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Channel: Osho Amrit/ओशो अमृत
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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–29)

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अज्ञात की यात्रा—(अध्‍याय—उन्‍नतीसवां)

शो अज्ञात की पुकार हैं। सच में देखा जाए तो यह पता ही नहीं चलता कि आखिर ओशो के साथ हम जा कहां रहे हैं। ओशो स्वयं हमें अनेक बार अज्ञात की ओर ले चलने की बात करते हैं। लेकिन इस चलने भर का, इस यात्रा का अपने आप में इतना मजा है, इतना आनंद है कि यह किसे पता कि जाना कहां है? और पूछे कौन? इसी भाव दशा में एक बार ओशो से कविता के माध्यम से अपने भाव व्यक्त किये, तब ओशोबोले :

प्रश्न :

ओशो,

हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल

जाना है किधर मालूम नहीं

आगाज़े—सफर पर नाज़ां हैं

अन्तामे—सफर मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल…

 

कब जाम भरे, कब दौर चले

कब आए इधर मालूम नहीं

उट्ठे भी अगर, ठहरे भी कहां,

साकी की नजर मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल…

 

हम अक्ल की हद से भी गुजरे,

सहरा—ए—जुनूं भी छान लिया

अब और कहां ले जाएगी

साकी की नजर मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल…

 

मुमकिन हो तो एक लमहें के लिए

तकलीफे तबस्तुम कर लीजे

हममें से अभी तक कितनों को

मफहूमे सहर मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जजबा— ए दिल…

 

जजबात के सौ आलम गुजरे

एहसास की सदियां बीत गईं

आंखों से अभी उन आंखों तक

कितना है सफर मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल…

 

जाना है किधर मालूम नहीं

आग़ाज़े—सफर पर नाज़ां हैं

अन्तामे—सफर मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल…

 

स्वभाव! संन्यास का यही अर्थ है—एक अज्ञात यात्रा। भीतर चलना ऐसा नहीं है जैसा बाहर चलना होता है। बाहर तो सीधे—साफ रास्ते हैं। मील के पत्थर लगे हैं। नक्‍शो उपलब्ध हैं। अतर्यात्रा तो आकाश की यात्रा है।

अभी—अभी धनी धरमदास का पद तुमने सुना ही—उडियो पंख पसार! वह आकाश की यात्रा है। आकाश में रास्ते नहीं होते। पगडंडियां भी नहीं होतीं। बनाना भी चाहो तो नहीं बन सकतीं। मील के पत्थर भी नहीं होते। पक्षी आकाश में उड़ते हैं तो उनक पद चिन्ह भी नहीं छूट जाते।

बुद्ध ने कहा है कि बुद्धों का कोई पद—चिह्न नहीं छूट जाता, क्योंकि उनकी यात्रा आकाश की यात्रा है। इसलिए कोई चाहे कि उनके पद—चिह्नों पर चल सके तो नहीं चल सकता। पद—चिह्न बनते ही नहीं आकाश में। तो ऐसे ही चलना होता है अज्ञात में। मंजिल साफ नहीं होती, बहुत धुंधली होती है। सिर्फ एक प्रबल अभीप्सा होती है, प्रायों में एक प्यास होती है। जल है भी या नहीं, यह भी पक्का नहीं। मगर इतना भर भरोसा होता है कि अगर प्यास है तो जल भी होगा ही। क्योंकि इस जीवन का यह नियम है यहां भूख है तो भूख के पहले भोजन है।

तुमने देखा नहीं, मां के पेट में बच्चा आता है तो जैसे ही बच्चा पैदा होता है वैसे ही मां के स्तन दूध से भर जाते हैं! बच्चे के आते आते, अभी बच्चा आ ही रहा है कि तैयारी हो गयी। अभी बच्चा पैदा भी नहीं हुआ और स्तन दूध से भर गए। अभी बच्चे की भूख भी नहीं जगी और भोजन तैयार हो गया। मां के पेटे में बच्चे की आखे तैयार हो जाती हैं; अभी देखने को कुछ भी नहीं है। पैदा होगा, तब आंखें खुलेंगी। तब सारा दृश्य, सारा जगत देखने को होगा।

इस जगत का नियम यह है, शाश्वत नियम यह है कि यहां जिस बात की भी अभीप्सा है, अभीप्सा के पहले ही उसका कुछ आयोजन है। यह कोई अराजकता नहीं है। यहां एक गहरी अन्तर—व्यवस्था का नाम ही धर्म है। धर्म का अर्थ है वह नियम, जो सारे जीवन को सम्हाले हुए है। अगर तुम्हारे भीतर सत्य की प्यास है तो सत्य होना ही चाहिए। तो चलना तो ऐसा ही होगा।

‘हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल

जाना है किधर मालूम नहीं।

मालूम हो भी नहीं सकता। और जिसने सोचा हो कि पहले से सब मालूम कर लेंगे तब चलेंगे, वह चल नहीं सकता। वह कायर है। वह तो ऐसा आदमी है जो कहता है कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं तब तक पानी में न उतरूंगा। मगर तैरना सीखोगे कैसे, अगर पानी में न उतसेगे? पानी में उतसेगे, तो ही तैरना सीखोगे। बिना पानी में उतरे कोई तैरना सीख नहीं सकता।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि जब तक हमें पूरा पक्का न हो जाए कि ध्यान से उपलब्ध क्या होगा, इसका पूरा प्रमाण न मिल जाए, तब तक हम ध्यान न करेंगे। तो मैं उनसे कहता हूं : तुम फिर ध्यान कभी भी न कर सकोगे, क्यों कि ये बातें प्रमाण की नहीं हैं। तुम्हारे भीतर अभीप्सा हो तो तलाश देखो, खोज देखो। इतना तुमसे कह सकता हूं कि मैंने खोजा और पाया। इतना तुमसे कह सकता हूं कि जिन्होंने भी खोजा उन्होंने पाया। जिन खोजा तिन पाइया! लेकिन खोजने वाले को इतना दुस्साहस तो करना ही होता है कि एक दिन चल पड़ना होता हैं—सिर्फ अभीप्सा के आधार पर, आकांक्षा के आधार पर, प्यास के आधार पर।

‘हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल!’

भावना से चलना होता है, तर्क से नहीं। हृदय से चलना होता है, बुद्धि से नहीं। प्रेम से चलना होता है, प्रमाण से नहीं। तर्क से नहीं चलना होता। जो तर्क से चलना चाहेगा, चलता ही नहीं, किनारे पर ही खड़ा रह जाएगा। वह तो विचार ही करता रहेगा, सोच—विचार में ही उलझा रहेगा। वह तो कदम भी नहीं उठा सकता। पहला कदम भी नहीं उठा सकता।

आग़ाज़े—सफर पर नाला हैं

अन्नामे—सफर मालूम नहीं।

बस यही जरूरी भी है। यही संन्यास की आधारशिला है कि यात्रा के प्रारंभ पर नाज होना चाहिए, कि हम चल पड़े, कि हमने हिम्मत की, कि हमने साहस जुटाया, कि हमने नाव छोड़ दी अनंत सागर में, अब दूसरा किनारा है भी या नहीं, क्या पता! मगर कहीं एक किनारा होता है? किनारे दो होते ही हैं। दिखे कि न दिखे, धुंध में छिपा हो कि इतने दूर हो कि वहां तक आख न पहुंचती हो, मगर किनारे तो दो ही होते हैं। दूसरा किनारा भी है। पर अभी तो सिर्फ श्रद्धा, कि दूसरा भी होगा। इसका कोई निर्णीत निश्चय आज नहीं हो सकता।

नाव छोडनी पड़ती है और तूफान भी है। और इस किनारे पर सुरक्षा भी है, यह भी ख्याल रखना। नाव बंधी हो किनारे पर, डूबने का डर नहीं है। तिरने की संभावना नहीं है, डूबने का भी डर नहीं है। और जब तैरना चाहोगे, तिरना चाहोगे तो डूबने का खतरा उठाना ही पडेगा। हालाकि इतना तुमसे मैं कहना चाहूंगा कि जो हिम्मत से चल पड़े हैं, अगर वे डूब भी जाएं, मझधार में भी डूब जाएं तो भी उन्हें किनारा मिल जाता है। उन्हें डूबने से भी किनारा मिल जाता है। एक ऐसा किनारा भी है जो डूबने से ही मिलता है। एक ऐसा किनारा भी है जो मिटने से ही मिलता है। एक ऐसी पूर्णता है जो शून्य होने से मिलती है। एक ऐसा जीवन है जो अहंकार की मृत्यु से ही उपलब्ध होता है।

‘हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल,

जाना है किधर मालूम नहीं

आगाज़े—सफर पर नाजां हैं

अन्नामे—सफर मालूम नहीं।

किसको मालूम है, मालूम हो भी कैसे सकता है अन्नामे—सफर, कि अंत क्या होगा यात्रा का? सिर्फ भरोसा हो सकता है, श्रद्धा हो सकती है; प्रमाण तो कुछ भी नहीं हो सकता। जिन्होंने पा लिया है, उनकी मौजूदगी में प्रीति जग सकती है, श्रद्धा उमग सकती है, प्यास पैदा हो सकती है, मगर प्रमाण नहीं मिल सकता।

बुद्ध से किसी ने पूछा है कि क्या आप प्रमाण दे सकते हैं परम सत्य का? उन्होंने कहा. ‘ नहीं। प्यास दे सकता हूं प्रमाण नहीं।’ और प्यास ही असली चीज है। और प्यास सबके भीतर है। सदगुरू का काम है कि उसे प्रज्जलित कर दे, उसमें ईंधन डाल दे। सदगुरु के शब्द ईंधन बन जाते हैं। उसकी मुद्रा, उसकी भावदशा, उसकी उपस्थिति ईंधन बन जाती है। तुम्हारे भीतर एक प्यास प्रज्जलित होकर जलने लगती है; पैर तडूफने लगते हैं चल पड़ने को, नाव छूटने को आतुर होने लगती है; जंजीरें टूटने लगती हैं अपने से। दूसरे किनारे की अहर्निश पुकार आने लगती है, कि आओ! जाना ही होगा! ऐसा आमंत्रण सघन हो उठता है, कि सब दांव पर लगाने की तैयारी हो जाती है।

‘कब जाम भरे कब, दौर चले

कब आए इधर मालूम नहीं

उट्ठे भी अगर, ठहरे भी कहां

साकी की नजर मालूम नहीं।

कुछ भी पहले से तय नहीं हो सकता, स्वभाव। काश तय होता सब तो बात सस्ती हो जाती। तय होता तो सांसरिक हो जाती। तय होता तो बीमा—कम्पनी बीमा कर देती। तय नहीं हो सकता है। यही तो मजा है, यही तो राज है, यही तो रहस्य है। कुछ पक्का नहीं है—’ कब जाम भरे, कब दौर चले!’

जाम लिए बैठे रहो, प्रतीक्षा करो। जाम को साफ करो। अपनी अंजुलि को निखारो और राह देखो—शांत, मौन, प्रार्थनापूर्ण!

‘कब जाम भरे, कब दौर चले।’

हमारे हाथ में नहीं कि कब दौर चले। मगर एक बात पक्की है कि जब भी किसी के भीतर का पात्र तैयार हो जाता है तो दौर चलता है। सदा चला है। तुम्हारे साथ ही अपवाद नहीं हो सकता। जब भी कोई राजी हो गया है परमात्मा को झेलने को, परमात्मा उतर आया है। जब तक न उतरे, जानना कि अभी हम राजी न थे; जानना कि अभी हम तैयार न थे; हमारे पात्र में कहीं खामी थी, कहीं छिद्र थे। देर लगती है हमारे कारण, उसके कारण नहीं।

लोगों ने कहावत बना रखी है कि देर है अंधेर नहीं। देर भी नहीं है, अंधेर भी नहीं है। अगर देर है तो हमारे कारण और अगर अंधेरा है तो भी हमारे कारण। उसकी तरफ से न देर है न अंधेर है। वह तो सुराही लिए खड़ा ही हुआ है। साकी तो मौजूद है, तुम्हारे सामने खड़ा है, मगर तुम आख बंद किए बैठे हो। और तुम्हारा पात्र अभी इस योग्य नहीं कि उसमें अमृत ढाला जा सके। उसमें तुम जहर ही भरते रहे—घृणा का, ईर्ष्या का, माया का, मोह का, मत्सर का, क्रोध का, घृणा का, लोभ का। तुमने सब तरह के जहर उसमें भरे हैं। तुम्हारे पात्र में जगह भी कहां है?

झेन कथा है, प्रसिद्ध झेन फकीर नानिन के पास एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने जाकर प्रार्थना की कि मुझे ईश्वर के संबंध में कुछ समझाएं, निर्वाण के संबंध में कुछ समझाएं। यह ध्यान का राज क्या है, इस संबंध में कुछ समझाएं!

उसने तो एक सांस में सब कुछ पूछ डाला—ईश्वर, निर्वाण, ध्यान, कुछ बचा ही नहीं। फकीर ने क्या कहा? फकीर ने कहा: ‘आप थके मांदे, पहाड़ चढ़ कर आए, माथे पर पसीने की बूंदें, बैठे जाएं, थोड़ा सुस्ता लें। तब तक मैं चाय बना दूं। एक प्याली चाय पी लें, फिर फुर्सत से बात हो। थोड़ा यात्रा का बोझ कम हो जाए, थकान मिट जाए, थोड़ा विश्राम हो जाए, तो फिर बात कर लेंगे। और यह भी हो सकता है कि शायद चाए पीते—पीते ही बात हो जाए।’

अरे कौन जाने—नानिन ने कहा कि प्याली में चाय ढालते—डालते ही बात हो जाए! प्याली में चाय डालने में ही बात हो जाए।’

प्रोफेसर तो थोडा हैरान हुआ कि आदमी पागल तो नहीं मालूम होता! निर्वाण, ईश्वर, ध्यान—प्याली में चाय डालते—ढालते बात हो जाएगी! मैं भी कहां चला आया! इतनी लम्बी यात्रा करके आया हूं। भर दोपहरी में पहाड़ा चढ़ा हूं। ठीक, लेकिन अब आ ही गया हूं तो कम से कम चाय तो पी ही लूं। और तो कुछ ज्यादा आशा नहीं दिखती। नानिन ने चाय बनायी, प्याली हाथ में दी। प्याली में केतली से चाय डाली और चाय ढालता ही गया। प्याली भर गयी, प्याली से चाय गिरने लगी। बसी भी भर गयी। फिर तो बसी से भी चाय गिरने को होने लगी तो प्रोफेसर चिल्लाया कि रूकिए, आप होश में हैं, पागल हैं! अब चाय फर्श पर गिर जाएगी। अब एक बूंद भी चाय इस प्याली में नहीं रखी जा सकती।

फकीर ने कहा: ‘मैं तो सोचता था कि तुम में बुद्धि नहीं है, लेकिन तुम बुद्धिमान आदमी हो! तुम्हें यह बात समझ में आ गयी कि प्याली इतनी भरी है कि इसमें एक बूंद भी चाय नहीं बन सकती। और तुम्हारी भीतर की प्याली में तुम सोचते हो निर्वाण समा सकता है, ध्यान समा सकता है, ईश्वर समा सकता है? तुमने कभी नजर की कि भीतर की प्याली कितनी भरी है? लबालब भरी है! अरे, मेरे फर्श पर चीजें गिर रही हैं तुम्हारे भीतर की प्याली से! तुम जब जाओगे, मुझे फर्श की घिस—घिस कर सफाई करनी पड़ेगी। पहले प्याली साफ करके आओ, फिर पूछना ऐसे गहरे सवाल। ये सवाल नहीं हैं कि जिनके कोई भी जवाब दे दे। पात्रता चाहिए!’

‘कब जाम भरे, कब दौर चले!’

स्वभाव, जाम भी भरेगा, दौर भी चलेगा।’ कब आए इधर मालूम नहीं!’ आना भी होगा उसका। आया ही हुआ है।’ उट्ठे भी अगर, ठहरे भी कहां!’ मत घबड़ाओ कि साकी कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें छोड़ कर ही चला जाए, कि किसी दूसरे के पात्र में ढाल दे और तुम्हारा पात्र खाली ही रह जाए। साकी की नजर मालूम नहीं, कहां रूके, कहां न रूके, हम पर रूके न रूके।

नहीं, न वहां देर हैं न अंधेर है परमात्मा की तरफ से। परमात्मा चाहो तो परमात्मा कहो, जीवन का परम नियम कहना चाहो तो परम नियम कहो—तुम्हारी मौज। ये सिर्फ शब्दों की बातें हैं। धर्म कहना चाहो तो धर्म हो। ये सूफियों के शब्द हैं—’साकी की नजर’। ये सूफियों के शब्द हैं— ‘जाम’, ‘दौर का चलना’। ये सूफियों के प्रतीक—शब्द हैं। यह सूफियाना भाशा है। मगर बडी प्यारी! बड़े पते की बातें हैं!

मत घबड़ाओ! बस अपने पात्र को निखार कर रखो। तुम्हारी श्रद्धा में कमी न हो, तुम्हारा समर्पण पूरा हो। फिर बात होती है। होना अपरिहार्य है।

‘कब जाम भरे, कब दौर चले

कब आए इधर मालूम नहीं

उट्ठे भी अगर, ठहरे भी कहां

साकी की नजर मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल…।

बस तुम चलते चलो।’ हम अक्ल की हद से भी गुजरे!’ गुजरना ही पड़ता है। अक्ल की हद में जो रह गए, वे तो व्यर्थ जीए और व्यर्थ मरे। अक्ल की हद तो बड़ी छोटी हद है। खोपड़ी की बिसात कितनी! बडी छोटी सी चीज है।

हम अक्ल की हद से भी गुजरे

सहरा—ए—जुनूं भी छान लिया

अब और कहां ले जाएगी

साकी की नज़र मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल…।

जहां ले जाए उसकी नजर—अक्ल की हद से गुजारेगी, पागलपन में भी ले जाएगी, दीवानेपन में भी ले जाएगी—लेकिन ध्यान रखना, अक्ल के भी पार जाना होता है और दीवानेपन के भी पार जाना होता है! अक्ल से पार जाने के लिए दीवानापन काम आ जाता है। दीवानापन ऐसा ही है जैसे पैर में एक कांटा लगा हो और दूसरे कांटे से हम पहले कांटे को निकाल लें। इसलिए भक्त दीवाना हो जाता है। दीवानेपन से अक्ल का कांटा निकल जाता है। मगर फिर दीवानेपन को मत पकड लेना। दोनों कांटे बेकार हैं। दोनों कांटे फेंक देना। अक्ल के भी पार जाना है और दीवानेपन के भी पार जाना है। तभी पहुंचना होता है। दीवानापन भी अक्ल का ही दूसरा पहलू है; इसका ही नकारात्मक पहलू है।

और जहां ले जाए उसकी नजर, चलते चलो। अपने पर भरोसा करके बहुत तो देख लिया, कहां पहुंचे? अब उस अज्ञात पर भरोसा करके देखो। और उस अज्ञात पर भरोसे का मजा ही और है!

‘मुमकिन हो तो एक लमहें के लिए

तकलीफे—तबस्सुम कर लीजे

हममें से अभी तक कितनों को

मफहूमे—सहर मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल…….

जजबात के सौ आलम गुजरे

एहसास की सदियां बीत गईं

आंखों से अभी उन आंखों तक

कितना है सफर मालूम नहीं

हम चल तो पड़े हैं जज़बा—ए दिल…….

 

सफर बहुत नहीं है। आंखों में आंखें पड़ी हैं, सामने ही आंखें हैं। मगर हमारी आंखें पर पर्दे हैं, परमात्मा की आंखों पर कोई पर्दे नहीं हैं और न कहीं परमात्मा बहुत दूर है। हमारी आंखों पर पर्दे हैं। हमारी आंखों पर जाले हैं। हमारी आंखों पर न मालूम कितने जाल हैं—सिद्धांतो के, शास्त्रों के, शब्दों के, न मालूम कैसे—कैसे जाल हैं! ये सारे जाल काट देने जरूरी हैं। एक छोटे बच्चे की तरह सरल भाव पैदा कर लेना जरूरी है।

धन्यभागी हैं वे छोटे बच्चों की भांति सरल हो जाते हैं। ध्यान की पूरी प्रक्रिया ही यही है कि तुम्हें छोटे बच्चों की भांति सरल कर दे, निर्मल कर दे, स्वच्छ कर दे, दर्पण से सारी धूल पोंछ डाले। फिर देर नहीं लगती, तत्‍क्षण आंखों से आंखें मिल जाती हैं। तत्‍क्षण हृदय से हृदय मिल जाता है। तत्क्षण बूंद उसके सागर में लीन हो जाती है।

और लीन होने में तुम कुछ खोते नहीं, ख्याल रखना। लीन होने में तुम पाते ही हो। बूंद की तरह मिट जाते हो, लेकिन सागर हो जाते हो। यह कोई खोना हुआ? यह तो पाना ही पाना है।

परमात्मा के रास्ते पर पाना ही पाना है, लेकिन अगर बुद्धि से पूछा तो मुश्किल खड़ी हो जाती है। बुद्धि कहती है : ‘खोना ही खोना है। सम्हलो, बचो!’ बुद्धि की दृष्टि से सब खोना ही खोना है; हृदय की दृष्टि से पाना ही पाना है।

ध्यान तुम्हें बुद्धि से हटाता है और हृदय में ले आता है। और जैसे—जैसे तुम हृदय के करीब आते हो वैसे—वैसे ही पात्रता निर्मित होती है। संन्यास का केवल इतना ही अर्थ है, स्वभाव—सरलता, श्रद्धा; यह जो अनंत अस्तित्व है, इस पर आस्था। और वह आस्था मुक्तिदायी है, निर्वाणदायी है, आनंददायी है!

(उडियो पंख पसार)

 

आज इति।


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्)

सपना यह संसार–(प्रवचन–18)

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मुझे दोष मत देना!—(प्रवचन—अठारहवां)

दिनांक; २८ जुलाई १९७९;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—भगवान, मैं प्रभु को पुकारता हूं, वर्षों से पुकारता हूं, नियमित प्रार्थना करता हूं, लेकिन मेरी पुकारों का कोई उत्तर कभी मिलता नहीं। क्या मुझसे कहीं कोई भूल हो रही है?

2—मैकशों की यही आरजू है

साकिया आज ऐसी पिला दे

मैकदे में हैं जितने शराबी

आज सबको नामजी बना दे

3—यह कैसे पता चले कि जो हो रहा है वह प्रभु की मर्जी से हो रहा है या हम आलस्य के प्रभाव से नहीं कर पा रहे हैं? कृपा करके समझाएं।

 

पहला प्रश्न:

 

भगवान, मैं प्रभु को पुकारता हूं, वर्षों से पुकारता हूं, नियमित प्रार्थना करता हूं, लेकिन मेरी पुकारों का कोई उत्तर कभी मिलता नहीं। क्या मुझसे कोई भूल हो रही है?

 

नारायण देव, प्रार्थना अपना उत्तर स्वयं है। किसी और उत्तर की अपेक्षा में ही भूल है। प्रार्थना साधन नहीं है, स्वयं साध्य है। अपने—आप में परिपूर्ण है। तुमने अपने हृदय को निवेदित किया, तुमने अपने आंसू के फूल चढ़ाए, तुमने प्राणों का गीत गाया, उस गीत में रस है, उन आंसुओं में उल्लास है। उस समर्पण में ही उत्सव है। उसके पार किसी उत्तर की अपेक्षा कि आकाश कुछ बोले, कि उस पार से कोई उत्तर आए—वहीं भूल हो रही है। वैसी अपेक्षा ही तुम्हारी प्रार्थना को पूर्ण नहीं होने दे रही।

अपेक्षा वासना का ही रूप है। और जहां वासना है, वहां प्रार्थना मृत। जहां वासना नहीं है, वहां प्रार्थना जीवंत। अपेक्षा है, तो विषाद से भरोगे। क्योंकि कोई अपेक्षा कभी पूरी नहीं होती। प्रार्थना तो मौलिक रूप से निरपेक्ष होती है। प्रार्थना तो भाव की निरपेक्ष दशा है।

फूल खिले हैं। किस अपेक्षा में? कोई उत्तर मिलेगा? तारों से आकाश भरता है। किसी अपेक्षा में? कोई उत्तर मिलेगा? नहीं, यह महोत्सव अपना उत्तर स्वयं है। इस सत्य को जितना गहरा हृदय में बैठ जाने दो उतना अच्छा। नहीं तो वर्षों से चूक रहे हो, जन्मों तक चूकते रहोगे।

तुम सोचते हो कि प्रार्थना करने में कोई भूल हो रही है। नहीं, प्रार्थना की पृष्ठभूमि में भूल है। तुम प्रार्थना ही कर रहे हो आंखों की कोर से प्रतीक्षा करते हुए कि अब आया उत्तर, अब आया उत्तर, अब प्रभु प्रकट होंगे, कि अब आकाश से वाणी झरेगी। अभी तक नहीं उत्तर आया! अभी तक परमात्मा प्रकट नहीं हुआ! तुम्हारी प्रार्थना कैसे पूर्ण हो पाएगी? तुम तो बंटे—बंटे हो! आधा मन प्रार्थना कर रहा है, आधा मन किनारे खड़ा राह देख रहा है। आधा मन प्रार्थना कर रहा है, आधा मन शिकायत से भरा है—अब तक नहीं हुआ! वह जो शिकायत है, वह प्रार्थना पर पत्थर की तरह बंधी है। उड़ने न देगी प्रार्थना को; पंख न लगने देगी प्रार्थना को।

जीवन में कुछ तो चाहिए ऐसा जो बस अपना साध्य स्वयं हो। उस कुछ को ही मैं धर्म कहता हूं। फिर चाहे तुम गाओ, चाहे नाचो, चाहे मौन बैठ जाओ, लेकिन एक सूत्र को सदा स्मरण रखो: तुम्हारे जीवन में ऐसी कोई चीज, जिसके पार कोई अपेक्षा नहीं है, वही धर्म है।

अगर पार कोई अपेक्षा है, तो संसार जारी है। जहां वासना, वहां संसार। जहां वासना, वहां भविष्य। आज करेंगे प्रार्थना, कल उत्तर आएगा। अभी करेंगे प्रार्थना, थोड़ी देर के बाद उत्तर आएगा। तुम्हारी प्रार्थना में और उत्तर में थोड़ा तो अंतराल होगा; साधन और साध्य में थोड़ा तो भेद होगा।

जहां वासना है, वहां तुम चूक गए इस क्षण से। वर्तमान का यह अपूर्व क्षण खाली चला गया। तुम्हारी आंखें भविष्य में अटक गईं। भविष्य तो रिक्त है, शून्य है। भविष्य कभी आया है कि आएगा! जो आता है, उसका नाम वर्तमान है। और वर्तमान आया ही हुआ है। आता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं।

जब मैं कहता हूं प्रार्थना अपना लक्ष्य स्वयं है, तो इशारा कर रहा हूं, इस बात की तरफ कि कुछ क्षण तो तुम्हारे जीवन में ऐसे हों जब तुम बस अभी और यहीं जीओ। इस क्षण के न तो पीछे कुछ हो, न आगे कुछ हो। यह क्षण अपने में पूरा हो। इसकी पूर्णता में जरा भी, रत्ती भर भरने को कुछ शेष न रहे। और तब तुम चकित हो जाओगे, प्रार्थना ही अपना उत्तर है, प्रेम ही अपना उत्तर है। तुम झुक सके, यही पर्याप्त है अनुगृहीत होने को। चिंता क्या है? परमात्मा कुछ बोले, तब तुम तृप्त होओगे!

कभी तो तुम्हारे नयम बोल देंगे

रहो मौन तुम, मैं पुकारा करूंगा।

सुना है कि पाषाण भी बोलते हैं,

कभी वज्र के भी अधर डोलते हैं,

जड़े मंदिरों में बधिर देवता भी

स्वयं द्वार की सांकलें खोलते हैं।

इसी एक विश्वास पर कामनाएं—

सहेजा करूंगा, संवारा करूंगा।

कभी तो तुम्हारे नयम बोल देंगे,

रहो मौन तुम, मैं पुकारा करूंगा।

 

तुम्हें ध्यान होगा यहां की प्रथा का,

मुझे प्यार की इस अधूरी कथा का,

इसी द्वंद्व में दिन ढले जा रहे हैं

न जाने कहां अंत होगा व्यथा का।

 

मगर तुम भरोसा करो मैं तुम्हारे—

प्राणों को हृदय से उबारा करूंगा।

कभी तो तुम्हारे नयम बोल देंगे,

रहो मौन तुम, मैं पुकारा करूंगा।

 

मुझे हर सुमन—शूल पहचानता है,

मगर क्या करूं, मन नहीं मानता है,

कभी एक पल चैन लेने न देता

नियति के नियम, आचरण जानता है।

अगर मर गए स्वप्न, तो अर्थियों को—

स्वरों की धरा पर उतारा करूंगा।

कभी तो तुम्हारे नयम बोल देंगे,

रहो मौन तुम, मैं पुकारा करूंगा।

विदा की घड़ी पर लगाना न देरी,

खुली छोड़ना प्राण आंखें न मेरी,

चला आ रहा जो निशाना लगाए

किसीका नहीं है, समय का अहेरी।

उमर भर अथक एक क्षण के मिलन को—

तुम्हारी डगर में निहारा करूंगा।

कभी तो तुम्हारे नयम बोल देंगे,

रहो मौन तुम, मैं पुकारा करूंगा।

प्रीतिकर लगते हैं ऐसे शब्द, सुंदर लगती हैं ऐसी कविताएं, मगर अर्थहीन हैं, व्यर्थ हैं। ऐसी कविताओं में ही कहीं तुम भटके हो। तुम्हारी प्रार्थना ने अभी भी उड़ान नहीं ली, छलांग नहीं ली। अभी जमीन पर ही सरक रही है। इस तरह की कविताएं मनुष्य के साधारण प्रेम के लिए तो शायद सच हों…फिर भी कहता हूं: शायद; थोड़ी—बहुत सच हों, अंशतः सच हों…लेकिन उस परम प्रेम के लिए तो बिलकुल झूठ हैं। जब तक तुम निहारते रहोगे, जब तक तुम प्रतीक्षा करोगे, तब तक मिलन संभव नहीं है। जिस दिन निहारना गया, जिस दिन प्रतीक्षा छूटी, जिस दिन तुमने चिंता से ही मुक्ति पा ली, जिस दिन तुम प्रार्थना में झुके—और वही क्षण परिपूर्ण हुआ! तुम्हारा झुकना अपने—आप में पूरा आनंद बना। तुमने गीत गाया और गीत गाने में ही तुम्हारा रस हुआ। साधन ही जिस दिन साध्य हो गया, उस दिन प्रार्थना पूर्ण हो गई। और उसी पूर्णता में परमात्मा का दर्शन है।

परमात्मा वर्तमान है और अपेक्षा भविष्य है। इन दोनों का कहीं मिलना नहीं होता। कभी नहीं हुआ है। नारायण देव, तुम्हारे जीवन में भी नहीं होगा। इतने वर्ष तुमने व्यर्थ ही बिताए। अब भी सचेत हो जाओ।

तुमने प्रार्थना को समझा ही नहीं। तुमने वासना को ही नए वस्त्र दे दिए। पहले धन मांगते थे, पद मांगते थे, प्रतिष्ठा मांगते थे, फिर प्रभु को मांगने लगे। मगर मांग जारी रही। और मांग तो वही है, क्या तुम मांगते हो, इससे भेद नहीं पड़ता। तुम्हारे हाथों में तो भिक्षापात्र है। धन मांगो, भिक्षापात्र तो वही है, मांग भी वही है, तुम भी वही हो। कुछ भी नहीं बदला। सिर्फ मांगने की बात बदल गई, विषय बदल गया। विषय के बदलने से क्रांति नहीं होती, तुम्हारा अंतस्तल बदलना चाहिए। मांगना ही जाने दो। तोड़ दो यह भिक्षापात्र। गिरा दो यह भिक्षापात्र। मत करो प्रतीक्षा किसी उत्तर की। आकाश कभी कोई उत्तर न दिया है, न देगा। और जब तुम उत्तर की अपेक्षा ही न करोगे, तो तुम चकित हो जाओगे। चौंकोगे बहुत, अवाक रह जाओगे कि जिस दिन उत्तर की अपेक्षा गई, उसी दिन प्रश्न भी गया। क्योंकि प्रश्न जीएगा कैसे बिना उत्तर की अपेक्षा के? प्रश्न के प्राण तो उत्तर में रखे हैं। उत्तर मगर गया, प्रश्न भी मर गया। प्रार्थना उत्तर नहीं लाती, प्रार्थना निष्प्रश्न चित्त की दशा है। प्रार्थना मांगती नहीं, प्रार्थना धन्यवाद है। जो मिला है, इतना है…उसके लिए धन्यवाद देना है! तुम और मांग रहे हो! और मांगना मन का जाल है। प्रार्थना आभार है, कृतज्ञता—ज्ञापन है। इतना दिया है तूने!

लेकिन हम मांगे चले जाते हैं। इस लोक की मांग छूटती है तो परलोक की मांग शुरू हो जाती है।

जीवन का इकतारा टूटे जाकर तेरे गांव में,

प्राणों का यह दीप बुझे तेरे आंचल की छांव में।

आओ निर्मम! फूल तड़पते

आंसू की जय—माल के,

कहां छिप गए हो छलिया

सांसों की भांवर डाल के,

 

मन की मीरा दरद की मारी, बन—बन डोले बावरी,

देह मुरलिया गीत तुम्हारे गाती फिरी दिशाओं में

 

आंसू तुमको अर्ध्य चढ़ाए

आह उतारे—आरती,

तुमको दिल की धड़कन टेरे

तुमको सांस पुकारती,

 

सुधि की लौ को बुझा नहीं पातीं आहों की आंधियां,

यही दीप है जो जलता रहता है तेज हवाओं में।

 

मेरी अंतिम दृष्टि तुम्हारा

अंतिम रूप निहार ले,

मेरे आंसू का अंतिम कण

तेरे चरण पखार ले,

 

अंतिम हिचकी का स्वर तेरी पायल को झनकार दे

अंतिम रक्तबिंदु मेंहदी बन रचे तुम्हारे पांव में।

जीवन का इकतारा टूटे जाकर तेरे गांव में,

प्राणों का यह दीप बुझे तेरे आंचल की छांव में।

लेकिन यह सारा गांव उसी का है। ये सब आंचल उसी के हैं। ये आकाश में उठे हुए बादल उसी के आंचल हैं। और यह चांदत्तारों की सजी बारात उसी की आंखें हैं। यह फूलों में जो मुस्कुराया है, कौन है? वृक्षों में जो हरा हो उठा है, वह कौन है? पशुओं में, पक्षियों में, मनुष्यों में, मुझ में, तुम में जो जाग्रत है, जो चैतन्य है, वह कौन है? हम उसी के गांव में हैं। हम उसी के मंदिर में विराजमान हैं। जहां तुम हो, वहीं काबा है और वहीं काशी है और वहीं कैलाश है, वहीं गिरनार है। कहीं और जाना नहीं, कुछ और पाना नहीं।

परमात्मा मिला हुआ है, इस बोध का नाम प्रार्थना है।

परमात्मा को पाना है, ऐसी अगर आकांक्षा है तो यह प्रार्थना नहीं है। परमात्मा मिला ही हुआ है; अब क्या करें? नाचें, खुशी मनाएं, जश्न मनाएं, उत्सव होने दें। परमात्मा मिला ही हुआ है श्वास—श्वास में; गीत गाएं, स्तुति को जगने दें। उसकी महिमा, उसका प्रसाद तो बरस ही रहा है। और क्या चाहते हो!

तुम्हारी भूल, नारायण देव, सिर्फ इतनी ही है कि तुमने प्रार्थना बड़ी परंपरागत ढंग से शुरू की। और तुम उसी परंपरागत प्रार्थना को यहां आकर भी किए जा रहे हो!

मेरी दृष्टि को समझने की कोशिश करो।

पूछते हो तुम: मैं प्रभु को पुकारता हूं। प्रभु को जानते हो जो पुकारोगे? उसका नाम, पता, ठिकाना कुछ मालूम है? राम को पुकारते होओगे—धनुर्धारी राम! कि कृष्ण को पुकारते होओगे—मोरमुकुट, मुरली वाले कृष्ण! कि बुद्ध को पुकारते होओगे, कि महावीर को! मगर ये सब तो तरंगें ही हैं उसके सागर की। उसको इन्होंने जान लिया है, इसलिए इन्हें हमने भगवान कहा है। जिसने उसे जाना, वही भगवान। तुम भी भगवान हो, सिर्फ अपने से अपरिचित हो, बस इतनी भूल हो रही है। सिर्फ अपनी तरफ पीठ किए खड़े हो, इतनी भूल हो रही है।

किसको पुकारते हो? उसका कोई नाम है! उसका कोई भी नाम नहीं। किस दिशा में पुकारते हो? उसकी कोई दिशा है! सब दिशाओं में वही है। कौन—सा विधि—विधान है तुम्हारी प्रार्थना का? फूल चढ़ाते हो शंकर जी की पिंडी पर? घंटी बजाते हो? गायत्री पढ़ते हो? वेद की ऋचाएं दोहराते हो? कि कुरान की आयतें गुनगुनाते हो? क्या करते हो?

यह सब तो शब्द ही हैं। प्रार्थना का इनसे कुछ लेना—देना नहीं है। प्रार्थना तो मौन समर्पण है। वहां वेद भी छूट जाते हैं, कुरान—बाइबिल भी छूट जाती हैं। वहां हिंदू हिंदू नहीं होता, मुसलमान मुसलमान नहीं होता, ईसाई ईसाई नहीं होता। प्रार्थना में प्रार्थी होता है। वहां कोई और नहीं बचता! वहां मन ही नहीं बचता। मांगने वाला गया कि मन गया। मन है भिखमंगा। मन का रूप है: और मिले, और मिले, और मिले…।

तुम किस प्रभु को पुकारते हो? आकाश की तरफ देख कर? पृथ्वी में वह नहीं है? आंख खोलकर पुकारते हो? आंख बंद करो तो वह नहीं है? आंख बंद करके पुकारते हो? आंख खोलो तो वह नहीं है? कोई विधि—विधान नहीं है उसे पुकारने का। सिर्फ समग्ररूप से मौन हो जाने में ही तुम्हारे भीतर जो अहोभाव जगने लगता है—निःशब्द। तुम्हारे भीतर ही एक दीया जलने लगता है—शून्य का, मौन का; निर्विकल्प; निर्विचार का। अकंप उसकी लौ होती है। तुम्हारे भीतर ही एक सुगंध फूटने लगती है। तुम्हारे भीतर का ही कमल खिलता है। वहीं सुगंध प्रार्थना है।

प्रार्थना कोई क्रियाकांड नहीं है कि ऐसे की, कि वैसे की, प्रार्थना सहज स्फूर्त आनंद का भाव है। जहां बैठे, वहीं हो गई, जहां खड़े हुए, वहीं हो गई। चलते—चलते हो गई, काम करते—करते हो गई। कोई अलग कोना खोजने की जरूरत भी नहीं है। नहाये तो ठीक, न नहाए तो ठीक। प्रार्थना औपचारिकता नहीं है।

तुम कहते हो: नियमित प्रार्थना करता हूं। एक यंत्रवत बात हो गई होगी। रोज—रोज कर लेते हो, इतने दिन से करते हो, लत पड़ गई होगी। नहीं करते होओगे तो अड़चन होती होगी। नहीं करते होओगे तो वैसी ही अड़चन होती होगी जैसे धूम्रपान करने वाले को धूम्रपान करने न मिले। चाय पीने वाले को चाय न मिले। वैसे प्रार्थना जो करता है, उसे एक दिन प्रार्थना करने को न मिले तो उसे बड़ी बेचैनी होती है। कुछ खाली—खाली लगता है, कुछ चूका—चूका मालूम होता है। कुछ कमी रह गई। मन लौट—लौट वहां जाता है। मन की आदत है यंत्रवत जीने की—मन यंत्र ही है। और यंत्र अपनी पूरी प्रक्रिया चाहता है। जैसा रोज होता रहा, वैसा ही।

मैंने सुना है, एक मदारी के पास एक बंदर था। वह रोज सुबह उसे चार चपाती देता और सांझ तीन चपाती दीं, बंदर ने फेंक दीं। रोज सुबह चार मिलती हैं। बंदर बड़ा नाराज हुआ! बड़ा समझाया—बुझाया तो बंदर ने बामुश्किल से तीन लीं। शाम को चार दीं तो उसने फेंक दीं। क्योंकि शाम को हमेशा वह तीन खाता रहा। मदारी तो बहुत हैरान हुआ। मदारी ने बहुत कहा, अरे मूरख, तुझे थोड़ा गणित नहीं आता? चार और तीन सात। सात तुझे रोज मिलती थीं। सुबह तीन, चार शाम या चार सुबह, कि तीन शाम। लेकिन बंदर अकड़ा बैठा रहा। बंदर तब तक राजी न हुआ, जब तक उसे सुबह चार और सांझ तीन रोटियां मिलनी शुरू न हुईं।

आदमी का मन भी बंदर जैसा है। उसे तुम जो देते हो, वह उसी की मांग करता है। रोज—रोज वैसा ही चाहिए। मन पुनरुक्ति करता है।

तो प्रार्थना भी एक यंत्रवत बात हो जाती है। रोज सुबह उठकर, स्नान करके प्रार्थना करते हो; स्नान करके नहीं करोगे, खाली जगह रह जाएगी। जैसे कभी कोई दांत टूट जाता है, तो जीभ वहीं, वहीं—वहीं जाती है। इतने दिन से दांत था, जनम भर से, जीवन—भर से, तब से जीभ वहां नहीं गई थी। आज दांत गिर गया, खाली जगह में दिन—भर जीभ जाती है। तुम लाख जीभ को समझाओ कि मालूम है कि टूट गया, अब बार—बार क्या जाना, मगर फिर भूले कि जीभ गई!

खाली जगह अखरती है। तुमने प्रार्थना न की तो प्रार्थना की कमी अनुभव होगी। और करोगे, तो कुछ मिलेगा नहीं। आखिर जीभ को ले जाओगे टूटे हुए दांत की जगह तो क्या पा लोगे? प्रार्थना करते रहोगे, कुछ मिलेगा नहीं, प्रार्थना नहीं करोगे तो कुछ खोया खोया लगेगा—यह बहुत हैरानी की घटना घटती है। इसलिए लोग जो करते हैं, किए चले जाते हैं।

लेकिन अब काफी हो गया! वर्षों से पुकार रहे हो, कुछ हुआ नहीं। अब पुकारने का नया ढंग सीखो। जिसमें न नाम है, न औपचारिक रूप है। नियमित प्रार्थना करते रहे हो जैसे और सब काम नियमित करते हो—स्नान करते हो, भोजन करते हो, सोते हो। अब एक और प्रार्थना सीखो, जिसका नियम से कोई संबंध नहीं। जो किसी मर्यादा में नहीं होती। जो श्वास की तरह होती है। जो अहर्निश चलती रहती है। उठते—बैठते, सोते—जागते, काम करते—न—करते। लेकिन ऐसी प्रार्थना का अर्थ यह मत समझ लेना कि मैं तुमसे कह रहा हूं कि अब चौबीस घंटे राम—राम, राम—राम, राम—राम जपते रहो। वैसा करोगे तो विक्षिप्त हो जाओगे। वैसा करोगे तो जो थोड़ी—बहुत प्रतिभा होगी, वह भी खो जाएगी; जंग खा जाएगी।

इसलिए तुम्हारे तथाकथित रामनाम जपने वाले लोगों में कोई प्रतीक्षा के दर्शन नहीं होते। उनकी तलवार में कोई धार नहीं होती; जंग लगी होती है। यह तो जंग लगाने का ढंग है। एक ही शब्द को बार—बार दोहराते रहोगे तो प्रतिभा को धार रखने का मौका ही नहीं मिलेगा। प्रतिभा में धार आती है नए—नए अनुभव से; नई—नई प्रतीतियों से; नई भूमि तोड़ने से; नए पर्वत—शिखरों पर चढ़ने से; नए अभियान से; नई यात्रा से। चौबीस घंटे राम—राम दोहराते रहे तो गाड़ी के चाक की तरह घूमते रहोगे उसी जगह। कोल्हू के बैल हो जाओगे।

तो जब मैं कहता हूं: अहर्निश, तो मेरा अर्थ है: एक भावदशा। शब्द उतना नहीं, जितना भावदशा। फूल दिखाई पड़े तो प्रभु को स्मरण करना; लोग दिखाई पड़ें तो प्रभु को स्मरण करना, सूरज ऊगता दिखाई पड़े तो प्रभु को स्मरण करना। सब उसका है। सब इशारे उसके हैं। सब रूपों में वही व्यक्त हो रहा है। ऐसा कोई रूप नहीं जो उसका न हो। तुम्हारे शत्रु में भी वही है, मित्र में भी वही है। ऐसा कर सको तो प्रार्थना हो।

और ध्यान रखना, कहते हो: मेरी पुकारों का कोई उत्तर नहीं मिलता, उत्तर है ही नहीं। यह जगत निरुत्तर है। इसीलिए तो इस जगत को रहस्य कहते हैं। रहस्य का अर्थ है: इसका कोई उत्तर नहीं है। रहस्य का अर्थ है: उत्तर खोजते—खोजते मर जाओगे, उत्तर नहीं पाओगे। सदियां हो गईं, दार्शनिक खोज रहे हैं उत्तर; क्या खाक उत्तर खोजा जा सका है! एक जीवन के मौलिक प्रश्न का उत्तर नहीं है। हो ही नहीं सकता। यहीं दर्शन और धर्म का भेद है। धर्म कहता है: उत्तर हैं ही नहीं। दर्शन कहता है: और थोड़ा खोजें तो शायद मिल जाए उत्तर। उत्तर तो नहीं मिलते—और नए प्रश्न मिल जाते हैं। खोदते—चलो, नए—नए प्रश्न मिलते जाते हैं। धर्म कहता है: उत्तर तो है ही नहीं, प्रश्न को भी गिर जाने दो। और जिस दिन प्रश्न गिर जाता है, उस दिन तुम निर्भार हो जाते हो। चिंता नहीं रह जाती। प्रश्न है तो विचार है। प्रश्न नहीं तो विचार नहीं। प्रश्न है तो जीवन समस्या मालूम होती है और प्रश्न नहीं है तो जीवन समाधान है। निष्प्रश्न होना समाधि है।

नारायण देव, उत्तर की प्रतीक्षा ही न करो! उत्तर है ही नहीं! आकाश भी बेचारा क्या करे! तुम पुकारते होओगे, तुम पूछते होओगे, आकाश को भी तुम असुविधा में डालते हो। आकाश भी क्या करे, उत्तर कोई है नहीं।

यह अस्तित्व एक रहस्य है, एक प्रश्न नहीं। इस रहस्य को भोगा जा सकता है, लेकिन इस रहस्य को सुलझाया नहीं जा सकता। और भोगने में मजा है, सुलझाकर करोगे भी क्या? पागल सुलझाते हैं, बुद्धिमान भोगते हैं।

बगिया में फूल—ही फूल खिले हैं। जो बुद्धिमान है, वह फूलों को भोगेगा। उनकी गंध को पीएगा; उनके आनंद, हवाओं में होते उनके नृत्य को देखेगा; उनके साथ नाच लेगा; उनके साथ झूमेगा; उनके साथ मदमस्त हो जाएगा। और जो नासमझ है, वह अजीब—अजीब प्रश्न उठाएगा। सौंदर्य क्या है? सुगंध क्या है? और इन्हीं प्रश्नों में खो जाएगा। जल्दी ही बगिया तो विसर्जित हो जाएगी, तुम उसे बैठा किसी पुस्तकालय में पाओगे। ढूंढ रहा होगा, पुस्तकों में तलाश रहा होगा। सौंदर्य पुस्तकों में मिलेगा! बगिया में भरपूर था, वहां से चला आया प्रश्न लेकर।

नाचो, गाओ—और अस्तित्व तुम्हारा है। पूछो—और तुम चूके।

पूछते हो, नारायण देव, क्या मुझसे नहीं कहीं कुछ भूल हो रही है? तुमने पूछा है किसी और अर्थ में—तुमने पूछा है, क्या मेरी प्रार्थना के ढंग में कोई गलती है? क्या मेरे प्रार्थना के शब्द समुचित नहीं? क्या मेरे प्रार्थना के उच्चारण भूल भरे हैं? क्या मेरे प्रार्थना का व्याकरण चूक भरा है? क्या मैं प्रार्थना को बदलूं? क्या मैं जिस नाम से पुकारता हूं, वह नाम मेरे हृदय से तालमेल नहीं खाता? कृष्ण—कृष्ण कहता हूं तो क्या अब राम—राम कहूं? इतने फूल चढ़ाता हूं, इतनी आरती उतारता हूं, कम तो नहीं पड़ती? कितनी बार आरती उतारूं, कितने फूल चढ़ाऊं? एक बार करता हूं, एक बार करना शायद पर्याप्त न हो तो दो बार करूं। घर में ही कर लेता हूं, शायद यह ठीक नहीं; मंदिर में जाकर करूं? तुमने पूछा है कि कहीं कोई भूल तो नहीं हो रही? तुम्हारा इस तरह की भूलों से प्रश्न जुड़ा है।

नहीं, ऐसी कोई भूल नहीं हो रही। लेकिन एक भूल जरूर हो रही है—मौलिक भूल हो रही है—तुम्हारी प्रार्थना अभी भी वासना है। छिपी हुई वासना। अप्रकट। तुम्हारी प्रार्थना अभी भी प्रश्न है। तुम्हारी प्रार्थना अभी भी मस्तिष्क में है, अभी तक हृदय में नहीं उतरी है। तुम्हारी प्रार्थना अभी भी शब्द है, मौन नहीं बनी है। तुम्हारी प्रार्थना में अभी भी भविष्य है, वर्तमान में डुबकी नहीं लगी है। वहां भूल हो रही है। तुम कौन—सी प्रार्थना करते हो—मुझे प्रयोजन नहीं है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई—मुझे प्रयोजन नहीं। इस पंथ की, उस पंथ की—मुझे कुछ लेना—देना नहीं है। यह मौलिक भूल जो हो रही है, वह मैं तुमसे कहे देता हूं। वही मुसलमान कर रहा है, वही हिंदू कर रहा है, वही ईसाई कर रहा है। प्रार्थना होनी चाहिए शून्य, प्रेम का समर्पण। इस क्षण को, अभी और यहीं उंडेल दो अपने हृदय को। मत मांगो कुछ! बिन मांगे मोती मिलै, मांग मिलै न चून। और मोतियों की वर्षा हो जाएगी। झर लग जाएगी मोतियों की! फूल ही फूल गिरेंगे कि तुम सम्हाल भी न पाओगे, तुम्हारी झोली छोटी पड़ जाएगी!

और तुम तुम जानोगे: मैं यहां—वहां टटोलता फिर और परमात्मा भीतर मौजूद था। मैं दूर—दूर देखता रहा और परमात्मा पास था। मैं नाम ले—ले कर पुकारता रहा और परमात्मा अनाम है। मैं शास्त्रों से परमात्मा को खोजता रहा और परमात्मा का कोई भी शास्त्र नहीं है।

 

दूसरा प्रश्न: भगवान,

 

मैकशों की यही आरजू है

साकिया आज ऐसी पिला दे

मैकदे में हैं जितने शराबी

आज सबको नमाजी बना दे

 

रि भारती, और मैं कर ही क्या रहा हूं? लगता है कि तुम मैकदे में आकर भी नहीं पीने की कसम लिए बैठे हो; तोबा किए बैठे हो! यह कोई मंदिर तो नहीं, मधुशाला है। यहां पीना—पिलाना ही चल रहा है।

तुम कहते हो:

मैकशों की यही आरजू है

साकिया आज ऐसी पिला दे।

लेकिन प्रतिपल, प्रतिदिन शराब ही उंडेली जा रही है। तुम ही शायद ओठों को सिए बैठे हो। शायद तुम ही अकड़े बैठे हो; अपने तर्क, अपने सिद्धांत, अपने शास्त्रों में घिरे। तुमने शायद अंजुली नहीं भरी। तुमने शायद अपना पैमाना साफ नहीं किया। शायद तुम अभी समझ ही नहीं सके कि पीने की कला क्या है, पीने की कला के सूत्र क्या हैं?

पहली बात, पीने की कला के लिए झुकना आना चाहिए। यह शराब कुछ ऐसी शराब नहीं है जो सुराहियों से ढाली जाती है। यह तो ऐसी शराब है जो सागर जैसी। तटों से टकरा रही है। तुम झुको, अंजुली भरो, दिल भर कर पीओ! मगर झुकना होगा। और झुकना हम जानते नहीं। हमारी रीढ़ें अकड़ गई हैं, झुकना भूल गई हैं। जहां झुकने की बात होती है वहां हम एकदम सचेत हो जाते हैं। झुकना यानी श्रद्धा। संदेह करने में हम कुशल हैं, श्रद्धा करने में बिलकुल ही अकुशल हो गए हैं। हमें श्रद्धा की भाषा ही भूल गई है। हमें भाषा सिखाई भी नहीं जाती श्रद्धा की। स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय, सब संदेह सिखाते हैं। यह विज्ञान का आधार है, संदेह। वैज्ञानिक होने के लिए संदेह जरूरी है। वैसे ही जरूरी है जैसे धार्मिक होने के लिए श्रद्धा जरूरी है।

विज्ञान की यात्रा बहिर्गामी है। बाहर की यात्रा के लिए संदेह के घोड़े पर सवार होना होता है। धर्म की यात्रा अंतर्यात्रा है। अंतर्यात्रा विपरीत दिशा है। अगर विज्ञान में संदेह उपयोगी है तो धर्म में संदेह बाधा है। भीतर जाना है; जितने भीतर जाना है उतना संदेह छोड़ना पड़े; उतना श्रद्धा से भरना पड़े। विज्ञान में श्रद्धा से अड़चन पड़ती है। श्रद्धालु को वैज्ञानिक नहीं बनाया जा सकता। वैसे ही संदेह से भरी चेतना को धार्मिक नहीं बनाया जा सकता।

यह शराब श्रद्धा के पात्र में ही भरी जा सकती है। तुम श्रद्धा बनो, तो अभी भर जाओ, लबालब भर जाओ! लेकिन अगर श्रद्धा में कहीं भी संदेह के छिद्र हैं, तो मैं भरता रहूंगा और तुम खाली—के—खाली रहोगे। यह शराब कोई मस्तिष्क, विचार, पांडित्य, ज्ञान—उस दुनिया की बात नहीं है; भाव, भावना, प्रार्थना, पूजा, अर्चना, आराधना—उस जगत की बात है। ये दो जगत हैं। ये जीने के दो ढंग हैं। और हम सब खोपड़ी में जी रहे हैं। खोपड़ी हिसाब लगाती है। बस हिसाब ही लगाती रहती है! वह गणित ही बिठाती रहती है! गणित बिठाते—बिठाते ही जिंदगी समाप्त हो जाती है। समय ही नहीं मिलता कि नाच सको, गुनगुना सको, वीणा बजा सको, कि बांसुरी पर फूंक दे सको। उसके लिए एक दूसरा जगत है तुम्हारे भीतर; हृदय का।

यह शराब हृदय से पीओगे तो पी सकोगे। वहीं चूक हो रही है। बहुत लोगों को तो हृदय भूल ही गया है। विज्ञान की किताबों में तो हृदय क्या है? बस फेफड़ा, फुफ्फुस। विज्ञान की किताबों में हृदय की कोई जगह नहीं है। हो भी नहीं सकती। विज्ञान आदमी का विश्लेषण करता है। खोपड़ी तो मिलती है, मस्तिष्क मिलता है, लेकिन प्रेम का कोई स्रोत नहीं मिलता। विचार का स्रोत तो मिलता है। विचार का स्रोत शरीर का हिस्सा है। प्रेम का स्रोत आत्मा का हिस्सा है। आत्मा अदृश्य है; उसकी न कोई तौल हो सकती है, न कोई माप हो सकती है। और विज्ञान तो तौल और माप से जीता है। जिसकी तौल और माप न हो सके, उसे अस्वीकार कर देता है विज्ञान।

और, आधुनिक शिक्षा तुम सबको ही नास्तिकता के लिए तैयार करती है।

एक बड़ी दुविधा पैदा हुई है दुनिया में। तुम्हारा परिवार तुम्हें आस्तिकता की तरफ ले जाने की चेष्टा करता है। फिर चाहे घर हिंदू हो, चाहे मुसलमान, चाहे ईसाई, चाहे जैन। बचपन से मां—बाप तुम्हें मंदिर, मसजिद, गुरुद्वार ले जाना शुरू करते हैं। घर की हवा में जपुजी सुनते हो, गायत्री सुनते हो, हवन—यज्ञ—पूजन देखते हो, तो तुम्हारे भीतर थोड़ी—सी दबी—दबी आग धर्म की होती है। लेकिन तुम्हारा सारा शिक्षा का जगत—प्रायमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक—तुम्हें तर्क सिखाता, विचार सिखाता, गणित सिखाता, संदेह सिखाता। ऐसे तुम्हारे भीतर द्वंद्व पैदा हो जाता है। तुम्हारे भीतर एक द्वैत का जन्म होता है। तुम खंड—खंड हो जाते हो। और इन खंडों के बीच संघर्ष है। इस संघर्ष में तुम्हारी ऊर्जा व्यर्थ ही व्यय होती है। और तुम न यहां के न वहां के। तुम्हारी स्थिति धोबी के गधे की हो जाती है—न घर का न घाट का। तुम मध्य में अटक जाते हो, तुम त्रिशंकु हो जाते।

किन्हीं—किन्हीं क्षणों में हृदय जोर मारता है, थोड़ी—सी लहरें उठाता है, लेकिन वे कमजोर लहरें होती हैं, क्योंकि शिक्षा ने उनके ऊपर खूब पत्थर जमा दिए हैं। चौबीस घंटे तो तुम गणित और हिसाब—किताब की दुनिया में जीते हो—बही—खाते—और कभी—कभी गीता खोल लेते हो, कुरान खोल लेते हो। इन दोनों में कोई तालमेल नहीं है। ये दोनों एक—दूसरे के विपरीत हैं। इनमें से एक की मानो तो दूसरे की मानना मुश्किल है। तो मानते तो तुम बही—खाते की हो और झूठी श्रद्धा के फूल कुरान और बाइबिल पर चढ़ा देते हो। मानते तो बाजार की हो, हां, कभी—कभी मंदिर हो आते हो। और धीरे—धीरे तुमने मंदिर भी बाजार में ही बना लिया है। और धीरे—धीरे तुमने मंदिर को भी बाजार में ही ढाल दिया है। धीरे—धीरे तुम्हारा मंदिर भी बाजार की ही एक दुकान है। वहां भी पंडित—पुजारी बिठा दिए हैं, जो सिर्फ व्यवसायी हैं। जिनके जीवन में खुद धर्म का कोई अनुभव नहीं है। तुमसे उनका तालमेल बैठता है—तुम भी व्यवसायी, वे भी व्यवसायी, भाषा समझ में आती है, संवाद आसान हो जाता है।

हरि भारती, इसलिए जब कभी संयोगवशात, सौभाग्यवश तुम किसी मधुशाला में प्रविष्ट हो जाते हो तो भी पी नहीं पाते। पीने से डरते हो। तुम्हारी बुद्धि कहती है कि पीओगे, पागल हो जाओगे। और एक अर्थ में बुद्धि ठीक कहती है, पीओगे तो जरूर पागल हो जाओगे। हालांकि यह पागलपन तुम्हारी बुद्धि के स्वास्थ्य से बहुत ऊंचाई पर है। यह पागलपन तुम्हारी बुद्धि की होशियारी से ज्यादा कीमती है। यह पागलपन परमात्मा का है। मगर बुद्धि कहती तो ठीक ही है एक बात कि जरा सम्हल कर चलना! जरा होशियारी रखना! जरा पैर फिसला कि फिर एक ऐसी दुनिया में समाविष्ट हो जाओगे जिसकी न तो तुम्हें कोई पहचान है, न जिसकी तुम्हें कोई शिक्षा दी गई है, न जिसका नक्शा तुम्हारे पास है। फिर कहीं ऐसा न हो कि लौटना मुश्किल हो जाए। इसलिए बातें धर्म की करो, मगर चलो राजपथ। पगडंडियों पर धर्म की उतरना मत, जंगल भयंकर है, बीहड़ है, खो जा सकते हो। और पियक्कड़ होना है तो पागल होने की सामर्थ्य तो चाहिए ही।

तुम कहते हो:

मैकशों की यही आरजू है

साकिया आज ऐसी पिला दे

मैकदे में हैं जितने शराबी

आज सबको नामजी बना दे

यह शराब तो नमाज की ही है। नमाज ही तो पिलाई जा रही है। नमाज ही को तो मैं शराब कह रहा हूं।

तुम्हारे तथाकथित संत तुम्हें उदास बनाते हैं। उनका वैराग्य एक तरह की बीमारी है। उनका धर्म जीवन—निषेधक है। उनका अध्यात्म मृत्यु से संयुक्त है, जीवन से नहीं। उनका अध्यात्म मृत्योन्मुखी है, आत्मघाती है। वे तुम्हें मरना सिखाते हैं। वे तुम्हें सिकुड़ना सिखाते हैं। यह छोड़ो, वह छोड़ो…।

छोड़ने का अर्थ क्या होता है? सिकुड़ते जाओ, सिकुड़ते जाओ। भूखे मरो, उपवास करो, शरीर को गलाओ, सिकुड़ते जाओ, सिकुड़ते जाओ। एक आहिस्ता—आहिस्ता आत्मघात कर लो।

मैं उन सब के विरोध में हूं। उन्होंने इस पृथ्वी को धार्मिक नहीं होने दिया। उनकी बातों के कारण केवल वे ही लोग धर्म में उत्सुक हुए जो किसी तरह मानसिक रूप से रुग्ण हैं। उनके धर्म के कारण केवल अस्वस्थ लोग ही धर्म के जगत में उत्सुक हुए। स्वस्थ आदमी तो नाचना चाहेगा, गाना चाहेगा। अगर स्वास्थ्य नहीं नाचेगा, नहीं गाएगा, तो क्या बीमारी नाचेगी और बीमारी गाएगी?

तुम्हारे मंदिर मधुशालाएं न बन सके, अस्पताल बन गए। तुम्हारे मंदिरों को गौर से देखो, वहां तुम बीमार लोगों को बैठा हुआ पाओगे। जिनमें जीने की क्षमता नहीं थी, जो जीवन से डर गए, जिन्हें जीवन घबड़ाने वाला लगा, उन्होंने एक आवरण ओढ़ लिया—वैराग्य का। असलियत कुछ और थी। नपुंसक थे, जीवन जीने में असमर्थ थे, दुर्बल थे, अंगूर खट्टे हैं, ऐसा कह कर वे भाग गए। अंगूर चखे ही नहीं—अंगूर ऊंचाई पर थे, उन्हें पाने के लिए छलांग लगानी होती है। मगर किसी का अहंकार यह मानने को तैयार नहीं होता कि मेरी छलांग छोटी है।

एक सर्दी की सुबह, एक हाथी धूप ले रहा था। एक चूहा भी आकर उसके पास खड़ा हो गया और धूप लेने लगा। चूहे ने बहुत चें—चें की, हाथी के पैर पर इधर से चोंच मारी, उधर से चोंच मारी—हाथी का ध्यान आकर्षित करना चाहता था। बहुत मेहनत करने के बाद आखिर हाथी को कुछ लगा कि कुछ चें—चें, चें—चें की कुछ आवाज…नीचे झुक कर देखा, बामुश्किल चूहा दिखाई पड़ा। हाथी ने इतना छोटा प्राणी कभी देखा नहीं था। उसने पूछा: अरे, तुम इतने छोटे! इतने छोटे प्राणी भी होते हैं? चूहे ने कहा, माफ करिए, छोटा नहीं हूं, असल में छह महीने से बीमार हूं। बीमारी की वजह से यह हाल हो गया है।

चूहे का भी अहंकार है। वह भी यह नहीं मान सकता कि मैं कोई हाथी से छोटा हूं।

मैंने एक कहानी और सुनी है कि एक हाथी पुल पर से गुजरा। पुल चर्र—मर्र होने लगा। लकड़ी का पुल था, चरमराने लगा। उस हाथी के सिर पर एक मक्खी भी बैठी थी। उस मक्खी ने कहा, बेटा, हम दोनों का वजन बहुत भारी पड़ रहा है!

मक्खी भी यह मान नहीं सकती कि यह हाथी के वजन से चरमरा रहा है पुल। हम दोनों का वजन बहुत भारी पड़ रहा है!

अहंकार स्वीकार नहीं कर सकता कि मैं कमजोर हूं; कि अंगूर दूर हैं, मेरी पहुंच के बाहर हैं। तो फिर क्या उपाय है अहंकार को अपनी रक्षा का? वैराग्य। छोड़ ही दो। जिस संसार को पा नहीं सकते, कहो कि उसमें कुछ पाने योग्य ही कहां है? हम तो पा सकते थे, पा ही लिया था, मगर कुछ पाने योग्य था ही नहीं। कूड़ा—करकट है सब। और ऐसा आदमी चौबीस घंटे समझाता रहेगा मंदिरों—मस्जिदों में बैठकर कि सब कूड़ा—करकट है, तुमको भी समझाएगा कि सब कूड़ा—करकट है, संसार में कुछ है नहीं।

मैं तुमसे कहता हूं: संसार में परमात्मा है। गहरी खोज करनी पड़ेगी। हाथ दूर तक फैलाने होंगे। नावें अज्ञात में ले जानी होंगी! मैं तुमसे कहता हूं: अंगूर दूर हैं, लेकिन पाने योग्य हैं। और उन अंगूरों को पा लो तो शराब बने। जीवन से भागने से नहीं, जीवन के स्वाद में ही शराब है!

लेकिन मैं जिस शराब की बात कर रहा हूं, खयाल रखना, वह नमाज का ही दूसरा नाम है। लेकिन वह उनको ही मिल सकती है जो जीवन को पीने को राजी हैं। यह जीवन की सुरा है। जीवन को पीओ तो परमात्मा का स्वाद तुम्हें मिलेगा।

लेकिन फिर याद दिला दूं, मैं जिसको जीवन कहता हूं, वह तुम्हारे मन का जीवन नहीं है। धन—पद पाने का; प्रतिष्ठा, यश, सम्मान, सत्कार पाने का; वह जो तुम्हारा मन का जाल है, वह तो पलटू ठीक कहते हैं उसके संबंध में…सपना यह संसार। वह संसार तो सपना है। क्योंकि तुम्हारे मन सपने के अतिरिक्त क्या कर सकते हैं! लेकिन तुम्हारे सपने जब शून्य हो जाएंगे और मन में जब कोई विचार न होगा और जब मन में कोई पाने की आकांक्षा न होगी, तब एक नया संसार तुम्हारी आंखों के सामने प्रकट होगा—अपनी परम उज्वलता में, अपने परम सौंदर्य में—वह परमात्मा का ही प्रकट रूप है। उसको पिलाने के लिए ही मैंने तुम्हें बुलाया है। उसे तुम पीओ, उसे तुम जीओ! मैं तुम्हें त्याग नहीं सिखाता, परम भोग सिखाता हूं।

सुन लो मेरी बात मुनव्वर तुम भी शेर कहो मदमाते

नाच उठे ये धरती सारी गति तुम्हारे गाते—गाते

सुन लो मेरी बात मुनव्वर

 

तुम उपदेशक क्यों बनते हो तुम भी रस में डूब न जाओ

जिसमें हो शृंगार उमड़ता तुम भी ऐसे गीत न गाओ

सुन लो मेरी बात मुनव्वर

 

सूखे उपदेशों को सुनकर सारी दुनिया हंस देती है

रस यौवन में जो डूबी हो उस कविता का रस लेती है।

सुन लो मेरी बात मुनव्वर

 

उम्र पे अपनी क्यों जाते हो उम्र तो भावों से बनती है

नई पुरानी हर छलनी से प्रेम सुरा पल पल छनती है

सुन लो मेरी बात मुनव्वर

 

सुन लो मेरी बात मुनव्वर तुम भी शेर कहो मदमाते

नाच उठे ये धरती सारी गीत तुम्हारे गाते—गाते

सुन लो मेरी बात मुनव्वर

मैं तुम्हें एक गीत देना चाहता हूं। एक गीत, जो मेरे भीतर जन्मा है। मैं तुम्हें एक रस पिलाना चाहता हूं। एक रस, जो मैंने पिया है। मैं चाहता हूं कि तुम भी इस अलमस्ती में डूब जाओ! मैं तुम्हें वैराग्य नहीं सिखाना चाहता। और अगर वैराग्य सिखाना चाहता हूं, तो मेरा वैराग्य तथाकथित वैरागियों के वैराग्य से बिलकुल उलटा है। मेरा वैराग्य राग की पराकाष्ठा है। राग का अतिक्रमण है, अंतिम चरण है।

चांद हंसने लगा रात गाने लगी

उनके कदमों की आवाज आने लगी

दे उठी लौ सी फिर रहगुजर की जम.

और भी हो गई आज हर शै हसीं

फूल महके कहीं रंग बरसे कहीं

सोचते हैं कि खो जाएं अब तो यहीं

दिल की धड़कन नए रंग लाने लगी

चांद हंसने लगा रात गाने लगी

 

जगमगाने लगा आरजू का दिया

फिर खयालों में एक हुस्न लहरा उठा

कह गई दिल से कुछ गुनगुना कर हवा

छिड़ गए राग से नाच उट्ठी फिजा

एक मस्ती निगाहों पे छाने लगी

चांद हंसने लगा रात गाने लगी

 

छट गए गम के बादल मिटी बेबसी

थरथराए अंधेरे हुई रोशनी

मुस्कुराने लगी हर तरफ चांदनी

हो गई अब मेरी जिंदगी जिंदगी

फिर कोई आंख जादू जगाने लगी।

चांद हंसने लगा रात गाने लगी

उनके कदमों की आवाज आने लगी

परमात्मा के पदचाप तुम्हें सुनाई पड़ सकते हैं, मगर मस्ती में ही। थोथी नमाजों से कुछ भी न होगा। पियक्कड़ की नमाज चाहिए! तुम्हारी नमाज ऐसी हो कि बेहोश कर दे। और बेहोशी तुम्हारी ऐसी हो कि होश के दीए के साथ हो। एक तरफ भीतर परम होश भी जगे और साथ—ही—साथ एक मस्ती भी तुम्हें डुलाए, नचाए।

सम्राट अकबर गया था शिकार को। सांझ हो गई, नमाज का वक्त हो गया, तो अपना मुसल्ला बिछाकर नमाज पढ़ने बैठ गया। तभी एक युवा स्त्री भागती हुई वहां से निकली। उसके मुसल्ले को रौंदती। वह नमाज में झुका है, उसको धक्का देती कि वह गिर भी पड़ा। लेकिन नमाज में बोले कैसे! क्रोध तो बहुत आया। एक तो कोई नमाज पढ़ रहा हो, उसके साथ ऐसा दर्ुव्यवहार। दूसरे सम्राट नमाज पढ़ रहा हो, उसके साथ ऐसा दर्ुव्यवहार। जल्दी—जल्दी उसने नमाज पूरी की, घोड़े पर बैठने को ही था पीछा करने को कि पकड़े इस युवती को, लेकिन वह युवती खुद ही वापस लौट रही थी। अकबर ने उससे कहा, पागल, होश में है? मैं नमाज पढ़ रहा था, तूने मुझे धक्का दिया। इतना तो खयाल होना चाहिए! फकीर भी नमाज पढ़ रहा हो, गरीब से गरीब भी नमाज पढ़ रहा हो तो उसका सम्मान होना चाहिए। प्रभु की प्रार्थना में जो लीन है, उसके साथ ऐसा दर्ुव्यवहार! फिर मैं सम्राट हूं! तुझे दिखाई नहीं पड़े मेरे वस्त्र, मेरी पगड़ी—हीरे—जवाहरात जड़ी—मेरा घोड़ा, यह तुझे दिखाई नहीं पड़ा?

उस युवती ने झुक कर प्रणाम किया और कहा, मुझे क्षमा कर दें, मुझे माफ कर दें; मुझसे भूल हो गई। क्योंकि मेरा प्रेमी आज आने वाला था, मैं राह पर, गांव के बाहर उसका स्वागत करने गई थी। मुझे याद ही नहीं कि आपको कब धक्का लगा। मुझे याद ही नहीं कि आप बीच में पड़े भी। मुझे माफ कर दें। लेकिन सम्राट, एक बात मुझे पूछनी है। मैं तो अपने साधारण प्रेमी से मिलने जा रही थी और ऐसी मस्त थी कि मुझे आप दिखाई न पड़े, और आप परमात्मा से मिलने बैठे थे, आपको मेरा धक्का मालूम हुआ? मैं आपको दिखाई पड़ी?

सम्राट अकबर ने अपने संस्मरणों में लिखवाया है कि शर्म से मेरी आंखें झुक गईं। बात तो उसने ठीक कही थी। मेरी नमाज झूठी थी। उसमें बेहोशी न थी। उसमें मस्ती न थी। शायद उसकी ही नमाज बेहतर थी। माना कि वह अपने साधारण प्रेमी से मिलने जा रही थी, लेकिन उसके साधारण प्रेम में भी एक असाधारण नशा था। अगर उसे पता ही नहीं चला कि मैं था, कि मुझे धक्का लगा—मुझे धक्का लगा तो उसे भी धक्का लगा होगा; दोनों को साथ ही लग सकता है—अगर उसे मेरा पता नहीं चला, तो मुझे क्यों पता चला? कब वह घड़ी आएगी, शुभ घड़ी, तब मुझे इस तरह की छोटी—छोटी बातों का पता न चलेगा?

नमाज, प्रार्थना, आराधना तब पूरी होती है जब तुम बाहर की तरफ बिलकुल ही बेहोश हो जाओ; तुम्हारा सारा होश भीतर आ जाए। इसलिए दोहरी घटनाएं घटती हैं—नमाज एक बड़ा विरोधाभास है। बाहर से सारा—का—सारा होश खिंचकर भीतर आ जाता है। बाहर बंटा था, परिधि पर बिखरा था, भीतर आकर संग्रहीत हो जाता है। तो एक तरफ तो नमाजी बाहर से बेहोश हो जाता है और भीतर परम होश से भर जाता है। भीतर एक जगमगाती ज्योति प्रकट होती है। बाहर का सब भूल जाता है। शायद तुम उसे तलवार से काट दो तो उसे पता न चले!

ऐसा हुआ। उन्नीस सौ पांच में काशी के नरेश का आपरेशन हुआ। अपेंडिक्स का आपरेशन था। लेकिन काशी के नरेश ने व्रत ले रखा था कि कोई मादक द्रव्य कभी नहीं लेंगे जो बेहोश करे। परमात्मा को पीते थे, अब और क्या मादक द्रव्य चाहिए! बड़ी अड़चन हो गई—वे क्लोरोफार्म लेने को भी राजी नहीं थे। और बिना क्लोरोफार्म के कैसे अपेंडिक्स निकाली जाए?

अंग्रेज डाक्टर परेशान थे। निकालनी जरूरी थी, नहीं तो जीवन खतरे में था। लेकिन काशी—नरेश ने कहा, तुम चिंता न करो! मैं प्रार्थना में लीन हो जाऊंगा, तुम आपरेशन कर देना। उन्हें भरोसा तो नहीं आया कि प्रार्थना ऐसी हो सकती है कि तुम अपेंडिक्स निकालो और पता न चले! उन्होंने तो प्रार्थना करने वाले लोग देखे थे कि जरा बच्चा शोरगुल मचा दे कि वे निकल कर बाहर आ जाते हैं, अपने मंदिर के बाहर और चिल्लाते हैं कि कौन शोरगुल मचा रहा है? कि पत्नी के हाथ से बर्तन गिर जाए कि बस, उनकी खोपड़ी गरम हो जाती है—कि वह आराधना के लिए बैठे थे और सब आराधना भ्रष्ट हो गई। मोहल्ले का कुत्ता भौंक दे और काफी है! ऐसे प्रार्थना करने वाले लोग देखे थे। अपेंडिक्स निकाली जाए, बड़ा आपरेशन…और उन्नीस सौ पांच में और भी बड़ा आपरेशन था, अब तो अपेंडिक्स कोई बड़ा आपरेशन नहीं है। अब तो कुछ भी थोड़ा उपद्रव हो कि निकालो अपेंडिक्स!

लेकिन कोई और उपाय नहीं था तो राजी होना पड़ा। सम्राट लेने को राजी नहीं था क्लोरोफार्म, मर जाने के लिए राजी था। तो उन्होंने कहा एक प्रयोग करके देखें। मौत तो होने ही वाली है। इसमें कम—से—कम एक संभावना है कि शायद यह आदमी कहता है तो बच जाए।

वह अपनी प्रार्थना में लीन हो गया और अपेंडिक्स का आपरेशन हो गया और उसे पता भी नहीं चला। उससे पूछा गया बाद में कि कैसे यह किया? उसने कहा, इसमें तो कुछ बात ही नहीं। यह तो सीधा—सा हिसाब है। सारी चेतना भीतर की तरफ मुड़ जाती है।

तुमको भी इस तरह के अनुभव कभी—कभी होते हैं: अनायास। जैसे कभी खेल में, तुम अगर खिलाड़ी हो, हाकी खेल रहे हो और तुम्हारे पैर में चोट लग गई और खून बह रहा है, तो जब तक खेल जारी रहेगा तब तक पता नहीं चलेगा। हां, खेल खतम होते ही से पता चलेगा कि अरे, बड़ा दर्द हो रहा है, खून बह रहा है, पता नहीं कितना खून बह गया! लेकिन खेल जारी रहते तुम्हें पता क्यों नहीं चला? तुम्हारी सारी चेतना खेल पर लगी थी। पैर तक जाने के लिए चेतना को सुविधा ही नहीं थी।

तुम्हारे घर में आग लग जाए; तब तुम्हारे मन में फिजूल विचार नहीं आएंगे, जो रोज आते हैं। उस वक्त तुम सोचोगे कि कौन—सी टाकीज में कौन—सी फिल्म चल रही है? घर में आग लगी हो, उस वक्त तुम इस तरह की फिजूल बातें सोचोगे? सारी चेतना सिकुड़ आएगी।

ऐसे अनुभव तुम्हें होते हैं। जब तुम व्यस्त होते हो किसी काम में, तो चित्त सारी तरफ से खिंच आता है।

प्रार्थना ऐसी ही स्थिति की परम अवस्था है। वहां सारी चेतना सिकुड़ आती है भीतर। तो भीतर तो सघन होकर रोशनी हो जाती है और बाहर अस्तित्व खो जाता है। और ऐसी ही घड़ियों में प्रभु की पगध्वनि, उसके पैरों की पहली आहट, अतिथि के आगमन का पहला सुसमाचार पहुंचता है।

हरि भारती, वही तो मैं कर रहा हूं, पिला रहा हूं। मेरी तरफ से कंजूसी जरा भी नहीं है। अगर तुम न हो पाओ नमाजी, अगर तुम न हो पाओ शराबी, तो ध्यान रखना, कहीं—न—कहीं पीने में तुम कंजूसी कर गए। कहीं—न—कहीं तुमने हाथ सरका लिया; कहीं—न—कहीं तुम डर गए, भयभीत हो गए।

मुझे दोष मत देना! मेरी तरफ से तो तुम जितना पीओ उससे ज्यादा उपलब्ध है। तुम जन्मों—जन्मों में जितना पी सको, उससे ज्यादा उपलब्ध है। मैं तुम्हें पूरा सागर ही दिए दे रहा हूं। मगर तुम चुल्लू—भर भी नहीं पी रहे हो; क्योंकि तुम पीने से डरते हो: पीने से बेहोशी आएगी, पीने से पागलपन आएगा; पीने से श्रद्धा आएगी, पीने से समर्पण आएगा। और पीने से तुम्हारी पुरानी व्यवस्था सब डांवाडोल हो जाएगी, अस्तव्यस्त हो जाएगी। तुम्हारे सारे पुराने न्यस्त स्वार्थ उखड़ जाएंगे। तुम्हें एक नई जिंदगी जीनी पड़ेगी। और नई जिंदगी जीने का साहस कम ही लोगों में होता है।

लोग तो पुराने को ही खींचते रहते हैं, क्योंकि पुराना सुविधापूर्ण होता है। जाना—माना, पहचाना, उसके हम अभ्यस्त होते हैं, हम कुशल भी होते हैं उसे जीने में, उसे करने के लिए हमें कोई श्रम भी नहीं करना पड़ता। इसीलिए तो जैसे—जैसे आदमी की उम्र बड़ी होने लगती है वैसे—वैसे वह नई चीज सीखने में असमर्थ होने लगता है। छोटे बच्चे जल्दी सीख लेते हैं। छोटे बच्चों को कोई भी भाषा सिखाओ, वे जल्दी सीख लेते हैं। जैसे उम्र बड़ी होने लगती है, मुश्किल होने लगता है।

क्या मुश्किल आ जाती है?

मुश्किल यह आ जाती है कि अब पुरानी भाषा से काम चलने लगा, सुगमता हो गई, अब कौन नई झंझट ले! कौन नया उपद्रव बांधे! कौन श्रम करे! एक गहन आलस्य है, जो मनुष्य के मन में छिपा बैठा है। उस आलस्य के कारण हम उतना ही करते हैं जितना करना पड़ता है।…अब प्रार्थना की कोई जरूरत तो है नहीं। रोटी—रोजी तो उससे मिलेगी नहीं। मकान तो बड़ा बन न सकेगा। प्रतिष्ठा तो जगत में मिलेगी नहीं—होगी थोड़ी—बहुत तो वह भी खो जाएगी! सुनते हो मीरा ने क्या कहा? लोकलाज खोई। प्रतिष्ठा थी वह भी गई, लोकलाज भी गई। लोग पागल समझेंगे। मिलने को कुछ भी नहीं है और खो सब जाएगा।

ऐसा नहीं है कि मिलने को कुछ भी नहीं है; लेकिन जो मिलेगा वह भीतर है। उसे तुम दूसरों को दिखा भी न सकोगे। उसका प्रदर्शन भी न कर सकोगे। उसकी अभिव्यक्ति भी कठिन है। कहोगे तो लोग हंसेंगे। अगर किसी से कहोगे कि मुझे भीतर प्रकाश अनुभव होता है, तो वह चौंक कर इधर—उधर देखेगा कोई और तो नहीं सुन रहा है कि हम भी इनके साथ हैं। कहोगे कि भीतर मुझे बड़े आनंद की लहरें उठती हैं, तो वह दूसरा आदमी संदेह करेगा कि दिमाग ठीक है? क्योंकि उसका अनुभव और सब का अनुभव तो भीतर दुख की लहरों का है। कहोगे कि भीतर मेरे पूर्णिमा है, उसका अनुभव तो अमावस का है। वह माने तो कैसे माने? तुम कहोगे, बड़ा उल्लास है, बड़ी मस्ती है; भीतर आनंद के, हंसी के फव्वारे फूट रहे हैं। लोग कहेंगे, या तो तुम भ्रम में पड़े हो या भ्रम में डालना चाहते हो। अपने वाले भी नहीं मानेंगे, परायों की तो बात छोड़ दो। पहले—पहले तो तुम खुद भी नहीं मानोगे कि ऐसा हो सकता है। समझोगे कि शायद सम्मोहित कर लिए गए हो। किसी भ्रमजाल में पड़ गए हो।

कल ही मैं एक लेख पढ़ रहा था। उस लेख में लिखा है, इस आश्रम के संबंध में कि इस आश्रम में जाना खतरे से खाली नहीं है।

दो कारण बताए हैं।

एक, प्रत्येक व्यक्ति जो यहां आता है, सम्मोहित कर लिया जाता है। अब यह शब्द सम्मोहन, बस लोगों को चौंकाने के लिए काफी है। और जो सम्मोहित नहीं हो सकते, जो बड़े संकल्पवान हैं, उनको पानी में या चाय में कुछ मादक द्रव्य पिला दिए जाते हैं। एल.एस.डी., या कुछ इस तरह की चीजें उनको पिला दी जाती हैं। क्योंकि यहां से जो लौटता है, वह कुछ और ही तरह की बातें करने लगता है।

जिन मित्र ने लेख लिखा है, एक अर्थ में ठीक ही लिखा है। कुछ तो जरूर जो यहां से लौटता है कुछ और तरह की बात करने लगता है। और आम जनता को ऐसा लगे कि कुछ गड़बड़ हो गई है। ऐसी बातें करने लगता है जैसे लोग भांग—गांजे के नशे में करते हैं। तो या तो सम्मोहित हो गया है, या कुछ गांजा—भांग…!

न उन्हें सम्मोहन का कुछ पता है, न इस तरह के लोग कभी आए हैं—आएंगे भी कैसे; क्योंकि आ जाएं तो खतरा ही है! आना तो है ही नहीं। लेख ही इसीलिए लिखा है कि कोई दूसरा भी न जाए। तुम भी पढ़ोगे लेख को तो तुमको भी एक दहा विचार आएगा कि बात कुछ जंचती तो है, कि हम वही तो नहीं रहे जैसे थे आने के पहले। फिर लोग गैरिक वस्त्र पहनने लगते हैं। फिर उनके चेहरे पर एक मुस्कुराहट दिखाई पड़ती है। जैसे इस जिंदगी के सारे दुख उनके लिए दुख न रहे। जैसे इस जिंदगी के सारे विषादों से उनका संबंध छूट गया।

उन्हें एक नई जीवनशैली मिल गई है। वह इतनी नई है और जगत इतने नर्क में जी रहा है कि अगर नर्क में तुम अचानक पाओ कि एक आदमी नाच रहा है, बांसुरी बजा रहा है, तुम्हें शक होगा कि गांजा पीए है; या अफीम खा गया है। होश में होता तो नर्क में कहीं ऐसा कर सकता था! लोग हंसना ही भूल गए हैं। हंसते भी हैं तो ओछा, छिछला। उनकी हंसी भी खोखली मालूम पड़ती है। बस ज्यादा से ज्यादा कंठ से आती लगती है। हृदय का कोई भी दान उसमें नहीं होता।

मेरा संन्यासी हंसने लगता है। दिल खोलकर हंसने लगता है। उसके जीवन में एक रस है। जो उसके ही भीतर मौजूद था। निश्चित ही शराब पिलाई जा रही है, लेकिन ऐसी शराब नहीं जो बाहर ढलती है, वरन ऐसी शराब जो भीतर ही ढलती है।

 

तीसरा प्रश्न:

 

भगवान, यह कैसे पता चले कि जो हो रहा है वह प्रभु की मर्जी से हो रहा है या हम आलस्य के प्रभाव से नहीं कर पा रहे हैं? कृपा करके समझाएं।

 

रामसिंह, आलस्य भी होगा तो उसी की मर्जी से होगा। जिसने सब छोड़ दिया, वह आलस्य को बचा लेगा? जब सभी चढ़ा दिया उसके चरणों में तो इतनी कंजूसी और क्यों कर रहे हो? आलस्य भी उसी के चरणों में चढ़ा दो।

चढ़ाओ तो पूरा चढ़ाओ, बंटवारे न करो, नहीं तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। अगर बंटवारा किया तो बुरा—बुरा तुम्हारे हाथ में रह जाएगा और भला—भला उसके हाथ में चला जाएगा। लोग अच्छी चीजें चढ़ा देते हैं। सोचते हैं, चढ़ाना है तो अच्छी ही चीजें चढ़ाना चाहिए! फिर आलस्य का क्या होगा? फिर बेईमानी का क्या होगा? फिर चालबाजी का क्या होगा? फिर झूठ का क्या होगा? फिर तुम्हारे पाखंड का क्या होगा? वह सब तुम्हारे हिस्से में पड़ जाएगा।

यही तो अब तक का इतिहास है कि आदमी को सिखाया गया है: अच्छी—अच्छी चीजें उस पर चढ़ा दो। फूल उस पर चढ़ा दो। फिर कांटे? फिर कांटे तुम्हारे जिम्मे पड़े। सो उसके तो मोर—मुकुट, फूल लग गए—वैसे भी उसको फूलों की कोई कमी न थी, सारे फूल उसी के थे—और तुम अभागे, जो दो—चार फूल हाथ लगे थे वे भगवान को चढ़ा आए, अब बचे कांटे! अब रोओ! इन कांटों को छाती से लगाओ और तड़फो!

समर्पण का अर्थ होता है: समग्र। समग्र ही हो तो समर्पण।

रामसिंह का मन में विचार उठा होगा कि यह बात तो ठीक है कि सब परमात्मा की मर्जी से हो रहा है, मगर अगर आलस्य हो रहा है, फिर? परमात्मा आलसी तो नहीं हो सकता! यह तुमसे किसने कहा? मेरे हिसाब से तो परमात्मा का काम कितना आहिस्ता चल रहा है। सदियां—सदियां बीत गईं…कोई जल्दी दिखाई पड़ती है? कोई जल्दबाजी? जल्दबाजी आदमी को है, परमात्मा को नहीं।

सदियों—सदियों में करोड़ों—करोड़ों वर्षों में पृथ्वी बनती है। करोड़ों—करोड़ों वर्षों में पृथ्वी पर हरियाली ऊगती है। करोड़ों—करोड़ों वर्षों में फिर पृथ्वी पर प्राणी आते हैं। करोड़ों—करोड़ों वर्षों में फिर मनुष्य आता है। और परमात्मा का धीरज इतना है कि करोड़ों—करोड़ों मनुष्यों में कभी कोई एक बुद्ध हो पाता है, फिर भी वह राजी है। या तो कहो आलसी है, या कहो परम धैर्यवान है।

आलस्य की इतनी निंदा क्यों है? क्योंकि आदमी अतीत में बड़ी मुश्किल से जीया है—बड़ी मुश्किल से जीया है! खूब श्रम किया है तो ही जी सका है, बच सका है। जीवन एक गहन संघर्ष था। इसलिए उसमें आलसी की बड़ी निंदा हो गई। और उसमें कर्मठ का बड़ा सम्मान हो गया। हालांकि बात यह है कि कर्मठ लोगों ने दुनिया को जितना गङ्ढों में पटका, उतना आलसियों ने नहीं। आलसियों ने कोई नुकसान ही नहीं किया। वे नुकसान करने लायक काम भी नहीं कर सकते। वे किस तरह नुकसान करेंगे? अडोल्फ हिटलर आलसी हो सकता है? मुसोलिनी आलसी हो सकता है? स्टेलिन, माओत्से तुंग आलसी हो सकते हैं? असंभव। ये तो बड़े कर्मठ पुरुष हैं। लौह—पुरुष। स्टेलिन शब्द का अर्थ होता है: लौह—पुरुष। स्टील से बना शब्द स्टेलिन। वह उसका असली नाम नहीं है, दिया हुआ नाम है। ये तो सदा कर्म में रत रहते हैं ये लोग। नादिरशाह और तैमूरलंग और चंगेजखान और सिकंदर और नेपोलियन, ये कोई आलसी हैं?

नेपोलियन के संबंध में कहा जाता है, वह घोड़े पर ही दो घंटे सो लेता था। घोड़े पर ही! नीचे भी नहीं उतरे; इतना भी समय कौन खराब करे? उतरना, चढ़ना…घोड़े पर ही सो लेता था। बस दो घंटे चौबीस घंटे में काफी था। इस तरह के लोगों का हमने खूब सम्मान किया। मगर उन्होंने किया क्या?

आलसियों के ऊपर कोई दोष है? उन्होंने कोई बड़ा पाप किया? रावण आलसी होता तो सीता नहीं चुराई जाती—पक्का समझो! कौन झंझट में पड़ता!

तुमने आलसियों की कहानियां तो सुनी ही हैं; कि दो आलसी लेटे हैं एक झाड़ के नीचे, जामुनें टपक रही हैं; पकी जामुनें, उनकी गंध! और एक आलसी दूसरे से बोला कि हद्द हो गई, हम सोचते थे कि तू अपना मित्र है! और मित्र तो वह है जो समय पर काम आए। जामुनें टपा—टप गिर रही हैं और तुझसे इतना भी नहीं हो सकता कि एक जामुन उठाकर मेरे मुंह में डाल दे! और उस दूसरे ने कहा कि जाओ—जाओ, तेरे मुंह में और मैं जामुन डालूं! अरे, दोस्त वह जो दुख में काम आए! अभी एक कुत्ता मेरे कान में मूत रहा था तो तू उसे भगा भी नहीं सका!

एक आदमी रास्ते से गुजर रहा था, उसने दोनों की बात सुनी, उसने कहा हद्द हो गई! दया आई उसे बहुत, बेचारे महा आलसी हैं, उसने एक—एक जामुन दोनों के मुंह में उठाकर डाल दी। चलने को ही था कि दोनों बोले, अबे ठहर, गुठली कौन निकालेगा? जरा रुक! अब इतना किया है तो इतना और!

ऐसे आदमी से तुम सोचते हो कि दुनिया में कोई नुकसान हो सकता है? लेकिन आलस्य का हमने विरोध किया है, क्योंकि जीवन एक संघर्ष था और संघर्ष में कर्मठ की उपयोगिता था। अन्यथा आलस्य में अपने—आप तो कुछ ऐसी विरोध की बात नहीं है। अपने—आप में तो कुछ बुरा नहीं है।

और यह संभव है कि आने वाले भविष्य में आलसी का सम्मान बढ़ जाए।

आने वाली सदी में उन लोगों का सम्मान किया जाएगा जो काम नहीं मांगेंगे। क्योंकि सारा काम धीरे—धीरे यंत्रों के द्वारा होने लगेगा—हो ही रहा है। विकसित देशों में पहले सात दिन का सप्ताह होता था, फिर छह दिन का होने लगा, फिर पांच दिन का होने लगा, अब चार दिन का होने लगा। अब अमरीका में विचार चलता है उसको हटा कर तीन दिन का कर दिया जाए, क्योंकि मशीनों से काम पूरा हुआ जा रहा है। बीस साल पूरे होते—होते करोड़ों लोग बिना काम के होंगे। भोजन तो उन्हें देना होगा। वह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। मकान भी देना होगा, कपड़े भी देने होंगे।

पश्चिम के अर्थशास्त्री तो यह कहते हैं—तुम चौंकोगे जानकर—कि पचास साल के भीतर यह हालत आ जाने वाली है कि जो आदमी काम नहीं मांगेगा, उसको तनख्वाह ज्यादा मिलेगी उस आदमी के बजाय जो काम मांगेगा। क्यों? क्योंकि वह दो—दो चीजें एक साथ चाहता है—तनख्वाह भी और काम भी! तो स्वभावतः उसको तनख्वाह कम मिलेगी। दोनों हाथ लड्डू! जो काम नहीं मांगता, उसको तनख्वाह ज्यादा मिलेगी—स्वभावतः उसको कुछ कॉम्पेन्सेशन देना होगा, क्योंकि वह काम भी नहीं मांग रहा है।

आलस्य के दिन आ रहे हैं, रामसिंह, घबड़ाओ मत!…रामसिंह हैं अमृतसर से।…पंजाबियों के दिन जा रहे हैं, रामसिंह, घबड़ाओ मत! आलसियों के दिन आ रहे हैं। यंत्र सब कर देगा। फिर विश्वविद्यालयों में और शिक्षालयों में बड़े—बड़े तख्तों पर लिखा होगा—धन्य हैं आलसी, क्योंकि प्रभु का राज्य उन्हें का है। हमें जोड़ने पड़ेंगे ये वचन। हमें धर्मशास्त्रों में ये बातें लिखनी पड़ेंगी। आलस्य को सदगुण बनाना ही पड़ेगा।

और परमात्मा तो इतनी धीमी चाल से चलता है कि पता ही कहां चलती है उसकी चाल! एक बीज बोओ, कितना समय लेता है! वर्षों लग जाते हैं वृक्ष के बनते—बनते, तब कहीं फूल आते, तब कहीं फल लगते। कोई जल्दी है वहां! समय की अनंतता है, कोई जल्दी नहीं।

और रामसिंह, जब सभी उस पर चढ़ा दिया तो इतनी भी क्या कंजूसी! आलस्य भी उसी का!

तुमने कहानी नहीं सुनी?

एक सूफी कहानी है कि एक बुढ़िया जो कुछ उसके पास होता सभी परमात्मा पर चढ़ा देती। यहां तक कि सुबह वह जो घर का कचरा वगैरह फेंकती, वह भी घूरे पर जाकर कहती: तुझको ही समर्पित। लोगों ने जब यह सुना तो उन्होंने कहा, यह तो हद हो गई! फूल चढ़ाओ, मिष्ठान चढ़ाओ…कचरा?

एक फकीर गुजर रहा था, उसने एक दिन सुना कि वह बुढ़िया गई घूरे पर, उसने जाकर सारा कचरा फेंका और कहा: हे प्रभु, तुझको ही समर्पित! उस फकीर ने कहा कि बाई, ठहर! मैंने बड़े—बड़े संत देखे…….तू यह क्या कह रही है? उसने कहा, मुझसे मत पूछो; उससे ही पूछो। जब सब दे दिया तो कचरा क्या मैं बचाऊं? मैं ऐसी नासमझ नहीं।

उस फकीर ने उस रात एक स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग ले जाया गया है। परमात्मा के सामने खड़ा है। स्वर्ण—सिंहासन पर परमात्मा विराजमान है। सुबह हो रही है, सूरज ऊग रहा है, पक्षी गीत गाने लगे—सपना देख रहा है—और तभी अचानक एक टोकरी भर कचरा आ कर परमात्मा के सिर पर पड़ा और उसने कहा कि यह बाई भी एक दिन नहीं चूकती! फकीर ने कहा कि मैं जानता हूं इस बाई को। कल ही तो मैंने इसे देखा था और कल ही मैंने उससे कहा था कि यह तू क्या करती है?

लेकिन घंटे भर वहां रहा फकीर, बहुत—से लोगों को जानता था जो फूल चढ़ाते हैं, मिष्ठान्न चढ़ाते हैं, वे तो कोई नहीं आए। उसने पूछा परमात्मा को कि फूल चढ़ाने वाले लोग भी हैं…सुबह ही से तोड़ते हैं, पड़ोसियों के वृक्षों में से तोड़ते हैं। अपने वृक्षों के फूल कौन चढ़ाता है! आसपास से फूल तोड़कर चढ़ाते हैं……उनके फूल तो कोई गिरते नहीं दिखते?

परमात्मा ने उस फकीर को कहा, जो आधा—आधा चढ़ाता है, उसका पहुंचता नहीं। इस स्त्री ने सब कुछ चढ़ा दिया है, कुछ नहीं बचाती, जो है सब चढ़ा दिया है। समग्र जो चढ़ाता है, उसका ही पहुंचता है।

घबड़ाहट में फकीर की नींद खुल गई। पसीने—पसीने हो रहा था, छाती धड़क रही थी। क्योंकि अब तक की मेहनत, उसे याद आया कि व्यर्थ गई। मैं भी तो छांट—छांट कर चढ़ाता रहा।

समर्पण समग्र ही हो सकता है।

इसलिए, रामसिंह, तुम पूछते हो: यह कैसे पता चले कि जो हो रहा है वह प्रभु की मर्जी से हो रहा है? पता चलाने की जरूरत क्या है? और किसकी मर्जी से हो रहा होगा! और भी कोई है? जो हो रहा है, उसी की मर्जी से हो रहा होगा—और तो कोई है ही नहीं।

और फिर तुम्हें डर लगता है: कहीं हम आलस्य के प्रभाव में न कर पा रहे हों। तो आलस्य उसकी मर्जी। तुम जरा आलस्य को भी चढ़ाकर देखो और तुम बड़े हैरान हो जाओगे। आलस्य चढ़ाते ही तुम्हारे ऊपर से जैसे एक गर्द की पर्त गिर जाएगी। उस पर गिरे, जाने दो, वह जाने। उसका संसार है, वह करे फिक्र! उसने अगर तुमको आलसी बनाया तो तुम करोगे भी क्या? वस्तुतः धार्मिक व्यक्ति वही है, जो वह देता है कि सब तेरा। बुरा भी, भला भी, सब तेरा।

कबीर के घर लोग भोजन के लिए आते थे। रोज भजन के लिए आते थे असल में तो, मगर जाने के पहले कबीर कहते: अरे, कहां चले? भोजन तो कर जाओ! गरीब आदमी, बामुश्किल रोटी जुटती थी। पत्नी परेशान थी। लड़का तो बहुत परेशान था। कमाल ने एक दिन कहा कि हद्द हो गई। हम पर कर्ज भी बहुत हो गया है। भजन तक ठीक बात है, यह भोजन हर एक को करवाना, सौ—दो सौ आदमी रोज भोजन करें, हम लाएं कहां से? सारे गांव से उधार मांग चुके, अब तो कोई उधार देने को राजी नहीं है। और इन लोगों ने धंधा बना लिया है। ये रोज आकर हाजिर हैं! और मुझे शक होता है कि ये भजन के लिए आते हैं? ये भोजन के लिए आते हैं। और तुमको कितनी दफे समझाया और तुम हां भर देते हो कि ठीक, कल मैं नहीं कहूंगा, लेकिन बस, भजन खतम हुआ कि तुम मानते ही नहीं, लोगों से कहते हो कि भोजन कर जाओ। क्या हम चोरी करने लगें?

गुस्से में कहा था कमाल ने किया क्या हम चोरी करने लगें? कबीर ने कहा: अरे पागल, तो यह तुझे पहले क्यों नहीं सूझा? कितने दिन से मेरी खोपड़ी खाता है कि भोजन के लिए मत कहो। मुझसे रहा नहीं जाता। तेरी अकल पहले कहां गई थी? गजब का खयाल है! लड़के ने सोचा, हल हो गई! तो ये चोरी करवाने के लिए भी राजी हैं! उसने पूछा भी कि आप समझे मेरा मतलब? होश में हैं? कहीं अपने भजन—कीर्तन में ही तो नहीं डूबे हैं? चोरी कह रहा हूं, चोरी! कबीर ने कहा, जो उसकी मर्जी होगी, करवाएगा। अब चोरी ही करवानी होगी तो हम क्या करेंगे?

इसको आस्तिकता कहते हैं। इससे कम हो तो आस्तिकता नहीं।

लेकिन कबीर का लड़का भी कबीर का ही लड़का था आखिर। इतनी जल्दी छोड़ नहीं देता। उसने कहा कि यह बात ही बात समझकर मामला निपटा रहे हैं। जानते हैं कि मैं चोरी करूंगा नहीं। मगर मैं भी दिखाकर रहूंगा! सांझ को, उसने कहा, ठीक, अब मैं चोरी को जा रहा हूं, आप भी चलें! क्योंकि मैं अकेला क्यों जाऊं? भोजन आप करवाएं, चोरी मैं करूं? पाप पाप मेरे सिर पड़ेगा, पीछे जवाब कौन देगा? वह यह कह ही रहा था कि कबीर उठकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा कि चल, मुझे कुछ काम भी नहीं है; यहां भी बैठे—बैठे क्या कर रहा हूं? भजन कर रहा हूं यहां, वहीं भजन करेंगे। मैं चल पड़ता हूं तेरे साथ।

बेटा भी पक्का था। अभी भी उसे भरोसा नहीं था कि कबीर चोरी करने के लिए राजी होंगे। चले गए। कबीर खड़े वहीं भजन करते रहे और लड़का सेंध मारता रहा, बार—बार देखता रहा कि अब रोकें, अब रोकें। दीवाल टूट गई, अभी भी नहीं रोका। अब तो थोड़ा उसे भय लगने लगा कि यह मामला ज्यादा बढ़ जा रहा है। उसने पूछा, अब भीतर जाऊं? कबीर ने कहा, और दीवाल काहे के लिए तोड़ी? भीतर जा! और जाना ही नहीं, भीतर से कुछ ला!

कबीर का ही बेटा था, उसने हिम्मत की, भीतर गया। खींच कर एक बोरा गेहूं का लाया। बामुश्किल उसको छेद में से बाहर निकाल पाए। दोनों ने मिल कर बाहर निकाला। फिर जब बोरा बाहर निकल आया तो कबीर ने कहा: अब एक काम और कर; घर के लोगों को जाकर जगा दे। चिल्ला दे कि चोरी हो गई, चोरी हो गई! उसने कहा, यह किस ढंग की चोरी? फंसूंगा मैं! कबीर ने कहा, जिसने करवाई है, वही फंसेगा, हम क्यों फंसेंगे? तू बीच—बीच में अपने को क्यों लाता है?

कबीर की बात को समझना; बारीक है! कबीरपंथी इस कहानी को अपनी किताबों में से छोड़ देते हैं। क्योंकि डर लगता है; इस बात को लाना खतरनाक मालूम पड़ता है। क्योंकि हमने तो धर्मों को भी नीति के तल पर खींच लिया है। और धर्म तो नीति—अनीति के परे होते हैं। न वहां कुछ अच्छा है, न वहां कुछ बुरा है। हम तो धर्म की नीति के साथ पर्यायवाची बना दिए हैं। तो कबीरपंथी भी डरते हैं कि यह कहानी जोड़ना कि नहीं! लेकिन कितनी ही छिपाओ, जानने वाले इन कहानियों को जानते हैं। कानों—कान चलती रही हैं ये कहानियां—किताबों में न भी लिखो तो क्या होगा! कहीं—न—कहीं से इनके लिए स्रोत मिलते रहे हैं। इतनी बहुमूल्य कहानियां हैं, गंवाई भी नहीं जा सकतीं। तो मेरे जैसा कोई—न—कोई आदमी फिर उनको कह देगा, वे फिर चलने लगती हैं!

तुम्हें किताब में न मिलें तो घबड़ाना मत, मैं अपनी साक्षी से कहता हूं कि यह बात सच है। ऐसा हुआ ही होगा। होना ही चाहिए। कबीर की जिंदगी में न हो तो और किसकी जिंदगी में होगा! कहानी प्यारी है।

कबीर ने कहा, जा, खबर कर दे! और जब कबीर कहें तो बेटा न जाए! गया भीतर, लोगों को हिला—हिला कर जगा दिया कि चोरी हो गई! लोगों ने उसको पकड़ लिया। भागा, निकलने की कोशिश ही कर रहा था कि लोगों ने उसको पकड़ लिया, पैर उसके पकड़ लिए। गर्दन बाहर, पैर भीतर। कबीर ने कहा, भाई, अब तो सुबह हुई जा रही है, भजन करने वाले आते होंगे। अब मैं क्या करूं? तो रखने दे पैर उनको, गर्दन तेरी मैं ले जाता हूं। सो उन्होंने उसकी गर्दन काट ली; गर्दन लेकर घर पहुंच गए।

लोगों ने भीतर खींच लिया। सिर तो था ही नहीं। लेकिन रंग—ढंग से ऐसा लगा कि कबीर का बेटा है। परिचित था, गांव—भर का परिचित था। किसी से पूछा कि कैसे पक्का करें कि यह कबीर का बेटा ही है या कोई और? तो उन्होंने कहा, ऐसा करो, सुबह कबीर की मंडली निकलेगी गंगा स्नान को, भजन करती हुई। इसको बाहर एक वृक्ष से टांग दो। उन्होंने कहा, इससे क्या होगा? उन्होंने कहा, अगर यह कबीर का ही बेटा है, तो जब कबीर भजन करते निकलेंगे तो यह ताली बजाएगा। उन्होंने कहा, पागल हो गए हो? इसका सिर नदारद; मुर्दे कहीं ताली बजाते हैं! उन लोगों ने कहा, तुम मानो या न मानो, हमने कबीर के पास मुर्दों को बैठे देखा और ताली बजाते देखा है।

सुनते हो यह कहानी! कि हमने बहुत—से मुर्दों को वहां जाते देखा है और उनको ताली बजाते देखा है। और ताली बजाते—बजाते निंदा हो गए हैं मुर्दे।…कबीर के पास आते ही लोग जब हैं तब मुर्दे होते हैं। आखिर और कौन आएगा? सारी दुनिया मुर्दों से भरी है।…तो कहानी कहती है कि लटका दिया बेटे के शरीर को बाहर एक वृक्ष से और लोग छिपकर बैठ रहे। और जब कबीर की मंडली आई और धुन छिड़ी और शराब बही और नमाज उठी कि बस, कबीर के बटे ने ताली देना शुरू कर दिया!

लोगों ने कबीर को पकड़ लिया और कहा कि यह तुम्हारा ही बेटा है। कबीर ने कहा, इतने आयोजन की क्या जरूरत थी? मुझसे आकर पूछ लिए होते! यह बेटा मेरा है। और इसने अकेले चोरी नहीं थी, मैं भी मौजूद था। और मैं भी मौजूद नहीं था, परमात्मा भी मौजूद था। सब जिम्मेवारी उसकी है। हम तो उसके हाथ के खिलौने हैं। जैसा नचाए, नाचते हैं।

जो इस कहानी को समझ सके, वह समर्पण का भाव समझ सकेगा।

रामसिंह! आलस्य भी उसी का। भला भी उसका, बुरा भी उसका।

 

तुम को क्या मालूम कि कितना समझाया है मन,

फिर भी बार—बार करता है भूल, क्या करूं?

 

बीसों बार कहा खुलकर मत बोल बावरे

कानों के कच्चे हैं लोग जमाने भर के,

और कहीं भूले भटके सच बोल दिया तो—

गली—गली मारेंगे लोग निशाने कर के,

 

लेकिन जिद्दी मन को कोई क्या समझाए

खुद मुझ से ही रहता है प्रतिकूल, क्या करूं?

 

मना किया हर बार कि ऐसी गैल न चल तू

जिसमें अरमानों की बदनामी का डर हो,

ऐसा साथ तलाश कि जो खाता—पीता हो—

जिसके पास उमर अपनी हो, अपना घर हो,

 

लेकिन जाने कैसा पाया है स्वभाव जो

लगती हर मतलब की बात फिजूल, क्या करूं?

 

समझाया बहुतेरा देख न कर नादानी

ओस और आंसू का भाईचारा कैसा,

ओस चांद की बेटी, तू आवारा पानी,

आवारा पानी का मीत किनारा कैसा,

 

आंधी ने सौ बार दिए हैं धोखे अब तक

मिले, भले मत मिले, जनम भर कूल, क्या करूं?

 

तुम को क्या मालूम कि कितना समझाया है मन,

फिर भी बार—बार करता है भूल, क्या करूं?

एक तो प्रक्रिया है नीति की कि मन को भूल मत करने दो। हर भूल को सुधारो। एक—एक भूल को सुधारो, थेगड़े लगाओ। लेकिन तुम पक्का समझ लो, एक तरफ भूल सुधारोगे, दूसरी तरफ से भूल बहने लगेगी। एक तरफ से रोकोगे झरना दूसरी तरफ से फूट बहेगा। इसलिए नैतिक व्यक्ति रूपांतरित नहीं हो पाता। सिर्फ उसकी बीमारियां बदलती रहती हैं। एक बीमारी दबाता है, दूसरी बीमारी। दूसरी दबाता है, तीसरी बीमारी। मूल वही—का—वही रहता है।

धार्मिक व्यक्ति एक—एक भूलों को नहीं सुधारता। कौन थेगड़े लगाए! सब उसका है। धार्मिक व्यक्ति कह देता है: मैं भी तेरा, सम्हाल! भूल करवानी हो भूल करवा, ठीक करवाना हो, ठीक करवा। सम्मान मिलेगा तो तुझे, अपमान मिलेगा तो तुझे। कल अगर जूते पड़ेंगे, तो तुझे, माला पहनाई जाएगी तो तुझे। मैं बीच में नहीं हूं।

इस अदभुत क्रांति का नाम धर्म है।

और जो ऐसा कर पाए, उसको फिर और कुछ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती।

 

आज इतना ही।

 

 

 


Filed under: सपना यह संसार--(पलटू वाणी)

तंत्र–सूत्र–(भाग–4) प्रवचन–62

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आरंभ से आरंभ करो—(प्रवचन—बाष्‍ठवां)

      प्रश्‍नसार:

1—मंजिल को पाने की ‘जल्‍दी’ और प्रयत्‍न—रहित खेल’ में संगति कैसे बिठाएं?

      2—अपने शत्रु को भी अपने में समाविष्‍ट करने की शिक्षा क्‍या दमन पर नहीं ले जाती है?

 

पहला प्रश्न :

 

आरंभ से आरंभ आपने कल कहा कि हमें अपनी मंजिल की तरफ शीघ्रता से कदम रखने चहिए, क्यौंकि हमारे पास समय बहुत थोड़े है। लेकिन कुछ समय पहले आपने कहा था कि मंजिल की तरफ चलने की पूरी प्रक्रिया प्रयत्न— रहित खेल होना चाहिए आप इन दो शब्दों के बीच, जल्दी और खेल के बीच संगीत कैसे बिठाएंगे? क्योंकि जो जल्‍दी करता है वह खेल के सुख को कभी नहीं पाता है।।

 

हली बात, भिन्न—भिन्न विधियों में संगति बिठाने की चेष्टा मत करो। जब मैं कहता हूं कि जल्दी मत करो, समय को बिलकुल भूल जाओ, गंभीर मत होओ, कोई प्रयत्न मत करो, समर्पण करो, जो होता है उसे होने दो—तो यह एक भिन्न ही विधि है। यह विधि मनुष्यता के सिर्फ एक हिस्से के काम की है; सभी लोग इस विधि का प्रयोग नहीं कर सकते। और जिस ढंग के लोग इस विधि का प्रयोग कर सकते हैं वे इसके विपरीत विधि का प्रयोग नहीं कर सकते।

यह विधि स्त्रैण चित्त के लिए है। लेकिन जरूरी नहीं कि सभी स्त्रियों के पास स्त्रैण—चित्त हो और सभी पुरुषों के पास पुरुष—चित्त हो। इसलिए जब मैं स्त्रैण—चित्त की बात करता हूं तो उससे मेरा मतलब स्त्रियां नहीं है। स्त्रैण—चित्त का अर्थ है वह मन जो समर्पण कर सके, जो गर्भ की तरह ग्रहणशील हो, जो खुला और निष्‍क्रिय हो। आधी मनुष्य—जाति इस कोटि में हो सकती है; लेकिन दूसरा आधा वर्ग सर्वथा भिन्न है। जैसे पुरुष और स्त्री मनुष्य—जाति के आधे— आधे हिस्से हैं, वैसे ही स्त्रैण—चित्त और पुरुष—चित्त भी मनुष्य—मन के आधे—आधे हिस्से हैं।

स्त्रैण—चित्त प्रयत्न नहीं कर सकता; अगर वह प्रयत्न करता है तो वह कहीं नहीं पहुंचेगा। प्रयत्न उसके लिए सिर्फ तनाव और संताप पैदा करेगा; हाथ उसके कुछ लगेगा नहीं। स्त्रैण—चित्त का पूरा ढंग ही प्रतीक्षा करना है और चीजों को घटित होने देना है।

जैसा कि स्त्रियों का स्वभाव है : स्त्री यदि प्रेम में भी हो तो वह पहल नहीं करेगी। और अगर कोई स्त्री पहल करे तो तुम्हें उससे दूर रहना चाहिए और बचना चाहिए। क्योंकि वह पुरुष—प्रवृत्ति की है, स्त्री—शरीर के भीतर पुरुष—चित्त है और तुम उपद्रव में पड़ोगे। अगर तुम सचमुच पुरुष हो तो वह स्त्री जल्दी ही तुम्हारे लिए आकर्षक नहीं रह जाएगी। लेकिन अगर तुम स्त्रैण हो—तुम्हारा शरीर पुरुष का है और चित्त स्त्री का—तो तुम स्त्री को पहल करने दोगे और तुम सुखी होगे। लेकिन उस हालत में शरीर के तल पर वह स्त्री है और तुम पुरुष हो और मन के तल पर तुम स्त्री हो और वह पुरुष है।

स्त्री प्रतीक्षा करेगी। वह कभी नहीं कहेगी कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं जब तक उससे यह निवेदन तुम नहीं कर चुकोगे और प्रतिबद्ध नहीं हो जाओगे। प्रतीक्षा में ही स्‍त्री की शक्‍ति है। पुरुष—चित्त आक्रामक होता है। उसे कुछ करना पड़ता है। वह पहल करता है, आगे बढ़ता है।

यही बात आध्यात्मिक यात्रा में घटती है। अगर तुम्हारा चित्त आक्रामक है, पुरुष—चित्त है, तो प्रयत्न आवश्यक है। तब जल्दी करो, तब समय और अवसर मत खोओ। तब अपने भीतर उत्कटता, तत्परता और संकट की भाव—दशा निर्मित करो, ताकि तुम अपने प्रयत्न में अपने पूरे प्राणों को उंडेल सको। जब तुम्हारा प्रयत्न समग्र होगा, तुम पहुंच जाओगे। और अगर तुम्हारा चित्त स्त्रैण है तो कोई जल्दी नहीं है—बिलकुल नहीं। तब समय की बात ही नहीं है।

तुमने शायद ध्यान दिया हो या न दिया हो कि स्त्रियों को समय का बोध नहीं रहता, रह नहीं सकता। पति बाहर खड़ा है, कार का हार्न बजा रहा है और कह रहा है कि जल्दी नीचे आओ। और पत्नी कहती है, मैं हजार दफे कह चुकी हूं कि एक मिनट में आई, दो घंटों से कह रही हूं कि एक मिनट में आई—क्यों पागल हुए जा रहे हो? हार्न क्यों बजाए जा रहे हो? स्त्रैण—चित्त को समय का भाव नहीं हो सकता। यह तो पुरुष—चित्त है, आक्रामक चित्त, जो समय के बोध से भरा है, समय के लिए चिंतित है।

स्त्रैण—चित्त और पुरुष—चित्त एक—दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। स्त्री जल्दी में नहीं है, उसके लिए कोई जल्दी नहीं है। दरअसल उसे कहीं पहुंचना नहीं है। यही कारण है कि स्त्रियां महान नेता, वैज्ञानिक और योद्धा नहीं होतीं—हो नहीं सकतीं। और अगर कोई स्त्री हो जाए, जैसे जॉन आफ आर्क या लक्ष्मी बाई तो उसे अपवाद मानना चाहिए। वह दरअसल पुरुष—चित्त है—सिर्फ शरीर स्त्री का है, चित्त पुरुष का है। उसका चित्त जरा भी स्त्रैण नहीं है। स्त्रैण—चित्त के लिए कोई लक्ष्य नहीं है, मंजिल नहीं है।

और हमारा संसार पुरुष—प्रधान संसार है। इस पुरुष—प्रधान संसार में स्त्रियां महान नहीं हो सकतीं, क्योंकि महानता किसी उद्देश्य से, किसी लक्ष्य से जुड़ी होती है। यदि कोई लक्ष्य उपलब्ध करना है, तभी तुम महान हो सकते हो। और स्त्रैण—चित्त के लिए कोई लक्ष्य नहीं है। वह यहीं और अभी सुखी है। वह यहीं और अभी दुखी है। उसे कहीं पहुंचना नहीं है। स्त्रैण—चित्त वर्तमान में रहता है।

यही कारण है कि स्त्री की उत्सुकता दूर—दराज में नहीं होती है, वह सदा पास—पड़ोस में उत्सुक होती है। वियतनाम में क्या हो रहा है, इसमें उसे कोई रस नहीं है। लेकिन पड़ोसी के घर में क्या हो रहा है, मोहल्ले में क्या हो रहा है, इसमें उसका पूरा रस है। इस पहलू से उसे पुरुष बेबूझ मालूम पड़ता है। वह पूछती है कि तुम्हें क्या जानने की पड़ी है कि निक्सन क्या कर रहा है या माओ क्या कर रहा है! उसका रस पास—पड़ोस में चलने वाले प्रेम—प्रसंगों में है। वह निकट में उत्सुक है, दूर उसके लिए व्यर्थ है। उसके लिए समय का अस्तित्व नहीं है।

समय उनके लिए है जिन्हें किसी लक्ष्य पर, किसी मंजिल पर पहुंचना है। स्मरण रहे, समय तभी हो सकता है जब तुम्हें कहीं पहुंचना है। अगर तुम्हें कहीं पहुंचना नहीं है तो समय का क्या मतलब है? तब कोई जल्दी नहीं है।

इसे एक और दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करो। पूर्व स्त्रैण है और पश्चिम पुरुष

जैसा है। पूर्व ने कभी समय के संबंध में बहुत चिंता नहीं की, पश्चिम समय के पीछे पागल है। पूर्व बहुत विश्रामपूर्ण रहा है; वहां इतनी धीमी गति है, मानो गति ही न हो। वहां कोई बदलाहट नहीं है; कोई क्रांति नहीं है। विकास इतना चुपचाप है कि उससे कहीं कोई शोर नहीं होता। पश्चिम बस पागल है; वहां रोज क्रांति चाहिए, हर चीज को बदल डालना है। जब तक सब कुछ बदल न जाए जब तक उसे लगता है कि हम कहीं जा ही नहीं रहे, कि हम ठहर गए हैं। अगर सब कुछ बदल रहा है और सब कुछ उथल—पुथल में है, तब पश्चिम को लगता है कि कुछ हो रहा है। और पूर्व सोचता है कि अगर उथल—पुथल मची है तो उसका मतलब है कि हम रुग्ण हैं, बीमार हैं। उसे लगता है कि कहीं कुछ गलत है, तभी तो उथल—पुथल हो रही है। अगर सब कुछ सही है तो क्रांति की क्या जरूरत? बदलाहट क्यों?

पूर्वी चित्त स्त्रैण है। इसीलिए पूर्व में हमने सभी स्त्रैण गुणों का गुणगान किया है, हमने करुणा, प्रेम, सहानुभूति, अहिंसा, स्वीकार, संतोष, सभी स्त्रैण गुणों को सराहा है। पश्चिम में सभी पुरुषोचित गुणों की प्रशंसा की जाती है, वहां संकल्प, संकल्प—बल, अहंकार, आत्मसम्मान, स्वतंत्रता और विद्रोह जैसे मूल्य प्रशंसित हैं। पूर्व में आज्ञाकारिता, समर्पण, स्वीकार जैसे मूल्य मान्य हैं। पूर्व की बुनियादी वृत्ति स्त्रैण है, कोमल है; और पश्चिम की वृत्ति पुरुष है, कठोर है।

तो इन विधियों को मिलाया नहीं जा सकता है, उनमें समन्वय और सामंजस्य नहीं बिठाया जा सकता है। समर्पण की विधि स्त्रैण चित्त के लिए है। और प्रयत्न, संकल्प और श्रम की विधि पुरुष—चित्त के लिए है। और वे एक—दूसरे के बिलकुल विपरीत होने ही वाली हैं। अगर तुम दोनों में सामंजस्य बिठाने की चेष्टा करोगे तो तुम उनकी खिचड़ी बना दोगे। वह सामंजस्य अर्थहीन होगा, बेतुका होगा, और खतरनाक भी होगा। वह किसी के भी काम का नहीं होगा।

तो यह स्मरण रहे। कई बार ये विधियां परस्पर विरोधी मालूम पड़ेगी; क्योंकि वे भिन्न—भिन्न ढंग के चित्तों के लिए बनी हैं और उनके बीच कोई समन्वय बिठाने की कोशिश नहीं की गई है। अगर तुम्हें लगे कि उनमें कुछ विरोधाभास है तो उसको लेकर परेशान मत होओ। विरोधाभास है। और केवल छोटे मन के लोग, बहुत क्षुद्रमति लोग ही विरोधाभास से डरते हैं। वे बेचैनी अनुभव करते हैं, घबरा जाते हैं। वे सोचते हैं कि कहीं ?? नहीं होना चाहिए, सब कुछ संगत होना चाहिए।

यह मूढ़ता है; क्योंकि जीवन स्वयं असंगत है। जीवन स्वयं विरोधों से बना है। तो सत्य विरोध—रहित नहीं हो सकता, केवल झूठ विरोध—रहित हो सकता है। सिर्फ असत्य सुसंगत हो सकता है, सत्य तो असंगत होगा ही; क्योंकि उसे अपने में वह सब समेटना है जो जीवन में है। सत्य को समग्र होना है।

और जीवन विरोधाभासी है। पुरुष है और स्त्री है। इसमें मैं क्या कर सकता हूं? और शिव क्या कर सकते हैं? और पुरुष स्त्री के विपरीत है। यही कारण है कि स्त्री—पुरुष एक—दूसरे को आकर्षित करते हैं; अन्यथा आकर्षण ही नहीं होता।

सच तो यह है कि विपरीतता से ही आकर्षण निर्मित होता है। ध्रुवीय विपरीतता ही चुंबकीय शक्ति बनती है। इसीलिए जब स्त्री—पुरुष मिलते हैं तो उन्हें सुख होता है। जब दो ध्रुवीय विपरीतताएं मिलती हैं तो वे एक—दूसरे को काट देती हैं एक—दूसरे को नकार देती हैं। वे एक दूसरे को काट देती है। क्‍योंकि वे परस्‍पर विपरीत है। जब स्‍त्री—पूरूष एक क्षण के लिए भी मिलते हैं—वस्तुत: मिलते हैं, शरीर से ही नहीं, समग्रत: मिलते है—जब उनके प्राण प्रेम में जुड़ते हैं, तब उस एक क्षण के लिए वे विलीन हो जाते हैं। उस क्षण में वहां न कोई पुरुष होता है और न स्त्री, शुद्ध अस्तित्व होता है, शुद्ध होना होता है। और वही उसका आनंद है।

वही घटना तुम्हारे भीतर भी घट सकती है। गहन विश्लेषण से यह बात प्रकट हुई है कि तुम्हारे भीतर भी ध्रुवीयता है, ध्रुवीय विपरीतता है। अब आधुनिक मनोविश्लेषण ने मन की गहराइयों में उतरकर यह पता लगाया है कि तुम्हारे भीतर भी चेतन मन है और अचेतन मन है—दो ध्रुवीय विपरीतताए हैं। अगर तुम पुरुष हो तो तुम्हारा चेतन चित्त पुरुष है और अचेतन चित्त स्त्री है। और अगर तुम स्त्री हो तो तुम्हारा चेतन चित्त स्त्री है और अचेतन चित्त पुरुष। अचेतन चेतन का विपरीत है।

गहरे ध्यान में तुम्हारे चेतन और अचेतन के बीच एक प्रगाढ़ मिलन, एक प्रगाढ़ संभोग घटित होता है, एक गहन आर्गाज्‍म घटित होता है—दोनों एक हो जाते हैं। और जब वे एक होते हैं तो तुम आनंद के गौरीशंकर पर पहुंच जाते हो।

तो स्त्री और पुरुष दो ढंगों से मिल सकते हैं। तुम बाहर की किसी स्त्री से मिल सकते हो; लेकिन यह मिलन क्षणिक ही हो सकता है—बहुत क्षणिक। एक क्षण के लिए शिखर आता है, और फिर चीजें बिखरने लगती हैं।

स्त्री—पुरुष का एक और मिलन है जो तुम्हारे भीतर घटित होता है। वहां तुम्हारे चेतन और अचेतन का मिलन होता है; और यह मिलन शाश्वत हो सकता है। काम—सुख भी आध्यात्मिक आनंद की ही झलक है, लेकिन वह क्षणभंगुर है। लेकिन जब सच्चा आंतरिक मिलन घटित होता है तो वह समाधि है, वह आध्यात्मिक घटना है।

लेकिन तुम्हें अपने चेतन मन से शुरू करना है। अगर तुम्हारा चेतन चित्त स्त्रैण है तो समर्पण सहयोगी होगा। और स्मरण रहे, स्त्री होने से स्त्रैण चित्त भी होगा, ऐसा जरूरी नहीं है उससे ही जटिलता पैदा होती है। अन्यथा तो बात बहुत आसान होती; स्त्री समर्पण का मार्ग पकड़ती और पुरुष संकल्प का।

लेकिन बात इतनी सरल नहीं है। ऐसी स्त्रियां हैं जिनके पास पुरुष—चित्त है; जीवन के प्रति उनका रुझान संघर्ष का है। और ऐसी स्त्रियों की संख्या प्रतिदिन बढ़ रही है। स्त्रियों का मुक्ति—आंदोलन अधिकाधिक पुरुष—चित्त स्त्रियां पैदा करेगा; वे अधिकाधिक आक्रामक होंगी। उनके लिए फिर समर्पण का मार्ग नहीं रह जाएगा। और क्योंकि स्त्रियां पुरुषों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही हैं, इसलिए पुरुष आक्रमण से हट रहा है, वह अधिकाधिक स्त्रैण हो रहा है। भविष्य में पुरुष के लिए समर्पण का मार्ग अधिक उपयोगी होगा।

तुम्हें अपने संबंध में निर्णय लेना है। और सही—गलत की भाषा में मत सोचो। ऐसा मत सोचो कि मैं पुरुष हूं फिर मेरे पास स्त्रैण चित्त कैसे हो सकता है। तुम्हारा चित्त स्त्रैण हो सकता है, उसमें कुछ गलत नहीं है। स्त्रैण चित्त बहुत सुंदर है। और ऐसा भी मत सोचो कि मैं स्त्री हूं तो मेरे पास पुरुष—चित्त कैसे हो सकता है। उसमें भी कुछ गलत नहीं है, पुरुष—चित्त भी म् बहुत सुंदर है। अपने चित्त के संबंध में प्रामाणिक होओ। ठीक—ठीक समझने की कोशिश करो कि मेरे चित्त का ढंग क्या है और उसके अनुसार अपने लिए योग्य मार्ग पर चलो।

और कोई समन्वय करने की चेष्टा मत करो। मुझसे मत पूछो कि आप कैसे इन दोनों के बीच संगति बिठाएगे। मैं कोई संगति नहीं बिठाऊंगा। मैं समझोते के पक्ष में बिलकुल नहीं हूं। और मैं सुसंगत वक्तव्यों के पक्ष में भी नहीं हूं। यह बात मूढ़तापूर्ण है, बचकानी है। जीवन विरोधों से बना है और इसीलिए जीवन जीवन है। सिर्फ मृत्यु सुसंगत है, विरोध—रहित है। जीवन विरोधों में पलता है, विरोधी ध्रुवों से गुजर कर आगे बढ़ता है। और यह विरोध, यह चुनौती ऊर्जा निर्मित करती है। उससे ही ऊर्जा पैदा होती है और जीवन गति करता है।

इसे ही हीगल के मानने वाले द्वंद्वात्मक गति कहते हैं। वाद, प्रतिवाद और फिर संवाद। और यह संवाद फिर वाद बन जाता है और अपना प्रतिवाद पैदा करता है। इस तरह यात्रा चलती रहती है। जीवन ब्लू—सुरा नहीं है। जीवन तर्कबद्ध नहीं है। जीवन द्वंद्वात्मक है।

तुम्हें तर्कबद्धता और द्वंद्वात्मकता के भेद को ठीक से समझ लेना चाहिए। तुम सोचते हो कि जीवन तर्कबद्ध है, इसलिए पूछते हो कि आप सामंजस्य कैसे बिठाएंगे। क्योंकि तर्क तो सदा सामंजस्य बिठाने की कोशिश करता है; वह विरोधी को, विपरीत को बर्दाश्त नहीं कर सकता। तर्क को किसी तरह दिखाना है कि जीवन में कहीं विरोध नहीं है; और अगर कहीं विरोध है तो दोनों पक्ष सही नहीं हो सकते, एक न एक जरूर गलत होगा। तर्क कहता है कि दोनों पक्ष एक साथ गलत तो हो सकते हैं, लेकिन दोनों एक साथ सही नहीं हो सकते। तर्क सब जगह संगति खोजने की चेष्टा करता है।

विज्ञान तर्कपूर्ण है। यही वजह है कि विज्ञान जीवन के प्रति समग्रत: सच नहीं है; हो नहीं सकता। जीवन विरोधाभासी है। जीवन अतर्क्य है। वह विपरीत के द्वारा काम करता है। जीवन विपरीत से भयभीत नहीं है; वह विपरीत का उपयोग करता है। विपरीत देखने में ही विपरीत हैं; गहरे में वे संयुक्त हैं, जुड़े हुए हैं। जीवन द्वंद्वात्मक है, तर्कपूर्ण नहीं। जीवन विरोधों के बीच संवाद है—सतत संवाद।

एक क्षण के लिए विचार करो : अगर विरोध न हो, विपरीत न हो, तो जीवन मृत हो जाएगा, जीवन जीवन न रहेगा। क्योंकि चुनौती कहां से आएगी? आकर्षण कहां से आएगा? ऊर्जा कहां से आएगी? तब जीवन ब्लू—सुरा होगा, मृत होगा। द्वंद्व के कारण ही, विपरीत के कारण ही जीवन संभव है।

पुरुष और स्त्री बुनियादी विपरीतताए हैं, और तब चुनौती से प्रेम की घटना का जन्म होता है। और फिर पूरा जीवन प्रेम के चारों ओर घूमता है। अगर तुम्हारा प्रेमी और तुम इस समग्रता से एक हो जाओ कि कोई अंतराल न रहे तो तुम दोनों मृत हो जाओगे। तब तुम जीवित न रह सकोगे। तब तुम दोनों इस द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से विदा हो जाओगे।

तुम इस जीवन में तभी तक रह सकते हो जब तक तुम्हारी एकता समग्र न हो। और तुम्हें एक—दूसरे से बार—बार दूर हटना पड़ता है, ताकि फिर—फिर निकट आ सको। यही कारण है कि प्रेमी आपस में लड़ते रहते हैं। वह लड़ाई दूरी निर्मित करती है। दिन भर वे लड़ेंगे, एक—दूसरे से बहुत दूर चले जाएंगे, एक—दूसरे के शत्रु बन जाएंगे। उसका मतलब है कि वे अब विपरीत ध्रुवों पर हैं—वे एक—दूसरे से इतनी दूर चले गए हैं जितनी दूर जाना संभव था। प्रेमी सोचने लगते हैं कि कैसे इस स्त्री की हत्या कर दूं और प्रेमिकाएं सोचने लगती हैं कि कैसे इस मुसीबत से छुटकारा हो। वे एक—दूसरे से उतनी दूर हट गए हैं जितनी दूर वे हट सकते थे। और फिर संध्‍या वे प्रेम कर रहे है।

जब वे बहुत दूर, बहुत दूर हो जाते हैं तो फिर आकर्षण लौट आता है। वे इतनी दूरी से एक—दूसरे को देखते हैं कि फिर आकर्षित होने लगते हैं। दूरी पर वे फिर स्त्री और पुरुष हो गए हैं—प्रेमी न रहे। अब वे एक—दूसरे के लिए सिर्फ स्त्री और पुरुष हैं, अजनबी हैं। अब वे फिर एक—दूसरे के प्रेम में पड़ेंगे। फिर वे निकट आएंगे। और फिर एक बिंदु आएगा जब वे क्षण भर के लिए एक हो जाएंगे। और वही उनका सुख होगा, आनंद होगा।

लेकिन फिर उस एक होने के क्षण में ही उनके दूर हटने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। जिस क्षण में पत्नी और पति मिलते हैं, उसी क्षण, यदि वे साक्षी होकर देख सकें तो वे देखेंगे कि हम फिर अलग होने लगे हैं। शिखर का जो क्षण है वही क्षण अलग होने, विपरीत होने की प्रक्रिया की शुरुआत का क्षण भी है।

और यह क्रम चलता रहता है। तुम पुन: —पुन: निकट आते हो और फिर—फिर दूर होते हो। यही अर्थ है जब मैं कहता हूं कि जीवन विपरीतता के द्वारा ऊर्जा का सृजन करता है। विपरीतता के बिना जीवन नहीं हो सकता है। यदि दो प्रेमी वस्तुत: एक हो जाएं तो वे जीवन से विदा हो जाएंगे। वे मोक्ष को उपलब्ध हो गए; वे मुक्त हो गए। उनका अब पुनर्जन्म नहीं होगा। अब भविष्य में उनके लिए जीवन नहीं होगा। अगर दो प्रेमी इतनी समग्रता से एक हो सकें तो उनका प्रेम गहरे से गहरा ध्यान बन गया। और उन्हें वह उपलब्ध हो गया जो बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे उपलब्ध हुआ था। उन्हें वह उपलब्ध हो गया जो क्राइस्ट को क्रास पर उपलब्ध हुआ था। वे अद्वैत को उपलब्ध हो गए। वे अब जीवन में, संसार में नहीं रह सकते।

जैसा हम जानते हैं, अस्तित्व द्वैतमूलक है, द्वंद्वात्मक है। और ये विधियां तुम्हारे लिए हैं जो द्वैत में जीते हैं। इसलिए अनेक विपरीतताएं होंगी। क्योंकि ये विधियां दर्शनशास्त्र नहीं हैं, ये विधियां प्रयोग के लिए हैं, जीए जाने के लिए हैं। वे गणित के सूत्र नहीं हैं, वे वास्तविक जीवन—प्रक्रियाएं हैं। वे द्वंद्वात्मक हैं, वे विरोधाभासी हैं। इसलिए उनमें समन्वय बिठाने के लिए मत कहो। वे एक जैसी नहीं हैं; वे परस्पर विरोधी हैं।

तुम तो यह देखो कि तुम्हारा प्रकार क्या है, तुम्हारा ढंग क्या है। क्या तुम शिथिल हो सकते हो? क्या तुम विश्राम में उतर सकते हो? क्या तुम जो होता है उसे होने दे सकते हो? क्या तुम निष्‍क्रिय तथाता में उतर सकते हो? यदि तुम्हारा उत्तर ही में है तो ये विधियां तुम्हारे लिए नहीं हैं, क्योंकि ये संकल्प की मांग करती हैं। अगर तुम विश्राम में नहीं जा सकते, और अगर मैं तुमसे कहता हूं कि विश्राम करो और तुम तुरंत पूछते हो कि कैसे विश्राम करूं, तो वह कैसे का पूछना तुम्हारे मन की खबर देता है। वह प्रश्न बताता है कि तुम सहजता से शिथिल नहीं हो सकते, विश्राम नहीं कर सकते। विश्राम के लिए भी तुम्हें प्रयत्न की जरूरत है, इसलिए तुम पूछते हो कि कैसे विश्राम करूं।

विश्राम विश्राम है, उसमें कैसे के लिए जगह नहीं है। अगर तुम विश्राम करना चाहते हो तो तुम जानते हो कि विश्राम कैसे होता है। तब तुम बस विश्राम करते हो। उसकी कोई विधि नहीं है, उपाय नहीं है। उसमें कोई प्रयत्न नहीं है। जैसे रात में तुम सो जाते हो, तुम कभी यह नहीं पूछते कि कैसे सोऊ।

लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो अनिद्रा से पीड़ित हैं। अगर तुम उनसे कहो कि मैं बस तकिए पर सिर रखता हूं और सो जाता हूं तो वे तुम पर विश्वास नहीं करेंगे। और उनका संदेह अर्थपूर्ण है। वे तुम पर विश्‍वास नहीं करेंगे; उन्‍हें लगेगा कि तुम उन्‍हें धोखा दे रहे हो। क्‍योंकि वे भी तकिए पर सिर रखते हैं, वे सारी रात तकिए पर सिर रखे रहते हैं, और कुछ नहीं होता है। वे पूछेंगे कि कैसे? कैसे तकिए पर सिर रखूं? कोई राज जरूर होगा जो तुम छिपा रहे हो। उन्हें लगेगा कि तुम उन्हें धोखा दे रहे हो। सारा संसार उन्हें धोखा देता मालूम पड़ेगा। वे कहेंगे. ‘सब लोग यही कहते हैं कि हम बस सो जाते हैं, कोई विधि नहीं है, कोई तरकीब नहीं है।’

वे तुम्हारा विश्वास नहीं करेंगे। और तुम उन्हें गलत भी नहीं कह सकते। तुम कहते हो. ‘हम बस अपना सिर तकिए पर रखते हैं, आंखें बंद कर लेते हैं, बत्ती बुझा देते हैं, नींद में खो जाते हैं।’ वे भी यही सब करते हैं, वे भी यही क्रियाकांड करते हैं—और वे तुमसे ज्यादा सलीके से करते हैं—लेकिन फिर भी कुछ फल हाथ नहीं आता। रोशनी बंद है, वे आंखें बंद किए बिस्तर पर पड़े हैं, और नींद आने का नाम नहीं लेती।

जब तुम सहजता से शिथिल होने की क्षमता खो देते हो तो विधि जरूरी हो जाती है। तब तुम विधि के बिना, उपाय के बिना नहीं सो सकते।

तो अगर तुम्हारा चित्त विश्रामपूर्ण हो सकता है तो समर्पण तुम्हारा मार्ग है। और कोई समस्या मत खड़ी करो, बस समर्पण करो। कम से कम आधे लोग यह कर सकते हैं। तुम्हें पता हो या न हो, लेकिन पचास प्रतिशत लोगों में समर्पण की संभावना है, क्योंकि पुरुष—चित्त और स्त्रैण—चित्त एक अनुपात में होते हैं। वे सदा पचास—पचास प्रतिशत के अनुपात में होते हैं; लगभग सभी क्षेत्रों में आधे —आधे की संख्या में होते हैं, क्योंकि स्त्री के विपरीत ध्रुव के बिना पुरुष का होना संभव ही नहीं है। प्रकृति में एक गहन संतुलन है।

क्या तुम जानते हो, अगर एक सौ लड़कियां पैदा होती हैं तो उनके मुकाबले एक सौ पंद्रह लड़के पैदा होते हैं? कारण यह है कि लड़के लड़कियों से कमजोर होते हैं। कामवासना के प्रौढ़ होने की उम्र तक पंद्रह लड़के मर जाएंगे। इसलिए सौ लड़कियों के पीछे एक सौ पंद्रह लड़के पैदा होते हैं। लड़कियां मजबूत होती हैं, उनमें ज्यादा शक्ति होती है, वे ज्यादा प्रतिरोध कर सकती हैं। लड़के कमजोर होते हैं, उनमें उतनी प्रतिरोध की शक्ति नहीं होती। इसीलिए सौ लड़कियों के मुकाबले एक सौ पंद्रह लड़के! ये पंद्रह लड़के पीछे विदा हो जाएंगे। चौदह वर्ष की उम्र तक आते —आते, जब लड़के—लड़कियां कामवासना की दृष्टि से प्रौढ़ होते हैं, उनकी संख्या बराबर हो जाएगी।

प्रत्येक पुरुष के लिए एक स्त्री है और प्रत्येक स्त्री के लिए एक पुरुष। क्योंकि एक आंतरिक खिंचाव है जिसके बिना वे नहीं जी सकते, वह ध्रुवीय विपरीतता बहुत जरूरी है।

और वही नियम आंतरिक मन के साथ भी सही है। अस्तित्व को, प्रकृति को संतुलन की जरूरत है। इसलिए तुममें से आधे लोग स्त्रैण हैं और वे बहुत आसानी से गहरा समर्पण कर सकते हैं।

लेकिन तुम अपने लिए समस्याएं खड़ी कर सकते हो। हो सकता है तुम्हें समर्पण करने का भाव हो, लेकिन तुम सोचते हो कि मैं समर्पण कैसे कर सकता हूं। तुम्हें लगता कि मेरे अहंकार को चोट पहुंचेगी। तुम समर्पण करने से भयभीत हो जाते हो; क्योंकि तुम्हें सखाया गया है कि स्वतंत्र बनो, स्वतंत्र रहो। अपने को खोओ मत; किसी दूसरे के हाथ में अपनी बागडोर मत दे दो। सदा अपने मालिक रहो।

यह हमें सिखाया गया है। ये सीखी हुई कठिनाइयां हैं। तुम्हें लग सकता है कि मैं समर्पण कर सकता हूं; लेकिन फिर दूसरी समस्याएं आती हैं जो तुम्हें समाज से, संस्कृति से, शिक्षा से मिली हैं। और उनसे सदा समस्याएं निर्मित होती हैं।

अगर तुम्हें सचमुच लगता है कि समर्पण तुम्हारे लिए नहीं है तो उसे भूल जाओ, उसकी फिक्र ही छोड़ दो। और तब अपनी सब ऊर्जा प्रयत्न में उंडेल दो।

ये दो अतियां हैं। एक, अगर तुम वस्तुत: स्त्रैण चित्त हो तो तुम्हें कहीं नहीं जाना है। तब कोई मंजिल नहीं है, तब कोई ईश्वर नहीं है जिसे पाना है, भविष्य में कोई स्वर्ग नहीं है; कुछ भी नहीं है। अब भाग—दौड़ में मत रही, वर्तमान में रहो। और तुम्हें वह सब यहां और अभी अनायास प्राप्त हो जाएगा जो पुरुष—चित्त बहुत भाग—दौड़ और कठिन श्रम से प्राप्त करता है। अगर तुम विश्राम में हो सको तो ठीक अभी ही तुम मंजिल पर हो।

पुरुष—चित्त को तब तक दौड़ना होगा जब तक वह बिलकुल थककर गिर न जाए। तभी वह विश्राम कर सकता है। थककर चूर होने के लिए पुरुष—चित्त को आक्रमण, प्रयत्न और श्रम चाहिए। जब थकावट समग्र होती है तभी उसके लिए विश्राम और समर्पण संभव होता है। समर्पण उसके लिए सदा अंत में आता है। स्त्रैण चित्त के लिए समर्पण सदा आरंभ में है। तुम एक ही मंजिल पर पहुंचते हो, लेकिन पहुंचने के रास्ते भिन्न—भिन्न हैं।

तो कल जब मैंने कहा कि समय मत खोओ तो यह बात मैंने पुरुष—चित्त के लिए कही थी। जब मैंने कहा कि जल्दी करो और ऐसी आपात स्थिति निर्मित करो कि तुम्हारी समग्र ऊर्जा, तुम्हारे समस्त प्राण एकाग्र हो जाएं और उसी एकाग्र, केंद्रित प्रयास में तुम्हारा जीवन ज्योतिशिखा बन जाएगा तो यह बात मैंने पुरुष—चित्त के लिए कही थी। स्त्रैण—चित्त के लिए मैं कहता हूं कि विश्राम करो और तुम अभी ज्योतिशिखा हो।

यही कारण है कि जहां तुम्हें महावीर, बुद्ध, जीसस, कृष्ण, राम, जरथुस्त्र, मूसा के नाम उपलब्ध हैं, वहां तुम्हारे पास स्त्री तीर्थंकरों की ऐसी कोई सूची नहीं है। ऐसा नहीं है कि स्त्रियों ने इस अवस्था को उपलब्ध नहीं किया। उन्होंने भी उपलब्ध किया, लेकिन उनके ढंग भिन्न हैं। और पूरा इतिहास पुरुषों ने लिखा है और पुरुष सिर्फ पुरुष—चित्त को समझ सकता है, वह स्त्रैण चित्त को नहीं समझ सकता। यही समस्या है। यह सचमुच मुश्किल काम है।

पुरुष को यह बात समझ में नहीं आ सकती कि कोई स्त्री केवल गृहिणी रहकर उसे उपलब्ध कर ले जिसे बुद्ध इतने श्रम से, इतनी साधना से उपलब्ध करते हैं। पुरुष यह सोच ही नहीं सकता, उसके लिए यह सोचना असंभव है कि स्त्री बस गृहिणी रहकर उपलब्ध हो जाए। वह क्षण में जीती है, अभी का सुख लेती है; वह निकट में, यहीं और अभी में जीती है। वह दूर की चिंता नहीं करती है, उसके लिए न कोई मंजिल है, न कोई अध्यात्म है। वह बस अपने बच्चों को प्यार करती है, अपने पति को प्रेम करती है, साधारण स्त्री का जीवन जीती है। लेकिन वह आनंदित है। उसे महावीर की तरह कठिन तप नहीं करना है, बारह वर्षों की लंबी, कठिन तपस्या से नहीं गुजरना है।

लेकिन पुरुष महावीर की प्रशंसा करेगा, वह पुरुषार्थ को आदर देगा। अगर तुम बिना

प्रयत्न के कुछ पा लो तो पुरुष के लिए उसका कोई मूल्य नहीं है। वह उसे आदर नहीं दे सकता। वह आदर देगा तेनसिंग को, हिलेरी को, क्योंकि वे एवरेस्ट पर पहुंच गए। यहां एवरेस्‍ट का मूल्‍य नहीं है; मूल्‍य इसका है कि यहां तक पहुंचने में इतना श्रम लगता है कि वहां तक पहुंचना इतना खतरनाक है। और अगर तुम कहो कि मैं एवरेस्ट पर ही हूं तो वह हंसेगा। एवरेस्ट अर्थपूर्ण नहीं है; अर्थपूर्ण है वह श्रम जो उस पर चढ़ने में लगता है।

और जब एवरेस्ट पर पहुंचना आसान हो जाएगा, पुरुष?चित्त के लिए उसका सब आकर्षण समाप्त हो जाएगा। एवरेस्ट पर पाने को कुछ नहीं है। जब हिलेरी और तेनसिंग एवरेस्ट पर पहुंचे तो उन्हें वहां कुछ पाने लायक नहीं मिला। लेकिन पुरुष—चित्त को बड़े गौरव का अनुभव होता है।

जब हिलेरी एवरेस्ट पर पहुंचा, उस समय मैं एक विश्वविद्यालय में था। सभी प्रोफेसर खुशी से नाच उठे थे। मैंने एक स्त्री प्रोफेसर से पूछा : ‘तुम्हारा हिलेरी और तेनसिंग के बारे में, जो एवरेस्ट पर पहुंच गए हैं, क्या खयाल है?’ उसने कहा. ‘मेरी समझ में नहीं आता कि इसके लिए इतना शोरगुल क्यों मचाया जा रहा है। इसमें ऐसा क्या है? वे वहां पहुंच कर क्या पा गए? किसी बाजार में पहुंचना, किसी दुकान पर चले जाना बेहतर होता।’

स्त्रैण—चित्त के लिए यह व्यर्थ है। चांद पर जाना—यह जोखिम क्यों? इसकी जरूरत क्या है? लेकिन पुरुष—चित्त के लिए मंजिल महत्वपूर्ण नहीं है, असली चीज पुरुषार्थ है। क्योंकि तभी वह सिद्ध कर पाता है कि मैं पुरुष हूं। प्रयत्न, पुरुषार्थ, आक्रमण और जीवन को दाव पर लगा देना उसे पुलक से भर देता है। पुरुष—चित्त के लिए खतरे में बहुत रस है, स्त्रैण—चित्त के लिए उसमें कोई रस नहीं है।

यही कारण है कि मनुष्य का इतिहास आधा ही लिखा गया है। उसका दूसरा आधा भाग छूट ही गया है, बिलकुल अनलिखा रह गया है। हमें नहीं मालूम कि कितनी स्त्रियां बुद्धत्व को उपलब्ध हुईं। यह जानना असंभव है, क्योंकि हमारे मापदंड, हमारी कसौटियां स्त्रैण—चित्त पर लागू नहीं होती हैं।

तो पहले अपने चित्त के संबंध में निर्णय करो। पहले अपने मन पर ध्यान करो। देखो कि मेरा मन किस प्रकार का है, उसका ढंग क्या है। और फिर उन सब विधियों को भूल जाओ जो तुम पर लागू नहीं होतीं। और उनके बीच समन्वय बिठाने की चेष्टा मत करो।

 

दूसरा प्रश्न :

 

आपने कहार ‘अपने होने में अधिक से अधिक आस्‍तित्‍व को समाविष्ट करना सीखो। समस्त आस्‍तित्‍व के मूल स्रोत से ऊर्जा गण करो। अपने शत्रु को भी अपने में समाहित करो।’ मैं अपने शत्रु को अपने में समाविष्ट कैसे कर सकता हूं अगर साथ—साथ घृणा की वृत्ति को भी पूरी तरह जीना है? क्या यह शिक्षा दमन पर नहीं ले जाती है?

 

मैंने कहा कि अपने शत्रु को भी अपने में समाविष्ट करो, लेकिन मैंने यह नहीं कहा कि शत्रु से ही शुरू करो। शुरू तो मित्र से करो। तुम अभी जैसे हो, तुम अपने मित्र को भी अपने में सम्मिलित नहीं करते। मित्र से आरंभ करो। वह भी कठिन है। मित्र को भी अपने होने में सम्मिलित करना, उसे भी अपने भीतर प्रवेश देना, गहरे उतरने देना, उसके प्रति भी खुला और ग्रहणशील होना कठिन है। तो मित्र से शुरू करो, प्रेमी—प्रेमिका से शुरू करो। शत्रु पर एकाएक मत छलांग लगाओ।

और क्यों तुम शत्रु पर छलांग लगाते हो? इसलिए कि तुम कह सको कि यह असंभव है, यह हो नहीं सकता, ताकि तुम उसे छोड़ सकी। पहले कदम से शुरू करो। तुम अंतिम कदम से शुरू करते हो, फिर यात्रा कैसे संभव होगी? तुम सदा अंतिम कदम से शुरू करते हो। पहला कदम अभी उठा नहीं है, इसलिए अंतिम कदम की बात केवल कल्पना है। और तुम्हें लगता है कि यह असंभव है। निश्चित ही यह असंभव है। तुम कैसे अंतिम से आरंभ कर सकते हो?

शत्रु तो समाविष्ट होने का अंतिम बिंदु है; अगर तुम मित्र को अपने में सम्मिलित कर सकी तो शत्रु को भी सम्मिलित करना संभव हो सकता है, क्योंकि मित्र ही तो शत्रु बनते हैं। तुम किसी को शत्रु नहीं बना सकते यदि तुम उसे पहले मित्र नहीं बनाते हो। या बना सकते हो? अगर तुम किसी को शत्रु बनाना चाहते हो तो पहले उसे मित्र बनाना जरूरी है। मित्रता पहला कदम है।

बुद्ध ने कहीं कहा है कि मित्र मत बनाओ, क्योंकि वही शत्रु बनाने का पहला कदम है। बुद्ध कहते हैं कि मित्रतापूर्ण बनो, मित्र मत बनाओ। अगर तुम मित्र बनाते हो तो तुमने पहला कदम उठा लिया, अब जल्दी ही तुम शत्रु बनाओगे।

मित्र को सम्मिलित करो। निकट से आरंभ करो। आरंभ से ही आरंभ करो। तो ही शत्रु को सम्मिलित करना संभव होगा। तब कठिनाई नहीं अनुभव होगी।

जब तुम्हें मित्र को ही सम्मिलित करना है, मित्र को ही अपने में समाविष्ट करना है, तब भी यह कठिन काम है। क्योंकि प्रश्न मित्र या शत्रु का नहीं है, प्रश्न तुम्हारे खुले होने का है। तुम तो अपने मित्र के लिए भी बंद हो। तुम अपने मित्र से भी अपना बचाव करते हो। तुमने मित्र के प्रति भी अपने को समग्रत: नहीं खोला है। फिर तुम उसे अपने में सम्मिलित कैसे कर सकते हो? तुम उसे तभी सम्मिलित कर सकते हो जब कोई भय न हो, जब तुम भयभीत नहीं हो, जब तुम उसे अपने भीतर प्रवेश करने दो और उससे बचने के लिए कोई सुरक्षा—व्यवस्था न करो।

लेकिन तुम तो अपने प्रेमी—प्रेमिका के प्रति भी द्वार—दरवाजे बंद किए बैठे हो, उनके लिए भी तुमने अपने मन को अभी नहीं खोला है। अभी भी ऐसी चीजें हैं जो गोपनीय हैं, निजी हैं। और अगर तुम्हारा कुछ अपना है, निजी है, प्राइवेट है, तो तुम खुले नहीं हो सकते, तुम अपने में किसी को समाविष्ट नहीं कर सकते। क्योंकि खतरा है कि तुम्हारा प्राइवेट, व्यक्तिगत जीवन प्रकट हो जा सकता है, तुम्हारी गोपनीय बातें सार्वजनिक हो जा सकती हैं। मित्र को भी समाविष्ट करना आसान नहीं है। तो ऐसा मत सोचो कि शत्रु को सम्मिलित करना कठिन है, अभी यह असंभव ही है।

यही कारण है कि जीसस की शिक्षा असंभव हो गई, और ईसाई नकली हो गए। ऐसा होना ही था। क्योंकि जीसस कहते हैं कि अपने शत्रुओं को प्रेम करो, और तुम अभी अपने मित्र को भी प्रेम करने में समर्थ नहीं हो। जीसस तुम्हें एक असंभव काम दे रहे हैं। तुम झूठे होने के लिए, पाखंडी होने के लिए बाध्य हो; तुम प्रामाणिक नहीं हो सकते। तुम बात तो करोगे शत्रु को प्रेम करने की और अपने मित्रों को भी घृणा करोगे। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं।

तो पहली बात: अभी शत्रु का विचार मत करो। वह तुम्‍हारे मन की चालाकी है। पहले मित्र का विचार करो। और दूसरी बात. प्रश्न किसी को समाविष्ट करने का नहीं है, प्रश्न है समावेश की क्षमता का, खुलेपन का, फैलाव का। वह तुम्हारी चेतना का गुण है। उस खुलेपन को, उस विस्तार को पैदा करो, उस गुणवत्ता को पैदा करो।

उस गुणवत्ता का निर्माण कैसे हो, यह विधि उसके लिए ही है। तुम किसी वृक्ष के पास बैठे हो। उस वृक्ष को देखो। वह तुमसे बाहर है। लेकिन यदि वह वृक्ष बिलकुल तुमसे बाहर है तो तुम उसे जान नहीं सकते। उसका कुछ अंश तो अवश्य ही यात्रा करके तुम्हारे भीतर पहुंच गया है, तभी तो तुम जान सके कि वृक्ष है, कि वह हरा है।

लेकिन क्या तुम जानते हो कि यह हरा रंग तुम्हारे भीतर है, वृक्ष में नहीं? जब तुम आख बंद लेते हो तो पेडू हरा नहीं है। अब वैज्ञानिक भी कहते हैं कि रंग तुम देते हो। प्रकृति में सब कुछ रंगहीन है; वहां कोई रंग नहीं है। रंग तब पैदा होता है जब किसी विषय—वस्तु से आती हुई किरणें तुम्हारी आंखों से मिलती हैं। तो रंग तुम्हारी आंखें पैदा करती हैं। वृक्ष और तुम्हारे मिलन से हरापन घटित होता है।

फूल खिले हैं, उनकी गंध तुम्हारे पास आती है, तुम सुगंध महसूस करते हो। लेकिन वह सुगंध भी तुम्हारी दी हुई है; वह प्रकृति में नहीं है। तुम्हारे पास सिर्फ तरंगें पहुंचती हैं, जिन्हें तुम गंध में रूपांतरित कर लेते हो। गंध तुम्हारें नाक का गुण है, नाक गंध सूंघती है। तुम न रहो तो कोई गंध नहीं होगी।

ऐसे दार्शनिक हुए हैं—बर्कले, नागार्जुन या शकर—जो कहते हैं कि जगत माया है, तुम्हारे मन का एक खयाल है, क्योंकि हम संसार के संबंध में जो भी जानते हैं वह वस्तुत: हमारा आरोपण है। इसीलिए जर्मन चिंतक और दार्शनिक इमेनुअल कांट कहता है कि वस्तुत: किसी वस्तु को नहीं जाना जा सकता, हम जो भी जानते हैं वह हमारा प्रक्षेपण है।

मुझे तुम्हारा चेहरा सुंदर दिखाई देता है। तुम्हारा चेहरा न सुंदर है न कुरूप; सुंदरता ‘मेरी दृष्टि है। मैं ही तुम्हें सुंदर या कुरूप बनाता हूं। यह मुझ पर निर्भर है। यह मेरा भाव है। अगर तुम संसार में अकेले हो, कोई कहने वाला न हो कि तुम कुरूप हो या सुंदर, तो तुम न सुंदर होगे न कुरूप होंगे। या कि होगे? अगर तुम धरती पर अकेले हो तो तुम सुंदर होगे या कुरूप होगे? तुम बुद्धिमान होगे या मूर्ख होगे? तुम कुछ नहीं होगे। सच तो यह है कि तुम धरती पर अकेले हो ही नहीं सकते; अकेले तुम हो नहीं सकते।

अगर तुम किसी झाडू के पास बैठे हो तो ध्यान करो। आख खोलों और झाड़ को देखो। और फिर आख बंद करके झाडू को अपने भीतर देखो। अगर यह प्रयोग करोगे—फिर आख खोलकर झाडू को देखो और फिर आख बंद करके उसी झाड़ को अपने भीतर देखो—तो प्रारंभ में तो भीतर दिखने वाला झाडू बाहर के झाडू की धुंधली सी छाया मालूम होगा। लेकिन अगर तुमने प्रयोग जारी रखा तो धीरे — धीरे भीतर का झाडू ठीक बाहर के झाडू जैसा हो जाएगा।

और अगर तुम इस प्रयोग में धैर्यपूर्वक लगे रहे—जो कठिन है—तो एक क्षण आता

है जब बाहर का वृक्ष भीतर के वृक्ष की छाया मात्र बनकर रह जाता है। भीतर का वृक्ष ज्यादा सुंदर, ज्‍यादा जीवंत हो जाता है। क्‍योंकि अब तुम्‍हारी आंतरिक चेतना इसके लिए भूमि बन गई। अब आंतरिक चेतना में इसकी जड़ें जग गई है। अब यह सीधे चैतन्‍य से भोजन ले रहा है। यह बहुत दुर्लभ चीज है।

जब जीसस या जीसस जैसे लोग परमात्मा के राज्य की चर्चा करते हैं तो वे ऐसी रंगीन भाषा में चर्चा करते हैं कि हमें लगता है कि वे या तो पागल हैं या भ्रांत हैं। वे पागल या भ्रांत कुछ भी नहीं हैं; उन्होंने अस्तित्व को अपने में समाविष्ट करना सीख लिया है। उनकी अपनी आंतरिक चेतना अब एक जीवनदायी तत्व बन गई है। अब जो कुछ भीतर जाता है वह जीवंत हो जाता है, वह ज्यादा रंगीन, ज्यादा गंधपूर्ण, ज्यादा प्राणवान हो जाता है—मानो वह इस जगत का, इस पार्थिव जगत का न हो—मानो वह किसी उच्च लोक का हो। कवियों को इसका कुछ आभास मिलता है। रहस्यदर्शी इसे बहुत गहरे में जानते हैं, लेकिन कवि भी कुछ—कुछ महसूस करते हैं। कवियों को उसकी थोड़ी झलक मिलती है। वे जगत के साथ अपने को एक महसूस कर सकते हैं।

इसे प्रयोग करो : इतने खुलो, इतने विस्तृत होओ कि सबको अपने में समाविष्ट कर सकी। जब मैं कहता हूं कि समावेश करना सीखो तो उसका यही मतलब है। वृक्ष को अपने भीतर प्रवेश करने दो और वहां उसे जड़ जमाने दो। फूल को भीतर प्रवेश करने दो और वहां उसे खिलने दो, प्रस्फुटित होने दो। तुम्हें इस पर भरोसा नहीं होगा, क्योंकि अनुभव किए बिना इसे जानने का और कोई उपाय नहीं है। एक कली पर, गुलाब की कली पर एकाग्रता साधो। उस पर अवधान को एकाग्र करो, उस पर पूरी तरह एकाग्र हो जाओ और उसे बाहर से भीतर आ जाने दो।

और जब कली का यह आंतरिक अनुभव इतना सघन, सच्चा हो जाए कि बाहरी कली, असली कली, तथाकथित असली कली उसकी छाया भर मालूम पड़े—असली धारणा अब अंदर है, असली चीज भीतर है और बाहरी कली आंतरिक कली की फीकी सी झलक भर है—जब तुम इस बिंदु पर पहुंच जाओ तो आख बंद कर लो और भीतर की कली पर एकाग्रता साधो। तुम चकित रह जाओगे, क्योंकि भीतर की कली खिलने लगेगी, फूल बनने लगेगी, वह ऐसा फूल बनेगी जैसा तुमने कभी नहीं जाना। वैसा फूल तुम्हें बाहर के जगत में कभी नहीं मिलेगा। यह एक अपूर्व घटना है—जब कोई चीज तुम्हारे भीतर बढ़ती है, खुलती है, खिलती है।’

इस भांति बढ़ो, विस्तृत होओ, समावेश करना सीखो और धीरे—धीरे अपनी सीमाओं को फैलने दो। अपने में प्रेमियों को सम्मिलित करो, मित्रों को सम्मिलित करो, परिवार को सम्मिलित करो। फिर परायों को भी सम्मिलित करो। और तब तुम धीरे— धीरे शत्रु को भी सम्मिलित कर लेते हो। वह अंतिम बिंदु होगा। और जब तुम उसे अपने भीतर प्रवेश करने देते हो, वहां जड़ें जमाने देते हो, उसे अपनी चेतना का हिस्सा बनने देते हो, तब तुम्हारे लिए कुछ भी शत्रुतापूर्ण नहीं रह जाता। तब सारा जगत तुम्हारा घर हो गया। तब कुछ भी अजनबी न रहा, कोई भी पराया न रहा, और तुम जगत के साथ आनंदित हो।

लेकिन मन की चालाकी से सावधान रहो। मन सदा तुम्हें ऐसा कुछ कहेगा जिसे तुम कर न सको। और जब तुम नहीं कर पाओगे तो मन कहेगा कि ये फिजूल की बातें हैं, इन्हें छोड़ो। मन ऐसा लक्ष्य देगा जिसे तुम पूरा नहीं कर पाओगे, यह सदा स्मरण रहे। अपने ही मन के शिकार मत बनो। सदा संभव से शुरू करो; असंभव पर छलांग मत लगा।

और अगर तुम संभव में बढ़ सके, गति कर सके, तो असंभव उसका ही दूसरा छोर है। असंभव संभव के विपरीत नहीं है, वह उसका ही दूसरा छोर है। वह एक ही इंद्रधनुष का हिस्सा है, दूसरा छोर है।

इसमें एक और प्रश्न जुड़ा है : ‘मैं अपने शत्रु को अपने में कैसे समाविष्ट कर सकता हूं अगर साथ ही साथ घृणा की वृत्ति को भी पूरी तरह जीना है? क्या यह शिक्षा दमन पर नहीं ले जाती है?’

यह थोड़ी बारीक बात है जिसे अच्छी तरह समझना चाहिए। जब तुम घृणा करते हो तो मैं नहीं कहता कि उसका दमन करो। क्योंकि जो भी दमित किया जाता है वह खतरनाक है। और अगर तुम दमन करते हो तो तुम बिलकुल खुले नहीं हो सकते। तब तुम अपनी एक निजी, अलग दुनिया बना लेते हो जो तुम्हें दूसरों को अपने में सम्मिलित नहीं करने देगी। और तुम जिस चीज का भी दमन करोगे, तुम उससे सदा ही भयभीत रहोगे, क्योंकि किसी भी क्षण वह बाहर आ सकती है। तो पहली बात कि क्रोध, घृणा या किसी भी भाव का दमन मत करो।

लेकिन क्रोध या घृणा को किसी दूसरे पर प्रकट करने की भी जरूरत नहीं है। तुम दूसरे पर अपना क्रोध या घृणा प्रकट करते हो, क्योंकि तुम सोचते हो कि दूसरा जिम्मेवार है। यह बात गलत है। दूसरा जिम्मेवार नहीं है, तुम स्वयं जिम्मेवार हो। तुम घृणा करते हो, क्योंकि तुम घृणा से भरे हो। दूसरा सिर्फ तुम्हें मौका देता है, और कुछ नहीं। अगर तुम आते हो और मुझे गाली देते हो तो तुम मुझे सिर्फ एक मौका देते हो कि मेरे भीतर जो भी है उसे मैं बाहर ले आऊं। अगर घृणा है तो घृणा बाहर आएगी, अगर प्रेम है तो प्रेम प्रकट होगा। और अगर करुणा है तो करुणा व्यक्त होगी। तुम केवल मुझे अपने को प्रकट करने का अवसर दे रहे हो।

इसलिए अगर तुम्हारी घृणा बाहर आती है तो यह मत सोचो कि दूसरा उसके लिए जिम्मेवार है। वह सिर्फ माध्यम है। हमारे पास संस्कृत में इसके लिए सुंदर शब्द है : निमित्त। निमित्त यानी माध्यम। वह कारण नहीं है, कारण सदा भीतर है। वह तो कारण को बाहर लाने का निमित्त मात्र है। इसलिए उसका धन्यवाद करो, उसका अनुग्रह मानो कि वह तुम्हारी छिपी हुई घृणा के प्रति तुम्हें बोधपूर्ण बनाता है। वह मित्र है। तुम उसे दुश्मन समझ लेते हो, क्योंकि तुम उस पर सारा दायित्व डाल देते हो। तुम सोचते हो कि वह घृणा पैदा करवा रहा है। यह सदा के लिए गांठ बांध लो. कोई दूसरा तुम्हारे भीतर कुछ निर्मित नहीं कर सकता।

अगर तुम बुद्ध के पास जाओ और उन्हें गाली दो तो वे तुम्हें घृणा नहीं करेंगे, वे तुम पर क्रोध नहीं करेंगे। तुम चाहे कुछ भी करो, तुम उन्हें क्रोधित नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कि तुम्हारे प्रयत्न में कुछ कमी है, बल्कि इसलिए कि उनमें क्रोध ही नहीं है। तुम बाहर क्या लाओगे?

दूसरा व्यक्ति तुम्हारी घृणा का स्रोत नहीं है, इसलिए अपनी घृणा को उस पर मत फेंको। उसके प्रति कृतज्ञ होओ, उसे धन्यवाद दो। और उस घृणा को, जो तुम्हारे भीतर, खाली आकाश में उलीच दो। यह है पहली बात।

दूसरी बात: घृणा को भी अपने भीतर ले लो, उसे भी अपने में सम्मिलित कर लो। वह जरा बात। वह गहरा आयाम। घृणा को भी अपने में जगह दो। जब मैं यह कहता हूं तो मेरा क्या अर्थ है?

जब भी कुछ बुरा होता है, जब भी कुछ ऐसा घटित होता है जिसे तुम बुरा कहते हो, अशुभ कहते हो, तो तुम उसे कभी अपने में शामिल नहीं करते। और जब कुछ शुभ होता है, भला होता है, तो तुम तुरंत उसे अपने में शामिल कर लेते हो।

जब तुम प्रेमपूर्ण होते हो तो कहते हो कि मैं प्रेम हूं लेकिन जब तुम घृणा करते हो तो कभी नहीं कहते कि मैं घृणा हूं। जब तुम्हें करुणा होती है तो तुम कहते हो कि मैं करुणा हूं लेकिन जब क्रोध आता है तब नहीं कहते कि मैं क्रोध हूं। तुम सदा कहते हो कि मैं क्रोधित हूं—मानो क्रोध तुम्हें घटित हुआ है, मानो तुम क्रोध नहीं हो, यह कोई बाह्य घटना है, कुछ आकस्मिक चीज है। और जब तुम कहते हो कि मैं प्रेम हूं तो लगता है कि प्रेम तुम्हारा सारभूत गुण है, वह आकस्मिक रूप से तुम पर घटित नहीं हुआ है, वह बाहर से नहीं आया है। तुम मानते हो कि वह तुम्हारे भीतर से आया है।

तो जो भी अच्छा है, शुभ है, तुम उसे अपने में गिन लेते हो; और जो भी बुरा है उसे नहीं गिनते। अशुभ को भी अपने में शामिल करो। क्योंकि तुम्हीं घृणा हो, तुम्हीं क्रोध हो। और जब तक तुम इस बात को कि मैं घृणा हूं कि मैं क्रोध हूं अपने गहन अंतस में नहीं अनुभव करते हो, तब तक तुम उसके पार नहीं जा सकते हो।

अगर तुम अनुभव कर सको कि मैं क्रोध हूं तो तुम्हारे भीतर रूपांतरण की एक सूक्ष्म प्रक्रिया सक्रिय हो जाती है। क्या होता है जब तुम कहते हो कि मैं क्रोध हूं? बहुत सी बातें होती हैं। पहली बात, जब तुम कहते हो कि मैं क्रोधित हूं तो तुम उस ऊर्जा से अलग हो जिसे तुम क्रोध कहते हो। यह सचाई नहीं है। और सत्य झूठे आधार से कभी घटित नहीं हो सकता। यह सच नहीं है कि तुम अपने क्रोध से भिन्न हो। सचाई यह है कि तुम क्रोध ही हो, यह तुम्हारी ही ऊर्जा है। वह तुमसे कोई अलग चीज नहीं है।

तुम क्रोध को, घृणा को अपने से अलग करते हो, क्योंकि तुम अपनी एक झूठी प्रतिमा निर्मित करते हो कि मैं कभी क्रोध नहीं करता, घृणा नहीं करता, कि मैं सदा प्रेमपूर्ण हूं सहृदय और सहानुभूतिपूर्ण हूं। ऐसे तुमने अपनी एक झूठी प्रतिमा निर्मित कर ली है। और यह झूठी प्रतिमा अहंकार है। अहंकार तुम्हें कहे चला जाता है. ‘क्रोध को छोड़ो, घृणा को काटो; ये अच्छी चीजें नहीं हैं।’ ऐसा नहीं है कि तुम जानते हो कि वे अच्छी चीजें नहीं हैं। केवल इसलिए तुम उन्हें छोड़ना चाहते हो, क्योंकि वे तुम्हारी अच्छी प्रतिमा को तोड़ते हैं, वे तुम्हारे अहंकार को, तुम्हारी झूठी प्रतिमा को पोषण नहीं देते हैं।

तुम्हारी एक प्रतिमा है। तुम मानते हो कि मैं अच्छा आदमी हूं प्रतिष्ठित, सुंदर, सुसंस्कृत आदमी हूं। और यह आकस्मिक है कि कभी—कभी तुम अपनी प्रतिमा से गिर जाते हो। और तब तुम अपनी प्रतिमा को फिर संवार लेते हो। लेकिन यह आकस्मिक नहीं है; असल में वही तुम्हारा असली रूप है। जब तुम क्रोध में होते हो तब तुम्हारा असली रूप अधिक सच्‍चाई से प्रकट —बजाय उन क्षणों के जब तुम झूठी मुसकान ओढ़े रहते हो। जब तुम अपनी घृणा प्रकट करते हो तब तुम ज्यादा प्रामाणिक हो—बजाय उन क्षणों के जब तुम प्रेम का ढोंग करते हो।

पहली बात है कि प्रामाणिक बनो, सच्चे होओ। घृणा को, क्रोध को, तुम्हारे भीतर जो भी है, सबको सम्‍मिलित करो। क्‍या होगा? अगर तुम सब कुछ सम्‍मिलित कर लेते हो तुम्हारी झूठी प्रतिमा सदा के लिए गिर जाएगी। और यह शुभ है। यह कितना सुंदर है कि तुम अपनी झूठी प्रतिमा सै, अपने मुखौटों से मुक्त हो जाओ। क्योंकि यह झूठी प्रतिमा ही जीवन में जटिलताएं पैदा करती है। इस प्रतिमा के गिरते ही तुम्हारा अहंकार गिर जाएगा। और अहंकार का विसर्जन धर्म का द्वार है।

जब तुम कहते हो कि मैं क्रोध हूं तब तुम्हारा अहंकार कैसे खड़ा रह सकता है? जब तुम कहते हो कि मैं घृणा हूं? मैं ईर्ष्या हूं मैं क्रूरता हूं? मैं हिंसा हूं तब तुम्हारा अहंकार कैसे खड़ा रह सकता है? अहंकार तो तब खडा होता है जब तुम कहते हो कि मैं ब्रह्म हूं मैं परमेश्वर हूं। तब अहंकार आसान है। मैं आत्मा हूं परमात्मा हूं—यह मानने से तुम्हारा अहंकार सरलता से खड़ा हो सकता है। लेकिन जब तुम कहते हो कि मैं ईर्ष्या, घृणा, काम, क्रोध, वासना हूं, तब तुम्हारा अहंकार नहीं रह सकता। झूठी प्रतिमा के गिरने के साथ ही अहंकार गिर जाता है, तुम सच्चे और स्वाभाविक हो जाते हो। और तभी अपनी यथार्थ स्थिति को समझना संभव है। तब तुम अपने क्रोध के पास निर्विरोध भाव से जा सकते हो, उसे देख सकते हो। वह तुम ही हो। तुम्हें समझना है कि वह मेरी ही ऊर्जा है।

और अगर तुम अपने क्रोध के प्रति समझपूर्ण हो सके तो यह समझ ही क्रोध को बदल देती है, रूपांतरित कर देती है। अगर तुम क्रोध और घृणा की पूरी प्रक्रिया को समझ सके तो उस समझने में ही क्रोध, घृणा, सब विदा हो जाता है। क्योंकि क्रोध के, घृणा के होने के लिए बुनियादी जरूरत है उनके प्रति बेहोश होना, अनजान होना, सोया होना। जब भी तुम सजग नहीं हो, क्रोध संभव है। और जब तुम सजग हो तो क्रोध असंभव है। जो ऊर्जा क्रोध बन सकती थी वही सजगता में समाहित हो जाती है।

बुद्ध बार—बार अपने भिक्षुओं से कहते हैं. ‘मैं यह नहीं कहता कि क्रोध मत करो, मैं कहता हूं कि जब तुम क्रोध करो तो सजग रहो। यही वस्तुत: रूपांतरण का मूलभूत सिद्धात है। मैं यह नहीं कहता कि क्रोध मत करो, मैं कहता हूं कि जब क्रोध आए तो सजग रहो।’

इसे प्रयोग करो। जब क्रोध आए तब सजग हो जाओ। उसे देखो। उसका निरीक्षण करो। उसके प्रति होश रखो, सोए मत रहो। और तुम जितना होश रखो, क्रोध उतना ही कम होगा। और जिस क्षण तुम पूरी तरह सजग होगे, क्रोध बिलकुल नहीं होगा। जो ऊर्जा क्रोध बनती है वही ऊर्जा सजगता बन जाती है।

ऊर्जा तटस्थ है। वही ऊर्जा क्रोध बनती है, वही ऊर्जा घृणा बनती है। और वही ऊर्जा प्रेम बनती है, वही ऊर्जा करुणा बनती है। ऊर्जा तो एक है, क्रोध, घृणा, प्रेम, उसकी अभिव्यक्तियां हैं। और ऐसी कुछ आधारभूत स्थितियां हैं जिनमें ऊर्जा कोई विशेष वृत्ति का रूप ले लेती है। अगर तुम मूर्च्‍छित हो तो ऊर्जा क्रोध बन सकती है, काम बन सकती है, हिंसा बन सकती है। अगर तुम जागरूक हो, सावचेत हो तो ऊर्जा यह सब नहीं बन सकती; होश, बोध, चैतन्य, ऊर्जा को उन मार्गों में जाने नहीं देता है। तब ऊर्जा एक भिन्न धरातल पर गति करती है—वही ऊर्जा।

बुद्ध कहते हैं : ‘चलो, बैठो, भोजन करो—जो भी करो पूरे सावचेत होकर करो, पूरे बोध के साथ करो कि यह कर रहा हूं।’

एक बार ऐसा हुआ कि बुद्ध टहल रहे थे और एक मक्खी आई और उनके माथे पर बैठ गई। बुद्ध कुछ भिक्षुओं से बातें कर रहे थे, तो मक्खी पर ध्यान दिए बिना ही उन्होंने अपना हाथ हिलाया और मक्खी उड़ गई। फिर उन्हें बोध हुआ कि मैंने कुछ किया जो बोधपूर्ण नहीं था; क्योंकि मेरा बोध तो उन भिक्षुओं के प्रति था जिनसे मैं बात कर रहा था।

उन्होंने भिक्षुओं से कहा ‘मुझे एक क्षण के लिए क्षमा करो।’ फिर उन्होंने आख बंद की और अपना हाथ उठाया। भिक्षु चकित हुए कि बुद्ध क्या कर रहे हैं! क्योंकि अब कोई मक्खी तो वहां थी नहीं। उन्होंने दोबारा अपना हाथ उठाया और उसी स्थान पर हिलाया जहां मक्खी बैठी थी—यद्यपि अब वह वहां नहीं है। उन्होंने अपना हाथ नीचे किया, आंखें खोलीं और भिक्षुओं से कहा: ‘अब तुम पूछ सकते हो।’

लेकिन उन भिक्षुओं ने कहा. ‘हम तो भूल ही गए कि क्या पूछना चाहते थे। अब हम पूछना चाहते हैं कि यह आपने क्या किया? मक्खी तो अभी नहीं थी, पहले जरूर थी, फिर आप क्या कर रहे थे?’ बुद्ध ने कहा. ‘मैंने वह किया जो मुझे पहले करना चाहिए था, पूरी सजगता से हाथ उठाना चाहिए था। यह मेरे लिए अच्छा नहीं था; यह बिलकुल बेहोशी में, यंत्रवत किया गया था।’

ऐसा होश, ऐसा चैतन्य क्रोध नहीं बन सकता है। ऐसी सजगता घृणा नहीं बन सकती है। यह असंभव है।

तो पहले घृणा को, क्रोध को, जो भी बुरा माना जाता है, सबको सम्मिलित करो। उसे अपने में समाविष्ट करो, अपनी प्रतिमा में शामिल करो, ताकि तुम्हारा अहंकार गिर जाए, तुम आसमान से जमीन पर उतर आओ। तुम सच्चे बनी।

फिर क्रोध या घृणा को किसी दूसरे पर मत फेंको। उसे रहने दो, उसे आकाश के प्रति व्यक्त करो। पूरे सावचेत हो जाओ। अगर तुम क्रोध में हो तो एक कमरे में चले जाओ, स्वात में चले जाओ और वहां क्रोध करो, वहां क्रोध को प्रकट करो—और सजग रहो। वह सब करो जो तुम उस व्यक्ति के साथ करते जो तुम्हारे क्रोध का निमित्त बना था। तुम उसका चित्र कमरे में रख सकते हो, या उसकी जगह एक तकिया रख सकते हो। और उससे कहो. तुम मेरे पिता हो। और फिर उसकी खूब पिटाई करो। लेकिन पूरी तरह सजग रहो। पूरी तरह सजग रहो कि तुम क्या कर रहे हो, और करो।

और एक अदभुत अनुभव होगा। क्रोध की पूरी अभिव्यक्ति होगी और तुम सजग रहोगे। और तुम हंसोगे, तुम जानोगे कि मैं भी क्या—क्या मूढ़ताएं करता हूं। लेकिन तुम यही सब असली पिता के साथ कर सकते थे—अभी तुम सिर्फ तकिए के साथ कर रहे हो।

और अगर तुम यह प्रामाणिकता से कर सके तो तुम अपने पिता के प्रति बहुत करुणा से भर जाओगे, बहुत प्रेमपूर्ण हो जाओगे। जब तुम कमरे से बाहर आओगे और अपने पिता को देखोगे तो तुम अपने को उनके प्रति बहुत करुणा, बहुत प्रेम से भरा पाओगे। और तुम्हें भाव होगा कि उनसे क्षमा मांग लो।

मेरा यही मतलब है जब मैं कहता हूं कि सबको अपने में सम्मिलित करो। उसका अर्थ दमन नहीं है। दमन सदा खतरनाक है, जहर है। जो भी तुम दमित करते हो उससे तुम सिर्फ आंतरिक जटिलताएं ही निर्मित करते हो। वे जटिलताएं जारी रहेंगी और तुम्हें अंततः पागल

बनाकर छोड़ेंगी। दमन की अंतिम परिणति पागलपन है। तो प्रकट करो, अभिव्यक्त करो। लेकिन किसी दूसरे पर मत प्रकट करो। उसकी जरूरत नहीं है, वह मूढ़ता है। और उससे एक दुश्‍चक्र निर्मित होता है। अकेले में प्रकट करो।

और ध्यानपूर्वक प्रकट करो। और प्रकट करते हुए सजग रहो।

 

आज इतना ही।

 

 


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सपना यह संसार–(प्रवचन–19)

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मुंह के कहे न मिलै, दिलै बिच हेरना—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक; रविवार, 26 जुलाई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

हरि—चरचा से बैर संग वह त्यागिये।

अपनी बुद्धि नसाय सवेरे भागिये।।

सरबस वह जो देइ तो नाहीं काम का।

अरे हां, पलटू मित्र नहीं वह दुष्ट जो द्रोही राम का।।

 

लोक—लाज जनि मानु वेद—कुल—कानि को।

भली—बुरी सिर धरौ भजौ भगवान को।।

हंसिहै सब संसार तौ माख न मानिये।

अरे हां, पलटू भक्त जक्त से बैर चारो जुग जानिये।।

 

देव पित्र दे छोड़ि जगत क्या करैगा।

चला जा सूधी चाल, रोइ सब मरैगा।।

जाति—बरन—कुल खोइ करौ तुम भक्ति को।

अरे हां, पलटू कान लीजिये मूंदि, हंसै दे जक्त को।।

 

केतिक जुग गये बीति माला के फेरते।

छाला परि गये जीभ राम के टेरते।।

माला दीजे डारि मनै को फेरना।

अरे हां, पलटू मुंह के कहे न मिलै, दिलै बिच हेरना।।

 

तीसो रोजा किया, फिरे सब भटकिकै।

आठो पहर निमाज मुए सिर पटकिकै।।

मक्के में भी गये, कबर में खाक है।

अरे हां, पलटू एक नबी का नाम सदा वह पाक है।।

 

डांड़ी पकड़े ज्ञान, छिमा कै सेर है।

सुरत सबद से तोल मनै का फेर है।।

भला—बुरा इक भाव निबाहै और है।

अरे हां, पलटू संतोष की करै दुकान महाजन जोर है।।

 

ति प्रबल पैरों में भरी

फिर क्यों रहूं दर—दर खड़ा

अब आज मेरे सामने

है रास्ता इतना पड़ा

जब तक न मंजिल पा सकूं, तब तक मुझे न विराम है,

चलना हमारा काम है।

 

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया

कुछ बोझ अपना बंट गया

अच्छा हुआ तुम मिल गए

कुछ रास्ता ही कट गया

क्या राह में परिचय कहूं, राही हमारा नाम है,

चलना हमारा काम है।

 

जीवन पूर्ण लिए हुए

पाता कभी खोता कभी

आशा निराशा से घिरा

हंसता कभी रोता कभी,

गति—मति न हो अवरुद्ध, इसका ध्यान आठों याम है,

चलना हमारा काम है।

 

इस विशद विश्व—प्रवाह में

किसको नहीं बहना पड़ा,

सुख—दुख हमारी ही तरह

किसको नहीं सहना पड़ा,

फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूं, मुझ पर विधाता वाम है,

चलना हमारा काम है।

 

मैं पूर्णता की खोज में

दर—दर भटकता ही रहा

प्रत्येक पग पर कुछ—न—कुछ

रोड़ा अटकता ही रहा

पर हो निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,

चलना हमारा काम है।

 

कुछ साथ में चलते रहे

कुछ बीच से ही फिर गए

पर गति न जीव नकी रुकी

जो गिर गए सो गिर गए,

चलता रहे हर दम, उसीकी सफलता अभिराम है,

चलना हमारा काम है।

 

मैं तो फकत यह जानता

जो मिट गया वह जी गया

जो बंद कर पलकें सहज

दो घूंट हंसकर पी गया

जिसमें सुधा—मिश्रित गरल, वह साकिया का जाम है,

चलना हमारा काम है।

धर्म एक यात्रा है।

जिसे हम साधारणतः जीवन कहते हैं, वह भी यात्रा जैसा मालूम होता, लेकिन यात्रा नहीं है। यात्रा का धोखा है। यात्रा तो वह जो पहुंचा दे जिसके आगे जाने को फिर कोई और जगह न बचे। यात्रा तो वह जो मंजिल से जुड़ा दे, राम से मिला दे। क्योंकि राम मिले तो विश्राम है। जब तक राम नहीं, तब तक विश्राम नहीं। तब तक आपाधापी है, दौड़धूप है, चिंता—विषाद है।

जब तक राम नहीं तब तक तुम जिसे यात्रा समझ रहे, वह कोल्हू के बैल की यात्रा है। गोल रहे गोल—गोल, घूम रहे गोल—गोल। वही राह हजार बार चल रहे। कहीं पहुंचोगे नहीं। ऐसे ही कोल्हू के बैल की तरह चलते—चलते गिर जाओगे एक दिन। भ्रांति तो रहेगी कि चल रहे हो। मगर चलने से ही थोड़े कोई पहुंचता है! चलने में एक कला चाहिए। चलने में भी एक दिशा चाहिए। चलने का भी एक विज्ञान है और बहुत कम लोग हैं जो चलना जानते हैं।

चलते सभी हैं, लेकिन चलना वे ही जानते हैं जो पहुंचते हैं। कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई कबीर, कोई पलटू, कोई नानक, कोई मुहम्मद। जो कह सके कि मैं आ गया। जो कह सके कि अब मेरी कोई चाह न रही। कह ही न सके, जिसके जीवन की ध्वनि, जिसका प्रसाद, जिसकी उपस्थिति, जिसका सान्निध्य, जिसकी तरंग तुम्हें प्रमाण दे कि जो पाने योग्य था, पा लिया गया। बीज फूल हो गया। अमावस पूर्णिमा हो गई। ऐसी यात्रा जीवन बने तो उस कला, उस विज्ञान का नाम धर्म है।

और कैसे यह होगा? करोड़ों तो लोग हैं। सभी चल भी रहे हैं। चल ही नहीं रहे, दौड़ भी रहे हैं।

मैंने सुना है—

एक बहुत तीव्र गति से उड़ता हुआ हवाई जहाज, उसके पायलट ने इंटरकाम पर यात्रियों को सूचना दी कि दो खबरें हैं, एक अच्छी, एक बुरी। पहले बुरी खबर, कि हमारा दिशासूचक यंत्र बिगड़ गया है। हम नहीं जानते कि हम कहां हैं? और हम नहीं जानते कि हम कहां जा रहे हैं? और दूसरी अच्छी खबर, कि हम जहां भी हैं और हम जहां भी जा रहे हैं, हम तेजी से जा रहे हैं।

लोग चल ही नहीं रहे हैं, दौड़ रहे हैं। पता नहीं कहां हैं? पता नहीं कहां जा रहे हैं? पता नहीं कहां से आ रहे हैं? मगर त्वरा है, तेजी है, बड़ा उद्दाम वेग है। क्षणभर की फुर्सत नहीं है लोगों को। समय नहीं कि दो घड़ी राम को याद करें, कि दो घड़ी प्रार्थना में डूबें। कहो: प्रार्थना, ध्यान, लोग कहते हैं, समय कहां है? जीवन की आपाधापी इतनी है। फुर्सत नहीं है। कहां जा रहे हो? क्यों जा रहे हो?। तुमसे आगे भी लोग चल—चल कर कब्रों में गिर रहे हैं। तुम भी गिर जाओगे। कैसे ही चलो, कहीं भी जाओ, कब्र पर ही पहुंच जाओगे। गरीब भी पहुंच जाते हैं, अमीर भी पहुंच जाते हैं। पैदल भी और घुड़सवार भी। सोने के छत्रों की छाया में या धूप में पसीने से लथपथ, लेकिन सब बस मृत्यु के गङ्ढे में गिर जाते हैं।

मृत्यु के पहले जो अमृत को जान ले, समझना कि वही यात्री है।

फिर लोग इस यात्रा से ऊबते भी हैं। वही—वही रोज। वही दुकान, वही घर, वही खाना, वही पीना, वही धन…। और दिखाई भी पड़ता है कि जिनके पास धन है, उन्हें क्या मिल गया? और जिनके पास पद है, उन्हें क्या मिल गया? उनकी आंखों में भी शांति नहीं; उनके प्राणों में भी गीत नहीं; उनके जीवन में भी उत्सव नहीं; यह दिखाई भी पड़ता है। न भी देखना चाहो तो भी दिखाई पड़ता है। चारों तरफ यही है, कहां तक बचोगे, कैसे बचोगे?

लेकिन, करें क्या? सारी दुनिया दौड़ रही है। अगर हम न दौड़े तो पीछे रह जाएंगे। यह डर दौड़ाए चला जाता है कि कहीं हम पीछे न रह जाएं। पहुंचें या न पहुंचें, इसकी इतनी फिक्र नहीं है, लेकिन दूसरों से पीछे न रह जाएं, इसकी फिक्र ज्यादा है। एक स्पर्धा है, एक अहंकार है जो दौड़ाए रखता है।

और फिर कभी अगर यह दिखाई भी पड़ जाता है और समझ में भी आने लगती है बात कि दौड़ व्यर्थ है, यह यात्रा यात्रा नहीं है, तो लोग तीर्थयात्रा को निकल जाते हैं। चले काशी, चले काबा, चले गिरना! एक मूढ़ता छूटी नहीं कि दूसरी पकड़ने में देर नहीं लगती। मौलिक रूप से हमारी मूढ़ता वही की वही रहती है। फिर चाहे तुम कलकत्ता जाओ, चाहे काशी, क्या फर्क पड़ेगा? जाने वाले तुम वही के वही। पीने वाले तुम वही के वही। तुम्हारे पात्र में अमृत भी जहर हो जाएगा। तुम्हारे हाथ में सोना भी मिट्टी हो जाएगा। और मैं किसी सिद्धांत की ही बात नहीं कह रहा हूं, तुम्हारा अनुभव है यह। तुमने जो छुआ, वही मिट्टी हो गया है।

जब तक तुम न बदलो, कुछ भी न होगा। जब तक तुम्हारी आंतरिक कीमिया न बदले, तुम्हारे भीतर की रसायन—विद्या न बदले, तब तक कुछ भी न होगा। जब तक तुम पारस न बनो तब तक कुछ भी न होगा। हां, पारस बन जाओ, लोहा भी छुओगे तो सोना हो जाएगा। जहर भी पीओगे तो अमृत हो जाएगा। ऐसी अदभुत कला का नाम धर्म है, जिससे तुम पारस हो जाओ, जिससे तुम्हारे भीतर की रसायन बदल जाए।

पलटू के ये सूत्र उसी रसायन की तरफ इशारे हैं।

हरि—चरचा से बैर संग वह त्यागिये।

पहली बात, पलटू कहते हैं, जिनका हरि—चर्चा से बैर हो, उस संग—साथ को जल्दी ही छोड़ देना। इसके पहले कि बीमारी तुम्हें लग जाए, वहां से भागना, लौटकर देखना ही मत। उस चर्चा में रस है। उस चर्चा में उलझाव भी है। उस चर्चा में तर्क भी है। उस चर्चा में बहुत धोखे की संभावना है। वह चर्चा सार्थक भी लग सकती है। ईश्वर के पक्ष में तर्क ही क्या है! ईश्वर अतक्र्य है। आज तक कोई तर्क दिया नहीं जा सका। सब तर्क उसके खिलाफ हैं। अगर तुमने तर्क पर ध्यान दिया, तो तुम्हें नास्तिक ही ठीक मालूम होगा, आस्तिक ठीक नहीं मालूम होगा। आस्तिक तो परवाना है, दीवाना है। तुम्हें नास्तिक ही ठीक मालूम होगा, अगर तर्क पर ध्यान दिया। नास्तिक का तर्क सुडौल है, सुदृढ़ है, ठीक भूमि पर आधारित है। नास्तिक जो कहता है, उसमें भूल—चूक खोजनी कठिन है।

इसे समझ लेना ठीक से।

नास्तिक से विवाद में जीतना असंभव है। क्योंकि विवाद तो उसका जगत है। नास्तिक से संवाद नहीं हो सकता, विवाद हो सकता है। नास्तिक को परमात्मा का कोई पता नहीं है; लेकिन परमात्मा नहीं है, इसके वह प्रमाण दे सकता है। और जिसे ईश्वर का पता है, वह उसके लिए कोई भी प्रमाण नहीं दे सकता।

यह बेबूझ पहेली है।

जिसने जाना है, उसके लिए गूंगे का गुड़ हो गया। जिसने जाना है, उसने अनुभव किया कि कोई शब्द उसे प्रकट नहीं कर सकते हैं। वह अभिव्यक्ति में नहीं आता है। जाना तो जाता है, लेकिन ज्ञान में नहीं समाता है। हमसे बड़ा है, हमसे विराट है। हम उसमें डूब जाते, गल जाते, पिघल जाते, एक हो जाते हैं। अब जो बूंद सागर में गिर कर एक हो गई है, वह क्या प्रमाण दे सागर का? वह बची कहां? उसका अलग होना न रहा, उसका अपना अस्तित्व न रहा; कैसा प्रमाण, किसका प्रमाण, कौन दे प्रमाण?

जिन्होंने जाना, वे चुप रह गए हैं ईश्वर के संबंध में। जिन्होंने नहीं जाना, वे बहुत मुखर हैं। जो ईश्वर के संबंध में प्रमाण देता है, वह उतना ही अज्ञानी है जितना वह, जो ईश्वर के विरोध में प्रमाण देता है। ईश्वर के संबंध में प्रमाण दिया ही नहीं जा सकता। यह तो पियक्कड़ों की बात है, प्रमाण की नहीं। यह तो मस्ती की बात है, तर्क की नहीं। हां, जाना जा सकता है। सत्संग में ही जाना जाता है। जो पीए बैठे हैं, जो डोल रहे हैं मस्ती से, जो यहां रखते हैं पैर और वहां पड़ता है पैर, जो कहीं रखते हैं पैर और कहीं पड़ता है पैर, जिनके भीतर आनंद छलक रहा है, उनके पास बैठोगे तो शायद कुछ बूंदाबांदी तुम पर भी हो जाए। उनका सत्संग करना। जहां हरि—चर्चा होती हो, वहां बैठना, उस रंग में रंगना।

लेकिन जहां हरि—चर्चा से बैर हो, पलटू कहते हैं, वह संग तत्काल छोड़ दो। क्योंकि वे बातें तुम्हारी बुद्धि को बहुत संगत मालूम होंगी। तुम्हारी खोपड़ी में उन बातों का खूब प्रभाव पड़ेगा। तुम्हारी खोपड़ी बिलकुल आश्वस्त हो जाएगी कि ऐसा ही है। तुम्हारा अहंकार चाहता है कि ईश्वर न हो। इसलिए जो भी तुम्हें ईश्वर के न होने के प्रमाण देगा, वह प्रीतिकर लगेगा। क्योंकि तुम्हारे अहंकार की प्रतिष्ठा होगी। तुम्हारा अहंकार बलिष्ठ होगा, पुष्ट होगा। तुम्हारे अहंकार को भोजन मिलेगा।

फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है: ईश्वर नहीं है, नहीं हो सकता, क्योंकि मैं हूं। और एक म्यान में दो तलवारें नहीं हो सकतीं। फ्रेडरिक नीत्शे का वक्तव्य विचारणीय है। एक बहुत विचारशील आदमी का वक्तव्य है। उसकी विचारशीलता यद्यपि उसे विक्षिप्तता में ले गई—वह पागल हुआ। होना ही था पागल। क्योंकि ईश्वर से जितने टूटते जाओगे, उतनी ही तुम्हारी जड़ें अस्तित्व से अलग होने लगती हैं। और कोई वृक्ष पृथ्वी से टूट कर कितनी देर रहा रहेगा? कितनी देर उसकी कलियां फूल बनेंगी? कितनी देर उसके फूलों में गंध रहेगी? कितनी देर पक्षी उस पर घोंसले बनाएंगे? जल्दी ही सूख जाएगा। जल्दी ही अस्थिपंजर रह जाएगा। न यात्री उसकी छाया में बैठेंगे—छाया ही न होगी—न पक्षी उनके आसपास फुदकेंगे, गीत गाएंगे—हरियाली ही न होगी। वृक्ष जैसे भूमि से टूट जाए, जड़ें उसकी उखड़ जाएं, मर जाता है, वैसे ही आदमी भी एक वृक्ष है। उसकी जड़ें परमात्मा में हैं। अदृश्य है वह परमात्मा, अदृश्य हमारी जड़ें हैं। ऐसे भी वृक्षों की जड़ें भी कहां दिखाई पड़ती हैं? वे भी दबी हैं भूमि में, वे भी अदृश्य हैं इस अर्थ में। हमारी तो और भी अदृश्य हैं। क्योंकि हमारी जड़ें पौदगलिक नहीं हैं, पदार्थ की नहीं हैं, चैतन्य की हैं।

चेतना अदृश्य घटना है। हम चेतना से जुड़े हैं परमात्मा से। जितना हम परमात्मा को इनकार करते हैं, उतनी ही हमारी जड़ें टूटती चली जाती हैं। उतने ही हम रुग्ण और विक्षिप्त होने लगते हैं। जो नीत्शे के जीवन में घटा, वह अब पूरी दुनिया के जीवन में घट रहा है।

नीत्शे ने यह भी कहा था कि मैं भविष्यवाणी हूं। जो मुझे हो रहा है, वह सौ साल के भीतर प्रत्येक आदमी को होगा। और उसकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है। आज का आदमी जितना चिंतित, जितना उदास, जितना हारा—थका, जितना अर्थहीनता के बोझ से दबा है, उतना किसी सदी में कभी ऐसा न हुआ था। आदमी ने अपनी जड़ें अपने हाथ काट ली हैं। तुम सब कालिदास हो, जो उसी डाल पर बैठे हो जिसे काट रहे हो। हम परमात्मा से जुड़े हैं और अपने जोड़ तोड़ रहे हैं, अपने सेतु तोड़ रहे हैं।

बचना उन लोगों से, हट जाना उन लोगों से, जहां परमात्म—विरोध की चर्चा हो रही हो। यद्यपि तुम्हारा मन चाहेगा कि बैठो! क्योंकि मन के लिए यही हितकर है कि परमात्मा न हो। तुम्हारा अहंकार कहेगा, थोड़ी और सुनो ये बातें। क्योंकि अहंकार तभी तक जी सकता है, जब तक तुम परमात्मा से नहीं जुड़े हो। जितने जुड़ोगे, उतना अहंकार कम।

इस गणित को खयाल में रख लो।

जितने परमात्मा से अलग होओगे, उतना अहंकार ज्यादा। जितना परमात्मा के साथ होओगे, उतना अहंकार कम। जिस दिन पूरे—पूरे उसके साथ हो जाओगे, उस दिन कोई अहंकार नहीं बचता है। तुम्हारे भीतर यह भाव ही नहीं बचता कि मैं हूं। बस एक धुन रह जाती है: वह है। वही है। केवल वही है।

हरि—चरचा से बैर संग वह त्यागिये।

प्रश्न तो बिखरे यहां हर ओर हैं।

किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं।

सांझ आई, चुप हुए धरती गगन

नयन में गोधूलि के बादल उठे

बोझ से पलकें झंपी नम हो गईं

सांझ ने पूछा उदासी किस लिए?

किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं।

रात आई कालिमा घिरती गई

सघन तम में द्वार मन के खुल गए

दाह की चिनगारियां हंसने लगीं

रात ने पूछा, जलन यह किस लिए?

किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!

नींद आई, चेतना सब मौन है

देह थक कर सो गई पर प्राण को

स्वप्न की जादू भरी गलियां मिलीं

नींद ने पूछा भुलावे किस लिए?

किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!

प्रश्न तो बिखरे यहां हर ओर हैं।

किंतु मेरे पास कुछ उत्तर नहीं!

और नास्तिकों के पास सब उत्तर हैं। उत्तर ही उत्तर हैं। और आस्तिक के पास कोई उत्तर नहीं है। परम आस्तिक के पास न तो उत्तर होते हैं, न प्रश्न होते हैं। एक निष्प्रश्न, निरुत्तर मौन होता है। उस मौन में ही जाना जाता है। वह मौन ही ध्यान, वह मौन ही समाधि।

लेकिन अगर तुम उत्तरों की तलाश कर रहे हो तो तुम नास्तिक के जाल में पड़े बिना न बचोगे। क्योंकि वहां उत्तर हैं। और जिन बातों के उत्तर नास्तिक के पास नहीं हैं, वह उन बातों को ही इनकार कर देता है, वहां वह शुतुरमुर्ग के न्याय का उपयोग करता है। शुतुरमुर्ग को दुश्मन दिखाई पड़ता है तो वह सिर को गड़ा कर रेत में खड़ा हो जाता है। उसका तर्क नास्तिक का तर्क है।

शुतुरमुर्ग रेत में सिर गड़ा लेता है, दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता; जो दिखाई नहीं पड़ता, वह है नहीं। बात खतम हो गई, अब दुश्मन से डरना क्या! लेकिन तुम्हें दिखाई न पड़े, इससे कोई चीज मिटती नहीं। है तो है। दिखाई पड़े चाहे न दिखाई पड़े। अंधे को रोशनी नहीं दिखाई पड़ती, इससे रोशनी नहीं मिटती। सिर्फ अंधा दीवालों से टकराता है, पत्थरों से टकराता है। सिर्फ अंधा टटोल—टटोल कर चलता है। बहरे को स्वर नहीं सुनाई पड़ते, इससे संगीत नहीं मिटता। इससे नदियों का कलकल नाद बंद नहीं होता। इसलिए आकाश के मेघ गड़गड़ाना नहीं रोक लेते। इसलिए बिजलियां कड़कना नहीं छोड़ देतीं। पक्षी गीत गाते रहते हैं, सागर की लहरें तटों से टकरा कर नृत्य करती हैं; लेकिन बहरे को इसका कुछ भी पता नहीं। बहरे के लिए ध्वनि है ही नहीं। मगर ध्वनि मिटती नहीं।

ऐसा ही नास्तिक है। उसे परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। परमात्मा दिखाई पड़ने वाली चीज भी नहीं है। परमात्मा तो वह है जो देखता है। तुम्हारे भीतर कौन है जो देख रहा है? नास्तिक तो देखता है। नास्तिक भी देखता है। आखिर कौन है जो देखता है? वही परमात्मा है। परमात्मा दृश्य नहीं है, परमात्मा द्रष्टा है। लेकिन नास्तिक यह बात मानकर चलता है कि परमात्मा को दृश्य होना चाहिए। कहां है, दिखलाओ! जब तक मैं देख न लूं तब तक मानूंगा नहीं। बच्चों को, बचकानी बुद्धि के लोगों को उसकी बात जंच जाएगी; कि बात तो ठीक है, दिखाई पड़े तब प्रमाण मिले।

लेकिन जिनके जीवन में थोड़ी चेतना की प्रौढ़ता है, वे कुछ और बात कहते हैं। वे कहते हैं: परमात्मा दृश्य नहीं है। इसलिए कभी दिखाई नहीं पड़ा। किसी को दिखाई नहीं पड़ा। अगर कोई कहता हो कि मुझे परमात्मा दिखाई पड़ा है, तो समझना कि वह भ्रांति में है, उसने सपना देखा है। परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। परमात्मा तो द्रष्टा है तुम्हारे भीतर, साक्षी है तुम्हारे भीतर। तुम्हारे साक्षी चैतन्य का ही नाम परमात्मा है। तुम्हारी आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था का नाम परमात्मा है। तुम उसे अनुभव कर सकोगे जब सब दृश्य छूट जाएंगे; जब केवल द्रष्टा ही रह जाएगा। कुछ दिखाई पड़ने को न होगा, सिर्फ देखने वाला बचेगा, तब देखने की ऊर्जा अपने पर ही लौट आती है। जैसे सांप कुंडली मार कर बैठ जाए, ऐसे द्रष्टा अपने पर ही कुंडली मार लेता है। उस कुंडली मार लेने का नाम ही ईश्वर का अनुभव है।

लेकिन अगर तुम्हारे पास प्रश्न हैं, तो तुम्हें उत्तर देने वाले लोग मिल जाएंगे। फिर चाहे वे नास्तिक हों, चाहे आस्तिक, जानने वालों के हिसाब में वे सभी नास्तिक हैं। जो तुम्हें उत्तर देता है, वह नास्तिक है। जो तुम्हें निरुत्तर की तरफ ले चलता है, वही आस्तिक है। जो तुम्हें अगर उत्तर भी देता है तो सिर्फ इसीलिए कि तुम्हारे सारे उत्तर छीन ले। जैसे एक कांटा गड़ जाए तो हम दूसरे कांटे से निकाल लेते हैं।

बुद्धों ने भी उत्तर दिए हैं; मगर उनके उत्तर उत्तर नहीं हैं, सिर्फ तुम्हारे प्रश्नों और तुम्हारे उत्तरों को निकालने वाले कांटे हैं। एक कांटा निकल आएगा तो फिर दूसरे कांटे को भी उसी के साथ फेंक देना पड़ता है। जो गड़ा था वह भी फेंक देते हैं हम और जिसने निकाला, उसे भी फेंक देते हैं। दोनों कांटे कांटे हैं। दोनों का कोई मूल्य नहीं है। दोनों से मुक्त होकर स्वास्थ्य है।

बचना उन स्थानों से, जहां प्रभु की चर्चा नहीं होती। बचना उन स्थलों से, जहां प्रभु—विरोध होता है। और तलाश करना उन जगहों की…कठिन होता जा रहा है रोज—रोज, उन स्थानों का अस्तित्व कठिन होता जा रहा है, जहां हरि—चर्चा; तोता—रटंत पंडितों की बकवास न हो वरन किसी जाग्रत, प्रबुद्ध पुरुष की वाणी हो।

ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हरि—चर्चा से जिनका बैर है, उन्हें त्यागना और जहां हरि—चर्चा चलती हो, वहां डूबना।

आज गगन में सावन बन कर,

फिर घिर आई याद तुम्हारी।

 

जरा पुरा था घाव कि छूकर हरा कर गई फिर पुरवाई,

झपका ही था दर्द कि सहसा, बादल ने आवाज लगाई,

तनिक चुपा था हिया कि आकर निठुर पपीहा पिया कह उठा

कुछ सूखी थी सेज कि नभ ने बूंदों की बांसुरी बजाई,

सिसकी सांस, आंख बरसती, तरती पुतली, बंध गई हिचकियां,

 

किस किस तरह न जाने मेरे—

घर अकुलाई याद तुम्हारी।

 

खटका कहीं किवाड़, धड़कने लगी विकल रह रहकर छाती,

गूंजी कहीं मल्हार, बुझ गई कांप कांप दीपक की बाती,

बिखरी कोई बूंद, बिखर झर गई गुंथे सपनों की माला

महकी कोई गंध, हरहरा उठी नयन नदिया बरसाती,

छूटा धीरज डांड, बह गई अनजाने सागर में नैय्या,

 

जाने कहां कहां आकर डूबी—

उतराई याद तुम्हारी।

 

सपन हवन हो गए, कटी जब नहीं, किसी विधि रात उदासी,

अश्रु यती बन गए, थमी जब नहीं, बरसती पुतली प्यासी,

धर धर परवत दिए वक्ष पर, जब जब हृदय अधीर कराहा

भर भर लिए अंगार, न सोई किसी तरह जब बांह विसासी,

कभी अश्रु ने, कभी जलन में, कभी नयन ने, कभी सपन ने,

तुम्हें पता क्या, तुम बिन किस—

किसने बहलाई याद तुम्हारी।

 

आया बचपन याद समय के सजे खिलौने चूर हो गए,

एक न दो, सारे के सारे खेल खिलाड़ी दूर हो गए,

वर्तमान के घर आकर उतरी कोई डोली अतीत की

जितने क्षण थे शेष उमर के, जाने को मजबूर हो गए,

कहीं जनम बन, कहीं मरण बन, कहीं धूप बन, कहीं छांव बन

जाने कितनी बार यहां—

भूली भरमाई याद तुम्हारी।

बैठना ऐसी जगह, उठना ऐसी जगह, जहां कोई भूली—बिसरी याद—जिसे हम जन्मों—जन्मों से भूल गए हैं—फिर पुनरुज्जीवित हो उठे, फिर हरी हो उठे। फिर कोई घाव, फिर कोई पीड़ा, फिर कोई प्रेम जग उठे।

आज गगन में सावन बनकर,

फिर घिर आई याद तुम्हारी।

जहां हरि—चर्चा चलती हो, वहां फिर बादल घिरते हैं, फिर सावन आता है।

जरा पुरा था घाव कि छूकर हरा कर गई फिर पुरवाई,

झपका ही था दर्द कि सहसा, बादल ने आवाज लगाई,

तनिक चुपा था हिया कि आकर निठुर पपीहा पिया कह उठा

कुछ सूखी थी सेज कि नभ ने बूंदों की बांसुरी बजाई,

सिसकी सांस, आंख बरसी, तरसी पुतली, बंध गई हिचकियां,

किस किस तरह न जाने मेरे—

घर अकुलाई याद तुम्हारी।

जैसे पपीहा पुकार उठे पिया को। जैसे दूर जंगल से पी कहां की आवाज आए और तुम्हें घेर ले, ऐसे जहां सत्संग होता हो, उस परम प्यारे की स्तुति होती हो, बैठना, उठना, रंगना; कौन जाने कौन बात छू जाए! कौन जाने हवा का कौन—सा झोंका तुम्हारे भीतर धूल की परतों को उड़ा ले जाए, दर्पण को स्वच्छ कर जाए।

तनिक चुपा था हिया कि आकर निठुर पपीहा पिया कह उठा

बुद्धपुरुष और करते क्या हैं? तुम्हारे पास, तुम्हारे हृदय के पास आकर पिया कह उठते हैं! पुकार देते हैं उसे जो तुम्हारे भीतर सोया है। अंगड़ाई लेकर कोई तुम्हारे भीतर उठ आता है। फिर हर तरफ उसकी खड़क मिलने लगती है।

खटका कहीं किवाड़, धड़कने लगी विकल रह रहकर छाती,

गूंजी कहीं मल्हार, बुझ गई कांप कांप दीपक की बाती,

बिखरी कोई बूंद, बिखर झर गई गुंथे सपनों की मामला

महकी कोई गंध, हरहरा उठी नयन नदिया बरसाती,

छूटा धीरज डांड, बह गई अनजाने सागर में नैय्या,

जाने कहां कहां जाकर डूबी—

उतराई याद तुम्हारी।

परमात्मा एक अज्ञात सागर है। वहां डांड लेकर नावें नहीं चलाई जातीं। डांड की क्या बिसात! वहां तो सागर के ही ऊपर नैया छोड़ देनी होती है। सागर के ही सहारे छोड़ देनी होती है। वहां तो तूफान को ही किनारा समझ लेने वाले पार पा पाते हैं।

जहां सत्संग हो, वहां पुकार है। जहां सत्संग न हो, वहां से बचना!

हरि—चर्चा से बैर संग वह त्यागिये।

अपनी बुद्धि नसाय सवेरे भागिये।।

इसके पहले कि तुम्हारी बुद्धि नष्ट होने लगे, जल्दी भागना। सबेरे भागिये…तुरंत! देर मत करना! टालना मत!—कहना कि थोड़ी देर और। वहां क्षण—भर भी टिकना खतरनाक है।

अपनी बुद्धि नसाय सवेरे भागिए।।

सरबस वह जो देह तो नाहीं काम का।

अगर ऐसे लोगों के साथ रहने से धन मिले, पद मिले, प्रतिष्ठा मिले, किसी काम की नहीं है, क्योंकि मौत सब छीन लेगी।

अरे हां, पलटू मित्र नहीं वह दुष्ट जो द्रोही राम का।।

जो तुम्हें जाने—अनजाने, प्रत्यक्ष—परोक्ष परमात्मा से तोड़ता हो, वह मित्र नहीं है। उससे बड़ा कोई शत्रु नहीं हो सकता है।

लोक—लाज जनि मानु वेद—कुल—कानि को।

भली—बुरी सिर धरौ भजो भगवान को।।

और छोटी—छोटी चीजें छोड़ो।…लोक—लाज। कितनी क्षुद्र चीजों में लोग उलझे हैं। वर्ण, कुल, जाति, पद, मर्यादा, कितनी व्यर्थ की चीजों को कितना मूल्य दे रहे हो! सांयोगिक है कि किस घर में पैदा हो गए…ब्राह्मण कि शूद्र…अकड़े—अकड़े न फिरो। जरा चोटी बढ़ा ली और एक धागा जनेऊ का गले में डाल लिया और चंदन—तिलक लगा लिया—व्यर्थ अकड़े—अकड़े न फिरो! थोड़ा धन है, थोड़ा पद है, प्रतिष्ठा है—पगला न जाओ! चुल्लू—भर पानी में डूब मरने जैसी हैं ये बातें। इनका कुछ मूल्य नहीं; इनकी कोई गहराई नहीं।

लोक—लाज जनि मानु वेद—कुल—कानि को।

भली—बुरी सिर धरौ भजो भगवान को।।

फिक्र छोड़ो ये सब। लोग गालियां दें तो ठीक, लोग सम्मान दें तो ठीक, अपमान करें तो ठीक। भली—बुरी सिर धरौ भजो भगवान को। सबको सिर रख लो। बुरे—भले को सब स्वीकार कर लो। मान—अपमान को अंगीकार कर लो। मगर एक काम मत छोड़ देना—भगवान के भजन को मत छोड़ देना। सब छूट जाए, चलेगा—क्योंकि सब छूट ही जाना है—भगवान बच जाए, बस काफी है। क्योंकि वही एक है जो नहीं छूटेगा। मौत सिर्फ तुम्हारे परमात्म—अनुभव को नहीं छीन सकती है, और तो सब छिन जाएगा। और जिसे मौत छीन ले वह कसौटी है। व्यर्थता सिद्ध हो गई। जैसे सुनार सोने को कसता है पत्थर पर, कसौटी पर, ऐसे ही जिंदगी में मौत कसौटी है। मौत को कसौटी समझ लो। मौत पर कस—कस कर देख लेना। जो मौत पर कच्चा निकल जाए, उसे कूड़ा समझना।

एक बात हमेशा सोच लेना कि तुम जो समय लगा रहे हो, जिस चीज में भी लगा रहे हो, क्या मौत के पार इसे बचाकर ले जा सकोगे? अगर ले जा सको तो बिलकुल ठीक है; दांव लगा दो। अगर न ले जा सको, तो समय न गंवाओ।

हंसिहै सब संसार तो माख न मानिए।

लोग हंसें, बुरा न मानना। लोगों का क्या कसूर है? लोग तुम पर हंसते हैं आत्मरक्षा के लिए। लोगों को हरि—चर्चा में डूबे व्यक्ति से खतरा पैदा हो जाता है। लोगों को, हरि—रस में जो संलग्न हो रहा है, उससे बेचैनी पैदा हो जाती है। क्योंकि उन्हें भी याद आनी शुरू हो जाती है कि हम कुछ गलत कर रहे हैं; कि हम कुछ चूक रहे हैं। यह आदमी उन्हें उकसाता है। यह आदमी तीर की तरह उनकी छाती में गड़ने लगता है। वे अपनी आत्मरक्षा के लिए हंसेंगे, अपमान करेंगे, गालियां देंगे, पत्थर मारेंगे, जहर पिलाएंगे, सूली पर लटकाएंगे—वे जो भी कर सकते हैं करेंगे।

तुम फिक्र मत करना।

मौत तो यहां होनी ही है, इससे क्या फर्क पड़ता है आज मरे कि कल! मौत तो यहां होनी है, इससे क्या फर्क पड़ता है कि चार दिन की दुनिया में सम्मान मिला कि अपमान। सम्राट भी मर जाते हैं, भिखमंगे भी मर जाते हैं—और एक जैसे! सिर्फ कुछ थोड़े—से लोग हैं तो मर कर भी नहीं मरते। बस उन थोड़े—से लोगों में तुम भी एक हो जाओ, तो जीवन सार्थक हुआ।

लोग हंसेंगे—उन्हें हंसना पड़ेगा। क्योंकि जब कोई हरि—भजन में लीन होता है, तो जो आदमी रुपए—पैसे इकट्ठे करने में लगा है, वह क्या करें? अगर हरि—भजन में लीन होने वाला व्यक्ति सही है, तो फिर उसका रुपया—पैसा इकट्ठी करना मूढ़ता—पूर्ण है। और रुपया इकट्ठा करने में भीड़ लगी है, बड़ी भीड़ लगी है, सारी दुनिया लगी है, तो सारी दुनिया को बेचैनी पैदा होती है हरि—भक्त को देखकर। सारी दुनिया चाहती है उसे गलत सिद्ध कर दे। उसे गलत सिद्ध करने में ही दुनिया अपने काम में लगी रह सकती है। अगर वह सही है, तो दुनिया गलत है। दोनों साथ—साथ सही नहीं हो सकते। उसे गलत सिद्ध करना ही होगा।

और स्वभावतः अज्ञानियों की भीड़ है, मूढ़ों की जमात है। और इस दुनिया में चीजें संख्या से तय होती हैं। संख्या का बड़ा बल है। जिनके पास संख्या है, वे अपने को सत्य मान ले सकते हैं। हालांकि सत्य का संख्या से कोई संबंध नहीं है। एक भी आदमी के पास हो तो भी सत्य सत्य है, और झूठ अनेक लोग मानते हों, तो भी झूठ है। अनेकों के मानने से झूठ सत्य नहीं होता और सिर्फ एक के ही पास होने से सत्य झूठ नहीं होता। संख्या का कोई संबंध सत्य से नहीं है।

लेकिन, भीड़ के पास संख्या का बल है। वह बुद्धों पर हंस सकती है। फिर क्षमा योग्य है। हंसने के द्वारा वह सिर्फ अपनी मूढ़ता प्रकट कर रही है। इसमें तुम्हें परेशान हो जाने की कोई जरूरत नहीं है।

हंसिहै सब संसार तो माख न मानिए।

अरे हां, पलटू भक्त जक्त से बैर चारो जुग जानिए।।

सभी सदियों में, सभी कालों में, चारों युगों में, वह जो भीड़—भाड़ से भरा हुआ जगत है, उसका भक्त से विरोध है। क्योंकि भक्त के मूल्य और हैं। भक्त के मूल्य पारलौकिक हैं। उसके जीवन के देखने का ढंग भिन्न है।

जैसे उदाहरण के लिए—

जीसस एक नदीत्तट पर बैठे हैं। सांझ का समय है। और एक वेश्या को गांव के लोग पकड़ कर लाए। और उन्होंने जीसस से कहा कि यह स्त्री दुराचारिणी है, व्यभिचारिणी है। इसे हमने रंगे हाथों पकड़ा है। आप क्या सजा तजबीज करते हैं?

वे चालबाज लोग थे। गांव का पादरी, पुरोहित, पंडित, रबाई, वे सब वहां उनके साथ थे। गांव के प्रतिष्ठित सज्जन, आदृत लोग, गांव का मेयर, सरपंच, सब वहां थे। उन्होंने यह तरकीब निकाली थी जीसस को फंसाने की। क्योंकि जीसस बार—बार अपने वचनों में कहते थे: पहले तुमसे कहा गया है, लेकिन मैं तुमसे ऐसा कहता हूं। पहले तुमसे कहा गया है कि जो तुम्हें ईंटें मारे, उसे पत्थर से जवाब देना, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: जो तुम्हारे बाएं गाल पर चांटा मारे, दायां उसके सामने कर देना। जो तुम्हारा कोट छीने, कमीज भी उसे दे देना। और जो तुमसे एक मील बोझ ढोने को कहे, दो मील उसके साथ चले जाना। पुराने लोगों ने तुमसे कहा है कि जो तुम्हारी आंख फोड़े, उसकी आंख तुम फोड़ना। और मैं तुमसे यह कहता हूं कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, दूसरा भी उसके सामने कर देना।

जीसस बार—बार इस तरह के वक्तव्य देते थे। पंडित—पुरोहित परेशान थे। वे एक निर्णय पर आना चाहते थे। उन्होंने देखा यह मौका अच्छा है। आज सब तय हो जाएगा। वे तय ही करके आए थे कि जीसस क्या कहते हैं अब! क्योंकि पुरानी किताब कहती थी, उनकी धर्म—किताब कहती थी कि जो स्त्री दुराचारिणी हो, उसको पत्थरों से मारकर मार डालना। अब यह बड़े मजे की बात है कि कोई स्त्री अकेली ही तो दुराचार नहीं कर सकती! किसी पुरुष ने ही किया होगा! लेकिन पुरुष के संबंध में शास्त्र में कोई उल्लेख नहीं है। दुराचारिणी स्त्री को पत्थर मार—मार कर मार डालना। लेकिन दुराचारिणी स्त्री ने क्या देवताओं के साथ दुराचार किया? भूत—प्रेतों के साथ दुराचार किया? किसी पुरुष के साथ ही किया होगा! सच तो यह है, किसी पुरुष ने दुराचार किया होगा। क्योंकि स्त्री बलात्कार नहीं कर सकती। वह उसकी शारीरिक संरचना नहीं है। तुमने कभी सुना कि किसी स्त्री ने किसी पुरुष पर बलात्कार किया हो? वह असंभव है। पुरुष बलात्कार कर सकता है। स्त्री तो कर ही नहीं सकती।

जो स्त्री बलात्कार कर ही नहीं सकती, उसके लिए तो शास्त्र में नियम हैं कि पत्थर मार—मार कर मार डालना। और जो पुरुष बलात्कार कर सकता है, उसके लिए कोई नियम नहीं है। जरूर चालबाज पुरुषों ने ही ये शास्त्र लिखे होंगे। ये उन्हीं पुरुषों ने लिखे हैं जिन्होंने लिखा है कि पति परमात्मा है। ये वे ही पुरुष हैं। उन्होंने ही ये किताबें लिखी हैं। इनमें स्त्रियों के लिए कोई न्याय नहीं है।

सोचा था पंडित—पुरोहितों ने कि अब जीसस को हम फांस लेंगे। अगर जीसस कहेंगे कि हां, पुराने मसीहा ठीक कहते हैं, पत्थर मारकर इसे मार डालो, तो हम कहेंगे: फिर क्या हुआ तुम्हारी प्रेम की बातों का? कि शत्रु को भी प्रेम करो। और क्या हुआ तुम्हारे सिद्धांत का कि जो क्षमा करेगा, वही क्षमा किया जाएगा? और क्या हुआ तुम्हारे सिद्धांत का कि बुराई पर भी निर्णय न लो? उन सब बातों का क्या हुआ? ऐसा हम पूछेंगे। और अगर जीसस ने कहा कि नहीं, इस स्त्री को पत्थर न मारो, तो जो पत्थर हम लेकर चले हैं, इन्हीं से हम जीसस को मार डालेंगे। कि तुम हमारी धर्म—किताब का विरोध करते हो! तो हमारे सब नबी—पैगंबर मूढ़ थे! एक तुम्हीं समझदार पैदा हुए हो!

यह बढ़ई का छोकरा, न पढ़ा—लिखा बहुत, यह महा ज्ञानी है! और मूसा और इजेकियल और अब्राहम और पुराने मसीहा जिन्होंने ईश्वर का स्वयं दर्शन किया था, जो ईश्वर के ही हाथ से आज्ञाएं लेकर आए थे, जिन्होंने ईश्वर के ही नियम को स्थापित किया था, वे सब अज्ञानी हैं! तो इस स्त्री की तो हम फिक्र छोड़ देंगे, पहले हम जीसस का भुर्ता बना डालेंगे।

बड़ी तैयारी से गए थे। ठीक जाल फैलाया था। आखिर जीसस दो में से एक ही बात कह सकते हैं। या तो इसे क्षमा करो; तो हम जीसस को मार डालेंगे। और या, इस स्त्री को मार डालो; तो कहेंगे, क्या हुआ तुम्हारी ज्ञान की बातों का? तो अब दोबारा इस तरह की बकवास मत करना जो तुम करने के आदी हो गए हो। दोनों हालत में जीत हमारी है।

उन्हें पता भी न था कि जीसस जैसे आदमी के साथ जीत तुम्हारी कभी हो ही नहीं सकती। तुम जीसस को मार सकते हो, मगर जीत तुम्हारी कभी नहीं हो सकती। तुम जीसस को मार सकते हो, मगर जीत तुम्हारी कभी नहीं हो सकती। वह असंभव है। सत्य के सामने असत्य की कहीं कोई जीत होती है! सत्यमेव जयते। सत्य जीतता ही है। जीत उसका स्वाभाविक लक्षण है। हां, तुम मार सकते हो, काट सकते हो जीसस को, मगर सत्य नहीं कटेगा और सत्य नहीं मरेगा। तुम जीसस को मारोगे, सत्य और जी उठेगा। जीसस के खून से और परिपुष्ट हो जाएगा।

जीसस ने बात सुनी और कहा कि ऐसा करो—पुराने शास्त्र कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे—तुम सब पत्थर हाथ में उठा लो। वे तो पत्थर लेकर आए ही थे। उन्होंने कहा, पत्थर तो हमारे हाथ में हैं, बस तुम्हारी आज्ञा चाहिए, हम इस स्त्री को मार डालें। जीसस ने कहा, लेकिन पत्थर पहले वह आदमी मारे जिसने कभी स्वयं कोई पाप न किया हो और पाप की आकांक्षा न की हो, पाप करने की कल्पना, योजना न बनाई हो, पाप करने का सपना न देखा हो। पहले वह आदमी पत्थर मारे। वे जो सरपंच आगे खड़े थे, मेयर इत्यादि, म्युनिसिपल कमेटी के मेंबर वगैरह, उन्होंने पत्थर वहीं के वहीं रेत में गिरा दिए और पीछे सरक गए।

धीरे—धीरे भीड़ छंटने लगी। क्योंकि कौन पत्थर मारे! ऐसा कौन आदमी था, जिसने पाप न किया हो या पाप की कल्पना भी न की हो! हां, पाप न किया हो, ऐसे लोग तो मिल जाते; लेकिन पाप का विचार और पाप करने में कुछ भेद नहीं है। धर्म की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। कानून की दृष्टि से फर्क पड़ता है।

यही पाप और अपराध का भेद है।

पाप का अर्थ फोता है: तुम्हारे मन में बुरा करने का विचार उठा। अपराध का अर्थ होता है: तुमने उसे कृत्य में परिणत किया। क्योंकि पुलिस और कानून तो कृत्य को पकड़ सकते हैं, विचार को नहीं पकड़ सकते। विचार करने के लिए तो तुम्हें छूट है। तुम ठीक अदालत के सामने बैठकर, आंखें बंद करके जितना बलात्कार करना हो करो! कोई मजिस्ट्रेट कुछ नहीं तुम्हारा बिगाड़ सकता! जितनी हत्याएं करनी हों—दुनिया भर को मार डालो—कोई पुलिस तुम्हारे हाथों में जंजीरें नहीं पहना सकती! विचार को पकड़ने के लिए कोई कानून नहीं है।

लेकिन धर्म के जगत में तो विचार का ही मूल्य है। क्योंकि तुमने सोचा तो किया। तुमने करना चाहा तो किया। क्योंकि वहां तो अभिप्राय की कीमत है, किया या नहीं यह सवाल नहीं है।

तो जीसस ने कहा कि जिसने सोचा भी हो पाप का विचार, वह मारे पत्थर, वह गलती करेगा, अपराध हो जाएगा। उसे पत्थर मारने का हक नहीं है। सिर्फ पुण्यात्मा लोग पत्थर मार सकते हैं। कौन पुण्यात्मा था! वे सब भाग गए।

थोड़ी देर में स्त्री अकेली छूट गई जीसस के पास।

वह स्त्री जीसस के पैरों पर गिर पड़ी और उसने कहा, आप मुझे दंड दें, मैं अपराधिनी हूं। उनके सामने तो मैं अपना अपराध स्वीकार नहीं कर सकती थी, क्योंकि उन्होंने मेरे अहंकार को बड़ी चोट पहुंचाई थी। और मैं उन सब को जानती हूं और उनकी नीयत को जानती हूं। उनमें एक भी ऐसा नहीं था जो मुझे पत्थर मार सकता, क्योंकि उनमें से अनेक ने मेरे द्वार पर अनेक बार रात में दस्तक दी है। उनमें से बहुत से तो मेरे ग्राहक हैं। वह जो पुजारी बहुत पुजारी बना फिरता है, वह मेरा ग्राहक है। जब तुमने कहा कि जिसने पाप न किया हो वह पत्थर मारे, तभी मैं निश्चिंत हो गई थी कि अब पत्थर कोई नहीं मार सकता। और जब तुमने कहा कि जिसने विचार भी किया हो, वह भी पत्थर नहीं मार सकता, तब तो बात ही खतम हो गई थी। क्योंकि मैं इन सबको जानती हूं। ये इस गांव के पंडित—पुरोहित हैं, मैं इस गांव की वेश्या हूं। मुझसे भलीभांति इन्हें कौन जानता है? मैं इनके रग—रग, रेशे—रेशे से परिचित हूं। इनके सामने मैं अपराधिनी अपने को स्वीकार नहीं कर सकती थी, ये खुद ही अपराधी हैं। सच तो यह है, इन्हीं ने मुझे वेश्या बनाया। इन्हीं ने मुझे इस गर्त में ढकेला।

लेकिन, तुम्हारे चरणों पर गिरती हूं, अपना अपराध स्वीकार करती हूं, मुझे तुम जो भी दंड दोगे वह सहर्ष स्वीकार है। जीसस ने कहा, मैं दंड देने वाला कौन? तेरे और तेरे परमात्मा के बीच मैं आने वाला कौन हूं? तू उसी परमात्मा से प्रार्थना करना! वह महा करुणावान है! निश्चित क्षमा मिलेगी। हमारे पाप बहुत छोटे हैं, उसकी करुणा बहुत बड़ी है। हमारे पाप छोटे—छोटे आंगन, उसकी करुणा विराट आकाश। तू उससे ही क्षमा मांग लेना।

लेकिन ऐसा व्यक्ति स्वभावतः जगत की सामान्य धारणाओं से बहुत भिन्न होगा। भिन्न है ही। ऐसे व्यक्ति को जगत माफ नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति के खिलाफ पूरा जगत खड़ा हो जाएगा। जीसस को बहुत लांछन मिली। जीसस को बहुत सताया गया। फांसी तो आखिरी बात थी, उसके पहले भी बहुत सताया गया—जगह—जगह सताया गया, जहां गए वहां सताया गया।

ठीक कहते हैं पलटू:

अरे हां, पलटू भक्त जक्त से बैर चारो जुग जानिए।।

वह जो भक्त है परमात्मा का, उसका जगत से कुछ अनिवार्यरूपेण उलझाव हो जाता है। क्योंकि वह जो कहता है, जगत उसकी मान नहीं सकता। और जो जगत मानता है, उसको वह सहमति नहीं दे सकता।

जगत राजनीति है। राजनीति में धर्म को कहां जगह? वहां तो अधर्म का खेल है। वहां तो जो जितना झूठा, जितना बेईमान, जितना चालबाज, उसकी गति है। वहां सीधे—सरल के लिए कहां स्थान है? वहां तो तिरछे—तिरछे जाने वाले को सफलता मिलती है। जो कहे कुछ, करे कुछ, बोले कुछ, सोचे कुछ। जिसका तुम पता ही न लगा सको कि उसका प्रयोजन क्या है! जो एक को एक बात कहे, दूसरे को दूसरी बात कहे, तीसरे को तीसरी बात कहे। जिसके संबंध में तुम्हें अंदाज ही न बैठ सके कि उसका अभिप्राय क्या है! जो सबको धोखे में रखने में कुशल हो। वही इस जगत में सफल होता है। लेकिन भक्त तो होता है सीधा—सादा; उसकी गति साफ होती है, निष्कपट होती है। भक्त तो होता है नग्न, वह आवरणों में छिपा नहीं होता। वह तो जैसा होता है वैसा ही प्रकट कर देता है अपने को। उसके भीतर कोई पाखंड नहीं होता। और इसलिए पाखंड से भरे इस जगत में अगर उसका विरोध हो तो आश्चर्य नहीं।

देव पित्र दे छोड़ि जगत क्या करैगा।

ध्यान रखना, जगत कुछ बिगाड़ नहीं सकता, विरोध कितना ही करता रहे।

इसलिए पलटू कहते हैं, इसकी फिक्र न लेना; जगत क्या करैगा!

चला जा सूधी चाल, रोइ सब मरैगा।।

तू तो अपनी सीधी चाल चल। इनकी मान कर इरछी—तिरछी चालों में मत पड़ना। और इनकी मान कर झूठे देवताओं की पूजा मत करना। मंदिरों में रखी प्रतिमाएं आदमियों की ही बनाई हुई प्रतिमाएं हैं।

लोग देवताओं को ईजाद कर लिए हैं। अपनी ही शक्लों में! इसलिए चीनी देवता की नाक चपटी होती है। इसलिए अफ्रीकी देवता के ओंठ खूब मोटे होते हैं और बाल घुंघराले। उतने मोटे ओंठ तुम कृष्ण के नहीं बनाओगे। बनाओगे तो कृष्ण की तुम्हारी प्रतिमा को कोई खरीदने को राजी नहीं होगा। क्योंकि भारत में तो जितना पतला ओंठ हो, उतना ही सुंदर। तुम जरा कृष्ण—कन्हैया की चपटी नाक तो बनाओ! लोग पिटाई कर देंगे, कि तुम हमारे कृष्ण—कन्हैया की चपटी नाक तो बनाओ! लोग पिटाई कर देंगे, कि तुम हमारे कृष्ण—कन्हैया को बिगाड़ रहे हो! यहां तो तोते की चोंच जैसी नाक होनी चाहिए, तब सुंदर।

हर देश के, हर जाति के देवी—देवता अगर गौर से देखो तो तुम चकित होओगे, वह लोगों ने अपनी ही शकल में बनाए हैं। वे उनके ही प्रतीक हैं; उनकी ही ईजाद हैं। फिर उनकी पूजा चल रही है। कैसी मूढ़ता है! खुद ही बना लेते हो देवता, फिर खुद ही अपने बनाए देवताओं के सामने घुटने टेक कर झुक जाते हो। अपने ही बनाए खिलौने और उनकी पूजा कर रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो! इससे ज्यादा और अज्ञान क्या हो सकता है?

परमात्मा को तलाशना होता है, बनाना नहीं होता। खोजना होता है, निर्माण नहीं करना होता।

फिर तुम्हारी मौज! तुम्हें जो बनाना हो बनाओ! लोगों ने अपने—अपने ढंग के देवी—देवता बना लिए हैं। जो जिनको जैसा लगा। अब गणेश जी हैं!…खूब खोज की है! जरा उनकी देह तो देखो! और चूहा उनका वाहन है! हाथ में लड्डू लिए बैठे हैं!

एक बहुत बड़े पालि—संस्कृत के विद्वान महापंडित राहुल सांकृत्यायन कहते थे कि वह लड्डू नहीं है, अंडा है। उन्होंने बड़े शास्त्रीय आधार पर सिद्ध करने की कोशिश की थी कि वह अंडा है, लड्डू नहीं है। तुम समझ रहे हो मोतीचूर का लड्डू! राहुल सांकृत्यायन से मैंने कहा था कि तुम्हारी बात सैद्धांतिक रूप से सही हो या न हो, मुझे मतलब नहीं, लेकिन जंचती है। क्योंकि यह सूंडधारी गणेश और मोतीचूर के लड्डू खाएं!…अंडा ही होगा। ज्यादा आसान होगा।

गणेश जी बना लिया, गणेश—उत्सव कर लिया…धूम—धड़ाम…और तुम समझे कि धार्मिक हो गए। और फिर इनको बिचारों को गए और डुबा भी आए! विसर्जित करने में भी तुम्हें देर नहीं लगती है! अपना ही खेल है—अपने ही बनाए, अपने ही हाथ से मिटाए।

देव पित्र दे छोड़ि…

पलटू कहते हैं, इस तरह के देवता छोड़ो। और लोग मर गए हैं जो, उनकी पूजा कर रहे हैं—पितर! अब पितरों को कहां खोजो? खिलाते हैं पितरों को, कौवे खाते हैं। तुम क्या सोच रहे हो सब पितर तुम्हारे कौवे हो गए! जिंदा में कभी फिक्र नहीं की उनकी! दिखता है जब से मर गए हैं तब से तुम भयभीत हो, डर रहे हो कि जिंदगी में तो फिक्र नहीं की, अब कहीं सताएं न, अब कहीं परेशान न करें! चलो साल में एक दफा, पितृ—पक्ष में खिला—पिला दो, झंझट मिटाओ। भूत—प्रेतों से लोग बहुत डरते हैं कि कहीं नाराज हो जाएं। पलटू कहते हैं: देव पित्र दे छोड़ि…यह सब बकवास बंद करो। जीवन की पूजा करो! मृत्यु की पूजा में लगे हो। जीवन को तो मिटाते हो। जीवन को मिटाने के लिए तो तलवारें, बंदूकें, बम, एटम बम, हाइड्रोजन बम और पित्रों के लिए, मरे मुरदों के लिए, पूजा के थाल! तुम होश में हो? यह तुम्हारी जिंदगी किस हिसाब से चल रही है?

देव पित्र दे छोड़ि जगत क्या करैगा।

चिंता मत करो!

नानक के जीवन में उल्लेख है, हरिद्वार गए। वहां देखा कि लोग पित्र—पूजा कर रहे हैं। लोग एक कुएं पर पानी भर कर और पितरों को चढ़ा रहे हैं। वे भी एकदम से कुएं पर पहुंचे, किसी से बालटी मांगी, भरा पानी और पास ही कुएं के डाला और कहा: पहुंच मेरे खेत में! भीड़ इकट्ठी हो गई कि यह क्या मामला है? खेत कहां? दूसरी बाल्टी, तीसरी बाल्टी…जब वे भरते ही गए तो लोगों ने कहा, भाई रुको, तुम्हारा खेत कहां है? खेत तो मेरा पंजाब में है। तो तुम होश में हो? हरिद्वार की सड़क पर पानी डाल रहे हो और पंजाब के खेत पर पहुंचेगा! उन्होंने कहा, यह मुझे पहले मालूम ही नहीं था। जब मर गए पित्रों तक पहुंच रहा है—तुम्हारे पित्र कहां हैं? कोई नर्क में होगा…ज्यादातर तो नर्क में ही होंगे, कोई एकाध स्वर्ग में पहुंच गया होगा…जब वहां तक पहुंच रहा है पानी, तो पंजाब तो कोई बहुत दूर नहीं है। मैं तो तुम्हारी इस अदभुत कला को देखकर सोचा कि यह तो खूब मजे की रही! अब पंजाब जाने की जरूरत भी नहीं। नहीं तो जाना पड़ता है बार—बार। अब जहां रहे वहीं से डाल देंगे।

नानक याद दिला रहे हैं उन्हें कि तुम क्या मूढ़ता कर रहे हो! सारे संत तुम्हें याद दिलाते रहे हैं कि तुम जोर कर रहे हो धर्म के नाम पर, मूढ़ता है। लेकिन लोग क्यों कर रहे हैं? लोकलाजवश। और सब लोग कर रहे हैं, न करो, अच्छा नहीं लगता। लोग पूछते हैं, क्यों, तुमने क्यों नहीं किया? लोग चाहते हैं कि तुम ठीक उनकी कार्बनकापी रहो। वे तुम्हें मौलिक व्यक्तित्व नहीं देना चाहते। तुम उनसे अलग—थलग खड़े होओ, लोग बर्दाश्त नहीं करते। लोग चाहते हैं, जैसा वे करें, वैसा तुम करो। ताजिया उठाएं तो ताजिया उठाओ। छाती पीटें—याऽअलेऽऽयाऽअलेऽऽ, तो तुम भी छाती पीटो: याऽअलेऽऽयाऽअलेऽऽ…। जो लोग करें, वही तुम करो; तो लोग प्रसन्न होते हैं। क्योंकि तुम उनका समर्थन कर रहे हो। समर्थन से क्यों प्रसन्न होते हैं? क्योंकि उन्हें भी शक है कि वे जो कर रहे हैं, वह सच है कि नहीं? जितना समर्थन मिलता है, उतना ही उनको ढाढ़स बंधता है कि ठीक ही होगा, जब तो इतने लोग कर रहे हैं। अगर ठीक न होता तो इतने लोग कैसे करते? उनके पास सत्य का कोई अनुभव तो नहीं है। उनके पास सत्य के लिए सिर्फ एक ही आधार है—अधिक लोग कर रहे हों; जब इतने लोग कर रहे हैं तो सभी मूढ़ तो नहीं हो सकते। अपने मन में वे सोचते हैं: हो सकता है मैं मूढ़ हूं, मैं नासमझ हूं, मैं अज्ञानी, मगर सारी दुनिया तो अज्ञानी नहीं है। जब इतने लोग कर रहे हैं तो ठीक ही कर रहे होंगे। और मजा यह है कि ऐसा ही बाकी लोग भी सोच रहे हैं।

तुमने वह कहानी सुनी है? कि एक सम्राट ने राजधानी में घोषणा की कि प्रत्येक व्यक्ति एक—एक मटकी दूध लाकर महल के सामने बनी हुई हौज में डाल जाए। हर व्यक्ति ने सोचा: इतने लोग वहां जाकर दूध डालेंगे, हम अगर एक मटकी पानी डाल आए, कहां पता चलेगा? लेकिन ऐसा प्रत्येक ने सोचा। लोगों के सोचने में कुछ बहुत फर्क होते नहीं; गणित—हिसाब एक ही होते हैं। प्रत्येक ने यही सोचा कि हजारों लोग दूध डालेंगे, मैं अकेला एक मटकी सुबह—सुबह अंधेरे में पानी डाल आऊंगा, कौन पता चलने वाला है!

सुबह जब सम्राट उठा, बड़ा हैरान हुआ! हौज पानी से भरी थी। एक मटकी भी दूध की कोई नहीं डाल गया था। उसने अपने वजीरों से पूछा कि यह क्या मामला है? वजीरों ने कहा, कुछ मामला नहीं है, यही लोगों का हिसाब है। प्रत्येक अपने भीतर सोचता है, इतने लोग कर रहे हैं, तो मैं चुप रहूं, बोलने की कोई जरूरत नहीं, नहीं तो मैं अज्ञानी समझा जाऊंगा। चलो, पितृ—पक्ष मनाओ! इतने लोग मना रहे हैं तो ठीक ही मना रहे होंगे। ऐसा प्रत्येक सोच रहा है।

काश, तुम सब अपने हृदय खोलकर रख सको तो तुम्हारे धर्म तिरोहित हो जाएं! काश, तुम ईमानदारी से कह सको अपने पड़ोसी से कि तुम्हारी भीतरी दशा क्या है, तो सारे मंदिर—मस्जिद, सारे पंडित—पुरोहित इस पृथ्वी से विदा हो जाएं! उनके जीने का ढंग एक है। उस ढंग में एक ही गणित है कि कोई किसी से नहीं कहता। मैं क्यों फंसूं?

एक और कहानी तुमने सुनी होगी!

एक सम्राट के दरबार में एक दिन एक आदमी आया और उस आदमी ने कहा, आपके पास सब है, मगर एक चीज की कमी है। सम्राट ने कहा, वह क्या, जल्दी बोलो! क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरे पास किसी चीज की कमी हो। मैं तो सोचता था, सब जो इस दुनिया में है, मेरे पास है। मैं चक्रवर्ती सम्राट हूं। छहों महाद्वीप मेरे कब्जे में हैं। सारा धन, सारी दौलत, सारी पृथ्वी मेरी है। कौन—सी चीज की कमी है, तुम बोलो! उस आदमी ने कहा कि आपके पास देवताओं के वस्त्र नहीं हैं। सम्राट ने कहा, यह बात तो ठीक है! वस्त्र मेरे पास देवताओं के नहीं हैं। और उस आदमी ने कहा, आप जैसा महा सम्राट और आदमियों जैसे वस्त्र पहने, शोभा नहीं देता। मेरी पहुंच है देवताओं तक, मेरी ऐसी सिद्धि है, मैं आपके लिए वस्त्र ला सकता हूं। लेकिन सौदा महंगा है। सम्राट ने कहा, तू पैसे की फिक्र मत कर! पैसे की क्या कमी है! कितना खर्च होगा? उसने कहा, करोड़ों का खर्च है। और अभी एकदम से नहीं कह सकता। क्योंकि आप तो जानते ही हैं! पहले तो स्वर्ग पहुंचना लंबी यात्रा, फिर द्वारपाल से लेकर देवताओं तक रिश्वत खिलाना, कोई आसान काम तो है नहीं! मगर करके लाऊंगा। अंदाजन कह रहा हूं कि करोड़ों का खर्च है। सम्राट ने कहा, हो खर्च, लेकिन तू धोखा देने की कोशिश मत करना, क्योंकि मैं खतरनाक आदमी हूं। शर्त एक रहेगी। तुझे हम एक महल दे देते हैं। महल चारों तरफ फौज से घिरा रहेगा। तुझे जो करना हो भीतर—साधना, सिद्धि, तंत्र—मंत्र—वह तू कर! कितने दिन लगेंगे? उसने कहा कि समय तो लगेगा, लेकिन कम—से—कम तीन सप्ताह। सम्राट ने कहा, ठीक!

तीन सप्ताह बड़ी प्रतीक्षा में गुजरे। और डर कोई था नहीं, क्योंकि फौजें चारों तरफ से घेरे थीं! तीन सप्ताह बाद वह आदमी एक बड़ी सुंदर काष्ठ—मंजूषा लेकर महल के बाहर आया। उसने कहा कि वस्त्र ले आया हूं। सम्राट ने दरबार में उसे बुलाया। सारे दरबारी इकट्ठे हुए थे। राजधानी में बड़ा तहलका था। एक ही चर्चा थी। बस एक ही बात थी तीन सप्ताह से। कोई पक्ष में बोल रहा है, कोई विपक्ष में बोल रहा है। लेकिन आज तो बात ही खतम हो गई, जब उसको देखा कि वह ले ही आया! भीड़ लग गई महल के चारों तरफ, लाखों लोग इकट्ठे हैं, और आवाज लगा रहे हैं कि हम भी दर्शन करना चाहते हैं सम्राट के।

उस आदमी ने जाकर अपनी काष्ठ की मंजूषा बीच दरबार में रखी और कहा कि एक शर्त देवताओं ने कही है कि ये वस्त्र उसी को दिखाई पड़ेंगे जो अपने ही बाप से पैदा हुआ हो। अब यह एक झंझट की बात लगा दी! सम्राट से उसने पूछा, आपको पक्का है कि आप अपने ही बाप से पैदा हुए हो? सम्राट ने कहा, तू क्या समझता है हम किसी और से पैदा हुए हैं? अपने ही बाप से पैदा हुए हैं। तो फिर, उसने कहा, कोई चिंता नहीं। दरबारियों से पूछा कि आप लोगों में कोई ऐसा नहीं है यहां जो अपने बाप से पैदा नहीं हुआ हो? दरबारियों ने कहा, तू क्या बात कर रहा है? होश में आ! हम कोई साधारण कुछ के लोग नहीं हैं! कुलीन लोग हैं। अभिजात लोग हैं। फिर, उसने कहा, फिर कोई चिंता नहीं।

पेटी खोली। सबने पेटी में देखा, कुछ भी नहीं था। सम्राट ने भी देखा। लेकिन कोई कुछ बोले नहीं—क्योंकि कौन बोले? जो बोले सो फंसे! सबने यही सोचा कि तो अपनी ही कुछ गड़बड़ है! बाकी सब लोग तो एकदम कह रहे हैं कि अहह! धन्य हुए! ऐसे वस्त्र कभी देखे नहीं थे! जब सबको प्रशंसा करते देखा तो सम्राट भी बोला कि अहह! भीतर तो उसके प्राण कंपे कि यह हद्द हो गई, मगर यह कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे पिता और मुझे धोखा दे गए! कि मेरे मां मुझे धोखा दे गई! आज यह भी राज पता चल गया। अब ठीक है, जो है सो है। उसे छिपाकर ही रखना ठीक है। अब चार को बताने से फायदा भी क्या है?

मगर मामला यहीं खतम तो होने वाला नहीं था। उस आदमी ने कहा, निकालिए अपनी पगड़ी! पगड़ी लेकर उसने डाल दी पेटी में और वहां पेटी में हाथ डाला, खाली हाथ बाहर निकाला, खाली हाथ सम्राट के सिर पर रखा और कहा, यह देवताओं की पगड़ी। देखें इसको कहते पगड़ी! न कोई पगड़ी, न कुछ—और दरबारी एकदम वाह—वाह, वाह—वाह!—सम्राट भी बोला कि है, सुंदर चीज है! न देखी न सुनी! न कभी आंखों देखी, न कभी कानों सुनी! और धीरे—धीरे अंगरखा उतर गया और चूड़ीदार पैजामा और नेहरूकट जवाहर—बंडी…सब! जब आखिरी चड्डी उतरने लगी, तब सम्राट थोड़ा डरा! मगर अब बात बहुत आगे बढ़ चुकी थी, अब लौटा भी नहीं जा सकता था। थोड़ा झिझका! उस आदमी ने कहा, झिझक रहे हैं! सम्राट ने कहा, मैं और झिझकूं! अपने बाप से पैदा हुआ हूं! चड्डी भी उतार दी। ऐसी हालातों में आदमी को सभी कर देना पड़े।

नंग—धड़ंग खड़े हैं और सारा दरबार उनके वस्त्रों की प्रशंसा कर रहा है। और हर दरबारी देख रहा है कि राजा नंगा है! मगर कहो क्या? कहे कौन? जो कहे सो फंसे। मगर वह आदमी भी गजब का था! उसने कहा, महाराज, जनता बाहर इकट्ठी है। लोग देवताओं के वस्त्रों के दर्शन करना चाहते हैं। सम्राट ने सोचा कि अब मारे गए! मगर अब इतने आगे आ गए हैं कि अब लौटना कैसे? लौटने की भी सीमाएं होती हैं। एक सीमा के पार फिर लौटा नहीं जा सकता। अब इतनी भद्द तो हो ही गई, अब दरबारियों ने तो देख ही लिया, अब जो होना था हो ही गया, अब क्या पीछे लौटना? अब क्या पीठ दिखाना? और जब इतने लोगों को दिखाई पड़ रहा है तो होंगे ही!

आना पड़ा बाहर।

और भीड़ में देखो तो जय—जयकार! क्योंकि उस आदमी ने आकर पहले ही घोषणा कर दी कि वस्त्र केवल उसी को दिखाई पड़ेंगे जो अपने ही बाप से पैदा हुआ हो।

सिर्फ एक छोटा बच्चा जो अपने बाप के कंधे पर बैठकर आया था, उसने कहा, पप्पा, राजा नंगा मालूम होता है! उसके पप्पा ने कहा, चुप, नालायक! अभी तेरी उम्र नहीं है; जब बड़ा होगा तब तुझे भी वस्त्र दिखाई पड़ेंगे; चुप! अभी तू छोटा है, कच्ची उमर है। मगर उसने कहा कि इसका उमर से क्या संबंध है, पापा! राजा बिलकुल नंगा है! बाप ने उसके मुंह पर हाथ रखा और कहा कि बदतमीज! तू इज्जत डुबा देगा, घर चल! मैं पहले ही कह रहा था कि इसको नहीं ले जाना है; तेरी मां पीछे पड़ी कि ले जाओ। मुझे पहले ही डर था कि कुछ झंझट होगी।

एक सिर्फ बच्चे को असलियत कहने की हिम्मत थी। और वह भी सिर्फ इसलिए थी कि वह बच्चा था और उसे पता नहीं था कि पद और प्रतिष्ठा, लोक—लाज का खतरा है। और बाप ठीक कह रहा था कि बेटा, जरा बड़ा हो जा, तुझे भी दिखाई पड़ेंगे।

गणेश जी में तुमको सच में भगवान दिखाई पड़े हैं? या कि सिर्फ बड़े हो गए, इसलिए दिखाई पड़ने लगे! मंदिरों में, मूर्तियों में तुम्हें भगवान दिखाई पड़े हैं? कि चूंकि सब को दिखाई पड़ रहे हैं इसलिए तुम भी देख रहे हो! तुम्हें कौओं में पितर दिखाई पड़े हैं? पितृ—पक्ष को छोड़कर जब कांव—कांव कौआ करता है तो पत्थर मारते हो। और यही सज्जन पितृ—पक्ष में तुम्हारे पितरों के वाहन हो जाते हैं, या क्या हो जाता है?

तुम्हें राजनेताओं में कभी सज्जन दिखाई पड़े हैं? मगर नहीं, चरण छू—छू कर प्रशंसा करते हो कि आपके कारण ही चांदत्तारे टिके हैं। नहीं तो कब के गिर जाते। आपके कारण ही लोक थिर है। आप हो तो व्यवस्था है। आप नहीं हो तो अराजकता हो जाएगी। और ये ही हैं अराजकता फैलाने वाले! ये ही हैं मूलस्रोत सारे उपद्रव के! लेकिन गांधी टोपी, और खादी के शुद्ध वस्त्र…देखने में बड़े भोले—भाले मालूम पड़ते हैं। और तुम भी भलीभांति जानते हो कि तुम कितने ही सफेद वस्त्र पहनो, तुम्हारी कालिख नहीं छिपने वाली है। मगर आमने—सामने जब खड़े होते हो, तो एकदम प्रशंसा करने लगते हो।

सारी दुनिया प्रशंसा कर रही है। जो पद पर होता है, उसकी प्रशंसा की ही जाती है। जो पद से उतरा कि प्रशंसा गई, निंदा शुरू। कैसा अंधापन है! और यह एक दिशा में नहीं, तुम्हारे जीवन की सारी दिशाओं में है। धार्मिक व्यक्ति को इन सारी दिशाओं से अपने को खींच लेना होता है। जो भी कीमत हो, चुका देने योग्य है। मगर इन भ्रांतियों को सहयोग न देना।

देव पित्र दे छोड़ि जगत क्या करैगा।

चला जा सूधी चाल, रोइ सब मरैगा।।

ये सब मर जाएंगे रो—रो कर, मत फिक्र करो इनकी। तुम अपनी सीधी चाल चलो। जो तुम्हारी सहज गति हो, तुम्हारा स्वभाव हो, उसके अनुसार जीओ। किसी को हक नहीं है कि तुम्हारे स्वभाव के प्रतिकूल तुम्हें चलाए। लेकिन तुम्हें चलाया जा रहा है स्वभाव के प्रतिकूल। तुम्हें सिर के बल खड़ा होना सिखाया जा रहा है। तुमसे कहा जा रहा है कि शीर्षासन बिना किए स्वर्ग नहीं मिलेगा। और तुम शीर्षासन भी कर रहे हो। तुमसे कहा जाता है, हाथ—पैर तिरछे करो, मोड़ो, उल्टे—सीधे होओ, वह भी तुम कर रहे हो। तुम कभी पूछते नहीं कि शरीर की इस कवायद से मोक्ष का क्या संबंध!

जाति—बरन—कुल खोइ करौ तुम भक्ति को।

अरे हां, पलटू कान लीजिये मूंदि, हंसै दे जक्त को।।

हंसने दो जगत को। मगर तुम कान मूंद लेना जगत के प्रति। तुम तो अपने भीतर देखना और अपने भीतर से जीना। अपने अंतःकरण की आवाज सुनो। और अगर तुम्हारा अंतःकरण कहता है राजा नंगा है, तो राजा नंगा है। फिर चाहे भीड़ कितना ही कहती हो कि बड़े सुंदर वस्त्र हैं, तुम फिक्र मत करना! जीसस ठीक कहते हैं कि जो बच्चों की भांति सरलचित्त होंगे, वे ही केवल परमात्मा के राज्य में प्रवेश पा सकेंगे। अब उस भीड़ में सिर्फ एक बच्चे ने सत्य कहा था। अक्सर यह हो जाता है कि इस झूठों की भीड़ में कभी—कभी कोई साहसी, सरलचित्त व्यक्ति सीधी—सीधी बात कह देता है। हालांकि उसे बहुत गालियां झेलनी पड़ती हैं।

केतिक जुग गए बीति माला के फेरते।

तुम कितने जमानों से माला फेर रहे हो! और तुमने कभी एक बार सोचा कि ये माला के मनके फेरने से क्या होगा? मगर और लोग भी फेर रहे हैं, सो तुम भी फेर रहे हो।

डर लगता है शीश झुकाते, अपने बंदन सुमन चढ़ाते

कहीं न मेरा भाल कलंकित कर दे पावन चरण तुम्हारे।

मन ने कैसी की नादानी

जो तुमको पाने को मचला।

जैसे नन्हा जुगनू, सूरज—

की पूजा करने को निकला।

तुमको अपनी पीर सुनाऊं, इतनी शक्ति कहां से लाऊं

सावन भादों बन जाएंगे, धुले गगन से नयन तुम्हारे।

सारी उम्र धुआं करने को

मन की दबी आग काही है।

चंदा की बदनामी को बस

उसका एक दाग काफी है।

मुझको अपने अंग लगाओ, सोच समझ बाहें फैलाओ

काले पड़ जाएंगे मुस्कानों वाले आभरण तुम्हारे।

मेरे अपराधी अधरों पर

सिर्फ तुम्हारा नाम बचा है।

माटी की गागर में जैसे

गंगाजल भर रही ऋचा है।

अगर तुम्हारे स्वर मिल जाएं, मेरे गीत मंत्र बन जाएं

जीवन हो पूजा की थाली, फूल बनें संस्मरण तुम्हारे।

दरस तुम्हारा जैसे कोई

वैरागी तीरथ पा जाए।

या जन्मांध भिखारिन मावस

पूनम वाला पथ पा जाए।

सकुचाये निर्धन प्रणाम हैं मचल रहे हर सुबह शाम हैं

शायद हट जाएं पल भर को संकोची आवरण तुम्हारे।

तुम्हारे माला फेरने से परमात्मा के चेहरे की नकाब थोड़ी हटी, थोड़ी सरकी? कुछ दरस—परस हुआ?

दरस तुम्हारा जैसे, कोई

वैरागी तीरथ पा जाए।

या जन्मान्ध भिखारिन मावस

पूनम वाला पथ पा जाए।।

इतने जन्मों से माला फेर रहे हो, पूर्णिमा हुई जीवन में? अमावस की अमावस बनी है। तुम जहां थे, वहीं पत्थर के ढेले की तरह पड़े हो। इंच—भर गति नहीं होती, क्योंकि माला फेरना झूठ है। तुम्हारे हृदय में क्रांति नहीं हुई है सिर्फ हाथों ने माला पकड़ ली है—यंत्रवत।

मेरे अपराधी अधरों पर

सिर्फ तुम्हारा नाम बचा है।

माटी की गागर में जैसे

गंगाजल भर रही ऋचा है।

अगर तुम्हारे स्वर मिल जाएं, मेरे गीत मंत्र बन जाएं

जीवन हो पूजा की थाली, फूल बनें संस्मरण तुम्हारे।

फिर मालाएं नहीं फेरनी पड़तीं। तुम जो बोलो वही मंत्र हो जाता है। तुम जो गुनगुनाओ वही ऋचा हो जाती है।

लेकिन हृदय में होनी चाहिए क्रांति। मालाएं फेरने से यह नहीं हो सकता।

केतिक जुग गए बीति माला के फेरते।

छाला परि गए जीभ राम के टेरते।।

और कुछ हैं कि राम—राम, राम—राम जपे जा रहे हैं। बस जीभी ही जीभ पर रटन है; कंठ से भी नीचे नहीं उतरती। हृदय तो उन्हें पता ही नहीं कि है भी उनके पास या नहीं। जीभ पर राम—राम चल रहा है, हृदय में कुछ और चल रहा है—ठीक राम से विपरीत चल रहा है, काम चल रहा है। भीतर तो वासना है, ऊपर—ऊपर प्रार्थना है। ऐसे कच्चे रंग पानी के पहले झोंके में बह जाएंगे।

जनम—जनम हम गलियां बदले।

जैसे बदले चमन चिरैया,

कुन्ज—निकुन्ज तितलियां बदलें।

कोई बदले नूतन कंगना,

कोई चाहे चुनरी रंगना

पिया हमारे बदलें अंगना,

हम घर—घर पायलियां बदलें।

रात—रात भर चांद निहारें,

राह देखते उमर गुजारें

क्या पतझड़ क्या मस्त बहारें,

जब कांटों से कलियां बदलें।

सेज सजाएं हम कलियों से,

फिर भी दूर पिया गलियों से

प्रियतम की तारावलियों से,

अपनी दीपावलियां बदलें।

 

जनम—जनम जीने का धंधा,

आंखमिचौली का है फंदा

रूप हजारों बदलें चंदा,

लाखों रंग बदलियां बदलें।

 

बरस—बरस पर बादल बरसें,

पनघट पर हम प्यासे तरसें

किसको पकड़ें, किसको परसें

पल—पल पंथ बिजलियां बदलें।

 

पेड़ गिने हमने बस लाखों,

फल खाए तो आंखों—आंखों

अंत समय किस्मत के हाथों

हम तो सिर्फ गुठलियां बदलें

 

भाग्य—गीत के ताल—छंद पर

बदलें, हम तो गांव, डगर, घर

जैसे लहर—लहर लहराकर,

जल की धार मछलियां बदलें।

 

जब रुख बदले पवन सनन—सन,

बदले सरगम, छूम—छनन—छन

बदलें तार—सितार—झनन—झन,

पर ना कभी उंगलियां बदलें।

हम बस ऊपर—ऊपर की बदलाहटों में लगे रहते हैं। सितार बदल लेते हैं। मगर उंगलियां…बजाने की कला आती है या नहीं? लोगों को नाचना आता नहीं और कहते हैं: आंगन टेढ़ा है। तुम्हारे हृदय में गीत नहीं उठे हैं; तुम्हारे हृदय में प्रार्थना नहीं जगी है; तुम्हारे हृदय में प्रेम का बीज अंकुरित नहीं हुआ है; तो फिर तुम करते रहो लाख—लाख उपाय—

केतिक जुग गए बीति माला के फेरते।

छाला परि गए जीभ राम के टेरते।।

माला दीजे डारि मनै को फेरना।

पलटू कहते हैं, फेंको यह माला, मन को फेरो, मन को बदलो।

माला दीजे डारि मनै को फेरना।

अरे हां, पलटू मुंह के कहे न मिलै, दिलै बिच हेरना।।

ऐसे मुंह के कहने से नहीं मिलेगा, हृदय के मध्य में, ठीक प्रणों के मध्य में खोजना होगा।

तुम डगर पर बाट मेरी जोहना

मैं मिलन के गीत लेकर आ रहा हूं।

 

पाप जो मैंने किए, स्वीकार कर लूं,

पीर जो मुझको मिली, शृंगार कर लूं,

जो युगों से मौन ही अब तक रहे—

होंठ में गीले नयन का प्यार भर लूं,

 

पालकी में बैठ पलकों की—

अदेखे स्वप्न का संगीत लेकर आ रहा हूं।

 

रश्मियों से गूंथकर अपनी कहानी,

और दुर्बलता भरी अपनी जवानी,

भाग्य का तूफान आंचल में छुपाये—

श्वांस की बाती जला, काया अजानी,

 

हारकर सौ बार तामस के समर म—

ज्योति की मैं जीत लेकर आ रहा हूं।

 

तृप्ति का परिचय पिपासा से करा दूं,

प्यार का परिचय निराशा से करा दूं,

गूंजती अव्यक्त जो मेरे गगन में—

भावना का मेल भाषा से करा दूं,

 

जो विषय अनुभूतियों से भी न छूटा—

वह हृदय का गीत लेकर आ रहा हूं।

उसकी तरफ चलना है तो हृदय में दीया जलाओ! ज्योति लेकर बढ़ो! चैतन्य का दीया, होश का दीया, बोध का दीया। अपने चारों तरफ प्रेम की रोशनी छिटकाओ! राम—राम जपने से क्या होगा, राम को जीओ। माला मत फेरो, मन को फेरो। मन अभी बाहर की तरफ दौड़ रहा है, इसे खींचो, इसे भीतर ले चलो। अभी यह विषयों में उलझा है, इसे विषयों से मुक्त करो, इसे शून्य से भरो। और तब तुम जानोगे—क्या है धर्म? और तब तुम पहचानोगे—क्या है परमात्मा? और वह पहचान तृप्ती से भर जाएगी। ऐसी तृप्ती जो फिर कभी समाप्त नहीं होती।

तीसों रोजा किया, फिरे सब भटकिकै।

आठो पहर निमाज मुए सिर पटकिकै।।

सिर पटक—पटक कर आठों पहर नमाज पढ़—पढ़ कर लोग मर गए, कुछ पाया नहीं।

मक्के में भी गए, कबर में खाक है।

गए काबा, गए मक्का, कब्रों की खाक छानी; कब्रों में कुछ भी नहीं है।

अरे हां, पलटू एक नबी का नाम सदा वह पाक है।।

लेकिन अब कभी कोई ऐसा आदमी मिल जाए जिसने प्रभु को जाना हो…जिसे हम बुद्ध कहते हैं, उसे मुसलमान नबी कहते हैं, जिसे हम अवतार कहते हैं, उसे मुसलमान नबी कहते हैं; जिसे हम तीर्थंकर कहते हैं, उसे मुसलमान नबी कहते हैं। नबी का अर्थ है, जिसने जाना। जिसने जाना, वही तो जना सकता है। इसलिए वह पैगंबर है। उसका होना पैगंबर है। उसका अस्तित्व एक पैगाम है, एक संदेश है। उसकी श्वास—श्वास में परमात्मा के लिए प्रमाण है।

अरे हां, पलटू एक नबी का नाम सदा वह पाक है।।

बस एक सदगुरु को खोज लो, वही एकमात्र पवित्र स्थल है इस पृथ्वी पर। जहां सदगुरु है, वहां तीर्थ है। और सदगुरु के पास बैठ जाओ, अपनी व्यर्थ की बकवास को छोड़कर, तो तुम भी डूब जाओगे; तुम्हारी नौका भी उतर जाएगी अज्ञात के सागर में।

आज नए बादल फिर उमड़े—

लगा कि तुमने मुझे पुकारा।

 

मुक्त करों से अमृत—गगरियां

ढुलका कर तुम मुस्काओगे।

मरे श्रांत—क्लांत तन—मन में

नई चेतना भर जाओगे।

नए नए मेघों के पट में—

लगा कि तुमने मुझे संवारा।

 

घन निनाद से गीत तुम्हारे

गूंजेंगे मेरे कानों में।

लौट लौट कर जैसे आते

तुम्हीं प्यार के आह्वानों में।

नए बादलों की उड़ान में—

लगा कि मेरी खोज पसारा।

 

भूल गई मैं मरु की जलती

दुपहर की चिर आकुल प्यासें।

चंदन शीतल सुमन—सुरभि सी

लहराई पुरवा की सांसें।

लगा कि पत्थर चट्टानों ने—

मुझे बनाया निर्झर धारा।

 

हुआ क्या कि इतने नि तक जो

रहा तड़पता सागर खारा।

नदियां कृश हो गईं, धरा का

उजड़ गया था यौवन सारा।

अब तो लगा कि जल—थल सबकी—

तृप्ति हेतु ही मुझे निहारा।

आज नए बादल फिर उमड़े—

लगा कि तुमने मुझे पुकारा।

किसी सदगुरु के पास बैठो तो तुम्हें लगेगा—परमात्मा ने तुम्हें पुकारा। सदगुरु की पुकार उसकी ही पुकार है। वही बोलता है उससे। सदगुरु स्वयं शास्त्र है। वही है कुरान, वही है वेद, वही है बाइबिल, वही है गीता। क्योंकि उसके भीतर गीत गूंज रहा है परमात्मा का। वह तो बांसुरी बन गया है। वह तो पोला हो गया है, बांस की पोली पोंगरी, प्रभु के ओठों पर रख कर अदभुत संगीत से भर जाती है। जो भी शून्य होने को राजी है, वही पूर्ण हो जाता है। और जो शून्य होकर पूर्ण हो गया, उसे पैगंबर कहो, तीर्थंकर कहो, अवतार कहो, नबी कहो, कुछ फर्क नहीं पड़ता, लेकिन पलटू कहते हैं: बस वही एक पाक स्थल है; वही एक पवित्र स्थान है। उसे खोज लो।

डांडी पकड़े ज्ञान, छिमा कै सेर है।

और अगर तुम किसी सदगुरु के पास पहुंच गए, तो तुम्हें यह समझ में आ जाएगा: डांडी पकड़े ज्ञान…। वह जो तुम्हें दे दे, उससे तुम्हारे हृदय में जो ढल जाए, वही ज्ञान है। और वह ज्ञान एक तराजू है! जिस तराजू पर सब तुल जाएगा। जो तुल सकता है वह भी तुल जाएगा और जो अतुलनीय है, वह भी तुल जाएगा।

डांडी पकड़े ज्ञान, छिमा कै सेर है।

और जैसे ही तुम ज्ञान से जागोगे, तुम्हारे भीतर क्षमा पैदा होगी, करुणा पैदा होगी।

सुरत सबद से तोल मनै का फेर है।।

और तब तुम्हारे भीतर स्मृति उठेगी अपने अस्तित्व की। मैं कौन हूं, इसका बोध जगेगा।

सुरत सबद से तोल मनै का फेर है।।

और तब जानना कि मन बदला। जब ज्ञान का तराजू हाथ लगे, करुणा के बांट हाथ लगें, और सुरत सबद की तौल हो जाए, परमात्मा की स्मृति तुलने लगे तुम्हारे तराजू में, तब जानना कि मन का रूपांतरण हुआ, क्रांति हुई।

भला—बुरा इक भाव निबाहै और है।

और तब न कुछ भला है, न कुछ बुरा है। फिर दोनों को समान रूप से निबाहने की कला आ जाती है। सम्यकत्व पैदा होता है; समता पैदा होती है।

अरे हां, पलटू संतोष की करै दुकान महाजन जोर है।।

और वही है महाजन, वही है बड़ा, वही है महान, जिसके जीवन में संतोष की दुकान खुली।…पलटू तो साधारण से, गरीब बनिया थे। तो उनकी भाषा में भी उनके जीवन के अनुभव की छाप है। जिंदगी—भर तौलते रहे। पत्थर के सेर, बांट, पसेरी रही होंगी। लकड़ी की तराजू रही होगी, कि लोहे की। दुकान में बेचते रहे होंगे गेहूं कि चावल कि दाल। अब भी वे प्रतीक उपयोग करते हैं—

डांडी पकड़े ज्ञान, छिमा कै सेर है।

सुरत सबद से तोल मनै का फेर है।

भला—बुरा इक भाव निबाहै और है।

अरे हां, पलटू संतोष की करै दुकान महाजन जोर है।।

वे धन्यभागी हैं, वे और ही हैं, विशिष्ट हैं, जो ज्ञान का तराजू पकड़ लेते हैं। और जो ज्ञान के तराजू में अतुलनीय को तौल लेते हैं।

क्या है अतुलनीय?

सुरति, स्मृति, परमात्मा की याद।

इस जगत में पाने योग्य अगर कोई धन है तो बस प्रभु की स्मृति है। और सब व्यर्थ है। और कुछ भी धन नहीं है, धन का धोखा है। और सब विपदा है। संपदा तो एक है: प्रभु का स्मरण। क्योंकि वही स्मरण तुम्हें मृत्यु के पार ले जाएगा। वही स्मरण तुम्हें देह के पार, मन के पार ले जाएगा। वही स्मरण तुम्हें उस परम ज्योति से मिला देगा, जिससे मिल जाने के बाद फिर कोई बिछुड़ना नहीं है, फिर कोई विरह नहीं है।

तुम्हारे नेह के कारण

उठा ऊपर असाधारण

नहीं तो पांव के नीचे कहीं धरती नहीं है।

न तुम छूते अगर चट्टान कैसे गल गई होती

धधकती आग कैसे रोशनी में ढल गई होती

तुम्हारे ज्योति—कण पीकर

बना हूं चंद्रमा भू पर

नहीं तो चांदनी मेरे बिना मरती नहीं है।

कभी गुण भी फिरे मेरे गली में ठोकरें खाते

कहां अब दोष भी मेरे किताबों में लिखे जाते!

तुम्हारा हाथ है सिर पर

मिला है इसलिए आदर

नहीं तो जिंदगी मुझ पर कृपा करती नहीं है।

समंदर देखता हूं तो उसे दर्पण समझता हूं

निकट हो तुम, तभी तूफान को भी तृण समझता हूं

तुम्हारे नाम के बल से

नहीं मरता हलाहल से

नहीं तो मृत्यु मेरे नाम से डरती नहीं है।

विमुख जब तक रहे तुम, सिर्फ था मैं राख की ढेरी

सजल जब से हुए तुम, प्यास भी पुजने लगी मेरी

तुम्हारे ही इशारे पर

खड़े हैं द्वार पर निर्झर

नहीं तो तृप्ति जल मेरे लिए भरती नहीं है।

एक परमात्मा मिला तो सब मिला। एक परमात्मा मिला तो अमृत मिला। इसलिए पलटू ठीक कहते हैं:

हरि—चरचा से बैर संग वह त्यागिये।

अपनी बुद्धि नसाय सेवेर भागिये।।

सरबस वह जो देइ तो नाहीं काम का।।

जहां हरि—चर्चा होती हो, चार दीवाने बैठकर प्रभु का स्मरण करते हों, वहां बैठो, गुनो; सुनो; समझो; डुबो; जीओ; तो इसी जीवन में अमृत—जीवन का अनुभव हो सकता है। क्षण में शाश्वत की प्रतीति हो सकती है। और अपने भीतर ही वह पाया जा सकता है, जिसे जन्मों—जन्मों से दौड़कर भी बाहर तुम नहीं पा सके हो और नहीं पा सकते हो। वह बाहर है ही नहीं, तो बाहर पाया कैसे जा सकता है? अंतर्यात्रा का विज्ञान धर्म है।

 

आज इतना ही।

 

 


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सपना यह संसार–(प्रवचन–20)

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ज्ञान से शून्य होने में ज्ञान से पूर्ण होना है—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक; सोमवार, 30 जुलाई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—भगवान,

क्या प्रभु—मिलन में विरह—अवस्था से गुजरना आवश्यक है?

2—भगवान,

मैं मृत्यु की तो बात दूर, मृत्यु शब्द से भी डरती हूं। मृत्यु से कैसे छुटकारा हो सकता है?

3—भगवान,

आप इतने प्रेम से समझाते हैं, पर मुझ अज्ञानी के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता। वैसे वेद, पुराण, गीता इत्यादि सब मेरी समझ में आ जाते हैं। फिर आप क्यों समझ में नहीं आते?

 

पहला प्रश्न:

 

भगवान, क्या प्रभु—मिलन में विरह—अवस्था से गुजरना आवश्यक है?

कैलाश! विरह की अवस्था में तो तुम हो ही, गुजरने की बात नहीं। तुम्हारा होना ही विरह की अवस्था है। तुम्हारा मिट जाना मिलन। विरह कोई ऐसी बात नहीं है कि कल तुम्हें उसमें से गुजरना होगा, आज ही तुम उसमें हो। कल भी तुम उसमें थे। और यदि कुछ न किया तो कल भी तुम उसमें ही रहोगे।

विरह का अर्थ है: मैं पृथक हूं, अलग हूं, अस्तित्व से भिन्न हूं, अभिन्न नहीं, ऐसी प्रतीति। जैसे कोई पत्ता वृक्ष का समझ ले कि मैं वृक्ष से अलग हूं। होता नहीं समझने से, मानने से होता नहीं, रहता तो वृक्ष का ही हिस्सा है, लेकिन मान्यता हो जाए तो भ्रांति खड़ी हो जाती है। प्रभु से हम अलग नहीं हैं, सिर्फ अलग होने की भ्रांति है। भ्रांति ही तोड़नी है। प्रभु से जुड़ना थोड़े ही है! उससे तो जुड़े ही हैं। लाख उपाय करें तो भी टूट नहीं सकते। टूटना असंभव है। क्योंकि टूटकर होना असंभव है। जो भी है प्रभु में है। अस्तित्व अर्थात परमात्मा। तुम हो, इतना काफी है तुम्हारा परमात्मा में होने के लिए। कौन ले रहा है तुम्हारे भीतर श्वास? कौन तुम्हारे प्राण में धड़क रहा है? कौन है तुम्हारे भीतर चैतन्य? वही है।

लेकिन, पत्ते ऐसी भूल नहीं करते। कर नहीं सकते। करने की उनकी सामर्थ्य नहीं। मनुष्य ऐसी भूल करता है। करने की उसकी सामर्थ्य है। यह मनुष्य की महिमा है और उसका दुर्भाग्य भी। महिमा, क्योंकि मनुष्य अकेला है जो स्व—चेतन हो सकता है। और दुर्भाग्य, क्योंकि स्व—चेतन होने की क्षमता का दुरुपयोग हो सकता है। और स्व—चेतन होने की क्षमता अहंकार बन सकती है। अहंकार बन जाए तो हम टूट गए परमात्मा से।

अहंकार यानी विरह की अवस्था।

फिर जीवन रुदन है, विषाद है, विक्षिप्तता है। इसलिए क्योंकि जैसा नहीं है वैसा हम मान रहे हैं। जहां दीवाल है वहां द्वार मानोगे तो विक्षिप्त नहीं तो और क्या? और जहां द्वार है वहां दीवाल मानोगे तो मुश्किल में तो पड़ोगे! निकल तो न सकोगे। द्वार का उपयोग न कर सकोगे! दीवाल से टकराओगे और द्वार से निकल न पाओगे। मगर द्वार द्वार है, तुम चाहे दीवाल मानो और दीवाल दीवाल है, तुम चाहे द्वार मानो।

मान्यता में मनुष्य भूला है। मान्यता के अतिरिक्त कहीं कोई भ्रांति नहीं है। तुमने मान रखा है कि मैं हूं। न केवल मान रखा है, वरन तुम इसे सब भांति पुष्ट करते हो। धन से, पद से, प्रतिष्ठा से। इसे पोषण देते हो। कोई इस पर चोट करे तो मरने को तैयार हो जाते हो। तुम अपने अहंकार की रक्षा में सतत तैनात हो, नंगी तलवार लिए। और कभी अगर तुम्हें मजबूरी में झुकना भी पड़ता है तो झुकना ऊपर—ऊपर होता है, भीतर तुम बदले की प्रतीक्षा करते हो। कब मिले समय, कब आए अवसर कि जिसके समाने तुम्हें झुकना पड़ा है, तुम उसे झुका लो?

विरह का अर्थ है: मैंने मान लिया कि मैं इस विराट से अलग हूं। बस पीड़ा शुरू हुई! तड़फन शुरू हुई! फिर तुम्हें अगर तड़फन का ठीक—ठीक बोध हो जाए तो तुम आस्तिक। तो तुम तलाश में लग जाओगे, कि कैसे भ्रांति टूटे और कैसे सत्य से मेरा संबंध पुनः हो जाए? कैसे मुझे सुरति आए, स्मृति आए? और अगर तुमने ठीक से न समझा तो विरह को तुम समझोगे धन की कमी, पद की कमी, प्रतिष्ठा की कमी। फिर संसार की दौड़ है।

ये दोनों ही यात्राएं धर्म की और संसार की विरह से पैदा होती हैं। एक सद—यात्रा है, सम्यक यात्रा है, क्योंकि अगर तुम चल पड़े धर्म के मार्ग पर, स्वभाव के मार्ग पर, तो आज नहीं कल विरह मिट जाएगा और मिलन होगा। मिलन जो कि वस्तुतः है ही। सिर्फ उसका आविष्कार होगा, उदघाटन होगा, पर्दा उठेगा। परदे की ओट में है अभी। फिर आंख के सामने होगा। भक्त भी विरह में जीता है और जिनको तुम संसारी कहते हो, वे भी विरह में जी रहे हैं। यद्यपि भक्त का विरह एक दिन मिलन बन जाएगा और जो संसारी हैं, उनका विरह और भी और नर्क बनता जाएगा।

 

लिख—लिख भेजीं अनगिन पाती

फिर भी नहीं निठुर तुम आए।

 

दिन फिर गए बिजन—बगिया के, घिर—घिर आए घन कजरारे,

महक उठी मेंहदी की क्यारी, चहक उठे द्वारे चौबारे,

आंगन की निबिया बौराई, फूल उठी घर की अमराई,

सब—सब बोले, तुम्हीं न बोले, बैठे एक हमी मन मारे,

 

हंसी खो गई, खुशी खो गई

नींद बिकाई, चैन गंवाए।

 

किसके मंदिर करूं आरती, किसके द्वारे करूं समर्पण,

किसको भेजूं मौन संदेशे, किसको भेजूं नेह निमंत्रण,

लिख—लिख भेजी अनगिन पाती, कोई नहीं लौट कर आती,

सब—सब आए, तुम्हीं न आए, ऐसी बान पड़ी किस कारण,

 

इतनी—इतनी लगन धराई

इतने—इतने जतन कराए।

 

गुमसुम चुप रह गई देहरी, खटक—खटक रह गई किवरिया,

झूम—झूम झुक उठे बदरवा, बरस—बरस रह गई बदरिया,

जब—जब आई याद तुम्हारी, बढ़ी और मन की लाचारी,

कसक—कसक रह गया करेजवा, बीज गई बेरहम उमरिया,

 

सौ—सौ बार संदेश पठाए

फिर भी नहीं निठुर घर आए।

लिख—लिख भेजीं अनगिन पाती

फिर भी नहीं निठुर तुम आए।

 

भक्त अस्तित्व के प्रेम में है। जहां प्रेम है, वहां विरह सघन होगा। जहां प्रेम है, वहां प्यास सघन होगी। जहां प्रेम है, वहां पुकार उठेगी अहर्निश, आकांक्षा जगेगी। कब होगी सुबह? कब टूटेगी रात? कब अंधेरा मिटेगा दूरी का? कब होगा सामीप्य, सान्निध्य उपलब्ध? जितनी—जितनी यह प्रीति, जितनी—जितनी यह प्यास सघन होगी, उतनी ही संभावना प्रबल होगी मिलन की। एक ऐसी घड़ी आती है कि प्यासा तो गल ही जाता है, प्यास ही रह जाती है। एक ऐसा अपूर्व क्षण आता है जब रोने वाला नहीं बचता सिर्फ रुदन बचता है। जब भीतर कोई नहीं होता खोजने वाला सिर्फ अहर्निश एक खोज रह जाती है। श्वास—श्वास धड़कन—धड़कन में एक पुकार रह जाती है। जागे—सोए पुकार बनी ही रहती है। उसी क्षण मिलन घट जाता है। परदा उठ जाता है।

कैलाश! विरह की अवस्था में तो हो ही। अब इस विरह को दो ढंग दे सकते हो। एक तो अज्ञानी का ढंग है कि वह सोचता है थोड़ा धन हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा। सोचता है सुंदर पत्नी होगी, पति होगा, बच्चे होंगे, सब ठीक हो जाएगा। बड़ी नौकरी होगी, पद होगा, प्रतिष्ठा होगी, सब ठीक हो जाएगा। सोचता है कुछ कमी है बाहर, इसे भर लूं। वह कमी कभी भरती नहीं। वह ऐसा भिक्षापात्र नहीं जो भर जाए। मांग बढ़ती चली जाती है, मृगमरीचिका की तरह, वे दूर दिखाई पड़ने वाले जलस्रोत बस दूर से ही जलस्रोत दिखाई पड़ते हैं, पास पहुंचते—पहुंचते रेत के ढेर हाथ आते हैं। लेकिन तब तक मृगतृष्णा आगे दौड़ाने लगती है, सपने आगे सजते चले जाते हैं। वे दूर के ढोल सुहावने हैं। जब तक उन ढोलों की पोल खुले, तब तक तुम नए सपने संजो लेते हो। उनमें उलझ जाते हो। यह भी विरह है। लेकिन ठीक से समझा नहीं गया। बीमारी का ठीक निदान नहीं हुआ, इसलिए कुछ भी उलटी—सीधी दवाएं ले रहे हो। और बीमारी तो एक तरफ, दवाएं और नई बीमारियां खड़ी कर रही हैं, वह दूसरी तरफ। बीमारी तो मिटती नहीं, दवाएं और बीमारियां बन जाती हैं।

ठीक निदान हो तो कमी बाहर नहीं है, कमी भीतर है। ठीक निदान हो तो होश की कमी है, धन की कमी नहीं। होश बढ़े तो मिलन हो जाए। होश में ही मिलन हो सकता है। नींद में विरह है, जागरण में मिलन है। और विरह से घबड़ाओगे तो मिलन कभी न हो पाएगा। विरह को समझोगे तो विरह निखारता है, पखारता है, धूल—धवांस झाड़ता है। विरह स्नान है। अंतरात्मा विरह से गुजर—गुजर कर ही कुंदन बनती है। और तभी पात्रता पैदा होती है परमात्मा को पाने की।

परमात्मा तो मौजूद है, हर एक को मिलता क्यों नहीं? पलटू को, कबीर को, नानक को मिलता है, तुम्हें क्यों नहीं मिलता? नानक भी यहीं, पलटू भी यहीं, कबीर भी यहीं, रैदास भी यहीं, तुम भी यहीं, यही दुनिया, दुनिया कोई दूसरी नहीं, यही आकाश, यही चांदत्तारे, यही लोग, मगर उन्हें परमात्मा मिलता है और तुम्हें परमात्मा नहीं मिलता। तुम्हारे निदान में भूल है। तुम बाहर तलाशते हो, सो चूकते चले जाते हो। जितना चूकते हो उतना ही घबड़ाहट में और जोर से भागते हो। जितने जोर से भागते हो उतने और ज्यादा चूकते हो। एक दुष्टचक्र पैदा हो जाता है। नहीं मिलता तो लगता है शायद दौड़ ठीक से नहीं कर रहा हूं। नहीं मिलता है तो लगता है और दौडूं और थोड़ा श्रम लगाऊं। लेकिन यह याद नहीं आता कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस दिशा में मैं दौड़ रहा हूं, वहां संपदा है ही नहीं। नई दिशा खोजूं।

ग्यारह दिशाएं हैं। दस दिशाएं बाहर और ग्यारहवीं दिशा भीतर है। दस दिशाएं संसार की और ग्यारहवीं दिशा धर्म की। जो उस ग्यारहवीं दिशा पर चल पड़ा, निश्चित पहुंचा है। आज तक कोई भी अपवाद नहीं। फिर तो आंसू भी उस पर चढ़ जाते हैं। हंसी भी उस पर चढ़ जाती है, खुशी भी उस पर, सब उस पर न्योछावर हो जाता है। कांटे और फूल, सब; अच्छा और बुरा, सब; रात और दिन, सब।

अबोले गीत की दुआएं तुम को।

 

रुआंसी इस हंसी की,

अधर की बेबसी की,

अदेखे अश्रु की दुआएं तुम को।

अबोले गीत की दुआएं तुम को।

 

किन्हीं बिकते प्रणों की—

कि डोली के क्षणों की—

अजानी राह की दुआएं तुम को।

अबोले गीत की दुआएं तुम को।

 

दुआ है ताज की भी,

अधूरे साज की भी,

 

बुझे संगीत की दुआएं तुम को।

अबोले गीत की दुआएं तुम को।

जैसे—जैसे तुम भीतर जाओगे, रसधार बहेगी, थोड़ा स्वयं का अनुभव होगा, वैसे ही वैसे तुम पाओगे: सब उस पर समर्पित है। बेशर्त समर्पित है। उस समर्पण में ही मिलन का द्वार खुल जाता है।

एक समर्पण है, जबर्दस्ती कराया जाता है। एक समर्पण है, जो स्वेच्छा से किया जाता है। जबर्दस्ती का समर्पण झूठा है। उसके भीतर क्रोध है। आज नहीं कल क्रोध फूटेगा। ज्वालामुखी के ऊपर तुम बैठे हो। और तुमसे धर्म के नाम पर भी जबर्दस्ती ही समर्पण करवा लिए गए हैं, इसलिए तुम्हारा धर्म भी मिथ्या है। तुम्हारा परिवार तुम्हें ले गया मंदिर, कि मस्जिद, कि गुरुद्वार, कि गिरजा और तुम्हें झुका दिया है। जबर्दस्ती झुका दिया है। तुम झुक भी गए; बचपन से झुकते रहे, झुकने की आदत हो गई; संस्कार दृढ़ हो गया; अब मंदिर के सामने से निकलते हो तो यंत्रवत हाथ जुड़ जाते हैं; मरण प्राण, नहीं जुड़ते; प्रार्थना, नहीं उठती।

पलटू ने कहा न कल, राम—राम, जप—जप कर जीभ पर छाले पड़ गए हैं, सार क्या? जनम—जनम से, युगों—युगों से माला फेरते—फेरते थक गए, पाया क्या? माला का कसूर नहीं है, खयाल रखना। माला बेचारी का क्या कसूर! भूल होगी तो तुम्हारी होगी कहीं। राम के नाम की कुछ भूल नहीं है, भूल होगी तो तुम्हारी होगी कहीं। जीभी से ही जपते रहे तो छाले ही पड़ेंगे और क्या होगा! हाथों में गट्ठे पड़ जाएंगे माला जपते—जपते, लेकिन जब तक अंतर्भाव का जोड़ न हो तब तक कुछ भी न होगा। अंतर्भाव का जोड़ हो जाए तो तुमने सुनी है न कहानी, वाल्मीकि तो राम तो छोड़ो, मरा—मरा जपकर भी राम को पा गए। उलटा नाम जपते रहे। गैर पढ़े—लिखे थे, गंवार थे, जंगली थे, भूल गए ठीक नाम, उलटा ही जपते रहे।

टालस्टाय की प्रसिद्ध कहानी है।

तीन फकीर बड़े प्रसिद्ध हो गए। इतने प्रसिद्ध हो गए कि रूस का जो सबसे बड़ा पुरोहित था, उस तक कोर् ईष्या और जलन पकड़ी। लोग उनके पास न आते और उन फकीरों के पास जाते। एक झील के पार उन तीनों फकीरों ने एक झाड़ के नीचे डेरा जमा रखा था। उनकी कहानियां, उनकी चर्चा गांव—गांव, चेहरे—चेहरे, मुख—मुख पर फैल गई। प्रधान पुरोहित के बर्दाश्त के बाहर हो गया, उसने एक दिन नाव ली, मांझी लिया, झील पार की, उस तरफ पहुंचा। वे तीनों उठकर उसके पैर छुए। उनके पैर छूने से तो समझ में आ गया कि इनको कुछ आता—जाता नहीं। अहंकारी आदमी था। देख लिया कि ये तो सीधे—सादे लोग हैं, गांव के गंवार हैं, नाहक की प्रतिष्ठा हो गई है!

उनको पूछा कि तुम्हारी सिद्धि क्या है? उन्होंने कहा, सिद्धि हमारी कोई भी नहीं। पूछा तुम प्रार्थना क्या करते हो, साधना क्या है? तो वे एक—दूसरे की तरफ देखकर कहने लगे कि तू बता दे! पुरोहित की तो अकड़ बढ़ी, उसने कहा कि बोलो, मैं प्रधान पुरोहित हूं, मैंने तो तुम्हें कभी दीक्षा भी नहीं दी; अदीक्षित तुम परमात्मा को उपलब्ध हो गए? उन्होंने कहा कि नहीं—नहीं, हम और परमात्मा को कैसे उपलब्ध होंगे! हम दीन, हम हीन, हम कहां परमात्मा को उपलब्ध होंगे। हम तो उसके चरणों की धूल भी नहीं हैं। रही प्रार्थना, सो हम झिझकते हैं कहने में, क्योंकि हमने किसी से सीखी नहीं, हम तीनों ने खुद ही गढ़ ली है। और ज्यादा बड़ी भी नहीं है, सुंदर भी नहीं है, क्योंकि हमें कविता भी नहीं आती, हम पढ़े—लिखे भी नहीं हैं। हमने तो छोटी—सी बना ली है, अपने काम के लिए। घरेलू है। आप क्षमा करें, न पूछें, शर्म लगती है बताने में।

पुरोहित ने जिद्द की तो उन्होंने कहा, आप नहीं मानते तो सुन लें। हमने सुना है कि परमात्मा तीन है।…ईसाइयों में परमात्मा को तीन रूपों में माना गया है। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा। जैसे हिंदू त्रिमूर्ति मानते हैं, ऐसे ईसाई ट्रिनिटी मानते हैं। परमात्मा के तीन रूप। तो उन्होंने कहा, हमने सुना है कि परमात्मा के तीन रूप हैं, और फिर हमने देखा कि हम भी तीन हैं, सो हमने एक प्रार्थना बना ली कि तुम भी तीन, हम भी तीन, अब हम पर कृपा करो! प्रधान पुरोहित तो सुनकर चौंका! ऐसी प्रार्थना उसने कभी सुनी नहीं थी। तुम भी तीन, हम भी तीन, हम पर कृपा करो। यू आर थ्री, वी आर थ्री, हेव मर्सी अपान अस।

पुरोहित ने कहा, बंद करो यह बकवास। यह प्रार्थना नहीं है। तुम मजाक कर रहे हो परमात्मा का, व्यंग्य उठा रहे हो! मैं तुम्हें प्रार्थना बताता हूं। उसने पूरी जो उसके चर्च की नियमित—सरकारी प्रार्थना थी…सरकारी प्रार्थनाएं होती हैं, सरकारी संत होते हैं, बड़ी दुनिया अदभुत है!

अंग्रेजी में तो संत शब्द का जो रूप है, सेंट, बहुत—से लोग सोचते हैं कि वह हिंदी के संत या संस्कृत के संत का ही रूपांतरण है। गलत सोचते हैं। अंग्रेजी में जो शब्द है, सेंट, उसका संत शब्द से कोई संबंध नहीं है, उसका संबंध है सेंक्शन से। सरकार के द्वारा प्रमाणित। जिसके पास प्रमाणपत्र है, वह संत है।

तो उन्होंने कहा कि बंद करो, यह रही प्रार्थना! लंबी प्रार्थना थी, उन तीनों ने सुनी और कहा, एक दफा और कह दें, नहीं तो हम भूल जाएंगे। दुबारा कही। फिर उन्होंने कहा, एक बार और कह दें, नहीं तो हम भूल जाएंगे। तीन बार कही। उन्होंने धन्यवाद दिया। पुरोहित बड़ा प्रसन्न कि इनको रास्ते पर लगा दिया। चला अपनी नाव में। मांझियों ने पतवार उठाईं।

जब वह बीच झील में पहुंचा तो देखकर सब हैरान हुए, मांझी भी हैरान हुआ, पुरोहित भी हैरान हुआ, वे तीनों फकीर झील पर भागते चले आ रहे थे। छाती दहल गई उसकी। झील पर चलते हुए उसने सिर्फ कहानी सुनी थी कि जीसस चले थे एक बार। उसका भी उसे कभी पक्का भरोसा नहीं आया था कि जीसस कभी चले होंगे झील पर, कि पानी पर कोई चल सकता है। मगर अपनी आंखों से देखा, आंखें मींड़कर देखा, मांझी से पूछा कि तू देख रहा है यह क्या हो रहा है? उसने कहा, मैं भी देख रहा हूं, मैं भी उतना ही चौंका हूं जितना आप चौंके हैं। आपको तो नहीं चौंकना चाहिए। आप तो मानते हैं कि जीसस चले थे। तो चलना हो सकता है। मैं तो साधारण आदमी हूं, मैं तो बहुत चौंक गया हूं। मैं तो बहुत घबड़ा गया हूं, मेरे हाथ—पैर कंप रहे हैं। ये पता नहीं अब क्या करेंगे तीनों आकर? वे तीनों दौड़ते हुए आकर बगल में खड़े हो गए नाव के, हाथ जोड़कर उन्होंने कहा, एक बार और कह दें प्रार्थना, हम भूल ही गए! इसलिए हमें आना पडा, आपको फिर कष्ट दे रहे हैं। अब तो पुरोहित की जबान लड़खड़ा गई। अब इनसे क्या प्रार्थना कहे! झुक गया उनके चरणों में और कहा, मुझे क्षमा करो, तुम्हारी प्रार्थना ही ठीक है, तुम अपनी ही प्रार्थना जारी रखो, वह तुम्हारी हार्दिक है। हालांकि उस शब्दों में कुछ भी नहीं है, जो तुम दोहरा रहे हो, लेकिन तुम्हारे प्राण जरूर होंगे। अन्यथा यह चमत्कार जो मैं अपनी आंख से देख रहा हूं! मेरी इतनी आस्था नहीं है कि मैं प्रार्थना के बल पर पानी पर चल जाऊं, हालांकि मैं भी यह प्रार्थना जन्मभर से दोहरा रहा हूं। तुम जीते, मैं हारा। तुम मुझे क्षमा कर दो! तुमने मेरी आंखें खोल दीं। मैं अंधा था, तुमने मुझे आंखें दीं। मैं बहरा था, तुमने मुझे कान दिए। मुझे शास्त्रों का अब तक कोई पता नहीं था, आज पहली बार तुमने मुझे शास्त्र की अनुभूति दी, सत्य दिया।

विरह की अवस्था, कैलाश, कोई शास्त्रीय बात नहीं है! ऐसा नहीं कि बैठे हैं, माला जप रहे हैं, राम—राम जप रहे हैं, ढोंग कर रहे हैं, विरह की अवस्था हार्दिक है। तुम्हारे भीतर प्राण तड़फें, जैसे मछली तड़फ जाए पानी से खींचकर उसे किनारे पर डाल दो तो। जैसे किसी पक्षी को पिंजड़े में बंद कर दो, वह पर फड़फड़ाए। ऐसे जब तुम्हारे प्राण पर फड़फड़ाएं, ऐसे जब तुम्हारे प्राण मीन की तरह, मछली की तरह धूप में तट पर तड़फें, तब जानना कि विरह की अवस्था है। और एक ही याद रह जाए, सब याद भूल जाए, एक ही परमात्मा की स्मृति रहे, अपनी भी याद भूल जाए, तो जिस घड़ी ऐसी प्रज्वलित प्यास तुम्हारे भीतर होगी, मिलन घट जाता है। विरह की परम अवस्था ही मिलन है। इसलिए उससे गुजरना तो होगा ही।

तुम्हारे प्रश्न से ऐसा लगता है कि मिलन तो तुम चाहते हो और विरह से बचना चाहते हो।

पूछते हो, क्या प्रभु—मिलन में विरह—अवस्था से गुजरना आवश्यक है? तुम्हारे इरादे नेक नहीं। तुम्हारी नीयत साफ नहीं। तुम चाहते हो कि कोई ऐसा रास्ता मिल जाए कि विरह से बचकर निकल जाएं। तुम चाहते हो कीमत न चुकानी पड़े और परमात्मा मिल जाए। तुम चाहते हो पैर में कांटा न गड़े और यात्रा पूरी हो जाए। तुम जरा भी मूल्य चुकाने को तैयार नहीं मालूम होते। तुम मुफ्त पाना चाहते हो।

और ध्यान रखना, परमात्मा मुफ्त नहीं मिलता।

मेरा मतलब यह नहीं है कि परमात्मा धन से मिलता है। मेरा मतलब यह नहीं कि तुम परमात्मा को बाजार में खरीद सकते हो। मेरा मतलब यह है कि परमात्मा को पाने के लिए स्वयं को अर्पण करना होता है। धन, पद, प्रतिष्ठा देने से नहीं, अपने प्राणों को समर्पित करने से परमात्मा मिलता है। प्राणों से जो कीमत चुकाने को तैयार है, बस मिलन उसके लिए ही संभव है। जिस दिन मिलन होगा, उस दिन तुम जानोगे कि जो तुमने चुकाया, वह कुछ भी नहीं, दो कौड़ी था, और जो तुमने पाया, वह अनंत है। जैसे दो कौड़ियों में किसी को कोहनूर हीरा मिल जाए। मगर कोहनूर हीरे की परख चाहिए न! अगर परख न हो—अगर तुम्हारे भीतर पारखी न हो—तो शायद तुम दो कौड़ियों को बचाओ और हीरे को छोड़ दो।

मैंने सुना है, एक कुम्हार को रास्ते के किनारे एक हीरा मिल गया। बड़ा हीरा! चमकदार पत्थर समझकर, कि सोचकर कि चलो उठा लो, और तो उसे कुछ उपयोग सूझा नहीं, अपने गधे के गले में लटका दिया। कुम्हार था, गधे ही से प्रेम था, गधे ही से दोस्ती थी, गधे ही को सजाने की इच्छा रहती थी, चलो अच्छा हुआ। लाखों का हीरा, गधे के गले में लटका दिया!

गधे पर लादकर बर्तन—भांडे बाजार की तरफ जा रहा था कि एक जौहरी की नजर पड़ी। उसने बहुत हीरे देखे थे मगर इतना बड़ा हीरा नहीं देखा था। और गधे के गले में लटका! और कुम्हार गधे को हांक रहा है, बर्तन—भांडे लादे हुए हैं! यह गधा तो सम्राटों से भी ज्यादा कीमती है। उस जौहरी ने कहा, रुक भाई! समझ गया कि इसको कुछ पता नहीं है कि यह क्या है। कहा, इस पत्थर का क्या लेगा? इस चमकदार पत्थर का क्या लेगा? कुम्हार ने बहुत सोचा, कहा—अच्छा, आठ आने दे दो! बड़ी हिम्मत करके आठ आने मांगे उसने। कौन देगा आठ आने पत्थर के? जौहरी भी रहा होगा महा कंजूस। उसने कहा, आठ आने! शर्म नहीं आती! इस पत्थर के आठ आने! दो आने ले लो! चल तीन आने ले ले! आखिरी, चार आने ले ले! फिर जौहरी ने सोचा, देगा ही यह! चार आने भी कौन इसको देने वाला है? जौहरी थोड़ा दो—चार—दस कदम आगे चला गया, यह सोचकर कि यह खुद ही अपने—आप पुकारेगा। लेकिन चूंकि नहीं पुकारा कुम्हार ने, तो जौहरी को लौटकर आना पड़ा, लेकिन तब तक चूक हो चुकी थी। एक दूसरे जौहरी की नजर पड़ गई और उसने एक रुपए में पत्थर खरीद लिया।

अब तुम सोच सकते हो, पहले जौहरी की छाती पर सांप लोट गए हों! छाती धक से रह गई होगी! हाथ आई परम संपदा गंवा दी! लाटरी अपने—आप खुली जा रही थी, सिर्फ चार आने के पीछे गंवा दी! ईष्या से जल—भुन गया दूसरे जौहरी को देखकर। कुम्हार से कहा, अरे नासमझ, अरे मूढ़, तुझे इतनी भी अकल नहीं है कि यह लाखों का हीरा और तूने एक रुपए में बेच दिया! उस कुम्हार ने कहा, मैं मूढ़ हूं सो जाहिर है। नहीं तो कुम्हार न होता। मगर तुम्हारी मूढ़ता का क्या कहें? तुमने यह हीरा लाखों का चार आने में छोड़ दिया! तुम तो जौहरी हो, तुम तो जानते थे, तुम तो पहचान गए थे! मेरे लिए तो पत्थर था। मेरे लिए तो आठ आने की जगह रुपया मिला तो दुगुने दाम मिले। लेकिन तुम अपनी तो सोचो! तुम्हें मैं आठ आने में दे रहा था; तुम आठ आने में लेने को राजी न हुए!

अभी तो लग सकता है कि विरह में हम जो दे रहे हैं, वह बड़ा कीमती है। क्योंकि हमें परख नहीं है। हम जौहरी नहीं हैं। जिन्होंने जाना है परमात्मा को, वे तो कहते हैं: हमारे पास देने को ही क्या है! जो है, उसका है, हमारा क्या है! त्वदीयं वस्तु,…तेरी ही चीज है, तुभ्यमेव समर्पये, तुझको ही समर्पित कर रहे हैं। इसमें अपना लेना—देना क्या है? यह जीवन भी तो उसी का है। ये आंखें और ये आंसू और यह हृदय, ये सब तो उसी का है। उसका ही उसको लौटाते हैं। कैसी कृपणता पकड़ रही है!

नहीं, कैलाश, इस भाव को विदा करो! विरह अवस्था से नाचते हुए गुजरो, गीत गाते हुए गुजरो, उत्सव—मनाते हुए गुजरो। यह विरह अवस्था भी तो उसी की है। उसके लिए ही है। यह पीड़ा भी तो उसीकी ओर इशारा कर रही है। ये आंसू भी तो उसके ही चरणों में झर—झर झर रहे हैं। कंजूसी करोगे, कृपणता करोगे, बच जाना चाहते हो? मुफ्त पा लेना चाहते हो। कुछ न लगे। एक आंसू भी न झरे। तो फिर तुम नहीं पा सकोगे। फिर असंभव है। फिर बात ही छोड़ दो। फिर धन कमाओ, राजनीति की सीढ़ियां चढ़ो, अपने घर में टांग लो दिल्ली दूर नहीं है तख्ती पर लिखकर, दिल्ली पहुंचने को लक्ष्य बनाओ!

और मजा यह है कि दिल्ली पहुंचने वाले लोग सब चढ़ा देने को राजी हैं, सब समर्पित कर देने को राजी हैं। धन के दीवाने क्या नहीं दांव पर लगा देते? सारा जीवन दांव पर लगा देते हैं। धन के दीवाने यह नहीं पूछते कि बिना दांव पर लगाए धन मिल सकेगा? आखिर सिकंदर ने सब दांव पर लगाया या नहीं? अपना पूरा जीवन गंवाया या नहीं? कौड़ी—कौड़ी लोग इकट्ठी करते हैं और कभी नहीं पूछते कि इन कौड़ियों में हम जो इकट्ठा कर रहे हैं, वह इकट्ठा करने योग्य है भी या नहीं? लेकिन विरह के संबंध में बहुत बार लोग पूछते हैं कि क्या परमात्मा को पाने के लिए रोना पड़ेगा?

मगर रोना भी सिर्फ उन्हीं को रोना मालूम होता है जिन्हें परमात्मा से सच में कोई लगाव नहीं है। जिन्हें लगाव है, वे तो धन्यभागी समझते हैं। उसके मार्ग पर अगर आंसू भी बहे तो आंसू भी अमृत हैं। उसे पाने की तलाश में अगर कांटे भी मिले तो कांटे भी फूल हैं। उसे पाते—पाते अगर पत्थरों की भी वर्षा हो गई तो मोती—माणिक ही बरसे।

मिलन इतनी बड़ी घटना है कि हजार विरह सहे जा सकते हैं।

 

दूसरा प्रश्न:

 

भगवान, मैं मृत्यु की तो बात और, मृत्यु शब्द से भी डरती हूं। मृत्यु से कैसे छुटकारा हो सकता है?

 

कुसुम रानी! मृत्यु से तो छुटकारा नहीं हो सकता। मरना तो पड़ेगा! मृत्यु तो जन्म के ही सिक्के का दूसरा पहलू है। जब जन्म ले लिया, जब सिक्के का एक पहलू ले लिया, तो अब दूसरे पहलू से कैसे बचा जा सकता है? मृत्यु तो जन्म में ही घट गई। सत्तर साल तो तुम्हें पता लगाने में लगेंगे, बस, घट तो चुकी ही है।

जिस दिन बच्चा पैदा होता है, उसी दिन रो लेना; मृत्यु तो आ गई। अब जीवन में और कुछ हो या न हो, एक बात पक्की है: मृत्यु होगी। अदभुत है जीवन! इसमें मृत्यु के सिवाय और कुछ भी सुनिश्चित नहीं है। सब अनिश्चित है; हो या न हो; हो भी सकता है, न भी हो; मगर मृत्यु तो होगी ही। कितने ही भागो और कितने ही बचो, मृत्यु से न कोई बच सकता है और न कोई भाग सकता है।

और जितने डरोगे, उतने ही मरोगे।

मृत्यु तो एक बार आती है, मगर डरने वाले को रोज प्रतिपल खड़ी है, गला दबोचे। डरने वाला तो जी नहीं पाता, सिर्फ मरता ही मरता है। कहते हैं, वीर की मृत्यु तो एक बार होती है, कायर की हजार बार। ठीक कहते हैं। कहावत अर्थपूर्ण है।

तू कहती है, मैं मृत्यु की तो बात और, मृत्यु शब्द से भी डरती हूं। तेरा ही ऐसा नहीं है मामला, अधिक लोगों का मामला ऐसा है। मृत्यु शब्द से ही लोग डरते हैं। इसलिए मृत्यु शब्द को बचाकर बात करते हैं। कोई मर जाता है तो भी हम सीधा—सीधा नहीं कहते। कहते हैं: स्वर्गीय हो गए। ऐसा नहीं कहते कि मर गए। सभी स्वर्गीय हो जाते हैं। तो फिर नरक कौन जाता है? जिनको तुम भलीभांति जानते हो कि वे नारकीय ही हो सकते हैं—शायद नर्क में भी जगह मिले कि न मिले; शायद नर्क के भी योग्य न समझे जाएं—उनको भी तुम कहते हो: स्वर्गीय हो गए। स्वर्गीय मीठा शब्द है। मृत्यु के ऊपर शक्कर पोत दी। जहर की गोली को मीठा कर लिया।

अदभुत—अदभुत शब्द लोगों ने खोज निकाले हैं। परम यात्रा पर चले गए। मर गए हैं, मगर लोग कहते हैं: परम यात्रा पर चले गए। मर गए हैं, लोग कहते हैं: प्रभु के प्यारे हो गए। प्रभु का कभी उन्होंने नाम न लिया, प्रभु को उन्होंने कभी प्रेम न किया, और अब मर गए हैं तो प्रभु के प्यारे हो गए! ये तरकीबें हैं मृत्यु शब्द से बचने की, कि कहीं उस शब्द का उपयोग न करना पड़े। उस शब्द को हम बचाते हैं। जैसे ही कोई मर जाता है, लोग आत्मा की अमरता की बातें करने लगते हैं। कि आत्मा अमर है। अरे, कहीं कोई मरता है! शरीर तो बस वस्त्र की भांति है। पुराने वस्त्र जीर्ण—शीर्ण हो जाते हैं, गिर जाते हैं, नए वस्त्र मिल जाते हैं। और जो ये बातें कर रहे हैं, उनकी छाती धड़क रही है; वे घबड़ा गए हैं। क्योंकि हर किसी की मौत तुम्हारी मौत की खबर लाती है। किसी की भी मौत हो, तुम्हारी मौत की खबर मिलती है।

हम अच्छे—अच्छे शब्द बनाकर जो मर गया उसको धोखा नहीं दे रहे हैं—वह तो मर ही गया—हम अपने को धोखा दे रहे हैं। हम अपने को समझा रहे हैं कि मृत्यु नहीं होती।

पश्चिम में तो इसके लिए पूरा धंधा चल पड़ा है। जब कोई मर जाता है, तो जितनी उसकी हैसियत हो, उसके घरवालों की हैसियत हो, उतना खर्च किया जाता है उसके मरने के बाद। उसके शरीर को सजाया जाता है। अगर स्त्री हो तो लिपिस्टिक, बाल, सुंदर—सुंदर कपड़े, बड़ा सुंदर ताबूत, बहुमूल्य ताबूत। कहते हैं, पश्चिम में कला इतनी विकसित हो गई है मुर्दों को सजाने की, उसके विशेषज्ञ हैं, जो हजारों रुपया फीस पाते हैं। लाश को सजाने की! फिर लाश सज गई, फूल चढ़ गए, फिर लोग देखने आते हैं। अंतिम बिदाई दे रहे हैं। तो उनके लिए धोखा दिया जा रहा है। मुर्दे के गाल पर लाली पोत दी गई है, लिपिस्टिक लगा दिया गया है, बाल ढंग से सजा दिए गए हैं—नहीं थे तो नकली बाल लगा दिए हैं, सुंदर कपड़े पहना दिए गए हैं, फूलमालाएं, ऐसा लगता है जैसे व्यक्ति मरा ही नहीं, जिंदा है। जैसे किसी बड़ी महायात्रा पर जा रहा है, महा—प्रस्थान के पथ पर।

ऐसी मैंने एक घटना सुनी है। एक आदमी मरा। उसको खूब सजाया—बजाया गया। बड़ा आदमी था, धनपति था। लोग देखने आए, अंतिम विदा होने आए। एक दंपति आया। पत्नी ने कहा, देखते हो? कितना सुंदर मालूम हो रहा है यह व्यक्ति! कितना शालीन, कितना शांत! कितना प्रसादपूर्ण! पति ने कहा, हो भी क्यों नहीं, अभी—अभी छह महीने स्विटजरलैंड होकर आया है!

छह महीने स्विटजरलैंड टी. वी. की चिकित्सा कराने गया था बेचारा! वहीं मर गया। वहां से लाश लाई गई। पति ने कहा, हो भी क्यों नहीं, अभी—अभी छह महीने स्विटजरलैंड का मजा लेकर लौट रहा है। स्विटजरलैंड की हवा और स्विटजरलैंड की ताजगी और स्विटजरलैंड के पहाड़ और मौसम, हो भी क्यों न!

मुर्दे को हम इस तरह छिपा सकते हैं कि जिंदा आदमी कोर् ईष्या होने लगे। यह पति इस तरह बोल रहा है जैसे गहरीर् ईष्या से भर गया हो।

लेकिन मृत्यु में डरने योग्य है क्या? मृत्यु तुमसे छीन क्या लेगी? तुम्हारे पास है क्या जो छिन जाएगा? कुसुम रानी, कभी शांति से बैठकर आंख बंद करके यह सोचना कि मृत्यु आएगी तो तुम्हारा छिन क्या जाएगा? तुम्हारे पास है भी क्या? सांस नहीं चलेगी। तो चलने से भी क्या हो रहा है? भीतर गई, बाहर आई, नहीं आएगी, नहीं जाएगी, तो क्या हो रहा है? आने—जाने ही से क्या हुआ था? ये धुक—धुक—धुक—धुक जो हृदय चल रहा है, यह नहीं चलेगा। तो चलने ही से कौन—सी बड़ी महिमा हो रही है? अभी चलने से तुम्हें कौन—सा मजा आ रहा है? कौन—सा आनंद बरस रहा है? इस जीवन में तुम्हारे है क्या जो तुम खोने से डरते हो? यह प्रश्न सोचने जैसा है और इसलिए सोचने जैसा है क्योंकि तुम डरते ही इसलिए हो कि तुम्हारे जीवन में कुछ नहीं है।

तुम्हें बड़ी बात बेबूझ लगेगी। विरोधाभासी लगेगी। लेकिन ठीक से समझने की कोशिश करना।

तुम्हारे जीवन में कुछ नहीं है, इसलिए मृत्यु का डर लगता है। क्यों? क्योंकि अभी कुछ भी तो नहीं मिला और मौत कहीं आकर बीच में ही समाप्त न कर दे! अभी हाथ तो खाली के खाली हैं। अभी प्राण तो रिक्त के रिक्त हैं। और कहीं ऐसा न हो कि परदा बीच में ही गिर जाए! अभी नाटक पूर्णाहुति पर नहीं पहुंचा। अभी कुछ भी तो जाना नहीं, कुछ भी तो जीया नहीं। अभी ऐसी कोई भी तो तृप्ती नहीं है। कोई तो ऐसा संतोष नहीं मिला कि कह सकें कि जिंदा थे। जीवन की अभी कोई सौगात नहीं मिली। और मौत कहीं आकर एकदम से पटाक्षेप न कर दे! नहीं तो खाली रहे और खाली गए।

मैं यह कहना चाहता हूं कि मौत से कोई नहीं डरता, तुम्हारी जिंदगी खाली है, इसलिए मौत का डर लगता है। भरे हुए आदमी को मौत का डर नहीं लगता। बुद्ध मृत्यु से नहीं डरते। जीसस मृत्यु से नहीं डरते। मुहम्मद मृत्यु से नहीं डरते। मृत्यु का सवाल ही नहीं है। जीवन इतना भरा—पूरा है, इतना अहोभाव से भरा है, इतनी धन्यता से, इतना भरपूर है कि अब मौत आए तो आ जाए! कल आती हो तो आज आ जाए! आज आती हो तो अभी आ जाए! इतनी परितुष्टि है कि जो पाने योग्य था पा लिया गया, अब मौत क्या बिगाड़ेगी? जो जानने योग्य था जान लिया गया, अब मौत क्या छीन लेगी?

और जानने योग्य क्या है? स्वयं की सत्ता जानने योग्य है। स्वयं की चैतन्य अवस्था पहचानने योग्य है। आत्मा का धन पाने योग्य है। क्योंकि उसी धन को पाकर परमात्मा मिलता है। जिसने अपने को पहचाना, उसने परमात्मा को पहचाना।

कुसुम रानी, मृत्यु के साथ नाहक भय के संबंध न जोड़ो। जीवन से प्रेम के संबंध जोड़ो, मृत्यु के साथ भय के संबंध मत जोड़ो। जीवन को जीओ उसकी अखंडता में, उसकी समग्रता में और उसी जीने में, उसी जीने के उल्लास में मृत्यु तिरोहित हो जाती है। शरीर तो मरेगा ही मरेगा, शरीर तो मरा ही हुआ है; जो मरा ही हुआ है, वह मरेगा। लेकिन तुम्हारे भीतर जो चैतन्य है, वह तो कभी जन्मा नहीं, इसलिए मरेगा भी नहीं। उससे पहचान करो। यह मत पूछो कि मृत्यु से कैसे छुटकारा हो सकता है? तुम्हारे भीतर जो असली तत्व है, वह तो मृत्यु के पार है ही, छुटकारे की जरूरत नहीं है। और जो मृत्यु के घेरे में है, तुम्हारी देह, उसका छुटकारा हो सकता नहीं।

तुम्हारे भीतर दो हैं।

उपनिषद कहते हैं: जैसे एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं। एक ऊंची शाखा पर बैठा है—सिर्फ बैठा है, देख रहा है, बस देख रहा है। न हिलता, न डोलता, जैसे पत्थर की मूर्ति, बस देख रहा है। और एक नीचे की शाखाओं पर फुदक रहा है। इस शाखा से उस शाखा पर। इस फल में चोंच मारता है, उस फल में चोंच मारता है।

यह सुंदर प्रतीक है। यह तुम्हारे संबंध में कहानी है। ये दो पक्षी तुम्हारे भीतर बैठे हैं। एक ऊपर की शाखा पर, द्रष्टा, साक्षी; और एक नीचे की शाखा पर, भोगी। इधर चोंच मारता, उधर चोंच मारता। यह भोगी तो मरेगा। यह नीचे की शाखा का पक्षी तो आज नहीं कल गिरेगा। मगर वह जो ऊपर की शाखा पर बैठा है, वह शाश्वत है। तुम्हारे भीतर एक साक्षी है—सबका द्रष्टा—जो तुम्हारी देह को भी देखता है, तुम्हारे मन को भी देखता है; वह देखने वाला कभी दृश्य नहीं बनता। दृश्य मरेगा, द्रष्टा अमृत है। दृश्य को बचाया नहीं जा सकता। बना है, मिटेगा। पानी का बबूला है, अभी गया, अभी गया; अभी है, अभी नहीं है; लेकिन इस पानी के बबूलों को देखने वाला एक तुम्हारे भीतर मौजूद है। ऊपर की शाखा पर बैठा हुआ पक्षी, साक्षी मात्र। उसे ही ध्यान कहो, उसे भजन कहो—जो तुम्हारी मर्जी हो वह नाम दे दो! भक्त उसे भजन कहता है, भगवान की स्मृति कहता है; ज्ञानी—ध्यानी उसे साक्षी कहता है। लेकिन अर्थ एक ही है। जिस दिन तुम्हारी उससे पहचान हो जाएगी, उसी दिन फिर कोई मृत्यु नहीं है।

आज दीवाली की वेला, घर—घर दीपों की साल गिरह है,

पर तुम तो अपने महलों में, चिर—अंधियार किए बैठी हो।

 

ऐसी ढेर उदासी जैसे हंसी न जीवन भर आई हो,

इतनी बुझी बुझी सी सांसें, जैसे कभी न गरमाई हो,

बनवासी सा वेश बनाए ओढ़े धूल पड़ा दर्पण है,

बिखरा—बिखरा सा सिंगार है, उतरा—उतरा सा यौवन है,

 

आज किसी रसिया के हाथों काजल अंजवाने की रितु है,

पर तुम तो अपने नयनों में मेघ—मल्हार लिए बैठी हो।

 

आज बहुत गुमगुम हो, शायद कल तक तो यह बात नहीं थी,

इतनी अंधी इतनी सूनी, यह पूनम की रात नहीं थी,

शोक सभा सी बोलो आखिर कौन खिलौना टूट गया है,

इन दीपों की हरियाई को कौन बवंडर लूट गया है।

 

बगिया में मधुमास खिला है, कली—कली पर तरुणाई है,

पर तुम तो जैसे कांटों को घाव उधार दिए बैठी हो।

 

तन की मजबूरी तो मन के समझाने से हट जाएगी,

कुछ आंसू में, कुछ आहों में सारी पीड़ा बंट जाएगी,

सपनों को हल्दी चढ़वा लो, फिर सायत जाने कब आए,

मौसम का कुछ ठीक नहीं है, किस क्षण क्या से क्या हो जाए,

 

घर—घर वंदनवार टंगे हैं, गीतों के सावन की संध्या—

पर तुम तो अपने होठों पर सौ अंगार लिए बैठी हो।

 

अब तो शव उठने दो आंगन से, दिन कब का डूब चुका है,

कब तक आंसू से खेलोगी, दर्द गले तक आ पहुंचा है,

दो दिन का रोना—धोना है, फिर यह चोट उमर ले लगी,

घाव न सबके आगे खोलो, दुनिया सौ—सौ नाम धरेगी,

 

लौट चुका है हर संसारी तट पर अपनी प्यास सिलाकर

पर तुम तो अब भी लहरों से कौल—करार किए बैठी हो।

 

यहां कौन रुक सकता है? इस तट पर कोई नहीं रुक सकता।

लौट चुका है हर संसारी तट पर अपनी प्यास सिलाकर

और यहां प्यास भी नहीं बुझती, ओंठ ही सी लेने पड़ते हैं।

कोई यहां रुक सकता नहीं। जाना ही पड़ेगा उस तट पर। लेकिन कुछ तुम्हारे भीतर है जो अभी भी उस तट पर है। देह इस तट पर, तुम उस तट पर। जिन ने जाना, उन्होंने ऐसा जाना है। एक तो यहां है, तुम्हारी देह, तुम्हारा दृश्य रूप; और एक वहां है, तुम्हारा अदेही, तुम्हारा अदृश्य रूप। तुम दो में से किसी के भी साथ तादात्म्य कर सकते हो। अगर तुमने देह के साथ तादात्म्य किया, तो मृत्यु का भय सताएगा। मृत्यु शब्द भी घबड़ाएगा। मृत्यु शब्द से भी मृत्यु की याद आती है न! शब्द—शब्द ही तो नहीं रह जाते, हमारे भीतर भावों को उमगाते हैं। जैसे अचानक कोई यहां आ जाए और चिल्लाने लगे: आग, आग…तो तुममें से बहुत—से उठकर खड़े हो जाएंगे, भागने की तैयारी करने लगेंगे। किसी सिनेमागृह में जब अंधेरा हो गया हो और फिल्म चल पड़ी हो, कोई चिल्ला दे: आग, आग…बस, भगदड़ मच जाएगी। फिर कोई लाख समझाए कि नहीं, मगर कोई भीतर नहीं रुकना चाहेगा। अनेकों को तो धुआं दिखाई पड़ने लगेगा, अनेकों को आग की लपटें दिखाई पड़ने लगेंगी। भगदड़ मच जाएगी। शायद भगदड़ में ही हो सकता है दो—चार के हाथ—पैर टूट जाएं, या कोई दबकर मर जाए। न आग है न कुछ है; सिर्फ शब्द! लेकिन शब्द भी तो हमारे भीतर अर्थ ले लेते हैं।

मृत्यु शब्द भी घबड़ाता है। हम उसे बातचीत के बाहर रखते हैं।

बर्ट्रेंड रसल ने लिखा है, कि मैं एक महिला को जानता था जो बड़ी आध्यात्मिक थी। उसके पति की मृत्यु हो गई तो बर्ट्रेंड रसल शोक—संवेदना प्रकट करने गया। बर्ट्रेंड रसल तो आत्मा इत्यादि में मानता नहीं था, नास्तिक था, लेकिन वह महिला तो आध्यात्मिक थी। तो उसने बातचीत में बातचीत छेड़ी और कहा कि आपका तो पक्का भरोसा होगा, आपके पति भी आध्यात्मिक थे, आप भी आध्यात्मिक हैं, आपका तो पक्का भरोसा होगा कि आपके पति स्वर्ग पहुंच गए हैं। उस महिला ने दुख और क्रोध से बर्ट्रेंड रसल की तरफ देखा और कहा, हां, निश्चय स्वर्ग पहुंच गए हैं। लेकिन इस तरह की बेचैन करने वाली बातें आप न छेड़ें तो अच्छा! स्वर्ग पहुंचने की बात और बेचैन करने वाली बात! अगर पति स्वर्ग पहुंच गए हैं तो इससे खुशी की और क्या बात हो सकती है? स्वर्ग से और बड़ा क्या आनंद है? एक तरफ तो कह रही है कि हां, निश्चय, पति मेरे स्वर्ग गए। और तत्क्षण दूसरी तरफ कह रही है कि ऐसी बेचैन करने वाली बातें छेड़ना शोभा नहीं देता।

मौत की खबर ही छाती को दहलाती है। तथाकथित अध्यात्मवादी भी मौत से डरे होते हैं।

इस देश में तो बहुत अध्यात्मवाद है! लेकिन जितने लोग इस देश में मौत से डरते हैं, शायद दुनिया में किसी देश में नहीं डरते। ये बड़ी विचारणीय बात है। नहीं तो एक हजार साल तक कोई तुम्हें गुलाम रख सकता था! अगर तुम मौत से न डरते होते!

कोई सचाइयां कहता नहीं तुमसे, कि तुम क्यों एक हजार साल गुलाम रहे! तुम्हारे थोथे अध्यात्म के कारण तुम एक हजार साल गुलाम रहे। तुम्हारे अध्यात्म में सचाई होती तो तुम्हें कौन गुलाम कर सकता था? तुम मरने को राजी हो जाते मगर गुलाम होने को राजी न होते। और करोड़ों के इस देश की कौन हत्या कर सकता था? जो आए थे, थोड़ी—बहुत संख्या लेकर आए थे। छोटी—मोटी सेनाएं थीं। फिर चाहे मुगल हों, चाहे तुर्क हों, चाहे हूण हों, चाहे यूनानी हों, छोटी—छोटी फौजें लेकर आए थे। उनका पूरा देश भी आ जाता तो भी यह देश इतना बड़ा है कि अगर वे लोग मारने में लगते, तो उनकी जिंदगी काटते—काटते कट जाती। तो भी इस देश को नहीं काट सकते थे। लेकिन इस विराट देश को गुलाम बनाने में किसी को भी क्षण भर की देरी न लगी।

कारण?

और फिर सदियों तक यह देश गुलाम बना रहा! कारण एक है: तुम्हारा अध्यात्म झूठा है। तुम्हारा अध्यात्म सिर्फ मौत के डर के कारण है। तुम मानते हो कि आत्मा अमर है क्योंकि तुम डरते हो मौत से, इसलिए मानते हो। यह तुम्हारी प्रतीति नहीं, यह तुम्हारा साक्षात्कार नहीं, यह तुम्हारा अनुभव नहीं, यह केवल शास्त्रीय ज्ञान है—उधार, बासा, दो कौड़ी का। इसका कोई मूल्य नहीं है। साक्षी को अनुभव करो। फिर तुम्हारे लिए कोई मृत्यु नहीं है।

तो या तो तादात्म्य हो जाएगा देह से, फिर मृत्यु है और फिर मृत्यु का डर भी लगेगा। और या तादात्म्य करो आत्मा से, जो कि तुम्हारी सच्ची नियति है, तुम्हारा स्वभाव है; फिर कोई भय नहीं है। फिर देह कट जाए, जल जाए, तो भी तुम जानते रहोगे: तुम्हें अग्नि जला नहीं सकती। नैनं दहति पावकः। शस्त्र छेद डालें तुम्हारी देह को, लेकिन तुम जानते रहोगे: नैनं छिंदंति शस्त्राणि। मुझे शस्त्र नहीं छेद सकते। और यह तुम गीता के शब्द दोहरा नहीं रहे होओगे। अगर गीता के शब्द दोहरा रहे हो, तो बेकार। यह तुम्हारा अनुभव होना चाहिए! और यह तुम्हारा अनुभव हो सकता है।

मुझसे यह मत पूछो, कुसुम रानी, कि मृत्यु से कैसे छुटकारा हो सकता है? छुटकारे में तो भय का भाव बैठा ही हुआ है। हां, मृत्यु से जागा जा सकता है। देह से तादात्म्य टूट जाए, यह मृत्यु से जाग जाना है। फिर कोई मृत्यु नहीं। फिर मृत्यु सबसे बड़ा झूठ है।

इस दुनिया में दो सबसे बड़े झूठ हैं। और वे दो नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक का नाम अहंकार है, दूसरे का नाम मृत्यु है। अहंकार है जब तक, तब तक मृत्यु है। जिस दिन अहंकार नहीं, उस दिन मृत्यु नहीं। अहंकार से जो मुक्त है, वह मृत्यु से भी मुक्त है।

क्योंकि अहंकार हमारा बनाया हुआ है, मिटेगा। देह संयोग है, बिखरेगा। लेकिन कुछ हमारे भीतर ऐसा है जो हमारा बनाया हुआ नहीं है, जिस पर परमात्मा की छाप है, जिस पर उसकी सील है, उसके हस्ताक्षर हैं; कुछ है हमारे भीतर जो पारलौकिक है, जो दूर—दिगंत से आता है, जो इस पृथ्वी का नहीं है, जो देह में जीता जरूर है लेकिन सिर्फ मेहमान है, अतिथि है; उस अतिथि को पहचान लो, फिर कोई मृत्यु नहीं है।

 

तीसरा प्रश्न:

 

भगवान, आप इतने प्रेम से समझाते हैं, पर मुझ अज्ञानी के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता। वैसे वेद, पुराण, गीता इत्यादि सब मेरी समझ में आ जाते हैं। फिर आप क्यों समझ में नहीं आते?

 

स्वरूपानंद, पहली तो बात, अज्ञानी तुम नहीं हो। वेद, पुराण, गीता इत्यादि सब तुम पढ़ चुके हो। तुम और अज्ञानी! विनम्रतावश कह रहे हो कि तुम अज्ञानी हो!

हम विनम्रतावश बहुत—सी बातें कहते हैं। उनको सच्चा मत मान लेना।

लोग आकर कहते हैं कि हम आपके चरणों की धूल। सच्चा मत मान लेना। नहीं तो वे तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेंगे। कोई तुमसे कहे कि मैं आपके चरणों की धूल, ऐसा मत कहना उससे कि बिलकुल ठीक कह रहे हो, मुझे पहले से ही मालूम कि आप चरणों की धूल हैं। आप बिलकुल सत्य कह रहे हैं। सत्य वचन, महाराज! ऐसा मत कहना, नहीं तो वह आदमी जिंदगी भर क्षमा नहीं करेगा। वह जिंदगी भर कोशिश करेगा कि तुमको दिखला दे कि तुम पैरों की धूल हो। लोग कहते हैं, मैं तो कुछ भी नहीं हूं, आपके समाने मैं क्या, लेकिन उनका भाव कुछ और है। वे यह कह रहे हैं: प्रशंसा करो मेरी विनम्रता की, सम्मान करो मेरे निरहंकार—भाव का! देखो क्या कह रहा हूं कि मैं तो कुछ भी नहीं!

एक चौराहे पर तीन ईसाई फकीर मिले। तीन अलग—अलग ईसाई संप्रदायों के अनुयायी थे वे। एक था केथोलिक। उसने कहा कि जहां तक ज्ञान का संबंध है, हमारे आश्रमवासियों का कोई मुकाबला नहीं। हमारे आश्रम की सारी साधना ही ज्ञान—साधना है। जैसे शास्त्रज्ञ हमारे आश्रम ने पैदा किए हैं और किसी आश्रम ने पैदा नहीं किए। इस बात को तो स्वीकार दुश्मनों को भी करना पड़ेगा। दूसरा था प्रोटेस्टेंट। उसने कहा, यह बात ठीक है। शास्त्रों में हमारी बहुत गति नहीं; हमारी बहुत रुचि भी नहीं। शास्त्रों में धरा क्या है? हमारा जोर तो त्याग पर है। त्याग ही असली धर्म है। और जहां तक त्यागत्तपश्चर्या, व्रत—उपवास का संबंध है, हमारा कोई मुकाबला नहीं। तीसरा, ईसाइयों का एक संप्रदाय है ट्रेपिस्ट, वह तीसरा मुस्कुराया और उसने कहा, हमारे पास तो न ज्ञान है, न त्याग है, लेकिन विनम्रता में हम से ऊपर कोई भी नहीं। विनम्रता में हमसे ऊपर कोई भी नहीं। विनम्रता में हमारा कोई मुकाबला नहीं।

विनम्रता में हमसे कोई ऊपर नहीं, ऐसी बात! तो तो फिर विनम्रता भी अहंकार की ही घोषणा हो गई। फिर तो विनम्रता भी अहंकार का ही आभूषण हो गई। फिर तो विनम्रता अहंकार का नया बचाव हो गई, नया छिपाव हो गई। और सबसे सुंदर छिपाव। दिखाई ही नहीं पड़ेगा, अहंकार ऐसा छिपा; अब तुम इसे पकड़ ही नहीं पाओगे, ऐसा सूक्ष्म हो गया।

स्वरूपानंद, ऐसा तो कहो ही मत कि मैं अज्ञानी हूं। अज्ञानी होना आसान मामला नहीं है। अज्ञानी होना बड़ी साधना है। उनको मैं अज्ञानी नहीं कहता जिन्होंने गीता, वेद, कुरान नहीं पढ़े हैं। वे अपढ़ हैं। और उनको मैं ज्ञानी नहीं कहता, जिन्होंने वेद, कुरान, बाइबिल पढ़े हैं। वे पठित हैं। अज्ञानी तो मैं कहता हूं सुकरात जैसे व्यक्ति को, जिसने अपने मरने के पहले कहा कि मैं सिर्फ एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता। यह है अज्ञानी। मगर ऐसा अज्ञान ही तो ज्ञान का पहला चरण है। जो यह कह सके कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं और कह ही न सके, ऐसी उसकी प्रतीति हो; यह भी अहंकार का दावा न हो, यह अहंकार का विसर्जन हो, तो फिर ज्ञान अपने—आप बरस जाता है।

अज्ञान ज्ञान से मुक्त होने से मिलता है। अज्ञान ज्ञान से ऊपर की अवस्था है। उपनिषद ठीक कहते हैं, उपनिषदों में एक बहुत अदभुत वचन है, जैसा दुनिया के किसी भी शास्त्र में कहीं भी नहीं है। उपनिषदों में एक वचन है कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं, लेकिन ज्ञानी और महा अंधकार में भटक जाते हैं। अज्ञानी भटकते हैं, यह तो समझ में आने वाली बात है। ये सभी साधु, संत, पंडित, पुरोहित करते हैं: ज्ञानी भटकते हैं, लेकिन उपनिषद कहता है कि ज्ञानी तो और महा अंधकार में भटक जाते हैं। कौन ज्ञानियों की बात हो रही है? पांडित्य; थोथा, उधार, बासा।

तुम पढ़ लेते होओगे वेद, पुराण और गीता और समझ भी लेते होओगे, लेकिन जब तुम वेद पढ़ते हो तो तुम वेद के ऋषियों को समझ सकते हो? वेद के ऋषियों को समझने के लिए वेद के ऋषियों की चेतना चाहिए, उनके साक्षी का अनुभव चाहिए। उनकी ऋचाएं समझने के लिए ऋषि हुए बिना और कोई उपाय नहीं। क्या समझोगे तुम वेद को? स्वरूपानंद, तुम वही समझ लोगे जो तुम समझ सकते हो। ऋषियों ने क्या कहा है, उसकी तो तुम्हें झलक भी न मिलेगी, तुम अपने ही अर्थ निकाल लोगे। और कुछ संभव भी नहीं है। तुम सोचते हो दस लोग वेद को पढ़ेंगे तो एक ही अर्थ निकालेंगे? दस अर्थ निकालेंगे। गीता पर एक हजार टीकाएं हैं। या तो कृष्ण का मस्तिष्क खराब था कि एक हजार अर्थ! और या फिर कृष्ण का तो एक ही अर्थ रहा था, लेकिन निकालने वालों ने हजार निकाल लिए। शब्द तो अवश है। तुम उसे उलटा करो, सीधा करो, धक्का मारो इधर से, उधर से, खींचत्तान करो, तुम जो भी अर्थ निकालना चाहो निकाल लो।

एक मनोवैज्ञानिक ने छोटे बच्चों को शिक्षा देने के लिए एक स्कूल खोला। उसका विचार था कि बच्चों को उनकी गलती पर दंड नहीं मिलना चाहिए; इससे उनकी प्रतिभा नष्ट होती है। उसने अखबारों में विज्ञापन निकलवाया कि शिक्षक पद हेतु ऐसे सज्जन की आवश्यकता है जो शांतिप्रिय, वात्सल्यपूर्ण और क्षमावान हों। इंटरव्यू के लिए जो पहला उम्मीदवार आया, वह था मुल्ला नसरुद्दीन—लाल लंगोट लगाए, मूंछों पर ताव देता हुआ।

मनोवैज्ञानिक ने उसके पहलवानी रंग—ढंग देखकर कहा: महाशय जी, क्या आपने विज्ञापन को ठीक से पढ़ा था?

मुल्ला क्रोधपूर्ण नजरों से उसे घूरते हुआ बोला: हां, पढ़ा था; तभी तो यहां आया हूं। वरना मुझे यह पता भी न था कि तुम्हारे जैसे गीदड़ भी शहर के इस कोने में रहते हैं।

मनोवैज्ञानिक तो घबड़ा गया। डरते हुए उसने पूछा: माफ करिए, भाई साहब! मैंने शांतिप्रिय, वात्सल्यपूर्ण और क्षमावान सज्जन को इंटरव्यू के लिए बुलाया था; क्या आपके पास कोई प्रमाण है कि आप में ये गुण हैं?

एक नहीं, सैकड़ों प्रमाण हैं—नसरुद्दीन ने ताल ठोंककर जवाब दिया—मेरी पड़ोसिन का नाम शांति है, और मुझे वह प्रिय लगती है, अतः मैं शांतिप्रिय हूं। पिछले बीस वर्षों में मैंने खुद की बीबी से बारह और अन्य औरतों से करीब डेढ़ सौ बच्चे पैदा किए हैं, अतः आप सोच ही सकते हैं कि कैसा अति मानवीय वात्सल्य भाव मुझमें है! विगत तीस सालों में लगभग तीन सौ जगह नौकरी कर चुका हूं; हमेशा अधिकारियों से दंगा—फसाद और मारपीट हुई। अंततः वे बोले, भाई साहब, हमें क्षमा करो, कहीं और जाकर काम करो। और हर बार मैंने उन्हें क्षमा कर दिया। अर्थात मैं क्षमावान सिद्ध हुआ। और रही सज्जन होने की बात। तो सुन बे, मरियल चूहे, यदि मैं सज्जन न होता, तो प्रमाण पूछने के दुस्साहस पर अब तक तेरी टांगें न तोड़ देता!

अर्थ तुम क्या लगाओगे? अर्थ तुम कैसे लगाओगे? अर्थ तो तुम्हारे होंगे। वेद तो जरूर पढ़ोगे, मगर वेद के बहाने अपने को ही पढ़ोगे। किताबों तो दर्पण हैं, तुम्हारे चेहरे तुम्हें दिखा देंगी।

मैंने सुना कि मुल्ला नसरुद्दीन को रास्ते पर चलते हुए एक आइना मिल गया। उसे आइना पहली दफा मिला। उसने आइना नहीं देखा था। उठाकर आइना देखा। अरे, उसने कहा, बड़े मियां, यह तो मेरे पिताजी की तसवीर है! यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि पिताजी ऐसे शौकीन थे कि तस्वीर भी उतरवाएं। अच्छा हुआ मिल गई, घर में कोई तस्वीर भी नहीं पिताजी की, पिताजी तो चल बसे, सम्हालकर रख लूंगा। सम्हालकर ले आया, सोचा पत्नी को बताना ठीक नहीं। क्योंकि पत्नी को मेरे पिताजी से बहुत चिढ़ थी। फेंक—फांक देगी, आग लगा देगी। तस्वीर को बर्दाश्त न कर सकेगी। जब पिताजी मरे, उनकी मौत हुई, तो उसने लड्डू बांटे थे मुहल्ले में। सो छिपाकर वह ऊपर गया, एक पिटारी में उसने आइने को छिपाने की कोशिश की—लेकिन पत्नियों से कोई पति कभी कुछ छिपा पाया है? अब तक तो यह नहीं हुआ; सदियां बीत गई, मगर कोई पति पत्नी से कुछ नहीं छिपा पाया। हर पति छिपाने की कोशिश करता है, हर पति पकड़ा जाता है। वह जितनी कोशिश करता है, उसी में पकड़ा जाता है। कोशिश में ही दिखाई पड़ जाता है कुछ छिपा रहे हो।

मुल्ला नसरुद्दीन का चोरी—चोरी घर में घुसना, दबे पांव भीतर आना, पत्नी समझ गई कि कुछ मामला है! बची आंख देखती रही। मुल्ला जब खाना खा—पीकर सो गया तो ऊपर गई, खोली पिटारी, निकाला आइना, देखा और बोली—अच्छा, तो इस चुड़ैल के पीछे पड़ा है!

आइना तो उसी चेहरे को बता देगा जो उसमें झांकेगा। मुल्ला समझा पिताजी की तस्वीर, पत्नी समझी कि इस चुड़ैल के पीछे पड़ा है!

तुम वेद पढ़ोगे, स्वरूपानंद, तुम अपने को ही पढ़ोगे। तुम गीता पढ़ोगे, अपने को ही पढ़ोगे। तुम होश में कहां हो? तुम अभी बेहोश हो। तुम्हारी बेहोशी ही वहां झलकेगी। इसलिए कुरान—पुराण पढ़ना आसान है। क्योंकि कुरान रोक नहीं सकती, पुराण रोक नहीं सकता कि ठहरो स्वरूपानंद, तुम गलत पढ़ रहे हो; यह प्रयोजन नहीं है, यह अर्थ नहीं है। लेकिन जब तुम मेरे जैसे व्यक्ति के पास आओगे तो तुम मेरा वही अर्थ नहीं कर सकते जो तुम करना चाहोगे। मैं तुम्हें झकझोरूंगा। मैं तुम्हें बार—बार हिलाऊंगा। मैं तुम्हें रोज—रोज चोट करूंगा। मैं रोज—रोज तुम्हें समझाऊंगा कि यह नहीं मेरा अर्थ। जब तक तुम मेरा अर्थ नहीं समझ लोगे, तब तक मैं तुम्हें चैन से न जीने दूंगा।

एक शास्त्रीय संगीतज्ञ बड़ी धुन में गा रहे थे! और जैसे ही उनका गीत पूरा हो कि जनता में से आवाज आए: फिर से, फिर से! बड़े खुश हो रहे थे। फिर दुबारा गाएं। लेकिन जैसे ही गीत पूरा हो कि फिर जनता चिल्लाए: फिर से, फिर से! दुबारा भी गा दिया, तीसरी बार भी यही हुआ, जब चौथी बार जनता फिर चिल्लाने लगी: फिर से, फिर से, तो उन्होंने कहा, भाई, आगे का गीत गाने दोगे कि नहीं? तो एक आदमी जनता में से खड़ा हुआ, उसने कहा कि जब तक पहला ठीक से न गाओगे तब तक हम फिर से फिर से कहते ही रहेंगे।

किताब तो यह नहीं कर सकती! लेकिन जब तक मेरी बात तुम्हारी समझ में नहीं आएगी, मैं फिर से, मैं फिर से; लगा ही रहूंगा। मैं तुम्हें चैन से न जीने दूंगा, न चैन से बैठने दूंगा, न चैन से उठने दूंगा। मैं तुम्हारा पीछा करूंगा। दिन और रात। जब तक बात ठीक से समझ में न आ जाएगी, जब तक तुम ठीक से गाना न गाओगे। जरा भी भूल—चूक होती रही तो मेरी चोट जारी रहेगी। इसलिए तुम्हें अड़चन होती है।

तुम कहते, आप इतने प्रेम से समझाते हैं, पर मुझ अज्ञानी के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता। घबड़ाओ मत। मैं तुम्हारा पल्ला जोर से पकड़े हूं, छोडूंगा नहीं! जब तक समझ में न आ जाए तब तक मैं हारने वाला नहीं हूं। तुम कहते हो, वैसे वेद, पुराण, गीता इत्यादि सब मेरी समझ में आ जाते हैं। उन्हें समझना आसान है। क्योंकि वे तुम्हारा किसी तरह का विरोध नहीं कर सकते। तुम जो भी उन पर थोप दोगे, वही ठीक है। तुम अपनी बेहोशी उन पर थोपोगे। और तुम खूब बेहोश हो! तुम्हारे पास ध्यान नहीं है तो होश कहां?

मेरे पति इतने भुलक्कड़ हैं कि कल शाम को खिचड़ी खाते समय बोले, गुलजान! कब से खिचड़ी नहीं बनाई, एकाध दिन खिचड़ी बनाओ न!—मुल्ला नसरुद्दीन की बीबी ने अपनी पड़ोसिन को बताया।

यह तो कुछ भी नहीं, पड़ोसिन बोली, मेरे दार्शनिक पति प्रोफेसर भोंदूमल तो और भी गजब ढाते हैं! कल रात की ही बात कहूं। वे करीब ग्यारह बजे पुस्तकालय से वापस आए। मेरी नींद लग चुकी थी। उन्होंने आकर छाते को मेरे बाजू में पलंग पर लिटा दिया और खुद कमरे के कोने में जाकर टिककर खड़े हो गए। अब बोलो, इससे ज्यादा भुलक्कड़ और बेहोश आदमी कौन होगा? वह तो अच्छा हुआ, मेरी नींद करीब एक बजे खुल गई; और तब मैंने उन्हें बिस्तर पर लाकर सुलाया, वरना वे सारी रात खड़े रहते! अजीब बेहोश इंसान हैं! ऐसे मदहोशों से तो खुदा बचाए! गुलजान ने पूछा, बहन, यह तो कहो, तुम्हारी नींद कैसे खुल गई? मैंने तो सुना है कि तुम्हें खूब गहरी नींद आती है।

हां, गहरी नींद तो जरूर आती है, पड़ोसिन बोली, मगर कितनी भी गहरी नींद हो, दो घंटे में समझ में आ ही जाता है कि जिसके साथ इतनी देर से प्रेम—क्रीड़ा चल रही है, वह प्रोफेसर भोंदूमल नहीं, भोंदूमल का छाता है।

सब तरफ बेहोशी है। भोंदूमल ही बेहोश नहीं हैं, श्रीमती भोंदूमल उनसे भी ज्यादा बेहोश हैं। दो घंटे लग गए यह समझ में आने में कि छाते से प्रेम—क्रीड़ा चल रही है! तो भोंदूमल ने ही ऐसा कौन—सा कुसूर किया जो कोने में खड़े रहो!

और यह कहानी एकदम कहानी नहीं है।

पश्चिम का बहुत बड़ा विचारक इमैनुअल कांट नियमित रूप से ऐसा कर पाता था। नियमित रूप से। कहानी नहीं, वस्तुतः। उसके नौकर ने उसे कई बार पकड़ा—छाता बिस्तर पर लेटा है, वह कोने में खड़ा है…विवाह तो उसने कभी किया नहीं, नौकर ही सब कुछ था। नौकर को बहुत जांच—पड़ताल रखनी पड़ती थी। क्योंकि इस आदमी का क्या भरोसा? भुलक्कड़पन की भी एक सीमा होती है।

पश्चिम का एक दूसरा बहुत बड़ा वैज्ञानिक एडीसन तो एक बार अपना खुद का नाम भूल गया। जरा मुश्किल मामला है खुद का नाम भूलना! दूसरों का नाम तो लोभ भूल जाते हैं, भूले सुने जाते हैं, मगर कभी तुमने ऐसा आदमी देखा जो अपना नाम भूल गया हो! एडीसन भूल गया।

पहले महायुद्ध में क्यू में खड़ा था। अनाज खरीदने गया था। जब उसके आगे का आदमी भी हट गया और उसका नंबर आया और अनाज देने वाले ने आवाज लगाई कि थामस अल्वा एडीसन कौन है? तो उसने अपने आसपास देखा कि थामस अल्वा एडीसन कौन है? खड़ा रहा अपनी जगह। जब कोई थामस अल्वा एडीसन नहीं बोला, तो उस आदमी ने फिर आवाज दी कि भाई, ये एडीसन कौन है? कतार में एक दसवें नंबर पर खड़े आदमी ने कहा कि जहां तक मैं समझता हूं, अखबारों में मैंने फोटो देखा है, जो सज्जन नंबर एक खड़े हैं, ये थामस अल्वा एडीसन हैं।…बड़ा प्रसिद्ध वैज्ञानिक था। एक हजार आविष्कार किए। इतने आविष्कार किसी ने नहीं किए।…तब एडीसन को याद आया, कहा कि भाई, धन्यवाद! खूब याद दिलाई! नहीं तो आज यहां हम खड़े ही खड़े रहते। और घर पत्नी राह देख रही होगी।

अपना नाम भी लोग भूल सकते हैं। सच तो यह है, किसको अपना नाम मालूम है? जो नाम तुमने समझा है तुम्हारा है, तुम्हारा नहीं। वह तो दिया हुआ नाम है। लेबिल लगा दिया मां—बाप ने। कोई दूसरा लगा देते तो दूसरा हो जाता। राम कहा तो राम।

एक सज्जन थे रामदास, वे मुसलमान हो गए। बहुत दिन बाद मुझे मिले। मैंने उनसे पूछा कि रामदास, उन्होंने कहा, मेरा नाम रामदास नहीं है…खुदाबख्श! मैंने कहा जरा सोचो भी तो तुम, दोनों का मतलब एक ही होता है! रामदास कहो कि खुदाबख्श कहो, क्या फर्क हुआ?

नाम एक हटाकर दूसरा लगा दो कि तीसरा लगा दो। कोई भी नाम काम दे देगा। यह तुम्हारा नाम नहीं है। तुम अनाम आए, अनाम जाओगे। इस नाम के भीतर किसी दिन खोजोगे तो हरिनाम पाओगे। उस दिन पाओगे कि एक ही नाम है तुम्हारा: अहं ब्रह्मास्मि। अभी तो तुम क्या समझोगे वेद और क्या समझोगे गीता और क्या समझोगे कुरान, क्या समझोगे बाइबिल?

स्वरूपानंद, किसी सदगुरु के सत्संग को पहले समझना होता है। क्योंकि वहीं तुम जगाए जा सकते हो, किताबें नहीं जगा सकतीं। किताबें तो खुद ही मुर्दा हैं, तुम्हें क्या खाक जगाएंगी! तुम तो उन्हें जहां रख दोगे वहां पड़ी रहेंगी! पूजा के फूल चढ़ा दोगे तो ठीक और कमरे के बाहर निकालकर फेंक दोगे, तो ठीक!

पूना में मुझे प्रेम करने वाली एक महिला हैं…उनका नाम नहीं बताऊंगा; क्योंकि उनके प्रति एकदम पागल हो जाएंगे।…सुनने तो आने ही नहीं देते पत्नी को यहां, मेरी किताबें भी नहीं पढ़ने देते। लेकिन पत्नी कभी—कभी चोरी—छिपे आकर मुझसे मिल जाती है। वर्ष—दो वर्ष में एकाध बार, किसी तरह!

उसने मुझे बताया कि एक बड़ी मजे की बात है, कि मेरे पति आपकी किताब देखकर ही आगबबूला हो जाते हैं। पढ़ती तो मैं हूं ही, छिपकर पढ़ना पड़ता है, लेकिन कभी—कभी वे पकड़ लेते हैं। जैसे अब वे बाथरूम में स्नान करने गए हैं और मैं आपकी किताब पढ़ रही हूं, वे एकदम बीच में ही आ गए निकलकर—जब उनको नहीं आना चाहिए—बस तो किताब लेकर वे खिड़की के बाहर फेंक देते हैं। और उनसे मैं ज्यादा झंझट करना भी नहीं चाहती। तो मैं चुप ही रहती। मगर एक बड़े चमत्कार की बात है कि जब मैं नहीं होती, तो वे किताब उठाकर अपने सिर से लगाते हैं। फेंकते भी हैं और अपने सिर से भी लगाते हैं। तो उसने कहा, मेरी कुछ राज समझ में नहीं आता। मैंने कहा, राज साफ है। तेरे सामने आकर दिखाने के लिए फेंक देते हैं, फिर डरते होंगे कि कहीं कोई पाप न हो जाए! या कहीं कोई गड़बड़ न हो जाए! कहीं कोई नुकसान न हो जाए! कौन जाने यह आदमी ठीक ही हो!

अब इधर मेरे पास तार—परत्तार आ रहे हैं सारे देश से, तारों में खबर यह है: बधाइयां, मुझे! क्योंकि मोरारजी भाई डूब गए। लोग सोच रहे हैं कि मैंने डुबा दिया। दिल्ली से भी तार आ रहे हैं: बधाई। मेरा इसमें कुछ हाथ नहीं है। मुझे क्या लेना—देना उनको डुबाने से? उनकी अपनी करतूतें काफी डुबाने के लिए, मुझे क्या डुबाने की पड़ी! लेकिन लोग यह समझ रहे हैं कि मैं उनको डुबा दिया। और हो सकता है वे भी भीतर—भीतर समझ रहे हों कि कहां की झंझट में पड़े! क्योंकि किताब तो वे भी चोरी—छिपे पढ़ते हैं।

तो मैंने उनकी पत्नी को कहा, लगा लेते होंगे सिर से किताब को कि माफ करो, आपको नहीं फेंक रहा हूं, मैं तो सिर्फ पत्नी को शिक्षा देने के लिए फेंक देता हूं। नाराज आप न हो जाएं। लोग अपने मन में हिसाब लगा लेते हैं। अजीब—अजीब हिसाब लगा लेते हैं।

मैं अहमदाबाद से बंबई आ रहा था, हवाई जहाज पर। एक आदमी मुझे मिले, उन्हें मैं जानता भी नहीं था। उन्होंने एकदम मेरे पैर पड़े और कहा कि आपका जितना धन्यवाद करूं उतना कम। मैंने कहा, हुआ क्या? मुझसे कोई गलती हुई? उन्होंने कहा, नहीं—नहीं, आप भी कैसी बात करते हैं! मुकदमा जिता दिया आपने। कौन—सा मुकदमा, मुझे कुछ पता नहीं आपके मुकदमे का! उन्होंने कहा, चार साल से मुकदमा चल रहा था, कोई पंद्रह लाख रुपए उलझे थे, जीत गया। आपकी कृपा से जीता। मैंने उनको कहा, लेकिन मुझे कुछ पूरी खबर तो दो, क्योंकि मुझे पता ही नहीं कौन—सा मुकदमा, मैं तुम्हें जानता ही नहीं। उन्होंने कहा, आप कितना ही छिपाओ…वे मेरी भी मानने को राजी नहीं, वे कह रहे हैं, आप कितना ही छिपाओ, छिपा न सकोगे। जाते वक्त हवाई जहाज में आपके बगल में ही बैठा था, तभी मुझे पक्का हो गया था कि ऐसा सान्निध्य मिल गया कि इस बार मुकदमा जीत जाना है। पक्का ही हो गया। और मैं जीत भी गया। तब से मैं पता लगाकर बैठा हूं कि किस हवाई जहाज से आप वापस लौटेंगे। आपके साथ ही वापस जाना है। जब आने में इतना फायदा हुआ तो जाने की कौन जाने? और लाटरी खुल जाए! या कुछ हो जाए! मैंने उनको कहा, भइया, मुझे तुम क्षमा करो, मुझे तुम्हारे मुकदमे का कुछ पता नहीं है और किसी को भूलकर मत कहना! लेकिन वे मेरी मानने को राजी नहीं।

जिंदा आदमी की भी मानने को लोग राजी नहीं होते, किताबों की तो कहना क्या? किताब पर फूल चढ़ा दो तो किताब कुछ नहीं कर सकती, किताब को आग लगा दो तो किताब कुछ नहीं कर सकती। लेकिन अगर तुम मेरे सत्संग में आकर बैठे हो…और स्वरूपानंद संन्यासी हैं! हिम्मत की है। क्योंकि वेद, पुराण, गीता जिसको समझ में आई हो, वह संन्यासी हो जाए, यह हिम्मत का काम है। हां, स्वरूपानंद किसी पुराने ढब के आश्रम में संन्यासी हो जाते, वह ठीक था, मेरे संन्यासी हो गए हैं, हिम्मतवर आदमी हैं। साहसी हैं। जरूर थोड़ा बल है, आत्मबल है।…

घबड़ाओ न! शायद मेरी बातें इसलिए समझ में नहीं आ रही हैं कि वे वेद और गीता और उपनिषद खूब तुम्हारे सिर में भरे हुए हैं। ठूंस—ठूंसकर भरे हुए हैं। पहले उन्हें निकालना पड़ेगा। निकाल लूंगा, घबड़ाओ मत, वही मेरा काम है। वही मेरी कुशलता है। उपनिषद पर ही बोलता हूं और उपनिषद ही खोपड़ी से निकालता हूं। गीता पर बोलता हूं और तुम समझते हो कि चलो गीता सुनने चल रहे हैं और तुम्हें पता नहीं कि यहां मामला कुछ और है! यहां जेब कट जाएगी! सर्जरी मेरा धंधा है।

लेकिन थोड़ा समय तो लगता है। थोड़े टिके रहो, घबड़ाओ मत। आज नहीं समझ में आता, कोई फिक्र न करो। वह पुराना है जो समझ में आ गया है, बाधा डाल रहा है। जरा पुराना कूड़ा—कचरा मुझे निकाल लेने दो, फिर नया अपने—आप समझ में आने लगेगा। मैं तो जो कह रहा हूं, सीधा—साफ है, स्फटिक जैसा स्पष्ट है। मेरी भाषा में कोई उलझन नहीं है। मैं कोई बहुत सैद्धांतिक, शास्त्रीय, पारिभाषिक भाषा नहीं बोल रहा हूं, बोलचाल की भाषा बोल रहा हूं। यह कोई प्रवचन नहीं है, सीधी—सीधी बातचीत है। यह कोई व्याख्यान नहीं है, यहां कोई उपदेश नहीं दिया जा रहा है, मैं तो अपना हृदय खोलकर तुम्हारे सामने रख रहा हूं। जिस दिन तुम भी अपना हृदय खोलकर मेरे सामने रख दोगे, बस घटना घट जाएगी, क्रांति हो जाएगी। अभी तुम बंद हो। तुम्हारी किताबों ने तुम्हें बंद किया है। अभी तुम सुन तो जरूर रहे हो लेकिन ठीक—ठीक नहीं सुन पा रहे हो, क्योंकि बीच—बीच में तुम्हारे वेद आ जाते होंगे। इधर मैं कुछ कहता हूं, तुम्हारा वेद भीतर से कहता होगा, हां, ठीक है, यही तो ऋग्वेद में लिखा है। बस चूक गए! या तुम्हारे भीतर से वेद कहता होगा, नहीं—नहीं, यह ठीक नहीं हो सकता, यह तो ऋग्वेद के विपरीत पड़ता है। चूक गए!

मैं जो कह रहा हूं, उसे सीधा—सीधा जिस दिन सुन पाओगे, बीच में कुछ नहीं आएगी अड़चन—कोई व्याख्या, कोई सिद्धांत, कोई शास्त्र—उस दिन तुम्हें मेरी बातें इतनी सरल मालूम होंगी कि इनसे सरल और कोई बात नहीं हो सकती। अभी तुम अज्ञानी नहीं हो, ज्ञानी हो। स्वरूपानंद, अज्ञानी हो जाओ तो धन्यभागी हो! क्योंकि जो अज्ञानी हैं वे निर्दोष हैं। और जो राजी हैं स्वेच्छा से अज्ञानी होने को, उनके ऊपर ज्ञान की वर्षा होगी। जो खाली हो जाते हैं, वे भर दिए जाते हैं।

शून्य बनो, ज्ञान से शून्य हो जाओ और मैं तुमसे कहता हूं: ज्ञान से पूर्ण हो जाओगे।

ज्ञान और ज्ञान में फर्क है। एक ज्ञान है जो शास्त्रों से आता है और एक ज्ञान है जो आकाश से उतरता है, इल्हाम होता है। मैं उसी ज्ञान की तरफ तुम्हें ले चलना चाहता हूं।

 

आज इतना ही।

 

 


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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–30)

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देर हो गई—(अध्‍याय—तीसवां)

शो से बहुत शुरू में ही मिलना हो गया। खूब सान्निध्य भी मिला। अनेकानेक प्रवचनों में ओशो के सामने बैठे। धीरे— धीरे तो जीवन मानो ओशो का ही होकर रह गया। ओशो के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं बचा था, जिसमें कोई रस रहा हो।

इतना होने पर भी मन में कई बार यह विचार उठता कि ओशो से और भी पहले मिलना हो गया होता। आज जो कुछ अनुभव हो रहे हैं, वे बहुत पहले हो गये होते। यह खयाल इतना अधिक सताने लगा कि एक दिन ओशो से इस बारे में पूछ ही लिया। ओशो ने ‘ रहिमन धागा प्रेम का’ श्रृंखला पर बोलते हुए यह प्रश्न लिया।

 

प्रश्न :

 

इसका रोना नहीं कि तुमने क्यों किया दिल बरबाद, इसका गम है कि बहुत देर में बरबाद किया। मुझको तो नहीं होश, तुमको तो खबर हो शायद ,लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बरबाद किया।

स्वभाव! बीज जब तक मिटे नहीं, तब तक उसका होना सार्थक ही नहीं है। मिटने में ही उसकी सार्थकता है। टूट कर बिखर जाने में ही उसका सौभाग्य है। जो बीज अपने को बचा ले, वह अभागा है। बीज को तो गल जाना चाहिए, मिट्टी में मिल जाना चाहिए; खोजे से भी न मिले, ऐसा आत्मसात हो जाना चाहिए भूइम के साथ। तभी अंकुरण होता है; तभी जीवन का जन्म है।

हृदय तो बीज है आत्मा का। जो हृदय को बचा लेते हैं, वे आत्मा के जन्म से वंचित रह जाते हैं। और जिन्होंने आत्मा ही न जानी, उनके लिए परमात्मा तो बहुत दूर की कल्पना है—मात्र कल्पना है, हवाई कल्पना है, बातचीत है। उसका कोई मूल्य नहीं। हृदय मिटे तो आत्मा का आविर्भाव होता है। और जिस दिन तुम आत्मा को भी मिटाने को राजी हो जाते हो, उस दिन परमात्मा का अनुभव होता है। हृदय यानी तुम्हारी अस्मिता, मैं— भाव। हृदय यानी मैं पृथक हूं अस्तित्व से।

इस पृथकता को तोड़ो तो पहले तो ऐसा ही लगेगा कि बरबाद हुए। और दूसरों को तो सदा ही ऐसा लगेगा कि बरबाद हुए। तो दूसरे तो ठीक कहते हैं कि लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बरबाद किया। उनको तो सिर्फ बरबादी ही दिखेगी। उनको तो तुम्हारे भीतर जो घटित हुआ है, उसकी कोई खबर भी नहीं हो सकती। वह तो तुम्हीं जानते हो कि तुम्हारे भीतर नये अंकुर फूटे हैं, नये जीवन का सूत्रपात हुआ है। इसलिए तुम कह सकते हो :

इसका रोना नहीं कि तुमने क्यों किया दिल बरबाद,

इसका गम है कि बहुत देर में बरबाद किया।

दूसरे तो इतना ही कहेंगे सिर्फ कि हो गए बरबाद। इस आदमी ने तुम्हें ड़बाया। और वे ठीक ही कहते हैं। उनका अपना हिसाब है।

अब स्वभाव एक बड़ी फैक्टरी के मालिक… अभी कल ही मैं देखता था कि उनकी फैक्टरी वेकफील्ड को अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। चित्र छपा था। चित्र देख कर मुझे लगा कि स्वभाव अगर संन्यासी न होते तो शायद चित्र में होते, पुरस्कार लेते हुए दिखाई पड़ते चित्र में। कोई और ले रहा है। स्वभाव ही प्राण थे उस संस्थान के। सब छोड़—छाड़ कर मेरे साथ दीवाने हो गए। तो लोग तो कहेंगे ही कि बरबाद हो गए, कि पागल हो गए। उनका भी कोई कसूर नहीं। उनके अपने मापदंड हैं। जैसे कोयला अगर हीरा हो जाए तो दूसरे कोयले तो यही कहेंगे कि हो गए बरबाद। कोयला ही हीरा होता है, खयाल रखना। कोयले और हीरे में कोई रासायनिक भेद नहीं है। कोयला ही सदियों तक भूइम के नीचे दबा—दबा हीरे में रूपांतरित होता है। हीरे और कोयले का रासायनिक सूत्र एक ही है। हीरा कोयले की अंतिम परिणति है और कोयला हीरे की शुरुआत है। कहो कि कोयला बीज है और हीरा फूल है। मगर दोनों जुड़े हैं। जब कोई हीरा निर्मित होता होगा कोयले के टुकड़े से, तो और कोयले के टुकडे क्या कहते होंगे? कि हुआ बरबाद! गया काम से! अपना न रहा! अपने जैसा न रहा! मगर हीरे पहचानेंगे कि दो कौड़ी का था, आज बहुमूल्य हो गया।

तो स्वभाव, जो तुम जैसे ही बरबाद हुए हैं, वे पहचानेंगे। तुम पहचानोगे। क्योंकि इसके पहले तुम जी कहां रहे थे! एक धोखा था, खींच रहे थे, ढो रहे थे। आज तुम जी रहे हो। एक उमंग है, एक उत्कुल्लता है, एक आनंद है। आज तुम रसविभोर हो। गई अस्मिता, गया अहंकार, गई अकड़। आज तुम तरल हो, सरल हो। और यही तरलता, यही सरलता तुम्हें पात्र बनाएगी उस परम घटना के लिए। उस परम सौभाग्य का क्षण भी दूर नहीं, जब प्रभु भी तुममें उतर आए, जब वह महारास हो, जब उसकी रसधार बहे। लेकिन लोग तो तब भी कहते रहेंगे।

मीरा से भी लोगों ने यही कहा कि तू क्या करती है पागल! राजघराने से है! महलों से है! बाजारों में नाचती फिरती है! सब लोक—लाज खो दी!

बुद्ध से भी लोगों ने यही कहा सब तुम्हारा था। सुंदर महल थे। सुंदर पत्नी थी, बेटा था। बड़ी संभावनाएं थीं। जिस पद और प्रतिष्ठा के लिए लोग जीवन भर दौड़ते हैं, वह तुम्हें अनायास मिला था। न मालूम कितने—कितने जन्मों के पुण्यों का फल था! और तुम लात मार कर चले आए! पागल हो तुम!

बुद्ध ने जब अपना घर छोडा तो वे राज्य छोड़ कर चले गए, राज्य की सीमा छोड दी। क्योंकि वहां रहेंगे तो पिता आदमियों को भेजेंगे, लोग समझाएंगे, सिर पचाएंगे, तो वे पड़ोसी राज्य में चले गए। लेकिन पिता कुछ इतनी आसानी से तो नहीं छोड़ दे सकते थे। उन्होंने पड़ोसी राजा को खबर की। बिंबिसार पड़ोस का राजा था। वह बुद्ध के पिता का बचपन का मित्र था, दोनों साथ—साथ पढ़े थे, साथ—साथ ही धनुर्विद हुए थे। पुरानी दोस्ती थी। उन्होंने खबर भेजी कि मेरा बेटा संन्यस्त हो गया है, वह तुम्हारे राज्य में कहीं है, जाओ उसे समझाओ।

बिंबिसार गया। बहुत प्रेम से बुद्ध से मिला और बुद्ध से उसने कहा. हो जाता है कभी। हो गई होगी कोई बात। तुम्हारी और तुम्हारे पिता की नहीं बनती, फिक्र छोडो। मैं भी तुम्हारे पिता जैसा हूं। तुम्हारे पिता के मुझ पर बहुत उपकार हैं। काश तुम्हारे लिए मैं कुछ कर सकूं तो उऋण हो जाऊंगा। तुम आओ, यह महल भी तुम्हारा है और यह राज्य भी तुम्हारा है। मेरी एक ही लडकी है, मैं उससे तुम्हें विवाहित किए देता हूं। तुम छोडो वह राज्य। छोड ही दिया, ठीक है। नहीं जाना, मत जाओ। पिता से नहीं बनती न, किस बेटे की बनती है! कोई फिक्र न करो। इस राज्य को सम्हाल लो। वैसे तो वह भी राज्य तुम्हारा है, क्योंकि अकेले बेटे हो। पिता बूढे हैं। तो तुम दोहरे राज्य के मालिक हो जाओगे। बुद्ध हंसे और उन्होंने कहा : तो मालूम होता है मुझे यह राज्य भी छोड़ कर भागना पड़ेगा। इसीलिए तो छोड़ कर चला आया कि वहां समझाने वाले आएंगे। आप यहां भी आ गए!

लेकिन बिंबिसार ने कहा कि तुम अभी जवान हो, अभी तुम्हें जीवन का अनुभव नहीं, जल्दबाजी न करो, अधैर्य न करो। चलो महल। सोचो—विचारो। समय दो। मैं तुमसे कहता हूं—पछताओगे पीछे।

बुद्ध ने इतना ही पूछा कि क्या तुम अपनी छाती पर हाथ रख कर यह कह सकते हो कि तुमने जीवन में वह पा लिया जिससे तृप्ति होती है?

बिंबिसार थोड़ा बेचैन हुआ। छाती पर हाथ रख कर तो न कह सका। आदमी ईमानदार रहा होगा। उसने कहा. यह तो मैं न कह सकूंगा कि मैंने वह पा लिया है, जिससे जीवन तृप्त हो जाता है, जिससे जीवन परिपूर्ण हो जाता है।

तो बुद्ध ने कहा : फिर मुझे बाधा न डालो। तुम्हारे महल में मैं वही पा सकूंगा जो तुमने पाया है। उससे तुम्हें तृप्ति नहीं मिली, मुझे कैसे मिलेगी? मेरे पिता को नहीं मिली, मुझे कैसे मिलेगी? किसको कब मिली है? तुम मुझे मेरी राह पर छोड दो। तुम मुझे मेरी बरबादी पर छोड़ दो, दया मत करो। क्योंकि मैंने, तुम जो आबाद हो, उनको मैंने बरबाद देखा है। तुम मुझे बरबादी पर छोड़ दो। कौन जाने, शायद यही आबाद होने का रास्ता हो।

और एक दिन बुद्ध आबाद हुए। और एक दिन बिंबिसार उनके चरणों में झुका। एक दिन बुद्ध के पिता भी बुद्ध के चरणों में झुके।

आज तो, स्वभाव, तुम्हें बहुत लोग कहेंगे कि अभी भी लौट आओ, अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। घर, परिवार, भाई… और वे सब तुम्हें प्रेम करते हैं। ऐसा नहीं कि वे तुम्हारे कोई दुश्मन हैं। सब तुम्हारे चाहक हैं। वे सब चाहेंगे कि तुम लौट आओ। तुम्हारी ही भलाई के लिए चाहेंगे कि तुम लौट आओ। लेकिन उनकी समझ कितनी है? उनका अनुभव कितना है? धन का होगा, सुख—सुविधा का होगा, ध्यान का तो नहीं, अंतर—आनंद का तो नहीं। वे भी कहेंगे कि तुम बरबाद हुए, लेकिन उनके कहने में और तुम्हारे कहने में बहुत फर्क है। मैं भी कहता हूं कि तुम बरबाद हुए। लेकिन मैं कहता हूं कि यही सौभाग्य है, परम सौभाग्य है कि तुमने हिम्मत जुटा ली और तुम बरबाद हो सके। अब द्वार खुलते हैं संभावनाओं के। बीज टूटा कि बस निकले नये कोंपल, निकले नये पत्ते, बनेगा बड़ा वृक्ष कि जिसके नीचे हजारों लोग छाया में बैठ सकें। उड़ेगी गंध आकाश में कि गुफ्तगू होगी चांद—तारों से।

तुम ठीक कहते हो:

इसका रोना नहीं कि तुमने क्यों किया दिल बरबाद

इसका गम है कि बहुत देर में बरबाद किया।

लगता है ऐसा ही। जब तुम जानना शुरू करते हो यह बरबादी का मजा, इस बरबादी का रस, जब पीते हो यह जाम, तब ऐसा ही लगता है कि अरे, कितनी देर हो गई, काश यह जरा जल्दी होता! लेकिन कुछ भी समय के पहले नहीं होता है। जब हो सकता था तभी हुआ है। समय के पहले तुमसे कहता भी तो तुम सुनते नहीं। कितने तो हैं जिनसे कह रहा हूं नहीं सुन रहे हैं। वे भी एक दिन कहेंगे कि बहुत देर में बरबाद किया। बरबादी का रस पी लेंगे, तब कहेंगे न! अभी तो बरबादी डराती है, घबडाती है। अभी तो बचने का उपाय खोजते हैं। कितने उपाय खोजते हैं!

मेरे विरोध में जो बातें चलती हैं, वे और कुछ भी नहीं हैं—सिवाय अपने को बचाने के उपाय के। आत्मरक्षा के अतिरिक्त उनका और कोई लक्ष्य नहीं है। मेरे खिलाफ इतना धुआ खड़ा कर लेते हैं अपने चारों तरफ कि एक बात निश्चित हो जाती है स्वयं के समक्ष, कि नहीं इस आदमी के साथ एक कदम बढाना। बस उतने के लिए कितनी गालियां उन्हें देनी पड़ती हैं, कितने झूठ उन्हें गढ़ने पड़ते हैं, वे सब कर लेते हैं। कितना आविष्कार उन्हें करना पड़ता है! सब करने के लिए राजी हैं—सुरक्षा के लिए, आला—रक्षा के लिए। हालांकि वे भी एक दिन यही कहेंगे।

स्वभाव ने भी बहुत दिन तक खींचतान की। कोई जल्दी ही मिटने को राजी नहीं होता। कौन मिटने को जल्दी राजी होता है? धीरे—धीरे ही यह रस लगता है। यह रस है भी बडा महंगा। सौदा बड़ा महंगा है। जो है, वह तो छूटने लगता है हाथ से; और जो नहीं है, उसका क्या भरोसा? उसे तो लगा देना है दांव पर जो पास में है—और जो बहुत दूर है, कहीं आकाश में, उसकी आशा में। बड़ा साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए! स्वभाव भी खूब मुझसे लड़े—झगडे हैं। खूब रस्साकसी की है। खूब खींचतान की है। बचने के जितने उपाय कर सकते थे, किए हैं। लेकिन सौभाग्यशाली हैं कि उनके सब उपाय हार गए। कभी यूं होता है कि हार में ही जीत हो जाती है और कभी यूं होता है कि जीत में ही हार हो जाती है। अगर किसी जाग्रत व्यक्ति के पास हार सको तो जीत गए; अगर जीत जाओ तो हार गए।

मगर ध्यान रहे, जब होता है, जिस घड़ी होता है, वही घड़ी हो सकता था। एक परिपकता की घडी होती है। एक प्रौढ़ता की घडी होती है। असमय में इस जगत में कुछ भी नहीं घटता है। मैंने लाख उपाय किए हैं अनेक लोगों के साथ, लेकिन अगर समय नहीं पका था तो बात नहीं हो सकी। बनते—बनते बिगड़ गई है। और अगर समय पका था तो बिना उपाय किए भी बात बन गई है। जरा सा इशारा और यात्रा शुरू हो गई। अन्यथा पुकारते रहो, चिल्लाते रहो, बहरे कानों पर बात पड़ती है, कोई सुनता नहीं है।

एक बार एक चौक पर दो बहरे मिले। एक बहरे ने दूसरे बहरे से पूछा. क्यों भाई, क्या बाजार जा रहे हो?

दूसरे बहरे ने कहा. नहीं—नहीं, जरा बाजार तक जा रहा हूं।

पहला बहरा बोला : अच्छा—अच्छा, मैंने समझा कि बाजार जा रहे हो।

बस ऐसा ही होता है। मैं कुछ कहूंगा, अगर समय नहीं पका है, तुम कुछ सम झोगे। न समझो तो भी ठीक। बिलकुल न समझो तो भी ठीक। कुछ का कुछ समझोगे। अर्थ समझ में न आए, चलेगा; लेकिन अनर्थ समझ में आ जाता है।

एक दार्शनिक को मजबूरी में नौकरी करनी पड़ी। कुछ उलटी—सीधी बातें कहने के कारण विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया। कुछ बगावती बातें कि विश्वविद्यालय बर्दाश्त न कर सका। तो कुछ और तो वह जानता नहीं था, बस कोई छोटा—मोटा काम ही कर सकता था। तो एक घर में झाड—बुहारी लगानी, बर्तन मल देने, इस तरह के छोटे काम की नौकरी कर ली। दार्शनिक था तो वह मालिक से पूछे ही न। खुद ही काफी होशियार था। अपनी होशियारी से ही काम करे। मगर उसकी होशियारी दूसरी दुनिया की थी। दर्शनशास्त्र की होशियारी एक बात, बुहारी लगाने का मामला बिलकुल दूसरी बात। बर्तन मलना बिलकुल दूसरी बात। तर्कशास्त्र पढ़ना और पढ़ाना बिलकुल दूसरी बात। इन दोनों में कोई तालमेल नहीं है।

मालिक उससे थक गया, घबडा गया। आखिर मालिक ने उससे कहा कि सुनो जी, जब भी तुम कुछ करो, पहले मुझसे पूछ लिया करो। क्योंकि तुम जो भी करते हो, गलत—सलत करते हो। तुम जैसा समझदार आदमी, ऐसी आशा न थी, कि तुमको मैंने बाजार सब्जी लेने भेजा तो तुम दिन भर सब्जी लाते रहे।

पहले भिंडी खरीद कर लाया, फिर भाजी खरीद कर लाया, फिर मूली खरीद कर लाया, फिर चटनी खरीद कर लाया। एक—एक चीज! दिन भर सुबह से शाम तक बाजार आता रहा, जाता रहा।

मालिक ने कहा. हद हो गई! ये कोई ढंग हैं?

दार्शनिक ने कहा. मैंने तो सोचा कि एक—एक काम को परिपूर्णता से निपटा लेना चाहिए। ऐसे बहुत से कामों में उलझ जाने से द्वंद्व खडा होता है, दुविधा खडी होती है, उलझन खड़ी होती है। मैं साफ—सुथरा और सुलझा हुआ आदमी हूं। फिर आप जैसा कहते हैं!

एक दिन आया। मालिक किसी से बात कर रहा था तो वह खड़ा। जब बात पूरी हो गई तो उसने मालिक से पूछा कि मालिक, मैंने खिड़की में से देखा कि रसोईघर में बिल्ली दूध पी रही है, अगर आप कहें तो उसे भगा दूं?

मगर बात अगर यहीं होती तो भी ठीक थी। मालिक बीमार पड़ा। दार्शनिक को भेजा कि जाकर वैद्य को ले आए। सुबह का गया, सांझ लौटा। और वैद्य को ही नहीं लाया, कोई दस—पच्चीस लोगों को साथ लेकर आया। मालिक के तो होश उड़ गए बीमारी भी उड़ गई साथ में। एकदम उठ कर बैठ गया, दिन भर से पड़ा था। और कहा कि माजरा क्या है? यह बारात किसलिए लिए आ रहे हो?

उसने कहा मालिक, आपने कहा था न कि एक दफे जाना भिंडी लाए, एक दफे गए फिर मूली लाए, एक दफे गए फिर सब्जी लाए, फिर भाजी लाए, यह ठीक नहीं है। एक ही दफे में निपटा देना चाहिए। तो मैं गया, वैद्य को लाया। फिर हो सकता है वैद्य काम कर सके न कर सके, इसलिए एक हकीम को भी लाया। फिर पता नहीं हकीमी जमे न जमे, तो एक एलोपैथ को भी ले आया हूं। और क्या पता एलोपैथी का, एक नेचरोपैथ को भी ले आया हूं। और नेचरोपैथी में पता नहीं आपको भरोसा हो या न हो, विश्वास हो या न हो, सो होम्योपैथ को भी ले आया हूं। सब तरह के डाक्टर ले आया हूं—एकबारगी में!

फिर भी मालिक ने कहा कि इससे भी हल नहीं होता। ये पच्चीस आदमी क्यों?

तो उसने कहा : इनमें से कुछ हैं जो पुलटिस बनाते हैं। क्योंकि कोई डाक्टर कहे पुलटिस बनाओ, फिर जाओ बाजार।

फिर भी मालिक ने कहा कि इनमें तो मुझे कुछ गुंडे—लफंगे भी बस्ती के दिखाई पड रहे हैं। उसने कहा. मैं कुछ ले आया हूं कि हो सकता है डाक्टर सफल हों या न हों, अगर आप मर ही गए तो कब्रिस्तान भी ले जाने के लिए कोई चाहिए कि नहीं? तो अच्छे मजबूत.. .इन्हीं को तो ढूंढने में दिन भर लग गया। अरथी का सामान भी ले आया हूं मालिक, बिलकुल निश्चिंत रहो! बाहर अरथी तैयार हो रही है, भीतर इलाज चलेगा। एक ही दफा में निपटा दिया है।

मैं तुमसे क्या कह रहा हूं अगर तुम उसे न समझो तो भी ठीक है। लेकिन कठिनाई न समझने की नहीं है। अर्थ पकड में न आए, इतना ही नहीं है; अनर्थ पकड़ में आ जाता है। और जब तक जीवन की वह परम घडी नहीं आई, वसंत का क्षण नहीं आया, जब फूल खिले, उसके पहले कुछ भी नहीं हो सकता, स्वभाव। तुम्हारी आकांक्षा प्रीतिकर है। लेकिन अनुग्रह मानो परमात्मा का कि जब भी हुआ, जल्दी हुआ। और भी देर लग सकती थी। यह शिकायत भी भूल जाओ कि इतनी देर क्यों लगी। यह स्वाभाविक है शिकायत। यह सबको होता है। यह स्वयं बुद्ध तक को हुआ था।

बुद्ध को जब शान हुआ तो उनको पहला सवाल जो उठा वह यही कि इतनी देर क्यों लगी? यह बात इतनी सरल है। यह कभी की हो जानी चाहिए थी। इतने—इतने जन्म लग गए इस सरल सी बात के होने में! यह स्वाभाविक अनुभव, यह अपना ही साक्षात्कार, इतना समय क्यों लिया? बेबूझ लगती है पहेली। लेकिन जीवन पकाता है। जीवन के सब अनुभव पकाते हैं। सुख और दुख, सब पकाते हैं। दिन और रात, सर्दी और गर्मी, सब पकाते हैं। और प्रत्येक व्यक्ति के पकने की अलग—अलग शैली है। जैसे हर फल के पकने की अलग—अलग शैली होती है और हर वृक्ष के फूल खिलने का अलग—अलग अवसर होता है, अलग—अलग मौका होता है। कुछ फूल दिन को खिलते हैं, कुछ फूल रात को खिलते हैं। कुछ फूल गर्मी में खिलते हैं, कुछ फूल सर्दी में खिलते हैं। कुछ फूल वर्षा में खिलते हैं। सब अपनी नियति से जीते हैं, स्वभाव से जीते हैं। और स्वभाव की प्रत्येक की प्रक्रिया निजी है।

तो जो तुम्हें लग रहा है कि इतनी देर में क्यों बरबाद किया, वह यद्यपि स्वाभाविक है, लेकिन उस शिकायत को भी जाने दो। कहो कि चलो बरबाद तो किया, देर में ही सही! कोई ज्यादा देर नहीं हो गई। अनंत काल अभी भी शेष है। अनंत काल तक अब यह आनंद झरेगा, बरसेगा। क्या देर हो गई? कुछ देर नहीं हो गई है।

शिकायत की जगह हमेशा अनुग्रह के भाव को गहराओ। इससे लाभ है। अनुग्रह का भाव मंगलदायी है, क्योंकि अनुग्रह के भाव के अतिरिक्त और कोई प्रार्थना नहीं है।

 

(रहिमन धागा प्रेम का)

आज इति।


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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–31)

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ओशो का अमरीका प्रवास—(अध्‍याय—इक्‍क्‍तिीसवां)

पुणे शहर के नजदीक ही स्थित प्रकृति के सुंदर माहौल में सासवड की लंबी— चौड़ी जमीन आश्रम के लिए बहुत उपयुक्त थी। हम सभी मित्र इस स्थल को सुंदर से सुंदर और जल्दी से जल्दी विकसित करने में पूरी मेहनत कर रहे थे। यह तो स्पष्ट ही लग रहा था कि पुणे में जगह बहुत छोटी पड़ने वाली है, और दुनिया भर से मित्रों का आने का प्रवाह बढ़ता ही जा रहा था। सासवड में चारों तरफ निर्माण काम अपनी पूरी तेजी पर था। लेकिन स्थानीय लोगों द्वारा और राजनैतिक पार्टियों द्वारा विरोध भी बढ़ता जा रहा था। कितने आश्चर्य की बात है कि जब बुद्ध शरीर में हों और वे संपूर्ण मानव जाति के लिए बहुत उपयोगी हो सकते हैं तब अधिकांश लोग उनका विरोध करते हैं, उनके काम में हर तरह का अवरोध पैदा करते हैं और एक बार जब वे चले जाते हैं तो उन्हीं के आसपास विश्व प्रसिद्ध तीर्थों का निर्माण कर लेते हैं। यह सिलसिला हर बुद्ध के साथ चलता आ रहा था और ओशो भी उसमें अपवाद नहीं थे।

सभी तरह के विरोधों के बीच हम अपनी पूरी लगन से अपना कार्य जारी रखे थे।

इधर पुणे में भी ओशो का विरोध बढ़ता जा रहा था। जैसे—जैसे पूरे संसार से लोगों का आना बढ़ता जा रहा था वैसे—वैसे स्थानीय स्तर पर समस्याएं बढ़ती जा रही थीं। और फिर ओशो की ललकार तो पूरे परवान पर थी। हर आयाम से ओशो पूरी दुनिया के हर स्थापित शक्ति संगठन पर चोट किये चले जा रहे थे। जितनी ओशो की चोट बढ़ती उतनी ही तिलमिलाहट बढ़ती। किसी के पास ओशो की बातों का जवाब नहीं था। जो ओशो कह रहे थे वह इतना स्पष्ट व सत्य था कि हर प्रतिभावान व्यक्ति को उनकी बात समझ आ रही थी। संसार के सभी धर्मों के लोग ओशो के पास आ रहे थे। स्वाभाविक ही पंडित—पुजारियों की तो नीवें हिल चुकी थीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस सत्य की आधी को रोका कैसे जाए। और ओशो की बातें इतनी तार्किक थीं कि उसका विरोध किया भी नहीं जा सकता था। ऐसे में तरह—तरह के बेबुनियादी आरोप और निंदा बढ़ती चली गई। जितना विरोध संसार भर में बढ़ रहा था उसका असर स्थानीय स्तर पर भी आ रहा था।

पुणे शहर के बीच स्थित आश्रम को इन विरोधों से बचाना और ओशो के जीवन को सुरक्षित रखना बहुत बड़ी चुनौती बनती जा रही थी। ओशो पर एक जान लेवा प्रयास हो चुका था। इधर ओशो का स्वास्थ्य भी उतना अच्छा नहीं हो पा रहा था जितना कि होना चाहिए। हर तल पर चिंता और असुरक्षा बढती जा रही थी। ओशो पूरा प्रयास कर रहे थे कि शहर से दूर कहीं बडी जगह पर बड़ा कम्यून स्थापित किया जाए। इस हेतु देश भर में विभिन्न जगहें देखी जा रही थीं लेकिन जैसे ही लोगों को पता चलता कि ओशो उस तरफ आ सकते हैं विरोध चल निकलता। ओशो इसे बहुत स्वाभाविक मानते। इन्हीं चुनौतियों के बीच हमें अपना काम जारी रखना था।

यह समय था जब हर प्रकार के विकल्प पर सोचा—विचारा जा रहा था। जो भी श्रेष्ठ विकल्प हो उस दिशा में काम करने की पूरी तैयारी थी। ऐसे समय में कुछ मित्रों ने ओशो को विदेश जाने की सलाह दी। इसमें शीला का निवेदन सबसे अधिक था। शीला कम्यून का काम संभाल रही थी। वह अमेरीका से ही आई थी। उसे अमरीका के बारे में पर्याप्त जानकारी थी। ओशो स्वयं भी यह मानते रहे थे कि अमरीका में अधिक स्वतंत्रता है, और लोग अधिक जागरुक हैं। वहां ओशो को अपना काम करने में अधिक आसानी होगी।

इन्हीं सभी पहलुओं पर सोच—विचारने के बाद ओशो का अमरीका जाना तय हुआ। इस बात को अंतिम समय तक गुप्त रखा गया था कि ओशो भारत से बाहर जा रहे हैं। जिस दिन ओशो की गाडी आश्रम से बाहर जा रही थी हम कुछ मित्रों को यह जानकारी थी कि ओशो अमरीका जा रहे हैं। समय ऐसा था कि कुछ पता नहीं चल रहा था कि जो भी हो रहा है वह ठीक है या गलत। जहां एक ओर ओशो के स्वास्थ्य और उनके काम की चिंता थी तो दूसरी तरफ भारत से बाहर जाने का मतलब अधिक असुरक्षा में जाना था। मन में बहुत उथल—पुथल मची थी। जब ओशो पुणे से चले गये, भारत से चले गये……पीछे रह गया आश्रम, पीछे रह गए हम……एक तरफ खुश भी कि ओशो का अच्छा इलाज हो पाएगा, लेकिन साथ ही विचलित भी कि अब हम सब किस दिशा में जाने वाले हैं। एक अनजाने से मोड़ पर हम खड़े थे। उस समय जरा भी पता नहीं था कि यह अमरीका प्रवास क्या कुछ दिखाने वाला है।

 

आज इति।

 


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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–32)

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ओशो के जाने के बाद पुणे आश्रम—(अध्‍याय—बत्‍तीसवां)

ब ओशो ने पुणे आश्रम छोड़ दिया तो जैसे—जैसे मित्रों को पता लगता गया सभी अपने—अपने देश या घर लौटने लगे। जिस जगह पर ओशो के आसपास दुनिया भर से आए मस्त—मौला संन्यासियों से हर पल उत्साह, उमंग, उत्सव जारी रहता था, वहां अब लोग धीरे— धीरे विदा हो रहे थे। कुछ ही दिनों में पुणे आश्रम वीरान सा हो गया। चारों तरफ खाली—खाली, सन्नाटा।

जहां दिन दुगना रात चौगुना विकास हो रहा था, निर्माण हो रहा था, वहां अब चीजें बंद होने लगीं, सब कुछ समेटा जाने लगा। यह तय हुआ कि अब पुणे आश्रम को सीमित कर दिया जाए। जब अधिक लोग यहां रहेंगे ही नहीं तो इतना कुछ जमावड़ा किस काम का। यही सोच कर जितनी भी चीजें थीं वे बेचनी शुरू कर दीं। बुद्धा हॉल में चीजें लाकर इकट्ठा रखते और खरीददार आकर उन्हें ले जाते।

एसी, बिजली के सामान, फर्नीचर, लकड़ियां, यहां तक संगमरमर भी निकाल— निकाल कर बेचना शुरू हुआ। सब बिक्री होने लगा। यह सब नजारा मैं अपनी आंखों से देखता था। रोना भी आता था कि यह सब क्या हो गया। सब का दामन पकडे अपने को समझाता। इस तरह धीरे— धीरे आश्रम का कारोबार ठंडा होने लगा, विदेशी अपने देशों में चले गए, भारतीय मित्र अपने घरों को लौट गए। सासवड का प्रोजेक्ट ठप्प हो गया। सब तरह का कामकाज बंद हो गया।

मां मृदुला और उनके दो बच्चे आश्रम की देख रेख करने लगे। धीरे— धीरे फिर छोटे स्तर पर आश्रम .में गतिविधियां होने लगीं। ध्यान—साधनाएं व सभी उत्सव मनाने लगे। हर उत्सव पर भारत भर से एक—डेढ़ हजार मित्र आ जाते। आश्रम में फिर से हलन—चलन होने लगी। मन को अच्छा लगता कि चलो आश्रम बच गया, उसके पुनर्निर्माण में हम सभी लगे रहे। बाद में जयंती भाई आश्रम को संभालने लगे। मैं कंधे से कंधा मिलाकर काम में सहयोग करने लगा। जयति भाई को खयाल आया कि सासवड़ को फिर से बनाया जाए। मैं सासवड़ गया वहां देखा सब खंडहर हो गया था हम फिर से उसके पुनर्निर्माण में लग गए।

 

आज इति।

 


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तंत्र–सूत्र–(भाग–4) प्रवचन–63

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परमात्‍मा को जन्‍म देना है—(प्रवचन—तेरष्‍ठवां)

सूत्र:

90—आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से

उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है।

और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।

      91—हे दयामयी, अपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत

            नींचे, आकाशीय उपस्‍थिति में प्रवेश करो।

 

एक बार एक चर्च में ऐसा हुआ कि एक बहुत लंबे और उबाऊ व्याख्यान के बाद पादरी ने सूचना दी कि मंगलकामना के तुरंत बाद बोर्ड की एक संक्षिप्त बैठक होगी। सभा समाप्त होने पर जो पहला आदमी पादरी के पास पहुंचा वह एक अजनबी था। पादरी ने सोचा कि कुछ गलतफहमी हुई है, क्योंकि वह व्यक्ति बिलकुल अजनबी था। वह ईसाई भी नहीं मालूम पड़ता था; उसका चेहरा मुसलमान जैसा था। तो पादरी ने उससे कहा कि ऐसा लगता है कि आपने सूचना को गलत ढंग से समझा; यहां बोर्ड (समिति) की बैठक होने वाली है।

उस अजनबी ने कहा : ‘यही तो मैंने भी सुना। और अगर यहां कोई व्यक्ति है जो मुझसे भी ज्यादा बोर्ड हो तो मैं उससे मिलना चाहूंगा—इफ देअर वाज समवन हिअर मोर बोर्ड दैन मी देन आई वुड लाइक टु मीट हिम।’

प्रत्येक आदमी की यही स्थिति है। लोगों के चेहरे देखो, या आईने में अपना ही चेहरा देखो, और तुम्हें लगेगा कि मैं सबसे ज्यादा ऊबा हुआ आदमी हूं। और तुम्हें यह असंभव मालूम होगा कि कोई दूसरा तुमसे ज्यादा ऊबा हुआ हो सकता है। पूरा जीवन एक लंबी ऊब मालूम पड़ता है—रूखा—सूखा, नीरस और अर्थहीन—जिसे तुम किसी भाति बोझ की तरह ढो रहे हो।

ऐसा क्यों हो गया है? जिंदगी ऊब बनने के लिए नहीं है। जीवन दुख—संताप बनने के लिए नहीं है। जीवन एक उत्सव है; जीवन हर्षोल्लास का शिखर है। लेकिन यह केवल कविता की, स्‍वप्‍न की, बातचीत की चीज बन कर रह गई है। कभी—कभार कोई बुद्ध, कोई कृष्ण गहन उत्सव में मालूम होते हैं, लेकिन वे अपवाद जैसे लगते हैं। वे सच में हुए, यह भी मानने को दिल नहीं होता। अविश्वसनीय मालूम पड़ते हैं—मानो वे यथार्थ नहीं, कल्पनाएं हों। ऐसा लगता है कि ऐसे लोग कभी होते नहीं; वे केवल हमारी कल्पना की उड़ान हैं, पुराण—कथाएं हैं, स्‍वप्‍न हैं। वे मिथक हैं। वे हमारी आशाएं हैं। वे असलियत नहीं हैं। असलियत तो हमारा अपना चेहरा है जिस पर ऊब, दुख और संताप छाया हुआ है। यथार्थ तो हमारी पूरी जिंदगी है, जिसे हम किसी तरह ढो रहे हैं।

ऐसा क्यों हो गया? यह जीवन का बुनियादी सत्य होना नहीं चाहिए; ऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि ऐसा सिर्फ मनुष्य के साथ होता है। वृक्ष हैं, तारे हैं, पशु—पक्षी हैं, कहीं भी तो ऐसा नहीं होता है। मनुष्य को छोड़ कर कोई भी तो ऊबा हुआ नहीं है। यदि उन्हें कभी पीड़ा भी होती है तो वह क्षणिक है। उनकी पीड़ा सदा—सदा की ग्रस्तता नहीं बनती है, चिंता नहीं बनती है। वह पीड़ा सतत उनके मन पर छाई नहीं रहती है। वह क्षणिक है, एक छोटी सी दुर्घटना है; वे उसे ढोते नहीं हैं।

पशुओं को पीड़ा हो सकती है, लेकिन उन्हें कभी दुख—संताप नहीं सताता। उनकी पीड़ा आकस्मिक घटना होती है; वे उससे बाहर निकल जाते हैं। फिर वे उसे ढोते नहीं हैं, वह पीड़ा उनका स्थायी घाव नहीं बन जाती है। पीड़ा आती है, चली जाती है, अतीत का हिस्सा हो जाती है, वह कभी उनके भविष्य का हिस्सा नहीं बनती। जब पीड़ा स्थायी हो जाती है, एक घाव बन जाती है, जब वह एक क्षणिक घटना न रहकर तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाती है, मानो तुम उसके बिना जी ही नहीं सकते, तब वह समस्या बन जाती है। और वह समस्या सिर्फ मनुष्य के मन में पैदा हुई है।

वृक्ष दुखी नहीं हैं; उन्हें कोई संताप नहीं सताता। ऐसा नहीं है कि उनकी मृत्यु नहीं होती; वे भी मरते हैं। लेकिन मृत्यु उनके लिए समस्या नहीं है। ऐसा नहीं है कि वृक्षों को पीड़ादायी अनुभव नहीं होते, उन्हें भी पीड़ादायी अनुभव होते हैं। लेकिन ये अनुभव उनका जीवन नहीं बन जाते, वे सिर्फ परिधि पर घटते हैं और विदा हो जाते हैं। उनके केंद्र में, उनके अंतरतम में उनका जीवन उत्सव बना रहता है। वृक्ष सदा उत्सव में है। मृत्यु होगी, लेकिन एक ही बार होगी। पूरी जिंदगी उसे सिर पर नहीं ढोना है। मनुष्य को छोड्कर जगत में हर कहीं उत्सव है। सिर्फ मनुष्य ऊबा हुआ है; ऊब एक मानवीय घटना है। क्या भूल हो गई है?

कुछ भूल अवश्य हुई है। और एक ढंग से यह शुभ लक्षण भी हो सकता है। ऊब मानवीय है। तुम मनुष्य की परिभाषा ऊब से कर सकते हो। अरस्तु ने मनुष्य की परिभाषा बुद्धिमान होने से की है। वह परिभाषा पूरी तरह सही नहीं है; वह शत—प्रतिशत सही नहीं है। क्योंकि फर्क सिर्फ मात्रा का है। पशु भी बुद्धिमान हैं, लेकिन कम बुद्धिमान हैं। वे सर्वथा बुद्धिहीन नहीं हैं। ऐसे पशु भी हैं जो मनुष्य मन के जरा ही नीचे हैं। वे भी अपने ढंग से बुद्धिमान हैं, लेकिन उतने बुद्धिमान नहीं हैं जितने मनुष्य हैं। लेकिन वे बिलकुल निर्बुद्धि नहीं हैं। फर्क मात्रा का ही है। इसलिए मनुष्य की परिभाषा सिर्फ बुद्धि से नहीं हो सकती। लेकिन उसकी परिभाषा ऊब से हो सकती है। एकमात्र मनुष्य ही ऊबा हुआ जानवर है।

और उसकी यह ऊब इस हद तक जा सकती है कि मनुष्य आत्मघात कर सकता है। सिर्फ मनुष्य आत्महत्या करता है, कोई पशु आत्महत्या नहीं करता। आत्महत्या पूरी तरह मानवीय घटना है। जब ऊब इस हद पर पहुंच जाती है जहां आशा भी असंभव हो जाए तो तुम अपने हाथों ही अपनी जिंदगी खतम कर लेते हो, क्योंकि अब इसे ढोए चलने में कोई अर्थ न रहा। तुम इस ऊब को, इस पीड़ा को ढोते हो, झेलते हो, क्योंकि कल अभी भी आशापूर्ण है। तुम्‍हें लगता है कि आज बुरा है, लेकिन कल कुछ होगा। उस आशा में तुम किसी तरह चलते रहते हो।

मैंने सुना है, एक बार चीन के एक सम्राट ने अपने प्रधान मंत्री को फांसी की सजा दे दी। जिस दिन प्रधान मंत्री को फांसी दी जाने वाली थी, सम्राट उससे मिलने आया, उसे अंतिम विदा कहने आया। वह उसका बहुत वर्षों तक वफादार सेवक रहा था, लेकिन उसने कुछ किया जिससे सम्राट बहुत नाराज हो गया और उसे फांसी की सजा दे दी। लेकिन यह याद करके कि यह उसका अंतिम दिन है, सम्राट उससे मिलने आया।

जब सम्राट आया तो उसने देखा कि प्रधान मंत्री रो रहा है, उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। वह सोच भी नहीं सकता था कि मृत्यु उसके रोने का कारण हो सकती है, क्योंकि प्रधान मंत्री बहुत बहादुर आदमी था। उसने कहा. ‘यह कल्पना करना भी असंभव है कि तुम मृत्यु को निकट देखकर रो रहे हो। यह सोचना भी असंभव है। तुम बहादुर आदमी हो और मैंने अनेक बार तुम्हारी बहादुरी देखी है। अवश्य कोई और बात है। क्या बात है? यदि मैं कुछ कर सकता हूं तो जरूर करूंगा।’

प्रधान मंत्री ने कहा : ‘अब कुछ भी नहीं किया जा सकता; और बताने से भी कुछ लाभ नहीं होगा। लेकिन अगर आप जिद करेंगे तो मैं अभी भी आपका सेवक हूं आपकी आज्ञा मानकर बता दूंगा।’

सम्राट ने जिद की और प्रधान मंत्री ने कहा : ‘मेरे रोने का कारण मृत्यु नहीं है; क्योंकि मृत्यु कोई बड़ी बात नहीं है। मनुष्य को एक दिन मरना ही है; किसी भी दिन मृत्यु हो सकती है। मैं तो बाहर खड़े आपके घोड़े को देखकर रो रहा हूं।’

सम्राट ने पूछा. ‘घोड़े के कारण रोते हो? लेकिन क्यों?’

प्रधान मंत्री ने कहा. ‘मैं जिंदगी भर इसी तरह के घोड़े की तलाश में रहा; क्योंकि मैं एक प्राचीन कला जानता हूं। मैं घोड़ों को उड़ना सिखा सकता हूं लेकिन उसके लिए एक खास किस्म का घोड़ा चाहिए। यह उसी किस्म का घोड़ा है। और यह मेरा अंतिम दिन है। मुझे अपनी मृत्यु की फिक्र नहीं है; मैं रोता हूं कि मेरे साथ एक प्राचीन कला भी मर जाएगी।’

सम्राट की उत्सुकता जगी—घोड़ा उड़े, यह कितनी बड़ी बात होगी—उसने कहा : ‘घोड़े को उड़ना सिखाने में कितने दिन लगेंगे?

प्रधान मंत्री ने कहा : कम से कम एक वर्ष—और यह घोड़ा उड़ने लगेगा।’

सम्राट ने कहा. ‘बहुत अच्छा! मैं तुम्हें एक वर्ष के लिए आजाद कर दूंगा। लेकिन स्मरण रहे, यदि एक वर्ष में घोड़ा नहीं उड़ा तो तुम्हें फिर फांसी दे दी जाएगी। और यदि घोड़ा उड़ने लगा तो तुम्हें माफ कर दिया जाएगा। और माफ ही नहीं, मैं तुम्हें अपना आधा राज्य भी दे दूंगा। क्योंकि मैं इतिहास का पहला सम्राट होऊंगा जिसके पास उड़ने वाला घोड़ा होगा। तो जेल से बाहर आ जाओ और रोना बंद करो।’

प्रधान मंत्री घोड़े पर सवार, प्रसन्न और हंसता हुआ अपने घर पहुंचा। उसकी पत्नी अभी भी रो— धो रही थी। उसने कहा : ‘मैंने सब सुन लिया है। तुम्हारे आने के पहले ही मुझे खबर मिल गई है। लेकिन बस एक वर्ष? और मैं जानती हूं तुम्हें कोई कला नहीं आती है और यह घोड़ा कभी उड़ नहीं सकता। यह तो तरकीब है, धोखा है। तो अगर तुम एक साल का समय मांग सकते थे तो दस साल का समय क्यों नहीं माग लिया?’

प्रधान मंत्री ने कहा : ‘वह जरा ज्यादा हो जाता। जो मिला है वही बहुत ज्यादा है। घोड़े

के उड़ने की बात ही अविश्वसनीय है, फिर दस साल का समय मांगना सरासर धोखा होता। लेकिन रोओ मत।’

लेकिन पत्नी ने कहा : ‘यह तो मेरे लिए और बड़े दुख की बात है कि मैं तुम्हारे साथ भी रहूंगी और भीतर— भीतर मुझे पता भी है कि एक वर्ष के बाद तुम्हें फांसी लगने वाली है। यह एक वर्ष तो भारी दुख का वर्ष होगा।’

प्रधान मंत्री ने कहा. ‘अब मैं तुम्हें एक प्राचीन भेद की बात बताता हूं जिसका तुम्हें पता नहीं है। इस एक वर्ष में सम्राट मर सकता है, घोड़ा मर सकता है, मैं मर सकता हूं। या कौन जाने घोड़ा उड़ना ही सीख जाए। एक वर्ष!’

बस आशा—मनुष्य आशा के सहारे जीता है, क्योंकि वह इतना ऊबा हुआ है। और जब ऊब उस बिंदु पर पहुंच जाती है जहां तुम और आशा नहीं कर सकते, जहां निराशा परिपूर्ण होती है, तब तुम आत्महत्या कर लेते हो। ऊब और आत्महत्या, दोनों मानवीय घटनाएं हैं। कोई पशु आत्महत्या नहीं करता है। कोई वृक्ष आत्महत्या नहीं करता है।

ऐसा क्यों हो गया है? इसके पीछे कारण क्या है? क्या आदमी बिलकुल भूल गया है कि कैसे जीया जाता है, कि कैसे जीवन का उत्सव मनाया जाता है? जब कि सारा अस्तित्व उत्सवपूर्ण है, यह कैसे संभव हुआ कि केवल मनुष्य उससे बाहर निकल गया है और उसने अपने चारों ओर विषाद का एक वातावरण निर्मित कर लिया है?

मगर ऐसा ही हो गया है। पशु वृत्तियों के द्वारा जीते हैं; वे बोध से नहीं जीते। वे प्रकृति द्वारा संचालित होते हैं, वे यंत्रवत जीते हैं। उन्हें कुछ सीखना नहीं है; वे उसे लेकर ही जन्म लेते हैं जो सीखने योग्य है। उनका जीवन वृत्तियों के तल पर निर्बाध चलता रहता है। उन्हें कुछ सीखना नहीं है। उन्हें जीने और सुखी होने के लिए जो भी चाहिए वह उनकी कोशिकाओं में बिल्ट—इन है, उसका ब्‍लूप्रिंट पहले से तैयार है। इसलिए वे यंत्रवत जीए जाते हैं।

मनुष्य ने अपने वृत्तिया खो दी हैं, अब उसके पास कोई ब्‍लूप्रिंट नहीं है। तुम बिना किसी ब्लूप्रिंट के, बिना किसी बिल्ट—इन प्रोग्रेम के जन्म लेते हो। तुम्हारे लिए कोई बनी—बनाई यांत्रिक रेखाएं उपलब्ध नहीं हैं, तुम्हें अपना मार्ग स्वयं निर्मित करना है। तुम्हें वृत्ति की जगह कुछ ऐसी चीजें निर्मित करनी हैं जो वृत्ति नहीं हैं, क्योंकि वृत्ति तो जा चुकी। तुम्हें वृत्ति की जगह विवेक से काम लेना है; तुम्हें वृत्ति की जगह बोध से काम लेना है। तुम यंत्र की भांति नहीं चल सकते हो। तुम उस अवस्था के पार चले गए हो जहां यांत्रिक जीवन संभव है; यांत्रिक जीवन तुम्हारे लिए संभव नहीं है। समस्या यह है कि तुम पशु की भांति नहीं जी सकते और तुम यह भी नहीं जानते कि जीने का और कोई ढंग भी है—यही समस्या है।

तुम्हारे पास कोई प्रकृति द्वारा दिया हुआ बिल्ट—इन प्रोग्रेम नहीं है, जिसके अनुसार तुम चलो। तुम्हें अस्तित्व का सीधा साक्षात्कार करना है। और ऊब, दुख और संताप तुम्हारी नियति होने ही वाले हैं, अगर तुम वृत्तियों के सहारे जीने की बजाय बोध से जीने के लिए उपयुक्त बोध पैदा नहीं करते। तुम्हें सब कुछ सीखना है, कही समस्या है। किसी पशु को कुछ सीखना नहीं है और तुम्हें सभी कुछ सीखना है। और जब तक तुम यह नहीं सीखते, तुम्हें जीना मुश्किल होगा। तुम्हें जीने की कला सीखनी होगी; पशु को इसकी जरूरत नहीं है।

सीखना ही समस्या है। वैसे तुम भी बहुत कुछ सीखते हो। तुम धन कमाना सीखते हो, गणित सीखते हो, इतिहास सीखते हो, विज्ञान सीखते हो। लेकिन कभी तुम यह नहीं सीखते कि जीया कैसे जाए। और उससे ही ऊब की समस्या पैदा होती है। पूरी मनुष्यता ऊब से पीड़ित है, क्‍योंकि एक बुनियादी बात अछूती रह जाती है। और उसे वृत्तियों पर नहीं छोड़ा जा सकता; क्योंकि अब जीने के लिए वृत्तियां ही न रहीं। मनुष्य के लिए वृत्ति छूट चुकी है; वह द्वार बंद हो चुका है। तुम्हें अपना मार्ग आप बनाना है। तुम बिना किसी नक्‍शे के पैदा हुए हो।

और यह शुभ है। क्योंकि अस्तित्व समझता है कि तुम इतने जिम्मेवार हो कि अपना मार्ग आप बना सकते हो। यह गौरव की बात है। यह महिमा की बात है। यह मनुष्य को सर्वोच्च बना देती है, अस्तित्व का शिखर बना देती है। क्‍योंकि अस्तित्व तुम्हें स्वतंत्रता देता है। कोई पशु स्वतंत्र नहीं है; उसे अस्तित्व द्वारा दिए गए विशेष प्रोग्रेम के अनुसार जीना है। जब वह जन्म लेता है, वह एक प्रोग्रेम के साथ जन्म लेता है। और उसे इस प्रोग्रेम का अनुसरण करना है। वह उसके बाहर नहीं जा सकता है; वह चुनाव नहीं कर सकता है। उसके लिए कोई विकल्प नहीं है। मनुष्य के लिए सभी विकल्प उपलब्ध हैं; और उसे गति करने के लिए कोई नक्‍शा नहीं दिया गया है।

अगर तुम जीने की कला नहीं सीखते तो तुम्हारा जीवन रूखा—सूखा हो जाएगा, मरुस्थल हो जाएगा। और यही हो गया है। तब तुम बहुत कुछ करते रह सकते हो और फिर भी तुम्हें लगेगा कि मैं जीवित नहीं हूं मैं मुर्दा हूं। तुम्हें लगेगा कि कहीं गहरे में तुम काम भी करते रहते हो, क्योंकि करना पड़ता है। सिर्फ जीने के लिए तुम काम करते रहते हो। लेकिन वह ‘सिर्फ जीना’ जीवन नहीं है। उसमें कोई नृत्य नहीं है, कोई पुलक नहीं है। वह मात्र व्यवसाय बनकर, व्यस्तता बनकर रह गया है। उसमें कोई प्रफुल्लता नहीं है; और जाहिर है कि तुम उसका मजा नहीं ले सकते।

तंत्र की ये विधियां तुम्हें यह सिखाने के लिए हैं कि कैसे जीया जाए। वे तुम्हें सिखाती हैं कि पशुओं की तरह वृत्ति पर मत निर्भर रहो, क्योंकि वह रही नहीं। वह इतनी धुंधली— धुंधली है कि तुम्हारे काम की नहीं है।

निरीक्षण से पाया गया है कि अगर एक मानव—शिशु मां के बिना पाला जाए तो वह कभी प्रेम नहीं सीख सकता, वह कभी प्रेम नहीं कर सकता। वह जीवन— भर प्रेम के बिना जीएगा; क्योंकि अब वृत्ति तो रही नहीं। उसे प्रेम सीखना होगा। उसके लिए प्रेम भी सीखने की चीज है। और जो आदमी का बच्चा प्रेम के अभाव में बड़ा किया गया है वह प्रेम नहीं सीख सकता है। वह कभी प्रेम नहीं कर सकेगा। अगर मां मौजूद नहीं है, और अगर मां सुख और आनंद का स्रोत नहीं बनती है, तो उस बच्चे के जीवन में कभी कोई स्त्री सुख और आनंद का स्रोत नहीं बन सकेगी। वह जब बड़ा होगा, प्रौढ़ होगा, तो वह स्त्रियों के प्रति आकर्षित नहीं होगा; क्योंकि अब वृत्ति तो काम करती नहीं।

पशुओं के साथ यह बात नहीं है। ठीक समय आने पर उनकी वृत्ति काम करने लगती है। समय पर वे कामुक हो जाएंगे और विपरीत लिंग की तरफ आकर्षित होने लगेंगे। यह चीज उनके लिए इंस्टिक्टिव है, यांत्रिक है। मनुष्य के लिए कुछ यांत्रिक नहीं है। अगर तुम मनुष्य के बच्चे को भाषा नहीं सिखाओगे तो उसे भाषा नहीं आएगी। अगर उसे बोलना नहीं सिखाया जाएगा तो उसके पास कोई भाषा नहीं होगी। यह स्वाभाविक नहीं है, इसके लिए कोई वृत्ति नहीं है। तुम जो कुछ भी हो वह सीखने के कारण हो। मनुष्य प्राकृतिक कम और सांस्कृतिक ज्यादा है। पशु सिर्फ प्राकृतिक है, मनुष्य प्राकृतिक कम और सांस्कृतिक ज्यादा है।

लेकिन मनुष्य का एक आयाम, बुनियादी और आधारभूत आयाम असंस्कृत रह जाता है। और वह है जीने का आयाम, जीवन का आयाम। तुम समझते हो कि वह आयाम तुम्हें मिला ही हुआ है, तुम्हारे पास ही है। लेकिन यह बात गलत है। तुम नहीं जानते हो कि कैसे जीया जाए। क्योंकि सिर्फ श्वास लेना जीना नहीं है; श्वास लेना जीवन का पर्याय नहीं है। वैसे ही भोजन करना और सोना भी जीना नहीं है। तब तुम कहने को ही जीवित हो; तुम सच्चे अर्थ में जीवित नहीं हो। तुम जीवंत नहीं हो।

बुद्ध बस जीवित ही नहीं हैं, वे जीवंत हैं। वह जीवंतता तो तभी आती है जब तुम उसे सीखते हो, जब तुम उसके प्रति बोध से भरते हो, जब तुम उसकी खोज करते हो और ऐसी स्थिति निर्मित करते हो जिसमें जीवन विकास कर सके। इसे स्मरण रखो. मनुष्य के लिए यांत्रिक विकास संभव नहीं है। उसकी जगह सचेतन विकास ने ले ली है। अब सचेतन विकास में गति करने के अलावा कोई उपाय नहीं है। अब तुम पीछे नहीं लौट सकते। ही, तुम वहीं टिके रह सकते हो जहां हो। लेकिन तब तुम ऊब से पीड़ित होंगे।

यही हुआ है। तुम विकसित नहीं हो रहे हो। तुम पार्थिव चीजें इकट्ठी किए जा रहे हो; इसलिए चीजें विकसित हो रही हैं। तुम्हारी गति अवरुद्ध है, रुकी हुई है। तुम्हारा धन जमा हो रहा है, इसलिए धन बढ़ रहा है, तुम नहीं बढ़ रहे। तुम्हारा बैंक—बैलेंस बड़ा हो रहा है, तुम नहीं। तुम जरा भी नहीं बढ़ रहे हो; इसके विपरीत तुम सिकुड़ रहे हो, घट रहे हो। तुम बढ़ तो बिलकुल नहीं रहे हो। और अगर तुम कुछ सचेतन रूप से नहीं करते तो तुम गए। सचेतन प्रयत्न की जरूरत है। पशुओं से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि वे जिम्मेवार नहीं हैं। तो यह बहुत बुनियादी बात समझ लेने जैसी है कि स्वतंत्रता के साथ जिम्मेवारी आ जाती है। और तुम तभी स्वतंत्र हो सकते हो जब तुम अपनी जिम्मेवारी स्वीकार करते हो।

पशु जिम्मेवार नहीं हैं, क्योंकि पशु स्वतंत्र भी नहीं हैं। वे स्वतंत्र नहीं हैं, उन्हें बस एक विशेष ढंग—ढांचे का अनुगमन करना है। और वे सुखी हैं, क्योंकि कुछ गलत होने वाला नहीं है। वे पूर्व —निश्चित मार्ग पर चल रहे हैं; वे एक ढांचे का अनुसरण कर रहे हैं, जो लाखों—लाखों वर्षों के विकास—क्रम में निर्मित हुआ है। और वह सही पाया गया है। वे उसके अनुसार चल रहे हैं। उसमें गलत होने की संभावना नहीं है।

लेकिन तुम्हारे गलत होने की सब संभावना है। क्योंकि तुम्हारे लिए कोई नक्‍शा नहीं है, कोई योजना नहीं है, कोई ढंग—ढांचा नहीं है। तुम्हारे भावी जीवन की कोई तय रूपरेखा नहीं है। तुम स्वतंत्र हो। लेकिन तब तुम पर एक भारी दायित्व भी आ जाता है। और वह दायित्व यह है कि तुम सही चुनाव करो, सही ढंग से काम करो और अपने ही प्रयत्न से अपना भविष्य निर्मित करो। सच तो यह है कि मनुष्य को अपने प्रयत्न से ही अपने को निर्मित करना है।

पश्चिम में अस्तित्ववादी जो कहते हैं वह सही है। वे कहते हैं कि मनुष्य एसेंस के बिना, आत्मा के बिना पैदा होता है। सार्त्र, मार्शल, हाइडेगर, सब कहते हैं कि मनुष्य आत्मा के बिना जन्म लेता है। वह अस्तित्व की भांति पैदा होता है और फिर अपने प्रयत्न से वह आत्मा का सृजन करता है। वह एक संभावना की तरह आता है और फिर अपने प्रयत्न से आत्मा का सृजन करता है। वह सिर्फ रूप की तरह जन्म लेता है और फिर अपने सचेतन प्रयत्न से सत्व की रचना करता है।

शेष सारी प्रकृति के साथ बात ठीक उलटी है। प्रत्‍येक पशु, प्रत्‍येक पौधा अपने साथ सत्य लेकर, आत्मा लेकर, एक कार्यक्रम लेकर, एक नियति लेकर जन्म लेता है। सिर्फ मनुष्य एक अवसर की तरह जन्म लेता है, उसकी कोई नियति नहीं है। और इससे ही समस्या पैदा होती है, इससे ही दायित्व पैदा होता है। और इससे ही तुम्हें भय, चिंता और संताप घेरता है। और फिर यदि तुम कुछ नहीं करते हो तो तुम जहां हो वहीं अटक जाते हो। और इस अटकाव से ऊब पैदा होती है।

तुम जीवंत, सुखी, उत्सवपूर्ण और आनंदित तभी होते हो जब तुम विकास करते हो जब तुम बढ़ते हो, विस्तार पाते हो; जब तुम आत्मा का सृजन करते हो, असल में जब तुम परमात्मा से आविष्ट होते हो, जब परमात्मा तुम्हारे गर्भ में विस्तार पाता है, जब तुम परमात्मा को जन्म देते हो।

तंत्र के लिए परमात्मा आरंभ नहीं है, परमात्मा अंत है। परमात्मा स्रष्टा नहीं है परमात्मा विकास का चरम बिंदु है, परम शिखर है। वह अंतिम है, प्रथम नहीं। वह अल्फा नहीं, ओमेगा है। और जब तक तुम गर्भवान नहीं होते, जब तक तुम अपने भीतर जीवन को नहीं पालते, तब तक तुम ऊब से पीड़ित ही रहोगे। क्योंकि तब तक तुम्हारा जीवन व्यर्थ होगा उससे कुछ सार्थक नहीं होने वाला है, उसमें कोई फल नहीं लगने वाला है। और उससे ही ऊब पैदा होती है।

तुम इस अवसर को विकास का साधन बना सकते हो या इसे गंवा सकते हो और आत्मघात का कारण बना सकते हो। यह तुम पर निर्भर है। क्योंकि मनुष्य आत्महत्या कर सकता है, इसलिए मनुष्य ही आध्यात्मिक विकास कर सकता है। कोई पशु आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता है। क्योंकि मनुष्य के हाथ में है कि वह अपने को विनष्ट कर सके इसलिए उसके हाथ में है कि वह अपना सृजन भी कर सके।

स्मरण रहे, दोनों संभावनाएं साथ—साथ हैं, युगपत हैं। कोई पशु आत्महत्या नहीं कर सकता; यह असंभव है। तुम सोच भी नहीं सकते कि कोई सिंह आत्महत्या की बात सोचे, कि वह किसी पहाड़ी से कूदकर अपने को समाप्त कर दे। यह असंभव है। कोई सिंह—चाहे वह कितना ही बलवान हो—कोई सिंह आत्महत्या की बात, अपना जीवन समाप्त करने की बात नहीं सोच सकता। क्योंकि वह स्वतंत्र नहीं है। लेकिन मनुष्य अपने को समाप्त करने की सोच सकता है।

असल में तो ऐसा आदमी खोजना असंभव है जिसने कई बार आत्महत्या करने का विचार न किया हो। और अगर तुम्हें ऐसा कोई आदमी मिल जाए जिसने आत्महत्या का विचार कभी न किया हो तो समझना कि वह या तो पशु है या देवता है।

आत्मघात बुनियादी रूप से मानवीय घटना है। लेकिन इस के साथ ही एक दूसरा द्वार खुलता है कि तुम अपना सृजन भी कर सकते हो। सच तो यह है कि दोनों द्वार युगपत खुलते है। तुम अपना सृजन कर सकते हो, क्योंकि तुम अपना विनाश भी कर सकते हो। कोई पशु अपना सृजन नहीं कर सकता, तुम अपना सृजन कर सकते हो। और यदि तुम अपना सृजन नहीं करते हो तो तुम अपना विनाश करने लगोगे। यदि तुम आत्म—सृजन नहीं करोगे, आत्म—निर्माण में नहीं लगोगे.।

और यह आत्म—सृजन एक प्रक्रिया है; तुम्हें सतत आत्म—सृजन में लगे रहना है। जब तक तुम आत्यंतिक शिखर तक न पहुंच जाओ, तुम्हें सृजन में लगे रहना है। और अगर तुम सृजन नहीं करोगे तो तुम ऊबोगे। सृजन—विहीन जीवन ही ऊब है। और ये सब विधियां तुम्हें सृजन करने में, पुनर्जन्म पाने में, गर्भवान होने में सहयोगी होंगी।

अब मैं विधियों को लेता हूं।

पहली विधि। यह विधि बहुत सरल है और सचमुच अदभुत विधि है। तुम इसे प्रयोग कर सकते हो। कोई भी व्यक्ति इसे प्रयोग कर सकता है। इसमें तुम्हारे टाइप का सवाल नहीं है; कोई भी इसे कर सकता है। और यह विधि सबके लिए सहयोगी होगी। अगर तुम इसमें बहुत गहरे न भी जा सको तो भी वह सहयोगी होगी, तुम्हें ताजा कर जाएगी। जब भी तुम ऊब से भरोगे, यह विधि तुम्हें तुरंत ताजा कर देगी। जब भी तुम थके—हारे महसूस करोगे, यह तुम्हें तुरंत नवजीवन दे देगी। जब भी तुम ऐसी भाव—दशा में होंगे जिसमें जिंदगी से निराशा अनुभव हो, इस विधि के प्रयोग से तुम्हारे भीतर ऊर्जा की नई धार प्रवाहित होने लगेगी।

तो यह सबके लिए उपयोगी है। अगर तुम इस पर ध्यान भी न करो तो भी यह तुम्हारे लिए औषधि का काम करेगी। यह तुम्हें स्वास्थ्य देगी। और यह बहुत सरल है; इसके लिए किसी पूर्व—तैयारी की जरूरत नहीं है।

 

विधि है:

आंख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन हृदय में खुलता है और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।

विधि में प्रवेश के पहले कुछ भूमिका की बातें समझ लेनी हैं। पहली बात कि आंख के बाबत कुछ समझना जरूरी है, क्योंकि पूरी विधि इस पर ही निर्भर करती है।

पहली बात यह है कि बाहर तुम जो भी हो या जो दिखाई पड़ते हो वह झूठ हो सकता है, लेकिन तुम अपनी आंखों को नहीं झुठला सकते। तुम झूठी आंखें नहीं बना सकते हो। तुम झूठा चेहरा बना सकते हो, लेकिन झूठी आंखें नहीं बना सकते। वह असंभव है, जब तक कि तुम गुरजिएफ की तरह परम निष्णात ही न हो जाओ। जब तक तुम अपनी सारी शक्तियों के मालिक न हो जाओ, तुम अपनी आंखों को नहीं झुठला सकते। सामान्य आदमी यह नहीं कर सकता है। आंखों को झुठलाना असंभव है।

यही कारण है कि जब कोई आदमी तुम्हारी आंखों में झांकता है, तुम्हारी आंखों में आंखें डालकर देखता है तो तुम्हें बहुत बुरा लगता है। क्योंकि वह आदमी तुम्हारी असलियत में झांकने की चेष्टा कर रहा है। और वहां तुम कुछ भी नहीं कर सकते; तुम्हारी आंखें असलियत को प्रकट कर देंगी, वे उसे प्रकट कर देंगी जो तुम सचमुच हो। इसीलिए किसी की आंखों में झांकना शिष्टाचार के विरुद्ध माना जाता है। किसी से बातचीत करते समय भी तुम उसकी आंखों में झांकने से बचते हो। जब तक तुम किसी के प्रेम में नहीं हो, जब तक कोई तुम्हारे साथ प्रामाणिक होने को राजी नहीं है, तब तक तुम उसकी आंख में नहीं देख सकते।

एक सीमा है। मनसविदों ने बताया है कि तीस सेकेंड सीमा है। किसी अजनबी की परमात्मा को आंखों में तुम तीस सेकेंड तक देख सकते हो—उससे अधिक नहीं। अगर उससे ज्यादा देर तक देखोगे तो तुम आक्रामक हो रहे हो ओर दूसरा व्‍यक्‍ति तुरंत बुरा मानेगा। हां, बहुत दूर से तुम किसी की आंख में देख सकते हो; क्योंकि तब दूसरे को उसका बोध नहीं होता है। अगर तुम सौ फीट की दूरी पर हो तो मैं तुम्हें घूरता रह सकता हूं; लेकिन अगर सिर्फ दो फीट की दूरी हो तो वैसा करना असंभव है।

किसी भीड़—भरी रेलगाड़ी में, या किसी लिफ्ट में आस—पास बैठे या खड़े होकर भी तुम एक—दूसरे की आंखों में नहीं देखते हो। हो सकता है किसी का शरीर छू जाए, वह उतना बुरा नहीं है; लेकिन तुम दूसरे की आंखों में कभी नहीं झांकते हो। क्योंकि वह जरा ज्यादा हो जाएगा, इतने निकट से तुम आदमी की असलियत में प्रवेश कर जाओगे।

तो पहली बात कि आंखों का कोई संस्कारित रूप नहीं होता, आंखें शुद्ध प्रकृति हैं। आंखों पर मुखौटा नहीं है। और दूसरी बात याद रखने की यह है कि तुम संसार में करीब—करीब सिर्फ आंख के द्वारा गति करते हो। कहते हैं कि तुम्हारी अस्सी प्रतिशत जीवन—यात्रा आंख के सहारे होती है। जिन्होंने आंखों पर काम किया है उन मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि संसार के साथ तुम्हारा अस्सी प्रतिशत संपर्क आंखों के द्वारा होता है। तुम्हारा अस्सी प्रतिशत जीवन आंख से चलता है।

यही कारण है कि जब तुम किसी अंधे आदमी को देखते हो तो तुमको दया आती है। तुम्हें उतनी दया और सहानुभूति तब नहीं होती जब तुम किसी बहरे आदमी को देखते हो। लेकिन जब तुम्हें कोई अंधा आदमी दिखाई देता है तो तुम्हें अचानक उसके प्रति सहानुभूति और करुणा अनुभव होती है। क्यों? क्योंकि वह अस्सी प्रतिशत मरा हुआ है। बहरा आदमी उतना मरा हुआ नहीं है। अगर तुम्हारे हाथ—पांव भी कट जाएं तो भी तुम उतने मृत नहीं अनुभव करोगे, लेकिन अंधा आदमी अस्सी प्रतिशत मुर्दा है। वह केवल बीस प्रतिशत जीवित है।

तुम्हारी अस्सी प्रतिशत ऊर्जा तुम्हारी आंखों से बाहर जाती है। तुम संसार में आंखों के द्वारा गति करते हो। इसलिए जब तुम थकते हो तो सबसे पहले आंखें थकती हैं और फिर शरीर के दूसरे अंग थकते हैं। सबसे पहले तुम्हारी आंखें ही ऊर्जा से रिक्त होती हैं। अगर तुम अपनी आंखों को फिर तरोताजा कर लो तो तुम्हारा पूरा शरीर तरोताजा हो जाएगा, क्योंकि आंखें तुम्हारी अस्सी प्रतिशत ऊर्जा हैं। अगर तुम अपनी आंखों को पुनजार्वित कर लो तो तुमने अपने को पुनर्जीवन दे दिया।

तुम किसी प्राकृतिक परिवेश में कभी उतना नहीं थकते हो जितना किसी अप्राकृतिक शहर में थकते हो। कारण यह है कि प्राकृतिक परिवेश में तुम्हारी आंखों को निरंतर पोषण मिलता है। वहां की हरियाली, वहां की ताजी हवा, वहां की हर चीज तुम्हारी आंखों को आराम देती है, पोषण देती है। एक आधुनिक शहर में बात उलटी है; वहां सब कुछ तुम्हारी आंखों का शोषण करता है, वहां उन्हें पोषण नहीं मिलता है।

तुम किसी दूर देहात में चले जाओ, या किसी पहाड़ पर चले जाओ जहां के माहौल में कुछ भी कृत्रिम नहीं है, जहां सब कुछ प्राकृतिक है, और वहां तुम्हें भिन्न ही ढंग की आंखें देखने को मिलेंगी। उनकी झलक, उनकी गुणवत्ता और होगी, वे ताजी होंगी, पशुओं जैसी निर्मल होंगी, गहरी होंगी, जीवंत और नाचती हुई होंगी। आधुनिक शहर में आंखें मृत होती है; बुझी—बुझी होती हैं। उन्हें उत्सव का पता नहीं है। उन्हें मालूम नहीं कि ताजगी क्या है। वहां आंखों में जीवन का प्रवाह नहीं है, बस उनका शोषण होता है।

तुम्हारी अस्सी प्रतिशत ऊर्जा आंखों से होकर बहती है। तुम्हें इसका पूरा—पूरा बोध होना चाहिए और तुम्हें आंखों की गति, उनकी ऊर्जा, उनकी संभावना के संबंध में जागरूक होना चाहिए।

भारत में हम अंधे व्यक्तियों को प्रज्ञाचक्षु कहते हैं; उसका विशेष कारण है। प्रत्येक दुर्भाग्य को महान अवसर में रूपांतरित किया जा सकता है। आंखों से होकर अस्सी प्रतिशत ऊर्जा काम करती है, और अंधा आदमी अस्सी प्रतिशत मुर्दा होता है, संसार के साथ उसका अस्सी प्रतिशत संपर्क टूटा होता है। जहां तक बाहरी दुनिया का संबंध है, वह आदमी बहुत दीन है। लेकिन अगर वह इस अवसर का, इस अंधे होने के अवसर का उपयोग करना चाहे तो वह इस अस्सी प्रतिशत ऊर्जा का उपयोग अपने आंतरिक जगत के आविष्कार के लिए कर सकता है। यह अस्सी प्रतिशत ऊर्जा, जिसके बहने का सामान्य द्वार बंद है, बिना उपयोग के रह जाती है, यदि वह उसकी कला नहीं जानता है।

तो उसके पास अस्सी प्रतिशत ऊर्जा का भंडार पड़ा है, और जो ऊर्जा सामान्यत: बहिर्यात्रा में लगती है वही ऊर्जा अंतर्यात्रा में लग सकती है। अगर वह उसे अंतर्यात्रा में संलग्न करना जान ले तो वह प्रज्ञाचक्षु हो जाएगा, विवेकवान हो जाएगा।

तो अंधा होने से ही कोई प्रज्ञाचक्षु नहीं हो जाता, लेकिन वह हो सकता है। उसके पास सामान्य आंखें तो नहीं हैं, लेकिन उसे प्रज्ञा की आंखें मिल सकती हैं। इसकी संभावना है। हमने उसे प्रज्ञाचक्षु नाम यह बोध देने के इरादे से दिया कि वह इसके लिए दुख न माने कि उसे आंखें नहीं हैं। वह अंतर्चक्षु निर्मित कर सकता है। उसके पास अस्सी प्रतिशत ऊर्जा का भंडार अछूता पड़ा है जो आंख वालों के पास नहीं है। वह उसका उपयोग कर सकता है। वह अंतर्यात्रा कर सकता है।

यदि अंधा आदमी बोधपूर्ण नहीं है तो भी वह तुमसे ज्यादा शात होता है, ज्यादा विश्रामपूर्ण होता है। किसी अंधे आदमी को देखो, वह ज्यादा शांत है, उसका चेहरा ज्यादा विश्रामपूर्ण है। वह अपने आप में संतुष्ट है, उसमें असंतोष नहीं है। यह बात बहरे आदमी के साथ नहीं होती है। बहरा आदमी तुमसे ज्यादा अशात होगा और चालाक होगा। लेकिन अंधा आदमी न अशात होता है और न चालाक और हिसाबी—किताबी होता है। वह बुनियादी तौर से श्रद्धावान होता है, अस्तित्व के प्रति श्रद्धावान होता है।

ऐसा क्यों होता है? क्योंकि उसकी अस्सी प्रतिशत ऊर्जा, हालाकि वह उसके बारे में कुछ नहीं जानता है, भीतर की ओर प्रवाहित हो रही है। वह ऊर्जा सतत भीतर गिर रही है, ठीक जलप्रपात की तरह गिर रही है। उसे इसका बोध नहीं है, लेकिन यह ऊर्जा उसके हृदय पर बरसती रहती है। वही ऊर्जा जो बाहर जाती है, उसके हृदय में जा रही है। और यह चीज

उसके जीवन का गुणधर्म बदल देती है। प्राचीन भारत में अंधे आदमी को बहुत आदर मिलता था—बहुत—बहुत आदर। अत्यंत आदर में हमने उसे प्रज्ञाचक्षु कहा है।

तुम यही अपनी आंखों के साथ कर सकते हो। यह विधि उसके लिए ही है। यह तुम्हारी बाहर जाने वाली ऊर्जा को वापस लाने, तुम्हारे हृदय केंद्र पर उतारने की विधि है। अगर वह ऊर्जा तुम्‍हारे ह्रदय में उत्‍तर जाए तो तुम बहुत हलके हो जोओगे। तुम्‍हें ऐसा लगेगा। कि सारा शरीर एक पंख बन गया है, कि तुम पर अब गुरुत्वाकर्षण का कोई प्रभाव न रहा। और तुम तब तुरंत अपने अस्तित्व के गहनतम स्रोत से जुड़ जाते हो, और वह तुम्हें पुनरुज्जीवित कर देता है।

तंत्र के अनुसार, गाढ़ी नींद के बाद तुम्हें जो नवजीवन मिलता है, जो ताजगी मिलती है, उसका कारण नींद नहीं है, उसका कारण है कि जो ऊर्जा बाहर जा रही थी वही ऊर्जा भीतर आ जाती है। अगर तुम यह राज जान लो तो जो नींद सामान्य व्यक्ति छह या आठ घंटों में पूरी करता है, तुम कुछ मिनटों में पूरी कर सकते हो। छह या आठ घंटे की नींद में तुम खुद कुछ नहीं करते हो, प्रकृति ही कुछ करती है, और इसका तुम्हें बोध नहीं है कि वह क्या करती है। तुम्हारी नींद में एक रहस्यपूर्ण प्रक्रिया घटती है। उसकी एक बुनियादी बात यह है कि तुम्हारी ऊर्जा बाहर नहीं जाती, वह तुम्हारे हृदय पर बरसती रहती है। और वही चीज तुम्हें नया जीवन देती है, तुम अपनी ही ऊर्जा में गहन स्नान कर लेते हो।

इस गतिशील ऊर्जा के संबंध में कुछ और बातें समझने की हैं। तुमने गौर किया होगा कि अगर कोई व्यक्ति तुमसे ऊपर है तो वह तुम्हारी आंखों में सीधे देखता है और अगर वह तुमसे कमजोर है तो वह नीचे की तरफ देखता है। नौकर, गुलाम या कोई भी कम महत्व का व्यक्ति अपने से बड़े व्यक्ति की आंखों में नहीं देखेगा। लेकिन बड़ा आदमी घूर सकता है, सम्राट घूर सकता है। लेकिन सम्राट के सामने खड़े होकर तुम उसकी आंख से आंख मिलाकर नहीं देख सकते हो, वह गुनाह समझा जाएगा। तुम्हें अपनी आंखों को झुकाए रहना है।

असल में तुम्हारी ऊर्जा तुम्हारी आंखों से गति करती है और वह सूक्ष्म हिंसा बन सकती है। यह बात मनुष्यों के लिए ही नहीं, पशुओं के लिए भी सही है। जब दो अजनबी मिलते हैं, दो जानवर मिलते हैं, तो वे एक—दूसरे की आंख में झांकते हैं कि कौन शक्तिशाली है और कौन कमजोर। और एक बार एक जानवर ने आंखें नीची कर लीं तो मामला तय हो गया; फिर वे लड़ते नहीं। बात खत्म हो गई। निश्चित हो गया कि उनमें कौन श्रेष्ठ है।

बच्चे भी एक—दूसरे की आंख में घूरने का खेल खेलते हैं; और जो भी आंख पहले हटा लेता है वह हार गया माना जाता है। और बच्चे सही हैं। जब दो बच्चे एक—दूसरे की आंखों में घूरते हैं तो उनमें जो भी पहले बेचैनी अनुभव करता है, इधर—उधर देखने लगता है, दूसरे की आंख से बचता है, वह पराजित माना जाता है; और जो घूरता ही रहता है वह शक्तिशाली माना जाता है। अगर तुम्हारी आंखें दूसरे की आंखों को हरा दें तो यह इस बात का सूक्ष्म लक्षण है कि तुम दूसरे से शक्तिशाली हो।

जब कोई व्यक्ति भाषण देने या अभिनय करने के लिए मंच पर खड़ा होता है तो वह बहुत भयभीत होता है, वह कांपने लगता है। जो लोग पुराने अभिनेता हैं, वे भी जब मंच पर आते हैं तो उन्हें भय पकड़ लेता है। कारण यह है कि उन्हें इतनी आंखें देख रही हैं उनकी और इतनी आक्रामक ऊर्जा प्रवाहित हो रही है। उनकी ओर हजारों लोगों से इतनी ऊर्जा प्रवाहित होती है कि वे अचानक अपने भीतर कांपने लगते हैं।

एक सूक्ष्म ऊर्जा आंखों से प्रवाहित होती है। एक अत्यंत सूक्ष्म, अत्यंत परिष्कृत शक्ति आंखों से प्रवाहित होती है। और व्‍यक्‍ति—व्‍यक्‍ति के साथ इस ऊर्जा का गुणधर्म बदल जाता है।

बुद्ध की आंखों से एक तरह की ऊर्जा प्रवाहित होती है और हिटलर की आंखों से सर्वथा भिन्न तरह की ऊर्जा प्रवाहित होती है। अगर तुम बुद्ध की आंखों में देखो तो पाओगे कि वे आंखें तुम्हें बुला रही हैं, तुम्हारा स्वागत कर रही हैं। बुद्ध की आंखें तुम्हारे लिए द्वार बन जाती हैं। और अगर तुम हिटलर की आंखों में देखो तो पाओगे कि वे तुम्हें अस्वीकार कर रही हैं, तुम्हारी निंदा कर रही हैं, तुम्हें दूर हटा रही हैं। हिटलर की आंखें तलवार जैसी हैं और बुद्ध की आंखें कमल जैसी हैं। हिटलर की आंखों में हिंसा है; बुद्ध की आंखों में करुणा।

आंखों का गुणधर्म अलग—अलग है। देर— अबेर हम आंख की ऊर्जा को नापने की विधि खोज लेंगे, और तब मनुष्य के संबंध में जानने को बहुत नहीं बचेगा। सिर्फ आंख की ऊर्जा, आंख का गुणधर्म बता देगा कि उसके पीछे किस किस्म का व्यक्ति छिपा है। देर—अबेर इसे नापना संभव हो जाएगा।

यह सूत्र, यह विधि इस प्रकार है : ‘आंख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन हृदय में खुलता है और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।’

‘आंख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से……..।’

दोनों हथेलियों का उपयोग करो, उन्हें अपनी आंखों पर रखो और हथेलियों से पुतलियों को स्पर्श करो—जैसे पंख से उन्हें छू रहे हो। पुतलियों पर जरा भी दबाव मत डालों। अगर दबाव डालते हो तो तुम पूरी बात ही चूक गए। तब पूरी विधि ही व्यर्थ हो गई। कोई दबाव मत डालो; बस पंख की तरह छुओ।

ऐसा स्पर्श, पंखवत स्पर्श धीरे— धीरे आएगा। आरंभ में तुम दबाव दोगे। इस दबाव को कम से कम करते जाओ—जब तक कि दबाव बिलकुल न मालूम हो, तुम्हारी हथेलियां पुतलियों को स्पर्श भर करें—मात्र स्पर्श। इस स्पर्श में जरा भी दबाव न रहे। यदि जरा भी दबाव रह गया तो विधि काम न करेगी। इसलिए इसे पंख—स्पर्श कहा गया है।

क्यों? क्योंकि जहां सुई से काम चले वहां तलवार चलाने से क्या होगा? कुछ काम हैं जिन्हें सुई ही कर सकती है; उन्हें तलवार नहीं कर सकती। अगर तुम पुतलियों पर दबाव देते हो तो स्पर्श का गुण बदल गया; तब तुम आक्रामक हो। और जो ऊर्जा आंखों से बहती है वह बहुत सूक्ष्म है, बहुत बारीक है। जरा सा दबाव, और एक संघर्ष, एक प्रतिरोध पैदा हो जाता है। दबाव पड़ने से आंखों से बहने वाली ऊर्जा लड़ेगी, प्रतिरोध करेगी। एक संघर्ष चलेगा। तो बिलकुल दबाव मत डालो; आंख की ऊर्जा को हलके से दबाव का भी पता चल जाता है; वह बहुत सूक्ष्म है, कोमल है। तो दबाव बिलकुल नहीं, तुम्हारी हथेलियां पंख की तरह पुतलियों को ऐसे छुए जैसे न छू रही हों। आंखों को ऐसे स्पर्श करो कि वह स्पर्श पता भी न चले, किंचित भी दबाव न पड़े, बस हलका सा अहसास हो कि हथेली पुतली को छू रही है। बस!

इससे क्या होगा? जब तुम किसी दबाव के बिना स्पर्श करते हो तो ऊर्जा भीतर की ओर गति करने लगती है। और अगर दबाव पड़ता है तो ऊर्जा हाथ से लड़ने लगती है और। वह बाहर चली जाती है। लेकिन अगर हलका सा स्पर्श हो, पंख—स्पर्श हो, तो ऊर्जा भीतर की तरफ बहने लगती है। एक द्वार बंद है, बाहर का द्वार बंद है; और ऊर्जा पीछे की तरफ लौट पड़ती है। और जिस क्षण ऊर्जा पीछे की तरफ बहने लगेगी, तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे पूरे चेहरे पर और तुम्‍हारे सिर में एक हलकापन फैल गया है। वह प्रतिक्रमण करती हुई ऊर्जा ही, पीछे लौटती ऊर्जा ही तुम्हें हलका बनाती है।

और इन दो आंखों के मध्य में तीसरी आंख है, प्रज्ञाचक्षु है। इन्हीं दो आंखों के मध्य में शिवनेत्र है। आंखों से पीछे की ओर बहने वाली ऊर्जा तीसरी आंख पर चोट करती है और उसके कारण ही तुम हलकापन महसूस करते हो, जमीन से ऊपर उठते मालूम पड़ते हो, मानो गुरुत्वाकर्षण समाप्त हो गया हो। और यही ऊर्जा तीसरी आंख से चलकर हृदय पर उतरती है।

यह एक शारीरिक प्रक्रिया है। बूंद—बूंद ऊर्जा नीचे गिरती है, हृदय पर बरसती है। और तुम्हारे हृदय में बहुत हलकापन अनुभव होगा। हृदय की धड़कन बहुत धीमी हो जाएगी और श्वास की गति धीमी हो जाएगी और तुम्हारा शरीर, सारा शरीर विश्राम अनुभव करेगा।

यदि तुम इसे ध्यान की तरह नहीं भी करते हो तो भी यह प्रयोग तुम्हें शारीरिक रूप से सहयोगी होगा। दिन में कभी भी कुर्सी पर बैठे हुए, या यदि कुर्सी न हो तो रेलगाड़ी या कहीं भी बैठे हुँए, आंखें बंद कर लो, पूरे शरीर को शिथिल छोड़ दो और अपनी हथेलियों को आंखों पर रखो। लेकिन आंखों पर दबाव मत डालों—यही बात बहुत महत्वपूर्ण है—पंख की भांति छुओ भर!

जब तुम बिना दबाव के छूते हो तो तुम्हारे विचार तत्क्षण बंद हो जाते हैं। शात मन में विचार नहीं चल सकते, वे ठहर जाते हैं। विचारों को गति करने के लिए पागलपन जरूरी है, तनाव जरूरी है। विचार तनाव के सहारे जीते हैं। जब आंखें मौन, शिथिल और शात हैं और ऊर्जा पीछे की तरफ गति करने लगती है तो विचार ठहर जाते हैं। तुम्हें एक सूक्ष्म सुख का अनुभव होगा जो रोज प्रगाढ़ होता जाएगा।

दिन में यह प्रयोग कई बार करो। एक क्षण के लिए भी यह छूना अच्छा रहेगा। जब भी तुम्हारी आंखें थक जाएं, जब भी उनकी ऊर्जा चुक जाए, वे बोझिल अनुभव करें—जैसा पढ़ने, फिल्म देखने या टी वी देखने से होता है—तो आंखें बंद कर लो और उन्हें स्पर्श करो। उसका असर तत्‍क्षण होगा।

लेकिन अगर तुम इसे ध्यान बनाना चाहते हो तो कम से कम चालीस मिनट तक इसे करना चाहिए। और कुल बात इतनी है कि दबाव मत डालों, सिर्फ छुओ। क्योंकि एक क्षण के लिए तो पंख जैसा स्पर्श आसान है, लेकिन ऐसा स्पर्श चालीस मिनट रहे, यह कठिन है। अनेक बार तुम भूल जाओगे और दबाना शुरू कर दोगे।

दबाव मत डालों। चालीस मिनट तक यह बोध बना रहे कि तुम्हारे हाथों में कोई वजन नहीं है, वे सिर्फ स्पर्श कर रहे हैं। इसका सतत होश बना रहे कि तुम आंखों को दबाते नहीं, केवल छूते हो। फिर यह श्वास की भाति गहरा बोध बन जाएगा। जैसे बुद्ध कहते हैं कि पूरे होश से श्वास लो, वैसे ही स्पर्श भी पूरे होश से करो। तुम्हें सतत स्मरण रहे कि मैं बिलकुल दबाव न डालूं। तुम्हारे हाथों को पंख जैसा हलका होना चाहिए—बिलकुल वजन—शून्य, मात्र स्पर्श। तुम्हारा अवधान एकाग्र होकर वहां रहेगा; ऊर्जा निरंतर बहती रहेगी।

आरंभ में ऊर्जा बूंद—बूंद आएगी। फिर कुछ ही महीनों में तुम देखोगे कि वह सरित—प्रवाह बन गया है। और वर्ष भर के भीतर वह बाढ़ बन जाएगी। और जब यह घटित होगा—’आंख’ की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन’—जब तुम छुओगे तो तुम्हें हलकापन अनुभव होगा। तुम इसे अभी ही अनुभव कर सकते हो। जैसे ही तुम छूते हो, तत्काल एक हलकापन पैदा हो जाता है। और वह ‘उनके बीच का हलकापन हृदय में खुलता है,’ वह हलकापन गहरे उतरता है, हृदय में खुलता है।

हृदय में केवल हलकापन प्रवेश कर सकता है; कुछ भी जो भारी है वह हृदय में नहीं प्रवेश कर सकता। हृदय में सिर्फ हलकी चीजें घटित हो सकती हैं। दो आंखों के बीच का यह हलकापन हृदय में गिरने लगेगा और हृदय उसे ग्रहण करने को खुल जाएगा।

‘और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।’

और जैसे—जैसे यह ऊर्जा की वर्षा पहले झरना बनती है, फिर नदी बनती है और फिर बाढ़ बनती है, तुम उसमें खो जाओगे, बह जाओगे। तुम्हें अनुभव होगा कि तुम नहीं हो। तुम्हें अनुभव होगा कि सिर्फ ब्रह्मांड है। श्वास लेते हुए, श्वास छोड़ते हुए तुम ब्रह्मांड ही हो जाओगे; तब श्वास के साथ—साथ ब्रह्मांड ही भीतर आएगा और ब्रह्मांड ही बाहर जाएगा। तब अहंकार, जो तुम सदा रहे हो, नहीं रहेगा। तब अहंकार गया।

यह विधि बहुत सरल है, इसमें कोई खतरा नहीं है। तुम जैसे चाहो इसके साथ प्रयोग कर सकते हो। लेकिन इसके सरल होने के कारण ही तुम इसे करने में भूल भी कर सकते हो। पूरी बात इस पर निर्भर है कि दबाव के बिना छूना है।

तुम्हें यह सीखना पड़ेगा। प्रयोग करते रहो। एक सप्ताह के भीतर यह सध जाएगा। अचानक किसी दिन जब तुम दबाव दिए बिना छुओगे, तुम्हें तत्‍क्षण वह अनुभव होगा जिसकी मैं बात कर रहा हूं। एक हलकापन, हृदय का खुलना और किसी चीज का सिर से हृदय में उतरना अनुभव होगा।

 

दूसरी विधि:

हे दयामयी अपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत नीचे? आकाशीय उपस्थिति में प्रवेश करो।

ह दूसरी विधि तभी प्रयोग की जा सकती है जब तुमने पहली विधि पूरी कर ली है। यह प्रयोग अलग से भी किया जा सकता है, लेकिन तब यह बहुत कठिन होगा। इसलिए पहली विधि पूरी करके ही इसे करना अच्छा है। और तब यह विधि बहुत सरल भी हो जाएगी। जब भी ऐसा होता है—कि तुम हलके—फुलके अनुभव करते हो, जमीन से उठते हुए अनुभव करते हो, मानो तुम उड़ सकते हो—तभी अचानक तुम्हें बोध होगा कि तुम्हारा शरीर को चारों ओर से एक नीला आभा—मंडल घेरे है।

लेकिन यह अनुभव तभी होगा जब तुम्हें लगे कि मैं जमीन से ऊपर उठ सकता हूं कि मेरा शरीर आकाश में उड़ सकता है, कि वह बिलकुल हलका और निर्भार हो गया है, कि वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बिलकुल मुक्त हो गया है।

ऐसा नहीं है कि तुम उड़ सकते हो; वह प्रश्न नहीं है। हालाकि कभी—कभी यह भी होता है। कभी—कभी ऐसा संतुलन बैठ जाता है कि तुम्हारा शरीर ऊपर उठ जाता है। लेकिन वह प्रश्न ही नहीं है; उसकी सोचो ही मत। बंद आंखों से इतना महसूस करना काफी है कि तुम्हारा शरीर ऊपर उठ गया है। जब तुम आंख खोलोगे तो पाओगे कि तुम जमीन पर ही बैठे हो। उसकी चिंता मत करो। अगर तुम बंद आंखों से महसूस कर सके कि शरीर ऊपर उठ गया है, कि उसमें कोई वजन न रहा, तो इतना काफी है।

ध्यान के लिए इतना काफी है। लेकिन अगर तुम आकाश में उड़ना सीखने की चेष्टा कर रहे हो तो यह काफी नहीं है। लेकिन मैं उसमें उत्सुक नहीं हूं और मैं तुम्हें उसके संबंध में कुछ नहीं बताऊंगा। इतना पर्याप्त है कि तुम्हें महसूस हो कि तुम्हारे शरीर पर कोई भार नहीं है, वह निर्भार हो गया है।

और जब भी यह हलकापन महसूस हो तो आंखें बंद रखे हुए ही अपने शरीर के आकार के प्रति बोधपूर्ण होओ। आंखों को बंद रखते हुए आठों को और उनके आकार को महसूस करो, पैरों को और उनके आकार को महसूस करो। अगर तुम बुद्ध की भाति सिद्धासन में बैठे हो तो बैठे ही बैठे अपने शरीर के आकार को अनुभव करो। तुम्हें अनुभव होगा, स्पष्ट अनुभव होगा, और उसके साथ ही साथ तुम्हें बोध होगा कि उस आकार के चारों ओर नीला सा प्रकाश फैला है।

आरंभ में यह प्रयोग आंखों को बंद रख कर करो। और जब यह प्रकाश फैलता जाए और तुम्हें आकार के चारों ओर नीला प्रकाश—मंडल महसूस हो, तब कभी यह प्रयोग रात में, अंधेरे कमरे में करते समय आंखें खोल लो, और तुम अपने शरीर के चारों ओर एक नीला प्रकाश, एक नीला आभा—मंडल देखोगे। अगर तुम इसे बंद आंखों से नहीं, खुली आंखों से देखना चाहते हो, इसे सचमुच देखना चाहते हो तो यह प्रयोग किसी अंधेरे कमरे में करो जहां कोई रोशनी न हो।

यह नीला प्रकाश, यह नीला आभा—मंडल तुम्हारे आकाश—शरीर की उपस्थिति है। तुम्हारे कई शरीर हैं। यह विधि आकाश—शरीर से संबंध रखती है, और तुम आकाश—शरीर के द्वारा ऊंची से ऊंची समाधि में प्रवेश कर सकते हो।

सात शरीर हैं और भगवत्ता में प्रवेश के लिए प्रत्येक शरीर का उपयोग हो सकता है। प्रत्येक शरीर एक द्वार है। यह विधि आकाश—शरीर का उपयोग करती है। और आकाश—शरीर को प्राप्त करना सबसे सरल है। शरीर के तल पर जितनी ज्यादा गहराई होगी उतनी ही उसकी उपलब्धि कठिन होगी। लेकिन आकाश—शरीर तुम्हारे बहुत निकट है, स्थूल शरीर के बहुत निकट है। आकाश—शरीर तुम्हारा दूसरा शरीर है, जो तुम्हारे चारों ओर है—तुम्हारे स्थूल शरीर के चारों ओर। यह तुम्हारे शरीर के भीतर भी है और यह शरीर को चारों ओर से एक धुंधली आभा की तरह, नीले प्रकाश की तरह, ढीले परिधान की तरह घेरे हुए है।

‘हे दयामयी, अपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत नीचे, आकाशीय उपस्थिति में प्रवेश करो।’

बहुत ऊपर, बहुत नीचे—तुम्हारे चारों ओर, सर्वत्र। यदि तुम अपने सब ओर उस नीले प्रकाश को देख सको तो विचार तुरंत ठहर जाएगा; क्योंकि आकाश—शरीर के लिए विचार करने की जरूरत नहीं है। यह नीला प्रकाश बहुत शांतिदायी है। क्यों? क्योंकि वह तुम्हारे आकाश—शरीर का प्रकाश है। नीला आकाश ही कितना विश्रामपूर्ण है! क्यों? क्योंकि वह तुम्हारे आकाश—शरीर का रंग है। और आकाश—शरीर स्वयं बहुत विश्रामपूर्ण है।

जब भी कोई व्‍यक्‍ति तुम्‍हें प्रेम करता है। जब भी कोई व्‍यक्‍ति तुम्‍हें स्पर्श करता है, तब वह तुम्हारे आकाश—शरीर को स्पर्श करता है। इसीलिए तुम्हें वह इतना सुखदायी मालूम पड़ता है। इसका तो फोटोग्राफ भी लिया जा चुका है। जब दो प्रेमी गहन प्रेम में संभोग में उतरते हैं और यदि उनका संभोग एक खास अवधि तक चले, चालीस मिनट से ऊपर चले और स्खलन न हो, तो गहन प्रेम में डूबे उन दो शरीरों के चारों ओर एक नीला प्रकाश छा जाता है। उसका फोटो लिया जा चुका है।

और कभी—कभी तो बहुत अजीब घटनाएं घटती हैं; क्योंकि यह प्रकाश बहुत ही सूक्ष्म विद्युत—शक्ति है। सारे संसार में बहुत सी ऐसी घटनाएं घटी हैं। नए प्रेमियों का एक जोड़ा हनीमून मनाने के लिए नए कमरे में ठहरा है, पहली रात है और वे एक—दूसरे के शरीर से परिचित नहीं हैं, वे नहीं जानते हैं कि क्या संभव है। अगर दोनों के शरीर प्रेम के, आकर्षण के, लगाव और हार्दिकता के एक विशेष तरंग से तरंगायित हैं, एक—दूसरे के प्रति खुले हैं, ग्रहणशील हैं, एक—दूसरे में डूब जाने को तत्पर हैं तो कभी—कभी ऐसा आकस्मिक रूप से हुआ है कि उनके शरीर इतने विद्युतमय हो गए हैं, उनके आकाश—शरीर इतने आविष्ट और जीवंत हो गए हैं, कि उनके प्रभाव से कमरे की चीजें गिरने लगी हैं।

बहुत अजीब घटनाएं घटी हैं। मेज पर एक ग्रतइr रखी है, वह जमीन पर गिर जाती है। मेज का शीशा अचानक टूट जाता है। वहां कोई तीसरा व्यक्ति नहीं है, मात्र वह जोडा है वहां। उन्होंने मेज या शीशे को स्पर्श भी नहीं किया है। और ऐसा भी हुआ है कि अचानक कुछ जलने लगता है। दुनिया भर में ऐसे मामलों की खबरें पुलिस चौकियों में दर्ज हुई हैं। उन पर खोजबीन की गई है और पाया गया है कि गहन प्रेम में संलग्न दो व्यक्ति ऐसी विद्युत शक्ति का सृजन कर सकते हैं कि उससे उनके आस—पास की चीजें प्रभावित हो सकती हैं।

वह शक्ति भी आकाश—शरीर से आती है। तुम्हारा आकाश—शरीर तुम्हारा विद्युत—शरीर है। जब भी तुम ऊर्जा से भरे होते हो तब तुम्हारा आकाश—शरीर बड़ा हो जाता है। और जब तुम उदास, बुझे—बुझे होते हो तो तुम्हारा आकाश—शरीर सिकुड़कर शरीर के भीतर सिमट जाता है। इसीलिए उदास और दुखी व्यक्ति के पास तुम भी उदास और दुखी हो जाते हो। अगर कोई दुखी व्यक्ति इस कमरे में प्रवेश करे तो तुम्हें लगेगा कि कुछ गड़बड़ हो रही है, क्योंकि उसका आकाश—शरीर तुम्हें तुरंत प्रभावित करता है। वह शक्ति चूसता है; क्योंकि उसकी अपनी शक्ति इतनी बुझी—बुझी है कि वह दूसरों की शक्ति चूसने लगता है।

उदास आदमी तुम्हें उदास बना देगा, दुखी आदमी तुम्हें दुखी कर देगा, बीमार व्यक्ति तुम्हें बीमार कर देगा। क्यों? क्योंकि वह उतना ही नहीं है जितना तुम देखते हो, उसके भीतर कुछ छिपा है जो काम कर रहा है। हालांकि उसने कुछ नहीं कहा है, हालांकि वह बाहर से मुस्कुरा रहा है; तो भी यदि वह दुखी है तो वह तुम्हारा शोषण करेगा, तुम्हारे आकाश—शरीर की ऊर्जा क्षीण हो जाएगी। वह तुम्हारी उतनी शक्ति खींच लेगा, वह तुम्हें उतना चूस लेगा। और जब कोई सुखी व्यक्ति कमरे में प्रवेश करता है तो तुम भी तत्‍क्षण सुख महसूस करने लगते हो। सुखी व्यक्ति इतनी आकाशीय शक्ति बिखेरता है कि वह तुम्हारे लिए भोजन बन जाती है, वह तुम्हारा पोषण बन जाती है। उसके पास अतिशय ऊर्जा है; वह ऊर्जा उससे बह रही है।

जब कोई बुद्ध, कोई क्राइस्ट, कोई कृष्ण तुम्हारे पास से गुजरते हैं तो वे तुम्हें निरंतर एक सूक्ष्म भोजन दे रहे हैं और तुम निरंतर उनके मेहमान हो। और जब तुम किसी बुद्ध के दर्शन करके लौटते हो तो तुम अत्‍यंत पुनजीर्वित, अत्‍यंत ताजा, अत्‍यंत जीवंत अनुभव करते हो। हुआ क्या है? बुद्ध कुछ बोले भी न हों, मात्र दर्शन से तुम्हें लगता है कि मेरे भीतर कुछ बदल गया है, मेरे भीतर कुछ प्रविष्ट हो गया है। क्या प्रविष्ट हो गया है? बुद्ध इतने आप्तकाम हैं, इतने आपूरिरत हैं, इतने लबालब भरे हैं कि वे ऊर्जा का सागर बन गए हैं। और उनकी ऊर्जा बाढ़ की भांति बह रही है।

जो भी व्यक्ति स्वस्थ होता है, शांत होता है, वह सदा बाढ़ बन जाता है। क्योंकि अब उसकी ऊर्जा उन व्यर्थ की बातों में, उन नासमझियों में व्यय नहीं होती जिनमें तुम अपनी ऊर्जा गंवा रहे हो। उसके साथ उसके चारों ओर सदा ऊर्जा की बाढ़ चलती है। और जो भी उसके संपर्क में अता है, वह उसका लाभ ले सकता है।

जीसस कहते हैं: ‘मेरे पास आओ। अगर तुम बहुत बोझिल हो तो मेरे पास आओ। मैं तुम्हें निबोंझ कर दूंगा।’

असल में जीसस कुछ नहीं करते, बस उनकी उपस्थिति में कुछ होता है। कहते हैं कि जब कोई भगवत्ता को उपलब्ध पुरुष, कोई तीर्थंकर, कोई अवतार, कोई क्राइस्ट पृथ्वी पर चलता है तो उसके चारों ओर एक विशेष वातावरण, एक प्रभाव— क्षेत्र निर्मित होता है। जैन योगियों ने तो इसका माप भी लिया है। वे कहते हैं कि यह प्रभाव— क्षेत्र चौबीस मील के घेरे में होता है। तीर्थंकर के चारों ओर चौबीस मील की परिधि होती है और इस परिधि के भीतर आने वाला प्रत्येक व्यक्ति इस ऊर्जा से नहा जाता है। चाहे उसे इसका बोध हो या न हो, चाहे वह मित्र हो या शत्रु हो, अनुयायी हो या विरोधी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

हां, यदि तुम अनुयायी हो तो तुम खूब भर जाते हो, क्योंकि तुम खुले हुए हो। विरोधी भी भरता है, लेकिन उतना नहीं, क्योंकि विरोधी बंद होता है। लेकिन ऊर्जा तो सब पर बरसती है। एक अकेला व्यक्ति यदि अनुद्विग्न है, शात है, मौन है, आनंदित है, तो वह शक्ति का पुंज बन जाता है—ऐसा पुंज कि उसके चारों ओर चौबीस मील में एक विशेष वातावरण बन जाता है। और उस वातावरण में तुम्हें एक सूक्ष्म पोषण मिलता है।

यह घटना आकाश—शरीर के द्वारा घटती है। तुम्हारा आकाश—शरीर विद्युत—शरीर है। जो शरीर हमें दिखाई पड़ता है, वह भौतिक है, पार्थिव है। यह सच्चा जीवन नहीं है। इस शरीर में विद्युत—शरीर, आकाश—शरीर के कारण जीवन आता है। वही तुम्हारा प्राण है।

तो शिव कहते हैं: ‘हे दयामयी, आकाशीय उपस्थिति में प्रवेश करो।’

पहले तुम्हें अपने भौतिक शरीर को घेरने वाले आकाश—शरीर के प्रति बोधपूर्ण होना होगा। और जब तुम्हें उसका बोध होने लगे तो उसे बढ़ाओ, बड़ा करो, फैलाओ। इसके लिए तुम क्या कर सकते हो?

बस चुपचाप बैठना है और उसे देखना है। कुछ करना नहीं है, बस अपने चारों ओर फैले इस नीले आकार को देखते रहना है। और देखते—देखते तुम पाओगे कि वह बढ़ रहा है, बड़ा हो रहा है। सिर्फ देखने से वह बड़ा हो रहा है। क्योंकि जब तुम कुछ नहीं करते हो तो पूरी ऊर्जा आकाश—शरीर को मिलती है, इसे स्मरण रखो। और जब तुम कुछ करते हो तो आकाश—शरीर से ऊर्जा बाहर जाती है।

 

लाओत्‍सू कहता है: ‘मैं कुछ नहीं करता हूं और मुझसे शक्तिशाली कोई नहीं है। मैं कभी कुछ नहीं करता हूं और कोई मुझसे शक्तिशाली नहीं है। जो कुछ करने के कारण शक्तिशाली हैं, उन्हें हराया जा सकता है।’ लाओत्सु कहता है, ‘मुझे हराया नहीं जा सकता, क्योंकि मेरी शक्ति कुछ न करने से आती है।’ तो असली बात कुछ न करना है।

बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध क्या कर रहे थे? कुछ नहीं कर रहे थे। वे उस क्षण कुछ भी नहीं कर रहे थे, वे शून्य हो गए थे। और मात्र बैठे —बैठे उन्होंने परम को पा लिया। यह बात बेबूझ लगती है। यह बात बहुत हैरानी की लगती है। हम इतना प्रयत्न करते हैं और कुछ नहीं होता है और बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठे—बैठे बिना कुछ किए ही परम को उपलब्ध हो गए!

जब तुम कुछ नहीं कर रहे हो तब तुम्हारी ऊर्जा बाहर गति नहीं करती है। तब वह ऊर्जा आकाश—शरीर को मिलती है और वहां इकट्ठी होती है। फिर तुम्हारा आकाश—शरीर विद्युत शक्ति का भंडार बन जाता है। और वह भंडार जितना बढ़ता है, तुम्हारी शांति भी उतनी ही बढ़ती है। और तुम जितना ज्यादा शात होते हो उतनी ही ऊर्जा का भंडार भी बढ़ता है। और जिस क्षण तुम जान लेते हो कि आकाश—शरीर को ऊर्जा कैसे दी जाए और कैसे ऊर्जा को व्यर्थ नष्ट न किया जाए, उसी क्षण गुप्त कुंजी तुम्हारे हाथ लग गई।

और तब तुम आनंदित हो सकते हो। वस्तुत: तभी तुम आनंदित हो सकते हो, उत्सव मना सकते हो। तुम अभी जैसे हो, ऊर्जा से रिक्त, तुम कैसे उत्सवपूर्ण हो सकते हो? तुम कैसे उत्सव मना सकते हो? तुम कैसे फूल की तरह खिल सकते हो? फूल तो अतिरेक से आते हैं, जब वृक्ष ऊर्जा से लबालब होते हैं तो उनमें फूल लगते हैं। फूल तो अतिरिक्त ऊर्जा का वैभव हैं। वृक्ष यदि भूखा हो तो उसमें फूल नहीं आएंगे, क्योंकि पत्तों के लिए भी पर्याप्त पोषण नहीं है, जड़ों के लिए भी पर्याप्त भोजन नहीं है।

उनमें भी एक क्रम है। पहले जड़ों को भोजन मिलेगा, क्योंकि वे बुनियादी हैं। अगर जड़ें ही सूख गईं तो फूल की संभावना कहां रहेगी? तो पहले जड़ों को भोजन दिया जाएगा। फिर शाखाओं को। और अगर सब ठीक—ठाक चले और फिर भी ऊर्जा शेष रह जाए, तब पत्तों को पोषण दिया जाएगा। और उसके बाद भी भोजन बचे और वृक्ष समग्रत: संतुष्ट हो, जीने के लिए और भोजन की जरूरत न रहे, तब अचानक उसमें फूल लगते हैं। ऊर्जा का अतिरेक ही फूल बन जाता है। फूल दूसरों के लिए दान हैं। फूल भेंट हैं। फूल वृक्ष की तरफ से तुम्हें भेंट हैं।

और यही घटना मनुष्य में भी घटती है। बुद्ध वह वृक्ष हैं जिसमें फूल लगे। अब उनकी ऊर्जा इतनी अतिशय है कि उन्होंने सबको, पूरे अस्तित्व को उसमें सहभागी होने के लिए आमंत्रित किया है।

पहले पहली विधि को प्रयोग करो और फिर दूसरी विधि को। तुम दोनों को अलग— अलग भी प्रयोग कर सकते हो, लेकिन तब आकाश—शरीर के नीले आभामंडल को प्राप्त करना थोडा कठिन होगा।

 

आज इतना ही।


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सुनो भई साधो—(कबीरदास)

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बीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; बे—पढ़े—लिखे हैं, इसलिए पढ़े—लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति—पाति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की—शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति—पाति से परमात्मा का कुछ लेना—देना नहीं है।

कबीर जीवन भर गृहस्थ रहे—जुलाहे—बुनते रहे कपड़े और बेचते रहे; घर छोड़ हिमालय नहीं गए। इसलिए घर पर भी परमात्मा आ सकता है, हिमालय जाना आवश्यक नहीं। कबीर ने कुछ भी ने छोड़ा और सभी कुछ पा लिया। इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकती।

और कबीर के जीवन में कोई भी विशिष्टता नहीं है। इसलिए विशिष्टता अहंकार का आभूषण होगी; आत्मा का सौंदर्य नहीं।

कबीर न धनी हैं, न ज्ञानी है, न समादृत हैं, न शिक्षित हैं, न सुसंस्कृत हैं। कबीर जैसा व्यक्ति अगर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो तुम्हें भी निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए कबीर में बड़ी आशा है।

बुद्ध अगर पाते हैं तो पक्का नहीं की तुम पा सकोगे। बुद्ध को ठीक से समझोगे तो निराशा पकड़ेगी; क्योंकि बुद्ध की बड़ी उपलब्धियां हैं पाने के पहले। बुद्ध सम्राट हैं। इसलिए अगर धन से छूट जाए, आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसके पास बस है, उसे उस सब की व्यर्थता का बोध हो जाता है। गरीब के लिए बड़ी कठिनाई है—धन से छूटना। जिसके पास है ही नहीं, उसे व्यर्थता का पता कैसे चलेगा? बुद्ध को पता चल गया, तुम्हें कैसे पता चलेगा? कोई चीज व्यर्थ है, इसे जानने के पहले, कम से कम उसका अनुभव तो होना चाहिए। तुम कैसे कह सकोगे कि धन व्यर्थ है? धन है कहां? तुम हमेशा अभाव में जिए हो, तुम सदा झोपड़े में रहे हो—तो महलों में आनंद नहीं है, यह तुम कैसे कहोगे? और तुम कहते भी रहो, और यह आवाज तुम्हारे हृदय की आवाज न हो सकेगी; यही दूसरों से सुना हुआ सत्य होगा। और गहरे में धन तुम्हें पकड़े ही रहेगा।

बुद्ध को समझोगे तो हाथ—पैर ढीले पड़ जाएंगे।

बुद्ध कहते हैं, स्त्रियों में सिवाय हड्डी, मांस—मज्जा के और कुछ भी नहीं है, क्योंकि बुद्ध को सुंदरतम स्त्रियां उपलब्ध थीं, तुमने उन्हें केवल फिल्म के परदे पर देखा है। तुम्हारे और उन सुदरतम स्त्रियों के बीच बड़ा फासला है। वे सुंदर स्त्रियां तुम्हारे लिए अति मनमोहक हैं। तुम सब छोड़कर उन्हें पाना चाहोगे। क्योंकि जिसे पाया नहीं है वह व्यर्थ है, इसे जानने के लिए बड़ी चेतना चाहिए।

कबीर गरीब हैं, और जान गए यह सत्य कि धन व्यर्थ है। कबीर के पास एक साधारण सी पत्नी है, और जान गए कि सब राग—रंग, सब वैभव—विलास, सब सौंदर्य मन की ही कल्पना है।

कबीर के पास बड़ी गहरी समझ चाहिए। बुद्ध के पास तो अनुभव से आ जाती है बात; कबीर को तो समझ से ही लानी पड़ेगी। ………………

…………कबीर ने कहा, जब परमात्मा इतना बड़ा ताना—बाना बुनता है संसार का और लज्जित नहीं होता, तो मैं गरीब छोटा—सा ही काम करता हूं, क्यों लज्जित होऊं? जब परमात्मा इतना बड़ा संसार बनता है—जुलाहा ही है परमात्मा—में भी जलाहा; मैं थोड़ा छोटा जुलाहा, वह जरा बड़ा जुलाहा। और जब वह छोड़ के नहीं भाग गया, मैं क्यों भागूं? मैंने उस पर ही छोड़ दिया है, जो उसकी मरजी। अभी उसका आदेश नहीं मिला कि बंद कर दो।

वे जीवन के अंत तक, बूढ़े हो गए तो भी बाजार बेचने जाते रहे। लेकिन उनके बेचने में बड़ा भेद था, साधुता थी। कपड़ा बुनते थे, तो वे बुनते वक्त राम की धुन करते रहते। इधर से ताना, उधर से बाना डालते, तो राम की धुन करते। और कबीर जैसे व्यक्ति जब कपड़े के ताने—बाने में राम की धुन करें, तो उस कपड़े का स्वरूप ही बदल गया। उसमें जैसे कि राम की ही बुन दिया। इसलिए कबीर कहते हैं, झीनी झीनी बीनी रे चदरिया! और कहते हैं, बड?ी लगन से और बड़े प्रेम से बीनी है। और जब जाते बाजार में, तो ग्राहकों से वे कहते कि राम, तुम्हारे लिए ही बुनी है, और बहुत सम्हाल के बुनी है। उन्होंने कभी किसी ग्राहक को राम के लिए सिवा और दूसरों कोई संबोधन नहीं किया। ये ग्राहक राम हैं। यह इसी राम के लिए बुनी है। ये ग्राहक ग्राहक नहीं हैं और कबीर कोई व्यवसायी नहीं हैं।

कबीर व्यवसाय करते रहे और सादे हो गए। उन्होंने सादगी को अलग से नहीं साधा। अलग से साधोगे कि जटिल हो जाएगी। सादगी साधी नहीं जा सकती। समझ सादगी बन जाती है।

कबीर ने अपने को इतना मरजी पर छोड़ दिया परमात्मा की, सुबह लोग भजन के लिए इकट्ठे हो जाते, तो कबीर उनसे कहते कि ऐसे मत चले जाना, खाना लेकर जाना। पत्नी—बच्चे परेशान थे: कहां से इतना इंतजाम करो! उधारी बढ़ती जाती है। कर्ज में दबते जाते। रोज रात को कमाल कबीर का लड़का, उनसे कहता कि अब बस हो गया, अब कल किसी से मत कहना! कबीर कहते, जब तक वह कहलाता है, तब तक हम क्या करें? तुम्हारी सुनें कि उसकी सुनें? जिस दिन वह बंद कर देगा, कहनेवाला कौन! हम अपनी तरफ से कुछ करते नहीं और तुम क्यों परेशान हो? जब वह इतना इंतजाम करता है, यह भी करेगा! ……………………

(ओशो)


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सुन भई साधाे–(प्रवचन–01)

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माया महाठगिनी हम जानी—(प्रवचन—पहला)

दिनांक: 11 नवम्बर, 1974;

श्री ओशो आश्रम, पूना.

सूत्र:

माया महाठगिनी हम जानी।

निरगुन फांस लिए डोलै, बोलै मधुरी बानी।।

केसव के कमला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी।

पंडा के मूरत होइ बैठी, तीरथ हू में पानी।।

जोगि के जोगिन होइ बैठी, राजा के घर रानी।

काहू के हीरा होइ बैठी, काहू के कौड़ी कानी।।

भक्तन के भक्त्ति होइ बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मापनी।

कहै कबीर सुनो भज्ञई साधो, यह सब अकथ कहानी।।

बीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; बे—पढ़े—लिखे हैं, इसलिए पढ़े—लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति—पाति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की—शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति—पाति से परमात्मा का कुछ लेना—देना नहीं है।

कबीर जीवन भर गृहस्थ रहे—जुलाहे—बुनते रहे कपड़े और बेचते रहे; घर छोड़ हिमालय नहीं गए। इसलिए घर पर भी परमात्मा आ सकता है, हिमालय जाना आवश्यक नहीं। कबीर ने कुछ भी ने छोड़ा और सभी कुछ पा लिया। इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकती।

और कबीर के जीवन में कोई भी विशिष्टता नहीं है। इसलिए विशिष्टता अहंकार का आभूषण होगी; आत्मा का सौंदर्य नहीं।

कबीर न धनी हैं, न ज्ञानी है, न समादृत हैं, न शिक्षित हैं, न सुसंस्कृत हैं। कबीर जैसा व्यक्ति अगर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो तुम्हें भी निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए कबीर में बड़ी आशा है।

बुद्ध अगर पाते हैं तो पक्का नहीं की तुम पा सकोगे। बुद्ध को ठीक से समझोगे तो निराशा पकड़ेगी; क्योंकि बुद्ध की बड़ी उपलब्धियां हैं पाने के पहले। बुद्ध सम्राट हैं। इसलिए अगर धन से छूट जाए, आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसके पास बस है, उसे उस सब की व्यर्थता का बोध हो जाता है। गरीब के लिए बड़ी कठिनाई है—धन से छूटना। जिसके पास है ही नहीं, उसे व्यर्थता का पता कैसे चलेगा? बुद्ध को पता चल गया, तुम्हें कैसे पता चलेगा? कोई चीज व्यर्थ है, इसे जानने के पहले, कम से कम उसका अनुभव तो होना चाहिए। तुम कैसे कह सकोगे कि धन व्यर्थ है? धन है कहां? तुम हमेशा अभाव में जिए हो, तुम सदा झोपड़े में रहे हो—तो महलों में आनंद नहीं है, यह तुम कैसे कहोगे? और तुम कहते भी रहो, और यह आवाज तुम्हारे हृदय की आवाज न हो सकेगी; यही दूसरों से सुना हुआ सत्य होगा। और गहरे में धन तुम्हें पकड़े ही रहेगा।

बुद्ध को समझोगे तो हाथ—पैर ढीले पड़ जाएंगे।

बुद्ध कहते हैं, स्त्रियों में सिवाय हड्डी, मांस—मज्जा के और कुछ भी नहीं है, क्योंकि बुद्ध को सुंदरतम स्त्रियां उपलब्ध थीं, तुमने उन्हें केवल फिल्म के परदे पर देखा है। तुम्हारे और उन सुदरतम स्त्रियों के बीच बड़ा फासला है। वे सुंदर स्त्रियां तुम्हारे लिए अति मनमोहक हैं। तुम सब छोड़कर उन्हें पाना चाहोगे। क्योंकि जिसे पाया नहीं है वह व्यर्थ है, इसे जानने के लिए बड़ी चेतना चाहिए।

कबीर गरीब हैं, और जान गए यह सत्य कि धन व्यर्थ है। कबीर के पास एक साधारण सी पत्नी है, और जान गए कि सब राग—रंग, सब वैभव—विलास, सब सौंदर्य मन की ही कल्पना है।

कबीर के पास बड़ी गहरी समझ चाहिए। बुद्ध के पास तो अनुभव से आ जाती है बात; कबीर को तो समझ से ही लानी पड़ेगी।

गरीब का मुक्त होना अति कठिन है। कठिन इस लिहाज से कि उसे अनुभव की कमी बोध से पूरी करनी पड़ेगी; उसे अनुभव की कमी ध्यान से पूरी करनी पड़ेगी। अगर तुम्हारे पास भी सब हो, जैसा बुद्ध के पास था, तो तुम भी महल छोड़कर भाग जाओगे; क्योंकि कुछ और पाने को बचा नहीं; आशा टूटी वासना गिरी, भविष्य में कुछ और है नहीं वहां—महल सुना हो गया।

आदमी महत्वाकांक्षा में जीता है। महत्वाकांक्षा कल की— और बड़ा होगा, और बड़ा होगा, और बड़ा होगा…दौड़ता रहता है। लेकिन आखिरी पड़ाव आ गया, अब कोई गति नहीं—छोड़ोगे नहीं तो क्या करोगे? तो महल या तो आत्मघात बन जाता है या आत्मक्रांति। पर कबीर के पास कोई महल नहीं है।

बुद्ध बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। जो भी श्रेष्ठतम ज्ञान था उपलब्ध, उसमें दीक्षित किए गए थे। शास्त्रों के ज्ञाता थे। शब्द के धनी थे। बुद्धि बड़ी प्रखर थी। सम्राट के बेटे थे। तो सब तरह से सुशिक्षा हुई थी।

कबीर सड़क पर बड़े हुए। कबीर के मां—बाप का कोई पता नहीं। शायद कबीर नाजायज संतान हों। तो मां ने उसे रास्ते के किनारे छोड़ दिया था—बच्चे को—पैदा होते ही। इसलिए मां का कोई पता नहीं। कोई कुलीन घर से कबीर आए नहीं। सड़क पर ही पैदा हुए जैसे, सड़क पर ही बड़े हुए जैसे। जैसे भिखारी होना पहले दिन से ही भाग्य से लिखा था। यह भिखारी भी जान गया की धन व्यर्थ है, तो तुम भी जान सकोगे। बुद्ध से आशा नहीं बंधती। बुद्ध की तुम पूजा कर सकते हो। फासला बड़ा है, लेकिन बुद्ध जैसा होना तुम्हें मुश्किल मालूम पड़ेगा। जन्मों—जन्मों की यात्रा लगेगी। लेकिन कबीर और तुम में फासला जरा भी नहीं। कबीर जिस सड़क पर खड़े हैं—शायद तुमसे भी पीछे खड़े हैं; और अगर कबीर तुमसे भी पीछे खड़े होकर पहुंच गए, तो तुम भी पहुंच सकते हो।

कबीर जीवन के लिए बड़ा सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को में अनूठा कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब सहलो से आए हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आए हैं; महलों से उनका कोई भी नाता नहीं है। कहा है कबीर ने कि कभी हाथ से कागज और स्याही छुई नहीं—मसी कागज छुओं न हाथ।

ऐसा अपढ़ आदमी, जिसे दस्तखत करने भी नहीं आते, इसने परमात्मा के परम ज्ञान को पा लिया—बड़ा भरोसा बढ़ता है। तब इस दुनिया में अगर तुम वंचित हो तो अपने ही कारण वंचित हो, परिस्थिति को दोष मत देना। जब भी परिस्थिति को दोष देने का मन में भाव उठे, कबीर का ध्यान करना। कम से कम मां—बाप का तो तुम्हें पता है, घर—द्वार तो है, सड़क पर तो पैदा नहीं हुए। हस्ताक्षर तो कर ही लेते हो। थोड़ी—बहुत शिक्षा हुई है, हिसाब—किताब रख लेते हो। वेद, कुरान, गीता भी थोड़ी पढ़ी है। न सही बहुत बड़े पंडित, छोटे—छोटे पंडित तो तुम भी हो ही। तो जब भी मन होने लगे परिस्थिति को दोष देने का कि पहुंच गए होंगे बुद्ध, सारी सुविधा थी उन्हें, में कैसे पहुंचूं, तब कबीर का ध्यान करना। बुद्ध के कारण जो असंतुलन पैदा हो जाता है कि लगता है, हम न पहुंच सकेंगे—कबीर तराजू के पलड़े को जगह पर ले आते हैं। बुद्ध से ज्यादा कारगर हैं कबीर। बुद्ध थोड़े से लोगों के काम के हो सकते हैं। कबीर राजपथ हैं। बुद्ध का मार्ग बड़ा संकीर्ण है; उसमें थोड़े ही लोग पा सकेंगे, पहुंच सकेंगे।

बुद्ध की भाषा भी उन्हीं की है—चुने हुए लोगों की। एक—एक शब्द बहुमूल्य है; लेकिन एक—एक शब्द सूक्ष्म है। कबीर की भाषा सबकी भाषा है—बेपढ़े—लिखे आदमी की भाषा है। अगर तुम कबीर को न समझ पाए, तो तुम कुछ भी न समझ पाओगे। कबीर को तो समझ लिया, तो कुछ भी समझने को बचता नहीं। और कबीर को तुम जितना समझोगे, उतना ही तुम पाओगे कि बुद्धत्व का कोई भी संबंध परिस्थिति से नहीं। बुद्धत्व तुम्हारी भीतर की अभीप्सा पर निर्भर है—और कहीं भी घट सकता है; झोपड़े में, महल में, बाजार में, हिमालय पर; पढ़ी—लिखी बुद्धि में, गैर—पढ़ी लिखी बुद्धि में, गरीब को, अमीर को; पंडित को, अपढ़ को; कोई परिस्थिति का संबंध नहीं है।

ये जो वचन इस समाधि शिविर में हम कबीर के लेने जा रहे हैं, इनका शीर्षक है: सुनो भाई साधो। और कबीर अपने हर वचन में कहीं न कहीं साधु को ही संबोधित करते हैं। इस संबोधन को थोड़ा समझ लें, फिर हम उनके वचनों में उतरने की कोशिश करें।

मनुष्य तीन तरह से पूछ सकता है। एक कुतूहल होता है—बच्चों जैसा। पूछने के लिए पूछ लिया, कोई जरूरत न थी, कोई प्यास भी न थी, कोई प्रयोजन भी न था। ऐसे ही मन की खुजली थी। उठ गया प्रश्न, पूछ लिया। उत्तर मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक, दुबारा पूछने का भी खयाल नहीं आता—छोटे बच्चे जैसा पूछते हैं। रास्ते से गुजर रहे हैं, पूछते हैं, यह क्या है? वृक्ष क्या है? वृक्ष हरे क्यों हैं? सूरज सुबह क्यों निकलता है, रात क्यों नहीं निकलता? अगर तुमने उत्तर दिया तो कोई उत्तर सुनने के लिए उनकी प्रतीक्षा नहीं है। जब तुम उत्तर दे रहे हो, तब तक वे दूसरा प्रश्न पूछने चले गए। तुम उत्तर न दो, तो भी कुछ जोर न डालेंगे कि उत्तर दो। तुम दो या न दो, यह असंगत है, प्रसंग के बाहर है। बच्चा पूछने के लिए पूछ रहा है। बच्चा केवल बुद्धि का अभ्यास कर रहा है; जैसा पहली दफे जब बच्चा चलता है, तो बार—बार चलने की कोशिश करता है—कहीं पहुंचने के लिए नहीं, क्योंकि अभी बच्चे की क्या मंजिल है! अभी तो चलने में मजा लेता है। अभी तो पैर चला लेता है, इससे ही बड़ा प्रसन्न होता है; नाचता है कि मैं चलने लगा। अभी चलने का कोई संबंध मंजिल से नहीं है, अभी चलना अपने—आप में ही अभ्यास है। ऐसा ही बच्चा जब बोलने लगता है, तो सिर्फ बोलने के लिए बोलता है। अभ्यास करता है। उसके बोलने में कोई अर्थ नहीं है। पूछना जब सीख लेता है, तो पूछने के लिए पूछता है। पूछने में कोई प्रश्न नहीं है, सिर्फ कुतूहल है।

तो एक तो उस तरह के लोग हैं, वे बचकाने हैं जो परमात्मा के संबंध में भी कुतूहल से पूछते हैं। मिले उत्तर, ठीक; न मिले उत्तर, ठीक। और कोई भी उत्तर मिले, उनके जीवन में उस उत्तर से कोई भी फर्क न होगा। तुम ईश्वर को मानते रहो, तो तुम वैसे ही जिओगे; तुम ईश्वर को न मानो तो भी तुम वैसे ही जिओगे।

यह बड़ी हैरानी की बात है कि नास्तिक और आस्तिक के जीवन में कोई फर्क नहीं होता। तुम जीवन को देख के बता सकते हो कि यह आदमी आस्तिक है या नास्तिक! नहीं, तुम्हें पूछना पड़ता है कि क्या आप आस्तिक है या नास्तिक। के व्यवहार में रत्तीभर का कोई फर्क नहीं होता। वैसा ही बेईमान यह, वैसा ही दूसरा। वे सब चचेरे—मौसेरे भाई हैं। कोई अंतर नहीं है। एक ईश्वर को मानता है, एक ईश्वर का नहीं मानता है। इतनी बड़ी मान्यता और जीवन में रत्ती भर भी छाया नहीं लाती! कहीं कोई रेखा नहीं खिंचती! दुकानदारी में वह उतना ही बेईमान है जितना दूसरा; बोलने में उतना ही झूठा है जितना दूसरा। न इसको भरोसा किया जा सकता है, न उसका। क्या जीवन में कोई अंतर नहीं आता आस्था से? तो आस्था दो कौड़ी की है। तो आस्था कुतूहल से पैदा हुई होगी; वह बचकानी है। ऐसी बचकानी आस्था को छोड़ देना चाहिए।

सबसे सतह पर कुतूहल है।

दूसरे, थोड़ी गहराई बढ़े तो जिज्ञासा होती है। जिज्ञासा सिर्फ पूछने के लिए नहीं है—उत्तर की तलाश है; लेकिन तलाश बौद्धिक है, आत्मिक नहीं है। तलाश विचार की है, जीवन की नहीं है। जिज्ञासा से भरा हुआ आदमी, निश्चित ही उत्सुक है, और चाहता है कि उतर मिले; लेकिन उत्तर बुद्धि में संजो लिया जाएगा, स्मृति का अंग बनेगा, जानकारी बढ़ेगी, ज्ञान बढ़ेगा—आचरण नहीं, जीवन नहीं। उस आदमी को बदलेगा नहीं। वह आदमी वैसा ही रहेगा— ज्यादा जानकार हो जाएगा।

जिज्ञासा पैदा होती है बुद्धि से।

फिर एक तीसरा तल है, जिसको मुमुक्षा कहा है। मुमुक्षा का अर्थ है: जिज्ञासा सिर्फ बुद्धि की नहीं है, जीवन की है। इसलिए नहीं पूछ रहे हैं कि थोड़ा और जान लें; इसलिए पूछ रहे हैं कि जीवन दांव पर लगा है। इसलिए पूछ रहे हैं कि उत्तर पर निर्भर होगा कि हम कहां जाएं, क्या करें, कैसे जिए। एक प्यासा आदमी पूछता है, पानी कहां है? यह कोई जिज्ञासा नहीं है। मरुस्थल में तुम पड़े हो, प्यास जगती है और तुम पूछते हो, पानी कहां है? उस क्षण तुम्हारा रोआं—रोआं पूछता है, बुद्धि नहीं पूछती। उस क्षण तुम यह नहीं जानना चाहते कि पानी की वैज्ञानिक परिभाषा क्या है। उस समय कोई तुमसे कहे कि पानी—पानी क्या लगा रखा है। एच टू ओ। विज्ञान का उपयोग करो, फार्मूला जाहिर है कि उदजन और आक्सिजन से मिलकर पानी बनता है दो मात्रा, उदजन, एक मात्रा आक्सिजन—एच टू ओ। लेकिन जो आदमी प्यासा है, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पानी कैसे बनता है, यह सवाल नहीं है। पानी क्या है, यह भी सवाल नहीं है। वह कोई जिज्ञासा नहीं है पानी के संबंध में जानकारी बढ़ाने के लिए। यहां जीवन दांव पर लगा है; अगर पानी नहीं मिलता घड़ीभर और, तो मृत्यु होगी। पानी पर ही जीवन निर्भर है। मृत्यु और जीवन का सवाल है।

मुमुक्षा का अर्थ है: जिज्ञासा केंद्र पर पहुंच गई। अब हमारे लिए यह सवाल ऐसा नहीं है कि ईश्वर है या नहीं, पूछ लिया बच्चों जैसा, या पूछ लिया दार्शनिकों जैसा, एक बुद्धिगत सवाल, बुद्धिगत उत्तर खोजने में लग गए, शास्त्रों में गए! जिसको प्यास लगी है, वह शास्त्रों में नहीं खोजेगा। कि पानी का स्वरूप क्या है! जिसको प्यास लगी है, वह सरोवर चाहता है। जिसको प्यास लगी है, वह ऐसा ज्ञानी चाहता है जिसको पीकर वह भी अपनी प्यास को बुझा ले—ज्ञान नहीं चाहता, ज्ञानी नहीं चाहता, ज्ञानी को चाहता है।

मुमुक्षा गुरु को खोजता है; जिज्ञासा शास्त्र को खोजता है; कुतूहली किसी से भी पूछ लेता है।

कबीर उसको साधु कहते हैं, जो मुमुक्षु है। इसलिए उनका हर वचन इस बात को ध्यान में रख कर कहा गया है: सुनो भाई साधो! साधु का मतलब है जो साधना के लिए उत्सुक है—जो साधक है। साधु का अर्थ है: जो अपने को बदलने के लिए, शुभ करने के लिए, सत्य करने के लिए आतुर है—जो साधु होने को उत्सुक है।

साधु शब्द बड़ा अदभुत है। विकृत हो गया बहुत उपयोग से। साधु का अर्थ है: साधा, सादा सरल, सहज। साधु शब्द ही बड़ी भाव—भंगिमाएं हैं। और सीधा, सादा, सरल, सहज—यही साधना है।

इसलिए कबीर कहते हैं: साधो, सहज समाधि भली! सहज हो रहो, सरल हो जाओ।

थोड़ा समझ लेना जरूरी है; क्योंकि हम बहुत से लोगों को जानते हैं जो सरल होने की चेष्टा में ही बड़े जटिल हो गए हैं; सरल होने की ही चेष्टा में चले थे, और उलझ गए हैं।

मेरे एक मित्र हैं। लोग उन्हें साधु कहते हैं, मैं उन्हें असाधु कहता हूं; वे सीधे—सादे जरा भी नहीं हैं। अगर सुबह उन्हें दूध दो, तो वे कहते पूछते हैं कि गाय का है या भैंस का। क्योंकि भैंस का दूध वे नहीं पीते। शब्द हिंदू हैं; गाय का ही पीते हैं। और गाय का ही नहीं पीते, सफेद गाय का पीते हैं। किसी शास्त्र से उन्होंने खोज लिया है कि सफेद गाय का दूध शुद्धतम होता है। वह भी कुछ घड़ी पहले लगा हो तो ही पीते हैं। क्योंकि इतनी घड़ी देर तक दूध रह जाए, तो उसमें विकृति का समावेश हो जाता है। कुछ घड़ी पहले का तैयार घी ही लेते हैं; क्योंकि इतनी देर ज्यादा रह जाए तो शास्त्रों में उल्लेख है कि घी विकृत हो जाता है। इस तरह का पानी पीते हैं कि जो भी भर के लाए वह गीले वस्त्र पहने हुए भर के लाए, ताकि बिलकुल शुद्ध हो। क्योंकि सूखे वस्त्रों का क्या भरोसा, किसी ने छुए हों, धोबी धो के लिया हो, लांड्री में गए हो—तो ठीक नहीं। कहीं कुएं पर स्नान करो वस्त्र पहने हुए, ताकि वस्त्र भी धुल जाएं, तुम भी धुल जाओ, फिर पानी भर के ले आओ। ब्राह्मण ने भोजन बनाया हो तो ही लेते हैं। और सब चेष्टा में उनका!…चौबीस घंटे व्यस्त हैं। चौबीस घंटे में उन्हें भगवान के लिए एक क्षण बचता नहीं, भोजन सारा समय ले लेता है। निकले थे सरल होने, वे इतने जटिल हो गए है कि बड़ी कठिनाई है। जीना ही मुश्किल हो गया है। और जिसके घर पहुंच जाए, वह भी प्रार्थना करने लगता है परमात्मा से—उसने कभी प्रार्थना न की हो भला—कि कब इनसे छुटकारा हो।

अगर साधु आपके घर रुक जाए, तो आप एक ही प्रार्थना करते हैं कि अब ये जल्दी जाएं, क्योंकि तीन बजे रात वह उठ जाते हैं। और वह खुल नहीं उठते, पूरे घर को उठा देते हैं। क्योंकि ऐसा शुभ कार्य ब्रह्ममुहूर्त में उठने लगा! वे खुद तो करते ही हैं, लेकिन इतने जोर से ओंकार का पाठ करते हैं कि आप सो नहीं सकते। और आप उनसे यह भी नहीं कह सकते कि आप गलत कर रहे हैं, क्योंकि कुछ गलत भी नहीं कर रहे हैं। ब्रह्ममुहूर्त में ओंकार की ध्वनि कर रहे हैं। तो एक उपकार ही कर रहे हैं आपके ऊपर!

सरलता के खोज में निकला हुआ आदमी भी जटिल हो जाता है। कहीं कुछ भूल हो रही है। सरलता को समझा नहीं गया।

सरलता का अर्थ ही यह है कि तुम सहज होकर क्षण—क्षण जीना, अनुशासन से नहीं। क्योंकि अनुशासन तो जटिल होगा। जब भूख लगे, तब खाना खा लेना। जो मिल जाए, उसे चुपचाप स्वीकार कर लेना। जब नींद खुल जाए, तब ब्रह्ममुहूर्त समझना। जब नींद लग जाए तो परमात्मा का आदेश समझना कि सो जाओ। और जब नींद खुल जाए तब उसका आदेश समझना कि जग जाओ। अपनी तरफ से कुछ भी मत करना, उस पर ही छोड़ देना—जो तेरी मरजी! क्योंकि तुम कुछ भी करोगे तो जटिलता खड़ी कर लोगे। तुम जो भी करोगे, मन से ही करोगे—और मन जटिलता का यंत्र है। वह उसी में से उपद्रव निकाल लेगा—फिर उपद्रव बढ़ता जाता है। फिर उसका कोई अंत नहीं है। और जिनको तुम साधु कहते हो, वे साधु कम और असाधु ज्यादा हो जाते हैं। क्योंकि साधु का मूल अर्थ—सादगी, सीधापन—खो जाता है। हमने सादगी के दूसरे ही अर्थ कर लिए हैं। सादगी का हम मतलब लेते हैं कि जो आदमी एक ही लंगोटी पर रहता है, वह सादगी। लेकिन जो आदमी एक ही लंगोटी पर रहता है, उसका आपको पता है कि उसका अपनी लंगोटी पर इतना मोह होता है जितना कि सम्राट को अपने साम्राज्य पर नहीं। होगा भी, क्योंकि अब मोह को और कोई जगह न बची; सारा मोह लंगोटी पर ही लग जाएगा। लंगोटी और साम्राज्य का तो कोई सवाल नहीं है। सवाल तो मोह का है। सम्राट का मोह तो विस्तीर्ण होता है, बंटा होता है। भिखारी का मोह संकीर्ण होता है, एक ही जगह केंद्रित होता है। और अगर कोई गौर से देखे तो पाएगा कि भिखारी का मोह ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि अनबंटा होता है, घना होता है, सघन होता है। एक ही चीज पर सब दांव लगा होता है। लंगोटी खो जाए तो भिखारी आत्महत्या कर लेगा। क्योंकि वही सब कुछ था। ऊपर से देखने पर लगता था कि सादगी है, लेकिन सादगी के पीछे बड़ी जटिलता छिपी थी। कबीर साधु उसे कहते हैं, सच में ही सीधा—साधा है।

ज्ञानी हो गए, निर्वाण को पा लिया, परमसत्य की अनुभूति हो गई, तो भी कपड़ा बुनना जारी रखा। लोगों ने पूछा भी कबीर को। सैकड़ों उनके भक्त थे। उन्होंने कहा भी कि अब यह शोभा नहीं देता कि आप जैसा परम ज्ञानी और कपड़े बुने दिनभर…और बाजार में बेचने जाए; हमको भी लज्जा आती है।

कबीर ने कहा, जब परमात्मा इतना बड़ा ताना—बाना बुनता है संसार का और लज्जित नहीं होता, तो मैं गरीब छोटा—सा ही काम करता हूं, क्यों लज्जित होऊं? जब परमात्मा इतना बड़ा संसार बनता है—जुलाहा ही है परमात्मा—में भी जलाहा; मैं थोड़ा छोटा जुलाहा, वह जरा बड़ा जुलाहा। और जब वह छोड़ के नहीं भाग गया, मैं क्यों भागूं? मैंने उस पर ही छोड़ दिया है, जो उसकी मरजी। अभी उसका आदेश नहीं मिला कि बंद कर दो।

वे जीवन के अंत तक, बूढ़े हो गए तो भी बाजार बेचने जाते रहे। लेकिन उनके बेचने में बड़ा भेद था, साधुता थी। कपड़ा बुनते थे, तो वे बुनते वक्त राम की धुन करते रहते। इधर से ताना, उधर से बाना डालते, तो राम की धुन करते। और कबीर जैसे व्यक्ति जब कपड़े के ताने—बाने में राम की धुन करें, तो उस कपड़े का स्वरूप ही बदल गया। उसमें जैसे कि राम की ही बुन दिया। इसलिए कबीर कहते हैं, झीनी झीनी बीनी रे चदरिया! और कहते हैं, बड?ी लगन से और बड़े प्रेम से बीनी है। और जब जाते बाजार में, तो ग्राहकों से वे कहते कि राम, तुम्हारे लिए ही बुनी है, और बहुत सम्हाल के बुनी है। उन्होंने कभी किसी ग्राहक को राम के लिए सिवा और दूसरों कोई संबोधन नहीं किया। ये ग्राहक राम हैं। यह इसी राम के लिए बुनी है। ये ग्राहक ग्राहक नहीं हैं और कबीर कोई व्यवसायी नहीं हैं।

कबीर व्यवसाय करते रहे और सादे हो गए। उन्होंने सादगी को अलग से नहीं साधा। अलग से साधोगे कि जटिल हो जाएगी। सादगी साधी नहीं जा सकती। समझ सादगी बन जाती है।

कबीर ने अपने को इतना मरजी पर छोड़ दिया परमात्मा की, सुबह लोग भजन के लिए इकट्ठे हो जाते, तो कबीर उनसे कहते कि ऐसे मत चले जाना, खाना लेकर जाना। पत्नी—बच्चे परेशान थे: कहां से इतना इंतजाम करो! उधारी बढ़ती जाती है। कर्ज में दबते जाते। रोज रात को कमाल कबीर का लड़का, उनसे कहता कि अब बस हो गया, अब कल किसी से मत कहना! कबीर कहते, जब तक वह कहलाता है, तब तक हम क्या करें? तुम्हारी सुनें कि उसकी सुनें? जिस दिन वह बंद कर देगा, कहनेवाला कौन! हम अपनी तरफ से कुछ करते नहीं और तुम क्यों परेशान हो? जब वह इतना इंतजाम करता है, यह भी करेगा!

लेकिन आखिरी वक्त आ गया। एक दिन कमाल ने कहा कि अब बस बहुत हो गया, क्या तुम चोरी करने लगें? उसने गुस्से में कहा था। कबीर ने कहा, अरे पागल, यह तुझे पहले क्यों नहीं सुझा? कमाल सोचा कि कबीर समझे नहीं की मतलब क्या है। तो दुबारा कहा कि क्या समझे? मैं कह रहा हूं, क्या हम चोरी करने लगें? कहां से लाए? कबीर ने कहा, सभी उसका है, क्या चोरी, क्या अचोरी! जो उसकी मरजी! यह खयाल पहले क्यों न आया?

कमाल भी अदभुत लड़का था। उसने कहा, आज परीक्षा पूरी ही हो ले। उसने कहा, फिर मैं जाता हूं चोरी पर, लेकिन साथ तुम्हें भी आना पड़ेगा। कबीर उठकर खड़े हो गए। समझना हमें कठिन हो जाएगा, क्योंकि हम सीधे आदमी को जानते ही नहीं। हमारा साधु कहता है, चोरी पाप है, अचोरी पुण्य है। हमारा साधु कहता है कि नासमझ, तू खुद नर्क में जा रहा है और मुझको भी ले जाना चाहता है! लेकिन कबीर उठकर खड़े हो गए, यह सादगी बड़ी मधुर है। जैसे कुछ भेद न रहा—न चोरी में, न अचोरी में; न शुभ में, न अशुभ में। क्योंकि सब परमात्मा का है तो कैसे भेद। भेद तो चालाक बुद्धि का होता है। सादगी में कैसा भेद? वे उठकर खड़े हो गए।

कबीर को भीतर से समझना बड़ा मुश्किल पड़ेगा तुम्हें, क्योंकि तुम्हारे मन में भी भेद है। तुम भी सोचोगे कि यह क्या मामला है। क्या कबीर चोरी के पक्ष में हैं?

कमाल भी झिझका, जब कबीर उठकर खड़े हो गए। उसने सोचा कि यह भी मजाक ही थी। लेकिन कमाल आखिर कबीर का ही लड़का था, और अब बात को पूरा करना जरूरी था। गया एक मकान में, सेंध लगाई। कबीर बाहरी खड़े हैं—सेंध लगाकर, भीतर गया, एक बोरा गेहूं का घसीटकर लाया। किसी तरह बोरा तो बाहर निकल गया। जब वह खुद बाहर निकल रहा था तो घर के लोग जाग गए। जाग इसलिए गए कि कबीर ने जोर से उससे पूछा कि अरे पागल, घर के लोगों से पूछा कि नहीं? चोरी, सो तो ठीक, लेकिन घर के लोगों को बताया या नहीं? थोड़ा शोरगुल कर दे, तार्किक लोग जग जाएं, कि चोरी हो गई।

एक सीधा—सादा आदमी, जिसके लिए भेद गिर गए हैं!

यह आवाज सुनकर, बातचीत सुनकर, घर के लोग जग गए। और जब कमाल निकल रहा था, दीवाल के छेद से, तो किसी ने उसके पैर पीछे से पकड़ लिए। तो कमाल ने कहा, अब क्या किया जाए? कम से कम इतना ही करो कि मेरी गर्दन काटकर ले जाओ, ताकि कम से कम बदनामी तो न हो। कबीर ने कहा, यह भी खूब रहा! बिलकुल ठीक सुझाया है। वक्त पर तूने भी अच्छी सूझ दी! और कहानी है कि कबीर गर्दन काटने के पहले कमाल से बोले, गर्दन तो काट ले जाता हूं, लेकिन बात छुपाए छुपेगी नहीं, उसको सब पता है; परंतु तू कहता है तो काट ले आता हूं।

हमें लगेगा यह आदमी चोर भी है, हिंसक भी। लेकिन कबीर जानते हैं कि मरता तो कुछ भी नहीं है। अगर तुम्हारा कोट खींचकर मैं अलग कर दूं तो मैं हिंसक नहीं हूं, तो तुम्हारी गर्दन काटकर अलग करने से कैसे हिंसक हो जाऊंगा। अगर सच में ही शरीर वस्त्र है, तो कबीर हिंसक नहीं हैं। यही तो कृष्ण अर्जुन को समझ रहे हैं गीत में कि तू फिकर मत कर; न हन्यते हन्यमाने शरीर! वह मारने से मरता नहीं, काटने से कटता नहीं, जलाने से जलता नहीं। कबीर वही तो कर रहे हैं। उन्होंने काट लिया कमाल का सिर; लेकिन उससे कहा कि तू कहता है तो काट लेता हूं, बाकी बात छिपाए न छिपेगी, पता चल जाएगा। क्योंकि उसको तो सब पता ही है। फिर भी ठीक है, जैसी उसकी मरजी!

घर के लोगों को शक तो हुआ शरीर को देखकर कि यह लगता है कमाल का, लेकिन बिना गर्दन के है! बड़ी अदभुत कहानी है। उन्होंने दूसरे दिन सुबह, जब कबीर निकलते थे, नदी की तरफ जाते थे—जाते गाते, भजन—कीर्तन करते स्नान करने—और उनके सौ दो सौ भक्त जाते थे, दरवाजे के सामने एक खंभे पर कमाल का शरीर लटका दिया कि शायद कबीर को भी अपने लड़के को देखकर चेहरे पर कोई फर्क आ जाए। और भक्तों को तो पता ही होगा। उनमें से कोई न कोई, कुछ न कुछ कह देगा। लेकिन यह बात कुछ और ही हो गई। अब कबीर का जुलूस वहां पहुंचा तो कबीर रुक गए और उन्होंने कहा, देखो कमाल लटा है खंभे पर! रोज बेचारा सम्मिलित होता था, आज सम्मिलित न हो पाएगा। लेकिन हम कीर्तन तो उसके पास करें ही। कहानी है कि जब उन्होंने कीर्तन किया तो कमाल के हाथ—मुर्दा हाथ ताली देने लगे।

कोई मरता नहीं। मृत्यु असंभव है। मृत्यु तो तुम्हारी मान्यता है। तुमने माना है इसलिए तुम मरते हो। और तुमने जान नहीं है इसलिए तुम मरते हो। जीवन—ऊर्जा सब तरफ व्याप्त है। और कबीर ने कहा, पागल! पहले ही कहा था कि बात छिपाए न छिपेगी। चोरी तो ठीक, लेकिन उसको सब पता है। अब उसने खोल दिया राज।

इसलिए कबीर ने अपने भक्तों से कहा, सदा मैंने कहा, उसकी मरजी से चलो!

जीवन का बड़े बड़ा सत्य है भेद का गिर जाना—बुरे और भले का, शैतान और संत का, रात और दिन का, जीवन और मृत्यु का, अंधकार और प्रकाश का। सारा भेद जब गिर जाए शुभ और अशुभ का, तब कोई साधु है। हम तो उसे साधु कहते हैं जो अंधेरे के विपरीत, प्रकाश के पक्ष में है। हम उसे साधु कहते हैं जो अशुभ के विपरीत, शुभ के पक्ष में हैं। हम उसे साधु कहते हैं, जो संत है और शैतान नहीं। लेकिन हमारा साधु हमारी ही बुद्धि का ही प्रक्षेपण है, कबीर का साधु नहीं है।

कबीर का साधु तो वही है, जिसके लिए सारे भेद विलीन हो गए; जो अभेद में जीता है, जिसका द्वैत नष्ट हुआ; जो अद्वैत में जीता है, जो एक को पा लिया है। उस एक में कौन होगा संत, कौन होगा शैतान! उस एक में कौन होगा सज्जन, कौन होगा दुर्जन! उस एक में क्या होगा पाप, क्या होगा पुण्य! सब भेद माया है। भेद मात्र माया का आधार है। और जो भेद में गिरा, वह जटिल हो जाएगा। जो अभेद में रहा वह साधु—वह सादा, वह सीधा। वह कुछ चुनता नहीं अपनी ओर से। वह अपनी मरजी को बीच में नहीं लगता। वह सिर्फ बहता है, जैसे नदी में कोई तैर नहीं, बहे। नदी जहां ले जाए वहां जाने को राजी रहे, और जहां पहुंच जाए, वहीं मंजिल; नदी बीच में डुबा दे तो वही किनारा।

और कबीर बार—बार कहते हैं, सुनो भाई साधो। वे उसको इंगित कर रहे हैं, तुम्हारे भीतर, जो सीधा—सादा है।उस सीधे—सादे को कैसे पाओगे? क्या उसको पाने के लिए जटिल साधना करनी पड़ेगी, योगासन करने पड़ेंगे, शीर्षासन करना पड़ेगा, घंटों मंत्रोच्चार करना पड़ेगा? अगर इस सीधे—सादे को पाने के लिए कुछ भी करना पड़े, तो यह सीधा—सादा नहीं है—यह तो समझ की ही बात है, यह तो सिर्फ बोध ही है। यह तो समझ में आ जाए कि एक ही है, तो सादगी प्रकट हो जाती है। इसलिए कबीर सहज समाधि पर जोर देते हैं। सहज का अर्थ है: जो साधनी न पड़े। साधु का अर्थ है: जो समझ से फलित हो जाए, जिसके लिए कोई भी प्रयत्न, कोई भी श्रम न करना पड़े; जैसे तुम हो, जिसका द्वार वहीं खुल जाए; जहां तुम हो, वहीं उससे मिलन हो जाए, इंचभर चलना न पड़े। चले कि जटिलता हो जाएगी। जिसे प्रयत्न से पाया जाएगा, वह सहज नहीं हो सकता।

सुनो भाई साधो—और यहां भी मैं तुम्हारे भीतर छुपे साधु को संबोधन कर रहा हूं। तुम्हारे भीतर बुद्धि असाधुता का तत्व है, और हृदय साधुता का। हृदय न भले का जानता है, न बुरे को। हृदय के पास कोई गणित नहीं। हृदय को काटने की कला आती ही नहीं। हृदय को कैंची नहीं है। हृदय को जोड़ने की कला आती है। हृदय सुई—धागे की भांति है।

फरीद को किसी ने एक सोने की कैंची भेंट की…फरीद कबीर के जमाने में था। और फरीद और कबीर की मुलाकात हुई थी और बड़ी मीठी मुलाकात हुई थी। क्योंकि दो दिन दोनों साथ रहे, और चुप रहे! एक शब्द न यहां से बोल गया, और न वहां से बोला गया। दोनों गले मिले, दोनों हंसे, दोनों साथ बैठे। स्वागत किया जाकर गांव के बाहर कबीर ने फरीद का और विदा कर आए। लेकिन दो दिन में एक शब्द का लेन—देन न हुआ! और जब शिष्यों ने पूछा दोनों को कि यह क्या माजरा है, हम थक गए, ऊब गए, और हम बड़ी अपेक्षा रखते थे के कि कुछ होगी बात, हम भी सुन लेंगे, कुछ सार मिलेगा; सब दो दिन खराब हुए!

फरीद ने कहा, जो बोलता है वह अज्ञानी है। अगर मैं बोलता तो मैं अज्ञानी, और कबीर बोलते तो वे अज्ञानी। कबीर ने अपने शिष्यों से कहा, बोलने को कुछ था नहीं। क्योंकि दोनों हम जानते हैं। और दोनों ने एक को ही जान लिया, कहना, किससे, सुनना किसको? और पुनरुक्ति शोभादायक नहीं। अकारण मेहनत। जहां मैं हूं, वही फरीद है। न मैं हूं, न फरीद है। तुम्हारे लिए हम दो थे, हमारे लिए हम एक हैं। तुम वार्तालाप चाहते थे। और हम वार्तालाप करते तो पागल मालूम पड़ते। क्योंकि वह एकालात होता। दूसरा था नहीं, बात किससे होती?

दो अज्ञानी मिलें, बात हो सकती है; खूब होती है। एक ज्ञानी और एक अज्ञानी मिलें, तो भी बात हो सकती है; समझ में बहुत नहीं आती है। लेकिन दो ज्ञानी मिलें तो कैसी बात! बात बिलकुल नहीं होती, और सब समझ में आता है। सुना एक शब्द नहीं जाता और सब समझ में आता है। और दो अज्ञानी खूब चर्चा करते हैं; सुना बहुत जाता है, शोरगुल बहुत मचता है, समझ में कुछ भी नहीं आता।

एक ज्ञानी और एक अज्ञानी की भी वार्ता होती है। अगर अज्ञानी राजी हो, तो उस वार्ता से कुछ फल मिल कसता है। अगर अज्ञानी थोड़ा खुला हो, अगर अज्ञानी में थोड़ा हृदय हो, सिर्फ बुद्धि न हो, तो कोई बीज हृदय में अंकुरित हो सकते हैं।

फरीद को किसी ने एक सोने की कैंची भेंट की। फरीद ने कहा, माफ करो, कैंची का हम क्या करेंगे? काटने का हम धंधा करते ही नहीं, हमारा धंधा जोड़ने का है। अगर तुम कुछ देना ही चाहते हो, एक सुई—धागा ले आओ।

संतों का धंधा ही जोड़ने का है। हृदय का धंधा जोड़ने का है। बुद्धि का धंधा तोड़ने का है। पंडित तोड़ते हैं, संत जोड़ते हैं। दुनिया इतनी टूटी है पंडितों के कारण—तीन सौ धर्म हैं, पंडितों के कारण। पंडित भेद निकालता है, बारीक भेद निकालता है। संत अभेद को खोजते हैं। दो के बीच जो जोड़नेवाला है, उसको खोजते हैं। पंडित दो के बीच जो तोड़नेवाला है, उसको खोजते हैं। इसलिए वास्तविक विरोध संत और असंत के बीच नहीं है, संत और पंडित के बीच है। संत और पापी के बीच वास्तविक विरोध नहीं है; संत और पंडित के बीच वास्तविक विरोध है।

धर्मों का जन्म होता है संतों से, और विनाश होता है पंडितों से। और जैसे ही जन्म होता है धर्म का, वैसे ही पंडित हावी हो जाते हैं।

तुम्हारे भीतर साधुता का तत्व है हृदय, क्यों? क्योंकि हृदय तुम्हारे भीतर अप्रशिक्षित है। बुद्धि का तो प्रशिक्षण हुआ। बुद्धि को समाज ने तैयार किया है, हृदय को परमात्मा ने। हृदय को शिक्षित करने के कोई उपाय नहीं हैं, कोई विश्वविद्यालय भी नहीं, जहां तुम्हारे हृदय की शिक्षा हो सके। प्रेम के प्रशिक्षण का आज तक कोई मार्ग नहीं खोता जा सका, और धन्यभागी हैं हम कि मार्ग नहीं खोजा जा सका। जिस दिन खोज लिया जाएगा, उससे बड़ा कोई दुर्भाग्य न होगा। उस दिन फिर तम मशीन हो जाओगे। तुम्हारी बुद्धि तो यंत्र हो ही गई है, तुम्हारा हृदय थोड़ा सा यंत्र नहीं है। तुम्हारी धड़कन में अभी भी प्रकृति धड़कती है। परमात्मा थोड़े स्वर देता है। तुम्हारी बुद्धि तो बिलकुल यांत्रिक है और समाज द्वार निर्मित है।

बुद्धि से तुम परमात्मा तक न जा सकोगे, इसीलिए तो शास्त्र से कोई कभी वहां नहीं पहुंचता। हृदय से पहुंचता है, प्रेम से, प्रार्थना से, आस्था से। जब साधु की बात कहीं जा रही है, तब तुम्हारे हृदय को निवेदन किया जा रहा है। संबोधित है तुम्हारा हृदय। तो जो यहां कहें, उसे तुम सोचना मत, सिर्फ समझना। हृदय समझता है, बुद्धि सोचती है, और दोनों में कोई तालमेल नहीं है। बुद्धि बड़ा तर्क करती है, हृदय देखता है। हृदय के पास आंख है, बुद्धि अंधे का टटोलना है। बुद्धि अंधे की लकड़ी है, जिससे वह टटोलता है कि रास्ता कहां है। हृदय देखता है, टटोलने की कोई जरूरत नहीं तर्क व्यर्थ है, हृदय को दिखाई पड़ता है, वह निकल जाता है।

सुनो भाई साधो का अर्थ है—हृदय से सुनो; सादगी से सुनो; तर्क और विचार से नहीं, भाव और प्रेम से सुनो! वही समझ पाएगा।

अब हम कबीर के वचन को लें।

एक—एक शब्द को गौर से हृदय तक जाने देना।

माया महाठगिनी हम जानी।

माया का क्या अर्थ है? जिसके कारण एक दो की भांति दिखाई पड़ता है, उस सूत्र का नाम माया है।

…तुमने नशा कर लिया, शराब पी ली, तब तुम्हें एक आदमी रास्ते पर आता हुआ दिखाई पड़ता है, और लगता है दो आ रहे हैं; एक मकान की जगह दो मकान दिखाई पड़ते हैं; एक दरवाजे की जगह दो दरवाजे दिखाई पड़ते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने किसी मित्र को विदा कर रहा था। रात देर तक दोनों पीते रहे। और जब विदा करना लगा तो रात अंधेरी थी, सुनसान मार्ग पर कोई भी नहीं। मित्र ने पूछा कि थोड़ा रास्ते के संबंध में समझा दो।

नसरुद्दीन ने कहा, रास्ते के संबंध में एक ही बात खयाल रखना: जब यहां से तुम सौ कदम पहुंच जाओ, तो वहां तुम्हें दो रास्ते मिलेंगे; तुम बाएं तरफ मुड़ना क्योंकि दाएं तरफ कोई रास्ता है ही नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। यह मैं अपने अनुभव से कहता हूं, उस पर कई दफे मैं मुड़ गया हूं और भटक गया हूं। वहां रास्ता है ही नहीं।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे का समझा रहा था, शराबघर में बिठाकर। उसने कहा कि देख बेटा, उस कोने में देख जहां चार आदमी बैठे हैं, जब ये आठ दिखाई पड़ने लगें तब समझना कि बस, अब रुक जाना जरूरी है। बस, फिर फौरन घर की तरफ चल पड़ना। उस बेटे ने कहा: पिता जी, मुझे केवल दो आदमी दिखाई पड़ रहे हैं। वे नसरुद्दीन ज्यादा पहले ही पी चुके थे!

नशे में जब तुम हो, तब तुम भीतर कंपते हो, उस कंपन के कारण बाहर भी सब चीजें कंपती हैं।

जब नशे में तुम हो, तब तुम दो हिस्सों में भीतर बंट जाते हो; क्योंकि एक तो तुम्हारे भीतर तत्व है, जो कभी भी नशे में नहीं हो सकता; तुम्हारी चेतना कभी भी बेहोश नहीं हो सकती। नशा तुम्हारे शरीर में जाता है, मन में जाता है आत्मा में नहीं जा सकता। जैसे ही नशा तुम्हारे भीतर प्रवेश करता है, तुम दो हिस्सों में बंट जाते हो—तुम्हारी आत्मा अलग, तुम्हारा शरीर मन अलग। और शरीर, मन तो एक ही हैं, उनमें बहुत भेद नहीं है; वे एक ही तत्व के सूक्ष्म और स्थूल रूप हैं। तुम भीतर बंट जाते हो, और सब कंपने लगता है। जब तुम भीतर कंपने लगते हो, बाहर सब कंपने लगता है।

माया एक नशा है।

कबीर कहते हैं, माया महाठगिनी हम जानी। और हमने जाना कि माया बड़ी ठगिनी है। उसके कारण सब दो हो गया है।

गिरगुन फांस लिए कर डौले, बोलै मधुरी बानी।

केसव के कमला होई बैठी, सिव के भवन भवानी।।

इस विचार को थोड़ा समझें…

राम के साथ सीता है, कृष्ण के साथ राधा है, शिव के साथ शिवानी है, विष्णु के साथ लक्ष्मी है। हिंदुओं ने बड़े विचार के ये प्रतीक चुने हैं। यह तुम्हारे कारण, क्योंकि तुम दो में बंटे हो। परमात्मा तुम्हारे लिए एक नहीं हो सकता। यह तुम्हारे भीतर जो नशा और कंपन है, तुम्हारे भीतर जो माया है, जो भ्रम का सूत्र है, तुम्हारे कंपन के कारण तुम्हें शिव और शिवानी दो दिखाई पड़ते हैं। जब तुम्हारा कंपन खो जाएगा, तब तुम अचानक पाओगे कि शिव और शिवानी एक हो गए। वही अर्धनारीश्वर की प्रतिमा है।जैसे ही तुम्हारा कंपन खो जाएगा, तुम पाओगे कि वहां भी दो विलीन हो गए: लक्ष्मी विष्णु में खो गई, विष्णु लक्ष्मी में खो गए; एक बचा। तुम्हारे कारण दो है; क्योंकि तुम कंप रहे हो।

कौन तुम्हें कंपा रहा है? शराब तुमने पी नहीं, लेकिन फिर भी तुम शराबी हो। और बहुत तरह की शराबें तुमने पी ली हैं, जिनका तुम्हें पता नहीं है। तुमने आसक्ति पी ली है, तुमने मोह पी लिया है, तुमने अहंकार पी लिया है, तुमने द्वेष पी लिया है,र् ईष्या पी ली है, महत्वाकांक्षा पी ली है;— तुमने घृणा, क्रोध, लोभ—न मालूम कितनी शराबें पी ली हैं!

शराब का मतलब ही यह है कि जो बेहोश करे। शराब बोतलों में ही बंद नहीं बिकती, शराब तो जीवन के रोएं—रोएं में मिल रही है। अगर तुम पकड़ने में उत्सुक हो, तो सब जगह उसका दरवाजा खुला है।

शराब का अर्थ है: जिससे तुम भीतर कंप जाते हो। शराब का अर्थ है: ऐसी बेहोशी, जिसमें तुम ठीक—ठीक नहीं देख पाते, आंखें देखने की क्षमता खो देती हैं; या तुम वह देखने लगते हो जो है नहीं; या तुम्हें वह दिखाई पड़ने लगता है जो कभी था नहीं। नशे में तुम्हारी दृष्टि और दर्शन खो जाते हैं।

खयाल करो, जब तुम मोह से भर जाते हो, तब तुम्हें वही नहीं दिखाई पड़ता, जो है; तुम्हारा मोह तुम्हें जो दिखाता है, वही दिखाई पड़ता है। जब तुम क्रोध से भर जाते हो, तब तुम कुछ और देखने लगते हो।

एक स्त्री के मोह में तुम पड़ गए, या एक पुरुष के, तो स्त्री बहुत सुंदर दिखाई पड़ती है; ऐसा लगता है कि जगत में वैसा कोई भी नहीं, वैसा सौंदर्य कभी हुआ ही नहीं। वह स्त्री वैसी ही साधारण थी कल तक। रास्ते पर कई बार तुम गुजरे थे और उसे स्त्री को देखा था; आज अचानक क्या हो गया? तुम्हारे भीतर कुछ मोह का उदय हुआ है। तुम्हारे भीतर कोई सम्मोहन जगा है। तुम्हारे भीतर कोई नशा छा गया है। स्त्री वहां है, कल भी वही थी।

अचानक आज स्त्री सुंदर नहीं हो जाएगी। तुम्हारे भीतर कुछ फर्क हुआ है। तुम कुछ पागल हुए हो। आज स्त्री परम सौंदर्यवान दिखाई पड़ रही है। आज जो तुम देख रहे हो, वास्तविक नहीं है। आज जो तुम देख रहे हो, वह अपने ही सपने का विस्तार है। आज स्त्री केवल परदा बल गई है, और तुम अपना ही सपना उस पर देख रहे हो। रहो कुछ दिन उस स्त्री के पास, कर लो विवाह—थोड़े दिन में सपना टूटने लगेगा; क्योंकि सपने सदा नहीं चल सकते। सपनों का गुणधर्म यही है कि वे कभी होते हैं, कभी खो जाते हैं।

चौबीस घंटे कोई सपना नहीं देख सकता। और चौबीस घंटे कोई नशे में नहीं रह सकता। और सदा के लिए नशे में रहने का कोई उपाय नहीं है। सत्य ही सदा रह सकता है, सपना सदा नहीं रह सकता। दो चार दिन बीतते—बीतते ही स्त्री साधारण होने लगती है। यद्यपि तुम फिर भी कोशिश करते रहते हो सपने को खींचने की, लेकिन तुम जानते हो कि सपना टूटने के करीब आ गया। महीना, दो महीना बहुत मुश्किल है कि सपना चल जाए। और जब सपना टूट जाता है, तब एक विरक्ति, तब एक उदासी, तब एक विषाद घेर लेता है।

अब तुम विषाद और उदासी के माध्यम से उस स्त्री को देखने लगते हो तो वह साधार हो गई। कहां पर्वत पर थी, शिखर पर थी, अब कहां खाई में, खङ्ढ में गिर गई। कल तक स्वर्ण काया थी उसकी, अब उसके शरीर से गंध आने लगी। कल तक उसके शरीर पर कभी पसीना नहीं दिखाई पड़ा था—तुम देख ही नहीं सकते थे पसीना—आज शरीर से बदबू आने लगी। कल तक सुगंध थी, आज सब दुर्गंध हो गई। अब तम क्रोध और घृणा से भी देखना शुरू करोगे, तब वह स्त्री बहुत कुरूप मालूम पड़ने लगेगी—और स्त्री वही है, पुरुष वही है, कहां कुछ भी भेद नहीं हुआ। सारा भेद तुम्हारे भीतर हो रहा है।

कबीर कहते हैं, माया महाठगिनी हम जानी।

माया तुम्हारे भीतर बेहोश होने की कला का नाम है। माया, तुम्हारे सो जाने की पद्धति है। माया, तुम्हारे स्वप्न देखने की प्रक्रिया है।

कोई आदमी धन के पीछे दीवाना है, तो तुम कल्पना ही हनीं कर सकते, अगर तुम धन के दीवाने नहीं हो। उसे धन क्या दिखाई पड़ता है? वह रोज अपनी तिजोरी खोलता है, तब तुम उसकी आंखें देखो; जैसी कोई प्रेमी अपने प्रेयसी को देखता है। किसी कवि ने कवि जगत के सौंदर्य को ऐसा भाव—विभोर होकर नहीं देखा, जैसा धन का दीवाना तिजोरी खोलकर देखता है। तब उसकी आंखों में देखो, कितने सपने तैरते हैं, आंखों में कैसी चमक आ जाती है। तुम्हें अगर कोहिनूर हीरा पड़ा हुआ मिल जाए रास्ते पर, और तुम धन के दीवाने हो, तो तुम सारा होश खो दोगे। और कोहिनूर सिर्फ एक पत्थर है। लेकिन तुम्हारे भीतर सब बदल जाएगा। कोहिनूर एक परिस्थिति है, जिसने तुम्हारे भीतर के सोये हुए सारे नशे जग जाएंगे। ओर तब तुम्हें कोहिनूर में जो दिखाई पड़ेगा, वह कोहिनूर में नहीं है, वह तुमने ही डाला है।

तुम जो भी जगत में देख रहे हो, वह जगत में नहीं है, वह तुम्हारा डाला हुआ है। पद—लोलुप पद में जो देखता है…पागल होकर लोग दौड़ते रहते हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन लौट रहा था रात। वर्षा के दिन में धीमी—धीमी फुहार पड़ रही थी। रास्ते में गांव का राजनीतिज्ञ नेता, वह मिल गया। उसने कहा, नसरुद्दीन! बिना छाते के…!

नसरुद्दीन कहना नहीं चाहता था कि छाता नहीं है, और अभी सुविधा भी नहीं है खरीदने की। नसरुद्दीन ने कहा कि यह एक आध्यात्मिक अभ्यास है, यह एक ध्यान का प्रयोग है, इसमें बड़ा अनुभव होता है: परमात्मा वर्षा कर रहा है और तुम मूर्ख छाता लगाए हो? यह कोई बात हुई? बंद करो छाता, और जरा खड़े होकर देखो, बड़ा इलहाम होगा, बड़ा रिवीलेशन होगा, बड़ा उदघाटन होगा! परमात्मा बड़े सत्य देता है!

राजनेता को भरोसा तो न आया। लेकिन उसने सोचा, हर्ज क्या है करके देखने में। दूसरे दिन वह बड़ा क्रोधित लौटा। और उसने कहा, नसरुद्दीन मजाक की एक सीमा होती है! रात भर बुखार चढ़ा रहा। तुमने जैसा कहा था, वैसे ही मैंने किया। जब सब लोग सो गए, तो मैं बाहर गया और खड़ा रहा पानी में। कुछ हुआ नहीं। बस यह हुआ कि मेरी गर्दन से पानी उतर के कपड़े के भीतर चला गया। ठंड लगने लगी; शरीर कंपने लगा, और मुझे ऐसा लगा कि मैं भी क्या मूरखपन कर रहा हूं, यह कैसा मूढ़ता का मैं काम कर रहा हूं! क्या मैं मूर्ख हूं या पागल हूं?

नसरुद्दीन ने कहा, बस, यह क्या कोई कम इलहाम है? पहले ही अभ्यास में इतनी बड़ी अनुभूति! यह क्या कोई कम उपलब्धि है? अभ्यास किए जाओ, और आगे…अनुभव होंगे!

आदमी जैसा भीतर है, उस भीतर की परिस्थिति को अगर न बदला जाए, अगर न तोड़ा जाए, तो तुम परमात्मा को बाहर न पा सकोगे। क्योंकि तुम जो भी पाओगे, वही संसार होगा। तुम जो भी देखोगे, वह तुम्हारी ही आंखें देखेंगी। तुम जो भी पाओगे, पानेवाले तुम ही रहोगे। असली सवाल परमात्मा को खोजने का नहीं है, असली सवाल से बेहोशी तोड़ने का है। बेहोश आदमी जहां भी जाएगा, बेहोशी ही पाएगा।

भीतर से माया टूट जाए, सुषुप्ति टूट जाए, स्वप्न टूट जाए, तो तुम जहां हो, वही तुम्हें परमात्मा उपलब्ध हो जाएगा। वही तुम्हें चारों तरफ से घेरे खड़ा है। उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। तुम उससे कैसे वंचित हुए, यही चमत्कार है। तुमने कैसे उसे खोया, यही चमत्कार है। जरूर तुम किसी गहरी मूर्च्छा में हो।

महावीर ने कहा—किसी ने पूछा—साधु कौन? महावीर ने कहा, जो जागा है, वह साधु है। और असाधु?—जो सोया है।

तुम्हारे भीतर कुछ जागने की प्रक्रिया भी है, और कुछ सोने की प्रक्रिया भी है। तुम्हारे भीतर सपना देखने की क्षमता भी है, और सत्य को जानने की क्षमता भी है। तुम जाग भी सकत हो और सो भी सकते हो—ये दोनों तुम्हारे भीतर क्षमताएं हैं। सोने की क्षमता का नाम माया है।

रात तुम सपना देखते हो। सपना देखने के लिए एक चीज जरूरी है कि तुम सो जाओ। जागे—जागे सपना देखना मुश्किल है। सपना देखने के लिए सोना जरूरी है। और जैसा तुम देख रहे हो, जगत को अभी—रुपए में तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ता है; हड्डी, मांस—मज्जा में तुम्हें सौंदर्य दिखाई पड़ता है; भोजन में तुम्हें जीवन का सारा रस दिखाई पड़ता है; वस्त्रों में तुम्हें जीवन की सारी कला दिखाई पड़ती है; व्यर्थ में तुम्हें सारे दिखाई पड़ता है; सार का तुम्हें कोई पता नहीं चलता—इससे एक बात जाहिर है कि तुम सोये हुए हो और सपना देख रहे हो।

माया महाठगिनी हम जानी।

माया कोई दार्शनिक तत्व नहीं है। दार्शनिकों के हाथ में पड़ गया सिद्धांत, तो उन्होंने बड़े सिद्धांत खड़े किए हैं। और बड़े बिगूचन में डाल दिया है। अगर तुम दार्शनिकों को पढ़ोगे तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे कि यह माया क्या है। क्योंकि उन सबकी व्याख्याएं अलग हैं। कोई कहेगा, यह परमात्मा की शक्ति है; कोई कहेगा, यह परमात्मा की छाया है। और उनको बड़ी कठिनाई है। शंकराचार्य को बड़ी कठिनाई है कि यह माया कहां से आती है। क्योंकि अगर सभी कुछ ब्रह्म है, तो माया कैसे पैदा होती! कोई उत्तर उनके पास नहीं है। कोई उत्तर हो भी नहीं सकता।

लेकिन अगर गौर से समझो तो माया मनोवैज्ञानिक तत्व है। माया कोई दार्शनिक तत्व नहीं है। माया का कोई संबंध ब्रह्म से, अस्तित्व से नहीं है। माया का संबंध तुमसे है। माया तुम्हारी छाया है, ब्रह्म की नहीं। और माया तुम्हारे भीतर बेहोशी का नाम है। इसलिए जैसे—जैसे तुम भीतर जागरूक हो जाओगे, जैसे—जैसे और साक्षी हो जाओगे, वैसे—वैसे माया तिरोहित हो जाएगी।

अगर माया ब्रह्म का तत्व है तो तुम उसे कैसे तिरोहित कर पाओगे? तब तो तुम जाओगे कैसे? अगर माया ब्रह्म का अंग है तो तुम उसे कैसे मिटा पाओगे? नहीं माया तुम्हारा ही अंग है। तुम ब्रह्म की चर्चा में मत पड़ो। तुम उसे जान भी न पाओगे, जब तक तुम्हारे भीतर की माया न टूट जाए।

माया शब्द बड़ा अदभुतपूर्ण है। माया का ठीक वही अर्थ है, जो अंग्रेजी में मैजिक का है। मूल शब्द का वही अर्थ है।

तुम्हारे भीतर सपनों को गढ़ लेने की एक चमत्कारी क्षमता है। रात तुम एक अंधेरे रास्ते से गुजरते हो, भय तुम्हारे भीतर है—अंधेरे का भय, अकेलेपन का भय, अजनबी रास्ते का भय—तुम कंप रहे हो भय से। भय एक माया का हिस्सा है। पत्ते हिलते हैं, तुम समझते हो कि कोई आ रहा है। पत्तों को हिलने की आवाज, तुम कैसे किसी के आने की पदचाप में बदल लेते हो। तुम्हारे भय के कारण। दिन होता है, ऊर्जा होता, रास्ते पर लोग होते, तुम चिंता भी न करते कि पत्तों में कोई आवाज हो रही है। सूखे पत्ते हवा में हिल रहे हैं, तत्क्षण तुम चौंक के खड़े हो जाते हो—लगता है कोई आ रहा है। आवश्यक नहीं है पत्तों का हिलना; अगर भय काफी हो, तो अपने ही पैर की आवाज—सुनसान रास्ते पर मालूम पड़ती है कि कोई पीछा कर रहा है! अपने ही पैर की आवाज—सुनसान रास्ते पर लगती है, कोई पीछा कर रहा है! अंधेरे में वृक्षों के रूप रंग—लगते हैं भूत—प्रेम खड़े हैं!

मरघट पर जाकर किसी दिन देखो! तुम्हें बहुत चीजें दिखाई पड़ेंगी जो वहां हैं ही नहीं। और इतनी जोर से दिखाई पड़ेंगी कि तुम्हें उनका अस्तित्व क्षीण और उनका अस्तित्व ज्यादा प्रगाढ़ मालूम पड़ेगा। और तुम भयभीत होकर भाग खड़े हुए, तो जितना तुम्हारा भय बढ़ता जाएगा, उतना ही…

कभी तुम्हें पता है, मरघट से तुम गुजर जाओ, तुम्हें पता न हो कि मरघट है, तो कुछ न होगा। कोई भूत—प्रेत रास्ते में न आएंगे। कोई ढोल न बजेगा। कोई प्रकाश न जलेगा। कोई ज्योति इस कोने से उस कोने तक न जाएगी। तुम्हें पता न हो कि मरघट है, तुम मजे से गुजर जाओगे। और तुम्हें पता है कि मरघट है, और मरघट न भी हो कि तुम मुसीबत में पड़ जाओगे।

एक मेरे मित्र हैं। सदा डींग वे मारते हैं, निर्भय होने की। जो भी आदमी निर्भय होने की डींग मरता है, समझ लेना कि भयभीत है। नहीं तो डींग मारने की कोई जरूरत नहीं। डींग हम सदा विपरीत की मारते है। तो मेरे घर मेहमान थे। मैंने उनसे कहा, क्या भूत—प्रेम से भी नहीं डरते? उन्होंने कहा, क्यों डरूं, भूत—प्रेत हैं कहां? सब मन की कल्पना है। मैं किसी से नहीं डरता। तुम मेरे सामने भूत—प्रेत लाओ!

मैंने कहा, ठहरो। तुम ठीक वक्त पर आ गए हो। वे थोड़े डरे। उन्होंने कहा, क्या मतलब?

सामने के मकान में इस समय भूतों का अड्डा है। तो मैं वहां इंतजाम तुम्हारे सोने का करवाये देता हूं। वहां कोई है भी नहीं; बस तुम और भूत!

वे थोड़े हंसे, लेकिन उनकी हंसी अब खोखली थी। उन्होंने कहा, मैं डरता नहीं…क्या जरूरत वहां जाने की? मैंने कहा, अगर नहीं डरते तो फिर जाने में भय क्या?

…फंस गए! कहने लगे, अच्छा! लेकिन उनका चित्त बड़ा उदास हो गया। सामने के मकान में भी कभी किसी ने नहीं सुना था कि भूत हैं—थे भी नहीं। लेकिन उस मकान को एक तेल का दुकानदार अपने खाली पीपे रखने के काम ले लाता था—एक गोदाम की तरह। इसलिए उसमें कोई था भी नहीं। मगर खाली पीपे गरमी के दिनों में आवाज करते हैं; दिन में फैल जाते हैं गरमी के कारण, रात में सिकुड़ते हैं। और कोई हजार, दो हजार पीपे थे मकान में। तो आवाज एक पीपे से दूसरे पीपे में जाती। और काफी सुंदर भूत—प्रेतों की लीला उस घर में चलती थी। उनका मैंने उस मकान में जाकर बिस्तर लगवा दिया। ऊपर उनको बिठाकर सुला आया दूसरी मंजिल पर। रात को कोई दो बजे चीख—पुकार की एकदम आवाज मची। खड़े छज्जे पर सामने, बिलकुल विक्षिप्त दशा में चिल्ला रहे थे कि बचाओ। तो मैंने कहा कि घबड़ाना क्या! चाभी मैं तुम्हें दे दिया हूं, तुम उतर के बाहर निकल आओ। उन्होंने कहा, उसी कमरे में से तो गुजरना पड़ेगा, जहां वह सब भूतलीला, भूत—प्रेतलीला चल रही है। तो बड़ी मुसीबत हो गई। तो उतारें कैसे। उन्होंने कहा, सीढ़ी लगाओ। सामने से सीढ़ी लगाई गई, वे इतने कंप रहे थे कि सीढ़ी पर से गिर पड़े। उनको मैंने लाख समझाया बाद में कि वहां कुछ भी नहीं है। पर उन्होंने कहा, मैं नहीं मान कसता। ऐसा हो ही नहीं सकता कि वहां कुछ न हो; क्योंकि मैंने बराबर पीपों में से भूतों को निकलते दूसरे पीपों में जाते देखा है—आंख से देखा है।

अब वे डींग नहीं मारते। कम से कम मेरे सामने तो नहीं मारते। और तब से वे भूत—प्रेतों के बड़े भक्त हो गए हैं। और मैंने भी उन्हें समझाया कि वहां कुछ नहीं है। सारी बात समझा दी कि पीपे हैं, आवाज करते हैं। उन्होंने कहा, छोड़िए, जब तक मुझे अनुभव नहीं था, एक बात थी। अपने अनुभव से कहता हूं।

यह अनुभव माया है।

और बूढ़े आदमी जो भी अनुभव से कहता हैं इस संसार के संबंध में, वह सब अनुभव ऐसा ही है। सिर्फ उस आदमी के अनुभव का कुछ सार है, जो माया से जग गया हो, बाकी सब अनुभव ऐसा ही है। इस अनुभव का कोई भी मूल्य नहीं; क्योंकि तुम्हारी कल्पना, तुम्हारे भीतर की बेहोशी से प्रसूत है।

इसलिए कबीर कहते हैं,

माया महाठगिनी हम जानि!

निरगुन फांस लिए कर डोलै।

वे कहते हैं, इससे बड़ा चमत्कार और क्या होगा कि जो निर्गुण है…तुम निर्गुण हो, तुम ब्रह्म हो, तुम परम ऊर्जा हो जगत की—निराकार, शुद्ध, इससे बड़ा चमत्कार क्या होगा! निरगुन फांस लिए कर डोलै। निर्गुण को फांस लिया है माया ने, और हाथ में हाथ डालकर डोल रही है।

माया महाठगिनी हम जानी।

बोलै मधुरी बानी!

और बड़े मधु वचन हैं माया के। होंगे ही, अन्यथा इतने लोग फंसते कैसे! बड़े मधुर वचन हैं। बड़े स्वप्न दिखाती है। एक रूप खड़ा कर देती है चारों तरफ। सपना इतना प्रगाढ़ हो जाता है, इतना इंद्रधनुषी कि तुम रुक नहीं सकते, पात्रता पर जाना होता है। सपने खोजने पड़ते हैं।

सारे लोग दौड़ रहे हैं अपने—अपने सपने की तलाश में। और उस सपनों को तुम कभी भी पाओगे नहीं, क्योंकि वे कहीं हैं नहीं, उनका कोई अस्तित्व नहीं है। आखिर में तुम पाओगे कि विषाद, हाथ खाली हैं। आखिर में तुम पाओगे: सब पा लिया तो भी हाथ खाली हैं, कुछ न पाया तो भी हाथ खाली हैं। आखिर में तुम पाओगे: मृत्यु आती है, सब सपने टूट जाते हैं, और तुमने जीवन का इतना बहुमूल्य अवसर व्यर्थ गंवा दिया। जहां सत्य जाना जा सकता था, वहां तुम सपनों के पीछे दौड़ते रहे। छोटे बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ते हैं। अगर तुम गौर से देख सको तो बूढ़ों को भी तुम तितलियों के पीछे ही दौड़ते पाओगे। तितलियां बदल गई होंगी, क्योंकि बूढ़े अनुभवी हैं—लेकिन दौड़ नहीं बदलती। और दौड़ तितलियों के पीछे ही बनी रहती है। छोटे बच्चे को हम कहते हैं कि क्या पागल हुआ है, तितली को पकड़कर भी क्या होगा! लेकिन बूढ़े क्या पकड़ने के लिए दौड़ रहे हैं? तुम खुद क्या पकड़ने के लिए दौड़ रहे हो? तुम भी बच्चे थे, तितलियां पकड़ते रहे। तुम्हारे बच्चे भी कल बूढ़े हो जाएंगे, और वे भी अपने बच्चों को समझाएंगे, क्या तितलियों के पीछे दौड़ रहे हो! लेकिन बूढ़े भी तितलियों के पीछे दौड़ते रहते हैं।

और अगर चुनाव ही करना है, तो बच्चों की तितलियां ज्यादा ठीक मालूम पड़ती हैं, बजाय बूढ़ों की। बूढ़े नोट के पीछे दौड़ रहे हैं, पद के पीछे दौड़ रहे हैं; दिल्ली उनका मोद्व है, वे दिल्ली जा रहे हैं! धन उनकी आत्मा है, वे धन जोड़ जा रहे हैं! बच्चे कंकड़—पत्थर बीन लेते हैं, और बूढ़े हीरे—जवाहरात—फर्क कितना है? कंकड़—पत्थर में और हीरे—जवाहरात में कोई भी तो फर्क नहीं है।

अगर आदमी इस जमीन पर न हो, तो साधारण पत्थर में और कोहिनूर में क्या फर्क होगा? कोहिनूर कुछ अकड़कर कह सकेगा कि मैं विशिष्ट हूं। लेकिन बड़े से बड़े सम्राट भी…

कोहिनूर हीरा रणजीत सिंह के पास था। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद महारानी विक्टोरिया की नजर कोहिनूर पर लगी रही: कोई भी हालत में कोहिनूर पाना जरूरी है।

विक्टोरिया के पास सब कुछ था। बड़ा विराट साम्राज्य था, जिसमें सूर्य का कभी अस्त नहीं होता था। मगर यह कोहिनूर उसके हृदय में जख्म की तरह सताता रहा। और उसको सताने के लिए रणजीत सिंह कोहिनूर अपने घोड़े पर लटकाकर रखते थे। खुद नहीं लगाते थे उसको, घोड़े पर लटका रखा था।

रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद, लड़का नाबालिग था रणजीत सिंह का, तो उसको विक्टोरिया ने इंग्लैंड बुला लिया। नाबालिग था, जब तक वह बालिग न हो जाए, तब तक राज्य का मालिक भी नहीं हो सकता था। तो तब तक उसकी शिक्षा—दिक्षा का भार ब्रिटिश राज्य ने ले लिया। वह लड़का लोगों से कहता फिरता था कि मुझे रस नहीं है, रस कोहिनूर में है। और यह और चोर है यह औरत। और कोहिनूर हीरा चुरा लिया गया। नाबालिग लड़का है, कहीं खो न दे, इसलिए कोहिनूर ले लिया गया ब्रिटिश साम्राज्य में। फिर वह कभी वापिस नहीं लौटाया गया।

विक्टोरिया की नजर भी एक पत्थर पर लगी है—जिसके पास सब है! बूढ़े भी कंकड़—पत्थर बीनते रहते हैं। बच्चों की तितलियां कम से कम जीवित हैं; तुम्हारी तितलियां बिलकुल मृत, मरी हुई हैं। लेकिन दौड़ जारी रहती है, क्योंकि माया तो एक ही है। वह बच्चों के भीतर है, वह बूढ़े के भीतर है। जब तक तुम जाग न जाओ, जब तक तुम्हारा नया जन्म न हो जागने में, तब तक तुम जो भी मरोगे वह मूढ़तापूर्ण है। माया से निकला हुआ सभी मूढ़तापूर्ण होगा।

एक बात ठीक से समझ लेना जरूरी है।

मैं जब भी माया की बात करता हूं, तो मुझे माया और ब्रह्म के सिद्धांत से कोई प्रयोजन नहीं है—कबीर को भी नहीं है। माया तुम्हारे भीतर बेहोशी होने की प्रक्रिया का नाम है—तुम्हारी सोये होने की दशा। तुम नींद—नींद में जी रहे हो। और सपने तुम्हारे चारों तरफ घिरे हैं। इसलिए ध्यान उपयोगी है। क्योंकि ध्यान माया को तोड़ने का प्रयोग है: कैसे तम जाग जाओ और माया छिन्न—छिन्न हो जाए। और तुम जागकर अगर जगत को देखो, तो तुम जगत को पाओगे ही नहीं, वहां तुम ब्रह्म को पाओगे। माया जब तक भीतर है, तब तक तुम सत्य को न देख सकोगे।

निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै अधुरी बनी।

बड़ी मधुर बानी है, सभी को फांस लेती है। जब रुपए की खनकार तुम्हें सुनाई पड़ती है, तब कैसी मधुर मालूम पड़ती है! जब एक सुंदर चेहरा स्त्री का तुम्हें दिखाई पड़ता है, तो कैसा मधुर मालूम पड़ता है! जब एक पद तुम्हें पुकारता है, तो कैसा मधुर मालूम पड़ता है। पीछे सब कड़वा हो जाता है, लेकिन शुरुआत बड़ी मधुर है। ऐसा लगता है, जैसे हम जहरीली दवाइयां शक्कर का लेप चढ़ाकर देते हैं; जैसे जीवन का सब जहर हम पीने को राजी हैं—सिर्फ माया का थोड़ा—सा लेप चाहिए। पीछे सब जहर प्रकट होता है, लेकिन तब बहुत देर हो गई होती है।

इस बात को ध्यान में रखना कि जिस अनुभव में सुख पहले हो और पीछे दुख आए, उसे समझना कि वह माया से पैदा हुआ है। इससे विपरीत जिस अनुभव में दुख पहलू मालूम पड़े और सुख पीछे आए, समझना कि वह माया से पैदा नहीं हुआ है।

तप की परिभाषा इतनी ही है कि वहां दुख पहले है और सुख बाद में। और भोग की परिभाषा इतनी ही है कि वहां सुख पहले है और दुख बाद में। सुख स्वागत करता मिलेगा सदा—वह माया का सेवक है—पीछे दुख छिपा है। तपश्चर्या में, साधना में, जब तुम सत्य की खोज से भरोगे मुमुक्षा से, और जाओगे, तो पहले दुख मालूम पड़ेगा। और अगर तुम उस दुख से बहुत डर गए तो माया से कभी जाग न सकोगे। अगर तुम उस दुख के लिए राजी हो गए, तो जल्दी ही दुख नष्ट हो जाता है और महासुख के द्वार खुल जाते हैं।

दुख का अचेतन रूप से चुनना तपश्चर्या है।

सुख के पीछे दौड़ते रहना, तितलियों के पीछे दौड़ते रहना—और मजा यह है कि सुख के पीछे जो दौड़ता है, उसे सुख मिलता है; और जो दुख के लिए राजी है, वह महासुख का अधिकारी हो जाता है।

इस गणित को बहुत साफ समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इस गणित को समझे बिना माया को तोड़ा नहीं जा सकता, उसकी मधुर वाणी से उठा नहीं जा सकता। बड़ा मीठा सपना है उसका।

केसव के कमला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी।

पंडा के मूरत होइ बैठी, तीरथ में हूं पानी।।

जोगी के जोगिनी होइ बैठी, राजा के घर रानी।।

काहू के हीरा होइ बैठी, काहू के कौड़ी कानी।।

भक्तन के भक्ति होइ बैठी, ब्रह्म के ब्रह्मानी।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी।।

कबीर कह रहे हैं कि जो नहीं कहा जा सकता, जो अकथ है, वह कहानी तुमसे कहता हूं। कहा तो नहीं जा सकता है, क्योंकि कहना उन चीजों का संभव है, जो तर्कयुक्त हों। उन चीजों को कहना मुश्किल है, जो तर्क बिलकुल विपरीत हों। भाषा तर्क की सरिणी है। उसमें जो तर्कयुक्त है, वह वहां जा सकता है। लेकिन यह बड़ी अतक्र्य कहानी है कि तुम अपने ही कारण दुख पा रहे हो। हम कहेंगे यह बात तो हो नहीं सकती, क्योंकि हम तो सुख चाहते हैं, तो हम अपने ही कारण कैसे दुख पाएंगे! इसीलिए तो हम सदा कहते हैं कि दुख हम दूसरे के कारण पाते हैं। पति पत्नी के कारण पा रहे हैं, पत्नी पति के कारण; बेटा बाप के कारण, बाप बेटे के कारण। हम सदा सोचते हैं कि दुख हम दूसरे के कारण पा रहे हैं, वह तर्क—युक्त मालूम पड़ता है। क्योंकि हम अपने कारण दुख क्यों पाएंगे, हम तो सुख चाहते हैं।

कहानी बड़ी अकथ है। क्योंकि तुम सुख चाहते हो, इसलिए तुम दुख पा रहे हो। यह बड़ी अतक्र्य बात है, लेकिन यही सत्य है। और जब तक तुम सुख चाहोगे, तब तक तुम दुख पाओगे, और जिस दिन तुम राजी हो जाओगे दुख के लिए, उस दिन तुम दुख पाने के बाहर हो जाओगे। कहानी अकथ है।

अगर कोई तुमसे कहे कि तुम भटक रहे हो, क्योंकि तुम खोज रहे हो, तो बड़ा विरोधाभास मालूम पड़ता है। अगर कोई तुमसे कहे, अगर तुम रुक जाओ तो तुम पा लोगे, तो बड़ा विरोधाभास मालूम पड़ता है। बड़ी अकथ बात है! पर यही सत्य है। जब तक तुम दौड़ोगे, तुम न पा सकोगे। क्योंकि जिसको तुम खोजने चले हो, वह तुम्हारे भीतर छिपा है। जब तक तुम दौड़ते रहोगे, तब तक तुम भटकते रहोगे, क्योंकि जिसे तुम खोजने चले हो, वह तुम ही हो। तुम दौड़ के जाओगे कहां? और जितना तुम दौड़ोगे, उतनी ही उत्तेजना में तुम अपने को भूल जाओगे। रुक जाओ!

अकथ कहानी है! जो रुक जाते हैं, वे पा लेते हैं। पैराडाक्स है, विरोध है। तर्क मानने को राजी नहीं होता, तर्क क्या कहेगा? तर्क कहेगा, अगर तुम दौड़ते हो और नहीं पाते, तो जरा जोर से दौड़ो। साफ है, गणित सीधा है। दौड़ के नहीं पाते, इसका मतलब है, दौड़ पर्याप्त नहीं है—तेजी से दौड़ो! या दौड़ के नहीं मिल रहा है, तो इसका मतलब है, दिशा गलत है। तो ठीक दिशा चुनो। तर्क कहेगा, दिशा बदलो, दौड़ की गति बढ़ाओ, पहुंच जाओ। लेकिन, अगर तुम्हारे भीतर ही छुपी है, मंजिल, तो तुम किसी दिशा में जाओ—किसी भी दिशा में जाओ—गलत दिशा होगी। क्योंकि इसका दिशा से कोई संबंध ही हनीं तुम्हारे भीतर…

भीतर की दिशा को हमने गिना ही नहीं है कभी। हम कहते हैं, दस दिशाएं हैं। मैं कहता हूं, ग्यारह। क्योंकि दास तो बाहर हैं—आठ चारों तरफ, एक नीचे, एक ऊपर। और तुम्हारे भीतर? लेकिन भूगोल उस दिशा को बिनता ही नहीं। उसको हमने बाहर ही रख छोड़ा है और वहीं मिलेगा।

जिसे तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे भीतर छिपा है। तुम अपने को ही खोज रहे हो। तो तुम कोई भी दिशा चुनो, सभी दिशाएं गलत होंगी। तुम कोई भी मार्ग चुनो, तुम भटकोगे। और धीरे और जोर से दौड़ने का सवाल नहीं है। तुम कितने जोर से दौड़ो, जितने जोर से दौड़ोगे, उतने ही दूर निकल जाओगे।

रुको! सब दिशाएं छोड़ो! दसों दिशाएं छोड़ो! वहीं ठहर जाओ, जहां तुम हो! भीतर वहीं रुक जाओ जहां तुम हो। सब मार्ग छोड़ो। यही तो सहजता का अर्थ है। कोई मार्ग नहीं, कोई प्रयत्न नहीं, कहीं जाना नहीं, दौड़ना नहीं, आसन, व्यायाम नहीं। चुपचाप वहां रुक जाओ, जहां तुम हो। वहां वह सब छिपा है, जिसकी तलाश है।

दौड़ है माया, रुक जाना है ब्रह्म। तुम रुके कि उसे पा लिया। दौड़ोगे तो विचार में चलना ही पड़ेगा। मन की सहायता जरूरी है दौड़ने में। क्योंकि मन यंत्र है। वह तुम्हें मार्ग सुझाता है। वह मार्ग की कठिनाइयां दिखलाता है। वह, कैसे मार्ग को पार करो, इसकी विधि—विधान बनाता है। मन की तो जरूरत रहेगी अगर यात्रा करनी है। और जितनी ज्यादा यात्रा करनी है, उतनी ही ज्यादा मन की जरूरत होगी। और मन को तो छोड़ना है, तभी तुम पाओगे।

मन माया है। जैसे ही मन रुक जाता है, न कोई यात्रा—तीर्थयात्रा भी नहीं है। जैसे ही तुम अपने भीतर शांत और ठहर जाते हो, एक लहर भी नहीं उठती विचार की—तुम पहुंच गए! आ गई मंजिल! और तब तुम हंसोगे कि इसे खोजने को मैं कितना दौड़ा। तब तुम हंसोगे कि दौड़ने के कारण ही तुम इसे नहीं पा रहे थे। तब तुम हंसोगे कि मैं भी कैसा पागल था: अपने ही कारण दुख पा रहा था और सोचता था दूसरों के कारण दुख मिलता है।

जब तक तुम देखते रहोगे, दूसरों के कारण दुख मिलता है, तब तक तुम भटकोगे; क्योंकि तुम्हें कोई भी दुख नहीं दे रहा है; सिवाय तुम्हारा अपना ही जीवन का ढंग। तुम्हारे जीवन की पद्धति गलत है। वह माया से लिप्त है।

सोचो, तुम्हारा धन खो जाता है। एक चोर धन चोरी कर ले गया। तुम सोचते हो चोर ने तुम्हें बहुत दुख दिया? चोर क्या दुख देगा? धन में आसक्ति थी, इससे दुख हुआ। अगर आसक्ति न होती और चोर चोरी करके ले जाता, तो दुख होता? तो शायद तुम प्रसन्न होते कि चलो निर्भार हुए, इससे भी छुटकारा हुआ। तुम शायद धन्यवाद देते चोर को कि तेरी बड़ी कृपा, तूने बोझ कम किया। लेकिन आसक्ति है धन से, इसलिए दुख होता है चोर से।

पत्नी मर जाती है, तुम छाती पीटते हो, रोते—चिल्लाते हो—मृत्यु ने दुख दिया? तुम कहते हो, हे परमात्मा! तू क्यों इतना कठोर है? तुम कहते हो कि यह कैसा दुर्भाग्य का क्षण, यह मुझ पर ही क्यों घटा, दूसरों पर क्यों नहीं घटता? आखिर मुझे ही क्यों चुना? और मैं तेरी रोज प्रार्थना करता हूं, मंदिर, भी जाता हूं, गीता भी पढ़ता हूं, कुरान भी पढ़ता हूं, मस्जिद में पांच नमाज पढ़ता हूं—और यह फल मिला।

परमात्मा तुम्हें दुख दे रहा है, विधि दुख दे रही है, या कि तुम्हारी आसक्ति दुख दे रही है? तुम बंधे थे इस स्त्री से, और तुम सोचते थे इस स्त्री में ही तुम्हारा सुख है। अब यह स्त्री न रही, अब सुख कैसे मिलेगा? इससे तुम पंडित हो रहे हो।

खयाल करो, जब भी तुम दुखी होते हो तुम्हीं कारण हो। और जैसे ही यह बोध सघन हो जाएगा कि मेरे दुख का कारण मैं हूं, वैसे ही तुम दुख की प्रक्रिया को तोड़ने लगोगे। फिर तुम दुख चाहो तो बात दूसरी। चलो उस रास्ते पर, लेकिन तब शिकायत मत करना। और तब किसी से मत कहना कि किसी और के कारण मैं दुख पा रहा हूं। तब तुम्हारी मौज। तब दुख पाना ही तुम चुनते हो, ठीक। लेकिन तब शिकायत नहीं। लेकिन अगर तुम दुख नहीं पाना चाहते हो, तो दुख के मूल कारणों को समझने की कोशिश करो।

तुम क्रोधित होते हो, किसी ने गादी दी—और तुम कहते हो कि यह तो साफ है, यह आदमी गाली न देता और मैं क्रोधित न होता, न दुखी होता। लेकिन गाली से कोई कभी क्रोधित नहीं होता। क्रोधित तुम इसलिए होते हो कि तुमने एक अहंकार पाल रखा है, जो गाली से चोट खाता है। तुमने एक अस्मिता बना रखी है कि मैं एक बड़ा प्रतिष्ठिव व्यक्ति हूं और यह आदमी गाली दे रहा है। मेरी प्रतिष्ठा खराब कर रहा है। अहंकार को चोट लगती है गाली से; लेकिन अगर भीतर अहंकार न हो, तो गाली ऐसे निकल जाएगी, जैसे हवा का झोंका आया और निकल गया। तुम अछूते रह जाओगे, अस्पर्शित।

खयाल करो: कई बार ऐसा तुम्हें जीवन में हुआ होगा। पैर मैं चोट लग गई तो फिर दिनभर वहीं—वहीं चोट लगती है। सीढ़ी से निकलते तो टकरा जाते हो। किसी आदमी का धक्का लग जाता है। कुर्सी के पास से निकलते हो तो कुर्सी चोट मार देती है। जूता पहनते हो तो जूता काटता है। स्नान करने जाते हो तो पानी कष्ट देता है। दिनभर कुछ न कुछ। और तुम्हें लगता है कि बड़ी हैरानी की बात है, रोज ऐसा नहीं होता था, और आज चोट क्या लगी है, सारा संसार वहीं चोट मारने को उत्सुक है! कोई संसार तुम्हें चोट मारने को उत्सुक नहीं है। रोज भी यही होता था; लेकिन रोज चोट नहीं थी, इसलिए पता नहीं चलता था। रोज कुर्सी यही लगती थी, रोज जूता यही छूता था, रोज बच्चा घर आता था। पैर पर पैर रखकर चढ़ता था। लेकिन वहां चोट नहीं थी, इसलिए पता नहीं चलता था। आज पता चल रहा है।

गाली कोई देता है, लगती है चोट; क्योंकि अहंकार एक घाव की तरह तुम्हारे भीतर है। कोई प्रशंसा करता है, तुम खिल जाते हो; कोई निंदा करता है, तुम मुरझा जाते हो। यह कैसी गुलामी? और इसमें दूसरे का कोई हाथ नहीं है, इसमें तुम ही जिम्मेवार हो। जैसे—जैसे तुम गौर से देखोगे अपने जीवन के दुखों को, तुम पाओगे कि कहीं भीतर मैं ही जिम्मेवार हूं। वहीं माया है। और जिससे तुम्हें दुख मिल रहा है, उसको गिरा दो, उसे हटा दो। गाली किसी ने दी, उसको तो कहो कि तेरी बड़ी कृपा; और जहां चोट लगी, उस घाव को हटा दो।

कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। वह तुम्हें जो गाली दे, उसको तो तुम घर ही ले आना, उसको तो कहना कि तू पास ही रह, भैया। तू दूर रहेगा, पता नहीं कभी दे न दे, मिलता हो न हो, यहीं रह, बगल में तेरे लिए भी एक घर बना देते हैं। आगन कुटी छपाय। उसको बुढ़िया सुंदर व्यवस्था कर दो रहने की, ताकि वह सतत मौजूद रहे और तुम अपने अहंकार को अनुभव कर सको।

और असली सवाल अहंकार छोड़ने का है। असली सवाल भीतर कुछ बदलने का है। लेकिन बदलोगे कैसे? अगर जिम्मेवारी दूसरे पर छोड़ते हो, तो तुम भीतर देखोगे ही नहीं।

इस भीतर के अंधेपन का नाम माया है। और यह माया अनेक रूप ले लेती है। इसके रूप का कोई अंत नहीं है। तुम जैसा चाहो, वैसा रूप ले लेती है, क्योंकि माया सपना है। वहां कोई पदार्थ तो नहीं कि रूप देने में कोई कठिनाई हो।

तो कबीर कहते हैं, भक्त के लिए मूर्ति ही माया हो जाए, वह उसी को सम्हाल सम्हालकर फिरता है।

एक घर में मैं पंजाब में मेहमान हुआ। सुबह स्नान करने के लिए निकला तो जिस कमरे से गुजरा, वहां देखा कि गुरुग्रंथ साहब रखा है, नानक की वाणी रखी है, और एक लौटा रखा पास में और एक दतौन रखी है! मैं जरा हैरान हुआ कि दतौन और लोटा यहां किसलिए रखा है! तो उन्होंने कहा कि गुरुग्रंथ साहब के लिए, सुबह दतौन करने के लिए। किताब रखी है वहां, मूर्ति भी नहीं है! गुरुग्रंथ साहब के लिए दतौन रखी है! मूर्ति भी हो तो थोड़ा समझ में आता है। ऐसे तो वह भी मूढ़तापूर्ण है, क्योंकि तुम्हारी ही बनाई मूर्ति और तुम भलीभांति जानते हो, बाजार से खरीद लाए हो, और अब दतौन लौटा रखा हुआ है। लेकिन किताब के सामने तो हद हो गई। लेकिन हो गई हद इसलिए कि किताब का नाम है गुरुग्रंथ साहब। और किताब में एक व्यक्ति डाल दिया—साहब। तो भोजन भी दिया जाएगा गुरुग्रंथ साहब को; सुलाया भी जाएगा, उठाया भी जाएगा।

कबीर कहते हैं, भक्त के भक्ति होइ बैठी, जोगी के जोगने होइ बैठी, राजा के घर रानी। पंडा के मरत होइ बैठी, तीरथ हूं में पानी।

सारे संसार में उसने बहुत रूप लिए हैं। प्रश्न यह है कि जहां भी तुम्हारी आसक्ति हो, जहां भी तुम्हारा मोह हो, जहां भी तुम्हारा अंधापन लग जाए, राग जुड़ जाए, वहीं माया खड़ी हो जाएगी। अब किताब से राग लग गया तो किताब ही माया हो गयी। मुझसे राग लग जाए, वही माया हो गई। तो फिर मेरे कारण तुम परेशान होने लगे। और जहां माया होगी, वही परेशानी शुरू हो जाएगी। जागो!

माया महाठगिनी हम जानी।

जागो! और देखो भीतर कैसे—कैसे तुमने कितने रूप खड़े कर रखे हैं! और अपने ही हाथ…!

समझ काफी है, तोड़ने की कोई जरूरत भी नहीं है। समझ आइ तो तुम खुद ही हंसोगे—इस लोटा और दतौन को देखकर गुरुग्रंथ साहब के सामने रखा। समझ आई कि तुम खुद ही हंसोगे कि तुम मंदिर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़े, घुटने टेके खड़े हो, तुम उससे बातें कर रहे हो। तुम पागल हो। किससे बातचीत चल रही है?

लोग मूर्ति से भी नाराज, नाखुश, खुश होते हैं। बड़ा मजेदार है। और तुमने मांगा कि इस लड़के की नौकरी लग जाए। संयोग की बात लग गई तो तुम बड़े प्रसन्न होते हो, मूर्ति से चर्चा करते हो, कि बड़ी कृपा है तेरी, तेरे बिना कुछ भी न होता, लड़के की नौकरी लग गई! न लगे नौकरी, नाराज हो जाते हो, मूर्ति को फेंकने को उतारू हो जाते हो।

ऐसे लोग को मैं जानता हूं, जो गुस्से में मूर्ति फेंक आए कुएं में। क्योंकि हो गए इतने दिन प्रार्थना करते—करते, पूजा करते—करते, और न कोई सुननेवाला है, न कोई पूरा करनेवाला है।

एक आदमी को मैं जानता हूं जो नास्तिक था, फिर आस्तिक हो गया। मैंने उससे पूछा, क्या हुआ? तुम तो बड़े नास्तिक थे! उसने कहा कि अब मानना ही पड़ता। लड़के को नौकरी नहीं लगती थी, सब उपाय कर लिए, सब की खुशामद कर ली, रिश्वत देकर देख ली, कुछ हल न हुआ, आखिरी कोई रास्ता न रहा तो मंदिर गया—और वहां मैंने कहा कि अगर लग गई लड़के को नौकरी पंद्रह दिन के भीतर, तो सदा के लिए भक्त हो जाऊंगा। अब हनुमान जी का भक्त हो गया हूं।

हनुमान जी बेचारे इसके लड़के को नौकरी लगवाने के लिए कैसे जिम्मेवार हैं! कोई भी संबंध नहीं है। कोई हनुमान जी ने कोई एम्प्लायमेंट एक्स्चेंज नहीं खोला हुआ है। और अगर वे खोलेंगे भी तो बंदरों को नौकरी लगाएंगे, आदमियों को नहीं। सबके अपने रिश्तेदार, नाते—रिश्तेदार हैं।

मैंने इस आदमी से कहा कि तुम बंदर जैसे तो लगते भी नहीं। उसने कहा, क्या मतलब आपका? मैंने कहा, हनुमान जी तुम्हारी फिकर करेंगे! तुम अकारण अपने को इतना महत्वपूर्ण मान रहे हो। और इस कारण यह आदमी आस्तिक हो गया है। अब यह जाता है, हर मंगलवार निश्चित रूप से प्रसाद लेकर। मगर यह भरोसे का नहीं है। क्योंकि नौकरी छूट गयी तो नाराज हो जाएगा। पत्नी मर जाए और हनुमान जी न बचाएं—और कहां—कहां इसका साथ देंगे? हजार उपद्रव यह लाएगा। और जहां भी इसने पाया कि नहीं हुआ काम पूरा…यह आदमी कोई भरोसे का नहीं है। इसकी भक्ति माया का हिस्सा है। इसकी पूजा—प्रार्थना झूठी है। क्योंकि जहां मांग है, वहां कैसी पूजा, कैसी प्रार्थना!

जहां आकांक्षा है, वहां वासना है। वासना का प्रार्थना से कभी कोई संबंध नहीं जुड़ता। और जब वासना खो जाती है, तब प्रार्थना करने को क्या बचता है? क्या प्रार्थना, तब तुम्हारा पूरा जीवन ही एक प्रार्थना होता है। अलग से करने को क्या बचता है? तुम ऐसे जीते हो—प्रार्थनापूर्ण हृदय से अनुगृहीत भाव से…सारा संसार तुम्हें इतना दे रहा है, जरूरत से ज्यादा दे रहा है। परमात्मा ने तुम्हें जो दिया है, वह तुम्हारी योग्यता से अनंतगुना ज्यादा है। क्या है तुम्हारी योग्यता? तुम्हें जीवन दिया है, इतना काफी नहीं है? नौकरी चाहिए, तब तुम पूजा करोगे? तुम्हें इतनी बड़ी क्षमता दी है जागने की, होश की, कि तुम बुद्ध हो सको—वह काफी नहीं है? नौकरी चाहिए, तब तुम अनुग्रह—भाव प्रकट करोगे?

जो दिया गया है, वह जरूरत से ज्यादा है—यह भक्त का भाव है। और जो मेरे पास है, वह कम है, और मुझे मिले—यह अभक्त की प्रार्थना है। अगर इस हिसाब से सोचोगे, तो तुम्हें मंदिरों में अभक्त मिलेंगे, भक्त नहीं। भक्त्त क्यों मंदिर में जाएगा? क्योंकि भक्त के लिए तो यह सारा अस्तित्व ही मंदिर है। वह जहां है, वहां मंदिर है। और वह जो कर रहा है, वही उसकी प्रार्थना है।

कबीर ने कहा है, जो कुछ करूं सो पूजा! कबीर को किसी ने कभी मंदिर जाते नहीं देखा। इसलिए काशी के पंडित, पुजारी कबीर को कभी मान्यता नहीं दिए। और मरते वक्त कबीर ने कहा कि मुझे मगहर ले चलो।

कहानी है कि मगहर में जो मरता है, वह गधा होता है; और काशी में जो मरता है, वह भक्त होता है। जिंदगी भर काशी रहे, मरने के पहले कबीर ने अपने शिष्यों को कहा, मुझे मगहर ले चलो! काशी में मैं न मरूंगा। क्योंकि अगर काशी में मरे और स्वर्ग गए तो इसमें अपनी क्या खूबी! मगहर मर के स्वर्ग जाना है।

…एक मजाक कबीर का! हिम्मत के आदमी थे। भरोसे के आदमी थे। क्योंकि अगर भगवान पर भरोसा है, तो तुम मगहर में मरो कि काशी में, क्या फर्क पड़ता है?

लोग मरने के लिए काशी जाते हैं! जीते हैं मगहर में गधों की तरह, मरते हैं काशी में, इस आशा में कि मोक्ष चले जाएंगे। कबीर जीये काशी में संतों की भांति, मरने गए मगहर! लोग सोचते हैं, जीयो कैसे ही, मरो काशी में! जीयो कैसे ही! मरते वक्त राम का नाम ले लेना, गंगा—जल पिला देना, काम खत्म हो गया।

तुम बड़े होशियार हो, चालाक हो! तुम्हारा धर्म भी तुम्हारी चालाकी का विस्तार है। जीयो जैसे तुम्हें जीना है—माया के साथ—मर लेना राम का नाम लेकर!

ध्यान रखना, तुमसे राम का नाम भी न निकलेगा मरते वक्त। क्योंकि मृत्यु में तो वही निकलेगा, जो जीवन में जीया गया है।जो पूरे जीवन का संग्रहीभूत सार है, वही तो मृत्यु में तुम्हारा साथ जाएगा।

तो पंडे—पुजारी हैं; आदमी मर रहा है, वे उसको कान में राम दोहरा रहे हैं। वह खुद भी नहीं दोहरा सकता। वह अपने मन में माया को इकट्ठा कर रहा है। जीवनभर में जो पाया, उसका हिसाब लगा रहा है; जो नहीं पाया उसकी शिकायतें कर रहा है। वह अपने भीतर तैयारी कर रहा है नये संसार में प्रवेश करने की, नये गर्भ में प्रवेश करने की—जहां जो—जो अधूरा रह गया, वह पूरा हो सके; जो तिजोरी खाली रह गई, वह भरी जा सके; जो स्त्री मिली, मिलनी थी, वह मिल सके; जो पर पाना था, नहीं पाया जा सका, वह पा सके। वह अपने भीतर माया के सब बीज इकट्ठे कर रहा है। इसके पहले कि शरीर छोड़े उसकी आत्मा सारे बीजों को, माया के, इकट्ठे कर लेगी, ताकि नये गर्भ में प्रविष्ट होकर फिर यात्रा शुरू हो जाए। और किराए का आदमी! किराए का आदमी, क्योंकि वह भी राम उसके कान में दोहरा रहा है और सोच रहा है कि पांच रुपये मिलनेवाले हैं। यह बड़ा मजेदार मामला है। वह आदमी भीतर माया इकट्ठी कर रहा है। जो आदमी उसके कान में राम—राम कर रहा है, वह माया का हिसाब लगा रहा है, और इन दोनों के बीच में राम फंसे हैं।

ठीक कहते हैं कबीर, निरगुन फांस लिए कर डोले, बोलै बधुरी बांनी।

सब फंसे मालूम पड़ते हैं। पुजारी फंसे हैं, पंडे फंसे हैं, भक्त फंसे हैं। माया के रूप बदल जाते हैं, फंसावट नहीं बदलती। तुम जाते जहां भी अपने को फंसा हुआ पाओ, खोजबीन करना भीतर, माया होगी। और जहां—जहां तुम फंसा हुआ पाओ, धीरे—धीरे वहां—वहां समझपूर्वक काटना। समझपूर्वक कहता हूं, क्योंकि गैर—समझपूर्वक भी तुम काट सकते हो, अक्सर लोग गैर—समझपूर्वक काट लेते हैं, तब अधूरी रह जाती है। तब नया सिलसिला शुरू हो जाता है। इस पत्नी को छोड़कर भाग जाओगे, दूसरी पत्नी कहीं न कहीं मिल जाएगी। घर छोड़ोगे, आश्रम में पहुंच जाओगे। घर में मोह था, आश्रम में मोह हो जाएगा। कच्चा कुछ भी मत तोड़ना, कच्चा तोड़ा नहीं जा सकता। इसलिए कहता हूं, समझपूर्वक। समझपूर्वक का अर्थ है, पककर। समझने की कोशिश करना। जितनी गहरी से गहरी समझने की कोशिश कर सको, क्यों फंसा हूं, क्या फंसावट है। क्यों बंधा हूं? कहां से यह बंधन मेरे भीतर पैदा हो रहा है? प्रवेश करना भीतर, कारण खोजना, और सब भांति कारण को समझना। जैसे ही समझ पूरी होगी, कारण विलुप्त हो जाएगा। तुम्हें तोड़ने की जरूरत भी न पड़ेगी। जैसे पक जाता है पत्ता, सुख जाता है, फिर हवा का छोटा सा झोंका भी न हो, तो भी सूख पत्ता गिरेगा ही। कोई कुल्हाड़ी लेकर काटना नहीं पड़ेगा। अक्सर लोग कुल्हाड़ी लेकर काट लेते हैं। तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी ऐसे ही लोग हैं, जिन्होंने कुल्हाड़ी से काट दिया, घाव रह गया। अब वह नई जगह उस घाव को भर रहे हैं। वही दौड़ है जो पीछे थी। कोई फर्क नहीं पड़ता। नाम बदल जाते हैं, रूप बदल जाते हैं, माया फिर जगह बना लेती है।

पकाना! प्रौढ़ता! होश! समझ! जल्दी मत करना! परमात्मा को कोई जल्दी हनीं है। तुम्हें भी जल्दी की कोई जरूरत नहीं है। धैर्यपूर्वक समझ को गहरा करना। जैसे—जैसे समझ साफ होगी, जैसे—जैसे तुम्हें दिखाई पड़ेगा, गाली में कष्ट नहीं है, मेरे अहंकार में है, तब अपने अहंकार को समझने की कोशिश करना। जिस दिन समझ पूरी हो जाएगी, उसी दिन तुम पाओगे कि भीतर एक सूखा पत्ता लटका था, वह गिर गया। उसके गिरते ही तुम मुक्त हो।

माया महाठगिनी हम जानी।

कहे कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी।

इस सूत्र से हम शुरू करते हैं। पूरी कहानी अकथ है, कही नहीं जा सकती, फिर भी कबीर ने कही है, और बड़ी मधुरता से, और बड़ी सफाई से कही है। बहुत स्पष्ट कही है। तर्क का जाल नहीं है। सीधे साफ, एक अपढ़ आदमी के शब्द हैं, तुम भी तर्क का जाल खड़ा मत करना। कबीर को सीधा—साधा समझने की कोशिश करना, कबीर का भाव अगर तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाए, तो तुम्हें समाधि के लिए कुछ भी करना न होगा।

समझ काफी है। समझ क्रांति है, समझ रूपांतरण है।

कुछ करना पड़ता है, इसीलिए कि समझ काफी नहीं है। इसलिए ध्यान करो, साधना करो; क्योंकि समझ काफी नहीं है। समझ काफी हो, तो कुछ करने को नहीं बचता। अनकिए सब होय—कबीर का वचन है। अनकिये सब होय। कुछ करना नहीं पड़ता। लेकिन तुम यह मत समझ लेना कि तुम्हें कुछ नहीं करना है। तुम्हें तो समझ, तुम्हें तो बहुत कुछ करना पड़ेगा। उस सबको करने से तुम्हारी समझ की क्षमता बढ़ेगी।

यहां जो ध्यान के प्रयोग चलेंगे समाधि शिविर में, उन्हें संपूर्ण भाव से करना, उनके करने में कुछ क्षणों के लिए झलक मिलनी शुरू होगी—उस परम अवस्था की, जिसकी तरफ कबीर इंगित करेंगे।

लेकिन अगर तुमने अपने को थोड़ा भी बचाया तो चूकोगे। तुम पूरे के पूरे ही ध्यान में डूबने की कोशिश करना। अपनी तरफ से सब पूरा कर देना और शेष परमात्मा पर छोड़ देना। फिर भी न हो तो तुम्हारा कोई दायित्व नहीं। अपने तरफ से पूरी कोशिश कर लेना, फिर परमात्मा पर छोड़ देना। लेकिन अपनी तरफ से आधी कोशिश करके परमात्मा पर मत छोड़ना। क्योंकि उसका हाथ तुम्हारे पास तभी आता है, तब तुम अपनी पूरी कोशिश कर चूके होते हो; उसके पहले कोई जरूरत भी नहीं है।

एक नाव में कुछ यात्री यात्रा कर रहे थे, और एक फकीर भी था। तूफान उठा। भयंकर तूफान था और नाव डूबने के करीब आने लगी। सारे लोग घुटने टेककर प्रार्थना करने लगे, चीख—पुकार मच गई; परमात्मा बचाओ—बचाओ! सब हैरान हुए, अकेला फकीर चुपचाप बैठा था। तूफान चला गया। तब लोगों ने फकीर को घेर लिया और कहा, हम कुछ और अपेक्षा रखते थे! तू फकीर हो, संन्यासी हो; तुम्हें तो प्रार्थना करनी चाहिए थी। हम सब प्रार्थना कर रहे थे, तुम खाली बैठे रहे। क्या मामला है।?

उस फकीर ने कहा, जब तक हम कर सकते हैं, वह पूरा न कर लिया जाए, तब तक हम प्रार्थना के हकदार नहीं और परमात्मा का हाथ तभी आता है, जब हमने अपने हाथों का पूरा उपयोग कर चुकें। जब तक तुम्हारे पास कुछ करने को बचा है, तब तक तुम्हें परमात्मा की जरूरत भी नहीं है।

ध्यान के प्रयोग में तुम अपने को पूरा डुबा देना। अगर तुमने कुछ भी न बचाया, तुम अचानक उसका हाथ अपने सिर पर पाओगे। अचानक तुम पाओगे तुम उठा लिए गए। अचानक तुम पाओगे कोई तुम्हें ले चला। कोई नाव तुम्हें दूसरे किनारे की तरफ ले चली। फिर अनकिये सब होय। उसके पहले नहीं। अपनी तरफ से पूरा कर लेना, फिर उसकी तरफ से शुरू हो जाता है।

 

आज इतना ही।

 

 

 


Filed under: सुन भई साधो--(संत कबीर दास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आंनद प्रसाद

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(मा धर्मज्‍योति)

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दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(मा धर्मज्‍योति)

(मेरे प्‍यारे सदगुरू ओशो को समर्पित जिन्‍हें मैंने प्रेम करूणा, प्रज्ञा, सत्‍य और परम स्‍वतंत्रता के साकार रूप की तरह जाना)   

प्रस्‍तावना:

ज के लमहे अकसर कल की कहानियाँ बन जाते हैं। पर कुछ लमहे होते हैं जो न कभी गुजर चुकते हैं और न ही जिन पर कल’ की परछाई पड़ती है। ऐसे लमहे शब्दों और कहानियों की गिरफ्त में भी नहीं आते। वो हमेशा ‘आज’ में ही जीते हैं सांस लेते हुए, धडूकते हुए।

कैसे होते हैं ये लमहे—किन तानों—बानों से बुने हुए—जिनके सामने समय छोटा पड़ जाता है, पीछे रह जाता है? इसका उत्तर है यह किताब, जिसमें ऐसे ही कुछ लमहे गुंथ कर माला बन गए हैं। यही कारण है कि इस किताब के कोरे पन्नों पर खिंची स्याह लकीरें कभी तो भाव बनकर ह्रदय में उमड़ पड़ती हैं और कभी आरके में जा बसती हैं, बरसने के लिए।

मा धर्म ज्योति ने एक लंबे अरसे तक ओशो की शारीरिक मौजूदगी को जीया है। और अपने इस सफर में वो पल—पल उन लम्हों को सहेजती रहीं जो ओशो के छुए से जिंदा होते रहे। ये लमहे बाहर तो इंद्रधनुषी आंसू बरसाते रहे और खुद भीतर जाकर सीप के मोती बनते रहे। यह शरीर के पार जाने वाले प्रेम का ही तिलिस्म है कि एक दिन अचानक इन मोतियों में भी अंकुर फूट आए और गाथाओं का एक वृक्ष बन गए—सौ गाथाएं; दस हजार बुद्धों के लिए।

आइए कुछ देर इन गाथाओं की हवा में जी लें। कुछ देर इनकी खुशबू को अपने दिल में महसूस कर लें। आखिर, ये मोती हम सब ही की तो प्यास हैं।

 

—स्‍वामी संजय भारती

 

 

निवार, 26 खतम्बर 1992 का दिन था। उस रोज मेरे संन्यास की बाईसवीं वर्षगांठ थी। शाम को प्रवचन के बाद मैं बुद्धा —हाल में संन्यास—उत्सव के लिए गयी। वहां ऊर्जा अत्यधिक सघन थी—पूरे समय मैं नृत्यमग्न रही। अचानक मुझे अपने आज्ञाचक्र पर कछ संवेदना सी होने लगी; यह लगभग वैसा ही अनुभव था जैसा कि पूना के पुराने दिनों में ओशो के साथ ऊर्जा—दर्शन के समय मुझे अनुभव हुआ करता था। उस रात यह अनुभव मुझे पूरी तरह डुबा ले गया।

अब तक मुझे ऐसा लगा करता था कि शायद शुरु के दिनों में ओशो की निकटता में बिताए गये उन क्षणों की सभी स्मृतियां मैं भूल चुकी हूँ। लेकिन यह रात मेरे लिए स्मरणीय रहेगी—अचानक जैसे कोई द्वार खुल गया और पुरानी स्मृतियां बाहर आने लगीं। ऐसा लगा जैसे किसी फिल्म की रील खुलती चली जा रही हो। अपने हृदय के मौन में अतीत की अनेकों घटनाओं को मैं साफ—साफ देख पा रही थी। यह सिलसिला दूसरे दिन भी अनवरत जारी रहा। तीसरे दिन बड़ी तीव्रता से मुझे ऐसा भाव हुआ कि जो कुछ भी मुझे घट रहा है, उसे मैं लिख डालूँ—कर दिया।

यह मेरे लिए बहुत अद्भुत अनुभव है। लिखते समय मुझे ऐसा महसूस हो रहा है जैसे कि पूरे अनुभव से मैं दौबारा ही गुजर रही हूं कि मैं हैरान हूं कि यह सब मैं वर्तमान काल की तरह लिख रही हूं। लेकिन मैं भला क्या कर सकती हूँ—इसी भांति यह सब उतर रहा है।

मा धर्म ज्योति

 


Filed under: ओशो अमृत कण-, दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(मा धर्मज्‍योति)

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय–01)

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(अध्‍याय—एक)

मैं छब्बीस वर्ष की हूँ। 21 जनवरी 1968, —रविवार का दिन है और आज शाम 4 बजे ओशो बंबई के षण्मुखानंद हॉल में बोलने वाले हैं। मेरी एक मित्र, जो सत्य की मेरी खोज से परिचित है, शे उन्हें सुनने के लिए जाने को कहती है। मैं इतने तथाकथित संतों और महात्माओं को सुन चुकी हूँ कि भारत में चल रहे इन धार्मिक आडंबरों ‘ से मेरा विश्वास उठ चुका है। लेकिन फिर भी, ओशो, जो आचार्य रजनीश के नाम से जाने जाते हैं, मुझे आकर्षित करते हैं। मैं उक्तके प्रवचन में जाने का फैसला कर लेती हूँ।

शाम चार बजे मैं षण्मुखानंद हॉल की दूसरी मंजिल वाली बालकनी में पहुंचती हूँ जो कि पूरी तरह भरी हुई है। बहुत से लोग दीवारों के साथ—साथ किनारों पर भी खड़े हुए हैं। हवा में एक उमंग है, एक उत्साह है। बहुत शोर हो रहा है। यह हॉल बंबई के सबसे बड़े सभागारों में से है जहां पांच हजार लोग बैठ सकते हैं। मैं एक सीट खोजकर आराम से बैठ जाती हूँ।

कछ ही मिनटों में सफेद लुंगी और शॉल ओढ़े, एक दाढ़ी वाले व्‍यक्‍ति मंच पर नजर आते हैं जो दोनों हाथ जोड़े सबको नमस्कार करते हुए धीमे से पद्मासन में बैठ जाते हैं। मैं मंच से बहुत दूर बैठी हूँ और बामुश्किल उनका चेहरा ही देख पा रही हूँ लेकिन मेरा हृदय इस अनजान व्‍यक्‍ति को सुनने की आकांक्षा से आतुर है।

कुछ ही क्षणों में मुझे उनकी मधुर लेकिन सशक्त वाणी सुनाई पड़ती है; वे श्रोताओं को संबोधित कर रहे हैं —मेरे प्रिय आत्मन.। ‘अचानक सभागार में एक गहन सन्नाटा छा जाता है। मुझे महसूस होता है कि उनकी आवाज मुझे एक गहरे विश्राम में लिए जा रही है और मैं बिलकुल शांत होकर उन्हें सुन रही हूँ। मेरा मन पूरी तरह रुक गया है. मात्र उनकी वाणी ही मेरे भीतर गज रही है। मैं पूर्ण रूपेण ‘अहा’ के भाव में हूँ, विस्मय की स्थिति में हूँ वे मेरे उन सभी प्रश्नों का जवाब दे रहे हैं जो वर्षो से मुझे सताते रहे हैं।

प्रवचन समाप्त हो गया; मेरा हृदय आनंद से नाच रहा है, और मैं अपनी मित्र से कहती हूँ, यही वह गुरू हैं जिन्हें मैं खोज रही हूँ। मैंने उन्हें पा लिया है। ‘ बाहर आकर मैं उनकी कुछ पुस्तकें और ज्योतिशिखा नाम की पत्रिका खरीदती हूँ। मैं जैसे ही ज्योतिशिखा को खोलती हूँ तो सामने पृष्ठ पर लिखा दिरवाई पड़ता है ‘आचार्य रजनीश का छत्तीसवां जन्मोत्सव’। मैं विश्वास नहीं कर पाती। मुझे लगता है प्रिंटिंग में किसी गलती के कारण ’63’ का 36 हो गया है। काउंटर पर खड़ी युवती से जब मैं पूछती हूँ तो .वह हंस पड़ती है और कहती है ’36’ सही ‘है। मुझे अभी तक भरोसा नहीं होता कि मैंने ऐसे व्यक्ति का प्रवचन सुना है जो अभी सिर्फ छत्तीस ही वर्ष का है। उनकी वाणी से ऐसा महसूस हुआ जैसे उपनिषदकाल का कोई प्राचीन ऋषि बोल रहा है।

 


Filed under: दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(मा धर्मज्‍योति)

सुन भई साधो–(प्रवचन–02)

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मन गोरख मन गोविन्दौ—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक: 12 नवंबर, 1974;

श्री ओशो आश्रम, पूना.

सूत्र:

मन माया तो एक है, माया मनहिं समाय।

तीन लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समुझाय।।

बेढ़ा दीन्हों खेत को, बेढ़ा खेतहि खाय।

तीन लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समुझाय।।

मन जानै सब बात, जानत ही औगुन करै।

काहे की कुसलात, कर दीपक कुंबै पड़ै।।

 

मन सागर मनसा लहरि, बूड़ै बहुत अचेतन।

कहहिं कबीर ते बांचि हैं, जिनके हृदय विवेक।।

मन दीया मन पाइये, मन बिन मन नहिं होइ।

मन उन्मन उस अंड ज्यूं, अनल अकासां जोइ।।

मन गोरख मन गोविन्दौ, मन ही औघड़ होइ।

जे मन राखै जतन करि, तो आपै करता सोइ।।

तन के जोगी सब करै, मन को करै न कोई।

सब विधि सहजे पाइये, जो मन जोगी होई।।

 

मन ऐसो निरमल भया, जैसा गंगा गीर।

पाछे—पाछे हरि फैर, कहत कबीर—कबीर।।

मन माया तो एक है, माया मनहिं समाय।

तीन लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समझाय।।

जैसा मैंने कल कहा, माया कोई ब्रह्म के साथ जुड़ा हुआ दार्शनिक सिद्धांत नहीं है, वरन प्रत्येक मनुष्य के मन के साथ जुड़ी प्रक्रिया है। माया कोई अण्टालाजिकल, कोई सत्तात्मक बात नहीं है, साइकोलाजिकल, मनोवैज्ञानिक बात है। इसलिए जो माया के सिद्धांत के संबंध में शास्त्रों की खोज करते रहेंगे, सिद्धांत को जमाते रहेंगे, तर्क और विचार करते रहेंगे, वे माया को जानने से चूक जाएंगे और जो माया को ही न जान पाया, वह ब्रह्म को कैसे जान पाएगा? जो भ्रम को ही न समझा, वह सत्य कैसे समझेगा? जिसने ठीक से अंधेरे को न पहचाना, उसके आलोक को पहचानने का भरोसा नहीं। भूल को ठीक से जान कर ही व्यक्ति सत्य के निकट पहुंचता है। जैसे—जैसे असत्य की पहचान बढ़ती है, वैसे—वैसे करीब आता है। और रास्ता नहीं है। असत्य को भलीभांति पहचान लेना कि असत्य है——और सत्य के द्वार खुल जाते हैं।

सबसे पहली बात पहचानने की है: भूल क्या है, संशय कहां है, भ्रांति कहां हुई है, भटके कहां हैं।

मंजिल की फिकर छोड़ो, भटकन को ठीक से समझ लो, मंजिल सामने आ जाती है। मत चिंता करो कि सत्य क्या है। तुम जान भी न सकोगे सत्य अभी। कोई उपाय नहीं है सत्य को जानने का, जब तक असत्य के साथ तुम जुड़े हो। जब तक तुम असत्य हो, सत्य को कैसे जान पाओगे? और स्वयं के भीतर सत्य को पाने की क्या विधि है? असत्य को पहले पहचानना पड़ेगा।

तुम जाते हो एक चिकित्सक के पास। वह इसकी फिकर करता कि स्वास्थ्य क्या है, वह इसकी चिंता करनी है कि बीमारी क्या है। वह इस बात की फिकर करता है कि बीमारी कहां है। वह बीमारी का निदान करता है। स्वास्थ्य की चिंता करना व्यर्थ है, बीमारी का ठीक निदान हो जाए, बीमारी पकड़ में आ जाए, तो बीमारी को नष्ट किया जा सकता है। और जब बीमारी नहीं रह जाती, तो जो शेष बचता है वही स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य को सीधे पकड़ने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए तुम सारे शास्त्र देख डालों दुनिया में चिकित्सा के, स्वास्थ्य की कोई परिभाषा न पाओगे। स्वास्थ्य की कोई परिभाषा हो भी नहीं सकती। शब्दों में बंधने का उसे कोई उपाय भी नहीं है।

स्वास्थ्य शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। उसका अर्थ है: स्वयं में जो स्थिति हो गया। आत्मस्थिति का नाम स्वास्थ्य है। अपने से जो भटक गया, उसका नाम अस्वास्थ्य है। जो खुद के केंद्र से च्युत हो गया वह बीमार है, और जो खुद के केंद्र पर वापस लौट आया, वह स्वस्थ है। स्वस्थ यानि स्व—स्थिति। लेकिन स्थित होना हो तो पहचानी पड़ती है बीमारी। निदान स्वास्थ्य का नहीं होता है, रोग का होता है। इलाज स्वस्थ का नहीं होता, रोग का होता है। और जब रोग नहीं होता, जब रोग शून्य हो जाता है, तब तुम निरोग हो जाते हो, तब तुम स्वस्थ हो जाते हो।

ब्रह्म को पाने का कोई उपाय नहीं है। ब्रह्म तो परम स्वास्थ्य है। माया को समझने का उपाय है, वह बीमारी है। और जैसे—जैसे निदान साफ होता जाए, जैसे—जैसे तुम्हारी आंखों माया को पहचानने लगें, वैसे—वैसे माया तिरोहित होने लगेगी।

एक बात और समझ लेना। चिकित्सक को तो निदान भी करना पड़ता है, फिर इलाज करना पड़ता है। लेकिन आत्मा की चिकित्सा में निदान ही इलाज है, निदान ही उपचार है। ठीक से पहचान लिया, मुक्त हुए, और कोई अलग से औषधि को जरूरत नहीं है। क्योंकि यह बीमारी केवल भ्रांति की है। यह ऐसे ही है, जैसे दूर रास्ते पर तुम आते हो अंधेरे में, राह के किनारे लगा हुआ एक वृक्ष का ठूंठ तुम्हें लगता है कोई आदमी खड़ा है, चोर—डाकू खड़ा है। तुम जैसे—जैसे करीब आते हो वैसे—वैसे भ्रांति मिटने लगती है। और अगर तुम्हारे हाथ में दीया हो, तो तुम जान लोगे कि ठूंठ है। फिर क्या तुम यह पूछोगे कि वह जो मेरी भ्रांति थी, कि आदमी खड़ा है, जब उससे कैसे छुटकारा पाऊं? नहीं, ठूंठ को पहचान लेने से ही, वह जो आदमी होने की भ्रांति होती थी उससे छुटकारा हो गया।

असत्य को ठीक से जान लेना, सत्य को पा लेने का मार्ग है। मार्ग भी नहीं, सत्य को पा ही लिया, जिसने असत्य को पहचान लिया। इसलिए पहले माया की बात कर रहे हैं कि माया क्या है।

पहला सूत्र:

मन माया तो एक है, माया मनहिं समाय।

तीन लोक संशय पड़ा काहिं कहूं समझाय।।

और माया के संबंध में इतने सिद्धांत गढ़े गए कि भारत का पूरा अतीत—इतिहास माया के संबंध में सिद्धांतों से भरा है।

इसलिए कबीर कहते हैं, तीन लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समुझाय।

किसको समझाएं? लोग बड़ी चर्चा कर रहे हैं। बड़े तत्व विचार कर रहे हैं, माया के बड़े सिद्धांत गढ़ रहे हैं। तुम्हारा सिद्धांत गलत और मेरा ठीक, इसके लिए बड़े तर्क जुटा हैं, शास्त्रों का उल्लेख कर रहे हैं। किसको समझाऊं: तीन लोग संशय पड़ा।

और बात बड़ी सीधी और सरल है। माया को कहीं और खोजने जाने की जरूरत नहीं। मन माया तो एक है। मन का ही विस्तार माया है।

माया मनहिं समाय।

और माया को नष्ट नहीं करना पड़ता। जैसे तुमने पहचाना कि माया मन में ही समा जाती है। माया मन की विकृति है, मन की अप्राकृत दशा है।

क्या है बीमारी?

बीमारी के लिए भी एक चीज जरूरी है कि तुम जिंदा रहो। मेरे हुए आदमी को कोई बीमारी नहीं होती। मरे बड़े लाभ में हैं; बीमारी का भय भी नहीं होता; चिकित्सक के द्वार पर उन्हें दस्तक भी नहीं देनी पड़ती; इलाज की परेशानी से भी नहीं गुजरना पड़ता। मरों का लाभ बड़ा है। अब दोबारा वे मर भी नहीं सकते, इसलिए मरने का कोई भय नहीं होता।

बीमारी के लिए एक जरूरी है कि स्वास्थ्य ही जीवन है। बीमारी बिना जीवन के नहीं घट सकती। इसका यह अर्थ हुआ कि बीमारी जीवन की ही एक विकृति है। जीवन कही कहीं उलझ गए, जीवन ही कहीं भटक गया। जीवन की धारा ही सागर की तरफ न जा कर, मरुस्थल की तरफ मुड़ गई—पर है धारा जीवन की ही—चाहे मरुस्थल चले जाओ, चाहे सागर चले जाओ। मरुस्थल में भटकाव हो जाएगा, मरुस्थल सोख लेगा जीवन की ऊर्जा, को, तुम्हें निर्वाण कर देगा, अशक्त कर देगा। कोई उपलब्धि न होगी, तुम सिर्फ भटकोगे और भ्रष्ट और नष्ट होओगे। सागर में उपलब्धि है।

सोचना जरूरी है। मरुस्थल में भी नहीं खो जाती है, सागर नहीं मिलता। सागर में भी नदी खोती है, लेकिन सागर को पा लेती है। खोना दोनों तरफ होता है। दोनों हालत में मिटना पड़ता है। लेकिन एक मिटने में कोई उपलब्धि नहीं है, दूसरे मिटने में सभी कुछ उपलब्ध हो जाता है।

संसार में भी आदमी खो जाता है, परमात्मा में भी खोना पड़ता है। लेकिन संसार में खो जाना ऐसे है, जैसे नदी मरुस्थल में खो गई। सूखती है, सड़ती है, चीखती है, पुकारते हैं, मुक्त होना चाहती है, लेकिन कोई मार्ग नहीं मिलता। हजार धाराओं में बंट जाती है। मरुस्थल सोख लेता है। न कोई मंजिल आती है, न कोई उपलब्धि, न वह नृत्य घटित होता, जो सागर से मिलने के समय घटित होता है। वह परम समाधिस्थ अवस्था नहीं घटती; ऐसे ही खो जाती है, मुक्त खो जाती है, बेचैनी में खो जाती है, विषाद में खो जाती है।

सागर में भी खोती है नदी खोना तो एक जैसा है, लेकिन उस खोने का मजा और है! उस खोने में आनंद ही और है! उस में दुख और पीड़ा नहीं है, क्योंकि यहां नदी खोती है, वहां नदी बड़ी होती है। वस्तुतः खोना नहीं है वह, पाना है। क्योंकि नदी मिट जाएगी नदी की तरह, एक क्षुद्र संकीर्ण धारा ही तरह; किनारे खो जाएंगे, पुराना रूप, नाम खो जाएगा—विराट हो जाएगा लेकिन उसकी जगह! नदी सागर हो जाएगी। तब तक क्षुद्र थी, अब विराट हो जाएगी। तब तक बंधी थी,अब अनबंधी हो जाएगी। तब तक सीमा में थी, अब असीम हो जाएगी।

मनुष्य भी दो तरह खोता है, जीवन की नदी भी दो तरह खोती है। एक तो माया। माया का अर्थ है मरुस्थल—जहां तुम करते हो बहुत हो, पाते कुछ भी नहीं; दौड़ते तो बहुत हो, पहुंचते कहीं भी नहीं; शोरगुल तो बहुत मचाते हो, लेकिन जीवन में कोई संगीत पैदा नहीं होता; संघर्ष बहुत करते हो, विजय हाथ नहीं आती; हार ही हार हाथ लगती है।

पराजय संसार की कथा है! वहां जो भी जाता है, हारा हुआ लौटता है। वहां मिटना तो है, लेकिन वह मिटना सड़ने जैसा है।

एक बीज को पत्थर पर रख दो, वहां भी वह मिटेगा—बिना अंकुर हुए। उसी बीज को भूमि में दबा दो, वहां भी मिटेगा—लेकिन यहां मिटेगा और नया अंकुर आ जाएगा। अंकुर की भांति जीयेगा, बीज की भांति मिटेगा—विराट वृक्ष हो जाएगा। तुम बीज को सड़ा भी सकते हो, वही माया है। तुम बीज को वृक्ष भी बना सकते हो, वही ब्रह्म है। दोनों तुममें छिपे हैं।

माया तुम्हारा ही भटकाव है। और ब्रह्म तुम्हारा ही मार्ग पर आ जाना है। बीमारी भी तुम्हारी है, स्वास्थ्य भी तुम्हारा है। बीमारी का निंदा कर लेना जरूरी है, ताकि तुम भटक न सको।

मन माया तो एक है, माया मनहिं समाय।

और जब तुम जान लेते हो, तो क्या होता है माया का? कांह खो जाती है माया? वह जो तुम्हारी शक्ति भटक रही थी, वह भटकती नहीं, मार्ग पर आ जाती है, सागर की तरफ बहने लगती है। सारी माया मन में ही समा जाती है।

तुम क्रोध करते हो, क्रोध माया है। क्योंकि उससे तुम मिटोगे तो, पाओगे कुछ भी नहीं। इससे तुम माया की परख की कसौटी बना लो कि जिससे तुम्हारे भीतर कुछ मिटता हो, बनता कुछ भी न हो; जिससे तुम्हारे भीतर विध्वंस तो होता हो, सृजन बिलकुल न होता हो; जिससे तुम्हारे भीतर बीज सड़ जाता हो, लेकिन अंकुर न निकलता हो; नदी नष्ट हो जाती हो, सागर न बनती हो। इसे तुम कसौटी बना लो।

विध्वंसात्मक वृत्ति बीमारी है। स्वास्थ्य सृजनात्मक है। तुम क्रोध करते हो, क्रोध में शक्ति जाती है, लेकिन मिलता क्या है? सिवाय विषाद के कुछ भी हनीं मिलता है। तुम रोते हो, चीखते— चिल्लाते हो, उदास होते हो, उदासी में शक्ति खोती है मरुस्थल में—पाते क्या हो? उदासी से कहीं कोई फूल खिलते हैं। उदासी से कहीं जीवन में कोई नृत्य आता है! तुम घृणा करते हो, तब तुम शक्ति तो व्यय कर रहे हो, मिलेगा क्या? निष्पत्ति क्या है?

हमेशा इसे कसौटी की तरह जांचो कि जो मैं करने जा रहा हूं, वह मरुस्थल में जाएगा, या सागर में, और अगर मरुस्थल में जाता हो, तो सजग हो जाओ। वह यात्रा—पथ नहीं है, वह भटकाव है। क्या होगा अगर तुम क्रोध न करोगे? तो जो क्रोध की शक्ति बचेगी, वह कहां जाएगी? वह मन में समा जाएगी। और जब तुम क्रोध से बच जाते हो, और क्रोध में नष्ट होने वाली शक्ति उन्मुक्त हो जाती है, और मन में वापस समा जाती—उसी लौटती हुई शक्ति का नाम ही करुणा है। जो शक्ति खो रही थी मरुस्थल में, वह क्रोध थी। जो शक्ति मरुस्थल में खोने से रुक गई और स्वयं में लीन हो गई, सागर में डूब गई, वही करुणा है।

क्रोध और करुणा एक ही शक्ति के दो नाम है। क्रोध उसी शक्ति की रोग की अवस्था है। करुणा उसी शक्ति की स्वास्थ्य की अवस्था है। घृणा और प्रेम ही शक्ति के दो ढंग हैं। जब घृणा की शक्ति वापस तुममें प्रत्येक कृत्य में लीन हो जाती है, तो अपार प्रेम का उदय होता है। बुद्धों से बड़े प्रेमी खोजना कठिन है। क्राइस्ट और कृष्ण से बड़े प्रेमी खोजना कठिन है। घृणा लीन हो गई, मरुस्थल में नहीं खोई, सागर पा लिया। बीज को भूमि मिल गई।

मन माया तो एक है, माया मनहिं समाय।

तीन लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समझाय।।

और कबीर कहते हैं कि लोग बड़े विवाद कर रहे हैं, और लोग बड़े शास्त्रार्थ में लगे हैं, और लोग यह सिद्ध करते हैं, और वह असिद्ध करते हैं। और मन माया तो एक है। और वे देखते ही नहीं कि यह तुम्हारा ही होने का ढंग है। निश्चित ही गलत ढंग है—पर तुम्हारा ही होने का ढंग है। माया तुम्हारे गलत होने का ढंग है; ब्रह्म तुम्हारे ठीक होने का ढंग है। और ध्यान रहे, ब्रह्म होने की चेष्टा मत करो; क्योंकि उसे सीधा खोजने का कोई उपाय नहीं। तुम सिर्फ माया से बच जाओ, और ब्रह्म मिल जाएगा। इसलिए समस्त साधना निषेध है—माया का, रोग का, विकृति का। जब विकृति नहीं होती, तो शक्ति अपने—आप सुकृत हो जाती है।

बेढ़ा दीन्हों खेतको, बेढ़ा खेतहि खाय।

तीन लोक संशय पड़ा काहिं कहूं समुझाय।।

खेत के चारों तरफ बेढ़ा लगाते हैं—खेत की रक्षा के लिए। मन भी बड़ा है तुम्हारी रक्षा के लिए लेकिन तुम ऐसी बाड़ भी लगा सकते हो कि वह पूरे खेत को खा जाए। तुम ऐसी बाड़ भी लगा सकते हो कि वह पूरे खेत पर छा जाए। तो बचाए तो नहीं, उलटा नष्ट कर दे। बाड़ थी खेत को बचाने को लेकिन तुम ऐसी बाड़ भी लगा सकते हो कि बाड़ का जंगल हो जाए, खेत में जगह न बचे कुछ और फसल बोने को।

मन बाड़ है। उपयोगी है—बाड़ की तरह। लेकिन अगर तुम्हें खा जाए, अगर तुम मन ही मन हो जाओ, तो बाड़ का क्या प्रयोजन; खेत ही न बचे!

ऐसा अक्सर हो जाता है। और माया का दूसरा सूत्र है।

जीवन में बाड़ खेत खा जाती है और लोगों को पता नहीं चलता। समझो! जीवन को चलाना है तो रोटी की जरूरत है; छाया की भी जरूरत है। एक तरह की सुरक्षा भी चाहिए, सुविधा भी चाहिए; बिलकुल आवश्यक है। लेकिन फिर एक आदमी जीवन भर मकान ही बनाने में लगा रहता है, मकान को ही बड़ा करने में लगा रहता है। वह वक्त ही नहीं आता, जब वह रहता। मकान में निवास करता वह समय ही नहीं आ पाता। रोटी चाहिए, कपड़े चाहिए, तो थोड़ा धन तो चाहिए ही होगा। लेकिन फिर एक आदमी धन की ही राशि लगाने में जुड़ जाता है। फिर वह भूल ही जाता है। कि धन एक बाढ़ थी—धन खेत हो गई; बाढ़ खेत को खा गई!

धन की एक जरूरत है। जरूरत की एक सीमा है। कोई आवश्यकता असीम नहीं है। वासना असीम है। आवश्यकताएं तो बड़ी छोटी हैं—रोटी चाहिए, पानी चाहिए, कपड़ा चाहिए। अगर दुनिया में सिर्फ आवश्यकताएं हो तो एक भी आदमी भूखा न हो, एक भी आदमी दीन न हो, दरिद्र न हो। क्योंकि आवश्यकताएं तो सीमित हैं! पशु—पक्षियों की पूरी हो जाती हैं, कैसा आश्चर्य कि आदमी की पूरी नहीं होती! वृक्ष अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं, जिनके पास पैर भी नहीं हैं कहीं जाने को। एक ही जगह खड़े रहते हैं। और आवश्यकताएं हो जाती। पशु—पक्षी, जिनके पास बड़ी बुद्धि, विश्वविद्यालय का शिक्षण नहीं, वे भी पूरी कर लेते हैं अपनी आवश्कताओं को। आदमी आवश्यकताओं को क्यों पूरी नहीं कर पाता? लगता है कहीं कुछ भूल हो गई।

आवश्यकताएं ठीक हैं, वासना खतरनाक है। फर्क क्या है? आवश्यकता तो बाड़ है; वासना पूरा खेत हो गई। तुम्हारी जरूरतें तो पूरी हो सकती हैं, लेकिन तुम्हारी कामनाएं पूरी नहीं हो सकती।

जरूरत पर रुक जाना समझदारी है। कामना में बढ़ते जाना पागलपन है। फिर उसका कोई अंत नहीं। देखो लोगों की तरफ।

मैं एक आदमी को जानता हूं, जिसके सात मकान हैं। और कई हजार रुपए महीने का किराया आता है। लेकिन उस आदमी ने एक छोटी—सी खोली ले ली है किराए की, उसमें रहता है! एक साइकिल है उस आदमी के पास और वह है। साइकिल का उपयोग वह किराए की वसूली के लिए करता है। खोली में रहता है, खाना होटल में खा लेता है। उस आदमी के एक बंगले में मुझे रहने का मौका मिला। तो हर महीने एक तारीख को वह आ कर अपना किराया ले जाता। जो मित्र उसके बंगले में रहते थे, जिनका मैं मेहमान था, उनसे मैंने पूछा कि यह आदमी कौन है! वे हंसने लगे, उन्होंने कहा, यह मकान—मालिक है, उसके कपड़ों में छेद है। साइकिल भी न मालूम पहला संस्करण है। वह दूर से आता है तो पता चलता है, खड़बड़—खड़बड़ चला आ रहा है। उसको देख कर कोई भी नहीं कह सकता कि इस आदमी के पास सात मकान हैं। सात मकानों की अंदाजन कीमत बीस लाख रुपया है। हजारों रुपए वह किराया वसूल करता है, लेकिन अपने लिए वह एक खोली में रहता है, पांच रुपए महीने किराए की? इस आदमी के जीवन को बाड़ खा गई।

एक बार ऐसा हुआ कि मेरे सामने एक डाक्टर रहते थे। मिलिटरी के रिटायर्ड डाक्टर थे। उन्होंने कभी शादी नहीं की। मिलिटरी में चोट लग जाने की वजह से वे समय के पहले रिटायर हुए। तो उनको कोई मिलिटरी से पेन्शन मिलती थी, काफी अच्छी। कोई लाख रुपए का बंगला था, और कोई दो लाख रुपया उनके बैंक में जमा था; लेकिन उनका कुल भोजन; चाय और पापड़! बस वे उसी पर जीते थे। बीमार पड़े, हार्टअटैक हुआ, और उनकी बोली बंद हो गई। तो उनका तो कोई भी नहीं था। आधे मकान को उन्होंने किराए पर दे रखा था।

तो किराएदार ने मुझे आ कर कहा—मैं सामने ही रहता था कि डाक्टर साह का मुंह बंद हो गया है, वे बोल नहीं पा रहे हैं। और लगता है बहुत संकट की अवस्था में हैं। तो मैं गया। तो मैंने उनसे कहा कि डाक्टर को बुलाऊं? तो उन्होंने इशारा किया कि रुपये कौन देगा! तो मैंने कहा, उसकी आप चिंता न करें। डाक्टर को बुलाया। डाक्टर ने कहा, यह तो ज्यादा संकट की अवस्था है, और इन्हें इसी वक्त अस्पताल ले जाना पड़ेगा। तो एम्बुलैन्स बुलाई। एम्बुलैन्स में चढ़ने के पहले उन्होंने मुझसे कहा कि ताला लगा कर चाबी मुझे दे दें। तो सामने उनके उन्होंने ताला लगाया—बोलती बंद है, और घंटे भर बाद वे मर गए! लेकिन उन्होंने चाबी सामने ले कर रखवा ली। और जब वे मर गए तो उनकी जेब में पांच हजार रुपए थे! और मुझसे उन्होंने कहा कि डाक्टर की फीस कौन दगा! बोल भी नहीं सकते थे!

बाड़ खेत बन जाती है।

मन उपयोगी है; अगर समझ हो तो मन बड़ा उपयोगी है। मन राडार—यंत्र है। हवाई जहाज में यात्रा करो, तो राडार लगा होता है, वह दो सौ मील दूर तक की खबर देता रहता है। चित्र आ जाते हैं, क्योंकि हवाई जहाज तो इतना तीव्र यान है कि अगर दो सौ मील पहले पता न चले, तो टक्कर ही हो जाए। तो राडार दो सौ मील तक—बादल है, कोई यान है, कोई पक्षी है—परदे पर फोटो आते रहते हैं। सौ मील पहले ही तुम्हें बचाव करना पड़ेगा क्योंकि कोई भी खतरा है, तीव्र गति इतनी है कि तुम अगर दो सौ मील पहले नहीं बचे, तो खतरे में पहुंच जाओगे।

मन एक राडार यंत्र है, जिससे तुमको सब तरफ की झलक मिलती है। बड़ा उपयोगी है—समझदार के हाथों में; नासमझ के हाथ में बड़ा खतरा है। नासमझ मन का उपयोग ही नहीं कर पाता, मन ही उसका उपयोग कर लेता है। गुलाम मालिक हो जाता है, मालिक गुलाम हो जाता है। यही तुम्हारी दशा है। गृहस्थ की यही मेरी परिभाषा है कि जिसकी बाड़ खेत को खा गई। और संन्यासी की मेरी यही परिभाषा है—खेत खेत है, बाड़—बाड़ है। न तो खेत बाड़ को खाएगा, न बाड़ खेत को खाएगी; क्योंकि दोनों जरूरत है। बाड़ चाहिए, सुरक्षा चाहिए खेत को।

बाड़ की तरफ मन बड़ा उपयोगी है। उसकी जीवन में बड़ी जरूरत है। लेकिन रुक जाने की समझ होनी चाहिए, कहां रुक जाए।

धन आवश्यक है, लेकिन धन को ही इकट्ठे करते रहना पागलपन है। मकान जरूरी है, लेकिन जीवन भर मकान बनाते रहना, और मकान में रहने की सुविधा ही न मिल पाए, समय ही न मिल पाए और जीवन गंवा देना, पागलपन है। कपड़े चाहिए लेकिन एक आदमी कपड़े ही इकट्ठा करता रहे, कपड़ों में ही खो जो।

अगर ठीक—ठीक आदमी विवेकपूर्ण ढंग से जिए, तो मन से ज्यादा कुशल कोई यंत्र नहीं है। अभी तक कोई यंत्र वैज्ञानिक नहीं बन पाए, जो मन के मुकाबले हो। दूर देख सकता है, पास देख सकता है; परिस्थिति के गणित को पूरा समझ सकता है; सुरक्षा के उपाय खोज सकता है; जीवन को बचाने की हजार विधियां बना सकता है। सब आवश्यक है। लेकिन, यही जीवन नहीं है। द्वार पर आप एक द्वारपाल को खड़ा कर देते हैं। जरूरी हैं। लेकिन आप खुद ही द्वारपाल की तरह खड़े रहें, तो आप पागल हैं। फिर किसकी रक्षा कर रहे हैं?

लोग अक्सर जीवन की व्यवस्था जुटाने में ही जीवन को गंवा देते हैं। जीने का तो मौका ही नहीं आ पाता। तुम रोज टालते जाते हो कि जीएंगे कल, इंतजाम पहले कर लें। इंतजाम कभी पूरा नहीं होगा। जिओगे कैसे?

ध्यान रहे, जिसे जीना है, उसे अधूरे इंतजाम में जीने की कला खोजनी पड़ती है। इंतजाम तो कभी पूरा नहीं होगा; क्योंकि मन बताए जाएगा; यह त्रुटि है, यह त्रुटि है, यह और कर लो, यह और कर लो। मन सूचना दिए चला जाएगा कि अभी रहने का वक्त नहीं आया; जब ताजमहल न बन जाए, तब तक रहोगे कैसे! अगर मन की ही मान कर चलते रहे, तो तुम्हें जीवन का अवसर न मिलेगा।

जीवन छोटा है। मन की कामनाओं का कोई अंत नहीं है। आवश्यकताएं सीमित हैं, वे सब की पूरी हो सकती है।

अब यहां एक बड़ी मजेदार घटना घटती है। या तो आदमी आवश्यकताओं को वासना बना लेता है, तब उनका कोई अंत नहीं है; और जब इससे परेशान हो जाता है, तो आवश्यकताओं को भी काटने में लग जाता है, उसका भी कोई अंत नहीं है।

दो तरह के लोग हैं दुनिया में। दो तरह के पागलों से बनी है यह पृथ्वी। एक पागल हैं, जिन्होंने आवश्यकताओं में ही सब कुछ गंवा दिया है, फिर जब ये पागल थोड़े परेशान हो जाते हैं अपनी इस दौड़ से तो दूसरा पागलपन पैदा होता है—वह इन्हीं का शीर्षासन करता हुआ रूप है—वे आवश्यकताएं काटने में लग जाते हैं। वह बराबर भोजन न करेगा, उपवास करेगा। या तो तुम भोजन ही भोजन करोगे, और या तुम उपवास करोगे। क्या बीच में तुम्हारे रुकने का कोई भी उपाय नहीं? क्या संतुलन असंभव है?

मुल्ला नसरुद्दीन बीमार था—खांसी, अस्थमा! गया डाक्टर के पास, तो डाक्टर ने कहा, उसमें बीमारी कुछ नहीं है; तुम्हारे कपड़े से, मुंह से, धूम्रपान, सिगरेट की बात आती है। कितनी सिगरेट पीते हो?

उसने कहा, ज्यादा नहीं, यही कोई दस बारह।

डाक्टर ने कहा, बीमारी कुछ भी नहीं है। तुम्हारे फेफड़ों में निकोटिन इकट्ठा होता जा रहा है, सिगरेट का, इसको कम करना पड़ेगा। इलाज की कोई जरूरत नहीं है, धीरे—धीरे सिगरेट कम कर दो। तो ऐसा करो कि भोजन के बाद एक पी लिया करो। फिर बाद में, एक महीने बाद मुझे बताना, फिर धीरे—धीरे सोचेंगे।

महीने भर बाद नसरुद्दीन आया तो डाक्टर पहचान ही न पाया; जैसे सारे शरीर पर सूजन चढ़ गई हो, वह भी थोड़ा घबड़ाया। उसने कहा, क्या सिगरेट कम करने से ऐसी अस्वस्थ हो गई? और तुम पहचान में ही नहीं आते।

नसरुद्दीन ने कहा, हुआ तो सिगरेट की वजह से ही सब उपद्रव है।

पूछा डाक्टर ने क्या तुमने, मैंने जैसा कहा था, वैसा अनुकरण किया? उसने कहा, उसी अनुसरण में तो फंसा हूं। अब दिन में दस—बारह बार भोजन करना पड़ता है।

या तो तुम भोजन के पीछे पागल रहोगे—और अगर कभी इस पागल पन से तुम बचे तो तत्क्षण दूसरा पागलपन खड़ा है।

पागल के भी अपने तर्क होते हैं। पागल भी बड़ा संगत होता है अपने तर्कों में। और एक बार तुमने मन के तर्क को मानना शुरू कर दिया, तो पागलपन बदलेंगे। एक पागलपन से दूसरा पागलपन! लेकिन तर्क वही रहेगा।

क्या है तर्क मन का?

मन का तर्क यह है कि जब एक बार भोजन करने से ऐसा मजा आता है, तो बीस बार करने से बीस गुना आएगा। गणित साफ है। लेकिन जिंदगी अगर गणित होती तो सब ठीक होता; जिंदगी गणित नहीं है। एक बाद भोजन करने से फायदा होता है, बीस बार भोजन करने से बीस गुना फायदा नहीं होता। फिर अगर तुमने बीस गुना भोजन किया, तो तुम आज नहीं कल परेशान हो जाओगे, बीमार हो जाओगे, रुग्ण हो जाओगे, सारा शरीर इनकार करेगा, भोजन को फेंकना चाहेगा।

जब तुम ऊब जाओगे, तब तुम कहोगे कि भोजन से इतनी दिक्कत होती है, उपवास ठीक है, भोजन बंद ही कर दो। अब भी गणित साफ है कि जब भोजन से इतना नुकसान हो रहा है और परेशानी हो रही है, तो भोजन ही मूल जड़ है दुखी की। इसलिए सारी दुनिया में उपवास के पंथ है: बंद करो भोजन। अब तुम दूसरी अति पर जा रहे हो, वहां भी दुख पाओगे।

मध्य में रुक जाना, मन से मुक्त होने की प्रक्रिया है।

मन जीता है अतियों में, एक्स्ट्रीम में—घड़ी के पैण्डलुम की भांति है; एक कोने से दूसरे कोने पर जाता है, बीच में नहीं रुकता। बीच में रुका तो घड़ी रुकी। जिस दिन तुम बीच में रुकोगे, उस दिन मन की घड़ी भी रुक जाएगी। उसी दिन माया रुकती है। और माया की सारी तड़पन तुम में ही समा जाती है। और उस तड़पन से बड़े विराट सौंदर्य का जन्म होता है। बुद्धत्व का जन्म होता है। उससे कबीर पैदा होता है, कृष्ण, क्राइस्ट पैदा होते हैं।

बेढ़ा दीन्हों खेत को, बेढ़ा खेतहि खाय।

तीन लोग संशय पड़ा, कहूं समुझाया।।

मन बड़ा उपयोगी है—उपयोगी करो; मालिक बना लोग तो बड़ा खतरनाक है। मन की मत सुनो। मन की सलाह को मान के मत चलो। सुनो जरूर, लेकिन गुनो खुद। मन कहे—सुनो; लेकिन गुनो खुद। और अगर तुम निर्णय की क्षमता जमा लो भीतर, तो मन तुम्हें नुकसान न पहुंचा पाएगा। तब तुम न तो अति भोजन करोगे और न अति उपवास करोगे; तुम सम्यक भोजन पर ठहर जाओगे। और सम्यक भोजन बड़ी ही अनूठी बात है; न शरीर भूखा, न ज्यादा भरा। और तब जीवन मग सब तरफ सम्यकत्व का उदय होगा।

जहां—जहां समता आएगी, जहां—जहां तुम सम्यक होओगे, बीच में रुकोगे, वहीं—वहीं सम्यकृत्व का उदय होगा। या तो तुम दिन—रात बोलते रहे हो या फिर कहते हो, हम मौन में रहेंगे। क्या सम्यक होना असंभव है? या तो तुम संसार में रहोगे, या हिमालय में जाओगे! क्या संसार में ऐसे नहीं रहा जा सकता कि जैसे संसार बाहर हो और भीतर न हो? तब सम्यकत्व उदय होता है। गुजरना पड़ेगा संसार से, लेकिन ऐसे गुजरो कि संसार की एक रेखा भी न पड़े।

कबीर ने कहा है, बहुत जतन करके मैंने चदरिया ओढ़ी संसार की। खूब जतन से ओढ़ी चदरिया, ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं। जैसा पायी थी, वैसी ही वापिस लौटा दी; न इधर गया, न इधर; न गंदी की, और न सफाई की—ज्यों की त्यों दीन्ही चदरिया, खूब जतन कर ओढ़ी।

जतन की ही सारी बात है। जतन का मतलब होता है: होश, समझ, समम्यत्व बोध।

कहते हैं कबीर, किसको समझाऊं, कोई सुनने को नहीं है।

मेरी भी ऐसी प्रतीति है। अगर आपको अति को बात कही जाए तो आप समझने की तैयार हैं।

अगर तुमसे मैं कहूं, उपवास करो—तुम्हारी समझ में आता है। तुमसे मैं कहूं, सम्यक भोजन करो—तुम्हारी समझ में नहीं आता है। तुमसे अगर मैं कहूं छोड़ दो घर, यह संसार दुख है—समझ में आता है; क्योंकि इसके पहले तुम एक गति का पालन कर रहे हो कि भोग संसार, यही है आनंद। अब वह अति चुक गई। अब तुमने काफी दुख उस अति से पा लिया। अब तुम करीब—करीब तैयार हो। कोई तुम्हें कह दे कि छोड़ दो सब, भागो यह तो सब व्यर्थ है, असार है, तो तुम भाग चड़े होओ। इसलिए तो दुनिया में भगोड़ों की इतनी जमाते हैं। वे भगोड़ों की जमातें तुम्हारे कारण हैं। एक गति जब थक जाता है तो तुम दूसरी अति पर जाना चाहते हो, इसलिए भगोड़ों की जमातें हैं।

तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी सिर्फ पलायनवादी हैं। वे तुम्हारे रूप हैं। तुम घड़ी में बाएं पेण्डुलम तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी सिर्फ पलायनवादी हैं। वे तुम्हारे रूप हैं। तुम घड़ी के बाएं पेण्डलुम हो, तो वो दाएं हैं। तुम स्त्रियों के पीछे भाग रहे हो, वे स्त्रियों से भाग रहे हैं! तुम धन इकट्ठा कर रहे हो, वे धन छूने से डरते हैं!

न तो धन प्रेम के योग्य है, और न भय के योग्य; न तो धन को इकट्ठा करने में कोई समझ है, और न धन से भयभीत हो जाने में कोई समझ है—धन का उपयोग करने की बात है। और धन का सम्यक उपयोग जो करना चाहता है, वह न तो धन को इकट्ठा करेगा, और न धन को छोड़कर भाग खड़ा होगा। क्योंकि धन तो साधन है। साधन का सम्यक उपयोग हो सकता है।

मेरी भी अनुभव यह है, क्योंकि मेरी सारी चेष्टा है तुम्हें बीच में रोक लेने की। तो तुम्हीं मेरी बात समझ में नहीं आती। तुम्हें अति चाहिए। तुम भोग चुके हो एक अति, अब तुम दूरी पर जाने के लिए तैयार हो। और मैं कहता हूं, बीच में रुक जाओ। रुकना तुम्हें आता ही नहीं, दौड़ना ही आता है। दिशा कोई भी हो, दौड़ने के लिए तुम तैयार हो। और मैं कहता हूं, तुम बैठ जाओ, दौड़ो मत।

इसलिए कबीर कहते हैं, तीन लोक संशय पड़ा, काहिं कहूं समझाय।

कबीर एकदम मध्यमार्गी हैं। कबीर सम्यक्ति हैं। उनका सम्यकत्व समझने जैसा है। रोज बाजार जाते हैं, रोज कपड़ा बुनते हैं, रोज बाजार में बेचते हैं; लेकिन सांझ जो भी बचता है, उसे बांट देते हैं। संसार छोड़ा नहीं, लेकिन फिर भी संसार को पकड़ा नहीं है। यही कला है। संसार छोड़ा नहीं, क्योंकि कपड़ा बुनते हैं, दुकान पर जाते हैं, कपड़ा बेचते हैं, धन कमाते हैं, धन लाते हैं, घर की जरूरतें पूरी होती हैं; सांझ को जो बचता है, बांट देते हैं। रात संन्यासी हैं, दिन गृहस्थ हैं।

तुम्हारे संन्यासी दिन में संन्यासी, रात गृहस्थ; ऊपर—ऊपर संन्यासी, भीतर—भीतर गृहस्थ। कबीर ऊपर—ऊपर गृहस्थ, भीतर—भीतर संन्यासी।

और जिंदगी हर ची में अति है। और मन गति का बड़ा लोलुप है। सम्यकत्व मन की मृत्यु है—संतुलन।

मन जानै सब बात, जानता ही औगुन करै।

काहे की कुसलात, कर दीपक कुंबै पड़े।।

यह वचन बड़ा बहुमूल्य। इसे कंठस्थ ही नहीं, हृदयस्थ कर लेना।

मन जाने सब बात, जानत ही औगुन करे।

ज्ञान से कुछ भी होता नहीं, क्योंकि मन तो सब जानता ही है। फिर जान कर भी करता तो उलटा ही है।

तुम्हें बिलकुल पता है कि क्रोध बुरा है, पर करते तो तुम क्रोध ही हो। तुम्हें भलीभांति पता है कि घृणा पाप है, करते तो तुम घृणा ही हो। तुम्हें भलीभांति पता है कि लोभ में आदमी फंसता है, बंधता है, कारागृह बन जाता है, फिर भी करते तो तुम लोभ ही हो।

मन जानै सब, जानत ही औगुन करे। कहो की कुसलात…

फिर यह मन की कुशलता कैसी!

कर दीपक कुंबै पड़े…

हाथ में दीया था और कुएं में पड़े हो! दीया झूठ होगा। कुआं असली है, झूठे दीये काम न पड़ेंगे। इसलिए कबीर कहते हैं, काहे कि कुसलात।

पंडितों को देखो! जीवन तो उनका वैसा ही है, जैसे अज्ञानियों का—रत्ती भर भी तो भेद नहीं है। इतना शायद भेद हो कि अज्ञानी छिपाने में इतने कुशल नहीं जितने पंडित छिपाने में कुशल हैं। पर जीवन में भेद नहीं है। वही क्रोध है, वही माया है, वही मोह है, वही लोग—कोई अंतर नहीं। यह ज्ञान बासा और उधार है, अन्यथा ज्ञान अग्नि की भांति है। जैसे सोने को डाल दो आग में, निखर कर निकल आता है, शुद्ध हो जाता है—ऐसे ही ज्ञान की अग्नि है, जो भी उसमें अपने मन को डाल देगा, मन शुद्ध होगा, निखर आएगा। लेकिन ज्ञान बासा भी हो सकता है, उधार भी हो सकता है। तब ज्ञान अग्नि नहीं है, तब ज्ञान राख है। कभी अग्नि वहां थी, अब सिर्फ राख है।

अभी मैं तुमसे जो कह रहा हूं यह आग है; मेरे मरने के बाद यह राख होगी। और तभी तुम सुनोगे नहीं, मरने के बाद बड़ा विचार करोगे। तब यह राख होगी। फिर तुम राख को लपेट कर अवधूत बन कर बैठ जाना। लेकिन इससे तुम्हारी जिंदगी न बदलेगी।

राख को लपेटे साधु तुमने देखे हैं? आग बदलती है, राख नहीं। रख तो उस जगत है, जहां अभी आग थी। लेकिन अतीत से थोड़े ही क्रांतियां घटित होती हैं; क्रांतियां वर्तमान में घटित होती हैं। अब तुम महावीर की राख में कितना ही लपेटो अपने को, तुम्हारा मन जलेगा नहीं। अब तुम बुद्ध की राख को कितना ही ढोओ—अस्थि—कलश हैं, प्यारे हैं, लेकिन उनसे कोई क्रांतियां नहीं होतीं। जीवित गुरु खोजना जरूरी है, तो ही, तो ही जीवित अग्नि है।

अग्नि भीतर हो, तो ज्ञान के विपरीत जाना असंभव है। तब तुम जानते हो, वही तुम्हारा जीवन है। तब ज्ञान ही आचरण है। अगर तुम्हें पता चल गया कि क्रोध व्यर्थ है, तुम कैसे क्रोध कर सकोगे? लेकिन यह तुम्हें पता नहीं चला, यह दूसरे कहते हैं। बुद्ध, महावीर, कृष्ण कहते हैं कि क्रोध बुरा है। यह तुमने सुना है। यह तुम्हारी आंख अनुभव नहीं है, यह तुम्हारे कान का संग्रह है। और, ज्ञान और ज्ञान में इतना ही अंतर है। एक ज्ञान है, जो कान से आता है—श्रवण से; और एक ज्ञान है, जो दर्शन से आता है—आंख में। माया और ब्रह्म में चार अंगुल का फासला है—कान और आंख का। कान से जो जाए, वह थोथा; अपने अनुभव से आए, वही वास्तविक। जानते तो तुम सब हो। कबीर कहते हैं, मन जानै सब बात। बताने को कुछ है भी नहीं मन को। मन कहता है, सब मुझे पता है—क्या मुझे समझाओगे? क्या समझने की जरूरत है?सब मैंने पढ़ा है।

जानत ही औगुन करे।

लेकिन, आचरण जीवन का व्यवहार तो ठीक वैसा ही है, जैसा अज्ञानी का हो। जीवन तो सुगंध तो ज्ञान की नहीं आती। जीवन से गंध तो अज्ञान की ही हुआ रही है। लेकिन मन में ज्ञान भरा हुआ है। पंडित और ज्ञानी का यही भेद है। पंडित में तुम दुर्गंध पाओगे, शब्दों के अतिरिक्त वहां कुछ भी नहीं है। ज्ञानी में एक सुगंध है। क्योंकि वह जो भी कह रहा है, वह उसका अपना जाना हुआ है।

ध्यान रहे, सत्य अपना ही हो सकता है, उधार नहीं। किसी और से ले कर सत्य को ढोने का कोई उपाय नहीं है। न उसकी चोरी की जा सकती है, न बाजार में से खरीदा जा सकता है, न किसी से भीख में लिया जा सकता है। सत्य को स्वयं ही पाना होता है। जो स्वयं मिल जाए, वही तुम्हारे जीवन को बदलेगा।

मन जानै सब बात, जानत ही औगुन करे।

काहे की कुसलात…।

पांडित्य, ज्ञान, मन की समझ का क्या मूल्य है, जब अवगुण जारी ही रहते हैं? इस कुशलता का क्या करोगे? यह कुशलता दीपक नहीं बनाते। यह कैसा दीपक, यह कैसी कुशलता ?

कर दीपक कुंबै पड़े? हाथ में दीया लिए थे। और गिर गए कुएं में!

रामकृष्ण कहते थे, चील आकाश में बड़े ऊपर उड़ती है। लेकिन इससे भ्रांति में मत पड़ना, उसकी नजर तो घूरे पर मरे हुए चूहे पर लगी रहती है। उड़ती बड़ा उड़ती बड़ा ऊंचा है, इससे यह मत समझ लेना कि चील बड़ी ऊंची है। ऊंचाई पर उड़ने का सवाल नहीं है—आंख कहां लगी है! आंख लगी है नीचे कचरे के ढेर पर पड़े हुए मरे चूहे पर—और प्रतीक्षा कर रही है, चक्कर मार रही है आकाश में। लेकिन प्रतीक्षा कर रही है कि नीचे मौका मिले, अवसर मिले, रास्ता, बंद हो, लोग न चल रहे हों—एक झपट्टा मारे और मरे चूहे का उठा ले।

पंडित उड़ता तो आकाश में है, मन मरे हुए चूहे पर, जमीन पर लगा रहता है।

ज्ञानी आकाश में उड़ता है—आकाश में ही होता है। यही फर्क है। तुम्हारा जानना, तुम्हारा होना होना चाहिए। तुम्हारे जानने और तुम्हारे होने में अगर फर्क हे—तुम कितने ही बड़े पंडित हो जाओ—कबीर कहते हैं, काहे की कुसलात, कर दीपक कुंबै पड़ै।

मन सागर, मनसा लहरी बूड़ै बहुत अचेत।

मन ही सागर है, जब स्वस्थ हो जाए। मन ही लहर है, अब अस्वस्थ हो जाए। अब उत्तेजित होते हो तुम तो मन लहरों से भर जाता है, जब शांत हो मन सागर हो जाता है—शांत; मौन!

क्रोध, घृणा, मोह लोभ ज्ञानियों ने पाप कहें है—किस कारण? इस कारण कि जब तुम क्रोध में हो, तो मन लहरों से भर जाएगा, तुम अवस्था हो जाओगे, तुम उत्तेजित हो जाओगे। जो भी उत्तेजित करे, वही पाप है। और जो भी तुम्हें शांत करे, वही पुण्य है। इस परिभाषा को खयाल में रखना।

पाप और पुण्य का दूसरे से कुछ लेना—देना नहीं है।

आमतौर से लोग सोचते हैं कि क्रोध इसलिए पाप है, दूसरों को चोट पहुंचती है। नहीं, यह जरूरी नहीं है, कि दूसरों को चोट पहुंचे; क्योंकि दूसरा अगर बुद्ध हो तो तुम कितना ही क्रोध करो, उसको चोट न पहुंचेगी। फिर भी क्रोध तो पाप रहेगा ही—चाहे बुद्ध को चोट पहुंचे या न पहुंचे। नहीं, क्रोध पाप है, क्योंकि उससे तुम्हें चोट पहुंचती है। दूसरों को चोट तो अनुषांगिक है, पहुंच सकती है, मगर वह महत्वपूर्ण नहीं है।

महत्वपूर्ण यही है कि तुम्हें चोट पहुंचती है; तुम भीतर अस्त—व्यस्त हो जाते हो, आंदोलित हो जाते हो। तुम भीतर की शांति खो देते हो, भीतर का दर्पण धुंधला हो जाता है। और अगर सतत तुम क्रोध, लोभ और मोह में पड़े हो, तो तुम्हारे भीतर की झील शांत होने का अवसर ही नहीं मिलता, वह हमेशा तूफान में ही बनी रहती है। तब तुम धीरे—धीरे भूल ही जाते हो कि इन लहरों के नीचे सागर छिपा है, क्योंकि उसको देखने का मौका ही नहीं आ पाता। जब सब लहरें सो जाए, जब एक भी लहर न हो, तब तुम्हारा सागर तुम्हें प्रतीत होगा।

तो ब्रह्म और माया में इतना ही फर्क है। ब्रह्म जब उत्तेजित होता है, तो माया; और जब ब्रह्म शांत हो जाता है, तो ब्रह्म। या माया जब शांत हो जाती है तो ब्रह्म। माया ब्रह्म की उत्तेजित दशा है; रुग्ण दशा है; अस्वस्थ दशा है; विकृति है।

मन सागर मनसा लहरि, बूड़ै बहुत अचेत।

और मन की इन लहरों में न मालूम कितने लोग डूब गए हैं। लहरें छोटी नहीं हैं, और जो भी अचेत है, वह डूब जाएगा। बूड़ै बहुत अचेत—जो भी मूर्च्छित जी रहा है, सोया—सोया जी रहा है, होशपूर्वक नहीं जी रहा है, वह डूबेगा। होश की नाव ही डूबने से बचा सकती है।

बड़ै बहुत अचेत…कहहिं कबीर ते बांचि हैं, जिनके हृदय विवेक।

इस वचन के दो तीन अर्थ हो सकते हैं। और तीनों ही अर्थ उपयोगी हैं, इसलिए तीनों ही समझ लेने जरूरी है।

मन सागर मनसा लहरि, बूड़ै बहुत अचेत।

कहहिं कबीर ते बांचि हैं, जिनके हृदय विवेक।।

इस बात को कबीर कहते हैं, वे ही समझ सकेंगे, जिनके हृदय में विवेक है, अन्यथा न समझ सकेंगे। हृदय के विवेक! बुद्धि की कुशलता काम न आएगी, कितने ही तर्कनिष्ठ हो, कितने ही शास्त्रों के जानकार हों, कितने ही सिद्धांतों की समझ हो—नहीं, वह काम न आएगी। जिनके हृदय में विवेक है, वे ही केवल इस बात को समझ पाएंगे।

हृदय में विवेक का क्या अर्थ होता है?

आमतौर से हम समझते हैं कि विवेक होता है बुद्धि में, और प्रेम होता है हृदय में। यह हमारी आम धारणा है। और कवियों ने इस धारणा को काफी प्रचलित कर दिया कि विवेक मस्तिष्क में, प्रेम हृदय में। यह धारणा भ्रांत है। एक विवेक है जो हृदय में भी होता है। और जिसको तुम प्रेम कहते हो वह तुम्हारे अंधेपन का नाम है। और जब तक हृदय का विवेक न जग जाए, तब तक वह प्रेम जन्मेगा नहीं, जो कृष्ण और क्राइस्ट के जीवन में फलता है।

कौन—सा विवेक है जो हृदय का है? और कैसे तुम उसे खोजोगे?

ध्यान रहे, बुद्धि में कोई विवेक नहीं होता, विचार होते हैं। मन विचार कर सकता है, विवेक नहीं। मन सोच सकता है, यह ठीक है, यह गलत है। मन पक्ष और विपक्ष में तर्क इकट्ठे कर सकता है। और तब देख सकता है जिस तरफ तर्क इकट्ठे हों, वह ठीक है। यह विवेक नहीं है, सह सिर्फ गणित है।

जीवन में एक समस्या आती है, तुम सोचते हो कि क्या करें। तो मन बहुत से विकल्प देता है। फिर मन हर विकल्प के पक्ष और विपक्ष में तर्क देता है। फिर सारे तर्कों को देखते हो, सोचते हो, फिर जो तर्क सबसे ज्यादा वजनी, बलशाली, लाभपूर्ण मालूम पड़ते हैं, तुम उनका अनुगमन करते हो। यह विचार है, विवेक नहीं।

विवेक क्या है?

विवेक जागृति की ऐसी दशा है, जहां तुम्हें सोचना नहीं पड़ता; जहां दिखाई पड़ता है; जहां तुम्हारी आंख खुली होती है; और जहां तुम्हारे सामने विकल्प नहीं होते कि यह करूं या यह करूं। तुम्हारी आंख इतनी प्रगाढ़ रूप से खुली होती है कि जो ठीक है, वह दिखाई पड़ता है, सोचना नहीं पड़ता।

जैसे एक अंधा आदमी यहां हो, उसे बाहर जाना है, तो पूछेगा, रास्ता कहां है—बाएं कि दाएं; सीढ़ियां कहां हैं? फिर टटोलेगा अपनी लकड़ी से, फिर खोजेगा, फिर जाएगा। लेकिन जिसके पास आंख है, वह पूछता नहीं कि दरवाजा कहां है, उसे बाहर जाना है, वह दरवाजे की सोचता ही नहीं उठता है, और बाहर निकल जाता है। दरवाजे का खयाल भी नहीं आता। आंख है तो दरवाजे को सोचने का सवाल कहां है? उठे और बाहर गए। दरवाजा बीच में जैसे पड़ता ही नहीं। आंख नहीं है तो सोचना पड़ता है कि दरवाजा कहां है—बाएं कि दाएं टटोलना पड़ता है, जब निकलना पड़ता है।

विचार, विवेक की कमी है। विचार, विवेक का परिपूरक है।

…जैसे अंधे का पूछना और टटोलना आंख का परिपूर्वक है। जिसके पास विवेक है, उसे दिखाई पड़ता है। और जो उसे दिखाई पड़ता है, वह उसके अनुसार चल पड़ता है; वह सोचता नहीं कि जाऊं या न जाऊं। विवेक में द्वंद्व नहीं है, विचार में द्वंद्व है। विचार में आल्टरनेटिव हैं, विकल्प हैं। विवेक में कोई विकल्प नहीं है। विवेक निर्विकल्प है। दिखता है, और आदमी चलता है।

इसलिए बड़ी हैरानी की बात है, समझ लेनी चाहिए कि तुम कुछ भी मान कर करो विचार में, हमेशा पछताओगे। क्योंकि जब भी मन तुम्हें कुछ कहता है करने को, तब दूसरा विकल्प भी मौजूद होता है।

समझो कि दो स्त्रियों से तुम्हें शादी करनी है, दो स्त्रियों से लगाव है। तुम तय नहीं कर पाते, किससे शादी करनी है। एक धनी है, लेकिन सुंदर नहीं है; धन में भी तुम्हारा रस है। एक गरीब है, लेकिन सुंदर हैं; सौंदर्य में भी तुम्हारा रस है। अब क्या करें!

तो या तो मन दोनों के बीच कोई समझौता खोजेगा, जो कि खतरनाक है; और या मन निर्णय लेगा कि एक से कर लो; एक कर लेगा तो पछताएगा। अगर अमीर से कर ले तो रोज सुबह उठ कर उसका चेहरा तो देखना ही पड़ेगा। कितना ही भागो पत्नी से, भाग कर कहां जाओगे? घर लौटकर आना ही पड़ेगा। और जब चेहरा देखेगा, तभी मन में पछतावा होगा कि सुंदर स्त्री से शादी कर ली होती। लेकिन यह मत सोचो कि सुंदर स्त्री के करके कुछ हल होनेवाला है। सुंदर से कर ली होती, तो सौंदर्य दो—चार दिन में समाप्त हो जाता है। तुम आदी हो जाते हो एक शक्ल देखने के—आखिर शक्ल को क्या करोगे? लेकिन रोज पैसे की कमी है। छप्पर चूता है, और खप्पड, नहीं खरीद सके; पेट भूखा है और रोटी नहीं—रोज चुभेगा—और मन होगा कि बेहतर हुआ होता, अमीर से शादी कर ली होती।

मन कुछ भी चुने, सदा पछताएगा। पछतावा मन की निष्पत्ति है; क्योंकि विकल्प सदा मौजूद था। विवेक जो भी करेगा, कभी नहीं पछताएगा; क्योंकि विकल्प था ही नहीं, पछताना किसके लिए है! इसलिए विवेकपूर्ण व्यक्ति कभी नहीं पछताता। जो भी हुआ है अतीत का उकसे लिए कोई पछतावा नहीं होता। वह कभी लौट कर पीछे देखता भी नहीं, क्योंकि दूसरे तो कोई विकल्प था ही नहीं। जो होना था, वही हुआ है। और जो होना है, वही होगा।

इसलिए विवेकपूर्ण व्यक्ति सदा शांत होगा, विचारपूर्ण व्यक्ति सदा अशांत होगा। बुद्धि विचार करती है, हृदय विवेक देता है।

तो कैसे जगाए इस हृदय के विवेक को?

ध्यान हृदय के विवेक को जगाने की प्रक्रिया है। विश्वविद्यालय बुद्धि के विचार को जगाने का प्रशिक्षण क्षेत्र हैं। बीस—पच्चीस वर्ष एक युवक को लगते हैं, तब कहीं बुद्धि प्रशिक्षित हो पाती है।

और लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि पांच सात दिन हो गए ध्यान करते, अभी तक कुछ हुआ नहीं।

बुद्धि परिधि है, हृदय केंद्र है। बुद्धि पर तुम व्यय करते हो पच्चीस वर्ष, तब भी हो सकता है कि थर्ड क्लास सर्टिफिकेट ले कर यूनिवर्सिटी से बाहर निकलो। लेकिन हृदय के लिए तुम तीन दिन भी देने का तैयार नहीं हो। और हृदय के लिए पच्चीस जन्म भी देने को कम हैं, क्योंकि हृदय केंद्र है।

सारी ध्यान की प्रक्रियाएं हृदय के केंद्र को जगाने की प्रक्रियाएं हैं। सिर्फ भारत में ऐसे विश्वविद्यालय अतीत में थे, जहां हमने दोनों प्रयोग किए थे। लेकिन वे प्रयोग खो गए। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय बौद्धों की छाया में बने वे अकेले विश्वविद्यालय थे, सारी दुनिया में फिर वैसा प्रयोग नहीं हो सका, जहां हमने बुद्धि को भी प्रशिक्षित करने की कोशिश की, और हृदय का विवेक भी जगाने की कोशिश की। वह सफल नहीं हो सका। अनेक बाधाएं पड़ गई। सबसे बड़ी बाधा तो यह पड़ती है कि हृदय के विवेक के जग जाने पर व्यक्ति सांसारिक नहीं हो पाता। तो संसार उसके विपरीत है। बाप भी डरता है बेटे को ऐसी जगह भेजने में, जहां विवेक जग जाए; क्योंकि विवेक वासना से मुक्ति है। विवेक जगेगा तो वासना खो जाएगी। सभी भयभीत हैं विवेक के जगने में। इसलिए प्रयोग किया गया, लेकिन असफल गया। महानतम प्रयोग था मनुष्य की चेतना के जगत में।

नालंदा में हम फिक्र करते थे कि जिस मात्रा में ज्ञान बढ़े उसी मात्रा में ध्यान बढ़े, और संतुलन कभी न खोए। लेकिन तब नालंदा से जो आदमी निकलता था वह संन्यस्त होकर निकलता था। यह प्रयोग कैसे चल सकता है! यह कितनी देर संसार चलने देगा! नालंदा हमने उखाड़ कर फेंक दिया और बौद्ध जो उस महान प्रयोग को कर रहे थे, उनको खदेड़ के मुल्क के बाहर कर दिया।

बौद्ध धर्म का विनाश हो गया इस मुल्क से, क्योंकि बौद्धों ने इतने विवेक को जगाने की कोशिश कि जिन—जिनका भी विवेक जगा, वे इस जगत के बहुत काम के न रह गए। एक विराट जगत के काम के हुए; लेकिन हमारी क्षुद्र वासनाओं के जगत में काम के न रह गए।

अगर बेटे का विवेक जग जाए, तो बाप उसे धन कमाने में नहीं जोत सकता। बेटा कहेगा, ठीक है, जितना जरूरी है कर देते हैं। लेकिन गैर—जरूरी असली पकड़ है। क्योंकि जरूरी से क्या होगा? जब इतना धन हो जाए कि वह गैर—जरूरी हो, तभी तो आदमी धनी होता है। जरूरी से तो आदमी गरीब ही बना रहता है। जितनी जरूरत है, उतना ही कमा लिया तो तुम गरीब हो। विलास तो तब पैदा होगा कि गैर—जरूरी पैदा हो जाए। विवेकपूर्ण, ध्यानपूर्ण व्यक्ति गैर—जरूरी से बचेगा। बहुत कठिनाई खड़ी हो गई।

कबीर कहते हैं, कहहिं कबीर ते बांचि हैं, जिनके हृदय विवके। यह जो मैं कह रहा हूं, वे ही समझ सकेंगे, जिनके हृदय विवेक है, जिन्होंने ध्यान किया है। क्यों? क्योंकि ध्यान करने वाले तो तत्क्षण दिखाई पड़ता है: मन ही लहर है, और मन ही सागर है। क्योंकि ध्यान करने वाले को कई क्षण ऐसे आ जाते हैं, जब लहरें रुक जाती हैं, सिर्फ सागर रह जाता है। वही प्रतीति कबीर के वचन को समझने में सार्थक होगी। उस प्रतीति के बिना तुम कबीर को न समझ पाओगे।

मेरे पास लोग आते हैं, जिन्होंने कबीर पर डाक्टरेट लिखी है। विश्वविद्यालय ने उन्हें सम्मानित किया है, डिग्रियां दी हैं। लेकिन मैं नहीं देखता कि वे कबीर को समझते हैं; क्योंकि हृदय का विवेक तो उनके पास है ही नहीं।

इस वचन का एक दूसरा अर्थ भी है। वह वचन का अर्थ है—कहहिं बकीर ते बांचि हैं, जिनके हृदय विवेक—कबीर कहते हैं, वे ही पढ़े—लिखे हैं, जिनके हृदय विवेक।

मन जाने सब बात, जगत ही औगुन करे, कहे की कुसलात, कर दीपक कुंबै पड़े।

जिनके हृदय विवेक है वे केवल पढ़े—लिखे लोग हैं; बाकी सब अपढ़ हैं। वे ही जिनके हृदय विवेक है, ऐसे है, जिन्होंने बांचा है, जिन्होंने पढ़ा है। किताब के पढ़ने का सवाल नहीं है, हृदय को पढ़ने का सवाल है। अपने को पढ़ने का सवाल है।

कहहिं कबीर ते बांचि हैं—वे ही केवल बांचे हुए, पढ़े—लिखे लोग हैं, जिनके हृदय विवेक है!

मन दीया मन पाइये, मन बिन मन नहिं होइ।

मन उन्मन उस अंड ज्यूं, अनल अकासां जोई।।

मन दीया मान पाइये—मन से ही खोया है, मन से ही मिलेगा। मन से ही भटके हैं, मन से ही पहुंचेंगे। मन से ही भिखारी हुए, मन से ही सम्राट बनेंगे। यह मन ही रुग्ण हुआ है; स्वस्थ हो जाए तो जो खाया है, वह मिल जाएगा।

मन दीया मन पाइये, मन बिन मन नहिं होइ।

सारा खेल मन का है। तुम्हारे भीतर जो शक्ति विचार बन रही, सारा खेल उस शक्ति का है। वह शक्ति दो रूपों में हो सकती है—या तो विचार बन जाए, तब लहर बन जाती है; या ध्यान बन जाए, तब सागर बन जाती है।

इसलिए निर्विचार समस्त धर्मों का सार है; क्योंकि जैसे ही तुम निर्विचार हुए, तो जो शक्ति मन के द्वारा विचार बन कर खो रही थी अनंत में, वह खोना रुक जाएगा। मरुस्थल में नदी नहीं खोएगी। तब सारी शक्ति वापिस तुम्हीं में गिरने लगी। तब तुम कुछ भी नहीं खो रहे हो। तब तुम्हारे छिद्र बंद हो गए।

अभी तो तुम एक बालटी हो, जिसमें हजार छेद हैं। कुएं डालते हैं, शोरगुल बहुत मचता है। पानी में डूबी रहती तो ऐसा भी लता है, भर गई। और जैसे ही पानी से ऊपर उठाते हैं कि खाली होना शुरू हो जाती है। खींचते—खींचते थक जाते हो, और जब बालटी हाथ में आती है तो खाली होती है। यही तो हजारों—करोड़ों लोगों का अनुभव है। जिंदगी भर खींचते हैं, तब इतना शोरगुल मचता है कि लगता है भरी हुई आ रही है, लेकिन हाथ आते—आते खाली! मौत के वक्त खाली बालटी हाथ लगती है। इतने छिद्र हैं!

हर विचार छेद है। उससे तुम्हारी ऊर्जा खो रही है। जैसे ही तुम निर्विचार हुए, ऊर्जा को खोने का मार्ग बंद हुआ। तब तुम्हारी ऊर्जा वापिस तुम्हीं में गिर जाती है। तुम सागर हो, तुम ब्रह्म हो, तुम परम हो। इस जगत की जो भगवत्ता सत्ता है, वह तुम हो। लेकिन तुम्हारे रंध्र, तुम्हारे छिद्र चुकाए डालते हैं।

मन दीया मन पाइये, मन बिन नहिं होइ।

मन उन्मन उस अंड ज्यूं, अनल आकासां जोइ।।

जैसे आकाश हर चीज में छिपा है, चाहे दिखे और चाहे न दिखे…आकाश दिखता कहां है? हवा के कण—कण में आकाश है। अग्नि के कण—कण में आकाश है। न तो अग्नि आकाश को जला सकती है, न हवा आकाश को उड़ा सकती है। पानी के कण—कण में आकाश है; न पानी आकाश को बहा सकता है। जैसे प्रकाश सब में छिपा है, ऐसे वह परम भगवत् सत्ता में छिपी है। वह तुमसे भी छिपी है। उस परम भगवत् सत्ता को कबीर ने जो नाम दिया है, वह बड़ा कीमती है—वह वही नाम है, जो झेन फकीर जापान में देते हैं। झेन फकीर उस अवस्था को नोमाइंड कहते हैं। कबीर ने उस अवस्था को उन्मन कहा है।

एक ऐसी अवस्था है चेतना कि जहां मन है ही नहीं।

क्या अर्थ हुआ इसका—मन के न होने का? इतना अर्थ हुआ, जहां विचार सब खो गए, लहरें सब शांत हो गई। मन उन्मन हुआ। कबीर का एक वचन है—मन उन्मन हुआ, गगन गरजे, बरसे अमी—मन, न मन हो गया।

सारा आकाश गरज रहा है, और अमृत बरस रहा है। और जब तक मन में उसकी तरंगें, उसकी विकृतियां भरी हैं, तब भी आकाश गरजता है, लेकिन जहर बरसता है।

आकाश तो तुम्हारे चारों तरफ भी खूब गरज रहा है, लेकिन जहर बरसता है।

मन उन्मन हुआ, गरजे गगन, बरसे अमी।

उन्मन का अर्थ है: जहां निर्विचार हो गया मन।

मन उन्मन, उस अंड ज्यूं अनल आकासां सोई ।

और उन्मन मन में वह ऐसा ही छिपा है, जैसे हर अंड में ब्रद्म छिपा है, ब्रह्मांड छिपा है; जैसे हर कृपा में आकाश छिपा है।

मन गोरख मन गोविदौ, मन ही औघड़ होई।

जे मन राखै जतन करि, तो आपै करता सोइ।।

गोरख एक बहुत अनूठे सिद्ध पुरुष हुए। उनका नाम तो धीरे—धीरे खो गया। अक्सर ऐसा होता है कि बहुत अनूठे लोगों का नाम खो जाता है, क्योंकि वे हमारी समझ के बाहर पड़ जाते हैं। अब गोरख की हम सिर्फ एक ही शब्द में याद करते हैं, वह है गोरख—धंधा।

शब्दों की बड़ी कहानियां हैं। यह गोरख—धंधा से पैदा हुआ। गोरख ने पैदा नहीं किया; जिन्होंने उनको देखा, उन्होंने पैदा कर लिया। क्योंकि गोरख ने बड़ी महत्वपूर्ण विधियां खोजीं, ध्यान की। गोरख ने ध्यान की बड़ी महत्वपूर्ण विधियां खोजीं, लेकिन आम आदमी को वे विधियां ऐसी लगी कि यह सब उपद्रव क्या है; जैसा मेरे पास लोगों को लगता है। यह मेरा भी गोरख धंधा है। लोग समझते हैं कि क्या पागल हो गए हो, होश खो दिया, यह क्या कर रहे हो! तो गोरख ने इतनी विधियां खोजी कि उनके शिष्य ने मालूम किन—किन तरह की अनूठी विधियों में लीन रहे कि लोक में व्याप्ति हो गई कि यह सब गोरख—धंधा है। इसलिए शब्द सिर्फ अब इतना ही बचा है हमारे पास। जब भी कोई आदमी उलटा—सीधा करता है तो हम कहते हैं, क्या गोरखधंधा कर रहे हो! लेकिन उस शब्द के पीछे बड़े अनूठे आदमी का नाम है।

भारत में जितनी विधियां गोरख ने ध्यान की खोजीं, उतनी किसी दूसरे आदमी ने नहीं खोजीं। बुद्ध, महावीर, कोई भी गोरख का मुकाबला नहीं करते—विधियों का जहां तक संबंध है। मन को तोड़ देने के जितने उपाय गोरख ने खोजे, किसी आदमी ने नहीं खोजे। गोरख बड़ा अनूठा आविष्कारक व्यक्ति है।

और कबीर उनकी याद करते हैं: मन गोरख मन गोविन्दो।

मन ही गोरख है, मन ही गोविंद है। विधियां भी वही खोजता है, पहुंचना भी उसी तक है। गोरख और गोविद का इसलिए उपयोग किया कबीर ने—गोरख यानी विधि, गोविद यानी मंजिल। गोरख यानी मार्ग; गोविन्द यानि अंत। गोरख साधन; गोविन्द साध्य। इसलिए उपयोग किया है।

मन गोरख मन गोविंदौ। मन ही का सब खेल है, विधि भी उसी का ही है, पहुंचना भी उसी में है। मार्ग भी वही है, मंजिल भी वही है। पाना भी उसी को है, पाना भी उसी से है।

मन गोरख मन गोविंदो मन ही औघड़ होइ।

जे मन राखै जतन करि, तो आपै करता सोइ।।

और जो मन के जतन को समझ ले, वह स्वयं ब्रह्म हो गया तो आपै करता सोई…वही जगत का कर्ता हो गया।

जे मन राखै जतन करि…यह जतन शब्द याद रखन लेने जैसा है। क्या होता है जतन का मतलब?

तुम्हें एक हीरा मिल जाए रास्ते पर, तुम कैसे उसे रखोगे? जतन हरि। तुम उसे जल्दी से छिपा लोगे। वहां तो देखोगे भी नहीं, क्योंकि और किसी को पता न चल जाए। तुम जल्दी से उसे कपड़ों में छिपा लोगे, वहां तुम पूरी तरह से देखोगे भी नहीं, क्योंकि सड़क बाजार है, लोग चल रहे हैं, लेकिन घर अभी दूर है। घर को कर तुम द्वार बंध करके, प्रकाश जला कर फिर हीरे को देखोगे। लेकिन घर पहुंचने के पहले भी तुम कई बार जेब में छू—छू कर देख लोगे न! जतन का यही मतलब है। कई बार तुम टटोल कर देख लोगे।

जेबकट भलीभांति जानते हैं कि किसकी जैब में पैसा है—उसके जतन की वजह से। वह बार—बार देख लेता है।नहीं तो जेबकट को पता कैसे चले! टेलीपैथी थोड़ी जानता है कि तुम खीसे में नोट लिए हो, लेकिन तुम छू—छू कर देखते हो, तुम्हें पता भी नहीं होता है कि तुम छू—दू कर देख रहे हो। वही उसे खबर देता है कि है कुछ।

जतन का अर्थ है: बड़ी होशपूर्वक, सम्हाल कर। जैसे कबीर किसी वचन में कहे हैं कि लौटती हैं स्त्रियां पनघट से तो गपशप करतीं, बात करतीं, गीत गातीं—घड़े को सिर पर रखे हाथ से पकड़ती भी नहीं! फिर कैसे पकड़ती होंगी, किससे पकड़ती होंगी? जतन से, स्त्रियां लौटती हैं पनघट से। अब तो स्त्रियां नहीं मिलती, क्योंकि पनघट नहीं हैं—नलघट हैं, और वहां उपद्रव है।

कबीर के वक्त पनघट थे और वहां से लौटती स्त्रियां थीं। एक मीठा काव्य था, उस लौटने में पनघट से। और बात करतीं, चीत करती और घड़े को सिर पर रखे, न हाथ से सम्हालतीं! फिर किससे सम्हालतीं?

भीतर एक होशपूर्वक सम्हाल है—बारीक है, जतन से—गिरता नहीं है घट, टूटता नहीं घट। चर्चा चलती रहती है, जतन जारी रहता है।

तो कबीर कहते हैं कि रहो इस संसार में ऐसे, जैसे पनघट से आती स्त्री घड़ी को रखती है जतन से। जाओ दुकान पर, लेकिन सम्हालो चेतना को। घूमो बाजार में, खो मत जाओ, सम्हालो अपने को। धन हो, स्त्री हो—सम्हालो अपने को।

जतन का अर्थ है: एक भीतरी सुरति।

गुरजिएफ ने एक शब्द उपयोग किया है: सेल्फ—रिमेम्बरिंग, आत्म—स्मरण। कुछ भी करो, खुद का होश बनाए रखो—वही जतन है।

बुद्ध का शब्द है: सम्यक स्मृति, राइट माइंडफुलनेस।

कुछ भी करो, लेकिन स्मरण बना रहे कि मैं हूं।

बुद्ध का शब्द स्मृति ही बिगड़—बिगड़ कर सुरति हो गया। कबीर और नानक जिसको सुरति कहते हैं, वह बुद्ध का स्मृति शब्द है। वह लोकभाषा में चलते—चलते सुरति हो गया। पर सुरति ज्यादा मधुर है। और स्मृति से तो मेमोरी का संबंध जुड़ जाता है—सुरति अलग ही हो गया। सुरति का तो मतलब ही हो गया—एक आत्मभाव एक बोध।

जतन शब्द भी यत्न से बना है—लेकिन वह मतलब नहीं है, जो यत्न का है।

मतलब है:एक भीतरी सतत होश, कोई चीज भीतर न जाए! जैसे हीरा मिले तो उसको आदमी गांठ में बांध लेता है, ऐसे भीतर एक होश बना रहे, एक स्मृति बनी रहे। तुम जो भी करो, करते समय यह खयाल रहे कि अपने को सम्हालना है।

क्या है सम्हालने का प्रयोग है, ताकि मन में लहरें न उठें। तुमने नहीं सम्हाला, लहरें उठेगी; सागर खो जाएगा, दर्पण मिट जाएगा। तुमने सम्हाला, लहरें उठेंगी; खूब सम्हाला, लहरें बिलकुल नहीं उठेंगी। पूरा सम्हाला, लहरें बिलकुल शांत हो जाएगी। और मन पर एक लहर नहीं होती तो मन दर्पण हो जाता है। उस दर्पण दिखाई पड़ता है, जो वही सत्य है।

मन गोरख, मन गोविंदौ, मन ही औघड़ होई।

जे मन राखै जतन करि, तो आपै करता सोई।।

तन को जोगी सब करै, मन को करे न कोई।

सब विधि सहजे पाइये, जो मन जोगी होई।।

सवाल शरीर से कुछ करने का नहीं है। सभी सवाल होश के जगत में कुछ करने का है। तो कितना ही तुम बांधो शीर्षासन, सिद्धासन, सर्वांगासन करो, कितने ही बंध साधो, कितने ही शरीर को इरछा—तिरछा करो—वह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है भीतर चैतन्य का बढ़ना—चैतन्य की बढ़ती ज्योति।

तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोई।

इसलिए तुम पाओगे ऐसे जोगी, जिन्होंने शरीर की बड़ी कीमती उपलब्धियां पा ली हैं। लेकिन अगर तुम उनमें झांक कर देखोगे तो पाओगे कि तुमसे गए बीते हैं।

योगी तीस दिन जमीन में पड़ा रह सकता है। उसने बड़ी कुछ साधा है; क्योंकि तीस दिन बिना आक्सीजन के, गङ्ढे में दबा पड़ा रहना! तीस क्षण मुश्किल हैं। तीस दिन के बाद तुम उसे निकालो वह जीवित है! तुम चमत्कृत होओगे। लेकिन उस आदमी की आंखों में देखना और तुम उसमें वह ज्योति न पाओगे जो कबीर, बुद्ध या गोरख की आंखों में होती है। उस ज्योति की जगह तुम उसकी आंखों में एक उदासी पाओगे, एक सोया हुआ पन पाओगे। और तुम उसके जीवन में कोई चमक न पाओगे—जो होनी चाहिए। क्योंकि जिसके भीतर ब्रह्म जगा हो, उसके बाहर सब तरफ एक सुगंध और एक चमक और एक प्रकाश का विस्तार होगा—वह तुम बिलकुल न पाओगे। मजे की बात तो यह है की तीस दिन यह जमीन में पड़ा रहा, क्योंकि पांच सौ रुपये उसे इनाम मिलने हैं। तुम किसी बुद्ध को राजी कर सकोगे कि पांच सौ रुपये के लिए तीस दिन जमीन में पड़ा रहे? तन को तो साध लिया उसने, पर मन की साधना का उसे कुछ भी पता नहीं है।

ऐसे योगी हैं कि संकल्प के केवल हाथ की नाड़ी की गति बंद कर देंगे, हृदय की चाल बंद कर देंगे; लेकिन वे सब कर रहे हैं पैसा पाने के लिए। उनकी जगह सर्कस में है, सत्य में नहीं। वे सर्कस के लिए काम हैं, सत्य का उनसे क्या लेना देना! तुम दुकान कर रहे हो, वे भी दुकान कर रहे हैं। तुम्हारी दुकान तुमसे जरा बाहर है, उनकी दुकान शरीर से जुड़ी है। लेकिन उसकी सारी साधना एक प्रदर्शन बन गई है।

ऐसे योगी हैं, जो आंख को खींच कर बाहर लटका लेते हैं। डाक्टर पालब्रन्टन ने जब पहली दफा एक योगी को यह करते देखा, तो वह हैरान हो गया, क्योंकि वह तो खुद डाक्टर था। यह अविश्वास की बात थी, यह हो ही नहीं सकता कि दोनों आंखें खींचकर उसने लटका लीं, चार इंच आंखें नीचे लटक गई! और अब भी वह उन आंखों से देख रहा है—सारी मांस पेशियां बाहर आ गयी हैं, खून झरने लगा; फिर वापस उसने आंखें अपने गङ्ढों में जमा लीं! तब उसने कहा कि दो रुपए मेरी फीस! इतना बड़ा चमत्कार, लेकिन मांग तो लोभ की!

और जब मन योगी हो जाता है…क्या है के याग का अर्थ?

योग शब्द का अर्थ है: जोड़, संगम, मिलन, संभोग।

योग का अर्थ है: दो का एक हो जाना।

तो मन के योग का क्या अर्थ होगा?—जहां मन की लहरें, और मन का सागर एक हो जाए; जहां मन की दौड़ और मन का ठहरा होना एक हो जाए; जहां मन, मन में लीन हो जाए। परम संभोग का क्षण है जब मन मन में ही लीन हो जाता है, डूब जाता है। वही समाधि है।

सब विधि सहजे पाइये, जो मन जोगी हुई।

और जिसने मन के मिलने की यह कीमिया पा ली, उसके लिए सब सरल हो जाता है।

सब विधि सहजे पाइये—वह सभी कुछ सहज पा लेता है। उसे पाने के लिए कुछ और करना नहीं पड़ता।

मन ऐसा निरमल भया…

और इस समाधि से, इस मन के मन में डूब जाने से मन ऐसा निरमल हो जाता है…।

ये वचन गूंजते रहें तुम्हारे मन में—उपयोगी होंगे।

मन ऐसा निरमल भया, जैसा गंगा नीर।

पाछै—पाछै हरि फिरै, कहत कबीर कबीर।।

एक वक्त है कि साधक खोजता है परमात्मा को; चिल्लाता है—राम, रहीम—पुकारता है। और एक ऐसा वक्त भी आता है जब परमात्मा तुम्हारे पीछे—पीछे घूमता है—कहत कबीर—कबीर

यह वक्त कब आता है, जब परमात्मा तुम्हारे पीछे खोजने लगता है, बुलाता है?

एक वक्त था, तुम बुलाते थे, कोई आवाज उत्तर में न आती थी। वह वक्त वही था, जब तुम्हारा मन तरंगों से भरा था। तब तुम्हारी आवाज इस योग्य न थी कि सुनी जाए—इस योग्य तो बिलकुल ही न थी कि उसका उत्तर दिया जाए।

तो चिल्लाते रहो, तुम मंदिरों में, मस्जिदों में,। कबीर कहते हैं कि क्या तुम्हारा खुदा बहरा हो गया है कि तुम सुबह से उठकर अजान कर रहे हो, इतने जोर से नमाज पढ़ रहे हो? क्या बहरा हुआ खुदाय? क्यों इतने जारे से चिल्ला रहे हो? चिल्लाते रहो—मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में—कुछ भी न होगा। तुम्हारे चिल्लाने से कुछ भी न होगा। क्योंकि तुम्हारा चिल्लाना भी तुम्हारे मन का शोरगुल है। चुप हो जाओ।

प्रार्थना बोलना नहीं है, चुप हो जाना है।

प्रार्थना परमात्मा से कुछ कहना नहीं है। प्रार्थना वस्तुतः परमात्मा से कहना नहीं है, परमात्मा को सुनने की विधि है। चुप हो जाओ—सुनो।

और जब मन मन में लीन हो कर चुप हो जाता है, एक भी तरंग नहीं होती विचार की—मन ऐसा निरमल भया—तब निर्मलता, तब सब शुद्ध हो जाता है, सब विकृति खो जाती है, तब सब रोग मिट जाते हैं। तब मन एक निर्मल दर्पण हो जाता है।

मन ऐसा निरमल भया, जैसा गंगा नीर।

जैसे गंगा का जल!

पाछै—पाछै हरि फिरै, कहत कबीर कबीर।

अब उलटी हो गई सब बात। अब खुद परमात्मा साधक के पीछे घूमता है, खोजता है। जब तुम योग्य हो, तब यह स्वयं तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है। और जब तक तुम अयोग्य हो, तुम कितने ही मंदिरों, गिरजों, गुरुद्वारों में दस्तक दो, वह दस्तक उसके द्वार पर नहीं पहुंचेगी।

इसलिए असली सवाल तुम्हारे निर्मल हो जाने का है। और निर्मलता का कबीर का अर्थ मन के मन में लीन हो जाने का है—मन, मन में खो जाए।

ध्यान अर्थात मन में मन खो जाए, कुछ बचें न तरंगें—सागर बचे, लहर न बचे। पर बड़ा मुश्किल है।

तीन लोक संशय पड़ा काहिं कहूं समझाय।

किसको समझाओ—सब पहले से समझे बैठे हैं! पहले से समझदार बन गए हैं! उधार समझ ने सभी को समझदार बना दिया है। और इसलिए उनके अज्ञान के मिटने की कोई विधि नहीं है।

पहला ज्ञान—समझना कि मैं अज्ञानी हूं; तब मैं समझा के कह सकूंगा।

 

आज इतना ही।

 

 


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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–33)

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मेरी रानीशपुरम की यात्रा—(अध्‍याय—तेतीसवां)

ओशो से मिलने के बाद। अपना सारा काम छोड़ कर उनके कार्य में पूरी तरह से संलग्न होने के बाद, कुछ भी ऐसा शेष नहीं बचा जिसके बारे में सोचूं या उसे समय दूं। ओशो व उनका कार्य ही पूरी तरह से मेरी अपनी दुनिया हो गई। ओशो जब भारत से बाहर चले गये और पुणे का आश्रम धीरे— धीरे सिमटने लगा तो हर समय यही खयाल बना रहता कि अब क्या? यही सोच बनी रहती कि ओशो कहां अपना नया कम्यून शुरू करते हैं, वहीं फिर चले जाएंगे।

इसी बीच उधर अमरीका से खबरें आने लगी ओशो ओरेगॉन चले गये हैं। वहां पर बहुत बड़ी जमीन ले ली गई है और वहां पर कम्यून की स्थापना हो रही है। ये खबरें बहुत प्रसन्नता देतीं और बहुत राहत मिलती कि ओशो स्वस्थ हैं, उनका कार्य बडे पैमाने पर शुरू होने वाला है, उनका कम्यून बनाने का सपना साकार होने वाला है और हम भी उसी दुनिया में ओशो के पास जा पाएंगे।

अमरीका में बन रहे रजनीशपुरम् की खबरें सुन कर मन होता कि जल्दी से जल्दी वहां जाया जाए। लेकिन मा शीला का पत्र आया कि यदि आप यहां आना चाहते हैं तो नौ लाख रुपये जमा करवाकर यहां आ सकते हैं। मैंने सोचा यह भी खूब रही। मैं तो अपना सारा कारोबार व धन कमाने के स्रोत छोड़ आया था। इतना रुपया कहां से लाऊं और फिर परिवार था, अपनी जिम्मेदारियां थीं। इतनी बड़ी धन राशि जुटाना इतना आसान नहीं था। मैंने सोचा कि ओशो अमरीका क्या गये वहां का असर ही पड़ गया दिखता है।

इस खबर से मन दुखी तो हुआ लेकिन कहीं दिल में भरोसा भी था कि ओशो कुछ न कुछ जरूर करेंगे। लेकिन कुछ ही दिन बीते कि मुझे खबर मिली कि अब आना हो तो इक्कीस लाख रुपये देने होंगे। मैंने सोचा यह तो और भी मुश्किल हो गया। तब मुझे लगा कि अब बैठे रहने से बात नहीं बनेगी। एक बार अमरीका जाकर स्वयं ओशो से मिलता हूं। और इस तरह मैं अमरीका पहुंच गया। कम्यून को देखा तो मन प्रसन्न हो गया। बहुत ही प्यारा बना हुआ था। वहां जाकर देखा कि ओशो तो मौन में हैं और किसी से मिलते भी नहीं हैं, बात नहीं करते हैं। वहां कई दूसरे मित्र मिले जिन्होंने बताया कि ओशो तो मिलते भी नहीं है, बात भी नहीं करते हैं। मैंने सोचा कि अब क्या होगा। जब वे किसी से नहीं मिल रहे हैं तो मैं किस खेत की मूली हूं।

एक दिन अचानक शीला मेरे कमरे में आई और बोली कि स्वभाव आज शाम को ओशो से मिलना है तो तैयार रहना पर किसी को बताना मत। मेरी खुशी का तो कोई ठिकाना नहीं रहा, ओशो से मिलना होने वाला है, उनके पास जाना हो रहा है, उनसे बात करने का मौका मिलने वाला है, मैं अपने जीवन में शायद ही इतना उत्साहित कभी रहा होऊंगा, जितना उस दिन हो रहा था।

आखिर शाम को शीला फिर आई और मेरे को ओशो से मिलाने के लिए ले चली। मेरा दिल धक, धक, धक कर रहा था। चार—पांच कमरों से होते हुए हम आखरी कमरे में पहुंचे जहां ओशो विराजमान थे। ओशो को देख कर मन गदगद हो गया। चरण स्पर्श करने के बाद जब बैठा तो ओशो ने पूछा, ‘स्वभाव आने में बड़ी देर कर दी?’ मैंने कहा, ‘प्रभु, नौ लाख रुपये मांगे गये थे, तो इतने रुपयों का इंतजाम करना मेरे लिए संभव नहीं हो रहा था।’ ओशो बोले, ‘मैंने कब कहा रुपयों के लिए?’ शीला वहीं मौजूद थी। मैंने उसकी तरफ इशारा करके बताया कि शीला का पत्र आया था। तब शीला ने बताया कि ‘ मैंने तो इसलिये लिख दिया था कि स्वभाव के पास होंगे तो यहां काम आ जाएंगे।’ इस तरह यह बात खतम हो गई।

ओशो का भारत से यहां आ जाना, पुणे आश्रम का सीमित हो जाना, रजनीशपुरम् आने के लिए बड़ी धन राशि की मांग.. .जैसे—तैसे यहां पहुंचे तो पता चला कि ओशो तक पहुंचना लगभग नामुमकिन.. .इन सब बातों ने बहुत दिल तोड़ दिया था। मन में गुस्सा भी आ जाता, घुटन भी होती, कभी—कभार नकारात्मकता भी आ जाती… और अब ओशो के सामने बैठा हूं तो सब पिघल गया।

ओशो ने निर्वाणो को बोला कि ‘स्वभाव के लिये कैप लाओ।’ वो कुछ ही देर में बहुत सारी कैप ले आई। तरह—तरह की कैप्स मुझे पहना कर देखी गईं। फिर एक कैप ओशो को पसंद आई। इतना होते—होते मैं ओशो के प्रेम से सराबोर हो गया, सारी पीड़ा, घुटन, नकारात्मकता पल में जैसे छू मंतर हो गई। ओशो के प्रेम और करुणा के आशीर्वाद से मैं भीग गया। ओशो ने शून्यों को बोला कि ‘ कल स्वभाव को हवाई जहाज से सारी जगह दिखाओ और जहां हवाई जहाज नहीं जाता वहां कार से लेकर जाओ।’ दूसरे दिन मुझे निजी हवाई जहाज से पूरे रजनीशपुरम् का भ्रमण कराया। दुनिया भर से आए ओशो प्रेमियों के अथक प्रयास सवा सौ एकड़ जमीन पर फलते—फूलते कम्यून को आकाश में उड़ते देखना अपने आपमें एक रोचक अनुभव था। इतनी ऊंचाई से जहां तक नजर जाए वहां तक कम्यून का विस्तार, निश्चित ही मन को बहुत भला लगा।

ओशो का हमेशा सपना रहा है कि उनका अपना एक संसार हो जहां वे अपने लोगों के साथ पूरी स्वतंत्रता से जी सकें। बाहर के जगत में रहते बाहरी दबावों और परेशानियों से अपने को बचाने बहुत शक्ति जाया होती है, उससे बचा जा सके और सारी ऊर्जा को उन लोगों पर खर्च किया जा सके जो रूपांतरण की तैयारी दिखाते हैं। एक हंसता, नाचता, गाता, सृजनात्मक, ध्यानी संसार जो पूरे विश्व के लिए एक मॉडल बन सके कि जीवन हर पल इतना उत्सवपूर्ण व आनंद से भरा हो सकता है।

रजनीशपुरम् की जगह तो बहुत बड़ी थी पर पूरी तरह से बंजर, कहीं हरियाली का नामोनिशान तक नहीं। मैं देख कर दंग रह गया। जब अगले दिन ओशो से फिर मिलना हुआ तो उन्होंने पूछा कि ‘ कैसी लगी जगह?’ मैंने कहा, ‘आपने पसंद की है तो सुंदर ही होगी और उपयोगी होगी, लेकिन कहीं हरियाली दिखाई नहीं दी। पूरी तरह से जगह तो बंजर है।’ ओशो ने मेरी बात सुन ली।

रजनीशपुरम् प्रवास के दौरान मैं भी वहां कार्य करने लगा। एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का बहुत ही सुंदर कम्यून का निर्माण तेज गति से हो रहा था। पूरी दुनिया से आए हजारों—लाखों मित्र अपनी—अपनी कला, सृजन व श्रम का भरपूर योगदान दे रहे थे। प्रेम, शांति व ध्यान की ऊर्जा से लबालब इतना विशाल कम्यून इतनी तेज गति से फलफूल रहा था कि बस मन आनंदित हो जाता। लेकिन इसी के साथ स्थापित धर्मों, राजनेताओं व स्थानीय लोगों का विरोध भी तेज हो रहा था। वहां हमारी एक मित्र थीं। उसने बड़ी अजीब बात कही कि यह जगह भी ज्यादा नहीं चल पायेगी। इतना विरोध हो रहा है, इतने दबाव बने हैं कि यह जगह भी उजड़ जाएगी। मैं कुछ समय बाद वापस भारत आ गया।

 

आज इति।


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स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–34)

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ओशो की गिरफ्तारी—(अध्‍याय—चौतीसवां)

जो व्यक्ति पृथ्वी ग्रह के हर मनुष्य को सभी आयामों से, हर जंजीर से मुक्त करने का भरसक प्रयास कर रहा हो। जिसने दुनिया भर में फैले सभी तरह के धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक स्थापित संस्थानों पर चोट की ताकि उनकी पकड़ से मानव को मुक्त कराया जा सके। उसी व्यक्ति को अमरीकी सरकार ने बिना किसी गिरफ्तारी वारंट के, गैर—कानूनी ढंग से गिरफ्तार भी कर लिया और उन्हें किसी से मिलने भी नहीं दिया जा रहा है, यह सुनकर उस दिन जितना मन रोया है, शायद जीवन काल में कभी भी नहीं रोया। दुनिया के सबसे प्रगतिशील, आधुनिक कहलाने वाले देश की यह हालत? जहां व्यक्ति की अभिव्यक्ति को संविधान से पूरी स्वतंत्रता मिली है, वहां किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इस बेरहमी से कुचला जा रहा है। जो देश दुनिया में सबसे अधिक जागरूक देश होने का दावा करता है, वहां पर इस तरह के वहशीपन के लिए कोई बोल क्यों नहीं रहा है।

ओशो को अमरीका में गिरफ्तार कर लिया गया, इस खबर से पूरी दुनिया में फैले ओशो प्रेमी बुरी तरह से हिल चुके थे, सभी परेशान थे कि क्यों और कैसे ओशो को जेल में डाल दिया गया? मेरे लिए भी यह बात बहुत पीड़ा जनक थी, मेरे लिए बर्दाश्त करना मुश्किल हो रहा था। अमरीकी राजनेता, ईसाई धर्मांध लोगों ने बहुत बुरा किया।

सवा सौ वर्गमील जमीन पर फैले कम्यून को भी तहस—नहस करने की शुरुआत हो गई। पूरी दुनिया से हजारों सृजनशील, प्रेमी मित्रों के अथक प्रयासों से बने इतने सुंदर संसार को बेरहमी से उजाड देने का काम शुरू कर दिया। ओशो को तरह—तरह की यातनाएं दी गई, एक जेल से दूसरी जेल में लगातार डालते हुए, उन्हें जितनी भी तकलीफ दी जा सके दी गई और अंततः उन्हें जहर दे दिया गया। यह खबर आग की तरह फैल गई। पूरा संसार ओशो के नाम पर चर्चा करने लगा। पूरा यूरोप, अमरीका और बाकी संसार टी वी, अखबार और रेडियो से बराबर ओशो की खबरों से जुड़ा हुआ था।

इधर भारत में हम सभी मित्र अपना विरोध जाहिर कर रहे थे। दिल्ली, बैंगलौर, कलकत्ता, मद्रास, अहमदाबाद में रैलियां की गई। भारत सरकार को हर आयाम से चेताया गया कि ओशो के साथ बहुत अमानवीय व्यवहार हो रहा है। एक निहत्थे व्यक्ति को बेड़ियों, हथकड़ियों और जंजीरों में जकड़ कर दर—दर घुमाना, सड्कों पर चलाना, यातनाएं देना कतई उचित नहीं है। हम सभी मित्र अपने—अपने स्तर पर बराबर इस बारे में विरोध कर रहे थे।

भारत सरकार के तात्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी के निवास के सामने मौन प्रदर्शन किया। उस मौन प्रदर्शन की खबरें भारत के सभी अखबारों ने बहुत प्राथमिकता से प्रकाशित कीं। प्रधानमंत्री के निवास के सामने हजारों ओशो प्रेमी मौन में बैठे। उस समय का एक फोटो बहुत ही भाव—विह्वल कर देने वाला था, उसका यहां जिक्र करूं। हम बहुत सारे मित्र कतारों में शांत, मौन, हाथ जोड़े बैठे थे। अनेक मित्रों ने अपने—अपने हाथों में तख्तियां ली हुई थीं। उसमें प्रधानमंत्री से प्रार्थना की गई थी कि ओशो के जीवन की रक्षा की जाए। एक पंक्ति में सबसे आगे एक छोटी—सी बच्ची हाथ जोड़े बैठी है, आंखें बंद हैं, उसने एक तख्ती पकड़ी है जिस पर लिखा है : ‘भगवान फूल से भी कोमल हैं उनके साथ मानवीय व्यवहार करो।’ जिसने भी वह चित्र देखा, आंसू बह चले।

हमारे प्यारे ओशो जेल में थे और उनके लाखों प्रेमी असहाय से अपने—अपने तल पर प्रयास जारी रखे थे कि ओशो जेल से बाहर आ सकें। हमारे सभी विरोध शांतिपूर्ण और प्रेमपूर्ण हुआ करते थे। ओशो की देशना ही यह थी कि दुनिया हमें गाली दे सकती है, मार सकती है, यातनाएं दे सकती है लेकिन हमें उन्हें प्रेम ही देना है।

जब ओशो पर छुरा फेंका गया था तो दूसरे दिन ओशो प्रवचन में बोलते हैं कि ‘ उस व्यक्ति ने जो किया वह तो मूर्खतापूर्ण बात थी। लेकिन मैं यह देख कर आनंदित हुआ कि तुम में से किसी ने भी उसे चोट नहीं पहुंचाई, एक थप्पड़ भी किसी ने नहीं मारा। प्रेम से उसे बाहर ले जाकर छोड़ दिया। मेरी यही शिक्षा है, कल को कोई ऐसा प्रयास फिर करे और मेरी जान भी ले ले, लेकिन तुम उन्हें प्रेम ही देना।’ ओशो जेल में थे उसकी ओशो प्रेमियों को कितनी पीडा थी, यह तो वही जान सकते हैं जो उस अनुभव से गुजर रहे थे। लेकिन पूरी दुनिया में कहीं भी कोई एक छोटी—सी भी हरकत ओशो प्रेमियों ने ऐसी नहीं की जिससे किसी का नुक्सान हुआ हो। मौन प्रदर्शन जारी रहे, अमरीका के सभी ओशो प्रेमी और वहां का मीडिया पूरी तरह से सतत प्रयास करता रहा। अंततः ओशो को जेल से मुक्ति मिली। जब यह खबर आई कि ओशो जेल से बाहर आ गये हैं तो सभी ने राहत की सांस ली।

ओशो पर कानूनी दबाव डाल कर उन्हें अमरीका से बाहर जाने को कहा गया। उनका कम्यून उनकी अनुपस्थिति में उजड़ना शुरू हो गया। इसी बीच ओशो भारत आ गए। वे दिल्ली आकर मनाली चले गए। कुछ मित्रों के साथ मनाली में ओशो रह रहे थे। वहां पत्रकारों से मिलना और प्रवचन देना भी प्रारंभ हो गया। कुछ ही समय में यहां भी मित्र पहुचने लगे। मनाली में चहल—पहल बढ़ी, खबरें बनने लगीं……मैं जब यह देखता तो हंस देता।

 

आज इति।

 

 

 


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सुन भई साधो–(प्रवचन–03)

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अपन पौ आपु ही बिसरो—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक: 13 नवंबर, 1974;

श्री ओशो आश्रम, पूना.

सूत्र:

अपन पौ आपु ही बिसरो।

जैसे श्वान कांच मंदिर मह, भरमते भुंकि मरो।।

जौं केहरि बपु निरखि कूपजल, प्रतिमा देखि परो।

वैसे ही गज फटिक सिला पर, दसनन्हि आनि अरो।।

मरकट मूठि स्वाद नहिं बिहुरै, घर घर रटत फिरो।

कहहिं कबीर ललनि के सुगना, तोहि कवने पकड़ो।।

सूत्र में प्रवेश के पहले कुछ आधारभूत बातें समझ लेनी जरूरी है।

एक सूफी फकीर हुआ, बायजीद। बैठा था अपने द्वार पर झोपड़े के, एक जिज्ञासु ने पूछा, धर्म क्या है? साधना क्या है? मार्ग क्या है? तो बायजीद ने कहा, क्या करोगे जानकर? उस युवक ने कहा, मुक्त होना है बंधन से। बायजीद हंसा। जोर से हंसा, जैसे पागल है। और उसने कहां, पहले ठीक से पता लगा कर आओ—बांधा किसने है, जो बंधन से मुक्त होना चाहता है? जब तक इसका पक्का पता लगा कर न आओगे, तब तक मैं जवाब देनेवाला नहीं।

कहते हैं, युवक गया, वर्षों के बाद वापिस लौटा—वही पागलों जैसी हंसी अब उसके पास भी थी। बायजीद ने पूछा, लगा लिया पता? उस युवक ने कहा, अब कुछ पूछना नहीं, सिर्फ हंसी का जवाब देने आया हूं। खुद ही बांधा था, और बंधन से मुक्त होने की तलाश भी चालाकी की थी, वह भी उस मूल सत्य से बचने का ही ढंग था। पूछता था, कैसे मुक्त हो जाऊं? मार्ग की तलाश भी स्थगन, पोस्टपोन करने की विधि थी कि जब मिलेगा मार्ग तब पहुंचेंगे; मिलेगी विधि तब बंधन कटेगा; जब मार्ग ही पता नहीं, विधि का पता नहीं, तो कैसे बंधन के बाहर निकलेंगे? ठीक किया तुमने कि जवाब न दिया और पागल की हंसी हंसे। वह हंसी चोट कर गई। वह मन में गहरा घाव कर गई। बहुत खोजा—जैसे—जैसे खोजने लगा, वैसे—वैसे साफ होने लगा कि बंधी तो मैं ही हूं, बांधा किसी ने भी नहीं। और जब मैं ही बंधा हूं तो मुक्त होने की जरूरत क्या है? मत बंधो और मुक्त हो गए।

यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है।

मोक्ष की खोज भी तरकीब है। वह भी उपाय है बचने का। अन्यथा तुम अमुक्त हुए कब? बांधा किसने? बीमार ही नहीं हो और औषधि की तलाश करते हो! औषधि मिलती नहीं, तो सोचते हो, कर भी क्या सकते हैं हम! गुरु को खोजते हो, परमात्मा को खोजते हो—और उसे कभी खोया नहीं, वह तुम्हारे भीतर छिपा है। जब तुम खोज रहे हो, तब भी वह मौजूद है। और इसकी हली झलक तुम्हें भी है। ऐसा भी नहीं है कि इस बात को तुम बिलकुल भूल गए हो कि बांधा किसी ने नहीं। हलकी झलक तुम्हें भी है। क्योंकि यह इतना बड़ा सत्य है, इसे पूरा का पूरा भुलाया भी नहीं जा सकता। ये जंजीर तुमने अपने ही हाथ से पहन रखी हैं। हालांकि तुमने जंजीरों की तरह उन्हें नहीं पहना है, तुमने आभूषण समझकर पहना है। तुमने जंजीरों पर हीरे जवाहरात जड़ लिए हैं। तुमने जंजीरें लोहे की नहीं, सोने की बना ली हैं। तुमने जंजीरों में बड़ा रस भर लिया है। अब तुम उन्हें छोड़ने में भी डरते हो। क्योंकि वे जंजीरें तुम्हें जंजीरें दिखाई ही नहीं पड़ती। कारागृह को तुमने खूब सजा लिया है। और कारागृह को तुमने घर बना लिया है। अब तुम पूछते जरूर हो कि कारागृह से मुक्त कैसे हो जाऊं, लेकिन तुम भलीभांति जानते हो कि तुम मुक्त होना नहीं चाहते। अन्यथा कौन तुम्हें रोकता है।

घर में आग लगी हो, तो तुम छलांग लगाकर बाहर निकल जाते हो। तब तुम पूछते नहीं हो कि गुरु कहां है, जिससे पूछूं मार्ग? तब पूछते नहीं कि विधि क्या है बाहर निकलने की? तब तुम शास्त्रों का माध्यन—मनन नहीं करते। तब आग लगी है, इतना जानना हो गया, कि मार्ग तुम खुद खोज लेते हो। लेकिन संसार के बाहर निकलने के लिए, तुम पूछते हो, मार्ग कहां है? तुम निकलना नहीं चाहते, और आग तुम्हें शत्रु मालूम नहीं पड़ती, मित्र मालूम पड़ती है। फिर तुम पूछते ही क्यों हो? अगर यही सच है कि तुम्हें निकलना नहीं, अगर यही सच है कि कारागृह को ही घर बनाने में तुम्हें रस आता है, तो बनाओ, फिर मार्ग क्यों पूछते हो?

मन बहुत चालाक है! मार्ग पूछकर तुम दोहरी बात अपने को समझा लेते हो कि मैं कोई साधारण, सांसारिक आदमी नहीं हूं, मैं आध्यात्मिक हूं। बंधन में पड़ा हूं, लेकिन निकलना चाहता हूं; क्रोध करता हूं, लेकिन आकांक्षा अक्रोध की है; कामवासना में पड़ा हूं; लेकिन ध्यान तो ब्रह्मचर्य का है। ऐसे तुम अपनी गंदगी को भी आदर्शों में छिपा लेते हो, ऐसे तुम घाव के ऊपर फूल रख लेते हो। घाव को तुम मिटाना भी नहीं चाहते, घाव को तुम देखना भी नहीं चाहते, इसलिए तुम पूछते फिरते हो; मार्ग कहां, विधि कहां, गुरु कौन, कैसे मुक्त हो! तुम्हारी इस बेईमानी से कौन तुम्हें बाहर निकाल सकेगा?

यह बेईमानी तुम्हें पूरी खुली आंख से देखनी होगी। कष्टपूर्ण है। दूसरे की बेईमानी देखनी तो बहुत आनंदपूर्ण होती है, खुद की बेईमानी देखनी बहुत कष्टपूर्ण होती है। क्योंकि उसमें तुम्हारी अपनी ही आंखों में तुम्हारी प्रतिमा गिर जाती है। और तुमने बड़ी भव्य प्रतिमाएं बना रखी हैं!

बुरे से बुरा आदमी भी यही मानता है कि आदमी तो मैं भला हूं, कभी—कभी बुराई कर लेता हूं, यह बात दूसरी है। बुरा कृत्य है, आदमी तो मैं भला हूं; संयोग से, परिस्थिति से, मजबूरी से, भाग्यशांत बुराई कर लेता हूं; करना नहीं चाहता हूं। और जिस दिन सुविधा होगी, उस दिन भूलकर भी नहीं करूंगा। मजबूरी है, पत्नी है, बच्चे हैं, घर द्वार है, थोड़ी चोरी, थोड़ी बेईमानी, थोड़ा असत्य कर लेता हूं, लेकिन आदमी मैं बूरा नहीं हूं।

बुरे से बुरा आदमी भी अपनी एक सुंदर प्रतिमा बनाकर रखता है। वह सुंदर प्रतिमा बुरा होने में सहयोगी है; क्योंकि उस प्रतिमा के कारण ही तुम बुराई के घाव को नहीं देख पाते। उस प्रतिमा के कारण ही बुराई तुम्हें किस तरह बांधे हुए है, और किस भांति जहर तुम्हारे रोएं—रोएं में समा गया है, उसकी तुम्हें प्रतीति नहीं हो पाती। वह उस प्रतीति से बचने का उपाय है। इसलिए तुम विधि पूछते हो, मार्ग पूछते हो।

यह तो पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि तुम बंध हो, क्योंकि तुम बंधना चाहते हो। यह कितना ही कष्टपूर्ण हो, लेकिन इसे भलाभांति समझ लेना कि जंजीरें तुम्हारे हाथ में हैं, किसी और ने तुम्हें पहनवाई नहीं, तुमने ही पहनी हैं।

दोष दूसरे पर डालना हमेशा सुगम है। पति सोचना है, पत्नी ने बंधन डाला हुआ है। कैसी मूढ़ता है! पत्नी सोचती है, पति ने बंधन डाला हुआ है। कैसा पागलपन है! कोई दूसरा बंधन डाल कैसे सकेगा? अगर तुम बंधन न चाहो, कोई तुम्हें रोक सकता? पत्नी रोक सकती, पति रोक सकता? बच्चे रोक सकते हैं? कौन रोक सकता है? दुनिया की कोई भी शक्ति तुम्हें बंधन में नहीं डाल सकती। तुम्हारी मुक्ति अपराजेय है, उसे पराजित नहीं किया जा सकता। अगर घुटने टेककर तुम रुके हो, तो तुम जिम्मेदार हो। कोई किसी को बांध नहीं रहा है। कोई किसी को बांध ही कैसे सकता है? कम से कम एक चीज तो ऐसी है जिस पर किसी का कोई वश नहीं है—वह तुम्हारी आंतरिक परम स्वतंत्रता है।

दोस्तोवस्की, रूस का एक बहुत बड़ा लेखक, बड़ा मनसविद, बड़ा तत्वचिंतक, कारागृह में डाल दिया गया था। कारागृह से उसने अपने एक पत्र में लिखा है कि कारागृह आकर मुझे पता चला कि दुनिया में केवल मेरे शरीर को ही बंधन में डाल सकती है, मुझे नहीं। कारागृह में मैं उतना ही मुक्त हूं, जितना मैं कारागृह के बाहर था; मेरी मुक्ति में कोई आधा नहीं पड़ी।

तुम्हारे भीतर के आकाश को कौन अवरुद्ध कर सकता है? लेकिन तुम सोचते हो, पत्नी ने बांध रखा है!

ऐसा हुआ कि शेख फरीद एक गांव से गुजरता था। दो—चार शिष्य उसके साथ थे। अचानक बीच बाजार में फरीद रुक गया और उसने कहा कि देखो! एक बड़ा सवाल उठाया! बड़ा तत्व का सवाल है और सोचकर जवाब देना। एक आदमी गाय को ले जा रहा है बांधकर। फरीद ने कहा कि मैं पूछता हूं, यह गाय आदमी से बंधी है कि यह आदमी गाय से बंधा है? शिष्यों ने कहा, इसमें कौन सी बड़ी बात है। यह कौन से तत्व का सवाल है? और आप जैसे आदमी को मजाक करना शोभा नहीं देता। साफ है कि गाय आदमी से बंधी है; क्योंकि बंधन आदमी के हाथ में है, और गाय के गले में है। तो फरीद ने कहा, दूसरा सवाल है: अगर हम यह बंधन बीच से तोड़ दें, तो गाय आदमी के पीछे जाएगी कि आदमी गाय के पीछे जाएगा?

तब जरा अनुयायी चिंतित हुए। उन्होंने कहा, बात तो सोचने जैसी है, मजाक नहीं। क्योंकि बंधन तोड़ दो, तो गाय भाग खड़ी होगी और आदमी गाय के पीछे भागेगा।

तो फरीद ने कहा, मैं तुमसे कहता हूं कि आदमी के हाथ में बंधन नहीं है; आदमी के गले में है। ऊपर से दिखायी पड़ता है कि गाय आदमी से बंधी है; भीतर अगर देखो तो पता चलेगा, आदमी गाय से बंधा है।

नहीं कोई पत्नी पति को कैसे बांधेगी? कोई पति कैसे किसी पत्नी को बांधेगा? तुम बंधना चाहते हो, लेकिन बंधन की जिम्मेवारी भी अपने पर नहीं लेना चाहते हो; वह तुम दूसरे पर डाल देते हो। इससे बंधन सुगम हो जाता है: हम कर भी क्या सकते हैं? चारों तरफ लोग बांधे हुए हैं, हम जाए तो जाए कहां? करें तो क्या करें? मुक्ति मिले कैसे? सारा संसार विराट है और बांधे हुए हैं।

दुकानदार सोचता है कि ग्राहक उसे बांधे हुए हैं। लोभी सोचता है कि धन उसे बांधे हुए है। कामी सोचता है कि कामिनी उसे बांधे हुए है। सांसारिक सोचता है कि संसार उसे बांध हुए है। नहीं, कोई तुम्हें बांधे हुए नहीं है। तुम चालाक हो। और तुम्हारी चालाकी गहरी है। तुम अपने को धोखा दे रहे हो। मगर धोखा कुशलता का है। दूसरा बांधे हुए है, इसलिए मैं क्या कर सकता हूं—इससे बंधे रहने में सुगमता हो जाती है।

हम सदा दूसरे पर दोष देते हैं। किसी ने गाली दी, तुम कहते हो, इस आदमी ने मुझे क्रोधित कर दिया। कोई तुम्हें कैसे क्रोधित कर सकेगा? तुम असंभव की बात कर रहे हो। यह कभी हुआ ही नहीं। तुम क्रोधित होना चाहते हो, तो गाली सार्थक हो जाती है। तुम क्रोधित नहीं होना चाहते, गाली व्यर्थ हो जाती है। एक सुंदर स्त्री निकलती है, तुम मोहित हो जाते हो। सुंदर स्त्री तुम्हें मोहित कर रही है? तुम मोहित हो जाते हो। राह पर हीरा दिखाई पड़ता है, तुम झपट कर उठा लेते हो। हीरे ने तुम्हें निमंत्रण दिया, या तुम वासना ले कर चलते थे, वह वासना झपट पड़ी? दूसरे को दोष देना बंद करो, अन्यथा तुम कभी मुक्त न हो सकोगे? क्योंकि अगर दूसरे ने तुम्हें बांधा है तो तुम कैसे मुक्त हो सकोगे, जब तक दूसरा तुम्हें मुक्त न करे? और दूसरे अनंत हैं। तब मुक्ति हो नहीं सकती। और यह सच है, जो तुम कहते हो कि दूसरे ने हमें बांधा है, तो फिर मोक्ष जैसी कोई संभावना नहीं है। फिर तुम कभी मुक्ति न हो सकोगे। फिर बंधन अनंत हैं, क्योंकि दूसरे अनंत हैं। और तुम्हें…यह छोड़ देगी पत्नी, तो और स्त्रियां हैं, कोई और बांध लेगी। तुम करोगे क्या तुम करोगे क्या? तुम निरवस हो। तुम बिलकुल असहाय हो। तुम जहां जाओगे, कोई न कोई तुम्हें बांध लेगा; किसी न किसी का पट्टा तुम्हारे गले में होगा। अगर दूसरे ने बांधा है तो मोक्ष असंभव है।

इसलिए कबीर, नानक, फरीद, सभी ज्ञानी इस सत्य को पहली सीढ़ी बनाते हैं कि इसे तो तुम बिलकुल साफ कर लो, अन्यथा यात्रा ही नहीं होगी कि तुम ही बंध हो। तब मुक्ति संभावना है। क्योंकि तब तुम ही तोड़ सकते हो। तुम ही बंधे हो, तुम ही मुक्त हो सकते हो। न कोई तुम्हें बांधता है, न कोई तुम्हें बांध सकता है।

तब एक और बात समझ लेना जरूरी है, जो बड़ी गहरी है। महावीर ने कहा है, कोई तुम्हें मुक्त भी नहीं कर सकता। तुम कितनी ही पूजा करो, कितना ही पाठ करो—कोई तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता। क्योंकि अगर कोई तुम्हें मुक्त्त कर सकता है, तो कोई तुम्हें बांध सकता है। अगर दूसरे ने तुम्हें बांधा ही नहीं, तो दूसरा तुम्हें मुक्त भी न कर सकेगा।

इसलिए महावीर कहते हैं, तुम इस भ्रांति में भी मत पड़ना कि कोई दूसरा तुम्हें मुक्त कर देगा। महानतम गुरु भी तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता। क्योंकि दूसरे के द्वारा मुक्त होने की संभावना तभी है जब तुम दूसरे के द्वारा बांधे गए हो।

इसलिए बुद्ध कहते हैं, बुद्ध केवल इशारा करते हैं कि बंधन कहां है; बुद्ध मुक्त नहीं कर सकते। बंधे तुम हो, मुक्त भी तुम्हीं होओगे। महावीर बता सकते हैं कि बंधन कैसे कटता है; बंधन क्या है; लेकिन महावीर तुम्हारा बंधन नहीं काट सकते। और यह शुभ है कि कोई दूसरा तुम्हारा बंधन नहीं काट सकता। नहीं तो इधर महावीर काटेंगे, कोई दूसरा बांध देगा। जब काटा जा सकता है तो बाधा जा सकता है। जब बांधा नहीं जा सकता, तो काटा भी नहीं जा सकता।

इसलिए गुरु तुम्हें मार्ग दे सकते हैं, लेकिन चलना तुम्हें है। गुरु तुम्हें विधि दे सकते हैं, लेकिन विधि का उपयोग करना तुम्हें है। गुरु इशारा कर सकते हैं, लेकिन इशारे को जीवन बनाना तुम्हें है। गुरु केटलिटिक एजेण्ट हो सकते हैं, उनकी मौजूदगी में तुम जाग सकते हो; लेकिन जागना तुम्हें है। और बड़ी कठिनाई यह है कि कबीर ने कहीं कहा है कि सोये, हुए को जगाना आसान है; लेकिन जो जागा हुआ पड़ा हो, उसको जगाना असंभव! तुम उसी हालत में हो—दूसरे…तुम बिलकुल सोये भी होते तो हिला कर तुम्हें पाया जा सकता था। तुम बना कर सो रहे हो। तुमने चादर ओढ़ रखी है, आंख बंद किए पड़े हो। तुम सभी भांति दिखला रहे हो कि तुम बिलकुल गहरी नींद में हो, और तुम जागे हुए हो। तुम्हें कैसे जगाया जाए? नींद हो, टूट सकती है; झूठी नींद को कैसे तोड़िएगा? तुम धोखा दे रहे हो। आत्मवंचना तुम्हारा करीब—करबी स्वभाव बन गया है।

इन बातों को खयाल में रख कर कबीर के सूत्र को समझने की कोशिश करें।

कबीर तो गांव के गंवार हैं। उनके पास कोई बहुत बड़े दार्शनिक शब्द नहीं हैं, लेकिन एक ग्रामीण का गहरा अनुभव है, और ग्रामीण के अनुभव की ताजगी है। वे जो प्रतीक भी चुनते हैं, वे गांव के सहज प्रतीक हैं, लेकिन उनकी चोट बड़ी गहरी है। जितना सुसंस्कृत शब्द हो जाता है, उतना ही मृत हो जाता है। भाषा जितनी साफ—सुथरी, परिष्कृत हो जाती है, जितना उस पर रंग—रोगन हो जाता है, उतना ही जीवन से शून्य हो जाता है।

गांव का ग्रामीण जो भाषा बोलता है, वह उतनी ही जीवंत होती है जितना गांव का ग्रामीण होता है। कबीर की भाषा बड़ी जीवंत है, और उनके प्रतीक सीधे—साधे हैं। हिंदुस्तान में, जीसस के मुकाबले सिर्फ कबीर है।

महावीर, बुद्ध, कृष्ण, राम—सब बहुत परिष्कृत दुनिया के लोग हैं। बड़ी शुद्ध, सुसंस्कृत, कुलीन परंपरा के लोग हैं। कबीर ठेठ ग्रामीण हैं—ठीक जीसस जैसे—जीसस बढ़ई के लड?के हैं, कबीर जुलाहे हैं। जीसस भी गांव की भाषा का उपयोग करते हैं। और यह जान कर तुम्हें हैरानी होगी कि जीसस का जो प्रभाव है इतना विराट, सारे जगत पर—आधी दुनिया जीसस के साथ है—उसका कारण उनकी भाषा की ताजगी है।

महावीर और बुद्ध की भाषा कागजी फूल मालूम पड़ती है। बड़े शुद्ध सिद्धांतों की चर्चा है। लेकिन हृदय को चोट नहीं करती; बुद्धि को छूती है और बिखर जाती है। कबीर और जीसस की भाषा सीधी—सादी है; अनुभव की है, शास्त्र की नहीं है। ये सारे प्रतीक अनुभव के हैं।

कबीर ने कहा—अपन पौ आपु ही बिसरो! खुद ही भूल गए हो खुद को, दूसरों को दोष दे रहे हो। खुद ही बंध गए हो, दूसरों को जिम्मेवार ठहरा रहे।

अपना पौ आपु ही बिसरो।

जैसे श्वास कांच मंदिर मह, भरमते भूंकि मरो।।

कथा है कि एक सम्राट ने एक मंदिर बनाया कांच का। विराट मंदिर था, उसमें हजारों दर्पण लगे थे! एक कुत्ता भूल से वहां प्रवेश कर गया। द्वार, द्वारपाल रात बंद कर गया, कुत्ता भीतर रह गया मंदिर में। बड़ा मुश्किल में पड़ गया। देखा तो चारों तरफ लाखों कुत्ते थे। क्योंकि हर दर्पण से कुत्ता दिखाई पड़ रहा था। इस तरह दुश्मनों को बीच में कभी कुत्ते ने अपने को पाया नहीं था। एक ही हो, लड़ ले, जीत ले। लाखों थे, जहां देखता था, वहीं थे—नीचे थे, ऊपर थे—चारों तरफ थे—कुत्ता घबड़ाया। भौंक कर उसने डराना चाहा।

ध्यान रहे, तुम जब भी दूसरे को डराना चाहते हो—डर के कारण ही। तुम पहले डर गए होते हो, नहीं तो तुम दूसरे को क्यों डराना चाहते हो? भयभीत आदमी दूसरे का भयभीत करना चाहता है। अगर दूसरा भयभीत हो जाए, तो उसके भय को थोड़ी राहत मिले।

तो ध्यान रखना, जो आदमी वस्तुतः अभय है, वह किसी भयभीत नहीं करता। जो आदमी खुद भयभीत है, वह दूसरे को भी भयभीत करता है। भयभीत करने के ढंग बड़े सूक्ष्म हो सकते हैं। कोई तुम्हारी छाती पर तलवार रख कर तुम्हें डरा सकता है। कोई तुम्हें नर्क की पूरी व्यवस्था समझा के डरा सकता है, कि वहां आग लगेगी, लपटें होंगी, तेल होगा, तेल के बढ़ाए होंगे, उसमें तुम डाले जाओगे! सैनिक तुम्हें डराता है तलवार से, तुम्हारा साधु तुम्हें डराता हैं। नर्क से। सूक्ष्म उपाय हैं; लेकिन तुम्हारा साधु ही डरा है, तुम्हारा सैनिक भी डरा हुआ है। जो डरा हुआ नहीं है, वह दूसरे को डराएगा क्यों?

दूसरे को हम भयभीत करते हैं आत्मरक्षा के लिए। उस कुत्ते ने भी सीधा—साधा उपाय किया, जैसा आदमी करते हैं। भौंका, चाहा कि डरा दे। लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ गया। क्योंकि जब भौंका तो उसने पाया कि वह लाखों कुत्ते भी भौंके। और खुद ही आवाज सुनसान मंदिर में गूंज कर वापिस लौटी। रोआं—रोआं कंप गया होगा। बचने का कोई उपाय नहीं, भागने की कोई जगह नहीं। भागकर जाओगे कहां, चारों तरफ से घिरे हुए हो। नीचे—ऊपर से घिरे हुए हो। उस कुत्ते की पीड़ा तुम नहीं समझ पाओगे। लेकिन अगर तुम अपने जीवन को देखोगे, तो वही पीड़ा है, और समझ में आएगी।

जैसे श्वास कांच मंदिर मह, भरमते भूंकि मरो सुबह जब द्वार खोला गया तो कुत्ता मरा हुआ पाया गया। किसी ने उसे मारा नहीं। कोई वहां था ही नहीं जो मारता। मंदिर खाली था। लेकिन कुत्ते के पूरे शरीर पर घाव थे। लहूलुहान था। सारे मंदिर में खून फैला था। हुआ क्या? भौंका, झपटा, दीवालों से टकराया—अपने ही हाथ मर गया।

अपन पौ आपु ही बिसरो! और यही जीवन की कथा है—तुम्हारी भी!

किससे तुम नाराज हो रहे हो! किससे तुम मोह से भरे हो? किस पर तुम्हारी घृणा है। कभी तुमने गौर किया कि तुम्हारे सभी संबंध दर्पणों की भांति हैं। सभी संबंध दर्पण हैं। क्योंकि तुम अपनी ही तस्वीर देखोगे, तुम अपने चारों तरफ जितने संबंध बनाते हो, वे सब तुम्हारी ही तस्वीर है। उसमें तुम किसी और को नहीं देखते, अपने का ही देखते हो। जहां तुम्हारी तस्वीर अच्छी तुम्हें मालूम गलती है, मित्र; जहां बुरी लगती है, शत्रु। अपना, पराया…! लेकिन तुम्हारे सभी संबंध, रिलेशनशिप, दर्पण की भांति हैं। उसमें दिखाई तो तुम स्वयं ही पड़ते हो, कोई और नहीं।

खयाल करो, क्रोधी आदमी सब तरफ पाएगा कि सभी लोग उसका अपमान कर रहे हैं। कोई हंसेगा, तो वह समझेगा, मेरे लिए हंसते हैं। रास्ते पर कोई खुसफुस कर बात करेगा,तो वह समझेगा मेरे लिए बात करते हैं। अगर तुम कुछ न बोलोगे, चुपचाप खड़े रहोगे, तो वह समझेगा कि ये मेरी वजह से चुपचाप खड़े हैं। तुम कुछ भी करो, वह अपनी तस्वीर देखेगा।

मेरे एक मित्र हैं। उनका एक लड़का है। उनके लड़के ने मुझे कहा कि अब मैं मुश्किल में पड़ गया हूं, अब कोई उपाय दिखाई नहीं पड़ता, आप ही कुछ करें! मेरे पिता को समझा दें। अगर मैं ढंग से कपड़े पहनता हूं तो वे कहते हैं, अच्छा, कर लो राजशाही; जब मैं मरूंगा, तब पता चलेगा। अगर मैं साधारण ढंग के कपड़े पहनूं, तो वे कहते हैं, अच्छा, तो हम मर गए क्या? अभी तो ठीक से पहन लो, पीछे तो यह हालत आने ही वाली है। उस युवक ने मुझे कहा, कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता सब करे देख चुका हूं। लेकिन नतीजा वे हमेशा यह निकालते हैं, जो उन्हें निकालना है। और उनका नतीजा बिलकुल तर्कयुक्त है। दोनों में कहीं कोई गलती आप नहीं पा सकते।

क्रोधी आदमी अपने चारों तरफ हर स्थिति से क्रोध को उपजा लेता है। लोभ आदमी अपने चारों तरफ देखता है कि सब उसको लूटने को तैयार हैं। सब मित्र, बेटे पति—पत्नी—सब उसको लूटने को तैयार हैं। सगे—संबंधी—सब एक ही नजर पर लगे हैं कि किस तरह उसको लूट लें। लोभी पाता है कि सारा संसार उसे लूटने को तैयार है। यह लोभ की तस्वीर दर्पण में दिखाई पड़ रही है।

कामी पाता है कि सारा संसार उसको कामना में ग्रस्त करना चाहता है। त्यागी पाता है कि सारा संसार त्याग की तरफ ले जा रहा है। त्यागी पाता है कि सारा संसार एक ही इशारा कर रहा है कि छोड़ो, भागो।

तुम जो हो, उसकी ही प्रतिध्वनि तुम्हें चारों तरफ सुनाई पड़ती है। और सारा जगत दर्पण है—कांच मंदिर, कबीर जिसको कह रहे हैं।

जैसे श्वान कांच मंदिर मह, भरमते भूंक मरो।

और आखिर में जब तुम मिट जाते हो—सारी जिंदगी तुम मिटते हो—तो आखिर में तुम यही पाओगे, यही सोचोगे, इन सबने मिल कर समाप्त कर दिया, सारा डाला।

पुराने समय में और अभी भी आदिवासी कबीलों में, अगर कोई बीमार पड़ जाए, तो वे भी पता लगाते हैं कि किसने बीमार करने का जादू मुझ पर चलाया। बीमार तुम पड़ते हो! लेकिन वह जाता है ओझा के पास पता लगाने कि कौन है, जिसने मेरे खिलाफ बीमारी भेजी! वह तर्क तो यही है कि अगर बीमारी आयी है तो कोई भेजनेवाला होगा। अगर मैं दुखी हूं तो कोई दुख दे रहा होगा। अगर मैं परेशान हूं तो कोई जरूर परेशान कर रहा होगा। गणित सीधा दिखाई पड़ता है कि बिना किसी के परेशान किए हुए कैसे परेशान होऊंगा। लेकिन तुम्हें मनुष्य के मन का कुछ भी पता नहीं है। अगर तुम बिलकुल अकेले छोड़ दिए जाओ, तुम्हारी सब जरूरतें पूरी कर दी जाए, तो भी तुम्हारी यही स्थिति होगी।

पश्चिम में बहुत से प्रयोग हुए हैं। एक प्रयोग जिसको वे सेन्स—डिप्राईवेशन कहते हैं, वह बहुत बहुमूल्य प्रयोग है। कई मनोवैज्ञानिकों ने उस पर काम किया है। उन्होंने इस तरह के गर्भ—गृह बनाए हैं, जहां सब तरह की सुविधा है। भोजन भी अपने—आप नली से खून में पहुंच जाता है; उसे करने कि कोई जरूरत नहीं। प्यास लगती है तो आटोमेटिक इंतजाम है, पानी शरीर में पहुंच जाता है, भोजन शरीर में पहुंच जाता है। घना अहंकार है। कोई आवाज नहीं सुनाई पड़ती। और उन्होंने ठीक वैसा ही रासायनिक इंतजाम किया है, जैसे बच्चे के लिए गर्भ में होता है।

इस तरह के टब बनाए हैं, जिनमें ठीक वही रासायनिक द्रव्य होता है, जो मां के गर्भ में होता है, और आदमी उसमें तैरता रहता है, उसमें सोया रहता है। उस टब में सब तरफ अंधकार है। न भोजन की चिंता है, न पानी की चिंता है, न कोई तकलीफ है—सब तरह की सुविधा है, बस सुख है। लेकिन पंद्रह मिनट में आदमी बेचैन हो जाता है—पंद्रह मिनट में वह सूचनाएं भेजने लेता है, मुझे निकालो, बाहर करो।

लंबे प्रयोग किए गए हैं, कुछ लोगों ने हिम्मत की और इक्कीस दिन का प्रयोग किया गया। और इक्कीस दिन में उनको खबर दी गई कि वे वक्त—वक्त पर सूचना देते रहें। उनके पास बटन लगा दिए गए थे। जब वे क्रोधित मालूम पड़ें तो लाल बटन दबा दें, तो ऊपर वैज्ञानिक नोट कर लेगा कि अभी क्रोधित हैं। जब वे भयभीत मालूम पड़ें तो हरा बटन दबा दे। जबर् ईष्या से भरे मालूम पड़ें तो यह बटन दबा दें। इस तरह के सब मनोवेगों के लिए बटन लगाए रखे हैं। और बड़ी हैरानी की बात है: कोई नहीं है सताने को वहां, लेकिन वक्त पर आदमी क्रोधित होता है। कोई कारण नहीं क्रोधित होने का। वह खुद भी बेचैन होता है कि मैं क्रोधित क्यों हूं, पर क्रोधित है।

क्रोध, लोभ, मोह, सब तुम्हारी भीतर अवस्थाएं हैं। इनका बाहर के लोगों से कोई भी संबंध नहीं। बाहर के लोग तो खूंटियों जैसे हैं, जिन पर तुम अपने कपड़े टांग देते हो। बाहर के लोगों पर जब तुम क्रोध टांगते हो, तो वे खूंटी है; लोभ टांगते हो, वासना टांगते हो—वह खूंटी है। आता सब तुम्हारे भीतर से है। और जब तुम जीवन में विषाद से भरोगे और सब नष्ट हो जाएगा, और मौत पास आएगी, तब तुम कहोगे कि शायद सारी दुनिया के प्रति तुम्हारी शिकायत है कि लोगों ने बरबाद कर दिया; हम क्या से क्या होने आए थे, होने नहीं दिया गया! तुम्हारे जीवन से कैसी प्रतिभा और प्रकाश पैदा होता, लेकिन सबने मिल कर नष्ट कर दिया! यह जगत तुम्हारा शत्रु है?

पर कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता कि जगत तुम्हारा शत्रु क्या है! कोई तुम्हें मिटाने को उत्सुक क्यों हैं? सब अपने को पूरा करना चाहते हैं, और सभी सोचते हैं कि बाकी उन्हें मिटाने को उत्सुक हैं। तुम किसको मिटाने को उत्सुक हो? तुम अपने को पूरा करना चाहते हो, दूसरे अपने को पूरा करना चाहते हैं। लेकिन संबंधों में दर्पण के अतिरिक्त भी नहीं; तुम्हें अपनी ही तस्वीर दिखाई पड़ती है।

मैंने सुना है कि एक आधुनिक चित्रों की प्रदर्शनी थी। आधुनिक चित्र, माडर्न पेंटिंग तो तर्कहीन है। उसका अर्थ भी निकालना मुश्किल है। और पिकासो जैसे चित्रकार कहते हैं, अर्थ होता ही नहीं, निकालोगे कैसे?

पिकासे से किसी ने पूछा कि तुम्हारे इन चित्रों का क्या अर्थ है? तो उसने कहा कि बाहर जो झाड़ खड़े हैं, इनका क्या अर्थ है? ये फूल खिले हैं, इनका क्या अर्थ है? झरना जो कलकल कर रहा है, इनका क्या अर्थ है? जब इनका कोई अर्थ नहीं, तो पिकासो को क्यों झंझट में डालते हो? जब परमात्मा अर्थहीन है तो मुझ गरीब को क्यों फंसाते हो? मैं भी अर्थहीन हूं।

तो आधुनिक चित्रकला बिलकुल अर्थहिन है—प्रकृति जैसी है। उसे तुम देखकर प्रसन्न हो सकते हो, उदास हो सकते हो, दुखी हो सकते हो, सुखी हो सकते हो, मगर अर्थ वहां कुछ भी नहीं है।

मुल्ला नसरुद्दीन देखने गया था उस प्रदर्शनी को—अधुनिक चित्रों की। चित्र देख—देखकर वह परेशान हो गया: कुछ सूझ—बूझ के बाहर है सब; न इनका आगा, न पीछा। न यह ही पता चलता कि सीधे टंगे हैं कि उलटें टंगे हैं। आखिर एक चित्र के सामने खड़ा हो गया, और उसने कहा कि हद हो गई, इस चित्र का क्या अर्थ है?

उस चित्रकार ने कहा, महानुभाव, आप दर्पण के सामने खड़े हैं! यह चित्र है ही नहीं।

पूरा जीवन दर्पण के सामने है। इसलिए संबंध के प्रति वही व्यवहार करना जो दर्पण के प्रति करते हो। संबंध नाजुक भी उतना ही है जितना दर्पण—जरा गिर गया कि टूट जाता है। और संबंध एक दफा टूट जाए तो, वैसा ही जोड़ना मुश्किल है जैसा दर्पण। जोड़ भी लो टूटे हुए इस संबंध को, तो भी टूट की रेखाएं रह जाती हैं। प्रेम एक दफा टूट जाए, फिर लाख उपाय करो जोड़ने का, जोड़ भी लो, तो भी फिर वही बात वापस नहीं लौटती।

संबंध बिलकुल दर्पण जैसा है; उतना ही नाजुक; और तुमको ही दिखाता है। तुम सदा हर संबंध में तुम्हीं खड़े हो। दूसरे को दोष मत देना। अगर जीवन व्यर्थ हो जाए, तो जानना कि तुमने ही व्यर्थ कर लिया है। और जितने जल्दी तुम समझ लो कि दूसरे का कोई हाथ तुम्हें नष्ट करने में नहीं है, उतने ही जल्दी तुम्हारी जीवन में सृजन की प्रक्रिया का प्रारंभ हो जाएगा।

जैसे श्वास कांच मंदिर मह, भरमते भूंकि मरो।

अपन पौ आपु ही बिसरौ। ऐसी ही तुम्हारी दिशा है!

जौ केहरि बपु निरखि कूपजल, प्रतिमा देखि परो।

और जैसा सिंह ने गुजरते हुए नदी के तट पर अपनी छाया देखी, झपट कर कुछ पड़ा! दुश्मन को बरदाश्त करना मुश्किल है! मर गया।

तुम जब भी झपटो, थोड़ा रुकना! एक क्षण सोचा कि जिससे तुम झपट रहे हो, वहां कोई है, या तुम अपनी ही प्रतिबिंब पर झपट रहे हो?

कोई तुम्हारी निंदा करे, तुम तत्काल झपट पड़ते हो।

कभी तुमने गौर किया कि निंदा से दुख इसलिए होता है कि वह सच है, अन्यथा दुख न होगा अगर कोई तुम्हारे संबंध में सरासर झूठ बात कह रहा हो तो तुम हंस सकोगे? लेकिन अगर कोई ऐसी बात कह रहा है जो सच है, जिसको तुम छिपाए बैठे हो, और जिसको वह उघाड़े डाल रहे है, तो तुम झपट पड़ोगे। निंदा पीड़ा देती है कि तुम्हारे ढके हुए सत्य तुम्हारे सामने ही उघड़ने शुरू होते हैं।

अगर तुम गौर से निंदक का विचार करोगे तो तुम अक्सर पाओगे कि सौ मैं निन्यानबे मौकों पर वह सही है। और इसका कारण है उसके सही होने का। क्योंकि दूसरे को देखना तटस्थता से, हमेशा तुम्हें जैसा देखते हैं, तुम अपने को नहीं देख पाते। तुम्हें पता ही नहीं चलता कि दूसरे तुम्हें कैसे देखते हैं।

मनसविद कहते हैं, अगर सभी लोग वास्तविक, सच्चे हो जाए, जैसा कि धर्मगुरु समझते हैं कि सभी लोग सच्चे हो जाए, और सत्य ही बोलें तो दुनिया चार दिन चल सकती। क्योंकि अगर सभी सत्य कह दें, जैसा वह तुम्हारे संबंध में सोचते हैं, तो सब दुश्मन हो जाएंगे। मित्र तो एक खोजना मुश्किल है। क्योंकि मित्र भी इसलिए मित्र मालूम होता है कि वह कहता नहीं, जो सोचता है, या कहता भी है, तो पीठ पीछे कहता है।

दूसरा तुम्हें गौर से देख पाता है; क्योंकि एक तटस्थता है। एक बात कभी तुम्हें भी निरीक्षण में आयी होगी; कोई आदमी समस्या लेकर तुम्हारे पास आ जाए तो तुम उसे बड़ी कीमती सलाह दे पाते हो, और अगर वही समस्या तुम्हारे जीवन में हो, तो खुद की सलाह भी तुम खुद के काम में नहीं ला पाते हो। क्यों?

दूसरे को सलाह देना आसान है, क्योंकि फासला है। बड़े से बड़े सर्जन की पत्नी का आपरेशन करना हो तो वह खुद नहीं करता, क्योंकि हाथ कंपेगा; फासला कम है। दूसरे की पत्नी पर कोई दिक्कत नहीं है उसकी। दूसरी की पत्नी से क्या लेना—देना है! दूसरे की पत्नी पर वह ऐसे ही आपरेशन करता है, जैसे पास्टमार्टम कर रहा हो। जिंदा है कि मुर्दा, कोई फर्क नहीं। लेकिन अपनी पत्नी में लगाव है, बच्चे हैं, घर परिवार है; वह कहीं मर न जाए, कहीं भूल—चूक न हो जाए! भयभीत होता है, कंपता है! तो बड़े से बड़े डाक्टर को भी अगर अपनी पत्नी का आपरेशन हो, तो किसी दूसरे सर्जन को बुलाना पड़ता है। और बड़े से बड़े डाक्टर को भी अगर खुद की ही बीमारी का निदान करना हो, तो दूसरे से करवाना पड़ता है।

बड़ी हैरानी की बात है! तुम, जो सभी जानते हो—क्या जरूरत है किसी और से निदान करवाने की? खुद निदान कर लो। लेकिन अब फासला और भी कम है—पत्नी से थोड़ा बहुत फासला था भी। और पत्नी मर जाए, ऐसी कोई अचेतन आकांक्षा भी हो सकती थी, क्योंकि छुटकारा कौन नहीं पाना चाहता! शायद डर के पीछे यह भी कारण हो सकता है कि कहीं मैं मार न डालूं, कि कहीं भूल—चूक करके इसको खत्म न कर दूं; क्योंकि अचेतन में, ऐसा पति खोजना कठिन है, जिसने दस—पांच बार न सोचा हो कि यह खतम ही हो जाए पत्नी। पत्नी खोजना मुश्किल है, जिसने दस बार न सोचा हो कि यह कैसे खतम हो जाए, तो झंझट मिटे। खतम हो जाने पर रोएंगे, छाती पीटेंगे।

और वह भी कारण समझने जैसा है। जब कोई मरता है, तुम रोते हो, उस रोने में तुम्हारा अपराध का भाव भी है, क्योंकि तुमने इसे मारना चाहा था और अब यह मर गया। तुम्हें लगता है कि तुम्हारी भी जिम्मेवारी है। अगर तुमने किसी व्यक्ति को कभी मारना न चाहा हो, तो उसकी मृत्यु को तुम हलकेपन से ले लोगे। तुम्हारा कोई अपराध नहीं है, पश्चात्ताप, ज्यादा नहीं होगा। पश्चात्ताप उसी मात्रा में होता है जितना अपराध का भाव हो।

बाप मर जाता है, बेटा बहुत रोता है; क्योंकि जिंदा था, कभी उसके पैर न छुए; जिंदा था, कभी उसके पास बैठकर दो प्रेम की बातें न कीं। अब कोई मौका न रहा। सदा के लिए यह अपराध मन पर रह जाएगा। अब इसको सुलझाने की कोई सुविधा नहीं है। लेकिन जिस बेटे ने बाप की सेवा की हो, जरूरत पर पैर दाबे हों, समय पर उसकी सुनी हो, उसकी चिंता की हो, उसको प्रेम किया हो, वह इस तरह का पागल नहीं होगा। बाप मर जाएगा तो वह समझेगा, सभी मरते हैं। मरना स्वाभाविक है। मैं भी मरूंगा।

लेकिन अगर तुमने बाप के साथ कुछ ऐसा किया हो, जो नहीं करना था, तो तुम्हें पश्चात्ताप भारी होगी। यह बड़ी उलटी बात है। इसलिए जो बेटा बहुत छाती पीटकर रोएगा, समाज सोचता है उसको बहुत दुख हो रहा है। और जो बेटा चुपचाप बैठकर दुख को झेल लेगा, लोग कहेंगे कि बेईमान, बाप मर गया, चुप बैठा है। लेकिन हालत यह है कि जो चुप बैठा है इसका कोई पश्चात्ताप नहीं। जो छाती पीट कर शोरगुल मचा रहा है, यह परिपूर्ति कर रहा है, सब्स्टीयूट खोज रहा है। इतनी ताकत पैर दबाने में लगाई होती, सिर दबा दिया होता। यह रोने—पीटने से कोई अर्थ नहीं है।

तो यह भी अचेतन भय हो सकता है कि कही मैं मार ही न डालूं, इसलिए भी हाथ कंप सकता है। लेकिन खुद के पास तो इतना भी फासला नहीं होता। जब मैं बीमार हूं, तो निदान खुद नहीं हो सकता। क्योंकि अब भय बहुत ज्यादा है कि कहीं भूल न हो जाए।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने डाक्टर के पास गया था। और डाक्टर ने कहा, तुम घबड़ाते क्यों हो? जब मैं हूं, तो बीमारी ठीक हो जाएगी। और तुम्हारे भरोसे के लिए यह कहता हूं कि ऐसी बीमारी से मैं भी बीमार रहा हूं। तुम बिलकुल मत घबड़ाओ।

नसरुद्दीन ने कहा, घबड़ाहट नहीं मिटती, क्योंकि आप भला इस बीमारी से बीमार रहे होंगे, लेकिन आपका डाक्टर दूसरा रहा होगा।

इसलिए कबीर कहते हैं, काहे की कुशलात! हाथ में दीया था और कुएं में गिर पड़े! दीया दूसरों के लिए था। अपने लिए जिसके पास दीया है, वह तो बुद्ध हो जाता है। अपने लिए जिसके पास ज्ञान है, वह तो भीतर प्रकाशित हो जाता है। उसकी कुशलता का तो कोई अंत नहीं है।लेकिन दूसरों के लिए दीया हमारे पास है; अपने लिए तो हम अंधे हैं।

इसलिए यह भी हो सकता है कि तुम्हारा निंदक तुम्हारे संबंध में जो कहता हो, वह ज्यादा सच हो, जितना तुम अपने संबंध में कह सको। कबीर ठीक कहते हैं, निंदक नियरे रखिए। और उसकी बात पर सोचना। और तुम हैरान होओगे, वही बात चोट पहुंचाती है, जो सच है। सच अखरता है। सच चुभाता है। अगर तुम्हारे संबंध में कोई झूठी बातें कह रहा हो, तो कोई हर्ज नहीं।

ऐसा मैंने सुना है कि आस्कर वाइल्ड, एक पश्चिम का बड़ा लेखक, ने किसी दूसरे लेखक के संबंध में एक लेख लिखा, जिसमें उसने बड़ी निंदा की। वह लेखक उससे मिलने आया, और उसने कहा, ऐसी क्या दुश्मनी भंजा रहे हो? क्यों इस तरह की झूठी बातें मेरे संबंध में लिखते हो? आस्कर वाइल्ड ने कहा, चुप रहो। अगर सच लिखना शुरू कर दूंगा तो तुम कहीं के न रहोगे। और कहते हैं, वह आदमी चुपचाप खिसक गया। फिर उसने शिकायत न की।

झूठ तुम्हारे संबंध में कोई कहे, सहा जा सकता है। सच चुभता है। जो चीज चुभे, जान लेना कि किसी दर्पण ने तुम्हारा चेहरा दिखाया। और दर्पण को तोड़ देने का मन होता है।

मैंने सुना है कि एक महिला जो बड़ी कुरूप थी, वह दर्पणों की दुश्मन थी। जहां भी दर्पण देखती फौरन तोड़ देती। उसको यही मैनिया, पागलपन था। उसको मनसविद के पास लाया गया कि इसका इलाज करो। उस स्त्री ने कहा कि मैं, कुछ भी हो जो, दर्पण को बरदाश्त नहीं कर सकती, क्योंकि दर्पण के कारण मैं कुरूप हो जाती हूं। दर्पणों के कारण मैं कुरूप हो जाती हूं! दर्पण नहीं होता तो मैं सुंदर हूं। दर्पण होता है तो मैं कुरूप हो जाती हूं।

दर्पण तुम्हें क्यों कुरूप करने में लगेगा? दर्पण का क्या लेना—देना? दर्पण का क्या स्वार्थ, क्या संबंध? पर दर्पण वह बता देता है, जो तुम हो। सब संबंध में दर्पण हैं।

और वह स्त्री जो कर रही थी, वही लोग संबंधों में कर रहे हैं। लोग संबंध तोड़ते हैं। संन्यासी भाग जाता है पत्नी को छोड़कर कि यह अब नहीं सहा जाता। लेकिन पत्नी दर्पण थी। तुम्हारी वासना को प्रकट करती थी। तुम्हारी वासना को दिखा देती थी। दर्पण तोड़ने से क्या होगा? तुम उसी महिला जैसे पागल हो। हिमालय पर भाग कर क्या करोगे? वासना तो साथ चली जाएगी, दर्पण छूट जाएगा। खतरा ज्यादा है हिमालय में; क्योंकि दर्पण न होगा, तो तुम अपने को सुंदर समझने लगोगे। लेकिन तीस साल बाद, या तीस जन्मों बाद भी अगर वापिस लौटे हिमालय से, जैसे ही दर्पण दिखाई पड़ेगा, वैसे ही कुरूप हो जाओगे। कुरूप तो तुम थे ही।

इसलिए वास्तविक संन्यासी संबंधों से भागता नहीं, संबंधों में जागता है। दर्पण गौर से देखता है। और वास्तविक संन्यासी अपने संबंधों को धन्यवाद देगा कि तुमने मुझे दिखाया, चेताया कि मैं क्या हूं। झूठा संन्यासी भागता है; सच्चा संन्यासी जागता है।

इसलिए मैं निरंतर कहता हूं—भागो नहीं, जागो। उसे सूत्र बना लेना है। किसी संबंध में मत भागो; क्योंकि सभी संबंध तुम्हें जागते हैं। जागो और अपने को बदलो! दर्पण को तोड़ने से क्या होगा? जिस दिन तुम बदल जाओगे, यही दर्पण तुम्हारे संबंध में दूसरी खबर देगा। जब तुम सुंदर होओगे, दर्पण तुम्हें सुंदर कहने लगेगा। दर्पण बिलकुल निष्पक्ष है।

जौं केहरि बपु निरखि कूपजल, प्रतिमा देखि परो।

वैसे ही गज फटिज सिला पर, दसनन्हि आनि अरो।।

और वैसे ही हाथी ने स्फटिक शिला में देखकर अपने चेहरे को, स्फटिक से टक्कर दे दी, दांत तोड़ डाले अपने।

मरकट मूठी स्वाद नहीं बिहुरै, घर—घर रटत फिरो।

कबीर के प्रतीक बड़े सीधे—साफ हैं। ऐसा अक्सर होता है कि बंदर किसी घड़े में हाथ डाल देता है—सामना निकालने को। चुने हैं, कुछ और भोजन है। और फिर मुट्ठी बांध लेता है। और स्वभावतः, जितनी बड़ी मुट्ठी बांध कसता है, उतनी बांध लेता है। हम भी वही करते हैं।

बंदर और आदमी में निश्चित ही संबंध है।

डार्विन गलत नहीं हो सकता। जब मुट्ठी को भरने का मौका मिला हो तो छोटी कौन बनायेगा! उसको हम नासमझ कहेंगे। बुद्धिमान बंदर, छोटा बच्चा बंदर का शायद थोड़ा बहुत निकाल ले बाहर। नासमझ है, अनुभवी हनीं है; लेकिन अनुभव बंदर तो जितनी बड़ी मुट्ठी भर सकेगा, उतनी भरेगा। अब मुट्ठी हो जाती है बड़ी और बर्तन के मुंह से हाथ बाहर नहीं निकलता, तो बंदर बर्तन लटकाए हुए कष्ट भोगता है, भागता है द्वार—द्वार छलांग लगाता है—लेकिन मुट्ठी नहीं खोलता। चिल्लाता है, चीखता है! निश्चित ही कष्ट में पड़ा है और शायद सोचता होगा कि इस बर्तन में कोई तरकीब है, जिसकी वजह से मैं फंस गया। लेकिन मुट्ठी नहीं खोलता।

वही तुम्हारी दशा है। बड़ी मुट्ठी बांध ली, मुट्ठी नहीं खोलते और द्वार—द्वार सिर पटकते फिरते हैं: शांति चाहिए, आनंद चाहिए, जीवन चाहिए! और एक घड़े में फंसे हैं। उसकी वजह से बड़ी मुसीबत है।

बंदरों को पकड़नेवाले बंदरों की इस नासमझी का फायदा उठाते हैं। वह घड़े गाड़ देते हैं जमीन में, तो बंदर भाग भी नहीं सकता; मुट्ठी खोल भी नहीं सकता। तुम नहीं खोलते तो बंदर कैसे खोलेगा? कोई तुमसे कम समझदार है बंदर? कोशिश करता है कि बंधी मुट्ठी बाहर निकल आए। यही तो तुम भी कर रहे हो।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते है, बस जैसा चल रहा है चलता रहे—और मन शांत हो जाए। मुट्ठी बंधी रहे और मन शांत हो जाए—ऐसी कोई तरकीब बताएं। सब जैसा चलता है, चलता रहे, इसमें कुछ अड़चन न पड़े और मन शांत हो जाए। मन अशांत है, क्योंकि वहीं घड़े में जहां मुट्ठी बांध ली है, वहीं कष्ट हो रहा है, वहीं पीड़ा है।

एक धनपती मेरे पास आते हैं। वह अक्सर कहते हैं कि छोडूंगा, एक दिन सब छोडूंगा; लेकिन तब तक कुछ विधि बताइए! एक दिन छोडूंगा, सब छोडूंगा, लेकिन तब तक…तब तक अशांति तो मत भोगवाइये! जैसे कि मैं उन्हें अशांति भुगवा रहा हूं। कोई विधि बताइए, तब तक तो मन शांत हो जाए! और मैंने उनसे कहा कि अगर तब तक कोई विधि होती शांत होने की, तो जब तुम अशांत हालत में नहीं छोड़ रहे हो, तो शांत हो कर तुम कैसे छोड़ोगे? फिर तुम तो कहोगे कि अब जरूरत ही न रही। अगर बंदर मुट्ठी बांधे हुए घड़े के बाहर हाथ निकल ले, मुट्ठी बांधे हुए घड़े की चिंता से मुक्त हो जाए, मुट्ठी बांधे हुए घड़ा निर्भार हो जाए—तो बंदर पागल है कि फिर मुट्ठी खोलो! इतने कष्ट कर नहीं खोल रहा…तुम इतने दुख में हो और फिर तुम नहीं खोल रहे मुट्ठी, तो तुम सुख में होकर मुट्ठी खोलोगे?

तुमने कभी सुना है कि किसी ने सुख के कारण संसार छोड़ दिया? दुख के कारण लोग नहीं छोड़ते, दुख रहते हुए नहीं छोड़ते, महा दुख पड़ता रहे तो नहीं छोड़ते, तो सुख के कारण कोई संसार छोड़ेगा? फिर तो असंभव है। अभी असंभव दिखता है, तो फिर तो कैसे संभव होगा?

वे कहते हैं कि आप जो भी कहते हैं, ठीक कहते हैं। अभी तो सुविधा छोड़ने की नहीं है। क्या ऐसे ही तड़पाता रहूं? क्योंकि वे रात सो नहीं सकते। उनके घर मैं मेहमान होता था, तो वह रात मुझे भी नहीं सोने देते थे। वह बैठे हैं, बैठे हैं। मैं संकोचवश उनसे बात करता रहूं। आखिर उनकी पत्नी ने मुझसे कहा कि ऐसा न चलेगा। ऐसी ही पहले मैंने भी भूल की थी इनके साथ। आप तो सो जाओ! यह जो इनको रातभर नींद आती ही नहीं, क्योंकि आंकड़े धन के इतने बड़े हैं,

एक बार उनके घर मेहमान हुआ, तो बहुत उदास थे। एयरपोर्ट से मुझे लेकर गए तो रास्ते में उन्होंने कहा, इस बार बहुत नुकसान हुआ है। पांच लाख का नुकसान लगा अभी पांच—सात दिन के भीतर। सटोरिये हैं। उनकी पत्नी भी साथ थी। मैं दोनों के बीच में बैठा था। पत्नी ने मेरा हाथ दबाया और उसने कहा कि उनकी बात में मत पड़ना। घर जाकर मैंने पूछा कि मामला क्या है? उनकी पत्नी ने कहा कि नुकसान बिलकुल नहीं हुआ, पांच लाख का लाभ हुआ है; लेकिन दस का होना था। तो वे जमाने भर में कहते फिर रहे हैं कि पांच लाख का नुकसान हो गया।

अब यह जो बंदर की मुट्ठी है, अब ये शांति चाहते हैं! लाभ कल्पना का जो था, वह कल्पना पूरी नहीं हुई, उसको नुकसान कह रहे हैं।

तुम भी जिंदगी के अंत में जब मरने के करीब पहुंचोगे, तो तुम उस सब को भी अपनी हानि में गिनोगे, जो तुम सोचते थे, होना चाहिए और नहीं हुआ। जो मिलना था तुम्हें, जिसकी तुम्हारी योग्यता और पात्रता थी, जिसके लिए तुम बिलकुल जन्म से अधिकार लेकर आए थे, वह तुम्हें नहीं मिल गया।

मुट्ठी खोलनी पड़ेगी। बंदर पन से नहीं चलेगा! और संन्यास का इतना ही अर्थ है: बंदरपन से मुक्त हो जाना। वह नासमझी इतनी साफ है कि तुम परेशान हो रहे हो ज्यादा लाभ के कारण। तुम परेशान हो रहे हो ज्यादा क्रोध के कारण। तुम परेशान हो रहे हो…उतनी वासनाएं इकट्ठी कर ली हैं, जिनको बांधकर रख लेने का तुम्हारे पास उपाय भी नहीं। तुम्हारी मुट्ठी छोटी है, और तुमने बहुत भर लिया है। आवश्यकता तक तो मुट्ठी काफी है; जैसे ही आवश्यकता वासना बनती है, मुट्ठी छोटी पड़ जाती है। फिर जितनी बड़ी तुम मुट्ठी बनाते जाते हो, संसार के घड़े में उतने ही फंसते जाते हो।

कहते हैं कबीर, मरकट मूठि स्वाद नहिं बिहुरै, घर घर रटत फिरा! और फिर घर—घर चिल्लाता फिरा, रोता फिरा, मगर मटके को लटकाए रहा। कष्ट भारी था, लेकिन लोभ भी भारी था। लोभ कष्ट से ज्यादा मालूम पड़ता है। इस बात को खयाल में रख लें।

तुम जहां हो, जो दुख है, उस दुख से ज्यादा तुम्हें सुख की आशा है। सुख है नहीं—आशा है। आशा से आदमी बंधा है: आज नहीं कल, कोई तरकीब निकले आएगी, कोई विधि हो जाएगी, कोई चमत्कार, किसी का आशीर्वाद—सब ठीक हो जाएगा! आशा से! मत छोड़ो। एक दफे मुट्ठी बाहर निकाल ली, फिर पता नहीं दुबारा डालने का मौका मिले, न मिले। घड़ा रोज तो मिलता नहीं। और घड़े कम हैं, बंदर ज्यादा हैं। सब अपने—अपने घड़े लिए हुए हैं; तुमने छोड़ दिया, कोई दूसरा बंदर हाथ डाल दे! तुम दुख छोड़ दो, दूसरा दुख भोगने लगे; फिर तुम क्या करोगे? तो इसको तो रखे ही रहो, इसकी लटकाए रहो, कष्ट पाओ, सो न सको, हर्ज नहीं। जीवन एक बेचैनी और नर्क हो जाए, ठीक लेकिन आशा, कभी न कभी, किसी न किसी दिन, कोई विधि हो जाएगी! प्रार्थना करो, पूजा करो, मंदिर जाओ, लेकिन मटके को साथ रखो!

मंदिर में लोगों की प्रार्थनाएं सुनें, वे प्रार्थनाएं कर रहे हैं? वे प्रार्थनाएं यह कर रहे हैं कि मुट्ठी बंधी हुई मटके के बाहर आ जाए।

खलील जिब्रान ने कहीं लिखा है कि मैंने हजारों लोगों की प्रार्थनाएं सुनी और मैंने पाया, उनकी प्रार्थनाओं का एक ही मतलब है दो और दो चार न हों, कुछ असंभव घट जाए, बस यही उनकी प्रार्थनाएं हैं।

कहहिं कबीर ललनीके सुगना, तोहि कवने पकड़ो।।

तोतों को पकड़नेवाले व्याघ, एक छोटी सी तरकीब का उपयोग करते हैं। रस्सी बांध देते हैं दो वृक्षों के बीच। रस्सी के बीच में छोटी—छोटी लकड़िया अटका देते हैं। तोते उन लकड़ियों पर आकर बैठ जाते हैं। वजन के कारण लकड़ी उलटी घूम जाती है। तोते नीचे लटक जाते हैं। उलटा लटका तोता समझा है, फंस गए! डरता है कि अगर छोड़े हाथ तो नीचे गिरेंगे और मरेंगे। कोशिश करता है कि किसी तरह सीधा होकर बैठे जाए। वह रस्सी है पतली, इसलिए वह बैठ नहीं सकता; उसका वजन ज्यादा है, वह नीचे ही गिरेगा। वह जितना तड़पेगा, उतना ही फंसेगा। और इस घबड़ाहट में वह यह भूल ही जाता है कि मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ सकता हूं, गिरने का कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन शीर्षासन की वजह से फंस जाता है।

शीर्षासन से सावधान रहना! लेकिन उल्टे खड़े हैं, फिर डरते हैं।

कबीर कहते हैं, कहहिं कबीर ललनी के सुगना, तोहि कवने पकड़ो। तुझे पकड़ा किसने है मूर्ख! तू छोड़ दे, तो ही पकड़े है इस रस्सी को। तेरे छोड?ते ही तू मुक्त है।

बंधन नहीं है, पकड़ है। मोक्ष बंधन से मुक्ति नहीं है, पकड़ से छुटकारा है। बंधन तो बाहर होता है, पकड़ भीतर होती है। बंधन तो दूसरा भी लगा सकता है, पकड़ तुम्हीं लगा सकते हो, पकड़ दूसरा नहीं लगा सकता।

जिस—जिसको तुमने कपड़ा है, वहीं—वहीं तुम बंध गए हो। और अब तुम डरते हो। अब तुम्हें पंखों का विस्मरण हो गया है कि तुम उड़ भी सकते हो और गिरने का कोई डर नहीं है; लेकिन इतने दिन से तुम बंधे हो, इतनी लंबी हो गई है बंधन की प्रक्रिया कि तुम भूल ही गए कि कभी तुम मुक्त थे, कभी तुम आकाश में भी उड़े थे।

तोते बहुत दिन पिंजरे में रह जाएं, फिर उड़ नहीं पाते; पंखों का स्मरण खो जाता है। बहुत दिन तक पंख उड़ने से रुके रहें, तो उनकी क्षमता क्षीण हो जाती है। यही हुआ है।

और कबीर बड़ा गहरा व्यंग्य कर रहा है। वह कह रहे हैं: ललनी के सगुना तोहि कवने पकड़ो। किसने तुझे पकड़ा है? कोई पकड़े हुए नहीं है। तूने ही कुछ गलत चीजें पकड़ रखी हैं और कष्ट पा रहा है।

इसलिए समस्त धर्म का सार है: पकड़, क्लिंगिंग को छोड़ना। कुछ भी मत पकड़ो। जियो सब, पकड़ो कुछ भी मत। रहो घर में, रहो दुकान पर, बाजार में—पकड़ो मत; मुट्ठी खुली रखो। जियो सारे संसार को; वह जीने के लिए है। उसके जीने से प्रौढ़ता मिलेगी। उसके जीवन से समझ बढ़ेगी। अनुभव बुद्धिमत्ता को लाएगा। जियो, पर जागकर जियो, पकड़ो मत। मुक्त रह कर जियो। विचारो संसार में। एक भी अनुभव ऐसा नहीं कि उसे तुम छोड़ो। सभी अनुभव कर लेने जैसे हैं। क्योंकि उसको करने से ही तुम्हारे भीतर जो छिपी हुई संभावना है, बोध की, वह जागेगी। सभी अनुभव, बुरे—भले—गुजहर जाने जैसे हैं। पर जागकर गुजरना, ताकि कोई अनुभव कारागृह न बन जाए, और तुम किसी अनुभव में बंद न हो जाओ।

अभी ऐसा ही हुआ है। एक बार तुम जो अनुभव कर लेते हो, तुम उसमें बंध जाते हो, फिर तुम बार—बार उसी को करना चाहते हो। क्लिंगिंग पैदा हो गई, पकड़ पैदा हो गई। जो भी अनुभव तुम्हें सुख देता है, जरा सी भी झलक देता है, तुम मुट्ठी बांध लेते हो। तुम इतना अविश्वास किए हो जीवन पर! तुम्हें यह पता ही नहीं कि जिस जीवन से यह अनुभव मिला, उस जीवन से और बड़े अनुभव भी मिलेंगे; बंधने की जल्दी क्या है? जो जीवन यहां लाया गया है, वह जीवन और विराट किनारों तक भी ले जाएगा। यही घर बना लेने की जल्दी क्या है? तुम रास्ते पर पहला कदम ही नहीं रखते कि वहीं पड़ाव बना लेते हो। रुको, ठहरो! रात का विश्राम बुरा नहीं है, लेकिन सुबह होते चल पड़ो। वेदों के ऋषियों ने कहा है: चलते रहो! चलते रहो! रुको मत, ठहरो भला!

बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे, चरैवेति, चरैवेति, चरैवेत्ति! चलते रहो, चलते रहो! विश्राम के लिए रुको, घर मत बनाओ। कहीं भी जहां तुमने पकड़ बनाई, वहीं घर बनता है। जहां घर बना, वह जल्दी ही कारागृह निर्मित हो जाता है।

बौद्धों की बड़ी पुरानी कथा है। एक आदमी संन्यासी हुआ। उसने गुरु से दीक्षा ली। तो गुरु ने उससे पूछा कि दीक्षा के समय कुछ बोध, जो मैं सदा याद रखूं? गुरु ने कहा, एक बात भर खयाल रखना; बिल्ली कभी मत पालना। वह थोड़ा हैरान हुआ कि यह आदमी पागल मालूम होता है। हम ज्ञान की खोज में निकले हैं—मोक्ष, निर्वाण, ईश्वर—और इस आदमी से दीक्षा ले फंसे; और यह क्या उपदेश दे रहा है कि बिल्ली कभी मत पालना!

फिर गुरु तो मर गया। और जो उसने कहा था, चूंकि इसने उसको कभी समझा ही नहीं। और उसने समझा कि व्यर्थ की बकवास कर रहा है, दिमाग खराब हो गया है, सठिया गया है। साठ के ऊपर था। और दो आदमी भरोसे के नहीं होते। पुराने जमाने में, जो सठिया जाते थे, साठ के पार चले जाते थे, वे भरोसे के नहीं थे। आज के जमाने में, जो कुर्सिया जाते हैं, वह सठिया गए, अब उनकी बात का कोई मतलब नहीं।

बूढ़ा तो मर गया। इसके पास बस एक लंगोटी ही थी, उसको टांगता था, तो चूहे काट जाते थे। तो गांव के लोगों से पूछा कि क्या करूं? तो उन्होंने कहा कि एक बिल्ली पाल लो। भूल ही गया बिलकुल की गुरु ने कहा था कि बिल्ली भी मत पालना। अपने अनुभव से कहा था, क्योंकि यही कहानी उसके साथ दोहरी थी। कहानी तो वही है, पात्र बदल जाते हैं। कुछ अड़चन नहीं मालूम पड़ी, एक बिल्ली पाल ली। झंझट शुरू हो गई, क्योंकि बिल्ली को भोजन चाहिए; उसको दूध चाहिए। चूहे तो खतम किए बिल्ली ने, लेकिन बिल्ली आ गई! गांव के लोगों से पूछा। उन्होंने कहा, इसमें क्या अड़चन है? एक गाय हम आपको भेंट दिए देते हैं।

बिल्ली के पीछे गाय आ गयी। गाय के लिए घास कब तक गांव के लोग दें। उन्होंने कहा, ऐसा करो कि जमीन पड़ी है तुम्हारे पास आसपास मंदिर के, थोड़ी खेती—बाड़ी शुरू कर दो। खेती—बाड़ी शुरू की तो कभी बीमारी भी होती, पानी डालना है, कोई पानी डालने वाला चाहिए। खेती—बाड़ी में समय ज्यादा लग जाता, खुद ही खाना बनाना है। तो गांव के लोगों ने कहा, ऐसा करे, शादी कर लो। एक लड़की थी भी गांव में योग्य, बिलकुल तैयार। उन्होंने इसकी शादी करवा दी। फिर बच्चे हो गए। फिर वह भूल ही गया। दीक्षा, संन्यास, वह सब मामला खत्म हुआ; सब बच्चों को पढ़ाना, लिखाना…! खेती—बाड़ी हो गई, व्यवसाय फैल गया…।

जब मरने के करीब था, तब उसे एक दिन याद आया, जैसे नींद से चौंका कि हद कर दी, उस बूढ़े ने भी ठीक ही कहा था कि बिल्ली मत पालना! बिल्ली के पीछे सब चला आता है। पहला कदम तुमने उठाया, फिर मुश्किल हो जाती है।

एक घर में मैं ठहरा था, दो छोटे बच्चे सीढ़ियों पर बैठकर बात कर रहे थे। घर के दो बच्चे—बड़ा होगा कोई चार साल का, छोटा होगा कोई ढाई साल का। बड़ा छोटे को ज्ञान दे रहा था। छोटा पूछ रहा था कि किस चीज से बचना चाहिए? स्कूल में, उसके जाने का वक्त आ गया था। बड़े ने कहा, बस एक बात खयाल रखना, अगर उसमें बच गए तो बिलकुल बच गए। छोटे ने कहा, बता दो। उसने कहा, सी ए टी—कैट! कैट यानि बिल्ली। जब स्कूल में यह पढ़ाया जाए, इसको बिलकुल सीखना ही मत। इसको सीखे कि फिर दूसरी चीजें सीखनी पड़ती हैं। बस इस पर ही तुम, इस पर अड़े रहना। फिर बड़े—बड़े शब्द आते हैं इसके पीछे। और फिर कोई अंत नहीं है। उसी में मैं फंस गया। तुम सावधान रहना!

जब उन बच्चों की बात मैं सुन रहा था, तब मुझे यह कहानी याद आयी कि ठीक है, सी ए टी कैट; कैट यानी बिल्ली! बिल्ली से जो बचा, वह सब से बचा!

एक चीज को पकड़ो, पकड़ शुरू हो गई। फिर दूसरी को पकड़ना पड़े, तीसरी को पकड़ना पड़े—सिलसिला है। एक पीछे दूसरा, दूसरे के पीछे, एक शृंखला है।

जीना, गुजरना—सब अनुभव से; पकड़ना कोई अनुभव नहीं है। और सदा अनुभव की संभावना है, जल्दी क्या है पकड़ने की? और पुनरुक्ति की आकांक्षा मत करना। जो अनुभव एक बार गुजरे, फिर बार—बार मत मांगना। क्योंकि बार—बार मांगने का मतलब है कि तुम वही अटकने को खड़े हो गए, बार—बार तुमने भरोसा खो दिया जीवन का। अभी बहुत बाकी था। यह जीवन वहां तक ले जाता है जहां परमात्मा है—अगर तुम चलते रहो। रुक गए, तो तुम कहीं छोटी जगह, व्यर्थ जगह रुक जाते हो; किसी कूड़े की ढेर पर घर बना लेते हो।

इसलिए कबीर कहते है, कहहिं कबीर ललनी के सुगना, तोहि कवने पकड़ो। किसी ने पकड़ा नहीं है, बिल्ली तुम्हीं ने पाल ली है। तुम्हीं चाहो तो छूट सकते हो। छूटने के लिए सिर्फ छूटने की चाह!

और क्या है पकड़? उसको समझने का प्रयास चाहिए; अभीप्सा कि मैं मुक्त होना चाहता हूं। और इस अभीप्सा के पीछे, स्वभावतः समझ विकसित होनी शुरू होने लगती है कि मैं बंधा क्यों हूं।

सिद्धों ने कहा है, तुम बंधे नहीं हो, तुमने अपने को बांध रखा है। अगर तुम मुक्त होना चाहते हो, इसी क्षण मुक्त हो सकते हो। एक क्षण भी गंवाने की कोई जरूरत नहीं। समझ की प्रगाढ़ता, त्वरा, तीव्रता, एक लपट की तरह सभी अतीत को राख कर सकती है। इसी क्षण तुम मुक्त हो सकते हो?

 

आज इतना ही।

 

 

 


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दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय–02)

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(अध्‍याय—दो)

मैं उनकी पुस्तकें पढ़ना शुरू कर देती हूँ और अपने आपको उधार ज्ञान से पूरी तरह मुक्त होता हुआ अनुभव करती हूँ। उनके शब्द मुझे नितांत खालीपन में अकेला छोड़ जाते हैं। मेरा हृदय उनसे मिलने की उत्कंठा से भर उठता है। मैं बंबई के जीवन जागृति केंद्र का पता व फोन नंबर मालूम करती हूँ और ओशो के विषय में पूछने के लिए वहां फोन करती हूँ। मुझे नारगोल में होने वाले ध्यान शिविर के बारे में बताया जाता है, जहां मैं उन्हें मिल पाउंगी। मैं बहुत आनंदित हो जाती हूँ और अधीर होकर इस ध्यान शिविर की प्रतीक्षा करने लगती हूँ।

आखिरकार, नारगोल में उनके करीब से दर्शन पाने का वह पहला दिन भी आ पहुंचा जब मैं उनके चरणों के पास बैठ पाउंगी। शिविर में कोई पांच सौ लोग हैं; ऊंचे—ऊंचे पेड़ों से घिरा यह बहुत ही सुंदर सागर तट है। मैं वहां बनाए गए मंच के करीब अपना एक वृक्ष खोजकर उसके नीचे आराम से बैठ जाती हूँ। मेर2ईा आंखें उस रास्ते पर टकटकी बांधे हैं; जहां से उनको आना है, और कुछ ही क्षणों में मैं द्रेखती हूं कि श्वेत लुंगी और शॉल में लिपटे हुए, अपने पूरे सौंदर्य और गरिमा के साथ वे चले आ रहे है। मैं वस्तुत: उनके चारों ओर शुभ्र प्रकाश का एक आभामंडल सा देख पा रही हूं। उनकी मौजूदगी में एक जादू है जो कि इस संसार का नहीं है। वे सबको हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं और एक चौकोर मेज पर सफेद चादर डालकर बनाए गए मंच ‘पर बैठ जाते हैं।

वे बोलना प्रारम्भ करते हैं, लेकिन उनके शब्द मेरे सिर के ऊपर से गुजर रहें हैं। उनकी आवाज? और, दूर से आती हुई सागर की लहरों की गर्जन के अतिरिक्त चारों ओर गहन शान्ति छायी हुई है। मुझे नहीं पता कि वे कितनी देर बोले परन्तु जब मैं अपनी आंखें खोलती हूं तो पाती हूँ कि वे पहले ही जा चुके हैं। मुझे मृत्यु की सी अनुभूति हो रही है। उन्होंने मेरे हृदय को ऐसे छू लिया है जैसे चुंबक लोहे को खींच लेता है। और मैं पूरी रात सो नहीं पाती। सागरतट पर शून्य आंखें लिए —मैं यूं ही घूमती रहती हूँ। आकाश तारों से भरा हुआ है। ऐसी शांति व ऐसा सौंदर्य मैंने पहले कभी नहीं जाना है। मेरा हृदय पुकारना चाहता है, वे क्या हैं,? मैं उनसे मिलना चाहती हूँ!’


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दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय–03)

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(अध्‍याय—तीसरा)

सुबह आठ बजे उनके प्रवचन के लिए हम सब फिर से उसी स्थान पर इकट्ठे होते हैं—आज वे प्रश्नों का उत्तर देंगे तथा लोग कागज पर अपने प्रश्न लिख—लिखकर उनके सचिव को पकड़ा रहें हैं। मैं भी साहस बटोरकर अपना अनुभव लिखकर उनसे पूछती हूँ कि यह मुझे क्या हो रहा है। अपना प्रश्न दे कर मैं थोड़ी दूरी पर सबके बीच में स्वयं को छिपाती हुई बैठ जाती हूँ।

वही दिव्य सौंदर्य और गरिमा लिए, सबको नमस्कार करते हुए वे पुन : यहां चले आ रहे हैं। पद्मासन में बैठकर वे प्रश्न पढ़ना शुरू कर देते हैं। जब अपना गुलाबी कागज मैं उनके हाथ में देखती हूं तो मेरा हृदय तेजी से धड़कने लगता है। पता नहीं क्यों, मुझे शर्म आने लगती है कि मेरा प्रश्न पढ़ने के बाद वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मुझे आश्चर्य होता है कि मेरा प्रश्न पढ़ने कै बाद—जो कि वास्तव में कोई प्रश्न नहीं बल्कि पहली दफा उनको सुनने के बाद जो अनुभव द्वे हुआ उसका यथावत बयान भर है…..जैसे मैं किसी चुंबक से खिंची जा रहीं हूं मर रहीं हूं—वे अपनी बांयी तरफ बैठे श्रोताओं की ओर देखने लगते हैं और जब उनकी नजरें मुझ तक पहुंचती हैं तो वहीं ठहर जाती हैं। मैं अपना सिर झुका लेती हूं ऐसा लगता है जैसे मैं जम गई हूं तथा मैं जान जाती हूं कि उन्हें पता चल गया है कि यह प्रश्न मेरा ही है। वे यह प्रश्न सिर्फ पढ़ते भर हैं और फिर दूसरे प्रश्नों के जवाब देने लगते हैं।

प्रवचन समाप्त होने के बाद लोग उनके समीप जाकर उनके पांव छू रहे हैं, और वे सबके सिर पर हाथ रख रहे हैं। दूर से ही मैं यह सब देख रही हूं उनके नजदीक जाने का साहस नहीं हो रहा है। अंतत:, जब वे जाने के लिए उठ खड़े होते हैं तो मैं उनकी ओर दौड़ती हूं, और जैसे ही उनके पास पहुंचती हूं वे मुस्कुराकर पूछते हैं, तो वह तुमने लिखा था?’ मैं सहमति में अपना सिर झुका देती हूँ और उनके चरण छूने के लिए झुक जाती हूं। वे अपना हाथ मेरेसिर पर रख देतेहै और जब में उठती हूं तो वे कहते है, ‘दोपहर को आकर मुझसे मिलना।’


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दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय–04)

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(अध्‍याय—चार)

दोपहर दो बजे मैं उस बंगले पर पहुंचती हूं जहां वे ठहरे हुए हैं। वहां बहुत से लोग पहले ही उनसे मिलने के लिए आए हुए है और उनका इंतजार खर रहे हैं। उनके सचिव आते हैं और लोग एक—एक करके उनसे मिलने के लिए उनके कमरे में जाने लगते हैं। सभी लोग दो या तीन मिनट में उनसे मिलकर बाहर आ रहे हैं। अब मेरे आगे खड़ी हुई स्त्री भीतर जा रही है, उसके बाद मेरी ही बारी है। सिर्फ यह देखने के लिए कि वह ओशो से कैसे मिलती है, मैं खिड़की से भीतर झांकती हूं। ओशो सोफे पर बैठे हैं फर्श पर कालीन बिछा है। वह स्त्री झुककर ओशो के चरण स्पर्श करती है और कालीन पर बैठ जाती है। मैं स्वयं से कहती हूं यही उनसे मिलने का उचित ढंग लगता है। ‘मेरा हृदय उत्तेजना में धड़क रहा है और साथ ही ‘किसी अज्ञात भय से कांप भी रहा है। कुछ ही मिनटों में वह स्त्री बाहर आती है और मैं कमरे में प्रवेश करती हूं।

ओशो बड़ी मोहक मुस्कान से मेरा स्वागत करते हैं। मैं बस सब कुछ भूलकर उनकी ओर खिंची चली जाती हूं। और उनके गले लग जाती हूं और वे मेरे आलिंगन को इतने प्रेम से स्वीकार करते हैं जैसे केवल मैंने ही उन्हें नहीं खोजा है, उन्हें भी कोई खोया हुआ बालक मिल गया है। वे बड़े प्रसन्न नजर आते हैं और मुझे सोफे पर ही अपनी बाईं ओर बिठा लेते हैं। अपने बाएं हाथ से वे मेरी पीठ को सहला रहे हैं और अपना दायां हाथ वे मेरे हाथों में दे देते हैं। मैं उनकी आंखों में झांकती हूं—वे प्रेम और प्रकाश से परिपूर्ण हैं, और मुझे ऐसा महसूस हो रहा है. कि इस व्यक्ति को मैं अनंतकाल से जानती हूं। अपने जादुई स्पर्श से जैसे वे कुछ चमत्कार सा कर रहे हैं तथा पिछली रात उनका प्रवचन सुनने के बाद से मृत्यु का जो अनुभव मुझे हुआ था उससे निकलकर अब मैं अपनी सामान्य अवस्था में लौट आती हूं।

वे मुझसे पूछते हैं कि मैं क्या करती हूं, लेकिन मैं कुछ भी बोलने में असमर्थ हूँ। वे कहते हैं, चिंता मत करो, सब कुछ ठीक हो जाऐगा। कुछ क्षणों में जब मैं बोल पाने में समर्थ हो जाती हू तो मैं उन्हें बताती हू कि मैं बंबई की एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करती हूं।

वे पूछते हैं, क्या तुम मेरा काम करोगी?’

यह तो मुझे पता नहीं था कि उनका काम क्या है, लेकिन मैं सहमति में सिर हिला देती हूं।

वे अपने सचिव को भीतर बुलाकर उससे मेरा परिचय करवाते हैं और मुझ से कहते हैं, इससे संपर्क बनाऐ रखना। ‘

थोड़ी देर बाद मैं बाहर जाने के लिए उठ खड़ी होती हूं, और दो या तीन कदम चलने के बाद ही पीछे मुड़कर उनकी ओर देखती हूं। वे मुस्कुरा देते हैं, और मैं वापस लौटकर उनके चरणों में बैठ जाती हूं।

वे कहते हैं, ‘अपनी आंखें बंद करो’, और अपना दायां पांव मेरे हृदय केंद्र पर रख देते हैं। उनके पांव से कोई ऊर्जा निकलकर मेरे शरीर में प्रवेश करती हुई महसूस होती है और मेरा मन बिल्कुल शून्य हो जाता है, मैं केवल अपनी सांस की आवाज सुन पाती हूं। —ऐसा लगता है जैसे समय रुक गया हो। शायद कुछ ही मिनट हुए होंगे कि मुझे उनकी आवाज सुनाई देती है, वापस आ जाओ… धीरे—धीरे अपनी आंखें खोल लो। ‘आहिस्ता से वे अपना पांव हटा लेते हैं, और जब मैं अपनी आंखें खोलती हूं तो देखती हूं कि वे अपनी आंखें बंद किए बैठे हैं। धीमे से उठकर मैं कमरे से बूरा_हर निकल आती हूँ। मेरा हृदय आनन्दातिरेक से नाच रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे मैंने कोई खोया खजाना पा लिया है।

 


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