Quantcast
Channel: Osho Amrit/ओशो अमृत
Viewing all 1170 articles
Browse latest View live

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–6)

$
0
0

ध्‍यान के दौरान वस्‍त्रों का गिर जाना—(अध्‍याय—छठवां)

शुरुआत में शिविरों में ओशो स्वयं सभी ध्यानों का संचालन करते थे। उनका हमेशा इस बात पर जोर होता कि ध्यान में अपनी सारी ऊर्जा उंडेल दें, पूरी त्वरा से ध्यान करें। मेरे अपने अनुभव से यह बात स्वीकारता हूं कि ध्यान में कुछ भी बाकी नहीं छूटना चाहिए। जितनी भी त्वरा से कर सकें, करना चाहिए। यदि थोड़ा भी पीछे बचा लिया या आधे—अधूरे मन से ध्यान किया, तो उसका कोई फायदा नहीं होने वाला है। ओशो हमें पूरी ऊर्जा से, पूरी त्वरा से ध्यान में उतरने को प्रोत्साहित करते हैं।

एक बार माउंट आबू में सुबह सक्रिय ध्यान हो रहा था। ओशो ध्यान के पहले बोलते हैं कि ‘यदि वस्त्र बाधा डालते हों तो वस्त्रों को गिरा दें।’ हमने सुना ध्यान शुरू हुआ, जैसे ही हूं हूं का चरण आया और मैंने सारे कपड़े उतार दिये और लगा हूं हूं करने। पूरी त्वरा और प्राणपन से ध्यान में डूब गया। ध्यान पूरा हुआ, ओशो अपने कक्ष में चले गए। हम काफी देर तक वहीं पड़े रहे, फिर धीरे— धीरे उठे। उस दिन इलस्ट्रेडेड वीकली के श्री प्रीतीश नंदी वहां आए हुए थे। उन्होंने सारा नजारा देखा और बहुत सारे फोटो बगैर वस्त्रों वाले निकाल लिये। और अगले सप्ताह की पत्रिका में प्रकाशित कर दिए। हमारे भाई साहब ने वे फोटो देखे, उन्हें बहुत बुरा लगा। वो मेरे ऊपर बहुत गुस्सा हुए। बोले कि ‘क्या यह सब करने माउंट आबू जाते हो? सारा खानदान का नाम मिट्टी में मिला रहे हो।’ इस तरह की बहुत सारी डांट—डपट सुननी पडी। समय के साथ बात आई गई हो गई।

लेकिन यह तो अनुभव से कहता हूं कि ध्यान जितनी त्वरा से हो, जितना सघनता से हो, जितनी पूर्णता से हो उतना ही प्रभावी होता है। यदि आप कुनकुना, ढीला—डाला, नाम के लिए ध्यान कर रहे हैं, तो उसके परिणाम नहीं आ सकते। ऐसे लोग मिल जाते हैं जो बड़ा दावा करते हैं कि वे एक साल से, पांच साल से, दस साल से सक्रिय ध्यान कर रहे हैं या कोई और ध्यान कर रहे हैं लेकिन उन्हें देख कर जरा भी नहीं लगता कि उन्हें ध्यान का कोई अनुभव हुआ है।

ध्यान कोई बताने की बात नहीं है, कोई अहंकार को सजाने की बात नहीं है। यदि ऐसा होता है तो यह तो पूजा—पाठ जैसा हो गया, ढोंग—ढकोसला हो गया। अन्य धार्मिक क्रिया कांडों जैसा कर्म कांड हो गया। नहीं, ऐसा जरा भी नहीं चलेगा। ध्यान नियमित किया जाए, पूरी त्वरा से, सघनता से, पूर्णता से……निश्चित ही परिणाम आएंगे, आपको स्वयं को पता चलेगा और आपके संपर्क में आने वाले सभी मित्रों को भी अहसास होगा।

शिविर में नग्न होने वाली बात ने बड़ा जोर पकड़ लिया। समाचार पत्रों में खबरें आने से चारों तरफ इस विषय पर जबर्दस्त विरोध शुरू हो गया। जब इस बारे में ओशो से पूछा गया तो वे इस विषय पर विस्तार से बोले.

ओशो : सब लोग कपडों के भीतर नग्न हैं और कोई बेचैन नहीं होता! कपड़ों के भीतर सभी लोग नग्न हैं, कोई बेचैन नहीं है। दो आदमियों ने कपड़े छोड़ दिए, सब बेचैन हो गए! बड़ा मजा है, आपके कपड़े भी किसी ने छुडाए होते तो बेचैन होते तो भी समझ में आता। अपने ही कपड़े कोई छोड़ रहा है और बेचैन आप हो रहे हैं! अगर कोई आपके कपड़े छीनता, तो बेचैनी कुछ समझ में भी आ सकती थी। हालांकि वह भी बेमानी थी। ऐसा लगता है कि आप प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि कोई कोट उतारे और हम कूलडाउन हो जाएं, और हम कहें, हमारा सारा ध्यान खराब कर दिया।

अब बड़े आश्चर्य की बात है कि कोई आदमी नग्न हो गया है, इससे आपके ध्यान के खराब होने का क्या संबंध है? और आप किसी के नग्न होने को बैठकर देख रहे थे? तो आप ध्यान कर रहे थे या क्या कर रहे थे? आपको तो पता ही नहीं होना चाहिए था कि कौन ने कपड़े छोड़ दिए, कौन ने क्या किया। आप अपने में होने चाहिए थे। कौन क्या कर रहा है… आप कोई धोबी हैं, कोई टेलर हैं, कौन हैं? आप कपड़ों के लिए चिंतित क्यों हैं? आपकी परेशानी बेवजूद है, अर्थहीन है।

और जिसने कपड़े छोड़े हैं… थोड़ा सोचते नहीं हैं, आपसे कोई कहे कि आप कपडे छोड दें, तब आपको पता चलेगा कि जिसने कपड़े छोडे हैं उसके भीतर कोई बड़ा कारण ही उपस्थित हो गया होगा इसलिए उसने कपड़े छोडे हैं। आपसे कोई कहे कि लाख रुपया देते हैं। आप कहेंगे, छोड़ते हैं लाख रुपया, लेकिन कपड़े न छोड़ेंगे। उस बेचारे को किसी ने कुछ भी नहीं दिया है और उसने कपड़े छोड़े! आप क्यों परेशान हैं? उसके भीतर कोई कारण उपस्थित हो गया होगा।

लेकिन जिंदगी को समझने की, सहानुभूति से देखने की हमारी आदत ही नहीं है।

एक स्थिति आती है ध्यान की—कुछ लोगों को अनिवार्य रूप से आती है—कि वस्त्र छोड़ देने की हालत हो जाती है। वे मुझसे पूछकर नग्न हुए हैं। इसलिए उन पर एक्सप्लोसिव मत होना, होना हो तो मुझ पर होना। जो लोग भी यहां नग्न हुए हैं वे मुझसे भाशा लेकर नग्न हुए हैं। मैंने उनसे कह दिया कि ठीक है। वे मुझसे पूछ गए हैं आकर किं हमारी हालत ऐसी है कि हमें ऐसा लगता है एक क्षण में कि अगर हमने वस्त्र न छोड़े तो कोई चीज अटक जाएगी। तो मैंने उनको कहा है कि छोड़ दें।

यह उनकी बात है, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? इसलिए उनसे किसी ने भी कुछ कहा हो तो बहुत गलत किया है। आपको हक नहीं है वह, किसी को कुछ कहने का। थोड़ा समझना चाहिए कि एक निर्दोष चित्त.. .एक घड़ी है जब कई चीजें बाधाएं बन सकती हैं। कपड़े आदमी का गहरा से गहरा इनहिबिशन है। कपडा जो है वह आदमी का सबसे गहरा टैबू है, वह सबसे गहरी रूढ़ि है जो आदमी को पकड़े हुए है। और एक क्षण आता है कि कपड़े करीब—करीब प्रतीक हो जाते हैं हमारी सारी सभ्यता के। और एक क्षण आता है मन का कभी.. .किसी को आता है, सबको जरूरी नहीं…।

नहीं मैं कहता हूं कि आप नग्न हो जाएं, लेकिन कोई होता हो तो उसे रोकने की तो कोई बात नहीं है। और एक साधना—शिविर में भी हम इतनी स्वतंत्रता न दे पाएं कि कोई अगर इतना मुक्त होना चाहे तो हो सके, तो फिर यह स्वतंत्रता कहां मिल पाएगी? साधना—शिविर साधकों के लिए है, दर्शकों के लिए नहीं। वहां जब तक कोई दूसरे को कोई छेड़खानी नहीं कर रहा है तब तक उसकी परम स्वतंत्रता है। दूसरे पर जब कोई ट्रेसपास करता है तब बाधा शुरू होती है। अगर कोई नंगा होकर आपको धक्का देने लगे, तो बात ठीक है; कोई अगर आपको आकर चोट पहुंचाने लगे, तो बात ठीक है कि रोका जाए। लेकिन जब तक एक आदमी अपने साथ कुछ कर रहा है, आप कुछ भी नहीं हैं बीच में, आपको कोई कारण नहीं है।

 

(जिन खोजा तिन पाइयां)



Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

सपना यह संसार–(प्रवचन–7)

$
0
0

जीवित सदगुरु की तरंग में डूबो—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक; मंगलवार, १७ जुलाई १९७९;

श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

बनियां बानि न छोड़ै, पसंघा मारै जाय।।

पसंधा मारै जाय, पूर को मरम न जानी।

निसिदिन तौलै घाटि खोय यह परी पुरानी।।

केतिक कहा पुकारि, कहा नहिं करै अनारी।

लालच से भा पतित, सहै नाना दुख भारी।।

यह मन भा निरलज्ज, लाज नहिं करै अपानी।

जिन हरि पैदा किया ताहि का मरम न जानी।।

चौरासी फिरि आयकै पलटू जूती खाय।

बनियां बानि न छोड़ै, पसंघा मारै जाए।।

 

सातपुरी हम देखिया, देखे चारो धाम।।

देखे चारो धाम, सबन मां पाथर पानी।

करमन के बसि पड़े, मुक्ति की राह झुलानी।।

चलत चलत पग थके छीन भई अपनी काया।

काम क्रोध नहिं मिटे, बैठकर बहुत नहाया।।

ऊपर डाला धोय, मैल दिल बीच समाना।

पाथर में गयो भूल, संत का मरम न जाना।।

पलटू नाहक पचि मुए, संतन में है नाम।

सातपुरी हम देखिया, देखे चारो धाम।।

 

निंदक जीवै जुगन—जुग, काम हमारा होय।।

काम हमारा होय, बिना कौड़ी को चाकर।

कमर बांधिके फिरै, करै तिहुं लोक उजागर।।

उसे हमारी सोच, पलकभर नाहिं बिसारी।

लगी रहै दिनरात, प्रेम से देता गारी।।

संत कहैं दृढ़ करै जगत का भरम छुड़ावै।

निंदक गुरु हमार, नाम से वही मिलावै।।

सुनिके निंदक मरि गया, पलटू दिया है रोय।

निंदक जीवै जुगन—जुग, काम हमारा होय।।

सकी हसरत है, जिसे दिल से मिटा भी न सकूं

ढूंढने उसको चला हूं, जिसे पा भी न सकूं।

 

 

उनके गुस्से के मिटाने की हैं सौ तदबीरें

लाग की आग नहीं है कि बुझा भी न सकूं।

 

चुटकियां लेने से दिल में वो करें क्यों इनकार

दाग कुछ दर्द नहीं है कि दिखा भी न सकूं।

 

मैं अगर घर से निकलता हूं तो घर क्यों है उदास

क्या दमे—बाजे—पसीं है कि फिर आ भी न सकूं।

 

कोई पूछे तो मुहब्बत से, ये क्या है इन्साफ

वो मुझे दिल से भुला दे, मैं भुला भी न सकूं।

 

नक्शे—हस्ती मैं अभी मह्व किए देता हूं

खतेत्तकदीर नहीं है कि मिटा भी न सकूं।

 

उसकी हसरत है, जिसे दिल से मिटा भी न सकूं

ढूंढने उसको चला हूं, जिसे पा भी न सकूं।

परमात्मा की खोज अनूठी खोज है। परमात्मा जब तक नहीं मिला, तब तक खोजी है, खोज है। परमात्मा मिला कि खोजी भी मिटा, खोज भी मिटी। वस्तुतः खोजी मिटे, खोज मिटे, तो परमात्मा मिले। जब तक मैं का भाव शेष है, तब तक उससे कोई संबंध नहीं हो पाता।

इसलिए खोज अनूठी है, बेबूझ है, अतक्र्य है।

अपने को मिटाए बिना मिलना नहीं हो सकता। बुद्धि स्वभावतः पूछेगी कि जब हम ही न रहे, तो मिलने से भी क्या होगा? जब हम ही न रहे, तो मिलेगा कौन? जब हम ही न रहे, तो साक्षात्कार कौन करेगा? दर्पण ही टूट गया, तो प्रतिछबि, किसकी बनेगी? इसीलिए बात अतक्र्य है, तर्क भी सीमा के पार है।

तर्क तो यही कहेगा, मिलन तभी हो सकता है जब दो हों। दो तो चाहिए—ही—चाहिए मिलने को। दुई के बिना मिलन कैसे? और जिन्होंने जाना है, वे कहते हैं, मिलन तो तभी होता है जब एक ही बचता है। क्योंकि एक में ही मिलन है। जब दो खो जाते हैं और एक ही रह जाता है तब मिलन का स्वाद है। स्वाद लेने वाला नहीं बचता, स्वाद ही बचता है।

उसकी हसरत है, जिसे दिल से मिटा भी न सकूं।

ढूंढने उसको चला हूं, जिसे पा भी न सकूं।

परमात्मा को पाया नहीं जा सकता। पाने की भाषा ही अहंकार भी भाषा है। पाने का अर्थ है, मैं रहूं और मेरा परिग्रह बढ़े। धन भी हो मेरे पास, पद भी हो मेरे पास, समाधि भी मेरे पास, स्वर्ग भी मेरे पास, परमात्मा भी मेरे पास। मेरी तिजोड़ी में सब बंद हो जाए। मेरी मुट्ठी में सब हो। परमात्मा भी छूट न जाए। वह भी मेरी मुट्ठी में होना चाहिए। वह भी मैं विजय करूंगा। अहंकार विजय की यात्रा पर निकलता है। लेकिन परमात्मा को पाने का ढंग अपने को मिटाना है। अपने को बिलकुल नेस्तनाबूद कर देना है। शून्यवत हो जाना है।

इसलिए परमात्मा को पाने की बात ही संभव नहीं है। हम मिटें तो परमात्मा फलित होता है। परमात्मा हमें पा लेता है—ऐसा कहना उचित है। हम कैसे परमात्मा को पाएंगे? हम तो बाधा न दें, इतना ही काफी है। हम तो बीच में न आएं, इतना ही बहुत है। हम दीवार न बनें तो धन्यभागी हैं। परमात्मा हमें पा ले और हम रुकावट न डालें। परमात्मा का हाथ हमें पाने आए तो हम भागें न, बचें न, छिपें न। बस इतना ही साधक को करना है—छिपे न, बचे न; खोल दे अपने को, उघाड़ दे अपने को; हो जाए नग्न, निर्वस्त्र। कोई छिपाव नहीं, कोई दुराब नहीं। खोल दे अपने हृदय को पूरा—पूरा। कहीं कोई रत्ती—भर भी बचाव रह गया तो मिलन में बाधा रह जाएगी।

उसकी हसरत है, जिसे दिल से मिटा भी न सकूं।

ढूंढने उसको चला हूं, जिसे पा भी न सकूं।

परमात्मा को पाया नहीं जा सकता। पाने की भाषा ही अहंकार की भाषा है। पाने का अर्थ है, मैं रहूं और मेरा परिग्रह बढ़े। धन भी हो मेरे पास, पद भी हो मेरे पास, समाधि भी मेरे पास, स्वर्ग भी मेरे पास, परमात्मा भी मेरे पास। मेरी तिजोड़ी में सब बंद हो जाए। मेरी मुट्ठी में सब हो। परमात्मा भी छूट न जाए। वह भी मेरी मुट्ठी में होना चाहिए। वह भी मैं विजय करूंगा। अहंकार विजय की यात्रा पर निकलता है। लेकिन परमात्मा को पाने का ढंग अपने को मिटाना है। अपने को बिलकुल नेस्तनाबूद कर देना है। शून्यवत हो जाना है।

इसलिए परमात्मा को पाने की बात ही संभव नहीं है। हम मिटें तो परमात्मा फलित होता है। परमात्मा हमें पा लेता है—ऐसा कहना उचित है। हम कैसे परमात्मा को पाएंगे? हम तो बाधा न दें, इतना ही काफी है। हम तो बीच में न आएं, इतना ही बहुत है। हम दीवार न बनें तो धन्यभागी हैं। परमात्मा हमें पा ले और हम रुकावट न डालें। परमात्मा का हाथ हमें पाने आए तो हम भागें न, बचें न, छिपें न। बस इतना ही साधक को करना है—छिपे न, बचे न; खोल दे अपने को, उघाड़ दे अपने को; हो जाए नग्न, निर्वस्त्र। कोई छिपाव नहीं, कोई दुराब नहीं। खोल दे अपने हृदय को पूरा—पूरा। कहीं कोई रत्ती—भर भी बचाव रह गया तो मिलन में बाधा रह जाएगी।

उसकी हसरत है, जिसे दिल से मिटा भी न सकूं

ढूंढने उसको चला हूं, जिसे पा भी न सकूं।

नक्शे—हस्ती मैं अभी मह्व किए देता हूं…

तैयार हूं मिटाने को अपने को। ये अस्तित्व के सारे चिह्न पोंछ डालने को तैयार हूं।

नक्शे—हस्ती मैं अभी मह्व किए देता हूं

खतेत्तकदीर नहीं है कि मिटा भी न सकूं।

यह कोई भाग्य की रेखा नहीं है कि जिसे मिटा न सकूं। यह मेरा अहंकार तो मेरी ही बनावट है, यह तो मेरे ही हाथ का खिलौना है, जब चाहूं तब तोड़ दूं। यह मेरा होना कोई वास्तविक होना नहीं है; एक झूठ है, सरासर झूठ है; एक भ्रम है; एक मान्यता है। इसे तोड़ देने में जरा भी अड़चन नहीं है। अगर नहीं तोड़ पाते हम। अड़चन जरा भी नहीं है, और अड़चन बड़ी है। टूट तो सकता है अभी, मगर टूटता नहीं जन्मों—जन्मों। क्या होगा कारण?

पलटू कारण कहते हैं:

बनिया बानि न छोड़ै, पसंघा मारै जाय।।

पसंघा मारै जाय, पूर को मरम न जानी।

पुरानी आदत। सदियों—सदियों, जन्मों—जन्मों की आदत। इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। हम इस झूठ को इतने दिन तक जिए हैं कि झूठ सच हो गया है। सच को बहुत दिनों तक न जीया जाए तो झूठ हो जाता है। हम से उसके संबंध टूट जाते हैं। हमारे प्राणों में उनकी जड़ें नहीं रह जातीं। और झूठ बहुत दिन तक जीया जाए तो सच—जैसा मालूम होने लगता है। सच तो नहीं हो सकता, लेकिन सच—जैसा मालूम होना ही हमारे लिए सच होना हो जाता है।

एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि राजनीति—शास्त्र का मूल आधार है—झूठों को दोहराते रहो, दोहराते रहो, दोहराते रहो, धीरे—धीरे लोग मान लेते हैं। इतनी बार दोहराओ कि लोग भूल ही जाएं कि यह झूठ है। यही तो विज्ञापन—शास्त्र का भी मूल आधार है—दोहराए जाओ। पहले लोग ध्यान नहीं देते, फिर धीरे—धीरे ध्यान देते हैं, फिर बिना ध्यान दिए भी ध्यान उनका लगा जाता है। दोहराए जाओ सब तरफ से, चारों तरफ से; हर तरफ से गुंजार उठाए जाओ। लोग धीरे—धीरे सम्मोहित हो जाते हैं।

झूठ की पुनरुक्ति सम्मोहित कर देती है।

और जैसे ही व्यक्ति सम्मोहित हुआ कि फिर झूठ उसके लिए तो सच ही जैसा है। और उसके लिए तो झूठ भी सच ही जैसा काम करेगा। वह तो उसके जीवन का यथार्थ हो गया। वह उसके लिए जीएगा और मरेगा।

आदत अहंकार को बल दे रही है। बचपन से ही हमें अहंकार सिखाया जाता है। हमारी सारी शिक्षा अहंकार के इर्द—गिर्द घूमती है। हमारा नीतिशास्त्र अहंकार को परिपुष्ट करता है। और यह एक जन्म की बात नहीं, जन्मों—जन्मों की बात है, हर जन्म में यही किया गया है। इसलिए अहंकार जो कि नहीं है, सब कुछ होकर बैठ गया है। जो कि नौकर भी नहीं है, वह मालिक होकर बैठ गया है। और आत्मा जो कि मालिक है, उसकी हमें कोई खबर ही न रही।

उदाहरण के लिए पलटू कहते हैं, जैसे बनिए को आदत हो जाए दांड़ी मारने की। बनिया बानि न छोड़ै, पसंघा मारै जाय।। अब वह कोई सोच—विचार कर दांड़ी नहीं मारता, सोच—विचार कर कम नहीं तौलना, कम तौलना उसकी आदत हो गई।

मैंने सुनी है एक कहानी।

संत एकनाथ तीर्थयात्रा को जाते थे। कोई सौ—डेढ़ सौ आदमियों की मंडली भी संत के साथ तीर्थयात्रा को जाती थी। सारा गांव ही तीर्थयात्रा को जा रहा था। एक तो एकनाथ का संग—साथ और फिर तीर्थ। सोने में सुगंध। सत्संग भी होगा, तीर्थयात्रा भी हो जाएगी। गांव का एक चोर भी एकनाथ के पीछे पड़ा कि मुझे भी ले चलो। चोर जाहिर चोर था। एकनाथ ने कहा कि भाई मेरे, मुझे तो कोई अड़चन नहीं, लेकिन तू झंझट करेगा। चोरी तेरी आदत है, चोरी तेरी जीवन की शैली है, तेरी पद्धति है; तू तीर्थयात्री—दल में चुराएगा और रोज झंझट खड़ी होगी। मना तुझे मैं करना नहीं चाहता; क्योंकि मैं कौन हूं मना करूं तुझे तीर्थयात्रा जाने से! और तेरे मन में यह सदभाव उठा, अच्छा! सौभाग्य की बात है यह किरण तेरे मन में उतरी। शायद यही तेरा रूपांतरण बन जाए। लेकिन एक वचन, एक आश्वासन देना होगा। कि तीर्थयात्रा जब तक चलेगी, शुरू से लेकर आखिर तक, जब तक हम गांव वापस न आ जाएं, तब तक यह आदत स्थगित रखना। यह चोरी भूल ही जाना। चोर ने पैर पकड़ लिए और कहा कि कसम खाता हूं कि चोरी नहीं करूंगा।

लेकिन चोर आखिर चोर! रात हो तो उसे बड़ी बेचैनी हो। उसके हाथ तड़फने लगें। रात उसे नींद न आए। करवटें बदले। आखिर उसने तरकीब निकाल ली। एक यात्री के बिस्तर में से चीजें निकालकर दूसरे यात्री के बिस्तर में रख दे। चोरी भी नहीं हुई…खुद तो लिया नहीं इसलिए चोरी तो कोई कह नहीं सकता…लेकिन उससे पुरानी आदत को राहत मिले। जैसे खाज को खुजलाने से सुख मिलता लगता है। मिलता तो नहीं, मिलता तो दुख ही है। मगर दस—पांच लोगों का सामान गड्डमड्ड कर दे, तो फिर वह चैन से सोए! यात्री बड़े हैरान, किसी का लोटा नदारद, किसी की बाल्टी खो गई, किसी की रस्सी ही खो गई। मिल तो जाएं—लेकिन कभी किसी के बिस्तर में, कभी किसी के बंडल में, कभी कहीं छिपी…। यहां तक कि एकनाथ के बिस्तर तक में लोगों की चीजें निकलने लगीं। अब यह तो कोई भरोसा ही न करे कि एकनाथ और चुराएंगे! बड़ी बेचैनी रही—और रोज यह हो! यह कोई एक दिन की बात नहीं, रोज सुबह उठकर लोगों को अपनी चीजें खोजनी पड़ें। यह कौन कर रहा है?

आखिर एकनाथ ने विचार किया। एक रात जग कर बैठे रहे कि देखें कौन करता है। वही चोर…उठा, उसने इसका सामान उसके बिस्तर में किया; इसका कंबल उसके बिस्तर में डाल दिया; उसका तकिया खींच कर इसके बिस्तर में कर दिया; एकनाथ ने उसे रंगे—हाथों पकड़ लिया और कहा कि देख, तूने आश्वासन दिया था! उसने कहा, महाराज, चोरी नहीं करूंगा, इसका आश्वासन दिया था, लेकिन अभ्यास नहीं करूंगा, इसका आश्वासन नहीं दिया था। आपने भी कहा है कि तीर्थयात्रा के बाद क्या करूंगा? मारा जाऊंगा, भूखा मारा जाऊंगा। यही तो मेरी कला है। चोरी मैं नहीं कर रहा हूं, एक पैसे की किसी की चीज मैंने नहीं ली है, अपने नियम पर आबद्ध हूं, जो व्रत ले लिया ले लिया; जो संकल्प कर लिया कर लिया; मगर अभ्यास नहीं करूंगा, ऐसा न मैंने आपसे कहा था, न आप अपेक्षा रखना। थोड़ी—बहुत तकलीफ लोगों को होती है—वह मुझे भी मालूम है—मगर यह मेरी जीवनचर्या है! आखिर उनकी तकलीफ देखूं कि अपनी तकलीफ देखूं? रात भर सो नहीं पाऊं—दिन भर यात्रा करनी है और रात नींद नहीं और दिन भर चलना, मैं मर ही जाऊंगा, घर लौट ही न पाऊंगा! हत्या तुम्हारे सिर लगेगी! एकनाथ को भी बात ता जंची। बात तो ठीक थी।

चोर आखिर चोर है। आदत आसानी से नहीं छूट सकती। आदतें नए—नए रास्ते निकाल लेती हैं, अपनी अभिव्यक्ति के नए—नए मार्ग खोज लेती हैं।

बनिया बानि न छोड़ै, पसंघा मारै जाय।।

पसंघा मारै जाय, पूर को मरम न जानी।

बड़ा प्यारा वचन है। सीधे—सादे वचन पलटू के, पर बड़े अमृत भरे हैं, बड़े रस भरे हैं। सत्य की उनमें बड़ी झलक है। कहते हैं कि आधा—पूरा तौल रहा है, इसे पूरे का मजा आया ही नहीं। बड़ी सांकेतिक बात कह दी—पूर को मरम न जानी। इसे सच्चे होने का राज ही पता नहीं है। इसे स्वच्छ होने का, सीधा, साफ—सुथरा होने का सौंदर्य ही पता नहीं है। और यह जो कमी किए जा रहा है, जो कम तौले जा रहा है, यह सिर्फ तौलने की ही बात नहीं है—ध्यान रहे—यह आदत अगर गहरी हो गई तो यह पूरे को, परमात्मा को कभी पा ही न सकेगा। यह कम की ही आदत बनी रही, तो पूरे को कैसे पाएगा? अपूर्ण से ग्रस्त हो जाएगा, तो पूर्ण को न पा सकेगा।

उपनिषद कहते हैं: उस पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। उस पूर्ण में हम पूर्ण को जोड़ दें, तो भी पूर्ण पूर्ण ही रहता है। उस पूरे को कब जानोगे? आदत तुमने बांधी है अपूर्ण की।

यह वचन तो सीधा—साफ है, लेकिन इसका दर्शन गहरा है। इसमें थोड़ी डुबकी मारो।

हम सब ने अधूरे की आदत बांध ली है। कोई कहता है, मैं शरीर हूं; कोई कहता है, मैं बुद्धि हूं; कोई कहता है, मैं मेरा धन हूं, मैं मेरा पद हूं, मैं मेरा मकान हूं…किसी का दीवाला निकल जाता है तो वह आत्महत्या कर लेता है, क्योंकि वह कहता है, अब बचा ही क्या? अब जी कर क्या करेंगे! जैसे धन ही जीवन था। किसी की पत्नी मर गई, किसी का पति मर गया, आत्महत्या! जैसे धन ही जीवन थी, जैसे पति ही जीवन था। जैसे जीवन सीमाओं में समाप्त हो जाता है। इतने छोटे बटखरों से जीवन को तौलोगे? और ये बटखरे भी पूरे नहीं; बनिए के बटखरे हैं। ये बटखरे भी सच्चे नहीं। यह जो अपूर्ण की आदत बनी है, अपूर्ण के साथ तादात्म्य कर लेने की, क्षुद्र के साथ अपने को जोड़ लेने की, क्षुद्र में आबद्ध हो जाने की, क्षुद्र से आच्छन्न हो जाने की, आच्छादित हो जाने की, इसके कारण ही हम पूर्ण को नहीं जान पाते। पूर्ण हमारा अधिकार है। हम पूर्ण हैं। तत्वमसि। तुम भी वही हो। जो बुद्ध हैं, जो महावीर हैं, जो कृष्ण हैं। तत्वमसि। तुम भी वही हो, जो क्राइस्ट हैं, जो जरथुस्त्र हैं, जो मुहम्मद हैं। तुम भी वही हो, जो इस सारे विराट में छाया है, जो फूलों में खिला है, चांदत्तारों में मुस्कुराया है।

तुम वही हो। मगर उस तरफ आंख कैसे उठे? तुमने तो बहुत छोटा—सा आंगन बना लिया है। आकाश को भूल गए, आंगन पर ही आंख टिका दी। आंगन में ही रह गए हो अटक कर। इतने छोटे आंगन में दुख न होगा तो क्या होगा, नर्क न होगा तो क्या होगा? इस छोटे आंगन में सांसें घुट रही हैं, प्राण फैल नहीं पाते, पंख खुल नहीं पाते। पिंजड़े बड़े छोटे हैं। पिंजड़ों के बाहर होने की कला ही धर्म है।

लेकिन आदतें पिंजड़ों की हैं। बंद रहने की आदत हो गई है। छोटे होने में हमारा अभ्यास इतना गहन हो गया है कि विराट होने में हम डरते हैं। अगर कोई तुमसे कहे कि तुम परमात्मा हो, तो तुम मानने को राजी नहीं होते। यही कहते रहे जाग्रतपुरुष कि तुम परमात्मा हो, मगर तुम मानने को राजी नहीं होते। तुम यह तो मानते ही नहीं कि तुम परमात्मा हो, तुम यह भी मानने को राजी नहीं होते कि बुद्ध परमात्मा हैं, कि कृष्ण परमात्मा हैं। तुम इतना बचना चाहते हो विराट से कि तुम बुद्धों को भी परमात्मा स्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि उनको स्वीकार करो तो फिर आज नहीं कल तुम्हें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि तुम भी वही हो। क्योंकि ऐसे ही हड्डी—मांस—मज्जा से तो वे भी बने हैं। ऐसे ही तो जैसे तुम—बीमार भी होते हैं, बूढ़े भी होते हैं, मरते भी हैं। तुम में और उनमें शरीर की तरह से कोई भेद नहीं है। अगर भेद है तो सिर्फ बोध का है। उन्हें पता है कि वे कौन हैं और तुम्हें पता नहीं कि तुम कौन हो। वे जागे हैं और तुम सोए हो। और सोना सिर्फ तुम्हारी आदत हो गई है।

सोने के भी थोड़े सुख हैं। चिंता नहीं, फिक्र नहीं। लेकिन सोने के दुख भी बहुत बड़े हैं। क्योंकि सोने के साथ ही जुड़े हैं सारे दुखस्वप्न। और सोने का सबसे बड़ा दुख यह है कि जागने का जो आनंद—उत्सव है, उससे तुम वंचित रह जाओगे। वे जो कमल खिलते हैं जागृति में, वह जो चैतन्य का नृत्य होता है जागृति में, उसकी बूंद भी तुम्हारे कंठ न उतरेगी। तुम सोए ही पड़े रह जाओगे, जीवन नाचता हुआ पास से गुजर जाएगा। जीवन गीत गाता हुआ पास से गुजर जाएगा और तुम सोए ही पड़े रह जाओगे। तुम्हें पता ही न चलेगा कि कैसा अपूर्व अवसर था और गंवा दिया। बाधा एक है—आदत। आदत मनुष्य को यंत्रवत बना देती है।

विलियम जेम्स ने उल्लेख किया है कि वह एक हॉटल में बैठा एक मित्र के साथ गपशप कर रहा था। रास्ते से गुजरता था एक मिलेट्री का रिटायर्ड कप्तान। सिर पर रख ली थी उस कप्तान ने एक टोकरी, जिसमें अंडे भरे थे। विलियम जेम्स बड़ा मनोवैज्ञानिक था अमरीका का, अपने मित्र से बात कर रहा था, संयोगवशात आदत के संबंध की बात चल रही थी। उसने कहा कि देखो, मैं तुम्हें उदाहरण देता हूं। बाहर की तरफ देखा और जोर से आवाज दी—अटेंशन! वह जो आदमी, कोई बीस साल पहले रिटायर हो चुका था, उसने एकदम टोकरी छोड़ दी और अटेंशन खड़ा हो गया! सारे अंडे फूट गए और रास्ते पर बिखर गए। बड़ा नाराज हुआ! मरने—मारने को उतारू हो गया! विलियम जेम्स से कहा, यह भी कोई मजाक है! मुझ गरीब आदमी के साथ! किसी तरह अपना पालन—पोषण कर रहा हूं। विलियम जेम्स ने कहा: लेकिन मैंने तुमसे कुछ कहा नहीं, अटेंशन शब्द का उपयोग करने का तो मुझे हक है। तुम न सुनते, तुम न मानते। उस आदमी ने कहा, यह मेरे बस का है क्या? जब अटेंशन कहा जाता है तो अटेंशन यानी अटेंशन। यह मैंने कोई जानकर किया? जानकर मैं करता! यह तो अब अचेतन आदत का हिस्सा हो गया है।

सैनिक को तैयार किया जाता है यंत्र की भांति। इसलिए सैनिक मनुष्यता का सर्वाधिक पतन है। और दुनिया में जब तक सैनिक रहेंगे, तब तक आदमी बहुत ऊंचाइयां नहीं ले सकता। सैनिक को हम खूब सम्मान देते हैं, क्योंकि उसकी आत्मा हम खरीद रहे हैं। सैनिक को हम अच्छी से अच्छी तनख्वाह देते हैं, क्योंकि उसका बड़ा बहुमूल्य जीवन हम नष्ट कर रहे हैं। सैनिक को हम खूब तगमे देते हैं—महावीर चक्र इत्यादि…। उसको बड़ी प्रतिष्ठाएं मिलती हैं।

क्यों? क्या कारण है?

कारण है कि वह अपने जीवन की सबसे बहुमूल्य निधि बेच रहा है—सस्ते में, दो टुकड़ों में। सैनिक का शिक्षण क्या है? सारे शिक्षण का एक ही सार है कि मनुष्य को नष्ट कर दो और आदतें—ही—आदतें रह जाएं—राइट टर्न, लेफ्ट टर्न, अटेंशन…। अब रोज किसी आदमी को तीन—चार घंटे राइट टर्न, लेफ्ट टर्न; राइट टर्न, लेफ्ट करना पड़े, कब तक सोच—सोच कर करेगा? थक जाएगा सोचना। फिर तो एकदम राइट टर्न सुना कि राइट टर्न हुआ। सुनने में और होने में बीच में विचार नहीं आएगा।

एक महिला ने एक मनोवैज्ञानिक को कहा कि मैं अपने पति से बहुत परेशान हूं। ज्यादा तो नहीं, क्योंकि वे मिलिट्री में हैं और कभी—कभी आते हैं। मगर जब आते हैं, तो जब भी वे बाएं करवट होते हैं, ऐसे घुर्राते हैं कि मेरी तो नींद लगती नहीं, बच्चे नहीं सो सकते, पड़ोसी तक शिकायत करते हैं। उनका घुर्राना क्या है जैसे सिंह की दहाड़! मगर एक बात है कि जब वे बाएं करवट होते हैं तभी घुर्राते हैं। तो कोई तरकीब?

मनोवैज्ञानिक ने कहा, तरकीब आसान है। जब वे बाएं करवट होते हैं तभी घुर्राते हैं न! तो तू कल जब वे रात सोएं और घुर्राने लगें बाएं होकर, तो कान में उनसे कहना—राइट टर्न! पत्नी ने कहा, इससे क्या होगा नींद में? मनोवैज्ञानिक ने कहा कि कहां नींद, कहां होश—सैनिक तो नींद में ही होता है। जागता कहां है? उसको जागने देते नहीं हम। उसको तो अफीम पिलाते हैं। उसको सुलाए रखते हैं। ये सोए हुए आदमी हमें चाहिए। क्योंकि लोगों की हत्याएं करवानी हैं, गोलियां चलवानी है, बम गिरवाने हैं। ये कोई जागे हुए आदमी कर सकेंगे ऐसे काम! इनके लिए तो बिलकुल मुर्दा चाहिए—मुर्दा और मजबूत! तू कोशिश तो कर!

पत्नी को कुछ जंची तो नहीं बात, मगर कोशिश करने में हर्ज भी क्या था? कोशिश की और चौंकी। कि जैसे ही उसने कहा, राइट टर्न, पति एकदम करवट बदल कर, राइट टर्न हो गए। घुर्राना बंद हो गया।

नींद में भी हमारी आदतें, हमारी अचेतन आदतें काम करती हैं। नींद में भी हम उनके वशीभूत होते हैं। वे इतनी गहरी चली गई होती हैं कि जागना जरूरी नहीं होता। सैनिक को वर्षों तक हम इसी तरह अचेतन करते हैं। जब वह बिलकुल अचेतन हो जाता है…इसी को शिक्षण कहते हैं—सैनिक का शिक्षण! परेड, कवायद। करवाते रहते हैं उल्टी—सीधी परेड, कवायद, जिसका कोई मूल्य नहीं है। क्या सार है आदमी को—बाएं घूमो, दाएं घूमो…!

एक दार्शनिक एक बार भर्ती हो गया युद्ध में। जैसे ही उसको कहा, बाएं घूमो, सब तो घूम गए, वह खड़ा ही रहा। पूछा उसके कप्तान ने—जाहिर, प्रसिद्ध दार्शनिक था, एकदम कप्तान फौजी भाषा में बोल भी नहीं सकता था; फौजी भाषा तो गाली—गलौज की होती है; अगर कोई और होता तो कप्तान ने जो भी गंदी—से—गंदी गालियां हो सकती थीं, दी होतीं; मगर इससे तो थोड़ा सम्मान से व्यवहार करना पड़ेगा, प्रसिद्ध आदमी है, लोकविख्यात है—कहा, महानुभाव…कहना तो चाहता था, हे उल्लू के पट्ठे!…लेकिन कहा, महानुभाव, जब मैंने कहा, बाएं घूम, तो आप खड़े क्यों हैं? दार्शनिक ने पूछा, लेकिन बाएं घूमूं क्यों? बाएं घूमने में प्रयोजन? बाएं घूमने से क्या मिलेगा? जो बाएं घूम गए हैं, उनको क्या मिला? और मैंने यह देखा कि जिसको तुमने बाएं घुमाया, फिर उनको दाएं घुमा दिया: वे फिर वैसे ही के वैसे खड़े हैं—जहां मैं खड़ा ही हूं पहले से। मैं वैसे ही का वैसा…इतने उपद्रव में मैं क्यों पडूं? तो पहले सिद्ध करो कि सार क्या है, प्रयोजन क्या है? और फिर यह भी पक्का करो कि फिर दाएं घूम तो नहीं कहोगे। नहीं तो क्या सार, इतना चक्कर मार कर फिर वहीं आ गए! तो पहले ही से वहीं खड़े रहें न!

कप्तान ने कहा कि यह तो आदमी काम का नहीं है। ऐसे सोच—विचार करोगे तो सैनिक होने की क्षमता खो देते हो। विचार का सैनिक होने से कोई नाता नहीं है।

संन्यासी को विचार के ऊपर उठना पड़ता है, सैनिक को विचार से नीचे गिरना पड़ता है। एक संबंध में संन्यासी और सैनिक में समानता होती है—दोनों निर्विचार। संन्यासी निर्विचार होता है विचार का अतिक्रमण करके, विचार का साक्षी बन कर और सैनिक निर्विचार होता है विचार इत्यादि की झंझट छोड़ कर; जड़वत हो जाता है। भेद बड़ा है, लेकिन समानता भी है।

कप्तान ने सोचा कि यह काम इससे नहीं होने का, तो कहा, भई, तुमसे यह काम नहीं होगा। तुम कोई दूसरा काम करो। अब भर्ती हो ही गए हो, तो तुम को हम चौके में लगा देते हैं। वहां कोई दाएं नहीं घूमना, बाएं नहीं घूमना। छोटे—मोटे काम, वह तुम करो। छोटा—से—छोटा काम दिया—मटर के दाने—कि बड़े दाने एक तरफ करो, छोटे दाने एक तरफ करो। जब दो घंटे बाद कप्तान आया, तो देखा कि दार्शनिक ठुड्डी से हाथ लगाए वैसा ही का वैसा बैठा है जैसा छोड़ गया था। और दाने वैसे ही के वैसे। एक दाना यहां से वहां नहीं हटाया है। उसने, कप्तान ने पूछा कि कोई अड़चन इसमें भी है आपको? उसने कहा, अड़चन है। अब सवाल यह है कि बड़े कर दो एक तरफ, छोटे कर दो एक तरफ, मंझोल भी हैं कुछ, उनको कहां करो? और जब तक सब चीजें बिलकुल साफ न हो जाएं…मैं बिना विचार के कदम उठाता ही नहीं। तो कप्तान ने कहा, हम आपके हाथ जोड़ते हैं, आप कृपा करके घर जाएं और घर ही विचार करें। यह स्थान आपके लिए नहीं है।

सैनिक को हम आदत में ढालते हैं। धीरे—धीरे वह यंत्रवत हो जाता है। तभी तो यह संभव होता कि हिरोशिमा पर एटम बम गिर देता है। नहीं तो सोचेगा नहीं आदमी: एक लाख आदमी मेरे बम गिराने से मर जाएंगे! इससे तो बेहतर है कि मैं कह दूं कि मुझे गाली मार दो। ये एक लाख आदमियों में छोटे—छोटे बच्चे होंगे, गर्भिणी स्त्रियां होंगी, अभी—अभी विवाहित युवक होंगे, अभी—अभी विवाहित युवतियां होंगी, अभी हनीमून पर जाने के लिए तैयार जोड़े होंगे, वृद्ध होंगे, वृद्धाएं होंगी, बीमार होंगे, रुग्ण होंगे—यह हीर—भरी बस्ती, एक लाख लोग, ये मिट्टी में मिल जाएंगे, एक पांच सेकेंड लगेंगे और राख हो जाएंगे! मैं इन्हें राख करूं?

लेकिन सवाल ही नहीं उठता उसे यह। वह सिर्फ अपनी आज्ञा का पालन करता है। उसे कहा गया है जो, वही करता है। वह उत्तरदायित्व के संबंध में सोचता ही नहीं। उत्तरदायित्व शब्द उसके भीतर होता ही नहीं कि मेरा कोई मानवीय दायित्व भी है; कि मेरे भीतर भी कोई नैतिक अंतस्चेतन होना चाहिए; कि मेरा भी कोई अंतःकरण है। अंतःकरण को तो हम मिटा डालते हैं।

वह एटम बम गिरा कर सैनिक रात मजे से सोया। सुबह जब पत्रकारों ने उससे पूछा कि रात सो सके—क्योंकि कौन ऐसा आदमी होगा जो एक लाख आदमियों को मारकर और रात सो सके!—उसने कहा, मैं बड़ी निश्चिंतता से सोया। क्योंकि जो काम दिया गया था, वह पूरा कर दिया। फिर नींद के अतिरिक्त और क्या है? नींद मुझे गहरी आई। एक लाख आदमी जल—भुन गए और यह आदमी रात भर गहरी नींद सोया रहा! आदमी हमने मिटा दिया इसके भीतर से।

दुनिया में जब तक राष्ट्र हैं, सेनाएं रहेंगी। और जब तक सेनाएं हैं, तब तक करोड़ों लोग बिना आत्मा के जीएंगे। उनका काम ही यही है कि वे मशीन की तरह व्यवहार करें।

भारतीय सरकार ने ठीक ही किया है। यहां मेरे पास जगह—जगह से पत्र आ रहे हैं सैनिकों के, जिनमें कुछ संन्यासी हैं, जो बहुत मुझमें उत्सुक हैं उनके पत्र आ रहे हैं कि सरकार की सूचनाएं मिली हैं कि न तो मेरी कोई किताब पढ़ी जाए, न टेप सुने जाएं, न मुझसे किसी तरह का संबंध रखा जाए। मुझसे किसी तरह का भी संबंध रखना सेना से बगावत समझी जाएगी। बात सच है। बात ठीक ही है। क्योंकि मैं जो कह रहा हूं, वह कोई एक ही सेना से बगावत की बात नहीं है, मैं तो चाहता हूं इस दुनिया में सेना रह ही न जाए। इसलिए सरकार ठीक ही बात कह रही है। क्योंकि मेरी बात सैनिकों तक नहीं पहुंचनी चाहिए। अगर यह उन तक पहुंचेगी और उनको यह बोध होना शुरू हो जाए कि उनका जीवन किस तरह नष्ट किया जा रहा है, किस तरह उनकी आत्मा को धूमिल किया जा रहा है, किस तरह उनकी चेतना को आदतों में दबाया जा रहा है, किस तरह उनको मशीनों में बदला जा रहा है, तो शायद उनके भीतर भी अपनी आत्मा को इस तरह नष्ट न होने देने के लिए विचार उठे। मेरी बात खतरनाक हो सकती है।

मेरी बात का मौलिक आधार यही है कि मनुष्य के भीतर सबसे बड़ी कीमती, मूल्यवान चीज है उसकी चेतना। और जिन कारणों से भी चेतना नष्ट हो जाती है, वे सभी कारण घातक हैं। आदत सबसे बड़ी घातक चीज है।

तुमने कहा गया है बार—बार कि अच्छी आदतें होती हैं, बुरी आदतें होती हैं; मैं तुमसे कहता हूं कि सब आदतें बुरी होती हैं। आदत मात्र बुरी होती है। आदत ही बुरी होती है। एक आदमी को आदत है कि वह सिगरेट पीता है, इसको हम कहते हैं, बुरी आदत। क्या बुरा है इसमें? यह आदमी धुआं भीतर ले जाता है, बाहर ले जाता है। स्वास्थ्य के खिलाफ है जरूर, शायद सत्तर साल जीता तो अब दो साल कम जीएगा, शायद यह आदमी जानता नहीं कि स्वच्छ और ताजी हवाओं को भीतर ले जाने में ज्यादा सार है—ज्यादा आयुवर्द्धक, ज्यादा स्वास्थ्यवर्द्धक—यह नाहक हवाओं को गंदा करके भीतर ले जा रहा है, नासमझ, मगर कोई पाप नहीं कर रहा है। और इसको जब समय पर सिगरेट नहीं मिलती है तो तलफ लगती है। मैं इसके धुएं के बाहर—भीतर ले जाने को या थोड़ी—सी निकोटिन इसके भीतर पहुंच जाने को कोई पाप नहीं मानता। लेकिन बिना सिगरेट के यह नहीं जी सकता, इस बात में असली भूल है। यह आदत का गुलाम हो गया। इसको सिगरेट न मिले तो यह मुश्किल में पड़ जाएगा।

जब पहली दफा उत्तरी ध्रुव पर यात्री गए, तो उनकी नाव फंस गई। सोचा था कि लौट आएंगे समय पर, लेकिन नहीं लौट सके, तीन सप्ताह देर से लौट पाए। उन तीन सप्ताह में उन यात्रियों की डायरी में जो उल्लेख है…भोजन चुक गया, उसकी लोगों को फिक्र नहीं, मछलियां मार कर किसी तरह भोजन कर लेते, सबसे बड़ी दिक्कत खड़ी हो गई कि सिगरेट चुक गई। तीन सप्ताह के लिए सिगरेट नहीं थी। और कैप्टन इतना घबड़ा गया कि लोग जहाज की रस्सियां काट—काट कर पीने लगे। अब अगर सब रस्सियां कट जाएं तो फिर यात्रा हो ही नहीं सकती। उसे लोगों को पहरे पर रखना पड़ता कि कोई रस्सियां न काटे। मगर जिनको पहरे पर रखता, वे ही रस्सियां काट कर पी जाते। अब तुम सोच नहीं सकते कि कोई जहाज की सड़ी—गली रस्सियों को काटकर और पीएगा। लेकिन आदत आदत है। आदमी किसी भी मजबूरी के लिए राजी हो सकता है। मजबूरी में किसी चीज के लिए राजी हो सकता है।

मैं सिगरेट पीने को पाप नहीं कहता। लेकिन वह जो आदत है…। अगर कोई सिगरेट पीने का मालिक हो, कि जब चाहे पी ले और जब चाहे छोड? दे; आज पी ले और फिर छह महीने नाम न ले, फिर पी ले एक दिन और फिर ऐसे रख दे जैसे कभी न पी थी, तो मैं कुछ एतराज नहीं करूंगा, मैं कहूंगा—यह मालिक है अपना। इसकी मौज! कभी अगर एकाध दहा धुआं उड़ाने का मजा इसे लेना होता है तो ले लेता है। मगर यह कोई आदत नहीं है; तो पाप नहीं है। पाप निकोटिन में नहीं है, पाप सिगरेट में नहीं है, तमाखू में नहीं है, पाप अगर कहीं है तो आदत में है। तो फिर बात बदल जाएगी। फिर हमें पूरा—का—पूरा दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा।

एक आदमी है कि जिसको आदत है कि रोज सुबह माला जपे। अगर एक दिन माला न जपे, तो तलफ लगती है—उसको भी मैं तलफ ही कहता हूं, है वह तलफ ही। हालांकि वह आदमी कहता है कि बिना माला जपे मुझे अच्छा नहीं लगता; मुझे राम से ऐसा लगाव है; प्रभु की मुझे ऐसी याद आती है; वह धार्मिक शब्दों का उपयोग करता है, सच बात यह है कि तकलीफ, वह जब तक माला…अब माला जपने में कौन—सी खूबी हो सकती है? गुरिए सरका रहा है और राम—राम, राम—राम, राम—राम और गुरिए सरका रहा है और राम—राम, राम—राम कर रहा है, जब तक वह अपनी संख्या पूरी न कर ले, अगर एक हजार आठ बार करना है माला का जप तो एक हजार आठ बार न कर ले—अगर एक हजार सात बार भी किया तो दिन भर उसे खटक लगी रहेगी कि कुछ कमी रह गई, कुछ कमी रह गई—यह आध्यात्मिक ढंग का निकोटिन है। इसमें कुछ बहुत फर्क नहीं है। यह आदत धार्मिक है मगर उतनी ही घातक है जितनी पहली आदत। शायद थोड़ी ज्यादा घातक है। क्योंकि पहली तो बुरी है, ऐसा लोगों को पता है; दूसरी आदत बड़ी अच्छी है, ऐसा लोगों को पता है।

मैं एक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर था। घूमने जाता था रोज सुबह। यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर भी मेरे साथ घूमने जाते थे। उनको आदती थी कि कोई भी मंदिर देखें तो हाथ जोड़कर नमस्कार करना है। मैं जरा परेशान हुआ। क्योंकि जहां से हम गुजरते थे, कहीं मढ़िया हनुमान जी की आ जाए, कहीं शिव जी का शिवलिंग आ जाए, कहीं रामचंद्र जी का मंदिर आ जाए, वे जल्दी से खड़े हो जाएं—उनके साथ मुझे भी खड़ा होना पड़े। अब उनके साथ, घूमने उनको ले गया हूं, तो इतना तो शिष्टाचार रखना ही पड़े। मैंने उनसे कहा, यह मामला क्या है? उन्होंने कहा, यह बचपन से मेरी संस्कारशीलता…सुसंस्कार! मेरे माता—पिता बड़े धार्मिक थे। उन्होंने मुझे यह सिखाया। मैंने कहा, यह कोई सुसंस्कार नहीं है, यह सिर्फ एक जड़ आदत है। उन्हें बहुत समझाया, उनके बात कुछ सिर में घुसी।

मैंने कहा कि अगर यह सुसंस्कार है, तो कल तुम मेरे साथ चलो और तय कर लो कि चाहे हनुमान जी मिलें और चाहे शिव जी मिलें, चाहे राम जी मिलें—कोई भी मिले—नमस्कार नहीं करना। बस पहली हनुमान जी की मढ़िया जैसे—जैसे करीब आने लगी, उनकी हालत देखने जैसी! सुबह की ठंडी हवा और उनके माथे पर पसीना। और वे हाथों को अकड़ाए हुए, क्योंकि डरे। कि वे हाथ न जोड़ लें, नहीं तो मेरे साथ…मैंने कहा कि बस यह आखिरी दिन है, आज तय हो जाएगा, या तो मेरा साथ, या हनुमान जी का साथ। अब तुम तय ही कर लो। तुम अपनी पार्टी निश्चित कर लो! वे मेरा साथ छोड़ना भी नहीं चाहते थे—और हनुमान जी का कैसे छोड़ें। और हनुमान जी बैठे हैं, और देख रहे। और बस जैसे—जैसे उनकी मढ़िया करीब आने लगी, वे मुझसे बोले कि माफ करें, मेरी हिम्मत मढ़िया के सामने से बिना नमस्कार किए निकलने की नहीं है—मैं गिर पडूंगा। मेरे पैर लड़खड़ा रहे हैं! और मैंने कहा, तुम इसको संस्कार कहते थे? सुसंस्कार? तुम इसको धार्मिकता समझते थे? और कहां के हनुमान हैं यहां! एक पत्थर पर लोगों ने लाल रंग पोत दिया है।

मैंने उनको कहा कि जब अंग्रेजों ने पहली दफा भारत में रास्ते बनाए और रास्ते के किनारे मील के पत्थर लगाए, तो उनको कुछ पता नहीं था, उन्होंने मील के पत्थर लाल रंग से रंगे, क्योंकि लाल रंग दूर से दिखाई पड़ता है। और हरियाली हो चारों तरफ, वृक्ष—पौधे हों, तो लाल रंग ही दिखाई पड़ेगा, दूसरा रंग छिप जाएगा। मगर वे बड़ी मुश्किल में पड़े, क्योंकि मील के पत्थर जहां—जहां उन्होंने लगाए, लोग उनकी पूजा करने लगे। क्योंकि इस मुल्क में तो लोग हनुमान जी को इसी तरह तो बनाते रहे हैं। कहीं भी पत्थर खड़ा कर दो, लाल रंग पोत दो, दो फूल चढ़ा दो, फिर तुम्हारे पीछे जो आएगा वह झुककर नमस्कार करने वाला है। न हो तो तुम करके देखो। एक पत्थर रख कर अपने घर के समाने लाल रंग पोत दो, सेंदुर पोत कर दो फूल वहां रख दो, बस तुम देखोगे कि चले लोग! और फूल चढ़ने लगे, पैसे भी चढ़ने लगे, नमस्कार भी होने लगे।

और लोगों की मनोकांक्षाएं भी पूरी होने लगेंगी यह भी खयाल रखना। क्योंकि पचास मूरख आएंगे तो दस—पांच की तो हो ही जाएंगी पूरी। वैसे भी हो जातीं, वे न आते तो भी। गांव के लोगों को समझाना पड़ा अंग्रेजों को, बहुत मुश्किल से समझाना पड़ा कि भाई, ये हनुमान जी नहीं हैं, यह मील का पत्थर है।

मैंने उसने कहा, कहां के हनुमान जी! बोले कि बात तो आपकी समझ में आती है, मगर मेरा दिल क्यों धड़कता है? बस ठीक हनुमान जी की मढ़िया सामने आई कि उन्होंने तो हाथ जोड़ लिए। उन्होंने मुझसे कहा, आप चाहे साथ रखो, चाहे न रखो, मगर हनुमान जी को छोड़ कर मुझे चैन न रहेगी। मेरा दिन भर मुश्किल में पड़ जाएगा।

अब इसको क्या कहोगे? शराब की लत, अफीम की लत, कि सिगरेट पीने की लत और इस लत में कुछ भेद है?

फिर शराब में तो कुछ केमिकल भी हैं जो नशा लाते हैं। अफीम में तो कुछ है बात, जिससे नशा चढ़ता है। अफीम चाहे हिंदू को पिलाओ, चाहे मुसलमान को, चाहे ईसाई को, तीनों को नशा लगेगा। लेकिन अनुमान जी की मूर्ति के सामने सिर्फ हनुमान के भक्त को ही नशा लगता है—और किसी को नहीं लगता। इसलिए मामला शुद्ध मनोवैज्ञानिक है। बाहर कुछ भी नहीं है। मस्जिद के सामने से हिंदू बिलकुल ऐसे निकल जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता है कि मस्जिद थी। उसी मस्जिद के सामने मुसलमान का भाव देखो! कैसा भाव—विभोर हो जाता है! वह अल्लाह का घर है। जैन मंदिर के सामने कभी हिंदू को कोई चिंता होती है? शास्त्रों में तो लिखा है कि पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना, मगर अगर जैन मंदिर में शरण मिलती हो तो मत लेना। और जैन शास्त्रों में भी यही लिखा है। क्योंकि शास्त्रों में कुछ भेद नहीं है। ये एक ही तरह के लोग लिखते हैं। इनके नाम, विशेषण भिन्न हों, मगर इनकी बौद्धिकता में कोई भिन्नता नहीं होती। इनकी मूढ़ता में, जड़ता में कोई भेद नहीं होता। जैन शास्त्रों में भी ठीक यही लिखा है कि अगर कोई जैन पाए कि पागल हाथी उसके पीछे पड़ा है और लगता हो कि पास में ही हिंदू मंदिर है, प्रवेश कर जाए तो बच सकता है, मगर प्रवेश मत करना। पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाने से स्वर्ग मिलेगा, मगर हिंदू मंदिर में प्रवेश किया तो नर्क निश्चित है।

यह तो बिलकुल मनोवैज्ञानिक जाल है। इस जाल में तो कुछ भी अर्थ नहीं है। यह तो सिर्फ तुम्हारा बनाया हुआ भ्रम है।

जिनको तुम अच्छी आदतें कहते हो, अगर वे आदतें हैं, तो अच्छी नहीं। मुक्ति, स्वातंत्र्य अच्छी बात है।

अब अगर एक आदमी मजबूर है तीन बजे उठ कर घूमने जाने को—चाहे बीमार भी हो, चाहे धुआंधार वर्षा हो रही हो, चाहे बर्फ पड़ रही हो, मगर उसको जाना ही पड़ेगा—तो यह मनोवैज्ञानिक रोग है। यह कोई ब्रह्ममुहूर्त में घूमना नहीं है।

एक महिला मेरे पास आई और उसने कहा कि मेरे पति आपके पास आते हैं, हम थक गए, आप ही कुछ करें। क्योंकि शायद आपकी मानें वे, और किसी की तो वे मानते नहीं। मैंने पूछा, क्या अड़चन है? तो उसने कहा कि वे आधी रात उठ आते हैं…सरदार जी थे। बड़े ओहदे पर थे, मिलिट्री में थे। मेरे पड़ोस में ही रहते थे। कभी—कभी आते थे… पत्नी ने कहा, आधी रात उठ आते हैं और इतने जोर से जपु जी का पाठ करते हैं—एक तो सरदार, फिर मिलिट्री में, मजबूत और फिर जपु जी का पाठ—घर में सोना हराम हो गया! न बच्चे सो सकते, न मैं सो सकती। पास—पड़ोस के लोग भी एतराज करते हैं। और उनसे कुछ कहो तो वे कहते हैं, तुम सब नास्तिक हो; धार्मिक कार्यों में बाधा डालते हो! अरे तुम भी उठो और तुम भी जपु जी का पाठ करो! मैं तो करता ही इसलिए इतने जोर से हूं कि जिससे तुमको भी कुछ बोध आए। सोए—सोए भी तुम्हारे कान में ये शब्द पड़ गए तो अमृत हैं। वे तो सुनने वाले नहीं। दो बजे रात उठ आते!

मैंने उनसे पूछा, मैंने कहा: चरन सिंह, तुम्हारी पत्नी कहती है कि तुम आधी रात उठ कर जपुजी का पाठ करते हो। अरे—कहा—आधी रात, नहीं, ब्रह्म मुहूर्त! दो बजे सुबह! अंग्रेजी हिसाब से दो बजे सुबह होता है, बिलकुल ठीक। क्योंकि बारह बजे एक दिन खतम हो गया। फिर तो एक बजे, दो बजे…यह तो फिर दूसरे दिन में गिनती है इनकी। अंग्रेजी हिसाब से दो बजे सुबह। कौन कहता है आधी रात? मेरी पत्नी की बातों में मत पड़ना, वह तो उलटी—सीधी खबरें उड़ाती है मेरे बाबत। वह तो कहती है, मैं चिल्ला—चिल्ला कर जपु जी का पाठ करता हूं। अरे, यह मेरा सहज स्वर है! इसमें कोई चिल्लाना नहीं है। और क्या आप जैसा धार्मिक व्यक्ति भी इसके विरोध में है? मैंने कहा कि नहीं, तुम करते तो अच्छा ही हो, सिर्फ इन बेचारे अधार्मिकों पर थोड़ी दया करो, और अगर दो से तुम चार बजे कर दो तो अच्छा होगा। उन्होंने कहा, बहुत मुश्किल बात है। तो दो घंटे मैं क्या करूंगा? मैं पगला जाऊंगा। दो बजे के बाद मुझे नींद आती नहीं, आ सकती नहीं, जिंदगी—भर का अभ्यास है। वह तो यह समझो कि जपु जी में उलझा रहता हूं, नहीं तो कुछ और उपद्रव कर बैठूंगा। मैंने कहा, यह बात जरूर सोचने—विचारने जैसी है! पत्नी को इसका कुछ अंदाज नहीं है।

मैंने पत्नी को कहा कि वे यह कहते हैं कि दो बजे से चार बजे फिर मैं क्या करूंगा? कुछ और उपद्रव कर बैठूंगा। पत्नी ने कहा, अगर कुछ और उपद्रव करना हो तो भइया, जपु जी का पाठ ही करो!

अच्छी आदतें भी आदतें हैं। और जिन चीजों से भी मालकियत खो जाती हो, उनमें आत्मा नष्ट होती है।

पलटू कहते हैं—

बनिया बानि न छोड़ै, पसंघा मारै जाय।।

पसंघा मारै जाय, पूर को मरम न जानी।

निसिदिन तौलै घाटि खोय यह परी पुरानी।।

यह पुरानी जो आदत पड़ गई है, छोड़ता नहीं है। रोज वही किए जाता है—वही खोट।

ऐसे दिये वक्त ने झांसे

हारे राजा नकल के पांसे।

बदल गया सब दाना पानी

तारत्तार हो गई जवानी

जैसे कोई बूढ़ा खांसे।

 

हुए बसंत, हलंत हमारे

टुकड़े—टुकड़े हुए सितारे

 

सपने टूटे यहां—वहां से।

जीवन आखिर—आखिर में बस ऐसा ही पाया जाता है कि गंवाया। एक सपना यहां टूट गया, एक सपना वहां टूट गया, सारे यात्रापथ पर टूटे हुए सपनों के ढेर लगते जाते हैं और हाथ सत्य कभी लगता नहीं। क्योंकि सत्य तुम्हारे आंतरिक स्वातंत्र्य में है। उस स्वतंत्रता को हमने मोक्ष कहा है। वह तुम्हारी परम धन्यता की अवस्था है। लेकिन उस स्वतंत्रता को पाना हो, तो आदतों से मुक्त होना पड़ेगा। फिर वे बुरी हों कि अच्छी, इससे सवाल नहीं है। बंधन बुरा है, मुक्ति अच्छी है।

केतिक कहा पुकारि, कहा नहिं करै अनारी।

और कितना पुकारो, कितना पुकार—पुकार कर कहा है संतों ने, जागे पुरुषों ने—उठो अपनी आदतों से, स्वतंत्रता से जीओ!

केतिक कहा पुकारि, कहा नहिं करै अनारी।

लालच से भा पतित, सहै नाना दुख भारी।।

मगर नहीं, तुम अपने लालच में ही पड़े हो। तुम अपने लोभ में ही पड़े हो। लोभ भी एक आदत है। लोभ का अर्थ है: और; और की आदत। तुम्हारे पास दस हजार रुपए हैं; जब नहीं थे तो तुम सोचते थे, दस हजार हो जाएं तो बस पर्याप्त; जब दस हजार हो जाते हैं तो तुम कहते हो, लाख हो जाएं तो पर्याप्त। वह दस का अनुपात बना ही रहता है। जितने हैं, उससे दस गुने। और यह तुम कभी सोचते भी नहीं कि दस हजार भी हो गए, फिर कुछ न हुआ; लाख भी हो गए, फिर कुछ न हुआ; दस लाख भी हो गए, फिर कुछ न हुआ। दस करोड़ भी हो जाएंगे, तो कैसे कुछ हो जाएगा? आखिर यह मात्रा का बढ़ता जाना ही जीवन में कोई क्रांति तो नहीं ला सकता। गुणात्मक परिवर्तन होना चाहिए, परिमाणात्मक परिवर्तन से कोई भी क्रांति नहीं होती।

एक मकान से दो मकान हो गए, दो से चार मकान हो गए—इससे क्या होगा? तुम तो वही के वही हो। एक मकान में रहो कि चार मकानों में रहो, तुम तो वही के वही हो। तुम्हारी तिजोड़ी में कितने नोट हैं, इससे तुम्हारी आत्मा में कोई समृद्धि न बढ़ती है, न घटती है। तुम तो वही के वही—दीन, भिखारी। तुम्हारा भिक्षापात्र कभी भरेगा नहीं।

लालच से भा पतित, सहै नाना दुख भारी।।

और कितने दुख झेलते हो! मगर फिर भी जागते नहीं। जिन दुखों को झेलते हो, उन्हीं दुखों को रोज—रोज पैदा करने की चेष्टा भी करते हो। जिस चीज से कल दुख पाया था, फिर आज उसी के पीछे दौड़ रहे हो।

मुल्ला नसरुद्दीन सुबह ही सुबह नाश्ते की टेबल पर बैठा चुपचाप अखबार पढ़ रहा था। पत्नी अंट—शंट बके जा रही थी, मगर वह अपना अखबार ही पढ़े जा रहा था। पत्नी ने कहा, कुछ खाओगे—पीओगे नहीं? मुल्ला ने कहा, अखबार में छपी गालियां खा रहा हूं। तू चुप रह! इतनी गालियां काफी हैं, तू और सिर खा रही है। पत्नी ने अपना सिर ठोंक लिया—जो उसकी आदत थी—उसने कहा कि किसके पल्ले पड़ गई! जिंदगी खराब हो गई! कम—से—कम सुबह तो ढंग से बोला करो। सुबह तो ठीक से शुरू हो। सुबह ही से सब खराब कर देते हो, ऐसी वाणी बोलते हो। और इस तरह व्यवहार करते हो…मैं कोई तुम्हारे पीछे पड़ी थी! तुम्हीं मेरे पीछे पड़े थे। प्रेम—पत्र किसने पहले लिखा था? और कौन छुट—छुप कर मेरी गली में आता था? और रात चोरी से कौन मेरे दरवाजे खटकाता था? मैं तुम्हारे घर गई थी? मैंने चिट्ठी लिखी थी. मैं तुम्हारी गली में गई थी? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, मैं ही गया। क्योंकि हमेशा चूहा ही चूहादानी की तरफ जाता है, चूहादानी नहीं जाती। चूहादानी तो अपनी जगह बैठी रहती है। मैं मूरख!

फिर दूसरी कहानी है कि पत्नी बीमार पड़ी—कुछ संघातक बीमारी हो गई, मरने के करीब है। मुल्ला से उसने कहा कि बस, जीवन में तुमने दुख—ही—दुख दिए, मरते वक्त एक सुख दे दो—एक आश्वासन। मुझे पक्का मालूम है, इधर मैं मरी कि उधर तुमने शादी की। मुल्ला ने कहा, कभी नहीं, कभी नहीं, एक अनुभव बहुत है! इस जनम में क्या, दस जन्मों तक अब शादी करने वाला नहीं हूं। तूने जो पाठ दिए हैं, कभी भूलूंगा नहीं। यह बात ही मत उठा। लेकिन पत्नी ने कहा कि तुम छोड़ो यह बकवास, मैं तुम्हीं जानती हूं, भलीभांति जानती हूं—मुझ से बेहतर तुम्हें कौन जानता है—इधर मैं मरी कि उधर तुमने शादी की। एक वचन मुझे दे दो कि मेरे कपड़े, मेरे गहने तुम्हारी नई पत्नी को नहीं पहनने दोगे। मेरी आत्मा को बहुत दुख होगा। मुल्ला ने कहा, अब तूने बात ही उठा दी, तो साफ बता दूं, रजिया को तेरे कपड़े बनेंगे भी नहीं।

अभी मरी भी नहीं है पत्नी और दूसरी चूहादानी की उन्होंने तैयारी कर ली!

एक आदत से आदमी छूटता भी नहीं है कि दूसरी के लिए तैयार कर लेता है। पहले ही तैयारी कर लेता है कि कहीं ऐसा न हो खाली रह जाऊं। लोग आदतें बदलते रहते हैं। सिगरेट पीने वाला पान खाने लगता है। वह कहता है, सिगरेट छोड़ दी, पान खाते हैं। पा खाने वाला पान खाना छोड़ देता है, तमाखू मलने लगता है। वह कहता है, हम तमाखू खाते हैं। मेरे एक परिचित हैं, उन्होंने तमाखू भी छोड़ दी। अब वे नसनी, नस सूंघा करते हैं। वह और भद्दी लगती है, उनकी नाक लाल…और बीच—बीच में निकालकर डिबिया वह नसनी…! मैंने उनसे कहा, भइया, तुम तमाखू ही खाते थे तो कम—से—कम किसी को दिखाई तो नहीं पड़ती थी। सिगरेट पीते थे तो कम—से—कम थोड़ी देखने—दिखाने में ढंग की मालूम पड़ती थी। यह और नससुंघनी तुमने कहां से सीख ली! मगर वह कुछ—न—कुछ तो चाहिए। एक छोड़ते हैं, दूसरी को पकड़ते हैं।

तुम जरा अपने जीवन को गौर से देखना, यही तुम्हारी गति है। यह मन का ही ढंग है। यह मन का जाल है।

यह मन भा निर्लज्ज, लाज नहिं करै अपानी।

यह मन बहुत निर्लज्ज है। इसको लाज भी नहीं आती, वही—वही मूढ़ताएं रोज—रोज करता है, फिर भी लाज नहीं आती। यह बहुत निर्लज्ज है।

जिन हरि पैदा किया ताहि का मरम न जानी।।

और सब तो कर रहे हो, न मालूम क्या—क्या कर रहे हो—कैसे—कैसे उलटे कामों में लगे हैं लोग! एक—से—एक उपद्रव, जिनमें कोई मूल्य नहीं है। कोई कुछ नहीं मिलता तो पोस्टआफिस के स्टैम्प ही इकट्ठे कर रहा है। उलझाएं हैं अपने को किसी तरह। कैसी—कैसी आदतें हैं लोगों की, जरा देखो। कोई शतरंज ही खेल रहा है। कोई ताश के पत्तों में ही उलझा हुआ है। और ऐसे उलझे हैं कि जैसे जीवन—मृत्यु का सवाल हो। ताश के खिलाड़ियों को देखो! सब भूल—भाल कर लगे हैं।

और इस जिंदगी में और भी सब खेल इसी तरह के हैं। राजनीति के खिलाड़ी हैं, सब भूल—भाल कर लगे हैं। धन के खिलाड़ी हैं। जैसे जिंदगी में बस एक काम है कि मरते वक्त धन का ढेर छोड़ कर मरना। है। एक कौड़ी भी साथ न ले जा सकेंगे। और मौलिक बात चूकी जा रही है—जिन हरि पैदा किया ताहि का मरम न जानी।

जिस स्रोत से आए हो, उसको कब खोजोगे? उस अंतरतम को कब खोजोगे, जो तुम्हारा वास्तविक जीवन है, जो तुम्हारा अस्तित्व है, जो तुम्हारा सार है! उसका मरम नहीं जाना!

चौरासी फिरि आय कै पलटू जूती खाय।

इतना लंबा चक्कर लगा कर आदमी हो पाए हो और इधर भी जूते खा रहे हो! और बीमारी छोटी है। बीमारी कुछ बड़ी नहीं है। पलटू यह कह रहे हैं, बीमारी सिर्फ एक बार है कि तुम्हारी चेतना अभी स्वतंत्र नहीं है, परतंत्र है, बस। और आदतों के जाल से घिर गई है। बीमारियां बड़ी नहीं हैं, बीमारियां छोटी हैं, सीधी—साफ हैं। शायद इसीलिए तुम्हें दिखाई नहीं पड़तीं।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन जा रहा था रास्ते से बिलकुल घसिटता, गालियां देता हुआ। डाक्टर मिल गया। उसने कहा कि क्योंकि इतनी गालियां दे रहे हो, बात क्या है? उसने कहा: मेरे पैर में बड़ी तकलीफ है। डाक्टर ने कहा, तुम मेरे साथ आओ, गालियां देने से क्या होगा! डाक्टर ने कहा कि तुम्हारे अपेंडिक्स को निकालना पड़ेगा। डाक्टर ने बहुत जांच की। जब डाक्टर बहुत जांच करे और कुछ न मिले, तो अपेंडिक्स निकालता है। पक्का समझ लेना, जब भी डाक्टर कहे—अपेंडिक्स, समझ लेना कि उसको कुछ मिल नहीं रहा है। अपेंडिक्स बिलकुल निर्दोष चीज है। उसको निकाल बाहर कर दिया। मगर दर्द था सो जारी ही रहा।

दूसरे डाक्टर के पास नसरुद्दीन गया कि भई, होगा क्या मामला? अपेंडिक्स भी निकल गई! उसने कहा कि तुम्हारे टान्सिल निकाल पड़ेंगे। जब अपेंडिक्स निकल जाए, तो टान्सिल। टान्सिल भी निकल गया, मगर दर्द जारी रहा।

तीसरे के पास गया, उसने कहा कि तुम्हारे दांत बदलने पड़ेंगे। दांत भी निकल गए, मगर दर्द था सो जारी—का—जारी रहा। हालत भी खराब हो गई—दांत निकल गए, अपेंडिक्स निकल गई, टान्सिल निकल गए…अब कुछ निकलने को बचा भी नहीं—बस ये तीन ही चीजें निकाल सकते हो—हालत बिलकुल उसकी खस्ता हो गई, बिलकुल मुर्दा जैसी हालत हो गई। बिलकुल झुक कर चलने लगा, लकड़ी टेक—टेक कर चलने लगा। और फिर एक दिन लोगों ने देखा, उसने लकड़ी फेंक दी है, सीधा खड़ा हो गया है और मुस्कुराता हुआ, फिल्मी धुन गुनगुनाता हुआ चला जा रहा है। लोगों ने पूछा, अरे भाई, कोई चिकित्सक मिल गया जिसने बीमारी ठीक कर दी? उसने कहा, ऐसी की तैसी चिकित्सकों की! मेरे जूते में खीली थी, वह गड़ती थी, उसकी वजह से परेशानी हो रही थी। नालायकों की समझ में आया नहीं। बड़ी—बड़ी जांच—पड़ता की…कार्डियोग्राम इत्यादि…। अब कार्डियोग्राम में कहीं जूते में लगी खीली आए!

तुम्हारी जिंदगी में भी कोई सवाल बड़े नहीं हैं। और पंडित बड़े—बड़े समाधान लिए बैठे हैं। तुम्हारी जिंदगी के सवाल भी बहुत छोटे हैं। समझ हो तो जूते की खीली निकालने जैसे हैं।

आदतों से मुक्त होओ!

इसलिए मैं अपने संन्यासी को कोई अनुशासन नहीं देता, क्योंकि अनुशासन आदत बन जाते हैं। मुझसे लोग पूछते हैं, कि संन्यासी को कितने बजे उठना चाहिए? मैंने कहा, जितने बजे नींद खुले। क्या खाना चाहिए? कब खाना चाहिए? कितनी बार खाना चाहिए? अगर ये बातें तुम मुझसे पूछोगे तो आदतें बन जाएंगी। यह तुम्हारी चेतना को ही निर्णय लेना चाहिए। अगर इतना होश भी नहीं है कि कब उठना, कब खाना, कब पीना, तो तुम आशा छोड़ो कि तुम जीवन के मूल को, कि जीवन के सत्य को कभी जान सकोगे! अगर ये बातें भी तुम दूसरों से पूछते फिरोगे—जिंदगी अपनी अगर तुम्हें जीना नहीं आता, अगर जिंदगी को थोड़ा संवार कर, सुंदर करके जीना नहीं आता तो तुम और क्या करोगे?

वह खाना चाहिए, जो परेशानी में न डाले। तब सो जाना चाहिए, जो स्वास्थ्यप्रद हो। तब उठ आना चाहिए, जब जिंदगी ताजी से ताजी हो। जब तुम गीत गा सको और नाच सको। जब सूरज जगे, जब पक्षी बोलें, जब वृक्ष उठ आएं, तब तुम्हारा पड़े रहना ठीक नहीं। और भोजन उतना कि शरीर पर बोझ न हो। और भोजन वह कि किसी को दुख न हो। सीधी—सीधी बातें, इतनी सीधी बातें भी तुम तय न कर सकोगे, यह भी कोई अनुशासन देगा? तो फिर अड़चनें होती हैं। फिर अनुशासन में तरकीबें निकलती हैं।

अगर मैं कहूं कि पांच बजे सुबह उठ आओ, तो तुम पूछोगे—अगर बुखार चढ़ा हो, फिर? तो कोई अपवाद बनाना पड़ेगा। अगर तबियत बीमार हो, फिर? अगर मैं कहूं कि दो बार भोजन करो और तुम कहो कि मुझे तो बीमारी है और डाक्टर कहते हैं कि थोड़ा—थोड़ा भोजन चार—छह बार करो, तो? फिर सवाल उठने शुरू होते हैं।

तुम जानकर हैरान होओगे कि बौद्ध ग्रंथों में बौद्ध भिक्षु के लिए तैंतीस हजार नियम हैं। याद भी कौन रखेगा! जो भिक्षु याद ही कर लेगा तैंतीस हजार नियम, वह पालन कब करेगा? याद ही करने में मर जाएगा। तैंतीस हजार नियम! मगर बनाने पड़े होंगे।

इसी तरह तो कानून बनते हैं दुनिया में। इसी तरह तो विधान बनते हैं। सरकार एक नियम बनाती है, फिर लोग उसमें से तरकीब निकाल लेते हैं, फिर उस तरकीब को मिटाने के लिए और नियम बनाती है, वे उसमें से तरकीब निकाल लेते हैं—फिर नियमों में से नियम बनते चले जाते हैं, फिर इतने नियम हो जाते हैं कि तय ही करना मुश्किल हो जाता है कि यह मामला क्या है? नियम कौन—से लागू होते हैं? फिर नियम विपरीत भी हो जाते हैं। क्योंकि हर परिस्थिति को सम्हालने के लिए एक नियम बनाते जाते हैं, फिर नियमों का जाल फैल जाता है, फिर विशेषज्ञ चाहिए जो नियमों का निर्णय करे कि इसमें से रास्ता क्या है। फिर वकील चाहिए। फिर अदालत चाहिए।

संन्यासी को स्व—निर्भर होना है। उसे स्व—चेतना से जीना है। उसे आदतों का गुलाम नहीं होना है। आदतें होनी ही नहीं चाहिए जीवन में। जीवन स्व—स्फूर्त होना चाहिए।

इसका यह मतलब नहीं है कि तुम रोज अलग समय पर जगो, क्योंकि आदत नहीं होनी चाहिए; कि रोज अलग समय पर सोओ, क्योंकि आदत नहीं होनी चाहिए। नहीं, जो तुम्हारे लिए सुखद और प्रीतिकर लगे, वह करो, लेकिन उस करने को आदत मत बना लेना। उससे अन्यथा कभी करना पड़े, तो एकदम परेशान नहीं हो जाना चाहिए। उससे अन्यथा करने की संभावना भी खुली रखनी चाहिए। क्योंकि परिस्थितियां बदलती हैं; और अन्यथा भी कभी करना होता है। हम नियमों के गुलाम नहीं हैं, नियम हमारे सेवक हैं।

चौरसी फिरि आयकै पलटू जूती खाय।

बनिया बानि न छोड़ै, पसंघा मारै जाय।।

इतना चक्कर काट कर आए हो, फिर भी जागते नहीं! अभी भी जूते—पर—जूते खाए जाते हो! कोई और नहीं मार रहा है, खुद ही को मार रहे हो। अगर दूसरे भी मार रहे हैं, तो तुम निमंत्रण देते हो तब मार रहे हैं।

सातपुरी हम देखिया, देखे चारो धाम।।

देखे चारो धाम, सबन मां पाथर पानी।

पलटू कहते हैं, सब देख आए, सब तीर्थ—पुरियां देख लीं, चारों धाम कर डाले, कुछ नहीं पाया—पत्थर और पानी, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं पाया। वहां जीवंत धर्म नहीं है। वहां मरी हुई लाशें हैं धर्म की। और लाशों के पास बैठे हुए गिद्ध—पंडित कहो, पुरोहित कहो, पुजारी कहो, वे लाशों के पास बैठे गिद्ध हैं।

करमन के बसि पड़े, मुक्ति की राह झुलानी।।

चलत चलत पग थके, छीन भई अपनी काया।

खूब यात्रा कर—करके थक गए हैं, काया क्षीण हो गई है, पैर टूटने लगे हैं, राह खो गई है, कर्मों का जाल फैल गया है और तीर्थों में कुछ भी नहीं पाया।

देखे चारो धाम, सबन मां पाथर पानी।

अब क्या करें? अब कहां जाएं?

काम क्रोध नहिं मिटे, बैठ कर बहुत नहाया।।

खूब घिस—घिस कर नहाए, खूब डुबकी मारी जाकर, कुछ मिटा नहीं।

लेकिन यह देश हमारा अदभुत मूढ़ता से भरा है! यह देश ही क्यों, सारी दुनिया, सारी मनुष्य—जाति! छोटे—छोटे लोगों को तो छोड़ दो, जिनको तुम बुद्धिमान कहते हो, उनकी बातें सुनकर भी बड़ा आश्चर्य होता है।

अभी कुछ दिन पहले अखबारों में मैंने पढ़ा कि जयप्रकाश नारायण जब पटना वापस लौटे, तीन महीने इलाज करवाने के बाद, तो धन्यवाद उन्होंने जसलोक अस्पताल के चिकित्सकों को नहीं दिया, गंगा मइया को दिया! महाराज, अगर गंगा मइया को ही बचाना था, तो कहो को बंबई के लोगों को परेशान करते हो? काहे जसलोक अस्पताल को तुमने जसलोक सभा बना रखा है? कि वहां धारा—सभा में तो कोई नहीं दिखाई पड़ता, सब जसलोक सभा में मौजूद। फिर काहे के लिए डायलिसिसि…गंगा का पानी पीओ, मजा करो! और खुद ही डायलिसिस पर नहीं हैं, संपूर्ण क्रांति करवा कर पूरे मुल्क को डायलिसिस पर रखवा दिया है। और लौट कर पटना में कहा कि गंगा मइया की कृपा से बच कर आ गया।

छोटों को छोड़ दो, जिनको तुम बुद्धिमान कहते हो, नेता कहते हो, लोकनायक कहते हो, उनमें और तुम में कुछ बहुत भेद नहीं मालूम होता। वही गंगा मइया! तो गंगा मइया तो पटना में ही उपलब्ध थी, उनके घर के पीछे ही बहती होगी, कहो को तकलीफ में पड़ते हो और दूसरों को तकलीफ में डालते हो? इंग्लैंड से चिकित्सक बुलाए गए, उनको धन्यवाद नहीं; जसलोक अस्पताल के चिकित्सक जी—जान तोड़कर पीछे लगे रहे, उनको धन्यवाद नहीं; धन्यवाद गंगा मइया का!

यह भारत की बुद्धिहीनता कभी टूटेगी या नहीं! इस देश का बुद्धुओं से छुटकारा भी होगा या नहीं! और बड़े—बड़े बुद्धू!!

लेकिन लोगों को ये बातें जंचती हैं। इसलिए राजनीतिज्ञ कुशल हैं, होशियार हैं। लोग गंगा मइया को मानते हैं, इसलिए राजनेता भी कहता है: गंगा मइया की कृपा से! और यह गंगा मइया की कृपा से बिहार में हर साल अकाल पड़ता है! और गंगा मइया की कृपा से बिहार से ज्यादा गरीब और कौन है? और गंगा मइया की कृपा से बिहार में जितना उपद्रव होता है, गोली चलती है, दंगे—फसाद होते हैं, हड़ताल—घिराव होते हैं, उतने और कहां होते हैं! यह सब गंगा मइया की कृपा!

अभी कुछ ही दिन पहले मोरारजी देसाई गंगासागर में स्नान करके लौटे थे…गंगा मइया की कृपा, देखो! गंगा मइया भी खूब कृपा करती है! चौरासी फिरि आयकै पलटू जूती खाय! गंगासागर होकर लौट आए, और दिल्ली में आ कर गति बिगड़ी! सोचा भी नहीं होगा कि एकदम से रामनाम सत्त है हो जाएगा! मगर हो गया।

कल किसी ने पूछा था कि अब आप मोरारजी भाई के संबंध में कुछ कहेंगे या नहीं? अब कहने को क्या बचा! परमात्मा उनकी आत्मा का शांति दे!!

काम क्रोध, नहिं मिटे, बैठकर बहुत नहाया।।

ऊपर डाला धोय, मैल दिल बीच समाना।

मैल तो भीतर है। अंधकार तो भीतर है। अचेतना तो भीतर है। तुम बाहर धो रहे हो। ध्यान से मिटेगी, स्नान से नहीं। प्रेम से धुलेगी, पानी से नहीं।

पाथर में गयो भूल, संत का मरम न जाना।।

और तुम पत्थर की मूर्तियों में—ये रहे हनुमान जी, ये रहे शिव जी, ये राम जी—पत्थरों की मूर्ति में भटके हो! जीवित सदगुरु को खोजो!

पाथर में गयो भूल, संत का मरम न जाना।।

अगर कहीं कोई जीवित संत हो, तो उसकी तरंग में डूबो! वहीं गंगा है, वहीं तीर्थ है।

तेरे जलवों के आगे हिम्मते—शर्हे—बयां रख दी,

जबाने—बे—निगह रख दी, निगाहे—बे—जबां रख दी।

मिटी जाती थी बुलबुल, जलवा—ए—गुल हाय रंगीं पर,

छुपा कर किसने इन पर्दों में बर्के—आशियां रख दी

नियाजे—इश्क को समझा है क्या, ऐ वाइजे—नादां,

हजारों बन गए काबे, जबीं मैंने कहा रख दी।

सिर रखने की कला आती हो, सिर झुकाने की कला आती हो, तो काबा बन जाता है—हजारों काबे बन जाते हैं।

नियाजे—इश्क को समझा है क्या,ऐ वाइजे—नादां,

ऐ नासमझ उपदेशक, हे मूढ़ पंडित, तूने प्रेम की शक्ति को समझा क्या है! तूने प्रेम—भक्ति को समझा क्या है!

नियाजे—इश्क को समझा है क्या, ऐ वाइजे—नादां,

हजारों बन गए काबे, जबीं मैंने जहां रख दी।

जहां मैंने सिर झुकाया—अंतःकरणपूर्वक, होशपूर्वक, जाग्रति से—जहां मैंने अहंकार गिराया, वहां काबा बना, वहां काशी बनी, वहां कैलाश बने।

कफस की याद में ये इजिज्तराबे—दिल, मआजल्लाह

कि मैंने तोड़ कर इक—एक शाखे—आशियां रख दी।

करिश्मे हुस्न के पिनहां थे शायद रक्से—बिसमिल में,

बहुत कुछ सोच कर जालिम ने तेगे—खूंफिशां रख दी।

इलाही क्या किया तूने कि आलम में तलातुम है,

गजब की एक मुश्ते—खाक जेरे—आसमां रख दी।

हे परमात्मा, तूने क्या चमत्कार किया कि संसार में ऐसा तूफान उठा दिया! एक मुट्ठी—भर खाक है आदमी, मगर उसके भीतर कैसी आग रख दी!

इलाही क्या किया तूने कि आलम में तलातुम है,

…कि संसार में तूफान है…

गजब की एक मुश्ते—खाक जेरे—आसमां रख दी।

आसमान के नीचे इस मुट्ठी भर खाक में तूने क्या जादू छिपा दिया है! और तुम कहां खोजते फिर रहे हो—बाहर? भीतर खोजो। और भीतर खोजने का बोध तुम्हें वहां मिलेगा, जिसने भीतर खोजा हो। किसी सदगुरु को खोजो!

पलटू नाहक पचि मुए, संतन में है नाम।

व्यर्थ मूढ़ता में न पड़ो, नाहक अपने को परेशान न करो, संतों में छिपा है वह; संतों में प्रगट है वह।…संतन में है नाम।

सातपुरी हम देखिया, देखे चारो धाम।।

वहां नहीं है। वहां तो सिर्फ—

देखे चारो धाम, सबन मां पाथर पानी।

निंदक जीवै जुगन—जुग, काम हमारा होय।।

पलटू कहते हैं, जब से जाना है, जब से पहचाना है, जब से उससे आंखें चार हुईं, तब से बड़ी निंदा होने लगी है; तब से चारों तरफ निंदक पैदा हो गए हैं। यह सदा से होता रहा है। आदमी ऐसा अजीब है! जिनसे तुम्हें जीवन की कुंजियां मिल सकें, उनको तुम गालियां देते हो। और जो तुम्हारी जिंदगी में सिवाय कांटे बोने के कुछ भी नहीं करते, उनका तुम सम्मान करते हो! तुम्हारी मूढ़ता की कोई सीमा नहीं है। तुम्हारी खोपड़ी उलटी है! राजनेता पूजा जाता है, संत सूली पर लटकाए जाते हैं।

निंदक जीवै जुगन—जुग…

लेकिन पलटू कहते हैं, करो निंदा, हमें तो इससे भी लाभ है।

निंदक जीवै जुगन—जुग, काम हमारा होय।।

पलटू कहते हैं, यह तो हमारा ही काम हो रहा है, निंदक तो सदा जीते रहें, जुग—जुग जीएं।

पलटू से मैं बिलकुल राजी होऊं। क्योंकि यहां जितने लोग आते हैं, वे निंदकों के कारण आ पाते हैं। जितनी मुझे लोग गालियां देते हैं, उतने ही लोग उत्सुक होते हैं कि मामला क्या है? किसी एक आदमी को इतनी गालियां देने वाले लोग अगर हों, तो कुछ बात होगी! कोई चिनगारी होगी! उसे खोजने चले आते हैं। नहीं तो आओ कैसे?

निंदक जीवै जुगन—जुग, काम हमारा होय।।

पलटू कहते हैं, काम हमारा होता है!

काम हमारा होय, बिना कौड़ी को चाकर।

कुछ पैसा भी नहीं लेना—देना होता और वह हमारा प्रचार भी करता है।

कमर बांधिके फिरै, करै तिहुं लोक उजागर।

और वह कमर बांध कर घूमता है—उसको काम ही एक है—और वह चारों तरफ उजागर कर देता है, खबर पहुंचा देता है।

आखिर सारी दुनिया से जो लोग आ रहे हैं, तुम जानते हो, कौन उनको ला रहा है? वह जो निंदा चल रही है। और निंदा भी कैसी गजब की! मुझसे लोग पूछते हैं कि आप इन निंदकों के खिलाफ कुछ करते क्यों नहीं? मैंने कहा, मैं उनके खिलाफ कुछ करूं क्यों? वे बिचारे मेरी सेवा में रत हैं, मैं उनके खिलाफ कुछ करूं?

अभी पंजाब से एक मित्र आए, साथ में पंजाबी की एक पत्रिका लाए। गुरुमुखी में लेख छपा हैं। लेखक ने लिखा है कि वह आश्रम में रह कर, अनुभव करके यह लेख लिख रहा है। अब जो भी उसका लेख पढ़ कर आ जाएगा, वह सदा के लिए मेरा हो जाएगा। लेख में ऐसी बातें कही हैं कि चौंक ही जाओगे जब यहां आओगे!

लेख में लिखा है कि आश्रम पंद्रह मील के क्षेत्र में फैला हुआ है। पंद्रह मील! छः एकड़ की जमीन को पंद्रह मील! तो जब हमारे पास चार वर्गमील का आश्रम होगा, तो समझो हजारों मील में फैलेगा। आश्रम के दरवाजे पर ही, अंदर जैसे ही प्रवेश करते हो—लेख में लिखा है—एक आदमकद नग्न स्त्री की प्रतिमा। अब वह मित्र जो लेकर आए थे पत्रिका, पत्रिका पढ़ें और देखें कि वह प्रतिमा कहां है? मुझ से पूछते थे कि प्रतिमा कहां है? मैंने कहा, भाई, यह तुम उसी से पूछो, जिसने अनुभव कर के लिखा है! वह रह कर गया है आश्रम में—ऊपर लिखता है कि मैं आश्रम में रह कर आया हूं। और आश्रम में पांच—पांच हजार लोग जमीन के भीतर, अंडर—ग्राउंड बैठ सकें, ऐसे कक्ष। पांच—पांच हजार लोग! तुम जमीन के भीतर बैठे हो। इस भ्रांति में मत रहना कि जमीन के ऊपर बैठे हो! और वहां जो हाल होता है, उसका वर्णन तो ऐसा है कि स्वर्ग में भी जो देवता होंगे, वे भी ललचाते होंगे। शराब, गांजा, अफीम, भांग…और कई नई चीजें जो देवताओं को उपलब्ध नहीं हैं—एल.एस.डी., मारिजुआना…और पांच हजार स्त्री—पुरुष नग्न हो कर फिर जैसी रासलीला में संलग्न होते…!

जब कोई ऐसे लेख पढ़ कर आएगा, तो स्वभावतः कुछ परिणाम लेगा, कुछ निश्चय लेगा, कुछ निर्णय लेगा—कि झूठ की भी एक सीमा होती है। और जो लोग इस तरह के झूठ बोल रहे हैं, जरूर उनका निहित स्वार्थ होगा।

अब मुझे अड़चन नहीं है, इन पर चाहूं तो मुकदमा चला सकता हूं। ये तो क्या प्रमाण कर सकेंगे! इतना ही काफी हो जाएगा बताना कि पंद्रह मील आश्रम कहां है? वह मूर्ति कहां है? लेकिन इन पर मुकदमा क्या करना! पलटू ठीक कहते हैं—

निंदक जीवै जुगन—जुग, काम हमारा होय।।

काम हमारा होय, बिना कौड़ी को चाकर।

कमर बांधिके फिरै, करै तिहुं लोक उजागर।।

उसे हमारी सोच, पलक भर नाहिं बिसारी।

वह सोचता ही रहता है हमारी बात। पलक भर को नहीं बिसारता।

लगी रहै दिन—रात, प्रेम से देता गारी।।

उसको लगी ही रहती है धुन। प्रेमवश गाली देता रहता है।

संत कहैं दृढ़ करै जगत का भरम छुड़ावै।

और पलटू कहते हैं कि अगर हम में कुछ भूल हो, तो वह जगत का भ्रम छुड़ा देता है—अच्छा ही है! अगर हम में भूल न हो, तो भी जगत का भ्रम छुड़ा देता है। क्योंकि झूठी भूल को फैलाता है, लोग आकर देख लेते हैं। हर हालत में बेहतर है। किसी भी दृष्टि से बुरा नहीं।

निंदक गुरू हमार…

पलटू तो कहते हैं, यहां तक कि हम तो उसको गुरु मानते हैं। गुरु क्या, गुरु—घंटाल!

निंदक गुरु हमार, नाम से वही मिलावै।।

वह हमारी निंदा करता है और हम परमात्मा का धन्यवाद करते हैं कि वाह—वाह, खूब खेल करवा रहे हो! मुफ्त के चाकर लगा दिए!

सुनिके निंदक मरि गया, पलटू दिया है रोय।

और जब निंदक मर गया तो पलटू कहते हैं, मैं रोने लगा। आंख से आंसू गिरने लगे, कि बेचारा! इतनी मेहनत करता था, प्रेम में गाली बकता था!…यह भी एक लगाव है, प्रेम है, रिश्ता है।…दिन—रात मेरी चिंता करता था। न—मालूम कितने लोगों को मेरे पास भेजा। चारों दिशाओं में खबर पहुंचाई।

सुनिके निंदक मरि गया, पलटू दिया है रोय।

निंदक जीवै जुगन—जुग, काम हमारा होय।।

जो जानते हैं, जिन्होंने सत्य का थोड़ा साक्षात्कार किया है, वे तो अपने संबंध में बोले गए झूठ को भी सत्य की सेवा में ही संलग्न कर लेते हैं। जो जानते हैं, वे तो अंधेरे को भी प्रकाश तक पहुंचने की सीढ़ी बना लेते हैं। जो जानते हैं, वे मृत्यु को भी अमृत का द्वार बना लेते हैं।

आज इतना ही।


Filed under: सपना यह संसार--(पलटू वाणी) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

तंत्र–सूत्र–(भाग–4) प्रवचन–55

$
0
0

दो विचारों के अंतराल में झांको—(प्रवचन—पच्‍चपनवां)

सुत्र—

82—अनुभव करो: मेरा विचार, मैं—पन, आंतरिक इंद्रियां—मुझ।

83—कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं,

कि मैं हूं? विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।

क बार किसी छोटे शहर में एक आगंतुक ने अनेक लोगों से वहां के नगर—प्रमुख के संबंध में पूछताछ की : ‘आपका महापौर कैसा आदमी है?’

पुरोहित ने कहा : ‘वह किसी काम का नहीं है।’

पेट्रोल—डिपो के मिस्त्री ने कहा. ‘वह बिलकुल निकम्मा आदमी है।’

नाई ने कहा. ‘मैंने अपने जीवन में उस दुष्ट को कभी वोट नहीं दिया।’

तब वह आगंतुक खुद महापौर से मिला, जो कि बहुत बदनाम व्यक्ति था, और उसने उससे पूछा : ‘आपको अपने काम के लिए क्या तनख्वाह मिलती है?’

महापौर ने कहा: ‘भगवान का नाम लो! मैं इसके लिए कोई तनख्वाह नहीं लेता; मैंने तो बस पद की खातिर यह काम स्वीकार किया है।’

यही अहंकार की स्थिति है! तुम्हारे सिवाय कोई और तुम्हारे अहंकार की चिंता नहीं लेता है। अकेले तुम सोचते हो कि तुम्हारा अहंकार सिंहासन पर बैठा है; दूसरों के लिए ऐसी बात नहीं है। तुम्हारे सिवाय कोई और तुम्हारे अहंकार से सहमत नहीं है; दूसरे सब उसके विरोध में हैं। लेकिन तुम एक सपने में खोए रहते हो, एक भांति में जीए जाते हो। तुम अपनी एक प्रतिमा बना लेते हो। तुम उस प्रतिमा को पोषण देते हो; तुम उस प्रतिमा की सुरक्षा करते हो। और तुम सोचते हो कि सारा संसार तुम्हारे अहंकार के लिए ही है।

यह विक्षिप्तता है; यह पागलपन है। यह सत्य नहीं है। संसार तुम्हारे लिए नहीं है। किसी को तुम्हारे अहंकार से कुछ लेना—देना नहीं है—किसी को भी नहीं। तुम हो या नहीं हो, इससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता है। तुम एक लहर भर हो। लहर आती है, चली जाती है; सागर कोई फिक्र नहीं करता है।

लेकिन तुम अपने को बहुत महत्वपूर्ण मानते हो। जो लोग अपने अहंकार को विसर्जित करना चाहते हैं उन्हें सबसे पहले इस तथ्य को स्वीकार करना है। और जब तक तुम अपने अहंकार के ढांचे को अलग नहीं कर देते हो, तुम सत्य को नहीं देख पाओगे। क्योंकि तुम जो कुछ भी देखते हो, तुम जो कुछ भी समझते हो, अहंकार उसे विकृत कर देता है। अहंकार सबका उपयोग अपने लिए करने की चेष्टा करता है। और उसके लिए में कुछ भी नहीं है, क्योंकि सत्य उस किसी चीज का समर्थन नहीं कर सकता जो असत्य है, जो झूठ है।

स्मरण रहे, सत्य किसी ऐसी चीज का समर्थन नहीं कर सकता जो नहीं है। और तुम्हारा अहंकार सबसे असंभव चीज है; वह सबसे बड़ा झूठ है। वह वस्तुत: है नहीं; वह तुम्हारी निर्मिति है—तुम्हारी कल्पना की निर्मिति है। सत्य उसे कोई सहारा नहीं दे सकता; सत्य तो उसे निरंतर तोड़ता है, चकनाचूर करता है, मिटाता है। जब भी तुम्हारा अहंकार सत्य के संपर्क में आता है, सत्य उसे बहुत भयभीत करता है, उसे भारी आघात पहुंचाता है।

इन आघातों से अपनी सुरक्षा करने के लिए, जो कि सतत आ रहे हैं, निरंतर आ रहे हैं, तुम धीरे— धीरे सत्य को देखने से बचते हो। अपने अहंकार को खोने की बजाय तुम सत्य को देखने से बचते हो। और फिर तुम अपने अहंकार के चारों ओर एक झूठा संसार निर्मित करते हो और सोचते हो कि यही सत्य है। तब तुम अपनी ही बनाई दुनिया में जीने लगते हो। तुम्हारा यथार्थ जगत के साथ संपर्क टूट जाता है, तुम उसके संपर्क में नहीं आते, क्योंकि तुम भयभीत हो। तुम अपने अहंकार के कांच के घर में रहते हो। और भय है कि अगर तुम सत्य के संपर्क में आओगे, तुम्हारा अहंकार मिट सकता है, इससे अच्छा है कि सत्य के संपर्क से ही दूर रहा जाए। इस असंभव अहंकार को बचाने के लिए, उसकी रक्षा के लिए हम सत्य से बचते रहते हैं, भागते रहते हैं।

लेकिन मैं क्यों कहता हूं कि अहंकार असंभव चीज है? मैं क्यों कहता हूं कि अहंकार असत्य है? इस बात को ठीक से समझने की कोशिश करो। सत्य एक ही है। सत्य अखंड है, समग्र है। तुम अकेले नहीं रह सकते; या रह सकते हो? अगर वृक्ष न हों तो तुम नहीं हो सकोगे। वृक्ष ही तुम्हारे लिए आक्सीजन पैदा कर रहे हैं। अगर हवा न हो तो तुम मर जाओगे। क्योंकि हवा ही तुम्हें प्राण देती है, जीवन देती है। अगर सूर्य ठंडा हो जाए तो तुम यहां नहीं होगे। क्योंकि उसका ताप, उसकी किरणें ही तुम्हारा जीवन हैं।

जीवन एक जागतिक समग्रता की भांति है। तुम अकेले नहीं हो; तुम अकेले नहीं जीवित रह सकते हो। तुम एक अखंड जगत में जीते हो। तुम कोई अलग— थलग, आणविक जीवन नहीं जीते हो, तुम जागतिक संपूर्णता में उसकी एक लहर की भांति हो। तुम उससे जुड़े हुए हो, संयुक्त हो। यहां सब कुछ एक—दूसरे से जुडा है, संबंधित है।

लेकिन अहंकार तुम्हें यह भाव देता है कि तुम व्यक्ति हो, अकेले हो, पृथक हो, अलग हो। अहंकार तुम्हें यह भाव देता है कि तुम एक द्वीप हो। लेकिन तुम अलग नहीं हो, तुम द्वीप नहीं हो। इसीलिए अहंकार झूठ है, असत्य है। और यही कारण है कि सत्य उसका समर्थन नहीं कर सकता है।

तो दो ही रास्ते हैं। अगर तुम सत्य के संपर्क में आते हो, अगर तुम उसके प्रति खुलते हो, तो तुम्हारा अहंकार विसर्जित हो जाएगा—या फिर तुम्हें अपना ही स्वप्न—संसार निर्मित करना है और उसी में जीना है। और तुमने वह संसार निर्मित कर लिया है। प्रत्येक आदमी अपने ही सपनों की दुनिया में जीता है।

लोग मेरे पास आते हैं और मैं उन्हें देखता हूं और मैं देखता हूं कि वे नींद में हैं, वे सपने देख रहे हैं। और उनकी समस्याएं उनके सपनों से निकली हैं और वे उन्हें हल करना चाहते हैं। वे समस्याएं हल नहीं हो सकती हैं, क्योंकि वे यथार्थ नहीं हैं, असली नहीं हैं। तुम झूठी समस्याओं का समाधान कैसे कर सकते हो? अगर असली समस्या हो तो उसका समाधान हो सकता है। लेकिन वह है ही नहीं; इसलिए उसका समाधान नहीं हो सकता है, जो समस्या ही झूठी है वह हल कैसे हो सकती है? वह झूठे समाधान से ही हल हो सकती है। लेकिन वह झूठा समाधान दूसरी समस्याएं पैदा कर देगा, जो कि फिर झूठी होंगी। और तब तुम एक भूलभुलैया में पड़ जाओगे, जिसका कोई अंत नहीं है।

अगर तुम सत्य को जानना चाहते हो—और सत्य को जानना परमात्मा को जानना है। परमात्मा कहीं आसमान में नहीं छिपा है, वह जो तुम्हारे चारों ओर यथार्थ है, सत्य है, वही परमात्मा है। परमात्मा नहीं छिपा है; तुम असत्य में छिपे हो। परमात्मा तो निकटतम प्रत्यक्ष उपस्थिति है। लेकिन तुम अपने झूठे संसार के कैप्‍सूल में बंद हो और उसकी रक्षा करते रहते हो। और उस झूठे संसार का केंद्र अहंकार है।

अहंकार असत्य है, झूठ है, क्योंकि तुम पृथक नहीं हो, तुम सत्य के साथ एक हो। तुम सत्य के अंग हो; तुम उससे अलग नहीं हो सकते। तुम उससे अलग होकर एक क्षण के लिए भी जीवित नहीं रह सकते हो। तुम अपनी प्रत्येक श्वास के द्वारा पूरे जगत से जुड़े हो। तुम एक जीवंत स्पंदन हो, धड़कन हो, तुम कोई मृत इकाई नहीं हो। और वह जीवंत स्पंदन सत्य के साथ गहन लयबद्धता में है।

लेकिन तुम उस स्पंदन को भूल गए हो। और तुमने एक मृत अहंकार, एक मृत धारणा कि मैं हूं निर्मित कर ली है। और यह मैं हूं की धारणा सदा समष्टि के विरोध में है; वह सदा अपना बचाव करती रहती है, संघर्ष और सुरक्षा करती रहती है। इसीलिए सभी धर्म अहंकार के विसर्जन पर इतना जोर देते हैं।

पहली बात कि अहंकार झूठ है और इसीलिए वह विसर्जित हो सकता है। लेकिन जो भी सत्य है वह नहीं विसर्जित हो सकता है। जो सत्य हो तुम उसे कैसे मिटा सकते हो? अगर कोई चीज है, सच है, तो वह नहीं मिटाई जा सकती; वह रहेगी। चाहे तुम कुछ भी करो, वह रहेगी। केवल झूठी चीजें मिटाई जा सकती हैं। वे विलीन हो सकती हैं, वे शून्य में खो सकती हैं। तुम्हारा अहंकार विलीन हो सकता है; क्योंकि वह झूठ है। वह मात्र एक विचार है, एक खयाल है। उसमें कोई सार नहीं है।

दूसरी बात कि तुम इस अहंकार को चौबीस घंटे सतत नहीं कायम रख सकते हो। वह इतना झूठ है कि तुम्हें उसे निरंतर ईंधन देना पड़ता है, भोजन देना पड़ता है। जब तुम नींद में होते हो तो अहंकार नहीं होता है; यही वजह है कि तुम सुबह नींद से उठकर इतना ताजा अनुभव करते हो। क्योंकि नींद में तुम सत्य के गहन संपर्क में होते हो। सत्य ने तुम्हें पुनजीवित कर दिया है, नवजीवित कर दिया है।

गहरी नींद में तुम्हारा अहंकार नहीं है। तुम्हारा नाम, तुम्हारा रूप, सब विलीन हो गया है। तुम नहीं जानते कि मैं कौन हूं—शिक्षित या अशिक्षित, गरीब या अमीर, पापी या पुण्यात्मा। तुम कुछ नहीं जानते हो। गहरी नींद में तुम जागतिक समष्टि में लौट जाते हो; वहां अहंकार नहीं है। सुबह तुम ओजस्वी, ताजा युवा अनुभव करते हो। किसी गहरे स्‍त्रोत से ऊर्जा तुम्हारे पास आ गई है; तुम पुनरुज्जीवित हो गए।

लेकिन रात में यदि तुमने सपने देखे हों तो सुबह तुम थके हुए होगे। क्योंकि सपनों में अंहकार बना रहता है; सपनों में अंहकार रहता। तो वह तुम्‍हें बुनियादी स्‍त्रोत से मिलने नहीं देता है। सुबह तुम थके— थके महसूस करोगे।

गहरी नींद में अहंकार नहीं रहता है। जब तुम गहरे प्रेम में होते हो, अहंकार नहीं रहता है। जब तुम शिथिल होते हो, विश्रामपूर्ण और मौन होते हो, अहंकार नहीं रहता है। जब तुम किसी चीज में इतनी समग्रता से डूब जाते हो कि भूल ही जाते हो कि मैं हूं तब अहंकार नहीं होता है। संगीत सुनते हुए जब तुम अपने को भूल जाते हो, अहंकार नहीं होता है। और सचाई यह है कि उस समय तुम्हें जो शांति अनुभव होती है वह संगीत से नहीं आती है, वह अहंकार के मूलने से आती है। संगीत तो बहाना है।

सुंदर सूर्योदय या सूर्यास्त देखते हुए तुम अपने को भूल जाते हो, तुम्हें अचानक अहसास होता है कि कुछ घटित हुआ है। तुम वहा नहीं हो; कोई विराट वहां उपस्थित है। इस विराट की उपस्थिति को जीसस परमात्मा कहते हैं। यह शब्द केवल प्रतीक है। मोहम्मद भी उसे परमात्मा कहते हैं। शब्द तो प्रतीक मात्र है। परमात्मा का मतलब है : वह जो विराट है—वह क्षण जब तुम्हें भाव होता है कि कुछ विराट घटित हो रहा है। और यह अनुभव तभी हो सकता है जब तुम नहीं हो। जब तुम हो, विराट नहीं हो सकता है। क्योंकि तुम ही बाधा हो।

किसी भी क्षण में, जब तुम अनुपस्थित हो, परमात्मा उपस्थित होता है। तुम्हारी अनुपस्थिति भगवत्ता की उपस्थिति है। इसे सदा स्मरण रखो कि तुम्हारी अनुपस्थिति भगवत्ता की उपस्थिति है, और तुम्हारी उपस्थिति भगवत्ता की अनुपस्थिति है।

इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि परमात्मा को कैसे उपलब्ध हुआ जाए, परमात्मा को कैसे पाया जाए; प्रश्न यह है कि कैसे अनुपस्थित हुआ जाए। तुम परमात्मा की फिक्र मत करो; तुम उसे बिलकुल भूल जा सकते हो। परमात्मा शब्द को भी स्मरण रखने की जरूरत नहीं है—यह अप्रासंगिक है। क्योंकि बुनियादी बात परमात्मा नहीं है, बुनियादी बात तुम्हारा अहंकार है। अगर अहंकार नहीं है तो परमात्मा घटित होता है। और अगर तुम चेष्टा करते हो, अगर तुम परमात्मा को पाने का प्रयत्न करते हो, अगर तुम मोक्ष को उपलब्ध होने का प्रयत्न करते हो, तो तुम चूक सकते हो। क्योंकि संभव है कि यह सारा प्रयत्न अहंकार—केंद्रित हो।

आध्यात्मिक जगत के साधक की समस्या यही है। संभव है, यह तुम्हारा अहंकार ही हो जो परमात्मा को पाने की सोचता हो। तुम अपनी सांसारिक सफलताओं से संतुष्ट नहीं हो। बाहरी संसार में भी तुम्हारी उपलब्धिया हैं—पद है, प्रतिष्ठा है, सम्मान है। तुम शक्तिशाली हो, धनवान हो, ज्ञानवान हो, सम्मानित हो। लेकिन तुम्हारा अहंकार तृप्त नहीं है। अहंकार कभी भी तृप्त नहीं होता है। और कारण क्या है? कारण यही है कि अहंकार एक झूठ है। सच्ची भूख तृप्त हो सकती है, झूठी भूख नहीं। अहंकार की भूख झूठी है, वह तृप्त नहीं हो सकती। तुम जो भी करोगे, वह व्यर्थ होगा। क्योंकि अहंकार झूठ है, इसलिए कोई भी भोजन उसे तृप्त नहीं कर सकता। भूख अगर सच्ची हो तो ही वह तृप्त हो सकती है।

स्वाभाविक भूख तृप्त हो सकती है, वह कतई कोई समस्या नहीं है। लेकिन अस्वाभाविक भूख कभी तृप्त नहीं हो सकती है। पहली तो बात कि वह भूख ही नहीं है; तो तुम उसे कैसे तृप्त कर सकते हो? वह झूठी भूख है; वहां बस एक रिक्तता का भाव है। तुम उसमें भोजन डालते रहते हो, वह भोजन तुम एक खड्ड में, अतल खड्ड में डाल रहे हो। तुम कहीं नहीं पहुंच सकते, अहंकार को तृप्त करना असंभव है।

मैंने सुना है कि जब सिकंदर भारत आ रहा था तब किसी ने उससे कहा : ‘क्या तुमने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि एक ही दुनिया है, और अगर तुम उसे जीत लोगे तो फिर क्या करोगे?’ और कहा जाता है कि यह बात सुनते ही सिकंदर बहुत उदास और दुखी हो गया। उसने कहा ‘मैंने इस बात पर कभी गौर नहीं किया, लेकिन यह बात मुझे बहुत दुखी किए दे रही है। यह सच है कि एक ही दुनिया है और मैं उसे जीत लूंगा। लेकिन फिर मैं क्या करूंगा?’

यह सारा संसार भी तुम्हारी प्यास नहीं बुझा सकता है, क्योंकि प्यास झूठी है, नकली है। भूख स्वाभाविक नहीं है।

अहंकार ईश्वर की खोज पर भी निकल सकता है। मेरा खयाल है कि सौ में से निन्यानबे मामलों में अहंकार ही खोज पर निकलता है। और तब यह खोज आरंभ से ही निष्फल होने को बाध्य है। क्योंकि अहंकार ईश्वर को नहीं पा सकता है। और अहंकार ही उसे पाने के सब उपाय कर रहा है। तो स्मरण रहे, तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी प्रार्थना, तुम्हारी पूजा अहंकार की यात्रा न हो। अगर वह अहंकार की यात्रा है तो तुम नाहक अपनी शक्ति गंवा रहे हो। तो इसके प्रति भलीभांति बोधपूर्ण होओ।

और यह सिर्फ बोध का सवाल है। अगर तुम बोधपूर्ण हो तो तुम देख सकते हो कि तुम्हारा अहंकार कैसे गति करता है, कैसे काम करता है। यह कठिन नहीं है; इसके लिए किसी खास प्रशिक्षण की जरूरत नहीं है। तुम आंख बंद करके देख सकते हो कि तुम्हारी आकांक्षा क्या है। तुम अपने से पूछ सकते हो कि क्या मैं सच ही भगवत्ता को खोज रहा हूं या यह भी अहंकार की ही एक यात्रा है—क्योंकि यह सम्मानजनक है; क्योंकि लोग सोचते हैं कि तुम धार्मिक आदमी हो, क्योंकि गहरे में तुम सोचते हो कि जब तक मैं ईश्वर पर भी न कब्जा कर लूं? मैं संतुष्ट कैसे हो सकता हूं!

क्या परमात्मा पर भी तुम्हारा अधिकार हो सकता है, कब्जा हो सकता है? उपनिषद कहते हैं कि जो कहता है कि मैंने ईश्वर को पा लिया, उसने नहीं पाया है; क्योंकि यह दावा कि मैंने ईश्वर को पा लिया अहंकार का ही दावा है। उपनिषद कहते हैं कि जो दावा करता है कि मैंने ईश्वर को जान लिया, उसने नहीं जाना। यह दावा ही बताता है कि उसने नहीं जाना है, क्योंकि यह दावा कि मैंने जान लिया, अहंकार का दावा है। अहंकार ही तो एकमात्र बाधा है। अब हम विधियों में प्रवेश करेंगे।

पहली विधि:

अनुभव करो: मेरा विचार मैं— पन आंतरिक इंद्रियां— मुझ।

यह बहुत ही सरल और बहुत ही सुंदर विधि है।

‘अनुभव करो. मेरा विचार, मैं—पन, आंतरिक इंद्रियां—मुझ।’

पहली बात यह है कि विचार नहीं करना है, अनुभव करना है। विचार करना और अनुभव करना दो भिन्न—भिन्न आयाम हैं। और हम बुद्धि से इतने ग्रस्त हो. गए हैं कि जब हम यह भी कहते हैं कि हम अनुभव करते हैं तो भी हम अनुभव नहीं करते, सोच—विचार ही करते है। तुम्हारा भाव—पक्ष, तुम्हारा हृदय—पक्ष बिलकुल बंद गया, मुर्दा हो गया है। जब तुम कहते हो कि ‘मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तो भी वह भाव नहीं होता, विचार ही होता है।

और भाव और विचार में फर्क क्या है? अगर तुम भाव करोगे तो तुम अपने को हृदय के पास केंद्रित अनुभव करोगे। अगर मैं कहता हूं कि तुम्हें मैं प्रेम करता हूं तो मेरा यह प्रेम का भाव मेरे हृदय से प्रवाहित होगा, उसका स्रोत कहीं हृदय के आसपास होगा। और अगर वह विचार मात्र होगा तो वह सिर से आता होगा। जब तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो यह महसूस करने की कोशिश करो कि यह प्रेम सिर से आ रहा है या हृदय से आ रहा है।

जब भी तुम किसी प्रगाढ़ भाव में होते हो तो तुम सिर के बिना होते हो। उस क्षण कोई सिर नहीं होता है; हो भी नहीं सकता। तब हृदय ही तुम्हारा समस्त अस्तित्व होता है—मानो सिर है ही नहीं। भाव की अवस्था में हृदय तुम्हारे होने का केंद्र होता है।

जब तुम सोच—विचार कर रहे होते हो तब सिर तुम्हारे होने का केंद्र होता है। और क्योंकि विचार करना जीने के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ, इसलिए हमने और सब कुछ बंद कर दिया। हमारे जीवन के अन्य सभी आयाम बंद हो गए हैं। हम सिर ही सिर रह गए हैं; और हमारे शरीर सिर के आधार भर हैं। हम सोच—विचार ही करते रहते हैं, हम अपने भावों के बारे में भी विचार ही करते रहते हैं।

तो भाव में उतरने की कोशिश करो। तुम्हें थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी; क्योंकि भाव की क्षमता, भाव का गुण कुंठित पड़ा है। उस संभावना का द्वार पुन: खोलने के लिए तुम्हें कुछ करना होगा।

तुम एक फूल को देखते हो, और देखते ही कहते हो कि यह सुंदर है। थोड़ा रुको, जरा प्रतीक्षा करो। जल्दी निर्णय मत करो; प्रतीक्षा करो। और फिर देखो कि कहीं तुमने सिर से ही तो यह नहीं कह दिया कि यह सुंदर है। क्या है तुमने यह अनुभव किया है? क्या यह सिर्फ आदतवश है? क्योंकि तुम जानते हो कि गुलाब सुंदर होता है, गुलाब को सुंदर समझा जाता है। लोग कहते हैं कि यह सुंदर है और तुमने भी अनेक बार कहा है कि सुंदर है।

जैसे ही तुम गुलाब को देखते हो, मन आगे आ जाता है, मन कहता है कि यह सुंदर है। बात खत्म हुई। अब गुलाब से कोई संपर्क नहीं रहा। उसकी जरूरत न रही; तुमने कह दिया। अब तुम अन्यत्र जा सकते हो। गुलाब से कोई मिलन न हुआ; मन ने तुम्हें गुलाब की एक झलक भी नहीं मिलने दी। मन बीच में आ गया और हृदय गुलाब के संपर्क में न आ सका।

केवल हृदय कह सकता है कि यह सुंदर है या नहीं। क्योंकि सौंदर्य एक भाव है, कोई विचार नहीं। तुम बुद्धि से नहीं कह सकते कि यह सुंदर है। कैसे कह सकते हो? सौंदर्य कोई गणित नहीं है; वह गणनातीत है। और सौंदर्य वस्तुत: केवल गुलाब में नहीं है। क्योंकि संभव है कि किसी अन्य के लिए वह जरा भी सुंदर न हो, और कोई अन्य उसे देखे बिना ही उसके पास से गुजर जाए। और यह भी संभव है कि किसी अन्य के लिए गुलाब कुरूप हो। तो सौंदर्य केवल गुलाब में नहीं है; सौंदर्य तो हृदय और गुलाब के मिलन में है। जब हृदय गुलाब म् से मिलता है तो सौंदर्य का फूल खिलता है। जब हृदय किसी चीज के प्रगाढ़ संपर्क में आता है तो बड़ी अदभुत घटना घटती है।

जब तुम किसी व्यक्ति के प्रगाढ़ संपर्क में आते हो तो वह व्यक्ति सुंदर हो जाता है। और यह मिलन जितना ज्‍यादा होता है उतना ही ज्‍यादा सौंदर्य प्रकट होता है। तो सौंदर्य वह भाव है जो हृदय को घटित होता है, मस्तिष्क को नहीं। सौंदर्य कोई हिसाब—किताब नहीं है और न सौंदर्य को परखने की कोई कसौटी है। वह एक भाव है। यदि मैं कहूं कि गुलाब सुंदर नहीं है तो तुम विवाद नहीं कर सकते; विवाद करने की जरूरत नहीं है। तुम कहोगे ‘यह तुम्हारा भाव है। और गुलाब सुंदर है—यह मेरा भाव है।’ वहा विवाद का कोई प्रश्न ही नहीं है। मस्तिष्क विवाद कर सकता है, हृदय विवाद नहीं कर सकता। बात वहीं खत्म हो गई; पूर्ण विराम आ गया। अगर मैं कहता हूं कि यह मेरा भाव है, तो विवाद की जरूरत न रही।

सिर के तल पर विवाद जारी रह सकता है और फिर हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। हृदय के तल पर निष्कर्ष पहले ही आ चुका है। हृदय से निष्कर्ष पर पहुंचने की कोई प्रक्रिया नहीं है, कोई विधि नहीं है। उसका निष्कर्ष तत्काल होता है, तत्‍क्षण होता है, तुरंत होता है। सिर से निष्कर्ष पर पहुंचने की एक प्रक्रिया है, एक व्यवस्था है, तुम तर्क करते हो, तुम विवाद करते हो, तुम विश्लेषण करते हो, और तब निष्कर्ष पर पहुंचते हो कि ऐसा है या नहीं है। हृदय के लिए यह तात्कालिक घटना है; निष्कर्ष पहले ही आ जाता है।

इस पर गौर करो। सिर के तल पर निष्कर्ष अंत में आता है; हृदय के तल पर निष्कर्ष पहले आता है। हृदय से तुम निष्कर्ष पहले ले लेते हो और तब तुम प्रक्रिया खोजते हो। यह प्रक्रिया खोजना सिर का काम है।

तो ऐसी विधियों के प्रयोग में पहली कठिनाई यह है कि तुम्हें यही पता नहीं है कि भाव क्या है। पहले भाव को विकसित करने की कोशिश करो। जब तुम किसी चीज को छुओ तो आंख बंद कर लो—विचार मत करो, अनुभव करो। उदाहरण के लिए, मैं तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूं और कहता हूं कि आंखें बंद करो और महसूस करो कि क्या हो रहा है, तो तुम तुरंत कहोगे कि आपका हाथ मेरे हाथ में है।

लेकिन यह भाव नहीं है, यह विचार है। मैं फिर कहता हूं ‘विचार नहीं, अनुभव करो।’ तब तुम कहते हो : ‘आप प्रेम प्रकट कर रहे हैं।’ वह भी फिर विचार ही है। अगर मैं फिर जोर देकर कहूं कि ‘सिर्फ अनुभव करो, सिर को बीच में मत लाओ, बताओ कि ठीक—ठीक क्या अनुभव कर रहे हो?’ तो ही तुम अनुभव कर पाओगे और कहोगे : ‘उष्मा अनुभव कर रहा हूं।’

क्योंकि प्रेम भी एक निष्पत्ति है।’ आपका हाथ मेरे हाथ में है,’ यह सिर से निकला हुआ विचार है। सच्ची बात यह है कि मेरे हाथ से तुम्हारे हाथ में या तुम्हारे हाथ से मेरे हाथ में एक ऊष्मा प्रवाहित हो रही है; हमारी जीवन—ऊर्जाओं का मिलन हो रहा है और मिलन का बिंदु ऊष्मा से भरा है। यह भाव है, अनुभव है, संवेदना है। यह यथार्थ है।

लेकिन हम निरंतर सिर में रहते हैं। वह हमारी आदत हो गई है। हमें उसका ही प्रशिक्षण मिला है। तो तुम्हें अपने बंद हृदय को फिर से खोलना होगा।

भावों के साथ रहने की चेष्टा करो। दिन में कभी—कभी—जब तुम कोई धंधा नहीं कर रहे हो। क्योंकि धंधे में व्यस्त रहकर शुरू—शुरू में भावों के साथ जीना कठिन होगा। वहा सिर बहुत कुशल सिद्ध हुआ है और वहां भावों का भरोसा नहीं किया जा सकता। लेकिन जब तुम अपने घर पर बच्चों के साथ खेल रहे हो तो वहा सिर की जरूरत नहीं है—यह धंधा नहीं है। लेकिन तुम तो वहां भी अपने सिर को अलग नहीं करते हो।

तो अपने बच्चों के साथ खेलते हुए, या अपनी पत्नी के साथ बैठे हुए, या कुछ भी न करते हुए कुर्सी में विश्राम करते हुए— भाव में जीओ, अनुभव करो। कुर्सी की बुनावट को अनुभव करो, तुम्हारा हाथ कुर्सी को स्पर्श कर रहा है, तुम्हें कैसा अनुभव हो रहा है? हवा चल रही है, हवा अंदर आ रही है; वह तुम्हें स्पर्श करती है। तुम्हें कैसा अनुभव हो रहा है? रसोईघर से गंध आ रही है; वह कैसी लग रही है? उसे महसूस करो; उस पर विचार मत करो। सोच—विचार मत करने लगो कि रसोईघर में कुछ पक रहा है। तब तुम उसके बारे में सपना देखने लगोगे। नहीं, जो भी तथ्य है उसे महसूस करो। और तथ्य के साथ रहो; विचार में मत भटको।

तुम चारों ओर से घटनाओं से घिरे हो; तुम्हारी तरफ चारों ओर से बहुत कुछ आ रहा है, तुमसे आकर मिल रहा है। सभी ओर से अस्तित्व तुमसे मिलने के लिए आ रहा है, तुम्हारी सभी इंद्रियों से होकर तुममें प्रवेश कर रहा है। लेकिन तुम हो कि अपने सिर में बंद करो। तुम्हारी इंद्रियां मुर्दा हो गई हैं; वे कुछ भी महसूस नहीं करती हैं।

तो इसके पहले कि तुम यह विधि प्रयोग करो, थोड़ा संवेदना का विकास जरूरी है। क्योंकि यह आंतरिक प्रयोग है, जब तुम बाह्य को ही नहीं अनुभव कर सकते तो तुम्हारे लिए आंतरिक को अनुभव करना बहुत कठिन होगा। क्योंकि आंतरिक सूक्ष्म है; अगर तुम स्थूल को नहीं अनुभव कर सकते तो सूक्ष्म को कैसे कर सकते हो? अगर तुम ध्वनियों को नहीं सुन सकते तो आंतरिक मौन को, निशब्द को, अनाहत नाद को सुनना कठिन होगा, बहुत कठिन होगा। वह बहुत ही सूक्ष्म है।

तुम बगीचे में बैठे हो और सड़क पर ट्रैफिक है, शोरगुल है और तरह—तरह की आवाजें आ रही हैं। तुम अपनी आंखें बंद कर लो और वहां होने वाली सबसे सूक्ष्म आवाज को पकड़ने की कोशिश करो। कोई कौआ कांव—कांव कर रहा है, कौए की इस कांव—कांव पर अपने को एकाग्र करो। सड़क पर यातायात का भारी शोर है, इसमें कौए की आवाज इतनी धीमी है, इतनी सूक्ष्म है कि जब तक तुम अपने बोध को उस पर एकाग्र नहीं करोगे तुम्हें उसका पता भी नहीं चलेगा। लेकिन अगर तुम एकाग्रता से सुनोगे तो सड़क का सारा शोरगुल दूर हट जाएगा और कौए की आवाज केंद्र बन जाएगी। और तुम उसे सुनोगे, उसके सूक्ष्म भेदों को भी सुनोगे। वह बहुत सूक्ष्म है, लेकिन तुम उसे सुन पाओगे।

तो अपनी संवेदनशीलता को बढ़ाओ। जब कुछ स्पर्श करो, जब कुछ सुनो, जब भोजन करो, जब स्नान करो तो अपनी इंद्रियों को खुली रहने दो। और विचार मत करो, अनुभव करो। तुम स्नान कर रहे हो, अपने ऊपर गिरते हुए पानी की ठंडक को महसूस करो। उस पर विचार मत करो। यह मत कहो कि पानी बहुत ठंडा है, बहुत अच्छा है। कुछ मत कहो, कोई शब्द मत दो। क्योंकि जैसे ही तुम शब्द देते हो, तुम अनुभव से चूक जाते हो। जैसे ही शब्द आते हैं, मन सक्रिय हो जाता है। कोई शब्द मत दो। शीतलता को अनुभव करो, मगर यह मत कहो कि पानी ठंडा है। कुछ कहने की जरूरत नहीं है।

लेकिन हमारा मन विक्षिप्त है; हम कुछ न कुछ कहे ही चले जाते हैं।

मुझे स्मरण है, मैं एक विश्वविद्यालय में था। मेरे साथ वहा एक महिला प्रोफेसर भी थी जो लगातार कुछ बोलती ही रहती थी। उसके लिए असंभव था कभी भी वह चुप रहे। एक दिन मैं कालेज के बरामदे में खड़ा था और सूर्यास्त हो रहा था। अत्यंत सुंदर सूर्यास्त था। और वह स्त्री ठीक मेरे बगल में खड़ी थी। मैंने उससे कहा. ‘देखो!’ वह कुछ बोल रही थी, तो मैंने कहा. ‘देखो, कैसा सुंदर सूर्यास्त है!’ वह बहुत अनिच्छा से देखने को राजी हुई। फिर उसने कहा ‘क्या आप नहीं सोचते कि बायीं ओर यदि कुछ और जामुनी रंग रहता तो ठीक था?’ यह कोई चित्र नहीं था, असली सूर्यास्त था!

हम लगातार बोलते रहते हैं और हमें यह भी बोध नहीं रहता कि हम क्या बोल रहे हैं। मन की इस सतत बातचीत को बंद करो तो ही तुम अपने भावों को प्रगाढ़ कर सकते हो। और भाव प्रगाढ हो तो यह विधि तुम्हारे लिए चमत्कार कर सकती है।

‘अनुभव करो : मेरा विचार…….।’

आंखों को बंद कर लो और विचार को अनुभव करो। विचारों की सतत धारा चल रही है, विचारों का एक प्रवाह, एक धारा बही जा रही है। इन विचारों को अनुभव करो। और उनकी उपस्थिति को अनुभव करो। तुम जितना ही उन्हें अनुभव करोगे, वे उतने ही अधिक प्रकट होंगे-पर्त दर पर्त। न सिर्फ वे विचार प्रकट होंगे जो सतह पर हैं, उनके पीछे और भी विचारों की पर्तें हैं, और उनके पीछे भी और-और पर्तें हैं-पर्तों पर पर्तें हैं।

और विधि कहती है, ‘अनुभव करो : मेरा विचार।’

और हम कहे चले जाते हैं. ‘ये मेरे विचार हैं।’ लेकिन अनुभव करो. क्या वे सचमुच तुम्हारे हैं? क्या तुम कह सकते हो कि वे मेरे हैं? तुम जितना ही अनुभव करोगे उतना ही तुम्हारे लिए यह कहना कठिन होगा कि वे मेरे हैं। वे सब उधार हैं, वे सब बाहर से आए हैं। वे तुम्हारे पास आए हैं, लेकिन वे तुम्हारे नहीं हैं। कोई विचार तुम्हारा नहीं है, वह धूल है जो तुम पर आ जमी है। चाहे तुम्हें यह पता भी न हो कि किस स्रोत से यह विचार आया है तो भी विचार तुम्हारा नहीं है। और अगर तुम पूरी चेष्टा करोगे तो तुम जान लोगे कि यह विचार कहां से आया है।

सिर्फ आंतरिक मौन तुम्हारा है। किसी ने तुम्हें यह नहीं दिया है, तुम इसके साथ ही पैदा हुए थे और इसके साथ ही तुम मरोगे। विचार तुम्हें दिए गए हैं, तुम उनसे संस्कारित हो। अगर तुम हिंदू हो तो तुम्हारे विचार एक तरह के हैं। अगर तुम मुसलमान हो तो तुम्हारे विचार और तरह के हैं। और अगर तुम कम्मुनिस्ट हो तो तुम्हारे विचार कुछ और ही हैं। वे तुम्हें दिए गए हैं, या संभवत: तुमने उन्हें स्वेच्छा से ग्रहण किया है, लेकिन कोई विचार तुम्हारा नहीं है। अगर तुम विचारों की उपस्थिति, उनकी भीड़ की उपस्थिति महसूस कर सको तो तुम यह भी महसूस करोगे कि वे विचार मेरे नहीं हैं। यह भीड़ बाहर से तुम्हारे पास आई है, यह तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठी हो गई है; लेकिन यह तुम्हारी नहीं है। और अगर तुम्हें यह अनुभव हो कि कोई विचार मेरा नहीं है तो ही तुम मन को अपने से अलग कर सकते हो। अगर वे

विचार तुम्हारे हैं तो तुम उनका बचाव करोगे। यह भाव कि यह विचार मेरा है, यही तो आसक्ति है, लगाव है। तब मैं उसे अपने भीतर जड़ें देता हूं; तब मैं जमीन बन जाता हूं और विचार मुझमें जड़ें जमा सकता है। और जब मैं देखता हूं कि कोई विचार मेरा नहीं है तो वह निमूर्ल हो जाता है, उखड़ जाता है, तब मेरा उससे कोई लगाव नहीं रहता। ’मेरे’ का भाव ही लगाव पैदा करता है।

तुम अपने विचारों के लिए लड़ सकते हो। तुम अपने विचारों के लिए शहीद हो सकते हो। तुम अपने विचारों के लिए हत्या कर सकते हो, खून कर सकते हो। और विचार तुम्हारे नहीं हैं! चैतन्य तुम्हारा है; लेकिन विचार तुम्हारे नहीं हैं। और क्यों इस बोध से मदद मिलती है?

अगर तुम देख सको कि विचार मेरे नहीं हैं तो कुछ भी तुम्हारा नहीं रह जाता है। क्योंकि विचार ही हर चीज की जड़ में हैं। मेरा घर, मेरी संपत्ति, मेरा परिवार—ये चीजें तो बाहरी हैं; लेकिन गहरे में विचार मेरे हैं। अगर विचार मेरे हैं तो ही ये चीजें, इनका विस्तार, इनका फैलाव मेरा हो सकता है। अगर विचार मेरे नहीं हैं तो कुछ भी महत्व का न रहा। क्योंकि यह भी एक विचार ही है कि तुम मेरी पत्नी हो, कि तुम मेरे पति हो। यह भी एक विचार ही है। और अगर बुनियादी तोर से विचार ही मेरा नहीं है तो पत्नी मेरी कैसे हो सकती है? या पति मेरा कैसे हो सकता है? विचार के मिटते ही सारा संसार मिट जाता है, तब तुम संसार में रह कर भी संसार में नहीं रहते हो।

तुम हिमालय चले जा सकते हो, तुम संसार छोड़ सकते हो, लेकिन अगर तुम सोचते हो कि विचार मेरे हैं तो तुम कहीं नहीं गए, तुम वहीं के वहीं हो। हिमालय में बैठे हुए तुम संसार में उतने ही होगे जितने यहां रह कर हो, क्योंकि विचार संसार है। तुम हिमालय में भी अपने विचार साथ लिए जाते हो। तुम घर छोड़ देते हो, लेकिन असली घर अंदर है, असली घर विचार की ईंटों से बना है। बाहर का घर असली घर नहीं है।

यह अजीब बात है, लेकिन यह रोज ही घटती है। मैं एक व्यक्ति को देखता हूं कि उसने संसार छोड़ दिया और फिर भी वह हिंदू बना हुआ है! वह संन्यासी हो जाता है और फिर भी हिंदू या जैन ही बना रहता है! इसका क्या मतलब है? वह संसार का त्याग कर देता है, लेकिन विचारों का त्याग नहीं करता है। वह अभी भी जैन है। वह अभी भी हिंदू है। उसका विचारों का संसार अभी भी कायम है। और विचारों का संसार ही असली संसार है।

अगर तुम देख सको कि कोई विचार मेरा नहीं है.. और तुम देख सकोगे, क्योंकि तुम द्रष्टा होगे और विचार विषय बन जाएंगे। जब तुम शांत होकर विचारों का निरीक्षण करोगे तो विचार विषय होंगे और तुम देखने वाले होगे। तुम द्रष्टा होंगे, तुम साक्षी होगे और विचार तुम्हारे सामने तैरते रहेंगे।

और अगर तुम गहरे देख सके, गहरे अनुभव कर सके, तो तुम देखोगे कि विचारों की कोई जड़ें नहीं हैं। तुम देखोगे कि विचार आकाश में बादलों की भांति तैर रहे हैं और तुम्हारे भीतर उनकी कोई जड़ें नहीं हैं। वे आते हैं और चले जाते हैं। तुम उनके नाहक शिकार हो गए हो और नाहक तुम्हारा उनके साथ तादात्म्य हो गया है। विचार का जो भी बादल तुम्हारे घर से गुजरता है, तुम कहते हो कि यह मेरा बादल है।

विचार बादलों जैसे हैं। तुम्हारी चेतना के आकाश से वे गुजरते रहते हैं और तुम उनसे लगाव निर्मित करते रहते हो। तुम कहते हो कि यह बादल मेरा है। और यह सिर्फ एक आवारा बादल है, जो गुजर रहा है। और यह गुजर जाएगा।

अपने बचपन में लौटी। उस समय भी तुम्हारे कुछ विचार थे। और उनसे तुम्हारा लगाव था। और तुम कहते हो कि ये मेरे विचार है। और फिर बचपन विदा हो गया। और बचपन के साथ वे विचार, वे बादल भी विदा हो गए। अब वे तुम्हें याद भी नहीं हैं। फिर तुम जवान हुए। और तब दूसरे बादल आए, जो जवानी से आकर्षित होकर आते हैं। और तुमने उनसे भी अपना लगाव बनाया। और अब तुम के हो। जवानी के विचार अब नहीं हैं; वे अब तुम्हें याद तक नहीं हैं। और कभी वे इतने महत्वपूर्ण थे कि तुम उनके लिए जान तक दे सकते थे। वे अब याद तक नहीं हैं। अब तुम अपनी उस मूढ़ता पर हंस सकते हो कि तुम उनके लिए मर सकते थे, कि तुम उनके लिए शहीद हो सकते थे। अब तुम उनके लिए दो कौडी भी खर्च करने को राजी नहीं हो। वे अब तुम्हारे न रहे। वे बादल चले गए। लेकिन उनकी जगह दूसरे बादल आ गए हैं और तुम उन्हें पकड़ कर बैठ गए हो।

बादल बदलते रहते हैं, लेकिन तुम्हारा लगाव, तुम्हारी पकड़ नहीं बदलती है। यही समस्या है। और ऐसा नहीं है कि तुम्हारे बचपन के जाने पर ही बादल बदलते हैं, वे प्रतिपल बदल रहे हैं। एक मिनट पहले तुम एक तरह के बादलों से घिरे थे, अब तुम और तरह के बादलों से घिर गए हो। जब तुम यहां आए थे, एक तरह के बादल तुम पर मंडरा रहे थे; जब तुम यहां से जाओगे, दूसरी तरह के बादल मंडराके। और तुम प्रत्येक बादल के साथ चिपक जाते हो, उससे लगाव बना लेते हो। अगर अंत में तुम्हारे हाथ कुछ भी नहीं आता है तो यह स्वाभाविक है, क्योंकि बादलों से क्या मिल सकता है? और विचार बादल ही हैं।

यह सूत्र कहता है. ‘अनुभव करो।’ पहले भाव में स्थापित होओ। तब देखो : ‘मेरे विचार।’ तब उस विचार को देखो जिसे तुमने सदा ‘मेरा विचार’ कहा है। भाव में स्थित होकर विचार को देखने से ‘मेरा’ विलीन हो जाता है। और यह ‘मेरा’ ही चालबाजी है। क्योंकि अनेक ‘मेरो’ से, अनेक ‘मुझो’ से ‘मैं’ विकसित होता है, ‘मैं’ बनता है। यह मेरा है, यह मेरा है—जितने ‘मेरे’ हैं उनसे ही ‘मैं’ बनता है।

यह विधि जड़ से ही शुरू करती है। और विचार ही सबकी जड़ है। अगर ‘मेरे’ के भाव को उसकी जड़ में ही काट सको तो वह फिर प्रकट नहीं होगा—वह फिर कहीं नहीं दिखाई पड़ेगा। और अगर तुम उसे जड़ से नहीं काटते हो तो फिर और कहीं काटने से कुछ नहीं होगा—चाहे तुम जितना काटो वह व्यर्थ होगा, वह फिर—फिर प्रकट होता रहेगा।

मैं उसे काट सकता हूं मैं कह सकता हूं कि कोई मेरी पत्नी नहीं है, हम लोग अजनबी हैं और विवाह तो केवल एक सामाजिक औपचारिकता है। मैं अपने को अलग कर लेता हूं मैं कहता हूं कि कोई मेरी पत्नी नहीं है। लेकिन यह बात बहुत सतही है। फिर मैं कहता हूं : मेरा धर्म। फिर मैं कहता हूं. मेरा संप्रदाय। मैं कहता हूं : यह मेरा धर्मग्रंथ है, यह बाइबिल है, यह कुरान है, यह मेरा शास्त्र है। इस तरह ‘मेरे’ का भाव किसी दूसरे क्षेत्र में जारी रहता है और तुम वही के वही रहते हो।

‘मेरा विचार’ और तब ‘मैं—पन’। पहले विचारों की श्रृंखला को देखो, विचारों की प्रक्रिया को देखो, विचारों के प्रवाह को देखो, और खोजो कि कौन से विचार तुम्हारे हैं, या कि वे भटकते बादल भर हैं। और जब तुम्हें प्रतीत हो कि कोई विचार तुम्हारे नहीं हैं, विचारों से ‘मेरे’ को जोड़ना ही भ्रम है, तो तुम आगे बढ़ सकते हो, तब तुम और गहरे उतर सकते हो। तब मैं—पन के प्रति होश साधो। यह ‘मैं’ कहां है?

रमण अपने शिष्यों को एक विधि देते थे। उनके शिष्य पूछते थे. ‘मैं कौन हूं?’ तिब्बत में भी वे एक ऐसी ही विधि का उपयोग करते हैं जो रमण की विधि से भी बेहतर है। वे यह नहीं पूछते कि मैं कौन हूं। वे पूछते हैं कि ‘मैं कहां हूं?’ क्योंकि यह ‘कौन’ समस्या पैदा कर सकता है। जब तुम पूछते हो कि ‘मैं कौन हूं?’ तो तुम यह तो मान ही लेते हो कि मैं हूं, इतना ही जानना है कि मैं कौन हूं। यह तो तुमने पहले ही मान लिया कि मैं हूं; यह बात निर्विवाद है। यह तो स्वीकृत है कि मैं हूं; अब प्रश्न इतना ही है कि मैं कौन हूं। केवल प्रत्यभिज्ञा होनी है, सिर्फ चेहरा पहचानना है, लेकिन वह है—अपरिचित ही सही, पर वह है।

तिब्बती विधि रमण की विधि से बेहतर है। तिब्बती विधि कहती है कि मौन हो जाओ और खोजो कि मैं कहां हूं। अपने भीतर प्रवेश करो, एक—एक कोने—कातर में जाओ और पूछो : ‘मैं कहा हूं?’ तुम्हें ‘मैं’ कहीं नहीं मिलेगा। तुम उसे कहीं नहीं पाओगे। तुम उसे जितना ही खोजोगे उतना ही वह वहां नहीं होगा।

और यह पूछते—पूछते कि ‘मैं कौन हूं?’ या कि ‘मैं कहां हूं?’ एक क्षण आता है जब तुम उस बिंदु पर होते हो जहां तुम तो होते हो, लेकिन कोई ‘मैं’ नहीं होता, जहां तुम बिना किसी केंद्र के होते हो। लेकिन यह तभी घटित होगा जब तुम्हारी अनुभूति हो कि विचार तुम्हारे नहीं हैं। यह ज्यादा गहन क्षेत्र है—यह ‘मैं—पन’।

हम इसे कभी अनुभव नहीं करते हैं। हम सतत ‘मैं —मैं’ करते रहते हैं।’मैं’ शब्द का निरंतर उपयोग होता रहता है, जो शब्द सर्वाधिक उपयोग किया जाता है वह ‘मैं’ है। लेकिन तुम्हें उसका अनुभव नहीं होता है।’मैं’ से तुम्हारा क्या मतलब होता है? जब तुम कहते हो ‘मैं’ तो उससे क्या मतलब होता है तुम्हारा? इस शब्द का अर्थ क्या होता है? उससे क्या व्यक्त होता है, क्या जाहिर होता है?

मैं इशारा कर सकता हूं और कह सकता हूं कि मेरा मतलब यह है। मैं अपने शरीर की तरफ इशारा कर सकता हूं और कह सकता हूं कि मेरा मतलब यह है। लेकिन तब यह पूछा जा सकता है कि तुम्हारा मतलब हाथ से है, कि तुम्हारा मतलब पैर से है, कि तुम्हारा मतलब पेट से है? तब मुझे इनकार करना पड़ेगा; मुझे ‘नहीं’ कहना पड़ेगा। और इस तरह मुझे पूरे शरीर को ही इनकार करना होगा। तो फिर तुम्हारा क्या मतलब है जब तुम ‘मैं’ कहते हो? क्या तुम्हारा मतलब सिर से है? कहीं गहरे में जब भी तुम ‘मैं’ कहते हो, एक बहुत धुंधला—सा, अस्पष्ट—सा भाव होता है। और यह अस्पष्ट भाव तुम्हारे विचारों का है।

भाव में स्थित होकर, विचारों से पृथक होकर इस ‘मैं—पन’ का साक्षात करो, इसे सीधे—सीधे देखो। और जैसे—जैसे तुम उसका साक्षात करते हो तुम पाते हो कि वह नहीं है। वह सिर्फ एक उपयोगी शब्द था, भाषागत प्रतीक था, आवश्यक था, लेकिन वह सत्य नहीं था। बुद्ध भी उसका उपयोग करते हैं, बुद्धत्व को उपलब्ध होने के बाद भी वे उसका उपयोग करते हैं। यह सिर्फ एक कामचलाऊ उपाय है। लेकिन जब बुद्ध ‘मैं’ कहते हैं तो उसका मतलब अहंकार नहीं होता, क्योंकि वहा कोई भी नहीं है।

जब तुम इस ‘मैं—पन’ का साक्षात करोगे तो यह विलीन हो जाएगा। इस क्षण में तुम्हें भय पकड़ सकता है, तुम आतंकित हो सकते हो। और यह अनेक लोगों के साथ होता है कि जब वे इस विधि में गहरे उतरते हैं तो वे इतने भयभीत हो जाते हैं कि भाग खड़े होते हैं।

तो तुम ठीक उसी स्थिति में होगे जिस स्थिति में मृत्यु के समय होगे। ठीक उसी स्थिति में, क्योंकि ‘मैं’ विलीन हो रहा है। और तुम्हें लगेगा कि मेरी मृत्यु घटित हो रही है। तुम्हें डूबने जैसा भाव होगा कि मैं डूबता जा रहा हूं। और यदि तुम भयभीत हो गए तो तुम बाहर आ जाओगे और फिर विचारों को पकड़ लोगे, क्योंकि वे विचार सहयोगी होंगे। वे बादल वहा होंगे, तुम उनसे फिर चिपक जा सकते हो, और तुम्हारा भय जाता रहेगा।

पर स्मरण रहे, यह भय बहुत शुभ है। यह एक आशापूर्ण लक्षण है। यह भय बताता है कि तुम गहरे जा रहे हो। और मृत्यु गहनतम बिंदु है। यदि तुम मृत्यु में उतर सके तो तुम अमृत हो जाओगे। क्योंकि जो मृत्यु में प्रवेश कर जाता है, उसकी मृत्यु असंभव है। क्योंकि जो मृत्यु में उतर जाता है, उसकी मृत्यु नहीं हो सकती। तब मृत्यु भी बाहर—बाहर है, परिधि पर है। मृत्यु कभी केंद्र पर नहीं है, वह सदा परिधि पर है। जब मैं—पन विदा होता है तो तुम ठीक मृत्यु जैसे ही हो जाते हो। पुराना गया और नए का आगमन हुआ।

यह चैतन्य, जो मैं —पन के जाने पर आता है, सर्वथा नया है, अछूता है, युवा है, कुंआरा है। पुराना बिलकुल नहीं बचा और पुराने ने इसे स्पर्श भी नहीं किया है। वह मैं—पन विलीन हो जाता है और तुम अपने अछूते कुंआरेपन में, अपनी संपूर्ण ताजगी में प्रकट होते हो। तुमने अस्तित्व का गहरे से गहरा तल छू लिया है।

तो इस तरह सोचो. विचार, उसके नीचे मैं—पन और तीसरी चीज.

‘अनुभव करो: मेरा विचार, मै —पन, आंतरिक इंद्रियां—मुझ।’

जब विचार विलीन हो चुके हैं या उन पर तुम्हारी पकड़ छूट गई है—वे चल भी रहे हों तो उनसे तुम्हें लेना—देना नहीं है, तुम पृथक, अनासक्त और विमुक्त हो—और मैं—पन भी विदा हो गया है, तब तुम आंतरिक इंद्रियों को देखते हो।

ये आंतरिक इंद्रियां—यह सबसे गहरी बात है। हम अपनी बाह्य इंद्रियों को जानते हैं। हाथ से मैं तुम्हें छूता हूं आंख से देखता हूं; ये बाह्य इंद्रियां हैं। आंतरिक इंद्रियां वे हैं जिनसे मैं अपने होने को, अपने अस्तित्व को अनुभव करता हूं। बाह्य इंद्रियां दूसरों के लिए हैं, मैं बाह्य इंद्रियों के द्वारा तुम्हारे संबंध में जानता हूं।

लेकिन मैं अपने बारे में कैसे जानता हूं? मैं हूं, यह भी मैं कैसे जानता हूं? मुझे मेरे होने की अनुभूति, होने की प्रतीति, होने का अहसास कौन देता है?

उसके लिए आंतरिक इंद्रियां हैं। जब विचार ठहर जाते हैं और जब मैं—पन नहीं बचता है तो उस शुद्धता में, उस स्वच्छता में, उस स्पष्टता में तुम आंतरिक इंद्रियों को देख सकते हो। चैतन्य, प्रतिभा, मेधा—ये आंतरिक इंद्रियां हैं। उनके द्वारा हमें अपने होने का, अपने अस्तित्व का बोध होता है। यही कारण है कि अगर तुम अपनी आंखें बंद कर लो तो तुम अपने शरीर को बिलकुल भूल सकते हो, लेकिन तुम्हारा यह भाव कि मैं हूं बना ही रहेगा।

और उससे ही यह बात भी समझ में आती है—और यह बात बिलकुल सच है—कि जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो हमारे लिए तो वह मर जाता है, लेकिन उसे थोडा समय लग जाता है इस तथ्य को पहचानने में कि मैं मर गया हूं। क्योंकि होने का आंतरिक भाव वही का वही बना रहता है।

तिब्बत में तो मरने के विशेष प्रयोग हैं और वे कहते हैं कि मरने की तैयारी बहुत जरूरी है। उनका एक प्रयोग इस प्रकार है जब भी कोई व्यक्ति मरने लगता है तो गुरु या पुरोहित, या कोई भी जो बारदो प्रयोग जानता है, उससे कहता रहता है कि ‘स्मरण रखो, होश रखो, बोध बनाए रखो कि मैं शरीर छोड़ रहा हूं।’ क्योंकि जब तुम शरीर छोड़ देते हो तो भी यह समझने में थोड़ा समय लगता है कि मैं भर गया हूं। क्योंकि आंतरिक भाव वही का वही बना रहता है, उसमें कोई बदलाहट नहीं होती।

शरीर तो केवल दूसरों को छूने और अनुभव करने के लिए है। इसके द्वारा तुमने कभी अपने को नहीं स्पर्श किया है, न अपने को जाना है। तुम अपने को किन्हीं अन्य इंद्रियों के द्वारा जानते हो जो आंतरिक हैं। लेकिन हमारी मुश्किल यह है कि हमें अपनी उन इंद्रियों का पता नहीं है और हम अपने को दूसरों के द्वारा जानते हैं। हमारी ही नजर में हमारी जो तस्वीर है वह दूसरों द्वारा निर्मित है। मेरे बारे में दूसरे जो कहते हैं वही मेरी मेरे संबंध में जानकारी है। अगर वे कहते हैं कि तुम सुंदर हो, या अगर वे कहते हैं कि तुम कुरूप हो, तो मैं उस पर भरोसा कर लेता हूं। मेरे बारे में मेरी इंद्रियां दूसरों के माध्यम से, दूसरों से प्रतिफलित होकर जो कुछ मुझे बताती हैं, वही मेरी मेरे संबंध में धारणा बन जाती है।

अगर तुम अपनी आंतरिक इंद्रियों को पहचान लो तो तुम समाज से बिलकुल मुक्त हो गए। यही मतलब है जब पुराने शास्त्रों में कहा जाता है कि संन्यासी समाज का हिस्सा नहीं है। क्योंकि वह अब स्वयं को आंतरिक इंद्रियों के द्वारा जानता है। अब उसका अपने संबंध में ज्ञान दूसरों के मत पर आधारित नहीं है, अब यह ज्ञान किसी के माध्यम से देखा गया प्रतिफलन नहीं है। अब उसे स्वयं को जानने के लिए किसी दर्पण की जरूरत नहीं है। उसने आंतरिक दर्पण को पा लिया है और वह स्वयं को आंतरिक दर्पण के द्वारा जानता है।

और आंतरिक सत्य को तभी जाना जा सकता है जब तुमने आंतरिक इंद्रियों को पा लिया हो। और तब तुम उन आंतरिक इंद्रियों के द्वारा देख सकते हो। और तब—’मुझ’। इसे शब्दों में कहना कठिन है; इसीलिए ‘मुझ’ का प्रयोग किया गया है। कोई भी शब्द गलत होगा; ‘मुझ’ भी गलत है। लेकिन मैं विलीन हो गया है। स्मरण रहे, इस ‘मुझ’ का ‘मैं’ से कुछ लेना—देना नहीं है। जब विचार निर्मूल हो गए हैं, जब ‘मैं—पन’ विदा हो चुका है, जब आंतरिक इंद्रियां जान ली गई हैं, तब ‘मुझ’ प्रकट होता है। तब पहली दफा मेरा असली होना प्रकट होता है। वह असली होना ‘मुझ’ है।

बाहरी संसार न रहा,विचार न रहे, अहंकार का भाव न रहा और मैंने अपनी आंतरिक इंद्रियों को, चैतन्य को, मेधा को, बोध को, या उसे जो कुछ भी कहो, जान लिया है। तब इस आंतरिक इंद्रियों के प्रकाश में ‘मुझ’ का अवतरण होता है। यह ‘मुझ’ तुम्हारा नहीं है; यह तुम्हारा अंतरतम है, जिसे तुम नहीं जानते हो। यह ‘मुझ’ अहंकार नहीं है। यह ‘मुझ’ तुम्हारे विरोध में नहीं है। यह ‘मुझ’ जागतिक है, विराट है। इस ‘मुझ’ की कोई सीमा नहीं है, इसमें सब कुछ निहित, समाया है। यह लहर नहीं है; यह सागर ही है।

अनुभव करो मेरा विचार, मैं—पन, आंतरिक इंद्रियां।’ और तब एक अंतराल है और अचानक ‘मुझ’ प्रकट होता है। जब यह ‘मुझ’ प्रकट होता है तो व्यक्ति जानता है कि मैं ब्रह्म हूं अहं ब्रह्मास्मि! यह जानना अहंकार का दावा नहीं है; अहंकार तो जा चुका। इस विधि के द्वारा तुम अपना रूपांतरण कर सकते हो। लेकिन पहले भाव में स्थिर होओ।

दूसरी विधि:

कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं? विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।

‘कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं?’

एक कामना पैदा होती है और कामना के साथ यह भाव पैदा होता है कि मैं हूं। एक विचार उठता है और विचार के साथ यह भाव उठता है कि मैं हूं। इसे अपने अनुभव में ही देखो; कामना के पहले और जानने के पहले अहंकार नहीं है।

मौन बैठो और भीतर देखो। एक विचार उठता है और तुम उस विचार के साथ तादात्म्य कर लेते हो। एक कामना पैदा होती है और तुम उस कामना के साथ तादात्म्य कर लेते हो। तादात्म्य में तुम अहंकार बन जाते हो। फिर जरा सोचो. कोई कामना नहीं है, कोई ज्ञान नहीं है, कोई विचार नहीं है—तुम्हारा किसी के साथ तादात्म्य नहीं हो सकता। अहंकार खड़ा नहीं हो सकता।

बुद्ध ने इस विधि का उपयोग किया और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि और कुछ मत करो, सिर्फ इतना ही करो कि जब कोई विचार उठे तो उसे देखो। बुद्ध कहा करते थे कि जब कोई विचार उठे तो देखो कि यह विचार उठ रहा है। अपने भीतर ही देखो कि अब विचार उठ रहा है, अब विचार है, अब विचार विदा हो रहा है। बस देखते भर रहो कि अब विचार उठ रहा है, अब विचार पैदा हो गया है, अब विचार विलीन हो रहा है। ऐसा देखने से तादात्म्य नहीं होगा।

यह विधि सुंदर है और बहुत सरल है। एक विचार उठता है। तुम सड़क पर चल रहे हो, एक सुंदर कार गुजरती है और तुम उसे देखते हो। और तुमने अभी देखा भी नहीं कि उसे पाने की कामना पैदा हो जाती है। इस पर प्रयोग करो। आरंभ में धीमे शब्दों में कहो, धीरे से कहो कि मैं कार देखता हूं कार सुंदर है और उसे पाने की कामना पैदा हो रही है। पूरी घटना को शाब्दिक रूप दो।

शुरू—शुरू में शाब्दिक रूप देना अच्छा है। अगर तुम इसे जोर से कह सको तो और भी अच्छा है। जोर से कहो कि ‘मैं देख रहा हूं कि एक कार गुजरी है और मन कहता है कि कार सुंदर है और अब कामना उठी है कि मैं यह कार प्राप्त करके रहूंगा।’ सब कुछ शब्दों में कहो, स्वयं से ही कहो और जोर से कहो, और तुरंत तुम्हें अहसास होगा कि मैं इस पूरी प्रक्रिया से अलग हूं।

पहले देखो, मन ही मन में कामना के उठने को देखो। और जब तुम देखने में निष्णात हो जाओ तब जोर से कहने की जरूरत नहीं है। तब मन ही मन देखो कि एक कामना पैदा हुई है। एक सुंदर स्त्री गुजरती है और कामवासना उठती है, उसे मन ही मन ऐसे देखो जैसे कि तुम्हें उससे कुछ लेना—देना नहीं है, तुम सिर्फ घटित होने वाले तथ्य को देख भर रहे हो। और तुम अचानक अनुभव करोगे कि मैं इससे बाहर हूं।

बुद्ध कहते है कि जो भी हो रहा है, उसे देखो; और जब वह विदा हो जाए तो उसे भी देखो कि अब कामना विदा हो गई है। और तुम उस विचार से, उस कामना से एक दूरी, एक पृथकता अनुभव करोगे।

यह विधि कहती है ‘कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं?’

अगर कोई कामना नहीं है, कोई विचार नहीं है, तो तुम कैसे कह सकते हो कि मैं हूं? मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं? तब सब कुछ मौन है, शांत है; एक लहर भी तो नहीं है। और लहर के बिना मैं ‘मैं’ का भ्रम कैसे निर्मित कर सकता हूं? अगर कोई लहर हो तो मैं उससे आसक्त हो सकता हूं और उसके माध्यम से मैं अनुभव कर सकता हूं कि मैं हूं। जब चेतना में कोई लहर नहीं है तो कोई ‘मैं’ नहीं है।’

तो कामना के उठने से पहले स्मरण रखो, जब कामना आ जाए तो स्मरण रखो, और जब कामना विदा हो जाए तो भी स्मरण रखो। जब कोई विचार उठे तो स्मरण रखो, उसे देखो। सिर्फ देखो कि विचार उठा है। देर— अबेर वह विदा हो जाएगा, क्योंकि सब कुछ क्षणिक है। और बीच में एक अंतराल होगा। दो विचारों के बीच में खाली जगह है। दो कामनाओं के बीच में अंतराल है। और उस अंतराल में, उस खाली जगह में ‘मैं’ नहीं है।

मन में चलते विचार को देखो और तुम पाओगे कि वहां एक अंतराल भी है। चाहे वह कितना ही छोटा हो, अंतराल है। फिर दूसरा विचार आता है और फिर एक अंतराल। उन अंतरालों में ‘मैं’ नहीं है। और वे अंतराल ही तुम्हारा असली होना हैं, तुम्हारा अस्तित्व हैं। आकाश में विचार के बादल चल रहे हैं। दो बादलों के बीच के अंतराल में देखो और आकाश प्रकट हो जाएगा।

‘विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।’

विमर्श करो कि कामना पैदा हुई और कामना विदा हो गई—और मैं उसके अंतराल में हूं और कामना ने मुझे अशांत नहीं किया है। विमर्श करो कि कामना आई, कामना गई, वह थी और अब नहीं है; और मैं अनुद्विग्न रहा हूं वैसा ही रहा हूं जैसा पहले था; मुझमें कोई बदलाहट नहीं हुई है। विमर्श करो कि कामना छाया की भाति आई और चली गई; उसने मुझे स्पर्श भी नहीं किया; मैं अछूता रह गया हूं। इस कामना की गतिविधि के प्रति, इस विचार की हलचल के प्रति विमर्श से भरो। और अपने भीतर की अगति के प्रति भी, ठहराव के प्रति भी विमर्शपूर्ण होओ।

‘विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।’

और वह अंतराल सुंदर है, उस अंतराल में डूब जाओ। उस अंतराल में डूब जाओ, शून्य हो जाओ। यह सौंदर्य का प्रगाढ़तम अनुभव है। और केवल सौंदर्य का ही नहीं, शुभ और सत्य का भी प्रगाढ़तम अनुभव है। उस अंतराल में तुम हो।

सारा ध्यान भरे हुए स्थानों से हटाकर खाली स्थानों पर लगाना है। तुम कोई किताब पढ़ रहे हो। उसमें शब्द है, उसमें वाक्य हैं। लेकिन शब्दों के बीच, वाक्यों के बीच खाली स्‍थान भी हैं। और उन खाली स्थानों में तुम हो। कागज की जो शुभ्रता है, वह तुम हो; और जो काले अक्षर हैं वे तुम्हारे भीतर चलने वाले विचार और कामना के बादल हैं। अपने परिप्रेक्ष्य को बदलों, अपने गेस्टाल्ट को बदलों। काले अक्षरों को मत देखो, शुभ्रता को देखो।

अंतराल के प्रति, खाली आकाश के प्रति सावचेत बनो। और उस अंतराल के द्वारा, उस आकाश के द्वारा तुम परम सौंदर्य में विलीन हो जाओगे।

आज इतना ही।


Filed under: तंत्र--सूत्र--(भाग--4) ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

सपना यह संसार–(प्रवचन–8)

$
0
0

बहार आई तो क्या करेंगे—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक; बुधवार, 18 जुलाई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1—भगवान, हुआ लुप्त पावन दर्शन यह अनुपम

हे भगवान

पुनः स्वार्थ से भरे कीच में रमूं न

मैं अनजान।

2—भगवान, गुरु गोविंद दोऊ खड़े

काके लागूं पांय?

3—भगवान, न होशे हस्ती न ताबे मस्ती

कि तेरा शुक्रिया अदा करेंगे।

खिजां में है अब से अपना आलम

बहार आई तो क्या करेंगे!

4—भगवान, शिक्षा के क्षेत्र में गुलामी अपार है। पूना के वाडिया कालेज में दर्शनशास्त्र के अध्यापक के रूप में इंटरव्यू में चुने जाने पर भी नियुक्ति इसलिए नहीं दी गई, क्योंकि गेरुआ वस्त्र और माला न पहनने की शर्त को मैंने स्वीकार नहीं किया। अब परसों फिर पूना कालेज में इंटरव्यू में चुने जाने पर भी नियुक्ति के पहले वे मुझसे वचन चाहते हैं कि मैं गेरुआ वस्त्र न पहनूं और माला ज्यादा से ज्यादा वस्त्रों के भीतर रखूं। शिक्षक को इतनी स्वतंत्रता नहीं कि वह अपने ढंग से रह सके! और ऐसा गुलाम शिक्षक भविष्य की पीढ़ी का निर्माण करने का भार वहन करता है!

 

पहला प्रश्न:

 

भगवान,

हुआ लुप्त पावन दर्शन यह अनुपम

हे भगवान

पुनः स्वार्थ सये भरे कीच में रमूं न

मैं अनजान।

चित्तरंजन, जो क्षणभंगुर है, उसका कोई भी मूल्य नहीं। जो अभी है और अभी नहीं हो जाए, वह पानी का बबूला है। कितना ही चमके सूरज की रोशनी में, हीरा वह नहीं है। यहां जो घटित हो रहा है तुम्हारे और मेरे बीच, उसके लुप्त होने की कोई संभावना नहीं। वह सच ही घटित हो रहा है। तुम्हारे मन की कल्पना नहीं है। न ही तुम्हारा आत्मसम्मोहन है। न तुम्हारी मान्यता है। तुम्हारे ऊपर आनंद की एक वर्षा हो रही है। तुम्हारा हृदय—पात्र भर रहा है। तुममें पूजा और प्रार्थना के स्वर पैदा हो रहे हैं। इनके मिटने का कोई उपाय नहीं है। तुम चाहो भी तो इन्हें मिटा न सकोगे। तुम आंख चुराना भी चाहो तो जो सत्य तुम्हें एक बार दिखाई पड़ गए, उन सत्यों से बचने का कोई उपाय नहीं है। जो जान लिया गया, जान लिया गया। उसे अब झुठलाया नहीं जा सकता।

दूर जा सकते हो मुझसे, दूरी स्थान की होगी, लेकिन एक और तल है जहां दूरी असंभव है। प्रेम के जगत में न स्थान की कोई दूरी अर्थ रखती है, न समय की। प्रेम ऐसे जोड़ देता है कि टूटने की असंभावना हो जाती है। इसलिए चिंता न करो! चिंता लगती है, स्वाभाविक; क्योंकि इस जीवन में जो भी हम जानते हैं वह सब खो जाता है। इस जीवन का प्रेम आज फूल, कल राख हो जाता है। इस जीवन का यश, मान—सम्मान, सब धूल—धूसरित हो जाता है। यह जीवन ही आज नहीं कल कब्र में पड़ा होगा। यह देह मिट्टी हो जाएगी। यहां सब कुछ खो जाता है। इसलिए स्वभावतः जब अनंत की झलकें मिलनी शुरू होती हैं, तो मन में हजार शंकाएं उठती हैं—कहीं यह भी तो खो न जाएंगी?

शंकाएं स्वाभाविक हैं, लेकिन असत्य हैं, भ्रामक हैं। शंकाएं स्वाभाविक हैं, क्योंकि अतीत का सारा अनुभव यही है कि यहां कुछ भी टिकता नहीं।

तो जब पहली दफा हृदय में उमंग उठती है ध्यान की, तो डर लगता है—छूट तो न जाएंगी, छिटक तो न जाएंगी?। कहीं ऐसा तो न होगा कि फिर पड़ जाऊं उसी गैर—ध्यान की अवस्था में, जिसमें कल तक था? जब पहली दफा किरण उतरती है तो भरोसा ही नहीं आता। क्योंकि अंधेरे में हम इतने जीए हैं, अंधेरा स्वाभाविक हो गया है, प्रकाश झूठ हो गया है। प्रकाश पर तो लोग सिर्फ कामचलाऊ भरोसा करते हैं। हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, मंदिर भी जाते, मस्जिद भी जाते, गिरजे भी जाते, फूल भी चढ़ाते, अर्चना भी करते, मगर सब झूठी, ऊपर—ऊपर। भीतर जो जानते हैं, यह सब औपचारिकता है, एक सामाजिक व्यवहार है।

लेकिन चित्तरंजन, जो यहां घटित हो रहा है, वह न तो औपचारिकता है, न सामाजिक व्यवहार है। औपचारिकता के कारण तो कोई मेरे पास आएगा नहीं। मेरे पास आना तो महंगा सौदा है। औपचारिकता मात्र के लिए कौन मेरे पास आकर झंझट लेगा! मेरे साथ जुड़ना तो बदनाम होना है। मेरे साथ खड़े होना तो सारे समाज से बगावत है, स्थापित स्वार्थों से विद्रोह है। मेरे नाम के साथ जुड़ने के लिए भी साहस चाहिए। अदम्य साहस चाहिए।

मंदिर—मस्जिद जा सकता है कोई औपचारिकता से, क्योंकि जाने में प्रतिष्ठा मिलती है। हानि क्या है? लाभ—ही—लाभ है। अगर होगा कोई परलोक तो परलोक भी सम्हलता; और यह लोक भी सम्हलता है। मंदिर जाने वाला आदमी, मस्जिद जाने वाला आदमी धार्मिक समझा जाता है, प्रतिष्ठित समझा जाता है, सम्मानित होता है। अहंकार को पूजा मिलती है। अहंकार को नया—नया शृंगार मिलता है। मेरे पास आओगे तो समाज कांटों के हार पहनाएगा। समाज गालियां देगा, अपमान करेगा। हजार तरह की कठिनाइयां जीवन में खड़ी करेगा। मेरे पास कोई औपचारिकता से तो नहीं आ सकता।

और मेरे पास किसी सामाजिक व्यवहार से आने का कोई कारण नहीं है। सामाजिक व्यवहार तो वहां होता है जहां पुरानी परंपरा होती है। हजारों साल की परंपरा से सामाजिक व्यवहार का जन्म होता है।

यहां तो सूरज की नई किरण पैदा हो रही है, जिसकी कोई परंपरा नहीं। यहां तो कुछ नए का अवतरण हो रहा है, जिसका कोई अतीत नहीं। यहां तो कोरी किताब पर कुछ लिखावट की जा रही है; वेद नहीं, कुरान नहीं, बाइबिल नहीं। यहां तो केवल वे थोड़े—से लोग ही आ सकेंगे, जिनमें इतना दीवानापन है कि सामान्य स्वार्थों को, सुविधाओं को, सुरक्षाओं को एक तरफ रख दें। यहां तो बस परवाने आ सकेंगे। यहां तो शमा जली है। और परवाने का शमा के पास आना अपनी मृत्यु के पास आना है। मैं तुम्हें क्या दे सकता हूं? छीनूंगा। सब छीन लूंगा। तुम्हारा ज्ञान, जो तुम्हारी बड़ी संपदा है; तुम्हारे पक्षपात, तुम्हारे, शास्त्र, तुम्हारे संप्रदाय, तुम्हारे मंदिर—मस्जिद, तुम्हारे पूजागृह, तुम्हारी मूर्तियां, तुम्हारी प्रार्थनाएं, सब छीन लूंगा। चेष्टा तो यही है कि तुम ऐसे जलो, ऐसे भभको कि तुम्हारा अहंकार राख हो जाए। तब जो शेष रह जाएगा अग्नि के पार, वही तुम हो, वही तुम्हारा शाश्वत स्वरूप है। तभी तुम जानोगे तत्वमसि का अर्थ। वह तुम ही हो। तभी तुम जानोगे अहं ब्रह्मास्मि का अर्थ; कि मैं ब्रह्म हूं। तभी तुम्हारे सामने मंसूर का अनलहक, कि मैं सत्य हूं, इसकी जीवंत व्याख्या होगी। अनुभव से व्याख्या होगी।

इतने बड़े सत्य के करीब, इतने बड़े अनुभव के करीब मन बहुत बार डरेगा। यह अपने वश में है? यह अपनी औकात? यह अपनी पात्रता? कहीं ऐसा तो नहीं है: एक झलक आई है स्वप्न में और खो जाएगी?

तुम कहते हो—

हुआ लुप्त पावन दर्शन यह अनुपम

हे भगवान

यह लुप्त होने वाली बात नहीं। यह दर्शन शुरू तो होता है, समाप्त नहीं। यह प्रेम बसंत तो जानता है, पतझड़ नहीं।

पुरानी कहानियां कहती हैं सारी दुनिया की कि एक ऐसा समय था पृथ्वी पर जब सिर्फ एक ही ऋतु होती थी—वसंत। फिर जैसे—जैसे आदमी पतित हुआ अपनी निर्दोषता से, वैसे—वैसे और—और ऋतुएं आनी शुरू हुईं। अब तो वसंत खो गया है। आता भी है तो पता नहीं चलता। बड़े—बड़े नगरों में कहां पता चलता है—कब पतझड़, कब वसंत? सीमेंट के रास्ते, सीमेंट के बड़े—बड़े मकान; न पत्ते झरते हैं, न फूल खिलते हैं, न कोयल कूकती है, न पपीहा पुकारता है; ट्रकों, बसों और कारों के हार्न सदा बजते रहते हैं। न पतझड़ की फिक्र है, न वसंत की फिक्र है। वही आपाधापी रोज चलती है। आकाश में बदलती होंगी ऋतुएं, लेकिन कौन आकाश को देखता है? किसके पास समय है, सुविधा है? कौन चांदत्तारों को देखता है? रास्ते के किनारे लगे पोस्टर ही पढ़ने से फुर्सत नहीं मिलती, चांदत्तारों को देखे तो कौन देखे? और आंखें तुम्हारी ऐसी धुंधली हो गई हैं क्षुद्र और व्यर्थ को देखते—देखते कि चांदत्तारे भी देखोगे तो पक्का भरोसा नहीं आएगा कि हैं। सोचोगे कुछ भ्रम है।

चित्तरंजन, आंख खुलनी शुरू हुई है। दर्शन का यही अर्थ है। दर्शन का वही अर्थ नहीं है जो लोग आमतौर से समझते हैं। दर्शन कोई विचारधारा नहीं है। मैं तुम्हें कोई विचार नहीं दे रहा हूं। एक दृष्टि, एक आंख; ताकि तुम्हें वह दिखाई पड़ सके जो दिखाई पड़ना बंद हो गया है। और जब आंख मिलती है तो फिर एक ही ऋतु रह जाती है—वसंत। फिर पतझड़ आता ही नहीं। या कि पतझड़ भी वसंत हो जाता है। पत्तों का गिरना भी फूलों के खिलने से कम सुंदर नहीं होता फिर। दृष्टि बदली कि सृष्टि बदली।

तुम कहते हो—

पुनः स्वार्थ से भरे कीच में रमूं न

मैं अनजान।

कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली बात। सारे तथाकथित धर्मों ने तुम्हें समझाया है, स्वार्थ छोड़ो; स्वार्थ पाप है; परार्थी बनो। और लोग चेष्टा भी करते हैं कि स्वार्थ छोड़ें, परार्थी बनें। लेकिन कोई उनसे पूछे कि परार्थी क्यों बनना चाहते हो? तो वह कहते हैं, स्वर्ग जाना है। कि पुण्य कमाना है। कि मोक्ष पाना है। मगर यह सब तो स्वार्थ की बात हुई। यह तो तुमने परार्थ को भी स्वार्थ की सेवा में संलग्न कर लिया। यह परार्थ कहां हुआ?

मेरे देखे, इस तरह परार्थ हो ही नहीं सकता। इसकी मूल प्रेरणा ही स्वार्थ है। स्वर्ग मिले; फिर कभी आवागमन के चक्कर में न पड़ना पड़ें; फिर कभी इस देह का बंधन न हो; फिर कभी गर्भ और मृत्यु, ये सब उपद्रव न हों; फिर यह संसार का जाल पुनः न पकड़े—यह सब स्वार्थ है। स्वयं के अर्थ है। स्वयं के हित में है। इसलिए परार्थ करो, सेवा करो, बीमारों के हाथ—पैर दबाओ, यह सब करो, लेकिन इस सबके पीछे जो हेतु है, वह स्वार्थ ही है। इसलिए दुनिया में परार्थ की शिक्षा दी जाती रही और स्वार्थ पलता रहा। और स्वार्थ छिप—छिपकर सूक्ष्म रूप लेता रहा। स्थूल अर्थों में परार्थी हो गए लोग, लेकिन सूक्ष्म अर्थों में और भी स्वार्थी हो गए। इस लोक का ही स्वार्थ नहीं, परलोक का स्वार्थ भी उन्हें ग्रसित कर लिया।

मैं तुम्हें कुछ और सिखाता हूं। मैं नहीं कहता स्वार्थ छोड़ो, मैं तो कहता हूं: स्व छोड़ो। स्वार्थ नहीं छूट सकता, जब तक स्व न जाए। स्वार्थ तो स्व की छाया है। इसलिए तुम स्वार्थ छोड़ोगे, स्व और घना हो जाएगा। तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी, मुनि—त्यागी—व्रती जितने अहंकारी होते हैं उतना कोई अहंकारी नहीं होता। स्वार्थ छोड़ दिया तो वह जो ऊर्जा स्वार्थ में संलग्न थी, वह सारी—की—सारी ऊर्जा स्व को और मजबूत करने लगी। वह जो स्वार्थ में लगा था श्रम, वही श्रम अब अहंकार को और भी मजबूत करने में लग गया। स्वार्थ क्या छोड़ते हैं, स्व और सघन होता है।

मैं तुमसे दूसरी ही बात कहता हूं। मैं कहता हूं, स्वार्थ की फिक्र ही न करो, स्व जाने दो। स्वार्थ स्व की छाया है। और जहां स्व गया, स्वार्थ कैसे बचेगा? छायाओं से मत लड़ो, मूल को काट दो। पत्ते मत काटते रहो, जड़ ही काट दो।

और स्व को काटने के दो ही उपाय हैं। या तो प्रेम में ऐसे लीन हो जाओ परमात्मा के—और जब भी मैं कहता हूं परमात्मा तो खयाल रखना, मेरा अर्थ ब्रह्मा—विष्णु—महेश से नहीं है, मेरा अर्थ मंदिर—गिरजों में पूजी जाने वाली प्रतिमाओं से नहीं है, जब भी मैं कहता हूं परमात्मा, तो मेरा अर्थ है: यह विराट प्रकृति में छिपा हुआ रहस्य; इस विराट प्रकृति के भीतर छिपा हुआ संगीत। यह जो काव्य वृक्षों में है, पक्षियों की चहचहाट में है, चांदत्तारों की रोशनी में है; यह जो रहस्य, यह जो अनूठा—जिसका न कोई और है न छोर—अस्तित्व है, इसी का दूसरा नाम परमात्मा है। प्रेम में इसी को परमात्मा कहा गया है। तुम चाहो तो प्रकृति कहो, तुम चाहो तो अस्तित्व कहो।

लेकिन परमात्मा शब्द बड़ा प्यारा है, उसमें प्रकृति भी आ जाती, अस्तित्व भी आ जाता और कुछ ज्यादा भी, जो शब्दों में नहीं समाता, वह भी आ जाता है। अस्तित्व में तो वही आता है जो शब्दों में समाता है। प्रकृति में वही आता है जिसकी विज्ञान परख कर लेता है। जांच लेता है, माप कर लेता है। लेकिन परमात्मा में कुछ ज्यादा।

अस्तित्व और प्रकृति छोटे शब्द हैं। परमात्मा का बहुत कुछ उनमें आ जाता है लेकिन बहुत कुछ शेष रह जाता है। गद्य हिस्सा तो आ जाता है, पद्य हिस्सा छूट जाता है। वीणा तो आ जाती है लेकिन वीणा से उठने वाला संगीत छूट जाता है। ऊपर—ऊपर जो दिखाई पड़ता है, वह तो सम्मिलित हो जाता है, लेकिन भीतर—भीतर जो छिपा है, अंतर्धारा जो है—चैतन्य की—जो न प्रत्यक्ष है, न प्रत्यक्ष हो सकती है; जिसका होना ही परोक्ष है; वह छूट जाता है।

इसलिए परमात्मा शब्द का प्रयोग करता हूं।

परमात्मा का अर्थ है: चैतन्य अस्तित्व। अस्तित्व+चैतन्य। बाह्य—बाह्य तो प्रकृति है, भीतर—भीतर जो छिपा है गहन में, वह परमात्मा।

एक रास्ता है कि परमात्मा में अपने को डूबा दो तो स्व मिट जाए। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। फिर छाया न पड़ेगी। कहानियां कहती हैं कि स्वर्ग में देवता चलते हैं तो उनकी छाया नहीं बनती। ये कहानियां बड़ी प्रीतिकर हैं। जैसे मैंने तुमसे कहा कि पुरानी कहानियां कहती हैं एक ऐसा समय था, जब पृथ्वी पर केवल वसंत ही होता था—एक ही ऋतु। वह कहानी ही है। ऐसा कोई समय नहीं था पृथ्वी पर जब एक ही ऋतु होती थी। लेकिन इस पृथ्वी पर ऐसे लोग जरूर हुए हैं जिनके लिए एक ही ऋतु होती है—बुद्ध, कृष्ण, महावीर, कबीर, नानक, पलटू। ऐसे लोग इस पृथ्वी पर होते रहे हैं जिनको एक ही ऋतु का पता है। जिन्होंने ऋत को जान लिया, उनके लिए एक ही ऋतु रह जाती है। जिन्होंने इस जीवन के शाश्वत रहस्य को समझ लिया, उनके लिए बस वसंत ही वसंत है। पतझड़ भी उनके लिए वसंत की ही तैयारी है। उनके लिए मृत्यु भी जीवन का द्वार है, जीवन का दूसरा पहलू है। उनके लिए अंधेरा भी बस प्रकाश के प्रकट होने के लिए एक अवसर है। उन्हें अंधेरे से अंधेरी रात में भी सुबह के दर्शन होते हैं। अमावस की रात के गर्भ में भी सूरज ही छिपा है।

ऐसे लोग हुए, ऐसे लोग अब भी हैं, जिनके लिए एक ही ऋतु होती है। मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे लिए एक ही ऋतु है—वसंत। यह जो गैरिक वस्त्र मैंने तुम्हारे लिए चुने हैं, यह वसंत का रंग है। यह वासंती रंग है। यह उस एक ऋतु की याद दिलाने को है कि जल्दी तुम्हें भी उस जगह आ जाना है जहां एक ही ऋतु रह जाए।

स्व जाना चाहिए, स्वार्थ की चिंता ही न करो। स्व गया तो स्वार्थ तो अपने से जाएगा। तुम ही चले गए तो तुम्हारी छाया भी चली जाएगी। इसलिए मैं नहीं सिखाता परार्थ। बहुत लोगों को हैरानी होती है। मेरे पास कितने पत्र आते हैं—सैकड़ों पत्र—कि आप अपने संन्यासियों को सेवा की शिक्षा क्यों नहीं देते? कि वह कुछ सेवा करें! थोड़ा उनको परार्थ सिखाएं। कहीं ऐसा न हो कि वे स्वार्थी रह जाएं। मैं स्वार्थ छोड़ने को भी नहीं कह सकता, मैं परार्थ सिखा भी नहीं सकता। मेरे देखे हिसाब ही और है। स्व जाता है तो स्वार्थ चला जाता है। और जब स्वार्थ चला जाता है, जो शेष रह जाता है उसका नाम परार्थ है। उसको परार्थ भी नहीं कह सकते, इसलिए उस शब्द का मैं उपयोग नहीं करता।

जब स्व ही न रहा तो पर कौन? एक ही बचा। वही बचा। जब स्व ही न रहा तो सेवा कौन करे और किसकी करे? कबीर ने कहा है: अब तो उठता हूं, बैठता हूं—यही पूजा। खाता हूं, पीता हूं—यही सेवा। चलता हूं, फिरता हूं—यही परिक्रमा। फिर तो श्वास लेना ही मंत्र—पाठ है। गायत्री है। ओंमकार है। नमोकार है। फिर तो होना मात्र सेवा है। लेकिन सेवा जैसे छोटे शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता अब। होना इतने प्रेम से भरपूर है, लबालब, कि तुम्हारे होने के छींटे दूसरों पर उड़ने लगते हैं; कि तुम्हारा होना बहने लगता है, ऊपर से बहने लगता है—तुम्हारा पात्र इतना भर जाता है; कि दूसरों तक तुम्हारे आनंद की झलक पहुंचने लगती है; तुम्हारी गंध उड़ने लगती है हवाओं में, दूसरों के नासापुटों में भरने लगती है। मगर इसको परार्थ नहीं कहा जा सकता। स्व ही नहीं रहा हो तो परार्थ कौन? एक ही बचा। वही तुम हो, वही और भी है।

इसलिए इस डर में तो पड़ो ही मत, चित्तरंजन, कि कहीं फिर तुम स्वार्थ में तो न गिर जाओगे! हां, अगर तुमने पुरानी शिक्षाओं को ही याद रखा, तो स्वार्थ से छूटे ही नहीं हो, गिरने का सवाल क्या उठता है? अगर मेरी शिक्षा को समझा, तो स्व से छूटने लगोगे। एक रास्ता प्रेम, परमात्मा में डुबकी मारो; एक रास्ता ध्यान, अपने में डुबकी मारो। डुबकी लगनी चाहिए, बस। डुबकी लगी कि स्व गया। परमात्मा में लग जाए तो चला जाता है, अपने में लग जाए तो चला जाता है। स्व रहता है किनारे पर चलने वालों के पास। जो कहीं भी डूब जाते हैं, उनका स्व खो जाता है। और डूबने के दो उपाय हैं। जो सुगम मालूम पड़े।

और चित्तरंजन, तुम्हें प्रेम ही सुगम मालूम पड़ेगा। तुम्हारी प्रकृति के वही अनुकूल आएगा। डूबो रहस्य में यह जो चारों तरफ सघन होकर खड़ा है, अनंत—अनंत रूपों में प्रकट हो रहा है! आंदोलित होओ इसके साथ, नाचो, गाओ, डूबो!

जिनसे यह न हो सके, वे स्वयं में डूबें। आंख बंद करें, भीतर जाएं। जितने भीतर जाओगे, उतना ही अपने को कम पाओगे।

यह बड़ा विरोधाभास है।

लोग सोचते हैं, भीतर जाएंगे तो स्वयं को पाएंगे। जो ऐसा सोचते हैं, उन्होंने शास्त्र पढ़े हैं, अनुभव नहीं किया। उन्होंने ध्यान के संबंध में सुना होगा, स्वाद नहीं लिया। भीतर जितने जाओगे, उतना ही पाओगे कि तुम नहीं हो। जिस दिन अपनी अंतिम गहराई छू लोगे, उस दिन पाओगे—मैं जैसी कोई चीज ही नहीं। एक झूठ था, एक असत्य था, जो अपने से अपरिचित होने के कारण निर्मित हो गया था। जब आत्म—परिचय होगा, स्व गया। और स्व के साथ स्वार्थ गया। फिर बजती है धुन, बजता है इकतारा!

नहीं, तुम अब डूब न सकोगे स्वार्थ में, क्योंकि मैं स्व को तोड़ रहा हूं।

तुम कहते हो—

पुनः स्वार्थ से भरे कीच में रमूं न

मैं अनजान।

तुम्हारी प्रार्थना तो उचित है; तुम्हारा भय तो उचित है; तुम्हारे भय को मैं समझता…डर लगता है; इतने दिन तक स्वार्थ में जीए हैं; यहां मेरी छाया में, यहां मेरी सन्निधि में, यहां इतने दीवानों के साथ भूल जाता है सब संसार, भूल जाता है सब स्वार्थ; कहीं घर जाकर वापिस तो न लौट आएगा? घर में बैठकर प्रतीक्षा तो न कर रहा होगा कि आओ घर चित्तरंजन, फिर देखेंगे!! कि घर तो आओ एक बार!…मेरी बात समझोगे तो कोई उपाय स्वार्थ के लौटने का नहीं। और मत कहो उसे कीचड़!

यहां भी मेरा भेद है।

अब तक जो कहा गया है: संसार कीचड़, वह निंदा के लिए कहा गया है। संसार की निंदा करने के लिए कीचड़ शब्द का प्रयोग किया गया है। मैं भी कहता हूं संसार कीचड़, लेकिन निंदा के लिए नहीं। मैं कहता हूं संसार कीचड़, क्योंकि यहां कमल पैदा होते हैं। कमल बिना कीचड़ के पैदा नहीं होते। मैं कीचड़ को भी सम्मान देता हूं। क्योंकि मेरे लिए कीचड़ कमल का ही छिपा हुआ रूप है—अनभिव्यक्त कमल है। मत कहो कीचड़, पुरानी भाषा का उपयोग मत करना, पुराने अर्थों में मत करना। क्योंकि कीचड़ शब्द कहते ही से हमारे मन में एक निंदा का भाव पैदा होता है कि अरे, कीचड़! कीचड़ शब्द कहते ही से मन होता है, सम्हाल लो अपने कपड़े और बच कर निकल जाओ।

तुम अगर कीचड़ से बचे तो कमलों से बच जाओगे। और कमलों से बच गए तो जीवन अकारथ गया। कीचड़ कमल बनती है, तो कीचड़ भी सम्मानित है। कीचड़ कमल बनती है, तो कीचड़ भी परमात्मा है।

इसलिए कहीं संसार से न भागना है, न त्यागना है। कीचड़ जैसे शब्दों को भी बहुत सावधानी से प्रयोग करो, क्योंकि उनमें पुराने अर्थ इतने गहरे घुस गए हैं कि तुम्हें पता भी न चलेगा, जब भी तुम कीचड़ शब्द कहोगे, अचेतन में पुराने ही स्वर गूंजेंगे। हालांकि मैं नए अर्थ दे रहा हूं। लेकिन पुराने अर्थ इतने पुराने हैं, सदियों पुराने हैं, उनकी खूब गहरी छाप हो गई है, आदत हो गई है। वह जो पलटू कहते हैं न कि बनिया है, कि डंडी मारता ही जाता है! आदतवश! तय भी कर लेता है कि अब ऐसा नहीं करूंगा तो भी किए चला जाता है। ऐसे ही हमारे शब्दों के साथ संयोग बनते हैं, अर्थ बनते हैं।

स्वार्थ छोड़ना नहीं है, स्व को विदा करना है। और स्व को विदा करना है तो स्वयं की ज्योति जगे। ध्यान की हो या भजन की हो, मगर ज्योति जगे—स्व चला जाएगा। और जहां स्व गया, वहां सेवा ही सेवा है। और वह सेवा कर्तव्य नहीं है, वह सेवा परार्थ नहीं है, वह सेवा आनंद है। और जहां स्व गया, वहां कीचड़ में कमल खिलने लेंगे। वहां मिट्टी में अमृत की झलक आने लगेगी। वहां मृण्मय चिन्मय होने लगता है।

मिट्टी का दीया बनाते हैं न दीपावली को और उसमें ज्योति जलाते हैं। वह प्रतीक है। वह प्रतीक है इस बात का कि मिट्टी के दीए में अमृत ज्योति सम्हाली जा सकती है। मिट्टी के दीए में अमृत ज्योति जल सकती है।

भारत में दीवाली मनाए जाने के दो कारण हैं। एक तो हिंदुओं का कारण है और एक जैनों का कारण है। हिंदुओं का कारण तो बहुत बहुमूल्य नहीं है, लेकिन जैनों का का कारण जरूर बहुमूल्य है। हिंदू तो मनाते हैं दीपावली—लक्ष्मी की पूजा का त्यौहार; धन की पूजा का त्यौहार। इससे ज्यादा और भौतिकवाद क्या होगा? लोग सिक्के, चांदी के सिक्के रख कर उनकी पूजा करते हैं! और ये ही भले लोग दुनिया भर में घोषणा करते हैं कि भारत जैसा धार्मिक देश नहीं है। दुनिया के किसी कोने में धन की पूजा नहीं होती, सिवाय भारत को छोड़ कर, लक्ष्मी की पूजा कहीं नहीं होती। अमरीकन भी, जो डालर का दीवाना है, वह भी डालर को रख कर पूजा नहीं करता। वह भी इस बात को मूढ़तापूर्ण समझेगा। लक्ष्मी की पूजा इस पुण्यभूमि में ही होती है, इस धर्मभूमि में ही होती है! इससे बड़ा और भौतिकवाद क्या होगा? इस देश का सबसे बड़ा त्यौहार है दीपावली। और सबसे बड़ा त्यौहार समर्पित है चांदी के सिक्कों के लिए! धन की पूजा! और त्याग की बातें।

जैनों का कारण ज्यादा सार्थक है। जैन इसलिए दीपावली मनाते हैं कि उस रात, अमावस की रात महावीर निर्वाण को उपलब्ध हुए। उस रात मिट्टी के दीए में, मृण्मय दीए में चिन्मय ज्योति जगी। इसलिए दीए जलाते हैं। उनकी बात तो कुछ सार्थक मालूम पड़ती है। मगर वह भी बात है! जैन भी करते तो हैं पूजा चांदी के ही सिक्कों की। जैन—घरों में भी लक्ष्मी की ही पूजा होती है। औपचारिक रूप से दीपावली के बाद दूसरे दिन सुबह निर्वाण लाडू चढ़ा देते हैं भगवान पर कि लो, तुम्हारा भी निपटा देते हैं! रात तो पूजा करते हैं चांदी के सिक्कों की, सुबह भगवान पर निर्वाण के लाडू चढ़ा देते हैं। तुम से भी छुटकारा ले लिया! चलो तुम भी ले लो!

मौलिक अर्थ में तो बात महत्वपूर्ण थी।

इसलिए भी महत्वपूर्ण थी…बुद्ध को तो ज्ञान हुआ पूर्णिमा की रात। समझ में आता है कि पूर्णिमा की रात्रि कोई पूर्णता को उपलब्ध हो जाए। पूरा चांद आकाश में हो और भीतर भी पूरा चांद आ जाए। महावीर का निर्वाण हुआ…अमावस की रात। यह ज्यादा महत्वपूर्ण है! इसमें ज्यादा काव्य है! और ज्यादा अर्थवत्ता! अमावस की रात पूर्णिमा ऊगे भीतर, तो जीवन का जो विरोधाभास है वह साफ हो जाता है। कितना ही अंधेरा हो, घबड़ाना मत, अमावस की रात भी निर्वाण घटा है! और कितनी ही गंदी कीचड़ हो, घबड़ाना मत, कमल खिले हैं! और मिट्टी का दीया हो तो चिंता मत करना कि मिट्टी के दीए में क्या होगा? ज्योति जल सकती है। मिट्टी पृथ्वी का हिस्सा है, ज्योति आकाश का।…इसलिए ज्योति हमेशा ऊपर की तरफ भागती रहती है। ज्योति हमेशा ऊर्ध्वगामी है।

तुम चित्तरंजन, न तो चिंता करो स्वार्थ की—क्योंकि मैं स्व को काट रहा हूं—न चिंता करो कीचड़ की—क्योंकि कीचड़ कहां है, कमल—ही—कमल हैं! कुछ प्रकट हो गए हैं, कुछ प्रकट होने को हैं। कुछ बीज में हैं, कुछ फूल बन गए हैं। कीचड़ है कहां? यह सारा अस्तित्व—कीचड़ सहित—परमात्मा से परिपूर्ण है। वही है। वह एक ही है। और उसकी ही झलकें तुम्हें मिलनी शुरू हुई हैं। अभी झलकें हैं, इसलिए डर लगता है। जल्दी ही झलकें स्थिर हो जाएंगी और डर विदा हो जाएगा।

जुनूने—इश्क की रस्मे—अजीब, क्या कहना,

मैं उनसे दूर वो मुझसे करीब, क्या कहना।

 

जो तुम हो बर्के—नशेमन, तो मैं नशेमने—बर्क,

उलझ पड़े हैं हमारे नसीब, क्या कहना।

 

हुजूमे—रंग फरावां सही, मगर फिर भी,

बहार, नौहा—ए—सद—अंदलीब, क्या कहना।

 

हजार काफिला—ए—जिंदगी की तीरा—शबी।

ये रोशनी—सी उफक के करीब, क्या कहना।

 

लरज गई तेरी लौ मेरे डगमगाने से,

चरागे—गोशा—ए—कू—ए—हसीब, क्या कहना।

उस प्यारे की गली की क्या बातें कहें!

लरज गई तेरी लौ मेरे डगमगाने से,

अगर तुम डगमगाओ तो परमात्मा की लौ भी डगमगाती है तुम्हारे साथ। वह तुम्हारे साथ है। वही तुम्हारा जीवन—स्रोत है!

लरज गई तेरी लौ मेरे डगमगाने से,

चरागे—गोशा—ए—कू—ए—हबीब, क्या कहना।

प्यारे की गली के इस दीपक की भी बात कैसे कहें, किससे कहें? कि जब मैं डगमगाया, तो दीए की लौ भी डगमगा गई! मैंने साथ—साथ परमात्मा को नाचते देखा है।

तुम जब नाचो, वह भी नाचता है। तुम जब गाओ, वह भी गाता है।

हजार काफिला—ए—जिंदगी की तीरा—शबी

रात्रि का कितना ही अंधकार हो, घबड़ाना मत! काफिला कितने ही अंधेरे से गुजरता हो, घबड़ाना मत!

हजार काफिला—ए—जिंदगी की तीरा—शबी

ये रोशनी—सी उफक के करीब, क्या कहना।

लेकिन जरा पूरब की तरफ देखो, क्षितिज की तरफ देखो, सूरज ऊगने को है। यह रोशनी उठने लगी है। यह बदलियों में रंग आने लगा। ये सुबह की पहली किरणें फूटने लगी हैं।

हजार काफिला—ए—जिंदगी की तीरा—शबी

ये रोशनी—सी उफक के करीब, क्या कहना।

 

लरज गई तेरी लौ मेरे डगमगाने से,

चरागे—गोशा—ए—कू—ए—हबीब, क्या कहना।

जो तुम हो बर्के—नशेमन…अगर तुम नशेमन की बिजली हो, तो मैं नशेमने—बर्क…तो मैं बिजली का नशेमन हूं।

जो तुम हो बर्के—नशेमन, तो मैं नशेमने—बर्क,

उलझ पड़े हैं हमारे नसीब, क्या कहना।

हमारा भाग्य परमात्मा से उलझा है। हमारे तारत्तार उससे उलझे हैं। सुलझने का कोई उपाय नहीं है। वह हमारे भीतर समाया है, हम उसके भीतर समाये हैं।

जो तुम हो बर्के—नशेमन तो मैं नशेमने—बर्क

उलझ पड़े हैं हमारे नसीब, क्या कहना।

 

हजार काफिला—ए—जिंदगी की तीरा—शबी

ये रोशनी—सी उहक के करीब, क्या कहना।

 

लरज गई तेरी लौ मेरे डगमगाने से,

चरागे—गोशा—ए—कू—ए—हबीब, क्या कहना।

 

जुनूने इश्क की रस्मे—अजीब, क्या कहना,

यह प्रेम का ढंग बड़ा अजीब है। यह प्रेम की दुनिया बड़ी अजीब है। यह प्रेम की शैली बड़ी अजीब है; इसके रिवाज बड़े अजीब हैं।

जुनूने इश्क की रस्मे—अजीब, क्या कहना,

प्रेम तो पागल है और पागलपन के तो रास्ते अजीब होंगे ही।

जुनूने—इश्क की रस्मे—अजीब, क्या कहना,

मैं उनसे दूर वो मुझसे करीब, क्या कहना।

तुम उनसे कितने ही दूर रहो, वे तुम्हारे करीब ही हैं। तुम कहीं भी जाओ, वे तुम्हारे करीब ही हैं।

चित्तरंजन, तुम्हारा भाग्य भी मुझसे उलझ गया।

जुनूने—इश्क की रस्मे—अजीब, क्या कहना,

मैं उनसे दूर वो मुझसे करीब, क्या कहना।

 

जो तुम हो बर्के—नशेमन, तो मैं नशेमने—बर्क,

उलझ पड़े हैं हमारे नसीब, क्या कहना।

 

हुजूमे—रंग फरावां सही, मगर फिर भी,

बहार, नौहा—ए—सद—अंदलीब, क्या कहना।

 

हजार काफिला—ए—जिंदगी की तीरा—शबी

ये रोशनी—सी उफक के करीब, क्या कहना।

 

लरज गई तेरी लौ मेरे डगमगाने से,

चरागे—गोशा—ए—कू—ए—हबीब, क्या कहना।

 

दूसरा प्रश्न:

 

भगवान,

गुरु गोविंद दोऊ खड़े

काके लागूं पांय?

नंद बोधिधर्म, कबीर ने किसी और अर्थ में कहा है, तुम किसी और अर्थ में समझे। कबीर ने तो प्रतीक अर्थ में कहा है। कबीर ने कहा है:

गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांय?

अगर ऐसा हो सकता हो कि गुरु और गोविंद दोनों सामने आ जाएं, तो मैं किसके पैर पहले लगूं? गुरु के पहले लगूं तो कहीं गोविंद का अपमान न हो जाए! और गोविंद के पहले लगूं तो कहीं गुरु का अपमान न हो जाए! क्योंकि गोविंद को आखिर दिखाया तो गुरु ने ही। पहचान तो गुरु ने करवाई। तो धन्यवाद पहले तो गुरु का होना चाहिए। लेकिन जब गोविंद सामने खड़े हों, तो पहले गुरु को धन्यवाद देना, कहीं शिष्टाचार में कोई कमी न हो जाए! कबीर ने तो बड़े प्रतीक अर्थ में कहा है:

गुरु गोविंद दोई खड़े काके लागूं पांय।

बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय।

इस दूसरे हिस्से के दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ, जो सामान्यतः किया जाता है, वह तो यह है कि गुरु आपकी बलिहारी कि आपने इशारा कर दिया कि गोविंद के पैर लगो! क्या सोच—विचार में पड़े हो? यह कोई सोचने—विचारने की बात है? जब गोविंद ही सामने खड़े हों, तो मुझे भूलो! गोविंद के पैर लगो। यह सामान्य अर्थ है जो किया जाता रहा है सदियों से। परंपरागत अर्थ यही है। कबीरपंथी इसका ऐसा ही अर्थ करेंगे।

मैं इसका ऐसा अर्थ नहीं करता। मेरे देखे कबीरपंथी चूक गए। अक्सर पंथी चूक जाते हैं, कबीर—पंथियों का ही क्या कसूर है।

कबीरपंथ के जो सबसे प्रधान मठाधीश हैं, उनका पत्र मुझे मिला कि आप कबीर के ऐसे—ऐसे अर्थ कर रहे हैं जो हमारी परंपरा के खिलाफ हैं। मैंने उनको लिखवा दिया—तो होंगे खिलाफ, लेकिन मैं तो वही अर्थ करूंगा जो मुझे दिखाई पड़ता है। तुम्हें ठीक लगते हों तो अपनी परंपरा में सुधार कर लेना; और तुम्हें ठीक न लगते हों तो यह तुम्हारी समस्या है—यह मेरी समस्या नहीं—तो तुम परेशान हो लेना। मैं तो जो अर्थ कर रहा हूं वही करूंगा। क्योंकि यह अर्थ की ही बात नहीं है, यह दृष्टि की बात है।

मेरा अर्थ कुछ और है। जब कबीर कहते हैं: बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय, तो मेरा यह अर्थ है कि गुरु ने तत्क्षण दुविधा में देख कर शिष्य को…गुरु की तरफ शिष्य ने देखा होगा कि अब मैं क्या करूं? उसकी आंखों में यह भाव रहा होगा। उसके पूरे व्यक्तित्व में एक झिझक रही होगी—इधर या उधर? डांवाडोल रहा होगा। गुरु ने यह देख कर, तत्क्षण गुरु का हाथ गोविंद की तरफ उठ गया। लेकिन शिष्य ने गुरु के ही पैर पड़े हैं, गोविंद के नहीं। क्योंकि वह बलिहारी शब्द इस बात की खबर दे रहा है।

गुरु ने तो गोविंद की तरफ ही इशारा किया—करेगा ही। गुरु का सारा अर्थ यही है। गुरु है ही क्या सिवाय गोविंद की तरफ एक इशारा। और क्या है गुरु? एक इशारा गोविंद की तरफ, एक तीर गोविंद की तरफ। तो शिष्य को उलझन में देख कर इशारा किया है। लेकिन शिष्य क्या करे? वह बलिहारी शब्द में बात आ गई। कबीर कहते हैं: बलिहारी गुरु आपकी…। इसका मतलब यह है कि कबीर ने तत्क्षण गुरु के पैर छू लिए हैं। वह बलिहारी में ही पैर छू लिए। छूने ही पड़ेंगे। ऐसे गुरु के पैर न छुओगे तो क्या करोगे? और इससे कुछ गोविंद नाराज नहीं होने वाले। इससे गोविंद आनंदित ही होंगे।

जो सम्यक था, वही हुआ। गुरु ने इशारा किया गोविंद की तरफ—यह गुरु की खूबी, यह गुरु की महिमा। शिष्य ने गुरु के पैर छुए—फिर भी—यह शिष्य की महिमा। और गोविंद आनंदित हुए—यह गोविंद की महिमा।

तुम पूछते हो:

गुरु गोविंद दोई खड़े काके लागूं पांय?

तो मैं तो इशारा करूंगा गोविंद की तरफ। मैं तो इशारा हूं गोविंद की तरफ। तुम मुझे भूलो। तुम मेरी चिंता ही न लो। यह दुविधा ही नहीं उठनी चाहिए।

झेन फकीर कहते हैं कि अगर रास्ते में बुद्ध मिल जाएं तो उठा कर तलवार गर्दन काट देना उनकी। झेन फकीर—बुद्ध के भक्त! सुबह से सांझ तक बुद्धं शरणं गच्छामि के वातावरण में जीते हैं, सारा जीवन बुद्ध को समर्पित है और ऐसी बात कहते हैं कि अगर बुद्ध रास्ते में मिल जाएं—उठा कर तलवार गर्दन काट देना। यह बुद्ध ने ही कहा है। ये बुद्ध के ही शब्द वे दोहरा रहे हैं। बड़े सार्थक शब्द हैं। बुद्ध ने कहा है कि मुझे भी बीच में आड़े मत आने देना। जब परम सत्य के साक्षात्कार का क्षण आए तो मुझे छोड़ आगे बढ़ जाना। अगर मैं बीच में खड़ा होऊं तो धक्का मार देना। कि उठा कर तलवार दो टुकड़े कर देना।

यह गुरु की पराकाष्ठा।

सिर्फ मिथ्या गुरु कहेगा कि मुझे पकड़े रहो। सदगुरु तो कहेगा कि मुझे तभी तक पकड़े रहो जब तक परमात्मा पकड़ने को न मिल जाए। जैसे ही परमात्मा का हाथ तुम्हारे हाथ में आ जाए, तब फिर झिझकना मत। किसी आदत, किसी संस्कार, किसी अभ्यास के कारण मेरे हाथ को ही मत पकड़े रहना। क्योंकि मेरी कोई अगर प्रयोजनवत्ता है तो इतनी ही कि तुम्हें परमात्मा तक पहुंचा दूं।

तो मैं तो तुमसे कहता हूं कि गुरु गोविंद दोई खड़े, अगर ऐसी घड़ी आ जाए, तो गुरु को तो बिलकुल भूल ही जाना। जैसे है ही नहीं।

मगर सच में क्या भक्त को ऐसी घड़ी आती है? क्या शिष्य को ऐसी घड़ी आती है? इसलिए मैंने कहा कि कबीर ने जो कहा है वह तो केवल प्रतीक मात्र है। वह तो इशारा है उनके लिए जो अभी उस ऊंचाई पर नहीं पहुंचे। उस ऊंचाई पर कहां दो!

…अब तुमसे तो मैं नहीं कह सकता, कबीर मिल जाएं तो उनसे कहूं कि नाहक इस तरह की बातें लिखीं! उस ऊंचाई पर कहां दो! कबीर मिल जाएं तो मेरी झंझट होनी निश्चित है! क्योंकि मैं उनसे कहूंगा ही। कहीं—न—कहीं कभी—न—कभी मिलना होगा। तो उनसे मैं निश्चित ही कहूंगा कि जब वह परम घड़ी आती है जहां गोविंद के दर्शन होने का क्षण आ गया, वहां दो बचेंगे? वहां गुरु गोविंद है, वहां गोविंद गुरु है। वहां कैसे दो?

और वहां दुविधा बचेगी? गोविंद सामने खड़े हों और दुविधा बचे? यह तो हद्द हो गई कि सूरज निकल आया और अंधेरा बचे! सूरज निकल आया और अंधेरा सोच रहा है कि पैर पडूं किसके? सूरज निकल आया, अंधेरा गया। पैर पड़ने थोड़े ही पड़ते हैं, झुकना हो जाता है, अनायास, चेष्टा से नहीं। यह तो बड़ी चेष्टा हो गई; सोचा, विचारा—सोचा—विचारा ही नहीं, प्रतीक्षा की कि गुरु इशारा करे; गुरु ने इशारा किया—इतनी चिंता बचेगी वहां? इतनी दुई बचेगी वहां? दुई ही नहीं बल्कि त्रय थे। गुरु भी खड़े, गोविंद भी खड़े, शिष्य भी खड़ा—तीन खड़े! उस परम घड़ी में तीन? वहां एक ही होता है।

रामकृष्ण के पास कोई ले आया था रामकृष्ण की ही एक तसवीर। वे उसी का चरण छूने लगे। जब उन्होंने अपनी तसवीर के चरण छुए, बड़े भावविभोर होकर, उनकी आंखों से आंसू बहने लगे, तो विवेकानंद से न रहा गया। पास ही बैठे थे, विचारशील आदमी थे…रामकृष्ण और विवेकानंद एक ही ढंग के आदमी नहीं हैं। हो भी नहीं सकते। परिपूरक हैं। इसलिए जो काम रामकृष्ण नहीं कर सके। रामकृष्ण ने जाना, विवेकानंद ने दुंदुभी पीटी सारी दुनिया में। वह रामकृष्ण नहीं कर सके। वह उनके व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं था। जान तो लिया लेकिन जना न सके। विवेकानंद ने स्वयं तो जाना नहीं, लेकिन जनवाया। इसलिए बड़ी झंझट हो गई कि जिसको पता था, वह बोला नहीं। कह नहीं सका। कहने में समर्थ नहीं था। और जिसको पता नहीं था, उसने कहा, लोगों को जाकर समझाया। तो गड़बड़ तो हो ही जाएगी।

एक ने देखा, जिसके पास आंख थी, लेकिन वह चुप रह गया। और जिसके पास आंख नहीं थी, उसने आंख वाले से प्रकाश की बातें सुनीं और सारी दुनिया में खबर पहुंचाई।

रामकृष्ण मिशन वस्तुतः रामकृष्ण मिशन नहीं, विवेकानंद मिशन है। इसमें रामकृष्ण का कुछ भी नहीं है। जो कुछ है विवेकानंद का है। विवेकानंद ने जो व्याख्याएं रामकृष्ण पर आरोपित कर दीं।

लेकिन अक्सर ऐसा हुआ है। एक ही व्यक्ति में दोनों बातें बड़ी मुश्किल से होती हैं। जब किसी में होती हैं तो उसको हम बुद्ध कहते हैं, तीर्थंकर कहते हैं। बहुत—से जानने वाले लोग पैदा हुए हैं, लेकिन कह नहीं पाए। और बहुत—से कहने वाले लोग पैदा हुए हैं, लेकिन बिना जाने कहा है। कभी—कभी ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति गौतम बुद्ध या तीर्थंकर महावीर के ढंग का होता है, जिसमें दोनों बातें होती हैं। जो न केवल जान लेता है बल्कि जनाता भी है। उसको ही सदगुरु कहते हैं।

कबीर मिल जाएं तो मैं उनसे कहूंगा कि यह क्या बात हुई? शिष्य के सामने तीन खड़े होंगे? अगर शिष्य अभी इतनी उलझन में पड़ा है, इतनी दुविधा में, तो गोविंद प्रकट नहीं हो सकते। और अगर गोविंद प्रकट हो गए हैं, तो शिष्य दुविधा में हो नहीं सकता।

रामकृष्ण ने अपनी ही तसवीर के पैर पर सिर रख दिया, विवेकानंद से बर्दाश्त न हुआ, विवेकानंद ने कहा—परमहंस देव, आप यह क्या करते हैं? लोग हंसेंगे कि अपनी ही तसवीर की पूजा! रामकृष्ण ने कहा, अरे, ठीक समय पर याद दिलाया। मैं तो भूल ही गया था। मैंने तो यह देखा ही नहीं कि यह मेरी तसवीर है। मुझे तो उसकी ही तसवीर दिखाई पड़ी। मुझे तो समाधि की तसवीर दिखाई पड़ी। …वह रामकृष्ण की समाधिस्थ अवस्था में ली गई तसवीर थी। वे अलमस्त खड़े हैं। दोनों हाथ आकाश की तरफ उठे हैं। आनंदमग्न!…उन्हें दिखाई ही न पड़ा कि यह मेरी ही तसवीर है। कहां मेरी, कहां तेरी? उन्होंने तो देखा कि समाधि की तसवीर है। समाधि के लिए सिर झुक गया।

जब अपनी तसवीर के लिए रामकृष्ण सिर झुका लिए…और गोविंद सामने खड़े होंगे और शिष्य पूछेगा—गुरु गोविंद दोई खड़े काके लागूं पांय! नहीं, कबीर प्रतीक की बात कर रहे हैं! वे तुम्हें समझाने के लिए कह रहे हैं। यह कोई सत्य नहीं है, यह सिर्फ समझाने की एक विधि है। वे यह कह रहे हैं कि अगर ऐसी घड़ी आ जाए कि गुरु, गोविंद, दोनों सामने खड़े हों और तुम्हारे मन में दुविधा उठे, तो गुरु की तरफ देख लेना। वह इशारा कर देगा, कि गोविंद के पैर छू लो। लेकिन ध्यान रहे, धन्यवाद तो गुरु का ही है। क्योंकि उसने आखिरी क्षण में भी तुम्हारे लिए इशारा किया।

बुद्ध ने कहा है: मुझे हटा देना रास्ते से। इसका क्या यह अर्थ है कि बुद्ध के भक्तों ने बुद्ध को रास्ते से हटा दिया है? जितने मंदिर बुद्ध के बने और जितनी प्रतिमाएं बुद्ध की बनीं, किसी की भी नहीं बनीं। क्यों? क्योंकि जिसने ऐसी अदभुत बात कही कि मुझे रास्ते से हटा देना, अप्प दीपो भव, अपने दीए खुद बनना, उसकी मूर्ति न बनाएं तो हम करें क्या? करें तो करें क्या? उसकी मूर्ति बनानी ही होगी। ऐसे सदगुरु के चरणों में सिर न झुकाएं तो करें क्या? ऐसे सदगुरु के प्रति अपूर्व कृतज्ञता का भाव पैदा होगा ही!

कबीर ने प्रतीक बात कही।

लेकिन आनंद बोधिधर्म, तुम सोच रहे हो शाब्दिक अर्थ। वहां तुम्हारी चूक है। जाओ प्रेम में या जाओ ध्यान में, जिस दिन गहराई पर पहुंचोगे, वहां न कोई गुरु है, न कोई शिष्य है, न कोई गोविंद है। रह जाता है एक। उसको एक भी नहीं कह सकते, क्योंकि एक कहते से दो का खयाल पैदा होता है। इसलिए जानने वालों ने उसे अद्वैत कहा है। एक भी नहीं कहा, इतना ही कहा कि वहां दो नहीं होते। अद्वैत का अर्थ होता है—दो नहीं। नहीं तो पागल नहीं थे, जानने वाले इतना ही कह देते कि वहां एक है। यह उल्टा चक्कर, इतने उल्टे हाथ को घुमा कर कान पकड़ना, कहना कि अद्वैत! सीधा क्यों नहीं कहते कि एक है! लेकिन कारण है। एक कहने में खतरा है। एक कहने से दो का भाव तत्क्षण पैदा होता है।

एक की परिभाषा क्या करोगे? बिना दो के एक हो कैसे सकता है? एक की सीमा कैसे खींचोगे? जिससे सीमा खींचोगे, वह दूसरा हो जाएगा। तुमने अपने घर के आसपास जो बागुड़ लगा ली है, वह बागुड़ इसीलिए लगा ली है कि पड़ोसी रहता है। अगर तुम्हारे पड़ोस में कोई रहता ही न हो, तो बागुड़ का क्या प्रयोजन? बागुड़ कहां लगाओगे? सीमा कहां खींचोगे? दूसरा चाहिए तो सीमा बन सकती है। दूसरे से सीमा बनती है।

अगर तुम अकेले ही रह जाओ…समझ लो कि तीसरा महायुद्ध हो गया और संयोगवशात तुम अकेले बच गए—सब मर गए, एक अकेले तुम बच गए—तुम्हारा क्या नाम होगा? तुम्हारी क्या जाति होगी? क्या धर्म होगा? तुम काले होओगे कि गोरे? तुम भारतीय होओगे कि पाकिस्तानी? तुम लंबे होओगे कि ठिगने? ये सारी बातें खो जाएंगी। तुम तो होओगे, मगर न लंबे न ठिगने। क्योंकि यह तो तुलना थी दूसरों से। न गोरे न काले, क्योंकि यह भी तुलना थी दूसरों से। अगर तुम बिलकुल अकेले रह गए, तो तुम अचानक पाओगे तुम्हारी सारी परिभाषा खो गई। तुम हो तो जरूर, लेकिन अब परिभाषा नहीं है।

लेकिन तीसरा महायुद्ध तुम्हें कितना ही अकेला कर दे, बिलकुल अकेला नहीं करेगा। झाड़ बच जाएंगे, कोई पशु—पक्षी बच जाएंगे।…

कहानी है कि तीसरा महायुद्ध हो गया। एक बंदर उदास झाड़ पर बैठा है। और पास की गुफा से एक बंदरिया बाहर आई और बंदर से बोली: भूख तो नहीं लगी है? बंदर ने बड़ी उदासी से बंदरिया की तरफ देखा, उसके हाथ की तरफ देखा—वह एक सेव लिए हुए है। और बंदरिया ने कहा कि यह सेव खा लो। बंदर ने सिर पीट लिया; उसने कहा, तो फिर से वही कहानी शुरू होगी!

ईसाइयों की कहानी है न कि ईव ने अदम को सेव खिलाया। वह सेव था ज्ञान के वृक्ष का फल। उसको खा कर पतन हुआ संसार का। उसको खाने से फिर बच्चे पैदा हुए, संसार चला। बंदर ने सिर ठोंक लिया, उसने कहा, फिर से शुरू करें क्या! उसको याद आ गई होगी पुरानी कहानी। अब फिर वही झंझट!! किसी तरह तो शांति हुई दुनिया में; यह फिर बंदरिया सेव लिए खड़ी है!

तो बंदर—बंदरिया, कोई—न—कोई बच जाएंगे। झाड़ बचेंगे, पशु—पक्षी थोड़े—बहुत बच जाएंगे, एकदम अकेले तुम नहीं हो पाओगे। लेकिन जो व्यक्ति ध्यान में जाएगा, वहां बिलकुल अकेले हो जाते हैं, एकदम अकेले हो जाते हैं। वहां कोई भी नहीं होता। वहां कोई सीमा—रेखा ही नहीं खींची जा सकती। वहां तुम असीम सागर होते हो, जिसका कोई कूल—किनारा नहीं। आकाश होते हो। वहां कहां की बातें—गुरु गोविंद दोई खड़े काके लागूं पांय!

तुमने कबीर से यह वचन ले लिया और तुम सोचने लगे कि अब मैं क्या करूं? अभी तुम उस अवस्था में पहुंचे नहीं। पहुंचे होते तो यह प्रश्न न पूछते। वहां कोई नहीं बचता। न गोविंद, न गुरु, न पांव छूने वाला, न छुलाने वाला। वहां एक पूर्ण शून्य है। उस शून्य का ही दूसरा नाम सच्चिदानंद है। सत है वहां, चित है वहां, आनंद है वहां। लेकिन वहां कोई दूसरा नहीं है। वहां कोई द्वैत नहीं है, दुई नहीं है।

तीसरा प्रश्न:

 

भगवान,

न होशे हस्ती न ताबे मस्ती

कि तेरा शुक्रिया अदा करेंगे।

खिजां में है जब ये अपना आलम

बहार आई तो क्या करेंगे!

नंद कपिल, अगर पतझड़ में ऐसी मस्ती है, तो वसंत में होगी करोड़—करोड़ गुना। भेद परिणाम का ही नहीं होगा, गुण का भी होगा। जब अंधेरी रात इतनी रोशन है, तो सुबह की रोशनी का क्या कहना! जब अंधेरी रात भी रोशन है, तो सुबह रोशन होगी, बहुत रोशन होगी। गुणात्मक रूप से भिन्न होगा वह प्रकाश। लेकिन तुम उसका अनुमान अभी से न लगा सकोगे। अनुभव ही करना होगा, अनुमान से काम न चलेगा।

लेकिन इतना ही काफी है आस्था के लिए कि अंधेरे में भी इतनी रोशनी हो गई है; कि पतझड़ में भी इतना आनंद है। काफी है इशारा। समझो तो इशारा काफी है। देह में बंधे हुए भी इतना आनंद है, तो देहमुक्त होकर कितना होगा! संसार में रहते हुए इतना आनंद है—बाजार, दुकान; हजार उपद्रव, आपाधापी, फिर भी इतना आनंद है, तो इस सब जाल से पार उठ जाओगे तो कितना नहीं होगा! तुम्हारा प्रश्न मैं समझा। कल्पना करनी मुश्किल हो जाती है! हिसाब लगाना मुश्किल हो जाता है! बात है भी हिसाब के बाहर।

न होशे हस्ती न ताबे मस्ती

कि तेरा शुक्रिया अदा करेंगे।

अदा करने की कोई जरूरत ही नहीं। सबसे बड़ा धन्यवाद शिष्य का यही है कि धन्यवाद देने वाला न बचे। हो गया शुक्रिया अदा! सबसे बड़ा शुक्रिया यही है कि तुम मिट जाओ। तुम ऐसे मिटो कि तुम्हारी खोज—खबर भी न लगे। तुम ऐसे मिटो, ऐसे लापता हो जाओ कि तुम्हारा कोई पता भी न चले। यही धन्यवाद है! क्योंकि शिक्षा पूरी कर दी तुमने। गुरु का उपदेश पूरा हुआ। तुमने सुना, गुना, जीए।

खिजां में है जब ये अपना आलम

बाहर आई तो क्या करेंगे!

कठिनाई है। रात में जब इतनी मस्ती है, तो सुबह क्या होगा? बस सुबह आने के करीब है। मस्ती आ गई तो सुबह आने के करीब है। मस्ती सुबह की हवाओं के ही कारण तो है। सुबह करीब आ रही है, इसीलिए तो मस्ती घनी हो रही है। सूरज ऊगने के करीब है, इसीलिए तो भीतर आनंद उमग रहा है। चिंता न करो, जल्दी घटना घट जाएगी। घटना घट जाएगी, तभी जान सकोगे। मैं उस संबंध में तुमसे कुछ भी न कह सकूंगा।

राजे—सर—बस्ता मुहब्बत के जबां तक पहुंचे

बात बढ़ कर ये खुदा जाने कहां तक पहुंचे।

 

तेरी मंजिल पे पहुंचना कोई आसान न था

सरहदे—अक्ल से गुजरे तो यहां तक पहुंचे।

 

इब्तिदा में जिन्हें हम नंगे—वफा समझे थे

होते होते वो गिले, हुस्ने—बयां तक पहुंचे।

 

आह, वो हर्फेत्तमन्ना कि न लब तक आए

हाय, वो बात कि इक—इक की जबां तक पहुंचे।

 

न पता संगे—निशां का न खबर रहबर की

जुस्तुजू में तेरे दीवाने यहां तक पहुंचे।

 

साफ तौहीन है ये दर्दे—मुहब्बत की हफीज

हुस्न का राज हो और मेरी जबां तक पहुंचे।

 

नहीं, मैं तुमसे नहीं कह सकूंगा। कोई नहीं कह सका है।

साफ तौहीन है ये दर्दे—मुहब्बत की हफीज

यह तो तौहीन हो जाएगी। यह तो प्रेम के उस अनुभव का अपमान हो जाएगा।

साफ तौहीन है ये दर्दे—मुहब्बत की हफीज

हुस्न का राज हो और मेरी जबां तक पहुंचे।

नहीं, शब्दों में उसे नहीं कहा जा सकता। शब्द बहुत छोटे हैं, बहुत ओछे हैं, बहुत संकीर्ण हैं। अनुभव बहुत विराट है, बहुत असीम है, बहुत अनंत है।

न पता संगे—निशां का न खबर रहबर की

जुस्तुजू में तेरे दीवाने यहां तक पहुंचे।

आएगी वह मंजिल भी, जहां मील के पत्थर भी नहीं बचते। सब नक्शे व्यर्थ हो जाते हैं। सब कही—सुनी बातें व्यर्थ हो जाती हैं। बुद्धों ने जो कहा है, जाग्रत—पुरुषों ने जो कहा है, वह भी छूट जाता है। क्योंकि जो नहीं कहा जा सकता, वैसी मंजिल के पांव करीब आने लगते हैं।

न पता संगे—निशां का न खबर रहबर की

वहां मील के पत्थर नहीं, नक्शे नहीं, हिसाब—किताब नहीं, रास्ते नहीं—इतना ही नहीं, जो अब तक साथ ले आया था, रहबर, उसका भी अब पता नहीं चलता। गुरु का भी पता नहीं चलता।

न पता संगे—निशां का न खबर रहबर की

जुस्तुजू में तेरे दीवाने यहां तक पहुंचे।

जो खोजता ही चलता है, जिसकी खोज ऐसी दीवानी है कि पा कर ही रहूंगा, जो परवाना है, जो मरने और मिटने को भी तैयार है, वह जरूर एक ऐसी मंजिल तक भी पहुंचता है जहां सब पीछे छूट जाते हैं—शास्त्र, सिद्धांत, शब्द, संगी—साथी, रहबर भी। व्यक्ति बिलकुल अकेला रह जाता है। चैतन्य मात्र रह जाता है।

तेरी मंजिल पे पहुंचना कोई आसान न था

सरहदे—अक्ल से गुजरे तो यहां तक पहुंचे।

ऐसी मंजिल तक पहुंचने में एक ही कठिनाई है, वह है तुम्हारी अक्ल, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा सोच—विचार, तुम्हारा कल्प—विकल्पों से भरा हुआ चित्त, तुम्हारे चित्त की तरंगें।

तेरी मंजिल पे पहुंचना कोई आसान न था

सरहदे—अक्ल से गुजरे तो यहां तक पहुंचे।

वही पहुंच पाता है उस मंजिल तक, जो बुद्धि की सीमा के पार चला जाता है। अब मैं जो भी कहूंगा, अगर वह उसे सार्थक बनाना है, तो वह बुद्धि की सीमा में होगा। तुम जो भी समझोगे, वह बुद्धि की सीमा में होगा। कहा और सुना बुद्धि की सीमा में है और पहुंचना बुद्धि की सीमा के पार है।

तुम्हारा प्रश्न तो ठीक है, आनंद कपिल, कि अभी ऐसी मस्ती है, अभी ऐसी बेहोशी है, अभी ऐसा रस बह रहा है, जब कि अभी पतझड़ है, तो वसंत में क्या होगा? जब मधुमास आ जाएगा तो क्या होगा? आने दो, तो जान सकोगे। आने दो, तो ही जान सकोगे। मैं उस संबंध में कुछ भी नहीं कह सकता हूं।

साफ तौहीन है ये दर्दे—मुहब्बत की हफीज

हुस्न का राज हो और मेरी जबां तक पहुंचे।

यह राज राज ही रहने दो। यह रात राज ही रहेगा। यह रहस्य टूटता नहीं, यह तिलिस्म टूटता नहीं, यह जादू है। इसे जादू ही रहने दो। इसे खोल कर समझाया नहीं जा सकता। हां, तुम्हें ले चल सकता हूं उस सीमा तक, जिसके पास यह सारा राज अनुभव में आता है। तुम्हें धक्का दे दूंगा उस सीमा के पार।

तेरी मंजिल पे पहुंचना कोई आसान न था

सरहदे—अक्ल से गुजरे तो यहां तक पहुंचे।

इसीलिए तो कह रहा हूं कि डूबो संन्यास में। क्योंकि यह अक्ल की सरहद के पार की बात है। और जो संन्यासी है, उसको ही मैं धक्का दे सकता हूं। क्योंकि जो इतने दूर साथ आया, जो इतना दीवाना है, वह यह आखिरी धक्का भी सह लेगा और नाराज न होगा। उसे ही मैं अक्ल की सरहद के पार धक्का दे सकता हूं। वह धक्का कठिन है। जब दिया जाता है तो बहुत पीड़ा होती है। क्योंकि हम समझ को बहुत जोर से पकड़ते हैं। जो बात समझ में न आए, उस तरफ तो हम देखना ही नहीं चाहते, उसमें हमें बेचैनी होती है। और परमात्मा ऐसा ही है जो समझ में नहीं आ सकता। इसीलिए तो लोगों ने परमात्मा से पीठ मोड़ ली है, मुंह मोड़ लिया है। उसकी तरफ देखते ही नहीं। उसको इनकार ही करते हैं कि है ही नहीं। क्योंकि अगर है तो फिर कभी देखना पड़े, कभी आमना—सामना हो जाए। और आमना—सामना हो जाए तो बेचैनी होती है।

न पता संगे—निशां का न खबर रहबर की

जुस्तुजू में तेरे दीवाने यहां तक पहुंचे।

चले चलो! बुद्ध ने कहा है: चरैवेति, चरैवेति। चले चलो, चले चलो, चलते ही चलो! कहीं रुकना नहीं है। किसी पड़ाव पर ठहरना नहीं है। चले जाना है बुद्धि की सीमा के पार। पतझड़ समाप्त हो जाएंगे। जानोगे जरूर ऐसा वसंत जिसका फिर अंत नहीं होता। एक दिन एक ही ऋतु रह जाएगी—वसंत की। वही सिद्धावस्था है। वही वृद्धावस्था है। वही निर्वाण है, मोक्ष है, कैवल्य है।

चौथा प्रश्न:

भगवान, शिक्षा के क्षेत्र में गुलामी अपार है। पूना के वाडिया कालेज में दर्शनशास्त्र के अध्यापक के रूप में इंटरव्यू में चुने जाने पर भी नियुक्ति इसलिए नहीं दी गई, क्योंकि गेरुवा वस्त्र और माला न पहनने की शर्त को मैंने स्वीकार नहीं किया। अब परसों फिर पूना कालेज में इंटरव्यू में चुने जाने पर भी नियुक्ति के पहले वे मुझसे वचन चाहते हैं कि मैं गेरुवा वस्त्र न पहनूं और माला ज्यादा से ज्यादा वस्त्रों के भीतर रखूं। शिक्षक को इतनी स्वतंत्रता नहीं कि वह अपने ढंग से रह सके! और ऐसा गुलाम शिक्षक भविष्य की पीढ़ी का निर्माण करने का भार वहन करता है!

 

नंद सत्य, शिक्षा तुम्हें स्वतंत्र करने को है भी नहीं। शिक्षा का सारा प्रयोजन तुम्हें गुलाम बनाए रखना है। शिक्षा अतीत की सेवा में संलग्न है। उसे भविष्य से कोई प्रयोजन नहीं है। शिक्षा तो न्यस्त स्वार्थों की सेविका है। जो भी शक्ति में हैं, उनका गुणगान करती है।

इस देश में अंग्रेजों का राज्य था तो शिक्षा अंग्रेजों का गुणगान करती थी। यूनियन जैक स्कूलों और कालेजों पर फहराता था। लांग लिव द किंग के गीत गाए जाते थे। जय हो सम्राट की! फिर आजादी आई। यूनियन जैक की जगह तिरंगा झंडा लहराने लगा। वे ही लोग जो यूनियन जैक के लिए नमस्कार करवाते थे विद्यार्थियों से, वे ही उन्हें पढ़ाने लगे पाठ—झंडा ऊंचा रहे हमारा! सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा! वे ही लोग जो कल गोरे साहबों की नकल करते थे, अचानक खादीधारी हो गए। गांधी टोपियां लगा लीं। एकदम से देश—भक्त हो गए। वे ही इतिहास लिखने वाले अध्यापक, जो शिवाजी को पहाड़ी चूहा कहते थे, वे ही कहने लगे कि शिवाजी महान राष्ट्र—भक्त थे। जो अट्ठारह सौ सत्तावन में हुए विद्रोह को सिर्फ एक साधारण—सी बगावत कहते थे, वे उसे महाक्रांति कहने लगे। ये शिक्षाशास्त्री कहां थे उन्नीस सौ बयालीस में? अब वे ही स्वतंत्रता पर उपदेश देते हैं। पंद्रह अगस्त पर झंडा फहराते हैं। कल अगर कम्यूनिज्म आ जाएगा, तो ये ही लाल झंडा है हंसिया—हथौड़ा वाला फहराने लगेंगे।

ये तो गुलाम हैं। इनका तो धंधा इतना है कि जिसकी सत्ता हो, उसके गुणगान करें। ये तो स्तुति करने वाले लोग हैं। इनकी कोई अपनी आत्मा नहीं। और ऐसा इस देश में नहीं है, सारी दुनिया में ऐसा है।

शिक्षा न तो तुम्हें स्वतंत्रता देती है, न तुम्हें बगावत के स्वर देती है, न विद्रोह की आत्मा देती है, न तुम्हें सोच—विचार की क्षमता देती है, न तुम्हें व्यक्तित्व देती है। शिक्षा का तो काम है…शिक्षा तो एक कारखाना है, जिसमें तुम्हारी आदमियत को नष्ट किया जाता है और मशीनें ढाली जाती हैं! क्लर्क बनाए जाते हैं, डिप्टी कलेक्टर बनाए जाते हैं, स्टेशन मास्टर बनाए जाते हैं; पटवारी और तहसीलदार, पुलिसवाले—इनको ढालने का कारखाना है शिक्षा। अभी यहां आदमी नहीं पैदा होते। और अभी यहां आत्मा की तो बात ही मत उठाओ। संन्यासी को कैसे बर्दाश्त करेंगे? क्योंकि संन्यासी तो उदघोषणा है बगावत की, विद्रोह की। संन्यासी का लक्ष्य अतीत नहीं है, भविष्य है। और संन्यासी तो चाहता है व्यक्ति की तरह जिए, भेड़ की तरह नहीं। और शिक्षाशास्त्र भेड़ें बनाता है। इसका प्रयोजन ही यही है।

इसलिए तो सरकार इतना खर्च करती है स्कूलों पर, कालेजों पर। तुम सोचते हो तुम्हें शिक्षित करने को? तो तुम गलती में हो। तुम्हें मशीनों में ढालने को इतना खर्च किया जाता है; कि तुम जब विश्वविद्यालय से निकलो तो एक कुशल यंत्र की तरह उपयोगी हो जाओ। तुमसे यह अपेक्षा नहीं की जाती कि तुम खुद अपने ढंग से सोचने—विचारने लगो। राजनेता यह न चाहेंगे कि लोग सोचें। लोग सोचेंगे तो इन बुद्धू राजनेताओं को कौन राजनेता बनाएगा?

काश, तुम सोच सको तो तुम्हें देखकर हैरानी होगी कि दिल्ली में जो खेल चलते हैं, वे इतने बचकाने हैं, इतने मूढ़तापूर्ण हैं…और ये भाग्य निर्माता हैं देश के! और इनकी सारी आकांक्षा बस किसी तरह पद पर होने की है। न सिद्धांत का कोई सवाल है, न राष्ट्र का कोई सवाल है, न लोकहित का कोई सवाल है—हां, बातें करते हैं लोकहित की। क्योंकि लोकहित की बातें न करें तो वोट नहीं मिलता। सबको चिंता अपनी—अपनी है। मैं कैसे पद पर रहूं, इसके लिए जो भी करना पड़े वह सब करने को राजी हैं। सब तरह के समझौते करने को राजी हैं, मगर पद चाहिए।

अपने—अपने अहंकार की प्रतिष्ठा में लगे हुए ये लोग, तुम इनका सम्मान करते हो, सत्कार करते हो? जरूर तुम्हारे पास सोचने—विचारने की कोई क्षमता नहीं है। नहीं तो इतनी साधारण जड़बुद्धि के लोगों के हाथ में देश नहीं जा सकता।

इसलिए राजनेता नहीं चाहता कि विश्वविद्यालय से सोच—विचारशील लोग निकलें। वह चाहता है कि विश्वविद्यालय की प्रक्रिया में तुम्हारा सोच—विचार खतम हो जाए। सम्मान विश्वविद्यालय में मिलता भी नहीं सोच—विचार करने वाले को।

मुझे एक कालेज से निकाल दिया गया था! विद्यार्थी था तभी। मेरा कसूर? कसूर मेरा इतना था कि मैं ऐसे प्रश्न पूछता जो शिक्षक उत्तर नहीं दे पाते थे। अब इसमें मेरा क्या कसूर? शिक्षक को उत्तर देने में क्षमता ग्रहण करनी चाहिए। और अगर न दे सके तो कम—से—कम इतनी विनम्रता होनी चाहिए कि कहे कि क्षमा करें, मुझे इसका उत्तर मालूम नहीं है। न उतनी विनम्रता, न उतनी पात्रता। तो बेचैनी खड़ी हो गई।

दर्शनशास्त्र का मैं विद्यार्थी था, हालात ऐसे हो गए कि अगर दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर मुझे देख लें कि मैं कक्षा में हूं, तो बाहर के बाहर लौट जाएं। तो मुझे भी तरकीब करनी पड़ती थी। मैं पहले से कक्षा में न आऊं। जब वे कक्षा में प्रवेश कर जाएं, तब भीतर से मैं प्रवेश करूं। क्योंकि फिर उनका भागना मुश्किल। वे मुझे देखते से ही पसीना—पसीना हो जाएं। और उनसे मैं कोई ऐसे सवाल नहीं पूछ रहा था जो नहीं पूछने चाहिए। दर्शनशास्त्र तो सवालों का ही शास्त्र है! उसमें तो जीवन की परम पहेलियों का ही सवाल है। मैं जानता था कि वे हनुमान जी के भक्त हैं। तो मैं हर सवा पूछने के बाद उनसे कहता कि छाती पर रख कर हाथ अनुमान जी की कसम खा कर कहो—तुम्हें ईश्वर का अनुभव हुआ है? वे हनुमान जी की कसम खा नहीं सकते थे, क्योंकि उनके प्राण निकलते थे! तो अब वे कैसे कहें कि मुझे ईश्वर का अनुभव हुआ है? और अगर ईश्वर का अनुभव नहीं हुआ है, तो मैं पूछता: आप जवाब कैसे दे रहे हैं?

वह हनुमान चालीसा अपने खीसे में रखते थे। मैं कहता कि निकालो हनुमान चालीसा, रखो हाथ में! फिर मुझसे मत कहना कुछ—न—कुछ हो जाए तो! मगर उत्तर मैं वह मानूंगा, जिसका तुम्हें अनुभव हुआ हो।

आखिर उन्होंने इस्तीफा लिख कर दे दिया और कहा कि या तो मैं शिक्षक रहूंगा या यह विद्यार्थी रहेगा। हम दोनों एक साथ नहीं रह सकते। प्रिंसिपल ने मुझसे बुलाया और कहा कि मैं जानता हूं, तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि उनकी जगह अगर मैं भी होता, तो यही मुझे भी करना पड़ता। क्योंकि उनकी सारी कथा मैंने सुनी है। विद्यार्थियों से भी पता लगाया, उनसे भी पूछा, तो तुम उनको अड़चन दे रहे हो। और मैं यह भी नहीं कह सकता कि तुम गलत कर रहे हो। दर्शनशास्त्र का प्रयोजन वस्तुतः लिखा तो यही है किताबों में कि प्रश्नों की छानबीन की जाए, खोजबीन की जाए, जिज्ञासा की जाए। मगर हमें इन बातों से मतलब नहीं है। हमारा प्रयोजन है कि विद्यार्थी किसी तरह पास हों। नौ महीने खराब हो गए, तुम उनको एक इंच आगे नहीं बढ़ने देते, हर चीज में हनुमान, हनुमान चालीसा! और वे भी एक हैं कि वे हनुमान चालीसा को हाथ में ले सकते नहीं। तुम उन्हें जवाब देने नहीं देते। तो ये सारे विद्यार्थी…इनका क्या होगा? और वे हमारे पुराने शिक्षक हैं, अच्छे शिक्षक हैं; उनके कई विद्यार्थियों ने गोल्ड मेडल पाए हैं, हमारे कालेज की प्रतिष्ठा हैं, हम उनको छोड़ भी नहीं सकते। तो हमारी तुम से प्रार्थना है कि तुम्हीं छोड़ दो कालेज। उन्होंने मुझ से हाथ जोड़ कर कहा कि मेरी प्रार्थना है। क्योंकि हम तुम्हें निकाल भी नहीं सकते, क्योंकि तुमने कोई कसूर किया भी नहीं है।

मैंने वह कालेज छोड़ा। दूसरा कोई कालेज मुझे लेने को राजी नहीं, क्योंकि खबर पहुंच गई। खबर तो पहुंच ही रही थी नौ महीने से कि एक मुश्किल खड़ी हो गई है। जिस कालेज में जाऊं, वे कहें कि नहीं भाई, जगह ही नहीं है! एक प्रिंसिपल ने कहा कि जगह तो है—जगह सब कालेज में है, जहां—जहां तुम गए हो—लेकिन एक शर्त पर हम तुम्हें रख सकते हैं कि तुम प्रश्न नहीं पूछोगे। इस शर्त पर मुझे कालेज में भर्ती किया। परीक्षा करीब आ रही थी, तो मुझे कहीं—न—कहीं भर्ती होना था। तो मैंने कहा कि ठीक है, मैं इस शर्त पर भर्ती होता हूं, लेकिन मेरी भी एक शर्त है कि मैं क्लास में मौजूद नहीं होऊंगा। क्योंकि वह जरा अड़चन बात है। कि मेरे सामने शिक्षक खड़ा हो, अंट—शंट बातें कर रहा हो, तो मैं प्रश्न न पूछूं…मैं भूल ही जाऊंगा यह शर्त! तो आप कृपा करके इतना और कर दें कि मेरी अनुपस्थिति में भी मुझे हाजिरी मिलनी चाहिए। वे इसके लिए भी राजी हो गए। तो मैं कालेज गया ही नहीं। और मुझे हाजिरी मिलती रही। इस तरह रास्ता बनाना पड़ा। उन्होंने कहा, यह ठीक है, इतना हम कर लेंगे। हाजिरी तुम्हें दे देंगे। मगर तुम जाना ही मत। क्योंकि अगर तुम्हें यह अड़चन है कि तुम रुक ही नहीं सकते बिना पूछे…!

तुम्हारे तथाकथित कालेज, विश्वविद्यालय लोगों की चेतना को मारने का काम करते हैं, जिलाने का नहीं। उनकी चेतना पर धार नहीं रखते हैं, बोथला करते हैं। उनके दर्पण को साफ नहीं करते—और धूल जमा देते हैं। यह बहुत मुश्किल मामला है विश्वविद्यालय से अपनी बुद्धि को बचा कर निकल आना। कठिन मामला है। बहुत थोड़े लोग बच कर निकल पाते हैं। आश्चर्यजनक है जब कभी कोई विश्वविद्यालय से अपनी बुद्धि बचा कर निकल आता है।

विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षक मुझे प्रेम करते थे। उनको लगता था कि मेरे साथ ज्यादती की जा रही है। लेकिन उनके भी मुंह बंद थे। क्योंकि उनकी भी नौकरी का सवाल था। वे यह भी नहीं कह सकते कि मेरे साथ ज्यादती की जा रही है। क्योंकि जो मेरे साथ खड़ा होगा, शायद उसको भी मजबूरी खड़ी हो, उसको भी छोड़ना पड़े।

मेरी आखिरी प्रतीक्षा थी। सारे पेपर हो गए थे, मुखाग्र परीक्षा थी, एम.ए.की। मेरे जो प्रधान थे, उनका मुझ पर बड़ा स्नेह था। उन्होंने मुझे घर बुला कर कहा कि देखो, अलीगढ़ विश्वविद्यालय के अध्यक्ष मुखाग्र परीक्षा के लिए आ रहे हैं। उनको तुम जैसे विद्यार्थी का कोई अनुभव नहीं होगा! हम तो धीरे—धीरे तुमसे राजी हो गए हैं! तुम उनसे कुछ ऐसी बात कर देना, बिगाड़ मत कर लेना खड़ा। वे कुछ भी पूछें, तुम्हें उलटा प्रश्न नहीं पूछना है—जो तुम्हारी आदत है। तुम उनकी परीक्षा नहीं ले रहे हो, यह खयाल रखना। और मैं बिलकुल मौजूद रहूंगा, मैं भी मौजूद रहूंगा, और अगर तुमने जरा भी गड़बड़ की तो मैं पैर में पैर मारूं तो तुम समझ जाना। क्योंकि तुम्हें मैं जानता हूं, तुम्हारा कुछ पक्का नहीं है। तुम अभी हां कह दो और वहां भूल जाओ। तो मैं पैर में पैर मारूं तो सम्हल जाना कि तुम गड़बड़ कर रहे हो!

और जो किताब में लिखा है बस वही तुम्हें उत्तर देना है। उससे इंच भर इधर—उधर नहीं जाना है। किताब गलत या सही, इसकी तुम चिंता ही न करो। तुम्हें परीक्षा पास करनी है कि तुम्हीं किताब के गलत या सही होने की फिक्र करनी है? मैंने भी सोचा कि अब सब निपट ही गया है, यह आखिरी उपद्रव है, बस इसके बाद खतम हो जाएगा मामला, मैंने उनसे कहा, ठीक!

मगर मैं भूल गया। उन सज्जन का चेहरा ही देख कर मुझे ऐसा लगा कि इन महानुभाव को ऐसे छोड़ देना ठीक नहीं है। उनकी अकड़ ऐसी थी जैसे कि वे जानते हों। उन्होंने मुझसे पूछा कि भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन में क्या भेद है? मैंने उनसे पूछा, दर्शन भी दो होते हैं? भारतीय आंख में और पाश्चात्य आंख में क्या भेद है? आंख आंख है। यह क्या बकवास लगा रखी है! मेरे शिक्षक एकदम जोर से पैर में पैर मारने लगे; मैंने उनसे कहा, तुम अपनी टांग अपनी जगह रखो! आप बीच में मत पड़ो। मैं इनसे निपट लूंगा अकेला, आप बिलकुल बीच में न पड़ो! दर्शन तो एक है—क्या भारतीय? क्या अभारतीय? कोई दर्शन राजनीति है? अभारतीय दर्शन का क्या मतलब होता है? दर्शन का अर्थ है, सत्य का अनुभव, सत्य का साक्षात्कार! इसमें क्या भारतीय, क्या अभारतीय? जीसस को सत्य का साक्षात्कार हुआ—अभारतीय हो गया! और महावीर को हुआ तो भारतीय हो गया! सत्य तो सत्य है। आंख आंख है। रोशनी रोशनी है। न रोशनी पूरब की होती है, न पश्चिम की होती है। न आंख पूरब की होती है, न पश्चिम की होती है।

वे तो ऐसे सकते में आ गए कि वे भूल ही गए कि परीक्षा लेने आए हैं। और मेरी तो तुम आदत जानते हो, फिर मैं बोलता ही रहा! जब पूरा डेढ़ घंटा बोल चुका, तब मैंने उन्हें छोड़ा!

मेरे शिक्षक बाहर आकर मुझसे कहने लगे, सब तुमने कचरा कर दिया! अब पता नहीं वह आदमी क्या सोचेगा, क्या नहीं सोचेगा, क्या करेगा, क्या नहीं करेगा। मगर वे आदमी भले थे। उन्होंने मुझे सौ में से निन्यानबे अंक दिए। और मुझे अलग से बुला कर कहा कि क्षमा करना कि मैं सौ ही नहीं दे रहा हूं; क्योंकि उसमें कहीं ज्यादती न मालूम पड़े कि मैंने पक्षपात किया है, इसलिए सिर्फ निन्यानबे दे रहा हूं। देना मुझे सौ ही थे, क्योंकि तुम पहले विद्यार्थी हो जिसने विद्यार्थी की तरह व्यवहार किया है। नहीं तो मुर्दा, किताबों को दोहराते हैं! हालांकि तुमने मुझे नाराज बहुत किया, कई बार मुझे गुस्सा आने लगा था, मगर बात तुम्हारी सच थी। बात तुम ठीक ही कह रहे थे। तो हालांकि मेरे अहंकार को चोट लग रही थी लेकिन मेरी आत्मा गवाही दे रही थी कि तुम बात ठीक कह रहे हो।

यह शिक्षा की व्यवस्था, आनंद सत्य, तुम्हें अड़चन देगी। तुम्हें अगर शिक्षक होना हो तो तुम्हें कुछ समझौते करने होंगे। अगर तुम्हें समझौते न करने हों—और मैं तो कहूंगा कि मत करो समझौते; क्योंकि क्या मिलेगा समझौता करने से? रोटी—रोजी मिल जाएगी। रोटी—रोजी और तरह से भी पाई जा सकती है। रोटी—रोजी के लिए आत्मा नहीं बेचनी होती। लेकिन ये अड़चनें तुम्हें आएंगी। दोनों हाथों लड्डू नहीं हो सकते। या तो तुम आत्मवान हो सकते हो और या फिर तुम्हें थोड़े—बहुत समझौते करने पड़ेंगे।

मैं नहीं कहता क्या करो। मैं तो सिर्फ साफ कर देता हूं बात। इतनी साफ है कि अगर तुम चाहते हो कि किसी विद्यालय में, किसी महाविद्यालय में प्रोफेसर होना है, तो तुम्हें समझौते करने पड़ेंगे। माला भीतर कर लो! अभी धीरे—धीरे सफेद कपड़े पहनने लगो, फिर उनको आहिस्ता—आहिस्ता रंगने लगना, थोड़ा—थोड़ा। एक दहा नौकरी में प्रवेश कर जाओ, फिर साल—छह महीने में ठीक—ठीक रंग पर पहुंच जाना। फिर एक दिन माला बाहर निकाल लेना! फिर भी झंझट तो होगी। अगर तुम्हें अपना जीवन अपने ढंग से जीना है, तो झंझटें स्वीकार करनी होंगी।

मैं तो विश्वविद्यालय लुंगी पहन कर पढ़ाने जाता था। मेरे प्रिंसिपल थोड़े डरते थे। क्योंकि कई घटनाएं घट चुकी थीं जिनमें लोग मुझसे झंझट में पड़ चुके थे और अड़चन खड़ी होती थी। वे नए—नए आए थे। और डाक्टर राधाकृष्ण का उसी वर्ष जन्म दिन शिक्षक दिवस की तरह घोषित किया गया था। और उन्होंने व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि यह परम सौभाग्य है कि एक शिक्षक राष्ट्रपति हो गया। मुझसे न रहा गया। मैं खड़ा हो गया। मैंने कहा, थोड़ा रुकिए। इसमें कौन—सी खूबी की बात हो गई कि एक शिक्षक राष्ट्रपति हो गया! और ऐसे अगर शिक्षक दिवस मनाओगे, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। कल जगजीवनराम राष्ट्रपति हो जाएं तो चमार दिवस मनाओ! एक चमार…! अब चौधरी चरण सिंह कुछ हो जाएं, तो किसान दिव मनाओ। फिर तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। कोई नाई हो गया, कोई धोबी हो गया…तीन सौ पैंसठ दिन तो यूं चले जाएंगे।

वैसे ही साल में छह महीने छुट्टी रहती है।

और मैंने कहा, मेरी समझ में नहीं आता कि शिक्षक राष्ट्रपति हो जो, इसमें शिक्षक का सम्मान क्या है? सम्मान तो शिक्षक का तब हो जब कोई राष्ट्रपति शिक्षक हो जाए। छोड़ दे राष्ट्रपति के पद को और शिक्षक हो जाए और कहे कि दो कौड़ी का है राष्ट्रपति का पद, शिक्षक के आगे क्या! तो शिक्षक दिवस मनाना। तो मुझे पता है राधाकृष्णन कितनी खुशामद कर—कर के राष्ट्रपति हुए हैं। यह शिक्षक का कोई सम्मान नहीं है। कितने समझौते करके, कितनी खुशामद करके, राजनीतिज्ञों की कितनी मालिश कर—कर के राष्ट्रपति हो पाए हैं, वह मुझे पता है। यह कोई शिक्षक का सम्मान नहीं है।

तो वे उसी दिन से मुझसे डरे हुए थे। और जब मैं लुंगी पहन कर कालेज पढ़ाने जाने लगा और एक चादर ओढ़ कर तो उन्होंने…बड़ा मुश्किल हुआ, जगह—जगह से लोगों ने, प्रोफेसरों ने कहा कि यह रोकना चाहिए। अगर इस तरह चला तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा मामला। न बांधो टाई, चलेगा; न पहनो कोट—पतलून, चलो वह भी ठीक है; मगर लुंगी, और चादर! और मैं खड़ाऊं भी पहनता था। तो मेरा प्रवेश होता तो पूरे विद्यालय में पता चल जाता—खट, खट, खट, खट। किसी को भी चैन से रहने का मौका नहीं था।

आखिर उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि क्षमा करना, मजबूरी है, कई लोग आकर कहते हैं, तो मैंने उनको कहा कि यह मेरा इस्तीफा…खीसे में से निकाल कर मैंने उनको दिया। वे भी बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, इस्तीफा क्या लिखा ही रखे हुए हैं! मैंने कहा वह लिखा ही हुआ रखता हूं। क्योंकि कौन लिखने की झंझट करे! वह हमेशा मैं खीसे में ही रखता हूं। जिस दिन कोई बात हो, उसी वक्त, एक क्षण की भी देरी नहीं, यह इस्तीफा। बात खतम हो गई! मेरे रहने—सहने के ढंग को दूसरा कोई निर्णय नहीं कर सकता। मैं तुम्हारे पाजामे पर कोई एतराज नहीं उठा रहा हूं, तुम कौन हो मेरी लुंगी पर एतराज उठाने वाले? तुम समझ रहे हो कि तुम अपने चूड़ीदार पाजामे में बहुत सुंदर मालूम पड़ रहे हो? बुत मालूम पड़ते हो!

मगर फिर तुम्हें अड़चन होगी। अड़चन का भी अपना मजा है। मैं तो कहूंगा, अड़चनों से डरो मत। मेरी सलाह मानो तो अड़चनें झेलो, ठीक है। नहीं मिलेगी विश्वविद्यालय में, कालेज में नौकरी तो नहीं मिलेगी। कोई और छोटा—मोटा काम कर लेना। मगर इज्जत से, सम्मान से। अपमान से, झुक कर, गुलाम होना उचित नहीं है। महंगा सौदा है। रोटी ही सब कुछ नहीं है।

लेकिन मेरी बात मान कर कुछ मत करना। खुद सोचना, विचारना। नहीं तो तुम मुझे दोषी ठहराओगे। मैं कुछ भी नहीं कह रहा हूं। मैंने तो सिर्फ स्थिति स्पष्ट कर दी। अगर चाहते हो कालेज में प्रोफेसर होना, तो कुछ समझौते करने पड़ेंगे। मैं कालेज में प्रोफेसर रहा हूं, जानता हूं। समझौते नहीं करने का परिणाम मैं जानता हूं! हजार झंझटें होंगी। समझौता कर लो, तो सुविधा में रहोगे।

समझौता कर लोगे, बाहर सुविधा होगी, भीतर आत्मा मरने लगेगी और सड़ने लगेगी। समझौता नहीं किया, बाहर असुविधा होगी, असुरक्षा होगी, लेकिन भीतर आत्मा में बड़े फूल खिलने लगेंगे। अब तुम्हें जो चुनना हो।

आज इतना ही।

 


Filed under: सपना यह संसार--(पलटू वाणी) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–7)

$
0
0

माउंट आबू में ओशो के ध्‍यान शिविर—(अध्‍याय—सातवां)

माउंट आबू बहुत ही सुंदर स्थान है। यहां सारी दुनिया से पर्यटक आते हैं, यहां के प्रसिद्ध जैन मंदिर देखने जैसे हैं। ओशो यहां पर ध्यान शिविर लिया करते थे। ओशो ने संन्यास शुरू कर दिया था। हर शिविर में हजारों गेरुआ वस्त्र धारी संन्यासी इकट्ठे होते। उन दिनों एक तरह का दीवानापन चलता था जो यूं था मानो पहाड़ी नदी हो। ओशो के आसपास एक से बढकर एक मस्त मौला मित्र इकट्ठे हो रहे थे। ऐसी दीवानगी, मस्ती कि मत पूछो। ओशो स्वयं सुबह से लेकर शाम तक हमारे बीच रहते। सारे ध्यान प्रयोगों का स्वयं संचालन करते। रात्रि त्राटक ध्यान में ओशो की आंखों को देखते कूदते हुए हूं हूं हूं की चोट करना, ओशो आधे नंगे बदन अपने हाथों से उत्साह बढ़ाते. .इतनी ऊर्जा, इतनी तीव्रता, सघनता, हूं की ऐसी चोट सभी मित्र ऊर्जा के विस्फोट से भर उठते। इसी ध्यान के दौरान एक दिन मुझे ऐसा लगा कि कभी ओशो का शरीर रह जाता, कभी सर रह जाता, कभी सिर्फ हाथ रह जाते, कभी सारा शरीर ही गायब हो जाता। बडे अजीब अनुभव होते थे।

उन दिनों जब ओशो साधना शिविर में होते माउंट आबू में बडा अद्भत नजारा हुआ करता था। चारों तरफ भगवा वस्त्र पहने संन्यासी। देशी—विदेशी जहां देखो वहीं भगवा संन्यासी। पूरा पर्वत मानों भगवा रंग से रंग जाता। और संन्यासी गाते होते ‘रजनीश आए आनंद लाए, आनंद लाए रजनीश आए।’ पूरा पर्वत ओशो की जय—जय कार और भजनों से गज उठता था। बड़ी धूम मचती थी। स्काउट ग्राउंड में ओशो के प्रवचन और ध्यान हुआ करते थे। अंतिम दिन जब ओशो विदा लेते तो चारों तरफ सभी दीवानों में एसी विरह पीड़ा, अपने प्रियतम से दूर होने का ऐसा असर, कोई रो रहा है, कोई मौन है। ओशो की कार रेंगती चलती काफी मित्र कीर्तन करते, नाचते—गाते उन्हें विदाई देते, एक बार तो एक मित्र ओशो की कार पर चढ़ कर नाचने लगे, भीतर ओशो बैठे हैं… ओशो के काम का वह बहुत अलग दौर था। सब कुछ उन्मुक्त। पियक्कड़ों की ऐसी जमात जिसे सिवाय ओशो के कुछ दिखाई नहीं देता। उस समय किसी को पता नहीं था कि यह कारवां कहां जा रहा है, क्या हो रहा है.. .बस सब मस्त थे।

आज इति


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–8)

$
0
0

ओशो के सामने भजन गाना—(अध्‍याय—आठवां)

शो जब प्रवचन देने आते तो शुरुआत के दिनों में व बाद में भी संगीत बजता या भजन गाये जाते। बाद के सालों में तो जब ओशो प्रवचन के लिए आते तो संगीत के साथ खुद भी नृत्य करते और हमें भी अपने साथ नचाते थे। अनेक प्रवचनों में संन्यासियों ने इतने सुरीले व मीठे भजन गाये हैं कि उस समय सुनते —सुनते यूं लगता कि हम इस पृथ्वी पर नहीं हैं। ओशो के प्रेम से भरा मधुर कंठ, भाव भरा भजन, प्रेम से भरे संगीतकारों का दिलकश संगीत और ओशो की प्रणाम मुद्रा या उनका नृत्य.. …..यह सब इतना हृदय को छू लेने जैसा होता, इतना भाव में डुबो देता कि सभी मित्र किसी और ही लोक की यात्रा पर चले जाते।

विश्व यात्रा के बाद जब ओशो कुछ समय के लिए मुंबई ठहरे तब भी प्रवचन के दौरान भजन गाये जाते। एक दिन किसी मित्र ने प्रसिद्ध आरती, ‘ ओम जय जगदीश हरे, ‘को’ ओम जय रजनीश हरे’ की तरह गाया… अब यह किसी को भी अजीब लग सकता है, लेकिन उस दिन इस आरती पर ओशो नृत्य करने लगे। सच है, ओशो को मन से समझना या उन्हें तर्क की कसौटी पर पकड़ना मुश्किल है।

जब ओशो माउंट आबू में सुबह प्रवचन देने आते तो उस समय भी भजन गाये जाते थे। जब ओशो मंच पर आकर प्रणाम करने के बाद बैठ जाते तो भजन बंद हो जाता और फिर ओशो का प्रवचन शुरू हो जाता। एक दिन सुबह प्रवचन से पहले मुझे भजन गाने का अवसर मिला, ‘दर्शन दो घनश्याम नाथ मेरी अखियां प्यासी रे।’ मैं इतना भाव— विभोर हो कर गा रहा था, मुझे पता ही नहीं चला कि कब ओशो आ कर बैठ गए और मैं भाव में डूबा भजन गाता ही रहा। भजन बहुत लंबा था, जब भजन पूरा हुआ और मैंने आंखें खोली तो ओशो सामने बैठे थे। बाद में मित्रों ने मुझे बताया कि ओशो चुपचाप आकर बैठे गए और भजन को जारी रहने दिया।

ये छोटे—छोटे संस्मरण हमें यह याद दिलाते हैं कि जब तक ओशो स्वयं निर्णय ले रहे थे, किसी बात का नियम व अनुशासन बनाना असंभव था। कब, किस पल में ओशो क्या निर्णय लेंगे, यह कोई सोच भी नहीं सकता था। इस पथ पर जैसी ही नियम बनने लगते हैं, अनुशासन आने लगते हैं, चीजें थोडी ठहरने लग जाती हैं, जड़ होने लग जाती हैं। इतने मिनट संगीत, इतने मिनट मौन, इतने मिनट का प्रवचन, इतने मिनट की जिबरिश.. .हर दिन बंधा—बंधाया, सालों से कोई फर्क नहीं, कोई परिवर्तन नहीं, कोई नवीनता नहीं। ऐसा ओशो ने अपने आसपास कभी नहीं होने दिया। शायद इसी कारण वे कहते रहे हैं कि उनके शरीर से जाने के बाद हमारी जिम्मेदारी अधिक हो जाएगी, क्योंकि अब वह हमारे साथ सशरीर नहीं हैं, हमें ही निर्णय लेने हैं, और हमारे निर्णय ही आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्ग बन सकते हैं।

ओशो कहते हैं ‘मैं अत्यधिक प्रसन्न हूं। जब मैं तुम्हें देखता हूं तो मेरा हृदय बहुत आनंद के साथ नाचने लगता है। और यह सिर्फ शुरुआत है। अनेक, अनेक मित्र आने वाले हैं, वे राह पर हैं। लाखों और आने वालों के लिए तुम अग्रदूत भर हो। लिहाजा तुम्हारी जिम्मेदारी बहुत अधिक है, क्योंकि तुम राह बनाओगे; दूसरे जो आएंगे वे तुमसे सीखेंगे। दूसरे, सजगता, अनुशासन, सहजता, निजता, स्वतंत्रता, ये सभी आयाम तुमसे सीखेंगे।’ जब ओशो के शब्द सुनता हूं तो लगता है कि हम सभी की जिम्मेदारी बहुत अधिक है। आने वाली पीढ़ियों के लिए जागरण की एक नई यात्रा का प्रारंभ हुआ है, जो मित्र इस पर चल पड़े हैं उनके लिए बहुत जरूरी है कि इस राह को अधिक से अधिक साफ—सुथरी और स्पष्ट रखें। इसकी ताजगी आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेगी। यदि अन्य धर्मों की तरह इस राह पर परंपरा, संस्कार, नियम, जडता की धूल जम जाती है तो यह शुभ नहीं होगा। इतना हमें जरूर स्मरण रखना है।

आज इति


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–9)

$
0
0

डाक द्वारा संन्‍यास और उपहार—(अध्‍याय—नौवां)

शो ने जब संन्यास की शुरुआत की तो दो प्रकार के संन्यास बनाए थे। एक जिसमें भगवा वस्त्र व उनकी फोटो लगी माला पहननी होती थी। उन्हें स्वामी नाम दिया जाता था। दूसरे संन्यास में सफेद वस्त्र पहनने होते, माला पहनना स्वेच्छिक होता था। उन्हें साधक कहा जाता था। कुछ समय बाद ओशो ने सिर्फ भगवा कपड़े वाला संन्यास ही रखा। कहा कि दूसरे तरह का संन्यास तो शुरुआत में डरपोक लोगों के लिए नाटक की तरह रखा था।

इसी के साथ उन दिनों में यदि कोई व्यक्ति चाहता तो उसे डाक द्वारा भी संन्यास दिया जाता था। मुझे भी इसी तरह से डाक द्वारा माला और नया नाम मिला था। लेकिन जब समय मिला मैं मुंबई गया और ओशो से मिला। उन दिनों ओशो मुंबई में वुडलैंड में रहते थे। जब मैं उनसे मिला तो उनकी पहनने की धोती उपहार स्वरूप मांग ली। मैंने उन्हें कहा कि ‘ मुझे आपकी धोती चाहिए।’ ओशो ने कहा, ‘ क्या करोगे धोती का?’ मैं चुप रहा। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा खयाल क्यों आया। मुझे कह कर थोड़ा अजीब भी लग रहा था। खैर, जब वहां से वापस आने लगा तो लक्ष्मी ने मुझे ओशो की धोती लाकर दे दी। मैं धोती लेकर पुणे वापस आ गया।

उन्हीं दिनों की बात है जब ओशो को सुनता और उनका कोई वचन बहुत अधिक हृदय को छू जाता तो उस वचन को अपने हाथ से कागज पर लिखकर पूरे दिन अपने हाथ में रखता और जब भी मन होता कागज खोलकर उसे पढ़ लेता। धीरे— धीरे इस तरह से हजारों हस्त लिखित कागज हो इकट्ठे हो गए जो आज भी मेरे पास हैं।

‘संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं, आनंद है। संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है। लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है—त्याग के अर्थों में, छोड़ने के अर्थों में, पाने के अर्थ में नहीं। मैं संन्यास को देखता हूं पाने के अर्थ में।

तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन में अहोभाव! तब तो संन्यास का अर्थ होगा, उदासी नहीं, प्रफुल्लता! तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन का फैलाव, विस्तार, गहराई। सिकोड़ना नहीं।’

(ओशो, कृष्ण स्मृति)

आज इति



Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

तंत्र–सूत्र–(भाग–4) प्रवचन–56

$
0
0

अहंकार की यात्रा और अध्‍यात्‍म—(प्रवचन—छप्‍पनवां)

प्रश्‍नसार:

1—कृपया बताएं कि कोई शून्‍यता के साथ जीना कैसे सीखे?

2—क्‍या सारा आध्‍यात्‍मिक प्रयोग झूठे अहंकार के सच्‍चे

      रूपांतरण के लिए है?

3—अगर अहंकार झूठ है तो क्‍या अचेतन मन, स्‍मृतियों

      का संग्रह और रूपांतरण की प्रक्रिया, यह सब भी झूठ है?

4—कोई कैसे जाने कि उसकी आध्‍यात्‍मिक खोज अहंकार की

यात्रा न होकर एक प्रामाणिक धार्मिक खोज है?

पहला प्रश्न :

 

अहंकार की जब ध्यान में ‘मैं’ श्रेणी देर के लिए खो जाता है और भीतर एक शून्‍यता निर्मित होती है और उस अज्ञात को आकार नहीं भरता है तो एक निराशा अनुभव होती है। कृपया बताएं कि कोई व्‍यक्‍ति उस शून्‍यता के साथ जीना कैसे सीखें?

 

शून्‍यता ही अज्ञात है। यह प्रतीक्षा मत करो, यह आशा मत करो कि कुछ आकर उस शून्यता को भर देगा। अगर तुम प्रतीक्षा कर रहे हो, अगर तुम आशा कर रहे हो, कामना कर रहे हो, तो तुम शून्य नहीं हो। अगर तुम इंतजार कर रहे हो कि कोई चीज, कोई अज्ञात शक्ति तुम पर उतरेगी, तो तुम शून्य नहीं हो। क्योंकि यह आशा मौजूद है, यह कामना मौजूद है, यह चाह मौजूद है। इसलिए मत चाहो कि कोई चीज आकर तुम्हें भर दे। सिर्फ शून्य होओ। प्रतीक्षा भी मत करो।

शून्यता ही अशांत है। जब तुम सचमुच शून्य हो, खाली हो, तो अज्ञात तुम पर उतर आया। ऐसा नहीं है कि पहले तुम शून्य होओ और तब अज्ञात उतरता है। तुम शून्य हुए कि अज्ञात उतरा; इसमें एक क्षण का भी अंतराल नहीं है। शून्यता और अज्ञात एक ही हैं।

आरंभ में वह तुम्हें रिक्तता जैसा, खालीपन जैसा मालूम पड़ता है, वैसा मालूम पड़ता है क्योंकि तुम हमेशा अहंकार से भरे रहे हो। सच तो यह है कि तुम्हें अहंकार की अनुपस्थिति मालूम हो रही है और इसीलिए तुम खालीपन अनुभव करते हो। पहले अहंकार विलीन होता है; लेकिन अहंकार का अभाव खालीपन का एक भाव पैदा करता है। सिर्फ एक अनुपस्थिति : कुछ जो पहले था और अब नहीं है। अहंकार तो चला गया है, लेकिन उसकी अनुपस्थिति महसूस होती है।

तो पहले अहंकार विलीन होगा और फिर अहंकार का अभाव विलीन होगा। उसके बाद ही तुम वस्तुत: शून्य होंगे। और वस्तुत: शून्य होना वस्तुत: भरा होना है, पूर्ण होना है।

वह आंतरिक आकाश दिव्य है, भागवत है, जो अहंकार की अनुपस्थिति से निर्मित होता है भागवत को कहीं बाहर से नहीं आना है; तुम पहले से ही भागवत हो। क्योंकि तुम अहंकार से भरे हो, इसलिए तुम उसे समझ नहीं सकते, देख नहीं सकते, छू नहीं सकते। अहंकार का परदा तुम्हें रोकता है।

जब अहंकार विदा हो गया, सीमा समाप्त हो गई। वहा अब कोई परदा नहीं है। आने को कुछ भी नहीं है, जो आने को है वह आया ही हुआ है। यह स्मरण रहे कि कुछ भी नया आने को नहीं है, जो भी है संभव है वह पहले से है मौजूद ही है। इसलिए सवाल पाने का नहीं है, सवाल सिर्फ अनावृत करने का है, उघाड़ने का है। खजाना मौजूद है, पर ढंका हुआ है—तुम सिर्फ उसे उघाडते हो।

जब बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए तो उनसे बार—बार पूछा गया : ‘आपने क्या पाया? आपने क्या उपलब्ध किया?’ कहते हैं कि बुद्ध ने कहा. ‘मैंने कुछ पाया नहीं, बल्कि मैंने खोया, मैंने अपने को खोया। और जो मैंने पाया है वह तो सदा से था; इसलिए मैं नहीं कह सकता कि मैंने इसे उपलब्ध किया। पहले मुझे इसका बोध नहीं था; अब मुझे बोध हो गया है। लेकिन मैं यह नहीं कह सकता कि मैंने इसे पाया है। बल्कि अब मुझे आश्चर्य होता है कि यह कैसे संभव हुआ कि इसे मैंने अब तक नहीं जाना। और वह सदा साथ ही था, बस जरा सजग होने की बात थी।’

भगवत्ता भविष्य में नहीं है। तुम्हारी भगवत्ता वर्तमान में है, यहां और अभी है। ठीक इसी क्षण तुम भगवान हो। हां, तुम्हें इसका बोध नहीं है। तुम सही दिशा में नहीं देख रहे हो, या तुम उससे लयबद्ध नहीं हो। इतनी ही बात है। जैसे कि एक रेडियो कमरे में रखा है। ध्वनि—तरंगें अभी भी यहां से गुजर रही हैं; लेकिन रेडियो किसी तरंग—विशेष से नहीं जुड़ा है। तो ध्वनि अव्यक्त है, अप्रकट है। तुम रेडियो को तरंग—विशेष से जोड़ दो और ध्वनि—तरंग प्रकट हो जाएगी। बस लयबद्ध होने की बात है, तालमेल भर बैठाना है। यह लयबद्ध होना ही ध्यान है। और जब तुम लयबद्ध होते हो, अव्यक्त व्यक्त हो जाता है, अप्रकट प्रकट हो जाता है।

लेकिन स्मरण रहे, कामना मत करो। क्योंकि कामना तुम्हें शून्य नहीं होने देगी। और अगर तुम शून्य नहीं हो तो कुछ नहीं होगा, क्योंकि वहां अवकाश ही नहीं है। तो तुम्हारा अव्यक्त स्वभाव व्यक्त नहीं होगा। उसे व्यक्त होने के लिए, अवकाश चाहिए, स्थान चाहिए, शून्यता चाहिए।

और यह मत पूछो कि शून्यता के साथ कैसे रहा जाए। वह असली सवाल नहीं है। बस शून्य होओ। तुम अभी शून्य नहीं हो। अगर तुमने एक बार जान लिया कि शून्यता क्या है तो तुम उससे प्रेम करने लगोगे। वह परम आनंद है। यह वह सुंदरतम अनुभव है जो मन, मनुष्य और चेतना के लिए संभव है। तब तुम नहीं पूछोगे कि शून्यता के साथ कैसे रहा जाए। तुम यह प्रश्न इस तरह पूछ रहे हो मानो शून्यता कुछ घबड़ाने वाली चीज है। अहंकार को घबड़ाहट मालूम पड़ती है। अहंकार सदा शून्यता से भयभीत है। इसीलिए तुम पूछते हो कि इसके साथ कैसे रहा जाए—मानो यह कोई दुश्मन हो।

शून्य तुम्हारा अंतरस्थ केंद्र है, तुम्हारा अंतरतम है। सारी गतिविधि परिधि पर है; अंतरस्थ केंद्र मात्र शून्य है। जो भी व्यक्त है, प्रकट है, सब सतह पर है, तुम्हारे प्राणों का गहनतम केंद्र अव्यक्त शून्य है। बुद्ध ने उसे नाम दिया है. शून्यता। वही तुम्हारा स्वभाव है; वही तुम्हारा होना है, वही तुम्हारी आत्मा है। उसी शून्य से सब कुछ आता है और फिर उसमें ही वापस समा जाता है। वह शून्य उदगम है, स्रोत है।

तो मत पूछो कि उसे कैसे भरा जाए। क्योंकि जब भी तुम उसे भरने का प्रयास करोगे, तुम और—और अहंकार ही निर्मित करोगे। शून्य को भरने का प्रयास ही तो अहंकार है। और

यह कामना भी कि अब कुछ उतरे—कोई परमात्मा, कोई परम शक्ति, कोई अज्ञात शक्ति उतरे—यह कामना भी एक विचार ही है। तुम परमात्मा के संबंध में जो कुछ भी सोच—विचार करोगे वह परमात्मा नहीं होगा; वह तुम्हारा विचार ही होगी।

जब तुम कहते हो कि वह अज्ञात है तो इतना कहते ही तुमने उसे ज्ञात बना दिया। तुम अज्ञात के बारे में क्या जानते हो? यह कहना भी कि वह अज्ञात है बताता है कि तुम्हें कोई गुण मालूम है—यह मालूम है कि वह अज्ञात है। मन अज्ञात की धारणा नहीं बना सकता; विचार में आते ही अज्ञात ज्ञात हो जाता है। मन जो कुछ भी कहेगा वह महज शब्द—जाल होगा, विचार—प्रक्रिया होगा।

‘परमात्मा’ शब्द परमात्मा नहीं है। परमात्मा का विचार परमात्मा नहीं है। और जब विचार नहीं है तो तुम जानोगे कि परमात्मा क्या है, तुम अनुभव करोगे कि परमात्मा क्या है। उसके संबंध में कुछ और नहीं कहा जा सकता है। उसका सिर्फ संकेत हो सकता है, इशारा किया जा सकता है। और सभी संकेत अधूरे हैं; क्योंकि वे परोक्ष हैं।

इतना ही कहा जा सकता है कि जब तुम नहीं हो, वह है। और तुम तब नहीं हो जब कामना नहीं है, क्योंकि तुम कामना से जीते हो। कामना वह भोजन है, जिसके सहारे तुम जीते हो। कामना ईंधन है। जब कोई कामना नहीं है, चाह नहीं है, भविष्य नहीं है और जब तुम नहीं हो, तब वह शून्यता अस्तित्व की पूर्णता हो जाती है। उस शून्यता में सारा अस्तित्व तुम पर प्रकट हो जाता है। तुम अस्तित्व के साथ एक हो जाते हो।

तो मत पूछो कि शून्यता के साथ कैसे रहा जाए। पहले शून्य होओ। यह पूछने की जरूरत नहीं है कि उसके साथ कैसे रहा जाए। वह इतना आनंदपूर्ण है; वह गहनतम आनंद है। जब तुम पूछते हो कि शून्यता के साथ कैसे रहा जाए तो तुम वस्तुत: यह पूछ रहे हो कि स्वयं के साथ कैसे रहा जाए। लेकिन तुमने अभी स्वयं को नहीं जाना है। उसमें और—और गहरे प्रवेश करो।

ध्यान में तुम्हें कभी—कभी एक तरह की शून्यता का अनुभव होता है; वह वास्तविक शून्यता नहीं है। मैं उसे एक तरह की रिक्तता कहता हूं। ध्यान में कुछ क्षणों के लिए तुम्हें ऐसा अनुभव होगा जैसे कि विचार की प्रक्रिया ठहर गई है। शुरू—शुरू में ऐसे अंतराल आएंगे। लेकिन क्योंकि तुम्हें ऐसा अनुभव होता है जैसे कि विचार की प्रक्रिया ठहर गई है, इसलिए यह भी एक विचार ही है—बहुत सूक्ष्म विचार। तुम क्या कर रहे हो? तुम भीतर— भीतर कह रहे हो. ‘विचार की प्रक्रिया ठहर गई है।’ लेकिन यह क्या है? यह एक सूक्ष्म विचार—प्रक्रिया है, जो अब आरंभ हुई है। और तुम कहते हो, यह शून्यता है। तुम कहते हो, अब कुछ घटित होने वाला है। यह क्या है? फिर एक नई विचार—प्रक्रिया आरंभ हो गई।

जब ऐसा फिर हो तो उसके शिकार मत बनना। जब तुम्हें लगे कि कोई मौन उतर रहा है, तो उसे शब्द देना मत शुरू कर देना। शब्द देकर तुम उसे नष्ट कर देते हो। प्रतीक्षा करो; किसी चीज की प्रतीक्षा नहीं, सिर्फ प्रतीक्षा करो। कुछ करो मत। यह भी मत कहो कि यह शून्यता है। जैसे ही तुम यह कहते हो, तुम उसे नष्ट कर देते हो। उसे देखो, उसमें प्रवेश करो, उसका साक्षात करो। लेकिन प्रतीक्षा करो, उसे शब्द मत दो। जल्दी क्या?

शब्द देकर मन फिर दूसरे रास्ते से प्रवेश कर गया; उसने तुम्हें धोखा दे दिया। मन की इस चालबाजी के प्रति सजग रहो। शुरू—शुरू में ऐसा होना अनिवार्य है। तो जब फिर ऐसा हो तो रूको, प्रतीक्षा करो। उसके जाल में मत फंसो। कुछ कहो मत; चुप रहो। तब तुम गहरे प्रवेश करोगे, और तब वह खोंएगी नहीं। क्योंकि तुम एक बार सच्ची शून्यता को जान लो तो फिर वह खोती नहीं है। सच्ची शून्यता कभी नहीं खोती है, यही उसकी गुणवत्ता है।

और एक बार तुमने अपने आंतरिक खजाने को जान लिया, एक बार तुम अपने अंतरतम केंद्र के संपर्क में आ गए, तो फिर तुम अपने काम— धाम में लगे रह सकते हो, तुम जो चाहो कर सकते हो, तुम सामान्य सांसारिक जिंदगी जी सकते हो—और यह शून्य तुम्हारे साथ रहेगा। तुम इसे भूल नहीं सकते; भीतर वह शून्य बना रहेगा। इसका संगीत सतत सुनाई देगा। तुम जो भी करोगे, करना सतह पर रहेगा, भीतर तुम शून्य के शून्य रहोगे।

और अगर तुम भीतर शून्य रह सके, करना सिर्फ सतह पर चलता रहा, तो तुम जो भी करोगे वह दिव्य हो जाएगा, तुम जो भी करोगे उसमें भगवत्ता का स्पर्श होगा। क्योंकि अब कृत्य तुमसे नहीं आ रहा है, अब कृत्य मूलभूत शून्यता से आ रहा है। तब अगर तुम बोलोगे तो वे शब्द तुम्हारे नहीं होंगे।

यही मतलब है मोहम्मद का जब वे कहते हैं कि ‘कुरान मैंने नहीं कहां,यह मुझ पर ऐसे उतरा है जैसे किसी और ने मेरे द्वारा कहा हो।’ यह आंतरिक शून्य से आया है। यही अर्थ है हिंदुओं का जब वे कहते हैं कि ‘वेद मनुष्य के द्वारा नहीं लिखे गए हैं; वे अपौरुषेय हैं, स्वयं भगवान ने उन्हें कहा है।’

वह जो अति रहस्यपूर्ण है, उसको प्रतीकों में कहने के ये उपाय हैं। और यही रहस्य है जब तुम आत्यंतिक रूप से शून्य हो तो तुम जो भी कहते हो या करते हो वह तुमसे नहीं आता है—क्योंकि तुम तो बचे ही नहीं। वह शून्यता से आता है; वह अस्तित्व के गहनतम स्रोत से आता है। वह उसी स्रोत से आता है जिससे यह सारा अस्तित्व आया है। तब तुम गर्भ में प्रवेश कर गए—सीधे अस्तित्व के गर्भ में। तब तुम्हारे शब्द तुम्हारे नहीं हैं, तब तुम्हारे कृत्य तुम्हारे नहीं हैं। अब मानो तुम एक उपकरण भर हो—समस्त के हाथों में।

अगर क्षण भर के लिए शून्यता अनुभव में आए और बिजली की कौंध की तरह चली जाए तो वह शून्यता सच्ची नहीं है। और अगर तुम उस पर विचार करने लगोगे तो वह क्षणिक शून्यता भी खो जाएगी। उस क्षण में विचार न करना बड़े साहस का काम है। मेरे देखे, यह सबसे बड़ा संयम है। जब मन शांत हो जाता है और तुम शून्य में गिर रहे होते हो तो उस क्षण में नहीं सोचने के लिए सर्वाधिक साहस की जरूरत है। क्योंकि उस क्षण मन का सारा अतीत बल मारेगा, उसका समस्त यंत्र कहेगा कि अब सोच—विचार करो। सूक्ष्म ढंगों से, परोक्ष ढंगों से तुम्हारी अतीत की स्मृतियां तुम्हें सोचने को बाध्य करेंगी। और अगर तुमने सोच—विचार शुरू कर दिया तो तुम वापस आ गए।

अगर उस क्षण में तुम शांत रह सको, अगर तुम अपने मन और स्मृतियों के जाल में न पड़ो—यही असली शैतान है जो तुम्हें फुसलाता है। तुम्हारा अपना ही मन तुम्हें फुसलाता है। जैसे ही तुम शून्य होने लगते हो, मन कुछ तरकीब करता है कि तुम सोच—विचार में पड़ जाओ। अगर तुम सोच—विचार में पड़ गए तो तुम वापस आ गए।

कहा जाता है कि जब महान गुरु बोधिधर्म चीन गए तो बहुत से शिष्य उनके पास इकट्ठे हो गए। वे प्रथम झेन गुरु थे। एक शिष्य, जो प्रधान शिष्य होने वाला था, उनके पास आया और उसने कहा : ‘मैं बिलकुल शून्य हो गया हूं।’ बोधिधर्म ने तुरंत ही उसे एक तमाचा मारा और कहा. ‘अब जाओ और इस शून्यता को भी बाहर फेंक आओ। अभी तुम शून्‍यता से भरे हो, इसे भी फेंक आओ तो ही तुम सचमुच शून्‍य होगें।‘

तुम समझे? तुम शून्यता के विचार से भी भरे हो सकते हो। तब वह तुम पर मंडराता रहेगा, वह बादल बन जाएगा। अगर तुम कहते हो कि मैं शून्य हूं तो तुम शून्य नहीं हो। अब यह ‘शून्य’ शब्द तुम्हारे मन में है और तुम उससे भरे हो। मैं भी तुमसे यही कहता हूं : ‘इस शून्यता को भी जाने दो।’

दूसरा प्रश्न :

 

आपने मनुष्य के मन के रूपांतरण की, आमूल परिवर्तन चर्चा की, मनुष्‍य के अचेतन को चेतन में बदलने की चर्चा की और कहा कि अध्यात्म एक अस्तित्‍वगत प्रयोग है। लेकिन कल रात आपने कहा कि अहंकार एक झूठी इकाई है और उसमें कोई सार—सत्‍य नहीं है। तो क्या इसका मतलब है कि सारा आध्यात्‍मिक प्रयोग उस अहंकार का अस्तित्वगत रूपांतरण है जो कि है ही नहीं?

हीं। आध्यात्मिक रूपांतरण अहंकार का रूपांतरण नहीं है, वह उसका विसर्जन है। तुम्हें अहंकार को रूपांतरित नहीं करना है; क्योंकि वह कितना भी रूपांतरित हो, अहंकार अहंकार ही रहेगा। वह सूक्ष्म हो सकता है, ज्यादा परिष्कृत, ज्यादा सुसंस्कृत हो सकता है, लेकिन अहंकार अहंकार ही रहेगा। और वह जितना ज्यादा सुसंस्कृत होगा, उतना ज्यादा जहरीला हो जाएगा। वह जितना ज्यादा सूक्ष्म होगा, तुम उतने ही उसके चंगुल में फंस जाओगे, क्योंकि तुम्हें उसका पता ही नहीं चलेगा। तुम्हें तो अपने इतने स्थूल अहंकार का भी पता नहीं है, जब वह सूक्ष्म हो जाएगा तो तुम उसे कैसे जान सकोगे? तब तो जानने की कोई संभावना नहीं रहेगी।

अहंकार को परिष्कृत करने के उपाय हैं, लेकिन वे उपाय अध्यात्म के उपाय नहीं हैं। नैतिकता उन्हीं उपायों पर आधारित है, और नैतिकता और धर्म में यही भेद है। नैतिकता अहंकार को परिष्कृत करने के उपायों के सहारे जीती है; नैतिकता प्रतिष्ठा पर खड़ी है। हम आदमी को कहते हैं. ‘यह मत करो। अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम्हारी प्रतिष्ठा खतरे में पड़ जाएगी। यह मत करो; लोग क्या कहेंगे? ऐसा मत करो, तुम्हें सम्मान नहीं मिलेगा। यह करो, और सब लोग तुम्हें सम्मान देंगे।’ सारी नैतिकता अहंकार पर खड़ी है, सूक्ष्म अहंकार पर।

धर्म अहंकार का रूपांतरण नहीं है, धर्म अतिक्रमण है। तुम बस अहंकार को छोड़ देते हो। और तुम इस कारण से नहीं छोड़ते हो क्योंकि वह गलत है। इस भेद को स्मरण रखो। नैतिकता कहती है : ‘जो गलत है उसे छोड़ो और जो सही है उसे ग्रहण करो।’ धर्म कहता है. ‘जो असत्य है—गलत नहीं—उसे छोड़ो। गलत को नहीं, झूठ को त्यागो। जो असत्य है उसे छोड़ो और सत्य में प्रवेश करो।’

अध्यात्म में सत्य का मूल्य है, सही का नहीं। क्योंकि सही भी असत्य हो सकता है। और एक झूठे संसार में झूठी गलत चीजों के विपरीत झूठी सही चीजों की जरूरत पड़ती है।

तो अध्यात्म अंहकार का रूपांतरण नहीं है, वह अतिक्रमण है। तुम अंहकार के पार चले जाते हो। और यह पार चले जाना ही जागरण है। यह देख लेना एक गहन सजगता है कि अहंकार है या नहीं। अगर अहंकार है, अगर वह तुम्हारा एक अंग है, एक वास्तविक अंग है, तो तुम उसके पार नहीं जा सकते हो। अगर वह असत्य है तो ही अतिक्रमण संभव है। तुम स्वप्न से जाग सकते हो; तुम सत्य से नहीं जाग सकते। या जाग सकते हो? तुम सत्‍य का अतिक्रमण कर सकते हो; तुम सत्य का अतिक्रमण नहीं कर सकते।

अहंकार झूठी इकाई है। और हमारा क्या मतलब है जब हम कहते हैं कि अहंकार झूठी इकाई है। हमारा मतलब यह है कि अहंकार इसलिए है, क्योंकि तुमने उसका साक्षात नहीं किया है। अगर तुम उसका साक्षात कर लो तो वह नहीं होगा। अहंकार तुम्हारे अज्ञान में होता है, क्योंकि तुम मूर्च्छित हो इसलिए वह है। अगर तुम बोधपूर्ण हो जाओ तो वह नहीं रहेगी। अगर तुम बोधपूर्ण होते हो, जागरूक होते हो और तुम्हारे सजग होने से कोई चीज विलीन हो जाती है तो समझना चाहिए कि वह चीज झूठी है। बोध में सत्य प्रकट होगा और असत्य विलीन हो जाएगा।

तो यह कहना भी ठीक नहीं है कि अपने अहंकार को छोड़ो। क्योंकि जब भी यह कहा जाता है कि अहंकार को छोड़ो तो उससे ऐसा लगता है कि अहंकार कुछ है और उसे तुम छोड़ सकते हो। और तुम अहंकार को छोड़ने के लिए घोर प्रयत्न भी कर सकते हो। लेकिन यह सारा प्रयत्न व्यर्थ होगा। तुम उसे दूर नहीं कर सकते हो, क्योंकि जो हो उसे ही दूर किया जा सकता है। तुम उससे लड़ भी नहीं सकते हो—छाया से कैसे लड़ सकते हो? और अगर लड़ोगे, तो स्मरण रहे, तुम ही हारोगे। तुम इस कारण नहीं हारोगे कि छाया बहुत शक्‍तिशाली है, तुम इसलिए हारोगे क्योंकि छाया नहीं है। तुम उसे नहीं हरा सकते हो, तुम ही हारोगे और अपनी मूर्खता के कारण हारोगे।

छाया से लड़ कर तुम कभी नहीं जीत सकते, यह निश्चित है। तुम हारोगे, यह भी निश्चित है। क्योंकि लड़ कर तुम अपनी ही ऊर्जा नष्ट करोगे। ऐसा नहीं है कि छाया बहुत शक्तिशाली है; सच्चाई यह है कि छाया है ही नहीं। तुम स्वयं से लड़कर अपनी ऊर्जा गंवा रहे हो। फिर तुम थक जाओगे और गिर जाओगे। और तब तुम सोचोगे कि छाया जीत गई और मैं हार गया। और छाया थी ही नहीं। अगर तुम अहंकार से लड़ोगे तो तुम हारोगे। अच्छा है कि उसमें प्रवेश करो और खोजो कि वह कहा है।

कथा है कि चीन के सम्राट ने बोधिधर्म से पूछा. ‘मेरा चित्त अशांत है, बेचैन है। मेरे भीतर निरंतर अशांति मची रहती है। मुझे थोड़ी शांति दें या मुझे कोई गुप्त मंत्र बताएं कि कैसे मैं आंतरिक मौन को उपलब्ध होऊं।’

बोधिधर्म ने सम्राट से कहा : ‘आप सुबह ब्रह्ममुहूर्त में यहां आ जाएं, चार बजे सुबह आ जाएं। जब यहां कोई भी न हो, जब मैं यहां अपने झोपड़े में अकेला होऊं, तब आ जाए। और याद रहे, अपने अशांत चित्त को अपने साथ ले आएं; उसे घर पर ही न छोड़ आएं।’

सम्राट घबरा गया, उसने सोचा कि यह आदमी पागल है। यह कहता है. ‘अपने अशांत चित्त को साथ लिए आना; उसे घर पर मत छोड़ आना। अन्यथा मैं शांत किसे करूंगा? मैं उसे जरूर शांत कर दूंगा, लेकिन उसे ले आना। यह बात भलीभांति स्मरण रहे।’ सम्राट घर गया, लेकिन पहले से भी ज्यादा अशांत होकर गया। उसने सोचा था कि यह आदमी संत है, ऋषि है, कोई मंत्र—तंत्र बता देगा। लेकिन यह जो कह रहा है वह तो बिलकुल

सम्राट रात भर सो न सका। बोधिधर्म की आंखें और जिस ढंग से उसने देखा था, वह सम्मोहित हो गया था। मानो कोई चुंबकीय शक्ति उसे अपनी ओर खींच रही हो। सारी रात उसे नींद नहीं आई। और चार बजे सुबह वह तैयार था। वह वस्तुत: नहीं जाना चाहता था, क्योंकि यह आदमी पागल मालूम पड़ता था। और इतने सबेरे जाना, अंधेरे में जाना, जब वहा कोई न होगा, खतरनाक था। यह आदमी कुछ भी कर सकता है। लेकिन फिर भी वह गया, क्योंकि वह बहुत प्रभावित भी था।

और बोधिधर्म ने पहली चीज क्या पूछी? वह अपने झोपड़े में डंडा लिए बैठा था। उसने कहा : ‘अच्छा तो आ गए, तुम्हारा अशांत मन कहां है? उसे साथ लाए हो न? मैं उसे शांत करने को तैयार बैठा हूं।’ सम्राट ने कहा : ‘आप कह क्या रहे हैं! कोई अपने मन को कैसे भूल सकता है? वह तो सदा साथ है।’

बोधिधर्म ने कहा ‘कहां? वह कहा है? मुझे दिखाओ ताकि मैं उसे शांत कर दूं और तुम घर वापस जाओ।’ सम्राट ने कहा : ‘लेकिन यह कोई वस्तु नहीं है, मैं आपको दिखा नहीं सकता हूं। मैं इसे अपने हाथ में नहीं ले सकता; यह मेरे भीतर है।’

बोधिधर्म ने कहा : ‘बहुत अच्छा, अपनी आंखें बंद करो, और खोजने की चेष्टा करो कि चित्त कहां है। और जैसे ही तुम उसे पकड़ लो, आंखें खोलना और मुझे बताना मैं उसे शांत कर दूंगा।’

उस एकांत में और इस पागल व्यक्ति के साथ—सम्राट ने आंखें बंद कर लीं। उसने चेष्टा की, बहुत चेष्टा की। और वह भयभीत भी था, क्योंकि बोधिधर्म अपना डंडा लिए बैठा था, किसी भी क्षण चोट कर सकता था। सम्राट भीतर खोजने की कोशिश करता रहा। उसने सब जगह खोजा, प्राणों के कोने—कातर में झांका, खूब खोजा कि कहां है वह मन जो कि इतना अशांत है। और जितना ही उसने देखा उतना ही उसे बोध हुआ कि अशांति तो विलीन हो गई। उसने जितना ही खोजा उतना ही मन नहीं था, छाया की तरह मन खो गया था।

दो घंटे गुजर गए और उसे इसका पता भी नहीं था कि क्या हो रहा है। उसका चेहरा शांत हो गया; वह बुद्ध की प्रतिमा जैसा हो गया। और जब सूर्योदय होने लगा तो बोधिधर्म ने कहा : ‘अब आंखें खोलों। इतना पर्याप्त है। दो घंटे पर्याप्त से ज्यादा हैं। अब क्या तुम बता सकते हो कि चित्त कहां है?’

सम्राट ने आंखें खोलीं। वह इतना शांत था जितना कि कोई मनुष्य हो सकता है। उसने बोधिधर्म के चरणों पर अपना सिर रख दिया और कहा : ‘आपने उसे शांत कर दिया।’

सम्राट बू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है. ‘यह व्यक्ति अदभुत है, चमत्कार है। इसने कुछ किए बिना ही मेरे मन को शांत कर दिया। और मुझे भी कुछ न करना पड़ा। सिर्फ मैं अपने भीतर गया और मैंने यह खोजने की कोशिश की कि मन कहा। निश्चित ही बोधिधर्म ने सही कहा कि पहले उसे खोजो कि वह कहां है। और उसे खोजने का प्रयत्न ही काफी था—वह कहीं नहीं पाया गया।’

तुम अंहकार कहीं नहीं मिलेगा। अगर तुम भीतर जाओगे, अगर तुम खोजोगे, तो तुम्हें वह कहीं नहीं मिलेगा। वह कभी था ही नहीं। मन एक झूठा परिपूरक है, भ्रांति है। उसकी थोड़ी उपयोगिता है; इसीलिए तुमने उसकी ईजाद कर ली है। क्योंकि तुम अपने असली होने को, अपने सच्चे केंद्र को नहीं जानते हो और केंद्र के बिना काम नहीं चल सकता है, इसलिए तुम ने एक काल्पनिक केंद्र निर्मित कर लिया है। और तुम उससे अपना काम चला लेते हो।

असली केंद्र का तुम्हें पता नहीं है, इसलिए तुमने एक झूठा केंद्र निर्मित कर लिया है। अहंकार एक झूठा केंद्र है, कामचलाऊ केंद्र है। केंद्र के बिना जीना कठिन है, काम चलाना कठिन है। तुम्हें काम चलाने के लिए एक केंद्र की जरूरत है। और तुम अपने असली केंद्र को नहीं जानते हो, इसलिए मन ने एक झूठा केंद्र निर्मित कर लिया है। मन परिपूरक निर्मित करने में, सब्‍स्‍टिटूयट बनाने में बहुत कुशल है। वह सदा परिपूरक चीजें तुम्हें पकड़ा देता है—अगर तुम असली को न पा सकी। अन्यथा तुम विक्षिप्त हो जाओगे। केंद्र के बिना तुम पागल हो जाओगे, खंड—खंड हो जाओगे, कोई एकता नहीं रह जाएगी। इसलिए मन झूठा केंद्र निर्मित कर लेता है।

स्वप्न में ऐसा ही होता है। तुम्हें प्यास लगी है। अब अगर यह प्यास तीव्र हो जाए तो नींद में बाधा पड़ेगी, तुम्हें पानी पीने के लिए उठना पडेगा। अब तुम्हारा मन सल्लीटयूट निर्मित करेगा; वह एक स्‍वप्‍न निर्मित करेगा। अब तुम्हें उठना नहीं पड़ेगा; अब नींद में कोई बाधा नहीं होगी। तुम स्‍वप्‍न देखते हो कि तुम पानी पी रहे हो; तुम फ्रिज से पानी निकाल कर पी रहे हो। मन ने तुम्हें परिपूरक दे दिया, अब तुम निश्चित हो। असली प्यास बुझी नहीं है, बस धोखा दिया गया है। लेकिन अब तुम्हें लगता है कि मैंने पानी पी लिया। अब तुम सो रह सकते हो, तुम्हारी नींद अबाधित जारी रह सकती है।

सपनों में तुम्हारा मन निरंतर तुम्हें परिपूरक चीजें देता रहता है, ताकि तुम्हारी नींद न टूटे। और वही बात तुम्हारे जागते में भी होती है। मन तुम्हें विक्षिप्तता से बचाने के लिए परिपूरक देता रहता है; अन्यथा तुम खंड—खंड हो जाओगे, बिखर जाओगे।

जब तक असली केंद्र का पता नहीं चलता, अहंकार की जरूरत रहेगी। और जब असली केंद्र जान लिया गया तो पानी के बारे में सपना देखने की जरूरत नहीं रहती है। ध्यान तुम्हें असली केंद्र देता है। और उसके साथ ही झूठे केंद्र की उपयोगिता समाप्त हो जाती है।

लेकिन यह बात ध्यान में आनी जरूरी है कि अहंकार तुम्हारा असली केंद्र नहीं है, तो ही तुम सत्य की खोज आरंभ कर सकते हो। और अध्यात्म अहंकार का रूपांतरण नहीं है; वह रूपांतरित नहीं हो सकता। वह असत्य है, वह है ही नहीं, तुम उसके साथ कुछ नहीं कर सकते हो। अगर तुम बोधपूर्ण हो, सजग हो, अगर तुम अपने भीतर उसका निरीक्षण करते हो, तो अहंकार विलीन हो जाता है। तुम्हारे बोध के प्रकाश में वह नहीं पाया जाता है। अध्यात्म अतिक्रमण है।

तीसरा प्रश्न :

 

अगर अहंकार झूठ है तो क्या उसका मतलब यह नहीं है कि अचेतन मनु मस्तिष्क की कोशिकाओं में स्‍मृतियों को संग्रह और रूपांतरण की प्रक्रिया, यह सब भी झूठ है, स्‍वप्‍न की प्रक्रिया का ही हिस्‍सा है?

हीं। अहंकार झूठ हैं। मस्‍तिष्‍क की कोशिकाएं झूठ नहीं है। अहंकार झूठ है; स्‍मृतियां झूठ नहीं है। अहंकार झूठ है: विचार की प्रक्रिया झूठ नहीं है। विचार की प्रक्रिया सच है। स्मृतियां सच हैं; मस्तिष्क की कोशिकाएं सच हैं, तुम्हारा शरीर सच है। तुम्हारा शरीर सच है और तुम्हारी आत्मा सच है। ये दो सच हैं। लेकिन जब आत्मा का शरीर से तादात्म्य हो जाता है तो अहंकार निर्मित होता है, वह अहंकार झूठ है।

यह ऐसा है। मैं दर्पण के सामने खड़ा हूं। मैं सच हूं; लेकिन दर्पण में जो प्रतिबिंब है, वह सच नहीं है। मैं सच हूं दर्पण भी सच है, लेकिन दर्पण में जो प्रतिबिंब है वह प्रतिबिंब है, वह सच नहीं है। मस्तिष्क की कोशिकाएं सच हैं, चैतन्य सच है; लेकिन जब चैतन्य का मस्तिष्क की कोशिकाओं से तादात्म्य हो जाता है तो अहंकार निर्मित होता है, वह अहंकार झूठ है।

तो जब तुम जाग जाते हो, जब तुम बुद्धत्व को उपलब्ध होते हो, तो तुम्हारी स्मृति नहीं विलीन होती है। स्मृति तो रहेगी, वस्तुत: वह पहले से बहुत ज्यादा पारदर्शी होगी, बहुत ज्यादा स्वच्छ होगी। तब वह ज्यादा सही ढंग से काम करेगी, क्योंकि तब उसे झूठे अहंकार से बाधा नहीं पहुंचेगी। उसी तरह तुम्हारी विचार—प्रक्रिया नहीं विलीन होगी, बल्कि तुम पहली बार विचार करने में समर्थ होंगे। अब तक तो तुम केवल दूसरों के विचार उधार लेते थे; अब तुम पहली बार विचार करने में समर्थ होंगे।

लेकिन अब तुम मालिक होगे—तुम्हारी विचार—प्रक्रिया नहीं। पहले विचार—प्रक्रिया मालिक थी; उस पर तुम्हारा कोई वश नहीं था। विचार—प्रक्रिया अपने आप चलती रहती थी, तुम उसके गुलाम थे। तुम सोना चाहते थे और मन सोच—विचार करता रहता था। तुम उसे रोकना चाहते थे और वह रुकने का नाम नहीं लेता था। सच तो यह है कि तुम उसे जितनी ही रोकने की चेष्टा करते थे वह उतनी ही ज्यादा जिद्द पकड़ लेता था। मन तुम्हारा मालिक था।

लेकिन जब तुम बुद्ध हो जाते हो तो मन तो होगा, लेकिन तब वह यंत्र की भांति होगा। जब तुम्हें जरूरत होगी, तुम उसका उपयोग कर सकोगे। और जब तुम्हें उसकी जरूरत नहीं होगी, वह तुम्हारी चेतना में भीड़—भाड़ नहीं करेगा। तब तुम उसका उपयोग कर सकते हो और तुम उसे बंद भी कर सकते हो। मन की कोशिकाएं होंगी, शरीर होगा, स्मृति होगी, विचार—प्रक्रिया होगी; सिर्फ एक चीज नहीं होगी—मैं का भाव नहीं होगा।

यह समझना थोड़ा कठिन है। बुद्ध चलते हैं, बुद्ध भोजन लेते हैं, बुद्ध सोते हैं, बुद्ध स्मृति का उपयोग करते हैं। उनकी स्मृतियां हैं; उनके मस्तिष्क की कोशिकाएं बहुत सुंदर ढंग से काम करती हैं। लेकिन बुद्ध ने कहा है : ‘मैं चलता हूं लेकिन मेरे भीतर कोई नहीं चलता है, मैं बोलता हूं लेकिन मेरे भीतर कोई नहीं बोलता है; मैं भोजन लेता हूं लेकिन मेरे भीतर कोई नहीं भोजन लेता है।’ आंतरिक चेतना अब अहंकार नहीं है। इसलिए जब बुद्ध को भूख लगती है तो उसे वे वैसे ही नहीं अनुभव करते हैं जैसे तुम करते हो। जब तुम्हें भूख लगती है तो तुम्हें लगता है, ‘मैं भूखा हूं।’ जब बुद्ध को भूख लगती है तो उन्हें लगता है, ‘शरीर भूखा है, मैं केवल जानने वाला हूं।’ और उस जानने वाले को ‘मैं’ का कोई भाव नहीं है।

अंहकार झूठी इकाई है—एक मात्र झूठी इकाई—बाकी सब कुछ यथार्थ है, सच है। दो सच मिल सकते हैं और उनके मिलन में तीसरा उपतत्व, आभास, निर्मित हो सकता है। जब दो सच मिलते हैं तो कोई आभास घटित हो सकता है। लेकिन यह भांति तभी घटित हो सकती है, यदि चेतना हो। अगर चेतना न हो तो भांति घटित नहीं हो सकती है। आक्सीजन और हाइड्रोजन के मिलने से झूठा जल नहीं बनेगा।

झूठ तो तभी पैदा हो सकता है जब तुम चेतन हो, क्योंकि चेतना ही भूल कर सकती है, पदार्थ भूल नहीं कर सकता है। पदार्थ झूठा नहीं हो सकता, पदार्थ सदा सच है। पदार्थ न धोखा दे सकता है और न पदार्थ धोखा खा सकता है। सिर्फ चैतन्य यह कर सकता है। चेतना के साथ ही भूल करने की संभावना है।

लेकिन एक दूसरी बात भी स्मरण रहे। पदार्थ सदा सच है, वह कभी झूठ नहीं है। लेकिन साथ ही पदार्थ कभी सत्य नहीं है, पदार्थ नहीं जान सकता कि सत्य क्या है। अगर तुम भूल नहीं कर सकते तो तुम कभी यह भी नहीं जान सकते कि सत्य क्या है।

दोनों संभावनाएं साथ—साथ खुलती हैं। मनुष्य की चेतना भूल कर सकती है और यह जान भी सकती है कि उससे भूल हुई है। और यह जानकर वह भूल से हट भी सकती है, भूल को सुधार भी सकती है। वही उसका सौंदर्य है। खतरा तो है, लेकिन खतरा अनिवार्य है। प्रत्येक विकास के साथ नए खतरे आते हैं। पदार्थ के लिए कोई खतरा नहीं है।

इसे इस तरह देखो। जब भी अस्तित्व में कोई नई चीज पैदा होती है, कोई नई चीज विकसित होती है, तो उसके साथ—साथ नए खतरे भी पैदा हो जाते हैं। पत्थर के लिए कोई खतरा नहीं है। फिर छोटे—छोटे जीवाणु हैं, जैसे अमीबा। अमीबा में कामवासना वैसी नहीं है जैसी मनुष्य या पशु में है। वे सिर्फ अपने शरीर को विभाजित कर लेते हैं। अमीबा बड़ा होता जाता है, जब वह एक हद तक बड़ा हो जाता है तो अपने शरीर को दो में बांट लेता है। मूल—शरीर दो में बंट जाता है। अब दो अमीबा हो गए। ये अमीबा अनंत काल तक जीवित रह सकते हैं, क्योंकि उनका न जन्म है और न मृत्यु।

कामवासना के साथ जन्म आता है और जन्म के साथ मृत्यु आती है। और जन्म के साथ वैयक्तिकता आती है, और वैयक्तिकता के साथ अहंकार आता है।

तो प्रत्येक विकास के अपने अंतर्निहित खतरे हैं। लेकिन वे सुंदर हैं। अगर तुम्हें समझ हो, अगर तुम समझ सको, तो उनमें गिरने की जरूरत नहीं है, तुम उनका अतिक्रमण कर सकते हो। और जब तुम उनका अतिक्रमण करते हो तो तुम परिपक्व होते हो, एक समन्वय को उपलब्ध होते हो। और अगर तुम खतरे के शिकार हो गए तो समन्वय नहीं उपलब्ध होगा। अध्यात्म शिखर है। वह सब विकास का अंतिम, परम शिखर है। झूठ का अतिक्रमण हो जाता है और सच आविष्कृत हो जाता है। और सच ही बचता है; झूठ गिर जाता है।

लेकिन यह मत सोचो कि शरीर झूठ है, वह सच है। वैसे ही मस्तिष्क की कोशिकाएं सच हैं, विचार—प्रक्रिया सच है। सिर्फ चेतना और विचार—प्रक्रिया का तादात्म्य झूठ है। वह एक गांठ है; तुम उसे खोल सकते हो। और जिस क्षण तुम उसे खोलते हो, तुमने द्वार खोल दिया।

अंतिम प्रश्न :

 

अहंकार कैसे जान सकता है कि जिस आध्यात्‍मिक खोज में वह लगा है वह अहंकार की यात्रा और यात्रा न होकर एक प्रामाणिक धार्मिक खोज है?

गर तुम्हें पता नहीं चल रहा है, अगर तुम उलझन में हो, तो पक्का समझो कि यह अहंकार की यात्रा है। अगर तुम भ्रमित नहीं हो, उलझन में नहीं हो, अगर तुम भलीभांति जानते हो कि यह प्रामाणिक है, अगर कोई संदेह बिलकुल नहीं है, तो ही यह प्रामाणिक है। और यह किसी दूसरे को धोखा देने का सवाल नहीं है, यह स्वयं को ही धोखा देने या न देने का सवाल है। अगर तुम भ्रमित हो, संदेहग्रस्त हो, तो यह अहंकार की यात्रा है। क्योंकि जैसे ही खोज प्रामाणिक होती है, संदेह नहीं रहता है, श्रद्धा घटित होती है।

मुझे दूसरे ढंग से कहने दो। जब भी तुम ऐसी समस्याएं लाते हो तो तुम्हारा प्रश्न ही बता देता है कि तुम गलत रास्ते पर हो। कोई मेरे पास आता है और कहता है ‘बताइए, मेरा ध्यान गहरे जा रहा है अथवा नहीं।’ मैं उससे कहता हूं. ‘अगर वह गहरे जा रहा होता तो मेरे पास आने और मुझसे पूछने की जरूरत न थी। गहराई ऐसा अनुभव है कि तुम उसे जान ही लोगे। और अगर तुम अपनी गहराई नहीं जान सकते तो दूसरा कौन जानेगा? तुम मुझसे सिर्फ इसलिए पूछने आए हो, क्योंकि तुम्हें गहराई का अनुभव नहीं हो रहा है। अब तुम चाहते हो कि कोई दूसरा इसे प्रमाणित कर दे। अगर मैं कहूं कि हां, तुम्हारा ध्यान गहरा हो रहा है तो तुम्हें बहुत खुशी होगी। यह अहंकार की यात्रा है।’

जब तुम बीमार होते हो तो तुम जानते हो कि मैं बीमार हूं। कभी ऐसा भी हो सकता है कि बीमारी बहुत भीतरी हो, तुम्हें उसका पता न हो; लेकिन इसके विपरीत कभी नहीं घटता है। जब तुम बिलकुल स्वस्थ होते हो तो तुम्हें इसका पता होता है। स्वास्थ्य कभी छुपा नहीं रहता है। जब तुम स्वस्थ होते हो तो तुम यह जानते हो। हो सकता है कि अपनी बीमारी का तुम्हें वैसा बोध न हो, लेकिन स्वास्थ्य का—यदि स्वास्थ्य है—बोध तुम्हें रहता है। क्योंकि स्वास्थ्य का बोध तुम्हें नहीं होगा तो किसे होगा? तुम्हारी बीमारी के लिए विशेषज्ञ हो सकते हैं जो तुम्हें बताएं कि तुम्हें किस तरह का रोग है; लेकिन तुम्हारे स्वास्थ्य के बारे में बताने वाले कोई विशेषज्ञ नहीं हैं। उसकी जरूरत नहीं है। लेकिन अगर तुम पूछते हो कि मैं स्वस्थ हूं कि नहीं, तो इतना निश्चित है कि तुम अस्वस्थ हो। यह पूछना ही यह बता देता है।

तो जब तुम आध्यात्मिक खोज पर निकले हो तो तुम जान सकते हो कि यह अहंकार की यात्रा है या प्रामाणिक खोज है। और तुम्हारी भ्रांति बताती है कि यह प्रामाणिक खोज नहीं है। यह एक तरह की अहंकार की यात्रा है। और अहंकार की यात्रा क्या है? तुम्हें वास्तविक तत्व की, सत्य की चिंता नहीं है, तुम उस पर भी मालकियत करने की फिक्र में हो।

लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं : ‘आप तो जानते ही हैं; और आप हमारे बारे में जान सकते हैं। तो बताइए कि हमारी कुंडलिनी जागी है या नहीं।’ उन्हें कुंडलिनी से कुछ लेना—देना नहीं है, कोई मतलब नहीं है, वे सिर्फ प्रमाणपत्र चाहते हैं। और कभी—कभी मैं खेल करता हूं और कहता हूं : ‘हां, तुम्हारी कुंडलिनी जाग गई है।’ यह सुनते ही वह आदमी खुशी से नाच उठता है। वह बहुत उदास आया था और जब मैं कहता हूं कि तुम्हारी कुंडलिनी जाग गई है तो वह बच्चे की तरह खुश हो जाता है। वह खुशी से भरकर लौटता है। लेकिन जैसे ही वह कमरे से बाहर जाता कि मैं उसे वापस बुलाता और कहता: ‘मैं तो मजाक कर रहा था। यह असली चीज नहीं है, तुम्हें कुछ नहीं घटा है।’ और वह फिर उदास हो जाता है, उसका मुंह लटक जाता है। उसे किसी जागरण की चिंता नहीं है, उसे यह जानकर अच्छा लगता है कि मेरी कुंडलिनी जाग गई है और मैं दूसरों से श्रेष्ठ हूं।

और इसी तरह अनेक तथाकथित गुरु तुम्हारा शोषण करते हैं, क्योंकि तुम अपने अहंकार की तृप्ति चाहते हो। वे तुम्हें प्रमाणपत्र दे सकते हैं, वे तुम्हें कह सकते हैं. ‘हां,तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए, तुम बुद्ध हो गए।’ और तुम इस बात को इनकार नहीं करोगे। अगर मैं यही बात दस लोगों को कहूं तो नौ इनकार नहीं करेंगे। वे उससे प्रसन्न ही होंगे। वे ऐसे ही गुरु की तलाश में थे जो उन्हें कहे कि तुम बुद्ध हो।

झूठे गुरु दुनिया में हैं; क्योंकि तुम्हें उनकी जरूरत है। कोई प्रामाणिक गुरु तुम्हें ये बातें नहीं कहेगा और न प्रमाणपत्र देगा। प्रमाणपत्र अहंकार की मांग है। प्रमाणपत्र की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम यह अनुभव करते हो तो तुम यह अनुभव करते हो। यदि सारा संसार भी इनकार करे तो उसे इनकार करने दो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर अनुभव सच्चा है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई कहता है कि तुम पहुंच गए हो या कोई कहता है कि नहीं पहुंचे? यह अप्रासंगिक है। लेकिन यह अप्रासंगिक नहीं है; क्योंकि तुम्हारी बुनियादी खोज अहंकार है। तुम मान लेना चाहते हो कि मैंने सब पा लिया।

और बहुत बार ऐसा होता है कि जब तुम संसार में असफल होते हो, जब संसार में तुम्हें दुख मिलता है, जब तुम वहा सफल नहीं होते और तुम्हें लगता है कि मेरी महत्वाकांक्षा अतृप्त रह गई और जिंदगी निकली जा रही है, तो तुम अध्यात्म की तरफ मुड़ते हो। वही महत्वाकांक्षा यहां तृप्ति की मांग कर रही है।

और यहां उसको तृप्त करना आसान है, क्योंकि अध्यात्म में तुम अपने को आसानी से धोखा दे सकते हो, असली संसार में, पदार्थ के संसार में तुम इतनी आसानी से धोखा नहीं दे सकते। अगर तुम गरीब हो तो तुम अमीर होने का दावा कैसे कर सकते हो? और तुम्हारे दावे से कोई धोखे में आने वाला नहीं है। और अगर तुमने अमीर होने की जिद ही ठान ली तो तुम्हारे इर्द —गिर्द का सारा समाज, सारी भीड़ कहेगी कि तुम पागल हो गए हो।

मैं एक आदमी को जानता था जो सोचने लगा कि मैं पंडित जवाहर लाल नेहरू हूं। उसका परिवार, उसके मित्र, उसके परिवार वाले उसे समझाते कि ऐसी मूढ़ता की बातें न करो, अन्यथा लोग तुम्हें पागल कहेंगे। लेकिन उसने कहा. ‘मैं मूढ़ता की बात नहीं कर रहा हूं; मैं पंडित जवाहर लाल नेहरू हूं।’ वह अपने दस्तखत भी जवाहर लाल नेहरू के नाम से करने लगा। वह सर्किट हाउसों को, सरकारी अफसरों को, कलेक्टरों और कमिश्नरों को तार भेजता. ‘मैं आ रहा हूं: पंडित जवाहरलाल नेहरू।’ आखिरकार उसे बांधकर घर में बंद कर दिया गया।

मैं उससे मिलने गया। वह मेरे गांव में ही रहता था। उसने कहा. ‘आप समझदार आदमी हैं; आप समझ सकते हैं। ये मूर्ख, इनमें कोई भी मुझे नहीं समझता है। मैं जवाहर लाल नेहरू हूं।’ मैंने उससे कहा. ‘यही कारण है कि मैं तुमसे मिलने आया हूं। और इन मूर्खों से मत डरो, क्योंकि तुम्हारे जैसे महान लोगों ने सदा ही दुख झेला है।’

उस आदमी ने कहा : ‘बिलकुल ठीक।’ वह बहुत खुश हुआ। उससे कहा : ‘आप अकेले आदमी हैं जो मुझे समझ सकते हैं। महान पुरुषों को दुख झेलना ही पड़ता है।’

बाहर की दुनिया में अगर तुम अपने को धोखा देने की कोशिश करोगे तो पागल समझे जाओगे। लेकिन अध्यात्म में यह बहुत आसान है। तुम कह सकते हो कि मेरी कुंडलिनी जाग गई है। चूंकि तुम्हारी पीठ में थोड़ा दर्द है, तुम्हारी कुंडलिनी जाग गई है। चूंकि तुम्हारा मस्तिष्क थोड़ा असंतुलित मालूम पड़ता है, तुम सोचते हो कि चक्र खुल रहे हैं। तुम्हें निरंतर सिरदर्द रहता है और तुम सोचते हो कि तीसरी आंख खुल रही है। तुम धोखा दे सकते हो, और कोई कुछ न कहेगा, कोई उत्सुक नहीं है। लेकिन नकली गुरु भी हैं जो कहेंगे : ‘हां,ऐसा ही हो रहा है।’ और तुम बहुत खुश हो जाओगे।

अहंकार की यात्रा का मतलब है कि तुम अपने को रूपांतरित करने में उत्सुक नहीं हो, तुम सिर्फ उपलब्धि का दावा करने में उत्सुक हो। और दावा आसान है; तुम उसे सस्ते में खरीद सकते हो। और यह पारस्परिक समझौता है। जब गुरु, तथाकथित गुरु कहता है कि तुम बुद्ध पुरुष हो तो उसने तुम्हें बुद्ध बना दिया और फिर तुम इस गुरु को आदर देते हो। यह पारस्परिक समझौता है। तुम उसे आदर देते हो। और अब तुम उस गुरु को छोड़ भी नहीं सकते, क्योंकि अगर तुम उस गुरु को छोड़ दोगे तो तुम्हारे बुद्धत्व का, तुम्हारी कुंडलिनी का क्या होगा? अब तुम उसे छोड़ नहीं सकते। गुरु तुम पर निर्भर है, क्योंकि तुम उसे आदर—सम्मान देते हो। और तुम उस पर निर्भर रहोगे, क्योंकि कोई दूसरा विश्वास नहीं करेगा कि तुम जाग्रत पुरुष हो। तुम कहीं नहीं जा सकते। यह एक पारस्परिक धोखा है।

अगर तुम प्रामाणिक खोज में हो तो यह बात इतनी सस्ती नहीं है। और इसके लिए तुम्हें किसी गवाह की जरूरत नहीं है। यह खोज कठिन और दुष्कर है। इसमें जन्म—जन्म लग सकते हैं। और यह साधना दुर्धर्ष है, यह लंबी तपस्या है। क्योंकि बहुत कुछ तोड़ना है, बहुत कुछ का अतिक्रमण करना है, एक लंबे अर्से से जमी जंजीरों को तोड़ना है। यह आसान नहीं है। यह बच्चों का खेल नहीं है। क्योंकि जब भी तुम अपने पुराने ढंग—ढांचे बदलने लगते हो तो जो भी पुराना है उसे हटाना पड़ता है। और तुम्हारे उसमें न्यस्त स्वार्थ हैं। तुम्हें बहुत पीड़ा से गुजरना होगा।

जब तुम अपने अहंकार की खोज में भीतर झांकना शुरू करोगे और उसे नहीं पाओगे तो तुम्हारी अपनी उस प्रतिमा का क्या होगा जिसके साथ तुम सदा से रहते आए हो? तुमने सदा सोचा है कि मैं एक बहुत भला आदमी हूं—नैतिक हूं यह हूं वह हूं—उसका क्या होगा? जब तुम पाओगे कि मैं कहीं भी नहीं हूं तो वह भला आदमी कहां होगा? तुम्हारे अहंकार में वह सब सम्मिलित है जो तुमने अपने संबंध में सोचा—विचारा है। उसमें सब कुछ सम्मिलित है। ऐसा नहीं है कि तुम आसानी से छोड़ सकी। यह तुम हो—तुम्हारा समूचा अतीत। जब तुम उसे छोड़ते हो तो तुम ना—कुछ हो जाते हों—मानो तुम पहले कभी थे ही नहीं! पहली बार तुम्हारा जन्म होता है—एक निर्दोष बच्चे की भांति, जिसको कोई अनुभव नहीं है, कोई जानकारी नहीं है, जिसका कोई अतीत नहीं है।

इसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए, बहुत साहस चाहिए। प्रामाणिक खोज दुस्साहस है। अहंकार की यात्रा तो बहुत आसान है। और अहंकार की यात्रा आसानी से सफल भी होती है, क्‍योंकि उसमें वस्‍तुत: कुछ भी सफल नहीं होता है। तुम विश्‍वास करने लगते हो, तुम मानने लगते हो कि मुझे हुआ है। लेकिन तुम सिर्फ समय और शक्ति और जीवन गंवा रहे हो।

अगर तुम किसी सच्चे गुरु के साथ हो तो वह तुम्हें तुम्हारी अहंकार की यात्रा से बाहर निकालने की चेष्टा करेगा। उसे नजर रखनी होगी कि कहीं तुम पागल तो नहीं हो रहे हो, कि कहीं तुम सपनों की भाषा में तो नहीं सोचने लगे हो। वह तुम्हें पीछे खींच लेगा।

और यह बहुत कठिन काम है। क्योंकि जब भी तुम्हें पीछे खींचा जाता है, तुम गुरु से बदला लेते हो। तुम कहते हो, ‘मैं इतना ऊंचा उठ रहा था, उपलब्धि के कगार पर था और वह कहता है कि यह कुछ भी नहीं है, तुम मात्र कल्पना कर रहे हो।’ तुम्हें वह खींच कर धरती पर उतार देता है।

सच्चे गुरु के साथ शिष्य होना कठिन है। शिष्य प्राय: अपने गुरुओं के विरोध में चले जाते हैं। क्योंकि शिष्य अहंकार की यात्रा पर होते हैं और गुरु उन्हें उससे निकालने की चेष्टा कर रहा होता है। और ऐसे शिष्य ही झूठे गुरुओं को पैदा करते हैं। शिष्यों की कोई कामना है, बड़ी कामना है, और जो भी उनकी कामना की पूर्ति करेगा, वह उनका गुरु हो जाएगा। और तुम्हारे अहंकार को सहयोग देना आसान है, क्योंकि तुम उसी की खोज में हो, तुम वही चाहते हो। तुम्हारे अहंकार को मिटाने में सहयोग देना बड़ा कठिन काम है।

तो यह भलीभांति स्मरण रहे : प्रतिदिन, प्रतिपल जांचते रहो कि तुम्हारी खोज अहंकार की यात्रा तो नहीं है। सतत जांचते रहो। यह बहुत सूक्ष्म है। और अहंकार के ढंग बहुत ही सूक्ष्म हैं। वे ऊपर से दिखते भी नहीं हैं। अहंकार तुम्हें भीतर से चलाता रहता है; वह तुम्हें कहीं गहरे अचेतन से नचाता रहता है।

लेकिन अगर तुम सावधान हो तो अहंकार तुम्हें धोखा नहीं दे सकता। अगर तुम सावचेत हो तो तुम उसकी भाषा समझ लोगे, तुम उसका रंग—ढंग जान लोगे। क्योंकि अहंकार सदा अनुभव की खोज करता है। अनुभव अहंकार का मूलमंत्र है। अहंकार सदा अनुभव की खोज में है; वह अनुभव कामवासना का है या आध्यात्मिक, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। अहंकार अनुभव चाहता है, हर चीज का अनुभव चाहता है, कुंडलिनी का अनुभव चाहता है, सातवें शरीर का अनुभव चाहता है। अहंकार निरंतर अनुभवों के पीछे पागल है।

सच्ची खोज किसी अनुभव का लोभ नहीं है। क्योंकि प्रत्येक अनुभव तुम्हें निराश करेगा; करेगा ही। क्योंकि प्रत्येक अनुभव पुनरुक्त होगा, और तुम उससे ऊब जाओगे। फिर तुम किसी नए अनुभव की मांग करोगे।

अहंकार हमेशा नए अनुभवों की खोज में लगा रहता है। समझो कि तुम ध्यान करते हो। और अगर तुम इसीलिए ध्यान करते हो कि उससे तुम्हें नई पुलक मिले, नया रोमांचक अनुभव मिले, क्योंकि तुम्हारा जीवन ऊब से भर गया है, तुम अपने सामान्य दिनचर्या के जीवन से थक गए हो और तुम्हें कोई नया अनुभव चाहिए तो वह तुम्हें मिल सकता है। मनुष्य जिस चीज की खोज करता है वह उसे मिल जाती है। यही तो संताप है कि तुम जो चाहते हो वह तुम्हें मिल जाएगा। और तब तुम पछताओगे। तुम्हें उत्तेजना तो मिल जाएगी, लेकिन फिर क्या? फिर तुम उससे भी थक जाओगे। फिर तुम एल एस डी या कुछ और चीज लेना चाहोगे। फिर तुम उत्तेजना की इस खोज में इस गुरु से उस गुरु के पास जाओगे, इस आश्रम से उस आश्रम का चक्कर लगाआगे।

नए अनुभवों के लोभ का नाम अंहकार है। और प्रत्येक नया अनुभव पुराना हो जाएगा। क्‍योंकि जो भी नया हे वह पुराना हो जाता है। फिर क्‍या?

अध्यात्म वस्तुत: अनुभव की खोज नहीं है। अध्यात्म स्वयं की खोज है, आत्मा की खोज है। अध्यात्म किसी भी अनुभव की खोज नहीं है—आंनद की भी नहीं, समाधि की भी नहीं। क्योंकि अनुभव मात्र बाह्य घटना है, वह चाहे भीतरी भी हो तो भी बाहरी है। अध्यात्म उस सत्य की खोज है जो तुम्हारे भीतर है. मैं जानूं कि मेरा सत्य क्या है। और इस जानने के साथ अनुभव का सारा लोभ समाप्त हो जाता है। और इस जानने के साथ कोई कामना नहीं रहती—नए अनुभव के तलाश की कोई कामना नहीं रहती। आंतरिक सत्य को, प्रामाणिक आत्मा को जानने के साथ सारी खोज खत्म हो जाती है।

तो किसी अनुभव की खोज में मत निकलो। सभी अनुभव मन की चालाकियां हैं, मन के पलायन हैं। ध्यान अनुभव नहीं है; ध्यान बोध है। ध्यान अनुभव नहीं है, ध्यान समस्त अनुभव का ठहर जाना है। यही कारण है कि जिन्होंने भी इस आंतरिक घटना को व्यक्त करना चाहा है—उदाहरण के लिए बुद्ध—वें कहते हैं. ‘मत पूछो कि क्या होता है।’ और अगर तुम जिद्द करोगे तो वे कहेंगे ‘कुछ नहीं घटता है, शून्य घटित होता है।’

अगर मैं तुमसे कहूं कि ध्यान में कुछ नहीं घटित होता है, तो तुम क्या करोगे? तुम ध्यान करना बंद कर दोगे। तुम कहोगे कि अगर कुछ नहीं घटित होने वाला है, तो क्या प्रयोजन है? यह बताता है कि तुम अहंकार की यात्रा पर हो। यदि मैं कहता हूं कि कुछ नहीं होता है और तुम तब भी कहते हो कि ठीक, मैंने बहुत घटनाएं देखी हैं, मैंने अनेक अनुभव जाने हैं और प्रत्येक अनुभव निराशाजनक सिद्ध हुआ है…।

तुम एक अनुभव से गुजरते हो और तब तुम्हें पता चलता है कि यह कुछ भी नहीं था। और तब उसे दोहराने की इच्छा होती है, और फिर यह पुनरुक्ति उबाने वाली हो जाती है। फिर तुम किसी और चीज की खोज करते हो। ऐसे ही तुम जन्मों—जन्मों से चलते रहे हो। ऐसे ही तुम हजारों जन्मों से अनुभव के लिए दौड़ते रहे हो।

तो अगर तुम कहते हो. ‘मैंने अनुभव जाना है; अब मैं कोई अनुभव नहीं चाहता हूं। अब मैं अनुभव करने वाले को ही जानना चाहता हूं।’ तब सारा जोर ही बदल जाता है।

अनुभव तुम्हारे बाहर है, अनुभव करने वाली तुम्हारी आत्मा है। और सच्चे और झूठे अध्यात्म में यही अंतर है। अगर तुम अनुभवों के लिए हो तो अध्यात्म झूठा है, अगर तुम अनुभोक्ता के लिए हो तो अध्यात्म सच्चा है। तब तुम कुंडलिनी की चिंता नहीं करते हो, तब तुम चक्रों की फिक्र नहीं करते हो, तब तुम्हें इन सब चीजों से कुछ लेना—देना नहीं है। वे चीजें घटित होंगी, लेकिन तुम उनकी चिंता नहीं लेते हो, तुम उनमें उत्सुक नहीं हो। तुम उन राहों में नहीं भटकोगे। तुम उस आंतरिक केंद्र की तरफ बढ़ते जाओगे जहां कुछ भी नहीं बचता है, सिर्फ तुम अपने समग्र अकेलेपन में, परम एकांत में बचते हो; केवल चैतन्य, विषय—शून्य चैतन्य बचता है।

विषय अनुभव है। तुम जो कुछ भी अनुभव करते हो वह तुम्हारी चेतना का विषय है। मैं दुख अनुभव करता हूं तो दुख मेरी चेतना का विषय है। मैं सुख अनुभव करता हूं तो सुख विषय है। मैं ऊब अनुभव करता हूं; तो ऊब विषय है। और फिर तुम मौन भी अनुभव कर सकते हो; तो मौन विषय है। और फिर तुम आनंद भी अनुभव कर सकते हो; तो आनंद विषय है। तुम विषय बदलते रह सकते हो। तुम अनंत काल तक विषय बदलते रह सकते हो। लेकिन वह असली चीज नहीं है।

सत्य तो वह है जिसे ये सारे अनुभव घटित होते हैं—जिसे ऊब घटित होती है, जिसे आनंद घटित होता है। आध्यात्मिक खोज यह नहीं है कि क्या घटित होता है; आध्यात्मिक खोज यह है कि किसे घटित होता है। और तब अहंकार के पैदा होने की कोई संभावना नहीं रहती।

आज इतना ही।


Filed under: तंत्र--सूत्र--(भाग--4) ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

सपना यह संसार–(प्रवचन–9)

$
0
0

हम चल पड़े हैं राह को दुशवार देखकर—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक; गुरुवार, 19 जुलाई 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

पीवता नाम सो जुगन जुग जीवता,

नाहिं वो मरै जो नाम पीवै।

काल ब्यापै नहीं अमर वह होयगा,

आदि और अंत वह सदा जीवै।।

संतजन अमर हैं उसी हरिनाम से,

उसी हरिनाम पर चित्त देवै।

दास पलटू कहै सुधारस छोड़िकै,

भया अज्ञान तू छाछ लेवै।।

 

धन्य हैं संत निज धाम सुख छाड़िकै,

आन के काज को देह धारा।

ज्ञान-समसेर लै पैठि संसार में,

सकल संसार का मोह टारा।।

प्रीति सब से करैं मित्र और दुष्ट से,

भली और बुरी दोऊ सीस धारा।

दास पलटू कहै राम नहिं जानहूं,

जानहूं संत, जिन जक्त तारा।।

 

कफन को बांधिकै करै तब आसिकी,

आसिक जब होय तब नाहिं सोवै।

चिता बिनु आगि के जैर दिनराति जब,

जीवत ही जान से सती होवै।।

भूख-पीयास, जग-आस को छोड़करि,

आपनी आपु से आपु खोवै।

दास पलटू कहै इसक-मैदान पर,

देइ जब सीस तब नाहिं रोवै।।

 

दास कहाइकै आस न कीजिए,

आस जो करै सो दास नाहीं।

प्रेम तो एक जो लगा संसार मेंख

भक्ति गई दूरि अब जक्त माहीं।।

चाहिए भक्ति को जक्त से तोरिए,

जोड़िए जक्त से, भक्ति जाही।

दास पलटू कहै एक को छोड़ि दे,

तरवार दुई म्मान इक नाहिं चाही।।

म दह्र के इस वीराने में जो कुछ भी नजारा करते हैं

अश्कों की जबां में कहते हैं, आहों में इशारा करते हैं।

क्या तुझको पता, क्या तुझको खबर, दिन-रात खयालों में अपने

ऐ काकुले-गेती! हम तुझको जिस तरह संवारा करते हैं।

ऐ मौजे-बला! इनको भी जरा दो-चार थपेड़े हल्के से

कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफां का नजारा करते हैं।

क्या जानिए कब ये पाप कटे, क्या जानिए वो दिन कब आए

जिस दिन के लिए हम ऐ जज्बी क्या कुछ न गवारा करते हैं।

इस जीवन में परम धन्यता का एक ही दिन है, जिस दिन हमें पता चलता है कि यह असली जीवन नहीं। असली जीवन और है; इसके पार है। यह तो असली जीवन की केवल छाया, केवल प्रतिबिंब। पहाड़ों में गूंजती हुई एक प्रतिध्वनि, यह असली गीत नहीं। वही दिन जीवन का सबसे धन्यभाग का दिन है, जिस दिन आंख खुलती है और हम पदार्थ से जगते हैं और परमात्मा का होश आता है।

परमात्मा यानी महाजीवन।

इसी जीवन में कहीं छिपा है। पर हम तो परिधि पर ही भटकते रहते हैं और केंद्र तक पहुंच ही नहीं पाते। हम तो व्यर्थ में उलझ जाते हैं, हम तो कौड़ियां ही बटोरते रह जाते हैं—और हीरे-जवाहरात थे यहां! और शाश्वत खजाना था यहां। सनातन साम्राज्य था हमारा और हम भिखमंगे ही बने रह जाते हैं।

संसारी यानी भिखमंगा।

जिसके हाथ में भिक्षापात्र है। और ऐसा भिक्षापात्र जो कभी भरता नहीं। कितना ही भरो, नहीं भरता। कितना ही भरो, खाली का खाली। जितना भरो उतना ज्यादा खाली। एक ऐसा भिक्षापात्र जो बड़ा ही होता चला जाता है। यह सारा संसार भी मिल जाए तो भी तुम्हारा भिक्षापात्र भरेगा नहीं।

इच्छा दुष्पूर है।

बुद्ध ने कहा: तृष्णा दुष्पूर है। ऐसा नहीं है कि तुम कमजोर हो, इसलिए नहीं भरती; ऐसा नहीं है कि तुम्हारी सीमाएं हैं, इसलिए नहीं भरती; तृष्णा का स्वभाव है न भरना। क्योंकि एक तृष्णा भर भी नहीं पाती कि दस को पैदा कर जाती है। तृष्णा ऐसे है जैसे दूर जमीन को छूता हुआ आकाश। कहीं छूता नहीं, लेकिन लगता है: यही कोई दस-पांच कोस के फासले पर छू रहा है। जरा चलूं तो पहुंच जाऊंगा क्षितिज पर। लाख चलो, सारी पृथ्वी का चक्कर काट आओ, कहीं भी क्षितिज मिलेगा नहीं—और चारों तरफ दिखाई पड़ता है। बस दिखाई पड़ता है! आभास है! कहीं पृथ्वी आकाश छूती नहीं। तुम जितने आगे बढ़ते हो, उतना ही क्षितिज और आगे सरक जाता है। तुम्हारे और क्षितिज के बीच फासला हमेशा उतना-का-उतना—इंच-भर कम नहीं, इंच-भर ज्यादा नहीं। ऐसी ही इच्छा है, ऐसी ही तृष्णा है।

तृष्णा एक क्षितिज है जिस तक हम कभी पहुंच नहीं पाते। दौड़ते बहुत हैं, जितना कर सकते हैं करते हैं, अपनी सारी सामर्थ्य लगाते हैं—एक जन्म की नहीं, अनंत-अनंत जन्मों की शक्ति हमने समर्पित की है एक ऐसे व्यर्थ खेल में जो कभी पूरा नहीं होगा।

मैंने सुना है, क्रिसमस के दिन थे और एक अमरीकी जोड़ा अपने बच्चे के लिए खिलौना खरीदने गया था। पति बड़ा गणितज्ञ था। पत्नी भी विश्वविद्यालय में अध्यापक थी। दोनों सुसंस्कृत, सुशिक्षित। भांति-भांति के नए-नए खिलौने दुकान में आए थे। सब खिलौने देखे। फिर दोनों एक खिलौने में उत्सुक हो गए। एक जिग्सा पजल। खंड-खंड टुकड़ों में, जिसे जमाना होता है। उसे दोनों ने बहुत जमाने की कोशिश की। जमे ही न! आखिरी पत्नी ने कहा कि अगर मेरे पति से नहीं जमती, जो कि पृथ्वी के थोड़े-से इने-गिने गणितज्ञों में एक हैं; अगर यह पहेली मेरा पति नहीं जमा सकता, तो मेरे बच्चे क्या जमाएंगे? पहेली तो प्यारी लगती है, मगर बच्चे इसे कैसे जमाएंगे? दुकानदार हंसने लगा, उसने कहा, क्षमा करें, यह जमने के लिए बनाई ही नहीं गई। यह जम ही नहीं सकती, बच्चे या बाप का सवाल नहीं है।

तो दोनों हैरान हुए, उन्होंने कहा कि फिर यह कैसी पहेली जो जम ही नहीं सकती! तो उस दुकानदार ने कहा, जिसने इसे बनाया है, उसने इसे इस खयाल से बनाया है ताकि जो भी इसे जमाए उसे दुनिया का कुछ खयाल आए कि दुनिया भी ऐसी पहेली है जो जमती नहीं। लाख जमाओ, जमती नहीं। जमने को बनी ही नहीं है। जम जाए तो बुद्धों की जरूरत नहीं। जम जाए तो फिर जीसस, कृष्ण और जरथुस्त्र व्यर्थ। जिन्होंने जाना कि यह संसार की पहेली न जमने वाली पहेली है, जिन्हें यह बात इतनी प्रगाढ़ हो गई कि उनका सारा रस इससे छूट गया, इस खिलौने से उनकी नजर हट गई, उन्होंने उसे देखा जो सदा जमा हुआ है।

एक है दुनिया, जो जमाए नहीं जमती और एक है परमात्मा, जो जमा ही हुआ है। जिसे जमाने की कोई जरूरत नहीं है। दुनिया में जो उलझा, भटका, तड़पा, परेशान हुआ। परमात्मा की तरफ जिसकी आंख उठी, पहुंच गया, तत्क्षण पहुंच गया। फिर परम तोष है, संतोष है। फिर जीवन एक आह्लाद है। फिर जीवन न जन्म है न मृत्यु। न इसका आदि है न अंत। फिर यह एक शाश्वत आनंद-यात्रा है।

क्या जानिए कब ये पाप कटे, क्या जानिए वो दिन कब आए

जिस दिन के लिए हम ऐ जज्बी क्या कुछ न गवारा करते हैं।

कितना सहते हैं हम। आदमी कुछ कम नहीं सहता। छोटी जान है और पहाड़ ढोता है। बूंद जैसी सामर्थ्य है और आकाश घसीटता है। आदमी कम नहीं सहता। और इसलिए अगर यह प्रार्थना उठती है कि कब आएगा वह दिन…अपने से नहीं आएगा, इतना याद रखना। अपने-आप आता होता तो अब तक आ गया होता। तुम कुछ नए नहीं हो। सब पुराने यात्री हो। न-मालूम कितनी योनियां और न-मालूम कितनी देहें और न-मालूम कितने रूपों से चलते हो, चलते रहे हो। न-मालूम कितने मार्गों पर भटके हो, पहुंचे नहीं। तुम कुछ नए नहीं हो। तुमने काफी बोझ ढोया है। ढोते-ढोते ढोने की आदत पड़ गई है। ऐसी आदत पड़ गई है कि ढोए ही चले जाते हो। अब तो भूल ही गए हो कि क्यों ढो रहे हो? इतने समय से ढो रहे हो कि याद भी कौन रखे?

एक पति-पत्नी में झगड़ा हो रहा था। जैसे पति-पत्नी के झगड़े होते हैं, शुरू हो गया होगा, अकारण; कारण की कोई जरूरत भी नहीं होती। पड़ोसी सुनते-सुनते परेशान हो गए। आखिर पड़ोसी इकट्ठे हो गए और उन्होंने कहा कि तीन घंटे हो गए, न खुद सोते हो न हमें सोने देते हो, आखिर बात क्या है? तो पति ने कहा कि इसी से पूछ लो, पत्नी से पूछ लो कि बात क्या है। पत्नी ने कहा, मुझे भी क्या अब याद है; तीन घंटे पहले शुरू हुई थी!

दो छोटे बच्चे आपस में बात कर रहे थे। एक बच्चा कह रहा था कि मेरी मां गजब की है। तुम एक शब्द बोले, बस; फिर वह घंटों बकवास करती है। मेरे पिताजी उसके डर के मारने बोलते ही नहीं! बोले कि फंसे। दूसरे बच्चे ने कहा, यह कुछ भी नहीं है। मेरी मां ऐसी है कि तुम बोलो कि न बोलो…बोलना जरूरी ही नहीं है। अब कल ही की बात है, पिताजी चुप बैठे थे तो मेरी मां कहने लगी: तुम चुप क्यों बैठे हो? शर्म नहीं आती! चुप बैठे हो इसका मतलब क्या; इसका प्रयोजन क्या? और झगड़ा शुरू!

इस संसार से तुम इतने लंबे समय से झगड़ रहे हो कि अब तुम्हें याद भी न रहा होगा कि कब और कैसे यह कहानी शुरू हुई थी। बहुत पीछे छूट गए सूत्र। अब तो झगड़े की आदत हो गई है। अब तो झगड़ना जीवन हो गया है। अब तो तुम कहते हो, संघर्ष ही जीवन है। जो भी कहता है संघर्ष ही जीवन है, उसे जीवन का कुछ भी पता नहीं, कि जीवन संघर्ष जरा भी नहीं है। जीवन तो समर्पण है। लेकिन समर्पण तो केवल संत जानते हैं। समर्पित जो है, वही संत है।

मरने की दुआएं क्यों मांगूं, जीने की तमन्ना कौन करे

ये दुनिया हो, या वो दुनिया, अब ख्वाहिशे-दुनिया कौन करे।

 

जब कश्ती साबित-सालिम थी, साहिल की तमन्ना किसको थी

अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे।

 

जो आग लगाई थी तुमने, उसको तो बुझाया अश्कों ने

जो अश्कों ने भड़काई है, उस आग को ठंडा कौन करे।

 

दुनिया ने हमें छोड़ा जज्बी हम छोड़ न दें क्यों दुनिया को

दुनिया को समझ कर बैठे हैं, अब दुनिया दुनिया कौन करे।

 

मरने की दुआएं क्यों मांगूं, जीने की तमन्ना कौन करे

ये दुनिया हो, या वो दुनिया, अब ख्चाहिशे-दुनिया कौन करे।

जो समझेगा, जो जरा जागेगा, जो जरा होशपूर्वक अपने चारों तरफ देखेगा, बाहर और भीतर जरा झांकेगा, वह इस दुनिया से ही मुक्त नहीं हो जाता, वह उस दुनिया से भी मुक्त हो जाता है। यहां ही आकांक्षाएं नहीं गिर जातीं, वह स्वर्ग की आकांक्षा भी नहीं करता। क्योंकि आकांक्षा ही तो संसार है। तुम चाहे धन की आकांक्षा करो और चाहे स्वर्ग की, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता, आकांक्षा संसार है। आकांक्षा की कि संसार शुरू रहा। आकांक्षा न करना अतिक्रमण है। आकांक्षा की व्यर्थता देख लेना, देख लेना कि यह पात्र भरेगा ही नहीं, यह पहेली जमेगी ही नहीं और तत्क्षण एक क्रांति घटित हो जाती है, तत्क्षण तुम मुक्त हो जाते हो। मुक्ति कोई प्रक्रिया नहीं है, एक क्षण में घट गई क्रांति है। जैसे तपती आग में बूंद एक छन्न के साथ हवा हो जाती है, वाष्पीभूत हो जाती है, ऐसे ही होश की आग में एक क्षण में रूपांतरण हो जाता है। क्रांति विकास नहीं है। अध्यात्म क्रांति है। उत्क्रांति नहीं, विकास की प्रक्रिया नहीं, एक छलांग है।

और वह दिन सबसे ज्यादा सौभाग्य का दिन है जब यह दिखाई पड़ जाता है कि हम जिस दौड़ में दौड़ रहे हैं, वह वर्तुलाकार है। जैसे कोल्हू का बैल चलता है, वैसे हम चल रहे हैं। लगता तो कोल्हू के बैल को है कि खूब चल रहा है तो कहीं पहुंचेगा, जरूर पहुंचेगा, जब इतना चल रहा है तो पहुंचेगा; गणित, तर्क, सब यही कहता है, लेकिन कोल्हू का बैल कहीं पहुंचता नहीं, वर्तुल में घूमता रहता है। हम भी वर्तुल में घूम रहे हैं।

संसार शब्द का अर्थ होता है: चक्कर। एक वर्तुल। जैसे गाड़ी का चाक घूमता है, ऐसे ही हम इस संसार के चाक में बंधे घूमते रहते हैं। और पिसते हैं बुरी तरह; क्योंकि चाक में जो बंधा है वह पिसेगा ही। एक क्षण विराम नहीं, एक क्षण विश्राम नहीं, यह गाड़ी चलती ही रहती है। और इस गाड़ी के चाक से बंधे हुए तुम पिसते ही रहते हो।

पश्चिम का बहुत बड़ा जादूगर हूदनी अपने को रेलगाड़ी के चके में बांध लेता था और घंटों तक रेलगाड़ी चलती रहती और वह चके में बंधा घूमता रहता। यह उसके बड़े चमत्कारों में से एक था। हूदनी को किसी ने कहा नहीं कि यह कोई बड़ा चमत्कार नहीं, यह सभी लोग कर रहे हैं। हालांकि तुम्हारी रेलगाड़ी लोहे की है और दिखाई पड़ती है और तुमने कला सीख ली है कि कैसे चके में बंधे हुए अपने को बचाए रहो, लेकिन सारी दुनिया चके से बंधी है। चका अदृश्य है। अदृश्य है, इसलिए और भी दिखाई नहीं पड़ता। और ऐसी व्यवस्था हमने जमा ली है—हमने खुद—कि नींद टूटे ही न, कि होश आए ही न। हम पीए चले जाते हैं बेहोशी पर नई बेहोशियां, अफीम पर अफीम। कभी धन की अफीम, कभी पद की अफीम—बस पीए जाते हैं। कहां है: पद-मद, धन-मद। मदिरा कहा है इनको।

शराब पर तो पाबंदी लगा देते हो—शराब में कुछ खाक नशा है! सांझ पीओगे, सुबह उतर जाएगा! और शराब पर जो पाबंदी लगाते हैं उनको खयाल ही नहीं है कि वे ऐसी शराब पीए हैं जो उतरती ही नहीं—पद-मद! पी है अधिकार की, सत्ता की शराब, जिसका उतना बहुत मुश्किल। लाख धक्के खाओ तो भी नहीं उतरती। लाख चोटें खाओ तो और चढ़ती चली जाती है। उतरना जानती ही नहीं। छोटी-मोटी शराब की तो तुम निंदा करते हो, बड़ी शराबों की प्रशंसा करते हो।

इस दुनिया में सभी शराबी हैं। अलग-अलग शराबें पी हैं उन्होंने और अपने को सुला रखा है। और किसी और ने पिलाई होती तो भी एक बात थी, हम खुद ही पी रहे हैं। हम खुद ही तैयार करते हैं ये विषाक्त औषधियां। हम खुद ही श्रम करते हैं।

एक दार्शनिक एक तेली की दुकान पर तेल लेने गया था। दार्शनिक था, सो उसके मन में एक प्रश्न उठा। तेली तेल तौलने लगा और दार्शनिक ने कहा, ठहरना भाई!…नवद्वीप की कहानी है, बंगाल की। नवद्वीप कभी तार्किकों का सबसे बड़ा केंद्र था। नव्य-न्याय वहां पैदा हुआ। वहां भारत के बड़े-से-बड़े तर्कशास्त्री पैदा हुए। नवद्वीप ने कभी भारत की दार्शनिक प्रतिभा को खूब चमकाया था। यह कहानी नवद्वीप की ही है।…दार्शनिक ने कहा, ठहरना भाई, तेली से कहा! पहले एक सवाल का जवाब दे दो, मुझे बेचैनी रहेगी। तेली ने पूछा, क्या सवाल है? दार्शनिक ने कहा कि तुम तेल तौल रहे हो, तुम्हारी पीठ की तरफ पीछे कोल्हू का बैल चल रहा है, उसको कोई चला नहीं रहा, ऐसा धार्मिक बैल तुम कहां से पा गए? जिसको कोई चलाए न, पीछे फटकारे न, चोट न करे, डंडा लिए न खड़ा रहे और जो चलता रहे! इस जमाने में ऐसा धार्मिक, श्रद्धालु बैल तुम कहां पा गए? तेली हंसने लगा और उसने कहा, न श्रद्धा का सवाल है, न धर्म का। मैंने ऐसा आयोजन किया है। देखते नहीं कि बैल के गले में घंटी बंधी है? घंटी बज रही है, सुनते नहीं? दार्शनिक ने कहा, घंटी बंधी है, देखता भी हूं; घंटी बजती है, सुनता भी हूं; मगर इससे क्या? तेली ने कहा, बात सीधी-साफ है। घंटी जब तक बजती रहती है, मैं समझता हूं बैल चल रहा है। देखने की जरूरत नहीं, घंटी बज रही है, मुझे सुनाई पड़ती रहती है, मैं समझता हूं बैल चल रहा है। जैसे ही घंटी रुकी कि मैं तत्क्षण उठ कर और बैल को हांक देता हूं। बैल को यह कभी पता नहीं चल पाता कि मैं मौजूद नहीं था। देरी नहीं होने देता। इधर घंटी रुकी, इधर मैंने हांका। सो बैल को यही भरोसा है कि मैं पीछे हूं। और देखते नहीं बैल की आंखों पर पट्टियां बांधी हुई है। सौ बैल देख भी नहीं सकता कि कोई पीछे है या नहीं—मुड़ कर देख भी नहीं सकता। मुड़ भी नहीं सकता। बैल सिर्फ आगे ही देख सकता है।

दार्शनिक ने कहा, यह तो मेरी समझ में आया कि आंख पर पट्टी है सो बैल देख नहीं सकता कि तुम क्या कर रहे हो; घंटी बंधी है, सो जैसे ही घंटी रुकती है तुम उसे हांक देते हो, उसे पता नहीं चल पाता कि हांकने वाला पीछे मौजूद था कि नहीं; लेकिन एक सवाल मैं पूछूं? कभी बैल खड़ा होकर सिर हिला कर घंटी नहीं बजाता? उस तेली ने कहा, महाराज, आगे से तेल आप किसी और दुकान से ले लेना। कहीं बैल यह सुन ले तो हमारा यह सारा धंधा मारा गया! मैं अकेला आदमी हूं, मुझे ही तेल बेचना, मुझे ही कोल्हू चलाना, बड़ी गृहस्थी है, महाराज, किसी और जगह से तेल ले लिया करें, आपका आना-जाना यहां ठीक नहीं। सत्संग संक्रामक होता है!

आदमी भी ऐसा ही बंधा है—आंख पर पट्टियां, गले में घंटियां! कोई चला नहीं रहा तुम्हें और तुम चले जा रहे हो। तुम्हें पीछे से कोई नहीं हांक रहा है, तुम्हें आगे से हांका जा रहा है। आगे लटका दिए गए हैं सुंदर-सुंदर सपने…सपना यह संसार! आगे लटके हैं सुंदर-सुंदर सपने, अब मिले, अब मिले; वह रहा क्षितिज, अब पहुंचे, अब पहुंचे! कितने दिन से चल रहे हो, कब सोचोगे कि नहीं पहुंच सकते हो? अब तक नहीं पहुंचे, आगे कैसे पहुंचोगे? अब तक कोई नहीं पहुंचा, अकेले तुम पहुंचोगे? तुम अपवाद हो? धन पाने वाले पा-पा कर मर गए, भीतर की दीनता नहीं मिटी सो नहीं मिटी! पद पाने वाले पा-पाप कर मर गए, भीतर की हीनता नहीं मिटी सो नहीं मिटी! सिकंदर और नेपोलियन, चंगेज और नादिरशाह इस जमीन पर हमने बहुत तरह के पागलों को देखा है—छोटे पागल, बड़े पागल, पागलों की बड़ी कोटियां हैं, सब तरह के पागल मौजूद हैं, यह पृथ्वी बड़ा पागलखाना है, लेकिन कोई नहीं पहुंच रहा है। तुम जरा ठिठको! तुम जरा एक क्षण को रुक जाओ! कभी घड़ी-भर को रोज बैठ कर सोचने लगो जीवन पर; एक विमर्श करो, पुनर्विचार करो—यह मैं क्या कर रहा हूं? मैंने अपनी आंखों पर पट्टियां बांध रखी हैं? तुम कहोगे कि नहीं। तो फिर हिंदू धर्म क्या है? फिर इस्लाम क्या है? फिर ईसाइयत क्या है? फिर जैन धर्म क्या है? तुम जानते तो नहीं। तुमने उधार यह ज्ञान अपनी आंखों पर बांध लिया है। यही तो पट्टियां हैं। इन पट्टियों के कारण तुम्हें भ्रांति है कि तुम जानते हो।

इस दुनिया में सबसे बड़ी भ्रांति जानने की भ्रांति है। क्योंकि जिसे यह भ्रांति है कि मैं जानता हूं, वह सत्य की तलाश नहीं करता। जब मालूम ही है तो तलाश क्यों करें? वह चुपचाप ऐसे ही जिए जाता है, जैसे जीता रहा है। क्यों बदले अपने को? उसके शास्त्रों में तो सब लिखा है। महावीर कह गए, बुद्ध सब कह गए, नानक सब कह गए, मुहम्मद सब कह गए, अब मुझे क्या करना है! मेरा काम इतना है कि सिर पर ढोऊं कुरान को, बाइबिल को, वेद को।

वैसे ही बोझ कम नहीं है, इन शास्त्रों का बोझ और भारी कर देता है। चलना और मुश्किल हो जाता है। वैसे ही घसिटते थे, वैसे ही थके-मांदे थे, छाती पर और पत्थर रख लिए। मगर इससे तुम्हारी आंखें नहीं खुलेंगी। इसके कारण तुम्हारी आंखें बंद हैं।

हिंदू अंधा है, मुसलमान अंधा है, जैन अंधा है। जो भी बिना जाने मानता है, वह अंधा है। जिसने स्वयं अनुभव के बिना कोई बात मान ली है, वह आदमी धोखा दे रहा है, अपने को दे रहा है, सबको दे रहा है। और सबको दो तो ठीक, कम-से-कम अपने को तो धोखा मत दो!

तुम्हारे गले में घंटियां बंधी हैं जो बजती रहती हैं और ऐसी भ्रांति बनाए रखती हैं कि कोई तुम्हें चला रहा है। आशा की घंटियां!

उमर खय्याम ने कहा है कि मैं गया पंडितों के बैठकखानों में, मैंने आचार्यों का सत्संग किया, मैंने तथाकथित मौलवियों के घरों के द्वार खटखटाए, लेकिन जिस दरवाजे से भीतर गया, उसी दरवाजे से वापिस लौटा; जैसे खाली भीतर गया, वैसा ही खाली वापिस लौटा। मैंने बातें तो वहां सत्य की बहुत सुनीं, लेकिन बस बात-ही-बात थी। वे सब ईश्वर के संबंध में चर्चा कर रहे थे, लेकिन ईश्वर का किसी को पता नहीं था। वे मेरे छोटे-छोटे प्रश्नों के भी उतर न दे सके। मेरा एक छोटा-सा प्रश्न जो मैं पूछता रहा हूं सभी से, वह यह कि आदमी इतना दुख झेलता है, इतना विषाद, इतना संताप, इतनी पीड़ा, जीवन उसका एक सिवाय दुर्धर्ष रोग के और कुछ भी नहीं है, फिर भी आदमी जिए क्यों चला जाता है? जीवेषणा इतनी प्रबल क्यों है? वे कोई उत्तर न दे पाए। तब मैंने एक दिन आकाश से पूछा कि हे आकाश, तूने तो न-मालूम कितने लोगों को इस पृथ्वी पर चलते देखा है अंधों की भांति, तुझे तो राज पता होगा! हे चांदत्तारो, तुम्हें तो पता होगा! आदमी किस आशा में चलता जाता है? यह कौन-सी बात है जो इसे चलाए जाती है? तो आकाश ने मुझे कहा कि तेरे प्रश्न में ही उत्तर छिपा है। तू पूछता है: किस आशा में आदमी चला जाता है? उत्तर है कि आशा में आदमी चला जाता है। आशा! आज नहीं मिला, कल मिलेगा। आज तो चूक गया, कोई फिक्र नहीं, थोड़ी और मेहनत, कल मिल जाएगा।

कल कभी आता नहीं। आता भी है तो आज की तरह आता है। और फिर आशा कल पर सरक जाती है। यह घंटी है गले में बंधी, जो बजती रहती है, जो तुम्हें चलाए जाती है।

दो रास्ते हैं चलाने के।

एक सूफी फकीर सुबह-सुबह उठ कर नदी-स्नान को जा रहा था। उसने एक आदमी को देखा—कमजोर, दुबला-पतला आदमी था, बूढ़ा आदमी था, वह अपनी गाय को खींचने की कोशिश कर रहा था। गाय मजबूत, जवान; बूढ़े से खिंच नहीं रही थी। गाय पीछे को खींचती थी, बूढ़ा आगे को खींचता था। उस फकीर ने बूढ़े को कहा, इसे तुम खींच न सकोगे। तुम्हें खींचने की और कोई तरकीब नहीं आती? रस्सी बांध कर ही खींच सकते हो? तो यह तुमसे घर जाने वाली नहीं है। अब तुम बूढ़े हो गए, अब तुम में बल नहीं। उस बूढ़े ने पूछा, क्या और भी कोई तरकीब है? जिंदगी-भर हो गई मुझे गायों को पालते और तो मैंने तरकीब देखी नहीं! उस फकीर ने कहा, मैं तुम्हें तरकीब बताता हूं। वह पास से ही, गया, रास्ते के किनारे से थोड़ी-सी घास उखाड़ लाया और गाय के सामने घास किया और चल पड़ा। बस गाय ने घास देखा कि हो ली पीछे! रस्सी बांधनी ही न पड़ी। फकीर घास को आगे किये चलने लगा और गाय फकीर के पीछे चलने लगी। उसने उस बूढ़े को कहा, तुमने गाय तो जिंदगी भर पाली, मगर एक छोटी-सी बात तुम्हारी समझ में न आई। आशा को लटका दो आगे!

वह बूढ़ा पूछने लगा कि तुम्हें तो मैंने कभी गायों को पालते नहीं देखा, तुमको यह तरकीब कैसे समझ में आई? उसने कहा, आदमियों को देख कर। हर आदमी ऐसे ही चल रहा है, गले में कोई जंजीर बांधने की जरूरत नहीं है, ज्यादा सूक्ष्म जंजीरें हैं जो न तो दिखाई पड़ती हैं, न जिनका बोझ पड़ता, न बांधनी पड़तीं, न ढालनी पड़तीं। घास का गट्ठर आगे कर दो और आदमी चलता चला जाता है। हजार रुपए हैं, दस हजार हो जाएंगे—बस घाव का गट्ठर आगे! डिप्टी मिनिस्टर हैं, मिनिस्टर हो जाएंगे—घास का गट्ठर आगे! बस आदमी को चलाते रहो, घास आगे से आगे हटती जाए और आदमी पीछे-पीछे सरकता चला जाता है।

और एक दिन मौत आती, आशा कभी पूरी नहीं होती। इस जगत में कभी कोई आशा न पूरी हुई है, न हो सकती है। जगत का यह स्वभाव नहीं।

पलटू कहते हैं:

पीवता नाम सो जुगन जुग जीवता,

नाहिं वो मरै जो नाम पीवै।

तुम तो मरोगे। बहुत बार मरे हो और बहुत बार मरोगे। रोज मरते हो—मरते ही हो, जीते कहां हो? जन्म के बाद बस मरना और मरना। धीरे-धीरे मरते-मरते एक दिन पूरा मर जाते हो। सत्तर साल-अस्सी साल लगते हैं मरने में…क्रमशः मरते हो। शनैः-शनैः मरते हो। लेकिन पलटू कहते हैं एक ऐसा राज तुम से कहता हूं कि अगर यह अमृत तुम पी लो तो फिर तुम नहीं मरोगे। और जो नहीं मरेगा, वही जीवन को जान पाएगा। जो मरता है, वह कैसे जीवन को जान पाएगा? मृत्यु को जान पाएगा, जीवन को कैसे जान पाएगा? जीवन की कोई मृत्यु नहीं होती, मृत्यु का कोई जीवन नहीं होता।

पीवता नाम सो जुगन जुग जीवता,

जो उस प्रभु के नाम को पी लेता है, वह फिर सदा जीता है।

नाहिं वो मरै जो नाम पीवै।

जिसने उसके नाम को पीया, उसके स्मरण को पीया, फिर वह नहीं मरता है। फिर उसकी कोई मृत्यु नहीं है। अमृत से जुड़ जाने का नाम ही भक्ति है। और अमृत तुम्हारे चारों तरफ मौजूद है। बाहर भी, भीतर भी। मगर तुम आशा के जाल में भटके चले जा रहे हो। तुम्हें अपनी संपदा का तो होश ही नहीं है। तुम्हारी नजर दूसरों की संपदा पर लगी है—पड़ोसी के पास कितना है, उससे ज्यादा मेरे पास होना चाहिए। पड़ोसी ने मकान बड़ा कर लिया, अब मुझे भी मकान बड़ा करना होगा। तुम अपनी संपदा कब देखोगे जो तुम्हें जन्म के साथ ही मिली है? जो तुम्हारा स्वरूप है।

काल ब्यापै नहीं अमर वह होयगा,

आदि और अंत वह सदा जीवै।।

जिसने एक बार अपने भीतर अनुभव कर लिया परमात्मा की उपस्थिति को—और परमात्मा उपस्थित है सिर्फ अनुभव करना है! जरा टटोलो! मगर यह टटोलना तभी हो सकता है जब बाहर से आशा टूटे।

बुद्ध न कहा है, बहुत हैरान करने वाला वचन, कि धन्य हैं वे जो निराश हैं। तुम तो सुनोगे तो कहोगे, यह क्या बात हुई! निराश और धन्य! धन्य हैं वे जो हताश हैं। यह क्या बात हुई? यह कैसी धन्यता हुई? लेकिन बुद्ध ठीक कह रहे हैं। क्योंकि जो हताश हो गया, जो निराश हो गया, जिसकी अब कोई आशा न रही, कोई पाने की संभावना जिसकी न रही, जिसने सारी तरह से देख लिया कि बाहर भ्रम-ही-भ्रम है, मृगमरीचिका-ही-मृगमरीचिका है, उसे अनिवार्यरूपेण भीतर मुड़ना होता है। मुड़ना होता है कहना ठीक नहीं, मुड़ जाता है। अनिवार्यरूपेण। चेतना जब बाहर नहीं जाती तो कहां जाएगी? अपने में ही बैठ जाती है। जैसे ही बहिर्यात्रा बंद हुई कि तुम अपने में ठहरे, थिर हुए। उसी स्थिरता में स्वाद है अमृत का।

संतजन अमर हैं उसी हरिनाम से,

उसी हरिनाम पर चित्त देवै।

उसी परमात्मा को अनुभव करके संत अमर हो गए हैं। वे कभी मरते नहीं। तुम भी नहीं मरते हो, तुम्हारा भी मरना सिर्फ भ्रांति है। तुम गलत से जुड़े हो, इसलिए तुम्हें मरने का झूठा कष्ट झेलना पड़ता है। और बहिर्यात्रा सिर्फ अहंकार दे सकती है और कुछ भी नहीं।

आत्मा को जानते ही मृत्यु विदा हो जाती है, जैसे दीए के जलते ही अंधकार विलीन हो जाए। जैसे सुबह के होते ही रात समाप्त हो जाए।

संतजन अमर हैं उसी हरिनाम से,

उसी हरिनाम पर चित्त देवै।

इसलिए और चीजों से चित्त को हटाओ! व्यर्थ में अपने को मत भरमाओ! अब थोड़ा उसे देखो जो तुम हो, जो तुम्हारी निजता है। जो तुम्हारे भीतर झरना चैतन्य का बह रहा है, थोड़ी उससे पहचान करो! थोड़ा उसके साथ डूबो, एक होओ, एकरस बनो!

दास पलटू कहै सुधारस छोड़िकै,

भया अज्ञान तू छाछ लेवै।।

कि कैसे तुम पागल हो कि अमृत भीतर मौजूद है, उसको तो पीते नहीं और दूसरों के दरवाजों पर छाछ मांगने के लिए खड़े हो भिक्षापात्र लिए! और इस जगत में मांगे-मांगे भी छाछ भी कहां मिलती है? तुम जिन से मांग रहे हो, वे भी भिखमंगे हैं। तुम जिन से मांग रहे हो, वे तुम से मांग रहे हैं। भिखमंगे भिखमंगों के सामने हाथ फैलाए हैं, झोली फैलााए हैं। यहां सभी तो इच्छाओं के वशीभूत हैं। यहां सभी तो तृष्णा से भरे हैं। यहां सभी तो मांग रहे हैं—और, और। जो मांग रहा है, वही मंगना है। और मजा कैसा है कि तुम्हारे भीतर अमृत की धार बह रही है! मगर तुम पीठ किए हो। उसकी तरफ तुम विमुख हो।

संसार की तरफ आंख और अपनी तरफ पीठ—यह गृहस्थ का लक्षण। और अपनी तरफ आंख, संसार की तरफ पीठ, यह संन्यस्त का लक्षण। न कहीं जाना है, न कहीं भागना है, यह क्रांति तुम्हारे भीतर घटनी है। यह आंख की बदलाहट है। दुकान फिर भी करना, बच्चों को फिर भी पालना, पत्नी की चिंता फिर भी लेना, मगर एक आंख में फर्क हो गया है, एक दृष्टि बदल गई। अब तुम्हारी नजर भीतर रहेगी, रस तुम भीतर का पीओगे, बाहर का जो काम है दिया परमात्मा ने, उसे पूरा करते रहोगे, लेकिन अब वह तुम्हारी दौड़ नहीं है, उसमें तुम्हारी आशा का लगाव नहीं है, उसमें तुम्हारी अभीप्सा नहीं है। हो तो हो, न हो तो न। अब तुम उस संबंध में बिलकुल सम्यकत्व को उपलब्ध रहोगे। हार हो तो ठीक, जीत हो तो ठीक, सब बराबर। खेल है शतरंज का।

मगर हम तो ऐसे मूढ़ हैं कि शतरंज के खेल में भी तलवारें खिंच जाती हैं। जिंदगी के खेल को शतरंज का खेल समझना तो दूर, शतरंज का खेल जिसमें हाथी-घोड़े सब लकड़ी के—या समझो कि अगर बड़े अमीर हुए तो हाथी-दांत के—सब हाथी-घोड़े, झूठे, राजा-वजीर झूठे…

एक अदालत में मुकदमा था दो आदमियों पर। एक-दूसरे का सिर खोल दिया था। पुलिस पकड़ कर ले गई। मजिस्ट्रेट ने कहा कि भई, मैं भी इसी गांव में रहता हूं, तुम्हें भलीभांति जानता हूं, तुम दोनों दोस्त हो; हो क्या गया? ऐसी कौन-सी बात हो गई कि तुम्हारी जिंदगी-भर की दोस्ती टूट गई और तुमने एक-दूसरे का सिर खोल दिया? दोनों सिर झुका कर खड़े हो गए। एक ने दूसरे से कहा: तू ही कह दे। उसने कहा कि नहीं, तू ही कह दे। मजिस्ट्रेट ने कहा, कोई भी कहो मगर कहो तो! उन्होंने कहा, अब क्या कहें, कहने योग्य बात नहीं। मजिस्ट्रेट ने कहा, कहना तो होगा ही।

तो मजबूरी में उन्हें कहना पड़ा।

उन्होंने कहा, मामला यह है—अब आप किसी से मत कहना—हम दोनों नदी के किनारे बैठे गपशप कर रहे थे। रेत में बैठे थे। इसने कहा—इसी ने शुरुआत की—इसने कहा कि मैं एक भैंस खरीद रहा हूं। मैंने कहा, देख भाई, भैंस मत खरीद! अपनी पुरानी दोस्ती है, अगर कभी मेरे खेत में घुस गई तो मुझसे बुरा कोई नहीं। अब भैंस के पीछे क्या जिंदगी-भर की दोस्ती गंवानी है? और भैंस का क्या भरोसा! और मैं बर्दाश्त न कर सकूंगा! मेरे खेत में घुस गई तो मार ही डालूंगा भैंस को! सो तू इस झंझट में पड़ ही मत। भैंस मत खरीद! और यह एकदम जोश में आ गया, तैश में आ गया, इसने कहा कि तूने समझा क्या है? तेरा खेत है तो कोई भैंस ही न खरीदे! भैंस खरीदूंगा। और भैंस भैंस है, अगर कभी खेत में भी घुस गई तो अपनी पुरानी दोस्ती है, इतनी-सी बात में खतम हो जाएगी? और अगर खतम होनी है, तो खतम हो गई। ऐसी दोस्ती का क्या मूल्य कि जरा मेरी भैंस तेरे खेत में घुस गई और दोस्ती खतम! तो आज ही खतम! और भैंस तो भैंस है, अब मैं कोई चौबीस घंटे उसके पीछे नहीं घूमता रहूंगा, कभी घुस भी सकती है। और याद रख, मेरी भैंस को अगर हाथ भी लगाया तो मुझसे बुरा कोई नहीं!

बात बढ़ गई।

तो मैंने वहीं कहा कि ठीक, तो फिर हो जाए! मैंने वहीं रेत पर अपना खेत खींच कर बना दिया कि यह रहा मेरा खेत, हो तेरी हिम्मत तो घुसा दे भैंस! और इसने अपनी अंगुली से एक लकीर खींच कर कहा कि यह घुस गई भैंस, कर ले क्या करता है! अब फिर आगे का सब हाल पूरे गांव को मालूम है! इसलिए हम संकोच करते हैं, कहना भी क्या, न तो…अभी कुछ था ही नहीं, मगर बात बिगड़नी थी सो बिगड़ गई। सिर खुल गए। अब हम पछताते हैं, मगर अब जो हो गया सो हो गया।

तुम्हारी जिंदगी क्या है? परमात्मा के सामने खड़े होओगे तो ऐसे ही झुक कर कहोगे पत्नी से कि अब तू ही कह दे! पत्नी कहेगी कि आप पति परमात्मा हैं, आप ही कहिए। आपके सामने मैं कैसे बोलूं, आप ही बोलिए। तुम्हारे लड़ाई और झगड़े, तुम्हारी मित्रताएं और शत्रुताएं, सब ताश के खेल हैं। और ताशों पर बने हुए राजा और रानी बस मान्यताएं हैं। मगर हम बड़े उपद्रवों में पड़े हुए हैं।

दास पलटू कहै सुधारस छोड़िकै,

भया अज्ञान तू छाछ लेवै।।

यह कैसा अज्ञान तुझे घेर लिया है! यह कैसी मूढ़ता, यह कैसी मूर्च्छा!!

जिनके पास सहारे

उनके पांव हवा छूती है

किस्मत चांदी की जूती है।

 

जिसने नियम कर दिए झीने

उसको छेड़ा नहीं किसी ने

उन पांवों में बड़ी बिवाई

जिनमें मजबूती है।

 

दहले पर बैठे जो नहले

हंसलें और सुबह से पहले

जब तक किरण नहीं आती

अंधियारे की तूती है।

यह जिस जिंदगी को तुम जिंदगी समझ रहे हो—जब तक किरण नहीं आती, अंधियारे की तूती है—इसमें जिंदगी जैसा कुछ भी नहीं है। बस, जब तक किरण नहीं आती, अंधियारे की तूती है।

और किरण कहां से आनी है? किन्हीं दूर सात समंदर पारों से नहीं। किरण तुम्हारे भीतर सोई पड़ी है, उसे जगाना है, उसे झकझोरना है, उसकी नींद तोड़नी है। और एक किरण तुम्हारे भीतर पैदा हो जाए—जरा-सी किरण रोशनी की, अंधेरा जरा-सा टूटने लगे कि तुम चकित होओगे: कैसे तुम जिए, कैसे व्यर्थ तुम जिए! जहां वसंत हो सकता था, वहां केवल पतझड़ ही रहा! जहां फूल खिल सकते थे केवल कांटे लगे!

एक समय था—

जब मुझे लगता था

कि मैं

किसी पहाड़ पर

खड़ा हूं

मन से, तन से तगड़ा हूं।

 

लेकिन अब!

लगता है

मैं किसी पहाड़ के

बोझ से मर रहा हूं

हर रोज पीले पत्ते-सा

झर रहा हूं।

यह अकड़ बस दो दिन की है। यह जिंदगी ही चार दिन की है। इस जिंदगी की लंबाई कितनी है? दो आरजू में कट गए दो इंतजार में…बस चार दिन…उम्रे-दराज मांग कर लाए थे चार दिन। दो मांगने में, आरजू में; और दो इंतजार में, प्रतीक्षा में कि अब आया, अब आया; अब मिला, अब मिला। और एक दिन मौत आती है, मिट्टी मिट्टी में गिर जाती है। और मृत्यु के क्षण में बहुत पछतावा होता है कि इस जिंदगी को सोना बना सकते थे, यह मिट्टी ही रह गई! इस सोने में सुगंध भी ला सकते थे और यह मिट्टी ही रह गई! इस कीचड़ में कमल खिल सकते थे और यह कीचड़ और भी कीचड़ होकर समाप्त हो गई! नहीं ऐसा विषाद तुम्हें पकड़ेगा अगर हरिनाम से अपनी नाव को जोड़ लो।

धन्य हैं संत निज धाम सुख छाड़िकै

आन के काज को देह धारा।

पलटू कहते हैं कि चकित होता हूं मैं—चकित होने की बात है, यह इस जगत का सबसे बड़ा चमत्कार है—कि बुद्धपुरुष अपने अंतर्लोक को छोड़कर तुम्हें समझाने की चेष्टा में संलग्न होते हैं, अपने भीतर के आनंद को छोड़कर तुम्हारे साथ सिर मारते हैं, और तुम से पाते क्या हैं—सिवाय गालियों के, सिवाय अपमान के। तुम्हारे पास और देने को कुछ है भी नहीं। तुम्हारे पास गीता तो हैं ही नहीं, गालियां ही हैं। तुम्हारे भीतर फूल तो खिले ही नहीं, कांटे ही हैं। और जो तुम्हारे पास है, वही तुम दे सकते हो। आखिर बुद्धों को तुमने दिया क्या है? जीसस को तुमने क्या दिया—कांटों का ताज! मंसूर को तुमने क्या दिया? हाथ-पैर काट लिए, जबान काट ली, गर्दन काट ली। सुकरात को तुमने क्या दिया? जहर! तुम खुद जहर पीते हो और अगर तुम्हें कोई जगाने आ जाए, तो तुम बर्दाश्त नहीं करते। इस जगत में बड़े-से-बड़े चमत्कारों में यह चमत्कार है।

धन्य हैं संत निज धाम सुख छाड़िकै,

आन के काज को देह धारा।

कोशिश करते हैं सोए हुए लोगों को जगाने की। उनका काम पूरा हो गया है, चाहें तो इसी क्षण देह से उड़ जाएं—उनका पिंजड़ा खुल गया है, दरवाजा खुला है—मगर रुके हैं। जितनी देर तक बनता है, रुकते हैं। जितनी देर संभव होता है, रुकते हैं, कि शायद दो-चार पंछी उनके साथ उड़ने को राजी हो जाएं। उन्हें तो मानसरोवर का मार्ग मिल गया है लेकिन शायद दो-चार और मानसरोवर के यात्री हो जाएं।

ज्ञान-समसेर लै पैठि संसार में,

सकल संसार का मोह टारा।।

लेकिन तलवार लेकर कूद पड़ते हैं संसार में कि लोगों का मोह काट दें।

जीसस से किसी ने कहा है: आप शांति के अवतार हैं; आप जगत में शांति लेकर अवतरित हुए हैं। जीसस ने कहा कि नहीं, मैं तलवार लेकर आया हूं। ईसाइयों को बड़ी कठिनाई होती है इस वक्तव्य का अर्थ करने में। क्योंकि जीसस और कहें कि नहीं, मैं तलवार लेकर आया हूं! इसकी क्या व्याख्या करें? क्योंकि जीसस तो परम शांति के संदेशवाहक और कहें कि मैं तलवार लेकर आया हूं!

पलटू के वचन में अर्थ है। यह साधारण तलवार की बात नहीं हो रही है। जीसस उस तलवार की बात कर रहे हैं जो तुम्हारे मोह को काट देगी, जो तुम्हारे अंधकार को काट देगी, जो तुम्हारी मूर्च्छा को काट देगी।

ज्ञान-समसेर लै पैठि संसार में,

सकल संसार का मोह टारा।।

प्रीति सब से करैं मित्र और दुष्ट से,

भली औ बुरी दोउ सीस धारा।

संतों के जीवन में भीतर तो अमृत की रसधार बहती, लेकिन बाहर कुछ थोड़े-से लोग जिनमें बोध है, जिनमें होश है, वे तो उनके चरणों में सिर भी रखते हैं, लेकिन अधिक लोग, भीड़-भाड़, वह तो गालियों की बौछार करती है। पागलों की एक जमात है यह पृथ्वी! इसमें अजीब-अजीब पागल हैं! जहां अहंकार है वहां पागलपन है। और जहां अहंकार है वहां सिर्फ भूलें ही हो सकती हैं। वहां सत्य खो जाता है—सत्य तो दूर, वहां साधारण सज्जनता भी खो जाती है।

मुल्ला नसरुद्दीन स्टेशन जाने की जल्दी में था और कोई टैक्सी नहीं मिल रही थी। अंततः उसने सोचा कि किसी कार से ही लिफ्ट मांगी जाए वरना गाड़ी पकड़ना मुश्किल है। सो पहली ही जो कार निकली, वह देश के एक महान नेता की थी; मुल्ला को कुछ पता नहीं, वह तो स्टेशन जाने की जल्दी में था, घंटाघर की घड़ी घंटे बजा रही थी, बस मिनटों में अगर नहीं पहुंचा तो चूक जाएगा और जाना जरूरी है, पहुंचना जरूरी है, सो उसने हाथ दिया, कार रुकी, बिना कुछ पूछे ही मुल्ला झट से पीछे का दरवाजा खोल कर भीतर घुस गया। महान नेता को महान क्रोध आया। महान नेताओं को महान ही चीजें होती हैं। वे गुस्से में बोले: उल्लू के पट्ठे! नीचे उतरो! क्या अपने बाप की गाड़ी समझ रखी है? जानते नहीं मैं कौन हूं? हाथ देकर गाड़ी क्यों रोकी? तुम कौन हो गाड़ी रोकने वाले? मुल्ला नसरुद्दीन ने हाथ जोड़े और कहा: अरे-अरे, क्षमा करें नेता जी! आपकी गाड़ी है, मुझे क्या पता! मैं तो स्टेशन जाने की जल्दी में था, मैं तो समझा कि किसी सज्जन पुरुष की कार होगी।

जहां अहंकार है, वहां सज्जनता खो जाती है। और जहां अहंकार है, वहां विक्षिप्तता का वास हो जाता है। अहंकार एक तरह का पागलपन है।

सरकारी कार्यालय में इंटरव्यू था। चंदूलाल भी उसमें उम्मीदवार थे। प्रश्नकर्ता ने पूछा, चंदूलाल, टाइपिंग किस स्पीड से कर लेते हो? जरा प्रश्नकर्ता और इंटरव्यू लेने वाला शंकित था, चंदूलाल के ढंग कुछ झक्की-से मालूम होते थे। टोपी उलटी लगा रखी थी, कोट की बटनें भी ऊपर-नीचे लगी थीं। चंदूलाल ने कहा, सौ शब्द प्रति मिनट की दर से। अधिकारी को विश्वास तो न आया। यह ढंग और सौ शब्द प्रति मिनट की दर से टाइप करने की क्षमता! बात कुछ जंची तो नहीं, लेकिन उसने कहा, कोई बात नहीं, आओ करके बताओ! चंदूलाल बेधड़क आगे बढ़े। टाइप करने बैठ गए। करीब आधा घंटा बाद अधिकारी आया, देखा कि अभी तक चंदूलाल ने केवल तीन-चार शब्द ही टाइप किए हैं। जवाब में चंदूलाल ने कहा कि माफ करिए, मुझे हिंदी टाइपिंग नहीं, अंग्रेजी टाइपिंग का ज्ञान है। अधिकारी ने उसे अंग्रेजी टाइपिंग की मशीन दी। फिर आधे घंटे बाद आया तो देखा चंदूलाल ने एक शब्द भी टाइप नहीं किया है। क्यों जी, तुम तो कहते थे अंग्रेजी टाइपिंग बहुत तेजी से कर लेते हो अभी तक खाली क्यों बैठे हो? जी हां, चंदूलाल बोले, हिंदी टाइपिंग यद्यपि मैं तेजी से नहीं कर पाता, लेकिन हिंदी पढ़ते बन जाती है। अंग्रेजी में हालत बिलकुल उलटी है। टाइपिंग तो अपोलो यान की गति से करता हूं, मगर अंग्रेजी पढ़ते नहीं बनती।

अहंकार में उलझे हुए आदमी की बड़ी दुविधा है, द्वंद्व है। सब अधूरा-अधूरा है, कुछ पूरा नहीं। सब खंड-खंड है, कुछ अखंड नहीं। ज्ञान बासा है, उधार है, अपना नहीं। अज्ञान अपना है और ज्ञान बासा है, उधार है। और ज्ञान पर भरोसा है। और अपने अज्ञान को तो देखता भी नहीं। देखे तो तोड़ने की चेष्टा हो सकती है। सोचना, जो भी तुम जानते हो जानते हो? और चकित हो जाओगे: जो भी मूल्यवान है, कुछ नहीं जानते। ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य, कर्म-अकर्म—यह सब तुम बकवास की तरह करते हो, इसमें से किसी भी चीज का तुम्हें कोई स्वानुभव नहीं है। मगर लोग ब्रह्मचर्चा कर रहे हैं!

इस देश में तो यह दुर्भाग्य और भी घना हो गया है। इस देश में तो सभी ज्ञानी हैं। यहां अज्ञानी तो कोई है ही नहीं। यह तो पुण्यभूमि है, धर्मभूमि है। जिसने गीता पढ़ ली, जिसने रामायण कंठस्थ कर ली, वह ज्ञानी हो गया। जो उपनिषद के चार वचन दोहरा लेता है, वह सोचता है कि सब आ गया, अब क्या करना है?

इतना सस्ता नहीं है ज्ञान। ऐसे नहीं मिलता ज्ञान। ज्ञान के लिए ध्यान चाहिए।

इसलिए पलटू कहते हैं:

संतजन अमर हैं उसी हरिनाम से,

उसी हरिनाम पर चित्त देवै।

उसी हरिनाम पर चित्त को लगाने का नाम ध्यान है। अपने भीतर उसकी तलाश, खोज, अपने भीतर उसे खोदना है। जैसे मिट्टी को खोदते जाओ तो जलस्रोत मिल जाएंगे, मिल ही जाएंगे देर-अबेर, वैसे ही स्वयं के भीतर खोदते चले जाओ तो हरिनाम मिल जाएगा, हरि की किरण मिल जाएगी। और तब तुम्हारे जीवन में एक क्रांति होती है। तब तुम्हारे पास देने को कुछ होता है। और इतना होता है कि तुम दिए चले जाओ, चुकता नहीं। और ध्यान रखना, तुम दोगे लोगों को अमृत और गालियां पड़ेंगी और पत्थर गिरेंगे तुम्हारे ऊपर और फांसी लगाई जा सकती है। यह लोग करेंगे। जो लोग कर सकते हैं, वह लोग करेंगे। लेकिन इससे संतों को कुछ भेद नहीं पड़ता।

भली और बुरी दोउ सीध धारा।

प्रीति सब से करैं मित्र औ दुष्ट से,

दास पलटू कहै राम नाहिं जानहूं,

यह शब्द बड़ा अदभुत है!

दास पलटू कहै राम नहिं जानहूं,

जानहूं संत, जिन जक्त तारा।।

कहते हैं कि राम को तो मैं सीधा-सीधा नहीं जानता था। कैसे जानता? जाना पहले उन्हें जिन्होंने राम को जान लिया था। संतों को जाना।

इस पृथ्वी पर परमात्मा का और कोई प्रमाण नहीं है। कोई तर्क उसे सिद्ध नहीं कर सकता। तर्क से तो परमात्मा असिद्ध ही होता है। तर्क तो नास्तिक के पक्ष में है, आस्तिक के पक्ष में नहीं है। आस्तिकता तर्क से संबंध भी नहीं रखती। तर्क तो निषेध का व्यापार है और आस्तिकता विधेय है। नहीं कहना हो तो तर्क की जरूरत होती है, हां कहना हो तो तर्क की कोई जरूरत नहीं होती। तर्क परमात्मा को सिद्ध नहीं करता, कोई प्रमाण नहीं देता। जो तर्क से ही जीते हैं वे अधार्मिक ही रह जाते हैं। जो तर्क से ही जीते हैं, उनके जीवन में न कोई गंध होती है, न कोई गीत होता, न कोई संगीत होता। जो तर्क से ही जीते हैं, वे मिट्टी की तरह ही जीते हैं और मिट्टी की तरह ही नष्ट हो जाते हैं। उनके जीवन में वह परम सौभाग्य की घड़ी आ ही नहीं पाती जब महोत्सव फले, जब दीपावली हो, जब हम शाश्वत के साथ होली खेल सकें।

दास पलटू कहै राम नहिं जानहूं,

कहते हैं कि राम को तो मैं जानता भी नहीं, जान भी नहीं सकता था। लेकिन मेरा सौभाग्य यह था कि—

जानहूं संत, जिन जक्त तारा।।

उन संतों को जानने का अवसर मिल गया, जो तलवार लेकर टूट पड़े थे जगत में कि हो जिसकी भी हिम्मत उसका मोह काट दें, उसका भ्रम तोड़ दें; हो जिसमें भी साहस, उसका अहंकार, उसकी गर्दन काट दें। लेकिन जिसने संत को जान लिया, उसके लिए परमात्मा के प्रमाण मिलने शुरू हो जाते हैं। संत के सान्निध्य में प्रमाण है। संत की तरंगों में प्रमाण हैं। संत के आसपास बरसते प्रसाद में प्रमाण हैं। लेकिन इस प्रसाद को, इस तरंग को, इन फूलों की वर्षा को वही झेल पाएगा जो हृदय खोलकर बैठे। अगर तर्क में अकड़े, अहंकार में जकड़े, ज्ञान से भरे, पक्षपात की आंखों पर पट्टियां बांधे, कानों में घंटे लटकाए कि कुछ और सुनाई न पड़े, अगर इस तरह आ कर संत के पास भी बैठे तो नदी के पास भी आए और प्यासे ही लौट जाओगे।

संत के पास तो बैठने की कला है: मिट कर बैठना; खाली होकर बैठना; शून्य होकर बैठना। संत को सुनने का एक और ही ढंग है। स्कूल में, विद्यालय में, विश्वविद्यालय में सुनने का एक ढंग है। संत के पास सुनने का दूसरा ही ढंग है। विश्वविद्यालय में सुनते हो बुद्धि से, संत को सुनना होता है हृदय से। विश्वविद्यालय में सुनते हो विचार से, संत को सुनना होता है प्रेम से। जो अपनी प्रीति की झोली फैला कर संत के पास बैठ जाता है, उसकी झोली भर जाती है।

दास पलटू कहै राम नहिं जानहूं,

जानहूं संत, जिन जक्त तारा।।

 

उम्रे-अबद से खिज्र को बेजार देख कर

खुश हूं फुसूने-नरगिसे-बीमार देख कर।

 

अब जुस्तजू-ए-दोस्त की मंजिल कहीं भी हो

हम चल पड़े हैं राह को दुशवार देख कर।

 

अब इससे क्या गरज कि हरम है कि दैर है

बैठे हैं हम तो साया-ए-दीवार देख कर।

 

राजे फरोगे-आखिरे-शब कुछ न खुल सका

क्यों खुश है शम्अ सुब्ह के आसार देख कर।

 

साजे गजल उठा ही लिया हमने ऐ रविश

उस चश्मे-नीम-बाज का इसरार देख कर।

संतों के पास बैठोगे तो गीत उठने ही लगेंगे। क्योंकि संत के भीतर वह परम प्यारा प्रकट हो रहा है—या कहो, वह परम प्रेयसी प्रकट हो रही है। जो मर्जी हो! सूफी कहते हैं उसे: परम प्रेयसी। पलटू कहेंगे उसे: परम प्यारा। दोनों ठीक हैं। क्योंकि वहां न तो स्त्री बचती है न पुरुष। परमात्मा न तो स्त्री है न पुरुष। पर हम तो बोलेंगे तो कोई-न-कोई शब्द उपयोग करना पड़ेगा।

यह सूफियों का वचन है:

साजे-गजल उठा ही लिया हमने ऐ रविश

उठाना ही पड़ा। आज उठाना पड़ा। वीणा बजानी पड़ी, कि बांसुरी बजानी पड़ी, कि मृदंग पर थाप देनी पड़ी, कि गजल गानी पड़ी।

साजे-गजल उठा ही लिया हमने ऐ रविश

उस चश्मे-नीम-बाज का इसरार देखकर।

उसका इशारा देखा। उस प्रियतमा का इशारा देखा। उस प्रियतमा की आधी आंखें खुलीं, आधी बंद, उन अधखुली आंखों का इशारा समझ में आ गया।

तुमने बुद्ध की प्रतिमा देखी? बुद्ध की प्रतिमा, आधी आंख खुली होती है, आधी बंद। नीम-बाज, अधखुली आंख होती है। क्यों? सदियों से यह सवाल बौद्ध जिज्ञासु पूछते रहे हैं: क्यों? जवाब दिया है जापान के एक झेन फकीर रिंझाई ने। उसने कहा, बुद्ध मध्यमार्गी हैं। इसलिए वे कहते हैं, बाहर भी देखो आधा, आधा भीतर भी देखो। क्योंकि वही बाहर है, वही भीतर है। इसलिए आधी खुली आंख।

महावीर की आंख पूरी बंद है ध्यान में। वे भीतर डुबकी मार रहे हैं, पूरी-पूरी डुबकी मार रहे हैं। तुम्हारी आंख पूरी खुली है। तुम बाहर भटक रहे हो। रिंझाई की बात में सचाई है। बुद्ध ने आधी आंख बंद की, आधी खुली रखी। क्योंकि बाहर भी वही, भीतर भी वही। बुद्ध का सारसूत्र है: मध्य। ठीक बीच में रुक जाना। जैसे तराजू को तौलते वक्त जब कांटा ठीक बीच में रुक जाता है, तो समतुलता आ जाती है, समता आ जाती है, सम्यकत्व आ जाता है। न तो बहुत भीतर झुक जाना है—नहीं तो अंतर्मुखता घेर लेगी; न बहुत बाहर झुक जाना—नहीं तो बहिर्मुखता घेर लेगी। दोनों स्थितियों में आदमी आधा रह जाता है। और परमात्मा को जानना है उसकी समग्रता में।

साजे-गजल उठा ही लिया हमने ए रविश

उस पश्मे-नीम-बाज का इसरार देख कर।

और जब उसका इशारा हो गया हो, तो हम करते भी क्या! फिर हमने गीत छेड़ ही दिया।

अब जुस्तजू-ए-दोस्त की मंजिल कहीं भी हो

अब उस प्यारे की मंजिल कहीं भी हो, कोई फिक्र नहीं, एक बार सदगुरु से मिलना हो गया तो इतना भरोसा आ जाता है कि मंजिल है। और इसके अतिरिक्त भरोसा आता नहीं। सदगुरु की आंखों में झांक कर ही भरोसा आता है। उसके हृदय के साथ जब तुम्हारा हृदय भी धड़कता है—साथ-साथ, लयबद्ध होकर, तब भरोसा आता है। तब श्रद्धा उमगती है।

अब जुस्तजू-ए-दोस्त की मंजिल कहीं भी हो

अब उस प्यारे की मंजिल कहीं भी हो, कोई फिक्र नहीं।

हम चल पड़े हैं राह को दुशवार देखकर।

और यह भी हमें मालूम है कि रास्ता कठिन है, और यह भी हमें मालूम है कि चढ़ाई है और पहाड़ की यात्रा है, मगर कोई फिक्र नहीं, एक बार जिसने सदगुरु की आंख में झांक लिया, उसे यह बात पक्की हो जाती है—

अब जुस्तजू-ए-दोस्त की मंजिल कहीं भी हो

हम चल पड़े हैं राह को दुशवार देखकर।

 

अब इससे क्या गरज कि हरम है कि दैर है

बैठे हैं हम तो साया-ए-दीवार देख कर।

और सच्चा प्रेमी परमात्मा का यह फिक्र नहीं करता कि मस्जिद है कि मंदिर है, कि गुरुद्वारा है कि गिरजा है। इसकी भी फिक्र नहीं करता कि सदगुरु हिंदू है कि मुसलमान है, कि ईसाई।

अब इससे क्या गरज कि हरम है कि दैर है

बैठे हैं हम तो साया-ए-दीवार देख कर।

अब मंदिर की दीवाल हो कि मस्जिद की, क्या फर्क पड़ता है? हमें तो छाया मिल रही है। हम तो छाया देख कर बैठ गए हैं। मस्जिद की दीवाल भी छाया दे देती है, मंदिर की दीवाल भी छाया दे देती है। और धूप से जो तड़प रहा है, उसे छाया चाहिए। वह यह फिक्र नहीं करता कि मंदिर, मस्जिद…।

राजे-फरोगे-आखिरे-शब कुछ न खुल सका

क्यों खुश है शम्अ सुबह के आसार देखकर।

बड़ा प्यारा वचन है! कि इस बात का राज पहले नहीं खुल सका था कि सुबह होती देख कर शमा खुश क्यों है! शमा को खुश नहीं होना चाहिए। क्योंकि सुबह होते ही शाम बुझा दी जाएगी। शमा को तो खुश होना चाहिए रात देख कर क्योंकि रात में शमा जलेगी, दिया जलेगा। सुबह हुई कि दीया बुझा। सुबह को देख कर शमा इतनी खुश क्यों है? यह राज तो खुलता है जब तुम किसी संत के साथ जुड़ोगे। तब तुम जानोगे कि अहंकार की शमा बुझ जाए तो आत्मा की शमा प्रज्वलित होती है। तब तुम जानोगे कि संत क्यों अपने को मिटा देने को उत्सुक है? क्योंकि उसे एक रहस्य पता चल गया है कि मिटने में ही असली होना है। खोने में ही असली पाना है। जीसस का वचन है: जो बचाएंगे अपने को, खो जाएंगे। और जो अपने को खो देंगे, वे बचा लिए गए।

कफन को बांधिकै करै तब आसिकी,

पलटू कहते हैं, कफन बांध लेना सिर में, तब चलना इस प्रेम के रास्ते पर।

कफन को बांधिकै करै तब आसिकी,

आसिक जब होय तब नाहिं सोवै।

ध्यान रहे, रास्ता दुश्वार है, कठिन है। लेकिन अगर कभी किसी सदगुरु का जरा-सा स्वाद लग गया तो चुनौती मिल जाती है। तब असंभव संभव मालूम होने लगता है। तब रात कितनी ही अंधेरी हो, सुबह होकर रहेगी, इसकी ऐसी आस्था उमगती है कि चल पड़ता है आदमी; कितने ही पहाड़ लांघने हों, कितने ही समंदर लांघने हों, सब की तैयारी दिखा देता है। पाना ही होगा। एक बार बूंद भी मिल जाए स्वाद की, जरा-सा बूंद का स्वाद कि फिर रुका नहीं जा सकता। फिर अपरिहार्य है यात्रा।

कफन को बांधिकै करै तब आसिकी,

आसिक जब होय तब नाहिं सोवै।

और प्रेम की शर्त यही है कि फिर दुबारा न सोए। फिर दोबारा संसार में मूर्च्छित न हो।

नश्या-ए-मय के सिवा कितने नशे और भी हैं,

कुछ बहाने मेरे जीने के लिए और भी हैं।

 

ठंडी-ठंडी-सी मगर गम से है भरपूर हवा,

कई बादल मेरी आंखों से परे और भी हैं।

 

इश्के-रुसवा, तेरे हर दागे-फरोजां की कसम,

मेरे सीने में कई जख्म हरे और भी हैं।

 

हिज्र तो हिज्र था, अब देखिए क्या होता है,

उसकी कुर्बत में कई दर्द नए और भी हैं।

 

रात तो खैर किसी तरह से कट जाएगी,

रात के बाद कई कोस कड़े और भी हैं।

 

वादी-ए-गम में मुझे देर तक आवाज न दे

वादी-ए-गम के सिवा मेरे पते और भी हैं।

यात्रा तो कठिन है। यात्रा तो लंबी है। यात्रा तो करीब-करीब असंभव है। लेकिन असंभव की चुनौती न लोगे तो तुम्हारे भीतर आत्मा भी पैदा न होगी। असंभव की चुनौती के स्वीकार में ही आत्मा का जन्म है। जितनी बड़ी यात्रा पर तुम निकलते हो, उतने ही बड़े तुम हो जाते हो। जितने विराट की तुम तलाश करते हो, उतने ही विराट तुम हो जाते हो। क्षुद्र से दोस्ती न बांधना, नहीं तो क्षुद्र हो जाओगे।

दास पलटू कहै राम नहिं जानहूं,

जानहूं संत, जिन जक्त तारा।।

कुछ मैत्री बनाओ किसी सदगुरु से। उसके हाथ की तलवार देख कर भाग मत खड़े होना। काटेगा तुम्हें, जरूर काटेगा, मारेगा तुम्हें, क्योंकि तुम जैसे हो अभी झूठे हो। तुम्हें मिटाएगा, क्योंकि तभी तुम्हारा वास्तविक जन्म हो सकता है, तुम द्विज हो सकते हो। और तुम्हारा दूसरा जन्म होना चाहिए—देह का नहीं, आत्मा का।

हिज्र तो हिज्र था, अब देखिए क्या होता है,

उसकी कुर्बत में कई दर्द नए और भी हैं।

संसार के दुख हैं, लेकिन जब तुम परमात्मा के समीप आने लगोगे तो तुम्हें नई पीड़ाओं का अनुभव होगा—पीड़ाएं जो बड़ी मीठी हैं; पीड़ाएं जो बड़ी मधुर हैं; पीड़ाएं जो आरपार भेद जाती हैं, छेद जाती हैं।

हिज्र तो हिज्र था, अब देखिए क्या होता है,

उसकी कुर्बत में कई दर्द नए और भी हैं।

 

रात तो खैर किसी तरह से कट जाएगी,

रात के बाद कई कोस कड़े और भी हैं।

धर्म कायरों के लिए नहीं है, साहसियों के लिए है, दुस्साहसियों के लिए है। कायरों ने तो अपने मतलब के धर्म बना लिए हैं। यज्ञ कर लिया, हवन कर लिया, घंटी बजा ली पत्थर की मूर्ति के सामने और सोचा कि धर्म हो गया। कि चर्च हो आए हर रविवार को कि सोचा कि धर्म हो गया। कि जाकर दो फूल चढ़ा दिए और सोचा कि धर्म हो गया। अपने को कब चढ़ाओगे? जब तक अपने को न चढ़ाओगे तब तक धर्म नहीं होगा।

कबीर कहते हैं: जो घर बारै आपना, चलै हमारे साथ। सब जला कर राख करने की तैयारी हो, वह हमारे साथ आए।

मंदिरों और मस्जिदों में तम कायरों को झुका देखोगे। सदगुरुओं के पास दुस्साहसी इकट्ठे होते हैं। क्योंकि वहां चुनौती है। और ऐसी चुनौती, जिसे स्वीकार करना बस थोड़े-से लोगों की सामर्थ्य में है। मगर यही थोड़े-से लोग इस जमीन के नमक हैं। इनके कारण ही इस जमीन में थोड़ा-सा रस है, स्वाद है। इन्हीं के कारण इस जमीन में थोड़े-से दीए जलते हैं, थोड़ी रोशनी होती है। इन्हीं के कारण मनुष्य मनुष्य है। ये थोड़े-से आदमी खो जाएं कि फिर आदमी और पशु में कोई भेद नहीं रह जाता। ये थोड़े-से बुद्ध, कृष्ण क्राइस्ट; ये थोड़े-से मुहम्मद, महावीर, मूसा, बस इन थोड़े-से लोगों के कारण तुम आदमी हो। तुम्हारे कारण नहीं। तुम्हारे कारण तो तुम पशु ही हो। इन थोड़े-से लोगों ने खींचा है, खूब खींचा है; तुम्हें जितनी ऊंचाइयों तक ले जा सकते थे, ले गए हैं। तुम गिर-गिर जाओ, यह तुम्हारा कसूर; तुम उठो ही न, यह तुम्हारा कसूर; मगर जगाने वालों को तुम दोष न दे सकोगे। उन्होंने पहाड़ों की चोटियों पर खड़े होकर आवाज दी है। उन्होंने आवाज देने के लिए हर कीमत चुकाई है। उन्होंने तुम्हारी गालियां, कांटे, पत्थर फांसियां, जहर, सब सहे हैं।

कफन को बांधिकै करै तब आसिकी,

आसिक जब होय तब नाहिं सोवै।

चिता बिनु आगि के जरै दिनराति जब,

और फिर एक ऐसी आग लगती है भीतर कि चिता कहीं दिखाई नहीं पड़ती, आग कहीं दिखाई नहीं पड़ती और फिर भी भक्त जलता है। मगर यह जलना सौभाग्य है। क्योंकि इसमें केवल कचरा जलता है, सोना तो निखर आता है।

जीवत ही जान से सती होवै।।

मृत्यु तो नहीं होती, मगर जीते-जी भक्त सती हो जाता है। क्योंकि परमात्मा से उसका जो प्रेम है, अब उसके सिवाय उसका कोई और प्रेम नहीं। उसका सारा प्रेम संग्रहीभूत होकर परमात्मा की तरफ प्रवाहित होता है। वह बहुत धाराओं में नहीं बहता, वह बहुत दिशाओं में नहीं बहता। उसका प्रेम एकाग्र हो जाता है।

जीवत ही जान से सती होवै।।

और भीतर धू-धू कर कुछ जलता है। आग तो नहीं है—आग से भी बड़ी आग: धुआं भी नहीं उठता, चिता भी नहीं और फिर भी भक्त जल जाता है और राख हो जाता है। मगर जो जल जाता है वह झूठ था, मिथ्या था। फिर जो बच रहता है, वही सोना है—निखरा हुआ, कुंदन!

भूख-पीयास, जग-आस को छोड़करि,

आपनी आपु से आपु खोवै।

सब फिक्र भूल जाती है उसे। भूख याद नहीं रहती, प्यास याद नहीं रहती, जग की आस याद नहीं रहती। उसे तो बस एक ही धुन, श्वास-श्वास में एक ही धुन, एक ही मस्ती, एक ही नशा। बात करता है तो वही, चुप रहता है तो वही। कबीर ने कहा है: बोलता हूं, तो हरिनाम; खाता हूं, तो हरिनाम; सोता हूं, तो हरिनाम; ओढ़ता हूं, तो हरिनाम। उसका उठना, बैठना, जागना, सोना, सब हरि में डूब जाते हैं।

आपनी आपु से आपु खोवै।

वह अपने ही भीतर डूबता, उतरता, गहराइयों में विलीन होता जाता है। जैसे नमक की डली को कोई सागर में डाल दे। जैसे-जैसे गहरे जाने लगे, वैसे-वैसे खोने लगे। और एक घड़ी आएगी, नमक की डली खो जाएगी, सागर के साथ एक हो जाएगी।

दास पलटू कहै इसक-मैदान पर,

देइ जब सीस तब नाहिं रोवै।।

और तुम तब तक रोते ही रहोगे, जब तक तुमने एक हिम्मत न जुटाई…दास पलटू कहै इसक-मैदान पर…प्रेम की कसौटी पर जब तक तुम अपनी गर्दन न चढ़ा दोगे, तुम्हारी जिंदगी रुदन है, आंसू-ही-आंसू है; तुम्हारी जिंदगी में आनंद नहीं हो सकता। आनंद सिर्फ उनके लिए है—

देइ जब सीस तब नाहिं रोवै।।

फिर कोई दुख नहीं। फिर सच्चिदानंद है।

युवावस्था में, यौवन के प्रेम में कभी-कभी तुमने ऐसी आग को थोड़ा-सा जाना है—जो आग नहीं, फिर भी जलाती है। भक्त उसी आग को बड़े विराट रूप में पाता है। जैसे जंगल-का-जंगल आग लग जाए। प्रेम में, साधारण सांसारिक प्रेम में जो आग है, वह तो यूं समझो कि छोटी-सी चिनगारी—बुझी-बुझी, राख दबी—मगर थोड़ा अनुभव समझने में सुविधा होती है। जिन्होंने प्रेम का कोई अनुभव ही नहीं किया, उन्हें भक्ति को समझना बहुत कठिन हो जाता है।

यौवन सुरा जगी है

मेरे भरे भरे मन में यह कैसी आग लगी है

अंतर की रस तरल तरंगिन क्या आंधी पानी बन आई

या आंधी पानी के स्वर में नए प्रणय ने बीन बजाई

दो तूफानों में विवेक मति ठिठकी ठगी ठगी है

 

शाख पात को मत्त प्रभंजन ज्यों झकझोर रहा है

मन के बीच मदन शर बैठा कसक मरोर रहा है

लहरों चढ़ी चेतना चंचल फिरती भगी भगी है

 

यह उन्मद मौजों का मेला मन क्यों बांध सकेगा

इस अस्थिरता में क्यों अपनी तरनी साध सकेगा

रूप चाहती हुई भावना रस में पगी पगी है

 

मेरे भरे भरे मन में यह कैसी आग लगी है

दो तूफानों में विवेक मति ठिठकी ठगी ठगी है

लहरों चढ़ी चेतना चंचल फिरती भगी भगी है

रूप चाहती हुई भावना रस में पगी पगी है

यह तो साधारण प्रेम का वर्णन है। मगर इसको ही अनंत गुना कर लो, अनंत अनंत गुना कर लो…महावीर ने कहा है: अनंतानंत; अनंत को भी अनंत से गुणित कर दो…तब तुम जान पाओगे जो आग ध्यानी को या भक्त को लगती है। एक क्षण में सारा संसार भस्मीभूत हो जाता है। फिर जो शेष रह जाता है, वही हरि, वही राम। फिर उसे तुम जो नाम देना चाहो—निर्वाण, मोक्ष, कैवल्य, आत्मा, परमात्मा; सब नाम का भेद है।

दास कहाइकै आस न कीजिए,

आस जो करै सो दास नाहीं।

और जब एक बार किसी गुरु के चरणों में दास हो जाओ, एक बार जब किसी गुरु के चरणों में कह दो—बुद्धं शरणं गच्छामि; संघं शरणं गच्छामि; धम्मं शरणं गच्छामि; तो फिर एक बात याद रखना: फिर अपनी कोई आस मत रखना।

दास कहाइकै आस न कीजिए,

आस जो करै सो दास नाहीं।

छोटे-छोटे शब्दों में गहरे सत्य भर दिए पलटू ने। सीधे-सादे आदमी हैं, लेकिन पते की बात कह दी। समझें, उनके लिए इशारे काफी हैं।

आस जो करै सो दास नाहीं।

अगर गुरु के पास बैठकर भी आशा जारी रखी कि यह मिल जाए, वह मिल जाए; सिद्धि मिल जो, ऋद्धि मिल जाए, तो भटकते रहोगे। तो गुरु के पास भी बैठे और बैठे भी नहीं। तुम्हारे और गुरु के बीच हजारों कोस का फासला रहा। जितनी आस उतना फासला। अगर आस बिलकुल नहीं तो फासला बिलकुल नहीं। तब गुरु धड़केगा तुम्हारे हृदय में और गुरु बोलेगा तुम्हारी वाणी में। और तुम्हारी श्वासें उसकी श्वासें होंगी। और तुम उसकी आंखों से देख सकोगे। और यही अनुभव सत्संग है: जब गुरु की आंखों से देख सको, उसके हाथों से छू सको, उसके हृदय से अनुभव कर सको। जब सब फासले गिर जाएं।

प्रेम तो एक जो लगा संसार में,

भक्ति गई दूरि अब जक्त माहीं।।

एक तो प्रेम है जो संसार में लगा हुआ है, बाहर, भटक रहा है। जब प्रेम संसार में लगा होता है—धन में, पद में, प्रतिष्ठा में, तब भक्ति बहुत दूर चली जाती है। तब तुम्हें भक्ति का कुछ पता नहीं रह जाता।

प्रेम तो एक लगा संसार में,

भक्ति गइ दूरि अब जक्त माहीं।।

चाहिए भक्ति को जक्त से तोरिए,

जोड़िए जक्त से, भक्ति जाही।

ध्यान रखो, प्रेम को वस्तुओं से जोड़ दो तो संसार बन जाता है और प्रेम को स्वयं से जोड़ लो तो संसार विलीन हो जाता है। प्रेम को संसार से जोड़ने का अर्थ: वस्तुओं से आशा रखो सुख की, पर से आशा रखो सुख की; तो तुम भगवान से टूट जाते हो। और जिस दिन तुम भगवान से जुड़े, उस दिन तुम वस्तुओं से टूट जाते हो। ये दोनों बातें साथ-साथ नहीं हो सकती हैं।

दास पलटू कहै एक को छोड़िदे,

तरवार दुई म्यान इक नाहिं चाही।।

एक म्यान में दो तलवारें नहीं चाहिए। दो में से एक छोड़ देना होगा। वस्तुओं की महत्वाकांक्षा—और मिले धन, और मिले पद, और मिले प्रतिष्ठा, अगर इसमें तुम खोए हो तो तुम परमात्मा को न जान सकोगे। और अगर तुम परमात्मा को जानना चाहते हो तो इन क्षुद्रताओं से अपना मोह भंग करना होगा। जिसको सपने देखने हैं, वह जाग नहीं सकता। और जिसको जागना है, उसे सपनों से मोह छोड़ना होगा।

लेकिन हमारे मोह हैं। बड़े अजीब मोह हैं। मरते-मरते तक नहीं छूटते।

एक नेता जी अपने जीवन की आखिरी सांसें गिन रहे थे। यह पहला ही अवसर नहीं था, वे महापुरुष पहले भी कई बार मर चुके थे, मगर बार-बार जिंदा हो गए थे। आखिर नेता लोग इतनी आसानी से मर भी तो नहीं जाते। इस बार जब वे मरने लगे तो बोले, मेरे मरने के बाद इस बात का खयाल रखा जाए कि अमुक संगीतकार का आर्केस्ट्रा ही शोक-धुन बजाए।…मर रहे हैं! मरने के बाद भी कौन-सा आर्केस्ट्रा शोक-धुन बजाएगा, इसका इंतजाम किए जा रहे हैं! नेता जी के वकील ने तुरंत इस बात को एक कागज पर नोट करते हुए पूछा, कृपया यह भी बताने की कृपा करें कि अमुक संगीतकार की कौन-सी धुन आप सुनना पसंद करेंगे?

मर कर भी लोग संसार को छोड़ते नहीं। इसीलिए तो दुबारा आना पड़ता है। जीते-जी भी पकड़े रहते हैं। मरकर भी पकड़े रहते हैं। मौत भी आ जाती है तो भी तुम्हारी मुट्ठी नहीं खुलती। मौत भी आती रहती है फिर भी तुम जागते नहीं। इतनी चोट-पर-चोट खोते हो, मगर होश नहीं आता। संसार से अगर इतना प्रेम लगा रखा है, तो फिर भक्ति बहुत दूर।

इस सारे प्रेम को इकट्ठा करो। इस सारे प्रेम को इकट्ठी एक धारा बनाओ। और इस सारे प्रेम को परमात्मा की तरफ बहाओ। उसके ही सागर की तरफ बहने दो यह गंगा, इसको हजार-हजार नहरों में मत तोड़ो! अन्यथा सागर तक यह न पहुंच पाएगी। और सागर तक पहुंचे बिना न शांति है, न सुख है।

मिल जाए मय तो सजदा-ए-शुक्राना चाहिए

पीते ही एक लग्जिशे-मस्ताना चाहिए।

 

हां, एहतरामे-मसजिद-को-बुतखाना चाहिए

मजहब की पूछिए, तो जुदागाना चाहिए।

 

रिंदाने-मय-परस्त, सियह-मस्त ही सही

ए शेख! गुफ्तगू तो शरीफाना चाहिए।

 

दीवानगी है, अक्ल नहीं है कि खाम हो

दीवाना हर लिहाज से दीवाना चाहिए।

 

इस जिंदगी को चाहिए सामाने जिंदगी

कुछ भी न हो तो शीशा-ओ-पैमाना चाहिए।

 

दीवानगी है, अक्ल नहीं है कि खाम हो…

यह जो भक्ति है, दीवानगी है, यह कोई अक्ल नहीं है कि कच्ची चीज हो। अक्ल तो हमेशा कच्ची होती है। अक्ल कभी पक्की होती ही नहीं। अक्ल तो हमेशा बचकानी होती है। कितना ही बड़ा पंडित हो, अक्ल तो बचकानी ही होती है। अक्ल प्रौढ़ता जानती नहीं। प्रौढ़ता तो प्रेम की होती है। परिपक्वता तो प्रेम की होती है। प्रेम जिन्होंने नहीं जाना, वे कच्चे ही रह जाते हैं। और प्रेम एक मस्ती है, एक दीवानापन है।

दीवानगी है, अक्ल नहीं है कि खाम हो

दीवाना हर लिहाज से दीवाना चाहिए।

और जो प्रेम के इस रास्ते पर चला है, उसको शर्तें नहीं लगानी होंगी। बेशर्त दीवाना होना होगा। परमात्मा को पीने चले हो तो बेशर्त पीओ। घूंट-घूंट क्या पीना, पूरा सागर पीओ। लेकिन सागर पीना हो तो भीतर शून्य चाहिए। जो भीतर शून्य हैं, उनमें ही सागर समा सकता है। जो शून्य हैं, उनमें ही पूर्ण समा सकता है। शून्य होना पात्रता है। शून्य होना निमंत्रण है पूर्ण का। इसलिए तलवार सदगुरु की चाहिए कि काट दे तुम्हारी गर्दन, मिटा दे तुम्हें!

दीवानगी है, अक्ल नहीं है कि खाम हो

दीवाना हर लिहाज से दीवाना चाहिए

मिल जाए मय तो सजदा-ए-शुक्राना चाहिए…

और अगर कभी किसी सदगुरु के पास ऐसी शराब मिल जाए, ऐसी दीवानगी मिल जाए, तो फिर धन्यवाद में झुक जाना…सजदा-ए-शुक्राना चाहिए…तो फिर भगवान के प्रति धन्यवाद में झुक जाना।

मिल जाए मय तो सजदा-ए-शुक्राना चाहिए

पीते ही एक लग्जिशे-मस्ताना चाहिए।

और जैसे ही सदगुरु को पीओ कि फिर तुम्हारे पैर डोलने लगने चाहिए। फिर कहीं रखो पैर, कहीं पड़ें पैर!

दीवानगी है अक्ल नहीं है कि खाम हो

दीवाना हर लिहाज से दीवाना चाहिए।

ये पाठ परम दीवानगी के हैं। ये पाठ परम मस्ती के हैं। कायरों के लिए नहीं, साहसियों के लिए, दुस्साहसियों के लिए। जुटाओ साहस! क्योंकि जो साहस जुटाता है, वही उस परम धन्यता को उपलब्ध होता है। उस परम धन्यता को, जिसके बिना जीवन सिर्फ राख है! उस परम धन्यता को, जिसको पाकर सब पा लिया जाता है। जीसस ने कहा है: पहले खोज लो परमात्मा को, शेष सब अपने-से आ जाएगा। जिसे परमात्मा मिल गया, उसे सब मिल गया। तुम सब पा लो और अगर परमात्मा को न पाया, तो याद रखना, बार-बार कहता हूं याद रखना, मरते वक्त बहुत पछताओगे! लेकिन फिर पछताए होत का, जब चिड़ियां चुग गईं खेत!

आज इतना ही।


Filed under: सपना यह संसार--(पलटू वाणी) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–10)

$
0
0

ओशो के अंग्रेजी में बोलने की शुरूआत—(अध्‍याय—दसवां)

क बार ओशो कश्‍मीर में थे। वहां पर भावातीत ध्‍यान करवाने श्री महेश योगी का शिविर भी चल रहा था। उनके बहुत सारे विदेशी शिष्‍य वहां आए हुए थे। ओशो को उनके बीच उद्बोधन के लिए बुलाया गया।वहां पर ओशो हिंदी में ही बोले। हिंदी उन मित्रों को समझ नहीं आई। तब ओशो को लगा कि विदेशियों के बीच—बीच में अंग्रेजी में भी बोलना चाहिए। वहां से लौट कर माऊंट आबू में शिविर था, तो वहां पर तीस मिनट वे हिंदी में बोलते और पंद्रह मिनट अंग्रेजी में बोलने लगे। वहां यह होने लगा कि जब हिंदी का प्रवचन पूरा हो जाता तो भारतीय मित्र उठकर जाने लगते। तब एक दिन ओशो ने डांटते हुए कहां, ‘जब मैं हिंदी में बोलता हूं तो विदेशी मित्र बैठे रहते है तो आप क्‍यों उठकर जाते है, बैठ जाएं।’

इस बीच एक दिन मैं और मेरे दोस्‍त चैनानी मुंबई गये हुई थे। ओशो से मिलकर जब सीढियां उतर रहे थे तो सीढ़ीयां उतरते—उतरते ओशो ने पूछा ‘हमारी अंग्रेजी कैसी लगी?’ मेरे मित्र नैनानी ने कहा कि ‘अंग्रेजी तो आपकी अच्‍छी है लेकिन आपका प्रनांउशिएशन ठीक नहीं है। कई शब्‍दों को आप अजीब ढंग से बोलते है, जैसे कि शोल्‍डर को आप शोल्‍जर कहते है…..।’ इसके बाद ओशो सणखानंद हॉल में बोलने बाले थे। हम भी वहां गये हुए थे। ओशो अंग्रेजी में बोल रहे थे। बात को निकालते—निकालते शोल्‍डर पर लाए और सही बोल कर हमारी तरफ देख कर आँख से इशारे से पूछा ठीक है? इस तरह ओशो ने अंग्रेजीमें बोलनाशुरू किया और धीरे—धीरे अंग्रेजी में बोलने लगे। वे बाद के सालों में एक महीना हिंदी में बोलते और एक महीना अंग्रेजी में प्रवचन होते।

जब ये घटनाएं अब याद आती है तो अपनी मुर्खता पर हंसी आती है। कि हम ओशो को ही सुझाव दे देते थे। और यह भी कि ओशो कितनेप्रेम से हमारे सुझावों को सुन भी लेते थे। हमें तो ये बातें एक खेल की तरह ही थीं। अब जो सुझाव हमारे मित्र चैनानी ने दिया उसे उन्‍हें याद भी रहा, ठीक से बोला भी, और उसी समय हमारी तरफ देख कर स्‍वीकृति भी ली की ठीक से बोला ने। ऐसे ने जाने कितने अवसर होंगे, जब ओशो ने पल—पल हमें जीकर पाठ पढ़ाये।

आज इति

 

 



Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–11)

$
0
0

ओशो द्वारा हमारी फैक्‍ट्री का अवलोकन—(अध्‍याय—ग्‍याहरवां)

हुत शुरू से ही ओशो पुणे आते रहे हैं। पुणे समय के साथ बहुत बदला है। शुरू में पुणे इतना विकसित शहर नहीं था। यहां की हरियाली और मूला, मूठा दो सुंदर नदियों के आसपास बना यह शहर बहुत ही रमणीक था। यहां बारह मास बहुत ही सुहावना मौसम रहता। यहां का जिम खाना, घुड़, रेस, गोल्फ कोर्स बहुत ही प्रसिद्ध हुआ करते थे। कोरेगाव पार्क एक तरह से जंगल था। दूर—दूर फैले बड़े—बड़े बंगले और चारों तरफ सघन हरियाली। यहां पर सैकड़ों वर्ष पुराने विशाल वट वृक्ष थे।

पुणे में शुरुआत के दिनों में ओशो हिंद विजय सिनेमा में प्रवचनमाला करते थे बाद में संघवी फैक्ट्री में प्रवचन भी होते थे। ध्यान साधना भी होती थी। हम तीनों भाई पुणे आकर बस चुके थे। हमारी फैक्ट्री बहुत प्रगति कर रही थी। उन्हीं दिनों एक दिन हमारे बड़े भाई साहब ओशो को हमारी फैक्ट्री लाये। उन्हें सारी फैक्ट्री दिखाई और बताया कि कैसे खाद्य पदार्थ बनते हैं। फैक्ट्री के प्रांगण में ही ओशो के हाथों से गुलाब का पौधा लगवाया। वहां से लौटते हुए ओशो ने विजिटिंग बुक पर लिखा, ‘मैं यहां आकर आनंदित हुआ, जहां प्रेम वहां परमात्मा।’

ओशो

आज भी हमारी उस विजिटिंग बुक में यह अंकित है।

‘अगर सदगुरु से प्रीति हो तो प्रीति सारे अवधान, सारे व्यवधान गिरा देती है। अगर प्रीति हो तो समय मिट जाता है, क्षेत्र मिट जाता है, बीच की सारी दूरियां, काल की या क्षेत्र की, समाप्त हो जाती हैं। प्रेम कालातीत है, क्षेत्रातीत है।

अगर प्रेम हो, तो रंग जाओगे। कभी भी रंग जाओगे। सदगुरु चला भी जाता है देह को छोड़ कर, तो भी उसकी आत्मा उपलब्ध रहती है, सदा उपलब्ध रहती है। जो प्रेम—पगे हैं, जो उसे प्रीति से पुकारेंगे, उन पर वह फिर भी बरसेगा। लेकिन सदगुरु मौजूद भी हो और तुम अपनी अकड़ में बैठे हो, कि तुम अपनी होशियारी और कुशलता में बैठे हो, तो चूक जाओगे।

जो सुन सकते हैं वे आज भी यमुना के तट पर कृष्ण की बांसुरी सुन सकते हैं। जो सुन सकते हैं वे आज भी बंसीवट में राधा का गीत सुन सकते हैं। आख चाहिए! कान चाहिए! कान और आख के पीछे जुड़ा हुआ हृदय चाहिए! आख प्रेम से देखे, कान प्रेम से सुने तो बुद्ध मौजूद हैं, कृष्ण मौजूद हैं, जीसस मौजूद हैं, मोहम्मद मौजूद हैं। ये सदा ही मौजूद हैं।

सदगुरु मिटता ही नहीं। जो मिट जाए वह क्या सदगुरु है!’

ओशो, उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–12)

$
0
0

हत्‍यारे की हत्‍या–(अध्‍याय—बारहवां)

शो की आग्नेय वाणी से पूरी दुनिया में लाखों—करोड़ों संवेदनशील चित्त पूरी तरह से अचंभित रह गए। जो भी ओशो को सुनता वह सुनता ही रह जाता। इस सूरज तले शायद ही कोई ज्ञात विषय छूटा होगा जिस पर ओशो ने अपनी दृष्टि न दी हो। हर विषय पर ऐसी अनूठी नजर, इतनी गहरी पैठ और इतना विस्तार कि सुनने वाले दंग ही रह जाते कि ऐसा संभव भी है।

किसी भी विषय पर कोई ओशो को सुने तो उस पर प्रश्न पैदा करना, या विपरीत सोचना संभव नहीं रह जाता। ओशो की दृष्टि इतनी स्पष्ट है कि आपको उनकी बात स्वीकारनी ही पड़ती है।

ओशो ने अपनी धारदार विचार शक्ति के द्वारा सारे संसार में फैले सभी तरह के शोषण के धंधों पर तेज चोट की है। स्वाभाविक ही इससे सभी तथाकथित संतों, महंतों, धर्मों व तरह—तरह के नामों से शोच्च की दुकानें खोले बैठे लोग नाराज हो गये। धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक हर तल पर स्थापित शक्तियां आहत हुईं और ओशो की दुश्मन बनती चली गईं। ऐसे ही किसी संगठन के किसी व्यक्ति को इस बात के लिए तैयार किया कि वह ओशो की हत्या कर दे। उसे इस कृत्य के लिए पूरा प्रशिक्षण दिया गया। तीन माह तक उस व्यक्ति ने तैयारी की कि किस प्रकार वह ओशो को मार सके।

ओशो उन दिनों में सणमुखानंद हॉल, मुंबई में प्रवचन कर रहे थे। जब वह व्यक्ति उस हॉल में पहुंचा तो देखा कि हॉल की सभी कुर्सियां पूरी तरह से भर चुकी हैं। लेकिन स्टेज पर भी कुछ लोग बैठे चुके थे तो वह तरकीब से स्टेज पर चढ़ कर एक तरफ बैठ गया।

अब ओशो को मारना सबसे आसान था। जब ओशो आए…….प्रणाम की मुद्रा है, श्वेत चादर से ऊपर अंगों को ढका है, नीचे श्वेत लुंगी, ओशो की मुस्कुराती छबी… वह व्यक्ति तो बस देखता ही रह गया। उसके हाथ कब प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गये पता ही नहीं चला। कुछ ही देर में ओशो के मुख से मन को मोह लेने वाले वचन फूट चले। वह व्यक्ति तो बेसुध होकर ओशो की वाणी के साथ बहता ही चला गया। उसे यह भी होश नहीं रहा कि वह यहां हत्या करने आया है, उसकी जेब में रिवॉल्वर इसी काम के लिए पड़ी है। जब ओशो ने प्रवचन पूरा किया तो वह व्यक्ति आंखों में अश्रु की धाराएं लिए ओशो के पास पहुंचा, उनके चरणों में रिवॉल्वर रख दी, बताया कि वह उनकी हत्या करने आया था लेकिन उल्टा ओशो ने उसकी पाशविक प्रवृत्ति की हत्या कर दी। वह ओशो से संन्यस्त हुआ।

ओशो का कहा याद आ रहा है, ‘एक बार ऐसा हुआ कि मेरे एक मित्र भारत के एक राज्य के राज्यपाल बन गए, और उन्होंने मुझे अपने राज्य के सभी जेलों में जाने की अनुमति दे दी। और मैं सालों तक वहां जाता रहा, और मैं वहां जाकर आश्चर्यचकित था। जो लोग जेलों में हैं, वे दिल्ली में जो राजनेता हैं उनसे, अमीरों से, तथाकथित धार्मिक संतों से अधिक निर्दोष हैं।’

आख हो तो यह देखना कितना आसान है कि जिन्हें हम अपराधी कह देते हैं उनके किसी कृत्य मात्र को इतना बडा कर देते हैं कि एक इंसान ही पूरा का पूरा उस छोटे से कृत्य के पीछे छुप जाता है, हम उसे अपराधी का तमगा दे कर एक तरफ डाल देते हैं लेकिन ओशो के आशीर्वाद तो सभी को मिलते हैं, बिना किसी भेद— भाव के।

**     **   **

मैं मिटा कि फिर चमत्कार ही चमत्कार है। जब तक मैं है तब तक विषाद ही विषाद है।

यहां जो हो रहा है, ऐसा कहना ठीक नहीं कि मैं कर रहा हूं; मैं नहीं हूं इसलिए हो रहा है। मैं जो बोल रहा हूं मैं नहीं बोल रहा हूं कोई और बोल रहा है। यह जो सतत उपक्रम हो रहा है, इसमें मैं परमात्मा के हाथ में एक सूखे पत्ते की तरह हूं हवाएं जहां उड़ा ले जाएं! अब मेरा न कोई व्यक्ति—गत लक्ष्य है, न कोई गंतव्य है। मैं ही नहीं हूं तो क्या लक्ष्य, क्या गंतव्य! परमात्मा पूरब ले जाता तो पूरब और पश्चिम ले जाता तो पश्चिम। आकाश में उठा दे तो ठीक और धूल में गिरा दे तो ठीक। जैसी उसकी मर्जी!

तुम धीरे— धीरे मुझे व्यक्ति की तरह देखना बंद ही कर दो। तुम भूल ही जाओ कि यहां कोई है। तुम तो मुझे बांस की पोली पोगरी समझो। कोई बांसुरी का गीत अपना तो नहीं होता! बांसुरी से निकलता होगा। हां, अगर कोई भूल—चूक होती हो तो बांसुरी की होगी, मगर गीत बांसुरी का नहीं होता। अगर बेसुरा मैं कर दूं गीत तो वह बेसुरापन मेरे बांस का होगा; लेकिन अगर गीत में कोई माधुर्य हो तो माधुर्य तो सदा उस परमात्मा का है। अगर कोई सत्य हो तो सदा उसका है; अगर कुछ असत्य हो तो जरूर बांस ने जोड़ दिया होगा। बांस के कारण जरूर गीत उतना मुक्त नहीं रह जाता, बांस की संकरी गली से गुजरना पड़ता है, संकरा हो जाता है।

मेरी भूलों के लिए मुझे क्षमा करना। लेकिन मुझसे अगर कोई सत्य तुम्हें मिल जाए, उसके लिए मुझे धन्यवाद मत देना।

मैं तो बस वैसे हूं जैसे सूरज निकले तो रोशनी फैलती है। अब कमल कोई यह थोड़े ही कहेगा कि सूरज आया और उसकी किरणों ने आकर मेरी पंखुड़ियों को खोला।

वह तो सूरज निकला, कमल खुल जाता है। रात होती है, आकाश तारों से भर जाता है। फूल खिलते हैं, गंध उड़ती है। अब वर्षा आने को है, मेघ घिरेंगे, मेघ घिरेंगे, वर्षा भी होगी, प्यासी धरती तृप्त भी होगी। यह सब हो रहा है। बस इसी होने के महाक्रम में मैं भी एक हिस्सा हूं।

और चाहता हूं मेरा प्रत्येक संन्यासी इस महाक्रम में एक हिस्सा हो जाए। उसे भाव ही न रहे अपने होने का, बस परमात्मा के होने का भाव पर्याप्त है, उसके आगे और क्या चाहिए!

तुम तो मेरे संबंध में ऐसा ही सोचना जैसे पहाड़ से एक झरना गिरता हो, कि पक्षी सुबह गीत गाते हों! तुम मुझे भूल ही जाओ। तुम जितना मेरे व्यक्ति को भूल जाओगे उतने मेरे करीब आ जाओगे। जिस दिन मैं तुम्हें व्यक्ति की तरह दिखाई ही न पडूगा उस दिन तुम बिलकुल मेरे साथ संयुक्त हो जाओगे, एक हो जाओगे।

वही घड़ी गुरु और शिष्य के मिलन की घड़ी है—न गुरु गुरु रह जाता, न शिष्य शिष्य रह जाता। एक बचता है, दो खो जाते हैं। और उस दो के खो जाने में अमृत की वर्षा है, आनंद के द्वार खुलते हैं, प्रभु के मंदिर में प्रवेश होता है! और वही मेरा संदेश है।

ओशो, उत्सव आमारजाति, आनंद आमारगोत्र।


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

सपना यह संसार–(प्रवचन–10)

$
0
0

साक्षी में जीना बुद्धत्व में जीना है—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक; शुक्रवार, 20 जुलाई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1—भगवान, इच्छा केवल रजकण में मिल

तव मंदिर के निकट पडूं

आते—जाते कभी तुम्हारे

श्री चरणों से लिपट पडूं

2—भगवान, धर्म और आदमी के बीच कौन—सी दीवारें हैं,

इस पर प्रकाश डालने की कृपा करें।

पहला प्रश्न:

 

भगवान,

इच्छा केवल रजकण में मिल

तब मंदिर के निकट पडूं

आते—जाते कभी तुम्हारे

श्री चरणों से लिपट पडूं

वीणा, जो मांगा है वह हो ही गया है। अक्सर ऐसा होता है कि जो हो जाता है उसकी भी हमें खबर नहीं हो पाती। अनुभूति तो घटती है हृदय में, मस्तिष्क तक खबर पहुंचते—पहुंचते समय लगता है। कभी तो वर्षों लग जाते हैं। और कभी जन्म भी। जन्मों का भी फासला हो सकता है। क्योंकि हृदय की अनुभूति मस्तिष्क के शब्दजाल में प्रकट हो सके, यह आसान मामला नहीं है। हृदय की अनुभूति मौन है। एक गुनगान अनुभव होगा। एक गीत अनसुना, शब्द—शून्य; भाषा से मुक्त भाव की एक धारा।

मस्तिष्क समझे तो कैसे समझे? मस्तिष्क समझता है शब्दों को, तर्कों को, विचार को; भाव में उसकी कोई गति नहीं है। भाव मस्तिष्क के लिए है ही नहीं; उसका कोई अस्तित्व नहीं है। और धर्म की जो परम अनुभूति है, वह तो भाव की है, भावना की है। इसलिए मस्तिष्क तो छूंछा का छूंछा रह जाता है। थोड़ी—सी प्रतिध्वनि पहुंच जाए, बस इतना बहुत। थोड़ी—सी छाया पड़ जाए, इतना बहुत। और इतना भी होने में समय लगता है, क्योंकि मस्तिष्क बड़ी धूल से भरा है; उस दर्पण पर बहुत धूल की पर्तें हैं। हृदय की छाया बन सकती है, जो गूंज हृदय में होती है उसकी अनुगूंज मस्तिष्क तक पहुंच सकती है, लेकिन खूब सफाई करनी पड़े, खूब बुहारी देनी पड़े मस्तिष्क को।

तूने जो पूछा है वीणा, वह तो हो ही गया है। तुझे देर—अबेर लगेगी शायद, लेकिन मुझे दिखाई पड़ रहा है कि हो गया है। तेरा हृदय तो भाव—विभोर है। और जिसका हृदय भाव—विभोर है, वह प्रभु—मंदिर के पास आ ही गया। और तो उसके मंदिर के पास आने की कोई विधि नहीं है। न तो काबा में, न काशी में, न कैलाश में वह है; वह तो वहीं है जहां हृदय आनंदमग्न है, जहां हृदय मस्त है, जहां हृदय दीवाना है, जहां हृदय परवाना है।

सभी भंवरे

एक से होते नहीं हैं

 

कुछ हैं,

जो रस पी करके

उड़ जाते हैं

 

कुछ हैं,

जो स्वेच्छा से

कमल—कोष में

बंध जाते हैं

 

कुछ हैं,

जो कांटों से

बिंधते, या कि

विवश बींधे जाते हैं

 

इसीलिए

कहता हूं

भंवरे—भंवरे में

अंतर होता है

 

और परवाने

सभी जलते नहीं हैं

 

कुछ हैं,

जो मंडराते हैं

रूप शिखा पर

 

कुछ हैं,

जो पंख जलाकर

पछताते हैं

 

बिरले ही हैं

जो ज्योति—शिखा पर

प्राणों का अर्ध्य

चढ़ा पाते हैं

 

इसीलिए कहता हूं

परवाने—परवाने में

अंतर होता है

और वीणा, तू धन्यभागी है उन कुछ थोड़े—से परवानों में जो दीपशिखा पर अपने जीवन का अर्घ्य चढ़ा पाते हैं।

बिरले ही हैं

जो ज्योति—शिखा पर

प्राणों का अर्घ्य

चढ़ा पाते हैं

घटना घटनी शुरू हो गई। आज नहीं कल मस्तिष्क तक खबर पहुंच जाएगी। उसकी चिंता भी लेने की कोई जरूरत नहीं है। मस्तिष्क न समझे तो भी चल जाएगा। क्योंकि मस्तिष्क यहीं पड़ा रह जाएगा। मौत शरीर को भी यहीं छोड़ जाती है, मस्तिष्क को भी यहीं छोड़ जाती है। मस्तिष्क शरीर का ही हिस्सा है। लेकिन तुम्हारे भीतर एक और आकाश है जो शरीर का अंग नहीं; शरीर में है और शरीर का ही नहीं है। पार से आया है। शरीर पड़ा रह जाएगा पींजड़े की भांति, वह हंस हृदय का उड़ जाएगा। वह अदृश्य हंस है। उस हंस को मार्ग मिल गया है। उस हंस को मानसरोवर की खबर मिल गई है। लेकिन मस्तिष्क को अभी थोड़ी बेचैनी है। बेचैनी स्वाभाविक है। मस्तिष्क का काम ही यही है कि प्रत्येक चीज को स्पष्ट कर ले; जो हो रहा है, उसे साफ—साफ समझ ले; गणित में बिठा ले, तर्क से प्रमाण जुटा ले; जो हो रहा है वह बेबूझ न रह जाए।

मस्तिष्क का काम है रहस्य को रहस्य न रहने दे, उसे सुस्पष्ट परिभाषा में बांध ले। मगर कुछ चीजें हैं जो परिभाषा में बंधती नहीं। प्रेम परिभाषा में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, परिभाषा छोटी पड़ जाती है। व्याख्या में समाता नहीं। बड़े—बड़े हार गए, सदियां बीत गईं, प्रेम के संबंध में कितनी बातें कही गईं—और प्रेम के संबंध में एक भी बात कही नहीं जा सकी है। जो कहा गया, सब ओछा पड़ा। जो कहा गया, सब थोथा सिद्ध हुआ। प्रेम इतना बड़ा है, इतना विराट है कि यह आकाश भी छोटा है। प्रेम के आकाश से यह आकाश छोटा है। ऐसे कितने ही आकाश उसमें समा जाएं। महावीर ने इस आकाश को अनंत कहा है, और आत्मा के आकाश को अनंतानंत। अगर अनंत को अनंत से गुणा कर दें। असंभव बात। क्योंकि अनंत का अर्थ ही हो गया कि उसकी कोई सीमा नहीं, अब उसका गुणा कैसे करोगे? कोई आंकड़ा नहीं। लेकिन महावीर ने कहा, अगर यह हो सके कि अनंत को हम अनंत से गुणा कर सकें, तो अनंतानंत, तो हमारे भीतर के आकाश की थोड़ी—सी रूपरेखा स्पष्ट होगी।

लेकिन मन हर चीज को समझ कर, जान कर स्पष्ट कर लेना चाहता है। क्यों? मस्तिष्क की यह आकांक्षा क्यों है? यह इसलिए कि जो स्पष्ट हो जाता है, मस्तिष्क उसका मालिक हो जाता है। जो राज राज नहीं रह जाते, मस्तिष्क उनका उपयोग करने लगता है साधन की तरह। लेकिन कुछ राज हैं जो राज ही हैं और राज ही रहेंगे। मस्तिष्क उन पर कभी मालकियत नहीं कर सकता और उनका कभी साधन की तरह उपयोग नहीं हो सकता। वे परम साध्य हैं। सभी साधन उनके लिए हैं। प्रेम जिस तरफ इशारा करता है, वह इशारा परमात्मा की तरफ है। प्रेम का तीर जिस तरफ चलता है, वह परमात्मा है। प्रेम का लक्ष्य सदा परमात्मा है। इसलिए तुम जिससे भी प्रेम करो उसमें तुम्हें परमात्मा की झलक अनुभूत होने लगेगी। इसीलिए तो प्रेमियों को लोग पागल कहते हैं। मजनू को लोग पागल कहते हैं; क्योंकि उसे लैला परमात्मा मालूम होती है। शीरीं को लोग पागल कहते हैं, क्योंकि फरहाद उसे परमात्मा मालूम होता है। पागल न कहें तो क्या कहें?? एक साधारण—सी स्त्री, एक साधारण—सा पुरुष परमात्मा कैसे? लेकिन उन्हें प्रेम के रहस्य का कुछ अनुभव नहीं है। प्रेम की जहां भी छाया पड़ती है, वहीं परमात्मा का आविष्कार हो जाता है। प्रेम भरी आंख से फूल को देखोगे तो फूल परमात्मा है। और प्रेम—भरी आंख से कांटे को देखोगे तो कांटा भी परमात्मा है। प्रेम की आंख जहां पड़ी, वहीं परमात्मा उघड़ आता है।

वीणा, तूने मुझे प्रेम से देखा तो परमात्मा दिखाई पड़ने लगा। मैं तुम सब में परमात्मा को देख रहा हूं। ऐसा कोई है ही नहीं जो परमात्मा न हो। जिस दिन प्रेम की आंख इतनी गहन हो जाती है कि सबमें परमात्मा दिखाई पड़ने लगे, उस दिन कहना: भक्ति, प्रेम की पराकाष्ठा। पलटू उसी भक्ति की बात कर रहे हैं। वह प्रेम का परम रूप; खिला कमल, उड़ी गंध। प्रेम तो थोड़ा—थोड़ा दिखाई भी पड़ता है, छुओ तो थोड़ा—थोड़ा स्पर्श में भी आता है—पकड़ नहीं बैठती, छिटक—छिटक जाता है जैसे पारा छिटक—छिटक जाए—लेकिन भक्ति तो बिलकुल पकड़ में नहीं आती। प्रेम तो फूल जैसा है, भक्ति गंध है, सुवास है। उड़ गई आकाश में, लग गए पंख, छूट गया सब स्थूल, हो गई सूक्ष्मातिसूक्ष्म। और तेरा प्रेम भक्ति बन रहा है। इसलिए मस्तिष्क की चिंता में मत पड़! छोड़—छाड़ यह ऊहापोह। परमात्मा ने तुझे चुन लिया।

एक पुरानी फकीरों की कहावत है कि हम परमात्मा को तभी चुन पाते हैं जब परमात्मा हमें चुन लेता है। पहले वह चुनता है। हम उसकी याद तभी कर पाते हैं जब वह हमारी याद इतनी गहनता से करता है कि हमारी निद्रा में भी तूफान उठ आते हैं, हमारी मूर्च्छा में भी, हमारी मूर्च्छा की गहराइयों में भी उसकी किरण प्रविष्ट हो जाती है। उसने याद किया। इससे तू उसे याद कर पाई। उसने याद किया, इसलिए तेरा हृदय मेरे हृदय के साथ धड़कना शुरू हुआ। उसने याद किया, इसलिए तेरी श्वास मेरी श्वास से बंधी।

बाहर चाहे जितनी भी भय बाधा हो

मेरे मन के कृष्ण—कन्हाई की

तुम प्यारी राधा हो

बाहर चाहे जितनी भी भय बाधा हो

 

राधा कैसे रुके सदन में

मुरली ने आराधा हो

और हृदय में मुरलीधर—प्रति

पावन प्रेम अगाधा हो

बाहर चाहे जितनी भी भय बाधा हो

 

मन मुरलीधर मौन मुरलिया

अनहदनाद अगाधा हो

सुन सकता है वही कि जिसने

प्रेमयोग को साधा हो

बाहर चाहे जितनी भी भय बाधा हो

मेरे मन के कृष्ण—कन्हाई की

तुम प्यारी राधा हो

बाहर चाहे जितनी भी भय बाधा हो

मस्तिष्क समझ पाए न समझ पाए, बाहर कितनी ही अड़चनें हों, बाधाएं हों, व्यवधान हों, चिंता न लेना, भीतर ज्योति जलनी शुरू हो गई है। भीतर का भरोसा करो। मस्तिष्क उठाएगा संदेह, प्रश्न; मस्तिष्क कहेगा कि हृदय अंधा है; मस्तिष्क होगा कि प्रेम अंधा है—सदा मस्तिष्क ने यह कहा है—हंसना मस्तिष्क पर, क्योंकि प्रेम के ही पास आंख है। अंधा अगर कोई है तो मस्तिष्क अंधा है। और प्रेम ही है अकेला जो स्वस्थ है। क्योंकि प्रेम में ही स्वयं में स्थिति मिलती है। इसलिए स्वस्थ है प्रेम। स्वास्थ्य है प्रेम। अगर कोई विक्षिप्त है तो मस्तिष्क है। मगर मस्तिष्क उठाता प्रश्न बड़े ऐसे है कि सार्थक लगते हैं। पूछने का ढंग उसका बहुत सुसंबद्ध है। उसके पूछने के ढंग से सावधान रहना!

पूछते हो, प्यार क्या है?

प्रश्न ऐसा है तुम्हारा,

पूर्ति जिसकी है न संभव

प्यार को वाणी कहे,

यह तो असंभव है असंभव

 

प्यार रहता है हृदय के

कोश में संचित, सुरक्षित,

और उसके मर्म से जब

स्वयं प्रेमी भी अपरिचित

तब भला अनुमान से ही

कह सके सारी हकीकत,

अन्य की सामर्थ्य क्या है!

पूछते हो, प्यार क्या है?

 

यह अनाहत नाद—सा बजता हृदय में,

यह मधुर आल्हाद—सा सजता हृदय में

यह कसक बनकर कसकता है सदा,

दैव का वरदान है या आपदा!

 

प्यार को अभिशाप भी

कहते सुना है प्रेमियों को

प्यार को वरदान भी

कहते सुना है प्रेमियों को

पूछना चाहो तो पूछो—

इन अढ़ाई—अक्षरों में

इतना विरोधाभास क्या है?

पूछते हो, प्यार क्या है?

मन पूछता रहेगा, मन प्रश्न उठाता रहेगा, उत्तर न मन के पास है, न उत्तर मन को दिया जा सकता। हर नए उत्तर में मन नए प्रश्न उठा लेगा। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं, ऐसे मन में प्रश्न लगते हैं। इसलिए वीणा, छोड़ मस्तिष्क के प्रश्नों को, गई वह घड़ी, अब हृदय में डूब! मन कहे भी कि अंधा है, तो कहना: ठीक। और मन कहे भी कि पागलपन है, तो कहना: ठीक, अब पागलपन ही चुनना है, अब अंधापन ही चुनना है। मस्तिष्क की आंखों से बहुत देख लिया, पदार्थ के अतिरिक्त कुछ दिखाई न पड़ा, अब हृदय के अंधेपन से देख लें। जहां मस्तिष्क हार गया, कौन जाने हृदय जीत जाए? मस्तिष्क की बुद्धिमानी बहुत कर ली, अब थोड़ी हृदय की बुद्धिहीनता कर लें। मन की चालबाजी बहुत देख ली, अब थोड़े हृदय की निर्दोषता को पहचान लें; थोड़े हृदय के भोलेपन में उतरें और डुबकी मारें।

एक ही उपाय है: बढ़ाए चलो प्रेम को!

 

जिसे प्यार करते हो

किए जाओ,

प्यार की बात

न होंठों पर लाओ

 

बादल की तरह

छाए रहो,

उमड़ो—घुमड़ो,

यह न हो कि तुम

यूं ही बरस जाओ

जिसे प्यार करते हो

किए जाओ,

प्यार की बात

न होंठों पर लाओ

 

प्यार को

वाणी की दरकार नहीं,

प्यार को शब्दों से

सरोकार नहीं,

 

मौन ही

प्यार की वाणी, भाषा

फिर भला

व्यर्थ क्यों बके जाओ

जिसे प्यार करते हो

किए जाओ,

प्यार की बात

न होंठों पर लाओ

 

प्यार—

दो साजों की

जुगलबंदी है,

जिसमें हर तार

मिल के बजता है,

बेसुरे तारों की खूंटियां खींचो

जो बेमेल हों, मिलाते जाओ

 

जिसे प्यार करते हो

किए जाओ,

प्यार की बात

न होंठों पर लाओ

गुरु और शिष्य के बीच यही जुगलबंदी घटती है।

प्यार—

दो साजों की

जुगलबंदी है,

जिसमें हर तार

मिल के बजता है,

बेसुरे तारों की खूंटियां खींचो

जो बेमेल हों, मिलाते जाओ

जिसे प्यार करते हो

किए जाओ,

प्यार की बात

न होंठों पर लाओ

मन बहुत बाधाएं खड़ी करेगा। क्योंकि मन प्यार से बहुत डरता है। उसका भय स्वाभाविक है। क्योंकि प्रेम का जन्म मन की मृत्यु है। प्रेम का जीवन और मस्तिष्क हुआ गुलाम! प्रेम आया कि आत्मा आई, भक्ति आई कि भगवान आया—फिर कौन पूछेगा मस्तिष्क को! मस्तिष्क तो अंधों की बस्ती में काना राजा है। आंख वालों की बस्ती में कौन पूछेगा काने को! मस्तिष्क तो तभी तक हमारे ऊपर छाया रहता है जब तक हमारे पास मस्तिष्क से बड़ी रोशनी नहीं है। तो हम टिमटिमाती, पीली—सी रोशनी में मस्तिष्क की जीते हैं—मोमबत्ती जैसी। लेकिन घर में बिजली आ गई हो कि सुबह सूरज निकल आया हो, फिर कौन मोमबत्ती की फिक्र करता है—लोग तत्क्षण बुझा देते हैं! बस ऐसी ही घटना घटती है; जब हृदय प्रकाशित होता है प्रेम से और जब भक्ति से आंदोलित होता है तो मस्तिष्क की मोमबत्ती ऐसे ही बुझा दी जाती है जैसे सुबह लोग मोमबत्ती को बुझा देते हैं।

मोमबत्ती तो चाहेगी कि रात बनी ही रहे, बनी ही रहे, बनी ही रहे; कि रात साधारण रात भी न हो, अमावस की रात हो। मस्तिष्क का सारा न्यस्त स्वार्थ यही है कि तुम्हारा अज्ञान न टूटे। और अज्ञान टूटता है प्रेम से। अज्ञान ज्ञान से नहीं टूटता। इसलिए मस्तिष्क ज्ञान से बिलकुल नहीं डरता। शास्त्र पढ़ो, सिद्धांत समझो; हिंदू हो जाओ, मुसलमान हो जाओ, ईसाई हो जाओ; बड़ी—बड़ी बातों को कंठस्थ कर लो; गायत्री गुनगुनाओ, नमोकार पढ़ो, इन सबसे मस्तिष्क राजी है। क्योंकि इन सब से मस्तिष्क का कुछ बिगड़ने वाला नहीं, उलटे मस्तिष्क और इनसे मजबूत होता है। पांडित्य मस्तिष्क को मजबूत करता है। तो जितने शास्त्रों का बोझ बढ़े, मस्तिष्क कहता है बढ़ाए चलो। लेकिन प्रेम मृत्यु है मस्तिष्क की। सुनिश्चित मृत्यु है। वहां उसकी गति नहीं। वहां एकदम हारा—ठगा—ठिठका रह जाता है। इसलिए मस्तिष्क प्रेम को बहुत गालियां देता है, खयाल रखना। और गालियां इस ढंग से देता है कि तुम्हें शायद जंचे भी।

एक मित्र ने पूछा है, कि आप पाखंड का विरोध करते हैं लेकिन यहां लोग आपकी कुर्सी के सामने सिर झुका रहे हैं! सरासर पाखंड हो रहा है! तो फिर इस पाखंड में और मंदिर की प्रतिमा के सामने झुकने में क्या भेद है?

मस्तिष्क का प्रश्न है। अगर कोई मंदिर की प्रतिमा में भी इतने ही भाव से झुक रहा है जितने भाव से यहां, तो वहां भी पाखंड नहीं है। पाखंड प्रतिमा के सामने झुकने में नहीं है, पाखंड तो तब है जब कि सिर्फ मस्तिष्क झुक रहा है और हृदय में कोई अनुभव नहीं हो रहा है। पत्थर की भी पूजा प्रेमपूर्ण हो तो पत्थर परमात्मा है। और परमात्मा की भी पूजा पत्थर की तरह हो तो सब पाखंड है।

लेकिन जिसने पूछा है, सोचा है कि बहुत बुद्धिमानी का प्रश्न पूछ रहा है। जिसने पूछा है, उसको खयाल है कि उसने ऐसा सवाल पूछा है जिसका जवाब नहीं हो सकता। मैं निश्चित पाखंड का विरोधी हूं। पाखंड का अर्थ तुम समझते हो? पाखंड का अर्थ होता है, जहां हृदय न हो, जहां हृदय का तालमेल न हो, जहां हृदय की जुगलबंदी न बंधी हो, वहां झुकना। क्योंकि मां ने कहा, पिता ने कहा, परिवार ने कहा, तो झुक गए मंदिर में, मस्जिद में। तुमने जाना? अगर तुम अपने जानने से झुके होओ, अगर तुम्हारा प्रेम ही तुम्हें झुकाया है, तो कौन कहता है यह पाखंड है? जरा भी पाखंड नहीं।

झेन फकीर इक्कू एक मंदिर में ठहरा। रात है सर्द। इतनी सर्द, इतनी ठंड पड़ रही है कि बाहर बर्फ गिर रही है। गरीब फकीर के पास एक ही कंबल है, वह उसकी सर्दी को नहीं मिटा पा रहा है। वह उठा कि मंदिर में कुछ लकड़ी तलाश लाए। और लकड़ी तो न मिली लेकिन बुद्ध की प्रतिमाएं थीं, वे लकड़ी की थीं। कई प्रतिमाएं थीं, तो वह एक प्रतिमा उठा लाया, आग जला ली। मंदिर में जली आग, लकड़ी की चट—चटाक, अचानक रोशनी का होना, पुजारी जग गया। भागा हुआ अया। आगबबूला हो गया। आंखों पर भरोसा न आया कि एक फकीर, जिसको लोग सिद्धपुरुष समझते हैं, वह भगवान की प्रतिमा जला रहा है! इससे बड़ी और नास्तिकता और बड़ा कुफ्र क्या होगा? उसने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो? होश में हो कि पागल हो? भगवान की प्रतिमा जला रहे हो! इक्कू हंसा, उसने पास में ही पड़े अपने संडे को उठाया, प्रतिमा तो जल गई थी, बस अब राख ही रह गई थी, उस राख में डंडे को डालकर टटोला। पुजारी पूछने लगा—अब क्या खोज रहे हो? सब राख हो चुका। इक्कू ने कहा, भगवान की अस्थियां खोज रहा हूं। पुजारी ने सिर से हाथ मार लिया। उसने कहा, तुम निश्चित पागल हो। अरे, लकड़ी की मूर्ति में कहां की अस्थियां! इक्कू ने कहा, यही तो मैं कहूं। रात अभी बहुत बाकी, बर्फ जोर से पड़ रही है और मंदिर में तुम्हारे मूर्तियां बहुत हैं, एक—दो और उठा लो! और मैं ही क्यों तापूं, तुम भी ठिठुर रहे हो, तुम भी तापो। जब अस्थियां नहीं हैं, तो कैसा भगवान!

ऐसे आदमी को मंदिर में टिकने देना खतरनाक था। क्योंकि पुजारी आखिर सोएगा। यह और मूर्तियां जला दे! बहुमूल्य चंदन की मूर्तियां हैं। इक्कू को धक्के मार कर उसने बाहर निकाल दिया। इक्कू ने बहुत कहा कि बर्फ पड़ रही है, और भगवान को बाहर निकाल रहे हो! लकड़ी की मूर्तियां बचा रहे हो और मुझे जीवित बुद्ध को बाहर निकाल रहे हो! लेकिन उसने बिलकुल नहीं सुना, उसने कहा तुम पागल हो। तुम और बुद्ध! धक्के देकर दरवाजा बंद कर लिया।

सुबह जब उसने दरवाजा खोला मंदिर का तो देखा कि इक्कू बाहर बैठा है और जो मील का पत्थर है उस पर फूल चढ़ा कर आराधना में झुका है और उसकी आंखों से आनंद के आंसू बह रहे हैं। पुजारी ने जाकर हिलाया और कहा कि तुम मुझे और परेशान न करो; तुम मुझे और उलझाओ मत, ऊहापोह में मत डालो! रात मंदिर में भगवान की मूर्ति जलाई, अब सुबह राह के किनारे लगे मील के पत्थर पर फूल चढ़ा कर आराधना कर रहे हो! इक्कू ने कहा, जहां आराधना है, वहां आराध्य है। पत्थर को भी प्रेम से देखो तो परमात्मा है और परमात्मा को भी सिर्फ बुद्धि से देखते रहो, तो परमात्मा नहीं। रात जो मैंने मूर्ति जलाई, अपनी सर्दी मिटाने को न जलाई थी, तुम्हारा पाखंड जलाने को जलाई थी। तुम्हें याद दिलाना चाहता था कि तुम यह पूजा व्यर्थ ही कर रहे हो, क्योंकि तुमने खुद ही कहा कि अरे पागल, लकड़ी में अस्थियां कहां? अगर तुमने यह आराधना सच में की होती तो ऐसा वचन तुमने न निकल सकता था। भीतर तो तुम जानते हो कि लकड़ी ही है, ऊपर मानते हो कि भगवान है।

पाखंड का अर्थ होता है: भीतर कुछ, बाहर कुछ। जिन मित्र ने पूछा है, उन्हें पाखंड शब्द का भी अर्थ नहीं मालूम। पाखंड का अर्थ होता है: भीतर एक, बाहर दूसरी बात, ठीक उलटी बात। लेकिन अगर बाहर—भीतर एकरस हो, जुगलबंदी बंधी हो, फिर कैसा पाखंड!

तो अगर कोई प्रीति से पत्थर के सामने झुके—प्रीति कसौटी है—तो पत्थर भगवान है। क्योंकि जहां झुक जाओ तुम, वहां भगवान है। तुम्हारा समर्पण भगवान है। लेकिन कोई ऐसे ही औपचारिकता से, सामाजिक व्यवहार से, और लोग झुकते हैं इसलिए झुकना चाहिए, औरों को झुकते देखकर झुकता हो, संस्कारवश झुकता हो, तो पाखंड है। पाखंड का निर्णय झुकने से नहीं होगा, पाखंड का निर्णय भीतर हृदय के अंतरतम में होगा।

उन मित्र ने पूछा है कि कल मैंने कुछ संन्यासियों को गाते सुना: जय रजनीश हरे; यह तो महा भयंकर पाखंड हो रहा है!!

तुम कैसे निर्णय करोगे! अगर यह उनके हृदय की पुकार है तो पाखंड नहीं। और अगर वे केवल एक औपचारिकता अदा कर रहे हैं तो जरूर पाखंड है। मगर तुम कैसे तय करोगे? तुम कौन हो निर्णायक? तुम अपने ही हृदय का निर्णय ले लो तो बहुत। तुम दूसरे के हृदयों का निर्णय न लो! तुम्हें अभी अपने हृदय का पता नहीं, औरों का तो क्या पता होगा? और यहां जो बात चल रही है, जो सत्संग चल रहा है, वह अनिर्वचनीय का है। नहीं कहा जा सके जो, उसको कहने की चेष्टा चल रही है। तुम जैसा व्यक्ति, जो अभी बुद्धि के क्षुद्र जाल में उलझा हो, उसका यहां काम नहीं है। तुम यहां आए भी, व्यर्थ आए! जिन मित्र ने पूछा है, वे संन्यासी भी हैं। तुम्हारा संन्यास भी व्यर्थ। तुम्हारा संन्यास पाखंड!

अब तुम समझो पाखंड का अर्थ।

तुम्हारा संन्यास पाखंड। क्योंकि अगर तुम्हारे भीतर पूजा का भाव नहीं, अगर तुम्हारे भीतर आराधना नहीं जगी, तो तुमने बस कपड़े रंग लिए, माल पहन ली, यह पाखंड। भीतर रंग जाए और बाहर रंगे, जुगलबंदी हो, फिर पाखंड नहीं। तुमने तो सोचा होगा कि मैं करूंगा खंडन उन सबका जो इस तरह का पाखंड कर रहे हैं। तुमने कभी सोचा भी न होगा कि मैं तुमसे यह कहूंगा कि तुम पाखंडी हो। मुझसे प्रश्न पूछते समय थोड़े सोच—समझ कर पूछा करो। तुम निपट पाखंडी हो! तुम्हारा संन्यास झूठ, मिथ्या! तुम झुके ही नहीं हो। तुम्हारा कोई समर्पण नहीं है। तुम मैं जो कह रहा हूं समझ ही न पाओगे, क्योंकि शब्द पकड़ोगे तुम। शब्द की तुमने पकड़े हैं। पूछा है कि आप पाखंड का इतना विरोध करते हैं और यहां आपके संन्यासी पाखंड कर रहे हैं; इसको आप रोकते क्यों नहीं? मैं पाखंड का विरोध करता हूं। तुमसे कहूंगा कि संन्यास छोड़ दो। मैं पाखंड का विरोधी हूं। तुम्हारे हृदय में अभी लहर नहीं आई, तरंग नहीं आई, अभी तुमने मेरे मौन को नहीं सुना, अभी मेरे शून्य से तुम नहीं जुड़े; अभी तुम्हारे भीतर अनाहत का नाद नहीं हुआ।

बांध रहा हूं शब्दों में अनुभूति को

 

जो निर्बंध रही है अब तक,

जो स्वच्छंद बही है अब तक

बांध रहा हूं शब्दों में उस

स्रोतस्विनी, पुनीत को

बांध रहा हूं शब्दों में अनुभूति को

 

चक्षुश्रवा बन सुना, श्रवण—

द्रष्टा बन कर देखा है जिसको,

शब्द दे रहा हूं मैं उस ही

तर्कातीत प्रतीति को

बांध रहा हूं शब्दों में अनुभूति को

 

जिसको मन ही मन में गोया,

दीर्घकाल तक जिसे संजोया,

व्यक्त कर रहा हूं अब उस ही

मन की विमल विभूति को

बांध रहा हूं शब्दों में अनुभूति को

यह जो मैं तुमसे कह रहा हूं, नहीं कहा जा सके ऐसा है; निर्वचन न हो सके, ऐसा है; अव्याख्य है, ऐसा है। इसे तुम समझोगे तो हृदय से ही समझ पाओगे, बुद्धि से नहीं। बुद्धि पाखंडी है। बुद्धि पाखंड के ऊपर उठ भी नहीं सकती है। बुद्धि चालबाज है। बुद्धि बेईमान है। बुद्धि बहुत चालाक है।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र के साथ सिनेमा देखने गया हुआ था। सिनेमा में सभी बोर हो रहे थे। पिक्चर जो थी, वह उनकी समझ के बाहर थी। मुल्ला नसरुद्दीन से कुछ ही आगे एक गंजा व्यक्ति बैठा हुआ था। मुल्ला के मित्र ने मुल्ला से कहा, मुल्ला, पिक्चर तो बोर कर रही है; कुछ करो कि मनोरंजन हो। यदि तुम उस गंजे व्यक्ति के सिर पर एक चपत रसीद कर दो तो मैं तुम्हें दस रुपए दूंगा। लेकिन एक शर्त है कि वह व्यक्ति नाराज न हो, क्रोधित न हो। मुल्ला बोला, अरे, यह कौन—सी बात है, अभी लो! फिल्म का इंटरवल हुआ, मुल्ला उठा और पीछे से जाकर उसने गंजे आदमी की चांद पर एक चपत रसीद की और बोला: अरे चंदूलाल, तुम यहां बैठे हो! हम तुम्हें देखने तुम्हारे घर गए थे। वह व्यक्ति बोला: माफ कीजिए, भाई साहब, मैं चंदूलाल नहीं। आपको शायद गलतफहमी हुई है, मेरा नाम नटवरलाल है। मुल्ला ने कहा, ओह, क्षमा करिए, भाई साहब, मुझे धोखा हो गया। और उसके बाद मुल्ला गर्व से छाती फुलाए मित्र के पास आया और बोला कि चलो, निकालो दस रुपए!

मित्र ने दस रुपए दिए और बोला, मुल्ला, अब की बार बीस रुपए दूंगा यदि तुम इस गंजे आदमी की चांद पर एक चपत और लगा दो। मुल्ला बोला, अभी लो, यह कौन—सा बड़ा काम है! मुल्ला गया और जाकर फिर उसकी चांद पर एक चपत रसीद की और बोला: अबे साले, चंदूलाल, मुझे ही बेवकूफ बना रहे हो! मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानता हूं। तेरी यह नाटक करने की आदत जाएगी या नहीं? वह व्यक्ति फिर बोला, भाई साहब, माफ करिए, मैं चंदूलाल नहीं, नटवरलाल हूं। मैं किसी चंदूलाल को जानता भी नहीं! मुल्ला ने पुनः उससे क्षमा मांगी और वापस आकर मित्र से बीस रुपए वसूल किए।

मित्र ने बीस रुपए देते हुए कहा, मुल्ला, यदि एक चपत तुम और लगा सको उस गंजे को तो ये पचास रुपए तुम्हारे! मगर शर्त वही है कि वह न नाराज हो और न क्रोधित ही हो। मुल्ला ने कहा, चिंता मत करो, होने दो पिक्चर समाप्त, चलो बाहर, अभी लगाए देता हूं एक चपत और।

पिक्चर समाप्त हुई, सब बाहर आए, मुल्ला ने जाकर और भी जोर से उस व्यक्ति की गंजी खोपड़ी पर एक चपत रसीद की और बोला, अबे साले चंदूलाल के बच्चे, तुम साले यहां हो और तुम्हारे धोखे में भीतर हाल में मैंने बेचारे नटवरलाल को दो चपतें रसीद कर दीं! उस व्यक्ति ने रुआंसे स्वर में, बिलकुल मरी हुई आवाज में उत्तर दिया, भाई साहब, आप क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हैं; मैं चंदूलाल नहीं, नटवरलाल हूं।

बुद्धि बहुत चालाक है। रास्ते खोज सकती है। ऐसे रास्ते, जिनकी तुम कल्पना भी न कर सको। और बुद्धि ने बहुत रास्ते खोजे हैं। बुद्धि ने आदमी को बहुत भटकाया है। बुद्धि हर जगह से रास्ता निकाल लेती है, तरकीब निकाल लेती है। मैं पाखंड—विरोधी हूं, तुम्हारी बुद्धि ने उसमें से रास्ता निकाल लिया, मुझसे ही बचने का। तुम्हारी बुद्धि ने उसमें से रास्ता निकाल लिया अपने अहंकार को बचाने का, तुम्हारी बुद्धि ने उसमें से रास्ता निकाल लिया दूसरों की निंदा करने का। मैंने जो कहा, वह तो तुम समझे ही नहीं, तुमने जो समझना था वह समझ लिया। और शायद तुम सोचते होओगे कि तुम मेरे असली संन्यासी! क्योंकि मेरी बात का कैसा अनुसरण कर रहे हो! जरा भी पाखंड नहीं! और पाखंड शब्द का भी अर्थ तुमने बदल लिया।

पाखंड का अर्थ होता है: द्वंद्व, भीतर द्वैत। बाहर कुछ, भीतर कुछ। लेकिन बाहर—भीतर अगर जुगलबंदी है, फिर कैसा पाखंड! फिर तो कोई कारण नहीं पाखंड का।

जरा सावधान रहना अपनी बुद्धिमानी से। इस दुनिया में सबसे ज्यादा सावधान होने की जरूरत है अपनी बुद्धिमानी से। क्योंकि सबसे बड़े धोखे वहीं पैदा होते हैं। सबसे बड़ी चालबाजियां वहीं पैदा होती हैं।

एक एकांत—प्रिय साधु अपनी पत्नी के साथ जंगल में एक छोटा—सा झोपड़ा बनाकर सुख से रहा करते थे। लेकिन अक्सर ऐसा होता था कि जंगल में आने—जाने वाले लोग कभी रास्ता भटक जाते या लौटते में उन्हें शाम हो जाती तो वे साधु की झोपड़ी देखकर वहां शरण मांगते। साधु इससे बहुत परेशान था। एक दिन शाम का समय था, साधु अपनी पत्नी के साथ शाम का मजा ले रहा था, तभी उसने देखा कि मुल्ला नसरुद्दीन चला आ रहा है। वह पुराना परिचित है, यदि शरण मांगेगा तो मना किया भी नहीं जा सकता था। अतः साधु की पत्नी ने एक उपाय सुझाया कि हम दोनों कमरे में बंद हो जाएं और ऐसा अभिनय करें कि जैसे बहुत झगड़ा चल रहा है। संभवतः मुल्ला यह देखकर कि ये लोग झगड़ रहे हैं, अब इनसे क्या शरण मांगना, ऐसा सोचकर स्वयं ही चला जाएगा।

उन लोगों ने ऐसा ही किया। कमरे के दरवाजे बंद कर साधु ने गाली बकना शुरू कर दिया और एक डंडे से तकिया पीटना शुरू कर दिया। वे अभिनय में तो कुशल थे ही—बड़े पुराने साधु थे! पत्नी ने जोर—जोर से रोना और बचाओ, बचाओ, मत मारो, ऐसा चिल्लाना शुरू कर दिया। ऐसा वे लोग करीब आधा घंटा तक करते रहे। जब नसरुद्दीन के चले जाने का उन्हें भरोसा हो गया, तब वे निकल कर बाहर आए और आंगन में पड़ी खाट पर बैठ गए, साधु ने हंसते हुए कहा, साला, भाग गा! देखा मैंने कैसा मारा? पत्नी ने भी मुस्करा कर कहा, और देखा, मैं भी कैसी रोई! तभी खाट के नीचे से सिर निकलकर मुल्ला नसरुद्दीन बोला, और देखा, मैं भी कैसा भागा!

तुम जरा सावधान रहना। तुम जरा होशियार रहना। इस दुनिया में और कोई बड़ा लुटेरा नहीं है जो तुम्हें लूट ले, इस दुनिया में और कोई बड़ा जालसाज नहीं है जो तुम्हें धोखा दे दे, तुम्हारी बुद्धि सबसे बड़ी जालसाज है। और इस कुशलता से देती है धोखे और ऐसी सादगी से देती है धोखे कि स्मरण भी नहीं आता कि धोखा हो रहा है।

प्रेम कभी पाखंड नहीं है। तर्क सदा पाखंड है। प्रेम कभी भी अंधा नहीं है। तर्क सदा अंधा है। प्रेम कभी भी पागल नहीं है। तर्क विक्षिप्तता की ही एक प्रक्रिया है।

वीणा, तेरे भीतर प्रेम का अंधापन पैदा हुआ अर्थात आंखें पैदा हुईं। और तेरे भीतर प्रेम का पागलपन जगा अर्थात पहली बार तू स्वस्थ होनी शुरू हुई है। छोड़ फिकिर! जो तू मांग रही है, वह हो चुका है। पूछा है तूने—

इच्छा केवल रजकण में मिल

तब मंदिर के निकट पडूं…

तू मंदिर के भीतर आ गई है! तू मंदिर में है। यह सारा अस्तित्व उसका मंदिर है। बस भीतर प्रेम जगा कि सारा अस्तित्व मंदिर हुआ।

आते—जाते कभी तुम्हारे

श्री चरणों से लिपट पडूं

उसके चरणों में ही हम हैं। उससे अन्यथा होने का उपाय नहीं है। जहां भी हो, उसके ही चरण हैं।

नानक की कहानी तुम्हें याद दिलाऊं। गए काबा। रात सोए। पुजारी बहुत नाराज हो गए, क्योंकि काबा के पवित्र मंदिर की तरफ उनके पैर थे। पुजारियों ने आकर कहा कि हम तो समझे थे कि तुम साधु मालूम पड़ते हो, देखने से फकीर मालूम पड़ते हो, बातें बड़ी ज्ञान की करते हो और इतनी भी तुम्हें तमीज नहीं, इतना शिष्टाचार भी नहीं, पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो रहे हो! नानक ने कहा, मैं भी बड़ी मुश्किल में था, रात होने लगी, नींद आने लगी, मेरी भी बड़ी चिंता थी कि पैर करूं तो कहां करूं! तुम मेरे पैर वहां कर दो जहां परमात्मा न हो।

ऐतिहासिक तथ्य तो इतना ही मालूम होता है—इससे ज्यादा की जरूरत भी नहीं है, बात नानक ने कह ही दी—लेकिन कहानी थोड़े और आगे जाती है। कहानी थोड़ी कविता बनती है। इतिहास जहां काम नहीं कर पाता, वहां काव्य की जरूरत होती है। इतिहास जो नहीं कह सकता, वह काव्य कहता है। यहां तक तो इतिहास है, इसके आगे बड़ा प्यारा काव्य है!

पुजारी तो क्रोध में थे, भन्नाए थे, उन्होंने पकड़े दोनों पैर नानक के और घुमा दिए दूसरी तरफ; और चकित हुए जानकर: काबा उसी तरफ घूम गया। सब दिशाओं में पैर घुमा कर देखे। जहां पैर घुमाए, काबा वहीं घूम गया। तब चरणों पर गिर पड़े नानक के कि हमें क्षमा कर दो! इतनी बात तो कविता की है। काबा घूमेगा नहीं। काबा घूमने वाला नहीं। यह तुम पक्का समझो। काबा घूम सकता नहीं है। लेकिन यह काव्य भी इशारा कर रहा है एक गहन सत्य की तरफ। यह यही कह रहा है कि परमात्मा सब तरफ है। उसके ही चरण हैं।

एकनाथ के संबंध में भी मैंने कहानी सुनी है। गांव में एक आदमी था जो बड़ा नास्तिक। आस्तिकों को झकझोर डाला था उसने। आखिर आस्तिक परेशान हो गए, उन्होंने कहा, अगर तुम्हें कोई आदमी समझा सकता है तो बस एकनाथ। और कोई तुम्हें नहीं समझा सकता। उसने कहा, कहां हैं एकनाथ? तो उन्होंने कहा, वे दूसरे गांव में नदी के किनारे एक मंदिर में रहते हैं। तुम चले जाओ वहीं। वह आदमी सुबह ही सुबह…ब्रह्ममुहूर्त में पहुंच गया, सोच कर कि साधु से मिल लेना ब्रह्ममुहूर्त में ही ठीक होगा! फिर निकल पड़ें भिक्षा मांगने या और कहीं चले जाएं!

तो पांच बजे ही पहुंच गया। पांच बजे से बैठा है मंदिर के दरवाजे पर। दरवाजा खुला है और एकनाथ सोए हैं। जरा उजाला हुआ तो वह बहुत हैरान हुआ; जो देखा उस पर आंखों को भरोसा न आया; आंखें पोंछीं, धोयीं पानी से, फिर—फिर देखा, जो देखा उस पर भरोसा नहीं आता था, नास्तिक हो कर भी नहीं आता था। सोचने लगा कि यह तो महा नास्तिक मालूम होता है। वह शंकरजी की पिंडी पर पैर टेके सो रहे थे। कम—से—कम नानक तो पैर किए थे सिर्फ, कोई काबा पर पैर टेक नहीं दिए थे, सिर्फ उस दिशा में पैर किए थे, एकनाथ और एक कदम आगे बढ़ गए!…नानक की कहानी सुनी होगी, सोचा वही क्या करना, जरा और आगे! शंकरजी की पिंडी पर पैर टेके हैं और मस्त पड़े है; पैरों को तकिया दिया हुआ है शंकरजी की पिंडी का!

वह नास्तिक की छाती दहल गई। उसने कहा, मैं नास्तिक हूं, मैं ईश्वर को मानता भी नहीं, लेकिन अगर मुझसे कोई कहे कि शंकरजी की पिंडी को पैर लगाओ, तो मैं भी लगाऊंगा नहीं; हो—न—हो, कौन जाने; फिर पीछे झंझट हो मरने के बाद, कहे कि क्यों, अब बोलो! हालांकि मैं मानता हूं कि ईश्वर नहीं है। मगर यह मान्यता मान्यता ही है। अनुमान अनुमान है, तर्क तर्क है, पता नहीं हो ही! कौन देख आया! मरकर लौटकर किसी ने कहा तो नहीं कि नहीं है! न किसीने कहा है, न किसी ने कहा, नहीं है, दोनों संभावनाएं खुली हैं, विकल्प खुले हैं। कौन जाने? पचास—पचास प्रतिशत का मामला! फिफ्टी—फिफ्टी! हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। मगर यह आदमी तो हद है! यह सौ प्रतिशत माने बैठा है कि नहीं है। यह तो तकिया लगाए हुए है। इससे क्या हल होगा?

मन में तो हुआ कि लौट जाऊं, इससे क्या हल पूछना है, यह और मुझे बिगाड़ेगा। मगर अब इतनी दूर आ गया था तो सोचा कि जरा बात तो कर लूं, आदमी वैसे जानदार मालूम पड़ता है! और जिस मस्ती से सो रहा है! छह बज गए, सात बज गए, आठ बज गए…कहा, हद हो गई, यह कैसा साधु! साधु को तो ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। यह तो साधुओं और तामसियों का ढंग है कि पड़े हैं, सो रहे हैं आठ—आठ, नौ—नौ बजे तक। यह आदमी बिलकुल नास्तिक है।

नौ बजे एकनाथ उठे। उस आदमी ने कहा, महाराज, पूछने तो बहुत कुछ आया था, लेकिन अब कुछ और ही पूछने के लिए सवाल उठ गए हैं मन में। पहले तो यह कि साधु को ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। तो एकनाथ ने कहा, तुम क्या समझ रहे हो मैं ब्रह्ममुहूर्त में नहीं उठा? अरे, साधु जब उठे तब ब्रह्ममुहूर्त। और कौन तय करेगा ब्रह्ममुहूर्त? कोई ठेका लिया है किसी ने? कोई सील—मुहर लगी है? ब्रह्ममुहूर्त का क्या अर्थ है? ब्रह्म को जानने वाला जब उठे। ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण, ब्रह्म को जानने वाला जब उठे तब ब्रह्ममुहूर्त। अज्ञानियों के जगने से ब्रह्ममुहूर्त हो सकता है! सारी दुनिया के अज्ञानी उठ आएं पांच बजे तो भी कुछ नहीं होता। एकनाथ ने कहा, जब मैं उठूं, तब समझना ब्रह्ममुहूर्त। वह आदमी बोला कि बात तो जंचती है? मगर दूसरी बात!

चलो यह भी ठीक कि जब साधु उठे तब ब्रह्ममुहूर्त; शंकरजी की पिंडी पर पैर क्यों टेके पड़े हो? शर्म नहीं आती, संकोच नहीं लगता? आस्तिक हो या नास्तिक? एकनाथ ने कहा कि यह सवाल जरा झंझट का है! मैं खुद ही पूछ रहा हूं भगवान से आज कई साल हो गए कि बता, कहां पैर रखूं? तू बता, कहां पैर रखूं? जहां पैर रखूं वहीं तू है। आखिर कहीं तो पैर रखूं! कोई अपने सिर पर तो पैर रख न लूं। तेरे ही सिर पर पड़ेंगे। तो उसने ही मुझसे कहा कि तू झंझट न कर, पिंडी पर पैर रख ले—यहां मैं कम—से—कम हूं। पंडित—पुरोहितों के कारण यहां मैं रह ही नहीं पाता। तब से मैं पिंडी पर ही पैर रखने लगा, मैं भी क्या करूं? जब वही कहे तो आज्ञा माननी पड़ेगी।

एकनाथ जिस अपूर्व प्रेम से भरकर यह बात कह रहे हैं, तो शंकर की पिंडी पर भी पैर रखने का अधिकार है। लेकिन इसका कारण देख रहे हो। महा आस्तिकता इसका कारण है। झुके आस्तिक, तो भक्ति, प्रतिमा को जला डाले, तो आराधना। सवाल भीतर का है। सवाल बाहर का नहीं है। अपने हृदय को ही टटोलते रहो, वही है दिशासूचक यंत्र।

वीणा, मन की फिक्र छोड़। तू उसके ही चरणों में है, उसके ही मंदिर में है। उसके अतिरिक्त और कहीं होने का कोई उपाय नहीं है।

दूसरा प्रश्न:

 

भगवान, धर्म और आदमी के बीच कौन—सी दीवारें हैं, इस पर प्रकाश डालने की कृपा करें।

रामनारायण चौहान, दीवारें नहीं हैं, बस दीवार है। एक ही दीवार है: मनुष्य के अहंकार की, मनुष्य के अकड़ की। मैं कुछ हूं। मैं श्रेष्ठ हूं; दूसरे निकृष्ट हैं। मैं ऊपर हूं; दूसरे नीचे हैं। बस इस अहंकार की दीवाल है। जिस दिन यह अहंकार गया, उस दिन कोई दीवार नहीं। और चूंकि यह एक दीवार तुम नहीं जाने देते, बहुत लोग इकट्ठे हो गए हैं जो इस तुम्हारी दीवाल में नई—नई ईंटें चुनते हैं। और जो भी तुम्हारी इस दीवाल में ईंटें चुनते हैं, वे ही तुम्हें प्यारे लगते हैं। पंडित हैं, पुरोहित हैं, उनका काम इतना ही है: तुम्हारे अहंकार को सजाएं; तुम्हारे अहंकार को नए—नए रूप—रंग दें; तुम्हारे अहंकार को नए—नए ढंग दें; तुम्हारे अहंकार को ऐसा सजाएं कि वह अहंकार मालूम ही न पड़े। तुम्हारे अहंकार को विनम्रता तक का वेश पहना देते हैं। तुम्हारे अहंकार को त्याग के आभूषण पहना देते हैं। तुम्हारे अहंकार को ज्ञान की बकवास सिखा देते हैं।

दीवार तो एक है, अहंकार, हां, दीवार को सजाने वाले बहुत हैं। चारों तरफ से तुम्हारी दीवार को सजाया जा रहा है। मां—बाप तुमसे कहते हैं कि खयाल रखना, किस कुल में पैदा हुए हो। जैसे कि हम सब अलग—अलग कुलों में पैदा हुए हैं। एक ब्रह्म—कुल, और तो कोई कुल नहीं है। नहीं लेकिन मां—बाप कहते हैं, याद रखना, परिवार की प्रतिष्ठा, सम्मान, कुल—गौरव। अहंकार! छोटे—से बच्चे को अहंकार दे रहे हैं। फिर स्कूल है, कालेज है, विश्वविद्यालय है, बस सब अहंकार की पूजा सिखा रहे हैं। प्रथम आना, नंबर दो नहीं। दो होना बर्दाश्त ही मत करना। प्रथम ही होना चाहिए।

जार्ज बर्नार्ड शा से किसी ने पूछा मरने के पहले कि तुम नर्क जाना पसंद करोगे, कि स्वर्ग? उसने कहा: नर्क और स्वर्ग से कोई फर्क नहीं पड़ता। असली सवाल यह है कि जहां भी मैं प्रथम हो सकूं, वहां मैं जाना पसंद करूंगा। अगर मुझे प्रथम होने का मौका नर्क में मिलता हो तो नर्क के लिए मैं राजी हूं। स्वर्ग को लात मार दूंगा। स्वर्ग में भी अगर मुझे नंबर दो खड़ा होना पड़े तो मुझे जाने की कोई इच्छा नहीं है।

एक बार जार्ज बर्नार्ड शा ने एक व्याख्यान में कह दिया कि गैलीलियो ने बात बिलकुल गलत कही है कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है, मैं कहता हूं कि सूरज ही पृथ्वी का चक्कर लगाता है। अब तो यह बात वैज्ञानिक रूप से प्रामाणिक हो चुकी है कि पृथ्वी ही सूरज का चक्कर लगाती है, गैलीलियो ने जब कहा था तब तो बड़ी अड़चन थी। गैलीलियो को बहुत सताया गया था, ईसाई पादरियों ने बहुत कष्ट दिए थे, दंड दिए थे। गैलीलियो को अदालत में बुलाकर क्षमा मंगवाई थी। बूढ़ा गैलीलियो, बड़ा व्यंग्य किया था, बड़ा मजाक किया था! बड़ा समझदार आदमी रहा होगा। जब उसे अदालत में बुलाया पोप ने और कहा कि घुटन टेक कर माफी मांगों और घोषणा करो, क्योंकि बाइबिल तो कहती है कि सूरज चक्कर लगाता है पृथ्वी का…सारे दुनिया के शास्त्र यही कहते हैं। इसीलिए तो सारी दुनिया की भाषाओं में ऐसे शब्द हैं: सूर्योदय, सूर्यास्त; सुबह उदय होता है सूरज का, सांझ अस्त हो जाता है। सूरज चक्कर लगाता है।…और तुम कहते हो पृथ्वी चक्कर लगाती है सूरज का! यह बात गलत है। यह बाइबिल के खिलाफ है, यह शास्त्र के विपरीत है, तुम क्षमा मांग लो! अन्यथा महंगा पड़ जाएगा सौदा! या तो मरने को तैयार हो जाओ।

गैलीलियो ने घुटने टेक दिए।

मैं गैलीलियो को बहुत मस्त आदमी मानता हूं। अनेकों ने गैलीलियो की निंदा की है। अनेकों ने यह कहा कि गैलीलियो डर गया। उसने क्षमा मांग ली। क्षमा नहीं मांगनी थी, शहीद हो जाना था। मैं नहीं मानता ऐसा। मैं मानता हूं गैलीलियो बहुत बुद्धिमान आदमी था। ऐसी टुच्ची बातों के लिए मरने में क्या सार है! और फर्क ही क्या पड़ता है कि कौन चक्कर लगाता है! मैं तो मानता हूं कि गैलीलियो में आत्मघाती वृत्ति नहीं थी, नहीं तो वह शहीद हो जाता। शहीदों में आमतौर से आत्मघाती वृत्ति होती है। सौ में से निन्यानबे शहीद मरने को उत्सुक होते हैं, लेकिन खुद मरने का जुम्मा अपने ऊपर नहीं लेना चाहते, दूसरे पर देना चाहते हैं। सौ में से निन्यानबे शहीद आत्मघाती होते हैं। उनकी मरने की आतुरता होती है। मगर इतनी भी हिम्मत नहीं होती कि खुद की छाती में छुरी मार लें। वे दूसरे को उकसाते हैं कि तुम हमें मारो। गैलीलियो स्वस्थ आदमी रहा होगा। इसलिए मैं सारे दुनिया के वक्तव्यों के विपरीत यह वक्तव्य दे रहा हूं कि मैं मानता हूं गैलीलियो बहुत स्वस्थ आदमी था और उसने जो बात कही, वह केवल बड़ा समझदार आदमी कह सकता है। उसने कहा, हे प्रभु, मैं माफी मांगता हूं। मैं कहता हूं, घोषणा करता हूं कि पृथ्वी सूरज का चक्कर नहीं लगाती। वह जो मैंने कहा था, गलत था, सूरज ही पृथ्वी का चक्कर लगाता है।

पोप पादरियों की जमात बड़ी प्रसन्न हुई, लोगों ने तालियां बजाईं और तब गैलीलियो ने कहा: लेकिन एक बात और मैं कह दूं कि मेरे कहने से कुछ नहीं होता चक्कर तो पृथ्वी ही लगाती है। मुझ गरीब आदमी के कहने से क्या फर्क पड़ता है!

इसको तो मैं बहुत बुद्धिमान आदमी कहता हूं। इसने करारा तमाचा दिया। मरने से भी ज्यादा गहरी चोट पहुंचाई। इसने कहा: मैं क्या कर सकता हूं? जैसा है वैसा है। तुम झंझट खड़ी करते हो, मैं माफी मांगे लेता हूं। एक दफे क्या तीन दफे मांगे लेता हूं। मगर मैं बताए देता हूं कि भूल में मत रहना, चक्कर तो पृथ्वी ही लगाती है।

गैलीलियो के वर्षों बाद, तीन सौ वर्ष बाद बर्नार्ड शा ने अपने एक व्याख्यान में कहा कि मैं कहता हूं, गैलीलियो गलत था। पृथ्वी का चक्कर सूरज लगाता है, सूरज का चक्कर पृथ्वी नहीं लगाती। एक व्यक्ति ने खड़े होकर पूछा कि आप तो हद कर रहे हैं। आपके पास प्रमाण? उसने कहा, प्रमाण यह है कि जिस पृथ्वी पर बर्नार्ड शा रहता है, वह पृथ्वी किसी का चक्कर नहीं लगा सकती। सूरज को ही चक्कर लगाना पड़ेगा!

बर्नार्ड शा हमारे अहंकार का व्यंग्य कर रहा है, मजाक कर रहा है! वह यह कह रहा है कि आदमी की अकड़। उसी अकड़ के कारण शास्त्र कहते थे कि सूरज चक्कर लगाता है। उसी अकड़ के कारण शास्त्र कहते हैं: पृथ्वी केंद्र है सारे जगत का। क्यों? क्योंकि आदमी पृथ्वी पर रहता है और आदमी केंद्र है सारे प्राणियों का और आदमी सर्वोपरि है। शास्त्र तुम्हारे अहंकार भरते हैं, शिक्षा तुम्हारे अहंकार को प्रोत्साहन देती है, महत्वाकांक्षा जगाती है। तुम्हारे पंडित—पुरोहित तुम्हारे अहंकार को भरने के ऐसे—ऐसे उपाय बताते हैं—और अहंकार को भरना हो तो उलटे—सीधे उपाय करने होते हैं। क्योंकि अहंकार अप्राकृतिक है, अस्वाभाविक है।

अगर तुम सिर के बल खड़े हो जाओ, बाजार में भीड़ लग जाएगी। पैर के बल घंटों खड़े रहो, कोई नहीं आता। बड़े अजीब लोग हैं! पैर के बल घंटों खड़े रहे, कोई नहीं आया, सिर के बल खड़े हो गए, फौरन भीड़ लग गई, लोग पूछने लगेंगे कि कोई योगी महाराज आ गए, कोई महात्मा आ गए? महात्मा होना हो तो सिर के बल खड़े होना पड़ता है। महात्मा होना हो तो कोई—न—कोई मूढ़ता करनी पड़ेगी। आधे बाल ही कटा लो और शहर में निकल जाओ और सारा गांव जानने लगेगा कि है कोई पहुंचा हुआ पुरुष। न जंचती हो बात, करके देखो। आधी दाढ़ी, आधे बाल साफ कर लो, तीन दिन से ज्यादा नहीं लगेंगे, सब अखबारों में फोटो छप जाएंगे, जगह—जगह लोग पूछने लगेंगे कि भाई, इसका राज क्या है? और अगर जरा होशियार आदमी हो तो राज बताने लगना। और कुछ हैरानी न होगी कि कुछ और लोग कटा लें। मूढ़ों को भी और बड़े मूढ़ मिल जाते हैं, जो उनके शिष्य हो जाते हैं।

चार कौए उर्फ चार हौए

 

बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले

उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले

उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएं और गाएं

वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनाएं।

 

कभी—कभी जादू हो जाता है दुनिया में

दुनिया—भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में

 

ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए

इनके नौकर चील, गुरुड़ और बाज हो गए।

 

हंस मोर चातक गौरैए किस गिनती में

हाथ बांधकर खड़े हो गए सब विनती में

हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएं

पिऊ—पिऊ को छोड़ें कांव—कांव गाएं

 

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों के

खाना—पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को

 

कौओं की ऐसी बन आई पांचों घी में

बड़े—बड़े मनसूबे आए उनके जी में

उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले

उड़ने वाले सिर्फ रह गए बैठे ठाले।

 

आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है

यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है

उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना

लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना!

कौए चाहते हैं कि सब कांव—कांव करें। उनका नियम सब का नियम हो जाए। वे नियंता बन जाएं। कौओं की कुल कुशलता इतनी है कि खूब कांव—कांव करना जानते हैं: शोरगुल बहुत मचा लेते हैं; बकवासी हैं; बक्कड़ हैं। पंडित—पुरोहितों ने खूब कांव—कांव मचा रखी है। और उन्होंने नियम बनाए हैं कि आदमी कैसे उठे, कैसे चले, कैसे बैठे, क्या कहे, क्या न कहे; उन्होंने सारी नीति—मर्यादा निर्धारित की है। उन्होंने आदमी को इस तरह से अकृत्रिम जगत से खींचकर कृत्रिम कर दिया है।

कौओं की ऐसी बन आई पांचों घी में

बड़े—बड़े मनसूबे आए उनके जी में

उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले

उड़ने वाले सिर्फ रह गए बैठे ठाले।

तुम जो परमात्मा को जान सकते हो, तुम गीता पढ़ रहे हो, कुरान पढ़ रहे हो! तुम जो परमात्मा को जान सकते हो, बैठे राम—राम जप रहे हो, तोतारटंत! तुम जो परमात्मा का अनुभव कर सकते हो, जो तुम्हारे भीतर बैठा है, उससे कांव—कांव करवा रहे हो! मंत्र, गायत्री, नमोकार जपवा रहे हो! किससे? उससे जिसकी तुम तलाश कर रहे हो। वह तुम्हारे भीतर बैठा है। लेकिन तुम्हारे अहंकार को मजा इसी में आएगा कि कुछ उलटा—सीधा हो। कांटों पर लेटो तो अहंकार को प्रतिष्ठा मिलती है; उपवास करो तो अहंकार को प्रतिष्ठा मिलती है।

झेन फकीर बोकोजू के पास एक आदमी ने आकर कहा कि तुम अपने गुरु की बड़ी तारीफ करते हो, तुम्हारे गुरु में खूबी क्या है? मेरा गुरु चमत्कारी है! अब अपनी आंखों देखा चमत्कार तुम्हें बताता हूं। एक दिन गुरु ने मुझसे कहा कि पूर आई नदी में तू उस तरफ चला जा! नाव में बैठकर मैं उस तरफ गया। मुझे एक कोरा कागज दे दिया और कहा कि उस तरफ तू कोरा कागज ऊंचा करके खड़ा हो जाना, और मैं इस किनारे से लिखूंगा अपनी कलम से और तेरे कागज पर अक्षर उभरेंगे। और उभरे! गुरु उस तरफ, कोई आधा मील फासले पर, मैं इस तरफ, गुरु ने लिखा वहां से अपनी कलम से और अक्षर उभरे मेरे कागज पर। ऐसा चमत्कार गुरु ने मुझे दिखाया। तुम्हारे गुरु ने क्या किया, तुम्हारे गुरु का चमत्कार क्या है? बोकोजू ने जो वचन कहा, सोने के अक्षरों में लिख लेने जैसा है, हृदय में खोद लेने जैसा है। बोकोजू ने कहा कि मेरे गुरु का चमत्कार यह है कि वे चमत्कार कर सकते हैं और नहीं करते।

चमत्कार कर सकते हैं और नहीं करते! इतनी उनकी सामर्थ्य है! कठिन सामर्थ्य है। चमत्कार तुम कर सको और न करो! जरा—सी कला आ जाएगी, दिखाने का मोह आता है, प्रदर्शन का भाव जगता है, क्योंकि अहंकार की पूजा तो तभी होगी जब प्रदर्शन होगा। हाथ से राख निकाल सको, फिर तुमसे न रुका जाएगा। फिर तुम चलोगे तलाश में कि मिलें कोई बुद्धू जो राख देखने को उत्सुक हों, हाथ से राख गिरे और वे चमत्कार मानें। तुम कुछ छोटा कुछ खेल कर पाओ, कुछ मदारीगिरी कर पाओ, तो बस करना शुरू कर दोगे। लोग ऐसे मूढ़ हैं कि व्यर्थ में लेकिन अप्राकृतिक में उनकी उत्सुकता है, सहज स्वाभाविक में नहीं।

बोकोजू ने यह भी कहा कि मेरे गुरु से मैंने पूछा था कि आपके जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार क्या है? तो मेरे गुरु ने कहा कि जब मुझे भूख लगती तब मैं भोजन करता और जब मुझे प्यास लगती तब मैं पानी पीता और जब मुझे नींद आ जाती तो मैं सो जाता। इतना ही उत्तर उन्होंने मुझे दिया था और अब मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि इससे बड़ा और कोई चमत्कार नहीं है।

मैं भी अपने अनुभव से तुमसे कहता हूं कि सहज और स्वाभाविक होने से बड़ा चमत्कार और कोई नहीं है। मगर वह दुनिया में दिखाई नहीं पड़ता सहज और स्वाभाविक होना। अस्वाभाविक दिखाई पड़ता है, असहज दिखाई पड़ता है। इसलिए जो चीजें जितनी अस्वाभाविक हैं उतनी मूल्यवान हो गईं। उपवास मूल्यवान हो गया, क्योंकि भूख सहज है, स्वाभाविक है। बिना भूख के आदमी जी ही नहीं सकता। बिना भोजन के आदमी जी नहीं सकता। भूख स्वाभाविक है, भोजन अनिवार्य है। जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। इसीलिए सारी दुनिया में उपवास का महत्व हो गया। क्योंकि उपवास उलटा है। जो आदमी उपवास करे, उसके प्रति तुम्हारे मन में सम्मान पैदा होता है। क्यों? क्योंकि वह प्रकृति के प्रतिकूल जा रहा है। सिर के बल खड़ा हो रहा है। इसलिए उपवासी जगह—जगह पूजे जाते हैं। कौन कितना बड़ा उपवासी है उतना बड़ा महात्मा है। कर रहा है केवल शरीर के साथ अत्याचार; कर रहा है केवल आत्महिंसा; सता रहा है अपने को, मार रहा है अपने को, आत्मघाती है, लेकिन पंडित—पुरोहितों ने तुम्हें तरकीबें दी हैं। ये ईंटें हैं जिनसे अहंकार की दीवाल मजबूत होती चली जाती है, बड़ी होती चली जाती है।

एक तो भूख, दूसरी कामवासना सहज स्वाभाविक है। क्योंकि उससे ही तो मनुष्य पैदा हुआ है। उसको भी पकड़ लिया पंडित—पुरोहितों ने। दबाओ कामवासना को! तो ब्रह्मचर्य का बड़ा मूल्य हो गया। अपनी कामवासना को बिलकुल दबा डालो तो तुम महान पुरुष हो गए। दबी रहेगी भीतर, आग की तरह सुलगेगी भीतर, लेकिन दबा दो गहरे में, अपने अचेतन में। सड़ाएगी तुम्हें वहां से, तुम्हारी आत्मा को गंदा करेगी—जितनी दबी हुई कामवासना आत्मा को गंदा करती है और परमात्मा से दूर करती है व्यक्ति को, उतनी कोई और चीज नहीं। क्योंकि जिसने कामवासना को दबाया है, वह चौबीस घंटे कामवासना—ही—कामवासना से भरा रहता है। जिसने उपवास किया है, वह चौबीस घंटे भोजन—ही—भोजन की सोचता है, रात सपने भी भोजन के देखता है।

तुम्हारे साधु—संन्यासी दो ही तरह के सपने देखते हैं—भोजन के और कामवासना के। या तो सुंदर स्त्रियां उन्हें सताती हैं सपने में…अब किस सुंदर स्त्री को पड़ी है? और यह कोई नई बात नहीं है कि आजकल के कलियुग के साधुओं के संबंध में सच हो, सतयुग के साधुओं के साथ भी यही सच था—और भी ज्यादा सच था। अप्सराएं सताती थीं उनको आकाश से उतर—उतर कर। किस अप्सरा को पड़ी है! ये रूखे—सूखे कंकाल ऋषि—मुनि, वर्षों से नहाए नहीं, धोए नहीं, लक्स टायलेट साबुन का नाम नहीं सुना, इनके पास आओ तो बदबू आए, ये पसीने, धूल—धवांस से भरे और इतने से इनकी तृप्ती नहीं होती और राख लपेटे, भभूत रमाए; इनके बालों में जितनी जूं हों उतनी किसी के बालों में नहीं…जब पशु—पक्षी तक घोंसला बना लेते हैं इनके बालों में तो जूंए इत्यादि की तो गिनती क्या करनी, पिस्सू इत्यादि का तो हिसाब ही क्या लगाना! जब पक्षी में घोंसला बना लेते हों और ये टस से मस नहीं होते, फिर कहना ही क्या! इन पर स्वर्ग की अप्सराएं मोहित हो जाती हैं। इनमें क्या देखकर मोहित होती होंगी? उर्वशी चली, नाचती, सोलह शृंगार करके, ये मुनि महाराज को सताने!

न तो कहीं कोई अप्सराएं हैं, न कहीं कोई अप्सराएं किसी को सताने आती हैं। ये इनके ही अचेतन में दबाए गए भाव हैं। इतने दबा लिए हैं कि अब ये खुली आंख सपना देख सकते हैं। कम दबाओ तो बंद आंख सपना देख सकते हो, ज्यादा दबाओ तो खुली आंख सपना देख सकते हो। ये एक तरह के विभ्रम में पड़ गए हैं। ये संसार की माया तो छोड़ आए हैं, कहते हैं, लेकिन अब इन्होंने अपना माया जाल खड़ा कर लिया है। ये सपना देख रहे हैं इंद्र के सिंहासन पर होने का। और इसलिए ये इस तरह की परिकल्पना कर रहे हैं कि शायद इंद्र ने अपने सिंहासन को डांवाडोल होते देखकर अप्सराओं को भेजा है भ्रष्ट करने।

इन्हीं ऋषि—मुनियों ने लिखा है: स्त्री नरक का द्वार है। अनुभव से लिखा होगा। क्योंकि ऋषि—मुनि तो अनुभव की बात कहते हैं। गए होंगे नर्क में स्त्री के द्वार से। कैसे इन्होंने जाना कि स्त्री नरक का द्वार है? ऋषि—मुनि स्वर्ग जाते हैं, इनको नर्क का अनुभव कैसे हुआ? इन्होंने इसी जिंदगी में नरक देख लिया है। स्त्री को दबाया है तो उसने नरक खड़ा कर दिया है। स्त्री पुरुष को दबाए तो पुरुष नरक का द्वार हो जाएगा।

मैंने सुना है…आगे की कहानी है…हेमामालिनी मरी। वैतरणी नदी पर पहुंची। चित्रगुप्त महाराज खड़े हैं प्रतीक्षा में। कहा: बिटिया, तख्ती लगी है, ठीक से पढ़ लो! बड़ी तख्ती लगी थी, जिस पर दो हड्डियों का क्रास बना और ऊपर एक आदमी की खोपड़ी और अंग्रेजी में लिखा: डेंजर और हिंदी में लिखा: खतरा। सावधान! जैसा स्प्रिट की बोतलों पर लिखा रहता है। या जहां बिजली का बहुत वोल्टेज होता है वहां लिखा रहता है। नीचे बड़े—बड़े अक्षरों में लिखा है कि वैतरणी पार करते समय एक बात ध्यान रहे: उनके लिए जिनके मन में कामवासना न उठे, वैतरणी छिछली है। घुटनों से ज्यादा पानी नहीं। लेकिन जैसे ही कामवासना उठी कि वैतरणी गहरी हो जाती है। एकदम डुबकी खा जाता आदमी! और डुबकी खाई कि गए नरक! तो कहा: बिटिया, ठीक से पढ़ ले! अनेक डूब गए हैं। हेमामालिनी ने कहा: आप फिक्र न करो। हेमामालिनी चली वैतरणी पार करने। आधी वैतरणी पार हो गई, तब अचानक धड़ाम की आवाज आई; पीछे लौटकर देखा, चित्रगुप्त महाराज डुबकी खा रहे हैं! उसने पूछा: अरे बापू, क्या हुआ? चित्रगुप्त महाराज ने कहा: ठीक रहा है शास्त्रों में कि स्त्री नरक का द्वार है। मार गए डुबकी, चले गए नरक!

जितना दबाओगे उतना उभरने की संभावना है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों। और दमन अहंकार को परिपुष्ट करने की सबसे बड़ी प्रक्रिया है। सहज होओ, स्वाभाविक होओ, स्वस्फूर्त जीवन जीओ। प्रकृति के अनुकूल, सब अर्थों में। अपने की जबर्दस्ती सता कर स्वर्ग न ले जा सकोगे। परमात्मा आत्म—हिंसकों को सम्मान नहीं दे सकता। कम—से—कम परमात्मा ने तुम्हें जो जीवन दिया है उसका सम्मान करो। उस जीवन में ही तो परमात्मा छिपा है।

रामनारायण चौहान, तुम पूछते हो: धर्म और आदमी के बीच कौन—सी दीवारें हैं? दीवारें नहीं हैं, बस एक दीवार है। अहंकार की। हालांकि उस दीवार में बहुत—सी ईंटें हैं और वे सब ईंटों को जमाने का एक ही ढंग है। प्रकृति के विपरीत जो भी है, वही अहंकार के लिए ईंट बन जाता है। मैं सिखाता हूं प्राकृतिक जीवन। मेरी देशना सीधी—सादी है। सरलता से जीओ। न भागना कहीं, न बचना है किसी बात से। परमात्मा ने जो दिया है, सब शुभ है। उसे धन्यवाद दो। और अगर उसने कीचड़ भी दी है तो इसी आशा में दी है कि कीचड़ से कमल पैदा होते हैं। और उसने अगर लोहा दिया है तो इसी आशा में दिया है कि तुम्हारे भीतर पारस पत्थर भी है, उसे खोज लो, उसके छूते ही लोहा भी सोना हो जाएगा। सोना ही नहीं होता, सोने में सुगंध भी आ जाती है। और पंडित—पुरोहितों भर से मत पूछना। उनसे बचना। न उन्हें पता है, न उन्हें अनुभव है। लेकिन इस दुनिया में इतने सरलचित्त लोग बहुत कम हैं जो यह कह सकें कि हमें पता नहीं है। तुमसे भी कोई कुछ पूछता है, तुम्हें चाहे पता न भी हो तो भी तुम उतर देते हो। क्योंकि कोई मानने को राजी नहीं होता कि मैं अज्ञानी हूं।

मेरे एक प्रोफेसर थे विश्वविद्यालय में, कुछ भी कहो, वे कहें कि हां, मैंने यह किताब पढ़ी है। उनके ढंग—ढौल से, उनकी बातों से ऐसा मुझे कभी लगा नहीं कि वे कोई बड़े अध्येता हैं, या उन्होंने कुछ बहुत पढ़ा—लिखा है। ढंग—ढौल उनका ऐसा था जैसे कि काशी के चौबों का होता है—बड़ा पेट! खाने—पीने के लिए बड़े प्रसिद्ध थे विश्वविद्यालय में वे। बातचीत भी उनकी अति साधारण कोटि की। तमाखू फांकते रहें। मुंह से उनके पान की लार टपकती रहे, कपड़ों पर। उन्हें देखकर ही नहीं लगता था कि उनको कोई…उनके घर भी मैं कई दफा गया, कभी उन्हें मैंने नहीं देखा सिवाय अखबार—अखबार जरूर वे पढ़ते थे। कभी मैंने उन्हें विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में नहीं देखा। मैंने जाकर पुस्तकालय में जांच—पड़ताल भी की कि उन्होंने कभी कोई किताब पुस्तकालय से ली है। तो पता चला दस सालों में तो नहीं ली है। और दस साल के पहले के रिकार्ड उन्होंने कहा हम रखते नहीं हैं। दस साल तक का रिकार्ड है, इसमें तो उन्होंने कभी कोई किताब नहीं ली। लेकिन किसी भी किताब का नाम लो और वे कहेंगे कि हां, मैंने पढ़ी है।

एक दिन मैंने दो झूठे लेखक और उनकी दो झूठी किताबें—न तो कभी लेखक हुए हैं वे और न कभी वे किताबें लिखी गई हैं—कक्षा में आकर उनका नाम लिया और मैंने कहा, इनके संबंध में आपका का खयाल है? उन्होंने कहा: मैंने पढ़ी हैं। सुंदर किताबें हैं! अच्छे लेखक हैं! सार की बात लिखते हैं। पढ़ने योग्य हैं। जो भी बातें कहीं उसमें कुछ ऐसा नहीं था कि जिससे कोई ऐसा लगे कि उन्होंने नहीं पढ़ी हैं। मगर जो भी कहा, किसी भी किताब के संबंध में कहा जा सकता है उतना ही कहा। जैसे ज्योतिषी कहते हैं। ज्योतिषी को हाथ दिखाओ, वह कहता है, धन आता है लेकिन टिकता नहीं। किसके टिकता है? हाथ देख—दाख कर थोड़ा कहता है कि अपने वालों से बड़ा दुख मिलता है। और किससे मिलता है? पराए दुख देने की झंझट करेंगे भी क्यों? क्या उनके अपने नहीं हैं जिनको दें? हाथ देखकर ज्योतिषी कहता है, सफलता मिलेगी जरूर लेकिन अभी दूर है। किसी से भी कहो, सही है। सफलता सदा ही दूर रहती है। किसको मिलती है? ज्योतिषी हाथ देखकर कहता है, तुम तो नेकी करते हो लेकिन लोग बदी करते हैं। क्या पारी और क्या गजब की बातें कही जा रही हैं! बड़े सत्य उदघाटित किए जा रहे हैं और जंचते हैं कि हां, बात तो बिलकुल ठीक है! यही तो सबका अनुभव है, कि हम तो नेकी करते हैं, दूसरे बदी करते हैं।

ऐसे ही उन्होंने कहा दिया कि बड़ी सुंदर किताबें हैं, बड़े अच्छे लेखक हैं, पढ़ने योग्य हैं, काम की बातें लिखी हैं। मैंने उनसे कहा: आप मेरे साथ पुस्तकालय चलें। ये किताबें मुझे निकाल कर आप दिखला दें। वे थोड़े डरे; थोड़े झिझके। कहने लगे: क्यों, क्या बात है? मैंने कहा, आज निर्णय होना है कि आपने ये किताबें पढ़ी हैं कि नहीं? उन्होंने कहा, पढ़ी तो जरूर हैं लेकिन बहुत साल पहले पढ़ी थीं तो ठीक—ठीक मुझे ब्यौरा नहीं है, लेकिन ये लेखक तो जाने—माने हैं और ये किताबें तो प्रसिद्ध हैं। मैंने कहा इसीलिए तो मैं कहता हूं कि आप चलें। उनको मैं ले गया और सारी क्लास को भी साथ ले गया। उनका पसीना छूट गया, लार और ज्यादा बहने लगी। हांफने लगे। उनकी तोंद ऊपर—नीचे गिरने लगी। किताबें तो थीं ही नहीं। मैंने कहा, आज तो चाहे कुछ भी हो जाए, ये किताबें देखकर ही जाना है!

सारी लाइब्रेरी में घुमा दिया; इस विषय से उस विषय में ले गए कि शायद उस विषय में हों, शायद उस विषय में हों! अकेले में मुझे देखकर हाथ जोड़े और कहा, मुझे माफ करो, अब सबके सामने भद्द करवाने से क्या फायदा, अब मैं तुम से नहीं छिपाता, ये किताबें मैंने कभी पढ़ीं नहीं और मुझे पता भी नहीं कि ये किताबें हैं भी या नहीं। तो मैंने कहा कि अब यह आदत आप छोड़ दो। यह हर बात, मैं जानता हूं, यह आदत छोड़ दो!

मगर यह आदत सबकी है। कोई हिम्मत नहीं कर पाता कहने की कि मुझे पता नहीं। कोई तुमसे पूछता है कि ईश्वर है? तुम फौरन जवाब देने को तैयार हो। हां या न, दोनों ही जवाब हैं। मगर इतने हिम्मतवर आदमी कम होता है जो कहे: मुझे मालूम नहीं। तुम पंडितों से पूछने जाओगे, वे जरूर जवाब देंगे। तुम किसी से भी पूछो, वह जवाब देगा, वह मौका छोड़ेगा ही नहीं। सलाह देने का मौका इस दुनिया में कोई छोड़ता ही नहीं। दुनिया में सबसे ज्यादा जो चीज दी जाती है, वह सलाह है। और सबसे कम जो चीज ली जाती है, वह भी सलाह है। देने वाले देते रहते हैं, लेने वाले लेते नहीं हैं। सलाह भटकती रहती है!

कौन—सा पथ है?

मार्ग में आकुल—अधीरातुर बटोही यों पुकारा

कौन—सा पथ है?

 

महाजन जिस ओर जाएं—शास्त्र हुंकारा

अंतरात्मा ले चले जिस ओर—बोला न्याय—पंडित

साथ आओ सर्वसाधारण—जनों के—क्रांति—वाणी।

 

पर महाजन—मार्ग—गमनोचित न साधन हैं, न रथ है

अंतरात्मा अनिश्चय—संशय—ग्रसित

क्रांति—गति—अनुसरण—योग्या है न पद—सामर्थ्य।

 

कौन—सा पथ है?

मार्ग में आकुल—अधीरातुर बटोही यों पुकारा:

कौन—सा पथ है?

और प्रत्येक पूछ रहा है: क्या है मार्ग, क्या है मंजिल, कैसे जाऊं? और बताने वालों ने दुकानें लगा रखी हैं। वे कहते हैं, आओ, हम तुम्हें बताएंगे।

एक सूफी कहानी मैं कल पढ़ रहा था। दो सूफी तथाकथित गुरु मिले। औपचारिक शिष्टाचार की बातें होने के बाद एक ने कहा कि भाई, एक शिष्य के कारण मैं बहुत झंझट में पड़ा हूं। मैं लोगों को समझाता हूं कि समाधि पाओ। बात इतनी कठिन है और बात मैं इतनी कठिन बना देता हूं और ऐसे—ऐसे शब्दों का जाल फैलाता हूं कि किसी की कुछ समझ में आता ही नहीं। जब लोगों की कुछ समझ में नहीं आता तो लोग समझते हैं, बड़ी ऊंची बातें हो रही हैं, बड़ी गहरी बातें हो रही हैं। और फिर समाधि के लिए कोई आकर पूछता भी नहीं कि मुझे पाना है। क्योंकि मैं इतनी कठिन बातें बताता हूं कि समाधि पाने के लिए क्या—क्या करना होगा—कितने उपवास, ब्रह्मचर्य की साधना, तपश्चर्या, देह का गलाना, यह कोई छोटा काम नहीं है, जन्मों—जन्मों में पूरा होता है! तो लोग सुन तो लेते हैं, कहते हैं: महाराज, ठीक कहते हैं; और मेरा काम भी ठीक चलता है, मगर एक दुष्ट मेरे पीछे पड़ गया है; वह कहता है कि मैं सब करने को राजी हूं, मगर समाधि लेकर रहूंगा। उसको मैंने उपवास बतलाए तो उपवास कर गया। उसको मैंने कहा कि सिर के बल खड़े रहो घंटों, तो वह सिर के बल मैं कहता हूं घंटे भर खड़े रहो तो वह दो घंटे खड़ा रहता है। मेरे ही सामने खड़ा रहता है। मेरी छाती पर दाल दलता है। अब मुझे भी घबड़ाहट होने लगी कि करूं क्या? जो भी कहता हूं, करने को राजी। कहा कि सिर घुटा ले, नंगा हो जा, सिर घुटा कर वह नंगा घूम रहा है। अब वह मेरे चारों तरफ ही घूमता रहता है, वहीं खड़ा रहता है। और बार—बार पूछता है, अब और क्या करना है? समाधि कब तक मिलेगी? उसकी बातें सुन कर दूसरे लोग तक भी आने बंद हो गए हैं कि महाराज, पहले अपने शिष्य को, खास पट्ट शिष्य को तो समाधि दिलवाओ! मेरी सब दुकान उजाड़े दे रहा है।

दूसरे ने कहा, घबड़ाओ मत। मेरे पास भी ऐसा एक शिष्य आ गया था, मैंने उसे एकदम रास्ते पर लगा दिया। मैंने कहा कि तू एक कुप्पी भर पेट्रोल पी ले, समाधि लग जाएगी। मूढ़ तो था ही, पी गया कुप्पी भर पेट्रोल, पा गया समाधि!

दूसरे ने कहा कि यह भी खूब रही! यह मैंने कभी सोचा ही नहीं। आज ही जाता हूं।

जाकर शिष्य को कहा कि देख, बस, अब एक आखिर उपाय, रामबाण, पी जा कुप्पी भर पेट्रोल! शिष्य तो शिष्य ही था, गया ले आया कुप्पी भर पेट्रोल और पी गया। और पीते ही मर गया। गुरु तो बहुत घबड़ाया कि यह और एक मुसीबत हुई। अभी तक कम—से—कम जिंदा था, अब लोग कहेंगे कि तुम्हारा पट्ट शिष्य तुमने मार डाला। भागा हुआ दूसरे गुरु के पास गया कि भई, यह तुमने क्या किया? तुमने जो रास्ता बताया, मैंने अपने शिष्य को बताया, वह पी गया कुप्पी भर पेट्रोल, वह मर गया! उसने कहा, यही तो मेरे शिष्य की हालत हुई। वह भी मर गया। इसी को तो मैं समाधि कहता हूं। उसकी समाधि बनवा दी—वह देखो बाहर चबूतरा, वह मेरे शिष्य की समाधि। तुम भी समाधि बनवा दो, कहना, समाधि लग गई!

तुम पूछते रहोगे, पंडित बताते रहेंगे। न तो उस तक जाने का कोई मार्ग है—क्योंकि वह दूर ही नहीं है कि मार्ग हो। वह तो तुम्हारे प्राणों के प्राण में बैठा है। उस तक जाने की कोई विधि नहीं है; क्योंकि विधि तो उसे पाने की होती है जो पराया हो। वह तो हमारी आत्मा है। उसे पाने की क्या विधि? न कोई मंत्र है, न कोई विज्ञान है। शांत और मौन और सहज और नैसर्गिक हो जाओ, तुम उसे पाए ही हुए हो। शांत, मौन निसर्ग में तुम अचानक चकित हो जाओगे, हम जिसे खोजते थे, वह खोजने वाले में छिपा है। वह तुम्हारे भीतर छिपा हुआ द्रष्टा है। वह तुम्हारे भीतर बैठा हुआ साक्षी, चैतन्य है।

कोई दीवार नहीं है। दीवार हमारी बनाई हुई है। और पंडित—पुजारी उस दीवार को बढ़ाने में सहयोगी होते हैं। क्योंकि जितनी दीवाल बड़ी हो, जितना तुम अपने से टूट जाओ, उतना ही तुम उनके शिकंजे में फंस जाओगे। उतने ही तुम उनके कब्जे में हो जाओगे। सदगुरु वह है जो दीवाल गिरा दे, जो तुमसे छीन ले ज्ञान, विधि—विधान; जो तुमसे छीन ले सब और तुम्हारे अहंकार के लिए कोई जगह न बचने दे; त्याग, तपश्चर्या, उपवास, ब्रह्मचर्य, जो छीन ले तुमसे सब और तुम्हें छोड़ दे; निपट तुम्हारे निसर्ग के अनुसार, फिर गुलाब गुलाब हो जाता है, चंपा चंपा हो जाती है, चमेली चमेली हो जाती है। अभी बड़ी हालत खराब है। चमेली चंपा होना चाह रही है, गुलाब कमल होना चाह रहा है—और नहीं हो पा रहा है तो बड़ी पीड़ा है, बड़ा विषाद है। तुम तुम हो और तुम केवल तुम ही हो सकते हो और तुम तुम ही हो जाओ तो परमात्मा उपलब्ध हुआ।

धर्म का अर्थ है: स्वभाव। तुम अपने स्वभाव में तल्लीन हो जाओ कि धर्म उपलब्ध हो गया। धर्म को खोजने न कहीं जाना है, न धर्म को पाने के लिए कुछ करना है। सब खोजना, सब करना छोड़ दो तो धर्म अभी मिला—अभी मिला हुआ है, तत्क्षण!

लेकिन हम उठाए जाते हैं प्रश्न, उत्तर देने वाले उत्तर दिए जाते हैं। हमारी मजबूरी है कि हम बिना प्रश्न पूछे नहीं रह सकते, उनकी मजबूरी है कि बिना उत्तर दिए नहीं रह सकते, जाल जारी है, उपद्रव चलता रहता है।

दुनिया में धर्मों की कोई जरूरत नहीं है—न हिंदू की, न मुसलमान की, न जैन की—दुनिया में एक धार्मिकता की जरूर जरूरत है, धर्मों की कोई जरूरत नहीं है। और धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं जो नैसर्गिक है, जो अपनी निजता में जी रहा है, जो अपनी निजता पर कोई पाखंड नहीं रोपता, जो अपनी निजता पर जबर्दस्ती कोई आचरण नहीं थोपता, जो अपने अंतःकरण से जीता है, जो अपने भीतर साक्षी के दीए के अनुसार जीता है। साक्षी के अनुसार जीने में मोक्ष है, धर्म है, निर्वाण है। साक्षी में जो जीया, वही बुद्ध है।

अप्प दीपो भव। अपने दीए स्वयं बनो। और कोई दीया नहीं है। और किसी दीए की आशा रखना नहीं। उस आशा ने ही भरमाया है, भटकाया है।

आज इतना ही।


Filed under: सपना यह संसार--(पलटू वाणी) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

तंत्र–सूत्र–(भाग–4) प्रवचन–57

$
0
0

स्‍वतंत्रता : शरीर—मन के पार——(प्रवचन—सत्‍तावनवां)

सूत्र:

84—शरीर के प्रति आसक्‍ति को दूर हटाओ और यह भाव करो

कि में सर्वत्र हूं। जो सर्वत्र है वह आनंदित है।

85—ना—कुछ का विचार करने से सीमित आत्‍मा हो जाती है।

मैंने एक बूढ़े डाक्टर के संबंध में एक कहानी सुनी है। एक दिन उसके सहायक ने उसे फोन किया, क्योंकि वह बड़ी कठिनाई में पड़ गया था। एक रोगी का दम घुट रहा था; रोगी के गले में बिलियर्ड की गेंद अटक गई थी। सहायक को समझ नहीं पड़ रहा था कि क्या करे। तो उसने बूढ़े डाक्टर से पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए? बूढ़े डाक्टर ने कहा ‘एक पंख से रोगी को गुदगुदाओ।’ कुछ मिनटों के बाद सहायक ने फिर डाक्टर को फोन किया। वह बहुत प्रसन्न था, खुश था। उसने कहा: ‘आपका इलाज तो अदभुत सिद्ध हुआ। रोगी हंसने लगा और उसने गेंद को उगल दिया। लेकिन मुझे बताइए कि आपने यह अनोखा इलाज कहां सीखा?’

बूढ़े डाक्टर ने कहा. ‘मैंने खुद ही गढ़ लिया था। यह सदा मेरा सिद्धात रहा है कि जब तुम्हें कुछ न सूझे कि क्या किया जाए तो कुछ भी करो।’

लेकिन जहां तक ध्यान का संबंध है, यह सिद्धात नहीं चलेगा। अगर तुम्हें नहीं मालूम है कि क्या किया जाए तो कुछ मत करो। क्योंकि मन बहुत जटिल है, बहुत पेचीदा है और नाजुक है। अगर तुम नहीं जानते ही कि क्या करना चाहिए तो बेहतर है कि कुछ भी मत करो। क्योंकि जाने बिना तुम जो भी करोगे उससे समाधान की बजाय उलझाव ही अधिक पैदा होगा। वह घातक भी सिद्ध हो सकता है, आत्मघातक भी सिद्ध हो सकता है।

अगर तुम मन के बारे में कुछ नहीं जानते हो। और सच तो यही है कि तुम मन के बारे में कुछ भी नहीं जानते हो। तुम्हारे लिए मन एक शब्द भर है; तुम्हें उसकी जटिलता का कुछ ज्ञान नहीं है। मन अस्तित्व में सर्वाधिक जटिल चीज है, उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती है, और मन सर्वाधिक नाजुक भी है; तुम उसे नष्ट कर दे सकते हो। तुम उसके साथ कुछ ऐसा कर सकते हो जिसे फिर अनकिया न किया जा सके।

ये विधियां मनुष्य के मन के गहन ज्ञान पर, मन के सघन साक्षात्कार पर आधारित हैं। और प्रत्येक विधि लंबे प्रयोगों से गुजरकर बनी है।

इसलिए ध्यान रहे, कोई भी चीज अपनी तरफ से मत करो। और दो विधियों को मिला कर प्रयोग मत करो; क्योंकि उनकी प्रक्रिया भिन्न है; उनके ढंग भिन्न हैं; उनके आधार भिन्न हैं। वे एक ही लक्ष्य पर ले जाती हैं; लेकिन साधन के रूप में वे पूरी तरह भिन्न हैं। कभी—कभी तो वे एक—दूसरे के बिलकुल विपरीत हो सकती हैं। तो दो विधियों को मत मिलाओं। किसी भी विधि में कुछ मत मिलाओ; विधि जैसी दी हुई है उसे वैसी ही प्रयोग करो। उसमें कोई बदलाहट मत करो, उसमें कोई सुधार मत करो। क्योंकि तुम उसमें कोई सुधार नहीं कर सकते, और तुम उसमें जो भी बदलाहट करोगे, वह घातक होगा।

और ध्यान रहे, किसी भी विधि को प्रयोग में लाने के पहले उसे सावधानी से भलीभांति समझ लो। और अगर तुम्हें कोई उलझन हो और अगर तुम नहीं जानते हो कि विधि वस्तुत: क्या है तो बेहतर है कि उसे प्रयोग में मत लाओ, क्योंकि प्रत्येक विधि तुममें एक आमूल क्रांति लाने के लिए है।

ये विधियां विकासकारी नहीं हैं; ये क्रांतिकारी हैं। विकास से मेरा मतलब है कि अगर तुम कुछ न करो, बस जीते चले जाओ, तो कभी करोड़ों वर्षों में ध्यान तुम्हें अपने आप ही घटित होगा, लाखों जन्मों में तुम विकसित होगे; समय के सामान्य कम में कभी तुम उस बिंदु पर पहुंचोगे जहां कोई बुद्ध क्रांति के द्वारा एक क्षण में पहुंच जाते हैं।

तो ये विधियां क्रांतिकारी विधियां हैं। सच तो यह है कि ये मनुष्य—निर्मित हैं, ये प्राकृतिक नहीं हैं। प्रकृति भी तुम्हें बुद्धत्व पर, आत्मोपलब्धि पर पहुंचा देगी, तुम किसी न किसी दिन उसे जरूर पा लोगे; लेकिन तब फिर यह बात प्रकृति के हाथ में है। तुम उसके लिए सिर्फ दुख में रहे आने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकते हो। उसके लिए बहुत लंबा समय चाहिए—करोड़ों वर्ष, करोड़ों जन्म।

धर्म क्रांतिकारी है। धर्म तुम्हें विधि देता है जो लंबी प्रक्रियो को कम करती है, जिससे तुम छलांग लगा सकते हो—ऐसी छलांग जो तुम्हें करोडों जन्मों से बचा सकती है। एक क्षण में तुम करोड़ों वर्ष की यात्रा पूरी कर सकते हो।

इसीलिए यह खतरनाक भी है; और जब तक तुम ठीक—ठीक नहीं समझते हो, मत प्रयोग करो। और अपनी ओर से उसमें कुछ मत जोड़ो; कुछ मत बदलों। पहले विधि को बिलकुल सही—सही समझने की चेष्टा करो। और जब तुम उसे समझ जाओ तो प्रयोग करो। और इस बूढ़े डाक्टर के सिद्धात को मत काम में लाओ कि जब तुम्हें नहीं पता हो कि क्या किया जाए तो कुछ भी करो। नहीं, कुछ मत करो। न करना करने से कहीं ज्यादा लाभदायक होगा। इसलिए क्योंकि मन इतना नाजुक है कि अगर तुम कुछ गलत कर गए तो उसे अनकिया करना बहुत कठिन होगा। उसे अनकिया करना बहुत—बहुत कठिन है। कुछ गलत कर बैठना आसान है, लेकिन उसे अनकिया करना बहुत कठिन है। इसे स्मरण रखो।

अनासक्ति—संबंधी पहली विधि :

शरीर के प्रति आसक्ति को दूर हटाओ और यह भाव करो कि मैं सर्वत्र हूं। जो सर्वत्र है वह आनंदित है।

हुत सी बातें समझने जैसी हैं। पहली बात : ‘शरीर के प्रति आसक्ति को दूर हटाओ।’ शरीर के प्रति हमारी आसक्ति प्रगाढ़ है। यह अनिवार्य है; यह स्वाभाविक है। तुम अनेक—अनेक जन्मों से शरीर में रहते आए हो; आदि काल से ही तुम शरीर में हो। शरीर बदलते रहे हैं, लेकिन तुम सदा शरीर में रहे हो, तुम सदा सशरीर रहे हो।

कभी ऐसे क्षण, ऐसे समय भी रहे हैं जब तुम शरीर में नहीं थे; लेकिन तब तुम अचेतन थे, मूर्च्‍छित थे। जब तुम मरते हो, जब तुम एक शरीर छोड़ते हो, तो तुम मूर्च्‍छा की हालत में मरते हो और फिर तुम मूर्च्छित ही रहते हो। फिर तुम्हारा एक नए शरीर में जन्म होता है, लेकिन उस समय भी तुम मूर्च्‍छित ही रहते हो। एक मृत्यु और दूसरे जन्म के बीच का अंतराल मूर्च्छा में बीतता है। इसलिए तुम्हें पता नहीं है कि शरीर में नहीं होना, अशरीरी होना क्या है, कैसा है। जब तुम शरीर में नहीं हो तो तुम्हें नहीं मालूम कि मैं कौन हूं। तुम्हें एक ही बात का पता है और वह है शरीर में होने का; तुमने अपने को शरीर में ही जाना है।

यह इतनी प्राचीन है, इतनी निरंतर है, कि तुम भूल ही गए हो कि मैं शरीर से भिन्न हूं। यह एक विस्मरण है जो स्वाभाविक है, अनिवार्य है। और इसी कारण से आसक्ति है। तुम्हें लगता है कि मैं शरीर हूं; और यही आसक्ति है। तुम्हें लगता है कि मैं शरीर के सिवाय कुछ भी नहीं हूं शरीर से अधिक कुछ भी नहीं हूं।

शायद तुम मेरे साथ इस बात पर सहमत न हो, क्योंकि कई बार तुम सोचते हो कि मैं शरीर नहीं हूं मैं आत्मा हूं। लेकिन यह तुम्हारा जानना नहीं है; यह बस तुमने सुना है, तुमने पढ़ा है। यह तुमने जाने बिना मान लिया है।

तो पहला काम यह है कि तुम्हें इस तथ्य को स्वीकार करना है कि वस्तुत: मेरा जानना यही है कि मैं शरीर हूं। अपने को धोखा मत दो; क्योंकि धोखा देने से काम नहीं चलेगा। अगर तुम सोचते हो कि मैं पहले से ही जानता हूं कि मैं शरीर नहीं हूं तो तुम शरीर के प्रति अपनी आसक्ति को दूर नहीं कर सकते। क्योंकि तुम्हारे लिए आसक्ति है ही नहीं; तुम जानते ही हो। और तब अनेक कठिनाइयां उठ खड़ी होंगी, जिनका समाधान नहीं हो सकता। किसी कठिनाई को आरंभ में ही हल किया जा सकता है। एक बार तुम उसके आरंभ को चूक गए तो तुम कठिनाई को नहीं हल कर सकते। हल करने के लिए तुम्हें फिर आरंभ पर लौटना होगा। तो यह स्मरण रहे, तुम्हें पहले यह भलीभांति बोध होना चाहिए कि मैं नहीं जानता कि मैं शरीर के अतिरिक्त कुछ हूं। यह पहला बुनियादी बोध है।

यह बोध अभी तुम्हें नहीं है। तुमने जो कुछ सुना है उससे तुम्हारा मन भरा है और भ्रांत है। तुम्हारा मन दूसरों से मिले ज्ञान से संस्कारित है! यह ज्ञान उधार है। यह ज्ञान सच्चा नहीं है। ऐसा नहीं कि यह गलत है; जिन्होंने कहा है उन्होंने ऐसा जाना है। लेकिन जब तक वह तुम्हारा अनुभव न हो जाए तब तक तुम्हारे लिए गलत है। जब मैं कहता हूं कि कोई चीज गलत है तो मेरा मतलब यह है कि यह तुम्हारा अपना अनुभव नहीं है। यह किसी और के लिए सच हो सकता है, लेकिन तुम्हारे लिए सच नहीं है। और इस अर्थ में सत्य वैयक्तिक अनुभूति है। अनुभूत सत्य ही सत्य है। जो अनुभूत नहीं है वह सत्य नहीं है। कोई जागतिक सत्य नहीं होता है। प्रत्येक सत्य को सत्य होने के लिए पहले वैयक्तिक होना पड़ता है।

तुम जानते हो, तुमने सुना है कि मैं शरीर नहीं हूं—यह तुम्हारे ज्ञान का हिस्सा है, यह तुमने बाप—दादों से सुना है—लेकिन यह तुम्हारा अनुभव नहीं। पहले इस तथ्य का साक्षात करो कि मैं अपने को शरीर की भांति ही जानता हूं। यह साक्षात्कार तुम्हारे भीतर बड़ी बेचैनी पैदा करेगा। इस बेचैनी को छिपाने के लिए ही तुमने यह ज्ञान इकट्ठा किया था। तुम माने रहते हो कि मैं शरीर नहीं हूं और तुम शरीर नहीं हूं और तुम शरीर की भांति रह आते हो। इससे तुम विभाजित हो जाते हो; इससे तुम्हारा सारा जीवन अप्रामाणिक हो जाता है, झूठा और नकली हो जाता है। वस्तुत: यह चित्त की रुग्ण अवस्था है, भ्रांत अवस्था है। तुम जीते हो शरीर की तरह और तुम बातें करते हो आत्मा की तरह। और तब द्वंद्व है, संघर्ष है; तब तुम सतत एक आंतरिक उपद्रव में, एक गहन अशांति में जीते हो, जिसका निराकरण संभव नहीं है।

तो पहले इस तथ्य को देखो कि मैं आत्मा के संबंध में कुछ नहीं जानता हूं मैं जो कुछ भी जानता हूं वह शरीर के संबंध में जानता हूं। इससे तुम्हारे भीतर एक बड़ी बेचैनी की स्थिति पैदा होगी, जो भी अंदर छिपा है वह उभर कर सतह पर आएगा। इस तथ्य के साक्षात्कार से कि मैं शरीर हूं तुम्हें वस्तुत: पसीना आने लगेगा। इस तथ्य का साक्षात करके कि मैं शरीर हूं तुम्हें बहुत बेचैनी होगी, तुम बहुत अजीब अनुभव करोगे। लेकिन इस अनुभव से गुजरना ही होगा, तो ही तुम जान सकते हो कि शरीर के प्रति आसक्ति का क्या अर्थ है।

ऐसे शिक्षक हैं जो कहे चले जाते हैं कि तुम्हें अपने शरीर से आसक्त नहीं होना चाहिए। लेकिन तुम्हें इस बुनियादी बात का ही पता नहीं है कि शरीर के प्रति यह आसक्ति क्या है। शरीर के प्रति आसक्ति शरीर के साथ प्रगाढ़ तादात्म्य है, लेकिन पहले तुम्हें समझना है कि यह तादात्म्य क्या है।

तो अपने उस सारे ज्ञान को अलग हटा दो जिसने तुम्हें यह भ्रांत धारणा दी है कि तुम आत्मा हो। यह अच्छी तरह जान लो कि मैं एक ही चीज को जानता हूं और वह शरीर है। कैसे यह बोध तुम्हारे भीतर छिपे हुए उपद्रव को, तुम्हारे भीतर छिपे हुए नरक को उभार कर ऊपर ले आता है, उसे प्रत्यक्ष कर देता है?

जब तुम्हें बोध होता है कि मैं शरीर हूं तो पहली दफा तुम्हें आसक्ति का बोध होता है। पहली दफा तुम्हारी चेतना में इस तथ्य का बोध होता है कि यह शरीर—जों पैदा होता है और मर जाता है—यही मैं हूं। पहली दफा तुम्हें इस तथ्य का बोध होता है कि यह खून, हड्डी—मांस—मज्जा—यही मैं हूं। पहली दफा तुम्हें इस तथ्य का बोध होता है कि यह कामवासना, क्रोध—यही मैं हूं। इस तरह सभी झूठी प्रतिमाएं गिर जाती हैं; तुम अपनी सचाई में प्रकट हो जाते हो।

यह सचाई दुखद है, बहुत दुखद है। यही कारण है कि हम उसे छिपाते रहते हैं। यह एक गहरी चालाकी है। तुम अपने को आत्मा माने रहते हो और जो भी तुम्हें नापसंद है उसे तुम शरीर पर थोप देते हो। तुम कहते हो कि कामवासना शरीर का है और प्रेम मेरा है। तुम कहते हो कि लोभ और क्रोध शरीर के हैं और करुणा मेरी है। करुणा आत्मा की है और क्रूरता शरीर की है। क्षमा आत्मा की है और क्रोध शरीर का है। जो भी तुम्हें गलत और कुरूप मालूम पड़ता है, उसे तुम शरीर पर थोप देते हो। और जो भी तुम्हें सुंदर मालूम पड़ता है, उसके साथ तुम अपना तादात्म्य बना लेते हो। इस तरह तुम विभाजन पैदा करते हो।

यह विभाजन तुम्हें जानने नहीं देगा कि आसक्ति क्या है। और जब तक तुम यह नहीं जानते कि आसक्ति क्या है और जब तक तुम उसके नरक से, उसकी पीड़ा से नहीं गुजरते हो, तब तक तुम उसे दूर नहीं हटा सकते। कैसे दूर करोगे? तुम किसी चीज को तभी दूर करोगे जब वह रोग सिद्ध हो, जब वह भारी बोझ सिद्ध हो, जब वह नरक सिद्ध हो। तभी तुम उसे अपने से अलग कर सकते हो।

तुम्हारी आसक्ति अभी नरक नहीं सिद्ध हुई है। बुद्ध कुछ भी कहें, महावीर कुछ भी कहें, वह अप्रासंगिक है। वे कहे जा सकते है कि आसक्‍ति नरक है। लेकिन यह तुम्‍हारा भाव नहीं है। इसीलिए तुम बार—बार पूछते हो कि आसक्ति से कैसे छूटा जाए, अनासक्त कैसे हुआ जाए, आसक्ति के पार कैसे हुआ जाए। तुम यह ‘कैसे’ इसीलिए पूछते रहते हो क्योंकि तुम्हें नहीं मालूम है कि आसक्ति क्या है। अगर तुम जानते हो कि आसक्ति क्या है तो तुम कूद कर बाहर निकल जाओगे, तब तुम ‘कैसे’ नहीं पूछोगे।

अगर तुम्हारे घर में आग लगी हो तो तुम किसी से पूछने नहीं जाओगे, तुम किसी गुरु के पास यह पूछने नहीं जाओगे कि आग से कैसे निकला जाए। अगर घर जल रहा हो तो तुम तत्सण बाहर निकल जाओगे। तुम एक क्षण भी देर नहीं करोगे। तुम गुरु की खोज नहीं करोगे। तुम शास्त्रों से सलाह नहीं लोगे। तुम यह जानने की चेष्टा भी नहीं करोगे कि निकलने के उपाय क्या हैं, कि निकलने के लिए किन साधनों को काम में लाया जाए, कि निकलने के लिए कौन सा द्वार सही द्वार है। ये चीजें अप्रासंगिक हैं, जब घर धू— धू कर जल रहा हो।

जब तुम जानते हो कि आसक्ति क्या है तो तुम यह जानते हो कि घर जल रहा है। और तब तुम उसे अपने से दूर कर सकते हो।

इस विधि में प्रवेश के पहले तुम्हें आत्मा संबंधी उधार ज्ञान को हटा देना होगा, ताकि शरीर के प्रति आसक्ति अपनी समग्रता में प्रकट हो सके। यह बहुत कठिन होगा, उसका साक्षात्कार गहरी चिंता और संताप में ले जाएगा। यह आसान नहीं होगा; कठिन होगा, दुष्कर होगा। लेकिन यदि तुम्हें एक बार उसका साक्षात्कार हो जाए तो तुम उसे दूर कर सकते हो। और ‘कैसे’ पूछने की जरूरत नहीं है। यह बिलकुल ही आग है, नरक है, तुम उससे छलांग लगाकर बाहर निकल सकते हो।

यह सूत्र कहता है : ‘शरीर के प्रति आसक्ति को दूर हटाओ और यह भाव करो कि मैं सर्वत्र हूं। जो सर्वत्र है वह आनंदित है।’

और जिस क्षण तुम आसक्ति को दूर हटाओगे, तुम्हें बोध होगा कि मैं सर्वत्र हूं। इस आसक्ति के कारण तुम्हें महसूस होता है कि मैं शरीर में सीमित हूं। शरीर तुम्हें नहीं सीमित करता है, तुम्हारी आसक्ति तुम्हें सीमित करती है। शरीर तुम्हारे और सत्य के बीच अवरोध नहीं निर्मित करता है, उसके प्रति तुम्हारी आसक्ति अवरोध निर्मित करती है।

एक बार तुम जान गए कि आसक्ति नहीं है तो फिर तुम्हारा कोई शरीर भी नहीं है—अथवा सारा अस्तित्व तुम्हारा शरीर बन जाता है; तुम्हारा शरीर समग्र अस्तित्व का हिस्सा बन जाता है। तब वह पृथक नहीं है।

सच तो यह है कि तुम्हारा शरीर तुम्हारे पास आया हुआ निकटतम अस्तित्व है, और कुछ नहीं। शरीर निकटतम अस्तित्व है, और वही फिर फैलता जाता है। तुम्हारा शरीर अस्तित्व का निकटतम हिस्सा है और फिर सारा अस्तित्व फैलता जाता है। एक बार तुम्हारी आसक्ति गई कि तुम्हारे लिए शरीर न रहा, अथवा समस्त अस्तित्व तुम्हारा शरीर बन जाता है। तब तुम सर्वत्र हो, सब तरफ हो।

शरीर में तुम एक जगह हो; शरीर के बिना तुम सर्वत्र हो। शरीर में तुम एक विशेष स्थान में सीमित हो; शरीर के बिना तुम पर कोई सीमा न रही। यह कारण है कि जिन्‍होंने जाना है वे कहते हैं कि शरीर कारागृह है। दरअसल, शरीर कारागृह नहीं है, आसक्ति कारागृह है। जब तुम्हारी निगाह शरीर पर ही सीमित नहीं है तब तुम सर्वत्र हो।

यह बात बेतुकी मालूम पड़ती है। मन को, जो शरीर में है, यह बात बेतुकी मालूम पड़ती है। यह बात पागलपन जैसी लगती है—कोई व्यक्ति सभी जगह कैसे हो सकता है। और वैसे ही बुद्ध पुरुष को हमारा यह कहना कि मैं ‘यहां’ हूं पागलपन जैसा मालूम पड़ता है। तुम किसी एक स्थान में कैसे हो सकते हो? चेतना कोई स्थान नहीं लेती है। इसीलिए अगर तुम आंखें बंद कर लो और पता लगाने की चेष्टा करो कि शरीर में मैं कहा हूं तो तुम हैरान रह जाओगे; तुम नहीं खोज पाओगे कि मैं कहां हूं।

अनेक धर्म और अनेक संप्रदाय हुए हैं जो कहते हैं कि तुम नाभि में हो। दूसरे कहते हैं कि तुम हृदय में हो। कुछ का कहना है कि तुम सिर में हो। कुछ कहते हैं कि तुम इस चक्र में हो और कुछ कहते हैं कि उस चक्र में हो। लेकिन शिव कहते हैं कि तुम कहीं नहीं हो। यही कारण है कि अगर तुम आंखें बंद कर लो और खोजने की कोशिश करो कि मैं कहा हूं तो तुम कुछ नहीं बता सकते। तुम तो हो, लेकिन तुम्हारे लिए कोई ‘कहां’ नहीं है। तुम बस हो।

प्रगाढ़ नींद में भी तुम्हें शरीर का बोध नहीं रहता है। तुम तो हो। सुबह जाग कर तुम कहोगे कि नींद बहुत गहरी थी, बहुत आनंदपूर्ण थी। तुम्हें एक गहन आनंद का बोध था, लेकिन तुम्हें शरीर का बोध नहीं था। प्रगाढ़ निद्रा में तुम कहां होते हो? और जब तुम मरते हो तो कहा जाते हो? लोग निरंतर पूछते हैं कि जब कोई मरता है तो वह कहां जाता है?

लेकिन यह प्रश्न निरर्थक है, मूढ़तापूर्ण है। यह प्रश्न हमारे इस भ्रम से ही उठता है कि हम शरीर में हैं। अगर हम मानते हैं कि हम शरीर में हैं तो फिर प्रश्न उठता है कि मरने पर हम कहा जाते हैं।

तुम कहीं नहीं जाते हो। जब तुम मरते हो तो तुम कहीं नहीं जाते हो, इतनी ही बात है। तब तुम किसी एक स्थान में बंधे नहीं हो, बस। लेकिन अगर तुम्हें बंधने की कामना हो तो तुम बंध जाओगे। तुम्हारी कामनाएं तुम्हें नए कारागृहों में ले जाती हैं। लेकिन जब तुम शरीर में नहीं हो तो तुम कहीं नहीं हो, या तुम सब कहीं हो। यह तुम पर निर्भर है कि कौन सा शब्द—कहीं नहीं या सब कहीं—तुम्हें रास आता है।

अगर तुम बुद्ध से पूछोगे तो वे कहेंगे कि तुम कहीं नहीं हो। यही कारण है कि वे ‘निर्वाण’ शब्द चुनते हैं। निर्वाण का अर्थ है कि तुम कहीं नहीं हो। ज्योति के बुझने को भी निर्वाण कहते हैं। तुम कह सकते हो कि बुझने के बाद ज्योति कहां है? बुद्ध कहेंगे कि वह कहीं नहीं है; ज्योति बस नहीं हो गई है। बुद्ध नकारात्मक शब्द चुनते हैं ‘कहीं नहीं।’ निर्वाण का वही अर्थ है। जब तुम शरीर से बंधे नहीं हो तो तुम निर्वाण में हो, तुम कहीं नहीं हो।

शिव विधायक शब्द चुनते हैं, वे कहते हैं कि तुम सब कहीं हो। लेकिन दोनों शब्द एक ही अर्थ रखते हैं। अगर तुम सब कहीं हो तो तुम कहीं एक जगह नहीं हो सकते। तुम सब कहीं हो, यह कहना करीब—करीब वैसा ही है जैसा यह कहना कि तुम कहीं नहीं हो। लेकिन शरीर से हम आसक्त हैं और हमें लगता है कि हम बंधे हैं। यह बंधन मानसिक है, यह तुम्हारी अपनी करनी है। तुम अपने को किसी भी चीज के साथ बांध सकते हो। तुम्हारे पास एक कीमती हीरा है, और तुम्हारे प्राण उसमें अटके हो सकते हैं। यदि वह हीरा चोरी हो जाए तो तुम आत्महत्या कर सकते हो, तुम पागल हो सकते हो। क्या कारण है? बहुत लोग हैं जिनके पास हीरा नहीं है, उनमें से कोई भी आत्महत्या नहीं कर रहा है, किसी को हीरे के बिना कोई पार कठिनाई नहीं हो रही है। लेकिन तुम्हें क्या हुआ है?

कभी तुम भी हीरे के बिना थे और कोई समस्या नहीं थी। अब तुम फिर हीरे के बिना हो, लेकिन अब समस्या है। यह समस्या कैसे निर्मित होती है? यह तुम्हारी अपनी करनी है। अब तुम आसक्त हो, बंधे हो। हीरा तुम्हारा शरीर बन गया है, अब तुम इसके बिना नहीं रह सकते। अब इसके बिना तुम्हारा जीना असंभव है।

जहां भी तुम आसक्त होते हो, नया कारागृह बन जाता है। और हम जीवन में यही करते हैं. हम निरंतर और—और कारागृह बनाते रहते हैं, बड़े से बड़े कारागृह बनाते रहते हैं। और फिर हम उन कारागृहों को सजाते हैं, ताकि वे घर मालूम पड़े। और फिर हम भूल ही जाते हैं कि वे कारागृह हैं।

यह सूत्र कहता है कि अगर तुम शरीर से अपनी आसक्ति को दूर कर सको तो यह बोध घटित होगा कि मैं सर्वत्र हूं सब कहीं हूं। तब तुम बूंद न रहे, सागर हो गए; तब तुम्हें सागर होने का भाव होता है। अब तुम्हारी चेतना किसी स्थान से नहीं बंधी है; वह स्थान—मुक्त है। तुम बिलकुल आकाश के समान हो जाते हो, जो सबको घेरे हुए है। अब सब कुछ तुममें है—तुम्हारी चेतना अनंत तक फैल गई है।

और फिर सूत्र कहता है. ‘जो सर्वत्र है वह आनंदित है।’

एक जगह से बंधे रहकर तुम दुख में रहोगे, क्योंकि तुम सदा उससे बड़े हो जहां तुम बंधे हो। यही दुख है। मानो तुम अपने को एक छोटे—से पात्र में सीमित कर रहे. हो, सागर को एक घड़े में बंद किया जा रहा है। दुख अनिवार्य है। यही दुख है। और जब भी इस दुख की अनुभूति हुई है, बुद्धत्व की खोज, ब्रह्म की खोज शुरू हो जाती है।

ब्रह्म का अर्थ है अनंत, असीम फैलाव। और मोक्ष की खोज स्वतंत्रता की खोज है। सीमित शरीर में तुम स्वतंत्र नहीं हो सकते हो। एक स्थान में तुम बंध जाते हो। कहीं नहीं या सब कहीं में ही तुम स्वतंत्र हो सकते हो।

मनुष्य के मन को देखो। वह सदा स्वतंत्रता खोज रहा है—उसकी दिशा चाहे जो भी हो। दिशा राजनीतिक हो सकती है, सामाजिक हो सकती है, मानसिक हो सकती है, धार्मिक हो सकती है। दिशा जो भी हो, मनुष्य का मन स्वतंत्रता की खोज कर रहा है। स्वतंत्रता मनुष्य की गहनतम आवश्यकता मालूम पड़ती है। जहां भी मनुष्य के मन को अवरोध मिलता है, जहां भी उसे गुलामी का, बंधन का अहसास होता है, वह उसके विरुद्ध लड़ता है।

मनुष्य का सारा इतिहास स्वतंत्रता के युद्ध का इतिहास है। आयाम भिन्न हो सकते हैं। मार्क्स और लेनिन आर्थिक स्वतंत्रता के लिए लड़ते हैं। गांधी और अब्राहम लिंकन राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए लड़ते हैं। और हजारों तरह की गुलामियां हैं, और संघर्ष जारी है। लेकिन एक बात निश्चित है कि कहीं गहरे में मनुष्य निरंतर और— और स्वतंत्रता की खोज कर रहा है।

शिव कहते हैं—और यही बात सभी धर्म कहते है—कि तुम राजनीतिक तल पर स्वतंत्र हो सकते हो, लेकिन संघर्ष समाप्त नहीं होगा। एक तरह की गुलामी हट जाएगी, लेकिन और तरह की गुलामियां है। जब तुम राजनीतिक रूप से स्‍वतंत्र होगे तो तुम्‍हें अन्‍य गुलामियों का बोध होगा। आर्थिक गुलामी समाप्त हो सकती है, लेकिन तब तुम अन्य गुलामियों के प्रति सजग हो जाओगे, यौन और शरीर के तल पर जो गुलामियां हैं उनके प्रति सजग हो जाओगे। यह संघर्ष तब तक नहीं खत्म होगा जब तक तुम यह नहीं अनुभव करते, यह नहीं जानते, कि मैं सर्वत्र हूं। जिस क्षण तुम्हें प्रतीत होता है कि मैं सर्वत्र हूं कि मैं सब जगह हूं तो स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

यह स्वतंत्रता राजनीतिक नहीं है, यह स्वतंत्रता आर्थिक नहीं है, यह स्वतंत्रता सामाजिक भी नहीं है। यह स्वतंत्रता अस्तित्वगत है। यह स्वतंत्रता समग्र है। इसीलिए हमने उसे मोक्ष कहा है—समग्र स्वतंत्रता। और तुम तभी आनंदित हो सकते हो। हर्ष या आनंद तभी संभव है जब तुम पूरी तरह स्वतंत्र हो। सच तो यह है कि पूरी तरह स्वतंत्र होना ही आनंद है। आनंद परिणाम नहीं है; स्वतंत्रता की घटना ही आनंद है। जब तुम पूरी तरह स्वतंत्र हो तो तुम आनंदित हो।

यह आनंद परिणाम की तरह नहीं घटित हो रहा है। स्वतंत्रता ही आनंद है, गुलामी दुख है, संताप है। जिस क्षण तुम किसी सीमा में बंधा अनुभव करते हो उसी क्षण तुम दुख में पड़ जाते हो। जहां—जहां भी तुम सीमित अनुभव करते हो वहा—वहां तुम दुख अनुभव करते हो। और जब तुम असीम—अनंत अनुभव करते हो, दुख विलीन हो जाता है।

तो बंधन दुख है और मुक्त जीवन आनंद है। जब भी तुम्हें इस स्वतंत्रता का अनुभव होता है, तुम्हें आनंद घटित होता है। अभी भी जब तुम्हें किसी तरह की स्वतंत्रता का अनुभव होता है, चाहे वह समग्र न भी हो, तो तुम प्रसन्न हो जाते हो। जब तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, तुम पर एक खुशी, एक आनंद बरस जाता है। यह क्यों होता है?

असल में जब भी तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो तो तुम शरीर के प्रति अपनी आसक्ति को दूर हटा देते हो। किसी गहरे अर्थ में अब दूसरे का शरीर भी तुम्हारा अपना शरीर हो गया है। तुम अब अपने शरीर में ही सीमित नहीं हो, दूसरे का शरीर भी तुम्हारा शरीर बन गया है, तुम्हारा घर बन गया है, आवास बन गया है। तुम्हें थोड़ी स्वतंत्रता महसूस होती है, अब तुम दूसरे में गति कर सकते हो और दूसरा तुममें गति कर सकता है। एक अर्थ में एक अवरोध गिर गया, अब तुम पहले से ज्यादा हो।

जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम पहले से बहुत ज्यादा हो जाते हो। तुम्हारा होना थोड़ा फैला, थोड़ा विराट हुआ। तुम्हारी चेतना अब पहले की तरह क्षुद्र न रही, उसने नया विस्तार पा लिया। प्रेम में तुम्हें थोड़ी स्वतंत्रता का अनुभव होता है। हालाकि यह समग्र नहीं है, और देर— अबेर तुम फिर बंधन अनुभव करोगे। तुम्हें विस्तार तो मिला, लेकिन यह विस्तार अभी भी सीमित है।

इसीलिए जो लोग वस्तुत: प्रेम करते हैं वे देर—अबेर प्रार्थना में उतर जाते हैं। प्रार्थना का अर्थ है वृहत प्रेम। प्रार्थना का अर्थ है पूरे अस्तित्व के साथ प्रेम। अब तुम्हें रहस्य का पता चल गया। तुम्हें कुंजी का, गुप्त कुंजी का पता चल गया कि मैंने एक व्यक्ति को प्रेम किया और जिस क्षण मैंने प्रेम किया, सारे अवरोध गिर गए, सारे दरवाजे खुल गए और कम से कम एक व्यक्ति के लिए मेरा होना विस्तृत हुआ, मेरे प्राणों का विस्तार हुआ। अब तुम्हें गुप्त कुंजी मालूम है कि अगर मैं पूरे अस्तित्व को प्रेम करने लगूं तो मैं शरीर नहीं रहूंगा।

प्रगाढ़ प्रेम में तुम शरीर नहीं रह जाते हो। जब तुम किसी के प्रेम में होते हो तो तुम अपने को शरीर नहीं समझते हो। और जब तुम्हें प्रेम नहीं मिलता है, जब तुम प्रेम में नहीं होते हो, तब तुम अपने को शरीर ज्यादा अनुभव करते हो, तब तुम्हें अपने शरीर का खयाल ज्यादा रहता है। तब तुम्हारा शरीर बोझ बन जाता है, जिसे तुम किसी तरह ढोते हो। जब तुम्हें प्रेम मिलता है, शरीर निर्भार हो जाता है। जब तुम्हें प्रेम मिलता है और तुम प्रेम में होते हो तो तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि गुरुत्वाकर्षण का कोई प्रभाव है। तुम नाच सकते हो, तुम वस्तुत: उड़ सकते हो। एक अर्थ में शरीर नहीं रहा—लेकिन सीमित अर्थ में ही। वही बात एक गहरे अर्थ में तब घटती है जब तुम समग्र अस्तित्व के साथ प्रेम में होते हो।

प्रेम में तुम्हें आनंद मिलता है। आनंद सुख नहीं है। स्मरण रहे, आनंद सुख नहीं है। सुख इंद्रियों के द्वारा मिलता है; आनंद इंद्रियगत नहीं है, वह अतींद्रिय अवस्था में प्राप्त होता है। सुख तुम्हें शरीर से मिलता है, आनंद तब मिलता है जब तुम शरीर नहीं होते हो। जब क्षण भर के लिए शरीर विलीन हो गया है और तुम मात्र चेतना हो तो तुम्हें आनंद प्राप्त होता है। और जब तुम शरीर हो तो तुम्हें केवल सुख मिल सकता है; वह सदा शरीर से मिलता है। शरीर से दुख संभव है, सुख संभव है, लेकिन आनंद तभी संभव है जब तुम शरीर नहीं हो।

आनंद कभी—कभी अचानक और आकस्मिक रूप से भी घटित होता है। तुम संगीत सुन रहे हो और अचानक सब कुछ खो जाता है। तुम संगीत में इतने तल्लीन हो कि तुम्हें अपने शरीर की सुध भूल गई। तुम संगीत में डूब गए हो, तुम संगीत के साथ एक हो गए हो। तुम इतने एक हो गए हो कि कोई सुनने वाला नहीं बचा है; सुनने वाला और सुना जाने वाला संगीत एक हो गए हैं। सिर्फ संगीत बचा है, तुम नहीं बचे। तुम विस्तृत हो गए, फैल गए। अब तुम संगीत के स्वरों के साथ बह रहे हो। अब तुम्हारी कोई सीमा न रही। संगीत के स्वर मौन में विलीन हो रहे हैं और तुम भी उनके साथ मौन में विलीन हो रहे हो। शरीर की सुधि जाती रही। और जब भी शरीर की सुधि नहीं रहती है, शरीर अनजाने ही, अचेतन रूप से दूर हट जाता है और तुम्हें आनंद घटित होता है।

तंत्र और योग के द्वारा तुम यही चीज विधिपूर्वक कर सकते हो। तब वह आकस्मिक नहीं है, तब तुम उसके मालिक हो। तब यह चीज तुम्हें अनजाने नहीं घटती है, तब तुम्हारे हाथ में कुंजी है और तुम जब चाहो द्वार खोल सकते हो—या तुम चाहो तो द्वार हमेशा के लिए खोल सकते हो और कुंजी को फेंक सकते हो। द्वार को फिर बंद करने की जरूरत न रही।

सामान्य जीवन में भी आनंद घटता है, लेकिन वह कैसे घटता है, यह तुम्हें नहीं मालूम। स्मरण रहे, यह सदा तभी घटता है जब तुम शरीर नहीं होते हो। तो जब भी तुम्हें पुन: किसी आनंद के क्षण का अनुभव हो तो सजग होकर देखना कि उस क्षण में तुम शरीर हो या नहीं। तुम शरीर नहीं होगे। जब भी आनंद है, शरीर नहीं है। ऐसा नहीं कि शरीर नहीं रहता है; शरीर तो रहता है, लेकिन तुम शरीर से आसक्त नहीं हो, तुम शरीर से बंधे नहीं हो। तुम उससे बाहर निकल गए हो। हो सकता है, संगीत के कारण तुम बाहर निकल गए, या खूबसूरत सूर्योदय को देखकर बाहर निकल गए, या एक बच्चे को हंसते देखकर बाहर निकल गए या किसी के प्रेम में होने के कारण शरीर से बाहर आ गए—कारण जो भी हो, मगर तुम क्षण भर के लिए बाहर आ गए। शरीर तो है, लेकिन दूर हो गया, तुम उससे आसक्त नहीं हो। तुमने एक उड़ान ली।

इस विधि के द्वारा तुम जानते हो कि जो सर्वत्र है वह दुखी नहीं हो सकता; वह आनंदित है, वह आनंद है। तो स्मरण रहे, तुम जितने सीमित होंगे उतने ही दुखी होगे। फैलो, अपनी सीमाओं को दूर हटाओ, और जब भी संभव हो, शरीर को अलग हटा दो। तुम आकाश को देखो, वहां बादल तैर रहे हैं, उन बादलों के साथ तैसे, शरीर को जमीन पर ही रहने दो। और आकाश में चांद है; चांद के साथ यात्रा करो। जब भी तुम शरीर को भूल सको, उस अवसर को मत चूको, यात्रा पर निकल पड़ी। और तुम धीरे— धीरे परिचित हो जाओगे कि शरीर से बाहर होने का क्या मतलब है।

और यह सिर्फ अवधान की बात है। आसक्ति अवधान देने की बात है। अगर तुम शरीर को अवधान देते हो तो तुम उससे आसक्त हो। अगर अवधान हटा लिया जाए तो तुम आसक्त नहीं रहे।

उदाहरण के लिए, तुम खेल के मैदान में खेल रहे हो। तुम हाकी या वाली—बाल खेल रहे हो, या कोई और खेल खेल रहे हो। तुम खेल में इतने तल्लीन हो कि तुम्हारा अवधान शरीर पर नहीं है। तुम्हारे पैर पर चोट लग गई है और खून बह रहा है; लेकिन तुम्हें उसका पता नहीं है। दर्द भी है, लेकिन तुम वहा नहीं हो। खून बह रहा है, लेकिन तुम शरीर के बाहर हो। तुम्हारी चेतना, तुम्हारा अवधान गेंद के साथ दौड़ रहा है, गेंद के साथ भाग रहा है। तुम्हारा अवधान कहीं और है। लेकिन जैसे ही खेल समाप्त होता है, तुम अचानक शरीर में लौट आते हो और देखते हो कि खून बह रहा है, पीड़ा हो रही है। और तुम्हें आश्चर्य होता है कि यह कैसे हुआ, कब हुआ और कैसे तुम्हें उसका बोध नहीं हुआ!

शरीर में होने के लिए तुम्हारे अवधान की जरूरत है। यह स्मरण रहे, जहा भी तुम्हारा अवधान है तुम वहीं हो। अगर तुम्हारा अवधान फूल में है तो तुम फूल में हो। और अगर तुम्हारा अवधान धन में है तो तुम धन में हो। तुम्हारा अवधान ही तुम्हारा होना है। और अगर तुम्हारा अवधान कहीं नहीं है तो तुम सब कहीं हो।

ध्यान की पूरी प्रक्रिया चेतना की उस अवस्था में होना है जहां तुम्हारा अवधान कहीं नहीं हो, जहां तुम्हारे अवधान का कोई विषय न हो, कोई लक्ष्य न हो। जब कोई विषय नहीं है तो कोई शरीर नहीं है। तुम्हारा अवधान ही शरीर का निर्माण करता है। तुम्हारा अवधान ही तुम्हारा शरीर है। और जब अवधान कहीं नहीं है तो तुम सब कहीं हो। और तब तुम्हें आनंद घटित होता है। यह कहना भी ठीक नहीं है कि तुम्हें आनंद घटित होता है—तुम ही आनंद हो। अब यह तुमसे अलग नहीं हो सकता; यह तुम्हारा प्राण ही बन गया है।

स्वतंत्रता आनंद है। इसीलिए स्वतंत्रता की इतनी अभीप्सा है, इतनी खोज है।

अनासक्ति—संबंधी दूसरी विधि:

ना— कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।

मैं यही कह रहा था। अगर तुम्हारे अवधान का कोई विषय नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, तो तुम कहीं नहीं हो, या तुम सब कहीं हो। और तब तुम स्वतंत्र हो। तुम स्वतंत्रता ही हो गए हो।

यह दूसरा सूत्र कहता है :

‘ना—कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’

अगर तुम सोच—विचार नहीं कर रहे हो तो तुम असीम हो। विचार तुम्हें सीमा देता है। और सीमाएं अनेक तरह की हैं। तुम हिंदू हो, यह एक सीमा है। हिंदू होना किसी विचार से, किसी व्यवस्था से, किसी ढंग—ढांचे से बंधा होना है। तुम ईसाई हो, यह भी एक सीमा है। धार्मिक आदमी कभी भी हिंदू या ईसाई नहीं हो सकता है। और अगर कोई आदमी हिंदू या ईसाई है तो वह धार्मिक नहीं है। असंभव है। क्योंकि ये सब विचार हैं। धार्मिक आदमी का अर्थ है कि वह विचार से नहीं बंधा है। वह किसी विचार से सीमित नहीं है; वह किसी व्यवस्था से, किसी ढंग—ढांचे से नहीं बंधा है, वह मन की सीमा में नहीं जीता है—वह असीम में जीता है।

जब तुम्हारा कोई विचार है तो वह विचार तुम्हारा अवरोध बन जाता है। वह विचार सुंदर हो सकता है, लेकिन फिर भी वह बंधन है। सुंदर कारागृह भी कारागृह ही है। विचार स्वर्णिम हो सकता है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता; स्वर्णिम विचार भी तुम्हें उतना ही बांधता है जितना कोई और विचार। और जब तुम्हारा कोई विचार है और तुम उससे आसक्त हो तो तुम सदा किसी के विरोध में हो। क्योंकि सीमा हो ही नहीं सकती, यदि तुम किसी के विरोध में नहीं हो। विचार सदा पूर्वाग्रह—ग्रस्त होता है, विचार सदा पक्ष या विपक्ष में होता है।

मैंने एक बहुत धार्मिक ईसाई के संबंध में सुना है, जो कि एक गरीब किसान था। वह मित्र—समाज का सदस्य था, वह क्वेकर था। क्वेकर लोग अहिंसक होते हैं, वे प्रेम और मैत्री में विश्वास करते हैं। वह क्वेकर अपनी खच्चर गाडी पर बैठकर शहर से गांव वापस आ रहा था। एक जगह खच्चर अचानक बिना किसी कारण के रुक गया और आगे बढ़ने से इनकार करने लगा। उसने खच्चर को ईसाई ढंग से, मैत्रीपूर्ण ढंग से, अहिंसक ढंग से फुसलाने की कोशिश की। वह क्वेकर था, वह खच्चर को मार नहीं सकता था, उसे कठोर वचन नहीं कह सकता था; उसे डांट—फटकार या गाली भी नहीं दे सकता था। लेकिन वह गुस्से से भरा था।

लेकिन खच्चर को मारा कैसे जाए? वह उसे मारना चाहता था। तो उसने खच्चर से कहा : ‘ठीक से आचरण करो। मैं क्वेकर हूं र इसलिए मैं तुम्हें मार नहीं सकता, डांट नहीं सकता, मैं हिंसा नहीं कर सकता; लेकिन स्मरण रहे, ऐं खच्चर, कि मैं तुम्हें किसी ऐसे आदमी के हाथ बेच तो सकता हूं जो ईसाई न हो।’

ईसाई की अपनी दुनिया है और गैर—ईसाई उसके बाहर हैं। कोई ईसाई यह सोच भी नहीं सकता कि कोई गैर—ईसाई ईश्वर के राज्य में प्रवेश पा सकता है। वैसे ही कोई हिंदू या जैन यह नहीं सोच सकता कि उनके अलावा कोई दूसरा आनंद के जगत में प्रवेश पा सकता है—असंभव है।

विचार सीमा बनाता है, अवरोध खड़े करता है; और जो लोग पक्ष में नहीं हैं उन्हें विरोधी मान लिया जाता है। जो मेरे साथ सहमत नहीं हैं वे मेरे विरोध में हैं। फिर तुम सब कहीं कैसे हो सकते हो? तुम ईसाई के साथ हो सकते हो; तुम गैर—ईसाई के साथ नहीं हो सकते। तुम हिंदू के साथ हो सकते हो, लेकिन तुम गैर—हिंदू के साथ, मुसलमान के साथ नहीं हो सकते हो। विचार को किसी ने किसी के विरोध में होना पड़ता है—चाहे वह किसी व्‍यक्‍ति के विरोध में हो या किसी वस्तु के। वह समग्र नहीं हो सकता है। स्मरण रहे, विचार कभी समग्र नहीं हो सकता, केवल निर्विचार ही समग्र हो सकता है।

दूसरी बात कि विचार मन से आता है, वह सदा मन की उप—उत्पत्ति है। विचार तुम्हारा रुझान है, तुम्हारा अनुमान है, पूर्वाग्रह है। विचार तुम्हारी प्रतिक्रिया है, तुम्हारा सिद्धात है, तुम्हारी धारणा है, तुम्हारी मान्यता है, लेकिन विचार अस्तित्व नहीं है। वह अस्तित्व के संबंध में है, वह स्वयं अस्तित्व नहीं है।

एक फूल है। तुम उस फूल के संबंध में कुछ कह सकते हो; वह कहना एक प्रतिक्रिया है। तुम कह सकते हो कि फूल सुंदर है, कि असुंदर है, तुम कह सकते हो कि फूल पवित्र है, लेकिन तुम फूल के संबंध में जो भी कहते हो वह फूल नहीं है। फूल का होना तुम्हारे विचारों के बिना है। और तुम फूल के संबंध में जो भी सोच—विचार करते हो उससे तुम अपने और फूल के बीच अवरोध निर्मित कर रहे हो। फूल को होने के लिए तुम्हारे विचारों की जरूरत नहीं है। फूल बस है। अपने विचारों को छोड़ो और तब तुम फूल में डूब सकोगे।

तुम गुलाब के संबंध में जो भी कहते हो वह व्यर्थ है; वह कितना भी अर्थपूर्ण मालूम पड़े, लेकिन वह अर्थहीन ही है। जो तुम कहते हो उसकी कोई जरूरत नहीं है, फूल का होना तुम्हारे कहने न कहने पर निर्भर नहीं है। बल्कि तुम्हारा कुछ कहना तुम्हारे और फूल के बीच एक पतला परदा निर्मित करता है। वह एक सीमा बना देता है। इसलिए जब भी कोई विचार आता है, वह तुम्हें सीमित कर देता है, तुम्हारे लिए अस्तित्व का द्वार बंद हो जाता है।

यह सूत्र कहता है. ‘ना—कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’ अगर तुम सोच—विचार में उलझे नहीं हो, अगर तुम सिर्फ हो, पूरे सजग और सावचेत हो, विचार के किसी धुएं के बिना हो, तो तुम असीम हो।

यह शरीर ही एकमात्र शरीर नहीं है, एक गहनतर शरीर भी है, वह मन है। शरीर पदार्थ से बना है। मन भी पदार्थ से बना है, वह और सूक्ष्म पदार्थ से बना है। शरीर बाहरी पर्त है और मन आंतरिक पर्त है। और शरीर से अनासक्त होना बहुत कठिन नहीं है, मन से अनासक्त होना बहुत कठिन है; क्योंकि मन के साथ तुम्हारा तादात्म्य ज्यादा गहरा है, तुम मन से ज्यादा जुड़े हो।

अगर कोई तुमसे कहे कि तुम्हारा शरीर रुग्ण मालूम पड़ता है तो तुम्हें पीड़ा नहीं होती है। तुम शरीर से उतने आसक्त नहीं हो; वह तुमसे जरा दूरी पर मालूम पड़ता है। लेकिन अगर कोई तुमसे कहे कि तुम्हारा मन रुग्ण, अस्वस्थ मालूम पड़ता है तो तुम्हें पीड़ा होती है। उसने तुम्हारा अपमान कर दिया। मन से तुम अपने को ज्यादा निकट अनुभव करते हो। अगर कोई आदमी तुम्हारे शरीर के संबंध में कुछ बुरा कहे तो तुम उसे बरदाश्त कर सकते हो, लेकिन अगर वही तुम्हारे मन के संबंध में कुछ बुरा कहे तो बरदाश्त करना असंभव होगा। क्योंकि उसने गहरे में चोट कर दी।

मन शरीर की भीतरी पर्त है। मन और शरीर दो नहीं हैं। तुम्हारे शरीर की बाहरी पर्त शरीर है और भीतरी पर्त मन है। ऐसा समझो कि तुम्हारा एक घर है, तुम उस घर को बाहर से देख सकते हो और तुम उस घर को भीतर से देख सकते हो। बाहर से दीवारों की बाहरी पर्त दिखाई पड़ेगी; भीतर से भीतरी पर्त दिखाई पड़ेगी। मन तुम्हारी आंतरिक पर्त है; वह तुम्हारे ज्यादा निकट है। लेकिन फिर भी वह शरीर ही है।

मृत्यु में तुम्हारा बाहरी शरीर गिर जाता है; लेकिन उसकी भीतरी सूक्ष्म पर्त को तुम अपने साथ ले जाते हो। तुम उससे इतने आसक्त हो कि मृत्यु भी तुम्हें तुम्हारे मन से पृथक नहीं कर पाती। मन जारी रहता है। यही कारण है कि तुम्हारे पिछले जन्मों को जाना जा सकता है। तुम अभी भी अपने सभी अतीत के मनों को अपने साथ लिए हुए हो। वे सब के सब तुममें मौजूद हैं। अगर तुम कभी कुत्ते थे तो कुत्ते का मन अब भी तुम्हारे भीतर है। अगर तुम कभी वृक्ष थे तो वृक्ष का मन अब भी तुम्हारे साथ है। अगर तुम कभी स्त्री या पुरुष थे तो वे चित्त अब भी तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। सारे के सारे चित्त तुम्हारे पास हैं। तुम उनसे इतने बंधे हो कि तुम उनकी पकड़ को नहीं छोड़ सकते।

मृत्यु में बाह्य विलीन हो जाता है, लेकिन आंतरिक कायम रहता है। यह आंतरिक शरीर बहुत ही सूक्ष्म पदार्थ है। वस्तुत: वह ऊर्जा का स्पंदन मात्र है—विचार की तरंगें। तुम उन्हें अपने साथ लिए चलते रहते हो। और तुम उन्हीं विचार—तरंगों के अनुरूप फिर नए शरीर में प्रवेश करते हो। तुम अपने विचारों के ढांचे के अनुकूल, अपनी कामनाओं के अनुकूल, अपने मन के अनुकूल अपने लिए नया शरीर निर्मित कर लेते हो। मन में उसका ब्लू—प्रिंट, उसकी रूपरेखा मौजूद है, और उसके अनुरूप बाहरी पर्त फिर बनती है।

तो पहला सूत्र शरीर को अलग करने के लिए है। दूसरा सूत्र मन को, आंतरिक शरीर को अलग करने के लिए है। मृत्यु भी तुम्हें तुम्हारे मन से अलग नहीं कर पाती; यह काम केवल ध्यान कर सकता है। यही कारण है कि ध्यान मृत्यु से भी बड़ी मृत्यु है, वह मृत्यु से भी गहरी शल्य—चिकित्सा है। इसीलिए ध्यान से इतना भय होता है। लोग ध्यान के बारे में सतत बात करेंगे, लेकिन वे ध्यान कभी करेंगे नहीं। वे बात करेंगे, वे उसके संबंध में लिखेंगे, वे उस पर उपदेश भी देंगे; लेकिन वे कभी ध्यान करेंगे नहीं। ध्यान से एक गहरा भय है, और वह भय मृत्यु का भय है।

जो लोग ध्यान करते हैं वे किसी न किसी दिन उस बिंदु पर पहुंच जाते हैं जहा वे घबड़ा जाते हैं, जहां से वे पीछे लौट जाते हैं। वे मेरे पास आते हैं और कहते हैं ‘अब हम आगे प्रवेश नहीं कर सकते; यह असंभव है।’ एक क्षण आता है जब व्यक्ति को लगता है कि मैं मर रहा हूं। और वह क्षण किसी भी मृत्यु से बड़ी मृत्यु का क्षण है। क्योंकि जो सबसे अंतरस्थ है वही अलग हो रहा है, वही मिट रहा है। व्यक्ति को लगता है कि मैं मर रहा हूं। उसे लगता है कि मैं अब अनस्तित्व में सरक रहा हूं। एक गहन अतल का द्वार खुल जाता है; एक अनंत शून्य सामने खड़ा हो जाता है। वह घबरा जाता है और पीछे लौटकर शरीर को पकड़ लेता है, ताकि मिट न जाए; क्योंकि पांव के नीचे से जमीन खिसक रही है और सामने एक अतल खाई खुल रही है—शून्‍य की खाई।

इसलिए लोग यदि चेष्टा भी करते हैं तो सदा ऊपर—ऊपर करते हैं। वे पूरी त्वरा से ध्यान नहीं करते हैं। कहीं अचेतन में उन्हें बोध है कि अगर हम गहरे उतरेंगे तो नहीं बचेंगे। और यह सही है। यह भय सच है। तुम फिर तुम नहीं रहोगे। एक बार तुमने उस अतल को, उस शून्य को जान लिया तो तुम फिर वही नहीं रहोगे जो थे। तुम उससे एक नया जीवन लेकर लौटोगे, तुम नए मनुष्य जा।

पुराना मनुष्य तो मिट गया, वह कहां गया, तुम्हें इसका नामो—निशान भी नहीं मिलेगा। पुराना मनुष्य मन के साथ तादात्म्य में था, अब तुम मन के साथ तादात्म्य नहीं कर सकते। अब तुम मन का उपयोग कर सकते हो, अब तुम शरीर का उपयोग कर सकते हो, लेकिन अब मन और शरीर यंत्र हैं और तुम उनसे ऊपर हो। तुम उनका जैसा चाहो वैसा उपयोग कर सकते हो, लेकिन तुम उनसे तादात्म्य नहीं करते हो। यह स्वतंत्रता देता है।

लेकिन यह तभी हो सकता है जब तुम ना—कुछ का विचार करो।’ना—कुछ का विचार’—यह बहुत विरोधाभासी है। तुम किसी चीज के बारे में विचार कर सकते हो, लेकिन ना—कुछ के बारे में कैसे विचार कर सकते हो? इस ‘ना—कुछ’ का क्या अर्थ है? और तुम उसके संबंध में विचार कैसे कर सकते हो? जब भी तुम किसी के संबंध में विचार करते हो, वह विषय बन जाता है, वह विचार बन जाता है। और विचार पदार्थ हैं। तुम ना—कुछ का विचार कैसे कर सकते हो? तुम शून्य के संबंध में कैसे सोच सकते हो? तुम नहीं सोच सकते, यह संभव नहीं है। लेकिन इस प्रयत्न में ही, ना—कुछ के विषय में, शून्य के संबंध में सोचने के प्रयत्न में ही सोच—विचार खो जाएगा, विलीन हो जाएगा।

तुमने झेन कोआन के संबंध में सुना होगा। झेन गुरु साधक को एक कोआन देते हैं और कहते हैं कि इस पर विचार करो। यह कोआन जान—बूझकर विचार को बंद करने के लिए दी जाती है। उदाहरण के लिए, वे साधक से कहते हैं : ‘जाओ और पता लगाओ कि तुम्हारा मौलिक चेहरा क्या है, वह चेहरा जो तुम्हारे जन्म के भी पहले था। अभी जो तुम्हारा चेहरा है उस पर मत विचार करो, उस चेहरे पर विचार करो जो जन्म के पहले था।’

तुम इस संबंध में क्या सोच—विचार कर सकते हो? जन्म के पहले तुम्हारा कोई चेहरा नहीं था; चेहरा तो जन्म के साथ आता है। चेहरा तो शरीर का हिस्सा है। तुम्हारा कोई चेहरा नहीं है, चेहरा शरीर का है। आंखें बंद करो और कोई चेहरा नहीं है। तुम अपने चेहरे के बारे में दर्पण के द्वारा जानते हो। तुमने खुद उसे कभी नहीं देखा है, तुम उसे देख भी नहीं सकते। तो कैसे कोई मौलिक चेहरे के संबंध में सोच—विचार कर सकता है?

लेकिन साधक चेष्टा करता है, और यह चेष्टा करना ही मदद करता है। साधक चेष्टा पर चेष्टा करेगा—और यह असंभव चेष्टा है। वह बार—बार गुरु के पास आएगा और कहेगा : ‘क्या मौलिक चेहरा यह है?’ लेकिन उसके पूछने के पहले ही गुरु कहता है. ‘नहीं, यह गलत है।’ तुम जो कुछ भी लाओगे वह गलत होने ही वाला है।

साधक महीनों तक बार—बार आता रहता है। कुछ खोजता है, कुछ कल्पना करता है, कोई चेहरा देखता है और गुरु से कहता है : ‘यह रहा मौलिक चेहरा!’ और गुरु फिर कहता है : ‘नहीं!’ हर बार उसे यह नहीं सुनने को मिलता है। और धीरे— धीरे वह बहुत ज्यादा भ्रमित हो जाता है, उलझनग्रस्त हो जाता है। वह कुछ सोच नहीं पाता है। वह हर’ तरह से प्रयत्न करता है और हर बार असफल होता है। यह असफलता ही बुनियादी बात है। किसी दिन वह समग्र असफलता पर पहुंच जाता है। उस समग्र असफलता में सब सोच—विचार ठहर जाता है और उसे बोध होता है कि मौलिक चेहरे के संबंध में कोई सोच—विचार नहीं हो सकता। और इस बोध के साथ ही सोच—विचार गिर जाता है।

और जब साधक को इस अंतिम असफलता का बोध होता है और वह गुरु के पास आता है तो गुरु उससे कहता है. ‘अब कोई जरूरत नहीं है, मैं मौलिक चेहरा देख रहा हूं।’ साधक की आंखें शून्य हैं। वह गुरु से कुछ कहने नहीं, सिर्फ उनके सान्निध्य में रहने को आया है। उसे कोई उत्तर नहीं मिला; उत्तर था ही नहीं। वह पहली बार उत्तर के बिना आया है। कोई उत्तर नहीं है; वह मौन होकर आया है।

पहले वह जब भी आया था, कोई उत्तर लेकर आया था। मन मौजूद था, विचार चल रहा था और वह उस विचार से सीमित था। उसने कोई चेहरा खोज लिया था या उसने किसी चेहरे की कल्पना कर ली थी और वह उस चेहरे से सीमित था। अब वह मौलिक हो गया है; अब उसकी कोई सीमा नहीं है। अब उसका कोई चेहरा नहीं है, कोई धारणा नहीं है, कोई विचार नहीं है। वह बिना किसी मन के आया है।

यही अ—मन की अवस्था है। इस अ—मन की अवस्था में ‘सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’ सीमाएं विलीन हो जाती हैं। और तुम अचानक सर्वत्र हो, सब कहीं हो। तुम अचानक सब कुछ हो। अचानक तुम वृक्ष में हो, पत्थर में हो, आकाश में हो, मित्र में हो, शत्रु में हों—अचानक तुम सब कहीं हो, सब में हो। सारा अस्तित्व दर्पण के समान हो गया है—और तुम सर्वत्र अपनी ही प्रतिछवि देख रहे हो।

यही अवस्था आनंद की अवस्था है। अब तुम्हें कुछ भी अशांत नहीं कर सकता; क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्त कुछ और नहीं है। अब कुछ भी तुम्हें मिटा नहीं सकता, क्योंकि तुम्हारे सिवाय कोई और नहीं है। अब मृत्यु नहीं है; क्योंकि मृत्यु में भी तुम हो। अब कुछ भी तुम्हारे विरोध में नहीं है; क्योंकि एकमात्र तुम हो, अकेले तुम हो।

इस एकाकीपन को महावीर ने कैवल्य कहा है—समग्र एकात। एकात क्यों? क्योंकि सब कुछ तुममें समाहित है, सब कुछ तुममें है।

तुम इस अवस्था को दो ढंगों से अभिव्यक्त कर सकते हो। तुम कह सकते हो, ‘केवल मैं हूं अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं मैं परमात्मा हूं मैं समग्र हूं। सब कुछ मेरे भीतर आ गया है, सारी नदियां मेरे सागर में विलीन हो गई हैं। अकेला मैं ही हूं; और कुछ भी नहीं है।’ सूफी संत यही कहते हैं और मुसलमान कभी नहीं समझ पाते कि क्यों सूफी ऐसी बातें कहते हैं। एक सूफी कहता है. ‘कोई परमात्मा नहीं है, केवल मैं हूं।’ या वह कहता है. ‘मैं परमात्मा हूं।’ यह विधायक ढंग है कहने का कि अब कोई पृथकता न रही। बुद्ध नकारात्मक ढंग उपयोग करते हैं; वे कहते हैं. ‘मैं न रहा, कुछ भी न रहा।’

दोनों बातें सच हैं। क्योंकि जब सब कुछ मुझमें सम्मिलित है तो अपने को ‘मैं’ कहने में कोई तुक नहीं है।’मैं’ सदा ही ‘तू, के विरोध में है, ‘तू के संदर्भ में ‘मैं’ अर्थपूर्ण है, जब ‘तू न रहा तो ‘मैं’ व्यर्थ हो गया। इसीलिए बुद्ध कहते हैं कि ‘मैं’ नहीं है, कुछ नहीं है।

या तो सब कुछ तुममें समा गया है, या तुम शून्य हो गए हो और सबमें विलीन हो गए हो। दोनों अभिव्यक्तियां ठीक हैं।

निश्चित ही कोई भी अभिव्यक्ति पूरी तरह सही नहीं हो सकती है; यही कारण है कि विपरीत अभिव्यक्ति भी सदा सही है। प्रत्येक अभिव्यक्ति आशिक है, अंश है; इसीलिए विरोधी अभिव्यक्ति भी सही है, विरोधी अभिव्यक्ति भी उसका ही अंश है।

इसे स्मरण रखो। तुम जो वक्तव्य देते हो वह सच हो सकता है और उसका विरोधी वक्तव्य भी, बिलकुल विरोधी वक्तव्य भी सच हो सकता है। वस्तुत: यह होना अनिवार्य है। क्योंकि प्रत्येक वक्तव्य अंश मात्र है। और अभिव्यक्ति के दो ढंग हैं। तुम विधायक ढंग चुन सकते हो या नकारात्मक ढंग चुन सकते हो। अगर तुम विधायक ढंग चुनते हो तो नकारात्मक ढंग गलत मालूम पड़ता है। लेकिन वह गलत नहीं है, वह परिपूरक है। वह दरअसल उसके विरोध में नहीं है।

तो तुम चाहे उसे ब्रह्म कहो या निर्वाण कहो, दोनों एक ही अनुभव की तरफ इशारा करते हैं। और वह अनुभव यह है ना—कुछ का विचार करने से तुम उसे जान लेते हो।

इस विधि के संबंध में कुछ बुनियादी बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक कि विचार करते हुए तुम अस्तित्व से पृथक हो जाते हो। विचार करना कोई संबंध नहीं है; वह कोई संवाद नहीं है। विचार करना अवरोध है। निर्विचार में तुम अस्तित्व से संबंधित होते हो, जुड़ते हो, निर्विचार में तुम संवाद में होते हो।

जब तुम किसी से बातचीत करते हो तो तुम उससे जुड़े नहीं हो। बातचीत ही बाधा बन जाती है। और तुम जितना ही बोलते हो तुम उससे उतने ही दूर हट जाते हो। अगर तुम किसी के साथ मौन में होते हो तो तुम उससे जुड़ते हो। और अगर तुम दोनों का मौन सच ही गहन हो, अगर तुम्हारे मन में कोई विचार न हो, दोनों के मन पूरी तरह मौन हों—तो तुम एक हो।

दो शून्य दो नहीं हो सकते, दो शून्य एक हो जाते हैं। अगर तुम दो शून्यों को जोड़ों तो वे दो नहीं रहते, वे मिलकर एक बड़ा शून्य हो जाते हैं, वे एक हो जाते हैं। सच तो यह है कि कोई शून्य बड़ा या छोटा नहीं हो सकता; शून्य बस शून्य है। तुम न उसमें कुछ जोड़ सकते हो और न उससे कुछ घटा सकते हो। शून्य पूर्ण है। जब भी तुम किसी के साथ मौन में होते हो, तुम एक होते हो। जब तुम अस्तित्व के साथ मौन होते हो तो तुम अस्तित्व के साथ एक होते हो।

यह विधि कहती है कि अस्तित्व के साथ मौन होओ और तब तुम परमात्मा को जान लोगे। अस्तित्व के साथ संवाद का एक ही साधन है, मौन। यदि तुम अस्तित्व से बातचीत करते हो तो तुम चूकते हो। तब तुम अपने विचारों में ही बंद हो।

इसे प्रयोग की तरह करो। किसी चीज के साथ भी, एक पत्थर के साथ भी इसे प्रयोग करो। पत्थर के साथ मौन होकर रहो, उसे अपने हाथ में ले लो और मौन हो जाओ। और संवाद घटित होगा, मिलन घटित होगा। तुम पत्थर में गहरे प्रवेश कर जाओगे और पत्थर तुममें गहरे प्रवेश कर जाएगा। तुम्हारे रहस्य पत्थर के प्रति खुल जाएंगे और पत्थर अपने रहस्य तुम्हारे प्रति प्रकट कर देगा। लेकिन तुम पत्थर के साथ भाषा का उपयोग नहीं कर सकते; पत्थर कोई भाषा नहीं जानता है। और चूंकि तुम भाषा का उपयोग करते हो, तुम उसके साथ संबंधित नहीं हो सकते।

मनुष्य ने मौन बिलकुल खो दिया है। जब तुम कुछ नहीं कर रहे होते हो तो भी तुम मौन नहीं हो। मन कुछ न कुछ करता ही रहता है। और इसी निरंतर की भीतरी बातचीत के कारण, इस सतत आंतरिक बकवास के कारण तुम किसी के भी साथ संबंधित नहीं होते हो। तुम अपने प्रियजनों के साथ भी संबंधित नहीं हो सकते, क्योंकि यह बातचीत चलती रहती है।

तुम अपनी पत्नी के साथ बैठे हो सकते हो, लेकिन तुम अपने भीतर बातचीत में लगे हो और तुम्हारी पत्नी अपने भीतर बातचीत में लगी है। तुम दोनों अपने—अपने भीतर बातचीत में लगे हो। पास होकर भी तुम एक—दूसरे से बहुत दूर हो, दो ध्रुवों जैसे दूर हो। मानो तुम एक तारे पर हो और तुम्हारी पत्नी दूसरे तारे पर है और दोनों के बीच अनंत दूरी है। और फिर तुम्हें लगता है कि प्रेम नहीं है। तब तुम एक—दूसरे को दोष देते हो कि ‘तुम मुझे प्रेम नहीं करते।’

असल में प्रेम का प्रश्न ही नहीं है। प्रेम संभव ही नहीं है। प्रेम मौन का फूल है। प्रेम का फूल मौन में ही खिलता है, मौन मिलन में खिलता है। यदि तुम निर्विचार नहीं हो सकते हो तो तुम प्रेम में भी नहीं हो सकते। और फिर प्रार्थना में होना तो असंभव ही है।

लेकिन हम तो प्रार्थना करते हुए भी बातचीत में लगे रहते हैं। हमारे लिए प्रार्थना परमात्मा के साथ बातचीत है। हम बातचीत के इतने अभ्यस्त हो गए हैं, इतने संस्कारित हो गए हैं, कि जब हम मंदिर या मस्जिद भी जाते हैं तो वहां भी अपनी बकवास जारी रखते हैं। हम परमात्मा के साथ भी बोलते रहते हैं, बातचीत करते रहते हैं।

यह बिलकुल मूढ़तापूर्ण है। परमात्मा या अस्तित्व तुम्हारी भाषा नहीं समझ सकता है। अस्तित्व एक ही भाषा समझता है—मौन की भाषा और मौन न संस्कृत है, न अरबी, न अंग्रेजी, न हिंदी। मौन जागतिक है, मौन किसी एक का नहीं है।

पृथ्वी पर कम से कम चार हजार भाषाएं हैं। और प्रत्येक मनुष्य अपनी भाषा के घेरे में बंद है। अगर तुम उसकी भाषा नहीं जानते हो तो तुम उसके साथ संबंधित नहीं हो सकते। तुम संबंधित ही नहीं हो सकते। अगर मैं तुम्हारी भाषा नहीं जानता हूं और तुम मेरी भाषा नहीं जानते हो तो हम दोनों संबंधित नहीं हो सकते; तब हम एक—दूसरे के लिए अजनबी हैं। हम एक—दूसरे में प्रवेश नहीं कर सकते, हम एक—दूसरे को न समझ सकते हैं, न प्रेम कर सकते हैं।

ऐसा इसीलिए है, क्योंकि हमें वह बुनियादी जागतिक भाषा नहीं मालूम है जो कि मौन है। सच तो यह है कि मौन के द्वारा ही कोई किसी से संबंधित होता है। और अगर तुम मौन की भाषा जानते हो तो तुम किसी भी चीज के साथ संबंधित हो सकते हो, जुड़ सकते हो। क्योंकि चट्टानें मौन हैं, वृक्ष मौन हैं, आकाश मौन है—मौन अस्तित्वगत है। यह मानवीय गुण ही नहीं है, यह अस्तित्वगत है। सबको पता है कि मौन क्या है, सबका अस्तित्व मौन में ही है।

यदि तुम्हारे हाथ में एक पत्थर है तो वह पत्थर अपने भीतर नहीं बोल रहा है, लेकिन तुम बोल रहे हो। यही कारण है कि तुम पत्थर से संबंधित नहीं हो सकते हो। और पत्थर तो ग्रहणशील है, खुला हुआ है, वह तुम्हें आमंत्रण दे रहा है। पत्थर तुम्हारा स्वागत करेगा। लेकिन तुम बातचीत में लगे हो और पत्थर तुम्हारी भाषा नहीं समझ सकता। वही बाधा बन जाता है। ऐसे ही तुम मनुष्यों के साथ भी गहन संबंध में नहीं हो सकते, कोई घनिष्ठता संभव नहीं है। भाषा, शब्द सब कुछ नष्ट कर देते हैं।

ध्यान का अर्थ मौन है—कोई विचार नहीं। विचार बिलकुल खो गए हैं। ध्यान है मात्र होना—खुला, ग्रहणशील, तत्पर, मिलने को उत्सुक, स्वागत में, प्रेमपूर्ण—लेकिन वहा सोच—विचार बिलकुल नहीं है। और तब तुम्हें अनंत प्रेम घटित होगा और तुम यह कभी नहीं कहोगे कि कोई मुझे प्रेम नहीं करता है। तुम यह कभी नहीं कहोगे, तुम्हें कभी यह भाव भी नहीं उठेगा।

अभी तो तुम कुछ भी करो, तुम यही कहोगे कि कोई मुझे प्रेम नहीं करता है। और तुम्हें यह भाव भी उठेगा कि कोई मुझे प्रेम नहीं देता है। हो सकता है तुम यह नहीं कहो, तुम यह दिखावा भी कर सकते हो कि कोई मुझे प्रेम करता है, लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि कोई तुम्हें प्रेम नहीं करता है।

प्रेमी भी एक—दूसरे से पूछते रहते हैं ‘क्या तुम मुझे प्रेम करते हो?’ अनेक ढंगों से वे निरंतर यही बात पूछते रहते हैं। सब डरे हुए हैं, सब अनिश्चय में हैं, सब असुरक्षित हैं। बहुत तरीकों से वे यह जानने की कोशिश करते हैं कि दूसरा सच में मुझे प्रेम करता है। और उन्हें कभी भरोसा नहीं हो सकता है। क्योंकि प्रेमी कह सकता है कि ही, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं; लेकिन इसका भरोसा क्या? तुम्हें पक्का कैसे होगा? तुम कैसे जानोगे कि प्रेमी तुम्हें धोखा नहीं दे रहा है? वह तुम्हें समझा—बुझा सकता है; वह तुम्हें यकीन दिला सकता है। लेकिन इससे सिर्फ बुद्धि संतुष्ट हो सकती है; हृदय तृप्त नहीं होगा।

प्रेमी—प्रेमिका सदा दुखी रहते हैं। उन्हें कभी इस बात का पक्का भरोसा नहीं होता कि दूसरा मुझे प्रेम करता है। तुम्हें कैसे भरोसा आ सकता है! असल में भाषा के जरिए भरोसा देने का कोई उपाय नहीं है। और तुम भाषा के जरिए पूछ रहे हो। और जब प्रेमी मौजूद है तो तुम मन में बातचीत में उलझे हो, प्रश्न पूछ रहे हो, विवाद कर रहे हो। तुम्हें कभी भरोसा नहीं आएगा और तुम्हें सदा लगेगा कि मुझे प्रेम नहीं मिल रहा है, और यही गहन संताप बन जाता है।

और ऐसा इसलिए नहीं होता है कि कोई तुम्हें प्रेम नहीं करता है, ऐसा इसलिए होता है कि तुम बंद हो, तुम विचारों में बंद हो। वहा कुछ भी प्रवेश नहीं कर प्रात। है। विचारों में प्रवेश नहीं किया जा सकता, उन्हें गिराना होगा। और अगर तुम उन्हें गिरा देते हो तो सारा अस्तित्व तुममें प्रवेश कर जाता है।

यह सूत्र कहता है : ‘ना—कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’ तुम असीम हो जाओगे। तुम पूर्ण हो जाओगे। तुम जागतिक हो जाओगे। तुम सब कहीं होगे। और तब तुम आनंद ही हो।

अभी तुम दुख ही दुख हो और कुछ नहीं। जो चालाक हैं वे अपने को धोखे में रखतें हैं कि हम दुखी नहीं हैं, या वे इस आशा में रहते हैं कि कुछ बदलेगा, कुछ घटित होगा, और हमें अपने जीवन के अंत में सब उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन तुम दुखी हो। तुम दिखावे और धोखे निर्मित कर सकते हो, तुम मुखौटे ओढ़ सकते हो, तुम निरंतर मुस्कुराते रह सकते हो, लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि मैं दुखी हूं? पीड़ित हूं।

यह स्वाभाविक है। विचारों में बंद रहकर तुम दुख में ही रहोगे। विचारों से मुक्त होकर, विचारों के पार होकर—सजग, सचेतन, बोधपूर्ण, लेकिन विचारों से अछूते—तुम आनंद ही आनंद हो।

आज इतना ही।


Filed under: तंत्र--सूत्र--(भाग--4) ओशो Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

सपना यह संसार—(प्रवचन–11)

$
0
0

झुकने से यात्रा का प्रारंभ है—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक; शनिवार, 21 जुलाई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

भेख भगवंत के चरन को ध्याइकै,

ज्ञान की बात से नाहिं टरना।

मिलै लुटाइए तुरत कछु खाइए,

माया औ मोह की ठौर मरना।।

दुक्ख औ सुक्ख फिरि दुष्ट औ मित्र को,

एकसम दृष्टि इकभाव भरना।

दास पलटू कहै राम कहू बालकेख

राम कहु राम कहु सहज तरना।।

देखि निंदक कहैं करौं परनाम मैं,

धन्य महराज, तुम भक्त धोया।

किहा निस्तार तुम आइ संसार में,

भक्त कै मैल बिन दाम खोया।।

भयो परसिद्ध परताप से आपके,

सकल संसार तुम सुजस बोया।

दास पलटू कहै, निंदक के मुये से,

भया अकाज मैं बहुत रोया।।

पराई चिंता की आगि महैं,

दिनराति जरै संसार है, जी।।

चौरासी चारिउ खान चराचर,

कोऊ न पावै पार है, जी।

जोगी जती तपी संन्यासी,

सबको उन डरारा जारिहै, जी।

पलटू मैं भी हूं जरत रहा,

सतगुरु लीन्हा निकारि है, जी।।

इक नाम अमोलक मिलि गया,

परगट भये मेरे भाग हैं, जी।

गगन की डारि पपिहा बोलै,

सोवत उठी मैं जागि हौं, जी।।

चिराग बरै बिनु तेल बाती,

नाहिं दीया नहिं आगि है, जी।

पलटू देखिके मगन भया,

सब छुट गया तिर्गुना—दाग है, जी।।

कितनी ऊषा, कितनी संध्या

कितने कुसुमों के मधुरीते

यों ही पथ पर चलते—चलते

कितने ही संवत्सर बीते

पग शिथिल, किंतु गति मंद नहीं

यद्यपि है तन—मन चूर—चूर

जिससे मैं मिलने को व्याकुल

मुझसे वह कितना दूर—दूर।

जिस पनिहारिन की गगरी पर

मैं ललचाया वह ढुलक गई

जिस—जिस प्याली पर धरे अधर

वह—वह छूते ही छलक गई

देखो मेरे प्रति मेरी ही

किस्मत है कितनी क्रूर—क्रूर

जिससे मैं मिलने को व्याकुल

वह मुझसे कितना दूर—दूर।

मुझको पथ पर अथ से इति तक

पल—भर भी कहीं विराम नहीं

मैं राही बन कर आया हूं

रुकने का मेरा काम नहीं

मेरे अंतर में अन्वेषण

मस्तक पर छाई धूर—धूर

मैं जिससे मिलने को व्याकुल

वह मुझसे कितना दूर—दूर।

कितनी ऊषा, कितनी संध्या

कितने कुसुमों के मधुरीते

यों ही पथ पर चलते—चलते

कितने ही संवत्सर बीते

पग शिथिल, किंतु गति मंद नहीं

यद्यपि है तन—मन चूर—चूर

जिससे मैं मिलने को व्याकुल

मुझसे वह कितना दूर—दूर।

सत्य की खोज में जो भी निकले हैं, उन सब को ऐसा ही प्रतीत होता है कि सत्य बहुत दूर है। प्रतीति का कारण है, क्योंकि मिलता नहीं। इतना चलते हैं और मिलता नहीं। तो निश्चित ही दूर होगा। यह तार्किक निष्पत्ति है कि बहुत चल कर भी जिसे न पाया जा सके, स्वभावतः मानना होगा बहुत दूर है। हमारे छोटे—छोटे पग, हमारी छोटी—छोटी आंखें, हमारे छोटे—छोटे हाथ उस तक नहीं पहुंच पाते। शायद अनंत दूरी है हमारे और उसके बीच।

लेकिन तर्क की यह निष्पत्ति तार्किक भला दिखाई पड़े, सत्य नहीं है।

परमात्मा दूर नहीं है। परमात्मा निकट से भी निकट है। उसे चल कर पाने की जो चेष्टा करेगा, उसके लिए दूर हो जाता है। उसे बैठकर जो पाना चाहेगा, तत्क्षण पा लेता है। चले कि भटके। रुके कि पहुंचे। इस सूत्र को, इस स्वर्ण—सूत्र को हृदय में सम्हाल कर रख लो। चले कि दूर चले, परमात्मा से दूर चले, रुके कि पास आए। बिलकुल रुक जाओ तो पहुंच ही गए। क्योंकि परमात्मा तुम्हारे अंतरतम में विराजमान ही है। तुम भागते हो, चलते हो, दौड़ते हो, आपाधापी करते हो, इसलिए स्वयं को नहीं देख पाते, स्वयं से परिचित नहीं हो पाते। बैठो तो परिचय हो। थोड़ा रुको, थोड़ा थमो तो परिचय हो। फुर्सत कहां, आंखें दूर अटकी रहती हैं, पास को देखो तो कैसे देखो?

परमात्मा इसलिए नहीं नहीं मिलता कि दूर है बल्कि इसलिए नहीं मिलता है कि इतने पास है, इतने पास है कि आंख खोली कि दूर हो गया। आंख बंद रखी तो सामने है। हाथ फैलाया कि दूर हो गया। क्योंकि हाथ के भीतर ही वह मौजूद है। पग बढ़ाया कि चूके, क्योंकि पग जिसने बढ़ाया, वही वह है। क्रिया से परमात्मा नहीं पाया जाता है, पाया जाता है अक्रिया से। उस अक्रिया में ठहरने को बुद्ध ने ध्यान कहा है, पलटू ने ज्ञान कहा है। अक्रिया में ठहरने को। दौड़ना नहीं, भागना नहीं, तलाशना नहीं, रुक जाना, ठहर जाना।

और अक्रिया केवल देह की नहीं, मन की। देह से तो कोई भी बैठ सकता है। बहुत लोग आसन लगाए बैठे हैं गुफाओं में, वृक्षों के नीचे। आसन तो लगा है, लेकिन मन का आसन नहीं लगा है। तन तो ठहर गया, मन और—और भागा हो गया है। तन को जितना बिठाते हो, मन उतना भागा—भागा हो जाता है। तन तो यहां है, मन कहीं और। तन का आसन तो केवल मन के आसन की पूर्व—भूमिका है।

शरीर को ठहरा लेना है ताकि ठहरी हुई उस भूमिका में मन भी ठहर जाए। शरीर ठहरे और मन दौड़ता रहे तो कुछ सार नहीं। तो सब थोथा है। ऐसे ही योगी भटक गए हैं।

भोगी भटक गए हैं तन को दौड़ा—दौड़ा कर; मन तो दौड़ ही रहा है। योगी भटक गए हैं, तन को तो ठहरा लिया है लेकिन तन में लगी हुई जो ऊर्जा थी, तन के दौड़ने में जो शक्ति लगी थी, वह भी अब मन को मिल गई, मन और भागा—भागा हो गया। भोगी का मन तो संसार में ही भटकता है, योगी का मन स्वर्ग—नर्क, मोक्ष—कैवल्य और न—मालूम कहां—कहां भटकने लगता है। उसके पास भटकने के लिए ज्यादा शक्ति उपलब्ध हो जाती है। शरीर में जो उलझी थी ऊर्जा, वह भी मन को मिल गई। भोगी भी भटका है, योगी भी भटका है। सिर्फ ध्यानी पहुंचता है।

ध्यानी का अर्थ है: मन भी ठहरे, तन भी ठहरे। बस ठहराव आ जाए। यह झील चेतना की बिलकुल निस्तरंग हो जाए। उस निस्तरंग चित्त में परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जाना जाता है। परमात्मा वस्तु की तरह नहीं जाना जाता, ज्ञेय की तरह नहीं जाना जाता, परमात्मा तो ज्ञाता की तरह जाना जाता है, जानने वाले की तरह जाना जाता है। परमात्मा दृश्य नहीं बनता कभी, वह तो द्रष्टा है। वह तुम्हारे भीतर भी द्रष्टा होकर विराजमान है और तुम दृश्य की तरह उसकी खोज कर रहे हो, इसलिए बहुत दूर—दूर…।

तुम्हारे कारण दूर है। तुम थोड़ा समझो, तुम थोड़ा गुनो तो उससे ज्यादा पास और कोई भी नहीं है।

भेख भगवंत के चरन को ध्याइकै।

पलटू कहते हैं, भगवान के चरण में ध्यान। कहां हैं भगवान के चरण? काशी में, काबा में, कैलाश में? कहां हैं भगवान के चरण? तुम्हारे हृदय में विराजमान है। किसी और मंदिर में नहीं जाना। हृदय में ही उतरेंगे, हृदय की सीढ़ियों में ही उतरोगे तो पा लोगे मंदिर।

भेख भगवंत के चरन को ध्याइकै।

और भगवान अगर समझ के बाहर हो, बूझ के बाहर हो—जो कि स्वाभाविक है। न उसे देखा, न पहचाना, न कभी उसका स्वाद लिया; न रंग का पता, न रूप का; उसका ठिकाना भी मालूम नहीं, उसकी आकृति भी मालूम नहीं, तुम कैसे उसके चरणों में ध्यान लगाओगे? उसकी देह ही नहीं है तो उसके चरण क्या होंगे?

तो चरण में ध्यान लगाने का और भी गहरा अर्थ खयाल में ले लो। कुछ ऐसा नहीं है कि आंख बंद करके तुम परमात्मा के चरणों की कल्पना करो कि ये रहे चरण कमल! वह तो कल्पना ही होगी। तुम दो चरणों को देख लोगे, स्वर्ण के बने हुए, तो भी कल्पना ही होगी। और कल्पना को खूब दोहराते रहोगे तो प्रगाढ़ होती जाएगी। जब भी आंख बंद करोगे, दो चरण दिखाई पड़ेंगे। मगर तुमने एक झूठ में अपने मन को रमा लिया। चरण में ध्यान लगाने का केवल इतना ही अर्थ होता है—जो कि प्रगट नहीं होता वक्तव्य में, छिपा रह जाता है—चरण में ध्यान लगाना परोक्ष रूप से कुछ और कहा जा रहा है; कहा जा रहा है: झुको। चरण में ध्यान लगाने का मतलब होता है: समर्पण। झुकने की कला। चरण तो केवल प्रतीक हैं, क्योंकि चरण का अर्थ होता है: छुओगे तो झुकोगे। ध्यान लगाओगे चरणों में तो झुकना ही पड़ेगा—आंख को झुकना पड़ेगा, दृष्टि को झुकना पड़ेगा, दर्शन को झुकना पड़ेगा। यह तो प्रतीक है कहने के लिए। इस प्रतीक में मत उलझ जाना। नहीं तो लोगों ने चरण बना लिए हैं—पत्थर के, सोने के, चांदी के। उन्हीं पर फूल चढ़ा रहे हैं। चूक गए! प्रतीक को जोर से पकड़ लिया।

झेन फकीर रिंझाई अपने शिष्यों से कहा करता था, मेरी अंगुली को मत पकड़ो, मेरे इशारे को देखो। मेरी अंगुली को मत चूसने लगो, चांद को देखो जिस तरफ अंगुली उठी है।

मगर दुनिया में सारे लोगों ने अंगुलियां पकड़ ली हैं, अंगुलियां चूस रहे हैं। अंगुलियां कितनी ही चूसो, उससे पोषण नहीं मिलता। छोटे बच्चे ही धोखे नहीं खा रहे हैं, बड़े बच्चे भी धोखे खा रहे हैं। बड़ी उम्र वाले भी अंगुलियां चूस रहे हैं। प्रतीक को पकड़ना, प्रतीक को खूब जोर से पकड़ लेना कि चूक गए तुम अर्थ से। प्रतीक पकड़ा नहीं जाता। प्रतीक समझा जाता है।

चरण में ध्यान का अर्थ होता है: झुको; अपने ही भीतर झुक जाओ। यह अकड़ न रह जाए अहंकार की। अहंकार अकड़कर खड़ा होता है। चरण में ध्यान लगाया, झुकना पड़ा। झुक गया जो, पा लिया उसने। अगर पूरे झुक जाओ तो क्षण भर का विलंब नहीं होगा।

भेख भगवंत के चरन को ध्याइकै,

लेकिन कठिन है। भगवान को प्रतीक भी मानो, उसके चरण को प्रतीक भी मानो, तो भी कुछ आलंबन नहीं दिखाई पड़ता—कहां झुकें? किस दिशा में झुकें? कैसे झुकें? झुकने को कुछ सहारा चाहिए। इसलिए पलटू कहते हैं: भेख। भेख का अर्थ होता है: अगर भगवान न मिले तो भगवान का वेषधारी कोई मिल जाए, देहधारी कोई मिल जाए। भगवान तो अदेह है, निर्गुण है, निराकार है। उसे समझने के लिए तो उतनी ही निराकार आंखें चाहिए, उतना ही निर्गुण चित्त चाहिए। कठिन है आज एकदम से वैसा निराकार हो जाना। लेकिन जिसने भगवान को देखा हो, जिसने भगवान से आंखें चार की हों, ऐसे किसी देहधारी की आंख में झांकता, उसकी आंखों में तुम्हें सीढ़ियां मिलेंगी। उसकी आंखों में तुम्हें परमात्मा का प्रतिबिंब मिलेगा। अगर चांद को सीधा न देख सको तो किसी झील में झांकना। माना कि झील का चांद तो केवल प्रतिबिंब है, मगर है तो असली चांद का ही प्रतिबिंब। असली की कुछ छाप तो है। असली की कुछ धुन तो है। और जो प्रतिबिंब को देखने में समर्थ हो गया, जो प्रतिबिंब को समझने में समर्थ हो गया, ज्यादा देर न लगेगी असली की तरफ आंख उठाने में।

भेख भगवंत के चरन को ध्याइकै

भगवान के चरणों में ध्यान लगे, शुभ, न लग सके तो सदगुरु के चरणों में। जो अभी देह में है, देह यानी भेख। देह यानी अभी जो वेष में है। जब बुद्ध पृथ्वी पर चल रहे हैं, तो अभी परमात्मा रूप लिए है। इसे हम अवतार कहें, बुद्धत्व कहें, जिनत्व कहें, जो भी नाम देना हो दें। बुद्ध पृथ्वी पर हैं, तो भगवान अभी देह में समाया हुआ। अभी आकाश आंगन में उतरा हुआ है। शायद आंगन को तुम देख पाओ, आकाश विराट है। मगर जिसने आंगन को समझ लिया, उसने आकाश की तरफ यात्रा के लिए सबसे महत्वपूर्ण कदम उठा लिया। बुद्ध की आंखों में झांकोगे तो सीमा में बंधे हुए असीम को पाओगे। बुद्ध के चरणों में झुकोगे, कह सकोगे: बुद्धं शरणं गच्छामि। समग्र चित्त से बुद्ध के चरणों में सिर रखोगे, बुद्ध के चरण तो तिरोहित हो जाएंगे, पाओगे तो तुम भगवान के ही चरण। सदगुरु वही है जिसके चरणों में सिर रखकर उसके चरण तो विलीन हो जाएं और भगवान के अदृश्य चरण प्रकट होने लगें।

भेख भगवंत के चरन को ध्याइकै,

ज्ञान की बात से नाहिं टरना।

और एक बार अगर कभी ऐसा शुभ क्षण आ जाए, ऐसी शुभ घड़ी, ऐसा शुभ मुहूर्त कि कोई ऐसे चरण मिल जाएं जिनमें निराकार की थोड़ी प्रतीति हो जाए; कोई ऐसा आकार मिल जाए जिसमें निराकार की छवि बनती हो, प्रतिफलन होता हो; कोई ऐसी वाणी सुनाई पड़ जाए जिसमें शून्य का नाद हो, जिसमें अनाहत हो, जिसमें ओंकार की ध्वनि हो; कोई ऐसी प्रतिध्वनि मिल जाए, तो फिर टरना मत! फिर हटना मत! फिर सब दांव पर लगा देना! फिर बचना मत! क्योंकि जो बचा, उसने फिर खोया, बुरी तरह खोया।

और बहुत बार तुम बच गए हो। पलटू ठीक कहते हैं, चेताते हैं। न—मालूम कितनी बार कितने बुद्धों के करीब तुम पहुंच गए होओगे! लंबी तुम्हारी यात्रा है। जन्मों—जन्मों से तुम चल रहे हो। यह असंभव है कि तुम में से कुछ लोग बुद्ध के करीब न पहुंचे हों। यह असंभव है कि तुम में से कुछ लोग महावीर के दर्शन न किए हों। यह असंभव है कि तुम में से कुछ लोगों ने जीसस की वाणी न सुनी हो। यह असंभव है कि तुम में से कुछ कानों में मुहम्मद की कुरान न गूंजी हो। यह असंभव है! यहां नहीं तो वहां, वहां नहीं तो यहां, कहीं—न—कहीं किसी—न—किसी मार्ग पर, किसी मोड़ पर किसी बुद्धपुरुष का दर्शन जरूर तुम्हें हुआ होगा! इतनी लंबी यात्रा में, जन्मों—जन्मों की यात्रा में यह असंभव है कि तुम एक बार भी किसी बुद्ध के करीब न आए होओ। संभावना यही है कि बहुत बार आए होओगे। कभी कोई कबीर मिल गया होगा, कभी कोई नानक, कभी कोई पलटू, कभी कोई रैदास, कभी कोई फरीद। इतने ज्योतिर्मय पुरुष हुए! इतने दीए जले! मिट्टी में इतनी बार चिन्मय का अवतरण हुआ! देह में इतनी बार परमात्मा प्रकट हुआ! नहीं, तुम पहुंच तो गए होओगे कई बार करीब, लेकिन डर गए; चूक गए।

शायद कहा होगा: फिर कभी। अभी और बहुत काम हैं। आऊंगा कभी, जरूर आऊंगा, लेकिन अभी तो मैं जवान हूं। हो जाऊंगा वृद्ध, जीवन का काम—धाम, व्यवसाय पूरा हो जाएगा, तो जरूर आऊंगा। ये चरण तो हैं जहां झुकना है, ये चरण तो हैं जहां बैठना है!

या तो तुमने ऐसे तर्क खोजकर कल पर टाल दिया होगा। जिसने कल पर टाला, सदा को टाला। या फिर तुमने कुछ भूल—चूकें निकाल ली होंगी। तुमने देखा होगा, बुद्ध! अरे, ये तो वस्त्र पहने हुए हैं! जिनत्व को उपलब्ध व्यक्ति तो निर्वस्त्र होता है। तो वस्त्रधारी बुद्ध, कहीं चूक हो रही है! ये असली बुद्ध नहीं हो सकते।

और तुम महावीर के पास भी चूक गए होओगे, क्योंकि तुमने सोचा होगा: बांसुरी कहां है? मोर—मुकुट कहां है? कृष्ण ने तो बांसुरी बजाई, मोर—मुकुट बांधा, अपूर्व सौंदर्य में प्रकट हुए। यह भी कोई ढंग है: नंग—धड़ंग खड़े हैं! तुमने चूक निकाल ली होगी।

और ऐसा नहीं है कि तुमने कृष्ण के पास चूक न निकाल ली होगी—चूक निकालने वाला मन सब जगह चूक निकाल लेता है। उसने कृष्ण के पास भी चूक निकाल ली होगी कि ये कैसे भगवान! युद्ध में उतरते हैं। उतरते ही नहीं, संन्यासी होते अर्जुन को खींच—खांच कर युद्ध में लगा देते हैं। समझा—बुझा कर युद्ध में उतार देते हैं। महाविनाश, हिंसा करवाते हैं। ये कैसे भगवान!

वीतराग नहीं मालूम होते। सोलह हजार इतनी पत्नियां हैं। एक पत्नी नरक ले जाने को काफी, ये सोलह हजार पत्नियों को लेकर किस नरक में पहुंचेंगे? फिर ये सारी पत्नियां इनकी पत्नियां नहीं, इनमें कई दूसरों की पत्नियां हैं जो भगाई हुई हैं। और यह बांसुरी बजा कर यह जो रासलीला चल रही है पूर्णिमा की रात, वृदांवन में, किसी वंशीवट में, यह तो राग का खेल हुआ, वीतरागता कहां है? नहीं—नहीं, यहां भगवान नहीं हो सकते।

मुहम्मद के हाथ में तलवार देख कर, तुम लौट पड़े होओगे देख कर तलवार कि भगवान के हाथ में और तलवार! भगवान और युद्ध के लिए तत्पर! और जीसस को सूली चढ़ा देखकर तुमने कहा होगा, अरे, अपने को बचा न सके—और जगत के तारनहार! अपने को बचा न सके! और कहानियां सब मनगढ़ंत होंगी कि जल पर चले और मुर्दों को जिंदा किया। दिखाना था चमत्कार तो आज दिखा देते!

कोई एक लाख आदमी इकट्ठे थे जब जीसस को सूली लगी। जीसस के चरणों में सिर झुकाने को नहीं, देखने आए थे कि आज देखें, अब करे यह सिद्ध कि परमात्मा का असली बेटा यही है! अब करे सिद्ध, अब पुकारे अपने परमात्मा को, अब दिखलाए चमत्कार! और निश्चिंत घर लौटे थे कि सब धोखाधड़ी थी।

जीसस के साथ दो चारों को भी सूली लगी थी, वे भी मर गए। वैसे ही मर गए जैसे जीसस मर गए। लौट आए घर लोग निश्चिंत हो कर कि चलो अच्छा हुआ, धोखे से बचे! और जिन्होंने जीसस का अनुगमन किया होगा, उनको भी कहा होगा—देख लिया परिणाम? वे सब झूठी कहानियां जो तुम गढ़ते थे, अफवाहें, और यह आदमी दो कौड़ी का साबित हुआ! अपने को भी बचा न सका, किसी और को क्या बचाएगा? खुद भी डूब गया, तुम को भी डुबा रहा था।

या तो तुमने कोई तर्क निकाल लिया होगा और बच गए होओगे। और तर्क निकालने में तुम काफी कुशल हो। और तर्कों की कोई कमी नहीं है। तुम निकाल ही लोगे।

महावीर पेचिश की बीमारी से मरे। महावीर और पेचिश की बीमारी! जीवनभर उपवास करते रहे और पेट की बीमारी से मरे! मेरे हिसाब से तो बिलकुल ठीक है। क्योंकि उपवास इतने दिन करोगे तो पेट खराब होने वाला है। महावीर पेचिश की बीमारी से ही मरने चाहिए। और किसी बीमारी से मरते तो मुझे दिक्कत होती। महीने—महीने भर उपवास करोगे और फिर एक दिन भोजन करोगे, तो पेचिश नहीं होगी तो और क्या होगा? पेट ने पचाने की क्षमता छोड़ दी होगी। मेरे हिसाब से तो बिलकुल तर्कयुक्त है। मेरे हिसाब से तो यह बात गढ़ी हुई नहीं हो सकती। जैन तो गढ़ते कैसे? लेकिन अनेक लौट गए होंगे यह देख कर कि महावीर और पेचिश की बीमारी!

जैनों ने तो कहानी गढ़ी कि पेचिश की बीमारी असली नहीं थी। वह तो गोशालक नाम के दुष्ट व्यक्ति ने काली विद्या उनके ऊपर फेंक दी थी, उस काली विद्या के कारण उनको पेचिश की बीमारी थी। महावीर को नहीं थी बीमारी, गोशालक की दुष्टता के कारण थी। जरूर लोग संदेह उठाने लगे होंगे कि महावीर को पेचिश की बीमारी! भक्तों को कहानी गढ़नी पड़ी होगी महावीर को बचाने के लिए।

भक्तों में और दुश्मनों में बहुत फर्क नहीं है। दोनों का गणित एक। देखते हो तुम, गणित दोनों का एक है। भक्त भी कहता है, नहीं, महावीर को कैसे पेचिश की बीमारी हो सकती है! गोशालक की तरकीब है यह। उसी दुष्ट ने जादू किया, मंतर किया। लेकिन तुम तार्किक को इससे तृप्त नहीं कर सकते। वह कहेगा, जब गोशालक का मंत्र और जादू महावीर पर चल गया, जब महावीर अपनी रक्षा नहीं कर पाए गोशालक की काली विद्या से, तो इनको तुम तीर्थंकर कहते हो? ये संसार के अंधकार से, अमावस से तुम्हारी रक्षा कर पाएंगे? ये अपने को नहीं बचा पाए साधारण गोशालक से, ये किसको बचा पाएंगे

तुम जरा सोचना। बचने की तरकीबें आदमी का मन निकाल लेता है। ऐसे ही तुम बचते चले आए हो। इसलिए पलटू ठीक कहते हैं—

भेख भगवंत के चरन को ध्याइकै,

ज्ञान की बात से नाहिं टरना।

एक बार तुम्हें कहीं अगर थोड़ी—सी झलक मिले, पुलक मिले, रोमांच हो जाए; एक बार अगर किन्हीं आंखों में झांक कर तुम्हें शून्य की थोड़ी ध्वनि सुनाई पड़ जाए; किसी के पास बैठ कर तुम्हारा हृदय आंदोलित हो उठे, तुम्हारी हृदयत्तंत्री बज जाए, तो बचना मत, भागना मत, टालना मत, समझाना मत, अपने लिए तर्क मत खोजना, स्थगित मत करना। उस क्षण छलांग लगा जाना। क्योंकि भगवान में सीधी छलांग कठिन है, निराकार से सीधा संबंध जोड़ना कठिन है, अगर कहीं आकार में परमात्मा उपलब्ध हो, तो अवसर गंवाना मत।

और ध्यान रहे, आकार में जब भी परमात्मा उपलब्ध होगा तो तुम आकार के कारण कुछ—न—कुछ भूल—चूक खोज सकते हो। निराकार आकाश में कोई भूल—चूक नहीं खोज सकते। वहां खोजने को कुछ है ही नहीं। निराकार आकाश है। लेकिन आंगन? तिरछा। कि आंगन की दीवाल? सुंदर नहीं। कि आंगन की दीवाल? मिट्टी की, सोने की नहीं। कि आंगन की दीवाल गिरी—गिरी हो रही है। कि आंगन की दीवाल पर घास—पात ऊग आया है। घास—पात तो आंगन की दीवाल पर ऊगा है, आंगन तो वैसा ही शुद्ध है जैसा आकाश। लेकिन आंगन की भूमि में हो सकता है कंकड़ हों, पत्थर हों, कांटे हों। आंगन तो वही है जैसा आकाश, लेकिन आंगन की भूमि भी है, दीवाल भी है। और दीवाल और भूमि में तुम भूल—चूक खोज सकते हो। और वहीं आदमी भूल—चूक खोज कर अटक जाता है, रुक जाता है। फिर आंगन तिरछा तो नाचें कैसे?

अब आंगन के तिरछे से क्या लेना—देना! जिसे नाचना आता है, जिसे नाचना है, वह तिरछे—से—तिरछे आंगन में नाच लेगा। और जिसे नहीं नाचना है, कितने ही गणित के हिसाब से बनाया गया आंगन हो, वह नहीं नाच पाएगा।

मैंने सुना है, गणित के एक प्रोफेसर आजादी के युद्ध में सम्मिलित हुए और उनको छः महीने की सजा हो गई। जब वे लौटे तो उनके विद्यार्थियों ने पूछा, कैसी रही जेलयात्रा? सब ठीक तो था? उन्होंने कहा, और सब तो ठीक था, लेकिन मेरी कोठरी की दीवाल के जो कोने थे वे ठीक नब्बे अंश के नहीं थे।

इस आदमी को वही बात अखरी। ज्यामिति के प्रोफेसर थे, ज्योमेट्री के, इनको जो सबसे ज्यादा अखरी…छः महीने उस कमरे में रहना, जरूर इनको बहुत मुश्किल हो गई होगी! बार—बार देखना वही कि दीवाल जो है, वह ठीक नब्बे अंश की नहीं है। इरछी—तिरछी है। किस नालायक ने बनाई है! जेल में कोई और तकलीफ उन्हें याद ही न आई, उनको बात अखरी तो अखरी एक।

तुम्हें जब कोई बात अखरे तो खयाल करना, तुम्हारे मन के कारण अखरती है, तुम्हारी दृष्टि के कारण अखरती है, तुम्हारे पूर्व पक्षपातों के कारण अखरती है।

और इन छोटी—छोटी बातों के कारण इस आदमी के छः महीने खराब हो गए होंगे। चौबीस घंटे उसी कोठरी में रहना। आंख बंद करे तो भी उसको दिखाई पड़ता होगा कि वह दीवाल! रात सोए तो भी सपने आते होंगे कि दीवाल तिरछी। किस नालायक ने बनाई है! गणित का इसे कोई बोध नहीं था! तुम सोच भी नहीं सकते कि तुमने यह तकलीफ झेली होती इस कालकोठरी में। और हजार तकलीफें थीं, मगर और सब तकलीफें गौण हो गईं।

तुम अगर महावीर के पास जाकर चूक जाओ, तो ध्यान रखना, अपने कारण चूक रहे हो। अगर तुम्हें महावीर की नग्नता में कुछ अड़चन आए, तो समझना कि यह तुम्हारी भीतरी अड़चन है। तुम शायद नग्न होने से डरते हो। तुम शायद नग्न होने में भयभीत हो। तुम्हें शायद भय है कि नग्न होओगे तो उघड़ जाओगे, तुम्हारे सब पाप उघड़ जाएंगे। तुम्हें डर है कि नग्न होते ही तुम्हारी सारी कामवासना अभिव्यक्त हो जाएगी। तुमने कपड़ों में सिर्फ देह नहीं ढांकी है, अपनी कामवासना भी ढांकी है।

तुम्हें महावीर की नग्नता से अगर अड़चन हो तो कहीं, गौर से भीतर तलाशना, तुम्हें अपनी नग्नता से ही अड़चन है। तुम्हें अगर बुद्ध के पास बैठ कर कोई कठिनाई होने लगे, तो सोचना कि कठिनाई मुझे हो रही है, जरूर कारण मेरे भीतर होना चाहिए। तुम्हें अगर ऐसा लगे कि बुद्ध वस्त्र पहने हुए हैं और वस्त्र तो नहीं पहनने चाहिए, सब त्याग दिया तो अब वस्त्र भी क्या, तो जरा गौर से देखना, कहीं तुम्हारे भीतर वस्त्रों के प्रति मोह होगा। तुम्हें वस्त्रों में रस होगा। तो तुम यह नहीं मान सकते कि मुझे वस्त्रों में रस है, इसलिए यह कैसे हो सकता है कि बुद्ध को वस्त्रों में रस न हो। अगर कृष्ण के पास नाचती हुई गोपियों को देख कर तुम्हारे मन में ऐसे उठा कि यह कैसा वीतराग—भाव? तो तुम इतना ही जानना कि स्त्रियों में तुम्हारा रस है और कुछ भी नहीं। तुम जब भी कृष्ण, बुद्ध, महावीर, कबीर, नानक के संबंध में कुछ सोचो, तो ध्यान रखना, तुम्हारा वक्तव्य तुम्हारे संबंध में कुछ बताता है, उनके संबंध में कुछ भी नहीं। तभी तुम टिक सकोगे। तभी तुम्हारे जीवन में क्रांति हो सकेगी।

मिलै लुटाइये तुरत कछु खाइए,

बड़ा प्यारा वचन, सीधा—साफ। जैसे दो और दो चार। तीर की तरह सीधा जाता है। मिलै लुटाइये…अगर मिल जाए कभी कोई ऐसा सदगुरु और मिल जाए उसकी संपदा का पता, झलक दिख जाए…मिलै लुटाइए…तो खुद तो पीना ही, पचाना ही; खुद तो आपूर भर ही लेना अपने को, आकंठ, लुटाना भी! इतने पर ही मत रुक जाना कि ठीक, अपने को मिल गया, अब क्या करना! मिलै लुटाइए।

जीसस ने कहा है, चढ़ जाना मकानों की मुंडेरों पर और चिल्लान, क्योंकि लोग बहरे हैं। खबर देना। कोई मानेगा नहीं तुम्हारी, कोई सुनेगा नहीं तुम्हारी, फिक्र मत करना। सौ से कहोगे, एक तो सुनेगा। एक ने भी सुन लिया तो बहुत।

और एक राज की बात है कि जितना लुटाओगे उतना पाओगे। जैसे कुएं से कोई पानी भरता जाए तो नए—नए झरने कुएं में नया—नया जल ले आते हैं। किसी कुएं में पानी भरा जाए, कंजूस कुएं को बंद कर दे, ताला लगा दे—सोचे कि ऐसे रोज—रोज लोगों को पानी निकालने दिया तो किसी दिन जरूरत पड़ी, अकाल पड़ा, पानी न हुआ, तो हम प्यासे मरेंगे—बंद कुआं सड़ जाएगा। बंद कुएं के झरने मर जाएंगे। बंद कुएं के झरने बंद हो जाएंगे। कुएं का पानी जहर हो जाएगा। जिस दिन जरूरत होगी, उस दिन पीने योग्य नहीं होगा। मारेगा, जिलाएगा नहीं। कुएं से तो पानी उलीचते ही रहो। जितना उलीचोगे, कुआं उतना ताजा रहेगा। उतना जीवंत। और ऐसी ही अवस्था भीतर के आनंद की है। कहीं मिल जाए आनंद, तो—मिलै लुटाइए।

तुरत कछु खाइए,

बड़ी प्यारी बात है, कि सुनना ही मत, पचा लेना। तुरत खाइए! पी जाना तुम्हारी मांस—मज्जा बन जाए। सदगुरु मिले, तो उसे पीओ, खाओ, पचाओ। उसे तुम्हारे रोएं—रोएं में बस जाने दो। उसे तुम्हारी श्वास—श्वास में समा जाने दो। वह तुम्हारे खून में बहे। वह तुम्हारी हड्डियों में प्रविष्ट हो जाए। वह तुम्हारा जीवन बन जाए।

मिलै लुटाइए तुरत कछु खाइए, जहां दिखाई पड़े, क्षण—भर भी न चूकना!

ज्ञान की बात से नाहिं टरना।

फिर करोगे क्या? सदगुरु के चरणों में झुक कर करोगे क्या? पचाओ उसे, पीओ उसे! उससे परमात्मा बह रहा है।

उपनिषद कहते हैं: अन्नं ब्रह्म। अन्न ब्रह्म है। मैं तुमसे कहता हूं: ब्रह्म भी अन्न है। जैसे भोजन शरीर के लिए, स्वस्थ रखता, परिपुष्ट रखता, ऐसा ही आत्मा का भोजन भी है। वही सत्संग में मिलता है। वही पोषण, जो तुम्हारी आत्मा को बलवान करता है, आत्मवान करता है।

मिलै लुटाइए तुरत कछु खाइए,

कहते हैं: तुरत। क्षण—भर की भी देरी न हो, मन बड़ा बेईमान है।

सब पात पीले पड़ गए

कुछ बच रहे, कुछ झड़ गए

फिर वर्ष बीता एक यह, बीती वसंत—बहार भी,

लो आ गया पतझार भी।

कुछ वृष्टि के, हेमंत के

कुछ ग्रीष्म और वसंत के

दिन बीतते ये जा रहे, बन—मिट रहा संसार भी,

लो आ गया पतझार भी।

था कल वसंत यहां हंसा

अलि, कुसुम—कलियों में फंसा

जड़ और चेतन में हुई क्षण एक आंखें चार भी,

लो आ गया पतझार भी।

अब वह न सौरभ वात में

अब वह न लाली पात में

अवशेष यदि कुछ तो निशा के आंसुओं का हार ही,

लो आ गया पतझार भी।

इस आह का क्या अर्थ है?

दुख—सुख सुनाना व्यर्थ है?

लौटा नहीं प्रिय को सकी, पिक की अशांत पुकार भी,

लो आ गया पतझार भी।

जिसमें विलीन वसंत है,

उस शून्य का क्या अंत है?

क्या शून्य में ही लय कभी होगा हमारा प्यार भी,

लो आ गया पतझार भी।

सब पात पीले पड़ गए

कुछ बच रहे, कुछ झड़ गए

फिर वर्ष बीता एक यह, बीती वसंत—बहार भी,

लो आ गया पतझार भी।

देर न करना! वसंत के जाते देर नहीं लगती! अभी बुद्ध हैं, अभी बुद्ध नहीं हैं। बुद्ध तो एक वसंत हैं चैतन्य के। और प्रकृति का वसंत तो हर वर्ष आ जाता है, लेकिन बुद्धों के वसंत आने में तो सदियां लग जाती हैं। सदियों—सदियों में कभी कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। टालना मत! कहना मत कि कल! क्योंकि क्या पता, कब वसंत बीत जाए! कब हाथ में झरे पत्ते रह जाएं? उन्हीं झरे पत्तों को लोग शास्त्र कहते हैं। पहले तो पत्तों से ही शास्त्र बनते भी थे। पत्तों पर ही लिखे भी जाते थे। अब अगर पत्तों पर नहीं भी लिखे जाते तो भी फर्क नहीं है कुछ, ये पतझड़ के ही पत्ते हैं! जब वसंत था और पत्ते हरे थे और फूलों से लदे थे और वृक्ष ताजा था, जीवंत था, हरा था, बदलियों से बात करता था, चांदत्तारों के साथ संबंध था, नाचता था, गाता था, गुनगुनाता था, तब तुम कहां थे? तुम आते ही हो तब जब वृक्ष जा चुका, सूखे पत्ते पड़े रह गए! उनको तुम संजो लेते हो। उनसे तुम शास्त्र निर्मित कर लेते हो। फिर सदियों—सदियों तक पंडित उन्हीं पत्तों की पूजा करता रहता है। सड़े—गले पत्ते, सूखे—साखे पत्ते। माना कि कभी उन पर वसंत था, पर अब नहीं है। और माना कि कभी उनमें फूल खिले थे, मगर अब नहीं हैं। और माना कि कभी भौंरे उनके आसपास गुनगुनाए थे, मगर वह बात गई, गई हो चुकी।

वसंत जब हो चैतन्य का कहीं, तो झुक जाना। तो टिक जाना। तो सब दांव पर लगा देना। फिर तर्कजाल खड़े मत करना। फिर व्यर्थ की बातों में मत उलझना। फिर व्यर्थ के बहाने न खोजना बचने के।

इसलिए कहते हैं—

मिलै लुटाइए तुरत कछु खाइए,

क्षण न बीते; तत्क्षण।

माया औ मोह की ठौर मरना।।

जिसमें तुम पड़े हो अभी, माया और मोह के रास्ते पर, वहां तो मृत्यु के सिवाय और कुछ नहीं है। जिसने अमृत पा लिया हो, उससे साथ जोड़ लो। देर न करो, उससे साथ जोड़ लो। ऐसे भी बहुत देर हो चुकी है। बहुत देर हो चुकी है!

दुक्ख और सुक्ख फिरि दृष्ट और मित्र को,

एकसम दृष्टि इकभाव भरना।

और सदगुरु से सत्संग हो जाए तो कुछ पृष्ठभूमि निर्मित करनी होगी, ताकि सत्संग गहराए। ताकि सत्संग रोज—रोज घना हो, सघन हो, तीव्र हो। प्रज्वलित हो उठे अग्नि सत्संग की। तो कौन—सी भूमिका उपयोगी होगी? दुख और सुख, दोनों को एक समझना शुरू करो। जब सदगुरु मिल जाए तो आनंद मिलना शुरू हुआ, अब दुख और सुख की फिक्र छोड़ो। अब दोनों को समान समझो। अब कुछ ऊपर की बात होने लगी। अब कुछ आकाश उतरने लगा। अब पृथ्वी से आंखें हटाओ। दुख और सुख समान समझो। दुष्ट और मित्र को भी समान समझो। क्योंकि दुष्ट और मित्र, शत्रु और मित्र, ये सब यहीं माया—मोह के झगड़े हैं। जो साथ दे वह साथी है, जो विरोध करे वह दुश्मन है। लेकिन जिसके मन में इस जगत में कुछ पाने और पकड़ने की ही आकांक्षा न रही गई हो, अब कौन दोस्त, कौन दुश्मन?

एकसम दृष्टि इकभाव भरना।

अब तो एक समदृष्टि को जगाओ। मित्र हो तो, शत्रु हो तो—समभाव, एक दृष्टि। इससे भूमिका बनेगी। सदगुरु को ज्यादा आसानी से पी सकोगे। आकाश सुगमता से उतर सकेगा।

चाहा, न जीवन पा सका

चाहा, न मृत्यु बुला सका

कैसी तुम्हारी रीति है, यह भी नहीं, वह भी नहीं

कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं।

क्यों लिपटने सुख से लगा

क्यों भागने दुख से लगा

जब जानता हूं सत्य तो, सुख भी नहीं, दुख भी नहीं

कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं।

इस साधना से क्या हुआ

आराधना से क्या हुआ

यदि कर सका प्रिय का इधर, मुख भी नहीं, रुख भी नहीं

कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं।

इस जिंदगी को जरा गौर से तो देखो।

क्यों लिपटने सुख से लगा

क्यों भागने दुख से लगा

जब जानता हूं सत्य तो, सुख भी नहीं, दुख से भी नहीं

कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं।

कितनी देर और लगाओगे इस सीधे—से सत्य को जानने में? कितनी बार तो सुख आया और कितनी बार तो दुख आया—सब आया और गया। पानी पर खींची लकीरें हैं। बन भी नहीं पातीं और मिट जाती हैं। क्या बचा तुम्हारे हाथ में? सुख भी स्मृति रह गई—बस पानी पर खींची लकीरें। दुख भी स्मृति रह गई—बस पानी पर खींची लकीरें। कितनी बार तो लगा कि बस, इस सुख को छाती से लगा लूं और कभी न छोडूं। मगर क्या टिका? और भी आश्चर्य की बात है, अगर सुख टिक भी जाए तो जल्दी ही दुख हो जाता है।

कल मैं एक गीत पढ़ रहा था:

दुनिया जिसे कहते हैं,

जादू का खिलौना है।

मिल जाए तो मिट्टी है,

खो जाए तो सोना है।

मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है। जो मिल जाता है, वही मिट्टी हो जाता है। जिस स्त्री के पीछे दीवाने थे, मिल गई और मिट्टी हो गई। जिस पुरुष के पीछे पागल थे, मिल गया और मिट्टी हो गया। मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है। न मिले…मजनू सौभाग्यशाली था, लैला नहीं मिली, सोना बनी ही रही। इतने सौभाग्यशाली सभी मजनू नहीं होते। मजनुओं को लैला मिल जाती है। और तब गले में फांसी लग जाती है। मजनू कभी जाग ही न सका अपने स्वप्न से, क्योंकि लैला मिली ही नहीं। मिल जाती तब बच्चू को पता चलता नोनत्तेल—लकड़ी! तब फिर लैला—लैला न करता।

मुल्ला नसरुद्दीन एक शराबखाने में बैठा था। एक मित्र के साथ गपशप चल रही थी, पी रहे थे। मुल्ला नसरुद्दीन ने उस मित्र से पूछा कि बड़ी देर हो गई, आज घर नहीं जाना है? मित्र ने कहा, घर जाकर क्या करूं? घर है कौन? गैर—शादी—शुदा हूं। घर खाली और सूना है। मुल्ला नसरुद्दीन ने हाथ सिर से मार लिया; उसने कहा, हद्द हो गई! तुम इसलिए यहां बैठे हो? हम इसलिए बैठे हैं कि घर पत्नी है। घर जाएं तो कैसे जाएं! जितनी देर कट जाए उतना अच्छा है। मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।

कितनी बार तो सुख मिले! या तो खो गए और नहीं खो गए तो तुम्हारे हाथ में मिट्टी हो गए। और कितनी बार तो दुख मिले! या तो खो गए या धीरे—धीरे तुम उनके आदी हो गए, वे तुम्हारी आदत बन गए। सुख और दुख के पार भी कुछ है, इसीलिए जीवन में अर्थ है, गरिमा है, महिमा है, परमात्मा है। सुख—दुख के पार उठना है।

सदगुरु को पीना हो तो सुख—दुख के पार उठना पड़े।

कुछ बात दिल की कह सकूं

उपहास जग का सह सकूं

सुख—दुख में सम रह सकूं, इतना मुझे अधिकार दो,

मुझको न सुख—संसार दो।

मैं नित नई पालूं व्यथा

मेरी निराली हो कथा

जिसका न आदि न अंत हो, वह प्रेम—पारावार दो

मुझको न सुख—संसार दो।

साहस हृदय में दो अमर

चूमूं तरंगों के अधर

नौका भंवर में डालकर, चाहे न फिर पतवार दो,

मुझको न सुख—संसार दो।

कुछ बात दिल की कह सकूं

उपहास जग का सह सकूं

सुख—दुख में सम रह सकूं, इतना मुझे अधिकार दो,

मुझको न सुख—संसार दो।

मांगना हो परमात्मा से प्रार्थना में कुछ तो इतना ही मांगना कि सुख—दुख में सम रहने की क्षमता दो। क्यों? क्योंकि जिसमें यह क्षमता आ गई, वह परमात्मा को पाने का पात्र हो जाता है। मांगना हो तो इतना ही मांगना कि शत्रु और मित्र को समान रूप से देख सकूं; कांटे और फूल को समदृष्टि से देख सकूं, क्योंकि जिसमें समता की दृष्टि आ गई, सम्यकत्व आ गया, उसकी समाधि दूर नहीं। सम्यकत्व समाधि की ही पहली किरण है, पगध्वनि है। और जहां समाधि की पगध्वनि सुनी जाती है, वहां समाधान है, वहां परमात्मा है।

दास पलटू कहै राम कहु बालके,

राम कहु राम कहु सहज तरना।।

पलटू वही कह रहे हैं जो शंकराचार्य ने कहा है: भज गोविंदम मूढ़मते। मूढ़मति को बालके कह रहे हैं कि हे बालक!

दास पलटू कहै राम कहु बालके,

राम कहु राम कहु सहज तरना।।

एक ही धुन तुम्हारे भीतर गूंजने लगे निराकार की, निर्गुण की; सत्संग ही तुम्हारा प्राण बन जाए; उठो तो राम में, बैठो तो राम में, सोओ तो राम में; खाओ तो राम, पीओ तो राम, बोलो तो राम, सुनो तो राम—राम से ही घिर जाओ; राम के सागर में डुबकी लग जाए। उस दिन ही जानना कि मूढ़ता मिटी। फिर तुम बालक न रहे, प्रौढ़ हुए। फिर तुम्हारे भीतर बुद्धि का आविर्भाव हुआ, प्रतिभा जगी। धार्मिक व्यक्ति के अतिरिक्त और कोई प्रतिभाशाली नहीं है। धार्मिक व्यक्ति के अतिरिक्त मेधा की कोई परम अभिव्यक्ति नहीं है।

देखि निंदक कहैं करौं परनाम मैं,

और बड़ी निंदा होगी। अगर ऐसे झुके किसी सत्संग में, अगर झुके किन्हीं चरणों में, अगर गहे कोई चरण, अगर लगाया ध्यान निराकार में, अगर परमात्मा की तलाश गहन हुई, प्राण उसके रस में पगने लगे, तो बड़ी निंदा होगी। भीड़—भाड़ अंधों की है, आंखवालों को पसंद नहीं करती।

देखि निंदक कहैं करौं परनाम मैं,

निंदकों से भर जाएगा जगत तुम्हारे लिए। जो अपने थे, पराए हो जाएंगे। इधर जैसे—जैसे तुम्हारे भीतर सम्यक्त्व का भाव बढ़ेगा, वैसे—वैसे तुम पाओगे कि शत्रु बढ़ने लगे। बड़ी उलटी दुनिया है! तुम्हारे भीतर से शत्रु—भाव छूटने लगा और उधर बाहर शत्रु बढ़ने लगे। अब तुम किसी का बुरा नहीं सोचते और हजारों लोग जो तुम्हारे संबंध में कभी नहीं सोचते थे, वे तुम्हारा बुरा सोचने लगेंगे। वे एकदम पागल हो उठेंगे। तुम्हें हानि पहुंचाने को न—मालूम कितने लोग तत्पर हो उठेंगे। हजार काम छोड़कर तुम्हें हानि पहुंचाने को आने लगेंगे। पलटू कहते हैं, लेकिन तुम एक खयाल रखना, तुम तो प्रणाम करना!

देखि निंदक कहैं करौं परनाम मैं,

नमस्कार करना।

धननय महाराज, तुम भक्त धोया।

धन्यवाद देना कि महाराज, तुम क्या आ जाते हो, धो जाते हो। तुम्हारी बातें, तुम्हारी गालियां, तुम्हारे पत्थर, सभी मेरी धूल झड़ा देते हैं। मेरी भूल—चूक बता जाते हो।

कबीर ने कहा है: निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय। अगर निंदक हों, तो पास में ही बसा लेना और आंगन कुटी छवा देना; ढंग से उनकी सेवा—सत्कार करना। उनकी बातें सुनना गौर से। क्योंकि निंदक की बातें या तो सच होंगी या झूठ होंगी—और तीसरी तो कोई होने की संभावना नहीं है। सच हों, तो लाभ होगा। सच हों तो तुम्हें अपनी भूल—चूक पता चलेगी, उसे सुधारना, भूल—चूकें बहुत हैं। और अगर झूठ हों, तो भी लाभ होगा। लाभ यह होगा कि अब झूठ से तुम परेशान मत होना। झूठ से क्या परेशान होना! सच हों तो ग्रहण कर लेना, झूठ हों तो भीतर—भीतर हंस लेना। मगर निंदक तुम्हारी सेवा कर रहा है।

किहा निस्तार तुम आइ संसार में…

पलटू भी खूब कहते हैं। कहते हैं:

धन्य महाराज, तुम भक्त धोया।

किहा निस्तार तुम आइ संसार में,

भक्त कै मैल बिन दाम खोया।।

तुम्हारी बड़ी कृपा है जो तुम संसार में आ जाते हो, आते रहते हो। अवतारी—पुरुष समझो तुम्हें कि आ—आ कर भक्तों को धोते रहते हो, नहलाते रहते हो। गंगा—जल हो तुम। और बिना दाम! कभी—कभी चकित होकर सोचना पड़ता है कि कुछ लोगों को जैसे कोई और काम ही नहीं है! वे दूसरों की निंदा में ही समय लगाए रखते हैं—चौबीस घंटे! उनका श्रम महान है! उनकी साधना महान है!

धन्य महराज, तुम भक्त धोया।

भक्त कै मैल बिन दाम खोया।।

भयो परसिद्ध परताप से आपके,

सकल संसार तुम सुजस बोया।

और तुम्हारी ही कृपा है कि जिससे प्रसिद्ध हुआ भक्त! नहीं तो भक्तों को जाने कौन? भक्तों को पहचाने कौन?

भयो परसिद्ध परताप से आपके…

क्योंकि भक्त तो चुपचाप शायद बैठे—बैठे, मस्ती—मस्ती में डूबे—डूबे एक दिन विदा हो जाता है। मगर निंदक उसकी खबर दुनिया के कोने—कोने तक पहुंचा देते हैं।

सकल संसार तुम सुजस बोया।

निंदक तो बोता है कांटे, लेकिन भक्त को तो कांटे लगते ही नहीं, उसके पास तो कांटे आते ही फूल हो जाते हैं। निंदक तो फेंकता है अंगार, लेकिन भक्त को छूते ही फूल हो जाते हैं। पलटू कहते हैं, तुम सुजस बोया। निंदक और सुयश बोए? निंदक तो जितना गढ़ सकता है उतनी निंदा गढ़ता है। लेकिन पलटू कहते हैं, तुम्हारी निंदा से कुछ होता नहीं; सुयश ही फैलाता है। तुम्हारे कारण बहुत लोग भक्त को खोजते चले आते हैं। तुम्हारे कारण बहुत लोग भक्त के हो जाते हैं।

दास पलटू कहै, निंदक के मुये से,

भया अकाज मैं बहुत रोया।।

पलटू कहते हैं कि जब मेरा प्रधान निंदक मर गया…दास पलटू कहै, निंदक के मुए से, भया अकाज…बहुत अकाज हो गया। बड़ी बुरी बात हो गई। मैं बहुत रोया कि उस बेचारे ने कितनी सेवा की। अथक, बिना किसी पारिश्रमिक के। धन्य महराज, तुम भक्त धोया।

स्मरण रखना, जैसे ही तुम्हारी धर्म में गति होगी, वैसे ही निंदा बढ़ने लगेगी। यह बहुत हैरानी की बात है, मगर अपरिहार्य है। बुद्ध बिना गाली खाए इस पृथ्वी से नहीं जा सकते। बुद्धों के रास्ते पर लोग कांटे बोते ही हैं। उनकी भी मजबूरी है। कांटे बोने वाले भी क्या करें, एक अनिवार्यता है! अंधे लोग आंख वाले को पसंद नहीं करते। क्योंकि उसकी मौजूदगी में उन्हें अपना अंधापन अखरता है। बुद्धू बुद्धों को पसंद नहीं कर सकते। कहते हैं, ऊंट पहाड़ के पास जाना पसंद नहीं करता। क्योंकि वहां जाकर उसे पता चलता है कि अरे, मैं भी कुछ नहीं! ऊंट शायद इसीलिए रेगिस्तान चुनते हैं रहने के लिए। बड़े होशियार हैं! रेगिस्तान में वे ही पहाड़ हैं। पहाड़ों के पास ऊंट जाने से डरता है। पहाड़ को देख कर ऊंट को लगेगा, मैं तो ना—कुछ, मैं तो कुछ भी नहीं। बुद्धों की मौजूदगी तो गौरीशंकर जैसी है—उत्तुंग, आकाश छूती। उनके पास जाकर तुम अचानक कीड़े—मकोड़े जैसे मालूम होने लगते हो। उनकी रोशनी में तुम एकदम अंधकार मालूम होने लगते हो। उनका प्रज्वलित प्रकाश और तुम्हें अपने भीतर की सारी ग्लानि और सारे पाप दिखाई पड़ने लगते हैं। उनकी खींची हुई बड़ी रेखा के सामने तुम एकदम छोटे और क्षुद्र हो जाते हो। कोई नहीं चाहता कि क्षुद्र हो। हालांकि वे तुम्हें क्षुद्र नहीं कर रहे हैं। मगर यह अनिवार्यरूपेण घट जाता है।

तुमने कहानी सुनी। अकबर ने एक दिन लकीर खींच दी दरबार में आकार। पहेली की एक किताब में उसने पढ़ी थी। हल नहीं कर पाया था खुद तो दरबार में लकीर खींच दी और लोगों से कहा कि बिना इसे छुए जो छोटा कर देगा, उसे लाख स्वर्णमुद्राएं मिलेंगी। बिना छुए! उसी प्रश्न में अटक गए बुद्धिमान: बिना छुए? छोटा करना है तो छूना तो पड़ेगा ही। छोटा करना है तो बिना छुए कैसे होगा? और तब उठा बीरबल और उसने एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी। छुआ नहीं उसे और छोटा कर दिया। लकीर उतनी की उतनी ही है—छोटी हुई नहीं, न बड़ी हुई, मगर छोटी दिखाई पड़ने लगी।

ऊंट तो ऊंट है, चाहे पहाड़ के किनारे खड़ा हो और चाहे रेगिस्तान में। मगर पहाड़ के किनारे छोटा दिखाई पड़ता है। तुम तो तुम हो, चाहे पापियों के बीच बैठो, चाहे पुण्यात्माओं के। लेकिन पापियों के बीच तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलेगी। तुम श्रेष्ठ मालूम पड़ोगे। पुण्यात्माओं के बीच बैठोगे, तुम निकृष्ट मालूम पड़ोगे; तुम्हारे अहंकार को चोट लगेगी। और अहंकार को चोट लगे तो अहंकार सांप की तरह फुफकारता है। वही निंदा बन जाती है। अहंकार को चोट लगे, तो जहर उगलता है। उगलेगा ही। इसलिए यह अपरिहार्य है कि बुद्धों के रास्ते पर कांटे बोए जाएंगे, अंगारे फेंके जाएंगे, सूलियां दी जाएंगी, जहर पिलाया जाएगा। जो व्यक्ति परमात्मा का अमृत पीता है, उसे संसार का जहर पीना पड़ता है। वह कीमत चुकानी पड़ती है—मगर वह कीमत चुकाने जैसी है।

परमात्मा का अमृत जो पी रहा है, उसे फिक्र भी क्या संसार के जहर की? संसार का जहर उसका बिगाड़ भी क्या लेगा? ज्यादा—से—ज्यादा इतना ही होगा कि वह नीलकंठ हो जाएगा। और देखते हो, पक्षी तो बहुत हैं मगर नीलकंठ जैसा प्यारा कोई पक्षी है? नीलकंठ शिव का प्रतीक हो गया, क्योंकि शिव जहर पी गए। और जहर के कारण कंठ नीला हो गया। इसलिए वर्ष में एक दिन लोग नीलकंठ की तलाश में जाते हैं, उसका दर्शन करने जाते हैं। नीलकंठ है भी प्यारा!

मगर यह कोई शिव की ही बात नहीं। जो भी शिवत्व को उपलब्ध हुए हैं, उन सब के कंठ नीले हो गए हैं। वे सभी नीलकंठ हैं। उन सब को जहर पीना पड़ेगा। हर चीज की कीमत चुकानी होती है। अमृत मुफ्त नहीं है। मगर क्या कीमत है यह! दो कौड़ी की कीमत है यह! अमृत जिसको मिल रहो हो! जहर मार तो न सका शिव को! सूली मार तो न सकी जीसस को! तुम्हारे पत्थर क्या बिगाड़ सके बुद्ध का? और तुम्हारी गालियां क्या बिगाड़ सकीं मुहम्मद का? नहीं, उलटा ही परिणाम हुआ।

भयो परसिद्ध परताप से आपके,

सकल संसार तुम सुजस बोया।

देखि निंदक कहैं करौं परनाम मैं,

धन्य महराज, तुम भक्त धोया।

पलटू चेताते हैं कि जैसे ही तुम रस पीना शुरू करोगे परमात्मा का, जगत में बहुत विरोध होगा। इससे बचा नहीं जा सकता। बचने की फिक्र भी मत करना। बचने की फिक्र की तो अमृत पीने से वंचित रह जाओगे। यहां जो भी मेरे पास आ कर बैठे हैं, वे जानते हैं कि कितनी निंदा उन्हें सहनी पड़ रही है। उन्हें कितना जहर पीना पड़ रहा है। धन्यवाद देकर पीना! प्रणाम करते रहना उनको जो तुम्हारे लिए जहर पिलाएं। जो तुम्हें गालियां दें उनको नमस्कार करते रहना। उनका अनुग्रह मानना!

पराई चिंता की आगि महैं,

दिनराति जरै संसार है, जी।।

यह बड़ा अदभुत संसार है। इसे अपनी चिंता नहीं। यह पराई चिंता में जलता है। इसे अपनी फिक्र नहीं। जितनी देर दूसरों की निंदा करता है, उतनी देर ध्यान नहीं करेगा। ध्यान की कहो तो लोग कहते हैं—समय कहां? और जरा किसी की निंदा की बात करो तो कहते हैं: कुछ और बताइए! कुछ और आगे! फिर क्या हुआ? लोगों से अगर परमात्मा की बात कहो तो लोग कहते हैं कि छोड़ो भी, कहां की बात उठा दी? परमात्मा की बात शिष्टाचार से कोई सुन ले तो सुन ले, कोई सुनना नहीं चाहता। असल में परमात्मा की बात छेड़ने वालों को लोग समझते हैं कि उबाने वाले लोग, बोर करने वाले लोग। इनसे लोग बचते हैं।

तुम मेरी बात न समझो तो जाकर देखो। चले जाओ रोटरी क्लब और जाकर वहां एकदम परमात्मा की बात छेड़ दो। सब बड़े चौंकेंगे कि यह क्या बत कर रहा है आदमी! चले जाओ लायंस क्लब, ध्यान इत्यादि की बात छेड़ो। लोग एक—दूसरे की तरफ देखेंगे कि ये अजनबी सज्जन कहां से आ गए? वहां तो कुछ और ही बातें चलती हैं। कौन किसकी स्त्री को ले भागा? कौन किसी पत्ती दिल्ली से काट रहा है? किसने किसको चारों खाने चित कर दिया? बड़ी ऊंची बातें चलती हैं वहां! वे सभी स्वीकृत हैं। उनमें लोग रस लेते हैं। खोद—खोद कर पूछते हैं।

जिस फिल्म में हत्या न हो, आत्महत्या न हो, व्यभिचार न हो, बलात्कार न हो, उस फिल्म को देखने कोई जाता ही नहीं। तुम जरा कोई ऐसी फिल्म तो बना कर देखो, जिसमें ये चीजें भर न हों। शुभ ही शुभ हो—कि भक्त बैठे हैं, भगवान का भजन ही भजन चल रहा है—पिटाई हो जाएगी सिनेमा के मैनेजर की। आग लगा देंगे लोग फिल्म में! कि यह क्या मामला है? यह कोई बात हुई? लोग यह देखने नहीं आते हैं, लोग इसके लिए पैसा खर्च नहीं करते हैं। लोग तो कुछ गंदा हो तो उनका रस है। लोग गंदगी के कीड़े हैं।

पराई चिंता की आगि महैं,

दिनराति जरै संसार है, जी।

बड़ा अदभुत संसार है, पलटू कहते हैं, दूसरों की चिंता में जला जाता है! रात—रात लोग सोते नहीं। अपनी चिंता करने वाले लोग तो कम ही हैं। जो अपनी चिंता कर लेते हैं, वे तो परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं।

चौरासी चारिऊ खान, चराचर,

कोऊ न पावै पार है, जी।।

चौरासी योनियों में भटकते रहे; अंडज, पिंडज, स्वेदज, उदभिज—सब तरह की योनियों में भटकते रहे, कोऊ न पावै पार है, जी, और अब तक पार न हुए? कब से डुबकियां लगा रहे हो! कब से डूबते जा रहे हो! कितने दिनों से डूब रहे, उबर रहे! सागर—ही—सागर है, अथाह सागर है, कहीं कोई किनारा नहीं दिखाई पड़ता। कोई बड़ी मौलिक भूल हो रही है। तुम पराई चिंता में पड़े हो। दुबले हुए जा रहे हो। एक अपने को छोड़ कर तुम्हें संसार भी की फिक्र है। जिसने अपनी चिंता कर ली, वह पार हो जाता है। और जो पार हो जाता है, वह संसार को भी पार होने का रास्ता बता सकता है।

जोगी जती तपी संन्यासी,

सबको उन डारा जारिहै, जी।

सब जल रहे हैं—जोगी, जती, तपी, संन्यासी। हजार तरह के लोगों ने उपाय कर लिए हैं, मगर बुनियादी भूल अगर नहीं मिटती तो क्या फर्क पड़ेगा? जैन मुनि है, वह हिंदू संन्यासी के विरोध में लगा है। हिंदू संन्यासी है, वह मुसलमान फकीर का विरोध कर रहा है। सनातनी आर्यसमाजी के खिलाफ, आर्यसमाजी सनातनी के खिलाफ लगा हुआ है। संन्यासी हो गए, साधु हो गए, महात्मा हो गए—मगर सारा काम वही! वही निंदा चल रही है! वही निंदा—रस!

पता नहीं नौ रसों में निंदा—रस क्यों नहीं गिना गया? क्योंकि नौ रसों में और किसी रस में तो किसी को कोई रस नहीं है, निंदा—रस सार्वलौकिक है, सार्वभौम है।

मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी एक बगीचे में बैठे हैं। पास की ही झाड़ी में—रात का अंधेरा है—एक युवक—युवती प्रेमालाप कर रहे हैं। और युवक बहुत आतुरता से प्रार्थना कर रहा है कि मुझे वरो! तुम्हारे बिना मैं न जी सकूंगा, मर जाऊंगा। मुल्ला की पत्नी बेचैन होने लगी। उसने मुल्ला को हुद्दा दिया और कहा कि खांसो, खंखारो! नहीं तो यह लड़का फंस जाएगा जाल में। बच जाए तो अच्छा झंझट से। मुल्ला लेकिन जैसा बैठा था, बैठा रहा। फिर पत्नी ने हुदिआया। मुल्ला ने कहा, हुदिआना बंद कर! जब मैं इसी तरह की बेवकूफी कर रहा था, तो कौन खांसा—खंखारा था? मैं क्यों खांसूं—खंखारूं? फंसने दे! सारी दुनिया फंस! जब मैं फंसा तो क्यों कोई और बचे!

तुम दूसरों की निंदा में रस इसलिए लेते हो कि उससे तुम्हारे मन को एक सुख मिलता है कि मैं अकेला ही नहीं फंसा हूं, और सब भी फंसे हैं। मुझसे भी ज्यादा फंसे हैं, मुझसे भी बुरी तरह फंसे हैं। मैं तो कुछ नहीं। अपनी तो किन पापियों में गिनती है! बड़े—बड़े पापी पड़े हैं, महा पापी पड़े हैं! इसलिए तुम दूसरे की निंदा को जब देखते हो तो खूब बढ़ा—चढ़ा कर देखते हो। चिंदी का सांप बना कर देखते हो। राई का पहाड़ बनाकर देखते हो। खुद की आंख में पहाड़ भी पड़ा हो तो राई जैसा और दूसरे की आंख में राई भी पड़ी हो तो पहाड़ जैसी। इसके पीछे गणित है। अहंकार का सीधा गणित है।

और ऐसा ही नहीं कि सांसारिक भोगी इसमें उलझा है, जिसको कहो जोगी, जती, तपी, संन्यासी; जिनको तुम तथाकथित धार्मिक महात्मा कहते हो, वे भी इसी में उलझे हुए हैं। उनको भी बड़ी बेचैनी है! किसी महात्मा का यश फैलने लगे तो दूसरे महात्माओं को बेचैनी। वे सब उसके पीछे पड़ जाएंगे। सब उसके दुश्मन हो जाएंगे। सब उसकी निंदा में संलग्न हो जाएंगे। उनके अहंकार को चोट पड़ने लगती है।

क्या तुम सोचते हो जीसस को जिन लोगों ने सूली दी वे बुरे लोग थे? तो तुम गलती सोचते हो। बुरे लोग नहीं थे वे; चोर, बदमाश, लुच्चे—लफंगे नहीं थे वे; अपराधी—पापी नहीं थे वे; जिन्होंने सूली दी, सज्जन—तथाकथित सज्जन—समादृत, प्रतिष्ठित, धर्मगुरु, पंडित, पुरोहित, इतनी जमात थी जिन्होंने जीसस को सूली दी। अगर किसी चोर ने, बदमाश ने, हत्यारे ने जीसस को मार डाला होता तो मनुष्यता के ऊपर इतना कलंक न लगता। लेकिन जिन्होंने मारा, वे भले लोग थे, जिनको हम भला कहते हैं। जिन्होंने मारा, वे बुरे लोग नहीं थे।

सुकरात को जिन्होंने जहर पिलाया, वे भी समाज के समादृत लोग थे। श्रेष्ठतम। जो समाज के ऊपर हक किए बैठे हैं। समाज के मुखिया, सरपंच, उन्होंने सुकरात को जहर दिया। क्या कारण है, इनको क्या अड़चन हो गई थी? गरीब सुकरात इनका क्या बिगाड़ता था? जरूर कुछ बिगाड़ रहा था। सुकरात के पास असली सिक्के थे सत्य के और इनके पास नकली सिक्के थे। और नकली सिक्के असली सिक्कों को बर्दाश्त नहीं करते। नकली सिक्के, अर्थशास्त्र का नियम है, असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं। वही सिद्धांत जीवन के और—और तलों पर भी लागू होता है।

तुमने देखा है, तुम्हारे जेब में अगर दो सिक्के पड़े हों, एक दस रुपए का असली नोट और दूसरा नकली—उल्हासनगर सिंधी एसोसिएशन में बना हुआ—तो तुम पहले किसको चलाओगे? पहले तुम नकली को चलाओगे, असली को बचाओगे। क्योंकि नकली जितनी जल्दी चल जाए उतना अच्छा। और जिसके हाथ में नकली पड़ेगा और जैसे ही उसकी समझ में आएगा नकली है, वह भी जल्दी चलाएगा। उसको जितनी जल्दी चल जाए उतना अच्छा।

मुल्ला नसरुद्दीन घर लौटा, बड़ा प्रसन्न था। अपनी पत्नी से बोला, आज मैंने तीन आदमियों का उपकार किया। पत्नी ने कहा, तुमने और उपकार! यह बात नई, कभी सुनी नहीं। न कभी आंखों देखी, न कभी कानों सुनी है। तुमने और उपकार! मुल्ला ने कहा, सच मान, तीन आदमियों का उपकार किया। पत्नी ने कहा, जरा विस्तार से कहो तो मैं समझूं। तो मुल्ला ने कहा, वह जो नकली दस रुपए का नोट था न, एक मिठाईवाले के यहां चला दिया! पांच रुपए की मिठाई खरीद ली। सुबह से बैठा था बेचारा! कोई बिक्री नहीं हुई थी—बोहनी ही नहीं हुई थी। एकदम गदगद हो गया! सो उसका उपकार किया।

पास में ही एक भिखमंगा खड़ा था। सो आधी मिठाई उसे दे दी। वह भी चमत्कृत हो गया! एकदम पैर छू लिए और कहा, हे दाता, बहुत दाता देखे, मगर तुम जैसा दाता नहीं देखा! पत्नी ने कहा, चलो ठीक है, यह तो दो का उपकार हुआ; तीसरा? और तीसरा, मुल्ला ने कहा, मैं। वह दस का जो नकली नोट निकल गया, छाती से पत्थर टल गया। तीन आदमियों का उपकार करके लौटे हैं।

नकली सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं।

जीव के जगत में भी यही लागू है। सुकरात को जिन लोगों ने जहर दिया, वे नकली सिक्के थे। सुकरात की मौजूदगी चुभने लगी, बहुत चुभने लगी, तीर की तरह चुभने लगी। सो न सकें, चिंता बहुत पकड़ने लगी। सुकरात की मौजूदगी उनको इतना दीन—हीन करने लगी, उनके भीतर ऐसी हीनता का भाव उठाने लगी, उनके अहंकार को ऐसा जीर्ण—जर्जर करने लगी कि उन्हें कुछ करना ही पड़ा। सुकरात को जहर दे कर मार डालना पड़ा।

तो ध्यान रखना—

जोगी जती तपी संन्यासी,

सबको उन डारा जारिहै, जी।

यह जो दूसरे की चिंता, और कहीं दूसरा आगे न पहुंच जाए, इसकी फिक्र; कहीं दूसरा मुझसे ऊपर न उठ जाए; कहीं दूसरा किसी भी तरह की प्रतियोगिता में पहले न हो जाए, आगे न हो जाए, इस चिंता में लोग मरे जा रहे हैं।

पलटू मैं भी हूं जरत रहा,

सतगुरु लीन्हा निकारि है, जी।।

पलटू कहते हैं, ऐसे ही मैं भी जल रहा था; ऐसी ही मूढ़ता में मैं भी डूबा था; ऐसी ही व्यर्थता में मैं भी उलझा था; लेकिन वह सदगुरु की कृपा हुई—सतगुरु लीन्हा निकारि है, जी—सतगुरु ने खींच कर बाहर निकाल लिया। सतगुरु ने कहा, पागल, अपनी सोच, अपना ध्यान कर! दूसरों की दूसरे जानें! उनका जीवन है! जैसा उन्हें जीना है, जीएं। उनकी स्वतंत्रता है। तू क्यों उनकी चिंता में पड़ा है? उनके पापों के लिए तुझे दंड नहीं मिलेगा। और न उनके पुण्यों के लिए तुझे पुरस्कार मिलेगा। तू अपनी फिक्र कर—अपनी खोज—खबर ले!

और तब जिंदगी में एक नया आविर्भाव होता है।

इस प्रणय—सिंधु अथाह में

कुश—कंटकों की राह में

प्रियतम—मिलन की चाह में

मुझको मिली जो यातना

उपहार है, उपहार है।

कुछ शांति पाने के लिए

मन को मनाने के लिए

जग को सुनाने के लिए

मुझको मिली जो भावना

उपहार है, उपहार है।

तूफान में, मंझधार में

सुख—दुख भरे संसार में

प्रिय—प्रीति के प्रतिकार में

मुझको मिली जो वेदना

उपहार है, उपहार है।

फिर तो सभी उपहार मालूम होने लगता है। लोग गाली दें, तो उपहार; लोग निंदा करें, तो उपहार। वही है बुद्धिमान इस जगत में, जो हर चीज की सीढ़ी बना ले; जो हर मार्ग के पत्थर को सीढ़ी में बदल दें; जो जहर को भी औषधि बना ले। वही है बुद्धिमान इस जगत में।

इस प्रणय—सिंधु अथाह में

कुश—कंटकों की राह में

प्रियतम—मिलन की चाह में

मुझको मिली जो यातना

उपहार है, उपहार है।

तूफान में, मंझधार में

सुख—दुख भरे संसार में

प्रिय—प्रीति के प्रतिकार में

मुझको मिली जो वेदना

उपहार है, उपहार है।

तुम बुद्धों को चोट पहुंचा नहीं सकते। घाव कर सकते हो, चोट नहीं पहुंचा सकते। मार सकते हो, पीड़ा नहीं दे सकते। मिटा सकते हो, लेकिन उनके आनंद को खंडित नहीं कर सकते। उनकी आनंद की धारा अखंड है, अविच्छिन्न है।

जिसके लिए पागल सभी

योगी कभी, भोगी कभी

पूरी न जो होगी कभी

वह आश भी मेरे लिए

वरदान है, वरदान है।

जो जन्म से स्वार्थिन नहीं

जो पूर्ण परमार्थिन रही

सुनसान में साथिन रही

उच्छवास भी मेरे लिए

वरदान है, वरदान है।

जो आह बन तपती कभी

जो ज्वाला बन जगती कभी

जो बुझ नहीं सकती कभी

वह प्यास भी मेरे लिए

वरदान है, वरदान है।

आंख खुलें तो इस जगत में कुछ भी बुरा नहीं है। शत्रु भी नहीं। वह भी तुम्हारा मार्ग साफ कर रहा है। निंदक भी नहीं। वह भी तुम्हें धो रहा है, निखार रहा है। जो तुम्हारी छाती में छुरा भोंक दे, वह भी नहीं। क्योंकि वह भी तुम्हारी अंतिम परीक्षा ले रहा है।

अट्ठारह सौ सत्तावन के गदर में एक सिद्ध संन्यासी को, जो तीस वर्षों से मौन था और जिसने प्रतिज्ञा ले रखी थी कि बस आखिरी समय एक वचन बोलूंगा…नग्न रहता था; मस्ती में मस्त था; चांदनी रात थी, मौज में निकल पड़ा। भूल से, जाना तो नहीं चाहता था वहां, अंग्रेजों की छावनी में पहुंच गया। पकड़ लिया गया। एक तो नंग—धड़ंग, फिर बोले न! समझे वे कि कोई जासूस है। सिद्ध योगी होने का ढोंग कर रहा है। एक अंग्रेज ने उठा कर भाला उसकी छाती में भोंक दिया। खून का फव्वारा छूट उठा। और वह हंसा और उसने अपना आखिरी वचन बोला: तत्वमसि। तू भी वही है।

तीस साल पहले प्रतिज्ञा ली थी कि बस आखिरी वचन बोलूंगा, मरते समय। जो वचन बोला, अदभुत है। उपनिषदों का सार है। सारे धर्मों का सार है! सारे बुद्धों का सार है! तत्वमसि। वह तू ही है। मरते क्षण उसने इशारा किया—उस आदमी की तरफ जिसने भाला भोंक दिया है और कहा कि तू भी वही है। तू भी परमात्मा है। यह आखिरी परीक्षा हो गई। शत्रु में भी उसको ही देख पाया, मृत्यु में भी उसको ही देख पाया—अब और कोई परीक्षा न रही।

इक नाम अमोलक मिलि गया,

परगट भये मेरे भाग हैं, जी।

और गुरु ने कैसे निकाला? सदगुरु ने कैसे खींच लिया बाहर? इक नाम अमोलक मिलि गया। एक परमात्मा की याद दिला दी। एक साई हुई स्मृति जगा दी। सुरति को झकझोर दिया।

इक नाम अमोलक मिलि गया,

परगट भए मेरे भाग हैं, जी।

और अब पहली दफा भाग्य का उदय हुआ; भाग्योदय हुआ, सूर्योदय हुआ। पहली दफा सुबह हुई। सदियों—सदियों की अमावस कटी।

इस जगत में एक ही चीज है जो खरीदी नहीं जा सकती, वह अमोलक है, वह ध्यान है। उसका कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि सर्वाधिक मूल्यवान वही है। उसकी कोई कीमत नहीं है। न खरीद सकते, न बेच सकते। मगर अगर कोई लेने को राजी हो और हृदय को खोले, निर्दोष भाव से, निष्कपट भाव से, सहज भाव से, पीने को राजी हो, तो ध्यान पिलाया जा सकता है। खरीदा नहीं जा सकता, बेचा नहीं जा सकता, लेकिन सदगुरु अपने ध्यान को शिष्य के ध्यान में उंडेल सकता है। जैसे सदगुरु सुराही है शराब की। और शिष्य अगर पात्र हो, अगर शिष्य प्याली बनने को राजी हो, तो यह अमोलक घटना घटती है।

इक नाम अमोलक मिलि गया,

परगट भए मेरे भाग हैं, जी।

आज रवि—शशि—रश्मियों ने नव—प्रभा जग में जगाई

आज अलि उनको बधाई।

आज कुंकुम रोचना से थाल ऊषा ने सजाया

आज नव—रवि समुद अपने साथ हीरक—हार लाया

आज प्रकृति वधु सजीली सज उठी बन—ठन निराली

आज माणिक मोतियां बिखरा रहीं मानस—मराली

आज शुभ—अभिषेक का सब साज ऊषा साज लाई

आज अलि उनको बधाई।

आज प्राणों ने प्रणय का एक सुंदर गीत गाया

आज युग—युग से प्रतीक्षित विकल हिय का मीत आया

आज भावों ने जगत में मानवी कुछ केलि कर ली

शून्य एकाकी हृदय की कल्पना से गोद भर दी

प्रणय की पुलकित प्रतीक्षा झूमती साकार आई

आज अलि उनको बधाई।

आज कण—कण में हुई फिर व्याप्त आशा की निशानी

आज पल में उमंग आईं सुप्त—सी साधें पुरानी

आज गदगद हो हृदय ने प्रेम के दो बूंद ढाले

आज पंख हिला उठे अरमान के पंछी निराले

हूक—सी उठने लगी जब हृदय—डाली डगमगाई

आज अलि उनको बधाई।

आज कोयल कह उठी मैं नेह—रस—वश कूक दूंगी

आज जग की वाटिका में एक जीवन फूंक दूंगी

आज मैं ऋतुराज का स्वागत करूंगी खोलकर उर

आज तन—मन—धन लुटा दूंगी उन्हें मैं मोल भर—भर

आज प्रियतम आ रहे हैं, साधना भी साथ आई

आज अलि उनको बधाई।

आज रह—रह लुट रहे हैं चाहते—से चाव मेरे

आज मसृण मृदु ढुलकते हैं हृदय के भाव मेरे

आज कुछ सुस्निग्ध स्पंदन हो रहा सूने हृदय में

आज मिलना चाहते हैं स्वर हमारे अमर लय में

आज उस संगीत की स्वर—साधना फिर जाग आई

आज अलि उनको बधाई।

आज धन होती सजनि, तो नेह जल से सींच देती

चित्रकार न हो सकी वह चित्र उनका खींच लेती

आप अपनी लेखनी की ओर ही मैं ताकती हूं

एक अस्फुट रेख प्रिय के प्रेम की मैं आंकती हूं

शब्द टूटे ही सही, अब प्रिय—मिलन की धुन समाई

आज अलि उनको बधाई।

आज सुनती हूं सजनि, हृदयेश का अभिषेक होगा

आज सुनती हूं हमारा हृदय उनसे एक होगा

आज सुनती हूं बनेंगे सत्य वे नायक हमारे

हम बनेंगी गीत उनके और वे गायक हमारे

आज चिर—आराधना परिपूर्ण—सी पड़ती दिखाई,

आज अलि उनको बधाई।

जिस क्षण सदगुरु की सुराही से शिष्य का पात्र भर जाता है, उस क्षण आ गया जीवन का परम महोत्सव। उस क्षण आ गया वसंत। उस क्षण धन्यवाद दिया जा सकता है। उस क्षण आभार प्रकट किया जा सकता है। उसके पहले तो हमारे पास आभार प्रकट करने को है भी क्या? कृतज्ञता भी व्यक्त करें तो किस बात की करें? पतझड़—ही—पतझड़ जाना; अमावस—ही—अमावस पहचानी; न कभी पूर्णिमा देखी, न कभी वसंत आया; कोयल कूकी ही नहीं, पपीहा पुकारा ही नहीं; हम रिक्त हैं। हम अर्थहीन हैं। अर्थ का उदय होता है, जब प्रभु का स्मरण आता है। बस उसकी स्मरण की जो घटना है, वही खींच लेती है संसार के सागर से व्यक्ति को।

इक नाम अमोलक मिलि गया,

परगट भये मेरे भाग हैं, जी।

गगन की डारि पपिहा बोलै…

आज आकाश की डगाल पर बैठ कर, आज दूर आकाश से पपीहा बोला है…

गगन की डारि पपिहा बोलै,

सोवत उठी मैं जागि हौं, जी।।

झकझोर कर गुरु ने जगा दिया है। नींद टूट गई है। सपने उखड़ गए हैं।

चिराग बरै बिनु तेल बाती,

और आज अपने भीतर क्या देख रहा हूं कि एक ऐसा दिया जल रहा है, जिसमें न तेल है न बाती है।

चिराग बरै बिनु तेल बाती,

नाहिं दीया नहिं आगि है, जी।

न तो वहां कोई दीया है, न कोई आग है, बस रोशनी है, शुद्ध रोशनी है। पूर्ण प्रकाश है। स्रोत नहीं कहीं कोई आकाश का, कारण नहीं कोई प्रकाश का, इंधन नहीं प्रकाश का, बस प्रकाश—ही—प्रकाश है—आदि, अनंत।

पलटू देखिके मगन भया,

सब छुट गया तिर्गुना—दाग है, जी।।

पलटू कहते हैं, मैं मगन हो गया, मैं मस्त हो गया, मैं नाच उठा।

सब छुट गया तिर्गुना—दाग है, जी।।

और एक क्षण में वे सारे बंधन, तीन गुणों के बंधन—सत, रज, तम के बंधन—वे सारी रस्सियां कहां विलीन हो गईं, पता नहीं चलता। यह मस्ती में जो अंगड़ाई ली है, उसमें सब बंधन टूट गए।

खयाल रहे, लोग बंधन तोड़ना चाहते हैं पहले—फिर परमात्मा मिलेगा, ऐसा उनका खयाल है। ऐसा नहीं होता। पहले परमात्मा मिलता है, तब बंधन टूटते हैं। लोग सोचते हैं, अंधेरा हटेगा पहले, फिर प्रकाश होगा। ऐसा नहीं होगा। पहले प्रकाश होता है, फिर अंधेरा…फिर अंधेरा कहां?

हमको जग से भय ही क्या है, जब तक साकी हैं, प्याले हैं।

 

जब जब पीड़ा ने जिल ठानी

तबत्तब हमने गहरी छानी

बेसमझे बूझे दुनिया ने

कह डाला उसको नादानी,

जग क्या जाने, हमने उर में पीड़ा के पंछी पाले हैं,

हम बड़े विकट मतवाले हैं।

 

हमको अपना कुछ ध्यान नहीं

कुछ मान नहीं, अपमान नहीं

हम दीवानों की दुनिया में

कुछ भले—बुरे का ज्ञान नहीं

हम भेद—भावमय जगती के सब भेद मिटाने वाले हैं,

हम बड़े विकट मतवाले हैं।

 

जब मधु पी हम झूमा करते,

मदिरालय में घूमा करते

अपने सुख—दुख के प्यालों को

जब बार—बार चूमा करते

तब जग विस्मित कह उठता है इनके तो ठाठ निराले हैं

हम बड़े विकट मतवाले हैं।

 

सुख में मैंने रोदन ठाना

दुख में मैंने गाया गाना

जब अपने को ही खो डाला

तब ही अपनों को पहचाना

कोई क्या जाने, प्राणों ने कितने विप्लव कर डाले हैं,

हम बड़े विकट मतवाले हैं।

 

यह खोया और कमाया क्या?

यह मुक्ति और यह माया क्या?

जब मिटकर मिल जाना ही है

तब अपना और पराया क्या?

हम अपने और पराए को मल एक बनाने वाले हैं,

हम बड़े निकट मतवाले हैं।

 

इस जीवन का विश्वास किसे?

इस पीड़ा का अभास किसे?

वह मिलने की ही उत्कंठा

जग कह देता है प्यास जिसे

हम प्यासत्तृप्ती, मृगतृष्णा की उलझन सुलझाने वाले हैं,

हम बड़े विकट मतवाले हैं।

 

लो मेरे मधुघट छलक उठे,

प्यासे—मतवाले ललक उठे

लख लाल सुरा की लाल धार

बालक—बूढ़े सब किलक उठे,

मधु ढाल—ढाल, सबके हिय—जिय हम आज लुभाने वाले हैं,

हम बड़े विकट मतवाले हैं।

 

हम करते हैं व्यापार नया

हम पा जाते हैं प्यार नया

बस कर में प्याला लेते ही

हम दिखलाते संसार नया

दिखला साकी की मधु झांकी हम चित्त चुराने वाले हैं,

हम बड़े विकट मतवाले हैं।

 

दिन हो या आधी रात रहे

पतझर हो या मधुवात बहे

पीने वालों का मौसम क्या

ग्रीषम हो या बरसता रहे

हम तो कुछ अपने ही ढंग का संसार बसाने वाले हैं,

हम बड़े विकट मतवाले हैं।

जिन्होंने उसकी सुरा पी ली, जिन्होंने एक घूंट भी परमात्मा का स्वाद ले लिया, जिन्होंने सदगुरु को मौका दिया कि ढाल दे अपने को तुम्हारे प्राणों में, वे एक दूसरे ही लोक के वासी हो गए। फिर इस संसार में होकर भी इस संसार को नहीं हैं। फिर उनकी मस्ती की क्या सीमा! वे आनंद विभोर जीते हैं। उनका न फिर कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। फिर तो शाश्वतता उनकी अपनी है। फिर कैसा भय, फिर कैसी चिंता? फिर कौन अपना, फिर कौन पराया? फिर कौन छोटा, कौन बड़ा? उन्हें तो फिर एक ही दिखाई पड़ता है उस मस्ती में। उस मस्ती की बस्ती में उन्हें तो बस फिर एक ही दिखाई पड़ता है। वही है वृक्षों में, पहाड़ों में, पर्वतों में, पशुओं में, पक्षियों में। और जिसको एक ही परमात्मा का दर्शन होने लगे, वह मुक्त हुआ, उसको मोक्ष हुआ। उसने निर्वाण पाया। उसकी मंजिल आ गई।

मंजिल की शुरुआत—

भेख भगवंत के चरन को ध्याइकै,

ज्ञान की बात से नाहिं टरना।

मिलै लुटाइए तुरत कछु खाइए,

माया और मोह की ठौर मरना।।

दुक्ख औ सुक्ख फिरि दुष्ट और मित्र को,

एकसास दृष्टि इकभाव भरना।

दास पलटू कहै राम कहु बालके,

राम कहु राम कहु सहज तरना।।

राम का बोध हो जाए, मिल गई नाव। राम का बोध हो जाए, तर गए। उस बोध में ही तर गए।

लेकिन कहीं झुकना सीखना पड़े! छोड़ो तर्कजाल। छोड़ो अहंकार की चालाकी भरी बातें। कहीं सरलचित्त होकर झुक जाओ। बस उस झुकने में ही राज है। वहां से यात्रा शुरू होती है। तुम झुके कि परमात्मा के मिलने में देरी नहीं है। जो मिटता है, वह उसे निश्चित पाता है।

आज इतना ही।

 


Filed under: सपना यह संसार--(पलटू वाणी) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–13)

$
0
0

ओशो का पूणे में आगमन—(अध्‍याय—तैरहवां)

शो के सत्संग और ध्यान साधनाओं से गुजरते मैं स्पष्ट ही देख पा रहा था कि मैं भीतर से बदल रहा हूं। हर समय भीतर ही भीतर एक मस्ती सी बनी रहने लगी जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं की थी। 1973 में ओशो ने माउंट आबू में आखरी ध्यान शिविर लिया। जिसमें ओशो कठोपनिषद पर बोले। उसके बाद एक दिन मा योग लक्ष्मी का मुझे फोन आता है कि ‘ ओशो बांबे छोड़ना चाहते हैं। तो आप पुणे में कोई अच्छी जगह मिले तो देखें। मैं महाबलेश्वर जा रही हूं और मुक्ता लोनावला जा रही हैं।’ मैंने पुणे में उचित जगह की तलाश की और 17, कोरेगांव पार्क का एक बंगला मुझे पसंद आया। शाम को लक्ष्मी और मुक्ता मेरे से मिलीं और बताया कि महाबलेश्वर और लोनावाला तो ओशो के लिए ठीक नहीं रहेगा क्योंकि दोनों जगह पानी बहुत बरसता है।

मैंने उन्हें कोरेगांव पार्क का 17 नंबर बंगला उन्हें दिखाया। लक्ष्मी और मुक्ता को भी पसंद आया। तब लक्ष्मी ने मेरी बात ओशो से फोन पर करवाई। पहली बार मैं ओशो से फोन पर बात कर रहा था। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘स्वभाव वहां हरियाली है?’ मैंने कहा, ‘है।’ ओशो ने कहा ले लो। 21 मार्च 1974 को ओशो पुणे आ गए। ओशो का वहां पर बुद्धत्व दिवस का उत्सव मनाया गया। ओशो अभी 17 नंबर बंगले में गये नहीं थे। पास ही के बंगले पर खाली पड़ी जगह पर उत्सव रखा गया था। उत्सव के बाद ओशो मुझे कहते हैं, ‘इस बंगले को भी ले लो।’ दूसरे दिन मैंने उस बंगले के मालिक से बात कर वह बंगला भी ले लिया।

22 मार्च को ओशो ने मुझे बुलाकर कहा कि ‘अब यहां मेरे काफी संन्यासी आने लगेंगे बांबे से, विदेशों से तो उन्हें ध्यान करवाना हैं। मैं जब पहले यहां आता था तो रानी बाग में एक नहर के पास खुली जगह है, वह जगह मुझे पसंद है। तुम वहां जाकर मित्रों को सक्रिय ध्यान करवाओ।’ अब यह मजेदार बात है कि ओशो कुछ करने को कहते हैं और हां निकल जाती है। कैसे करना, क्या—क्या करना, वह काम संभव भी हो पाएगा या नहीं, ये सब प्रश्न उस समय मन में नहीं आते। मैंने हां कर दी। ओशो द्वारा बताई जगह को मैंने जाकर देखा। मैंने सोचा कि मित्रों को यह सूचित करने के लिए कि यहां पर ध्यान होना है तो कुछ करना होगा। यही सोच कर मैंने एक भगवा कपड़े पर ओशो का चित्र और सक्रिय ध्यान लिख कर वहां पर टांग दिया।

यह तैयारी तो हो गई लेकिन फिर ध्यान में आया कि ध्यान के लिए संगीत की व्यवस्था कैसे होगी? तो मैंने ओशो से जाकर पूछा, ‘ध्यान के लिए संगीत की व्यवस्था कैसे होगी?’ इस पर उन्होंने कहा कि संगीत बजाने के लिए संगीतकार मिल जाएंगे।

मैं आश्वस्त हो गया। संगीतकार से जब मिला तो देखा कि एक अकेला आदमी था जो दो पतली लकड़ियों से पतले से ढोल को बजाने वाला था। मैंने मन ही मन कहा हे भगवान ये संगीत है क्या? पर सोचा जो प्रभु की इच्छा, मैं उस व्यक्ति के साथ सक्रिय ध्यान करवाने लगा। वह अकेला व्यक्ति तीड, तीड, तीड बजाता और उस तान पर मित्र ध्यान करते। तीन दिन तक तो ऐसा ही चला फिर तीन दिन के बाद तो पूरा आकेस्ट्रा आ गया। अब सक्रिय ध्यान में मित्रों की सहभागिता भी बढ़ने लगी। बहुत से मित्र इकट्ठे होने लगे। कुछ दिन ऐसा ही चलता रहा एक दिन ओशो ने बुलाकर कहा कि शाम को कुंडलिनी भी शुरू कर दो। इस तरह से सुबह सक्रिय ध्यान व संध्या कुंडलिनी ध्यान दोनों ध्यान वहां होने लगे।

इधर ओशो च्चांग्त्सु कक्ष के खुले स्थल पर प्रवचन देने लगे। वहां पर पहली प्रवचन श्रृंखला थी ‘माय वे दि वे ऑफ दि व्हाइट क्लाउड्स’ इस तरह पुणे में ओशो के कार्य की एक नई शुरुआत हुई।

इस शुरुआती दौर का अपना एक अनुभव था। हर चीज बनने की प्रक्रिया में थी। हर दिन कुछ न कुछ नया होता। हम सभी मित्र अपनी—अपनी तरफ से ओशो के कार्य में अपनी पूरी—पूरी ऊर्जा उड़ेल रहे थे। उस समय कोरेगांव पार्क बहुत ही सुनसान इलाका था। चारों तरफ घना जंगल और दूर—दूर फैले बंगले। कभी—कभार किसी व्यक्ति का आना जाना। चारों तरफ खुली जमीन पड़ी थी जिस पर खेती होती थी। जिसे आज नॉर्थ मैन रोड कहते हैं वहां पक्की सड़क नहीं थी। हां, चारों तरफ बड़े—बड़े वट वृक्ष थे। उनकी झुलती डालियां और सघन छाया बहुत सुंदर लगती। सारा माहौल शांत और प्राकृतिक था। तब सभी वृक्षों पर पक्षियों की भरमार थी। ओशो जब प्रवचन देते तो चारों तरफ इतने पक्षी कलरव करते कि कभी—कभी तो ओशो की आवाज उसके पीछे चली जाती। किसी ने इन पक्षियों की चहचहाहट के बारे में ओशो से पूछा तो उन्होंने कहा कि जो मैं बोलता हूं उसे ये पक्षी संगीत देते हैं।

सुबह के सन्नाटे में पक्षियों की चहचहाहट के बीच ओशो की वाणी हम सभी को गहरे मौन में ले जाती। कोरेगांव पार्क की सुनसान राहों पर भगवा कपड़ों में संन्यासी दिखाई देने लगे। उस समय सामान्यतया सभी मित्र दाढी और लंबे बाल रखते थे। उस समय हममें से किसी को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि 17, कोरेगांव पार्क, पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो जाएगा। सारी दुनिया से लोग यहां आएंगे। कोरेगांव पार्क, पुणे इतना फैल जाएगा। दूर—दूर तक फैले जंगल बड़े—बड़े मकानों से पट जाएंगे। सूनी राहें सघन यातायात से भर जाएंगी.. .किसे पता था कि थोड़े से मित्रों का यह समूह आने वाले समय में विश्व समुदाय बन जाने वाला है।

समय के साथ बाहर की व्यस्तताएं बढ़ती गईं, मित्रों की संख्या बढ़ती गई, संसाधन और सुविधाएं बढ़ती गईं और भीतर मौन सघन होता गया। दोनों आयामों में अधिकांश मित्रों की यात्रा जारी थी। ओशो हमें नित—नये मार्ग दिखा रहे थे.. .हम चलने का आनंद ले रहे थे, जाना कहां है, यह कौन पूछे, कौन जानना चाहे? यात्रा अपने आपमें इतनी सुमधुर और शानदार जो थी।

आज इति।


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–14)

$
0
0

ओशो के काम करने का अनोखा तरीका—(अध्‍याय—चौदहवां)

शो कब क्या करेंगे, क्या कहेंगे, आने वाले पल में क्या हो सकता है यह किसी को कुछ पता नहीं चलता है। हर पल एक अशात की तरफ चलती यात्रा। एक दिन अचानक लक्ष्मी ने मुझे फोन किया और बोला, ‘ओशो ने प्रवचन देने से मना कर दिया है और जो पुस्तकें वे पढ़ते थे, उन्हें भी कमरे से निकलवा दिया, कहते हैं कि न तो मुझे अब प्रवचन देना है और न ही पुस्तकें पढ़नी हैं। मैं सारे काम छोड़ कर उसी समय भागा— भागा ओशो के पास पहुंचा। ओशो को प्रेम से निवेदन किया कि ‘अभी तो हमारे दिन खेलने के हैं, आपने हमारे खिलौने ही छीन लिए?’ तो ओशो बोले, ‘ मैं क्या बोलूं जो लोग यहां सुनने आ रहे हैं, उनके सिर के ऊपर से बात निकल जाती है। मेरा वह ग्रुप कहां है जो मुझे समझ सके।’ तब मैंने कहा कि ‘हम उन सभी लोगों को बुला लेंगे।’ तब मैंने और लक्ष्मी ने सभी लोगों से बात की, फोन पर फोन किए और बोला कि भाई प्रचवन में आओ वर्ना प्रवचन बंद हो जाएंगे। इस बात का प्रभाव हुआ और मित्र लोग आने लगे। और ओशो फिर बोलने लगे। फिर सिलसिला चल निकला। एक बार मित्रों का आना शुरू हुआ तो बस यूं समझो की दुनिया की सभी दिशाओं से प्रेमी मित्रों की बाढ़ सी आ गई। विदेशी मित्रों का भी आना शुरू हो गया। पूरी दुनिया से एक से बढ़ कर एक प्रतिभावान, समझदार, सृजनात्मक मित्र आने लगे। बहुत सारे प्यारे—प्यारे मित्रों का जमघट होने लगा।

ओशो के कार्य को सुचारु रूप से चारों दिशाओं में फैलाने व आश्रम का विस्तार करने के लिए ओशो प्रेमियों ने मिल कर रजनीश फाउंडेशन की स्थापना की। जिसका एक मात्र उद्देश्य ओशो के कार्य को विस्तार देना था। ओशो के आसपास मस्तमौला साधक इकट्ठे होने लगे, आश्रम का विकास होने लगा, निर्माण कार्य होने लगे, अब कोरेगाँव पार्क के बंगले के राधा हॉल में ध्यान होने लगे। ओशो का संदेश चारों तरफ तेज गति से फैलने लगा। ओशो हमेशा ही चर्चा में रहने लगे, हजारों—लाखों मित्र ओशो के पास खिंचे चले आ रहे थे। पूरा कोरेगांव पार्क भगवा वस्त्रधारियो से चहक गया। जिधर देखो उधर ही भगवा वस्त्र में देशी—विदेशी मित्र घूमते नजर आते। कोई गिटार लिए तो कोई बांसुरी लिए, किसी के पास कुछ तो किसी के पास कुछ। स्थानीय निवासी बड़े आश्चर्य से सब कुछ देखते कि यह हो क्या रहा है। पत्रकार आते तो खूब खबरें बनाते। ओशो संदेश की आग प्रज्वलित हो रही थी।

आज इति।


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–15)

$
0
0

ओशो ने हमें निर्भीक बनाया—(अध्‍याय—पंद्रहवां)

शो ने हमें बहुत निर्भीक बनाया है। हमें कभी किसी बात से भयभीत नहीं किया, डराया नहीं। हमें अपने को अभिव्यक्त करने को, अपनी बात कहने को, उनसे किसी भी प्रकार का प्रश्न पूछने को, हमेशा ही उन्होंने प्रोत्साहित किया। किसी को भी कुछ भी पूछते जरा भी डरने की जरूरत नहीं थी। ओशो हमेशा प्रयास करते रहे कि हम अपनी बात को दिल खोल कर उनके सामने रख दें।

एक बार की बात है उपनिषद पर बोलते हुए ओशो बता रहे थे कि उपनिषद के ऋषि किसी भी जगह अपना नाम नहीं लिखते थे। ओशो ने यह बोलना शुरू ही किया था और मैंने खड़ा होकर कहा, ‘इस उपनिषद के ऋषि तो आप हैं।’ अब जरा सोचिये कि किसी और सभा में क्या यह संभव हो पाता? क्या इस तरह की हरकत करने वाले को रोका नहीं जाता? यहां पर रोकने की जगह हमें इतनी हिम्मत दी थी कि उनके सामने खड़े होकर उन्हीं से बात पूछ ली जाए।

स्वयं ओशो अपनी बात को निर्भीक होकर दुनिया के सामने रखते रहे और इसी के साथ उन्होंने सभी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा सम्मान किया। जब कभी किसी भी कलाकार, सृजनकार या लेखक की किसी बात को रोकने के प्रयास हुए या उन्हें बोलने से रोका गया तो ओशो उनके समर्थन में हमेशा खड़े हो गए। यह बात और है कि ओशो स्वयं उस व्यक्ति से या उसकी अभिव्यक्ति से सहमत होते या नहीं होते, लेकिन किसी को अपनी बात कहने से रोकना यह बात ओशो को कभी पसंद नहीं रही।

आज इति।


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें–(अध्‍याय–16)

$
0
0

प्रवचन खोखला लगा—(अध्‍याय—सोहलवां)

शो से पूरी दुनिया से लाखों—लाखों मित्रों ने तरह—तरह के प्रश्न पूछे हैं। शायद ही ऐसा कोई विषय छूटा हो जिस पर ओशो से प्रश्न न पूछा गया हो। और हर तरह के प्रश्न का जवाब ऐसा होता कि सुनते ही रह जाओ। एक बार किसी ने तो यह तक पूछ लिया कि ‘ मैं आपको सुनते—सुनते बोर हो गया हूं।’ जरा सोचो कोई अपने सद्गुरु से इस तरह का प्रश्न पूछ सकता है? क्या किसी दूसरी सभा में यह संभव है? लेकिन ओशो के साथ सब कुछ संभव है। इस प्रश्न का उत्तर भी ओशो ने बहुत ही सुंदर दिया। सबसे पहले तो यह बात स्वीकार ली कि ‘मैं कोई बहुत बड़ा साहित्यकार या शब्दों का मालिक नहीं हूं। थोड़े से शब्द हैं जो बार—बार उपयोग करता हूं। बोर होना स्वाभाविक है।’ इतना कहने के बाद ओशो उस मित्र पर बोलते हैं, कहते हैं, ‘तुम भी गजब के व्यक्ति हो, बोर हो गये लेकिन बदले नहीं, रूपांतरित नहीं हुए। मेरे शब्द मनोरंजन के लिए नहीं जगाने के लिए हैं……।’

ओशो से प्रश्न पूछना हमेशा ही खतरनाक होता है। आप कितना ही अच्छा प्रश्न पूछो, यदि उन्हें पिटाई करनी है तो अच्छे से अच्छे प्रश्न में से भी हमारी कमजोरी निकाल कर पिटाई कर देते। और कभी अपना घाव खोल कर रख दो या कुछ ऐसी बात पूछ लो जो सहज ही लगे कि ओशो पिटाई कर देंगे उसमें से ओशो कुछ और ही निकाल लेते। ऐसा ही हुआ एक बार ओशो अपने प्रवचन में रस मलाई, गुड़ का धंधा और बाफना जी की बातें बोल रहे थे। मुझे प्रवचन ठीक नहीं लगा, मैंने एक प्रश्न ओशो से पूछने के लिए लिखा, ‘पंद्रह साल से आपको सुनता हूं एक से बढ़कर एक प्रवचन देते हैं, बड़ा सुंदर लगता है लेकिन कल का प्रवचन बडा खोखला लगा।’ मेरी पत्नी ने जब यह प्रश्न देखा तो कहा कि ‘सद्गुरु से इस तरह का प्रश्न पूछते हैं? आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया?’ मेरे एक दूसरे दोस्त ने मेरे से कहा कि यह क्या लिखा है। मैंने कहा, ‘प्रश्न तो मेरे भीतर उठ गया है अब डर की वजह से मैं यह ना पूछूं तो कायरता होगी। ओशो डाटेंगे तो सुन लेंगे, जो होगा सो होगा।’ अगले ही दिन ओशो ने मेरे इस प्रश्न पर बात की।

आनंद स्वभाव ने एक प्रश्न पूछा है कि आपको पंद्रह साल से सुनता हूं; सुनने के बाद घंटों चिंतन—मनन की धारा जारी रहती। लेकिन परसों आपका प्रवचन सुना, बहुत खोखला लगा।

पंद्रह साल में आनंद स्वभाव ने कभी पत्र नहीं लिखा! पंद्रह साल सुनने के बाद चिंतन—मनन घंटों चलता था। वह चिंतन—मनन क्या है? वह तुम्हारे भीतर शोरगुल है। और परसों चूंकि चिंतन—मनन नहीं चला तो प्रवचन खोखला लगा। परसों की ही बात तुम्हारे काम की थी, स्वभाव, बाकी पंद्रह साल तो यूं ही गए। परसों की ही बात सुन कर अगर तुम चुप हो गए होते, मौन हो गए होते, शून्य हो गए होते, तो कोई बंद द्वार खुल जाता।

लेकिन लोग सुनने भी आते हैं तो शून्य के लिए थोड़े ही आते हैं, सुनने आते हैं तो ज्ञान के लिए। कुछ पकड में आए, कुछ बुद्धि काम करे, कुछ बुद्धि का विचार चले, कुछ तारतम्य बंधे। तो पंद्रह साल सब ठीक चला, क्योंकि मेरे विचारों ने तुम्हारे भीतर और विचारों का ऊहापोह जगा दिया।

लोग सोचते हैं चिंतन—मनन बड़ी मूल्य की चीजें हैं। दो कौड़ी का मूल्य है उनका। शून्य के अतिरिक्त और किसी चीज का कोई मूल्य नहीं है।

अगर मेरी बात सुन कर तुम्हें खोखली लगी थी, मौका चूक गए। उस क्षण तुम्हें भी बिलकुल खोखला हो जाना था। तो शायद पहली दफा शून्य की झलक मिलती। मगर तुम सोचने लगे होओगे कि अरे, आज का प्रवचन जंचा नहीं। आज की बात कुछ मन रुची नहीं। आज की बात में कुछ था नहीं, कोई सार हाथ नहीं आया। तुम इस विचार में पड़ गए होओगे। उसी विचार से तो यह प्रश्न आया। आदमी का मन बहुत अजीब है। वह हर चीज में से उपाय निकाल लेता है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी रात अचानक मुल्ला को झकझोर कर बोली— आधी रात—सुनते हो जी, नीचे से खटर—पटर की आवाजें आ रही हैं, लगता है कि चोर आ गए हैं। जरा नीचे जाकर देखना तो। मुल्ला नसरुद्दीन ने कंबल सिर के ऊपर खींचते हुए कहा, बकवास बंद करो, चुपचाप सो जाओ। कहीं चोर भी खटर—पटर की आवाजें करते हैं? वे तो बिना कोई आवाज किए ही अपना काम करते हैं। कोई चोर वगैरह नहीं हैं। चूहे वगैरह कूदते होंगे। शांत रहो। और मुल्ला तो कंबल ओढ़ कर बिलकुल मुर्दा हो गया। कुछ समय बाद मुल्ला की पत्नी ने फिर मुल्ला को हिलाया और बोली, सुनते हो जी, नीचे से आवाजें अब बिलकुल नहीं आ रही हैं, देखना कहीं चोर तो नहीं हैं।

आदमी का मन यहां से भी, वहां से भी, सब तरफ से विचारों का ऊहापोह खोजता है, निर्विचार होने से डरता है।

स्वभाव, तुमसे कहा किसने कि मेरी बातें सुन कर चिंतन—मनन करो? सुनो और भूलो। कहते हैं न, नेकी कर और कुएं में डाल। सुनो और भूलो। जरा भी भीतर सरकने मत दो। मेरे पास शून्य सीखना है। मेरे पास तुम्हें देखना है कि तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं है। क्योंकि उस ना—कुछ में ही सब कुछ के घटने की संभावना है।

लेकिन मन भी बड़ा अजीब है। पंद्रह साल में धन्यवाद नहीं दिया, एक दिन बात नहीं जमी तो शिकायत आ गई! शिकायत करने के लिए मन कितना आतुर होता है, धन्यवाद देने में कितना कंजूस!

मैंने सुना है, एक मुसलमान बादशाह का एक नौकर था। उसे बड़ा प्यारा था। नौकर जैसा संबंध नहीं रहा था उससे, मैत्री जैसा संबंध हो गया। जी—जान देने को तैयार रहा सदा बादशाह के लिए। शिकार को गए थे। दोनों रास्ता भटक गए। एक झाडू के नीचे रुके छाया में। सांझ होने लगी, भूख भी लगी। उस वृक्ष में एक ही फल लगा है— अनजाना, अपरिचित फल। सम्राट ने हाथ बढ़ा कर तोड़ लिया। नौकर ने कहा, मालिक, मुझे मालूम है कि आपको भूख लगी है; मुझे भी भूख लगी है। लेकिन यह अपरिचित फल है, इसकी पहली फांक मुझे खाने दें। पता नहीं जहरीला हो, पता नहीं घातक हो। जब मैं हां कह दूं तब आप चखें।

सम्राट ने चार फांकें की, एक फांक अपने दास को दी। उसने फांक ली और इतने आनंद से खाई, आंखों में उसके आनंद के आंसू आ गए। उसने कहा, मालिक, बहुत आपके सत्संग में सुस्वादु भोजन मिले हैं, किसको मिले होंगे! मगर नहीं, इस फल का मुकाबला नहीं, एक फांक और!

दूसरी भी ले ली, वह भी खा गया। और सम्राट से बोला कि मालिक, कभी आपसे कुछ मांगा नहीं; आज पहली बार मांगता हूं—तीसरी फांक और। सम्राट ने तीसरी फांक भी दे दी; इतना ही प्रेम था उस नौकर पर। लेकिन जब उसने कहा, मालिक, बस आखिरी इच्छा पूरी कर दें, अब जीवन में दोबारा आपसे कुछ कभी नहीं मांगता। यह चौथी फांक भी दे दें। तो सम्राट ने कहा, तू अब ज्यादती कर रहा है। और जल्दी से सम्राट ने एक कौर उस फांक में से ले लिया। तत्क्षण यूका! इतनी जहरीली चीज उसने जीवन में कभी खाई ही नहीं थी। उसने नौकर से कहा, पागल, तू मांग—मांग कर ये फांकें खा गया! यह तो शुद्ध जहर है! और तूने कहा क्यों नहीं?

तो उस नौकर ने कहा, मालिक, जिन हाथों से बहुत सुस्वादु भोजन मिले, उस हाथ से मिली एक—दो कड्वी फांकों के लिए शिकायत करनी शोभा नहीं देता, इसलिए चुप रह गया। क्या बात करनी इस एक फांक की!

लेकिन स्वभाव को एक दिन बात नहीं जमी, शिकायत तत्क्षण आ गई। पंद्रह साल जमी, धन्यवाद नहीं आया। ऐसा हमारा मन है। और मैं तुमसे कहता हूं कि जो बात तुम्हें नहीं जमी, वही काम की थी।

तुम्हें जमती ही कौन सी बातें हैं? तुम्हें जमती वे ही बातें हैं जो तुमसे तालमेल खाती हैं। जो तुमसे तालमेल खाती हैं वे तुमको ही मजबूत कर जाती हैं। जो बातें तुमसे तालमेल नहीं खाती, जो तुम्हें मजबूत नहीं करतीं, उनमें तुम्हें सार नहीं मालूम होता। फिर जिनका मुझसे प्रेम है, उनके लिए यह असंभव है कि मैंने जो बात कही हो वह खोखली हो। यह सोचना असंभव है। अगर खोखली भी कही है तो उसमें भी कुछ राज होगा। वह भी किसी के लिए कही गई होगी। हो सकता है वह स्वभाव के लिए ही कही गई थी।

आनंद है अनुभव। लेकिन हमारे मन की आदतें तो दुख ही दुख की हैं। शिकायत, निंदा, विरोध, ये हमारी मन की आदतें हैं। इन आदतों से जागों तो आनंद तो अभी घट जाए—इसी क्षण, यहीं! क्योंकि सारा अस्तित्व आनंद से भरपूर है, लबालब है। सिर्फ तुम उसे अपने भीतर लेने को राजी नहीं हो। तुम्हारे द्वार—दरवाजे बंद हैं।

खोलो द्वार—दरवाजे! ये तुम्हारी सारी इंद्रियां आनंद के द्वार बनें। यह तुम्हारी देह आनंद को झेलने के लिए पात्र बने। यह तुम्हारा मन आनंद को अंगीकार करने के योग्य शांत बने। ये तुम्हारे प्राण आनंदित होने के योग्य विस्तीर्ण हों। फिर जो होगा वह उत्सव है। फिर तुम भी चांद—तारों के साथ, फूलों के साथ, वृक्षों के साथ, हवाओं के साथ नाच सकोगे। उत्सव आनंद की अभिव्यक्ति है।

तुम तैयार होओ! प्यारा आएगा, पाहुन आएगा। तुम तैयार होओ! तुम अभी से मत पूछो कि प्रकाश कैसा होगा, आख खोलो! तुम अभी से मत पूछो कि वीणा—वादन के स्वर कैसे होंगे, कान खोलो!

कबीर, जागो! आनंद बरस रहा है। आनंद तुम्हारा स्वभाव है, अस्तित्व का स्वभाव है। तुम सोए हो, इसलिए अपरिचित हो। खोजना नहीं है कहीं—सिर्फ जाग, सिर्फ जाग; सिर्फ होश, सिर्फ पुन: स्मृति अपने निज की— और तत्‍क्षण बरस उठता है आनंद, जैसे मेघ बरस जाएं!

और बरसते मेघों के नीचे नाचते मोर देखे? वही उत्सव है। ऐसे ही मैं तुम्हें भी नाचते हुए देखना चाहूंगा। नृत्य के ही पाठ दे रहा हूं गीत के ही पाठ दे रहा हूं।

जो द्वार तुम्हारे लिए खोल रहा हूं वह अदृश्य मंदिर का द्वार है। तुम अगर अपने किनारे की जंजीरों, अपने किनारे के मोह, सुरक्षाओं, सुविधाओं को छोडने को तैयार हो, तो देर नहीं लगेगी, जरा भी देर नहीं लगेगी।

आज इति।


Filed under: स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(आनंद स्‍वभाव्) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, मां बोधि उनमनी, स्‍वामी आनंद प्रसाद

सपना यह संसार-(प्रवचन-12)

$
0
0

होश और बेहोशी के पार है समाधि—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक, रविवार, 22 जुलाई 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1—भगवान, मुझे हिंदी तो बहुत आती नहीं, और कभी कुछ लिखा भी नहीं है, लेकिन जब से आप आए हैं जिंदगी में, आप साथ कविता भी ले आए हैं। कल आपने कहा कि होश से रहना, चूक मत जाना। तो आप ही बताएं, अब क्या होगा! जब इतनी पिला दी, तो होश में आने को कहते हो!

 बैठे हैं राहगुजर पे तेरी, सांस थाम के

मदहोश गिर गए हम तेरे जाम से

लड़खड़ाऊं उठ न सकूंगा, जो उठूं कभी

पहुंचेंगे जाने कैसे हबी तेरे धाम पे

रातो सहर की होश नहीं आए जाए कब

कुर्बान हुए जब हम तेरे नाम पे।

जब से खुला मैखाना तेरे इश्क का हसीं

पीने चले दीवाने सभी, जिगर को थाम के।

कैसे रंगीन दीवाने तेरा रंग है कुछ नया

कि चल ही बसे दुनिया के काम से

महबूत तू बता तेरी क्या है अब रजा

दिल ही तो था गंवा के चले तेरे गांव से।

अब तू बता कि होश में आएं तो किसलिए

पाया खुदा भी पीता हुआ तेरे जाम से।

 

2—भगवान, मैं तो अब वृद्ध हो गया हूं। क्या अभी भी संभव है कि समाधि को पा सकूं?

 

3—भगवान, हमें तो परमात्मा की कोई अनुभूति नहीं। हमारे लिए तो आप ही भगवान हैं। और प्रश्न पूछने के बहाने जब भी हम अपने भाव आपके चरणों में निवेदित करते हैं—जैसे कि परसों मा वीणा ने पूछा था—तो आप जिस कुशलता से बाजू हट जाते हो और परमात्मा की ओर इशारा कर देते हो कि पूछने वाला भी चौंक जाता है! हम सोचते हैं कि हमारा सीधा निवेदन आपके चरणों में था और आप अंगुली उधर उठा देते हो। ऐसे वक्त ही हम इस पंक्ति का अर्थ और घना होकर समझ पाते हैं—बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताये।

 

पहला प्रश्न:

 

भगवान, मुझे हिंदी तो बहुत आती नहीं, और कभी कुछ लिखा भी नहीं है, लेकिन जब से आप आए हैं जिंदगी में, आप साथ कविता भी ले आए हैं। कल आपने कहा कि होश से रहना, चूक मत जाना। तो आप ही बताएं, अब क्या होगा! जब इतनी पिला दी, तो होश में आने को कहते हो!

 

बैठे हैं राहगुजर पे तेरी, सांस थाम के

मदहोश गिर गए हम तेरे जाम से

लड़खड़ाऊं उठ न सकूंगा, जो उठूं कभी

पहुंचेंगे जाने कैसे हबी तेरे धाम पे

रातो सहर की होश नहीं आए जाए कब

कुर्बान हुए जब हम तेरे नाम पे।

जब से खुला मैखाना तेरे इश्क का हसीं

पीने चले दीवाने सभी, जिगर को थाम के।

कैसे रंगीन दीवाने तेरा रंग है कुछ नया

कि चल ही बसे दुनिया के काम से

महबूत तू बता तेरी क्या है अब रजा

दिल ही तो था गंवा के चले तेरे गांव से।

अब तू बता कि होश में आएं तो किसलिए

पाया खुदा भी पीता हुआ तेरे जाम से।

 

मृता! धर्म का पहला अवतरण हृदय में, काव्य की भांति ही होता है। एक गुनगुनाहट; एक नाद। इसीलिए उपनिषद, वेद, कुरान एक अपरिसीम काव्य से अभिभूत हैं। ऋषि का मौलिक अर्थ तो कवि ही होता था। ऋषि यानी वह, जिसने कविता केवल लिखी नहीं बल्कि देखी भी। काव्य का द्रष्टा। जिसने सौंदर्य को अनुमान ही नहीं किया, अनुभव भी किया।

धर्म की अनुभूति होती ही नहीं किसी और ढंग से।

धर्म बुद्धि नहीं है, हृदय है। बुद्धि तो भाषा समझती है तर्क की, हृदय तर्क की भाषा नहीं समझता। वहां तर्क की कोई गति नहीं है। वहां तर्क का तीर न कभी पहुंचा है न कभी पहुंचेगा। हृदय तो समझता है प्रेम को, प्रीति को। प्रीति की तरंगें वहां तक पहुंच जाती हैं। तर्क तो पत्थरों की तरह बोझिल है, भारी है। उठ ही नहीं पाता। प्रेम में पंख हैं, प्रेम उड़ान भर लेता है। और काव्य हृदय में उठी प्रेम की पुलक के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

तर्क गद्य है, प्रेम पद्य है। तर्क बोलता है गणित की सुस्पष्ट भाषा, प्रेम बोलता है काव्य की रहस्य से भरपूर, शून्य में डूबी हुई, प्रेम में पगी हुई गुनगुनाहट, नाद। काव्य में भाषा दिखाई पड़ती है ऊपर—ऊपर, भीतर शून्य है। गद्य में केवल भाषा ही भाषा है, भीतर कुछ भी नहीं है। गद्य केवल वस्त्र ही वस्त्र—उघाड़ते जाओ, भीतर कुछ भी न पाओगे। गद्य तो ऐसा है जैसे खेत में खड़ा हुआ धोखे का आदमी। दूर से लगता आदमी जैसा; पास जाकर अगर अचकन उतारी और चूड़ीदार पाजामा खींचा तो कुछ भी न पाओगे। गांधी टोपी के नीचे सिर्फ काली हंडी। वह भी जो बेकार हो चुकी है, किसान के काम की नहीं रही। वैसा ही गद्य है। कामचलाऊ है। लोक—व्यवहार का है। बाजार में उपयोगी है। मनुष्य और मनुष्य के बीच संवाद के लिए जरूरी है। संवाद लेकिन होता कहां? विवाद ही होता है।

पद्य वस्त्रों के भीतर छिपी हुई निर्वस्त्र आत्मा है। वस्त्र उतारोगे भाषा के, तो काव्य से पहचान होगी। और वह पहचान द्वार है परमात्मा का।

ठीक हुआ अमृता, कि मेरे आने के साथ तेरे जीवन में काव्य भी आया। अगर मैं आऊं और काव्य न आए, तो मैं आया ही नहीं। काव्य आ जाए और मैं न जाऊं तो भी मैं आ गया। असली चीज काव्य है। असली चीज नृत्य है। असली चीज उत्सव है। रसो वै सः। मैं तो संन्यासी की परिभाषा ही यही करता हूं: रसपूर्ण होगा वह। जब परमात्मा रस है तो उसको प्रेम करने वाला भी रस होगा। परमात्मा समझो कि सागर है, तो संन्यासी बूंद सही, मगर है तो उसी सागर की बूंद। और एक बूंद में सारा का सारा राज छिपा होता है, इसे याद रखना। अगर एक बूंद को हमने समझ लिया तो सब सागरों को समझ लिया। एक बूंद की पूरी कथा समझ में आ गई तो सागर की सारी कथा समझ में आ गई। बूंद संक्षिप्त सागर है।

बूंद में समाया है सागर, जैसे सागर में बूंद समायी है। वे दोनों अलग—अलग नहीं हैं। कबीर ने कहा:

हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हेराय।

बूंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाय।।

हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हेराय।

समुंद समाना बूंद में सोकत हेरी जाय।।

पहले कहा: बूंद सागर में समा गई, अब उसे कैसे निकालें? और फिर कहा: और भी बड़ा चमत्कार हुआ है, इससे भी बड़ा चमत्कार हुआ है, सागर बूंद में समा गया; अब तो बूंद को कहां से खोजा जाए? जिस दिन परमात्मा में उसका खोजी, उसका प्रेमी समाता है, उसी क्षण, तत्क्षण परमात्मा भी प्रेमी में समा जाता है। और जब परमात्मा तुम पर बरसेगा, तो गाओगे नहीं, नाचोगे नहीं, उत्सव न मनाओगे? रसो वै सः की ध्वनि तुम्हारे भीतर न उठेगी? मस्त न हो जाओगे मस्ती में? उस मस्ती की अभिव्यक्ति ही काव्य है।

सभी कवि कवि नहीं हैं। जब तक कोई ऋषि न हो, तब तक कविता तो बस कला है। जब कोई ऋषि हो जाए तो कविता जीवन है। तुम्हारी श्वास, तुम्हारी धड़कन।

मेरा संन्यासी ऋषि होने के मार्ग पर है। बीच में कविता का पड़ाव आएगा। वहां रुकना भी नहीं। क्योंकि बहुत कविता पर रुक जाते हैं। कविता प्रीतिकर है, सुंदर है, लुभावनी है, सपने जैसी है, मधुर है, पर और आगे जाना है। कविता पड़ाव है। जब तक ऋषि होना न घट जाए, जब तक सौंदर्य ओत—प्रोत न कर ले…फूल सुंदर दिखाई पड़ें तो कविता, जब कांटे भी सुंदर दिखाई पड़ने लगें तो ऋषि का जन्म हुआ। जीवन सुंदर दिखाई पड़े, कविता, जब मृत्यु भी अपूर्व सौंदर्य में प्रकट होने लगे तो ऋषि का जन्म हुआ। कविता पड़ाव है।

कवि का पड़ाव बीच में आएगा। प्रीतिकर है पड़ाव, ठहरना दो क्षण वहां, रात विश्राम करना, लेकिन याद रखना: सुबह हुई और चल पड़ना है, वहां रुक नहीं जाना है। जब तक द्रष्टा न हो जाओ, जब तक तुम सौंदर्य को ही न देख लो—देखना भी कहना ठीक नहीं, पी ही न लो—पीना भी कहना ठीक नहीं, जब तक तुम सौंदर्य ही न हो जाओ—तब तक रुकना नहीं है, चलते जाना है। चरैवेति, चरैवेति। बुद्ध ने कहा है अपने भिक्षुओं से: चलते ही चलो, चलते ही चलो; तब तक चलते रहो जब तक चलने वाला बचे। जब तक थोड़ा—सा भी मैं—भाव बचे, चलते रहो, चलते रहो। धीरे—धीरे जल जाएगा मैं: जिस दिन मैं न रहेगा, उस दिन परमात्मा है; उस दिन परम काव्य का अनुभव होगा।

ठीक हुआ अमृता, कि मेरा आना तेरी जिंदगी में काव्य का आगमन भी बन गया है। और बहुत कुछ होगा। आंखें तो सूखी थीं, गीली हो जाएंगी।…अभी कल ही तो तुझे विदा देते समय तेरी आंखों को गौर से देखा…अमृता ऐसे तो भारतीय है लेकिन रहती अमरीका में है। जाना है वापिस उसे।…तेरी आंखों में टपकते हुए आंसू देखे, तेरी आर्द्र आंखें देखीं, वे आंसू आनंद के थे; विरह के भी और मिलन के भी। पीड़ा भी उनमें थी, प्यास भी उनमें थी, धन्यवाद, अनुग्रह का भाव भी उनमें था। अब तू केवल शरीर की तरह ही दूर जाएगी, अब आत्मा की तरफ से दूर जाने का कोई उपाय नहीं। और शरीर की दूरी कोई दूरी नहीं। दूरी तो बस आत्मा की होती है। लोगों के शरीर पास बैठे होते हैं और आत्माएं कोसों दूर।

शरीर कितने ही दूर हों, आत्माएं पास हों, सत्संग चलता रहेगा, रुकेगा नहीं, तू जहां रहेगी वहीं चलता रहेगा। कभी कोयल की पुकार में तुझे मेरी आवाज सुनाई पड़ने लगेगी; और कभी वृक्षों से गुजरती हुई हवा की ध्वनि और तू मुझे सुन पाएगी; और झरनों का कलकल नाद और आकाश में घिर गए मेघ और सुबह डूबा चांद और ऊगा सूरज—न—मालूम कितने रूपों में यह घटने लगेगा! काव्य का जन्म हो जाए, आंख खुलने लगती। पदार्थ तिरोहित होने लगता है। पदार्थ में छिपे हुए अर्थ प्रकट होने लगते हैं। स्थूल विदा होने लगता है, सूक्ष्म उभरने लगता है। यह होगा। यह होना निश्चित है। यह तेरी आंखों में झांककर मैं तुझ से कहता हूं। यह आश्वासन है।

तूने पूछा, कल आपने कहा होश से रहना, चूक मत जाना। तो आप ही बताएं कि अब क्या होगा! जब इतनी पिला दी तो होश में आने को क्यों कहते हो? एक होश है जो सम्हल—सम्हलकर, बांध—बांधकर रखना पड़ता है। वह बहुत मूल्यवान नहीं है। उसकी बड़ी कीमत नहीं है। वह बौद्धिक ही है। एक और भी होश है जो नाचता है, शराबी की तरह डगमगाता है। एक और भी होश है जो बेहोशी के विपरीत नहीं है। जो इतना बड़ा है कि बेहोशी को भी पी जाता है और आत्मसात कर लेता है। मैं वही होश सिखाना चाहता हूं। अगर होश हो और उसमें बेहोशी की रसधार न बहे, मस्ती गुनगुनाती न हो, गीत न गाती हो, तो होश तुम्हें मरुस्थल बना देगा।

इस तरह की दुर्घटना घटी। जैन, बौद्ध साधकों के जीवन में ऐसी दुर्घटना घट गई है। इतिहास उससे भलीभांति परिचित है। वह भूल दुबारा नहीं दोहरानी है। होश साधने की चेष्टा में उन्होंने इतने नियम, इतनी व्यवस्थाएं, इतनी मर्यादाएं निर्धारित कर लीं कि होश तो सधा लेकिन साथ ही वे मरुस्थल हो गए। सब हरियाली विदा हो गई। वसंत का आगमन बंद हो गया। सब पत्ते सूख गए और गिर गए। इसलिए तो जैनों और बौद्धों के पास उपनिषद जैसा काव्य नहीं है; कुरान जैसी आयतें नहीं हैं। कारण है। सूखा—सूखा सब। हिसाब—किताब। दो और दो चार जैसी साफ बात है। उलझाव नहीं है। सीधी और साफ बात है, दो टूक बात है। लेकिन सूखी लकड़ी जैसी। जिसमें पत्ते नहीं ऊगते और फूल भी नहीं लगते, मधु—मक्खियां जिसके पास गुनगुन नहीं करतीं और तितलियां कभी पर नहीं फड़कातीं। चांद ऊगे तो, सूरज ऊगे तो, सूखी लकड़ी सूखी ही रही आती है। न कभी चांद ऊगता है, न कभी चांदनी होती है, न कभी सूरज ऊगता, न दिन न रात—सब ठहर गया। मरघट जैसा एक सन्नाटा हो गया।

जैन और बौद्ध परंपरा में यह दुर्घटना घटी।

शायद घटनी अनिवार्य थी। प्राथमिक अन्वेषक थे वे लोग। और उन्होंने देखा कि बेहोशी और होश साथ कैसे चलेंगे? भक्त की मस्ती और ध्यानी का होश एक—दूसरे के विपरीत खड़े हो गए। ध्यानी के होश ने भक्त की मस्ती की निंदा की। कहा कि यह भी राग है। कहा, यह भी मोह है, ममता है, प्रेम है। और प्रेम तो तोड़ना है, पूरी तरह तोड़ना है, तभी तो संसार से मुक्ति होगी। प्रेम से मुक्ति उनके लिए संसार से मुक्ति की पर्यायवाची हो गई। और उन्होंने तोड़ा। बड़ी मेहनत की। सारे संबंध तोड़ डाले। सारी जड़ें उखाड़ लीं अस्तित्व से। लेकिन सूख गए फिर; फिर वसंत न आया।

और भक्तों ने भी कोशिश की है। मस्ती तो रही, बेहोशी भी रही, उनकी आंखों में खुमार भी रहा, गीत भी उठे, लेकिन होश का दीया नहीं जला, होश की रोशनी नहीं हुई। तो भक्त, जैसे सूफी फकीर शराब की बात करते—करते धीरे—धीरे शराब ही पीने लगे! शराब की बात तो ठीक थी, शराब का प्रतीक भी ठीक था…शराब ठीक—ठीक इशारा है परमात्मा की तरफ मस्त होने का, मग्न होने का, मधुशाला ही मंदिर है भक्त के लिए, लेकिन यह प्रतीक जल्दी ही प्रतीक न रहा—हम प्रतीकों को पकड़ लेते हैं—फिर शराब ही पीने लगे लोग!

मेरे एक परिचित थे। ऐसी भूल में न पड़ते तो अभी भी जीवित होते और शायद भारत के श्रेष्ठतम कवियों में एक होते। केशव पाठक उनका नाम था। हिंदी में बहुत लोगों ने उमर खय्याम की रुबाइयों के अनुवाद किए हैं; बड़े—बड़े कवियों ने भी प्रयोग किए हैं—पंत ने, बच्चन ने—छोटे—छोटे कवियों ने भी प्रयत्न किए हैं—मैं समझता हूं कम—से—कम दो सौ अनुवाद उपलब्ध हैं—लेकिन केशव पाठक ने जैसा अनुवाद किया वैसा किसी ने भी नहीं किया। पंत और बच्चन को भी पीछे छोड़ दिया। केशव पाठक का अनुवाद उमर खय्याम की ठीक आत्मा को छू लेता है। अंग्रेजी में भी फिटजराल्ड का जो अनुवाद है, वह केशव पाठक से थोड़े पीछे रह जाता है। लेकिन केशव पाठक के साथ वही हुआ जो ध्यान—हीन आदमी के साथ हो सकता है। उमर खय्याम की रुबाइयों का अनुवाद करते—करते वह शराबी हो गए। वे इतना पीने लगे कि पीने के कारण ही मरे।

उमर खय्याम आशीर्वाद हो सकता था, अभिशाप हो गया।

और यह जानकर तुम चकित होओगे, उमर खय्याम ने कभी शराब पी ही नहीं। यद्यपि अब तो उमर खय्याम के नाम से शराबघरों के नाम हैं। उमर खय्याम समझा जाता है कि शराबियों का सरताज है। उसने कभी शराब छुई नहीं! वह किसी और ही शराब की बात कर रहा है। वह परमात्मा को पीने की बात कर रहा है। वह जब साकी की बात करता है तो वह परमात्मा की बात कर रहा है। और जब वह शराब की बात करता है तो परमात्मा से बहते हुए आनंद की बात करता है। रसो वै सः। वह उस रस की बात कर रहा है। रस का नाम ही शराब।

तो वहां भूल हुई। कुछ लोग सूख गए। और यहां भूल हुई कि कुछ लोगों ने समझा कि बस शराब पी ली तो पहुंच गए। शराब पीकर लड़खड़ाए तो क्या खाक लड़खड़ाए! कोई भी लड़खड़ाएगा पीएगा तो! बिना पिए लड़खड़ाए तो लड़खड़ाए। बिन पिए मस्त हुए—तो पिए! तो तुमने कुछ अपूर्व अनुभव किया।

अमृता, मैं उसी पीने की तरफ इशारा कर रहा हूं। अंगूर की शराब नहीं, आत्मा में ढलती है जो, भीतर ही खिंचती है जो।

इसलिए मेरे संन्यासी को ध्यान का बोध चाहिए और भक्त की मस्ती चाहिए। एक अभिनव प्रयोग हम कर रहे हैं, जो कभी नहीं किया गया। ध्यानी हुए, भक्त हुए। ध्यान सूख गए और उनके सूखने का परिणाम हुआ कि जहां—जहां उनकी छाया पड़ी वहां—वहां भी सब सूख गया। यह देश उनके कारण सूख गया। और भक्त हुए, जिनने आंसू बहाए, जिन्होंने पैरों में घूंघर बांधे, जिन्होंने शराब पी और नाचे। जहां—जहां वे नाचे वहां—वहां हरियाली तो रही, बस लेकिन हरियाली ही रही, उसमें आत्मा नहीं, उसमें आत्मबोध नहीं। मैं प्रयोग कर रहा हूं यहां कि किसी तरह महावीर और मीरा का मिलन हो जाए। कि किसी तरह महावीर नाच सकें और किसी तरह मीरा ध्यान कर सके।

इसलिए अड़चन तो होगी।

मीरा के मानने वाले भी मुझसे नाराज होंगे, महावीर के मानने वाले भी मुझसे नाराज होंगे। उमर खय्याम को व बुद्ध को मिलाने की कोशिश खतरनाक कोशिश है। बुद्ध को मानने वाले कहेंगे कि यह नाजायज प्रयास है; उमर खय्याम खय्याम को कहां बुद्ध में लाते हो?…मैं बुद्ध पर बोल रहा था तो मैंने बहुत—सी शराब के सम्मान में लिखी गई कविताओं का उद्धरण दिया है, तो योग चिन्मय ने पूछा था प्रश्न, कि आप बुद्ध के साथ और शराब की इन कविताओं को क्यों उदधृत कर रहे हैं? बुद्ध से इनका क्या लेना—देना? और चिन्मय का प्रश्न ठीक है, सम्यक है। नहीं रहा लेना—देना, अतीत में नहीं रहा, भविष्य में लेना—देना करना है, सेतु बनाना है। इसलिए भक्तों पर बोलता हूं और ध्यान को समझाता हूं, ध्यानियों पर बोलता हूं और प्रेम को समझाता हूं। हिसाब—किताब से जीने वालों को लगता है मैं सब गड्ड—बड्ड किए दे रहा हूं। नहीं, यह समन्वय का एक प्रयोग हो रहा है। क्योंकि दोनों प्रयोग अधूरे थे और दोनों प्रयोग हार गए। और दोनों प्रयोग पृथ्वी को स्वर्ग नहीं बना पाए।

अमृता, इसलिए मैं जिस होश की बात कर रहा हूं, वह बेहोशी के विपरीत नहीं है। मैं जिस बेहोशी की बात कर रहा हूं, वह होश के विपरीत नहीं है। भाषा में तो विपरीत मालूम होते हैं—मैं क्या करूं? भाषा मैं बनाता नहीं। भाषा तैयार है। भाषा सदियां बना गई हैं। भाषा पर अतीत की छाप है। अब दो ही उपाय हैं। या तो मैं उसी भाषा का उपयोग करूं जिसे तुम समझते हो, तो भी कहां समझ पाते हो? और या फिर नई भाषा गढूं, जो कि तुम बिलकुल ही नहीं समझ पाओगे। अभी कम—से—कम समझने का भ्रम होता है। पुराने परिचित शब्द सुनते हो तो कम—से—कम भ्रांति तो होती है कि समझे। लेकिन अगर मैं नई भाषा ही गढूं, तो कौन समझेगा?

ऐसे प्रयोग हुए हैं।

सूफी फकीर हुआ, जब्बार। अंग्रेजी में शब्द है: जिबरिस, वह शब्द जब्बार से बना। जब्बार पहुंचा हुआ संत, सिद्धपुरुष; उसने सोचा कि पुरानी भाषा का उपयोग करो, लोग गलती समझ लेते हैं; हम कुछ कहते हैं, वे कुछ समझ लेते हैं। जैसे कि बेहोशी की बात करो तो वे समझते हैं—होश के विपरीत। होश की बात करो, वे समझते हैं—बेहोशी के विपरीत। तो जब्बार ने कहा कि हम नई भाषा ही गढ़ेंगे। तो उसने नई भाषा गढ़ ली। उसकी भाषा कौन समझे? उसकी भाषा को लोग पागलपन समझे। उसकी भाषा को वही समझता था। खुद के भीतर गढ़ी…तुम भी गढ़ सकते हो, कोई भी गढ़ सकता है; छोटे—छोटे बच्चे भी कभी—कभी प्रयोग करते हैं। चूंकि उसकी भाषा को कोई नहीं समझता था, इसलिए अंग्रेजी में बकवास को जिबरिस कहते हैं। जिसको कोई समझ न सके। जैसे छोटे बच्चे अल्ल—बल्ल बकते हैं। या सन्निपात में लोग बकते हैं। अदभुत सिद्धपुरुष जब्बार—और उसकी भाषा का यह परिणाम हुआ!

तो मुझे बोलनी तो वही भाषा पड़ेगी जो तुम समझते हो। लेकिन तब एक ही उपाय है कि तुम्हारी ही भाषा का उपयोग करूं और इस ढंग से करूं कि उसमें नए अर्थ लगा दूं, नई अर्थ की कलमें लगा दूं।

दो आदमी आपस में लड़ रहे थे। दोनों गाली—गलौज करने लगे। पहला बोला, साले, मैं एक मुक्के में तेरे बत्तीस दांत बाहर न कर दूंगा। दूसरा गुस्से से बोला, मैं तेरे चौंसठ दांत बाहर कर दूंगा। मुझे क्या समझता है? तीसरा आदमी जो इन दोनों का झगड़ा देख रहा था, बोला, दांत तो बत्तीस ही होते हैं, तुम चौंसठ दांत कैसे बाहर निकालोगे? दूसरा आदमी बोला कि मुझे पता था कि तुम बीच में जरूर बोलोगे, इसलिए बत्तीस दांत इस आदमी के और बत्तीस दांत तुम्हारे।

लोगों के अपने समझने के ढंग हैं। लोगों की अपनी व्यवस्थाएं हैं।

एक कहानी और कल मैंने देखी—

मुक्केबाजी की प्रतियोगिता चल रही थी, बड़ा मुकाबला था; दोनों मुक्केबाज एक—दूसरे पर वार किए जा रहे थे, दर्शक स्तब्ध होकर यह जंगी मुकाबला देख रहे थे। सभी शांत थे। मगर मुल्ला नसरुद्दीन रह—रहकर बीच—बीच में आवाज लगा रहा था: मार एक मुक्का मुंह में! निकाल दे पूरे बत्तीस दांत बाहर! मार एक मुक्का मुंह में, झाड़ दे पूरी बत्तीसी! वह शांत ही न हो रहा था। आखिर एक व्यक्ति से न रहा गया, उसने कहा, भाई साहब, क्या आप भी कोई बड़े पहलवान हैं, जो इस प्रकार की जोश की बातें कर रहे हैं कि मार एक मुक्का मुंह में, कर दे पूरे बत्तीस दांत बाहर! मुल्ला बोला, जी नहीं, मैं कोई पहलवान—वहलवान नहीं, मैं तो दांतों का डाक्टर हूं और यह मेरे धंधे का सवाल है।

लोग अपने ढंग से ही समझेंगे। अपने ही न्यस्त स्वार्थ हैं, अपने पक्षपात हैं। अपनी पुरानी धारणाएं हैं, अपने धंधे हैं।

लेकिन मैं अर्थों को नए शब्द दे रहा हूं; शब्दों को नए अर्थ दे रहा हूं। तुम्हें मेरे साथ बहुत सोच—समझकर चलना होगा। तुम जल्दी निष्कर्ष न लेना। जल्दी निष्कर्ष में भूल—चूक होने का डर है।

अमृता! जब मैं कहता हूं: होश, तो उस होश में बेहोशी की रसधार बहनी है। होश क्या जिसमें बेहोश होने की क्षमता न हो! होश क्या जो नाच न सके! होश क्या जो मदमस्त न हो सके! होश क्या जो होली में गुलाल न उड़ा सके, दिवाली में दीए न जला सके, पैरों में घूंघर न बोध सके, बांसुरी न बजा सके! होश क्या जिसमें खुमारी न हो! होश क्या जो शराब को मात न कर दे! और बेहोशी क्या जिसमें होश का दीया न जलता हो, होश का फूल न खिला हो, होश की सुगंध न उठती हो! बेहोशी क्या जिसमें होश का माधुर्य और प्रसाद न हो! ये दोनों जहां मिलते हैं, वहां एक अपूर्व संगम पैदा होता है। उस संगम को ही मैं संन्यास कहता हूं।

अमृता, तू ऐसी ही संन्यासिन हो! ऐसे ही प्रत्येक संन्यासी को होना है। तू कहती है, जब इतनी पिला दी तो होश में आने को कहते हो! इसीलिए तो कहता हूं, इतनी पिला दी इसीलिए कहता हूं, कि अब कहीं बेहोशी ही न रह जाए! नहीं तो आधा हो गया काम, आधे का क्या होगा? इसलिए विपस्सना जो कर रहा है, उसे एक—न—एक दिन कहता हूं कि जाओ और सूफी नृत्य में सम्मिलित हो जाओ। जो सूफी नृत्य कर रहा है उसे एक—न—एक दिन कहता हूं कि अब विपस्सना करो।

तुम जानकर हैरान होओगे कि इस परिवार में, संन्यासियों के इस परिवार में सूफी नृत्य को जो संन्यासिन मार्गदर्शन देती है, वह मौलिक रूप से विपस्सना के योग्य है। तात्विक रूप से उसका व्यक्तित्व विपस्सना के योग्य है। अनिता। और जो विपस्सना में मार्गदर्शन करती है, प्रदीपा, उसका व्यक्तित्व सूफियों का है। और दोनों चकित कि उनको मैंने क्यों यह काम दिया है? विपस्सना दिया है उसको मार्गदर्शन करने को, जिसका मौलिक रूप सूफी का है। और सूफी नृत्य दिया है जिसका रस विपस्सना की तरफ है। जानकर। क्योंकि इन दोनों को कहीं जोड़ना है। सूफियों को विपस्सना देनी है, बौद्धों को सूफियों का रस देना है। तुम्हारी यह क्षमता होनी चाहिए कि तुम्हारे भीतर विरोधाभास आकर मिल जाएं, एक हो जाएं, अपना विरोधाभास खो दें। तुम्हारी यह क्षमता होनी चाहिए कि शांत बैठो तो बुद्ध की शांति और नाचो तो मीरा का नृत्य। न तो मीरा के नृत्य में कंजूसी करनी पड़े बुद्ध के कारण, न बुद्ध के मौन में कंजूसी करनी पड़े मीरा के कारण। जब तुम इन दो अतियों के बीच सुगमता से डोल सको, जैसे घड़ी का पेंडुलम डोलता है, जैसे सावन में झूले डोलते हैं, जब इन दो अतियों के बीच तुम सावन का झूला बन जाओ, तब जानना कि तुम्हारे जीवन में पूर्ण मनुष्य का आविर्भाव हुआ।

अब तक पूर्ण मनुष्य जमीन पर पैदा नहीं हो सका है। अभी तक आंशिक मनुष्य पैदा हुए। क्योंकि हमने अंश को बहुत मूल्य दे दिया और अंश को ही पूर्ण मान लिया। अंश ही इतने बड़े हैं कि लोग उनसे ही तृप्त हो जाते हैं। मैं तुम्हें ऐसी अतृप्ति देना चाहता हूं कि तुम अंश से नहीं, अंशी से ही तृप्त होना। पूर्ण को पाए बिना नहीं रुकना है, चले चलो, चले चलो…। तुम बेहोश होने लगोगे तो झकझोरूंगा और कहूंगा कि होश में आओ! और तुम ज्यादा होश में आने लगोगे तो धक्का दूंगा और कहूंगा कि जरा डोलो, नाचो! एकदम होश में ही आकार सूख मत जाओ! जरा कल्पना करो इन दोनों के मध्य नाचते हुए शून्य की, गीत गाते हुए मौन की। तब तुम्हारे भीतर परमात्मा अपना सारा रस और सारी ज्योति उड़ेल देगा। तब उसका रस ज्योतिर्मय होगा।

तूने पूछा:

बैठे हैं राहगुजर पे तेरी, सांस थाम के

मदहोश गिर गए हम तेरे जाम से

यह गिर जाना नहीं है! यह गिर जाना उठ जाना है!

लड़खड़ाऊं उठ न सकूं, जो उठूं कभी

पहुंचेंगे जाने कैसे हबी तेरे धाम पे

जो गिर गए मस्ती में, होश में; जो रुक गए मस्ती में, होश में; जो ठहर गए मस्ती में, होश में, पहुंच गए प्यारे के द्वार पर! अब चलना कहां? उठना कहां? परमात्मा दूर नहीं है, तुम जागरूक भाव से, मौन भाव से यहीं नाचो, परमात्मा यहीं है, अभी है। परमात्मा कहीं और नहीं है, तुम जहां हो वहीं है। न काशी जाओ, न काबा। नासमझ जाते हैं काशी और काबा। समझदारों के पास काबा और काशी आ जाते हैं।

सूफी फकीर बायजीद बिस्तामी ने तीन बार काबा की यात्रा की। लोग सोचते थे कि शायद अब चौथी बार भी करेगा। लेकिन वर्षों बीत गए और बायजीद ने बात ही न उठाई। उसके भक्तों में कई दफा सवाल उठा कि अब कब होगी चौथी यात्रा? क्योंकि जितनी यात्रा, उतना पुण्य। आखिर एक दिन भक्तों से न रहा गया—कई नए भक्त थे जो पुरानी यात्राओं में सम्मिलित भी नहीं हुए थे, उन्होंने कहा: हमारा भी कुछ खयाल करें; क्या आप हज को भूल ही गए; काबा की अब याद ही नहीं करते? पहले तो तीन यात्राएं कीं, अब क्या हुआ? और बायजीद कोई बहुत ज्यादा दूर नहीं रहता था काबा से, इसलिए यात्रा आसान थी, यात्रा कभी भी की जा सकती थी। बायजीद ने कहा, अब तुमने पूछ ही लिया तो मुझे सच कहना ही पड़ेगा। पहली दफा गया तो काबा दिखाई पड़ा। दूसरी बार गया तो काबा का मालिक दिखाई पड़ा। और तीसरी बार गया तो कोई भी दिखाई नहीं पड़ा। न काबा, न काबा का मालिक। शून्य, निराकार। तब से तो मैं जहां हूं, वहीं निराकार है। तब से तो मैं जहां हूं, वहीं काबा है, वहीं काबा का मालिक है।

एक और कहानी बायजीद के संबंध में प्रसिद्ध है—

बैठा है एक वृक्ष के नीचे और एक आदमी काबा की यात्रा पर जा रहा है—जिंदगी भर इकट्ठा किया है पैसा कि काबा की यात्रा करनी है। गरीब आदमी है, बामुश्किल कुछ पैसे इकट्ठे करके चल पड़ा है। थक गया तो वह भी वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा—धूप घनी है, रेगिस्तानी रास्ता है। बायजीद वहां बैठा हुआ है। उस यात्री ने पूछा कि आप भी विश्राम कर रहे हैं, शायद काबा जा रहे होंगे! बायजीद हंसने लगा, उसने कहा, क्या तुम काबा जा रहे हो? नाहक। मैं तीन दफे हो आया, अब तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं; मैं तुमसे कहे देता हूं कि पहली दफा गया, काबा देखा; दूसरी दफा गया, काबा का मालिक देखा; तीसरी दफा गया, कुछ भी नहीं देखा; सन्नाटा, शून्य। तुम्हें जाने की जरूरत नहीं है। तुम तो मेरे तीन चक्कर लगा लो और घर वापिस जाओ। हज हो गई। और पैसे निकालो! फिजूल खर्चा करोगे; फकीर के काम आ जाएंगे।

बायजीद का यह ढंग और जिस ढंग से उसने कहा कि पैसे निकालो, वह आदमी न रोक सका अपने को, पासे निकालने पड़े। कुछ लोग होते हैं जो कहें कि निकालो पैसे! तो क्या करोगे? जैसे कि अमृता, मैं तुझसे कहूं: निकाल पैसे! तो क्या उपाय है? और तू जा रही हो काबा या काशी की यात्रा पर और मैं कहूं: लगा तीन चक्कर मेरे, बात खतम, अब कहीं जाने की जरूरत नहीं! उस आदमी को भी बात जंची, यह आदमी जिस प्रेम और जिस आनंद में डूबा हुआ दिखाई पड़ा, उसकी आंखों में झांका, इसके चरणों पर रख दिए, तीन चक्कर लगाए, घर वापिस लौट गया। और कहते हैं कि वह आदमी इसके तीन चक्कर लगाने में ही परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया।

परमात्मा कहीं दूर थोड़े ही है, उठना थोड़े ही है!

लड़खड़ाऊं उठ न सकूं, जो उठूं कभी

पहुंचेंगे जाने कैसे हबी तेरे धाम पे

उसका धाम तो यहां है—तुम जहां हो। उसी में तो तुम्हारे हृदय की धड़कन है, उसी में तो तुम्हारी श्वासें चल रही हैं, वही तो तुम्हारे प्राणों का प्राण है।

और पूछा तूने—

महबूब तू बता तेरी क्या है अब रजा

पैसे निकाल! तीन चक्कर लगा! और क्या?

अब तू बता कि होश में आएं तो किसलिए

पाया खुदा भी पीता हुआ तेरे जाम से।

अब जरूरत ही नहीं है। उस होश की मैं बात ही नहीं कर रहा हूं। अब तो किसी और होश की बात कर रहा हूं जो बेहोशी के भी पार है; जो बेहोशी से भी ज्यादा बेहोश है। अब तो मैं उस मस्ती की बात कर रहा हूं जिस मस्ती से नीचे गिरना होता ही नहीं, ऊपर ही चढ़ना होता है। और—और मंजिलें हैं! लेकिन वे सब अब आंतरिक हैं।

संन्यस्त हो जाने के बाद यात्रा आंतरिक है, अंतर्यात्रा है। और पैसे की चिंता में मत पड़ना, मुझे कोई जरूरत नहीं है! और मेरे तीन चक्कर भी लगाने की जरूरत नहीं है। बायजीद ने भी नाहक मेहनत करवाई। इतना ही कह देता कि मेरी आंख में झांक ले, बात हो जाती! इतना ही कह देता, मेरे पास बैठ जा, बात हो जाती।

इस सत्संग में डूबो, लड़खड़ाओ, गाओ, मस्त हो जाओ और आएगा एक होश। और ऐसा होश नहीं जो मरुस्थल का होता है। ऐसा होश जहां फूल खिलते हैं, पक्षी गीत गाते हैं; जहां कमल मुस्कुराते हैं। होश ऐसा जिसमें बेहोशी का काव्य होगा, बेहोशी ऐसी जिसमें होश का दीया जले। ये दोनों बातें एक साथ हो सकती हैं।

और अमृता, कुछ हो रहा है! अगर चलती रही इसी राह पर, जो राह मिल गई है, जो राह तेरे हाथ आ गई है, तो पहुंचना सुनिश्चित है। एक बात पक्की है कि अमरीका लौटकर तुझे यह न कहना पड़ेगा—

दूर से आए थे साकी सुन के मयखाने को हम

बस तरसते ही चले अफसोस! पैमाने को हम।

नहीं, तुझे ऐसा नहीं कहना पड़ेगा। तू तरसती नहीं जा रही है, तू पीकर जा रही है। हालांकि पीने से और प्यास बढ़ती है और एक नई तड़प पैदा होती है, वह दूसरी बात। एक प्यास तो है बिना—पीए आदमी की और एक प्यास है जिसने पिया, उसकी।

दूर से आए थे साकी सुन के मयखाने को हम

बस तरसते ही चले अफसोस! पैमाने को हम!

मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साकी नहीं

दिल में आता है, लगा दें आग मयखाने को हम।

हमको फंसना था कफस में, क्या गिला सय्याद का

बस तरसते ही चले हैं आब और दाने को हम।

बाग में लगता नहीं, सहरा से घबराता है दिल

अब कहां ले जा के बैठें, ऐसे दीवाने को हम।

क्या हुई तकसीर हमसे तू बतादे ऐ नजीर

ताकि शादी—मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।

नहीं, ऐसा तुझे न कहना पड़ेगा। तू घूंट लेकर जा रही है। तू धन्यभागी है। बहुत लोग आते हैं, बहुत थोड़े—से लोग स्वाद ले पाते हैं। बहुत लोग सुनते हैं, बहुत थोड़े—से लोग सुन पाते हैं। क्योंकि सुनने के लिए गर्दन को तो काट कर अलग ही रख देना पड़ता है, सिर को तो अलग ही कर देना होता है। हृदय से ही सुना जा सकता है। ऐसा ही तूने सुना। स्वाद तुझे लगा है, यह बढ़ता जाएगा, यह बढ़ता रहेगा। यह आब बुझने वाली नहीं है। तू आनंद विभोर जा, कृतज्ञभाव से जा। और तू जहां भी रहेगी, मैं तुझ पर बरसता ही रहूंगा। साकी से अब मिलना हो गया है, अब साकी से बिछुड़ना नहीं हो सकता। इस रास्ते पर मिलन ही है, विरह नहीं है। विरह भी बस मिलन की एक तैयारी है, एक सीढ़ी है।

 

दूसरा प्रश्न:

 

भगवान, मैं तो अब वृद्ध हो गया हूं। क्या अभी भी संभव है कि समाधि को पा सकूं?

 

रामकृष्ण, समाधि का कोई संबंध समय से नहीं है। समयातीत है समाधि। देह बच्चे की है कि जवान की कि बूढ़े की, आप्रसांगिक है, आत्मा तो सदा वही की वही है। बच्चे के पास भी वही, जवान के पास भी वही, बूढ़े के पास भी वही। आत्मा की कोई उम्र नहीं होती। आत्मा शाश्वत है। उसकी उम्र कैसे हो सकती है? न उसका कोई जन्म है और न कोई मृत्यु, तो कैसा बुढ़ापा और कैसी जवानी! इसीलिए तो एक चौंकाने वाली बात अनुभव होती है—जरा आंख बंद करके सोचो कि मेरे भीतर की उम्र कितनी है? और तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, कुछ तय नहीं होगा। भीतर की कोई उम्र होती ही नहीं, उम्र बाहर ही बाहर की होती है। उम्र वस्त्रों की होती है, तुम्हारी नहीं। देह बस वस्त्र मात्र है।

इसलिए चिंतित मत होओ कि अब मैं बूढ़ा हो गया तो समाधि को पा सकूंगा या नहीं? संभावना तो इसकी है कि तुम पा सकोगे। जवानी में तो बड़े तूफान होते हैं। बुढ़ापे में तो तूफान धीरे—धीरे अपने—आप शांत हो गए होते हैं। तूफान शांत हो गए हैं, इसीलिए तो तुम्हारे मन में संन्यास का भाव जगा। तूफानों से ऊब गए हो, बहुत देख लिए, जो देखना था जिंदगी में सब देख लिया, अब देखने को बचा भी क्या है, अब तो देखने को सिर्फ परमात्मा बचा है, अब तो आंख एकाग्र होकर परमात्मा की तरफ चल सकती है। हर परिस्थिति के लाभ हैं, हर परिस्थिति की हानियां हैं—याद रखना।

समझदार आदमी हर परिस्थिति से लाभ उठा लेता है, नासमझ हर परिस्थिति से हानि उठा लेता है।

जवानी का एक लाभ है: ऊर्जा। अपार ऊर्जा। गहन श्रम करने की सामर्थ्य। आकाश छूने की आकांक्षा। सपने देखने का साहस, दुस्साहस। वह जवानी का लाभ है। अगर उस तरंग पर चढ़ जाओ तो समाधि तक पहुंच जाओ। लेकिन कितने जवान उसका लाभ उठा पाते हैं? चढ़ते तो हैं तरंग पर, लेकिन वह तरंग उन्हें बाजार की तरफ ले जाती है। धन की तरफ, पद की तरफ, प्रतिष्ठा की तरफ। वह तरंग उन्हें राजनीति में ले जाती है। वह तरंग उन्हें क्षुद्र और क्षणभंगुर में ले जाती है। ऊर्जा तो है, लेकिन मटकी फूटी—फूटी। छेदों से सब ऊर्जा बह जाती है।

चार दिन को हो भले ही, आज तो मुझमें जवी,

आज सांसों में प्रभंजन

आज आहों में बवंडर

आज अंतर में हिलोरें

आज आंखों में समुंदर

दूर हो, सम्मुख न आओ, यह प्रलय की ही निशानी,

आज तो मुझमें जवानी

 

सिंधुमंथन—सा हृदय में

गिर रही है गाज ऐसी

इस प्रहर में, इस घड़ी में

मान कैसा, लाज कैसी

आज तो दो एक होंगे, अब कहां अपनी—बिरानी,

आज तो मुझमें जवानी

 

सुधि न तन—मन की मुझे कुछ

बढ़ रहा हूं भुज पसारे

चल रहा हूं, चल रहे हैं

जिस तरह रवि, शशि, सितारे

और पहुंचूंगा कहां पर? यह भविष्यत की कहानी,

आज तो मुझमें जवानी।

 

आज दो लोचन किसी के

दे रहे मुझको निमंत्रण

आज यौवन पर, हृदय पर

है कठिन करना नियंत्रण

आज सारा तर्क भूला, आज सारा ज्ञान पानी,

आज तो मुझमें जवानी।

 

आज तो इतनी पीए हूं

डगमगाते पांव मेरे

हर डगर पर, हर कदम पर

बिछ गए हैं भाव मेरे

एक मैं हूं, दूसरी तुम, तीसरी आशा दीवानी,

आज तो मुझमें जवानी।

 

जीर्ण यह तरणी तुम्हारी

क्या मुझे देगी सहारा

हाय, यौवन—ज्वार में है

सूझता किसको किनारा?

तोड़ दो यह डांड मांझी, फोड़ दो नौका पुरानी,

आज तो मुझमें जवानी।

युवावस्था का एक सौभाग्य है। मगर सौ में से शायद एकाध ही उसे सौभाग्य बना पाता है, निन्यानबे तो दुर्भाग्य बना लेते हैं।

जीर्ण यह तरणी तुम्हारी

क्या मुझे देगी सहारा

हाय, यौवन—ज्वार में है

सूझता किसको किनारा

तोड़ दो यह दांड़ मांझी, फोड़ दो नौका पुरानी,

आज तो मुझमें जवानी।

जिंदगी विक्षिप्त हो जाती है जवानी में। लोग पागल की तरह जीते हैं। होश खोकर जीते हैं। सोचते हैं, चार दिन की जवानी है; आज है, कल तो नहीं होगी, कर लें जो करना है, भोग लें जो भोगना है; पी लें, पिला लें; जी लें, जिला लें, फिर तो मौत है। तो लोग एक त्वरा से जीते हैं—मगर जीते क्या हैं, सिर्फ जीवन गंवाते हैं! हां, कोई बुद्ध ठीक युवावस्था में समाधि की तरफ चल पड़ता है। बस, लेकिन कोई बुद्ध, कभी—कभी; अंगुलियों पर गिने जा सकें, ऐसे लोग इतिहास में इतने कम हुए हैं जिन्होंने युवावस्था के ज्वार का उपयोग कर लिया, जिन्होंने युवावस्था की ऊर्जा को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दिया।

तब तो बड़ा अदभुत है, क्योंकि तुम्हारे पास शक्ति होती। शक्ति से कुछ भी हो सकता है। विनाश हो सकता है, सृजन हो सकता है।

ऐसे ही बुढ़ापे के भी लाभ हैं और हानियां हैं। हानि है, क्योंकि देह कमजोर हो गई। तो तुम उदास बैठ जाओ, हताश बैठ जाओ, क्योंकि अब तो मौत ही होनी है और क्या होना है, तो तुम मरने के पहले मरे—मरे हो जाओ, ये हानि है। कि तुम देह के साथ इतना तादात्म्य कर लो कि देह की शक्ति होती क्षीण, समझो कि मेरी ही जीवन—ऊर्जा क्षीण हो रही है, कि मैं ही मर रहा हूं। और लाभ भी हैं बुढ़ापे के। जिंदगी देख चुके, तूफान देख चुके, आंधियां देख चुके—सब देख लिया, सब व्यर्थ पाया—अब एक शांति अपने—आप सघन होने लगी। तूफान जा चुका, तूफान के बाद की शांति सघन होने लगी। संध्या आ गई, दोपहरी की धूप कट गई, अब सांझ की शीतलता आने लगी; इसका उपयोग कर लो तो यही शीतलता, यही शांति समाधि का द्वार बन जाए।

नज्म—से दिन

गजल—सी रातें

कहां हैं? अब!

 

कहां है रंगीन अगवानी

बंद है

ग्यारह बजे के बाद जैसे

नलों में पानी

कहकहों—सी

मस्त बरसातें

कहां हैं? अब!

 

खा गया यह वक्त भूखा

फूल—पत्ती को

पास का अलगाव

घर की भरी खत्ती को

 

सरल शब्दों में

तरल बातें

कहां हैं? अब!

 

नज्म—से दिन

गजल—सी रातें

कहां हैं? अब!

सब बीत गया। बाढ़ आई और गई। बाढ़ सब ले गई, अब बचा भी क्या है? इस क्षण में परमात्मा की तरफ मुड़ जाना एकदम आसान है। क्योंकि संसार का कोई लगा अब सार्थक नहीं है। देख तो लिया! जो छुआ, वही मिट्टी हो गया। जहां गए, वहीं अंधकार पाया। जो पाया, वही व्यर्थ था। जब तक नहीं पाया तब तक सार्थक मालूम पड़ा।

दुनिया जिसे कहते हैं,

जादू का खिलौना है।

मिल जो तो मिट्टी है,

खो जाए तो सोना है।

जो भी मिला, मिट्टी हो गया। और जो भी नहीं मिला, उसमें आशा अटकी रही, आंखें अटकी रहीं। मगर इतना पाने और गंवाने के बाद समझ में नहीं आता कि दूर के ढोल सुहावने! मृगमरीचिकाएं हैं। इतनी भागदौड़ के बाद दिखाई नहीं पड़ता—कस्तूरी कुंडल बसै! कि अपने ही कुंडल में, कि कहीं अपने ही भीतर छिपा है रहस्य और हम बाहर दौड़ते—दौड़ते व्यर्थ थक गए हैं!

जरूर अगर बाहर दौड़ना हो तो बुढ़ापा मुश्किल देगा। लेकिन बाहर दौड़ना नहीं है। बाहर क्या, दौड़ना ही नहीं है! समाधि तो रुक जाने का नाम है, ठहर जाने का नाम है, थिर हो जाने का नाम है। पड़े—पड़े समाधि हो जाएगी। बैठे—बैठे समाधि हो जाएगी। शरीर दौड़ कर थक चुका है, अब मन को भी कह दो कि तू भी थक! अब तू भी रुक! अब शरीर और मन दोनों की दौड़ को जाने दो। घिर जाए सन्नाटा! हो जाओ शून्य! रामकृष्ण, समाधि घट जाएगी। समाधि स्वभाव है। चुप होते ही स्वभाव का अनुभव होने लगता है। शोरगुल बुद्धि का, विचार का बंद होते ही स्वभाव की अनुभूति होने लगती है।

फिर जवानी और बुढ़ापा खयाल की बातें हैं। ऐसे जवान हैं तो जवानी में बूढ़े हैं और ऐसे बूढ़े हैं जो बुढ़ापे में जवान हैं। जवानी और बुढ़ापा शरीर की कम, मन की ज्यादा अवस्थाएं हैं।

बुढ़ापे

या जवानी के लिए

अंगुली के पोरों पर

आयु के

बरसों को,

सिर के

श्वेत केशों को,

चेहरे की झुर्रियों को,

या मुंह के

गिरे दांतों को

मत गिनो

यौवन का गणित

ऐसे नहीं गिना जाता

 

जवानी

और बुढ़ापा

तन का नहीं,

मन का है

और मन का गणित

ऐसे नहीं गिना जाता

और अगर समाधि पाने की आतुरता अभी शेष है तो भीतर तुम युवा हो। भीतर तो तुम सदा युवा हो। इसलिए तुमने गौर नहीं किया, हमने महावीर की, बुद्ध की, कृष्ण की, राम की, किसी की भी बुढ़ापे की प्रतिमा नहीं बनाई? क्या तुम सोचते हो ये लोग बूढ़े नहीं हुए? क्या तुम सोचते हो ये सब लोग जवान ही मर गए? बुद्ध तो अस्सी साल के होकर मरे। जरूर जराजीर्ण हो गए होंगे। महावीर भी अस्सी के पार होकर मरे। जरूर जराजीर्ण हो गए होंगे—नहीं तो मरते ही कैसे? आखिर मरने के पहले बुढ़ापा अनिवार्य कदम है। कृष्ण भी अस्सी के बाद मरे। लेकिन हमने इनकी सबकी प्रतिमाएं बनाई हैं युवावस्था की। कारण है। गहरा कारण है। काव्य है। प्रतीक है। बड़ा सूचक है। हम यह कह रहे हैं कि बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम जैसे लोग शरीर से ही बूढ़े होते हैं, भीतर से बूढ़े नहीं होते। उन्हें तो भीतर का शाश्वत यौवन अनुभव हो गया है। उन्होंने तो भीतर की ऊर्जा से, नित नवीन होती ऊर्जा से परिचय बांध लिया है। उनका गठबंधन तो वर्तमान से हो गया है। और वर्तमान सदा युवा है। वे समय के पार हो गए हैं। और समय के पार सब कुछ सदा ताजा है। कभी बासा नहीं होता। उस ताजगी की खबर देने के लिए बुद्ध को, कृष्ण को, राम को हमने युवा निरूपित किया है। हमने उनकी प्रतिमाएं युवावस्था की बनाई हैं।

कितने मंदिर हैं महावीर के! लेकिन सारी प्रतिमाएं युवावस्था की। ऐसे ये रहे होंगे, ऐसा नहीं है। मरते वक्त बूढ़े हुए होंगे। नहीं पकाए होंगे बाल धूप में तो भी तो बाल पके होंगे। अनुभव से सही, नहीं धूप से। शरीर जीर्ण—जर्जर हुआ होगा, झुर्रिया भी पड़ी होंगी। यह सब हुआ होगा। ये होना अनिवार्य है। शरीर किसी को क्षमा नहीं करता और शरीर किसी के लिए अपवाद नहीं है।

प्रकृति बड़ी साम्यवादी है। वह किसी पर भेद नहीं करती। वह किसी के लिए नियम नहीं तोड़ती। उसके नियम अखंड हैं, शाश्वत हैं, सदा वैसे हैं। छोटे के लिए बड़े के लिए; ज्ञानी के लिए, अज्ञानी के लिए; गरीब के लिए, धनी के लिए—इनकी तो बात ही छोड़ दो, अज्ञानी के लिए, बुद्धत्व को उपलब्ध ज्ञानी के लिए, उसके लिए भी प्रकृति के नियम भिन्न नहीं हैं। वही नियम लागू हैं।

और यह उचित भी है।

लेकिन भीतर बुद्ध का नाद शाश्वत नाद है। वह कभी जरा—जीर्ण नहीं होता। एस धम्मो सनंतनो। सनातन धर्म को उन्होंने पा लिया है। एस मग्गो विसुद्धिया। शुद्ध होने का ऐसा अमृत—पथ उन्होंने पा लिया है, जहां अशुद्धि अब प्रवेश नहीं करती। उन्होंने स्वभाव का अनुभव कर लिया है। और स्वभाव सदा युवा है।

बच्चे भविष्य में रहते हैं। अतीत तो बच्चों का कुछ होता ही नहीं जो पीछे लौटकर देखें। पीछे लौटकर देखने को कुछ होता ही नहीं। इसलिए तुम भी अगर याद करोगे, बहुत याद करोगे, तो पीछे ज्यादा—से—ज्यादा जा सकोगे तीन—चार साल की उम्र तक; उसके बाद पीछे नहीं जा सकोगे। क्योंकि तीन—चार साल की उम्र तक तुमने पीछे लौटकर देखा ही नहीं था, इसलिए हिसाब नहीं रखा है। तीन—चार साल की उम्र तक कोई पीछे लौटकर देखता ही नहीं—आगे देखने को इतना है, कौन पीछे लौटकर देखता है! बच्चे के सामने आगे द्वार पर द्वार खुलते चले जाते हैं। बच्चे भविष्यमुखी होते हैं।

और बच्चे ही नहीं, जो समाज नए होते हैं, वे भी भविष्यमुखी होते हैं—जैसे अमरीका। अभी बच्चा है। इसलिए भविष्यमुखी है। अभी उम्र ही कोई तीन सौ साल की है। अब तीन सौ साल की क्या गणना, भारत जैसे मुल्क के सामने, जो वैज्ञानिकों के हिसाब से कम—से—कम दस हजार साल पुरानी संस्कृति का है। और अगर वैज्ञानिकों को छोड़ दें और भारत के पंडितों की सुनें, तो वे तो कहते हैं कोई नब्बे हजार साल पुराना! लेकिन दस हजार साल तो पक्का ही समझो। दस हजार साल का पुराना, बूढ़ा भारत—तीन सौ साल की उम्र भी कोई उम्र है! अमरीका आगे की तरफ देखता है, चांदत्तारों की तरफ देखता है, आकाश की तरफ देखता है। भारत? भारत पीछे की तरफ देखता है। भारत का स्वर्णयुग हो चुका, सतयुग हो चुका, बीत चुका रामराज्य—सब हो चुका, भारत बूढ़ा हो गया है। सब श्रेष्ठ हो चुका, आगे देखने को कुछ भी नहीं है। आगे सिर्फ दुर्दिन है, दुर्दशा है। रोज हालत बिगड़ती जाती है। आगे से बचना चाहता है। आगे से बचने के लिए एक ही उपाय है कि पीछे की सोचता रहे। कुरेद—कुरेद कर पुरानी स्मृतियों का मजा लेता रहता है।…अब भी तुम बैठे देख रहे हो! हर साल वही रामलीला। तुमने कितनी दफा रामलीला देख ली! कुछ फर्क भी नहीं होता उस रामलीला में।

एक गांव में कुछ लोगों ने फर्क किया था, दंगा—फसाद हो गया। रीवा से खबर आई थी कि रीवा कालेज में लड़कों ने सोचा कि रामलीला—रामलीला होते—होते कितने दिन हो गए, कुछ इसमें नया जोड़ें! कुछ इसको आधुनिक करें! इसको नई शैली दें! तो झगड़ा—फसाद हो गया।

नई शैली क्या दोगे? नई शैली यह कि रामचंद्र जी टाई बांधे हुए! सूट—बूट पहने हुए! और जब सीता मैया आईं, ऊंची एड़ी की जूती पहने हुए, तो जनता एकदम खड़ी हो गई! अब यह बहुत हो गया! रामचंद्र जी टाई बांधें, यहां तक भी लोगों ने बर्दाश्त कर लिया था किसी तरह कि चलो ठीक है, एक मजाक है, चलेगा! मगर सीता मैया ऊंची एड़ी की जूती पहने हुए जब आईं, तो फिर जूते चल गए! फिर कुर्सियां टूट गईं। फिर रामलीला आगे नहीं बढ़ सकी, क्योंकि लोगों ने कहा अब पता नहीं आगे और क्या हो? जब शुरुआत यह है, तो आगे हालत खराब होने वाली है।

हम उसी रामलीला को देखते रहते हैं। वे ही राम, वही सीता का चोरी जाना, वही राम का जाकर युद्ध करना, वही सीता को वापस ले आना। दुनिया बदल गई, सब बदल गया, हमारी आंखें पीछे अटकी हैं।

एक गांव में रामलीला हो रही थी। युद्ध खतम हो गया, सीता वापस ले आई गईं, बस पुष्पक विमान पार बैठकर राम, सीता और लक्ष्मण वापस लौटने को हैं अयोध्या…अब पुष्पक विमान क्या? एक रस्सी में एक झूला—सा लटकाया हुआ है। मगर इसके पहले कि रामचंद्र जी चढ़ पाएं, कुछ भूल—चूक से खींचने वाले ने रस्सी खींच दी, झूला ऊपर उठ गया; उड़ान खटोला जा चुका, लक्ष्मण जी और रामचंद्र जी सीता मैया, तीनों ऊपर की तरफ देखते रह गए—अब क्या करें? गांव के छोटे—छोटे बच्चे थे जो ये बने थे, लक्ष्मण ने कहा: बड़े भैया, आपके पास टाइम टेबल अगर हो तो देखकर बताएं कि दूसरा विमान कब छूटेगा? टाइम टेबल! आखिर बच्चा तो आज का ही है! उसने सोचा कि जैसे रेलगाड़ी का टाइम टेबल होता है…एक गाड़ी छूट गई, कोई बात नहीं…तो अब यह पुष्पक विमान तो गया, अब दूसरा कब छूटेगा? कभी—कभी ऐसी छोटी—मोटी नई बातें हो जाती हैं अन्यथा तो राम—कथा वही—की—वही चलती रहती है, लोग देखते रहते हैं। लोग गुणगान करते रहते हैं। लोग अभी भी प्रतीक्षा करते हैं कि रामराज्य आ जाए!

हमारे पास भविष्य नहीं। अमरीका के पास अतीत नहीं।

बच्चों के साथ भी यही होता है, समाजों के साथ भी, सभ्यताओं के साथ भी, राष्ट्रों के साथ भी। बच्चे भविष्य में देखते हैं और बूढ़े अतीत में देखते हैं। बूढ़ा आदमी बैठकर अपनी आरामकुर्सी पर सोचा करता है: वे दिन जब वह डिप्टी कलेक्टर था! अहह! क्या दिन थे वे भी साहबियत के! जहां से निकल जाओ, वहीं नमस्कार—नमस्कार हो जाता था! सब याद आते हैं वे दिन, बड़े इत्र—सुगंध से भरे। सम्मान, सत्कार, डालियां सजी हुई आती थीं। आम के मौसम में आम चले आ रहे हैं। दिन थे मौज के! आगे देखे भी तो क्या? आगे देखने को कुछ है नहीं। आगे तो सब सन्नाटा है। मौत की पगध्वनि सुनाई पड़ रही है। मौत को देखना कौन चाहता है! पीछे की सोचता है कि क्या दिन थे! रुपए का बत्तीस सेर दूध मिलता था, सोलह सेर घी मिलता था, अहा!. ..अब फिर से स्वाद और चटखारे ले लेता है। दिल बाग—बाग हो जाता है। फिर सुगंध आने लगती है पुराने दिनों की। ऐसे अपने को भरमाए रखता है। बूढ़ा अतीत में जीता है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं: जिस दिन से तुम अतीत के संबंध में ज्यादा विचार करने लगो, समझ लेना कि बूढ़े हो गए। बुढ़ापे की यह मनोवैज्ञानिक परिभाषा है। जिस दिन से तुम्हें अतीत के ज्यादा विचार आने लगें और तुम पीछे की बातें करने लगो, कि वे दिन, अब क्या रखा है, अब दुनिया वह दुनिया न रही!

अमरीका का एक बहुत बड़ा न्यायशास्त्री पेरिस गया था। पचास साल पहले भी वे पेरिस आए थे, पति—पत्नी दोनों, हनीमून मनाने आए थे। पचास साल बाद एक जिज्ञासा फिर मन में उठी कि मरने के पहले एक बार पेरिस और देख लें। क्योंकि पेरिस में जो देखा था पचास साल पहले, फिर वैसा कहीं न देखने मिला! पचास साल बाद—बूढ़े हो गए हैं अब वे; पति अस्सी साल का है, पत्नी पचहत्तर साल की है; जिंदगी बह गई, गंगा की धार में बहुत पानी बह गया है; पचास साल लंबा वक्त होता है—पचास साल बाद पेरिस आए, बहुत चौंका बूढ़ा! उसने अपनी पत्नी से कहा कि अब पेरिस वैसा पेरिस नहीं मालूम होता! वह बात नहीं रही अब! पत्नी हंसने लगी और उसने कहा, पेरिस तो अब भी पेरिस है—जरा नए—नए जोड़ों की नजरों से देखो—हम बूढ़े हो गए हैं। अब हम हम नहीं हैं। पेरिस तो अब भी पेरिस है। जो सुहागरात मनाने आए हैं, उनसे पूछो। अब हम पचास साल जीकर आए हैं, हमारे पास कुछ भी नहीं बचा आगे जीने को, अब जीने को भी क्या है?

मगर फिर भी उन्होंने कोशिश की कि एक बार फिर से पुनरुज्जीवित कर लें। उसी होटल में ठहरे जिस होटल में पचास साल पहले ठहरे थे—उसी कमरे को मांगा कि चाहे जो कीमत लगे। खाली करवाना पड़ा, दूसरा यात्री उसमें ठहरा था, लेकिन उसको रिश्वत देकर खाली करवाया कि हम आए ही इसीलिए हैं, उसी कमरे में ठहरेंगे। उसी खिड़की से दृश्य देखेंगे। वही भोजन, वही समय। रात जब दोनों सोने के करीब आए तो पत्नी ने कहा कि और तुम भूल गए; उस रात तुमने मुझे किस तरह आलिंगनबद्ध करके चूमा था? कमरा तो वही है, चूमोगे नहीं? उसने कहा, अब नहीं मानती तो ठीक है! अभी आया। उसने कहा, कहां जाते हो? तो उसने कहा कि बाथरूम। बाथरूम किसलिए जाते हो? उसने कहा, दांत तो ले आऊं? दांत तो बाथरूम में रख आया हूं। अब पचास साल बीत गए, अब दांत भी अपने न रहे, अब दांत भी सब उधार हो गए, अब ये पोपले सज्जन दांत लगाकर फिर चुंबन लेने जा रहे हैं! यह चुंबन वही होगा? यह कैसे वही हो सकता है! यह सिर्फ अभिनय होगा। थोथा, बासा, मुर्दा। लेकिन लोग अतीत में जीने की चेष्टा करते हैं।

बूढ़े अतीत में जीते हैं।

युवावस्था का मनोवैज्ञानिक अर्थ होता है: वर्तमान में जीना। शुद्ध वर्तमान में जीना। अगर तुम ठीक से समझो तो इसीलिए हमने बुद्ध—महावीर की युवा मूर्तियां बनाई हैं क्योंकि वे शुद्ध वर्तमान में जिए। युवा जिनको हम कहते हैं, वे भी वहां शुद्ध वर्तमान में जीते हैं? शुद्ध युवा सिवाय बुद्ध—महावीर को कोई होता नहीं। हमारा युवक भी पीछे देखता है। वह भी कहता है, बचपन के दिन बड़े सुंदर थे। हमारा युवक भी भविष्य में देखता है। वह सोचता है, अगले साल बढ़ती होगी, बड़ी नौकरी मिलेगी। हमारा युवक भी कहां युवक होता है? ठीक—ठीक आध्यात्मिक अर्थों में युवा नहीं होता। कटा—कटा होता है। आधा अतीत, आधा भविष्य। थोड़ा पीछे, थोड़ा आगे। बंटा—बंटा होता है। खंडित होता है। इसलिए बेचैन भी होता है। उसमें तनाव भी होता है बहुत।

बुद्ध जैसे व्यक्ति, कबीर—नानक—पलटू जैसे व्यक्ति शुद्ध वर्तमान में जीते हैं। न कोई अतीत है, न पीछे की कोई याद है। धूल—धवांस इकट्ठी ही नहीं करते ऐसे लोग। न कोई भविष्य है, न भविष्य की कोई चिंता है। कूड़ा—करकट में रस ही नहीं लेते ऐसे लोग। यह क्षण, बस यह शुद्ध क्षण पर्याप्त है। इस क्षण के आर—पार कुछ भी नहीं है। इस क्षण में डुबकी मारते हैं—वही समाधि ही। शुद्ध वर्तमान में डूब जाना समाधि है। अतीत में रहना—मन में रहना; भविष्य में रहना—मन में रहना। ये मन के रहने के ढंग हैं—अतीत और भविष्य। वर्तमान में, शुद्ध वर्तमान में डूब जाना…जरा एक क्षण को अनुभव करो! जैसे बस यही क्षण है। मैं हूं, तुम हो, ये वृक्ष हैं, ये पक्षियों की चहचहाहट है, ये सन्नाटा है; बस यह क्षणमात्र, अपनी परिपूर्ण शुद्धता में—न पीछे की कोई याद है, न आगे का कोई हिसाब है, स्मृति छूट गई, फिर इस अंतराल में शाश्वत की प्रतीति होने लगेगी। यही अंतराल समाधि है।

नहीं रामकृष्ण, चिंता न करो! अभी भी भीतर तो वही जीवनधारा है, जो कल थी और कल रहेगी। दौड़ नहीं सकते अब पुराने ढंग से, नाच नहीं सकते अब पुराने ढंग से—चिंता न करो! बैठ कर ही मस्त हुआ जा सकता है। वर्तमान में हो जाओ, मस्त हो जाओगे। वर्तमान में हो जाओ, बेहोश भी हो जाओगे, होश में भी आ जाओगे। वही समाधि है।

 

तीसरा प्रश्न:

 

भगवान, हमें तो परमात्मा की कोई अनुभूति नहीं। हमारे लिए तो आप ही भगवान हैं। और प्रश्न पूछने के बहाने जब भी हम अपने भाव आपके चरणों में निवेदित करते हैं—जैसे कि परसों मा वीणा ने पूछा था—तो आप जिस कुशलता से बाजू हट जाते हो और परमात्मा की ओर इशारा कर देते हो कि पूछने वाला भी चौंक जाता है! हम सोचते हैं कि हमारा सीधा निवेदन आपके चरणों में था और आप अंगुली उधर उठा देते हो। ऐसे वक्त ही हम इस पंक्ति का अर्थ और घना होकर समझ पाते हैं: बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताये।

 

त्य निरंजन, परमात्मा को तुम नहीं जानते, मैं तो जानता हूं। तुम कितने ही मेरे चरण पकड़ो, मैं तो तुम्हें उसके चरण ही पकड़ाऊंगा। क्योंकि मेरे चरण आज हैं, कल नहीं होंगे। वे तो मिट्टी के हैं। मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। मैं तुम्हें वे चरण पकड़ाता हूं जो चिन्मय हैं। वे कभी नहीं मिटेंगे। तुम सदा उन चरणों में डूबे रहोगे।

तुम्हें मुझसे प्रेम है, तुम्हें मुझसे लगाव है, तुम्हारी गहन श्रद्धा मेरी तरफ है, लेकिन मैं आज हूं और कल नहीं हो जाऊंगा। फिर तुम क्या करोगे? फिर तुम पत्थर की मूर्ति बना लोगे। फिर तुम पत्थर की मूर्ति की पूजा करोगे—यही तो होता रहा। इसके पहले कि यह भूल हो, मैं बार—बार तुम्हें उस तरफ इशारा कर देना चाहता हूं, ताकि मेरे न होने पर भी तुम्हारा और परमात्मा का संबंध न टूटे। मैं बीच में खड़ा नहीं होना चाहता, टूट जाना चाहता हूं। उतनी ही देर खड़ा होना चाहता हूं जितनी देर में तुम्हारा संबंध परमात्मा से हो जाए, बस। उससे रत्ती भर ज्यादा नहीं। उससे क्षणभर ज्यादा नहीं। क्योंकि एक क्षण की देरी भी खतरनाक हो सकती है।

अभी वैज्ञानिकों ने एक खोज की है, वह समझने जैसी है।

एक वैज्ञानिक मुर्गियों पर प्रयोग कर रहा था। आकस्मिक इस बात का उसे पता चल गया। अकसर विज्ञान की बड़ी—से—बड़ी खोजें आकस्मिक होती हैं। होंगी ही। क्योंकि हम तो जो खोज करते हैं, वह पुराने से सोच—सोचकर करते हैं। और पुराने से बंधे रहते हैं तो नए की खोज कैसे हो? नए की खोज तो आकस्मिक होती है, अचानक होती है। हमारे हिसाब से नहीं होती। तो वह तो किसी और काम में लगा था, वह तो मुर्गियों के जीवन—व्यवहार का अध्ययन कर रहा था, लेकिन एक दिन एक अचानक बात हो गई। मुर्गी अंडा से रही थी। वह मुर्गी का अध्ययन करता था कि मुर्गी कैसा व्यवहार करती है, उसने मुर्गी को उठा कर अंडे से अलग कर दिया।

वह देखना चाहता था कि वह क्रोधित होती है, नाराज होती है, झगड़ने को तैयार होती है, क्या करती है? जैसे ही उसने मुर्गी को अलग किया, संयोग की बात थी, बस संयोग की बात कि अंडा फूट गया और चूजा बाहर आ गया। और जैसा कि हर अंडे से चूजा बाहर आने के बाद अपनी मां की तलाश करता है…वह बिलकुल नैसर्गिक है। जैसे छोटा बच्चा मां का स्तन खोजने लगता है। जैसे कि मां के पेट से ही दूध पीने की कला सीखकर आता हो। अगर न आता हो तो हम सिखा भी न सकें। बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। कोई बच्चा अगर मां के पेट से पैदा हो और दूध पीने की कला सीखकर न आया हो, नैसर्गिक, तो हम क्या करेंगे? हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे! न वह भाषा समझे, न हम उसे दंड दे सकते हैं, न पुरस्कार दे सकते हैं; हमारे शिक्षाशास्त्री सिर पीट लेंगे कि अब करना क्या? इसको समझाओ कैसे कि दूध पीओ? लेकिन कुछ नैसर्गिक अंतः प्रेरणा से ओंठ खुल जाते हैं। वह मां के स्तन से दूध पीने लगता है, चूसने लगता है। ऐसे ही मुर्गी का अंडा निकलता है, फूटता है।

चूजा बाहर आया, वह मां की तलाश करने लगा। मां तो मिली नहीं, खड़ा था यह वैज्ञानिक, इसका जूता मिल गया—बस इसका जूता पास था, उसने जूते पर ही चोंच मारी। और एक बड़ी अपूर्व घटना घट गई। बस वह जूते के ही पीछे घूमने लगा। जहां वैज्ञानिक जाए, वह जूते के पीछे ही जाए। जूते को चोंच मारे। जूते से उसका लगाव ऐसा कि वैज्ञानिक बहुत हैरान हुआ…फिर उसने बहुत प्रयोग किए और तब यह पता चला कि जो पहले क्षण में घटना घटती है, उसकी इंप्रिंटिंग हो जाती है। उसकी एक छाप पड़ जाती है जो जीवन भर साथ रहती है। हम सोचते हैं कि वह जो बच्चा है, मां के पीछे जा रहा है। मां के पीछे नहीं जा रहा है। क्योंकि यह तो चूजा था, यह मां के पीछे गया ही नहीं। मां की फिक्र ही न करे! वैज्ञानिक बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उसको खिलाना पड़े हाथ से दाना। क्योंकि उसके लिए तो जूता ही मां हो गया। उसकी इंप्रिंटिंग बदल गई। उस पर तो जूते की छाप पड़ गई। वह जूते के साथ ही उसका सारा लगाव हो गया।

और तब एक और मुश्किल हुई। जब वह जवान हुआ तो वह किसी मुर्गी के पीछे न जाए। मुर्गियों से दोस्ती ही न करे। न प्रेम—चिट्ठियां लिखे, न बांग दे, न कलंगी निकालकर अकड़कर चले—वह मुर्गियों में उसे कोई रस ही नहीं! हां, अगर जूता दिखाई पड़ जाए उसे, तो फिर क्या कहने! एकदम उसकी कलंगी अकड़ जाए, बांग दे जोर से, अकड़ कर चले। क्योंकि बच्चे की पहली पहचान स्त्री से तो अपने मां के द्वारा होती है। इसलिए जो बच्चे मां के प्रेम से वंचित रह जाते हैं, वे अपनी पत्नी को भी प्रेम नहीं कर पाते। असंभव है फिर। शुरुआत से ही गलती हो गई। शुरुआत से ही भूल हो गई।

और अगर हम थोड़ा वैज्ञानिक विश्लेषण में गहरे जाएं तो हमें समझना होगा कि आज नहीं कल, जब दुनिया थोड़ी बेहतर हो, थोड़ी ज्यादा समझदार हो, तो जिस तरह मां बेटे को पालती है, उस तरह पिता को बेटी को पालना चाहिए। नहीं तो स्त्रियां नुकसान में रह जाती हैं। बेटा तो मां को प्रेम करके स्त्री का अनुभव ले रहा है; तो आज नहीं कल वह किसी स्त्री के प्रेम में पड़ सकेगा। किसी स्त्री को प्रेम कर सकेगा। इसलिए पुरुष प्रेम में ज्यादा आतुर होते हैं, उत्सुक होते हैं। स्त्रियां प्रेम आदि में ज्यादा उत्सुक नहीं होतीं। उनकी उत्सुकता गहना—साड़ी, हीरे—जवाहरात इत्यादि में ज्यादा होती है। पुरुष के साथ तो वह किसी तरह गुजारा करती हैं। क्योंकि हीरे—जवाहरात और साड़ी इत्यादि और कहां से आएगी? पुरुष तो एक तरह का सेवक है। और अगर वे पुरुष को प्रेम भी देती हैं तो इसी बदले में, यही सौदा है। इसलिए जिस दिन पुरुष को पत्नी का प्रेम चाहिए, उस दिन वह नई साड़ी खरीद लाता है। आईसक्रीम खरीद लाता है। फूलों का गुच्छा ले आता है। उस दिन स्त्री प्रसन्न है। और जिस दिन स्त्री को पुरुष में कोई रस नहीं है, क्योंकि वह न कुछ लाया है, न तनख्वाह का पता है महीना हो गया, न नई साड़ी खरीदी है, न कोई नया गहना…।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र से कह रहा था कि मैं यह समझ ही नहीं पाता कि सरकार संतति—नियमन का इतना प्रचार क्यों करती है? दो या तीन, बस। जगह—जगह लिख रखा है: दो या तीन, बस। छोटा परिवार, सुखी परिवार। मुफ्त बांटती है साधन संतति—नियमन के। फिजूल की बकवास है! मैं सरल तरकीब जानता हूं, मेरी पत्नी सरल तरकीब जानती है। उसके मित्र ने पूछा, वह क्या तरकीब है? उसने कहा, तरकीब सीधी है, कि वह एकदम करवट ले लेती है और कहती है: सिर में दर्द है। जैसे ही मैंने उसको देखा, कि वह कहती है: मेरे सिर में दर्द है। बच्चे पैदा भी कहां होंगे? कैसे होंगे? पत्नी के सिर में दर्द है! वह तो कंबल ओढ़कर एकदम सो जाती है, सिर में दर्द है। मुल्ला कह रहा था कि सरकार को हर स्त्री को समझाना चाहिए कि जब भी पति आए, एकदम से सिर में दर्द है, कंबल ओढ़कर सो गए। न संतति—नियमन की जरूरत, न निरोध की जरूरत, न और तरह के उपद्रवों की जरूरत। सीधा काम, पुरानी तरकीब! जांची—परखी तरकीब। सदियों की पहचानी हुई तरकीब।

स्त्री को उतना रस नहीं मालूम होता।

मेरे पास न—मालूम कितनी स्त्रियां आकर यह कहती हैं कि हम थक गए हैं; यह बकवास प्रेम की कब बंद होगी? यह कामवासना से कैसे छुटकारा होगा? पति का नहीं हो रहा है। कितनी स्त्रियां मुझे आकर कहती हैं कि यह पति में कब समझ आएगी? इनका रस जाता ही नहीं। इसका कारण है। पति को पाला है मां ने, इसलिए उसे स्त्री में रस है। और लड़की को भी पाला है मां ने, इसलिए प्रत्येक स्त्री को दूसरी स्त्री के साथ वैमनस्य है, विरोध है, ईष्या है। और पुरुष के साथ कोई लगाव पैदा होने का पहला क्षण ही नहीं आ पाया। वह पहली इंप्रिंटिंग, पहला प्रभाव, वह छाप नहीं पड़ पाई।

अगर हम मनुष्य को वैज्ञानिक ढंग से कभी व्यवस्थित करें तो पिता को ज्यादा—से—ज्यादा मौका अपनी बेटियों के लिए देना चाहिए। जितना समय मिल सके। लेकिन हालतें उलटी हैं। अगर बेटा मां के गले झूमा रहे तो कोई अड़चन नहीं, लेकिन अगर बेटी पिता के गले झूम जाए तो मां ही एतराज करती है। मां बर्दाश्त नहीं करती कि बेटी में पिता ज्यादा रस ले। बेटी में रस लेते हुए मां कोर् ईष्या पैदा होती है। बेटी से भी ईष्या पैदा हो जाती है। इस तरह की मूढ़ता प्रचलित है। इस कारण दुनिया में स्त्रियां पुरुषों को ठीक से प्रेम नहीं कर पातीं। और चूंकि स्त्रियां प्रेम नहीं कर पातीं पुरुषों को ठीक से, पुरुषों का प्रेम भी अधकचरा रह जाता है, क्योंकि दूसरी तरफ से ठीक—ठीक उत्तर ही नहीं मिलता। और जहां प्रेम अधकचरा रह जाए, वहां प्रार्थना कैसे पूरी हो? जहां प्रेम का जीवन ही न जीया जा सके वहां परमात्मा की स्मृति और सुध कैसे आए?

यहां लोग परमात्मा को याद करते हैं असफलता के कारण। और मैं चाहूंगा कि तुम परमात्मा को याद करो सफलता के कारण। यहां लोग परमात्मा को याद करते हैं कि जीवन में सब गड़बड़ हो गया। मैं चाहूंगा कि तुम परमात्मा को याद करो कि जीवन एक अहोभाग्य था, कि जीवन एक सुअवसर था, एक वरदान था, एक आशीष था परमात्मा का। तब निश्चित ही तुम्हारे धन्यवाद का स्वर दूसरा होगा। तब तुम सच में ही कृतज्ञ—भाव से उसके चरणों में झुकोगे।

तो मैं उतनी ही देर तुम्हारे बीच रहना चाहता हूं जितनी देर में तुम्हारा संबंध परमात्मा से जुड़ा दूं। एक क्षण ज्यादा नहीं। क्योंकि एक क्षण अगर ज्यादा रह गया, इंप्रिंटिंग हो जाती है। वही हो गया। जैनियों की छाती पर महावीर की इंप्रिंटिंग हो गई। मुसलमानों की छाती पर मुहम्मद की इंप्रिंटिंग हो गई है। ईसाइयों की छाती पर जीसस की तस्वीर टंग गई। और यह तो आड़ हो गई। मैं तुम्हारे लिए आड़ नहीं बनना चाहता।

सत्य निरंजन, तुम्हारा प्रश्न तो बिलकुल ठीक है; तुमने जांचा ठीक; तुम परखे ठीक कि तुम पूछते हो कुछ, मैं जवाब देता हूं कुछ। बात ठीक है। वीणा भी तुमसे राजी होगी। वीणा ने भी पूछा था, उसका इशारा मेरी ही तरफ था—वह मुझे भी पता है। इतनी तो भाषा मैं भी समझ लेता हूं। लेकिन मैं धीरे—धीरे इधर से, उधर से परेक्षरूपेण धक्के दे—देकर तुम्हें फिसलाता हूं परमात्मा की तरफ। तुम मुझसे न जकड़ जाना। हां, मैं तुम्हारे लिए इशारा बन जाऊं, बस इतना काफी। जाना तो परमात्मा में है। जाना तो उस परम सागर में है। मैं तो धन्यभागी हूं कि तुम्हें वहां तक पहुंचा पाऊं। मेरा आनंद इतना ही है कि तुम परमात्मा से जुड़ जाओ और मुझे भूल जाओ। अगर न भूल सको, तो इसीलिए याद रखना कि मैंने तुम्हें परमात्मा से जुड़ाया—और किसी कारण नहीं! कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा की जगह मैं बैठ जाऊं। तो तुम अटक जाओगे। तो तुम भटक जाओगे।

इसलिए सत्य निरंजन, जानते हुए भी कि तुम अपना निवेदन मेरी तरफ करते हो, मैं तुम्हारे निवेदन को परमात्मा की तरफ मोड़ देता हूं। मैं तुम्हारे सब निवेदन उस तरफ मोड़ना चाहता हूं। तुम्हारी आंखें, तुम्हारे हाथ, तुम्हारे प्राण, सब उसे टटोलने लगें। मेरी सन्निधि में तुम्हें उसकी याद आ जाए तो बस मेरा काम पूरा हो गया। मेरी सन्निधि में, मेरे संग—साथ तुम्हें उसका रस लग जाए तो बहुत; संक्रामक हो जाए परमात्मा तो बहुत।

जब नैश प्रकृति के अंचल में

मुसका उठते हो मंद—मंद

हो जाता है क्षण—भर मुखरित

मेरा अलसित जीवन अमंद,

करते हो आंख—मिचौनी—सी

दृग—द्वार खोल, कर पुनः बंद

बज उठता है निस्पंद पड़ी, मेरी वीणा का विरह—गीत

मेरे पावन, मेरे पुनीत।

 

जब सज मुक्ता—मालाओं से

कर उठते हो झिलमिल—झिलमिल

चांदी के सूक्ष्म—सितारों—सी

रश्मियां विरल रिलमिल—रिलमिल

करते हो कुछ संकेत मात्र

अगणित दृग—सैनों से हिलमिलख

जग—सा जाता है क्षण—भर को विस्मृति में सोया—सा अतीत

मेरे पावन, मेरे पुनीत।

 

जब झूम चूम लेते हो तुम

वारिधि के दृग की मदिर कोर,

लहरा उठता है बेसुध—सा

छल छपक—छपक हिल—हिल हिलोर

देते तुम अपने अधरों को

उसके नव—मधु में बोर बोर

विस्मित—सा देखा करता हूं तब मैं अपनी ही हार—जीत

मेरे पावन, मेरे पुनीत।

 

जब ऊषा के वातायन से

तुम देखा करते उझक झांक,

जग तृणत्तरु पर मृदु—कुसुमों पर

लेता सुंदर छवि आंक—आंक

भू पर विलसित हो जाता है

कल्पित स्वप्नों का स्वर्ण—लोक

अनजाने में हो जाते हैं मेरे कुछ क्षण सुख से व्यतीत,

मेरे पावन, मेरे पुनीत।

तुम्हें उस परम पावन, परम पुनीत का स्मरण दिलाना चाहता हूं। इतना, इतना कि सुबह सूरज ऊगे तो वही ऊगता दिखाई पड़े; रात तारों से आकाश भर जाए तो उसी से भरा हुआ मालूम पड़े। परमात्मा मुझमें ही तुम्हें दिखाई पड़े और कहीं दिखाई न पड़े, तो मैं तुम्हारा मित्र न रहा, शत्रु हो गया। मुझमें दिखाई पड़े, यह तो पहला पाठ। गुरु में दिखाई पड़े, यह पहला पाठ। अंतिम पाठ नहीं है यह। यह तो बस क, ख, ग। फिर और आगे जाना है! फिर धीरे—धीरे चांदत्तारों में, सूरज में, पहाड़ों में, नदियों में, वृक्षों में, पक्षियों में, पशुओं में, मनुष्यों में—सबसे आखिर में कह रहा हूं: मनुष्यों में। क्योंकि वह सबसे अड़चन की बात है। पड़ोसी में जिस दिन तुम्हें परमात्मा दिख जाए, समझना कि सिद्ध हो गए। सिद्धपुरुष हो गए।

जीसस ने कहा है दो वचन। अपने शत्रु को अपनी ही तरह प्रेम करो। और एक और वचन कि अपने पड़ोसी को भी अपनी ही तरह प्रेम करो। एक ईसाई मिशनरी मुझसे बात कर रहा था। उसने पूछा कि शत्रु को प्रेम करो, यह तो समझ में आता है, मगर जीसस ने यह क्यों विशिष्ट रूप से और कहा कि अपने पड़ोसी को भी अपनी तरह प्रेम करो? तो मैंने कहा, उसका कारण है। कि शत्रु और पड़ोसी, दोनों एक ही आदमी के नाम हैं। पड़ोसी ही शत्रु होते हैं। और कौन शत्रु होगा? इसलिए जीसस ने सोचा होगा कि शत्रु से प्रेम करो, इसमें कहीं भ्रांति न रह जाए। तो पीछे से और एक शर्त जोड़ दी कि पड़ोसी से भी अपनी ही तरह प्रेम करो। और ध्यान रखना, पहले जीसस ने कहा: शत्रु से। शत्रु से भी प्रेम करना आसान है। मगर पड़ोसी से? बहुत मुश्किल! उससे तो प्रतिस्पर्धा है। उससे प्रेम? उससे तो ईष्या है। उससे प्रेम? उससे तो छाती जलती है। उससे प्रेम?

इसलिए मैं मनुष्य को सबसे अंत में ले रहा हूं।

फैलाओ प्रेम को! जो प्रेम तुम्हारा मेरे प्रति है, सत्य निरंजन, वह प्रेम तुम्हारा समस्त के प्रति हो जाए, तो प्रार्थना बन गई, आराधना बन गई, पूजन हो गया। तुम फिर जान सकोगे।

 

मेरे पावन, मेरे पुनीत

जब झूम चूम लेते हो तुम

वारिधि के दृग की मदिर कोर,

लहरा उठता है बेसुध—सा

छल छपक—छपक हिल—हिल हिलोर

देते तुम अपने अधरों को

उसके नव—मधु में बोर बोर

विस्मिता—सा देखा करता हूं तब मैं अपनी ही हार—जीत

मेरे पावन, मेरे पुनीत।

 

जब ऊषा के वातायन से

तुम देखा करते उलझ झांक,

जब तृणत्तरु पर मृदु—कुसुमों पर

लेता सुंदर छवि आकं—आकं

भू पर विलसित हो जाता है

कल्पित स्वप्नों का स्वर्ण लोक

अनजाने में हो जाते हैं मेरे कुछ क्षण सुख से व्यतीत,

मेरे पावन, मेरे पुनीत।

 

आज इतना ही।

 

 

 


Filed under: सपना यह संसार--(पलटू वाणी)
Viewing all 1170 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>