीतर यह घटन हो जाये, जिसके भीतर यह संगठन हो जाये, जिसके भीतर की स्त्री और पुरुष एक हो जायें, उसे फिर बाहर की स्त्री और पुरुष में कोई रस नहीं रह जाता। मेरी बातें ऊपर से तो ऐसी लगती हैं कि मैं लोगों को भोग की तरफ ले जा रहा हूं। बस ऊपर से ही लगती हैं और नासमझों को लगती हैं। उनको लगती हैं जिनकी बात का कोई मूल्य नहीं है।

मैं तुम्हें परम ब्रह्मचर्य की तरफ ले चल रहा हूं। क्योंकि जिस दिन तुम्हारे भीतर की स्त्री और पुरुष का मिलन हो जायेगा उसी दिन परम ब्रह्मचर्य घटित हो जायेगा। उस दिन के बाद फिर तुम्हें कोई रस नहीं रह जायेगा बाहर की स्त्री में और बाहर के पुरुष में। और भागना भी न पड़ेगा कहीं, दबाना भी न पड़ेगा कुछ। एक अपूर्व शांत, मौन क्रांति घट जाती है, शोरगुल भी नहीं होता। तुम्हारे भीतर द्वंद्व समाप्त हो जाता है, निर्द्वंद्व का जन्म हो जाता है।

ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ सोचा है कभी? ब्रह्म जैसी चर्या। यह सिर्फ कामवासना को दबा लेने से कोई ब्रह्म जैसी चर्या को उपलब्ध नहीं होता। ब्रह्म जैसी चर्या को तो कोई तभी उपलब्ध होता है जब अर्धनारीश्वर हो जाये–आधा पुरुष आधा स्त्री, दोनों मिल जायें–और एक हो जायें। इस सम्मिलन में, इस समन्वय में, इस संगीत में ब्रह्मचर्य का जन्म है।

यहां जो भी हो रहा है, उसका अंतिम लक्ष्य ब्रह्मचर्य है। मगर जो ऊपर-ऊपर देखेंगे, वे तो बड़े परेशान होंगे। वे तो परेशान हो ही रहे हैं। उनकी परेशानी को जितना बन सके समझने की कोशिश करो। मगर उनकी परेशानी के कारण तुम परेशान मत हो जाना। उनकी परेशानी को अपनी परेशानी मत बना लेना।

नासमझों का एक समूह है, वह चलता रहेगा। वह मुझे गालियां देता रहेगा। उसकी फिक्र छोड़ो। उसकी चिंता न लो। उसमें उलझो भी मत। तुम अपने काम में लगे रहे हो। धीरे-धीरे जब यहां ब्रह्मचर्य को उपलब्ध चेतनाएं खड़ी हो जायेंगी, वे चेतनाएं ही असली उत्तर होंगी। और कोई उत्तर सार्थक नहीं हो सकता। मैं फिक्र में हूं कि प्रमाण जुटा सकूं। और उस फिक्र को तुम ही पूरा कर सकते हो।

कृष्ण प्रेम, चिंता न लो। मेरे जैसे व्यक्ति जब जमीन पर आते हैं तो बहुत ऊहापोह मचता है, बहुत तूफान-आंधियां उठती हैं।

दूसरा प्रश्न :

 

भी पहले से संबंधित है: ओशो! भारतीयों को ग्रुप-थैरेपी, सामूहिक-मनोचिकित्सा में सम्मिलित क्यों नहीं किया जाता? क्या पश्चिम को ही सामूहिक-चिकित्सा की आवश्यकता है और पूर्व को नहीं? परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं दिखती। वास्तविकता तो यह है कि नब्बे प्रतिशत भारतीय ही यौन-विक्षिप्त पाये जाते हैं। इस संदर्भ में यह स्पष्ट करने की अनुकंपा करें कि भारतीयों को इस विशिष्ट पद्धति से वंचित रखना कहां तक उचित है और क्यों?

 

पूछा है डाक्टर तपन कुमार चौधरी ने। डाक्टर हैं, तो निश्चित वे जानते हैं कि भारतीयों की असली मानसिक दशा क्या है। ठीक है, नब्बे प्रतिशत ही नहीं, निन्यानबे प्रतिशत भारतीय काम-दमन से पीड़ित हैं। और मैं जानता हूं उन्हें जितनी आवश्यकता है, उतनी शायद किसी और को नहीं।

लेकिन अड़चनें हैं बहुत। पहली तो बात, भूमिका का अभाव है। भारत सदियों से दमन की धारा में जीया है। तो किसी भारतीय को अगर मैं कहता भी हूं कि तुम जाओ और सामूहिक-चिकित्सा में सम्मिलित हो जाओ, तो वह सम्मिलित नहीं होता। भाग खड़ा होता है। यहां आता ही नहीं फिर। यहां से भगाना हो किसी को, तो मैं उसे सामूहिक-चिकित्सा का सुझाव दे देता हूं। उससे मेरी भी झंझट छूट जाती है और उसको भी आने का उपाय दोबारा नहीं रह जाता। भूमिका का अभाव है।

सामूहिक-चिकित्सा के पीछे एक मानसिक भूमिका चाहिए। न तो उन्हें पता है कि एनकाउंटर क्या है, न उन्हें पता है कि प्रायमल-थैरेपी क्या है, न उन्हें पता है कि बायोइनरजेटिक्स क्या है। यह सारा विज्ञान पश्चिम में पैदा हुआ है। मैं तुमसे कहे देता हूं कि अगर तुम जल्दी नहीं जागे तो पश्चिम तुम्हें आध्यात्मिक अर्थों में भी पीछे छोड़ देगा। भौतिक अर्थों में तो तुम्हें पीछे छोड़ ही दिया है पश्चिम ने, क्योंकि तुम नहीं जागे। जाग सकते थे। भारत में पहली दफा गणित पैदा हुआ था। लेकिन फिर भारत आइंस्टीन को क्यों पैदा नहीं कर सका? सुस्ती है, काहिलता है। भाग्य पर छोड़े बैठे हैं सब। तो गणित भारत में पैदा हुआ, लेकिन आइंस्टीन…उसकी पूर्णाहुति भारत में न हुई, पूर्णाहुति पश्चिम में हुई।

भारत ने करीब-करीब सभी विज्ञानों की प्राथमिक खोज कर ली थी। लेकिन उसका अंतिम उत्कर्ष भारत में नहीं हुआ, पश्चिम में हुआ। हमने सर्जरी का प्राथमिक प्रयोग किया था, लेकिन फिर सर्जरी ने अपनी पराकाष्ठा पश्चिम में पायी। औषधि हो, कि गणित हो, कि सर्जरी हो, कि रसायन-विज्ञान हो, कि भौतिकी हो–हर दिशा में भारत ने सबसे पहले प्राथमिक प्रयोग किये थे। मगर प्राथमिक पर ही हम रुक जाते हैं। आत्यंतिक तक जाने का न हम साहस जुटा पाते, न शक्ति जुटा पाते, न उतना मनोबल जुटा पाते हैं।

अब वही दुर्भाग्य फिर घटने को है। तंत्र पर हमने सबसे पहले प्रयोग किये थे। और हमने तंत्र पर बड़ी गहराइयां पायी थीं। मगर अब पश्चिम हमसे आगे निकला जाता है। और अगर थोड़ी देर और की, तो जैसे अभी तुम्हारे बच्चों को पश्चिम जाना पड़ता है गणित और विज्ञान सीखने; कुछ आश्चर्य न होगा कि किसी दिन धर्म और ध्यान सीखने भी पश्चिम जाना पड़े। तुम उसमें भी पिछड़ते जा रहे हो, जिसमें तुम सदा अग्रणी थे। अब तुम उसमें भी अग्रणी ज्यादा देर न रहोगे। तुम्हारी आदत ही पिछड़ने की हो गई है। तुम किसी भी चीज में अपनी सारी सामर्थ्य लगाकर नहीं जुटते हो। अब तुमने पूछा है कि भारतीयजनों को सामूहिक-चिकित्सा से वंचित क्यों रखा जा रहा है?

पहली तो बात यह है कि कोई भारतीय यहां तीन-चार महीने आकर रुकने को राजी नहीं होता। तीन-चार महीने न रुके तो सामूहिक-चिकित्सा के प्रयोग नहीं किए जा सकते। भारतीय तो आता है दो दिन के लिए, दर्शन करने के लिए। वह कहता है दर्शन हो गए, सब हो गया। तुम्हें यह आदत पकड़ गई है सदियों से कि गए और किसी सदगुरु के दर्शन कर लिए और सब हो गया। बात खतम हो गई। चरण छू आए, आशीर्वाद ले लिया; कुछ और करना नहीं है। पश्चिम से जो लोग आते हैं तीन से छह महीने का समय लेकर आते हैं। तुम यहां आते हो दिन-दो-दिन के लिए। बहुत किसी ने हिम्मत की तो वह दस दिन के लिए, शिविर के लिए आ जाता है।

शिविर में भी तुम ध्यान कम करते हो, देखते ज्यादा हो कि दूसरे क्या कर रहे हैं। तुम्हारा रस कुछ विक्षिप्त हो गया है। दांव पर तुम कुछ भी लगाना नहीं चाहते।

कुछ भारतीयों को मैंने चिकित्साओं में भेजा। मैं चाहता हूं कि ये चिकित्सा का जो लाभ हो सकता है वह भारतीयों को भी मिले; मिलना ही चाहिए। और तपन कुमार, तुम ठीक कहते हो कि निन्यानबे प्रतिशत लोग यहां रुग्ण हैं, इनको आप चिकित्सा का अवसर न देंगे? देना चाहता हूं। पहली तो बात, किसी को चिकित्सा के लिए कहो, तो वह राजी नहीं होता। अब जबर्दस्ती तो किसी के ऊपर चिकित्सा नहीं थोपी जा सकती। आदमी भाग रहा हो…और तुम उसे लिटाओ और आपरेशन करो, यह तो नहीं हो सकता। कम-से-कम उसकी स्वीकृति तो चाहिए ही। स्वेच्छा से ही चिकित्सा हो सकती है।

फिर किन्हीं को मैंने समझा-बुझाकर भेज भी दिया, तो वे चिकित्सा में पहुंच भी जाते हैं, सम्मिलित नहीं होते। बैठे रहते हैं एक कोने में। भागीदार नहीं बनते। वहां भी दर्शक बने रहते हैं। तो उनके कारण जो और लोग चिकित्सा में सम्मिलित हैं, उनको बाधा पड़ती है। तो मुझे पाश्चात्य संन्यासी आकर कहते हैं कि आप भारतीयों को मत भेजिए, क्योंकि वे सम्मिलित तो होते नहीं। और एक पत्थर की तरह वहां खड़े हो जाते हैं? किसी चीज में भाग लेते नहीं, तो जो धारा बहनी चाहिए समूह की, उसमें एक चट्टान पड़ जाती है; धारा में बाधा आ जाती है।

एक तो भूमिका का अभाव है, क्योंकि तुम दमन की हवा में पले हो। तुम्हारी छाती पर मोरारजी देसाई जैसे लोग इतनी सदियों से बैठे हैं कि जब तक तुम उन्हें न उतार दो, तुम्हारे रोग न उतरेंगे, तुम्हारी बीमारियां न उतरेंगी। तुम्हारे पास ऐसी-ऐसी धारणाएं चित्त में घर कर गई हैं कि उनके साथ अड़चन है।

अब तुमने पूछा है तपन कुमार, लेकिन अगर किसी भारतीय को मैं कहता हूं कि तुम जाकर लीला-थैरेपी में या एनकाउंटर में सम्मिलित हो जाओ, तो वह कहता है: पहले मैं अपनी पत्नी को पूछूंगा! पत्नी राजी नहीं है, क्योंकि वहां और स्त्रियां हैं, पता नहीं तुम क्या करोगे!

एक मित्र को मैंने मालिश करवाने के लिए भेजा, क्योंकि उनके शरीर में तकलीफ है। उनकी पत्नी वहां खड़ी रहती है जाकर। मालिश भी नहीं करवाने देगी उनको; देखती है खड़ी होकर कि कोई गड़बड़ तो नहीं हो रही है। पत्नी को अगर भेजूं चिकित्सा में तो पति राजी नहीं है। तो कैसे भेजूं, क्या उपाय किया जाए?

फिर जो भारतीय आते हैं वे कभी अपनी वास्तविक बीमारियां तो बताते नहीं; मुझे दिखाई पड़ती हैं, मगर वे तो बातें दूसरी ही करते हैं। भारतीय आकर पूछता है–समाधि कैसे मिले, मोक्ष कैसे मिले? उसको मैं कहूं कि तुम जाओ और तुम एक चिकित्सा पद्धति में सम्मिलित हो जाओ। वह कहेगा: चिकित्सा से क्या लेना-देना है, मुझे मोक्ष चाहिए! मोक्ष तो नहीं मिलता चिकित्सा-पद्धति से; यद्यपि चिकित्सा-पद्धति से कूड़ा-कचरा तुम्हारे चित्त का साफ होगा, जो कि मोक्ष के मिलने में सहयोगी है। मगर सीधा मोक्ष नहीं मिलता।

तुम बातें ही हवाई पूछते हो आकर। फिर तुम जो पूछते हो, वही तुम्हें उत्तर देने पड़ते हैं। तुमने जो पूछा नहीं है उसका उत्तर देना ठीक भी नहीं है। तुम उसे झेल भी न सकोगे। तुम उसे लेने को राजी भी न होओगे।

इसलिए मेरी मजबूरी समझो। मैं चाहता हूं कि भारत वंचित न रहे। लेकिन भारत तय किये बैठा है कि वंचित रहेगा। तुम देखते हो, पूना में हर तरह की चेष्टा चल रही है कि यह आश्रम पूना में न बचे, इस आश्रम को पूना से हटना चाहिए। और ऐसा भी नहीं कि पूना से हटना चाहिए, यह भारत में कहीं और भी नहीं जाना चाहिए। और ऐसा भी नहीं कि यह भारत के बाहर चला जाए…।

अभी कल मैंने अखबारों में पढ़ा कि मुसलमानों ने एक सभा करके सरकार से निवेदन किया है कि मेरा पासपोर्ट जप्त कर लिया जाए! तो अब तो मुझे सिवाय मोक्ष जाने के कोई जगह बची नहीं! मैं बड़ा ही प्रसन्न हुआ, मैंने कहा: यही तो मैं…! पूना रह नहीं सकता। कच्छ जा नहीं सकता। सासवड़ में आश्रम बन नहीं सकता। पासपोर्ट है, वह भी जप्त कर लेना चाहिए। तब तो फिर मेरे लिए सिर्फ निर्वाण ही रह जाता है।

और तुम कह रहे हो: भारतीयों को मैं चिकित्सा-पद्धति में क्यों नहीं सम्मिलित करवाता? किनको करवाऊं–मोहन धारिया को, मोरारजी देसाई को, किसको? वे तो इस आश्रम को ही जीवित नहीं रहने देना चाहते। यह आश्रम बचना ही नहीं चाहिए। मोरारजी देसाई ने कहा कि अगर मेरा वश चले तो मैं इस आश्रम को नेस्तनाबूद कर दूं। और ऐसा नहीं है कि वे नेस्तनाबूद करने में कोई कमी छोड़ रहे हैं। वे सब तरह से कोशिश कर रहे हैं। और वश उनका क्यों नहीं चलता? सारी सत्ता उनके हाथ में है, वश की क्या अड़चन है? बस थोड़ा-सा एक संकोच उनको लगता है कि अब मैं कोई राष्ट्र के भीतर सीमित नहीं हूं, अब मेरी स्थिति अंतर्राष्ट्रीय है। वही उनको संकोच का कारण है, नहीं तो वश चलने में क्या दिक्कत है। बुलडोजर लाकर इस आश्रम को गिरवा दें। लेकिन अब उनको पता है कि मैं भारत में सीमित नहीं हूं। दुनिया के कोने-कोने में मेरे संन्यासी हैं। सारी दुनिया में तूफान मचेगा, अगर मेरे साथ कुछ भी ज्यादती की गई तो उसका परिणाम सारी दुनिया में प्रतिफलित होगा। छहों महाद्वीप पर मेरे संन्यासी हैं। इस बात को ऐसे ही नहीं छोड़ दिया जायेगा। यह बात आसान नहीं होगी। अगर इस आश्रम को कोई भी चोट पहुंची, तो मोरारजी देसाई किसी देश में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। जहां जायेंगे, वहां मुसीबत होगी। तो इस देश के राजदूतावास किसी देश में बचे नहीं रह सकेंगे। इससे घबड़ाहट है, इससे परेशानी है कि उपद्रव खड़ा हो जाएगा, कि फिर हम अपनी लोकतांत्रिक प्रतिमा को कैसे बचायेंगे, क्योंकि यह तो गैर-लोकतांत्रिक कदम होगा।

मैंने कोई कानून नहीं तोड़ा है। कमरे के भीतर नग्न होने का प्रत्येक को अधिकार है, नहीं तो सभी पति-पत्नियों को जेल में डालना पड़ेगा। मैंने कोई कानून नहीं तोड़ा है। मैं इस हिसाब से होशियारी से चल रहा हूं। मेरे ऊपर कोई कानूनी जुर्म नहीं है, न मेरे आश्रम पर कोई कानूनी जुर्म है। सारी फिक्र इस ढंग से की है कि कानूनी ढंग से तो कोई तरह से वे पकड़ ही नहीं सकते। नहीं तो तुम सोचते हो, वे छोड़ते? अगर वे संजय गांधी पर बाईस मुकदमे चला सकते हैं तो मुझ पर दो सौ बीस चलाते। मगर सब चार सौ बीस मिलकर भी मुझ पर दो सौ बीस मुकदमे नहीं चला सकते। मुकदमे का कोई कारण नहीं है। इसलिए एक नपुंसकता अनुभव हो रही है कि क्या करें, वश नहीं चलता है, नहीं तो मिटा देते। मगर जितना वश चलता है उतनी चेष्टा जारी रखते हैं।

तुम कहते हो: मैं भारतीयों को इन चिकित्सा पद्धति में क्यों सम्मिलित नहीं करता? किसको सम्मिलित करूं? फिर सम्मिलित होने इस तरह के लोग जरूर आते हैं, जिनका प्रयोजन दूसरा है–जो चाहते हैं कि चित्र ले लें वहां जाकर और चित्रों को अखबारों में छपवा दें। जिसको सम्म्लित होना है, उसे ध्यान करना होगा, शिविर करने होंगे। और जो चिकित्सा-पद्धति मैं दूंगा उनमें सम्मिलित होना होगा। उतना धीरज नहीं है। उतने प्रयोगों से गुजरने की क्षमता नहीं है।

एक तो भूमिका का अभाव है। पश्चिम में पिछले पचास वर्षों में मनोविज्ञान ने बड़ी ऊचाइयां ली हैं, बड़े शिखर छुए हैं! उसका कोई बोध नहीं है। और गैर-पढ़े-लिखे आदमी की बात छोड़ दो; विश्वविद्यालय में तुम्हारे जो शिक्षक मनोविज्ञान पढ़ा रहे हैं, वे भी तीस-चालीस साल पुरानी किताबों के आधार से पढ़ा रहे हैं। उन्होंने जो पढ़ा था विश्वविद्यालय में, वही पढ़ा रहे हैं। उनके लिए अब भी मैकडूअल की किताबें वेद हैं। उन्हें कोई पता नहीं है अब्राहम मैसलो का, उन्हें कोई पता नहीं फ्रिडज पर्ल्स का। उन्हें कोई पता नहीं जैनोव का। उन्हें कोई पता नहीं कि नई-नई क्या खोजें हो रही हैं। उन्हें विलियम राइक का कोई पता नहीं है।

मगर फिर यह भारत की ही बात नहीं है। विलियम राइक तो अमरीका में था, लेकिन अमरीकी सरकार ने उसे जेल में डाल दिया, क्योंकि उसने काम-ऊर्जा के रूपांतरण के कुछ प्रयोग किए। काम-ऊर्जा के रूपांतरण के प्रयोग, और विलियम राइक दिक्कत में पड़ा। और फिर उन्होंने आखिरी क्या तरकीब की, तुम्हें पता है? कोई उसके खिलाफ कानूनी उपाय नहीं मिल सका, तो झूठा, जबर्दस्ती उसे पागल करार दे दिया। और पागल करार देकर जेलखाने में रख दिया। विलियम राइक जेलखाने में मरा। इस सदी का सबसे बड़ा तांत्रिक शोधक पागल की तरह जेलखाने में मरा; जबर्दस्ती मारा गया। अब अमरीका में अगर ऐसा होता हो, तो भारत का तो तुम सोचो कि क्या हालत होगी!

इसलिए भूमिका का अभाव बड़ी अड़चन हैं। शिक्षा का अभाव बड़ी अड़चन हैं। तुम मुझसे कहते हो, सामूहिक-चिकित्सा में भारतीयों को प्रवेश दूं। मैं देना भी चाहता हूं: लेकिन यह ऐसा ही होगा कि जिसे साधारण गणित नहीं आता वह अल्बर्ट आइंसटीन की सापेक्षवाद के सिद्धांत को समझने के लिए कोशिश करे। नहीं समझ पायेगा। उसकी भूमिका तय करनी होगी। धीरे-धीरे, शनैः शनैः उसकी भूमिका तैयार कर रहा हूं। यह मेरे संन्यास का व्यापक प्रसार उसी दिशा में आयोजन है। धीरे-धीरे तुम मुझसे राजी होने लगो, मेरी बात तुम्हें समझ में आने लगे; धीरे-धीरे तुम इतनी श्रद्धा से भर सको कि अपनी धारणाओं के विपरीत भी प्रयोग करना हो तो कर सको–तो फिर मैं आहिस्ता-आहिस्ता तुम्हें प्रयोग करवाऊं। और तुम्हें प्रयोग करवाने के लिए ही नए कम्यून को बनाने का आयोजन कर रहा हूं। क्योंकि पाश्चात्य व्यवस्था से सामूहिक-चिकित्सा तुम्हारी न हो सकेगी। तुम्हारे लिए मुझे नए ढंग ही खोजने होंगे, जो तुम्हारी भारतीय शैली और व्यवस्था के अनुकूल हों।

पाश्चात्य चिकित्सा महंगी है; यद्यपि मैंने उसे इतना सस्ता किया है जितना किया जा सकता है। जिस चिकित्सा के लिए पश्चिम में पांच हजार रुपये खर्च होते हैं, उस चिकित्सा के लिए यहां पांच सौ रुपये में व्यवस्था की है। लेकिन भारतीय के लिए तो पांच सौ रुपये भी बहुत हैं। उसके लिए तो पचास रुपये में व्यवस्था हो सके, तो ही काम हो सकेगा। तो नए कम्यून में जहां ज्यादा जगह होगी, ज्यादा विस्तार होगा, ज्यादा सुविधा से प्रयोग हो सकेंगे। अब यहां तो हर चीज की अड़चन है। यहां तो साउंडप्रूफ कमरा चाहिए, एअरकंडीशन्ड कमरा चाहिए। क्योंकि साउंडप्रूफ न हो तो चिकित्सा में जो आवाजें निकलेंगी…पड़ोसी परेशान करते हैं, वे पुलिस को फौरन खबर कर देते हैं। एयरकंडीशन्ड होना चाहिए तो ही साउंडप्रूफ हो सकता है। नहीं तो लोग मर जायेंगे भीतर बंद कमरे में। तो महंगा हो गया: एयर कंडीशन्ड होगा, साउंडप्रूफ होगा–आवाज बाहर नहीं जानी चाहिए। खास तरह की ईंटों से बना होगा। तो सारी चीज महंगी हो गई।

भारतीयों के पास सुविधा नहीं है कि वे अभी पांच सौ रुपये भी चिकित्सा के लिए खर्च कर सकें। फिर चिकित्सा के समय में खास तरह का भोजन दिया जाता है, क्योंकि प्रत्येक चिकित्सा तुम्हारी ऊर्जा पर काम करती है। किस ऊर्जा के लिए कैसा भोजन जरूरी है, वही भोजन दिया जाता है। वह भी महंगा हो जाता है। अब कौन भारतीय पंद्रह दिन के लिए पांच सौ रुपया चिकित्सा का देने के लिए तैयार है। लाये भी कहां से, इतनी तो उसकी मासिक तनखाह भी नहीं है। वह महीने भर अपने बच्चों को क्या खिलायेगा, पत्नी को क्या खिलायेगा?

चाहता हूं, बहुत हृदय से चाहता हूं; भीतर-भीतर चिंतित होता हूं कि क्यों तुम्हारे लिए भी सारा साधन न उपलब्ध हो जाए। मगर फिर उसके लिए बहुत विस्तीर्ण जगह चाहिए, जहां कोई पड़ोसी न हो, तो न एयरकंडीशन की जरूरत होगी न साउंडप्रूफ की जरूरत होगी।

फिर भाषा का प्रश्न हैं। अभी तो हमारे पास जितने चिकित्सक हैं, वे सब पश्चिम से आए हैं। क्योंकि मैंने पश्चिम के श्रेष्ठतम चिकित्सकों को यहां इकट्ठा किया है…तुम जानकर चकित होओगे, इस समय पृथ्वी पर चिकित्सा का इतना श्रेष्ठ कोई केंद्र नहीं है! क्योंकि जितने पश्चिम के श्रेष्ठ चिकित्सक थे, सब मेरे संन्यासी हो गए हैं। वे समझ सके हैं मुझे, तत्काल समझ सके। पश्चिम के कई चिकित्सा-केंद्र बंद हो गए, क्योंकि उनके संस्थापक तो पूना आ गए हैं। इंग्लैंड के दो चिकित्सा-केंद्र बंद हो गए–जो बड़े चिकित्सा-केंद्र थे, यूरोप के सबसे प्रतिष्ठित चिकित्सा केंद्र थे। एक को तीर्थ चलाता था, एक को सोमेन्द्र चलाता था; वे दोनों यहां आ गए। सारी दुनिया से श्रेष्ठ चिकित्सक यहां हैं। लेकिन भाषा का सवाल है।

तो अब मैं फिक्र कर रहा हूं इसकी कि भारतीय भाषाओं में चिकित्सक तैयार हो सकें। तो फिर भारतीय चिकित्सा में उतर सकेंगे, नहीं तो भाषा अड़चन बन जाती है। जिस भाषा को तुम बिना किसी अड़चन के नहीं बोल सकते, उस भाषा में बहुत गहरा संवाद नहीं हो सकता। और ये सारी चिकित्सायें संवाद पर आधारित हैं। क्योंकि तुम्हारे हृदय को पूरा का पूरा प्रगट करना है। समझो कि तुम अंग्रेजी बोल लेते हो कामचलाऊ; लेकिन अगर झगड़ा हो जाए, मार-पीट होने लगे, तो फिर अंग्रेजी न बोल सकोगे। फिर एकदम हिंदी में गाली दोगे। क्योंकि गाली देना अंग्रेजी में किसी स्कूल में सिखाया भी नहीं गया, न किसी विश्वविद्यालय में। मगर तब यह बात अड़चन की हो जायेगी।

कहानी है प्रसिद्ध कि भोज के दरबार में एक विद्वान आया और उसने कहा कि मैं तीस भाषाओं का पारंगत हूं। और तुम्हारे दरबार के जो रत्न हैं उनको चुनौती देता हूं कि कोई मेरी मातृभाषा पहचान ले। मातृभाषा पहचान ले, तो एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं मैं भेंट करूंगा। और अगर कोई न पहचान सका, तो दस लाख स्वर्ण मुद्रायें तुम्हें मुझे भेंट करनी पड़ेंगी।

यह चुनौती बड़ी थी। भोज के दरबार में बड़े-बड़े विद्वान थे। कालिदास भी भोज के दरबार में थे। बड़े-बड़े विद्वानों ने चुनौती स्वीकार की, लेकिन हर एक हारता गया। वह व्यक्ति इतना अदभुत था कि हर भाषा ऐसे बोलता था जैसे उसकी मातृभाषा हो! अंततः कालिदास ही बचे। भोज ने कहा कि कुछ करो, नहीं तो यह बड़ा अपमान होगा। दुनिया हंसेगी कि हमारे दरबार में एक आदमी नहीं है ऐसा, जो इसकी मातृभाषा पहचान सके। भोज की बात सुनकर भी कालिदास चुप रहे। उस दिन आखिरी विद्वान हारा। इसके बाद के दिन कालिदास का नंबर आने को था। सब विदा हो रहे थे। वह दस लाख अशर्फियां उस दिन लेकर फिर लौट रहा था। जैसे ही सीढ़ियों से महल के उतरते थे, कालिदास ने उसे एक धक्का दे दिया। थैली गिर गई, अशर्फियां बिखर गईं। वह आदमी कोई पचास सीढ़ी राजमहल की नीचे खिसट कर जमीन पर गिरा, उठकर एकदम गाली देने लगा। कालिदास ने कहा: यही तुम्हारी मातृभाषा है। मुझे क्षमा करो, और कोई उपाय नहीं था जानने का। और वही उसकी मातृभाषा थी।

प्रेम करना हो या गाली देनी हो, दूसरे की भाषा में नहीं किया जा सकता। इसलिये अगर कोई भारतीय किसी पाश्चात्य स्त्री के प्रेम में पड़ जाता है या पाश्चात्य पुरुष किसी भारतीय स्त्री के प्रेम में पड़ जाता है, ज्यादा देर टिकता नहीं मामला, क्योंकि हार्दिकता प्रगट नहीं हो पाती, संवाद नहीं हो पाता। कुछ-कुछ फासला बना रह जाता है। प्रेम हो कि घृणा, ये इतने उत्तप्त भाव हैं कि इनके लिए अपनी ही भाषा चाहिए। यह अड़चन है। अभी हमारे पास कोई भारतीय चिकित्सक पैदा नहीं हो सके। उनके पैदा होने की सुविधा बनाना चाहता हूं, लेकिन मोरारजी देसाई बनने नहीं देना चाहते। कच्छ की तो उन्होंने कसम खा ली है कि कच्छ में तो आने नहीं देंगे, क्योंकि उनके प्रदेश गुजरात को मैं बरबाद कर दूंगा। गुजरात को तो उन्हें बचाना है। और अब वे महाराष्ट्र की भी चिंता में पड़ गए हैं कि महाराष्ट्र को भी बचाना है। दोनों तरफ जमीनें लेकर पड़ी हुई हैं, लेकिन कोई निर्णय नहीं देते। और मैंने उनको खबर भेजी है कि कह दो–“नहीं’, तो भी काम हो जाए। वे “नहीं’ भी नहीं कहते। क्योंकि वे जानते हैं, “नहीं’ कहना गैर-कानूनी है। “नहीं’ कहेंगे तो मैं अदालत से फैसला ले सकता हूं। तो “नहीं’ भी नहीं कहते, ताकि “नहीं’ भी रुकी रहेगी तो मैं अदालत भी नहीं जा सकता। इस तरह का लोकतंत्र इस देश में चल रहा है। इसको जयप्रकाश नारायण कहते हैं–दूसरी स्वतंत्रता!

विन्सटन चर्चिल ने जब भारत आजाद हुआ तो इंग्लैंड की पार्लियामेंट में जो शब्द कहे थे, वे करीब-करीब भविष्यवाणी की तरह सही सिद्ध हो गए हैं। उसने जो शब्द कहे थे वे ये थे। एटली को उसने कहा था कि महानुभाव, आप भारत को स्वतंत्रता तो दे रहे हैं, लेकिन तीस साल के भीतर यह लुच्चे और लफंगों के हाथ में पड़ जाएगा। तीस साल पूरे हो गए और लुच्चे और लफंगों के हाथ में देश पड़ गया।

मैं थोड़ा हैरान हुआ कि विन्सटन चर्चिल को कुछ ज्योतिष-शास्त्र आता था क्या! विन्सटन चर्चिल कैसे यह कह सका, ठीक तीस साल…और देश लुच्चे-लफंगों के हाथ में पड़ जाएगा? और वैसा ही हो गया है।

तो पहली बात, भूमिका का अभाव है। दमन की लंबी परंपरा है। और ये सारी चिकित्साएं दमन के विपरीत हैं। ये चिकित्साएं विसर्जन की हैं, कैथार्सिस की हैं, रेचन की हैं। इनमें जो भी दबा पड़ा है, बाहर निकाल देना है। अगर क्रोध दबा है, तो क्रोध बाहर निकाल देना है। और तुमने जिंदगी-भर सीखा है क्रोध को दबा लेना। तो बड़ी मुश्किल हो जाती है, तुम क्रोध निकालोगे कैसे?

एक भारतीय युवती को मैंने चिकित्सा के लिये भेजा। उसने कहा कि क्रोध पड़ा है, मगर जिंदगी-भर की शिक्षा…निकालना भी चाहती हूं तो निकलता नहीं है। बस रह जाता है, अटका रह जाता है, छाती में अटका रह जाता है। कितनी सदियों से तुम्हें सिखाया गया है नियंत्रण; और ये सारी चिकित्साओं में अनियंत्रण सूत्र है। छोड़ दो बिलकुल अपने को सहज। क्रोध है तो क्रोध, काम है तो काम; जो भी है निकलने दो, बहने दो–ताकि मवाद बह जाये। ये मवाद निकालने के प्रयोग हैं। ये चिकित्सायें वमन की चिकित्सायें हैं।

इसलिये तुम घबड़ाओगे। इसलिए चित्र जो तुम देख रहे हो अखबारों में, बहुत घबड़ाने वाले हैं–कि यह क्या वीभत्स कृत्य हो रहा है! यह वीभत्स कृत्य नहीं है। यह तुम्हारे भीतर सदियों से पंडित-पुरोहितों ने जो दबा रखा है, उस मवाद को निकालने का प्रयोग है। और मवाद जब निकलेगी, तो दुर्गंध तो थोड़ी फैलेगी। मगर मवाद निकल जाए, तो तुम स्वच्छ हो जाओ। तो दमन की लंबी परंपरा बाधा डाल रही है। पर मैं धीरे-धीरे प्रयोग कर रहा हूं। कुछ-कुछ भारतीयों को भेजता हूं। दो-चार भारतीयों ने बड़ी गहराई से प्रयोग किये और बड़े आनंदमग्न बाहर आए। और उनका जीवन एक नई शैली ले लिया।

विनोद को मैंने भेजा प्रयोग के लिए–और विनोद खरा उतरा। खूब गहरा गया। और उसके बाद से उसके जीवन ने एक नया ढंग ले लिया। एक नई शैली, एक नई मस्ती आ गई। एक दूसरे मित्र को भेजा। वही आग्रह करते थे बहुत दिन से कि मुझे भेजें। कामवासना से परेशान हैं। तो आग्रह करते थे कि मुझे तंत्र-चिकित्सा में भेज दें। मैंने उनसे कहा कि तुम कहते हो कि तुम्हें तंत्र-चिकित्सा में भेज दूं, लेकिन तुम उसमें उतर न पाओगे अभी। तुम्हें पहले उचित होगा कि तुम प्रायमल थैरेपी में जाओ। मगर प्रायमल थैरेपी चलती है कोई दस दिन, बारह दिन। उन्होंने कहा: उतना तो मेरे पास समय ही नहीं है। मुझे तो तीन दिन का तंत्र भर दे दें। नहीं माने, तो मैंने कहा कि ठीक है जाओ। जानता था कि व्यर्थ होगा; क्योंकि प्रायमल थैरेपी से गुजरो पहले तो तंत्र में प्रवेश कर सकोगे, नहीं तो नहीं कर सकोगे। समझ में ही न आएगा। वे तीन दिन वहां बैठे रहे। उनकी अकल में कुछ भी न आया कि क्या हो रहा है। और तंत्र में जो लोग सम्मिलित थे उन्होंने शिकायत की कि इस आदमी को अपने क्यों भेज दिया है? यह सिर्फ वहां बैठा रहता है पालथी मारे। इसकी मौजूदगी हमें अखर रही है। न कुछ बोलता, न कुछ चालता; चौंका-सा; घबड़ाया-सा कि यह क्या हो रहा है!

अब वह फिर आ गए थे कि मुझे फिर तंत्र में जाना है। मैंने कहा कि अब नहीं; अब तुम दो-चार चिकित्साओं में पहले जाओ, आहिस्ता-आहिस्ता।

अनुभव यह कह रहा है कि मुझे भारतीयों के लिए थोड़ी उदार, थोड़ी कुनकुनी चिकित्साएं विकसित करनी होंगी। पश्चिम की चिकित्साएं बहुत उत्तप्त हैं। पश्चिम के लोगों को जरा अड़चन नहीं है। पश्चिम ने बड़ी हिम्मत कर ली है।

तुम जरा सोचो, पश्चिम से युवतियां चली आई हैं…बिना फिक्र किए, यहां परदेश में अटकी हैं। तुम्हारी सब तरह की बेहूदगियां झेलती हैं। संन्यासिनियों को रोज रास्तों पर कोई धक्का देता है। कोई उनके कपड़े खींच लेता है। कोई उनका बैग ही छीनकर भाग जाता है। सब तरह का उपद्रव झेल रही हैं। लेकिन फिर भी मौजूद हैं, टिकी हैं। एक बड़ा साहस पश्चिम में पैदा हुआ है। वैसा साहस हमारे लोगों ने खो दिया है।

हमने हजारों साल से अभियान नहीं किया है कोई। हम बिलकुल मुर्दा हो गए हैं। हमने देश को एक मरघट बना दिया है। इस मरघट में मैं फिर से तुम्हें पुकार रहा हूं। कुछ जागने लगे हैं लोग, वही मेरे संन्यासी हैं। कुछ हिम्मतवर स्वीकार करने लगे हैं चुनौती, वही मेरे संन्यासी हैं। जल्दी ही जैसे ही सुविधा जुट जायेगी, भारतीयों के लिए भी चिकित्सा का इंतजाम, तपन कुमार, हो सकेगा। करना ही चाहता हूं, भारत को बड़ी जरूरत है!

 

तीसरा प्रश्न :

 

ओशो! आप ही मेरे सब कुछ हो। आपके रंग में पूरी तरह डूब गयी हूं। मेरा यह समर्पण पूरा है या अधूरा, मैं कुछ नहीं जानती। फिर भी मैं जैसी हूं, आनंदित हूं। आपके पहले मेरा न किसी संत से मिलना हुआ, न आगे किसी से मिलने की इच्छा है। फिर भी शायद आगे किसी तथाकथित साधु से मिलना हो जाए कि जो चमत्कार, जादू-टोना करनेवाला हो, तो क्या उसके सम्मोहन का मुझ पर असर हो जाएगा? कृपया बताने की अनुकंपा करें।

 

शांता भारती! जिस पर मेरा सम्मोहन चल गया, फिर उस पर किसी का सम्मोहन नहीं चलता है। उसकी तू चिंता छोड़। आखिरी बात हो ही गई। अब कहां जादू-टोना!

क्या आशा अभिलाषा, बन्दे अब यह रोना-धोना क्या?

दृष्टि लग गई जब कि नियति की, तब जादू और टोना क्या?

इतना तो हो चुका अभी तक, अरे और अब होना क्या?

अपने ही को जब कि खो चुके तब आगे अब खोना क्या?

नंग नहाये ताल तलैया धोना और निचोना क्या?

जब यों बे-घर-बार हुए तब बाती दीप संजोना क्या?

जब आकाश बन गया चंदुवा तब छप्पर में सोना क्या?

जब संग्रह का विग्रह छूटा तब अब स्वर्ग खिलौना क्या?

हलके हो कर तुम निकले हो फिर यह बोझा ढोना क्या?

कथरी छोड़ी कासा छोड़ा, गठरी और बिछौना क्या?

तुमने कब दुकान लगायी तब डयौढ़ा औ पौना क्या?

मस्त रहो, ओ रमते जोगी लुटिया आज डुबौना क्या?

अब फिकर छोड़ो। अब कोई जादू-टोना कुछ कर सकेगा नहीं। अब तो डूब ही गये। अब और कोई क्या डुबायेगा? अब बचे नहीं। अब कोई और क्या मिटायेगा? नहीं, अब कोई चिंता नहीं है।

और, तू सौभाग्यशाली है शांता, कि सीधे ही सागर के पास आ गयी! छोटी तालत्तलैयों में न उलझी। और जिसने सागर देख लिया, अब तालत्तलैया कुछ भी न कर सकेंगे। जिसे मेरी बात रुच जाती है, उसे चिंता के बाहर हो जाना चाहिये। जादू चल गया।

अब तू यह भी चिंता मतकर कि पूर्ण समर्पण है या नहीं। एक बीज भी पड़ जाये समर्पण का, तो काफी है। एक बीज ही फिर वृक्ष हो जाता है। एक बीज से ही फिर बहुत बड़ा वृक्ष हो जाता है। वह बीज पड़ गया है। एक बूंद अमृत की काफी है। कोई पूरा सागर अमृत का थोड़े ही पीना पड़ता है। एक बूंद काफी है। और वह बूंद पड़ गई है। वह बूंद न पड़े, तो मुझसे संबंध ही नहीं जुड़ता।

मुझसे थोड़े-से ही लोगों का संबंध जुड़ सकता है। मुझसे संबंध जुड़ना ही अपने आप में एक बड़ी परीक्षा है, एक कसौटी है।

आदमी की उंगलियों में कल्पना जब दौड़ती है

पत्थरों में जान पड़ जाती है

मूर्तियां सप्राण हो कर जगमगाती हैं।

स्पर्श में संजीवनी है।

आदमी का स्पर्श उंगली से उतर कर

पत्थरों की मूर्तियों में वास करता है

मूर्तियां जीवित बनी रहतीं हजारों साल तक,

बस, यही लगता, किसी ने आज ही इनको छुआ है।

और इस कारण बहुत-सी वस्तुएं प्राचीन युग की

खुशनुमा हैं, मोहनी हैं।

क्योंकि वे हैं आज भी

गर्मी लिये उन उंगलियों की

था जिन्होंने एक दिन उनको छुआ आवेश में।

मैं जिसे छू रहा हूं, उसे आवेश में छू रहा हूं। मैं आविष्ट हूं। जो मेरे पास संन्यस्त हो रहा है वह भी आविष्ट हो रहा है। यह एक जादू के जगत में दीक्षा है। जो झुकेगा, अंजुली भरेगा। जरा-सा पी लेगा यह जल, फिर कभी उसकी प्यास न उठेगी।

जीसस एक सांझ एक कुएं पर रुके। कुएं पर भरती थी एक स्त्री जल। उन्होंने उस स्त्री से कहा : मुझे प्यास लगी है, मुझे थोड़ा पानी दोगी? उस स्त्री ने जीसस की तरफ देखा। वह स्त्री अत्यंत दीन-हीन स्त्री थी। छोटी जाति की स्त्री थी। उसने देखा कि जीसस छोटी जाति के नहीं हैं। उनके कपड़े-लत्ते, उनका ढंग, उनका चेहरा…। उसने कहा : क्षमा करें! राही, शायद तुम्हें पता नहीं कि मैं बहुत गरीब, दीन-हीन, छोटी जाति की स्त्री हूं। आपकी जाति के लोग मेरा छुआ पानी नहीं पीते।

जीसस ने कहा : तू फिकिर छोड़! तू मुझे पानी पिला। और, मैं भी तुझे पानी पिलाऊंगा।

उस स्त्री ने कहा : आप भी मुझे पानी पिलाएंगे! थोड़ी चौंकी। उसने कहा : न तो डोर है आपके पास, न आपके पास बाल्टी है। आप मुझे कैसे पानी पिलाएंगे? और आप मुझे पानी पिला सकते हैं तो फिर मुझसे क्यों पानी मांगते हैं?

जीसस ने कहा : तेरा पानी और, मेरा पानी और। तू मुझे पानी पिला। लेकिन, तेरा पानी ऐसा है कि घड़ी भर बाद फिर प्यास लग आएगी। मैं भी तुझे पानी पिलाऊंगा। लेकिन मेरा पानी ऐसा है कि फिर तुझे कभी प्यास न लगेगी।

और कहते हैं, उस स्त्री ने जीसस की आंखों में झांका और जीसस की हो गई। उन आंखों में पी लिया उसने जल। मिल गया उसे अमृत।

झांको मुझमें, संन्यास का इतना ही तो अर्थ है कि मेरे करीब आ सको, कि मैं अपनी आविष्ट अंगुलियों से तुम्हें छू सकूं, कि जो मुझे घटा है उसका थोड़ा संस्पर्श तुम्हें भी हो जाये, कि तुम्हारी वीणा को थोड़ा झंकार दूं। एक बार बज जाये राग तो फिर कभी कोई और राग न तो उसके ऊपर है, न कभी था, न हो सकता है।

 

चौथा प्रश्न :

 

ओशो! मृत्यु से मुझे इतना भय नहीं लगता जितना वृद्धावस्था के विचार से या वृद्धावस्था से। ऐसा क्यों है?

 

कृष्ण वेदांत, भय तो सिर्फ एक ही है–मृत्यु का। बाकी सब बहाने हैं। हर भय के पीछे मृत्यु का भय है।

जो आदमी डरता है कि मेरा धन न खो जाये, तुम सोचते हो धन के कारण भयभीत है? नहीं, धन सुरक्षा है। धन है तो जीवन है। ऐसी उसकी प्रतीति है। धन खो गया तो फिर जीवन भी गया। धन है तो कल बीमार होऊंगा तो चिकित्सा करवा सकूंगा। धन है, कल बूढ़ा होऊंगा तो कोई मेरी सेवा करेगा। धन है तो मृत्यु से कुछ बचाव है। धन गया तो फिर मैं बिलकुल ही असुरक्षित हो जाऊंगा। इसलिये लोग धन को पकड़ते हैं। धन को पकड़ते हैं मृत्यु के डर के कारण।

तुमने परिवार को पकड़ा हुआ है। तुम सोचते हो, परिवार के लिये? नहीं, अकेले में डर लगता है। अकेले में आदमी को अपनी मौत याद आने लगती है। इसलिये तो रात के अंधेरे में तुम अगर निकलो किसी रास्ते से अकेले, तो घबड़ाहट पकड़ लेती है। भूत-प्रेतों की आवाजें आने लगती हैं। भूत-प्रेत चल रहे हैं आसपास…पैरों की पगध्वनि मालूम होने लगती है। खुद के ही पैर की आवाज, भूत-प्रेत की आवाज मालूम होने लगती है! खुद की छाया किसी प्रेत का आगमन मालूम होने लगती है।

क्या हो जाता है अकेले में? ये कौन प्रेत? ये कोई और प्रेत नहीं है। यह मृत्यु ही है, जिसे तुम दबाये रहते हो भीड़-भाड़ में, खोये रहते हो भीड़-भाड़ में–अकेले में प्रकट हो जाती है।

वृद्धावस्था से क्या डर हो सकता है? डर इतना ही है कि वृद्धावस्था आ गई, अब आखिरी कदम मौत है, और कुछ भी नहीं। वृद्धावस्था मौत का द्वार है।

तुम कहते हो : मौत से मैं नहीं डरता। शायद इसलिये कि मौत से तुम अपरिचित हो। मौत को देखा तो किसी ने नहीं। लोगों ने वृद्धावस्था देखी है और फिर वृद्धावस्था के बाद मौत की अनजानी घटना घटते देखी। मौत तो किसी ने देखी नहीं। इसलिये मौत का सीधा-सीधा डर पकड़ में नहीं आता। वृद्धावस्था का डर पकड़ में आता है क्योंकि वृद्धावस्था के पीछे ही आती होगी मौत–अनजान, अपरिचित, अदृश्य।

कृष्ण वेदांत, भय तो सब मृत्यु का है। सारे भय निचोड़े जाएं तो मृत्यु का भय ही मिलेगा।

तुम अपने बच्चों को पकड़ते हो, सम्हालते हो, बड़ा करते हो। तुम सोचते हो–बड़ा प्रेम है। तुम गलती में हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, बच्चों के माध्यम से तुम अमर होना चाहते हो। मैं तो मर जाऊंगा, लेकिन मेरा बेटा रहेगा। इसलिये इस देश में तो जब तक बेटा न हो जाए तब तक बड़ी बेचैनी होती है–जाओ, पूजा करो, पाठ करो, हनुमान-चालीसा पढ़ो, ज्योतिषियों से मिलो, भृगुसंहिता दिखवाओ, कुछ करो!…हवन-यज्ञ, जादू-टोना! मगर बेटा तो होना ही चाहिए! बिना बेटा के मर गए तो व्यर्थ मर गए। क्यों? क्योंकि बेटे के आधार से एक झूठी अमरता मिल जाती है : मैं तो न रहूंगा, लेकिन मेरा बीज रहेगा। यह देह तो चली जाएगी, मगर मेरा कोई अंश रहेगा। मेरा कोई नाम-लेवा रहेगा। कोई तो होगा जो हर साल श्राद्ध करवा देगा। कोई तो होगा जिसके कारण मेरा कोई चिह्न इस जगत में छूट जाएगा।

स्मरण रखो भय यानी मृत्यु का भय, फिर बहाने कुछ भी हों। तुम्हारे मन में इसने वृद्धावस्था का बहाना ले लिया। वृद्धावस्था में क्या भय की बात हो सकती है? वृद्धावस्था का तो अपना सौंदर्य है। वृद्धावस्था तो एक शिखर है। जीवन जब पक जाता, जीवन के अनुभव जब पक जाते, जीवन की वासनाओं के उद्दाम वेग जा चुके, जीवन की आपाधापी समाप्त हो गई, जीवन की महत्वाकांक्षाएं विदा हो गईं, वासनात्तृष्णा का ज्वर चला गया–वृद्धावस्था तो एक परम शांत दशा है! वृद्धावस्था तो बड़ी सुंदर है।

रवींद्रनाथ ने कहा है : वृद्धावस्था तो ऐसे है जैसे हिमालय के उत्तुंग शिखर, जिन पर कुंवारी बर्फ सदियों-सदियों से छायी है। ऐसे ही जब किसी बूढ़े के सिर पर सफेद बाल होते हैं…हिमाच्छादित शिखर!

वृद्धावस्था का सौंदर्य तुमने गौर से देखा? हां, मैं जानता हूं कि बहुत कम वृद्ध सुंदर हो पाते हैं। उसका कारण यह नहीं है कि वृद्धावस्था में कोई खराबी है। उसका कारण यही है कि जीवन-भर गलत जीये, जीवन-भर व्यर्थ जीये। तो वृद्धावस्था व्यर्थ हो जाती है। अगर जीवन को थोड़ा सार्थक ढंग से जीये होते, थोड़ा काव्यपूर्ण, थोड़ा रसपूर्ण, थोड़ा आनंदपूर्ण, थोड़ा प्रभु का स्मरण किया होता, थोड़ा ध्यान साधा होता, थोड़ा काम-ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन किया होता–तो वृद्धावस्था बड़ी सुंदर अवस्था है।

वृद्धावस्था तो निचोड़ है तुम्हारे जीवन का, पराकाष्ठा है। तुम्हारी पूरी कथा है।

वृद्ध के चेहरे पर पड़ी हुई झुर्रियों में वेद छिपे हैं, अगर कोई ठीक से जीया हो तो। गलत जीया हो तो निश्चित ही उन झुर्रियों में कुछ भी नहीं है–सिर्फ जीवन का विषाद है, सिर्फ जीवन की हार है। उन झुर्रियों में फिर विजय की कोई चमक नहीं है। लेकिन जब भी कोई ढंग से जीता है, सम्यकरूपेण जीता है तो वृद्धावस्था प्रमाण होती है। और जिसका वृद्धावस्था का काल सुंदर होता है उसे मृत्यु आती ही नहीं। दूसरों को दिखाई पड़ती है उसकी मृत्यु आयी है, उसके लिये तो अमृत का ही द्वार खुलता है।

सब सुंदर हो सकता है। बचपन सुंदर हो सकता है; वह नहीं हो पाता–क्योंकि शिक्षक हैं, मां-बाप हैं, समाज है, वे बचपन को कुरूप करवा देते हैं। पंगु कर देते हैं।

अभी परसों ही एक युवती ने मुझे कहा कि मेरे बेटे को कुछ कहिये–वह बेटे को साथ लेकर आई थी। बेटा प्यारा है! मैंने पूछा : इसकी क्या तकलीफ है? उसने कहा कि यह बहुत ज्यादा शोरगुल, नाचकूद, भागदौड़ मचाये रखता है। इसे कुछ समझाइये।

मैंने कहा कि तू गलत आदमी के पास ले आयी। यही होना चाहिये! यही क्षण हैं नाचने-कूदने के। अगर यह बहुत उछल-कूद करता है तो इसको नृत्य सिखाओ। आखिर सक्रिय ध्यान किसके लिये है? कुंडलिनी सिखाओ। बजाये नाचना-कूदना बंद करवाने के इसके नाचने-कूदने को कला दो, कुशलता दो। फर्क समझ रहे हो? इसको आज्ञा दो कि बैठो शांत, एक कोने में। यह नहीं बैठ सकेगा। और अगर बैठ गया तो इसकी ऊर्जा मर जाएगी। इसकी ऊर्जा बैठ जाएगी, फिर जिंदगी भर नहीं उठेगी। ना, इसकी ऊर्जा को दिशा दो, अवरुद्ध मत करो। अगर यह उछलता-कूदता है तो इसके उछलने-कूदने को नृत्य बनाओ। फिर नृत्य सुंदर हो गया। अगर यह शोरगुल मचाता है तो शास्त्रीय संगीत किसके लिये है? तो इसको आलाप भरवाओ, इसकी आवाज को शास्त्रीय संगीत में रूपांतरित करो। अगर यह शांत नहीं बैठ सकता तो वृक्षों पर चढ़ना सिखाओ, पहाड़ों पर चढ़ाओ, नदियों में तैराओ, समुद्रों में उतारो। यह मौका चूकने का नहीं है। इसको बचपन को इसकी पूरी गरिमा में जीने दो, क्योंकि इसी गरिमा के बाद इसका यौवन आयेगा। और तब इसका यौवन भी प्रगाढ़ होगा, गहन होगा।

जिसका बचपन रूखा-सूखा हो गया, उसका यौवन भी दीन-हीन हो जाता है। जिसका यौवन दीन-हीन हो गया उसका बुढ़ापा रुग्ण हो जाता है। जब यह जवान हो जाए तो इसे मत सिखाना व्यर्थ की बातें। इसको सिखाना जीवन का रंग, जीवन का रस। जब यह युवा हो जाये तो इसे कहना कि सारे रंग, पूरा इंद्रधनुष तेरा है। और, सारे स्वर तेरे हैं, सारा सरगम तेरा है। नाच, जी! भरपूर जी! कुछ छोड़ मत देना अधूरा। हर क्षण को पूरा का पूरा पी जा, ताकि जवानी जाते-जाते जवानी की दौड़ और जवानी की महत्वाकांक्षा और जवानी की तृष्णा सब अनुभव से गिर जाये।

इसको जवानी में संतोष मत सिखाना। इसे जवानी में संघर्ष सिखाना। इसे जवानी में कहना: कर ले जितनी विजय की यात्राएं करनी हों, क्योंकि फिर बुढ़ापा आता है। फिर बुढ़ापे में बैठना मौन। फिर बुढ़ापे में होना शांत। फिर वृद्धावस्था में प्रभु-स्मरण, सुरति।

ऐसे अगर क्रम से जीवन चले तो वृद्धावस्था अपूर्व है, अद्वितीय है। और, हमने ऐसे वृद्ध जाने थे, इस देश में। इसीलिये तो हमने वृद्धों को इतना सम्मान दिया। वृद्धावस्था सम्मानित हो गई थी इस देश में, क्योंकि हमने बड़े प्यारे वृद्ध लोग जाने थे। वे केवल उम्र से बूढ़े नहीं थे, वे अनुभव से परिपक्व थे। इस देश में वृद्धों को ही अधिकार था कि वे शिक्षक हों, गुरु हों क्योंकि उन्होंने जीवन जीया है, सब उतार चढ़ाव देखे, अंधेरी रातें देखीं, अमावस्याएं देखीं, पूर्णिमाएं देखीं। सुख देखे, दुख देखे! कांटे चुने, फूल चुने। उन्होंने सब जाना है। वे सब तरह से पक गये हैं।

उन्हीं के पास हम बच्चों को भेजते थे, क्योंकि उनके जीवन-भर की दौलत; काश, बच्चों को मिल जाये तो बच्चे अभी से समृद्ध होने लगें। जो ठीक-ठीक वृद्ध हुआ है–और ठीक-ठीक वही वृद्ध होता है जो ठीक-ठीक पूरा जीवन जीया है…।

इसलिये, मैं तुमसे कहता हूं: योग की फिक्र छोड़ो। तुम भोग को इतनी परिपूर्णता से भोगो कि तुम भोग से भोग के कारण ही मुक्त हो जाओ। और तब योग अपने-आप जलेगा। अपने-आप दीया जलेगा। फिर मौत नहीं। फिर तो मृत्यु भी सिर्फ एक ही संदेश लाती है–देह-मुक्ति का। फिर मृत्यु अंत नहीं है–सिर्फ एक नई यात्रा का प्रारंभ है; सिर्फ देह से छुटकारा है। और देह तो संकीर्ण है। देह तो ऐसी है जैसे कोई कारागृह में बंद है, कि पक्षी पिंजड़े में बंद है। मौत तो खबर लाती है कि पिंजड़ा टूट गया। और अब हंसा उड़ सकता है। हंसा जाये अकेला! अब चलो मानसरोवर! अब चलें अपने घर!

कैसा मरण-संदेसा आया?

किसके कंठाभरण स्वरों ने लय-संगीत सुनाया?

कैसा मरण-संदेसा आया?

 

देह थकित जर्जरित हो गयी, बिगड़ गया कुछ खटका,

संज्ञा-शून्य शरीर हो गया, लगा मृत्यु का झटका,

देख लुप्त होते जीवन को मन संभ्रम में अटका

जीवन का रहस्य यह क्या है? क्या यह मृण्मय माया?

कैसा मरण-संदेसा आया?

 

दो विभिन्न गतियां जगती में: इक जड़मय इक चेतन;

जड़गति है घूर्णित आंदोलन, चेतन है उद्वेलन,

जब जड़कण-समूह बन आया चेतन का सुनिकेतन,

तब उसमें विकास गति आई: जड़ ने जीवन पाया;

अभिनव मरण-संदेसा आया!

 

जिन ने मर कर चिर जीवन का रुचिर रूप पहचाना,

जिन ने निज को खोने ही में शुचि निजत्व को जाना,

वे बोले कि मरण है जीवन का ही एक बहाना,

अभिनव मरण-संदेसा आया!

 

जीवन का अखंड वैश्वानर हहर-हहर कर चमका,

भय भागा, संदेह हट गया छूटा संशय तम का;

अपने “स्व’ को “स्वधा’ सम होमा, टूटा फंदा सम का;

अपने मन की हुई मृत्यु, तब चिर जीवन लहराया;

नव-नव मरण-संदेसा आया!

शरीर से छूटकर आत्मिक जीवन मिलता है। मन से छूटकर चैतन्य की अपूर्व असीम यात्रा शुरू होती है। मृत्यु में अमृत का संदेश छिपा है।

आज बजी शहनाई, भाई, आज बजी शहनाई,

कित देह के कर्णरंध्र में मंद-मंद ध्वनि आई!

भाई, आज बजी शहनाई!

 

मंगल घट ले मृत्यु खड़ी है इस प्रयाण की बेला,

औ, अनंत-से अगम पंथ में छिटका अलख उजेला,

जीवन के उपकरण छोड़ कर चेतन चला अकेला,

महानिष्क्रमण की स्वर लहरी मन-आंगन में छाई,

भाई, आज बजी शहनाई!

 

निर्ममता की अश्रुविगलिता जो मृत्तिका पुरानी,

उससे निर्मित मंगल-घट ले आयी मृत्यु भवानी;

मरण-द्वार पर खड़ी हुई है ठसक भरी ठकुरानी,

ना जाने किस दूर देश का वह संदेसा लाई,

भाई, आज बजी शहनाई!

 

मत कर सोच-विचार, छोड़ तू झंझट इस बस्ती का;

नहीं खात्मा होगा, प्यारे, तेरी इस हस्ती का,

बंधन तोड़, चला चल पीकर प्याला अलमस्ती का

मरण एक बंधन-खंडन है, मरण नहीं दुखदाई,

भाई, आज बजी शहनाई!

 

पौ फट गई, मिट गया क्षण में अंधकार अज्ञानी,

नभरानी ऊषा मुसकानी, भव-भय-निशा सरानी;

अनजानी की अकल कहानी अब चेतन ने जानी,

उसने आज अलख की अश्रुत पायल ध्वनि सुन पाई;

भाई, आज बजी शहनाई!

 

नचिकेता बोला गुरु यम से: आर्य, ईश हैं साक्षी,

मैं मुमुक्षु हूं मृत्यु तत्व का मुझे न दो मीनाक्षी;

अंतक यम बोले: “नचिकेतो, मरणे मानुप्राक्षीः’

किंतु फंसा कब वह माया में जिसे मरण-धुन भायी?

भाई, आज बजी शहनाई!

मरण की धुन समझो– मृत्यु का संगीत पहचानो। मृत्यु की शहनाई सुनो। डरो मत, डरने को कुछ भी नहीं है। तुम अमृत के पुत्र हो। “अमृतस्य पुत्रः’!

 

आखिरी प्रश्न:

 

ओशो,

रोम-रोम में प्यार बसा क्यों एक तुम्हारा?

दृश्य-दृश्य क्यों रूप दिखाता एक तुम्हारा?

पल-पल निकले नाम तुम्हारा क्यों अधरों से?

रात-रात क्यों स्वप्न न टूटे एक तुम्हारा?

 

गदीश! ऐसा ही हो, तभी कोई शिष्य है। ऐसा ही हो, तभी कोई दीक्षित हुआ। ऐसा ही संबंध जुड़ जाये, ऐसा ही सेतु बन जाये, ऐसा ही प्रेम…तो ही समझना गुरु से गांठ बंधी और फिर सब संभव है। फिर असंभव भी संभव है। गांठ भर बंध जाये तो उंडेला जा सकता है सब। जो गुरु में है, वह सब शिष्य के पात्र में भरा जा सकता है। लेकिन, संबंध न जुड़े, थोड़ी भी दूरी रह जाये तो चूक हो जाती है।

दूरी मिट रही है। यह अच्छा हो रहा है। धन्यभागी हो!

कौन-सी यह प्रीति जागी? कौन-सा यह राग जागा?

कौन-से ये स्मरण जागे? कौन उलटा भाग जागा?

 

कौन कहता है कि बाहर से लहर पै आ गये स्वर?

करुण मेरे गीत ही हैं भर रहे पाताल अंबर,

पर मुझे ये लग रहे हैं अजनबी-से किंतु मनहर,

हाय, अपने को बिगाना कर रहा हूं मैं अभागा,

कौन-सा यह राग जागा?

 

हलचलों के बीच भी वाणी रहे मेरी अकंपित,

और विप्लव भी न कर पाये सुघड़मय गीत, खंडित,

साध भी यह, किंतु देखा कंठ है आक्रोश-मंडित,

और मैं बस रो रहा हूं हिचकियों के राग गा गा,

कौन-सा यह राग जागा?

 

कौन-सी यह प्रीती जागी? कौन-सा यह राग जागा?

कौन-से ये स्मरण जागे? कौन उलटा भाग जागा?

जगदीश, भाग के जागने की घड़ी आ गई। पलक खुलने का मुहूर्त आ गया। डरना मत, भयभीत न होना। संकोच न कर जाना, सिकुड़ न जाना। छलांग लगाओ।

प्रिय, मैं आज भरी झारी-सी

ललक-ढुलूंगी श्री चरणों में निज तन-मन वारी-सी,

साजन, आज भरी झारी-सी!

 

अर्पित करने कंचन-काया,

मैं आयी हूं लख तम-छाया,

प्राणार्पण में नहीं सुहाती,

जग उजियाले की वह माया,

आज अंधेरे में खिल डोली हिय कलिका न्यारी सी,

प्रिय, मैं आज भरी झारी-सी!

 

यह तम का पर्दा रहने दो,

मेरी “अहं’ यहां बहने दो,

चली आ रही हूं ध्रुव-पग धर,

बरबस खिंचती-सी निज मग पर,

तारा चंद्र रहित मम अंबर,

दिशा-शून्य मम पंथ विघ्न हर

आज सभी दिक्शूल बने हैं सुमन कली प्यारी सी,

प्रिय मैं आज भरी झारी-सी!

 

तुम शायद सोचो हो मन में,

कौन बला आयी तम घन में,

क्यों यों सोचो हो तुम प्यारे,

हूक उठा कर इस जीवन में?

मेरी और तुम्हारी तो है युग-युग की यारी-सी;

प्रिय, मैं आज भरी झारी-सी!

 

भूल गये क्या मुझको, साजन?

मैं हूं वे एकत्रित रज-कण–

जिनको तुमने स्वकर-परस से,

कभी किया था झन-झन उन्मन,

आज वही माटी की पुतली आयी हिय-हारी-सी;

प्रिय मैं आज भरी झारी-सी!

नाचो! खिलने दो फूल, झरने दो फूल। यही घड़ी है, जो प्रत्येक शिष्य तलाश रहा है। तुम कहते जगदीश–

रोम-रोम में प्यार बसा क्यों एक तुम्हारा?

दृश्य-दृश्य क्यों रूप दिखाता एक तुम्हारा?

पल-पल निकले नाम तुम्हारा क्यों अधरों से?

रात-रात क्यों स्वप्न न टूटे एक तुम्हारा?

जुड़ो, इतने जुड़ो कि यह मैंत्तू का भेद भी न रह जाये! पहला कदम उठा लिया, अब दूसरा भी उठाना: यह मैंत्तू का भेद भी न रह जाये। जिस क्षण शिष्य और गुरु में मैंत्तू का भी फासला नहीं रह जाता, उसी क्षण शिष्य भी समाप्त, गुरु भी समाप्त और परमात्मा का प्रगटीकरण होता है–उसी क्षण परमात्मा का साक्षात्कार।

एक कदम तुमने उठा लिया, एक अभी और उठाना है। कठिन कदम तो उठा ही लिया, अब दूसरा कदम तो सरल है। और दो ही कदम में सत्य की यात्रा पूरी हो जाती है।

 

आज इतना ही।

 

 


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सहज योग–(प्रवचन–18)

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हो गया हृदय का मौन मुखर—(प्रवचन—अट्ठहरवां)

दिनांक 8 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—यह विश्वास ही नहीं आता कि ऋषि-मुनियों के इस देश में और आप जैसे मनीषी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया जा रहा है!

 2—इस बार कुछ अजीब-सी परिस्थिति में आपके पास पहुंचा। यहां पहुंचने पर घर से तार मिला: जल्दी आओ। परंतु आपकी निकटता के अत्यंत प्रसादपूर्ण, शीतल आनंद को छोड़ पाना इतना सरल नहीं था।

 3—राजनैतिक लुच्चे-लफंगों से देश का छुटकारा कब होगा?

 4—मैं कैसे भवसागर पार करूं, नौका है टूटी-टूटी!

 

5—क्या लोग कभी आपको समझ पाएंगे या नहीं?

 

6—मैं ध्यान करने बैठती हूं, तो जैसे आपकी आंख को देखती हूं,

कुछ देर देखते रहने से आंखों से आंसू बहते हैं।

 

7—तुम्हारी याद में जादू भरा है,

पुलकते प्राण हैं, मन नाचता है!

 

 

पहला प्रश्न:

 

ओशो, यह विश्वास ही नहीं आता है कि ऋषि-मुनियों के इस देश में और आप जैसे मनीषी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया जा रहा है।

 

 

वियोगी! पहले तो यह भ्रम छोड़ दो कि कोई देश ऋषि-मुनियों का देश है। न तो ऋषि-मुनि किसी देश के होते हैं, न कोई देश ऋषि-मुनियों का होता है। देश और काल के जो पार हो जाते हैं, वे ही तो ऋषि हैं। ऋषि भारतीय नहीं हो सकते; और अगर हों, तो समझना ऋषि नहीं होंगे। ऋषि तो अपनी देह से भी अपना तादात्म्य नहीं करता, तो अपने देश से कैसे करेगा? जो अपनी देह से, इतनी निकट जो मिट्टी है, उससे भी अपने को भिन्न मानता है, तो पृथ्वी की मिट्टी…उससे तो अपने को भिन्न मानेगा ही, जानेगा ही।

कोई ऋषि भारतीय नहीं होता, न कोई ऋषि ईरानी होता है, न अरबी होता है। ऋषि का तो जन्म होता है साक्षी-भाव में। साक्षी के शिखर पर सारे तादात्म्य छूट जाते हैं–देह के, जाति के, वर्ण के, रंग के, मन के। वहां तो केवल रह जाती है झलकती हुई एक चैतन्य की ज्योति। चैतन्य का कोई देश है, कोई अपना है, कोई पराया है? चैतन्य तो सर्वव्यापी है।

फिर दोहरा दूं: ऋषि-मुनि किसी देश के नहीं होते और न ऋषि-मुनियों का कोई देश होता है। इस भ्रांति को तोड़ ही दो, क्योंकि इस भ्रांति के कारण सिवाय अहंकार के और कुछ पलता नहीं पुसता नहीं। यह भाव कि यह देश ऋषि-मुनियों का है, तुम्हारे अहंकार को पोषित करता है। यह भाव तुम्हें, दूसरों से श्रेष्ठ हो, इस तरह की भ्रांति देता है। और दूसरे से श्रेष्ठ होने की जो भ्रांति है, वह अधार्मिक है, पाप है। इस भ्रांति ने सदियों में मनुष्य को बहुत सताया है। क्योंकि जिसने भी समझ लिया कि हमारे पास धर्म की बपौती है, वही दूसरों को हानि पहुंचाने का कारण बन गया। जिसको भी ऐसा खयाल पैदा हो गया, ऐसी अस्मिता आ गई कि मेरी किताब सच्ची किताब, कि मेरा देश सच्चा देश, बस फिर दूसरों के साथ अत्याचार करने की उसे सुविधा मिल गई। उनके ही हित में वह दूसरों से अत्याचार करने लगा। उसने मस्जिदें जलाईं, उसने मंदिर तोड़े, उसने गिरजे जलाये, उसने गुरुद्वारे तोड़े। जिसको भी यह भ्रांति आ गई कि धर्म मेरे पास है, स्वभावतः दूसरों के पास धर्म नहीं है, उन्हें धर्म देना जरूरी है। और अगर सीधे-सीधे न लेते हों, तो जबर्दस्ती देना जरूरी है। अगर समझ-बूझकर न लेते हों, तो तलवार की धार पर देना जरूरी है; मगर धर्म तो देना ही पड़ेगा। अगर धर्म देने में उनके प्राण भी जायें तो कोई हर्ज नहीं। चाहे वे धर्म लेना चाहते हों या न लेना चाहते हों…।

अहंकार बड़ा सूक्ष्म है और बड़े कुशल रास्ते खोजता है। अपने को छिपाने के लिए अहंकार ऐसे-ऐसे परिधान पहनता है कि तुम पहचान न सको। अहंकार बड़ा बहुरूपिया है! और जो श्रेष्ठतम परिधान अब तक अहंकार खोज सका है अपने को छिपाने के लिए, वह है धर्म का परिधान–हिंदू का, ईसाई का, मुसलमान का, जैन का, बौद्ध का। छिप जाओ…। धर्म के परिधान में छिपना बहुत आसान है। अगर शैतान को कहीं भी छिपना हो, तो मंदिरों और मस्जिदों, गुरुद्वारों और चर्चों के सिवाय उसे और कोई ठीक जगह न मिलेगी। क्योंकि वहां तो कोई शक ही न करेगा। शैतान बाजार में नहीं छिप सकता, क्योंकि वहां तो सभी संदेह से भरे हैं। वहां तो सभी चौंककर चल रहे हैं। शैतान पुजारी के पीछे छिपता है। शैतान वेद की आड़ में छिपता है। कहावत है कि शैतान भी शास्त्रों के उद्धरण देता है। शास्त्र बड़ी सुविधापूर्ण व्यवस्था है।

मैंने सुना है कि एक आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया। खलबली मच गई शैतान के शिष्यों में। क्योंकि जब भी कोई ज्ञान को उपलब्ध होता है तो शैतान के व्यवसाय पर चोट पड़ती है। शिष्य भागे, उन्होंने अपने गुरु शैतान को कहा कि कुछ करो, जल्दी कुछ करो। एक आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। देखते हो, पृथ्वी पर उस वृक्ष के नीचे बैठा कैसा प्रकाशित हो रहा है, कैसा ज्योतिर्मय! वह हमारे सारे धंधे को चौपट कर देगा।

शैतान ने कहा: तुम फिक्र मत करो, जब तक पुजारी हैं और पंडित हैं, तब तक हमें कोई भी चिंता नहीं। तुम जरा ठहरो। हमें कुछ बीच में पड़ने की जरूरत नहीं, जल्दी ही पंडित और पुजारी उसके आसपास इकट्ठे हो जायेंगे। जल्दी ही मंदिर बनेगा। जल्दी ही शास्त्र रचा जायेगा। जल्दी ही धर्म का जन्म हो जायेगा। बस, पंडे-पुजारी हमारे साथ हैं। तो ऐसे एकाध-दो कभी जो बुद्ध हो जाते हैं इनकी चिंता न लो। इनकी रोशनी को ढांकने के लिए पंडित और पुजारी काफी हैं।

तुम कहते हो: यह विश्वास नहीं आता है कि ऋषि-मुनियों के इस देश में और आप जैसे मनीषी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया जा रहा है! यही तो सदा होता रहा है, यह कुछ नया तो नहीं। तुम सोचते हो क्या सुकरात को जिन लोगों ने जहर पिलाया था वे बुरे लोग थे? जिनको तुम भले लोग कहते हो वे ही थे। कोई हत्यारे नहीं थे, सम्मानित सदगृहस्थ थे। कोई अपराधी नहीं थे। शास्त्रों के जानकार थे; नीति-नियम को मानकर चलते थे। उन्हीं को तो अड़चन आई थी सुकरात से। अपराधी को क्या अड़चन आनी थी? वेश्या को, चोर को, जुआरी को क्या अड़चन आनी थी, शराबी को क्या अड़चन आनी थी सुकरात से? सुकरात कह रहा था सत्य की बात; इसलिए जो लोग सत्य के नाम पर असत्य का धंधा कर रहे हैं, सिर्फ उन्हीं को अड़चन आनी थी।

सुकरात को जिन लोगों ने सूली दी, वे भले लोग थे–तथाकथित भले लोग, सम्मानित, आदृत, समाज के प्रमुख मुखिया। उन्हीं लोगों ने मिलकर–न्यायाधीशों ने, पुरोहितों ने, ज्ञानियों ने मिलकर–सुकरात को जहर पिलाया।

जीसस को किसने मारा? यहूदियों में जो सर्वाधिक शास्त्रज्ञ थे, रबाई यहूदियों के धर्मगुरु, ऋषि-मुनि यहूदियों के, उन्होंने मिलकर जीसस को सूली पर चढ़ा दिया।

और मंसूर के हाथ-पैर किसने काटे? क्या अधार्मिकों ने? तो तुम गलती करोगे। धार्मिकों ने! जिनको खयाल था कि उन्हें मालूम है कि धर्म क्या है। जो कुरान के पाठी थे। जो वचन-वचन में मुहम्मद का उल्लेख करते थे, उन्होंने। मुहम्मद जैसे ही दूसरे आदमी को, मंसूर को मार डाला–मुहम्मद का ही नाम लेकर! मुहम्मद जैसे एक दूसरे मसीहा को परेशान किया–मुहम्मद का नाम लेकर–मुहम्मद कहीं होंगे तो जार-जार रोये होंगे–जब मंसूर को काटा गया, उसके हाथ-पैर काटे गये, उसकी आंखें फोड़ी गईं। अगर कोई इस दुनिया में मुहम्मद के बाद मुहम्मद की जैसी क्षमता का व्यक्ति था, तो मंसूर था। मगर मारा किसने? मारा उन्होंने जिनको भ्रांति है कि वे मुहम्मद के पक्षपाती हैं।

ऋषि-मुनि, तुम्हारे तथाकथित पंडित-पुरोहित…उनका बड़ा जाल है! तो विश्वास करो या न करो, मगर यही सदा होता रहा है। बुद्धों के साथ, महावीरों के साथ, यही सदा होता रहा है। यही फिर होगा। आदमी बदलता ही नहीं! तो अभी तो कुछ ज्यादा दुर्व्यवहार हुआ नहीं, आगे-आगे देखिये होता है क्या-क्या…!

करंट के नये अंक में ऋषि-मुनियों की किसी संतान ने, किसी भारतीय संस्कृति के आराधक, संरक्षक ने सरकार से प्रार्थना की है कि मुझे देश से तत्क्षण निकाला जाये। इतना ही नहीं, इससे उनकी तृप्ति नहीं हुई। भारतीय संस्कृति का हृदय इतने से नहीं भरा। ऋषि-मुनियों की संतान इतने से राजी नहीं हुई कि सिर्फ मुझे देश से बाहर निकाला जाये, साथ में यह भी सुझाव दिया है कि मेरी जबान काट दी जाए ताकि मैं कहीं बोल न सकूं और मेरे हाथ काट दिये जाएं, ताकि मैं लिख न सकूं! अहो, धन्यभूमि भारत! अहो, पुण्यभूमि भारत! जहां देवता भी जन्मने को तरसते हैं।…जबान कटवानी होगी अपनी, हाथ-पैर कटवाने होंगे देवताओं को अपने, तो ही तरसते होंगे! और ये हैं संस्कृति के संरक्षक!

आदमी बदलेगा कभी या नहीं! आश्चर्य इस पर करो। इस पर आश्चर्य मत करो कि ऋषि-मुनियों का यह देश और आपके साथ दुर्व्यवहार क्यों कर रहा है। आश्चर्य इस पर करो कि आदमी कभी बदलेगा या नहीं! यही तो तुमने मंसूर के साथ किया था। जबान काटी थी। हाथ काटे थे। आंखें फोड़ दी थीं।

बीसवीं सदी में, एक लोकतांत्रिक देश में–जिसको यह भ्रांति है कि वह जगत का सबसे बड़ा लोकतंत्र है–वहां लोग खुलेआम अखबारों में सलाहें देते हैं, छापते हैं! और किसी को अड़चन नहीं होती, किसी को बेचैनी नहीं होती! मेरी जबान काट लेनी चाहिए, मेरे हाथ काट डालने चाहिए। और मुझे देश में फिर भी नहीं टिकने देना चाहिए। हो सकता है आंख से इशारे करूं और लोगों को कुछ बिगाडूं, लोगों को कुछ भड़काऊं। इनको तुम ऋषि-मुनियों की संतान कहते हो!….उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए। इन उल्लू के पट्ठों को तुम ऋषि-मुनियों की संतान समझते हो? काश, इतना आसान होता ऋषि-मुनियों की वसीयत को सम्हालना!

लेकिन तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनियों में सभी ऋषि-मुनि भी नहीं हैं, यह भी याद रखना। ऋषि-मुनि तो कभी कोई होता है। ऋषि होने के लिए ऐसा हृदय चाहिए जिसमें परमात्मा का काव्य पैदा हो। ऋषि का अर्थ होता है कवि। साधारण कवि नहीं, असाधारण कवि। साधारण कवि को तो कभी-कभी झलक मिलती है सौंदर्य की; ऋषि को चौबीस घंटे सतत सौंदर्य की धारा बहती रहती है। कवि को तो दूर से झलक मिलती है हिमाच्छादित शिखरों की; ऋषि वहां निवास करता है। कवि के लिए तो कविता के कभी-कभी क्षण आते हैं, ऋषि कविता जीता है।

क्या है काव्य? जहां अहंकार विलीन हो गया है और जहां कोई व्यक्ति केवल बांस की पोंगरी हो गया है…और जहां परमात्मा बहना शुरू होता है उस बांस की पोंगरी से और बांस की पोंगरी बांसुरी बन जाती है! ऋषि का अर्थ है, जिसके भीतर से परमात्मा बोलता है।

पंडित ऋषि नहीं होते। जिनसे उपनिषद बहा है, वे ऋषि हैं। जो उपनिषदों की टीकायें लिखते हैं और उपनिषदों की व्याख्याएं करते हैं, वे ऋषि नहीं हैं। जिनसे वेद जन्मे हैं, वे ऋषि हैं। लेकिन चतुर्वेदी और त्रिवेदी और द्विवेदी, इनको तुम ऋषि मत समझ लेना।

मुनि कौन है? जिसके भीतर शब्द की पकड़ छूट गई है, शास्त्र की पकड़ छूट गई है, सिद्धांत की पकड़ छूट गई है। ऐसा सन्नाटा छाया है, ऐसा मौन उतरा है जिसके भीतर, ऐसा शून्य व्याप्त हो गया है कि अब शून्य का ही नाद है…। अगर ऐसा व्यक्ति कुछ बोलता है, तो शून्य से ही निकलती है वह वाणी। वह उसकी अपनी वाणी नहीं है; वह आकाशवाणी है, क्योंकि शून्य से निकली है। इलहाम है, उदघोष है, अपौरुषेय है…। कभी-कभी कोई बुद्ध, कोई महावीर…।

लेकिन बुद्ध को तुमने पत्थर मारे। तुमने बुद्ध को गालियां दीं। तुमने महावीर को एक गांव से दूसरे गांव खदेड़ा। महावीर मुनि हैं। बारह वर्ष मौन रहे। उनके मौन में तुमने उनको जितना सताया उतना शायद ही किसी को सताया हो। मौन थे, तो कुछ बोल भी नहीं सकते थे। लोगों ने कानों में खीले ठोंक दिये कि बोलता क्यों नहीं है? बुलवाने के लिए कानों में खीले ठोंक दिये! गांव-गांव खदेड़ा, क्योंकि महावीर नग्न थे। महावीर ऐसे निर्दोष थे कि उन्होंने वस्त्र अपने गिरा दिये, और वस्त्रों के साथ तुम्हारी सारी थोथी सभ्यता गिरा दी। वस्त्रों के गिरते ही सभ्यता गिर जाती है।

तुम्हारी सभ्यता वस्त्रों में अटकी है। यह मेरा भी अनुभव है। वस्त्र गिराते ही तुम कुछ और ही हो जाते हो। वस्त्र गिराते ही वह तुम्हारी जो तथाकथित पाखंड की व्यवस्था है, टूट जाती है। तुम फिर पशुओं और वृक्षों के जगत में प्रवेश कर जाते हो। फिर निर्दोष हो जाते हो। जैसे अदम फिर लौट आया ईश्वर के बगीचे में!

इसलिए इस आश्रम में चलने वाली समूह-चिकित्साओं में नग्न होने पर बल है, जोर है। वस्त्र के गिरते ही अपूर्व परिणाम देखे जाते हैं। लाज गई, संकोच गया…। और तुम्हारी जो धारणायें थीं छिपाने की अपने को, बचाने की अपने को, सुरक्षा के वे जो तुमने आवरण ओढ़ रखे थे, वे भी सब गिर गए।

वस्त्र तो प्रतीक हैं। वस्त्रों के भीतर वस्त्र हैं; वे सभी उघाड़ देने हैं। मनुष्य तो ऐसा हो गया है–जैसे कि प्याज की गांठ हो।…पर्त पर पर्त, वस्त्र पर वस्त्र, मुखौटे पर मुखौटे हैं। उघाड़ते जाना है। प्याज को छीलते जाना है…! और प्याज जब छीलते हो तो आंख से आंसू गिरते हैं, पीड़ा भी होती है। और तब तक छीलते जाना है जब तक कि शून्य ही हाथ न लग जाये। वही शून्य मौन है।

महावीर ऐसे ही मुनि हुए थे। सारे वस्त्र छोड़ दिये। सारे संस्कार छोड़ दिए। सारी सभ्यता छोड़ दी। क्योंकि जो आदमियों से नहीं मिला था, वह वृक्षों और पशु-पक्षियों के पास रहकर मिला; उनके ही जैसे रहकर मिला। वृक्ष, पशु-पक्षी अब भी प्रकृति के अंग हैं। मुनि वह है जो फिर प्रकृति का अंग हो जाता है। हां, एक फर्क होता है उसमें और पशुओं में–पशु बेहोशी में प्रकृति के अंग हैं, मुनि होशपूर्वक प्रकृति का अंग हो जाता है।

समझो, भाषा ने ही तुम्हें उपद्रव में डाला है। भाषा को छोड़कर ही तुम उपद्रव के पार जा सकोगे। तुम्हें भिन्नता, भेद किसने पैदा करवाये हैं? कोई कहता है मैं मुसलमान हूं कोई कहता हैं मैं हिंदू हूं…बस बोले कि भेद हुआ। अगर दोनों चुप बैठे रहें, भेद कैसे होगा? अगर दोनों चुप बैठे हों, कैसे जान सकोगे कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है, कौन सिक्ख है? एक ने कहा मैं वेद को मानता हूं, एक ने कहा मैं धम्मपद को मानता हूं, एक ने कहा कि मैं गीता को मानता हूं; भेद शुरू हो गया। एक ने कहा कि मैं ऐसा परमात्मा मानता हूं, दूसरे ने कहा मैं वैसा परमात्मा मानता हूं; भेद शुरू हो गये। सारे भेद भाषा के हैं। अगर भाषा गिर जाये तो अभेद आ जाये।

मुनि का अर्थ होता है, जिसने भाषा को गिरा दिया। और तुम तो तथाकथित भाषा-शास्त्रियों को मुनि समझते हो, ज्ञानी समझते हो, पंडित समझते हो, प्रज्ञावान समझते हो। और इन्हीं उपद्रवियों के कारण इस जगत पर अभिशाप की काली छाया है।

अब देखते हो, जिन सज्जन ने यह सुझाव दिया है–बड़े धार्मिक भाव से दिया है, बड़े धार्मिक जोश से दिया है–कि मेरी जबान और मेरे हाथ काट दिये जाने चाहिए। इसमें बड़ा धार्मिक भावावेश है; बड़े आविष्ट होकर दिया है! और इस आदमी को खयाल भी न आया कि यह क्या कह रहा है! ये धार्मिक व्यक्ति के लक्षण हैं कि जबान काट दी जाए, कि हाथ काट डाले जाएं? अगर यह जबान किसी की है, तो परमात्मा की। अगर ये हाथ किसी के हैं, तो परमात्मा के हैं। किसी की भी जबान काटो, तुम परमात्मा की ही जबान काटोगे। और किसी के भी हाथ काटो, तुम उसी के हाथ काटोगे। मंसूर को नहीं मारा तुमने, “उसकी’ आवाज को मारा। जीसस को नहीं तुमने सूली चढ़ाया, “उसके’ ही रूप को, उसके ही अवतरण को तुमने सूली चढ़ा दिया। सुकरात को तुमने जहर नहीं पिलाया, वह जहर अब भी परमात्मा के कंठ में है। उसका कंठ नीला इसीलिए तो हो गया है। वह नीलकंठ हो गया है! तुम्हारा सारा जहर उसी के कंठ में पहुंच जाता है। किसी को पिलाओ, सब कंठ उसके हैं।

लेकिन ऐसा नहीं है कि इस पंडितों की संस्कृति के झूठे, थोथे पोषकों की भीड़-भाड़ में कभी कोई सच्चा आदमी नहीं होता। सच्चे आदमी भी होते हैं, प्यारे आदमी भी होते हैं–जिनके भीतर मुनि का कुछ रंग होता है! जिनके भीतर ऋषि की कुछ आभा होती हैं! एकदम अंधेरी रात ही नहीं है, यहां कुछ तारे भी टिमटिमाते हैं। इसलिए थोड़ी आशा है। इसलिए मनुष्य के संबंध में एकदम निराश हो जाने की जरूरत नहीं है।

कल मैंने एक पत्र पाया। कल ही करंट में यह लेख पढ़ा और कल ही मैंने एक पत्र पाया। संतुलन हो गया। आदमी पर डगमगाता भरोसा ठहर गया। अजमेर में भारत के मुसलमानों की सर्वाधिक पूज्य दरगाह है–ख्वाजा निजामुद्दीन चिस्ती की दरगाह! उस दरगाह शरीफ के प्रधान हैं–एस. अयाज महाराज। तुम थोड़ा चौंकोगे–एस. अयाज तो मुसलमान का नाम है–और महाराज! क्योंकि ख्वाजा निजामुद्दीन चिस्ती की दरगाह हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए एक-सी प्यारी है। होनी ही चाहिए। इसलिए दरगाह का जो प्रधान है, उसको महाराज भी कहते हैं। वहां हिंदू भी पूजा करते हैं, मुसलमान भी पूजा करते हैं। मैं तो चौंका! कल एस. अयाज महाराज का पत्र पाकर बहुत चौंका। पत्र में उन्होंने लिखा है कि “आपका एक ही प्रवचन मैंने टेप से सुना है–“द सीक्रेट आफ द सीक्रेट्स’ का दसवां प्रवचन–और मैं दीवाना हो गया हूं! क्या मुझे आप अपना शिष्य स्वीकार करेंगे? मैं देर नहीं सह सकता। मुझे पता ही नहीं था कि आप हैं। मुझे बुला लें। मेरी पात्रता नहीं है, लेकिन क्या मुझे आप अपना शिष्य स्वीकार करेंगे?’ बार-बार दोहराया है।

मुश्किल में पड़ जायेंगे एस. अयाज! मैं तो उनको लिखवा दिया कि आ जायें। मैं तुम जैसे ही दीवाने लोगों के लिए हूं। मगर मुश्किल में पड़ जायेंगे! पीछे जो हजारों मुसलमान उन्हें पूजते हैं, मानते हैं, वे तो बड़े क्रुद्ध हो जायेंगे। लेकिन आदमी हिम्मत के मालूम होते हैं।

ऐसे थोड़े-से आदमी हैं जिनको ऋषि कहो, जिनको मुनि कहो, जिनके पास आंखें हैं। फिर वे हिंदुओं में हों, मुसलमानों में हों, ईसाइयों में हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जिनके पास आंखें हैं वे ही मुझे पहचान सकेंगे। एस. अयाज समझ पाये। क्योंकि सूफी का दिल है। और अगर मेरी बात न समझ पाते, तो प्रमाण होता कि सूफी का दिल नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वह सूफियों का सार है, भक्तों का सार है, सारे ज्ञानियों का निचोड़ है। उसमें कुरान का स्वर है। उसमें वेद का स्वर है। उसमें धम्मपद की आवाज है। उसमें बाइबिल की छाया है, छाप है।

मैं किसी एक देश के लिए, एक धर्म के लिए, एक जाति के लिए नहीं बोल रहा हूं। यह सारी पृथ्वी मेरी अपनी है। यह सारा मेरा विस्तार अपना है। और ऐसा ही यह तुम्हारा भी होना चाहिए। छोड़ो ये बातें कि यह ऋषि-मुनियों का देश…। अब तो सारी पृथ्वी हमारी है।

और विश्वास करो कि इसी तरह के लोग धर्म को नष्ट करते रहे हैं। विश्वास नहीं आता, क्योंकि हमारी धारणा धार्मिक आदमियों के प्रति कुछ और होती है। हम उनसे यह आशा नहीं करते कि वे जबानें काटने और हाथ तोड़ने की बातें करेंगे। हम उनसे हत्याओं की आशा नहीं करते। हम उनसे जीवन का वरदान चाहते हैं। हम चाहते हैं कि वे अभिशाप नहीं होंगे–वरदान होंगे, आशीष होंगे। मगर वैसे आशीष होने वाले व्यक्ति तो कभी-कभी होते हैं, सौ मैं एक, और निन्यानबे जिनको तुम ऋषि-मुनि समझते हो उस एक के विपरीत हो जाते हैं।

तो तुम जरा भेद करना सीखो। तुम्हारे ऋषि-मुनियों में दुर्वासा भी हैं। तुम्हारे ऋषि-मुनियों में व्यर्थ के लोग भी हैं, व्यर्थ के दावेदार भी हैं। और उनकी भीड़ है। क्योंकि नकल करना सदा आसान है, असल होना बहुत कठिन है। असल के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। असल के लिए साधना से गुजरना पड़ता है। नकल के लिए तो बस ओढ़ लिया एक बाना, काम हो गया। कुछ कूड़ा-करकट शास्त्रों का इकट्ठा कर लिया, कुछ लफ्फाजी सीख ली। बस पर्याप्त है। थोड़े कुशल तोता हो गए, और बात हो गई। कुशल तोतों से सावधान! वे फिर चाहे किसी शास्त्र का उल्लेख करते हों और किसी संस्कृति का दावा करते हो–तोतों से सावधान। तोतों ने मनुष्य जाति को यंत्रवत कर दिया है। और हम काफी पीड़ित हो लिए हैं। अब समय आ गया है कि आदमी थोड़ा जागे, थोड़ा होश से भरे।

इस दुनिया में न हिंदुओं की जरूरत है, न मुसलमानों की, न ईसाईयों की; इस दुनिया में तो सिर्फ धार्मिक लोगों की जरूरत है। और धार्मिक व्यक्ति सांप्रदायिक नहीं होता। धार्मिक व्यक्ति राजनैतिक नहीं होता। धार्मिक व्यक्ति किसी देश, किसी सीमा में आबद्ध नहीं होता है।

 

दूसरा प्रश्न:

 

इस बार कुछ अजीब-सी परिस्थिति में आप तक पहुंचा। यहां पहुंचने पर घर से तार मिला: जल्दी आओ! परन्तु आपकी निकटता के अत्यंत प्रसादपूर्ण शीतल आनंद को छोड़ पाना इतना सरल नहीं था। द्वंद्वपूर्ण स्थिति में भी यहीं रुके रहने का निर्णय लिया। आज बड़ा प्रसाद उतरा है। भीतर की वीणा पर स्पष्ट रूप से टयूनिंग का आभास पहली बार मिला है। आनंदित हूं, आश्चर्यचकित हूं। उचित समझें तो कुछ कहने की अनुकंपा करें।

 

प्रेम वेदांत! जब कोई कुछ चुकाता है तभी कोई कुछ पाता है। मुफ्त कुछ भी नहीं। सत्य तो मुफ्त मिलता ही नहीं। इस बार तुमने कुछ चुकाया। घर से खबर आई कि चले आओ, द्वंद्व हुआ। मन ने कहा होगा: चलो, घर है, गृहस्थी है, परिवार है, कोई अड़चन होगी, कोई मुसीबत होगी। मन ने खींचा होगा कि चलो। मन चिंतित हुआ होगा। स्वाभाविक। फिर भी तुम रुके। उस “फिर भी’ में ही सारा राज है। तुमने कुछ छोड़ा। तुमने चिंता छोड़ी। तुमने एक लगाव छोड़ा, एक आसक्ति छोड़ी। यहां होने के लिए तुमने पहली बार कीमत चुकायी।

आते तुम पहले भी थे, मगर तब आना एक था। रुकते तुम पहले भी थे, लेकिन तब रुकना एक था। इस बार मन के विपरीत रुके। और जो मन के विपरीत रुक गया वही आत्मा में प्रवेश करता है। इस बार तुमने मन को त्यागा, तुमने कहा: करता रह तू चीख-पुकार, नहीं जाना है। इस बार तुमने मन की उपेक्षा की। उस उपेक्षा में ही मन से तुम्हारे धागे टूटे। और मन से धागे टूटें तो आत्मा से जुड़ें। या तो मन से जुड़े रहो या आत्मा से जुड़ जाओ, बस दो ही उपाय हैं। दोनों के साथ एक साथ जोड़ नहीं बनता। या तो बहिर्मुखी या अंतर्मुखी। इस बार बहिर्मुखता तुमने थोड़ी-सी छोड़ी। तुमने थोड़ा दांव पर लगाया। मन ने हजार शंकायें भी उठायी होंगी। कर्तव्य के न मालूम कितने-कितने विचार मन में आये होंगे कि पता नहीं कौन-सी मुसीबत है! तार में तो सिर्फ लिखा है जल्दी आओ, पता नहीं पत्नी बीमार है कि मरणशैया पर है, कि मां बीमार है, कि पिता बीमार हैं,कि चोरी हो गई घर में, कि डाका पड़ गया, कि दुकान लुट गई, कि आग लग गई, पता नहीं क्या है! हजार चिंताएं उठी होंगी। उन सारी चिंताओं को तुमने एक पोटली में बांधकर अलग कर रख दिया। उसी के कारण, बस उसी के कारण इस बार तुम्हें लगा कि मन की वीणा पर कुछ स्वर बज रहा है।

जो भी कीमत चुकाने को राजी है, उसे मिलता है–उसे निश्चित मिलता है। कबीर ने कहा है: “कबिरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाठी हाथ। जो घर बारै आपना चले हमारे साथ।’ कुछ तो जलाना पड़े। कुछ जगाना हो तो कुछ जलाना पड़े। कुछ नया जन्म देना हो तो पुराने के प्रति कुछ मरना पड़े। जितने मरोगे उतने ही जन्मोगे। अगर पूरे-पूरे मर जाओ अतीत के प्रति तो तुम्हारा संपूर्ण जन्म हो जाए, नवोन्मेश हो जाए। एक नई लहर उठे तुममें, जिससे तुम भी परिचित नहीं! एक नयी चैतन्य की ज्योति जले तुममें, जिसका तुमने सपनों में भी आभास नहीं पाया!

पर शुरुआत हुई, अच्छा हुआ कि तुम रुक गये। तार मानकर चले भी गए होते तो भी क्या कर लेते? अगर घर में आग लग गयी थी तो लग गयी थी, तुम भी जाकर क्या बुझा लेते? तुम्हारे जाते-जाते तो बुझ ही चुका होता घर भी और आग भी। तुम्हारे जाने से ही क्या होनेवाला था? पहुंचकर भी कोई क्या कर लेता है? तुम नहीं भी पहुंचे तो भी जिंदगी रुक नहीं गयी, जिंदगी बहती ही रही है। कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि न पहुंचने का परिणाम लाभकर वहां भी हुआ हो। पत्नी बिस्तर पर पड़ी है, एक-दो दिन राह देखी होगी कि अब आते स्वामी, अब आते स्वामी, फिर सोची होगी कि नहीं आते। फिर उठ आई होगी। फिर काम-धाम में लग गई होगी। फिर भूल-भाल गई होगी बीमारी। क्योंकि पति न हो तो पत्नी को बीमारी बनाये रखने में रस ही नहीं होता।…पति हो तभी पत्नी को बीमार होने का मजा होता है।

मैं एक घर में बैठा था, सामने। दंपत्ति घर के बाहर गये थे। अपने बच्चे को छोड़ गये थे मेरे पास खेलते। वह खेलते-खेलते सरक गया और बगल की दीवार से गिर गया, कोई चार-पांच फीट नीचे। गिरकर उसने मेरी तरफ देखा। मैं जैसा बैठा था वैसा ही बैठा रहा। मैंने कुछ जैसे हुआ ही नहीं, ऐसे ही बैठा रहा। उसने देखा। थोड़ी देर देखता रहा होगा। वह भी समझ गया होगा कि कोई सार नहीं है। उठा, कपड़े झाड़कर फिर अपने खेलने में लग गया। आधा घंटे बाद जब उसके मां-पिता लौटे, एकदम रोने लगा। मैंने कहा: देख, यह बिलकुल ठीक नहीं है। उसने कहा: क्यों ठीक नहीं है? मैंने कहा: आधा घंटा हो चुका तुझे गिरे, अब रोने का क्या मतलब? उसने कहा: लेकिन तब रोने का क्या मतलब था? आप तो ऐसे बैठे थे जैसे पत्थर की मूर्ति हों। आप तो बस देखते रहे। मैं भी चौंका। अब मेरी मां आ गयी, अब भी न रोऊं?

गिरने से कोई संबंध रोने का जरूरी नहीं है। मां हो तो बच्चा ज्यादा रोता है, मां न हो तो देखकर समझ जाता है कोई सार नहीं है। पति घर पर हो तो पत्नी की बीमारी लंबा जाती है। पति घर पर न हो, पत्नी उठ आती है–बच्चों को स्कूल भेजना है, काम-धाम करना है।

जीवन बहुत अदभुत है। तुम नहीं गये, इससे कुछ हानि हो गयी होगी ऐसा मत सोचना। हानि होने को इस जगत में कुछ है ही नहीं। इस जगत में ऐसा कुछ मूल्यवान है ही नहीं जिसकी हानि हो जाये। हां, तुम गये होते तो जरूर कुछ हानि हो गयी होती। यह जो वीणा में थोड़ी-सी झंकार उठी, इससे तुम चूक गये होते। और मजा ऐसा है कि तुम्हें कभी समझ में भी न आता कि कुछ चूक गये हो। क्योंकि चूकने का तो पता ही तब चलता है जब झंकार उठने लगे। यही तो दुर्भाग्य है करोड़ों लोगों के जीवन में; वीणा में झंकार नहीं उठती, वे सोचते हैं वे कुछ चूक नहीं रहे हैं, उनकी जिंदगी ठीक चल रही है। क्लब जाते हैं, सिनेमा देखते हैं, रेडियो सुनते हैं, टेलीविजन देखते हैं, पत्नी है, बच्चे हैं, धन-दौलत है, सब ठीक चल रहा है। उन्हें याद भी आये तो कैसे आये कि कुछ चूक रहा है–कुछ जो सर्वाधिक मूल्यवान है। चूकने का भी पता तब चलता है जब थोड़ा स्वाद आये। जिसने सुनी थोड़ी झंकार उसे पता चलेगा कि अरे, काश मैं चला गया होता तो पता नहीं क्या चूक जाता!

अब इस बात को भूल मत जाना। आदमी की स्मृति बड़ी कमजोर है, जल्दी भूल जाता है। स्मृति की कमजोरी बड़ी घातक है। भूल मत जाना। यह जो अभी तुमने वीणा में थोड़ी-सी टयूनिंग मालूम पड़ी है, यह कोई अंत नहीं है, यह प्रारंभ है। यह तो पहली चोट है। अभी बहुत कुछ होना है। अभी बहुत राग उठने हैं। रागों पर राग हैं, महाराग हैं, उनका कोई अंत नहीं है। जितने तुम गहरे जाओगे उतने रहस्य और गहरे होते जाते हैं। रहस्य कभी चुकते नहीं। इसलिए तो हम कहते हैं कि परमात्मा अनंत है; जान-जानकर भी जानने को शेष रह जाता है। कितना ही जानो, फिर भी जानने को शेष रह जाता है। पर एक शुभ किरण तुम पर उतरी।

चिटकीं ये बेले की कलियां, ओ मधुराधर,

छिटकी हो मानो तव मंद-मंद स्मिति मनहर।

 

मुकुलित हो गया अमित जीवन-उल्लास-हास,

वृन्तों पर थिरक उठा, नव चेतन का विकास;

पांखुरियों में स्पंदित नवल जागरण-विलास;

अलिगण की गुन-गुन में गूंजे हैं नव-नव स्वर;

ओ मेरे मधुराधर।

 

सर-सर-सर-सर करता नाच उठा मधु समीर,

फर-फर-फर-फर करती आयी है विहग-भीर

जीवन का जय-निनाद उमड़ा है गगन चीर,

लहर उठीं नभ-सर में बाल अरुण किरण-लहर;

ओ मेरे मधुराधर।

 

जग में है ज्योति-हास, जड़ में चेतन-प्रकाश,

तृणत्तृण में सुरस-रास, चिन्मय है महाकाश;

तव हिय क्यों हो उदास? मानव क्यों हो निराश?

उपल-हृदय में भी तो लहर रहा निर्झर,

ओ मेरे मधुराधर।

 

निरख-निरख कलियों की मादक मुसकान अमल–

बलि जाऊं! आयी है तव स्मिति की स्मृति विह्वल!

मन मन-सर में विकसित हैं तव युग नयन-कमल,

परिमल मिस आयी तव तन-सुवास सिहर-सिहर!

 

चिटकीं ये बेले की कलियां, ओ मधुराधर,

छिटकी हो मानो तव मंद-मंद स्मिति मनहर।

ओ मेरे मधुराधर।

उसकी पहली किरण उतरी। उस प्रिय की पहली झलक आयी। पहला घूंट गले के नीचे उतरा है। अभी बहुत पीने हैं, सागर पीने हैं। लेकिन सूत्र याद रखना, कुछ इस बार छोड़ा है इसलिए कुछ पाया है, यह गणित भूल न जाए। जितना छोड़ोगे उतना पाओगे। जितना दांव पर लगाओगे उतना पाओगे–उतना ही पाओगे! जीवन बड़ा न्यायपूर्ण है।

 

तीसरा प्रश्न:

 

राजनैतिक लुच्चे-लफंगों से देश का छुटकारा कब होगा?

 

हुत कठिन है। क्योंकि प्रश्न राजनैतिकों से छुटकारे का नहीं है, प्रश्न तो तुम्हारे अज्ञान के मिटने का है। तुम जब तक अज्ञानी हो, कोई-न-कोई तुम्हारा शोषण करेगा। कोई-न-कोई तुम्हें चूसेगा–पंडित चूसेंगे, पुरोहित चूसेंगे, राजनेता चूसेंगे। तुम जब तक जाग्रत नहीं हो, तब तक लुटोगे ही। फिर किसने लूटा, क्या फर्क पड़ता है? किस झंडे की आड़ में लूटा, क्या फर्क पड़ता है? मंदिर में लुटे कि मस्जिद में, समाजवादियों से लुटे कि साम्यवादियों से, क्या फर्क पड़ता है? तुम लुटोगे। लुटेरों के नाम बदलते रहेंगे और तुम लुटते रहोगे।

राजनीति तो झूठ का खेल है। जब तक तुम सच को न पहचानने लगोगे तब तक तुम झूठों के हाथ में पड़ते ही रहोगे, पड़ते ही रहोगे।

ऐसा मत पूछो कि राजनैतिक लुच्चे-लफंगों से देश का छुटकारा कब होगा? यह प्रश्न अर्थहीन है। ऐसा पूछो कि मैं कब इतना जाग सकूंगा कि झूठ को झूठ की तरह पहचान सकूं। और जब तक सारी मनुष्य-जाति झूठ को झूठ की भांति नहीं पहचानती, तब तक छुटकारे का कोई उपाय नहीं है।

हम सिर्फ अपने कंधों के बोझ बदलते रहते हैं। मरघट तुमने देखा है, लोग अर्थी ले जाते हैं! एक कंधा थक जाता है, तो फिर अर्थी को दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। कुछ अर्थी का बोझ कम नहीं हो जाता कंधा बदलने से। लेकिन थका कंधा, थोड़ी राहत ले लेता है, गैर-थका कंधा थोड़ा सम्हाल लेता है। फिर जब वह कंधा थक जायेगा, फिर कंधा बदल लेंगे।

बस ऐसे ही एक राजनेता को हटाते हो दूसरे को बिठलाते हो; कंधा थक जाता है, फिर तीसरे को बिठाल लोगे। यह खेल चलता रहता है…सदियां बीत गईं! आदमी के भीतर कहीं कोई किरण की कमी है, कहीं कोई रोशनी की कमी है। झूठ नहीं पहचान पाता। और कैसे झूठ तुमसे बोले जाते हैं, फिर भी तुम नहीं पहचान पाते! राजनेता ऐसे झूठ बोलते हैं, जिसको कोई भी पहचान ले, बच्चा भी पहचान ले कि यह झूठ है। लेकिन फिर तुम भ्रम में आ जाते हो। तुम उनके आश्वासनों को फिर मान लेते हो। तुम फिर भरोसा कर लेते हो कि आ गया रामराज्य, इस बार पक्का आ गया! कभी नहीं आता।

राजनेताओं से रामराज्य कभी आने को है भी नहीं! सच तो यह है कि राम के राज्य में भी कहां रामराज्य था, तो अब क्या आयेगा? रामराज्य कभी रहा ही नहीं है। शूद्र उतने ही पीड़ित थे राम के राज्य में जितने आज पीड़ित हैं। एक शूद्र के कानों में शीशा पिघलाकर डाल दिया गया था, क्योंकि उसने   वेद के वचन सुन लिये थे। यह रामराज्य है! यह कैसा रामराज्य? शूद्र और ब्राह्मण का यह भेद, रामराज्य! स्त्री-पुरुष के बीच इतना भेद था जिसका हिसाब नहीं। जब राम सीता को रावण से छीनकर ले आये, तो उसकी अग्नि-परीक्षा ली। स्वयं भी तो देनी थी। क्योंकि सीता अकेली रही थी, राम भी अकेले रहे थे। और कई इतिहासज्ञ हैं जिनको शक है कि राम का शबरी से प्रेम था। मैं नहीं जानता, मैं कोई गवाही नहीं दे रहा हूं कि था कि नहीं। मुझे कुछ लेना-देना भी नहीं है–न शबरी से न राम से। लेकिन इतिहासज्ञ हैं, मैंने किताबें पढ़ी हैं, जिनको शक है।

लेकिन स्त्री-पुरुष में भेद है। स्त्री को तो अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी। पुरुष…पुरुष तो सदा ही शुद्ध है! पति तो परमात्मा है! उसको परीक्षा क्या देनी? यह तो बेईमानी हो गई। या तो सीता की परीक्षा नहीं लेनी थी। और अगर लेनी थी तो दोनों को आग से गुजरना था। और फिर भी तुम देखते हो, परीक्षा से भी क्या हुआ! लौटकर अयोध्या में सरसरी फैली होगी कि इतने दिन तक रावण के वहां रही, पता नहीं क्या संबंध रहा, कैसा रहा! लोग तो सदा लोग हैं, अफवाहों पर जीते हैं! अफवाहें ही उनकी सारी संपदा हैं।

कहानी कहती है कि एक धोबी के कहने से, मगर मैं यह नहीं मान सकता, कई धोबी कह रहे होंगे। क्योंकि धोबियों को मैं जानता हूं। उनका धंधा ही यही है। एक धोबी तभी कह सकता है, जब कई धोबी कह रहे हों। हवा रही होगी, पूरे गांव में यही चर्चा रही होगी। अयोध्या में यही कानाफूसी चल रही होगी कि मामला क्या है, इतने दिन तक रावण के घर रहकर सीता को ले आये! कोई एक धोबी के कहने से राम ने सीता को छोड़ा होगा, यह बात जंचती नहीं है। यह तो बड़ा ही अलोकतांत्रिक हो जायेगा कि निन्यानबे प्रतिशत लोग पक्ष में थे और एक प्रतिशत पक्ष में नहीं थे। उस एक प्रतिशत के लिए निन्यानबे प्रतिशत के विचार की हत्या की गई, यह तो रामराज्य नहीं होगा। यह तो अल्पमत का राज्य हो जायेगा।

और फिर, जब अग्नि-परीक्षा ले ली थी; फिर तो सीता को छुड़वा देना जंगल में–गर्भवती सीता को–बड़ा अन्यायपूर्ण है! फिर परीक्षा का क्या हुआ, फिर परीक्षा का अर्थ क्या था? और अगर ऐसा ही था कि लोग बहुत निंदा कर रहे थे, तो स्वयं भी सीता के साथ जंगल चले जाना था। तो कुछ बात भी होती। राज्य बचा लिया, पद बचा लिया, पत्नी छोड़ दी? स्त्री का मूल्य ही क्या है, लोग तो उसको पैर की जूती समझते रहे हैं!

नहीं, उस दिन भी रामराज्य क्या खाक रहा होगा! रामराज्य कभी नहीं रहा। रामराज्य आयेगा तब, जब तुम्हारे भीतर ज्योति होगी; जब तुम्हारे भीतर ध्यान का प्रकाश होगा। जब बहुत लोग ध्यानपूर्वक जीयेंगे, तब यह संभव है।

राजनीति तो झूठ पर चलती है।

ढब्बू जी ने एक नेता जी से पूछा: एक झूठ बोलकर तो दिखाइये बिना सोचे। नेताजी ने कहा: मैं झूठ नहीं बोलता। ढब्बू जी ने कहा: शाबास! आपने सोचने में जरा भी वक्त नहीं लिया।

नेताजी और झूठ न बोलें, तो नेताजी बोलेंगे क्या!

श्रीमती जी ने यह सुनकर कि आज उनके मित्रों को उनके पतिदेव ने, जो कि एक राजनेता हैं, खाने पर बुलाया है…। तो नेताजी आनन-फानन उठे और घर-भर की छतरियां तथा हैट उठाकर भंडार घर में छिपा आये। श्रीमती जी ने जरा चकित होकर पूछा कि क्या आपको डर है कि मेहमान लोग छतरियां और हैट चुरा ले जायेंगे? यह बात नहीं, नेताजी ने खोपड़ी खुजाते-खुजाते कहा, मुझे यह डर है कि वे लोग अपनी वस्तुएं पहचान न लें।

नेताओं की जिंदगी तो झूठ और चोरी पर ही चलेगी। और फिर ज्यादा-से-ज्यादा तुम बदलाहट कर सकते हो–एक चोर की जगह दूसरा चोर। और चोर वही के वही हैं। चोरी वही की वही है। छाप तुम कोई भी लगा लो।

तुम देखते हो, एक ही तरह के चोर इस मुल्क की छाती पर सवार हैं। इस पार्टी से उस पार्टी में चले जाते हैं; उस पार्टी से इस पार्टी में चले जाते हैं; चोर वही के वही!

मुल्ला नसरुद्दीन केमिस्ट की दुकान पर गये और दुकानदार से बोले: याद है, कल मैं आपके यहां से एक स्याही के दाग दूर करने वाली दवा ले गया था? दुकानदार ने कहा: हां, क्या नसरुद्दीन, दूसरी शीशी चाहिए, मुल्ला ने कहा कि नहीं, अब उस दवा के दाग को मिटाने वाली दवा हो तो दे दीजिए।

एक राजनैतिक पार्टी नुकसान करती है। फिर उसको सुधारने के लिए दूसरी को लाओ; वह और नुकसान करती है। फिर तीसरी को लाओ।…यह जारी रहा है। आदमी की छाती पर शोषण जारी रहा है। और जारी रहेगा। कसूर तुम्हारा है। तुम जागो। कसूर राजनैतिक का नहीं है। राजनैतिक तो सिर्फ अवसरवादी है। वह तो अवसर का फायदा ले रहा है। वह देखता है कि तुम राजी हो सीढ़ियां बनने को तो तुम्हारी सीढ़ियां बनाकर चढ़ जाता है। उसे कुर्सी तक पहुंचना है। तुम कुर्सी को जब तक आदर दोगे, तब तक कुछ लोग तुम्हें सीढ़ियां बनाकर कुर्सी पर पहुंचते रहेंगे। कुर्सी को आदर देना बंद करो। कोई जरूरत क्या है? अगर प्रधान मंत्री गांव में आ जायें, तो सारे गांव को वहां मूढ़ों की तरह इकट्ठे होने की आवश्यकता क्या है? आने दो, जाने दो; तुम चिंता छोड़ो। तो कुर्सी का जो मूल्य बन गया है, वह नीचे गिरे।

कुर्सी का मूल्य गिराओ। कुर्सी को नीचे हटाओ। कुर्सी को इतने नीचे हटा दो कि कुर्सी पर बैठने का मजा ही न रह जाये। जब तक कुर्सी पर बैठने का मजा है, तुम चले पूजा करने: तुम चले फूलमालाएं लेकर। और मजा यह है कि वे ही नेता जब तक पद पर नहीं थे, तुम्हारे गांव में आये तो तुम्हें कोई चिंता न थी। जैसे ही वे पद पर पहुंच जाते हैं, तुम एकदम दीवाने हो जाते हो, जैसे उनमें कोई ईश्वरीय शक्ति का अवतरण हो जाता है! कुर्सी का इतना समादर करोगे, तो फिर लाखों लोग कुर्सी तक पहुंचने के लिए तड़फेंगे। और जब लाखों लोग तड़फेंगे, तो संघर्ष छिड़ेगा, महत्वाकांक्षा होगी, गलाघोंट प्रतिस्पर्धा होगी। फिर उनमें जो सबसे ज्यादा चालबाज होगा, वही पहुंच पायेगा।

राजनीति में तो वही जीतेगा जो सबसे ज्यादा चोर, सबसे ज्यादा बेईमान होगा। और इतना कुशल होना चाहिए कि बेईमानी भी करता रहे और ईमानदारी का झंडा भी उठाये रहे। साधु-संत भी बना रहे ऊपर-ऊपर और भीतर-भीतर सारे उपद्रव भी जारी रखे। इस सबके पीछे आधार क्या है? तुम क्यों कुर्सी को इतना मूल्य देते हो?

पद के मूल्य को गिराओ। हर चीज का मूल्य बढ़ रहा है, कम-से-कम एक चीज का मूल्य मत बढ़ने दो। कुर्सी का मूल्य मत बढ़ने दो। उसका मूल्य-हृास करो। जैसे रुपये की कीमत गिरती जाती है, ऐसे ही कुर्सी की कीमत गिराते जाओ। एक घड़ी ऐसी आ जाये कि जिसको तुम कुर्सी पर बिठा दो, वह बैठा ही रहे, न कोई फूल माला लाये, न कोई शोरगुल मचाये, न कोई जय-जयकार करे। तब तुम पाओगे कि राजनीति में दूसरी तरह के लोग उत्सुक होंगे, जो कुछ सेवा करना चाहते हैं। तब! नहीं तो चोर और लफंगे और लुच्चे ही उत्सुक होंगे, जो ताकत में होना चाहते हैं।

कुर्सियां डस रही हैं मौसम को

पर उन्हें सब सलाम करते हैं

कुर्सियां आज बन गई हैं रोग

कितने मासूम ब-अदब हैं लोग

चोट खाखाकर मुस्कराते हैं

राज-काजों में कट गया सब दिन

घर की राहों में आह भरते हैं

कुर्सियां डस रही हैं मौसम को

पर उन्हें सब सलाम करते हैं

 

कुर्सियों के बिना गुजर भी नहीं

कुर्सियों की बड़ी उमर भी नहीं

कुर्सियां सभ्यता का लालच हैं

कुर्सियां मौत से बड़ा सच हैं

कुर्सियां सोचती नहीं खुद तो

सोचते वे कि जो उतरते हैं

या कि जो कुर्सियों से डरते हैं

कुर्सियां डस रही हैं मौसम को

पर उन्हें सब सलाम करते हैं।

कुर्सियों को सलाम करना बंद करो। कुर्सी-पूजा बहुत हो चुकी। जितनी कुर्सी की पूजा कम हो जाये उतने ही गलत लोग कुर्सी की तरफ जाना बंद कर देंगे। तुमने कुर्सी को बहुत आकर्षण दे दिया है।

लेकिन अखबारों में राजनेता की चर्चा है पहले पृष्ठ से लेकर आखिरी पृष्ठ तक। गांव में उसकी चर्चा है, होटलों में उसकी चर्चा है, चौपालों में उसकी चर्चा है। जहां देखो वहां राजनीति की चर्चा है। सुबह से उठे नहीं कि बस अखबार की तरफ दौड़ते हो। चाय भी पीछे, पहले अखबार पीते हो। जरा खाली समय मिला कि रेडियो पर बैठ जाते हो कि लगा लिये कान दिल्ली पर।

मेरा प्रयास यही है। अगर मैं राजनीति के खिलाफ कभी बोलता हूं तो उसका कारण यह नहीं है कि मुझे राजनीति में कोई रस है। उसका कुल कारण इतना है कि मैं चाहता हूं कि तुम्हारे मन से राजनैतिक की प्रतिष्ठा समाप्त हो जाये। प्रतिष्ठा समाप्त होगी तो प्रतिष्ठा-लोलुप व्यक्ति उस तरफ जाने अपने-आप बंद हो जायेंगे। तुम जिस चीज को मूल्य देते हो, लोग उसी तरफ जाने लगते हैं।

तुमने देखा, पुराने जमाने में हम संन्यासियों को मूल्य देते थे, तो हर आदमी के मन में एक कामना होती थी कि कभी-न-कभी संन्यासी होना है। होना ही है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, मगर एक दिन वह सौभाग्य की घड़ी जरूर आयेगी, जब मैं भी संन्यस्त हो जाऊंगा। लोग सपना देखते थे संन्यासी होने का! छोटे बच्चे संन्यासी होने का सपना देखते थे। संन्यासी का मूल्य था, क्योंकि सम्राट भी संन्यासी के चरण छूते थे। तो संन्यास की एक हवा थी।

अब छोटे बच्चे ही नहीं, बूढ़े भी सोचते हैं कैसे फिल्म के नेता हो जायें अभिनेता हो जायें। अगर नेता नहीं हो सकते तो कम-से-कम अभिनेता हो जायें। मगर दो ही चीजें होती हैं लोगों को या तो नेता या अभिनेता। बच्चे एकदम बंबई की तरफ भागते हैं या दिल्ली की तरफ। और किसी चीज का कोई आकर्षण नहीं मालूम होता। किसी को फिकिर नहीं है कि कुछ और भी जीवन में है–बस अभिनेता या राजनेता। क्योंकि दोनों को खूब सम्मान मिल रहा है, खूब आदर मिल रहा है, खूब प्रशंसा मिल रही है, फूलमालायें मिल रही हैं।

अहंकार जहां तृप्त होता है उस तरफ लोग दौड़ने लगते हैं।

बदलो इस मूल्य को। अगर आदर ही देना हो तो उन चीजों को आदर दो जिनकी तरफ लोग दौड़ेंगे तो जीवन का सौंदर्य बढ़े। संगीतज्ञ को आदर दो। उस साधक संगीतज्ञ को आदर दो जो आठ घंटे रियाज करता है और वर्षों के बाद कभी कुशल हो पाता है। उसे आदर दो। उस मूर्तिकार को आदर दो जो पत्थर को तोड़ता है और पत्थर में प्राण डालता है, कि एक दिन पत्थर बोलने लगता है, सजीव हो उठता है। उस कवि को आदर दो, जिसके गीत आकाश की कुछ खबर लाते हैं। उस ऋषि को आदर दो जो वर्षों ध्यान में डूब-डूबकर एक दिन अपने शून्य को प्रगट करता है।

आदर ही देना है तो कुछ ऐसी चीजों को आदर दो, जो लोगों के जीवन में बढ़े तो जगत सुंदर बने, मनोरम हो, यह पृथ्वी स्वर्ग बने। मगर तुम गलत लोगों को आदर देते हो। तुम राजनेताओं को आदर देते हो या अभिनेताओं को आदर देते हो। फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि अगर आदर इन दोनों में से ही चुनना हो तो अभिनेता को देना, राजनेता को तो देना ही मत। अभिनेता फिर भी एक तरह की कला के जगत में अपने को लगाता है। बहुत कीमती उसकी कला नहीं है, सतही है, थोथी है। क्योंकि तृतीय श्रेणी की जो भीड़ है उसको तृप्त करने के लिए उसकी कला है। उसकी कला में कोई अभिजात्य नहीं है। हो भी नहीं सकता, क्योंकि बाजारू है। नहीं तो उसकी फिल्म चलेगी कहां, देखेगा कौन?

अगर तुम ध्यान करते लोगों की फिल्म बनाओ, देखेगा कौन? हुड़दंग चाहिये, तो लोग देखेंगे, क्योंकि हुड़दंगे हैं। चारों तरफ उस तरह के लोग हैं। जितनी हुड़दंग हो फिल्म में, जितना शोर-शराबा मचे, उतने लोग देखेंगे। सतही है, मगर फिर भी कम-से-कम कला तो है। और एक बात तो निश्चित है, कम-से-कम हानि नहीं होती उससे कुछ। राजनेता निश्चित नुकसान पहुंचाता है, क्योंकि राजनीति का मौलिक आधार ही बेईमानी है, जालसाजी है, चालबाजी है।

यह कौन-सा गगन है

हर ओर चांदत्तारे

लगते बुझे-बुझे से

कहते कि जल रहे हैं

हर फूल कह रहा है

माली सही नहीं है

और शूल कह रहे हैं

खुशबू रही नहीं है

यह कौन-सा चमन है

हर ओर रंग बिखरे

लेकिन कदम हवा के विपरीत चल रहे

हर धूप सेंकती है छाया

गुनाह करके

निर्माण चाहती है हिंसा तबाह करके

यह कौन-सा भवन है

चारों उदास कोने

दीवार है पुरानी

परदे बदल रहे

बदली गई सुराही

दो स्वाद एक नशा है

आंसू किसी हंसी के

भुज पाश में बंधा है

यह कौन सा शमन है

मरघट गुलाल छिड़के

कुछ अर्थहीन नारे

मुख से निकल रहे

पहले हृदय से घायल

अब बुद्धि से हैं घायल

अब दुख रहे हैं कंगन

तब दुख रही थी पायल

यह कौन सा तपन है

भयभीत कल्पनाएं

यह रक्त बीज दृग में

दिन-रात पल रहे हैं

एक दुख-स्वप्न चल रहा है और सदियों से चल रहा है। इस दुख-स्वप्न को तोड़ना है। मनुष्य की महत्वकांक्षा को कुछ ऊंचाइयां दो। परमात्मा पाने की अभीप्सा दो, पद पाने की नहीं। ध्यान की तलाश दो, धन की तलाश नहीं। दूसरों को जीतने का प्रलोभन मत दो, स्वयं को जीतने का विचार जन्माओ।

राजनीति का अर्थ होता है: दूसरों को कैसे जीत लूं? धर्म का अर्थ होता है: स्वयं को कैसे जीत लूं? इसलिये धर्म और राजनीति बड़े विपरीत हैं। धर्म फैले तो राजनीति अपने-आप सिकुड़ जायेगी और अगर धर्म न फैला तो राजनीति फैलती ही रहेगी। आदमी जीतेगा तो…जीतने की आकांक्षा आदमी के प्राणों में है। अगर अपने को नहीं जीतेगा तो दूसरों को जीतेगा।

धन्यभागी हैं वे जो स्वयं को जीतते हैं, क्योंकि स्वयं को जीतकर ही परमात्मा के मंदिर का द्वार खुलता है, शाश्वत जीवन उपलब्ध होता है। और अभागे हैं वे, जो दूसरों को ही जीतने में लगे रहते हैं क्योंकि दूसरों को तो जीत ही नहीं पाते, दूसरों को जीतने की चेष्टा में स्वयं को भी गवां बैठते हैं।

 

चौथा प्रश्न:

 

मैं कैसे भवसागर पार करूं? नौका है टूटी-फूटी, पतवारें हाथ में नहीं, सागर विशाल है और मेरी सामर्थ्य अति सीमित। कहीं मध्य में ही डूब तो न जाऊंगा?

 

हली बात, डूबने की कला ही भवसागर को पार करने की कला है। जो डूबने को तैयार हैं वे ही भवसागर के पार होते हैं। जो डूबते हैं उन्हीं को किनारा मिलता है। इसलिए तुम यह मत पूछो कि कहीं मैं डूब तो न जाऊंगा? डूबने से डरे, तो चूक जाओगे। डूबने से डरे तो इसी किनारे पर अटके रह जाओगे। डूबने से डरे, तो अहंकार को बचा रहे हो, और क्या कर रहे हो?

डूबने का क्या अर्थ है? शरीर तो एक दिन मौत ले लेगी, डूबेगा। अब मन बचता है, चाहो तो बचा लो। बचा लोगे तो नये शरीर को ग्रहण कर लेगा। फिर नयी नौका में बैठ जायेगा। फिर भवसागर की यात्रा शुरू हो जाएगी। मन को बचाया तो नये गर्भ में प्रवेश कर जाओगे। देह तो चढ़ जाती है चिता पर, मन जल्दी से नये गर्भ में प्रवेश कर जाता है।

डूबने से मेरा क्या अर्थ है? डूबने से मेरा अर्थ है: शरीर तो अपने-आप मृत्यु ले लेगी, तुम अपने मन को ध्यान में डुबा दो। जैसे शरीर चिता पर जल जायेगा, ऐसे तुम अपने मन को साक्षी में जला दो। न बचे शरीर न बचे मन, फिर जो शेष रह जायेगा, तुम्हारे भीतर का आकाश–वही मोक्ष है, वही मुक्ति है। हो गये पार। मध्य में डूबो तो पार हो जाओ।

हम भी अजब जंतु हैं जग में चढ़ कागज की नाव,

प्रेम-समंदर चले लांघने लगा प्राण के दांव;

पेशेवर मल्लाह हंस पड़े यह बौड़मपन देख,

पर हमने दे टीप, अलापी अपने मन की टेक।

 

दुनियादारो, तुम क्या समझो हम मस्तों का खेल?

शास्त्र हमारा अलग जगत से अलग हमारी गैल;

सरकण्डे की डांड़ हमारी, और कागज की नाव,

लहर, भंवर का इस सागर में हमें नहीं अटकाव।

 

इन उपकरणों को ही लेकर सदियों पहले यार,

जिन पगलों ने किया संतरित यह रस पारावार,

हम भी उन ही के वंशज हैं, फिर हमको क्या सोच?

कैसी झिझक? जुगुप्सा कैसी? क्या भय? क्या संकोच?

 

तरल तरंगित, पवन विकम्पित प्रेमाम्बुधि के बीच;

वे समान-धर्मा अलबेले लीक गये हैं खींच,

अरे, आज भी दीख रहे हैं उनके वे नौ-यान,

क्षीरोदधि में राजहंस की पांतों से अम्लान।

 

हमने भी डाली सागर में नौका जर्जर क्षीण,

गल जाये तो भी क्या चिंता? होंगे सागर लीन,

तिरती है तब तक तो उसमें बैठे हम रस-खान,

हो निःशंक रहेंगे गाते पुण्य प्रेम के गान!

जब तक हो, गाओ गीत! जब तक हो, उठाओ प्रार्थना! जब तक हो, बहने दो अर्चना! और जब डूब जाओ तो आनंदमग्न लीन हो जाना सागर में। बचाव की सोचो ही मत। डरो मत।

जीसस का प्रसिद्ध वचन है: जो बचायेंगे वे खो जाएंगे। और जो खोने को राजी हैं वे बच गये। विरोधाभासी दीखता यह वचन अदभुत है, अपूर्व है। यह समस्त ध्यानियों की आधारशिला है। यही नाव है जिसमें बैठो। मिट जाओ तो बच जाओगे। पोंछ दो अपने को। बचाने की किंचित भी चिंता न करना, क्योंकि जितने तुम बचोगे उतना ही तुम्हारे और परमात्मा के बीच अवरोध रह जाएगा। जब तुम बिलकुल नहीं होते हो तो परमात्मा पूरा का पूरा प्रगट होता है। तुम्हारे न होने में उसका होना है। तुम्हारे होने में उसका न होना है।

और यहां है भी क्या खोने को? हमारे पास है भी क्या? कुछ लेकर आये न थे, कुछ लेकर जाएंगे नहीं। खाली हाथ आये खाली हाथ जाएंगे। इस बीच के पड़ाव पर थोड़ा शोरगुल मचा लिया है, मकान बना लिया है, थोड़ा धन इकट्ठा कर लिया है, बैंक में बैलेंस जमा करवा दिया है। मगर यह सब बीच का खेल है; एक सपने से ज्यादा इसका मूल्य नहीं है।

सपना मैं किसे कहता हूं? सपना मैं उसे कहता हूं, जो मौत छीन लेगी। जिस चीज को भी मौत छीन लेगी, वह सपना है। चाहे तुम सत्तर साल देखो, इससे क्या फर्क पड़ता है? सात घंटे देखो रात में कि सत्तर साल देखो दिन में, कोई फर्क नहीं पड़ता। निर्णायक कसौटी मौत है। जो मौत तुमसे छीन लेगी वह तुम्हारा नहीं था–उसके लिए तुम नाहक परेशान थे। उसके लिए तुम नाहक बचा रहे थे। उसके लिए तुम नाहक उपाय और आयोजन कर रहे थे। वह तो छिनेगा।

कि जिस दिन तक है जिसका काम,

उसी दिन तक यह दुआ-सलाम;

तभी तक आवभगत, अनुरक्ति, तभी तक है मेरा सम्मान!

जानकर के भी मैं अनजान!

 

प्राप्ति से दूर, कर्म के पास;

मुक्ति से दूर, धर्म के पास;

तर्क से दूर मर्म के पास, लीन होंगे ये मेरे प्राण।

जानकर के भी मैं अनजान!

 

देह पर इतना अत्याचार,

गेह पर इतना अत्याचार;

सत्य चातक है क्षम्य न

विश्व-मेह पर इतना अत्याचार;

बुझा लूं क्या मैं अपनी ज्योति विश्व को करके दीप प्रदान!

जान करके भी मैं अनजान!

जान-जानकर अनजान बने हो! ये सब दुआ-सलाम–राह पर मिल गये अजनबियों के बीच है। ये पत्नी ये पति ये बेटे, पिता-मां भाई मित्र, परिजन परिवार…।

कि जिस दिन तक है जिसका काम,

उसी दिन तक यह दुआ-सलाम;

तभी तक आवभगत, अनुरक्ति, तभी तक है मेरा सम्मान!

जानकर के भी मैं अनजान!

कब तक अपने को धोखा देना चाहते हो? यहां खोने को क्या है?

प्राप्ति से दूर, कर्म के पास;

मुक्ति से दूर, धर्म के पास;

तर्क से दूर मर्म के पास, लीन होंगे ये मेरे प्राण।

तर्क से दूर, मर्म के पास, लीन होंगे ये मेरे प्राण।

जानकर के भी मैं अनजान!

कहां डूबोगे तुम? हृदय में डूबोगे! बुद्धि काम न आयेगी। तर्क काम न आयेंगे। शास्त्र, सिद्धांत काम न आयेंगे। बस प्रेम और प्रार्थना काम आयेगी।

तर्क से दूर, मर्म के पास, लीन होंगे ये मेरे प्राण।

जानकर के भी मैं अनजान!

अब जागो! बहुत दिन अनजान रह चुके, बहुत समय गंवाया। डूब जाओ। उसकी वस्तु उसी को दे दो। कह दो: गोविन्द तेरी वस्तु है, तू संभाल! त्वदीयं वस्तु गोविन्द, तुभ्यमेव समर्पये!

तुम्हारी वस्तु तुम्हारे पास!

मिली थी कुछ दिन हेतु उधार,

किया था मैंने भी तो सत्कार,

आज ले लो तुम अपनी देन, और यह मेरा अमर प्रयास!

तुम्हारी वस्तु तुम्हारे पास!

 

स्वाति-घन हंसे, हुए चुपचाप,

हंसे फिर बोले अपने आप;

हुआ क्या नहीं अभी तक पूर्ण, तृषित चातक तेरा अभ्यास!

तुम्हारी वस्तु तुम्हारे पास!

 

नहीं सह पाया तप का भार,

उतर ही आया शशि सुकुमार;

कह गया कानों में आकाश, “तुम्हारी वस्तु तुम्हारे पास’!

तुम्हारी वस्तु तुम्हारे पास!

दे दो! तुम्हारा है क्या? बचाते क्या हो? बचाना क्या है? डूबो! डूब जाना है। जैसे सरिता सागर में डूब जाती है, ऐसे डूब जाओ। और स्मरण रखो, सरिता सागर में डूबकर सागर हो जाती है।

 

पांचवां प्रश्न:

 

ओशो, क्या लोग कभी भी आपको समझ पायेंगे या नहीं?

 

तुम समझ जाओ, इतना काफी। लोगों की चिंता न करो। लोग यानी कौन? कोई समझेगा, कोई नहीं समझेगा। जो समझ लेगा लाभ ले लेगा। जो नहीं समझेगा, उसकी मर्जी। तुम उनकी चिंता न करो। कहीं ऐसा न हो कि उनकी चिंता करने में तुम्हीं समझने से वंचित रह जाओ।

फिर, प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है। बात खोलकर रख दी है; जिसको लेना हो ले ले, जिसको न लेना हो उसकी भी स्वतंत्रता है। किसी पर जबर्दस्ती थोड़े ही थोपे जाते हैं सत्य।

समझाकर ही रहेंगे, ऐसा आग्रह मत करना। उसी से मतांधता पैदा होती है। उसी से उपद्रव पैदा होता है। उसी से लोग किसी को हिंदू है तो ईसाई बनाने में लगे हैं; कोई ईसाई को आर्यसमाजी बनाने में लगा है; कोई कुछ कर रहा है कोई कुछ कर रहा है। और अकसर मजा ऐसा है…

एक आर्यसमाजी पंडित एक बार मेरे घर मेहमान हुए। उनकी पूरी जिंदगी इसी में गई है कि कोई मुसलमान हो गया तो उसको कैसे आर्यसमाजी बनाओ, कोई ईसाई हो गया, उसको कैसे आर्यसमाजी बनाओ। सुबह हम दोनों साथ-साथ बैठे थे। सर्दी की सुबह, मीठी-मीठी धूप पड़ती थी। मैंने उनसे पूछा कि आपको कई वर्षों से जानता हूं, एक बात मुझे पूछनी है, सच-सच कहना, ईमान से कहना; यह सूरज उग रहा है इसकी कसम खाकर कहना।

उन्होंने कहा: ऐसी कौन-सी बात है? मैंने कहा: तुम आर्यसमाजी खुद हो पाये कि नहीं? तुम न मालूम कितने लोगों को आर्यसमाजी बनाने में लगे हो, तुम खुद हो पाये या नहीं?

एक क्षण को वे झिझक गये। मैंने उनसे कहा कि अब कुछ मत कहना, क्योंकि झिझक ने सब कह दिया। तुम एकदम से उत्तर न दे पाये, सहज उत्तर न निकल पाया, तुम्हारी सांस एक क्षण रुक गई। और जो तुम स्वयं नहीं हो पाये, किसको बना पाओगे? तुम समझे हो धर्म?

नहीं; इसकी उन्हें चिंता ही नहीं है। उनकी चिंता इसमें लगी है कि कोई हिंदू मुसलमान न हो जाये। मैंने उनसे पूछा कि अगर ऐसा होता हो कि वह हिंदू मुसलमान होकर ज्यादा बेहतर आदमी हो जाता हो तो अड़चन क्या है? और अगर जैसा हिंदू था वैसे ही मुसलमान होकर रहता हो तो भी क्या अड़चन है? वैसे का वैसा आदमी है। मंदिर जाता था, अब मस्जिद जाने लगा। कुछ फर्क तो पड़ा नहीं है, वही का वही है। तब जैसा था अब भी वैसा ही है। हां, चिंता तो तुम तब करो जब कि वह जितना हिंदू था उससे भी बुरा हो जाए मुसलमान होकर, तो थोड़ी-बहुत चिंता करो। हिंदू-मुसलमान से क्या लेना-देना है? चिंता इसकी होनी चाहिए कि आदमी कहीं बुरा तो नहीं हो गया।

तो मैंने उनसे कहा कि तुम क्यों इस फिक्र में लगे रहते हो। वे उस वक्त आये ही इसलिए थे उस गांव में कि एक मुसलमान ने एक हिंदू युवती से शादी कर ली थी, तो उसका छुटकारा करवाने आये थे। तुम किसी का छुटकारा कर रहे हो? उस हिंदू स्त्री को अगर प्रेम है उस मुसलमान से तो तुम कौन हो बीच में बाधा डालने वाले? अगर वह प्रसन्न है उस मुसलमान के साथ–और मैं जानता हूं कि वह प्रसन्न है, क्योंकि उस गांव में मेरे सिवाय उनको आशीर्वाद देने वाला कोई था ही नहीं, तो वे मेरे ही पास आशीर्वाद लेने आये थे। मुसलमान नाराज थे कि ये झंझट तुम मत लो क्योंकि हम थोड़े हैं, कही हिंदू भड़क जायें और कोई झगड़ा-झांसा हो जाये, तो नाहक परेशानी होगी। मुसलमान प्रसन्न नहीं थे। और हिंदू तो नाराज होंगे ही, क्योंकि एक हिंदू स्त्री गयी। अपमान हो गया! स्त्रियों को तो लोग संपत्ति मानते हैं न, तो संपत्ति जहां चली गयी, नुकसान हो गया। अगर कोई हिंदू किसी मुसलमान स्त्री को अपने घर ले आये तो हिंदू खुश होते हैं, संपत्ति घर आयी है!

तुम स्त्री को इतना भी सम्मान नहीं देते मनुष्य होने का?…संपत्ति! और मुसलमान के घर चली गयी तो भारी नुकसान हो गया, संपत्ति चली गयी! फिर उसके बच्चे पैदा होंगे और मुसलमानों की संख्या बढ़ती जाएगी और संख्या बढ़ने में तो राजनीतिक बड़ी झंझट खड़ी हो जाती है, वोट इत्यादि। तो मैंने कहा कि मुझे पता है कि वे दोनों खुश हैं, तुम उनमें बाधा मत डालो। और मैं जानता हूं कि तुम खुश नहीं हो। लेकिन तुम अपनी उदासी और अपने दुख को भुलाने के लिए इस तरह की झंझटों में पड़ गये हो। तुम दूसरों को कैसे सुधारना, इसमें लग गये हो–यह भूल ही गये कि अभी खुद घर साफ-सुथरा न हुआ था।

तुम चिंता न करो कि लोग कभी मेरी बात समझ पायेंगे या नहीं। तुम समझ लो। तुम समझ लो, पर्याप्त है।

फिर लोग हजार ढंग के हैं। और लोग हजार ढंग के हैं, यह दुनिया में वैविध्य है। अच्छा है। यहां सभी लोग मेरी बात समझ लें तो उसका अर्थ होगा: एक ही तरह के लोग हैं। नहीं, वह दुनिया बहुत सुंदर नहीं होगी, जहां एक ही तरह के लोग होंगे। बस गुलाब ही गुलाब खिले हैं पूरी बगिया में, कितने ही अच्छे लगते हों तो भी गुलाब ही गुलाब…। नहीं, कुछ जुही भी होनी चाहिए, कुछ चमेली भी होनी चाहिए, कुछ चंपा भी। और-और हजार फूल हैं, सब फूल होने चाहिए।

मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था: जी हां, जब मैं बंबई से पूना की तरफ आ रहा था तब डाकुओं ने मुझे आ घेरा। और मेरे पास के सभी रुपये, घड़ी और सोने की चेन छीनकर चंपत हो गये।

मैंने पूछा: नसरुद्दीन, किंतु तुम्हारे पास पिस्तौल भी तो थी।

“हां थी, लेकिन उस पर उन लोगों की नजर ही नहीं पड़ी।’

समझें भी तो ऐसी ऐसी हैं! करोगे क्या? मगर ये भी प्यारे लोग हैं, ऐसे थोड़े लोग चाहिए।

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन साइकिल पर अपने छोटे बच्चे को बैठाकर सब्जी खरीदने बाजार जा रहा था। रास्ते में हर पांच मिनिट के बाद लड़के को एक चपत जमा देता। जब उसने पांचवीं बार यह हरकत की तो मुझसे न रहा गया। मैंने पूछा कि नसरुद्दीन, इस बच्चे को बिना वजह क्यों मार रहे हो? उसने कहा: क्या बताऊं साइकिल में घंटी नहीं है!

उल्टी खोपड़ियां भी हैं। पर थोड़ी उल्टी खोपड़ियां भी चाहिए, इससे जीवन में थोड़ी हंसी-मजाक रहती है।

एक कवि रचना पढ़ रहे थे। शीर्षक था उनकी कविता का यथार्थ और भ्रम। एक आदमी बीच में खड़ा हो गया, श्रोता और उसने कहा: कृपा करके यथार्थ और भ्रम का पहले अंतर स्पष्ट कर दें, क्या यथार्थ क्या भ्रम? कवि बोले–आपका यहां उपस्थित रहना और मेरा कविता पढ़ना यथार्थ है। पर मेरा यह मानना कि कविता आप समझ रहे हैं या समझ सकेंगे, मेरा भ्रम है।

सभी नहीं समझ सकेंगे। इसलिए तुम इस चिंता में ही मत पड़ो।

मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर गया था। उसने अपना घर मुझे दिखाया। कहा कि यह रहा मेरा संगीत-कक्ष। मैंने उसके संगीत-कक्ष को देखा, मैं थोड़ा हैरान हुआ–बिलकुल खाली! उसमें कुछ भी नहीं–न कोई वीणा, न कोई बांसुरी, न कोई तबला, कुछ नहीं, बिलकुल खाली! मैंने उससे कहा कि नसरुद्दीन, लेकिन मुझे यहां कोई वाद्य नजर नहीं आ रहा है, यह कैसा संगीत-कक्ष है? उसने कहा: वाद्य की क्या आवश्यकता है? यहां बैठकर मैं पड़ोसियों के घर का रेडियो सुनता हूं। इसलिए इसका नाम संगीत-कक्ष है।

नहीं; सारे लोग नहीं सम)ोगे। लेकिन थोड़े-से समझ लें तो बहुत…थोड़े-से भी जिस दिशा में मैं इशारा कर रहा हूं, उस दिशा में देख लें तो बहुत…बुद्ध आये, कितने लोग समझे? थोड़े-से इने-गिने लोग। महावीर को कितने लोग समझे? मुहम्मद को कितने लोग समझे? इने-गिने लोग। यह बात भी तो इतनी ऊंचाई की है! आकाश की तरफ सभी लोग सिर उठाना भी तो नहीं चाहते; उनकी नजरें तो जमीन पर गड़ी हैं। उनको तो जमीन में ही खजाने खोजने हैं। इसीलिए तुम अगर उन्हें आकाश की तरफ कहो भी कि जरा आंख उठाओ, वे कहते हैं हमारा समय खराब मत करो।

लोग ताश खेल सकते हैं और उनके पास समय है। शतरंज बिछाकर बैठ जाते हैं, उनके पास समय है। और उनसे अगर कहो कि ध्यान करो तो वे कहते हैं कि समय कहां है। शतरंज खेलने के लिए समय है! ये वे ही लोग, जो तुम्हें कहते मिल जायेंगे कि क्या करें भाई, समय नहीं कट रहा है, तो ताश खेल रहे हैं। कि फिल्म देखने जा रहे हैं, समय नहीं कट रहा है, कि फिजूल के गपशप में लगे हैं, समय नहीं कट रहा है। मगर इनसे तुम कहो कि ध्यान, और–तत्क्षण उनका उत्तर आता है कि समय कहां है!

समय बहुत है लेकिन ध्यान में कुछ अर्थ है, इस बात को समझने के लिए भी चित्त की एक ऊंचाई चाहिए, एक निर्मलता चाहिए, एक भूमिका   चाहिए, एक तैयारी चाहिए।

मैं जो कह रहा हूं, उसको हर-एक कैसे समझ सकेगा? यह आखिरी कक्षा की बात है। यह आत्यंतिक बात है। इसलिए इसकी फिक्र भी न करो, इसकी अपेक्षा भी न करो। मैं तो चाहता हूं कि थोड़े-से लोग समझ लें तो बस काम हो गया। थोड़े-से दीए जल जाएं, फिर उन दीयों के सहारे कुछ और दीये जलते रहेंगे और दीयों से दीये जलते रहेंगे। बस पर्याप्त है। एक सिलसिला शुरू हो जाए, उतना काफी है। यह सारी पृथ्वी रूपांतरित हो जाए, यह सारी पृथ्वी आज ही इस बात को समझ जाए–इस तरह के आग्रह अगर मन में उठते हैं तो खतरनाक हैं। क्योंकि फिर आदमी जल्दबाजी में पड़ता है और जल्दबाजी में जब पड़ता है तो हिंसा पर उतर आता है। जल्दी करवाना हो तो किसी की छाती पर छुरा रख दो, कहो कि समझते हो कि नहीं? उसको कहना ही पड़ेगा, कि बिलकुल समझते हैं।

ऐसी कहानी है मुल्ला नसरुद्दीन के संबंध में कि एक झक्की आदमी ने, जो एक किस्म का दादा था, एक उपद्रवी, गांव का बड़ा गुंडा, उसने नसरुद्दीन को बुला भेजा। उसने कहा कि मेरे शागिर्द कहते हैं कि तुम बड़े चमत्कारी हो, बड़े रहस्यवादी हो, वे कहते हैं तुम्हें अदृश्य चीजें दिखाई पड़ती हैं, तुम्हें ईश्वर का दर्शन हुआ! और उसने छुरा निकाल लिया और उसने कहा कि मुझे भी कुछ दिखलाओ, नहीं तो आज ठीक नहीं होगा। नसरुद्दीन ने नीचे की तरफ देखा जमीन में और कहा: यह देखो, पाताल, नर्क! लोग सड़ाये जा रहे हैं, काटे जा रहे हैं, आग के कढ़ाहे जल रहे हैं, लोग कढ़ाहों में डाले जा रहे हैं!

उस गुण्डे ने नीचे देखा, उसे तो कुछ दिखाई पड़ा नहीं। फिर नसरुद्दीन ने कहा: यह देखो ऊपर–बहिश्त! शराब के चश्मे बह रहे हैं, हूरें नाच रही हैं, ऋषि-मुनि मजा कर रहे हैं। यह ऊपर देखो!

उस आदमी ने कहा कि मुझे तो कुछ दिखायी नहीं पड़ता, तुम्हें कैसे दिखायी पड़ता है? उसने कहा: तुम छुरा बंद करो भीतर तो मुझे भी दिखाई नहीं पड़ता। तुम्हारे छुरे की वजह से ये चीजें मुझे दिखाई पड़ रही हैं। तुम छुरा तो भीतर रखो। मुझे भी कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है।

मगर भय आदमी को जो न दिखला दे, थोड़ा है। और तुम समझ लेना तुम्हारे शास्त्रों में पंडितों ने जो नर्क की कथायें गढ़ी हैं, वे सिर्फ भय हैं, छुरे हैं। उन छुरों के आधार पर तुम्हें कुछ चीजें मनवाने की कोशिश की गयी है। और जो स्वर्ग की कथायें गढ़ी हैं, वह लोभ है, प्रलोभन है, पुरस्कार है। उन पुरस्कार के आशा पर तुम्हें कुछ चीजें मनवाने की कोशिश की गयी।

न तो मैं तुम्हें नर्क का भय देता हूं न स्वर्ग का प्रलोभन देता हूं! न कोई नर्क है न कोई स्वर्ग है। नर्क तुम्हारे चित्त की एक दशा है–जब तुम मूर्च्छा में जीते हो। स्वर्ग तुम्हारे चित्त की दशा है–जब तुम जागरूक होकर जीते हो। नर्क और स्वर्ग कोई भौगोलिक अवस्थाएं नहीं हैं–मनोवैज्ञानिक अवस्थाएं हैं।

मैं तुम्हें न कोई भय देता हूं न प्रलोभन देता हूं। मैंने जो जाना है वह तुम्हारे सामने रख देता हूं।

कबिरा खड़ा बजार में लिये लुकाठी हाथ।

जो घर बारै आपना चले हमारे साथ।।

 

छठवां प्रश्न:

 

मैं ध्यान करने बैठती हूं, तो जैसे आपकी आंख को देखती हूं, कुछ देर देखते रहने से आंखों से आंसू बहते हैं। अब तो मेरी नाक से भी आंसू टपकते हैं। यह कैसे?

तू प्यार करे या ठुकराये, हम तो हैं तेरे दीवानों में

चाहे तू हमें अपना न बना, लेकिन न समझ बेगानों में

मरने से हमें इनकार नहीं, जीते हैं मगर इक हसरत में

भूले से हमारा नाम कभी, आ जाये तेरे अफसानों में

 

नोरमा! जो भी मेरे रंग में रंग गया है, मेरे अफसानों में आ गया। जो भी संन्यस्त हुआ है, मेरे जीवन का अंग हो गया। तूने संन्यास का साहस किया, उसी दिन से तू मिट गयी।

संन्यास का अर्थ ही यही है, कि शिष्य ने कहा कि अब मैं अपने को अलग से न सोचूंगा, कि मेरी बूंद अब अलग-थलग न होगी, कि मैं अब डूबता हूं। दीक्षा का अर्थ होता है: शिष्य का गुरु के साथ ऐसा जुड़ जाना कि शिष्य का अलग से कोई तादात्म्य न रह जाये। वह घट गया है और आंसुओं से अब उसी की झलक आ रही है। ये आंसू आनंद के आंसू हैं। ये आंसू तेरे हृदय से उठी प्रार्थनायें हैं। इन्हें रोकना मत। मस्त होकर इन्हें बहने दो, ये जितने बहें उतना अच्छा है। ये आंसू ही नहीं हैं, ये तेरे हृदय के फूल हैं। ये फूल ही नहीं हैं, ये तेरे प्राणों की सुवास हैं।

और मैं इतना ही तो सिखाता हूं यहां। रोना सिखाता हूं आनंदमग्न होकर। हंसना सिखाता हूं आनंदमग्न होकर। गीत गाना सिखाता हूं, नाचना सिखाता हूं। मस्ती सार-संक्षेप में। तुम्हें मस्त होना सिखाता हूं, क्योंकि जो मस्त हैं वे परमात्मा के हैं।

यह फूल नहीं है, मेरे मन की भाषा है!

अवनी के मन में अंबर से मिल जाने की अभिलाषा है!

 

बन गई नयन-मुसकान शब्द,

हो गया हृदय का मौन मुखर!

अन्तर्मन के अनजाने कोने का–

आया मधु-भाव उभर!

यह फूल नहीं है, अलिखित मेरे छंदों की परिभाषा है!

 

चिर हुई अचिरता में पल भर

सौरभ-रंग-रस की एक लहर!

मुरझा कर झरने के क्रम में

खुल कर खिलना बस एक पहर!

यह फूल नहीं है, कर्म-वचन-मन खिल पाने की आशा है!

 

यह खुला हुआ अपलक जैसे

अंतरतम का ध्यानस्थ नयन!

है पलक-पंखुरियों पर हंसता

रवि-कर-चुम्बित चंचल हिम-कन!

यह फूल नहीं है, मंत्र-लुब्ध नयनों की अमर पिपासा है!

इन आंसुओं को आंसू न समझना!–

अलिखित मेरे छंदों की परिभाषा है

अवनि के मन में अंबर से मिल जाने की अभिलाषा है!

कर्म-वचन-मन खिल पाने की आशा है!

मंत्र-लुब्ध नयनों की अमर पिपासा है!

ये आंसू नहीं हैं, ये फूल हैं। ये फूल ही नहीं हैं, ये तुम्हारे भीतर आनंद की तरंगें हैं। तुम्हारी वीणा छू ली गयी। तुम्हारी वीणा में स्वर आने शुरू हो गये हैं। खुशी मनाओ, जश्न मनाओ, उत्सव मनाओ।

और जिस दिन संन्यस्त हुई मनोरमा, उसी दिन मेरे अफसाने में सम्मिलित हो गयी, मेरी कहानी का हिस्सा हो गयी, मेरे गीत की कड़ी हो गयी!

आखिरी प्रश्न: ओशो,

तुम्हारी याद में जादू भरा है,

पुलकते प्राण हैं, मन नाचता है।

 

कभी गाता, कभी हंसता,

कभी रोता, बिलखता हूं।

अहं पाषाण गलता है,

दृगों से अश्रु झरते हैं।

 

लुटा है मन, ठगा है तन,

रुंधा है कंठ कम्पित स्वर।

तुम में लीन होने को,

बिलखते प्राण हैं मेरे।

तुम्हारी याद में जादू भरा है,

पुलकते प्राण हैं, मन नाचता है।

 

धर्म वेदांत! यही हो, इसका ही तो सारा आयोजन चल रहा है। यह धर्म क्षेत्र, यह काबा इसीलिए तो निर्मित किया जा रहा है कि फिर एक बार तुम्हें परमात्मा की याद आये, जो तुम जन्मों-जन्मों से भूले बैठे हो; कि फिर एक चोट पड़े तुम्हारे हृदय पर; कि फिर तुम्हारा झरना जो भीतर दब गया है, फूट पड़े। बहुत गीत उठेंगे, बहुत सुवास झरेगी, बहुत दीये जलेंगे। चलते चलो। जैसे-जैसे डूबोगे ध्यान में और जैसे-जैसे डूबोगे–इस रस में, जिसको मैं संन्यास कहता हूं–वैसे-वैसे अपूर्व चमत्कार तुम्हारे जीवन में प्रत्यक्ष होने लगेंगे क्योंकि वैसे-वैसे परमात्मा तुम्हारे करीब आयेगा, उसकी पगध्वनि सुनायी पड़ेगी।

ख्वाबों के उफक पे जगमगाया कोई,

खुरशीद सिफ्त व मुस्कुराया कोई।

टूटा ये तिलिस्मे शबे गम अब टूटा,

आया निगहे शौक! यों आया कोई।

 

सोई हुई यादों को जगाता गुजरा,

एहसास में हलचल सी मचाता गुजरा।

तजदीदे रहो रहम हो जैसे मंजूर;

यूं पास से कोई मुस्कुराता गुजरा।

 

गुंचों के लबों पे मुस्कराहट आई,

बुझते तारों में जगमगाहट आई,

दिल पिछले पहर आज कुछ ऐसे धड़का;

जैसे तेरे कदमों की अब आहट आई।

 

खामोशी की गुफ्तगूं सही है बरसों,

यूं उसकी सुनी अपनी कही है बरसों।

मैं उसके लिए नया न वो मेरे लिये,

ख्वाबों में मुलाकात रही है बरसों।

जिससे अब तक तुम्हारा कभी-कभी सपनों में थोड़ा-सा साक्षात्कार हुआ है उसे खुली आंखों, तुम से मिला देना है। जिसकी झलक कभी-कभी किन्हीं अनायास क्षणों में तुम्हें मिली है, किसी दिन सूरज को उगते देखकर और तुम्हारे भीतर गदगद भाव उठा है और झुक जाने का मन हुआ है–कि झुक जाने का घुटनों पर, कि सिर टेक देने का पृथ्वी पर, कि कभी आकाश को तारों से भरा देखकर तुम्हारे हृदय में एक गुदगुदी दौड़ गयी है, रहस्य की थोड़ी-सी प्रतीति हुई है, कि कभी किसी खिले फूल को देखकर, कि पपीहे की पी-पी की पुकार सुनकर तुम्हारे भीतर कोई सोई पुकार झंकार गयी है, कि कभी गहन संगीत में, कि कभी गहन प्रेम में तुम्हें परमात्मा की थोड़ी-थोड़ी आहट मिली–वह सब ख्वाब में हुआ था!

मैं उसके लिए नया न वो मेरे लिये,

ख्वाबों में मुलाकात रही है बरसों।

अब खुली आंख से मुलाकात कर लो।

ख्वाबों के उफक पे जगमगाया कोई

देखो वो दूर क्षितिज पर उगने लगा परमात्मा का सूरज।

ख्वाबों के उफक पे जगमगाया कोई,

खुरशीद सिफ्त वो मुस्कराया कोई।

टूटा ये तिलिस्मे शबे गम अब टूटा,

टूटने लगी यह रात अंधेरे की, ये विरह की।

टूटा ये तिलिस्मे शबे गम अब टूटा,

आया निगहे शौक! यों आया कोई।

कोई आने लगा पास–कोई रोज-रोज आने लगा पास! शनैः शनैः आवाज करीब आने लगी।

सोई हुई यादों को जगाता गुजरा

एहसास में हलचल सी मचाता गुजरा।

तजदीदे रहो रस्म हो जैसे मंजूर;

यूं पास से कोई मुस्कराता गुजरा।

पहले तो भनक पड़ेगी। पहले तो सिर्फ एहसास होगा। पहले तो उसकी मौजूदगी अनुभव होगी। वह दिखाई नहीं पड़ेगा। फिर धीरे-धीरे-धीरे-धीरे आंखें राजी हो जाएंगी। जैसे कभी तुम भरी दोपहरी के बाद घर लौटे हो, तो अपने कमरे में अंधेरा मालूम पड़ता है, कुछ दिखाई नहीं पड़ता है। फिर धीरे-धीरे आंखें राजी हो जाती हैं। फिर कमरे में रोशनी मालूम होने लगती है।

गुंचों के लबों पे मुस्कराहट आई,

बुझते तारों में जगमगाहट आई,

और जिसके जीवन में परमात्मा से थोड़ा-सा संपर्क हो जाए, थोड़ा-सा भी–उसके जीवन की सारी कहानी बदल जाती है। उसके जीवन का गीत बदल जाता है। उसके प्रत्येक अनुभव में ज्योतिर्मयता फलित होने लगती है।

गुंचों के लबों पे मुस्कराहट आई,

फूल तो पहले भी देखे हैं, लेकिन अब फूलों में उसी की मुस्कुराहट दिखाई पड़ेगी।

गुंचों के लबों पे मुस्कराहट आई,

बुझते तारों में जगमगाहट आई,

तारे तो पहले भी देखे थे बहुत, मगर अब तारे वही नहीं हैं। अब हर रोशनी में उसकी रोशनी झलकेगी। हर रोशनी में उसकी रोशनी है। हर सौंदर्य में उसी का सौंदर्य है। अब तुम किसी सुंदर स्त्री को देखोगे और ऐसा नहीं लगेगा कि कोई सुंदर स्त्री देखी है–ऐसा ही लगेगा कि वही झलक दे गया! अब किसी बच्चे को प्रसन्न मुस्कुराते देखोगे, खिलखिलाते देखोगे–और तत्क्षण तुम्हें एहसास होगा, वही खिलखिला गया!

गुंचों के लबों पे मुस्कराहट आई

बुझते तारों में जगमगाहट आई,

दिल पिछले पहर आज कुछ ऐसे धड़का;

जैसे तेरे कदमों की अब आहट आई।

 

खामोशी की गुफ्तगूं सही है बरसों,

यूं उसकी सुनी अपनी कही है बरसों।

मैं उसके लिए नया न वो मेरे लिये,

ख्वाबों में मुलाकात रही है बरसों।

धर्म वेदांत! रुकना नहीं, क्योंकि यह कठिनाई आती है। लोग ऐसे हैं कि जरा-सा कुछ मिल जाता है तो बस वहीं रुक जाते हैं। और आगे, और आगे! तुम्हें मैं टेरता ही रहूंगा और पुकारता ही रहूंगा–और आगे!

इतनी नाकामियां

इतनी महरूमियां

इतनी मजबूरियां

इतनी लाचारियां

 

कितना चाहा मगर

फिर भी उठ न सका,

उनकी महफिल में जो

एक बार आ गया,

 

इश्क मगमूम था,

इश्क नाशाद था,

हुस्न बेचैन था,

हुस्न बेताब था

 

मंजिलें दूरियां

छोड़कर आ गईं

शौक से जब भी

उनको पुकारा गया

उठ तो न सकोगे अब इस महफिल से। लेकिन बैठे ही न रह जाना। बैठे-बैठे भी यात्रा करनी है। अंतर्यात्रा तो बैठे-बैठे ही होती है।

इतनी नाकामियां

इतनी महरूमियां

इतनी मजबूरियां

इतनी लाचारियां

मुझे पता है, बहुत कठिनाइयां हैं, बहुत सीमाएं हैं, बहुत पत्थर हैं रास्तों पर। हजार बाधायें, अड़चनें हैं! सारा संसार विपरीत हो जाएगा। क्योंकि जैसे ही तुम परमात्मा की तरफ बढ़ने शुरू हुए, पाओगे कि अपने पराये होने लगे, कि अपने ही दुश्मन होने लगे।

इतनी नाकामियां

इतनी महरूमियां

इतनी मजबूरियां

इतनी लाचारियां

 

कितना चाहा मगर

फिर भी उठ न सका,

उनकी महफिल में जो

एक बार आ गया

मगर अब उठने का उपाय नहीं, महफिल में तुम आ ही गये। सम्मिलित हो ही गये–दीवानों की इस बस्ती में–दीवानों की इस मस्ती में!

कितना चाहा मगर

फिर भी उठ न सका,

उनकी महफिल में जो

एक बार आ गया,

 

इश्क मगमूम था

इश्क नाशाद था,

हुस्न बेचैन था

हुस्न बेताब था।

 

मंजिलें दूरियां

छोड़कर आ गईं

शौक से जब भी

उनको पुकारा गया।

और अब कहीं जाना नहीं है। अब तुम जहां हो वहीं परमात्मा आयेगा। पुकारे चलो। मगर पुकारना–परिपूर्ण अभीप्सा से। सारे जीवन को दांव पर लगाकर पुकारना। पुकारना कि श्वास-श्वास पुकार बन जाये, हृदय की धड़कन-धड़कन पुकार बन जाए। तुम समग्रता से पुकारो तो द्वार खुलने में देर नहीं है। देर कभी नहीं थी, तुमने पुकारा ही नहीं।

जीसस ने कहा है: मांगो और मिलेगा। खटखटाओ और द्वार खोल दिये जाएंगे। खोजो और पा लोगे। वही मैं तुमसे पुनः पुनः कह रहा हूं।

 

आज इतना ही।


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प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन–07)

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उसके चरणों में भावों के पुष्प अर्पित हैं—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 जून 1976;

श्री ओशो आश्रम पूना।

बाऊलगीत:

जब तक तुम पृथ्वी पर हो

तुम पृथ्वी अर्थात् अपनी माटी की देह के प्रति स्वयं ही वचनबद्ध हो।

ओ मेरे हृदय!

यदि तू उस अप्राप्य पुरुष को प्राप्त करना चाहता है—

तो उसके चरणों में

अपने भावों के पुष्पों को अर्पित कर दे;

और अपनी प्रार्थना के आंसुओ से

जो तेरी आंखों से बाढ़ की तरह उमड़ रहे हैं

उन चरणों को भिगो दे।

जिस मानुष की तू खोज कर रहा है।

वह तेरी इस माटी के तन में ही है।

मृत्यु से नवजीवन का प्रारंभ होता है।

और मरने के बाद मृत्यु उसके अस्तित्व को माटी में ही मिला देती है।

और मृत्यु के साथ मर ही जाना है परतुझे जीवित रहते हुए ही

उसे जरूर खोज लेना चाहिए।

बाउलों का धर्म, पृथ्वी का ही धर्म है। वस्तुत: वह मौलिक धर्म है, क्योंकि वह अस्तित्व की जड़ों से जुड़ा है। जब मैं कह रहा हूं कि पृथ्वी का धर्म है तो इसके कई अर्थ हैं, यह देह का धर्म है, यह प्रकृति का धर्म है, यह वास्तविक यथार्थ का धर्म है।

बाउलों का विश्वास किन्हीं काल्पनिक कथाओं में नहीं, और न उनका विश्वास किसी स्वर्ग या बहिश्त में है। वे दूर के लक्ष्यों में विश्वास नहीं रखते, वे काल्पनिक आदर्श संसार का सपना नहीं संजोते, वे बहुत अधिक जमीन से जुड़े वास्तविक मनुष्य हैं। यह चीज धर्मों के संसार में बहुत विशिष्ट है। क्योंकि साधारण धर्म और कुछ भी नहीं है, बल्कि वह दुखी मनुष्यता के सपनों और कामनाओं को पूरा करते हैं।

क्योंकि मनुष्यता दुख भोग रही है, इसलिए वह वास्तविक जीवन की अधूरी कामनाओं को सपनों में पूरा करते हैं। एक निर्धन व्यक्ति अपने आपको आश्वस्त कर सकता है कि वह कम से कम परमात्मा के राज्य में तो प्रथम होगा। वह इस तरह कहकर अपने आपको संतोष दे सकता है। धन्यभागी हैं वे विनम्र और दबे हुए लोग क्योंकि वे ही एक दिन उत्तराधिकार में पृथ्वी का राज्य प्राप्त करेंगे। निर्धन आत्मा वाले ही परमात्मा के लोग हैं, जो यहां सबसे अधिक अंत में हैं, लेकिन परमात्मा के राज्य में वे सर्वप्रथम हो जाएंगे। गरीब व्यक्ति को इन सभी आश्वासनों की जरूरत होती है।

मनुष्य मृत्यु से डरता है। उसे बार—बार यह आश्वस्त होने की जरूरत होती है— ” तुम आत्मा हो, मृत्यु के पार शाश्वत—केवल शरीर मरता है। तुम नहीं।’’ मनुष्य एक हजार एक उलझनों से पीड़ित है। उसका लगभग पूरा जीवन ही लगभग दुख उदासी और पीड़ाओं का एक पारावार है। उसे सहन करना बहुत कठिन है। इसीलिए सपनों की जरूरत है, एक बेहतर भविष्य के लिए आशाओं की जरूरत है। वह भले ही मृत्यु के पार हो, लेकिन केवल यह विचार ही—कि वहां तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है— और ये सभी दुख केवल आज ही है—इन्हें किसी तरह गुजार दो और कल पर विश्वास करो। देर सवेर तुम उनसे मुक्त हो जाओगे। सामान्य धर्म आने वाले कल के धर्म हैं। वे केवल यही इंगित करते हैं कि क्योंकि मनुष्य दुखों में जी रहा है, उसे सपनों की जरूरत है।

बाउलों का धर्म नीचे इसी पृथ्वी ही में है वह अभी और यहां में विश्वास करता है। वह यह नहीं कहता कि स्वर्ग कहीं और है वह यहीं है और तुम उसे आगे के लिए स्थगित नहीं कर सकते। सभी चीजों को आगे के लिए टाल देना या स्थगित कर देना बहुत खतरनाक है, वह आत्मघाती है। यदि तुम उसे अभी और यहीं नहीं खोज सकते, तो तुम उसे कहीं भी कभी न खोज सकोगे, क्योंकि तुम तो ज्यों के त्यों बने रहोगे। और तुम जहां कहीं भी होगे जीवन हमेशा अभी और यहीं के रूप में तुम्हारे सामने होगा। इसलिए सत्य का द्वार केवल यही है और इसी क्षण में है।

बाउल कहते हैं—’‘ यही है सत्य और वास्तविकता और वहां कोई भी वह नहीं है। वे सत्य को दो में विभाजित नहीं करते, वे यह नहीं कहते कि यह माया या भ्रम है और यह रहा सत्य। वे माया और ब्रह्म, की बात नहीं कहते, वे यह और वह की बात नहीं कहते। वे कहते हैं—’‘ सब कुछ यही है।’’ यह क्षण अपने आप में पूरा है और सभी विभाजन खतरनाक है क्योंकि सत्य को कहीं भी विभाजित नहीं किया जा सकता। वह अविभाज्य है।

परमात्मा के बारे में वे कुछ बात करते ही नहीं कि वह कहीं सातवें आसमान में बैठा हुआ है। वे लोग पूरी तरह भिन्न एक अलग परमात्मा की बात करते हैं। जो गहरे में तुम्हारे ही अंदर जड़ें जमाये हुए हैं, जिसकी जड़ें जमीन में है, माटी की इस देह में है, जिसकी जड़ें यहां के सभी तनावों और खींचतान में है। बाउलों का परमात्मा ही बहुत वास्तविक ईश्वर है। तुम उसे छू सकते हो, तुम उसे प्रेम कर सकते हो, तुम उसे आलिंगन में बांध सकते हो, तुम उसके साथ रह सकते हो, और तुम उसे जी सकते हो। वह कहीं दूर नहीं है, वह बहुत निकट है, निकट से भी निकटतम है, क्योंकि वह तुम ही हो। वे लोग परमात्मा शब्द का प्रयोग करते ही नहीं। परमात्मा के लिए उनका शब्द है—’‘ आधार मानुष।’’ सारभूत मनुष्य। मनुष्य स्वयं अपने आप में दिव्य है। यदि तुम स्वयं अपने ही अंदर प्रवेश करो, तो तुम परमात्मा में ही प्रवेश करोगे।

इसका यह अर्थ नहीं है कि वहां कोई परमात्मा नहीं है। यह एक मौलिक दृष्टिकोण है लेकिन यह नकारना नहीं है। यह बहुत क्रांतिकारी दृष्टि है लेकिन यह नकार नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि परमात्मा का कोई अस्तित्व है ही नहीं। वास्तव में इसका अर्थ है कि परमात्मा यहीं और अभी मौजूद है। और उसे खोजने की तुम्हारी ही जिम्मेदारी है। और वहा कोई गवाही नहीं है, वहां उसे टालने का कोई बहाना नहीं है।

चीन में ताओवादी भी इसी परिणाम पर पहुंचे, उन्होंने परमात्मा शब्द को ही छोड़ दिया। उन्होंने ‘ ची लॉन ‘ शब्द का प्रयोग करना शुरू कर दिया।’ ची लान ‘ का अर्थ है जो स्वयं से अपने आप घटता है जो पहले ही से घट रहा है, जो हमेशा से ही घटता रहा है और जो हमेशा घटता ही रहेगा। यही ताओ शब्द का भी अर्थ है। वेदों में हिंदुओं के पास एक सुंदर शब्द है, वे उसे ‘ ऋतम् ‘ कहते हैं। यह ठीक वही शब्द है जो ‘ ताओ ‘ और ‘ चीलान ‘ है।’ ऋतम् ‘ का भी अर्थ होता है। प्रकृति। परमात्मा नहीं। क्योंकि जब भी तुम परमात्मा कहते हो, किसी न किसी तरह वह हमेशा कहीं और होता है, यहां नहीं होता, कम से कम तुममें नहीं होता, तुम्हारे आस—पास नहीं होता। यह पृथ्वी यहां परमात्मा के रहने योग्य पर्याप्त नहीं है।

जैन और बुद्ध—’ धम्म ‘ शब्द का प्रयोग करते हैं। उसका भी ठीक—ठीक अर्थ प्रकृति या स्वभाव है। संस्कृत शब्द ‘ धर्म ‘ का भी अर्थ स्वभाव ही है। यह अंग्रेजी शब्द रिलीजन का समानार्थी नहीं है। नहीं, यह बिलकुल भी वह सब नहीं है। वास्तव में दोनों ध्रुव विरोधी हैं। रिलीजन का अर्थ होता है—जो तुम्हें बांधता है। तुम्हें एक निश्चित संगठन देता है, पूजाघर या चर्च देता है, तुम्हें किसी के अधिकार में देता है और धर्म का अर्थ है वह जो तुम्हें सभी चर्चों (पूजाघरों) से और संगठनों से मुक्त करता है। धर्म वैयक्तिक है, रिलीजन सामाजिक है। रिलीजन सामूहिक भीड़ के अधिकार में होता है रिलीजन वैयक्तिक नहीं होता। ईसाइयत हिन्दुत्व जैनिल्म, और बुद्धिज्म यह सभी रिलीजन हैं धर्म नहीं है— धर्म का कोई विशेषण नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म स्वयं खोजना होता है। प्रत्येक को अपना स्वभाव या अपनी प्रकृति स्वयं खोजनी होती है।

बाउलों का यह दृष्टिकोण कि परमात्मा यहीं तुम्हारे ही अंदर हैं, इसे जितनी भी गहराई से संभव हो सके, तुम्हें समझना है, क्योंकि इसके अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा परमात्मा नहीं है। वास्तव में चूंकि अन्य तथार्काथेत धर्म (रिलीजन) कहीं दूसरी जगह परमात्मा के बारे में बात करते रहें हैं, यही कारण है कि संसार अधिक से अधिक परमात्मा रहित हो गया है। क्योंकि जो परमात्मा यहां नहीं है, जिसे स्पर्श नहीं किया जा सकता है, जिसे देखा नहीं जा सकता है, जिसे साथ रहकर जिया नहीं जा सकता। अधिक से अधिक आकर्षक सिद्ध नहीं हो सकता। मनुष्य ज्यों—ज्यों विकसित होता जाता है, परमात्मा उतना ही विलुप्त और महत्त्वहीन होना शुरू होता जाता है।

जब भी मनुष्य परिपक्व और विकसित हो जाता है, सपनों और कल्पना के वे सभी देवता लुप्त हो जाते हैं, और मनुष्य बिना परमात्मा के रह जाता है। इस युग में जो कुछ हुआ है, वह यही है। ऐसा नास्तिकों के कारण नहीं हुआ है कि मनुष्य बिना परमात्मा के रह रहा है, ऐसा परमात्मा की गलत धारणा के कारण हुआ है। मार्क्स ईसाइयों के परमात्मा की निंदा कर सका, लेकिन मार्क्स बाउलों के परमात्मा की निंदा नहीं कर सकता है। वैज्ञानिक भी तथाकथित धर्मों के परमात्मा से इंकार नहीं कर सकते—क्योंकि वे सपनों जैसी किसी भी चीज को प्रक्षेपित नहीं करते। वे वास्तविक यथार्थ की धरती पर खड़े हैं।

 

मैंने एक सुंदर वृत्तांत के बारे में सुना है:

रूस के एक उच्च अधिकारी ने एक किसान से पूछा— ” हमारे गौरवपूर्ण महान नेता के निर्देशन में नई किस्म के आलू उत्पादन की योजना कैसा परिणाम ला रही है?”

किसान ने उत्तर दिया—’‘ हमारी आलू की फसल ने तो चमत्कार कर दिया। यदि हम लोग फसल की सभी आलुओं का एक ढेर लगा दें, तो वह एक पहाड़ बनकर परमात्मा के चरणों तक पहुंच जाएगा।’’

उस उच्च अधिकारी ने कहा— ” लेकिन तुम तो जानते हो कि वहां कोई परमात्मा है ही नहीं।’’

”मैं जानता हूं ” किसान ने कहा—’‘लेकिन वहां आलू भी तो नहीं है।’’

आसमान में बैठा परमात्मा झूठा परमात्मा है। ऐसा नहीं है कि आसमान बिना परमात्मा के है—पूरा आसमान, पृथ्वी की ही भांति परमात्मामय है। लेकिन परमात्मा की पहली समझ की जड़ें तो पृथ्वी के ही अंदर जानी हैं। पहली समझ तो जड़ों के बाबत होना चाहिए और उन जड़ों से भी तुम्हारी समझ विकसित होगी और वह अस्तित्व के दूरस्थ कोनों तक पहुंच जाएगी। लेकिन यात्रा तो घर से ही शुरू होती है। वह तुम्हारे अंदर की गहराई में ही उसकी शुरुआत होती है। परमात्मा की पहली झलक तो तुम्हें अपने हृदय की ही अनंत गहराई में मिलती है। यदि तुमने उसे वहां नहीं देखा।

तो तुम उसके बारे में बातें किए जाओगे, लेकिन तुम उसे कहीं भी देखने में समर्थ न हो सकोगे। तुम्हारे अंदर ही उससे आमने—सामने मिलने की घटना घटती है। एक बार जब यह घट जाती है। तो तुम आश्चर्यचकित हो जाओगे कि फिर तुम्हें प्रत्येक स्थान पर परमात्मा दिखाई देना शुरू हो जाता है। बस एक बार तुमने उसे अपने हृदय में देख लिया, फिर तुम उसे कैसे चूक सकते हो? क्योंकि हर जगह हृदय उसी के साथ ही धड़क रहा है। वही वृक्ष और वही चट्टान के रोम—रोम में व्यास है।’ वही नदियों और सागरों में, वही जानवरों और पक्षियों में और वही सर्वत्र व्यास है।

एक बार तुमने उनकी धड़कन का अनुभव कर लिया, एक बार तुमने उसका अपने रक्त में परिभ्रमण करने का अनुभव कर लिया, एक बार तुमने अपनी अस्थियों में बहते जीवन रस में उसका अनुभव कर लिया, तब वह हर कहीं है। तुम जहां भी देखोगे, उसी को पाओगे। लेकिन यह किसी और तरह से नहीं घट सकता। यदि तुम उसके अनुभव से वंचित और रिक्त हो, तो तुम संसार के किसी दूरस्थ कोने में भी चले जाओ, फिर भी तुम्हारी यात्रा व्यर्थ होगी। तुम उसके मंदिर तक कभी न पहुंच सकोगे। क्योंकि तुम उसके मूल से ही चूक गए। तुम उससे अपने ही घर में चूक गए। यदि तुम्हारा अपना ही घर उसका मंदिर नहीं बना, तो कोई भी मंदिर उसका घर नहीं हो सकता। यदि तुम्हारा अपना घर ही उसका मंदिर बन गया, तब फिर सभी घर उसके ही घर हैं।

जब बाउल कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को जमीन की ओर उन्यूख अपने जड़ों से जुड़ा रहना चाहिए तो इसका अर्थ यह नहीं कि आकाश परमात्मा से रिक्त है बल्कि वे कहते हैं, यदि पृथ्वी ही उससे भरी नहीं है, तो आकाश तो रिक्त होगा ही। जब वह पृथ्वी के ही कण—कण में व्यास उससे भरा हुआ नहीं है, तो आकाश उससे भरा हुआ कैसे हो सकता है? यदि वहां यह नहीं है, तो वह वहां कैसे हो सकता है? यदि वह ‘ यह ‘ नहीं है, तो वह ‘ वह ‘ कैसे हो सकता है? यदि वह 184 ३ प्रेम योग आज नहीं है, तो कल कैसे हो सकता है? यदि वह इस जीवन में नहीं है, तो वह अगले जन्म में कैसे है? उनका तर्क सरल और न काटे जाने वाला है।’’

लेकिन मनुष्य ने परमात्मा का सृजन आसमानों में किया है क्या? यह परमात्मा सच्चा परमात्मा नहीं है, यह उसका प्रतिस्थापन है, क्योंकि तुम उससे यहां चूक रहे हो और तुम उसे बहुत तीव्रता से चूक रहे हो? जिससे तुमने उसे कहीं और बहुत तीव्रता से चूक रहे हो, जिससे तुमने उसे कहीं और रख दिया है, अन्यथा तुम बहुत अकेलेपन का अनुभव करोगे, तुम इतने अधिक अकेलेपन का अनुभव करोगे, कि तुम जीवन का अर्थ ही भूल जाओगे। और यह अच्छा है कि तुमने उसे बहुत दूर रख दिया है, क्योंकि तब वहां पहुंचने की कोई जल्दी नहीं है। वह मात्रा इतनी अधिक दूर की है, कि तुम उसे आज ही पूरा नहीं कर सकते। इसके लिए यह जीवन भी पर्याप्त नहीं है। इसलिए उसे टालने को पर्याप्त स्थान है, और कहने की भी बहुत अधिक गुंजाइश है—’‘ हां! एक न एक दिन मैं उसे पूरा करूंगा। यह बहाने बनाने की भी काफी गुंजाइश है कि तुम्हारी उसमें पूरी दिलचस्पी है और संसार में रहना जारी रखते हुए भी तुम उसी समय में ही परमात्मा के बारे में बातें किए जाते हो। यह दो तरह की बातें हैं और सामान्य मनुष्यता इसी दोहरे बंधन में बंधी है। लोग बातें तो परमात्मा की करते हैं, और रहते हैं शैतानों की तरह। वे जाते तो मंदिर हैं, पर कभी वहां पहुंचते ही नहीं। वे बाइबिल पढ़ते हैं, वे कुरान पढ़ते हैं, लेकिन वे कभी भी सुनते नहीं केवल परिधि पर ये सभी बहाने हैं। इसी तरह से अच्छाई का मुखौटा लगाए हुए इस अपराधग्रस्त मनुष्यता का जन्म हुआ है। एक नकली, छद्य मनुष्यता।’’

 

मैंने सुना है:

एक बार मुल्ला नसरुद्दीन अपने मनोचिकित्सक के पास जाकर बोला— ” डॉक्टर साहब! क्या आप मेरे लिए ही मुझ पर यूक सकते हैं?”

”क्यों? आखिर तुम ऐसा क्यों चाहते हो?” डॉक्टर ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।

मुल्ला ने कहा—’‘ क्योंकि मैं इतना अधिक अकेलापन महसूस कर रहा हूं।’’

 

परमात्मा के बिना मनुष्य बहुत अकेलेपन का अनुभव करता है और असली परमात्मा को खोजना, खड़े पर्वत पर चढ़ने जैसा श्रमपूर्ण है। एक ऐसे नकली परमात्मा का सृजन करना बहुत आसान है, जो परमात्मा जैसा दिखाई देता हो, जो परमात्मा की तरह लगता हो। वह कम से कम यह सान्‍त्‍वना तो देता ही है कि तुम अकेले नहीं हो। क्या तुमने कभी परमात्मा की धारणा पर ध्यान दिया है? क्या वह तुम्हारे अपने अस्तित्व के अनुभव से उत्पन्न हुआ है, अथवा वह तुम्हारे अकेलेपन के अनुभव से जन्मा है? यही इसकी कसौटी है।

यदि तुम्हें परमात्मा पर विश्वास है, क्योंकि तुम अकेलेपन का अनुभव करते हो, तो तुम्हारा परमात्मा झूठा और नकली है और यदि तुम परमात्मा में विश्वास करते हो क्योंकि तुमने उसका अनुभव अपने एकांत में किया है, यदि वह तुम्हारे अपने अस्तित्व से जन्मा है, तब परमात्मा में विश्वास करते हो, क्योंकि तुमने उसका अनुभव अपने एकांत में किया है, यदि वह तुम्हारे अपने अस्तित्व से जन्मा है, तब वह परमात्मा असली है। तब नीवो को करने दो घोषणा—कि तुम्हारा परमात्मा मर गया है—तुम्हारा परमात्मा कभी भी मर ही नहीं सकता, तुम्हारा परमात्मा तुम्हीं में जीवित है। नीवो यह घोषणा कैसे कर सकता है कि परमात्मा मर गया है? यह घोषणा कर सका और न केवल उसने घोषणा ही की, उसकी घोषणा एक भविष्यवाणी बन गई। सौ वर्षों में ही उसकी घोषणा वास्तविकता में बदल गई। चर्चों का परमात्मा मर गया, मंदिरों का परमात्मा मृत हो गया, शास्त्रों का परमात्मा मुर्दा बन गया। नीवो जैसा भविष्यवक्ता कोई दूसरा आज तक हुआ ही नहीं। परमात्मा विलुप्त होता जा रहा है, ‘परमात्मा’ शब्द ही कुरूप बन गया है।

 

ठीक दूसरे ही दिन मैं एक ईसाई पादरी द्वारा लिखी हुई एक पुस्तक पढ़ रहा है। मैं हैरान था, क्योंकि मैंने ऐसी कुछ परिस्थितियों के बारे में सुना था, विशेष रूप से भारत में जहां लोग यदि कोई अश्लील नग्न चित्रों वाली पुस्तक पढ़ना चाहें तो वे उसे गीता और बाइबिल में छिपाकर पढ़ते हैं। इसके बाबत मैंने केवल सुना ही था। लेकिन वह ईसाई बता रहा था कि उसे बाइबिल पढ़ते हुए इतना डर लगता था कि वह नग्न चित्रों की पत्रिका के कवर के पीछे बाइबिल को छिपाकर पढ़ा करते थे। ऐसी घटनाएं पश्चिम में घटी हैं। इसलिए जब वह प्रत्येक रविवार सौंदर्य प्रसाधन के सैलून में जाता था, तो बाइबिल अपने साथ ले जाता था।

लेकिन दूसरे लोग उसे बाइबिल पड़ता देखकर समय के बाहर मान सकते हैं, इस भय से वह नग्न चित्रों की पत्रिका के कवर में बाइबिल छिपाकर पढ़ा करता था।

एक दिन बाइबिल पढ़ते हुए वह जीसस के इस वचन से गुजरा—’‘ यदि तुम मुझसे इंकार करते हो, तो याद रखो, निर्णय के अंतिम दिन मैं भी तुमसे इंकार कर दूंगा। इसलिए यह पढ़कर वह बहुत अधिक डर गया, क्योंकि प्लेबुक के कवर में छिपाकर बाईबिल पढूगा भी एक तरह से इंकार करना ही था। वह इतना अधिक डर गया कि उसके पसीना छूटना शुरू हो गया क्योंकि जीसस कहते हैं—’‘ यदि तुम मुझे इंकार करते हो, तो परमात्मा के सामने मैं तुम्हें पहचानूंगा नहीं।’’ इसलिए उसने अश्लील चित्रों वाली वह प्लेबुक मैगजीन तुरंत फेंक दी और ऐसा कर उसे बहुत अच्छा लगा। वह पादरी के पास गया और उससे कहा—’‘ आज मैंने एक महान कार्य किया है। मैं इतना साहस बटोर सका कि लोग जानें कि मैं बाइबिल पड़ता हूं।’’

 

परमात्मा मर गया है, उसे मरना ही चाहिए। क्या तुमने स्वयं का निरीक्षण किया है? यदि तुम अपने साथ एक बाइबिल लिए जा रहे हो तो तुम्हें थोड़ा भद्दा सा लगता है अथवा यदि तुम मंदिर की ओर जा रहे हो तो तुम बहाने ढूंढना शुरू कर देते हो। तुम वहां इसलिए जा रहे हो, क्योंकि तुम्हारी पत्नी वहां गई हुई है और वहां तुम्हें भी कुछ काम करना है अथवा तुम्हारे पिता वहा है और तुम्हें बस औपचारिकता निभाने ठीक एक सामाजिकतावश वहां जाना है। क्या तुमने कभी गौर किया है कि चीजें कैसे बदल जाती हैं?

 

मुझे इसका स्मरण तब आया, जब मैं एक सुंदर कहानी पड़ रहा था—

एक डाकू एक महान लुटेरे की डकैती डालने की अमरीकन शैली में दिलचस्पी उत्पन्न हो गई। अब प्रत्येक उस व्यक्ति को दिलचस्पी लेनी ही पड़ती है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने धंधे के सिलसिले में अमेरिका जाने की कोशिश कर रहा है। डॉक्टर जा रहे हैं, इंजीनियर जा रहे हैं, इसलिए उस डाकू ने सोचा— ” हमीं क्यों नहीं जा सकते वहां? हम वहां जाकर डकैती डालने की आधुनिक विधियां सीख सकते हैं।’’

इसलिए वह अमेरिका गया, और डाकुओं के एक गिरोह में सम्मिलित हो गया। और वह निरीक्षण करता रहा कि वे अपने काम में किन आधुनिक विधियों का प्रयोग कर रहे हैं। वह वह देखकर आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि पहले उन्होंने एक सुंदर स्त्री का अपहरण किया और तब उन्होंने पत्र लिखा…… .लेकिन उसने कहा—’‘ यह सब तो ठीक है क्योंकि भारत में भी हम लोग किसी स्त्री का अपहरण करते हैं और तब हम उसके पति को पत्र लिखते हैं कि यदि तीन दिनों में उसने पचास हजार रुपये नहीं दिए तब हम लोग उसकी पत्नी की हत्या कर देंगे। इसलिए उसने आश्चर्यचकित होकर कहा—’‘ आखिर इसमें नई बात क्या है?” तब उसने देखा कि वे लोग पत्र में क्या लिख रहे थे। उसने आश्चर्यचकित होकर पूछा— ” आप लोग यह क्या रह रहे हैं?” क्योंकि पत्र में उन लोगों ने लिखा था—’‘ यदि तीन दिनों के अंदर आपने हमें पचास हजार डालर नहीं भेजे तो हम लोग आपकी पत्नी को वापस भेज देंगे।’’

यह संसार बहुत तेजी से बदल रहा है। लोग प्लेबॉय पत्रिकाएं पहले बाइबिल की जिल्द में छिपाकर पढ़ते थे, लेकिन अब वे बाइबिल को नग्न चित्रों की पत्रिकाओं में छिपा रहे हैं। नीवो बिल्कुल ठीक था, जिसने कहा—’‘ परमात्मा मर चुका है। लेकिन असली परमात्मा नहीं मर सकता, यह असम्भव है। यह कहना है कि परमात्मा मर गया है, यही कहने जैसा है कि जीवन ही मर गया है। यदि परमात्मा का अर्थ जीवन है, तब यह वक्तव्य ” परमात्मा मर चुका है ” महज एक बेवकूफी है, यह अर्थहीन और विरोधाभासी है।

इसे सुनकर बाउल हंसेंगे और कहेंगे—’‘ तब तुम असली परमात्मा को समझे ही नहीं। हां तुम्हारा परमात्मा मर चुका है क्योंकि वह नकली था, क्योंकि हमने कभी परमात्मा के बारे में बात की ही नहीं— हम तो जीवन और प्रेम के बारे में बात करते हैं। यदि सभी मंदिर गिरा दिए जाएं सभी मस्जिदें और गुरुद्वारे जला दिए जाए तो भी परमात्मा का कुछ बिगडेगा नहीं, क्योंकि उन पूजाघरों में सुरक्षित और संरक्षित परमात्मा असली नहीं है। तुम्हारे अंदर विराजमान परमात्मा ही असली परमात्मा है और उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। जीवन को नष्ट नहीं किया जा सकता, जीवन तो गतिशील है। वह तो शाश्वत सरिता की भांति बहा जा रहा है।’’ लेकिन कोई भी व्यक्ति अकेलेपन का अनुभव करता है। अपने अकेलेपन में वह कल्पनाएं और स्वप्न निर्मित करता है। मनुष्य इतना अधिक अकेला हो गया है कि वह कहीं भी किसी भी तरह चैन पाना चाहता है। यह दुर्भाग्य है उसका, लेकिन सत्य को खोजने का यह कोई मार्ग नहीं है।

 

मैं एक प्रसंग के बारे में कहीं पड़ रहा था:

इरा ने कॉलेज छोड़ते हुए पीठ पर समान लादा और पैदल, वाहनों पर लिफ्ट लेता हुआ अमेरिका घूमने चल पड़ा। एक वर्ष से अधिक समय बीत जाने पर उसने घर फोन किया—’‘ हल्लो मम्मी! आप ठीक तो हैं।’’

” ओह मेरे प्यारे बेटे! बहुत अच्छी तरह से हूं। तुम घर कब आ रहे हो? मैं तुम्हारे लिए जिगर का कीमा, चिकन सूप और स्वादिष्ट भुने केकड़े बनाकर रखूंगी।’’

” मां! मैं यहां से काफी दूरी पर हूं।’’

” ओह! मेरे प्यार बेटे!” निराश होकर मां ने चीखते हुए कहा—’‘ तू बस घर जा आ बेटे। मैं तेरे लिए तेरी पसंद की ओट मील की पतली पतली केक बना दूंगी।’’ लड़के ने उत्तर दिया—’‘ मां! मुझे ओटमील कुकीज जरा भी अच्छी नहीं लगती।’’

उसकी मां ने आश्चर्य से पूछा—’‘ क्या कह रहा है तू क्या वह अच्छी नहीं लगती तुझे?”

” कृपया बताएं?” इरा ने पूछा—’‘ क्या यह फोन नं सेंचुरी 5 — 7682 है?’‘

‘’ नहीं।’’

” तब यह जरूर ही गलत नम्बर है।’’

उस स्त्री ने पूछा—’‘ क्या इसका मतलब है कि तू घर नहीं लौट रहा है बेटे।’’

 

लोग वास्तव में बहुत अकेले हैं। यदि वह उसका बेटा भले ही न हो, कम से कम कोई तो आ रहा है। तुम बहाने बना सकते हो, तुम विश्वास कर सकते हो, तुम स्वयं को सान्‍त्‍वना दे सकते हो।

वह परमात्मा जो मंदिरों में रहता है, असली परमात्मा नहीं है। वह परमात्मा जो ऊपर आसमान में रहता है, वह तुम्हारा ही प्रक्षेपण है? असली परमात्मा तो तुम्हारे ही अंदर है। वह जिसे तुम खोज रहे हो, वह कहीं और नहीं है, वह तुम्हारे उस खोजने में ही है। वह तो स्वयं खोजने के ही अंदर है। जिसे खोजा गया, वह तो खोजी के ही अंदर है। तुम्हीं एकमात्र सत्य हो, हाड़मांस के तुम्हीं जीवन्त परमात्मा हो। तुम्हारे अंदर ही परमात्मा ने जन्म लिया है। तुममें ही परमात्मा ने अवतार लिया है, परमात्मा ने जन्म लिया है। तुममें ही परमात्मा ने अवतार लिया है, परमात्मा ही तुम्हारा शरीर लेकर तुममें प्रकट हुआ है। तुम कहां खोज रहे हो उसे? तुम जा कहां रहे हो? बाउल कहते हैं—’‘ जरा प्रतीक्षा करो, सुनो, और अपने ही अंदर जाओ।’’

 

वे गाते हैं:

मनुष्य के अंदर घुलमिल एक होकर

परमात्मा ही उसमें निवास कर रहा है।

ओ मेरे अदृश्य हृदय

तेरी आंखें निर्बुद्धि और नासमझ हैं।

तू कैसे उस अकृत—अपार—गुणों के भंडार उस मनुष्य की खोज कर सकता है?

 

वह अदृश्य अरूप मानुष,

समझ और होश की दीप्ति में निवास करता है

मूर्च्छित और आंखों वाले अंधों से, वह अपन पहचान छिपा कर रखता है।

उसके ठहरने का ठिकाना ही मनुष्य का तन है,

उसी के द्वारा वह प्रकट होता है और उसी के साथ नष्ट हो जाता है।

 

ठीक पलकों को झपकाने की तरह।

वे बार—बार गाए ही चले जाते हैं :

हम सभी भिन्न—भिन्न मार्गों और विधियों से

उस परमात्मा के बारे में सोचते, उसका ध्यान या पूजा प्रार्थना करते हैं।

वह परमात्मा जो सभी इद्रियजनित ज्ञान और भावों के पार हैं।

यद्यपि वह प्रेम के सार में ही पाया जाता है।

अपने स्वयं के अस्तित्व सागर के उस पार दूसरे छोर पर।

द्रव की जो एक अमृत बूंद कांपते हुए झरती है।

जो जैसे सभी का मूल स्रोत है।

सभी की जड़ों का आधार तुझमें ही है।

उस सारभूत आधार मानुष तक पहुंचने के लिए उस आधार को खोजो

उस प्रीतम प्यारे को पाने के लिए

अपने भावों के द्वार खोलो

अपनी जिह्वा, स्वाद और इंद्रिय जनित संवेदनाओं के प्रति समर्पित।

जहां वासना और प्रेम एक ही स्थान पर मिलकर एक हो गए हैं।

वहां—

उस ब्रह्म कमल से अमृत सहजता से झर रहा है

वहां फिर न दुख रहते हैं और न रहता है सुख

सभी द्वैत के पार रह जाता है केवल आनंद

वे मनुष्य में विश्वास रखते हैं। वे मनुष्य की शक्ति और उसकी संभावनाओं पर विश्वास करते हैं। वे विश्वास करते हैं कि मनुष्य ही तीर्थ है परमात्मा का। वे देह पर विश्वास करते हैं। तंत्र के अतिरिक्त किसी भी अन्य धर्म ने शरीर के ही अंदर चेतना की चमत्कारिक घटना को समझने की कभी कोशिश नहीं की। अन्य सभी धर्म शरीर—विरोधी, जीवन—विरोधी होने के साथ जीवन और शरीर को नकारते रहे हैं, उसकी निंदा करते रहे हैं, जैसे मानो तुम जितना अधिक शरीर को सताओगे और उसे क्षति पहुंचाओगे, तुम उतने ही अधिक दिव्य और उतने ही अधिक परमात्मा के निकट हो जाओगे।

बाउल कहते हैं यदि तुम शरीर को हानि पहुंचाते या उसे सताते हो, तो तुम मूल आधार को ही नष्ट कर रहे हो। यदि तुम अनुभूति और संवेदना को नष्ट करते हो, तो तुम अपनी इंद्रियों को ही नष्ट करते हो, तब फिर तुम कैसे स्वाद ले सकोगे, तुम कैसे सुन सकोगे, और तुम कैसे देख सकोगे? यदि तुम प्रेम को नष्ट करते हो तो तुम उसे प्रेम कैसे कर सकोगे? यदि तुम अपनी वासना को नष्ट करते हो तो तुम नपुंसक हो जाओगे।

 

वास्तव में इन लोगों के पास संसार को सिखाने के लिए एक क्रांतिकारी धर्म है। ये बहुत अशिक्षित लोग हैं, लेकिन इनके पास एक गहरी अंतर्दृष्टि है। यह हो सकता है कि उनके पास भरपूर अंतर्दृष्टि इसीलिए है, क्योंकि वे अशिक्षित है…… .क्योंकि वे शास्त्रों के बारे में अधिक नहीं जानते और न वे दर्शनशास्त्र और आत्मज्ञान के बारे में ही अधिक जानते हैं। क्योंकि ये लोग पुस्तकें नही पढ़ सकते, इसलिए वे अपनी ही देह को पढ़ते हैं, क्योंकि वे मन के सूक्ष्म विचारों और सिद्धांतों को नहीं समझ सकते, वे यह खोजने की कोशिश करते हैं कि वे कौन है, क्योंकि वे लोग विद्वान नहीं बन सकते, वे लोग तो एक गांव से दूसरे गांव में नाचते गाते और आनंद मनाते हुए घूमने वाले गरीब भिखारी हैं, इसीलिए ये लोग सत्य के इतने अधिक निकट हैं। ये लोग समाज, संस्कृति और शिक्षा के प्रदूषण से मुक्त, बहुत ही प्रामाणिक लोग हैं। ये लोग बहुत भोले और निर्दोष हैं और यही उनकी समझ है कि यह शरीर दिव्य है। यह शरीर पवित्र है क्योंकि प्रत्येक वस्तु पवित्र है। लेकिन यह ‘ पवित्र ‘ शब्द बहुत अच्छा नहीं है। बाइबिल के पुराने टेस्टामेंट में ‘ सेक्रिड ‘ (पवित्र) इसलिए पुकारा जाता है क्योंकि वह इस संसार के सत्य से पृथक सत्य है। इसे सुनकर बाउल हसेंगे। वे कहेंगे—’‘ तुम पागल हो गए हो। कोई पृथक सत्य है ही नहीं। यह संसार की वास्तविकता ही परमात्मा है। बाउल पूरे संसार की वास्तविकता को ही पावन पवित्र और दिव्य बना देते हैं। उनकी दृष्टि इतनी विराट है कि पदार्थ भी उनके विचार में पदार्थ जैसा नहीं रह जाता। उनकी दृष्टि से पदार्थ भी दीसिवान हो जाता है, शरीर भी केवल शरीर नहीं रह जाता वह माटी से पृथ्वी से बना है और अपने में वह एक दिव्यता लिए हुए हैं।’’

 

मैंने एक हसीदीरबी के बारे में सुना है—’‘ उसका नाम रबी बोनुम था। जब वह मर रहा था, तो उसने अपने शिष्यों के लिए अपना संदेश छोड़ते हुए कहा— ” प्रत्येक व्यक्ति को दो जेबें जरूर रखना चाहिए जिससे आवश्यकता के अनुसार उसके हाथ पहली या दूसरी तक पहुंच सकें। पहली जेब में यह वाक्य होना चाहिए ” यह संसार मेरी ही खातिर बनाया गया ” और बायीं जेब में यह वाक्य होना चाहिए—’‘ मैं और कुछ भी नहीं सिर्फ मिट्टी या पृथ्वी हूं।’’

अति सुंदर। वह कह रहा है—’‘ मनुष्य और कुछ भी नहीं, माटी का पुतला है। एक जेब में यह संदेश रखना, और दूसरी जेब में—यह पूरा संसार मेरे लिए ही बनाया गया है। मैं ही पूरे संसार का परमात्मा हूं ” यह संदेश रखना। दोनों ही संदेश सत्य हैं क्योंकि एक वास्तविक सत्य को प्रदर्शित करता है और दूसरा तुम्हारी संभावना या क्षमता को दिखाता है। एक ‘ तथ्य ‘ को दिखलाता है और दूसरा ‘ सत्य ‘ को।’’

वास्तविकता यही है कि हम सभी मिट्टी या पृथ्वी से ही बने हुए हैं, सत्य यही है कि हम सभी उसी की छवि के रूप में ही बने हैं। हम दोनों ही हैं परमात्मा, पृथ्वी में सबसे अधिक मूल्यवान हैं, एक तीर्थ की भांति है। हम सभी पृथ्वी ही से बने हैं और इसीलिए उसके अंदर उच्चतम आकाश तक उठने की तीव्र उत्कंठा है। जरा वृक्षों को देखो—’‘ वे सभी क्या कर रहे हैं? वे पृथ्वी के गर्भ से आते हैं, वे पृथ्वी के ही पुत्र हैं, उनकी जड़ें पृथ्वी में ही हैं और वे सभी सूर्य तक पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं, वे सितारों तक पहुंचने की कोशिश में हैं। पृथ्वी में जड़ें जमाकर वे स्वर्ग की ओर गतिशील है। यही तो बाउलों का चरित्र और चिह्न है—पृथ्वी में जड़ें जमाये हुए वृक्ष, स्वर्ग की ओर जा रहे हैं। देह ही में बने रहकर तुम्हें आत्मा की ओर जाना है।’’

तब यह दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं है, यह दोनों ही एक ही प्रक्रिया और एक ही सक्रिय ऊर्जा है।

झेन सद्गुरु बाशो जब साठ वर्ष की आयु में मरने जा रहा था तो ठीक मृत्यु होने से पूर्व पद्यासन लगाकर बैठ गया और उसके चारों ओर जो भी शिष्य वहां थे, उनसे उसने कहा—’‘ कभी भटकना या बहकना मत। प्रत्यक्ष रूप से सीधे देखना— ” यह क्या है?” इस वाक्य को उसने दोबारा जोर से दोहराया और शांति से मर गया।

जो कुछ उसने कहा, मैं उसे फिर से दोहरा रहा हूं—’‘ भटक मत जाना। सीधे देखना। यह क्या है?” उसने इसे जोर से दोहराया और मर गया। यह ही पूरा अर्थ सम्प्रेषित कर रहा है। इसे प्रत्यक्ष रूप से सीधे अनुभव करना है। वहां वह है ही नहीं।’ यह ‘ ही ‘ वह ‘ है। यह इतना विराट है कि वहां ‘ वह ‘ के बने रहने की कोई आवश्यकता हीं नही है।’ यह ‘ में ‘ वह ‘ भी शामिल है।

” कहीं भटक मत जाना, बहकना मत ” उसने कहा था। क्योंकि सबसे अधिक भटकाने वाले लोग वे हैं जो वास्तविक सत्य से परमात्मा को पृथक देखते हैं, जो तथ्य से सत्य को अलग करते हैं, जो आत्मा को शरीर से अलग देखते हैं, जो वासना को प्रेम से अलग करते हैं और जो कमल से कीचड़ को पृथक देखते हैं। ये लोग ही संसार भर में सबसे अधिक बहकाने वाले लोग हैं।

ये लोग विषतुल्य हैं, क्योंकि एक बार यदि इन लोगों ने तुम्हारे दिमाग में यह स्पष्ट रूप से उतार दिया तो तुम्हारा मन एक अनुशासन और आदत के ढांचे में ढल जाता है, कंडीशंड हो जाता है कि कमल कभी कीचड़ से नहीं हो सकता, तब ये लोग कमल के होने की संभावना को ही नष्ट कर देते हैं। तब तुम्हारे पास एक प्लास्टिक का बना कमल हो सकता है, लेकिन असली कमल नहीं, क्योंकि असली कमल की जड़ें तो हमेशा कीचड के अंदर जमी होती है वे तो कीचड़ का ही एक भाग होती हैं और वह कीचड़ की ही खिलावट है। यह पृथ्वी का ही गौरव है, यह पृथ्वी का ही सार तत्व है। एक बार तुम देख सकते हो कि वासना और प्रेम एक जैसे हैं, क्रोध और करुणा भी एक जैसे हैं, शरीर और आत्मा भी एक ही हैं वे उसी ऊर्जा की दो लय हो सकती हैं, एक ही शक्ति के दो रूप हो सकते हैं। एक जैसी सामग्री के दो ठोस अलग— अलग रूप हो सकते हैं। यदि तुम संसार और परमात्मा को ठीक कीचड़ और कमल की भांति वासना और प्रेम की भांति ही देख सको, तब तुम बाउलों का दृष्टिकोण समझ सकते हो। यदि तुम्हारे पास यह दृष्टि नहीं है, तब वहां भटक जाने की पूरी संभावना है। और भटकाने वाले लोग बड़े चालाक और महान तर्क शास्त्री है। वे तुम्हें कायल कर सकते हैं, वे अपने दृष्टिकोण के लिए तर्क— वितर्क कर सकते हैं।

 

मैंने सुना है:

गृहस्वामिनी गोल्ड फार्ब टहलती हुई एक कसाई की दुकान में गई और दुकान के मालिक से ताजा मुर्गी का क्या मांगा और मिलते ही उसका निरीक्षण करना शुरू कर दिया। उन्होंने उसका एक पंख उठाया और उसे अपनी नाक के नीचे रख कर सूंघा और अरुचि से घोषणा की—’‘ यह तो बुरी तरह गंधा रहा है।’’ तब उन्होंने उसकी एक टांग खींचकर उसे सूंघा और कहा—’‘ फूं।’’ फिर उस चूजे के सबसे अंत वाले भाग को सूंघते हुए मिसेज गोल्ड फार्ब ने जोर से कहा—’‘ इससे तो बदबू आ रही है और इसी को तुम ताजा चिकेन कहते हो?”

उस कसाई ने कहा—’‘ देवी जी! आप मुझे यह बताइये क्या ऐसे निरीक्षण और जांच से आप स्वयं गुजर सकती हैं?”

 

ये लोग, जो संसार की निंदा किये चले जा रहे हैं, शरीर की और प्रत्येक चीज की निंदा कर रहे हैं जरा उनसे पूछो—’‘ इसी तरह के निरीक्षण के सामने तुम्हारा परमात्मा भी क्या खरा उतर सकता है? तब कुछ भी नहीं बचेगा, क्योंकि तुम पूरी वास्तविकता और सत्य को बुरा कहते हो। तब केवल एक सामान्य विचार और काल्पनिक परमात्मा बच रहता है। हां! उस काल्पनिक परमात्मा को तुम बुरा नहीं कह सकते, क्योंकि इस परमात्मा से दुर्गंध नहीं आयेगी, तब उसके पसीना भी नहीं निकलेगा, क्योंकि उसका इस पार्थिव जगत से क्या नाता है? तब उसके हाथों में कीचड़ में नहीं लगेगी। तब वह केवल काल्पनिक होगा।’’

क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया है कि सभी धर्मों ने पूरे संसार को यह समझाने की कोशिश की है कि उनके सभी संस्थापक लगभग सामान्य मनुष्य जैसे वास्तविक नहीं थे। जैन कहते है कि महावीर के कभी पसीना नहीं आता था क्योंकि परमात्मा के मनुष्य में पसीना कैसे आ सकता है? सामान्य मनुष्यों के पसीना आता है, महावीर के नहीं। वे कहते हैं कि महावीर पर चोट या प्रहार किया गया, लेकिन कभी भी उनके शरीर से रक्त नहीं निकला। आखिर निकला क्या उनके शरीर से— ” दूध! सामान्य मनुष्यों की तरह उनके शरीर से रक्त कैसे निकल सकता था। अब वे महावीर को एक ऐसे आधार—स्तम्भ पर रखने का प्रयास कर रहे हैं कि उन्हें अवास्तविक बनने को बाध्य होना पड़े। तब यदि लोग आकर कहते हैं—’‘ हम तुम्हारे महावीर पर विश्वास नहीं करते, वे तो कल्पित कथा प्रतीत होते हैं, तो वे ठीक कहते हैं। वे कैसे वास्तविक हो सकते हैं? तुम वास्तविकता और सत्य से इंकार करते हो, तुम इसे गलत कहते हों।

ऐसा ही संसार के अन्य महान सद्गुरुओं के भी साथ हुआ है। उनके अनुयायी उन्हें अवास्तविक और नकली बनाने का प्रयास कर रहे हैं। अनुसरण करने वाले लोग हमेशा डरते रहते हैं क्योंकि यदि उनके सद्गुरुओं के हाथ गंदे दिखाई दिए…….।

‘ डर्टी ‘ अर्थात् गंदा शब्द, ‘ डर्ट ‘ या गर्द से निकला है। और यह गंदा शब्द नहीं है। इसका अर्थ है—मिट्टी से बना, पृथ्वी का। एक माली अपने उद्यान में काम करता है तो उसके हाथ गर्द या धूल से सनकर, गंदे नहीं होते, सिर्फ धूल या गर्द उन पर जम जाती हैं और गर्द और धूल अच्छी चीज है। हम धूल और मिट्टी से ही बने हुए हैं।’ ह्यमेन ‘ शब्द ‘ ह्यमस ‘ से निकला है और ‘ झूमस ‘ का अर्थ पृथ्वी होता है।’ आदम ‘ शब्द ‘ एडेमुस ‘ से निकला है और इसका भी अर्थ पृथ्वी है। हम सभी पृथ्वी या मिट्टी से ही बने हैं।

बाउल यही कहते हैं। हम सभी मिट्टी से बने हैं—लेकिन उस पुतले या देह के अंदर गहरे में चेतना या आत्मा की दिव्यता सुरक्षित हैं।

तुमने भारत में मिट्टी के बने दीए जरूर देखे होंगे। वे मिट्टी से बने होते हैं। लेकिन उनकी ज्योति मटमैली या मिट्टी जैसी नहीं होती। दीया जरूर मिट्टी का होता है, लेकिन उसकी ज्योति निरंतर ऊर्ध्वगामी होती है, वह ऊपर की ओर उच्चता और दिव्यता की ओर गतिशील होती है। मनुष्य भी एक मिट्टी का ही दीया है मिट्टी से ही बना हुआ, फिर भी उसके मंदिर में एक दिव्य ज्योति विराजमान है।

बाउल पृथ्वी से गहरे जुड़े हुए वास्तविक और सच्चे लोग हैं। उनके विराट दृष्टिकोण में एक अनूठा सौंदर्य है। वे संसार के प्रति नकारात्मक नहीं है, वे सांसारिक वस्तुओं या व्यक्तियों को सहज रूप में स्वीकारते हैं, ‘ न ‘ नहीं करते। यदि तुम संसार में रहते हुए उसे बहुत अधिक ‘ न ‘ कहोगे, तो फिर तुम्हारा परमात्मा भी काल्पनिक हो जाएगा क्योंकि संसार को नकारते जाने, उसे न कहने से संसार भी सिकुड़ता हुआ परमात्मा जैसी वास्तविकता बन जायेगा।

तुम जो कुछ कहते हो, तुम्हारा ‘ न ‘ अर्थात इंकार सिकुड़ कर तुम्हारा परमात्मा बन जाएगा। धीमे— धीमे जब तुम पूरे संसार को नकार दोगे, ‘ न ‘ ही करते जाओगे, तो संसार भी ‘ कुछ ‘ नहीं बनकर परमात्मा जैसी ही एक कल्पना बन जाएगा। परमात्मा भी और कुछ भी नहीं है बल्कि वह एक धारणा है, एक खाली और नपुंसक शब्द है, एक ऐसा डिब्बा या खोल है जिसके अंदर कुछ भी सारतत्व नहीं है। वास्तविक सत्य तो यही जमीन या पृथ्वी है।

संसार से इंकार कर उसे छोड़ दिया गया और उसके स्थान पर एक विरोधी शक्ति के रूप में परमात्मा को स्थापित किया गया, जैसे मानो वह संसार के विरोध में है। अब जरा इसकी व्यर्थता को देखो — इन जैसे लोग ही यह कहे चले जाते हैं ” परमात्मा ने इस संसार को बनाया।’’ वह उसके विरोध में हो ही नहीं सकता अन्यथा वह उसे बनाता ही क्यों? सृष्टिकर्ता या सृष्टा, अपनी ही सृष्टि के विरुद्ध नहीं हो सकता। यह मापदंड ही इस बात का प्रमाण है, कि वह उससे प्रेम करता है, यह सृष्टि उसी की प्रशंसा है, यह सृष्टि उसी का एक खेल है यह सृष्टि उसी का प्रेम और उसी की दिव्य पुकार है।

परमात्मा इस संसार का सृजन करता है, क्योंकि वह उसे प्रेम करता है।

गुरजिएफ कहा करता था—’‘ सभी धर्म परमात्मा के विरोध में हैं, क्योंकि वे उसकी सृष्टि, इस संसार के विरुद्ध हैं। तुम उस कवि के कैसे हो सकते हैं, यदि तुम उसकी कविता का विरोध करते हो? तुम उस मनुष्य के कैसे हो सकते हो, यदि तुम उसके चरित्र के विरुद्ध हो? तुम उस चित्रकार के प्रिय कैसे बन सकते हो, यदि तुम उसके ही बनाए चित्र का विरोध कर रहे हो। गुरजिएफ बिल्कुल तर्कपूर्ण और पूरी तरह ठीक प्रतीत होता है कि सभी धर्म परमात्मा के विरुद्ध होना दिखाई देते हैं। वे बातें तो परमात्मा की करते हैं, लेकिन वे हैं उसके विरुद्ध क्योंकि वे उसके बनाए संसार के विरोध में है। वे तुम्हें संसार से इंकार करना सिखाते हैं लेकिन तुम उससे इंकार नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारी जड़ें उसी के अंदर हैं। तब आखिर होता क्या है? तुम झूठे बन जाते हो, नकली बन जाते हो, तुम बहानेबाज और दोहरे चेहरे वाले बन जाते हो। तुम्हारे पास एक चेहरा संसार को दिखाने के लिए होता है और दूसरा चेहरा उसके साथ रहने के लिए होता है। यह संकटकालीन स्थिति में उठाया एक कदम होता है, मनुष्य इसके अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं सकता।

आखिर किया क्या जाए? तुम वास्तविक सच्चाई से इंकार नहीं कर सकते तुम उसे स्वीकार भी नहीं कर सकते, उसे बने रहने की अनुमति भी नहीं दे सकते-क्योंकि तुम्हारे धर्म तुम्हें उसका विरोध करना सिखाते हैं। इसलिए मनुष्य ने एक स्वर्णिम मध्य खोज लिया है, वास्तविक रूप से इंकार मत करो, केवल शब्दों के द्वारा ही इंकार किया जाओ, और सारी समस्या हल हो गई। परमात्मा के प्रति भी सम्मान प्रकट करो और संसार को भी वास्तविक जानकर जीते रहो।

 

मनुष्य को समझदार बनाने में, धर्मों ने कोई भी सहायता नहीं की। उन्होंने पागल, मानसिक रोगी और विभाजित बनाने में सहायता की है।

एक बार एक चर्च में ऐसा हुआ, एक व्यक्ति अपने अपराधों को स्वीकार कर रहा था तभी पादरी ने उस व्यक्ति से पूछा-’‘ कवानाघ! उस बड़े ढेर से तुमने कितना भूसा चुराया?”

कवानाघ ने कहा-’‘ आदरणीय फादर! मैं पूरे ढेर को ही चुराने का अपराध स्वीकार करना चाहता हूं क्योंकि वहां जो भूसा बचा रह गया है उसे मैं आज रात में उठाने जा रहा हूं।’’

 

वह अपराध स्वीकार भी कर रहा है, लेकिन फिर भी उसे रात में करने की योजना भी बना रहा है। तब तुम अपराध स्वीकार ही क्यों रहे हो? नहीं, वह अपने आपको एक आसान स्थिति में रखना चाहता है क्योंकि लोग कहते हैं-’‘ यह बुरा काम है और ” चोरी करना पाप है।’’ और लोगों ने ‘ अपराध स्वीकृति ‘ को एक सद्गुण बना लिया है, जैसे मानो अपराध स्वीकार करना ही अपने आप में एक सद्गुण है। जब तक यह प्रामाणिक न हो, यह अर्थहीन है।

 

एक सड़क एक बार ऐसा हुआ, कि प्रोटेस्टेंट चर्च का मंत्री अपनी नई नवेली कार को, जो उसे चर्च द्वारा पिछले जलसे के अवसर पर उपहार स्वरूप प्राप्त हुई थी, ड्राइव करता हुआ डबलिन की ओर जा रहा था। अचानक सामने से आती हुई एक कार तेज आवाज करती हुई उससे घिसटती हुई आगे आकर रुकी।

चर्च का वह मंत्री भयंकर रूप से क्रोधित होकर खूनी आंखों से सामने वाली कार पर आधी के वेग से झपटा। तब उसने देखा कि उस दूसरी कार को एक कैथोलिक पादरी चला रहा था। उसे देखकर वह दांत पीसते हुए बोला-’‘ आदरणीय महोदय! यदि आप चर्च के पादरी न होते, तो आपको आज मैं बिना पीटे हुए नहीं छोड़ता और आपकी जान पर बन आती।’’

उस पादरी ने कार की खिड़की के बाहर अपना सिर बाहर निकालते हुए कहा-’‘ महोदय! और यदि आप पादरी न होते और यदि आज पवित्र शुक्रवार का दिन न होता तो मैं आपके मर्मस्थल पर ऐसा प्रहार करता कि आप उसे कभी भूलते नहीं।’’

 

सभी धर्मों का पूरा प्रयास यही है कि कैसे मनुष्य को अपराधी होते हुए भी अच्छाई का मुखौटा लगा कर अपने का महत्त्वपूर्ण होने का दावा करना चाहिए। उनकी वास्तविकता और असलियत पूरी तरह भिन्न है-उनके लगाए मुखौटे असलियत से पूरी तरह भिन्न हैं। बाउल इसके विरुद्ध हैं। वे कहते हैं-’‘ संसार भर को प्रेम करो, और इस प्रेम के द्वारा ही तुम अपना परमात्मा खोजो, जिससे तुम अपने ही अंदर वहां कोई विभाजन न करो।’’

मनुष्य को नकली मुखौटा लगाकर केवल अपनी सुरक्षा करने के लिए कपटी बनना पड़ा है। धर्मों ने उसके लिए कोई मार्ग या कोई संभावना ही नहीं छोड़ी जिससे वह सच्चा और ईमानदार हो सके। अब जरा इस व्यर्थता को तो देखो वे सिखाए चले जाते हैं।

‘सच्चे बनो’ और उनकी पूरी शिक्षा झूठा बनना सिखा रही है। एक ओर तो वे तुम्हें सच्चा और प्रामाणिक होना सिखा रहे हैं और दूसरी ओर उनकी पूरी शिक्षा इस तरह की स्थिति उत्पन्न कर रही है, कि यदि तुम सच्चा बनना चाहते हो, तो आत्महत्या करनी पड़ेगी तुम जीवित रह ही नहीं सकते। यदि तुम सच्चे बनकर रहना चाहते हो तो आत्महत्या करना ही होगी, लेकिन यदि तुमने आत्महत्या ही कर ली, फिर सच्चे बने रहने का अर्थ ही क्या रह जायेगा? तुम सच्चे बने रहने के लिए यहां रहोगे ही नहीं। यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो तुम झूठा बनना ही होगा। लेकिन वह तुम्हारा कुसूर तुम्हारा नहीं है यह कसूर तो उस पूरे कार्यक्रम का है, जो धर्म और समाज द्वारा तुम्हारे दिमाग में ठूंसा गया है। यह पूरा कार्यक्रम ही दोषपूर्ण है।

मनुष्य को सच्चा होना चाहिए अस्तित्व के प्रति सच्चा और प्रामाणिक। वास्तविकता या सत्य जो कुछ हो, मनुष्य को उसे स्वीकार करना ही है और गहन कृतज्ञता से उसे जीना है, उसे इतने अधिक आदर और श्रद्धा के साथ जीना है, क्योंकि वह परमात्मा का ही अस्तित्व है। यह उसी का एक मंदिर है।

जब मोजेज उस पर्वत पर पहुंचे, जहां उनका परमात्मा से साक्षात्कार हुआ था, तो उन्होंने एक झाड़ी के नीचे जलती हुई आग देखी और झाड़ी नहीं जली थी। वह हमेशा की तरह ही हरी- भरी थी, लेकिन आग की लपटें उसी से निकल रही थीं। वह अपन आंखों पर विश्वास ही नहीं कर सके। उन्होंने उस झाड़ी की ओर बढ़ना शुरू किया। जो कुछ उन्होंने देखा था, वे एक चुम्बकीय आकर्षण से उसकी ओर बड़े जा रहे थे। तभी अचानक परमात्मा की तेज आवाज गंजी—’‘ मोजेज! अपने जूते उतार कर आगे बढ़ो। तुम पवित्र और पावन भूमि पर चल रहे हो।’’

मैं हमेशा इस कथा से प्रेम करता रहा हूं लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि केवल सिनाई पर्वत पर ही नहीं, लेकिन तुम जहां कहीं भी चल रहे हो, तुम पवित्र भूमि पर ही चल रहे हो क्योंकि सभी भूमि उसकी ही है, क्योंकि सब कुछ वही ही तो है।

वह प्रीतम प्यारा कितने अधिक रूपों में मौजूद हैं। वासना भी उसी की है, प्रेम भी उसी का है। बाउल कहते हैं—’‘ किसी भी चीज से इंकार करो ही मत, क्योंकि इंकार करना ही आदर पाने की चाह है। यह परमात्मा को अस्वीकार करना है।’’

 

एक दिन मैंने देखा कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने लड़के को सिखा रहा था कि कैसे स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ बना जाए इसलिए वह उसे बॉक्सिंग की श्रेष्ठतम आवश्यक बातें सिखा रहा था।

मैंने उससे पूछा—’‘ लेकिन मुल्ला जरा सोचो—यदि वह किसी बड़े दिग्गज के सामने पड़ जाये जो बॉक्सिंग जानता हो, फिर क्या होगा?”

मुल्ला ने उत्तर दिया—’‘ मैंने इस बारे में पहले ही से विचार कर लिया है।’’ नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ इसलिए मैं यह भी सिखा रहा हूं कि जरूरत पड़ने पर कैसे दौड़ा जाये।’’

 

एक ओर तो हम लोगों को सच्चा बने की शिक्षा दे रहे हैं तो दूसरी ओर सूक्ष्म रूप से हम उन्हें झूठा बनना भी सिखा रहे हैं। माता—पिता और समाज द्वारा प्रत्येक बच्चे को मानसिक रोगी बनाया जा रहा है और हम जानते हैं कि हम ऐसा कर रहे हैं और हम भी जानते हैं कि दूसरों ने भी हमारे साथ ऐसा ही किया है। तुम स्वयं तो इसे करना बंद करो ही और दूसरों के लिए भी यह करना बंद करो। सजग बनो। केवल प्रामाणिक बनो। मैं सत्य से अधिक जोर वास्तविकता या असली बनने पर देना चाहता हूं क्योंकि सत्य का प्रयोग जीवन विरोधी लोगों द्वारा बहुत अधिक किया गया है, और उनके गलत सम्बन्ध भी हैं। असली और प्रामाणिक बनो। यदि तुम सच्चे और प्रामाणिक हो, तो तुम्हारे हृदय से एक चीज विलुप्त होना शुरू हो जाएगी और वह है अपराध—बोध।

एक मनोविश्लेषक और मनोचिकित्सक शेपर्ड ने ‘अपराध मुक्त’ होने के शब्द पर खोज की। मैं इस शब्द को बहुत अधिक पसंद करता। असली धर्म हमेशा अपराधमुक्त होने की एक प्रक्रिया है। नकली धर्म हमेशा अपराधी बनाने की प्रक्रिया है। वे तुम्हें अधिक से अधिक अपराधी बनाते हैं, वहां क्रोध होता है, वहां वासना होती है, वहां सेक्स होता है, वहां लालच होता है, वहां आसक्ति और घृणा होती है वहां प्रेम होता है और वे हर चीज की निंदा करते हैं। तुम अपराध बोध का अनुभव करते हो, तुम्हें अपने गलत होने का अनुभव होना शुरू हो जाता है कि तुम गलत हो, तुम स्वयं ही से घृणा करते हुए स्वयं को निंदित करना शुरू कर देते हो। यदि तुम स्वयं को घृणा करना शुरू कर देते हो तो तुम कभी परमात्मा को न खोज सकोगे, क्योंकि वह तुम्हारे ही अंदर छिपा हुआ है।

अपराध बोध से मुक्त हो जाओ। तुम जो कुछ भी हो, तुम जैसे भी कुछ हो, तुम हो, तुम्हें परमात्मा ने स्वीकार किया है। जब परमात्मा ने ही तुम्हें स्वीकार किया है तो फिर क्यों स्वयं को ही स्वीकार करो? अपने जीवन को विचारों और धारणाओं के अनुसार नहीं, अपने शरीर, अपने भावों और अनुभवों के द्वारा जीना शुरू करो। जीवन को इस तरह से जीना शुरू करो, जैसे मानो तुम्हें समाज द्वारा कभी प्रदूषित किया ही नहीं गया, जैसे मानो तुम सीधे परमात्मा के हाथों से अभी— अभी इस संसार में बस नये आये हो, और किसी ने अभी तक तुम्हें कुछ भी नहीं सिखाया है। बस जीना शुरू कर दो—’‘ यही जीवन ही सच्चा और असली जीवन है। तब तुम अपने हृदय की बात सुनते हो, तुम अपने शरीर की बात सुनते हो। तुम दमन नहीं करते हो, तुम उसे समझने की कोशिश करते हो, और समझ के द्वारा ही रूपांतरण होता है।’’

बाउल गीत केवल आज और अभी के लिए ही गाते हैं,

ओ मेरे हृदय!

यदि तू उस ‘दुर्लभ मानुष’ को प्राप्त करना चाहता है,

तो इस पृथ्वी पर रहते हुए

तू अपनी माटी की देह के प्रति वचनबद्ध होकर जी।

तुम स्वयं अपने आप में इस पृथ्वी के प्रति वचनबद्ध हो कहीं और होने वाले कल्पित स्वर्ग के लिए प्रतिबद्ध मत बनो, प्रतिबद्ध होना है अपने चारों ओर की वास्तविकता के प्रति, उस सत्य के प्रति, जो अभी और यही है। प्रतिबद्ध बनो पूरी मनुष्यता के प्रति, उस पृथ्वी के प्रति जो ठीक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं, जिस पर तुम खड़े हो। पृथ्वी पर रहते हुए तुम्हें इस पृथ्वी के प्रति वचनबद्ध होकर रहना है। बाउल कहते हैं—’‘ जब हम दूसरी दुनिया में जायेंगे अथवा स्वर्ग की ओर बढ़ेंगे हम तभी उसके बारे में सोचेंगे, जब उसे हम स्वयं देखेंगे। एक बार तुमने यदि सीख लिया कि यहीं और अभी के प्रति कैसे समर्पित हुआ जाता है, तब तुम वहां भी प्रतिबद्ध रहोगे, क्योंकि जब भी भविष्य आता है, वह हमेशा वर्तमान की ही भांति आता है। दूसरा संसार भी इसी संसार की तरह ही आयेगा। क्या तुमने कभी देखा है कि जब तुम नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे की ओर बढते हो, और जब तुम दूसरे किनारे के निकट पहुंचते हो तो दूसरा किनारा ही यह किनारा बन जाता है। पहला किनारा जिसे हम यह किनारा कहा करते थे वह किनारा बन जाता है। इसलिए तुम जहां कहीं हो, तुम चारों ओर से यह के होने से घिरे हुए हो।’’

मैंने सुना है:

एक बार मुल्ला नसरुद्दीन ने बहुत अधिक शराब पी ली और वह सड़क पर इधर से उधर की ओर लड़खड़ाते हुए चल रहा था। वह लोगों से पूछ रहा था— ” सड़क का दूसरा किनारा किधर है?”

किसी ने उसे बताया—’‘ दूसरा किनारा वहां है। वह वहां गया और वहां जाकर उसने लोगों से पूछा—’‘ सड़क का दूसरा किनारा किधर है?”

उन लोगों ने सामने इशारा करते हुए कहा—’‘ दूसरी साइड वहां है।’’

उसने कहा—’‘ ये लोग मूर्ख दिखाई देते हैं। जब मैं उस ओर जाता हूं तो लोग कहते हैं कि दूसरी साइड वहां उस ओर है और जब मैं इधर इस ओर जाता हूं तो लोग कहते हैं कि दूसरी साइड वहां उधर सामने है। क्या ये लोग पागल हो गए हें?”

 

दूसरी साइड हमेशा वहां उस ओर ही होती है। और तुम जब भी जहां भी होते हो, वह हमेशा ‘ यहां ‘ होता है। तुम यह के होने से चारों ओर से घिरे रहते हो। ठीक दूसरे ही दिन मैं उद्दालक ऋषि की अपने बेटे श्वेतकेतु को दी गई महान सीख का उद्धरण दे रहा था—’‘ तू ‘ वह ‘ ही है श्वेतकेतु।’’ ( तत्त्वससि श्वेतकेतु) बाउल लोग इस कथन में थोड़ा परिवर्तन करना चाहेंगे। वे कहेंगे—’‘ तू ‘ यह ‘ ही है, ‘ वह ‘ नहीं, क्योंकि ‘ वह ‘ शब्द बहुत दूर बैठे परमात्मा का विचार देता है। यह अधिक मिट्टी से जुड़ा शब्द है।’’

ओ मेरे हृदय!

यदि तू उस दुर्लभ मानुष को प्राप्त करना चाहता है

तो पृथ्वी पर रहते हुए

तू अपनी माटी की देह के प्रति वचनबद्ध होकर ही जी।

यदि तुम उस ‘ दुर्लभ मनुष्य ‘ को ‘ आधार—मानुष ‘ या अस्तित्वगत—सारभूत मनुष्य को प्राप्त करना चाहते हो, तो यहां और अभी के प्रति वचनबद्ध हो जाओ।’’

 

वर्तमान के प्रति प्रतिबद्ध रहो, वास्तविकता और सत्य के प्रति जो इस क्षण तुम्हें उपलब्ध है, वचनबद्ध होकर रहो। वहां इसके अतिरिक्त और कोई वचनबद्धता और विश्वास है ही नहीं।

उसके चरणों में तू अपने भावों के पुष्पों को अर्पित कर दे

और अपनी प्रार्थना के अश्रुओं से

जो तेरी आंखों से बाढ़ की तरह उमड़ रहे हैं

उन चरणों को भिगो दे।

ये लोग बहुत सच्चे और प्रमाणिक व्यक्ति है। ये कहते हैं—’‘ भावों के पुष्पों को।’’ सामान्य फूलों से काम नहीं चलने का। तुम वृक्षों से फूल तोड़कर अपने मंदिरों में बैठे परमात्मा के चरणों में चढ़ा सकते हो, लेकिन यह परमात्मा तो वास्तविकता से पृथक काल्पनिक परमात्मा है और फूल भी उधार के हैं। वास्तव में वृक्षों पर लगे हुए पुष्प ही कहीं अधिक परमात्मा के साथ लयबद्ध थे। वृक्षों पर लगे हुए वे जीवंत थे। उन्हें तोड़कर उस पर चढ़ाते हुए परमात्मा के निकट लाकर तुमने तो उन फूलों की हत्या कर दी।

जब मैं जबलपुर में रहा करता था तो मेरा उद्यान बहुत सुंदर था और मैं धार्मिक लोगों का निरंतर शिकार बनता रहता था। क्योंकि वहां निकट ही दो मंदिर भी थे, इसलिए कोई भी व्यक्ति जो वहां पूजा करने आता था, मेरी फुलवारी से बिना पूछे फूल तोड़ना शुरू कर देता था। देश के उस भाग में ऐसा खयाल किया जाता है कि यदि कोई अपने परमात्मा पर चढ़ाने के लिए फूलों को तोड़ता है तो उसे रोकना अच्छी बात नहीं है। इसलिए मुझे वहां एक नोटिस बोर्ड टांगना पड़ा, क्योंकि यदि मैं उन्हें रोकता तो वे कहते—’‘ फूल तो मैं धार्मिक कृत्य के लिए तोड़ रहा हूं।’’ उस नोटिस बोर्ड पर लिखा—’‘ तुम फूलों को किन्हीं दूसरे कारणों से तो तोड़ सकते हो, लेकिन धार्मिक कृत्यों के लिए नहीं। क्योंकि जैसा मैं देखता हूं कि पौधे में लगे हुए पुष्प परमात्मा को कहीं अधिक समर्पित और जीवंत हैं। उन्हें तोड़कर तुम उनकी हत्या कर दोगे। तुम्हारे परमात्मा तो जड़ और बोगस हैं और उसके लिए तुम फूलों को मार दोगे। यह पूरी पूजा ही नकली है।’’

बाउल कहते हैं—’‘ तुम अपने भावों के पुष्पों को उसके चरणों पर चढ़ा दो।’’ तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी करुणा, तुम्हारी समझ, जीवन को जीते हुए तुम्हारे किए अनुभव, तुम्हारी दृष्टि, तुम्हारा स्वाद और तुम्हारी समृद्धता यही भावों के पुष्प हैं।’’ भावनाओं के इन पुष्पों और आंसुओ से लिखी प्रार्थनाओं को उसके चरणों पर चढ़ा दें।’’ क्योंकि शब्दों से कुछ भी नहीं होगा।

शब्द कैसे प्रार्थना बन सकते हैं? शब्द तो मुर्दा होते हैं। उनका कोई अधिक कार्य नहीं होता। हां उनमें वहां शोर तो बहुत होता है, लेकिन उनका अधिक अर्थ नहीं होता। मौन में बहाये अश्रु उनसे कहीं बेहतर हैं। इसलिए तुम बाउलों को सड़क के किनारे खड़े रोते आंसू बहाते और नाचते गाते पाओगे और यदि तुम उनसे पूछो—’‘ तुम लोग क्या कर रहे हो?” वे कहेंगे—’‘ हम प्रार्थना कर रहे हैं।’’ और तुम वहां न कोई समाधि देखोगे और न कोई मंदिर और यहां तक कि वहां कोई वृक्ष का देवता भी नहीं होगा। वे सिर्फ सड़क के किनारे खड़े हैं या तो आंसू बहा रहे हैं अथवा वे नाच या गा रहे हैं। तुम यदि उनसे पूछोगे—’‘ तुम्हारा परमात्मा है कहां?” और वे कहेंगे—’‘ वह प्रत्येक वस्तु में है, वह हर कहीं है। जब कभी हमें प्रार्थना के लिए ठीक क्षण उपलब्ध होता है, जब भी हमें यह अनुभव होता है कि उस क्षण वह ग्राह्य है, वही प्रार्थना करने का ठीक क्षण होता है, और हम लोग प्रार्थना करना शुरू कर देते हैं।’’ वे आंसू बहाते प्रार्थना करते हैं, वे नाचते हुए प्रार्थना करते हैं और वे गीत गाते हुए प्रार्थना करते हैं, लेकिन उनकी प्रार्थना जीवंत होती है।

बाउल गाते हैं:

भिक्षुक की दीनता के साथ,

मैंने तेरे द्वार पर दस्तक दी है।

कोई भी व्यक्ति तेरे घर से

जिसमें अनंत भण्डारहैं।

आज तक निराश नहीं लौटा है।

तेरे पास सभी समृद्धिया और सब कुछ है।

और बिना मेरी मांग के

तूने मुझे इतना अधिक दिया है।

अब मुझे किसी और धन सम्पत्ति की कोई आवश्यकता नहीं है।

ओं मेरे मालिक!

तू मुझे बस अपने चरण दे दे।

अब मुझे और किसी धन सम्पत्ति की कोई आवश्यकता नहीं है, ओ मेरे मालिक! तू मुझे अपने चरण दे दे, बस तेरे चरण ही पर्याप्त है, जिससे मैं उन्हें अश्रुओं से धो सकूं, जिससे मैं नाचते गाते तेरी प्रार्थना कर सकूं।

तू उसके चरणों में

अपने भावों के पुष्पों को अर्पित कर दे,

और अपने अश्रुओं से

जो प्रार्थना बन कर तेरी आंखों से बाढ़ की तरह उमड़ रहे हैं

उन चरणों को भिगो दे।

जिस ‘ मानुष ‘ की तू खोज कर रहा है।

वह तेरे इसी माटी के तन में ही है।

मृत्यु तो नवजीवन का प्रारम्भ होता है।

और मरने के बाद मृत्यु उसके अस्तित्व को माटी ही में मिला देती है मरने से पूर्व तुझे जीवित रहते हुए ही उसे जरूर खोज लेना चाहिए।

जिस मनुष्य की तू खोज कर रहा है, वह माटी में ही छिपा है, तेरी ही देह में अवतार हुआ है। तेरा शरीर ही तेरी मिट्टी या माटी है और जिस मानुष की तू खोज कर रहा है वह भी यही है, वह तेरे माटी के ही देह—मंदिर में सुरक्षित है, और वह मृत्यु में भी सुरक्षित है। जीवन की ज्योति मृत्यु के मंदिर में ही सुरक्षित है। वह वहीं से पुन— प्रदीप्त होती है…… .इसलिए न तो मिट्टी से डरना है और न मृत्यु से। तेरे रहने के लिए यह दोनों ही उसे सम्भव बनाते हैं।

केवल मृत्यु के कारण ही जीवन का संभावना है, देह के कारण ही आत्मा की संभावना। जड़ों के कारण ही वृक्ष होने की संभावना है, इसलिए जड़ों से डरो मत और न मृत्यु से डरो। अपनी देह से भी नहीं डरना है। इस वास्तविकता और सत्य को स्वीकार करो।

मृत्यु के साथ मर ही जाना है।

पर तुझे जीवित रहते, उसे जरूर खोज लेना है।

जब तक जीवन है उसे जियो। इस माटी की देह के प्रति जब तक यह देह रहे, उसके प्रति प्रतिबद्ध रहो, उस पर विश्वास करो और जब मृत्यु आती है तब मर जाओ। जीवन के साथ गतिशील रहो और मृत्यु के भी साथ भी। मरना है तो जीवन से बंधे मत रहो, मरना है तो मृत्यु में अवरोध मत बनो—मृत्यु आए तो मर जाओ। जब तक जीवन है, उसे जियो, मृत्यु आये तब मर जाओ। उस क्षण को समग्रता से लो। उसे स्वीकार करते हुए उसके साथ बहो। जब मुत्यु आती है तब उदास मत हो। तब मृत्यु को स्वीकार करो। तब उसे इतनी समग्रता से स्वीकार करो कि मृत्यु भी तुम्हें मार न सके।

एक पूर्ण मनुष्य को मारा नहीं जा सकता और एक खण्डित तथा विभाजित व्यक्ति कभी जीवित होता ही नहीं। एक पूर्ण मनुष्य पहले ही से मृत्यु के पार है। अखण्डता, मृत्यु के पार है। विभाजित खण्ड—खण्ड होकर अलग— अलग टुकड़ों में बंटे हुए तुम समग्र नहीं हो, तुम जीवित दिखाई देते हो, लेकिन तुम जीवंत नहीं हो। तुम मर ही रहे हो, मर ही जाओ मृत्यु के प्रति समर्पित कर दो अपने आप को। अब वह परमात्मा ही है जो मृत्यु के रूप में आया है।

बाउलों के लिए प्रत्येक वस्तु दिव्य है। चाहे वह जीवन हो या मृत्यु। कुछ भी ऐसा नहीं है जो दिव्य न हो। उनके लिए कहीं किसी शैतान का कोई अस्तित्व है ही नहीं।

तुमने जीसस के जीवन की वह कहानी जरूर सुनी होगी, जब मेरी मैग्दलीन जीसस से भेंट करने आई, वह सात प्रेतों के अधिकार में थी। उसे जीसस ने जैसे ही छुआ कि सातों प्रेत उसके अंदर से निकल कर समुद्र की ओर भागे और उसी में डूब गए। अब यह कहानी बहुत महत्त्वपूर्ण है।’ डेमन ‘ (प्रेत) शब्द जिस मूल शब्द से निकला है उसका अर्थ है विभाजित या खण्डित (डिवीजन) यदि तुम कहानी को मनोवैज्ञानिक भाषा में अनुवाद करो तो इसका केवल इतना ही अर्थ है कि मेरी मैग्दलीन सात भागों में विभाजित थी, खण्डित थी। जीसस ने उसका स्पर्श किया और वह अखण्ड बन गई, अब वह किसी की गुलामी में न रही, वे प्रेत वे खण्ड विसर्जित हो गए।’ डेमन ‘ (प्रेत) का अर्थ ही है खण्डित होना, विभाजित होना। बाउल कभी विभाजन नहीं करता, वह अखण्ड जीवन जीता है। वह किसी भी वस्तु या व्यक्ति के विरुद्ध नहीं है, वह किसी भी वस्तु या व्यक्ति के लिए नहीं जी रहा है, वह बस जी रहा है। उस क्षण जो भी सामने आता है, वह उसे जीता है। वह वास्तविक यथार्थ और सत्य के प्रति समर्पित है और यही उसकी प्रार्थना है। मृत्यु आती है, वह सुदंरता और गरिमा के साथ समर्पण कर देता है, और मर जाता है। वह मृत्यु के साथ सहयोग करता है। वहां वह जरा सा भी प्रतिरोध नहीं करता, तनिक सा भी नहीं। वह मृत्यु से संघर्ष नहीं करता, उससे लड़ता नहीं, वह मृत्यु का आलिंगन करता है।

आती हुई मृत्यु के साथ मर जाओ,

पर तुझे जीवित रहते ‘ उसे ‘ जरूर खोज लेना है।

और तब आगे और आगे ही बढ़ता जाता है। उसकी खोज अनंत है। परमात्मा को पूरी तरह कभी भी नहीं जाना जा सकता, क्योंकि वह अनंत है। हम उसे अधिक से अधिक जानते चले जाएंगे, हम उसके अधिक से अधिक निकट आते जाएंगे लेकिन परमात्मा कोई लक्ष्य या मंजिल नहीं है। कोई भी यह नहीं कह सकता कि मैं पहुंच गया उस तक। यदि कोई ऐसा कहता है, तब कुछ चीज गलत है उसके साथ। उपनिषद कहते हैं, कि जो भी व्यक्ति यह कहता है—’‘ मैं परमात्मा को जानता हूं।’’ वह ‘ उसे ‘ नहीं जानता क्योंकि तुम शाश्वत और अनंत को कैसे जान सकते हैं? हां तुम उसे जी सकते हो, तुम उसे प्रेम कर सकते हो, तुम उसमें हो सकते हो, लेकिन तुम उसे जान नहीं सकते—क्योंकि जानकारी एक परिभाषा बन जाएगी जानकारी उसे सीमित बना देगी। जो समग्र रूप से जान लिया जाता है वह सीमित और ज्ञात बन जाता है। लेकिन परमात्मा तो अज्ञात बना रहता है। तुम जितना अधिक उसे जानते हो, उतने ही अधिक द्वार खुलते हैं, उतने ही अधिक रहस्य खुलते हैं। प्रत्येक मृत्यु अतीत का द्वार बंद कर देना और भविष्य की एक नई दृष्टि है।

तुम मर रहे हो, मर ही जाओ।

जीवित रहते तुम्हें उसे जरूर खोज लेना है।

और कोई भी व्यक्ति उसे खोजे ही चला जाता है। यात्रा शाश्वत और अनंत है। तभी बाउल गाते हैं

प्रबल कामवासना के चेहरे पर द्वार बंद कर दो।

उस अप्राप्य मनुष्य को जो महानतम है उसे प्राप्त करो।

और जो कुछ भी करो, ठीक प्रेमियों की भांति करो,

और मृत्यु होने से पूर्व ही मृत्यु से साक्षात्कार करो।

मृत्यु आने पर सहजता से मरना केवल तभी संभव है, यदि मृत्यु से पूर्व तुमने उसका साक्षात्कार किया हो। अन्यथा यह कठिन होगा। तुम्हारी उससे कुछ पहचान होनी जरूरी है। यदि मृत्यु आती है और तुम उससे परिचित नहीं हो, तो तुम्हारे लिए उसके प्रति समर्पण करना कठिन हो जाएगा। ध्यान वही है, और इसी के बारे में ही है कि मरने से पूर्व तुम्हारी मृत्यु से मुलाकात हो जाए थोड़ी सी जान पहचान हो जाए थोड़ा सा आमना—सामना हो जाए मृत्यु का—जिससे तुम उसके सौंदर्य से प्रेम करना शुरू कर दो तुम उसके प्रेम में मरना शुरू कर दो, जिससे तुम मृत्यु में भी उस परमात्मा की दिव्यता देख सको।

केवल एक ध्यानी ही बिना किसी संघर्ष के मर सकता है अन्यथा अचेतन संघर्ष करता है। ऐसा नहीं है कि तुम उससे लड़ोगे, तुम अपने को उससे संघर्ष करते हुए पाओगे, और यह लगभग असंभव होगा कि तुम उससे संघर्ष न करो। यह संघर्ष और प्रतिरोध अचेतन में होगा, यह तुम्हें जन्म से ही मिला है।

ध्यान करो अथवा प्रेम करो, क्योंकि मृत्यु से पहचान करने के यह दो ही मार्ग हैं। यदि तुम प्रेम करते हो तो यह एक छोटी सी मृत्यु है। यदि तुम बहुत अधिक गहराई से प्रेम करते हो यह एक बड़ी मृत्यु है। यदि तुम वास्तव में सच्चे प्रेम में हो तो तुम वैसे ही नहीं रह जाओगे, जैसे उससे पूर्व थे। तुममें से कुछ चीज विसर्जित हो जाती है तुम्हारा नया जन्म होता है। प्रेम एक पुनर्जन्म है।

जीवन में बहुत बार, ध्यान और प्रेम के द्वारा तुम्हें मृत्यु के साथ पहचान करनी चाहिए जिससे जब मृत्यु वास्तव में आती है तुम उसे अतिथि के रूप में भली भांति पहचान सको और उससे भयभीत न हो जाओ। तुम अतिथि का स्वागत कर सको, तुम अपार प्रेम, और महान आनंद उत्सव के साथ उसका स्वागत कर सको।

बाउल उस सारभूत अस्तित्वगत मनुष्य अथवा ‘ आधार—मानुष ‘ के बारे में कहते हैं:

उसके लिए विष और अमृत

एक जैसे ही हैं

वह समग्रता से जीते हुए भी

मृत ही हैं।

यदि ध्यान और प्रेम के द्वारा तुम्हारी मृत्यु से जान पहचान हो गई, तो धीरे— धीरे तुम देखने लगोगे कि जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अमृत और विष भी उसी सिक्के के दो चेहरे हैं, पदार्थ और मन भी उसी सिक्के के दो पहलू हैं। अच्छा और बुरा और सारी द्वैतता उसी सिक्के के दो रूप हैं। तब तुम परेशान नहीं होते, तब तुम कुछ भी चुनते नहीं, तब तुम एक चुनावरहित होशपूर्वक जीवन जीते हो, तब सब कुछ एक जैसा ही होता है। यदि तुम जीवन चुनते हो, तो तुमने मृत्यु को चुन लिया। यदि तुम मृत्यु को नकारते हो तो तुमने जीवन को भी नकार दिया—इसलिए वहां न तो चुनने की कुछ जरूरत है और न किसी से इंकार करने की। वह व्यक्ति केवल प्रतीक्षा करता है और जो कुछ भी भेंट या उपहार परमात्मा की कृपा से मिलता है, उसे स्वीकार करता है।

यही है वह : जिसके बारे में बाउल कहते हैं ” वह समग्रता से जीते हुए भी मुर्दे जैसा ही है।’’ वह पूरी तौर से जीवंत है लेकिन एक अर्थ में मृत भी है, क्योंकि सभी द्वैतता उसके अंदर समाहित है और उनका एक संश्लेषण बन गया है। न तो तुम जीवित हो और न मृत, तुम दोनों की कैद में हो।

एक पूर्ण मनुष्य दोनों ही एक साथ हो। वह सभी द्वैतताओं का अतिक्रमण कर गया है। वह अत्यन्त समृद्ध है क्योंकि जीवन उसमें अपने को उड़ेलता जा रहा है और मृत्यु भी उसमें उड़ेलती जा रही है। जो कुछ भी जीवन उसे दे सकता है वह उसे स्वीकार करता है और जो कुछ भी दुख और पीड़ाएं वह उसे देता है, वह उसे भी स्वीकार करता है।

और स्मरण रहे, जैसे वहां खुशियों में खजाने छिपे हैं। उसी तरह वहां दुखों में भी खजाने छिपे हुए हैं। यदि तुमने केवल खुशियों के खजानों को ही जाना है, तब तुमने अधिक नहीं जाना। यदि तुमने केवल प्रसन्नता के खजानों को जाना है, तो तुमने अधिक नहीं जाना। वहां दुःखों और उदासियों के भी खजाने हैं। वहां कुछ ऐसे भी खजाने हैं जिन्हें केवल उदासी ही तुम्हें दे सकती है। वहां हंसी के भी खजाने हैं और आंसुओ के भी।

बाउल कहते हैं कि एक व्यक्ति को इतना सक्षम होना चाहिए कि वह सभी द्वैतताओं को मिलने और अपने तक आने की उन्हें अनुमति दे। केवल तभी वह ‘ सारभूत मनुष्य ‘ प्रगट होता है और यह ‘ आधार मानुष ‘ अथवा सारभूत मनुष्य ही बाउलों का परमात्मा है।

ओ मेरे हृदय।

जब तक तू इस माटी की देह में है।

इस माटी की देह के प्रति तू समर्पित होकर जी।

यदि तू उस अप्राप्य दुर्लभ मनुष्य को उपलब्ध होना चाहता है।

तो उसके चरणों मे अपने भावों के पुष्प अर्पित कर दे

और अश्रुओं की आंखों से उमडती बाढ से

उसके चरण भिगो दे।

जिस मनुष्य को तू खोज रहा है।

वह इसी माटी की देह में ही है।

तू जीवित रहते हुए मरने का स्वाद जान ले।

तू मर रहा है, तो मर ही जा।

लेकिन मरने से पूर्व, जीवित रहते तुझे ‘उसे’ खोज लेना है।

 

आज इतना ही।

 


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सहज योग–(प्रवचन–19)

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प्रेम प्रार्थना है—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक 9 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1–कुछ लोग आपके आश्रम की तुलना जोन्सटाउन से करते हैं। जिस भांति गुयाना के जंगल में सामूहिक आत्मघात हुआ, वैसा ही कुछ क्या यहां होने की संभावना है?

 2—क्या आप समझाने की कृपा करेंगे कि आपकी शिक्षा और प्रयोगों में और संप्रदाय में क्या अंतर है?

 3—मैं बिलकुल पत्थर हूं और फिर भी प्रार्थना में डूबना चाहता हूं, पर जानता नहीं कि प्रार्थना क्या है? मुझ अंधे को भी आंखें दें।

 4—विवाहित जीवन के संबंध में आपके क्या खयाल हैं?

 

5—दो माह पहले मेरे भाई, मासी के पुत्र की छब्बीस वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी। वे भाई पुत्र से भी ज्यादा आत्मीय थे। हमने भजन गाये और उत्सव मनाया।…

 

 

पहला प्रश्न:

 

ओशो, कुछ लोग आपके आश्रम की तुलना जोन्सटाउन से करते हैं। जिस भांति सामूहिक आत्मघात गुयाना के जंगल में हुआ, वैसा ही कुछ क्या यहां होने की संभावना हो सकती है? क्या आप अपने संन्यासियों से अपने प्रति या अपनी धारणाओं के प्रति प्रतीक-रूप में ऐसा कुछ बलिदान करने को कह सकते हैं?

 

बैरी स्लाटर! मैं भी मृत्यु सिखाता हूं–मगर एक और भांति की मृत्यु। मृत्यु, जैसा जीसस ने कहा। जीसस ने कहा: जिन्हें प्रभु के राज्य में प्रवेश करना है, उन्हें पुनर्जन्म लेना होगा। उन्हें मरना होगा एक तल पर और जागना होगा दूसरे तल पर। उन्हें शरीर से मुक्त होना होगा और चेतना के आकाश में पंख फैलाने होंगे। मैं उसे ही वास्तविक मृत्यु कहता हूं।

देह तो मरती रहती है; अपने-आप ही मरती रहती है। उसे मारना तो मारे हुए को मारना है। मारना है मन को, जो कि मर-मरकर नहीं मरता; जो हर मृत्यु के पार फिर नये जन्मों का सिलसिला शुरू कर देता है

मैं मन मांगता हूं, तन नहीं। मैं चाहता हूं: तुम मरो। मैं चाहता हूं कि मेरा संन्यासी मरे। मरे–भौतिक तल पर, ताकि जी सके आध्यात्मिक तल पर। मरे कीचड़ की भांति, ताकि हो सके कमल।

मृत्यु तो सारे सदगुरुओं ने सिखायी है। लेकिन जो जोन्सटाउन में हुआ, उसका धर्म से कोई भी संबंध नहीं है। वह तो एक प्रकार की विक्षिप्तता है; एक तरह की आत्मघाती वृत्ति है। जोन्सटाउन में रेवरेंड जिम जोन्स ने जो किया, उससे केवल एक बात सिद्ध होती है कि वह स्वयं भी विक्षिप्त था और उसने जिन लोगों को अपने आसपास इकट्ठा कर लिया था, वे भी विक्षिप्त थे। वह पागलों की एक जमात थी! विध्वंसक, आत्मविध्वंसक लोगों का एक समूह था। जो किसी भी बहाने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

इस आश्रम में ऐसा कभी कुछ नहीं हो सकता है। क्योंकि इस आश्रम में तो जो प्रविष्ट हो चुका है, वह तो मर ही चुका। अब उसे और मरने का उपाय नहीं है। अब तो शाश्वत जीवन उसके लिए है। अब तो अमृत का जीवन उसके लिए है। संन्यास का अर्थ ही मृत्यु होता है। मृत्यु–मनोवैज्ञानिक–अस्मिता की, अहंकार की। मैं नहीं हूं, ऐसा भाव ही तो संन्यास है। और जब मैं नहीं हूं, तो अब कौन मरेगा? मैं का मिट जाना ही तो संन्यास है।

इसलिए जो लोग इस आश्रम की तुलना जोन्सटाउन से करते हैं, वे न तो जोन्सटाउन को समझते हैं, न इस आश्रम को समझते हैं। उन्हें कुछ समझ नहीं है। वे तो जीसस की तुलना भी रेवरेंड जोन्स से करेंगे। वे तो बुद्ध की तुलना भी रेवरेंड जोन्स से करेंगे। क्योंकि बुद्ध ने भी कहा है, प्रतिपल मरो। और जीसस ने तो बार-बार दोहराया है कि जब तक तुम मरोगे नहीं, तब तक उसे पा न सकोगे। लेकिन किस मृत्यु की बात कर रहे हैं जीसस और बुद्ध? कोई और ही मृत्यु है। कोई और ही रासायनिक प्रक्रिया है।

मैं भी कहता हूं, प्रतिपल मरो। अतीत के प्रति मरते चलो। अतीत का बोझ न ढोओ। तुम्हारे चित्त के दर्पण पर अतीत की कोई छाया न इकट्ठी हो, कोई धूल न जमे। पोंछते चलो, झाड़ते चलो, रोज स्नान करते चलो। प्रतिपल समझो कि नया जन्म हुआ। अतीत मर जाये और भविष्य जन्मे–उस ताजगी में ही, उस ओस जैसी ताजगी में ही तुम परमात्मा से संबंधित हो पाओगे।

लेकिन वैसा मरना कठिन है। वैसे मरने के लिए लंबी साधना की यात्रा करनी होगी। और जो जोन्सटाउन में हुआ, वैसा मरना बहुत आसान है। जहर खाकर मर जाना कोई बहुत बड़ी कला तो नहीं! बोध को जगाकर मर जाना कला है, योग है। जहर खाकर मरोगे, तो तुम्हारा जीवन भी व्यर्थ गया, तुम्हारी मृत्यु भी व्यर्थ गयी। बेहोशी में मरे। और बेहोशी में वही मरता है, जो बेहोशी में जीया हो। क्योंकि मृत्यु तो जीवन की परम अभिव्यक्ति है।

मैं तुम्हें जागकर जीने को कहता हूं। ऐसे जागकर जीयो कि जब मौत आये तब भी तुम जागे रहो। मौत भी ध्यान में घटित हो। तुम वहां जागे रहो और यहां मौत घटित हो। वहां चैतन्य का दीया जलता रहे और शरीर से छुटकारा हो। बस अगर तुम जागकर मर सको, तो फिर दोबारा न जन्मोगे न मरोगे। फिर अमृत से तुम्हारा संबंध हो गया।

रेवरेंड जोन्स कोई सदगुरु तो नहीं–मनोविकारग्रस्त व्यक्ति होगा। मेरे पास भी ऐसे मनोविकारग्रस्त लोग कभी आ जाते हैं। मुझसे आकर कहते हैं कि ओशो, आप आज्ञा दें तो हम आपके लिए मरने को तैयार हैं। मैं उनको कहता हूं कि अगर मेरी आज्ञा ही माननी हो, तो पहले मेरे लिए जीने को तो तैयार हो जाओ। जीयो मेरे लिए पहले; मैं जो कहता हूं वैसे जीयो। मरना तो बड़ा सुगम है। मरने में देर कितनी लगती है? जीना कठिन बात है; मरना तो क्षण में हो जाता है। कूद गये पहाड़ी से जाकर। एक क्षण की ही हिम्मत की जरूरत है। जीना, सत्तर साल जीना होगा…। हजारों ऋतुएं बदलेंगी। हजारों मन के भाव बदलेंगे। परिस्थितियां बदलेंगी। अनुकूलताएं प्रतिकूलताएं आयेंगी, सफलताएं-विफलताएं आयेंगी। फिर भी एक धागे को पकड़कर जीना, एक प्रेम के धागे को पकड़कर जीना, एक प्रार्थना को अडिग और अकंप रखना–कठिन मामला है–अति कठिन मामला है। और जब मैं किसी से कहता हूं जैसे मैं कहता हूं वैसे जीयो, तो वह शिथिल हो जाता है; मरने को तैयार है।

यही तो सदियों से हुआ है। लोग धर्म के नाम पर मरते रहे; धर्म के नाम पर जीया कौन? मैं तुम्हें धर्म के नाम पर जीना सिखाता हूं। मेरा तो सारा संदेश जीवन के अहोभाव का संदेश है–नृत्य का, गीत का, उत्सव का। मैं तो चाहता हूं: तुम फूल बनो, खिलो; कि पक्षी बनो, आकाश में उड़ो; कि सीखो चांदत्तारों से नृत्य; कि सीखो झरनों से गीत-गान। मैं तो जीवन का प्रेमी हूं, क्योंकि मेरे लिए जीवन ईश्वर का पर्याय है। और जीवन कभी मरता नहीं; जीवन शाश्वत है। देहें बदल जाती हैं, रूप बदल जाते हैं, रंग बदल जाते हैं, नाम बदल जाते हैं; लेकिन जो तुम्हारे भीतर बसा है, वह तो कभी बदलता नहीं।

जोन्सटाउन में जो हुआ, वह तो बड़ी रुग्ण-चित्त की अवस्था है। इसका धर्म से कोई संबंध नहीं है। हां, धर्म के नाम पर बहुत तरह के उपद्रव दुनिया में चल रहे हैं, चलते रहे हैं; उनसे ही इस बात का संबंध है।

रेवरेंड जोन्स एडोल्फ हिटलर जैसा रुग्ण-चित्त, विक्षिप्त आदमी रहा होगा। भ्रांतियां रही होंगी उसे। और अपनी भ्रांतियों को सिद्ध करने के लिए आदमी कुछ भी कर सकता है। लोगों को जीवन जीना तो नहीं सिखा पाया…।

जब तुम कुछ सृजन नहीं कर पाते तो तुम्हारी ऊर्जा विध्वंसक हो जाती है। जब तुम बना नहीं पाते तो मिटाने की आतुरता पैदा हो जाती है। स्मरण रहे, जो भी हार जायेगा बनाने से, वह मिटाने को उत्सुक हो जाता है। कम से कम इतनी तो घोषण कर दे कि नहीं बना सका, कोई बात नहीं; मिटा तो सका। मिटाने में भी तो ऐसा लगता है कि मैं बलशाली हूं, मेरी प्रभुता है। आखिर दुनिया में विध्वंस का इतना रस क्यों है? इसीलिए रस है, नहीं बना सके, कोई फिक्र नहीं; मिटा तो सकते हैं। मिटाने में भी लगता है कि हम महत्वपूर्ण हो गये, महिमाशाली हो गये। दो ही तो कृत्य हैं इस जगत में: बनाओ या मिटाओ। जो बना सकता है, मिटायेगा नहीं। जो नहीं बना सकता है, वही मिटाता है।

सदगुरु तो वह है जो जीवन को जगाता है; जीवन को बनाता है। सदगुरु तो मूर्तिकार है; अनगढ़ पत्थरों को गढ़ता है। टूटे-फूटे लोगों को सुघड़ता देता है। सौंदर्य देता है उनको, जो कुरूप हो गये हैं। स्वास्थ्य देता है उनको, जिनकी छातियों में सिर्फ घाव हैं और कुछ भी नहीं। जिनके प्राणों में मवाद भरी है उनके प्राणों से मवाद खींचता है। उनके जीवन से जहर को बाहर करता है; अमृत का दान देता है। कोई सदगुरु ऐसा करेगा?

एक पागल आदमी के आसपास कुछ और पागल इकट्ठे हो गये होंगे। और पश्चिम में यह जोर से हो रहा है। क्यों हो रहा है पश्चिम में यह जोर से? इसलिए हो रहा है कि परंपरागत धर्म सड़ गया है। परंपरागत ईश्वर अर्थहीन हो गया है। चर्चों और मंदिरों में सूनापन है, सन्नाटा है। वहां से देवता कभी के विदा हो चुके हैं। वहां पंडितों ने और पुजारियों ने, पादरियों ने दुकानें खोल रखी हैं! और आदमी के मन में ईश्वर की तलाश पैदा हुई है। और इसलिए तलाश पैदा हुई है कि पश्चिम पहली बार समृद्ध हुआ है। जब भी कोई समृद्ध होता है, जब भी जीवन की सारी सुविधाएं पूरी हो जाती हैं, तो परमात्मा की खोज अनिवार्य होती है। क्योंकि फिर और कुछ खोजने को बचता नहीं। धन पा लिया, पद पा लिया, प्रतिष्ठा पा ली–और कुछ भी तो न मिला! तब एक आध्यात्मिक रिक्तता की प्रतीति होती है। तब एक संताप पकड़ लेता है। उसी संताप में आज पश्चिम है।…तलाश कर रहा है।

और जब लोग तलाश करते हैं, तो झूठे लोगों की बन आती है। जब लोग तलाश कर रहे होते हैं, तो झूठे सिक्के भी चल जाते हैं। जब लोग टटोल रहे होते हैं, तो जो दरवाजे नहीं हैं, वे भी दरवाजे की घोषणा कर देते हैं। हिंदुस्तान में भी जितने बेईमान किस्म के साधु-संन्यासी हैं, वे सब अमरीका की तरफ भाग रहे हैं। फिर महर्षि महेश योगी हों कि स्वामी मुक्तानंद हों, या कोई और हों। उनको वहां बाजार दिखाई पड़ रहा है। केलिफोर्निया धर्म का बाजार हो गया है। पांच हजार संप्रदाय नये, केलिफोर्निया में चल रहे हैं। कोई भी…कोई भी मूढ़ जोर से घोषणा कर सकता हो जाकर केलिफोर्निया में, तो शिष्य खोज लेगा। शिष्य तैयार ही हैं; किसी के भी पीछे चलने को तैयार हैं।

मैंने जानकर ही तय किया कि पश्चिम नहीं जाऊंगा। क्योंकि पश्चिम धर्म के नाम पर बाजार बन गया है। जिनको आना है उन्हें यहां आना होगा। अगर तलाश है, खोज है, तो हजारों मील का फासला तय करके लोग यहां आ जायेंगे। जिनको, जिन तथाकथित गुरुओं को यहां से वहां जाना पड़ रहा है, खयाल रखना, वे शिष्यों की तलाश में हैं, शिष्य उनकी तलाश में नहीं हैं। शिष्य जिसकी तलाश में हैं, उसे कहीं जाने की जरूरत नहीं है।

मैं तो अपने कमरे में बंद होकर बैठ गया हूं। इसे तुम चमत्कार समझो कि जो आदमी कमरे के बाहर नहीं जाता, उसके पास सारी दुनिया से लोग चुपचाप चले आ रहे हैं! हजार तरह की अड़चनें झेलकर चले आ रहे हैं। और मैं चाहता भी हूं कि पहले वे उन सब तथाकथित गुरुओं के पास हो लें तो अच्छा। इसलिए मेरे पास जो लोग आ रहे हैं, वे बहुत गुरुओं के पास होकर आ रहे हैं। अब उन पर काम हो सकता है। क्योंकि जिसने असार देख लिया है, उसी को सार दिखाई पड़ सकता है। जिसने झूठ को पहचान लिया है, वही सत्य की दिशा में कदम उठा सकता है। असार को असार की भांति जान लेना, सार को जानने के लिए पहला कदम है, पहली सीढ़ी है।

मैं तो यहां जीवन का उत्सव सिखा रहा हूं–जीवन का इंद्रधनुष, जीवन के सातों रंग! मैं जीवन निषेधक नहीं हूं। मैं तो जीवन के प्रेम में हूं, अनंत प्रेम में हूं।

यहां तो ऐसी घटना घट ही नहीं सकती। अगर कोई स्थान है जहां ऐसी घटना असंभव है, तो वह स्थान यही है। मैं तुम्हें रुग्ण तो नहीं बनाना चाहता। यद्यपि जो झूठे गुरु हैं वे तुम्हें रुग्ण बनायेंगे, क्योंकि तुम जितने रुग्ण हो जाओगे, उतनी ही तुम्हें उनकी जरूरत होगी। वे तुम्हें दीन-हीन बनाएंगे। वे तुम्हें पापी बनाएंगे। तुम पापी हो, ऐसी घोषणा करेंगे। तुम जितने दुर्बल हो जाओगे, तुम्हारी दुर्बलता में उनका बल है

मैं घोषणा कर रहा हूं कि तुम पापी नहीं हो। मैं कह रहा हूं कि कोई पापी नहीं हैं। मैं घोषणा कर रहा हूं कि तुम्हारे भीतर परमात्मा अपनी परम शुद्धि में उपस्थित है। तुम क्वांरे परमात्मा हो। मैं घोषणा कर रहा हूं तुम्हारी परम वैभवशीलता की, तुम्हारी परम समृद्धि की। मैं तुम्हें बल दे रहा हूं। मैं तुम्हें आत्मा दे रहा हूं। तुम्हें दीन-हीन नहीं कर रहा हूं।

स्मरण रहे, यही कसौटी है। जहां तुम दीन-हीन किये जाओ, समझ लेना कि जो व्यक्ति तुम्हें दीन-हीन कर रहा है, वह व्यक्ति तुम्हारे ऊपर बल, अधिकार, मालकियत की घोषणा करना चहता है। दुर्बलों पर ही मालकियत हो सकती है। मैं तुम्हें जितना बल दे रहा हूं, उतना तो किसी ने कभी नहीं दिया है। बेशर्त तुम से कह रहा हूं कि तुम्हारे जीवन में कुछ भी नहीं है, जिसके लिए तुम अपराधी अनुभव करो। तुम्हें नर्क नहीं जाना है। कहीं कोई नर्क नहीं है। तुम्हें जागना है; और तुम पाओगे कि तुम स्वर्ग में हो।

बैरी स्लाटर, तुमने पूछा कि कुछ लोग आप के आश्रम की तुलना जोन्सटाउन से करते हैं। वे वे ही लोग होंगे, जो न यहां कभी आये हैं, न जिन्होंने कभी मेरी आंख में आंख डालकर देखा है, न जो कभी मेरे पास बैठे हैं, न जिन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया है। वे ही लोग, जिन्होंने इस सत्संग की शराब कभी नहीं पी। वे ही लोग, जो इस मधुशाला से दूर-दूर हैं। उनकी बातों का कोई मूल्य नहीं है।

तुमने पूछा कि जिस भांति सामूहिक आत्मघात गुयाना के जंगल में हुआ, वैसा ही कुछ क्या यहां होने की संभावना हो सकती है?

यहां तो जो संन्यासी होता है, उसने आत्मघात कर ही लिया! संन्यास का अर्थ ही वही है कि मरता हूं जैसा मैं था, ताकि अब जी सकूं वैसा जैसा कि मैं हूं। मेरे पाखंड को छोड़ता हूं। मेरे मुखौटे छोड़ता हूं। मेरे व्यक्तित्व को जाने देता हूं…नदी की धार में, ताकि मेरी आत्मा प्रगट हो सके।

संन्यास तो आत्मघात है–सही अर्थों में आत्मघात। क्योंकि उसी के बाद सच्चा जीवन शुरू होता है। यहां तो अब आत्मघात को कोई बचा नहीं। यहां तो कोई उपाय नहीं है। यहां तो सन्नाटा है। यहां तो शांति है। यहां तो उस शांति से आनंद के गीत उठ रहे हैं। वह भी संन्यासी गा रहे हैं ऐसा नहीं, संन्यासी सिर्फ परमात्मा को अपने भीतर से गाने दे रहे हैं…ऐसा।

तुमने यह भी पूछा कि क्या आप अपने संन्यासियों से अपने प्रति या अपनी धारणाओं के प्रति प्रतीक-रूप में ऐसा कुछ बलिदान करने को कह सकते हैं?

पहली तो बात, मेरी कोई धारणाएं नहीं हैं। मैं धारणाएं सिखाता नहीं। मैं धारणाओं से मुक्ति सिखाता हूं। मैं सिखाता हूं कि कैसे ज्ञान से छुटकारा हो। मैं तुम्हें ज्ञान देता नहीं, तुमसे ज्ञान छीनता हूं। मैं तुम्हें शून्य देना चाहता हूं। शून्य का ही दूसरा नाम ध्यान है। जब तक ज्ञान है तब तक ध्यान नहीं। जब सारा ज्ञान गिर जाता है तब ध्यान का आविर्भाव होता है।

ध्यान उस निर्मल दशा का नाम है, जब ज्ञान की कोई धूल तुम्हारी चेतना के दर्पण पर नहीं बचती। मैं तुम्हें कोई धारणा नहीं सिखा रहा हूं। मैं तो यह भी नहीं कहता कि मानो कि ईश्वर है। मैं तो यह भी नहीं कहता कि मानो कि मोक्ष है। मैं तो यह भी नहीं कहता कि मानो कि पुनर्जन्म है। मैं तो कहता ही नहीं कि कुछ मानो।

मैं तो कहता हूं: जो है, इस क्षण, अभी, यहां, उसे जानो। मानने पर मेरा जोर नहीं है। क्योंकि जो भी तुम्हें मनाता है, वही तुम्हें गुलाम बना लेगा। मनाने का अर्थ है: तुम्हारे हाथ में झूठ पकड़ा देना। जो तुम्हारा अनुभव नहीं है, वह झूठ है। मेरा अनुभव मेरे लिए सत्य है। तुम्हारा अनुभव तुम्हारे लिए सत्य होगा। मेरा अनुभव तुम्हारे लिए कभी सत्य नहीं हो सकता। मैंने स्वाद लिया, तुम्हें तो स्वाद नहीं आया। मैंने संगीत सुना, तुम्हारे कान तो वैसे के वैसे वंचित रहे। मैंने भोजन किया, मेरी भूख मिटी; तुम्हारी तो न मिट जायेगी। अगर मेरे भोजन करने से मेरे संन्यासी की भूख नहीं मिटती; तो मैं परमात्मा को जान लूं, इससे मेरा संन्यासी कैसे परमात्मा को जान सकेगा? जब शरीर की भूख तक नहीं मिटती, तो आत्मा की भूख कैसे मिट जायेगी?

इसलिए स्मरण रहे कि सत्य जब भी जानने वालों के हाथ से गैर-जाननेवालों के हाथ में जाता है, उसी प्रक्रिया में झूठ हो जाता है। दूसरे का सत्य तुम्हारे लिए झूठ है। इसलिए मैं कोई धारणाएं नहीं दे रहा हूं। अगर कुछ मैं दे रहा हूं तो जागरण, होश। इसलिए मेरी धारणाओं पर बलिदान करने का तो कोई सवाल ही नहीं है, कोई प्रश्न ही नहीं है।

त्याग और बलिदान मेरी जीवन-शैली के अंग ही नहीं हैं। मैं तुमसे कुछ भी मेरे लिए छोड़ो, ऐसा न कहता हूं न कह सकता हूं। हां, तुम्हें जो दिखाई पड़ने लगे व्यर्थ है, वह छूट जायेगा और जो सार्थक है, तुम उसे पकड़ने लगोगे। लेकिन यह घटना घटेगी तुम्हारे भीतर, तुम्हारे अंतरतम में; तुम्हीं इसके निरीक्षक, तुम्हीं इसके मालिक होओगे।

मैं तुम्हारा मालिक नहीं हूं, ज्यादा-से-ज्यादा तुम्हारा संगी-साथी हूं।

बुद्ध ने स्वयं को कहा है, मैं कल्याण-मित्र हूं। वही मैं तुमसे कहता हूं: मैं तुम्हारा कल्याण-मित्र हूं।

तुम मेरे शिष्य हो, इससे तुम यह मत समझ लेना कि मेरे भीतर कोई गुरु-भाव है। तुम जरूर मेरे शिष्य हो, क्योंकि तुम अभी तलाश कर रहे हो। लेकिन जहां तक मेरा संबंध है, मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं, न तुम मेरे शिष्य हो। क्योंकि मुझे तो वह दिखाई पड़ रहा है: तुम जिसे तलाश कर रहे हो, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। मेरी तरफ से तो मैं मित्र हूं, तुम्हारी तरफ से गुरु हूं। तुम अज्ञानी हो। तुम अज्ञानियों की सारी धारणाएं गलत हैं। उसी में यह धारणा भी सम्मिलित है कि मैं तुम्हारा गुरु हूं, कि तुम मेरे शिष्य हो। जब दीया जलेगा, तुम्हारे भीतर रोशनी होगी, ये धारणाएं भी विदा हो जायेंगी। न तुम पाओगे कि तुम शिष्य हो, न तुम पाओगे कि मैं गुरु हूं। न रहेगा मैं, न रहेगा तू; परमात्मा ही रह जाता है–न कोई शिष्य, न कोई गुरु। और जहां दोनों खो जाते हैं, वहीं सत्य का प्रथम साक्षात्कार है।

 

दूसरा प्रश्न भी पहले से संबंधित है:

 

ओशो, रेवरेंड जिम जोन्स का किस्सा और गुयाना में घटित सामूहिक आत्मघात की कहानी पिछले कुछ सप्ताहों से समाचार-पत्रों में छायी हुई है। इस कांड में एक आदर्श रोचक समाचार-कथा के सब लक्षण हैं। इस घटना की फलश्रुति हैं–अंतहीन विश्लेषण और टीकाएं, और साथ ही सभी गैर-परंपरागत धार्मिक प्रयोगों का पुनर्परीक्षण। प्रचार-साधनों की शास्त्रीय भाषा में ये चीजें संप्रदायों, “कल्ट्स’ के नाम से ज्ञात हैं–जो कि एक तरह से अनुमानित दोषारोपण है।

मैं निश्चित समझता हूं कि यही बात रजनीश आश्रम के साथ लागू हो सकती है। क्या आप हमें समझाने की कृपा करेंगे कि आपकी शिक्षा और प्रयोगों में, और संप्रदाय (“कल्ट्स’) में क्या अंतर है?

 

रोहित! पहली तो बात, मेरे पास जो लोग इकट्ठे हुए हैं, ये किसी संप्रदाय में दीक्षित नहीं हो रहे हैं, ये तो सिर्फ एक जीवंत प्रयोग में भागीदार हो रहे हैं। यह प्रयोगशाला है। न मैं हिंदू हूं, न मैं मुसलमान हूं, न मैं ईसाई हूं, न जैन, न बौद्ध। यहां तो सारी मनुष्य-जाति की जो वसीयत है–उसमें हिंदू भी सम्मिलित हैं, मुसलमान भी, जैन भी, ईसाई भी, बौद्ध भी, यहूदी भी, सिक्ख भी, उसमें सारी दुनिया के जाग्रत पुरुष सम्मिलित हैं, उन सारे पुरुषों ने जो जाना है, जो जीया है और जो अनूठे प्रयोग दिये हैं, उन सबके लिये यह एक प्रयोग-स्थल है।

यह एक विश्वविद्यालय है। यह कोई संप्रदाय नहीं है। जो मित्र यहां संन्यासी हो गए हैं, उनके संन्यासी होने से अब वे ईसाई नहीं रहे, हिंदू नहीं रहे, मुसलमान नहीं रहे–ऐसा नहीं है। उनकी मौज है। जो कभी मुसलमान थे ही नहीं, झूठे मुसलमान थे, वे संन्यासी होकर मुसलमान न रह जाएंगे। जो सच में मुसलमान थे वे संन्यासी होकर और गहरे मुसलमान हो जाएंगे।

संन्यास तो तुम्हें धर्म देगा और धर्म विशेषण-रहित। मैं तुम्हें कोई विशिष्ट धर्म नहीं दे रहा हूं–सिर्फ एक धर्म-भाव दे रहा हूं। मैं तुम्हें किन्हीं परंपराओं में नहीं बांध रहा हूं, किन्हीं औपचारिकताओं में, किसी क्रियाकांड में नहीं बांध रहा हूं। मैं तो तुम्हें जो सार-निचोड़ है, जिसके माध्यम से, जिस कुंजी से तुम अपने भीतर के रहस्यों के ताले खोल लो, वह कुंजी दे रहा हूं। ताला खुल जाए, कुंजी फेंक देना, फिर क्या करोगे कुंजी का? नदी पार हो जाओ, नाव छोड़ देना, फिर क्या करोगे नाव का?

संप्रदाय तो तब पैदा होता है जब तुमसे कहा जाता है कि नदी भी पार हो जाए तो भी नाव को सिर पर ढोना। अब यह बड़े आश्चर्य की बात है कि कोई संन्यस्त हो जाता है, फिर भी जैन रहता है; संन्यस्त हो जाता है, फिर भी हिंदू रहता है; संन्यस्त हो जाता है, फिर भी बौद्ध रहता है। ध्यान में उतर गए, इतने ध्यान में उतर गए कि संन्यास भी फला; अब भी नाव ढोओगे–शास्त्रों की, शब्दों की, सिद्धांतों की? अब तो अपना अनुभव हो गया। अब ये उधार और बासे शब्दों को क्यों ढोना?

यह कोई संप्रदाय नहीं है। फिर संप्रदाय को बनाने के लिए तो एक विशेष धारणा-पद्धति चाहिए। मेरे पास आते हैं लोग, वे कहते हैं कि आप कोई एक ऐसी छोटी-सी किताब लिख दें, जैसे ईसाइयों का कैटजिज्म होता है, जिसमें सब सार आ जाए–कि इतने सिद्धांत, इतनी बातें मानना, इतनी बातें नहीं मानना, इतना करना इतना नहीं करना; ऐसा भोजन, ऐसा उठना ऐसा बैठना–सब संक्षिप्त में आ जाए। वे मांग कर रहे हैं कि मैं उन्हें एक संप्रदाय दूं। मैं उन्हें पूरा आकाश दे रहा हूं। वे कहते हैं: हमें छोटा आंगन दो, साफ-सुथरा हो, दीवाल से घिरा हो, सुरक्षित हो। मैं उन्हें पूरा आकाश देना चाहता हूं। वे कहते हैं: हमें पींजड़ा दो।

मैं कोई पींजड़ा किसी को नहीं दे रहा हूं। इसलिए यहां मेरे पास सारे धर्मों के लोग हैं। मैं उनसे पूछता भी नहीं कि तुम किस धर्म से आते हो। मैं उनसे कहता भी नहीं कि तुम कुछ छोड़ो कि तुम कुछ पकड़ो। मुझे जो अनुभव हुआ है, उसे तुम्हारे सामने फैला देता हूं। यदि तुम्हारे भीतर भी कोई तार झंकृत हो जाएं तो चल पड़ो तुम भी खोज पर। मैं एक अभियान देता हूं–एक यात्रा। मैं तुम्हें मंजिल नहीं देता। मैं तुम्हें बंधी हुई धारणाएं, सिद्धांत, बंधे हुए लक्ष्य नहीं देता। मैं तुम्हें निर्बंध…मुक्ति की एक पुकार देता हूं। यह बड़ी भिन्न बात है।

तुम मुझे धर्मगुरु न समझो। अच्छा हो, तुम मुझे एक कवि समझो। तुम मुझे धर्मगुरु न समझो। अच्छा हो कि तुम मुझे एक शराबी समझो। मैं एक पियक्कड़ हूं, जिसने परमात्मा की शराब पी ली है और जो अपनी मस्ती में कुछ गुनगुना रहा है। गुनगुनाहट शायद तुम्हें पकड़ जाए, शायद पास बैठे-बैठे तुम्हें भी मेरी शराब का स्वाद लग जाए, तो खोज पर निकल पड़ना।

जिनको वैसा स्वाद लग गया है वे ही मेरे संन्यासी हैं।

तो पहली तो बात, यह कोई कल्ट या संप्रदाय नहीं है। यह तो समस्त संप्रदायों से मुक्ति है । और ये कौन लोग हैं जो कल्ट और संप्रदायों की निंदा करते हैं। ये खुद ही सांप्रदायिक लोग हैं–कोई ईसाई है, कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है। ये संप्रदायों की निंदा करते हैं। क्यों? इनके संप्रदायों को खतरा है। ये खुद बंधे हैं धारणाओं में, मगर इनको डर है कि कोई प्रतिस्पर्धी न पैदा हो जाए। हां, एक बात उनके पक्ष में है कि वे कहते हैं कि हम परंपरागत हैं, इसलिए हम कल्ट नहीं हैं; हम धर्म हैं। जो परंपरागत नहीं है; वह संप्रदाय; जो परंपरागत है, वह धर्म। यह भी खूब परिभाषा हुई! तो फिर जीसस ने जब पहली दफा ईसाइयत को जन्म दिया, तब वह धर्म था या कल्ट? तब तो वह परंपरागत नहीं था। तो फिर यहूदियों ने ठीक ही किया कि जीसस को सूली पर लटका दिया। क्योंकि यह कल्टिस्ट था। यह एक संप्रदाय पैदा कर रहा था, यहूदियों को भड़का रहा था, बिगाड़ रहा था। तो फिर बुद्ध ने जब बौद्ध धर्म को जन्म दिया तब वह कल्ट था, संप्रदाय था, धर्म नहीं था।

फिर सोचने की बात है कि जो जन्म के समय में ही संप्रदाय था, वह दो हजार साल चलने के बाद धर्म कैसे हो जाएगा? जो जन्मा गधे की तरह है वह मरेगा भी गधे की तरह। और जो जन्मा है फूल की तरह वह मरेगा भी फूल की ही तरह। आखिर अगर जन्म के समय ही बुद्ध की बातें सांप्रदायिक हैं और धर्म नहीं हैं, तो फिर दो हजार साल चलने के बाद तो और भी सांप्रदायिक हो जाएंगी। क्योंकि दो हजार साल पंडित-पुरोहित और जोड़ते चले जाएंगे। जिंदा बुद्ध जब सांप्रदायिक हैं तो दो हजार साल बाद तो लाश सड़ चुकी होगी शब्दों की। उस पर खूब टीकाएं चढ़ चुकी होंगी।

लेकिन ईसाई, अगर कोई नया धर्म पैदा होता है, कोई नया उदभव होता है चेतना का, तो उसको कहते हैं: कल्ट। फिर जीसस जब नए थे, तब? हिंदू कोई नई बात पैदा हो तो उसके विपरीत खड़े हो जाते हैं। लेकिन कभी कृष्ण भी नए थे, कभी कबीर भी नए थे, कभी नानक भी नए थे, कभी मुहम्मद भी नए थे। जो नया है वही तो एक दिन पुराना होता है। नहीं तो पुराना कैसे होगा? और जो पुराना है वह एक दिन नया रहा होगा, अन्यथा पुराना कैसे होता? तो अगर कल का है तो धर्म और अगर आज का है तो संप्रदाय–यह तो बड़ी अजीब परिभाषा हुई!

नहीं, ऐसी मैं परिभाषा स्वीकार नहीं करता। फिर मेरी क्या परिभाषा है? जो शब्दों और सिद्धांतों और शास्त्रों से बंधा है वह संप्रदाय और जो अनुभव से जीता है वह धर्म। मैं कहता हूं: ईसाइयत, हिंदू, मुसलमान, जैन, बौद्ध सब संप्रदाय हैं। हां, कृष्णमूर्ति के पास बैठकर जो लोग सुन रहे हैं, यह धर्म है। मेरे पास बैठ गये हैं जो लोग, यह धर्म है।

धर्म तो सदा ताजा होता है, नया होता है, धर्म तो गंगोत्री पर होता है। फिर गंगोत्री से जैसे ही गंगा उतरती है नीचे, रोज-रोज गंदी होती जाती है। तुमने भी खूब किया है, काशी में आकर पूजा की गंगा की! तब तक न मालूम कितने नदी-नाले, न मालूम कितनी गंदगी शहरों की गंगा में गिर चुकी होगी। गंगा क्वांरी है गंगोत्री पर–जब अभी उतरी-उतरी है, भगीरथ के बालों से अभी उतरी-उतरी है, अभी शंकर उसे उतारकर लाए ही हैं आकाश से, अभी गंगा भटक ही रही थी उनकी केश-राशियों में! यह हिमालय शंकर की केश-राशि है। अभी जब उतर ही रही है गंगा, शिव के बालों से झर ही रही है अभी, तब धर्म है। और जब काशी पहुंच गई तो संप्रदाय हो जाएगा।

समय संप्रदाय बनाता है। परंपरा संप्रदाय बनाती है। नूतनता, नवीनता…अभी जो मैं तुमसे कह रहा हूं यह गंगोत्री है। हां, सौ-दो-सौ साल बाद मेरे जाने के बाद यह गंगोत्री नहीं रह जाएगी। लेकिन तुम, काशी पर जब मैं पहुंच जाऊंगा, तब तुम तीर्थ बनाओगे, तुम ऐसे अंधे हो! गंगोत्री को गाली दोगे, काशी को पूजोगे।

मुहम्मद को टिकने न दोगे एक गांव में–मक्का से मदीना, मदीना से मक्का भगाते फिरोगे। मुहम्मद के पीछे तलवार लेकर लगे रहोगे और फिर जब मुहम्मद विदा हो जाएंगे तो तुम सदियों तक पूजा करागे! तुम बड़े अजीब लोग हो! तुम मुर्दों के पूजक हो। तुम खुद मुर्दे हो और मुर्दों की पूजा करते हो।

मुर्दे जब मुर्दों की पूजा करते हैं, उसको मैं संप्रदाय कहता हूं। जो मुहम्मद के पास इकट्ठे हो गए थे, वे हिम्मतवर लोग। जिन्होंने मुहम्मद के पास बैठकर कुरान सुनी थी, जिन्होंने मुहम्मद से जन्म होती हुई गंगा को अनुभव किया था–वे धार्मिक लोग थे।

तो मेरी तो परिभाषा उल्टी है। जितना पुराना हो, जितना सड़ा हो, जितना गला हो–उतना संप्रदाय। जितना नया हो, जितना ताजा हो, अभी-अभी उतरती हो गंगा आकाश से, अभी-अभी किसी की समाधि के हिमालय से गंगोत्री झरती हो–तो धर्म।

धर्म विशेषण-रहित होता है, क्योंकि नए का कोई विशेषण नहीं होता। जब बुद्ध बोले पहली दफा तो उसका कोई विशेषण नहीं था। तब तक बौद्ध धर्म का जन्म नहीं हुआ था। यह तो तुम जानते हो न कि जीसस यहूदी की ही तरह पैदा हुए और यहूदी की ही तरह मरे। जीसस ईसाई नहीं थे। अभी ईसाइयत का जन्म ही कहां हुआ था? ईसाइयत तो तब पैदा होगी जब गंगा काशी पहुंच जाएगी। जीसस तो यहूदी ही रहे, यहूदी ही मरे।

अभी मेरे पास किसी धर्म का नाम नहीं है–अभी धर्म है! मेरे जाने के बाद नाम होगा। तब संप्रदाय होगा। तब उससे बचना। वह फिर मेरा हो या किसी और का हो, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। मरी हुई चीज से बचना। जीवित के पास जाना, क्योंकि परमात्मा जीवन है।

रोहित! जो यहां घट रहा है यह संप्रदाय नहीं है–अभी धर्म है। और अभी जो आ गए हैं मेरे पास वे धन्यभागी हैं; पीछे जो आएंगे मेरे विदा हो जाने पर वे अभागे होंगे। मगर अभागों से दुनिया भरी है।

 

तीसरा प्रश्न:

 

मैं बिलकुल पत्थर हूं और फिर भी प्रार्थना में डूबना चाहता हूं, पर जानता नहीं कि प्रार्थना क्या है। कैसे करूं प्रार्थना? मुझ अंधे को भी आंखें दें!

 

आंखों की कोई जरूरत नहीं है प्रार्थना के लिये–आंसुओं की जरूरत है। और अंधा भी रो सकता है उतना ही जितना आंखवाले रो सकते हैं। फिकिर छोड़ो आंखों की। आंखों के मांगने में तो तुमने ज्ञान को मांगना शुरू कर दिया–और ज्ञान प्रार्थना का दुश्मन है। आंसू मांगो। भाव मांगो, हृदय मांगो।

आंखें मांगने में तो तुमने मस्तिष्क मांगना शुरू कर दिया। आंखें तो मस्तिष्क के द्वार हैं। आंखें मत मांगो। आंखें न हुईं तो चलेगा–हृदय चाहिए। और हृदय की भी आंख है। आंखें नहीं हैं–आंख है! मस्तिष्क की दो आंखें हैं, हृदय की एक आंख है। मस्तिष्क द्वंद्वात्मक है, द्वैत है; इसलिये दो आंखें हैं। हृदय की एक आंख है; वही तीसरा नेत्र है, शिवनेत्र। नाम ही है नेत्र का…मैं उसी आंख को प्रेम कहता हूं।

ज्ञान मत मांगो। ज्ञान में हमेशा द्वंद्व है। ज्ञान में तर्क है। और जहां तर्क है वहां कोई निश्चय नहीं। जहां तर्क है वहां विवाद है। जहां विवाद है, वहां कोई निष्पत्ति न हो सकती है न हुई है न होगी। तुम जो भी मानोगे उसके विपरीत तर्क दिये जा सकते हैं। तुम्हारा हर विश्वास खंडित किया जा सकता है, क्योंकि विश्वास और संदेह बराबर शक्ति के हैं। इसलिये तो दुनिया में न आस्तिक जीत पाते न नास्तिक जीत पाते। कितने हजार साल हो गये आदमी को, अब तक निर्णय हो जाना चाहिए था। अगर आस्तिक ठीक थे तो सारी दुनिया आस्तिक हो जाती। अगर नास्तिक ठीक थे तो सारी दुनिया नास्तिक हो जाती। लेकिन कोई निर्णय नहीं हो पाता। आस्तिक अपनी दलीलें देते हैं, नास्तिक अपनी दलीलें देते हैं। दोनों की दलीलें करीब-करीब समान बल की हैं।

मेरा अपना अनुभव यह है कि तर्क हमेशा दोनों तरफ से समान बल का होता है। तर्क वेश्या है। वह किसी के भी साथ जाने को तैयार है। तर्क वकील है। वह किसी के भी साथ जाने को तैयार है–जो पैसे चुका दे, जो कीमत चुका दे, जो खरीद ले। तर्क कभी भी निर्णायक नहीं हो पाता। तुम मानो कि ईश्वर है, तो जिन प्रमाणों के आधार पर तुम मानते हो कि ईश्वर है वे सभी प्रमाण खंडित किये जा सकते हैं; उतने ही बलपूर्वक जितने बलपूर्वक तुमने उन्हें सिद्ध कर रखा है।

इसलिए हर विश्वास के नीचे संदेह दबा रहता है और हर संदेह के नीचे विश्वास की इच्छा बनी रहती है। मेरे देखने में कोई नास्तिक होता है तो उसके भीतर मैं छिपा हुआ आस्तिक देखता हूं और कोई आस्तिक होता है तो उसके भीतर छिपा नास्तिक देखता हूं। नास्तिक-आस्तिक साथ-साथ होते हैं–एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिये मस्तिष्क कहीं भी नहीं ले जाता, सिर्फ भरमाता है, भटकाता है। कोल्हू के बैल की तरह चलाता है। बस घूमते रहते हो एक ही जगह। घूमने से लगता है, चल रहे हो, पहुंच रहे हो। न कहीं पहुंचना होता है न कहीं चलना होता है।

ऐसा हुआ कि बर्नार्ड शा एक होटल में ठहरा था किसी यूरोपीय देश के। उसने टैक्सी बुलाई। उसे स्टेशन जल्दी पहुंचना था। टैक्सी में जाकर बैठ गया। टैक्सी वाले ने गाड़ी शुरू की। बर्नार्ड शा ने कहा कि जल्दी चलो, मुझे जल्दी पहुंचना है। गाड़ी भागने लगी। लेकिन थोड़ी देर बाद बर्नार्ड शा को लगा कि यह तो स्टेशन की तरफ न जाकर उल्टी दिशा में जा रही है। तो उसने पूछा कि तुम कहां जा रहे हो? तो टैक्सी ड्राइवर ने कहा: यह मुझे पता नहीं, यह मुझे किसी ने कहा भी नहीं कि मुझे कहां जाना है। लेकिन एक बात पक्की है कि जहां भी जा रहा हूं तेजी से जा रहा हूं।

बर्नार्ड शा ने सोचा था कि होटल के जिस नौकर को भेजा था टैक्सी बुलाने उसने बता दिया होगा कि स्टेशन जाना है, इसलिये उसने खुद ने तो बताया नहीं कि स्टेशन जाना है; सिर्फ इतना कहा तेजी से चलो, जल्दी पहुंचना है। टैक्सी-ड्राइवर भी पहुंचा हुआ दार्शनिक रहा होगा। उसने भी नहीं पूछा, कि जब खुद जानेवाला नहीं बता रहा है तो मैं भी क्यों पूछूं? सिर्फ तेजी से पहुंचना है, तेजी से पहुंचो।

लोग तेजी से चले जा रहे हैं! खूब सोचते-विचारते, खूब तर्क करते–और भूल ही गये हैं कहां जा रहे हैं!

मस्तिष्क चलाता तो बहुत है, पहुंचाता कहीं नहीं। चलाता काफी तेजी से है!

एक हवाई जहाज रास्ता भटक गया बादलों में। हवाई जहाज के पायलट ने यात्रियों को सूचना दी कि दो समाचार हैं–एक सुखद, एक दुखद। पहले सुखद समाचार, कि हम परिपूर्ण रफ्तार से गन्तव्य की ओर जा रहे हैं; और अब दुखद समाचार कि गन्तव्य कहां है, इसका अब हमें कोई पता नहीं है।

मगर ऐसी अवस्था आदमी की है। बड़ी तेजी से चले जा रहे हैं लोग। और तेजी को कैसे तेज करें, इसके नये-नये ईजाद कर रहे हैं लोग। मगर कहां जा रहे हो?

हृदय मंजिल की सूचना देता है। हृदय गन्तव्य की तरफ संकेत करता है, क्योंकि हृदय प्रेम है। इसलिये हृदय का जो इशारा है वह परमात्मा की तरफ लगा रहता है।

दिशा-सूचक यंत्र होता है न, तो तुम कैसा ही उसे घुमा-फिराकर रखो वह ठीक दिशा बताने लगता है। उत्तर कहां है, वह बता देता है। ऐसे ही हृदय सदा ही परमात्मा की तरफ लगा हुआ है। और वह जो परमात्मा की तरफ लगाव है, उसका नाम प्रार्थना है। उस प्रार्थना का जो मूलस्रोत है, उसका नाम प्रेम है।

तुम आंखें मत मांगो–आंख मांगो! तुम तर्क मत मांगो, ज्ञान मत मांगो–प्रेम मांगो। आंख नहीं आंसुओं से काम हो जायेगा।

पूछते हो तुम: “मैं बिलकुल पत्थर हूं!’ सब ही पत्थर हैं। जब तक परमात्मा नहीं घटा है तब तक सभी पत्थर हैं। इसलिये मन में कोई हीनता न लेना। परमात्मा के घटते ही सब पत्थर प्रतिमाएं बन जाते हैं, अपूर्व सौंदर्य प्रगट होता है।

टूट जाता है कभी पाषाण भी।

भेद कब खुलने दिया जल बिंदु ने,

घोर बड़वानल छिपाई सिंधु ने।

सह रहा है किंतु सह पाता न जब,

उठ कभी जाता प्रबल तूफान भी।

टूट जाता है कभी पाषाण भी।

 

शाप भी प्यारा मुझे वरदान भी।

मान लो भगवान तो पाषाण भी।

किंतु ऐसे क्षण न कम हैं जब कभी–

अश्रु बन जाती मधुर मुसकान भी!

टूट जाता है कभी पाषाण भी।

 

सोचती है यह हठीली कामना,

अंत तक क्या साथ देगी साधना?

आंधियों में बुझ न पाया दीप जो,

वह बुझा सकता सहज पवमान भी।

टूट जाता है कभी पाषाण भी।

 

जानती हूं मौन रह दीपक जला,

मौन रह कर फूल कांटों में खिला।

किंतु मैं तो मौन भी कैसे रहूं,

है विवशता यह कि हूं इंसान भी।

टूट जाता है कभी पाषाण भी।

घबड़ाओ न, पत्थर भी टूट जाते हैं। देखते नहीं, गिरती है क्षीण-सी जलधार और पत्थर टूट जाते हैं।

लाओत्सु ने कहा है: पत्थर से मत सीखो, सीख लो जलधार से सब राज। जलधार कोमल है, स्त्रैण है, सुकुमार है। तोड़ देती है कठोर से कठोर पाषाण को। बड़े-बड़े शिलाखंड रेत होकर बह जाते हैं। जब पहली दफा जलधार गिरी होगी पत्थरों पर तो पत्थरों को खयाल भी न आया होगा कि हम और टूट जायेंगे। इस क्षीण-सी जलधार के मुकाबले, इस स्त्रैण जलधार के मुकाबले हमारा पुरुष हार जायेगा; सोचा भी न होगा। जो सदियों-सदियों से वहां टिके थे, समय आया और गया, हजारों-हजारों ऋतुएं आईं और गईं, न मालूम कितने सूरज उगे न मालूम कितने चांद ढले और जो पत्थर सदा से वैसे के वैसे रहे थे, समय जिनका कुछ भी न बिगाड़ पाया था–यह जलधार कुछ बिगाड़ लेगी! पत्थर हंसे होंगे। मगर जल्दी ही पता चलता है कि कोमल जलधार पत्थर को तोड़ जाती है।

ऐसे ही आंसू गिरने शुरू हो जायें तुम्हारे। आंख मत मांगो, आंसू मांगो–और पत्थर टूट जायेंगे। आंसू पिघलाते हैं हृदय के पथरीलेपन को: आंसू बहा ले जाते हैं हृदय के आस-पास जो दीवालें बनी हैं उनको। और तब तुम्हारे भीतर से एक सुवास उठनी शुरू होती है। फिर तुम जो बोलो वही प्रार्थना है। फिर तुम जो करो वही अर्चना है। फिर तुम जहां बैठो-उठो वही उपासना है।

बार-बार कुछ कह जाती हूं,

तुमसे मैं अनजाने में ही!

 

सजी आरती, सहमी प्रतिमा,

सहमी स्वयं पुजारिन भोली!

बीत चुकी अर्चन की बेला,

कैसे आज चढ़ाऊं रोली!

नयन खुले ना, अधर हिले ना, भोर हुआ अनजाने में ही!

बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!

 

अर्चन का जलता प्रदीप यह,

साध एक पाले था मन में!

जब-जब जन्म मिले दीपक बन,

ज्योति भरूं जग के कण-कण में!

अरमानों का भार उठाए, दीप बुझा अनजाने में ही!

बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!

 

दीपशिखा फिर ज्योतित देखी,

देखा नहीं जलाने वाला!

झंकृत देखी वीणा सब ने,

देखा नहीं बजाने वाला!

तार कसे जीवन-वीणा के, किस प्रिय ने अनजाने में ही!

बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!

 

सहसा फिर प्रतिमा मुसकाई,

मुसकाया मंदिर का कण-कण!

युग-युग के चिर-स्वप्न अधूरे,

मानो थे साकार उसी क्षण!

हार-हार कर जीत गई मैं, यह बाजी अनजाने में ही!

बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!

बस आंसू बहाने की कला आ जाये, फिर तुम जो कहो वही प्रार्थना है। राम पुकारो तो ठीक, अल्लाह पुकारो तो ठीक। न पुकारो तो चलेगा। मौन रहो तो ठीक। बोले तो ठीक, अबोले तो ठीक। मगर हृदय पिघलने लगे आंसुओं में।

ज्ञान न मांगो–भाव मांगो, भक्ति मांगो। फिर धीरे-धीरे तुम्हें वह सुनाई पड़ने लगता है जो साधारणतः नहीं सुनाई पड़ता, क्योंकि कान मस्तिष्क के शोरगुल से भरे हैं। इसलिए हृदय की धीमी-धीमी आवाज पहुंच नहीं पाती। पहले तो बीन की झंकार सुनाई पड़ती है और फिर धीरे-धीरे बीनकार भी दिखाई पड़ता है।

दीपशिखा फिर ज्योतित देखी,

देखा नहीं जलाने वाला!

झंकृत देखी वीणा सब ने,

देखा नहीं बजाने वाला!

तार कसे जीवन-वीणा के, किस प्रिय ने अनजाने में ही

बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!

प्रार्थना कोई कला नहीं है कि तुम कहीं सीख लोगे। प्रार्थना की कोई पाठशाला नहीं है। और पाठशालाओं ने ही प्रार्थना को विकृत किया है। तुम्हें प्रार्थना सिखा दी गई, यही तुम्हारी अपनी प्रार्थना के जन्मने में बाधा बन गई है।

प्रार्थना अनगढ़ होती है। प्रार्थना अपनी-अपनी होती है।

मूसा एक पहाड़ी से गुजर रहे हैं और उन्होंने एक आदमी को प्रार्थना करते देखा। एक चरवाहा, एक गड़रिया, अपनी भेड़ों को विश्राम देकर पास में ही बिठाये झाड़ के नीचे, हाथ जोड़े घुटने टेके परमात्मा से कह रहा है: हे प्रभु! तू अकेला रहते-रहते परेशान हो जाता होगा, मुझे बुला ले। मैं तेरी देखभाल करूंगा। तू मान मेरी। ऐसी देखभाल करूंगा कि तू भी पछतायेगा कि पहले क्यों न बुलाया! तुझे नहला भी दूंगा। रोज नहला दूंगा। पता नहीं कोई नहलाता भी है कि नहीं। तू मेरी भेड़ों को देख कैसा नहलाता हूं, जग-मग हो रही हैं! ऐसे ही जगमगा दूंगा। थका-मांदा होगा, पैर दबा दूंगा। तेरे सिर में जूएं पड़ जायेंगे, जूएं निकाल दूंगा।

परमात्मा से कह रहा है यह आदमी! मोज़िज़ ने तो सुना और कहा, यह तो बहुत हो गया है और कहा कि चुप, नासमझ! ठीक यहां तक भी मैंने बरदाश्त कर लिया कि तू नहला देगा और जगमगा देगा और भेड़ों जैसा…अब तू जूएं भी बीन देगा? तू सोचता है परमात्मा को जूएं पड़े हुए हैं!

उस भोले आदमी ने मोज़िज़ की तरफ देखा, चरण छुए और कहा: मुझे माफ कर दें! मैं गड़रिया हूं। और कोई भाषा जानता नहीं, भेड़ों को जूएं पड़ जाते हैं सो जूएं बीनता हूं। तो मैंने सोचा कि पड़ जाते होंगे उसको भी, मुझको भी पड़ जाते हैं। तो मैं सीधा-साधा आदमी हूं। नाराज न हों, आप कुपित न हों। अगर मैं कुछ गलत कह रहा होऊं, मुझे समझा दें, मैं ठीक कर लूंगा। मोज़िज़ ने कहा: मैं तुझे ठीक प्रार्थना बताता हूं। यह है प्रार्थना। इस तरह प्रार्थना करनी चाहिए। ये-ये वचन बोलने चाहिए, इस भाव से बोलना चाहिए। इस ढंग से बैठना चाहिए।

उसने कहा कि ठीक, तो अब मैं ऐसा ही करूंगा। एक बार और दोहरा दें क्योंकि मैं बे-पढ़ा-लिखा हूं, भूल न जाऊं। फिर तीसरी बार भी उसने पूछा। मोज़िज़ बड़े प्रसन्न हुए कि एक भटके-भूले को रास्ते पर ले आये। जब उसे छोड़कर वे जंगल में अकड़े मस्त अपनी मस्ती में जा रहे थे कि एक भूले-भटके को रास्ते पर लगा दिया…इसीलिए तो परमात्मा ने मुझे भेजा है कि भूले-भटकों को रास्ते पर लगाऊं…तभी जंगल में एक जोर से आवाज उठी, बिजली कौंधी। घबड़ाकर मूसा ने अपने घुटने टेक दिये। आवाज आई आकाश से कि मूसा, मैंने तुझे इसलिये भेजा था कि जो मुझसे दूर हैं, उन्हें तू पास लाना; लेकिन आज तूने मेरे एक प्यारे को मुझसे दूर कर दिया। अब उसकी प्रार्थना थोथी हो गई, उधार और बासी हो गई। जा क्षमा मांग। अपनी प्रार्थना वापिस ले। उसकी प्रार्थना मुझ तक पहुंच रही थी। उससे मुझे लगाव हो गया था। उसकी बातें मुझे बड़ी प्रीतिकर लगती थीं। उसकी बातों में बड़ी मिठास थी। तूने सब कड़वा कर दिया। तू जा, इसी क्षण जा! और आगे याद रखना।

और कथा कहती है कि मोज़िज़ गये और उससे क्षमा मांगी और कहा: मुझे माफ कर दो और मैंने जो सिखाया वह भूल जाओ।

तुम्हें भी प्रार्थना सिखा दी गई है। वही अड़चन है। मां-बाप ने सिखा दी, स्कूल में सिखा दी, पंडित-पुरोहितों ने सिखा दी, चर्च में, मंदिर में सिखा दी। सब सीखी हुई प्रार्थना है। उस सीखी हुई प्रार्थना के कारण तुम परमात्मा से दूर पड़ गये हो।

तुम पूछते हो: मैं प्रार्थना कैसे करूं? प्रार्थना में “कैसे’ मत जोड़ो। भाव से उठने दो।…सहसा फिर प्रतिमा मुसकाई।…भाव से उठे तो मंदिर की पत्थर की प्रतिमा भी मुसका दे।

सहसा फिर प्रतिमा मुसकाई,

मुसकाया मंदिर का कण-कण!

युग-युग के चिर-स्वप्न अधूरे!

मानो थे साकार उसी क्षण!

हार-हार कर जीत गई मैं, यह बाजी अनजाने में ही!

बार-बार कुछ कह जाती हूं, तुमसे मैं अनजाने में ही!

हारना सीखो, और बाजी जीत जाओगे। प्रेम है हारने का ढंग, शैली। हारो! परमात्मा के सामने तुम्हें कुछ औपचारिक शिष्टाचार नहीं निभाना है, कि घंटी बजाओ कि फूल चढ़ाओ, कि पानी छिड़को…। नहीं-नहीं, सूरज उगा हो, भाव-विभोर हो जाओ, दो बातें मन में आती हों कर लो। फूल खिला हो, नाच उठो।

कैसा आश्चर्य कि गुलाब खिलता है तुम्हारी बगिया में और तुम कभी नाचे नहीं! चमत्कार होते रोज देखते हो और नाचे नहीं। और कोई उल्टे-सीधे लोग फिजूल के चमत्कार दिखा देते हैं और चले तुम हजारों की भीड़ में। किसी ने हाथ से राख निकाल दी, जो कोई मदारी रास्ते पर कर दे, उसको तुम चमत्कार कहते हो। मदारी को दो पैसे न दोगे और कोई बाबा यही कर देगा तो बस तुम्हें सब मिल गया! तुम्हारी मूढ़ता का अंत नहीं है। और चमत्कार रोज हो रहे हैं। बीज टूटता है, जिसमें कुछ भी दिखाई न पड़ता था, जिसको तुम तोड़ते तो कुछ भी न पाते–उसमें से एक विराट वृक्ष पैदा हो जाता है और तुम झुकते नहीं? तुम विभोर नहीं होते? हरे वृक्ष में से एकदम लाल गुलाब का फूल निकल आता है हरियाली लाली बन जाती है, क्रांति घट जाती है! तुम अवाक नहीं होते, विस्मय-विमुग्ध नहीं होते, आश्चर्य-चकित नहीं होते? तुम्हारी आंख से आनंद के दो आंसू नहीं गिरते? रात आकाश ऐसे तारों से भर जाती है…! नहीं तुम्हें दिखायी पड़ते वे हाथ जो उन तारों को सम्हाले हैं, मगर तारे तो दिखाई पड़ते हैं! नहीं दिखाई पड़ते वे हाथ जो वीणा पर संगीत उठा रहे हैं, लेकिन संगीत तो सुनाई पड़ता है! संगीत ही सुनते-सुनते उन हाथों की भी पहचान आ जाएगी।

इस जगत के सौंदर्य को पूजो; वही प्रार्थना है। इस जगत के रहस्य को अनुभव करो; उसी से तुम गदगद होओगे। वही प्रार्थना है। नहीं तुमसे कहता मंदिर जाओ, नहीं कहता मस्जिद जाओ। मंदिर और मस्जिद तो आदमी के बनाए हुए हैं, खेल-खिलौने हैं। तुमसे मैं कहता हूं: यह जो प्रकृति चारों तरफ फैली है, परमात्मा के हाथ की जिस पर छाप है, इसके करीब जाओ। किसी झरने के पास बैठो, वही मंदिर है! किसी नदी के पास बैठो, वही मस्जिद है! किसी वृक्ष को आलिंगन करो। जहां से भी तुम्हें जीवन की थोड़ी-सी ऊष्मा मिले, वहीं झुक जाओ। और फिर जो तुम्हारे मन में हो…नहीं कोई बंधे-बंधाए शब्द, नहीं कोई रटी-रटाई बातें…जो तुम्हारे मन में सहज भाव उठता हो, प्रगट करो! प्रार्थना के लिए थोड़ा पागलपन चाहिए। पहले तो संकोच होगा।

अब तुम देखते हो, अगर तुम मंदिर में जाओ, पत्थर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाओ और कहने लगो जय जगदीश हरे, जय जगदीश हरे, तो तुम अपने को पागल नहीं समझते, क्योंकि यह स्वीकृत पागलपन है। लेकिन अगर तुम किसी वृक्ष के पास जाकर हाथ जोड़कर खड़े हो जाओ तो लोग कहेंगे: कुछ दिमाग खराब हो गया, यह क्या कर रहो हो!

और मैं तुमसे कहता हूं: यह पागलपन प्रार्थना है। और वह जो तुमने पहला पागलपन किया था, वह न तो पागलपन है, न प्रार्थना है, सिर्फ मूढ़ता है; क्योंकि सिखावट…औरों ने कहा था, इसलिए कर लेते थे। किसी भय के कारण कर रहे थे। बचपन में जबरदस्ती थोप दिया गया था तुम्हारे ऊपर, फिर आदत बन गई। अब नहीं करते हो तो ऐसा लगता है कुछ कमी रह गयी, तो कर लेते हो। वह मूढ़ता थी। लेकिन उगते सूरज के सामने झुक जाना, क्योंकि रोशनी है तो उसकी है, क्योंकि सारी रोशनी उसकी है…कि किसी सुंदर स्त्री या किसी सुंदर पुरुष को देखकर हर्ष से भर जाना, उल्लास से भर जाना, क्योंकि सौंदर्य है तो उसका है। किसी बच्चे को किलकारी मारते देखकर तुम्हारे भीतर भी गुनगुनाहट आ जाए, क्योंकि सारी किलकारियां उसकी हैं!

तुम पूछते हो कि प्रार्थना में डूबना चाहता हूं। डूबो न! चारों तरफ तो उसका सागर मौजूद है, कौन रोकता है? सीखना क्या है इसमें? डूबने के लिए सीखना कुछ भी नहीं होता। तैरना हो तो शायद सीखना भी पड़े, डूबने के लिए क्या सीखना है? उस पार जाना हो तो सीखना भी पड़े, मगर डूब ही जाना है तो क्या सीखना है? प्रार्थना किनारे मानती ही नहीं। प्रार्थना तटों की तलाश ही नहीं करती। प्रार्थना तो डूबती है। प्रार्थना तो मदमस्ती है।

पूछते हो: जानता नहीं प्रार्थना क्या है।

कभी प्रेम किया है? किसी को भी प्रेम किया–पति को पत्नि को, बेटे को मां को, मित्र को? किसी को भी कभी प्रेम किया? उसी प्रेम की किरण को बड़ा करते चलो। वह प्रेम की किरण कहीं भी रुके न, फैलती चली जाये, अनंत तक फैलती चली जाये–बस प्रार्थना है। और ऐसा तो कोई भी मनुष्य नहीं जिसने किसी को भी प्रेम न किया हो।

लेकिन तुम्हारी अड़चन मैं जानता हूं। तुम्हारे पंडितों ने, तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरुओं ने, उन सबने जिन्होंने तुम्हारे जीवन को विषाक्त किया है, उन्होंने तुम्हें प्रेम के विपरीत समझाया है। उन्होंने समझाया है: प्रेम किया तो प्रार्थना में बाधा पड़ जायेगी। इसलिए तुम मुश्किल में पड़ गये हो। और प्रेम ही प्रार्थना है। प्रेम प्रार्थना का पाठ है।

मैं तुमसे कहता हूं: प्रेम की ही किरण को निखारो, उजालो। बस प्रेम का जो तुम्हें थोड़ा-सा अनुभव मिला हो उसी अनुभव को बड़ा करना है। और अगर वहां तुम्हारा कोई अनुभव नहीं तो फिर प्रार्थना में उतरने का कोई उपाय नहीं। मगर ऐसा मैं मान ही नहीं सकता, क्योंकि परमात्मा जिनको भी पैदा करता है, पशु-पक्षियों को भी, प्रेम से भरा हुआ पैदा करता है। मनुष्य को तो उसने बहुत प्रेम से भरकर पैदा किया है।

लेकिन चारों तरफ दुष्टों की जमात है। उन्होंने तुम्हारे प्रेम की सीमाएं बड़ी संकुचित कर दी हैं और प्रेम निंदित कर दिया है। प्रेम पाप है, ऐसा तुम्हारे मन पर संस्कार डाल दिया है। इसी कारण मनुष्य परमात्मा से टूट गया है।

इस पृथ्वी पर जो इतना अधर्म है, वह तुम्हारे पंडित-पुरोहितों के कारण है। यह अधर्म जा सकता है, लेकिन इस पृथ्वी को फिर प्रेम का राज सिखाना होगा। प्रेम पहला सोपान है। फिर तुम्हारे पास कुछ भी न हो–कुछ ज्ञान न हो, कुछ समझ न हो प्रार्थना की–कोई चिंता न करो। तुम्हारे प्रेम से सृजनात्मकता पैदा होगी। प्रेम सृजनात्मकता है। तुम जो भी करोगे प्रेम के हाथ से…मिट्टी भी छुओगे तो सोना हो जायेगी।

आज पूजा के नहीं कुछ

उपकरण हैं पास,

सर्जना के क्षण

तुम्हारी अर्चना के फूल!

 

पीड़ितों के दर्द की अनुभूति

बनती अर्चना-जल-धार

बनती अर्चना का गीत

बन मेरे हृदय में शूल!

 

आराधना के क्षण वही

जब प्राण को निस्पंद

कर देती नशीली ज्योत्स्ना में स्नात

पागल रात!

शांत बेसुध जागरण के बाद

ऊषा की किरण के साथ

लेकर सर्जना का रूप

खिलता अर्चना जलजात!

 

प्रार्थना के क्षण वही

जब सोचता मानव-व्यथा की बात!

भावना के जलधि में तूफान,

जीवन की तरी यह खोजती है

सृजन के पावन क्षणों का कूल!

आज पूजा के नहीं कुछ

उपकरण हैं पास,

सर्जना के क्षण

तुम्हारी अर्चना के फूल!

फिर नहीं कोई उपकरण चाहिए, प्रेम पर्याप्त है, क्योंकि प्रेम से सृजन की धार पैदा होती है। तुम्हारे जीवन में निर्माण मूल्यवान हो जाता है, विध्वंस की जगह। राजनीति की जगह धर्म मूल्यवान हो जाता है। महत्वकांक्षा की जगह आनंद-भाव मूल्यवान हो जाता है। वासना की जगह परितोष तुम्हारे भीतर खिलने लगता है। बस उसी परितोष की सुवास प्रार्थना है। संतुष्ट हो तुम जैसे हो जहां हो; परितुष्ट हो तुम; जिनके बीच हो उनकी व्यथा को भी अनुभव करते हो, उनकी पीड़ा भी तुम्हें छूती है, उनको तुम प्रेम भी बांटते हो…तुमने प्रेम से एक सूखते वृक्ष के ऊपर पानी की जलधार छिड़क दी, प्रार्थना हो गई! तुमने प्रेम से किसी के सिर में दर्द था और उसके सिर पर हाथ रखकर उसे पुचकार दे दी, प्रार्थना हो गई! कोई पीड़ित था, तुमने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। तुमने किसी के आंसू पोंछ दिये, प्रार्थना हो गई! प्रार्थना कोई बंधी-बंधायी प्रक्रिया नहीं है; प्रार्थना तो जीवन को प्रेमपूर्ण ढंग से जीने का ही नाम है।

 

चौथा प्रश्न:

 

विवाहित जीवन के संबंध में आपके क्या खयाल हैं?

 

मैं विवाहित नहीं हूं, इससे ही मेरे क्या खयाल हैं, तुम्हें समझ में आ जाना चाहिए। इससे बड़ा वक्तव्य और क्या होगा?

जार्ज बर्नार्ड शा को एक मित्र, उसकी कहानी पर आधारित एक नाटक खेला जा रहा था, उसे दिखाने ले गये। चाहता था बर्नार्ड शा अपना मन्तव्य प्रगट करें। बर्नार्ड शा सबसे बड़ा नाटककार था इस सदी का, उसके मन्तव्य का मूल्य था। मित्र ने पहला ही नाटक लिखा था और पहली ही बार उसका मंचन हो रहा था, खेला जा रहा था। बर्नार्ड शा ने तो दो-एक मिनट देखा और फिर सो गया और घर्राटे लेने लगा। मित्र बड़ा बेचैन हुआ। उसको जगाना भी ठीक नहीं। बड़ा आदर भी था बर्नार्ड शा के प्रति। मगर यह तो बात ठीक न हुई, इतने मुश्किल से तो आया, आया तो आकर सो गया। जब नाटक समाप्त हुआ, बर्नार्ड शा ने आंख खोली, मित्र ने पूछा कि आपका कोई मन्तव्य? बर्नार्ड शा ने कहा: तुम समझे नहीं? मैं सो गया, यह मेरा मन्तव्य है। मैंने घर्राटे लिये, यह मेरा मन्तव्य है। अब और मन्तव्य देना है क्या? देखने-योग्य नहीं था, सोने-योग्य था।

तुम मुझसे पूछते हो कि विवाहित जीवन के संबंध में आपके क्या खयाल हैं? पहली तो बात, अविवाहित आदमी से ऐसा पूछना नहीं चाहिए। विवाहित आदमी से पूछना चाहिये। हालांकि विवाहित आदमी भी…अगर पत्नी मौजूद हो तो पति सच नहीं बोल सकता, अगर पति मौजूद हो तो पत्नी सच नहीं बोल सकती, या डर भी हो कि दूसरे को पता चल जाएगा तो भी सच नहीं बोला जा सकता।

टालस्टाय, चैखव, तुर्गनेव रूस के तीन बड़े विचारशील लेखक एक बगीचे में बैठकर गपशप कर रहे थे। बात विवाह की उठ गई। बात भी कहां है और इस दुनिया में! अब बोलो यहां तुम आध्यात्मिक सत्संग करने आये, बात विवाह की उठा ली! विवाह का भूत तुम्हारे पीछे पड़ा होगा। विवाह की बात उठ गई। चैखव ने कहा: तुर्गनेव से कि तुम्हारा क्या विचार है? तुर्गनेव ने अपना विचार बताया। तुर्गनेव ने पूछा चैखव से, तुम्हारा क्या विचार है? चैखव ने अपना विचार बताया। फिर दोनों ने पूछा टालस्टाय से, आप चुप क्यों हो? आप क्यों नहीं बोलते? उन्होंने कहा, मैं तब बोलूंगा जब मेरा एक पैर कब्र में। जल्दी से बोलकर मैं कब्र में समा जाऊंगा, क्योंकि मुझे पता है कि तुम दोनों मेरी पत्नी से भी मिलते-जुलते हो। मेरा मन्तव्य जल्दी पहुंच जायेगा उस तक। अभी मैं सत्य नहीं बोल सकता। सत्य तो मैं सिर्फ कब्र में जाते वक्त ही बोलूंगा, आखिरी वक्त कह दूंगा कि यह है सत्य।

एक ट्रेन में दो यात्री साथ बैठे हैं। एक ने पूछा दूसरे से: विवाहित जीवन के बारे में तुम्हें मेरे विचार मालूम हैं? दूसरे यात्री ने कहा: क्या तुम विवाहित हो?

पहला यात्री: हां।

तो दूसरे ने कहा: तो फिर मालूम हैं। अब और बताने को क्या है?

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही थी: क्या तुमने कभी सोचा मुल्ला कि यदि मेरी शादी किसी और से हो जाती तो कितना अच्छा होता? मुल्ला ने उत्तर दिया: नहीं, मैं किसी व्यक्ति का बुरा क्यों चाहने लगा!

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन मेरे पास बैठा था। अखबार सामने पड़ा था, शिमला की तस्वीर छपी थी–सुंदर झील, सुंदर पहाड़ियां! मुल्ला एकदम बोला: अहा शिमला! प्यारा शिमला! जिंदगी के रंगीन और मधुर क्षण मुझे शिमला ने ही दिये हैं!

मैं थोड़ा चौंका, क्योंकि मुझे पता है मुल्ला नसरुद्दीन कभी शिमला गया नहीं। तो मैंने पूछा: मगर मुल्ला, तुम तो कभी शिमला गये ही नहीं!…उसने कहा कि नहीं, मेरी पत्नी गई थी।

एक आदमी मुझसे आकर पूछा कि ओशो, आपके आश्रम का कोई युवक नियम भंग करके शादी कर ले तो आप उसे क्या सजा देते हैं? मैंने कहा: कुछ नहीं। उसने कहा: क्यों? मैंने कहा: वही उसकी सजा है। और बेचारे को सजा! इतना पर्याप्त है, अब भोगेगा।

अकेले लोग रह नहीं सकते, साथ चाहिए। साथ भी रह नहीं सकते, क्योंकि जब अकेले ही नहीं रह सकते तो साथ कैसे रह सकेंगे? जब अपने साथ न रह सके तो दूसरे के साथ कैसे रह सकेंगे? दो व्यक्ति जो दोनों ही अकेले रहने में असमर्थ हैं, जब मिल जायेंगे तो उनके दुखों में जोड़ ही नहीं होगा, गुणनफल हो जाता है। और यही हो रहा है। विवाह के नाम पर ऐसे व्यक्ति साथ हो लेते हैं, जिनको अभी अकेले में जीना भी नहीं आता। तो साथ जीना तो जरा और कुशलता की बात है, और कला की बात है।

मेरे हिसाब से इस पृथ्वी पर विवाह तभी सुंदर होगा जब विवाह के पहले ध्यान की प्रक्रियाओं से लोग गुजरेंगे, अन्यथा विवाह कभी भी सुंदर नहीं हो सकता, कुरूप ही रहेगा। इस देश के प्रज्ञावानों को यह बात समझ में आ गई होगी, इसलिए हमने जीवन के पहले पच्चीस वर्ष गुरुकुल में बिताने का आयोजन किया था। यह कुछ उल्टी सी बात लगती है कि जीवन के पच्चीस पहले वर्ष गुरुकुल में ध्यान करते, प्रार्थना करते, पूजा में लीन, सत्य की खोज करते, मौन रहते, एकांत का रस अनुभव करते…। पहले पच्चीस वर्ष, एकांत में कैसे जीया जाए, अकेले में कैसे आनंदित हुआ जाए, इसमें बिताने थे। यह बिलकुल वैज्ञानिक सूत्र है।

फिर दूसरे पच्चीस वर्ष विवाह में, क्योंकि जो व्यक्ति अकेले में रहने की कला सीख गया है, अब दूसरा कदम उठा सकता है।

तुम ऐसा समझो न, मैं एक नदी के किनारे बैठा था, एक आदमी अचानक डूबने लगा और चिल्लाया–मरा-मरा! बचाओ! एक दूसरा आदमी भी मेरे पास ही बैठा था। वह एकदम भागा और उसे बचाने के लिए कूद पड़ा। तब मुझे भी भागना पड़ा। मुझे दो को बचाना पड़ा, क्योंकि वह जो आदमी कूद पड़ा था उसको भी तैरना नहीं आता था। मैंने उससे कहा: नासमझ तू क्यों कूदा? उसने कहा: मैं भूल ही गया। यह आदमी मर रहा है, यह सोचकर मुझे याद ही न रही कि मुझे तैरना नहीं आता।

मैंने कहा: तूने और मुसीबत की। एक की जगह दो को बचाना पड़ा। खतरनाक हालत खड़ी कर दी तूने।

मगर उसकी भी बात मेरी समझ में आती है। इतनी तेजी से उसने आवाज दी कि बचाओ, कि वह कूद पड़ा। होश कहां है, लोग होश में कहां जी रहे हैं! मगर दूसरे को बचाने के लिए पहले तुम्हें तैरना आना चाहिए।

पच्चीस वर्ष, इस देश के प्रज्ञावान पुरुषों ने कहा था: प्रत्येक को गुरुकुल में बिताने चाहिए। वहां से लौटो तुम सीखकर एकांत का रस। अब तुम साथ रह सकते हो, क्योंकि अब दोनों के पास एकांत का रस है और दोनों रस बांट सकते हैं। अब आदान-प्रदान हो सकता है, अब संवाद हो सकता है।

इस देश ने विवाह को एक अनुपम सौंदर्य दिया था, जो दुनिया में कोई देश कभी नहीं दे पाया। इस देश की दुनिया को जो कुछ देन है, उनमें विवाह भी एक था। अब नहीं है, कभी था। अब तो टूट गई सारी व्यवस्था। अब तो इस देश का विवाह बहुत कुरूप है। लेकिन कभी हमने प्रयोग किये थे–हिम्मत के प्रयोग किये थे।

पहला पाठ: अपने साथ होना सीखो। इतने मस्त तुम्हें अकेले में होना चाहिए कि दूसरा न हो तो तुम्हारी मस्ती में बाधा न पड़े। तुम्हारी मस्ती दूसरे पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। जब दो ऐसे व्यक्ति मिलते हैं, जिनकी मस्ती एक-दूसरे पर निर्भर नहीं है तो तो दाम्पत्य घटता है। तब वे एक-दूसरे के गुलाम नहीं हैं, न एक-दूसरे के मालिक हैं।

खलिल जिब्रान ने कहा है: प्रेमियों को ऐसे होना चाहिए जैसे मंदिर के दो स्तंभ पास-पास खड़े, फिर भी दूर-दूर, एक ही छप्पर को सम्हाले, फिर भी दूर-दूर। प्रेमियों का ऐसे होना चाहिए   जैसे मंदिर के दो स्तंभ! खूब निकट, एक ही छप्पर को सम्हाले! एक ही प्रेम का छप्पर सम्हालना है, लेकिन दूर-दूर। बहुत पास आ जायें अगर मंदिर के स्तंभ, मंदिर गिर जायेगा। थोड़ा फासला चाहिये। और फासला तभी हो सकता है जब परनिर्भरता न हो। स्वतंत्र व्यक्ति ही फासला रख सकते हैं। परतंत्र व्यक्ति तो एकदम चिपकते हैं एक दूसरे से, एक-दूसरे को पकड़े रखते हैं, एक-दूसरे पर नजर रखते हैं कि कहीं दूसरा यहां-वहां निकल कर बच न जाये, कहीं भाग न जाये!

पत्नी जांच-पड़ताल करती रहती है कि पति कहीं किसी और स्त्री के रस में तो नहीं डूबा जा रहा है। और कपड़े गौर से देखती है कि कहीं किसी स्त्री का बाल तो कपड़ों पर नहीं है।

मुल्ला नसरुद्दीन की एक स्त्री, उनकी स्त्री, एक सांझ एकदम कपड़े देखकर और रोने लगी, जोर-जोर से छाती पीटकर रोने लगी। मुल्ला ने कहा: आज क्या है? आज तो कोई बाल भी नहीं है।

उसकी पत्नी ने कहा: इसीलिये रो रही हूं, तो अब तुमने गंजी स्त्रियों के साथ भी जाना शुरू कर दिया? अब तो हद हो गई।

पति भी नजर रखे हैं कि कहीं पत्नी किसी और में रस तो नहीं ले रही! जहां एक-दूसरे के पीछे इस तरह की खुफियागिरी चल रही हो, वहां कैसे आनंद होगा? जहां एक दूसरे पर इतना भी भरोसा न हो, वहां कैसे प्रेम उमगेगा? प्रेम तो अत्यंत श्रद्धापूर्ण वातावरण में जन्मता है। श्रद्धा ही नहीं है, दूसरे का सम्मान भी नहीं है और दूसरे पर निर्भरता इतनी ज्यादा है कि पकड़े रखो, एक-दूसरे की जंजीर बन जाओ।

तुम ठीक ही कहते हो जब निमंत्रण पत्र इत्यादि अपने बेटे-बेटियों के छपवाते हो–कि मेरा बेटा प्रणय-बंधन में बंधने जा रहा है। तुम्हें कुछ अकल है? प्रणय तो मुक्ति होनी चाहिए, बंधन नहीं। ये कोई जंजीरें हैं कि विवाह के बंधन में बंधने जा रहा है? मगर ऐसे तुम सच ही कह रहे हो।

मुल्ला नसरुद्दीन के बेटे की शादी होने वाली थी। मुल्ला ने उसे एकांत में बुलाया और कहा कि दो बातें सदा खयाल रखना, जीवन के अनुभव से कह रहा हूं। अब तू विवाह कर रहा है, इसलिये सार-निचोड़ तुझे समझा देता हूं। पहली बात: पत्नी को कोई भी वचन दे, सदा पूरा करना। फिर मुल्ला कुछ झिझका। बेटे ने पूछा: और दूसरी बात? मुल्ला ने कहा कि अब कहनी पड़ेगी: और भूलकर भी पत्नी को कोई वचन मत देना। दो बातें खयाल रखना। नहीं तो तू मुश्किल में पड़ेगा।

कल मैं एक किताब पढ़ रहा था। अदभुत किताब है। किताब है: असत्य बोलने की कला। उसमें सारे…किन-किन स्थितियों में आदमी को असत्य बोलना पड़ता है, उस सबके बहुत-से उद्धरण और बहुत-से सुझाव दिए हैं। उस किताब की लाखों प्रतियां अमरीका में बिकीं। इतनी प्रतियां बिकीं, इसलिये मैंने खबर भिजवाई कि कोई मुझे वह किताब भेजो। देखा उसमें, तो जरूर बिकीं होंगी। सभी पति-पत्नियों के काम की है, क्योंकि उसमें काफी स्पष्टता से उदाहरण पूर्वक हर स्थिति में बहुत-से झूठ बोलने सुझाये हैं–आत्मरक्षा के निमित्त।

पति-पत्नी ऐसे ही झूठ बोल रहे हैं एक-दूसरे से। जिनके बीच सत्य भी नहीं है, उनके बीच आनंद कैसे होगा? जिनके बीच एक-दूसरे के प्रति संदेह ही संदेह हैं, उनके बीच संबंध ही क्या होगा? संदेह तो तोड़ता है, जोड़ता नहीं।

विवाह एक अपूर्व कला है। तुम जन्म से ही विवाह के योग्य पैदा नहीं होते। ठीक था कि पच्चीस वर्ष तक तुम अकेला रहना सीखते और फिर तुम विवाह में उतरते। लेकिन वह प्रयोग भी असफल हुआ, उसका कारण था। उसका कारण था कि वह प्रयोग अधूरा था, पुरुषों के लिए तो किया गया, स्त्रियों के लिये नहीं किया गया। इसलिये वह प्रयोग मरा। पच्चीस वर्ष तक युवक तो गुरुकुल में रहते थे और एकांत का और ध्यान का रस लेकर आते थे, लेकिन युवतियों के लिये वह अवसर नहीं था। यह एकांगी प्रयोग था, इसलिये मर गया।

मैं उस प्रयोग को फिर दोहराना चाहता हूं। लेकिन अब मैं उसे दोनों तरफ से दोहराना चाहता हूं। युवक और युवती दोनों के लिये लागू होना चाहिए। दोनों ध्यान की कला सीखें। और विवाह में तो तभी सम्मिलित होना चाहिए जब तुम इस योग्य हो गये, इतने प्रौढ़ हो गये, कि दूसरे के साथ जी सकोगे, क्योंकि दूसरे के साथ जीने का अर्थ होता है: दूसरा तुम जैसा नहीं है; तुमसे भिन्न है–अलग ढंग से पला है, अलग ढंग से बड़ा हुआ है, उसके अलग संस्कार हैं, अलग सोच-विचार हैं। दूसरे के साथ होने का मतलब है कि तुम्हें अब बहुत-सी चीजों में उदार होना पड़ेगा, सहिष्णु होना पड़ेगा। दूसरे के साथ होने का अर्थ है कि तुम्हें लेन-देन करना होगा। दूसरे के साथ होने का अर्थ है तुम्हें समन्वय करना होगा।

एक आदमी बांसुरी बजाता है–सोलो, अकेला, यह एक बात है। फिर वह तबले के साथ बांसुरी बजाये तो कला और भी सीखनी पड़ेगी, क्योंकि अब तबले की ताल के साथ बांसुरी जानी चाहिए, अब संगत सीखनी पड़ेगी। विवाह संगत है दो वाद्यों के बीच में। ध्यान सोलो है; अपने बैठे बांसुरी बजा रहे हैं। ठीक बजाओ कि गलत बजाओ, किसी को लेना-देना भी नहीं है। अगर तुम्हीं बजानेवाले हो और तुम्हीं सुननेवाले हो, तुम्हारी मौज। लेकिन जब तुम दूसरे के साथ बांसुरी बजाते हो और दूसरा भी ताल दे रहा है तबले पर तो फिर तबले के साथ चलना होगा, तो दोनों के बीच संगत बनानी होगी।

विवाह संगत है। बड़ी कुशलता चाहिये। इस जगत में बहुत थोड़े-से विवाह सफल होते हैं। थोड़े-से भी हो जाते हैं, यह चमत्कार है। होने नहीं चाहिए। दुर्घटना-वश हो जाते हैं, संयोगवशात। अधिक तो असफल हो जाते हैं। सौ मैं निन्यानबे विवाह तो असफलता की कथाएं हैं। लेकिन तुम्हारे साधु-संन्यासी चाहते भी नहीं थे कि तुम्हारा विवाह सफल हो जाये, क्योंकि उनका सारा त्याग का धंधा तुम्हारे विवाह की असफलता पर निर्भर है। इसको तुम समझने की कोशिश करना। गणित के पीछे गणित हैं।

समझ लो कि अगर तुम्हारा विवाह सफल हो जाये तो कौन संन्यास लेगा? पुराने ढब का संन्यास तो कम से कम नहीं लेगा। मेरा ही संन्यास ले सकता है फिर। अगर विवाह सफल हो जाये तो फिर कौन सुनेगा विरागियों की? और विरागी लाख कहें स्त्री नरक का द्वार है, तुम कहोगे: “चुप रहो, बकवास बंद करो! मुझे पता है।’ लेकिन जब विरागी कहता है स्त्री नरक का द्वार है, तुम एकदम राजी हो जाते हो। तुम कह रहे हो कि महाराज, बिलकुल ठीक कह रहे हो! मेरा भी अनुभव यही है। जब तुलसीदास जैसे लोग कहते हैं कि स्त्री की गिनती करो–शूद्र, गंवार, पशु, नारी–तो तुम तैयार हो जाते हो।…ये सब ताड़न के अधिकारी! तुम्हारा दिल कहता है: अहा! इन्हीं महात्मा की तो तलाश थी! मारना तो तुम भी अपनी पत्नी को चाहते हो। मारते न होओ भला, मगर दिल में उमंगें तो बड़ी-बड़ी उठती हैं।

ऐसा पुरुष खोजना कठिन है जो पत्नी की हत्या की बात कभी न कभी नहीं विचारता हो। ऐसी पत्नी खोजनी मुश्किल है जो कभी न कभी सोचती हो कि छुटकारा हो जाये इस आदमी से तो अच्छा, कि हे परमात्मा! इसको उठा ही क्यों नहीं लेता?

तुम्हारा विवाह अगर सफल हो जाये तो तुम्हारे चर्च, मंदिर, तुम्हारी मस्जिदें एकदम असफल हो जायेंगी। इसलिये पंडित-पुरोहित ने तुम्हारे विवाह को सफल नहीं होने दिया है। उसने पूरी चेष्टा की है कि तुम्हारी जिंदगी दुख से भरी रहे। तुम्हारी जिंदगी दुख से भरी रहे, तो ही तुम उसके पास आते हो। समझना, कुछ धंधे ऐसे हैं जो विरोधाभासी हैं। जैसे चिकित्सक का धंधा। चिकित्सक के धंधे में यह खतरा है कि वह बीमार की चिकित्सा करता है, उसका धंधा तो यही है कि बीमार का इलाज करे, उसे ठीक करे; लेकिन अंतरतम भावना यही होती है कि लोग बीमार पड़ते रहें, नहीं तो उसका क्या होगा? ऊपर से इलाज भी करता है, भीतर कहीं बहुत गहरे में चाहता है कि लोग बीमार भी होते रहें। यह तो बड़ी विरोधाभासी बात हो गई।

एक शराब-घर में एक रात एक आदमी आया अपने मित्रों के साथ, खूब शराब पिलवाई उसने, खूब मजा-मौज किया। बारह बज गये, शराब की दुकान वाला मालिक तो गदगद हो गया। खूब रुपये लुटाये उसने! अपनी पत्नी से वह बोला कि ऐसे ग्राहक अगर रोज आते रहें तो कुछ ही दिनों में चांदी ही चांदी हो जाये। जाते वक्त उसने इस अदभुत ग्राहक को कहा कि भाई, कभी-कभी आ जाया करो। तुम जैसे ग्राहक सदा आते रहें तो हमारा सौभाग्य!

उस आदमी ने कहा: हमारा धंधा चलता रहे, प्रार्थना करो कि हमारा धंधा चलता रहे तो हम भी बराबर रोज आयें। वह तो अभी धंधा हमारा तेजी से चल रहा है। अभी तो हम आयेंगे आठ-पंद्रह दिन में। यह तो मौसम है हमारा।

उस आदमी ने पूछा: लेकिन मैं यह भी पूछूं कि तुम्हारा धंधा क्या है? उसने कहा: मेरा धंधा है मरघट पर लकड़ी बेचना। जब लोग ज्यादा मरते हैं, तब हमारा धंधा चलता है। इस वक्त लोग मर रहे हैं। साल के इस हिस्से में हमारा सीजन होता है। इस वक्त तरहत्तरह की बीमारियां होती हैं और लोग मरते हैं। प्रार्थना करो परमात्मा से, हमारा धंधा चलता रहे, लकड़ियां बिकती रहें, हम तो रोज आते रहें।

बड़े अजीब-अजीब धंधे हैं। किसी का धंधा है कि वह मरघट पर लकड़ियां बेचता है। वह परमात्मा से प्रार्थना करता ही है कि मेरा धंधा चलता रहे; लोग मरें, इसकी प्रार्थना। चिकित्सक की प्रार्थना है कि लोग बीमार होते रहें। पंडित-पुरोहितों की, विरागियों की प्रार्थना है कि संसार में सुख न हो जाये।

इसलिए अगर वे मेरे विपरीत हैं तो कुछ आश्चर्य नहीं, क्योंकि मेरी चेष्टा बड़ी उल्टी है। मैं कह रहा हूं: तुम्हारे जीवन में सुख हो सकता है। यह पृथ्वी स्वर्ग हो सकती है, होनी ही चाहिये! अगर नहीं हो पा रही है तो कहीं हमारा कसूर है। परमात्मा ने इसे स्वर्ग के योग्य ही बनाया, इसमें कुछ कमी नहीं छोड़ी। सब है, सिर्फ आदमी नासमझी कर रहा है। यह पृथ्वी स्वर्ग हो सकती है। लेकिन तब एक दूसरे ढंग का संन्यास होगा–मेरे ढंग का संन्यास होगा।

एक तो परमात्मा की तलाश है जो दुख से शुरू होती है, कि जीवन में इतना दुख पाया कि अब परमात्मा को खोजने चले। एक परमात्मा की तलाश है जो सुख से पैदा होती है, जीवन में इतना सुख पाया कि अब सुख का परम स्रोत खोजने चले। ये बड़ी भिन्न तलाशें हैं। इसलिये मेरा संन्यासी और पुराने ढंग का संन्यासी बिलकुल विपरीत लोग हैं। मैं विरागियों से बिलकुल विपरीत हूं। इसलिये वे सारे एकजुट होकर मेरा विरोध कर रहे हैं। मैं समझता हूं, यह स्वाभाविक है। उनके न्यस्त स्वार्थ पर मैं हमला कर रहा हूं।

मैं यह कर रहा हूं कि विवाह सुंदर हो सकता है; असुंदर है तो हमारी भूल के कारण है। मैं कहता हूं: बांसुरी और तबले के बीच संगत बैठ सकती है; नहीं बैठ रही तो हमने संगीत ठीक से नहीं सीखा है, इसलिये। संगीत सीखा जा सकता है।

मैं कहता हूं इसी जीवन में, शरीर के जीवन में, बड़ी-बड़ी रहस्य की संभावनाएं छिपी पड़ी हैं। परमात्मा शरीर में उपलब्ध हो सकता है और परमात्मा बाजार में उपलब्ध हो सकता है, घर-गृहस्थी में उपलब्ध हो सकता है। परमात्मा का और संसार का कोई विरोध नहीं है। तुम जहां हो वहां उपलब्ध हो सकता है।

चूंकि मेरी ऐसी उदघोषणा है, इसलिये मेरी प्रक्रिया भी पूरी अन्य होने वाली है। मैं चाहता हूं कि तुम रागी बनो, तुम प्रेमी बनो। ऐसा प्रेम का तुम्हें रस लगे कि एक दिन तुम कहो कि अब तो बस परमात्मा का प्रेम मिले तो ही तृप्ति होगी। मैं तुम्हें संगीत की थोड़ी समझ देना चाहता हूं, ताकि तुम और-और संगीत की तरफ बढ़ने लगो, ताकि एक दिन अनाहत नाद को सुनने की आकांक्षा जगे।

पुराना संन्यास विषादपूर्ण था, वैराग्यपूर्ण था। मेरी अवधारणा संन्यास की, विषाद की नहीं, आह्लाद की है; दुख की नहीं, आनंद की है। और अगर परमात्मा सच्चिदानंद है तो हमें भी सच्चिदानंद होकर जीना चाहिये, तो ही हमारा उससे तालमेल हो सकेगा। दाम्पत्य सुंदर हो सकता है, और प्रेम धीरे-धीरे प्रार्थना के लिये रास्ता बन सकता है।

 

आखिरी प्रश्न:

 

ओशो! दो माह पहले मेरे भाई, मासी के पुत्र की छब्बीस वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी। वे हमारे साथ पांच वर्ष रहे थे और वे भाई और पुत्र से भी ज्यादा आत्मीय थे। हमने उनकी मृतात्मा के आगे की यात्रा के लिए सुंदर विदाई दी। हम जानते थे कैसे। हमने भजन और धुन गाये। मृत्यु-शोक नहीं–उत्सव। एक भजन था: मुखड़ा नी माया लागी रे…मोहन प्यारा, मुखडूं में जोयूं तारूं, मन मारूं धयूं न्यारूं रे…मोहन प्यारा! इस गीत में कृष्ण को संबोधित मधुरता थी, और साथ ही स्वर्गवासी राज की याद थी।

आज पहली बार आपका साक्षात प्रवचन सुनने के साथ ही उपरोक्त भजन सहज ही मुझसे गूंज उठा और दिन भर साथ रहा। शायद यह झलक थी–उस भजन के अंतरंग अर्थ की, जो हमने गाया था–मुखड़ा नी माया लागी रे…!

 

रोहित! मृत्यु इस जगत का सबसे बड़ा झूठ है। मृत्यु होती ही नहीं। जीवन है और जीवन है। जीवन के पार जीवन है। पर्त-पर्त जीवन है। जीवन की अनंत शृंखला है। मृत्यु तो केवल परिधान का बदल लेना है; जीर्ण वस्त्रों को छोड़ देना, बस इतना ही।

जैसे पतझर आता है और पुराने पत्ते गिर जाते हैं और वृक्ष नग्न खड़ा रह जाता है; मगर नग्न वृक्ष में जिसके सारे पत्ते झड़ गये हैं, उदासी नहीं है, दुख नहीं है, पीड़ा नहीं है। और आकाश की पृष्ठभूमि में तभी तो पत्तों से शून्य वृक्ष का भी एक अपूर्व सौंदर्य होता है। पत्तों से शून्य नग्न वृक्ष का भी एक अपना अनूठा ढंग, शैली और व्यक्तित्व होता है। उसकी अपनी शांति होती है, अपना शून्य होता है। फिर आयेगा मधुमास, फिर बसंत आयेगा, फिर अंकुर निकलेंगे, फिर नये पत्ते, फिर नये फूल। वृक्ष को भरोसा है, इसलिये उदास नहीं है; विश्राम कर रहा है मधुमास की प्रतीक्षा करेगा।

हमारा भरोसा बहुत कम है, इसलिये हम दुखी हो जाते हैं। हमारी श्रद्धा बहुत दीन-दुर्बल है, इसलिये हम दुखी हो जाते हैं।

रोहित! तुमने ठीक ही किया। यही मेरी शिक्षा है। मृत्यु को भी उत्सव बनाओ, क्योंकि चला कोई नये जीवन के मार्ग पर। जितने दिन हमारे साथ था, उस सबके लिये धन्यवाद तो दो, जाते यात्री को धन्यवाद तो दो। इतनी लंबी यात्रा पर जा रहा है, फिर मिलना होगा या न होगा, इसे उदास क्षण तो न बनाओ। रो-धोकर इसके सौंदर्य को खंडित तो न करो! विदा प्रीतिपूर्ण हो, उत्सवपूर्ण हो, शुभाशीषों से भरी हो, अनंत यात्रा की कामना से भरी हो।

और ध्यान रखना, इसके बड़े गहरे अर्थ हैं। अगर तुम उत्सवपूर्वक विदा दे सको तो तुमने उस चेतना को जो इस देह से मुक्त हो गई है, आगे जाने के लिये संबल दिया, सहारा दिया, पाथेय दिया। और तुमने उसे इस जगत से, इस जीवन से, इस जीवन के संबंधों से मुक्त होने की सामर्थ्य भी दी; नहीं तो मन पीछे लौट-लौटकर देखेगा। तुम रोओगे, तुम पीड़ित और परेशान होओगे, तो वह आत्मा लौट-लौट तुम्हारे आस-पास चक्कर काटेगी। तुम उसे भटकाओगे। तुम उसे उलझा दोगे।

नहीं, अब सारे सेतु टूट जाने दो। जाने दो उसे नये मार्ग पर। उसकी घड़ी आ गई। उसकी यात्रा का क्षण आ गया। उसकी नाव किनारे लग गई। और तुम अगर अपने मित्र को, अपने भाई को, अपने पति को, अपनी पत्नी को, अपने बेटे को आनंदपूर्ण ढंग से विदा दे सको तो तुम्हारे जीवन में भी क्रांति होगी, क्योंकि तुम भी अब मृत्यु से डरोगे नहीं। अब तुम्हारी अपनी मृत्यु भी एक दुर्घटना नहीं मालूम होगी। तुम्हारी जीवन की समझ इससे गहरायेगी, परिपक्व होगी।

तुमने अच्छा किया। मृत्यु तो उत्सवपूर्वक ही मनानी चाहिये। आंसू भी गिरें तो भी कृतज्ञता के हों, धन्यवाद के हों।

और पैमाने सभी बेकार हैं,

अन्य नापों का तो जड़ आधार है;

एक अपने ही हृदय के नाप से,

नाप सकते हम निखिल संसार ये!

 

कह रहा यह सांध्य-रवि ढलता हुआ,

यों सदा चढ़ कर उतरना है अटल;

फूल चढ़ तरु के शिखर पर हंस दिया,

अंत में तो धूल का आंचल मृदुल!

 

चिर दुखों की ठोकरों से चूर होकर,

भूल कर इस जिंदगी का दांव हारा;

विश्व के आलोक के हित चमकने का,

कह रहा आकाश से टूटा सितारा!

 

हृदय की गहराइयों को नापने,

यंत्र यह विज्ञान दे पाया नहीं;

एक करुणा-यंत्र से तुम नाप लो,

स्नेह है या स्वार्थ की छाया कहीं?

 

गीत क्या गाऊं भला मुख खोल मैं,

जब कि मेरे गीत ही तव राग है;

आंसुओं से क्या बुझाऊं उर-जलन,

जब कि अन्तर में तुम्हारी आग है!

विदा दो आनंद से, क्योंकि जो फूल अभी गिरा है धूल में, फिर कभी फूल होकर उगेगा। जो तारा अभी गिर गया है, फिर तारा बनेगा। अनंत है यात्रा; न इसका कोई आदि है न कोई अंत। क्षण-भर को हम मिल लेते हैं, साथ हो लेते हैं, उन क्षणों को प्रीतिकर बनाओ, मधुमय बनाओ। लेकिन उन क्षणों पर निर्भर न हो जाओ, उन क्षणों से बंध मत जाओ।

हम सब यात्री हैं और हमारा संबंध नदी-नाव संयोग है। विदा तो होना होगा देर-अबेर। मिलन के क्षण में भी विदा न भूले तो ही यह संभव हो पायेगा कि विदा के क्षण में तुम मिलन के लिये धन्यवाद दे सकोगे।

इस गणित को ठीक से हृदय में बैठ जाने दो: मिलन के क्षण में विदा न भूले। जब तुम किसी को आलिंगन करो तो जानना ही कि अलग होना होगा। जब तुम किसी का हाथ प्यार से हाथ में लो तो जानना ही कि हाथ छोड़ देना होगा। जब फूल खिले तो स्मरण रखना, सांझ गिरेगा। यह स्वाभाविक है।

कह रहा यह सांध्य-रवि ढलता हुआ,

यों सदा चढ़कर उतरना है अटल;

फूल चढ़ तरु के शिखर पर हंस दिया,

अंत में तो धूल का आंचल मृदुल!

लेकिन धूल का आंचल भी बहुत मृदुल है, बहुत प्यारा है, विश्राम है। मृत्यु विश्राम है–जीवन की थकान से, जीवन के सफलताओं-असफलताओं के घाव से। मृत्यु एक महानिद्रा है; फिर सुबह होगी, फिर नया जीवन उठेगा।

लेकिन हम क्यों इतने दुखी होते हैं? हम इसलिये इतने दुखी हो जाते हैं कि जो हमें जीवन में देना चाहिये था, नहीं दिया, उसका अपराध-भाव हमें पकड़ता है। तुम यह जानकर चौंकोगे । जब कोई मरता है तो तुम उसकी मृत्यु के कारण दुखी नहीं होते। तुम दुखी होते हो इसलिये कि अब क्या होगा, व्यक्ति जा चुका और मैंने इसे नहीं दिया जो मुझे देना था; जो प्रेम मुझे करना था मैंने नहीं किया; कल पर टालता रहा; कहा कि आज तो धन इकट्ठा कर लूं, कल तुम्हें प्रेम कर लूंगा, जल्दी क्या है; छोटी-छोटी चीजों पर लड़ता-झगड़ता रहा; क्षुद्र-क्षुद्र बातों पर एक-दूसरे को घाव पहुंचाये जाते रहे–और आज व्यक्ति विदा हो गया! अब क्षमा मांगने का भी उपाय नहीं। अपराध-भाव पकड़ता है, इससे दुख होता है ।

फिर इससे भी दुख होता है, कि हम एक-दूसरे से बंध जाते हैं। हम इतने बंध जाते हैं कि जब दूसरा विदा होता है तो हमें यह भरोसा ही नहीं आता कि अब हम अकेले कैसे जी सकेंगे! जब दूसरा मरता है तो हमारे भीतर कुछ मर जाता है। यह भी गलत जीवन की शैली है। किसी पर इतना निर्भर नहीं होना है। अगर सुबह के सूरज पर बहुत निर्भर हो गये तो सांझ पछताओगे, क्योंकि सांझ सूरज तो डूबेगा। तुम्हारी निर्भरता के कारण इस जगत के नियम रूपांतरित नहीं होंगे। तुम्हीं दुखी होओगे।

जो इस सत्य को जानता है कि अलग होना होगा, क्योंकि मिलना हुआ तो अलग होना भी होगा, सब संयोग बिखर जाते हैं–वह निर्भर नहीं होता। वह अपना मालिक रहता है। वह दूसरे को भी अपने पर निर्भर नहीं करता। सच्चा प्रेमी वही है, जो दूसरे को भी अपने पर निर्भर नहीं करता। सच्चा प्रेमी वही है जो दूसरे को भी अपने पैरों पर खड़ा होने देता है; क्योंकि कब मैं विदा हो जाऊंगा, पता नहीं, तो मेरी पत्नी कहीं दुखी न हो पीछे, रोये न! सच्चा प्रेमी वही है, जो पत्नी को इस योग्य बना जाता है कि जब मैं जाऊंगा तो वह अपने पैर पर खड़ी हो सकेगी। और सच्चा प्रेमी वही है जो जानता है कि मैंने अपनी पत्नी को इतना प्रेम दिया है कि कल अगर मैं जाऊंगा तो मेरे प्रेम के कारण वह फिर प्रेम कर सकेगी।

इससे तुम और चौंकोगे।

सच्ची प्रेमिका वही है जो जानती है कि मैंने इतना प्रेम दिया है अपने पति को कि अगर कल मैं विदा हो गई तो मेरा पति फिर प्रेम कर सकेगा। मैंने इतना प्रेम दिया है कि प्रेम में रस जगा दिया है, मैंने प्रेम के योग्य बना दिया है।

लेकिन हम तो उल्टा काम करते हैं। हम तो मरते वक्त भी कसम लिवाना चाहते हैं पत्नी से कि तू सदा मेरी ही याद में रोती रहना; कभी किसी को प्रेम मत करना; कभी भूलकर किसी को प्रेम मत करना।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी तो उसी मरती स्त्री ने कहा कि मुझे मालूम है मुल्ला, कि मेरे मरते ही तुम फिर से विवाह रचोगे। तुम लाख कहो, मुझे मालूम है।

मुल्ला ने कहा : कभी नहीं! कसम खाता हूं तेरी, कभी नहीं! ऐसे कैसे हो सकता है? मैं और विवाह करूं, नहीं-नहीं! अगले जन्म की प्रतीक्षा करूंगा, फिर तुझी से विवाह करूंगा। जनम-जनम का साथ!

पत्नी बड़ी प्रसन्न थी। आश्वस्त तो नहीं थी, क्योंकि जिंदगी-भर का मुल्ला का अनुभव भी था कि जो जिंदगी में भी दगा देता रहा, वह मौत में साथ देगा इसका भरोसा क्या है! फिर भी उसने कहा : ठीक है, तुम कहते हो तो मान लेती हूं, मगर एक बात खयाल रखना–अगर कभी शादी करो ही तो देखो मेरे कपड़े उस स्त्री को मत पहनने देना, इससे मेरी आत्मा को बड़ा दुख होगा।

उसने कहा : तू बिलकुल फिकिर मत कर। रजिया को तेरे कपड़े बनेंगे भी नहीं।

वे तैयारी किये ही बैठे हैं, मरने की ही राह देख रहे हैं।

इस देश में यह घटना घटी, हमने स्त्रियों को जबरदस्ती सती होने के लिये मजबूर किया। पुरुषों का अहंकार देखते हो, कि मैं मर जाऊं तो मेरे साथ चिता पर चढ़ जाना! भय, संदेह…ये कोई प्रेम के लक्षण हैं? हां, कोई स्त्री अपने से चढ़ जाये, और बात; लेकिन यह समझाया जाये बुझाया जाये, इसके पाठ पढ़ाये जायें और अगर कोई स्त्री न चढ़ना चाहे तो जबरदस्ती चढ़ाई जाये…। जबरदस्ती स्त्रियां चढ़ाई गईं। धक्के दे-देकर उनको चिताओं पर ले जाया गया। इतना घी डालते थे चिताओं में कि धुआं इतना पैदा हो जाये कि वह स्त्री भाग न सके। चारों तरफ मशाल लेकर लोग खड़े रहते थे। क्योंकि जिंदा आदमी अगर आग में गिरेगा कभी, दीये को हाथ से छूकर देखा तो समझ आयेगा, तो पूरी जलती हुई आग में जिंदा आदमी…स्त्री भागेगी, होश छोड़कर भागेगी। कोई भागने के लिये चेष्टा नहीं करनी पड़ेगी। तुम आग को छुओगे तो हाथ अपने से हट जाता है। ऐसे ही शरीर छलांग लगाकर बाहर हो जाना चाहेगा। यह तुम्हारी कोई वश की बात नहीं होगी। तो मशालों से उसको वापिस गिरा देना है। और इतना धुआं पैदा करना है और इतने बैंड-बाजे बजाते थे कि उसका शोरगुल, उसका चीत्कार…चीत्कार तो उठेगा, जिंदा आदमी जलेगा तो…सुनाई न पड़े। यह तो हत्या थी। फिर इस सती के नाम पर चबूतरा बना देंगे–सती का चौरा! फिर उस पर फूल चढ़ायेंगे। जिंदा को मारेंगे, मुर्दा पर फूल चढ़ायेंगे।

यह पुरुष का अहंकार था। और अगर यह सच है कि अहंकार था तो हमने जो सतियों के नाम पर बड़ी कहानियां गढ़ रखी हैं, उनको विदा करो। और मैं कहता हूं : यह अहंकार था, क्योंकि अगर यह अहंकार नहीं था, प्रेम था तो कोई पुरुष क्यों नहीं स्त्री की चिता पर चढ़ा? क्योंकि प्रेम क्या इकतरफा होता है? स्त्रियां मरती रहीं और पुरुष फिर-फिर विवाह करते रहे। सच तो यह है स्त्री मरती थी, मरघट पर ही उसको विदा करते वक्त ही विचार होने लगता! अब इसकी शादी कहां कर देनी है! मैं भी कुछ मरघटों पर गया हूं तो मैं चकित हुआ हूं कि विचार शुरू हो जाता है कि इसकी शादी कहां कर देनी है!

पुरुष ने तो प्रेम का एक भी लक्षण न दिया, एक भी सता न हुआ। सतियां ही सतियां…एकाध सता का चौरा देखा कहीं। यह तो चालबाजी हो गई। यह स्त्रियों के साथ बेईमानी हो गई। यह तो धोखा हो गया। मगर भय था पुरुष को कि मेरे हट जाने के बाद स्त्री किसी के प्रेम में न पड़ जाये। यह संदेह का रिश्ता था, प्रेम का रिश्ता नहीं। प्रेम का रिश्ता तो कुछ और होगा।

मेरी दृष्टि में, अगर पुरुष मर रहा है तो वह अपनी पत्नी को कहेगा कि जरूर तू किसी को प्रेम करना, क्योंकि प्रेम देवता है। तू फिर प्रेम करना। तू मेरी याद में प्रेम करना। तूने मुझे चाहा था तो किसी और को चाहना। क्योंकि जैसे परमात्मा मुझमें प्रगट हुआ है, ऐसे ही किसी और में भी प्रगट हुआ है। तू खुश होगी किसी को चाहकर, तू फिर नाचेगी किसी को चाहकर, तो मुझे आनंद होगा, मेरी आत्मा को आनंद होगा।

मेरे देखने के ढंग भिन्न हैं। प्रेम मेरे लिये परम मूल्य है। इसलिये विदा दो किसी को–आनंद से दो! और फिर बैठकर रोने की कोई जरूरत नहीं है। फिर जिंदगी भर रोने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुमने सच में प्रेम किया है उसे, तो फिर किसी को प्रेम करना। रोहित, तुमने अगर प्रेम किया है अपने भाई को, मौसी के पुत्र को, राज को, तो फिर किसी और को राज बनाना। फिर किसी को और भाई बनाना। प्रेम का स्रोत सूख न जाये।

और राज अपनी पत्नी पीछे छोड़ गया है, शैल्या, वह भी आज यहां उपस्थित है। मेरा उसको यह संदेश है : अगर तूने राज को प्रेम किया हो तो फिर किसी को प्रेम करना, फिर किसी राज को खोजना। वही सबूत होगा प्रेम का। वही प्रमाण होगा प्रेम का। और भूलकर भी यह मत सोचना कि किसी और को प्रेम किया तो यह राज के साथ धोखा हुआ, गद्दारी हुई। नहीं; यही प्रमाण हुआ कि तूने राज को चाहा था। उसकी चाह में किसी और को भी चाहना। चाह को इतना बड़ा करो, प्रेम को इतना बड़ा करो, संकीर्ण न करो। अगर तूने फिर किसी को प्रेम नहीं किया और राज की याद में बैठी रोती रही, तो वह सिर्फ इस बात का सबूत होगा कि राज के प्रेम ने तुझे इतना आनंद नहीं दिया था कि तू फिर प्रेम के झंझट में पड़े। वह इसी बात का सबूत होगा कि अच्छा हुआ यह झंझट मिट गई। राज भी गये, यह विवाह की झंझट मिट गई। अब तो किसी झंझट में पड़ना नहीं है। यह तो राज का अपमान होगा।

मेरी तर्क-सरणी को समझना। मेरी तर्क-सरणी को समझना थोड़ा कठिन पड़ता है, क्योंकि बंधी-बंधाई मान्यताओं के मैं बिलकुल विपरीत हूं। मेरे हिसाब में तू तो जब फिर प्रेम करेगी, फिर फूलों से लदेगी, फिर पैरों में घूंघर बांधकर नाचेगी, तो सबूत होगा कि तूने किसी को चाहा था, खूब चाहा था! और उसने भी तुझे चाहा था और उसने तुझे प्रेम का ऐसा पाठ दिया था कि आज व्यक्ति विदा हो गया तो कोई हर्ज नहीं। अगर एक मंदिर गिर जाये तो दूसरे मंदिर में आराधना चलेगी। अगर एक पूजा का थाल न मिले तो दूसरे पूजा के थाल से आराधना चलेगी। लेकिन आराधना चलेगी।

प्रेम प्रार्थना है।

 

आज इतना ही।

 

 



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प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन–08)

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तुम स्‍वयं धुलकर तरल हो जाओ—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 जून सन् 1976;

श्री ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

प्यारे ओशो! बाउल अपनी देह में जीते हुए ही उत्सव आनंद मनाते हैं। इस सम्बंध में क्या आप कुछ और अधिक बता सकते हैं?

अमेरिकन भी अपने शरीर को सुस्वाद्व और सुंदर भोजन से, राल्फिंग और मालिश आदि से स्वस्थ रखकर जीवन का आनंद लेते हैं लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचती कि यह बाउलों जैसा ही है। क्या आप इस पर हमें कुछ बोध देने की कृपा करेगे?

न दोनों में जमीन और आसमान का अंतर है और यह अंतर मात्रात्मक नहीं, गुणात्मक है। आधुनिक संसार और आधुनिक मन केवल खाली मंदिरों को ही जानता है। वह उस सम्बन्ध में पूरी तरह भूल चुका है कि इन मंदिरों में कौन सूक्ष्म रूप से सुरक्षित है। इसलिए हम लोग मंदिरों में पूजा किए चले जाते हैं लेकिन वहां परमात्मा जैसी दिव्यता को भूल गये हैं। जीवन के केंद्र के बारे में कुछ भी न जानते हुए हम लोग परिधि पर ही घूमते हुए ही संतुष्ट हो जाते हैं।

अमरीकन अपने शरीर का शरीर की ही भांति मूल्यांकन करते हुए उसी से बंधे रहते हैं, जब कि बाउल अपने शरीर को परमात्मा का मंदिर मानते हुए उसकी पूजा करते हैं। शरीर अपने आपमें कुछ भी नहीं है। शरीर के पार किसी और चीज के कारण ही वह प्रकाशवान है। शरीर की गरिमा और गौरव शरीर में नहीं है। वह तो मेजबान है। उसका सौंदर्य तो उसमें रहने वाले अतिथि के कारण है। यदि तुम मेहमान को भूल जाओ तो शरीर केवल कामनाओं को तुष्ट करने वाला ही बनकर रह जाता है। यदि तुम सदा मेहमान का स्मरण करते हो तब शरीर को प्रेम करना, शरीर के द्वारा उत्सव आनंद मनाना, पूजा करने का एक भाग बन जाता है।

बाउलों की दृष्टि बहुत व्यापक और विराट है। उनकी दृष्टि में शरीर सबसे निम्र तल, सबसे अधिक दृश्य भाग है, सबसे अधिक वास्तविक और स्पर्श कर महसूस करने वाला भाग लेकिन यही सब कुछ नहीं है, यह तो केवल प्रारम्भ है। तुम्हें शरीर के द्वारा ही अंदर प्रवेश करना होता है, यह तो ठीक एक द्वार है। यह तुम्हें गहरे रहस्यों में ले जाता है। बाउल शरीर को मूल्य समझता है क्योंकि वह

भाषाओं और आशाओं को धारण कर उसे वाहन बनाता है और शरीर के द्वारा ही कोई व्यक्ति यह जान सकता है कि जो भावों और विचारों को साकार रूप देता है वह केवल मात्र शरीर ही नहीं है। शरीर तो मिट्टी के दीये की भांति है, परमात्मा जिसकी ज्योति है। एक बार ज्योति बुझ जाये फिर कौन शरीर की पूजा करता है, कौन उसके द्वारा उत्सव आनंद मना सकता है? तब वह कुछ भी नहीं है, तब मिट्टी की देह मिट्टी में मिल जाती है, वह वापस पृथ्वी में ही मिल जाती है।

परमात्मा के साथ ही शरीर में धड़कन होती है, परमात्मा के साथ ही नाड़ी चलती है। यदि तुम नाड़ी में स्पन्दित जीवन को समझ सकते हो, तब धूल या मिट्टी भी दिव्य हो जाती है। यदि तुम नाड़ी में स्पन्दित जीवन को नहीं समझ सकते, तो केवल धूल ही है। तब वहां उसका कोई अर्थ रह ही नहीं जाता।

अमेरिकन लोग जिस तरह शरीर की अत्यधिक देखभाल करते हैं, वह अर्थहीन है। वे लोग स्वस्थ रहने के लिए अच्छे भोजन और मालिश पर जोर देते हैं। रॉल्फिग और हजार तरह से अपने जीवन में कुछ अर्थ सृजित करने का प्रयास करते हैं। लेकिन जरा उनकी आंखों में झांको, वहां एक गहरी रिक्तता है। तुम उन्हें देख कर ही समझ सकते हो कि वे ही कहीं चूक रहे हैं। वहां कोई सुवास है ही नहीं, उनके जीवन पुष्प की खिलावट हुई ही नहीं। उसके अंदर गहरे में सब कुछ केवल मरुस्थल जैसा है, जैसे उन्होंने सब कुछ खो दिया है और वे नहीं जानते कि अब किया क्या जाये। वे फिर भी अपने शरीर सुख के लिए बहुत सी चीजें किए चले जाते हैं, लेकिन यह लक्ष्य से चूकने जैसा है।

 

मैंने एक घटना के बाबत सुना है

रोजेनफेल्ड अपने दांत दिखाते और मुस्कराते हुए घर में प्रवेश करते ही अपनी पत्नी से बोला—’‘ तुम उनका अनुमान भी नहीं लगा सकतीं जो कुछ मोलभाव कर मैं आज लाया हूं। मैंने आज चार पोलिस्टर और स्टील के तारों वाले, किसी भी दिशा में आसानी से मुड़ने वाले रबड़ की कोटिंग चढ़े, अंदर से सफेद रंग से पेंट किए हैवी डयूटी वाले क्या शानदार टायर खरीदे हैं?”

श्रीमती रोजेनफेल्ड ने कहा—’‘ कहीं तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया? आखिर तुमने टायर खरीदे किसके लिए? तुम्हारे पास कार तो है ही नहीं।’’

रोजेनफील्ड ने उत्तर दिया—’‘ ठीक उसी तरह जैसे तुम चोलिया खरीदती हो, क्या तुम्हारी छातियों में उभार हैं?”

 

यदि केंद्र से ही तुम चुके जा रहे हो तब तुम भले ही परिधि को कितना भी सजाओ। इससे दूसरे तो धोखा खा सकते हैं लेकिन वे तुम्हें संतुष्ट नहीं कर सकते। वे कभी—कभी तुम्हें भी धोखे में डाल सकते हैं, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने ही झूठ को बार—बार दोहराता रहे तो सच जैसा लगने लगता है। लेकिन वह तुम्हें अंदर से पूरी तरह संतुष्टि नहीं दे सकता। अमेरिकन जीवन का मजा लेने के लिए हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं, लेकिन फिर भी आनंद मिलता दिखाई नहीं देता। बाउल जीवन से मजे लेने की कोशिश नहीं कर रहा है। वह कुछ प्रयास कर ही नहीं रहा, वह केवल उसका आनंद ले रहा है और उसके पास मजे लेने के लिए कुछ है ही नहीं—वह तो तो बस सड़क का भिखारी है, लेकिन उसके पास कुछ चीज आंतरिक है, कुछ अज्ञात दीप्ति उसे चारों ओर से घेरे रहती है। उसका गीत केवल मात्र गीत ही नहीं है उसमें कुछ स्वाद और सुवास उस पार का भी उतर आता है। जब वह नाचता है, तो उसका केवल शरीर ही नहीं घूमता, कुछ चीज उसके अंदर गहरे में भी नाचती है। वह आनंद लेने की कोशिश कर नहीं रहा है। आनंद स्वयं घट रहा

इसे स्मरण रखें। जब कभी भी तुम आनंद लेने की कोशिश कर रहे हो, तुम चूकोगे। जब तुम प्रसन्नता प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हो, तुम चूकोगे ही। प्रसन्नता करने का प्रयास ही व्यर्थ है, क्योंकि प्रसन्नता यहां है ही, तुम उसे प्राप्त नहीं कर सकते। इस बारे में कुछ करने की जरूरत है ही नहीं, तुम्हें बस उसे स्वयं से होने देना है। वह तुम्हारे चारों ओर अपने आप घट ही रही है। तुम्हारे अंदर, तुम्हारे बाहर, केवल प्रसन्नता ही है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी वास्तविक और सत्य नहीं है। निरीक्षण करो, संसार में गहरे उतर कर देखो, वृक्षों में पक्षियों में चट्टानों में बहती नदियों में, चमकते सितारों चांद और सूरज में, मनुष्यों और जानवरों में जरा गहरे झांक कर देखो, अस्तित्व जिस सामग्री से बना हुआ है वह है, प्रसन्नता, आनंद, सत—चिंतत, आनंद। वह परमानंद से ही ओतप्रोत है। उस सम्बंध में कुछ भी करने की जरूरत है ही नहीं। तुम्हारा कुछ करना ही अवरोध होगा। विश्रामपूर्ण रहो और वह तुम्हें आनंद से भर देगी, परम विश्राम में ही,वह तुम्हारे अंदर वेग से प्रविष्ट होती है, विश्राम करो, और वह अतिरेक से प्रवाहित होने लगती है।

बाउल विश्राममय है, और अमेरिकन तनाव में है। तनाव तभी उत्पन्न होता है, जब तुम किसी चीज का पीछा करते हो, और विश्राम तब घटित होता है जब तुम किसी चीज को प्रविष्ट होने की अनुमति देते हो। इसी वजह से मैं कहता हूं कि उसमें बहुत बडा फर्क है, और वह फर्क है गुणात्मक। यह प्रश्न मात्रा का नहीं है कि बाउलों के पास अमेरिकन लोगों से कुछ अधिक है, अथवा अमेरिकन लोगों के पास बाउलों की अपेक्षा कुछ कम है। नहीं, अमेरिकन लोगों के पास प्रसन्नता जैसा कुछ भी नहीं है, जो बाउलों के पास है, और अमरीकन लोगों के पास है ही क्या पीड़ाएं तनाव दुख और मानसिक विक्षिप्तता, और यह बाउलों के पास नहीं है। ये लोग तो पूरी तरह से भिन्न एक दूसरे ही आयाम में रहते हैं। बाउल का आयाम है— ” यहीं और अभी किन्तु अमरीकन का आयाम है—’ कहीं और ‘—’ तब और वहां ‘ लेकिन यहां और अभी ‘ कभी नहीं।’’

अमेरिकन पीछा कर रहा है, भागते हुए उसे पकड़ लेना चाहता है, जीवन से कुछ चीज पाने को सख्त कोशिश कर रहा है और उसका प्रयास है कि जीवन से सभी कुछ निचोड़ लिया जाये। लेकिन इससे कुछ भी तो नहीं मिलता, क्योंकि यह इसका तरीका ही नहीं है।

तुम जीवन से कुछ निचोड़ नहीं सकते, तुम्हें उसके प्रति समर्पण करना है। तुम जीवन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते। तुम्हें जीवन से हारने के लिए काफी साहसी बनना होगा। वहां पराजय ही विजय है, और जीतने के प्रयास से और कुछ सिद्ध होने नहीं जा रहा है, सिवाय अंतिम रूप से तुम्हारी हार और सफलता के।

जीवन पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती, क्योंकि खण्ड अखण्ड को जीत नहीं सकता। यह ठीक इसी तरह है जैसे मानो पानी की एक छोटी सी बूंद सागर पर विजय प्राप्त करने का प्रयास कर रही हो। हां छोटी सी बूंद सागर में गिरकर सागर तो बन सकती है, लेकिन वह सागर को जीत नहीं सकती। वास्तव में, सागर में गिरकर, उसमें खो जाना ही जीतने का तरीका है। अपने आप को विसर्जित कर दो। बाउल वही है, जो जीवन के सागर में घुल गया। उसने जीवन से पूरे हृदय से ‘ हां ‘ की, उसे स्वीकार किया। वह उससे कोई भी चीज निचोडने की कोशिश नहीं कर रहा है। वह बस प्रतीक्षा करता है निष्क्रिय, सजग बनकर, उपलब्ध रहता है। जब परमात्मा उसका दरवाजा खटखटाता है। उसका द्वार हमेशा खुला ही रहता है, सब कुछ केवल इतना ही है।

वह परमात्मा का पीछा नहीं कर रहा है। वह पीछा कर ही कैसे सकता है? हम उसे कहां, किन रास्तों पर और किस तरह खोज सकते हैं? या तो वह हर जगह है अथवा वह कहीं भी नहीं है। तुम परमात्मा की ओर से जीवन को सम्बोधित नहीं कर सकते। तुम उसमें से कोई लक्ष्य नहीं बना सकते। वह अखण्ड है। अखण्ड को लक्ष्य बनाया हीं नहीं जा सकता। तुम जहां कहीं भी दृष्टि उठाते हो, वह है। तुम जो कुछ करते हो, तुम उसमें होते हुए ही करते हो। जब तुम दुखी भी होते हो, तुम उसमें रहते हुए ही दुखी होते हो तुम दुख और वेदना में भी उसे कभी खोते नहीं हो। तुम उसे खो भी नहीं सकते। वह, जो खो सकता है, वह परमात्मा है ही नहीं। यही कारण है कि बाउल परमात्मा को ‘आधार—मानुष’ कहते हैं—सारभूत मनुष्य—सारभूत परम—चेतना। वह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण और सारभूत है कि तुम उसे खो ही नहीं सकते। वही तुम्हारा आधार है, वही तुम्हारा अस्तित्व है। वह अपने शरीर में उत्सव आनंद मनाता है क्योंकि वह जानता है कि कोई एक है, जो उसके पार है, वह शरीर में ही अतिथि बनकर रह रहा है। शरीर ही उसका घर है, वह ही उसका मंदिर है। लेकिन वह खाली नहीं है। वह प्रकाश से आलोकित है, वह जीवन से भरपूर है और वहां ‘ परमात्मा ‘ विराजमान है। यह अनुभव करते हुए ही वह नाचता है, यह महसूस हुए ही वह गीत गाता है, यह अनुभव करते हुए ही मुस्कराता और रोता है और ढलकते अश्रुओं से उसका चेहरा भीग जाता है। यह चमत्कार देखकर ” मैंने उसे अर्जित नहीं किया और वह यहां है मैंने उसे खोजा भी नहीं और वह यही है, और मैंने उससे कुछ मांगा ही नहीं है और फिर भी यह यहां है ” उसके अंदर एक महान और अत्यधिक कृतज्ञता जन्मती है और इसी कारण बाउल नृत्य करता है।

अब मैं यह कहूंगा ही: अमेरिकन प्रसन्नता पाने और खोजने की कोशिश कर रहा है, इसीलिए उसका शरीर के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध और तादात्म्य है। उसके विचार ने उसे लगभग आक्रान्त कर दिया है। वह सम्बन्ध और आसक्ति की सीमाएं लांघ कर आवेशित हो गया है, और निरंतर शरीर के बारे में ही सोचता रहता है। यह करूं और वह करूं और सभी तरह की हर चीज आजमाऊं। वह शरीर के माध्यम से ही प्रसन्नता पाने का हर सम्भव प्रयास कर रहा है, और यह सम्भव नहीं है।

बाउल ने उसे प्राप्त किया है। उसने ‘ उसे ‘ अपने अंदर पहले ही देखा है, महसूसा है। उसने अपने ही शरीर में उसे गहरे झांक कर देखा है, मालिश के द्वारा नहीं, राल्फिंग के खेल के द्वारा नहीं,चंदन के सुवासित स्नान से नहीं। उसने प्रेम और ध्यान के द्वारा ही उसका अनुभव किया है, उसे वहां अपने अंदर पाया है और उस खजाने को अंदर ही छिपा पाया है। इसीलिए वह शरीर की पूजा करता है, इसीलिए वह शरीर की देखभाल करता है। क्योंकि यह शरीर ही उस दिव्यता का वाहन है।

क्या कभी तुमने इस बात का निरीक्षण किया है कि एक स्त्री जब गर्भवती होती है तो वह किस तरह चलती है। क्या तुमने एक स्त्री के चेहरे पर होने वाले उस रूप और आकृति के परिवर्तन को देखा है, जब वह गर्भवती बनती है। उसका चेहरा, आशापूर्ण नवजीवन और नई संभावना से स्पंदित होता है, उससे जैसे एक आलोक झरता रहता है।

जरा ‘ प्रफुल्ल ‘ की ओर देखो, अब वह गर्भवती है। जरा उसके चेहरे की ओर देखो—कितनी आकृति बदल गई है उसकी, वह कितनी प्रसन्न दिखाई देती है। वह अपने साथ एक महान सम्पत्ति, एक खजाना लिए चल रही है। उसके द्वारा एक नवजीवन का सृजन होने जा रहा है। वह बहुत सावधानी से चलती है, देखभाल कर आगे बढ़ती है। चूंकि वह गर्भवती है। इसलिए उसमें एक गरिमा और गौरव का जन्म हुआ है। अब वह अकेली नहीं है उसका शरीर एक मंदिर बन गया है। यह तुम्हारे लिए समझने जैसा है।

फिर उस बाउल के बारे में क्या कहा जाए? उसके अंदर वहां परमात्मा है। दिव्यता उसके गर्भ में है। वह प्रकाश से आलोकित हो रहा है। वह नाचता है और गीत गाता है। कुछ भी पास न होते हुए भी उसके पास सभी कुछ है, कुछ भी पास न होते हुए भी, वह संसार भर में सबसे अधिक धनी व्यक्ति है। एक तरह से वह सड़क का एक भिखारी है, और दूसरी तरह से वह सम्राट है। इसी के कारण उसके अंदर वह घटना घटी है कि वह उसके प्रति सजग हो गया है। वह अपने शरीर के साथ अति आनंदित है, वह अपने शरीर की देखभाल करता है और उससे प्रेम करता है। यह प्रेम पूरी तरह से भिन्न है।

और दूसरी बात यह है कि अमेरिकन का मन प्रतियोगी है। कोई जरूरी नहीं है कि वास्तव में तुम शरीर से प्रेम करते ही हो, तुम दूसरों के साथ केवल प्रतियोगिता कर रहे हो। क्योंकि जो कुछ दूसरे लोग कर रहे हैं, तुम्हें भी वही सब कुछ करना है। अमरीकी मन सबसे अधिक उथला और महत्त्वाकांक्षी मन है और ऐसा मन संसार में आज तक किसी और का नहीं रहा। यह बुनियादी रूप से वह पूरी तरह सांसारिक मन है। यही कारण है कि अमेरिका में व्यापारी सर्वोच्च वास्तविकता बन चुका है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक चीज पृष्ठभूमि में जाकर धुंधली हो चुकी है, व्यापारी व्यक्ति ही जो धन का नियंत्रण करता है वह ही एकमात्र सर्वोच्च वास्तविकता है।

भारत में ब्राह्मण ही सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित थे वे परमात्मा के खोजी थे। योरोप में आभिजात्य वर्ग का सर्वोच्च स्थान था। वे लोग सुसंस्कृत, सजग, जीवन की कोमल और सूक्ष्म भावों के मर्मज्ञ, संगीत, कला, कविता, मूर्तिकला स्थापत्य कला, शास्त्रीय नृत्यों तथा ग्रीक और लैटिन भाषाओं के जानकार थे। जो अभिजात्य वर्ग था, उसे सदियों से जीवन के उच्च मूल्यों की स्थापना के लिए अनुशासन और आदतों के एक ढांचे में ढाला गया, और वही योरोप की सर्वोच्च वास्तविकता थी। सोवियत रूस में शोषित कुचले पददलित और सर्वहारा वर्ग का मजदूर ही सर्वोच्च वास्तविकता है। अमेरिका में यह स्थान व्यापारी को प्राप्त है। जो धन पर नियंत्रण रखता है। धन ही सबसे अधिक प्रतियोगिता का क्षेत्र है। तुम्हें कला संस्कृति की कोई जरूरत नहीं है जरूरत है केवल धन की। तुम्हें संगीत और कविता के बारे में जानने की जरूरत नहीं है, तुम्हें प्राचीन साहित्य, इतिहास, धर्म और दर्शनशास्त्र के बारे में जानने की भी कोई जरूरत नहीं है। यदि तुम्हारे बैंक खाते में एक बड़ी धनराशि जमा है, तुम महत्वपूर्ण व्यक्ति हो। इसी वजह से मैं कहता हूं कि अभी तक पूरे विश्व में जितनी भी तरह के भी मन हैं, उनमें अमरीकी मन सबसे अधिक उथला है और इस मन ने हर चीज व्यापार की ओर मोड़ दी है। मन निरंतर एक प्रतियोगिता में व्यस्त है। यदि तुम वान गाग या पिकासो का कोई चित्र भी खरीदते हो, तो तुम उसे पिकासो के कारण नहीं खरीदते, तुम इसलिए उसे खरीदते हो, क्योंकि उसके चित्रों को पड़ोसियों ने खरीदा है। चूंकि उनके ड्राइंगरूम में पिकासो की पेंटिंग टंगी है, इसलिए तुम भी उसे रखने के लिए धन खर्च क्यों नहीं कर सकते? तुम्हारे पास भी होना ही चाहिए। तुम भले ही उसके बारे में कुछ भी न जानते हो। तुम भले ही यह भी न जानो कि उसे कैसे टांगा जाए उसके ऊपर और नीचे का भाग कौन सा है। क्योंकि जहां तक पिकासो का संबंध है, यह जानना कठिन है कि उसका चित्र उल्टा लटका है या सीधा? तुम्हें यह जानने की जरूरत नहीं है कि वह अधिकृत रूप से पिकासो की ही पेंटिंग है अथवा नहीं, लेकिन क्योंकि वह दूसरों के पास है और वे लोग पिकासो के बारे में बातचीत करते हैं, इसलिए तुम्हें भी अपना कला संस्कृति का प्रदर्शन करना ही है। लेकिन तुम केवल अपने धन का ही प्रदर्शन कर रहे हो। इसलिए जो कुछ भी कीमती होता है वही महत्त्वपूर्ण बन जाता है, वह चाहे कितना भी कीमती क्यों न हो, उसी के बारे में यह सोचा जाता है कि वही महत्त्वपूर्ण है।

ऐसा लगता है कि जैसे केवल धन और पड़ोसी ही प्रत्येक चीज को तय करने वाले मापदण्ड बन गए हैं, उनकी कारें, उनकी कोठियां, बंगले, उनकी पेंटिंग्स और उनके घरों की साज सज्जा। लोगों के पास सुंदर भव्य स्नानघर है, जिनमें सुवासित स्नान करने की व्यवस्था है, क्योंकि वे अपने शरीर से प्रेम करते हैं। वह आवश्यकता के रूप में जरूरी नहीं है, बल्कि वह एक ऐसी चीज है, जो घर के अंदर इसलिए होनी चाहिए क्योंकि वह प्रत्येक धनी व्यक्ति के पास है। यदि वह तुम्हारे पास नहीं है तो तुम्हें लगता है कि तुम निर्धन हो। यदि प्रत्येक धनी व्यक्ति की एक कोठी पहाड़ों पर है, तो तुम्हारी भी वहां एक होनी चाहिए। तुम भले ही यह न जानते हो कि पहाड़ों पर आनंद कैसे लिया जाता है। तुम हो सकता है वहां बोरियत का ही अनुभव करते हो अथवा तुम अपना टीवी. और रेडियो भी वहां ले जाते हो और ठीक उसी तरह सुनते हो, जैसे रेडियो को तुम अपने घर पर सुना करते थे और टीवी. के वही कार्यक्रम देखते हो, जैसे घर में देखा करते थे। इससे क्या फर्क पड़ता है, कि तुम कहां बैठे हुए हो, पहाड़ पर अथवा अपने घर के कमरे में? लेकिन चूंकि दूसरों के पास ऐसा है…….। चार कारों को रखने वाला गैरेज चाहिए तुम्हें, क्योंकि वैसे दूसरों के पास हैं। तुम्हें भले ही चार कारों की जरूरत भी न हो।

अमरीकी मन निरंतर दूसरों से प्रतियोगिता करने में लगा हुआ है। बाउल किसी का प्रतियोगी नहीं है। उसने प्रतियोगिता करना ही छोड़ दिया है। वह कहता है—’‘ मेरा इसके साथ कोई सम्बंध ही नहीं रह गया है कि दूसरे लोग क्या कर रहे हैं, मेरा सम्बंध स्वयं अपने से हैं कि मैं क्या हूं? मुझे इससे कोई मतलब ही नहीं कि दूसरों के पास क्या है, मेरा सम्बंध केवल अपने से ही है कि मेरे पास क्या है?” एक बार तुम इस तथ्य को समझ तो, तो जीवन बिना बहुत सी चीजों के ही आनदपूर्ण हो सकता है। तब उन चीजों की फिक्र करता कौन है?

यही सभी अंतरों में मूल अंतर है, भारत के त्यागी संन्यासियों और बाउलों के मध्य। बाउल भिखारी हैं, जैनियों के साधू भी भिखारी हैं, लेकिन दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। जैन मुनियों के पास अमरीकी मन है। उन्होंने बहुत अधिक श्रमपूर्ण प्रयास करने के बाद संसार का त्याग किया है, क्योंकि उनके विचार में उस दूसरे संसार को प्राप्त करने और नैतिक गुणों को अर्जित करने का केवल यही एक तरीका है। लेकिन ये लोग रहे व्यापारी ही। जैन भारत के सबसे बड़े और समृद्ध व्यापारी हैं। इसी वजह से मैं कहता हूं कि उनके पास एक अमरीकी मन है। उनके संन्यासी भी उन्हीं जैसे हैं।

बाउलों का त्याग पूरी तरह भिन्न है। उन्होंने यह संसार किसी दूसरे संसार को पाने के लिए नहीं छोड़ा है। उन्होंने धन सम्पत्ति इकट्ठा करने की बेवकूफी को देखते और समझते हुए उसे एक अनावश्यक बोझ मानते हुए ही इस संसार का त्याग किया है। उन्होंने यह समझ कर त्याग किया है कि तुम बहुत सी चीजों के बिना इतने अधिक प्रसन्न कैसे बने रह सकते हो, फिर उन चीजों को साथ ढोकर क्यों चला जाए? उन्हें साथ लिए चलने से उत्कंठा और व्यग्रता उत्पन्न होती है, जो तुम्हें बोझिल बनाती है और तुम्हारे परमानंद को नष्ट करती है। जैन मुनि दूसरे संसार के बारे में मोक्ष और स्वर्ग के बारे में सोचते हैं।

बाउल किसी दूसरे संसार के बारे में फिक्र करता ही नहीं। वह कहता है— ” केवल यही एक संसार है। लेकिन तभी तथ्यों और बातों को समझ कर उसने एक साधारण सा सत्य जाना है, कि तुम्हारे पास जितना अधिक होगा, तुम्हें उतना ही कम आनंद मिलेगा। क्या तुम इसे नहीं समझ पाते? यह जीवन का साधारण सा गणित है। जितना अधिक तुम्हारे पास होगा तुम उतना ही कम आनंद पा सकोगे, क्योंकि तुम्हारे पास आनंद मनाने का समय होगा ही नहीं। पूरा समय रखने रखाने में चला जाएगा। यदि तुम्हारे पास बहुत सी चीजें होंगी तो तुम ढेर सारी चीजों में ही व्यस्त रहोगे। तुम्हारे अंदर का स्थान भी घिरा हुआ है। आनंद मनाने के लिए तुम्हें थोड़े से रिक्त स्थान की जरूरत है, आनंद मनाने के लिए तुम्हें थोड़ा भारमुक्त होने की जरूरत है, तुम्हें अपने धन सम्पत्ति और वस्तुओं को मूलने की जरूरत है और केवल होना भर है।’’

बाउल जीवन से प्रेम करते हैं, इसीलिए वह सभी कुछ छोड़ते हैं। जैन मुनि जीवन से घृणा करते हैं और इसी कारण वे संसार का त्याग करते हैं। इसलिए कभी— कभी भावाभिव्यक्ति और मुद्राएं एक जैसी लगती है लेकिन जरूरी नहीं कि वे एक जैसी हों। आंतरिक महत्त्व पूरी तरह भिन्न हो सकता है।

 

मैंने सुना है:

वृद्ध ल्‍यूक और उनकी पत्नी का जोड़ा पूरी घाटी में व्यंग्यवाण छोड़ने के लिए जाना जाता था। ल्‍यूक के मरने के कुछ ही महीनों बाद उनकी पत्नी भी मृत्यु शैय्या पर पड़ी थी। उन्होंने अपनी पड़ोसिन को बुलाकर धीमी व कमजोर आवाज में कहा—’‘ रूढ़ी! मुझे मरने पर मेरी काली सिल्क के ड्रेस के साथ मुझे दफनाना, पर ड्रेस पहनाने से पहले उसके पीछे का भाग काट देना। और उस कपड़े से एक नई ड्रेस बना लेना, क्योंकि इस ड्रेस का कपड़ा बहुत अच्छा और महंगा है और उसे बरबाद करने से मुझे घृणा है।’’

रूढ़ी ने कहा—’‘ यह मुझसे न हो सकेगा। जब आप और ल्‍यूक स्वर्ग की सोने की सीढ़ियों पर चढ़ेंगे तो आपकी ड्रेस में पीछे का भाग न होने पर आखिर देवदूत क्या कहेंगे?”

उसने कहा—’‘ वे मेरी ओर नहीं देख रहे होंगे। मैंने ल्‍यूक को बिना पतलून पहनाए दफन किया था।’’

 

सम्बध हमेशा दूसरे से है— ” ल्‍यूक बिना पतलून के होंगे, इसलिए प्रत्येक उन्हें देख रहा होगा। अमरीकी का सम्बंध भी दूसरे के ही साथ है।’’

बाउल का सम्बंध बस स्वयं से ही होता है। इन अर्थों में बाउल बहुत स्वार्थी है। वह तुम्हारे बारे में फिक्र करता ही नहीं, वह किसी भी चीज के बारे में भी फिक्र नहीं करता, जो तुम्हारे पास है अथवा न उस चीज के बारे में कि तुमने उसके साथ कैसा व्यवहार किया। वह तुम्हारी जीवन गाथा के साथ कोई सम्बंध रखता ही नहीं। वह इसी पृथ्वी पर ऐसे रहता है, जैसे मानो वह अकेला हो। वास्तव में उसके पास और उसके चारों ओर बहुत विराट स्थान है, क्योंकि वह इसी पृथ्वी पर यों रहता है, जैसे मानो वह अकेला ही। वह इस पृथ्वी पर बिना दूसरों से कोई सम्बंध रखे और दूसरे लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं, इसकी फिक्र किए बिना घूमता है। वह अपना जीवन अपनी तरह से जीता है वह अपना ही काम करता है और वह उसे अपने अस्तित्व के लिए ही कर रहा है। वास्तव में वह एक छोटे बच्चे की भांति आनंदित है। उसकी खुशी बहुत साधारण और निर्दोष है। वह चतुराई या व्यवस्था से उत्पन्न नहीं हुई। वह बहुत सहज, सरल सारभूत और बच्चे जैसी मौलिक है।

क्या तुमने कभी किसी बच्चे को बस दौड़ते हुए चीखते चिल्लाते हुए अथवा बिना किसी बात के लिए अकारण नाचते हुए देखा है, क्योंकि उसके पास कुछ भी तो नहीं है? यदि तुम उससे पूछो—’‘ तुम इतने खुश क्यों हो?” तो वह तुम्हारे उत्तर देने में समर्थ न हो सकेगा वह वास्तव में यही सोचेगा कि तुम पागल हो। क्या खुश होने के लिए भी वहां किसी कारण की कोई जरूरत है? उसे तो इसी बात से चोट लगेगी कि यह क्यों शब्द उत्पन्न ही क्यों हुआ?

वह अपने कंधे उचकायेगा और अपने रास्ते आगे बढ़ते हुए फिर से नाचना और गाना शुरू कर देगा। बच्चे के पास कुछ भी तो नहीं है। वह अभी कहीं का न तो प्रधानमंत्री है, न अमेरिका का अध्यक्ष है और न रॉकफेलर जैसा धनी है। उसके पास कुछ भी तो नहीं है, हां थोड़े से शंख, सीपी अथवा थोड़े से पत्थर हो सकते है, जो उसने सागर तट से बटोरे हैं, बस सब कुछ यही उसकी सम्पत्ति है।

सब कुछ यही तो रखते हैं बाउल अपने पास थोड़े सी सीपिया, थोड़े से रंगीन पत्थर वे इन पत्थरों को पिरोकर एक माला बना लेंगे और पहन लेंगे, एक छोटा सा वाद्ययंत्र गीत गाने को, कुछ घंटियां अपने अंतर्तम के परमात्मा को बजाकर रिझाने के लिए एक तार वाला छोटा इकतारा क्योंकि एक तार ही काफी है उनके लिए और एक छोटी सी डुग्गी या ढफली, बस इतना ही सब कुछ।

एक बाउल संसार के बिना कोई नाता जोड़े हुए ही चैन से सोता है। वह संसारे से कोई नाता जोड़े बिना ही घूमता है। उसका परमात्मा हमेशा उसके ही साथ रहता है, इसलिए वह जहां कहीं भी होता है, वहीं उसका मंदिर और तीर्थ होता है। वह कभी किसी मंदिर में नहीं जाता, ऐसा नहीं कि वह उसके विरुद्ध है। वह कभी किसी मस्जिद में भी नहीं जाता, ऐसा नहीं कि वह उसके खिलाफ है। वह असली मंदिर तक आ पहुंचा है और अब उसे कहीं और जाने की कोई जरूरत ही नहीं। प्रेम, उसकी प्रार्थना और उसकी पूजा सारभूत अस्तित्व की ही है, कि ‘ वह ‘ है।

बाउल का जीवन मृत्यु होने पर समाप्त नहीं हो जाता, जब कि अमरीकन के मरते ही उसके जीवन का अंत हो जाता है। जब शरीर मर जाता है अमरीकन का अंत हो जाता है। इसीलिए अमेरिकन मृत्यु से बहुत भयभीत हैं। अमेरिकन अपने जीवन को लम्बा बनाने के लिए हर तरह की कोशिश में लगे हुए हैं। कभी—कभी तो जीवन बढ़ाने के लिए वे व्यर्थ के प्रयास कर रहे हैं। अब वहां बहुत से अमेरिकन ऐसे हैं, जो अस्पतालों और मानसिक चिकित्सालयों में बस निष्क्रिय लेटे हैं। वे जीवित नहीं हैं, वे काफी पहले ही मर चुके हैं। डॉक्टरों ने दवाओं ने और आधुनिक साजो समान ने उनके साँस चलने की व्यवस्था भर कर दी है। किसी तरह वे केवल सांस की डोरी से हिलगे हुए हैं।

मृत्यु का इतना अधिक भय है कि उन्हें : एक बार यदि तुम गए तो हमेशा के लिए चले जाओगे, कुछ भी जीवित न बचेगा और जो व्यक्ति मृत्यु से भयभीत है वह जीवन से भी डरेगा, क्योंकि जीवन और मृत्यु दोनों एक दूसरे के इतने अधिक साथ हैं कि यदि तुम मरने से डर रहे हो तो तुम जीवन से भी भयभीत बने रहोगे।

यह जीवन ही है जो मृत्यु लाता है, इसलिए यदि तुम मृत्यु से डर रहे हो तो तुम वास्तव में जीवन से कैसे प्रेम कर सकते हो? भय तो वहां बना ही रहेगा। यह जीवन ही है जो मृत्यु लाता है, तुम उसे समग्रता से जी नहीं सकते। यदि मृत्यु प्रत्येक चीज को समाप्त कर देती है, यदि यही तुम्हारे विचार और समझ है तब तुम्हारा जीवन तेजी से आगे भागते हुए पीछा करने वाला जीवन जैसा बन गया है। क्योंकि मृत्यु आ रही है इसलिए तुम संतोषी बनकर बैठ नहीं सकते। इसीलिए अमेरिकन को रफ्तार का भूत सवार है। प्रत्येक चीज बहुत तेजी से करना है उसे, क्योंकि मृत्यु शीघ्र पहुंचने वाली है, इसलिए मृत्यु आये, इससे पूर्व ही जितनी अधिक से अधिक चीजों की व्यवस्था करने की कोशिश कर सको, जुटा लो। मरने से पहले अपने अस्तित्व को जितने अधिक से अधिक अनुभवों से गुजार सको, गुजारो और उन अनुभवों से उसे पूरी तरह भर दो, क्योंकि एक बार तुम मरे, तो बस मर ही गए। इससे एक बहुत बड़ी अर्थहीनता उत्पन्न होती है और वास्तविकता वेदना और व्यग्रता का जन्म होता है। यदि वहां कुछ भी ऐसा नहीं है जो शरीर को जीवित बनाये रख सके, तब तुम जो कुछ भी करते हो, वह बहुत गहरा नहीं हो सकता। तब तुम जो कुछ भी करो, वह तुम्हें संतोष नहीं दे सकता। यदि मृत्यु ही अंत है और कुछ भी जीवित नहीं रहता, तब जीवन का कोई अर्थ और महत्व नहीं रह जाता। तब वह एक मूर्ख की कही कहानी होती है—शोर और क्रोध से भरी हुई, जिसका कुछ भी मतलब नहीं होता है।

बाउल जानता है कि वह शरीर में है, लेकिन वह शरीर ही नहीं है। वह शरीर से प्रेम करता है, वह उसका घर है, उसका अपना आश्रय—स्थल उसका अपना मंदिर है। वह शरीर के विरुद्ध नहीं है, क्योंकि अपने ही घर के विरुद्ध होना मूर्खता है, लेकिन वह भौतिकतावादी नहीं है। वह जमीन से जुडा हुआ है, लेकिन पदार्थवादी नहीं है। वह बहुत सच्चा और वास्तविक है लेकिन वह यथार्थवादी नहीं है। वह जानता है कि उसे एक दिन मरना है लेकिन यहां कुछ भी नहीं मरता। मृत्यु आती है लेकिन जीवन चलता ही रहता है।

 

मैंने सुना है:

मुर्दे को दफन करने के सभी संस्कार पूरे होने के बाद कब्रिस्तान के केयर टेकर डेसमंड ने देखा कि एक काफी वृद्ध सज्जन उसकी बगल में ही खडे हुए हैं। उसने उनसे पूछा—’‘ क्या आप शोक—संतप्त परिवार के कोई सम्बंधी हैं?”

उस वरिष्ठ नागरिक और के व्यक्ति ने उत्तर दिया—’‘ हां! मैं सम्बंधी ही हूं उनका।’’

” आपकी आयु कितनी है?”

” चौरानवे वर्ष।’’

गला खखारते हुए डेसमण्ड ने कहा—’‘ फिर घर तक जाने का फेरा आपको बहुत महंगा पड़ेगा।’’

 

लोगों का सारा सोच विचार शरीरगत जीवन के बारे में ही है। यदि तुम चौरानवे वर्ष के हो, तो बात खत्म हो गई। तब घर वापस लौटना महंगा है, इससे अच्छा है, अभी मर जाओ। तुम्हें भी उस मुर्दे के साथ दफन कर दिया जाये। घर वापस लौटने की आखिर क्या तुक है क्योंकि तुम्हें शीघ्र यहां फिर वापस आना होगा। यह शरीर अब क्या दे सकता है…….? जब मृत्यु ही अंतिम सत्य है, तब तुम चौरानवे वर्ष के हो या चौबीस वर्ष के इससे क्या फर्क पड़ता है? तब अंतर केवल थोड़े से वर्षों का ही तो है। तब बहुत युवा भी का अनुभव करना शुरू कर देता है और बच्चा जन्म से ही मृत होने का अनुभव करने लगता है। एक बार तुम यह समझ जाओ कि शरीर ही केवल मात्र जीवन है, तब फिर उसका महत्त्व क्या रह जाता है? तब उसे ढोये चले जाने से होता क्या है?

कामू ने लिखा है कि मनुष्य के लिए आधारभूत सूक्ष्मतम समस्या—केवल आत्महत्या करना है। मैं उससे सहमत हूं यदि केवल शरीर ही पूरी वास्तविकता है, तब फिर तुम्हारे अंदर ऐसा कुछ भी नहीं है जो उसके पार हो, तब वास्तव में इस बात पर विचार करना बहुत महत्वपूर्ण हैं, उस पर चिंतन और ध्यान करना बहुत जरूरी है। फिर तुम आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते? चौरानवे वर्ष तक आखिर प्रतीक्षा क्यों करते हो? और फिर क्यों सभी तरह की पीड़ाएं और दुःख भुगतते हो? फिर क्यों इस तरह की समस्याओं का सामना करते हो? यदि कोई व्यक्ति मरने ही जा रहा है, फिर वह आज ही क्यों नहीं मर जाता? फिर क्यों कल सवेरे फिर जागना? यह सभी कुछ व्यर्थ दिखाई देता है।

इसलिए एक ओर तो अमरीकी मनुष्य निरंतर एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर दौड़ रहा है और किसी न किसी तरह अनुभवों को जैसे छीन लेना चाहता है, वह किसी की भांति किसी अनुभव से चूकना नहीं चाहता। वह पूरे विश्व में चारों ओर एक नगर से दूसरे नगर में एक देश से दूसरे देश में और एक होटल से दूसरे होटल में भागता फिर रहा है। वह एक चर्च से दूसरे पूजा घर में, एक गुरु से दूसरे गुरु के पास की खोज में भटक रहा है। क्योंकि मृत्यु चली आ रही है। एक ओर तो पागल की तरह निरंतर किसी के पीछे भागने की प्रवृत्ति और दूसरी और कहीं गहरे में एक चिंता और सोच कि यहां सभी कुछ व्यर्थ है क्योंकि मृत्यु सभी का अंत कर देगी इसलिए तुम भले ही समृद्धि भरा जीवन बिताओ या गरीबी में रहो, तुम चाहे बुद्धिमान बन कर रहो या मूर्ख बनकर, चाहे तुम एक महान प्रेमी बन कर रहो या प्रेम से चूक जाओ, आखिर इन सभी बातों से फर्क क्या पड़ता है?

अंत में मृत्यु आती है और प्रत्येक व्यक्ति को एक जैसा कर देती है बुद्धिमान और मूर्ख, संत और पानी, बुद्ध और बुद्ध सभी मिट्टी में मिलकर विलुप्त हो जाते हैं। इसलिए इन सभी चीजों की जरूरत क्या है? चाहे तुम बुद्ध या जीसस बनकर रहो या जुदास बनकर, आखिर इससे क्या फर्क पड़ता है? जीसस क्रॉस पर चढ़कर मर जाते हैं। जुदास अगले ही दिन आत्महत्या कर लेता है, दोनों ही पृथ्वी में समा जाते हैं।

इसलिए एक ओर तो यह भय है कि तुम चूक जाओगे और दूसरे लोग उसे प्राप्त कर लेंगे, और दूसरी ओर गहरे में यह चिंता भी है कि यदि तुमने उसे प्राप्त भी कर लिया, तो कुछ भी तो नहीं पाया। यदि तुम पहुंच भी गए तो भी तुम कहीं नहीं पहुंचते, क्योंकि मृत्यु आती है और प्रत्येक चीज को नष्ट कर देती है।

बाउल अपने शरीर में ही जीता है, अपने शरीर से प्रेम करता है, उत्सव आनंद मनाता है लेकिन यह शरीर नहीं है। वह उस सारभूत मनुष्य, उस ‘ आधार—मानुष ‘ को जानता है। वह जानता है वहां कुछ चीज उसके अंदर भी है, जो उसके मरने पर भी जीवित रहेगी। वह जानता है कि वहां उसमें कुछ चीज ऐसी है, जो शाश्वत है और समय भी उसे नष्ट नहीं कर सकता। ध्यान के द्वारा प्रेम और प्रार्थना के द्वारा वह इस अनुभव तक पहुंचा है। इसके द्वारा ही उसे अपने अंदर अस्तित्व में उसका अनुभव हुआ है। वह निर्भय है। वह मृत्यु से भयभीत नहीं है, क्योंकि वह जानता है कि जीवन क्या है और वह खुशी या आनंद के पीछे नहीं भाग रहा है, क्योंकि वह जानता है कि परमात्मा उसके पास आनंद मनाने के लाखों अवसर स्वयं भेज रहा है। उसे केवल उसे स्वीकार करना है।

क्या तुम यह देख सकते हो कि वृक्ष पृथ्वी में अपनी जड़े जमाये हुए हैं। वे कहीं और नहीं जा सकते और वे फिर भी प्रसन्न हैं। वे प्रसन्नता और आनंद के पीछे नहीं भाग सकते। निश्चित रूप से वे चलकर आनंद कहीं और खोज नहीं सकते। वे जड़ें जमाये जमीन पर खड़े हैं, वे चल फिर नहीं सकते, लेकिन क्या तुम उन्हें आनंद से झूमते हुए नहीं देखते। क्या तुम यह नहीं देख सकते कि जब मेह बरसता है तो खुशी से वे दीवाने हो जाते हैं, क्या तुम उनके अंदर उस संतोष और तृप्ति को नहीं देखते, जब तेज हवा में वे इधर से उधर शराबी की तरह झूमते हैं। क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि वे नाच रहे हैं?

अब नई खोजें यह बतलाती हैं कि जब माली वृक्षों और पौधों के निकट जाता है और क्योंकि वह उन्हें प्रेम करता है, तो उसके निकट आने पर वृक्ष और पौधे भी खुश होकर आनंद मनाते हैं। यदि तुम किसी वृक्ष से प्रेम करते हो और तुम उसके निकट जाओ तो वह खुशी मनाता है, जैसे मानो उसका कोई महान मित्र उसके पास आया हो। अब यहां इस बात की जांच करने के लिए वैज्ञानिक यंत्र भी है कि वृक्ष प्रसन्न है अथवा नहीं? एक भिन्न लय से वह स्पंदित होता है। जब उसका कोई शत्रु लकड़हारा या बढ़ई उसके निकट जाता है तो वृक्ष किसी उपद्रव होने की आशंका से बैचेन और भयभीत हो जाता है और जब तुम किसी वृक्ष को काटते हो, तो अब वैज्ञानिक बतलाते हैं कि उसके आसपास के वृक्ष भी रोते और चीखते हैं। केवल यह ही नहीं, कि तुम जिस वृक्ष को काटो तो केवल वही वृक्ष रोता या चीखता है, उसके आसपास के सभी वृक्ष रोते और चीखते हैं। और ऐसा केवल वृक्षों के साथ नहीं है, बल्कि यदि तुम एक पक्षी भी मारो, तो भी सभी वृक्ष रोना शुरू कर देते हैं सूक्ष्म आंसू महान पीड़ा और वेदना के रूप में चारों ओर फैल जाते हैं। लेकिन वे जड़ें जमाये थिर खड़े हैं, वे कहीं भी आते—जाते नहीं। फिर भी जीवन उनमें स्पंदित हो रहा है।

यही बाउलों की भी समझ है कि कहीं और जाने की कोई जरूरत नहीं। यदि तुम एक वृक्ष के नीचे बैठना शुरू कर दो, तो जैसा कि बुद्ध को घटा, परमात्मा स्वयं उनके पास चलकर आया। वह कहीं भी नहीं जा रहे थे, बस वृक्ष के नीचे केवल बैठे हुए थे।

तुम बस वह क्षमता और योग्यता उत्पन्न करो, सब कुछ आता है, तुम बस उसे आने की अनुमति दो। जीवन पहले ही से तुम्हें सब कुछ देने को तैयार बैठा है। तुम ही इतनी सारी बाधाएं खड़ी कर रहे हो, और सबसे बड़ी बाधा जो तुम उत्पन्न कर सकते हो, वह है उसका पीछा करना, उसके पीछे भागना। क्योंकि तुम्हारे भागने और पीछा करने से जब भी जीवन आकर तुम्हारा दरवाजा खटखटाता है, वह तुम्हें कभी वहां पाता ही नहीं। तुम हमेशा कहीं और ही रहते हो। जब जीवन तुम्हारे पास वहां पहुंचता है, तुम वहां से कहीं और चले गए होते हो।

‘ प्रफुल्ल ‘। तुम काठमाण्डू में थी, जब ‘ जीवन ‘ काठमाण्डू पहुंचता है तो तुम गोआ में होती हो। जब तुम गोआ में हो और ‘ जीवन ‘ किसी तरह गोआ पहुंचता है तुम पूना में होती हो। और जिस समय वह पूना आयेगा तुम फिलाडेल्फिया में होगी। इसलिए तुम ‘ जीवन ‘ का पीछा करती रहो और जीवन तुम्हारा पीछा किए जाता है और मुलाकात कभी घटती नहीं।

बस जहां हो, वहीं बने रहो, केवल होना भर रह जाये, प्रतीक्षा करो और धैर्यधारण करो।

 

दूसरा प्रश्न :

प्‍यारे ओशो! आपके पास आने से पहले, मैं बौद्धों का एक ध्यान ‘मैत्री भावना’ किया करता था। वह स्वयं अपने से ही बात करने से शुरू करना होता था—”मैं ठीक बना रहूं, मैं प्रसन्न बना रहूं, मैं किसी से दुश्मनी करने से मुक्त बना रहूं, मैं स्वयं विरुद्ध, रुग्ण इच्छा और भावना से मुक्त बना रहूं, ”इन भावों को अंदर गहरे में ले जाने से ये विचार, ध्यान का अगला— चरण उत्पन्न करते है, जिसमें मैं उन लोगों का खयाल करते हुए जिन्‍हें तुम प्रेम करते हो, उन तक यहीं शुभ भावना सम्प्रेषित करनी होती है? तब फिर तुम जिन व्यक्तियों से कम प्रेम करते हो, उन तक भी यही भाव सम्प्रेषित किए जाते हैं और यह तब तक करना होता है। जब तक तुम उन लोगों के लिए भी करुणा का अनुभव न करने लगो? जिनसे तुम घृणा करते हो।

इस ध्यान के द्वारा मुझे बहुत अच्छे अनुभव हुए, इसके द्वारा किसी तरह मैं दूसरों के लिए खुला और मैं अब भी यह अनुभव करता है कि उसमें वास्तव में कुछ बीज गहरी और आधारभूत है लेकिन जब मैं आपके सान्निध्य में आया तो मैने इस ध्यान को इसलिए करना छोड़ दिया क्योंकि मैंने इसमें एक तरह के आत्म सम्मोहन कर खतरा देखा।

मैं अब भी इस ध्यान का अनुभव करना चाहता हूं, लेकिन इस उलझन में हूं कि मुझे एक भिन्‍न रूप में इसे फिर से शुरू करना चाहिए अथवा इसका विचार ही छोड़ देना चाहिए।

क्या आप हम ध्यान के सम्बंध में मुझे बताने की अनुकम्पा करेंगे? मैं आपका बहुत कृतज्ञ होऊगा।

मैत्री भावना सबसे अधिक गहराई तक ले जाने वाले ध्यानों में से एक है। तुम्हें किसी भी तरह के आत्मसम्मोहन से भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह आत्मसम्मोहन है ही नहीं। वास्तव में यह एक तरह के सम्मोहन से वापस होने या मुक्त होने की प्रक्रिया है। यह सम्मोहन जैसी लगती जरूर है, क्योंकि यह सम्मोहन की उल्टी विधि है, तुम अपने घर से चलकर मेरे पास आ गए हो, तुमने पूरा रास्ता चलकर तै कर लिया है। अब तुम्हें वापस जाने के लिए उसी रास्ते पर चलना होगा। अंतर केवल इतना ही होगा कि अब तुम्हारी पीठ मेरी ओर होगी। रास्ता वही होगा, तुम भी वही होगे, लेकिन तुम्हारा चेहरा मेरी ओर था, जब तुम मेरी ओर आ रहे थे। अब तुम्हारी पीठ मेरी ओर होगी।

मनुष्य पहले ही से सम्मोहित है। प्रश्न उसके अब सम्मोहित किये जाने अथवा न किये जाने का नहीं है। तुम पहले से ही सम्मोहित हो। समाज की पूरी विधि ही एक तरह का सम्मोहन है।

किसी व्यक्ति से यह कहा जाता है कि तुम ईसाई हो और यह निरंतर इतनी बार दोहराया जाता है, कि उसका मन ईसाई अनुशासन और आदतों के ढांचे में आबद्ध अर्थात् कंडीशंड हो जाता है और वह सोचने लगता है कि वह एक ईसाई है। कोई व्यक्ति हिंदू है, कोई व्यक्ति मुसलमान है। यह सभी सम्मोहन हैं। यदि तुम सोचते हो कि तुम मुसीबत में हो, यह भी एक सम्मोहन है।

तुम पहले ही से सम्मोहित हो। यदि तुम सोचते हो कि तुम मुसीबत में हो। यह भी एक सम्मोहन है। यदि तुम सोचते हो कि तुम्हारी अनंत समस्याएं हैं, तो यह भी एक सम्मोहन है।

तुम जो कुछ भी हो, वह एक तरह का सम्मोहन है। समाज ने तुम्हें जो विचार दिए हैं और अब तुम उन विचारों और ‘ कंडीशनिंग ‘ से भरे हुए हो।

मैत्री— भावना, सम्मोहन से मुक्त करने का प्रयोग है। तुम्हारे मन को स्वाभाविक दशा में लाने और तुम्हें तुम्हारा मूल चेहरा वापस दिलाने का यह एक प्रयास है। यह तुम्हें उस बिंदु पर लाने का प्रयास है, जहां तुम जन्म लेने के समय थे और समाज ने तुम्हें भ्रष्ट नहीं किया था। जब एक बच्चा जन्म लेता है वह मैत्री भावना ही में रहता था। मैत्री— भावना का अर्थ है—मित्रता प्रेम और करुणा। जब एक बच्चा जन्म लेता है वह किसी घृणा को न जानकर, केवल प्रेम को जानता है। प्रेम के अंतर्निहित घृणा भी छिपी है यह वह बाद में सीखेगा। प्रेम में क्रोध भी छिपा है—यह वह बाद में सीखेगा। ईर्ष्या, मालकियत और किसी की उन्नति देखकर जलन, ये सभी कुछ वह बाद में सीखेगा। ये सभी वे चीजे हैं जो समाज उसे सिखायेगा: कैसे ईर्ष्यालु बना जाता है, कैसे घृणा की जाती है और कैसे क्रोध और हिंसा से भरकर पागल हुआ जाता है। ये सभी चीजें समाज द्वारा सिखाई जाएंगी।

जब बच्चे का जन्म होता है, वह केवल प्रेम ही होता है। उसे ऐसा होना ही होता है, लर’ .क्योंकि इसके अतिरिक्‍ति वह और कुछ जानता ही नहीं। वह मां के गर्भ में उसका सामना किसी शत्रु से हुआ ही नही। वह नौ माह तक गहरे प्रेम में ही रहा है, चारों ओर से प्रेम से घिरे हुए प्रेम से ही उसका पोषण हुआ है। वह किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता जो उससे शत्रुता रखता हो। वह केवल मां को जानता है और वह केवल मां के प्रेम को जानता है।

जब उसका जन्म हुआ, उसका पूरा अनुभव प्रेम का ही है, इसलिए तुम उससे यह आशा कैसे कर सकते हो कि वह कोई भी घृणा जैसी चीज भी जाने? यह प्रेम वह अपने साथ लेकर आता है, यह उसका मौलिक चेहरा है। बाद में वहां मुसीबतें भी आयेंगी, तब वहां बहुत से अन्य अनुभव भी होंगे। वह लोगों पर अविश्वास करना शुरू कर देगा। एक नया जन्म लेने वाला बच्चा केवल विश्वास के साथ ही जन्म लेता है।

 

मैंने सुना है:

एक व्यक्ति ने एक छोटे बच्चे के साथ एक नाई की दुकान में प्रवेश किया। जब उस व्यक्ति के बाल काट दिए गए दाढ़ी बनाकर उसका शैम्पू और पूरी साज सज्जा आदि पूरी हो गई, तो उसने अपनी कुर्सी पर बच्चे को बैठालते हुए नाई से कहा—’‘ मैं परेड के लिए एक हरी टाई खरीदने जा रहा हूं और कुछ ही मिनटों बाद वापस आ रहा हूं।’’

जब बच्चे के बाल काटे जा चुके और वह व्यक्ति फिर भी वापस नहीं लौटा तो नाई से उससे कहा—’‘ ऐसा लगता है तुम्हारे पिता तुम्हारे बारे में सब कुछ भूल ही गए।’’—’‘ वह मेरे डैडी नहीं थे।’’ बच्चे ने उत्तर दिया।

वह बस टहल रहे थे उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर मुझसे कहा—’‘ मेरे बच्चे! मेरे साथ आओ। हम लोग मुफ्त बाल कटवाने चल रहे हैं।’’

 

बच्चे विश्वास करते हैं, लेकिन ज्यों—ज्यों वे यहां ऐसे अनुभवों से गुजरेंगे, जिनमें वे धोखे खाएंगे, जिनमें वे मुसीबतों का सामना करेंगे, जिनमें उनका विरोध होगा और जो उन्हें भयभीत कर देंगे, तो धीरे— धीरे वे संसार की सभी चाल बाजियां सीख जाएंगे। कम या अधिक ऐसा ही यहां प्रत्येक व्यक्ति के साथ घटता है। अब यह मैत्री— भावना पुन: वही स्थिति सृजित कर रही है यह प्रति सम्मोहन है। यह घृणा को समाप्त करने का एक प्रयास है। यह क्रोध, ईर्ष्या और निर्लज्जता से मुक्त होकर संसार में पुन: नया बनकर वापस आने का प्रयास है, जैसे तुम संसार में उत्पन्न होने वाले प्रथम व्यक्ति हो। यदि तुम यह ध्यान—प्रयोग करते ही जाओ, तो पहले तो तुम स्वयं अपने से प्रेम करना शुरू करोगे, क्योंकि किसी और की अपेक्षा तुम स्वयं ही अपने सर्वाधिक निकट हो। तब तुम अपने प्रेम अपनी मित्रता, अपनी करुणा, अपनी भावनाओं, अपनी शुभेच्छाओं, अपने आशीर्वादों और आनंद को उन लोगों पर बरसा दो, जिन्हें तुम प्रेम करते हो, जो तुम्हारे मित्र और प्रेमी हैं। तब धीमे— धीमे तुम इन्हीं भावनाओं का और अधिक लोगों में प्रसार करो, उन लोगों पर भी जिन्हें तुम अधिक प्रेम नहीं करते, तब ऐसे लोगों पर जिनके प्रति तुम निरपेक्ष हो, न उन्हें प्रेम करते हो और न घृणा— और तब धीमे— धीमे उन लोगों तक प्रसारित करो, जिन्हें तुम घृणा करते हो। धीमे— धीमे तुम अपने आपको सम्मोहन से मुक्त कर रहे हो। धीमे— धीमे तुम अपने चारों ओर प्रेम का एक गर्भ निर्मित कर रहे हो।

जब एक बुद्ध बैठा होता है, अस्तित्व में विराजमान वह ऐसा लगता है, जैसे पूरा अस्तित्व ही फिर से उसकी मां का गर्भ बन गया हो। उसकी किसी से भी कोई शत्रुता नहीं होती, जैसे वह अपने मूल स्वभाव और प्रकृति को उपलब्ध हो गया हो। उसने उस ‘ सारभूत ‘ मनुष्य को जान लिया है। अब तुम भले ही उसके प्राण ले लो, पर तुम उसकी करुणा को नष्ट नहीं कर सकते।

मरते समय भी वह तुम्हारे प्रति करुणा से भरा हुआ होगा। तुम उसकी भले ही हत्या कर दो, लेकिन तुम उसकी आस्था को नष्ट नहीं कर सकते। अब वह जानता है कि आस्था कोई ऐसी मूल चीज है, जिसे एक बार यदि तुम उसे खो दो, तो तुम सभी कुछ खो देते है, और यदि तुम आस्था नहीं खोते और शेष हर चीज खो जाती है, फिर भी तुम कुछ भी नहीं खोते। तुम उससे प्रत्येक चीज ले सकते हो, लेकिन उसकी आस्था नहीं ले सकते।

मैत्री— भावना बहुत सुंदर ध्यान है तुम उसे कर सकते हो। उसे छोड़ देने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह अत्यंत सहायक सिद्ध होगा। वह तुम्हारा नव—निर्माण करेगा।

अहंकार बनता है घृणा शत्रुता और संघर्ष से। यदि तुम अहंकार छोडना चाहते हो। तो तुम्हें कहीं अधिक प्रेम भावना उत्पन्न करनी होगी। जब तुम प्रेम करते हो तो अहंकार विसर्जित हो जाता है। यदि तुम बहुत तीव्रता और गहनता से प्रेम करते हो और यदि तुम्हारा प्रेम बेशर्त है और तुम सभी को प्रेम करते हो, तब अहंकार रह ही नहीं सकता।

अहंकार सबसे अधिक मूर्खतापूर्ण चीज है, जो किसी स्त्री या किसी पुरुष को कभी भी हो सकता है। एक बार यह घट जाए तो इसे देख पाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि यह तुम्हारी आंखों को बादलों की भांति ढक लेता है।

मैंने सुना है:

मुल्ला नसरुद्दीन और उसके दो मित्र आपस में एक दूसरे से अपनी— अपनी समान आकृति अथवा समरूपता के बारे में बातचीत कर रहे थे।

पहले मित्र ने कहा—’‘ मेरा चेहरा ठीक विंस्टन चर्चिल के चेहरे जैसा है। मैं प्राय: उन्हें देखकर गलती कर बैठता हूं।’’

दूसरे ने कहा—’‘ मेरे मामलों में लोग मुझे देखकर प्रेसीडेंट निक्सन समझकर मुझसे ‘ आटोग्राफ ‘ मांग बैठते हैं।’’

मुल्ला बोला—’‘ यह कुछ भी नहीं है। जहां तक मेरा अपना मामला है, मैं खुद को परमात्मा मानने की गली कर बैठता हूं।’’

पहले और दूसरे मित्र ने एक साथ पूछा—’‘ वह कैसे?”

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा—’‘ ऐसा है, जब मुझे चौथी बार जेल जाने की सजा दी गई है और मैं जेल भेजा गया, तो मुझे देखते ही जेलर बोला—’‘ ओह परमात्मा! तुम फिर से आ गए?”

 

एक बार अहंकार खड़ा हो जाए फिर वह हर जगह से कुछ न कुछ, अर्थपूर्ण या व्यर्थ सब कुछ संग्रहीत करता जाता है बल्कि उसे स्वयं के महत्त्वपूर्ण होने का अनुभव होता जाता है। जब तुम किसी के प्रेम में होते हो, तो कहते हो—’‘ न केवल मैं, तुम भी महत्वपूर्ण हो।’’ जब तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करते हो, तो तुम क्या कह रहे हो उससे? तुम कुछ कह सकते हो और नहीं भी कह सकते, लेकिन वास्तव में तुम्हारे हृदय के गहरे में है क्या? क्या तुम कह रहे हो शब्दों में या मौन में ” तुम भी महत्त्वपूर्ण हो, उतने ही अधिक जितना मैं स्वयं हूं।’’

यदि प्रेम विकसित होकर अधिक गहरा हो जाता है, तो तुम कहते हो—’‘ तुम मेरे लिए मुझसे से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो। यदि वहां ऐसी कोई स्थिति आ जाए। जहां केवल एक ही जीवित रह सकता है, तो मैं तुम्हारे लिए मर जाना पसंद करूंगा और चाहूंगा कि तुम जीवित रहो।’’ दूसरा व्यक्ति महत्त्वपूर्ण बन जाता है। यही अर्थ है—’ प्रेमी होने का ‘ तुम जिसे प्रेम करते हो, तुम उसके लिए स्वयं का बलिदान करने को तैयार हो और यदि भावना फैलती ही जाए ‘ मैत्री भावना ‘ द्वारा यह विस्तृत और निरंतर विस्तृत होती जाए तब धीमे— धीमे तुम विसर्जित होना शुरू हो जाते हो।

बहुत से क्षण ऐसे आएंगे, जब तुम वहां नहीं होंगे, पूरी तरह से मौन होगे, कोई भी अहंकार कहीं होगा ही नहीं, न उसका कोई केंद्र होगा, केवल शुद्ध शून्यता होगी। बुद्ध कहते हैं—’‘ जब स्थाई रूप से यह स्थिति प्राप्त हो जाती है और तुम्हारा इस शुद्ध शून्यता के साथ एकीकरण हो जाता है, तभी तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हो।’’

जब अहंकार पूरी तरह खो जाता है, तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हैं। जब तुम इतने अधिक अहंकार शून्य हो जाते हो, कि तुम यह नहीं कह सकते—’‘ मैं हूं तुम यह भी नहीं कह सकते—मैं एक आत्मा हूं इस स्थिति के लिए बुद्ध एक शब्द का प्रयोग करते हैं ‘ अनन्ता ‘ हूं ही नहीं, अनस्तित्व, कोई आत्मा भी नहीं। तुम मैं शब्द का भी प्रयोग नहीं कर सकते। यह शब्द अधार्मिक या हिंसक बन जाता है। गहन प्रेम में भी मैं विसर्जित हो जाता है। तुम पूरी तरह मिट ही जाते हो।

जब बच्चे का जन्म होता है, वह बिना किसी ‘ मैं ‘ के आता है, वह केवल— होता है एक कोरे कागज की तरह, जिस पर कुछ भी नहीं लिखा हुआ है। अब समाज उस पर लिखना शुरू करेगा और समाज उसकी चेतना को संकुचित करते जाते, सिकोड़ने की शुरुआत कर देगा। फिर समाज धीमे— धीमे उसके लिए एक पात्र का अभिनय निश्चित कर देगा। उससे कहेगा—’‘ तुम्हें जीवन नाटक में इस पात्र का अभिनय करना है, और तुम बस यही हो— और तुम्हें उस अभिनय से जीवन भर चिपके रहना होगा। यह अभिनय तुम्हें कभी भी आनंदित होने की अनुमति नहीं देगा, क्योंकि आनंदित होना केवल तभी सम्भव है, जब तुम अनन्त हो। जब तुम संकुचित या सिकुड़े होते हो, तो कभी भी आनंदित नहीं हो सकते।’’

प्रसन्नता और आनंद का उत्सव संकीर्ण और संकुचित होकर नहीं मनाया जा सकता, आनंद को उत्सव के लिए अनंत स्थान चाहिए। जब तुम्हारे अंदर इतना अधिक खाली स्थान होता है कि अखण्ड अस्तित्व भी तुममें प्रविष्ट हो सके, केवल तभी तुम आनंदित हो सकते हो।

” मैत्री भावना ” ध्यान बहुत अधिक सहायक बन सकता है तुम्हारे लिए।

 

तीसरा प्रश्न :

प्यारे सदगुरू! दूसरे दिन आपने कहा कि विश्वास अंधे व्यक्ति के हाथों में एक लालटेन की भांति होता है क्या मैं जान सकता हूं कि विश्वास या आस्था है क्या?

स्था आंखों के समान होती है : तुम स्वयं अपने आप को देखते हो। विश्वास, अंधे व्यक्ति के हाथों में एक लालटेन की तरह है, वह देख नहीं सकता, वह जलती हुई लालटने का प्रयोग भी नहीं कर सकता। वह जलती हुई लालटेन उसके लिए ठीक एक बोझ की भांति होगी, जिसे उसे ढोना होगा और यदि लालटेन की रोशनी बुझ जाए तो उसे उसकी कभी खबर भी न होगी। विश्वास केवल यह

विश्वास करना है कि दूसरे लोग क्या कहते हैं कि उसके बारे में। यह आस्था या श्रद्धा है। श्रद्धा है—जानना, श्रद्धा होती है अस्तित्वगत, जब कि विश्वास होता है बुद्धिगत।

जो कुछ बुद्ध कहते हैं अथवा जो कुछ मैं कहता हूं तुम मुझे सुनते हो, वह तुम्हारी बुद्धि को ठीक लगता है। वह तुम्हारे तर्क को कायल कर देता है और तुम उस पर विश्वास करना शुरू कर देते हो। तब वह अंधे व्यक्ति के हाथों की एक लालटेन बन जाएगा। लेकिन यदि तुम मुझे सुनते हो, कुछ चीज तुम्हें ठीक लगती है और तुम अपनी बुद्धिगत समझ के साथ न ठहर कर उसे अपना अनुभव बना लेत हो

यदि मैं प्रेम की बात करता हूं और मुझे सुनते हुए तुम मेरे शब्दों में नहीं बंधते, बल्कि तुम प्रेम करने लगते हो, तुम प्रेम करने की जोखिम उठाते हो, तुम प्रेम के खतरे में उतर जाते हो। तब तुम उस समझ तक पहुंचोगे जो आंखों के समान होगी, वह तुम्हारी अंतर्दृष्टि बनेगी। यदि तुम केवल मुझे सुनते भर हो, तो यह बहुत सस्ता व्यापार है। केवल मुझे सुनकर यदि तुम सूचनाएं इकट्ठी करते हो, तुम कह सकते हो—हा! मैं प्रेम के बारे में बहुत कुछ जानता हूं तो तुम्हारा यह जानना एक धोखा बन जाएगा।

 

मैंने सुना है:

मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी अपनी छुट्टियां मनाने इजराइयल गए और तेल अबीब के एक नाइट बल्‍ब को देखने पहुंचे। स्टेज पर एक विदूषक अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहा था और उसके सभी संवाद हिबू भाषा में थे। उस विदूषक का अभिनय देखकर नसरुद्दीन की पत्नी तो बराबर खामोश बैठी रही लेकिन नसरुद्दीन प्रत्येक चुटकुले के समाप्त होने पर छत फाड़ ठहाके लगाता रहा।

जब विदूषक अपना अभिनय समाप्त कर चुका, मुल्ला की पत्नी ने उससे कहा—’‘ मुझे यह नहीं मालूम था कि तुम हिबू भाष भी समझते हो?”

” मैं हिबू नहीं समझता।’’ नसरुद्दीन ने उत्तर दिया।’’ फिर तुम उसके मजाकों और चुटकुलों पर इतने हंस क्यों रहे थे?” नसरुद्दीन ने उत्तर दिया— ” ओह! मैंने उस पर विश्वास किया।’’

 

तुम किसी भी चुटकुले पर उसे बिना समझे हुए भी हंस सकते हो, लेकिन यह किस तरह की हंसी होगी? यह तुममें स्वत’ नहीं उठेगी, यह केवल एक बनावटी, चस्पा की गई हंसी होगी। यह केवल होंठों और मुंह की एक कसरत जैसी होगी। तुम्हारे अपने अस्तित्व में उसका कोई केंद्र न होगा। वह कहीं से भी नहीं आएगी, क्योंकि तुम उस ‘ जोक ‘ को समझ ही नहीं रहे हो, तुम उस भाषा को ही नहीं समझ सकते, फिर तुम कैसे हंस सकते हो? मुल्ला कहता है—’‘ मैंने केवल उस पर विश्वास किया। वह जरूर कोई सुंदर हंसने जैसी बात कह रहा होगा। दूसरे भी तो हंस रहे हैं।’’

बुद्ध जरूर ही कोई बात बहुत सुंदर कह रहे होंगे। बहुत लोग उनमें विश्वास करते हैं इसलिए तुम भी उन पर विश्वास करो। लेकिन तुम ‘ जोक ‘ समझे ही नहीं वह हंसी तुम्हारी नहीं है। वह तुम्हें थकायेगी, वह तुम्हें ताजगी नहीं देगी। जब तुम्हें हंसी घटती है, वह तुम्हारे अस्तित्व से चारों ओर फैलती है। वह तुम्हारे अस्तित्व के सबसे भीतरी केंद्र से सतह पर आती है। तुम्हारा पूरा शरीर उससे तरंगित हो उठता है, स्पन्दित होकर धड़कने लगता है। वह तुम्हें एक तरह से नहला देती है—’‘ तुम उसके बाद ताजगी से भर जाते हो। लेकिन यदि तुम केवल विश्वास करते हो, तो विश्वास करने से कोई सहायता तुम्हें मिलने नहीं जा रही। बहुत से लोग, कई सुंदर चीजों के बारे में केवल अपने विश्वासों द्वारा ही छले गए हैं।’’

तुम सोचते हो कि तुम परमात्मा पर विश्वास करते हो, तुम सोचते हो कि तुम आत्मा पर विश्वास करते हो, तुम सोचते हो कि तुम इस और उस चीज में विश्वास करते हो और तुमने कोई भी चीज अपने अनुभव से नहीं जानी है। तब इससे अच्छा है कि तुम विश्वास ही न करो, क्योंकि यदि तुम विश्वास नहीं करते हो, यदि तुम जानते हो कि तुम नहीं जानते, तब इस बात की संभावना है कि तुम खोज सको और पा सको। तुम्हारा विश्वास ही तुम्हें खोजने की अनुमति नहीं देगा, क्योंकि तुम सोचते हो कि तुम उसे पहले ही से जानते हो।

विश्वास करना ही खतरनाक है। इससे अच्छा है कि कोई भी व्यक्ति नास्तिक हो अथवा उसे अस्तित्व या सत्य पर विश्वास ही न हो। सच्चे बने रहने के लिए तुम्हारा कुछ भी न जानना ही अच्छा है, क्योंकि तुम्हारे स्वीकार करने की यह ईमानदारी कि तुम नहीं जानते, तुम्हारी सहायता करेकी। यह ईमानदारी तुम्हें विकसित करेगी। एक न एक दिन तुम खोजना शुरू करोगे, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अधिक लंबे समय तक गहरे अज्ञान में नहीं रह सकता। प्रत्येक व्यक्ति जानना ही चाहता है। जानने की ऐसी ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्ति है मनुष्य में, कि यदि तुम प्रामाणिक हो तो उसे टाल नहीं सकते।

कृपया अपने विश्वासों को छोड़ दो जिससे तुम्हारा मन जो व्यर्थ के फर्नीचर और बेकार की चीजों से भरा हुआ है, तुम उसे देख और समझ सको कि तुम क्या जानते हो और क्या नहीं जानते हो।

ठीक से यह जाना कि कोई भी व्यक्ति क्या जानता है, और क्या नहीं जानता है ज्ञान की ओर उठाया गया बुनियादी कदम है। तुम्हें पूरी तरह स्पष्ट हो जाना है यह सब वह है, जिसे तुम जानते हो, और यह सब वह है जिसे तुम नहीं जानते हो। तुम इस स्थिति में बने नहीं रह सकते। तुम्हें अज्ञात की ओर बढ़ना शुरू करना ही होगा, क्योंकि खोजना और जानना मनुष्य का स्वभाव है।

प्रत्येक बच्चा अनंत जिज्ञासाओं और कौतूहल के साथ जन्म लेता है यही वजह है कि बच्चे अपने प्रश्नों से तुम्हें उबा कर तुम्हें मार ही देता है। वे पूछते ही चले जाते हैं। वे इस बात की भी फिक्र नहीं करते कि तुम उनके उत्तरों को देने या न देने में दिलचस्पी ले रहे हो या नहीं। वे बस पूछते ही चले जाते हैं। तुम उन्हें खामोश करना चाहते हो, लेकिन बार—बार उनमें नये—नये प्रश्नों के बुलबुले उठते ही रहते हैं। यह हो क्या रहा है? इतने अधिक प्रश्न आखिर कहां से आ रहे हैं? यह जानने की गहरी आकांक्षा है। लेकिन इस आकांक्षा को तुम्हारे विश्वास पंगु बना देते हैं।

जैसा कि तुम जानते हो, विश्वास तुम्हें एक आकृति देते हैं। वह ‘ यह मानो ‘ शब्द ही बहुत कीमती है।

 

मैंने सुना है:

स्टीम बोट के ड्राइवर ने जैसे ही नदी में चक्के को मोड़कर घुमाया, उसने पास खड़े घबराए हुए मुसाफिर को देखकर कहा—’‘ किसी को भी फिक्र करने की कोई जरूरत नही है। मैं इस नदी में इतनी लम्बी अवधि से इस बोट को चला रहा हूं कि मैं नदी में छिपी हर चट्टान और उभरे हुए टीलों को भली भांति जानता हूं।’’ तभी बोट पानी में छिपे हुए किसी चट्टान से टकराई, और इतनी जोर का झटका लगा कि पूरी नाव बुरी तरह डोल उठी और उसके पीछे का भाग किसी सख्त चीज से टकराया।

ड्राइवर ने बड़ी शान से कहा—’‘ मैं जिन अवरोधों का जिक्र कर रहा था, यह उनमें से एक है।’’

 

यह किसी तरह की जानकारी है? यह किस तरह तुम्हारी सहायता करेगी? तुम्हारी तथाकथित सारी जानकारी जिसे तुम ज्ञान कहते हो, ठीक इसी तरह की है। इससे कोई भी सहायता नहीं मिलती। यह तुम्हें एक निश्चित अहंकार से भरा हुआ यह विचार देती है कि तुम जानते हो। लेकिन यह जीवन में सहायक नहीं है। इससे अपने मार्ग पर चलने में तुम्हें कोई सहायता नहीं मिलती, यह खंदकों और गड्डों से दूर रखने में भी तुम्हारी कोई सहायता नहीं करती, यह तुम्हें सही दिशा की ओर आगे बढ़ने में भी मदद नहीं देती, और न यह किसी भी तरह से आपदाओं को रोकने में ही सहायक होती है। फिर भी तुम यह सोचे चले जाते हो कि तुम जानते हो। इस तथाकथित जानकारी से मुक्त हो जाओ। यह बोझा ढोना व्यर्थ है। इसे अब और अपनी खोपड़ी पर मत लादे रहो। एक बार तुमने इसे फेंक दिया तो तुम्हें एक ताजगी और नया हो जाने का अनुभव होगा।

मैंने सुना है:

एल्ड्रअस हक्सले के पास एक बहुत बड़ा पुस्तकालय था, वह उसके पूरे जीवन भर का प्रयास था। उसने बहुत ही दुर्लभ पुस्तकों का संग्रह किया था और एक दिन उसमें आग लग गई। पूरी लाइब्रेरी जल गई। उसमें उसकी बहुत सी मूल्यवान पाण्डुलिपियां भी जल गईं। बहुत सी मूल्यवान कलाकृतियां, मूर्तियां और पेटिंग्ज भी जल गईं। वह वास्तव में सुंदरतम वस्तुओं का एक महान खोजी था और वे सभी चीजें जलकर राख हो गईं। वह आग के सामने असहाय बना खड़ा हुआ था। और कुछ भी नहीं किया जा सकता था।

तभी किसी ने उससे पूछा—’‘ आप जरूर ही बहुत बहुत उदासी का अनुभव कर रहे होंगे।’’

उसने उत्तर दिया—’‘ जो कुछ मुझे अनुभव हो रहा है, उससे मैं स्वयं आश्चर्यचकित हूं। मुझे स्वयं बहुत आश्चर्य हो रहा है। मुझे ऐसा महसूस हो रहा है जैसे बहुत सफाई हो गई, जैसे मानो पूरा बोझा हट गया। मुझे स्वयं आश्चर्य है क्योंकि मैं सोचता था कि मुझे बहुत अफसोस होगा, मुझे बहुत ही दुख और पीड़ा का अनुभव होगा, मैं वर्षों तक अपनी लाइब्रेरी और उन सभी चीजों को जिन्हें मैंने संग्रहीत किया था, कभी भी भूलने में समर्थ न हो सकूंगा लेकिन यह देखकर कि अचानक प्रत्येक चीज आग की लपटों में जल रही है, मैं अपने आपको बहुत हल्का, भाररहित और ताजा होने का अनुभव कर रहा हूं।’’

जब तुम अपने विश्वासों को आग में फेंक दोगे, तुम्हें बहुत ताजगी का अनुभव होगा। यह केवल एक बोझा है। यह तुम्हारा नहीं है, यह तुम्हारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकता।

हम जानते हैं कि क्या ठीक है, लेकिन जो गलत है,हम वही करते हैं। हम जानते हैं क्रोध करना बुरा है और हम बार—बार क्रोध किए चले जाते हैं। हम जानते हैं कि हमें क्या करना चाहिए। लेकिन हम उसे कभी करते नहीं—हम ठीक उसका उल्टा करते हैं। यह किस तरह का ज्ञान है? हम जानते हैं कि दरवाजा किधर है और हम हमेशा दीवार से होकर गुजरने की कोशिश करते हैं। हम आघात करते हैं टकराते हैं, अपने आप को नुकसान पहुंचाते हैं लेकिन फिर भी हर बार हम दीवार से ही गुजरने की कोशिश करते हैं। हम कहते हैं—हम जानते हैं कि दरवाजा किधर है, क्या यह सम्भव है कि तुम दरवाजे को जानते भी हो और फिर भी तुम दीवार से निकलने की कोशिश में अपने को चोट पहुंचाते हुए अपना सिर फोड़ लेते हो। यह सम्भव ही नहीं है। तुमने बस दरवाजे के बारे में सुना भर है। उस दरवाजे का अस्तित्व केवल तुम्हारी कल्पना में है, यथार्थ में नहीं।’’

तुम जो कुछ जानते हो, उसी के अनुसार तुम आचरण करते हो। इसी वजह से सुकरात की प्रसिद्ध घोषणा है—ज्ञान एक बड़ी अच्छाई और गुण है—लेकिन यह तुम्हारा ज्ञान नहीं है। वह कहता है एक बार कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि कोई बात ठीक है तो वह उसे करता है। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है। जब तुम जानते हो कि दो में दो जोड्ने से चार होते हैं, तुम उसे पांच नहीं बना सकते। क्या बना सकते हो? एक दिन कोशिश करके देखो—बस बैठ जाओ। लिखो—दो धन दो, और तब पांच लिखने की कोशिश करो। यह असम्भव होगा। यदि तुम पांच लिख भी दोगे, तो तुम हंसोगे, तुम मजाक कर रहे हो, तुम बेवकूफ बना रहे हो। एक बार तुम जान गए कि दो में दो जोड्ने से चार होते हैं, तो इसे भूलने का फिर कोई उपाय नहीं है। मूल बात यह है कि तुमने उसे स्वयं जाना है और ज्ञान को तुम्हारा अनुभव होना चाहिए अन्यथा तुम हमेशा तर्क वितर्क खोजते रहोगे।

 

मैंने एक छोटे से प्रसंग के बारे में सुना है। एक छोटे से शहर की गायन मंडली की एक लड़की की किसी बड़े थियेटर के स्टेज पर गाने की आकांक्षा थी। उसके माता पिता ने अंत में राजी होकर उसे न्यूयार्क शहर में जाकर कोशिश करने की अनुमति दो शर्तों पर दी ‘ पहली यह कि उसके कमरे में किसी पुरुष को प्रवेश करने की अनुमति नहीं होगी और दूसरी यह कि उसे कम से कम सप्ताह में एक बार घर फोन करना होगा। उसकी मां ने उससे कहा—’‘ याद रहे, मुझे तुम्हारे बारे में बहुत फिक्र रहेगी, इसलिए महेरबानी करके घर फोन करने की बात भूलना मत।’’ परिचय पत्र के साथ लैस होकर वह एक एजेण्ट से मिलने गई। वह उसकी सहायता करने को तैयार हो गया और वह उसे शहर के प्रसिद्ध स्थानों और व्यक्तियों के बारे में बताने लगा। सप्ताह के अंत में उसने घर फोन मिलाया। देर होते जाने से उसकी मां बहुत परेशान थी।

” हनी!” उसकी मां बोली—’‘तुम जानती हो, तुमसे यह बात तै हुई थी कि तुम्हारे रहने वाले एपार्टमेंट में किसी भी पुरुष को प्रवेश करने की अनुमति नहीं होगी और और मैं पृष्ठभूमि में किसी पुरुष की आवाज सुन रही हूं।’’

भावी अभिनेत्री ने उत्तर दिया—’‘ ओह मम्मी! यह आवाज मेरे बॉय फ्रेंड की है। लेकिन आप फिक्र न करें।’’ उसने अपनी मां को शीघ्रता से आश्वस्त करते हुए कहा—’‘ हम लोग उसके एपार्टमेंट में हैं। फिक्र तो उसकी मम्मी को होना चाहिए।’’

 

हम हमेशा रास्ते खोज सकते हैं, जिसे हम टालना चाहते हैं, उससे बचने के लिए और जो हम करना चाहते हैं, उसके करने के लिए तर्क वितर्क खोज सकते हैं। और यदि तुम्हारा ज्ञान केवल बुद्धिगत है, केवल वह शाब्दिक है, तब वास्तविक जीवन में उससे कोई सहायता नहीं मिल सकती तुम्हें। वास्तविक जीवन में वास्तविक ज्ञान की जरूरत होती है। यदि तुम कोई पुस्तक लिखना चाहते हो, फिर तो वह ठीक होगा। यदि तुम कोई भाषण देना चाहते हो, तो भी ठीक है। यदि तुम अपने मित्रों के साथ चर्चा—परिचर्चा करना चाहते हो, तो वह ठीक होगा, क्योंकि शाब्दिक जानकारी एक पुस्तक लिखने के लिए पर्याप्त है। वह एक भाषण देने और मित्रों से चर्चा करने के लिए भी काफी है। लेकिन यदि तुम उसे अपने जीवन में उतारना चाहते हो तो वह असम्भव होगा। जीवन उस पर विश्वास नहीं करता, जो कुछ तुमने बहुत सस्ते तरीके से बटोर कर इकट्ठा किया है। जीवन केवल उसमें विश्वास करता है जो तुमने कठिनता से अनुभव द्वारा अर्जित किया है।

मैंने एक सूफी रहस्यदर्शी बायजीद के बारे में सुना है। उसने वर्षों तक ध्यान किया और यह कहा जाता है कि परमात्मा उसके प्रति अत्यंत करुणावान था। उसने इतना अधिक विराट प्रयास किया—उसकी खोज बहुत कठिन और श्रमपूर्ण थी और उसकी प्रार्थना में प्रबल शक्ति थी, इसलिए परमात्मा ने उसके पास अपना देवदूत भेजा। देवदूत ने आकर बायजीद से कहा—’‘ परमात्मा तुमसे बहुत प्रसन्न है और तुम कुछ भी मांगना चाहो, वह तुम्हें सभी कुछ देने को तैयार है। तुम केवल मांगो। तुम्हारी खोज और साधना अब पूरी हो गई।’’

लेकिन बायजीद ने कहा—’‘ नहीं यह कोई भी ठीक तरीका नहीं है। मैं इसे इतने सस्ते में नहीं लेना चाहता, क्योंकि मैं भली भांति जानता हूं .इस सस्ती सम्भावना के कारण मैं अपने जीवन में बहुत धोखे खा चुका हूं। अब तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते। परमात्मा से जाकर कहो कि मैं कठिन तरीके से उसे श्रमपूर्वक अर्जित करूंगा।’’

लेकिन देवदूत ने कहा—’‘ तुम बेवकूफ हो। वह तुम्हारे अस्तित्व के अंदर गहराई में तुम्हारी अंतर्ज्योति जगाने के लिए तैयार है। तुम मांगो तो।’’

लेकिन बायजीद ने कहा—’‘ बहुत बहुत धन्यवाद, और उसे भी मेरा धन्यवाद दीजिएगा, लेकिन मैं उससे कुछ भी मांगने नहीं जा रहा क्योंकि वह उधार लिया हुआ होगा, भले ही वह परमात्मा से ही क्यों न लिया गया हो। मुझे स्वयं उसे खोज कर पाने दो।’’

देवदूत ने कहा—’‘ परमात्मा इससे नाराज होगा। ऐसा आज तक नहीं हुआ। उसकी भेंट तुम्हें स्वीकार करनी ही होगी।’’

तब बायजीद ने अपने चारों ओर देखा—’‘ उसके पास एक छोटा सा दीया था और उसका तेल लगभग समाप्त हो रहा था। उसने कहा—’‘ यदि वह वास्तव में रोशनी जैसी ही कोई चीज देना चाहता है, तो उससे कहो कि मेरा यह दीया जलता ही रहे, कयोंकि इसका तेल लगभग समाप्त होने को है और रात बहुत अंधेरी है और मुझे अभी भी ध्यान करना है। बस इतना करना ही काफी होगा। तुम सिर्फ उनसे जाकर यही कहना कि वे मुझे एक ही आशीर्वाद दें कि मेरा दीये का तेल कभी समाप्त न हो, जिससे मैं पूरी रात ध्यान कर सकूं।’’

उसने बस इतना ही मांगा और यह कहा जाता है कि परमात्मा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कहा—’‘ ठीक तरीका यही है।’’ यदि उसने मांगा होता तो वह चूक गया होता यदि उसने वह भेंट स्वीकार कर ली होती, तो वह चूक गया होता— क्योंकि जो कुछ भी बिना अर्जित किए तुम्हारे पास आता है, वह तुम्हारा नहीं है। तुम्हारी अधिकृत सम्पदा वही है जिसे तुमने जीया और जाना है, जिसे तुमने श्रम से अर्जित किया है।

 

एक युवा लडका तैरना सीख रहा था। एक दिन दोपहर तेजी से घर में प्रवेश करते ही उसने बिना सांस लिए घोषणा की कि वह अब स्वयं ही ड्राइविंग बोर्ड से छलांग लगाने जा रहा है।

” यह बहुत अच्छी बात है जोनी।’’ उसके पिता ने कहा—’‘ लेकिन मेरा खयाल है कि तुम मुझे पिछले सप्ताह बोर्ड से छलांग लगाने के बाबत बता रहे थे।’’‘’ मैं जानता हूं।’’ लड़के ने कहा— ” लेकिन पिछले सप्ताह किसी और ने मुझे बोर्ड से धक्का दिया था।’’

 

स्वयं अपने आप ही छलांग लगाना वास्तव में पूरी तरह भिन्न बात है। जब कोई दूसरा तुम्हें पानी में धक्का देता है तो वह गुणात्मक रूप से भिन्न होता है, जब मैं तुम्हें कोई भी चीज देता हूं तो वह वैसी ही नहीं होती, जैसी कि तुम उसे स्वयं अर्जित करते हो। इसे स्मरण रखें। रास्ते में बहुत से प्रलोभन होंगे। जब चीजें बहुत सस्ते में आसानी से उपलब्ध हों तो उनसे दूर रहना। हमेशा स्मरण रहे कि प्रत्येक व्यक्ति को कठिन राह स्वयं ही चलनी है, क्योंकि केवल वही एक मार्ग है।

 

सभी पगडंडियां या छोटे रास्ते नकली और झूठे हैं और विश्वास करना, छोटी पगडंडी के रास्ते को पकड़ने जैसा है। आस्था और श्रद्धा ही वह कठिन माग है।

 

अंतिम प्रश्न :

सर्वाधिक प्रिय सदगुरू। इस सुबह मैं ज्यों ही आपके सामने बैठा मैं परमानंद और प्रकाश की बाढ़ में जैसे गहरे अभिभूत हो उठा! मुझे पता ही न चला कि आप वहां बैठे हैं। मेरा अन्त आकाश फैलता चला गया क्योंकि आप वहां थे।

च्छा है, यह बहुत ही शुभ है। इसे ऐसा होना ही चाहिए। पारस के अंदर एक बाउल का जन्म हुआ है, और मैं आशा करता हूं कि तुममें से प्रत्येक के अंदर एक बाउल का जन्म होगा। परमात्मा प्रत्येक क्षण उपलब्ध है। केवल उसे अनुमति दो, उसे रोको मत, उसके रास्ते में अवरोध मत बनो। केवल अपने रास्ते पर बाहर निकल कर आओ और प्रत्येक व्यक्ति को यह घटना शुरू हो जाएगा।

इस सुबह मैं ज्यों ही आपके सामने बैठा, मैं परमानंद और प्रकाश की बाढ में जैसे डूब गया, और जैसे अनंत आकाश में उड़ने के लिए पंख मिल गए। मैं अभिभूत हो उठा। मुझे पता ही न चला कि आप वहां बैठे हैं। मेरा अन्त आकाश विस्तीर्ण होता चला गया, केवल आपके ही कारण।’’

 

आज बस इतना ही।

 


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सहज योग–(प्रवचन–20)

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हे कमल, पंक से उठो, उठो—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक 10 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—आपकी हत्या की धमकियां दी जा रही हैं । यह मुझसे न सुना जाता है और न सहा जाता है।

 2—मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की कसम

ऐ मेरे ख्वाब की ताबीर मेरी जाने-गज़ल

जिन्दगी मेरी तुझे याद किये जाती है।

 3—आपने कहा कि सदगुरु शिष्य को संपूर्ण स्वतंत्रता देता है। इसका तो अर्थ हुआ कि वह शिष्य की जरा भी चिंता नहीं करता!

 

4—अपनी समझ से मैं संन्यास ग्रहण करने की तैयारी करके आया था। यहां आकर पत्नी ने कड़ा विरोध खड़ा किया। इसलिये मैं तत्काल टाल गया। अब लगता है कि मैं ही इसमें सहयोगी हुआ। प्रवेग क्षीण पड़ गया। शायद इतना उत्साह न जुटा पाया कि मैं डूब सकता। दुखी हूं। समाधान देने की अनुकंपा हो!

 

5—इस जगत में सर्वाधिक आश्चर्यजनक नियम कौन-सा है?

 

6—श्री मोरारजी देसाई राष्ट्र-हित में यह करूंगा, वह करूंगा ऐसी बातें तो बहुत करते हैं, फिर कुछ करते क्यों नहीं?

 

7—आपका संदेश?

 

 

पहला प्रश्न :

 

ओशो, आपकी हत्या की धमकियां दी जा रही हैं। यह मुझ से न सुना जाता है, और न सहा जाता है।

 

नंद भारती, मृत्यु होती कहां है? धमकियां व्यर्थ हैं। न कोई कभी मरा है, न कोई कभी मर सकता है। जो सोचते हैं कि मार सकेंगे, भ्रांति में हैं ; जो सोचते हैं कि मर जायेंगे, वे भी भ्रांति में हैं। मृत्यु इस जगत में सबसे बड़ा झूठ है। न हन्यते हन्यमाने शरीरे।

शरीर के विदा हो जाने से मृत्यु घटित नहीं होती। न तो जीसस मरे सूली पर, न सुकरात मरा जहर देने से। साधारणतः भी जो मरते हैं वे भी मरते नहीं। इसलिये न तो चिंता की कोई बात है, न पीड़ा की कोई बात है।

धमकियां स्वाभाविक हैं, धमकियां दी ही जानी चाहिये। मेरे जैसे व्यक्ति को हत्या की धमकियां न दी जायें, वही आश्चर्यजनक होगा। यह तो बिलकुल तर्कसंगत है, इसकी जरा भी चिंता न लेना; चिंता लेना अज्ञान होगा।

कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊंगा

मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊंगा

 

तेरा दर छोड़ के, मैं और किधर जाऊंगा

घर में घिर जाऊंगा, सहरा में बिखर जाऊंगा

 

तेरे पहलू से जो उठूंगा तो मुश्किल यह है

कि सिर्फ इक शख्स? को पाऊंगा जिधर जाऊंगा

 

अब तेरे शहर में आऊंगा मुसाफिर की तरह

साय-ए अब्र की मानिंद गुजर जाऊंगा

 

चारासाजी से अलग है मिरा मियार कि मैं

जख्म खाऊंगा तो कुछ और संवर जाऊंगा

 

तेरा पैमाने वफा, राह की दीवार बना

वरना सोचा था कि जब चाहूंगा मर जाऊंगा

 

अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुजरीं

अब उसे ढूंढ़ने मैं ताबे सहर जाऊंगा

 

जिंदगी शम्अ की मानिंद जलाता हूं “नदीम’

बुझ तो जाऊंगा मगर सुबह तो कर जाऊंगा

दीया बुझता है, लेकिन सुबह कर जाता है। और…

चारासाज़ी से अलग है मिरा मियार कि मैं

जख्म खाऊंगा तो कुछ और संवर जाऊंगा

मैं जो कह रहा हूं वह और संवर जायेगा। मैं जो कह रहा हूं वह पत्थर की लकीर हो जायेगा। मुझे मारने वाले मुझे सदा के लिये मनुष्य-जाति के चित्त पर अमर कर जायेंगे। उनकी चिंता न लो, वे भी मेरे ही काम में लगे हैं। मित्र ही काम में नहीं शत्रु भी काम में लगे हैं। काम बड़ा है, इसमें दोनों की जरूरत है। काम इतना विराट है कि यह मित्रों के ही भरोसे न हो सकेगा, इसमें शत्रुओं का भी सहयोग चाहिये, चाहिये ही चाहिये।

पर मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। लेकिन तुम्हारी तकलीफ को बहुत बोझिल मत बना लेना। तुम्हारे प्रेम को समझता हूं। लेकिन तुम्हारा प्रेम इतना बड़ा होना चाहिये कि मृत्यु के पार अमृत को देखने में समर्थ हो सके, तो ही तुमने मुझे प्रेम किया। अगर मेरी देह के रहने से ही तुम्हारा प्रेम रहा तो कोई मुझे न भी मारे तो भी यह देह एक दिन छूट जायेगी। देर-अबेर की बात है, आज मरे कोई कि कल मरे कोई। देह तो छूटेगी। देह तो छूटनी ही है। तो फिर तकलीफ होगी। वही पीड़ा होगी। इसके पहले कि देह छूटे, देह के पार देखो। इसके पहले कि दीया बुझे, सुबह की तलाश करो ।

जिंदगी शम्अ की मानिंद जलाता हूं “नदीम’

बुझ तो जाऊंगा मगर सुबह तो कर जाऊंगा

मैं जब अभी यहां हूं तो मेरी देह से ही मत बंध जाओ, मेरे शब्दों में मत अटक जाओ। मेरे पार देखो। मेरा इशारा मुझसे पार की तरफ है। मैं तो सिर्फ एक इशारा हूं–एक अंगुली–जो आकाश में उगे चांद को दिखा रही है। अंगुली का क्या, रही कि न रही! तुम चांद देख लो, अंगुली का काम पूरा हो गया ।

मैं तुम्हें परमात्मा की याद दिला जाऊं, बस इतना पर्याप्त है। और अगर कोई धमकियां दे रहा है मुझे मारने की, तो तुम जल्दी करो। समय मत गंवाओ। तुम देरी मत करो। तुम आहिस्ता-आहिस्ता न चलो, त्वरा पकड़ो, गति पकड़ो। भभककर जलो, कि इसके पहले कि दीया बुझे, प्रभात हो जाये; इसके पहले कि देह छूटे, देह के पार का दर्शन हो जाये।

और किसी चिंता में समय व्यर्थ करना उचित नहीं है। समय थोड़ा है। समय सदा थोड़ा है। होशियारी से, सावधानी से उसका उपयोग कर लेना चाहिये। और एक ही उपायोग है जीवन का, जीवन के समय का कि हम परमात्मा को जानने में समर्थ हो जायें; उसे जानने में समर्थ हो जायें जो अमृत है।

 

दूसरा प्रश्न :

 

मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की कसम

ऐ मेरे ख्वाब की ताबीर मेरी जाने गज़ल

जिन्दगी मेरी तुझे याद किये जाती है।

रात दिन मुझ को सताता है तसव्वुर तेरा

दिल की धड़कन तुझे आवाज दिये जाती है।

ओ मेरे, नरगिसी आंखों का सहारा दे दो।

 

देव वीणा, ऐसे ही मांगो। ऐसे ही उसके द्वार पर खटखटाओ। यही पूजा है, यही प्रार्थना है। और उसका सहारा तो मिला ही हुआ है। सिर्फ पहचानने की देर है। उसके हाथों ने ही तो तुम्हें सम्हाला है। उसकी आंखों ने ही तो तुम्हारी आंखों से देखा है। वही तो धड़कता है तुम्हारे हृदय में। पर अभी पहचान नहीं है। पहचान भी हो जायेगी।

परमात्मा को पाना नहीं है, सिर्फ   पहचानना है। परमात्मा को हमने पाया ही हुआ है, इसलिये उसे दूर तलाश करने मत जाना। उसे खोजना अपने ही भीतर। अपने ही हृदय को खटखटाना है। अपने ही भीतर के द्वार तोड़ने हैं। पुकारो, जरूर पुकारो–

मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की कसम

ऐ मेरे ख्वाब की ताबीर मेरी जाने गज़ल

जिन्दगी मेरी तुझे याद किये जाती है।

रात दिन मुझ को सताता है तसव्वुर तेरा

दिल की धड़कन तुझे आवाज़ दिये जाती है।

पुकारो। इतना पुकारो कि पुकारने वाला पुकार में लीन हो जाये। बस उसी घड़ी मिलन हो जाता है। ऐसे नाचो कि नाचने वाला नाच में खो जाये। बस उसी घड़ी मिलन हो जाता है। जब भी कोई कृत्य तुम्हारे कर्ता को अपने में डुबा लेता है, बस प्रार्थना की घड़ी आ गई, प्रार्थना की पूर्णता आ गई। नहीं किसी यम-नियम की जरूरत है, न तपऱ्योग की–सहजता की। या चाहो तो कहो–सहजऱ्योग की।

इधर बहुत दिनों से हम सरहपा और तिलोपा की ही बात कर रहे हैं–सहजऱ्योग की। सहजऱ्योग का अर्थ है : मिला ही हुआ है, जरा आंख अपनी भीतर लगानी है। दीया लेकर हम बाहर खोज रहे हैं। जरा दीये को भीतर लाना है। और प्रार्थना जितनी सरलता से दीये को भीतर ले आती है कोई और तत्व नहीं ला पाता, क्योंकि प्रार्थना तुम्हारे प्रेम का ही संघीभूत रूप है, तुम्हारे प्रेम की ही सघनता है। और प्रेम स्वाभाविक है, प्रत्येक को मिला है।

तुम्हें पता है कि हीरा कैसे बनता है? हीरा कोयले से बनता है। कोयला ही हजारों-हजारों साल पहाड़ों के नीचे दबा-दबा हीरा बन जाता है। कोयले और हीरे में कोई रासायनिक भेद नहीं है। ऐसा ही प्रेम सघन होतेऱ्होते सघन होतेऱ्होते प्रार्थना बन जाता है। चाहे अभी तुम्हारा प्रेम कोयले जैसा हो, घबड़ाना मत; यही कोयला हीरा हो जायेगा। कोयले से हीरे की यात्रा, यही तो सारे मनुष्य-जीवन की कथा है।

क्या जानूं यम-नियम-उपनियम, सनम, तुम्हारी गलियों के?

यों ही उलझ गयी फन्दे में मैं तो तुम-से छलियों के

मैं ग़रीबिनी क्या जानूं तव पूजन की विधियां सारी?

मैं क्या जानूं क्या होती हैं योग-नियम-विधियां सारी?

आंख लगी, अरमान जगे, अब कहते हो कि नियम पालो।

अब तो आन पड़ी हूं दर पे जैसे जी चाहो टालो।

छोड़ो फिकिर और सब।

देव वीणा, तेरी आंखों में देखकर मुझे जो प्रतीति हुई वह यही है: प्रार्थना तेरे लिये सूत्र है। पुकार तेरे लिये मार्ग है। मगर पुकार ऐसी हो कि फिर पुकारने वाला न बचे। पुकार ही पुकार हो जाये। बाढ़ आये। बूंदा-बांदी से नहीं होगा, मूसलाधार वर्षा हो। और यह तेरी क्षमता है। यह हो सकता है। न हुआ तो तेरे अतिरिक्त और कोई जुम्मेवार न होगा।

परमात्मा न मिले तो सिर्फ अपने को ही दोषी ठहराना। परमात्मा की तरफ से मिलने का पूरा आयोजन है। परमात्मा की तरफ से तो परमात्मा मिला ही हुआ है, हमारी तरफ से ही हम पीठ किये खड़े हैं। अब सूरज की तरफ पीठ कर लोगे तो सूरज से चूक जाओगे। और ऐसा नहीं था कि सूरज तुम्हारे लिये नहीं उगा था।

लौटो! पलटो। जिस दिशा में भागे जा रहे हो उसमें न भागकर, उसके विपरीत आंखें करो। लोग धन की तरफ भाग रहे हैं, ध्यान से वंचित रह गये; पद की तरफ भाग रहे हैं, प्रार्थना से वंचित रह गये। वासना अर्चना में नहीं उतरने देती। तृष्णा उपासना में नहीं बैठने देती–दौड़ाती है। इतनी-सी बात है।

सार की बात बहुत थोड़ी है कि आंखें बंद करो; कि भीतर कौन है, उसे देखो। महबूब वहां छिपा है। प्यारा वहां मौजूद है। एक क्षण को भी अनुपस्थित नहीं है। अनुपस्थित हो जाये तो हम समाप्त हो जायें। वही तो हमारा जीवन है। वही तो हमारी श्वास है। वही हमारा प्राण है।

 

तीसरा प्रश्न :

 

आपने कहा कि सदगुरु शिष्य को संपूर्ण स्वतंत्रता देता है। इसका तो अर्थ हुआ कि वह शिष्य की जरा भी चिंता नहीं करता।

 

चिंता तो सदगुरु किसी की भी नहीं कर सकता। चिंता तो सदगुरु में निर्मित ही नहीं हो सकती। चिंता के पार है, इसीलिए तो सदगुरु है। हां, शिष्य का ध्यान रखता है, चिंता नहीं करता, चिंता बड़ी और बात है।

चिंता तो ऐसे कि कोई बीमार है तो तुम भी बीमार होकर उसके पास लेट गये। इससे बीमार को कोई लाभ नहीं होगा। इससे तुमने कोई सेवा भी नहीं की। शिष्य चिंतित है, दुविधाओं से घिरा है, समस्याओं से घिरा है–और सदगुरु भी चिंतित हो गया तो चिंता दुगनी हो गई, कम न हुई, घटी न। और जो स्वयं चिंतित हो जाये वह दूसरे को कैसे चिंता से मुक्त करेगा?

नहीं, चिकित्सक को कोई बीमार होकर बीमार के पास लेट जाने की जरूरत नहीं है। चिकित्सक को बीमार की चिंता नहीं करनी है; बीमार का ध्यान करना है, बीमार की सहायता करनी है, उपचार करना है।

सदगुरु चिंता नहीं करता। फिर, बात और भी थोड़ी समझने जैसी है। बीमार की तो बीमारी चिकित्सक को असली मालूम होती है, सदगुरु की तो और कठिनाई है। शिष्य की सारी बीमारियां झूठी हैं। चिंता क्या खाक करे? शिष्य की सारी बीमारियां झूठी हैं। सपने देख रहा है शिष्य। तुमने सपने में सांप देख लिया है, सदगुरु चिंता करे? सपने में तुम्हारे महल में आग लग गई है, सदगुरु चिंता करे, तो फिर सदगुरु न होगा। हां, सदगुरु करुणा करता है। और करुणा का यह मतलब मत समझना कि तुम्हारे महल में आग लगी है तो उसे बुझाने का आयोजन करता है, क्योंकि तुम्हारा महल झूठा, तुम्हारी आग झूठी। और जो बुझाने आयेगा वह भी तुम्हारे जैसा पागल है। तुम्हारे महल में जब आग लगी होती है तो सदगुरु तुम्हें जगाने की कोशिश करता है। तुम्हारे महल से तो कुछ संबंध नहीं बन सकता। तुम्हारा महल तो है ही नहीं।

इसलिये कभी-कभी ऐसा भी लग सकता है कि सदगुरु बड़ा कठोर है; हमारे महल में तो आग लगी है, वह हिला-डुला रहा है; हम सांत्वना लेने आये हैं, वह सांत्वना तो दे नहीं रहा, वह उल्टा हमें और चोटें मार रहा है। सोते हुए आदमी को कोई जगाये तो प्रीतिकर तो नहीं लगता। चाहे दुख-स्वप्न में ही क्यों न दबा हो, मगर जागना प्रीतिकर नहीं लगता। करवट लेकर सो जाना चाहता है। सदगुरु तो सोये हुए लोग उन्हें मानते हैं जो उनकी चादर को और ठीक से ढक दें, कंबल को उढ़ा दें; सुबह थोड़ी सद्र हो गई है, जो उनके सिर को थपथपा दें–और कहें: वत्स, खूब गहरी निद्रा में सोओ! अच्छे-अच्छे सपने देखो–परमात्मा के, मोक्ष के, स्वर्ग के, परियों के, अप्सराओं के, देवदूतों के। अच्छे-अच्छे सपने देखो। धार्मिक सपने देखो। सोओ मजे से।

शिष्य भी मानता है कि गुरु हो तो ऐसा हो।

सदगुरु तो कष्ट देता मालूम होगा। सुबह-सुबह जब मीठी-मीठी सर्दी पड़ रही है, तब वह तुम्हारा कंबल छीन रहा है, तब वह तुम्हें उठाने की कोशिश कर रहा है, कि ठंडा पानी तुम्हारी आंखों पर मार रहा है। दुश्मन मालूम होगा।

सांत्वना तो सदगुरु नहीं देता, न तुम्हारी बीमारियों की चिंता लेता है। हां, तुम्हारी बीमारियों को सुनकर भीतर-भीतर हंसता है। कठोर लगेगा। और मैंने जब कहा कि सदगुरु शिष्य को संपूर्ण स्वतंत्रता देता है तो तुम्हारे मन में सवाल उठा: इसका तो अर्थ हुआ कि वह शिष्य की जरा भी चिंता नहीं करता? शिष्य का उपचार करना चाहता है, उपकार करना चाहता है, इसलिये शिष्य को संपूर्ण स्वतंत्रता देता है, क्योंकि स्वतंत्रता ही मोक्ष का मार्ग है। लेकिन शिष्य नहीं चाहता यह। यह तुम समझ लेना। शिष्य स्वतंत्रता नहीं मांगता। शिष्य कहता है कि मैं आपका गुलाम होने को तैयार हूं। शिष्य कहता है: मुझे सहारा दो, स्वतंत्रता नहीं। मेरे पैर बन जाओ कि मेरे पंख बन जाओ, मगर मेरे पंखों को पैदा करने की कोशिश मत करो, क्योंकि वह कठिन बात है।

फिर जब शिष्य कहता है कि मेरे सहारे बन जाओ तो सारा उत्तरदायित्व सदगुरु पर छोड़ देता है। और उत्तरदायित्व जब भी तुम छोड़ दोगे, तुम्हारा विकास अवरुद्ध हो जायेगा। उत्तरदायी तो तुम ही हो। परमात्मा तुम्हारे गुरु से नहीं पूछेगा कि तुम क्यों नहीं जागे–तुमसे पूछेगा! उत्तरदायी तुम हो। तुम्हारे लिए कोई दूसरा उत्तरदायी नहीं है। तुम्हारे और परमात्मा के बीच कोई दूसरा खड़ा नहीं हो सकता, लेकिन लोगों की गलत आदतें बचपन से पड़ जाती हैं। पहले मां-बाप पर निर्भर रहते हैं, फिर स्कूल के शिक्षकों पर निर्भर हो जाते हैं, फिर राजनेताओं पर निर्भर हो जाते हैं। ऐसे जिंदगी निर्भरता-निर्भरता में बीतती है।…किसी पर निर्भर। खुद अपने पैर पर न कभी खड़े होते हैं, न कभी अपनी स्वतंत्रता की उदघोषणा करते हैं। दूसरे करने भी नहीं देते, क्योंकि दूसरे चाहते हैं कि तुम गुलाम रहो। दूसरे चाहते हैं कि तुम निर्भर रहो। निर्भर रहो तो तुम्हारा शोषण हो सके।

सदगुरु तो तुम्हें इस सारी निर्भरता से मुक्त करेगा। वह तुम्हें जगायेगा। वह तो कहेगा कि तुम्हें तुम्हीं होना है–किसी और की नकल नहीं, किसी और आदर्श का अनुकरण नहीं। वह तो तुम्हारी अद्वितीयता की, तुम्हारी महिमा की तुम्हें प्रतीति देगा। वह तो कहेगा: तुम जैसे हो सुंदर हो। परिपूर्ण स्वतंत्रता में तुम्हारा फूल खिले, इसका आयोजन करेगा। तुम्हें सारी सुविधा देगा कि तुम जैसे होना चाहिये वैसे हो सको, लेकिन तुम्हारे ऊपर कोई आदर्श कोई आचरण नहीं थोपेगा।

मेरा अर्थ यही था कि सदगुरु शिष्य को पूरी स्वतंत्रता देता है। हैरानी तुम्हें होती होगी।

एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि वे विनोबा के पवनार आश्रम में थे, विनोबा जी बड़ी चिंता लेते हैं शिष्यों की। मैंने कहा: मतलब? उन्होंने कहा कि रोज प्रत्येक शिष्य के कमरे में आकर देखते हैं कि सब साफ-सुथरा है? इतना ही नहीं, शिष्य के स्नानगृह और संडास में भी झांककर देखते हैं कि सब साफ-सुथरा है या नहीं? बड़ी चिंता लेते हैं!

मैंने कहा: यह काम तो किसी जमादार का हुआ! इसका सदगुरु से क्या लेना-देना? और अगर शिष्यों को इतनी बुद्धि नहीं मिली कि अपनी संडास की सफाई कर सकें तो और क्या खाक करेंगे! और कहां की सफाई करेंगे! इसके लिये भी अगर विनोबा को आना पड़ता है…और रोज…तो यह तो खूब सत्संग हो रहा है!

स्वभावतः ऐसे व्यक्तियों को लगेगा कि मैं जरा भी चिंता नहीं करता, क्योंकि मैं तो यह भी नहीं जानता कि कौन शिष्य इस आश्रम में किस कमरे में रहता है। कौन-कौन लोग इस आश्रम में रहते हैं, इसका भी मुझे पक्का पता नहीं है। मैं किसी के कमरे में आज तक गया नहीं हूं। अपने कमरे से और यहां तक का रास्ता भर मुझे मालूम है। मैं इस आश्रम में भी पूरा कभी नहीं गया हूं, कभी घूमा नहीं हूं, इसका मैंने एक चक्कर भी नहीं लिया है। इस आश्रम के दफ्तर में कभी नहीं गया हूं। मुझे पता नहीं है, कौन कहां क्या कर रहा है।

इतना बोध अगर न जग सके शिष्यों में कि ये छोटे-छोटे काम खुद सम्हाल लें, तो बात ही क्या हुई?

तुम हैरान होओगे कि इस आश्रम का काम मेरे बिलकुल बिना चल रहा है। और इतना बड़ा आश्रम इस पृथ्वी पर कहीं भी नहीं है, लेकिन मुझसे बिलकुल बिना चल रहा है। मैं उसमें भागीदार हूं ही नहीं। मैं अगर एक दिन चुपचाप अपने कमरे से अदृश्य हो जाऊं तो आश्रम में कहीं कोई बाधा नहीं पड़ेगी, सब ऐसा ही चलता रहेगा, कोई अंतर नहीं आयेगा, क्योंकि मेरा कहीं कोई हाथ ही नहीं है।

मैंने तुम्हें बोध दिया, समझ दी, अब तुम उसका उपयोग करो। और इसे तो मैं थोड़ा-सा विनोबा के लिये अशोभन मानता हूं। किसी की संडास में जाकर झांकना, उसका अपमान करना है, उसकी अवमानना है। इसमें निंदा का स्वर है। इसमें भरोसा नहीं है। और जब गुरु को इतना भरोसा अपने शिष्यों पर न हो तो शिष्यों का क्या खाक भरोसा गुरु पर होगा। और शिष्य अगर डरकर संडास साफ रखते हों कि गुरुदेव आते होंगे–गुरुदेव यानी सेनिटरी इंस्पेक्टर–अगर इसलिये संडास साफ रखते हों, तो यह कोई संडास का साफ रखना हुआ? ठीक है, संडास में तो झांक लोगे, इनकी आत्माओं को कौन साफ करेगा? कैसे इनकी आत्माओं को साफ करोगे?

उन मित्र ने कहा कि वे छोटी-छोटी चीज की फिक्र करते हैं कि किसी ने चाय तो नहीं पी ली, किसी ने सिगरेट तो नहीं पी ली? रात ठीक समय पर सब लोग सो गये कि नहीं? नौ बजे प्रकाश बुझ गया कि नहीं? ये कारागृह की बातें हैं, आश्रम की नहीं। आश्रम कोई कन्सन्ट्रेशन केंप थोड़े ही है, कोई कारागृह थोड़े ही है। किसी को दस बजे सोना ठीक लगता है, वह दस बजे सोता है; और किसी को सुबह तीन बजे उठना ठीक लगता है वह तीन बजे उठता है; और किसी को छह बजे ठीक लगता है वह छह बजे उठता है। विनोबा नौ बजे सोते हैं, इसलिये प्रत्येक को नौ बजे सोना चाहिए, यह ज्यादती हो गई। मैं रोज बारह बजे सोता हूं, अब मैं सब पर थोपूं कि बारह बजे सोना चाहिए, यह तो ज्यादती हो जायेगी। विनोबा तीन बजे उठते हैं तो हर-एक को तीन बजे उठना चाहिए। तो लोग उठते हैं, बेमन से उठते हैं, गालियां देते उठते हैं। मुझे उन लोगों का पता है। मजबूरी में उठते हैं। लेकिन यह तो कारागृह हुआ। इस कारागृह से मुक्ति की यात्रा कैसे होगी?

यह तो ठीक है, सैनिकों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाये, लेकिन संन्यासियों के साथ तो ऐसा व्यवहार नहीं किया जा सकता। सैनिक की तो स्वतंत्रता मारनी है। सैनिक को तो इतना गुलाम बनाना है कि जब उससे कोई मूढ़तापूर्ण कृत्य करने को भी कहा जाये तो वह इनकार न कर सके। और सैनिक से काम ही मूढ़तापूर्ण करवाने हैं…! किसी की छाती में गोली मार दो। अगर सैनिक में थोड़ी बुद्धि हो तो वह कहेगा: “क्यों? इस आदमी ने कुछ बिगाड़ा नहीं।’ मगर इतनी बात अगर सैनिक कहे तो ये राजसत्तायें नहीं टिक सकतीं। इसलिए सैनिक से तो उल्टे-सीधे न मालूम कैसे-कैसे काम करवाने हैं। उसकी तो बुद्धि बिलकुल नष्ट कर देनी है। उसको तो बिलकुल नियमबद्ध कर देना है कि यंत्रवत काम करे। बायें घूम, तो वह बायें घूमे।

एक दफा एक दार्शनिक दूसरे महायुद्ध में भरती हुआ। जरूरत थी ज्यादा सैनिकों की तो सभी वर्गों के लोग युद्ध पर जा रहे थे, दार्शनिक को भी जाना पड़ा। और जब उसे कवायद करवाई गई, कहा बायें घूम, तो वह खड़ा ही रहा। लोग बायें भी घूम गये, दायें भी घूम गये वह खड़ा ही रहा। आखिर जाहिर दार्शनिक था तो कवायद करवाने वाले कप्तान ने आकर कहा कि क्षमा करें, मुझे पता है कि आप प्रसिद्ध व्यक्ति हैं, मगर यहां यह नहीं चलेगा। बायें घूम यानी बायें घूम। लेकिन उसने पूछा: क्यों? मैं यही तो सोच रहा हूं खड़ा हुआ कि बायें क्यों घूमूं। इसका प्रयोजन क्या है, अभिप्राय क्या है? घूमने से हल क्या होगा? और जो घूम गये उनको क्या मिला? और घूमकर वे फिर वहीं आ गये जहां मैं खड़ा ही हुआ हूं। तो मैं बचा झंझट से।

यह सोचकर कि यह आदमी तो किसी काम का नहीं…इतना सोच-विचार करो तो फिर सैनिक नहीं हो सकते। इतनी बुद्धिमत्ता सैनिक को नहीं चाहिए। इसलिए तो सैनिक से कवायद करवाते हैं: बायें घूम, दायें घूम, आगे जा, पीछे जा। वह जाता-आता सुबह से सांझ यही करता रहता है। करते-करते उसकी बुद्धि बिलकुल ही मंद हो जाती है। सोच-विचार की हत्या हो जाती है। फिर एक दिन उससे कहते हैं गोली मार, तो वह गोली मार देता है। उसको बायें घूम और गोली चलाने में कोई अंतर नहीं रह गया अब। उससे तो कहो खुद को गोली मार तो वह खुद को गोली मार लेगा।

यह रेवरेंड जोन्स, जिनकी मैंने कल तुमसे चर्चा की, यह अपने शिष्यों से यह काम करवा सका कि सब जहर पी लो और उन सबने जहर पी लिया, तुम सोचते हो कि वह आश्रम कैसा रहा होगा? इसकी कोई ने पहले खबर नहीं दी, लेकिन यह पहली घटना नहीं हो सकती। ये नौ सौ आदमियों को जिन्होंने आत्महत्या की रेवरेंड जोन्स की बात मानकर, वर्षों तक कवायद करवाई गई है, तब यह घटना घट सकती है। अचानक किसी से जाकर कहो जहर पीयो तो वह पूछेगा: क्यों? तुम जानकर हैरान होओगे, इस घटना को घटाने के लिये वर्षों से रिहर्सल किया जा रहा था। घंटी बजती थी खतरे की। हर महीने में करीब-करीब एक बार दो बार घंटी बजती खतरे की, कभी भी। सारा आश्रम इकट्ठा होता और सबको प्यालियों में कुछ दिया जाता कि यह जहर है। यह रिहर्सल था। लोग धीरे-धीरे इसके आदी हो गये। यह कई दफे हो चुका था, यह कई साल से हो रहा था। लोग उस रस को पी लेते, स्वीकार करके। रेवरेंड जोन्स का कहना था कि यही तुम्हारे समर्पण का सबूत है कि अगर मैं जहर भी दूं तो तुम जहर पीयो। ये लोग रिहर्सल करते-करते भूल ही गये यह बात कि एक दिन असली जहर अगर दिया जाएगा तो फिर क्या होगा! यह नकली जहर था ये लोग तो मजे में लेते थे, घंटी भी झूठी थी। लेकिन इस बार घंटी सच्ची बजी! वह तैयारी ही कर रहा था इसकी। इस बार उसने जहर दे ही दिया। लोग जहर पी गये। नौ सौ लोग मर गये।

रेवरेंड जोन्स ने संन्यासी पैदा नहीं किये, सैनिक पैदा किये थे। उनकी हर छोटी-छोटी बात की वह फिकिर रख रहा था, जिसको तुम चिंता कहते हो–वे कब उठते, कब सोते, कैसे बैठते, कोई नियम का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है? यह तो लोगों की आत्माओं को मारने का उपाय है। यह आदमी मौलिक रूप से हत्यारा था।

छोटे पैमाने पर ये काम सभी आश्रमों में चलते हैं। छोटे पैमाने पर चलते हैं तो तुम्हें पता नहीं चलता, लेकिन आत्महत्या तो वहां भी की जा रही है। अगर तुम अपनी नींद के खुद मालिक नहीं हो, अगर तुम अपने भोजन के खुद मालिक नहीं हो, अगर तुम्हें इतनी भी बुद्धि नहीं है कि क्या खाओ, क्या पीओ, कब सोओ, कब उठो, स्नान करो या न करो, अगर इतना भी बोध तुम्हें सदगुरु के पास रहने से नहीं मिल रहा है और इसके लिए डंडा लेकर तुम्हारे पीछे पड़ा जाये, तो फिर मैं मानता हूं ऐसी जगह को आश्रम कहना ठीक नहीं है, कारागृह कहना ठीक है।

मैं तुम्हें पूरी स्वतंत्रता देता हूं क्योंकि मेरी तुम पर पूरी श्रद्धा है। शिष्य ही थोड़े ही सिर्फ सदगुरु पर श्रद्धा करता है–सदगुरु वही है जो अपने शिष्य पर भी श्रद्धा करता है। श्रद्धा करता है, तुम्हारा सम्मान करता है, तुम्हारी आत्मा का गौरव स्वीकार करता है। तुम महिमावान हो। आज सोये हो, कल जाग जाओगे। बुद्ध सोया भी हो तो भी है तो बुद्ध ही। तुम भी प्रबुद्ध हो, देर-अबेर की बात है। और तुम्हें जितनी स्वतंत्रता दी जाये उतना ही तुम्हें अपने बोध से जीना पड़ेगा। और जितना तुम्हें अपने बोध से जीना पड़ेगा उतना ही बोध जागेगा। और बोध को जगाना है। लेकिन तुमने कुछ का कुछ समझ लिया।

अकसर ऐसा हो जायेगा, जितनी बड़ी बात होगी उतनी ही समझनी कठिन हो जाती है। तुम कुछ का कुछ समझ लिये।

स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि मेरे मन में तुम्हारे लिये काई लगाव नहीं है। ठीक उल्टा। स्वतंत्रता दे रहा हूं, क्योंकि तुमसे प्रेम है। तुमने स्वतंत्रता का अगर नासमझी से उपयोग किया तो यह स्वच्छंदता हो जायेगी। कसूर तुम्हारा होगा। अगर तुम मेरे प्रेम को समझे, मेरी श्रद्धा को समझे, मैंने तुम्हें जो सम्मान दिया है उसे समझे–तो यही स्वतंत्रता परम मुक्ति बन जायेगी।

लेकिन खतरा कुछ भी हो, मैं तुम्हारी स्वतंत्रता नहीं छीन सकता। मैं यह खतरा लेने को तैयार हूं कि तुम स्वच्छंद हो जाओ, मगर यह खतरा लेने को तैयार नहीं हूं कि तुम गुलाम हो जाओ, कि तुम परतंत्र हो जाओ। मैं तुम्हें यहां महाजीवन दिखाने को हूं, महाजीवन की तरफ ले चलने को हूं। मैं तुम्हें मार नहीं डालना चाहता हूं।

लेकिन लोग तो अपने ढंग से समझते हैं: कुछ सुनेंगे कुछ समझेंगे।

ढब्बू जी अपने एक बीमार दोस्त से मिलने गये और उसकी तबीयत का हाल पूछा। दोस्त ने कहा: बुखार तो टूट गया, अब टांग में दर्द है। ढब्बू जी ने कहा: घबराओ मत, जब बुखार टूट गया तो टांग भी जल्दी ही टूट जायेगी।

एक आदमी, एक बिलकुल अपरिचित आदमी मुल्ला नसरुद्दीन के पास पहुंचा। नमस्कार के बाद उसने निवेदन किया कि क्या आप मुझे पांच हजार रुपये उधार दे सकते हैं?

लेकिन मैं तो आपको पहचानता नहीं, मुल्ला ने चकित होकर कहा। उस आदमी ने कहा: यह भी खूब रही! जो पहचानते हैं, वे पांच रुपये देने को तैयार नहीं। किसी के पास जाता हूं, तो वे कहते हैं: हम तो आपको पहचानते हैं, आगे बढ़ो। अब आप कहते हैं पहचानता नहीं हूं, इसलिये नहीं दूंगा। तो मैं जाऊं किसके पास?

थोड़ा समझो। मैं जो कहता हूं उसे एकदम जैसा तुम्हारी बुद्धि में आ जाये वैसा ही मत मान लेना, थोड़ा उस पर ध्यान करना, थोड़ी उसकी बारीकियों में उतरना, थोड़ी उसकी गहराइयों में डुबकी मारना। जल्दी निष्कर्ष मत लिया करो।

निश्चित, मैं तुम्हें पूर्ण स्वतंत्रता देता हूं। यह मेरा सम्मान है तुम्हारे प्रति। तुम भी स्वतंत्रता का सम्मान करना। तुम भी स्वतंत्रता का सदुपयोग करना। तुम इस स्वतंत्रता को सीढ़ी बनाना। यह सीढ़ी ही तुम्हें मोक्ष की तरफ ले जायेगी।

मोक्ष है अंतिम स्वतंत्रता और जिसे उस अंतिम स्वतंत्रता को पाना है उसे पहले कदम से ही स्वतंत्रता का अभ्यास करना होगा मैं तुम्हें किन्हीं भी नियमों में, जंजीरों में बांधना नहीं चाहता। मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूं। और न ही मुझे रस है इस बात में कि मैं अपने को तुम्हारे ऊपर थोप दूं। यह तो हिंसा है। मगर महात्मा गांधी और विनोबा भावे, इस तरह के लोग इसी तरह की हिंसा को शिष्य की चिंता कहते हैं। अपने आग्रह उस पर थोप देते हैं, जबर्दस्ती थोप देते हैं।

मेरा कोई आग्रह नहीं है। मैं तो जो भी कह रहा हूं उसमें कोई भी आदेश नहीं है कि तुम्हें मानना ही है। मैं तो सिर्फ अपने विचार निवेदन कर रहा हूं। आज्ञायें नहीं हैं ये, सिर्फ मेरी अंतर्दृष्टि तुम्हें साफ कर रहा हूं। ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है। सुनो, गुनो। तुम्हें भी दिखाई पड़े तो चल पड़ना और जब तक तुम्हें दिखाई न पड़े तब तक चलने की कोई भी जरूरत नहीं है।

और जरा ध्यान रखना, मतलब अपने मत ले लेना।

ढब्बू जी अपने बेटे को कह रहे थे: आज तुम्हारे मास्टर जी ने शिकायत की है, तुम रोजाना देर से स्कूल पहुंचते हो। ढब्बू जी का बेटा, आखिर ढब्बू जी का बेटा! उसने कहा: इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है। ढब्बू जी ने कहा: तुम्हारा मतलब? उसने कहा: मेरे स्कूल पहुंचने से पहले ही वे लोग घंटी बजा देते हैं: और एक दिन नहीं, रोज यही हो रहा है।

अपने-अपने मतलब हैं! नहीं, तुम अपने मतलब मत लेना। थोड़ी सहानुभूति, थोड़ा समभाव मुझसे साधो। थोड़ा मेरी आंखों से झांको, तो चीजें कुछ और ही रूप में प्रगट होंगी, और ही रंग।

नहीं तो मुझे गलत समझना बहुत आसान है, क्योंकि मैं बातें ही इतनी ऊंचाइयों की कर रहा हूं तुमसे कि अगर तुमने आंखें ऊपर न उठाईं तो तुम नहीं समझ पाओगे। और मैं नीचाइयों की बातें नहीं करूंगा। नीचाइयों की बातें करने वाले तो बहुत लोग हैं इस देश में। अगर उनसे ही तुम्हें संबंध जोड़ना है तो तुम मेरे पास आओ ही मत। तुम्हें अगर चाहिए कोई ऐसा गुरु जो चौबीस घंटे तुम्हारे पीछे लगा रहे खुफिया की तरह, तो तुम मेरे पास आओ मत। मैं तो तुम्हारे पीछे बिलकुल न लगूंगा। मैं तो निवेदन कर दूंगा और तुम पर छोड़ दूंगा।

तुम पर छोड़ने में भी राज है। मैं चाहता हूं कि तुम अगर कोई चीज अंगीकार करो तो तुम्हारी निजता से अंगीकार होनी चाहिए। मेरे आग्रह से नहीं। मैंने कहा, इसलिये नहीं। तुम्हें दिखाई पड़ा, इसलिये। तुमने ऐसा अनुभव किया, इसलिये।

जब भी कोई सत्य सिर्फ किसी के आग्रह से स्वीकार किया जाता है, झूठ हो जाता है। सत्य तभी सत्य है जब तुम्हारी प्रतीति से उमगता है, जब तुम्हारे भीतर अंकुरित होता है।

 

चौथा प्रश्न:

 

ओशो! अपनी   समझ से मैं संन्यास ग्रहण करने की तैयारी करके आया था। यहां आकर पत्नी ने कड़ा विरोध खड़ा किया। इसलिये मैं तत्काल टाल गया। अब लगता है कि मैं ही इसमें सहयोगी हुआ। प्रवेग क्षीण पड़ गया। शायद इतना उत्साह न जुटा पाया कि मैं डूब सकता। दुखी हूं। समाधान देने की अनुकंपा हो।

 

केदारनाथ सिंह! समाधान न मांगो, समाधि मांगो। क्योंकि समाधि से ही समाधान है। और संन्यास तो समाधि की तरफ जाने का संकल्प है और कुछ भी नहीं।

पत्नी बाधा बनी, यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसे तो तुम्हें पहले से ही अपेक्षा करनी थी। यह तो कुछ अनूठा न हुआ। यह तो होता ही है। इसके पीछे गणित है। अब तक तुम पत्नी के थे, संन्यस्त होकर तुम मेरे हो जाओगे। पत्नी से भी ज्यादा तुम मेरे हो जाओगे। यह पत्नी को अड़चन की बात तो है। अब तक तुम पूरे-पूरे उसके थे, अब तुम पूरे-पूरे उसके न रह जाओगे। अब तक पत्नी प्रथम थी, जिस दिन से तुम संन्यास लोगे उसी दिन से द्वितीय हो जायेगी। अगर किसी दिन चुनना होगा पत्नी और मेरे बीच तो तुम मुझे चुनोगे।

इससे पत्नी को पीड़ा तो होगी, अड़चन भी होगी। इतने पुराने दिन का अधिकार कोई ऐसे ही नहीं छोड़ देता, झंझट तो खड़ी करेगी। मगर उसकी झंझट से झुक जाना न तो तुम्हारे हित में है न उसके हित में है।

और ध्यान रखना, जब भी पत्नी तुम्हें झुकाये और तुम झुक जाओ तो पत्नी के मन में तुम्हारे प्रति जो आदर है वह कम हो जाता है। यह भी खयाल रखना, जीवन बड़ा जटिल है। पत्नी उसी पति का आदर करती है जो न झुके। कौन स्त्री उस पति का आदर करती है जो ऐसा झुक जाये और पूंछ हिलाने लगे! इसीलिए तो पत्नियों की श्रद्धा पतियों में नहीं रह जाती, क्योंकि पति लल्लो-चप्पो करने लगता है और उन्होंने सोचा था कि किसी पुरुष के पास समर्पण हो रहा है। और फिर पाती है कि पुरुष-मुरुष कहां, जरा-सी बात में झुका लो।

स्त्रियों के मन में पति के प्रति आदर नहीं रह जाता। कारण? पतियों का खुद का व्यवहार है। पति जल्दी ही समझौते कर लेते हैं। पत्नियां इतने जल्दी समझौते नहीं करतीं। मेरे हिसाब में पत्नियां ज्यादा आत्मबल प्रगट करती हैं। और तुम्हें सभी को अनुभव होगा इस बात का। अगर तुममें और तुम्हारी पत्नी में झंझट हो गई तो झुकना तुम्हीं को पड़ता है, पत्नी नहीं झुकती। दिन बीतें, दो दिन बीतें, तीन दिन बीतें, नहीं झुकती। रोयेगी, खाने में ज्यादा नमक डालेगी, रोटियां जलायेगी, बच्चों को पीटेगी, बर्तन गिरायेगी, दरवाजे भड़कायेगी, सब करेगी–मगर झुकेगी नहीं! तुम्हें सता डालेगी सब तरफ से। आखिर तुम्हें उस हालत में कर देगी कि अब या तो पागल हो जाओ और या झुक जाओ। मगर ध्यान रखना, जब तुम झुकते हो तभी तुम्हारे प्रति श्रद्धा समाप्त हो जाती है।

स्त्री का मन उस पति को आदर देता है जो संकल्पवान है। अगर तुम न झुको, पहली बार न झुको…पहली बार ही भूल हो जाती है।

एक गांव के गंवार ने शादी की…शहरी होता तो इतनी हिम्मत नहीं रख सकता था…गांव का गंवार था। पत्नी को लेकर चला वापिस। घोड़ा गाड़ी थी उसके पास। घोड़ा बीच में अटक गया। उसने एक कोड?ा मारा घोड़े को और कहा कि एक…! घोड़ा एकदम चल पड़ा। फिर अटका। उसने फिर उसे दो कोड़े मारे और कहा दो…! पत्नी बैठी-बैठी सुन रही थी कि यह हो क्या रहा है! फिर तीसरी बार घोड़ा अटका। वह उतरा नीचे, निकाली उसने बंदूक और घोड़े को वहीं मार दी गोली। धड़ाम से घोड़ा नीचे गिर गया। दो दफे चेतावनी दे दी, पर्याप्त; अब तीसरा मौका आ गया। पत्नी ने कहा: यह तुमने क्या किया? उसने कहा: एक…! बस…फिर उसके बाद दो की नौबत नहीं आई। मगर वह तो गांव का गंवार था। मामला पहली दफा रफा-दफा हो गया। ऐसे पुरुष का स्त्री आदर करती है!

केदारनाथ सिंह, तुमने क्या किया? कहना था: एक…। तुम तो मेरे पास पहली दफा आये हो, लेकिन तुम्हारे संबंध में मुझे पहले से बहुत कुछ ज्ञात है, क्योंकि तुम्हारे पिता मेरे पास आते थे। केदारनाथ सिंह स्वर्गीय महाकवि दिनकर के बेटे हैं। उन्होंने बहुत बार तुम्हारी भी चर्चा मुझसे की है। वे भी बहुत बार आये और खाली गये। दिल में तो उनके भी बहुत था कि कुछ हो जाये, ध्यान हो समाधि हो, संन्यास हो; मगर हिम्मत न जुटा पाये। तुम्हारे पिता खाली गये, तुम भी खाली जाना चाहते हो? उन्होंने सुंदर गीत लिखे, मगर उन सुंदर गीतों के पीछे एक बहुत ही दुखी चित्त था। उन्होंने अमृत के भी गीत लिखे, मगर मृत्यु से उन्हें बड़ा डर था।

तो जब मैं दिनकर की अमृत की कवितायें पढ़ता हूं तो बहुत हैरान होता हूं। क्योंकि मैं उन्हें जानता हूं। वे मेरे पास आते थे तो मृत्यु से बहुत भयभीत थे। मृत्यु से बहुत डरे हुए थे, कंपे हुए थे। लेकिन बातें उन्होंने अपने गीतों में आत्मा की अमरता की की हैं। कारण है। ऐसा ही अकसर हो जाता है। कवि को अनुभव नहीं होते, सिर्फ अनुभव को प्रगट करने की क्षमता उसके पास होती है, अनुभव नहीं होता। ऋषियों को अनुभव होते हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि उनको प्रगट करने की क्षमता नहीं होती। जब कभी कोई ऋषि और कवि एक साथ होता है तो सदगुरु पैदा होता है। अकसर ऐसा नहीं होता। कवि कह पाते हैं, जानते नहीं। ऋषि जानते हैं, कह नहीं पाते। जब कोई जानकर कह पाता है तब सदगुरु पैदा होता है। सदगुरु का अर्थ है: जिसने जाना है और जो जना भी सकता है; जिसने शून्य को अनुभव किया है और जो शून्य की थोड़ी-सी झलक अपने शब्दों से तुम तक पहुंचा भी सकता है।

संन्यास का और क्या अर्थ है–किसी सदगुरु के निकट आना; आत्मीय बनाना; उसका अंतरंग बनाना। उसके समीप होने की क्षमता और पात्रता का नाम संन्यास है।

और मैं तुमसे कहता हूं: तुम्हारा संन्यास तुम्हारी पत्नी को भी चेतायेगा, अन्यथा वह भी सोई-सोई मर जायेगी। तुम जागो, साहस करो। पहले थोड़ी अड़चन आयेगी, स्वाभाविक है। मगर इस दुनिया में कोई चीज सदा नहीं टिकती, तो अड़चन कैसे सदा टिकेगी? न सुख टिकते न दुख टिकते। पत्नी कुछ दिन शोरगुल मचायेगी, मचाने देना। जब-जब पत्नी शोरगुल मचाये तभीत्तभी तुम सक्रिय ध्यान करने लगना। मोहल्लेवालों के डर से वह खुद ही शांत हो जायेगी, कि बाबा सक्रिय ध्यान न करो। इतने ध्यान मैंने ईजाद किये हैं पतियों के लिये कि अपनी ही पत्नी नहीं, पड़ोस की सभी की पत्नियों को तुम पागलपन की दशा में भेज सकते हो।

इतने जल्दी नहीं झुक जाना था। एक तो झुकना ही नहीं चाहिये। और जब कोई चीज ठीक करने चले हो तब तो झुकना ही नहीं चाहिए। तुम कुछ गलत काम करने नहीं चले थे–तुम न तो शराबी बन रहे थे, न जुआरी बन रहे थे, न तुम वैश्यागामी बन रहे थे–तुम संन्यासी बनने चले थे। और बड़ा मजा है, आदमियों को देखकर बड़ी हैरानी होती है! अगर उनको शराब पीनी है तो पत्नी से नहीं डरते, पीये चले जाते हैं; और ज्यादा पीने लगते हैं। अगर उन्हें जुआ खेलना है तो पत्नी नहीं रोक पाती। बुराई से कोई पत्नी उन्हें नहीं रोक पाती। तुम समझ ही लो, अगर बुराई से पत्नियां रोकने में समर्थ होतीं तो इस दुनिया में सारी बुराइयां रुक गई होतीं, क्योंकि यहां सभी तो पति हैं। लेकिन कोई बुराई नहीं रुकी है। शराब चल रही है, चोरी चल रही है, बेईमानी चल रही है, रिश्वत चल रही है, जुआ चल रहा है, सब चल रहा है। कोई पत्नी नहीं रोकने में समर्थ हो पा रही है। तो तुम्हें जो करना है वह तो तुम करते हो। संन्यास के लिये तुम जल्दी से रुक गये, कहीं तुम्हारे भीतर ही निर्णय की कमी थी।

इसलिये तुमने ठीक ही सोचा है कि अपनी समझ से मैं संन्यास ग्रहण करने की तैयारी करके आया था।   लेकिन तैयारी ऊपरी रही; भीतर कहीं-न-कहीं थोड़ा-सा अटकाव था। पत्नी ने उसी का उपयोग कर लिया। यहां आकर पत्नी ने कड़ा विरोध खड़ा किया, वह तो तुम्हें जानना ही था कि करेगी; तुम्हारी पत्नी है, तुम न जानोगे, कौन जानेगा? वह तो तुम्हें पहले ही सोच लेना था कि पत्नी कड़ा विरोध करेगी। मगर उसके सामने झुकना, तुम्हारा भी आत्मगौरव नष्ट हुआ, उसका भी आत्मगौरव नष्ट हुआ। क्योंकि उसने तुम्हें एक अच्छी दिशा में जाते हुए भी झुकते देखा कि तुम समझौता कर सकते हो। और तुम्हारी पत्नी भलीभांति जानती है कि और किसी चीज में तुमसे समझौता नहीं करवा पायी है, लेकिन इसमें समझौता करवा लिया।

कमजोरी कहीं तुम्हारे भीतर थी। उसे पहचानो और उस कमजोरी को हटा दो। यह तुम्हारे भी हित में होगा और तुम्हारी पत्नी के भी हित में होगा। अगर तुम मस्त हो सको, आनंदित हो सको और ध्यान और संन्यास तुम्हारे जीवन में कुछ फूल खिला सके, तो तुम्हारी पत्नी भी संन्यस्त होगी।

अड़चनें तो स्वाभाविक हैं। कुछ तो हमें मूल्य चुकाना ही पड़ेगा। यही तो तपश्चर्या है। धूप में खड़ा होना तपश्चर्या नहीं है, न भूखे मरना तपश्चर्या है। यही है असली तपश्चर्या कि जब तुम बदलना शुरू करोगे तो तुमसे संबंधित सारे लोग बाधा डालेंगे। जब भी तुम बदलते हो तो तुमसे संबंधित सारे लोगों को अड़चन होती है। एक आदमी के बदलने से सैकड़ों आदमियों को अड़चन होती है। क्यों? क्योंकि वे, तुम जैसे हो तुमसे भलीभांति परिचित हो गये थे, तुम्हारे साथ व्यवहार का समायोजन हो गया था; अब तुम नये हो रहे हो, अब उनको फिर से तुम्हारे साथ नया समायोजन करना पड़ेगा। अब तुम्हारे संबंध में पुनर्विचार करना होगा। अब तक तुम्हारे संबंध में जो उन्होंने आदतों का एक जाल बना लिया था, वह सब टूट गया। यही तो अड़चन है, एक मित्र बनाता हूं मैं, तो सौ दुश्मन हो जाते हैं।

मुझसे लोग पूछते हैं कि आप इतने दुश्मन कैसे खड़े कर लेते हैं? उसका कारण सीधा है: एक मित्र बनाऊं, सौ दुश्मन हो ही जाने वाले हैं। क्योंकि जितने लोग उससे संबंधित थे–उसकी पत्नी है, वह नाराज हो गई; पत्नी के परिवार के लोग हैं, वे नाराज हो गए; उसके पिता हैं, मां हैं, वे नाराज हो गये हैं; उसके बेटे-बेटियां, वे नाराज हो गये; उसके मित्र, वे नाराज हो गये। एक तूफान आ गया उसके संबंधों के जगत में। जितने उससे संबंधित लोग थे, उन सबको अड़चन खड़ी हो गई। अब यह आदमी कुछ और हो गया। अब इससे फिर से पहचान करो। अब इससे फिर से संबंध जोड़ो। अब यह पुराने भरोसे का आदमी न रहा।

और इस दुनिया में कोई भी आदमी कुछ सीखना नहीं चाहता। लोग पुराना जो सीख लिया उसी के आधार से जीना चाहते हैं। इसीलिये तो लोग आदतें नहीं बदलते। गलत आदतें भी हजारों साल तक चलती हैं। जीवन-घातक आदतें भी चलती रहती हैं। क्योंकि नये को कौन सीखे, कौन झंझट करे! पुराने के साथ एक सुविधा रहती है।

अब समझो कि तुम्हारी पत्नी यह जानती है कि अगर तुम्हें परेशान करेगी तो तुम क्रोधित हो जाते हो, नाराज हो जाते हो–और तुम्हें नाराज कर लेना तुम्हारी मालकियत है! पत्नी जानती है कि तुम्हारी बटन कैसे दबाना; जरा दबाई कि तुम नाराज हुए। नाराज कर लिया तो काम हो गया। अब तुम कितनी देर नाराज रहोगे? थोड़ी देर में नाराजगी के कारण अपराध-भाव पैदा होगा कि यह मैंने क्या किया, बेचारी स्त्री, इसको क्यों परेशान कर रहा हूं! जाकर साड़ी खरीद लाओगे। पत्नियां जानती हैं कि अगर साड़ी खरीदवानी हो तो पहले तुम्हें नाराज करो; पहले तुम्हें इतना नाराज कर दो, तुम्हें ऐसी गलत स्थिति में खड़ा कर दो, तुम्हारी स्थिति, कि तुम्हें खुद ही लगने लगे कि मैंने गड़बड़ की। जैसे तुम्हें लगा कि मैंने गड़बड़ की, कि अब इसका भरपाव, इसका कुछ प्रतिकार करना होगा, परिपूरक कुछ खोजना होगा। जाओ साड़ी खरीद लाओ, कि जाओ सिनेमा दिखा लाओ, कि पत्नी चाहती थी कि नया जेवर खरीदना है तो खरीद ही दो। अब कुछ न कुछ करके संतुलन वापिस स्थापित करना होगा।

अगर तुम ध्यान करोगे, संन्यस्त हो जाओगे, पत्नी तुम्हें नाराज न कर सकेगी। तुम हंसोगे, तुम मुस्कराओगे। तुम उसकी व्यर्थ की बकवास सुनकर परेशान न होओगे। तुम्हारे ऊपर से कब्जा गया। तुममें अपराध-भाव पैदा न करवा पायेगी, तो बस तुम्हारे ऊपर से मालकियत गई।

हमारे बड़े गहरे जाल हैं एक-दूसरे से बंधे हुए। पत्नी नहीं चाहती कि तुम शांत हो जाओ, क्योंकि तुम शांत हो गये तो शांत व्यक्ति पर कैसे मालकियत करोगे? पत्नी नहीं चाहती कि तुम ध्यान करो, न पति चाहते हैं कि पत्नी ध्यान करे।

बड़ी अजीब दुनिया में हम जी रहे हैं। पागलों की एक जमात है, उसमें कोई नहीं चाहता कि तुम पागलपन छोड़ो। अंधों की एक जमात है, उसमें कोई नहीं चाहता कि तुम आंखवाले हो जाओ, क्योंकि उससे सभी अंधों का अपमान होता है। वे खींचकर तुम्हें अंधा ही रखना चाहेंगे।

इसलिए केदारनाथ सिंह, अड़चन तो स्वाभाविक थी पहले ही सोच लेना था। कोई हर्जा नहीं, नहीं सोचा पहले, अब तो अड़चन साफ हो गई। मगर मैं तुम्हें कहना चाहता हूं, इतने जल्दी निर्णय नहीं बदलने चाहिए। नहीं तो मनुष्य की आत्मा पैदा नहीं हो पाती। आत्मा तो पैदा ही चुनौतियों में होती है।

अंधकार में टटोल ढूंढ़ता प्रकाश मैं!

दीप है, परन्तु लौ लगी नहीं;

ज्योति के समीप से जगी नहीं!

चाहता अनंत गगन भेदकर विकास मैं!

 

दीप कहीं और अमर ज्योति कहीं;

दीपक से अग्नि शिखा मिली नहीं!

फिर भी श्रम करता हूं जाता अभ्यास मैं!

 

माना, ये राहें हैं दुर्गम पथरीली;

लेनी हैं सांसें सब ठंडी, जहरीली!

मृत्यु से रहा निकाल छिपा अमृत हास मैं!

 

आशा है, पाऊंगा ज्ञान वह,

होगा जब सफल कठिन

पर्वत-अभियान यह!

कोने में दुबका-सा, भय से

प्रकाश के, ममतात्तम

जायेगा छिप-छिप कर

सहम-सहम!

जाऊंगा स्वयं ज्योति का बन आकाश मैं!

अंधकार में टटोल ढूंढ़ता प्रकाश मैं!

संन्यास का भाव उठा, अंधेरे में प्रकाश के ढूंढ़ने की आकांक्षा उठी, अभीप्सा उठी, इसे मर न जाने दो। दीप है, परंतु लौ लगी नहीं! तुम भी दीये हो, जरा लौ लग जाये। ज्योति के समीप से जगी नहीं। तुम भी दीये हो, बुझे दीये हो, पुकारता हूं कि आओ मेरे करीब! जले दीये के करीब आ जाये बुझा दीया, बहुत करीब आ जाये, तो ही छलांग लगती है, ज्योति से फिर ज्योति जल जाती है।

अंधकार में टटोलता ढूंढ़ता प्रकाश मैं!

दीप है, परन्तु, लौ लगी नहीं;

ज्योति के समीप से जगी नहीं!

दीप कहीं और अमर ज्योति कहीं;

दीपक से अग्नि-शिखा मिली नहीं!

मिल सकती है! इसीलिए तो गैरिक वस्त्र चुने हैं संन्यास के लिये; वे ज्योतिशिखा के प्रतीक हैं, अग्नि के प्रतीक हैं। आओ करीब! साहस लो! शेष सब सम्हल जाता है। तुम मर भी जाओगे, तो भी दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी। तुम्हारे संन्यस्त होने से कोई दुनिया अस्त-व्यस्त नहीं हो जाने वाली। हां, तुम्हारे संन्यस्त होने से तुम्हारे जीवन में क्रांति हो जायेगी, तुम्हारी बाती जल जायेगी।

 

पांचवां प्रश्न:

 

इस जगत में सर्वाधिक आश्चर्यजनक नियम कौन-सा है?

 

क सूफी कहानी। एक चोर रात के समय किसी मकान की खिड़की में से भीतर जाने लगा, कि खिड़की की चौखट टूट जाने से गिर पड़ा और उसकी टांग टूट गयी। अगले दिन उसने अदालत में जाकर अपनी टांग के टूटने का दोष उस मकान के मालिक पर लगाया। मकान-मालिक को बुलाकर पूछा गया, तो उसने अपनी सफाई में कहा: इसका जिम्मेदार वह बढ़ई है, जिसने कि खिड़की बनायी। बढ़ई को बुलाया गया, तो उसने कहा कि मकान बनाने वाले ठेकेदार ने दीवार का खिड़की वाला हिस्सा मजबूती से नहीं बनाया था।

ठेकेदार ने अपनी सफाई में कहा: मुझसे यह गलती एक औरत की वजह से हुई, जो वहां से गुजर रही थी। उसने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींच लिया था।

जब उस औरत को अदालत में पेश किया गया, तो उसने कहा: उस समय मैंने बहुत बढ़िया लिबास पहन रखा था। आमतौर पर मेरी तरफ किसी की नजर उठती नहीं है। सो, कसूर उस लिबास का है जो इतना बढ़िया सिला हुआ था।

न्यायाधीश ने कहा: तब तो उसे सीने वाले दर्जी को बुलाया जाये, वही मुजरिम है। उसे अदालत में हाजिर किया जाये। वह दर्जी उस स्त्री का पति निकला और वही वह चोर भी था जिसकी टांग टूटी थी।

यह इस जगत का सर्वाधिक आश्चर्यजनक नियम है: जो गङ्ढे तुम दूसरों के लिये खोदते हो, उनमें स्वयं गिरना पड़ता है। फिर तुमने चाहे गङ्ढे जानकर खोदे हों चाहे अनजाने खोदे हों। जो कांटे तुम दूसरों के लिये बोते हो, वे तुम्हारे ही पैरों में छिदेंगे। अगर फूलों पर चलना हो तो सभी के रास्तों पर फूल बिखराना, क्योंकि तुम्हें वही मिलेगा जो तुम दोगे।

यह कहके आख़िरे-शब शमअ? हो गई ख़ामोश

किसी की ज़िंदगी लेने से ज़िंदगी न मिली।।

कितने पतंगों की ज़िंदगी ले ली रात-भर में, मगर अंतिम परिणाम में शमा को खुद बुझ जाना पड़ता है। जो दूसरों को बुझाती रही रात-भर, सुबह होते खुद भी बुझ जाना होगा।

यह कह के आख़िरे-शब शमअ? हो गई ख़ामोश–

किसी की ज़िंदगी लेने से ज़िंदगी न मिली।।

 

फलक के तारों से क्या दूर होगी जुल्मते-शब।

जब अपने घर के चिरागों से रोशनी न मिली।।

 

वोह काफिले कि फलक जिनके पांव का था गुबार।

रहे-हयात से भटके तो गर्द भी न मिली।।

 

वोह तीरह-बख्त हकीकत में है जिसे मुल्ला।

किसी निगाह के साये की चांदनी न मिली।।

 

यह कह के आख़िरे-शब शमअ? हो गई ख़ामोश

किसी की ज़िंदगी लेने से ज़िंदगी न मिली।।

वही मिलेगा जो दोगे। जिंदगी दोगे, जिंदगी मिलेगी। जिंदगी लोगे, जिंदगी छिन जायेगी। जगत प्रतिध्वनि करता है। गीत गाओ, चारों तरफ से गीत तुम पर बरस जायेंगे। गालियां दो, चारों तरफ से गालियां तुम पर बरस जायेंगी। जो चाहो लो। मगर शर्त यही है कि वही दोगे तो मिलेगा। जगत प्रतिदान है। तुम दान करो। जगत प्रतिदान है। हजार गुना होकर लौट आता है सब।

यह कहानी तो एक व्यंग्य है, एक मजाक है। मगर जिंदगी ऐसी ही है। अगर इस नियम को तुम पहचानकर चलने लगे तो बस तुम्हारा रास्ता स्वर्ग की तरफ मुड़ गया। अगर इस नियम को न पहचाना, न समझे और इसके विपरीत चलते रहे तो नर्क ही तुम्हारी मंजिल है।

 

छठवां प्रश्न:

 

श्री मोरारजी देसाई राष्ट्र-हित में यह करूंगा वह करूंगा, ऐसी बातें तो बहुत करते हैं, फिर कुछ करते क्यों नहीं?

 

क सज्जन को मैं जानता हूं। वह जिंदगी भर से चुनाव लड़ते हैं और जिंदगी-भर से चुनाव हारते हैं। चुनाव लड़ना और चुनाव हारना, यही उनकी कथा है। कहीं भी चुनाव हो, कैसा भी चुनाव हो; उनको खबर भर लग जाये, वे चुनाव में खड़े होते हैं। और हर बार उनकी जमानत जब्त होती है।

मैं थोड़ा विचार में पड़ा कि मामला क्या है! और आदमी भले हैं, सच्चे हैं, ईमानदार हैं। मैंने खोज-बीन की, तो पता चला कि उनकी भलाई, उनकी सचाई, उनकी ईमानदारी के ही कारण जमानत जब्त होती है। एक चुनाव में खड़े थे, लोगों ने उनसे पूछा कि आप चुनाव में किसलिए खड़े हैं, जनता की सेवा के लिए? उन्होंने कहा कि नहीं, मुझे पद का मजा लेना है। अब इसको कोई वोट देगा, इस आदमी को? हालांकि, बात सच्ची कही उन्होंने कि जनता की सेवा वगैरह से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। मुझे पद का मेवा लेना है; जनता की सेवा से मुझे क्या लेना-देना है? भाड़ में जाये जनता!

बिलकुल ईमानदारी की बात कह दी: मगर ऐसे आदमी की जमानत तो जब्त होगी ही। लोगों ने मारा-पीटा नहीं, यही क्या कम है!

उनसे लोग पूछते हैं चुनाव में कि आप आश्वासन दें, क्या करेंगे? वह कहते हैं: कोई आश्वासन मैं नहीं दे सकता। क्योंकि आश्वासन अगर पूरे न हो सके तो? तो पहले मैं पद में पहुंच जाऊं; फिर तुम से कह सकूंगा कि क्या कर सकता हूं, क्या नहीं कर सकता हूं।

मगर ऐसे आदमी को कोई मत देगा? मत तो तुम झूठों को देते हो, बेईमानों को देते हो। और उन बेईमानों की सारी कला यही है कि तुम्हें खूब आश्वासन दें। और आश्चर्य तो यह है कि तुम्हें हर बार आश्वासन मिलते हैं; कभी पूरे नहीं किये जाते। फिर भी दोबारा जब मिलते हैं, तब तुम फिर उन्हें एकदम से गटक जाते हो, एकदम से स्वीकार कर लेते हो। फिर आशा करने लगते हो कि अबकी बार पूरे होंगे। तुम्हारी आशा कब टूटेगी? कब तुम समझोगे?

आश्वासन राजनेता पूरे करने को नहीं देते। आश्वासन देने का लक्ष्य उनको पूरा करना नहीं है। आश्वासन देने का लक्ष्य तुम्हारा मत लेना है। जब मत ले लिया, आश्वासन देने का काम पूरा हो गया; फिर क्या पूरा करना है? फिर दूसरे काम पूरे करने हैं, जिनके लिये मत लिया था। वे भीतरी हैं। वे तुम से कहे नहीं थे। वे तुम से कहते तो तुम कभी मत न देते।

आखिर राजनेता की भी मजबूरी समझो। तुम मत तब दोगे जब वह तुम्हें बड़े-बड़े आश्वासन दे। और उसके भीतर जो छिपी इच्छाएं हैं जो उसे पूरी करनी हैं, वह तभी पूरी कर सकता है जब पद पर पहुंच जाये। तो तुम से कहेगा कुछ, करेगा कुछ। वही कुशल राजनीतिज्ञ है जो तुम्हें बार-बार धोखा दे सके और तुम्हें कभी भी इतना होश में न आने दे कि तुम यह सीधी-सी बात समझ जाओ कि राजनेता आश्वासन पूरा करने को नहीं देते हैं।

एक झील के किनारे मुल्ला मछली मार रहा था। झील के सामने तख्ती लगी है कि मछली मारना सख्त मना है। जो भी मछली मारेगा, मुकदमा चलाया जायेगा। मगर ऐसी झीलों में तो मछलियां मिलती हैं। जहां सभी मछलियां मार रहे हों वहां क्या खाक मिलेगा! दिन-भर बैठे रहो बंसी लटकाये, राम-राम जपो, कुछ नहीं होता। ऐसी झीलों में मुल्ला बहुत मछलियां मार चुका; कभी कुछ नहीं मिलता। और शाम को जाकर मछलीवाले से उसको मछली लेनी पड़ती है। क्योंकि पत्नी को तो दिखाना ही पड़ेगा कि मारकर आया है। नहीं तो वह कहेगी दिन-भर बरबाद किया। वह जाता है मछलीवालों की दुकान पर। बाहर खड़े होकर कहता है कि भाई, जरा मछली फेंक देना। मछलीवाला पूछता है: मछली फेंक क्यों देना, ले क्यों नहीं लेते हाथ में? उसने कहा कि चाहे कुछ भी हो जाये, मछली पकड़ सकूं या न, लेकिन झूठ कभी नहीं बोलूंगा। पत्नी से जाकर कहना है कि मछली पकड़ी है। तुम फेंको तो मैं पकड़ लूं। झूठ मैं नहीं बोल सकता।

इधर तो मछलियां ही मछलियां थीं। उसने फिक्र छोड़ दी तख्ती की। ऐसे समय में कोई तख्तियां, नियमों इत्यादि की फिक्र करता है? कौन पकड़ने वाला है; देखा जायेगा जब जो होगा। मजे से मार रहा था मछलियां, तभी मालिक आ गया। बंदूक लिए पीछे आकर खड़ा हो गया। कहा कि मेरी तरफ देखो। तख्ती देखते हो?

मुल्ला ने तख्ती देखी, कहा कि हां, देखता हूं।

“तो यहां क्या कर रहे हो?’ तो कहा: “मछलियों को तैरना सिखा रहा हूं।’

अब और क्या करोगे!

तो कांटे में आटा क्यों लगाया है?’

तो उसने कहा: मछली बिना उसके तैरना नहीं सीखती, इसलिए कांटे में आटा लगाया है। मछली फंसे तो फिर उसको तैरना सिखा दूं।

मछलियों को तैरना कोई सिखाता है? कांटे में आटा कोई मछलियों के हित में लगाता है?

तुम राजनेताओं के हाथ में मछलियां हो। और जब आश्वासन का आटा लगाकर कांटे तुम्हारे गले में डाले जाते हैं, तभी तो तुम उनको गटकते हो; नहीं तो तुम गटकोगे ही नहीं। आटे के लोभ में कांटे को गटक जाते हो। मतलब राजनेता का पूरा हो जाता है। और यह कोई एक की बात नहीं है, यह राजनीति का पूरा-का-पूरा जाल है। सदियों से आदमी इसी तरह शोषित हुआ है और होता रहेगा; जब तक कि जागे न, जब तक कि यह बात ठीक से देख न ले।

तुम यह भी नहीं सोचते कि राजनेता जो आश्वासन देते हैं, वे पूरे करेंगे कैसे? समस्याएं इतनी बड़ी हैं, वे पूरा करना भी चाहें, तो नहीं कर सकते। और तुम यह भी नहीं सोचते कि अगर वे पूरा करेंगे, तो तुम्हारे ही खिलाफ बहुत-सी बातें करनी होंगी, तब पूरा कर पायेंगे। और वह तुम बरदाश्त न करोगे।

देश गरीब है। हर राजनेता को तुम्हें आश्वासन देना पड़ता है कि गरीबी मिटा दूंगा। मगर तुम जानते हो गरीबी मिटाने के लिये जो करना पड़ेगा उसमें तुम्हें बहुत अड़चन आयेगी। तुम बरदाश्त न कर सकोगे। तुम्हें बच्चे पैदा करने पर बाधा पड़ जायेगी, क्योंकि अगर इस देश की गरीबी मिटानी है तो इस देश की संख्या रुकनी ही चाहिए। सच तो यह है कि अभी जितनी संख्या है इससे आधी संख्या होनी चाहिए, तो यह देश खाता-पीता खुशहाल हो सकता है, नहीं तो यह देश कभी खुशहाल नहीं हो सकता। संख्या रोज बढ़ी जा रही है। इस सदी के पूरे होतेऱ्होते एक अरब आदमी भारत में होंगे। अभी भी पचासी प्रतिशत लोग दरिद्र हैं। सम्यकरूपेण उनको भोजन नहीं मिल रहा है। अभी तो साठ-पैंसठ करोड़ ही आबादी है, इस सदी के पूरे होतेऱ्होते सौ करोड़ आबादी होगी, एक अरब।

हम भयंकर गर्त में जा रहे हैं, लेकिन अगर रोकना हो तो तुम्हें अड़चन आती है। तो तुम कहते हो कि यह तो बात ठीक नहीं कि हमें जबर्दस्ती संतति-नियमन लगाया जाये। तो तुम्हें खुश करना हो तो संतति-नियमन नहीं होना चाहिए। मगर तब तुम गरीब रहोगे। तब आश्वासन पूरा नहीं होता।

मोरारजी देसाई के सत्ता में आने के बाद संतति-नियमन के लिये जो भी महत्वपूर्ण प्रयास इंदिरा ने किया था वह सब समाप्त कर दिया गया, क्योंकि तुम्हें खुश करना है। इसीलिये तुमने उनको वोट दी।

इंदिरा से तुम नाराज हो गये, क्योंकि इंदिरा ने चेष्टा की कि कुछ हो सके। मगर उस चेष्टा में कष्ट होनेवाला है। अब किसी के मवाद को निकालना चाहोगे शरीर से, तो पीड़ा होगी। आपरेशन करोगे, तो दर्द होगा। और दर्द कोई झेलना नहीं चाहता।

इस देश की समस्याएं इतनी बड़ी हैं कि तुम्हारी स्वेच्छा पर छोड़ दी जायें तो पूरी नहीं हो सकतीं। तुम कहते हो: “ब्रह्मचर्य से हम बच्चों को राकेंगे।’ कैसे रोकोगे? कितने ब्रह्मचर्य से लोग बच्चों को रोक सके हैं? ब्रह्मचर्य तो तुम साध रहे हो सदियों से! लेकिन अगर संतति-नियमन का कोई उपाय तुम्हें दिया जाये, तो तुम्हें बेचैनी होती है। तुम घबड़ा जाते हो।

अगर पुरुषों की नसबंदी की जाये, तो वे समझते हैं कि उनका पुरुषत्व नष्ट हुआ। मूढ़तापूर्ण बात है। नसबंदी से किसी का पुरुषत्व नष्ट नहीं होता। मगर लोग भागते हैं कि यह नसबंदी न हो जाये। दूसरे गांव में भाग जाते हैं। मुझे ऐसे आदमियों का पता है जो इंदिरा के समय में, उनके गांव में नसबंदी चल रही थी, भागे सो भागे…अब तक नहीं लौटे हैं! इतनी दूर निकल गये मालूम होता है, कि अब कभी लौटेंगे कि इसका भी कुछ शक है। नसबंदी करनेवाले डाक्टरों पर हमले बोले गये।

यह तो फिर कैसे गरीबी दूर होगी? और अगर गरीबी दूर करना हो, तो तुम्हारी हड़तालें और तुम्हारे घिराव, और तुम्हारी मोर्चाबंदी और तुम्हारी सारी मूढ़ताएं अगर चलती रहें, तो गरीबी बंद नहीं होने वाली। कारखानों में काम ही नहीं होता। हड़ताल करो, कि कारखाना चले? लेकिन इसको हम मानते हैं हमारी स्वतंत्रता है। हड़ताल, घिराव इसमें हम बड़ा मजा लेते हैं। नारेबाजी में हमें बड़ा रस है। बस कोई भी नारा लगाता निकलता हो कि फिर तुम चल पड़ते हो साथ। चिल्लाने में खूब मजा आता है। शोरगुल मचाने में दिल की भड़ास निकल जाती है।

मैं एक सज्जन को जानता हूं, जो किसी पार्टी का मोर्चा हो उसमें जाते थे। कम्युनिस्ट का हो, कि सोशलिस्ट का हो, कि कांग्रेस का हो, कि जनसंघियों का हो। मैं उन्हें देखता था तो मैं थोड़ा हैरान था कि आदमी है किस पार्टी का! आखिर मैंने एक दिन उनका हाथ पकड़ा, कि मैं तुम्हें बार-बार देखता हूं इसी झाड़ के नीचे खड़े होकर। कोई भी मोर्चा, कोई भी उपद्रव, तुम चले…।

उन्होंने कहा: हमें किसी से क्या मतलब? हमें तो चिल्लाने में मजा आता है। कवायद भी हो जाती है, घूमना भी हो जाता है, दिल की भड़ास भी निकल जाती है।

मगर उन्होंने कहा कि एक बात मुझे भी आप से पूछनी है, क्योंकि मैं भी आप से परेशान हूं, किसी पार्टी का मोर्चा हो, किसी का उपद्रव हो, आप क्यों झाड़ के नीचे हमेशा खड़े होकर देखते हैं? मैं भी आप से यही पूछना चाहता था? क्योंकि आप अकेले आदमी हैं जो मुझे पकड़ सकते हैं, और मुझे कोई नहीं जानता। मैं तो सभी पार्टियों का सदस्य हूं। सदस्य भी हैं वे सभी पार्टियों के! एक अकेले आप आदमी हैं जिनसे मुझे डर है क्योंकि आप मुझे हमेशा देखते हैं। और आप मुझे गौर से देखते हैं। आप क्यों खड़े रहते हैं?

उनकी परेशानी भी ठीक है, क्योंकि खड़े-खड़े देखने से तो कोई भड़ास नहीं निकलती। खड़े-खड़े देखने से तो कोई उपद्रव करने की जो तबीयत है वह भरती नहीं। मैंने उनसे कहा: जैसे मैं तुम्हें उपद्रव करते देखता हूं, ऐसे ही मैं मन को भी अपने एक दिन उपद्रव करते देखता था। देखते-देखते मन विदा हो गया। वहां उपद्रव शांत हो गया। अब मैं तुम सब के उपद्रव अध्ययन कर रहा हूं, कि किसी तरह तुम्हें भी साथ दे सकूं और तुम्हारे उपद्रव समाप्त हो सकें। मैं सभी के उपद्रव देख रहा हूं।

इस देश में भारी उपद्रव चल रहे हैं। तुम इन उपद्रवों को देखो, जरा द्रष्टा बनो, तो तुम्हें समझ में आयेगा कि इन उपद्रवों के चलते इस देश की कोई समस्या हल नहीं हो सकती। समस्याएं बड़ी हैं, बहुत बड़ी हैं।

एक बार दो चींटियां एक हाथी से मिलीं। एक ने कहा: “क्यों रे, हम से कुश्ती लड़ेगा?’ इससे पहले कि हाथी कुछ बोलता, दूसरी चींटी कहने लगी: “अरे, बेचारा कैसे लड़ेगा, वह अकेला और हम दो!

तुम जरा समस्याएं देखते हो, कितनी बड़ी हैं! समस्याएं बहुत बड़ी हैं। और भारत की क्षमता बहुत छोटी–चींटी जैसी! सदियों-सदियों से हमने भारत की क्षमता को बढ़ाया नहीं है। हम सिकुड़ गये हैं। हम फैलना भूल गये हैं। हमें विस्तार की कला नहीं रही याद। हमने दीनता और गरीबी को भी गौरव मान लिया है। संतोष…हर स्थिति में संतोष। उसका यह दुर्भाग्य का फल भोग रहे हो। संतोष ठीक है उसके लिये जिसने स्वयं को जान लिया। संतोष स्वयं को जानने की छाया है; समाधि की सुवास है। उसके पहले तो संतोष झूठा है, सांत्वना है, अपने मन को समझाना है। जैसे लोमड़ी ने समझा लिया था कि अंगूर खट्टे हैं, क्योंकि पहुंच नहीं पाई अंगूरों तक। कोशिश तो की, पहुंच नहीं पाई। सोच लिया अंगूर खट्टे हैं, पहुंचने योग्य ही नहीं हैं। ऐसे हम अपने अहंकार को छिपा लेते हैं संतोष में।

सदियों से इस देश को संतोष का जहर पिलाया जा रहा है। फिर हम भाग्यवादी हो गये हैं। संतोषी भाग्यवादी हो ही जायेगा।

एक काहिल आदमी ने अपने दोस्त से कहा: देखो, कुदरत कैसी मेरी मदद करती है! मुझे कुछ पेड़ काटने थे और तूफान ने आकर मेरी समस्या हल कर दी। फिर मुझे कूड़े-करकट का एक ढेर जलाना था, तो बिजली गिरी और वह खुद-ब-खुद जल गया।

यह सुनकर दोस्त बोला: अब आपका आगे का क्या प्रोग्राम है? उसने जवाब दिया: मुझे आलू और गाजर जमीन से निकालनी हैं इसलिए भूचाल का इंतजार कर रहा हूं।

संतोषी आदमी है…फिर धीरे-धीरे भाग्यवादी हो ही जायेगा। इस देश को भाग्यवाद ने मारा! समस्याएं बड़ी होती चली गयीं और हम समाधान खोज न पाये। उल्टे समाधान खोजने की जगह, हम दरिद्रता को आध्यात्मिक मानने लगे। यह वही अंगूर खट्टे वाली बात है। हम कहने लगे: दरिद्रता बड़ी आध्यात्मिक है! दरिद्रता बड़ी पवित्र है! दरिद्रता बड़ी निर्दोष है! दरिद्रता में बड़ा संतोष रहता है। धनी आदमी को बड़ी चिंता होती है, बड़ी फिक्र होती है, बेचैनी होती है। गरीब को न फिक्र न फांटा। ऐसे-ऐसे सुंदर-सुंदर हमने अपने चारों तरफ जाल खड़े कर लिये हैं।

और मजा यह है कि जिन्हें तुम चुनते हो, मोरारजी देसाई जैसे लोग, वे भी इसी तरह की बातों को मानते हैं। इन से हल कैसे होगा? और तुम उन्हीं को चुनते हो, जो तुम्हारी बातें मानते हैं। तुम उनको तो चुन ही नहीं सकते जो तुम्हारी बातें नहीं मानते हैं। इस संकट को समझो। तुम उनको चुनते हो जो तुम्हारी बातें मानते हैं। तुम्हारी बातों के ही कारण तुम परेशान हो। तुम्हारी बातों ने ही तुम्हें मारा है। तुम्हारे विचारों ने तुम्हारी फांसी लगा दी है। और तुम उनको चुनते हो जो तुम्हारे विचारों से सहमत हैं। हल कैसे होगा?

कैंसर के मरीजों ने तय कर रखा है कि हम तो डाक्टर उसी को चुनेंगे, जो कैंसर का मरीज हो। हम जैसा हो, उसी को चुनेंगे। अंधों ने चुनाव कर लिया है कि हम तो सिर्फ अंधों को चुनेंगे, हम आंखवालों को क्यों चुनें? हम तो अपने जैसे लोगों को चुनेंगे। मगर फिर आंख का इलाज कैसे होगा?

यह एक बड़ा भारी संकटपूर्ण प्रश्न है–बड़ा उलझाव का है। इस देश में चुनाव में उनको मत मिलते हैं, जो तुम्हारी मूढ़ताओं का समर्थन करते हैं। उनको तो तुम मत दे ही नहीं सकते जो तुम्हारी मूढ़ताओं के विपरीत हैं, क्योंकि वे तो दुश्मन हैं।

मेरी तो लोग जबान काटना चाहते हैं, हाथ काटना चाहते हैं। पत्र आते हैं रोज कि मैं बोलना बंद कर दूं, नहीं तो मुझे मार डाला जाएगा। मुझे भी वे वोट दे सकते थे। मुझे भी वे राष्ट्रपति बना सकते थे, अगर मैं उनकी मूढ़ताओं का समर्थन करता। अगर मैं एक लंगोटी लगाकर खड़ा हो जाता, एक भिक्षापात्र ले लेता और दरिद्र-नारायण के गीत गाता–और कहता: “भगवान तो वहां है जहां मजदूर पत्थर तोड़ रहा है। और भगवान तो वहां है जहां किसान भूखा मर रहा है।’ तो जरूर कोई मेरी जबान नहीं काटता और न कोई मेरे हाथ काटने की योजनाएं बनाता, न कोई गोली मारने की बातें करता। तो वे मुझे उठा लेते सिंहासन पर। तब मैं भी अंधा होता और अंधे मेरे साथ हो जाते।

इस देश को जरूरत है आंखवालों की। और आंखवाले तुम्हारी मान्याताओं से राजी नहीं हो सकते। तुम्हारी मान्याताएं गलत हैं। तुम्हारी धारणाएं गलत हैं। उन्हीं धारणाओं ने तुम्हारी यह गति कर दी।

अमरीका तीन सौ सालों के इतिहास में समृद्धि के शिखर पर पहुंच गया। हमारा इतिहास दस हजार साल पुराना है। हम दरिद्रता के शिखर पर पहुंच गये! जरूर कहीं कोई अड़चन है, कहीं कोई तर्क की भूल है। और हमारी भूमि किसी दूसरी भूमि से कम उपजाऊ नहीं। और हमारा देश किसी दूसरे देश से कम सौभाग्यशाली नहीं। हमारे पास पहाड़ हैं, नदियां हैं, भूमि हैं–सब रंग, सब ऋतुएं हैं। हमारा देश तो सारी ऋतुओं को लिए हुए है। ऐसी कोई जगह नहीं जो हमारे देश में न हो। अधिकतम वर्षा वाले स्थान हमारे देश में हैं। कम-से-कम वर्षा वाले स्थान हमारे देश में हैं। बर्फ जमी रहे जहां सदा, ऐसे भी स्थान हमारे देश में हैं। आग बरसती है जहां, ऐसे भी स्थान हमारे देश में हैं। हमारा देश तो सारी दुनिया का एक छोटा-सा रूप है। इतनी समृद्ध भूमि तो कोई भी नहीं है।

लेकिन असमृद्ध भूमियां समृद्ध हो गयीं। जिनके पास कुछ भी न था, उनके पास सब हो गया। और हम बैठे हैं! हम भूचाल की राह देख रहे हैं। क्योंकि गाजर और मूलियां निकालनी हैं। हम भाग्यवादी हैं। और सिकुड़ने की कला हमने ऐसी सीखी है…और ऐसी मूढ़ता पूर्ण आदतें हो गयी हैं, जिसका हिसाब नहीं।

हमारे मंत्री, मोरारजी देसाई एंड कंपनी, सारे लोग इसी भाषा में सोचते हैं–कि मंत्रियों की तनख्वाह थोड़ी-सी कम कैसे हो जाये। जैसे कि मंत्रियों की तनख्वाह थोड़ी कम हो जाने से इस देश की गरीबी मिट जायेगी। तुम बातें क्या कर रहे हो? संजीव रेड्डी सोचते हैं कि छोटे मकान में राष्ट्रपति कैसे रहने लगे। रहते-वहते नहीं, सोचते हैं। सोचने से ही काफी हवा बन जाती है; लोगों को एकदम भाव हो जाता है कि आहा, यह रहा महात्मा!

मगर राष्ट्रपति के किसी छोटे मकान में रहने से देश की समस्या हल हो जायेगी? इतनी छोटी समस्या है? इतनी आसानी से अगर समस्या हल होती होती तो कभी की हल हो गयी होती। इतने लोग तो छोटे-छोटे झोपड़े में रह रहे हैं और समस्या हल नहीं हो रही। एक सज्जन और छोटे झोंपड़ों में रहने लगे, इससे समस्या हल हो जायेगी? इतने लोग तो बेकार हैं, तनख्वाह ही नहीं मिल रही बिलकुल। कुछ सज्जनों ने अपनी तनख्वाह कम कर ली, इससे समस्या हल हो जायेगी? मगर यह पाखंड खूब चलता है।

एक साहब बेहद कंजूस थे। एक दिन वह सुबह-सुबह उदास सिर झुकाये बैठे थे, कि उनके एक दोस्त ने पूछा: भाई क्या बात है, क्यों उदास हो? उन्होंने उत्तर दिया; पहले पंद्रह रुपये किलो घी मिलता था और अब दस रुपये किलो घी हो गया है। यह सुनकर दोस्त ने कहा: फिर तो तुम्हें खुश होना चाहिए; एक किलो घी लेने पर पांच रुपये बचेंगे। उन साहब ने कहा: यही तो दुख है, पहले मैं घी न खाकर पंद्रह रुपये बचाता था और अब केवल दस रुपये बचेंगे।

इस तरह समस्याएं हल की जा रही हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा घर आया, उसने अपने बाप से कहा कि सुनते हो, आज मैंने आठ आने बचाये; बस में नहीं बैठा, बस के पीछे दौड़ता आया। मुल्ला ने उसको दो चपत रसीद दी, एकदम दो चपत रसीद किये, कि उल्लू के पट्ठे! अगर बचाना ही था, तो टैक्सी के पीछे भागना था। साढ़े तीन रुपये बचते। अट्ठनी बचाकर आ गये!

इस तरह के लोग इस देश की समस्याएं सुलझाने में लगे हैं। कोई सोचता है: चरखा कातने से समस्या सुलझ जायेगी। कोई सोचता है कि सप्ताह में एक दिन उपवास करने से समस्या सुलझ जायेगी। छोड़ो ये मूढ़तायें, और छोड़ो इस तरह के मूढ़ों का संग, इनका पीछा। और इनको तुम्हारी समस्याओं से कोई प्रयोजन नहीं है। इनको प्रयोजन कुछ और है–

इधर कुर्सी, उधर कुर्सी

यहां कुर्सी, वहां कुर्सी

जगह पायी नहीं ऐसी

नहीं पहुंची जहां कुर्सी

सखे! यह हाल है

इस देश में कुर्सी के मारों का

गधे भी रेंक कर कहते हैं–

लाओ इधर वह कुर्सी

कुर्सियों कुर्सियों में खूब ठनी

कुर्सियों कुर्सियों से मेल हुआ

कुर्सियों कुर्सियों की आंख लड़ी

यारो, शासन न हुआ, खेल हुआ

कुर्सी हमारी आन-बान-शान है कुर्सी

कुर्सी ही दीन-धर्म है, भगवान है कुर्सी

कुर्सी की याद मन में उठाती है कुरकुरी

पिछले कई जन्मों का वरदान है कुर्सी

किस्सा कुर्सी का बात कुर्सी की

दिन भी कुर्सी का रात कुर्सी की

जिह्वा जपती है मंत्र जन-हित का

दिल में खटकी है घात कुर्सी की

ये सारे लोग कुर्सी के पीछे दीवाने हैं; इन्हें कोई तुम्हारी समस्याएं हल करनी हैं? ये बेचारे अपनी समस्याएं हल करने में लगे हैं। तुम्हारी समस्याएं तो उनसे हल हो सकती हैं, जिनको अपनी समस्याएं हल हो गयी हों।

इस देश को समाधिस्थ लोगों का नेतृत्व चाहिए। इस देश को ऐसे लोगों का नेतृत्व चाहिए, जिनकी खुद की कोई समस्या नहीं है। तो कुछ हल हो; नहीं तो हल नहीं हो सकता। हल की जगह हालतें और रोज बिगड़ती जाती हैं। लेकिन तुम इसी तरह के लोगों के पीछे हो। तुम इन्हीं की चापलूसी में लगे हो। लोग इन्हीं के चमचे हो गये हैं। और कारण है, क्योंकि चमचों को लगता है कि ये भी माल लूट रहे हैं, कुछ चमचे के हाथ भी लग जायेगा। थोड़ा-बहुत हम भी…। और ऐसा नहीं है कि वे गलती में हैं, कुछ-न-कुछ उनके हाथ लग भी जाता है। मगर देश से किस को लेना-देना है?

एक साहब एक शानदार होटल में पहुंचे। और उन्होंने उमदा कीमती खाना खाया। जब बैरा बिल लाया, तो उन्होंने पैसे देने से इनकार कर दिया। बैरा मैनेजर के पास पहुंचा, उसे सारी बातें बताईं। मैनेजर ने आकर उनकी अच्छी तरह मरम्त की। मार खाकर वह कराहते हुए दरवाजे की तरफ बढ़ रहे थे कि अचानक बैरे ने झपटकर उनके मुंह पर दो घूंसे रसीद दिये। मैनेजर ने बैरे को डांटा, जब मैं मार चुका हूं, तो तुम्हें मारने की क्या जरूरत पड़ी? बैरे ने कहा: जी, वह तो आपने अपना बिल वसूल किया था; मुझे भी तो अपना टिप वसूल करने दीजिए।

तो नेता हैं, वे अपना बिल वसूल कर रहे हैं; उनके चमचे हैं, वे अपना टिप वसूल कर रहे हैं। तुम कुटे-पिटे जा रहो हो। मगर तुम इन्हीं को बार-बार समर्थन दिये जा रहे हो, कोई करे भी तो क्या करे?

देश को जगाओ! देश को थोड़ा-सा होश से भरो। समस्याएं बड़ी हैं। तुम्हें बड़े लोग चाहिए। जो तुम्हारी समस्याएं हल कर सकें। दूर-दृष्टि लोग चाहिए। वैज्ञानिक क्षमता, प्रतिभा के लोग चाहिए। सड़े-गले लोगों को मुर्दों को तुम बिठा दोगे दिल्ली में…इससे सिर्फ समय कटेगा। और समय के साथ समस्याएं बढ़ती चली जाती हैं। अच्छे-अच्छे नाम…परिणाम कुछ भी नहीं हैं।

लोकतंत्र के नाम पर श्री मोरारजी देसाई को तुमने पद पर बिठा दिया है। और लोकतंत्र की सब भांति हत्या की जा रही है। और समस्याएं हल करना तो दूर, लोकतंत्र की सब भांति हत्या की जा रही है।

कम-से-कम शासन को श्रेष्ठतम शासन कहा गया है। और इस देश में सर्वाधिक शासन हो रहा है। हर छोटी-छोटी चीज पर कानून पर कानून। इतने कानूनों का जाल कि आदमी जी सके, यह असंभव मालूम होता है। यह कैसा लोकतंत्र है जहां कानून ही कानून के जाल हैं जहां आदमी को रत्ती-भर हिलने-डुलने की सुविधा नहीं है? फिर लोग बेईमानियां करते हैं। फिर लोग कानूनों से बचने के लिए रास्ते निकालते हैं। फिर उनकी बेईमानी रोकने के लिए और कानून बनाने पड़ते हैं। फिर कानूनों के छेद भरने के लिए और कानून बनाने पड़ते हैं। और लोग नये छेद खोज लेते हैं। और यह जाल बढ़ता जा रहा है।

कम-से-कम शासन होना चाहिए। न्यूनतम शासन होना चाहिए। लोगों को थोड़ी जीने की स्वतंत्रता दो, थोड़ी सांस लेने की स्वतंत्रता दो। वह भी नहीं हो पा रहा है। खाने-पीने की स्वतंत्रता नहीं है।

मैं शराब का विरोधी हूं, लेकिन शराब-बंदी का पक्षपाती नहीं हूं। क्योंकि यह तो व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता है। अगर कोई व्यक्ति शराब पीना ही चाहता है, तो उसे पीने का हक है। यद्यपि हमें फिक्र करनी चाहिए कि उसे पूरी तरह ज्ञात हो कि शराब के क्या-क्या नुकसान हैं। देश में हवा होनी चाहिए कि शराब के नुकसान क्या-क्या है। लेकिन फिर भी कोई तय करे पीने का, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में उस पर जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। किसी एक आदमी को क्या हक है?

मोरारजी देसाई शराब के विरोध में हो सकते हैं; लेकिन उनको क्या हक है कि अपनी जिद को, अपनी हठ को सारे देश की छाती पर थोप दें? कल समझ लो, कोई शराबी मुल्क का प्रधानमंत्री हो जाये और कहे सबको शराब पीनी पड़ेगी, तब तुम कहोगे कि यह कैसा लोकतंत्र हुआ! तुम्हें पीना हो पीयो, न पीना हो न पीयो। तुम्हें जो ठीक लगता हो उसका प्रचार करो, हवा पैदा करो, लोक-मत बनाओ; लेकिन जबर्दस्ती क्यों?

अब विनोबा भावे कहते हैं कि वह अनशन करेंगे, अगर बंगाल में गऊ-हत्या बंद नहीं होती। मैं कोई गऊ-हत्या का पक्षपाती नहीं हूं। लेकिन फिर भी इस तरह की धमकियां देना हिंसात्मक है। बकरों की हत्या हो, विनोबा जी को कोई फिक्र नहीं। विनोबा जी जरा अपने गुरु महात्मा गांधी की तो याद करो, जिंदगी-भर बकरी का दूध पीकर जिये। बकरियां कटती रहें, बकरे कटते रहें, कोई मतलब नहीं। बकरी-बकरे जैसे मुसलमान हैं! गायें हिंदू हैं! यह भी खूब रहा, बकरी-बकरों को पता ही नहीं कि वे कब मुसलमान हो गये!

हिंसा नहीं होनी चाहिए, लेकिन इसका वातावरण पैदा करो। फिर भी अगर लोग कुछ मांसाहार करना ही चाहते हैं, तो उनको जबर्दस्ती से रोकना तो गलत बात है। फिर तो कल कोई जैन सत्ता में होगा तो वह कहेगा: मछली भी मत खाओ। फिर तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी। वह कहेगा कि प्याज भी मत खाओ, आलू भी नहीं। क्योंकि जैन धर्म में जमीन के नीचे गड़ी हुई सब चीजें वर्जित हैं। उन्हें खाने से पाप होता है। तो आलू, मूली, गाजर सब पाप!

प्रत्येक को अपने ढंग से जीने दो। लोकतंत्र का अर्थ ही यह होता है: जब तक कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे के जीवन में बाधा न डालने लगे, तुम बाधा न बनो। लोकतंत्र का अर्थ नकारात्मक होता है।

और जो करने योग्य है, वह तो करेंगे नहीं। संतति-नियमन होना चाहिए, वह तो करेंगे नहीं। शराब-बंदी होना चाहिए। जैसे शराब बंद हो जायेगी तो देश की समस्याएं हल हो जायेंगी, तुम सोचते हो! गरीबी मिट जायेगी, बीमारी मिट जायेगी, अशिक्षा मिट जायेगी? गऊ-वध बंद हो जायेगा तो तुम सोचते हो देश की समस्याएं मिट जायेंगी, गरीबी मिट जायेगी? एकदम धन की वर्षा हो जायेगी? अगर ऐसा होता तो अमरीका जैसे देश को तो दुनिया का सबसे गरीब देश होना चाहिए, क्योंकि गऊ-हत्या चलती है।

लेकिन ये तरकीबें हैं तुम्हारे मन को उलझाने की। गऊ-हत्या की बंदी होनी चाहिए, यह सुनकर हिंदू खुश हो जाता है, वोट दे देता है। गऊ-हत्या होने से, नहीं होने से कोई समस्या का हल नहीं है। और याद रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं: गऊ-हत्या होनी चाहिए। लेकिन एक वातावरण होना चाहिए। सुसंस्कार की एक हवा पैदा होनी चाहिए। जोर-जबर्दस्ती नहीं। धर्म-परिवर्तन तक की आजादी नहीं है, और जयप्रकाश नारायण कहते हैं: यह दूसरी आजादी आ गयी। अब कोई हिंदू अगर ईसाई होना चाहे तो नहीं हो सकता। कोई ईसाई अगर हिंदू होना चाहे तो नहीं हो सकता। क्यों? यह कैसा देश है! लेकिन हिंदुओं को खुश करना है। जनसंघी सत्ता में पहुंच गये हैं, उनको खुश रखना है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जहर सत्ता में है; उसको खुश रखना है। तो अब कोई हिंदू ईसाई नहीं हो सकता।

लेकिन अगर कोई हिंदू ईसाई होना चाहे, तो क्यों रोक होनी चाहिए? कोई ईसाई हिंदू होना चाहे तो क्यों रोक होनी चाहिए? अगर कोई व्यक्ति अपने धर्म को भी नहीं चुन सकता, तो यह कैसा लोकतंत्र हुआ, यह कैसी विचार की स्वतंत्रता हुई?

आश्वासन तो कोई पूरे नहीं हुए। ये आश्वासन, जो कभी नहीं दिये थे, ये पूरे किये जा रहे हैं। ये किसी ने मांगे भी नहीं थे।

देश को एक बहुत जागरूक लोकमत बनाना चाहिए।

मेरा राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है। मैं चाहता भी नहीं कि मेरे संन्यासियों का राजनीति से कोई लेना-देना हो। लेकिन फिर भी मैं कहूंगा कि मेरे संन्यासी को देश में एक जागरूक लोकमत पैदा करने में सहयोगी होना चाहिए, क्योंकि समस्याएं तुम्हारी भी हैं। देश की समस्या तुम्हारी समस्या है। मैं नहीं कहता कि तुम चुनाव लड़कर और लोकसभा में पहुंच जाओ। नहीं! मगर जहां हो हवा पैदा करो, जागरूकता थोड़ी पैदा करो। लोगों को कहो कि समस्याएं, असली समस्याएं क्या हैं। असली समस्याओं का समाधान क्या हो सकता है। झूठी समस्याओं को बताओ कि ये झूठी समस्याएं हैं; इनमें आदमियों का मन उलझाया जाता है। तुम्हारा मन हटाने के लिए झूठी समस्याएं खड़ी कर दी जाती हैं।

और लोगों को इतना सजग करो कि जब वे मत देने जायें, तो जो कम-से-कम झूठ बोलता हो–यह तो मैं कह ही नहीं सकता कि जो सच बोलता हो उसको वोट देना क्योंकि वह तो मुश्किल है–जो कम-से-कम झूठ बोलता हो, जो कम-से-कम राजनैतिक हो, जो कम-से-कम पद लोलुप हो, उसको ही मत देना। इसकी हवा पैदा करो। और जिंदा लोगों को मत दो। मुर्दों को, जो कभी के मर चुके हैं, जिन्हें कब्रों में होना चाहिए था, वे चूड़ीदार पाजामा पहनकर, अचकन पहनकर सत्ता कर रहे हैं! जिंदगी को मत दो, जवानों को मत दो! इसकी हवा जरूर पैदा करो।

 

आखिरी प्रश्न:

 

आपका संदेश?

 

चाहता हूं

एक ताजी गंध भर दूं

सब दिशाओं में

तोड़ लूं फिर आम्रवन के

ये अनूठे बौर

पके महुए आज मुट्ठी में,

भरूं कुछ और

दूं सुना

कोई सुवासित श्लोक फिर

मन की सभाओं में

आज-प्राणों में उतारूं

एक उजला गीत

भावनाओं में बिखेरूं

चित्रमय संगीत

खिलखिलाते

फूल वाले छंद धर दूं

मृत हवाओं में

मर गया है यह देश, इस पर श्वास फूंक दूं! इसके गीत खो गये हैं, इसे छंदबद्ध कर दूं! इसकी वीणा खो गई है, इसके तार छेड़ दूं! और यह हो सकता है, तुम्हें देखता हूं तो भरोसा आता है कि यह हो सकता है।

इक तसव्वुर जिंदगी पाने को है

ऐसा लगता है कि तू आने को है

हर तरफ है तेरे आने की खुशी,

हर तरफ है शोर तेरे प्यार का

जिक्र है तेरे लबो रुखसार का

आसमां भी फूल बरसाने को है।

 

यूं निखरती जा रही है जिन्दगी,

खिल उठे जैसे बहारों में चमन

गुनगुनाती फिर रही है यूं हवा

जैसे छू कर आई हो तेरा बदन

ये हंसी वादी महक जाने को है।

 

ऐसा लगता है कि तू आने को है

तेरे आ जाने से ऐ जाने-बहार

मेरे नग्मों को जुबां मिल जायेगी,

इन फजाओं को मिलेगा बांकपन

रास्ते को कहकशां मिल जायेगी।

 

हुस्न तेरा जलवा दिखलाने को है।

ऐसा लगता है कि तू आने को है।

तुम गैरिक संन्यासियों को देखता हूं तो आशा बंधती है कि परमात्मा पुकारा जा सकता है। फिर मंदिर बन सकता है इस पृथ्वी पर–जीवंत, नृत्यमय, उत्सवमय! पर बहुत कुछ तुम्हें करना है।

हे अमृत, मृत्यु से उठो, उठो!

अंधकार, अंधकार!

फैला है आर-पार!

आपको न जहां कहीं

अपनी भी पहचान!

तुम वहां प्रकाशवान

हे मनुज, मर्त्य से उठो, उठो!

 

पशुता का पाश तुम्हें

जड़ता का वास तुम्हें!

कर रहे ये ही कुछ

सदियों से नाश तुम्हें!

तुम अनंत शक्ति-वीर्य,

हे पुरुष द्वंद्व से उठो, उठो!

 

झुक गया गाण्डीव;

झुक गया स्कन्ध ग्रीव!

बन गये तुम प्रवीर!

क्षण में हतभाग्य, क्लीव!

पूर्णपात्र तुम विराट,

हे प्रबल, दैन्य से उठो, उठो!

 

युगऱ्युग से तुम अजेय,

प्राप्त करो पुनः श्रेय;

स्वप्नों की माया में

भूल गये पुण्य ध्येय?

तुम अशोक, परम हर्ष;

हे कमल, पंक से उठो, उठो!

 

तुम अकाटय, अविच्छेद;

भाग नहीं, नहीं भेद!

क्या अभाव, जो ललाट पर

छलक उठा स्वेद?

तुम अखंड ज्ञान-ज्योति

हे अरुण, कुहा से उठो, उठो!

 

भय से क्यों भृकुटी बंक?

स्वयं बने हीन, रंक!

वर्ना, तुम तो महान,

तुम प्रबुद्ध, तुम अशंक!

हे सुह्यद, द्रोह से उठो, उठो!

 

रौंद रहा है भविष्य;

खींच रहा है अतीत!

वर्तमान तो घिसा

पिसा हुआ है सभीत!

तुम प्रदीप्त तेज-पुंज;

हे अनल, धूम्र से उठो, उठो।

यही संदेश है कि जागो। यही संदेश है कि उठो। हे कमल पंक से उठो, उठो!

 

आज इतना ही।

(समाप्‍त)

 

 

 


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प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन–09)

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दो वृक्षों के जोड़े से उत्‍पन्‍न हुआ फल—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 29 जून; सन् 1976

श्री ओशो आश्रम पूना।

बाउलगीत:

जो व्यक्ति प्रेम के अनुभव से अनजाना है

उसके साथ सम्बंध जोड़कर तुम कैसे किसी निष्कर्ष परपहुंच सकते हो?

उल्लू सूर्य की किरणों से अंधा बना

बैठा हुआ आकाश को एकटक देखता रहता है।

नुष्य एक अनवरत खोज है, एक शाश्वत तलाश है, और निरंतर बना रहने वाला एक प्रश्न है। यह खोज है उस ऊर्जा के लिए जो पूरे अस्तित्व को संभाले हुए है चाहे तुम उसे परमात्मा कहो, सत्य कहो, अथवा चाहे जिस नाम से पुकारो। कौन एक साथ इस अनंत अस्तित्व को धारण किए हुए है? इस सभी का केंद्र और इसका सबसे महत्त्वपूर्ण भाग कौन है?

विज्ञान, दर्शनशास्त्र और धर्म सभी एक ही प्रश्न पूछ रहे हैं। उनके दिए गए उत्तर भिन्न—भिन्न हो सकते हैं, लेकिन उन सभी के प्रश्न ठीक वही हैं। धर्म, उसे परमात्मा कहते हैं। वैज्ञानिक इस शब्द परमात्मा से सहमत नहीं है। यह नाम बहुत व्यक्तिगत दिखाई देता है। मनुष्य के रूप में यह परमात्मा के ही आरोप जैसा मनुष्य द्वारा ईजाद किया गया नाम जैसा लगता है। वे लोग इसे ‘ विद्युत ‘ अथवा ‘ चुम्बकीय ऊर्जा क्षेत्र ‘ कहते हैं, लेकिन केवल नाम ही अलग है। परमात्मा उनके लिए एक ‘ ऊर्जा ‘ क्षेत्र है।

दार्शनिक इसे विभिन्न नाम दिए चले जाते हैं, चट्टानों की पर्तों का बुनियादी स्वरूप, पूर्ण अथवा ब्रह्म। थेल्स से लेकर बर्टेन्ड रसेल तक, उन लोगों ने इस प्रश्न के अनेक उत्तर दिए हैं। कभी कुछ दार्शनिक कहते हैं—’‘ वह जल है और उसमें तरलता और प्रवाह है, कभी कोई कहता है वह अग्नि है। लेकिन उनकी खोज शाश्वत बनी हुई है। ऐसा क्या है जो इस अनंत ब्रह्माण्ड को एक साथ धारण किए हुए है?”

बाउल इसे प्रेम पुकारते हैं और मेरे लिए भी उनका यह उत्तर सबसे अधिक संगत प्रतीत होता है। यह न तो व्यक्तिगत है और न अवैयक्तिक है। इसमें कुछ तत्व परमात्मा जैसा है और कुछ ऐसा है, जो चुम्बकीय है, जो दिव्य है और उसमें कुछ ऐसा है जिसमें पृथ्वी की सुवास है।

प्रेम के दो चेहरे होते हैं। यह इटली के प्राचीन देवता जानुस जैसा है। (जिसके आने जाने के दो द्वारों के प्रतीक स्वरूप आगे पीछे दो चेहरे होते थे।) एक चेहरा पृथ्वी की ओर नीचे देखता है और दूसरा चेहरा ऊपर आकाश की ओर। यह। एक ऐसा महान संश्लेषण है, जिसकी अभी तक धारणा की गई है। यह वासना से

 

जन्मता प्रार्थना की ओर जाता है। यह कीचड़ से उत्पन्न होता है और सूर्य की ओर देखते हुए एक कमल का पुष्प बन जाता है।

यह शब्द ‘ प्रेम ‘ समझने जैसा है। इस प्रेम शब्द से हम क्या अर्थ लेते हैं? एक चीज का तो निश्चित रूप से हम यह अर्थ लेते हैं कि उसमें अपनी ओर खींचने की एक महान शक्ति है। जब तुम किसी के प्रेम में पडते हो तो ऐसा नहीं है कि तुम कुछ करते हो। तुम खींच लिए जाते हो। उसमें एक चुम्बकीय शक्ति होती है। तुम अपने प्रेमपात्र की ओर आकर्षित होते हो, जैसे तुम असहाय होकर प्रेम पात्र की चुम्बकीय शक्ति से अपनी इच्छा के विरुद्ध भी उसकी ओर खींच लिए जाते हो। उसमें एक खिंचाव और आकर्षण होता है, एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है। यही कारण है कि हम उसे ‘ प्रेम में गिरना ‘ या ‘ प्रेम के लिए मर जाना ‘ कहते हैं। गिरना और मरना कौन चाहता है? लेकिन कौन प्रेमी उससे अपने को बचा सकता है? जब वह ऊर्जा तुम्हें पुकारती है तब तुम वही पुराने व्यक्ति नहीं रह जाते। कुछ चीज जो तुमसे बड़ी महान और दिव्य है वह तुम्हें अपनी ओर आमंत्रित कर रही है, जादू से अपनी ओर खींच रही है। यह चुनौती ऐसी है कि कोई भी व्यक्ति उसकी ओर सिर के बल दौड़ पड़ता है।

इसलिए पहली चीज जो समझने जैसी है वह यह है कि प्रेम में आकर्षण और अपनी ओर खींचने की एक महान शक्ति होती है। तुम अचानक ही वही सामान्य व्यक्ति नहीं रह जाते। चमत्कारिक रूप से तुम्हारी चेतना में कुछ चीज बदल जाती है। प्रेम तुम्हें रूपांतरित कर देता है। प्रेम में गिरकर एक हिंसक मनुष्य भी कोमल और दयावान बन जाता है। एक हत्यारा भी इतना अधिक करुणापूर्ण बन जाता है कि लगभग इस पर विश्वास करना ही असम्भव लगता है। प्रेम एक चमत्कार है—वह तुच्छ धातु को स्वर्ण में बदल देता है।

जब लोग प्रेम में पड़ जाते हैं, तब क्या तुमने उनके चेहरे और आंखों का निरीक्षण किया है? तुम विश्वास ही नहीं कर सकते कि ये लोग वही व्यक्ति हैं। जब प्रेम उनकी आत्माओं को अपने अधिकार में ले लेता है, उनकी आकृति बदल जाती है, जैसे वे किसी अन्य आयाम में चले जाते हैं और वह भी अचानक…… और वह भी स्वयं उनके बिना कोई प्रयास के। जैसे मानो वे परमात्मा के जाल में पकड़ लिए गए हो। प्रेम उन्हें निम्न तल से उच्च तल की ओर ले जाता है, वह पृथ्वी को आकाश में रूपांतरित कर देता है, वह मनुष्य को दिव्यता में बदल देता है।

ये दो चीजें है, पहली है—प्रेम एक ऊर्जा क्षेत्र है…… .वैज्ञानिक भी इससे सहमत है। दूसरी चीज हैं—प्रेम में एक रूपांतरित कर देने वाली शक्ति है। वह तुम्ह भारहीन होने में सहायता करती है, वह तुम्हें पंख देती है। तुम अनंत की ओर सभी के पार जा सकते हो। धार्मिक विचारक इससे सहमत होंगे कि प्रेम परमात्मा और विद्युत दोनों ही हैं। प्रेम एक दिव्य ऊर्जा है। बाउलों ने प्रेम को चुना है, क्योंकि यह मनुष्य के जीवन में होने वाला सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अनुभव है। तुम भले ही धार्मिक हो अथवा नहीं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। प्रेम मनुष्य के जीवन का केंद्रीय अनुभव बना ही रहता है। यह सबसे अधिक सामान्य और सबसे अधिक असामान्य है। यह कम या अधिक प्रत्येक व्यक्ति को घटता है और जब यह घटता है, यह आकृति और प्रकृति दोनों बदल देता है। यह सामान्य होकर भी असामान्य है। यह तुम्हारे और सर्वोच्च सत्ता के मध्य एक सेतु है।’’

हमेशा तीन ‘ प ‘ का स्मरण रखो—प्रेम, प्रकाश और परिपूर्ण जीवन। परिपूर्ण जीवन तुम्हें अस्तित्व ने दिया है, तुम उसे जी रहे हो। प्रकाश तुम्हारे सामने मौजूद है लेकिन तुम्हें प्रकाश और अपने पूरे जीवन के मध्य एक सेतु बनाना है। यह सेतु ही प्रेम है। इन तीनों प को लेकर तुम पूरे जीवन का मार्ग बना सकते हो, अपने होने और अस्तित्व को एक नई दिशा दे सकते हो।

बाउल दार्शनिक नहीं है। वे लोग कवि अधिक हैं—वे गाते और नाचते हैं। वे सोच विचार नहीं करते। वास्तव में वे लगभग दार्शनिकता के विरोधी जैसे हैं, कयोंकि उनकी यह भली भांति समझ में आ गया है कि जब भी मनुष्य बुद्धि प्रधान अधिक हो जाता है वह प्रेम करने में असमर्थ हो जाता है और प्रेम ही सेतु बनने जा रहा है। एक मनुष्य जो बहुत अधिक बुद्धि प्रधान हो जाता है, हृदय से दूर चला जाता है और हृदय ही वह केंद्र है, जो प्रेम की पुकार का उत्तर देता है।

बुद्धिप्रधान व्यक्ति संसार से कटकर जैसे उससे दूर हो जाता है। वह रहता संसार में ही है, लेकिन वह ऐसे रहता है जैसे मानो किसी गहरी गफलत में हो। वह रहता संसार में ही है, लेकिन वह उस वृक्ष की भांति रहता है, जिसने अपनी जड़ें खो दी हों। वह सिर्फ नाम भर को रहता है, कुछ यों रहता है जैसे उसमें जीवन का रस अब और प्रवाहित ही न हो रहा हो। जैसे सभी से सम्पर्क तोड़कर वह सभी ले टूट गया हो। जैसे उस पर से उसका स्वामित्व कहीं और हस्तांतरित हो गया हो।

आज का मनुष्य ऐसा अनुभव करता है, जैसे स्वयं पर से उसका स्वामित्व कहीं और हस्तांतरित हो गया है, वह यहां अपने आपको बाहरी व्यक्ति जैसा अकेला अनुभव करता है, उसे ऐसा नहीं लगता कि वह अपने घर में है, जीवन, अस्तित्व और इस संसार के साथ आराम से है। उसे ऐसा अनुभव होता है जैसे उसे इस संसार में फेंक दिया गया है और वह एक आशीर्वाद या वरदान की अपेक्षा एक अभिशाप कहीं अधिक है।

ऐसा आखिर हुआ क्यों है? बहुत अधिक बुद्धिप्रधान होने के कारण, मस्तिष्क को बहुत अधिक प्रशिक्षण दिए जाने से उसकी वे जडें ही कट गई हैं जो हृदय को उससे जोड़े हुए थीं। यहां बहुत से लोग हैं और मैंने यह निरीक्षण किया है कि हजारों लोग ऐसे हैं जो यह जानते भी नहीं कि हृदय है क्या? वे उसे छोड़ ही चुके हैं। हृदय उनका धड़कता जरूर है, लेकिन उसकी ऊर्जा उसके द्वारा प्रवाहित नहीं हो रही। वे उसे छोड़ कर आगे बढ़ गए है, वे सीधे खोपड़ी में चले गए हैं। जब वे प्रेम भी करते हैं, तो वे ‘ सोचते ‘ हैं कि वे प्रेम कर रहे हैं। जब वे कुछ अनुभव करते हैं तो ‘ वे सोचते हैं ‘ कि वे अनुभव कर रहे हैं। अनुभव करना अथवा भावपूर्ण होना भी सोचने के द्वारा ही होता है। वास्तव में यह नकली होना ही है।

सोचना—विचारना सबसे बड़ा धोखा और झूठ है, क्योंकि सोचना, मनुष्य का संसार को समझने का प्रयास है और प्रेम है परमात्मा का मनुष्य को समझने का प्रयास। मुझे इसे फिर दोहराने दो — जब तुम परमात्मा अथवा अस्तित्व अथवा सत्य को समझने का प्रयास करते हो, वह तुम्हारी अखण्ड और उस अनंत पूर्ण के एक भाग, एक बहुत छोटे से भाग को पकड़ने की कोशिश हैं। इस कोशिश को बरबाद होना ही है, वह असम्भव है। ऐसा होना वस्तुओं का स्वभाव नहीं है।

प्रेम तब जन्मा, जब परमात्मा ने तुम्हें पाया। प्रेम तब उपजा, जब परमात्मा के हाथ तुम्हें खोजने को टटोलते हुए आगे बड़े। प्रेम तब होता है, जब तुम अपने खोजने की परमात्मा को अनुमति देते हो। इसलिए तुम प्रेम की व्यवस्था नहीं कर सकते। तुम तर्क वितर्क करने की व्यवस्था कर सकते हो जहां तक तर्क वितर्क का सम्बंध है, तुम इसमें बहुत बहुत कुशल हो सकते हो। जिस क्षण प्रेम उमगता है, तुम पूरी तरह से अक्षम और नकारा बन जाते हो। तब तुम यह नहीं जानते कि तुम हो कहां, तब तुम यह नहीं जानते कि तुम क्या कर रहे हो, तब तुम यह नहीं जानते कि तुम कहां जा रहे हो, तब तुम किसी नियंत्रण को जानते ही नहीं। तर्क वितर्क को नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन प्रेम अनियंत्रित है। तर्क—वितर्क कुशलता से की जाने वाली व्यवस्था है, जब कि प्रेम होना एक घटना है। तर्क तुम्हें यह अनुभव कराता है कि तुम भी कुछ हो और प्रेम तुम्हें इस बात का अहसास देता है कि तुम कुछ भी हो नहीं हो।

तुममें प्रेम तभी उमगता है, जब तुम अपने अंदर परमात्मा को प्रवेश करने की अनुमति देते हो। जब तुम अपने से कोशिश कर रहे हो तो पूरा प्रयास ही व्यर्थ है।

 

मैंने सुना है:

अपनी लड़की के यहां एक सांध्यकालीन उत्सव में मुल्ला नसरुद्दीन को धकेलते हुए मुख्य अतिथि तक ले जाया गया। उसने सुना कोई उसे डॉक्टर कहकर सम्बोधित कर रहा है। अब उसने आत्मविश्वास के साथ कहा—’‘ डॉक्टर! क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूछ सकता हूं?”

उसने कहा—’‘ निश्चय ही। आप अवश्य पूछिए।’’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा—’‘ कुछ देर से मेरे दिल के नीचे एक अजीब तरह का दर्द हो रहा है…….।’’ मेहमान ने असहज होने का अनुभव करते हुए उसे टोका—’‘ मुझे बहुत बहुत अफसोस है मुल्ला! लेकिन सत्यता यह है कि मैं डॉक्टर ऑफ फिलासफी हूं।’’ नसरुद्दीन ने कहा—’‘ ओह! मुझे बहुत अफसोस है।’’ यह कहते हुए वह जाने के लिए मुड़ा, लेकिन फिर घूमकर अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए उसने कहा—’‘ डॉक्टर! एक प्रश्न और, कृपया मुझे यह बतलाइये कि यह फिलासफी किस तरह की बीमारी होती है।’’

 

हां। फिलासफी या दर्शनशास्त्र एक तरह की बीमारी ही है और वह किसी तरह की सामान्य बीमारी ही नहीं, वह कैंसर से भी कहीं अधिक अन्य शेष सभी बीमारियों को मिलाकर उनसे भी कहीं अधिक खतरनाक है। एक रोग केवल एक जड़ को काट सकता है। सभी बीमारियां मिलकर भी तुम्हें एक साथ अस्तित्व से पूरी तरह नहीं काट सकती। दर्शनशास्त्र तुम्हें बस पूरी तरह काट देता है, तुम पूरी तरह जडूमूल से उखड़ जाते हो।

यह रोग है क्या? जब अस्तित्व के साथ तुम्हारे सम्बंध का एक तार ढीला हो जाता है, तुम बीमार पड़ जाते हो। जब सिर से सम्बंध शिथिल होता है। तब वहां सिर दर्द होता है। जब से सम्बंध टूट जाता है तो पेट दर्द होता है। कहीं न कहीं तुम स्वतंत्र हो जाते हो, तुम एक दूसरे पर आश्रित रहने वाले अस्तित्व सागर में जब और नहीं रह पाते, तभी बीमारी प्रकट होती है। रोग की अपनी एक अलग स्वतंत्रता है। जब तुम्हारे अंदर कैंसर की कोशिकाएं विकसित होती हैं। वह विकास अपने आप में एक नया संसार हैं। उसका इस अस्तित्व के साथ कोई सम्बंध नहीं होता। एक रुग्ण मनुष्य वह है, जिसके कई तरह से अस्तित्व से सम्बंध नहीं रह गए। जब कोई रोग जटिल, पुराना और असाध्य हो जाता है, उसका साधारण सा अर्थ यही है कि उसकी जड़ें पूरी तरह नष्ट हो चुकी हैं। यहां तक कि पृथ्वी में उसे फिर रोपने की भी संभावना नहीं रह गई है। तुम्हें केवल आशिक रूप से जीवित रहना होगा, क्योंकि तुम्हारा एक भाग मृत ही रहेगा। किसी को लकवा मार जाता है, इसका क्या अर्थ है? शरीर ने अस्तित्व की ऊर्जा के साथ अपना सम्बन्ध तोड़ दिया है। अब वह लगभग एक मृत चीज है असम्बंधित। केवल लटका हुआ। अब उसमें जीवन रस प्रवाहित नहीं हो रहा है।

यही है वह, जिसे रुग्णता कहते हैं, तब दर्शनशास्त्र वास्तव में वह सबसे बड़ी बीमारी है जो यहां हो सकता है— क्योंकि यह तुम्हें अस्तित्व से पूरी तरह काट देती है और इतना ही नहीं यह तुम्हारा ऐसे तर्क से भी सम्बंध विच्छेद कर देती है जो तुम्हें कभी भी इस बात से सजग नही होने देता कि तुम रुग्ण हो। यह तुम्हारा सम्बंध ऐसे औचित्य और तार्किक समझ के साथ जोड़ देती है कि तुम कभी सजग नहीं हो पाते और तुम चूके चले जाते हो। यह स्वयं को न्यायसंगत ठहराने की बहुत बड़ी बीमारी है, जो अपना समर्थन किए चले जाती है। दर्शनशास्त्र का अर्थ कि मनुष्य पूरी तरह से बुद्धि के अधिकार में हो गया। वह अस्तित्व को प्रेम की दृष्टि के द्वारा न देखकर, तर्क की ही दृष्टि से देखता है।

जब तुम तर्क की दृष्टि के द्वारा देखते हो, तो तुम बहुत थोड़ी सी चीजें ही जानोगे, लेकिन वे थोड़ी सी चीजें तुम्हें सत्य और वास्तविकता की पूरी दृष्टि नहीं देंगी। वह केवल थोड़ा सा संक्षिप्त विवरण होगा।

जब तुम प्रेम के द्वारा देखते हो, तब तुम सत्य और वास्तविकता जैसी है, उसे यथार्थ रूप में जानते हो। प्रेम अस्तित्व के साथ मिलकर, एक साथ सहभागिता में बरस रहा है। वह सर्वोच्च आनंद का एक प्रपात जैसा है और तुम उसमें बहे जा रहे हो और अस्तित्व सदा से ही प्रवाहित हो रहा है और दोनों एक दूसरे, से मिलकर, एक दूसरे में समाहित होकर, जैसे दो सरिताओं का एक संगम बन गए हो। इस मिलन से एक महान संश्लेषण उत्पन्न हो रहा है। खण्ड, अखण्ड में मिल रहा है और अखण्ड खण्ड में समाहित हो रहा है। तब कोई ऐसी चीज उत्पन्न होती है जो खण्ड से कहीं अधिक होती है और जिसमें साथ ही अखण्ड भी होता है। यही है वह प्रेम। मनुष्य की सभी भाषाओं में प्रेम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शब्द है क्योंकि प्रेम की भाषा, अस्तित्वगत भाषा है।

लेकिन किसी न किसी प्रकार हम बचपन से ही अपंग बना दिए जाते हैं। हमारी जड़ें हृदय से काट दी जाती हैं। हमको बुद्धि की ओर बलपूर्वक धकेल दिया जाता है और हृदय तथा भाव की ओर जाने की अनुमति नहीं मिलती। यही वह चीज है जिससे मनुष्यता एक लम्बी अवधि से पीड़ित है, यही वह गहरा संकट है, जिसके कारण मनुष्य अभी भी प्रेम के साथ रहने में समर्थ नहीं हो पा रहा है।

इसके कुछ कारण हैं। प्रेम में बहुत बड़ी जोखिम है। प्रेम तुम्हें खतरों में ले जाता है क्योंकि तुम उसे नियंत्रित नहीं कर सकते, उसमें कोई सुरक्षा नहीं होती।

तुम्हारे हाथों में फिर कुछ भी नहीं रह जाता। तुम बेबस हो जाते हो। उसके बारे में पहले से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, वह तुम्हें कहां किस ओर ले जाएगा, कोई भी नहीं जानता।

प्रत्येक स्थिति में वह कहीं ले ही जाएगा, यह भी कोई नहीं जानता। कोई भी व्यक्ति निपट अंधेरे में ही आगे बढ़ रहा होता है, लेकिन जड़ें अंधेरे में ही विकसित होती हैं। यदि एक वृक्ष की जड़ें ही अंधेरे से डरकर, पृथ्वी के अंदर न जाएं तो वृक्ष मर जाएगा। उन्हें अंधेरे में आगे बढ़ना ही होता है। उन्हें पृथ्वी की गहनतम और गहरी पर्तों की ओर बढ़ना होता है। जहां वे पोषित होने के लिए जल का स्रोत खोज सकें।

हृदय भी तुम्हारे अस्तित्व का सबसे अधिक अंधेरा भाग है, वह एक अंधेरी रात की भांति है। वह तुम्हारा गर्भ है। वही तुम्हारी पृथ्वी है। इसीलिए लोग अंधेरे में जाने से डरते हैं और वे प्रकाश में ही रहना चाहते हैं। कम से कम तुम यह देख तो सकते हो कि तुम हो कहां और क्या होने जा रहा है। तुम सुरक्षित और सही सलामत हो। जब तुम प्रेम में आगे बढ़ते हो, तुम होने वाली संभावनाओं का अनुमान नहीं लगा सकते तुम परिणामों का भी अनुमान नहीं लगा सकते। तुम परिणामों की ओर उन्‍मूख होकर किसी विशिष्ट दिशा में आगे नहीं बढ़ सकते। प्रेम के लिए भविष्य का कोई अस्तित्व है ही नहीं, केवल वर्तमान ही सामने रहता है। तुम इस क्षण में हो सकते हो, लेकिन तुम आने वाले अगले क्षण के बारे में कुछ भी सोच ही नहीं सकते। प्रेम में कोई योजना बनाना संभव ही नहीं है।

समाज, सभ्यता, संस्कृति और संगठित धर्म— यह सभी एक छोटे से बच्चे को, जो वे ठीक समझते हैं, उस पर विश्वास कर उसे करने को विवश करते हैं। वे सभी शक्तियों को उसकी बुद्धि में केंद्रित करने का प्रयास करते हैं। और एक बार सारी ऊर्जाएं और शक्तियां बुद्धि में केंद्रित हो जाये, फिर हृदय की ओर प्रवाहित होना बहुत कठिन हो जाता है। वास्तव में प्रत्येक बच्चा प्रेम की महान ऊर्जा के साथ ही जन्म लेता है, क्योंकि प्रेम की ऊर्जा से ही वह जन्मता है। बच्चा प्रेम और विश्वास से भरा हुआ होता है। क्या तुमने एक छोटे से बच्चे की आंखों में झांक कर देखा है? कितने विश्वास से भरी हुई है वे? बच्चा किसी भी बात पर विश्वास कर सकता है। बच्चा सांप के साथ भी खेल सकता है, बच्चा किसी भी व्यक्ति के साथ कहीं भी जा सकता है। बच्चा आग के भी इतने अधिक निकट जा सकता है कि वह उसके लिए खतरनाक भी हो सकता है क्योंकि बच्चे ने अभी तक संदेह करना नहीं सीखा है। इसलिए हम उसे संदेह करना सिखलाते हैं। हम उसे सत्य और प्रत्येक बात पर सन्देह और तर्क करना सिखलाते हैं। यह विषम परिस्थितियों में जीवित रहने की ओर उठाये गए कदम दिखाई देते हैं। हम उसे भयभीत होना, सावधानी बर्तना और समझदार बनना सिखलाते हैं और यह सभी चीजें मिलकर उसके प्रेम की संभावना की हत्या कर देती है।

 

मैंने सुना है :

डी. अब्राहम को मुल्ला नसरुद्दीन की दुकान पर उसे देखने बुलाया गया, जहां मुल्ला बेहोश पड़ा हुआ था। डॉक्टर अब्राहम ने एक लम्बे समय तक उसका इलाज और देखभाल की और उसे होश में ले आया।

होश में आने पर उसने मुल्ला से पूछा— ” आखिर तुमने उस चीज को पिया ही क्यों? क्या तुमने उसकी शीशी पर लगे लेबिल पर यह पढ़ा नहीं कि वह विष है।’’

नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ जी हां डॉक्टर साहब! मैंने उसे पढ़ा तो, लेकिन उस पर विश्वास नहीं किया।’’

डॉक्टर अब्राहम ने पूछा—’‘ आखिर क्यों?”

नसरुद्दीन ने उत्तर दिया—’‘ क्योंकि मैंने जब कभी भी किसी पर विश्वास किया, मैंने धोखा ही खाया।’’

 

लोग धीमे— धीमे ही सीखते है—कि कैसे विश्वास न किया जाए और कैसे पक्का संदेही बना जाए। और यह इतनी अधिक धीमी गति और इतनी छोटी —छोटी खुराकें लेने के बाद घटता है, कि तुम कभी भी उसके प्रति सजग हो ही नहीं पाते, जो कुछ तुम्हें घट रहा है। जब वह घट चुकता है तो काफी देर हो चुकी होती है। यही वह चीज है, जिसे लोग अनुभव कहते हैं। वे लोग तभी उसी व्यक्ति को अनुभवी कहते हैं, जब वह हृदय के साथ अपना सम्बंध पूरी तरह तोड़ चुका होता है, वे कहते हैं—’‘ यह व्यक्ति बहुत अधिक अनुभवी, बहुत अधिक चतुर और चालाक है और इसे अब कोई भी व्यक्ति धोखा नहीं दे सकता।’’

भले ही उसे कोई भी व्यक्ति धोखा न दे सकता हो, लेकिन उसने स्वयं अपने आप को ही धोखा दिया है। उसने वह सभी कुछ खो दिया था, जो बचाने जैसा है। उसने सभी कुछ खो दिया है। और वह बचा क्या रहा है?

तब एक बहुत विलक्षण घटना घटती है। लोग दूसरे व्यक्तियों से प्रेम नहीं कर सकते, क्योंकि लोग धोखेबाज हो सकते हैं। वे वस्तुओं से प्रेम करना शुरू कर देते हैं क्योंकि उसके स्थान पर प्रेम करने की बहुत अधिक जरूरत है, वे उसका विकल्प खोजने लगते हैं। कोई व्यक्ति अपने घर से प्रेम करने लगता है, कोई अपनी कार से प्रेम करने लगता है, कोई व्यक्ति कपड़ों से और अन्य कोई व्यक्ति धन से प्रेम करने लगता है। वास्तव में घर धोखा नहीं दे सकता, इस प्रेम में कोई खतरा नहीं है। तुम कार से प्रेम कर सकते हो, एक कार एक असली व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक विश्वसनीय है। तुम धन से प्रेम कर सकते हो, धन तो मृत है। वह हमेशा तुम्हारे नियंत्रण में रहता है। बहुत से लोग व्यक्तियों की अपेक्षा, वस्तुओं से क्यों अधिक प्रेम करते हैं? और यदि वे किसी व्यक्ति से प्रेम करते भी हैं, तो वे उस व्यक्ति को एक वस्तु की भांति तुच्छ और बेजान बना देते हैं। यदि तुम किसी स्त्री से प्रेम करते हो, तुम तुरंत उसे अपने अधीन कर अपनी पत्नी बनाने को तैयार हो जाते हो, जो वह है, तुम उसके कद को घटाकर उसे एक विशिष्ट पत्नी का रोल देने को तैयार हो जाते हो क्योंकि असली प्रेमिका की अपेक्षा उसके बारे में पहले ही से कुछ अधिक जाना जा सकता है। यदि तुम किसी पुरुष से प्रेम करती हो तो तुम उसे एक वस्तु की भांति अपने अधिकार में रखना चाहती हो। तुम चाहती हो कि वह तुम्हारा पति बन जाए क्योंकि प्रेमी में कहीं अधिक तरलता होती है, कोई भी नहीं जानता कि वह. एक पति कहीं अधिक ठोस दिखाई देता है। कम से कम उसके साथ कानून तो है, कचहरी और पुलिस तो है और उस बारे में राज्य सरकार भी है जो उसके पति पर उसके अधिकार को एक विशिष्ट दृढ़ता प्रदान करती है। एक प्रेमी तो स्वप्न सदृश दिखाई देता है, वह उतना अधिक वास्तविक नहीं है। शीघ्र ही प्रेम में पड़ने के बाद लोग विवाह करने के लिए तैयार हो जाते हैं। प्रेम से उन्हें इतना अधिक भय होता है। और जिससे भी हम प्रेम करते हैं हम उसे अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश शुरू कर देते हैं। पति और पत्नी के बीच मां और बेटों के बीच, भाई और बहनों के बीच और मित्रों के मध्य भी यही संघर्ष चल रहा है : कि कौन किसे अपने अधिकार में रखने जा रहा है। इसका अर्थ है कौन किसे वस्तु बनाकर अपने अधिकार में करने जा रहा है, कौन किसे अपनी सीमा में आबद्ध करने जा रहा है? कौन मालिक बनेगा और कौन गुलाम बनेगा?

 

मुल्ला नसरुद्दीन शराब का जाम थामे उदास बैठा था और उसे देखकर उसके मित्र ने उससे पूछा—’‘ तुम आज अपना मुंह सिए हुए खामोश क्यों बैठे हो?” नसरुद्दीन ने कहा—’‘ मेरा मनोविश्लेषक कहता है कि मुझे अपने छाते से प्रेम हो गया है, और वही मेरी मुसीबतों का स्रोत है।’’

” तुम अपने छाते के प्रेम में पड़ गए हो?”

” हां! पर क्या यह इतनी व्यर्थ की बात है? ओह! मैं अपने छाते को बहुत अधिक पसंद करता हूं उसका सम्मान करता हूं और उसे साथ रखने का आनंद लेता हूं। लेकिन प्रेम?”

 

लेकिन प्रेम और होता क्या है? यदि तुम अपने छाते को अपने साथ रखने में प्रसन्न होते हो, यदि तुम उसका सम्मान करते हो और तुम अपने छाते को चाहते हो, तो प्रेम आखिरकार इससे अधिक और क्या हो सकता है? प्रेम है किसी को सम्मान देना, अत्यधिक आदर देना। प्रेम एक गहरी चाहना है और जिसे तुम प्रेम करते हो, उसकी उपस्थिति में पूर्ण रूप से प्रसन्न रहना ही प्रेम है। इसके अतिरिक्त प्रेम और होता क्या है?

लेकिन लोग वस्तुओं से प्रेम करते हैं—किसी न किसी तरह उस खाली स्थान को किसी अन्य चीज से मरने की गहरी जरूरत है।

स्मरण रहे पहला संकट है कि कोई व्यक्ति बुद्धि प्रधान या सोच विचार करने वाला बन जाए। दूसरी महान विपदा यह है कि कोई व्‍यक्ति प्रेम करने के लिए किसी व्यक्ति का प्रतिस्थापन किसी वस्तु से करे। तब तुम भटक गए। किसी मरुस्थल में विलीन हो गये। तब तुम सागर तक कभी न पहुंच सकोगे। तब तुम बस बिखर कर नष्ट हो जाओगे। भाप बनकर उड़ जाओगे। तब तुम्हारा जीवन पूरी तरह बरबाद हो जाएगा।

जिस क्षण भी तुम्हें यह होश आ जाए कि जो कुछ हो रहा है, वह यही है तो हृदय के साथ जुड्ने के सभी सम्भव प्रयास करो, अपनी चाल का रुख बदल दो। यह वही है, जिसे बाउल प्रेम कहते हैं—हृदय के साथ फिर से सम्बंध जोड़ना तुम्हारे साथ समाज द्वारा जो कुछ भी किया गया है, उस किए को अनकिया करना। और जो समाज द्वारा तुम्हारे साथ नहीं किया गया है, वही सच्चा धर्म है। उन सभी व्यर्थ की चीजों को अनकिया करना है जो तुम्हारा भला चाहने वालों ने तुम्हारे साथ की है। वे सोचते होंगे कि वे तुम्हारी सहायता कर रहे हैं और वे जानबूझ कर तुम्हें बरबाद नहीं कर रहे होंगे। वे लोग स्वयं भी इसी तरह अपने माता—पिता और समाज के शिकार बने होंगे। मैं उनके विरुद्ध कोई भी बात नहीं कह रहा हूं। उन सभी के लिए अत्यधिक करुणा की आवश्यकता है।

गुरजियेफ अपने शिष्यों से कहा करता था कि एक व्यक्ति केवल तभी धार्मिक बनता है, जब वह अपने माता—पिता को क्षमा करने योग्य बन जाता है। क्षमा करना? हां! ऐसा कैसे हो होता है। इसे समझना बहुत कठिन है। जिस क्षण तुम सजग बनते हो, यह बहुत मुश्किल लगता है लगभग असम्भव ही कि तुम अपने माता—पिता को क्षमा कर सको, क्योंकि उन्होंने तुम्हारे साथ बहुत सी चीजें ऐसी की होंगी, और वास्तव में उन्होंने वे अनजाने और मूर्च्छा में ही की होगी, लेकिन फिर भी उन्होंने की है। उन्होंने तुम्हारे प्रेम को नष्ट कर दिया और उन्होंने तुम्हें मृत तर्क—वितर्क और विचार थमा दिए। उन्होंने तुम्हारी समझ और प्रज्ञा को नष्ट कर दिया और उसके प्रतिस्थापन के रूप में तुम्हें बुद्धि दी। उन्होंने तुम्हारे जीवन की जीवंतता नष्ट कर दी और तुम्हें रहने के लिए एक बंधा बंधाया ढांचा और एक योजना दे दी। उन्होंने तुम्हारी दिशा ही बिगाड़ दी और तुम्हें एक लक्ष्य अथवा एक मंजिल दे दी। उन्होंने तुम्हारे जीवन में उत्सव आनंद मनाने के क्षण नष्ट कर दिए और तुम्हें बाजार में बिकने वाली वस्तु बना दिया। बहुत कठिन है उन्हें क्षमा करना। इसीलिए तभी पुरानी परम्पराएं कहती हैं— अपने माता—पिता का सम्मान क्रो।

पर उनको क्षमा कर पाना बहुत कठिन है। और उनको आदर देना तो बहुत बहुत कठिन कार्य है। लेकिन यदि तुम इसे समझ गये हो, तो तुम उन्हें क्षमा कर दोगे, तुम ठीक वही कहोगे, जो जीसस ने क्रॉस पर कहा था—’‘ हे परमपिता! उन्हें क्षमा कर, वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं?” हां! ठीक यही शब्द थे वे। और यहां प्रत्येक व्यक्ति क्रॉस पर ही चढ़ा है और यह क्रॉस तुम्हारे दुश्मनों द्वारा तैयार नहीं किया गया है, लेकिन यह तुम्हारे माता—पिता और समाज द्वारा बनाया गया है, और प्रत्येक व्यक्ति क्रॉस पर लटका हुआ है।

यह मस्तिष्क इतना अधिक नियंत्रक बन गया है कि यह सहजता और स्वाभाविकता को निकट आने ही नहीं देता। वह तानाशाह बन गया है। वह हृदय को एक भी शब्द कहने की अनुमति ही नहीं देता। उसने हृदय को पूरी तरह खामोश रहने को विवश कर दिया है।

तुम्हें फिर से हृदय की आवाज को सुनना होगा। तुम्हें तर्क को थोड़ा— थोड़ा छोडना शुरू करना पड़ेगा। तुम्हें कुछ खतरे उठाने होंगे। तुम्हें कुछ जोखिम उठाकर जीना पड़ेगा। तुम्हें अज्ञात की ओर आगे बढ़ना होगा और तुम्हें वस्तुओं से प्रेम न कर व्यक्तियों से प्रेम करना होगा। तुम्हें इसके लिए अपने को तैयार करना होगा कि तुम किसी व्यक्ति पर अधिकार न जमाओ, क्योंकि जिस क्षण तुम उस पर अधिकार जमाते हो, वह व्यक्ति फिर वह रह ही नहीं जाता, वह एक वस्तु जैसा बन जाता है और किसी वस्तु पर ही अधिकार किया जा सकता है।

इसे जितनी अधिक गहराई से सम्भव हो सके, समझने का प्रयास करो, जिस क्षण तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करने लगते हो, तुम्हारा आदतों और अनुशासन से आबद्ध ढांचा, उसे अपने अधिकार में लेने की कोशिश शुरू कर देता है। इस प्रलोभन को रोको, शैतान तुम्हें लालच दे रहा है—यह शैतान है समाज, यह शैतान है सभ्यता और तुम्हारा तथाकथित धर्म। यह शैतान धार्मिक लिबास पहने हुए शास्त्रों के उद्धरण दिए चले जा रहा है। उससे सावधान रहो।

तुम जब भी किसी को अपने अधिकार और नियंत्रण में लेने की कोशिश करते हो, तुम प्रेम—हत्या कर देते हो। इसलिए या तो तुम किसी व्यक्ति को अपने अधिकार में ले सकते हो, अथवा तुम किसी व्यक्ति से प्रेम कर सकते हो—दोनों साथ—साथ करना सम्भव नहीं है।

इसलिए दो चीजों में से एक को ही चुनना है — एक व्यक्ति जो बाउल बनना चाहता है, एक प्रेमी बनना चाहता है, उसे अपनी सारी पकड़ छोड़नी होगी। अधिकार के सम्बंध में सभी प्रलोभनों को छोड़ना होगा, क्योंकि यह प्रलोभन अहंकार से आ रहा है।

 

एक बार मुल्ला नसरुद्दीन ने मुझसे कहा— ” श्रीमान! यह बात कितनी प्रशंसनीय है कि हम दोनों एक दूसरे के कितने अनुरूप हैं। जब कि व्यावहारिक रूप में हम लोगों में कुछ भी समान नहीं है।’’

मैंने उत्तर दिया—’‘ ओह! हां, पर हम लोहों में एक बहुत ही समान महत्त्वपूर्ण बात है। मेरा ख्याल है कि तुम एक अद्भुत व्यक्ति हो और इस बारे में मेरे साथ सहमति रखते हो।’’

 

अहंकार गलत चीजों के लिए सहमति दिए चले जाता है, क्योंकि गलत चीज के साथ ही अहंकार अस्तित्व में बने रह सकता है। गलत चीज ही उसका भोजन है। इसलिए तुम्हें जब भी यह महसूस हो कि तुम्हारा अहंकार तुष्ट हो गया है, सावधान हो जाओ तुमने किसी गलत चीज को भोजन बना लिया है। तुमने कोई गलत चीज निगल ली है। तुम्हें जब भी अहंकार शून्य होने का अनुभव होता है, तुम विश्रामपूर्ण हो जाते हो। अब तुमने किसी ऐसी चीज को आहार बनाया है जो तुम्हारी प्रकृति से मेल खाती है।

बाधाओं और मुसीबतों से ही अहंकार का जन्म होता है, लेकिन उसका अपना एक अलग तर्क है। वह यह कहे चले जाता है कि तुम महत्‍वपूर्ण हो, कि तुम संसार के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो और तुम्हें इसे सिद्ध करना है। और हम सभी इसे एक या दूसरी तरह से करने की कोशिश कर रहे हैं कोई इसे अधिक धन पाकर, कोई एक सुंदर स्त्री पर अधिकार प्राप्त कर, कोई इसे प्रतिष्ठा अथवा शक्ति पाकर, कोई राष्टाध्यक्ष या प्रधानमंत्री बनकर, कोई कलाकर अथवा कवि बनकर और कोई महात्मा बनकर, लेकिन हम सभी किसी न किसी तरह अपनी आंतरिक सनक द्वारा यह सिद्ध करने में जुटे हुए हैं कि हम ही संसार के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं। तब तुम एक प्रेमी नहीं हो।

महत्त्वाकांक्षा, प्रेम के लिए एक विष है। प्रेमी को इसे सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। वास्तव में वह जानता है कि उसे प्रेम मिल रहा है। और यही उसके लिए पर्याप्त है।

बहुत सावधानी से इस रोग को पहचानने की कोशिश करो। जब तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता और यदि तुम स्वयं किसी से प्रेम नहीं करते तो तुम्हें किसी और का प्रेम कैसे मिल सकता है? जब तुम्हें प्रेम नहीं किया जाता और तुम भी किसी से प्रेम नहीं करते, तभी अकस्मात् संसार को कुछ करके दिखाने की, कि तुम बहुत महत्त्वपूर्ण हो और तुम्हारी आवश्यकता है संसार को, एक चाह उत्पन्न हो जाती है। उस स्थिति में एक बहुत बड़ी चाह होती है कि तुम संसार द्वारा चाहे जाओ। तुम्हें लगता है कि यदि तुम न चाहे गए तो तुम एक व्यर्थ, नपुंसक और अनुपयोगी व्यक्ति हो। यह चाह अपने आप में गलत नहीं है। यह एक प्रेम की चाह की आवश्यकता है। यदि एक स्त्री तुम्हें प्रेम करती है, तुम परिपूर्ण हो और तुष्ट हो कोई व्यक्ति तुम्हें चाहता है तुम किसी की जरूरत हो, तुम महत्वपूर्ण हो। तब तुम भीड के बारे में कुछ भी फिक्र नहीं करते।

तुम बाजार जाकर चीख—चीख कर यह नहीं कहते—’‘ मैं एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हूं।’’ तब तुम महत्त्वाकांक्षी नहीं होते, तब तुम्हें धन संग्रह करने की धुन नहीं होती।

यदि कोई भी व्यक्ति तुम्हें प्रेम करता है, तो उस प्रेम से तुम महिमामय हो जाते हो, तुम प्रभुत्व सम्पन्न बन जाते हो। प्रेम तुम्हें एक सम्राट, एक शासक बना देता है। प्रेम तुम्हें इतनी अधिक गहराई और श्रेष्ठता से तुष्ट करता है कि कोई भी कार्य अथवा कोई कलात्मक कार्य करने की जरूरत ही महसूस नहीं होती। प्रेम के साथ अहंकार रह ही नहीं सकता। लेकिन यदि यह चाह अधूरी रह जाती है तब तुम इसे किसी और तरह से पूरा करने की कोशिश करोगे, तुम एक सुप्रसिद्ध व्यक्ति बनना चाहोगे, जिससे बहुत से लोग तुम्हें चाहें।

लेकिन स्मरण रखें, किसी व्यक्ति द्वारा प्रेम किये जाना, और लाखों व्यक्तियों द्वारा चाहा जाना, समान बात नहीं है। अकेले एक व्यक्ति का भी प्रेम, और उसका एक प्रेम भरी दृष्टि से देखना ही यथेष्ट है, और तुम लाखों लोग इकट्ठे कर सकते हो, और वे सभी तुम्हारी ओर तुम्हें देख सकते हैं, लेकिन उससे तुम्हें संतोष न मिलेगा। यह है वह राजनीति और यही सब कुछ राजनीतिक लोग करने का प्रयास कर रहे .

है।

मैं अभी तक ऐसे किसी राजनीतिज्ञ के सम्पर्क में नहीं आया, जिसका हृदय कार्यरत हो। उसका हृदय पूरी तरह मृत है—लेकिन उसकी चाह है कि उसे औरों से प्रेम मिले, वह चाहा जाये, और कोई व्यक्ति उसकी ओर देखे। वह कहां करे? इसकी पूर्ति? वह भीड़ जुटाता है। किसी तरह भीड़ के द्वारा वह प्रेम की चाह को पूरा करने की कोशिश करता है। लेकिन भीड़ उसे प्रेम नहीं करती, भीड़ उसकी

कोई चिंता नहीं करती, भीड़ की अपनी जरूरतें और चाहें हैं। क्योंकि वह सत्ता में है, इसलिए वह महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। वे लोग कुर्सी का सम्मान करते हैं और कुर्सी पर बैठने वाला धोखे खाता है। एक बार कुर्सी पर बैठने वाला व्यक्ति, कुर्सी से हट जाए तो भीड़ उसकी जरा भी फिक्र नहीं करती।

क्या कभी तुमने इस बात का निरीक्षण किया है कि एक बार राजनेता सत्ता से बाहर हो जाए तो उसे भुला दिया जाता है। कौन उसे याद करता है? वह तीस चालीस वर्ष तक जीवित रह सकता है, पर कोई भी व्यक्ति उसके बारे में कुछ भी नहीं जानना चाहेगा। धीमे— धीमे पीछे हटते हुए वह अंधकार में खो जायेगा। केवल एक बार जब वह मर जाता है, तो अखबारों में एक छोटी सी खबर प्रकाशित हो जाती है कि भूतपूर्व राष्ट्रपति अथवा भूतपूर्व प्रधानमंत्री की मृत्यु हो गई।

लेनिन से पूर्व जिस व्यक्ति ने रूस पर शासन किया, वह केरेन्‍सकी, सत्ता से हटने के पचास वर्ष तक न्यूयार्क में एक छोटा सा परचूनिया बनकर जीवित रहा, और उसके बारे में कोई भी व्यक्ति कुछ भी नहीं जानता था। वह रूस का प्रधानमंत्री था, सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति—क्रांति हुई और वह सत्ता से बाहर फेंक दिया गया। वह रूस से पलायन कर गया। वह पचास वर्षों तक और जीवित रहा। केवल जब उसकी मृत्यु हुई लोगों ने जाना कि केरेन्सकी पचास वर्षों तक और जीवित रहा। सत्ता प्रेम की चाह को पूरा नहीं कर सकती। तुम महान साम्राज्य प्राप्त कर सकते हो लेकिन वह तुम्हारे प्रेम की चाह को पूरा नहीं करेगी। लेकिन यदि तुम्हारे पास एक हृदय है, जो तुमसे लयबद्ध होकर तुम्हारे साथ धड़कता है, तब तुम पूर्ण हो।

 

बाउल गाते हैं:

ओ मेरे हृदय! तू मुझे

उस लता कुंज में ले चल,

जहां कृष्ण लीला रचाते हुए

अपना प्रेम लुटा रहे हैं।

वहां हवा के आनंददायक झोंके

तुम्हारे जीवन को शीतल कर देंगे।

उस वनांचल में

पांच गंधों के शाश्वत फूल महकते हैं।

उनकी सुवास

तुम्हारे जीवन और आत्मा में

एक जादू जगा देगी

और देगी उन्हें

तीन लोकों का प्रभुत्व और गरिमा।

प्रेम के मंदिर में प्रवेश करो, और तुम उसमें हमेशा एक सम्राट की ही भांति प्रवेश करते हो। संसार में प्रवेश करो और वस्तुओं के संसार में जाओ, जहां तुम हमेशा एक भिखारी की तरह ही प्रवेश करते हो। संसार प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा घटाकर उसे भिखारी ही बना देता है, और प्रेम प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा बढ़ाकर उसे सम्राट बना देता है। प्रेम एक रासायनिक घटना है। यदि किसी का हृदय भी तुम्हारी ओर प्रवाहित हो रहा है तो उस हृदय के द्वारा परमात्मा ही तुम तक आ पहुंचा है। किसी ने प्रेम भरी चितवन से तुम्हें निहारा, उस क्षण परमात्मा ने ही तुम्हारी ओर अपनी दृष्टि उठाई है। जरा उन प्रेम से भरी आंखों की झील में देखो, वहां प्रेम ही प्रेम छलक रहा है और तुम वहां हर धड़कन में परमात्मा को धड़कता पाओगे क्योंकि जो हमेशा प्रेम करता है, वह परमात्मा ही तो है। प्रेम करना, परमात्मा ही बन जाना है। प्रेम घटने की अनुमति देना ही परमात्मा बन जाना है।

तुम जब भी प्रेम के शिखर से नीचे गिरते हो, तब वह कुछ और ही चीज होती है। तुम मालकियत जमाने लग जाते हो, तुम पति या पत्नी बन जाते हो। तब तुम परमात्मा की पकड़ से बाहर होते हो। बल्कि जब कभी भी तुम प्रेम के शिखर अनुभव पर पहुंचते हो। भले ही जब कभी अकेले एक क्षण के लिए ऐसा घटता हो, जब दो व्यक्ति पूरी तरह एक दूसरे से लयबद्ध हो जाते हैं, उनके बीच कोई अवरोध और बाड़ नहीं रह जाती, फिर वे दो अलग— अलग केंद्रों पर न धड़कते हुए उस क्षण वे एक ही केंद्र बन जाते हैं। जब प्रेम घटता है तो परमात्मा ही घटता है। जब परमात्मा धरती पर अवतरित होता है तो उसका नाम प्रेम होता है।

प्रत्येक फल

जब दो वृक्षों के जोड़े से नीचे भूमि पर गिरता है।

तो उसके लिए दो सीमाएं

विस्मयजनक रूप से एक हो जाती हैं।

इसे ध्यान से सुनो.

प्रत्येक फल

जो दो वृक्षों के एक जोड़े से नीचे गिरता है

उसके लिए दो सीमाएं

विस्मयजनक रूप से एक हो जाती हैं।

क्या तुमने कभी किसी फल को क्या वृक्षों के एक जोड़े पर जन्मते देखा है? एक वृक्ष पर एक ही फल उत्पन्न होता है। एक फल के लिए दो वृक्षों की आवश्यकता नहीं होती। प्रेम ही वह फल है जो दो वृक्षों के एक जोड़े पर जन्म लेता है। वह कभी भी एक वृक्ष पर नहीं जन्मता।

प्रत्येक फल के लिए

दो सीमाएं, विस्मयजनक रूप से एक हो जाती हैं।

गहरे ध्यान में ही यह बोध

बिना किसी संदेह के होता है।

जब तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करते हो और कोई व्यक्ति तुम्हें प्रेम करता है, तब एक क्षण ऐसा आता है, जब ये दो वृक्ष दो वृक्ष नहीं रह जाते, तब वह एक ही वृक्ष बन जाता है। वह वृक्ष, प्रेम का वृक्ष होता है, और प्रेम के उस वृक्ष पर पूर्णता और संतोष है, इच्छित वरदान को पाने का आनंद है, और एक खिलावट है।

वे दो, जब मिलकर

पूर्ण रूप से एक अखण्ड हो जाते हैं,

तभी प्रेम का वह फल उत्पन्न होता है

जिसे वह सद्गुरु को समर्पित कर सकें,

उन क्षणों में वे होशपूर्ण और सचेत होते हैं।

तभी तो वे प्रेम के फल को जन्म दे पाते हैं।

मैं फिर से दोहराना चाहता हूं वे दो जो वहां समग्रता से उपस्थित है…… .प्रेम में दो व्यक्तियों की एक दूसरे के लिए उपस्थिति ही पर्याप्त होती है और वे करते कुछ भी नहीं। प्रेम कुछ भी करना जानता ही नहीं। जब दो व्यक्ति गहरे प्रेम में होते हैं, उनका बस मौजूद होना ही एक दूसरे के लिए पर्याप्त होता है। दोनों के चेहरे एक दूसरे के सामने होते हैं, केवल वे उपस्थित भर होते हैं, जैसे दो दीये एक दूसरे के सामने जल रहे हों, अथवा दो दर्पण एक दूसरे के सामने रखे हुए एक दूसरे को लाखों रूप में प्रतिबिंबित कर रहे हों। दो प्रेमी ठीक एक दूसरे की उपस्थिति में दूसरे के घुल कर जैसे एक हो रहे हों, जैसे वे दोनों एक दूसरे में समाते जा रहे हों। उस स्थिति में एक क्षण ऐसा आता है, वह चरम शिखर पर पहुंचने का क्षण होता है— ” जब उस प्रेम के फल का जन्म होता है, जब वे फिर दो नहीं रह जाते, जब सारे भेद मिट जाते हैं, जब अहंकार और अस्मिता बचती ही नहीं, जब उनकी शुद्ध उपस्थिति मात्र रह जाती है।’’

तभी उस फल का जन्म होता है।

वे दो, जो वहां समग्रता और परिपूर्णता से

उपस्थिति भर होते हैं।

वे तभ उस प्रेम के फल को जन्म दे पाते हैं

जिसे सद्गुरु को भेंट करना है।

और वही वह फल है, जिसे सद्गुरु को, परमात्मा को भेंट में अर्पित करना है। वे उन क्षणों में होशपूर्ण और फल उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं।

प्रेम के उस शिखर अनुभव में वे पूरी तरह से होशपूर्ण और फल उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। स्मरण रहे, प्रेम मूर्च्छा— जैसी कोई चीज नहीं है। साधारणतया जब। तुम प्रेम में होते हो तुम और अधिक मूर्च्‍छित हो जाते हो। तब वह वासना होती है। तब वह बहुत निम्र कोटि का प्रेम होता है। तब वह उसके सबसे अधिक नीचे का ही डंडा होता है। वास्तव में वह है सीढ़ी का ही एक डंडा, लेकिन वह सबसे अधिक नीचे का डंडा है। सीढ़ी के सबसे ऊंचे डंडे पर विराट चेतना होती है और यदि तुम अपने प्रेमी की उपस्थिति में पूर्ण सचेत और होशपूर्ण नहीं हो सकते, फिर तुम और कहां होशपूर्ण हो सकते हो? यदि तुम्हारे प्रेमी की उपस्थिति होशपूर्ण बनाने लायक नहीं है, फिर तुम चेतना का वह खजाना कहां और पा सकते हो?

यदि तुम वास्तव में सच्चा प्रेम करते हो, तो चेतना का एक शिखर निर्मित होता है। यदि हम इसे देखना चाहते हो तो क्या तुम अपने प्रेमी अथवा प्रेमिका के साथ एक शुद्ध उपस्थिति के रूप में रहना चाहोगे? ऐसा करने से वे अधिक से अधिक सचेत होने में एक दूसरे की सहायता करते हैं, क्योंकि जब उनमें से एक अधिक सजग और होशपूर्ण होता है, तो यह तुरंत दूसरे में भी प्रतिबिबित होता है। दूसरा और अधिक सचेत हो जाता है। और यह एक ” चेन—रिएक्शन ” की तरह कार्य करता है। वे आनंद और चेतना के उच्च से उच्चतम शिखर पर पहुंचते हैं और तब वहां एक क्षण ऐसा आता है जब फल का जन्म होता है। इसी फल को दैवी प्रेम कहते हैं, श्रद्धा कहते हैं। इसी प्रेम और श्रद्धा के फल को इस संसार के मालिक को तुम अर्पित कर सकते हो। किसी और तरह के फल से काम चलेगा नहीं।

”वे होशपूर्ण और प्रेम के फल को जन्माने में समर्थ होते हैं। और चेतना के उस सर्वोच्च शिखर पर ही वे फल को जन्म में समर्थ होते हैं। अन्यथा लोगों का जीवन फलविहीन होता है, लोग बिना फल उत्पन्न किए हुए ही जीवन बिता देते हैं। उनके कुछ उत्पन्न होता ही नहीं। वे बस रहते हुए ही मर जाते हैं। उनका जीना अर्थहीन और बिना किसी महत्त्व के होता है। जीवन महत्वपूर्ण तभी होता है जब दो वृक्ष मिलकर एक ही वृक्ष बन जाता है और उसी एक वृक्ष पर प्रेम के फल का जन्म होता है।

होशपूर्ण ओर फलप्रद।

कुंआ पानी में कभी भी नहीं डूबता।

बाउल कहते हैं—’‘ तुम देखते हो? जाओ और जाकर किसी पानी से भरे हुए

 

कुंए के अन्दर झांको लेकिन कुंआ कभी भी पानी में डूबता नहीं।

यह बहुत रहस्यपूर्ण है। जब तुम पहली बार दो से एक बनकर पूरी तरह से

उस अद्वैत में डूबते हो, तुम वास्तव में नहीं डूबते। तुम एक दूसरे में समाहित हो

जाते हो, सारी सीमाएं मिट जाती हैं, लेकिन तभी एक विरोधाभास घटता है? यह विरोधाभास है—पूरी तरह खोने और मिट जाने का और फिर भी पहली बार तुम्‍हारे स्‍वयं के अपने होने का भी। जब तुम पूरी तरह खो जाते हो, मिट जाते हो, तो तुम पहली बार अपने वास्तविक स्वरूप अथवा सत्य का अनुभव करते हो। तुम अखण्ड होते हो चारों ओर से विराट ऊर्जा की बाढ़ से घिरे होते हो, लेकिन फिर भी उसमें डूबते नहीं। तुम उसमें मिलकर उसके साथ एक हो जाते हो, बल्कि पहली बार तुम्हारे दीये की ज्योति जलती है। बिना किसी अहंकार के तुम्हारा अस्तित्व प्रकट होता है।

बाउल गाते हैं:

फल में पूरी सुवास आने के लिए

उसे अपना समय आने तक पकने दो

एक हरे और कच्चे फल को

सख्ती से हथेली से दबाकर और गर्मी देकर

मुलायम तो बनाया जा सकता है, लेकिन उसमें मिठास नहीं आती।

और वे कहते हैं—’‘ इस प्रेम को तुम बलपूर्वक उत्पन्न नहीं कर सकते। इसे नियंत्रित करने का कोई तरीका है ही नहीं। इस बारे में वहां ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तुम कर सकते हो। तुम बस इतना भर सकते हो कि उसे होने की अनुमति दो। एक दिन स्वयं पककर वह मीठा हो जाता है।

उसे स्वयं पकने दो।

अपना समय आने पर ही वह स्वयं पक जाएगा।

इसलिए बाउल लोग किसी तरह का योग नहीं करते। वे लोग योग के विरुद्ध हैं। इसी कारण मैंने तुमसे शुरू में ही कहा था कि यह लोग वेद और योग की परम्परा से सम्बंध न रखते हुए तंत्र की परम्परा के हैं।

वास्तव में बाउल की परम्परा, वेद और योग की परम्परा से भी कहीं अधिक प्राचीन है।

इतिहासकार कहते हैं कि तंत्र आर्य सभ्यता से पूर्व का है। जब आर्य भारत आये तो तंत्र वहां प्रचलित था और उसके देवता शिव थे। जब आर्य भारत में आये तो भारत भर में भ्रमण करते हुए उन्होंने यहां रहने वाले लोगों को युद्ध में पराजित किया। उनके धर्म को कुचल दिया गया। उनके शास्त्र जला दिए गए और धीमे—धीमे उनके देवता भी आर्यों के बहुदेववाद में समाहित हो गए। शिव उनके देवता थे। उन्हें स्वीकारने और अपना देवता बनाने में काफी लम्बा समय लगा। वे उनके लिए विदेशी थे, लेकिन उनके व्यापक प्रभाव को देखते हुए उन्हें शिव को स्वीकारना ही पड़ा। और जब उनके सभी अनुयायी भी आर्य—संसार में घुल मिल गए तो वे लोग अपने देवता को भी लेते आये।

तंत्र का सम्बंध शिव से है और बाउल उसी वृक्ष की एक शाखा है। तंत्र कहता है—’‘ प्रत्येक चीज अपना ठीक समय आने पर स्वयं होती है, तुम्हें बलप्रयोग करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें बल प्रयोग से कुछ भी सहायता नहीं मिलेगी।

वह प्रयास एक अवरोध ही बनेगा। वह उसे नष्ट भी कर सकता है और वह सृजनात्मक तो कभी भी नहीं हो सकता। एक व्यक्ति को उसके लिए बहुत प्रयास रहित और सहज होना होता है, उसे उसके साथ स्वीकार भाव से रहना होता है।’’

फल में स्वाद और सुवास के लिए

उसे अपना समय लेते हुए स्वयं पकने दो।

एक कच्चे हरे फल को हथेलियों से दबाकर और गर्मी देकर

मुलायम तो बनाया जा सकता है

लेकिन उसे मीठा नहीं बनाया जा सकता।

बाउल कहते हैं—’‘ हम सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए नहीं खोज रहे हैं। एक प्रेमी, एक प्रेम का खोजी, मुक्ति और स्वतंत्रता की भाषा में कभी बात करता ही नहीं।’’

वह कहता है—’ वह ‘ अत्यधिक सुंदर है। अस्तित्व में सभी कुछ जो भी है, वह पहले ही से बहुत सुंदर है। उससे मुक्त होने की कोई जरूरत ही नहीं है। वह सब कुछ जिसकी जरूरत है वह है कि उसमें हम कैसे बने रहे, उसमें कैसे तल्लीनता से एक हो जायें।’’

बाउल के लिए यह संसार एक बन्धन नहीं है, और वहां रहते हुए उससे संघर्ष करने की भी कोई जरूरत नहीं है। वास्तव में बाउल कहता है—’‘ हम सांसिाकर बन्धनों से प्रेम करते हैं, क्योंकि ये बेड़ियां तुम्हारे लिए ही मेरे मालिक के द्वारा ही सृजित की गई हैं।’’

हृदय कमल निरंतर सुरभित हो रहा है

युग के बाद युग बीत गए।

तुम उससे भ्रमर की भांति बंधे हुए हो

और ऐसा ही मैं भी बंधा हूं।

बाउल अपने परमात्मा से निवेदन करता है—

तुम भी उससे बंधे हुए हो,

और ऐसे ही मैं भी उससे बंधा हुआ हूं

और इससे भागना कहां है?

कमल पुष्प खिल रहा है, सुरभित हो रहा है, वह खिलता ही जाता है और इसके खिलने का कोई अंत नहीं है। लेकिन इन सभी कमल पुष्पों में

एक ही तरह का पराग, और एक ही तरह की मिठास है

जिसका एक विशिष्ट स्वाद है।

मधुमक्खी लालची बनी केवल उसी में उत्सुक है

और उसे छोड़ कर वह कहीं जा नहीं सकती।

इसीलिए तुम भी उससे बंधे हुए हो

और मैं भी उसके प्रेम में आबद्ध हूं।

तब कहां स्वतंत्रता?

और कैसी मुक्ति?

यह लुकाछिपी की एक बहुत बड़ी लीला है, जो उस ऊर्जा, जिसे परमात्मा या अस्तित्व कहते हैं और तुम्हारी ऊर्जा के बीच खेली जा रही है। इस महान छिपने और खोजने को लीला में समान ऊर्जाएं ही निमग्न हैं। यह एक विराट लीला है। इसका कहीं कोई अंत है ही नहीं। इन कमल के पुष्पों को खिलने दो, यह हमेशा— हमेशा खिलते ही रहेंगे। यह संसार बहुत सुंदर है, यही तंत्र की आधारभूत दृष्टि है। योग कहता है—’‘ एक एक व्यक्ति को मुक्त होने की आवश्यकता है। तंत्र पूछता है—’‘ आखिर क्यों और किससे मुक्ति? यह बंधन बहुत सुंदर है, क्योंकि यह तो परमात्मा के साथ बंधना है। योग कहेगा—’‘ छोड़ते चलो, धीमे— धीमे सारे बन्धनों और आसक्तियों को तोड़ते चलो, और अंत में उस व्यक्ति को प्रेम के भी पार जाना है। बाउल कहते हैं : सारे बन्धन बहुत सुंदर हैं। उनमें गहरे और गहरे डूबो, जिससे तुम परिधि पर न रहकर, उसके केंद्र तक पहुंच सको। परिधि पर ही बन्धन और आसक्ति है, केंद्र पर केवल प्रेम है।’’

मधुमक्खी पराग के प्रलोभन से बंधी

उसे छोड़ कर जाने में असमर्थ है,

ऐसे ही तुम भी बंधे हुए हो

और मैं भी उससे बंधा हुआ हूं

तक कहां स्वतंत्रता?

और कैसी मुक्ति?

बाउल के लिए जीवन कोई गम्भीर बात नहीं है। इसके लिए यह एक लीला है। एक हास, परिहास है, एक आनंद है। इसलिए तुम बाउलों के संसार में, तथा कथित धार्मिक लोगों के लम्बे लटके चेहरे और धर्म स्थानों में पूजा प्रार्थना के लिए जाने वाले लोगों में गम्भीरता जैसी कोई भी चीज न पा सकोगे।

वे प्रेम करते हैं, हंसते हैं, वे प्रेम की लीलाएं रचाते हैं। वे छोटी—छोटी चीजों को भी बहुत सम्मान देते हैं, और उनमें आनंदित होते हैं। सामान्यता, सभी धर्मों में बहुत संयमी गम्भीर और लम्बे नीचे लटके चेहरों वाले लोग हैं, क्योंकि उन्हें जीवन के विरोध में होने के कारण ऐसा होना ही पड़ता है।

 

मैंने सुना है:

मुल्ला नसरुद्दीन के एक मित्र को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि मुल्ला पुरस्कार जीतने वाले अपने बैल को जमीन के अंदर जमी जड़ों को उखाड़ने के लिए हल में जोते हुए अपने खेत में कठिन श्रम करने के लिए उसे निर्देशित कर रहा था। उसने कहा—’‘ मुल्ला! तुम कहीं पागल तो नहीं हो गए? वह बैल पच्चीस हजार रुपयों का है। तुम उससे यह हल क्यों चलवा रहे हो?”

” यह बैल, ” मुल्ला ने कठोरता से कहा—’‘ इसे यही तो सीखना है कि जिंदगी आखिर कोई खेल तमाशा नहीं है।’’

 

यहां ऐसे लोग हैं, जो तुम्हारे हंसते ही, उसी क्षण परेशान और व्याकुल हो उठते हैं, वे तुम्हें जैसे यह सिखाना चाहते हैं कि जीवन आखिर कोई खेल या हंसी मजाक नहीं है। ये लोग स्वयं तो रुग्ण हैं ही। यह लोग जीवन को चूके हुए हैं और यह नहीं चाहते कि कोई दूसरा भी जीवन में आनंद ले। सभी पुजारी और पुरोहित रुग्ण लोग हैं वे कभी नहीं चाहेंगे कि तुम आनंदित रहो। यह सभी चूके हुए और भटके हुए लोग हैं और वे तुमसे ईर्ष्या करते हैं। उन्होंने बहुत कुछ दांव पर लगाया हुआ है, उनके अहंकार केवल तभी तृप्त होते हैं, जब वे जीवन के विरुद्ध होने के कारण उसकी निंदा करें। उन्होंने जीवन से विरोध में अहंकार को चुना है। यदि तुम जीवन को चुनते हो, तो वे तुम्हारे विरुद्ध होंगे ही। वे तुम्हें रोकते प्रतिबंधित करते रहेंगे, वे तुम्हें निंदित किए जाएंगे और वे तुममें अपराधबोध उत्पन्न करेंगे। इससे बड़ा हादसा और इतना गहरा संकट मनुष्यता के लिए कभी नहीं घट सकता जितना इन सभी तथाकथित धर्मों द्वारा उत्पन्न किया गया है। गहरा संकट यह है कि उन्होंने तुम्हारे अंदर अपराध बोध उत्पन्न कर दिया है। इसलिए जब भी तुम प्रसन्न होते हो, तो कहीं गहरे में अपने अंदर तुम्हें यह महसूस होना शुरू जाता है कि जैसे तुम कोई अपराध कर रहे हो, जैसे मानो तुम कुछ चीज गलत कर रहे हो। तुम जब भी स्वस्थ होते हो, तुम्हें यह अनुभव होना शुरू हो जाता है कि कहीं कुछ गलत है। तुम जब भी नृत्य कर रहे हो होते हो, तुम्हें यह लगने लगता है कि तुम कुछ गलत कर रहे हो। तुम जब भी हंसते हो, तो कभी खुलकर उन्‍मुक्त रूप से हंसते भी नहीं, क्योंकि अपने गहरे में कोई चीज तुम्हें वापस अपनी ओर खींचते हुए जैसे तुमसे पूछ रही होती है—’‘ तुम आखिर यह क्या मूर्खता कर रहे हो?”

अपने बचपन में जब कभी तुम प्रसन्न होते थे, तो वहां कोई व्यक्ति तुम्हें यह सिखाता था कि जीवन कोई खेल या हंसी मजाक नहीं है, बंद करो खी—खी करते हुए दांत दिखाना। गम्भीर हो जाओ। आखिर तुम कब परिपक्व बनोगे? विकसित होना सीखो। बहुत हो चुका यह सब कुछ। अब बचपने की यह सभी व्यर्थ आदतें छोड़ो।

कोई न कोई हमेशा ही तुम्हारे चारों ओर तुम्हें कुछ न कुछ शिक्षा देने के लिए मौजूद होता था। वे लोग स्वयं तो भटके हुए थे ही। वे स्वयं आनंदित हो ही नहीं सकते थे, इसलिए वे दूसरों को भी खुश होने की अनुमति नहीं दे सकते थे। इसी तरह से पीढ़ी दर पीढ़ी, ये बीमारियां एक दूसरे को हस्तांतरित की जाती रहीं।

तुम अपने स्वयं के जीवन को देखो, जरा आंखें खोल कर देखो। पूरा अस्तित्व उत्सव मना रहा है। ये वृक्ष उदास और गम्भीर नहीं है और न यह पक्षी ही गम्भीर है। नदियां और सागर आदिम उल्लास से उफन रहे हैं और हर कड़ी वहां एक लीला चल रही है, हर कहीं प्रसन्नता और आनंद है। जरा अस्तित्व का निरीक्षण करो, उसका एक भाग बनकर उसकी धड़कनें सुनो। तब तुम तुम एक बाउल बन जाओगे, तब तुम एक प्रेमी बन जाओगे, क्योंकि केवल इस लीला के प्रति एक गहरा सम्मान रखते हुए ही प्रेम जीवित रह सकता है। गंभीर मन के साथ प्रेम नहीं रह सकता। गम्भीर मन के साथ तर्क वितर्क की संगति बैठ जाती है। कभी भी गम्भीर या उदास मत रहो। मैं यह नहीं कह रहा कि तुम निष्कपट और ईमानदार मत बनो। ईमानदार बनो, लेकिन गम्भीर और उदास होकर नहीं। ईमानदारी और निष्कपटता कुछ और ही चीज है, और गम्भीरता पूर तरह एक अलग चीज है। ईमानदार और निष्कपट बनो अस्तित्व के साथ, तभी तुम एक सच्चे और प्रामाणिक बनोगे, तुम इस ब्रह्माण्डीय लीला के एक भाग बन जाओगे।

बाउल गाते हैं:

तुम प्रेम की राहों पर

अपने ऊपर चुराये हुए लूट का माल लादे हुए

बिना चोट खाये कैसे चल सकते हो?

इस वृंदावन में

( जहां लीला हो रही है)

प्रेम करना ही पूजा और आराधना है।

वृंदावन वह पावन भूमि है, जहां कृष्ण ने अपने प्रेमी मित्रों गोपों और गोपिकाओं के साथ लीलाएं कीं, जहां उन्होंने नृत्य किया, और जहां उन्होंने रास रचाया। यह शब्द ‘ रास ‘ बहुत सुंदर है। इसका अर्थ है दिव्य अक्ल और दिव्य नृत्य।

तुम प्रेम की राहों पर

अपने साथ चुराये हुए लूट का माल लिए हुए

बिना चोट खाए कैसे चल सकते हो?

इस वृंदावन में

प्रेम करना ही पूजा और आराधना है

जैसे अस्तित्व सभी भौतिक औरनैतिक प्रदूषणों से मुक्त होकर आकाश में विद्युत सा दीप्तिवान है।

वैसे ही प्रेम, वासना का अतिक्रमण कर परमानंद को जन्म देता है।

सांस की धौंकनी से जीवन की अग्नि में

अस्थिर पारे का शोधन करो।

पारे जैसे अस्थिर, द्रव्य का भी शोधन किया जा सकता है। इसलिए वासना को ही क्यों नहीं शुद्ध किया जा सकता है? फिक्र करो ही मत। तुम्हारे प्रेम का वहां एक केंद्र हो, एक लक्ष्य हो तुम्हारे तीर के लिए कोई निशाना हो और वासना का अतिक्रमण ही प्रेम है। योग कहेगा—’‘ वासना से लडों तभी उसका अतिक्रमण हो सकेगा, तभी तुम उसके पार जा सकोगे। यह एक नकारात्मक पहुंच है। बाउल कहते हैं : प्रेम, और प्रेम के द्वारा ही तुम वासना के पार हो जाते हो। यह है विधायक पहुंच।’’

ओ मेरे मौन सदगुरु।

ओ मेरे मालिक।

मुझे बताओ, वह कौन सी पूजा है।

जो मेरी प्रियतम के कंवल को खिलते देखने को

मेरी आंखों खोल दो?

चांद और सितोर भी

बिना कोई ध्वनि किए मौन शाश्वत रूप से उसकी प्रदक्षिणा कर रहे हैं

ब्रह्मांड का प्रत्येक घटना चक्र

इस अस्तित्वगत प्रेम के

महान आश्चर्य का स्वागत करते हुए

मौन बना उसकी प्रार्थना करता है।

 

यह वही है, जिसे भौतिक विज्ञानके विशेषज्ञ ‘ विद्युत—चुम्बकीय ऊर्जा— क्षेत्र ‘ कहते हैं। इसी को धार्मिक लोग, परमात्मा, और बाउल प्रेम कहते हैं।

ब्रह्मांड का प्रत्येक घटना चक्र

इस अस्तित्वगत प्रेम को आश्चर्य से निहारता

मौन बना उसकी प्रार्थना करता है।

वृक्ष, पृथ्वी के प्रेम में मदहोश हैं, और पृथ्वी वृक्षों से प्रेम करती है। पक्षियों को वृक्षों से प्रेम है और वृक्ष पक्षियों को प्रेम करते हुए उन्हें आश्रय देते हैं। पृथ्वी, आकाश के प्रेम में है और आकाश प्रेम में पृथ्वी को अता है। इस पूरे अस्तित्व में प्रेम का असीम सागर उफन रहा है। तुम भी प्रेम को अपनी पूजा बना लो और प्रेम को अपनी प्रार्थना बन जाने दो।

आज जो गीत गाना है, वह बहुत छोटा सा है, लेकिन वह एक बहुत कीमती हीरा है। और बाउल जानते हैं इसे ठीक से कैसे अभिव्यक्त किया जाए। पिछली रात ही में डिगौले की जीवनी पड़ रहा था। वह अपनी मेज पर एक सुत्र रखता था। मुझे वह बहुत प्यारा लगा। बाउल सुनते, तो वे भी उसकी प्रशंसा करते।

वह सूत्र है—’‘ संक्षेप में अपने को अभिव्यक्त करने की शैली हो, विचारों में परिपूर्ण शुद्धता हो और जीवन में निर्णय लेने की क्षमता हो।

जो व्यक्ति प्रेम के अनुभव से अनजाना है,

उसके साथ सम्बंध जोड़कर तुम कैसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हो?

उल्व सूर्य की किरणों से अंधा बना

बैठा हुआ एकटक आकाश की ओर देखता रहता है।

बाउल कहते हैं—’‘ उसे अभिव्यक्त करना असम्भव है।’’

जो व्यक्ति प्रेम के अनुभव से अनजाना हो

उसके साथ सम्बंध जोड़करतुम कैसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हो? किसी ऐसे व्यक्ति से, जो प्रेम को नहीं जानता है, उसके साथ सम्बाद जोड़ना असम्भव है। हम उससे कैसे परमात्मा के बारे में बात कर सकते हैं? हम कैसे उससे प्रार्थना के सम्बंध में अर्थपूर्ण बातचीत कर सकते हैं? हम कैसे उसके साथ सत्य के बारे में कुछ भी चर्चा कर सकते हैं? क्योंकि वह पूरी तरह अपने हृदय के बारे में अचेत है। वह अपनी खोपड़ी और बुद्धि में ही रहता आया है, वह उस भाषा को ही नहीं जानता। वह उस उल्ल की तरह है, जो सूर्य की किरणों से अंधा बना हुआ, बैठा हुआ एकटक आसमान में देखता रहता है।

भारतीय पौराणिक कथाओं में उल्लू को ज्ञान, विद्या और विद्वता और प्रतीक माना जाता है। जो व्यक्ति बहुत अधिक विद्वान हैं, बहुत अधिक बुद्धि जाल में उलझे हैं, जिन्होंने बहुत सी सूचनाएं और आंकड़े इकट्ठे किए हैं, वे लोग उल्लूओं के ही समान हैं। वे यह नहीं देख सकते कि सूर्योदय हो चुका है। वे लोग सूरज की ओर एकटक देखे चले जाते हैं। लेकिन फिर भी वे प्रकाश की किरणों से अनजाने बने रहते हैं।

बाउल कहते हैं, जो व्यक्ति केवल बुद्धि में उलझा है वह पंडित है और विद्वान है, जो मनुष्य केवल विचारों, सिद्धांतों, उपदेशों ओर मतों की भाषा में ही सोचता है, जिसने वेद कुरान और बाइबिल कंठस्थ कर लिए हों, वह व्यक्ति प्रेम के बारे में कोई भी बात समझने में समर्थ न हो सकेगा। यदि तुम उससे कुछ कहो भी, तो वह तुरंत उसे गलत ही समझेगा। यदि तुम उससे प्रेम के बारे में कुछ बातचीत करो, तो वह उसे एक सिद्धांत बना देगा और प्रेम की कभी भी सिद्धांत के रूप में व्यवस्था नहीं की जा सकी। यदि तुम उससे प्रार्थना के बाबत कुछ भी कहो, तो वह प्रार्थना को भी जांच का एक विषय बना देगा और प्रार्थना, जांचने वाला विषय है ही नहीं। एक तर्कशील व्यक्ति हमेशा प्रत्येक चीज को अपने तर्क के दायरे में ले जाता है।

 

मैंने सुना है—

प्रभु— भक्ति से एक पादरी जब जीसस की पवित्र भूमि गेलेली के समुद्र तट पर पहुंचा तो उसका हृदय बहुत रोमांचित था—’‘ शायद ये ही वे लहरें होंगी, जिन्होंने जीसस के चरणों को स्पर्श किया होगा। तभी एक नाविक उनके पास आया। पादरी ने अपने हाथों में ली हुई अरबी— अंग्रेजी भाषा कोष की सहायता से चुने हुए अरबी शब्दों में उससे बातचीत शुरू की।’’

नाविक ने शिकायती लहजे में कहा—’‘ आखिर मामला क्या है? क्या आप अमेरिकन भाषा में बात नहीं कर सकते?”

वह नाविक एक अमरीकन ही था जो अपनी गुजर बसर के लिए नौका चालन के कार्य में लगा था।

पादरी ने हर्ष और आश्चर्य से चिल्लाते हुए कहा—’‘ तो यही है वह गेलेली का वह सागर, जहां हमारा मुक्तिदाता जीसस पानी के ऊपर चला था।’’

” हां! यह यही स्थान है वह।’’

” तुम ठीक उस जगह ले जाने के लिए मुझसे कितनी धनराशि लोगे?” देखने में जैसे कि आप एक पादरी दिखाई देते हैं मैं आपसे वहां तक जाने के लिए कुछ भी नहीं लूंगा।

उस स्थान पर पहुंचने के बाद, परम संतोष से पादरी ने अपने चारों ओर देखा।’

अपने साथ लाई बाइबिल के मूल पाठ और टिप्पणियों को पढ़ा और अंत में नाविक को संकेत से कहा कि अब उसे वापस ले चले।’’

” आपको वापस तट तक ले जाने के लिए मैं आपसे बीस डालर लूंगा।’’‘’ लेकिन तुमने तो कहा था कि तुम मुझसे कुछ भी चार्ज नहीं करोगे।’’‘’ वह तो आपको यहां तक लाने के लिए कहा था।’’

और तुम प्रत्येक से वापस ले जाने के लिए बीस डालर ही लेते हो?

” हां इतना ही था, या इससे और अधिक।’’

” फिर ठीक है।’’ यह कहते हुए उसने फिर अपनी जेब में रखी बाइबिल को देखते हुए कहा—’‘ कोई आश्चर्य की बात नहीं, कि हमारा मुक्तिदाता इन्हीं हालात में नाव से उतर कर पानी पर चला होगा।’’

 

यहां प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक चीज का अपने— अपने तरीके से अर्थ निकाले जा रहा है। हमारी व्याख्याएं हमारी अपनी व्याख्याएं हैं।

 

एक दिन ऐसा हुआ : मुल्ला नसरुद्दीन ने ठीक आश्रम के गेट के ठीक सामने खड़ी टैक्सी को अभिवादन करते हुए कहा—’‘ ड्राइवर! मुझे आश्रम ले चलो।’’ चालाक ड्राईवर ने एक पैर से फुदकते हुए मुल्ला को टैक्सी में बैठाकर घृणा से एक्सलेटर दबाया, और फिर दरवाजा खोलकर बाहर निकला और पैसे मांगते हुए कहा—’‘ आप ठीक आश्रम के सामने खड़े हैं।’’

” ठीक है।’’ झुंझलाते हुए मुल्ला ने कहा—’‘ लेकिन अगली बार इतनी तेज रफ्तार से टैक्सी मत चलाना।’’

 

यदि तुम शराब पिए हुए हो, तब तुम प्रत्येक चीज की व्याख्या अपनी मदहोशी के द्वारा ही करोगे। यदि तुम्हें बुद्धि और तर्क का नशा है, तो प्रेम, तुम्हारी खोपड़ी में प्रवेश न कर सकेगा। तब तुम्हारा सिर बहुत मोटी चमड़ी से ढका ठोस होना ही चाहिए। प्रेम के लिए उसमें प्रवेश करना असम्भव है। तब तुम उस उल्ल के ही समान हो।

बाउल कहते हैं कि संवाद होना तो तभी सम्भव है जब दोनों के बीच भाषा समान हो। इसलिए यदि तुम बाउलों को समझना चाहते हो तो तुम्हें किसी व्यक्ति से प्रेम करना होगा क्योंकि बिना प्रेम किए हुए प्रेम को समझने का और कोई रास्ता है ही नहीं। यदि तुम किसी प्रार्थना करने वाले व्यक्ति को समझना चाहते हो, तो प्रार्थना करो। प्रार्थना में उतर जाओ, उसका जरा स्वाद लो। सारे तर्क वितर्क उठाकर कर अलग रख दो। कभी यह कोशिश मत करो कि पहले तर्क के द्वारा प्रार्थना का औचित्य समझ लिया जाए तब तुम प्रार्थना करोगे, तब किसी व्यक्ति ने आज तक प्रार्थना की ही नहीं है क्योंकि पहली बात यह है कि ऐसा करना असम्भव है, इसे किया ही नहीं जा सकता है।

कोई भी व्यक्ति तर्क द्वारा तुम्हें यह नहीं समझा सकता कि प्रार्थना करना अर्थपूर्ण कृत्य है। तुम्हारे मन का तार्किक ढांचा तुम्हें ऐसा करने से रोकता है। इसलिए तुम एक असम्भव बात पूछ रहे हो। यदि तुम कहते हो—’‘ पहले तुम्हें यह सिद्ध करना होगा कि प्रेम ही परमात्मा है, तभी मैं प्रेम करूंगा।’’ तब तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी, और यह प्रतीक्षा अनंत होगी। और वह कभी भी घटेगा नहीं। जिस दिन प्रेम होगा, वह उसी तरह से घटेगा, केवल जिस तरह वह घट सकता है, और उसके घटने का एक ही तरीका है कि तुम अपनी बुद्धि और तर्क एक ओर उठाकर अलग रख दो। तर्क करना अप्रासंगिक है। तुम बस प्रेम करो, जरा उसका स्वाद लो। प्रेमियों के संसार में जाकर रहो। अपने चारों ओर उन्हें नाचते हुए गीत गाने दो। उसे अपना अनुभव बनाओ, और वही प्रमाण बनेगा और वही बनेगा तुम्हारा दृढ़ विश्वास। तब तुम अपने तर्क का प्रयोग करना और तुम्हारा तर्क उसे सिद्ध करना शुरू कर देगा, लेकिन उससे पहले नहीं। पहले उसका स्वाद लो। उसका अनुभव करो, तब उसके बाद तर्क—वितर्क करो। तर्क—वितर्क एक बहुत अच्छा और भला सेवक है, लेकिन उसका मालिक होना बहुत बुरा है।’’

जो व्यक्ति प्रेम के अनुभव से अनजाना है

उसके साथ सम्बंध जोड़कर

तुम कैसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हो?

उल्लू सूर्य की किरणों से अंधा बना

बैठा—बैठा एकटक आकाश को देखता रहता है।

प्रेम, तुम्हारे अस्तित्व के गहनतम केंद्र में एक मौलिक परिवर्तन लाता है। सिर और बुद्धि तो परिधि पर हैं। बुद्धि तो सागर की लहरों की भांति है और प्रेम, सागर की गहराई जैसा है। सागर की गहराई में वहां कोई भी लहरें नहीं है और लहरों के अंदर कोई गहराई नहीं है। विचार, लहरों के समान हैं, जो केवल परिधि पर रहते हैं। लहर के लिए गहराई को जानने का लहर बने हुए ही कोई रास्ता है ही नहीं। लहर गहराई को जान सकती है, लेकिन तब उसे गहराई में खो जाना होगा। तब फिर वह एक लहर न रह सकेगी, जो वापस लौटकर फिर सतह पर आ सके। लेकिन तब वह लहर स्वयं एक बाउल बन जाएगी, कोई दूसरी लहर उसे न सुन सकेगी। दूसरी लहरें उस लहर को पागल कहेंगी, क्योंकि वह गहराइयों के बाबत बतलायेगी और लहरें तो केवल उथलापन ही जानती हैं, वे गहराई को नहीं जानती।

प्रेम एक अनुभव है—स्वाद के समान वह अस्तित्वगत है। यदि तुमने नमक को कभी नहीं चखा, तो उसे स्पष्ट करने का कोई तरीका है ही नहीं। यदि तुमने उसे चखा है, तो उसे भूल जाने का भी कोई रास्ता नहीं है। यदि तुमने उसे चखा भी है, तब भी किसी ऐसे अन्य व्यक्ति को जिसने उसे पहले कभी नहीं चखा, उसे स्पष्ट कर समझाने का कोई रास्ता है ही नहीं।

किसी भी ऐसे व्यक्ति को जिसने कभी भी नमक जैसी चीज जानी ही नहीं, तुम कैसे उसके बारे में कुछ बतला सकते हो? तुम कहोगे क्या? ऐसा नहीं कि तुम उसके बारे में जानते नहीं। तुम जानते हो, वह ठीक तुम्हारा जुबान की नोंक पर रखा है। तुम जानते हो कि खारापन का स्वाद कैसा है, लेकिन तुम दूसरे को उसे बताओगे कैसे? केवल एक ही काम किया जा सकता है कि तुम उसे थोड़ा सा नमक भेंट करो। लेकिन यदि वह कहता है—’‘ पहले मुझे समझा तो दो कि वहां नमक जैसी कोई चीज होती भी है, केवल तभी मैं उसे तुमसे लूंगा। यदि वह इतना सावधान है, तो उसके लिए उसे जानना असम्‍भव है। तब उसे नमक का अनुभव जाने बिना ही रह जाना पड़ेगा।’’

और प्रेम का अनुभव किए बिना जीना, मृतक के समान जीना है— ” क्योंकि केवल एक प्रेमी ही अपनी मृत अहंकार और अपनी निजता को छोड़ता चला जाता है, क्योंकि केवल एक प्रेमी ही क्रियाशील होता है और वही निरंतर इधर उधर घूमता रहता है। तर्क मुर्दा है और प्रेम जीवंत है।’’

मुझे ब्राउनिंग का एक सूत्र याद आ रहा है। वह कहा करता था— ” जीवन की प्रगति होती है। जब हम अपने मृत अहंकार की सीढ़ियों पर कदम रखते हुए उच्चतम चीजों को पाने के लिए आगे बढ़ते हैं।’’

तर्क—वितर्क अतीत की सम्पत्ति है, और प्रेम का सम्बंध भविष्‍य से है। तर्क केवल पुराने घेरे में ही बार—बार घूमता रहता है। प्रेम नये—नये क्षेत्रों में गतिवान होता है। अपने आप में सीमित रहकर कभी जड़ मत बनो और प्रेम करते हुए भी कभी जड़ होकर न रहो। प्रेम हमेशा परमानंद देता है। थिर खड़े हुए रक्त प्रवाह रुक जाता है, जड़ता आती है, पर प्रेम तो परम आनंद में एक बरतन और रास है।

घूमते हुए नृत्य करते रहो। कोई कभी भी कहीं पहुंचता ही नहीं, यद्यपि एक है, जो हमेशा पहुंच रहा है।

 

आज बस इतना ही।

 

 


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कोपलें फिर फूट आईं–(प्रश्‍न–चर्चा्)

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कोपलें फिर फूट आईं—(प्रश्‍न—चर्चा)

ओशो

(ओशो द्वारा दिए गए बारह प्रवचनों का अप्रितम संकलन)

 प्रवेश के पूर्व:

तुमने पूछा है: मैं कैसे अपने अचेतने, अपने अंधरे को प्रकाश से भर दूं?

एक छोटा सा काम करना पड़ेगा। बहुत छोटा सा काम।

चौबीस घंटे तुम दूसरे को देखने में लगे हो—दिन में भी और रात में भी। कम से कम कुछ समय दूसरे को भूलने में लगो। जिस दिन तुम दूसरे को बिलकुल भूल जाओगे, बुद्धि की उपयोगिता नष्‍टा हो जाएगी।

इसे ज्ञानियों ने ध्‍यान कहा है। ध्‍यान का अर्थ है: एक ऐसी अवस्‍था,जब जानने को कुछ भी नहीं बचा। सिर्फ जानने वाला ही बचा। उससे छुटकारे का कोई उपाय नहीं है। लाख भागो पहाड़ों पर और रेगिस्‍तानों में, चाँद—तारों पर,लेकिन तुम्‍हारा जानने वाला तुम्‍हारे साथ होगा। चूंकि वह तुम हो, वह तुम्‍हारी आस्‍तित्‍व है। रोज घडी भर, कभी भी सुबह या सांझ या दोपहर, इस अनूठे आयाम को देना शुरू कर दो। बस आँख बंद करे बैठ जाओ, …….

…….जब मैं कहता हूं कि घड़ी आधा घड़ी को आँख बंद करके बैठ जाओ….तो तुमसे मैं यह कहा रहा हूं कि घड़ी आधा घड़ी को दूसरों को भूल जाओ। चौबीस घंटे पड़े है। तेईस घंटे सारे संसार को दे दो, बाजार को दे दो, दुकान को दे दो, मकान को दे दो—जिसको देना हो,उसको दे दो। लेकिन क्‍या तुम इतने भी अधिकारी नहीं हो कि एक घंटा अपने लिए बचा लो? शायद चौबीस घंटा बचाना बहुत मुश्‍किल है एक घंटा बचाना आसान हो सकता है। और फिर मैं तुम से यह भी नहीं कहता कि इस घंटे को बचाने के लिए तुम हिमालय की किसी गुफा में बैठो। तुम्‍हारा घर पर्याप्‍त है, और सबसे ज्‍यादा आसान जगह है। क्‍योंकि वहां जो भी है, उससे तुम्‍हें परिचय है। और एक घंटे के लिए उस सबको भूल जाना कठिन नहीं है।

आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, जल्‍दी ही वह घड़ी आ जाती है कि तुम चुपचाप बैठे ही रहते हो। मूर्तियां आएंगी, मत रस लेना उनमें—न पक्ष में और न विपक्ष में। आने देना और जाने देना। रास्‍ता है, मन की राह है। चलती है। तुम राह के किनारे बैठे देखते रहना। और तुम चकित होओगे, इस जीवन के सबसे बड़े रहस्‍य के चकित होओेगे, कि अगर तुम साक्षी भाव से—सिर्फ साक्षी भाव से, जैसे तुम कुछ लेना—देना नहीं कौन जा रहा है, कौन आ रहा है, तुम गुमसुम चुपचाप सड़क के किनारे बैठे ही रहना। जल्‍दी ही वह घड़ी आ जाएगी कि यह रास्‍ते की भीड़ कम होने लगेगी। क्‍योंकि इस भीड़ के रास्‍ते पर होने का कारण है। तुमने इसे निमंत्रण दिया है। तुमने अब तक इसका स्‍वागत है। यह बिना बुलाई नहीं है। और जब यह देखेगी कि तुम इतनी उपेक्षा से भर गए हो कि तुम लौट कर भी नहीं देखते—कौन आया, कौन गया, अच्‍छा था या बुरा, सुंदर था या कि असुंदर, अपना था कि पराया—यह भीड़ धीरे—धीरे विदा होने लगेगी।

ध्‍यान की प्रक्रिया बड़ी सरल है। थोडी सी धैर्य की क्षमता चाहिए। और खोने को क्‍या है? अगर कुछ न भी मिला तो कम से कम घंटा भर आराम तो कर ही लोगे। लेकिन मैं जानता हूं आपने अनुभव से और उन हजारों लोगों के अनुभव से, जिनको मैंने इस प्रक्रिया से गुजारा है, एक दिन वह घड़ी आ जाती है। वह महाघड़ी आ जाती है कि मन का रास्‍ता खाली हो जाता है। धूल भी नहीं उड़ती जानने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता। और जब जानने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता, तब सिर्फ जानने वाला शेष रह जाता है। और उस जानने वाले को अब कोई उपाय नहीं किसी ओर को जानने का। सिवाय अपने को जानने के। जानना उसका स्‍वभाव है। अगर तुम कुछ खिलौने उसे हाथ में दे देते हो, कोई झुनझुना हाथ में दे देते हो, वह उसी को जानता रहता है। अब आज कुछ भी नहीं है। आज वह अपने को ही जानता है। और एकबार भी किसी ने अपने स्‍वाद ले लिया तो उसने अमृत को स्‍वाद ले लिया। फिर न कोई अँधेरा है, फिर न कोई अचेतना है।

और वह एक घड़ी धीरे—धीरे तुम्‍हारे चौबीस घड़ियों पर फैल जाएगी। फिर भी तुम बाजार में, रहोगे फिर भी तुम घर में। वही होगी पत्‍नी, वही होगा बच्‍चे। लेकिन तुम वही नहीं होओगे। तुम्‍हारे जीवन में एक क्रांति घटित हो जाएगी। तुम्‍हारे देखने के सारे परिप्रक्ष्य, तुम्‍हारी आंखें बदल जाएंगी। एक शांति—और ऐसी शांति, जिसकी कोई गहाराई कभी नाप नहीं सका। और एक प्रकाश,और एक ऐसा प्रकाश, जिसमें ने तो कोई तेल है, न कोई बाती है—बिन बाती बन तेल। इसलिए उसके चुकने को कोई उपाय नहीं है।

इस अनुभूति के बिना सारा जीवन व्‍यर्थ है। और इस अनुभूति को पा लेना उस परम ऐश्‍वर्य को पा लेना है, जो कभी चुकता ही नहीं है।

 

ओशो

 

 

 


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प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन–10)

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वह गाता है, नाचता है और आंसू बहाता है—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 30 जून सन्1976;

श्री ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

प्यारे ओशो! बाउलों को किसने जन्म दिया? उनकी शुरुआत कब कैसे हुई?

कृपया स्पष्ट करने की अनुकम्पा करें।

बाउल जैसे लोगों को किसी ने जन्म नहीं दिया। बाउलों जैसे धर्म, धर्म से अधिक घटनाएं हैं। गुलाबों को किसने उत्पन्न किया? उन गीतों को किसने रचा, जो पक्षी हर सुबह गुनगुनाते हैं? नहीं, हमें ऐसे प्रश्न कभी पूछने ही नहीं चाहिए। ऐसा यहां हमेशा ही होता है।

दार्शनिक विचार धाराओं का जन्म होता है, तुम इस्लाम उसके अधिकृत उपदेशकों और धर्मों के जन्म के बारे में खोज कर सकते हो। बाउल का कोई धर्म या पंथ नहीं है। वह एक सहज स्वाभाविक जीवन—शैली है। लोग हमेशा से इसी तरह ही रहते आये हैं। जो लोग वास्तव में जीवन को जीते हैं वे हमेशा इसी तरह से रहते आये हैं। ऐसे लोग जो जीवंत बने रहते आए हैं किसी और तरह से रहते हुए जीवंत हो ही नहीं सकते थे। चाहे उन लोगों को बाउलों के रूप में जाना जाता रहा हो अथवा नहीं, यह बात व्यर्थ है। इस नाम का स्रोत कहीं भी हो सकता है, लेकिन मेरा उसके साथ कोई सम्बंध ही नहीं है।

इस शब्द का एक ही अर्थ है—’‘ पागल मनुष्य अस्तित्व के प्रेम में बावरा व्यक्ति, जीवन रस में पागल मनुष्य लेकिन यह दीवानापन उसमें हमेशा ही से रहा है। और यह अच्छा है कि कुछ लोग ऐसे दीवाने हमेशा ही से रहे हैं जिससे हम लोगों ने अस्तित्व की जड़ों के साथ अपना सम्बंध नहीं खोया है। यह उन लोगों के कारण है, अन्यथा हम, हम न होते। वे लोग गीत गा सकते हैं, नाच सकते हैं और प्रेम से जी सकते हैं। यह लोग ही अपने केंद्र पर होते हुए सच्चे और प्रमाणिक हैं।’’ इसलिए मैं नहीं जानता उन लोगों की शुरुआत कब से हुई। यदि वहां कोई प्रारम्भ था तो आदि काल से ही उन्होंने जरूर ही शुरुआत की होगी।

पहले मनुष्य के साथ जरूर रूप से यह शुरुआत हुई होगी, क्योंकि उनकी पूरी शिक्षा सारभूत मनुष्य के बारे में ही है। वास्तव में धीमे— धीमे वे विलुप्त हो गए। शुरू में वे लोग जरूर ही बहुत रहे होंगे, लेकिन धीमे— धीमे वे कम होते गए। दिन प्रतिदिन उनकी संख्या कम होने लगी, निरंतर कम और कम होती गई, क्योंकि यह संसार अधिक सांसारिक होता गया, और बहुत अधिक चालाक और बेईमान बनता गया। ऐसा संसार सहजता सरलता से हृदय में जीने की अनुमति देता ही नहीं। यह संसार बहुत अधिक महत्वाकांक्षी और प्रतियोगितात्मक बन गया है। वह उस सब को भुला बैठा है, जो सुंदर है, वह उसे भी भुला बैठा है जिसका उत्पादन नहीं किया जा सकता है। वह भूल बैठा है कि कैसे समर्पित होकर उस शाश्वत सत्य को संयम से घटित होने की स्वतंत्रता दी जाए। वह परमानंद की भाषा ही भूल चुका है।

हम जितना अधिक वापस पीछे की ओर चलें, हमें उतने ही अधिक बाउल मिलेंगे। शुरू—शुरू में तो पूरी मनुष्यता ही बाउलों जैसी निश्चित रूप से रही होगी। तुम अब भी इसे देख सकते हो। प्रत्येक बच्चा जन्म से बाउल जैसा ही होता है, और तब बाद में वह प्रदूषित हो जाता है। वह जीवन के साथ प्रेम में पागल होकर ही फिर से जन्म लेता है, लेकिन हम उसका विकास करते हैं, उसकी कांट —छांट करते हैं और उसके अस्तित्व को सरलता और सहजता से खिलने की अनुमति नहीं देते। हम उसे आदतों और नैतिक अनुशासन के ढांचे में ढालकर उसे एक विशिष्ट चरित्र देते हैं।

बाउलों के पास चरित्र नहीं होता। वे चरित्र से नहीं, चेतना से जीने वाले मनुष्य हैं। वास्तव में एक होशपूर्ण व्यक्ति का कभी कोई चरित्र होता ही नहीं। चरित्र एक जड़ता है, चरित्र, पूर्व धारणाओं और भ्रमों से भरी एक चित्तवृत्ति है, और चरित्र एक कवच है। तुम्हें केवल वही कार्य करना है, जिसकी चरित्र तुम्हें अनुमति दे। चरित्र कभी भी सहज स्वाभाविक नहीं हो सकता। चरित्र हमेशा वर्तमान पर अतीत के द्वारा थोपा जाता है। तुम्हें जीवन को अपने ढंग से जीने और प्रति उत्तर देने की स्वतंत्रता नहीं होती, तुम केवल तदनुसार कार्य करते हो।

बाउल स्वयं प्रवर्तित सहज मानुष में विश्वास करते हैं बाउल कहते हैं, सारभूत मनुष्य के लिए स्वयं प्रवर्तित और स्वाभाविक बनना ही एकमात्र मार्ग है। स्वाभाकि बनना ही उस मार्ग पर चलने जैसा है, जो सारभूत मनुष्य तक जाता है। प्रत्येक बच्चा बाउल ही होता है। इसलिए जैसाकि मैं देखता हूं कि शुरू—शुरू में, यदि वहां इसकी शुरुआत हुई होगी, पूरी मनुष्यता बाउलों जैसी ही सच्ची, प्रमाणिक, ईमानदार और गहरे प्रेम में जरूर ही पागल रही होगी और उत्सव आनंद बनाने की परमात्मा द्वारा दी गई भेंट और अवसर को पाकर खुश होगी।

जीवन पर हमारा कोई दावा नहीं है। क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया है कि हमारे पास दावा करने जैसा कुछ है ही नहीं। यदि हम थे ही नहीं, तो न तो हमारे वहां होने का ही कुछ उपाय होता और न किसी तरह की अपील करने का कोई रास्ता होता। उसके विरुद्ध शिकायत करने का भी कोई उपाय न होता। यदि तुम दो ही नहीं, तो तुम नहीं हो। अगले ही क्षण तुम विलुप्त हो सकते हो। जीवन बहुत नाजुक है, और बिना किसी दावे का है। हमने इसे अर्जित नहीं किया है। जब हम कहते हैं कि यह एक उपहार है, तो यही इसका अर्थ है। उपहार कुछ इस तरह की चीज होता है, जिसे तुम अर्जित नहीं करते और इसीलिए तुम्हारा उस पर कोई अधिकार नहीं होता। तुम यह नहीं कह सकते कि उसे पाने का तुम्हें कोई अधिकार है। एक उपहार तो कुछ ऐसी चीज है, जो तुम्हें दी गई है।

जीवन एक उपहार है। वह तुम्हें बिना किसी कारण दिया गया है। तुम उसे अर्जित नहीं कर सकते थे क्योंकि तुम थे ही नहीं, तो तुम अर्जित करते कैसे? जीवन एक उपहार है, लेकिन हम इसे भूले चले जाते हैं। और हम उसके प्रति धन्यवाद तक प्रकट नहीं करते। हम उसके प्रति कृतज्ञ भी नहीं होते। निश्चित रूप से हम एक हजार एक शिकायतें करते हैं, जिनके बाबत हम यह सोचते हैं कि हम जीवन में उन्हें चूके जा रहे हैं, लेकिन हम कभी भी स्वयं जीवन के प्रति अहोभाव का अनुभव नहीं करते।

तुम्हें यह शिकायत हो सकती है कि तुम्हारा घर अच्छा नहीं है बरसात आ गई है और वह टपक रहा है। तुम्हें शिकायत हो सकती है कि तुम्हारा वेतन पर्याप्त नहीं है। तुम्हें शिकायत हो सकती है कि तुम्हारे पास एक सुंदर शरीर नहीं है। तुम शिकायत कर सकते हो कि तुम्हारे साथ ऐसा या वैसा क्यों नहीं हो रहा? तुम्हारी एक हजार एक शिकायतें हो सकती हैं। लेकिन क्या कभी तुमने इस बात पर ध्यान दिया है कि तुम्हारे पूरे जीवन की सभी संभावनाएं कि तुम ठीक से सास ले सकते हो, देख, सुन और समझ सकते हो, स्पर्श कर सकते हो, प्रेम कर सकते हो और प्रेम पा सकते हो, क्या यह सब कुछ बहुत बड़ा उपहार नहीं है? यह सब कुछ तुम्हें दिया गया है, क्योंकि परमात्मा के द्वारा बहुत कुछ तुम्हें दिया गया है, क्योंकि परमात्मा के पास बहुत कुछ देने को है, यह इस कारण नहीं है कि तुमने इसे अर्जित किया है।

बाउल एक कृतज्ञता और अहोभाव से जीता है। वह गाता और नाचता है— यही उसकी प्रार्थना है। वह प्रेम में रोता है। वह आश्चर्य करता है कि उसे यह जीवन क्यों और किसके लिए दिया गया है, आखिर ऐसा क्या है, जो उसे आकाश में इन्द्रधनुष, और पृथ्वी पर खिलते फूल और सुंदर तितलियों को देखने का सौभाग्य मिला है, आखिर ऐसा क्या है जिससे उसे बहती सरिताओं, चट्टानों, और इतने लोगों से मिलने की अनुमति मिली हुई है? आखिर क्यों और किसलिए? क्योंकि जीवन इतना अधिक सरल और स्पष्ट है और उसमें छिपी हुई अनंत भेटों को भूलने की तुम्हारी प्रवृत्ति बन गई है।

एकदम शुरुआत में प्रत्येक व्यक्ति निश्चित रूप से बाउल ही रहा होगा, क्योंकि तब वहां मनुष्य को प्रदूषित करने, सभ्यता का जन्म नहीं हुआ था, उसे बरबाद करने के लिए वहां कोई समाज न था। वहां पुरोहित और पूजाघर नही थे, जो तुम्हें चरित्र देकर तुम्हारी राहें तंग कर देते। शुरू—शुरू में तो जीवन जरूर ही प्रवाहमान रहा होगा। प्रत्येक व्यक्ति जरूर ही स्वयं अपने छंद से स्वच्छंद जीता होगा इसीलिए नहीं कि वह परमात्मा के दस आदेशों अथवा किन्हीं शास्त्रों का पालन कर रहा था। तब न कहीं कोई धर्म ग्रंथ या शास्त्र थे और न दस—दैवी आदेश ही थे। तब तक दस आज्ञाएं ग्रहण करने वलो मोजेज का जन्म भी न हुआ था। तो शुरू—शुरू में प्रत्येक व्यक्ति जरूर बाउल ही रहा होगा और अब भी प्रत्येक बच्चा, जब वह जन्मता है, बाउल ही होता है। एक बच्चे का निरीक्षण करते हुए समझो कि एक बाउल बनना होता क्या है, वह कितनी उल्लेखनीय घटना है अस्तित्व की? देखो, बच्चे बिना किसी कारण खुश हो रहे हैं, आनंद से किलाकारियां भर रहे हैं। अतिरेक से बहती ऊर्जा से इधर—उधर कुलाचें भर रहे हैं। जब तुम एक बाउल बनते हो तो फिर एक छोटे बच्चे जैसे हो जाते हो।

एक बाउल बनना एक आदिम मनुष्य जैसा है। बाउल बनने से व्यक्ति अपनी आदिम मूल प्रवृत्तियों का फिर से दावेदार बनता है। उसका फिर से नया जन्म होता है, पुनर्जन्म होता है। उसमें एक बचपन घटता है। तुम्हारा शरीर और मन पुराना हो सकता है लेकिन तुम्हारी चेतना, शरीर और मन के बन्धनों से मुक्त हो जाती है। तुम्हारा एक अतीत है और तुम्हारे पास बहुत से पुराने अनुभव भी होंगे लेकिन फिर वे तुम्हारे लिए बोझ नहीं बनते। तुम उन्हें उठाकर एक तरफ रख देते हो। जब आवश्यकता होती है, तुम उनका प्रयोग कर लेते हो। अन्यथा चौबीस घंटे तुम उनको सिर पर निरंतर लादे घूमते नहीं, यही है वह मुक्ति : यह तुम्हें अस्तित्व से जीवन से पुष्पों और प्रेम से मुक्त नहीं करती, यह तुम्हें मुक्त करती है तुम्हारे अतीत से। वास्तव में तुम जितने अधिक मुक्त होते हो, तुम उतने ही अधिक परमात्मा के प्रेम में डूबते हो। तुम जितने अधिक मुक्त होते हो तुम उतने अधिक प्रेम करने और उत्सव आनंद मनाने में समर्थ होते हो।

इसलिए मुझसे यह पूछो ही मत, किसने जन्म दिया बाउलों को। ऐसे लोगों को कोई भी जन्म देने वाला होता नहीं। मेरा पूरा जोर स्वाभाविकता और सहजता पर है। वास्तव में आइंस्टीन के सापेक्षवाद के सिद्धान्त के लिए आइस्टीन जैसे व्यक्ति की ही जरूरत होती है। बिना उस जैसे व्यक्ति के ऐसे सिद्धान्तों का जन्म हो ही नहीं सकता, बिना उस जैसे व्यक्ति के ऐसे सिद्धान्त अस्तित्व में होते ही नहीं। सापेक्षवाद जैसे जटिल सिद्धान्त के लिए एक बहुत अधिक जटिल और सूक्ष्म मन की आवश्यकता होती है।

बाउल कोई सिद्धान्त नहीं होते। वे बस कहते हैं—’‘ तुम्हें जिन सब चीजों की जरूरत है वे सब कुछ तुम्हारे पास पहले से ही हैं।’’ यह प्रश्न बहुत होशियार बनने का नहीं है, यह प्रश्न तो बस सरल और सहज बनने का है। बाउल बनने के लिए किसी प्रतिभा की कोई जरूरत नहीं है। यही इसका सौंदर्य है। कुशाग्र बुद्धि होने की कोई जरूरत नहीं है। एक बच्चा बनने के लिए किसी बुद्धि की जरूरत होती ही नहीं। संत और बेवकूफ सभी बच्चे के रूप में ही जन्म लेते हैं। इसके किसी प्रतिभा की कोई जरूरत नहीं होती। बचपना, प्रत्येक व्यक्ति का बस सहज स्वभाव है।

बाउल बनने के लिए कुछ भी नहीं चाहिए। वास्तव में जिस क्षण, जब तुम्हें किसी चीज की जरूरत नहीं होती, तुम बाउल बन जाते हो। जिस क्षण तुम भारमुक्त और भारहीन होते हो और तुम अपने पास कोई भी चीज नहीं रखते, तुम्हारा कोई अतीत नहीं होता, तुम एक बाउल होते हो। नहीं इस तरह की चीजें और इस तरह के व्यक्ति कभी पैदा नहीं किए जाते। कोई भी व्यक्ति उन्हें गढ़ता नहीं, वे तो स्वयं से एक घटना की तरह घटते हैं, वे बस होते हैं। वे प्रकृति के एक भाग हैं।

 

दूसरा प्रश्न :

 

प्यारे ओशो कई बार मैं आपके शब्दों को समझ नहीं याता, क्योंकि आपके शब्दों की ध्वनि झरने की भांति मेरे ऊपर झरती और बरसती है। आपकी ध्वनि ऊर्जा मुझ पर आधात करती हुई पूरी तरह मेरे अंदर मुझे भर देती है, मैं अपने मेरुदण्ड में एक धक्के की भाति एक उत्तेजन, कंम्पनों और तरंगों का अनुभव करता हूं! क्या आपके शब्दों के अर्थ के लिए मुझे सावधानी से सजग बनना चाहिए।

 

सी स्थिति में शब्दों के अर्थ के सम्बंध में तुम्हें सावधान बनने की कोई जरूरत नहीं है, यह एक अवरोध ही बनेगी। यदि तुम मेरे शब्दों की ध्वनि के साथ लयबद्ध होने का अनुभव करते हो, तो वही उसका अर्थ है। यदि तुम महसूस करते हो कि तुम नूतन ऊर्जा में सान कर रहे हो और यदि तुम्हें रोमांच, कम्पन और स्पंदन का एक नया अनुभव हो रहा है, जिसे तुमने पहले कभी जाना नहीं, और यदि तुम अपने अस्तित्व में एक नए तरह के आयाम को उठता हुआ अनुभव कर रहे हो, और वह मेरे शब्दों की ध्वनि के कारण है तो मेरे बारे में भी सभी कुछ भूल जाओ। तब कुछ और की कोई आवश्यकता ही नहीं, तुम पहले ही उनका अर्थ पा गए।

उस ध्वनि के प्रपात में खान करना ही उसका अर्थ है, मेरुदण्ड में वह सिहरन और कम्पन ही उसका अर्थ है, वे स्पंदन और तरंगें जो तुम्हें ताजा बना रही हैं, वही उसका अर्थ है। तब शब्दों के सामान्य अर्थ के बारे में फिक्र करने की कोई जरूरत ही नहीं। तब तुम उसका गहन अर्थ पा रहे हो, तब तुम अर्थ के एक उच्चतम शिखर पर पहुंच रहे हो। तब तुम वास्तव में शीशी को नहीं, उसमें रखे रस को प्राप्त कर रहे हो। मेरे शब्दों का अर्थ तो, बस उस शीशी में रखा सार तत्व है।

यदि ऐसा तुम्हें घट रहा है, तो मेरे शब्द फिर तुम्हारे लिए शब्द ही नहीं रह गए वे अस्तित्वगत बन गए हैं। तब वे जीवंत हैं और एक हस्तांतरण बन गए हैं। तब मेरी और तुम्हारी ऊर्जा के बीच कोई चीज घट रही है। तब वहां कुछ ऐसी चीज हो रही है जिसे बाउल ‘ प्रेम ‘ कहते हैं।

उसे होने दो। शब्दों और उनके अर्थों के बारे में तुम सब कुछ भूल ही जाओ। इनको तुम उन बेवकूफ लोगों के लिए छोड़ दो, जो केवल शब्दों का संग्रह करते हैं और कभी उनके सारतत्व के सम्पर्क में नहीं आते। शब्द तो ठीक बाहर के खोलों जैसे हैं, उनके पीछे छिपा हुआ मैं तुम्हें एक महान संदेश भेज रहा हूं। ये संदेश बुद्धि से नहीं समझे जा सकते, सन्देशों में छिपा रहस्य तुम्हें अपने पूरे अस्तित्व से खोलना होगा। यह जो कुछ घट रहा है—’‘ यह सिहरन, कम्पन, स्पंदन और एक नई ताजा ऊर्जा का बरसना, यह सभी कुछ तुम्हारे अस्तित्व द्वारा उसी संदेश के रहस्य की गुत्थी को सुलझाने जैसा ही है। यही सच्चा श्रवण या सम्यक श्रवण है। यही है वास्तव में मेरे सान्निध्य में मेरे साथ होकर रहना, मेरी उपस्थिति में बस ‘ होना‘ भर।‘’

एक बार मैं अपने मित्र के साथ ठहरा हुआ था। उसके बगीचे में एक बहुत बडा पिंजरा था, और उस पिंजरे में उसके पास एक गरुड़ था। वह मुझे पिंजरे के पास ले गया और कहा—’‘ देखिए! कितना सुंदर गरुड़ पक्षी है? गरुड वास्तव में बहुत सुंदर था, लेकिन मैंने उसके लिए हृदय में एक पीड़ा महसूस की।’’

मैंने अपने मित्र से कहा—’‘ यह असली गरुड़ पक्षी नहीं है।’’

उसने कहा—’‘ आखिर आपके कहने का मतलब क्या है? यह असली गरुड़ है। क्या आप गरुड़ पक्षी को पहचानते नहीं?”

मैंने कहा—’‘ मैं उन्हें भली भांति जानता हूं लेकिन मैंने उन्हें आकाश में स्तवंत्र हवा के विरुद्ध, ऊंचे स्वर्ग की ओर उड़ते हुए ही जाना है। जिन्हें मैंने जाना है वे लगभग इस संसार के जैसे थे ही नही, वे अपने भार का संतुलन साधे स्वतंत्र

मुक्ताकाश के गहरे प्रेम में जैसे बह रहे थे। मैंने उन्हें परम स्वतंत्रता से सिर्फ उड़ते ही देखा है। यह गरुड़ तो गरुड़ ही है नहीं। क्योंकि पिंजरे में बंद गरुड़ के पास खुला आकाश कहां है और बिना स्वर्ग जैसी ऊंचाइयों पर बिना संतुलन साधे स्वतंत्रता से हवा में उड़ता हुआ यदि गरुड़ न हो, तो वह असली गरुड़ होता ही नहीं। उसकी वह पृष्ठभूमि कहां है पिंजरे में—मैं कहता हूं कि यह उसकी आकृति भर है।’’

पिंजरे में बंद गरुड़ का असलीपन तो नष्ट हो गया। तुम पिंजरे में असली गरुड़ को कैद कर ही नहीं सकते, क्योंकि असली गरुड़ तो अत्यधिक स्वतंत्रता के साथ रहता है। इस पिंजरे में वह स्वतंत्रता कहां है? इसकी आत्मा तो जैसे है ही नहीं। सारभूत अस्तित्व तो लुप्त हो गया, जो यहां रह गया वह तो असार है। यह तो जैसे एक मृत गरुड़ है मृत गरुड़ से भी कहीं अधिक मृत और असहाय। इसे पिंजरे से मुक्त करने इसे सच्चा गरुड़ बनने का अवसर दो।’’

जब मैं तुमसे बातचीत करता हूं तो मेरे शब्द गरुड़ के पिंजरे जैसे हैं, मेरे शब्द जैसे एक कैद में हैं। यदि तुम वास्तव में मुझे सुनते हो, तुम शब्दों के पिंजरे में से उसके सारभूत असली गरुड़ को मुक्त कर दोगे।

यह जो घट रहा है…… .यह रोमांच। तुम्हें स्वतंत्रता मिल रही है, तुम गरुड़ बनकर ऊंचे और ऊंचे चेतना के शिखर पर पहुंचो। तुमने पृथ्वी बहुत दूर छोड़ दी है। तुम उसके बारे में सब कुछ भूल चुके हो। जो साधारण था, वह पीछे छूट गया। खोल या पिंजरा छोड़ दिया तुमने और अब पूरा आकाश तुम्हारे सामने खुला है, तुम, तुम्हारे पंख और यह आकाश……. और इसका कोई अंत ही नही है। अब तो शाश्वत यात्रा हो चुकी है।

शब्दों और उनके अर्थों के बारे में सब कुछ भूल ही जाओ, अन्यथा पिंजरे से तुम्हारा सम्बंध अधिक रहेगा और तुम स्वयं अपने ही अंदर उस गरुड़ को मुक्त करने में समर्थ न हो सकोगे।

 

तीसरा प्रश्न :

 

प्यारे ओशो! प्रत्येक बार मैने किस?ई व्यक्ति से प्रेम किया और उसके बाद उसे दफन कर दिया   मैने पाया कि वह प्रेम जैसा कुछ था ही नहीं वह प्रेम के नाम पर कुछ और ही चीज थी इस तरह अब मुझे प्रेम पर कोई विश्वास नहीं रहा मैं यह विश्वास नहीं कर सकता कि हम जैसे है, वैसे प्रेम भी कर सकते हैं।

प्रश्नकर्त्ता कह रहा है कि और ठीक ही कहता है वह कि जब भी वह प्रेम में पड़ा है उसने प्रेम को नकली प्रदर्शन या दिखावा भर ही पाया है और वह प्रेम पर अपनी आस्था खो बैठा है।

इसका पहला भाग तो पूरी तरह ठीक है, यदि तुम गहराई से निरीक्षण करो तो पाओगे, कि प्रेम के पीछे हमेशा ही वह कुछ झूठ या नकली चीज छिपा रहा है। लेकिन नकली चीज का भी अस्तित्व केवल तभी हो सकता है क्योंकि असली सिक्के भी हैं। यदि वहां असली सिक्के न हों, तो नकली सिक्के भी कैसे अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं? कभी—कभी यह अधिकार जमाने की इच्छा होती है, जो प्रेम के पीछे अपने को छिपाती है कभी यह वासना और कभी—कभी यह ईर्ष्या जैसी कुछ और चीज होती है।

लेकिन वे उसे प्रेम के पीछे क्यों छिपाते हैं? क्योंकि वे प्रेम को असली सिक्के की तरह महसूस करते हैं, और तुम उसे पीछे छिपा सकते हो, बहाने बना सकते हो, क्योंकि तुम प्रेम के पीछे सुरक्षित बने रह सकते हो। जब भी तुम अपने को कहीं भी छिपाते हो, तो इससे यही प्रकट होता है कि कहीं स्थान सुरक्षित है और वह तुम्हारे चारों ओर एक कवच बन सकता है।

प्रत्येक चीज प्रेम के पीछे ही क्यों छिपना चाहती है? क्योंकि संसार में प्रेम ही सबसे बड़ी सुरक्षा है, वही संसार की सबसे बड़ी वास्तविकता है और वही ऊर्जा भी है। इसके सिवा प्रत्येक चीज नकली है केवल प्रेम ही सच्चा और प्रामाणिक है। वह सब कुछ जो प्रेम नहीं है, नकली है और कुछ भी तुम कर रहे हो, वह प्रेम न होकर मात्र छीजन है। वह सब कुछ जो प्रेम है, वही यथार्थ वास्तविकता है और प्रेम के रास्ते में तुम जो कुछ भी करते हो, उससे तुम्हारा अस्तित्व विकसित होता है, वह तुम्हें अधिक विश्वसनीयता देता है, और वह कहीं अधिक प्रामाणिक बनाता है। इसे जानकर ही प्रत्येक चीज अपने को प्रेम के पीछे छिपाती हैं, क्योंकि प्रेम सुरक्षा दे सकता है। प्रेम इतना अधिक सुंदर है कि कुरूप चीजें भी उसके पीछे छिप सकती हैं और सुंदर होने का बहाना बना सकती हैं।

मैं शेपर्ड की एक पुस्तक बियान्‍ड सेक्स थैरेपी (सेक्स उपचार के पार) पढ़ रहा था। उसमें इससे सम्बंधित वह एक प्रसंग का जिक्र करता है।

वह एक युवा स्त्री के प्रेम में पड़ गया था। कुछ मित्र उससे मिलने के लिए आए लेकिन वह पूरे समय उस स्त्री के साथ बातचीत करता हुआ उसके ही साथ बना रहा, जैसे मानो मित्रों में उसकी कोई दिलचस्पी ही न हो। उन्होंने कुछ अपमान का अनुभव करते हुए उस स्त्री से कहा—’‘ हम आपकी अपेक्षा शेपर्ड को अधिक अच्छी तरह से जानते हैं। यह कई स्त्रियों के साथ प्रेम करता रहा है, एक स्त्री जाती थी और दूसरी आती थी। इसलिए स्मरण रखियेगा कि देर—सबेर यह किसी दूसरी स्त्री में दिलचस्पी लेने लगेगा, तब आप क्या करेंगी?”

उस स्त्री ने कहा—’‘ मैं ईर्ष्या का अनुभव करूंगी, लेकिन वह मेरी अपनी समस्या होगी, लेकिन मैं यह चाहती हूं कि यह मेरा आदमी हर तरह के प्रेम को जाने, अपने मरने से पूर्व, जो कुछ भी सम्भव है, वह सभी कुछ जाने। मैं यदि ईर्ष्या भी करूंगी तो वह मेरी अपनी समस्या है। उसे मुझे सुलझाना होगा और उससे बाहर आना होगा। उससे उनका कुछ भी लेना—देना नहीं होगा। जहां तक उनका सम्बंध

है, मेरी यही इच्छा है कि उन्हें सब कुछ जानना चाहिए जो वह मृत्यु से पहले जानना चाहते हैं, क्योंकि एक बार जो जाता है वह बस हमेशा के लिए ही चला जाता है। मैं चाहती हूं कि जितना भी सम्भव हो, वह उतनी ही अधिक अनुभव की सम्पदा लेकर जीये। यदि ईर्ष्या जैसी या अन्य जो भी समस्याएं आती हैं, तब वे मेरी अपनी समस्याएं होंगी।’’

यही है वह, जिसे प्रेम कहते हैं। वह प्रेम और ईर्ष्या के बीच का अंदर भली भांति जानती है। इस बारे में उसे कोई भ्रम नहीं है। ईर्ष्या उसके प्रेम के पीछे छिप नहीं सकती, वह प्रेम बनने का बहाना नहीं बना सकती।

इसलिए पहली चीज तो ठीक है, प्रश्नकर्त्ता पूरी तरह ठीक है।’’ प्रत्येक बार मैंने किसी से प्रेम किया और बाद में उसे दफन कर दिया, मैंने पाया कि वह प्रेम था ही नहीं। वह कुछ और ही था……. ” यह पूरी तरह ठीक और सत्य है…….” प्रेम के नाम पर इस तरह मेरी अब कोई आस्था ही नहीं रही…… .यही गलत है क्योंकि तुमने प्रेम को अभी तक जाना ही नहीं। तुम उस प्रेम पर आस्था कैसे खो सकते हो, जो तुमने अभी जाना ही नहीं? तुम ईर्ष्या पर से अपना विश्वास खो सकते हो, तुम अपने अधिकार जमाने और पकड पर विश्वास खो सकते हो, तुम अपने क्रोध और अपनी वासना पर विश्वास खो सकते हो, लेकिन तुमने अभी तक उस सच्चे प्रेम का स्वाद पाया ही नहीं, फिर तुम कैसे उस पर विश्वास खो सकते हो? विश्वास खोने और आस्था पाने के लिए कम से कम प्रेम का कुछ अनुभव होना तो बहुत आवश्यक है और तुम अभी तक ऐसे से होकर नहीं गुजरे हो।

अपने अंदर थोड़ी सी खुदाई और करो और फिर तुम छांटने में समर्थ हो जाओगे कि ईर्ष्या क्या होती है? फिर तुम जानोगे किसी पर अधिकार जमाना या मालकियत क्या होती है। यह अच्छा है कि तुम विकसित हो रहे हो। इसी तरह से प्रत्येक व्यक्ति को विकसित होना है। शुरू में हर चीज मिली हुई गड्डमड्ड होती है जैसे सोने की धूल में मिट्टी और कबाड़ मिला हुआ हो। तब उस सोने की धूल को कोई व्यक्ति आग पर जलाता है, उसमें जो कुछ सोना नहीं है, वह सब कुछ जल जाता है और केवल शुद्ध स्वर्ण ही निकल कर आग के बाहर आता है। होश और चेतना ही वह अग्नि है, प्रेम ही वह कुंदन या शुद्ध स्वर्ण है, ईर्ष्या, मालकियत, घृणा, क्रोध और वासना ही वह अशुद्धियां हैं। अब तुम अधिक होशपूर्ण बन रहे हो। अब तुम देख रहे कि ईर्ष्या क्या है और तुम यह भी देख सकते हो कि यह प्रेम नहीं है। तुमने आधी लड़ाई तो जीत ली, पचास प्रतिशत लड़ाई तो पूरी हो गई। अब तुम ईर्ष्या को पहचान सकते हो। लेकिन अभी तक तुमने यह नहीं जाना कि प्रेम क्या होता है। तुम ठीक रास्ते पर चल रहे हो। लेकिन निराश मत होओ, न अपना साहस खोओ और न प्रेम पर से अपनी आस्था, क्योंकि देर—सवेर तुम जानने में जरूर समर्थ होगे कि प्रेम क्या है। तुम धीमे— धीमे अपने घर के निकट उग रहे हो।

इतने जल्दबाज मत बनो। सच्चाई अपना घूंघट स्वयं उघारती है। सत्य प्रकट होता ही है। वह एक दैवी प्रेरणा है। तुम बस उसे ढूंढते खोजते और तलाशते रहो। इसमें बहुत सी भूलें भी होंगी। लेकिन विकसित होने के लिए अन्य कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं। जांच करो और गलियां करो, केवल यही एक मार्ग है। कम से कम गलियां हों और अधिक से अधिक शुद्धता उपलब्ध होती रहे। बीच में कहीं रुको मत।

 

मैंने सुना है:

मुल्ला नसरुद्दीन को बैंक में नौकरी मिल गई। खजांची ने उसकी ओर सौ रुपयों के नोटों की एक गड्डी उछालते हुए कहा—’‘ इन्हें चैक कर गिनो कि यह पूरे सौ ही हैं।’’

मुल्ला ने गिनना शुरू किया। उसने पचपन तक गिने, वे ठीक थे, वह गिनता गया…… .छप्पन, सत्तावन और फिर उसने उस गड्डी को ड्राअर में फेंकते हुए अपने आगे बैठे व्यक्ति से कहा—’‘ यहां तक जब यह गिनती में ठीक निकले, तो शायद आगे भी यह ठीक ही होंगे।’’

 

इतनी शीघ्रता मत करो। यदि तुम्हारा अनुभव अभी तक गलत रहा तो यह मत सोचो कि पूरे रास्ते भर वह गलत ही रहेगा। सौ डिग्री पर……. अचानक ठीक दिशा मिल जाती है। एक व्यक्ति को सभी अशुद्धियों तक गहरे पहुंचना होता है। लेकिन तुम सही रास्ते पर चल रहे हो, इसलिए तुम्हें खुश होना चाहिए।

और प्रेम की गहरी चाह के कारण ही तुम यह पहचानने में समर्थ हो सके कि प्रेम में क्या नहीं होता। अन्यथा तुम इसे पहचानते कैसे? यह चीज स्वर्ण नहीं है, तुम उसे तभी तो पहचान सकते हो, जब स्वर्ण का अस्तित्व होता है। अन्यथा यह जानने का वह कौन सा मापदण्ड है कि वह प्रेम नहीं है। तुममें कुछ ऐसी समझ अंतर्निहित है जो अभी तक सचेतन नहीं है, वह मूक है, अभी गहरे में छिपी है। समझ या ‘ अंडरस्टैंडिंग ‘ का यही अर्थ होता है कि जो अंदर या नीचे खड़ा हुआ हो। तुम्हारे पास एक मूक अंतर्निहित समझ है, तुम्हारे गहरे में कोई ऐसी अंतर्धारा चल रही है जो यह जानती है कि प्रेम क्या होता है। यही कारण है कि तुम उसे खोज सकते हो—कि यह प्रेम नहीं है, और यह प्रेम है। अच्छा है, तुम ठीक रास्ते पर चल रहे हो। बड़े चलो, तुम्हें पूरे रास्ते, आखिर तक जाना है।

प्रेम की सम्भावना के कारण ही तुम ईर्ष्या, मालकियत क्रोध, वासना और अपनी कामनाओं को तुष्ट करने की आकाक्षा के प्रति सजग बने और कृतज्ञता के साथ एक हजार एक चीजों के प्रति भी तुम्हारी सजगता बढ़ी है। लेकिन तुम्हारा सबसे महत्त्वपूर्ण केंद्रीय भाग, प्रेम की मौन समझ पर ही आश्रित है। सत्य की प्रवृत्ति स्वयं अपने रहस्य प्रकट करने की होती है।

 

मैं कुछ प्रसंगों के बाबत चर्चा करना चाहता हूं।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी की शवयात्रा के जुलूस की तैयारियां की जा रही थीं। उसने अवसर के अनुकूल गहरे काले रंग के वस्त्र पहने थे। शवयात्रा के निर्देशक ने आदरपूर्वक मुल्ला के कान में फुसफुसाते हुए कहा—’‘ और आप सबसे आगे चलने वाली कार में अपनी सास के साथ बैठेंगे।’’

मुल्ला ने त्यौरी चढ़ाते हुए कहा—’‘ मैं और अपनी सास के साथ?”

” हां! निश्चित ही आपको उनके साथ ही बैठना चाहिए।’’

” क्या यह जरूरी है?”

” हां! यह बहुत आवश्यक है अपने पति और अपनी मां से बिछुड़ कर जाने वाली मृतात्मा को दो सबसे नजदीकी रिश्तेदारों को एक साथ बैठना चाहिए।’’ मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी सास के लम्बे लटके हुए गम्भीर चेहरे की ओर देखते हुए कहा—’‘ फिर ठीक है। लेकिन मैं पहले ही से ठीक अभी यह कह देना जरूरी समझता हूं कि तुम मेरे इस अवसर के आनंद को बरबाद करने जा रहे हो।’’

 

तुम्हारी शोक प्रकट करने वाली काली पोशाक सत्य को छिपा नहीं सकती, तुम्हारे आंसू भी सत्य को नहीं छिपा सकते। अपने गहरे में मुल्ला खुश हो रहा है और अब वह स्वतंत्र हुआ अब उसे फिर उसी स्त्री के बंधन में न फंसना पडेगा। केवल ऊपर ही ऊपर वह पत्नी से बिछुड़ने के दुख का प्रदर्शन कर रहा है।

सत्य की अपने को स्वयं प्रगट करने की प्रवृत्ति होती है। यदि तुम बस थोड़े से सजग रहो तो तुम हमेशा जान लोगे कि सत्य क्या है। सत्य को सीखने की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ उस व्यक्ति को थोड़ा सा सजग होने की आवश्यकता है, और तब सत्य स्वयं सामने आ जाता है। उसका प्रकट होना सत्य में अंतर्निहित होता है। और जब सत्य सामने आता है तो उसी के साथ एक हजार एक झूठ भी खुलते हैं। वे सभी झूठ, सच होने के बहाने तभी तक बन सकते थे, जब तक सत्य जाना नहीं गया था।

 

एक बार ऐसा हुआ : मुल्ला नसरुद्दीन का मित्र अब्दुल रहमान बहुत बीमार पड़ा। प्रत्येक व्यक्ति उसकी बीमारी के बारे में चिंतित था।

वास्तव में वह बहुत अधिक बीमार था और उसके मित्र उसे बारी—बारी से देखने आते थे जिससे वह उसे हिम्मत बंधाते रहे।

रात जब मुल्ला उसे देखने गया तो उसे पहले ही से सावधान किया गया कि अब्दुल रहमान क्योंकि बहुत अधिक अवसाद में है, इसलिए उसे हतोत्साहित करने जैसी उससे बात न कही जाए। नसरुद्दीन बातचीत बहुत खूबसूरती से कर रहा था और उनकी सुनाई कई कहानियों पर रहमान मुंह दबाकर हंसा और मुस्कराया भी। लेकिन अचानक मुल्ला रुका और जोरों से अपना सिर हिलाने लगा।

रहमान ने उत्सुकता से पूछा—’‘ मुल्ला! यह तुम क्या कह रहे हो?” आखिर मामला क्या है?

नसरुद्दीन ने जवाव दिया—’‘ मैं सोच रहा था इस घर की मोड़ भरी सीढ़ियों से होकर पवित्र पैगम्बर के नाम पर वे लोग जनाजे को आखिर कैसे निकालते होंगे?”

 

अब ऊपर से तो वह उस व्यक्ति को साहस बंधा रहा है, लेकिन अपने अंदर गहरे में वह भली भांति यह जानता है कि वह मरने जा रहा है और उसके अंदर यह विचार चल रहा है कि जब सीढ़ियों में इतने अधिक मोड़ हैं तो लोग उसके जनाजे को नीचे से ऊपर कैसे ले जाएंगे?”

सत्य की यही प्रवृत्ति है कि वह स्वयं प्रकट हो जाता है। बस थोड़ा सा सजग बनो और तुम्हारा हृदय तुम्हें रास्ता दिखलायेगा। और तब प्रेम के पीछे कुछ भी छिपाने में तुम समर्थ न हो सकोगे। प्रेम के पीछे जो तुम्हें जीवंत बनाये हुए है। विश्वास खोना ही है। चीजें छिपाई जा सकती हैं, क्योंकि तुम मूच्छिर्त हो। यह कुसूर प्रेम का न होकर तुम्हारी मूर्च्छा का है। इसलिए प्रेम पर अविश्वास मत करो। प्रेम पर आस्था मत खाओ, क्योंकि प्रेम ने तुम्हारे साथ कुछ भी नहीं किया है। इस सभी के बावजूद वास्तव में यह प्रेम ही है जो तुम्हें जीवंत बनाए हुए हैं। मैं इसे पुन— दोहराना चाहता हूं तुम जो भी हो, उसके बावजूद भी वह प्रेम ही है तो अपनी मूर्च्छा पर खोओ। यदि तुम होशपूर्ण हो तो तुम प्रेम के पीछे कुछ भी नहीं छिपा सकते। तब कोई भी नकली चीज तुम्हें धोखा नहीं दे सकती।

तुम कहते हो—’‘ प्रेम के नाम पर वह हमेशा कुछ और ही चीज होती है और इस तरह प्रेम पर मेरी कोई आस्था नहीं रह गई है।’’

यह व्यर्थ की बात है। यह तर्क ही गलत है। तुम अभी तक प्रेम के सम्पर्क में ही नहीं आये, फिर तुम प्रेम में आस्था कैसे खो सकते हो?

कुछ और अधिक खुदाई करो, उसके अंत तक जाओ तुम अपने अंदर जितने अधिक गहराई में जाओगे, तुम शुद्धतम कुन्दन पाओगे।

यह ठीक एक कुंआ खोदना जैसा है तुम कुंए के लिए खुदाई करते हो, पहले तुम्हें केवल पत्थर, चट्टानें और कूड़ा कबाड मिलता है। उसके बाद अधिक शुद्ध मुलायम मिट्टी की पर्त मिलती है, उसके बाद गीली मिट्टी, उसके भी नीचे कीचड़ भरा गन्दा पानी और तब सबसे आखीर में शुद्धतम जल मिलता है। तुम जितनी अधिक गहराई में जाते हो, उतने ही शुद्धतम जल के तुम्हें झरने और स्रोत मिलते हैं। और ऐसा ही तुम्हारे हृदय के अंदर भी है। ऊपरी सतह पर तो केवल, धूल, धमास और चट्टाने हैं, तब सूखी जमीन फिर गीली मिट्टी आती है—लेकिन अपनी आस्था मत खोना, तब कीचड़ भरा जल आता है तब भी आस्था मत खोना, तुम अपने घर के निकट आते जा रहे हो, और तभी शुद्ध जल मिल जाता है।

” मैं कभी यह विश्वास कर ही नहीं सकता कि हम जैसे जो हैं, वैसे ही बने रहकर कभी प्रेम भी कर सकते हैं।’’

तुम्हारा यह कहना ठीक है कि तुम जिस तरह के हो, वैसे बने हुए तुम प्रेम नहीं कर सकते। लेकिन तुम जैसे हो, उसी रास्ते पर बने रहने का चुनाव करने की जरूरत क्या है, तुम्हें अपने ढांचे से बांधे रहने की जरूरत क्या है? तुम उसे बदल सकते हो। तुम उस ढांचे को फिर से नया बना सकते हो।

मैं यहां यही सभी कुछ तो कह रहा हूं हम लोग एक साथ मिलाकर जो कुछ भी करने का प्रयास कर रहे हैं, वह तुम्हारा पुनर्निर्माण ही तो कह रहे हैं, जिससे तुम अपना संयोजन फिर से करते हुए प्रामाणिक बन सकते, जिससे तुम्हारा पुराना रूप नष्ट हो जाए और नये का जन्म हो।

यह सत्य है—तुम जिस तरह के हो, उसी रूप में प्रेम नहीं कर सकते, लेकिन प्रेम पर आस्था खोने का यह कोई भी कारण नहीं है। तुम अपने अहंकार पर विश्वास नहीं खोते, तुम स्वयं पर से विश्वास नहीं खोते। यदि वह ‘ तुम ‘ हो, जो तुम्हें प्रेम करने से रोकता है तो इस अपने ‘ तुम ‘ को क्यों नहीं छोड़ते तुम? क्योंकि प्रेम मूल्यवान है, इसलिए लाखों तुमों का भी प्रेम के एक क्षण जितना भी मूल्य नहीं है। अपने ढांचे को गिरा कर पुनर्निर्माण करो। आकाश को कह रहे हो कि तुम हो, यह ‘ तुम ‘ और कुछ भी नहीं बल्कि एक पिंजरा है। तुम अपने जिस ‘ तुम ‘ का अनुभव कर रहे हो, यह और कुछ भी नहीं है, बल्कि समाज के द्वारा दिया गया एक पिंजरा है। खुले आकाश को चुनो और पिंजरे को तरंत छोड़ दो।

 

चौथा प्रश्न :

 

प्यारे ओशो! दो दिन पूर्व मैं आपके प्रवचन में पूरा समय सोता रहा और उसके समाप्त होने के समय आपका एक शब्द ” केवल अकेला एक मन ” सुनते हुए ही मैं जागा इसलिए अब मैं क्या करूं?

केवल एक मन के साथ जियो। यह संदेश इतना अधिक स्पष्ट कि इसमें पूछने जैसा है ही क्या? तुम्हारे ही अस्तित्व ने तुम्हें एक महान संदेश दे है।

कभी—कभी ऐसा होता है कि गहरी नींद के बाद तुम अपने आrस्तत्व के गहरे केन्द्र से संदेश पाते हो। सुबह उठते ही अपने मन में आने वाले पहले विचार को सुनने का प्रयास करो, क्योंकि नींद से जागते ही तुम अपने अस्तित्व के बहुत निकट होते हो। जागने के दो या तीन सेकिंड में इस बात की अधिक सम्भावना होती है कि तम अपने अस्तित्व की गहराई की कुछ झलक या संदेश पा सको। दो या तीन क्षणों के बाद ही तुम्हारा उसके साथ सम्बंध टूट जाता है। तुम फिर से इसी संसार में फेंक दिए जाते हो। लेकिन कभी—कभी ऐसा भी होता है और ऐसा बहुत थोड़े से लोगों को ही होता है, कि मुझे सुनते ही वे सो जाते हैं। यहां भिन्न—भिन्न तरह के व्यक्ति हैं।

उदाहरण के लिए ठीक अभी शीला गहरी नींद में है, लेकिन उसकी नींद वास्तव में बहुत सुंदर है, यह नींद न होकर एक तरह के परमानंद की स्थिति है। वह केवल परम विश्राम में है। मुझे गहरे में सुनते हुए वह तनावग्रस्त नहीं हो सकती थी। उसका सारा तनाव दूर हो गया, इसिलए वह विश्राम में चली गई अपने अस्तित्व की गहरी पर्त में वह विश्राम कर रही है। बाहर से देखने वाले सभी लोगों को वह गहरी नींद में सोती हुई दिखेगी। जब वह जागेगी तो वह स्वयं नहीं समझ पाएगी कि आखिर हुआ क्या, क्योंकि उसे भी वह नींद ही दिखाई देगी, यह नींद नहीं है यह विशिष्ट दशा है योग में हम इसे तंद्रा कहते हैं। यह जागृति और निद्रा के बिना स्वप्नों की मध्य की स्थिति है।

इसलिए गहरी निद्रा और जागरण के मध्य वहां दो तल होते हैं। यदि तुम दोनों के मध्य की स्थिति में हो, तो स्वप्न देखने की सामान्य दशा होती है, जब तुम सपने देखते हो।

या तो तुम जागे हुए हो, अथवा तुम गहरी नींद में हो, अथवा तुम स्वप्न देख रहे हो। और सपने, जागने और सोने के ठीक बीच में होते हैं। यह दोनों के बीच एक गलियारा है। सामान्य रूप से होता ही होता है।

लेकिन यदि तुम्हारा ध्यान गहराई तक जाता है, अथवा तुम्हारा प्रेम बहुत गहरे में जाता है, तो तुम्हारी चेतना में जो पहला परिवर्तन घटित होता है। वह मध्य की स्थिति में होता है और स्वप्न आना बंद हो जाता है। अब यह कहना बहुत कठिन है कि यह क्या है। तुम इसके बारे में यह सोच सकते हो कि यह निद्रा है अथवा यह जागृति है। यह दोनों जैसे साथ—साथ हैं यह ठीक दोनों के बीच का संतुलन है, यह एक बहुत संतुलित दशा है।

तंद्रा पहली झलक है। यह सतोरी की शुरुआत है। सपने पहले मिटते हैं। तब अगले कदम में नींद भी मिट जाती है और तब तीसरे चरण में जिसे तुम जागृति कहते हो, वह भी चली जाती है। और जब यह तीनों चीजें विलुप्त हो जाती हैं, तब जो स्थिति उत्पन्न होती है उसी को हम वास्तविक जागरण कहते हैं। तब कोई भी बुद्धत्व को, या बोध को उपलब्ध होता है। तंद्रा पहला चरण है सपने विलुप्त हो रहे .

है।

इसलिए कभी—कभी ऐसा होता है कि लोग यहां सो जाते हैं, वे परम आनंद और विश्राम की स्थिति में पहुंच जाते हैं। इस स्थिति को तंद्रा कहा जा सकता है। सभी व्यवहारिक कार्यों के लिए ये लोग सोये हुए हैं, ये लोग मेरे शब्दों को याद न रख सकेंगे। लेकिन जब वे वापस आते हैं, तब उन्हें यह स्मरण आएगा कि कोई चीज बहुत गहरे मौन में घटित हुई है किसी चीज का उनकी ऊर्जा में परिवर्तन हुआ है। यह बहुत गहरे विश्राम की स्थिति है। इसी गहन विश्राम की स्थिति में कोई संदेश मिलता सा लगता है, इसे बहुत सावधानी से सुनो।

तुम कहते हो—’‘ दो दिन पूर्व मैं आपके प्रवचन में पूरे समय सोता रहा, और उसके समाप्त होने के समय आपका केवल एक शब्द—केवल अकेला एक ही मन बचे—सुनते हुए ही मैं जागा। उस सुबह मैं अकेले एक मन के बाबत ही चर्चा कर रहा था।

यह प्रश्न बहुत पुराना है। यह प्रश्न झेन बोध कथा माला से सम्बंधित है। मैं उस समय केवल एक ही मन, एक अकेले मन होने के बाबत चर्चा कर रहा था। तुमने सम्भवत उसे नहीं सुना होगा। तुम तंद्रा में थे जो कुछ मैं कह रहा था, उसके प्रति सम्मोहित दशा में थे। लेकिन मैं तुम्हें जो कुछ सम्प्रेषित करना चाहता था, वह सम्प्रेषित हो गया। तुम्हारे अस्तित्व ने उसे सुना, तुम्हारे पूरे शरीर के प्रत्येक रोम—रोम ने उसे सुना, तुम मुझे पूरी तरह पी ही गए जो कुछ मैं कह रहा था और वहां जो मेरी उपस्थिति थी, तुमने उसे अपने में जज्व कर लिया। और जब वापस आए तो जैसे तुम्हें घनीभूत संदेश मिला, तुम्हारी परिधि को अपने गहरे केंद्र से जैसे एक उपहार मिला। एक अकेला शब्द है।

‘केवल एक ही मन बचे ‘ —तुम्हारी चेतना में उत्पन्न हुआ। अब तुम पूछते हो क्या किया जाए? बस केवल अकेला एक ही मन बचे।

और जब मैं कहता हूं केवल अकेला एक ही मन बचे, तो आखिर इसका अर्थ क्या है? वास्तव में यह कहना कि चित्त अकेला एक ही रहे इसका लगभग यही अर्थ है— अमन में रहो क्योंकि मन का अस्तित्व केवल संघर्ष की ही स्थिति में होता है। मन केवल अनेक होकर जीता है। जब बहुत से विचारों की भीड वहां नहीं रह जाती, तब हम उसे केवल एक अकेला चित्त कहते हैं अथवा तुम उसे अमन कह सकते हो, क्योंकि मन विसर्जित हो चुका है। मन तो अनेक ही होते हैं अकेला एक मन का अर्थ ही है— अब जब तुम अकेले एक हो, एक साथ हो— अंदर कहीं कोई संघर्ष नहीं है। कोई विभाजन नहीं है, सारे शैतान बिदा हो गए। तुम अविभाजित बन गए प्रत्येक चीज कहीं गहरे में आपस में जुड़ गई, लयबद्ध हो गई एक दूसरे से आपस में जुड़ गईं, लयबद्ध हो गईं, एक दूसरे से मिलकर एक अकेली आरकेस्ट्रा की एक धुन रह गई, तब उसे ही अमन कहते हैं।

‘ अकेला एक चित्त ‘ यह शब्द योग की परम्परा का है। अमन का भी यही अर्थ होता है, लेकिन यह दूसरी परम्परा का पारभाषिक शब्द है, जो झेन की परम्परा है। लेकिन दोनों का एक ही अर्थ है भीड़ बनकर भीड़ में मत रहो, बहुचित वादी बनकर मत रहो। केवल अकेले एक संयुक्त चित्त के होकर रहो।

 

पांचवां प्रश्न :

 

प्यारे ओशो! मैं बोधमय आत्म प्रेम और अहंकार—ग्रस्त प्रेम के अंतर को कैसे पहचान सकता हूं?

अंतर बहुत सूक्ष्म है, लेकिन कठिन न होकर बहुत स्पष्ट है। सूक्ष्म अवश्य है, लेकिन कठिन नहीं हे। यदि तुम अहंकार ग्रस्त हो, तो तुम अपने लिए अधिक से अधिक दुख सृजित करोगे। तुम्हारे दुख और पीड़ाए ही इंगित करेंगी कि तुम रुग्‍ण हो। अहंकारी बन कर रहना एक रोग है, यह आत्मा का कैंसर है। अहंकारग्रस्तता तुम्हें अधिक से अधिक तनावग्रस्त बनायेगी, वह तुम्हें अधिक से अधिक घबडाहट देगी और तुम्हें किसी भी तरह विश्राम में जाने ही नहीं देगी। वह तुम्हें पागलपन की ओर ले जाएगी।

आत्म प्रेम, अहंकारग्रस्तता से ठीक विपरीत है। आत्म प्रेम में अपना ‘ मैं ‘ अपना अहम नहीं होता, केवल प्रेम होता है। अहंकारग्रस्त होने पर वहां कोई भी प्रेम नहीं होता, केवल अपनी वैयक्तिकता और अपना ही हित है। आत्म—प्रेम में तुम अधिक से अधिक विश्राममय होना शुरू हो जाओगे। एक व्यक्ति जो स्वयं से प्रेम करता है पूर्णरूपेण विश्राम मय होता है। किसी दूसरे से प्रेम करने में थोड़ा सा तनाव उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि यह जरूरी नहीं कि दूसरा व्यक्ति हमेशा तुमसे लयबद्ध होकर रहे। दूसरे की स्वयं अपनी पसंद और उसके अपने विचार हो सकते हैं। दूसरा व्यक्ति एक अलग संसार है। वहां टकराव और संघर्ष की पूरी संभावना है। वहां तूफान आने और बिजली गिरने की पूरी सम्भावना है, क्योंकि दूसरे व्यक्ति का अपना एक अलग संसार है। वहां हमेशा एक सूक्ष्म संघर्ष चलता ही रहता है। लेकिन जब तुम स्वयं से प्रेम करते हो, वहां अन्य कोई दूसरा नहीं होता। वहां कोई संघर्ष नहीं होता वहां शुद्ध जीवंत मौन होता है, वहां अत्यधिक प्रसन्नता होती है। तुम अकेले ही होते हो, कोई भी परेशान करने वाला नहीं होता। किसी दूसरे व्यक्ति की जरा भी आवश्यकता नहीं होती। और मेरे देखे एक व्यक्ति जो स्वयं से इतना गहरा प्रेम करने में समर्थ हो जाता है वह दूसरों से भी प्रेम करने में समर्थ होता है। यदि तुम स्वयं से प्रेम नहीं कर सकते, तो तुम दूसरों से प्रेम कैसे कर सकते हो? पहले तो इसका अपने ही निकट आसपास होना जरूरी है, पहले तो इसका स्वयं में घटना जरूरी है, तभी यह दूसरों की ओर फैलता है।

लोग दूसरों को प्रेम करने का प्रयास करते हैं, इस बात के प्रति सजग हुए बिना, कि अभी तक उन्होंने स्वयं से ही प्रेम नहीं किया है। फिर तुम दूसरों से कैसे कर सकते हो प्रेम? जो कुछ तुम्हारे पास स्वयं नहीं है, तुम उसे दूसरों को कैसे बांट सकते हो? तुम दूसरों को केवल तभी दे सकते हो, जब वह पहले से ही तुम्हारे पास स्वयं हो।

इसलिए प्रेम की ओर जो सबसे अधिक बुनियादी और पहला कदम उठाना जरूरी है, वह है स्वयं से प्रेम करना, लेकिन इसमें कोई अहम् नहीं होता। मैं तुम्हारे लिए मैं इसे और स्पष्ट करना चाहूंगा।

‘ मैं ‘ का जन्म केवल ‘ तुम ‘ की तुलना में ही होता है।’ मैं ‘ और तुम का अस्तित्व एक दूसरे के साथ होता है।’ मैं ‘ केवल दो आयामों में रह सकता है। पहला आयाम है—’ मैं वह हूं ‘ तुम _ तुम्हारा घर, तुम, तुम्हारी कार, तुम, तुम्हारा धन—’ मैं ‘‘ वह हूं ‘। जब वहां यह ‘ मैं ‘ होता है, यह ‘ मैं वह हूं ‘ का ही ‘ मैं ‘ हैं, तुम्हारा ‘ मैं ‘ लगभग एक वस्तु की भांति होता है। यह चेतना नहीं होती, यह गहरी नींद में भयानक स्वप्न देखने जैसी स्थिति होती है। तुम्हारी चेतना नहीं होती वहां।

तुम केवल वस्तुओं की भांति होते हो, अनेक वस्तुओं के बीच एक वस्तु की भांति, होते हो, तुम अपने घर के एक भाग होते हो, अपने फर्नीचर अथवा अपने धन के एक छोटे से हिस्से होते हो।

क्या तुमने इसका निरीक्षण किया है? एक व्यक्ति, जो धन के बारे में बहुत अधिक लालची होता है। धीमे— धीमे उसमें धन के बहुत से गुण प्रकट होना शुरू हो जाते हैं। वह धन मात्र होकर ही रह जाता है। वह अपनी आत्मा खो देता है, उसके पास कोई आत्मा रह ही नहीं जाती। वह घट कर एक वस्तु जैसा हो जाता है। यदि तुम धन से प्रेम करते हो, तो तुम धन जैसे ही बन जाओगे। यदि तुम अपने घर से प्रेम करते हो, तो धीमे— धीमे तुम एक पदार्थ जैसे बन जाओगे। तुम जिससे भी प्रेम करते हो, तुम वैसे ही हो जाते हो। प्रेम एक रासायनिक प्रक्रिया है। कभी भी गलत चीज से प्रेम मत करो, क्योंकि वह तुम्हें रूपांतरित कर देगी प्रेम जैसा रूपांतरण करने वाला और कुछ भी नहीं है। प्रेम कुछ ऐसी चीज है जो तुम्हें ऊंचे से ऊंचे शिखर तक पहुंचा सकती है। प्रेम कुछ ऐसी चीज है, जो तुम्हारे पार है। धर्म का पूरा प्रयास यही है। तुम्हें परमात्मा जैसी कोई चीज दे दी जाए जिससे फिर वहां नीचे गिरने का कोई मार्ग न बचे। एक व्यक्ति को उससे ऊपर उठना होता है।

तो एक तरह के ‘ मैं ‘ का अस्तित्व, ‘ मैं ‘ वह हूं जैसा होता है, और दूसरी तरह के ‘ मैं ‘ का अस्तित्व—’ मैं तू हूं ‘ जैसा होता है। जब तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करते हो तो तुम्हारे अंदर एक दूसरी तरह के ‘ मैं ‘ का जन्म होता है।’ मैं तू हूं।’ तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो, तुम वह व्यक्ति ही बन जाते हो।

लेकिन ‘ स्वप्रेम ‘ के बारे में मैं क्या होता है? वहां कोई वस्तु नहीं है और वहां कोई दूसरा व्यक्ति ‘ तू ‘ नहीं है। मैं विसर्जित हो जाता है, क्योंकि ‘ मैं ‘ केवल दो संदर्भों में रहता है _ ‘ वह वस्तु ‘ और दूसरा व्यक्ति या तू ‘ मैं ‘ एक आकृति है।’ वह वस्तु ‘ और ‘ तू ‘ एक क्षेत्र की तरह कार्य करते हैं। जब यह क्षेत्र मिट जाता है तो ‘ मैं ‘ भी मिट जाता है। जब तुम अकेले छोड़ दिए जाते हो, तो बस तुम ही होते हो, लेकिन तुम्हारा ‘ मैं ‘ तुम्हारे साथ नहीं होता, तुम किसी भी ‘ मैं ‘ का अनुभव नहीं करते। तुम बस गहरे में होते, मात्र हो। सामान्यत हम कहते हैं’‘ मैं हूं ‘ उस स्थिति में जब तुम अपने स्वयं के गहरे प्रेम में होते हो, मैं विसर्जित हो जाता है। केवल ‘ होना मात्र ‘, शुद्ध अस्तित्व या शुद्ध उपस्थिति मात्र रह जाती है। यह स्थिति तुम्हें अत्यधिक आनंद से भर देगी। यह तुम्हें उत्सव आनंदमय बना देगी। तब वहां इन दोनों के बीच अंतर कर पहचानने में कोई समस्या नहीं होगी।

यदि तुम अधिक से अधिक कष्ट पा रहे हो और दुखी हो तो समझ लो कि तुम अहंकार की यात्रा पर हो। यदि तुम अधिक से अधिक शांत, मौन, प्रसन्न और सभी को साथ लेकर चल रहे हो, तो तुम किसी और ही यात्रा पर हो, और वह यात्रा पथ है—’ स्वप्रेम ‘ का। यदि तुम अहंकार की यात्रा पर हो तो तुम दूसरों के लिए विध्वंसात्मक होंगे क्योंकि अहंकार दूसरे को ‘ तू ‘ को नष्ट करने की कोशिश करता है। यदि तुम स्वप्रेम की ओर बढ़ रहे हो, तो अहंकार लुप्त हो जाएगा। और जब अहंकार विसर्जित होता है तो तुम दूसरे को अनुमति देते हो कि वह अपने ‘ स्व ‘ में जी सके। तुम उसे पूर्ण स्वतंत्रता देते हो। यदि तुम्हारे अंदर अंहकार नहीं है, तो तुम दूसरे के लिए जिसे तुम प्रेम करते हो, तुम पिंजरा बनाकर उसमें बंदी बनाकर नहीं रख सकते। तुम दूसरे को अनुमति देते हो कि वह एक गरुड़ पक्षी बनकर उड़ते हुए स्वर्ग की ऊंचाईयों तक पहुंचे। तुम दूसरे को अनुमति देते हो कि वह स्वयं अपने छंद से जी सके, तुम उसे परिपूर्ण स्वतंत्रता देते हो।

प्रेम पूरी स्वतंत्रता देता है। प्रेम एक स्वतंत्रता ही है। तुम्हारे लिए भी स्वतंत्रता और तुम्हारे अपने प्रेमपात्र के लिए भी स्वतंत्रता। अहंकार एक बंधन है तुम्हारे लिए भी बंधन और बंधन उसके लिए भी जो तुम्हारा शिकार है। लेकिन अहंकार तुम्हारे साथ बहुत गहरी चालें चल सकता है। वह बहुत चतुर है, और उसके रास्ते बहुत सूक्ष्म है। वह स्वप्रेम में होने का बहाने बना सकता है।

 

मैं तुम्हें एक प्रसंग के बारे में बताना चाहता हूं। मुल्ला नसरुद्दीन ने जैसे ही उस व्यक्ति को पहचाना, जो मेट्रो रेलमार्ग की सीढ़ियां चढ़ता हुआ उसकी ओर चला आ रहा था, वैसे ही उसका चेहरा चमक उठा।

उसने बहुत हार्दिकता से उसकी पीठ पर ऐसी धौल जमाई और वह व्यक्ति नीचे गिर पड़ा। मुल्ला हर्ष से चिल्लता हुआ बोला—’‘ गोल्डबर्ग! मैं तुम्हें बहुत मुश्किल से पहचान सका। जब मैंने तुम्हें पिछली बार देखा था तब से तुमने अपना तीस पौंड वजन क्यों बढ़ा लिया है? और तुम्हारी नाक ने भी मुझे द्विविधा में डाल दिया, और मैं कसम खाकर कहता हूं कि तुम पहले से दो फीट लम्बे भी हो गए हो।’’

वह मनुष्य उसकी ओर क्रोध से देखता हुआ बहुत ठंडी आवाज में बोला— ” लेकिन मैं गोल्डबर्ग हूं ही नहीं।’’

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा—’‘ आहा! तो तुमने अब अपना नाम भी बदल लिया है?”

 

अहंकार बहुत चतुर होता है, अपने आप को पूरी तरह न्यायसंगत ठहराता है। यदि तुम बहुत अधिक सजग नहीं हो, तो वह अपने आपको अपने स्वप्रेम के पीछे छिपा सकता है। यह’ शब्द ‘ स्व ‘ ही उसके लिए सुरक्षा—कवच बन जायेगा। वह कह सकता है—मैं ही तुम्हारा घनिष्ट मित्र हूं। वह उसका वजन बदल सकता है, वह उसकी ऊंचाई बदल सकता है और वह उसका नाम भी बदल सकता है। और क्योंकि वह केवल एक विचार है, उस बारे में उसके लिए कोई समस्या ही नहीं। वह छोटा भी बन सकता है और बड़ा भी बन सकता है। वह केवल तुम्हारी कल्पना मात्र है।

बहुत अधिक सावधान रहो। यदि तुम वास्तव में प्रेम में विकसित होना चाहते हो, तो बहुत अधिक सावधानी की जरूरत होगी। प्रत्येक कदम बहुत गहरी सजगता के साथ उठाने की जरूरत होगी, जिससे अहंकार कोई छिद्र पाकर अपने को उसके पीछे छिपा न सके।

तुम्हारा सच्चा और वास्तविक आत्म या ‘ स्व ‘ न तो ‘ मैं ‘ है और न ‘ तू ‘, वह न तो ‘ तुम ‘ है और न अन्य दूसरा ही। तुम्हारा वास्तविक ‘ आत्म ‘ तो पूरी तरह सभी का अतिक्रमण कर सभी के पार है। जिसे तुम ‘ मैं ‘ कहते हो, वह तुम्हारा असली आत्म नहीं है।’ मैं ‘ तो वास्तविकता पर आरोपित है। जब तुम किसी व्यक्ति को ‘ तुम ‘ कहते हो, तो तुम उस दूसरे व्यक्ति के असली आत्म को सम्बोधित नहीं कर रहे हो। तुमने फिर उसके ऊपर एक लेबिल लगा दिया है। जब लगाये गये सभी लेबिल हटा दिए जाते हैं, तभी असली आत्म बचता है और यह असली आत्म जितना अधिक तुम्हारा है, उतना ही वह दूसरों का भी है। असली आत्म तो एक ही है।

यही कारण है कि हम यह कहे चले जाते हैं कि हम एक दूसरे के अस्तित्व के लिए सम्मिलित होकर कार्य करते हैं। हम हर दूसरे के साथ एक ही समाज के सदस्य हैं। हमारी असली वास्तविकता और सत्य हमारे अंदर का परमात्मा है। हम सभी सागर में तैरते हुए हिमखण्डों जैसे हैं, जो सभी अलग— अलग दिखाई देते हैं। लेकिन जब हम पिघलेंगे तो कुछ भी नहीं बचेगा। परिभाषाएं खो जायेंगी, सीमाएं विलुप्त हो जायेंगी और वे बर्फ के तैरने हिमखण्ड फिर वहां नहीं होंगे, वे सभी पिघल कर सागर का ही भाग बन जाएंगे।

अहंकार ही वह हिमखण्ड है। उसे पिघलने दो। वह गहरे प्रेम में ही पिघलता है और विलुप्त हो जाता है और तुम अस्तित्व सागर के एक भाग बन जाते हो। मैंने सुना है:

 

वह न्यायाधीश बहुत कठोर दिखाई देता था।

उसने मुल्ला से कहा—’‘ तुम्हारी पत्नी कहती है कि तुमने बेस बॉल के बल्ले से प्रहार किया और उसे उछालते हुए सीढ़ियों के नीचे फेंक दिया है। तुम इस सम्बंध में अपने बारे में क्या कहना चाहते हो?”

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने हाथ से अपन नाक को एक ओर से दबाते हुए जैसे ध्यान किया और अंत में उत्तर दिया—’‘ श्रीमान! मेरे अनुमान मे इस मामले के तीन पहलू हैं—मेरी पत्नी की कहानी, मेरी कहानी और सत्य।’’

” हां! वह पूरी तरह ठीक ही कह रहा है।’’

” आपने वास्तविक यथार्थ के दो पहलुओं के बारे में ही सुना होगा।’’ उसने कहा—’‘ वहां उसके तीन आयाम होते हैं।’’ और वह बिलकुल ठीक कह रहा है। वहां तुम्हारी कहानी है मेरी कहानी है और वास्तविक यथार्थ है, मैं और तुम और वास्तविक सच्चाई।

सत्य कभी भी न तो ‘ मैं ‘ होता है, और न ‘ तू ‘। सत्य के अनंत विस्तार में ‘ मैं ‘, और ‘ तू ‘ तो आरोपण हैं।’ मैं ‘ नकली है, ‘ तू ‘ भी नकली हैं। इनकी उपयोगिता है संसार में, ये उपयोगी हैं। बिना ‘ मैं ‘ और ‘ तू ‘ के संसार में व्यवस्था करना कठिन हो जायेगा। वे अच्छे हैं, ठीक है, उनका उपयोग करो लेकिन वे संसार में काम चलाने के लिए केवल साधन हैं। वास्तविकता और सत्य में वहां न तो ‘ तू ‘ होता है। और न ‘ मैं ‘। वहां कोई चीज कोई व्यक्ति या कोई ऊर्जा होती है अस्तित्व में, जिसकी कोई सीमाएं और सरहदें नहीं होतीं। हम सभी वहीं से आते हैं और उसी के अंदर विलुप्त हो जाते हैं।

 

छठा प्रश्न :

 

प्यारे ओशो! कभी—कभी प्रेम जैसी भावना मेरे हृदय में भी उठती है? लेकिन तुरंत ही अगले ही क्षण मुझे ऐसा लगना शुरू होने लगता है कि यह प्रेम नहीं है? कम से कम यह तो प्रेम नहीं ही है, यह सभी कुछ सेक्स के लिए मेरी छिपी हुई आकांक्षा ही है।

खिर इसमें गलत क्या है? वासना ही से तो प्रेम का जन्म होता है। यदि तुम वासना से बचोगे, तो तुम स्वयं प्रेम की पूरी सम्भावना को टाल दोगे। प्रेम वासना नहीं है, यह सच है। लेकिन प्रेम, बिना वासना के भी नही होता—यह भी तो सत्य है। प्रेम, वासना का उच्चतम तल है, लेकिन यदि तुम वासना को पूरी तरह मिटा दोगे, तो तुम कीचड़ से कवल उत्पन्न होने की सम्भावना को ही नष्ट कर दोगे। प्रेम, कमल का पुष्प है और वासना कीचड़ है, कमल, कीचड़ से ही उत्पन्न होता है।

इसे स्मरण रखें, अन्यथा तुम कभी भी प्रेम को उपलब्ध न हो सकोगे। अधिक से अधिक तुम यह बहाना बना सकते हो कि तुमने वासना का अतिक्रमण कर लिया है। पर कोई भी व्यक्ति बिना प्रेम के वासना का अतिक्रमण नहीं कर सकता। तुम उसका दमन कर सकते हो। दमन करने से वह अधिक विषैला हो जाता है। वह तुम्हारे पूरे अस्तित्व में फैल जाता है, वह जहरीला बन जाता है और तुम्हें बरबाद कर देता है। वासना ही प्रेम में रूपांतरित होकर तुम्हें दीप्तिवान बनाती है। तुम्हें चमकाती है। तुम भारहीन होकर एक प्रकाश का अनुभव करना शुरू कर देते हो। जैसे तुम उड़ सकते हो। तुम्हें पंख लगने जैसी अनुभूति होना शुरू हो जाती है। जब कि दमित वासना के साथ तुम जैसे वजनी बन जाते हो, जैसे मानो तुम एक बोझ या भारी भार लिए हुए चल रहे हो जैसे मानो एक बड़ी चट्टान तुम्हारी गर्दन के चारों ओर लटकी हुई है। दमित वासना के साथ तुम आकाश में उड़ने के सभी अवसर खो देते हो। वासना का प्रेम में रूपांतरण होते ही जैसे तुम अस्तित्व द्वारा ली गई परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हो। तुम्हें जैसे कार्य करने के लिए ही अस्तित्व द्वारा एक कच्चा पदार्थ दिया गया है, जिससे तुम सृजनात्मक बनो, और वासना ही वह कच्चा पदार्थ है।

 

मैंने सुना है:

बरकोवित्व और माइकलसन जो केवल व्यापारिक—साझीदार ही नहीं, बल्कि जीवन पर्यंत के लिए एक दूसरे के मित्र भी थे, उन दोनों ने आपस में करार किया उनमें से जो भी पहले मर जाएगा, वह वापस लौटकर दूसरे को यह बतायेगा कि स्वर्ग जैसा अनुभव होता क्या है।

छ: महीने बाद बरकोवित्व की मृत्यु हुई। वह संत जैसा बहुत नैतिक व्यक्ति था, एक कट्टर धार्मिक व्यक्ति, जिसने कभी भी कोई गलत कार्य कभी किया ही नहीं था, जो हमेशा सेक्स और वासना से भयभीत रहता था। माइकलसन ने अपने से अलग हुए अपने प्यारे पवित्र मित्र की ओर से कुछ ऐसे संकेत पाने की प्रतीक्षा की, जिससे वह अपने पृथ्वी पर लौटने को प्रकट करे। माइकलसन ने बरकोवित्व की ओर से संदेश पाने की आतुरता और बैचेनी से प्रतीक्षा करते हुए वह समय गुजारा। तब अपनी मृत्यु के एक वर्ष बाद बरकोवित्व ने माइकलसन को अपना संदेश दिया। रात काफी गुजर चुकी थी और माइकलसन अपने बिस्तरे पर लेटा हुआ था तभी बरकोवित्स की आवाज गंजी— ” माइकलसन! माइकलसन!”

” क्या यह तुम बोल रहे हो बरकोवित्व?”

” हां! ”

” तुम कैसे हो? कहां से बोल रहे हो?”

” हम नाश्ता करते हैं, उसके बाद हम प्रेम करते हैं, फिर हम लंच लेते हैं उसके बाद हम फिर प्रेम करते हैं और तब डिनर लेने के बाद भी हम प्रेम करते हैं।’’

” क्या यह वही है स्वर्ग जैसा?” माइकलसन ने पूछा।

” स्वर्ग के बारे में कौन बता रहा है यह सब कुछ?” बरकोविल्ल ने कहा— ” मैं तो बिस्कोनसिन में हूं और मैं एक सांड हूं।’’

 

याद रखें, यह सब कुछ उन लोगों के साथ घटता है, जो सेक्स का दमन करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ और घट ही नहीं सकता क्योंकि पूरी दमित ऊर्जा एक बोझ बन जाती है, जो तुम्हें नीचे की ओर खींचती है। तुम अपने अस्तित्व के निम्न धरातल की ओर गतिशील होते हो। यदि प्रेम का जन्म वासना से हुआ है, तो तुम अपने अस्तित्व के उच्चतम तल की ओर उठना शुरू हो जाते हो।

इसलिए स्मरण रहे, तुम क्या बनना चाहते हो—एक बुद्ध अथवा एक सांड— यह सब कछ तुम्हीं पर निर्भर है। यदि तुम एक बुद्ध बनना चाहते हो, तो सेक्स से कभी भयभीत नहीं होना है। उसमें उतरो, उसे भली भांति जानो, उसके बारे में अधिक से अधिक सजग बनो। सावधान रहो, क्योंकि यह अत्यधिक मूल्यवान ऊर्जा है। इसे एक ध्यान बनाओ, और इसे रूपांतरित करो, धीमे— धीमे यही प्रेम बन जाती है। यह कच्चे माल की तरह है, खदान से निकले हीरे की तरह है, तुम्हें इसे काटना है, इस पर पालिश करनी है। तब यह अत्यधिक मूल्यवान बन जाता है। यदि कोई भी व्यक्ति तुम्हें बिना पालिश किया हुआ बिना तराशा, खदान से निकला हीरा देता है तो तुम उसे पहचान भी नहीं सकते कि वह एक हीरा हैं। यहां तक कि कोहिनूर भी खदान से निकलने पर कच्चे पदार्थ के रूप में बदशक्ल था। वासना ही वह कोहिनूर है, जिसे तराशकर उस पर पालिश की जानी है, यह बात भली भांति समझने जैसी है।

प्रश्नकर्त्ता भयभीत और विरोधी सिद्धांत से आक्रांत प्रतीत होता है। तभी वह कहता है—’‘ यह सभी कुछ सेक्स के लिए मेरी छिपी हुई आकांक्षा ही है।’’ उसके प्रति उसमें निंदा का भाव है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, मनुष्य एक कामुक पशु है। हम सब लोग ऐसे ही हैं। यही है वह जीवन का रास्ता, हमारे यहां होने का यही अर्थ है। इसी रास्ते से होकर ही हम सभी को अपने यहां पाते हैं।

उसके अंदर उतरो। बिना उसमें जाये हुए तुम कभी भी उसे रूपांतरित करने में समर्थ न हो सकोगे। मैं केवल वासना की तुष्टि की बात नहीं कह रहा हूं। मैं उसमें गति करते हुए गहरे ध्यान के साथ उस ऊर्जा को समझने के बाबत कह रहा हूं कि उसे जानो कि वह है क्या उसे कुछ ऐसी मूल्यवान चीज जरूर होना ही चाहिए क्योंकि तुम सभी का जन्म उसी ऊर्जा से हुआ है, क्योंकि पूरा अस्तित्व उसका आनंद ले रहा है, क्योंकि पूरा का पूरा अस्तित्व ही कामवासना से भरा हुआ है। परमात्मा ने इस संसार में बने रहने के लिए सेक्स का ही मार्ग चुना है। भले ही ईसाई कितना भी क्यों न कहे चले जायें कि जीसस एक कुंवारी स्त्री से उत्पन्न हुए थे। यह सभी मूर्खतापूर्ण बात है। वे केवल बहाने गढ़ते हैं कि जीसस के जन्म में काम क्रीड़ा या सेक्स नहीं हुआ। वे लोग सेक्स से इतने अधिक भयभीत हैं कि वे इसी तरह की बेवकूफी की कहानियां गढ़ते हैं कि जीसस का जन्म कुंवारी मेरी से हुआ। मेरी बहुत ही पावन और पवित्र स्त्री जरूर रही होगी, यह सभी सच है कि वह जरूर ही आत्मिक रूप से कुंवारी ही रही होगी। लेकिन बिना सेक्स ऊर्जा से गुजरे हुए जीवन में प्रवेश करने का अन्य कोई रास्ता है ही नहीं। शरीर कोई दूसरा नियम जानता ही नहीं। और प्रकृति में सभी कुछ सम्मिलित है, वह अपवादों में कोई विश्वास नहीं करती, वह अपवादों को स्वीकारती ही नहीं। सेक्स के द्वारा ही तुम्हारा जन्म हुआ है और तुम सेक्स ऊर्जा से लबालब भरे हुए हो। लेकिन यह उसका अंत नहीं है, यह उसकी शुरुआत हो सकती है। सेक्स एक प्रारम्भ है, लेकिन वह अंत नहीं है।

यहां तीन तरह के लोग होते हैं। एक तरह के व्यक्ति सोचते हैं कि सेक्स पर ही सब कुछ समाप्त हो जाता है। यह ऐसे लोग हैं जो अपनी इच्छाओं को तुष्ट करते हुए जीते हैं। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि सेक्स प्रारम्भ तो है पर अंत नहीं है। तब यहां ऐसे लोग हैं जो इच्छाओं को तुष्ट करने के विरोध में है। ये लोग दूसरे विपरीत ध्रुव या अति पर चले गए हैं। ये लोग प्रारम्भ में भी सेक्स नहीं चाहते, इसलिए वे उससे कटना शुरू हो जाते हैं। उससे कटकर दूर होकर वे स्वयं को घायल कर लेते हैं, बरबाद कर लेते हैं। अपने आप नष्ट करके वे मुरझा कर सूख जाते हैं। ये दोनों ही व्यवहार मूर्खतापूर्ण है।

यहां एक तीसरी भी संभावना है, वह संभावना है उन प्रज्ञावान लोगों की जो जीवन को ध्यान से देखते हैं, जिनके पास जीवन पर बलात् थोपने के लिए कोई सिद्धांत नहीं होते, जो केवल उसे समझने का प्रयास करते हैं। वे समझ कर यह देख पाते हैं कि सेक्स प्रारम्भ तो है, लेकिन वह अंत नहीं है। सेक्स केवल विकसित होकर उसके पार जाने का एक अवसर है, लेकिन उसे उसके द्वारा गुजरना ही होता

 

अंतिम प्रश्न :

 

प्यारे ओशो! पहले मैं सोचा करता था कि मैं जानता है कि समर्पण क्या होता है, अब मैं उसे समझ रहा हूं, कि वह सम्बंधों को जोड़ने के लिए मन की एक राजनैतिक खेल भरी यात्रा थी। अब यहां उसके खड़े रहने के लिए कोई स्थान ही नहीं है, लेकिन जहां मैं हूं अब मुझ पर चारों से परमानंद बरस कर मुझमें प्रविष्‍ट हो रहा हो आपने मेरी दिशा मोड़कर मुझे स्वयं का स्वाद दे दिया, बहुत बहुत धन्यवाद।

ह बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है कि यह बात तुम्हारी समझ में आ गई कि समर्पण क्या होता है। यह सभी कुंजियों में से एक कुंजी है, लेकिन लोग इसका प्रयोग करने से बहुत डरते हैं क्योंकि यदि तुम समर्पण करते हो, सारे अवरोध हटा कर मिट जाते हो, पूरी तरह खो ही जाते हो, तो वह मृत्यु जैसा होता है। यह कुछ ऐसा होता है, जैसे मानो किसी ने आत्मघात कर लिया हो। इसलिए लोग दूसरी चीजें किए चले जाते हैं और वे उसे समर्पण कहते हैं।

इसकी एक झलक पाकर और उसे समझ लेने के बाद कि तुम अभी तक समर्पण के बारे में जो भी सोचा करते थे वह असली चीज नहीं है। यह रूपांतरण की ओर उठा हुआ बहुत बड़ा कदम है। एक बार तुमने नकली चीज का नकली होना समझ लिया, तुम असली चीज को असली जानने में समर्थ हो गए हो। नकली चीज को नकली समझना ही, असली को असली समझने की शुरुआत है। छो का पर्दाफाश होना ही चाहिए। एक बार झूठ या असत्य प्रकट हो जाता है, तो नग्न सत्य निरावरण, प्रकट हो जाता है।

 

आज बस इतना ही।

 

(समाप्‍त)


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कोपलें फिर फूट आईं–(प्रवचन–01)

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आत्‍मा की अग्‍नि—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 31 जुलाई, 1986,

  1. 30 अपराहन, सुमिला, जुहू, बंबई।

प्रश्‍नसार:

1— भगवान, आप कैसे हैं?

2—मुझे मार्ग दीजिए!

3—यह पूछना है, आपने अभी कहा कि हम नासमझ है। आप हमें ऐसा क्‍यों नहीं कहते कि तुम नासमझ हो?…..आप कहते है हम नासमझ है…..।

4—आप कहते है कि पूरब में ही धर्म फलित होता है।….

5—इस देश में बहुत से झूठे धर्म पैदा हो रहे है, जिनमें अधर्म फैल रहा है। ऐसे समय में हमारा क्‍या कर्तव्‍य है? कृपया मार्गदर्शन दे।

 

प्रश्न: भगवान, आप कैसे हैं?

मैं तो वैसा ही हूं। और तुम भी वैसे ही हो। जो बदल जाता है वह हमारा असली चेहरा नहीं है। वह हमारी आत्मा नहीं है। जो नहीं बदलता, न जीवन में न मृत्यु में, वही हमारा यथार्थ है। हम लोगों से पूछते हैं, कैसे हो। नहीं पूछना चाहिए। क्योंकि हमने स्वीकार ही कर लिया पूछने में…बदलाहट को, परिवर्तन को, बचपन को, जवानी को, बुढ़ापे को, जीवन को, मौत को।

कुछ है तुम्हारे भीतर जिसका तुम्हें भी पता है। बचपन में भी यही था और नहीं जन्में थे तब भी यही था। गंगा में बहुत जल बहता गया लेकिन तुम किनारे खड़े हो और वही हो। तुम दिखाई भी न पड़ोगे कल तो कभी वही होगे। नए होंगे रूप, नयी आकृतियां, शायद तुम अपने को भी पहचान पाओ। नए हों नाम, नया होगा परिचय, नया होगा वेष, फिर भी मैं कहता हूं तुम वही होओगे। तुम सदा से वही हो और तुम सदा परिचय, नया होगा वेष, फिर भी मैं कहता हूं तुम वही होओगे। तुम सदा से वही हो और तुम सदा वही रहोगे। इस सदा सनातन, शाश्वत को चाहो तो ईश्वर कहो, चाहो तो तुम्हारी सत्ता कहो। इस पर बहुत लहरें आती और जाती है, पर समंदर वही है।

बदलाहट झूठ है। लेकिन हमने बदलाहट को सच माना हुआ है और उसे संसार बना लिया है। काश हम समझ सकें कि बदलाहट झूठ है तो चोर और साधु में कोई फर्क न रह जाए, क्योंकि दोनों के भीतर जो है वह न तो चोर है और न साधु है, तो हिंदू और मुसलमान में कोई फर्क न रह जाए। उनकी भाषाएं अलग होंगी लेकिन उनकी भाषाओं के भीतर छिपा एक साक्षी भी है। कृत्य अलग होंगे, लेकिन उन कृत्यों के पीछे छिपा भी कुछ है, जो सदा वही है। और उस सनातन की तलाश ही धर्म है।

पूछना चाहिए लोगो से, बदले तो नहीं हो? मगर उलटा है संसार, उल्टे हैं उसके नियम, ऊलजलूल हैं उसकी बातों। और चूंकि भीड़ उनको मान कर चलती है, दूसरे भी उनको स्वीकार कर लेते हैं। अपने चेहरे को तुम देखते हो दर्पण में तो सोचते हो तुमने अपने को देख लिया। काश, इतना आसान होता तो सभी को आत्मदर्शन हो गया होता। सुनते हो अपना नमा तो सोचते हो तुम्हें अपना नाम पता है। बात इतनी सस्ती होती तो दुनिया मग धर्म की कोई जरूरत न थी। वह नाम तुम्हारा नहीं है, उधार है और बासा है। आए थे तुम बिना नाम के और जाओगे तुम बिना नाक के।

हम जब मुर्दे को ले जाते हैं मरघट की तरफ तो कहते हैं: राम नाम सत्य है। उस आदमी का नाम जो मर गया कोई नहीं कहता और जिंदगी भर वही सच था, आज अचानक झूठ हो गया। पैदा हुआ तब बिना नाम के हुआ था और मरा है तो राम के नाम को सच कर गया और अपने नाम को झूठ कर गया गया। जिंदगी भर राम नाम सत्य है और हर पल, हर घड़ी आदमी अर्थी पर सवार है। किसी भी पल तुम्हारी यात्रा मरघट की तरफ शुरू हो सकती है।

अंग्रेजी में कहावत है: मत पूछो कि चर्च की घंटियां किसके लिए बजती हैं। क्योंकि जब कोई मरता है तो चर्च की घंटियां बजती हैं पूरे गांव को खबर देने को। कहावत है कि मत पूछो कि घंटियां किसके लिए बजती हैं। घंटियां सदा तुम्हारे लिए बजती हैं, मरता कोई भी हो। अर्थी हमेशा तुम्हारी निकलती है, भला अर्थी लेकर ही तुम क्यों न चल पड़े होओ। अर्थी पर जलती हुई लाश तुम्हारी होती है, भला अर्थी को आग तुमने क्यों न दी हो।

जीवन की सबसे बड़ी दुविधा यही है कि हमने उसमें बदलते हुए को सच मान लिया है और ठहरा जुआ है उसे बिलकुल भूल गए हैं।

मैं तो वही हूं। और होने का उपाय नहीं है। चाहो भी तो कुछ और हो नहीं सकते हो। जिंदगी भर कोशिश तो करते हो कुछ हो जाने की। सारी महत्वाकांक्षाएं, सारी दौड़—धूप एक ही तो है कि कुछ हो जाऊं। और सार जीवन का दुर्भाग्य क्या है? कि कोई भी कुछ नहीं हो पाता। और आश्चर्य कि तुम जो थे सदा थे, कितने ही भागे, कितने ही दौड़े, फिर भी वही रहे। लेकिन अंतिम समय तक भी लोगों को इसका होश नहीं आता। जिस दिन इस बात का होश जाए कि मुझे कुछ होना नहीं है, मुझे सिर्फ उसे खोज लेना है जो मैं हूं—तुम्हारे जीवन में क्रांति का क्षण आ गया; तुम्हारे जीवन में परमात्मा की घड़ी आ गई; तुम मंदिर के द्वार आ गए, अब तुम्हारी अर्थी नहीं उठ सकती; अब तुम्हारा नाम नहीं बदल सकता। अब सदियां आएंगी और जाएंगी, तारे ऊगेंगे और डूबेंगे, लेकिन तुम्हारा होना उस जगह पहुंच गया जहां सब थिर है, सब शांत है, सब मौन है, कोई हलचल नहीं, कोई लहर नहीं, कोई तरंग नहीं। इस निस्तरंग संगीत का नाम समाधि है इस शून्य हो जाने का नाम सत्य हो जाना है।

मेरे पास लोग आते हैं कुछ होने के लिए और मेरी मुसीबत है कि मैं उन्हें मिटाना चाहता हूं ताकि वे वही बच रहें जो हैं। वह अस्तित्व का दान है। और जो हम बना लेते हैं वे रेते पर बनाए हुए घरौंदे हैं: हवा का जरा सा झोंका और घर गिर जाते हैं। पानी पर खींची गई लकीरें हैं: तुम बना भी नहीं पाते और मिट जाती हैं। मगर तुम बनाए चले जाते हो। तुम लौटकर भी नहीं देखते कि तुम्हारा बनाया सब मिट जाता है, सब खो जाता है।

और एक बार नहीं हजार बार, और एक जन्म में नहीं हजारों जन्मों में तुमने यही किया है। कब तक यही करोगे? भूल कोई एक बार करे, क्षम्य है; दुबारा, अक्षम्य हो जाती है। मगर हम तो हजारों बार कर चुके हैं। अब तो हम भूल ही करना जानते हैं। अब तो हम भूल के ही चक्र में घूमना जानते हैं। और इतनी भूलें और ऐसी भीड़ भूलों की कि उसमें जो खो जाता है वह तुम्हारा असली अस्तित्व था।

जिस दिन से मैंने अपने को पहचाना है, उस दिन से कोई परिवर्तन नहीं पाया है। सब बदल गया है, रोज बदलता जाएगा, लेकिन भीतर कोई चुपचाप खड़ा—स्वास्थ्य में और बीमारी में, सफलता में और असफलता में—बिलकुल वही है।

अमरीका की जेलों में मुझे बहुत सारे अनुभव हुए जो शायद जले के बाहर नहीं भी होते, क्योंकि करीब—करीब पांच जेलों में मुझे रखा गया—बिना कारण, बिना किसी जुर्म के। लेकिन शायद मैं गलत हूं, मैं जिसे जुर्म नहीं समझता हूं वे उसे जुर्म समझते हैं। सोचना जुर्म है, शांत होना जुर्म है, मौन जुर्म है, ध्यान जुर्म है। सत्य शायद इस दुनिया में सब से बड़ा पाप है। वे उसकी ही मुझे सजा दे रहे थे। लेकिन उनकी तकलीफ यह थी जो कि हर जेलर ने मुझे अपनी जेल से छोड़ते वक्त कही कि हजारों कैदी हमारी जेल से गुजरे हैं लेकिन एक बात जिसने हमें सोने नहीं दिया वह यह कि हम तुम्हें सता रहे हैं और तुम मजा ले रहे हो। मैंने उनसे कहा कि तुम्हारी समझ के बाहर है क्योंकि तुम जिसे सता रहे हो वह मैं नहीं हूं और जो मजा ले रहा है वह मैं हूं। मैं देख रहा हूं नाटक को जो मेरे चारों तरफ चल रहा है। और जब जेल के बाहर पत्रकार मुझसे पूछते कि आप कैसे हैं तो मैं उनसे कहता कि ठीक वैसा जैसा हमेशा से था, तो अमरीकी पत्रकार की समझ के बाहर था। वह कहता कि जेल में और जेल के बाहर आपको कोई फर्क समझ मग नहीं आता? मैं उनसे कहता जेल में और जेल के बाहर तो बहुत फर्क है मगर तुमने कुछ और पूछा था। तुमने मेरे बाबत पूछा था, जेल की बाबत नहीं पूछा था। जेल के भीतर और जेल के बाहर मैं वही हूं। जेल में फर्क है और जेल के बाहर फर्क है। हथकड़ियों में बंधा हुआ भी मैं वही हूं। और हथकड़ियों से छूट जाऊंगा तो भी वही हूं। हथकड़ियां मुझे कैसे बदल सकती हैं? और जल की दीवारें मुझे कैसे बदल सकती हैं?

आखिरी जेल से निकलते वक्त उस जेल के प्रधान ने मुझसे कहा कि यह मेरे जीवन का अनूठा अनुभव है। मैंने जल में लोगों को प्रसन्न तो आते देखा है, प्रसन्न जाते नहीं देखा। तुम जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हो। राज क्या है?

मैंने कहा: वही तो मेरा जुर्म है कि मैं लोगो को वही रात समझा रहा था। तुम्हारी सरकार और दुनिया की कोई सरकार नहीं चाहती कि वह राज लोग समझ जाए। क्योंकि उस राज के समझते ही सरकारों की सारी ताकतें तुम्हारे ऊपर से समाप्त हो जाती हैं। जेल बेकार हो जाती है, बंदूकें बेमानी हो जाती हैं, बिना चले हुए कारतूस चले हुए कारतूस हो जाते हैं। आग फिर तुम्हें जलाती नहीं और तलवार फिर तुम्हें काटती नहीं। इसलिए जो लोग तलवार और आग के ऊपर तुम्हारी छाती पर सवार हैं वे नहीं चाहते कि तुम पहचान सको कि तुम कौन हो। उनकी सारी ताकत नष्ट हो जाती है। तुम्हारी पहचान उनकी मौत है। और यह आश्चर्यजनक नहीं है कि सदियों में जब भी कभी किसी आदमी ने तुम्हें तुम्हारी याद दिलाने की कोशिश की है तो सरकार आड़े आ गई है। न्यस्त स्वार्थ आड़े आ गए हैं।

सुकरात को जहर देते वक्त जो जुर्म उसके ऊपर आरोपित किए गए थे, वे जुर्म थे कि वह लोगों को अनैतिक होना सिखा रहा है। वह केवल लोगों को यही सिखा रहा था कि तुम कौन हो। लेकिन नीति के ठेकेदारों का लगता था कि अगर लोग जान लें कि वे कौन हैं तो फिर उनकी ठेकेदारी का क्या होगा।

तो मत किसी से पूछना कभी कि तुम कैसे हो। यही पूछना कि पहचान पाए अभी तक उसको या नहीं जो कभी नहीं बदलता। और ऐसे लोगों की संख्या बढ़ानी है दुनिया में जो कभी नहीं बदलते। वे ही नमक हैं इस जमीन के। वे ही सारभूत हैं। उनको होना ही सार्थक है। उन्होंने ही अस्तित्व के ऋण को चुका दिया है जिन्होंने अस्तित्व को पहचान लिया है।

कोई भी प्रश्न हों…हूं…हूं…सभी प्रश्न नासमझी के होते हैं इसलिए झिझक न करना। समझदारी का तो कोई प्रश्न होता ही नहीं। लेकिन नासमझी के प्रश्न पूछते—पूछते आदमी समझदार हो जाता है।

 

प्रश्‍न: भगवान श्री, मुझे मार्गदर्शन दीजिए…(हंसी की लहरें…)

द्रा, थोड़ी तो नासमझी दिखा! (हंसी की लहर हूं…हूं…हूं…हूं…हूं…?)

 

प्रश्न: आप कहते हैं हम नासमझ हैं, हम बेहोश हैं। आप ऐसा कहिए कि तुम बेहोश हो, तुम नासमझ हो। अभी मौका आया है भगवान कि आप हमें भी तुम कह कर बुला सकते हो।

मैं समझा…मैं जानकर ही कहता हूं कि हम नासमझ हैं क्योंकि जैसे ही मैं अपने को तुमसे अलग करता हूं, तुम्हारा दुश्मन हो जाता हूं। और अभी जहर पीने की जल्दी नहीं है। और पागलों के बीच बेहतर है कि अपने को भी पागल समझो। मेरा धंधा थोड़ा कठिन धंधा है। यह अंधों की दुनिया में चश्मे बेचने का धंधा है। और अंधों से यह कहना कि मेरे पास आंखें हैं और तुम अंधे हो, खतरनाक है। अंधों की भीड़ है—अंधा धुंध भीड़ है! और कोई अंधा आदमी यह पसंद नहीं करता कि कोई अपने को आंख वाला कहें और उसको अंधा कहे, और जब कि उसका बहुमत है।

वैसा हुआ साउथ अमरीका के एक छोटे से पहाड़ी इलाके में तीन सौ लोगों का एक कबीला था इसी सदी के प्रारंभ में। यह ऐतिहासिक घटना है। वे तीन सौ ही आदमी अंधे थे। यह बहुत आश्चर्यजनक बात है। बच्चे आंख वाले पैदा होते थे लेकिन चार महीने के भीतर, छह महीने के भीतर अंधे हो जाते थे। उस इलाके में एक मक्खी है जिसके काटने से बच्चे अंधे हो जाते हैं। अगर छह महीने तक वह मक्खी बच्चों को न काटे तो उनकी आंखें बच सकती हैं, फिर वे मजबूत हो जाते हैं। छह महीने तक वे इतने कमजोर होते हैं कि मक्खी उनकी आंखों को नष्ट कर देती है। अगर वह मक्खी इतनी बड़ी तादाद में है उस घाटी में कि कोई बच्चा बच नहीं सकता।

एक वैज्ञानिक ने जब यह खबर सुनी तो वह खोज मग गया कि बात क्या है, क्योंकि तीन सौ आदमी पूरे अंधे हो यह अचंभा है। और उसने अध्ययन किया और देखा कि हर बच्चा आंख वाला पैदा होता है लेकिन जब तक वह आंख वाला होता है तब तक बोल नहीं सकता। और छह महीने लंबा समय है और मक्खी बहुतायत से है—आम, घर—घर में। तो छह महीने के भीतर वह उसे अंधा कर देती है। जब तक वह बोलने योग्य हो पाता है तब तक अंधा होता है। जब तक आंख होती है तब तक बोल नहीं सकता। इसलिए उस कबीले को पता ही नहीं है कि आंख जैसी कोई चीज होती है।

इस वैज्ञानिक युवक को भी मक्खी काटती थी लेकिन यह तो छह महीने से बहुत आगे जा चुका था। इस पर मक्खी के जहर को काई असर नहीं होता था। और इसने निर्णय किया कि किसी भी तरह इस मक्खी को नष्ट करना है। और वह चकित हुआ देखकर कि ये तीन सौ अंधे लोग बिना आंखों के भी काम चला लेते हैं। कठिनाई से और मुश्किल से। मगर अगर यही जिंदगी है तो किया भी क्या जा सकता है? हम सब भी यह कह रहे हैं। कि कितनी ही मुश्किल हो, कितनी परेशानी हो, कितनी ही झंझट हो, करें भी तो क्या करें? यही जिंदगी है। और चारों तरफ सभी लोग इसी जिंदगी में जी रहे हैं।

उस मक्खी का अध्ययन करते—करते उस युवक का मन एक अंधी युवती पर आ गया। सुंदर थी, सिर्फ आंख न थीं। उसने कबीले के प्रमुख से उस युवती से शादी करने की प्रार्थना की। और तुम जानते हो, कबीले के प्रमुख ने क्या कहा? कबीले के प्रमुख नग कहा पहले तुम यह भ्रम छोड़ दो कि तुम आंखवाले हो। क्योंकि यह बात न कभी देखी न कभी सुनी। ये झूठी बातें छोड़ दो। विवाह की आज्ञा मिल सकती है लेकिन एक ही शर्त पर कि हम जिन्हें तुम आंखें कहते हो उन्हें फोड़ देंगे। तुम अंधे होने को राजी हो, विवाह हो सकता है। तब तुम तो हमें माफ करो। तुम किसी और दुनिया के आदमी को, हमारी जाति के नहीं। कल सुबह अपना निर्णय बता देना।

रात भर वह सोचता रहा कि क्या करे। क्या आंखें गंवा दे? मगर इन्हीं आंखों के कारण तो उस स्त्री के सौंदर्य में वह दीवाना हुआ है। यह इन्हीं आंखों की देन तो है कि उसने सौंदर्य को देखा है। इन्हीं आंखों को गंवा दे तो वह स्त्री सुंदर है या कुरूप, क्या फर्क पड़ता है। और सुबह होने के पहले निर्णय करना है। ठीक सूरज ऊगने के पहले वह वहां से भाग खड़ा हुआ, जितनी तेजी से भाग सकता था। कबीला उसका पीछा कर रहा था कि पकड़ो उसे, वह भाग न जाए, क्योंकि वह बाहर जाकर लोगों को यह झूठी खबर देगा कि मैं आंखवाला हूं और दूसरे लोग अंधे हैं।

यह उस वैज्ञानिक ने ही दुनिया को खबर दी। दूसरे वैज्ञानिक गए और धीरे—धीरे मक्खी को समाप्त किया। अब बच्चे वहां भी आंखवाले हैं। वे तीन सौ लोग जो इस सदी के पहले चरण में अंधे थे, मर चुके, बूढ़े हो चुके, समाप्त हो चुके। अब वह कबीला विलीन हो गया। अब सब आंखवाले हैं।

लेकिन अंधों के बीच यह कहना कि मैं ही अकेला आंखवाला हूं और तुम सब अंधे हो अशोभनीय है, अशिष्ट है।

तुम्हारी बात मैंने समझी। लेकिन तुम भी मेरी बात समझो। मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम सोए हो तब भी साथ हूं, भला मैं जागा हुआ हूं। आखिर सोए हुए आदमी के साथ जागा हुआ आदमी भी तो बैठा हुआ हो सकता है। और सोए हुए आदमी में और जागे हुए आदमी में फर्क ही क्या होता है? बड़ा जरा सा फर्क होता है कि सोए हुए आदमी की आंख खुल जाए तो वह भी जाग जाए। लेकिन सोए हुए लोगों के बच रहकर यह बेहतर है कि तुम कम से कम यह ढोंग ही करते रहो कि तुम भी सोए हुए हो। नाहक उन्हें नाराज न करो। उनकी भीड़ है। उनका समाज है। उनकी दुनिया है। तुम अकेले हो। और सवाल इसका नहीं है। सवाल इसका है कि उन्हें जागना है। इसलिए दुश्मनी पैदा नहीं करनी है, दोस्ती पैदा करनी है। इसलिए नहीं कहता कि तुम अंधे हो। इसलिए कहता हूं कि हम अंधे हैं।

मगर वही कह सकता है कि हम अंधे हैं जिसके पा आंखें हों। अंधा आदमी तो यह भी नहीं कह सकता कि मैं अंधा हूं। तुमने कभी शायद इस पर सोचा भी न हो; या सोचा भी होगा तो गलत सोचा होगा। लोग समझते हैं कि अंधे आदमी को अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देता होगा। तुम गलती में हो। अंधे आदमी को अंधेरा भी दिखाई नहीं देता। अंधेरा देखने के लिए भी आंखें चाहिए। तुम आंख बंद करते हो तो तुम्हें अंधेरा भी दिखाई देता है क्योंकि तुम्हारे पास आंख है। रोशनी तुमने देखी है इसलिए अंधेरा भी दिखाई देता है। अंधे आदमी को कुछ भी दिखाई नहीं देता। उसके पास आंख ही नहीं है। न अंधेरा, न रोशनी। वह सहानुभूति का पात्र है। वह करुणा और प्रेम का पात्र है। उसे आहिस्ता—आहिस्ता जगाना है। उसकी आंखों पर ठंडे पानी के छींटे बहुत आहिस्ता—आहिस्ता फेंकने हैं। उसे नाराज नहीं कर देना है। और फर्क कुछ बड़ा नहीं है। सोया हुआ भी वह वही है जो तुम जागे हुए हो। सिर्फ आंख खुल गई और दुनिया बदल जाती है।

गौतम बुद्ध के जीवन में उन्होंने अपने पुराने जन्मों की बहुत सी कहानियां कही हैं। उनमें एक कहानी बहुत ही प्रीतिकर है। तब तक वे स्वयं जागे नहीं थे, बुद्ध नहीं हुए थे। लेकिन कोई बुद्ध हो गया था और उन्हें खबर मिली। वे उसके दर्शन को गए। उन्होंने झुककर उसके चरण छुए, जो कि पूरब की अदभुत देन है! पूरब ने बहुत कुछ दुनिया को दिया है जिसकी कोई कीमत नहीं करता। उस तरह के आदमी को यूनान में जहर दिया जाता है, जूदिया में फांसी पर लटकाया जाता है, अरब में टुकड़े—टुकड़े करके काट दिया जाता है हिंदुस्तान ने बहुत कुछ दुनिया को दिया है जो अदभुत है। यहां अंधे आदमी को भी इतनी सहनशीलता दी है कि वह आंखवाले के पैर छूने को राजी है और इसमें अपमान अनुभव नहीं करता बल्कि गौरव अनुभव करता है। अनुभव करता है कि मैं महा महिमामंडित हूं कि एक आंखवाले आदमी के पैर छूने का मुझे अवसर मिला। नहीं सही मेरी आंखें मगर कोई आंखवाला था जिसके मैंने पैर तो छुए। यह भी क्या कम है?

बुद्ध ने पैर छुए और जैसे ही वे खड़े हुए तो हैरान हो गए। वह व्यक्ति, वह महापुरुष जो जाग चुका था वह झुका और उसने इस साए हुए आदमी के पैर छुए। बुद्ध ने कहा, आप यह क्या करते हैं? यह कैसा पाप आप मेरे ऊपर थोप रहे हैं। आप जागृत हैं मैं आपके पैर छुऊं यह मेरा सौभाग्य है। लेकिन आप मेरे पैर छूकर मुझे किस नर्क में ढकेल रहे हैं।

उस बुद्ध पुरुष ने कहा था, नर्क में नहीं ढकेल रहा हूं। कल तक मैं भी तुम्हारी तरह सोया हुआ था। आज जाग गया हूं। आज तुम सोए हुए हो, कल तुम भी जाओगे। मुझमें और तुममें बुनियादी रूप से कोई अंतर नहीं है। जो अंतर है बहुत ऊपरी है, बहुत मामूली है। वह अंतर मामूली है यही बताने के लिए मैं तुम्हारे पैर छू रहा हूं। मैं तुम्हारे अंधेपन के पैर नहीं छू रहा हूं; मैं तुम्हारे भविष्य के, जब तुम भी जाग जाओगे उस स्वर्ण दिन के, उस स्वर्ण प्रभात के पैर छू रहा हूं। और इसलिए भी ताकि तुम्हें याद रहे कि जाग कर भूल मत जाना कि सिर्फ अंधे ही तुम्हारे पैर छू सकते हैं। तुम्हें भी उनके पैर छूने हैं। तुम भी उनकी ही जमात के हिस्से हो। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई घड़ी भर पहले जाग गया और कोई घड़ी भर बाद जाग गया। इस अनंत काल काल में घड़ियों में गिनती नहीं होती। इसलिए मैं हम का ही उपयोग जारी रखूंगा।

 

प्रश्न: भगवान, आप कहते हैं कि समृद्धि से धर्म आता है। पश्चिम से समृद्ध लोग पूर्व में धर्म सीखने आ भी रहे हैं, उन्हें धर्म की प्यास भी है। फिर भी जब आप उन्हीं देशों में धर्म लेकर स्वयं गए तो उन्होंने आपका स्वागत क्यों नहीं किया? तिरस्कार क्यों हुआ आपका?

तुम्हारी वजह से। उन्होंने कम से कम छुरे फेंककर मुझे मार डालने की कोशिश नहीं की, तुमने की। और जब अपने ही न समझ सकें तो परायों से इतनी आशा रखनी उचित नहीं है।

फिर, पिछले दो हजार साल से तुम गुलाम हो। तुम्हारी गुलामी और तुम्हारी गरीबी ने पश्चिम को यह खयाल दे दिया है कि तुम किसी कीमत के नहीं हो। तुम जिंदा भी नहीं हो। तुम मुर्दों की एक जमात हो। और जो लोग मुझसे पहले पश्चिम गए—विवेकानंद, रामतीर्थ, योगानंद और दूसरे हिंदू संन्यासी—उनमें से किसी का अपमान पश्चिम में नहीं हुआ। कोई दरवाजे उनके लिए बंद नहीं हुए। क्योंकि उन्होंने झूठ का सहारा लिया। उन्होंने बुद्ध के साथ जीसस की तुलना की, उन्होंने उपनिषद के साथ गीता की तुलना की, गीता के साथ बाइबिल की तुलना की। पश्चिम के लोगों को और भी गौरवमंडित किया। गुलाम तुम थे, गरीब तुम थे। तुम्हारे संन्यासियों ने तुम्हें आध्यात्मिक रूप में भी दरिद्र साबित किया। क्योंकि उन्होंने तुम्हारी ऊंचाइयों को भी पश्चिम की साधारण नीचाइयों तक खींच कर खड़ा कर दिया।

मेरी स्थिति एकदम अलग थी। मैंने पश्चिम से कहा कि भारत आज गरीब है, हमेशा गरीब नहीं था। एक दिन था कि सोने की चिड़िया था। और भारत ने जो ऊंचाइया पायी हैं, उनके तुमने सपने भी नहीं देखे। और तुम जिसको धर्म कहते हो उसको भार की ऊंचाइयों के समक्ष धर्म भी नहीं कहा जा सकता। जीसस मांसाहारी हैं, शराब पीते हैं। भारत का कोई धर्म यह स्वीकार नहीं कर सकता कि उसका परम श्रेष्ठ पुरुष मांसाहारी हो, शराब पीता हो; जिसमें इतनी भी करुणा न हो कि अपने खाने के लिए जीवन को बर्बाद करता हो; जो अपने भोजन के लिए इतना अनादर करता हो जीवन का और जो व्यक्ति शराब पीता हो उसे ध्यान की ऊंचाइयों को तो पाने का सवाल ही नहीं उठता। शराब तो दुखी लोग पीते हैं, परेशान लोग पीते हैं, तनाव से भरे लोग पीते हैं। क्योंकि शराब का गुण तुम जिस हालत में हो उसे भुला देने का है। अगर तुम परेशान हो, पीड़ित हो, शराब पीकर थोड़ी देर को तुम भूल जाते हो। दूसरे दिन फिर दुख वापिस खड़े हो जाएंगे। शराब दुखों को मिटाती नहीं, सिर्फ भुलाती है। ध्यान दुखों को मिटाता है, भुलाता नहीं है। और ध्यान और शराब विरोधी हैं।

ईसाइयत में ध्यान के लिए कोई जगह नहीं है।

लेकिन तुम्हारे विवेकानंद और योगानंद और रामतीर्थ सिर्फ, प्रशंसा पाने के लिए पश्चिम को यह समझाने की कोशिश करते रहे कि जीसस उसी कोटि में आते हैं, जिसमें बुद्ध आते हैं। जिसमें महावीर आते हैं। यह झूठ था। और चूंकि मैंने वही कहा जो सच था, स्वभावतः मेरे लिए द्वार पर द्वार बंद होते चले गए। मैंने नहीं स्वीकार करता हूं कि जीसस के कोई भी वचनों में वैसी ऊंचाई है जो उपनिषद में है या उनके जिन में कोई ऐसी खूबी है जो बुद्ध के जीवी में है। उनकी खूबियां साधारण हैं। कोई आदमी पानी पर चल भी सके तो ज्यादा से ज्यादा जादूगर हो सकता है। और पहली तो बात यह है कि वे कभी पानी पर चले इसका कोई उल्लेख सिवाय ईसाइयों की खुद की किताब को छोड़कर किसी और किताब मैं नहीं है। अगर जीसस पानी पर चले तो इसमें कौन सा अध्यात्म है? पहली बात तो चले नहीं। अगर चले तो हो तो पोप को कम से कम किसी स्वीमिंग पूल पर ही चल कर बता देना चाहिए। स्वीमिंग पूल भी छोड़ो—बाथ टब। उतना भी प्रमाण काफी होगा क्योंकि वे प्रतिनिधि हैं और इन्फालिबल—उनसे कोई भूल नहीं होती। और अगर कोई आदमी पानी पर चला भी हो तो इससे अध्यात्म का क्या संबंध है?

रामकृष्ण के पास एक आदमी पहुंचा। वह एक पुराना योगी था। रामकृष्ण से उम्र में ज्यादा था। रामकृष्ण गंगा के तट पर बैठे थे और उस आदमी ने आकर कहा कि मैंने सुना है तुम्हें लोग पूजते हैं। लेकिन अगर सच में तुम्हारे जीवन में अध्यात्म है तो आओ, मेरे साथ गंगा पर चलो।

रामकृष्ण ने कहा, थके—मांदे हो थोड़ा बैठ जाओ, फिर चल लेंगे। अभी कहीं जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। और तब तक कुछ थोड़ा परिचय भी हो ले। परिचय भी नहीं है। पानी पर चलने में तुम्हें कितना समय लगा सीखने में?

उस आदमी ने कहा, अठारह वर्ष। रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, मैं तो पानी पर नहीं चला। क्योंकि दो पैसे में गंगा पार कर जाता हूं। दो पैसे का काम अठारह वर्ष में समझना मैं मूर्खता समझता हूं, अध्यात्म नहीं। और इसमें कौन सा अध्यात्म है कि तुम पानी पर चल लेते हो? इससे तुमने जीवन का कौन सा रहस्य पा लिया है?

एक घटना मुझे स्मरण आती है जो तुम्हें फर्क को समझाएगी। जीसस के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने एक मुर्दे आदमी को जिंदा किया। जरा सोचने की बात है कि मुर्दे रोज मरते हैं। एक को ही जिंदा किया! जो आदमी मुर्दों को जिंदा कर सकता था, वह थोड़ा आश्चर्यजनक है कि उसके एक को ही जिंदा किया और वह भी उसका अपना मित्र था—लजारस। मामला बिलकुल बनाया हुआ है। लजारस एक गुफा में लेटा हुआ है और जीसस बाहर आकर आवाज देते हैं: लजारस, उठो, मृत्यु से बाहर जीवन में आओ! और लजारस तत्काल गुफा के बाहर आ जाते हैं। अब बहुत सी बातें विचारणीय हैं। पहली तो बात, यह आदमी जीसस का बचपन का मित्र था। दूसरी बात, जो आदमी मर जाने के बाद वापस लौटा हो उसके जीवन में कोई क्रांति घटनी चाहिए। लजारस के जीवन में कोई क्रांति नहीं घटी। इस घटना के अलावा लजारस की बाबत कहीं कोई उल्लेख नहीं है। क्या तुम सोचते हो एक आदमी मर जाए, मृत्यु के पार के जगत को देखकर वापस लौटे और वैसा का वैसा ही बना रहे? और जब एक आदमी को जीसस जिंदा कर सकते थे तो फिर किसी को भी मरने की जूदियों में जरूरत क्या थीं?

इस घटना को मैं इसलिए ले रहा हूं कि ठीक ऐसी ही घटना बुद्ध के जीवन में घटी। वे एक गांव में आए हैं, वहां एक स्त्री का इकलौता बेटा—उसका पति मर चुका है, उसके अन्य बच्चे मरे चुके हैं—एक बेटा जिसके सहारे वह जी रही है वह भी मर गया। तुम सोच सकते हो उसकी स्थिति। वह बिलकुल पागल हो उठी। गांव के लोगों ने कहा कि पागल होने से कुछ भी न होगा। बुद्ध का आगमन हुआ है। ले चलो अपने बेटे को। रख दो बुद्ध के चरण में और कहो उनसे कि तुम तो परम ज्ञानी हो, जिला दो इसे। मेरा सब कुछ छिन गया। इसी एक बेटे के सहारे मैं जी रही थी, अब यह भी छीन गया। अब तो मेरे जीवन में कुछ भी न बचा।

बुद्ध ने उस स्त्री से कहा, निश्चित ही तुम्हारे बेटे को सांझ तक जिला दूंगा। लेकिन उससे पहले तुम्हें एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी। तुम अपने गांव में जाओ और किसी घर से थोड़े से तिल के बीज ले जाओ—ऐसे घर से जहां कोई मेरा न हो। बस वे बीज तुम ले आओ, मैं तुम्हारे बेटे को जिला दूंगा।

वह पागल औरत स्वभावतः पागल होने की स्थिति में थी, भागी। इस घर में गई, उस घर में गई। लोगों ने कहा तुम कहती हो एक मुट्ठी बीज, हम बैलगाड़ियां भर कर तिल के ढेर लगा सकते हैं मगर हमारे बीज काम न आएंगे। हमारे घर में तो न जाने कितने लोगों की मृत्यु हो चुकी हैं। सांझ होते—होते सारे गांव ने उसे एक ही जवाब दिया कि हमारा बीज तुम जितना चाहो उतना ले लो, लेकिन ये बीज कान न आएंगे। बुद्ध ने बड़ी उलटी शर्त लगा दी। ऐसा कौन सा घर है जिसमें कोई मरा न हो?

दिनभर का अनुभव उस स्त्री के जीवने में क्रांति बन गया, वह वापस आई, उसने बुद्ध के चरण को छुआ और कहा कि भूलें, छोड़ें इस बात को कि लड़का मर गया। यहां जो भी आया है उसको मरना पड़ेगा। तुमने मुझे ठीक शिक्षा दी। अब मैं तुमसे यह चाहती हूं कि इसके पहले मैं मरु, मैं जानना चाहती हूं वह कौन है मेरे भीतर जो जीवन है। मुझे दीक्षा दो।

जो लड़के की जिंदगी मांगने आयी थी। वह अपने जीवन से परिचित होने की प्रार्थना लेकर खड़ी हो गयी। वह संन्यासिनी हो गयी और बुद्ध के जो शिष्य परम अवस्था को उपलब्ध हुए उनमें अग्रणी थी। इसको मैं क्रांति कहता हूं। बुद्ध अगर उस लड़के को जिंदा कर देते तो भी क्या था? एक दिन तो वह मरता ही। लजारस भी एक दिन मरा होगा। लेकिन बुद्ध ने उसे स्थिति का एक आध्यात्मिक रुख, एक नया आयाम ले लिया।

हम हर चीज को ऊपरी और बाहरी तल से देखने के आदी हैं। मैं मानता हूं बुद्ध ने जो किया वह महान है और जो जीसस ने किया वह साधारण है, उसका कोई मूल्य नहीं है। मेरी इन बातों ने पश्चिम को घबड़ा दिया। घबड़ा देने का कारण यह था कि पश्चिम आदी हो गया है एक बात का कि पूरब गरीब है, भेजो ईसाई मिशनरी और गरीबों को ईसाई बना लो। और करोड़ों लोग ईसाई बन रहे हैं। लेकिन जो लोग ईसाई बन रहे हैं पूरब में वे सब गरीब हैं, भिखारी हैं, अनाथ हैं, आदिवासी हैं, भूखे हैं, नंगे हैं। उन्हें धर्म से कोई संबंध नहीं है। उन्हें स्कूल चाहिए, अस्पताल चाहिए, दवाइयां चाहिए, उनके बच्चों के लिए शिक्षा चाहिए, कपड़े चाहिए, भोजन चाहिए। ईसाइयत कपड़े और रोटी से उनका धर्म खरीद रही है।

मुझे दुश्मन की तरह देखने का कारण यह था कि मैंने कोई पश्चिम के गरीब को या अनाथ को या भिखमंगे को…और वहां कोई भिखमंगों की कमी नहीं है, सिर्फ अमरीका में तीस मिलियन भिखारी हैं! जो दुनिया के दूसरे भिखारी को ईसाई बनाने में लगे हैं वे अपने भिखारियों के लिए कुछ भी हनीं कर रहे हैं क्योंकि वे ईसाई हैं ही। मैंने जिन लोगों को प्रभावित किया उनमें प्रोफेसर्स थे, लेखक थे, कवि थे, चित्रकार थे, मूर्तिकार थे, वैज्ञानिक थे, आर्किटेक्ट थे, प्रतिभा—संपन्न लोग थे। और यह बात घबराहट की थी कि अगर देश के प्रतिभा—संपन्न लोग मुझसे प्रभावित हो रहे हैं तो यह बड़े खतरे की सूचना है। क्योंकि यही लोग हैं जो रास्ता तय करते हैं दूसरे लोगों के लिए। इनको देखकर दूसरे लोग उन रास्तों पर चलते हैं। इनके पदचिन्ह दूसरों को भी इन्हीं रास्तों पर ले जाएंगे।

और मैंने किसी को भी नहीं कहा कि तुम अपना धर्म छोड़ दो। मैंने किसी को भी हनीं कहा कि तुम कोई नया धर्म स्वीकार कर लो। मैं तो सिर्फ इतना ही कहा कि तुम समझने की कोशिश करो क्या धर्म है और क्या अधर्म है। फिर तुम्हारी मर्जी। तुम बुद्धिमान हो और विचारशील हो।

मेरा एक ही जुर्म है और एक ही अपराध है कि मैंने उन देशों में पहली बार यह जिज्ञासा पैदा की कि जिस पूरब के लोगों को हम ईसाई बनाने के लिए हजारों मिशनरियों को भेज रहे हैं उस पूरब ने आकाश की बहुत ऊंचाइयां छुई हैं। हम अभी जमीन पर घसीटने के योग्य नहीं हैं। उन ऊंचाइयों के सामने उनकी बाइबिल, उनके प्रोफेट, उनके मसीहा, बहुत बचकाने, बहुत अदना, अप्रौढ़ अपरिपक्व सिद्ध होते हैं। इससे एक घबराहट और एक बेचैनी पैदा हो गई।

मेरे एक भी बात का जवाब पश्चिम में नहीं है। मैं तैयार था प्रेसिडेंट रोनाल्ड रीगन से व्हाइट हाऊस में डिस्कस करने को, खुले मंच पर, क्योंकि वह फंडामैंटलिस्ट ईसाई हैं। वह मानते हैं कि ईसाई धर्म ही एकमात्र धर्म है, बाकी सब धर्म थोथे हैं। पोप को मैंने कई बार निमंत्रण दिया कि मैं वेटिकन आने को तैयार हूं, तुम्हारे लोगों के बीच तुम्हारे धर्म के संबंध में चर्चा करना चाहता हूं और तुम्हें चेतावनी देना चाहता हूं कि जिसे तुम धर्म कह रहे हो वह धर्म नहीं है और जो धर्म है तुम्हें उसका पता भी नहीं है। स्वभावतः मैं उन्हें दुश्मन जैसा लगा।

एक अकेला आदमी कभी भी सारी दुनिया में इस बुरी तरह दुश्मन पैदा करने में समर्थ नहीं हुआ है।

हर देश की पार्लियामेंट ने निश्चित किया हुआ है कि मैं उनके देश में प्रवेश न कर सकूं, क्योंकि मैं खतरनाक आदमी हूं। मैं उनकी नैतिकता को नष्ट कर दूंगा। उनके धर्म को नष्ट कर दूंगा।

दो सप्ताह के लिए एक टूरिस्ट तुम्हारे धर्म को नष्ट कर सकता है दो हजार साल की तुम्हारी मेहनत को, तो वह मेहनत बचाने योग्य नहीं है। उसे नष्ट हो जाने दो।

 

प्रश्न: भगवान, इस देश में बहुत से झूठे धर्म पैदा हो रहे है, जिनसे अधर्म फैल रहा है। इस संबंध में हमारा क्या कर्तव्य है? कृपया मार्गदर्शन दें।

जिनके पास भी सोचने की थोड़ी भी समझ है, जिनके पास भी देखने की जरा सी आंख है उनको मुझे बताना ही पड़ेगा कि उनका कर्तव्य क्या है। उनका कर्तव्य है इस देश में फैलते हुए झूठे धर्म को रोकना—एक—दो देश के वास्तविक धर्म को पुनः फूल की तरह खिला देना। यह सच है कि जिस तरह मेरे दुश्मनों की संख्या बढ़ी है उसी तरह मेरे दोस्तों की संख्या भी बढ़ी है। प्रकृति में एक संतुलन है। और दुश्मन नासमझी के कारण दुश्मन हैं, इसलिए उनसे डरने की कोई जरूरत नहीं है। दोस्त समझदारी के कारण दोस्त है। इसलिए दस दुश्मन के मुकाबले एक दोस्त कीमती है। उन दुश्मनों को हम जीत लेंगे क्योंकि उन दुश्मनों के पास कुछ भी नहीं है। उनके भीतर एकदम खालीपन है, अर्थहीनता है। न कोई शांति है न कोई आनंद है।

तुम्हारा कर्तव्य यही है कि इस देश ने जो हजारों वर्षों में अर्जित किया है उसे कहीं तुम्हें न भूल जाओ। अन्यथा तुम कैसे दुनिया को याद दिलाओगे? और तुम भूल रहे हो। तुम्हारे पंडितों, तुम्हारे पुजारियों, तुम्हारे स्वामियों को कोई चिंता नहीं है। उनको फिकर है सिर्फ उनके पेशे और उनके धंधे के चलने की। उन्हें इस विराट संसार और पृथ्वी पर जो आंदोलन हो रहे हैं उनका कोई बोध नहीं। वह इस देश में भी अपने धर्म को बचाने में समर्थ नहीं हैं।

ईसाइयत इस देश में आज तीसरा बड़ा धर्म हो गया है। आज नहीं कल ईसाइयत अलग मुल्क की मांग पैदा करेगा। और अगर मुसलमान अलग मांग कर सकते हैं तो ईसाइयत को भी कह है। वे नंबर तीन हैं। और उनकी संख्या रोज बढ़ रही है। और उनकी संख्या के बढ़ने के ढंग ऐसे हैं कि तुम समझ भी नहीं पा रहे हो। वे आकर लोगों को समझा रहे हैं कि बर्थ—कंट्रोल धर्म के खिलाई है। और तुम्हें पता नहीं कि बर्थ—कंट्रोल अगर धर्म के खिलाफ है तो तुम गरीब से गरीब होते जाओगे। और जितनी गरीबी बढ़ेगी उतनी ईसाइयत बढ़ेगी। जितने अनाथ होंगे उतनी ज्यादा मदर टेरेसा होंगी।

तुम्हें सोचने की जरूरत है कि धर्म की आड़ में ईसाइयत को फैलाने का जो बड़ा जाल चल रहा है, उसे रोकना तुम्हारे हाथ में है। तुम्हारे बच्चे ईसाई होंगे क्योंकि भूखे मरते बच्चों को सिवाय ईसाई होने के और कोई रास्ता न रह जाएगा। लेकिन अगर तुमसे कहा जाए कि संतति—नियमन करो तो तत्क्षण तुम्हारे पंडित और तुम्हारे शंकराचार्य भी इसका विरोध करते हैं बिना सोचे समझे कि वे जो कर रहे हैं वे ईसाइयों के हाथ में खेल खेल रहे हैं—अनजाने, अंधे आदमियों की तरह।

पश्चिम के मुल्कों में—फ्रांस या स्वीडन—उनकी संख्याएं स्थिर हो गई हैं। वहां नए बच्चे पैदा नहीं हो रहे। या उतने ही पैदा हो रहते हैं जितने पुराने लोग मर रहे हैं। तो उनकी आर्थिक स्थिति रोज ऊंची जोती चली जाती है और तुम्हारी आर्थिक स्थिति रोज नीची गिरती चली जाती है।

मुसलमान ने दुनिया को बंदूक और तलवार की नोक पर मुसलमान बनाया था। ईसाइयत ज्यादा होशियार है। वह तो तलवार लाती है और बंदूक लाती है। वह एक हाथ में रोटी लाती है और एक हाथ में बाइबिल लाती है। और भूखा यह नहीं देखता कि रोटी के साथ बाइबिल भी जुड़ी है।

अगर इस देश को अधर्म से बचाना है तो पहला काम है कि इस देश की संख्या की बढ़ती हुई स्थिति को रोकने की हर चेष्टा की जाए। न तो सुनो तुम्हारे पंडितों को न तुम्हारे शंकराचार्य को। न सुनो पोप को और न मदर टेरेसा को। लेकिन बड़ा आश्चर्य है उनको नोबल प्राइज दी जाएगी, डाक्टरेट दी जाएगी। पदमश्री की उपाधियां दी जाएंगी, भारत—रत्न बनाया जाएगा। और उनका सारा जहर एक ही बात पर निर्भर है कि वे तुम्हें समझाएं कि बच्चे पैदा करना…। उन्हें स्वीडन जाकर समझना चाहिए जहां बच्चे पैदा करना बंद हो गए; जहां की सरकार हर नए बच्चे के लिए सहूलियतें देने को तैयार है क्योंकि उन्हें डर है कि उनकी संख्या गिर रही है। कहीं ऐसा न हो कि उनकी संख्या बहुत ज्यादा बिरा जाए और वे कमजोर हो जाएं। आश्चर्य की बात है मदर टेरेसा कलकत्ता में बैठी हैं, इनको स्वीडन जाना चाहिए। नहीं, लेकिन स्वीडन जाने से क्या फायदा। वहां सब ईसाई हैं। कलकत्ता में रहने की जरूरत है क्योंकि वहां अनाथ बच्चे हैं जिनको कि ईसाई बनाना है, और और अनाथ पैदा हो सकें इसके लिए तुम्हें समझाना है।

तो पहला काम है कि इस देश की संख्या रोकी जाए। दूसरा काम है कि देश ने अपनी ऊंचाइयों के दिनों में जो महान उड़ानें भरी थीं—उनका कोई संबंध हिंदू से नहीं है, न जैन से है, न बौद्ध से है, उनका संबंध मनुष्य के स्वत्व से है, उसके सत्य से है—उन ऊंचाइयों को फिर से मौका दिया जाए। तुम्हारे स्कूलों में ध्यान की कोई व्यवस्था नहीं है तुम्हारे स्कूलों में धर्म की या योग की कोई व्यवस्था नहीं है। तुम अब भी उसी तरह की फैक्टरियां चला रहे हो युनिवर्सिटी के नाम से जो ब्रिटेन ने स्थापित की थीं—जिन फैक्टरियों से केवल क्लर्क पैदा होते हैं और कुछ भी नहीं। तुम्हें वे लोग पैदा करने पड़ेंगे जिनकी ज्योति से दुनिया को यह अनुभव हो सके कि अध्यात्म के अतिरिक्त जीवन की कोई उपलब्धि उपलब्धि नहीं है। और तुम्हें हिम्मत करके लड़ना भी सीखना पड़ेगा। लड़ने का मतलब कोई बंदूकें लेकर लड़ना नहीं है।

जब मैं अमरीका की जेल में था तो सारी दुनिया से विरोध के पत्र, तार, टेलीग्राम, टेलीफोन, टैलेक्स हजारों की संख्या में पहुंचे, सिर्फ भारत से नहीं। दुनिया के अनेक महत्वपूर्ण लोगों ने—उनमें संगीतज्ञ हैं, कवि हैं, नृत्यकार हैं, अभिनेता हैं, डायरेक्टर हैं—अमरीका की गवर्नमेंट पर दबाव डाला कि मेरे साथ जो किया जा रहा है वह अन्याय है। लेकिन भारत की सरकार बिलकुल चुप रही। भारत का अंबेसेडर अमरीका के प्रेसीडेंट से जाकर नहीं मिला कि एक भारतीय के ऊपर अन्याय नहीं होना चाहिए। और तुमने कोई फिकर न की कि तुम दिल्ली की सरकार पर जोर डालते। यह पार्लियामेंट है या नपुंसकों की जमात है। इन हिजड़ों को बाहर करो। उल्टा जिस दिन मैं जेल से छूट गया, उस दिन भारतीय अंबेसेडर का आदमी मेरे पास पहुंचा कि हम आपकी क्या सहायता कर सकते हैं। मैंने कहा: तुम और मेरी सहायता करोगे? अब मैं जब जेल से छूट गया हूं! बारह दिन तक तुम कहां थे? तुम्हारा अंबेसेडर कहां था? तुम्हारी गवर्नमेंट कहां थी? मुझे तुम्हारी किसी सहायता की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें और तुम्हारी सरकार को मेरी कोई सहायता की जरूरत हो तो मुझको खबर करो। और जब मैं भारत आया तो अमरीका अंबेसेडर ने भारत की सरकार पर जोर डाला कि मैं भारत में रह सकता हूं—दो शर्तों पर। एक कि मेरा पासपोर्ट दिन लिया जाए ताकि मैं भारत के बारह न जा सकूं। दूसरा कि किसी गैर—भारतीय को, विशेषकर पत्रकारों को मेरे पास न पहुंचने दिया जाए। और भारत की सरकार ने दोनों शर्त मंजूर कर लीं। इन शर्तों की मंजूरी के कारण मुझे तत्काल भारत वापस छोड़ देना पड़ा क्योंकि इन शर्तों के रहते अमरीका का जेल हुआ या भारत का जेल हुआ बराबर हो गया।

तुम्हें सजग होना पड़ेगा।

मैं बार—बार दुनिया के चक्कर पर जाऊंगा। और बार—बार हर मुल्क की जेल मुझे देखनी है। और तुम्हें दिखाना है कि सत्य को बोलना इस दुनिया में सबसे बड़ा पाप है। और धर्म की बात करना इस दुनिया में सबसे बड़ी खतरनाक स्थिति में प्रवेश करना है। तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम अपनी सरकार को हिजड़ों की सरकार न रहने दो। इस सरकार पर दबाव होना चाहिए। लेकिन इस सरकार पर उलटे दबाव हैं। उस पर दबाव अमरीका का है।

मैं अभी भारत वापिस आया हूं। मेरे पास कोई लगेज नहीं। फिर भी मुझे तीन घंटे एयरपोर्ट पर बिना रखा गया। मैंने उस आफिसर को कहा कि तुम यहां लिखे हुए हो एयरपोर्ट पर वैल्कम टू इंडिया। मैं भारत का हूं। मुझे किसलिए तीन घंटे यहां बिठा रखा गया है? क्या कारण है? मेरे पास कोई लगेज नहीं है। जिनके पास लगेज है उनको मैं पीछे छोड़ रहा हूं।

लेकिन उन्होंने कहा: माफ करिए, हम क्या करें? ऊपर से जैसी आज्ञा है हम वैसा कर रहे हैं। इन ऊपर की आज्ञाओं को तोड़ना होगा। ये कौन हैं जो ऊपर हैं? ये तुम्हारे नौकर हैं। ये भिक्षमंगे हैं जिन्होंने तुमसे वोट मांगी और आज तुम्हारे ऊपर हैं। और अकारण उन आफिसरों ने तीन घंटे के बाद मुझसे क्षमा मांगी। मैंने कहा, तुम्हारी कक्षा का सवाल नहीं है। तुम्हारी सरकार को क्षमा मांगनी चाहिए। मेरे तीन घंटे तुम्हें खराब करने का क्या कह है? अगर कोई कारण होता तो ठीक था। लेकिन कोई भी कारण नहीं है और तुम मुझे तीन घंटे व्यर्थ यहां बिठाए रखे हो।

मैं भारत वापस आया हूं सिर्फ इसलिए ताकि मैं भारत की जनता को यह आगाह कर सकूं कि अब दुबारा जब मैं वापस दुनिया के दौर पर जाता हूं और जगह—जगह मेरे लिए मुश्किल होगी तो तुम कम सेम कम भारत की सरकार पर दबाव डालना कि अगर तुम एक भारतीय की भी, जो कि बिलकुल ही निर्दोष है…। अभी दो दिन पहले अमेरीका के अटर्नी जनरल ने सब से बड़े कानूनविद ने, पत्रकारों को जवाब देते हुए उत्तर में कहा कि हम भगवान को जेल में बंद नहीं कर सके क्योंकि उनके ऊपर कोई जुर्म नहीं है। लेकिन फिर भी उन्होंने साठ लाख रुपया मेरे ऊपर फाइन किया है। भारत की सरकार को पूछना चाहिए कि अगर मेरे ऊपर कोई जुर्म नहीं है तो साठ लाख रुपया किस तरह मुझ पर फाइन किया गया है, किस बात के लिए फाइन किया गया है? मुझे पांच लाख के लिए अमरीका में प्रवेश बंद किया है वह किस आधार पर किया है? और दस साल तक अगर अमरीका में मैं कोई छोटा—मोटा जुर्म भी करूं तो उसकी सजा दस साल कैद होगी और अदालत में मैं कोई मुकदमा नहीं लड़ सकूंगा। और अमरीका का सब से कड़ा कानूनविद, प्रेसिडेंट का अटर्नी जनरल, अपने उत्तर में कहता है कि वे मुझे जेल में नहीं रख सके क्योंकि उनके पास मेरे खिलाफ कोई भी सबूत नहीं है और मैंने कोई जुर्म नहीं किया है।

दूसरी बात उन्होंने कही कि हम भगवान ने जो कम्यून अमरीका में स्थापित किया था उसे नष्ट करना चाहते थे। और वह भगवान की मौजूदगी में रहते नष्ट नहीं हो सकता था, इसलिए भगवान को हटाना पड़ा। उस कम्यून का क्या जुर्म था। उस कम्यून का जुर्म यह था कि हमने एक डेजर्ट को, वर्षों से डेजर्ट है एक हरे भरे उद्यान में परिवर्तित कर दिया था। पांच हजार संन्यासियों ने अपने मकान खुद बनाए थे। अपने रास्ते खुद बनाए थे और यह सिद्ध कर दिया था कि डेजर्ट में भी स्वर्ग को निर्मित किया जा सकता है। यह बात अमरीका के राजनीतिज्ञों को बहुत अखर रही थी। क्योंकि लोग उनसे पूछ रहे थे कि ये बाहर से आए हुए लोग मरुस्थल को स्वर्ग बना सकते हैं, तो तुम अब तक क्या करते रहे हो? इसलिए कम्यून को नष्ट करना जरूरी था। और मेरे रहते वहां कम्यून को नष्ट करना मुश्किल था क्योंकि पांच हजार संन्यासी यह तय किए हुए बैठे थे कि उनको बिना मारे मुझे अरेस्ट नहीं किया जा सकता।

और तीसरी बात अटर्नी जनरल ने कहीं है कि हम भगवान को इसलिए जेल में नहीं रख सके कि हम नहीं चाहते कि दुनिया के वे एक पैगंबर बन जाएं, क्योंकि उन्हें जेल होगी तो उनका रुतबा एक शहीद का होगा। उनके संन्यासियों के मन में वही जोश और खरोश पैदा होगा जो कि जीसस के सूली पर चढ़ जाने के बाद पैदा हुआ था। लेकिन उनकी दिली इच्छा यहां थी कि वे मुझे मार डालते। मार नहीं सके क्योंकि सारी दुनिया में विरोध था, सिर्फ भारत को छोड़कर। भारत में छोटा—मोटा विरोध हुआ। उस छोटे—मोटे विरोध को कोई मूल्य नहीं है। और भारत के विरोध में भारत की सरकार का कोई हाथ नहीं था। क्योंकि भारत की सरकार को फिकर इस बात की ज्यादा है कि अमरीका से न्युक्लियर बम बनाने की तरकीबें और सामान कैसे पाया जाए; इस बात की फिकर नहीं है कि अमरीका आध्यात्मिक रूप से रूपांतरित कैसे किया जाए।

तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उन लोगों को आने वाले चुनाव में चुनना जो दुनिया को आध्यात्मिक रूप से परिवर्तित करने की चेष्टा करें। तुम्हारी ताकत बड़ी है क्योंकि मैं अनुभव करता हूं अगर मैं अकेला आदमी सारी दुनिया की सरकारों के खिलाफ लड़ सकता हूं, तुम भी लड़ सकते हो। सरकारों की ताकत बड़े नीचे तल की ताकत है।

मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूं। उरुग्वे में, उरुग्वे के प्रेसिडेंट ने जो कि मेरी किताबों को पढ़ते रहे हैं और मुझसे में उत्सुक हैं, मुझे निमंत्रित किया, मैं उरुग्वे स्थिर रूप से निवास करने के लिए तैयार था। तत्क्षण अमरीका के प्रेसिडेंट ने ऊरुग्वे के प्रेसिडेंट को धमकी दी कि अगर छत्तीस घंटे के भीतर उरुग्वे नहीं छोड़ते हैं तो जितना ऋण तुमने अतीत में हमसे लिया है वह सब वापस करना होगा। वह तो बिललियन्स आफ डालर्स वह उरुग्वे कैसे गरीब देश को लौटाना असंभव है। और अगर तुम नहीं लौटा सकते तो तुम पर तो रेट आफ इंटरेस्ट है, ब्याज की जो दर है, वह दुगुनी हो जाएगी। दूसरा छत्तीस घंटे के भीतर अगर उन्हें बाहर नहीं किया जाता है तो भविष्य के लिए जो हमने तुम्हें बिलियन्स आई डालर्स देने का वचन दिया है वह रद हो जाएगा। प्रेसिडेंट के सेक्रेटरी ने मुझे आकर कहा कि मैंने पहली दफे उरुग्वे के प्रेसिडेंट की आंखों में आंसू देखे। और ये शब्द प्रेसिडेंट ने कहे कि भगवान के आने से कम से कम एक बात हुई कि हमारा यह भ्रम टूट गया कि हम स्वतंत्र हैं।

पुराने किस्म का साम्राज्य समाप्त हो गया है। एक नए किस्म का साम्राज्य व्याप्त हो गया है। हर देश को अमरीका धन दे रहा है जिसको कोई देश लौटा नहीं सकता। वायदे कर रहा है ज्यादा धन देने के जिनको कोई देश इंकार नहीं कर सकता। यह ज्यादा आसान गुलामी है। दिखती भी नहीं। झंडा भी तुम्हारा तिरंगा फहरता है और भीतर—भीतर तुम्हारी आत्मा पर अमरीकी झंडा गड़ा हुआ है। इस झंडे को उखाड़ फेंकना है। यह बेहतर है कि हम गरीब हों। यह बेहतर है कि हम मर जाए और इस दुनिया से भारत का नामोनिशान मिट जाए। मगर यह बेहतर नहीं है कि पैसा हमें खरीद ले और हमारी आत्माओं को खरीद ले। इस देश को अपनी आत्मा को बेचने से बचाना तुम्हारा कर्तव्य है।

 

धन्यवाद।

 

 


Filed under: कोपलें फिर फूट आईं--(प्रश्‍न--चर्चा्) ओशो Tagged: अदविता नियती, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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