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गुरू प्रताप साध की संगति–(प्रवचन–4)

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मन के आँगन से साक्षी के आकाश तक—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 24 मई, 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—भगवान! आप विश्वास को सतही और गलत कहते हैं। आप कहते हैं कि सत्य को मानना नहीं, जानना है। लेकिन मनस्विद कहते हैं कि मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है। इस दृष्टि से क्या साधना में विचार और विश्वास का उपयोग किया जा सकता है?

2—भगवान! मेरी पत्नी मुझे संन्यास लेने से रोक रही है, मैं क्या करूं?  

3—भगवान! मैं अपने मन के शैतान से संघर्ष का सतत् अभ्यास कर रहा हूं, फिर भी सफलता क्यों नहीं मिलती?

पहला प्रश्न :

 

भगवान! आप विश्वास को सतही और गलत कहते हैं। आप कहते हैं कि सत्य को मानना नहीं, जानना है। लेकिन मनस्विद कहते हैं कि मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है। इस दृष्टि से क्या साधना में विचार और विश्वास का उपयोग किया जा सकता है?

नंद मैत्रेय! मनस्विद जो कहते हैं, ठीक ही कहते हैं और वही खतरा है। मनुष्य जैसा विचार करेगा वैसा ही हो जाएगा लेकिन ऊपर—ऊपर ही, आचरण में ही; अंतस् में नहीं, व्यवहार में; व्यक्तित्व में नहीं । आधारशिला इतनी आसानी से नहीं बदलती। जैसे तुमने किसी सम्मोहनविद् को प्रयोग करते देखा हो, वह किसी पुरुष को सम्मोहित अवस्था में कह दे कि तुम स्त्री हो तो वह पुरुष स्त्री की तरह चलने लगता है, लेकिन इससे स्त्री नहीं हो जाता; रहता तो पुरुष ही है लेकिन एक भ्रांति का आवरण छा जाता है।

अगर कोई व्यक्ति निरंतर किसी बात को अपने ऊपर आरोपित करता रहे तो वह आत्मसम्मोहन है, आटो—हिप्नोसिस है। उसे भी लगेगा वैसा ही हो गया, दूसरों को भी लगेगा वैसा ही हो गया। दूसरों को तो स्वभावतः लगेगा क्योंकि दूसरे केवल तुम्हारे बहिरंग को ही देख सकते हैं, तुम्हारे अंतरंग को तो केवल तुम ही देख सकते हो। लेकिन भीतर अगर कोई ज़रा झांकेगा तो पाएगा ऊपर—ऊपर सब बदल गया, सब रंग ऊपर—ऊपर है; और भीतर तो जो था, जैसा था वैसा का वैसा है; उसमें अंतर नहीं पड़ता है।

विचार आत्मा को रूपांतरित नहीं करते हैं, न कर सकते हैं। विचार की सामर्थ्य क्या है? विचार की सामर्थ्य आत्मा से बड़ी नहीं है। लहरें कहीं सागर को रूपांतरित कर सकती हैं? हां, सागर रूपांतरित हो तो लहरें रूपांतरित हो जाती हैं। विचार तो तरंगे हैं तुम्हारे अनंत चैतन्य के सागर की, बस लहरें हैं——ऊपर—ऊपर, इनको तुम रंग भी डालो, इनको तुम बदल भी डालो, तो भी तुम्हारा जीवन—अस्तित्व वैसा का वैसा रहेगा जैसा था। हां, एक भ्रांति जरूर पैदा हो जाएगी, और भयंकर भ्रांति पैदा हो सकती है, और भ्रांति महंगी चीज है, बहुत महंगा सौदा है क्योंकि तुम भ्रांति में जीओगे और जीवन हाथ से खिसकता चला जाएगा।

कोई व्यक्ति अभ्यास करे शांत होने का और निरंतर अभ्यास करे, कोई भी अवस्था में अशांति को प्रगट न होने दे——कोई गाली भी दे तो पी जाए, पत्थर आएं सह जाए, अपमान हो, अपने को अछूता रखे; भीतर तो तिलमिलाहट होगी मगर उसे बाहर न आने दे; ऐसा साधता रहे, अशांति के किसी भी अवसर को अशांति पैदा न करने दे और जहां—जहां शांति का कोई अवसर मिले वहां शांति को प्रगट करे; कम—से—कम अभिनय करे, तो धीरे—धीरे, केवल समय की बात है, शांति उसका अभ्यास हो जाएगी। और उस अभ्यास से सबसे बड़ा खतरा यही है कि उसे भ्रांति होगी कि मैं शांत हो गया।

एक गांव में एक बहुत अशांत और बहुत क्रोधी व्यक्ति था। इतना क्रोधी, इतना अशांत कि गांव ने ऐसा व्यक्ति नहीं जाना था। पूरा गांव उससे पीड़ित था। दुष्ट था, शक्तिशाली भी था, धनी भी था। क्रोध में जो न कर गुजरे… एक दफे घर को ही उसने अपने आग लगा दी। और एक बार अपनी पत्नी को धक्का देकर कुएं में गिरा दिया। पत्नी की मृत्यु हो गयी। उसी समय गांव में एक जैन मुनि आए थे, दिगंबर जैन मुनि। पत्नी की मृत्यु ने उसे भी झकझोर दिया, बड़ा वैराग्य उदय हुआ। जाकर जैन मुनि के चरणों में सिर रख दिया और कहा कि मुझे भी दीक्षा दें, मैं मुनि होना चाहता हूं। हो गया बहुत, देख लिया संसार बहुत, दुख है, पाप ही पाप है, इस गर्हित ग१६७ से मुझे उबारो!

दिगंबर जैन मुनि होने की तो सीढ़ियां हैं—— पहले कोई ब्रह्मचारी होता है फिर कोई छुल्लक होता है, फिर एलक… ऐसी सीढ़ियां चढ़ते—चढ़ते कोई नग्न दिगंबर अवस्था तक पहुंचता है। लेकिन उस आदमी ने कहा कि नहीं, मैं तो अभी, इसी वक्त मुनि होने को तैयार हूं।

मुनि भी चमत्कृत हुए——ऐसा संकल्प, ऐसी दृढ़ता! यद्यपि वे समझ न पाए कि न तो यह संकल्प है, न यह दृढ़ता है; यह वही पुराना क्रोधी स्वभाव है, जो क्षण में पत्नी को कुएं में ढकेल दे, वह क्षण में अपने को भी मुनित्व में ढकेल सकता है। जो घर में आग लगा दे, ज़रा से क्रोध में, वह अपनी जिंदगी में भी आग लगा सकता है। लेकिन मुनि तो बहुत आह्लादित हुए, उन्होंने तत्क्षण उसे दीक्षा दी। और कहा, बहुत लोग आते हैं, बहुत खोजी आते हैं मगर तुम जैसा खोजी नहीं । और चूंकि तुमने क्रोध के जीवन का परित्याग किया है, तुम्हें मैं नाम देता हूं—— मुनि शांतिनाथ।

शांतिनाथ की ख्याति बहुत फैली क्योंकि दूसरे मुनि अगर दिन में एक बार आहार करते तो शांतिनाथ दो दिन में एक बार आहार करते। दूसरे मुनि अगर सीधे—सपाट रास्तों पर चलते तो शांतिनाथ इरछे—तिरछे, कंकड़—पत्थरों, कांटों से भरे रास्तों पर चलते। दूसरे मुनि अगर वृक्षों की छाया में बैठते तो शांतिनाथ सूरज के नीचे, जलती हुई आग बरसती हो, वहां खड़े होते। सर्दी के दिन होते तो दूसरे मुनि घास—फूस को ओढ़कर सो रहते मगर शांतिनाथ खुले आकाश के नीचे, नग्न पड़े रहते। ख्याति बढ़ने लगी, लेकिन इस सबके पीछे वही क्रोधी स्वभाव था, वही अहंकारी स्वभाव था। क्योंकि क्रोध अहंकार की छाया है, क्रोध अहंकार की ही परिणति है——जितना अहंकार होता है, उतना ही क्रोध होता है। अब क्रोध ने नया रूप लिया था——तपस्वी का, तपश्चर्या का, पुण्य का। अहंकार ने अब नए आभूषण पहने थे——दिगंबरत्व के, नग्नता के, त्याग के, व्रत के, नियम के।

कल ही भीखा ने कहा न—— कि करो त्याग, करो तपश्चर्या, करो दान, करो नियम, करो व्रत, कुछ भी न होगा। अगर अहंकार न मरे तो कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि अहंकार इन सबका अपशोषण कर लेता है। अहंकार इतना कुशल है कि श्रेष्ठतम वस्तु को भी पचा जाता है। और यह तो शुद्ध अहंकारी आदमी था। इसकी ख्याति फैलती चली गयी, फैलती चली गयी। दूर—दूर से इसे निमंत्रण आने लगे।

वर्षो बाद मुनि शांतिनाथ दिल्ली में विराजमान थे। उनके गांव का एक युवक जो उनके साथ ही पढ़ा था, उनके साथ ही बड़ा हुआ था, उनके दर्शन को आया। देखते ही शांतिनाथ उसे पहचान तो गए, लेकिन क्या फहचानना दो कौड़ी के इस आदमी को! न पहचानते यह सवाल ही न था, वर्षो साथ थे, लंगोटिया यार थे, लड़े थे, झगड़े थे, दोस्ती की थी, साथ—साथ वर्षो जिए थे। मित्र ने देख तो लिया कि पहचान गए हैं मगर नहीं पहचानना चाहते हैं। क्योंकि कहां अब मुनि शांतिनाथ और कहां तुम संसारी, जमीन—आसमान का फर्क हो गया; कहां तुम नारकीय और कहां वे मोक्ष में विराजमान! तुम्हें पहचानें, यह भी अपमानजनक है; कभी तुमसे कोई संबंध रहा, यह भी दीनता प्रगट करेगा तो मुंह फेर लिया, औरों से बात करने लगे।

वह आदमी आया था बड़े भाव से; यह ढंग देखा तो ख्याल उठा कि कुछ फर्क हुआ नहीं, बात वहीं की वहीं है। नग्नता क्या करेगी? तपश्चर्या क्या करेगी? ऊपर से आरोपित आचरण क्या करेगा? आत्मा वही की वही है। उसने परीक्षा के लिए पूछा कि महाराज, क्या मैं आपका नाम पूछ सकता हूं?

शांतिनाथ तो एकदम आगबबूला हो गए, बाहर नहीं आयी आग, अभ्यास काफी था, मगर भीतर तो एक लपट आ गयी। भली—भांति पता है इस आदमी को कि मेरा नाम क्या है! पुराना नाम भी पता है, नया नाम भी पता है। लेकिन प्रत्यक्ष में इतना ही कहा : अरे मूढ़! अखबार नहीं पढ़ता? सारी दुनिया जानती है मैं कौन हूं, तुझे पता नहीं है! मेरा नाम है शांतिनाथ!

मित्र को तो पक्का भरोसा आ गया कि जो सोचा था, ठीक ही सोचा । मैंने तो नाम ही पूछा था, इतना क्रुद्ध हो जाने की क्या जरूरत थी। थोड़ी देर इधर—उधर की बात हुई, उस आदमी ने फिर कहाः महाराज, मेरी ज़रा स्मृति कमजोर है, मैं भूल गया, आपने क्या नाम बताया था?

पास में कोई कुआं होता तो शांतिनाथ धक्का दे देते मगर वहां कोई कुआं था भी नहीं। फिर अभ्यास, तपश्चर्या, नियम, वृत की बड़ी दीवाल भी थी बीच में; एकदम उसको छलांग भी नहीं सकते थे। वही प्रतिष्ठा भी थी, उसको तोड़ भी नहीं सकते थे। कहा : मूढ़ मैंने बहुत देखे मगर तू महामूढ़ है। सुना नहीं तूने, ठीक से सुन ले, एक बार और कहे देता हूं, मेरा नाम मुनि शांतिनाथ।

फिर थोड़ी देर इधर—उधर की बात चली और उस आदमी ने कहा : महाराज, बस एक बार और, आपका नाम क्या है?

इतना सुनना ही था कि टूट गए सब नियम—व्रत, भूल गयी सब साधना, उठा लिया पास में पड़ा एक डंडा, मार दिया उसकी खोपड़ी में और कहा कि अब समझ तभी तुझे याद रहेगा, मेरा नाम शांतिनाथ।

उस आदमी ने कहा : महाराज, नाम तो मुझे आपका भली—भांति याद है, मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि नाम ही है, आप वही के वही हैं, कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है।

ऊपर से आदमी साध ले सकता है। मनस्विद ठीक कहते हैं कि तुम जैसा विचार करोगे वैसे हो जाओगे, मगर विचार में ही पाओगे। और विचार जरूर तुम्हारे आसफास एक वर्तुल बना देंगे, मगर विचार तुम्हारी आत्मा को रूपांतरित नहीं करते। आत्मा तो रूपांतरित होती है निर्विचार में, शून्य में, ध्यान में, समाधि में। लेकिन मनस्विद इस संबंध में कुछ भी नहीं कह सकते क्योंकि मनस्विद विचार के पार जाते ही नहीं। यही तो दुर्भाग्य है आधुनिक मनोविज्ञान का कि वह मन के पार और कोई अस्तित्व मानता नहीं है, बस मन पर समाप्ति है। इसलिए मनस्विद मनुष्य के संबंध में जो भी कहता है, वे अधूरे सत्य हैं। और स्मरण रहे अधूरे सत्य झूठों से भी ज्यादा घातक होते हैं, क्योंकि उनमें सत्य की थोड़ी—सी झलक होती है; झूठ तो बिल्कुल झलक—रहित होता है, उसे पहचान लेने में कठिनाई नहीं। अधूरे सत्य, अध—कचरे सत्य बहुत खतरनाक होते हैं क्योंकि भ्रांति देते हैं सत्य की, आभा, झलक सत्य की देते हैं और होते भी नहीं।

मनोविज्ञान आधे में अटका है——न तो मनोविज्ञान पदार्थवादी है कि कह सके हिम्मत से कि सिर्फ पदार्थ है और कुछ भी नहीं; और न आत्मवादी है कि कह सके कि आत्मा ही है परम सत्य, शेष सब सीढ़ियां हैं। मनोविज्ञान दोनों के मध्य में अटका है। मनोविज्ञान है धोबी का गधा, न घर का न घाट का। न तो शरीर को ही परिसमाप्ति मानता है और न आत्मा तक आंखें उठाता है। दोनों के बीच में है मन, शरीर और आत्मा के बीच में है विचार का जगत, मनोविज्ञान अभी विचार के जगत में ही उलझा है। इसलिए मनोविज्ञान की जो उपलब्धियां हैं, कोई बड़ी उपलब्धियां नहीं हैं।

मनोविश्लेषक तीन साल, चार साल, पांच साल के मनोविश्लेषण के बाद भी कोई बड़ी सहायता मानसिक रूप से रुग्ण लोगों को नहीं पहुंचा पाता। इतनी सहायता तो कुछ दिनों के ध्यान से ही मिल जाती है। इतनी सहायता तो जापान में एक पुरानी परंपरागत व्यवस्था है, कि जब भी कोई पागल या विक्षिप्त हो जाता है तो उसे ले जाते हैं बौद्ध आश्रम में। हर बौद्ध आश्रम में आश्रम निवासियों से दूर कुछ झोंपड़े होते हैं। उनमें पागलों को रख देते हैं, उनको खाना पहुंचा देते हैं, न उनसे कोई बात करता, न उनसे कोई चीत करता, उन्हें बिल्कुल अकेला छोड़ देते हैं। और हैरानी की बात है कि तीन—चार सप्ताह में पागल ठीक हो जाता है। सिर्फ अकेला छोड़ देते हैं। परिवार , समाज से अलग खींच लेते हैं, उसकी जरूरतें पूरी कर देते हैं लेकिन उससे कोई बातचीत नहीं करता।

मनोवैज्ञानिक चार—पांच साल बातचीत और सिर फोड़ने के बाद ——खुद का भी और मरीज का भी——इतनी सहायता नहीं पहुंचा पाता जितना झेन फकीर जापान में तीन—चार सप्ताह के एकांत निवास से पहुंचा देते हैं। अब तो पश्चिम से इस प्रक्रिया को समझने के लिए लोग जापान जा रहे हैं।

क्या कारण होगा? इतनी आसानी से हल हो जाता है! बड़े सत्य अगर स्वीकार किए जाएं तो छोटी बीमारियां क्षण में तिरोहित हो जाती हैं। लेकिन अगर तुम बीमारियों के ऊपर देखो ही न तो बीमारियां बहुत बड़ी मालूम होती हैं। जिसने अपना आंगन ही देखा है और आकाश नहीं, उसे आंगन बहुत बड़ा मालूम होता है।

पुरानी कहानी है। एक लोमड़ी सुबह—सुबह उठी। भूख लग आयी थी, नाश्ते की तलाश में चली। उसने लौटकर अपनी छाया देखी। बड़ी छाया बन रही थी। सुबह का सूरज उग रहा था सामने, बड़ी छाया बनी। उस लोमड़ी ने कहा कि आज तो एक ऊंट मिले शिकार के लिए तो ही नाश्ता हो सकेगा। दोपहर तक ऊंट को खोजती रही। ऊंट मिल भी जाता तो क्या करती? ऊंट मिला भी नहीं, भूख बढ़ती भी गयी, फिर उसने लौटकर एक बार छाया को देखा। अब दोपहरी थी, सूरज ऊपर आ गया था, छाया बिल्कुल सिकुड़ कर नीचे पड़ रही थी, करीब—करीब न के बराबर। वह लोमड़ी कहने लगी अब तो एक चींटी भी मिल जाए तो काफी!

छाया को देखकर अगर तुम निर्णय करोगे तो तुम्हारे निर्णय बहुत कीमती नहीं हो सकते। विचार तो छाया मात्र हैं, और विचार तो तुम्हारी विक्षितता है। विक्षिप्तता को ही अगर अंतिम मान लेना है तो फिर इस विक्षिप्तता से समाधान कैसे होगा? समाधान कहां से आएगा? इसलिए सिग्मंड फ्रायड ने, इस सदी के सबसे बड़े मनस्विद ने, अपने अंतिम निष्कर्षो में यह बात कही है कि मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता, ज्यादा—से—ज्यादा हम इतना ही कर सकते हैं कि मनुष्य को सामान्य रूप से दुखी रहने का अभ्यास करवा दें। सामान्य दुख से संतुष्ट रहना सिखा दें, इतना ही कर सकते हैं, मनुष्य सुखी कभी नहीं हो सकता। यह निष्कर्ष इस बात का सबूत है कि बस आंगन को ही सब मान लिया तो अब हल कैसे हो?

हल हमेशा पार से आते हैं। हल हमेशा विराट से आते हैं। समाधन के लिए तुम ही सब कुछ नहीं हो, तुमसे भी ऊपर कुछ है—— तो ही मार्ग खुलता है। अन्यथा मार्ग नहीं खुलता। परमात्मा को अस्वीकार किया कि फिर मनुष्य अपनी विक्षिप्तता में ही जी सकता है। फिर सिग्मंड फ्रायड ही सत्य है कि ज्यादा—से—ज्यादा हम मनुष्य को सामान्य विक्षिप्तता का पाठ सिखा सकते हैं कि ज्यादा विक्षिप्त न हो जाओ, कम—से—कम विक्षिप्त रहो। अंतर, स्वस्थ आदमी में और विक्षिप्त आदमी में मात्रा का ही होगा, फ्रायड के हिसाब से, गुण का नहीं होगा। फ्रायड बुद्ध को स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि बुद्धत्व का अर्थ होता हैः परम स्वास्थ्य । हमारे पास स्वास्थ्य शब्द बड़ा कीमती है। स्वास्थ्य का अर्थ होता हैः स्वयं में स्थित हो जाना। लेकिन स्वयं को तो स्वीकार ही नहीं करता मनोविज्ञान, वह तो विचार की भीड़ को ही स्वीकार करता है!

पश्चिम का एक बड़ा विचारक डेविड ह्यूम, डेविड ह्यूम नास्तिकों के लिए ऐसे ही है जैसे आस्तिकों के लिए कृष्ण, क्राइस्ट। इसलिए मैं डेविड ह्यूम को कहता हूं: संत डेविड ह्यूम। डेविड ह्यूम ने बहुत बार पढ़ा, सुकरात से लेकर इकहार्ट तक सारे संतों ने एक ही बात कही——भीतर जाओ, परम आनंद है वहां, आत्मा का राज्य, कि प्रभु का राज्य; बस, भीतर जाओ, सब पाओगे——धनों का धन, पदों का पद! … पढ़ते—पढ़ते एक दिन, जानते हुए भी कि भीतर क्या रखा है, उसने भी आंखें बंद कीं और भीतर देखा। एक ही दिन देखा बस और डायरी में लिखाः कुछ नहीं है, सिर्फ विचार ही विचार हैं——स्मृतियां, विचार, कल्पनाएं, ऊहापोह; न कोई आत्मा है, न कोई परमात्मा है; न कोई स्वर्ग का राज्य है, न कोई सच्चिदानंद है; कुछ भी नहीं है।

संत डेविड ह्यूम इतना भी न समझ सका कि यह काम एकाध बार आंख बंद करने से नहीं होता। यह तो ऐसा ही हुआ कि मैं एक सज्जन को जानता हूं, विश्वविद्यालय में अध्यापक थे मेरे साथ; व्यायाम करने जाते थे, एक डंड लगाते और उठकर अपनी मसल नापते! अब ऐसे आदमी कहीं डंड—बैठक लगा सकते हैं? दोत्तीन दिन में ही मुझसे बोले कि कुछ सार नहीं है, मैंने लगाकर देखे डंड—बैठक, कुछ और ही राज़ होगा, मसल तो वैसे—के—वैसे ही हैं। मगर उन्होंने तो कम—से—कम तीन दिन किया था अभ्यास, डेविड ह्यूम तो एक ही दिन…! और वह तो शरीर का अभ्यास था, डेविड ह्यूम ने थोड़ा—सा मन का अभ्यास किया…! अभ्यास क्या खाक कहो उसे, एक बार आंख बंद करके बैठकर भीतर देखा, देखा वहां विचारों की चहल—पहल, आना—जाना, बस आंख खोल दी होगी, कहा कि कुछ है नहीं, बस विचार ही विचार हैं।

मगर एक बात डेविड ह्यूम जैसा विचारशील व्यक्ति भी चूक गया——किसने देखा कि विचार हैं? यह कौन है जिसने देखा कि विचार ही विचार हैं? निश्चित ही जिसने देखा, वह स्वयं विचार नहीं हो सकता——वह साक्षी है। लेकिन थोड़े दिन डुबकी मारता तो इस साक्षी से संबंध जुड़ता। वह साक्षी मन के पार है। वही साक्षी आत्मा है। उसी साक्षी में क्रांति घटती है। वही आकाश है, मन तो छोटा आंगन है।

हां, मन के अभ्यास से तुम सज्जन बन सकते हो, लेकिन मन के अभ्यास से तुम कभी संत नहीं बन सकते। और सज्जन के भीतर दुर्जन छिपा ही रहता है; सज्जन दुर्जन को दबा लेता है। दुर्जन और सज्जन में बहुत भेद नहीं है——दुर्जन सज्जन को दबा लेता है और सज्जन दुर्जन को दबा लेता है। लेकिन दोनों में कोई बुनियादी भेद नहीं है। अगर तुम दुर्जन को थोड़ा कुरेदोगे तो उसके भीतर सज्जन पाओगे।

इसलिए तुम कभी—कभी चकित भी होते हो, किसी शराबी में तुम ऐसी भलमनसाहत पाओगे जोकि भले आदमियों में नहीं होती। और किसी चोर में कभी तुम इस तरह की मैत्री पाओगे जोकि सज्जनों में नहीं होती। और कभी किसी पापी में तुम ऐसी करुणा पाओगे कि तुम्हारे तथाकथित महात्माओं में नहीं होती। कि नदी में कोई डूबता हो तो चोर या पापी छलांग लगाकर उसको बचाने जाएगा; जो माला जप रहा है, वह तो और आंख बंद करके जोर—जोर से हरे—राम, हरे—राम, हरे—राम करने लगेगा कि अब यह और कहां की झंझट बीच में आ गयी! वह अपनी माला जपे कि आदमी को बचाए? अगर कहीं आग लग गयी हो तो शायद शराबी चला जाए आग में जलते हुए किसी बच्चे को बचाने, होशियार तो अपने घर का रास्ता लेगा।

दुर्जन के भीतर सज्जन छिपा होता है और सज्जन के भीतर दुर्जन छिपा होता है। सज्जन को कुरेदो ज़रा और तुम दुर्जन को पाओगे। अभी देखा नहीं मुनि शांतिनाथ को ज़रा कुरेदा, खुरेचता ही गया वह आदमी और भीतर की असलियत बाहर आ गयी। सज्जन और दुर्जन में बहुत फर्क नहीं है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने दिल्ली प्रधानमंत्री को फोन लगाया। पूछा : आप कौन सज्जन बोल रहे हैं?

दूसरी तरफ से आवाज आयी——मैं मंत्री जी का चपरासी बोल रहा हूं, रुकिए, लीजिए सेक्रेटरी साहब से बात कीजिए।

मुल्ला ने पूछा : आप कौन सज्जन बोल रहे हैं?

जवाब मिला——मैं मंत्री जी का सेक्रेटरी हूं। कहिए क्या काम है?

मुल्ला ने कहाः मुझे तो प्रधानमंत्री जी से ही मिलना है।

कुछ क्षण बाद पुनः फोन पर किसी की आवाज सुनायी दी। मुल्ला ने अपना प्रश्न फिर पूछाः आप कौन सज्जन बोल रहे हैं?

इस बार एक रोबीली आवाज आयी——अरे, मैं कोई सज्जन—वज्जन नहीं, खुद प्रधानमंत्री बोल रहा हूं।

कभी—कभी तो बिना कुरेदे भी सत्य प्रगट हो जाते हैं। कुरेदना भी सदा आवश्यक नहीं होता।

आनंद मैत्रेय, मानस्विद ठीक कहते हैं——आदमी जैसा सोचता है वैसा हो जाता है। मगर बस ऊपर—ऊपर क्योंकि सोचने की क्षमता ही कितनी है? आदमी अगर सोचने से ही वैसा हो जाता हो, सच में ही वैसा हो जाता हो तब तो दुनिया बड़ी सस्ती होती है, तब तो जीवन बड़ा आसान होता है। तुम बैठकर सोच लेते कि मैं ईश्वर हूं, मैं ईश्वर हूं, मैं ईश्वर हूं. . . सोचते ही रहते रोज बैठकर, कई लोग सोचते हैं, इससे कुछ ईश्वर नहीं हो जाओगे। असल में तो जितना सोचोगे उतना ही पक्का होता जाएगा कि नहीं हो। अगर थे ही, अगर हो ही तो फिर सोच क्या खाक रहे हो! अगर कोई पुरुष रास्ते पर चलता हुआ, कहता हुआ जाए——मैं पुरुष हूं, मैं पुरुष हूं, मैं पुरुष हूं मैं पक्का कहता हूं कि मैं पुरुष हूं, मैं दृढ़ निश्चय से कहता हूं कि मैं पुरुष हूं… तो सारे गांव को शक हो जाएगा कि मामला कुछ गड़बड़ है। अगर पुरुष हो तो कहने की जरूरत क्या ?

एक मुसलमान खलीफा उमर ने एक आदमी को पकड़वाया, क्योंकि वह आदमी घोषणा करता था कि मुहम्मद के बाद मैं ही दूसरा पैगंबर हूं, मुहम्मद जो नहीं कर पाए अब मैं करूंगा। निश्चित ही कोई और देश हो तो लोग बर्दाश्त कर लें, मुसलमान तो बर्दाश्त नहीं कर सकते। उनकी तो बर्दाश्त की कोई सीमा है ही नहीं। उनके पास तो धैर्य है ही नहीं। फौरन पकड़ लिया गया, लोगों ने मारा—पीटा और खलीफा के पास ले चले। खलीफा भी बहुत नाराज हुआ। उसने कहा कि एक ही ईश्वर है और उस ईश्वर का एक ही पैगंबर है और उस पैगंबर का नाम है——हजरत मुहम्मद; और कोई न पैगंबर है और न कोई ईश्वर है।

यह पकड़ तो मुसलमानों की ऐसी है कि मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन नास्तिक हो गया था तो किसी ने पूछा कि नसरुद्दीन, अब तो तुम नास्तिक हो गए, तुम्हारा सिद्धांत क्या है?

उसने कहा कि मेरा सिद्धांत हैः कोई ईश्वर नहीं है और उसका एक ही पैगंबर है——हजरत मुहम्मद!

ऐसी पकड़ है कि ईश्वर नहीं है तो भी… मगर हजरत मुहम्मद तो पैगंबर हैं ही। खलीफा बहुत नाराज हुआ। उसने कहा कि सात दिन के लिए इस आदमी को जेलखाने में डाल दो जंजीरों में। सात दिन का मौका देते हैं तुझे सोचने का, समझ ले, सोच ले, तय कर ले; अगर होश में आ गया तो ठीक, नहीं तो गर्दन काट दी जाएगी। सात दिन का अवसर देते हैं अगर तू क्षमा मांग लेगा, छुटकारा हो जाएगा तेरा। उस आदमी को खंभे से बांध दिया गया, कोड़े मारे गए, सात दिन सब तरह से सताया गया।

सात दिन बाद उमर गया जेलखाने में, वह आदमी बंधा था खंभे से, लहुलुहान था। पूछा कि कहो अब क्या विचार है?

उसने कहाः ईश्वर एक और उसका नया पैगंबर मैं।

उमर ने कहाः तुझे होश नहीं आया, इतना पिटा—कुटा, खून जगह—जगह जम गया है, जमीन पर खून जमा है, खंभे पर खून जमा है, चमड़ी जगह—जगह कट गयी—— तुझे होश नहीं आया?

उसने कहा : होश! मुझे पक्का भरोसा हो गया है कि मैं पैगंबर हूं क्योंकि जब मैं चलने लगा तो ईश्वर ने खुद ही कहा था कि मेरे पैगंबर सदा बहुत सताए जाते हैं। अब तो मुझे पक्का ही भरोसा आ गया।

तभी एक दूसरा आदमी जो किसी दूसरे खंभे से बंधा था, खिलखिला कर हंसने लगा। उमर ने पूछा कि तू क्यों हंस रहा है?

उस आदमी ने कहा : मैं इसलिए हंस रहा हूं कि मैं स्वयं परमात्मा हूं और मैं तुमसे कहता हूं कि यह आदमी झूठ बोल रहा है, इसको मैंने कभी भेजा ही नहीं; मुहम्मद के बाद मैंने किसी को भेजा ही नहीं । वे इसलिए पकड़े गए थे सज्जन कि वे अपने ईश्वर होने की घोषणा कर रहे थे।

घोषणा तो तुम कर सकते हो आसानी से। क्या कठिनाई है, रोज सुबह से उठकर मंत्र जपो—— अहं ब्रह्मास्मि… जपते ही रहो, जपते ही रहो, जपते ही रहो… छाप पड़ती जाए, पड़ती जाए, संस्कार गहरा होता जाए, तो एक दिन नींद में भी तुम गुर्राने लगोगे——अहं ब्रह्मास्मि! मगर यह तो विचार—मात्र है। नहीं, ऐसे कोई नहीं जानता ब्रह्म होने को । ब्रह्म होने को जानने का उपाय दूसरा है, बिल्कुल उल्टा है, निर्विचार हो जाओ—— अहं ब्रह्मास्मि दोहराना नहीं है, एक ऐसी शांत, मौन, शून्य अवस्था जहां कोई विचार की तरंग नहीं रह जाती, वहां अनुभव होता है कि मैं परमात्मा हूं। लेकिन उस अनुभव में “मैं” का कोई अनुभव नहीं होता, यह तो भाषा में कहना पड़ता है इसलिए । उस अनुभव में सिर्फ परमात्मा है——ऐसा अनुभव होता है। उस “मैं” में और सब भी समाहित होते हैं । उस “मैं” में सब मैं समाहित होते हैं।

इसलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने ऐसा नहीं कहा है कि मैं परमात्मा हूं और तुम नहीं; जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा है कि मैं परमात्मा हूं और तुम भी। बुद्ध ने कहा है : जिस क्षण मैं बुद्ध हुआ उस दिन सारा अस्तित्व मेरे साथ बुद्ध हो गया——आदमी ही नहीं पशु—पक्षी भी, पशु—पक्षी ही नहीं पौधे—पत्थर भी। बुद्ध ठीक कहते हैं : जिस क्षण मैं बुद्ध हुआ उस क्षण मैंने जाना——अरे, मैं तो हूं ही नहीं, सिर्फ बुद्धत्व है; सिर्फ भगवत्ता है; कण—कण में वही व्याप्त है। जो मुझमें है वही बाहर है; जो भीतर, वही बाहर। मगर यह विचार से नहीं होगा।

और दोनों बातों में एक—सा——बाहर से कम—से—कम ——तालमेल मालूम हो सकता है, यही खतरा है। जो आदमी जानकर कह रहा है अहं ब्रह्मास्मि, कि मैं ब्रह्म हूं, निर्विचार के अनुभव से जिसे यह उपलब्धि हुई वह, और जो विचार को दोहरा—दोहराकर कह रहा है अहं ब्रह्मास्मि, बाहर से तो तुमको दोनों एक जैसे ही मालूम पड़ेंगे। यही मुश्किल है, यही अड़चन है। बाहर से तौलने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन भीतर तो तुम तौल ही सकते हो।

सूफी फकीर बायजीद मक्का की यात्रा को चला। उसके शिष्यों ने, उसके मित्रों ने तीन सौ दीनार इकट्ठे कर दिए थे यात्रा के लिए। वह तीन सौ दीनार लेकर गांव से बाहर ही निकला कि एक फकीर झाड़ के नीचे बैठा था, उसने कहा : रुक बायजीद, कहां जा रहा है?

बायजीद ने कहा कि मैं हज—यात्रा को जा रहा हूं, मक्का की यात्रा को जा रहा हूं; काबा के पत्थर के सात चक्कर मुझे लगाने हैं।

उस फकीर ने कहा : मेरे पास तीन सौ दीनार हैं, मेरे शिष्यों, भक्तों ने इकट्ठे किए हैं।

उस आदमी ने कहा : तू मेरे सात चक्कर लगा और तीन सौ दीनार मुझे दे, तेरा हज पूरा हो गया। और बायजीद ने यह किया——उसने तीन सौ दीनार उस फकीर को दे दिए, उसके सात चक्कर लगाए, चरण छूकर नमस्कार किया, हाथ चूमा, घर वापिस लौट आया।

लोगों ने कहा : अरे, बड़े जल्दी लौट आए! अभी गए, अभी लौट आए! अभी लोग गांव के बाहर विदा करके घर लौट भी न पाए थे कि बायजीद को आते देखा कि मामला क्या है! इतने जल्दी! बायजीद ने कहा : हज की यात्रा हो गयी। क्योंकि वह आदमी मुझे मिल गया है, अब कहीं जाने की कोई जरूरत न थी, उसकी आंख में मैंने झांका और मैंने पहचाना, थोड़ी—थोड़ी झलक मुझे भी मिली है। जो मेरे भीतर दीए की तरह जला है, उसके भीतर सूरज की तरह मौजूद था। जिसको मैंने अभी खिड़की से झांका है, दूर से झांका है, वह वहां विराजमान था। वह अद्भुत आदमी था ।

लोगों ने कहा : और तीन सौ दीनार क्या हुए?

उसने कहा : तीन सौ दीनार! वे तो उस फकीर को भेंट कर आया। जब हज की यात्रा हो गयी, यात्रा के लिए ही दिए थे तुमने!

बायजीद खुद भी थोड़े—से अनुभव में डूब रहा है तो वह अनुभव दूसरे में भी देखने की क्षमता देगा। पहले तो उनमें देखने की क्षमता देगा जिनको अनुभव हुआ है, जो जाग गए हैं; फिर उनमें भी देखने की क्षमता देगा जो अभी नहीं जागे हैं, जिनको अनुभव नहीं हुआ है, जो सो रहे हैं। आखिर सोया हुआ आदमी है तो बुद्ध , सोया है, तो जाग उठेगा। आखिर बीज भी है तो फूल, अभी सोया है, कल जाग उठेगा और खिल जाएगा।

लेकिन यह सिर्फ विचार करने से नहीं हो सकता। पश्चिम में मनोविज्ञान के इस विचार का बड़ा परिणाम हुआ, ऐसा परिणाम हुआ कि ईसाइयों में एक संप्रदाय ही खड़ा हो गया——क्रिश्चियन साइंटिस्ट कहलाने लगे वे लोग——उनका मूल आधार यही है कि तुम जो सोचते हो वही हो जाते हो।

मैंने एक कहानी सुनी है। एक युवक रास्ते से जा रहा था और वहां से एक क्रिश्चियन साइंटिस्ट आ रहा था। उस युवक से उसने, क्रिश्चियन साइंटिस्ट ने पूछा कि अब तुम्हारे पिता के संबंध में क्या खबर है?

पिता का मित्र था वह, युवक भी जानता था। उसने कहा : उनकी हालत खराब है। आज तीन महीने से बीमार हैं। बिस्तर से उठते भी नहीं।

उस आदमी ने कहा : यह सब बकवास है। ये सब विचार हैं। यह बीमारी विचार है। अगर तुम विचारोगे कि मैं बीमार हूं तो बीमार हो जाओगे। अगर विचारोगे कि मैं स्वस्थ हूं, स्वस्थ हो जाओगे। यह सब विचार है और कुछ भी नहीं, मैं तुझसे कहता हूं।

कुछ दिन बाद फिर रास्ते पर उस युवक से मिलना हुआ तो क्रिश्चियन साइंटिस्ट ने पूछा कि अब तेरे पिता के क्या हाल हैं?

उसने कहा कि अब वे सोचते हैं कि वे मर गए! और क्या कहो अब! अगर बीमारी विचार है तो मरना भी विचार है! अब सोचते हैं कि मर गए चूंकि वे सोचते हैं मर गए, इसलिए हमने दफना दिया, अब और करते भी क्या!

सब विचार हैं? तो फिर तुम्हारे भीतर कुछ भी थिर न रह जाएगा क्योंकि विचार तो क्षण—भर भी ठहरता नहीं——अभी सुख, अभी दुख; अभी प्रसन्न हो, अभी न प्रसन्न हो गए; अभी खुश थे, अभी नाच रहे थे, अभी चित्त एकदम विषाद से भर गया। तब तो तुम्हारी जिंदगी एक क्षणभंगुर धारा होगी, पानी के बबूले होंगे और अगर तुम जोर से पकड़कर किसी विचार को सम्हाल भी लोगे तो विचार ही है, भूल मत जाना।

मेरे पास एक सूफी फकीर को लाया गया जो तीस साल से सिद्ध समझा जाता था। उसके अनेक शिष्य थे। जब वह मेरे पास लाया गया तो दो सौ उसके शिष्य साथ आए थे। और उन्होंने कहा कि यह पहुंचा हुआ सिद्ध है। इसे हर चीज में परमात्मा दिखाई पड़ता है——फूल में, पत्ते में, पत्थर में। इसकी आंखों में सिवाय परमात्मा के कोई दिखाई ही नहीं पड़ता। यह तो मंसूर की हैसियत का आदमी है——अनहलक इसका उद्घोष है। मैंने उनसे कहा कि तुम जाओ और फकीर को मेरे पास तीन दिन के लिए छोड़ दो।

तीन दिन वह फकीर मेरे पास रहा। खाना इत्यादि खिलाने के बाद जब हम पास बैठे तो मैंने उनसे कहा कि यह अभ्यास कितने दिन से किया है?

उन्होंने कहा : कोई तीस साल हो गए सतत अभ्यास किया——ईश्वर है, बस ईश्वर है, सब तरफ ईश्वर है। अब मुझे सब तरफ ईश्वर दिखाई पड़ने लगा।

मैंने कहा : अब तो तुम्हें पक्का दिखाई पड़ने लगा है?

उसने कहा : हां, पक्का दिखाई पड़ने लगा है, कच्चा क्यों?

तो मैंने कहा : तीन दिन के लिए तुम अभ्यास बंद कर दो। अब तीन दिन के लिए यह बात छोड़ दो कि सब में ईश्वर है।

उसने कहा : उससे क्या होगा?

मैंने कहा कि तीन दिन के बाद विचार करेंगे। डरा हुआ लगा वह थोड़ा। मैंने कहा : डरते क्यों हो? अगर ईश्वर का अनुभव हो गया है तो विचार के छोड़ने से अनुभव चला नहीं जाएगा।

उसने कहा : हां, यह बात तो ठीक है अगर ईश्वर है ही, अगर अनुभव होने ही लगा है, तो तीन दिन के अभ्यास नहीं करने से क्या फर्क पड़ता है!

तीसरे दिन वह आदमी मुझ पर नाराज हो गया। उसने कहा : आपने मेरी तीस साल की मेहनत खराब कर दी। अब मुझे झाड़ फिर झाड़ दिखाई देने लगे और पत्थर फिर पत्थर दिखाई देने लगे, वह ईश्वर खो गया।

मैंने कहाः वह ईश्वर कभी था ही नहीं इसीलिए खो गया। वह सिर्फ अभ्यास था, आत्मसम्मोहन था। तीस साल का आत्मसम्मोहन तीन दिन में टूट सकता है, तीन क्षण में टूट सकता है, उसका कोई मूल्य नहीं है; वह धोखा है, वह आत्मवंचना है।

मैं ऐसी आत्मवंचना की शिक्षा नहीं देता हूं। मैं तुमसे नहीं कहता हूं कि तुम सोचो। मैं तुमसे नहीं कहता हूं कि तुम विचारां। मैं तुमसे कहता हूं तुम निर्विचार में चलो, तुम सोच छोड़ो, तुम उस दशा में आ जाओ जहां सोच—विचार होते ही नहीं; फिर देखो, फिर जो दिखाई पड़े वह है और उसे फिर तुमसे कोई भी न छीन सकेगा। मैं मनोविज्ञान नहीं सिखा रहा हूं, मैं तुम्हें अध्यात्म सिखा रहा हूं। दुनिया के अधिकतर धर्म मनोविज्ञान पर समाप्त हो जाते हैं; दुनिया का बहुत थोड़ा—सा हिस्सा अध्यात्म को छू पाता है, छू पाया है। बहुत थोड़े—से बुद्धपुरुष अध्यात्म को छू पाए हैं। अध्यात्म की मौलिक आवश्यकता है निर्विचार—चैतन्य!

लेकिन चारों तरफ तुम्हें विचार ही सिखाया जाता है——मां—बाप भी कहते हैं, अच्छे विचार करो; स्कूल में शिक्षक कहते हैं, अच्छे विचार करो; पंडित—पुरोहित कहते हैं, अच्छे विचार करो तो अच्छे हो जाओगे। जैसा विचार करोगे वैसे हो जाओगे। और ठीक कहते हैं मगर ठीक अधूरा है। और जब तुम यही सुनते हो, यही बार—बार गुनते हो, और यही तुम्हारे जीवन का अनुभव बन जाता है, तो तुम दूसरों के संबंध में भी इसी तरह सोचने लगते हो, देखने लगते हो। तुम खुद तो अंधे हो ही जाते हो अपने प्रति, तुम दूसरों के प्रति भी अंधे हो जाते हो। स्वभावतः तुम दूसरों के संबंध में उसी ढंग से सोचते हो जिस ढंग से तुम अपने संबंध में सोचते हो। और तो कोई उपाय भी नहीं है सोचने का। मनुष्य अपना ही प्रक्षेपण करता है।

सत्यप्रिय ने एक छोटी—सी कहानी मुझे भेजी है।

एक डी. आई. जी. थे। वे जब नौकरी से मुक्त हुए तो उन्हें पचास हजार रुपया मिला। उन्होंने सोचा ये पैसे बैंक में जमा करवा दें तो ब्याज मिलता रहेगा। वे रुपया लेकर बैंक में जमा करवाने जा रहे थे कि उनके एक मित्र जो कृषि अधिकारी थे, उनको रास्ते में मिल गए। उन्होंने कहा : “आप भूलकर भी रुपये बैंक में जमा मत करवाएं। बैंक में हड़ताल हो जाती है, जरूरत होने पर रुपया निकाल नहीं सकते, कभी बैंकों का दिवाला भी निकल जाता है।”

डी. आई. जी. बोले, “हमें व्यापार करना आता नहीं।”

इस पर कृषि अधिकारी ने कहा : “मेरी मानें तो जमीन खरीद कर खेती करवाएं। व्यापार की झंझट में पड़ना उचित भी नहीं।” उन्होंने एक पेंसिल और कागज मंगवाया और कहा कि “मान लीजिए हमने एक मक्का का दाना जमीन में बोया, उसमें से तीन भुट्टे निकले।” फिर कागज पर हिसाब लगाकर बताया कि “यदि एक भुट्टे में दो सौ दाने लगे तो कुल मुनाफा होगा छः सौ प्रतिशत! कुल चार महीने की बात है, फिर आप बंगला खरीदें, कार खरीदें, चुनाव लड़ें——जो दिल में आए सो करें, माला—माल हो जाएंगे।”

डी. आई. जी. को बात जंच गयी। उन्होंने एक जमीन खरीद ली। फिर बैंक से कर्ज लेकर एक ट्रेक्टर भी खरीद लिया। उन्होंने फसल बोयी। परंतु उस साल खूब अतिवृष्टि हुई। सारी फसल बह गयी। दूसरे साल उन्होंने ज्यादा मुनाफे के लोभ में कृषि अधिकारी के बताए अनुसार कर्ज लेकर खूब खाद दी। परंतु उनके भाग्य ने साथ नहीं दिया और उस वर्ष सूखा पड़ गया। कर्जा चुकाने में घर का सारा सामान नीलाम हो गया। अकेले आदमी थे। दो लंगोटी बची थीं। सोचा काली—कमली वाले के आश्रम में चला जाऊंगा, वहां एक कंबल और एक टाइम भोजन मिल जाएगा, बैठकर राम का नाम लेंगे। वे जब जा रहे थे तो रास्ते में कुंभ के मेले में एक नागाओं की जमात जा रही थी। वे खूब सारे नंगे साधु । उन्हें देखकर डी. आई. जी. ने उनके गुरु को साष्टांग प्रणाम कर निवेदन किया कि “एक प्रश्न का उत्तर दें।”

नागा महात्मा बोले : “बच्चे, क्या शंका है?”

डी. आई. जी. बोले : “महात्माजी, मैंने खेती का धंधा किया तो मात्र दो लंगोटी बचीं। आप सबने क्या धंधा किया जो लंगोटी तक नहीं बचीं?”

आदमी सोचता तो अपने ही हिसाब से है। हम दूसरों के संबंध में जो सोचते हैं, हम दूसरों के संबंध में जो कहते हैं, वह वस्तुतः अपने ही संबंध में कहा गया होता है। तुमने अगर विचार को ही जीवन की आधारशिला बनाया तो तुम खुद तो धोखे में रहोगे ही, तुम औरों के संबंध में भी धोखे खाओगे। क्योंकि तुम उनके विचार ही देखोगे; उनके अंतस् तक देखने वाली पैनी आंखें तुम्हारे पास न होंगी। और अंतस् का रूपांतरण ही एकमात्र रूपांतरण है और सब क्रांतियां झूठी हैं।

इसलिए मैं कहता हूं कि विश्वास सतही है और गलत है। परमात्मा को मानना नहीं है, क्योंकि जानना ही असली चीज है, मानना कैसे असली हो सकता है? मानने का तो अर्थ ही हुआ कि शुरू से ही बेईमानी, शुरू से ही धोखा; पता नहीं था और मान लिया । असत्य से शुरूआत करके सत्य तक कैसे पहुंचोगे? पहला कदम असत्य है तो अंतिम मंजिल कैसे सत्य हो सकेगी? यह तो सीधा—सा गणित है। यह रोशनी तो इतनी सीधी—साफ है कि अंधे को भी दिखाई पड़ जाए। यह गणित इतना स्पष्ट है कि इसके लिए कोई बहुत बुद्धिमत्ता नहीं चाहिए। जो आदमी ईश्वर को मानता है, वह क्या कर रहा है? वह भीतर तो जानता है कि मुझे कुछ पता नहीं —— पता नहीं, हो; पता नहीं, नहीं हो!

मुल्ला नसरुद्दीन मरने लगा। मौलवी ने कहा कि नसरुद्दीन जिंदगी—भर तो मस्जिद में दिखाई नहीं पड़े लेकिन अब आखिरी समय तो परमात्मा को याद कर लो, नहीं तो पीछे पछताओगे।

मुल्ला हाथ टेककर उठा, बैठा, हाथ जोड़े आकाश की तरफ, पहले बोला : हे परमात्मा! दीन—दरिद्र हूं, पतित हूं, पापी हूं; तुम तो पतित—पावन हो, जिंदगीभर तो याद नहीं किया मगर क्षमा करना; मैं तो बालक हूं, तुम पिता हो। इसके बाद…यह बात पूरी की, थोड़ी देर चुप रहा, फिर से हाथ जोड़े और आकाश की तरफ देखकर बोला कि हे महाशैतान! हे परम पिता! मुझ पर ख्याल करना। मैं तो नासमझ, अज्ञानी, मुझ पर दया करना।

मौलवी तो बहुत हैरान हुआ। ईश्वर से तो प्रार्थना उसने सुनी थी, लेकिन शैतान से! उसने बीच में ही मुल्ला को हिलाया और कहा कि होश में हो कि सान्‍निपात में आ गए?

मुल्ला ने कहा : रोको—टोको मत। क्या पता किसके हाथ में पड़ें। समझदार आदमी सबको मनाकर रखता है। अगर हो ईश्वर तो ठीक, कहने को रहेगा। न हो ईश्वर, शैतान हो तो भी ठीक, कहने को रहेगा। दोनों न हों, अपना क्या बिगड़ता है! कहने में क्या जा रहा है? हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखा हो जाए…अपना बिगड़ता क्या है, दो शब्द बोले लेते हैं शैतान से भी।

जो आदमी मानता है उसकी मान्यता कितनी गहरी हो सकती है? कैसे गहरी हो सकती है? भीतर तो जानता ही है कि मुझे पता नहीं——हो, न हो। थोप रहा है मान्यता को; जबरदस्ती लाद रहा है मान्यता को——भय के कारण, लोभ के कारण, सामाजिक दबाव के कारण। ऐसी मान्यता से क्रांति होगी? ऐसी मान्यता से तुम्हारे जीवन में मोक्ष फलेगा? यह मान्यता तो बंधन है; यह तो कारागृह है; इससे तो और जंजीरें कस जाएंगी; इससे तो तुम्हारा अज्ञान और सघन हो जाएगा और जिसने मान लिया वह फिर जानने की यात्रा पर नहीं निकलता। क्या निकले! जब मान ही लिया तो अब जानना क्या है!

इसीलिए तो दुनिया में इतने आस्तिक हैं मगर धार्मिक कहां! नास्तिकों और आस्तिकों में तुम कोई फर्क देखते हो? जो आस्तिक कर रहा है, वही नास्तिक कर रहा है; जो नास्तिक कर रहा है, वही आस्तिक कर रहा है। अंतर कहां है? हां आस्तिक मंदिर नहीं जाता। नास्तिक लाइंस क्लब चला जाता होगा, कि रोटरी क्लब चला जाता होगा, कि फिल्म में जाकर बैठ जाता होगा। उनके छोटे—मोटे व्यवहारों में भेद होंगे मगर उनके जीवन में क्या अंतर है? अगर नास्तिक तुम्हें बताए न कि नास्तिक है, क्या तुम पहचान सकोगे उसके व्यवहार से कि नास्तिक है? नहीं पहचान सकोगे।

तुम्हारे आस्तिक और नास्तिक दोनों झूठे हैं क्योंकि दोनों ने खोज नहीं की और बिना खोज किए मान लिया है। मेरा आग्रह, मेरा जोर खोज पर है। मैं तुम्हें जिज्ञासु बनाना चाहता हूं। मैं तुम्हें मुमुक्षु बनाना चाहता हूं। मैं नहीं चाहता कि तुम कुछ मानकर चलो। मैं चाहता हूं कि तुम सिर्फ एक प्रश्न लेकर उठो, एक गहन जिज्ञासा, एक अभीप्सा जानने की——क्या है? निश्चित ही कुछ है, इसे मानने की जरूरत नहीं है। तुम हो, यह अस्तित्व है, ये चांदत्तारे हैं; ये चांदत्तारों के बीच बंधा हुआ संगीत है, एक लयबद्धता है, यह विराट अस्तित्व बिखर नहीं जाता, यह सधा है; कोई अदृश्य ऊर्जा इसे बांधे है, जरूर कुछ है। लेकिन उस कुछ को मानो क्यों, खोजो क्यों नहीं? वह कुछ हमारे भीतर भी मौजूद है। उसी धागे में हम भी पिरोए हुए हैं, उसी माला के हम भी मनके हैं, तो अपने भीतर उस धागे को तलाशें, खोजें। अपने भीतर वह धागा दिखाई पड़ जाएगा तो सबके भीतर वह धागा दिखाई पड़ जाएगा। और जब दिखाई पड़ जाएगा तो दर्शन मुक्तिदायी है——फिर कोई संदेह नहीं उठ सकता; फिर कोई तुम्हें डिगा नहीं सकता। सारी दुनिया भी कहे कि ईश्वर नहीं है तो भी तुम हंसोगे।

रामकृष्ण के पास विवेकानंद जब गए और उन्होंने पूछा कि क्या ईश्वर है? यह प्रश्न उन्होंने बहुतों से पूछा था। रवींद्रनाथ के दादा से भी पूछा था। उनकी बड़ी ख्याति थी——महर्षि देवेंद्रनाथ। उनका दूर—दूर तक नाम था। वे बजरे पर रहते थे। नदी के भीतर एक बजरा बना लिया था बस उसी पर रहते थे। विवेकानंद तैर कर आधी रात में बजरे पर चढ़ गए, बजरा हिल गया, दरवाजा धक्का देकर खोल दिया। ध्यान करते थे देवेंद्रनाथ, जाकर उनको झकझोर दिया। आधी रात, पानी में तरावोर यह युवक…पागल मालूम होता है। और पूछा, ईश्वर है? यह शिष्टाचार है!? ये कोई ढंग हैं पूछने के, यह कोई जिज्ञासा करने का शिष्टाचार है!? झिझक गए देवेंद्रनाथ कि आदमी कुछ खतरनाक मालूम होता है। पता नहीं गर्दन दबा दे या क्या करे, अकेले बजरे पर! थोड़े झिझके। बस झिझके थे कि विवेकानंद वापिस कूद गए।

उन्होंने कहा।: युवक वापिस लौट चले, क्यों?

उन्होंने कहा : आपकी झिझक ने सब कह दिया। झिझक सब बता गयी। कहते हैं देवेंद्रनाथ को ऐसी चोट कभी किसी ने न दी थी। बात तो सच थी, घाव कर गयी। झिझक सब बता गयी!

फिर इसी विवेकानंद ने जाकर एक दिन रामकृष्ण को पकड़ लिया। सोचा था रामकृष्ण को भी ऐसे ही झकझोर दूंगा। लेकिन भ्रांति हो गयी वहां, रामकृष्ण और ही तरह के व्यक्ति थे। कोई मान्यता नहीं थी उनकी, बोध था, ज्ञान था, अनुभव था। रामकृष्ण से पूछा : ईश्वर है?

रामकृष्ण ने विवेकानंद को पकड़कर झकझोरा और कहा : अभी जानना चाहते हो? इसी वक्त? तैयारी है?

यह विवेकानंद सोचकर न आए थे कि कोई ऐसा पूछेगा। एक क्षण को झिझके।

रामकृष्ण ने कहा : अभी तैयारी नहीं है, झिझक सब कहती है। सब तैयारी हो, आ जाना, दिखा दूंगा। सोच—समझकर आना था जब पूछने आए थे, यहां बात—चीत नहीं होती। और इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहें, रामकृष्ण झपटे, लात मार दी विवेकानंद की छाती में! यह तो सोचा ही नहीं था, विवेकानंद सोचते थे कि मैं एक मजबूत युवक और रामकृष्ण ऐसा व्यवहार मेरे साथ करेंगे! और भी शिष्य बैठे थे, सत्संग चल रहा था, वे भी नहीं समझे कि यह क्या हो रहा है! रामकृष्ण ने ऐसा किसी और के साथ कभी किया भी नहीं था। इतना बलशाली कोई और कभी आया भी न था। लात का लगना था और विवेकानंद बेहोश हो गए। घंटों बाद होश में आए। होश में आते ही आंखों से आंसू बहने लगे, चरण पकड़ लिए रामकृष्ण के और कहा कि जो अनुभव हुआ , ऐसा कभी न हुआ था। जो अपूर्व शांति देखी, ऐसी कभी न देखी थी। फिर सदा के लिए रामकृष्ण के हो गए। रामकृष्ण ने विवेकानंद को लात मारकर सदा के लिए अपना बना लिया। गए थे रामकृष्ण को हराने, पराजित करने——मिट कर लौटे।

ईश्वर को जानना एक बात है, मानना दूसरी बात है। मानते रहो, मानने से कुछ भी न होगा, जिंदगी गंवाओगे। इतना समय जानने में लगा दो तो परमात्मा दूर नहीं है। भीखा ने कहा न, बहुत पास है। बस खोजने की त्वरा चाहिए, तीव्रता चाहिए——मगर खोजने की। मानते हैं कायर, खोजते हैं वीर। मानते हैं जो नहीं जानना चाहते हैं। मानना टालने का एक उपाय है कि हां—हां भाई ईश्वर है, अब सिर तो न खाओ। मानना टालने का एक उपाय है कि अच्छा—अच्छा, ऐसा ही होगा, कि ज्यादा झंझट न करो; चलो, रविवार को चर्च हो आएंगे; कि कभी मंदिर की घंटी बजा देंगे; कौन झंझट करे, कौन विवाद करे।

तुमने ईश्वर को माना है एक सामाजिक शिष्टाचार की तरह लेकिन यह तुम्हारी कोई जीवंत आकांक्षा नहीं, अभीप्सा नहीं: यह तुम्हारे प्राणों की प्यास नहीं। तुम पानी को मानने से तृप्त

नहीं होते, पानी को पिओगे तब तृप्त होओगे। तुम और चीजें इस तरह नहीं मान लेते। अगर कोई तुमसे कहे कि मान लो कि तुम लखपति हो, तो तुम कहोगे ऐसे कैसे मान लूं? पहले लाख होने तो चाहिए, हैं कहां? मानने से क्या होगा, और हंसी—मजाक होगी दुनिया में। नहीं, तुम ऐसे नहीं मानते। कोई तुमसे कहे कि मान लो कि तुम बड़े पद पर हो——राष्ट्रपति हो, प्रधानमंत्री हो। मगर तुम ऐसे नहीं मानते, तुम कहते हो ऐसे मानने से क्या होगा और पुलिसवाले पकड़कर ले जाएंगे।

मैंने सुना है——मुल्ला नसरुद्दीन कहा करता था कि वह किसी भी आदमी को बड़ी आसानी से लखपति बना सकता है। लखपति बनने के नेक इरादे से कई लोग उसके पास आने लगे। मुल्ला ने कहा : लखपति बनना तो अत्यंत सरल है लेकिन उसके लिए तीन शर्ते पूरी करनी जरूरी हैं। पहली शर्त यह है कि तुम्हें पंद्रह दिनों तक मेरे साथ रहना होगा।

यह कोई आसान बात नहीं, मुल्ला नसरुद्दीन के साथ पंद्रह दिन साथ रहना। तुम्हें पहले समझा दूं तो तुम्हें अर्थ समझ में आएगा। एक आदमी के पास एक सड़ी हुई भेड़ थी, जिसकी बदबू सारे मोहल्ले में घूमती थी। उसको मजाक सूझा, उसने गांव में डुंडी पिटवा दी कि जो आदमी भी घंटे—भर इस भेड़ के साथ कमरे में रह जाएगा, उसको मैं हजार रुपया इनाम दूंगा। बड़े—बड़े हिप्पी, बड़े—बड़े पहुंचे हुए महात्मा आए, तपस्वी, त्यागी…मगर घंटा—भर कौन कहे, भीतर जाएं और मिनट भी न बीते और बाहर आ जाएं कि नहीं भाई, प्राण घुटते हैं।

आखिर में मुल्ला नसरुद्दीन आया। और तुम्हें पता है क्या हुआ?आधा घंटे बाद भेड़ बाहर आ गयी। भेड़ से लोगों ने पूछा क्या हुआ?तो भेड़ ने कहा : यह आदमी मेरी जान ले लेगा, मेरी सांस घुटती है, मेरी दम घुटती है। तो मुल्ला नसरुद्दीन कहता था कि पहली शर्त यह कि तुम्हें पंद्रह दिन तक मेरे साथ रहना होगा। दूसरी शर्त यह है कि मैं जो कहूं वह करना होगा।

वह भी बड़ी झंझट की बात थी क्योंकि वह बातें उल्टी—सीधी लोगों से करने को कहता। किसी को कह देता यह बेपेंदी का बर्तन ले जाओ, कुएं से पानी भरो। अब भरते रहो दिन—रात पानी, पानी कभी भरेगा नहीं आखिर पच जाओगे। उल्टे—सीधे काम करवाता। पंद्रह दिन में जान ले लेगा।

और तीसरी तथा आखिरी शर्त यह है कि जो लखपति बनना चाहता है उस आदमी को पहले से करोड़पति होना चाहिए। स्वभावतः जो करोड़पति है उसको लखपति बनाना आसान मामला है।

तुम से कोई कहे कि मान लो कि लखपति हो तो तुम मानने को राजी नहीं होओगे। तुम कहोगे कि महाराज कुछ खनखनाहट, कुछ आवाज करवाकर बताइए; कुछ नोटों में से नोट निकाल कर बताइए, ऐसे मानने से क्या होगा? लेकिन जब कोई तुमसे कहता है ईश्वर को मान लो, तो तुम मान लेते हो। असल में तुम जानना ही नहीं चाहते हो। तुम कहते हो कौन हुज्जत में पड़े——हो, तो ठीक; न हो, तो ठीक——किसको लेना—देना है! तुम इस योग्य भी नहीं मानते परमात्मा को कि विवाद करो।

बर्ट्रेड रसल ने लिखा है कि एक जमाना था कि लोग विवाद करते थे कि ईश्वर है या नहीं। कुछ लोग, थोड़े—से लोग, कहते थे कि नहीं है। मगर अब जमाना बदल गया, अब हालत यह है कि कोई विवाद ही नहीं करता कि ईश्वर है या नहीं। अब लोगों को इतनी भी उत्सुकता नहीं है कि कोई कहे कि नहीं है। अगर तुम किसी सभा—समाज में विवाद छेड़ने लगो तो लोग कहेंगे कहां की बकवास, अरे किसी फिल्म की बात करो जो फिल्म बस्ती में चल रही हो——कैसी है, अच्छी है, बुरी है! कुछ दिल्ली की बात करो——कि कौन ने किसको पछाड़ा! कुछ मतलब की बात करो, कुछ रसपूर्ण बात करो; यह कहां की ईश्वर की बात छेड़ दी! ईश्वर की लोग बात नहीं करना चाहते और मजा यह है कि सब ईश्वर को माननेवाले लोग हैं, और बात करने—योग्य भी नहीं मानते ईश्वर को!

विचार से यही हो सकता है——एक थोथा आडंबर। मैं चाहता हूं कि तुम्हारे जीवन में ईश्वर की किरण उतरे; तुम्हें ईश्वर का स्वाद मिले; तुम उसे अमृत—घट से पिओ; तुम उसके साथ लवलीन हो जाओ, तल्लीन हो जाओ; तुम उसके साथ उठो, बैठो, सोओ, नाचो, गाओ। इसलिए मैं यह नहीं कह सकता तुमसे कि सिर्फ विचार करने से काम हो जाएगा; मैं तो कहूंगा, निरंतर कहूंगा, बार—बार कहूंगा——निर्विचार होना होगा। ईश्वर की बात ही छोड़ दो——है या नहीं, यह तुम कैसे निर्णय कर सकते हो? अंधा आदमी कैसे निर्णय करेगा कि प्रकाश है या नहीं? बहरा आदमी कैसे निर्णय करेगा कि ध्वनि है या नहीं? आंख की तलाश करो। कान की तलाश करो। जिस दिन आंख होगी तुम जानोगे प्रकाश है; जिस दिन कान होगा तुम जानोगे ध्वनि है। वही जानना रूपांतरकारी है, वही जानना सार्थक है।

दूसरा प्रश्न :

 

भगवान! मेरी पत्नी मुझे संन्यास लेने से रोक रही है, मैं क्या करूं?

 

भैयालाल! भैया, पत्नी की ही मानो; नाहक की झंझट न लो। पत्नी पर तुम अगर अपना बल सिद्ध कर पाते तो यह प्रश्न पूछते ही नहीं। पत्नी पर तुम्हारा बल तो है नहीं। अगर पत्नी कह रही है संन्यास मत लो, तो भूलकर मत लेना। इस झंझट में पड़ना ही मत, नहीं तो पत्नी बहुत उपद्रव खड़ा करेगी। और रहना पत्नी के साथ है। और मेरे संन्यास में पत्नी को छोड़कर जाना नहीं है, यही झंझट है।

पुराना संन्यास बड़ा सरल था। लोग सोचते हैं कठिन था, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं बड़ा सरल था। सबसे बड़ी सरलता यह थी कि भाग गए पत्नी को छोड़कर। आमतौर से लोग समझते हैं कि मैंने संन्यास को सरल बना दिया है, वे बिल्कुल गलत समझते हैं, उन्हें जीवन का कोई अनुभव ही नहीं है। मैंने पहली बार संन्यास को कठिन बनाया है क्योंकि पत्नी के साथ ही रहना है और संन्यास। आग में ही खड़े रहना है और जलना नहीं है। पानी में चलना है और पानी को छूने नहीं देना है। पुराना संन्यास तो सस्ता है, भाग ही गए अब पत्नी कहां खोजती फिरेगी तुम्हें! सिर इत्यादि घुटा लिया, नाम बदल गया, भभूत रमा ली, तरहत्तरह के टीका—तिलक लगा लिए——पत्नी मिल जाए तो भी पहचान न पाए। और भाग गए; इतना बड़ा देश, बैठ गए किसी गुफा में, किसी जमात में सम्मिलित हो गए, पत्नी कहां खोजती फिरेगी?

पुराना संन्यास सरल था क्योंकि भगोड़ापन था, पलायनवाद था, कायरता थी। नया संन्यास निश्चित ही कठिन है क्योंकि चुनौतियों से हटना नहीं है।

तुम्हारी पत्नी के संबंध में मुझे पता नहीं, मगर तुम्हारा प्रश्न बताता है भैयालाल, कि भैया, ऐसी झंझट में न पड़ो तो अच्छा। ऐसे नाम वाले लोगों की पत्नियां खतरनाक होती हैं। तुम सीधे—साधे आदमी होओगे।

मैंने सुना है——एक बस में एक महिला ने झल्लाते हुए अपने पास बैठे व्यक्ति मुल्ला नसरुद्दीन से कहा : आप बड़े बदतमीज हैं जी! आप क्यों बार—बार मेरे मुंह पर सिगरेट का धुआं छोड़ रहे हैं? आपको शर्म नहीं आती?

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा : शर्म तो आपको आनी चाहिए देवीजी! आप मुझसे इतने सटकर क्यों बैठी हैं? और सटकर ही नहीं बैठी हैं बार—बार अपने हाथ से हुद्दे दे रही हैं।

महिला ने कहा : आप बड़े बेशुऊर हैं। मैं हुद्दे नहीं दे रही, देखते नहीं कि मैं मोटी हूं, सांस ले रही हूं! आपको महिलाओं से बात करने का ढंग भी पता नहीं?

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा : देवीजी, मुझे नहीं पता कि महिलाओं से कैसी बात करनी चाहिए, मगर आपको तो पता होगा कि एक भारतीय स्त्री के क्या आदर्श हैं। कम—से—कम आपको तो उसका पालन करना चाहिए।

उस महिला ने कहा : आप पहले दर्जे के बेवकूफ हैं। यदि आप मेरे पति होते तो मैं जरूर आपको जहर दे देती।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा : क्षमा करिए देवीजी, यदि आप मेरी पत्नी होतीं तो यह कष्ट आपको न करना पड़ता, मैं खुद ही जहर पी लेता।

अब पता नहीं भैयालाल, आपकी पत्नी किस ढंग—ढोर की हैं, क्या व्यवहार—सद्व्यवहार आपके साथ करेंगी संन्यास लेने पर! मगर जहां तक सौ में निन्यानबे मौके तो यही हैं कि यह झंझट आप न लो तो अच्छा। आप पत्नी को यहां लाने लगो। पहले मुझे उसे संन्यासी बना लेने दो। मैं इसी ढंग से काम करता हूं। इससे पुरुषों की इज्जत बच जाती है। पहले पत्नियों को संन्यासी बना लेता हूं फिर उनको बनना ही पड़ता है। फिर ऐसा पति कहां जो पत्नी की आज्ञा टाले। और मेरा स्त्रियों से गणित बिल्कुल जम जाता है।

इसलिए तुम सिर्फ इतना ही करो, अगर इतना ही कर पाओ तो बहुत कि किसी तरह पत्नी को यहां लाने लगो——उसे सुनने दो, उसे गुनने दो, उसे नाचने दो, उसे ध्यान करने दो——आज नहीं कल वह संन्यासी होना चाहेगी। जिस दिन वह होना चाहेगी उस दिन तुम्हारे लिए भी रास्ता खुल जाएगा। उसके पहले तुम व्यर्थ की चिंताओं में, बेचैनियों में पड़ जाओगे। वह तुम्हारा जीना हराम कर देगी, चौबीस घंटे तुम्हें सताएगी। और भागने मैं नहीं दूंगा।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं : अब संन्यास ले लिया, अब हमको यहीं रहना है, घर नहीं जाना है। असल में यहां रहना है, इससे प्रयोजन सिर्फ इतना ही है कि घर नहीं जाना है। घर क्यों नहीं जाना है? “कि नहीं अब यहीं रहने का मन होता है।” यहीं रहने का मन नहीं है असली बात, मैं उनसे कहता हूं: असली बात कहो। वे कहते हैं : “अब आप तो जानते ही हैं।”

एक मित्र बनारस के संन्यास लेकर गए, बमुश्किल भेजा उन्हें…उनको समझाकर कि जाओ भई! कोई पांच—सात दिन बाद ही उनकी चिट्ठी आयी कि पत्नी ने अस्पताल में भरती करवा दिया है क्योंकि पत्नी कहती है कि तुम पागल हो गए। मैं जितना मना करता हूं उतना ही कोई मेरी मानता नहीं। सब मेरी पत्नी की मानते हैं। डाक्टरों को भी समझाता हूं, डाक्टर कहते हैं :”चुप रहो भाई” सभी पागल यही कहते हैं कि पागल नहीं हैं। तुम बकवास न करो, तुम शांत रहो, तुम लेटे रहो, दवा लो, इलाज करवाओ।”

पागल क्यों पत्नी ने समझ लिया? क्योंकि वे घर हंसते हुए पहुंचे, प्रसन्‍न पहुंचे। और पत्नी ने कहा कि हंसते हुए और प्रसन्‍न कभी देखा नहीं था उनको। और भजन—कीर्तन करने लगे…। उन्होंने सोचा होगा पहले से ही छाप मार दूं। पहले से ही, नहीं तो पीछे फिर मुश्किल हो जाएगा। मगर पत्नी ने भी उन्हें पकड़ा उसी वक्त, मोहल्ले के लोगों को इकट्ठा कर लिया कि इनका दिमाग खराब हो गया है, भले—चंगे घर से गए थे। उन्होंने मुझे लिखा है कि मैं…मुझे बहुत हंसी आती है कि हद हो गयी, मैं बिल्कुल ठीक हूं, लोग मुझे पागल समझ रहे हैं। चूंकि मुझे हंसी आती है, वे मुझे और पागल समझते हैं। और सबकी सहानुभूति पत्नी के साथ है। मैंने उनको खबर भेजी कि बेहतर यही है कि तुम वैसे ही हो जाओ उदास जैसे पहले थे——न भजन—कीर्तन करो, न हंसो, न गाओ। पत्नी की मानकर चलो, नहीं तो वह तुम्हें मुसीबतों में डाल देगी।

एक बात ख्याल में रखना, पुरुष ने स्त्री पर कब्जा करने की कोशिश की है सदियों में और एक तरह से पुरुष ने बहुत कब्जा स्त्री पर कर भी लिया है। उसके हाथ से सारी आर्थिक स्वतंत्रता छीन ली, सामाजिक स्वतंत्रता छीन ली, जीवन में गति करने की दृष्टि से उसे बिल्कुल पंगु कर दिया, उसके पैरों में जंजीरें डाल दीं——नाम उनको अच्छे—अच्छे दिए, आभूषणों के नाम दिए। उसके जीवन को बिल्कुल घर में बंद कर दिया और स्वतंत्रता मनुष्य के जीवन की बड़ी अनिवार्यता है।

पुरुष ने स्त्री को सब तरह से परतंत्र कर दिया, इसका बदला स्त्री न ले यह असंभव है। तुमने सब तरह से उसे परतंत्र कर दिया, इसका इकट्ठा बदला वह तुमसे लेती है। बाहर के जगत में तो उसकी कोई गति नहीं है लेकिन घर के जगत में वह तुम्हें पूरी तरह दबा देती है। इस तरह का पुरुष खोजना ही मुश्किल है जो अपनी पत्नी से न डरता हो। डरना ही पड़ेगा क्योंकि तुमने उसे बहुत डराया है। ख्याल रखो जीवन का नियम, जब तुम किसी को डराओगे, तुम्हें डरना पड़ेगा और जब तुम किसी को गुलाम बनाओगे तो तुम्हें गुलाम बनना पड़ेगा। अगर स्वतंत्र रहना है तो दूसरे को स्वतंत्र करो। अगर तुम चाहते हो कि तुम मुक्त रहो तो किसी को बंधन में मत बांधो।

बीरबल ने एक दिन कहते हैं अकबर को कहा——ऐसे ही बातचीत में बात निकल आयी होगी——कि तुम्हारे दरबार में सब दब्बू हैं, सब पत्नियों से डरते हैं। अकबर ने दूसरे दिन ही अपने दरबारियों से कहा : ईमानदारी से, जो लोग अपनी पत्नियों से डरते हों, वे बाएं तरफ खड़े हो जाएं और जो पत्नियों से न डरते हों, वे दाएं तरफ खड़े हो जाएं। मगर ईमानदारी से, कोई धोखा न दे क्योंकि जिसने धोखा दिया या धोखा देते हुए पकड़ा गया…उसकी जांच—पड़ताल की जाएगी पीछे तो फांसी की सजा होगी। एकदम बायीं तरफ कतार लग गयी, सारे दरबारी बड़ी—बड़ी तलवारें लटकाए खड़े बाएं तरफ। सिर्फ एक दुबला—पतला आदमी, जिसकी कोई हैसियत ही न थी दरबार में, जो आखिरी समझा जाए, वह भर दायीं तरफ आकर खड़ा हो गया।

अकबर ने भी कहा कि हद हो गयी, बड़े—बड़े बहादुर, सूरमा, युद्धों के विजेता बड़े तमगे जिन्होंने जीते, सोने के तमगे लटकाए हुए और तलवारें…खड़े हैं बायीं तरफ सिर झुकाए और यह बिल्कुल सूखा—रूखा आदमी, एक तमगा कभी जीता नहीं, कभी एक युद्ध में लड़ा नहीं, तलवार पकड़ने का शऊर नहीं——यह खड़ा है दायीं तरफ! मगर फिर भी कहा कोई बात नहीं, कम—से—कम एक आदमी तो है दरबार में जो अपनी पत्नी से नहीं डरता।

उस आदमी ने कहा : क्षमा करें महाराज! आप गलत न समझें। जब मैं घर से चलने लगा तो मेरी पत्नी ने कहा——भीड़—भाड़ से जरा दूर ही खड़े होना। इसलिए मैं इस तरफ खड़ा हूं, और कोई कारण नहीं है। कहीं उस दुष्ट को पता चल जाए कि भीड़—भाड़ में खड़ा हुआ तो रात ही मुसीबत…।

मैंने एक और कहानी सुनी है। किसी और सम्राट के दरबार में यही बात चली। सदियों पुरानी है यह बात क्योंकि आदमी और स्त्री का संबंध सदियों—सदियों में विचारा गया है और अब तक रुग्ण है, अब तक भी स्वस्थ नहीं हो पाया है। पूछने पर पता चला कि सारे दरबारी अपनी पत्नियों से डरते हैं। तो उसने अपने बड़े मंत्री को कहा कि तू दो घोड़े लेकर जा——एक काला और एक सफेद, हमारे जो श्रेष्ठतम घोड़े हैं और सारे राज्य में घूम और जो व्यक्ति भी पत्नी से न डरता हो, वह जो भी घोड़ा पसंद करे, उसको दे देना भेंट मेरी तरफ से।

उन दिनों घोड़ा बड़ी शानदार चीज थी और सम्राट के पास सचमुच ही कीमती घोड़े थे। वह आदमी लेकर चला, हजारों लोगों से पूछा लेकिन उन्होंने कहा कि भाई, घोड़ा लेने का तो बहुत दिल होता है मगर झूठ बोलना ठीक नहीं है। और सम्राट से झूठ बोलना क्या उचित, फिर बात पकड़ गयी पीछे तो झंझट होगी, हम तो डरते हैं। थका जाता था वजीर कि एक दिन एक ठेठ जंगली स्थान में जहां दो—चार झोपड़े थे, एक आदमी बैठा हुआ अपने शरीर पर मालिश कर रहा है, बड़ी—बड़ी उसकी मसल हैं, बड़े पंजे हैं उसके, होगा कम—से—कम सात फीट ऊंचा कि अगर शेर से भी जूझ जाए तो शेर को भी पछाड़ दे ऐसा उसका बल है। वजीर को ढाढ़स बंधा। उसने कहा कि कम—से—कम यह आदमी घोड़ा जीत लेगा। घोड़े को सामने बांधकर वजीर ने उससे पूछा कि भई पूछता हूं तुमसे, अपनी पत्नी से तो नहीं डरते?

उस आदमी ने अपना पंजा वजीर को दिखलाया और पंजा बंद करके दिखलाया और कहा कि देखते हो यह पंजा, जिसकी गर्दन पर कस जाए वह खत्म। उसने अपनी मसलें उठाकर बतायीं। उसने कहा, देखते हो ये मसल, ये चट्टान पर हाथ मार दूं तो चट्टान टूट जाए।

वजीर ने कहा : तो फिर ठीक, तेरी पत्नी कहां है?

तो पत्नी पास ही बैठी हुई अनाज बीन रही थी, एक दुबली—पतली औरत, बिल्कुल दुबली—पतली औरत कि यह आदमी तो उसको मरोड़ कर फेंक दे तो उसका कहीं पता ही न चले। कहा : वह है मेरी पत्नी।

तो वजीर ने कहा कि ठीक है तो तुम घोड़ा चुन लो। सम्राट ने कहा है कि जो भी अपनी पत्नी से न डरता हो, वह घोड़ा चुन ले, सफेद या काला, कौन—सा घोड़ा?

उस आदमी ने कहा : लल्लू की मां, कौन—सा घोड़ा चुनूं——सफेद कि काला?

वजीर ने कहा : कोई भी नहीं मिलेगा। गए काम से। अगर यह भी लल्लू की मां से ही पूछना है तो मालकियत खत्म।

पुरुष ने स्त्री की सारी स्वतंत्रता छीन ली है और इसलिए स्त्री के पास अब कुछ नहीं बचा है स्वतंत्रता के नाम पर। और उसका प्रतिशोध स्त्री लेती है इसलिए पुरुष को सब तरह से सता सकती है। उसके सताने के ढंग स्त्रैण हैं। पुरुष गुस्से में आ जाएगा तो स्त्री को मारेगा, स्त्री गुस्से में आ जाएगी तो अपना सिर पीटेगी। मगर तुम स्त्री को मारो तो अपना बचाव कर सकती है और जब स्त्री अपना सिर पीट ले तो क्या बचाव करोगे तुम? उसके तुम्हें सताने के ढंग भी बहुत भिन्न हैं——वह रोएगी, दुखी होगी, पीड़ित होगी, और तुम्हें इस हालत में पैदा कर देगी कि तुम्हें लगने लगे कि तुम अपराधी हो। मगर इसके भीतर सदियों पुरानी एक भ्रांत धारणा काम कर रही है कि स्त्री—पुरुष मित्र नहीं हो सकते। अब तक हमने स्त्री को स्वतंत्रता नहीं दी है और जब तक स्वतंत्रता नहीं है स्त्री को, तब तक पुरुष भी स्वतंत्र नहीं हो सकता।

संन्यास तुम लेना चाहते हो, शुभ भाव तुम्हारे मन में उठा, लेकिन जल्दी न करो, जल्दी की कोई जरूरत नहीं है। मेरा अपना अनुभव यह है कि अगर पत्नी और पति दोनों साथ—साथ

संन्यास लें तो गहराई बहुत बढ?ती है। क्योंकि दोनों एक—दूसरे के सहयोगी हो जाते हैं; दोनों का तालमेल गहन बैठ जाता है; दोनों बाधा नहीं बनते, एक—दूसरे के लिए सीढ़ी बन जाते हैं, एक—दूसरे को हाथ का सहारा देते हैं। अगर दो में से एक भी संन्यास ले ले तो दूसरा बाधा डालने की कोशिश करता है, दूसरा हर तरह से अड़चन खड़ी करता है। और संन्यास तो वैसे ही कठिन साधना है। संसार में रहकर फिर अगर बाधाएं पैदा की जाएं और घर में ही बाधाएं पैदा की जाएं तो मुश्किल हो जाएगा ध्यान में उतरना, मुश्किल हो जाएगा चैतन्य को जगाना——छोटी—छोटी बातें, छोटा—छोटा उपद्रव चौबीस घंटे घेरे रहेगा।

इसलिए मेरी सलाह है——पत्नी को भी लाओ, उसे भी मुझे सुनने दो, उसे भी सत्संग में डूबने दो। संन्यास की बात ही अभी मत उठाओ, ज़रा ठहरो। हर चीज अपने समय पर शुभ है। संन्यास होगा अगर अभीप्सा जगी है तो होगा, कोई भी रोक नहीं सकता——न पत्नी रोक सकती है, न कोई और रोक सकता है। अगर तुम्हारे प्राणों में गीत बज गया है तो घटना घटेगी। जो भीतर है वह बाहर भी घटेगा, लेकिन बाहर की बहुत जल्दी मत करना।

इन हीरे ऐसे अश्कों को आरिज पर लुटाकर मत रोको

याकूत के ऐसे होठों को दांतों से चबाकर मत रोको

इक बात है जो रह जाएगी, यह वक्त कहां फिर पाऊंगा

उस पार मुझे जाने भी दो, रोको न मुझे मैं जाऊंगा

खूंखार निगाहों के डर से लब तक न हिलें यह क्या मानी

तकदीर की भोली बातों को हम सुनते रहें यह क्या मानी

सदियों के भयानक माजी की इन कंदीलों को बुझाऊंगा

उस पार मुझे जाने भी दो, रोको न मुझे मैं जाऊंगा

कब तक यह अमामा कु१७९ाोदीन के ढोंग रचाए जाएगा

कब तक यह पुजारी दुनिया को उंगली पै नचाए जाएगा

इन झगड़ों से जो पाक रहे वह बस्ती एक बसाऊंगा उस पार मुझे जाने भी दो, रोको न मुझे मैं जाऊंगा

ऐसा भी जमाना आएगा, जब हम दोनों मिल जाएंगे

हर मंजर कैफ—आगी होगा, हर कैफ पै हम लहराएंगे

दुनिया ही निराली पाओगी, जिस वक्त मैं वापिस आऊंगा

जाना है उस पार——उस पार यानी भीतर, उस पार यानी अंतर्तम में। जाना है उस पार और कोई रुकावट से रुकना नहीं है। मगर एक कुशलता चाहिए, एक कला चाहिए।

संन्यास बड़ी—से—बड़ी कला है। और जब तुम परिवार में हो——पत्नी है, बच्चे हैं, मां है, पिता है——धीरे—धीरे सबको राजी करो; उनके राजीपन से जाओ। भीतर तो जाना शुरू कर दो, ध्यान में तो उतरने लगो लेकिन बाहर का जो रूपांतरण है वह सबके राजीपन से।

महावीर के जीवन में प्यारा उल्लेख है। महावीर संन्यस्त होना चाहते थे। महावीर की मां ने कहा : “मेरे रहते नहीं, मैं जब मर जाऊं तब, मैं न सह पाऊंगी और अगर तुमने संन्यास लिया तो तुम्हारा संन्यास मेरी मौत बनेगी।” महावीर तो यह सोच भी नहीं सकते थे कि कोई मौत उनके कारण हो। चींटी को भी मारने की उनकी इच्छा न थी, तो अपनी मां को मारते! परोक्षरूपेण सही मगर जुम्मेवारी तो होती, तो रुक गए। दो साल बाद मां की मृत्यु हो गयी। दफना कर लौट रहे हैं। रास्ते में अपने बड़े भाई से कहा कि अब मुझे आज्ञा दे दें, मां की वजह से रुका था।

बड़े भाई ने कहा :”हद हो गयी, एक पहाड़ हमारी छाती पर टूटकर गिरा कि मां चल बसी और तुम्हें शर्म नहीं आती? मुझे छोड़कर जाते हो। यह वक्त जाने का है? मुझे सहारा दो। अभी नहीं, जब तक मैं आज्ञा न दूं संन्यास नहीं।”

और महावीर फिर रुक गए। लेकिन दो वर्ष में ही भाई को आज्ञा देनी पड़ी; आज्ञा ही नहीं देनी पड़ी, प्रार्थना करनी पड़ी। क्योंकि दो वर्ष में महावीर ध्यान में उतरते गए, उतरते गए, उतरते गए। ऐसे ध्यान में उतर गए कि घर में उनकी मौजूदगी भी पता चलनी बंद हो गयी। ऐसे शून्य हो गए कि हैं या नहीं बराबर हो गया। लोग गुजर जाते उन्हें पता न चलता, वे स्वयं गुजरते तो लोगों को उनका पता न चलता; न किसी के काम में अड़चन न किसी के काम में बाधा, न हस्तक्षेप, न अवरोध। होना न होने के बराबर कर दिया, बिल्कुल बराबर कर दिया। आखिर एक दिन घर के लोगों को ही यह अनुभव में आना शुरू हुआ कि अब हम व्यर्थ रोक रहे हैं। किसको रोक रहे हैं? अब सिर्फ शरीर रुका है, पिंजड़ा पड़ा है; हंसा तो जा चुका, हंसा तो उड़ गया। घर के सारे लोगों ने जुड़कर प्रार्थना की महावीर से कि अब हम न रोकेंगे; अब ज्यादती हो जाएगी, अब तुम्हें जो शुभ लगता हो वैसा करो क्योंकि वैसे ही तुम जा चुके हो, सिर्फ देह रुकी है।

यही मैं तुमसे भी कहूंगा। हवा बनाओ घर की, एक वातावरण बनाओ घर का। तुम्हारा ध्यान बढ़े, तुम्हारा प्रेम बढ़े, तुम्हारी शांति बढ़े, तो पत्नी क्यों अड़चन देगी? तो बच्चे क्यों बाधा डालेंगे? और पत्नी अगर अड़चन दे रही है तो उसका कारण है——सदियों—सदियों से संन्यास के नाम पर जो हुआ है, वह। सदियों—सदियों में पत्नियां सतायी गयी हैं, बच्चे अनाथ हो गए हैं——बाप जिंदा है और बच्चे अनाथ हो गए हैं क्योंकि बाप संन्यासी हो गया; पति जिंदा है और पत्नी विधवा हो गयी क्योंकि पति संन्यासी हो गया।

पांच हजार साल भारत में स्त्रियों ने जो सहा है संन्यास के नाम पर, वह इतना ज्यादा है कि कोई भी पत्नी भयभीत हो जाएगी। संन्यास शब्द ही दूषित हो गया। फिर तुम चाहे मेरे संन्यासी होना क्यों न चाहो, संन्यास शब्द से ही घबड़ाहट पैदा हो जाती है। ज़रा पत्नी को आने दो सत्संग में, उसे समझने दो कि यह संन्यास एक नया ही अवतरण है, एक नयी धारणा है——यह न तो स्त्री के खिलाफ है, न बच्चों के खिलाफ है, न परिवार के, न प्रेम के; यह तो पक्ष में है। मेरा संन्यास संसार के विपरीत है, संसार के अतिक्रमण में है। संसार को छोड़ना नहीं है, संसार में जागना है।

लेकिन भीतर तो तुम ध्यान में उतरता शुरू हो जाओ; उसमें तो कोई बाधा नहीं डालेगा, उसमें तो पत्नी की आज्ञा लेने की जरूरत नहीं है, पत्नी को पता ही क्यों चले। रात के आधे, आधी रात जब पत्नी भी सोयी हुई हो तब उस बिस्तर पर बैठ जाओ। किसी को पता ही क्यों चले, कानों—कान खबर क्यों हो! लेकिन ध्यान में डूबने लगो। ध्यान ही असली संन्यास है। फिर बाहर के कपड़े तो कभी भी रंग देंगे, बाहर के कपड़ों के रंगने की इतनी चिंता नहीं है। और बाहर के कपड़ों को रंगकर झंझट इतनी खड़ी हो जाए कि भीतर का ध्यान मुश्किल में पड़ जाए, ऐसी सलाह मैं नहीं दे सकता हूं।

आखिरी सवाल :

 

भगवान! मैं अपने मन के शैतान से संघर्ष का सतत अभ्यास कर रहा हूं फिर भी सफलता क्यों नहीं मिलती?

रामानंद! संघर्ष में ही विफलता है। संघर्ष में सफलता संभव नहीं है। संघर्ष गलत प्रारंभ है। समझ चाहिए, संघर्ष नहीं। जिससे तुम लड़ोगे, उसको तुम बल दोगे क्योंकि जिससे तुम लड़ रहे हो वह तुम्हारा ही अंग है। मन से लड़ रहे हो, किससे लड़ रहे हो? मन तुम्हारी ऊर्जा है। क्रोध है, लोभ है, मोह है, काम है——ये तुम्हारी ही ऊर्जाएं हैं; इनसे तुम लड़ोगे तो अपने बाएं हाथ को दाएं हाथ से लड़ा रहे हो। पागल हो! कौन जीतेगा, कौन हारेगा? न कभी जीत होगी, न कभी हार होगी। शक्ति गंवाओगे और टूटोगे, खंडित होओगे, नष्ट होओगे; विक्षिप्त हो जाओगे, विमुक्त नहीं।

संघर्ष नहीं चाहिए, समझ चाहिए। मन को समझो। मन की प्रत्येक अभिव्यक्ति को समझो। क्रोध क्या है, समझो। क्रोध की गहराई में उतरो। क्रोध की आधारशिला में उतरो। क्रोध की जड़ को पकड़ो। काम क्या है, समझो। तुम्हें लड़ना सिखाया गया है, समझना नहीं सिखाया गया। और जितना तुम लड़ोगे उतना ही तुम मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि जितना तुम लड़ोगे, उतना ही तुम्हारा मन भी लड़ने में कुशल हो जाएगा। जब दो आदमी लड़ते हैं तो दोनों की कुशलता बढ़ती है। अखाड़ों में देखते हो न, लोग अभ्यास के लिए कुश्ती करते रहते हैं——दोनों की कुशलता बढ़ती रहती है। तुम अगर मन से लड़ोगे, तुम्हारी भी लड़ने की क्षमता बढ़ेगी——दोनों बलशाली होते जाओगे। और जितने बलशाली होओगे, उतना ही संघर्ष ज्यादा, उतना ही शक्ति का अपव्यय ज्यादा।

ऐसे नहीं चलेगा। मैं संघर्ष नहीं सिखाता। मेरा तो सारा सूत्र समझ का है। ध्यान करो मन पर लड़ना क्या है! मन बुरा है, ऐसा मानकर क्यों बैठ गए? समझाया है पंडित—पुरोहितों ने तो मान लिया है। इसीलिए तो चाहता हूं कि पंडित—पुरोहितों से मुक्त हो जाओ; उनके कारण ही तुम्हारी जिंदगी झंझट बनी है। उनके कारण ही तुम्हारी जिंदगी लंबी कहानी है व्यथा की, जिसमें आनंद का कोई गीत न फूटा है, न फूट सकता है। जिसमें विषाद ही विषाद आएगा और मौत आएगी——महा जीवन नहीं, अमृत का तुम्हें काई अनुभव न हो सकेगा।

लड़ने का मतलब होता है——दबाना। किसी तरह दबाकर बैठ भी गए तो आज नहीं कल, कभी तो छुट्टी लोगे…इसलिए तुम्हारे साधु—संत छुट्टी नहीं ले सकते, चौबीस घंटे छाती पर चढ़े बैठे रहेंगे, अपनी ही छाती पर खुद ही चढ़े बैठे हैं। थोड़ी देर को भी फुर्सत नहीं है। हंस भी नहीं सकते क्योंकि उतनी छुट्टी लेने में भी खतरा है, उतनी देर में ही वह जो दबाया है, वह उभरकर बाहर आ जाए!

तुम्हारे साधु—संत आंख नीचे झुकाकर चलते हैं——कोई सुंदर स्त्री रास्ते पर दिखाई न पड़ जाए! यह मुक्ति हुई या बंधन हुआ? अगर सुंदर स्त्री के दिखाई पड़ने में इतनी घबड़ाहट है, यह कौन—सी जीत है? इस जीत की कितनी कीमत है? दो कौड़ी भी मूल्य नहीं। अगर ऐसे आंख चुरा—चुराकर चले तो सबूत दे रहे हो तुम कि तुम्हारे भीतर सब रोग मौजूद हैं। हां, पर्दे की ओट कर दिए हैं। और रोग पर्दे की ओट में बलशाली हो जाते हैं, ख्याल रखना, क्योंकि वे भी अभ्यास कर रहे हैं, वे भी डंड—बैठक लगा रहे हैं वे भी तैयारी कर रहे हैं, कि अब की बार हमला हो तो तुम्हें चारों खाने चित कर देना है।

मैंने सुना है——एक बार एक शिकारी जोकि नया—नया शिकारी हुआ था, शिकार के लिए जंगल गया। जैसा कि शिकार में होता है; वृक्ष पर मचान बंधवाया गया। कुछ समय पश्चात् शेर आया। शिकारी ने शेर को देखा और शेर ने शिकारी को। शिकारी नया था, शेर भी नया था। इसलिए स्वभावतः शिकारी का निशाना चूक गया और गोली शेर के ऊपर से निकल गयी। इधर शेर ने भी शिकारी की तरफ छलांग मारी, मगर वह भी मचान से करीब चार—छः इंच नीचे रह गया। शिकारी ने उसकी गर्म सांसें और लाल—लाल आंखें अपने बहुत निकट महसूस कीं। छलांग में असफल हो जाने पर शेर भाग गया।

शिकारी अपनी असफलता पर बहुत दुखी था, अतः वह दूसरे दिन निशानेबाजी की प्रैक्टिस के लिए जंगल पहुंचा। वह जिस जगह प्रैक्टिस कर रहा था, उसने देखा : पास की झाड़ियों से बार—बार किसी चीज के गिरने की आवाजें आ रही हैं। उसने सोचा : आखिर बात क्या है, देखना चाहिए।

देखा, तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा—— कल वाला शेर झाड़ियों में ऊंची कूद की प्रैक्टिस कर रहा था।

तुम अभ्यास करोगे मन से लड़ने का, मन भी अभ्यास करेगा तुमसे लड़ने का, जीत कभी होने वाली नहीं। संघर्ष से कभी कोई सफलता हाथ नहीं लगती। संघर्ष ही तुम्हारी असफलता का आधार है। समझ को पकड़ो, बोध को पकड़ो। ज्ञान का, ध्यान का दीया जलाओ! मन के साथ पहले से ही पक्षपात मत कर लो कि बुरा है। परमात्मा ने जो भी दिया है शुभ ही है, हमें उसका उपयोग करना आना चाहिए। क्रोध का अगर कोई ठीक—ठीक राज खोल ले तो करुणा प्रगट होती है। और कामवासना की ग्रंथि को जो खोलने में समर्थ हो जाता है, उसके जीवन में ब्रह्मचर्य का फूल लगता है। कामवासना ब्रह्मचर्य को छिपाए है। कामवासना बीज है, ब्रह्मचर्य फूल है। और क्रोध करुणा की खोल है। खोल गिर जाए, करुणा प्रगट हो।

बीज को फेंक मत देना और बीज से लड़ना नहीं है, बीज को जमीन में बोना है। समझ की भूमि में बीज को बोओ, ध्यान की वर्षा होने दो, ज्ञान की धूप पड़ने दो, प्रेम को रखवाली करने दो और जल्दी ही वह घड़ी आएगी कि तुम जिन हो सकोगे, तुम विजेता हो सकोगे। मैं तुम्हें जो सिखा रहा हूं वह बिना लड़े जीत की कला हैः बिना लड़े विजय का शास्त्र है।

आज इतना ही।


Filed under: गुरू प्रताप साध की संगति--(संत भीखादास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आंनद प्रसाद

तंत्र–सूत्र–(भाग–3)–प्रवचन–43

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परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो—(प्रवचन—तीरालीसवां)

सार सूत्र:

66—मित्र और अजनबी के प्रति, मान और अपमान में,

      असमता के बीच समभाव रखो।

67—यह जगत परिवर्तन का है, परिवर्तन ही परिवर्तन

      का है। परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।

नारथ्रोप ने कहीं कहा है कि पश्चिमी चित्त अस्तित्व के सैद्धांतिक पक्ष की खोज में लगा रहा है; वह कार्य—कारण की कड़ी ढूंढता रहा है। वह खोजता रहा है कि कैसे चीजें घटित होती हैं, उसका कारण क्या है, कारण को नियंत्रित कैसे किया जाए और कैसे मनुष्य प्रकृति को अपने मनोनुकूल व्यवस्थित कर अपने काम में लाए। और नारथोप ने कहा है कि पूर्वीय चित्त एक दूसरे ही अभियान में संलग्न रहा है, वह सत्य के सौंदर्य पक्ष की खोज करता रहा है; सैद्धांतिक नहीं, सौंदर्य पक्ष की खोज में लगा रहा है।

पूर्वीय चित्त ने इस बात की ज्यादा फिक्र नहीं की है कि कैसे वह प्रकृति को अपने अनुकूल चला सके, उसका शोषण कर सके। लेकिन वह इस बात में जरूर उत्सुक रहा है कि कैसे प्रकृति के साथ एक हुआ जाए। वह उसे जीतने में उत्सुक नहीं रहा है, उससे गहन मैत्री बनाने में, उसका घनिष्ठ भागीदार बनने में उत्सुक रहा है। पश्चिमी चित्त प्रकृति के साथ द्वंद्व में, संघर्ष में उलझा रहा है; पूर्वीय चित्त उसकी रहस्यमयता में उतरने और उसके साथ प्रेम—संबंध में डूबने में संलग्न रहा है।

मैं नहीं जानता कि नारथ्रोप मेरे साथ सहमत होगा या नहीं; लेकिन मेरा खयाल है कि विज्ञान प्रकृति के साथ एक घृणा का संबंध बनाए है, इसलिए वह संघर्ष, युद्ध और विजय की भाषा में बात करता है। धर्म तो प्रकृति के साथ प्रेम—संबंध है; उसमें द्वंद्व कहां? संघर्ष कहा?

दूसरे ढंग से देखा जाए तो विज्ञान पुरुष की दृष्टि है और धर्म स्त्री की दृष्टि है। विज्ञान आक्रामक है, धर्म अनाक्रामक है। पूर्वीय चित्त धार्मिक है। या अगर तुम मुझे इजाजत दो तो मैं कहूंगा कि जहां भी धार्मिक चित्त है, वह पूर्वीय है; वैज्ञानिक चित्त पश्चिमी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई आदमी पूरब में पैदा हुआ है या पश्चिम में।

मैं पूरब और पश्चिम का उपयोग दो दृष्टियों की भांति, दो रुझानों की भांति करता हूं; वे मेरे लिए कोई भौगोलिक स्थान नहीं हैं। पश्चिम में पैदा होकर भी तुम पश्चिम के न होकर पूरे के पूरे पूर्वीय हो सकते हो। और पूरब में जन्म लेकर भी तुम्हारा रुझान वैज्ञानिक हो सकता है, तुम चीजों को गणित और बुद्धि की दृष्टि से देख सकते हो।

तंत्र बिलकुल पूर्वाय है। तंत्र सत्य में भागीदार होने का एक ढंग है। तंत्र सत्य के साथ एक होने की, सीमाएं गिरा देने की, अभेद के जगत में गति करने की कीमिया है। मन भेद करता है, सीमाएं बनाता है; मन परिभाषा करता है, क्योंकि मन परिभाषा के बिना, सीमा के बिना नहीं रह सकता। सीमाएं जितनी सुस्पष्ट होंगी, मन के लिए काम करना उतना ही आसान होगा। मन सब कुछ को तोड़ता है, बांटता है, टुकड़े—टुकड़े करता है।

धर्म सीमाओं को विलीन करता है, ताकि उस अभेद में प्रवेश हो सके जहां कोई परिभाषा नहीं है, जहां किसी चीज की कोई सीमा नहीं है, जहां हर एक चीज दूसरी चीज में प्रवेश कर जाती है, जहां हर एक चीज साथ—साथ दूसरी चीज भी है। तुम काट नहीं सकते, अस्तित्व की काट—पीट नहीं हो सकती।

यह अनिवार्य है कि विज्ञान और धर्म के देखने के जो अलग—अलग ढंग हैं, उनके परिणाम भी अलग हों। वैज्ञानिक ढंग से, काट—पीट के रास्ते से तुम मृत अणु—परमाणुओं पर पहुंच जाओगे, क्योंकि जीवन कुछ ऐसा है कि उसे खंडों में नहीं तोड़ा जा सकता। और जैसे ही तुम तोड़ते हो, जीवन विदा हो जाता है। यह ऐसा ही है जैसे कोई संगीत को समझने के लिए एक—एक स्वर को अलग—अलग समझने की चेष्टा करे। अकेला स्वर भी संगीत का अंग है, लेकिन वह संगीत नहीं है। अनेक स्वरों के एक—दूसरे में घुलने से संगीत पैदा होता है। तुम स्वरों को समझकर संगीत नहीं समझ सकते हो। मैं तुम्हें तुम्हारे अंगों के अध्ययन के द्वारा नहीं समझ सकता। क्योंकि तुम अंगों का जोड़ भर नहीं हो, तुम उस जोड़ से बहुत ज्यादा हो। जब तुम बांटते हो, तोड़ते हो, तो जीवन विदा हो जाता है, सिर्फ मुर्दा अंग बचते हैं।

यही कारण है कि विज्ञान कभी जीवन को जानने में समर्थ नहीं होगा। और विज्ञान के द्वारा जो भी जाना जाएगा, वह मृत्यु के संबंध में होगा, पदार्थ के संबंध में होगा; वह ज्ञान जीवन का ज्ञान कभी नहीं हो सकता। विज्ञान जीवन के अंगों को, मृत अंगों को जान सकता है; वह किसी ढंग से जीवन को व्यवस्थित कर उसका उपयोग भी कर सकता है; लेकिन उसके बावजूद जीवन अनजाना रह जाएगा; अछूता रह जाएगा। विज्ञान के लिए जीवन अज्ञेय रह जाता है, उसकी पद्धति उसका ढंग ही ऐसा है कि वह जीवन को नहीं जान सकेगा। और यही कारण है कि विज्ञान पदार्थ के अतिरिक्त सब कुछ को इनकार करता है। उसकी दृष्टि ही ऐसी है, उसका ढंग ही ऐसा है कि जीवन के संपर्क से वह वंचित रह जाता है।

और धर्म में ठीक विपरीत घटित होता है। अगर तुम धर्म में गहरे उतरोगे तो पदार्थ को इनकार करने लगोगे। शंकर कहते हैं कि पदार्थ मिथ्या है, भांति है। वह है नहीं, सिर्फ भासता है। पूरब की पूरी दृष्टि संसार को, पदार्थ को इनकार करती है। क्यों? विज्ञान जीवन को, भगवत्ता को, चैतन्य को अस्वीकार करता है। गहन धार्मिक अनुभव पदार्थ को अस्वीकार करता है। क्यों?

अपनी—अपनी दृष्टि के कारण वे ऐसा करते हैं। अगर तुम जीवन को अभेद की दृष्टि से देखते हो तो पदार्थ खो जाता है। विभाजित जीवन, भेद की दृष्टि से देखा गया जीवन पदार्थ है। पदार्थ का अर्थ है वह जीवन जिसकी परिभाषा हो गई, जिसका खंड—खंड विश्लेषण हो गया। अगर तुम सच ही जीवन को अभेद की दृष्टि से देखते हो, उसके हिस्से हो जाते हो,

उसमें घनिष्ठ भागीदार होते हो, उसके साथ ऐसे एक हो जाते हो जैसे दो प्रेमी एक हो जाते हैं, तो पदार्थ विलीन हो जाता है।

इसीलिए शंकर कहते हैं कि पदार्थ माया है। अगर तुम अस्तित्व के अंग बनते हो तो शंकर की बात सच है। लेकिन मार्क्स कहता है कि चेतना केवल बाइ—प्रॉडक्ट है; वह वास्तविक नहीं है, पदार्थ की ही उप—उत्पत्ति है। जब तुम जीवन को विभाजित करते हो तो चेतना खो जाती है, भ्रांति हो जाती है, तब पदार्थ ही बचता है।

मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि अस्तित्व एक है। अगर तुम विश्लेषण की राह से उसके पास पहुंचते हो तो वह पदार्थ मालूम पड़ता है; मृत मालूम पड़ता है; और अगर तुम मित्रता के भाव से उसके पास पहुंचते हो तो वह जीवन मालूम पड़ता है, दिव्य और चैतन्य मालूम पड़ता है। अगर तुम विज्ञान के द्वारा अस्तित्व के पास पहुंचते हो तो तुम्हारे लिए किसी गहन आनंद की संभावना नहीं है। मृत पदार्थ के साथ आनंद असंभव है, पदार्थ से ज्यादा से ज्यादा आनंद की भ्रांति मिल सकती है। सिर्फ गहन मित्रता से, प्रेम से आनंद संभव है।

तंत्र प्रेम की विधि है; यह तुम्हें अस्तित्व के साथ जोड्ने का एक प्रयत्न है। इसलिए इसमें प्रवेश करने के पहले तुम्हें बहुत कुछ छोड़ना होगा। तुम्हें अपनी विश्लेषण करने की आदत को छोड़ना होगा; तुम्हें अपनी लड़ने की प्रवृत्ति को, जीत की भाषा में सोचने की आदत को छोड़ना होगा।

जब हिलेरी हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर, एवरेस्ट पर पहुंचा तो पूरे पश्चिम में इस घटना को विजय की, एवरेस्ट पर विजय की संज्ञा दी गई। सिर्फ जापान के एक झेन मंदिर के दीवार—पत्र पर यह लिखा गया कि ‘एवरेस्ट के साथ मैत्री हुई।’ उसने इसे विजय नहीं कहा। यही फर्क है। अब एवरेस्ट के साथ मनुष्यता की मैत्री सध गई; एवरेस्ट ने हिलेरी को अपने पास आने दिया। इसमें कोई जीतने की बात नहीं थी।’जीत’ शब्द ही गंदा है, हिंसक है। जीत की भाषा में सोचना आक्रामकता का लक्षण है। एवरेस्ट ने हिलेरी का स्वागत किया! अब उससे मनुष्यता की मैत्री सध गई; अब कोई फासला न रहा, दुराव न रहा। अब हम अजनबी न रहे; हममें से एक को एवरेस्ट ने पास बुला लिया, अब एवरेस्ट मनुष्य की चेतना का भाग बन गया।

यह सेतु बनाना है। तब पूरी बात बिलकुल भिन्न हो जाती है। यह तुम पर निर्भर है कि तुम इसे किस दृष्टि से देखते हो। विधियों में प्रवेश के पूर्व यह स्मरण रखना बहुत जरूरी है। स्मरण रहे, तंत्र अस्तित्व के प्रति एक प्रेमपूर्ण प्रयास है। यही वजह है कि तंत्र में काम—शक्ति का इतना अधिक उपयोग किया गया है। तंत्र एक प्रेम—विधि है। और यह स्त्री—पुरुष का ही प्रेम नहीं है, यह तुम्हारे और अस्तित्व के बीच प्रेम है। पहली दफा अस्तित्व एक नारी के माध्यम से तुम्हारे लिए अर्थपूर्ण हो जाता है। अगर तुम स्त्री हो तो पहली दफा अस्तित्व तुम्हारे लिए एक पुरुष के माध्यम से अर्थपूर्ण हो जाता है। इसीलिए तंत्र में काम की इतनी चर्चा की गई है, उसका इतना उपयोग किया गया है।

कल्पना करो कि तुम सर्वथा काम—रहित हो; कल्पना करो कि जन्म के दिन ही तुमसे तुम्हारी सब कामवासना हटा ली गई। जरा सोचो कि जिस दिन तुम पैदा हुए, तुमसे तुम्हारी सब कामवासना छीन ली गई।

तुम प्रेम करने में असमर्थ हो जाओगे; तुम किसी के प्रति कोई लगाव, कोई घनिष्ठता, कोई आकर्षण नहीं अनुभव करोगे। तुम्हारे लिए अपने से बाहर निकलना ही मुश्किल होगा। तुम अपने भीतर ही बंद रहोगे। तुम किसी के पास भी नहीं जाओगे, किसी से मिलोगे भी नहीं। अस्तित्व में तुम सब तरफ से बंद बस एक मुर्दा बने रहोगे।

काम—ऊर्जा के जरिए तुम दूसरे से जुड़ते हो। तुम अपने से बाहर जाते हो; कोई दूसरा तुम्हारा केंद्र बनता है। तुम अपने अहंकार को पीछे छोड़ देते हो; तुम किसी से मिलने के लिए अपने अहंकार से अलग होते हो। अगर तुम सच ही किसी से मिलना चाहते हो तो तुम्हें समर्पण करना होगा, वैसे ही अगर दूसरा भी तुमसे मिलना चाहता है तो उसे भी अपने से बाहर आना होगा। प्रेम का चमत्कार तो देखो! देखो कि प्रेम में क्या अदभुत घटता है। वह तुम तक आता है और तुम उस तक जाते हो। तुम उसमें उतर जाते हो और वह तुम में समा जाता है। तुमने अपनी—अपनी जगह बदल ली; अब वह तुम्हारी आत्मा बन जाता है और तुम उसकी आत्मा बन जाते हो। यही साहचर्य है, यही मिलन है। अब तुम दोनों एक वर्तुल बन गए।

यह पहला मिलन है जहां तुम अपने अहंकार में बंद नहीं हो। और यह मिलन ब्रह्मांड के साथ, अस्तित्व के साथ, सत्य के साथ वृहत मिलन का द्वार बन सकता है।

तंत्र बुद्धि पर नहीं, हृदय पर आधारित है। यह कोई बौद्धिक प्रयत्न नहीं है, यह भावुक प्रयत्न है। इसे स्मरण रखो, क्योंकि इससे विधियों को समझने में मदद मिलेगी। अब हम विधियों में प्रवेश करेंगे।

पहली विधि:

 

मित्र और अजनबी के प्रति मान और अपमान में असमता के बीच समभाव रखो।

असमता के बीच समभाव रखो’, यह आधार है। तुम्हारे भीतर क्या घटित हो रहा है? दो चीजें घटित हो रही हैं। तुम्हारे भीतर कोई चीज निरंतर वैसी ही रहती है; वह कभी नहीं बदलती। शायद तुमने इसका निरीक्षण न किया हो; शायद तुमने अभी इसका साक्षात्कार न किया हो। लेकिन अगर निरीक्षण करोगे तो जानोगे कि तुम्हारे भीतर कुछ है जो निरंतर वही का वही रहता है। उसी के कारण तुम्हारा एक व्यक्तित्व होता है। उसी के कारण तुम अपने को केंद्रित अनुभव करते हो; अन्यथा तुम एक अराजकता हो जाओगे।

तुम कहते हो : ‘मेरा बचपन।’ अब इस बचपन का क्या बच रहा है? यह कौन है जो कहता है. ‘मेरा बचपन’। यह ‘मेरा’, ‘मुझे’, ‘मैं’ कौन है! तुम्हारे बचपन का तो कुछ भी शेष नहीं बचा है। यदि तुम्हारे बचपन के चित्र तुम्हें पहली दफा दिखाए जाएं तो तुम उन्हें पहचान भी नहीं सकोगे। सब कुछ इतना बदल गया है। तुम्हारा शरीर अब वही नहीं है; उसकी एक कोशिका भी वही नहीं है।

शरीर—शास्त्री कहते हैं कि शरीर एक प्रवाह है—सरित—प्रवाह। प्रत्येक क्षण अनेक पुरानी कोशिकाएं मर रही हैं और अनेक नई कोशिकाएं बन रही हैं। सात वर्षों के भीतर तुम्हारा शरीर बिलकुल बदल जाता है। अगर तुम सत्तर साल जीने वाले हो तो इस बीच तुम्हारा शरीर दस बार बदल जाएगा, पूरा का पूरा बदल जाएगा। प्रत्येक क्षण तुम्हारा शरीर बदल रहा है। और तुम्हारा मन भी बदल रहा है। जैसे तुम अपने बचपन के शरीर का चित्र नहीं

पहचान सकते हो वैसे ही यदि तुम्हारे बचपन के मन का चित्र बनाना संभव हो तो तुम उसे भी नहीं पहचान पाओगे। तुम्हारा मन तो तुम्हारे शरीर से भी ज्यादा प्रवाहमान है। हर एक क्षण हर एक चीज बदल जाती है। एक क्षण के लिए भी कुछ स्थाई नहीं है, ठहरा हुआ नहीं है। मन के तल पर सुबह तुम कुछ थे; शाम तुम बिलकुल ही भिन्न व्यक्ति हो जाते हो।

जब भी कोई व्यक्ति बुद्ध से मिलने आता था तो उसके विदा होते समय बुद्ध उससे कहते थे ‘स्मरण रहे, जो आदमी मुझसे मिलने आया था वही आदमी वापस नहीं जा रहा है। तुम अब बिलकुल भिन्न आदमी हो। तुम्हारा मन बदल गया है।’

बुद्ध जैसे व्यक्ति से मिलकर तुम्हारा मन वही नहीं रह सकता, उसकी बदलाहट अनिवार्य है—वह बदलाहट चाहे भले के लिए हो या बुरे के लिए। तुम एक मन लेकर वहा गए थे; तुम भिन्न ही मन लेकर वहां से वापस आओगे। कुछ बदल गया है। कुछ नया उसमें जुड़ गया है, कुछ पुराना उससे अलग हो गया है।

और अगर तुम किसी से नहीं भी मिलते हो, बस अपने साथ अकेले रहते हो, तो भी तुम वही नहीं रह सकते। पल—पल नदी बह रही है। हेराक्लाइटस ने कहा है कि तुम एक ही नदी में दो बार नहीं प्रवेश कर सकते हो। यही बात मनुष्य के संबंध में कही जा सकती है. तुम एक ही मनुष्य से दो बार नहीं मिल सकते। असंभव है यह। और इसी तथ्य के कारण—और इसके प्रति हमारे अज्ञान के कारण—हमारा जीवन संताप बन जाता है। क्योंकि तुम्हारी अपेक्षा रहती है कि दूसरा सदा वही रहेगा।

तुम किसी लड़की से विवाह करते हो और अपेक्षा करते हो कि वह सदा वही रहेगी। वह वही नहीं रह सकती; अविवाहित थी तो एक बात थी; विवाहित होने पर बात बिलकुल दूसरी हो गई। प्रेमी और चीज है; पति उससे बिलकुल भिन्न चीज है। तुम पति में प्रेमी को नहीं पा सकते; यह असंभव है। प्रेमी प्रेमी है, पति पति है। प्रेमी जिस क्षण पति बनता है, सब कुछ बदल जाता है। लेकिन तुम अपेक्षा किए जाते हो। उससे ही दुख पैदा होता है, अनावश्यक दुख पैदा होता है।

अगर हम इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि मन सतत गतिमान है और बदलता रहता है तो हम अनायास बहुत से दुखों में पड़ने से बच जाएंगे। तुम्हें बस इस बोध की जरूरत है कि मन परिवर्तनशील है। अगर आज कोई तुम्हें प्रेम देता है तो तुम्हें अपेक्षा रहती है कि वह सदा तुम्हें प्रेम करेगा। लेकिन अगले क्षण वह तुम्हें घृणा करता है, और तुम बेचैन हो जाते हो। यह बेचैनी घृणा के कारण नहीं पैदा हुई है, यह पैदा हुई है तुम्हारी प्रेम की अपेक्षा के कारण। वह आदमी बदल गया। और अगर वह जीवित है तो बदलाहट अनिवार्य है।

लेकिन अगर तुम यथार्थ को वैसा ही देखो जैसा वह है तो बेचैनी का कोई कारण नहीं है। जो व्यक्ति एक क्षण पहले प्रेम करता था वह अगले क्षण घृणा भी कर सकता है। लेकिन जरा रुको; अगले क्षण वह फिर प्रेम कर सकता है। जल्दबाजी मत करो, धैर्य रखो। और अगर दूसरा व्यक्ति भी इस परिवर्तन की प्रक्रिया को देख सके तो वह भी बदलाहट से लड़ना छोड़ देगा। बदलाहट होती है, यह स्वाभाविक है।

तुम अपने शरीर को देखो, वह बदल रहा है। तुम अपने मन को समझो, वह भी बदल रहा है। कुछ भी वही का वही नहीं रहता है। यहां तक कि लगातार दो क्षणों के लिए भी कुछ एक सा नहीं रहता है। तुम्हारा व्यक्तित्व धारा की भांति गतिमान है। अगर यही सब कुछ है, और कुछ भी ठहरा हुआ, नित्य और शाश्वत नहीं है, तो कौन स्मरण रखेगा कि यह मेरा बचपन था? बचपन गया, शरीर बदल गया, मन भी बदल गया। तब किसे स्मरण रहता है? कौन है जो बचपन, जवानी और बुढ़ापे को याद रखता है? यह कौन है जो जानता है?

इस जानने वाले को सदा वही रहना चाहिए; इस साक्षी को सदा वही रहना चाहिए। केवल तभी साक्षी को एक परिप्रेक्ष्य हो सकता है; तो ही साक्षी कह सकता है कि यह मेरा बचपन था, यह जवानी थी, यह बुढ़ापा था। तो ही वह कह सकता है कि इस घड़ी में मैं प्रेमपूर्ण था और अगले क्षण मेरा प्रेम घृणा में बदल गया। यह साक्षी चैतन्य, यह जानने वाला सदा वही रहता है।

तो तुममें दो तत्व या दो आयाम साथ—साथ हैं। तुम दोनों हों—परिवर्तनशील भी जो सदा बदलता रहता है, और अपरिवर्तनशील भी जो कभी नहीं बदलता है। और अगर तुम इन दोनों आयामों के प्रति बोधपूर्ण हो जाओ तो यह विधि उपयोगी हो जाएगी।

‘असमता के बीच समभाव रखो।’

इसे स्मरण रखो, बदलाहट के बीच कुछ वही का वही रहता है तुम परिधि पर वही नहीं रह सकते, लेकिन केंद्र पर वही रहते हो। तो उसे स्मरण रखो जो कभी नहीं बदलता है। स्मरण रखना ही पर्याप्त है, तुम्हें और कुछ करने की जरूरत नहीं है। वह सनातन है, शाश्वत है। तुम उसे बदल नहीं सकते, लेकिन उसे भूल सकते हो। तुम अपने चारों ओर के जगत में इतने तल्लीन हो सकते हो, शरीर और मन में इतने ग्रस्त हो सकते हो, कि केंद्र को बिलकुल भूल ही जाओ। यह केंद्र बदलाहट के बादलों से इस तरह आच्छादित है—और निश्चित ही उसे याद रखना कठिन है जो सदा वही रहता है, क्योंकि उससे तो कोई समस्या होती नहीं; समस्याएं तो बदलाहट से ही पैदा होती हैं।

उदाहरण के लिए, अगर तुम्हारे आस—पास सतत कोई आवाज होती रहे तो तुम उसके प्रति सजग नहीं रहोगे। दीवार घड़ी दिन भर टिक—टिक करती रहती है, और तुम्हें कभी उसका बोध नहीं होता। लेकिन अगर वह अचानक बंद हो जाए तो तुरंत तुम्हारा ध्यान उधर जाता है। जब कोई चीज सदा एक जैसी ही रहती है तो उसकी खबर लेने की जरूरत नहीं रहती, बदलाहट की हालत में मन खबर लेता है। बदलाहट से अंतराल पैदा होता है; सातत्य टूटता है। तुम उसे सदा से सुन रहे थे, इसलिए अलग से सुनने की जरूरत नहीं थी; वह आवाज परिवेश का हिस्सा बन गई थी। लेकिन अब अगर वह घड़ी बंद हो जाए तो तुम्हें उसका बोध होगा; अचानक चेतना अंतराल पर जाएगी।

यह ऐसा ही है जैसे जब तुम्हारा कोई दात टूट जाता है तो जीभ निरंतर उसी टूटे दात के रिक्त स्थान पर जाती है। जब तक दात था, जीभ ने कभी उसकी खबर नहीं ली। अब दात नहीं है; उसकी खाली जगह भर है। और अब सारा दिन तुम्हारे रोकने के बावजूद जीभ उसी खाली जगह पर जाती है। क्यों? क्योंकि कोई चीज अब नहीं है जो वहा थी; कुछ बदल गया, कुछ नया प्रवेश कर गया।

जब भी कुछ नया प्रवेश करता है, तुम सजग हो जाते हो। उसके कई कारण हैं। यह एक सुरक्षा—व्यवस्था है, यह तुम्हारे जीवन के लिए, जीवित रहने के लिए जरूरी है। जब कोई चीज बदलती है तो तुम्हें उसके प्रति सजग हो जाना पड़ता है। क्योंकि बदलाहट खतरनाक हो सकती है; तुम्हें उसकी फिक्र करनी होगी। और तुम्हें नई स्थिति के साथ फिर समायोजन करना पड़ेगा।

लेकिन अगर कोई चीज वैसी ही रहे जैसी थी तो उसके प्रति सजग होने की जरूरत नहीं पडती। और यह नित्य तत्व, जिसे हिंदू आत्मा कहते हैं, आरंभ से ही—अगर कोई आरंभ है—तुम्हारे साथ है। और यह आत्मा अंत तक साथ रहने वाली है—अगर कोई अंत कभी होगा। वह सदा से, सनातन से अपरिवर्तित है; इसलिए तुम उसके प्रति सजग कैसे हो सकते हो? चूंकि यह नित्य है, शाश्वत है, सदा सर्वदा वही है, इसीलिए तुम उसे चूक रहे हो।

तुम शरीर की खबर लेते हो, तुम मन की खबर लेते हो, क्योंकि वे बदलते रहते हैं। और क्योंकि तुम उन पर ध्यान देते हो, इसलिए तुम सोचने लगते हो कि मैं शरीर हूं कि मैं मन हूं। तुम उन्हें ही जानते हो, इसलिए उनके साथ तादात्म्य कर लेते हो।

समस्त आध्यात्मिक साधना अनित्य के बीच नित्य की खोज है, परिवर्तन के बीच शाश्वत की खोज है, उसकी खोज है जो सदा—सर्वदा वही रहता है। वही तुम्हारा केंद्र है। और अगर तुम उस केंद्र को स्मरण रख सको तो यह विधि बहुत आसान है। या अगर तुम इस विधि को साध सको तो उसका स्मरण आसान हो जाएगा। दोनों छोरों से यात्रा हो सकती है।

इस विधि का प्रयोग करो। यह विधि कहती है : ‘मित्र और अजनबी के प्रति, असमता के बीच समभाव रखो।’

मित्र और शत्रु या अजनबी के प्रति असमानता में भी समभाव रखो। क्या अर्थ है इसका? यह विरोधाभासी मालूम पड़ता है। एक तरह से तो तुम्हें बदलना होगा, क्योंकि अगर तुम्हारा मित्र मिलने आता है तो उससे भिन्न ढंग से मिलना होगा, और अगर शत्रु मिलने आता है तो भिन्न ढंग से मिलना होगा। किसी अजनबी से तुम इस तरह कैसे मिल सकते हो जैसे कि तुम उसे जानते हो! ऐसा तुम नहीं कर सकते; फर्क तो रहेगा। लेकिन गहरे में समान बने रहो, समभाव रखो। व्यवहार में असमानता होगी, लेकिन भाव समान रहना चाहिए।

तुम किसी अनजान व्यक्ति से इस तरह नहीं मिल सकते जैसे कि तुम उसे पहले से जानते हो। तुम ज्यादा से ज्यादा दिखावा कर सकते हो, लेकिन दिखावे से काम नहीं चलेगा। फर्क तो रहेगा। मित्र के साथ दिखावा जरूरी नहीं है कि वह मित्र है। और अजनबी के साथ अगर तुम दिखावा भी करते हो कि वह मित्र है तो भी वह दिखावा ही होगा। कुछ नया ही होगा। तुम समान नहीं रह सकते, कुछ असमानता जरूरी रहेगी।

जहां तक आचरण का, व्यवहार का संबंध है, तुम भिन्न होगे; लेकिन जहां तक चेतना का संबंध है, तुम वही बने रह सकते हो, तुम मित्र और अजनबी को समभाव से देख सकते हो। तुम मित्र को वैसे ही देख सकते हो जैसे अजनबी को, अपरिचित को देखते हो।

यह कठिन है। तुमने सुना होगा कि अजनबी को वैसे ही देखो जैसे कि वह मित्र हो। लेकिन वह संभव नहीं है, अगर मैं जो कह रहा हूं वह संभव नहीं है। पहले अपने मित्र को अजनबी की भांति देखो, तो ही तुम अजनबी को मित्र की भांति देख सकते हो। दोनों एक—दूसरे से जुड़े हैं।

क्या तुमने कभी अपने मित्र को इस भांति देखा है जैसे कि वह अजनबी हो? अगर

तुमने अपने मित्र को अजनबी की भांति नहीं देखा है तो तुमने देखा ही नहीं है। अपनी पत्नी को देखो, क्या तुम सच ही उसको जानते हो? हो सकता तुम उसके साथ बीस वर्षो से, या उससे भी ज्यादा समय से रह रहे हो, लेकिन वह अजनबी ही रहती है। तुम जितना ज्यादा उसके साथ रहते हो उतनी ही संभावना है कि तुम भूल जाओ कि वह अजनबी है; लेकिन वह अपरिचित ही रहती है। तुम उसे कितना ही प्रेम करो, उससे फर्क नहीं पड़ता।

सच तो यह है कि तुम उसे जितना ज्यादा प्रेम करोगे वह उतनी ही रहस्यमय मालूम पड़ेगी। कारण यह है कि तुम उसे जितना ज्यादा प्रेम करोगे, तुम उतने ही अधिक गहरे उसमें प्रवेश करोगे और तुम्हें मालूम पड़ेगा कि वह कितनी नदी जैसी प्रवाहमान है, परिवर्तनशील है, जीवंत है और प्रतिपल नई और भिन्न है।

अगर तुम गहरे नहीं देखते हो, अगर तुम इसी तल से बंधे हो कि वह तुम्हारी पत्नी है, कि उसका यह नाम है, तो तुमने एक हिस्से को पकड़ लिया है, और उस हिस्से को तुम अपनी पत्नी की भांति देखते रहते हो। और तब जब भी तुम्हारी पत्नी में कुछ बदलाहट होगी, वह उस बदलाहट को तुमसे छिपाएगी। जब वह प्रेमपूर्ण नहीं होगी तब भी तुमसे प्रेम का अभिनय करेगी, क्योंकि तुम्हें उससे प्रेम की अपेक्षा है। और तब सब कुछ नकली और झूठ हो जाता है। क्योंकि उसे बदलने की इजाजत नहीं है; उसे स्वयं होने की इजाजत नहीं है। कुछ ऊपर से लादा जा रहा है। और तब सारा संबंध मुर्दा हो जाता है।

तुम जितना ही प्रेम करोगे, उतना ही परिवर्तन का पहलू दिखाई देगा। तब तुम प्रत्येक क्षण अजनबी हो; तब तुम भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि तुम्हारा पति कल सुबह कैसा व्यवहार करेगा। भविष्यवाणी तो तभी हो सकती है यदि तुम्हारा पति मुर्दा हो; तब तुम भविष्यवाणी कर सकती हो। केवल वस्तुओं के संबंध में भविष्यवाणी हो सकती है; व्यक्तियों के संबंध में भविष्यवाणी नहीं हो सकती। अगर किसी व्यक्ति के संबंध में भविष्यवाणी की जा सके तो जान लो कि वह मुर्दा है, वह मर चुका है। उसका जीवित होना झूठ है, इसीलिए उसके बारे में भविष्यवाणी हो सकती है। व्यक्तियों के संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती, क्योंकि बदलाहट संभव है।

अपने मित्र को अजनबी की भांति देखो, वह अजनबी ही है। और डरो मत। हम अजनबी से डरते हैं, इसलिए हम भूल जाते हैं कि मित्र भी अजनबी है। अगर तुम अपने मित्र में भी अजनबी को देख सको तो तुम्हें कभी निराशा नहीं होगी, क्योंकि अजनबी से तुम्हें अपेक्षा नहीं होती है। मित्र के संबंध में तुम सदा निश्चित होते हो कि तुम उससे जो कुछ चाहोगे वह पूरा करेगा; इससे ही अपेक्षा पैदा होती है और निराशा हाथ लगती है। क्योंकि कोई व्यक्ति तुम्हारी अपेक्षाओं को नहीं पूरा कर सकता है; कोई यहां तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करने के लिए नहीं है। सब यहां अपनी अपेक्षाएं पूरी करने के लिए हैं, कोई तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करने के लिए नहीं है। लेकिन तुम्हें अपेक्षा है कि दूसरे तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करें, और दूसरों को अपेक्षा है कि तुम उनकी अपेक्षाएं पूरी करो। और तब कलह है, संघर्ष है, हिंसा है और दुख है।

अजनबी को सदा स्मरण रखो। मत भूलो कि तुम्हारा घनिष्ठतम मित्र भी अजनबी है; दूर से भी दूर है। अगर यह भाव, यह ज्ञान घटित हो जाए तो फिर तुम अजनबी में भी मित्र को देख सकते हो। यदि मित्र अजनबी हो सकता है तो अजनबी भी मित्र हो सकता है।

किसी अजनबी को देखो; उसे तुम्हारी भाषा नहीं आती है, वह तुम्हारे देश का नहीं है, तुम्हारे धर्म का नहीं है, तुम्हारे रंग का नहीं है। तुम गोरे हो और वह काला है। या तुम काले हो और वह गोरा है। भाषा के जरिए तुम्हारे और उसके बीच कोई संवाद संभव नहीं है। तुम्‍हारे और उसके पूजा—स्थल भी एक नहीं हैं। राष्ट्र, धर्म, जाति, वर्ण, रंग—कहीं भी कोई समान भूमि नहीं है, वह बिलकुल अजनबी है। लेकिन उसकी आंखों में झांको, वहां एक ही मनुष्यता मिलेगी; वह समान भूमि है। उसके भीतर वही जीवन है जो तुममें है, वह समान भूमि है। और अस्तित्व भी वही है, वह तुम दोनों के मित्र होने का आधार है। तुम उसकी भाषा भले ही न समझो, लेकिन उसको तो समझ सकते हो। मौन से भी संवाद घटित होता है। उसकी आंखों में गहरे झांकने भर से मित्र प्रकट हो सकता है।

और अगर तुम गहरे देखना जान लो तो शत्रु भी तुम्हें धोखा नहीं दे सकता; तुम उसके भीतर मित्र को देख लोगे। वह यह नहीं सिद्ध कर सकता कि वह तुम्हारा मित्र नहीं है। वह तुमसे कितना ही दूर हो, तुम्हारे पास ही है; क्योंकि तुम उसी अस्तित्व की धारा में हो, उसी नदी में हो, जिसमें वह है। तुम दोनों अस्तित्व के तल पर एक ही जमीन पर खड़े हो।

और अगर यह भाव प्रगाढ़ हो तो एक वृक्ष भी तुमसे बहुत दूर नहीं है, तब एक पत्थर भी बहुत अलग नहीं है। एक पत्थर कितना अजनबी है! उसके साथ तुम्हारा कोई तालमेल नहीं है; उसके साथ संवाद की कोई संभावना नहीं है। लेकिन वहा भी वही अस्तित्व है; पत्थर का भी अस्तित्व है, वह भी अस्तित्व का अंश है। वह भी होने के जगत में भागीदार है। वह है। उसमें भी जीवन है। वह भी स्थान घेरता है; वह भी समय में जीता है। सूरज उसके लिए भी उगता है, जैसे तुम्हारे लिए उगता है। एक दिन वह नहीं था, जैसे तुम नहीं थे। और एक दिन जैसे तुम मर जाओगे, वह भी मर जाएगा; पत्थर भी एक दिन विदा हो जाएगा।

अस्तित्व में हम मिलते हैं; यह मिलन ही मित्रता है। व्यक्तित्व में हम भिन्न हैं, अभिव्यक्ति में हम भिन्न हैं; लेकिन तत्वत: हम एक ही हैं। अभिव्यक्ति में, रूप में हम अजनबी हैं; उस तल पर हम एक—दूसरे के कितने ही करीब आएं, लेकिन दूर ही रहेंगे। तुम पास—पास बैठ सकते हो, एक—दूसरे को आलिंगन में ले सकते हो; लेकिन इससे ज्यादा निकट आने की संभावना नहीं है। जहां तक तुम्हारे बदलते व्यक्तित्व का संबंध है, तुम एक नहीं हो सकते हो। तुम कभी समान नहीं हो सकते हो, तुम सदा भिन्न हो, अजनबी हो। उस तल पर तुम नहीं मिल सकते, क्योंकि मिलने के पहले ही तुम बदल जाते हो। मिलन की कोई संभावना नहीं है। जहां तक शरीर का संबंध है, मन का संबंध है, मिलन संभव नहीं है। क्योंकि इसके पहले कि तुम मिलो तुम वही नहीं रहते।

क्या तुमने कभी खयाल किया है कि तुम्हें किसी के प्रति प्रेम उमगता है, गहन प्रेम, तुम उस प्रेम से भर जाते हो; लेकिन जैसे ही तुम जाते हो और कहते हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं वह प्रेम विलीन हो जाता है! क्या तुमने निरीक्षण किया है कि वह प्रेम अब नहीं रहा, उसकी स्मृति भर शेष है! अभी वह था और अभी वह नहीं है। तुमने उसे अभिव्यक्त किया, उसे प्रकट किया; यही तथ्य उसे परिवर्तन के जगत में ले आया। जब उसकी प्रतीति हुई थी, हो सकता वह प्रेम तुम्हारे प्राणों का हिस्सा रहा हो; लेकिन जब तुम उसे अभिव्यक्त करते हो तो तुम उसे समय और परिवर्तन के जगत में ले आते हो, अब वह सरित—प्रवाह में प्रविष्ट हो रहा है। जब तुम कहते हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं तब तक शायद वह बिलकुल ही गायब हो चुका। यह बहुत कठिन है; लेकिन अगर तुम निरीक्षण करोगे तो यह तथ्य बन जाएगा।

तब तुम देख सकते हो कि मित्र में अजनबी है और अजनबी में मित्र है। और तब तुम ‘असमता के बीच समभाव’ रख सकते हो। परिधि पर तुम बदलते रहते हो, लेकिन केंद्र पर, प्राणों में वही बने रहते हो।

‘मान और अपमान में……।’

कौन सम्मानित होता है और कौन अपमानित होता है? तुम? कभी नहीं। जो सतत बदल रहा है और जो तुम नहीं हो, सिर्फ वही मान—अपमान अनुभव करता है। कोई तुम्हारा सम्मान करता है। और अगर तुमने समझा कि यह व्यक्ति मेरा सम्मान कर रहा है, तो तुम कठिनाई में पड़ोगे। वह तुम्हें नहीं, तुम्हारी किसी खास अभिव्यक्ति को, किसी रूप विशेष को सम्मानित कर रहा है। वह तुम्हें कैसे जान सकता है? तुम स्वयं अपने को नहीं जानते हो। वह तुम्हारे सतत बदलते व्यक्तित्व के किसी रूप विशेष का सम्मान कर रहा है; वह तुम्हारी किसी अभिव्यक्ति का सम्मान कर रहा है। तुम दयावान हो, प्रेमपूर्ण हो; वह उसका सम्मान कर रहा है। लेकिन यह दया, यह प्रेम परिधि पर है; अगले क्षण तुम प्रेमपूर्ण नहीं रहोगे, अगले क्षण तुम घृणा से भर सकते हो। हो सकता है फूल न रहें; काटे ही कांटे हों। तुम इतने प्रसन्न न रहो, उदास और दुखी होओ। तुम कठोर हो सकते हो, क्रोध में हो सकते हो। तब वह तुम्हारा अपमान करेगा। और हो सकता है कि फिर तुम्हारा प्रेमपूर्ण रूप प्रकट हो जाए। दूसरे लोग तुम्हारे संपर्क में नहीं, तुम्हारे विभिन्न रूपों के संपर्क में आते हैं।

स्मरण रहे, लोग तुमको मान और अपमान नहीं देते हैं। वे यह कैसे कर सकते हैं जब कि वे तुम्हें जानते ही नहीं हैं? जब तुम खुद भी अपने को नहीं जानते हो तो वे कैसे जानेंगे? उनके अपने नियम हैं, उनके अपने सिद्धांत हैं, उनके अपने मापदंड और मानक हैं। उनकी अपनी कसौटियां हैं। वे कहते हैं कि अगर कोई आदमी ऐसा होगा तो हम उसे सम्मान देंगे और अगर वैसा होगा तो अपमान देंगे। वे अपनी कसौटियों के मुताबिक चलते हैं। और तुम उनकी कसौटियों में कभी नहीं जांचे जा सकते, केवल तुम्हारी अभिव्यक्तियां जांची जा सकती हैं। तो वे एक दिन तुम्हें पापी कह सकते हैं और दूसरे दिन साधु कह सकते हैं। आज वे तुम्हें महात्मा कह सकते हैं, और कल वे तुम्हारे खिलाफ हो सकते हैं, तुम्हें पत्थर मार सकते हैं। यह क्या है? वे तुम्हारी परिधि से परिचित होते हैं, वे कभी तुमसे परिचित नहीं होते। यह स्मरण रहे कि वे जो कुछ भी कह रहे हैं, वह तुम्हारे संबंध में नहीं है। तुम बाहर छूट जाते हो; तुम परे रह जाते हो। उनकी निंदा, उनकी प्रशंसा, वे जो भी करते हैं, उसका तुम्हारे साथ कोई भी संबंध नहीं है।

मैं तुम्हें एक झेन कथा कहता हूं। एक युवा भिक्षु क्योटो नगर के पास रहता था। वह सुंदर था, युवा था, और सारा नगर उससे प्रसन्न था। सब लोग उसका सम्मान करते थे। वे उसे महान संत मानते थे। लेकिन एक दिन सब उलट—पलट हो गया।

गांव में एक लड़की गर्भवती हो गई। उसने अपने मां—बाप से कहा कि उसके गर्भ के लिए यह साधु ही जिम्मेवार है। और सारा गाव उसके खिलाफ उठ खड़ा हुआ। लोग आए और उन्होंने उसके झोपड़े में आग लगा दी। सुबह का समय था, और बड़ी सर्द सुबह थी—जाडे की सुबह। उन्होंने नवजात शिशु को उस भिक्षु के ऊपर फेंक दिया। और लड़की के पिता ने भिक्षु से कहा : ‘यह तुम्हारा बच्चा है, इसे सम्हालो।’ भिक्षु ने इतना ही कहा : ‘ऐसा है क्या?’ और तभी बच्चा रोने लगा। तो भिक्षु भीड़ को भूलकर बच्चे को सम्हालने में लग गया।

भिक्षु के पास दूध खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। तो वह नगर में बच्चे के लिए भीख मांगने गया। लेकिन अब उसे कौन भीख देता? कुछ क्षण पहले जो व्यक्ति महात्मा था, वही अब महापापी हो गया था। उसे भीख कौन देता? वह जहां भी गया, लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए। सब जगह उसे निंदा और गालियां ही मिलीं।

आखिर में भिक्षु उसी घर के सामने पहुंचा जो उस बच्चे की मा का घर था। वह लड़की बहुत संताप में थी, तभी उसने बच्चे के रोने की आवाज सुनी। द्वार पर खड़ा भिक्षु कह रहा था : ‘मुझे कुछ मत दो, मैं पापी हूं। लेकिन यह बच्चा तो पापी नहीं है, इसके लिए थोड़ा दूध दे दो।’ तब उस लड़की से नहीं रहा गया, उसने कबूल किया कि बच्चे के असली पिता को छिपाने के लिए उसने इस भिक्षु का नाम ले दिया था। वह बिलकुल बेकसूर है।

अब पूरा नगर फिर साधु के पास जमा हो गया। लोग उसके पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगे। और लड़की के पिता ने आकर भिक्षु से बच्चे को वापस ले लिया और आंसुओ से भरी आंखों से कहा : ‘आपने पहले ही क्यों नहीं कहा? आपने सुबह ही इनकार क्यों नहीं किया? यह बच्चा आपका नहीं है।’ भिक्षु ने फिर इतना ही कहा. ‘ऐसा है क्या?’

सुबह भी भिक्षु ने यही कहा था : ‘ऐसा है क्या? यह बच्चा मेरा है?’ और दोपहर भी उसने यही कहा : ‘ऐसा है क्या? यह बच्चा मेरा नहीं है?’

इसी तरह तुम्हें इस सूत्र को जीवन में लागू करना है। मान और अपमान में तुम्हें असमता के बीच समभाव रखना है। परिधि पर कुछ भी घटे, लेकिन अंतरस्थ केंद्र को वही का वही रहना चाहिए। परिधि तो बदलेगी ही, लेकिन तुम्हें नहीं बदलना चाहिए। और क्योंकि तुम दोनों हो—परिधि और केंद्र—इसीलिए कहा गया है कि असमता में समभाव रखो।

और तुम इस विधि का प्रयोग सभी विरोधी तत्वों में कर सकते हो : प्रेम—घृणा में, गरीबी—अमीरी में, सुविधा—असुविधा में समभाव रखो। इतना ही जानो कि सब बदलाहट परिधि पर है; तुम्हारे केंद्र पर कोई बदलाहट नहीं हो सकती। इसलिए तुम अनासक्त रह सकते हो। और यह अनासक्ति आरोपित नहीं है। तुम जानते हो कि ऐसा ही है। यह अनासक्ति बाहर से नहीं लादी गई है; तुमने अनासक्त रहने की चेष्टा नहीं की है।

अगर तुम अनासक्त रहने का प्रयत्न करते हो तो तुम परिधि पर ही हो; तुम्हें अभी केंद्र का कुछ पता नहीं है। केंद्र अनासक्त है; वह सदा अनासक्त है। वह पार है; वह सदा अस्पर्शित है। नीचे कुछ भी घटे, यह केंद्र सदा अछूता रहता है, सदा कुंवारा रहता है।

तो परस्पर विरोधी स्थितियों में इस विधि का प्रयोग करो; और अपने भीतर उसे अनुभव करते चलो जो सदा समान है। जब कोई तुम्हारा अपमान करे तो अपने ध्यान को उस बिंदु पर ले जाओ जहां तुम सिर्फ उस आदमी को सुन रहे हो, बिना किसी प्रतिक्रिया के बस सुन रहे हो। यह अपमान की स्थिति है। फिर कोई तुम्हारा सम्मान कर रहा। उसे भी’, सिर्फ सुनो। निंदा—प्रशंसा, मान—अपमान, सब में सिर्फ सुनो। तुम्हारी परिधि बेचैन होगी, उसे भी देखो। केवल देखो, बदलने की कोशिश मत करो। उसे देखो, और स्वयं केंद्र से जुड़े रहो। तब तुम्हें वह अनासक्ति उपलब्ध होगी जो आरोपित नहीं है, जो सहज है, स्वाभाविक है।

और एक बार तुम्हें इस सहज अनासक्ति की प्रतीति हो जाए तो फिर कुछ भी तुम्हें बेचैन नहीं कर सकेगा। तुम शात बने रहोगे। संसार में कुछ भी होगा, तुम अकंप रहोगे। तब अगर कोई तुम्हारी हत्या भी करेगा तो सिर्फ शरीर स्पर्शित होगा, तुम अस्पर्शित रहोगे। तुम सबके पार रहोगे। और यह पार रहना ही तुम्हें अस्तित्व में प्रवेश देगा, यह पार रहना ही तुम्हें आर्नद में, शाश्वत में, सत्य में प्रतिष्ठित करेगा—जो सदा है, जो अमृत है, जो नित्य जीवन है। तुम उसे परमात्मा कह सकते हो, या जो भी नाम देना चाहो। तुम उसे निर्वाण कह सकते हो, या और कुछ। लेकिन जब तक तुम परिधि से केंद्र पर नहीं गति करते और जब तक तुम्हें अपने भीतर के शाश्वत का बोध नहीं होता, तब तक तुमने धर्म को नहीं जाना है, तब तक तुमने जीवन को नहीं जाना है। तब तक तुम चूक रहे हो, सब कुछ चूक रहे हो। और यह —संभव है, जीवन के परम आनंद को चूकना संभव है।

शंकर कहते हैं कि मैं उस व्यक्ति को संन्यासी कहता हूं जो जानता है कि क्या अनित्य .है और क्या नित्य है, क्या चलायमान है और क्या अचल है। भारतीय दर्शन इसे ही विवेक कहता है। परिवर्तन और सनातन की पहचान ही विवेक है, बोध है।

तुम जो कुछ भी कर रहे हो, उसमें इस सूत्र का प्रयोग बड़ी गहराई के साथ और बड़ी सरलता के साथ किया जा सकता है। तुम्हें भूख लगी है; इसमें दोनों स्थितियों को स्मरण रखो। भूख की प्रतीति परिधि को होती है, क्योंकि परिधि को ही भोजन की जरूरत है, ईंधन की जरूरत है। तुम्हें भोजन की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हें ईंधन की कोई जरूरत नहीं है। यह शरीर की जरूरत है।

स्मरण रहे, जब भी भूख लगती है, शरीर को लगती है, तुम बस उसके जानने वाले हो। अगर तुम नहीं होते तो भूख नहीं जानी जा सकती थी। और अगर शरीर नहीं होता तो भूख ही नहीं लगती। तुम्हारी अनुपस्थिति से भूख का ज्ञान नहीं हो सकता है, क्योंकि शरीर को ज्ञान नहीं होता है। शरीर को भूख तो लग सकती है, लेकिन उसे उसका ज्ञान नहीं हो सकता है। और तुम जानते तो हो, लेकिन तुम्हें भूख नहीं लगती है।

तो कभी मत कहो कि मुझे भूख लगी है; सदा यही कहो कि मैं जानता हूं कि मेरा शरीर भूखा है। अपने जानने पर जोर दो। यह विवेक है। तुम के हो रहे हो। कभी मत कहो कि मैं का हो रहा हूं इतना ही कहो कि यह शरीर का हो रहा है। और तब मृत्यु के क्षण में भी तुम जानोगे कि मैं नहीं मर रहा हूं मेरा शरीर मर रहा है; मैं शरीर बदल रहा हूं घर बदल रहा हूं। और अगर यह विवेक प्रगाढ़ हो तो किसी दिन अचानक बुद्धत्व घटित हो जाएगा।

दूसरा सूत्र:

 

यह जगत परिवर्तन का है परिवर्तन ही परिवर्तन का परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।

पहली बात तो यह समझने की है कि तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है; तुम्हारे अतिरिक्त, जानने वाले के अतिरिक्त सब कुछ परिवर्तन है। क्या तुमने कोई ऐसी चीज देखी है जो परिवर्तन न हो, जो परिवर्तन के अधीन न हो। यह सारा संसार परिवर्तन की घटना है।

हिमालय भी बदल रहा है। हिमालय का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक कहते हैं कि हिमालय बढ़ रहा है, बड़ा हो रहा है। हिमालय संसार का सबसे कम उम्र का पर्वत है; वह अभी बच्चा ही है और बढ़ रहा है। वह अभी प्रौढ़ नहीं हुआ है, वह अभी उस अवस्था को नहीं प्राप्त हुआ है जहां पहुंचकर हास या गिरावट शुरू होती है। हिमालय अभी बढ़ रहा है। अगर तुम उसकी तुलना विंध्याचल से करोगे तो उसके सामने हिमालय बच्चे जैसा है। विंध्याचल संसार के सबसे पुराने पर्वतों में है, कुछ तो उसे दुनिया का सबसे पुराना पर्वत मानते हैं। सदियों से वह अपने बुढ़ापे के कारण क्षीण हो रहा है, मर रहा है।

तो इतना स्थिर और अडिग और दृढ़ मालूम पड़ने वाला हिमालय भी बदल रहा है। वह बस पत्थरों की नदी जैसा है। पत्थर होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है, पत्थर भी प्रवाहमान है, बह रहा है। तुलनात्मक दृष्टि से सब कुछ बदल रहा है। कुछ चीजें ज्यादा बदलती मालूम पड़ती हैं और कुछ चीजें कम बदलती मालूम पड़ती हैं, लेकिन ऐसा सापेक्षत: है।

कोई भी चीज, जिसे तुम जान सकते हो, बदलाहट के बिना नहीं है। मेरी बात खयाल में रहे : जिसे तुम जान सकते हो ऐसी कोई भी वस्तु नित्य नहीं है। जानने वाले के अतिरिक्त कुछ भी नित्य नहीं है, शाश्वत नहीं है। लेकिन जानने वाला सदा पीछे है। वह सदा जानता है; वह कभी जाना नहीं जाता। वह कभी आब्जेक्ट नहीं बन सकता, वह सदा सब्जेक्ट ही रहता है। तुम जो कुछ भी करते हो या जानते हो, जानने वाला सदा उससे पीछे है। तुम उसे नहीं जान सकते हो।

और जब मैं कहता हूं कि तुम जानने वाले को नहीं जान सकते, तो इससे परेशान मत होओ। जब मैं कहता हूं कि तुम उसे नहीं जान सकते हो तो उसका इतना ही मतलब है कि तुम उसे विषय की तरह नहीं जान सकते। मैं तुम्हें देखता हूं लेकिन मैं उसी तरह अपने को कैसे देख सकता हूं? यह असंभव है। क्योंकि ज्ञान के लिए दो चीजें जरूरी हैं—ज्ञाता और ज्ञेय। तो जब मैं तुम्हें देखता हूं तो तुम ज्ञेय हो और मैं ज्ञाता हूं और दोनों के बीच ज्ञान सेतु की तरह है। लेकिन ज्ञान का यह सेतु कहां बनेगा जब मैं अपने को ही देखता हूं जब मैं अपने को ही जानने की कोशिश करता हूं? वहां तो केवल मैं ही हूं पूरी तरह अकेला मैं हूं। दूसरा किनारा बिलकुल अनुपस्थित है। फिर सेतु कहा निर्मित किया जाए? स्वयं को जाना कैसे जाए?

तो आत्मज्ञान एक नेति—नेति प्रक्रिया है। तुम अपने को सीधे—सीधे नहीं जान सकते; तुम सिर्फ ज्ञान के विषयों को हटाते जा सकते हो। ज्ञान के विषयों को एक—एक करके छोड़ते चले जाओ। और जब ज्ञान का कोई विषय न रह जाए, जब जानने को कुछ भी न रह जाए, सिर्फ एक शून्य, एक खालीपन रह जाए—और यही ध्यान है, ज्ञान के विषयों को छोड़ते जाना—तब एक क्षण आता है जब चेतना तो है लेकिन जानने के लिए कुछ नहीं है; जानना तो है, लेकिन जानने को कुछ नहीं है। तब जानने की सहज—शुद्ध ऊर्जा रहती है, लेकिन जानने को कुछ भी नहीं बचता है। कोई विषय नहीं रहता है। उस अवस्था में, जब जानने को कुछ नहीं रहता, तुम एक अर्थों में स्वयं को जानते हो, अपने को जानते हो।

लेकिन यह ज्ञान अन्य सब ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। दोनों के लिए एक ही शब्द का उपयोग करना भ्रामक है। इसीलिए अनेक रहस्यवादियों ने कहा है कि आत्मज्ञान शब्द विरोधाभासी है। ज्ञान सदा दूसरे का होता है, अत: आत्मज्ञान संभव नहीं है। जब दूसरा नहीं होता है तो कुछ होता है, तुम उसे आत्मज्ञान कह सकते हो, लेकिन यह शब्द भ्रामक है।

तो तुम जो भी जानते हो वह परिवर्तन है। ये जो दीवारें हैं, ये भी निरंतर बदल रही हैं। और भौतिकशास्त्र भी इसका समर्थन करता है। जो दीवार स्थाई मालूम पड़ती है, ठहरी हुई लगती है, वह भी प्रतिपल बदल रही है। सब एक महाप्रवाह है। एक—एक अणु बह रहा है, एक—एक परमाणु बह रहा है। प्रत्येक चीज बह रही है। लेकिन उसकी गति इतनी तीव्र है कि उसका पता नहीं चलता। यही कारण है कि दीवार ठहरी हुई मालूम पड़ती है। सुबह वह ऐसी ही लगती थी, दोपहर भी वह ऐसी ही लगती थी, और शाम में भी ऐसी ही लगती थी। कल भी वह ऐसी ही थी, और आने वाले कल भी वह ऐसी ही होगी। लेकिन यह बात सच नहीं है। तुम्हारी आंखें उसकी गति को पकड़ने में समर्थ नहीं हैं।

यह पंखा है। यदि पंखा बहुत तेजी से चल रहा हो तो बीच की खाली जगह तुम्हें नहीं दिखाई पड़ेगी; एक वर्तुल जैसा दिखाई पड़ेगा। खाली जगह इसलिए नहीं दिखाई देती, क्योंकि पंखे की गति तीव्र है। और अगर गति बहुत तेज हो जाए तो तुम्हें यह भी नहीं दिखाई देगा कि पंखा चल रहा है। तुम्हें कोई गति नहीं पता चलेगी, पंखा ठहरा हुआ मालूम पड़ेगा; यहां तक कि तुम उसे छू भी सकते हो। वह ठहरा मालूम होगा, और तुम खाली जगह में हाथ भी नहीं ले जा सकते। क्योंकि तुम्हारा हाथ उस गति से नहीं चल सकता कि खाली जगह में जा सके। तुम्हारा हाथ खाली जगह में जाए, इसके पहले ही दूसरा डैना आ पहुंचेगा, और तुम्हें सदा डैना ही छूने को मिलता रहेगा। और उसकी गति इतनी तेज होगी कि पंखा ठहरा हुआ मालूम पड़ेगा। तो जो चीजें ठहरी हुई हैं वे दरअसल बहुत तेज गति कर रही हैं। यही कारण है कि ऐसा आभास होता है कि वे ठहरी हुई हैं।

यह सूत्र कहता है कि सभी चीजें बदल रही हैं : ‘यह जगत परिवर्तन का है……।’

इस सूत्र पर ही बुद्ध का समस्त दर्शन खड़ा है। बुद्ध कहते हैं कि प्रत्येक चीज बहाव है, बदल रही है, क्षणभंगुर है। और यह बात प्रत्येक व्यक्ति को जान लेनी चाहिए। बुद्ध का सारा जोर इसी एक बात पर है; उनकी पूरी दृष्टि इसी बात पर आधारित है। वे कहते हैं कि यह सतत स्मरण रहे कि सब परिवर्तन ही परिवर्तन है। और जब सब परिवर्तन है तो तुम उससे आसक्त कैसे हो सकते हो?

तुम्हें एक चेहरा दिखाई देता है, बहुत सुंदर है। और जब तुम उस सुंदर रूप को देखते हो तो भाव होता है कि यह रूप सदा ही ऐसा रहेगा। इस बात को ठीक से समझ लो। ऐसी अपेक्षा कभी मत करो कि यह सौंदर्य हमेशा रहेगा। और अगर तुम जानते हो कि यह रूप तेजी से बदल रहा है, कि यह इस क्षण सुंदर है और अगले क्षण कुरूप हो जा सकता है, तो फिर आसक्ति कैसे पैदा होगी? असंभव है। एक शरीर को देखो, वह जीवित है; अगले क्षण वह मृत हो सकता है। अगर तुम परिवर्तन को समझो तो सब व्यर्थ है।

बुद्ध ने अपना राजमहल छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया, सुंदर पत्नी छोड़ दी, प्यारा पुत्र छोड़ दिया। और जब किसी ने पूछा कि क्यों छोड़ रहे हैं तो उन्होंने कहा. ‘जहां कुछ भी स्थाई नहीं है वहा रहने का क्या प्रयोजन? बच्चा एक न एक दिन मर जाएगा।’ बच्चे का जन्‍म उसी रात हुआ था जिस रात बुद्ध ने महल छोड़ा। उसके जन्म के कुछ घंटे ही हुए थे।

बुद्ध उसे अंतिम बार देखने के लिए अपनी पत्नी के कमरे में गए। पत्नी की पीठ दरवाजे की तरफ थी और वह बच्चे को अपनी बांहों में लेकर सोई थी। बुद्ध ने अलविदा कहना चाहा, लेकिन वे झिझके। उन्होंने कहा. ‘क्या प्रयोजन है?’ एक क्षण उनके मन में यह विचार कौंधा कहा : ‘क्या प्रयोजन हैँ? सब तो बदल रहा है। आज बच्चा पैदा हुआ है, कल वह मरेगा। एक दिन पहले वह नहीं था, अभी वह है, और एक दिन फिर नहीं हो जाएगा। तो क्या प्रयोजन है? सब कुछ तो बदल रहा है।’ वे मुड़े और विदा हो गए।

जब किसी ने पूछा कि आपने क्यों सब कुछ छोड़ दिया? बुद्ध ने कहा : ‘मैं उसकी खोज में हूं जो कभी नहीं बदलता, जो शाश्वत है। यदि मैं परिवर्तनशील के साथ अटका रहूंगा तो निराशा ही हाथ आएगी। क्षणभंगुर से आसक्त होना मूढ़ता है; वह कभी ठहरने वाला नहीं है। मैं मूढ़ बनूंगा और हताशा हाथ लगेगी। मैं तो उसकी खोज कर रहा हूं जो कभी नहीं बदलता, जो नित्य है। अगर कुछ शाश्वत है तो ही जीवन में अर्थ है, जीवन में मूल्य है। अन्यथा सब व्यर्थ है।’ बुद्ध की समस्त देशना का आधार परिवर्तन था।

यह सूत्र सुंदर है। यह सूत्र कहता है : ‘परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो।’ बुद्ध कभी दूसरा हिस्सा नहीं कहेंगे; यह दूसरा हिस्सा बुनियादी रूप से तंत्र से आया है। बुद्ध इतना ही कहेंगे कि सब कुछ परिवर्तनशील है, इसे अनुभव करो और तब तुम्हें आसक्ति नहीं होगी। और जब आसक्ति नहीं रहेगी तो धीरे—धीरे अनित्य को छोड़ते—छोड़ते तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाओगे, उस केंद्र पर आ जाओगे जो नित्य है, शाश्वत है। परिवर्तन को छोड़ते जाओ और तुम अपरिवर्तन पर, केंद्र पर, चक्र के केंद्र पर पहुंच जाओगे।

इसीलिए बुद्ध ने चक्र को अपने धर्म का प्रतीक बनाया, क्योंकि चक्र चलता रहता है, लेकिन उसकी धुरी, जिसके सहारे चक्र चलता है, ठहरी रहती है, स्थाई है। तो संसार चक्र की भांति चलता रहता है, तुम्हारा व्यक्तित्व चक्र की भांति बदलता रहता है, और तुम्हारा अंतरस्थ तत्व अचल धुरी बना रहता है जिसके सहारे चक्र गति करता है। धुरी अचल रहती है।

बुद्ध कहेंगे कि जीवन परिवर्तन है; वे सूत्र के पहले हिस्से से सहमत होंगे। लेकिन दूसरा हिस्सा तंत्र से आया है : ‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’

तंत्र कहता है कि जो परिवर्तनशील है उसे छोड़ो मत, उसमें उतरो, उसमें जाओ। उससे आसक्त मत होओ, लेकिन उसमें जाओ, उसे जीओ। डरना क्या है? उसमें उतरी; उसे जी लो। उसे घटित होने दो, और तुम उसमें गति कर जाओ। उसे उसके द्वारा ही विसर्जित करो। डरो मत; भागो मत। भागकर कहां जाओगे? इससे बचोगे कैसे? सब जगह तो परिवर्तन है। तंत्र कहता है, बदलाहट सब जगह है। तुम भागकर कहां जाओगे? कहां जा सकते हो? जहां भी जाओगे वहा बदलाहट ही मिलेगी। सब भागना व्यर्थ है; भागने की कोशिश ही मत करो। तब करना क्या है?

आसक्ति मत निर्मित करो। जीवन परिवर्तन है; तुम परिवर्तन हो जाओ। उसके साथ कोई संघर्ष मत खड़ा करो। उसके साथ बहो। नदी बह रही है, उसके साथ बहो। तैसे भी मत; नदी को ही तुम्हें ले जाने दो। उसके साथ लड़ो मत; उससे लड़ने में अपनी शक्ति मत गवाओ। विश्राम में रहो, और जो होता है उसे होने दो। नदी के साथ बहो।

इससे क्या होगा? अगर तुम नदी के साथ बिना संघर्ष किए बह सके, बिना किसी शर्त के बह सके, अगर नदी की दिशा ही तुम्‍हारी दिशा हो जाए तो तुम्‍हें अचानक यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं। तुम्हें यह बोध होगा कि मैं नदी नहीं हूं! इसे अनुभव करो; किसी दिन नदी में उतरकर इसका प्रयोग करो। नदी में उतरो, विश्रामपूर्ण रहो और अपने को नदी के हाथों में छोड़ दो; उसे तुम्हें बहा ले जाने दो। लड़ो मत; नदी के साथ एक हो जाओ। तब अचानक तुम्हें अनुभव होगा कि चारों तरफ नदी है, लेकिन मैं नदी नहीं हूं।

यदि नदी से लड़ोगे तो तुम यह बात भूल जा सकते हो। इसीलिए तंत्र कहता है : ‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’ लड़ी नहीं; लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि परिवर्तन तुममें नहीं प्रवेश कर सकता है। डरो नहीं; संसार में रहो। डरो मत, क्योंकि संसार तुममें प्रवेश नहीं कर सकता। उसे जीओ। कोई चुनाव मत करो।

दो तरह के लोग हैं। एक वे हैं जो परिवर्तन के जगत से चिपके रहते हैं और एक वे हैं जो उससे भाग जाते हैं। लेकिन तंत्र कहता है कि जगत परिवर्तन है, इसलिए उससे चिपकना और उससे भागना दोनों व्यर्थ हैं। क्या प्रयोजन है? बुद्ध कहते हैं, ‘इस परिवर्तनशील में रहने से क्या प्रयोजन है?’ और तंत्र कहता है ‘इससे भागने का क्या प्रयोजन है?’ दोनों व्यर्थ हैं। उसे बदलते रहने दों; तुम्हें उससे कुछ लेना—देना नहीं है। वह बदल ही रहा है; उसके लिए तुम्हारी जरूरत भी नहीं है। तुम नहीं थे और संसार बदल रहा था; तुम नहीं रहोगे और संसार बदलता रहेगा। फिर इसके लिए शोरगुल क्या करना?

‘परिवर्तन को परिवर्तन से विसर्जित करो।’

यह एक बहुत गहन संदेश है। क्रोध को क्रोध से विसर्जित करो; काम को काम से विसर्जित करो, लोभ को लोभ से विसर्जित करो; संसार को संसार से विसर्जित करो। उससे संघर्ष मत करो, विश्रामपूर्ण रहो। क्योंकि संघर्ष से तनाव पैदा होता है; तनाव से चिंता और संताप पैदा होता है। और तुम नाहक उपद्रव में पड़ोगे। संसार जैसा है उसे वैसा ही रहने दो। दो तरह के लोग हैं। एक वे हैं जो संसार को वैसा ही नहीं रहने देना चाहते जैसा वह है। वे क्रांतिकारी कहलाते हैं। वे उसे बदलेंगे ही; वे उसे बदलने के लिए जद्दोजहद करेंगे। वे उसे बदलने में अपना सारा जीवन नष्ट कर देंगे। और यह जगत अपने आप बदल रहा है; उनकी कोई जरूरत नहीं है। वे अपने को ही नष्ट करेंगे; दुनिया को बदलने में वे खुद खतम होंगे। और संसार बदल ही रहा है; उसके लिए किसी क्रांति की जरूरत नहीं है। संसार स्वयं एक क्रांति है; वह बदल ही रहा है।

तुम्हें आश्चर्य होता होगा कि भारत में महान क्रांतिकारी क्यों नहीं पैदा हुए। यह इसी अंतर्दृष्टि का परिणाम है कि सब अपने आप ही बदल रहा है। तुम उसे बदलने के लिए क्यों परेशान हो? तुम न उसे बदल सकते हो और न बदलाहट को रोक ही सकते हो। वह बदल ही रहा है। क्यों अपने को नष्ट कर रहे हो?

एक तरह का व्यक्तित्व सदा संसार को बदलने की चेष्टा करता है। धर्म की दृष्टि में वह मानसिक तल पर रुग्ण है। सच तो यह है कि अपने साथ रहने में उसे भय लगता है, इसलिए वह भागता फिरता है और संसार में उलझा रहता है। राज्य को बदलना है, सरकार को बदलना है; समाज, व्यवस्था, अर्थनीति, सब कुछ को बदलना है। और इसी सब में वह मर जाएगा। और उसे उस आनंद का, उस समाधि का एक कण भी नहीं उपलब्ध होगा, जिसमें वह जान सकता था कि मैं कौन हूं। और संसार चलता रहेगा; संसार—चक्र घूमता रहेगा। संसार—चक्र ने अनेक क्रांतिकारी देखे हैं, और वह घूमता ही जाता है। तुम न तो इसे रोक सकते हो, और न तुम उसकी बदलाहट को तेज ही कर सकते हो।

रहस्यवादियों की, बुद्धों की यह दृष्टि है। वे कहते हैं कि संसार को बदलने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्धों की भी दो कोटियां हैं। कोई कह सकता है कि संसार को बदलने की जरूरत नहीं है; लेकिन अपने को बदलने की जरूरत तो है। वह भी परिवर्तन में विश्वास करता है; वह जगत को बदलने में नहीं, लेकिन अपने को बदलने में विश्वास करता है।

लेकिन तंत्र कहता है कि किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। रहस्य का, अध्यात्म का यह गहनतम तल है, यह उसका अंतरतम केंद्र है। तुम्हें किसी को भी बदलने की जरूरत नहीं है—न संसार को और न अपने को। तुम्हें इतना ही जानना है कि सब कुछ बदल रहा है, और तुम्हें उस बदलाहट के साथ बहना है, उसे स्वीकार करना है।

और जब बदलने का कोई प्रयत्न नहीं है तो ही तुम समग्रत: विश्रामपूर्ण हो सकते हो। जब तक प्रयत्न है, तुम विश्रामपूर्ण नहीं हो सकते। तब तक तनाव बना रहेगा, क्योंकि तुम्हें अपेक्षा है कि भविष्य में कुछ होने वाला है, जगत बदलने वाला है। संसार में साम्यवाद आने वाला है, या पृथ्वी पर स्वर्ग उतरने वाला है, या भविष्य में कोई ऊटोपिया आने वाला है, या तुम प्रभु के राज्य में या मोक्ष में प्रवेश करने वाले हो, स्वर्ग में देवदूत तुम्हारा स्वागत करने के लिए तैयार खड़े हैं—जो भी हो, तुम भविष्य में कहीं अटके हो। इस अपेक्षा के साथ तुम तनावग्रस्त रहोगे ही।

तंत्र कहता है, इन बातों को भूल जाओ। संसार बदल ही रहा है और तुम भी निरंतर बदल रहे हो। बदलाहट ही अस्तित्व है, इसलिए बदलाहट की चिंता मत लो। तुम्हारे बिना ही बदलाहट हो रही है; तुम्हारी जरूरत नहीं है। तुम भविष्य की कोई चिंता किए बिना उसमें बहो। और तब अचानक तुम्हें अपने भीतर के उस केंद्र का बोध होगा जो कभी नहीं बदलता है, जो सदा वही का वही रहता है।

ऐसा क्यों होता है? क्योंकि जब तुम विश्रामपूर्ण होते हो तो बदलाहट की पृष्ठभूमि में विपरीत दिखाई पड़ता है, परिवर्तन की पृष्ठभूमि में तुम्हें सनातन का, शाश्वत का बोध होता है। अगर तुम संसार को या अपने को बदलने के प्रयत्न में लगे हो तो तुम अपने भीतर उस छोटे से अकंप, स्थिर, ठहरे हुए केंद्र को नहीं देख पाओगे। तुम बदलाहट से इतने घिरे हो कि तुम उसे नहीं देख पाते हो जो है।

सब तरफ परिवर्तन है। यह परिवर्तन पृष्ठभूमि बन जाता है, कंट्रास्ट बन जाता है। और तुम शिथिल होते हो, विश्राम में होते हो, इसलिए तुम्हारे मन में भविष्य नहीं होता, भविष्य के विचार नहीं होते। तुम यहां और अभी होते हो, यह क्षण ही सब कुछ होता है। सब कुछ बदल रहा है—और अचानक तुम्हें अपने भीतर उस बिंदु का बोध होता है जो कभी नहीं बदला है।

‘परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो।’

इसका यही अर्थ है। लड़ो मत। मृत्यु के द्वारा अमृत को जान लो; मृत्यु के द्वारा मृत्यु को मर जाने दो। उससे लड़ाई मत करो।

तंत्र की दृष्टि को समझना कठिन है। कारण यह है कि हमारा मन कुछ करना चाहता है, और तंत्र है कुछ न करना। तंत्र कर्म नहीं, पूर्ण विश्राम है। लेकिन यह एक सर्वाधिक गुह्य रहस्य है। और अगर तुम इसे समझ सको, अगर तुम्हें इसकी प्रतीति हो जाए, तो तुम्हें किसी अन्य चीज की चिंता लेने की जरूरत न रही। यह अकेली विधि तुम्हें सब कुछ दे सकती है।

तब तुम्हें कुछ करने की जरूरत न रही, क्योंकि तुमने इस रहस्य को जान लिया कि परिवर्तन से परिवर्तन का अतिक्रमण हो सकता है, मृत्यु से मृत्यु का अतिक्रमण हो सकता है, काम से काम का अतिक्रमण हो सकता है, क्रोध से क्रोध का अतिक्रमण हो सकता है। अब तुम्हें यह कुंजी मिल गई कि जहर से जहर का अतिक्रमण हो सकता है।

आज इतना ही।


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गुरू प्रताप साध की संगति–(प्रवचन–5)

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बोलता ब्रह्मा चीन्‍है सो ज्ञानी—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 मई, 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

जहां तक समुंद दरियाव जल कूप है,

लहरि अरु बूंद एक पानी।

एक सुबर्न को भयो गहना बहुत,

देखु बीचारकै हेम खानी।

पिरथी आदि घट रच्यो रचना बहुत,

मिर्तिका एक खुद भूमि जानी।

भीखा इक आतमा रूप बहुतै भयो,

बोलता ब्रह्म चीन्है सो ज्ञानी।

 राखो मोहि आपनी छाया। लगैं नहिं रावरी माया।

कृपा अब कीजिए देवा। करौं तुम चरन की सेवा।

आसिक तुझ खोजता हारे। मिलहु मासूक आ प्यारे।

कहौं का भाग मैं अपना। देहु जब अजप का जपना।

अलख तुम्हरो न लख पाई। दया करि देहु बतलाई।

वारि वारि जावं प्रभु तेरी। खबरि कछु लीजिए मेरी।

सरन में आय मैं गीरा। जानो तुम सकल परपीरा।

अंतरजामी सकल डेरो। छिपो नहिं कछु करम मेरो।

अजब साहब तेरी इच्छा। करो कछु प्रेम की सिच्छा।

सकल घट एक हौ आपै। दूसर जो कहै मुख कापै।

निरगुन तुम आप गुनधारी। अचर चर सकल नरनारी।

जानो नहिं देव मैं दूजा। भीखा इक आतमा पूजा।

 

त्मा

किसी फल की तरह

पक गई है

देह पुराने किसी

वृक्ष की तरह

थक गई है

पहले

वृक्ष गिरेगा या फल

क्या जाने

पल गिरने का

दोनों के

पास है

आसपास मेरे

अंतिम आनंदों का

महारास है

और मैं एक

घना उजाला

हुआ जा रहा हूं

अनजाने तत्वों से

निरंतर

छुआ जा रहा हूं

वृक्ष थकी देह है

आत्मा पका फल

गिरने का पल

दोनों का पास है

आसमान

जरूरत से ज्यादा

पीला हो गया है

और प्रतिबिंबित है

आत्मा के पके फल का रंग

ऊपर उठकर उस पीलेपन पर

मन पर कुछ

इंद्रधनुष जैसा

खिंच गया है

अंतिम आनंदों का महारास

वर्षा की एक

झड़ी है मानो

जीवन की संध्या की

यह

मनचीती घड़ी है मानो

लेकिन बहुत कम ऐसे सौभाग्यशाली लोग हैं जो जीवन की अंतिम घड़ी में ऐसा कह सकें कि

जीवन की संध्या की

यह मनचीती घड़ी है मानो

अंतिम आनंदों का महारास वर्षा की एक

झड़ी है मानो

बहुत कम सौभाग्यशाली ऐसे लोग हैं जो यह कह सकें जब मृत्यु द्वार पर दस्तक दे—

आसपास मेरे

अंतिम आनंद का

महारास है

और मैं एक

घना उजाला

हुआ जा रहा हूं

अनजाने तत्त्वों से

निरंतर

छुआ जा रहा हूं

मरते सभी हैं, लेकिन कुछ ऐसे मरते हैं कि मर कर अमृत को पा लेते हैं। जीते सभी हैं, लेकिन कुछ ऐसे जीते हैं कि जीवन को जान ही नहीं पाते और कुछ ऐसे जीते हैं कि जीवन में ही महाजीवन की झलक पकड़ आ जाती है। जीवन को ऐसे जीना कि जीवन का सत्य पकड़ में न आए—संसार है; और जीवन को ऐसे जीना कि जीवन का आधार पकड़ में आ जाए—संन्यास है। संन्यास और संसार जीवन को जीने की शैलियों के नाम हैं।

और संसारी अभागा है क्योंकि जिएगा तो जरूर लेकिन पाएगा कुछ भी नहीं; दौड़ेगा बहुत, पहुंचेगा कहीं भी नहीं; बड़ी आपाधापी और हाथ में अंततः राख के सिवाय कुछ भी नहीं; बहुत भाग—दौड़, बड़ी चिंता, बड़ा संघर्ष, मिलती है अंत में कब्र। संन्यासी वह है जो जीवन को जागकर जीता है; जो जीने में जागने को जोड़ देता है; जो जीवन के अंधेरे में ध्यान का दीया जला लेता है। फिर पहचान होने लगती है परमात्मा से, फिर रोज—रोज घनी होने लगती है यह पहचान, आलिंगन रोज—रोज गहरा होने लगता है, यह मिलन महामिलन बन जाता है। वह घड़ी फिर दूर नहीं जब छूटना नहीं हो सकेगा। और तब तुम्हारे जीवन का अंधेरा भी उजाला हो जाएगा और रात भी दिन और मृत्यु भी अमृत!

आसपास मेरे

अंतिम आनंदों का

महारास है

और मैं एक

घना उजाला

हुआ जा रहा हूं

अनजाने तत्त्वों से

निरंतर

छुआ जा रहा हूं

मन पर कुछ

इंद्रधनुष जैसा

खिंच गया है

अंतिम आनंदों का महारास

वर्षा की एक

झड़ी है मानो

जीवन की संध्या की

यह

मनचीती घड़ी है मानो

लेकिन संध्या के सौंदर्य को वे ही जान पाएंगे जिन्होंने प्रभात का सौंदर्य भी जाना है और भरी—दोपहरी का आनंद भी। जो पल—पल घड़ी—घड़ी उसके नृत्य को पहचानते चले, वे संध्या में उसका महारास देख सकेंगे। लेकिन जिन्होंने पूरा दिन ही सोए—सोए बिता दिया, संध्या भी उनकी व्यर्थ हो जाएगी।

अधिक लोगों की जीवन की यात्रा तो व्यर्थ है ही, मृत्यु की मंजिल भी व्यर्थ हो जाती है। और इसीलिए तो तुम इतने डरे हुए हो मृत्यु से। तुम्हारा डर मृत्यु का डर नहीं है, तुम्हारा डर इसी बात का है कि अभी तो जीवन जिया नहीं, कहीं मौत न आ जाए! अभी तो फल पका नहीं, कहीं डाल से गिर न जाए। अभी तो वृक्ष फूला भी नहीं, कहीं सूख न जाए। अभी वसंत तो आया ही नहीं और यह पतझड़ आने लगा और ये पत्ते सूखने और झरने लगे। तुम्हारा भय मृत्यु का भय नहीं है, तुम्हारा भय है कि आज तक तो मैं व्यर्थ ही रहा हूं और कल का अब कुछ भरोसा न रहा। मौत तुमसे “कल” छीन लेगी, और क्या छीनेगी? लेकिन जो आज जिया है, उससे क्या छीन सकती है मौत? मौत सिर्फ “कल” छीन सकती है, “आज” नहीं छीन सकती। मौत सिर्फ भविष्य छीन सकती है, वर्तमान नहीं छीन सकती। तुम मौत की नपुंसकता देखते हो, सिर्फ भविष्य छीन सकती है; भविष्य—जोकि है ही नहीं; वर्तमान को नहीं छीन सकती; वर्तमान—जोकि है।

इसलिए जो वर्तमान में जीना सीख ले वही संन्यासी है। और जो वर्तमान में जी लेता है, वह परमात्मा से परिचित हो जाता है क्योंकि वर्तमान परमात्मा की अभिव्यक्ति है। अनंत—अनंत रूपों में, वह एक ही प्रकट हो रहा है—वही पक्षियों के गीत में, वही रात के सन्नाटे में, वही झरनों के संगीत में, उसी की टंकार है वीणा में, वही बादलों की गड़गड़ाहट में।

लेकिन कौन होगा परिचित उससे? जो वर्तमान के क्षण में जागरूक होगा। हम तो सोए हैं। हम तो ऐसे सोए हैं कि अतीत के सपने देखते हैं: जो बीत गया उसे दोहराते हैं, उसकी जुगाली करते हैं। हम तो भैंसों की तरह हैं। बैठे हैं, जुगाली कर रहे हैं। और या फिर भविष्य की कल्पनाएं करते हैं। जो नहीं है, उसमें हमारा बड़ा रस है—अतीत भी नहीं है और भविष्य भी नहीं है। और जो है, उसकी तरफ पीठ किए बैठे हैं। हम जैसा बुद्धिमान खोजना बहुत मुश्किल है!

है तो यह क्षण, यह क्षण महा क्षण है क्योंकि इसी क्षण से शाश्वत का द्वार खुलता है। जो इस क्षण में झांकता है, वह नास्तिक नहीं रह सकता। इस क्षण में झांकते ही परमात्मा की छवि इतने रूपों में टूट पड़ती है, इतनी दिशाओं से, इतने आयामों से, झड़ी लग जाती है, धुआं—धार झड़ी लग जाती है। फिर कैसे तुम रीते रह जाओगे? फिर कैसे तुम अनछुए रह जाओगे? फिर कैसे तुम बिना भीगे रह जाओगे? आंखें ही नहीं भीगेंगी, तुम्हारी आत्मा भी भीग जाएगी। आनंद तुम्हारे पोर—पोर में समा जाएगा।

और परमात्मा, स्मरण रहे, मंदिरों और मस्जिदों में छिपा हुआ नहीं बैठा है। परमात्मा प्रगट है, निर्वस्त्र है, चारों तरफ मौजूद है। झांको तो तुम्हारे भीतर मौजूद है और ऐसे दौड़ते रहो काबा और काशी और कैलाश…..तुम्हारी मर्जी! लोग सस्ता पाना चाहते हैं कि चले तीर्थयात्रा को चले हज—यात्रा को। परमात्मा इतना सस्ता नहीं मिलता, नहीं तो सब हाजियों को मिल जाए—हाजी मस्तान को भी मिल जाए। परमात्मा इतना सस्ता नहीं मिलता, नहीं तो हर तीर्थयात्री को मिल जाए। और कुछ लोग तो तीर्थो में अड्डा जमाकर ही बैठे हैं, उनको तो ऐसा मिले….।

लेकिन काशी जाकर देखा? भीखा सबसे पहले काशी गए थे, इसी आशा में कि शायद काशी में मिल जाएगा—भटके बहुत, द्वार खटखटाए बहुत, अंततः खाली लौटे। कहा लौटकर कि शास्त्र को जानने वाले बहुत हैं वहां लेकिन सत्य को जानने वाला कोई भी नहीं। काशी के लोग तो नाराज होंगे। काशी पुण्य नगरी और कोई कह दे कि सत्य को जानने वाला कोई नहीं। और यह भीखा, यह छोकरा इसको जैसे सत्य का पता हो! काशी के महापंडितों को खली होगी बात। लेकिन भीखा भी क्या करे—जैसा है वैसा न कहे तो क्या करे ! उसने कहा : देखा बहुत शास्त्र—ज्ञान, बड़े शब्दों के धनी, व्याकरण के जानकार; वेदों के पंडित, जिन्हें वेद कंठस्थ, ब्रह्मसूत्र कंठस्थ, गीता कंठस्थ; जिनकी भाषा में बड़ा माधुर्य; जिनके तर्क—जाल बड़े सुगढ़, बड़े गणित की कसौटी पर कसे हुए; जिनसे विवाद मुश्किल, जो किसी का भी मुंह बंद कर दें, जो बड़े शास्त्रार्थी—लेकिन सत्य जिनके पास नहीं, सत्य का अनुभव जिनके पास नहीं। लौट आए काशी से, खाली हाथ लौट आए।

और मिला सत्य, जरूर मिला; जिसकी तलाश है उसे मिलेगा। जो प्यासा है, उसे मिलेगा। प्यासे के लिए सरोवर निश्चित है। प्यास बनाई परमात्मा ने, उसके पहले सरोवर बनाया है। भूख दी, उसके पहले भोजन। तलाश दी, उसके पहले मंजिल।

यह जगत एक अराजकता नहीं है—यह जगत एक बड़ा सुसंगत, संगीतबद्ध, लयबद्ध, अनुशासित, अस्तित्व है। यहां प्रत्येक घटना जो घट रही है, यूं ही नहीं, अनायास नहीं—१३७ाृखला है एक, सुसंगति की व्यवस्था है एक, भीतर छिपे हाथ हैं कोई जो सब सम्हाले हैं। इतना विराट अस्तित्व दुर्घटना नहीं हो सकता। वैज्ञानिक कहते है : यह सिर्फ एक दुर्घटना है। ऐसा कहकर वैज्ञानिक यही बताते हैं कि विज्ञान भी एक नया अंधविश्वास हो गया है। इस विराट अस्तित्व को दुर्घटना कहते हो! रोज सुबह सूरज उग आता है, रोज सांझ सूरज डूब जाता है; इतने चांदत्तारे—यह सब व्यवस्था से चल रहा है।

इतनी व्यवस्था, इतनी संगति, अकारण नहीं हो सकती, इसके पीछे महाकारण होना ही चाहिए। तुम्हें अगर रेगिस्तान में एक घड़ी पड़ी मिल जाए तो क्या तुम कह सकोगे—यह अनायास ही पैदा हो गई होगी, सदियों—सदियों तक हवा के थपेड़े खाते—खाते, रेत और पत्थरों की चोट और वर्षा और धूप—धाप इस सब चोट खाते—खाते यह यंत्र बन गया होगा, यह घड़ी बन गई होगी? नहीं तुम ऐसा न कह सकोगे, बड़े—से बड़ा वैज्ञानिक भी ऐसा न कह सकेगा; वह भी कहेगा कि कोई यात्री आया होगा…..।

मैंने सुना है, एक भारतीय कारागृह में तीन कैदी बंद थे। कोई कारागृह को देखने आया था। उसने पहले कैदी से पूछा कि तुम क्यों बंद हो?

उसने कहा : घड़ी के कारण।

समझा नहीं कुछ पूछने वाला, उसने कहा : घड़ी के कारण! क्या घड़ी चुराई थी?

उसने कहा : नहीं—नहीं, समझे नहीं आप। मेरी घड़ी थोड़ी धीमी चलती है, इसलिए दफ्तर रोज देर से पहुंचता था, सो उन्होंने जेलखाने में डाल दिया।

दूसरे से पूछा : तुम क्यों बंद हो?

उसने कहा : मैं भी घड़ी के कारण।

उन्होंने कहा : हद हो गई! तुम्हारी घड़ी भी क्या धीमे—धीमे चलती थी?

उसने कहा कि नहीं, मेरी घड़ी रोज तेज चलती थी, मैं रोज दफ्तर जल्दी पहुंच जाता था तो शक हो गया कि जल्दी क्यों आता हूं, कुछ मतलब होगा, रोज जल्दी क्यों आता हूं, कोई फाइल चुरानी है, कोई दफ्तर में सेंध लगानी है!

तीसरे से पूछा : और तुम क्यों बंद हो ?

उसने कहा : मैं भी घड़ी के कारण।

उस आदमी ने कहा : हद हो गई! घड़ी ही घड़ी के कारण लोग बंद हैं! तुम्हारी घड़ी को क्या हो गया था?

उसने कहा : मेरी घड़ी बिल्कुल ठीक समय पर चलती थी, मैं ठीक समय पर दफ्तर पहुंचता था।

तो उस आदमी ने पूछा कि चलो इसको पकड़ा कि धीमे, देर से पहुंचता था : इसको पकड़ा कि जल्दी पहुंचता था। तुमको क्यों पकड़ा?

उन्होंने कहा : मुझे इसलिए पकड़ा कि उन्हें शक हुआ कि घड़ी इंपोर्टिड है, बिना टेक्स चुकाए भीतर लाई गई है। भारत में तो नहीं बनी इतना पक्का है।

घड़ी तुम्हें पड़ी मिल जाए, रेगिस्तान में तो तुम एकदम से न कह सकोगे कि आकस्मिक है। इतने विराट अस्तित्व को आकस्मिक कहते हो? तो विज्ञान भी फिर अंधविश्वास की बातें करने लगा। बड़े वैज्ञानिक ऐसा नहीं कहते। प्रसिद्ध वैज्ञानिक एडिंग्टन ने अपने जीवन—संस्मरणों में लिखा है कि जब मैं युवा था तो सोचता था कि जगत एक वस्तु है—वस्तु—मात्र, कोई चैतन्य नहीं। लेकिन अब अपनी वृद्धावस्था में, जीवन—भर के अनुभव के बाद मैं यह कह सकता हूं कि जगत वस्तु जैसा नहीं मालूम होता, विचार जैसा मालूम होता है और विचार भी एक सुसंगत विचार। इसके पीछे कुछ रहस्य छिपा मालूम होता है। अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है कि आकाश और चांदत्तारों को खोजते—खोजते एक बात तय हो गई कि रहस्यवादी जो कहते हैं ठीक ही कहते होंगे। इतना रहस्य है कि इसके पीछे कोई अदृश्य हाथ होने ही चाहिए।

जो व्यक्ति वर्तमान के क्षण में डुबकी मारेगा, रहस्य में डुबकी लग जाएगी उसकी और रहस्य परमात्मा का दूसरा नाम है। परमात्मा शब्द का उपयोग चाहे न भी करो तो चलेगा क्योंकि परमात्मा शब्द बहुत गंदा हो गया है, गलत हाथों में पड़ा रहा—पंडित, पुजारी, पुरोहित, मौलवी—उन्होंने इस शब्द को इतना घिसा है, इतना पिसा है; इस शब्द के साथ इतने खेल किए हैं, इतना शोषण किया है; इस शब्द के आसपास इतने जाल रचे, मकड़ियों के जाल, जिनमें न मालूम कितने लोगों को फंसाया है; यह शब्द अश्लील हो गया है, अब इस शब्द का उच्चारण करते भी विचारशील व्यक्ति थोड़ा झिझकता है।

पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक फुलर ने एक प्रार्थना लिखी है, प्रार्थना बड़ी बेहूदी है, प्रार्थना जैसी ज़रा भी नहीं। फुलर जैसा समझदार आदमी और ऐसी प्रार्थना लिखेगा, बड़ी चौंकानेवाली बात है। लेकिन कारण साफ है कि ऐसी प्रार्थना क्यों लिखी क्योंकि हमारे शब्द, सारे महत्त्वपूर्ण शब्द गलत हाथों में पड़कर गलत हो गए हैं। फुलर की प्रार्थना शुरू होती है—हे परमात्मा! लेकिन मैं साफ कर दूं कि परमात्मा से मेरा क्या अर्थ है। अब यह प्रार्थना है कि पहले मैं साफ कर दूं कि परमात्मा से मेरा क्या अर्थ है—मेरे तीन अर्थ हैं। इस तरह प्रार्थना चलती है! कि मेरी आत्मा को शांति दो। पहले मैं यह बता दूं कि आत्मा से मेरा क्या अर्थ है और शांति से मेरा क्या अर्थ है। ऐसी प्रार्थना चलती है! प्रार्थना चलती कई पेजों तक। उसमें प्रार्थना जैसा कुछ भी नहीं लगता, ऐसा लगता है कि जैसे कोई बच्चा, प्रायमरी स्कूल का, शिक्षक को उत्तर दे रहा हो—भूगोल के कि इतिहास के, मगर प्रार्थना जैसा कुछ भी नहीं है।

मगर फुलर का भय मैं समझता हूं, परमात्मा शब्द का उपयोग करो, तत्क्षण डर लगता है कि लोग समझेंगे कि तुम वही परमात्मा की बात कर रहे हो जिसके आधार पर पंडित—पुरोहित आदमी की छाती पर सवार रहे हैं। आत्मा की बात करो, तत्क्षण डर लगता है कि वही साधु—संन्यासी जिन्होंने आदमी की गर्दन दबाई है, आत्मा के नाम पर आत्मा मारी है, उन्हीं की बात कर रहे हो।

तो फुलर को समझाना पड़ता है कि परमात्मा से मेरा अर्थ क्या, आत्मा से मेरा अर्थ क्या। अर्थ समझाने में ही इतनी लंबी प्रार्थना हो जाती है कि उसमें से प्रार्थना का तत्त्व खो जाता है। प्रार्थना में तो एक निर्दोषता होनी चाहिए, एक सरलता होनी चाहिए, एक भावोन्माद होना चाहिए, एक मस्ती होनी चाहिए। मस्ती वगैरह तो बची कहां, गणित का हिसाब हो गया। फुलर वैज्ञानिक है सो प्रार्थना भी विज्ञान हो गई।

मगर जिन्होंने वर्तमान के क्षण में डुबकी लगाई है, उन्होंने परमात्मा को निश्चित जाना है, वे परमात्मा उसे कहें या न कहें। बुद्ध ने नहीं कहा, पंडित—पुरोहितों के कारण नहीं कहा। लोग सोचते हैं, बुद्ध ने परमात्मा शब्द का उपयोग नहीं किया क्योंकि वे नास्तिक थे। लोग गलत सोचते हैं। लोग बुद्ध को नहीं जानते। असल में बिना बुद्ध हुए बुद्ध को जानने का कोई उपाय भी नहीं है। सिर्फ बुद्धों के वचन के संबंध में सार्थक हो सकते हैं। लेकिन बुद्धू कहते हैं कि बुद्ध ईश्वर को नहीं मानते।

बुद्ध और ईश्वर को न मानें तो कौन मानेगा? हां, मानते नहीं हैं, जानते हैं। लेकिन शब्द का उपयोग नहीं किया, सोचकर नहीं किया क्योंकि पंडित—पुरोहितों का इतना जाल, इतना व्यवसाय, इतना उपद्रव, यज्ञ—हवन, इतनी हिंसा, कि बुद्ध ने सोचा कि ईश्वर शब्द का उपयोग करना अर्थात् इन्हीं पंडित—पुरोहितों की जमात में खड़े हो जाना है। नहीं, वे चुप रहे। उन्होंने कहा : जाओ भीतर और जानो, मुझसे मत पूछो। जो है, वह है। कहने से सिद्ध नहीं होता, इनकार करने से असिद्ध नहीं होता है। जो है, वह है। मानो तो हो नहीं जाता, नहीं मानो तो मिट नहीं जाता। जागो और देखो, सोए—सोए मत पूछो। आंख खोलो और देखो; सूरज है तो दिखाई पड़ेगा; रोशनी है तो दिखाई पड़ेगी; इंद्रधनुष निकला है तो दिखाई पड़ेगा; नहीं है तो मेरे कहने से क्या होगा!

बुद्ध के पास मौलुंकपुत्त नाम का एक दार्शनिक आया। उसने कहा : ईश्वर है?

बुद्ध ने कहा : सच में ही तू जानना चाहता है या यूं ही एक बौद्धिक खुजलाहट?

मौलुंकपुत्त को चोट लगी। उसने कहा : सच में ही जानना चाहता हूं। यह भी आपने क्या बात कही! हजारों मील से यात्रा करके कोई बौद्धिक खुजलाहट के लिए आता है?

तो फिर बुद्ध ने कहा : तो फिर दांव पर लगाने की तैयारी है कुछ।

मौलुंकपुत्त को और चोट लगी, क्षत्रिय था। उसने कहा : सब लगाऊंगा दांव पर। हालांकि यह सोचकर नहीं आया था। पूछा उसने बहुतों से था कि ईश्वर है और बड़े वाद—विवाद में पड़ गया था। मगर यह आदमी कुछ अजीब है, यह ईश्वर की तो बात ही नहीं कर रहा है, ये दूसरी ही बातें छेड़ दीं कि दांव पर लगाने की कुछ हिम्मत है। मौलुंकपुत्त ने कहा : सब लगाऊंगा दांव पर, जैसे आप क्षत्रिय पुत्र हैं, मैं भी क्षत्रिय पुत्र हूं, मुझे चुनौती न दें।

बुद्ध ने कहा : चुनौती देना ही मेरा काम है। तो फिर तू इतना कर—दो साल चुप मेरे पास बैठ। दो साल बोलना ही मत—कोई प्रश्न इत्यादि नहीं, कोई जिज्ञासा वगैरह नहीं। दो साल जब पूरे हो जाएं तेरी चुप्पी के तो मैं खुद ही तुझसे पूछूंगा कि मौलुंकपुत्त, पूछ ले जो पूछना है। फिर पूछना, फिर मैं तुझे जवाब दूंगा। यह शर्त पूरी करने को तैयार है?

मौलुंकपुत्त थोड़ा तो डरा क्योंकि क्षत्रिय जान दे दे यह तो आसान मगर दो साल चुप बैठा रहे…..! कई बार जान देना बड़ा आसान होता है, छोटी—छोटी चीजें असली कठिनाई की हो जाती हैं। जान देना हो तो क्षण में मामला निपट जाता है, कि कूद गए पानी में पहाड़ी से, कि चले गए समुद्र में एक दफा हिम्मत करके, कि पी गए जहर की पुड़िया—यह क्षण में हो जाता है। इतने तेज जहर हैं कि तीन सैकंड में आदमी मर जाए, बस जीभ पर रखा कि गए, एक क्षण की हिम्मत चाहिए। लेकिन दो साल चुप बैठे रहना बिना जिज्ञासा, बिना प्रश्न, बोलना ही नहीं, शब्द का उपयोग ही नहीं करना—यह ज़रा लंबी बात थी मगर फंस गया था। कह चुका था कि सब लगा दूंगा तो अब मुकर नहीं सकता था, भाग नहीं सकता था। स्वीकार कर लिया, दो साल बुद्ध के पास चुप बैठा रहा।

जैसे ही राजी हुआ वैसे ही दूसरे वृक्ष के नीचे बैठा हुआ एक भिक्षु जोर से हंसने लगा। मौलुंकपुत्त ने पूछा : आप क्यों हंसते हैं?

उसने कहा : मैं इसलिए हंसता हूं कि तू भी फंसा, ऐसे ही मैं फंसा था। मैं भी ऐसा ही प्रश्न पूछने आया था कि ईश्वर है और इन सज्जन ने कहा कि दो साल चुप। दो साल चुप रहा, फिर पूछने को कुछ न बचा। तो तुझे पूछना हो तो अभी पूछ ले। देख, तुझे चेतावनी देता हूं, पूछना हो अभी पूछ ले, दो साल बाद नहीं पूछ सकेगा।

बुद्ध ने कहा : मैं अपने वायदे पर तय रहूंगा, पूछेगा तो जवाब दूंगा। अपनी तरफ से भी पूछ लूंगा तुझसे कि बोल पूछना है? तू ही न पूछे, तू ही मुकर जाए अपने प्रश्न से तो मैं उत्तर किसको दूंगा?

दो साल बीते और बुद्ध नहीं भूले। दो साल बीतने पर बुद्ध ने पूछा कि मौलुंकपुत्त अब खड़ा हो जा, पूछ ले।

मौलुंकपुत्त हंसने लगा। उसने कहा : उस भिक्षु ने ठीक ही कहा था। दो साल चुप रहते—रहते चुप्पी में ऐसी गहराई आई; चुप रहते—रहते ऐसा बोध जमा, चुप रहते—रहते ऐसा ध्यान उमगा; चुप रहते—रहते विचार धीरे—धीरे खो गए, खो गए, दूर—दूर की आवाज मालूम होने लगे; फिर सुनाई ही नहीं पड़ते थे, फिर वर्तमान में डुबकी लग गई और जो जाना…..बस आपके चरण धन्यवाद में छूना चाहता हूं। उत्तर मिल गया है, प्रश्न पूछना नहीं है।

परम ज्ञानियों ने ऐसे उत्तर दिए हैं—प्रश्न नहीं पूछे गए उत्तर मिल गए हैं। प्रश्नों से उत्तर मिलते ही नहीं—शून्य से मिलता है उत्तर। और जो उत्तर मिलता है वही परमात्मा है। और तब तुम्हें चारों तरफ वही एक दिखाई पड़ता है। अभी कहीं नहीं दिखाई पड़ता फिर ऐसी जगह नहीं दिखाई पड़ती जहां न हो। अभी तुम पूछते हो परमात्मा कहां है; फिर पूछोगे परमात्मा कहां नहीं है!

तुमने सुना न, नानक जब यात्रा करते हुए मक्का पहुंचे तो पैर करके मक्का की तरफ सो गए। निश्चित पंडित—पुरोहित नाराज हुए। मक्का के ठेकेदार नाराज हुए। खबर मिली उनको तो भागे आए और कहा कि देखने से साधु—पुरुष मालूम होते हो, शर्म नहीं आती कि काबा के पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सो रहे हो?

तो पता है नानक ने क्या कहा ? नानक ने कहा कि मेरी भी मुश्किल है, तुम अच्छे आ गए। मेरी थोड़ी सहायता करो। मेरे पैर उस तरफ कर दो जिस तरफ परमात्मा न हो।

कहां करोगे ये पैर? कहानी तो और आगे जाती है मगर मैं मानता हूं, कहानी यहीं पूरी हो गई, असली बात यहीं पूरी हो गई, बाकी तो जोड़ी हुई बात है, प्रीतिकर है बाकी बात। कहानी तो और आगे जाती है कि पंडित—पुजारियों ने क्रोध में नानक के पैर पकड़कर दूसरी दिशाओं में मोड़े लेकिन जिन दिशाओं में पैर मोड़े, उसी दिशा में काबा का पत्थर मुड़ गया।

यह तो प्रतीक है। मैं इसको ऐतिहासिक घटना नहीं मानता; काबा के पत्थर इतनी आसानी से नहीं मुड़ते। और काबा का पत्थर अकेला नहीं मुड़ सकता, उसके साथ पूरी काबा की बस्ती को मुड़ना पड़ेगा। काबा की बस्ती अकेली नहीं है, उसके साथ पूरा अरब मुड़ेगा। अरब अकेला नहीं है, उसके साथ पुरी दुनिया को मुड़ना पड़ेगा। दुनिया अकेली नहीं है, सब चांदत्तारे…..बहुत झंझट हो जाएगी। यहां चीजें जुड़ी हैं। यहां एक का हटना, सबका अस्त—व्यस्त होना हो जाएगा।

नहीं, इतना उपद्रव नानक पसंद भी न करेंगे। यह कहानी पीछे जोड़ दी गई मगर कहानी फिर भी महत्त्वपूर्ण है, जितना जोड़ा गया वह भी महत्त्वपूर्ण है, वह भी इशारा है। वह भी यह कह रहा है कि जिस तरफ पैर करोगे, उसी तरफ काबा का पत्थर है। मोड़ने की जरूरत नहीं है क्योंकि हर पत्थर काबा का पत्थर है। अगर काबा का पत्थर पवित्र है तो ऐसा कोई पत्थर नहीं है जो पवित्र न हो। नासमझ हैं जो काबा जाते हैं पत्थर चूमने। जिनमें समझदारी है वे अपने घर के सामने जो मील का पत्थर लगा है उसको चूम लेंगे, सात चक्कर लगाकर घर वापिस लौट आएंगे, काबा की यात्रा पूरी हो गई।

जिस पत्थर को चूमोगे, उसी को पाओगे। जीसस ने कहा है : तोड़ो हर पत्थर को और मुझे पाओगे, उठाओ पत्थर को और मुझे छिपा पाओगे। वही है, उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है।

जहां तक समुंद दरियाव जल कूप है…..भीखा कहते हैं : समुद्र हो, कि नदी हो, कि सरोवर हो, कि कुआं हो इससे भेद नहीं पड़ता सबके भीतर जल एक है।

लहरि अरु बूंद एक पानी…..फिर लहर हो कि बूंद हो इससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता सभी के भीतर जल एक है। लेकिन हम आकारों में उलझ जाते हैं। सागर का आकार बड़ा है छोटी—सी तलैया गांव की…..कैसे मानें कि दोनों एक हैं? आकार को देख रहे हैं—सागर का आकार बड़ा है, तलैया का आकार छोटा है। कहां सागर और कहां तुम्हारे घर में आंगन का कुआ! सागर इतना बड़ा, कुआं इतना छोटा।

तुम आकार को देखकर उलझोगे तो भ्रांति हो जाएगी। आकार में जरूर भेद है मगर दोनों आकारों में जो विराजमान है, वह निराकार है। वह जल जो कुएं में है और जो सागर में है, अलग—अलग नहीं है। बूंद में जो है, बड़ी लहर में जो है, एक ही है। परमात्मा बूंद में कम नहीं है और सागर में ज्यादा नहीं है।

इस गणित को थोड़ा समझो। साधारण गणित नहीं है यह, यह आध्यात्मिक गणित है। साधारण गणित में बूंद सागर के बराबर नहीं हो सकती।

पश्चिम के एक बहुत बड़े गणितज्ञ पीत्र्!छ०केत्र्!छ० त्र्!छआस्पेंस्की ने एक अद्भुत किताब लिखी है : टर्शियम आर्गानम—सत्य का तीसरा सिद्धांत। अपनी उस अद्भुत गणित की किताब में उसने कुछ वक्तव्य दिए हैं जो बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। उसमें एक वक्तव्य यह है कि साधारण गणित कहता है कि बूंद और सागर एक नहीं—बूंद छोटी है, सागर बड़ा है। असाधारण गणित भी है एक, अलौकिक गणित भी है एक जो कहता है : बूंद और सागर बराबर हैं।

ईशावास्य का वचन तुम्हें याद है—उस पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। यह असाधारण गणित है। यह आध्यामिक गणित है। नहीं तो बैंक से जाओ, अपने सब रुपए निकाल लाओ, इस आशा में मत बैठे रहना कि पीछे सब रुपए बाकी रहे। निकाल लिए तो गए फिर तुम लाख ईशावास्य को ले जाकर दिखाओ बैंक के मैनेजर को कि भाई, ईशावास्य भी तो देखो—पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लें फिर भी पीछे पूर्ण ही शेष रहता है…..तो मेरे हजार रुपए मैं निकाल ले गया इससे क्या होता है? हजार रुपए तो शेष रहने ही चाहिए।

साधारण दुनिया में वह गणित काम नहीं आएगा। वह इस जगत का गणित नहीं है, वह किसी और जगत का गणित है—पारलौकिक है, इस जगत का अतिक्रमण करता है। पूर्ण से पूर्ण को निकाल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है!

उस गणित के जगत में बूंद और सागर बराबर हैं। क्यों? क्योंकि जो बूंद का राज़ है, वही सागर का राज़ है। वैज्ञानिक कहता है : बूंद का राज़ क्या है ? एच टू ओ, कि बूंद उद्जन और अक्षजन दो वायुओं से मिलकर बनी है। दो हिस्से उद्जन के, एक हिस्सा अक्षजन का—एच टू ओ। यह बूंद का राज़ है मगर यही तो सागर का राज़ भी है। जो बूंद की कुंजी है वही सागर की कुंजी है। सागर आखिर है क्या? बहुत—सी बूंदों की भीड़ है। जैसे तुम यहां इतने लोग बैठे हो तो एक समाज, एक संगति बैठी है, मगर आखिर यह समाज है क्या? व्यक्तियों का जोड़ है। अगर हम समाज को खोजने जाएंगे तो कहीं भी मिलेगा नहीं, जब भी मिलेगा व्यक्ति मिलेगा।

व्यक्ति सत्य है, समाज तो केवल संज्ञा है। बूंद सत्य है, सागर तो केवल संज्ञा है। अगर ठीक से देखोगे तो भीखा के ये सीधे—सादे शब्द उपनिषदों जैसे गहरे हैं।

जहां तक समुंद दरियाव जल कूप है,

लहरि अरु बूंद एक पानी।

सीधी—सादी गांव की भाषा में कह दिया। दो और दो चार, ऐसे कह दिया। कि हो सागर, कि सरोवर, कि सरिता, कि कुआं, कि तुम्हारे घर की मटकी, कि चुल्लू—भर पानी कोई फर्क नहीं पड़ता; बड़ी—से बड़ी लहर हो जिसमें जहाज डूब जाएं कि छोटी—सी बूंद हो, आंसू की बूंद हो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सबका स्वभाव एक है। परमात्मा इस अस्तित्व के स्वभाव का नाम है। परमात्मा इस अस्तित्व के रहस्य का नाम है। परमात्मा इस अस्तित्व का ही दूसरा नाम है।

लेकिन न तो हम वर्तमान में झांकते, न हम अपने में झांकते। हम अभी हारे नहीं, हम अभी आशा रखे हुए हैं, हम अभी हताश नहीं हुए हैं। बुद्ध ने कहा है : जब तक तुम पूर्ण हताश न हो जाओ तब तक मंदिर के द्वार तुम्हारे लिए नहीं खुलेंगे। हताश! हा, जब तक तुम पूरे निराश न हो जाओ, तब तक सारी आशा न टूट जाए संसार से तब तक तुम अटके ही रहोगे। तुम्हारे मन में कोई कहे ही जाता है कि थोड़ा और खोजो, थोड़ा और खोजो, थोड़ा और…..कौन जाने मिल ही जाए ! दो कदम और चल लो, कौन जाने मंजिल आती ही हो! ज़रा और, दिल्ली दूर नहीं है। ज़रा और कि अब पहुंचे तब पहुंचे। और लोगों की धक्कम—धुक्की है, सब जाना चाह रहे हैं। आशा लगती है, जब इतने लोग जा रहे हैं तो लोग पहुंच भी रहे होंगे। आखिर जो आगे हैं वे पहुंच गए होंगे। तो थोड़ी यात्रा और कर लूं और अभी तो जीवन शेष है, अभी तो मैं जवान हूं…..।

जब तक तुम जगत से पूरी तरह निराश न हो जाओ, जब तक यह बात तुम्हारे सामने स्पष्ट न हो जाए कि तुम मृग—मरीचिकाओं के पीछे दौड़ रहे हो, तुम भ्रांतियों के पीछे दौड़ रहे हो, तुमने सपनों को खोजने की कोशिश की है, और तुम्हारे हाथ सदा खाली रहेंगे, तब तक तुम स्वयं में न मुड़ोगे, तब तक तुम क्षण में न डूबोगे। कल तुम्हें पकड़े रहेगा तो आज में तुम कैसे उतर सकोगे?

मेरी नाकामियां जब मेरे दिल को तोड़ देती हैं

मेरी दिल सोज उम्मीदें मुझे जब छोड़ देती हैं

मेरी बरबादियां जब आस मेरी तोड़ देती हैं

दिले—गमगीं को कुछ भूले फसाने याद आते हैं

बिसाते—आस्मां पर माहे—रोशन जब दमकता है

सितारों का मुनव्वर अक्स पानी पर चमकता है

तमन्नाओं का शुअला मेरे सीने में भड़कता है

दिले—गमगीं को कुछ भूले फसाने याद आते हैं

कभी महशर बपा करती हैं मौजें आबशारों में

कभी मेरा गुजर होता है ऊंचे कोहसारों में

कभी जब कूकती कोयल है दिलकश शाखसारों में

दिले—गमगीं को कुछ भूले फसाने याद आते हैं

सबा के छेड़ने से फूल जिस दम मुसकराते हैं

तयूरे—खुशनवा जब गुलसितां में गीत गाते हैं

खयालाते—परेशां मुझको अश्के—खूं रुलाते हैं

दिले—गमगीं को कुछ भूले फसाने याद आते हैं

गुजिस्तः राहतों की दास्तानें मुझसे मत पूछो

मेरी मुबहम खलिश की काविशों को मुझसे मत पूछो

तसव्वुर किसका है “अख्तर”! बस इसको मुझसे मत पूछो

दिले—गमगीं को कुछ भूले फसाने याद आते हैं

जब तुम हारोगे, जब तुम पूरी तरह हारोगे तब तुम्हें कुछ याद आनी शुरू होगी—आत्मस्मरण; तब तुम्हें अपने भूले घर की स्मृति पकड़नी शुरू होगी। उस भूले घर का ही दूसरा नाम परमात्मा है। परमात्मा को हम पीछे छोड़ आए हैं। वह हमारा मूलस्रोत है, गंगोत्री है; हमारी गंगा उसी से चली है। अब हम दौड़े जा रहे हैं भविष्य की तरफ, न तो लौटकर पीछे देखते अपने उद्गम को, न अपने भीतर देखते अपने अस्तित्व को, न वर्तमान के क्षण में जागते कि परमात्मा जो चारों तरफ मौजूद है, उससे हमारा कुछ संबंध जुड़ सके। भागे जाते हैं—कल्पनाओं में, आकांक्षाओं में, आशाओं में—इस भाग—दौड़ का नाम संसार है; इस भाग—दौड़ की व्यर्थता को जान लेने का नाम संन्यास है।

एक सुबर्न को भयो गहना बहुत,

देखु बीचारकै हेम खानी।

भीखा कहते हैं : ज़रा जाओ, सोने की खदान में देखो, सोना एक ही है लेकिन एक सोने से कितने गहने बन गए, कितने—कितने आकार, कितने—कितने रूप! मगर सोने की खदान में तो ज़रा झांककर देखो सोना एक है। ज़रा अपने प्राणों की खदान में तो झांककर देखो और पाओगे चेतना एक है। और चेतना ने कितने रूप लिए—कोई पुरुष है, कोई स्त्री है; कोई गोरा है, कोई काला है; कोई आदमी है, कोई जानवर है; कोई पशु है, कोई पक्षी है, कोई पौधा है; कोई पत्थर है। ज़रा अपने भीतर सोने की खदान में तो झांककर देखो, एक ही सोना है और बहुत गहने हो गए हैं। जो गहनों को ही देखता है, वह सोने से वंचित रह जाता है, जो सोने को देख लेता है, उसकी गहनों से आसक्ति छूट जाती है।

पिरथी आदि घट रच्यो रचना बहुत,

मिर्तिका एक खुद भूमि जानी।

जरा जाओ, कुम्हार को देखो, कितने घड़े रच रहा है—घड़े और सुराहियां और प्यालियां और बर्तन और न मालूम क्या—क्या रच रहा है, कितने रंग भर रहा है, कितने ढंग दे रहा है। किसी में गंगाजल भरा जाएगा, किसी में शराब भरी जाएगी, मगर पृथ्वी से तो पूछो—मिर्तिका एक खुद भूमि जानी।

जमीन तो सिर्फ मिट्टी को जानती है। शराब भरी सुराही भी एक दिन फिर मिट्टी में मिल जाएगी। न गंगाजल से मिट्टी में फर्क पड़ता है और न शराब से मिट्टी में फर्क पड़ता है। दोनों मिट्टी के ही बने हैं और दोनों मिट्टी में ही लीन हो जाएंगे।

ऐसा ही यह अस्तित्व है। परमात्मा बहुरंगों में प्रगट होता है। और शुभ है कि बहुरंगों में प्रगट होता है, इससे रौनक है, इससे जिंदगी रंगीन है, इससे जिंदगी में तरहत्तरह के फूल हैं। ज़रा एक बगिया तो सोचो जिसमें सिर्फ गुलाब—ही—गुलाब हैं। मेरे एक मित्र हैं, उनको गुलाब से प्रेम है। उन्होंने एक बड़ी जमीन खरीदी, बड़ी सुंदर जमीन खरीदी और गुलाब—ही—गुलाब लगा दिए। मुझे दिखाने ले गए। मैंने उनसे कहा : ठीक है लेकिन यह बगीचा न रहा, गुलाब की खेती हो गयी।

उन्होंने कहा : आप क्या कहते हैं, यही तो और लोग भी कहते हैं मुझसे कि क्या गुलाब की खेती कर रहे हो? कोई भी नहीं मानता कि यह बगीचा है, लोग इसको गुलाब की खेती ही मानते हैं।

मैंने कहा : गुलाब सुंदर हैं लेकिन इतने गुलाब! एकड़ों गुलाब—ही—गुलाब! बेरौनक है तुम्हारी बगिया। और चूंकि इतने गुलाब हैं इसलिए एक गुलाब भी अपनी शान में प्रगट नहीं हो पा रहा है।

मैंने उनसे एक कहानी कही। जापान में एक सम्राट हुआ। जापान में फूलों का बड़ा आदर है, फूलों को प्रेम करनेवाली कौम है। सम्राट को किसी ने खबर दी कि गांव का जो झेन फकीर है, उसकी बगिया में नरगिस के इतने बड़े फूल लगे हैं…नरगिस—ही—नरगिस, ऐसा कभी देखा नहीं गया है, ऐसी सुगंध, ऐसी महक। रात गुजर जाओ आधा मील पासले से तो भी घेर लेती है, बरस जाती है सुगंध।

सम्राट भी फूलों का प्रेमी था। उसने खबर भेजी फकीर को कि कल सुबह मैं आ रहा हूं; मुझे भी तुम्हारी बगिया देखनी है। फकीर को खबर मिली। उसने अपने सारे शिष्यों से कहा कि सिर्फ एक फूल को छोड़कर सारे पौधे उखाड़ डालो। नरगिस का बस एक फूल छोड़ा और सारे पौधे उखाड़ डाले। जब बादशाह पहुंचा वह तो बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा : “मैंने तो सुना था कि हजारों पौधे हैं नरगिस के।” फकीर ने कहा : “थे लेकिन तुम्हें कोई खेती थोड़े ही दिखानी थी। जो शानदार था, वह बचा लिया है और अब तुम देखो इसकी रौनक। इस पूरे बगीचे मे जहां और फूल हैं, और हरियालियां हैं, यह एक नरगिस का फूल किस शान से खड़ा है! इसे देखने के लिए उन सबका हट जाना जरूरी था। अगर वे सारे फूल यहां होते तो यह अद्भुत फूल तुम्हें दिखाई ही न पड़ता, यह खो जाता भीड़ में, बाजार में, यह फूल मैं तुम्हें दिखाना चाहता था इसलिए सारे फूल हटा दिए।”

अगर तुम गुलाब—ही—गुलाब की खेती करोगे—बेरौनक होगी, उदास होगी। नहीं, और भी फूल हैं—चंपा भी है, चमेली भी है और रजनीगंधा भी है। हजार—हजार फूल हैं, हजार—हजार पक्षी हैं, हजार—हजार गीत हैं! . . . परमात्मा पुनरुक्ति नहीं करता—नए—नए को निर्माण करता है और इसलिए जगत इतना समृद्ध है, इतनी महिमा है। जीवन ऊब जाए, उदास हो जाए . . .।

बर्ट्रेड रसल ने लिखा है कि मैं मरकर…मुझे तो पक्का भरोसा है कि जब मैं मरूंगा तो बिल्कुल मर जाऊंगा। उसे आत्मा पर श्रद्धा नहीं थी और न परमात्मा पर श्रद्धा थी, न वह स्वर्ग—नर्क को मानता था। उसने लिखा है कि मुझे तो पक्का भरोसा है कि जब मैं मरूंगा तो बिल्कुल मर जाऊंगा, मगर अगर भूल—चूक से हो सकता है मेरी धारणा सही न हो और मुझे बचना ही पड़े, तो मैं कम—से—कम भारतीयों के मोक्ष नहीं जाना चाहता। और कहीं भी चला जाऊं। क्यों?

उसने जो कारण दिया है वह मुझे भी पसंद है। उसके जीवन—चिंतन से मैं राजी नहीं हूं मगर उसका कारण तो सुंदर है। उसने कहा : भारतीयों का मोक्ष तो बड़ा ऊब पैदा करने वाला होगा—लोग बैठे अपनी—अपनी सिद्ध—शिला पर नंग—धड़ंग…। क्योंकि वहां कोई वस्त्र वगैरह तो मिलेंगे नहीं और चरखा वगैरह भी नहीं ले जा सकते साथ में कि बैठे कम—से—कम चरखा ही चला रहे हैं, खादी ही बुन रहे हैं। बैठे नंग—धड़ंग। न कुछ काम करने को क्योंकि काम का वहां कोई सवाल ही नहीं है, कर्म के तो पार हो गए। कोई चर्चा—मशवरा भी नहीं क्योंकि लोग शून्य समाधि को उपलब्ध हो गए, तभी तो पहुंचेंगे मोक्ष, निर्विकल्प समाधि में पहुंचकर। न कोई अखबार, न कोई अफवाहें, न कोई नाटकगृह, न कोई सिनेमागृह, न कोई होटल, न कोई रेस्तरां…! चाय—काफी तक के लाले पड़ जाएंगे। एक कप प्याली के लिए तरसोगे।

मोक्ष में कुछ काम ही नहीं है। ज़रा सोचो मोक्ष को, ज़रा विचारो अपने को खुद बैठे सिद्ध—शिला पर। बस बैठे ही हैं और अनंत काल तक! एकाध दिन हो तो आदमी किसी तरह काबू रख ले, घड़ी—दो—घड़ी की बात हो तो किसी तरह पी जाए जहर के घूंट की तरह और कहे कि अब थोड़ी देर की बात है, गुजरा जाता है, घड़ी देख—देखकर गुजार दे। मगर अनंत काल तक! बर्ट्रेड रसल की बात अर्थपूर्ण मालूम पड़ती है।

नहीं, लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं, यह जो मोक्ष की कल्पना की है लोगों ने, परमात्मा को बिना समझे की है। ज़रा उसकी दुनिया तो देखो, इससे कुछ हिसाब लगाओ। जब उसकी इस दुनिया में, इस न—कुछ दुनिया में इतने फूल हैं, इस न—कुछ दुनिया में इतनी रंगीनी है, इतनी होली, दीवाली…इस न—कुछ दुनिया में, इस झूठी दुनिया में इतनी समृद्धि है तो सत्य के उस लोक में तो महासमृद्धि होगी।

मेरे मोक्ष की धारणा बिल्कुल अलग है। जैनों के, हिंदुओं के मोक्ष से मैं राजी नहीं। उनका मोक्ष अगर है तो मैं बर्ट्रेड रसल से राजी हूं। रसल ठीक कहता है। तो मैं भी बर्ट्रेड रसल के साथ नरक जाना पसंद करूंगा, कम—से—कम कुछ रौनक तो रहेगी।

लेकिन मेरी मान्यता है कि हमने जो मोक्ष की कल्पना की है, वह कल्पना संसार के विपरीत कर ली है। हम संसार से इतने घबड़ा गए हैं कि जो—जो संसार में है उसके विपरीत हमने मोक्ष बना लिया है। यहां रंग हैं, यहां गीत हैं, यहां चंग बजती है, यहां बीन है, यहां वाद्य हैं, यहां नृत्य होता है, यहां प्रेम है, यहां उल्लास है, उमंग है—सब काट दिया हमने; जो—जो संसार में है, वह मोक्ष तो होना ही नहीं चाहिए। और संसार में सब है—जो होने योग्य है—वह सब काट दिया, तो मोक्ष हमारा नकार हो गया, एक शून्य हो गया, आकर्षक न रही धारणा।

मेरा मोक्ष संसार के विपरीत नहीं है। संसार में परमात्मा आंशिक रूप से प्रगट है; मोक्ष में पूर्ण रूफ से प्रगट है; संसार में बूंद की तरह प्रगट है, मोक्ष में सागर की तरह प्रगट है; संसार में ज़रा—ज़रा उसकी किरण उतरी है, मोक्ष में वह पूरे सूरज की तरह निकला है; संसार में उसका एक दीया जला है, मोक्ष में दीपमालिका है, दीए ही दीए हैं।

नहीं, हमें मोक्ष की धारणा बदलनी चाहिए। हमारे मोक्ष की धारणा आकर्षक नहीं है। हमारे मोक्ष की धारणा को जो ठीक से समझेगा, वह तो कहेगा : हे प्रभु! मुझे संसार में ही रहने दो। रवींद्रनाथ ने मरते वक्त यही कहा, परमात्मा से कहा कि हे प्रभु! मुझे तो संसार में बार—बार वापिस भेज देना, मैं प्रार्थना नहीं करता कि मुझे आवागमन से छुटकारा दो। तेरी दुनिया बड़ी प्यारी थी, मैं फिर—फिर यहां आना चाहूंगा। अगर मोक्ष की तुम्हारी धारणा ऐसी है तो रवींद्रनाथ जैसा सुधी व्यक्ति भी वापिस लौट आना चाहता है।

लेकिन मैं रवींद्रनाथ को भरोसा दिलाता हूं कि कोई चिंता न करो। मोक्ष की हमारी धारणा गलत है, मोक्ष और भी रंगीन है। यहां तो सात ही रंग हैं, वहां अनंत रंग हैं। यहां तो सात ही स्वर हैं, वहां अनंत स्वर हैं। यहां तो प्रेम क्षण—भंगुर है, वहां शाश्वत है। यहां तो वसंत कभी—कभी आता है, वहां वसंत सदा है, वहां सदाबहार है।

देखु बीचाराकै हेम खानी।

पिरथी आदि घट रच्यो रचना बहुत,

मिर्तिका एक खुद भूमि जानी।

भीखा इक आतमा रूप बहुतै भयो,

बोलता ब्रह्म चीन्है सो ज्ञानी।

यह सूत्र तो बहुत अद्भुत है—

भीखा इक आतमा रूप बहुतै भयो,

बोलता बह्म चीन्है सो ज्ञानी।

तुम कृष्ण को भज सकते हो, राम को भज सकते हो, बुद्ध को, महावीर को, लेकिन जब महावीर जिंदा थे तो तुमने पत्थर मारे और जब बुद्ध जिंदा थे तो तुमने उनकी हत्या की कोशिश की! अब तुम मीरा के गुणगान गाते हो और जब मीरा जिंदा थी तो जहर के प्याले भेजे! तुम बड़े अजीब लोग हो। तुम्हारा हिसाब कैसा है? अब जितने मंदिर जीसस के लिए समर्पित हैं, उतने किसी के लिए भी नहीं।

और जब जीसस जिंदा थे तो तुमने क्या व्यवहार किया? जरा सोचो! जीसस को सूली खुद अपने कंधों पर ढोनी पड़ी। जैसे जीसस कोई चोर हों, हत्यारे हों। जीसस गिर पड़े रास्ते में क्योंकि सूली वजनी थी और चढ़ाई पहाड़ की तो कोड़े मारे गए कि उठो और उठाओ अपनी सूली! लहूलुहान जीसस को अपनी सूली पहाड़ के ऊपर तक ले जानी पड़ी। और जब जीसस को सूली पर लटकाया गया और उनके हाथों में कीले ठोंक दिए गए…।

वह बड़ा बेहूदा ढंग था। गर्दन नहीं, जैसे फांसी दी जाती है, वह फांसी नहीं थी। यहूदियों का बड़ा अपना ढंग था सूली देने का—वे गले को तो कुछ नहीं करते थे, हाथ में ठोंक देते कीले, पैर में ठोंक देते कीले और फिर आदमी को छोड़ देते मरने को, खून बहता… इसमें कम—से—कम छः घंटे लगते मरने में और ज्यादा—से—ज्यादा तीन दिन लगते। एक आदमी की गर्दन काट दो, चलो झंझट मिटे, एक क्षण में बात निपट जाए। लेकिन घंटों, दिनों आदमी लटका रहेगा, चीलें उसका मांस नोचेंगी, गिद्ध उसके सिर पर बैठेंगे, खून उसके हाथ—पैर से बहेगा, कुत्ते उसका चमड़ा खीचेंगे, उसको नोचेंगे।

यह बहुत बेहूदा ढंग था सूली देने का मगर जीसस को ऐसे सूली दी। और जब जीसस को प्यास लगी—पहाड़ पर चढ़ना, सूली को ढोना, भरी दोपहरी और फिर सूली पर लटकाया जाना—उन्हें प्यास लगी और उन्होंने कहा : मुझे प्यास लगी है।

तो पता है तुमने क्या किया? मैं कहता हूं तुमने क्या किया क्योंकि तुम्हीं हो, जो भी थे वहां तुम्हीं जैसे थे, तुम्हीं हो। तो लोगों ने गंदे तेल में एक मशाल को डुबाकर—ऐसे तेल में कि जिनकी दुर्गंध से आदमी के प्राण कंप जाएं, और ऐसे तेल में कि जिसे मुंह में ले ले तो चक्कर खा जाए—ऐसा तेल मशाल में लगाकर जीसस की तरफ ऊपर किया और कहा कि लो इसे चूस लो।

यह व्यवहार एक मरते हुए प्यासे आदमी के साथ! शायद इसीलिए फिर तुमने इतने चर्च बनाए अपराध—भाव के कारण। शायद फिर इसीलिए जीसस की इतनी—इतनी पूजा चली। आज दुनिया में जितने ईसाई हैं उतने कोई और धर्म के मानने वाले नहीं। और कारण?—तुमने जीसस के साथ जो दुष्टता की थी उसकी ग्लानि को पोंछने का उपाय कर रहे हो तो तुम जीसस की पूजा कर रहे हो। मगर जिंदा जीसस के साथ तुमने क्या किया?

बोलता ब्रह्म चीन्है सो ज्ञानी।

भीखा कहते हैं कि जिंदा सद्गुरु को जो पहचान ले वही ज्ञानी है, बाकी तो मुर्दो को तो अज्ञानी पूजते रहते हैं। मगर जिंदा ब्रह्म को पहचानना बहुत मुश्किल है। क्या अड़चन है? कृष्ण को पूजना बहुत आसान है क्योंकि कृष्ण से तुम्हारा अब लेना—देना क्या, एक कहानी मात्र, फिर कृष्ण को तुम जैसा चाहो वैसा मान लो—कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नहीं। कृष्ण तुम्हारी मुट्ठी में हैं। जिंदा कृष्ण में तुम्हें हजार भूलें दिखाई पड़तीं और अगर कृष्ण में न दिखाई पड़तीं तो किसमें दिखाई पड़तीं?

कृष्ण की सोलह हजार रानियां थीं। न रही हों सोलह हजार, सोलह भी रही हों तो भी काफी हैं। मगर सोलह हजार ही थीं, यह ऐतिहासिक है बात। इसमें कुछ चिंता करने जैसी बात नहीं है। अभी—अभी, इस सदी के प्रारंभ में, निजाम हैदराबाद की पांच सौ पत्नियां थीं। अगर पांच हजार साल बाद एक आदमी की पांच सौ पत्नियां हो सकती हैं तो सोलह हजार में क्या अड़चन है—बत्तीस गुना, कोई बहुत ज्यादा नहीं।

और निजाम हैदराबाद की हैसियत क्या थी? एक छोटा—मोटा राजा। कृष्ण की हैसियत तो बड़ी थी। उन दिनों तो राजा की हैसियत इसी से समझी जाती थी कि उसकी रानियां कितनी हैं। स्त्रियां एक तरह के सिक्के थीं जिनसे आदमी की कीमत तौली जाती थी। गरीब आदमी वह जो एक स्त्री से ही…एक स्त्री को भी न पाल सके, एक स्त्री को भी न सम्हाल सके—वह गरीब आदमी। सोलह हजार होनी ही चाहिए। इनमें कई दूसरों की पत्नियां थीं जिनको कृष्ण…कहना तो नहीं चाहिए लेकिन भगा लाए थे, कहना ही पड़ेगा। वचन दिया था युद्ध में कि नहीं उठाएंगे शस्त्र और फिर उठा लिया शस्त्र—वचन तोड़ दिया। बड़े बहादुर थे, बड़े वीर थे लेकिन उनका एक नाम तुमने सुना—रणछोड़ दास! एक दफा भाग खड़े हुए, पीठ दिखा दी। अब तो रणछोड़ दास जी के मंदिर भी हैं। रणछोड़ दास जी का मतलब समझे तुम—रणछोड़ भागे।

तुम्हें हजार भूलें मिल जातीं कृष्ण में—तुम्हें भूलें ही भूलें मिलतीं। ये कोई ढंग है कि बजा रहे हैं बांसुरी, स्त्रियां नाच रही हैं! अब तुम रासलीला कहते हो मगर उस समय? उस समय तुम पुलिस में रिपोर्ट करवाते। और फिर आज दूसरों की स्त्रियां नाच रही हैं, कल तुम्हारी नाचने लगतीं तो इस झंझट को बर्दाश्त कौन करता!

कृष्ण को तुम पूज नहीं सकते जीवित, हां मर जाने पर कोई अड़चन नहीं है। मर जाने पर हम लीपा—पोती कर देते हैं। हम हर चीज की लीपा—पोती कर देते हैं। सोलह हजार रानियां, रानियां नहीं रह जातीं, हमारे बुद्धिमान पंडित कहते हैं कि ये सोलह हजार नाड़ियां हैं मनुष्य के भीतर—नारियां नहीं, नाड़ियां। बड़े होशियार लोग। कि ये कृष्ण जो वस्त्र लेकर बैठ गए थे वृक्ष पर गंगा में नहाती स्त्रियों को नग्न छोड़कर, यह प्रतीक है—स्त्रियां तो इंद्रियां हैं और कृष्ण इंद्रियों के वस्त्र उतार लिए हैं ताकि इंद्रियों का सत्य—साक्षात् हो सके। अब तुम…प्रतीक तुम्हारे हाथ में हैं, अब कृष्ण बीच में बोल भी नहीं सकते कि भाई, कुछ मेरी भी सुनो। अब कृष्ण तो बाहर हैं, अब तुम्हारे हाथ में है तुम जो चाहो, जैसी चाहो व्याख्या करो।

मुर्दा गुरु को पूजना सदा आसान है क्योंकि मुर्दा गुरु तुम्हारा कल्पित गुरु होता है। बुद्ध को पूजना कठिन है क्योंकि बुद्ध को पूजने के लिए भी हिम्मत चाहिए थी। बुद्ध विरोध में थे सारे पाखंड के, सारे पांडित्य के, सारे ब्राह्मणवाद के। बुद्ध विरोध में थे यज्ञ, हवन, पूजन, क्रियाकांड के। और वही तो सारे देश पर छाया हुआ था—अभी भी ढाई हजार साल बीत गए हैं, अभी भी कहां मिट गया है। अभी भी छाया हुआ है तो उस समय की तो तुम कल्पना करो। जब बुद्ध ने विरोध किया इन सारी चीजों का तो कौन बुद्ध को ब्रह्म माने?

इनकार किया, हर तरह से इनकार किया, बुद्ध को हर तरह से सताया। और महावीर तो और भी अड़चन करने वाले थे, वस्त्र छोड़कर नग्न खड़े हो गए थे। उनको तो गांव—गांव से भगाया गया। उनके पीछे कुत्ते लगाए गए, जंगली कुत्ते कि उनको टिकने ही न दें कहीं। उनके कानों में सींखचे ठोंक दिए क्योंकि वे बोलते नहीं थे, मौन थे, उनको बुलवाने की कोशिश में कि यह सब पाखंड है—बोलना, नहीं बोलना, हम बुलवाकर देखेंगे। कानों में सींखचे ठोंक दिए, कान फोड़ दिए उनके।

अब? अब पूजा चलती है। अब मंदिर बने हैं। यह सदा से होता रहा है। तुमने मुहम्मद के साथ क्या किया? पूरी जिंदगी मुहम्मद को एक गांव में न टिकने दिया, जहां गए वहां से हटाया। और अब? अब कितने मुसलमान हैं दुनिया में, कितना मुहम्मद का गुणगान चल रहा है।

भीखा ठीक कहते हैं : बोलता ब्रह्म चीन्है सो ज्ञानी।…अज्ञानी पूजते मुर्दा सद्गुरुओं को, ज्ञानी खोजते हैं जीवित सद्गुरुओं को। मुर्दा गुरु को पूजने में सबसे बड़ी सुविधा है—तुम्हारे अहंकार को कोई चोट नहीं लगती। जिंदा गुरु को पूजने में सबसे बड़ी असुविधा है—तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है। अपने ही जैसे आदमी के समक्ष झुकना? हां, पत्थर की मूर्ति के सामने झुकना आसान है लेकिन जिंदा आदमी के सामने झुकना? अपने ही जैसे आदमी के सामने—जो बीमार भी पड़ता है, जिसे भूख भी लगती है, जिसे पसीना भी आता है, जो थक भी जाता है, जो रात सोता भी है, जो जवान है, बूढ़ा भी होगा, जो मरेगा भी—तुम्हीं जैसा जो है, उसको भगवान की तरह पूजना? असंभव! हां, जब वह मर जाएगा तब हम ऐसी कहानियां गढ़ लेंगे जिनसे पूजना संभव हो जाएगा।

जैन कहते हैं : महावीर को पसीना नहीं निकलता था। देह थी कि प्लास्टिक था? पसीना न निकले, आदमी मर जाए—तुम्हें पता है? कुछ वैज्ञानिकों से भी पूछो, कुछ शरीर शास्त्रियों से भी पूछो। और अगर न मानता हो दिल किसी की बात मानने का, तो खुद ही छोटा—सा प्रयोग करके देखो। तुम सोचते हो कि सांस से ही तुम जिंदा हो तो तुम गलती में हो—तुम्हारा रोआं—रोआं सांस ले रहा है।

एक छोटा—सा प्रयोग करो—ले आओ बाजार से कोलतार और सारे शरीर पर पोत लो, सब रोएं बंद कर दो और सांस—भर खुली रहने दो, नाक खुली रहने दो। जितना दिल हो नाक से सांस लेना लेकिन बाकी सारे शरीर को कोलतार से पोत दो—तीन घंटे में मर जाओगे। फिर मुझसे मत कहना कि पहले मैंने बता नहीं दिया था। तीन घंटे से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकोगे क्योंकि रोआं—रोआं सांस ले रहा है।

ये रोएं श्वास लेने के लिए हैं। ये छोटे—छोटे श्वास लेने के द्वार हैं। और पसीना इन छिद्रों से निकलता है एक उपयोगिता के लिए, उपयोगिता बड़ी है उसकी। शरीर का तापमान समतुल बना रहे यह उपयोगिता है पसीने की। तुम तो पसीने से इतना ही समझते हो—अरे बास आयी, पसीना निकला, कपड़े भीग गए मगर तुम उसका गणित नहीं समझते कि पसीना तुम्हारी जिंदगी को बचा रहा है, नहीं तो तुम मर जाओगे।

शरीर का तापमान तुम देखते हो, गर्मी हो कि सर्दी, बराबर एक—सा रहता है। अठानबे डिग्री समझ लो तो अठानबे डिग्री रहता—सर्दी हो तो भी और गर्मी हो तो भी। यह कैसे होता है? जब गर्मी होती है तो पसीना बाहर निकलता है। पसीना बाहर निकलता है, पसीना शरीर की गर्मी को लेकर भाप बनकर उड़ जाता है—शरीर को ठंडा रखता है, शरीर को ठीक अनुपात में रहने देता है। यह शरीर के तापक्रम को समतुल रखने का उपाय है। इसलिए जब तुम्हें ठंड लगती है तो तुम्हारे दांत किड़किड़ाते हैं, हाथ—पैर हिलते हैं, कंपते हैं। तुम क्या सोचते हो कि ठंड के कारण कंप रहे हैं? ये कंप रहे हैं इसलिए ताकि कंपने के कारण गर्मी पैदा हो नहीं तो तुम मर जाओगे।

जब ठंड होती है तो शरीर कंपता है, दांत किड़किड़ाते हैं, हाथ—पैर हिलते हैं; इस कंपन से गर्मी पैदा होती है, तापमान बराबर बना रहता है। गर्मी हो पसीना निकलता है, पसीना शरीर की गर्मी को लेकर भाप बनकर उड़ जाता है, शरीर का एक ही तापमान बना रहता है। एयर कंडिशनिंग तो अब खोजी गयी है लेकिन शरीर सदा से एयर कंडिशनिंग के ढंग से जी रहा है। असल में एयर कंडिशनिंग खोजी ही इसीलिए जा सकी—शरीर को समझने के कारण—शरीर की व्यवस्था को समझकर यह बात ख्याल में आ गयी कि तापमान को समान रखा जा सकता है।

अब जैन कहते हैं कि महावीर को पसीना ही न निकलता था। उनकी भी अड़चन मैं समझता हूं क्योंकि पसीना निकले तो वे तुम्हारे जैसे ही आदमी हो गए, तो कुछ तो तरकीब करनी पड़ेगी जिससे तुम जैसे न मालूम पड़ें। पसीना नहीं निकलता, मल—मूत्र भी नहीं क्योंकि मल—मूत्र और महावीर से…जरा बात जंचती नहीं। ज़रा सोचो कि महावीर स्वामी बैठे हैं और जीवन—जल निकाल रहे हैं—जंचता नहीं। ज़रा कल्पना ही करो तो ऐसा लगेगा— अरे, कैसे पाप की बात विचार कर रहे हैं। भगवान महावीर और मल—त्याग कर रहे हैं! कभी नहीं, कभी नहीं। चित्त ग्लानि से भर जाएगा, ये साधारण कृत्य कहीं महावीर करते हैं!

लेकिन जब भोजन लेंगे तो मल—त्याग भी करना होगा। यद्यपि भोजन कम लेते थे इसलिए कम मल—त्याग करते होंगे। मगर बिल्कुल मल—त्याग नहीं, तो तो हालत खराब हो जाती।

मैं दुनिया के अलग—अलग कामों में जिन लोगों ने रिकार्ड तोड़ दिए हैं, उनकी किताब देख रहा था। उसमें एक आदमी ने, एक अमरीकन ने कब्जियत का रिकार्ड तोड़ दिया है—एक सौ बाईस दिन। दिल तो मेरा हुआ कि उसको लिखूं कि तू क्या है रे, किस खेत की मूली, भगवान महावीर की याद कर। चालीस साल—कहां एक सौ बाईस दिन की गिनती! रिकार्ड तोड़ा तो महावीर ने तोड़ा, तू क्या रिकार्ड तोड़ेगा!

इस आदमी ने भी रिकार्ड तोड़ा इसलिए कि बिल्कुल थोड़ा—थोड़ा भोजन लिया। भोजन नहीं लिया, लिक्विड लिया तो मल इकट्ठा नहीं हो पाया। मगर पश्चिम में इस तरह की दीवानगी चलती है कि रिकार्ड तोड़ने हैं, किसी भी चीज में रिकार्ड तोड़ने हैं। अब कब्जियत में ही रिकार्ड तोड़ना है। इसका कोई मूल्य है? मगर इसका भी तोड़ दो तो तुम प्रसिद्ध हो जाते हो कि इसने कब्जियत में रिकार्ड तोड़ दिया। नालायकी की भी कोई सीमा होती है।

फिर हम ऐसी कहानियां गढ़ते हैं और इस तरह की कहानियां गढ़कर हम पूजा के योग्य बना लेते हैं। हम अपने से इतना दूर कर देते हैं, हम उनको अमानवीय कर देते हैं। बस अमानवीय वे हो गए कि फिर हमें पूजा करने में अड़चन नहीं होती। मनुष्य जब तक वे हैं तब तक हमारे भीतर अहंकार को चोट लगती है। अपने ही जैसे मनुष्य के सामने झुकना? अपने ही जैसे मनुष्य के सामने समर्पण करना?

लेकिन जो वैसा कर सके वही ज्ञानी है। भीखा ठीक कहते हैं। भीखा का सूत्र बहुत मूल्यवान है—बोलता ब्रह्म चीन्है सो ज्ञानी…! जब सद्गुरु बोल रहा हो, जीवित हो , श्वास ले रहा हो, चल रहा हो, उठ रहा हो—तब पहचान लेना। लेकिन तब तो तुम गालियां दोगे, तब तो तुम हर तरह से निंदा करोगे, तब तो तुम हर तरह से आलोचना करोगे। ये भी तुम्हारे बचाव के उपाय हैं। इस तरकीब से तुम अपने को सद्गुरु के पास जाने से रोक रहे हो। निंदा, गाली, विरोध, इतना कर लोगे कि अब कैसे जाएं और ऐसे बुरे आदमी के पास जाने से फायदा क्या है? तुम अपने को भरोसा दिला रहे हो, तुम्हें डर है कि तुम कहीं आकर्षित न हो जाओ।

मुझसे लोग पूछते हैं कि सद्गुरुओं को इतनी गालियां क्यों पड़ती हैं? उसका कारण है। लोग डरते हैं कि अगर गालियां न देंगे तो पास जाना पड़ेगा क्योंकि फिर आकर्षण…।

गालियां दे—देकर आकर्षण से बचाव कर सकते हैं—ये सुरक्षा के उपाय हैं, यह कवच हैं। लोग गालियां देंगे ही। वही उन्होंने अतीत में किया है, वही आज कर रहे हैं, वही कल भी करेंगे।

मगर यही उपाय तुम्हें अज्ञानी का अज्ञानी रखता है। तुम किसी जले हुए दीए के पास जाओगे तो ही जल सकते हो। जो दीए बुझ चुके हैं, अब जो जा चुके, उड़ चुके हैं, जो पिंजड़े ही पड़े रह गए हैं अब शब्दों के—उनमें बोलता हुआ प्राण तो कभी का उड़ गया, तुम उन्हीं की फूजा करते रहना। और लोग करते रहते हैं।

लंका में कैंडी के मंदिर में बुद्ध का एक दांत रखा है, उसकी पूजा चलती है। और मजा यह है कि वह बुद्ध का दांत है ही नहीं। बुद्ध की तो तुम बात ही छोड़ दो, वह आदमी का दांत भी नहीं है। वैज्ञानिकों ने खोजबीन की तो पाया कि वह किसी जानवर का दांत है। मगर इस खोजबीन को दबाया गया क्योंकि यह खोजबीन ठीक नहीं है, उसी कैंडी के मंदिर के दांत पर तो प्रतिष्ठा है श्रीलंका की। सारे बौद्ध देशों से हजारों—लाखों यात्री कैंडी के मंदिर जाते हैं। सबको दिखाई पड़ता है कि दांत इतना बड़ा है कि बुद्ध का नहीं हो सकता। और अगर बुद्ध का था तो बुद्ध का चेहरा देखने में बड़ा भयंकर रहा होगा—दांत बाहर निकला रहा होगा, इतना बड़ा है। और अगर इतने बड़े—बड़े दांत थे तो बुद्ध राक्षस मालूम होते होंगे, आदमी नहीं। मगर उसकी पूजा चलती है।

कश्मीर में हजरत बाल मस्जिद है, मुहम्मद का एक बाल रखा हुआ है। अब कौन पक्का करे कि यह मुहम्मद का बाल है? कैसे तय हो कि यह मुहम्मद का बाल है? मगर बाल भी हजरत हो गया—हजरत बाल, साधारण बाल तो नहीं है कोई। तुम्हें पता है कुछ सालों पहले दंगा—फसाद हो गया था क्योंकि कोई हजरत बाल को चुराकर ले गया, और फिर हजरत बाल मिल भी गए! अब यह पक्का पता नहीं है, कि यह कैसे चुराया गया, किसने चुराया? फिर जो मिला वह वही है कि सिर्फ मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए कोई दूसरा बाल—बाल तो बाल ही है—उसकी जगह रख दिया गया।

मगर लोग अजीब हैं। मुहम्मद को जीने न दिया शांति से, मुहम्मद जैसे आदमी को हाथ में तलवार लेनी पड़ी! बड़े कष्ट से ली होगी मुहम्मद ने तलवार हाथ में क्योंकि वे आदमी शांति के थे, शांतिप्रिय थे। बड़ी दुविधा में ली होगी तलवार। सबूत है इस बात का क्योंकि तलवार पर मुहम्मद ने लिख छोड़ा था कि मैं यह तलवार शांति के लिए उठा रहा हूं। “शांति मेरा संदेश है” यह तलवार पर लिखा हुआ था। शांति के लिए तलवार उठानी पड़ी होगी! बड़े खूंखार लोगों के बीच मुहम्मद को जीना पड़ा, बिना तलवार के जीना असंभव था। और जिंदगी—भर भागते रहे, जिंदगी—भर व्यर्थ के झगड़े में समय गंवाते रहे—गंवाना पड़ा,

लोग व्यर्थ के झगड़ों में उलझाए रखे।

जो समय सत्संग में बीत सकता था, वह लड़ाइयों में बीता। जिस समय मुहम्मद के पास बैठकर पी लेते परमात्मा को, उस मसय मुहम्मद को घोड़ों पर चढ़कर और युद्ध के मैदान में तलवारें चलानी पड़ीं, एक गांव से दूसरे गांव भागते रहना पड़ा। जो समय मुहम्मद के जले दीए से अपना बुझा दीया जलाने के काम आ सकता था, उसको गंवाया। और अब? अब हजरत बाल की पूजा हो रही है! मनुष्य की इस मूढ़ता को पहचानो क्योंकि यह मूढ़ता तुम्हारे भीतर भी रोएं रोएं में, रग—रग में, रक्त के कण—कण में समायी हुई है। क्योंकि यही हमारा अतीत है, इसी अतीत से हम जन्मे हैं, और यही हम आज भी कर रहे हैं।

राखो मोहि आपनी छाया।

और मिल जाए अगर कोई बोलता ब्रह्म तो भीखा कहते हैं फिर यही प्रार्थना है—राखो मोहि आपनी छाया। अपनी छाया में मुझे रख लो, बस तुम्हारी छाया में भी काफी रोशनी है। अपने पास मुझे बिठा लो, तुम्हारे पास बैठ जाऊं तो बस परमात्मा के पास बैठ गया।

लगैं नहिं रावरी माया…तुम्हारी छाया में बैठ जाऊं, फिर संसार मुझे नहीं छू सकता। फिर कितनी ही माया हो दुनिया में, रही आए; तुम्हारी छाया बचा लेगी, तुम्हारी आभा बचा लेगी, तुम्हारा सत्संग बचा लेगा।

कृपा अब कीजिए देवा। करौं तुम चरन की सेवा।

और इतनी ही कृपा चाहता हूं कि तुम्हारे चरणों की सेवा करने दो। और कोई बात नहीं मांगी—धन नहीं मांगा, पद नहीं मांगा; स्वर्ग नहीं, मोक्ष नहीं; कुछ नहीं—इतना कि तुम्हारे चरणों की सेवा करने दो। शिष्यत्व यही है—इतना ही मांगना कि बस तुम्हारे चरणों की सेवा करने दो बस, काफी है। तुम्हारे चरणों में मिल जाएगा वैकुंठ, तुम्हारे चरणों में मिल जाएंगे सारे तीर्थ, तुम्हारे चरणों में छूट जाएगा सब कलुष—कल्मष।

कृपा अब कीजिए देवा। करौं तुम चरन की सेवा।

आसिक तुझ खोजता हारे। मिलहु मासूक आ प्यारे।

भीखा कहते हैं : आसिक तो हार गए खोज—खोजकर, हम भी बहुत खोज लिए और हार गए, खोजने से तुम नहीं मिलते, अब तो इतनी ही प्रार्थना है—तुम ही आ जाओ।

मिलहु मासूक आ प्यारे …अब तो तुम ही आओ, तुम आओ तो ही बात बने, तो ही बिगड़ी बने। मेरे खोजे से तो कुछ नहीं होता क्योंकि मैं गलत, मेरी खोज गलत; मैं गलत, मेरी दिशा गलत; मेरा सोच—समझ गलत; मेरी पकड़ गलत; मेरी धारणा गलत; मैं जहां जाता हूं, गलती ही कर लेता हूं। गलती आदमी के भीतर है तो वह जो भी करेगा वह भी गलत हो जाएगा, उससे तुम ठीक की आशा कर ही नहीं सकते।

लेकिन शिष्य अगर इतनी प्रार्थना भी कर सके तो सद्गुरु स्वयं आता है या कि सद्गुरु शिष्य को खींच लेता है। मिस्र की पुरानी कहावत है—जब शिष्य राजी होता है, सद्गुरु प्रगट होता है।

आसिक तुझ खोजता हारे। मिलहु मासूक आ प्यारे।

कहौं का भाग मैं अपना। देहु जब अजप का जपना।

बस उस घड़ी की प्रतीक्षा है, उस महा—घड़ी की, उस क्षण में मैं अपने भाग्य को नाप भी न सकूंगा, माप भी न सकूंगा, अमाप होगा मेरा भाग्य, असीम होगा मेरा भाग्य—देहु जब अजप का जपना—जब तुम मुझे ऐसा जफ सिखा दोगे जिसे जफना नहीं फड़ता। “अजफा जफ” नानक ने कहा उसे—जिसे जफना नहीं फड़ता।चार संभावनाएं हैं। एकतो जोर—जोर से—राम—राम, राम—राम, ओम्—ओम् —जपो, यह सबसे क्षुद्र मंत्रपाठ है। फिर दूसरी संभावना—ओंठ बंद रखो, भीतर राम—राम, ओम्—ओम् जपो, जबान से। यह पहले से बेहतर मगर बहुत बेहतर नहीं क्योंकि बात तो वही हो रही है, अब ओंठ से न होकर जबान से हो रही है। फिर तीसरी संभावना है—जबान भी न हिले, कंठ में ही राम—राम, ओम्—ओम्…। यह बात और भी बेहतर है मगर आखिरी अब भी नहीं क्योंकि अभी भी कंठ में अटकी है। फिर चौथी है—हृदय में भाव ही रह जाए, राम—राम, कोई जप नहीं, कोई उच्चारण नहीं, बस मात्र भाव, बोध, स्मरण, सुरति। उसको अजपा जाप कहा है; बस वही असली जाप है, बाकी तो उसकी तैयारियां हैं।

अलख तुम्हरो न लख पाई…मेरे तो वश के बाहर है कि तुम्हें लख पाऊं कि तुम्हें देख पाऊं। मेरी आंखों की सामर्थ्य क्या, मेरे हाथों की सामर्थ्य क्या कि तुम्हें छू पाऊं!

दया करि देहु बतलाई…वह तो तुम बतलाओ, कृपा करो, तुम्हारा प्रसाद हो तो अपूर्व घटना घटे।

वारि वारि जावं प्रभु तेरी। खबरि कछु लीजिए मेरी।

बलिहारी हो जाऊंगा तुम पर। लुटा दूंगा अपने को, न्यौछावर कर दूंगा तुम्हारे चरणों में, बस एक बार मेरी खबर ले लो।

सरन में आय मैं गीरा…मैं तो गिर गया तुम्हारी शरण में। जानो तुम सकल परपीरा…और तुम्हें तो सब पता है, कहूं क्या? तुम्हें तो मेरे हृदय की पीड़ा पता है और मेरी प्यास पता है, मांगू क्या? बोलूं क्या? चुपचाप पड़ा रहूंगा तुम्हारे चरण में। मौन पड़ा रहूंगा तुम्हारे चरण में। मौन ही होगी मेरी प्रार्थना, शून्य ही होगा मेरा निवेदन। अंतरजामी सकल डेरो…तुम्हारा डेरा तो सबके भीतर है सो मेरे भीतर भी है, तो तुम्हें फता ही है, कि मैं क्या चाहूं, कि क्या मेरे भाग्य की नियति है।

छिपो नहिं कछु करम मेरो…अपने पापों का बखान भी क्या करूं, वे भी तो तुमसे छिपे नहीं हैं। जो तुमने करवाया है वह किया है। जहां तुमने भेजा है वहां गया हूं। सब तुम्हारा है—पाप भी तुम्हारे, पुण्य भी तुम्हारे, और कुछ भी तुमसे छिपा नहीं है। इसलिए न तो पापों का वर्णन करूंगा कि मैंने क्या—क्या पाप किए, मुझे क्षमा करो। क्षमा भी नहीं मागूंगा। और न पुण्यों की चर्चा करूंगा और तुमसे पुण्यों का कोई फल भी नहीं मागूंगा। तुम सब जानते हो—यही समर्पण का भाव है।

अजब साहब तेरी इच्छा। करो कछु प्रेम की सिच्छा।

और तुमने भी खूब अजब काम किया ! अजब साहब तेरी इच्छा…कि संसार में भेजा, कि अंधेरे में भटकाया, कि गड्ढों में गिराया। मगर होगा जरूर कोई राज़, जब तेरी इच्छा है, जब साहब की इच्छा है। अगर पाप भी करवाए हैं तो उसके भीतर कुछ रहस्य होगा। अगर भटकाया है तो भटकाने में भी कुछ राज़ होगा। शायद भटककर ही कोई पहुंचता है इसलिए भटकाया है। शायद पाप करके ही पुण्य की आकांक्षा जगती है। शायद दूर किया मुझे अपने से ताकि पास आने की आकांक्षा, अभीप्सा, प्यास जगे।

अजब साहब तेरी इच्छा…मेरी समझ में तो नहीं आती है, भीखा कहते हैं; मेरी समझ ही कितनी? बड़ी अजब है तेरी शिक्षा, बड़ी अजब है तेरी इच्छा, संसार में भटका रहा है, अंधेरे में भटका रहा है। मगर जरूर राज़ होगा। शायद अंधेरी रात के बाद ही सुबह होती है, इसलिए तूने अंधेरी रात दी कि सुबह हो सके। अज्ञान के बाद ही ज्ञान का उदय है, इसलिए अज्ञान दिया। और पाप में ही तो पुण्य का फूल खिलेगा। कीचड़ में ही तो कमल खिलेगा, इसलिए कीचड़ दी।

अजब साहब तेरी इच्छा। करो कुछ प्रेम की सिच्छा।

लेकिन अब बहुत हो गया। अब काफी हो गया। अब थोड़ी प्रेम की शिक्षा दो। अब थोड़े प्रेम के पाठ सिखाओ। बहुत हो गया, जनम—जनम से अंधेरे में भटकता—भटकता, अब प्रभात होने दो। प्रेम प्रभात है। प्रेम पुण्य है। प्रेम प्रार्थना है। अब प्रेम सिखाओ। घृणा बहुत की,र् ईष्या बहुत की, वैमनस्य बहुत किया, क्रोध बहुत किया, हिंसा बहुत की—अब प्रेम सिखाओ।

सकल घट एक हौ आपै…ऐसा प्रेम सिखाओ कि सब में एक ही दिखाई पड़ने लगे। दूसर जो कहै मुख कापै…दूसरा कह ही न सकूं—मुंह कंप जाए, जबान टूट जाए, सिर गिर जाए—बस एक ही, एक ही उद्घोष उठे।

निरगुन तुम आप गुनधारी…मुझे पता है कि तुम ही छिपे हो इन गुणों में। इस द्वैत में भी तुम्हारा अद्वैत ही छिपा है। इस अनेक में भी तुम एक ही हो। अनेक फूलों के भीतर तुम एक धागे की तरह अनस्यूत हो।

निरगुन तुम आप गुनधारी…मुझे पता है, ये सब गुण भी तुम्हारे हैं। यह सब लीला भी तुम्हारी है। यह सब खेल भी तुम्हारा है। यह अभिनय भी तुम्हारा है।

अचर चर सकल नरनारी…यह भी मुझे मालूम है कि तुम चलते नहीं फिर भी चल रहे हो। सारे नर—नारियों में और कौन चल रहा है? तुम्हीं चल रहे हो। मुझे पता है तुम हिलते भी नहीं लेकिन तुम्हीं चंचल हुए हो। मुझे पता है कि तुम अडिग हो लेकिन तुम्हीं कंपायमान हुए हो।

सब विरोधाभास परमात्मा में समर्पित हैं। सब विरोधाभास परमात्मा में एक हो जाते हैं।

जानो नहिं देव मैं दूजा…लेकिन मुझे दूसरे कोई खबर नहीं है, न मैं दूसरे को जानता हूं, न दूसरा मुझे कोई दिखाई पड़ता है; बस एक तुम मिल गए।

जानो नहिं देव मैं दूजा। भीखा इक आतमा पूजा।

और मेरे पास कोई और पूजा नहीं, अर्चन नहीं, पूजा का थाल नहीं, दीया नहीं, धूप नहीं, बस एक मेरी आत्मा है—यही मेरी पूजा है।

काश, तुम्हें अगर कहीं कोई बोलता ब्रह्म मिल जाए तो ऐसे अपने को समर्पित कर देना। बोलता ब्रह्म चीन्है सो ज्ञानी।

और जो बोलते ब्रह्म के साथ जुड़ जाए वह पहुंच गया; बिना चले पहुंच गया; बिना एक कदम उठाए पहुंच गया। ऐसे तो दौड़—दौड़कर भी कोई नहीं पहुंचता लेकिन सद्गुरु के साथ बिना कदम उठाए पहुंचना हो जाता है।

आज इतना ही।


Filed under: गुरू प्रताप साध की संगति--(संत भीखादास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आंनद प्रसाद

मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–34)

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धर्म का गहन तत्‍व—(प्रवचन—चौतीसवां)

प्यारे ओशो!

श्रुति: विभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना,

न एको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्।

धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्

महाजनो येन गत: स पन्‍था:।।

अर्थात् श्रुतियां विभिन्न हैं, स्मृतियां भी भिन्न हैं और एक भी

मुनि के वचन प्रमाण नहीं हैं। धर्म का तत्व तो गहन है। इसलिए उसे

जानने के लिए तो महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं, वही केवल मार्ग है।

प्यारे ओशो! महाजन की पहचान क्या है? उनके मार्ग पर

चलने का अर्थ क्या है? समझाने की अनुकंपा करें।

नंद किरण! यह सूत्र अत्यन्त सारगर्भित है।

श्रुति: विभिन्ना शास्त्र दो प्रकार के हैं—एक श्रुति और एक स्मृति। श्रुति का अर्थ होता है, प्रबुद्ध पुरुष से सीधा—सीधा सुना गया। जिन्होंने गौतम बुद्ध के पास बैठकर सुना और उसे संकलित किया, वह श्रुति। जो महावीर के पास उठे—बैठे, जिन्होंने कबीर का सत्संग किया; जीवंत गुरु के पास जिन्होंने प्रेम के सेतु बनाए; जिन्होंने समर्पण किया—और सुना; जिन्होंने अपने को बाद दी—और सुना; जिन्होंने अपनी बुद्धि को एक तरफ रख दिया हटाकर—और सुना; जिन्होंने स्वयं के तर्क को बाधा न देनी दी, स्वयं की जानकारियों को बीच में न आने दिया—और सुना; इस तरह जो शास्त्र संकलित हुए, वे हैं श्रुतियां। लेकिन फिर श्रुतियों को सुनकर जिन्होंने समझा, जैसे बुद्ध को आनंद ने सुना और बुद्ध के वचन संकलित किए… इसलिए सारे बुद्ध—शास्त्र इस वचन से शुरू होते हैं : ‘मैंने ऐसा सुना है।’ आनंद यह नहीं कहता कि मैं ऐसा जानता हूं इतना ही—कहता है कि मैंने ऐसा सुना है। पता नहीं ठीक भी हो, ठीक न भी हो। पता नहीं मैंने कुछ बाधादे दी हो। मेरे विचार की कोई तरंग आड़े आ गयी हो। पता नहीं मेरा मन धुंधवा गया हो। मेरी आंखों में जमी धूल कुछ का कुछ दिखा गयी हो। मैंने कोई और अर्थ निकाल लिए हों, कि अर्थ का अनर्थ हो गया हो। इसलिए पता नहीं बुद्ध ने क्या कहां था; इतना ही मुझे पता है कि ऐसा मैंने सुना था।

यह बड़े ईमानदारी का वचन है कि मैंने ऐसा सुना है। नहीं कि बुद्ध ने ऐसा कहां है। बुद्ध ने क्या कहां था, यह तो बुद्ध जानें, या कभी कोई बुद्ध होगा तो जानेगा। लेकिन फिर आनंद ने जो संकलित किया, आज उसे भी ढाई हजार वर्ष हो गये। उसको लोग पढ़ रहे हैं, गुन रहे, मनन कर रहे हैं, चिंतन कर रहे हैं, उस पर व्याख्याएं कर रहे हैं। ये जो शास्त्र निर्मित होते हैं, ये स्मृतियां।

ये तो जैसे कि कोई आकाश का चांद झील में अपना प्रतिबिम्ब बनाए और तुम झील को भी दर्पण में देखो तो तुम्हारे दर्पण में भी चांद का प्रतिबिम्ब बने—प्रतिबिम्ब का प्रतिबिम्ब। श्रुति तो ऐसे है जैसे चांद झील में छा गया और स्मृति ऐसे है जैसे झील की तस्वीर उतारी, कि झील को दर्पण में बांधा। स्मृति दूर की ध्वनि है, और दूर हो गयी। श्रुति भी दूर है, पर बहुत दूर नहीं; कम से कम गुरु और शिष्य के बीच सीधा—सीधा संबंध है। कुछ तो बात पते की कान में पड़ ही गयी होगी। सौ बातों में एक बात तो सार की पकड़ में आ ही गयी होगी। किसी संधि से, किसी द्वार से, किसी झरोखे से कोई किरण तो उतर ही गयी होगी। लेकिन स्मृति तो बहुत दूर है—प्रतिध्वनि की प्रतिध्वनि है।

यह सूत्र कहता है : श्रुति: विभिन्न?। यूं तो सुनने में ही बात बड़ी भिन्न भिन्न हो जाती है। अब जैसे तुम मुझे यहां सुन रहे, जितने लोग सुन रहे हैं उतनी श्रुतियां हो गयीं। मैं तो जो कह रहा हूं एक ही बात कह रहा हूं। लेकिन तुम सुननेवाले तो अनेक हो, तुम्हारी अलग पृष्ठभूमि है, तुम्हारी अलग धारणा है, अलग विचार हैं। तुम अपने—अपने ढंग से सुनोगे। तुम्हारा ढंग, तुम्हारी शैली निश्चित रूप से जो तुम सुनोगे उसे प्रभावित करेगी। हिदूं एक ढंग से सुनेगा, जैन दूसरे ढंग से, बौद्ध तीसरे ढंग से। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और तीन सौ धर्मों के कोई तीन हजार सम्प्रदाय हैं और तीन हजार सम्प्रदायों के कोई तीस हजार उप—सम्प्रदाय हैं। तुम अपनी— अपनी धारणाओं के जाल में बंधे हो। मेरी बात तुम तक पहुंचेगी, पहुंचते—पहुंचते कुछ की कुछ हो जाएगी। आस्तिक सुनेगा एक ढंग से, नास्तिक सुनेगा और ढंग से; दोनों के पास कान एक जैसे हैं, मगर कानों के भीतर बैठा हुआ मन और मन के संस्कार तो भिन्न—भिन्न हैं।

बुद्ध ने एक दिन कहां कि तुम जितने लोग हो उतने ही ढंग से मुझे सुन रहे हो, उतने ही ढंग से मेरी व्याख्या कर रहे हो। आनंद ने रात्रि उनसे पूछा कि मैं समझा नहीं। आप अकेले हैं, जो आप बोलते हैं हम वही तो सुनते हैं। अन्य कैसे हो जाएगा, भिन्न कैसे हो जाएगा?

बुद्ध ने तीन नाम दिए आनंद को और कहां ‘कल इन तीनों से पूछना कि क्या सुना था। मैंने जब प्रवचन पूरा किया था और अंतिम बात कही थी…।’ रोज अपने प्रवचन के अंत पर बुद्ध कहते थे—’ अब रात बहुत हो गयी, अब जाओ रात्रि का अंतिम कार्य करो।’ यह केवल एक संकेत था भिक्षुओं को कि अब जाओ, सोने के पहले ध्यान में उतरो और ध्यान में उतरते—उतरते ही निद्रा में लीन हो जाओ। क्योंकि सुषुप्ति में और समाधि में बहुत भेद नहीं है। सुषुप्ति मुर्च्‍छित समाधि है। समाधि जागृत सुषुप्ति है। इसलिए नींद को समाधि में बदल लेना सबसे सुगम उपाय है आत्मसाक्षात्कार का। जरा—सी बात जोड़नी है। सुषुप्ति का अर्थ है. ‘जब स्‍वप्‍न भी नहीं रह जाते, ऐसी गहन निद्रा। जब सारे स्‍वप्‍न भी तिरोहित हो गये, जहां स्‍वप्‍न भी न बचे, विचार भी न बचे, वासना भी न बची, वहां मन भी न बचा, तो अ—मनी दशा हो गयी। लेकिन बेहोशी है, होश नहीं है। सन्नाटा है, गहन शाति है, प्रगाढ मौन है। लेकिन काश, एक दीया और जल जाता, जरा—सा होश और होता! काश, हम इस प्रगाढ़ शाति को देख भी लेते, पहचान भी लेते! काश, हम जागे—जागे इसका अनुभव भी कर लेते! इसलिए नींद के पहले का ध्यान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उसमें जो गहरा उतर जाए तो रातभर एक अखंडित धारा शून्य की भीतर बहती चली जाती है, ज्योति जलती रहती है। उस ज्योति में पहले सपने दिखाई पड़ते हैं, फिर सपने खो जाते हैं, फिर सुषुप्ति दिखाई पड़ती है। और जब सुषुप्ति दिखाई पड़ती है तो वही समाधि है। देखनेवाला मौजूद हो तो सुषुप्ति समाधि है।

इसलिए बुद्ध ने.. रोज—राज क्या कहना कि अब ध्यान करो, इतना ही कह देते थे प्रतीक कि अब जाओ रात्रि का अंतिम कार्य… अब दिवस पूरा हुआ, अब आखिरी काम कर लो और सो जाओ। उसको करते—करते ही सो जाओ।

बुद्ध ने आनंद से कहां ‘कल तू तीन व्यक्तिए हैं, इनसे पूछ लेना कि उन्होंने क्या समझा जब मैंने यह वचन कहां था। वे तीनों मेरे सामने ही बैठे हुए थे और तीनों को देखकर ही मैंने समझा कि उन्होंने अलग— अलग समझा है।’

आनंद ने कल उन तीनों को पकड़ा और पूछा और कहां कि बुद्ध ने ही ये नाम दिये हैं। इसलिये सच—सच कहना, मैं नहीं पूछ रहा हूं जैसे उन्होंने ही ये पुछवाया है।

थोड़ा तो संकोच हुआ उन तीनों को, लेकिन फिर जब बुद्ध ने ही पुछवाया था तो अपना हृदय उघाड़ दिया। उनमें एक था भिक्षु—गहन साधना में लीन। उसने कहां, ‘और क्या समझूंगा! यही समझा कि अब जाऊं, ध्यान में डूबूं और ध्यान में डूबा—डूबा ही निद्रा में उतर जाऊं। यही समझा। यही बुद्ध ने कहां था।’

दूसरे से पूछा; वह एक चोर था। उसने कहां, ‘छिपाना क्या, छिपाऊं कैसे? बुद्ध स्वयं पूछते हैं तो सत्य कहना ही होगा। जब बुद्ध ने यह वचन कहां तो मुझे याद आया कि अरे रात गहरी होने लगी, मेरे काम का समय हुआ, अब जाऊं, चोरी वगैरह करके जल्दी घर लौटूं और सोऊ।’ और तीसरी एक वेश्या थी। और जब आनंद ने उससे पूछा तो वह बहुत सकुचायी, बहुत लजायी। बड़ी प्रसिद्ध वेश्या थी—आम्रपाली, जो बाद में बुद्ध की भिक्षुणी बनी। बुद्ध की भिक्षुणी बनी, इससे जाहिर होता है कि एक प्रामाणिक स्त्री थी। सकुचायी जरूर, लेकिन फिर भी सत्य उसने कहां। उसने कहां कि छिपाना कैसे, छिपाना नहीं हो सकता। उन्होंने पूछा है तो वही कहना होगा जो मेरे भीतर हुआ था। यही हुआ कि अब जाऊं, अपने व्यवसाय में लग। मेरा व्यवसाय तो वेश्या का व्यवसाय है।

तो एक ध्यान में लगा, एक चोरी करने निकल गया, एक अपनी वेश्यागिरी में संलग्न हो गयी। और बुद्ध ने तो एक ही बात कही

श्रुति: विभिन्ना जितने सुननेवाले लोग हैं उतने ही अर्थ हो जाएंगे। स्मृतयश्च भिन्ना। और स्मृतियों का तो कहना ही क्या! वह तो मूलस्रोत से और भी बहुत दूर की बात हो गयी। मैंने तुमसे कही, तुमने किसी और से कही, उसने किसी और से कही; फिर बात का बतंगड़ हो जाता है। बात न भी हो तो बतंगड़ हो जाता है। चिंदी का सांप हो जाता है, कुछ का कुछ होने लगता है। और सदियां बीत जाती हैं और लोग स्मृतियों को पीढ़ी—दर—पीढ़ी एक दूसरे को देते चले जाते हैं और हर पीढ़ी उसमें कुछ जोड़ती चली जाती है। हर पीढ़ी उसको वैसा ही थोड़े लेती है।

एक स्त्री अपनी पड़ोसिन को… झगड़ा हो गया था दो महिलाओं का… उसकी बात बता रही थी। पड़ोसिन रस से सुन रही थी। फिर उस स्त्री ने कहां, ‘ अब मैं जाऊं, पति के घर आने का समय हुआ।’

लेकिन पड़ोसिन ने कहां, ‘कुछ और तो बताओ।’

वह स्त्री बोली कि सच तो यह है कि जितना मैंने सुना उससे ज्यादा तो मैं पहले ही बता चुकी। अब और क्या बताना! जितना मैंने सुना उससे ज्यादा तो मैं पहले ही बता चुकी!

‘तुम जब कुछ बात किसी से कहते हो तो कुछ तो जोड़ ही देते हो, कुछ काट ही देते हो, कुछ संवार देते हो, कुछ रंग भर देते हो अपने। तो स्मृतियां तो फिर और बहुत हो जाएंगी।

यह सूत्र अद्भुत है; श्रुति: विभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना। भूतिया विभिन्न हैं, स्मृतियां भी भिन्न हैं। इसलिए श्रुतियों और स्मृतियों में अगर तुमने धर्म खोजा, कभी न पा सकोगे। सत्य खोजा, कभी न पा सकोगे। सावधान! यह सूत्र सावचेत कर रहा है। सजग रहना। शब्दों में मत उलझ जाना। शब्दों के बड़े जंगल हैं, सिद्धांतों के बड़े मरुस्थल हैं। उनमें खो गये तो लौटना मुश्किल हो जाता है। अपने ही घर लौटना मुश्किल हो जाता है।

और एक भी मुनि के वचन भी प्रमाण नहीं हैं। लेकिन कोई कहे कि चलो, नहीं शब्दों में खोएंगे, नहीं शास्त्रों में, न स्मृतियों में; न श्रुतियों में लेकिन किसी महात्मा के, किसी मुनि के वचन पर तो भरोसा कर सकते हैं; किसी जाननेवाले की बात पर तो विश्वास कर सकते हैं। सूत्र कह रहा है. यह भी नहीं, यह भी नहीं। क्योंकि विश्वास अनुभव नहीं है। तुम जिसको मान लोगे, पहले तो तुमने उसे माना क्यों? तुम्हारी धारणाएं… तुम्हारी धारणाओं में अनुकूलता आ गयी होगी, उस व्यक्ति के और तुम्हारी धारणाओं के बीच कुछ अनुकूल पड़ गया होगा। जैसे कि कोई जैन रामकृष्ण को परमहंस नहीं मान सकता; मछली खाते देखे और परमहंस माने, असंभव है। एक जैन भी रामकृष्ण के पास नहीं पहुंचा। कैसे पहुंचता!

कल ही मुझे एक जैन महिला का बड़ा लंबा पत्र मिला है। बड़ी ज्ञानी महिला होगी। सारे जैन शास्त्रों का सार निचोड़कर रख दिया है। लिखा है कि आपकी बातें बहुत प्यारी लगती हैं, लेकिन आप महावीर जैसे वीतराग पुरुष के साथ कृष्ण का, क्राइस्ट का, मुहम्मद का, बुद्ध का, इनका नाम क्यों ले देते हैं। वीतराग ही केवल भगवान है, वीतरागता ही एकमात्र कसौटी है। वीतरागता की कसौटी पर राम तो न उतरेंगे, कृष्ण तो न उतरेंगे। कृष्ण और राम की तो बात ही छोड़ दो, बुद्ध भी नहीं उतरते, क्योंकि बुद्ध भी कम से कम वस्त्रों का तो उपयोग करते हैं, भिक्षापात्र तो रखते हैं—इतना राग तो है, इतना परिग्रह तो है। महावीर दिगंबर हैं, करपात्री हैं, हाथ से ही भोजन लेते हैं, लंगोटी भी नहीं। दिगम्बरत्व वीतरागता का प्रमाण है।

तो इस स्त्री को अड़चन हो रही कि कैसे मुहम्मद का नाम लेते हो—मुहम्मद, जो कि तलवार लिए हैं; कृष्ण, जो कि सभी तरह के राजनैतिक दावपेंचों में उलझे हैं; राम, जो कि युद्ध पर निकले हैं। यह सब माया—मोह है। यह तो राग का ही जाल है।

उस बेचारी को मेरी बातें प्रीतिकर लगती हैं लेकिन अड़चन सिर्फ एक आ जाती है कि मैं महावीर के साथ कभी बुद्ध का, कभी महावीर का, कभी जरथुस्त्र का, कभी लाओत्सु का, कभी मुहम्मद का साथ—साथ उल्लेख कर देता हूं इससे ही कष्ट हो जाता है। अब अपनी धारणा के अनुकूल जो होगा, तुम उसी को तो मुनि कहोगे। तुम्हारी धारणा के जरा अनुकूल न हुआ कि मुनि न हुआ। तुम ही निर्णायक हो। तुम्हारे पास कसौटी है। फिर किसको मुनि कहो? और अड़चन इसलिए भी आ जाएगी कि प्रत्येक मुनि के वचन भिन्न हैं, प्रत्येक ने अपने ढंग से कहां, अपने रंग से कहां। प्रत्येक की अपनी अद्वितीयता है, अपनी मौलिकता है और तुम्हारे सड़े—गले ढांचों में कोई जिंदा, कोई जीवंत बुद्ध, कोई जीवंत जिन नहीं बैठ सकता। तुम्हारे ढांचे मुर्दों के आधार पर बनते हैं और तुम जिंदा लोगों को उन ढांचों पर बिठाना चाहो, यह संभव नहीं है।

फिर यह भी तो हो सकता है कि कोई कहता हो कि मैंने जाना है, लेकिन विक्षिप्त हो या बेईमान हो। क्या प्रमाण कि उसने जाना क्योंकि जाननेवालों की बात ही इतनी भिन्न है कि प्रमाण कैसे मानो? कृष्ण तो मानते हैं परमात्मा में भी, आत्मा में भी। महावीर परमात्मा में नहीं मानते, सिर्फ आत्मा में मानते हैं। और बुद्ध तो न परमात्मा में मानते, न आत्मा में मानते। फिर क्या करोगे? किस मुनि का वचन प्रमाण होगा? और एक भी मुनि का वचन प्रमाण नहीं।’ न एको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्।’

फिर वचन प्रमाण हो भी कैसे सकता है? क्योंकि सत्य विराट है और शब्द बहुत छोटे हैं। सत्य शब्दों में समाता नहीं। कहो, लाख कहो, फिर भी अनकहां रह जाता है। सत्य है आकाश जैसा और शब्द तो छोटे—छोटे घरपूले हैं। सत्य है सागर जैसा और शब्द तो छोटी—छोटी बूंदें भी नहीं। तो वचन कैसे प्रमाण होंगे? वचन प्रमाण नहीं हो सकते। सच तो यह है सत्य का सिवाय अनुभव के और कोई प्रमाण नहीं होता। और अनुभव अपना हो तो ही प्रमाण होता है। पर—अनुभव कैसे प्रमाण हो सकता है? लाख कोई सिर पटके और कहे कि मैंने परमात्मा देखा है—लेकिन तुम्हें कैसे भरोसा आए? या आदमी आत्मवचना में हो सकता है; या दूसरों को वंचना में डाल रहा हो सकता है। खुद सम्मोहित हो गया हो किसी धारणा से।

और इस तरह के लोग हैं जो कृष्ण को भजते हैं—निरंतर भजते हैं, उनको कृष्ण दिखाई पड़ने लगते हैं; उनका ही प्रक्षेपण है। उनकी ही कल्पना है। कहौ कौन कृष्ण हैं? क्राइस्ट को भजनेवाले को कृष्ण कभी प्रकट नहीं होते, उसे क्राइस्ट दिखायी पड़ते हैं। और कृष्ण के भजनेवाले को क्राइस्ट कभी दिखाई नहीं पड़ते। कभी भूल—चूक से आ भी जाएं बीच में तो कहेगा—’ धत् तेरे की, हटो! कहां बीच में आ रहे हो?’ नहाएगा, धोएगा, गंगा—जल से अपने को स्वच्छ करेगा। जैन विचार —सरणी के अनुसार तीर्थंकर को कांटा भी नहीं चुभ सकता है, क्योंकि उनके सारे पाप समाप्त हो गये, उनके सारे कर्म समाप्त हो गये। इसलिए तो वे तीर्थंकर हैं—कांटा भी नहीं चुभ सकता। अगर तीर्थंकर निकलते हों और रास्ते पर काटा पड़ा हो सीधा, तो उल्टा हो जाता है। तो फिर जीसस को वे कैसे मानें कि ये तीर्थंकर की कोटि के हैं, क्योंकि उनको तो सूली लग जाती है; काटा चुभना तो दूर, सूली लग जाती है। जरूर पिछले जन्मों के किसी महापाप का फल भोग रहे हैं!

लेकिन ईसाई को महावीर बिलकुल नहीं जंचते। क्या सार है कि नंग—धड़ंग खड़े हो गये? और आंखें बंद कर लीं और अपने मोक्ष की तलाश करने भी लगे, यह तो निपट स्वार्थ है। माना कि शात हो गये होओगे और माना कि प्रफुल्लित भी हुए, आनंदित भी हुए, लेकिन सेवा कहां? न अस्पताल खोला, न स्कूल चलाए, न अनाथों की सेवा की, न लूले—लगड़ों के पैर दबाए न कोढ़ियों का कोई इंतजाम किया। यह कैसा धर्म है? जीसस ने अंधों को आंखें दीं, बहरों को कान दिए, लंगड़ों को पैर दिए, बीमारों को चंगा किया, मुर्दों को जिलाया। ये लक्षण हैं। इन लक्षणों के अतिरिक्त कोई कैसे भगवत्ता को उपलब्ध माना जा सकता है?

तो ईसाइयों के हिसाब से महावीर और बुद्ध स्वार्थी हैं, निपट स्वार्थी हैं। अपने सुख की तलाश ही.. यह तो वही की वही बात हुई कि कोई अपना धन खोज रहा है, कोई अपना धर्म खोज रहा है। मगर अपना! कोई संसार में जीत जाना चाहता है, कोई मोक्ष में—मगर अपनी जीत!

अपनी विजय—पताका फहरानी है। कोई यहां जीतकर कहना चाहता है कि मैं महावीर हूं कोई वहां जीतकर कहना चाहता है कि मैं महावीर हूं। कोई यहां विजेता बनना चाहता और कोई वहां। जो वहां विजेता हो जाते हैं, उनको हम जिन कहते हैं, जिन्होंने जीत लिया। मगर वही जीत की भाषा हुई। ईसाइयों को नहीं जमती।

मुसलमानों से पूछो; न महावीर जमेंगे, न ईसा जमेंगे, न बुद्ध जमेंगे। मुसलमानों के हिसाब से तो मुहम्मद ही सच्चे पैगम्बर हैं असली पैगम्बर! क्यों? क्योंकि जीवनभर जूझे, अज्ञानियों को रूपांतरित करने के लिए तलवार उठायी, जान जोखिम में डाली। लेकिन कस्त किया था, संकल्प किया था कि जो—जो भटके हुए हैं उन्हें रास्ते पर लाएंगे। मुसलमान बनाना यानी रास्ते पर लाना। जो—जो गुमराह हैं, मार्गष्णुत हो गये हैं, अगर अपनी मर्जी से आ जाएं तो ठीक, लेकिन न आएं तो जबरदस्ती भी लाना पड़े तो लाएंगे।

यूं समझो न, जैसे तुम्हारा छोटा—सा बच्चा आग में हाथ डालना चाहे। मान जाए समझाने से तो ठीक, नहीं तो थप्पड़ भी मारोगे झपटकर उसे खींच भी लोगे। मुहम्मद की महाकरुणा है—मुसलमान के हिसाब से—कि वे तलवार लेकर तुम्हारे पीछे पड़े, कि ‘गर्दन उतार दूंगा, चलते हो मस्जिद कि नहीं, पढ़ते हो कुरान या नहीं? लो अल्लाह का नाम, क्योंकि जो अल्लाह को याद करेगा और कुरान के मार्ग पर चलेगा, वही मोक्ष पाएगा, वही स्वर्ग पाएगा। शेष सब तो नर्क की अग्नि में गिर जाएंगे।’ तुम्हें नर्क की अग्नि से बचाने के लिए कैसा अथक श्रम किया मुहम्मद ने! तुम्हारे विपरीत भी। तुम्हारी ही फिकर न की। यह भी फिकर न की कि तुम जाना भी चाहते हो स्वर्ग या नहीं। इसे कहते हैं महाकरुणा! न तो जीसस ने ऐसी करुणा दिखायी। अंधों को आंखें देने से क्या हो जाएगा? इतने लोगों को तो आंखें वैसे ही हैं, उनको क्या हो गया है? और बहरों को कान मिल गये तो क्या फायदा? वही फिल्मी गाने सुनेंगे जो तुम सुन रहे हो। और लंगड़े चलने भी लगे तो क्या करेंगे, जाएंगे कहां? वही शराब—घर, वही वेश्या के मुहल्ले में। और मुर्दों को जिला भी दिया, तो पहले ही जिंदा थे, पहले ही कौन—सा बड़ा काम कर लिया था, अब क्या कर लेंगे?

लजारस को जिंदा कर दिया जीसस ने, फिर क्या किया, इसको तो कोई बताए? लजारस ने फिर किया क्या? फिर कुछ पता ही नहीं चलता कि लजारस का हुआ क्या? चलो जिंदा ही हो गये तो फिर वही गोरखधंधा किया होगा, जो पहले करते थे।

सूफियों के पास तो एक कहानी भी है कि जीसस एक गाव में आए और उन्होंने देखा एक आदमी नाली में पड़ा हुआ गालियां बक रहा है। उसके पास गये समझाने कि भाई, क्यों गालियां बकता है? परमात्मा ने यह वाणी दी है, भजन गाओ, कीर्तन करो, प्रभु का नाम लो। जब पास गये तो देखा यह तो शक्ल पहचानी हुई मालूम पड़ती है। याद किया तो पता चला—अरे, यह आदमी तो गूंगा था!. उस आदमी को हिलाया और कहां कि भई याद कर, मुझे भूल गया? उसने कहां, ‘ अं? सात जन्म नहीं भूलूंगा। मैं तो गूंगा था, भला था, यह तुमने ही मुझे जबान दी, अब इस जबान का क्या करूं? गालियां न दूं तो और क्या करूं? इस संसार में है क्या? सब तरह के दुष्ट हैं। पहले तो पूत था तो पी जाता था भीतर ही भीतर, अब जबान है तो कह देता हूं। इससे और अड़चन हो गयी है। इससे और मुश्किल हो गई है। इससे रोज झगड़ा—फसाद खडा हो जाता है। यह तुमने जबान क्या दे दी, जिंदगी में झगड़े—फसाद दे दिए। और झगड़े—फसाद और चिंता और उपद्रव के कारण शराब पीने लगा हूं। यह सबका जुम्मा तुम्हारा है।’

जीसस तो बहुत हैरान हुए। थोड़े आगे बढ़े तो उन्होंने देखा, एक जवान आदमी एक वेश्या के पीछे चला जा रहा है—सीटी बजाता हुआ, एकदम मस्ती में गुनगुनाता हुआ! शक्ल पहचानी हुई मालूम पडी। रोका और कहां कि जवान आदमी हो और अभी से गलत रास्ते पर चले हो। अरे, इस जिंदगी को परमात्मा ने किसलिए दिया है?

उस आदमी ने कहां कि चुप, यह तू ही है। मैं तो बीमार था, मैं तो खाट से लगा था, खराब काम करना भी चाहता तो नहीं कर सकता था। तूने ही मुझे स्वस्थ किया। अब मुझे बता, इस स्वास्थ्य का क्या करूं? तूने मुझे जवानी दी, अब इस जवानी का क्या करूं? और अब बाधा डालने आया है? मैं तो इस झंझट से मुक्त ही था। हड्डी —हड्डी हो रहा था, उठ नहीं सकता था, बैठ नहीं सकता था, खांसता—खंखारता बिस्तर से लगा था। तूने मुझे जवान किया, —स्वस्थ किया, चंगा किया, अब क्या करूं? सीटी न बजाऊं तो और क्या करूं? और सुंदर स्त्रियों के पीछे न जाऊं तो कहां जाऊं?

जीसस तो इतने उदास हो गए कि गांव छोड्कर बाहर निकले। वहा देखा कि एक आदमी इंतजाम कर रहा है मरने का। हो सकता है, लजारस ही हो। फंदा लगाकर झाडू में लटकने के करीब ही है कि जीसस ने जाकर रोका कि रुक भाई, यह तू क्या कर रहा है? उस आदमी ने कहां कि पहचानो कि मैं कौन हूं! मैं तो मर गया था, उस वक्त भी तू आ गया औंर मुझे जिंदा कर दिया। और जिंदगी में मुझे कुछ सार मालूम होता नहीं, सिवाय दुख, सिवाय संताप के, चिंताओं के कुछ भी नहीं। अब तू जा, राह से लग अपनी। मुझे मरने दे। मुझे नहीं चाहिए यह जिंदगी। मुझे माफ कर। अब और चमत्कार न दिखा, देख चुका बहुत चमत्कार! अपने चमत्कार अपने पास रख।

सूफियों की यह कहानी बड़ी अद्भुत है। इसमें बात तो कुछ पते की है। क्या होगा आदमी को जिंदगी भी देने से? आंख दे दिए, पैर दे दिए, जबान दे दी, क्या होगा? आदमी वही करेगा जो सारी दुनिया के लोग कर रहे हैं।

तो मुसलमान नहीं कहता कि यह कोई चमत्कार है। चमत्कार तो सिर्फ एक है कि लोगों को अगर मर्जी से हो तो मर्जी से, और अगर न मर्जी से हो तो न मर्जी से—लेकिन अल्लाह की याद दिलाओ, उनको मुसलमान बनाओ।

तुम्हें लगेगा कि यह बात बड़ी जबरदस्ती की है, स्वतंत्रता छिन रही है। यह तो बच्चे को भी लगेगा कि वह आग की तरफ जा रहा है और मां उसकी खींच रही है, स्वतंत्रता छिन रही है। लेकिन ये सारे लोग इतनी विभिन्न भाषा में बोलते हैं; इतने अलग—अलग ढंग और अलग अलग लहजे हैं इनके। इनकी शैलियां और व्यवस्थाएं ऐसी हैं कि तुम किसको प्रमाण मानोगे?

‘न एको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्।’

किसी भी एक मुनि का कोई वचन प्रमाण नहीं है। फिर क्या रास्ता है? सूत्र कहता है : ‘ धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्।’ आनंद किरण, तुमने इसका अनुवाद किया कि धर्म का तत्व तो गहन है। उस अनुवाद में यूं तो कुछ भूल नहीं, भाषा के लिहाज से अनुवाद बिलकुल ठीक है; मगर अनुभव के लिहाज से भूल है।’ धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्।’ सिर्फ भाषांतर, शुद्ध भाषा का ही रूपांतरण करना हो, तो तुम्हारा अनुवाद ठीक है कि धर्म का तत्व तो गहन है। लेकिन अगर इसके भाव में उतरना हो, भाषा को ही न पकड़ना हो, तो इसका अर्थ बहुत और है। इसका अर्थ है : धर्म का तत्व तो स्वयं के भीतर की गुहा में छिपा हुआ है। गुहायाम्! वह जो अंतर—गुहा है, वह जो हृदय की गुफा है, वहां छिपा हुआ है। न तो मुनि के वचनों में मिलेगा, न श्रुतियों में, न स्मृतियों में—अंतर—गुहा में, हिमालय की गुफाओं में नहीं, भीतर की गुफा में। अपनी ही चेतना में डुबकी लगाओगे तो पाओगे।

‘धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्।’

क्योंकि भूतिया भी बाहर हैं, स्मृतियां भी बाहर हैं, मुनियों के वचन भी बाहर हैं और धर्म तो तुम्हारे भीतर है। धर्म तो तुम्हारा स्वभाव है, स्वरूप है।’ धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्!’ खोजो उसे अपनी ही गुहा में। धर्म का तत्व तो मिलेगा समाधि से, क्योंकि समाधि है अपने में डुबकी।

‘महाजनो येन गत: स द्य—था:।’

और महाजन जिस मार्ग पर चलते हैं वही केवल मार्ग है।

तुम पूछते हो, ‘महाजन की पहचान क्या है?’ बुद्धि के लिए तो महाजन की कोई पहचान नहीं हो सकती, क्योंकि महाजन की प्रतीति ही बुद्धि की प्रतीति नहीं। और पहचान की भाषा बुद्धि की भाषा है। तुम पूछ रहे हो, ‘कौन—से लक्षण?’ फिर उपद्रव शुरू हो जाएगा—वही उपद्रव जो मुनियों के लिए है, वही महाजन के लिए हो जाएगा। किस बात को लक्षण मानोगे? दिगम्बरत्व लक्षण है महापुरुष का? तो फिर नग्न दिगम्बर जैन मुनि ही केवल महाजन रह जाएंगे। फिर ईसा और जरथुस्त्र और बुद्ध और लाओत्से और च्चांगत्सु जैसे अद्भुत पुरुष महापुरुष न रह जाएंगे, महाजन न रह जाएंगे। किस बात को लक्षण मानोगे? अगर लोगों की सेवा करना ही लक्षण है तो महावीर ने कभी किसी की कोई सेवा नहीं की।

मेरे पास पत्र आ जाते हैं लोगों के। जैन भी मुझे पत्र लिख देते हैं कि आप गरीबों की सेवा क्यों नहीं करते? अगर ये महावीर को मिल जाएं, महावीर से भी कहेंगे कि गरीबों की सेवा क्यों नहीं करते! क्या तुम सोचते हो महावीर के समय में गरीब नहीं थे, कोढ़ी नहीं थे, अंधे नहीं थे, लंगड़े नहीं थे, लूले नहीं थे? सब थे। महावीर ने किसी की सेवा नहीं की, न बुद्ध ने किसी की सेवा की। लक्षण क्या है? अगर सेवा लक्षण है तो फिर ईसाई मिशनरी—महाजन! वे सेवा में ही लगे रहते हैं। उनका काम ही सेवा करना है। उनका धर्म ही सेवा है।

अगर समाधि लक्षण है तो समाधि बड़ी भीतर की बात है। किसको मिली, किसको नहीं मिली? कौन तय करे? कैसे तय करे? रामकृष्ण मूर्च्छित हो जाते थे समाधि में। बुद्ध कभी मूर्च्छित नहीं हुए। अगर बौद्धों से पूछो तो रामकृष्ण की समाधि—जड़ समाधि, असली समाधि नहीं। यह कोई समाधि हुई? समाधि में तो चैतन्य प्रगाढ होना चाहिए। यह तो चेतना और खो गयी। और बौद्धों से मनोचिकित्सक भी राजी हैं। मनोचिकित्सक भी रामकृष्ण के संबंध में यही कहते हैं कि यह एक तरह का मिर्गी का फिट है। और लक्षण मिलते हैं कि मिर्गी में भी जो घटना घटती है वही रामकृष्ण को घटती थी। मुंह से फसूकर बहता था, आंखें ऊपर चढ़ जाती थीं, हाथ—पैर अकड़ जाते थे। अब बहुत मुश्किल है कि महाजन का लक्षण क्या? यह मिर्गी आ रही है कि समाधि लग रही है? बुद्ध को तो कभी ऐसी समाधि लगी नहीं। लेकिन अगर रामकृष्ण को माननेवाला इसको समाधि मानता हो, उसको बुद्ध की समाधि में शक होगा कि न तो हाथ—पैर अकड़ते हैं, न आंखें ऊपर चढ़ती हैं। दोनों आंखें ऊपर चढ़नी चाहिए, तब तो तृतीय नेत्र का अनुभव होगा! दात भिंच जाने चाहिए! उस बात का लक्षण है कि ऊर्जा ऊपर जा रही है। रामकृष्ण की जीभ कट जाती थी क्योंकि कभी—कभी दातों के बीच पड जाती थी। फसूकर तो निकलना ही चाहिए। वह इस बात का लक्षण है कि देह और आत्मा का तादात्मय छूट गया।

अब किसको लक्षण मानोगे? तो महाजन कौन है? बुद्धि के द्वारा कोई निर्णय नहीं हो सकता। फिर निर्णय होता है—हृदय से। जिससे तुम्हारी प्रीति लग जाए, जिससे तुम्हारे हृदय का छंद मिल जाए, जिसके पास बैठकर तुम्हारा आनंद—कमल खिले—वही महाजन है। बाकी ऊपरी बातें छोड़ दो। जिसको कार्ल गुस्ताव कं ने सिक्रानिसिटी कहां है। जिसके पास बैठकर तुम्हारे भीतर संगीत बज उठे। जिसके भीतर जीवन अपनी परिपूर्णता में जागा हो, निश्चित ही उसके पास अगर कोई मौन समर्पित भाव से बैठे तो उस जीवन की छाप, उस जीवन का धक्का तुम्हारी सोई हुई चेतना को भी लगेगा। वे किरणें तुम्हारे भीतर भी प्रेवश करेंगी और तुम्हारे भीतर भी एक नयी शृंखला का सूत्रपात होगा। तो जिसका जहां तालमेल बैठ जाए! सिक्रानिसिटी का अर्थ है. तालमेल, छंदबद्धता, लयबद्धता। जिसकी बांसुरी सुनकर तुम्हारे भीतर कोई नाच उठे, तुम्हारे पैरों में अचानक पूंघर बजने लगें—वही महाजन है।

महाजन की परीक्षा बौद्धिक नहीं है, हार्दिक है; तार्किक नहीं है, प्रीतिगत है। और प्रेम तो पागल होता है। प्रेम कोई हिसाब—किताब मानता है? जहां तुम्हारा मन—मयूर नाचे, वह महाजन। फिर तुम किसी की न सुनना, दुनिया कुछ भी कहे। अगर तुम्हारा मन—मयूर मुहम्मद के पास नाचे तो तुम फिर फिक्र मत करना कि कौन क्या कहता है, कि वीतराग हैं या नहीं? तुम्हारा मन—मयूर नाचा तो मुहम्मद तुम्हारे लिए महाजन तो हैं ही। और दुनिया में बहुत तरह के लोग हैं। किसी को बांसुरी प्यारी लगती है और किसी को न भी लगे। और किसी को सितार प्यारा लगता है और किसी को न लगे। तुम्हारा रुझान इतना भिन्न—भिन्न है कि कोई बुद्ध के साथ नाच उठेगा; कोई महावीर के साथ नाच उठेगा; कोई मुहम्मद के साथ, कोई जीसस के साथ, कोई कबीर के साथ—कहां तुम्हारी गुनगुन पैदा हो जाए—जहां तुम्हारे भीतर गुंजन आ जाए; जिसके माध्यम से तुम्हारे भीतर का पक्षी पंख फड़फड़ा दे, आकाश में उड़ने को आतुर हो जाए—वही महाजन है।

‘महाजनो येन गत: स पन्‍था:।’

फिर महाजन क्या कहता है, इसकी बहुत फिक्र मत करना। कैसे जीता है, इसकी चिंता करना। कहने में मत उलझना। उसके जीवन को, उसके जीवन के सौंदर्य को, उसके जीवन के प्रसाद को पीना। कैसे उठता, कैसे बैठता! गीता में कृष्ण ने स्थितिधी की परिभाषा की है—कैसे उठता, कैसे बैठता, कैसे चलता! हर हाल में, दुख हो कि सुख, सम रहता। जीत हो कि हार, उससे अंतर नहीं पड़ता।

तुम महापुरुष के या महाजन के शब्दों की बहुत चिंता मत करना। तुम उसके जीवन की पहचान में उतरना। उसकी आंखों में झांकना। उसके प्राणों के साथ अपना तालमेल जोड़ना। उसकी जीवन—चर्या को ही तुम उसका संदेश समझना।

‘महाजनो येन गत: स पन्‍था:।’

जैसे महाजन चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, जीते है—बस वैसे ही जीना। और ध्यान रखें, इसका यह अर्थ नहीं कि तुम उनका अनुकरण करना, कि नकल करना। इसका कुल इतना अर्थ है कि तुम उसके साथ अपने छंद को जोडना। तुम इतने शून्य हो जाना कि तुम्हारे भीतर अहंकार न बचे, ताकि जिस महापुरुष से, जिस महाजन से तुम्हारी प्रीति लग गयी हो, उसका जीवन तुम्हें पूरा का पूरा आच्छादित कर ले, उसकी वर्षा तुम पर पूरी—पूरी हो जाए। अपने पात्र को खुला कर देना, ढांककर मत बैठे रहना। अपने सब पर्दे गिरा देना, ताकि उसकी किरणें तुम्हारे भीतर आ जाएं। अपने सब द्वार—दरवाजे खोल देना, ताकि उसकी हवाएं आएं और तुम्हारी धूल— धवांस को झाड़ ले जाएं।

‘महाजनो येन गत: स द्य—था:।’

इसलिए न तो श्रुतियों में भटकना, न स्मृतियों में, न मुनियों के वचनों में। क्योंकि सत्य तो तुम्हारे भीतर छिपा है। लेकिन तुम्हें अपने सत्य का अभी पता नहीं है; इसलिए जिसे पता हो… और किसे पता हो? जिसके पास बैठकर तुम्हारे भीतर का सत्य अंगडाई लेने लगे, बस उसे पता है, बस; इसके सिवाय और कोई प्रमाण नहीं है। जिसके पास बैठकर तुम्हें खुमारी छाने लगे, मस्ती आने लगे, समझ लेना इशारा कि यही है वह जगह, कि यही है वह मंजिल, जिसकी मैं तलाश करता था; कि यही है वह मंदिर जिसकी चौखट पर मेरे सिर को झुका देना है, फिर उठाना नहीं। तो वह जो धर्म का अत्यंत गहराइयों में छुपा हुआ तत्व है, उसका साक्षात्कार हो सकता है।

धर्मस्य तत्व निहित गुहायाम्

महाजनो येन गत: स पन्‍था:।।

योग प्रीतम का यह गीत:

 

बहो मेरी नदिया, बहो धीरे — धीरे

बहो भाव निर्झर, बहो धीरे — धीरे

महाजन की पहचान भाव—निर्झर से होगी। जिसके पास तुम्हारे भाव का झरना बहने लगे—वह झरना जो सदियों से अवरुद्ध पडा है।

बहो मेरी नदिया, बहो धीरे—धीरे

बहो भाव—निर्झर, बहो धीरे—धीरे

बहो यों, जमाना बहे साथ तेरे

बनो इक तराना कि सब गुनगुनायें

हृदय के वनों में—गहन घाटियों में

कहो मौन—मुखरित स्वयं की कथाएं

उड़ो मेरी मैना, उडो हौले—हौले

उड़ो मेरे ताना, उड़ो धीरे—धीरे

उड़ो इस तरह चित्त—आकाश में तुम

तुम्हें देखकर पंख सब फडूफडायें

उड़ो यों, उन्हें याद आ जाए खुद की

जुड़ी यों कि सबके हृदय की जुड़ाये

खिलो मेरी कलियां, हृदय—वृन्तपर तुम

खिलो मेरे फुलवा, खिलो धीरे—धीरे

खिलो, देख तुमको खिले चित्त सारे

कोई गीत गाओ, गजल गुनगुनाओ

डुबा दो सभी को सुरभि—सिंधु में तुम

कि सौंदर्य का राज सबको सुनाओ

झरो मेरी बदली—सुधा—वर्षिणी बन

झरो मेरे मेहा, झरो धीरे—धीरे

झरो यों, बहारों के मेले जुड़े नित

कहीं मोर नाचे, पपीहा पुकारे

धरा लहलहाये, हृदय झूम गाये

बहो सुख—सरित तोड़कर सब किनारे

कहो मेरी मस्ती, बहकते हुए कुछ

कहो मेरे मनवा, कहो धीरे—धीरे

मदिर साक हो कुछ, मधुर साक हो कुछ

कि ज्यों कोकिला की कुहू आम्रवन से

कि जैसे चटककर कली कह उठे कुछ

छिड़े तान, जोड़े धरा को गगन से

रहो मेरे मितवा, रहो साथ मेरे

हृदय की कहानी, कहो धीरे—धीरे

बही मेरी नदिया, बही धीरे—धीरे

बही भाव—निर्झर, बहो धीरे—धीरे

महाजन की पहचान भावों से होती है, तर्कों से नहीं, सिद्धांतों से नहीं। इसलिए महाजन की पहचान केवल दीवाने कर पाते हैं। शमा जलती है तो परवाने खिंचे चले आते हैं। बस परवाने ही पहचान पाते हैं। परवाने मरने चले आते हैं।

धर्म का तत्व तो अत्यन्त गहरी गुफाओं में छिपा पड़ा है—उन गुफाओं में जो तुम्हारे भीतर हैं, लेकिन जिनका तुम्हें कोई पता नहीं, कोई पहचान नहीं। लेकिन जिसके भीतर धर्म का अनुभव प्रगाढ़ हो गया हो, उसकी मौजूदगी में तुम्हारे भीतर भी टकार पड़ सकती है, तुम्हारी वीणा के तार भी उसकी बजती वीणा के कारण झंकृत हो सकते हैं। जो जाग गया है उसकी मौजूदगी तुम्हारी नींद को भी तोड्ने का कारण हो सकती है।

इसलिए महाजन की पहचान, आनंद किरण, बुद्धि की बात नहीं। बुद्धि के लक्षणों से कुछ भी न होगा। भाव की बात है, दीवानगी की बात है, मस्ती की बात है, खुमारी की बात है। यह मामला पियक्कड़ों का है, रिन्दों का है; मंदिरों का कम, मयकदों का ज्यादा है। शराबियों का ज्यादा, जुआरियों का ज्यादा, दुकानदारों का कम।

यह पूरी प्रक्रिया प्रेम की प्रक्रिया है। कैसे तुम पहचान लेते हो, किसी स्त्री से तुम्हारा प्रेम हो गया, किसी पुरुष से तुम्हारा प्रेम हो गया? कैसे? क्या प्रमाण होता है? कौन—सी श्रुति, कौन—सी स्मृति? होता है तो हो जाता है, नहीं होता तो नहीं होता। लाख उपाय करो तो नहीं होता। और हो जाए तो लाख उपाय करो, तो मिटा नहीं पाते। ठीक ऐसी ही घटना, इस प्रेम की हीं घटना एक बहुत ऊंचे तल पर गुरु और शिष्य के बीच भी घटती है। मगर वह घटना प्रेम की है।

आज इतना ही।

‘पीवत समरस लगी खुमारी’ प्रवचनमाला से

दिनांक 15 जनवरी 1981; श्री रजनीश आश्रम पूना।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–3) प्रवचन–44

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आधुनिक मनुष्‍य प्रेम में असमर्थ क्‍यों—(प्रवचन—चव्‍वालीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—आधुनिक मनुष्‍य प्रेम करने में असमर्थ क्‍यों हो गया है?

2—केंद्र की उपलब्‍धि के लिए क्‍या परिधिगत गति बंद होनी आवश्‍यक है?

3—क्‍या चिंता और निराशा के बिना परिवर्तन को परिवर्तन

के द्वारा विसर्जित करना कठिन नहीं है?

      4—तनाव और भाग—दौड़ से भरे आधुनिक शहरी जीवन

            के प्रति तंत्र का क्‍या दृष्‍टिकोण है?

पहला प्रश्न :

 

तंत्र प्रेम कीं विधि है, अपने हम वक्‍तव्य के संदर्भ में कृपया हमें समझाएं कि आधुनिक मनुष्‍य प्रेम करने में असमर्थ क्यों हो गया है?

प्रेम सहज है; उसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता। तुम प्रेम कर नहीं सकते; इस संबंध में तुम कुछ नहीं कर सकते। तुम जितना ही करोगे, उतना ही चूकोगे। तुम्हें प्रेम को होने देना है। उसके लिए तुम जरूरी नहीं हो; तुम्हारी उपस्थिति ही बाधा है। तुम जितने अनुपस्थित रहोगे उतना अच्छा। जब तुम नहीं होते तो प्रेम होता है।

अनुपस्थित होने की अपनी असमर्थता के कारण आधुनिक पुरुष और स्त्री प्रेम करने में असमर्थ हो गए हैं। वे केवल करने में समर्थ हैं; समूचा आधुनिक चित्त कृत्य पर आधारित है। जो कुछ भी किया जा सकता है उसे आधुनिक मनुष्य अतीत के किसी भी मनुष्य से ज्यादा कुशलता से कर सकता है। जो भी किया जा सकता है उसे हम ज्यादा कुशलतापूर्वक कर सकते हैं। हमारी सदी सर्वाधिक कुशल व दक्ष सदी है। हमने हर एक चीज को टेक्‍नीक में बदल दिया है। हमने हर एक चीज को ‘कैसे करने’ की समस्या में बदल दिया है।

हमने एक आयाम में बहुत विकास किया है; और वह करने का आयाम है। लेकिन इस आयाम को विकसित करने में हमने बहुत कुछ गंवा दिया है। होने की कीमत पर हमने करना सीखा है। इसलिए जो किया जा सकता है उसे हम किसी से भी, अतीत के किसी भी समाज से बेहतर ढंग से कर सकते हैं। लेकिन जब प्रेम का प्रश्न आता है तो समस्या उठ खड़ी होती है, क्योंकि प्रेम किया नहीं जा सकता।

और ऐसा प्रेम के साथ ही नहीं है; हम उन सभी बातों में असमर्थ हो गए हैं जो करने से नहीं होतीं। उदाहरण के लिए ध्यान है। हम ध्यान में असमर्थ हो गए हैं, ध्यान किया नहीं जा सकता। खेल है; हम उसमें भी असमर्थ हो गए हैं। यह किया नहीं जा सकता। वैसे ही आनंद है, सुख है। हम उनमें भी असमर्थ हो गए हैं, क्योंकि वे भी लाए नहीं जा सकते। वे कृत्य नहीं हैं, तुम उन्‍हें जबरदस्ती नहीं ला सकते। उलटे तुम्हें अपने को हटाना होगा, अपने को खोना होगा। तब सुख घटित होता है, तब प्रसन्नता आती है, तब प्रेम तुममें प्रवेश करता है। तुम्हारे विदा होने पर ही प्रेम तुम में उतरता है, तुम्हें अभिभूत करता है।

और हम मिटने से, आविष्ट होने से डरते हैं। आधुनिक मनुष्य सब पर अधिकार करना चाहता है, लेकिन वह खुद किसी के अधिकार में नहीं होना चाहता। वह खुद सबका मालिक बनना चाहता है। लेकिन मालिक केवल वस्तुओं का हुआ जा सकता है; प्राणों का नहीं। तुम किसी मकान के मालिक हो सकते हो। तुम किसी मशीन के मालिक हो सकते हो। लेकिन तुम किसी ऐसी चीज के मालिक नहीं हो सकते जो जीवित है, प्राणवान है। जीवन पर मालकियत नहीं की जा सकती; तुम उसे अपने कब्जे में नहीं कर सकते। बल्कि इसके विपरीत तुम्हें ही जीवन के कब्जे में होना है, केवल तभी जीवन से संपर्क हो सकता है।

प्रेम जीवन है। और प्रेम तुमसे बड़ा है, तुम उस पर मालकियत नहीं कर सकते। मैं इस बात को दोहराना चाहूंगा कि प्रेम तुमसे बड़ा है, तुम उस पर अधिकार नहीं जमा सकते। तुम प्रेम की मालकियत स्वीकार कर सकते हो, तुम प्रेम को अपने ऊपर आच्छादित होने दे सकते हो, लेकिन तुम उसे नियंत्रण में नहीं रख सकते।

आधुनिक अहंकार सबको अपने नियंत्रण में रखना चाहता है, और जो उसके नियंत्रण में नहीं आ पाता उससे वह भयभीत हो जाता है। तुम डर जाते हो, तुम दरवाजा बंद कर लेते हो। तुम उस आयाम को बिलकुल छोड़ ही देते हो, क्योंकि भय होता है। वहा तुम्हारा नियंत्रण नहीं चलेगा, प्रेम पर तुम्हारा जोर नहीं चलेगा। और इस सदी के निर्माण में इस प्रवृत्ति का बड़ा योगदान है कि कैसे नियंत्रण किया जाए। सारे संसार में, विशेषकर पश्चिम में यह प्रवृत्ति सक्रिय है कि कैसे प्रकृति को काबू में किया जाए, कैसे ऊर्जा को वश में किया जाए, कैसे सब कुछ को नियंत्रित किया जाए। मनुष्य मालिक बनने के लिए परेशान है।

और तुम मालिक हो भी गए हो, हालाकि तुम उन्हीं चीजों के मालिक हो जिनका मालिक होना संभव है। और साथ—साथ तुम उन चीजों में असमर्थ होते गए हो जिनका मालिक होना संभव नहीं है। तुम धन के मालिक हो सकते हो, लेकिन प्रेम के मालिक नहीं हो सकते। और यही कारण है कि हम सबको वस्तु बनाने में लगे हैं; हम व्यक्तियों को भी वस्तु बना लेते हैं। क्योंकि वस्तु बनाकर ही उन्हें हम अपने कब्जे में रख सकते हैं।

अगर तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम उसके मालिक नहीं हो; कोई भी मालिक नहीं है। दो प्रेमपूर्ण व्यक्तियों में कोई किसी का मालिक नहीं है—न प्रेमी, न प्रेमिका। सच्चाई यह है कि प्रेम उनका मालिक है; दोनों ही उनसे किसी बड़ी शक्ति से आविष्ट हैं—एक विराट ऊर्जा, एक झंझावात ने उन्हें घेर लिया है।

अगर वे एक—दूसरे पर मालकियत करने की कोशिश करेंगे तो वे प्रेम से चूक जाएंगे। तब फिर मालकियत संभव है; तब प्रेमी पति बन जाएगा और प्रेमिका पत्नी बन जाएगी। तब कब्जा हो सकता है; लेकिन अब वे व्यक्ति नहीं रहे, वस्तु हो गए। पति वस्तु है, पत्नी वस्तु है, तब मालकियत संभव है। मगर वे मुर्दा संबंध हैं, कानूनी नाम हैं—जीवंत व्यक्ति नहीं हैं।

मालकियत करने के लिए हम व्यक्तियों को वस्तुओं में बदल देते हैं; और फिर निराशा हाथ आती है। कारण यह है कि हम व्यक्ति पर मालकियत करना चाहते थे, और व्यक्ति पर मालकियत नहीं हो सकती। जब भी तुम किसी व्यक्ति के मालिक बन जाते हो, वह व्यक्ति व्यक्ति नहीं रह जाता, वह मृत वस्तु बन जाता है। और तुम मृत वस्तु से तृप्त नहीं हो सकते हो। इस विरोधाभास को देखो। व्यक्ति ही तुम्हें तृप्त कर सकता है, वस्तु नहीं। लेकिन तुम्हारा मन मालकियत करना चाहता है, इसलिए तुम उन्हें वस्तुओं में बदल देते हो। लेकिन वस्तुओं से तृप्ति मिलनी संभव नहीं है। और तब निराशा ही निराशा हाथ आती है। मालकियत करने की, अधिकार जमाने की प्रवृत्ति ने प्रेम करने की क्षमता को नष्ट कर दिया है।

मालकियत की भाषा से मत सोचो, बल्‍कि डूब जाने की भाषा में सोचो। समर्पण का वही अर्थ है, डूब जाना। समर्पण में तुम अपने को अपने से किसी बड़ी शक्ति के हाथों में सौंप देते हो, उससे आविष्ट हो जाते हो। तब तुम्हारा कोई वश नहीं चलेगा; तब तुमसे कोई बड़ी शक्ति तुम्हें अपने हाथों में ले लेगी। तब किधर जाना है, कहा जाना है, यह तुम्हारे हाथ में नहीं रहा। तब भविष्य अज्ञात है; अब तुम सुनिश्चित नहीं हो।

अपने से बड़ी शक्ति के साथ चलने में तुम असुरक्षित और भयभीत महसूस करते हो। और अगर तुम भयभीत हो, असुरक्षित हो, तो अच्छा है कि बड़ी शक्तियों के साथ मत चलो; तब अपने से छोटी शक्तियों के साथ रहना ही बेहतर है। छोटी शक्तियों के साथ रहकर तुम मालिक रह सकते हो, पहले से अपना गंतव्य निश्चित कर सकते हो। और तब तुम्हें तुम्हारा गंतव्य उपलब्ध भी हो जा सकता है। लेकिन ध्यान रहे, यह उपलब्धि कोई उपलब्धि नहीं है; उससे तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है। तुमने जीवन व्यर्थ ही गंवाया।

प्रेम का रहस्य, प्रार्थना का रहस्य, या किसी भी तृप्ति देने वाली चीज का रहस्य समर्पण में है, अपने को छोड़ने की क्षमता में है। और प्रेम की समस्या इसीलिए है क्योंकि मनुष्य की यह क्षमता खो गई है। और दूसरे कारण भी हैं, लेकिन यह आधारभूत कारण है। पहला कारण यह है कि बुद्धि पर, तर्क पर अतिशय जोर दिया जाता है। इसलिए मनुष्य एकांगी हो गया है, तुम्हारा मस्तिष्क बड़ा हो गया है और हृदय अत्यंत उपेक्षित रह गया है। और प्रेम करना मस्तिष्क की क्षमता नहीं है। प्रेम का स्रोत भिन्न है, उसका स्थान भिन्न है। प्रेम तुम्हारे हृदय में बसता है। प्रेम तुम्हारा भाव है, तर्क नहीं। लेकिन सारी आधुनिक शिक्षा बुद्धि और तर्क पर, मस्तिष्क और सोच—विचार पर आधारित है। वहा हृदय की चर्चा तक नहीं है; असल में हृदय वहा अस्वीकृत है। हृदय एक कपोल—कल्पना मात्र है।

लेकिन ऐसा नहीं है; हृदय एक यथार्थ है, सत्य है।

इस बात को इस ढंग से देखो। अगर आरंभ से ही किसी बच्चे को मस्तिष्क का, बुद्धि का, तर्क का प्रशिक्षण, बौद्धिक प्रशिक्षण दिए बिना ही बड़ा किया जाए तो क्या उसको बुद्धि होगी? उसे बुद्धि नहीं हो सकती है।

ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं। कभी—कभी ऐसा हुआ कि मनुष्य का बच्चा भेड़ियों द्वारा बड़ा किया गया। अभी सिर्फ दस साल पहले एक बच्चा जंगल में पाया गया; उसे भेड़ियों ने पाला—पोसा था। उसकी उम्र चौदह साल थी। वह दो पांवों पर खड़ा नहीं हो सकता था; वह चार पांवों से चलता था। वह एक शब्द भी नहीं बोल सकता था; वह भेड़ियों की तरह गुर्राता था। वह हर तरह से भेड़िया था; और वह चौदह वर्ष का था।

जिन लोगों ने उसको पकड़ा था उन्होंने उसका नाम राम रख दिया था। उस बच्चे को अपना नाम सीखने में छह महीने लगे। और एक वर्ष के भीतर वह बच्चा मर गया। जो मनसविद उसके साथ मेहनत कर रहे थे उनका अनुमान है कि मस्तिष्क पर अतिशय तनाव पड़ने के कारण उसकी मृत्यु हुई। दो पांवों पर खड़ा करने का प्रशिक्षण, अपना नाम याद रखने के लिए स्मृति का प्रशिक्षण, उसे मनुष्य बनाने की चेष्टा, इन सब चीजों ने उसे मारा। जब वह जंगल से लाया गया था तब वह शरीर से तगडा था; किसी भी मनुष्य से ज्यादा स्वस्थ था। वह ठीक पशु जैसा था, लेकिन प्रशिक्षण ने उसकी जान ले ली।

तमाम कोशिशें की गईं कि जब तुम पूछो कि तुम्हारा नाम क्या है? तो वह कह सके कि मेरा नाम राम है। इतनी ही उसकी कुल बुद्धि थी। छह महीनों तक सतत प्रशिक्षण देने के बाद, सब तरह के भय और लोभ देने के बाद वह बच्चा अपनी बुद्धि का इतना ही प्रमाण दे सका कि वह राम कह सका।

क्या हुआ? अगर कोई मंगल ग्रह का रहने वाला इस बच्चे को मिलता तो वह यही समझता कि मनुष्यता के पास मन नहीं है, मस्तिष्क नहीं है, बुद्धि नहीं है।

यही बात हृदय के साथ घटित हुई है। प्रशिक्षण के बिना हृदय ऐसा है कि नहीं के बराबर है। हृदय बिलकुल ही उपेक्षित रहा है। नतीजा यह हुआ कि तुम्हारी संपूर्ण जीवन—ऊर्जा मस्तिष्क में समा जाने को विवश हो गई; वह हृदय की तरफ बहती ही नहीं। और प्रेम हृदय—केंद्र का काम है।

यही कारण है कि आधुनिक मनुष्य प्रेम करने में असमर्थ हो गया है; आधुनिक मनुष्य हृदय के मामलों में असमर्थ हो गया है। वह हिसाब लगाता है, और प्रेम हिसाब—किताब नहीं है। वह गणित जानता है, और प्रेम गणित नहीं है। वह तर्क की भाषा में सोचता है, और प्रेम अतर्क्य है। वह हर एक चीज को बुद्धि—संगत बनाने की कोशिश करता है; वह जो भी करता है उसमें बुद्धि का समर्थन पाना चाहता है, और प्रेम बुद्धि की नहीं सुनता है।

असल में जब तुम प्रेम में पड़ते हो तो तुम बुद्धि को पूरी तरह ताक पर धर देते हो। इसीलिए हम कहते हैं कि व्यक्ति प्रेम में गिर गया। वह कहां से गिरता है? वह मस्तिष्क से नीचे हृदय में गिरता है। हम यह निंदा से कहते हैं कि ‘प्रेम में गिर गया’, क्योंकि बुद्धि प्रेम को निंदा के बिना नहीं देख सकती; उसके लिए प्रेम गिरना है। लेकिन प्रेम वस्तुत: क्या है? पतन है या उत्थान है? तुम प्रेम से बढ़ते हो या घटते हो? तुम विस्तीर्ण होते हो या सिकुड़ते हो?

प्रेम से तुम बढ़ते हो, विस्तीर्ण होते हो। प्रेम से तुम्हारी चेतना बढ़ती है, तुम्हारा भाव बढ़ता है, तुम्हारी संवेदना बढ़ती है। तुम्हारा आनंद बढ़ता है, तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ती है। प्रेम में तुम ज्यादा जीवंत होते हो। लेकिन एक चीज कम हो जाती है, तुम्हारी तार्किक बुद्धि कम हो जाती है। तुम प्रेम को बुद्धि से नहीं समझ सकते, वह अंधा है। जहां तक बुद्धि का संबंध है, प्रेम अंधा है। यह दूसरी बात है कि हृदय के पास अपनी समझ है। यह और बात है कि हृदय के पास अपनी आंखें हैं। लेकिन बुद्धि की आंखें वहा नहीं हैं। इसलिए बुद्धि कहती है कि यह पतन है, कि तुम गिर गए।

जब तक हृदय—केंद्र फिर से सक्रिय नहीं होगा, मनुष्य प्रेम करने में समर्थ नहीं होगा। और आधुनिक जीवन का सारा संताप यह है कि प्रेम किए बिना उसके जीवन में अर्थवत्ता नहीं आ सकती। जीवन अर्थहीन मालूम पड़ता है। प्रेम उसे अर्थ देता है। प्रेम के सिवाय कोई दूसरा अर्थ नहीं है। जब तक तुम प्रेम में समर्थ नहीं होते, तुम अर्थशून्य रहोगे, तुम्हें लगेगा कि मैं व्यर्थ जी रहा हूं।

और तब तुम्हें आत्मघात आकर्षित करने लगेगा; तब तुम जीवन से हाथ धो लेना चाहोगे; तब तुम अपने को समाप्त कर देना चाहोगे। तुम कहोगे कि जीने का क्या प्रयोजन है? किसी भी तरह जीए जाना बरदाश्त नहीं हो सकता; जीवन में अर्थ होना जरूरी है। अन्यथा प्रयोजन क्या है? नाहक जीवन को लंबाए जाने में क्या रखा है? क्यों रोज—रोज एक ही ढर्रे को दोहराते रहना? रोज सुबह उठना और वही—वही चीजें करना, रात फिर सो जाना। फिर सुबह उठना और फिर वही—वही दिनचर्या दोहराना। क्यों? अब तक तुमने यही किया; लेकिन उससे क्या हुआ? और तुम तब तक यही किए जाओगे जब तक मृत्यु आकर तुम्हारा शरीर नहीं छीन लेगी। फिर क्या प्रयोजन है?

प्रेम अर्थ देता है। ऐसा नहीं है कि प्रेम के द्वारा कोई लक्ष्य या गंतव्य हाथ आता है; नहीं, प्रेम के द्वारा प्रत्येक क्षण अपने आप में मूल्यवान हो उठता है। तब तुम नहीं पूछोगे कि जीवन का क्या अर्थ है। जब कोई व्यक्ति पूछता है कि जीवन का क्या अर्थ है तो भलीभांति समझ लेना कि वह अभी प्रेम से वंचित है। जब कोई जीवन का अर्थ पूछता है तो उसका इतना ही मतलब है कि उसमें अभी प्रेम के अनुभव का फूल नहीं खिला है। और जब कोई प्रेम में होता है तो वह यह नहीं पूछता कि जीवन का अर्थ क्या है। उसे अर्थ मालूम है; उसे पूछने की जरूरत नहीं है। वह अर्थ जानता है; अर्थ मौजूद है, प्रेम ही जीवन में अर्थ है।

और प्रेम से प्रार्थना संभव होती है। क्योंकि प्रार्थना भी एक प्रेम—संबंध है—दो व्यक्तियों के बीच नहीं, बल्कि व्यक्ति और समस्त अस्तित्व के बीच। तब समस्त अस्तित्व तुम्हारा प्रेम—पात्र हो जाता है। लेकिन सिर्फ प्रेम के अनुभव से ही यह संभव है कि तुम प्रार्थना या ध्यान में उठो, विकास पाओ। और परम समाधि की अवस्था ठीक प्रेम जैसी है।

इसीलिए जीसस कहते हैं कि परमात्मा प्रेम है। वे यह नहीं कहते कि परमात्मा प्रेमपूर्ण है। ईसाई इसका यही अर्थ करते रहे हैं कि परमात्मा प्रेमपूर्ण है। उसका यह अर्थ नहीं है। जीसस कहते हैं कि परमात्मा प्रेम है; वे परमात्मा और प्रेम को समान बताते हैं। तुम प्रेम कहो या परमात्मा कहो; दोनों का एक ही अर्थ है। परमात्मा प्रेमपूर्ण नहीं, स्वयं प्रेम ही है। अगर तुम प्रेम कर सको तो तुम परमात्मा में प्रवेश कर गए। और जब तुम्हारा प्रेम इतना विराट हो जाता है कि वह किसी व्यक्ति विशेष से नहीं बंधा रहता है, जब तुम्हारा प्रेम व्यापक हो जाता है, जब किसी एक प्रेम—पात्र की जगह सारा अस्तित्व ही तुम्हारा प्रेम—पात्र हो जाता है—तब प्रेम प्रार्थना बनता है।

और तंत्र एक प्रेम—विधि है। तो पहली बात यह है कि कैसे प्रेम किया जाए, और दूसरी बात कि कैसे प्रेम को विकसित किया जाए कि वह प्रार्थना बन सके। लेकिन आरंभ तो प्रेम से ही करना होगा। और प्रेम से भयभीत मत होओ। क्योंकि वह भय बताता है कि तुम हृदय से भयभीत हो। बुद्धि चालाक है; हृदय निर्दोष है। बुद्धि के साथ तुम सुरक्षित अनुभव करते हो; हृदय के साथ तुम असुरक्षित हो जाते हो, खुले होते हो। खुले होने में खतरा है, कुछ भी हो सकता है।

यही कारण है कि हम बंद हो गए हैं। यह खतरा तो है; अगर तुम खुले रहे तो कुछ भी हो सकता है। हो सकता है, कोई तुम्हें धोखा दे दे। बुद्धि के साथ रहने से कोई तुम्हें धोखा नहीं दे सकता, बल्कि तुम ही दूसरों को ठग सकते हो। लेकिन मैं कहता हूं कि ठगे जाने के लिए तैयार रहो, मगर हृदय को मत बंद करो। ठगे जाने के लिए तैयार रहना श्रेयस्कर है, क्योंकि उससे तुम्हारी कोई हानि नहीं होने वाली है। और यदि तुम अनंत काल तक ठगे जाने के लिए भी तैयार हो, तो ही तुम हृदय पर भरोसा कर सकते हो। अगर तुम हिसाबी—किताबी हो, चालाक हो, होशियार हो, जरूरत से ज्यादा होशियार हो, तो तुम हृदय से चूक ही जाओगे।

आधुनिक मनुष्य—विशेषकर पुरुष—बहुत शिक्षित है, बहुत सुसंस्कृत है, बहुत कृत्रिम है, बहुत चालाक है। और यही कारण है कि वह प्रेम करने में असमर्थ हो गया है। स्त्री ऐसी नहीं है; लेकिन वह तेजी से आधुनिक पुरुष का अनुगमन कर रही है, अनुकरण कर रही है। देर—अबेर वह पुरुष जैसी हो जाएगी; संभव है कि वह पुरुष को भी मात दे दे। और अब वह भी वैसे ही प्रेम करने में असमर्थ हो रही है; क्योंकि वह भी बौद्धिक बन रही है, चालाकी सीख रही है, धूर्त हो रही है। वह नारी मुक्ति आदोलन भले चलाए या वैसा ही और कुछ करे; लेकिन यह सब हृदय का काम नहीं है। यह तो उसी मूढ़ता का अनुकरण है जिसे पुरुष अपने साथ करता रहा है। स्त्री दूसरी अति पर पहुंच सकती है। लेकिन ध्यान रहे, जब तुम प्रतिक्रिया करते हो तो प्रतिक्रिया में भी अनुगमन ही करते हो।

एक भारी संकट उपस्थित है। अब यह बहुत कठिन है कि सारी दुनिया में स्त्रियों को पुरुषों की और उनकी मूढ़ताओं की नकल करने से रोका जा सके, क्योंकि उन्हें लगता है कि पुरुष सफल हैं। एक ढंग से वे जरूर सफल हुए हैं; वे चीजों के मालिक बन गए हैं। अभी सारा संसार पुरुष के हाथ में है। स्त्री को लगता है कि पुरुष ने प्रकृति को जीत लिया है। और कहावत है कि सफलता से बढ़कर कुछ नहीं है। तो अब स्त्री सोचती है कि पुरुष सफल हो गया है, संसार का मालिक हो गया है, तो वे भी उसका अनुकरण करें।

लेकिन जरा वहां भी तो निगाह डालो जहां पुरुष बुरी तरह निष्फल हो गया है। उसने अपना हृदय गंवा दिया है, वह प्रेम करने में असमर्थ हो गया है। बुद्धि अकेली पर्याप्त नहीं है। और बुद्धि मालिक बन जाए तो खतरनाक है। हृदय को बुद्धि के ऊपर होना चाहिए, क्योंकि बुद्धि एक यंत्र भर है और तुम हृदय हो। हृदय को बुद्धि का उपयोग करने दो; बुद्धि को हृदय का उपयोग मत करने दो। लेकिन तुम वही कर रहे हो; तुमने बुद्धि को हृदय पर हावी होने दिया है। और बुद्धि की प्रभुता के नीचे हृदय की हत्या हो गई है।

इस संबंध में एक और बात स्मरण रखने योग्य है कि क्यों आधुनिक मनुष्य प्रेम में असमर्थ हो गया है। प्रेम बुनियादी रूप से एक ढंग का पागलपन है। प्रेम प्रकृति के साथ गहन भागीदारी है। प्रेम अहंकार का विसर्जन है। प्रेम आदिम है। तुम प्रेम से पैदा होते हो; तुम्हारे शरीर का एक—एक कोष्ठ प्रेम से पैदा हुआ है। तुम्हारी पूरी ऊर्जा, जीवन—ऊर्जा प्रेम—ऊर्जा ही तो है। तुम उसमें ही जीते हो।

लेकिन वहां कोई अहंकार नहीं है; उसमें तुम्हें ‘मैं’ की प्रतीति नहीं होती। वह ऊर्जा अचेतन है; और जब तुम प्रेम में प्रवेश करते हो तो तुम भी अचेतन हो जाते हो। मन का एक छोटा सा खंड ही चेतन है, और उसी चेतन खंड में अहंकार का निवास है।

मन के तीन तल हैं। पहला तल अचेतन का तल है। जब तुम गहरी नींद में होते हो, जहां कोई स्‍वप्‍न भी नहीं होता, तो तुम अचेतन में होते हो। मां के गर्भ में जो बच्चा है वह बिलकुल अचेतन है; वह मां का एक अंग मात्र है। बच्चे को यह बोध नहीं है कि मैं अलग म् हूं। वह मां का ही अंग है। वहा कोई दूरी नहीं है; उसका अलग अस्तित्व नहीं है। वह मां से,

अस्तित्व से अभिन्न है। उसे कोई भय भी नहीं है, क्योंकि भय तब आता है जब तुम्हें अपना बोध होता है। बच्चा परम विश्राम में है, वह अचेतन है, बेहोश है।

दूसरा तल चेतन मन का है। यह तुम्हारा बहुत छोटा खंड है। परिवार और समाज और शिक्षा के द्वारा तुम्हारे अचेतन का दसवां हिस्सा तुममें चेतन हो गया है। जीने के लिए यह जरूरी था, तुम्हारा एक अंश चेतन हो गया है। लेकिन यह अंश भी बहुत जल्दी थक जाता है; इसीलिए तुम्हें नींद की जरूरत पड़ती है। नींद में तुम फिर गर्भस्थ बच्चे की भांति हो जाते हो। तुम पीछे हट गए; चेतन अंश वहां अब नहीं है। चेतन फिर अचेतन का हिस्सा बन गया। इसीलिए नींद इतनी ताजगी लाती है; सुबह तुम फिर जीवंत और ताजा अनुभव करते हो। क्योंकि नींद में तुम ऐसे ही होते हो जैसे मां के गर्भ में होते हो।

शायद तुमने गौर से न देखा हो; गहरी नींद में सोए हुए किसी व्यक्ति को देखो। तुम पाओगे कि करीब—करीब वह उसी मुद्रा में सोया है जैसे बच्चा गर्भ में होता है। और तुम यदि सोते समय सही आसन में सोओ तो नींद ज्यादा आसानी से आएगी। अगर तुम्हें नींद आने में कठिनाई महसूस हो तो मां के गर्भ की कल्पना करो, भाव करो कि तुम मां के गर्भ में हो और गर्भस्थ बच्चे का आसन बना लो; तुम गहरी नींद में उतर जाओगे। वही उष्णता भी चाहिए; अन्यथा नींद में बाधा पड़ेगी। तुम्हें उसी उष्णता की जरूरत है जो तुम्हें मां के गर्भ में उपलब्ध थी।

इसी कारण गरम दूध नींद लाने में सहयोगी होता है। अगर तुम सोने के पहले गरम दूध पी लो तो अच्छा होगा। गरम दूध तुम्हें पुन: बच्चा बना देता है। दूध बच्चे का भोजन है, और वह अगर गरम हो तो तुम्हें मां के स्तन से जुड्ने का अनुभव होगा। नींद के लिए गरम दूध इसीलिए अच्छा है क्योंकि तुम अपने बचपन में लौट जाते हो, तुम फिर बच्चे हो जाते हो।

नींद तुम्हें तरो—ताजा करती है। क्यों? क्योंकि चेतन मन थक जाता है। वह एक अंश मात्र है; समूचा मन तो अचेतन है। नींद में लौटकर चित्त पुनरुज्जीवित हो जाता है। सुबह में तुम्हें अच्छा लगता है, सुबह तुम्हें सुंदर लगती है, इसका यही कारण है। इसीलिए नहीं क्योंकि सुबह सुंदर होती है, बल्कि इसलिए भी कि उसे देखने के लिए तुम्हारे पास बच्चे की आंख होती है। दोपहर उतनी सुंदर नहीं लगती है। संसार तो दोपहर भी वही है, लेकिन तब तक तुम्हारी आंखों की निर्दोषता खो जाती है। सांझ कुरूप हो जाती है; क्योंकि तुम थके—मांदे होते हो।

तुम चेतन मन में बहुत रह चुके। अहंकार इस चेतन मन का केंद्र है। ये दो सामान्य स्थितियां हैं, जिन्हें हम जानते हैं। तीसरा तल, तीसरी अवस्था, जिसका संबंध तंत्र और योग से है, अतिचेतन की है। अतिचेतन का अर्थ है कि तुम्हारा समस्त अचेतन चेतन हो गया। अचेतन में अहंकार नहीं है; तुम समग्र हो। अतिचेतन में भी अहंकार नहीं है; तुम समग्र हो। लेकिन इन दोनों के बीच जो चेतन है उसका एक केंद्र है, वह केंद्र अहंकार है।

यह अहंकार ही समस्या है; यह अहंकार ही समस्या पैदा करता है। तुम प्रेम नहीं कर सकते, क्योंकि तब तुम्हें अचेतन हो जाना पड़ेगा—नींद जैसा अचेतन। या यदि तुम प्रार्थना की ऊंचाई छूना चाहते हो तो तुम्हें बुद्ध या मीरा की भांति समग्रत: चेतन होना पड़ेगा, अतिचेतन होना पड़ेगा। बीच के तल पर प्रेम असंभव है, और प्रार्थना भी असंभव है। अहंकार बाधा निर्मित करता है। तुम अपने को खो नहीं सकते; और प्रेम खोना है, मिटना है, पिघलना है, विलीन होना है। यदि तुम अचेतन में डूब जाओ तो वह प्रेम है। और यदि अतिचेतन में डूब जाओ तो वह प्रार्थना है। लेकिन दोनों में मिटना पड़ेगा, विलीन होना पड़ेगा।

तो क्या किया जाए? स्मरण रहे, इसके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। इस बात को गांठ बांध लो कि तुम प्रेम या प्रार्थना के संबंध में कुछ नहीं कर सकते हो। तुम्हारा चेतन मन नपुंसक है, वह कुछ नहीं कर सकता है। चेतन मन को खोना है; उसे अलग रख देना है। और तब समर्पण को स्मरण रखो। जब भी तुम अपने से पार जाना चाहते हो—चाहे प्रेम में या प्रार्थना में—तो समर्पण ही मार्ग है। जब भी पार जाना चाहो, जहां हो वहा से अतिक्रमण करना चाहो, तो समर्पण ही उपाय है।

कुछ चीजें हैं जो अपने आप ही घटित होती हैं; तुम उन्हें बस राह दो, उन्हें होने दो। और एक बार यदि तुम जान गए कि कैसे राह दी जाती है तो बहुत चीजें घटित होने लगेंगी। तुम्हें इसका बोध भी नहीं है कि तुम्हारी संभावना क्या है, कि तुम्हारे भीतर कैसी महान शक्तिशाली ऊर्जा बंद पड़ी है।

इस ऊर्जा का विस्फोट ही समाधि बन जाता है। तब तुम्हारा समस्त जीवन चैतन्य से, प्रकाश से, आनंद से आपूरित हो उठेगा। लेकिन तुम्हें इसका पता नहीं है। यह ऐसे ही है जैसे हर एक परमाणु में परमाणु बम छिपा है; एक परमाणु के विस्फोट से अपार ऊर्जा पैदा होती है। और प्रत्येक हृदय भी एक परमाणु बम है। जब प्रेम या प्रार्थना में उसका विस्फोट होता है तो उससे भी अपार ऊर्जा पैदा होती है।

लेकिन इस विस्फोट के लिए तुम्हें मिटना होगा, इसके लिए तुम्हें अपने को खोना होगा। बीज को बीज की भांति मिटना होगा, तो ही वृक्ष का जन्म हो सकता है। लेकिन अगर बीज प्रतिरोध करे और कहे कि मुझे जीना है, तो बीज जी सकता है, लेकिन वृक्ष का जन्म कभी नहीं होगा। और जब तक वृक्ष का जन्म नहीं होता, बीज निराशा अनुभव करेगा। वृक्ष होने में सार्थकता है, उसके बिना बीज का जीवन व्यर्थ हो जाएगा। फूलता—फलता वृक्ष हो जाने में ही बीज की सार्थकता है। लेकिन उसके लिए बीज को खोना होगा; बीज को मरना होगा।

आधुनिक मनुष्य प्रेम करने में असमर्थ हो गया है, क्योंकि वह मरने में असमर्थ हो गया है। वह किसी के प्रति मरने में असमर्थ हो गया है। वह जीवन से इस कदर आसक्त है कि किसी भी चीज के प्रति मरना उसके लिए असंभव हो गया है।

तीन—चार सौ वर्ष पूर्व पुरानी अंग्रेजी भाषा में यह आम कहावत थी, प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता था : ‘आई वाट टु डाइ इन धू—मैं तुममें मर जाना चाहता हूं। यह एक प्रेमपूर्ण अभिव्यक्ति थी और बहुत सुंदर थी।’मैं तुममें मर जाना चाहता हूं।’ प्रेम मृत्यु है, अहंकार की मृत्यु है। अहंकार की मृत्यु पर तुम्हारी आत्मा का जन्म होता है।

और आधुनिक मनुष्य मृत्यु से अत्यंत डरा हुआ है। समर्पण मृत्यु है, प्रेम मृत्यु है, और जीवन भी अनवरत मृत्यु है। अगर तुम भयभीत हो तो तुम जीवन से भी चूक जाओगे। प्रत्येक क्षण मरने के लिए राजी रहो। अतीत के प्रति मरो, भविष्य के प्रति मरो; और वर्तमान क्षण में भी मरो। न किसी से चिपको और न प्रतिरोध करो। जीवन के लिए कोई प्रयत्न मत करो, और तुम्हें अनंत जीवन उपलब्ध होगा। अगर तुम मरने को राजी हो तो ही तुम्हें जीवन उपलब्ध। होगा। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ती है, लेकिन यही नियम है।

जीसस कहते हैं कि जो खोने को राजी है उसे मिलेगा, और जो पकड़कर बैठेगा वह सब कुछ गंवा देगा।

दूसरा प्रश्‍न:

 

कल रात आपने कहा कि परिधि सतत बदल रही है जब कि अंतरस्थ केंद्र नित्‍य है,

शाश्वत है। तो उस केंद्र को उपलब्ध होने के लिए क्या यह आवश्यक है कि परिधि की गतिविधियां बंद हों? क्या यह संभव है? कैसे और कब?

तुम पूरी बात ही चूक गए। कुल बात यह थी कि परिधि को बदलने की कोई चेष्टा न की जाए; परिधि जैसी है उसे वैसी ही रहने दिया जाए। तुम उसको नहीं बदल सकते हो। गति और परिवर्तन परिधि का स्वभाव है; तुम उसे रोक नहीं सकते। प्रकृति प्रवाहमान है। वह ऐसी है, तुम उसे रोक नहीं सकते, तुम उसे ठहरा नहीं सकते। अपने समय और जीवन— अवसर को उसे ठहराने में मत गंवाओ। बस जान लो कि वह परिवर्तन है, और उसके साक्षी बनो। और तब तुम्हें उस अंतरस्थ केंद्र की प्रतीति होगी जो परिवर्तन नहीं है।

संसार परिवर्तन है। तुम्हारा व्यक्तित्व परिवर्तन है। तुम्हारा शरीर—मन परिवर्तन है। लेकिन तुम परिवर्तन नहीं हो। फिर परिवर्तन से लड़ने की क्या जरूरत है? कोई जरूरत नहीं है। तंत्र कहता है : कृपा करके अपने केंद्र में पुन: प्रतिष्ठित हो जाओ, उस केंद्र के प्रति बोधपूर्ण बनो जो अचल है। और पूरे अस्तित्व को गति करने दो; वह कतई उपद्रव नहीं है।

वह उपद्रव तब बनता है जब तुम उससे चिपकते हो या उसे ठहराने की कोशिश करते हो। तब तुम नाहक मूढ़ताओं में, बेकार प्रयत्नों में पड़ रहे हो। तुम्हारे प्रयत्न कभी सफल न होंगे; तुम निष्फल होओगे। भँलीभाति जान लो कि जीवन परिवर्तन है, लेकिन इस परिवर्तन के भीतर कहीं कोई अचल केंद्र भी है। उसके साक्षी हो जाओ। वह बोध ही तुम्हें मुक्त करने के लिए पर्याप्त है। यह भाव ही कि मैं अचल हूं मुक्तिदायी है। यही सत्य है। तुम यह जानते ही भिन्न व्यक्ति हो जाते हो।

छायाओं से मत लड़ो। और समस्त जीवन छाया है, क्योंकि बदलाहट छाया के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अपरिवर्तन सत्य है, परिवर्तन मिथ्या है। इसलिए यह मत पूछो कि केंद्र को उपलब्ध होने के लिए क्या परिधिगत परिवर्तन और गतिविधियों को जबरदस्ती बंद करना जरूरी है। उसकी जरूरत नहीं है; और तुम्हारी जबरदस्ती नहीं चलेगी। परिवर्तन नहीं रुकेगा। संसार तो चलता रहता है; सिर्फ तुम्हारे भीतर वह नहीं चलेगा। तुम संसार में रह सकते हो; संसार को तुममें रहने की जरूरत नहीं है।

संसार उपद्रव नहीं है। जब तुम उसमें फंसते हो, जब तुम परिवर्तन बन जाते हो, जब तुम्हें महसूस होता है कि तुम परिवर्तन हो गए हो, तब समस्याएं पैदा होती हैं। समस्याएं बदलती परिधि के कारण नहीं पैदा होती हैं; वे इस तादात्म्य से पैदा होती हैं कि मैं ही यह परिवर्तन हूं। तुम बीमार हो गए हो। दरअसल यह बीमारी समस्या नहीं है, समस्या तब पैदा होती है जब तुम सोचते हो कि मैं बीमार हो गया हूं। अगर तुम बीमारी के साक्षी हो सको, अगर तुम देख सको कि बीमारी कहीं परिधि पर घटित हो रही है, मुझे नहीं—किसी दूसरे को हो रही है, मैं तो साक्षी भर हूं—तो मृत्यु के घटने पर भी तुम साक्षी बने रहोगे।

सिकंदर भारत से वापस जा रहा था। कुछ मित्रों ने उससे कहा था कि भारत से लौटते हुए वहा से एक संन्यासी लेते आना। उन्होंने कहा था : ‘जब तुम जीत की संपदा लेकर स्वदेश लौटो तो साथ में एक संन्यासी लाना न भूलना। हम देखना चाहते हैं कि संन्यासी कैसा होता है जो संसार का त्याग कर देता है। हम जानना चाहते हैं कि वह व्यक्ति कैसा होता है जिसकी सब कामनाएं विसर्जित हो गई हैं। हम देखने को उत्सुक हैं कि जो व्यक्ति सब वासनाओं को, भविष्य की, संपदा की, वस्तुओं की सब आकांक्षाओं को छोड़ देता है, उसका आनंद कैसा होता है।’

भारत से लौटते समय अंतिम क्षण में सिकंदर को इस बात का स्मरण आया। आखिरी शहर में, जहां से वह अपने देश के लिए रवाना होता, उसने अपने सैनिकों को हुक्म दिया कि जाओ और एक संन्यासी को पकड़ लाओ। सैनिक शहर में गए और उन्होंने एक के व्यक्ति से पूछा। उसने कहा. ‘ही, यहां संन्यासी तो है, महान संन्यासी है; लेकिन उसे सिकंदर के साथ एथेंस जाने के लिए राजी करना कठिन होगा, बहुत कठिन होगा।’

लेकिन सिपाही तो सिपाही ठहरे, उन्होंने कहा : ‘इसकी फिक्र मत करो। हम ले जाएंगे। हमें इतना ही बता दो कि वह कहां है। राजी करने की जरूरत नहीं है; हम उठा ले जाएंगे। अगर सिकंदर पूरे नगर को चलने को कहे तो तुम्हें जाना होगा। फिर एक संन्यासी की क्या बात है!’ का आदमी हंसा; लेकिन सिपाही नहीं समझ सके। कैसे समझते? संन्यासी से उन्हें कभी मिलना नहीं हुआ था। वे संन्यासी के पास गए।

वह नदी के किनारे नग्न खड़ा था। सैनिकों ने उससे कहा : ‘सिकंदर का हुक्म है कि तुम्हें हमारे साथ चलना है। तुम्हारी सब देखभाल की जाएगी; तुम्हें किसी तरह की भी असुविधा नहीं होगी; तुम शाही मेहमान होंगे। लेकिन तुम्हें हमारे साथ एथेंस चलना है।’

संन्यासी हंसा और उसने कहा. ‘तुम्हारे सिकंदर के लिए मुझे अपने साथ एथेंस ले जाना बहुत मुश्किल होगा। इस दुनिया की कोई भी ताकत मुझे चलने के लिए मजबूर नहीं कर सकती; लेकिन तुम यह बात नहीं समझ सकोगे। अच्छा हो कि तुम अपने सिकंदर को ही यहां ले आओ।’

सिकंदर यह बात सुनकर हैरान रह गया; उसने अपमानित अनुभव किया। लेकिन वह इस आदमी को देखना चाहता था। वह हाथ में नंगी तलवार लिए वहा पहुंचा। और उसने कहा. ‘अगर तुम इनकार करते हो तो तुम्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा; मैं तुम्हारा सिर काट दूंगा।’ सिकंदर के संस्मरणों के अनुसार संन्यासी का नाम ददामी था।

वह संन्यासी हंसा और बोला ‘तुम जरा देर से आए। अब तुम मुझे नहीं मार सकते, क्योंकि मैंने खुद अपने को मार दिया है। तुम्हें थोड़ी देरी हो गई। तुम मेरा सिर काट सकते हो, लेकिन मुझे नहीं काट सकते। क्योंकि मैं साक्षी हो गया हूं। जब यह सिर जमीन पर गिरेगा तो तुम उसे गिरते देखोगे और मैं भी उसे गिरते देखूंगा। लेकिन तुम मुझे नहीं काट सकते; तुम मुझे छू भी नहीं सकते हो। तो समय मत गंवाओ, उठाओ अपनी तलवार और मेरा सिर काट डालो।’

सिकंदर उस संन्यासी को नहीं मार सका। मारना असंभव था, क्योंकि मारना व्यर्थ था। वह आदमी मृत्यु के इतने पार चला गया था कि उसे मारना असंभव था।

तुम्हें तभी मारा जा सकता है, यदि तुम जीवन से आसक्त हो। परिवर्तनशील जगत से यह लगाव ही तुम्हें मरणधर्मा बनाता है। अगर यह लगाव न रहे तो तुम वह हो जो सदा से हो, तुम अमृत हो। अमृतत्व तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है—अमृतस्य पुत्र:। आसक्ति तुम्‍हें मरणधर्मा बनाती है।

तो परिवर्तनशील परिधि को ठहराने की जरूरत नहीं है; यह प्रश्न ही नहीं उठता है। यह संभव भी नहीं है। संसार—चक्र तो चलता ही रहेगा। तुम इतना ही कर सकते हो कि तुम जान लो कि तुम चक्र नहीं हो। तुम धुरी हो, चक्र नहीं।

तीसरा प्रश्न :

 

मनुष्य जैसा है वैसे में क्या यह उसके लिए कठिन नहीं है कि वह आसक्‍ति के बिना और उससे होने वाली चिंता और निराशा के बिना परिवर्तन को परिवर्तन से, काम को काम से विसर्जित करे?

नुष्य जैसा है वह यह कर सकता है। मनुष्य जैसा है वैसे मनुष्य के लिए ही यह उपाय है, विधि है। तंत्र औषधि है—तुम्हारे लिए, उनके लिए जो रुग्ण हैं। ऐसा मत सोचो कि तंत्र तुम्हारे लिए नहीं है। यह तुम्हारे लिए है, और तुम यह कर सकते हो। लेकिन तुम्हें समझना होगा कि इसका क्या अर्थ है जब तुम कहते हो कि आसक्ति में पड़ने की संभावना है और उसके परिणाम में निराशा हाथ आएगी। तब तुम नहीं समझे।’परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो’ का अर्थ यह है कि यदि आसक्ति आती है तो उससे लड़ों मत, आसक्त रहो, लेकिन साक्षी भी बने रहो। आसक्ति को अपनी जगह रहने दो, और उससे संघर्ष मत करो। तंत्र असंघर्ष की विधि है। लड़ो मत। निराशा निश्चित आएगी; तो निराश होओ। लेकिन साथ—साथ साक्षी भी रहो। तुम आसक्त थे और तुम साक्षी थे। अब निराशा आई है और तुम जानते हो कि इसे आना ही था। अब निराश होओ, लेकिन साक्षी भी रहो। तब आसक्ति से आसक्ति विसर्जित हो जाती है, और निराशा से निराशा विसर्जित हो जाती है।

जब तुम दुखी हो तो इसका प्रयोग करो। दुखी होओ; दुख से लड़ो मत। इसे प्रयोग करो; यह अदभुत विधि है। जब दुख आए और तुम दुखी हो जाओ, तुम्हें पीड़ा अनुभव हो; तो तुम अपने द्वार—दरवाजे बंद कर लो और दुखी हो जाओ। अब और क्या कर सकते हो? तुम दुखी हो, तो तुम दुखी हो। अब पूरी तरह दुखी हो जाओ। और अचानक तुम्हें दुख का बोध होगा। लेकिन अगर तुम दुख को बदलने की कोशिश करोगे तो तुम्हें कभी दुख का बोध नहीं होगा। क्योंकि तब तुम्हारी चेतना, तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारा प्रयत्न, सब दुख को बदलने की दिशा में नियोजित हो जाएगा। तब तुम सोचने लगोगे कि यह दुख कैसे आया और इसे बदलने के लिए क्या किया जाए। और तुम एक बहुत सुंदर अनुभव से वंचित हो रहे हो, दुख को सीधे देखने से वंचित हो रहे हो। अब तुम दुख के कारणों पर विचार कर रहे हो, उसके परिणाम पर विचार कर रहे हो, उसे भूलने के उपाय खोज रहे हो, उससे छूटने के तरीके निकालने में लगे हो। तुम खुद दुख को चूक रहे हो जो कि वहा मौजूद है और जिसे सीधे देख लेना मुक्तिदायी हो सकता है।

कुछ मत करो। दुख कैसे पैदा हुआ, इसका विश्लेषण मत करो। और इसकी भी फिक्र मत करो कि इसके क्‍या—क्‍या परिणाम होंगे। परिणाम जब आएंगे तब उन्‍हें देख लेना। जल्‍दी क्या है? अभी दुखी होओ, सिर्फ दुखी होओ। और उसे बदलने की चेष्टा मत करो।

इस तरह प्रयोग करो : देखो कि कितने मिनट तक तुम दुखी रह सकते हो। तब तुम्हें पूरी चीज पर हंसी आएगी; पूरी चीज मूढ़तापूर्ण मालूम पडेगी। क्योंकि अगर तुम समग्रत: दुखी हो जाओ तो अचानक तुम्हारा केंद्र दुख के पार हो जाएगा। वह केंद्र कभी दुखी नहीं हो सकता; यह असंभव है। अगर तुम दुख के साथ बने रहे तो दुख पृष्ठभूमि बन जाता है और तुम्हारा केंद्र, जो कभी दुखी नहीं हो सकता, अचानक उभर आता है। और तब तुम दुखी हो और दुखी नहीं भी हों—असमता में समभाव। अब तुम दुख को दुख से विसर्जित कर रहे हो। यही इसका अर्थ है। तुम और कुछ नहीं करते हो; तुम सिर्फ दुख से दुख का विसर्जन कर रहे हो। दुख ऐसे ही विलीन हो जाएगा जैसे आकाश से बादल विलीन हो जाते हैं और आकाश खुल जाता है। तब तुम हंसोगे। और तुमने कुछ किया भी नहीं। और तुम कुछ कर भी नहीं सकते हो।

तुम जो भी करोगे उससे उलझन बढ़ेगी, दुख बढ़ेगा। किसने यह दुख पैदा किया है? तुमने। और अब तुम ही उसे बदलने की कोशिश कर रहे हो। उससे दुख बदतर हो जाएगा। तुम ही दुख के निर्माता हो, तुमने ही उसे पैदा किया है, तुम ही उसके स्रोत हो। और अब स्रोत ही प्रयत्न कर रहा है। तुम क्या कर सकते हो? अब रोगी अपना ही इलाज कर रहा है, जिसने सारा रोग खड़ा किया है। अब वह शल्य—चिकित्सा की सोच रहा है, वह आत्मघात होगा।

कुछ मत करो। अंतस बहुत गहरा है। कितनी बार तुमने कोशिश नहीं की कि दुख रुके, कि उदासी रुके, कि यह रुके, वह रुके, और कुछ भी नहीं रुका। अब यह प्रयोग करो कि कुछ मत करो और दुख को उसकी समग्रता में होने दो। दुख को उसकी पूरी त्वरा में होने दो और तुम निष्‍क्रिय बने रहो। तुम सिर्फ दुख के साथ रहो और देखो कि क्या होता है।

जीवन परिवर्तन है। हिमालय भी बदल रहा है। तुम्हारा दुख अचल नहीं रह सकता; वह अपने आप ही बदलेगा। और तुम दुख को बदलते हुए देखोगे, उसे विलीन होते हुए देखोगे, उसे विदा होते हुए देखोगे, और तब तुम निर्भार महसूस करोगे। और तुमने कुछ भी तो नहीं किया!

एक बार तुम्हें कुंजी हाथ लग जाए तो तुम किसी भी चीज का विसर्जन उसी चीज के द्वारा कर सकते हो। और कुंजी यह है कि बिना कुछ किए शांतिपूर्वक उसके साथ रहना। क्रोध है तो क्रोध ही हो जाओ; कुछ करो मत। अगर तुम इतना ही कर सके—यह न करना कर सके—अगर तुम मात्र साक्षी के रूप में उपस्थित रह सके, अगर तुमने कुछ बदलने का प्रयत्न नहीं किया और चीजों को अपनी राह जाने दिया, तो तुम किसी भी चीज का विसर्जन कर सकते हो। तुम किसी भी चीज का निरसन कर सकते हो।

अंतिम प्रश्न :

 

तंत्र कहता है कि जीवन की नदी के साथ संघर्ष मत करो, तैरो नहीं; बल्कि उसकी धारा में अपने को छोड़ दो और बहो। लेकिन अनुभव कहता है कि अति यंत्रीकरण और भाग—दौड़ से भरा आधुनिक शहरी जीवन शारीरिक और मानसिक तलों पर निरंतर तनाव और थकान पैदा करता है। इसके प्रति तंत्र की क्‍या दृष्‍टि है? क्‍या अनावश्‍यक भाग—दौड़ से बचना अच्‍छा नहीं है?

जीवन सदा ही ऐसा रहा है—चाहे आधुनिक हो या आदिम। उसमें तनाव हैं, चिंताएं हैं। विषय बदल जाते हैं, लेकिन आदमी वही का वही रहता है। दो हजार साल पहले तुम बैलगाड़ी चलाते थे, अब तुम कार चला रहे हो, लेकिन चालक वही है। बैलगाड़ी बदल गई, चीजें बदल गईं; तुम कार चला रहे हो। लेकिन चालक नहीं बदला है, वह वही है। वह अपनी बैलगाड़ी के लिए चिंतित था, तनावग्रस्त था; अब तुम अपनी कार के लिए चिंतित हो, तनावग्रस्त हो। विषय बदल जाते हैं, लेकिन मन वही रहता है।

तो ऐसा मत सोचो कि आधुनिक जीवन के कारण तुम इतने चिंताग्रस्त हो। उसका कारण तुम हो, आधुनिक जीवन नहीं। और तुम कहीं भी, किसी भी सभ्यता में चिंतित ही रहोगे। कुछ दिन के लिए, दो—तीन दिन के लिए तुम गांव चले जाओ। कुछ समय वहा तुम्हें अच्छा लगेगा, क्योंकि रोगों को भी समायोजित होना पड़ता है। तीन दिन के भीतर तुम गांव के साथ समायोजित हो जाओगे, और तब चिंताएं फिर सिर उठाने लगेंगी, उपद्रव फिर खड़े होने लगेंगे। अब कारण तो वही नहीं रहे, लेकिन तुम वही हो।

कभी—कभी ऐसा होता है कि तुम शहर के यातायात के कारण, शोरगुल के कारण परेशान हो जाते हो, और कहते हो कि इतनी भीड़भाड़ और शोरगुल के कारण मुझे रात में नींद नहीं आ पाती। तो गांव चले जाओ, और वहां भी नींद नहीं आएगी, क्योंकि वहा भीड़भाड़ नहीं है, शोरगुल नहीं है। तुम्हें शहर लौट आना पड़ेगा, क्योंकि गांव मुर्दा मालूम पड़ता है, उसमें जीवन नहीं है।

लोग मुझे अक्सर अपने ऐसे अनुभव सुनाते हैं। मैंने एक मित्र को काश्मीर जाने को, पहलगांव जाने को कहा। उसने लौटकर मुझे बताया कि वहां की जिंदगी बहुत नीरस है, वहां जिंदगी ही नहीं है। तुम वहां एक—दो दिन पहाडियों और घाटियों का आनंद लोगे, और उसके बाद ऊब जाओगे। वह आदमी मुझे कहा करता था कि शहर की जिंदगी में मेरा सिर चकराने लगता है, और वही अब कहता है कि वे पहाड़ ऊब पैदा करने लगे और मैं घर लौट आने के लिए आतुर हो उठा।

तुम समस्या हो, काश्मीर कोई मदद नहीं कर सकेगा। बंबई या लंदन या न्यूयार्क तुम्हें नहीं बेचैन करते हैं; बेचैनी का कारण तुम हो। लंदन ने तुम्हें नहीं बनाया; तुमने लंदन को बनाया है। यह यातायात, यह शोरगुल, यह पागल भाग—दौड़, सब तुम्हारी निर्मिति हैं; तुम जैसे लोगों की कृतियां हैं। देखो, कारण तुम्हारे भीतर है। ऐसा नहीं है कि तुम शोरगुल के कारण तनावग्रस्त हो; तुम्हारे तनावग्रस्त होने के कारण शोरगुल है; तुम उसके बिना नहीं रह सकते। तुम्हें उसकी जरूरत है, तुम उसके बिना नहीं जी सकते।

और गांवों में लोग अलग दुखी हैं। वे बंबई या न्यूयार्क या लंदन भागने को आतुर हैं। जैसे ही उन्हें मौका मिलता है, वे भागते हैं। और मैं उन लोगों को भी सुनता रहा हूं जो गांव के सुंदर जीवन की चर्चा करते रहते हैं; लेकिन वे किसी गांव में जाकर नहीं रहते। वे कभी वहां जाकर रहने को राजी नहीं हैं; लेकिन वे गांव की बातें बहुत करते हैं। तुम्हें कौन रोकता है? जाते क्‍यों नहीं? जंगल चले जाओ; कौन रोकता है?

तुम्हें वह पसंद नहीं आएगा; तुम पसंद नहीं कर सकते। शुरू के कुछ दिन वह तुम्हें अच्छा लगेगा—बदलाहट के कारण। और फिर? फिर तुम ऊब जाओगे। तुम्हें सब फीका—फीका मालूम पड़ेगा; तुम वहां से भागना चाहोगे।

नगर का जीवन तुम्हारे विक्षिप्त मन ने निर्मित किया है। तुम इन नगरों के कारण पागल नहीं हो रहे हो; तुम्हारे पागल मन के कारण ये नगर बने हैं। वे तुम्हारे लिए बने हैं। तुमने उन्हें बनाया है, और वे तुम्हारे लिए हैं। और जब तक यह पागल मन नहीं बदलता है, ये नगर विदा नहीं होंगे। ये रहेंगे; ये तुम्हारी उप—उत्पत्ति हैं।

एक बात स्मरण रहे : जब भी तुम्हें लगे कि कोई चीज गलत है तो पहले उसका कारण अपने भीतर खोजो, और कहीं मत जाओ। सौ में निन्यानबे मौकों पर तुम्हें अपने भीतर ही कारण मिल जाएगा। और जब सौ में निन्यानबे कारण तुम्हारे भीतर होंगे तो सौवां कारण अपने आप ही विदा हो जाएगा। तुम्हें जो कुछ होता है उसका कारण तुम स्वयं हो। तुम कारण हो; संसार तो बस दर्पण है।

लेकिन कहीं और कारण की खोज से सांत्वना मिलती है; तब तुम अपराध अनुभव नहीं करते, तब तुम आत्मनिंदा अनुभव नहीं करते। तुम सदा कह सकते हो कि यह रहा कारण, और जब तक कारण नहीं बदलता, मैं कैसे बदल सकता हूं! तुम कारण के पीछे अपने को छिपा लोगे। यह चालबाजी है। इसीलिए तुम्हारा मन कारण को और कहीं प्रक्षेपित करता रहता है। पत्नी पति के कारण परेशान है। मां बच्चों के कारण परेशान है। बच्चे पिता के कारण परेशान हैं। हर एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के कारण परेशान है। और हर एक व्यक्ति सदा यही सोचता है कि कारण बाहर है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक सड़क से गुजर रहा था। शाम का समय था और अंधेरा उतर रहा था। अचानक उसे बोध हुआ कि सड़क बिलकुल सूनी है, कहीं कोई नहीं है। और वह भयभीत हो उठा। तभी उसे सामने से लोगों का एक झुंड आता दिखाई पड़ा। उसने चोरों, डाकुओं और हत्यारों के बारे में पढ़ रखा था। बस उसने भय पैदा कर लिया और भय से कांपने लगा। उसने सोच लिया कि ये डकैत और खूनी लोग आ रहे हैं, और वे उसे मार डालेंगे। तो इनसे कैसे जान बचाई जाए? उसने सब तरफ देखा।

पास में ही एक कब्रिस्तान था। मुल्ला उसकी दीवार लांघकर भीतर चला गया। वहा उसे एक ताजी खुदी कब मिल गई जो किसी के लिए उसी दिन खोदी गई थी। उसने सोचा कि इसी कब में मृत होकर पड़े रहना अच्छा है। उन्हें लगेगा कि कोई मुर्दा पड़ा है; मारने की जरूरत नहीं है। और मुल्ला कब में लेट गया।

वह भीड़ एक बरात थी, डाकुओं का गिरोह नहीं। बरात के लोगों ने भी मुल्ला को कापते और कूदते देख लिया था। वे भी डरे और सोचने लगे कि क्या बात है और यह आदमी कौन है? उन्हें लगा कि यह कोई उपद्रव कर सकता है, और इसी इरादे से यहां छिपा है। पूरी बरात वहा रुक गई और उसके लोग भी दीवार लांघकर भीतर गए।

मुल्ला तो बहुत डर गया। बरात के लोग उसके चारों तरफ इकट्ठे हो गए और उन्होंने पूछा: ‘तुम यहां क्या कर रहे हो? इस कब में क्यों पड़े हो?’ मुल्ला ने कहा: ‘तुम बहुत कठिन सवाल पूछ रहे हो। मैं तुम्हारे कारण यहां हूं और तुम मेरे कारण यहां हो।’

और यही सब जगह हो रहा है। तुम किसी दूसरे के कारण परेशान हो, दूसरा तुम्‍हारे कारण परेशान है। और तुम खुद अपने चारों ओर सब कुछ निर्मित करते हो, प्रक्षपित करते हो। और फिर खुद ही भयभीत होते हो, आतंकित होते हो, और अपनी सुरक्षा के उपाय करते हो। और तब दुख और निराशा होती है, द्वंद्व और विषाद पकड़ता है; कलह होती है। पूरी बात ही मूढ़तापूर्ण है; और यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक तुम्हारी दृष्टि नहीं बदलती। सदा पहले अपने भीतर कारण की खोज करो। यातायात का शोरगुल तुम्हें कैसे परेशान कर सकता है? कैसे? अगर तुम उसके विरोध में हो तो ही वह तुम्हें परेशान करेगा। अगर तुम्हारी धारणा है कि उससे परेशानी होगी तो परेशानी होगी। लेकिन अगर तुम उसे स्वीकार कर लो, अगर तुम बिना कोई प्रतिक्रिया किए उसे होने दो, तो तुम उसका आनंद भी ले सकते हो। उसका अपना राग है, अपना संगीत है। तुमने उसे नहीं सुना है, इसका यह अर्थ नहीं है कि उसका अपना संगीत नहीं है।

किसी दिन अपने को भूल जाओ और यातायात के शोरगुल को सुनो। सिर्फ सुनो, अपनी धारणाओं को बीच में मत लाओ कि यह परेशान करता है, कि यह अच्छा नहीं है। अपनी पसंद—नापसंद को बीच में मत लाओ, बस सुनो। शुरू—शुरू में वह अराजक मालूम पड़ेगा—वह भी मन के कारण। अगर तुम पूरी तरह विश्रामपूर्ण हो सके तो देर—अबेर सब कुछ लयबद्ध हो जाएगा और सड़क का शोरगुल भी संगीत बन जाएगा। तब तुम उसका आनंद ले सकते हो, तुम उसकी धुन पर नाच भी सकते हो।

तो यह तुम पर निर्भर है। कुछ भी परेशान नहीं करता है; अगर तुम्हारा यह खयाल न हो कि वह परेशान करता है। उदाहरण के लिए मैं तुम्हें बताऊंगा कि कैसे केवल धारणाओं के चलते मनुष्यता अनेक चीजों से पीड़ित रही है। और जब धारणा बदल जाती है तो चीजें वही रहती हैं, लेकिन अब वे पीड़ित नहीं करतीं।

उदाहरण के लिए, हस्तमैथुन से सारी दुनिया पीड़ित थी। अभी आधी सदी पहले तक सारी दुनिया हस्तमैथुन के कारण परेशान थी। शिक्षक परेशान थे; मां—बाप परेशान थे; बच्चे परेशान थे। और अभी भी, पृथ्वी का जो बड़ा हिस्सा अशिक्षित है, वहा हस्तमैथुन परेशानी का कारण बना हुआ है। फिर शरीर—शास्त्रियों और मनसविदों ने खोज की कि हस्तमैथुन से परेशान होने का कोई कारण नहीं है। उन्होंने कहा कि हस्तमैथुन स्वाभाविक है और उसमें कुछ दोष नहीं है; यह बिलकुल निर्दोष और निरापद है।

लेकिन पुरानी शिक्षा कहती थी कि हस्तमैथुन के कारण आदमी पागल हो जाता है। वह हर एक चीज को हस्तमैथुन के साथ जोड देती थी। और करीब—करीब हर एक लड़का हस्तमैथुन करता था, और डरा—डरा रहता था। वह हस्तमैथुन करता था और डरा रहता था कि अब मैं पागल हो जाऊंगा; हीन, विक्षिप्त और बीमार हो जाऊंगा। वह सोचता था कि मेरा जीवन व्यर्थ हो गया। और वह अपने को रोक भी नहीं पाता था। और ये धारणाएं उसके सिर में घुसकर दुष्परिणाम लाती थीं। अनेक लोग पागल हो जाते थे; अनेक लोग हीन—भाव तथा मूढ़ता के शिकार हो जाते थे। और हस्तमैथुन से कुछ लेना—देना नही है।

आधुनिक शोध तो कहती है कि हस्तमैथुन स्वस्थ चीज है। चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि यह अच्‍छी चीज है। क्‍योंकि तेरह—चौदह वर्ष का होने पर लड़का और बारह—तेरह वर्ष की होने पर लडकी कामवासना की दृष्टि से प्रौढ़ हो जाती है। अगर प्रकृति की सुनी जाए तो इसी उम्र में लड़के—लड़कियों का विवाह हो जाना चाहिए। वे संतान पैदा करने के योग्य हो गए हैं। लेकिन सभ्यता अपनी जरूरत के अनुसार उन्हें कोई बीस—पच्चीस की उम्र तक विवाह की इजाजत नहीं देती है। और चिकित्सा—शास्त्र कहता है कि चौदह से बीस वर्ष के बीच का समय—ये छह साल—कामवासना की दृष्टि से सर्वाधिक पुंसत्व— भरा, सर्वाधिक बलशाली समय है। एक लड़के में जितना पुंसत्व उस समय होता है उतना फिर कभी नहीं होता। उसकी ऊर्जा उफान पर होती है; उसका सारा शरीर कामुक विस्फोट बन जाना चाहता है।

लेकिन समाज उसकी इजाजत नहीं देता; वह उस पर अंकुश लगाता है। ऊर्जा प्रबल है, और बच्चा कुछ नहीं कर सकता। और वह जो कुछ करेगा, सामाजिक विश्वासों के कारण उसके दुष्परिणाम होंगे। वह समझेगा कि मुझसे भूल हो रही है, उसे अपराध— भाव सताएगा। और यह अपराध— भाव छाया की तरह उसका पीछा करेगा। उसे अनेक रोग भी हो सकते हैं—कृत्य के कारण नहीं, सिर्फ धारणा के कारण।

चिकित्सा—शास्त्र कहता है कि हस्तमैथुन स्वस्थ है, क्योंकि उससे लड़के को अनावश्यक ऊर्जा से राहत मिल जाती है; अन्यथा समस्याएं पैदा हो सकती हैं। अत: यह स्वस्थ चीज है। अब तो पश्चिम में, खास कर अमेरिका, इंगलैंड तथा दूसरे विकसित देशों में जो कि शरीर—विज्ञान में ज्यादा विकसित हैं, हस्तमैथुन का प्रचार किया जाता है। ऐसी फिल्में हैं जो बच्चों को सिखाती हैं कि हस्तमैथुन कैसे किया जाए। और देर—अबेर हर एक शिक्षक विद्यार्थियों को बताएगा कि सही ढंग से हस्तमैथुन कैसे किया जाता है। तो अब वे कहते हैं कि यह स्वस्थ है। और जो लोग ऐसा मानते हैं उन्हें यह स्वस्थ लगता भी है।

मेरी दृष्टि में यह न स्वस्थ है और न अस्वस्थ। धारणा असली चीज है। अगर इसे स्वस्थ माना जाए और इस धारणा को बल दिया जाए तो यह स्वस्थ हो जाएगा। अब पश्चिम में वे कहते हैं कि हस्तमैथुन से बुद्धि को कतई क्षति नहीं पहुंचती है। वे यहां तक कहते हैं कि जितनी ज्यादा बुद्धि उतना ज्यादा हस्तमैथुन। तो जो लड़का हस्तमैथुन करता है उसका बुद्धि—अंक उस लड़के से ज्यादा होगा जो हस्तमैथुन नहीं करता है।

और उनके ऐसा कहने का कारण है; क्योंकि लड़के के लिए हस्तमैथुन खोज निकालना उसकी बुद्धि की पहचान है; उसने एक रास्ता तो निकाला! समाज ने विवाह का दरवाजा बंद कर दिया है और प्रकृति है कि काम—ऊर्जा को धक्के मार रही है। बुद्धिमान लड़का रास्ता ढूंढ लेगा और मूढ़ अवरुद्ध रहेगा, कुंठा में फंसेगा। नया अध्ययन कहता है कि जो लड़के हस्तमैथुन करते हैं वे ज्यादा बुद्धिमान हैं। अगर यह धारणा फैली—और देर—अबेर यह धारणा सारे जगत में फैलेगी—तो हस्तमैथुन स्वास्थ्यप्रद हो जाएगा; और उससे लोग स्वस्थ अनुभव करेंगे।

अभी तो मां—बाप भयभीत हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि उन्होंने अपनी युवावस्था में क्या किया था। जब कोई लड़का किशोरावस्था में प्रवेश करने लगता है तो उसके मां—बाप चिंतित हो जाते हैं और ताक—झांक करने लगते हैं कि लड़का क्या करता है। उन्हें डर है कि वह

हस्तमैथुन तो नहीं करता है! और यदि लड़का ऐसा करता पाया जाता है तो वे उसे सजा देते हैं। लेकिन नया विज्ञान कहता है कि लड़के को सजा मत दो, बल्कि उसे हस्तमैथुन की शिक्षा दो। यदि वह हस्तमैथुन नहीं करता है तो उसे डाक्टर के पास ले जाओ और पता लगाओ कि क्या गडबडी है।

अगर यह नया ज्ञान फैलेगा तो यही होगा। लेकिन दोनों धारणाएं हैं, दोनों दृष्टियां हैं। और जब कोई लड़का हस्तमैथुन करता है तो उस क्षण में वह बहुत खुला हुआ और ग्रहणशील हो जाता है, उसका मन शात हो जाता है, क्योंकि इस क्षण में उसकी काम—ऊर्जा स्‍खलित हो रही है। इस समय जो भी सुझाव, जो भी विचार उसे दिया जाएगा, वह उस पर प्रभावी हो जाएगा। अगर तुम उसे कहोगे कि इसके कारण तुम बीमार हो जाओगे तो वह बीमार हो जाएगा। अगर तुम कहोगे कि इसके कारण तुम स्वस्थ होओगे तो वह स्वस्थ हो जाएगा। और अगर तुम उसे कहोगे कि हस्तमैथुन करने से तुम जिंदगी भर के लिए मूढ़ हो जाओगे तो वह सचमुच मूढ़ रह जाएगा। और यदि कोई उसे कहेगा कि हस्तमैथुन बुद्धि का लक्षण है तो उसका बुद्धि—अंक सचमुच बढ़ जाएगा। ऐसा होता है, क्योंकि बहुत ग्रहणशील क्षण में तुम उसे सुझाव दे रहे हो। तुम जो भी सोचते हो, वह घटित होने लगता है।

बुद्ध ने कहा है कि हर एक विचार यथार्थ हो जाता है, इसलिए सजग रहो।

अगर तुम सोचते हो कि सड़क का शोरगुल परेशान करता है तो वह तुम्हें जरूर परेशान करेगा, क्योंकि तुम परेशान होने को तैयार ही बैठे हो। अगर तुम सोचते हो कि पारिवारिक जीवन बंधन है तो वह तुम्हारे लिए बंधन हो जाएगा; तुम उसके लिए राजी ही हो। और अगर तुम सोचते हो कि गरीबी तुम्हें मुक्त होने में सहयोगी होगी तो वह सहयोगी होगी। अंततः तुम स्वयं ही अपने चारों ओर का संसार निर्मित करते हो; तुम जो भी सोचते हो वह तुम्हारा परिवेश बन जाता है और तुम उसमें ही जीते हो।

तंत्र कहता है, इस कारण को सदा स्मरण रखो, कारण सदा तुम्हारे भीतर है। और यदि तुम यह जान लो तो फिर तुम कारण नहीं बनोगे, फिर तुम अपने लिए कोई नया बंधन नहीं गढ़ोगे। और जो कारण गढ़ना बंद कर देता है वह मुक्त हो जाता है। तब न वह दुख में होता है और न आनंद में होता है। आनंद तुम्हारा सृजन है और दुख भी तुम्हारा सृजन है। तुम अपने दुख को आनंद में बदल सकते हो, क्योंकि वह तुम्हारा सृजन है। बुद्ध पुरुष न दुख में होते हैं और न आनंद में, क्योंकि वे कार्य—कारण से बाहर हो गए हैं। वे सिर्फ हैं।

इसीलिए बुद्ध कभी यह नहीं कहते कि आत्मोपलब्ध व्यक्ति आनंदित है। जब भी कोई उनसे पूछता कि बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति कैसा होता है? क्या वह परम आनंद में होता है? तो बुद्ध हंसते और कहते. ‘यह मत पूछो। मैं इतना ही कह सकता हूं कि वह दुख में नहीं होता। इससे ज्यादा मैं नहीं कह सकता, यही कह सकता हूं कि वह दुख में नहीं होता।’

बुद्ध का निषेध पर इतना जोर क्यों था? क्योंकि बुद्ध जानते हैं। जब तुम जान गए कि तुम ही अपने दुख का कारण हो तो तुम यह भी जान गए कि आनंद भी तुम्हारा ही कृत्य है। तब तुम कारण बनना छोड़ देते हो, कुछ भी करना छोड़ देते हो। इसे ही निर्वाण कहते हैं: अपने आस—पास समस्त कार्य—कारण का विसर्जन। तब तुम मात्र हो—न दुख, न आनंद। अगर तुम समझ सको तो यही आनंद है। न कोई दुख है, न आनंद; क्योंकि यदि आनंद है तो दुख भी रहेगा। तुम अभी भी कुछ पैदा कर रहे हो। और अगर तुम आनंद पैदा कर सकते हो तो दुःख भी पैदा कर सकते हो।

और तुम आनंद से भी ऊब जाओगे। कितनी देर सह सकोगे? कितनी देर? क्या तुमने कभी इस पर विचार किया है? यदि चौबीस घंटे आनंद के ही हों तो क्या तुम उसे झेल सकोगे? तुम बोर हो जाओगे, और ऐसे शिक्षक की तलाश में निकलोगे जो तुम्हें फिर से दुखी होना सिखाए।

मैं नहीं सोचता कि यदि सारा संसार आनंदित हो जाए तो फिर शिक्षक नहीं रहेंगे। शिक्षक रहेंगे, क्योंकि तब लोगों को दुख की जरूरत होगी। तब कोई यह बताने वाला जरूरी हो जाएगा कि कैसे फिर से दुखी हुआ जाए। सिर्फ थोड़ी बदलाहट के लिए दुख जरूरी हो जाएगा। उसके बाद तुम फिर आनंद में लौट सकते हो। और तब आनंद की अनुभूति बढ़ जाएगी, क्योंकि खोने के बाद ही तुम्हारी आनंद की अनुभूति प्रगाढ़ होती है। तो शिक्षक तो रहेंगे। अभी वे सुखी होना सिखाते हैं; तब वे दुखी होना सिखाएंगे; सिखाएंगे कि नरक का स्वाद कैसे लिया जाए। थोड़ी सी बदलाहट सहयोगी होगी, अच्छी होगी।

लेकिन तुम ही कारण हो। और तुम उसी क्षण बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओगे जिस क्षण जान लोगे कि जिस संसार में तुम रहते हो वह तुम्हारा ही बनाया हुआ है। अब तुम उसे नहीं बनाओगे, और वह विलीन हो जाएगा। यातायात जारी रहेगा, शोरगुल जारी रहेगा, सब कुछ वैसा ही रहेगा जैसा है, लेकिन तुम नहीं रहोगे। क्योंकि कारण के साथ ही तुम भी विदा हो जाओगे।

आज इतना ही।



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गुरू प्रताप साध की संगति–(प्रवचन–6)

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पुकार जागने की—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 मई, 1979;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—भगवान! कहते हैं कि अस्तित्व हमेशा विकासमान है। क्या यह नियम बुद्धपुरुषों पर भी लागू है? जैसा कि बुद्ध और महावीर ने चुपचाप लोगों के पत्थर और अन्यायों को सहा। मुहम्मद ने हाथ में तलवार लेकर उनका सामना किया। आप तो हाथ में कोई अस्त्र नहीं लेते, परंतु अन्यायों का सामना और भी ठीक ढंग से करने की व्यवस्था की है।

जैसे ही मैं आप में डूबता हूं वैसे ही प्रतीति होती है कि मनुष्य की चेतना को ऊपर उठाने के लिए जिस व्यापकता से आप प्रयत्नशील हैं, वैसा अतीत के किसी बुद्धपुरुष ने नहीं किया होगा!

2—भगवान! क्या भाग्य को मानना हर स्थिति में बुरा है?

3—भगवान! जब भी यहां आती हूं, संन्यास के वस्त्र पहनकर आने का भाव होता है। कोशिश करती हूं लेकिन कोशिश निष्फल जाती है; घर के लोग राजी नहीं होते। इस बार भी घर में समझाया, तड़पी, किसी ने न सुना तो यहां चली आई।

मैं जानती हूं, मैं निर्बल हूं, मुझमें साहस की कमी है। मगर हमेशा आपके पास आने की अभीप्सा दिल में रहती है। संन्यास तो ले लिया लेकिन संन्यास के वस्त्र परिवार के कारण नहीं पहन पाती हूं। मेरा पूरा संन्यास कब होगा ? किससे जानूं—जो कर रही हूं, वह ठीक है या नहीं? क्या मैं आपको चूक जाऊंगी? कृपया कुछ बताएं।

अगर मैं कुछ छिपाती हूं तो वह भी बताइए तो मैं अपने को जान सकूं।

4—भगवान! लगता है कि मैं आपके प्रेम में पड़ गया हूं और बड़ी उलझन में भी। आपकी बातें ठीक लगती हैं; सुनते ही आनंद-अश्रु बहने लगते हैं। लेकिन वे मेरे सारे संस्कारों के विपरीत हैं, इसलिए मैं उन्हें रोक लेता हूं। अब आपकी मानूं तो मुश्किल, न मानूं तो मुश्किल !

5—भगवान! क्या साधारणजन कभी आपको समझ पाएंगे?

 

पहला प्रश्न :

 

भगवान! कहते हैं कि अस्तित्व हमेशा विकासमान है। क्या यह नियम बुद्धपुरुषों पर भी लागू है? जैसा कि बुद्ध और महावीर ने चुपचाप लोगों के पत्थर और अन्यायों को सहा। मुहम्मद ने हाथ में तलवार लेकर उनका सामना किया। आप तो हाथ में कोई अस्त्र नहीं लेते, परंतु अन्यायों का सामना और भी ठीक ढंग से करने की व्यवस्था की है।

जैसे ही मैं आप में डूबता हूं वैसे ही प्रतीति होती है कि मनुष्य की चेतना को ऊपर उठाने के लिए जिस व्यापकता से आप प्रयत्नशील हैं, वैसा अतीत के किसी बुद्धपुरुष ने नहीं किया होगा!

 

त्य निरंजन! अस्तित्व विकास है लेकिन बुद्धत्व का कोई विकास नहीं होता। बुद्धत्व का तो अर्थ ही है कि विकास की चरम अवस्था; उसके पार फिर कुछ और शेष नहीं। बुद्धत्व अर्थात् मंजिल; पहुंचना हो गया। महावीर, बुद्ध, कृष्ण मुहम्मद, जीसस, नानक, कबीर, भीखा इनमें कोई आगे-पीछे नहीं है, कोई छोटा-बड़ा नहीं है—ये सब समान रूप से बुद्धत्व को उपलब्ध हैं। बुद्धत्व घटता है तो खंडों में नहीं घटता, अंशों में नहीं घटता; जब भी घटता है तो परिपूर्ण होता है, पूरा होता है—आधा नहीं होता, कम-ज्यादा नहीं होता। लेकिन फिर भी कृष्ण के वचनों, महावीर के वचनों, मुहम्मद के वचनों और नानक के वचनों में भेद है। भेद अभिव्यक्ति का है, अनुभूति का नहीं। उनके आचरण, उनके व्यवहार में भेद है—उनकी आत्मा में नहीं। आचरण, व्यवहार, अभिव्यक्ति समाज पर निर्भर होते हैं, और समाज विकासमान है।

मुहम्मद को तलवार हाथ में लेनी पड़ी क्योंकि जिन लोगों के बीच मुहम्मद थे, वे लोग जंगली थे, खूंखार थे। उनके बीच बिना तलवार लिए मुहम्मद अपना संदेश पहुंचा ही न सकते थे। बिना तलवार की छाया में कुरान के गीत गाए ही नहीं जा सकते थे। महावीर भी अरब में पैदा होते तो तलवार हाथ में लेनी पड़ती। लेकिन अगर मुहम्मद महावीर के समय भारत में पैदा हुए होते तो उन्होंने भी पत्थर चुपचाप सह लिए होते—एक और समाज था, एक और ढंग का समाज था, और तरह के लोग थे, और तरह की संस्कृति थी।

कल ही मैं एक सूफी कहानी पढ़ रहा था। मुहम्मद के जमाने की कहानी है। मुहम्मद का एक भक्त, एक सूफी, कुरान की आयतें पढ़ रहा है। कुरान में आयत आती है—खाओ, पियो, मौज करो। पास में ही खड़े एक अरबी ने यह सुना—खाओ, पियो, मौज करो। उसने उठाकर एक डंडा सूफी के सिर पर मार दिया। लेकिन सूफी ने इसकी कोई चिंता न की, वह कुरान की आयत को आगे पढ़ता चला गया—खाओ, पियो, मौज करो और फिर नर्को में सड़ोगे। डंडे मारने वाले अरब ने कहा : अब अकल आई, अब समझ आई, डंडा खाकर समझ आई! उसे पता ही नहीं कि वह तो कुरान का ही आधा वचन था। वह तो सोच रहा है कि मेरे डंडा मारने के कारण अब इनको थोड़ी अकल आई, तो कुछ मतलब की बात कही, नहीं तो कह रहा था—खाओ, पियो, मौज करो।

जिन लोगों के बीच मुहम्मद को शिक्षा देनी पड़ी, उनके बीच न तो पहले कृष्ण हुए थे, न राम हुए थे, न महावीर हुए थे, न बुद्ध हुए थे। मुहम्मद को पहली ही बार जमीन तोड़नी पड़ी थी। जैसे कोई नई-नई पहाड़ी की जमीन को खेत में बदलने की चेष्टा करे तो पत्थर निकालकर फेंकने पड़ते हैं, कुदाली चलानी पड़ती है, जमीन को साफ करना पड़ता है—ऐसी ही जमीन में मुहम्मद को काम करना पड़ा। महावीर के पीछे कोई पांच हजार साल लंबा इतिहास था। उस पांच हजार साल में जमीन खूब तैयार की गई थी। खेत तैयार था, ज़रा-सा पानी सींचने की बात थी, ज़रा-से बीज डालने की बात थी।

इसलिए अभिव्यक्ति में भेद पड़ेगा, और आचरण में भेद पड़ेगा, और व्यवहार भिन्न होगा। लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि महावीर मुहम्मद से बड़े बुद्धपुरुष हैं; बुद्धत्व में बड़ा-छोटा कुछ भी नहीं होता। इससे तुम यह मत समझ लेना कि बुद्ध जीसस से बड़े और आगे पहुंचे हुए हैं; बुद्धत्व में कोई आगे नहीं होता, कोई पीछे नहीं होता। बुद्धत्व का अर्थ है, आ गई मंजिल, उपलब्धि हो गई; उसके बाद कोई विकास नहीं है। पूर्णता का क्या विकास? लेकिन फिर भी जैसे समय बदलेगा, लोग बदलेंगे, भाषा बदलेगी, लोगों के सोचने के ढंग बदलेंगे—वैसे-वैसे बुद्धों की अभिव्यक्ति बदलती जाएगी।

जो मैं कह रहा हूं, वह आज ही कहा जा सकता है, इसके पहले नहीं कहा जा सकता था। आज यहां हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, पारसी हैं, सिक्ख हैं, जैन, बौद्ध, यहूदी—आज दुनिया के सारे धर्मो के लोग यहां मेरे सामने मौजूद हैं। बुद्ध के सामने ऐसा नहीं था, सिर्फ हिंदुओं से बोलना पड़ रहा था, इसलिए एक तरह की अभिव्यक्ति थी। महावीर इतने धर्मो के लोगों से नहीं बोल रहे थे, इसीलिए अभिव्यक्ति में एकस्वरता है। मैं इतने लोगों से बोल रहा हूं कि मुझे पूरा सरगम उठाना होगा, मुझे सातों स्वर उठाने पड़ेंगे।

बुद्ध छोटे-से क्षेत्र बिहार में घूमते रहे, उससे बाहर नहीं गए। मुहम्मद अरब में रहे। जीसस का क्षेत्र तो और भी छोटा था, समय भी कम मिला जीसस को, केवल तीन वर्ष काम करने के लिए। मेरे लिए सारी दुनिया क्षेत्र है, करीब तीस देशों से लोग यहां हैं। मुझे तीस देशों की संस्कृति, सभ्यता, जीवन-पद्धति, जीवन-संस्कार इन सबको ध्यान में रखकर बोलना पड़ रहा है।

इसलिए जो बहुत उदार हैं, वे ही केवल मेरी बात को समझ सकेंगे। जो उदार नहीं हैं, अनुदार हैं, मतांध हैं, एक संप्रदाय, एक धारणा से बंधे हैं वे तो मुझसे नाराज हो जाएंगे। मैं किसी को भी राजी नहीं कर सकता क्योंकि मुझे औरों को भी ध्यान में रखना है। हिंदू चाहेंगे कि मैं सिर्फ वेद की, उपनिषद की, गीता की बात करूं; कुरान और बाइबिल को बीच में न लाऊं तो जरूर वे प्रसन्न होंगे। लेकिन यह समझौता मैं नहीं कर सकता। कुरान भी आएगी और बाइबिल भी आएगी और गुरु-ग्रंथ भी आएगा और धम्मपद भी आएगा। ईसाई चाहेंगे कि मैं सिर्फ ईसा पर ही बोलूं और किसी पर न बोलूं तो ईसाई राजी हो जाएंगे। लेकिन यह भी मैं नहीं कर सकता। जापान में हुए झेन फकीर मेरे लिए उतने ही अपने हैं जितने ईसा, और चीन में लाओत्सु और च्वांगत्सु और लीहत्सु मेरे उतने ही निकट हैं जितने बुद्ध, महावीर, कृष्ण, कबीर।

यह प्रयोग अनूठा है। लेकिन यह आज ही हो सकता था, इसके पहले नहीं हो सकता था। विज्ञान ने, विज्ञान से उत्पन्न टेक्नालाजी ने पृथ्वी को एक छोटा-सा गांव बना दिया है। पृथ्वी बहुत छोटी-सी हो गई है, लोग बहुत करीब आ गए। इतनी छोटी पृथ्वी, और लोगों का इतना करीब आना पहले नहीं हुआ था। पता ही नहीं था और लोगों का, और लोग भी हैं इससे कोई संबंध न था—अपना-अपना कुआं था, अपनी-अपनी भाषा थी।

इसलिए मुझसे हिंदू भी नाराज हो जाएगा, ईसाई भी नाराज हो जाएगा, जैन भी नाराज हो जाएगा—अगर नासमझ हुआ तो; अगर समझदार हुए तो तीनों मुझसे राजी होंगे, तीनों मुझसे प्रसन्न होंगे। इस बगिया में तो सारे फूल खिलेंगे। इस बगिया में किसी का तिरस्कार नहीं है। लेकिन जहां सारे फूल खिलेंगे वहां एक बात ख्याल रखनी जरूरी है कि किसी एक ही फूल की मानकर नहीं चला जा सकता। सारे फूलों के ढंग अलग हैं—चंपा का अपना रंग है अपना ढंग है और गुलाब का अपना रंग अपना ढंग। गुलाब को आरोपित नहीं किया जा सकता चंपा पर और चंपा को आरोपित नहीं किया जा सकता गुलाब पर। यहां किसी पर किसी का आरोपण नहीं होगा। यहां प्रत्येक को सुविधा मिलेगी उसके आत्मविकास की। इसलिए मैं सारी पद्धतियों पर बोल रहा हूं।

निश्चित ही सत्य निरंजन, ऐसा प्रयोग पहले कभी नहीं हुआ था लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि बुद्धों ने पहले ऐसा प्रयोग न करना चाहा होगा; करना भी चाहा हो तो भी करने का उपाय नहीं था। प्रत्येक चीज की श्रृंखला होती है। जैसे समझो, क्या तुम सोचते हो हवाई जहाज बन सकता है ऐसे देश में जहां बैलगाड़ी भी न बनी हो? असंभव। बैलगाड़ी हो, मोटरगाड़ी हो, रेलगाड़ी हो, तभी हवाई जहाज बन सकता है। क्या तुम सोचते हो जिस देश में हवाई जहाज भी न हो उसमें अंतरिक्ष-यान बन सकते हैं? यह असंभव है। हवाई जहाज का तकनीक अब अपनी परिपूर्णता पर पहुंचेगा तो अंतरिक्ष-यान बनेगा। जिस देश में रेलगाड़ियां न हों उस देश के लोग चांद पर नहीं पहुंच सकते। हालांकि रेलगाड़ियों से चांद पर नहीं जाया जाता लेकिन रेलगाड़ी उस श्रृंखला की कड़ी है जिसमें आगे चलकर हवाई जहाज बनेगा, अंतरिक्ष-यान बनेगा और आदमी चांद पर पहुंच सकेगा।

चांद पर तो आदमी हमेशा से पहुंचना चाहता था। शायद ही कोई समय ऐसा रहा हो जब आदमी चांद में उत्सुक नहीं था। चांद इतना प्यारा लगा है। चांद का आकर्षण गहरा है। सदियों से कवियों ने उसके गीत गाए हैं। और छोटे-छोटे बच्चों ने भी चांद को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाए हैं। लेकिन चांद पर पहुंचना आज संभव हो सका, इसके पहले संभव नहीं हो सका था। अब चांद पर पहुंचना संभव हुआ है तो आज नहीं कल हम दूसरे सौर परिवारों में भी प्रवेश कर जाएंगे। आज नहीं कल हम तारों पर भी पहुंच जाएंगे।

मगर यह एक क्रम है, सीढ़ी के सोपान होते हैं। बुद्ध भी चाहते थे कि सारी दुनिया उनकी बात समझ ले। जो वे कर सकते थे उन्होंने किया—गांव-गांव घूमे, बयालीस वर्ष सतत श्रम किया। मगर गांव-गांव घूमकर कितने गांव घूम सकते हो? गांव-गांव घूमकर कितने लोगों तक खबर पहुंचा सकते हो? रेडियो नहीं था, टेलीविजन नहीं था, अखबार नहीं थे, छापेखाने नहीं थे, तो गांव-गांव घूमना पड़ा।

लोग मुझसे पूछते हैं कि आप गांव-गांव क्यों नहीं घूमते? अगर मैं गांव-गांव घूमूं तो मैं पागल हूं। बुद्ध को घूमना पड़ा क्योंकि और कोई उपाय न था। मैं तो यहां एक जगह बैठकर सारी दुनिया से लोगों को बुला ले सकता हूं, जरूरत नहीं है गांव-गांव घूमने की। और गांव-गांव मैं घूमूं तो जो काम मैं एक जगह बैठकर कर सकता हूं, वह नहीं हो सकेगा।

लोग मुझसे पूछते हैं कि प्रचार की क्या आवश्यकता है? बुद्ध ने तो नहीं किया। तो बुद्ध बयालीस साल क्या करते रहे, मक्खियां मारते रहे? हां, अखबार में नहीं प्रचार किया क्योंकि अखबार नहीं थे। रेडियो और टेलीविजन और फिल्म नहीं बनाई क्योंकि नहीं बन सकती थी। बन सकती होती तो तुम जैसे बुद्धू नहीं थे कि नहीं बनाते। जो भी साधन उपलब्ध हो सकते थे सत्य को पहुंचाने के लिए उन्होंने उनका उपयोग किया। अपने शिष्यों को भेजा दूर-दूर तक।

आज विज्ञान ने बहुत साधन उपलब्ध कर दिए हैं। उन सारे साधनों का उपयोग किया जाना जरूरी है। और मनुष्य को एक बहुत बड़ी संपदा आज मिली है जो कभी नहीं मिल सकती थी पहले। यहूदी और ईसाई और जैन और बौद्ध इन सबने अलग-अलग, अपने-अपने देशों में, अपनी-अपनी धाराओं में,

अपने-अपने ढंग से, जीवन-सत्य को पाने के लिए विधियां खोजी थीं। आज हम सारी विधियों को साथ अनुभव कर सकते हैं, साथ समझ सकते हैं। आज सारी विधियों का निचोड़ निकाल सकते हैं। वही महत् कार्य यहां हो रहा है। यहां सूफियों का नृत्य हो रहा है, बौद्ध भिक्षु आता है तो वह हैरान होता है क्योंकि बौद्ध भिक्षु तो सिर्फ बैठकर ही ध्यान करना जानता है। उसे यह पता ही नहीं है कि ध्यान नृत्य करके भी हो सकता है। और जब सूफी फकीर आता है तो वह भी हैरान होता है क्योंकि वह सोचता है सिर्फ नाचकर ही ध्यान हो सकता है। लेकिन यहां विपस्सना का प्रयोग भी हो रहा है, लोग आंख बंद किए घंटों बैठे हुए हैं।

सूफी समझ नहीं पाता विपस्सना को, बौद्ध समझ नहीं पाता सूफी के दरवेश नृत्य को। उदारता चाहिए, बड़ा दिल चाहिए, बड़ी छाती चाहिए। इस प्रयोग को समझने के लिए बड़ी गहरी समझ, बड़ी शुद्ध समझ चाहिए। इसलिए यह प्रयोग बहुत थोड़े-से लोग ही कर पाएंगे, लेकिन वे धन्यभागी होंगे जो इस प्रयोग को कर पाएंगे। क्योंकि यही प्रयोग भविष्य की आधारशिला बनेगा, यही प्रयोग भविष्य के मंदिर की पहली ईंट है। जब मंदिर की आधारशिला रखी जाती है तो तुम्हें मंदिर के शिखर तो दिखाई नहीं पड़ते; अभी तो शिखर आए ही नहीं, दिखाई भी कैसे पड़ेंगे। यह तो बहुत स्वप्नद्रष्टा जो होते हैं, भविष्यद्रष्टा जो होते हैं—कवि और मनीषी, वे केवल देख पाएंगे कि जो आज ईंट रखी जा रही है बुनियाद की वह केवल ईंट नहीं है, जल्दी ही उस पर स्वर्ण-शिखर चढ़ेंगे। लेकिन स्वर्ण-शिखरों की बुनियाद में ईंट होती हैं।

और ध्यान रखें कि मंदिर सिर्फ ईंट ही नहीं होता, ईंटों के जोड़ से कुछ ज्यादा होता है। कोई काव्य सिर्फ शब्दों का ही जोड़ नहीं होता, शब्दों के जोड़ से ज्यादा होता है। कोई संगीत सिर्फ स्वरों का जोड़ नहीं होता, स्वरों का अतिक्रमण होता है? जो लोग बाहर-बाहर से देखेंगे उनको तो दिखाई पड़ेगा कि क्या हो रहा है? सिर्फ ईंटें रखी जा रही हैं। अभी तो ईंटें रखी जा रही हैं लेकिन जल्दी यह मंदिर बनेगा, इस पर स्वर्ण-शिखर चढ़ेंगे। और तब जिन लोगों ने ईंट रखी हैं उनके आनंद का पारावार न रहेगा; उनके भी हाथ उपयोग में आए इस महत् मंदिर के बनने की प्रक्रिया में।

बुद्ध भी यही चाहते थे, महावीर भी यही चाहते थे, कृष्ण भी यही चाहते थे; लेकिन जो उस समय हो सकता था उन्होंने किया, जो आज हो सकता है वह आज किया जाएगा। लेकिन इतने पर ही अंत नहीं हो जाता, मनुष्य तो विकासमान है, रोज विकसित होता रहेगा; भविष्य में बुद्ध आते रहेंगे और इस मंदिर के नए-नए रूप प्रगट होते रहेंगे। इस मंदिर पर ही कोई यात्रा समाप्त नहीं हो जाने वाली है। इसलिए सच्चा धार्मिक आदमी नए मंदिरों को अंगीकार करने की क्षमता रखता है। ये तो झूठे धार्मिक आदमी हैं जो नए मंदिर को इनकार करते हैं, जो पुराने की ही पूजा करते हैं, जो मुर्दा की ही पूजा करते हैं।

स्मरण है, कल भीखा ने कहा : धन्यभागी हैं जो जीवित ब्रह्म की वाणी को समझ लें। बहुत आसान है सदियों के बाद सद्गुरुओं को समझना क्योंकि तब तक उनके पीछे परंपरा, इतिहास, पुराण की लंबी धारा खड़ी हो जाती है। लेकिन जब कोई सद्गुरु पहली बार खड़ा होता है तो उसके पीछे कोई परंपरा नहीं होती, वह अपरिभाष्य होता है। उसे किस कोटि में रखें, किस गणना में रखें यह भी समझ में नहीं आता। उसे क्या कहें यह भी समझ में नहीं आता। उसके लिए अभी भाषा भी नहीं है, शब्द भी नहीं है; परिभाषा भी नहीं है, व्याख्या भी नहीं है। धीरे-धीरे व्याख्या खोजी जाएगी, परिभाषा खोजी जाएगी। लेकिन समय लगेगा। और तब तक सद्गुरु विदा हो जाता है। तब तक पिंजड़ा पड़ा रह जाता है, हंसा उड़ जाता है।

जिनके पास आंखें हैं वे इन छोटी बातों में नहीं पड़ते कि व्याख्या, परिभाषा, कोटि। वे तो सीधे आंख में आंख डालकर देखने की चेष्टा करते हैं, वे तो सीधे प्रयोग में सम्मिलित हो जाते हैं। वैसा प्रयोग ही संन्यास है। संन्यास का अर्थ है : तुम बिना चिंता किए मेरे साथ अज्ञात में उतरने को तैयार हो। तुम जोखिम उठा रहे हो, तुम मेरे साथ एक नाव में उतर रहे हो जो अज्ञात सागर में जाएगी। दूसरे किनारे का कोई पता नहीं है और दूसरे किनारे का कोई आश्वासन भी नहीं दिया जा सकता। यह यात्रा ऐसी है कि इसमें आश्वासन होते ही नहीं। इसमें आश्वासन दिए कि यात्रा खराब हुई क्योंकि आश्वासन से अपेक्षा पैदा होती है। और जहां अपेक्षा है वहां वासना है। और जहां वासना है वहां प्रार्थना नहीं।

सत्य निरंजन, एक अनूठा यज्ञ हो रहा है यह, इसमें जितने भागीदार बन सको, जितनों को भागीदार बना सको बनाओ—प्रीति से पुकारो, प्रार्थना से निमंत्रण दो। पीछे तो लोग बहुत पछताते हैं मगर पीछे पछताने से कुछ भी नहीं होता—जब फूल खिला हो तब उसके साथ नाच लो, और जब दीया जला हो तब अपना दीया भी जला लो। तुमने तो जोड़ दिया है स्वयं को मुझसे, इतने से ही तृप्त नहीं हो जाना है—और भी हैं प्यासे बहुत, और भी हैं अभीप्सु बहुत, मुमुक्षु बहुत, उन तक भी खबर पहुंचानी है।

दूसरा प्रश्न :

 

भगवान! क्या भाग्य को मानना हर स्थिति में बुरा है?

र स्थिति में न तो कोई चीज अच्छी होती है और न कोई चीज बुरी होती है। स्थितियां होती हैं जब जहर भी अच्छा होता है क्योंकि ऐसी बीमारियां हैं जिनमें जहर औषधि है। और स्थितियां है जब शायद अमृत भी घातक हो क्योंकि ऐसी बीमारियां हो सकती हैं जब कुछ भी शरीर में ले जाना महंगा सौदा हो जाए—अमृत भी। ऐसी बीमारियां हैं जबकि उपवास ही स्वास्थ्य का द्वार बनेगा, उस समय अमृत भी मत पीना।

जीवन में कोई चीज इस तरह जड़ रूप से थिर नहीं है और हम अक्सर यही करते हैं । हम चाहते हैं लेबल—फलां चीज बुरी है, जैसे भाग्य। मुझसे लोग पूछते हैं, ठीक-ठीक कह दें, भाग्य को मानना ठीक है या गलत?

भाग्य को ठीक ढंग से भी माना जा सकता है तब उसका बड़ा उपयोग है, और भाग्य को गलत ढंग से भी माना जा सकता है तब उसका बड़ा दुरुपयोग है। सौ में से निन्यानबे गलत ढंग से ही मानते हैं क्योंकि सौ में से निन्यानबे जो भी करते हैं वे गलत करते हैं। भाग्य का ही सवाल नहीं है। सौ में से निन्यानबे की भाग्य की धारणा क्या है? उनकी धारणा यह है कि सब टालों परमात्मा पर। इस टालने के पीछे आलस्य है, सुस्ती है, अकर्मण्यता है—हम क्या करें, भाग्य में ही नहीं है। इसलिए बैठे रहेंगे।

इस धारणा ने ही पूरब के देशों को दरिद्र बनाया, दीन बनाया, भिखमंगा बनाया। हम क्या करें, भगवान ने जो लिखा है माथे पर वही होकर रहेगा। उसके बिना इशारे के पत्ता नहीं हिलता तो हमारे किए क्या होना है? और उसने तो हर दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिख दिया है, तो हम कुछ करें या न करें, जिस दाने पर हमारा नाम है वह तो मिलेगा ही। यह तो बड़ी गलत धारणा है।

पश्चिम के देश समृद्ध होते चले गए क्योंकि उन्होंने भाग्य की ऐसी धारणा नहीं मानी—उन्होंने धन भी पैदा किया, भोजन भी पैदा किया, सुविधाएं भी पैदा कीं। आज पश्चिम ने उन सारी सुविधाओं को उत्पन्न कर लिया है जिनकी हमने स्वर्ग में कल्पना की है। हम सिर्फ स्वर्ग में ही कल्पना कर सकते हैं। यहां तो हम किसी तरह सह रहे हैं। यह तो थोड़ा समय है जो व्यतीत कर देना है। यह जगत तो धर्मशाला है, रात-भर रुकना है, कौन फिक्र करे, कौन चिंता ले! यह तो रेलवे स्टेशन का प्लेटफार्म है, यहां केले के छिलके भी फेंको, मूंगफली के छिलके भी फेंको, पान को भी यहीं थूक दो। अपना लेना-देना क्या है? अपनी गाड़ी आई, हम तो गए फिर जो पीछे आएंगे वे जानें, वे समझें। जो पीछे आते हैं उनको भी क्या पड़ी है।

देश गंदा होता चला गया, दीन होता गया, दुर्बल होता गया, गुलाम होता गया। हमने गुलामी को स्वीकार कर लिया भाग्य के कारण। दुनिया का कोई देश इतने लंबे समय तक गुलाम नहीं रहा, इतना बड़ा देश! क्यों छोटी-छोटी कौमें आयीं और इसे गुलाम बना सकीं? बड़ी-छोटी कौमें—हूण, मुगल, तातार—छोटी-छोटी कौमें जिनकी कोई हैसियत न थी, जिनको यह देश मुट्ठी में ले सकता था; इस बड़े देश को ये छोटी-छोटी कौमें आती रहीं और इस पर कब्जा करती रहीं। मगर हमारी धारणा थी कि यही इरादा होगा भगवान का, यही हमारे भाग्य में लिखा होगा। गुलामी बदी है तो गुलामी भोगेंगे।

यह तो भाग्य की गलत धारणा है। लेकिन भाग्य की एक ठीक धारणा भी है। जिन्होंने दी थी, ज्ञानियों ने, उन्होंने ठीक धारणा दी थी। मगर मुश्किल यही है कि ज्ञानी कुछ देते हैं, अज्ञानी कुछ समझते हैं। ज्ञानी की भाग्य की धारणा क्या है? अकर्मण्यता नहीं—परिपूर्ण कर्मण्यता लेकिन फलाकांक्षा से मुक्ति।

ज़रा भेद समझ लो, अज्ञानी की भाग्य की धारणा है, कर्म से मुक्ति, ज्ञानी की भाग्य की धारणा है फलाकांक्षा से मुक्ति। कर्म तो करेंगे लेकिन फल उस पर. . .! अज्ञानी कहता है : कर्म ही क्यों करें? जब फल ही उस पर है तो कर्म भी उस फर। बोएं ही क्यों बीज? जब फल ही उस पर है तो वृक्ष भी उसी पर, बीज भी उसी पर, खेती-बाड़ी भी उसी पर ज्ञानी कहता है : बीज तो बोओ, खेती-बाड़ी भी करो, वृक्ष णको बड़ा करो, हरा-भरा करो, खाद दो, रक्षा करो, फिर भी इतना ध्यान रखो अगर फल न आएं तो विषादग्रस्त मत होना। फल आ जाएं तो अहंकारग्रस्त मत होना। फल आ जाएं तो चिल्लाते मत फिरना कि मैंने देखो कैसे फल उगाए।

तुम उगाने वाले नहीं हो, उगाने वाला तो वही है। अगर तुम उगाने वाले होते तो फिर नीम में भी तुम आम लगा लेते। तुम उगाने वाले नहीं हो, उगाने वाला तो वही है। और अगर फल न आएं तो रोते मत फिरना । तुमने अपना श्रम पूरा किया, तुमने कोई कोर-कसर न रखी, फिर अगर फल न आएं, उसकी मर्जी। तो शायद इस फल के न आने में भीत तुम्हारे लिए कोई शिक्षण है। इस फल के न आने में भी शायद संतोष की कोई शिक्षा है।

अगर कर्म तो बचे और फलाकांक्षा चली जाए तो यही संन्यास है। कृष्ण ने अर्जुन को इतनी ही बात कही कि कर्म तो तू कर लेकिन फलाकांक्षा न कर, फल उस पर छोड़। तू फल की चिंता मत कर—जीतेगा या हारेगा, यह वह जाने; मगर लड़ेगा, यह तू जान। उठा गांडीव, युद्ध में जूझ। तू क्षत्रिय है, तेरा स्वभाव क्षत्रिय है, तू अपने स्वभाव को अभिव्यक्त कर, फिर जो परिणाम हो। परिणाम हमारे हाथ में नहीं है।

क्यों परिणाम हमारे हाथ में नहीं है? क्योंकि परिणाम विराट के हाथ में है। यह अस्तित्व बहुत विराट है। यहां सब चीजें संयुक्त हैं। तुमने बीज बोए यह ठीक, तुमने खेती-बाड़ी की यह ठीक, मगर हो सकता है बाढ़ आ जाए, खेत बह जाए, हो सकता है वर्षा ही न हो, पौधे सूख जाएं, हो सकता है कीड़े लग जाएं, हजार-हजार संभावनाएं हैं। और यह विराट जगत है, इस विराट जगत की सारी संभावनाओं से हम अपने को बचा नहीं सकते। हम सारी बचाने की चेष्टा करें तो भी बहुत-सी संभावनाएं शेष रह जाती हैं जिनका हमें अंदाज भी नहीं होगा, जिनका हमें ख्याल भी नहीं होगा।

जैसे पश्चिम में बड़ी कर्मठता है मगर फलाकांक्षा की पकड़ भी है उतनी ही। तो अगर कोई आदमी हार जाता है तो तीसवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर लेता है। अगर धंधे में नुकसान लग गया, गोली मार ली। सब अपने सिर ले लिया है। अगर किसी स्त्री से प्रेम हुआ और उसने विवाह न किया, फांसी लगा ली, जहर खा लिया। फलाकांक्षा पर पकड़ है। पश्चिम में कर्मठता तो अच्छी है लेकिन फलाकांक्षा पर जो पकड़ है उसके कारण बहुत विषाद, बहुत विक्षिप्तता, बहुत चिंता….पूरब में फलाकांक्षा भी उस पर हमने छोड़ दी है, कर्म भी उसी पर छोड़ दिया है। कर्म छोड़ देने के कारण बड़ी दीनता, बड़ी दरिद्रता, बड़ी गरीबी, बड़ी बीमारी। पूरब भी सड़ रहा है, पश्चिम भी सड़ रहा है। दोनों ने ही एक अर्थ में गलत व्याख्या कर ली है।

मैं चाहता हूं कि तुम कर्म के संबंध में तो पश्चिम की बात को ठीक समझो और पकड़ो; और फल के संबंध में पूरब की बात को ठीक से समझो और पकड़ो, तो तुम्हारे भीतर एक नए मनुष्य का जन्म होगा, जो न तो पूरब का होगा, न पश्चिम का होगा, जो सिर्फ बोध से भरा होगा। जो पूरब का भी लाभ ले लेगा और पश्चिम का भी लाभ ले लेगा।

यदि धर्म निज निभते चलें,

यदि कर्म निज निभते चलें,

यदि मर्म निज निभते चलें,

फल के निए फिर भाग्य पर संतोष बहुत बुरा नहीं!

यह दोष बहुत बुरा नहीं!

अन्याय जग का देखकर,

हो जाए कंपित स्वर-प्रखर,

जो क्रांति कर दे विश्व में, वह रोष बहुत बुरा नहीं!

यह दोष बहुत बुरा नहीं!

मिटता मिटाता जो बढ़े,

जग से लड़े, मन से लड़े,

आदर्श पर दृढ़ हो अड़े,

सच पर पतिंगे-सा जले, मदहोश बहुत बुरा नहीं!

यह दोष बहुत बुरा नहीं!

जो समझदार हैं वे दोषों से भी अलंकृत हो जाते हैं। जैसे जीसस ने मंदिर में कोड़ा उठा लिया और मंदिर के भीतर जो ब्याजखोरों ने दुकानें खोल रखी थीं, उनके तख्ते उलट दिए; एक ऐसा कोड़ा चलाया कि ब्याजखोर मंदिर से भागकर बाहर हो गए। एक अकेले आदमी ने बहुत-से ब्याजखोरों को मंदिर के बाहर कर दिया। इस तरह की प्रज्वलित चेतना….चाहो तो तुम यह भी कह सकते हो : यह तो क्रोध है, यह तो रोष है, यह तो बुद्धपुरुष को शोभा नहीं देता। लेकिन तुम कौन हो बुद्धपुरुष की परिभाषा करने वाले? बुद्धपुरुष को क्या शोभा देगा और क्या शोभा नहीं देगा, यह तो प्रतिपल निर्णीत होता है, इसकी कोई पूर्व-धारणा नहीं होती।अन्याय जग का देखकर, वर्षो रहे गुमसुम अधर,

हो जाए कंपित स्वर-प्रखर,

जो क्रांति कर दे विश्व में, वह रोष बहुत बुरा नहीं!

यह दोष बहुत बुरा नहीं!

जीसस जैसा व्यक्ति अगर रोष में आ जाए तो यह बुरी बात नहीं; अगर जीसस जैसा व्यक्ति प्रज्वलित हो जाए तो यह बुरी बात नहीं—यह बात भली है, यह शुभ है। सब तुम्हारे चैतन्य पर निर्भर है।

तुम पूछते हो, क्या भाग्य को मानना हर स्थिति में बुरा है? ज्ञान चैतन्य, हर स्थिति में कोई चीज बुरी नहीं है, कोई चीज भली नहीं है। स्थिति-स्थिति में निर्णय होता है।

कल ही किसी ने पूछा था, सिक्ख गुरुओं ने तलवार उठाई, क्या यह उचित है? उस स्थिति में उचित था, बिल्कुल उचित था। और हमारी तकलीफ यह है कि हम स्थिति तो भूल जाते हैं, सिर्फ घटना याद रह जाती है। और हम घटना को ही

सीधी सोचने लगते हैं, स्थिति की पृष्ठभूमि को छोड़कर। मुहम्मद ने तलवार उठाई, यह बिल्कुल ठीक था। और बुद्ध ने तलवार नहीं उठाई, यह बिल्कुल ठीक था। और महावीर पत्थरों को चुपचाप खा गए, पी गए, यह भी बिल्कुल ठीक था। उन सब की स्थितियां अलग थीं। और स्थितियां रोज बदल जाती हैं और बुद्धपुरुष स्थिति के अनुकूल, स्थिति की चुनौती को देखकर व्यवहार करता है।

जरूर बुद्धों ने कहा है : सब उसके हाथ में छोड़ दो। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्होंने कहा, तुम कुछ भी न करो। उन्होंने कहा है : तुम जो कुछ कर सकते हो करो, फिर भी सब उसके हाथ में छोड़ दो। करो तो जरूर लेकिन कर्ता न बनो—यह भाग्य की मौलिक धारणा है। कर्ता न बनो, कर्ता बनोगे तो चिंता पकड़ेगी—हारोगे तो मुश्किल, जीतोगे तो मुश्किल। जीतोगे तो अहंकार बढ़ेगा। और अहंकार भयंकर बोझ है, रोग है, उपाधि है। और अगर हारे तो हीनता बढ़ेगी, मन में ग्लानि पैदा होगी। पराजित चित्त बहुत तरह की परेशानियों से भर जाएगा, टूट जाएगा, फूट जाएगा, खंडित हो जाएगा, बस मरने का ही उपाय सूझेगा, आत्महत्या सूझेगी।

पश्चिम में लोग बहुत आत्महत्याएं करते हैं। पश्चिम में बहुत लोग विक्षिप्त होते हैं। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि कम-से-कम चार आदमियों में तीन आदमियों के मस्तिष्क डावांडोल हैं। यह तो छोटी संख्या न हुई। चार आदमियों में तीन आदमियों के मस्तिष्क अगर संदिग्ध हैं तो चौथे का भी बहुत ज्यादा भरोसा नहीं। कितनी देर भरोसा रखोगे चौथे का? ये तीन मिलकर चौथे को भी पगला देंगे। ये तीन काफी हैं चौथे को पागल करने के लिए। पश्चिम में क्यों विक्षिप्तता है? इसीलिए कि कर्ता का भाव और फलाकांक्षा। और पूरब में कैसी भी स्थिति हो—सड़ते रहो नालियों में, तो भी आदमी जी रहा है; गलते रहो, तो भी जी रहा है। क्या कर सकते हैं, भाग्य में जो लिखा है!

पूरब में एक तरह की मृत्यु छा गई है और पश्चिम में एक तरह की विक्षिप्तता। दोनों ही रुग्ण अवस्थाएं हैं। दोनों के पार उठना है। कोई संतुलित मार्ग खोजना है, कोई मज्झिम निकाय, कोई मध्य का मार्ग। जैसे कि रस्सी पर नट चलता है, कभी बाएं झुकता थोड़ा, कभी दाएं झुकता; मगर बाएं-दाएं झुकने के लिए नहीं झुकता, बाएं-दाएं झुकता है ताकि बीच में बना रहे।

ठीक नट की तरह जीवन की कला है। कर्म को तो तुम पूरा करो और कर्म के फल को तुम परमात्मा पर छोड़ दो। फिर देखो तुम्हारे जीवन में कैसे आनंद के फूल खिलते हैं। फिर तुम देखोगे कि तुम्हारे जीवन में एक विनम्रता है, एक अहोभाव है। जो भी मिलता है, वह प्रसाद है; तुम्हारे अहंकार की पुष्टि नहीं, परमात्मा की भेंट है। और जो भी नहीं मिलता, वह भी प्रसाद है क्योंकि जरूरत हो सकती है इस समय, यही जरूरत हो सकती है तुम्हारी कि तुम्हें न मिले।

एक सूफी फकीर रोज संध्या परमात्मा को धन्यवाद देता था कि हे प्रभु! तेरी कृपा का कोई पारावार नहीं, तेरी अनुकंपा अपार है! मेरी जो भी जरूरत होती है तू सदा पूरी कर देता है। उसके शिष्यों को यह बात जंचती नहीं थी क्योंकि कई बार जरूरतें दिन-भर पूरी नहीं होती थीं, और फिर भी धन्यवाद वह यही देता था। मगर एक बार तो बात बहुत बढ़ गयी, शिष्यों से रहा न गया। वे हज-यात्रा को गए थे गुरु के साथ। तीन दिन तक रास्तों में ऐसे गांव मिले जिन्होंने न तो उन्हें भीतर घुसने दिया, न ठहरने दिया।

सूफी फकीरों को मुसलमान बर्दाश्त नहीं करते, असल में सच्चे फकीर कहीं भी बर्दाश्त नहीं किए जाते। क्योंकि सच्चे फकीरों की सच्चाई लोगों को काटती है। उनकी सच्चाई से लोगों के झूठ नंगे हो जाते हैं। उनकी सच्चाई से लोगों के मुखौटे गिर जाते हैं। तो तीन गांव, तीन दिन तक रास्ते में पड़े, उन्होंने ठहरने नहीं दिया, रात रुकने नहीं दिया। भोजन-पानी तो दूर गांव के भीतर प्रवेश भी नहीं दिया। और रेगिस्तान की यात्रा, तीन दिन न भोजन मिला, न पानी, हालत बड़ी खराब। और रोज संध्या वह धन्यवाद जारी रहा।

तीसरे दिन शिष्यों ने कहा कि अब बहुत हो गया। जैसे ही फकीर ने कहा : “हे प्रभु! तेरी कृपा अपार है, तेरी अनुकंपा महान है; तू मेरी जरूरतें हमेशा पूरी कर देता है।” तो शिष्यों ने कहा : “अब ज़रा जरूरत से ज्यादा बात हो गई। हम दो दिन से बर्दाश्त कर रहे हैं लेकिन अब हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। न पानी, न रोटी, न सोने की जगह—क्या खाक धन्यवाद दे रहे हो! कौन-सी जरूरत पूरी की? हमने तो नहीं देखी, कोई जरूरत पूरी हुई हो।”

उस फकीर ने आंखें खोलीं, उसकी आंखों से आनंद अश्रु बह रहे हैं, वह हंसने लगा। उसने कहा : तुम समझे नहीं। तीन दिन हमारी यही जरूरत थी कि न हमको भोजन मिले, न पानी मिले, न ठहरने का स्थान मिले। क्योंकि वह जो करता है, वह निश्चित ही हमारी जरूरत होगी, कसौटी ले रहा है, परीक्षा ले रहा है। धन्यवाद में कमी नहीं पड़ सकती। उस फकीर ने कहा : वह धन्यवाद क्या—जिस दिन रोटी मिली उस दिन धन्यवाद दिया और जिस दिन नहीं मिली रोटी उस दिन धन्यवाद न दिया—वह धन्यवाद क्या? जिसके हाथों से हमने प्यारे फल खाए, उसके हाथों से कड़वे फल भी स्वीकार होने चाहिए। अगर कड़वे फल दे रहा है तो जरूर कुछ इरादा होगा।

जो व्यक्ति परमात्मा पर सारे फल छोड़ देता है उसके जीवन में चिंता नहीं हो सकती। यह सूफी फकीर कभी पागल नहीं हो सकता। असंभव, इसे कैसे पागल करोगे? यह चिंतित नहीं हो सकता, इसे कैसे चिंतित करोगे? इसके भीतर सदा ही गहन शांति बनी रहेगी, अखंड ज्योति जलती रहेगी। लेकिन उपक्रम जारी है। दूसरे दिन सुबह फिर दूसरे द्वार पर गांव के दस्तक दी….उपक्रम जारी है—फि१३२र शरण मांगी जाएगी, फिर भोजन मांगा जाएगा, फिर पानी मांगा जाएगा। उपक्रम जारी है। क्रम जारी रहे, श्रम जारी रहे और फलाकांक्षा परमात्मा के हाथ में हो; तो तुम्हारे जीवन में अद्भुत समन्वय पैदा हो जाता है।

यदि धर्म निज निभते चलें,

यदि कर्म निज निभते चलें, यदि मर्म निज निभते चलें,

फल के लिए फिर भाग्य पर, संतोष बहुत बुरा नहीं!

यह दोष बहुत बुरा नहीं!

मिटता मिटाता जो बढ़े,

जग से लड़े, मन से लड़े,

आदर्श पर दृढ़ हो अड़े,

सच पर पतिंगे-सा जले, मदहोश बहुत बुरा नहीं!

यह दोष बहुत बुरा नहीं!

अगर तुम सत्य के लिए पतंगे की तरह भी जल जाओ तो यह मदहोशी भी बुरी नहीं, यह बेहोशी भी बुरी नहीं, यह पागलपन भी बुरा नहीं। अगर तुम पतंगे की तरह दीवाने हो जाओ और सत्य की ज्योति पर अपने को न्योछावर कर दो तो यह न्योछावर हो जाना भी बुरा नहीं, यह सौदा भी बुरा नहीं। परिस्थिति और उस परिस्थिति में जागरूकतापूर्वक व्यवहार, फिर सब ठीक है। और यह तय करके कभी न चलना कि क्या ठीक है और क्या गलत है। अगर तुमने पहले से ही तय कर लिया तो तुम कभी भी परिस्थिति के अनुकूल व्यवहार न कर सकोगे। और जब भी तुम परिस्थिति के अनुकूल व्यवहार न करोगे, तभी तुम्हारी जिंदगी में विकास अवरुद्ध हो जाएगा। और यही हो रहा है। लोगों के पास बंधे-बंधाए, रेडिमेड उत्तर हैं। जिंदगी रोज नई है और उनके उत्तर पुराने हैं। इसलिए न उनके उत्तरों से जिंदगी का मेल होता, न जिंदगी से उनके उत्तरों का मेल होता। वे हमेशा ट्रेन चूकते ही चले जाते—वे जब तक भागे-भागे पहुंचते हैं प्लेटफार्म पर, ट्रेन छूट जाती है। उन्हें जिंदगी में कभी कुछ नहीं मिलता। मिल ही नहीं सकता।

झेन कहानी है। दो मंदिर एक गांव में। दोनों मंदिरों में विरोध है जैसा कि मंदिरों में आमतौर पर होता है। झगड़ा है पुराना। झगड़ा ऐसा है कि दोनों मंदिरों के पंडित-पुरोहित एक-दूसरे से बोलते भी नहीं; बोलना तो दूर एक-दूसरे की छाया से भी दूर रहते हैं। रास्ते पर एक-दूसरे को काटते भी नहीं, बचकर खड़े हो जाते हैं। दोनों पुरोहितों के पास दो छोटे-छोटे लड़के हैं जो उनका छोटा-मोटा काम करते हैं—बाजार से सब्जी ले आना, कि कुएं से पानी ले आना, कि बुहारी लगा देना। बच्चे तो आखिर बच्चे हैं, अभी इतने बूढ़े नहीं हुए हैं कि झगड़े-झांसे में पड़ें। कभी-कभी रास्ते पर मिल जाते हैं तो गपशप भी हो जाती है। लेकिन उनके पुरोहितों को यह पसंद नहीं। तो पहले मंदिर के पुरोहित ने अपने बच्चे को कहा कि देख, ख्याल रख, अगर दूसरे मंदिर का बच्चा रास्ते पर मिले तो आंख बचाकर निकल आना, मुंह मोड़ लेना। उनसे हमारी पुश्तैनी दुश्मनी है, सदियों से दुश्मनी चल रही है।

दूसरे ने भी कह दिया था कि दूसरे मंदिर के बच्चे से बातचीत मत करना। लेकिन बच्चे आखिर बच्चे हैं! एक सुबह दोनों रास्ते पर मिल गए। पहले मंदिर के बच्चे ने दूसरे मंदिर के बच्चे से पूछा : कहां जा रहे हो?

ज्ञान की बातें सुनता था, मंदिर में बड़ी-बड़ी बातें होती थीं, बड़ी ऊंची। उसने कहा : कहां जा रहा हूं! जहां हवाएं ले जाएं; आदमी के वश में क्या है? सुनी होगी ज्ञान की चर्चा कोई, याद आ गई कि आदमी के वश में क्या है, जहां हवाएं ले जाएं। अरे आदमी तो सूखा पत्ता है, जहां हवाएं ले जाएं।

पहला बच्चा सकते में आ गया। उसने यह आशा नहीं की थी कि इतने ऊंचे ज्ञान की बात कही जाएगी। उसकी कुछ समझ में ही नहीं आया कि अब क्या कहे। सोचा कि मैंने भी कहां सवाल पूछ लिया। मेरे गुरु ने ठीक ही कहा था कि उस बच्चे से बात मत करना। ये हैं दुष्ट, ये हैं ही बुरे आदमी। बोलो मैं पूछ रहा हूं कहां जा रहे हो, और यह दर्शन झाड़ रहा है!

लौटकर उसने अपने गुरु को कहा कि क्षमा करना, आपने मना किया फिर भी मैंने भूल की और उससे पूछ लिया। मगर उसको जवाब देकर ठीक करना जरूरी है। विवाद में मैं हार जाऊं यह ठीक भी नहीं, मंदिर की प्रतिष्ठा का सवाल है। मैंने तो सीधा-सा सवाल पूछा था—कहां जा रहे हो? वह एकदम दर्शनशास्त्र झाड़ने लगा। वह कहने लगा कि आदमी तो सूखा पत्ता है, हवाएं जहां ले जाएं। मेरी कुछ समझ में न आया कि मैं क्या उत्तर दूं।

उसके गुरु ने कहा : कल फिर उसी जगह जाकर खड़े हो जाना। फिर उससे पूछना कि कहां जा रहे हो और जब वह कहे कि सूखा पत्ता है मनुष्य, हवाएं जहां ले जाएं। तो कहना, और अगर हवाएं बंद हों, अभी न चल रही हों फिर क्या होगा? बस उसकी जबान बंद हो जाएगी।

तैयार होकर बिल्कुल याद करके, कई बार दोहराकर कि अगर हवाएं न चल रही हों फिर बच्चू, फिर क्या करेगा? फिर कहां जाओगे? जाकर खड़ा हो गया झाड़ के नीचे , दोहराता रहा, दोहराता रहा जब तक दूसरा न आ जाए । पास आता दिखा तो उसने फिर दोहराकर अपने को ताजा कर लिया। जैसा कि पंडित आमतौर से करते हैं। बच्चा पास आया, उसने अकड़ से पूछा कि कहां जा रहे हो?

उस बच्चे ने कहा : जहां पैर ले जाएं। अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गयी। अब यह उत्तर देना कि अगर हवाएं न चल रही हों फिर क्या करोगे? अब बिल्कुल बेकार हो गया। उसने कहा : ये तो बेईमान पक्के हैं, ये मंदिर के लोग सच में बेईमान हैं। इतने जल्दी बदल गया! कोई निष्ठा होनी चाहिए, कोई श्रद्धा, कोई आस्था। अरे जब एक दफा कह दिया तो कह दिया, फिर उस पर दृढ़ रहना चाहिए।

लौटकर अपने गुरु से कहा कि आप ठीक कहते हैं, उस मंदिर के लोगों से बात करना ठीक नहीं लेकिन एक दफा तो जवाब उसे देना जरूरी है। आज वह तो बदल ही गया। वह कहने लगा जहां पैर ले जाएं।

गुरु ने कहा कि तू उससे कहना कल खड़े होकर कि कई लोग लंगड़े भी होते हैं। और भगवान न करे कि कभी तू लंगड़ा हो जाए। अगर लंगड़ा हो गया फिर क्या करेगा? अगर पैर न चले फिर कहां जाएगा?

लड़के ने कहा : हां, यह बात ठीक। मुझे वक्त पर सूझी नहीं। फिर तैयार होकर खड़ा हो गया। फिर पूछा : कहां जा रहे हो? उस लड़के ने कहा : बाजार सब्जी लेने जा रहा हूं।

बंधे-बंधाए उत्तर काम नहीं आते; जिंदगी रोज बदल जाती है। और तुम सब बंधे-बंधाए उत्तर लिए बैठे हो। तुम्हारे उत्तर इतने ज्यादा जड़ हो गए हैं कि तुम देखते ही नहीं कि जीवन रोज बदला जा रहा है और तुम अपने बंधे-बंधाए उत्तर दोहराए जा रहे हो। तुमसे कुछ जिंदगी पूछ रही है, तुम कुछ उत्तर दे रहे हो।

नहीं, कोई चीज न तो सही है सदा, न कोई चीज गलत है सदा। महावीर ने इसे स्याद्वाद कहा था, और अल्बर्ट आंइस्टीन ने इसे सापेक्षवाद कहा है। महावीर ने ध्यान से स्याद्वाद को उपलब्ध किया था और अल्बर्ट आइंस्स्टीन ने वैज्ञानिक प्रयोगों से सापेक्षवाद को उपलब्ध किया है। लेकिन यह मनुष्यजाति की बड़ी संपदा है। कोई चीज तय नहीं है। हर परिस्थिति में संदर्भ , अर्थ बदल जाते हैं। हर संदर्भ में नयी चुनौती होती है और तुम्हें तैयार होना चाहिए। तुम्हें दर्पण की भांति होना चाहिए, कैमरे के भीतर भरी हुई फिल्म की तरह नहीं, कि एक बार रोशनी पड़ गयी, एक चित्र पकड़ लिया, बात खतम हो गयी। यह बुद्धू, मूढ़ आदमी का लक्षण है, उसकी खोपड़ी फिल्म की तरह काम करती है— जो पकड़ लिया सो पकड़ लिया, फिर जिंदगी बदलती जाती है, मगर तस्वीर पकड़ी रहती है। बुद्धिमान व्यक्ति दर्पण की भांति होता है—कुछ पकड़ता नहीं, किसी से जकड़ता नहीं, कोई जंजीरें पैर में नहीं डालता, कोई फांसी गले में नहीं लगाता। दर्पण की तरह खाली—जो सामने आ जाए उसको प्रतिबिंबित कर देता है और जो विदा हो गया उसको विदा कर देता है, फिर खाली हो जाता है।

दर्पण की ताजगी चाहिए। उस ताजगी को ही मैं ध्यान कहता हूं, उस ताजगी की परिपूर्णता का नाम समाधि है। न तो भाग्य, न कर्म इत्यादि की बातों में पड़ो, जालों में पड़ो, एक बात साधो—दर्पण बनो, ध्यान बनो, समाधि बनो। फिर समाधि तुम्हें बताएगी कि क्या ठीक है और क्या गलत है। और तब तुम चकित होओगे, बहुत-बहुत चकित होओगे कि जो कल ठीक था, आज ठीक नहीं; जो आज ठीक नहीं है कल ठीक हो जाए। क्षण-भर पहले जो बात बिल्कुल ठीक थी, क्षण-भर बाद ठीक न हो।

प्रतिपल जगत प्रवाहमान है; तुम्हारी चैतन्य की धारा भी प्रवाहमान होनी चाहिए, तब तुम्हारे और जगत के बीच एक तालमेल होगा। उस तालमेल में ही जो रस बहता है, उसे आनंद कहते हैं। जब तुम जगत के साथ तालमेल में नहीं होते तब जो विरस अवस्था पैदा हो जाती है, वही सुख है। और जब तालमेल में होते हो तो जो सरस अवस्था पैदा हो जाती है, उसी का नाम रस, आनंद, रसौ वै सः, सच्चिदानंद। जब तुम जगत के साथ पूर्ण तालमेल में होते हो तो मुक्ति, निर्वाण। सिद्धांतों की चिंता न करो, सिद्धावस्था की चिंता करो। सिद्धांतों में जो उलझा, सिद्ध नहीं हो पाता; और जो सिद्ध हो गया, उसे सिद्धांतों से क्या लेना-देना है!

तीसरा प्रश्न :

 

भगवान! जब भी यहां आती हूं, संन्यास के वस्त्र पहनकर आने का भाव होता है। कोशिश करती हूं लेकिन कोशिश निष्फल जाती है; घर के लोग राजी नहीं होते। इस बार भी घर में समझाया, तड़पी, किसी ने न सुना तो यहां चली आयी।

मैं जानती हूं, मैं निर्बल हूं, साहस की कमी है। मगर हमेशा आपके पास आने की अभीप्सा दिल में रहती है। संन्यास तो ले लिया लेकिन संन्यास के वस्त्र परिवार के कारण नहीं पहन पाती हूं। मेरा पूरा संन्यास कब होगा? किससे जानूं—जो कर रही हूं, वह ठीक है या नहीं? क्या मैं आपको चूक जाऊंगी? कृपया कुछ बताएं।

अगर मैं कुछ छिपाती हूं तो वह भी बताइए तो मैं अपने को जान सकूं।

दुलारी! वस्त्रों की चिंता न करो, भाव की बात है। यदि घर के लोग राजी नहीं हैं, अगर घर के लोग समझदार नहीं हैं, अगर घर के लोग जिद्दी हैं, अगर घर के लोग किसी खास धारणा में बंधे हैं, तो सिर्फ वस्त्रों के कारण उन्हें भी दुख न दो, स्वयं भी दुख न लो। वस्त्रों का उपयोग है निश्चित, मगर इतना नहीं। और फिर मैं तेरे हृदय को जानता हूं। तेरा हृदय रंगा है इसलिए वस्त्र न भी रंगे तो चलेगा। तेरा हृदय गैरिक है, इसका प्रमाणपत्र मैं तुझे देता हूं, तू फिक्र छोड़।

घर के लोगों को नाहक कष्ट मत दो । उनकी भी क्या गलती—न मुझे सुनते हैं, न मुझे समझते हैं। न उसका साहस है यहां आने का। डरते होंगे समाज से और भयभीत होते होंगे कि तू अगर संन्यासिनी की तरह घूमे-फिरे तो लोग उनसे पूछते होंगे, लोग उनको परेशान करते होंगे। उनकी भी तकलीफ समझ। व्यर्थ तड़पने से भी कुछ सार नहीं है। रोने-धोने का भी कोई प्रयोजन नहीं है। तू जैसी है, भली है। ध्यान में डूब, वही संन्यास है। वस्त्र भी एक-न-एक दिन रंग जाएंगे। घबड़ा मत, वह घड़ी भी जल्दी आ जाएगी।

और ऐसे भी मत सोच कि तू निर्बल है। निर्बल होती तो तेरे घर के लोगों ने तुझे कभी का मुझसे तोड़ लिया होता, नहीं तोड़ पाए, वर्षो से उनकी कोशिश चल रही है तोड़ने की। अगर कपड़े नहीं पहनने देते हैं तो इससे कुछ तोड़ना थोड़े ही हो जाएगा। सच तो यह है कि जितने उन्होंने कपड़े पहनने में तुझे बाधा दी है, उतनी ही तू ज्यादा मुझसे जुड़ गयी है। जितना उन्होंने चाहा है कि बीच में दीवार खड़ी हो जाए, उतने ही तू करीब आ गयी है, उतना ही तेरा प्रेम और प्रगाढ़ हुआ है। तेरी जो जरूरत है, वही तेरे घर के लोग कर रहे हैं, घबड़ा मत—तेरे प्रेम को बढ़ा रहे हैं, तेरी प्रार्थना को बढ़ा रहे हैं, तेरी अभीप्सा को बढ़ा रहे हैं।

निर्बल तू नहीं है, साहस की भी तुझमें कमी नहीं है। यह भी मैं जानता हूं कि जिस दिन तुझे कह दूंगा, तू घर-द्वार सब छोड़कर चली आएगी, इसीलिए तुझसे कह भी नहीं रहा हूं। चूंकि मुझे पक्का भरोसा है कि मैंने कहा, फिर तू एक क्षण न रुक सकेगी, फिर कोई शक्ति तुझे न रोक सकेगी। और मैं नहीं चाहता कि तेरे परिवार में कष्ट हो। मैं किसी के परिवार में कष्ट नहीं चाहता—तेरे बच्चे मुसीबत में पड़ें, कि तेरे पति, कि तेरे परिवार के और लोग…।

मेरा संन्यास किसी के भी परिवार में दुःख के बीज बोए, यह मैं न चाहूंगा। मेरा संन्यास तुम्हारे जीवन में तो आनंद लाए ही लाए; तुम्हारे पास जो है, तुम्हारे प्रियजन जो हैं, उनके जीवन में भी आनंद की सुवास लाए। तू ध्यान में लग । तू चिंता छोड़। शेष जब जरूरत होगी मैं कर लूंगा। जिस दिन मुझे ऐसा लगेगा कि अब मुझे छोड़ ही देना चाहिए, उस दिन तुझे कह दूंगा। अभी छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है। अभी तेरे रहने से तेरे घर के लोग भी कम-से-कम मेरी याद तो करते हैं। चलो मुझे गाली ही देने के लिए सही, मगर इस बहाने भी याद आ जाती है, इस बहाने भी मेरी चिंता, मेरा विचार करते हैं। इस बहाने ही सही, कौन जाने, वे भी आज नहीं कल करीब आ जाएं।

और उन्हें करीब लाने का सबसे सुगम उपाय एक होगा कि तू न तो रो, न तू तड़प; तू आनंदित हो, नाच, तू गीत गा, तू सितार बजा, तू भजन कर, तू मस्त हो, तू मीरा बन । घर के लोगों को मेरी मस्ती बदलेगी। तू तड़पेगी और रोएगी, तू दीन-हीन होकर उनसे भीख मांगेगी कि मुझे कपड़े बदल लेने दो, कि मुझे ऐसा करने दो, मुझे वैसा करने दो— तू उन्हें ताकत दे रही है, तू उन्हें शक्तिशाली बना रही है। तू जितना गिड़गिड़ाएगी उतना ही वे तुझे सताएंगे। तू फिक्र छोड़ उनकी। इतनी ताकत नाचने में लगा, गाने में लगा। तेरा नाच और तेरा गीत उन्हें जीतेगा।

इस दुनिया को अगर जीतना हो तो गाकर जीतना चाहिए, नाचकर जीतना चाहिए—रोकर नहीं। तेरी मस्ती ऐसी हो जाए कि उन्हें मानना ही पड़े कि तेरे जीवन में कुछ हुआ है, जो उनके जीवन में नहीं हुआ। तेरी मस्ती ऐसी हो जाए कि एक दिन उन्हें कहना पड़े कि हमें क्षमा कर दो। तेरी मस्ती से ही वे झुकेंगे।

और जल्दी ही मैं तुझे अलग न करूंगा । जब तक मैं उनको भी न खींच लूं तब तक अकेला तुझे क्या खींचना। तू तो खिंची ही है। तू तो मेरे साथ जुड़ी ही है। लेकिन उनको भी ले आना है—तेरे बच्चों को भी ले आना है, तेरे पति को भी ले आना है। मगर लाने का एक ही उपाय है कि तेरे पति को तेरे आनंद सेर् ईष्या होने लगे। वही सबूत होगा कि मैं जो कह रहा हूं, वह ठीक है। इसके अतिरिक्त और क्या प्रमाण हो सकता है ठीक का? सत्य के लिए कोई तर्क नहीं दिए जाते, सत्य के लिए कोई तर्क सिद्ध नहीं कर सकता लेकिन नृत्य से जरूर सिद्ध कर सकता है। तो न तो तू निर्बल है, न तुझमें साहस की कमी है; सिर्फ मैंने तुझे आज्ञा नहीं दी है।

तू कहती है : मगर हमेशा आपके पास आने की अभीप्सा दिल में रहती है। वही मूल्यवान बात है। मेरे पास आ पाए कि न आ पाए, उसका उतना मूल्य नहीं है— आने की अभीप्सा बनी रहती है, उसका मूल्य है। अनेक हैं जो आते हैं और फिर भी नहीं आ पाते। यहां आ जाने से ही क्या होगा? यहां आकर बैठ भी गए तो क्या होगा? उल्टे घड़े की तरह बैठे रहे तो वर्षा भी होती रहेगी और तुम भरोगे भी नहीं। कोई तो यहां ऐसे ही आ जाता है देखने, द्रष्टा की तरह, एक दर्शक की तरह, पर्यटक की तरह—उनका कोई मूल्य नहीं है, दो कौड़ी मूल्य नहीं है।

लेकिन तू अगर घर में ही है, दूर है और तेरे आने में हजार-हजार बाधाएं हैं मगर तेरे प्राण तड़पते हैं— उसी तड़पन का नाम प्रार्थना है, वही अभीप्सा तेरी प्रार्थना बनती जा रही है। तू सौभाग्यशाली है। मेरे हिसाब में तेरा कोई नुकसान नहीं हो रहा है। तेरे घर के लोग तुझे मेरे पास भेजने के लिए आधार बन रहे हैं, कारण बन रहे हैं। जिंदगी को जब ऐसे देखेगी तो इस देखने को ही मैं आस्तिकता कहता हूं। तब हम कांटों में भी फूलों को छिपा देखते हैं।

तू पूछती है : पूरा संन्यास कब होगा?

पागल, पूरा संन्यास हो चुका। कपड़े ही बदलने को बचे हैं, कपड़े बदलने में क्या दिक्कत है, वे तो कभी भी रंगे जा सकते हैं। असली कठिनाई तो हृदय को रंगने की होती है और वह तेरा रंगा हुआ है।

और तू पूछती है : किससे जानूं— जो कर रही हूं, वह ठीक है या नहीं ?

तू वहीं से, अपने घर बैठे-बैठे मुझसे पूछ लिया कर। रहा आश्वासन कि मैं उत्तर दूंगा। नाचे, गाए, गुनगुनाए, शांत होकर बैठ गए, पूछ लिया। ऐसे मैं तुझसे कहे देता हूं कि तू जो कर रही है, ठीक कर रही है। तेरा विकास ठीक दिशा में चल रहा है। तेरी चेतना उठ रही है, जग रही है। तेरी अभीप्सा प्रबल हो रही है। तेरी प्रार्थना गहरी हो रही है।

और तूने पूछा दुलारी, क्या मैं आपको चूक जाऊंगी?

असंभव, कोई उपाय नहीं चूकने का। तू चाहे तो भी नहीं चूक सकती। मुझसे जो जुड़े हैं उनके चूकने का उपाय नहीं है। असली सवाल जुड़ना है और जुड़न आंतरिक घटना है। बहुत हैं ऐसे जो संन्यास नहीं ले पाए मगर मुझसे जुड़े हैं। बहुत हैं ऐसे जो यहां नहीं आ पाएंगे लेकिन मुझसे जुड़े हैं। वे चूकेंगे नहीं। जोड़ आंतरिक होते हैं, जोड़ों का संबंध स्थानों से नहीं होता, न समय से होता है; आत्मा के जोड़ समय और काल, स्थान और क्षेत्र सबके पार होते हैं।

और तूने पूछा कि अगर मैं कुछ छिपाती हूं तो वह भी बताइए तो मैं अपने आप को जान सकूं।

नहीं , तू कुछ भी नहीं छिपा रही है। मेरे सामने तेरा हृदय खुली किताब है। तू निश्चित मन मगन होकर, मस्त होकर, मदमस्त होकर, जीती चल। जिस दिन मुझे लगेगा कि अब जरूरत है कि तुझे आज्ञा दे दूं कि सब छोड़-छाड़ दे, उस दिन आज्ञा दे दूंगा, उस दिन की प्रतीक्षा कर। और तू निर्बल नहीं है, तुझमें साहस की कमी नहीं है। तू कर पाएगी, तू पतंगे-सी दीपशिखा पर जल पाएगी, इतना मुझे भरोसा है।

चौथा प्रश्न :

 

भगवान! लगता है कि मैं आपके प्रेम में पड़ गया हूं और बड़ी उलझन में भी। आपकी बातें ठीक लगती हैं; सुनते ही आनंद-अश्रु बहने लगते हैं। लेकिन वे मेरे सारे संस्कारों के विपरीत हैं, इसलिए मैं उन्हें रोक लेता हूं। अब आपकी मानूं तो मुश्किल, न मानूं तो मुश्किल!

 

हीम! प्रेम में पड़ गए तो अब तुम्हारा कोई वश न चलेगा। प्रेम में पड़ जाने का अर्थ ही होता है : अवश हो जाना। प्रेम कोई कृत्य नहीं है कि तुम चाहो तो करो और चाहो तो न करो। प्रेम तो प्रसाद है जो ऊपर से उतरता है और तुम्हें अभिभूत कर लेता है और तुम्हारे हृदय को डुबा लेता है। यह तुम्हारे हाथ के बाहर की बात है, अब तुम कुछ कर न सकोगे। अब तो इस प्रेम में गहरे जाने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। हां, इतना ही कर सकते हो कि जोर से किनारे को पकड़ लो और वह जो प्रेम की धारा आ रही है, उसमें न बहो, तो व्यर्थ ही कष्ट पाओगे, दुख पाओगे, पीड़ा पाओगे। क्योंकि धारा का निमंत्रण आ गया; पुकार आ गयी; किनारे को छोड़ने का क्षण आ गया।

जिनको तुम अपने संस्कार कहते हो, उनका मूल्य ही क्या है? कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई, कोई जैन— सब सीखे हुए हैं, सिखाए हुए हैं; सब दूसरों ने दिए हैं। और जो दूसरों से मिला है, वह सत्य नहीं होता। सत्य तो स्वयं के अनुभव से ही प्रगट होता है। सत्य स्वानुभव है। संस्कारों का क्या मूल्य ? राम तुम्हारा नाम हो तो हिंदू संस्कार, रहीम हो तो मुसलमान संस्कार।

लेकिन संस्कार का अर्थ क्या होता है? संस्कार का अर्थ होता है : दूसरों ने छाप डाली तुम पर; दूसरों ने ज्यादती की तुम पर; दूसरों ने सम्मोहित किया तुम्हें। तुम बालक थे, छोटे थे, कच्चे थे, कोमल थे—तुम पर किसी भी चीज की छाप डाल दी गयी। बचपन में ही तुम्हें उठाकर अगर हिंदू घर में रख दिया गया होता, तो तुम रहीम न होते, राम होते। और तुम्हें कभी भूलकर याद भी न आती कि तुम जन्मे मुसलमान थे। क्योंकि खून मुसलमान नहीं होता और न हिंदू होता है। हड्डी मुसलमान नहीं होती, न हिंदू होती है।

तुम जब डाक्टर के पास जाते हो और डाक्टर कहता है कि तुम्हें टी०बी० की बीमारी है, तो तुम यह नहीं फुछते कि हिंदू कि मुसलमान, कौन-सी टी.बी.? टी. बी. बस टी. बी. है।

तुम जब पैदा होते हो तो सिर्फ मनुष्य की तरह पैदा होते हो और जल्दी ही तुम्हारे ऊपर जाल कस दिए जाते हैं। उन जालों को ही फिर जीवन-भर ढोते हो और बड़े गौरव से ढोते हो। क्योंकि तुम सोचते हो वे जाल नहीं हैं, शायद मोर-मुकुट; जाल नहीं हैं, शायद आभूषण! कारागृह को अपने चारों तरफ ढोए फिरते हो और सोचते हो वह तुम्हारी स्वतंत्रता है, तुम्हारा धर्म है।

धर्म इतना सस्ता नहीं मिलता। धर्म मां-बाप से नहीं मिलता; न पंडित-मौलवियों से मिलता है, न वेद-कुरान से मिलता है—धर्म तो मिलता है भीतर डुबकी लगाने से। और अगर मेरा प्रेम कुछ भी करवा सकता है तो इतना ही कि तुम्हें भीतर डुबकी लगाने का साहस दे। मैं तुम्हें धक्का दूंगा तुम्हारे ही भीतर। मेरी और कोई शिक्षा नहीं है। मैं यहां कोई सिद्धांत नहीं सिखा रहा हूं। मैं यहां कोई बंधी हुई विचार की श्रृंखला तुम्हें नहीं दे रहा हूं। उल्टा ही काम है—सारे विचार तुमसे छीन लेना है। तुम हिंदू-विचार लाए तो हिंदू-विचार छीन लेना है और तुम जैन-विचार लाए तो जैन-विचार छीन लेना है, क्योंकि विचार छीन लेना है। तुम्हें निर्विचार में छोड़ देना है। फिर निर्विचार में जो घटेगा, वही सत्य है। फिर निर्विचार में जिसके दर्शन होंगे, वही परमात्मा है। फिर निर्विचार में तुम जो अनुभव करोगे, वही आनंद, वही मोक्ष।

तुम कहते हो कि लगता है “कि मैं आपके प्रेम में पड़ गया हूं।” लगता नहीं है रहीम, पड़ ही गए। अब अपने को समझाओ मत कि लगता है, अपने को सांत्वना मत दो। और तुम कहते हो : “मैं बड़ी उलझन में भी हूं।” उलझन में तो होओगे ही क्योंकि प्रेम का अर्थ क्रांति होता है। प्रेम का अर्थ होता है : एक स्थान से दूसरे स्थान पर रूपांतरण; एक तल से दूसरे तल पर रूपांतरण; एक दिशा से दूसरी दिशा में यात्रा। जाते थे पूरब, अब जाना हो पश्चिम। कल तक कुछ माना था, आज उससे बिल्कुल भिन्न जानना होगा।

उलझन तो होगी बहुत। उलझन अच्छा लक्षण है। सिर्फ बुद्धुओं को उलझन नहीं होती, बुद्धिमानों को तो बहुत उलझन होती है। जो जितना सोचेगा, उतनी ही उलझन में पड़ता है। सिर्फ जड़बुद्धि कभी उलझन में नहीं पड़ते; उलझन का कोई सवाल ही नहीं। इतना सोच-विचार ही नहीं है। जो पकड़ा दिया है लोगों ने पकड़े रखते हैं। कभी उस पर विचार ही नहीं करते कि जो हाथ में है, वह मूल्य का भी है या नहीं; हीरा है या पत्थर? और मैं तुमसे जो कह रहा हूं, वह यह कि तुम जो हाथ में पकड़े हो वह पत्थर है, हीरा नहीं है। लेकिन इतने दिन से पकड़े रहे हो, पकड़ने की आदत, छोड़ने में मन कंपता है। और अब दिखई भी पड़ने लगा है कि पत्थर है, उलझन होगी।

उलझन हो गयी है, तो मेरा काम शुरू हो गया। उलझन हो गयी है, तो अब बच न सकोगे, अब भाग न सकोगे। अब जहां भी भाग जाओगे, उलझन पीछा करेगी। एक बार शक आ जाए कि जो हाथ में है वह पत्थर है, तो फिर तुम्हें असली हीरे को तलाशना ही होगा।

कहते हो : “आपकी बातें ठीक लगती हैं।” इसीलिए तो उलझन पैदा हो रही है क्योंकि अगर मेरी बातें ठीक लगती हैं तो तुमने जो अब तक बातें मान रखी थीं, उनका क्या होगा? और उनके साथ तुमने बहुत-से स्वार्थ बांध रखे थे, उनके साथ तुमने जिंदगी बितायी है, वे तुम्हारी आदतें बन गयी हैं। और ध्यान रखना, बुरी आदतें तो छूटती ही नहीं, अच्छी आदतें भी नहीं छूटतीं। आदत के साथ झंझट वही है, अच्छी हो कि बुरी हो। किसी को सिगरेट पीने की आदत है, नहीं छूटती; और किसी को माला जपने की आदत है, वह नहीं छूटती! दोनों आदतें एक-सी हैं। हालांकि माला जपनेवाला अपने को समझा सकता है कि यह तो अच्छी आदत है, नहीं छूटती तो कोई हर्ज नहीं।

मगर आदत गुलामी है। आदत कोई भी नहीं होनी चाहिए। आदमी बोध से जीना चाहिए, आदत से नहीं। फिर चाहे तुम धुएं को भीतर ले जाओ और बाहर निकालो; वह भी एक तरह की माला जपना है—धूम्रपान एक तरह का माला-जाप है। और उसको भी अगर तुम्हें धार्मिक बनाना हो तो जब धुआं भीतर ले जाओ तो कहना राम और जब धुआं बाहर ले जाओ तो कहना राम, राम, राम, राम, राम… मंत्र बन जाएगा! धूम्रपान में भी मंत्र बनाया जा सकता है। आखिर योगी करते यही है। श्वास बाहर ले गए—मंत्र का एक हिस्सा; श्वास भीतर ले गए—मंत्र का दूसरा हिस्सा। तुम्हारी श्वास ज़रा धुआं भरी है कोई खास, ऐसा और तो कुछ बड़ा भारी पाप नहीं कर ले रहे हो।

मगर कोई आदमी धूम्रपान से नहीं छूटता; वह उसकी आदत है। और कोई आदमी माला जपने से नहीं छूटता। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं : हम तीस साल से माला जप रहे हैं। अब आपकी बात सुनते हैं तो बड़ी अड़चन होती है कि माला जपने से कुछ सार नहीं है, नियम, व्रत, उपवास कुछ सार नहीं, और हमें तीस साल हो गए करते। अब कैसे छोड़ें? अब छोड़ने में डर लगता है, भय लगता है कि कहीं कोई भूल तो नहीं हो रही है छोड़ने में? तीस साल जो किया, वह गलत है। और फिर यह भी विचार उठता है मन में कि तीस साल जो किया, वह गलत था, तो मैं तीस साल मूढ़ रहा! वह भी अहंकार को चोट लगती है।

मगर अगर मेरी बातें तुम्हें ठीक लगने लगीं, तो जितनी जल्दी छोड़ दो उतना अच्छा है, नहीं तो उतने ही पशोपेश में पड़ोगे। और कहते हो : “सुनते ही आनंद-अश्रु बहने लगते हैं।” अच्छे लक्षण हैं। वसंत के लक्षण हैं।

जी बहुत चाहता है रोने को

है कोई बात आज होने को

अगर जी ऐसा चाहे आनंद से भरकर रोने को तो रोकना मत; कुछ बात होने को है, कुछ गहरी बात होने को है। और प्रेम में अगर आनंद के अश्रु न बहेंगे तो फिर कहां बहेंगे?

हम से पहले भी मुहब्बत का यही अंजाम था

क़ैस भी नाशाद था, फ़रहाद भी नाकाम था

मुहब्बत बहुत अंधेरी रातें भी लाती है लेकिन अंधेरी रातों के बाद ही प्रकाशित सुबह का जन्म होता है। प्रेम में आंसू भी आएंगे और आंसुओं में ही छिपी मुस्कराहट भी आएगी। प्रेम उदासी भी लाएगा और उल्लास भी लाएगा। प्रेम बहुत-से रंग दिखाएगा। मगर अगर तुमने आंसू ही रोक लिए. . .। तुम कहते हो : “अश्रु तो बहने लगते हैं, लेकिन मेरे सारे संस्कारों के विपरीत हैं, इसलिए मैं उन्हें रोक लेता हूं।” अगर आंसुओं को तुम रोक लोगे तो तुम होने वाली क्रांति को रोक रहे हो; तुम होने वाले महान परिवर्तन को रोक रहे हो। और अब यह रोकने से रुकने वाली बात नहीं है। ये आंसू भीतर-भीतर तड़फेंगे, ये हृदय की धड़कनों में समा जाएंगे।

“जिगर” मैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन

ब्यां कर दीं मेरी सूरत ने सब कौफ़यतें दिल की

और तुम्हारी सूरत बताने लगेगी, तुम्हारी आंखें बताने लगेंगी; तुम्हारा चलना, बैठना, उठना बताने लगेगा। प्रेम में जब कोई पड़ जाता है तो उसकी हर बात बताने लगती है कि प्रेम में पड़ गया।

कठिनाई तो निश्चित है रहीम। मुझे सहानुभूति है तुम्हारी कठिनाई से। मगर अब कोई उपाय नहीं है, देर हो गयी। अब बीमारी हाथ के बाहर है।

ऐ “दाग” क्या बताएं मुहब्बत में क्या हुआ

बैठे बिठाए जान को आज़ार हो गया

बड़ी मुसीबत हो जाती है, बैठे-बिठाए झंझट हो जाती है। तुम आए होओगे यहां कि चार बातें चुन लोगे ज्ञान की और अपनी ज्ञान की संपदा को थोड़ा बढ़ा लोगे। तुम यह सोचकर न आए होओगे कि यहां उलझन हो जाएगी। तुम सोचकर आए होओगे कि सुलझाकर लौटेंगे। लेकिन ध्यान रखो, सुलझ सकते हो तभी जब उलझने की तैयारी हो। तुम्हारे पुराने समाधान तो सब अस्त-व्यस्त होंगे और तब बीच में एक घड़ी तो ऐसी आएगी जब सब उलझ जाएगा। मगर उतना साहस हो, तो ही सुलझने की घड़ी भी आ सकती है।

जो पूछता है कोई, सुर्ख क्यों हैं आज आंखें?

तो आंखें मल के मैं कहता हूं, रात सो न सका

हजार चाहूं मगर यह न कह सकूंगा कभी

कि रात रोने की ख्वाहिश थी और रो न सका

ऐसा न करो। आंसुओं को रोको मत, बह जाने दो; वे हल्का करेंगे। आंसुओं को बह जाने दो, उनके साथ आंखों की बहुत धूल बह जाएगी। आंसुओं को बह जाने दो, उनकी बाढ़ में हृदय का बहुत-सा कचरा बह जाएगा। आंसुओं को बह जाने दो निःसंकोच। उन्हें सहयोग दो। उनके साथ ही तुम्हारा मुसलमान होना, हिंदू होना, ईसाई होना, बह जाएगा। आंसू तुम्हें नहला देंगे। और मैं तुमसे कहूं, आंसुओं में नहा लेना असली गंगा में नहा लेना है। गंगा में नहाने वाले पवित्र नहीं होते लेकिन आंसुओं में नहाने वाले लोग जरूर पवित्र हो जाते हैं।

क्या बुरी चीज है मुहब्बत भी

बात करने में आंख भर आई

और प्रेम का रास्ता तो पतंगे का रास्ता है। अभी से घबड़ाओगे? अभी तो शुरूआत है—आगे-आगे देखिए, होता है क्या-क्या! अभी से घबड़ाओगे तो आगे क्या करोगे?

उलफत का नशा जब कोई मर जाए तो जाए

ये दर्दे-सर ऐसा है कि सर जाए तो जाए

यह तो एक बड़ी दीवानगी है, मदहोशी है। उलफत का नशा जब कोई मर जाए तो जाए। यह नशा चढ़ता तो है, मगर फिर उतरता नहीं। मौत पहले आती है फिर नशा उतरता है। ये दर्दे-सर ऐसा है कि सर जाए तो जाए। अभी तुम आंसू रोक रहे हो। फिर सर कटाने की बात आएगी तब क्या करोगे? अभी तो उलझन बौद्धिक है; अभी तो उलझन बढ़ेगी—हार्दिक होगी, आत्मिक होगी। फिर क्या करोगे?

और मैं तुम्हारी कठिनाई समझता हूं। कुछ मुसलमान मित्रों ने संन्यास लिया है, उनकी मुसीबतें बहुत बढ़ गयी हैं, लौटकर अपने गांव गए हैं तो बड़ी झंझट में पड़े हैं। मगर उतना ही लाभ भी है। जितनी झंझट, उतना लाभ। जितनी चुनौती, उतनी कसौटी । जितना लोग उनके लिए झंझटें खड़ी कर रहे हैं और जितना वे उन झंझटों का सामना कर रहे हैं, उतना ही उनके भीतर कुछ सघन होता जा रहा है, मजबूत होता जा रहा है; आत्मा का जन्म हो रहा है।

खमोशी से मुसीबत और संगीन होती है।

तड़प ऐ दिल, तड़पने से ज़रा तिस्कीन होती है।

तो पियो मत आंसू, रोको मत आंसू। डरो मत। यह तो दीवानों की महफिल है। यह तो पियक्कड़ों का स्थान है। यहां तुम रोओगे, तो कोई ऐसा नहीं सोचेगा कि तुम गलत कर रहे हो। यहां तुम रोओगे तो लोग समझेंगे। कोई तुम्हारे प्रति ऐसा नहीं समझेगा कि तुम कोई पागल हो; रो क्यों रहे हो? यहां तो सभी रोए हैं—कोई आज, कोई परसों; कोई रो चुका है, कोई रोएगा, कोई रो रहा है।

और फिर रोओगे तो राहत, हल्कापन आ जाएगा। और उस हल्केपन में समझ की संभावना है। उस हल्केपन में पंख लग जाते हैं। उस हल्केपन में तुम उड़ सकोगे आकाश की तरफ, चांदत्तारों की तरफ। इतना मैं तुमसे जरूर कह दूं कि मेरी बात अगर ठीक से समझी, तो तुम मुहम्मद के उतने करीब हो जाओगे, जितने तुम कभी भी न थे। और कुरान तुम्हें पहली दफा समझ में आएगी, जैसी कि तुम्हें कभी समझ में न आयी थी। और यही गीत के संबंध में सही है, यही बाइबिल के संबंध में सही है।

मेरा संदेश किसी एक शास्त्र में आबद्ध नहीं है और किसी एक संप्रदाय में सीमित नहीं है। मेरा संदेश किसी फूल की भांति नहीं है; हजारों फूल का निचोड़ है, इत्र है।

पांचवां प्रश्न :

 

भगवान! क्या साधारणजन कभी आपको समझ पाएंगे?

रोत्तम! कोई साधारण नहीं है, सभी असाधारण हैं। साधारण बने बैठे हैं, यह बात और। क्योंकि सभी के भीतर परमात्मा है, साधारण कोई हो कैसे सकता है! सभी के भीतर परमात्मा है, सोया हो भला, मगर सोया परमात्मा भी साधारण तो नहीं होता, रहेगा तो असाधारण ही। प्रत्येक व्‍यक्‍ति अद्वितीय है।

नहीं, ऐसे शब्दों का उपयोग न करो। साधारणजन कहने में अवमानना है, अपमान है। कोई साधारण नहीं है, सभी असाधारण हैं। सभी के भीतर एक ही परमात्मा विराजमान है—जैसा मेरे भीतर, वैसा तुम्हारे भीतर, वैसा औरों के भीतर। और मनुष्यों में ही नहीं—पशु-पक्षियों में, पौधों में, पत्थरों में—सबमें वही विराजमान है।

यह भाव छोड़ दो। कोई साधारणजन नहीं है। हां, मुझे समझने में कठिनाइयां हैं। कठिनाई का कारण यह नहीं है कि लोग साधारण हैं, कठिनाई का कारण यह है कि लोग सोए हैं। कठिनाई का कारण यह है कि लोगों ने पहले से ही बहुत-सी बातें समझ रखी हैं, बिना समझे समझ रखी हैं। उनकी अंतस्चेतना तो परमात्मा से भरी है, लेकिन अंतस्चेतना के चारों तरफ समाज के द्वारा दिए गए संस्कारों का बड़ा गहन जाल है—चीन की दीवाल है! मुझे सुनते हैं, मैं कुछ कहता हूं, वे कुछ समझते हैं। क्योंकि मुझे सुन ही नहीं पाते। वह बीच की जो दीवाल है, वह ऐसी प्रतिध्वनियां पैदा करती है, वह ऐसी विकृतियां पैदा करती है कि मैं कहता हूं अ, उन तक पहुंचते-पहुंचते ब हो जाता है।

पार्टी में आयी हुई एक औरत ने अपनी लंबाई छोटी होने के कारण सिर के बालों का जूड़ा बहुत ऊंचा बांध रखा था और पांव में भी ऊंची-से-ऊंची एड़ी की सैंडिल पहन रखी थीं। मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे देखकर कहा : बहन जी, अपने कद के लिए तो आपने एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा है!

“ऐड़ी-चोटी का जोर” इस कहावत का ऐसा कभी प्रयोग सुना था? मगर बड़ा सार्थक प्रयोग!

तलाक की अर्जी का फैसला हो रहा था कि जज ने पूछा : आपके तीन बच्चे हैं, इनका बंटवारा आसानी से होना संभव नहीं है। समझ में नहीं आता कि क्या करूं?

इस पर पत्नी ने पति को दरवाजे की ओर ढकेलते हुए कहा : चलो जी, अगले साल तलाक लेंगे।

लोगों की अपनी समझ है।

कविवर के पुत्र ने कहाः

पापा! हमें, निरीह और निर्दय के

दो-दो पर्यायवाची

बता दीजिए।

कविवर ने कहाः

लिख लीजिए,

निरीह के

पति और दास,

और निर्दय के

पत्नी और सास।

शब्द भी अपने-आप में तो कोई अर्थ रखते नहीं। मैं जब बोलूंगा एक शब्द तो मेरा अर्थ होता है उसमें; तुम तक पहुंचते-पहुंचते तुम्हारा अर्थ उसे मिल जाता है।

दो पड़ोसिनें गप-शप कर रही थीं। पहली ने कहा : क्यों, पप्पू की मम्मी, मुझे लगता है कि अपने हाथ से अपना खाना बनाने में काफी बचत होती है।

दूसरी ने तपाक से जवाब दिया : बेशक ! क्योंकि पप्पू के पापा पहले जितना खाते थे, अब उसका आधा भी नहीं खाते।

यह स्वाभाविक है जब साधारण जीवन की बातें भी एक-दूसरे तक पहुंचनी कठिन हो जाती हैं, तो मैं तो सत्यों की बात कर रहा हूं, वे बहुत पारलौकिक हैं।

“क्यों भाई साहब, सुना है आपका मकान किराए के लिए खाली है”— एक व्यक्ति ने मकान-मालिक से पूछा।

“जी हां, है तो, पर मकान फैमिली के साथ ही मिल सकता है आपको”—शर्त रखते हुए मकान-मालिक ने अपनी सहमति व्यक्त की।”

“क्षमा कीजिए भाई साहब, मुझे तो केवल मकान ही किराए पर चाहिए, फैमिली तो मेरी अपनी ही है “—उसने अपनी विवशता रखी।

शब्दों के कारण बड़ी भ्रांतियां खड़ी होती हैं। और शब्दों के अतिरिक्‍त संवाद का कोई उपाय नहीं है और शब्द विवाद खड़ा करवा देते हैं, संवाद होने नहीं देते।

जिनको तुम साधारणजन कहते हो, वे साधारण नहीं हैं; असाधारण ज्योति उनके भीतर है; जिस दिन जागेगी, उनके भीतर भी बुद्धत्व प्रगट होगा; हजार-हजार सूरज उगेंगे और हजार-हजार कमल खिलेंगे। मगर सोए हैं। और अगर तुम उन्हें हिलाओ भी तो भी वे इतनी नींद में हैं, कि तुम्हारे हिलाने का अर्थ नहीं समझ पाते। कोई बड़बड़ाएगा और गाली देगा कि कौन जगा रहा है? कौन वक्त खराब कर रहा है सुबह-सुबह? कोई करवट लेकर, कंबल खींच कर फिर सो जाएगा।

तुमने कभी देखा? तुम्हारा अनुभव भी होगा। सुबह जल्दी उठना है; पांच बजे की गाड़ी पकड़नी है तो चार बजे का तुमने अलार्म भर दिया । चार बजे घड़ी का अलार्म बजता है और तुम एक सपना देखते हो भीतर कि मंदिर की घंटियां बज रही हैं। मंदिर की घंटियां बज रही है, ऐसा तुम सपना देखकर घड़ी के अलार्म को झुठला देते हो। मजे से सो गए। मंदिर की घंटियों से कोई जगने का कारण है? बाहर अलार्म बज रहा है, तुमने भीतर अपनी नींद के कारण एक सपना पैदा कर लिया, एक नया अर्थ दे दिया घंटियों को कि मंदिर की घंटियां बज रही हैं। बस, छुटकारा हो गया अलार्म से।

मैं तुम्हें जगाने के लिए पुकार दे रहा हूं, लेकिन तुम्हारी नींद में पहुंचते-पहुंचते पुकार का क्या अर्थ होगा, यह तुम पर निर्भर है, तुम्हारी नींद पर निर्भर है। जो जागना चाहते हैं, वे ही केवल पुकार सुन पाएंगे। जो नहीं जागना चाहते , वे पुकार नहीं सुन पाएंगे। जिन्होंने तय ही कर रखा है कि सोना ही उनकी नियति है, जिन्होंने तय ही कर रखा है कि सोने के पार और कोई चैतन्य की अवस्था होती ही नहीं है, उनको तो मेरी बात कैसे समझ में आ सकती है? यद्यपि फिर भी मैं नहीं कहूंगा कि वे साधारणजन हैं, उनकी असाधारणता तो असाधारण ही रहेगी। और उनके भीतर के परमात्मा के प्रति मेरा सम्मान उतना का उतना रहेगा। कोई मेरी समझे या न समझे; कोई ठीक समझे कि गलत समझे; मगर प्रत्येक के भीतर बैठे हुए परमात्मा को मेरा समादर ज़रा भी क्षीण नहीं होने वाला है।

मैं किसी को भी साधारणजन नहीं कह सकता हूं। सभी असाधारण हैं। सभी उस प्रभु के मंदिर हैं। कोई आज जागा है, कोई कल जागेगा, कोई परसों जागेगा, कोई इस जन्म में, कोई अगले जन्म में। हर्ज भी क्या है, अनंत काल है। लोग जागते रहेंगे, जगाने वाले पुकारते रहेंगे, कोई-न-कोई सोते में से उठता रहेगा। जो उठ आया वह सौभाग्यशाली है; जितने जल्दी उठ आया, उतना ज्यादा सौभाग्यशाली है।

मगर जो सोया है, उसके प्रति किसी तरह का अपमान मन में न हो। इस तरह के अपमान के कारण अतीत में बहुत उपद्रव हुआ है। ईसाई समझते हैं कि जो ईसाई है वही स्वर्ग पहुंचेगा। इसलिए बनाओ लोगों को ईसाई; चाहे जबर्दस्ती बनाना पड़े तो जबर्दस्ती बनाओ। मुसलमान सोचते हैं कि जो मुसलमान है वही पहुंचेगा। तो चाहे तलवार के बल बनाना पड़े तो भी कोई फिक्र नहीं, दयावश तलवार के बल ही बनाओ, गर्दन पर रख दो तलवार कि होना पड़ेगा मुसलमान। तुम्हारे हित में ही है, नहीं तो तुम पहुंचोगे नहीं; भटक जाओगे; दोजख में पड़ोगे। और यही सारे धर्मो की धारणा है कि जो हमारी मानकर चलेगा वही पहुंचेगा, और जो हमारी नहीं मानता—अज्ञानी है, पापी है, शैतान का शिष्य है। ऐसी धारणा तुम अपने मन में मत लाना।

जो हमारी मानता है, वह भी परमात्मा है; जो हमारी नहीं मानता, वह भी परमात्मा है। जो साथ हो लिया है, वह भी परमात्मा है; जो विरोध में है, वह भी परमात्मा है। यह स्मरण एक क्षण को भी न भूले, तो ही तुम सच्चे संन्यासी हो, तो ही तुमने मुझे समझा है।

आज इतना ही।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–35)

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मनुष्‍य बीज है भगवत्‍ता का—(प्रवचन—पैतीसवां)

प्यारे ओशो।

शतपथ ब्राह्मण में एक प्रश्न है:

को वेद मनुष्‍यस्‍य?

(मनुष्य को कौन जानता है?)

प्यारे ओशो! क्या मनुष्य इतना जटिल और रहस्यपूर्ण है कि उसे कोई नहीं जान सकता है?

पुरुषोत्तम माहंती! मनुष्य जटिल नहीं है, रहस्यपूर्ण जरूर है। जटिल होता तो जानना कठिन न होता। कितना ही जटिल हो, जटिलता सुलझायी जा सकती है। जटिलता एक पहेली है, जो बुद्धि की सीमा के पार नहीं, बुद्धि की सीमा के भीतर है। जो जटिल था उसे मनुष्य ने सुलझा लिया है, या नहीं सुलझाया है तो सुलझा लेगा। जो कल अज्ञात था, आज ज्ञात है। जो आज अज्ञात है, कल ज्ञात हो जाएगा।

विज्ञान ये दो कोटियां ही मानता है—शात और अज्ञात। इन दोनों के बीच कोई गुणात्मक भेद नहीं है; थोड़ा समय का अंतराल है। अशात वह है जो ज्ञात होने में समर्थ है—सिर्फ थोड़ी और चेष्टा, थोड़ी और खोज, थोड़ी और शोध, थोड़ा और तर्क, थोड़ा और विज्ञान। लेकिन रहस्य गुणात्मक रूप से भिन्न है, परिमाणात्मक रूप से ही नहीं। रहस्य का अर्थ अज्ञात नहीं है; रहस्य का अर्थ है अज्ञेय, जो जाना ही न जा सके; जो बुद्धि की सीमा के पार है—जिसे जीया तो जा सकता है लेकिन जाना नहीं जा सकता। जानने का अर्थ होता है—शब्द में ढाला जा सके, तर्क में तौला जा सके, बुद्धि माप सके। रहस्य का अर्थ होता है—अमाप; जिसको जानने. का, तौलने का कोई उपाय नहीं, लेकिन जो है; लेकिन अनंत है, असीम है। जितना जानोगे उतना ही पाओगे कि जानना मुश्किल है। जितना पहचानोगे उतना ही पाओगे, पहचानने को बहुत और शेष है, सदा शेष है।

सुकरात का वचन प्रीतिकर है। सुकरात कहता है : मैं एक ही बात जान पाया कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं! उपनिषद— कहते हैं : जो जानता है वह नहीं जानता। जो नहीं जानता है, वही जानता है। यह भी उपनिषद् कहते हैं कि अज्ञानी तो अंधकार में भटक जाते हैं, ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं। यह वचन बहुत आग्नेय है, बहुत क्रांतिकारी है। इसकी चिनगारी भी तुम्हारे भीतर पड़ जाए तो तुम्हारे जीवन के जंगल में आग लग जाए। सब कूड़ा—कर्कट जल जाए। फिर वही बचे जो खालिस सोना है।

—तुम पूछते हो, ‘क्या मनुष्य इतना जटिल और रहस्यपूर्ण है कि उसे कोई नहीं जान सकता? तुम जटिलता और रहस्य को पर्यायवाची समझ रहे हो। वे पर्यायवाची नहीं हैं। जटिलता तो सिर्फ एक चुनौती है बुद्धि के लिए। रहस्य बड़ी गहरी बात है। बुद्धि तो सतही है। रहस्य को जानना हो तो जानने का ढंग काम नहीं आता। वहां तो सुकरात जैसा अज्ञानी हो जाना पड़े।

जीसस ने कहां है : जौ बच्चों की भांति निर्दोष होंगे, वे ही केवल मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। वहां ज्ञानी की बिसात नहीं। वहां जाननेवाले के लिए कोई प्रवेश नहीं; वहां निर्दोष, सरल—चित्त, इतना सरल—चित्त जैसे कोरा कागज.। जब तुम कोरे कागज की भांति हो जाते हो तो परिचय होता है, प्रत्यभिज्ञा होती है; तो स्वाद आता है, तो रस बहता है; तो जीवन में उत्सव सधता है।

और शतपथ ब्राह्मण का यह सूत्र ठीक कहता है. को वेद मनुष्यस्य? ‘मनुष्य को कौन जानता है?’ कौन—सा वेद है जो मनुष्य को जानता है? कौन—सा ज्ञान है जो मनुष्य को जानता है? कौन—सा सिद्धांत है जो मनुष्य को जानता है? कौन—सा धर्म है जो दावा कर सके मनुष्य को जानने का? और मनुष्य को ही क्यों चुना है? क्योंकि मनुष्य पराकाष्ठा है जीवन के रहस्य की। यूं. तो सारा जीवन रहस्यपूर्ण है। यूं तो एक गुलाब के फूल को भी जानना कहां संभव है!

अंग्रजी के महाकवि टेनीसन ने कहां है… एक सुबह घूमते हुए, पत्थर की एक दीवाल में घास का एक पौधा वर्षा के दिनों में क्या आया है और उस पर एक छोटा—सा घास का फूल खिला है। सुबह की ताजी हवा, सूरज की ऊगती हुई नयी—नयी किरणें, पक्षियों के गीत और पत्थर को तोडकर ऊग आए इस घास के पौधे का राज! नहीं कि सिर्फ पौधा क्या आया है, वरन् फूला भी है। टेनीसन ठिठककर खड़ा हो गया। और टेनीसन ने जो वचन कहां… कहां कि काश! मैं इस घास के फूल को पूरा का पूरा जान लूं जड़ से लेकर शिखर तक, तो मैं सारे अस्तित्व को जान लूंगा। फिर कुछ और जानने को शेष न रह जाएगा।

घास का एक छोटा—सा फूल भी पूरा—पूरा नहीं जाना जा सकता है, कुछ छूट ही जाता है। जो छूट जाता है वह भी राज है। जो छूट जाता है वही रहस्य है। जो पकड़ में आ जाता है, दो कौड़ी का है। जो पकड़ में नहीं आता वही प्राण है। घास का फूल अगर इतना रहस्यपूर्ण हो तो फिर गुलाब की तो क्या बात है! फिर झील में खिल आए कमल को तो समझना बहुत मुश्किल होगा। और यह जो चेतना का सहस्रदल कमल है, यह जो मनुष्य के भीतर छिपा हुआ सहस्रार है, यह जो मनुष्य की चेतना का फूल है, यह तो इस पृथ्वी पर, इस सारे अस्तित्व में अनूठा है, अद्वितीय है। पदार्थ में खिले फूलों को भी नहीं जाना जा सकता तो चेतना के फूल को तो कैसे जाना जा सकेगा?

— को वेद मनुष्यस्य?

‘कौन जानता है मनुष्य को?’ कौन—सा वेद जानता है? कौन—सा शास्त्र जानता है? कौन—सी किताब है जो मनुष्य के राज को खोल सकी है? सारे शास्त्रों ने, सारी किताबों ने, सारे ज्ञानियों ने, सारे प्रबुद्ध पुरुषों ने मनुष्य के रहस्य की तरफ ही इशारा किया है। यही कहां है : चुप हो जाओ तो शायद कुछ पहचान हो; खोजो मत, ठहर जाओ, तो शायद कुछ झलक मिले। मन का उपयोग न करो, क्योंकि मन की सीमा है और यह चेतना असीम है। सीमित साधन का उपयोग करोगे तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। साधन ही बाधा बन जाएगा।

मनुष्य को पहचानना हो तो मन से गहरे जाना होगा। मनुष्य शरीर नहीं है, मन भी नहीं है; इन दोनों के पीछे छिपा हुआ चैतन्य है, साक्षी है। जो मन के पार है, उसे जानने की भाषा में नहीं जाना जा सकता। उसे तो प्रेम की भाषा में पीया जा सकता है। और मन के पार हो जाने की प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है। इसलिए जिसे ध्यान में प्रवेश करना है उसे सारे शास्त्रों को अग्नि को समर्पित कर देना होता है। वही एक यज्ञ करने जैसा है। वही एक हवन धार्मिक व्यक्ति के योग्य है। खाक कर दे सारे शब्दों को, चाहे वे कितने ही सुंदर हों, कितने ही प्यारे लोगों ने कहे हों इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। क्योंकि शब्द तो मन तक ही जाएंगे। उनकी दौड़ उसके आगे नहीं। जहां निःशब्द शुरू होता है वहीं मनुष्य की असली सत्ता का प्रारंभ है। जहां विचार गिर जाते हैं और निर्विचार का आयाम खुलता है, वहीं मनुष्य की चेतना में पहली दफे तुम्हारा प्रवेश होता है। जहां तक मन वहां तक तुम नहीं। जहां अ—मन आया वहीं तुम हो।

फिर स्वभावत: इस रहस्य को कोई और नहीं जी सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना रहस्य स्वयं जानना होगा। इसलिए यह शतपथ ब्राह्मण ठीक ही कहता है— को वेद मनुष्यस्य? ‘मनुष्य को कौन जानता है?’ तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई भी नहीं जान सकता है। और तुम भी तभी जान सकोगे जब अतिक्रमण कर जाओ देह, मन का। जब इन दोनों की सीढ़ियों पर चढ़ जाओ तो मंदिर में प्रवेश हो। केवल तुम्हारे और कोई तुम्हें नहीं जान सकता। और तुम्हारा भी जानना जानना नहीं कहां जा सकता, जीना ही कहां जा सकता है। जानने में फासला होता है। जिसे तुम जानते हो वह और, जो जानता है वह और। जानने में द्वैत होता है—अनिवार्य, बिना द्वैत के जानना सधेगा नहीं। वहां जिसको तुम जान रहे हो, ज्ञेय; जो जान रहा है, ज्ञाता—इन दोनों के बीच के संबंध का नाम ही ज्ञान है। लेकिन स्वयं को जानने में तो द्वैत नहीं हो सकता। वहां तो जाननेवाला और जाना जानेवाला एक है। इसलिए जानने की भाषा वहा काम नहीं आएगी। जीने की भाषा काम आएगी। जीना ही वहां जानना है, जीना ही वहां पहचानना है।

और तुम्हारे जीवन को सब तरह से अवरुद्ध कर दिया गया है। जीवन की इतनी निंदा की गया है और शास्त्रों की इतनी प्रशंसा की गयी है। शब्दों को सिर पर ढोओ और अपनी निंदा और ग्लानि के बोझ से दबे रहो—यही सिखाया गया है सदियों से। जबकि यह स्वयं से परिचित होने का मार्ग नहीं है; स्वयं से अपरिचित रह जाने की विधि है।

लेकिन सत्ताधारी यही चाहते हैं कि तुम अपने को न जान पाओ, तुम अपने को न पहचान पाओ, तुम अपने को न जी पाओ, ताकि तुम्हें गुलाम बनाया जा सके। और गुलामियों के बहुत नाम हैं। धर्मों के नाम पर गुलामी है। राष्ट्रों के नाम पर गुलामी है, सिद्धांतों के नाम पर गुलामी है। गुलामी के इतने ढंग हैं, इतने रूप हैं, जंजीरें ऐसे— ऐसे सुंदर रंगों में सोने और चांदी से मढ़ी हुई हैं कि लगता है आभूषण हैं। लोग भूल ही गए हैं कि चाहे सोने और चांदी से मढ़ी क्यों न हो जंजीर, चाहे बेड़ियां हीरे—जवाहरातों से क्यों न टंकी पड़ी हों, बेड़ियां बेड़ियां हैं। हथकड़ियां हथकड़ियां हैं। और कारागृह चाहे संगमरमर से ही क्यों न बनाया गया हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। कारागृह कारागृह है। वह खुला आकाश नहीं है। उसमें आकाश के न चांद हैं, न सूरज हैं, न तारे हैं, न आकाश में उड़ने की संभावना है। तुम सब पींजड़ों में बंद हो और खुले आकाश में उड़ता हुआ पक्षी—बात और। वही पक्षी पींजड़े में बंद हो जाए तो बात और। खुले आकाश में उड़ते हुए उसके पंखों का जादू उसकी स्वच्छंदता, उसकी मुक्ति और सारा आकाश उसका अपना, चांद—तारे उसके, सूरज उसका, वृक्ष उसके, फूल उसके। आकाश में उड़ते हुए बादलों को पार करने का आनंद उसका। दूर—दूर के सितारों को लक्ष्य बना लेने की मौज उसकी। और फिर इस मौज से उठता हुआ गीत, खुलते हुए पंख, खुलता हुआ कंठ भी। वही पक्षी तुम बंद कर लो सोने के पींजड़े में सही, सारी सुविधाएं जुटा दो, भोजन की चिंता न रहे उसे, लेकिन फिर यह पक्षी वही नहीं है जो बादलों को पार करता हुआ देखा गया था। यह पक्षी वही नहीं है जिसने सुबह—सुबह सूरज का स्वागत किया था और गीत गाये थे। यह पक्षी वही नहीं है जो सांझ अपने आनंद से अपने नीड़ में वापिस लौटता था। यह चहल—पहल वही नहीं; यह पक्षी मर गया, नाममात्र को जिंदा है।

यूं ही हिंदू हैं, यूं ही मुसलमान हैं, यूं ही ईसाई हैं, यूं ही जैन हैं। ये सब पींजड़ों में बंद लोग हैं। इनमें से कोई भी मनुष्य की चेतना को नहीं जान सकता। इन सबके सिद्धांत हैं। और जो सिद्धांतों को पकड़कर चलता है, मन के पार कैसे जाएगा? उसके सिद्धांत ही उसे अटका लेंगे। उसके सिद्धांत ही उसके पैरों को खींच लेंगे, उसके पंखों को काट देंगे। वह अपने सिद्धांतों को सिद्ध करने की चेष्टा में संलग्न रहेगा। उसकी आतुरता सत्य के लिए नहीं है, उसकी आतुरता एक है कि मेरा सिद्धांत सत्य सिद्ध होना चाहिए। सत्य का अन्वेषण सिद्धांतों को छोड़कर ही हो सकता है। जब तुम्हारी आंखों पर सिद्धांत लदे हों तो तुम कैसे सत्य को देख पाओगे?

और सारे लोग सिद्धांतों से भरे हुए हैं। उनकी आंखें सिद्धांतों ने अंधी कर दी हैं। वे वही देख पाते हैं जो उनके सिद्धांत उन्हें आज्ञा देते हैं

सत्ताधिकारी चाहे धार्मिक हों, चाहे राजनैतिक हों, उनकी आकांक्षा नहीं है कि तुम सत्य को जान लो। क्योंकि जो सत्य को जान लेगा उसे गुलाम नहीं बनाया जा सकता। जो सत्य को जान लेगा, फिर उसे इन टुच्ची और क्षुद्र सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। वह न तो भारतीय होगा, न चीनी होगा, न जापानी होगा। वह न काला होगा, न गोरा होगा। जिसने सत्य को जाना वस्तुत: वह न स्त्री होगा, न पुरुष होगा। वह सिर्फ शुद्ध चैतन्य होगा। वहां कोई कोटियां काम न आएंगी। वहा विभाजन नहीं हो सकता। और विभाजन सत्ताधिकारी का सूत्र है : बांटो और राज्य करो। पुरोहित वही करता है, राजनेता वही करता है : बांटी, लोग बंटे रहें, लोग आपस में लड़ते रहें, यही सत्ताधिकारी का बल है। और लोग अंधे रहें तो ही तो नेताओं की कीमत है। तो ही धर्मगुरुओं की जरूरत है। आंख तुम्हारी खुल जाए तो फिर बहुत मुश्किल हो जाती है। आंख खुल गयी तो फिर किसी नेता की तुम्हें जरूरत नहीं है। तुम अपने मार्ग—द्रष्टा हो। तुम अपने प्रकाश स्वयं हो। तुम्हारी भीतर की ज्योति जल उठी।

मनुष्य को जटिल मत समझना। मनुष्य बहुत सरल है। लेकिन जितना सरल है उतना ही रहस्यपूर्ण है। जटिलता को समझना आसान है, क्योंकि जटिलता को बांटा जा सकता है, काटा जा सकता है, विभाजित किया जा सकता है। सरलता को जानना असंभव है, क्योंकि उसका कोई विश्लेषण नहीं हो सकता है। यूं समझो, वैज्ञानिक से अगर पूछो कि पानी क्या है तो वह जवाब देगा कि उद्जन

और अक्षजन का जोड़ है—एच. टू? ओ.। उसका दो हिस्सा उद्जन, एक हिस्सा अक्षजन; बस इन तीन हिस्सों से मिलकर पानी बन जाता है। उससे पूछो, उद्जन क्या है? तो भी वह जवाब देने में समर्थ है कि उद्जन कितने इलेक्ट्रान, कितने इलेक्‍ट्रान और प्रोटॉन से बनती है। लेकिन अगर उससे पूछो कि इलेक्ट्रान, और प्रोटीन, इलेक्‍ट्रान क्या हैं, तब मुश्किल खड़ी हो जाती है। क्योंकि उनका विभाजन नहीं हो सकता। इलेक्ट्रान का कोई विभाजन नहीं हो सकता। पानी को विभाजित किया जा सकता है, इसलिए उत्तर दिया जा सकता है कि यह दो का जोड़ है। लेकिन इलेक्ट्रान का कोई विभाजन संभव नहीं है—अविभाज्य है, सरल है; उसमें द्वैत नहीं है, दुविधा नहीं है; एक है। क्या उत्तर दो, इलेक्ट्रान इलेक्ट्रान है। इसलिए वैज्ञानिक के पास कोई उत्तर नहीं। वहां जाकर सब उत्तर गिर जाते हैं।

पदार्थ की दुनिया में जब यह घटता है तो चेतना की दुनिया में तुम सोच सकते हो, और भी अनंत—गुने रूप में यह घटना घटती है।’चेतना तो बिलकुल सरल है, बिलकुल अविभाज्य है। यह हो सकता है कभी इलेक्ट्रान का भी विभाजन हो सके, तब उत्तर हो जाएगा। लेकिन उत्तर केवल प्रश्न को थोड़ा और आगे सरका देगा। जिनसे इलेक्ट्रान बना होगा उन पर प्रश्न चला जाएगा। बात बनेगी भी और बनेगी भी नहीं। विज्ञान प्रश्नों को पीछे सरकाता जाता है, लेकिन अंततः एक जगह जाकर तो रुक ही जाना पड़ता है। वह चेतना है। चेतना को न विभाजित किया जा सकता, न विज्ञान के दूरदर्शक यंत्रों से देखा जा सकता, न सूक्ष्मदर्शक यंत्रों से देखा जा सकता, न विज्ञान के तराजुओं के पास ऐसे कोई मापदंड हैं जिन पर तौला जा सके। इसलिए विज्ञान तो इनकार ही कर देता है कि चेतना है ही नहीं—यह झंझट से बचने के लिए। क्योंकि अगर चेतना है तो विज्ञान को उत्तर देना होगा। और उत्तर नहीं है पास। और कोई अपने अज्ञान को मानने को राजी नहीं है। अहंकार मानने नहीं देता अज्ञान को। इसलिए यही उचित है कि जो हल न होता हो, कह दो कि है ही नहीं।

लेकिन ध्यान में चेतना का साक्षात्कार होता है। इनकार तो किया नहीं जा सकता, निरपवाद रूप से जब भी किसी व्यक्ति ने मन के पार छलांग लगायी है और ध्यान को जन्म दिया है, उसने जाना है चेतना को। इस एक सत्य के संबंध में कोई प्रबुद्ध पुरुष किसी दूसरे से भिन्न नहीं है। यह एक ही तत्य है जिसके संबंध में सारे प्रबुद्ध पुरुष राजी हैं, सहमत हैं। लेकिन जानना होगा स्वयं ही, खुद ही। तुम्हारे भीतर ही यह रहस्य है। तुम्हें उस गहराई में अपने भीतर डूबना होगा जहां इस रहस्य से तुम्हारा तालमेल हो जाए, जहां संगीत बज उठे, जहां एक हाथ की ताली बजे, जहां अद्वैत का बोध हो।

शतपथ ब्राह्मण ठीक ही कहता है : को वेद मनुष्यस्य? ‘कौन जान सका मनुष्य को?’ नहीं कोई दूसरा कभी जान सका। और जब तक मनुष्य भी मनुष्य ही है…।

‘मनुष्य’ शब्द को सोचना, विचारना—मन से बना है। जिसके पास मन है, वह मनुष्य। इसलिए मनुष्य भी जब तक मनुष्य है, इसे न जान सकेगा। मनुष्य से थोड़ा पार जाना होगा। मन के पार जाओगे तो मनुष्य .के पार चले जाओगे। वही भगवत्ता का लोक है।

मेरे लिए कोई भगवान नहीं है अस्तिस्व में, भगवत्ता है।

प्रत्येक मनुष्य बीज है भगवत्ता का। मनुष्यता पीछे छूट जाए तो भगवत्ता का फूल खिल जाता है।

प्रत्येक व्यक्ति छिपा हुआ भगवान है। नहीं जानता, नहीं पहचानता—यह और बात है। और यही उसका रहस्य है।

भगवत्ता है रहस्य मनुष्यता का। और जब तक तुम भगवत्ता से परिचित न हो जाओ तब तक नहीं अपने को जान सकोगे, नहीं पहचान सकोगे। शास्त्रों को दोहराते रहो तोतों की तरह, प्यारे वचन हैं, सुंदर शब्द हैं, मधुर काव्य है, सब है, मगर मुर्दा है। जीवंत तो तभी: होगा जब स्वयं की प्रतीति होगी। और वह तुम्हारा जन्म—सिद्ध अधिकार है।

लेकिन अपने भीतर जाना होगा। मंदिरों में जाने से नहीं होगा, मसजिदों में जाने से नहीं होगा, चर्चो और गुरुद्वारों में वह नहीं मिलेगा। वह तुम्हारे भीतर विराजमान है। ठहरो, आंख बंद करो, अपने भीतर डूबो। जब सब ठहर जाएगा तुम्हारे भीतर, कोई हलन—चलन न होगी, कोई विकल्प न होगा, निर्विकल्पता होगी—तत्‍क्षण जैसे सूर्य क्या आए, सुबह हो जाए, और तुम्हारे प्राणों की वीणा भी बज उठेगी! तुम्हारे गीत भी मुखर हो उठेंगे। तब तुम जानोगे, मगर गूंगे का गुड़ ही रहेगा जानना। जान लोगे लेकिन कह न सकोगे। जीने लगोगे मगर अभिव्यक्ति न दे सकोगे। इसलिए सद्गुरु सत्य नहीं दे सकता, लेकिन उसके जीने की आभा, उसकी मौजूदगी का प्रसाद, उसकी उपस्थिति निश्चित ही, तुम्हारे भीतर जो सोया है, उसे सुगबुगा सकती है। तुम्हारे भीतर जो जागा नहीं सदियों से, शायद करवट ले ले। तुम्हारे भीतर जो मूर्च्छा है वह उसके जागरण की चोट से टूट सकती है। और तुम्हारा बुझा दीया उसके जले दीये के करीब आ जाए… और यही सत्संग का अर्थ है : जले दीये के करीब बुझे दीये का आ जाना। यही गुरु और शिष्य का संबंध और नाता है। यह प्रेम की पराकाष्ठा है—जले हुए दीये के करीब बुझे हुए दीये का आ जाना और एक घड़ी ऐसी है, एक स्थान ऐसा है, जहां जले दीये से ज्योति एक क्षण में बुझे दीये में प्रवेश कर जाती है। और इसका गणित बड़ा अनूठा है। बुझे दीये को सब कुछ मिल जाता है और जले दीये का कुछ भी खोता नहीं है।

आज इतना ही।

‘राम नाम जान्यो नाहिं’ प्रवचनमाला से

दिनांक 20 मार्च 1981; श्री रजनीश आश्रम पूना।

 


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गुरू प्रताप साध की संगति–(प्रवचन–7)

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राम भजै सो धन्य—(प्रवचन—सातवां)

 दिनांक 27 मई, 1979;

ओशो कम्यून इटंरनेशल, पूना

सूत्र:

रामरूप को जो लख, सो जन परम प्रबीन।।

सो जन परम प्रबीन, लोक अरु बेद बखानै।।

सतसंगति में भाव—भक्ति परमानंद जानै।।

सकल विषय को त्याग बहुरि परबेस न पावै।।

केवल आपै आपु आपु में आपु छिपावै।।

भीखा सब तें छोटे होइ, रहै चरन—लवलीन।।

रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन।।

 

मन कम बचन बिचारिकै राम भजै सो घन्य।।

राम भजै सो धन्य,धन्य बपु मंगलकारी।।

रामचरन—अनुराग परमपद को अधिकारी।।

काम क्रोध मद लोभ मोह की लहरि न आवै।।

परमातम चैतन्यरूप महं दृष्टि समावै।।

व्यापक पूरनब्रह्म है भीखा रहनि अनन्य।।

मन क्रम बचन बिचारिकै राम भजै सो धन्य।।

 

धनि सो भाग जो हरि भजै, ता सम तुलै न कोई।।

ता सम तुलै न कोई, होइ निज हरि को दासा।

रहै चरन—लौलीन राम को सेवक खास।।

सेवक सेवकाई लहै भाव—भक्ति परवान।

सेवा को फल जोग है भक्तबस्य भगवान।।

केवल पूरन ब्रह्म है, भीखा एक न दोइ।

धन्य सो भाग जो हरि भजै, ता सम तुलै न कोई।।

 

गुरु—परताप साध की संगति!

सत्य को पाना एक उलटबांसी है, एक विरोधाभास है। सत्य को पाना तर्कातीत है, सारे गणित, सारे हिसाब—किताब से उल्टा है। और सबसे आधारभूत जो उलटबांसी है, वह यह—सत्य प्रयास से नहीं मिलता और बिना प्रयास भी नहीं मिलता। जो प्रयास करते ही नहीं, उन्हें तो मिलेगा ही नहीं और जो प्रयासमात्र ही करते हैं उन्हें भी नहीं मिलेगा।

साधारण तर्क का नियम ऐसा नहीं है। साधारण गणित की व्यवस्था ऐसी नहीं है। साधारण तर्क सोचता है, विचारता है—या तो प्रयास से मिलेगा या अप्रयास से मिलेगा। लेकिन सत्य एक उलटबांसी है—प्रयास से नहीं मिलता, बिना प्रयास से भी नहीं मिलता।

फिर सत्य कैसे मिलता है? प्रयास तो चाहिए ही चाहिए—अथक प्रयास चाहिए; समग्र प्रयास चाहिए। लेकिन उतने से काम न होगा, प्रयास के साथ—साथ प्रार्थना भी चाहिए—तब काम होगा, तब सोने में सुगंध आ जाएगी। प्रयास हो पूरा, तो तर्क कहेगा अब प्रार्थना की क्या जरूरत? जब हम सौ प्रतिशत प्रयास कर रहे हैं, तो प्रयास का फल मिलना चाहिए। लेकिन प्रयास अकेला हो तो अहंकार से छुटकारा नहीं होता। प्रयास अकेला हो तो अहंकार और मजबूत होता है, अस्मिता और सघन होती है, कर्ता और भी जड़ जमा लेता है।

और जब तक अहंकार है, तब तक सत्य की उपलब्धि नहीं। जब तक अहंकार है, तब तक परमात्मा की प्रतीति नहीं। जब तक अहंकार है, तब तक स्वयं का साक्षात्कार नहीं। और प्रयास से अहंकार नहीं जाएगा, प्रयास से तो अहंकार और बढ़ेगा। कोई भी प्रयास करो—धन कमाओगे, तो धनी का अहंकार हो जाएगा और त्याग करोगे, तो त्यागी का अहंकार हो जाएगा; ज्ञान अर्जित करोगे तो ज्ञानी का अहंकार और ध्यान में उतरोगे, तो ध्यानी का अहंकार।

कृत्य से अहंकार का छुटकारा नहीं है। अहंकार पीछा करेगा ही, तुम जो भी करोगे उसी में से निकल—निकल आएगा। नए—नए रूप लेगा, नई अभिव्यक्तियां लेगा, नए—नए ढंग कि पहचान में भी न आये। तुम चेष्टा करके विनीत हो जाओगे तो तुम्हारी विनम्रता में अहंकार खड़ा होगा। तुम्हारे भीतर उद्घोषणा होने लगेगी—मुझसे विनम्र और कोई भी नहीं। देखो मुझसे विनम्र और कोई भी नहीं! तुम्हारी विनम्रता भी अहंकार का ही आभूषण बन कर रह जाएगी, उसकी ही दासी। इसलिए प्रयास पूरा हो तो भी उपलब्धि नहीं होगी।

अहंकार से कैसे छुटकारा होगा? अहंकार प्रार्थना में गलता है। जैसे सूरज के उगते ही बर्फ गलने लगती है; जैसे सूरज के उगते ही ओस की बूंदें उड़ने लगती हैं—ऐसे ही प्रार्थना के जगते ही अहंकार शून्य होने लगता है। प्रार्थना प्रसाद है। प्रयास तुम्हारा तुमसे ऊपर कैसे ले जाएगा? तुम्हारा प्रयास तुम्हें ही तुमसे ऊपर कैसे ले जाएगा? यह तो अपने ही जूतों के बंदों को पकड़कर अपने को उठने की कोशिश होगी। नहीं, सहारा मांगना होगा। पार का सहारा मांगना होगा। परमात्मा को पुकारना होगा। उसका हाथ तलाशना होगा। वह उठाएगा तो उठना हो पाएगा। वह जगाएगा तो जगना हो पाएगा।

लेकिन उस तक पुकार उसकी ही पहुंचती है जिसने अपनी तरफ से जो भी किया जा सकता था कर लिया। काहिलों की, सुस्तों की, अकर्मण्यों की प्रार्थना उस तक नहीं पहुंचती। अकर्मण्य की प्रार्थना में प्राण नहीं होते। अकर्मण्य की प्रार्थना तो लाश है, उसमें से बदबू उठती है, सुगंध नहीं। आलसी की प्रार्थना का क्या अर्थ; सिर्फ आलस्य को छिपाने के लिए उपाय है। आलसी की प्रार्थना तो अपने आलस्य को ढांकने का ढंग है। प्रार्थना तो उसी की है जिसने अपने को पूरा दांव पर लगाया। प्रार्थना तो उसी की है जिसने अपने को पूरा दांव पर लगाया। प्रार्थना तो उसी की है. जिसने जो भी किया जा सकता था किया, कुछ भी अनकिया न छोड़ा। वह प्रार्थना का अधिकारी है। उसकी प्रार्थना में प्राण होंगे, उसकी प्रार्थना में पंख होंगे, उसकी प्रार्थना का अधिकारी है। उसकी प्रार्थना में प्राण होंगे, उसकी प्रार्थना में पंख होंगे, उसकी प्रार्थना उड़ेगी अनंत तक।

प्रार्थना का क्या अर्थ होता है? प्रार्थना का अर्थ होता है कि मैं जो कर सकता था कर चुका, अब असहाय हूं। मैं जो कर सकता था कर चुका, अब विवश हूं। अब तुम्हें पुकारता हूं, अब तुम कुछ करो। प्रार्थना का अर्थ है: मेरे किए से किनारे तक आ गया लेकिन तुम हाथ बढ़ाओ तो किनारे से उठूं। अन्यथा मझधार में ही लोग नहीं डूबते, किनारों पर भी लोग डूब जाते हैं। अक्सर किनारों पर डूब जाते हैं, मझधारों से तो बच जाते हैं, क्योंकि मझधारों में तो सावधान रहते हैं, सचेत रहते हैं, होश भरे रहते हैं। किनारे पर आते—आते बेहोश हो जाते हैं, सोचते हैं: अब तो आ ही गए, अब तो आ ही गए, अब क्या चिन्ता? निश्चिंत होने लगते हैं। उसी निश्चिंतता में खतरा है। किनारे पर आते—आते भरोसा आने लगता है कि अब तो पहुंच ही गए, अब क्या पुकारना है!

मैंने सुना है एक नाव डूबी—डूबी हो रही थी। लोग घुटने टेक कर प्रार्थना कर रहे थे परमात्मा से। सिवाय उसके कोई उपाय सूझता नहीं था। तूफाना जोर का था। आंधी भयंकर थी। लहरें आकाश छूने की चेष्टा कर रही थीं। नाव छोटी थी, डांवांडोल थी। पानी भीतर आ रहा था, उलीच रहे थे लेकिन कोई आशा न थी। किनारा बहुत दूर…किनारे का कोई पता न चलता था।

सारे लोग तो प्रार्थना कर रहे थे, लेकिन एक मुसलमान फकीर चुपचाप बैठा था। लोगों को उस पर बहुत नाराजगी आई। लोगों ने कहा कि तुम फकीर हो, तुम्हें तो हमसे पहले प्रार्थना करनी चाहिए और तुम चुप बैठे हो! हम सबका जीवन संकट में है, तुम से इतना भी नहीं होता कि प्रार्थना करो। और हो सकता है हमारी प्रार्थना न पहुंचे क्योंकि हमने तो कभी प्रार्थना की ही नहीं पहले। तुम्हारी पहुंचे, तुम जिंदगी—भर प्रार्थना में डूबे रहे हो। और आज तुम्हें क्या हुआ है? रोज हम तुम्हें देखते थे प्रार्थना करते—सुबह, दोपहर, सांझ। मुसलमान फकीर पांच दफा नमाज पढ़ता था। आज तुम्हें क्या हुआ है? आज तुम क्यों किंकर्तव्यविमूढ़ मालूम होते हो?

लेकिन फकीर हंसता रहा। नहीं की प्रार्थना और तभी जोर से चिल्लाया कि रुको, क्योंकि लोग प्रार्थना कर रहे थे—कोई कह रह था कि जाकर मैं हजार रुपये दान करूंगा; कोई कहता था कि मस्जिद को दे दूंगा; कोई कहता था चर्च को दान कर दूंगा; कोई कह रहा था कि संन्यास ले लूंगा सब छोड़कर। बीच में फकीर एकदम से चिल्लाया कि सम्हलो, इस तरह की बातें न करो, किनारा दिखाई पड़ रहा है।

किनारा करीब आ गया था। तूफान की लहरें नाव को तेजी से किनारे की तरफ ले आई थीं। बस सारी प्रार्थनाएं वहीं समाप्त हो गयीं। अधूरी प्रार्थनाओं में लोग उठे गए, अपना सामान बांधने लगे, भूल ही गए प्रार्थना और परमात्मा को। तब फकीर प्रार्थना करने बैठा। लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा: तुम भी एक पागल मालूम होते हो। अब क्या प्रार्थना कर रहे हो? अब तो किनारा करीब आ गया।

उस फकीर ने कहा कि मैंने सद्गुरुओं से सुना है नावें मझधार में नहीं डूबतीं, किनारों पर डूबती हैं। मैंने सद्गुरुओं से सुना है कि मझधार में तो लोग सचेष्ट होते हैं, सावधान होते हैं; किनारों पर आकर बेहोश हो जाते हैं। मैंने सद्गुरुओं सेसुना है कि मझधार में तो लोग प्रार्थनाएं करते हैं, परमात्मा को पुकारते हैं; किनारा करीब देखते ही परमात्मा को भूल जाते हैं। फिर कौन फिक्र करता है! जब किनारा ही करीब आ गया तो कौन परमात्मा की फिक्र करता है। चालबाज तो ऐसे हैं, बेईमान तो ऐसे हैं कि जिनका हिसाब नहीं।

जब किनारा ही करीब आ गया तो कौन परमात्मा की फिक्र करता है। चालबाज तो ऐसे हैं, बेईमान तो ऐसे हैं कि जिनका हिसाब नहीं।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन बहुत धन कमाकर लौटता था और नाव डूबने लगी। हालत ऐसी आ गई, आखिरी हालत आ गई—अब डूबी, तब डूबी…अब ज्यादा देर नहीं। जब तक भरोसा था तब तक उसने हिम्मत रखी। जब देखा कि अब डूबी ही तो उसने कहा कि सुनो, परमात्मा से कह रहा है, कि मेरी जो सात लाख की कोठी है वह दान कर दूंगा। उस कोठी से उसे बड़ा मोह था। वैसी कोठी नहीं थी दूर—दूर तक। दूर—दूर तक उसकी कोठी की ख्याति थी। बहुत बार लोगों ने दाम देने चाहे थे। सम्राटों ने कोठी मांगी थी, उसने नहीं दी थी। वही उसका एकमात्र लगाव था जिंदगी में। उसने कहा: कोठी भी दे दूंगा। अब जब जिंदगी ही खतरे में है तो तू कोठी ले लेना। दान कर दूंगा कोठी को गरीबों में। कोठी बेचकर बांट दूंगा सारा पैसा।

संयोग की बात नाव बच गई। अब तुम मुल्ला का संकट समझ सकते हो। और लोगों ने भी सुन ली थी प्रार्थना। वे कहने लगे: मुल्ला, अब?

मुल्ला ने कहा: घबड़ाओ मत। जिस बुद्धि से प्रार्थना निकली है, उसी बुद्धि से कोई तरकीब भी निकलेगी। परमात्मा इतनी आसानी से मुझे लूट नहीं सकता। अब किनारा आ गया है, अब देख लेंगे।

और दूसरे दिन उसने जाकर गांव में डुंडी पिटवा दी कि कोठी नीलाम हो रही है। दूर—दूर से लोग खरीददार आये। बड़ी भीड़ लग गई। राजे आये, महाराजे आए। उसकी कोठी वैसी थी। और सब चकित हुए, उसने कोठी के सामने ही संगमरमर के खंभे से एक बिल्ली बांध रखी थी।

लोगों ने पूछा: यह बिल्ली कैसी बांधी, किसलिए बांधी?

उसने कहा: ठहरो, पहले सुनो। बिल्ली के दाम सात लाख रुपया, कोठी का दाम एक रुपया। मगर दोनों साथ बिकेंगे।

लोगों ने कहा: पागल हो गए हो, बिल्ली के दाम सात लाख! आवारा बिल्ली, यहीं मुहल्ले की बिल्ली पकड़ ली है, तुम्हारी भी नहीं है, तुम्हारे बाप की भी नहीं है, इसी मुहल्ले में आवारा घूमती रही है—इसके दाम सात लाख और कोठी का दाम एक रुपया!

मुल्ला ने कहा: तुम इस चिंता में न पड़ो, ये दोनों साथ बिकेंगी।

लोगों ने कहा: हमें क्या प्रयोजन है! कोठी के दाम तो सात क्या अगर नौ भी मांगे तो हम देने को राजी हैं।

बिक गई कोठी एक रुपये में और सात लाख में बिल्ली। सात लाख मुल्ला ने तिजोड़ी में रखे, एक रुपया गरीबों में बांट दिया।

वह जो मझधार में बच भी जाएगा किनारे पर आकर फिर बेईमान हो जाएगा। क्योंकि प्रार्थना उसका हिसाब थी, गणित थी। प्रार्थना उसका प्राण नहीं था! प्रार्थना सिर्फ बचाव का एक उपाय था; एक शस्त्र था, एक साधना नहीं थी; एक सुरक्षा थी, समर्पण नहीं थी।

तुम्हारा प्रयास हो सकता है तुम्हें किनारे तक ले आये, लेकिन किनारे के ऊपर कौन तुम्हें खींचेगा? वे हाथ तो सिर्फ प्रार्थना के द्वारा ही तुम तक आ सकते हैं। प्रार्थना सेतु है मनुष्य और परमात्मा के बीच। प्रार्थना ही मनुष्य को परमात्मा से जोड़ती है, प्रयास नहीं। और प्रार्थना क्यों जोड़ती है? क्योंकि प्रार्थनापूर्ण हृदय खुल जाता है। जैसे कमल खिलता है सुबह और सूरज की किरणें उसमें नाचती हुई उसके अंतस्तल तक चली जाती हैं, ऐसे ही प्रार्थना में प्राण खुलते हैं, प्राण का कमल खुलता है और परमात्मा नाचता हुआ प्रवेश कर जाता है। प्रार्थना में प्रसाद की वर्षा होती है।

मगर प्रार्थना कहां सीखोगे? प्रयास तो तुम जानते हो। यही प्रयास जो तुमने जिंदगी में धन कमाने लिए किया है, यही प्रयास काम आ जाएगा। यही दौड़—धूप, यही चिंता—विचार, यही श्रम काम आ जाएगा। सिर्फ दिशा बदलेगी—जो धन की तरफ लगी थी चेष्टा, ध्यान की तरफ लग जाएगी; जो पद की तरफ लगा था प्रयत्न, वह परमात्मा की तरफ लग जाएगा; जो हठ संसार को जीतने के लिए था, वही आत्म—विजय के लिए संलग्न हो जाएगा।

तुम प्रयास तो जानते हो क्योंकि प्रयास का अभ्यास संसार में सभी कर रहे हैं। थोड़ा या ज्यादा, कम या ज्यादा, मात्रा के भेद होंगे लेकिन प्रयास से तो सभी परिचित हैं। प्रार्थना कहां सीखोगे? प्रार्थना तो संक्रामक होती हो। प्रार्थना तो केवल उनसे पास बैठकर ही हो सकती है जिन्होंने प्रार्थना जानी हो। प्रार्थना तो एक अर्पूव शब्दातीत तरंग है। मस्तों के पास बैठोगे तो मस्त हो जाओगे; उदास लोगों के पास बैठोगे तो उदास हो जाओगे; रोतों के पास बैठोगे तो रोने लगोगे। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कब तक अपने की बचाओगे?

प्रार्थना भी ऐसे ही सीखी जाती है—गुरु—परताप साध की संगति। गुरु का अर्थ है: जिसने पा लिया, जिसने अंधकार तोड़ दिया अपना, जिसके भीतर रोशनी उतर आई है, जिसकी वीणा बज उठी। उसके पास बैठोगे तो उसकी बजती वीणा तुम्हारी सोई वीणा के तारों को भी झंकृत करेगी। संगीतज्ञ कहते हैं कि अगर एक ही कक्ष में वीणावादक वीणा बजाए और दूसरी वीणा को कोने में रख दिया जाए तो वीणावादक जब अपनी वीणा को समग्रता से छेड़ेगा तो कोने में रखी वीणा के तार भी कंपने लगते हैं, उनसे भी स्वर उठने लगता है क्योंकि तरंगें पूरे कक्ष को भर देती हैं। और जब एक वीणा जग उठती है तो दूसरी वीणा भी कैसे सोई रह सकती है?

सोये हुए आदमी को कोई दूसरा सोया आदमी हुआ आदमी नहीं जगा सकता या कि तुम सोचते हो जगा सकता है? सोये हुए आदमी को कोई जागा हुआ ही जगा सकता है, क्योंकि जागा हुआ हिला सकता है, क्योंकि जागा हुआ पुकार दे सकता है, क्योंकि जागा हुआ लाकर ठंडा पानी तुम्हारी आंखों पर डाल सकता है, क्योंकि जागा हुआ कोई—न—कोई इंतजाम कर सकता है—बिस्तर से खींचकर तुमको बाहर कर सकता है, तुम्हारा कंबल छीन सकता है। जागा हुआ कुछ कर सकता है। लेकिन जो खुद ही सोया है वह क्या करेगा? शायद सोये हुए आदमी की मनोदशा, सोये हुए आदमी के आसपास की तरंग, तुम अपने—आप जग रहे होते तो भी न जगने दे। क्योंकि सोया हुआ आदमी भी अपने पास एक विधुत—क्षेत्र निर्मित करता है। तुमने कभी ख्याल किया, तुम्हारे पड़ोस में बैठा हुआ एक आदमी जम्हाई लेने लगे, तुम्हें जम्हाई आने लगती है। तुमने शायद ध्यान नहीं दिया होगा, पास में बैठा एक आदमी सोने लगे, बस तुम्हें नींद आने लगती है।

हर व्यकित अपने आसपास एक ऊर्जा—क्षेत्र निर्मित करता है। जो उसके भीतर होता है वह उसके बाहर तरंगित होता है।

एक दुकानदार, फलों का बेचने वाला, एक लोमड़ी को पाल रखा था। लोमड़ी बड़ी चालबाज, होशियार जानवर है—जानवरों में राजनीतिज्ञ जानवर है। उसने लोमड़ी पाल रखी थी दुकान की देख—रेख के लिए। और लोमड़ी बड़ी होशियार हो गई थी। अगर कभी दुकानदार भोजन के लिए जाता, लोमड़ी से कह जाता कि बैठ और गौर रखना, ध्यान रखाना—कोई कोई चीज न चुरा ले, कोई अंदर न आए। शोरगुल मचा देना, मैं आ जाऊंगा।

मुल्ला रास्ते से गुजर रहा था। उसने सुना, दुकानदार लोमड़ी से कह रहा है कि बैठ यहां मेरी जगह और देख और सावधान रहना। कोई भी व्यक्ति किसी तरह की कारगुजारी करे, तुझे शक हो तो आवाज कर देना। किसी भी तरह का कृत्य कोई आदमी यहां दुकान के आसपास करे तो तू सावधान रहना। मुल्ला ने सुना। दुकानदार तो भीतर भोजन करने चला गया। मुल्ला ने देखे अंगूरों के गुच्छे, अनार, नाशपातियां, सेव…उसकी लार टपकने लगी। लेकिन वह लोमड़ी सामने बैठी थी बिलकुल सजग, बिलकुल योगस्थ, ध्यानस्थ। वह बिलकुल देख रही थी, वह मुल्ला को भी बहुत गौर से देखने लगी।

मुल्ला ने मालूम क्या किया? मुल्ला उस लोमड़ी के सामने ही बैठ गया, सड़क पर, आंखें बंद कर लीं और झपकी खाने लगा। थोड़ी देर में लोमड़ी सो तब उसने अंगूर फटकार दिए।

जब दुकानदार आया, उसने देखा अंगूर नदारद हैं। उसने लोमड़ी पूछा: अंगूर कहां गए?

उसने कहा कि मेरे देखे तो यहां कोई आया नहीं।

दुकानदार ने कहा: लेकिन काई जरूर आया होगा। तूने किसी को यहां देखा था?

उसने कहा: हां, एक आदमी को मैने चलते देखा था।

उसने कुछ किया था?

लोमड़ी ने कहा: उसने कुछ भी नहीं किया, करता तो मैं आवाज कर देती। उस आदमी ने तो कुछ नहीं किया, वह तो बैठकर सो गया। हां, उसके सोने से एक झंझट हुई उसको सोते देखकर—वह घुर्राने लगा, मुझे भी नींद आ गई।

उस दुकानदार ने कहा: आगे से ख्याल रख, सोना भी एक कृत्य है, एक क्रिया है। आगे से अगर इस तरह कोई आदमी हरकत करे सोने की यहां तेरे सामने तो बिलकुल सावधान हो जाना। तब तो समझ ही लेना कि कोई बहुत चालबाज आदमी…तेरे से भी ज्यादा चालबाज आदमी है।

सोये हुए आदमियों को देखकर तुम्हें नींद आने लगे यह स्वाभाविक है, क्योंकि सोया हुआ आदमी अपने आसपास एक विद्युत—मंडल पैदा करता है जिसमें नींद आती है। जम्हाई लेते आदमी के पास बैठा हुआ एक दूसरा आदमी जम्हाई लेने लगता है। ठीक ऐसा ही जागरण के तल पर भी होता है। अगर कोई जागा हुआ आदमी सोये हुए आदमी के पास बैठ जाए, कुछ भी न करे, आवाज भी न दे…।

कभी तुम एक कोशिश करना, एक छोटो—सा प्रयोग करना, तुम चकित होओगे। तुम्हारी पत्नी सोयी हो, पति सोया हो, बेटा सोया हो, उसके पास सिर्फ बैठ जाना बहुत जागरूक होकर, जितने जागरूक हो सको, जितनी सजगता ला सको, प्राणपण से, सारी शक्ति लगाकर सिर्फ जागे हुए उसके पास बैठ जाना। तुम चकित हो जागोगे कि क्षण भी नहीं बीतेंगे कि वह आंख खोल देगा। ये जाने—माने प्रयोग हैं। उसके भीतर कुछ हो जाएग। तुम्हारा जागरण उस पर संघात करेगा, उस पर चोट करेगा, वह करवट लेने लगेगा, उसकी नींद टूटने लगेगी। गुरु—परताप…! ऐसे ही परम रूप से जो जाग्रत हैं उनके पास बैठने से, प्रसाद की वर्षा होती है। उनके प्रताप से, उनके आभामंडल से, उनसे विकीर्ण होती हुई किरणों से, तुम्हारी नींद टूटने लगती है।

गुरु—परताप साध की संगति! और दीवानों के साथ उठता—बैठना, साधुओं के साथ उठना—बैठना। क्योंकि हम जिन्दगी में वही करते हैं, हम जिंदगी में वही हो जाते हैं, जिन तरंगों को हम अपने भीतर आत्मासात करते हैं।

तुमने कहावत सुनी होगी, आदमी वही हो जाता है जो भोजन करता है। लेकिन तुम कहावत का अर्थ शायद ही समझे होओ। कहावत का अर्थ तो साफ मालूम होता है, लेकिन ऐसी कहावतें कई अर्थ रखती हैं। ऊपरी अर्थ तुम्हारी समझ म आता है—आदमी वही हो जाता है जैसा भोजन करता है। तुम सोचते हो, तो फिर शाकाहार करना चाहिए; मांसाहार करोगे, जंगली जानवरों को खाओगे, तो जंगली जानवर हो जाओगे। तुमने फिर दूसरी बात सोची है—शाकाहारी कीरोगे तो साग—सब्जी हो जाओगे। वह शाकाहारी कभी नहीं कहते। शाकाहारी जैन मुनि लोगें को समझाते है: कभी मांसाहार नहीं करना, नहीं तो जंगली जानवरों जैसे हो जाऐगे। समझ गए, ठीक। और शाकाहार करोगे फिर? और बदतर हालत हो जाएगी। झाड़—झंखाड़ हो गए, पत्ते इत्यादि निकलने लगे, फुल—फल लगने लगे। और एक झंझट हो जाएगी। जानवर तो कम—से—कम विकसित अवस्था है, पौधों से तो विकसित अवस्था है।

भोजन तुम जो करोगे वैसे ही हो जाओगे—इसका ऐसा अर्थ नहीं है जैसा लोग करते हैं, नहीं तो आदमी दूध पिये तो दूध हो जाए। और फिर मोरारजी देसाई का क्या हो? जीवन—जल पियो, जीवन—जल हो गए।

नहीं, यह ऊपरी अर्थ काम नहीं आएगा; भोजन का बहुत गहरा अर्थ है। भोजन का, आहार का अर्थ होता है: हम जिन तरंगों को अपने भीतर आत्मासात करते हैं, हम वैसे ही हो जाते हैं। आहार से मतलब है: सूक्ष्म आहार। जो संगीत को पिएगा, उसके भीतर कुछ संगीतपूर्ण होने ही वाला है, हो ही जाएगा। अगर जो संगीत को पीता है बहुत, संगीत में जीता है बहुत, वीणा बजाता है, बांसुरी सुनता है, सितार में डूबता है—इसकी जिंदगी में फर्क होने शुरू हो जाएंगे, इसकी जिंदगी में संगीत की छाप आनी शुरू हो जाएगी, इसके व्यवहार में संगीत आने लगेगा, उसके उठने—बैठने में संगीत छाने लगेगा, यह बोलेगा तो संगीत होगा, यह चुप रहेगा तो संगीत होगा। जो पूजा में, प्रार्थना में, अर्चना में लीन होगा, स्वाभावतः उसके भीतर कुछ पूजा की घूप जैसी सुगंध उठने लगेगी, उसके भीतर मंदिर का दिया जलने लगेगा।

आहार से मतलब इतना ही नहीं है कि तुम जो मुंह से लेते हो, आहार से अर्थ है कि तुम जो आत्मा से ग्रहण करते हो। जो गालियां सुनेगा, उन लोगों के पास बैठेगा जहां गालो—गलौज दिये जा रहे हैं… क्या तुम सोचते हो उसके जीवन में संगीत और काव्य पैदा हो जाएगा, गालियां ही पैदा होंगी। बबूलों से दोस्ती करोगे, बबूल हो जाओगे। दोस्ती ही करनी हो तो कमलों से करना क्योंकि हम जिनके साथ होते हैं वैसे हो जाते हैं। और आहार बड़ी चीज है, भोजन तो बहुत क्षुद्र है बात।

रात पूरे चांद के नीचे बैठकेर देखा, कभी टकटकी लगाकर आकाश में पूर्णिमा के चांद को देखा, कुछ तुम्हारे भीतर भी आंदोलित होने लगता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य सबसे पहले समुद्र में ही पैदा हुआ। पहला रूप जीवन का मछली है। हिंदुओं की बात ठीक मालूम होती है कि परमात्मा का पहला अवतार मत्स्य अवतार, मछली का अवतार। वैज्ञानिक विकासवाद भी इसे स्वीकार करता है। और उसके आधार हैं। अब भी मनुष्य के शरीर में जल का अनुपात अस्सी प्रतिशत है। अस्सी प्रतिशत तो तुम जल हो। और तुम्हारे भीतर जो अस्सी प्रतिशत जल है उसमें वे ही रासायनिक द्रव्य हैं जो सागर के जल में हैं—उतना ही नमक, उतने ही रासायनिक द्रव्य, ठीक उतने ही।

तुम्हारे भीतर साधारण जल नहीं है, ठीक समुद्र का जल है। मां के पेट में भी, बच्चा जब पैदा होता है तो मां के पेट में समुद्र के जल जैसी अवस्था होती है। छोटा—सा कुंड बन जाता है समुद्र के जल का, उसी में बच्चा तैरता है। फिर से यात्रा शुरू होती है, पहले मछली की तरह…। अगर बच्चे का तुम विकास देखो नौ महीने का तो तुम मछली से बन्दर तक का विकास देखोगे। इसलिए जब स्त्रियां गर्भवती होती हैं तो नमक ज्यादा खाने लगती हैं। नमकीन चीजें उन्हें अच्छी लगने लगती हैं, क्योंकि पेट में नमक की बहुत जरूरत पड़ जाती है; वह जो बच्चा है, उसके लिए नमक से भरा हुआ कुंड चाहिए—उसमें ही तैरेगा, उसमें ही बड़ा होगा।

पूर्णिमा का चांद जब होता है तो तुमने सागर में उतुंग लहरें उठती देखीं, और तुम भी तो अस्सी प्रतिशत सागर का जल हो—पूरे चांद को देखकर तुम्हारे भीतर भी तरंगें उठती होंगी, उठती हैं। यह जानकर तुम हैरान होओगे कि सर्वाधिक लोग पागल पूर्णिमा की रात्रि को होते हैं। सर्वाधिक लोग बुद्धत्व को भी उपलब्ध पूर्णिमा की रात्रि को होते हैं। गिरना भी पूर्णिमा की रात्रि, चढ़ना भी पूर्णिमा की रात्रि। बुद्ध के जीवन में तो बड़ा प्यारा उल्लेख है कि वे पूर्णिमा के दिन ही पैदा हुए, पूर्णिमा के दिन ही बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, पूर्णिमा के दिन ही उनकी मृत्यु हुई।

इस दुनिया में बुद्धत्व को जितने लोग उपलब्ध हुए हैं उनमें से अधिक लोग पूर्णिमा के दिन हुए हैं। पूर्णिमा की रात बड़ी अद्भुत है! और पागल भी लोग पूर्णिमा की रात्रि ही होते हैं। दुनिया में हत्याएं भी पूर्णिमा की रात सबसे ज्यादा होती हैं और आत्महत्याएं भी सबसे ज्यादा होती हैं। हिंदी में भी हम पागल को चांदमारा कहते हैं, अंग्रेजी में लूनाटिक कहते हैं। लूनाटिक का मतलब भी चांदमारा।

अगर चांद का इतना प्रभाव होता है, इतने दूर चांद का इतना प्रभाव होता है कि किसी को पागल कर दे, कि किसी को बुद्धत्व को पहुंचा दे, कि किसी की आत्माहत्या हो जाए, कि कोई हत्या कर दे। और ऐसा आदमी तो बहुत मुश्किल है खोजना जो चांद से बिलकुल प्रभावित न होता हो—असंभव है! किसी—न—किसी रूप में चांद प्रभावित करता है।

तो क्या उन लागों की हम बात करें जिनके भीतर का चांद प्रगट हो गया हो, जिनके भीतर की बदलियां कट गई हों, जिनके भीतर पूर्णिमा हो गई हो; जो भीतर पूर्ण हो गए हों, जिन्होंने चैतन्य की पूर्णता को पा लिया हो। वे ही सद्गुरु हैं, उनके प्रताप से प्रार्थना का जन्म होता है। और उनके आसपास जो जमात इकट्ठी हो जाती है—दीवानों की, पियक्कड़ों की, मस्तों की, उनको ही साधु कहा है। साधुओं की संगति हो और गुरु का प्रताप हो, तो तुम्हारे सारे प्रयास सार्थक हो जाएंगे। क्योंकि फिर प्रयास + प्रार्थना…। तुम्हारे भीतर प्रार्थना की धुन बजने लगेगी। और जब प्रयास + प्रार्थना, तो फिर कोई बाधा न रही। प्रयास + प्रार्थना = परमात्मा—ऐसा समीकरण है। गुरु—परताप साध की संगति!

संगीत की ध्वनि वायु में जैसे मचलती!

या पिछले पहर रात अमृत में ढलती!

यों ध्यान में यौवन के थिरकता है रूप:

ज्यों स्वप्न की परछाई नयन में चलती!

ज्यों सोम सरोवर में हृदय—हंस का स्नान!

ज्यों चांदनी लहरों में बांसुरी की तान!

मुग्धा के मुदुल अधर पै यों साध की बात:

ज्यों ओस—धुले फूल की पावन मुसकान!

सद्गुरुओं के पास क्या घटता है शब्दों में कहना कठिन है। संगीत की ध्वनि वायु में जैसे मचलती! लेकिन कुछ इशारे किये जा सकते हैं। सद्गुरु की संगति में कुछ घटता है, कुछ संगीत… संगीत की ध्वनि वायु में जैसे मचलती! अब संगीत की कोई परिभाषा नहीं हो पायी अभी तक; कभी हो भी नहीं पाएगी। संगीत को भाषा में अनुवादित करने का भी कोई उपाय नहीं है। और संगीत में कोई अर्थ होता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं। संगीत में कुछ अर्थ नहीं होता। अभिप्राय तो बहुत होता है, अर्थ बिलकुल नहीं होता। आनंद तो बहुत फलित होता है। लेकिन कोई तुमसे पूछे कि क्या ठीक—ठीक बोलो, शब्दों में बांधों तो बस, तुम एकदम मूक हो जाओगे, गूंगे हो जाओगे। गूंगे को गुड़ हो जाता है। संगीत से ज्यादा गूंगे का गुड़ और क्या है!

सद्गुरु के पास क्या घटता है, वह तो महा—संगीत है। साधरण संगीत तो सुना जाता है कानों से, सद्गुरु के पास जो घटता है, वह तो ग्रहण किया जाता है केवल अंतरात्मा से। कान भी उसे नहीं सुनते, आंख भी उसे नहीं देखती, हाथ उसे छू नहीं सकते; उसके लिए तो केवल हृदय ही देखता है, हृदय ही सुनता है, हृदय ही छूता है; वह तो प्रेम की अत्यंत पावन घटना है।

संगीत की ध्वनि वायु में जैसे मचलती!

या पिछले पहर रात अमृत में ढलती!

या कभी—कभी तुम जल्दी उठ आये हो…अब तो लोगों ने उठना बंद कर दिया, लोग देर से सोते और देर से उठते हैं, और चौबीस घंटों का जो सबसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहर है—जब अमृत ढलता है—उससे चूक जाते हैं। उस अमृत ढलने के पहर को ही हमने ब्रह्ममुहूर्त कहा था। अभी जब सूरज उगा नहीं, रात जाती—जाती मालूम हो रही है; रात का आखिरी विदाई का क्षण आ गया और सूरज अभी उगा नहीं, बस उगेगा, वह जो मध्य का काल है, वह जो संध्या है, वह जो बीच का क्षण है, वह जो अंतराल है, वह ब्रह्ममुहूर्त है। उस क्षण अमृत ढलता है। क्यों? क्योंकि जब भी इतना बड़ा रूपांतरण होता है कि रात दिन में बदलती है तो थोड़ी—सी देर को न रात रह जाती है,न दिन रह जाता है, मध्य की अवस्था आ जाती है। और मध्य की अवस्था संतुलन की अवस्था है, सम्यकत्व की अवस्था है।

इसलिए दो पहर प्रार्थना के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं—एक सुबह, जब रात जा चुकी और दिन अभी आया नहीं; और एक सांझ, जब दिन जा चुका और रात अभी आयी—आयी है, अभी आयी नहीं। ये दो क्षण प्रार्थना के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन दो क्षणों में तुम पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से सर्वाधिक मुक्त होते हो; इन दो क्षणों में तुम अपने सर्वाधिक निकट होते हो; इन दो क्षणों में परमात्मा तुम्हारे बहुत पास होता है, अगर जरा हाथ बढ़ाओ तो हाथ में हाथ आ जाए।

इसलिए भारत में तो…क्योंकि इस देश ने प्रार्थना पर जितने प्रयोग किये दुनिया में किसी और देश ने नहीं किये। दुनिया के और देशों में और बहुत काम हुए हैं, उस संबंध में हम कुछ दावा नहीं कर सकते अपना—विज्ञान है, गणित है, भौतिकशास्त्र है, रसायनशास्त्र है, इन्जीनियरिंग है, सारी दुनिया में बड़े काम हुए हैं। हम तो दावा सिर्फ एक कर सकते हैं कि हमने प्रार्थना का विज्ञान खोजा है। चूंकि भारत ने प्रार्थना पर बहुत प्रयोग किये, यह बात समझ में आ गई कि चौबीस घंटे में दो क्षण ऐसे होते हैं जो सर्वाधिक परमात्मा के निकट ले जाते हैं। इसलिए भारत में संध्या प्रार्थना का एक नाम ही हो गया। लोग कहते हैं: संध्या कर रहे हैं। संध्या कर रहे हैं अर्थात् प्रार्थना कर रहे हैं। प्रार्थना और संध्या पर्यायवाची हो गए।

संगीत की ध्वनि वायु में जैसे मचलती!

या पिछले पहर रात अमृत में ढलती!

कुछ ऐसी ही घटना घटती है गुरु के पास—सुबह—सुबह की ताजी हवा, सुबह—सुबह की ताजी किरण, सुबह—सुबह की ताजी ओस, सुबह का वह नहाया हुआ क्वांरा रूप…! यों ध्यान में यौवन के थिरकता है रूप… जैसा युवावस्था में सौंदर्य आकर्षित करता है, ऐसा ही सत्य के खोजी की सद्गुरु आकर्षित करता है।

ज्यों स्वप्न की परछाई नयन में चलती! और बात इतनी बारीक है कि स्वप्न की भी अगर परछाई बने तो तुलना हो सकती है। स्वप्न तो स्वयं ही परछाई है, परछाई की परछाई नहीं बनती। लेकिन अगर स्वप्न की भी परछाई बन सके तो सद्गुरु के पास जो घटता है, वह इतना बारीक है, इतना नाजुक है, इतना सूक्ष्म…।

ज्यों सोम सरोवर में हृदय—हंस का स्नान! जैसे चांद का सागर हो, चांदनी का सागर हो…या सोम का हम दूसरा अर्थ ले सकते हैं, वेद में सोमरस की चर्चा है, सोमरस अमृत का पर्यायवाची है; अगर सोमरस का ही कोई सागर हो, अमृत का ही कोई सागर हो…ज्यों सोम सरोवर में हृदय हंस का स्नान! और हृदय हंस बन जाए, और सोम के सागर में स्नान करे, ऐसा ही शिष्य का स्नान हो जाता है गुरु के पास। गुरु बन जाता है सोम सरोवर, शिष्य बन जाता है हंस!

ज्यों चांदनी लहरों में बांसुरी की तान!

मुग्धा के मृदुल अधर पै यों साध की बात:

ज्यों ओस—धुले फूल की पावन मुसकान!

जैसे सुबह—सुबह ओस में धुले हुए फूल की पावन मुसकान है, ऐसी ही कुछ अभूतपूर्व घटना सद्गुरु और शिष्य के बीच घटती है। किसी और को तो कानों—कान पता भी नहीं चलता। घटना घट जाती है, क्रांति हो जाती है, सोये जग जाते हैं, मगर दूसरों को पता भी नहीं चलता। यह तो गुरु और शिष्य को ही पता चलता है कि लेन—देन कब हो गया, कि कब दो हृदय मिल गए और एक हो गए, कि कब दो आत्माओं ने अपनी दूरी खो दी। कोई तीसरा पास भी बैठा रहे दर्शक की भांति, उसे कुछ भी पता न चलेगा।

यह सत्य की खोज तो केवल उनकी ही है जो डूबने को तैयार हैं। दर्शक की भांति यह खोज नहीं हो सकती; इस खोज के लिए तो समर्पित होना अनिवार्य है।

भीखा के सूत्र:

रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन।

वे कहते हैं: मैं तो उसे ही कहूंगा बुद्धिमान, उसे ही कहूंगा कुशल, उसे ही कहूंगा प्रवीण, जो राम के रूप को देख ले, बाकी सब बुद्धिमान तो बस बुद्ध हैं। कहने के बुद्धिमान हैं। गणित उन्हें आता होगा और धन कमाने की कला आती होगी; और इतिहास के बड़े पंडित होंगे और बड़ी शोध की होगी; और भूगोल के बड़े ज्ञाता होंगे और बड़ी यात्रााएं की होंगी; बड़े पदों पर होंगे; बड़ी प्रतिष्ठा होगी, यश होगा, उपाधियां होंगी—मगर सब व्यर्थ है, क्योंकि मौत सब छीन लेगी! इस तरह के लोग धोखे में जी रहे हैं।

भीखा ठीक कहते हैं: रामरूप को जो लखै…मैं तो सिर्फ एक को ही बुद्धिमान कहता हूं, वे कहते हैं, जो राम के रूप को लख ले, जो राम को देख ले, जो राम का दर्शन कर ले, जो सत्य को पहचान ले, जो इस जगत में व्याप्त ब्रह्म के साथ सगाई कर ले। रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन…बस वही कुशल है, वही बुद्धिमान है, वही प्रज्ञावान है।

सो जन परम प्रबीन, लोक अरु बेद बखानै।।

और भीखा कहते हैं कि जो मैं कह रहा हूं, मैं ही नहीं कह रहा हूं, वेद भी यही कहते हैं और सदा—सदा से लोगों का अनुभव भी यही है। मौत जिसे छीन ले उसे कमाने में समय गंवाया, वह कमाई नहीं है, गंवाई है। मौत जिसे न छीने उसने चाहे सब गंवाया हो तो भी कुछ कमाया। जीसस का वचन है: अगर जिंदगी को बचाओगे, सब गंवा बैठोगे और अगर जिंदगी को गंवाने की तैयारी हो, तो सब कमाने का राज मैं तुम्हें दे सकता हूं।

सतसंगति में भाव—भक्ति परमानंद जानै।।

बस एक ही चीज बचेगी मौत के पार कि जिसने सत—संगति में, भाव—भक्त्ति में डुबकी ली हो और परमानंद को जाना हो। शेष सब खो जाएगा। शेष सब पानी पर खींची गई लकीरें हैं, तुम बना भी न पाओगे और मिट जाएंगी। तुम्हारी यशप्रतिष्ठा की बातें, तुम्हारी आकांक्षाएं, सब कागज की नावें हैं, चला भी नहीं पाओगे कि डुब जाएंगी। रेत के महल हैं, अब गिरे तब गिरे, हवा का जरा—सा झोंका और सब महल मिट्टी में मिल जाएंगे।

सतसंगति में भाव—भक्ति परमानंद जानै।।

रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन।।

सकल विषय को त्याग बहुरि परबेस न पावै।।

और जिसने राम के रस को पी लिया, उससे सारे विषयों का त्याग हो जाता है। सकल विषय को त्याग बहुरि परबेस न पावै…ऐसे व्यक्त्ति को फिर दोबारा लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता। कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। उत्तीर्ण हो गया; संसार की परीक्षा से पार हो गया; संसार की कसौटी पर कस लिया गया।

केवल आपै आपु आपु में आपु छिपावै।।

तब उसे पता चलता है कि यह भी खूब रहस्यपूर्ण खेल था—अपने में ही छिपा था, अपने को ही खोज रहा था, अपने में ही खोजना था। सब अपने में है। सारा संसार, सारा विश्व स्वयं के भीतर है। लेकिन भीतर तो हम जाते नहीं, हम बाहर भागे—भागे फिर रहे हैं। हम ता भीतर से बचते फिरते हैं कि कहीं भीतर जाना न हो जाए। हम तो भीतर से डरते हैं। जरा देर को अकेले बैठना पड़े तो मुश्किल हो जाती है। थोड़ी—सी देर को अकेले रह जाओ कि बेचैनी होने लगती है कि क्या करूं, क्या न करू!

खालीपन अखरता है। सदियों—सदियों बुद्धिमानों ने एकांत खोजा। और बुद्धिहीन? समय काटते रहे। लोग ताश खेल रहे हैं। उनसे पूछो क्या कर रहे हो? वह कहते हैं: समय काट रहे हैं! कोई शतरंज खेल रहा है, लकड़ी के हाथी—घोड़े चला रहा है। उससे पूछो, क्या कर रहे हो? वह कहता है: समय काट रहे हैं! कोई रेडियो ही खोले बैठा है। लोग टेलीविजन के सामने घंटों बैठे हैं, तीनत्तीन घंटे फिल्में देख रहे हैं! कुछ काम—धाम नहीं है। होटलों में बैठे बातचीत कर रहे हैं, क्लब—घरों में बैठे बकवास कर रहे हैं, वही बकवास जो हजार बार कर चूके हैं, वे ही बातें, जो वे भी कह चुके हैं और दूसरों से भी सून चुके हैं।

मगर अकेले में बैठने को कोई राजी नहीं है। क्या हो गया है आदमी को? सदियों में तो हमने उल्टा किया था। हम एकांत खोजते थे। घड़ी—भर को समय मिल जाए तो आंख बंद करके बैठते थे। अब तो कोई आंख बंद करके बैठता नहीं। अब तो कोई थोड़ी देर को द्वार—दरवाजे बंद करके नहीं बैठता। अब तो कोई थोड़ी देर के लिए कभी जंगल नहीं जाता कि दो—चार—दस दिन के लिए पहाड़ चला जाए, चुप वहां बैठ जाए। पहाड़ भी जाता है तो ले चला ट्रांजिस्टर—रेडियो साथ। तो कोई के लिए जा रहे हो वहां? ये ट्रांजिस्टर—रेडियो तो तुम यहीं सुन लेते, इसको पहाड़ पर सुनोगे तो फायदा क्या है? पहाड़ भी जाते हैं लोग तो कैमरा लटकाये हुए चले।

मैं एक मित्र के साथ हिमालय गया। कितनी ही सुंदर स्थिति हो, कितना ही सुंदर समय हो, बस वे खट—खट अपने कैमर को ही करते रहें। मैंने उनसे कहा कि तुम देखोगे कब? इतना सुंदर सूरज उग रहा है मगर तुम अपने कैमर में लगे हो! इतनी सुंदर छटा है बादलों की, और तुम कैमरे में लगे हो!

उन्होंने कहा: आप फिक्र न करें, घर लौटकर अलबम बनाकर मजे से देखेंगे।

तो मैंने कहा: फिर यहां आने की जरूरत क्या थी? अलबम तो तैयार बाजारों में बिकते हैं। हिमालय की सुंदरतम तसवीरें बाजारों में मिलती हैं। तुम उतनी सुंदर तसवीर ले भी न पाओगे, वे ज्यादा प्रोफेसनल, ज्यादा व्यावसायिक लोगों के द्वारा ली गई तसवीरें हैं। तुम काहे के लिए यहां परेशान हुए? तसवीरों को देखोगे, और सामने सौंदर्य खड़ा है!

मगर लोग, बस ऐसे हैं। पहाड़ पर भी जाएंगे तो वही आदतें…। पहाड़ पर गए हैं, स्वच्छ वायु लेने और वहीं बैठे सिगरेट पी रहे हैं! आदमी की बुद्धिहीनता की कोई सीमा है! अगर सिगरेट ही पीनी थी तो बम्बई बेहतर। वहां बिना पिये ही हवा में इतना धुआं है कि पियो सिगरेट कि न पियो, धूम्रपान चल रहा है। तुम हिमालय किस लिए आये हो? थोड़ी देर पहाड़ से दोस्ती करो, पहाड़ों के पास कुछ राज छिपे हैं—ये अब भी ध्यानमग्न हैं, ये पहाड़ अभी भी सभ्य नहीं हुए हैं, ये अभी भी तुम्हारे विश्वविद्यालयों से उत्तीर्ण नहीं हुए हैं, इन पहाड़ों को अभी भी दिल्ली जाने का पागलपन सवार नहीं हुआ है, ये पहाड़ अभी भी निर्दोष हैं—जरा इनसे दोस्ती बनाओं, जरा इनके पास बैठो। जरा छोड़ो दुनिया को, भूलो दुनिया को—थोड़े अपने में डुबो।

केवल आपै आपु आपु में आपु छिपावै।।

तब तुम्हें पता चलेगा, कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं, जिसे हमे तलाशते थे वह भीतर है। जिसे हम बाहर तलाशते थे वह भीतर है, इसलिए बाहर मिलता नहीं था। मिलता कैसे,बाहर था ही नहीं। संपत्तियों की संपत्ति भीतर, राज्यों का राज्य भीतर है। तुम सम्राट हो मगर भिखमंगे बने बैठे हो। और तुम भिखमंगे रहोगे जब तक तुम बाहर हाथ फैलाये रहोगे। द्वार—द्वार से कहा जाएगा—आगे बढ़ो। और जो तुम्हें आगे बढ़ा रहे हैं उनकी भी हालत तुमसे कुछ बहुत बेहतर नहीं है, वे भी तुम जैसे ही भिखमंगे हैं।

मैंने सुना है एक भिखमंगे ने एक मारवाड़ी के घर के सामने आवाज दी: “कुछ मिल जाए’। भिखमंगे को पता नहीं होगा कि घर मारवाड़ी का है, नहीं तो वह आवाज देता ही नहीं। भिखमंगे मारवाड़ियों के घर के सामने आवाज देते ही नहीं। भिखमंगों के शास्त्रों में लिखा है कि मारवाड़ी से बचना, अकेला मिल जाए तो भाग खड़े होना, क्योंकि देना तो दूर कुछ छीन न ले! पता नहीं होगा, नया—नया भिखमंगा होगा। गांव के जो पुराने भिखमंगे थे, वे तो कभी उस द्वार पर आवाज देते ही नहीं थे, क्योंकि उस द्वार से कभी किसी को कुछ मिला नहीं। असल में भिखमंगे पहचान लेते थे, जब भी उस द्वार के सामने कोई आवाज देता था कि कोई नया भिखमंगा गांव में आ गया; एक नया प्रतियोगी गांव में आ गया।

इस भिखमंगे ने आवाज दी कि मिल जाए कुछ; तीन दिन का भूखा हूं। मारवाड़ी ने कहा कि पत्नी घर पर नहीं है।

मगर भिखमंगा भी एक ही था! रहा होगा पिछले जन्म में मारवाड़ी। उसने कहा: मैं पत्नी को मांग भी नहीं रहा हूं। अरे, रोटी मिल जाए। पत्नी को मैं क्या करूंगा? खुद के खाने के लाले पड़ रहे हैं और तुम पत्नी पकड़ाने चले। पत्नी अपनी तुम रखो, मुझे तो दो रोटी मिल जाएं बस काफी है।

मगर मारवाड़ी भी कुछ ऐसे, इतनी आसानी से हल नहीं हो सकता। उसने कहा: घर में कोई भी नहीं है, रोटी तुम्हें दे कौन?

उस भिखमंगे ने कहा: तुम्हारे हाथ—पैर नहीं हैं? सामने बैठे हो भले—चंगे। अरे, जरा उठो, व्यायाम भी हो जाएगा।

दो मारवाड़ीयों में टक्कर हो गई। वे एक—दूसरे से कुछ हारने वाले लोग नहीं थे। मारवाड़ी ने कहा: अरे, चल—चल, आगे बढ़। घर में कुछ है ही नहीं देने को तो मेरे उठने और व्यायाम करने से भी फायदा क्या?

तो उस भिखमंगे ने कहा कि फिर ऐसा करो, तुम भी मेरे साथ आ जाओ। जब घर में कुछ है ही नहीं तो यहां बैठे—बैठे क्या कर रहे हो, भूखे मर जाओगे! दोनों मांगेंगे—खाएंगे और दोनों मजा मरेंगे। आाओ, निकल आओ।

तुम जिनके सामने हाथ फैला रहे हो वे खुद भी भिखमंगे हैं, उनके पास भी कुछ नहीं है देने को। तुम किससे मांग रहे हो? इस संसार में कोई भी तुम्हें कुछ दे नहीं सकता। और जो तुम्हें चाहिए वह परमात्मा ने तुम्हें पहले से ही दिया हुआ है। तुम्हें उसने मालिक बनाकर ही भेजा है, तुम उस मालिक के ही अंश हो। याद करो, स्मरण करो। उपनिषद् बार—बार कहते हैं: स्मरण करो, स्मरण करो कि तुम उस मालिक के हिस्से हो।

भीखा सब तें छोट होइ, रहै चरन—लवलीन।।

और अगर चाहते हो कि दुनिया के सम्राट से तुम्हारा मिलना हो जाए और तुम भी सम्राट हो जाओ; मालिको के मालिक से मिलना हो जाए और तुम भी मालिक हो जाओ, तो कला छोटी है—भीखा सब तें छोट होइ…बिलकुल छोटे हो जाओ, नाकुछ हो जाओ, शून्यवत हो जाओ। रहै चरन—लवलीन…और प्रभु के चरणों के अतिरिक्त तुम्हारे मन में कोइ और आकांक्षा, अपेक्षा, अभीप्सा न बचे। रामरूप को जो लखै, सो जन परम प्रबीन! और ऐसा जो बिलकुल छोटा हो जाता है, ऐसा जो नाकुछ हो जाता है—शून्यवत—उसको ही उपलब्धि होती है परमात्मा के चरणों की। और भीखा कहते हैं बस, मैं तो उसी को बुद्धिमान कहता, किसी और को नहीं।

खुदा जाने तिरे रिंदों पे क्या गुजरी कि महफिल में,

न साजो—मीना है साक़ी, न रक्से जाम है साक़ी।

आज तो हालत बड़ी बुरी हो गई है। न मालूम क्या हुआ, परमात्मा के दीवानाो पर क्या गुजरी है; मधुशाला खाली पड़ी है, सुराहियां खाली पड़ी हैं, प्यालियां खाली पड़ी हैं; अब मधु के दौर नहीं चलते— न रंग है, न रस है, न मस्ती है; आदमी उदास है।

खुदा जाने तिरे रिंदों पे क्या गुजरी कि महफिल में,

न साजो—मीना है साकी, न रक्से जाम है साक़ी।

सब नृत्य बंद हो गया, सब गीत बंद हो गया। हे परमात्मा! तेरे पियक्कड़ों पर क्या गुजरी? यह हुआ क्या?

खुदा जाने तिरे रिंदों पे क्या गुजरी कि महफिल में,

न साजो—मीना है साकी, न रक्से जाम है साक़ी।

जुनूं में और खिरद में दरहक़ीक़त फर्क इतना है,

ये ज़ेर—दार है साक़ी, वे ज़ेरे—दाम है साक़ी।

अभी तो चंद क़तरे ही मिले हैं तशनाकामों को,

मगर पीरे—मुगां की बज्म में कोहराम है साक़ी।

सुए—मंज़िल बढ़ा जाता हूं मैखाना ब मैखाना,

मज़ाके—जुस्तुजू तशनालबी का नाम है साक़ी।

निज़ामेत्तशनाकामी अब ज्य?ादा चल नहीं सकता,

कि जो मैखाना परवर है उसी का जाम है साक़ी।

अभी सूदो—जियां का कुछ—न—कुछ एहसास बाक़ी है,

जुनूं के हाथ में अब तक खिरद का जाम है साक़ी।

कभी दो चार क़तरे भी सलीक़े से न पी पाये,

वो रिंदो—खाम हैं साक़ी वो नंगे—जाम हैं साक़ी।

कभी दो घूंट भी नहीं पी पाये जिंदगी में जीवन के रस की; प्याली खाली ही रह गई, ओंठ प्यासे ही रह गए। क्या हो गया आदमी को? आदमी पीने की कला ही भूल गया, आदमी जीने की कला ही भूल गया। आदमी अपने से परिचित होने का विज्ञान भूल गया है।

मन क्रम बचन बिचारिकै राम भजै सो धन्य।।

सीखो फिर से वह कला, फिर से सीखने होंगे पाठ—भूले पाठ।

मन क्रम बचन बिचारिकै राम भजै सो धन्य…मन से, कर्म से, वचन से होशपूर्वक जो राम को भजता है, वह धन्य हो जाता है। ख्याल रखना, राम को भजने वाले बहुत हैं, राम—चदरिया ओढ़े हुए लोग बहुत हैं—काशी में मिल जाएंगे, हरिद्वार में मिल जाएंगे। भज ही रहे हैं राम—राम…। मगर बस तोतों जैसा रट रहे हैं। उसका कोई भी मूल्य नहीं है, दो कौड़ी मूल्य नहीं है। क्योंकि न तो उनके मन में राम है, न उनके कर्म में राम है न उनके वचन में राम है, न उनके होश में राम है। यंत्रवत कोई माला फेर रहा है…। लोग दुकानों पर बैठे माला फेरते रहते हैं! दुकान भी चलाते रहते हैं, माला भी फेरते रहते हैं। थैलियां बना ली हैं लोगों ने, थैलियां में माला छिपाये हुए हैं और चला रहे हैं।

ये मालाएं काम नहीं आएंगी। यह राम—राम जपना काम नहीं आएगा। हृदय से उठना चाहिए भाव। ये जबानों पर अटके रह जाते हैं शब्द, इससे गहरे नहीं जाते। न तो रोटी—रोटी जपने से भूख मिटती है और न पानी—पानी जपने से प्यास मिटती है, राम—राम जपने से क्या होगा? राम—राम जपने से तुम सिर्फ अपनी विक्षिप्तता प्रगट कर रहे हो, और कुछ भी नहीं। यह बात जपने की नहीं है, यह बात तो हृदय में उतारने की है, भाव की है। तुम्हारे हृदय में राम का आवास हो, फिर तुम राम जपो कि न जपो, जलेगा।

राम भजै सो धन्य, धन्य बपु मंगलकारी।

जो राम को जप ले हृदयपूर्वक,आत्मापूर्वक, वह धन्य है। वह धन्य है, इतना ही नहीं; उसका शरीर भी धन्य है। क्योंकि जिस देह में राम से भरा हृदय हो, वह देह मंदिर हो गई; वह देह साधारण देह न रही, तीर्थ हो गई। ऐसे पैर जहां पड़ेंगे वहां तीर्थ बनेंगे। ऐसा व्यक्ति जहां उठेगा—बैठेगा वहां तीर्थ बनेंगे। ऐसे ही तो मक्का बना, ऐसे ही तो काशी बनी, ऐसे ही तो गिरनार बनी। आखिर तीर्थ बने कैसे? किसी के भीतर ऐसा राम प्रगट हुआ, किसी के भाव में ऐसा राम सघन हुआ, कि उसके आसपास की मिट्टी भी पवित्र हो गई।

रामचरन—अनुराग परमपद को अधिकारी।।

और जिसे पाना हो परमपद, उसका अधिकार सिर्फ इतना ही चाहिए कि राम के चरणों में झुकने की कला। झुकने की कला आदमी भूल गया है। झुकना हम जानते ही नहीं। हम कभी—कभी जाकर मंदिर में सिर झुका लेते हैं, मगर अहंकार तो खड़ा ही रहता है। तुमने कभी देखा, तुम मंदिर में जाकर नमस्कार कर रहे हो, सिर झुका रहे हो, अगर मंदिर में भीड़—भाड़ हो और ज्यादा लोग हों तो तुम बड़ी कुशलता से सिर झुकाते हो, बड़े ढंग से, बड़े लहज़े से, बड़ी लज्जत से, क्योंकि चार लोग देख रहे हैं, गांव में खबर हो जाएगी, कि है यह आदमी घार्मिक। और कोई न हो मंदिर में तो पटका सिर और भागे, एक काम था निपटा दिया।

टालर्स्टाय ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं एक दिन सुबह—सुबह चर्च गया। गांव का जो सबसे बड़ा धनपति था, वह मंदिर में, चर्च में, परमात्मा से प्रार्थना कर रहा था। अभी अंधेरा था तो टालर्स्टाय को वह देख नहीं पाया। और जैसा ईसाइयों की प्रार्थना में पश्चात्ताप करना होता है और कन्फेशन और अपने पापों का उद्घाटन…। तो वह अपने पापों का उद्घाटन कर रहा था, वह परमात्मा से कह रहा था, मैं बड़ा पापी हूं। मुझसे बुरा आदमी इस संसार में दूसरा नहीं। धन भी मैंने छीना है गरीबों का। परायी स्त्रिायों पर भी मेरी नजर बुरी रही…वह तरहत्तरह की बातें कह रहा था, जो भी कहनी चाहिए।

टालर्स्टाय सुनते रहे। उन्हें तो भरोसा ही नहीं आया क्योंकि इस आदमी की बड़ी प्रतिष्ठा थी, यह तो गांव में साधु समझा जाता था। तभी धीरे—धीरे सुबह होने लगी, रोशनी थोड़ी हुई। उस आदमी ने लौटकर देखा, टालर्स्टाय को देखा तो वह टालर्स्टाय के पास आया! उसने कहा कि ख्याल रखना, ये बातें बाहर न जा पाएं, किसी को इन बातों का पता न चले, नहीं तो अदालत में मानहानि का मुकदमा चलाऊंगा।

तो टालर्स्टाय ने कहा: लेकिन तुम्हीं तो कह रहे थे।

उसने कहा: हां, मैं ही कह रहा था लेकिन तुमसे नहीं कह रहा था, परमात्मा से कह रहा था। और जनता से नहीं कह रहा था। दुनिया में कोई बदनामी करवानी है! मैं तुम्हें जताये देता हूं कि अगर इसमें से एक भी बात कहीं बाहर गई तो तुम्हीं जिम्मेवार रहोगे क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्त यहां कोई और नहीं है।

टालस्टॉय ने कहा: यह कैसी प्रार्थना? अगर तुम सच ही अपने पापों का पश्चात्ताप कर रहे हो तो जानने दो सबको, पहचानने दो सबको।

मगर उससे अहंकार को चोट लगेगी, वह नहीं हो सकता। परमात्मा को बताने से तो अहंकार को मजा आ रहा है, चौट नहीं लग रही। मनोवैज्ञानिक कहते हैं और मैं उनसे राजी हूं कि जिन लोगों ने अपनी आत्मकथाओं में पापों का उल्लेख किया है, वह बढ़ा—चढ़ाकर किया है। क्योंकि जब बता ही रहे हैं तो…आदमी के साथ यही तो बड़ी खूबी है, जब पाप ही बता रहे हैं तो फिर बढ़ा—चढ़ाकर ही बताना ठीक है। अतिशयोक्ति मनुष्य की आदतों में एक है।

अगस्तीन ने अपने संस्मरण लिखे हैं। उनमें ऐसा लगता है कि बहुत बढ़ा—चढ़ा कर बात कही गई है। इतने पाप एक आदमी कर सके, यह भी संभव नहीं है। महात्मा गांधी ने भी अपनी आत्मकथा में जो बातें लिखी हैं उनमें अतिशयोक्ति है, वे सच नहीं हैं, सब सच नहीं हैं। बहुत बढ़ा—चढ़ाकर लिखा है।

पाप को भी बढ़ा—चढ़ाकर कहने का एक मजा है। क्या मजा है? कि मैं कोई छोटा पापी नहीं हूं। कि मैं हर कोई आम पापी नहीं हूं कि तुम जैसा हर किसी का…साधारण पापी…असाधरण पापी हूं। और फिर जब पाप को खूब बढ़ा—चढ़ाकर बताओ तो उसकी पृष्ठभूमि में तुम्हारा महात्मापन भी बड़ा हो जाता है। स्वभावतः जिसने इतने बड़े पाप किये और फिर महात्मा हो गया है, सब पाप छोड़ दिये, उसकी महिमा भी ज्यादा हरै। जन्होंने कुछ पाप किये ही नहीं थे…अब तुम यही समझो कि तुमने दो पैसे की चोरी की थी, और घूमने लगे, चिल्लाने लगे कि मैंने दो पैसे की चोरी की थी, अब मैंने चोरी करने का त्याग कर दिया। लोग कहेंगे बकवास बंद करो। चोरी भी कोई बड़ी नहीं थी तो त्याग ही कैसे बड़ा हो सकता है? लेकिन तुम कहो कि मैंने दो करोड़ की चोरी की थी और त्याग कर दिया। तो बात में कोई दम मालूम पड़ती है। तो जिसने दो पैसे चुराये हैं वह भी दो करोड़ की चोरी की बात करेगा।

अतिशयोक्ति आदमी पाप की भी कर सकता है अगर अहंकार को तृप्ति मिलती हो। और अगर पाप के कारण महात्मापन बड़ा होता हो तब तो फिर कहना ही क्या!

एक महिला हर रविवार को जाती थी अपने पादरी के पास, अपने पापों की स्वीकृति के लिए। पादरी जरा परेशान था। क्योंकि पाप उसने एक ही किया था—एक आदमी को एक दफे प्रेम किया था। और वही पाप वह कम—से—कम सात दफे आकर कन्फेस कर चुकी थी। जब आठवीं दफे आयी तो पादरी ने कहा कि बाई कब तक तेरा वही पाप मैं बार—बार सुनूं और तुझे क्षमा करवाऊं? तेरी क्षमा हो चुकी। एक ही बार किया है पाप, अब कितनी बार उसकी तू क्षमा मांगती है?

लेकिन उस स्त्री ने कहा: उस पाप की बात ही करने में बड़ा मजा आता है। और बार—बार क्षमा पाने में भी बड़ा मजा आता है, बड़ा रस आता है।

आदमी पाप की अभिव्यक्ति में भी रस ले सकता है। शायद टालर्स्टाय ने जिस धनपति को सुना, वह भी बढ़ा—चढ़ा कर कह रहा हो। जब परमात्मा से ही कह रहे हैं तो फिर क्या कमी करनी? दिल खोलकर ही कह दिया हो। खूब बढ़ा—चढ़ाकर कह दिया हो। अगर पापों का प्रायश्चित करना ही महात्मापन है तो फिर बड़े ही बड़े पापों का प्रायश्चित करना ठीक है। छोटे—मोटे पाप का क्या हिसाब? छोटे—मोटे पापियों की वहां भी कोई गिनती नहीं होगी, ख्याल रखना। जब कयामत के दिन निर्णय का दिन आएगा, तो तुम जरा सोचो तो कि कहां खड़े होआगे क्यू में? सारी दुनिया के लोग इकट्ढे होंगे।

एक यहूदी अपने रबाई से पूछ रहा था कि मैं यह जानना चाहता हूं कि एक ही दिन में निर्णय हो जाएगा? कहा तो यही जाता है कि एक दिन कयामत का और उस दिन सबका निर्णय हो जाएगा। वह यहूदी जरा बेचैन था, सिर खुजलाने लगा। उसने कहा कि मैं फिर से पूछता हूं आपसे कि जितने लोग आज तक पैदा हुए दुनिया में, और जितने लोग आगे पैदा होंगे, और जितने अभी हैं, ये सब लोग रहेंगे, और एक ही दिन में फैसला हो जाएगा?

रबाई ने कहा कि हां भाई।

तो उस आदमी ने कहा: एक बार और पूछना है, स्त्रियां भी रहेंगी?

तो उसने कहा: तू बार—बार वही बात क्यों पूछता है! पुरुष भी रहेंगे, स्त्रियों भी रहेंगी।

तो उसने कहा: फिर मुझे फिक्र ही छोड़ देनी चाहिए। इतना शोरगुल मचने वाला है कि हम गरीबों की तो पूछ ही कहां होगी। हम तो कहीं क्यू में पीछे खड़े रह जाएंगे, हमारा नंबर भी नहीं लगने वाला है। तुम भी जरा सोचना, कोई तम्बाकू खा रहा है, वह सोच रहा है: हमारा नंबर लगेगा। तुम पागल हो गए हो! तम्बाकू खाकर ही नंबर लगवा लोगे? कोई हुक्का गुड़गुड़ा लेता है, वह कहता है: हमारा नंबर लगेगा। वहां हिटलरों की, चंगेजखान, नादिरशाह, माओत्से तुंग, स्टैलिन, इन लोगों की पूछ होगी। इनकी भी बड़ी भीड़ होगी। साधारण आदमी की क्या बिसात!

तो अपने अहंकार को बढ़ाने के लिए आदमी पापों को भी बढ़ा—चढ़ाकर बोल सकता है, लोग बोलते हैं। और फिर उनकी पृष्ठभूमि में महात्मापन भी बड़ा हो जाता है। छोटा करो अपने को। अपने पाप भी बड़े नहीं हैं, अपने पुण्य भी बड़े नहीं हैं। अपना होना ही बड़ा नहीं है। अपना होना ही नहीं है।

रामचरन—अनुराग परमपद को अधिकारी।।

ऐसे जो झुक जाएगा उसके चरणों में, वह परमपद का अधिकार हो जाता है। लेकिन एक बात तुम्हें याद दिला दूं, परमपद के अधिकारी होने के लिए मत झुकना, नहीं तो फिर भूल हो जाएगी। ये ही जटिलताएं हैं धर्म के मार्ग पर। तीर्थयात्रा के ये ही उलझाव हैं। पढ़ा वचन: रामचरन—अनुराग परमपद को अधिकारी। दिल ने कहा: यार, यह बात जंचती है। परमपद के अधिकारी तो होना है। तो अब ठीक है चलो, परमपद के अधिकारी होना है, यह भी कर लेंगे, चरणों में भी झुक लेंगे। चलो एक बार चरणों में भी झुक लें। अगर खुशामद ही करने से होना है, अगर स्तुति करने से होना है, चलो यह भी कर लें। मगर होना है परमपद का अधिकारी।

अगर परमपद का अधिकारी होने की वासना है तो तुम झुकोगे कैसे? यह अहंकार झुकने ही नहीं देगा। नहीं, तो इस वचन का अर्थ दूसरा है, तुम ऐसा अर्थ मत लेना। परमपद का अधिकार तुम्हारा लक्ष्य नहीं होना चाहिए, लक्ष्य तो है झुकना। लक्ष्य तो है झुकना अपने—आप में। आनंद तो है झुकने में, फिर यह उसका परिणाम है। इसकी चिंत्ता है, न इसकी अपेक्षा। झुककर ऐसा देखना मत फिर आंख के कोर से कि अभी तक परमपद नहीं मिला। जरा आंख खोलकर देख लें अभी तक मिला कि नहीं मिला। ऐसी भूल करोगे तो…और ऐसी भूल की जाती रही है, की जा रही है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: ध्यान नहीं लगता।

मैं उनसे कहता हूं: ध्यान लगेगा लेकिन अपेक्षा छोड़ दो। कोई भी भीतर अपेक्षा मत रखो कि शांति मिलनी चाहिए, स्वास्थ्य मिलना चाहिए, आनंद मिलना चाहिए—सब अपेक्षा छोड़ दो। ध्यान को ध्यान की मस्ती के लिए करो।

तो वे कहते हैं: फिर मिलेगा? फिर पक्का है?

चुक गए। नहीं बात समझ में उनके आयी।

ध्यान ध्यान का ही लक्ष्य है। प्रेम प्रेम का ही लक्ष्य है। प्रार्थना प्रार्थना का ही लक्ष्य है। हां, परिणाम में बहुत फूल खिलते हैं, बहुत सुगंध लुटती है, बहुत दीये जलते हैं। मगर वह परिणाम में। वे तुम्हारी आकांक्षा के हिस्से नहीं होने चाहिए।

काम क्रोध मद लोभ मोह की लहरि न आवै।।

ध्यान रखाना, झुको तो उस झुकने में—काम क्रोध मद लोभ मोह की लहरि न आवै! अगर जरा—सी लहर भी आ गई उस झुकने में तो झुकना व्यर्थ हो गया। अगर तुमने मांगा कि स्वर्ग मिल जाए; कहीं दिल में, कोने में छिपी एक आवाज रही कि हे प्रभु! इस संसार में तो बहुत कष्ट पाये, अब बैकुण्ठ बुला ले; कि यहां तो बहुत तकलीफ उठायी; यहां लुच्चे—लफंगे तो पदों पर बैठे हैं, सीधे—सादों की कोई पूछ नहीं है; यहां सच्चरित्रों का तो कोई सम्मान नहीं है, दुश्चरित्र राजनेता हो गए हैं। अब तो बैकुण्ठ बुला ले। तो दिल में यह इच्छा है कि वहां तो सच्चरित्रों की पूछ होगी; वहां तो सीधे—सादों की पूछ होगी; वहां तो सीधे—सादे सिंहासन पर बैठेंगे। और यहां जिनकी प्रतिष्ठा है, वहां मुश्किल में पड़ेंगे। वहां उनको काम इत्यादि मिलेंगे ऐसे कि झाडू—बुहारी लगाओ, शूद्र इत्यादि के काम करो, और हम बैठेंगे ब्राह्मण होकर, द्विज होकर।

अगर ऐसी आकांक्षा कहीं जरा—सी भी छिपी है तो चूक हो जाएगी। स्वर्ग में अप्सराएं मिल जाएं, और बहिश्त में शराब के झरने मिल जाएं; और कल्पवृक्ष मिलें और उनके नीचे बैठे हैं और जो—जो इच्छाएं हैं सब पूरी हो जाएं, जो यहां नहीं पूरी हुई, जो यहां पूरा करना चाहते थे लेकिन नहीं हो सकीं, क्योंकि दूसरे लोग ज्यादा दुष्ट और ज्यादा गलाघोंट प्रतियोगिता करने में समर्थ, छीना—झपटी बड़ी है, यहां तो कुछ नहीं हो पाया अब वहां देख लेंगे। अगर ऐसी कहीं जरा—सी भी लहर…लहर शब्द पर ध्यान देना। काम क्रोध मद लोभ मोह की लहरि न आवै…झुकने में लहर भी आ गई तो सब व्यर्थ हो गया, झुकना व्यर्थ हो गया; तुम झके ही नहीं।

परमात्मा चैतन्यरूप महं दृष्टि समावै।

झुको ऐसे कि एक लहर न उठे वासना की। और परमात्मा चैतन्यरूप महं दृष्टि समावै…बस एक ही दृष्टि रह जाए, परमात्मा की तरफ लगी हुई; और कोई मांग नहीं, और कोई शर्त नहीं, सारी दृष्टि उसी में लीन हो जाए। जैसे सरिताएं सागर में डूब जाती हैं और एक हो जाती हैं; ऐसे तुम्हारी सारी दृष्टि उसी में लीन हो जाए, उसी एक में समाहित हो जाए।

व्यापक पूरनब्रह्म है भीखा रहनि अनन्य।

जिसने ऐसा कर लिया कि जिसकी आंख परमात्मा में डूब गई, जिसका देखना परमात्मा में डूब गया, और कोई वासना न रही, और कोई लहर न रही—उसने जाना है कि परमात्मा सब तरफ व्याप्त है। व्यापक पूरनब्रह्म है भीखा रहनि अनन्य…और तब फिर परमात्मा को याद भी नहीं करना होता, क्योंकि हमारे भीतर भी वही है। सबके भीतर वही है। अनन्य, हम उससे अन्य नहीं हैं, हम उसके साथ एक हैं। फिर तो उठना—बैठना प्रार्थना है; खाना—पीना पूजा है; चलाना—फिरना अर्चना है; जीना साधना है; श्वास का भीतर आना बाहर जाना, पर्याप्त है।

…भीखा रहनि अनन्य।।

मन क्रम बचन बिचारिकै राम भजै सो धन्य।।

धनि सो भाग जो हरि भजै, ता सम तुलै न कोई।।

और धन्यभागी हैं वे जन्होंने इस तहर हरि को भजा और पाया क्योंकि फिर उनसे किसी की तुलना नहीं हो सकती; वे अतुलनीय हैं, वे अद्वितीय हैं।

ता सम तुलै न कोइ, होइ निज हरि का दासा।।

जो परमात्मा का सेवक हो गया है, दास हो गया है, जिसने अपने को पूरा—का—पूरा चरणों में लूटा दिया है; उसके साथ किसी की तुलना नहीं हो सकती। कितना ही धन हो तुम्हारे पास, तुम निर्धन हो उस आदमी के समक्ष। और कितना ही बड़ा पद हो तुम्हारे पास, तुम पदहीन हो उस आदमी के समक्ष।

बुद्ध का एक गांव में आगमन हुआ। उस गांव के सम्राट को उसके बूढ़े वजीर ने कहा: बुद्ध आ रहे हैं, भगवान आ रहे हैं, तथागत का आगमन हो रहा है, आप स्वागत को चलें। नगर के द्वार पर आपकी मौजूदगी जरूरी है।

वह सम्राट जरा हेंकड़ ढंग का आदमी था। उसने कहा: मैं उस भिखमंगे के स्वागत को क्यों जाऊं? मेरे पास क्या कमी है? उसके पास ऐसा क्या है? उसे आना होगा मिलने तो खुद आ जाएगा।

उस बढ़े वजीर की आंखों से आंसू टप—टप गिरे। सम्राट तो बहुत हैरान हुआ।

उस वजीर को कभी रोते नहीं देखा था। उसने पूछा: तुम क्यों रोते हो?

उसने कहा: मैं इसलिए रोता हूं कि आज आपकी सेवा से मैं मुक्त हो रहा हूं, मेरा त्यागपत्र स्वीकार कर लें।

वह वजीर तो कीमती था। उसके बिना तो राज्य को सम्हालना भी मुश्किल था। वह सम्राट तो शराब पीने में और वेश्याओं को नचाने में ही समय बिताता था। सारा काम तो वजीर करता था। उसकी बुद्धिमत्ता ही थी कि राज्य बड़ा था, सुसंगठित था, सुव्यवस्थित था। उसका छोड़ना तो सब गड़बड़ हो जाएगा। उसने कहा कि नहीं—नहीं, क्या इतनी सी बात से त्यागपत्र। लेकिन मेरी बात में गलती तो नहीं है, सम्राट ने फिर भी कहा।

उस बूढ़े वजीर ने कहा: गलती बहुत है। त्यागपत्र देकर गलती बताने वाला हूं, क्योंकि जब तक त्यागपत्र न दिया आपका नौकर हूं, आपकी गलती कैसे बताऊं? पहले त्यागपत्र फिर आपकी गलती बता दूंगा।

सम्राट ने कहा: गलती तुम पहले बताओ, मैं नाराज नहीं होऊंगा। मैं पहले क्षमा कर देता हूं। मेरी गलती क्या है?

उस बूढ़े वजीर ने कहा: तुम्हारी गलती यह है कि तुम्हारे पास जो है, वह बुद्ध के पास भी था, उसको वे लात मार आये, तुम अभी लात नहीं मार सके हो। और बुद्ध के पास जो है, वह पाने में तुम्हें अभी कई जन्म लग जाएंगे। पाना तो दूर, बुद्ध के पास जो है अभी उसे तुम देखने की भी क्षमता नहीं रखते हो। तुम्हारे पास आंख भी नहीं है जो देख सके कि बुद्ध के पास क्या है! इसलिए तुम समझ रहे हो कि बुद्ध भिखारी हैं। मैं तुमसे कहता हूं तुम भिखारी हो और बुद्ध सम्राट हैं। या तो चलो मेरे साथ बुद्ध के स्वागत को, उनके चरणों में सिर रखो, या मेरा त्यागपत्र स्वीकार करो। क्योंकि मैं ऐसे आदमी के नीचे काम नहीं कर सकता जो इतना अंधा है।

इस वजीर की बात मूल्यवान है। धन कितना ही हो तो भी जिसके पास रामधन है उसके सामने तुम गरीब हो। और पद कितना ही तुम्हारी हो लेकिन जिसको रामपद मिल गया उसके सामने तुम्हारी क्या हैसियत है!

ता सम तुलै न कोई, होइ निज हरि को दासा।

लेकिन इसमें एक शब्द बड़ा कीमती है—होइ निज हरि को दासा…जो स्वयं स्वेच्छा से हरि का दास हो गया है, किसी के दबाव से नहीं। नहीं तो अकसर ऐसा हो जाता है, मां—बाप अपने बच्चों को ले आते हैं मेरे पास, वह बच्चा झुक ही नहीं रहा है और मां उसका सिर झुका रही है चरणों में, दबा रही है उसको।

मैं कहता हूं: यह तू क्या कर रही है? उस बच्चे को झुकना नहीं है। तेरे झुकाने से कुछ सार भी नहीं है। और इस तरह जबर्दस्ती झुका—झुका कर तू उसकी आदत खराब कर देगी, उसको भी झुकने की आदत पड़ जाएगी। वह फिर झुकता रहेगा जिंदगी—भर झूठा। मंदिरों में लोग ले जाते हैं बच्चों को पकड़कर गर्दन झुका देते हैं।

इसी तरह तुम्हारी गर्दन पकड़कर तुम्हें झुकाया गया है। तुम मंदिरों में स्वेच्छा से झुक रहे हो या तुम सिर्फ भूल गए कि बचपन में झुकाया गया था औ झुकने की आदत हो गई है? यह गुलामी है। इसलिए हिंदू हिंदू मंदिर में झुकता है, जैन मंदिर में नहीं झुकता क्योंकि जैन मंदिर में उसे कभी झुकाया नहीं गया, उसका अभ्यास नहीं करवाया गया। जैन जैन मंदिर में झुकता है, हिंदू मंदिर में नहीं झुकता।

औरों की तो बात छोड़ दो, जैनों के दो संप्रदाय हैं—श्वेताम्बर और दिगम्बर। श्वेताम्बर जैन श्वेताम्बर जैन मंदिर में झुकाता है, वह दिगम्बर जैन मंदिर में नहीं झुकता, हालांकि वहां भी महावीर की प्रतिमा है! दोनों के मंदिर में महावीर की प्रतिमा है लेकिन थोड़ा—सा फर्क अपनी प्रतिमाओं में कर लिया है, करना ही पड़ा। जब अलग—अलग दुकान करनी हो तो थोड़े मार्के बदलने पड़ते हैं, थोड़े नाम बदलने पड़ते हैं। दिगम्बर की जो मूर्ति है उसकी आंखें बंद हैं, श्वेताम्बर की जो मूर्ति है उनकी आंखें खुली हैं, अधखुली हैं। इतना—सा फर्क है—मार्के का फर्क!

मैं एक यात्रा पर था, एक महिला मेरे साथ यात्रा पर थी। जैन महिला, उसने कसम खा रखी थी, जब तक वह मंदिर में जाकर पूजा न कर ले तब तक भोजन न करे। एक दिन ऐसा हुआ कि गांव में कोई जैन—मंदिर नहीं था तो पूजा नहीं हो सकी। तो मैंने कहा: तू किसी भी मंदिर में पूजा कर ले। तुझे पूजा ही तो करनी है न?

उसने कहा: किसी मंदिर में कैसे कर लूं? कुदेव की पूजा करूं! ये गणेश जी की पूजा करूं कि शिवजी की पूजा करूं? कृष्ण का मंदिर है, इनकी पूजा करूं? मेरे शास्त्र में लिखा है, कृष्ण नर्क में पड़े हैं। और गणेशजी को देखकर मुझे सिर्फ हंसी आती है, पूजा का भाव पैदा नहीं होता। और शिवजी…ये गांजा, भांग, अफीम…बम भोले…इनकी पूजा करूं? ये हिप्पियों के हिप्पी, इनकी पूजा करूं? भूखी रह जाऊंगी मगर पूजा नहीं हो सकती।

वह भूखी ही रही। दिन—भर मैं भी परेशान रहा, वह भूखी बैठी थी। भूखी बैठी, तो थी तो क्रुद्ध, थी तो नाराज। दूसरे गांव हम गए तो मैंने पहले ही पता लगाया कि जैन मंदिर है? तो उन्होंने कहा: हां, जैन मंदिर है। तो मैं निश्चिंत हुआ। मैंने उससे कहा: आज बे फिक्री से स्नान करके तू पूजा कर आ और लौट आ।

वह लौटकर बड़ी नाराज आयी और उसने कहा कि वह श्वेताम्बर जैन मंदिर है। मैं दिगम्बर हूं।

तो मैंने उससे पूछा: फर्क क्या है?

मैं तो महावीर की आंख बंद की हुई मूर्ति की पूजा करती हू, ध्यानस्थ, और वहां तो आधी खुली आंख है।

मैंने कहा: तू इतना तो सोच, कभी—कभी महावीर आंख भी खोलते होंगे कि नहीं! कि आंख बंद ही रखते थे? महावीर तो दोनों काम करते होंगे—कभी आंख खोलते होंगे, कभी बंद करते होंगे; कभी आधी भी खोलते होंगे, कभी पूरी भी खोलते होंगे। कि जिंदगी—भर आंख बंद ही रखी उन्होंने? चलते—फिरते कैसे थे?

उसने कहा: वह कुछ भी हो, लेकिन मैं तो दिगम्बर मूर्ति की ही पूजा करूंगी।

जिन मंदिरों में तुम्हें झुकाया गया है जबर्दस्ती, वे तुम्हारी आदतें हो गए हैं। यह कोई झुकना नहीं है। यह कोई असली झुकना नहीं है। इसलिए भीखा ठीक कहते हैं: होई निज हरि को दासा। अपने से झुको—न संस्कारों से, न समाज से, न मां—बाप के कारण, न शिक्षा के कारण, न किसी भय से, न किसी लोभ से; अपने बोध से झुको, झुकने के मजे से झुको। फिर क्या फिक्र…फिर मंस्जिद में भी झुक सकते हो, गुरुद्वारे में झुक सकते हो, मंदिर में भी झुक सकते हो। क्या लेना—देना है? फिर मंदिर न भी हो तो वृक्षों के पास झुक सकते हो, आकाश के नीचे झुक सकते हो, पृथ्वी पर झुक सकते हो। कहीं भी झूक सकते हो; झुकने वाले को क्या अड़चन? जो कहता है झुकने में शर्त है हमारी, हम यहीं झुकेंगे। वह झुकना नहीं चाहता। उसने झुकने पर भी अर्थ जोड़ दिया है। उसने झुकने में भी शर्त लगा दी। उसने झुकने में भी अहंकार को नियोजित कर दिया है।

रहै चरन—लौलीन राम को सेवक खासा।।

जो उसके चरणों में ही लीन रहता है, डूबा रहता है, जिसे उसके चरण सब जगह दिखाई पड़ते हैं, सबके चरणों में उसके चरण दिखाई पड़ते हैं।

सेवक सेवकाई लहै भाव—भक्ति परवान।

एक ही प्रमाण है तुम्हारे भाव का, तुम्हारी भक्ति का कि तुम इस परमात्मा से भरे जगत की सेवा में लवलीन हो जाओ। तुम अगर एक वृक्ष को भी पानी डाल रहे हो तो इसी तरह डालना कि राम के ही चरण पखार रहे हो। तुम अगर एक कुत्ते को भी रोटी खिला रहे हो तो इसी तरह खिलाना कि राम को ही रोटी खिला रहे हो। तुम अपने बच्चे में भी राम को देखना, अपने पति में भी, अपनी पत्नी में भी। तुम धीरे—धीरे इस भाव को विस्तीर्ण करते जाना कि सारे चरण उसके हैं, सारे हृदय उसके हैं, वही है और कुछ भी नहीं है, उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है।

सेवा को फल जोग है भक्तबस्य भगवान।।

और जो ऐसी सेवा करने में समर्थ हो जाएगा उसका फल योग है, परमात्मा से मिलन है। उसका फल है सुहागरात। उसका फल है परमात्मा से सगाई। उसका फल है परमात्मा से एक हो जाना। और जो इस तरह परमात्मा से एक हो गया, परमात्मा उसके वश में है, उसके इशारे पर है, उसके इशारे पर चलेगा। ऐसा नहीं है कि भक्त उसे इशारे पर चलवाता है, कि भक्त उसे इशारे पर चलवाना चाहता है, लेकिन वह भक्त के इशारे पर चलेगा।

मैंने सुना है, पूरानी कथा है। कृष्‍ण भोजना करने बैठे हैं। आधा ही भोजन किया है। एक कौर मुंह तक ले जाते थे कि थाली में पटक कर भागे दरवाजे की तरफ। तो रुक्मिणी ने पूछा: कहां जाते हैं? मगर जवाब भी न दिया। फिर दरवाजे पर ठिठक गए। एक क्षण उदास खड़े रहे फिर लौट आये। गए तो बड़ी तेजी से थ, लौटे बहुत आहिस्ता। वापिस थाली पर बैठ गए। छोड़ गए थे जिस कौर को उसे फिर उठा लिया। रुक्मिणी ने पूछा: अब तो कहो, भागकर कहां गए थे? फिर दरवाजे से लौट क्यों आये?

तो कृष्‍ण ने कहा: मेरा एक भक्त एक रास्ते से गुजर रहा है, लोग उसे पत्थर मार रहे हैं, लेकिन जो उसे पत्थर मार रहा है वह उसमें भी मुझे ही देख रहा है। खून बह रहा है उसके सिर से, लहूलुहान हो गया है। लेकिन मस्त है मस्ती में। वह हरे कृष्‍ण हरे राम की ही धुन लगाये हुए है। तो मुझे भागना पड़ा। उसकी रक्षा की जरूरत है।

रुक्मिणी ने कहा: यह मेरी समझ में आया; फिर लौट क्यों आये?

कृष्‍ण ने कहा: लौटना पड़ा क्योंकि जब तक मैं दरवाजे पर पहुंचा तब तक उसने खुद ही पत्थर उठा लिया और उसने कहा कि ऐसी की तैसी तुम्हारी! वह भूल—भाल गया मुझे तो। अब तो वह खुद ही पत्थर का जवाब पत्थर से दे रहा है। लोगों को भगाये दे रहा है खुद ही। अब तो उसने अपना जीवन अपने हाथ में ले लिया। अब मेरी कोई जरूरत न रही। जब तो उसका अहंकार वापिस लौट आया है।

बारीक है मामला। जरा में अहंकार वापिस लौट सकता है, जाते—जाते लौट सकता हैं। लगता हो कि दूर निकला गया, फिर भी लौट सकता है।

सेवा को फल जोग है भक्तबस्य भगवान।

केवल पूरन ब्रह्म है, भीखा एक न दोइ।

भीखा कहते हैं: केवल एक परमात्मा है, न तो कोई दूसरा है, न कोई दूसरा हो सकता है। और चूंकि दूसरा भी नहीं है इसलिए एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं: भीखा एक न दोइ। जब दूसरा नहीं है तो एक भी कैसे कहें? एक कहने से दो की शुरुआत होती है। एक कहो तो फिर संख्या की यात्रा शुरु हो गई। बस भगवान है। न तो एक कह सकते हैं न दो।

इसीलिए भारत ने एक नया शब्द खोजा—अद्वैत। अद्वैत का मतलब समझे? अद्वैत का मतलब यह नहीं कि एक है, अद्वैत का मतलब इतना कि दो नहीं है। इतना ही कह सकते हैं ज्यादा—से ज्यादा कि दो नहीं है। एक कहने में भूल हो जाएगी। एक कहने में दो की गिनती समाविष्ट हो जाती है। एक में कोई अर्थ ही न होगा अगर दो न हो। इसलिए दो नहीं है इतना ही कह सकते हैं। पर भीखा और भी मीठी बात कह रहे हैं: भीखा एक न दोई…न तो एक है, न दो है—बस है। गिनती में नहीं आता। गिनती में नहीं आ सकता। गणना के पार है। विचारातीत है।

धन्य सो भाग जो हरि भजै, ता सम तुलै न कोइ।।

ऐसे परमात्मा को जो न एक है न दो, जिसने जान लिया, वह धन्यभागी है, बड़भागी है। उसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती। सम्राट उसके सामने भिखारी हैं, धनी उसके सामने दरिद्र हैं। उसे मिल गया राज्यों का राज्य, पदों का पद। उसने पा लिया परमात्मा को तो पा लिया सब। अब पाने को कुछ भी शेष नहीं रहा। परमात्मा को पाते ही सब पा लिया जाता है। जन्होंने परमात्मा को नहीं पाया, उन्होंने कुछ भी नहीं पाया और जन्होंने परमात्मा को पाया, उन्होंने सब पा लिया है।

गुरु—परताप साध की संगति!

आज इतना ही।


Filed under: गुरू प्रताप साध की संगति--(संत भीखादास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, बोधि उन्‍मनी, मनसा, स्‍वामी आंनद प्रसाद

मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–37)

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धर्म : एक मात्र कीमिया—(प्रवचन—सैतीसवां)

प्यारे ओशो!

निरुक्त में यह श्लोक आता है :

मनुष्या वा ऋषिसूलामत्सु

देवानब्रुवन्क्रो न ऋषिर्भविष्यतीति।

तेभ्य एत तर्कमृषि प्रायच्छर।।

इस लोक से जब ऋषिजन जाने लगे, जब उनकी परम्परा समाप्त होने लगी

तब मनुष्यों ने देवताओं से कहां कि अब हमारे लिए कौन ऋषि होगा?

इस अवस्था में देवताओं ने तर्क को ही ऋषि—रूप में उनको दिया।

अर्थात देवताओं ने मनुष्यों से कहां कि आगे को

तर्क को ही ऋषि—स्थानीय समझो।

प्यारे ओशो! हमें निरुक्त के इस वचन का

अभिप्राय समझाने की कृपा करें।

हजानंद! पहली बात : ऋषि कभी गये नहीं; जा सकते नहीं। जैसे रात हो, तो आकाश में तारे होंगे; जैसे पृथ्वी हो, तो कहीं न कहीं फूल खिलेंगे, ऐसे ही मनुष्य—चेतना मौजूद हो, तो ऋषि विलुप्त नहीं हो सकते। कहीं न कहीं कोई झरना फूटेगा; कोई गीत उठेगा; कोई बांसुरी बजेगी।

मनुष्य इतना बांझ नहीं है कि ऋषियों की परम्परा समाप्त हो जाये! कभी समाप्त नहीं हुई। लेकिन निरुक्त जिन्होंने लिखा है, वे ऋषि नहीं हैं। वे भाषाशास्त्री हैं। व्याकरण के जानकार हैं। उनकी निष्ठा तर्क में है—उनकी निष्ठा काव्य में नहीं है। उनकी निष्ठा विचार में है—उनकी निष्ठा ध्यान में नहीं है। और अपनी निष्ठा को लोग हजार तरकीबों से प्रतिपादित करते हैं, चालाकियों से प्रतिपादित करते हैं।

निरुक्त कोई धर्म—शास्त्र नहीं है। वह तो भाषा का विज्ञान है। और भाषा का विज्ञान तो तर्क पर ही आधारित होगा। वह तो गणित है। व्याकरण गणित है। और इसलिए गणितज्ञ नहीं चाहेगा कि ऋषि हों। गणितज्ञ के लिए सबसे बड़ा खतरा ऋषियों से है। गणितज्ञ तो चाहेगा कि तर्क परम हो—तर्क ही ऋषि हो। यह नहीं हो सकता। तर्क कैसे ऋषि हो सकता है?

तर्क का अर्थ क्या होता है? तर्क का अर्थ होता है : मनुष्य के सोचने—विचारने की प्रक्रिया। लेकिन क्या सत्य को सोचने—विचारने से जाना गया है कभी? जिसे तुम नहीं जानते हो, उसे सोचोगे कैसे, विचारोगे कैसे? सोच—विचार तो ज्ञात की परिधि में ही परिभ्रमण करते हैं। और सत्य तो अज्ञात है; अज्ञात ही नहीं—अज्ञेय भी।

विज्ञान समस्त अस्तित्व को दो हिस्सों में बांटता है—धर्म तीन हिस्सों में। विज्ञान कहता है, जगत दो कोटियों में विभाजित किया जा सकता है, और कोई कोटि नहीं है—एक ज्ञात और एक अज्ञात। जो आज ज्ञात है, वह कल अज्ञात था; और जो आज अज्ञात है, वह कल ज्ञात हो जायेगा। अज्ञात की सीमा रोज सिकुड़ती जा रही है। और ज्ञात की सीमा रोज बढ़ती जा रही है। इसी को विज्ञान विकास कहता है। जिस दिन अज्ञात शून्य हो जायेगा, बचेगा ही नहीं, सभी कुछ ज्ञात हो जायेगा—उस दिन विज्ञान अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जायेगा, उस दिन विज्ञान गौरीशंकर का शिखर होगा।

लेकिन धर्म कहता है, एक और भी तीसरी श्रेणी है—अज्ञेय—जिसे तुम लाख जानो, तो भी अनजाना रह जाता है। जानते जाओ जानते जाओ, फिर भी जानने को शेष बना ही रहता है। ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिसके तुम दावेदार बन सको कि मैंने जान लिया। उस अज्ञेय को ही ‘ईश्वर’ कहां है। इसलिए उसे कभी भी ‘जाना’ नहीं जा सकेगा। जाननेवाले होते रहेंगे, उसका स्वाद लेनेवाले होते रहेंगे, उसके गीत गानेवाले होते रहेंगे; जिसके हाथ भी उसकी बूंद पड़ जायेगी, वही स्वर्णिम हो उठेगा। जिसके हाथ में एक स्वर लग जायेगा, वही ऋषि हो जायेगा। लेकिन सागर को छू लेना, सागर को पा लेना नहीं है। सागर में डुबकी भी मार ली, तो भी सागर को पा लेना नहीं है। सागर में लीन भी हो गये, तो भी सागर विराट है। हम तो बूंदें हैं।

जानकर भी—जान—जानकर भी, फिर भी जो जानने को शेष रह जाता है, वही धर्म का रहस्यवाद है। और ध्यान रखना : विज्ञान की विभाजन प्रक्रिया खतरनाक है। उसका अर्थ है कि एक दिन सब जान लिया जायेगा। फिर क्या करोगे? फिर तो आत्मघात के अतिरिक्त कुछ भी न बचेगा। इसलिए मनुष्य जाति जितनी जानकार होती जाती है, उतना ही आत्महत्याएं बढ़ती जाती हैं। जितना सुशिक्षित देश होता है, उतनी ज्यादा आत्महत्याएं! जितना सुसंस्कृत देश समझा जाता है, उतना ही आत्मघाती! क्यों? क्योंकि जीवन में फिर कोई रहस्य नहीं रह जाता। जब कुछ जानने को ही नहीं बचता, सब जान लिया—पहचान लिया, तो अब कल जीकर क्या करना है? किसलिए जीना है? क्यों जीना है? फिर यही पुनरुक्ति करनी होगी? फिर जीवन को इसी वर्तुल में घुमाना होगा। और उसी—उसी की पुनरुक्ति ही तो ऊब पैदा करती है।

सोरेन कीकेंगार्ड ने, जो पश्चिम के महानतम, महततम प्रतिभाशाली लोगों में एक हुआ—उसनें कहां है कि ‘मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या ऊब है, बोर्डम है।’ क्यों? इसीलिए मनुष्य की सबसे बडी समस्या ऊब है, कि जो जान लिया, उससे ही ऊब पैदा हो जाती है। पति पत्नियों से ऊबे हुए हैं, पत्नियां पतियों से ऊबी हुई हैं! क्यों? —जान लिया। अब जानने को कुछ बचा नहीं। पहचान ली एक दूसरे की भूगोल, झांक लिया एक दूसरे के इतिहास में, सब परिचित हो गया। अब फिर वही—वही है।

क्यों लोग एक धर्म से दूसरे धर्म में प्रविष्ट हो जाते हैं? क्यों हिन्दू ईसाई बन जाते हैं? क्यों ईसाई हिन्दू बन जाते हैं? ऊब गये पढ़—पढ़कर गीता, दोहरा—दोहराकर गीता—बाइबिल थोड़ी नयी लगती है! बाइबिल से ऊब गये—गीता थोड़ी नयी लगती है। लोग बदलते रहते हैं!

मन हमेशा बदलाहट की मांग करता है। मकान बदल लो; काम बदल लो; पत्नी बदल लो; कपड़े बदल लो फैशन बदल लो। बदलते रहो, ताकि ऊब न पकड़ ले। न बदलो, तो ऊब पकड़ती है। लेकिन ये सब बदलाहटें ऊब को मिटा नहीं पातीं, ढांक भला देती हों।

धर्म ही एक मात्र कीमिया है, जिससे ऊब सदा के लिए समाप्त हो जाती है। किसी ने बुद्ध को ऊबा नहीं देखा! किसी ने महावीर के चेहरे पर ऊब नहीं देखी, उदासी नहीं देखी, हारापन नहीं देखा, थकापन नहीं देखा।

तुम्हारे तथाकथित धार्मिक धार्मिक नहीं हैं। उनके लिए तो धर्म भी एक ऊब है। इसलिए तुम मंदिरों में, धर्म—सभाओं में लोगों को सोते देखोगे। क्या है वहां जानने को? रामलीला लोग देखने जाते हैं, तो सोते हैं। रामलीला तो पता ही है! सब वही—वही? बार—बार देख चुके हैं।

एक स्कुल में ऐसा हुआ… गांव में रामलीला चल रही थी। सारे बच्चे रामलीला देखने जाते थे। अध्यापक उनको दिखाने ले जाता था। धर्म की शिक्षा हो रही थी। और तभी स्कूल का इंस्पेक्टर जांच करने आ गया। अध्यापक ने सोचा कि अभी सब बच्चे रामलीला देख रहे हैं, ऐसे अवसर पर अगर यह रामलीला के संबंध में ही कुछ प्रश्न पूछ ले, तो अच्छा होगा।

इंस्पेक्टर ने पूछा कि किस संबंध में बच्चों से पूछूं? उसने कहां कि अभी ये रोज रामलीला देखते हैं; मैं भी देखने जाता हूं इनको दिखाने ले जाता हूं। अभी रामलीला के ही संबंध में कुछ पूछ लें।

तो इंस्पेक्टर ने कहां, ‘यही ठीक।’ तो उसने पूछा कि ‘बताओ बच्चो, शिवजी का धनुष किसने तोड़ा?’

एक लड़का एकदम से हाथ हिलाने लगा ऊपर उठकर। शिक्षक भी बहुत हैरान हुआ, क्योंकि वह नम्बर एक का गधा था! इसने कभी हाथ हिलाया ही नहीं था जिंदगी में! यह पहला ही मौका था। शिक्षक भी चौंका। मगर अब क्या कर सकता था। कहीं यह भद्द न खुलवा दे और!

अध्यापक तो चुपचाप रहा। इंस्पेक्टर ने कहां, ‘ही बेटा, बोलो। किसने शिवजी का धनुष तोड़ा—तुम्हें मालूम है?’

उसने कहां कि ‘मुझे मालूम नहीं कि किसने तोड़ा। मैं तो इसलिए सबसे पहले हाथ हिला रहा हूं कि पहले आपको बता दूं कि मैंने नहीं तोड़ा! नहीं तो कोई भी चीज टूटती है कहीं—घर में कि बाहर, कि स्कूल में—मैं ही फंसता हूं। अब यह पता नहीं, किसने तोड़ा है!’

इंस्पेक्टर तो अवाक रहा कि यह कैसी रामलीला देखी जा रही है! इसके पहले कि कुछ बोले, सम्हले कि शिक्षक बोला कि ‘इंस्पेक्टर साहब, इसकी बातों में मत आना। इसी हरामजादे ने तोड़ा होगा! यह सामने देख रहे हैं आप गुलमोहर का झाड़, इसकी डाल इसी ने तोड़ी। यह खिड़की देख रहे हैं, काच टूटा हुआ—इसी ने तोड़ा! यह मेरी कुर्सी का हत्था देख रहे हैं—इसी ने तोड़ा। यह देखने में भोला— भाला लगता है; शैतान है शैतान! मैं तो कसम खाकर कह सकता हूं कि मैं इसकी नस—नस पहचानता हूं। इसी हरामजादे ने तोड़ा है!’

इंस्पेक्टर तो बिलकुल भौंचक्का रह गया कि अब करना क्या है! अब कहने को भी कुछ नहीं बचा।

‘और’, शिक्षक ने कहां, ‘आप अगर मेरी न मानते हों, तो और लड़कों से पूछ लो?’ लड़कों ने कहां कि ‘जो गुरु जी कह रहे हैं, ठीक कह रहे हैं!’

एक लड़के ने अपनी टांग बतायी कि यह जो पलस्तर बंधा है; ‘इसी ने मेरी टल तोड़ी! शिवजी का धनुष अगर कोई तोड़ सकता है, तो यही लड़का है। यह जो चीज न तोड़ दे…!’

इंस्पेक्टर तो वहां से भागा। प्रधान अध्यापकसे जाकर उसने कहां कि ‘यह क्या माजरा है?’

लेकिन प्रधान अध्यापक बोला कि ‘अब आप ज्यादा खयाल न करें। अरे, ये तो लड़के हैं ,चीजें तोड़ते ही रहते हैं। लड़के ही ठहरे। आप इतने व्यथित न हों। अब यह तो स्कूल है। हजार लड़के पढ़ते हैं। अब तोड़ दिया होगा किसी ने शिवजी का धनुष! और जरूरत भी क्या है शिवजी के धनुष की! अरे टूट गया—तो टूट गया! भाड़ में जाये शिवजी का धनुष। आप क्यों चिंता कर रहे हैं।’ उसकी तो सांसें रुकने लगीं कि क्या रामलीला हो रही है गांव में! और सारा स्कूल जा रहा है। अध्यापक, प्रधान अध्यापक—सब रामलीला देखने जा रहे हैं। वह वहां से भागा, सीधा म्युनिसिपल कमेटी के दफ्तर में पहुंचा, जिसका कि स्कूल था। और उसने कहां… कि उसको कहूं कि शिक्षा समिति का जो अध्यक्ष है…, ‘उससे मिलना चाहता हूं।’ उसने कहां कि उसको कहूं कि यह क्या माजरा—यह क्या शिक्षा हो रही है।

मगर इसके पहले… वह पूरी बात कर भी नहीं पाया था.. .उसने कहां कि ‘आप फिक्र न करो। अरे, जुड़वा देंगे। टूट गया, तो जुड़वा देंगे! ऐसा कौन करोड़ों का दिवाला निकल गया है। अब यह तो टूटती—फूटती रहती हैं चीजें; जुड़ती रहती हैं! और हम किसलिए बैठे हैं? कहां है धनुष? एक बढ़ई को तो हमें लगाये ही रखना पड़ता है। स्कूल में कहीं कुर्सी टूटी, कहीं टेबल टूटी, कहीं कुछ टूटा, कहीं कुछ टूटा। जोड़ देगा धनुष को। इसमें इतने क्यों आप पसीना—पसीना हो रहे हैं!’

रामलीला सब देख रहे हैं। मगर यह बात… यह कहांवत सच है कि लोग रातभर रामलीला देखते हैं’ और सुबह पूछते हैं कि सीतामैया रामजी की कौन थीं।.. —क्योंकि देखता कौन है? लोग सोते हैं। इतनी बार देख चुके हैं कि अब ऊब पैदा हो गयी है। कोई नयी घटना घट जाये, तो भला देख लें।

जैसे एक रामलीला में यह हुआ कि हनुमानजी गये तो थे लंका जलाने, अयोध्या को जला दिया! तो सारी सभा आंख खोलकर बैठ गयी! लोग खड़े हो गये। कि भैया, क्या हो रहा है?

रामजी बोले कि ‘अरे हनुमानजी, तुम बंदर के बंदर ही रहे! तुमसे किसने कहां, अयोध्या जलाने को?’

हनुमानजी भी गुस्से में आ गये! उन्होंने कहां कि ‘तुम भी समझ लो साफ कि मुझे दूसरी रामलीला में ज्यादा तनखाह पर नौकरी मिल रही है। मैं कुछ डरता नहीं। जला दी। कर लो, जो कुछ करना हो। बहुत दिन जला चुका लंका। बार—बार लंका ही लंका जलाओ! मैं भी ऊब गया। कर ले जिसको जो कुछ करना है।’

वह था गांव का पहलवान, उसको कोई क्या करे! रामजी तो छोटे—से लड़के थे। उसने कहां, ‘वह धौल दूंगा कि छठी का दूध याद आ जायेगा! है कोई माई का लाल, जो मुझे रोक ले! जला दिया अयोध्या—कर ले कोई कुछ!’

बामुश्किल परदा गिराकर, समझा—बुझाकर उसको कहां कि ‘ भैया, अब तू घर जा। तुझे दूसरी रामलीला में जगह मिल गयी है, वहां काम कर!’

उस रात गांव में जरा चर्चा रही! लोगों ने आंख खोलकर देखा। नहीं तो किसको पड़ी है—अब लंका जलती ही रहती है!

आदमी का मन नये की तलाश करता है। विज्ञान के हिसाब से तो नया बहुत दिन बचेगा नहीं। कब तक नया बचेगा! इसलिए विज्ञान उबा ही देगा। इसलिए पश्चिम में जितनी ऊब है, पूरब में नहीं है। क्योंकि पूरब विज्ञान में पिछड़ा हुआ है। पश्चिम में जैसी उदासी छायी जा रही है, लोगों को जीवन का अर्थ नहीं दिखायी पड़ रहा है। सब अर्थ खो गये हैं। वैसा पूरब में नहीं हुआ है अभी। लेकिन होगा—आज नहीं कल। पूरब जरा घसीटता है, धीरे—धीरे घसीटता है; पहुंचता वहीं है, जहां पश्चिम। मगर वे जरा तेज गति से जाते हैं; यह बैलगाड़ी में चलते हैं। पहुंच रहे हैं वहीं। हम भी विज्ञान की शिक्षा दे रहे हैं।

मैं कोई विज्ञान के विरोध में नहीं हूं। मैं चाहता हूं विज्ञान की शिक्षा होनी चाहिए। लेकिन यह भ्रांति होगी कि विज्ञान धर्म का स्थान भरने लगे।

धर्म की तीसरी कोटि तो हमारे खयाल में बनी ही रहनी चाहिए कि कुछ है, जो रहस्यमय है। और कुछ है जो ऐसा रहस्यमय है कि हम जान—जानकर भी न जान पायेंगे। जान लेंगे, और कह न पायेंगे। पहचान लेंगे, और बता न पायेंगे। जानेंगे, कि गूंगे हो जायेंगे—गूंगे का गुड़ हो जायेगा। स्वाद तो आ जाएगा, मगर बोल भी न सकेंगे। जो बोलेगे—सो गलत होगा।

लाओत्सु ने कहां है, ‘मत पूछो मुझसे सत्य की बात। क्योंकि सत्य के संबंध में कुछ भी कहो, कहते से ही गलत हो जाता है; असत्य हो जाता है। क्योंकि सत्य इतना विराट है और शब्द इतने छोटे हैं।

निरुक्त कोई धर्म की अनुभूति पर आधारित शास्त्र नहीं है। वह तो भाषा, व्याकरण—उनका गणित है। निश्चित ही गणित तर्क का ही विस्तार होता है। इसलिए इस परोक्ष कथा से निरुक्त यह कह रहा है कि अब ऋषियों की कोई जरूरत नहीं है। जा चुके दिन! मगर भारतीयों के कहने के तंग भी बेईमान होते हैं! सीधी बात भी नहीं कहेंगे। नाहक देवताओं को घसीट लाये। यहां कोई सीधी बात कहता ही नहीं! यहां सीधी बात कहो, तो लोगों को जहर जैसी लगती है। यहां तो गोल घुमा—फिराकर कहो कि किसी को पता ही नहीं चले—क्या कह रहे हो! और पता भी चल जाये, तो उसके कई अर्थ किये जा सकें!

अब देवताओं की कोई जरूरत नहीं है इसमें। और देवताओं को क्या खाक पता है! कोई देवता ऋषियों से ऊपर हैं? देवता ऋषियों से ऊपर नहीं हैं। ऋषि से ऊपर तो कोई भी नहीं है।

हमारा देश अकेला देश है इस अर्थ में जिसके पास कवि के लिए दो शब्द हैं : एक कवि और एक ऋषि। दुनिया की किसी भाषा में कवि के लिए दो शब्द नहीं हैं। क्योंकि कविता का दूसरा रूप ही किसी भाषा में नहीं निखरा। वह बात ही नहीं उतरी पृथ्वी पर। इसमें एक ही शब्द है—कविता या कवि। ऋचा और ऋषि—बड़ी और बात है! उस भेद को खयाल में लो, तो समझ में बहुत कुछ आ सकेगा।

कवि हम उसे कहते हैं, जिसे कभी—कभी झरोखा खुल जाता—सत्य की थोड़ी सी झलक मिल जाती—स्व किरण। आंख में एक ज्योति जगमगा जाती और तिरोहित हो जाती। फिर गहन अंधेरा हो जाता है। कवि को पता भी नहीं है, यह क्यों होता है, कैसे होता है। यह उसके हाथ के… बस की बात भी नहीं है कि जब वह चाहे, तब हो जाये। यूं अगर कोई कविता लिखने बैठे, तो तुकबंदी होगी—कविता नहीं होगी।

तुकबंदी कोई भी कर सकता है। और इधर तो नयी कविता चली है, उसमें तुकबंदी की भी जरूरत नहीं है। इसलिए कोई भी मूढ़ कवि हो जाता है! अब तो कवि होने में भी अड़चन न रही—ऋषि होना तो दूर बात है। अब तो कवि होने में भी अड़चन नहीं है। अतुकांत कविता! अब तो तुक भी नहीं बिठानी पड़ती! अब तो कुछ भी उल्टा—सीधा जोड़ो! कविता बनाने में कोई अड़चन नहीं है। इसलिए इतने कवि हैं! गांव—गांव, मोहल्ले—मोहल्ले इतने कवि—सम्मेलन होते हैं! सुननेवाले नहीं मिलते! और सुननेवाले भी क्या आते हैं! सब गांव के सड़े टमाटर, अंडे, केलों के छिलके—सब ले आते हैं, क्योंकि कवियों का स्वागत करना पड़ता है!

असल में जिस गांव में कवि—सम्मेलन होता है, कवि पहले जाते हैं सब्जी—मंडी में और सब खरीद लेते हैं! ताकि फेंकने को कुछ बचे ही नहीं! और जनता केवल एक काम करती है—हूट करने का!

कविताओं में है भी क्या अब! कविता भी नहीं है उसमें। ऋचाओं की तो बात ही बहुत दूर हो गई!

कवि हम उसको कहते थे, जिसके जीवन में अनायास, बिना किसी साधना के, पता नहीं क्यों, एक रहस्य की भांति, कभी—कभी किसी रंध्र से कोई किरण प्रवेश कर जाती है। और वह किरण को बांध लेता है शब्दों में। किरण को धुन दे देता है। किरण को गीत बना लेता है।

कूलरिज मरा, अंग्रेज महाकवि, तो कहते हैं, चालीस हजार कविताएँ उसके घर में अधूरी मिलीं। सारा घर अघूरी कविताओं से भरा था। और उसके मित्र जानते थे, और वे मित्र उससे कहते थे कि ‘इनको पूरा क्यों नहीं करते!’

लेकिन कूलरिज ईमानदार कवि था। वह कहता, ‘मैं कैसे पूरा करूं! कोई कविता उतरती है, कुछ पंक्तियां उतरती हैं, फिर नही उतरती आगे, तो मैं अपनी तरफ से नहीं जोडगू।। कविता जब उतरेगी—उतरेगी। जब आयेगी, तब आयेगी। जितनी आ गई, उतनी मैंने लिख दी। अब प्रतीक्षा करूंगा। क्योंकि जब भी मैंने जोड़ा है, तभी मैंने पाया कि कविता खो जाती है। वह जो रहस्य होता है, रस होता है, सूख जाता है। मेरे द्वारा जोड़ा गया अलग दिखाई पड़ता है।’

ऐसा रवींद्रनाथ के जीवन में हुआ। जब उन्होंने गीतांजलि अंग्रेजी में अनुवादित की, तो उन्हें थोड़ा—सा संदेह था कि पता नहीं अंग्रेजी में बात पहुंच पायी या नहीं, जो बंगला में थी! तो सी. एफ. एन्‍डूरूज़ को अपनी अंग्रेजी अनुवाद की गीतांजलि दिखाई। एन्‍डूरूज़ ने कहां कि ‘और तो सब ठीक है, चार जगह भाषा की भूलें हैं। ये सुधार लें।

जो एन्‍डूरूज़ ने सुझाया, वह रवींद्रनाथ ने बदल दिया। स्वभावत: वह उनकी मातृभाषा नहीं थी अंग्रेजी। और एन्‍डूरूज़ विद्वान पुरुष थे; भाषा पर उनका अधिकार था। जो कह रहे थे, ठीक कह रहे थे। रवींद्रनाथ को यह बात जंची।

फिर जब उन्होंने योरोप में पहली दफा कवियों की एक छोटी—सी गोष्ठी में जाकर गीताजलि का अनुवाद सुनाया, तो वे बड़े हैरान हुए। भरोसा न आया। एक युवक कवि खड़ा हुआ, यीटस उसका नाम था, और उसने कहां कि ‘कविता बड़ी मधुर है। अद्भुत है। नोबल पुरस्कार इस पर मिलेगा आज नहीं कल।’ यीट्स ने यह मिलने के पहले कह दिया था। भविष्यवाणी कर दी थी कि ‘इस सदी में अंग्रेजी में कोई इतना अद्भुत काव्य नहीं लिखा गया है। लेकिन चार जगह भूल है।’

रवींद्रनाथ ने कहां, ‘कौन—सी चार जगह? सुधार लेता हूं।’

हैरान हुए वे तो। वे ही चार जगह थीं, जहां सी. एफ एन्‍डूरूज़ ने सुधार करवाया था। रवींद्रनाथ ने कहां, ‘आप क्या कह रहे हैँ! ये तो वे जगहें हैं, जहां मैंने भूलें की थीं और सी. एफ. एन्‍डूरूज़ ने सुधार करवा दिया है!’

यीट्स ने पूछा कि ‘आप बताइये, आपने क्या शब्द पहले रखे थे।’ रवींद्रनाथ ने अपने पुराने शब्द बताये। उनको ही काटकर तो उन्होंने नये शब्द लिख दिये थे।

यीट्स ने कहां कि ‘आपके शब्द भाषा की दृष्टि से गलत हैं, लेकिन काव्य की दृष्टि से सही हैं। वे चलेंगे। एन्‍डूरूज़ के शब्द भाषा की दृष्टि से सही हैं, लेकिन काव्य की दृष्टि से गलत हैं। वे नहीं चलेंगे। वे पत्थर की तरह पड़े हैं। उनमें आपकी जो सतत धारा है काव्य की, विच्छिन्न हो गई, टूट गई। वे दीवाल की तरह अड़ गये हैं।’

एन्‍डूरूज़ ने भाषा की दृष्टि से बिलकुल ठीक कहां है, लेकिन कविता भाषा थोडे ही है। भाषा से कुछ ऊपर है। जो भाषा में आ जाता है, उसे तो हम गद्य में लिख देते हैं। जो भाषा में नहीं आता, उसे पद्य में लिखते हैं। पद्य का अर्थ ही यही है कि गद्य में नहीं बंधता। गाना होगा, गुनगुनाना होगा। नृत्य देना होगा। तर्क के जाल को थोड़ा ढीला करना होगा। व्याकरण की उतनी चुस्ती नहीं रखनी होगी, जितनी गद्य पर होती है। इसलिए कवि को स्वतंत्रता होती है थोड़ी, शब्दों को तोड़ने—मरोड़ने की; शब्दों को नये अर्थ, नयी भाव— भंगिमाएं देने की; नयी मुद्रायें देने की; शब्दों को नया रस देने की।

यीट्स ने कहां, ‘आप अपने शब्द वापस रखें। आपके शब्द प्यारे हैं। वे उतरे हैं।’ इसलिए हमने वेदों को अपौरुषेय कहां हैं। अपौरुषेय का अर्थ होता है : हमने लिखा जरूर, मगर हम सिर्फ लिखनेवाले थे, हम रचयिता न थे, लेखक थे। रचयिता तो परमात्मा था। वह बोला—हमने लिखा। गुनगुनाया—हमने भाषा में उतारा। हम तो केवल माध्यम थे, हम स्रष्टा न थे।

यह वेदों के अपौरुषेय होने की बात प्रीतिकर है। सारा काव्य अपौरुषेय होता है। आती है बात किसी अज्ञात लोक से, तुम्हारे प्राणों को थरथरा जाती है। कही थरथराहट जब तुम देने में समर्थ हो जाते हो भाषा को,. तो कविता का जन्म होता है।

लेकिन काव्य आकस्मिक है। तुम उसके मालिक नहीं हो।

रवींद्रनाथ महीनों कविता नहीं लिखते थे। और कभी ऐसा होता था ?? फिर दिनों लिखते रहते थे। तो द्वार—दरवाजे बंद कर देते थे। तीन—तीन दिन तक खाना नहीं खाते थे, स्नान नहीं करते थे, क्योंकि कहीं धारा न टूट जाये। तो घर के लोगों को सूचना थी कि जब वे द्वार—दरवाजे बंद कर लें, तो कोई दस्तक भी न दे, कि धारा न टूट जाये। क्योंकि नाजुक मामला है! बड़े सूक्ष्म तंतुओं में उतरती है कविता, जैसे मकड़ी का जाला, जरा सै धक्के में टूट जा सकता है। फिर लाख बनाओ, न बनेगा। कौन आदमी है, जो मकड़ी का जाला बना दे! कितना ही कुशल हो।

तो रवींद्रनाथ भूखे—प्यासे, बिना नहाये— धोये सोते नहीं थे, इस डर से कि पता नहीं, जो धारा बह रही है, वह कहीं रात खो न जाये! कहीं सपनों के कारण बाधा न आ जाये। लिखते ही रहते थे; लिखते ही जाते थे—पागल की तरह। हा, जब धारा अपने आप रुक जाती थी, तब वे रुकते थे। फिर लौटकर देखते थे कि क्या उतरा। फिर प्रत्यभिज्ञा करते थे कि यह उतरा, ऐसा उतरा।

सच्चा कवि सुधार नहीं करता। क्योंकि सुधार करनेवाले तुम कौन हो! तुमसे जो आया ही नहीं, तुम उसमें कैसे सुधार करोगे? वह तो अपने हाथ परमात्मा के हाथ में छोड देता है, वह जो चाहे लिखवा ले। वह जो चाहे, बोला ले।

लेकिन इसके ऊपर भी एक काव्य का लोक है, जिसको हम ऋचा का लोक कहते हैं—ऋषि का लोक। ऋषि वह है जिसके जीवन में कविता आकस्मिक नहीं है। जिसके जीवन में कविता शैली हो गई। जिसका उठना काव्य है, जिसका बैठना काव्य है। जो बोले, तो काव्य; जो न बोले, तो काव्य। जिसके मौन में भी काव्य है। जिसके पास तुम बैठो, तो तुम्हारे हृदय की वीणा बजने लगे। जिसका हाथ तुम हाथ में ले लो, तो तुम्हारे भीतर ऊर्जा का एक प्रवाह हो जाये।

कविता पढ़कर कवि से मिलने कभी मत जाना., क्योंकि अकसर यह होगा कि कविता पढ़कर तो तुम बहुत आह्लादित हो जाओगे; कवि से मिलकर बहुत उदास हो जाओगे! क्योंकि काव्य को पढ़कर तो ऐसा लगेगा कि किसी अपूर्व व्यक्ति से मिलने जा रहे हैं। और जब तुम कवि को मिलोगे, तो तुम बहुत हैरान होओगे। हो सकता है, तुमसे गया—बीता हो। बैठा हो किसी शराबघर मैं, शराब पी रहा हो। गालियां बक रहा हो; कि नाली में पड़ा हो; कि झगडा—झांसा कर रहा हो।

तुम कभी भूलकर भी कविता पढकर कवि से मिलने मत जाना, नही तो कविता पर तुम्हें जो आनंद— भाव जगा था, वह मिट जायेगा। जैसे खलील जिब्रान की अगर तुमने किताबें पढ़ी; खलील जिब्रान से मिलने मत जाना। क्योंकि जो भी खलील जिब्रान से मिले, उनको बहुत उदास हो जाना पड़ा। कहां खलील जिब्रान की किताब ‘प्राफेट’, जिसका एक—एक शब्द हीरों में तोला जाये; ऐसा है। लेकिन खलील जिब्रान से मिलोगे, तो वह साधारण आदमी है—वही क्रोध, वही ईर्ष्या, वही वैमनस्य, वही अहंकार, वही झगड़ा—फसाद, वही तिकड़म बाजियां, वही राजनीति—सब वही, जो तुम में है; और उससे भी गया—बीता!

ऐसा अकसर हो जाता है ना! रास्ते पर तुम जा रहे हो अंधेरे में। अंधेरे में चलते—चलते अंधेरे में भी थोड़ा दिखाई पढ़ने लगता है। फिर पास से ही कोई कार गुजर जाये। तेज रोशनी तुम्हारी आंखों में भर जाये। एक क्षण को तुम तिलमिला जाते हो। कार तो गई। आयी और गई। लेकिन एक हैरानी की बात पीछे अनुभव होती है कि कार के चले जाने के बाद अंधेरा, और अंधेरा हो गया! इतना अंधेरा पहले न था। अंधेरा तो वही है, मगर तुम्हारी आंखों ने रोशनी जो देख ली। अब तुम्हारी आंखों को फिर से इस अंधेरे को देखने में तुलना पैदा हो गई।

तो अकसर यह होता है. कवि उडान भरता है आकाश की, क्षणभर को। और फिर जब गिरता है, तो तुमसे भी नीचे के गड्डे में गिर जाता है! उसकी आंखों में चकाचौंध भर जाती है। इसलिए कवियों के जीवन बड़े साधारण होते हैं; बडे क्षुद्र होते हैं।

मैं बहुत कवियों को जानता हूं। उनकी कविताएं प्यारी हैं। उनकी कविताओं के मैं कभी उल्लेख करता हूं उद्धरण देता हूं। मगर उन कवियों के नाम नहीं लेता। मुझसे कई दफे पूछा गया है कि ‘मैं किसी कवि का जब उल्लेख करता हूं तो नाम क्यों नहीं लेता?’ नाम इसिलए नहीं लेता, कि कविता ही तुम समझो, उतना ही अच्छा है। कवि को भूलो। कवि को बीच में न लाओ। क्योंकि वह कवि किसी क्षण में कवि था, फिर तो वह साधारण आदमी है। क्षणभर को उछला था। पंख लग गये थे। फिर क्षणभर बाद गिर पडा है। और जब गिरता है कोई उछलकर, तो हड्डी—पसली टूट जाती है। जब उछलकर कोई गिरता है, तो चारों खाने चित्त गिरता है। तुम समतल भूमि पर चलते हो। कवि की जिंदगी कभी पहाडों पर, और कभी खाइयों में। वह समतल भूमि पर चलता ही नहीं।

ऋषि वह है, जिसने पहाड़ों पर ही चलने की कला सीख ली। जो एक शिखर से दूसरे शिखर पर पैर रखता है। जिसके लिए पहाड़ों की ऊंचाइयां ही अब समतल भूमि हो गई हैं।

कवि की कोई साधना नहीं होती। उसका कोई योग नहीं होता। उसका कोई ध्यान नहीं होता; कोई प्रार्थना नहीं होती; कोई पूजा नहीं, कोई अर्चन नहीं। वह तुम्हारे जैसा ही व्यक्ति है। पता नहीं किन पिछले जन्मों के पुण्य के कारण कभी झरोखे खुल जाते हैं। पता नहीं क्यों! उसे पता नहीं है कि क्यों द्वार खुल जाता है; अचानक सूरज झांक जाता है! पानी की बूंदें बरस जाती हैं। आकाश के तारे दिखाई पड़ जाते हैं। कैसे द्वार खुलता है, इसका भी उसे पता नहीं; कैसे द्वार बंद हो जाता है, इसका भी उसे पता नहीं। क्यों उसके जीवन में कभी काव्य का आकाश खुल जाता है और क्यों सब बंद हो जाता है —उसे कुछ भी पता नहीं है।

ऋषि के हाथ में चाबी है। वह जानकर द्वार खोलता है। उसे पता है—आकाश तक जाने का रास्ता। उसकी साधना है। उसने अपने को निखारा है। उसने आकाश और अपने बीच एक तालमेल बिठाया है। उसकी आत्मा और आकाश एक हो गये हैं। भीतर का आकाश बाहर के आकाश से मिल गया है। उसमें कोई भेद नहीं रह गया। अभेद हो गया है, अद्वैत हो गया है।

कवि में से तो कभी—कभी ईश्वर बोलता है; कभी—कभी। जब कवि बोलता है, तो सब साधारण होता है। और जब कभी अपने को मिला देता है, तो कचरा हो जाता है। उसकी श्रेष्ठ कविता में भी कचरा आ जाता है।

ऋषि में से ईश्वर नहीं बोलता; ऋषि तो स्वयं ईश्वर के साथ एक हो गया है। ऋषि माध्यम नहीं है। कवि माध्यम है। ऋषि तो स्वयं ईश्वर है। वह भगवद्—स्वरूप है।

इसलिए यह बात तो मैं मानने को राजी नहीं हूं कि ऐसा कोई दिन आया, जिस दिन ऋषिजन इस जगत से जाने लगे। अभी भी नहीं गये। यह मैं अपने अनुभव से कहता हूं।

यह निरुक्त का श्लोक जब लिखा गया, उसके बाद कितने ऋषि हो चुके! बुद्ध हुए, महावीर हुए, गोरख हुए, कबीर हुए, नानक हुए, फरीद हुए, दादू हुए—यह तो भारत की बात हुई। भारत के बाहर भी हुए। जीसस हुए, मोहम्मद हुए! मोहम्मद से बड़ा कोई ऋषि हुआ! कुरान जैसी ऋचाएं उतरी कहीं! कुरान की ऋचाओं का जो रस है, जो तरन्‍नुम है, उनकी जो गेयता है, वह किसी और शास्त्र में नहीं।

तुम कुरान न भी समझो, उसकी एक खूबी, लेकिन अगर कोई कुरान को गाकर तुम्हें सुना दे, तो तुम डोल जाओगे। अब शराब को कोई समझना थोड़े ही पड़ता है कि कैसे बनती है। पी ली—कि डोले। शराब का कोई अर्थ थोड़े ही जानना होता है, कि कैसे मह से ढली! कि किस देश के अण से ढली! पिओगे—और जान लोगे—ऐसी कुरान है।

कुरान को पढ़ना नहीं चाहिए। जो कुरान को पढ़ता है, वह चूक जाता है। कुरान तो गायी ही जा सकती है। कुरान को पढ़ा कि मजा ही चला गया। उसका सारा राज गेय में है।’कुरान’ शब्द का भी अर्थ होता है—गा। कुरान शब्द का भी अर्थ होता है—गा, गुनगुना।

मोहम्मद पर जब पहली दफा कुरान उतरी, तो मोहम्मद बहुत घबड़ा गये। क्योंकि आकाश से कोई वाणी जैसे गुंजने लगी कि गा—गुनगुना! उठ—क्या सोया पड़ा है! मोहम्मद ने कहां, ‘न मैं पढ़ा हूं न मैं लिखा हूं! न मुझे शास्त्रों का कुछ पता है!’. वे बे —पढ़े —लिखे आदमी थे— ‘मैं क्या गुनगुनाऊं, मैं कैसे गाऊं?’

लेकिन आवाज आयी, ‘तू फिक्र छोड़ शास्त्रों की। शास्त्रों को जाननेवाले कब गुनगुना पाते हैं! कब गा पाते हैं! तू तो गा। अरे, पक्षी गाते हैं। कोयल गाती है। पपीहा गाता है। तू गा। तू गुनगुना। तू संकोच छोड़।’

वे तो इतने घबड़ा गये कि घर आकर उन्होंने पत्नी से कहां कि ‘मेरे ऊपर दुलाइयों पर दुलाइयां डाल दो। मुझे बुखार चढ़ा है! मेरे हाथ—पैर थरथरा रहे हैं। मुझे ठण्ड लग रही है। बहुत शीत लग रही है। मैं कंपा जा रहा हूं।’

पत्नी ने कहां, ‘क्या हुआ! तुम अभी — अभी ठीक गये थे!’

जो शब्द मोहम्मद ने कहे, वे बड़े प्यारे हैं। अगर वे भारत में हुए होते, तो उन्होंने एक शब्द नहीं कहां होता। लेकिन मजबूरी थी; वे भारत में नहीं पैदा हुए थे।

उन्होंने कहां कि ‘मुझे लगता है, या तो मैं पागल हो गया—या कवि हो गया!’

अगर भारत में पैदा होते, तो वे कहते, ‘या तो मैं पागल हो गया—या ऋषि हो गया।’

लेकिन क्या…! मजबूरी थी। अरबी में ऋषि के लिए कोई शब्द नहीं है। कवि ही एकमात्र शब्द था। मगर तुम सुनो। उन्होंने कहां कि ‘बस, दो में से कुछ एक बात हो गयी है। या तो मैं पगला गया! मेरे भीतर ऐसी गज उठ रही है, जो कि मेरी है ही नहीं! जो मैंने कभी जानी नहीं; पहचानी नहीं। मेरी तैयारी नहीं! मगर झरनों पर झरने फूट रहे हैं! कोई मेरे प्राणों को धक्के दे रहा है। कह रहा है —गा—गुनगुना! गुनगुनाऊं! गाऊं! या तो मैं पागल हो गया—या कवि हो गया!’

मैं तुमसे कहता हूं अगर वे भारत में यहां पैदा होते, तो उन्होंने कहां होता, या तो मैं पागल हो गया—या ऋषि हो गया! क्योंकि उसके बाद गुनगुनाहट चलती रही, चलती रही। कुरान एक दिन में नहीं लिखी गयी, वर्षों लगे। ऋचाएं उतरती रहीं। जिसको मुसलमान आयत कहते हैं, उसको ही हम ऋचा कहते हैं। ऋचायें उतरती रहीं।

मोहम्मद ऋषि हैं।

तो कौन कहता है? लाख निरुक्त कहे, मैं मानने को राजी नहीं। निरुक्त लिखी गई, इसके बाद चीन में लाओत्सु हुआ। च्चांग्त्सु हुआ, लाहुत्सु हुआ! क्या अद्भुत लोग हुए! जिनके एक—एक शब्द में स्वर्ग का राज्य समाया हुआ है।

और तुम कहते हो, ‘ऋषिजन जब जाने लगे…!’ कभी गये नहीं।

नानक को तो अभी पांच सौ साल ही हुए हैं। नानक के शब्द—शब्द में ऋचा है, गीत है। नानक तो गलत आदमियों के हाथों में पड़ गये; सैनिकों के हाथ में पड़ गये! संन्यासियों के हाथ में पड़ना था। कहां तलवारें चमकने लगीं! नानक के हाथ में कोई तलवार नहीं थी कभी।

नानक के साथ तो उनका एक शिष्य था—मरदाना—उनका साजिन्दा था वह। उसके हाथ में तो एकतारा था। कहां नानक, कहां उनका साजिन्दा मरदाना—कहां एकतारा—और कहां आज का सिक्‍ख! कि जरा कुछ कह दो कि वह एकदम कृपाण निकालने को तैयार है! जरा में तलवारें चमकाने लगे!

नानक गाते फिरे। उनके शब्द गेय हैं। गाये जा सकते हैं। और बड़े प्यारे हैं। नानक के गाने के कारण एक नयी भाषा पैदा हो गई। क्योंकि नानक जैसा व्यक्ति जब गाता है, तो वह किसी पुरानी भाषाओं के नियम थोड़े ही मानता है। गुरुमुखी पैदा हो गई।

‘गुरुमुखी’ शब्द तुम समझते हो—गुरु के मुख से जो निकली— भाषा का नाम भी गुरुमुखी!

शुद्ध हिन्दी कठोर होती है। शुद्ध हिन्दी में कोने होते हैं। पंजाबी में एक माधुर्य है, एक मिठास है। शुद्ध नहीं है पंजाबी, बिलकुल अशुद्ध है। निरुक्त से पूछो, तो अशुद्ध है। लेकिन निरुक्त से पूछो क्यों? किसी ऋषि से पूछो, तो वह कहेगा, ‘भाषा का क्या लेना—देना है? यह गायक की स्वतंत्रता है। और यह हमेशा दुनिया में रही है।’

महावीर संस्कृत में नहीं बोले, क्योंकि संस्कृत बड़ी व्याकरणबद्ध है। और इतनी व्याकरण की सीमाएं हैं कि स्वतंत्रता बरतनी बड़ी मुश्किल है। महावीर प्राकृत में बोले।

प्राकृत और संस्कृत शब्द भी बड़े विचारणीय हैं।’प्राकृत’ का अर्थ होता है : जिसको सहज, साधारण लोग बोलते हैं। जो स्वाभाविक है। संस्कृत का अर्थ होता है : जिसमें स्वाभाविकता को काट—छांटकर संस्कार दे दिया गया। सुधार दे दिया गया; जिसको ढांचा दे दिया गया; जो प्राकृत आदमी की भाषा नहीं —है।

बुद्ध संस्कृत में नहीं बोले; पाली में बोले। पाली का अपना माधुर्य है।

नानक से एक नयी भाषा का जन्म हो गया—गुरुमुखी। गायी—गुनगुनायी।

ये ऋषि तो पैदा होते रहे। निरुक्त गलत कहता है।

सहजानन्द! मैं निरुक्त से राजी नहीं। तुम कहते हो कि यह सूत्र कहता है, ‘इस लोक से जब ऋषिगण जानै लगे…।’ कभी गये ही नहीं; कभी जायेंगे भी नहीं। जिस दिन इस लोक से ऋषिगण चले जायेंगे, ये लोक ही समाप्त हो जायेगा। फिर इस लोक में क्या नमक रह जायेगा? क्या स्वाद रह जायेगा? क्या मिठास रह जायेगी? इन थोड़े—से लोगों के बल से तो यहां सुगंध है। नहीं तो यहां काटे ही काटे हैं। कुछ थोड़े से फूलों के बल तो इस जिंदगी में थोड़ा सौंदर्य है।

नहीं, ऋषिगण कभी भी नहीं गये। संत फ्रासिस, इकहांर्ट—ये लोग दुनिया के कोने—कोने में होते रहे; कोई भारत का ठेका थोडे ही है! कोई ब्राह्मणों का ठेका थोड़े ही है! ये क्षत्रियों में हुए। महावीर और बुद्ध क्षत्रिय थे। ये वैश्यों में हुए; तुलाधर वैश्य की कथा है उपनिषदों में।

एक गुरु ने अपने शिष्य को तुलाधर वैश्य के पास ज्ञान लेने भेजा। शिष्य ने कहां, ‘आप ब्राह्मण हैं। आप महापण्डित हैं और एक बनिये के पास मुझे भेज रहे हैं ज्ञान लेने?’

तो उसके गुरु ने कहां, ‘ज्ञान न तो ब्राह्मण को देखता है, न वैश्य को देखता है, न क्षत्रिय को देखता है : जिसकी पात्रता होती है, उसका पात्र अमृत से भर जाता है। तो तू तुलाधर के पास जा।’

जाना पड़ा; गुरु ने कहां था शिष्य को। तो तुलाधर के पास बैठा। उसे कुछ समझ में न आया कि क्या इस आदमी में…! तुलाधर उसका नाम ही हो गया था कि दिनभर वह तराजू लेकर तौलता रहता, तौलता रहता! उसने पूछा कि ‘तुम्हारा राज क्या है?’

उसने कहां कि ‘मैं डांडी नहीं मारता। इतना ही मेरा राजू है। चोर नहीं हूं। समभाव से तौलता हूं—समता, समत्व, सम्यतुल्‍य। मेरे तराजू को देखो, और मुझे पहचान लो। जैसा मेरा तराजू सधा हुआ होता है; जैसे मेरे तराजू का काटा ठीक मध्य में खड़ा हुआ है, ऐसा मैं भी मध्य में खड़ा हूं। न मेरा तराजू धोखा दे रहा है, न मैं धोखा दे रहा हूं। धोखा छोड़ दिया। पाखण्ड छोड़ दिया। जैसा हूं वैसा हूं। बस, जिस दिन से जैसा हूं वैसा ही रह गया हूं उसी दिन से न मालूम कहां—कहां से लोग आने लगे पूछने—सत्य का राजू!’ शूद्रों में भी हुए। सेना नाई हुआ। नाई था, लेकिन ऋषि तो कहना ही होगा उसे। रैदास चमार हुआ। चमार था, लेकिन ऋषि तो कहना ही होगा उसे। गोरा कुम्हार हुआ। उसके पास हजारों लोग दूर—दूर से आते थे पूछने जीवन का सत्य। और कुम्हार था, तो कुम्हार की भाषा में बोलता था। किसी ने पूछा कि ‘गुरु करता क्या है? आखिर गुरु का कृत्य क्या है?’

तो गोरा कुम्हार उस वक्त अपने, कुम्हार के चाक पर घड़े बना रहा था। उसने कहां, ‘गौर से देख। एक हाथ मैं घड़े को भीतर से लगाये हुए हूं और दूसरे हाथ से बाहर से चोटें मार रहा हूं। बस, इतना ही काम गुरु का है। एक हाथ से सम्हालता है शिष्य को, दूसरे हाथ से मारता है शिष्य को। ऐसा भी नहीं मारता कि घडा ही फूट जाये, कि सम्हाल ही न दे! और ऐसा भी नहीं सम्हालता कि घडा बन ही न पाये! इन दोनों के बीच शिष्य निर्मित होता है। गुरु मारता है; जी भरकर मारता है—और सम्हालता भी है। मार ही नहीं डालता। यूं मिटाता भी है—बनाता भी है। यूं मारता भी है, नया जीवन भी देता है।’

कुम्हार है, कुम्हार की भाषा बोला है, लेकिन बात कह दी। और बात इस तरह से कही कि शायद किसी ने कभी नहीं कही थी। मैंने दुनिया के करीब—करीब सारे शास्त्र देखे हैं, लेकिन गुरु के कृत्य को जैसा गोरा कुम्हार ने समझा दिया, यूं सरलता से, यूं बात की बात में—ऐसा किसी ने नहीं समझाया। कि गुरु भीतर से तो सम्हालता है…। भीतर से सम्हालता है और बाहर से मारता है। बाहर से काटता है, छांटता है। बाहर बड़ा कठोर—भीतर बड़ा कोमल! भीतर यूं कि क्या गुलाब की पंखुड़ी में कोमलता होगी! और बाहर यूं कठोर कि क्या तलवारों में धार होगी!

तो जो मिटने और बनने को राजी हो एक साथ, वही शिष्य है। और जो मिटाने और बनाने में कुशल हो, वही गुरु है।

ऋषि तो होते रहे—होते रहेंगे।

यह बात ही गलत है कि ‘मनुष्य? वा ऋषिसूत्कामत्सु—कि इस लोक से जब ऋषिगण जाने लगे, जब उनकी परम्परा समाप्त होने लगी..।’

पहली तो बात : ऋषियों की कोई परंपरा होती ही नहीं। ऋषियों की तो निजता होती है, परंपरा नहीं होती। प्रत्येक ऋषि अनूठा होता है, उसकी परंपरा हो ही नहीं सकती। कोई तुमने दूसरा बुद्ध होते देखा? और यूं न सोचना कि बुद्ध होने की कोशिश नही की गई है। पच्चीस सौ वर्षों में लाखों लोगों ने कोशिश की है बुद्ध होने की। ठीक बुद्ध जैसे कपड़े पहने हैं। बुद्ध जैसा आसन लगाया है। बुद्ध जैसी आंखें बंद की हैं। बुद्ध जैसे ध्यान में बैठे हैं। बुद्ध जैसा भोजन किया है। बुद्ध जैसे उठे हैं, बैठे हैं, चले है—सब किया है। मगर नकल नकल है। एक भी बुद्ध नहीं हो सका। नकल से कभी कोई बुद्ध हुआ है? बुद्ध की कोई परंपरा होती है?

कोई जीसस हुआ दूसरा? कोई महावीर हुआ दूसरा? कितने जैन मुनि हैं भारत में! कोई है एकाध माई का लाल जो कह सके कि मैं महावीर हूं? और कह सको, तो क्यों चुल्लभर पानी में नहीं डूब मरते! क्या कर रहे हो? क्या भाड़ झोंक रहे हो?

पच्चीस सौ साल में एक जैन मुनि की हिम्मत नहीं पड़ी कहने की कि मैं महावीर हूं! हिम्मत पड़ती भी कैसे! होते—तो हिम्मत पड़ती। और ऐसा नहीं है कि उन्होंने कुछ नकल करने में कमी की हो। जो—जो महावीर ने किया, वह—वह किया! अगर महावीर नग्न रहे, तो हजारों लोग नग्न रहे। शीत झेली, धूप झेली। मगर महावीर की नग्नता कुछ और थी; इनकी नग्नता कुछ और। नकल कभी भी असल नहीं हो सकती।

मेरे एक मित्र हैं..। जैन संन्यास की पांच सीढियां होती हैं। महावीर ने कोई सीढ़ियां पार नहीं कीं, खयाल रखना! महावीर तो महावीर हो गये। छलांग होती है महावीर की, जैन मुनि की सीढ़ियां होती हैं! बस, वहीं फर्क पड़ जाता है। महावीर ने तो एक दिन कपड़े छोड़ दिये। यूं थोड़े कि धीरे— धीरे अभ्यास किया!

ये दस वर्ष से जैन मुनि हो गये थे। तो मैं पास से गुजर रहा था, कोई पांच—सात मील के फासले पर उनका ठहराव था, तो मैंने ड्राइवर को कहां कि ‘ले चलो। एक पांच—सात मील का चक्कर लगा लें। दस साल से उन्हें देखा नहीं।’

हम पहुंचे। मैंने खिड़की से देखा, जब उनके मकान के करीब पहुंच रहा था, कि अंदर से नग्न टहल रहे हैं! और जब मैंने दरवाजे पर दस्तक दी, तो वे एक तौलिया लपेटकर आ गये! मैंने उनसे पूछा कि ‘खिडकी से मैंने देखा कि आप नग्न थे। अब यह तौलिया क्यों लपेट ली?’

उन्होंने कहां, ‘अभ्यास कर रहा हूं!’

नग्न होने का अभ्यास!

‘मतलब, पहले कमरे में नग्न होंगे, यूं टहलेंगे। कभी कोई खिड़की से देख लेगा। ऐसे धीरे— धीरे संकोच मिटेगा। फिर धीरे— धीरे बाहर भी बैठने लगेंगे तखत पर आकर। फिर धीरे— धीरे बाजार में भी जाने लगेंगे। ऐसे आहिस्ता—आहिस्ता अभ्यास करते —करते, करते —करते एक दिन नग्न हो जायेंगे!’

मैंने उनसे कहां कि ‘जरूर अभ्यास करोगे, तो हो ही जाओगे। मगर सर्कस में भरती हो जाना फिर! क्योंकि अभ्यास से जो नग्नता आये, वह सर्कस में ले जायेगी। महावीर ने कब अभ्यास किया था—मुझे यह तो बताओ? महावीर ने नग्न होने का कब अभ्यास किया था, इसका कोई उल्लेख है?’

बोले, ‘ नहीं।’

‘तो,’ मैंने कहां, ‘फिर फर्क समझो। महावीर की नग्नता एक छलांग थी। एक निर्दोष भाव था। एक बात समझ में आ गई कि छिपाने को क्या है! जैसा हूं—हूं। उघड़ गये। यह एक क्षण में घटनेवाली क्रांति है। यह तुम दस साल से अभ्यास कर रहे हो!’

लेकिन जैन मुनि ने पांच सीढ़ियां बना ली हैं। एक—एक सीढी चलता है। पहली सीढ़ी का नाम ब्रह्मचर्य। तो उसमें तीन चादर रख सकता है या चार चादर रख सकता है। गणित है उसका। फिर दूसरी सीढ़ी आ जाती है, तो छुल्लक हो जाता है। फिर एक चादर कम हो जाती है। फिर तीसरी सीढ़ी आ जाती है, तो इलक हो जाता है!

अभी बम्बई में एक ‘इलाचार्य’ आये हुए थे ना! और कहां उन्होंने अड्डा जमाया था! चौपाटी पर—जहां ‘ भेलाचार्य’ पहले से ही जमे हुए हैं! मैंने भी सोचा कि ठीक है। इलाचार्य और भेलाचार्य में कोई फर्क है नहीं! कोई भेल बेच रहा है, कोई ऐल बेच रहा है! और चौपाटी पर चौपट लोग ही इकट्ठे होते हैं। अभी बम्बई का नाम बदलने की इतनी चर्चा चलती है न। इसका नाम चौपट नगरी रख दो! क्या मुंबई, क्या बम्बई, क्या बॉम्बे! छोड़ो यह बकवास। चौपट नगरी अंधेर राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा! और चौपाटी को ही राजधानी बना दो!

फिर इलक हो जाता है आदमी, तो फिर उसकी और कमी हो जाती है। फिर ऐसे बढ़ते—बढ़ते मुनि होता है। जब मुनि होता है, तब सब वस्त्र छोड़कर नग्न!

यह अभ्यासजन्य नग्नता और एक बच्चे की नग्नता मे तुम फर्क नहीं समझोगे! एक बच्चा भी नग्न होता है; वह अभ्यासजन्य नहीं होता। उसकी नग्नता में एक सरलता होती है, एक निर्दोषता होती है। उसे पता ही नहीं कि नग्न होने में कुछ खराबी है। उसे कुछ चिंता ही नहीं। उसे अभी इतनी चालबाजी नहीं।

ऐसे ही एक दिन महावीर पुन: बालवत् हो गये। फिर दो हजार, ढाई हजार साल बीत गये, कितने लोग नग्न होते रहे, मगर कोई महावीर नहीं! एक आदमी ने हिम्मत करके घोषणा की, वर्धा के एक स्वामी सत्य भक्त—उन्होंने घोषणा की कि वे पच्चीसवें तीर्थंकर हैं! तो जैनियों ने उनका त्याग कर दिया फौरन। क्योंकि जैन शास्त्रों में चौबीस के अलावा पच्चीसवां तीर्थंकर हो ही नहीं सकता। एक महाकल्प में, एक सृष्टि में, सृष्टि और प्रलय के बीच में, अनंत काल बीतता है—उसमें सिर्फ चौबीस तीर्थंकर हो सकते हैं। पच्चीसवां हो नहीं सकता। महावीर के बाद उन्होंने चौबीसवें पर ठहरा दी बात। सभी धर्म यह कोशिश करते हैं।

सिक्‍खों के दसवें गुरु के बाद बात ठहरा दी कि अब गुरु—ग्रंथ ही गुरु होगा। क्योंकि डर लगता है कि बाद में आनेवाले लोग कुछ नयी बातें न कह दें! कहीं ऐसा न हो जाये कि बदलाहट कर दें! तो रोक दो दरवाजा। ठहरा दो प्रवाह को।

जैनों ने चौबीसवें तीर्थंकर पर बात रोक दी। मुसलमानों ने मोहम्मद पर ही बात रोक दी! ईसाइयों ने जीसस पर ही बात रोक दी; आगे नहीं बढ़ने दी।

मैं वर्धा गया हुआ था। जिनके घर मैं मेहमान था, वे बोले कि ‘स्वामी सत्य भक्त को जैनियों ने तो निकाल बाहर कर दिया, कि उन्होंने अपने को पच्चीसवां तीर्थंकर कह दिया! लेकिन आपकी भी बेबूझ बातें हैं। शायद आप दोनों का मेल बैठ जाये! तो मुलाकात करवा दूं।’

‘जरूर मुलाकात करवाइये। मेल तो शायद ही बैठे।’

उन्होंने कहां, ‘क्यों?’

मैंने कहां कि ‘जो आदमी अपने को पच्चीसवां बता रहा है, उन आदमियों को मै कोई आदमी नहीं गिनता। मैं भी इसके खिलाफ हूं कि पच्चीसवां नहीं!’

उन्होंने कहां, ‘अरे! मैं तो सोचता था कि आप क्रांतिकारी हैं!’

मैंने कहां, ‘उनको आने दो।’

वे आये। कहने लगे कि ‘आप भी कहते हैं कि कोई पच्चीसवां तीर्थंकर नहीं हो सकता!’

मैंने कहां, ‘चौबीस ही नहीं हो सकते; पच्चीस की बात क्या उठा रहे हो! प्रत्येक तीर्थंकर एक ही होता है। उस जैसा दूसरा होता ही नहीं।’ और मैंने कहां, ‘तुम भी हद गधेपन की बात कर रहे हो। अरे, जब घोषणा ही करनी हो, तो प्रथम होने की घोषणा करो। क्या पच्चीसवां! क्यू में खड़े हैं! कुछ अकल की बात करो। यहां भी क्यू लगाये हो! तुम्हें क्यू में खड़े होने की आदत हो गई! यह कोई बस है? कि सिनेमा की टिकिट बेचनेवाली खिड़की है—कि खड़े हैं! चौबीस नंग— धड़ंग पहले खड़े हैं, पच्चीसवें तुम खड़े हो! ‘

मैंने कहां, ‘मुझसे घोषणा करनी हो, तो मैं कहूंगा—प्रथम। और प्रथम भी क्या कहना, क्योंकि द्वितीय कोई हो नहीं सकता, इसलिए बकवास में ही क्यों पडना! मैं मैं हूं तुम तुम हो। महावीर महावीर थे, और सुंदर थे। और मुझे उनसे प्रेम है। लेकिन मैं मैं हूं और मुझे मुझसे कहीं ज्यादा प्रेम है, जितना किसी और महावीर से होगा। स्वभावत: मुझे मेरी निजता से प्रेम है। मैं पच्चीसवें नम्बर पर अपने को क्यों रखूंगा?

किसी व्यक्ति की किसी नम्बर पर होने की जरूरत नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजता… यही फर्क तुम समझने की कोशिश करो।

वितान की परंपरा होती है। तुम चौकोगे, जब मैं कहता हूं कि विज्ञान की परंपरा होती है, धर्म की परंपरा नहीं होती। विज्ञान बिना परंपरा के जिंदा ही नहीं रह सकता। उसका अतीत होता है। जैसे समझो तुम : अगर न्यूटन पैदा न हो, तो आइस्‍टीन कभी पैदा नहीं हो सकता। न्यूटन के बिना आइस्‍टीन के होने की कोई संभावना नहीं है। वह न्यूटन की ईंट चाहिए ही चाहिये। तभी आइस्‍टीन पैदा हो सकता है। अगर न्यूटन को हटा लो, तो आइस्‍टीन के लिये आधार ही नहीं मिलेगा खड़े होने का।

विज्ञान की परंपरा होती है। हर वैज्ञानिक विज्ञान में कुछ जोडता चला जाता है। लेकिन धर्म की कोई परंपरा नहीं होती। बुद्ध हुए हों या न हुए हों, मैं फिर भी हो सकता हूं। क्योंकि बुद्ध के होने से क्या लेना—देना है! अगर बुद्ध के पहले कृष्ण न भी हुए होते, तो भी बुद्ध होते। क्योंकि कृष्ण से क्या लेना—देना है! बुद्ध ने अपने को जाना। अपने को जानने में दूसरा कहीं आता नहीं! उसकी कोई अपरिहार्यता नहीं है। आखिर जीसस को तो कृष्ण का कुछ भी पता नहीं था, फिर भी हो सके। और लाओत्सु को तो बिलकुल पता नहीं था कृष्ण का, फिर भी हो सके! बुद्ध को तो लाओत्सु का कोई पता नहीं था, फिर भी हो सके। जरथुस्त्र को तो कोई भी पता नहीं था पतंजलि का, फिर भी हो सके। न पतंजलि को जरथुस्त्र का कोई पता था।

विज्ञान में यह नहीं हो सकता। विज्ञान में पूरा अतीत पता होना चाहिए। जो हो चुका है पहले, उसी की बुनियाद पर तुम आगे काम करोगे। विज्ञान में शृंखला होती है, परंपरा होती है, कड़ियां होती हैं। कड़ियों में कड़ियां जुड़ती चली जाती हैं। लेकिन धर्म में कोई परंपरा नहीं होती। धर्म में प्रत्येक व्यक्ति आणविक होता है। बुद्ध की निजता अपने में है। महावीर न हों तो, कृष्ण न हों तो—हों तो—कोई भेद नहीं पड़ता।

इसलिए धर्म की कोई परंपरा नहीं होती; ऋषियों की कोई परंपरा नहीं होती।

तुम कहते हो, ‘जब उनकी परंपरा समाप्त होने लगी…।’ परंपरा ही नहीं होती, तो समाप्त कैसे होगी! मैं इस निरुक्त के वचन के बिलकुल विपरीत हूं। मैं इसको कोई समर्थन नहीं दे सकता। क्योंकि यह ऋषि का वचन ही नहीं है।

लेकिन कुछ लोग ऐसे पागल हैं कि वे भाषा को और व्याकरण को सब कुछ समझते हैं!

जब स्वामी राम अमरीका से भारत वापस लौटे, तो उन्होंने सोचा…। इतना प्रेम उन्हें मिला था अमरीका में, कल्पनातीत—इतना समादर हुआ था! लोगों ने उनकी बातें ऐसे पी थीं कि जैसे अमृत के घूंट। तो सोचा कि अमरीका जैसे भौतिकवादी देश में, नास्तिकों के बीच जब मेरी बातों का इतना मूल्य हुआ है, लोगों ने इस तरह पिया है, तो भारत में तो क्या नहीं होगा! तो उन्होंने सोचा, भारत चलकर काशी से ही काम शुरू करूं। स्वभावत:! कि काशी से ही शुरू करूं काम को, तो वे काशी ही पहुंचे। और काशी में जो पहला प्रवचन दिया उन्होंने, उसी में गडूबडु खडी हो गई!

एक पंडित खड़ा हो गया। और उसने कहां, ‘पहले रुकिये…..।’ ( आधे ही प्रवचन में!) ‘ आपको संस्कृत आती है?’

उनको संस्कृत नहीं आती थी। वे तो पंजाब में पैदा हुए, तो फारसी आती थी, उर्दू आती थी, पंजाबी आती थी। उनको संस्कृत नहीं आती थी। उन्होंने कहां, ‘नहीं, मुझे संस्कृत नहीं आती है।’

वह पंडित हंसा। उसके साथ और भी पंडित हंसे। हू—हल्ला हो गई। उस पंडित ने कहां, ‘पहले संस्कृत सीखो, फिर ब्रह्मज्ञान की बातें करना! उन्होंने कहां, ‘अरे, जब संस्कृत ही नहीं आती, तो क्या खाक ब्रह्मज्ञान की बातें कर रहे हो!’

स्वामी राम को इतना सदमा पहुंचा—कल्पनातीत! उन्होंने कभी सोचा न था कि यह दुर्व्यवहार होगा! उन्होंने प्रवचन पूरा भी नहीं किया। उन्हें भारत में उत्सुकता ही खो गई। भारत में ही उत्सुकता नहीं खो गई, उन्हें भारत के पुराने संन्यास में तक उत्सुकता खो गई। तुम यह जानकर चकित होओगे, हालांकि यह बात आमतौर से कही नहीं जाती, कि स्वामी राम ने उसी दिन अपने गैरिक वस्त्र छोड़ दिये। और वे गढ़वाल चले गये, हिमालय। और फिर कभी भारत में उतरे नहीं।

क्या जाना ऐसे मूढ़ों के पास! जिनका खयाल है कि संस्कृत आती हो, तो ब्रह्मज्ञान। तब तो जिन देशों में संस्कृत नहीं है, वहा ब्रह्मज्ञानी हुए ही नहीं! तो बुद्ध ब्रह्मज्ञानी नहीं! उनको भी संस्कृत नहीं आती थी। और महावीर भी ब्रह्मज्ञानी नहीं; उनको भी संस्कृत नहीं आती थी! और जीसस तो कैसे होंगे! और जरथुस्त्र तो कैसे होंगे! इन बेचारों का तो कहां हिसाब लगेगा!

मैं तुमसे कहता हूं भाषा से कुछ लेना—देना नहीं है। ब्रह्मज्ञान भाव की बात है— भाषा की नहीं।

न तो ऋषियों की कोई परंपरा है; और न ऋषि कहीं चले गये हैं। तुम ऋषि हो सकते हो। मेरी उद्घोषणा सुनो. तुम ऋषि हो सकते हो। तुम्हारे भीतर ऋषि होने का बीज उतना ही है, जितना किसी और ऋषि के भीतर रहा हो।

अपनी ऊर्जा को विकसित होने दे, मौका दो। अपनी ऊर्जा को ध्यान बनने दो, प्रार्थना बनने दो। बीज को फूटने दो, अंकुरित होने दो। तुममें भी फूल लगेंगे। तुममें भी ऋचाएं जगेंगी। तुम्हारे भीतर भी कोई एक दिन पुकारेगा कि गा, गुनगुना। तुमसे भी आयतें उठेगी। तुमसे भी कुरान बहेगा।

मगर यह सूत्र चालबाजों का सूत्र है। वे कहते हैं, ‘जब ऋषिजन जाने लगे, उनकी परंपरा समाप्त होने लगी, तब मनुष्यों ने देवताओं से कहां कि अब हमारे लिए कौन होगा? उस अवस्था में देवताओं ने तर्क को ही ऋषि—रूप में उनको दिया।’

वह जो गणितज्ञ है, भाषा का हो या किसी और का, जिसके जीवन की शैली गणित है, तर्क उसका प्राण होता है। इसलिए उन्होंने कहां कि तर्क तुम्हारा ऋषि होगा।

अब इससे बेहूदी और कोई बात नहीं हो सकती। क्योंकि ऋषि का जन्म ही तर्कातीत है। जब तुम तर्क के पार जाते हो, तभी तुम्हारे जीवन में परमात्मा का अवतरण होता है। तर्क तो कभी भी धर्म का स्थान नहीं ले सकता। तर्क तुम लाख करो, कुछ पा न सकोगे। तर्क तो बचकानी बात है।

और तर्क तो वेश्या जैसा होता है—क्या ऋषि होगा! तर्क का कोई ठिकाना है! तर्क तो पत्नी भी नहीं होता, वेश्या जैसा होता है। किसी के भी साथ हो ले।

मैं सागर विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। उस विश्वविद्यालय का निर्माण किया सर हरिसिंह गौर ने। वे भारत के बहुत बड़े वकील थे। बड़े तर्क—शास्त्री थे। और भारत में ही उनकी वकालत नहीं थी। वे तीन दफ्तर रखते थे—एक पेकिंग में, एक दिल्ली में, एक लंदन में। सारी दुनिया में उनकी वकालत की शोहरत थी।

मैंने उनसे एक दिन कहां कि ‘ आपकी वकालत की शोहरत कितनी ही हो, वकील और वेश्या को मैं बराबर मानता हूं।’

उन्होंने कहां, ‘क्या कहते हो!’

वे गुस्से में आ गये। वे संस्थापक थे विश्वविद्यालय के, प्रथम उपकुलपति थे। और मैं तो सिर्फ एक विद्यार्थी था। मैंने कहां कि ‘मैं फिर कहता हूं कि वकील वेश्या होता है! अगर वेश्याएं नर्क जाती हैं, तो वकील उनके आगे—आगे झंडा लिए जायेंगे! और तुम पक्के—झंडा ऊंचा रहे हमारा—उन्हीं लोगों में रहोगे।’

उन्होंने कहां, ‘तू बात कैसी करता है? तुझे यह भी सम्मान नहीं कि उपकुलपति से कैसे बोलना!’

मैंने कहां, ‘मैं वकील से बात कर रहा हूं उपकुलपति कहां! मैं सर हरिसिंह गौर से बात कर रहा हूं।’

वे कहने लगे, ‘मैं मतलब नहीं समझा कि क्यों वकील को तू वेश्या के साथ गिनती करता है!’

मैंने कहां, ‘इसीलिए कि वकील को जो पैसा दे दे, उसके साथ। वह कहता है कि तुम्हीं जीत जाओगे।’

मुल्ला नसरुद्दीन एक दफा अपने वकील के पास गया। उसने अपना सारा मामला समझाया। और वकील ने कहां कि ‘बिलकुल मत घबड़ाओ। पांच हजार रुपये तुम्हारी फीस होगी। मामला खतरनाक है, मगर जीत निश्चित है।’

उसने कहां, ‘धन्यवाद। चलता हूं!’

‘जाते कहां हो? फीस नहीं भरनी! काम नहीं मुझे देना!’

उसने कहां कि ‘जो मैंने वर्णन आपको दिया, यह मेरे विरोधी का वर्णन है। अगर उसकी जीत निश्चित है, तो लड़ना ही क्यों!’ यह मुल्ला भी पहुंचा हुआ पुरुष है!

‘जब तुम कह रहे हो खुले आम कि इसमें जीत निश्चित है—यह तो मैं अपने विरोधी का पूरा का पूरा ब्यौरा बताया। अपना तो मैंने बताया ही नहीं! तो अब मेरी हार निश्चित ही है। अब पांच हजार और क्यों गंवाने! नमस्कार! तुम अपने घर भले, हम अपने घर भले! ‘

वकील को भी चकमा दे गया। वकील ने भी सिर पर हाथ ठोंक लिया होगा। सोचा ही नहीं होगा कि यह भी हालत होगी! वह तो अपना मामला बताता तो उसमें भी वकील कहता कि जीत निश्चित ही है। आखिर दोनों ही तरफ के वकील कहते हैं, जीत निश्चित है! वकील को कहना ही पड़ता है कि जीत निश्चित है। तभी तो तुम्हारी जेबें खाली करवा पाता है।

तो मैंने कहां, ‘वकील की कोई निष्ठा होती है? उसका सत्य से कोई लगाव होता है? तो मैं उसकी वेश्या में गिनती क्यों न करूं! वेश्या तो अपनी देह ही बेचती है। वकील अपनी बुद्धि बेचता है। यह और गया—बीता है!’

उन्होंने मेरी बात सुनी। आंख बंद कर ली। थोड़ी देर चुप रहे और कहां कि शायद तुम्हारी बात ठीक है। मुझे अपनी एक घटना याद आ गई। तुम्हें सुनाता हूं

प्रीव्ही काउंसिल में एक मुकदमा था, जयपुर नरेश का। मैं उनका वकील था। करोड़ों का मामला था। जायदाद का मामला था, जमीन का मामला था। और तुम जानते हो कि मुझे शराब पीने की आदत है। रात ज्यादा पी गया। दूसरे दिन जब गया अदालत में, तो नशा मेरा बिलकुल टूटा नहीं था। कुछ न कुछ नशे की हवा बाकी रह गई थी। नशा कुछ झूलता रह गया था। सो मैं भूल गया कि मैं किसके पक्ष में हूं—सो मैं अपने मुवक्किल के खिलाफ बोल गया। और वह धुआंधार दो घण्टे बोला! और मैं चौंकूं जरूर कि न्यायाधीश भी हैरान होकर सुन रहे हैं! मेरा मुवक्किल तो बिलकुल पीला पड़ गया है! और वह जो विरोधी है, वह भी चकित है! विरोधी का वकील एकदम ठंडा है, वह भी कुछ बोलता नहीं! और मेरा जो असिस्टेंट है, वह बार—बार मेरा कोट खींचे! मामला क्या

जब चाय पीने की बीच में छुट्टी मिली, तो मेरे असिस्टेंट ने कहां कि ‘जान ले ली आपने! आप अपने ही आदमी के खिलाफ बोल गये! बरबाद कर दिया केस—अब जीत मुश्किल है।’

हरिसिंह ने कहां, ‘क्या मामला है, तू मुझे ठीक से समझा। बात क्या है! मुझे थोड़ा नशा उतरा नहीं। रात ज्यादा पी गया एक पार्टी में। चल पड़ा सो चल पड़ा, ज्यादा पी गया।’

तो उसने बताया कि ‘मामला यह है कि जो—जो आप बोले हो, यह तो विपरीत पक्ष को बोलना था! और वे भी इतनी कुशलता से नहीं बोल सकते, जिस कुशलता से आप बोले हो। इसलिए तो बेचारे वे खड़े थे चौंके हुए कि अब हमें तो बोलने को कुछ बचा ही नहीं। और मुकदमा तो गया अपने हाथ से!’

कहां, ‘मत घबड़ाओ।’ हरिसिंह गौर ने कहां, ‘मत घबड़ाओ।’ और जब चाय पीने के बाद फिर अदालत शुरू हुई, तो उन्होंने कहां कि ‘न्यायाधीश महोदय! अब तक मैंने वे दलीलें दीं, जो मेरे विरोधी वकील देनेवाले होंगे। अब मैं उनका खंडन शुरू करता हूं।’

और खंडन किया उन्होंने। और मुकदमा जीते!

तो वे मुझसे बोले कि ‘शायद तुम ठीक कहते हो। यह काम भी वेश्या का ही है।’

तर्क वेश्या है। तर्क कैसे ऋषि होगा? तर्क तो किसी भी पक्ष में हो सकता है। तर्क की कोई निष्ठा नहीं होती। वही तर्क तुम्हें आस्तिक बना सकता है; वही तर्क तुम्हें नास्तिक बना सकता है। इसलिए तो जो सच्चे धार्मिक हैं, उनकी आस्तिकता तर्क—निर्भर नहीं होती। तर्क पर जिसकी आस्तिकता टिकी है, वह आस्तिक होता ही नहीं। वह तो कभी भी नास्तिक हो सकता है। उसके तर्क को गिरा देना कोई कठिन काम नहीं है।

आस्तिक कहता है कि ‘मैं ईश्वर को मानता हूं क्योंकि दुनिया को कोई बनानेवाला चाहिए।’ और नास्तिक भी यही कहता है कि ‘अगर यह सच है, तो हम पूछते हैं कि ईश्वर को किसने बनाया?’ तर्क तो दोनों के एक हैं। आस्तिक कहता है, ‘ईश्वर बिना बनाया है।’ तो नास्तिक कहता है, ‘जब ईश्वर बिना बनाया हो सकता है, तो फिर सारी प्रकृति बिना बनायी क्यों नहीं हो सकती? क्या अड़चन है? और अगर कोई भी चीज बिना बनायी नहीं हो सकती, तो फिर ईश्वर को भी कोई बनानेवाला होना चाहिए। इसका जवाब दो।’

अब यह तर्क तो एक ही है। अब कौन कितना कुशल है, कौन कितना होशियार है, किसने अपनी तर्क को कितनी धार दी है, इस पर निर्भर करता है। इसलिए आस्तिक नास्तिकों से बात करने में डरता है। तुम्हारे शास्त्रों में लिखा है : ‘नास्तिकों की बात मत सुनना। सुनना ही मत।’ ये आस्तिकों के शास्त्र नहीं हैं। ये नपुंसकों के शास्त्र हैं। नास्तिक की बात मत सुनना? दूसरे धर्मवालों की बात मत सुनना! क्यों? क्योंकि डर है कि अपनी ही बात तर्क पर खड़ी है, और उसी तर्क के आधार पर गिराई भी जा सकती है।

जैन शास्त्रों में लिखा हुआ है कि अगर पागल हाथी भी तुम्हारा पीछा कर रहा हो, और खतरा हो कि तुम उसके पैर के नीचे दबकर मर जाओगे, और पास में ही हिन्दू मंदिर हो, तो पैर के नीचे दबकर मर जाना पागल हाथी के, मगर हिन्दू मंदिर में मत जाना, क्योंकि पता नहीं वहां कोई बात सुनाई पड़ जाये, जिससे तुम्हारे धर्म में श्रद्धा का अंत हो जाये! मर जाना बेहतर है अपने धर्म में रहते हुए बजाय जीने के, धर्म रूपांतरित करके।

और यही बात हिन्दू ग्रंथों में भी लिखी है, बिलकुल ऐसी की ऐसी! जरा भी फर्क नहीं! कि जैन मंदिर में प्रवेश मत करना, चाहे पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर मर जाना। अरे, अपने धर्म में मरकर भी आदमी स्वर्ग पहुंचता है।’स्वधर्मे निधन श्रेय: —अपने धर्म में मरना तो श्रेयस्कर है।’ ‘पर धर्मो भयावह: —दूसरे के धर्म से भयभीत रहना।’ मगर यही दूसरे भी कह रहे हैं!

दुनिया में तीन सौ धर्म हैं। प्रत्येक धर्म के खिलाफ दो सौ निन्यान्नबे धर्म हैं! अब तुम जरा सोचो, जिस धर्म के खिलाफ दो सौ निन्यान्नबे धर्म हों, उसमें क्या जान होगी! कितनी जान होगी! जान इसमें है कि कान बंद रखो! सुनो मत, बहरे रहो।

तुमने घंटाकर्ण की तो कहानी सुनी है न, कि वह भक्त था राम का और कृष्ण का नाम नहीं सुन सकता था! कृष्ण का नाम सुनकर उसको आग लग जाती थी। स्वभावत: राम का भक्त कृष्ण का नाम कैसे सुने! कहां राम, मर्यादा पुरुषोत्तम! और कहां कृष्ण—न कोई मर्यादा, न कोई अनुशासन, न कोई साधना!

कृष्ण से तो मेरी दोस्ती हो सकती है! किसी और की नहीं हो सकती। राम से मेरा नहीं बन सकता। एक ही कमरे में हम घंटेभर नहीं ठहर सकते दोनों! क्योंकि उनकी मर्यादा भंग होने लगेगी! और मैं तो अपने ढंग से जीऊंगा। कृष्ण के साथ जम सकती है बैठक। तो घंटाकर्ण बहुत घबड़ाता था। उसका नाम ही घंटाकर्ण इसलिए पड़ गया था कि उसने कानों में घंटे लटका लिए थे। वह घंटे बजाता रहता था। और राम—राम, राम—राम—घंटे; राम—राम, राम—राम—घंटे बजाता रहता और राम—राम करता रहता! कि कोई दुष्ट कृष्ण का नाम न ले दे!

मेरे गांव में एक सज्जन थे, वे भी राम के भक्त थे, ऐसे ही घंटाकर्ण जैसे। नदी मेरे गांव से दूर नहीं है। जहां वे रहते थे, वहां से मुश्किल से पांच मिनट का रास्ता। मगर उसको पार करने में कभी उनको घंटा लगे, कभी दो घंटे लग जायें! आधे नहाते में से बाहर निकल आयें वे, अगर कोई कृष्ण का नाम ले दे। चिढ़ते थे, बस इतना ही कह दो—’हरे कृष्ण, हरे कृष्ण!’ दौड़े डंडा लेकर पीछे। मेरे पीछे वे इतना दौड़े हैं, इतनी कवायत मैंने उनकी करवायी और उन्होंने मेरी करवायी कि जब भी बाद में मैं कभी गांव जाता था, तो वे मुझसे कहते थे कि ‘तुझे देखकर मुझे भरोसा ही नहीं आता कि तू कभी ढंग का आदमी भी हो सकता है! मुझ के को तूने इतना दौडवाया है!’

खाना खा रहे हैं वे, मैं घर जाकर उनका दरवाजा बजा दूं—’हरे कृष्ण!’ वे खाना छोड्कर आ गये बाहर! और मुझे आनंद आता था। उनको गांवभर में दौड़ाना! और वे गालियां बक रहे हैं, और मैं हरे कृष्ण कह रहा हूं! वे गालियां बक रहे हैं। और मैं उनसे कहूं ‘तुम यह तो सोचो कि भक्त कौन है!’

वे एकदम मां—बहन की गाली से नीचे नहीं उतरते थे! तो उनका धर्म भ्रष्ट कर दिया! वे नदी में नहा रहे हैं, मैं पहुंच जाऊं—’हरे कृष्ण!’ वे वैसे ही निकल आयें, कपड़ा—वपड़ा वहीं छोड़ दें। भागें मेरे पीछे!

मेरे पिता जी से आ—आकर शिकायत करें। मुझे बुलाया जाये, कि ‘तुमने क्यों परेशानी की? क्या बात है?’

मैं पूछूं उनसे कि ‘यह तो बतायें कि मैंने क्या कहां!’ वह तो वे कह ही नहीं सकते।’हरे कृष्ण’ शब्द तो वे बोल ही नहीं सकते। तो वे गुमसुम खड़े रहें। मैं कहूं ‘बोलो जी! कहां क्या मैंने, जिससे आपको तकलीफ हुई!’

वे कहें, ‘अबे तू चुप रह! वह बात मैं कभी मुंह से नहीं कह सकता!’

अब मैं अपने पिता जी से कहूं कि अब यह भी आप सोचो…! ‘—’ अच्छा लिखकर बता दो! पिता जी के कान में कह दो। इतनी बुरी बात हो! मगर पता तो चले कि मैंने तुमसे कहां क्या है! अब मुझे ही नहीं मालूम कि मैंने तुमसे क्या कहां है। सजा किस बात की? ‘

‘अरे तुझे मालूम है! चौबीस घंटे मेरी जान खाता है। रात— आधी—रात मैं सो रहा हूं पहुंच जाता है। और घंटी बजाता है। और वही बात..!’

‘कौन —सी बात महाराज!’

वह वे कभी न कहें। कि ‘वह बात मैं कभी कह ही नहीं सकता!’

अब ये भक्त हैं! गालियां दे सकते हैं, लेकिन ‘वह’ बात कैसे कहें!

जब वे मर रहे थे, तब भी मैं पहुंच गया। मैंने कहां, ‘हरे कृष्ण!’

उन्होंने कहां, ‘अरे, अब तो तू चुप रह! अब तो मैं दौड भी नहीं सकता। और अब तो मेरे मुंह से गालियां न निकलवा! तू भैया घर जा! तू कोई और काम कर। मुझे शांति से मर जाने दे! नहीं तो मैं तेरी ही भावना से क्रोध में मरूंगा और फल भोगूंगा! तू मरते वक्त तो मुझे शांत रहने दे! जिंदगीभर तूने मुझे सताया!’

मैंने कहां, ‘मैंने अभी कुछ आप से कहां नहीं। सिर्फ ईश्वर की याद दिलाने आया, कि जाते—जाते हरे क्या की याद तो कर लो!’

ये जो लोग हैं, ये धार्मिक लोग हैं! ये आस्तिक हैं! इनकी आस्तिकता कैसी आस्तिकता है? ये डरे हुए लोग हैं। ये घबड़ाये हुए लोग हैं, कि कहीं तर्क दिक्कत में न डाल दे! कहीं अड़चन न खड़ी कर दे!

ये जबरदस्ती विश्वास बिठाये हुए हैं। मगर इनका विश्वास भी किसी तरह के तर्कों पर खड़ा हुआ है। विश्वास का मतलब ही होता है—किसी तरह के तर्कों पर सम्हालकर बनाया गया मकान। संदेह को दबा लिया है; तर्क को उसकी छाती पर चढ़ा दिया है। अपनी मनपसंद तर्क को छाती पर चढ़ा दिया है। हिन्दू का तर्क है, मुसलमान का तर्क है। सबके तर्क हैं! और उनके तर्कों के आधार से वे दबे हुए हैं।

धार्मिक व्यक्ति का कोई तर्क नहीं होता—अनुभव होता है, अनुभूति होती है। विश्वास नहीं होता—श्रद्धा होती है। श्रद्धा और विश्वास में जमीन—आसमान का फर्क है। शब्दकोश में तो एक ही अर्थ लिखा हुआ है। क्योंकि शब्द जाननेवालों को यह भेद कैसे पता चले!

श्रद्धा का अर्थ है, जिसने जाना, जिसने पहचाना, जिसने अनुभव किया, जिसने जिया, जिसने पिया, जो हो गया। और विश्वास का अर्थ है—जिसने मान लिया किन्हीं तर्कों के सहारे।

यह निरुक्त जो कहता है कि ‘देवताओं ने मनुष्यों से कहां कि आगे को तर्क को ही ऋषि—स्थानीय समझो।’ यह बात बिलकुल ही गलत है, बुनियादी रूप से गलत है।

तर्क कहीं ऋषि हो सकता है? तर्क से कहीं काव्य उठेगा? तर्क से कहीं अतर्क की तरफ आंख उठेगी? असंभव। तर्क से तो मुक्त होना है। संदेह से भी मुक्त होना है, तर्क से भी मुक्त होना है। विश्वास से भी मुक्त होना है। धारणाओं मात्र से मुक्त होना है। शून्य में उतरना है। निर्विचार में उतरना है, निर्विकल्प में उतरना है। जहां कोई विचार न रह जाये, वहां कैसा कोई तर्क? जहां कोई पक्ष न रह जाये, वहां कैसा कोई तर्क?

चुनाव रहित शून्य में प्रभु मिलन है। चाहे ‘प्रभु’ कहो—यह नाम की बात है। चाहे ईश्वर का राज्य कहो, चाहे मोक्ष कहो, कैवल्य कहो, निर्वाण कहो—जो मर्जी हो—सत्य कहो—लेकिन विचारशून्य अवस्था में पूर्ण का साक्षात्कार है। और जैसे ही तुम विचारशुन्य हुए, पूर्ण उतरा। पूर्ण उतरा, कि तुम ऋषि हुए, कि तुम फिर जो बोलोगे, वही ऋचा है। तुम जहां बैठोगे, वहां तीर्थ बन जायेंगे। तुम जहां चलोगे, वहा मंदिर खड़े हो जायेंगे। तुम्हारी मस्ती जहां झरेगी—वहा काबा, वहां काशी।

सिर्फ विक्षिप्त लोग काशी और काबा जाते हैं। जिनको परमात्मा के संबंध में थोड़ा भी अनुभव है, वे क्यों कहीं जायेंगे? अपने भीतर उसे पाते हैं। और निश्चित ही तर्क पर उनका आधार नहीं होता।

रामकृष्ण के पास बंगाल के बड़े तार्किक मिलने गये थे—महापंडित थे। रामकृष्ण को हराने गये थे। केशवचंद्र सेन उनका नाम था। बंगाल ने ऐसा तार्किक फिर नहीं दिया। केशवचंद्र अद्वितीय तार्किक थे। उनकी मेधा बड़ी प्रखर थी। सब को हरा चुके थे। किसी को भी हरा देते थे। सोचा, अब इस गंवार रामकृष्ण को भी हरा आयें। क्योंकि ये तो बेपढ़े—लिखे थे। दूसरी बंगाली तक पढ़े थे। न जानें शास्त्र, न जानें पुराण—इनको हराने में क्या देर लगेगी। और भी उनके संगी—साथी देखने पहुंच गये थे कि रामकृष्ण की फजीहत होते देखकर मजा आयेगा। लेकिन फजीहत केशवचंद्र की हो गई।

रामकृष्ण जैसे व्यक्ति को तर्क से नहीं हराया जा सकता, क्योंकि रामकृष्ण जैसे व्यक्ति का आधार ही तर्क पर नहीं होता। तर्क पर आधार हो, तो तर्क को खींच लो, तो गिर पढ़ें। तर्क पर जिसका आधार ही नहीं है, तुम क्या खींचोगे?

केशवचंद्र ने तर्क पर तर्क दिये और रामकृष्ण उठ—उठकर उनको छाती से लगा लें! और कहें, ‘क्या गजब की बात कही! वाह! वाह! अहा! आनंद आ गया!’

वे जो साथ गये थे, वे भी हतप्रभ हो गये, और केशवचंद्र भी थोड़ी देर में सोचने लगे कि मामला क्या है! मै भी किस पागल के चक्कर में पड़ गया! मैं इसके खिलाफ बोल रहा हूं ईश्वर के खिलाफ बोल रहा हूं शास्त्रों के. खिलाफ बोल रहा हूं और यह किस तरह का पगला है। कि यह उठ—उठकर मुझे गले लगाता है।

केशवचंद्र ने कहां, ‘एक बात पूछूं! कि मैं जो बोल रहा हूं यह धर्म के विपरीत बोल रहा हूं ईश्वर के विपरीत बोल रहा हूं शास्त्र के विपरीत बोल रहा हूं। मैं आपको उकसा रहा हूं—आप विवाद करने को तत्पर हो जायें। और आप क्या करते हैं! आप मुझे गले लगाते हैं! और आप कहते हैं : अहा, आनंद आ गया!’

रामकृष्ण ने कहां, ‘आनंद आ रहा है—कहता नहीं हूं। बड़ा आनंद आ रहा है। थोड़ा—बहुत अगर संदेह भी था परमात्मा में, वह भी तुमने मिटा दिया!’

केशवचंद्र ने कहां, ‘वह कैसे?’

तो कहां कि ‘तुम्हें देखकर मिट गया। जहां ऐसी प्रतिभा मनुष्य में हो सकती है, जहां ऐसी अद्भुत चमकदार प्रतिभा हो सकती है, तो जरूर किसी महास्रोत से आती होगी। इस जगत के स्रोत में महाप्रतिभा होनी ही चाहिए, नहीं तो तुममें प्रतिभा कहां से आती? जब फूल खिलते हैं, तो उसका अर्थ है कि जमीन गंध से भरी होगी। छिपी है गंध, तभी तो फूलों में प्रगट होती है। तुम्हारी गंध को देखकर.. .मैं तो बेपढ़ा—लिखा आदमी है, रामकृष्ण कहने लगे, ‘मेरी तो क्या प्रतिभा है! कुछ प्रतिभा नहीं। लेकिन तुम्हें तो देखकर ही ईश्वर प्रमाणित होता है!’

केशवचंद्र का सिर झुक गया। चरण पर गिर पड़े। और कहां, ‘मुझे क्षमा कर दो। मैं तो सोचता था, तर्क ही सब कुछ है। लेकिन आज मैंने प्रेम देखा। मैं तो सोचता था—तर्क ही सब कुछ है—आज मैंने अनुभव देखा। आपने मुझे हराया भी नहीं, और हरा भी दिया! यूं तो मुझे हारने का कोई कारण नहीं था, अगर आप तर्क करते तो। मगर आपने अतर्क्य बात कह दी। अब मैं क्या करूं! मेरी जबान बंद कर दी।’

रामकृष्ण जैसे व्यक्ति को मैं धार्मिक कहता हूं। मैं विवेकानंद को भी धार्मिक नहीं कहता। क्योंकि विवेकानंद मूलत: तार्किक ही रहे। उनको केशवचंद्र की परंपरा में ही गिना जाना चाहिए; रामकृष्ण की परंपरा में नहीं। रामकृष्ण बात और! कही रामकृष्ण—और कहां विवेकानंद! रामकृष्ण? हीरा हैं; विवेकानंद तो दो कौड़ी की बात है। मगर लोगों को विवेकानंद जंचते हैं, क्योंकि वे तर्क

में जी रहे हैं। रामकृष्ण की बात तो बेबूझ लगेगी—अतर्क्य है। लेकिन धर्म ही अतर्क्य है। तर्क के पार जाने में ही धर्म है।

आज इतना ही।

 

‘जो बोलैं तो हरिकथा’ प्रवचनमाला से

दिनांक 26 जुलाई 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना।



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गुरू प्रताप साध की संगति–(प्रवचन–9)

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पाहुन आयो भाव सों—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 29 मई, 1979;

ओशो कम्युन, पूना।

सूत्र:

पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।।

घर में नहीं अनाज, भजन बिनु खाली जानो।

सत्यनाम गयो भूल, झठ मन माया मानो।।

महाप्रतापी रामजी, ताको दियो बिसारि।

अब कर छाती का हनो, गये सो बाजी हारि।।

भीखा गये हरिभजन बिनु तुरतहिं भयो अकाज।

पाहुन आयो भाव सों, धर में नहीं अनाज।।

 

वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।

अच्छर समुझा नाहिं, रहा जैसे का तैसा।।

परमारथ सों पीठ, स्वार्थ सनमुख होइ बैसा।।

सास्तर मत को ज्ञान, करम भ्रम में मन लावै।

छुइ न गयो बिज्ञान, परमपद को पहुंचावै।।

भीखा देखे आपु को, ब्रह्म रूप हिये माहिं।

वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।

मेरे शहर, गुलाबों के वतन, मेरे चमन

लौट आया हूं मैं फिर मौत के वीरानों से

फिर कोई शेर, कोई नज्म? पुकारे मुझको

फिर मैं अफ्साने बनाऊं तेरे अफ्सानों से

अपनी तहरीक के धारों से अलग, तुझसे भी दूर

एक शब से भी मेरे ख्वाब संभाले न गये

आंख खुलती ही रही रात के सन्नाटे में

शिकवहाये-दिले-बेताब संभाले न गये

कमरे की क़्रब में कम्बल का कफ़न ओढ़े हुए

खुले दरवाजों से बाहर की तरफ़ तकता रहा

मेरी आवाज भी जैसे मेरी आवाज न थी

मेरी आवाज़ में तनहा भी था, हैरान भी था

अपने किरदार के टुकड़ों को इकट्ठा करके

लौट आया कि वहां रहके मिला क्या मुझको

ज़ख्मों के बारे में कुछ पूछ लो दीवाने से

ऐ मेरे शहर की वीरान गुजरगाहो, उठो

मेरी यादों के पियाले में भरो फिर कोई मय

ऐ मेरे ख्चाबों के बेनाम खुदाओ, आओ

मेरे सीने में कई ज़ख्म अभी ज़िन्दा हैं

आओ, ममता भरी गंगा की हवाओ, आओ।

इस संसार में मनुष्य एक परदेसी है। यहां हमारा घर नहीं, यहां हम बेघर हैं। हम कितने ही घर बना लें यहां घर बन सकता नहीं। यहां घर के बनने की कोई संभावना ही नहीं है। यहां तो बनाये सारे घर आज नहीं कल उजड़ेंगे। धोखा हम थोड़े दिन का खा लें भला, राहत थोड़ी देर अपने मन को दे लें भला, लेकिन आज नहीं कल डेरा उठाना पड़ेगा, उठाना ही पड़ता है। मौत से बचने का कोई उपाय नहीं।

और चूंकि मौत से बचने को कोई उपाय नहीं है, अपने घर की याद समय रहते करो। अपने असली घर की याद करो। कहां से आते हो? कौन हो? इसे पहचानो। इसे बिना पहचाने कोई भी व्यक्ति न तो शांति को, न आनंद को, न अमरत्व को उपलब्ध हुआ है, न हो सकता है। इसे बिना पहचाने भीड़ में भी रहोगे और अकेले रहोगे। भीड़ में भी कहां कौन-सी मैत्री है? प्रेम के नाम पर भी सब प्रेम का धोखा है!

कमरे की क़ब्र में कम्बल का कफ़न ओढे हुए

खुले दरवाज़ों से बाहर की तरफ़ तकता रहा

मेरी आवाज़ भी जैसे मेरी आवाज़ न थी

भरे बाजार में तनहा भी था, हैरान भी था

बाजार तो भरा है। शोरगुल बहुत है। लोग ही लोग हैं चारों तरफ। मगर कौन अपना है? अपने तो हम अपने भी नहीं, दूसरा तो क्या खाक अपना होगा! यह देह भी अपनी नहीं, यह भी मिट्टी की है और मिट्टी में गिर जाएगी। और यह मन भी अपना नहीं, यह भी बाहर से उधार मिला है और बाहर ही बिखर जाएगा, तितर-बितर हो जाएगा। जिसे हम अभी समझते हैं अपना होना, वह भी अपना नहीं; दूसरे तो क्या खाक अपने होंगे! और इस जिंदगी में सिवाय टूकड़े-टूकड़े होने के और क्या होता है? जैसे कोई पटक दे दर्पण को भूमि पर और चकनाचूर हो जाए दर्पण, ऐसी हमारी दशा है, चकनाचूर हम हैं।

अपने किरदार के टुकड़ों को इकट्ठा करके

लौट आया कि वहां रहके मिला क्या मुझको

जख्मों के बारे में कुछ पूछ लो दीवाने से

ऐ मेरे शहर की वीरान गुजरगाहो, उठो

एक न एक दिन अपने सारे टुकड़ों को सम्हालकर, अपने सारे टुकड़ों को इकट्ठा करके, असली घर की तलाश करनी ही होगी; अपने असली नगर की तलाश करनी ही होगी। उस नगर को फिर तुम जो नाम देना चाहो दो–कहो परमात्मा, कहो मोक्ष, कहो निर्वाण, कैवल्य, जो तुम्हारी मर्जी; वे सारे भेद नामों के हैं। मगर एक बात पक्की है कि यहां हम अपने घर में नहीं हैं। और लाख इंताजाम कर लेते हैं, बना लेते हैं, मगर सब इंतजाम बिगड़ जाते हैं। कागज की नावें उस पार नहीं पहुंचा सकतीं। और इस क्षणभंगुर जीवन में बनाये गये सब उपाय व्यर्थ हो जाने के लिए आबद्ध हैं।

मेरी यादों के पियाले में भरो फिर कोई मय

ऐ मेरे ख्वाबों के बेनाम खुदाओ, आओ

मेरे सीने में कई ज़ख्म अभी ज़िन्दा हैं

आओ, ममता भरी गंगा की हवाओ, आओ।

उठनी चाहिए एक पुकार परमात्मा के लिए। उठनी चाहिए एक पुकार स्वर्ग की हवाओं के लिए। उठनी चाहिए एक पुकार उस मदमस्ती के लिए जो केवल धर्म के द्वारा ही संभव होती है।

पुकारो उस अतिथि को!

अतिथि शब्द प्यारा है। अतिथि शब्द सबसे पहले परमात्मा के लिए उपयोग किया गया है। तुमने कहावत सुनी है–“अतिथि देवता है’। मैं तुमसे कहता हूं: “देवता अतिथि है।’ अतिथि का अर्थ होता है जो बिना तिथि बताए आ जाए; जो पहले से कोई खबर न दे कि कब आता हूं, कोई सूचना न दे; जो एक दिन अचानक द्वार पर खड़ा हो जाए।

मगर यूं अचानक अगर वह द्वार पर खड़ा भी हो जाए और तुम्हारी आंखें बंद हों, और तुम्हारे हृदय में प्रार्थना न उठी हो, तो तुम चूक जाओगे। तुम चूके हो बुहत बार। उसने बहुत बार दस्तक दी है मगर तुमने सुनी नहीं। तुम्हारे मन का शोरगुल इतना है, तुम सुनो तो कैसे सुनो? उसकी आवाज धीमी है। उसकी आवाज गुफ्तगू है। वह चिल्लाता नहीं, काना-फूसी करता है। वह आक्रमक नहीं है, हौले-हौले आता है। उसके पैरों की भी आवाज तुम्हारी सीढ़ियों पर सुनाई न पड़ेगी। उसकी दस्तक भी बड़ी माधुर्य से भरी है, संगीतपूर्ण है।

अगर तुम शांत नहीं हो तो चूक जाओगे। और तुम्हारा मन इतने उवद्रव इतनी अशांति, इतने शोरगुल से भरा है कि चूकना निश्चित है। और तुम मौजूद भी कहां हो! अगर वह आये भी तो तुम्हें पाएगा कहां; तुम जहां हो वहां तो तुम कभी हो ही नहीं। परमात्मा तुम्हें खोजे भी तो कहां खोजे; तुम तो भागे हुए हो। तुम्हारा मन तो सतत गतिमान है, चंचल है। अभी यहां, अभी वहां–एक क्षण को भी तुम ठहरे हुए नहीं हो। तुम ठहरो तो मिलन हो। ठहरने का नाम ध्यान है। उसकी तरफ आंख उठा लेने का नाम भजन है। शांत प्रार्थना में झुक जाने का नाम तैयारी है।

कौन सा घरातल है

धरूं कहां पांव?

सुस्ताऊं पल-दो पल

कहो, कहां छांव?

द्रुत धारा

दुविधा की

एक नहीं घाट

निश्चित है

डूबूंगा

चौड़ा है पाट

झंझा के बीच ठौर

भंवर-बीच ठांव

सुस्ताऊं पल-दो पल

कहो, कहां छांव?

गर्दीलीगलियां

सब

सड़कें पक्की

देख रहा हूं

सब की

आंखें शक्की

हर शहर पराया है

बैगाना गांव

सुस्ताऊं पल-दो पल

कहो, कहां छांव?

यहां छांव कहां है? बबूल के वृक्ष हैं यहां; इनकी छाया नहीं बनती, इनमें सिर्फ कांटे लगते हैं। यहां दो पल को भी छांव नहीं मिलती। मगर तुम टाले जाते कल पर। तुम बांधे जाते आशा–आज नहीं हुआ, कल होगा। और कल कभी आया है? कल कभी नहीं आया। इस सत्य को पहचानो, परखो; इसे प्राणों में सम्हाल कल रखो–कल न कभी आया है, न कभी आएगा; जो आता है, जो आया है, जो आया हुआ है, वह है आज। कल पर मत टालो। अगर तुम कल पर टालते रहे तो परमात्मा से कभी मिलना न हो सकेगा। परमात्मा आज है और तुम कल हो। परमात्मा नगद है और तुम उधार हो।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन बहुत परेशान हो गया था उधार लेने वाले लोगों से। उसने किसी फकीर से सलाह ली कि क्या करूं, क्या न करूं? परिचित हैं, इनकार भी नहीं कर सकता। द्वार पर आ जाते हैं, संकोच में देना ही पड़ता है। इतना उधार दे चुका हूं कि दुकान डूबी-डूबी हुई जा रही है; दिवाला निकलने के करीब है। मुझे कुछ सहारा दो, कुछ साथ दो।

उस फकीर ने कहा: यह भी कोई कठिन बात है! दरवाजे पर एक तख्ती लगा दो–आज नगद, कल उधार।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: वह मैं समझा, तख्ती लगा दूंगा, मगर कल वे उधार मांगेंगे, फिर मैं क्या करूंगा?

फकीर ने कहा: तू फिक्र छोड़; कल कभी आया है!

और तब से मुल्ला नसरुद्दीन ने तख्ती लगा दी है द्वार पर–आज नगद, कल उधार। लोग आते हैं, तख्ती पढ़ते हैं तो वे कहते हैं फिर मुल्ला कल आएंगे। मुल्ला कहता है जरूर आना। मगर कल जब आते हैं तब भी तख्ती वही है–आज नगद, कल उधार।

कल तो होता ही नहीं और हम कल की ही आशा लगाये बैठे हैं। कल की आशा का नाम संसार है और आज जीने का नाम मोक्ष। कल का विस्तार वासना है और आज ठहर जाना प्रार्थना।

कौन सा धरातल है

धरूं कहां पांव?

अगर कल में तुम पांव रखना चाहते हो तो नरक पाओगे। कल तो है ही नहीं, वहां कहां पांव रखोगे?

सुस्ताऊं पल-दो पल

कहो, कहां छांव?

अगर कल में सुस्ताना चाहते हो तो कभी सुस्ता न पाओगे। कल तो दौड़ा-एगा, दौड़ाएगा, दौड़ाएगा, दौड़ाता रहेगा जब तक मौत ही न आ जाए; दौड़ताएगा तब तक जब तक कब्र में गिर न जाओ। जो कल से बंधा है उसके जीवन में सुस्ताने की संभावना नहीं है।

द्रुत धारा

दुविधा की

एक नहीं घाट

और तुम्हारे मन में दुविधाएं हैं–यह करूं वह करूं; ऐसा करूं, वैसा करूं; क्या करूं, क्या न करूं! तुम्हारा मन दुविधाओं का एक जाल है। जैसे मछली फंस गयी हो मछुए के जाल में, ऐसे तुम दुविधा के जाल में फेंसे हो। तुम्हारे भीतर कुछ भी थिर नहीं। तुम्हारे भीतर कुछ भी एकाग्र नहीं। तुम्हारे भीतरे कुछ भी समग्र नहीं। अगर एक चीज भी तुम्हारे भीतर समग्र हो जाए, एकाग्र हो जाए तो वहीं से द्वार मिल जाए परमात्मा में।

द्रुत धारा

दुविधा की

एक नहीं घाट

यह जो दुविधा की धारा है इसका घाट होता ही नहीं; इसका घाट हो ही नहीं सकता।

निश्चित है

डूबूंगा

चौड़ा है पाट

जरा गौर तो करो, कितने तुमसे पहले डूब गये, कितने आज डूब रहे हैं, और तुम पार कर पाओगे? बड़े-बड़े पार नहीं कर पाये, तुम पार कर पाओगे? मगर आदमी का अहंकार ऐसा है कि हर अहंकार सोचता है: मैं अपवाद हूं। और लोग न कर पाये होंगे पार, मैं तो पार कर लूंगा। वे कुशल न होंगे, प्रवीण न होंगे, तैरना न आता होगा; उनकी नाव कमजोर होगी; उनकी पतवार मजबूत न होगी, उनकी दिशा भ्रांत होगी: उन्होंने गलत मुहूर्त में नाव छोड़ी होगी। मैं तो मुहूर्त भी ठीक ज्योतिषियों से पूछकर चलूंगा; नाव भी मजबुत बनाऊंगा; पतवारें भी सम्हालकर चलाऊंगा–सब होश रखुंगा। यही वे भी सोचते थे जो तुमसे पहले डूब गए हैं यही सभी सोचते हैं, और यही सोचने में सभी डूबते हैं।

नहीं, यह पाट ही इतना चौड़ा है, इसमें तुम अपने सहारे पार नहीं हो सकते–परमात्मा पार कराये तो कराये। जिसने परमात्मा को नाव बनाया, वह तो पार हो जाता है; और जिसने अपनी नाव खुद बनाने की कोशिश की, अपने ही प्रयास से पार जाना चाहा, वह निश्चित डूबता है।

निश्चित है

डूबूंगा

चौड़ा है पाट

झंझा के बीच ठौर

भंवर-बीच ठांव

सुस्ताऊं पल-दो पल

कहो, कहां छांव?

गर्दीली गलियां

सब

सड़कें पक्की

देख रहा हूं

सब की

आंखें शक्की

जरा लोगों की आंखों में झांको, कहीं तुम्हें आस्था के दीये जलते हुए दिखाई पड़ते हैं? आस्थावानों में भी नहीं। तथाकथित आस्थावानों में भी नहीं। मंदिरों में जाओ, मस्जिदों में जाओ, गुरुद्वारों में जाओ, गिरजों में जाओ, लोगों की आंख में झांको–आस्था का दीया जलता हुआ दिखाई पड़ता है? श्रद्धा की सुगंध अनुभव होती है? नहीं, ये वही के वही लोग हैं। जिनको तुम बाजार में मिलते हो, दुकान पर मिलते हो, जुआघरों में मिलते हो, शराबघरों में मिलते में मिलते हो–ये वही के वही लोग हैं; यही मंदिर भी आ जाते हैं। वस्त्र बदल लेते होंगे, नहा-धो आते होंगे; मगर वह सब तो ऊपर-ऊपर है, भीतर के प्राण तो वही के वही हैं। मंदिर में भी इनका मन तो कहीं और है। मस्जिद में भी इनके प्राण तो कहीं और हैं। गिरजे में भी ये हैं कहां, इनके प्राण तो कहीं और अटके हैं। जरा इनके भीतर झांको–बैठे हैं गिरजे में, होंगे बाजार में।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन मस्जिद नहीं जाता था। एक फकीर गांव में आया था। मुल्ला की पत्नी उससे बहुत प्रभावित थी। वह आदमी भी गजब का था। मुल्ला की पत्नी ने कहा कि मेरे पति को अगर मस्जिद ले आओ तो कुछ समझूं, तो कोई चमत्कार! राख निकाल दी कि घड़ी निकाल दी, इन बातों में मुझे रस नहीं है–मेरे पति को किसी तरह प्रार्थना में लगा दो, परमात्मा में लगा दो तो चमत्कार!

फकीर ने कहा: कल सुबह आऊंगा। जल्दी ही फकीर सुबह-सुबह आया। मुल्ला बगीचे में घूम रहा था। पत्नी अपने पूजागृह में भोर की पूजा कर रही थी, भोर की नमाज पढ़ रही थी। फकीर ने मुल्ला नसरुद्दीन को कहा: यह बात शोभा नहीं देती, अब उम्र हो गयी, अब बाल भी पक गये, अब परमात्मा को कब याद करोगे? और तुम्हारी पत्नी देखो…कहां है तुम्हारी पत्नी?

तो मुल्ला ने कहा: सच पूछो तो पत्नी बाजार में है, सब्जी खरीद रही है। और जिस सब्जी वाली से सब्जी खरीद रही है झगड़ा हो गया है, मारपीट की नौबत है, एक-दूसरे के बाल पकड़ लिए हैं…।

फकीर ने कहा: रुको-रुको, इतनी सुबह कहां दुकान खुली होगी, कहां सब्जी वाला होगा?

और इतनी ही बात सुनी पत्नी ने–जो पूजागृह में बैठी थी–वह निकलकर बाहर आ गयी। उसने कहा: हद हो गयी झूठ की भी! मैं पूजा कर रही हूं। तुम झूठ बोलते हो यह तो मुझे मालूम था नसरुद्दीन, मगर ऐसी झूठ बोलोगे इसकी कल्पना मैंने भी न की थी।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: तू सच-सच बता, पूजा तो तू कर रही थी लेकिन मैं जो कह रहा हूं, क्या सच में गलत है?

पत्नी चौंकी, याद आया, बात तो सच थी। फकीर के सामने झठ भी नहीं बोल सकती थी। फकीर ने पूछा कि तू बोल। तो उसकी पत्नी ने कहा कि हां, बात तो सच है। बैठी तो पूजा करने थी मगर आज सब्जी खरीदने जाना है क्योंकि आप आने वाले हैं, अच्छा भोजन बनाना है। तो वही ख्याल मन में गूंज रहा था, तो विचार में मैं बाजार चली गयी थी। सब्जी खरीद रही थी। और सब्जी वाली दोगुने दाम मांग रही थी। बात बिगड़ गयी। झंझड हो गयी। उसने मेरे बाल पकड़ लिए, मैंने उसके बाल पकड़ लिए। तब ही इस मेरे पति ने आपको कहा…।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: प्रार्थनागृह में बैठने से क्या होगा; मन को बिठान बड़ा कठिन है। पूजा भी करते हैं लोग, हवन, यज्ञ, विधि-विधान–मन नहीं बैठता, मन भागा ही भागा है।

द्रुत धारा

दुविधा की

एक नहीं घाट

देख रहा हूं

सब की

आंखें शक्की

और यहां श्रद्धावान भी बस झूठे हैं–श्रद्धा भी ऊपर-ऊपर है, थोपी हुई है, ओढ़ी है। जरा भीतर कुरेदो, जरा झांको, जरा परदा उठाओ और फूलों के पीछे मवाद मिलेगी; अच्छी-अच्छी बातों के पीछे गंदे-गंदे इरादे मिलेगे। शुभाकांक्षाएं से पटा पड़ा है नर्क का मार्ग, ऐसी कहावत है। ठीक ही है कहावत। आकांक्षाएं अगर शब्दों में पूछो तो बड़ी शुभ हैं, मगर अगर प्राणों में झांको तो बड़ी अशुभ हैं। फूलों की चर्चा है, कांटों की खेती है। अमृत के गीत हैं, विष भरा है प्राणों के घट में।

हर शहर पराया है

बेगाना गांव

सुस्ताऊं पल-दो पल

कहो, कहां छांव?

यहां कोई अपना घर नहीं, अपना कोई गांव नहीं। यहां कोई छांव की संभावना नहीं। दो पल के लिए भी विश्राम कहां है? विश्राम तो सिर्फ राम में है। राम ही विश्राम है। गुरु-परताप साध की संगति! वह विश्राम मिल सकता है किसी गुरु के सानिध्य में; दीवानों, मस्तों की संगति में। प्रार्थनापूर्ण लोग जहां इकट्ठे हों वैसी मधुशाला में उठो-बैठो। जहां किसी जीवन में श्रद्धा का, आस्था का दीया जला हो, अपने बुझे दीये को उस दीये के करीब लाओ। जले दीयों के करीब आकर बुझे दीये जल जाते हैं। ज्योति से ज्योति जले!

भीखा के सूत्र:

पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।।

घर में नहीं अनाज, भजन बिनु खाली जानो।

पाहुन आयो भाव सों…परमात्मा आया है, अतिथि होकर आया है, पाहुना होकर आया है, द्वार पर खड़ा है। जैसे सुबह-सुबह सूरज निकले और उसकी किरणें द्वार पर खड़ी हों और तुम्हारा द्वार बंद हो तो किरणें जबर्दस्ती भीतर प्रवेश नहीं करेंगी। जब इस सूरज की किरणें जबर्दस्ती भीतर प्रवेश नहीं करतीं, अनधिकार प्रवेश नहीं करतीं, बिना आज्ञा के प्रवेश नहीं करतीं, तो उस परम प्रकाश की किरणें तो कैसे बिना आज्ञा के प्रवेश करेंगी! तुम निमंत्रण दो, तुम पलक-पांवड़े बिछाओ, तो ही वह परम अतिथि, पाहुना भीतर प्रवेश करे।

पाहुन आयो भाव सों…और परमात्मा तो जब भी आता है प्रेम से ही आता है। परमात्मा यानी प्रेम। परमात्मा का कुछ और होने का ढंग ही नहीं है। परमात्मा का अर्थ यानी प्रेम। परमात्मा का निचोड़ प्रेम है, सुगंध प्रेम है।

पाहुन आयो भाव सों…बहुत भाव से, बहुत प्रेम से परमात्मा द्वार पर खड़ा है, और तुम? तुम सोये हो। तुम्हारी आंखें बंद हैं। तुम्हारी कोई तैयारी नहीं है अतिथि को स्वीकार करने की।

…घर में नहीं अनाज…! भीखा तो गांव के आदमी हैं, गांव की भाषा में बोलते हैं। वे यह कह रहे हैं कि तैयारी बिलकुल भी नहीं है, घर में अनाज भी नहीं है और पाहुन द्वार पर आकार खड़ा हो गया है अब क्या करोगे!

घर में नहीं अनाज, भजन बिनु खाली जानो।

वे किस अनाज की बात कर रहे हैं–भजन की। क्योंकि परमात्मा का तो एक ही स्वागत हो सकता है, वह भजन से। वह तो भजन का भूखा है। उसकी भूख तुम किसी और तरह नहीं मिटा सकोगे, वह तो भक्ति का भूखा है। तुम्हारे भीतर भक्ति हो, भजन हो, तो परमात्मा तृप्त हो जाए।

और ध्यान रखाना, जिस दिन परमात्मा तुमसे तृप्त होगा, उसी दिन तुम तृप्त हो सकोगे, उसके पहले नहीं। कभी नहीं, हजारों-हजारों जनमों में भी नहीं, अनंत-अनंत मार्गों पर भटको, लेकिन तुम तृप्त न हो सकोगे। जब तक परमात्मा तुमसे तृप्त नहीं है, तब तक तुम तृप्त न हो सकोगे। उसकी तृप्ति ही तुम्हारी अंतरात्मा में झलकेली तृप्ति की भांति। उसकी तृप्ति ही तुम्हारे दर्पण में तृप्ति की भांति प्रतिबिम्ब बनेगी।

जिस दिन परमात्मा तुमसे तृप्त है, उस दिन तुम तृप्त हो। और कोई तृप्ति नहीं है। और सब तृप्तियां भ्रांतियां हैं।

भजन के बिना तुम क्या हो? एक ऐसा घर जिसमें दीया नहीं जला है। एक ऐसा फूल जो खिला नहीं। एक ऐसा द्वार जो बंद है। एक ऐसा प्राण जिसमें धड़कन नहीं। भजन के बिना तुम क्या हो? एक लाश। एक मुर्दा। एक धोखा जवीन का। चल लेते हो, उठ लेते हो, माना; बाजार चले जाते हो, दुकान कर लेते हो, चार पैसे कमा लेते हो, माना; लेकिन यह सब यंत्रवत हो रहा है–इसमें जागरूकता नहीं है, इसमें अहोभाव नहीं है, इसमें आनंद नहीं है, उमंग नहीं है, उत्साह नहीं है, उत्सव नहीं है–इसमें जीवन का कोई लक्षण नहीं है।

सिर्फ सांस का बारह भीतर आना जीवन है? सिर्फ भोजन कर लेना और पानी पी लेना और फिर मल-मूत्र का त्याग कर देना जीवन है? रोज सुबह उठ आना और आपाधापी में लग जाना और सांझ थककर फिर बिस्तर पर पड़ जाना और फिर सुबह वह आपाधापी–यह जीवन है? इस पुनरुक्त्ति को तुम जीवन कहते हो! कहां है इसमें काव्य? कहां है संगीत? कहां है नृत्य? न कोई बांसुरी बजती है, न किसी मृदंग पर थाप पड़ती है।

अगर यह जीवन है, तो मृत्यु क्या बुरी? अगर यह जीवन है, तो मृत्यु इससे लाख गुनी बेहतर। कम-से-कम विश्राम तो होगा। कम-से-कम कब्र में शांति तो होगी। कम-से-कम कब्र पर हरी घास तो ऊगेगी। कम-से-कम कब्र पर कभी कोई फूल तो खिलेगा। तुम खाद बन जाओगे, उस फूल पर कभी कोई तितली मंडराएगी, कभी कोई चांद ऊगेगा; उस फूल के पास कभी कोई पक्षी गीत गाएगा, कोई मोर नाचेगा–कुछ तो होगा! मगर तुम्हारी जिंदगी में कब मोर नाचे? कब तितलियां उड़ी? कब सुवास उठी? कब प्रकाश झरा?

नहीं, भजन के बिना तुम बिलकुल खाली हो, बिलकुल रिक्त हो।

…भजन बिनु खाली जानो।

सत्यनाम गयो भूल, झूठ मन माया मानो।।

और जिसे याद करना है…स्मरण रखना, वह कोई नयी बात नहीं है। जिसे याद करना है, उसे हम भूल गये हैं, वह हमें याद थी। हर बच्चा जब पैदा होता है तो उसे परमात्मा की याद होती है। अभी-अभी मौत से पार हुआ है, अभी-अभी नौ महीने पहले मरा है। मौत का झटका, मौत का धक्का, झकझोर गया है। एक जिंदगी बेकार हो गयी थी। मौत ने आकर चौंका दिया था, नींद तोड़ दी थी, सब ख्वाब बिखर गये थे। और फिर नौ महीने गर्भ की शांति, शून्यता, सन्नाटा, ध्यान…! एक तो मौत का झटका जो कह गयी कि जिंदगी बेकार है। कि तुम जैसे जिये व्यर्थ जिये, न जीते तो भी चलता। कि तुमने कुछ पाया नहीं–कोई घाट न मिला, कोई पाट न मिला, नाव मझदार में डूब गयी, अब देख लो। और तुम अपवाद नहीं होंगे। सब मरते हैं, तुम मरे, देखो अब मिट्टी मिट्टी में गिरी। एक तो मौत जगा गयी, मौत कह गयी कि मिट्टी मिट्टी में चली और चैतन्य उड़ चला। और फिर नौ महीने का विश्राम। नौ महीने मां के गर्भ में न कोई काम है, न कोई चिंता है। मौत का झकझोरा फिर नौ महीने का विश्राम।

बच्चा जब पैदा होता है, परमात्मा की याद से भरा पैदा होता है, होना ही चाहिए। फिर उसे याद आ गयी होती है अपने असली घर की। मगर हम भुलाने में लग जाते हैं। हम उसे भरमाने में लग जाते हैं। समाज, शिक्षा, राज्य, सबकी चेष्टा यह है–भरमाओ, भटकाओ। हम जल्दी से बच्चे को भाषा सिखाने में लग जाते हैं ताकि मौन खंडित हो जाए। जिस दिन बच्चा मम्मी, पप्पा, डैडी, कहने लगता है, हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। घर में आनंद की लहर छा जाती है कि बच्चा भाषा सीख गया। रोओ उस दिन क्योंकि बच्चा मौन भूल रहा है, बच्चे की शांति खंडित हो रही है। बच्चे की शांत झील में तुमने कंकड़-पत्थर फेंक दिये। डैडी–एक पत्थर, मम्मी–एक पत्थर और। झील को तुम झकझोरने लगे। मगर मम्मी खुश है, डैडी प्रसन्न हैं; उनके अहंकार को तृप्ति मिल रही है, उनका बेटा बोलने लगा। बस अब सिखाये चलो। अब चूकना शूरु हुआ। अब भटकना शृरु हुआ। अब फिर वही चक्कर।

सत्यनाम गयो भूल, झठ मन माया मानो।।

अब भूल जाएगा परमात्मा फिर, और झूठ में मन उलझ जाएगा। और बहुत मुश्किल है कि कभी कोई मिल जाए जो तुम्हें जगा दे। क्योंकि धीरे-धीरे तुम्हारी नींद सघन करने के उपाय किया जा रहे हैं। धारणाएं, सिद्धांत, विश्वास, शास्त्र, सब नींद को गहरा करते हैं; सब अफीम हैं; सब सांत्वनाएं हैं। झूठी सांत्वनाएं क्योंकि सत्य अतिरिक्त और कोई सांत्वना सच्ची नहीं हो सकती। कौन तुम्हें जागएगा? कौन चोट करेगा?

मैंने सुना है, एक फकीर एक यूनिवर्सिटी में अध्यापक हो गया। जैसे ही वह नया-नया पहले दिन कक्षा में उपस्थित हुआ तो एक मनचले छात्र ने अपना नाम आने पर खड़े होकर कहा: यस मैडस!

सनते ही कक्षा में हंसी गूंजने लगी। लेकिन फकीर तो फकीर था! फकीर भी खिलखिला कर हंसा और इतने जोर से हंसा कि कक्षा में धीमी-धीमी जो हंसी चल रही थी, वह एक झटके में बंद हो गयी। और फकीर ने फिर शालीनता से कहा:

“यह इश्क मोहब्बत की तासीर कोई देखे,

अल्लाह भी मजनुं को लैला नजर आता है।’

अब तो पूरी कक्षा ठहाकों से गूंज उठी। बेचारे मजनूं की हालत सच में देखने जैसी थी।

कौन तुम्हें चौंकाएगा? कौन तुम्हें झकझोरगा? फकीरों से मिलना तो मुश्किल होता जा रहा है। जिनसे तुम मिलोगे भी वे भी बंधनों में बंधे हैं–कोई हिंदु है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है। और जो हिंदु है, जो मुसलमान है, जो ईसाई है, वह साधु नहीं है, वह साधु नहीं हो सकता। साधु का क्या कोई धर्म होता है? साधु के तो सब धर्म अपने होते हैं। साधु तो स्वयं धर्म होता है। साधु का कोई विशेषण नहीं होता। जब तक कोई कहे कि जैन साधु तब तक समझना कि साधु नहीं। जब कोई कह सके हिम्मत से कि साधु, विशेषणरहित तब समझना कि कुछ बात हुई, कोई क्रांति घटी।

ऐसा कोई साधु मिल जाए, ऐसी कोई संगति मिल जाए, तो तुम जाग सकते हो–गुरु-परताप साध की संगति–नहीं तो इस संसार में तो सब सुलाने के आयोजन हैं। यह संसार तो सोये हुए लोगों की भीड़ है। और सोये हुए लोग जागे हुए आदमी को बर्दाश्त नहीं करते क्योंकि जगा हुआ आदमी कुछ खटर-पटर करेगा, कुछ शोरगुल करेगा, उठेगा, बैठेगा…।

मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। मेरे एक प्रोफेसर थे। दर्शन-शास्त्र के प्रोफसर थे तो जैसा होना चाहिए वैसे थे–झक्की थे, बहुत झक्की थे। उनकी कक्षा में मैं अकेला ही विद्यार्थी था। उनका कक्षा में कोई विद्यार्थी होने को राजी भी नहीं होता था क्योंकि उनकी कक्षा भी बड़ी अजीब थी। वे कभी तीन घंटे बोलते, कभी चार घंटे बोलते। वे कहते कि घंटा जब शुरू होता है तब तो मेरे हाथ में है शुरू करना, लेकिन जब तक मैं पूरा न हो जाऊं, जब तक मैं अपनी बात पूरी न कह दूं, तब तक मैं रुक नहीं सकता। तो चालीस मिनट में घंटा तो तब जाएगा लेकिन चालीस मिनट में मैं अपनी बात कैसे पूरी कहूंगा, जब पूरी होगी बात तब होगी।

कौन बैठे तीन-चार घंटा? मैं बैठ सकता था, मैंने उनसे कहा: देखिए, मेरा भी एक नियम है। वे बोले: तुम्हारा क्या नियम है? मेरा नियम यह है कि मैं आंख बंद करके सुनता हूं और मैं बिलकुल पसंद नहीं करता कि बीच में मुझे कोई बाधा डाले। आप बोलें जितना बोलना है। उन्होंने कहा मुझे इसमें कोई अड़चन नहीं है। तो मैं उनकी कक्षा में सोता था, वे बोलें जितना बोलना हो। उन्होंने मुझे यह भी कह दिया था–अगर तुम्हें बीच में कभी बाहर जाना हो तो तुम जा सकते हो, मगर पूछने की जरूरत नहीं है कि क्या मैं बाहर जाऊं, क्योंकि उससे मेरे बोलने में बांधा पड़ती है। तुम बाहर जाओ, तुम घूम-फिर कर आ जाओ, मैं बोलता रहूंगा। मैं अपनी धारा में किसी तरह का खंडन पसंद नहीं करता।

दोत्तीन-चार साल से उनकी कक्षा में एक भी विद्यार्थी नहीं आया था। तीन-चार साल बाद मैं आया था तो उनका मैं बहुत प्यारा हो गया, बहुत चहेता हो गया। उन्होंने कहा कि ऐसा क्यों नहीं करते–वे भी अकेले थे, कभी उन्होंने विवाह किया नहीं–तुम क्यों हॉस्टल में पड़े हो, मेरे पास बड़ा बंगला है, तुम वहीं आ जाओ। तो मैंने कहा यह भी ठीक है। मैं उनके बंगले में पहुंच गया। वहां बड़ी अड़चन खड़ी हुई। अड़चन यह खड़ी हुई कि वे दो बजे रात उठ आते और गिटार बजाते। अब दो बजे रात कोई गिटार बजाये तो मैं सो ही न पाऊं; दो बजे के बाद तो सोना असंभव। इलेक्ट्रिक गिटार पूरे घर में गूंजे।

एक दिन मैंने सुना। दूसरे दिन मैंने उनसे कहा कि क्षमा करें, मेरी भी एक आदत है।

कहो, क्या आदत है?

मैंने कहा: मैं दो बजे तक जोर-जोर से पढ़ूंगा। तो मैं दो बजे रात तक इतने जोर-जोर से पढ़ता कि वे सो न पाते।

तो दूसरे दिन सुबह मुझसे बोले कि देखो, मैं अपनी आदत छोड़ूं, तुम अपनी आदत छोड़ो। फिर चल सकता है। क्योंकि इस घर में अगर हम दो में से एक भी जागा रहा तो दूसरा सो नहीं सकता। और तुम्हारी भी खूब आदत है, मैंने पढ़ने वाले बहुत देखे मगर जोर-जोर से पढ़ने वाला…इतने जोर से जैसे तुम हजार, दो हजार आदमियों के सामने व्याख्यान दे रहे हो। मैंने कहा: भविष्य का अभ्यास कर रहा हूं।

उन्होंने गिटार छोड़ दिया, मैंने पढ़ाई छोड़ दी, तब कहीं सो सके हम दोनों अन्यथा सोना मुश्किल था।

एक भी जागा हो तो सोये लोगों को अड़चन तो खड़ी करेगा। और जगा हुआ आदमी इसलिए हमें कष्टपूर्ण मालूम होता है। हम जागे हुए आदमी बर्दाश्त नहीं करते, हम उनके साथ दर्व्यवहार करते हैं। और वे ही हैं जो हमारे सौभाग्य हैं। और वे ही हैं जिनसे हमारे सौभाग्य की संभावना है। और वे ही हैं जिनसे हमारा रूपान्तरण हो सकता है, हमारा अंधकार कटे और सुबह हो। और वे ही हैं जिनसे हम नाराज हैं। हम पूजा करते, सम्मान करते, सत्कार करते, उनका जो हमारी नींद को और गहरा कर देते हैं।

हम पंडित-पुरोहितों का बहुत सम्मान करते हैं। मगर जीसस के साथ तुमने क्या किया? और सुकरात के साथ तुमने क्या किया? और मंसूर के साथ तुमने क्या किया? ये जागे हुए लोग जिनके साथ तुम जुड़ जाते तो तुम्हारा भी दीया जल जाता, तो तुम भी रोशन हो गये होते। शायद तुम्हें वापस दुनिया में आने की जरूरत न पड़ती, अब तक तुम आकाश में लीन हो गये होते। अब तक सारा अस्तित्व तुम्हारा होता, इस छोटी-सी देह मएं तुम बंद न होते। मगर नहीं, जागा हुआ आदमी कष्ट देता है।

सोयों की दुनिया है यह। यहां सब सोये हैं; इनके साथ तुम भी सोये रहो तो सोयों को भी अच्छा लगता है; तुम्हें भी सुविधा होती है।

अदालत में वकील पक्षों में बहस चल रही थी। गरमा-गरमी धीरे-धीरे बढ़ने लगी और बातें गाली-गलौज तक पहुंचने लगी। सरकारी पक्ष का वकील अभियुक्त्त के वकील से बोला; “तुम गधे हो।’ अभियुक्त का वकील बोला: “गधा मैं नहीं, गधे तुम हो।’ मजिस्ट्रेट ने अपनी हथौड़ी से टेबल को ठोंकते हुए कहा: “सभ्य जनों, आप लोग भूल रहे हैं कि मैं भी यहां हूं।’

सोये हुए लोगों की दुनिया–उनका गणित एक, उनका तर्क एक, उनका हिसाब एक, उसमें एक तालमेल होता है। जागा हुआ आदमी एकदम तालमेल के बाहर हो जाता है; उसकी भाषा और हो जाती है, उसका गणित और हो जाता है। वह तुमसे विपरीत दिशा में चलने लगता है। तुम भागे जा रहे हो छायाओं के पीछे, वह पीठ कर लेता है। मगर जागे हुए का साथ करोगे तो ही जाग सकते हो।

सत्यनाम गयो भूल…जिनको याद आ गया हो सत्यनाम; जो पुनः छोटे बच्चों की भांति हो गये हैं; जिन्हाोने फिर से जन्म ले लिया है, द्विज हो गये हैं जो; ब्राह्मण हो गये हैं जो; जिन्होंने ब्रह्म को जान लिया है–वे ही तुम्हें जना सकेंगे।

झूठ मन माया मानो…तन बड़े झूठे में पड़ गया है, बड़ी माया में उलझ गया है।

पहिये की धुरी पर मक्खी एक बैठकर,

गर्व से भरी और बोली यों एंठकर,

कितनी धूल उड़ रही है मेरी पदचाप से?

कहोगे न यह सब मेरे ही प्रताप से?

पिद्दी उठ बोला तब, यह भी होगा सही,

पैरों पर आसमान क्या तू देखती नहीं?

सून गर्वोंक्ति, बोला गधा एक सस्वर,

देखा अरे, गायक है मुझ-सा कहीं पर?

विस्मित विधाता देख बोले यह क्या किया?

पुतले में हाथी का अहंकार भर दिया?

अब रचा एक नया मानव का संसार।

पर किया नर ने विधाता का ही बहिष्कार।

गधे-धोड़े सब पीछे पड़ गये, छूट गये बहुत पीछे, आदमी ने अहंकार की सर्वाधिक उदघोषणा की। इसीलिए तो फिर परमात्मा ने आदमी के बाद कुछ नहीं बनाया; थक गया, घबड़ा गया, डर गया। बहुत भूल वैसे ही हो चुकी थी आदमी को बनाकर, आदमी के बाद फिर उसने बनाना ही बंद कर दिया। आदमी ने काफी मूढ़ता प्रदर्शित की है। सबसे बड़ी मूढ़ता यह है कि उसका अहंकार इतना है, उसका मैं-भाव इतना है कि वह परमात्मा को स्मरण करे भी तो कैसे करे! परमात्मा के स्मरण में तो समर्पण करना होगा; अहंकार को अर्पित करना होगा; चरणों में झुकना होगा। भजन और क्या है? झुक जाने की कला; मिट जाने की कला। भजन और क्या है? अहंकार का विसर्जन और प्रभु का स्मरण, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

महाप्रतापी रामजी, ताको दियो बिसारि।

अब कर छाती का हनो, गये जो बाजी हारि।।

परमात्मा को तो भूल गये हो। जिसके साथ जुड़कर तुम महाशक्तिवान हो जाओ, उसे तो विस्मरण कर दिया है, और क्षुद्र-क्षुद्र बातों को खोज रहे हो–धन को, पद को, प्रतिष्ठा को। दो कौड़ी के खिलौनों में उलझ गये हो। असली तो भूल गया, नकली ने खूब भरमा लिया है। स्वभावतः नकली में कुछ खूबियां हैं जो असली में नहीं हैं; जो असली में हो ही नहीं सकतीं। नकली खूब विज्ञापन करता है। असल में नकली जीता विज्ञापन पर है, असली को तो विज्ञापन की कोई जरूरत नहीं होती। सूरज सुबह निकलता है, कोई घोषणा नहीं करता; कोई घोषणा आवश्यक नहीं है। उसके निकलते ही फूल खिलने लगेंगे; पक्षी गीत गाएंगे; लोग जगने लगेंगे। लेकिन किसी दिन अगर कोई झूठा सूरज निकले तो पहले विज्ञापन करेगा, डुंडी पिटवाएगा, शोरगुल मचवाएगा–तो ही शायद कोई भूला-भटका पक्षी गाए, कोई भूला-भटका फूल खिल जाए, कोई भूला-भटका आदमी जग जाए।

नकली विज्ञापन पर जीता है। तुम जिन नकली बातों में उलझे हो उनका कितना विज्ञापन है? सदियों-सदियों का विज्ञापन है। इतना लंबा उनके विज्ञापन का इतिहास है कि तुम याद भी नहीं कर सकते कि कब विज्ञापन शुरू हुआ, कब भ्रांतियां तुम पर थोपी जानी शुरू की गयीं। इतनी थोपी गयी हैं, इस तरह थोपी गयी हैं कि झूठ सच मालूम होने लगा है।

अडोल्फ हिटलर ने ठीक लिखा है अपनी आत्मकथा में कि अगर झूठ को बार-बार दोहराया जाए तो वह सच जैसा मालूम होने लगता है।

यही तो विज्ञापन की सारी कला है–बस दोहराए जाओ, फिक्र मत करो कि लोग मानते हैं कि नहीं मानते। लोगों की तीन सीढ़ियां हैं मनाने की। पहले तो वे हर चीज को कहते हैं गलत, ठीक नहीं हो सकती, असंभव। यह पहली सीढ़ी है; समझो कि उन्होंने मानने की दुनिया में कदम रख दिया। दूसरी बात वे कहते हैं कि शायद हो सके, शायद संभव हो–यह दूसरी सीढ़ी। और तीसरी सीढ़ी? वे कहते मैंने तो पहले ही कहा था कि यह ठीक है। हम तो पहले से कहते थे, कोई मानता नहीं था।

बस धीरज चाहिए विज्ञापन करने का। झूठ से झूठ बात पर लोगों को भरोसा लाया जा सकता है। कितनी झूठी बातों पर तुम्हें भरोसा है कभी तुमने ख्याल किया? कपड़े के एक टुकड़े को बांध कर झंडा बना देते हैं और चले लोग–झंडा ऊंचा रहे हमारा! चाहे प्राण भले ही जाएं, झंडा नहीं झुकना चाहिए। और झंडे में है क्या? सिर्फ सदियों-सदियों का प्रचार है।

नक्शों पर देश बांट दिये गये हैं और देश बन गये! और उन सीमाओं पर लोग प्राण गंवाते हैं। और सीमायें झूठी हैं। आदमी कहीं भी बंटा हुआ नहीं है। सारी पृथ्वी एक है। मगर छोटे-छोटे अड्डे बना लिए हैं।

राजनीतिज्ञ जी भी नहीं सकता इन झूठों के बिना। ये झंडों के झूठ, ये डंडों के झूठ, ये रेखाओं के झूठ–इन्हीं के बीच तो राजतीतिज्ञ जीता है, यही तो उसकी दुनिया है। ये सारे झूठ हट जाएं तो राजनीति समाप्त हो जाए। राजनीति समाप्त हो जाए, तो युद्ध समाप्त हो जाएं, वैमनस्य समाप्त हो जाए। लेकिन तब बहुत से लोगों का मजा ही चला जाएगा। उनका मजा ही यही है। नेतृत्व उनका मजा है। अगर दुनिया में शांति हो तो नेताओं की कोई जरूरत नहीं। दुनिया में लोग अगर प्रेम से जी रहे हों तो नेताओं की क्या आवश्यकता है? लोग लड़ने चाहिए, लोग अज्ञानी रहने चाहिए, तो ही पंडित-पुरोहित को भी जीने की सुविधा है?

इन सबकी चेष्टा यह है कि तुम परमात्मा को भूल जाओ क्योंकि जो परमात्मा को याद रखेगा वह इनमें से किसी जाल में भी नहीं पड़ सकता है। परमात्मा को भूलते ही तुम शिकार हो जाओगे हजार तहर के झूठों के। एक दीया क्या बुझता है, अंधेरे में हजार तरह के झूठ चलने लगते हैं। एक दीया क्या जलता है, अंधेरे के हजारों झूठ एक साथ समाप्त हो जाते हैं।

अब कर छाती का हनो, गये सो बाजी हारि।

राम को तो भूल बैठे हो, फिर छाती पीट रहे हो कि जिंदगी में कुछ नहीं है, कि कोई अर्थ नहीं है; कि क्या करें? क्या न करें? राम को तो भूल बैठे हो जिससे अर्थ हो सकता था, गरिमा हो सकती थी, गौरव हो सकता था। वृक्ष को तो पानी नहीं देते हो और कहते हो फूल आते नहीं!

फ्रेडरिक नीत्से ने पश्चिम में घोषणा की–ईश्वर मर गया है, और फिर फ्रेडरिक नीत्से पागल हो गया यह घोषणा करके। क्योंकि फिर सवाल उठा कि जिंदगी में अर्थ क्या है? फिर जीएं क्यों? जीने का सार क्या है? पहले ईश्वर नहीं है यह घोषणा कर दी, अहंकार ने यह घोषणा करवा दी कि ईश्वर नहीं है अब मुसीबत आयी। बिना ईश्वर के अर्थ खो गया। बिना ईश्वर के संदर्भ ही न बचा जिसमें अर्थ पैदा हो सके।

बिना ईश्वर के हम क्या हैं? सिर्फ दुर्घटनाएं। सिर्फ मिट्टी के पुतले–आज हैं, कल नहीं हो जाएंगे; थे या नहीं बराबर हो जाएगा। ईश्वर है तो शाश्वतता है। ईश्वर है तो अमरता है। ईश्वर है तो देह के बाद भी हम जिएंगे। ईश्वर है तो देह के बाद भी जीवन रहेगा–और नये पंख, और नये आयाम। ईश्वर है तो अंत नहीं है, अनंत है। और अनंतता के ही संदर्भ में अर्थ हो सकता है। नहीं तो इस छोटी-सी जिंदगी का क्या मूल्य?

इस बात को ठीक से समझ लेना–अर्थ होता है हमेशा अपने से बड़े संदर्भ में। एक कविता है, उसकी एक पंक्ति में अर्थ है लेकिन कविता के संदर्भ में, अगर कविता को तुम अलग कर लो और पंक्ति को बचा लो, पंक्ति में कोई अर्थ न रह जाएगा। फिर पंक्ति में भी शब्दों में अर्थ है, लेकिन पंक्ति के संदर्भ में, अगर एक शब्द को तुम अलग खींच लो तो उसमें कुछ अर्थ न रह जाएगा। फिर शब्द में भी अर्थ है लेकिन अगर शब्दों से तुम अक्षरों को अलग खींच लो तो अक्षरों में क्या अर्थ रह जाएगा? अ में क्या अर्थ है? ब में क्या अर्थ है? “अब’ में अर्थ है। लेकिन अ में कोई अर्थ नहीं, ब में कोई अर्थ नहीं। रा में क्या अर्थ है? म में क्या अर्थ है? लेकिन “राम’ में कोई अर्थ नहीं। फिर अगर राम की पूरी कथा के संदर्भ में राम को लो तो और बहुत अर्थ है। और अगर सारे जगत के संदर्भ में राम को लो तो अर्थ ही अर्थ है, अर्थ का महासागर है।

अर्थ होता है अपने से बड़े संदर्भ में लेकिन आदमी का अहंकार चाहता है–हमसे ऊपर कोई भी नहीं। बस वहीं अड़चन हो जाती है। जिसने कहा मुझसे ऊपर कोई भी नहीं, उसके जीवन में अर्थ खो जाता है। जिसने कहा मुझसे ऊपर सब कुछ है–आकाश पर आकाश हैं; आसमानों पर आसमान हैं–उसके जीवन में अर्थ ही अर्थ की वर्षा हो जाती है। फिर ऐसा व्यक्ति कुछ भी बोले उसका एक-एक वचन उपनिषद् है। फिर ऐसा व्यक्ति उठे तो उसका उठाना, उसका बैठना उपासना है। ऐसा व्यक्ति न बोले तो उसके न बोलने में संगीत है।

बोलों के देवता!

बोल कुछ ऐसे बोलो!

ऐसे बोल कि

जिनके शब्दों में अमरत्व-सिंधु लहराए,

ऐसे बोल कि

जिनको सुनने उच्च हिमालय शीश उठाए

ऐसे बोलो: युग की सांसों में लय की मधुता तुम घोले!

सूझों के अंकुर

उन्मादों की उर्वर धरती पर फूटें,

कहीं न कोमल कला-कुसुम

नव कठिन ज्ञान के हाथों टूटें,

अन्तारात्मा-कलाकार! मत, निज को बुद्धित्तुला पर तोलो!

करो मूकता की अर्चा

तुम व्यथा-अश्रुओं को न गिराओ,

उन्मादी बलिदान-पंथ पर

फूलों जैसे शीश चढ़ाओ,

वीणा-घट में भरे वेदना-रस, जीवन-सिंचित कर डोलो!

बोलों के देवता!

बोल कुछ ऐसे बोलो!

ऐसे बोल निश्चित पैदा होते हैं। मगर ऐसे बोल तुमसे पैदा नहीं होते, तुम जब माध्यम होते हो तब पैदा होते हैं। जब तुम सिर्फ बांसुरी होते हो और परमात्मा के ओंठों पर अपनी बांसुरी को छोड़ देते हो, तब ऐसे बोल पैदा होते हैं जिनमें माधुर्य है, जिनमें रस है, जिनमें अमृत है! ऐसे ही उपनिषद जन्मे। ऐसे ही कुरान जन्मा। ऐसी ही बाइबिल जन्मी। ऐसे ही धम्मपद जन्मा। ऐसे ही भीखा के ये सीधे-सीधे बोल जन्मे।

महाप्रतापी रामजी, ताको दियो बिसारि।

अब कर छाती का हनो, गये सो बाजी हारि।

इस दुनिया में सिर्फ एक ही बाजी है–हारो या जीतो। राम के साथ जुड़ गये तो जीत गये, राम से टूट गये तो हार गये, और कुछ बाजी नहीं है। हिसाब-किताब सीधा-सीधा, साफ-साफ है, दो और दो चार जैसा गणित स्पष्ट है। जीतना हो, राम से जुड़ जाओ; हारना हो, राम से टूट जाओ। लेकिन एक बात तुम्हें याद दिला दूं, अगर जीतने के लिए राम से जुड़े तो कभी न जीतोगे। अगर जीतने की आकांक्षा से राम से जुड़े, तब तो तुम राम से जुड़े ही नहीं, तुम तो अहंकार से ही जुड़े रहे, तुम्हारा अहंकार राम का भी शोषण करने लगा। यह भजन न हुआ, यह भक्ति न हुई, यह भाव न हुआ–यह तो शोषण हुआ। तुमने राम को भी साधन बना लिया, साध्य तो तुम ही रहे।

मैं फिर कहता हूं: जीतना हो तो राम से जुड़ो, मगर जीतना तुम्हारी आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। राम से जो जुड़ता है वह परिणाम में जीत ही जाता है। मगर राम से जुड़ने की कला भी समझ लो–जो हारता है राम के सामने, वही जुड़ता है। इस विरोधाभास में ही सारी भक्ति का शास्त्र है। जो हारता है, राम से जुड़ता है…हारे को हरिनाम! और जो हार कर राम से जुड़ गया, जीत गया। यह प्रेम का गणित है। यहां हार जीत बन जाती है और यहां जीत हार हो जाती है।

भीखा गये हरिभजन बिनु, तुरतहिं भयो अकाज।

और अगर बिना परमात्मा से जुड़े चले गये फिर, तो तुरंत ही अकाज हो जाएगा। क्या अकाज? इधर मरे, उधर जन्मे। देर नहीं लगती, क्षण-भर की देर नहीं लगती। क्योंकि मरते वक्त, आदमी एक ही आकांक्षा से भरा होता है–जीवेषणा। मरते वक्त सारी आकांक्षाएं एक ही आकांक्षा बन जाती हैं–कैसे जीऊं, कैसे और जीऊं! सारा प्राण एक ही बिंदु पर केंद्रित हो जाता है–मरूं नहीं, मृत्यु न हो। यही आकांक्षा नये जन्म में ले जाती है। मरते वक्त जिसके मन में जीने की प्रबल आकांक्षा है, वह मरते ही तत्क्षण किसी गर्भ में प्रवेश कर जाता है। उसको कहा अकाज; बुरा काम हो गया, हानि हो गयी।

भीखा गये हरिभजन बिनु, तुरतहिं भयो अकाज।

तो भीखा कहते हैं: सावधान किये देता हूं कि अगर हरिभजन के बिना गये…बहुत बार गये हो, हर बार अकाज हुआ, इस बार सम्हलो! अब तो सम्हलो। इस बार सम्हल कर जाओ! इस बार मरते क्षण हरिभजन हो, जीवेषणा नहीं। इस वक्त मरते क्षण राम हृदय में हो, काम नहीं। इस बार मरते क्षण प्रार्थनापूर्ण हो हृदय, वासनापूर्ण नहीं। इस बार मरते वक्त देह से, मन से मुक्त हो जाने की प्रबल आकांक्षा, अभीप्सा हो, तो सुकाज हो जाएगा। फिर नयी देह नहीं होगी, नया आवागमन नहीं होगा। फिर तुम मुक्त आकाश के हिस्से हो जाओगे, सारा आकाश तुम्हारा होगा। फिर तुम क्षुद्र देह में न बंधोगे। तुम सीमा में आबद्ध न होओगे। और वही दुख है, वही नर्क है। सीमा में असीम का आबद्ध होना नर्क है, असीम का असीम में लीन हो जाना स्वर्ग है।

पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।।

और जब मौत आएगी तो परमात्मा खड़ा होगा द्वार पर…लेने आएगा तुम्हें कि शायद तैयारी हो तो तुम्हें ले जाए।…पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज…मगर तुम उसका स्वागत न कर पाओगे; तुम अपनी कौड़ियों में ही उलझे रहोगे।

मैंने सुना है, एक मारवाड़ी मर रहा था। आखिरी दम छोड़ने का क्षण, उसने आंख खोली, पास में बैठी अपनी पत्नी से कहा: लल्लू की मां, लल्लू कहां है?

तो पत्नी ने सोचा कि बेटे की याद आयी। कहा कि घबड़ाएं न, आपके उस तरफ बैठा हुआ है। सांझ हो रही है और अंधेरा उतर रहा है और फिर मरते आदमी को ठीक-ठीक दिखाई भी नहीं पड़ रहा है। आप चिंता न करें लल्लू उस तरफ बैठा है।

तो और भी चिंता से मारवाड़ी ने पूछा: फिर कल्लू कहां है?

कहा आप बिलकुल चिंता न करें, पत्नी ने कहा, लल्लू के पास ही कल्लू भी बैठा हुआ है।

तब तो मारवाड़ी बिलकुल हाथ टेककर उठने की कोशिश करने लगा। पत्नी ने कहा: क्या करते हो? तो उसने पूछा: और छोटू कहां है?

तो कहा: वह आपके बिलकुल पैरों के पास बैठा है।

तो मारवाड़ी ने कहा: हद हो गयी, फिर दुकान कौन चला रहा है? जब सब यहीं बैठे हैं, तो दुकान कौन चला रहा है?

मरते वक्त भी “दुकान कौन चला रहा है’ यहां मन अटका है। यह आदमी मर कर भी दुकान के चक्कर लगाएगा। देखेगा कि लल्लू, कल्लू, छोटू, क्या कर रहे हैं? कमाई ठीक से हो रही कि नहीं? वह जो कहानियां कहती हैं कि मर जाने के बाद लोग अपने गड़े हुए धन पर सांप बनकर बैठे जाते हैं, ठीक ही कहती होंगी क्योंकि अधिकतर लोग तो जिंदगी में ही, जिंदा ही सांप बनकर बैठे रहते हैं, मरकर भी और क्या करेंगे? जो जिंदगी-भर किया है वही मरकर भी करेंगे।

एक और मारवाड़ी के संबंध में मैंने सुना है। कोई मारवाड़ी नाराज न हो जाए। अब मैं करूं भी क्या; ये कहानियां किसी और के नाम से कहो तो जमती ही नहीं। मैं तो कई बार सोचता हूं कि किसी और के नाम से कहो। लेकिन किसी और के नाम से इनका कोई तालमेल ही नहीं होता। जैसे पश्चिम में सब कहानियां यहूदियों के नाम से कही जाती हैं, वैसे भारत में ऐसी कोई भी कहानी कहनी हो तो सिवाय मारवाड़ी के कोई उपाय ही नहीं। मारवाड़ी भारत का यहूदी है।

एक आदमी अपने मित्र को एक कहानी सुना रहा था। बोला कि दो यहूदी…बस इतना ही बोल पाया था कि उसके मित्र ने कहा: छोड़ो भी जी यहूदी, यहूदी यहूदी, कहानी किसी और नाम से नहीं कह सकते? उसने कहा: ठीक, और नाम से सही। दो ईसाई सिनागाग जा रहे थे…। अब सिनागाग तो यहूदी ही जाते हैं वह तो यहूदियों के मंदिर का नाम है। मगर कहानी तो घटनी है सिनागाग में। अब ईसाई को भी रखने से क्या होगा?

तो कोई मारवाड़ी नाराज न हो।

एक मारवाड़ी मर रहा था। मरना तो सभी को पड़ता है। मारवाड़ी तक को मरना पड़ता है और आदमियों की तो बिसात क्या! उसके चार-छः लड़के बैठकर विचार कर रहे थे। छोटा लड़का बोला: एक रॉल्सरॉयस गाड़ी लानी चाहिए। पिता के अंतिम समय उनकी लाश को रॉल्सरॉयस गाड़ी में रखकर ले चलेंगे मरघट।

दूसरे भााई ने कहा: फिजूल खर्चा, अरे, मुर्दें को क्या रॉल्सरॉयस में ले गये कि एम्बेसेडर गाड़ी में ले गये, क्या फर्क पड़ता है? एम्बेसेडर से काम चल जाएगा।

तीसरे भाई ने कहा कि मुर्दें को क्या फर्क पड़ता है एम्बेसडर…नाहक का खर्चा बांधना, पेट्रोल महंगा, पड़ोसी गाड़ी दें कि न दें, मेरा तो ख्याल है कि वह पुरानी तरकीब ही ठीक कि अर्थी बना लेगे और कंधे पर रख कर ले चलेंगे।

चौथे भाई ने कहा: मरघट है दूर, गरमी के दिन और देश मारवाड़। खुद तो हम जल-भुन जाएंगे ही, साथ कौन जाएगा अर्थी के? और इनकी जिंदगी-भर की कहानियां और इनके जिंदगी-भर के गोरख-धंधे…वैसे ही कोई साथ जाने को तैयार नही, तो इतनी दोपहरी में कौन साथ जाएगा? और हम भी थक-मर जाएंगे ले जाकर। बैलगाड़ी में रखकर ले चलना ठीक रहेगा।

पांचवें ने कहा: फिजूल की बकवास में पड़े हो, अपने घर जो गधा है, वही ठीक है उसी पर बांध देंगे और ले चलेंगे।

तभी बाप जो मर रहा था, यह सब सुन रहा था, एकदम उठ आया और कहने लगा: मेरी चप्पल कहां हैं?

उन्होंने कहा: चप्पल का क्या करोगे? उसने कहा कि मैं पैदल ही चलता हूं। अरे, अभी इतनी जान मुझमें शेष है, नाहक का खर्चा करना, गधे को सताना, आजकल घास भी महंगा और हर चीज की झंझट…। इतना तो मैं अभी चल सकता हूं। मरघट तक मैं पैदल ही चला चलता हूं, वहीं चलकर मर जाऊंगा, तुम्हें कोई दिक्कत ही नहीं आएगी।

मरते क्षण भी लोग सोचेंगे तो वही जिंदगी-भर सोचा है। जिंदगी-भर जैसे जिये हैं उसका ही तो निचोड़ मृत्यु के समय आंख के सामने खड़ा हो जाएगा।

भीखा गये हरिभजन बिनु, तुरतहिं भयो अकाज।

देर नहीं लगती, उसी क्षण अकाज हो जाता है।

पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।।

जब मौत आती है मौत ही नहीं आती, मौत के दो चेहरे हैं…। तुमने तो मौत के संबंध में जो कहानियां सुनी हैं वे यही हैं कि भैंसे पर बैठकर यमदूत, काले, भयंकर…वह एक ही हिस्सा है कहानी का। वह तुमने गलत लोगों से सुनी हैं। गलत लोगों की जिंदगी में वही होता है। सौ में से निन्यानबे की जिंदगी में वही होता है लेकिन बुद्धों की जिंदगी में भैंसे पर बैठकर यमदूत नहीं आते, बुद्धों के जीवन में तो स्वयं परमात्मा आता है; बुद्धों के जीवन में तो स्वयं प्रकाश आता हैं; बुद्धों के जीवन में तो स्वयं अमृत बरसता है। जब उनकी मृत्यु आती है तो मृत्यु उनके लिए परमात्मा लिए परमात्मा का द्वार है।

यह तो बुद्धओं के जीवन में भैंसा और यमदूत इत्यादि आते हैं। यह उनकी ही वृत्तियों का प्रगाढ़ रूप है। यह उनके ही चित्त का प्रतिफलन है। यह उनके ही जीवन का सार-निचोड़ है। यह कालख उनके ही हृदय की कालख है और यह भैंसा उनकी ही वासना का भैंसा है।

जिन्होंने ध्यान को जाना है, भजन को जाना है, उन्होंने मृत्यु का एक बड़ा मधुर और मृदुल रूप जाना है। जीवन तो जीवन, मृत्यु भी उनके लिए कमल के फूलों की तरह आती है। बस फूलों की पंखड़ियां बरस जाती हैं। देह से छुटकारा दुखपूर्ण नहीं, होता, सुखपूर्ण होता है, महा-सुखपूर्ण होता है। देह से मुक्त्ति ऐसी होती है जैसे किसी ने पिंजड़ा खोल दिया और आकाश का पंछी उड़ चला।

वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।

और तुम पढ़ते रहो वेद और पुराण; और पढ़ते रहो कुरान और बाइबिल, कुछ भी न होगा।

जो अच्छर समुझा नाहिं…अगर तुमने अक्षर को, राम को, शाश्वत को, सनातन को, नित्य को नहीं जाना। अगर तुम अक्षरों में ही उलझे रहे और “अक्षर’ को न जाना; शब्दों में ही उलझे रहे और निःशब्द को न जाना, तो तुम चूक जाओगे। तो तुम्हारी जिंदगी में कुछ भी होगा नहीं। तुम कूड़ा-करकट इकटठा कर लोगे, भीतर तुम वैसे के वैसे रहोगे।

सत्य प्रिया ने एक अच्छी कहानी मेरे पास भेजी है। एक बहुत प्रसिद्ध सर्जन, उन्हें जरूरत थी एक सहायक र्डाक्टर की। विज्ञापन दिया। बड़े-बड़े डिग्रियों वाले र्डाक्टर उम्मीदवार थे। पर उन्होंने एक सरदार को चुना। सरदार अभी-अभी लौटा था, इंग्लैंड से बड़ी डिग्रियां लेकर लौटा था, खूब पढ़-लिखकर लौटा था, बड़े प्रमाण-पत्र लाया था, शेष सब उसके सामने फीके थे। और पहले ही दिन यह घटना घटी।

सर्जन ने एक बड़ा आपरेशन किया। आपरेशन पूरा होने से पहले ही मरीज होश में आ गया। सर्जन ने जल्दी से अपने सहायक सरदार को कहा कि दौड़कर क्लोरोफार्म की बोतल ले आओ। सरदार जी दूसरे कमरे से बोतल लेकर खट-खट जूते बजाते दौड़ते आ ही रहे थे कि चिकना फर्श और तभी घड़ी ने बाहर के घंटे बजाये, सो सरदार जी धड़ाम से फर्श पर गिरे, बोतल गिरी। बोतल टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गयी। सर्जन तो बहुत घबड़ाया। उसने कहा: सरदार जी, अब क्या होगा? क्योंकि अस्पताल में यह आखिरी बोतल थी।

सरदार जी बोले: सर, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए। मैं अभी मरीज को बेहोश किये देता हूं। यह कह कर सरदार जी ने अपना शर्ट उतारा और अपनी हथेली को कच्छ (कांख) पर मलकर मरीज को सुंधा दिया। मरीज फौरन बेहोश हो गया। सर्जन ने आश्चर्य से सरदार जी की तरफ देखा, तो सरदार जी बोले: आप बिलकुल चिंतित न हों; अभी कच्छा बाकी है।

इंग्लैंड भी हो आये, बड़ी डिग्रियां भी ले आये, मगर फिर सरदार आखिर सरदार…। ऊपर-ऊपर सब हो गया मगर भीतर की पकड़ तो वही रहेगी न! भीतर आदमी नहीं बदलता ऐसे। तुम वेद पढ़ो, पुराण पढ़ो, कंठस्थ कर लो, तोते हो जाओ, नहीं कुछ लाभ होगा।

वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।

अच्छर समुझा नाहिं, रहा जैसे का तैसा।

तुम नहीं समझोगे अगर राम को तो तुम वैसे के वैसे रहोगे, तुम्हारा पांडित्य किसी काम का नहीं है। गंगा नहाओ, काशी जाओ, काबा जाओ, कुछ काम नहीं पड़ने वाला है जब तक कि तुम्हारे भीतर उस पाहुने को तुम अंगीकार न कर पाओ, जब तक तुम्हारे भीतर ऐसी तैयारी न हो कि जब प्रभु आये तो तुम दानों हाथ आलिंगन के किए फैला सको, उसे बाहों में भर लो, कि जब प्रभु आये तो तुम उसके चरणों में सिर रख दो!

और प्रभु प्रतिक्षण आता है, प्रतिपल आता है, आता ही रहता है; उसके अतिरिक्त आने को कोई और है भी नहीं। हवा का झोंका आता है तो उसी ने दस्तक दी है। फूलों की गंध आयी तो वही आया। सूरज की किरण झांकी तो वही झांका। पक्षी गाया तो वही गाया। वृक्ष में फूल खिला तो वही खिला। उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जो जानते हैं उनके लिए परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। और जो नहीं जानते उनको परमात्मा को छोड़कर और सब कुछ है। मगर उस एक के साधने से सब सध जाता है और सब साधे सब जाय!

तुम वेद, कुरान पढ़ोगे, चालबाज हो जाओगे, होशियार हो जाओगे, बेईमान हो जाओगे। तुम्हारी बेईमानी पांडित्य का रूप ले लेगी। तुम शब्दों और तर्कों में कुशल हो जाओगे। तुम लफ्फाज हो जाओगे। तुम मीठ-मीठे अच्छेदार शब्दों के जाल बुनने लगोगे। उसमें तुम दूसरों को फंसाओगे ही फंसाओगे खुद भी फंस जाओगे। तुम नयी-नयी तरकीबें निकाल लोगे लेकिन वे सारी तरकीबें तुम्हें संसार में ही उलझाए रखेंगी।

एक कॉलेज में यह घटना घटी। एक मोटी लड़की थी। किसी लड़के ने उसे भैंसे कह दिया। इस बात ने काफी तूल पकड़ा और बात आखिर प्रिंसपल तक जा पहूंची।

प्रिंसिपल ने उसे लड़के को और उस लड़की को दोनों को अपने आफिस में बुलाया। प्रिंसपल ने लड़के से कहा: बेटे, तुम्हें शर्म आनी चाहिए, क्या महिलाओं से इस प्रकार अपशब्दों का प्रयोग करते हैं?

लड़के ने कहा: मगर सर, क्या किसी मोटी लड़की को भैंसे कहना गुनाह है?

प्रिंसिपल ने कहा: गुनाह तो नहीं, मगर यह बेढंगा है बेटे। तुम इसके माफी मांगो।

लड़का: तो महोदय, क्या किसी भैंस को मैं बहिनजी कह सकता हूं?

प्रिंसिपल ने कहा: हां-हां, क्यों नहीं, किसी भैंस को तुम बहनजी कहकर संबोधित करो कोई हर्जा नहीं है।

लड़का उस मोटी लड़की की तरफ मूंह करके बोला: माफ कर दीजिए बहिनजी।

तुम होशियार हो जाओगे, शब्दों में कुशल हो जाओगे, तर्कजाल बैठालने लगोगे विवादी हो जाओगे, लेकिन इससे भजन पैदा नहीं होगा, भक्ति पैदा नहीं होगी। और जहां भजन नहीं, भक्ति नहीं, तुम वैसा के वैसा।

वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।

अच्छर समुझा नाहिं, रहा जैसे का तैसा।

परमारथ सों पीठ, स्वार्थ सनमुख होइ बैसा।।

परमात्मा की तरफ पीठ कर ली है तुमने और स्वार्थ के सामने मुंह किये बैठे हो। स्वार्थ की पूजा कर रहे हो। झूठे देवताओं की पूजा कर रहे हो।

सास्तर मत को ज्ञान, करम भ्रम मे मन लावै।

और तुम्हारा सारे शास्त्रों का ज्ञान क्या है? उधार, बासा, दुसरों का। अपने अनुभव के बिना कोई मुक्ति नहीं है। अपने अनुभव के बिना कोई सत्य नहीं है। मैं अपना सत्य तुमसे कहूंगा, तुम तक पहूंचते-पहूंचते असत्य हो जाएगा।

मेरा सत्य तुम्हारा सत्य हो ही नहीं सकता–इस बात को बिलकुल निर्णायक रूप से हृदय में समा जाने दो। आसान और सस्ता यही है कि हम दूसरों के सत्यों को अपना समझ लें क्योंकि न मेहनत, न श्रम, न साधना…हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए…कुछ लगता ही नहीं। पढ़ ली किताब, अच्छी-अच्छी बातें सीख लीं। अच्छी-अच्छी बातें बोलने भी लगे, मगर बस ओंठ पर ही रहेंगी ये अच्छी बातें, तुम्हारे हृदय की कालिख और कल्मष इनसे धोया नहीं जाएगा। यह स्नान ऊपर-ऊपर रहा, धूल झड़ जाएगी देह की, मगर आत्मा की धूल का क्या होगा? और तुम्हारी बुद्धि बड़ी पारंगत हो जाएगी। हां, तुम दूसरों पर ज्ञान का नहीं बंधता, तुम्हारी तुम्हारी निर्दोंषता का बंधता है, सरलता का बंधता है। तुम्हारे पांडित्य का नहीं, तुम्हारी विनम्रता का। पांडित्य तो अहंकार का आभूषण है। परमात्मा से संबंध बनता है जब तुम कह पाते हो समग्र हृदय से कि मैं अज्ञानी हूं, कि मेरे जानने से भी क्या जाना जा सकेगा, मेरी औकात क्या, मेरी बिसात क्या, यह छोटी-सी खोपड़ी है और यह विराट अस्तित्व जैसे कोई चम्मच से सागर को भर-भरकर खाली करना चाहे…।

मैंने सुना है कि अरिस्तोतल–यूनान का सबसे बड़ा दार्शनिक–समुद्र के किनारे टहलने गया था। और कोई एक नंगा फकीर एक बड़े अजीब काम में लगा था– एक छोटी-सी चम्मच से पानी भरकर लाता था सागर का और रेत में उसने एक गङ्ढा खोद रखा था, उसमें पानी डालकर फिर भागा जाता, फिर चम्मच भरता, फिर गङ्ढे में डालता, फिर भागा जाता।…दोनों ही काम फिजूल थे क्योंकि सागर कब खाली होगा इसकी चम्मच से और जो रेत में डाल जाता था पानी, जब तक लौटकर आता रेत पी जाती। न गङ्ढा भरता, न सागर खाली होता।

अरिस्तोतल देखता रहा, फिर उससे न रहा गया। ऐसे दूसरे के काम में व्यवधान डालना उसके शिष्टाचार के विपरीत था मगर यह बात जरा सीमा के बाहर हो रही थी। न रहा गया उससे। उसने कहा: क्षमा करना मेरे भाई, तुम्हारा उपक्रम देखकर मुझे हैरानी होती है; तुम कर क्या रहे हो? तुम्हारा इरादा क्या है?

उस नंगे फकीर ने कहा कि समुद्र को खाली करके इस गङ्ढे में भरना है।

अरिस्तोतल हंसने लगा। उसने कहा: मजाक तो नहीं कर रहे हो? इतना बड़ा समुद्र इतनी छोटी चम्मच, यह छोटा-सा गङ्ढा, वह भी रेत में, यह कैसे हो पाएगा? और जिंदगी बहुत छोटी है, अभी बीत जाएगी, चार दिन की है।

और वह फकीर हंसने लगा। और उसने कहा: मैं तुम्हारे लिए ही यह उपक्रम कर रहा हूं। यह तुम्हारी खोपड़ी कितनी बड़ी है, चम्मच से ज्यादा बड़ी? और यह अस्तित्व कितना बड़ा है? सागर से अनंत गुना बड़ा। और तुम इस खोपड़ी से समझने चले हो अस्तित्व को? कि इसका राज खोल लोगे? कि इसका रहस्य जान लोगे? यह कब हो पाएगा, जिंदगी बहुत छोटी है?

इसके पहले कि अरिस्तोतल उससे पूछे कि भाई तुम कौन हो, तुम्हारा नाम क्या है, वह फकीर तो चलता बना। अरिस्तोतल उनके पीछे भी दौड़ा लेकिन वह तो भाग ही गया। कहानी में साफ नहीं है कि यह फकीर कौन था। लेकिन बहुत सम्भव है यह आदमी डायोजनीज रहा हो क्योंकि वही यूनान में नंगा रहता था। अगर न भी डायोजनीज रहा हो तो डायोजनीज की हैसियत का ही कोई दूसरा फकीर रहा होगा, उसका कोई शिष्य रहा होगा।

उस दिन से अरिस्तोतल को कभी चैन न मिला। उस दिन से यह बात उसे भूली ही नहीं। सोचता था उस दिन के बाद भी, विचारता था, लेकिन जानता था कि यह चम्मच से सागर खाली करने का उपाय है जो सफल नहीं हो सकता, जिसकी असफल हो जाने की नियति सुनिश्चित है।

सास्तर मत को ज्ञान, करम भ्रम में मन लावै।

शास्त्र जानो, मतों को जानो, दर्शन को जानो, बड़े-बड़े विचार सीखो, बड़े सिद्धांतों को स्मृति का अंग बना लो, लेकिन इससे कुछ भेद नहीं पड़ेगा; मन तो उलझा रहेगा काम में, वासना में; मन तो उलझा रहेगा संसार के भ्रम में, सपनों में–कोई भेद नहीं पड़ेगा।

एक बड़े फर्म का मैनेजर मरणासन्न अवस्था में पलंग पर पड़ा हुआ था। फर्म का मालिक उसे अंतिम विदाई देने के लिए आया हुआ था। मैनेजर बड़ा धार्मिक व्यक्ति था। नियमित पूजा-पाठ, ब्रत-नियम, उपवास, तीर्थयात्रा, सत्यनारायाण की कथा, यज्ञहवन, जो भी सम्भव है, सब करता था, करवाता था। उसकी प्रसिद्धि थी गांव में। उसका असली नाम लोग भूल गये थे, उसको लोग भगतजी के नाम से ही जानने लगे थे।

भगतजी मर रहे थे। मालिक फर्म का आया हुआ था। भगतजी ने दुखित स्वर में कहा: मालिक, मुझे माफ कर देना। अब मृत्यु के क्षण में आपसे क्या छिपाऊं क्योंकि अब जब मर ही रहा हूं, तो आपको बता देना उचित ही होगा कि मैंने आपकी फर्म से लाखों रुपये का घोटाला किया है। और कम्पनी मेरी ही वजह से घाटे में चल रही थी।

फर्म के मालिक ने कहा: घबड़ाओ मत भगतजी, तुम्हीं थोड़े ही व्रत, नियम उपवास करते हो, मैं भी करता हूं; और तुम्हीं थोड़े ही तीर्थयात्रा करते हो, मैं भी करता हूं; और तुम्हीं थोड़े ही सत्यनारायण की कथा करवाते हो, मैं भी करवाता हूं; तुम्हीं थोड़े ही भगत हो, मैं भी भगत हूं।

भगतजी ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं।

तो उस मालिक ने कहा: समझो, अब मरते वक्त तुमसे भी क्या छिपाना। निश्चिंत मरो भगतजी, घबड़ाओ मत, न ही किसी प्रकार का अपराध-भाव अपने हृदय में लाओ क्योंकि तुम्हें जहर भी मैंने ही दिलवाया है।

सारा धर्म, सारा क्रियाकांड पाखंड की तरह ही है, जब तक कि राम हृदय में न बसे; जब तक कि राम हृदय में न गूंजे। और कैसे गूंजेगा राम हृदय में? तुम हटो, जगह खाली करो, सिंहासन रिक्त करो!

पाहुन आयो भाव सों, घर में नहीं अनाज।

घर में नहीं अनाज, भजन बिनु खाली जानो।

भरो इस हृदय को आनंद-उत्सव से, उसकी प्रार्थना से। उतरेगा जरूर पाहुन। पाहुना आएगा, सदा आता रहा है। आना निश्चित है, तुम्हारी तैयारी चाहिए।

सास्तर मत को ज्ञान, करम भ्रम मन में लावै।

छूइ न गयो विज्ञान, परमपद को पहूंचावै।।

व्यर्थ की बकवास में पड़े हो जिसको तुम ज्ञान कहते हो, विज्ञान सीखो। विज्ञान का अर्थ होता है: ब्रह्मज्ञान। विज्ञान का अर्थ होता है: विशेष ज्ञान जो ब्रह्म से मिला दे, ऐसा ज्ञान जो ब्रह्म से मिला दे।

छुइ न गयो विज्ञान, परमपद को पहूंचावै।

ज्ञान में ही उलज्ञे रहोगे, फिर विज्ञान कब छुओगे? और विज्ञान कहां सीखा जाता है? ज्ञान तो किताबों से मिल जाता है, विज्ञान…? गुरु-परताप साध की संगति!

भीखा देखे आपु को, ब्रह्म रूप हिये मार्हि।

जिस दिन तुम देख लोगे ब्रह्म को अपने ही हृदय में, अपने ही भीतर धड़कता हुआ, जीवन्त, तरंगित…वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुज्ञा नाहिं…उसके पहले पढ़ते रहो वेद-पुराण, कुछ अर्थ का नहीं है। जिस दिन अपने भीतर अक्षर को देखोगे उस दिन सब अक्षरों में जो लिखा है, समझ आ जाएगा, बिना पढ़े समझ आ जाएगा; नहीं कुरान पढ़नी होगी और समझ आ जाएगा।

एक ईसाई मिशनरी झेन फकीर से मिलने गया। गया था झेन फकीर को प्रभावित करने ईसा के वचनों से। उसने सुंदरतम वचन ईसा के चुने थे। पर्वत पर जो प्रवचन है ईसा का, जिसमें वे बार-बार कहते हैं: धन्यभागी हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। धन्यभागी हैं वे जो इस जगत में अंतिम हैं, क्योंकि प्रभु के राज्य में, मेरे प्रभु के राज्य में वे ही प्रथम होंगे। ऐसे-ऐसे अद्भुत वचन! जब वह फकीर पढ़ने लगा…उसने पहला ही वचन पढ़ा कि धन्यभागी हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि प्रभु का राज्य उन्हीं का है।

झेन फकीर ने कहा कि बस और ज्यादा पढ़ने की जरूरत नहीं है; जिसने भी यह कहा हो, वह आदमी बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है।

उस फकीर ने कहा: अरे, आगे तो सुनिए।

झेन फकीर ने कहा: तुम्हारी मर्जी हो तो सुनाओ मगर बात पूरी हो गयी। जिसने भी यह कहा है, किसने कहा है कया लेना-देना, मगर जिसने भी कहा है वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है।

उसने यह भी नहीं पूछा कि यह वचन किसका है हिंदु का, मुसलमान का, बौद्ध का, जैन का, ईसाई का, किसका? किस शास्त्र का है यह भी नहीं पूछा!

जिसने अपने भीतर अक्षर को देख लिया, उसने सबके भीतर अक्षर को देख लिया। उसे आ गयी पहचान सारे उपनिषदों की। उसे वेदों का वेद उपलब्ध हो गया। वह स्वयं वेद हो गया।

भीखा देखे आपु का, ब्रह्म रूप हिये माहिं।

वेद-पुरान पढ़े कहा, जो अच्छर समुझा नाहिं।।

अगर तुमने वेद-पुरान पढ़ भी लिए और अक्षर को अपने भीतर नहीं जाना–सब व्यर्थ है, सब बिलकुल व्यर्थ है।

उड़ धाये नीड़-ओर विहग-वृन्द फर-फर कर,

चैं-चुक-चुक के सुचारु रव से नभ थर-थर कर।

घन-गन-संकुलित गगन कज्जल का पुंज बना;

मानो नभ-थाली में दृग अंजन सघन सना;

अस्ताचल ओट हुआ दिन-मणि का रथ अपना

जग को मोहित करने आया निशि का सपना;

नभचारी नभ-पथ से लौट चले अपने घर

पंखों से फर-फर कर!

सांझ हुई; सनिकेतन को गृह की सुध आयी;

अनिकेतन के हिय में निशि की चिंता छायी;

दिन-क्षण, विचरण ही में, बीत गये दुखदायी,

अब यह वंध्या संध्या श्रान्ति-समस्या लायी;

पाये निशि-वास कहां थकित पथिक यह बेघर?

आया विश्राम-प्रहर!

जब जीवन-रवि डूबा, मरण-तिमिर बढ़ आया,–

जब कराल काल व्याल अंधकार चढ़ आया–

तब हिय यों पूछ उठा: यह क्या मृण्मय माया?

यह कैसा परिवर्तन? यह कैसी तम-छाया?

अब निशि-आवास-दान करे कौन करुणाकर?

कंपता है हिय थर-थर!

निशि का विश्राम कहां? पूछा जब यों मन ने,

ठौर कहां? पूछा जब यों इस मृण्यस कण ने,

बोली तब अमर साध: कैसे निशि के सपने?

ऐ, रे! आह्लान किया तेरा, चिर चेतन ने!

काले अवगुण्ठन में छिप आये हैं प्रियवर

मत डर, रे अजर, अमर!

आज, सांझ तेरी यह नव प्रभात पूर्ण हुई,

तुझ से अनिकेतन की चिंता सब चूर्ण हुई;

हुए आज द्वन्द्व दूर, आज दूर हुई दुई;

मरघट के नभ से है आज अमिय फुही चुई;

मृत्यु का कराल कण्ठ गाता है जीवन स्वर

अब कैसा भय? क्या डर?

मृत्यु अगर तुमने जीवन में प्रभु को स्मरण नहीं किया तो बहुत भयभीत करती है और प्रभु को स्मरण किया–मृत्यु का कराल कण्ठ गाता है जीवन स्वर! तब तो मृत्यु में से अमृत का अनुभव होता ह।

अब कैसा भय? क्या डर?

आज, सांझ तेरी यह नव प्रभात पूर्ण हुई,

तब तो सांझ सुबह हो गयी। अमावस पूर्णिमा हो गयी। जहर अमृत हो गया।

आज, सांझ तेरी यह नव प्रभात पूर्ण हुई,

तुझ से अनिकेतन की चिंता सब चूर्ण हुई;

हुए आज द्वन्द्व दूर, आज दूर हुई दुई;

मरघट के नभ से है आज अमिय फूई चुई;

मरघट पर अमृत बरसता है। जिन्होंने राम को स्मरण कर लिया है, उनकी मृत्यु भी मृत्यु नहीं है। और जिन्होंने राम को स्मरण नहीं किया, उनका जीवन भी जीवन नहीं है। गुरु-परताप साध की संगति! खोजो गुरु, खोजो साधुओं की संगति ताकि तुम्हरा जीवन तो जीवन हो ही सके, तुम्हारी मृत्यु भी जीवन हो सके। यह महा-अवसर है, चूक न जाए। जागो!

 

आज इतना ही।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–3) प्रवचन–45

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न बंधन है न मोक्ष—(प्रवचन—पैतालीसवां)

सूत्र:

68—जैसे मुर्गी अपने बच्‍चों का पालन—पोषण करती है,

वैसे ही यथार्थ में विशेष ज्ञान और विशेष कृत्‍य का

पालन—पोषण करो।

69—यथार्थत: बंधन और मोक्ष सापेक्ष है; ये केवल विश्‍व से

      भयभीत लोगों के लिए है। यह विश्‍व मन का प्रतिबिंब है।

      जैसे तुम पानी में एक सूर्य के अनेक सूर्य देखते हो, वैसे

ही बंधन और मोक्ष को देखो।

 

नोने किसी से पूछा था : ‘समस्या क्या है? वे जड़ें क्या हैं जिन से मनुष्य का समाधान हो सके और वह यह जानने का प्रयत्न करे कि मैं कौन हूं?’

बिना किसी प्रयत्न के आदमी स्वयं को क्यों नहीं जान सकता? कोई समस्या ही क्यों हो? तुम हो; तुम जानते हो कि मैं हूं। फिर तुम क्यों नहीं जान सकते कि मैं कौन हूं? कहा चूक रहे हो? तुम चेतन हो, और तुम्हें बोध है कि मैं चेतन हूं। जीवन है, और तुम जीवित हो। फिर तुम्हें यह बोध क्यों नहीं है कि मैं कौन हूं? वह क्या है जो अवरोध बनता है? वह क्या है जो तुम्हें इस बुनियादी आत्मज्ञान से वंचित रखता है?

अगर तुम अवरोध को समझ सको तो अवरोध आसानी से विसर्जित किया जा सकता है। असली सवाल यह नहीं है कि कैसे स्वयं को जाना जाए; असली सवाल यह है कि तुम कैसे स्वयं को नहीं जान पा रहे हो! कैसे इतने स्पष्ट यथार्थ को, इतने बुनियादी सत्य को चूक रहे हो, जो तुम्हारे निकट से निकट है! कैसे वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है! तुमने जरूर कोई उपाय किया होगा; अन्यथा स्वयं से बचना कठिन है। तुमने दीवारें खड़ी की होंगी, तुम किसी न किसी अर्थ में अपने को धोखा दे रहे होगे। अपने से बचने की, अपने को न जानने की युक्ति क्या है? तरकीब क्या है?

जब तक तुम उस युक्ति को, उस तरकीब को नहीं समझते, तुम कुछ भी करो वह कारगर नहीं होगा। क्योंकि वह युक्ति बची रहती है और तुम पूछते रहते हो कि स्वयं को कैसे जाना जाए? सत्य को, यथार्थ को कैसे जाना जाए? और नतीजा यह होता है कि तुम अवरोध को सहारा देते हो। तुम अवरोध को निर्मित भी किए जाते हो। इसलिए तुम जो भी करोगे वह व्यर्थ हो जाएगा।

सच तो यह है कि स्वयं को जानने के लिए विधायक रूप से कुछ करने की जरूरत नहीं है, बस कुछ नकारात्मक करना है। तुम्हें उस अवरोध को हटा देना है जिसे खुद तुमने निर्मित किया है। और जैसे ही वह अवरोध गया कि तुम जान जाओगे। अवरोध के हटते ही जानना घटित होता है; उसके लिए तुम कोई विधायक प्रयत्न नहीं कर सकते। तुम्हें सिर्फ इस बात का बोध होना चाहिए कि कैसे मैं इसे चूक रहा हूं।

इस संबंध में कुछ बातें समझने जैसी है। पहली बात कि तुम अपने सपनों में जीते हो, और फिर ये सपने ही अवरोध बन जाते हैं। सत्य कोई स्वप्न नहीं है; वह है। सत्य है; वह तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है, हर तरफ से घेरे हुए है। भीतर—बाहर वही है, तुम उसे चूक नहीं सकते। लेकिन तुम सपने देख रहे हो; और तब तुम एक ऐसे आयाम में चले जाते हो जो सत्य नहीं है। तब तुम एक काल्पनिक दुनिया में सैर करते हो। और ये सपने तुम्हारे चारों ओर बादलों की भांति छा जाते हैं और अवरोध बन जाते हैं।

जब तक मन स्‍वप्‍न देखना नहीं छोडेगा, तुम सत्य को नहीं जान सकते। जब तुम सत्य को सपने के माध्यम से देखते हो तो सत्य विकृत हो जाता है। और तुम्हारी आंखें सपनों से भरी हैं; तुम्हारे कान सपनों से भरे हैं; तुम्हारे हाथ सपनों से भरे हैं। तो तुम जो भी देखते हो, सपनों भरी आंख से देखते हो, तुम जो कुछ सुनते हो, सपनों भरे कान से सुनते हो, तुम जो कुछ छूते हो, सपनों भरे हाथ से छूते हो। और इस तरह सब कुछ विकृत हो जाता है, बदल जाता है। तुम्हारे पास जो कुछ भी पहुंचता है, सपनों के माध्यम से पहुंचता है; और सपने सब कुछ बदल देते हैं, सब कुछ रंग देते हैं।

सपनों में खोए चित्त के कारण तुम सत्य को चूक रहे हो, बाहर के सत्य को चूक रहे हो और भीतर के सत्य को चूक रहे हो। तुम सत्य को पाने के लिए बहुत उपाय कर सकते हो; लेकिन वे उपाय भी स्‍वप्‍न देखने वाले चित्त के द्वारा ही होंगे। तुम धार्मिक सपने देख सकते हो, तुम सत्य के संबंध में सपने देख सकते हो, ईश्वर और क्राइस्ट और बुद्ध के सपने भी देख सकते हो; लेकिन वे भी सपने ही होंगे।

सपने देखना छोड़ो; सपनों को विदा करो। सपनों के जरिए सत्य को नहीं जाना जा सकता है। लेकिन सपना देखने से मेरा क्या तात्पर्य है?

तुम अभी मुझे सुन रहे हो। लेकिन तुम्हारे भीतर स्वप्न भी चल रहा है, और वह स्वप्न निरंतर उसकी व्याख्या कर रहा है जो कहा जा रहा है। तब तुम मुझे नहीं सुन रहे हो, तुम अपने को ही सुन रहे हो। क्योंकि तुम सुनने के साथ ही साथ उसकी व्याख्या भी किए जा रहे हो। क्या यही बात नहीं है? जो कहा जा रहा है, तुम उस पर विचार भी कर रहे हो।

लेकिन विचार करने की क्या जरूरत है? सिर्फ सुनो; सोच—विचार मत करो। क्योंकि अगर तुम सोचोगे तो सुन नहीं सकोगे, और अगर सोचना और सुनना साथ—साथ चलेंगे तो तुम अपना शोरगुल ही सुनोगे। और वह वही नहीं है जो कहा जा रहा है। सोच—विचार बंद करो, सुनने के मार्ग को विचारों से खाली रखो। तभी जो कहा जा रहा है उसे सुन सकोगे।

जब किसी फूल को देखो तो सपनों को रोक दो। अपनी आंखों को अतीत और भविष्य के विचारों और सपनों से मत भरी रहने दो; उन्हें फूलों के संबंध में अपनी जानकारी से खाली रखो। इतना भी मत कहो कि फूल सुंदर है, क्योंकि तब तुम सत्य से वंचित हो रहे हो। ये शब्द ही देखने में बाधा बन जाएंगे। तुम कहते हो कि फूल सुंदर है; यह कहते ही शब्द बीच में आ गए और सत्य की व्याख्या शब्दों में शुरू हो गई। शब्दों को अपने आस—पास मत इकट्ठा होने दो। सीधे सीधे देखो; सीधे—सीधे सुनो, सीधे—सीधे स्पर्श करो।

जब तुम किसी को छुओ तो सिर्फ छुओ; यह मत कहो कि त्वचा कितनी सुंदर है, कितनी चिकनी है। तब तुम चूक रहे हो; तब तुम सपने में खो गए। जैसी भी त्वचा है, वह अभी और यहां है; उसे छुओ और उसे अपने को तुम पर प्रकट करने दो। तुम किसी सुंदर चेहरे को देखते हो; उसे देखो और उस चेहरे को अपने भीतर प्रवेश करने दो। उसकी व्‍याख्‍या मत करो; कुछ भी मत कहो। अपने अतीत मन को बीच में मत आने दो।

पहली तो बात कि सपने तुम्हारे अतीत चित्त से निर्मित होते हैं। यह तुम्हारा अतीत मन है जो निरंतर तुम्हारे चारों ओर घूम रहा है। अतीत को बीच में मत आने दो। वैसे ही भविष्य को भी बीच में मत आने दो। जैसे ही तुम्हें कोई सुंदर रूप, कोई सुंदर शरीर दिखाई पड़ता है, तुरंत इच्छाएं पैदा होने लगती हैं। तुम उसे पाना चाहते हो। तुम एक सुंदर फूल देखते हो और तुरंत उसे तोड़ लेना चाहते हो।

लेकिन चाह के उठते ही तुम फूल से दूर चले गए। फूल तो वहीं है; लेकिन तुम कामना में सरक गए, भविष्य में भटक गए। अब तुम यहां नहीं हो; तुम अतीत में हो जो नहीं है, या भविष्य में हो जो अभी नहीं आया है। और तुम उसे चूक रहे हो जो अभी है।

तो पहली चीज स्मरण रखने की है कि अपने और सत्य के बीच में शब्दों को मत आने दो। जितने कम शब्द होंगे उतनी कम बाधा रहेगी। और जब शब्द बिलकुल नहीं होंगे तो कोई भी बाधा नहीं है। तब तुम सत्य का सीधा साक्षात्कार करते हो, तुम उसी क्षण उसके आमने—सामने होते हो।

शब्द सब कुछ नष्ट कर देते हैं, क्योंकि वे अर्थ ही बदल देते हैं।

मैं किसी की आत्मकथा पढ़ रहा था—एक स्त्री की आत्मकथा। वह बिस्तर से बाहर आने के बाद से पूरे दिन का वर्णन कर रही थी। वह लिखती है कि एक सुबह मैंने अपनी आंखें खोलीं। लेकिन तुरंत ही वह कहती है कि यह कहना सही नहीं है कि मैंने आंखें खोलीं; मैंने तो कुछ भी नहीं किया, आंखें अपने आप खुल गईं। वह वाक्य को बदल देती है और लिखती है कि नहीं, यह कहना ठीक नहीं है कि मैंने आंखें खोलीं; मैंने तो कुछ नहीं किया; यह मेरा प्रयत्न नहीं था, यह मेरा कृत्य नहीं था। फिर वह लिखती है कि आंखें अपने आप खुल गईं। लेकिन तभी उसे खयाल आता है कि यह बात तो बेतुकी हो गई; क्योंकि आंखें मेरी हैं, वे अपने आप कैसे खुल सकती हैं! तो क्या कहा जाए?

भाषा उसे कभी नहीं कहती है जो है। अगर तुम कहते हो कि मैंने आंखें खोलीं तो झूठ कह रहे हो। और अगर तुम कहते हो कि आंखें अपने आप खुलीं तो भी झूठ है। क्योंकि आंखें अंश हैं, वे अपने आप नहीं खुल सकतीं। उनके खुलने में सारा शरीर सम्मिलित है। लेकिन हम जो कुछ कहते हैं वह ऐसा ही है।

अगर तुम भारत में आदिवासी समाजों में जाओ—और यहां अनेक आदिवासी कबीले है—तो पाओगे कि उनकी भाषा—संरचना बहुत भिन्न है। उनकी भाषा—संरचना में स्‍वप्‍न देखने की गुंजाइश नहीं है। अगर वर्षा होती है तो हम कहते हैं : ‘वर्षा हो रही है।’ आदिवासी पूछते हैं : ‘हो रही है का क्या अर्थ? हो रही है कहने का क्या मतलब?’ उनके पास एक ही शब्द है, वर्षा। वर्षा हो रही है, कहने की क्या जरूरत है? वर्षा कहना काफी है। वर्षा यथार्थ है। लेकिन हम उसमें कुछ न कुछ जोडते चले जाते हैं। और हम जितने शब्द जोड़ते हैं उतने ही भटक जाते हैं, सत्य से उतने ही दूर हो जाते हैं।

बुद्ध कहा करते थे कि जब तुम कहते हो कि आदमी चल रहा है तो उसका क्या अर्थ है? आदमी कहा है? केवल चलना है। आदमी से तुम्हारा क्या मतलब? जब हम कहते है कि आदमी चल रहा है तो ऐसा लगता है कि आदमी जैसा कुछ है और चलने जैसा कुछ है, और इन दो चीजों को जोड़ दिया गया है। बुद्ध कहते हैं, केवल चलना है।

जब तुम कहते हो कि नदी बह रही है तो तुम्हारा क्या मतलब है? केवल बहना है, और वह बहना ही नदी है। वैसे ही चलना आदमी है, देखना आदमी है, खड़ा होना और बैठना आदमी है। अगर तुम इन चीजों को अलग कर दो—चलने, बैठने, खड़े होने, सोचने और सपने देखने को अलग कर दो—तो क्या पीछे आदमी रह जाएगा? नहीं, पीछे कोई आदमी नहीं बचेगा। लेकिन भाषा एक अलग ही संसार निर्मित कर देती है। और सतत शब्दों में भटककर हम भटकते ही चले जाते हैं।

तो पहली बात यह स्मरण रखने की है कि नाहक शब्दों के झमेले में न पड़ा जाए। जब जरूरत हो, तो तुम शब्दों का उपयोग कर सकते हो, लेकिन जब जरूरत न हो तो खाली रहो, चुप रहो, निःशब्द रहो, मौन रहो, शात रहो। चीजों को निरंतर शब्द देते रहने की जरूरत नहीं है।

दूसरी बात कि प्रक्षेपण मत करो। शब्द मत दो, प्रक्षेपण मत करो। जो है उसे देखो; अपनी ओर से कुछ मत जोड़ो। तुम एक चेहरा देखते हो। जब तुम कहते हो कि यह सुंदर है तो तुम उसमें कुछ जोड़ रहे हो, या यदि तुम कहते हो कि यह कुरूप है तो भी तुम कुछ जोड़ रहे हो। चेहरा चेहरा है; सौंदर्य और कुरूपता तुम्हारी व्याख्याएं हैं। चेहरा न सुंदर है न कुरूप; क्योंकि वही चेहरा किसी के लिए सुंदर हो सकता है, किसी के लिए कुरूप हो सकता है, और किसी के लिए दोनों में से कुछ भी नहीं हो सकता है। कोई हो सकता है कि उस चेहरे पर निगाह भी न डाले, उसके प्रति उदासीन रहे। चेहरा बस चेहरा है; उसमें कुछ आरोपित मत करो, प्रक्षेपित मत करो। तुम्हारे प्रक्षेपण तुम्हारे सपने हैं। और जब तुम कुछ प्रक्षेपित करते हो तो तुम चूक जाते हो। और यह रोज हो रहा है।

तुम देखते हो कि कोई चेहरा सुंदर है, और फिर इच्छा निर्मित होती है, चाह पैदा होती है। यह चाह उस चेहरे या शरीर के लिए नहीं है; यह तुम्हारी अपनी ही व्याख्या या प्रक्षेपण के लिए है। वह जो व्यक्ति है, असली व्यक्ति, उसका परदे की तरह उपयोग किया गया है और उस पर तुमने अपने को प्रक्षेपित कर दिया है। और तब विषाद अनिवार्य है, क्योंकि तुम्हारे प्रक्षेपण से यथार्थ चेहरा अयथार्थ नहीं हो सकता है। देर— अबेर प्रक्षेपण गिर जाएगा और असली चेहरा प्रकट हो जाएगा। और तब तुम्हें लगेगा कि मैं तो ठगा गया। तुम कहोगे : ‘अरे, इस चेहरे को क्या हुआ? यह चेहरा तो इतना सुंदर था, यह आदमी तो इतना रूपवान था, और अब सब कुछ कुरूप हो चला है।’

लेकिन तुम पुन: व्याख्या कर रहे हो। व्यक्ति तो वही रहता है जो वह है, लेकिन तुम्हारी व्याख्या, तुम्हारा प्रक्षेपण जारी रहता है। तुम यथार्थ को कभी नहीं प्रकट होने देते; तुम उसका दमन करते रहते हो; भीतर और बाहर दोनों ओर से दमन करते रहते हो। तुम कभी स्वयं सत्य को प्रकट नहीं होने देते हो।

मुझे स्मरण आता है कि एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन से उसके एक पड़ोसी ने कहा कि मुझे कुछ घंटों के लिए तुम्हारा घोड़ा चाहिए। मुल्ला ने कहा कि मैं तो तुम्हें खुशी से अपना

घोड़ा दे देता, लेकिन मेरी पत्नी घोड़े को लेकर कहीं गई है और वह दिन भर बाहर ही रहेगी। ठीक उसी समय अस्तबल से घोड़े की हिनहिनाहट सुनाई पड़ी, और पड़ोसी ने मुल्ला की तरफ देखा। मुल्‍ला ने कहा: अच्‍छा, तुम मुझ पर विश्‍वास करते हो या घोड़े पर? और घोड़ा तो झूठ बोलने के लिए बदनाम ही है। तुम किस पर भरोसा करते हो?’

हम अपने प्रक्षेपणों के द्वारा अपने चारों ओर एक झूठा संसार निर्मित कर लेते हैं। और अगर सत्य स्वयं भी सामने खड़ा होता है और अस्तबल से घोड़ा हिनहिनाता है तो भी हम पूछते हैं : ‘किसका विश्वास करोगे?’ हम सदा अपना भरोसा करते हैं, सत्य का नहीं, जो सदा—सदा उभरकर सामने आता रहता है। सत्य प्रतिपल प्रकट है, लेकिन हम अपनी भ्रांतियों को जबरदस्ती उस पर थोपते रहते हैं।

यही कारण है कि प्रत्येक आदमी को अंततः विषाद का, निराशा का शिकार होना पड़ता है। इसका कारण सत्य नहीं, हमारा प्रक्षेपण है, हमारा आरोपण है। अंत में प्रत्येक मनुष्य को उदासी और निराशा ही हाथ लगती है; उसे लगता है कि समूचा जीवन व्यर्थ हो गया। लेकिन अब तुम कुछ नहीं कर सकते; अब यह अनकिया नहीं हो सकता। समय अब तुम्हारे पास नहीं है। समय चला गया और मृत्यु निकट है। तुम्हारा भ्रम भंग तो हुआ, लेकिन अवसर भी जाता रहा।

क्यों हरेक आदमी को अंत में हताशा ही हाथ लगती है? न केवल उन्हें ही जो जीवन में असफल होते हैं, बल्कि जो सफल होते हैं उन्हें भी इसी अनुभव से गुजरना पड़ता है। यह तो ठीक है कि असफल लोगों को लगता है कि धोखा हुआ, मगर सफल लोगों को भी ऐसा ही लगता है। नेपोलियन और हिटलर और सिकंदर का भ्रम भी टूटता है; उन्हें भी लगता है कि सारा जीवन व्यर्थ गया। क्यों? इसका कारण सत्य है या इसका कारण तुम्हारा वह सपना है जो तुम प्रक्षेपित कर रहे थे? और फिर तुम स्वप्न को नहीं प्रक्षेपित कर पाए और अंतत: सत्य प्रकट हो गया। और आखिर में सत्य जीत जाता है और तुम हार जाते हो—सत्यमेव जयते। तुम तभी जीत सकते हो यदि तुम प्रक्षेपित न करो।

इसलिए दूसरी बात स्मरण रखो, चीजों को ठीक वैसी देखो जैसी वे हैं। प्रक्षेपण मत करो; व्याख्या मत करो, चीजों पर अपने मन को आरोपित मत करो। सत्य को, वह जो भी हो, जैसा भी हो, प्रकट होने दो। यह सदा शुभ है। और तुम्हारे सपने कितने ही सुंदर हों, वे अशुभ हैं। क्योंकि सपनों के साथ तुम मोह— भंग की यात्रा पर निकले हो, जिसमें निराशा अनिवार्य है। और यह मोह— भंग जितना शीघ्र हो उतना बेहतर है।

लेकिन जैसे ही एक भ्रम टूटता है, तुम तुरंत उसकी जगह दूसरा भ्रम निर्मित कर लेते हो।’ उनके बीच अंतराल आने दो; दो भ्रमों के बीच अंतराल आने दो; ताकि सत्य देखा जा सके। यह कठिन है; सत्य को सीधे—सीधे देखना कठिन है। हो सकता है, वह तुम्हारी कामनाओं के अनुकूल न हो। सत्य के लिए जरूरी नहीं है कि वह तुम्हारी कामनाओं के अनुकूल हो। लेकिन तब तुम्हें सत्य के साथ रहना होगा, सत्य में रहना होगा। और तुम सत्य में ही हो। तो अपने को धोखा देने की बजाय सत्य का सीधा साक्षात्कार, सत्य को सीधे—सीधे देख लेना बेहतर है।

तुम्हें बोध नहीं है कि तुम किस तरह प्रक्षेपण करते रहते हो। कोई कुछ कहता है और तुम कुछ का कुछ समझते हो। और तुम अपनी समझ के आधार पर चीजों को देखते हो और उनसे एक ताश का महल निर्मित कर लेते हो। लेकिन तुमने जो समझा वह कभी नहीं कहा गया था; और जो कहा गया था उसका अर्थ कुछ और ही था।

सदा उसे देखो जो है। जल्दबाजी मत करो। गलत समझने की बजाय न समझना कहीं बेहतर है। अपने को ज्ञानी समझने की बजाय जान—बूझ कर अज्ञानी बने रहना बेहतर है। अपने संबंधों को देखो—पति, पत्नी, मित्र, शिक्षक, मालिक, नौकर—सबको देखो। प्रत्येक व्यक्ति अपने ढंग से सोच रहा है; प्रत्येक व्यक्ति दूसरे की व्याख्या कर रहा है। उनमें कहीं कोई मिलन नहीं है, कहीं कोई संवाद नहीं है। वे लड़ रहे हैं, वे निरंतर संघर्ष में हैं। और यह संघर्ष दो व्यक्तियों के बीच नहीं है; यह संघर्ष दो झूठी प्रतिमाओं के बीच है।

तो सावधान रहो कि तुम दूसरों की झूठी प्रतिमाएं न बनाओ। यथार्थ के साथ, सत्य के साथ रहो—चाहे वह कितना ही कठिन, कितना ही दुष्कर क्यों न हो, चाहे वह असंभव ही क्यों न मालूम हो। और एक बार यदि तुम सत्य के साथ जीने के सौंदर्य को जान लोगे तो फिर तुम कभी सपनों के शिकार नहीं बनोगे।

और तीसरी बात समझने की यह है कि तुम सपने क्यों देखते हो। सपना सब्स्‍टीयूट है, सपना परिपूरक है। अगर यथार्थत: तुम्हें तुम्हारी वांछित चीज नहीं मिलती है तो तुम उसके सपने देखने लगते हो। उदाहरण के लिए, अगर तुम दिन भर उपवासे रहे हो तो रात में तुम भोजन के सपने देखोगे, तुम देखोगे कि तुम्हें सम्राट ने भोजन के लिए आमंत्रित किया है। या ऐसा ही कोई सपना देखोगे जिसमें तुम भोजन ही भोजन कर रहे हो। दिन भर तुमने उपवास किया तो अब रात नींद में तुम भोजन कर रहे हो। और अगर तुम काम—दमन से पीड़ित हो तो तुम्हारे सपने कामुक होंगे। तुम्हारे सपनों से जाना जा सकता है कि दिन में तुम किस चीज का दमन करते हो। रात के सपने बता देंगे कि दिन में तुमने उपवास किया था।

सपने परिपूरक हैं। और मनसविद कहते हैं कि मनुष्य जैसा है, सपनों के बिना उसका जीना कठिन होगा। और वे एक अर्थ में सही हैं। जैसा मनुष्य है, सपनों के बिना उसका जीना कठिन होगा। लेकिन यदि तुम अपना रूपांतरण चाहते हो तो तुम्हें सपनों के बिना रहना होगा। सपने क्यों निर्मित होते हैं? सपने कामनाओं के कारण निर्मित होते हैं। अतृप्त कामनाएं सपने बन जाती हैं। अपनी कामनाओं को, वासनाओं को समझो; बोधपूर्वक उनका निरीक्षण करो। तुम जितना उनका निरीक्षण करोगे, वे उतनी ही विलीन हो जाएंगी। और तब तुम मन के जाले बुनना बंद कर दोगे; तब तुम अपने निजी संसार में रहना छोड़ दोगे।

सपनों की साझेदारी नहीं हो सकती है। दो घनिष्ठ मित्र भी एक—दूसरे को अपने सपनों में साझेदार नहीं बना सकते; वे एक—दूसरे को अपने सपनों में आमंत्रित नहीं कर सकते। क्यों? तुम और तुम्हारा प्रेमी, दोनों एक ही सपना नहीं देख सकते, तुम्हारा सपना तुम्हारा है, दूसरे का सपना दूसरे का है। सपने बिलकुल निजी हैं, वैयक्तिक हैं। सत्य उतना निजी नहीं है; केवल पागलपन निजी होता है। सत्य सार्वभौम है; तुम उसमें दूसरों को भी साझेदार बना सकते हो। लेकिन सपनों की साझेदारी नहीं हो सकती; वे तुम्हारी निजी विक्षिप्तताएं हैं, वैयक्तिक कल्पनाएं हैं। तो फिर क्या किया जाए?

एक व्यक्ति दिन में इतनी समग्रता से जी सकता है कि कुछ भी अवशेष न रहे, कुछ भी बाकी न रहे। अगर तुम भोजन कर रहे हो तो समग्रता से भोजन करो। इस समग्रता से भोजन का स्वाद लो, सुख लो कि रात में उसे किसी सपने में भोगने की जरूरत न पड़े। अगर तुम किसी को प्रेम करते हो तो इतनी समग्रता से प्रेम करो कि फिर प्रेम को तुम्हारे सपने में प्रवेश न करना पड़े। तुम दिन में जो भी करते हो उसे इतनी समग्रता से करो कि चित्त में कुछ भी अधूरा, कुछ भी अटका न रह जाए जिसे सपने में पूरा करना पड़े।

इसे प्रयोग करो। और कुछ महीनों के भीतर तुम्हारी नींद की गुणवत्ता बदल जाएगी। सपने कम से कम होने लगेंगे और नींद गहरी से गहरी होती जाएगी। और जब रात में सपने कम होंगे तो दिन में प्रक्षेपण भी कम हो जाएंगे। क्योंकि सच्चाई यह है कि तुम्हारी नींद जारी रहती है, तुम्हारे सपने चलते रहते हैं। रात में बंद आंखों के साथ और दिन में खुली आंखों के साथ सपने जारी रहते हैं। तुम्हारे भीतर उनका सतत प्रवाह चलता रहता है। कभी एक क्षण को आंखें बंद करो और प्रतीक्षा करो। तुम देखोगे कि सपनों की फिल्म लौट आई है, सपनों का कारवां चला जा रहा है। वह सदा मौजूद ही है, तुम्हारी प्रतीक्षा करता है।

सपने वैसे ही हैं जैसे दिन में तारे होते हैं। दिन में तारे कहीं चले नहीं जाते; सिर्फ सूर्य के प्रकाश के कारण वे दिखाई नहीं पड़ते हैं। वे वहां ही हैं, और जब सूरज छिप जाता है तो वे फिर प्रकट हो जाते हैं। तुम्हारे सपने ठीक वैसे ही हैं; तुम्हारे जागरण में भी वे भीतर सरकते रहते हैं। वे प्रतीक्षा में हैं; आंखें बंद करो और वे सक्रिय हो जाते हैं।

जब रात में सपने कम होने लगेंगे तो दिन में तुम्हारे जागरण की गुणवत्ता और हो जाएगी। अगर तुम्हारी रात बदलती है तो तुम्हारा दिन भी बदल जाता है। अगर तुम्हारी नींद बदलती है तो तुम्हारा जागरण भी बदल जाता है। अब तुम ज्यादा सजग होंगे। जितने कम सपने भीतर दौड़ेंगे, तुम उतने ही कम सोए होगे। अब तुम चीजों को ज्यादा स्पष्ट, ज्यादा सीधे—सीधे देख सकोगे।

तो किसी चीज को अधूरा मत छोड़ो; यह पहली बात। और तुम जो भी कर रहे हो, उस कृत्य में पूरे के पूरे मौजूद रहो। उससे हटो मत, कहीं और मत जाओ। अगर तुम स्नान कर रहे हो तो वहीं रहो। पूरे संसार को भूल जाओ; अभी यह स्नान ही तुम्हारा पूरा जगत है। सब समाप्त हो गया है, संसार खो गया है; बस तुम हो और स्नान है। स्नान के साथ रहो। प्रत्येक कृत्य में इस समग्रता से भाग लो कि तुम न तो उसके पीछे छूट जाओ न उससे आगे ही चले जाओ। तुम कृत्य के साथ—साथ रहो। तब सपने विदा हो जाएंगे। और जैसे—जैसे सपने विदा होंगे, तुम सत्य में प्रवेश करने में ज्यादा समर्थ हो सकोगे।

अब विधि। विधि इससे ही संबंधित है।

 

जैसे मुर्गी अपने बच्चों का पालन— पोषण करती है वैसे ही यथार्थ में विशेष ज्ञान और विशेष कृत्य का पालन— पोषण करो।

स विधि में मूलभूत बात है ‘यथार्थ में’। तुम भी बहुत चीजों का पालन—पोषण करते हो; लेकिन सपने में, सत्य में नहीं। तुम भी बहुत कुछ करते हो; लेकिन सपने में, सत्य में नहीं। सपनों को पोषण देना छोड़ दो, सपनों को बढने में सहयोग मत दो। सपनों को अपनी ऊर्जा मत दो। सभी सपनों से अपने को पृथक कर लो।

यह कठिन होगा, क्योंकि सपनों में तुम्हारे न्यस्त स्वार्थ हैं। अगर तुम अपने को अचानक सपनों से बिलकुल अलग कर लोगे तो तुम्‍हें लगेगा कि मैं डूब रहा हूं, मर रहा हूं। क्योंकि तुम हमेशा स्थगित सपनों में रहते आए हो। तुम कभी यहां और अभी नहीं रहे; तुम सदा कहीं और रहते आए हो। तुम आशा करते रहे हो।

क्या तुमने पडोस का डब्बा नामक यूनानी कहानी सुनी है? किसी आदमी ने बदला लेने के लिए पडोस के पास एक डब्बा भेजा। उस डब्बे में वे सब रोग बंद थे जो अभी मनुष्य—जाति के बीच फैले हैं। वे रोग उसके पहले नहीं थे; जब वह डब्बा खुला तो सभी रोग बाहर निकल आए। पडोस रोगों को देखकर डर गई और उसने डब्बा बंद कर दिया। केवल एक रोग रह गया, और वह थी आशा। अन्यथा आदमी समाप्त हो गया होता; ये सारे रोग उसे मार डालते, लेकिन आशा के कारण वह जीवित रहा।

तुम क्यों जी रहे हो? क्या तुमने कभी यह प्रश्न पूछा है? यहां और अभी जीने के लिए कुछ भी नहीं है; सिर्फ आशा है। तुम भी पडोस का डब्बा ढो रहे हो। ठीक अभी तुम क्यों जीवित हो? हरेक सुबह तुम क्यों बिस्तर से उठ आते हो? क्यों तुम रोज—रोज फिर वही करते हो जो कल किया था? यह पुनरुक्ति क्यों? कारण क्या है?

तुम इसका कोई कारण नहीं बता सकते जो अभी से, वर्तमान से संबंधित हो कि तुम क्यों जी रहे हो। अगर कोई कारण ढूढोगे तो वह भविष्य से संबंधित होगा। वह कोई आशा होगी कि कुछ होने वाला है, किसी दिन कुछ होने वाला है। और तुम्हें यह पता नहीं है कि वह दिन कब आएगा। तुम्हें यह भी पता नहीं है कि क्या होने वाला है। लेकिन किसी दिन कुछ होने वाला है, इस उम्मीद में तुम अपने को खींचे चले जाते हो, अपने को ढोए चले जाते हो। मनुष्य आशा में जीता है। लेकिन यह जीवन नहीं है, क्योंकि आशा तो सपना है। जब तक तुम यहां और अभी नहीं जीते हो, तुम जीवित ही नहीं हो। तब तक तुम एक मृत बोझ हो। और वह कल तो कभी आने वाला नहीं है जब तुम्हारी सब आशाएं पूरी हो जाएंगी। और जब मृत्यु आएगी तो तुम्हें पता चलेगा कि अब कोई कल नहीं है, और अब स्थगित करने का भी उपाय नहीं है। तब तुम्हारा भ्रम टूटेगा; तब तुम्हें लगेगा कि यह धोखा था। लेकिन किसी दूसरे ने तुम्हें धोखा नहीं दिया है; अपनी दुर्गति के लिए तुम स्वयं जिम्मेवार हो।

इस क्षण में, वर्तमान में जीने की चेष्टा करो। और आशाएं मत पालो—चाहे वे किसी भी ढंग की हों। वे लौकिक हो सकती हैं, पारलौकिक हो सकती हैं; इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है। वे धार्मिक हो सकती हैं, किसी भविष्य में, किसी दूसरे लोक में, स्वर्ग में, मृत्यु के बाद, निर्वाण में, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। कोई आशा मत करो। यदि तुम्हें थोड़ी निराशा भी अनुभव हो, तो भी यहीं रहो। यहां से और इस क्षण से मत हटो। हटो ही मत। दुख सह लो, लेकिन आशा को मत प्रवेश करने दो। आशा के द्वारा स्वप्न प्रवेश करते हैं। निराश रहो, अगर जीवन में निराशा है तो निराश रहो। निराशा को स्वीकार करो; लेकिन भविष्य में होने वाली किसी घटना का सहारा मत लो।

और तब अचानक बदलाहट होगी। जब तुम वर्तमान में ठहर जाते हो तो सपने भी ठहर जाते हैं। तब वे नहीं उठ सकते, क्योंकि उनका स्रोत ही बंद हो गया। सपने उठते हैं, म् क्योंकि तुम उन्हें सहयोग देते हो, तुम उन्हें पोषण देते हो। सहयोग मत दो; पोषण मत दो।

यह सूत्र कहता है : ‘विशेष ज्ञान का पालन—पोषण करो।’

विशेष ज्ञान क्यों? तुम भी पोषण देते हो, लेकिन तुम विशेष सिद्धांतों को पोषण देते हो, ज्ञान को नहीं। तुम विशेष शास्‍त्रों को पोषण देते हो, ज्ञान को नहीं। तुम विशेष मतवादों को, दर्शनशास्त्रों को, विचार—पद्धतियों को पोषण देते हो, लेकिन विशेष ज्ञान को कभी पोषण नहीं देते। यह सूत्र कहता है कि उन्हें हटाओ, दूर करो; शास्त्र और सिद्धांत किसी काम के नहीं हैं। अपना अनुभव प्राप्त करो जो प्रामाणिक हो; अपना ही ज्ञान हासिल करो, और उसे पोषण दो। कितना भी छोटा हो, प्रामाणिक अनुभव असली बात है। तुम उस पर अपने जीवन का आधार रख सकते हो। वे जैसे भी हों, जो भी हों, सदा प्रामाणिक अनुभवों की चिंता लो जो तुमने स्वयं जाने हैं। क्या तुमने स्वयं कुछ जाना है?

तुम बहुत कुछ जानते हो; लेकिन तुम्हारा सब जानना उधार है। किसी से तुमने सुना है; किसी ने तुम्हें दिया है। शिक्षकों ने, मां—बाप ने, समाज ने तुम्हें संस्कारित किया है। तुम ईश्वर के बारे में जानते हो; तुम प्रेम के संबंध में जानते हो; तुम ध्यान के विषय में जानते हो। लेकिन तुम यथार्थत: कुछ भी नहीं जानते। तुमने इनमें से किसी का स्वाद नहीं लिया है। यह सब उधार है। किसी दूसरे ने स्वाद लिया है; स्वाद तुम्हारा निजी नहीं है। किसी दूसरे ने देखा है; तुम्हारी भी आंखें हैं, लेकिन तुमने उनका उपयोग नहीं किया है। किसी ने अनुभव किया—किसी बुद्ध ने, किसी जीसस ने—और तुम उनका शान उधार लिए बैठे हो।

उधार ज्ञान झूठा है, और वह तुम्हारे काम का नहीं है। उधार ज्ञान अज्ञान से भी खतरनाक है। क्योंकि अज्ञान तुम्हारा है, और ज्ञान उधार है। इससे तो अज्ञानी रहना बेहतर है, कम से कम तुम्हारा तो है, प्रामाणिक तो है, सच्चा है, ईमानदार है। उधार ज्ञान मत ढोओ, अन्यथा तुम भूल जाओगे कि तुम अज्ञानी हो; और तुम अज्ञानी के अज्ञानी बने रहोगे।

यह सूत्र कहता है : ‘विशेष ज्ञान का पालन—पोषण करो।’

सदा ही जानने की कोशिश इस ढंग से करो कि वह सीधा हो, सच हो, प्रत्यक्ष हो। कोई विश्वास मत पकड़ो, विश्वास तुम्हें भटका देगा। अपने पर भरोसा करो, श्रद्धा करो। और अगर तुम अपने पर ही श्रद्धा नहीं कर सकते तो किसी दूसरे पर कैसे श्रद्धा कर सकते हो?

सारिपुत्र बुद्ध के पास आया और उसने कहा : ‘मैं आपमें विश्वास करने के लिए आया हूं मैं आ गया हूं। मुझे आप में श्रद्धा हो, इसमें मेरी सहायता करें।’ बुद्ध ने कहा : ‘अगर तुम्हें स्वयं में श्रद्धा नहीं है तो मुझमें श्रद्धा कैसे करोगे? मुझे भूल जाओ। पहले स्वयं में श्रद्धा करो; तो ही तुम्हें किसी दूसरे में श्रद्धा होगी।’

यह स्मरण रहे, अगर तुम्हें स्वयं में ही श्रद्धा नहीं है तो किसी में भी श्रद्धा नहीं हो सकती। पहली श्रद्धा सदा अपने में होती है; तो ही वह प्रवाहित हो सकती है, बह सकती है, तो ही वह दूसरों तक पहुंच सकती है। लेकिन अगर तुम कुछ जानते ही नहीं हो तो अपने में श्रद्धा कैसे करोगे? अगर तुम्हें कोई अनुभव ही नहीं है तो स्वयं में श्रद्धा कैसे होगी? अपने में श्रद्धा करो। और मत सोचो कि हम परमात्मा को ही दूसरों की आंखों से देखते हैं; साधारण अनुभवों में भी यही होता है। कोशिश करो कि साधारण अनुभव भी तुम्हारे अपने अनुभव हों। वे तुम्हारे विकास में सहयोगी होंगे; वे तुम्हें प्रौढ़ बनाएंगे, वे तुम्हें परिपक्वता देंगे।’’

बड़ी अजीब बात है कि तुम दूसरों की आंख से देखते हो, तुम दूसरों की जिंदगी से जीते हो। तुम गुलाब को सुंदर कहते हो। क्या यह सच में ही तुम्हारा भाव है या तुमने दूसरों से सुन रखा है कि गुलाब सुंदर होता है? क्या यह तुम्हारा जानना है? क्या तुमने जाना है? तुम कहते हो कि चांदनी अच्छी है, सुंदर है। क्या यह तुम्हारा जानना है? या कवि इसके गीत गाते रहे हैं और तुम बस उन्हें दुहरा रहे हो?

अगर तुम तोते जैसे दुहरा रहे हो तो तुम अपना जीवन प्रामाणिक रूप से नहीं जी सकते। जब भी तुम कुछ कहो, जब भी तुम कुछ करो, तो पहले अपने भीतर जांच कर लो कि क्या यह मेरा अपना जानना है? मेरा अपना अनुभव है? उस सबको बाहर फेंक दो जो तुम्हारा नहीं है; वह कचरा है। और सिर्फ उसको ही मूल्य दो, पोषण दो, जो तुम्हारा है। उसके द्वारा ही तुम्हारा विकास होगा।

‘यथार्थ में विशेष ज्ञान और विशेष कृत्य का पालन—पोषण करो।’

यहां ‘यथार्थ में’ को सदा स्मरण रखो। कुछ करो। क्या कभी तुमने स्वयं कुछ किया है या तुम केवल दूसरों के हुक्म बजाते रहे हो? केवल दूसरों का अनुसरण करते रहे हो? कहते हैं ‘अपनी पत्नी को प्रेम करो।’ क्या तुमने यथार्थत: अपनी पत्नी को प्रेम किया है? या तुम सिर्फ कर्तव्य निभा रहे हो; क्योंकि तुम्हें कहा गया है, सिखाया गया है कि पत्नी को प्रेम करो, या मा को प्रेम करो, या पिता को, भाई को प्रेम करो? तुम्हारा प्रेम भी अनुकरण मात्र है। क्या तुमने कभी ऐसा प्रेम किया है जिसमें तुम थे? क्या कभी ऐसा हुआ है कि तुम्हारे प्रेम में किसी की सिखावन न काम कर रही हो, किसी का अनुसरण न हो रहा हो? क्या तुमने कभी प्रामाणिक रूप से प्रेम किया है?

तुम अपने को धोखा दे सकते हो; तुम कह सकते हो कि हां, किया है। लेकिन कुछ कहने के पहले ठीक से निरीक्षण कर लो। अगर तुमने सचमुच प्रेम किया होता तो तुम रूपांतरित हो जाते; प्रेम का वह विशेष कृत्य ही तुम्हें बदल डालता। लेकिन उसने तुम्हें नहीं बदला, क्योंकि तुम्हारा प्रेम झूठा है। और तुम्हारा पूरा जीवन ही झूठ हो गया है। तुम ऐसे काम किए जाते हो जो तुम्हारे अपने नहीं हैं। कुछ करो जो तुम्हारा अपना हो; और उसका पोषण क्रो। बुद्ध बहुत अच्छे हैं; लेकिन तुम उनका अनुसरण नहीं कर सकते। जीसस अच्छे हैं; लेकिन तुम उनका अनुसरण नहीं कर सकते। और अगर तुम अनुसरण करोगे तो तुम कुरूप हो जाओगे, तुम कार्बन कापी हो जाओगे। तब तुम झूठे हो जाओगे, और अस्तित्व तुम्हें स्वीकार नहीं करेगा। वहां कुछ भी झूठ स्वीकृत नहीं है।

बुद्ध को प्रेम करो, जीसस को प्रेम करो; लेकिन उनकी कार्बन कापी मत बनो। नकल मत करो; सदा अपनी निजता को अपने ढंग से खिलने दो। तुम किसी दिन बुद्ध जैसे हो जाओगे, लेकिन मार्ग बुनियादी तौर से तुम्हारा अपना होगा। किसी दिन तुम जीसस जैसे हो जाओगे, लेकिन तुम्हारा यात्रा—पथ भिन्न होगा, तुम्हारे अनुभव भिन्न होंगे। एक बात पक्की है : जो भी मार्ग हो, जो भी अनुभव हो, वह प्रामाणिक होना चाहिए, असली होना चाहिए, तुम्हारा होना चाहिए। तब तुम किसी न किसी दिन पहुंच जाओगे।

असत्य से तुम सत्य तक नहीं पहुंच सकते हो। असत्य तुम्हें और असत्य में ले जाएगा। जब कुछ करो तो भलीभांति स्मरण रखकर करो कि यह तुम्हारा अपना कृत्य हो, तुम खुद कर रहे हो; किसी का अनुकरण नहीं कर रहे हो। तो एक छोटा सा कृत्य भी, एक मुस्कुराहट भी सतोरी का, समाधि का स्रोत बन सकती है।

तुम अपने घर लौटते हो और बच्चों को देखकर मुस्कुराते हो। यह मुस्कुराहट झूठी है; तुम अभिनय कर रहे हो। तुम इसलिए मुस्‍कुराते हो क्‍योंकि मुस्कुराना चाहिए। यह ऊपर से चिपकायी गई मुस्कुराहट है; तुम्हारे होंठों के अतिरिक्त तुम्हारा कुछ भी इस मुस्कुराहट में सम्मिलित नहीं है। यह मुस्कुराहट कृत्रिम है, यांत्रिक है। और तुम इसके इतने अभ्यस्त हो गए हो कि तुम बिलकुल ही भूल गए हो कि सच्ची मुस्कुराहट क्या है। तुम हंस सकते हो, लेकिन संभव है वह हंसी तुम्हारे केंद्र से न आ रही हो।

सदा ध्यान रखो कि तुम जो भी कर रहे हो उसमें तुम्हारा केंद्र सम्मिलित है या नहीं। अगर तुम्हारा केंद्र उस कृत्य में सम्मिलित नहीं है तो बेहतर है कि उस कृत्य को न करो। उसे बिलकुल मत करो। कोई तुम्हें कुछ करने के लिए मजबूर नहीं कर रहा है। बिलकुल मत करो। अपनी ऊर्जा को उस घड़ी के लिए बचा कर रखो जब कोई सच्चा भाव तुम्हारे भीतर उठे। और तब उसे करो। यों ही मत मुस्कुराओ; ऊर्जा को बचाकर रखो। मुस्कुराहट आएगी, जो तुम्हें पूरा का पूरा बदल देगी। वह समग्र मुस्कुराहट होगी। तब तुम्हारे शरीर की एक—एक कोशिका मुस्कुराएगी। तब वह विस्फोट होगा, अभिनय नहीं।

और बच्चे जानते हैं, तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। और जब तुम उन्हें धोखा दे सको, समझ लेना कि वे बच्चे न रहे। वे जानते हैं कि कब तुम्हारी मुस्कुराहट झूठी होती है; वे झट ताड़ लेते हैं। जो कोई भी सच्चा है वह ताड़ ही लेगा। तुम्हारे आसू झूठे हैं; तुम्हारी मुस्कुराहट झूठी है। ये छोटे—छोटे कृत्य हैं, लेकिन तुम छोटे—छोटे कृत्यों से ही बने हो। किसी बड़े कृत्य की मत सोचो; मत सोचो कि किसी बड़े कृत्य में सच्चाई बरतुंगा। अगर तुम छोटी—छोटी चीजों में झूठे हो तो तुम सदा झूठे ही रहोगे। बड़ी चीजों में झूठा होना तो और भी सरल है।

अगर तुम छोटी—छोटी चीजों में झूठे हो तो तुम्हें बड़ी चीजों में झूठे होना और भी आसान होगा। क्योंकि बड़ी चीजें प्रदर्शन के लिए होती हैं, वे दूसरों को दिखाने के लिए होती हैं; उनमें तुम बहुत सरलता से झूठे हो सकते हो। अगर संतत्व को आदर मिलता है तो तुम संत बन सकते हो। तब तुम दिखावे के लिए कर रहे हो; तुम प्रदर्शनी की एक चीज भर हो। तुम महात्मा बन सकते हो; क्योंकि वह आदृत है, उससे अहंकार की तृप्ति होती है।

पर यह सब झूठा है। थोड़ी कल्पना करो कि अगर समाज की दृष्टि बदल जाए तो क्या होगा। ऐसी ही बदलाहट जब सोवियत रूस में या चीन में हुई तो तुरंत साधु—महात्मा वहां से विदा हो गए। अब वहा उनके लिए कोई आदर नहीं है।

मुझे याद आता है कि मेरे एक मित्र, जो बौद्ध भिक्षु हैं, स्टैलिन के दिनों में सोवियत रूस गए थे। उन्होंने लौटकर मुझे बताया कि वहा जब भी कोई व्यक्ति उनसे हाथ मिलाता था तो तुरंत झिझककर पीछे हट जाता था और कहता था कि तुम्हारे हाथ बुर्जुआ के, शोषक के हाथ हैं।

उनके हाथ सचमुच सुंदर थे; भिक्षु होकर उन्हें कभी काम नहीं करना पड़ा था। वे फकीर थे, शाही फकीर; उनका श्रम से वास्ता नहीं पड़ा था। उनके हाथ बहुत कोमल, सुंदर और स्त्रैण थे। भारत में जब कोई उनके हाथ छूता तो कहता कि कितने सुंदर हाथ हैं। लेकिन सोवियत रूस में जब कोई उनके हाथ अपने हाथ में लेता तो तुरंत सिकुड़कर पीछे हट जाता, उसकी आंखों में निंदा भर जाती और वह उन्हें कहता कि तुम्हारे हाथ बुर्जुआ के, शोषक के हाथ हैं। वे वापस आकर मुझसे बोले कि मैंने इतना निंदित महसूस किया कि मेरा मन होता था कि मजदूर हो जाऊं।

रूस से साधु—महात्मा विदा हो गए, क्योंकि आदर न रहा। सब साधुता दिखावटी थी, प्रदर्शन की चीज थी। आज रूस में केवल सच्चा संत ही संत हो सकता है। झूठे नकली संतों के लिए वहां कोई गुंजाइश नहीं है। आज तो वहा संत होने के लिए भारी संघर्ष करना पड़ेगा, क्योंकि सारा समाज विरोध में होगा। भारत में तो जीने का सबसे सुगम ढंग साधु—महात्मा होना है, सब लोग आदर देते हैं। यहां तुम झूठे हो सकते हो, क्योंकि उसमें लाभ ही लाभ है।

तो इसे स्मरण रखो। सुबह से ही, जैसे—ही तुम आंख खोलते हो, सच्चे और प्रामाणिक होने की चेष्टा करो। ऐसा कुछ भी मत करो जो झूठ और नकली हो। सिर्फ सात दिन के लिए यह स्मरण बना रहे कि कुछ भी झूठ और नकली, कुछ भी अप्रामाणिक नहीं करना है। जो भी गंवाना पड़े, जो भी खोना पड़े, खो जाए; जो भी होना हो, हो जाए; लेकिन सच्चे बने रही। और सात दिन के भीतर तुम्हारे भीतर नए जीवन का उन्मेष अनुभव होने लगेगा। तुम्हारी मृत पर्तें टूटने लगेंगी, और नयी जीवंत धारा प्रवाहित होने लगेगी। तुम पहली बार पुनर्जीवन अनुभव करोगे, फिर से जीवित हो उठोगे।

कृत्य का पोषण करो, ज्ञान का पोषण करो—यथार्थ में, स्वप्न में नहीं। जो भी करना चाहो करो, लेकिन ध्यान रखो कि यह काम सच में मैं कर रहा हूं या मेरे द्वारा मेरे मां—बाप कर रहे हैं? क्योंकि कब के जा चुके मरे हुए लोग, मृत माता—पिता, समाज, पुरानी पीढ़ियां, सब तुम्हारे भीतर अभी भी सक्रिय हैं। उन्होंने तुम्हारे भीतर ऐसे संस्कार भर दिए हैं कि तुम अब भी उनको ही पूरा करने में लगे हो। तुम्हारे मां—बाप अपने मृत मां—बाप को पूरा करते रहे और तुम अपने मृत मां—बाप को पूरा करने में लगे हो। और आश्चर्य कि कोई भी पूरा नहीं हो रहा है। तुम उसे कैसे पूरा कर सकते हो जो मर चुका? लेकिन मुर्दे तुम्हारे माध्यम से जी रहे हैं।

जब भी तुम कुछ करो तो सदा निरीक्षण करो कि यह मेरे माध्यम से मेरे पिता कर रहे हैं या मैं कर रहा हूं। जब तुम्हें क्रोध आए तो ध्यान दो कि यह मेरा क्रोध है या इसी ढंग से मेरे पिता क्रोध किया करते थे जिसे मैं दोहरा भर रहा हूं।

मैंने देखा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी वही सिलसिला चलता रहता है, पुराने ढंग—ढांचे दोहरते रहते हैं। अगर तुम विवाह करते हो तो वह विवाह करीब—करीब वैसा ही होगा जैसा तुम्हारे मां—बाप का था। तुम अपने पिता की भांति व्यवहार करोगे; तुम्हारी पत्नी अपनी मां की भांति व्यवहार करेगी। और दोनों मिलकर वही सब उपद्रव करोगे जो उन्होंने किया था।

जब क्रोध आए तो गौर से देखो कि मैं क्रोध कर रहा हूं या कि कोई दूसरा व्यक्ति क्रोध कर रहा है? जब तुम प्रेम करो तो याद रखो, तुम ही प्रेम कर रहे हो या कोई और? जब तुम कुछ बोलो तो देखो कि मैं बोल रहा हूं या मेरा शिक्षक बोल रहा है? जब तुम कोई भाव— भंगिमा बनाओ तो देखो कि यह तुम्हारी भंगिमा है या कोई दूसरा ही वहा है?

यह कठिन होगा; लेकिन यही साधना है, यही आध्यात्मिक साधना है। और सारे खो को विदा करो। थोड़े समय के लिए तुम्हें सुस्ती पकड़ेगी, उदासी घेरेगी, क्योंकि तुम्हारे झूठ गिर जाएंगे और सत्य को आने में और प्रतिष्ठित होने में थोड़ा समय लगेगा। अंतराल का एक म् समय होगा; उस समय को भी आने दो। भयभीत मत होओ, आतंकित मत होओ। देर—अबेर तुम्हारे मुखौटे गिर जाएंगे, तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व विलीन हो जाएगा, और उसकी जगह तुम्हारा असली चेहरा, तुम्हारा प्रामाणिक व्यक्तित्व अस्तित्व में आएगा, प्रकट होगा। और उसी प्रामाणिक व्यक्तित्व से तुम ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते हो।

इसीलिए यह सूत्र कहता है :

‘जैसे मुर्गी अपने बच्चों का पालन—पोषण करती है, वैसे ही यथार्थ में विशेष ज्ञान और विशेष कृत्य का पालन—पोषण करो।’

दूसरा सूत्र:

 

यथार्थत: बंधन और मोक्ष सापेक्ष हैं ये केवल विश्व से भयभीत लोगों के लिए हैं यह विश्व मन का प्रतिबिंब है। जैसे तुम पानी में एक सूर्य के अनेक सूर्य देखते हो वैसे ही बंधन और मोक्ष को देखो।

ह बहुत गहरी विधि है; यह गहरी से गहरी विधियों में से एक है। और विरले लोगों ने ही इसका प्रयोग किया है। झेन इसी विधि पर आधारित है। यह विधि बहुत कठिन बात कह रही है—समझने में कठिन, अनुभव करने में कठिन नहीं। किंतु पहले समझना जरूरी है।

यह सूत्र कहता है कि संसार और निर्वाण दो नहीं हैं, वे एक ही हैं। स्वर्ग और नरक दो नहीं हैं, वे एक ही हैं। वैसे ही बंधन और मोक्ष दो नहीं हैं, वे भी एक ही हैं। यह समझना कठिन है, क्योंकि हम किसी चीज को आसानी से तभी सोच पाते हैं जब वह ध्रुवीय विपरीतता में बंटी हो।

हम कहते हैं कि यह संसार बंधन है, इससे कैसे छूटा जाए और मुक्त हुआ जाए? तब मुक्ति कुछ है जो बंधन के विपरीत है, जो बंधन नहीं है। लेकिन यह सूत्र कहता है कि दोनों एक हैं, मोक्ष और बंधन एक हैं। और जब तक तुम दोनों से नहीं मुक्त होते, तुम मुक्त नहीं हो। बंधन तो बांधता ही है, मोक्ष भी बांधता है। बंधन तो गुलामी है ही, मोक्ष भी गुलामी है। इसे समझने की कोशिश करो। उस आदमी को देखो जो बंधन के पार जाने की चेष्टा में लगा है। वह क्या कर रहा है? वह अपना घर छोड देता है, परिवार छोड़ देता है, धन—दौलत छोड़ देता है, संसार की चीजें छोड़ देता है, समाज छोड देता है, ताकि बंधन के बाहर हो सके, संसार की जंजीरों से मुक्त हो सके। लेकिन तब वह अपने लिए नयी जंजीरें गढ़ने लगता है, और वे जंजीरें नकारात्मक हैं, परोक्ष हैं।

मैं एक संत को मिला जो धन नहीं छूते हैं। वे बहुत सम्मानित संत हैं। उनका सम्मान वे लोग जरूर करेंगे जो धन के पीछे पागल हैं। यह व्यक्ति उनके विपरीत ध्रुव पर चला गया है। अगर तुम उनके हाथ में धन रख दो तो वे उसे ऐसे फेंक देंगे जैसे कि वह जहर हो या कि तुमने उनके हाथ पर सांप रख दिया हो। वे उसे फेंक ही नहीं देंगे, वे आतंकित हो उठेंगे। उनका शरीर कांपने लगेगा।

क्या हुआ है? वे धन से लड़ रहे हैं। वे पहले जरूर ही लोभी, अति लोभी व्यक्ति रहे होंगे। तभी वे दूसरी अति पर पहुंच गए। उनकी धन की पकड़ आत्यंतिक रही होगी; वे धन के लिए पागल रहे होंगे; वे धन से ग्रस्त रहे होंगे। वे अब भी धन से ग्रस्त हैं, लेकिन अब उसकी दिशा बदल गई है। वे पहले धन की तरफ भाग रहे थे, अब वे धन से भाग रहे हैं। लेकिन भागना कायम है, पकड़ बनी है।

मैं एक संन्यासी को जानता हूं जो किसी स्त्री को नहीं देख सकते। वे बहुत घबड़ा जाते है। अगर कोई स्‍त्री मौजूद हो तो वे आंखें झुकाए रखते है, वे सीधे नहीं देखते। क्या समस्या है? निश्चित ही, वे अति कामुक रहे होंगे, कामवासना से बहुत ग्रस्त रहे होंगे। वह ग्रस्तता अभी भी जारी है, लेकिन पहले वे स्त्रियों के पीछे भागते थे और अब वे स्त्रियों से दूर भाग रहे हैं। पर स्त्रियों से ग्रस्तता बनी हुई है; चाहे वे स्त्रियों की ओर भाग रहे हों या स्त्रियों से दूर भाग रहे हों, उनका मोह बना ही हुआ है।

वे सोचते हैं कि अब वे स्त्रियों से मुक्त हैं, लेकिन यह एक नया बंधन है। तुम प्रतिक्रिया करके मुक्त नहीं हो सकते। जिस चीज से तुम भागोगे वह पीछे के रास्ते से तुम्हें बांध लेगी; उससे तुम बच नहीं सकते। यदि कोई व्यक्ति संसार के विरोध में मुक्त होना चाहता है तो वह कभी मुक्त नहीं हो सकता, वह संसार में ही रहेगा। किसी चीज के विरोध में होना भी एक बंधन है।

यह सूत्र बहुत गहरा है। यह कहता है. ‘यथार्थत: बंधन और मोक्ष सापेक्ष हैं…..।’

वे विपरीत नहीं, सापेक्ष हैं। मोक्ष क्या है? तुम कहते हो, जो बंधन नहीं है वह मोक्ष है। और बंधन क्या है? तब तुम कहते हो, जो मोक्ष नहीं है वह बंधन है। तुम एक—दूसरे से उनकी परिभाषा कर सकते हो। वे गर्मी और ठंडक की भांति हैं; विपरीत नहीं हैं। गर्मी क्या है और ठंडक क्या है? वे एक ही चीज की कम—ज्यादा मात्राएं हैं—ताप की मात्राएं हैं। लेकिन चीज एक ही है, गर्मी और ठंडक सापेक्ष हैं।

अगर एक बाल्टी में ठंडा पानी हो और दूसरी बाल्टी में गर्म पानी हो, और तुम अपना एक हाथ ठंडे पानी की बाल्टी में डालो और दूसरा हाथ गर्म पानी की बाल्टी में, तो तुम्हें क्या अनुभव होगा? तुम्हें जो अनुभव होगा वह बस ताप की मात्रा का फर्क होगा। और अगर तुम पहले दोनों हाथों को बर्फ पर रखकर ठंडा कर लो और तब उनमें से एक को गरम पानी में डालो और दूसरे को ठंडे पानी में, तब क्या होगा? तब फिर तुम्हें फर्क मालूम पड़ेगा। गर्म पानी में पड़ा हाथ पहले से ज्यादा गर्मी महसूस करेगा। और अगर तुम्हारा दूसरा हाथ ठंडे पानी से भी ज्यादा ठंडा हो चुका है तो उसे ठंडा पानी भी गर्म मालूम पडेगा। ठंडा पानी उस हाथ के लिए ठंडा न रहा। बात सापेक्ष है। फर्क मात्रा का, डिग्री का है; चीज वही है।

तंत्र कहता है, बंधन और मोक्ष, संसार और निर्वाण दो चीजें नहीं हैं; वे सापेक्ष हैं, वे एक ही चीज की दो अवस्थाएं हैं। इसीलिए तंत्र अनूठा है। तंत्र कहता है कि तुम्हें बंधन से ही मुक्त नहीं होना है, तुम्हें मोक्ष से भी मुक्त होना है। जब तक तुम दोनों से मुक्त नहीं होते, तुम मुक्त नहीं हो।

तो पहली बात कि किसी भी चीज के विरोध में जाने की कोशिश मत करो, क्योंकि ऐसा करके तुम उसी चीज की किसी भिन्न अवस्था में प्रवेश कर जाओगे। वह विपरीत दिखाई पड़ता है, लेकिन विपरीत है नहीं। कामवासना से ब्रह्मचर्य में जाने की चेष्टा करोगे तो तुम्हारा ब्रह्मचर्य कामुकता के सिवाय और कुछ नहीं होगा। लोभ से अलोभ में जाने की चेष्टा मत करो, क्योंकि वह अलोभ भी सूक्ष्म लोभ ही होगा। इसीलिए अगर कोई परंपरा अलोभ सिखाती तो उसमें भी वह तुम्हें कुछ लालच देती है।

मैं एक महात्मा के साथ ठहरा हुआ था। और वे अपने अनुयायियों को समझा रहे थे: ‘अगर तुम लोभ छोड़ दोगे तो तुम्हें परलोक में बहुत मिलेगा। यदि तुम लोभ को त्याग दोगे तो दूसरे लोक में तुम्हें बहुत कुछ मिलेगा।’

जो लोग लोभी है, परलोक के लोभी है, वे इस उपदेश से बहुत प्रभावित होंगे। वे इसके लालच में बहुत कुछ छोड़ने को भी तैयार हो जाएंगे। लेकिन पाने की प्रवृत्ति, पाने की चाह बनी रहती है। अन्यथा लोभी आदमी अलोभ की तरफ क्यों जाएगा? उसके लोभ की सूक्ष्म तृप्ति के लिए कुछ अभिप्राय, कुछ हेतु तो चाहिए ही।

तो विपरीत ध्रुवों का निर्माण मत करो। सभी विपरीतताए परस्पर जुड़ी हैं; वे एक ही चीज की भिन्न—भिन्न मात्राएं हैं। और अगर तुम्हें इसका बोध हो जाए तो तुम कहोगे कि दोनों ध्रुव एक हैं। अगर तुम यह अनुभव कर सके, और अगर यह अनुभव तुम्हारे भीतर गहरा हो सके, तो तुम दोनों से मुक्त हो जाओगे। तब तुम न संसार चाहते हो न मोक्ष। वस्तुत: तब तुम कुछ भी नहीं चाहते हो; तुमने चाहना ही छोड दिया। और उस छोड़ने में ही तुम मुक्त हो गए। इस भाव में ही कि सब कुछ समान है, भविष्य गिर गया। अब तुम कहां जाओगे?

यदि कामवासना और ब्रह्मचर्य एक ही हैं, तो कहां जाना है? यदि लोभ और अलोभ एक ही हैं, हिंसा और अहिंसा एक ही हैं, तो फिर जाना कहा है? कहीं जाने को न बचा। सारी गति समाप्त हुई; भविष्य ही न रहा। तब तुम किसी चीज की भी कामना, कोई भी कामना नहीं कर सकते, क्योंकि सब कामनाएं एक ही हैं। फर्क केवल परिमाण का होगा। तुम क्या कामना करोगे? तुम क्या चाहोगे?

कभी—कभी मैं लोगों से पूछता हूं जब वे मेरे पास आते हैं, मैं पूछता हूं : ‘सच में तुम क्या चाहते हो?’ उनकी चाह उनसे ही पैदा होती है। वे जैसे हैं उसमें ही उसकी जड़ होती है। अगर कोई लोभी है तो वह अलोभ की चाह करता है। अगर कोई कामी है तो वह ब्रह्मचर्य की कामना करता है। कामी कामवासना से छूटना चाहता है, क्योंकि वह उससे पीड़ित है, दुखी है। लेकिन ब्रह्मचर्य की इस कामना की जड़ उसकी कामुकता में ही है।

लोग पूछते हैं : ‘इस संसार से कैसे छूटा जाए?’

संसार उन पर बहुत भारी पड़ रहा है। वे संसार के बोझ के नीचे दबे जा रहे हैं। और वे संसार से बुरी तरह चिपके भी हैं, क्योंकि जब तक तुम संसार से चिपकते नहीं हो तब तक संसार तुम्हें बोझिल नहीं कर सकता। यह बोझ तुम्हारे सिर में है; और उसका कारण तुम हो, बोझ नहीं। तुम इसे ढो रहे हो। और लोग सारा संसार उठाए हैं; और फिर वे दुखी होते हैं। और दुख के इसी अनुभव से विपरीत कामना का उदय होता है, और वे विपरीत के लिए लालायित हो उठते हैं।

पहले वे धन के पीछे भाग रहे थे, अब वे ध्यान के पीछे भाग रहे हैं। पहले वे इस लोक में कुछ पाने के लिए भाग—दौड़ कर रहे थे; अब वे परलोक में कुछ पाने के लिए भाग—दौड़ कर रहे हैं। लेकिन भाग—दौड़ जारी है। और भाग—दौड़ ही समस्या है, विषय अप्रासंगिक है। कामना समस्या है; चाह समस्या है। तुम क्या चाहते हो, यह अर्थपूर्ण नहीं है; तुम चाहते हो, यह समस्या है।

और तुम चाह के विषय बदलते रहते हो। आज तुम ‘क’ चाहते हो, कल ‘ख’ चाहते हो, और तुम समझते हो कि मैं बदल रहा हूं। और फिर परसों तुम ‘ग’ की चाह करते हो, और तुम सोचते हो कि मैं रूपांतरित हो गया। लेकिन तुम वही हो। तुमने ‘क’ की चाह की, तुमने ‘ख’ की चाह की, तुमने ‘ग’ की चाह की; लेकिन यह क—ख—ग तुम नहीं हो; तुम तो वह हो जो चाहता है, जो कामना करता है। और वह वही का वही रहता है।

तुम बंधन चाहते हो और फिर उससे निराश हो जाते हो, ऊब जाते हो। और तब तुम मोक्ष की कामना करने लगते हो। लेकिन तुम कामना करना जारी रखते हो। और कामना बंधन है; इसलिए तुम मोक्ष की कामना नहीं कर सकते। चाह ही बंधन है; इसलिए तुम मोक्ष नहीं चाह सकते। जब कामना विसर्जित होती है तो मोक्ष है; चाह का छूट जाना मोक्ष है।.

इसीलिए यह सूत्र कहता है : ‘यथार्थत: बंधन और मोक्ष सापेक्ष हैं।’

तो विपरीत से ग्रस्त मत होओ।

‘ये केवल विश्व से भयभीत लोगों के लिए हैं।’

बंधन और मोक्ष, ये शब्द उनके लिए हैं जो विश्व से भयभीत हैं।

‘यह विश्व मन का प्रतिबिंब है।’

तुम संसार में जो कुछ देखते हो वह प्रतिबिंब है। अगर वह बंधन जैसा दिखता है तो उसका मतलब है कि वह तुम्हारा प्रतिबिंब है। और अगर यह विश्व मुक्ति जैसा दिखता है तो भी वह तुम्हारा प्रतिबिंब है।

‘जैसे तुम पानी में एक सूर्य के अनेक सूर्य देखते हो, वैसे ही बंधन और मोक्ष को देखो।’

सुबह सूरज उगता है। और सरोवर अनेक हैं—बड़े और छोटे, शुद्ध और गंदे, सुंदर और कुरूप। एक ही सूरज इन अनेक सरोवरों में प्रतिबिंबित होता है। जो व्यक्ति प्रतिबिंबों को गिनेगा वह सोचेगा कि सूर्य अनेक हैं। और जो प्रतिबिंबों को न देखकर यथार्थ को देखेगा उसे एक सूर्य ही दिखेगा।

जिस संसार को तुम देखते हो वह तुम्हारा प्रतिबिंब है। अगर तुम कामुक हो तो सारा संसार तुम्हें कामुक मालूम पड़ेगा। और अगर तुम चोर हो तो सारा संसार तुम्हें उसी धंधे में संलग्न मालूम पड़ेगा।

एक बार मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी, दोनों मछली पकड़ रहे थे। और वह जगह प्रतिबंधित थी, केवल लाइसेंस लेकर ही लोग वहां मछली पकड सकते थे। अचानक एक पुलिस का सिपाही वहा आ गया। मुल्ला की पत्नी ने कहा. ‘मुल्ला, तुम्हारे पास लाइसेंस है, तुम भागों; इस बीच मैं यहां से खिसक जाऊंगी।’ मुल्ला भागने लगा। वह भागता गया, भागता गया और सिपाही उसका पीछा करता रहा। मुल्ला ने अपनी पत्नी को वहीं छोड़ दिया और भागने लगा।

दौड़ते—दौड़ते मुल्ला को ऐसा लगा कि उसकी छाती फट जाएगी। तभी उस सिपाही ने उसे पकड़ लिया; सिपाही भी पसीने से तरबतर था। उसने मुल्ला से पूछा : ‘तुम्हारा लाइसेंस कहां है?’ मुल्ला ने लाइसेंस निकाल कर दिखाया। सिपाही ने गौर से लाइसेंस को देखा और उसे सही पाया। और तब उसने पूछा : ‘नसरुद्दीन, फिर तुम भाग क्यों रहे थे? तुम्हारे पास लाइसेंस था तो तुम भाग क्यों रहे थे?’

मुल्ला ने कहा : ‘मैं एक डाक्टर के पास जाता हूं और वह कहता है कि भोजन के बाद आधा मील दौड़ा करो।’ सिपाही ने कहा. ‘ठीक है; लेकिन जब तुमने देखा कि मैं तुम्हारे पीछे भाग रहा हूं चिल्ला रहा हूं तब तुम क्यों नहीं रुके?’ नसरुद्दीन ने कहा : ‘मैं समझा कि शायद तुम भी उसी डाक्टर के पास जाते हो।’

बिलकुल तर्कसंगत है; यही हो रहा है। तुम अपने चारों तरफ जो कुछ देखते हो वह तुम्हारा प्रतिबिंब ज्यादा है, यथार्थ कम। तुम अपने को ही सब जगह प्रतिबिंबित देख रहे हो। और जिस क्षण तुम बदलते हो, तुम्हारा प्रतिबिंब भी बदल जाता है। और जिस क्षण तुम समग्रत: मौन हो जाते हो, शांत हो जाते हो, सारा संसार भी शात हो जाता है। संसार बंधन नहीं है; बंधन केवल एक प्रतिबिंब है। संसार मोक्ष भी नहीं है, मोक्ष भी प्रतिबिंब है। बुद्ध को सारा संसार निर्वाण में दिखाई पड़ता है। कृष्ण को सारा जगत नाचता—गाता, आनंद में, उत्सव मनाता हुआ दिखाई पड़ता है। उन्हें कहीं कोई दुख नहीं दिखाई पड़ता है।

लेकिन तंत्र कहता है कि तुम जो भी देखते हो वह प्रतिबिंब ही है, जब तक सारे दृश्य नहीं विदा हो जाते और शुद्ध दर्पण नहीं बचता—प्रतिबिबरहित दर्पण। वही सत्य है। अगर कुछ भी दिखाई देता है तो वह प्रतिबिंब ही है। सत्य एक है; अनेक तो प्रतिबिंब ही हो सकते हैं। और एक बार यह समझ में आ जाए—सिद्धांत के रूप में नहीं, अस्तित्वगत, अनुभव के द्वारा—तो तुम मुक्त हो, बंधन और मोक्ष दोनों से मुक्त हो।

नरोपा जब बुद्धत्व को उपलब्ध हुए तो किसी ने उनसे पूछा. ‘क्या आपने मोक्ष को प्राप्त कर लिया?’ नरोपा ने कहा. ‘हां और नहीं दोनों। हां, क्योंकि मैं बंधन में नहीं हूं; और नहीं, क्योंकि वह मोक्ष भी बंधन का ही प्रतिबिंब था। मैं बंधन के कारण ही मोक्ष की सोचता था।’

इसे इस ढंग से देखो। जब तुम बीमार होते हो तो स्वास्थ्य की कामना करते हो। यह स्वास्थ्य की कामना तुम्हारी बीमारी का ही अंग है। अगर तुम स्वस्थ ही हो तो तुम स्वास्थ्य की कामना नहीं करोगे। कैसे करोगे? अगर तुम सच में स्वस्थ हो तो फिर स्वास्थ्य की चाह कहां है? उसकी जरूरत क्या है?

अगर तुम यथार्थत: स्वस्थ हो तो तुम्हें कभी यह महसूस नहीं होता है कि मैं स्वस्थ हूं। सिर्फ बीमार, रोगग्रस्त लोग ही महसूस कर सकते हैं कि हम स्वस्थ हैं। उसकी जरूरत क्या है? तुम कैसे महसूस कर सकते हो कि तुम स्वस्थ हो? अगर तुम स्वस्थ ही पैदा हुए, अगर तुम कभी बीमार नहीं हुए, तो क्या तुम अपने स्वास्थ्य को महसूस कर सकोगे?

स्वास्थ्य तो है, लेकिन उसका अहसास नहीं हो सकता। उसका अहसास तो विपरीत के द्वारा, विरोधी के द्वारा ही हो सकता है। विपरीत के द्वारा ही, उसकी पृष्ठभुमि में ही किसी चीज का अनुभव होता है। अगर तुम बीमार हो तो स्वास्थ्य का अनुभव कर सकते हो; और अगर तुम्हें स्वास्थ्य का अनुभव हो रहा है तो निश्चित जानो कि तुम अब भी बीमार हो।

तो नरोपा ने कहा ‘ही और नहीं दोनों। ही इसलिए कि अब कोई बंधन नहीं रहा, और नहीं इसलिए कि बंधन के जाने के साथ मुक्ति भी विलीन हो गई। मुक्ति बंधन का ही हिस्सा थी। अब मैं दोनों के पार हूं न बंधन में हूं और न मोक्ष में।’

धर्म को चाह मत बनाओ। धर्म को कामना मत बनाओ। मोक्ष को, निर्वाण को कामना का विषय मत बनाओ। वह तभी घटित होता है जब सारी कामनाएं खो जाती हैं।

आज इतना ही।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–3)–प्रवचन–46

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समझ और समग्रता कुंजी है—(प्रवचन—छियालीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—मोक्ष की आकांक्षा कामना है या मनुष्‍य की मुलभूत अभीप्‍सा?

      2—हिंसा और क्रोध जैसे कृत्‍यों में समग्र रहकर कोई

कैसे रूपांतरित हो सकता है?

      3—क्‍या आप बुद्धपुरूषों की नींद की गुणवत्‍ता और

            स्‍वभाव पर कुछ कहेंगे?

पहला प्रश्न :

 

समझ और आपने कल कहा कि मोक्ष या समाधि की कामना भी तनाव और बाधा है। लेकिन क्या यह सही नहीं है कि यह कामना न होकर आकांक्षा है, मनुष्‍य की मूलभूत अभीप्‍सा है?

 

ह समझना जरूरी है कि कामना क्या है, चाह क्या है। धर्मों ने इस संबंध में लोगों में बहुत भ्रम पैदा कर रखा है। अगर तुम कोई सांसारिक चीज चाहते हो, तो वे इसे कामना कहते हैं, वासना कहते हैं। और अगर तुम कोई परलोक की चीज चाहते हो तो वे उसे भिन्न नाम से पुकारते हैं। यह बहुत बेतुका है, अनर्गल है। कामना कामना है; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका विषय क्या है। विषय कुछ भी हो सकता है—चाहे इस लोक का हो, पार्थिव हो, या परलोक का हो, आध्यात्मिक हो—लेकिन कामना वही रहती है।

और प्रत्येक कामना बंधन है, प्रत्येक चाह बंधन है। यदि तुम ईश्वर को चाहते हो तो वह भी बंधन है। मोक्ष की कामना भी बंधन है। और जब तक यह कामना पूरी तरह विदा नहीं होती तब तक मोक्ष नहीं घटित हो सकता। स्मरण रहे, तुम मोक्ष की कामना नहीं कर सकते। यह असंभव है; यह विरोधाभासी है। तुम निष्काम हो जाओ, और मोक्ष घटित होगा। लेकिन मोक्ष तुम्हारी कामना का फल नहीं है, वह निष्काम होने का सहज परिणाम है।

अत: कामना को समझने की कोशिश करो। कामना का अर्थ है कि ठीक अभी, वर्तमान में तुम संतुष्ट नहीं हो, तुम तृप्त नहीं हो। इस क्षण तुम्हें अपने साथ तृप्ति नहीं मिल रही है, और तुम सोचते हो कि भविष्य में कोई चीज—यदि वह फलीभूत हो—तुम्हें शाति देने वाली है, तृप्ति देने वाली है। तुम्हारी तृप्ति सदा भविष्य में होती है; वह कभी यहां और अभी नहीं होती। भविष्य के प्रति मन का यह खिंचाव, यह फैलाव, यह तनाव ही कामना है। कामना का अर्थ है कि तुम वर्तमान में नहीं हो। और जो कुछ है वह वर्तमान में है। और तुम कहीं भविष्य में हो जो कि अभी नहीं है। भविष्य न कभी आया है, न कभी आने वाला है। और जो कुछ भी है सब वर्तमान है, यही क्षण है।

भविष्य में कहीं तृप्ति की कल्पना ही कामना है। वह तृप्ति क्या है, इससे मतलब नहीं है। वह ईश्वर का राज्य हो सकता है, स्वर्ग हो सकता है या निर्वाण हो सकता है, वह कुछ भी हो सकता है; लेकिन अगर भविष्य में है तो वह कामना है। और स्मरण रहे, तुम वर्तमान में कामना नहीं कर सकते; वह संभव नहीं है। वर्तमान में तुम सिर्फ हो सकते हो; तुम कामना नहीं कर सकते। वर्तमान में कामना कैसे कर सकते हो? कामना भविष्‍य में, कल्‍पना में और स्‍वप्‍न में ले जाती है।

इसीलिए बुद्ध निर्वासना पर इतना जोर देते हैं। निर्वासना से ही तुम सत्य में प्रवेश पा सकते हो। वासना स्वप्न में ले जाती है, भविष्य स्वप्न है। और जब तुम भविष्य में सपने देखने लगते हो तो तुम्हें निराशा ही हाथ लगेगी। तुम भविष्य के स्‍वप्‍नों के लिए वर्तमान वास्तविकता के प्रति आंखें बंद कर रहे हो। और मन की यह तुम्हारी आदत रोज—रोज बलशाली होती जाएगी; और यह आदत तुम्हारे साथ रहेगी। तो जब भविष्य आएगा वह वर्तमान के रूप में ही आएगा, और तुम्हारा मन किसी और भविष्य में गति कर जाएगा। अगर तुम्हें ईश्वर भी मिल जाए तो भी तुम संतुष्ट नहीं होगे। तुम जैसे हो उसमें संतुष्ट होना असंभव है। परमात्मा की उपस्थिति में भी तुम किसी भविष्य में सरक जाओगे।

तुम्हारा मन सदा भविष्य में गति करता रहता है। और मन की भविष्य में यह यात्रा ही कामना है, इच्छा है, चाह है। कामना का विषय से कोई लेना—देना नहीं है; तुम धन चाहते हो या ध्यान, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। चाहना असली बात है; असली बात है कि तुम कुछ चाहते हो। उसका अर्थ है कि तुम यहां नहीं हो। उसका अर्थ है कि तुम वर्तमान क्षण में नहीं हो। और वर्तमान क्षण ही अस्तित्व का एकमात्र द्वार है। अतीत और भविष्य द्वार नहीं, दीवारें हैं। तो मैं किसी कामना को आध्यात्मिक कामना नहीं कह सकता; कामना मात्र सांसारिक है। कामना ही संसार है। आध्यात्मिक कामना जैसी कोई चीज नहीं होती; हो नहीं सकती। यह मन की चालाकी है, यह प्रवंचना है। क्योंकि तुम कामना नहीं छोड़ सकते इसलिए तुम उसके विषय बदल लेते हो।

पहले तुम धन चाहते थे, पद—प्रतिष्ठा चाहते थे, अब तुम कहते हो कि तुम्हें उनकी कामना नहीं रही, वे सांसारिक चीजें हैं। अब तुम उनकी निंदा करते हो और तुम्हारी नजर में वे लोग निंदित हैं जो धन या पद चाहते हैं। अब तुम ईश्वर को चाहते हो, अब तुम ईश्वर के राज्य की, मोक्ष और निर्वाण की, शाश्वत और सच्चिदानंद की, ब्रह्म की कामना करते हो। अब तुम इन्हें चाहते हो और सोचते हो कि बड़ी बात हो गई, कि मैं रूपांतरित हो गया।

लेकिन सच तो यह है कि तुम्हें कुछ नहीं हुआ है, तुम वही के वही हो। तुम अपने साथ भी चाल चल रहे हो। और अब तुम ज्यादा उपद्रव में हो, क्योंकि तुम सोचते हो कि यह कामना नहीं है। तुम वही रहते हो; मन वही रहता है, मन का सारा व्यापार वही रहता है। तुम अभी भी वर्तमान में नहीं हो। कामना के विषय बदल गए हैं; लेकिन दौड़ जारी है, सपने कायम हैं। और सपने देखना ही कामना है, विषय से मतलब नहीं है।

तो मुझे समझने की कोशिश करो। मैं कहता हूं कि हरेक चाह सांसारिक है, क्योंकि चाह ही संसार है। सवाल यह नहीं है कि कामना को बदला जाए या उसके विषयों को बदला जाए; सवाल रूपांतरण का है। सवाल चाह से अचाह में छलांग का है, क्रांति का है। पुरानी चाह से नई चाह में, लौकिक चाह से पारलौकिक चाह में, पार्थिव चाह से आध्यात्मिक चाह में गति करने की बात नहीं है; बात है चाह से अचाह में छलांग लेने की। चाह से अचाह में छलांग ही क्रांति है।

लेकिन चाह से अचाह में गति कैसे हो? तुम तभी गति कर सकते हो जब कोई चाह हो। अगर कोई लाभ की प्रेरणा हो, कुछ लोभ हो, कुछ प्रयोजन हो, कुछ प्राप्ति की बात हो, तो ही तुम चाह से अचार में जा सकते हो। लेकिन तब तुम कहीं नहीं जा रहे हो। मैं कहता हूं, कि कामना छोड़ने से परम आनंद मिलता है। और यह बात सही है कि कामना के विदा होने से परम आनंद घटित होता है। लेकिन अगर मैं कहूं कि तुम निष्काम होकर परम आनंद को उपलब्ध होंगे तो तुम इसको भी अपनी कामना का विषय बना लोगे। और तब तुम पूरी बात ही चूक गए। यह फल नहीं है; यह गहन बोध का परिणाम है।

तो समझने की चेष्टा करो कि कामना दुख लाती है। और ऐसा मत सोचो कि मैं यह पहले से जानता हूं। तुम नहीं जानते हो। अन्यथा तुम कामना में क्यों पड़ते? तुम्हें अभी यह बोध नहीं हुआ है कि कामना दुख है, कामना नरक है। इसे जानो; जब तुम कोई कामना करो तो उसके प्रति सावचेत रहो, और फिर पूरे होशपूर्वक कामना में उतरो, और तुम नरक में पहुंच जाओगे।

प्रत्येक कामना दुख में ले जाती है, चाहे वह पूरी हो या न हो। अगर कामना पूरी हो जाए तो वह जल्दी दुख में ले जाती है, अतृप्त कामना समय लेती है। लेकिन हर कामना दुख में पहुंचा देती है। उसकी पूरी प्रक्रिया के प्रति सावधान रहो, और तब उसमें उतरी। जल्दी क्या है? जल्दी में कुछ भी संभव नहीं है। आध्यात्मिक विकास जल्दी में संभव नहीं है। धीरे— धीरे चलो, धैर्य के साथ चलो। अपनी प्रत्येक आकांक्षा का निरीक्षण करो और देखो कि कैसे हर आकांक्षा नरक का द्वार बन जाती है।

अगर तुम सावचेत रहे तो देर— अबेर तुम्हें यह बात समझ में आ जाएगी कि कामना नरक है। और जिस घड़ी यह बोध घटित होगा, कामना समाप्त हो जाएगी। अचानक कामना विलीन हो जाएगी, और तुम अपने को अकाम अवस्था में पाओगे। मैं उसे कामना—रहितता नहीं कहता, मैं उसे सीधा अकाम कहता हूं।

और स्मरण रहे, तुम इसका अभ्यास नहीं कर सकते। अभ्यास तो केवल कामना का हो सकता है। तुम अकाम का अभ्यास कैसे कर सकते हो? तुम निष्कामना को नहीं साध सकते; केवल कामना साधी जा सकती है। लेकिन यदि तुम सचेत हो तो तुम जान जाओगे कि कामना नरक में पहुंचा देती है। और जब यह तुम्हारी अपनी अनुभूति होगी—कोई सिद्धांत या मान्यता नहीं, बल्कि स्वानुभूत तथ्य कि प्रत्येक कामना नरक में ले जाती है—तो कामना विलीन हो जाएगी, असंभव हो जाएगी। तुम अपने को दुख में कैसे ले जाओगे?

तुम सोचते तो सदा यही हो कि मैं अपने को सुख में ले जा रहा हूं और रू सदा दुख में पहुंच जाते हो। यही जन्मों—जन्मों से हो .रहा है। तुम सदा सोचते हो कि यह रहा स्वर्ग का द्वार, और उसमें प्रवेश करने पर तुम्हें सदा पता चला है कि यह तो नरक है। और ऐसा निरपवाद रूप से होता आया है, सदा—सदा से होता आया है।

अब तुम प्रत्येक कामना में स्मरणपूर्वक, होश के साथ प्रवेश करो, और प्रत्येक कामना को तुम्हें दुख में ले जाने दो। तब किसी दिन अचानक तुम्हें यह समझ आएगी, तुम्हें यह परिपक्वता घटित होगी, और तुम समझोगे कि प्रत्येक कामना दुख है। और जिस क्षण तुम्हें यह बोध होता है, कामना गिर जाती है। तब कुछ करना नहीं पड़ता है; कामना अपने आप ही तिरोहित हो जाती है, सूखे पत्ते की भांति गिर जाती है। तब तुम अकाम की अवस्था में होते

हो। और उसी अकाम अवस्‍था में निर्वाण है, परम आनंद है। तुम उसे परमात्मा कह सकते हो,

परमात्मा का राज्य कह सकते हो, या जो भी नाम देना चाहो दे सकते हो। लेकिन ठीक से स्मरण रखो कि यह तुम्हारी कामना का फल नहीं है, यह अकाम का सहज परिणाम है।

और ध्यान रहे, अकाम का अभ्यास नहीं किया जा सकता है। जो अकाम का अभ्यास करते हैं वे अपने को ही धोखा दे रहे हैं। सारी दुनिया में ऐसे अनेक लोग हैं, भिक्षु हैं, संन्यासी हैं, जो निष्काम होने का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन तुम निष्काम होने का अभ्यास नहीं कर सकते; किसी भी नकारात्मक चीज का अभ्यास नहीं हो सकता है। जो निष्काम की साधना करते हैं वे भीतर— भीतर कामना ही कर रहे हैं। वे परमात्मा की कामना कर रहे हैं; वे उस शाति की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो उन्हें साधना से प्राप्त होने वाली है, वे उस आनंद की राह देख रहे हैं जो मृत्यु के बाद कहीं भविष्य में उन्हें उपलब्ध होने वाला है।

वे कामना ही कर रहे हैं, और वे अपनी कामना को आध्यात्मिक कामना कह रहे हैं। तुम अपने को बहुत आसानी से धोखा दे सकते हो। शब्द बहुत धोखेबाज होते हैं। तुम चीजों को तर्कसंगत बना सकते हो, उन्हें बुद्धि का समर्थन दे सकते हो। तुम जहर को अमृत कह सकते हो, और जब तुम उसे अमृत कहते हो तो वह अमृत प्रतीत होने लगता है। तो शब्द सम्मोहित करते हैं, यह एक बात हुई। लेकिन यह भाव, यह अनुभूति कि कामना दुख है, तुम्हारी अपनी होनी चाहिए।

मेरी स्टीवेंस ने कहीं लिखा है कि वह अपने एक मित्र को मिलने उसके घर गई थी। मित्र की बेटी अंधी थी। लेकिन मेरी स्टीवेंस को यह देखकर बहुत हैरानी हुई कि वह अंधी लड़की अक्सर कह बैठती थी ‘वह आदमी कुरूप है, मैं उसे पसंद नहीं करती,’ या कि ‘इस पोशाक का रंग बहुत सुंदर है।’ चूकि वह अंधी थी, स्टीवेंस ने उससे पूछा कि तुम कैसे समझती हो कि कोई व्यक्ति कुरूप है या कोई रंग सुंदर है? लड़की ने जवाब दिया कि मेरी बहिनें ये बातें बताती रहती हैं।

यह ज्ञान है। बुद्ध ने कहा कि तृष्णा दुख है, और तुम उसे दोहरा रहे हो। यह ज्ञान है। तुम कामना कर रहे हो, और तुमने कभी स्वयं नहीं जाना कि कामना दुख है। तुमने बस बुद्ध को सुना है। उससे काम नहीं चलेगा। तुम सिर्फ अपना जीवन और अवसर गंवा रहे हो। तुम्हारा अपना अनुभव ही तुम्हें बदल सकता है; कोई दूसरी चीज तुम्हें नहीं बदल सकती। ज्ञान उधार नहीं लिया जा सकता; उधार ज्ञान धोखा है। वह ज्ञान जैसा दिखाई पड़ता है; लेकिन वह शान नहीं है।

लेकिन क्यों हम किसी बुद्ध या किसी जीसस का अनुगमन करते हैं? क्यों? इसका कारण हमारा लोभ है। हम बुद्ध की आंखों को देखते हैं; वे इतनी शात हैं कि हममें लोभ पैदा होता है, कामना पैदा होती है कि कैसे हमें वह शाति प्राप्त हो जाए। बुद्ध इतने आनंदित हैं; उनका प्रत्येक क्षण समाधि में है। यह देखकर हमें लगता है कि हम कैसे बुद्ध जैसे हों। हम भी अपने लिए उस अवस्था की आकांक्षा करने लगते हैं।

और तब हम पूछने लगते हैं कि बुद्ध को यह अवस्था कैसे प्राप्त हुई? और यही ‘कैसे’ अनेक समस्याएं खड़ी करता है। बुद्ध कहेंगे कि यह शाति, यह आनंद निष्काम में घटित होता है। और बुद्ध ठीक कहते हैं; यह उन्हें निष्काम में ही घटित हुआ है। लेकिन जब हम सुनते हैं कि निष्काम में यह घटित हुआ तो हम निष्काम होने का अभ्यास करने लगते हैं, हम कामनाओं को छोड़ने का प्रयत्न करने लगते हैं।

लेकिन बुद्ध जैसे होने का यह सारा प्रयत्न कामना ही तो है। बुद्ध किसी दूसरे जैसे होने की चेष्टा नहीं कर रहे थे। वे किसी से बुद्ध होने के लिए नहीं पूछ रहे थे। वे केवल अपने दुख को समझने की चेष्टा कर रहे थे। और जैसे—जैसे उनकी समझ बढ़ती गई, वैसे—वैसे उनका दुख विलीन होता गया। और एक दिन वे समझ गए कि कामना विष है।

अगर तुम्हें कोई भी चाह है तो तुम पकड़े गए; अब कभी तुम्हारे सुखी होने की संभावना न रही। अब तुम सिर्फ आशा कर सकते हो; आशा करो और निराशा हाथ लगेगी। फिर और आशा और निराशा, यह चक्र चलता रहेगा। जब तुम और निराश होते हो तो तुम और आशा करने लगते हो, क्योंकि वही एकमात्र सांत्वना है। तुम भविष्य में भागने लगते हो, क्योंकि वर्तमान में तो सदा निराशा ही मिलती है।

और यह निराशा तुम्हारे अतीत के कारण आ रही है। जो अभी वर्तमान है वह अतीत में तुम्हारा भविष्य था, और तुमने आशा की थी। अब यह निराशा है। अब तुम फिर भविष्य के लिए आशा करने लगोगे। और जब वह वर्तमान बनेगा तो तुम फिर निराश होओगे। तब तुम फिर आशा करोगे। फिर और निराशा होगी तो और आशा करोगे; जितनी अधिक आशा करोगे, उतनी अधिक निराशा आती रहेगी। यह दुष्टचक्र है; यही संसार चक्र है।

लेकिन कोई बुद्ध तुम्हें अपनी आंखें नहीं दे सकते हैं। और यह शुभ है कि वे तुम्हें अपनी आंखें नहीं दे सकते; अन्यथा तुम हमेशा नकली बने रहोगे, झूठे बने रहोगे। तब तुम कभी प्रामाणिक नहीं हो सकोगे। दुख से गुजरना अच्छा है, क्योंकि दुख से गुजर कर ही तुम प्रामाणिक हो सकते हो, सच्चे हो सकते हो।

तो पहली बात कि अपनी कामनाओं को जीओ, ताकि तुम समझ सको कि वे यथार्थत: क्या हैं। उनमें जो भी दुख छिपा है, उससे गुजरो, उसे अनुभव करो, उसे प्रकट होने दो। वही तपश्चर्या है—एकमात्र तपश्चर्या।

नरोपा ने कहा है कि अगर तुम सावचेत, होशपूर्ण रह सको तो प्रत्येक कामना निर्वाण में पहुंचा देती है।

इसका यही अर्थ है; वह निर्वाण में इसीलिए पहुंचा देती है क्योंकि तुम सावचेत होकर जान लेते हो कि प्रत्येक कामना दुख है। और जब तुम कामना को अच्छी तरह देख लेते हो, समझ लेते हो तो तुम अचानक ठहर जाते हो। और उसी ठहरने में घटना घटती है। वह घटना तो सदा मौजूद है, और वह सदा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, वर्तमान में तुमसे मिलने की राह देख रही है। लेकिन तुम कभी वर्तमान में नहीं होते; तुम सदा सपने देखते रहते हो।

सत्य ही तुम्हें सम्हाले हुए है। सत्य के कारण तुम जीवित हो; सत्य के कारण ही तुम हो। लेकिन तुम सदा असत्य में सरकते रहते हो। असत्य बहुत सम्मोहक है।

मैने एक यहूदी मजाक सुना है। अनेक वर्षों के बाद दो मित्र मिले। एक ने दूसरे से पूछा : ‘मैं पच्चीस वर्षों बाद तुमसे मिल रहा हूं तुम्हारा बेटा कैसा है? हैरी कैसा है?’ दूसरे ने कहा : ‘वह बेटा कवि हो गया है; वह बड़ा कवि है। पूरे देश में उसकी आवाज सुनी जाती है,

उसके गीत गाए जाते हैं। और जो लोग कविता समझते हैं वे कहते हैं कि देर—अबेर वह नोबल पुरस्कार छ वाला।’

मित्र ने कहा : ‘बहुत खूब! और अपने दूसरे बेटे बेन्नी के बारे में बताओ, वह कैसा है?’ उस मित्र ने कहा : ‘मैं अपने दूसरे बेटे से अति प्रसन्न हूं। वह नेता है, महान राजनेता; और हजारों उसके अनुयायी हैं। और मुझे विश्वास है कि देर—अबेर वह इस देश का प्रधान मंत्री होने वाला है।’ मित्र ने कहा : ‘क्या कहने हैं! तुम तो बड़े भाग्यशाली हो। और तुम्हारे तीसरे बेटे इजी का क्या हाल है?’ यह प्रश्न सुनकर पिता बहुत उदास हो गया और बोला : ‘इजी? इजी अभी इजी ही है। वह दर्जी है। लेकिन मैं तुमसे कहूं कि अगर इजी नहीं होता तो हम लोग भूखे मरते होते।’

लेकिन बाप दुखी था कि इजी मामूली दर्जी था। और जो कवि और महान राजनेता थे, वे सपने थे। इजी सत्य है—दर्जी। लेकिन बाप ने कहा कि उसके बिना हम लोग भूखे मरते।

तुम भी नहीं होते अगर यह क्षण नहीं होता; यह क्षण सत्य है। लेकिन तुम कभी उससे प्रसन्न नहीं होते; तुम अपने भविष्य के स्‍वप्‍नों से, नोबल पुरस्कार विजेताओं और प्रधानमंत्रियों से प्रसन्न रहते हो। अभी इजी महज दर्जी है।

तुम्हारा सत्य वहां है जहां तुम खड़े हो, जहां तुम्हारी जड़ें हैं। जहां के तुम सपने देख रहे हो, वहां तुम हो नहीं; वे सपने झूठे हैं। मौजूदा क्षण में जो तुम्हारी वास्तविकता है उसे सीधे—सीधे देखो। वह जो भी है उसका साक्षात करो, सामना करो, और मन को भविष्य में मत सरकने दो। भविष्य कामना है, चाह है। और अगर तुम यहीं और अभी हो सको तो तुम बुद्ध हो। और अगर तुम यहीं और अभी नहीं हो सकते तो सब कुछ सपना है। और तुम्हें वापस आना होगा, क्योंकि सपने कहीं नहीं पहुंचा सकते। वे तुम्हें आशा और निराशा में ही पहुंचा सकते हैं; लेकिन उनसे कुछ वास्तविक हाथ नहीं आता है।

लेकिन मेरी यह बात स्मरण रहे कि नकल करने से, अनुकरण करने से कुछ नहीं होगा। तुम्हें दुख से गुजरना ही होगा। दुख ही मार्ग है। दुख तुम्हें निखारता है, शुद्ध करता है। दुख तुम्हें सजग बनाता है; तुम्हें होशपूर्ण बनाता है। और तुम जितने बोधपूर्ण होगे उतने ही कम कामना से भरे होगे। अगर तुम परिपूर्ण बोध से भरे हो तो कोई कामना नहीं पैदा होती है। और परिपूर्ण बोध के अतिरिक्त ध्यान का और कुछ अर्थ नहीं है।

दूसरा प्रश्न:

कृपया समझाने की कृपा करें कि कोई व्‍यक्‍ति क्रोध, घृणा और हिंसा के कृत्यों में समग्र होकर आध्यात्‍मिक रूपांतरण को कैसे उपल्‍बध हो सकता है।

हां, तुम क्रोध, घृणा और हिंसा के द्वारा भी समग्रत: रूपांतरित हो सकते हो। और दूसरा कोई मार्ग भी नहीं है; क्योंकि तुम हिंसा में, क्रोध में, लोभ में, वासना में ही हो। तुम जहां हो वहीं से मार्ग आरंभ हो सकता है।

तो मैं तुम्हें नहीं कहूंगा कि अपने लोभ के विपरीत अलोभ पैदा करो। मैं कहूंगा कि पूरी तरह लोभी हो जाओ, लेकिन होश पूरा रहे। वैसे ही मैं कहूंगा कि हिंसक होओ, क्रोधी होओ; लेकिन समग्रतापूर्वक हिंसा और क्रोध में उतरो। तो ही तुम उनकी पीड़ा को अनुभव कर सकोगे; तो ही तुम उनके पूरे जहर को अनुभव कर सकोगे। इस आग से तुम्हें गुजरना ही होगा। कोई दूसरा तुम्‍हारे लिए यह काम नहीं कर सकता; इसमें एजेंट की, दलाल की गुंजाइश नहीं है।

ईसाई सोचते हैं कि जीसस मुक्ति लाएंगे; लेकिन अब तक मुक्ति नहीं? आई। संसार वैसे का वैसा है। जीसस को सूली लगे दो हजार साल बीत गए; लेकिन हम आशा किए जा रहे हैं कि कोई दूसरा हमारे लिए दुख भोगेगा और हम आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे।

नहीं, प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सूली आप ही ढोना है। जीसस को सूली लगी; वे पहुंच गए। तुम नहीं पहुंच सकते, तुम्हें स्वयं सूली से गुजरना होगा। और यही सूली हैं—क्रोध, कामना, हिंसा, लोभ, ईर्ष्या—यही सूली हैं। तुम उनके साथ क्या कर रहे हो?

समाज सिखाता है कि उनके विपरीत ध्रुव निर्मित करो। लोभ है तो लोभ का दमन करो और अलोभ साधो। क्रोध है तो क्रोध का दमन करो और अक्रोध साधो। उस ऊर्जा को नीचे ढकेल दो और मुस्कुराओ। इससे क्या होता है? क्रोध भीतर इकट्ठा होता जाता है, और तुम ज्यादा से ज्यादा क्रोधी होते जाते हो। क्योंकि दमित क्रोध की और—और ऊर्जा भीतर इकट्ठी होती रहती है। यह तुम्हारा अचेतन भंडार बन जाता है; और इसके विपरीत तुम मुस्कुराते रहते हो। वह मुस्कुराहट झूठी है, क्योंकि जब भीतर क्रोध बल मार रहा है तो तुम बाहर हंस कैसे सकते हो? अगर तुम हंसोगे तो वह हंसी झूठी होगी।

अब तुम दो में बंट गए; बाहर झूठी हंसी है और भीतर सच्चा क्रोध। झूठी हंसी तुम्हारा व्यक्तित्व, तुम्हारा वस्त्र बन जाती है और सच्चा क्रोध तुम्हारी आत्मा बना रहता है। और तुम अपने विरुद्ध ही बंटे रहते हो, एक सतत संघर्ष चलता रहता है। और झूठी हंसी के साथ तुम सुखी नहीं हो सकते; उससे कोई धोखे में नहीं आ सकता है। वैसे ही तुम भीतर छिपे सच्चे क्रोध के रहते भी सुखी नहीं हो सकते; वह निरंतर प्रकट होने की चेष्टा कर रहा है।

झूठी हंसी और सच्चा क्रोध—यही असलियत है। तुम्हारा जो भी अच्छा है वह झूठ है; और जो भी बुरा है वह सत्य है। और सत्य को तुम भीतर छिपाए हो, झूठ को बाहर दिखाने में लगे हो। यही स्कीजोफ्रेनिया है; यही विखंडित मानसिकता है। और प्रत्येक व्यक्ति इसी तरह खंड—खंड टूट गया है; न केवल टूट गया है बल्कि स्वयं के साथ सतत संघर्ष में है। और इस संघर्ष में सारा जीवन, सारी ऊर्जा नष्ट हो जाती है। और यह संघर्ष मूढ़तापूर्ण है, लेकिन यही हो रहा है।

मेरा सुझाव यह है कि अपने चारों ओर कोई झूठ मत निर्मित करो। झूठ तुम्हें कभी सत्य की ओर नहीं ले जा सकता। झूठ तुम्हें और बड़े झूठ में ले जाएगा। कुछ भी झूठ मत करो, और सत्य को पूरी—पूरी अभिव्यक्ति दो। जब मैं यह कहता हूं तो तुम्हें घबराहट हो सकती है, क्योंकि तुम्हारे भीतर हिंसा है और तुम किसी की हत्या करना चाहोगे। तो क्या मेरा मतलब यह है कि तुम जाओ और उसकी हत्या कर दो?

नहीं, तुम इस हिंसा पर ध्यान करो। अपने कमरे को बंद कर लो और अपनी हिंसा को प्रकट होने दो। तुम उसे किसी तकिए पर, किसी चित्र पर या किसी चीज पर भी प्रकट कर सकते हो। जाकर किसी की हत्या करने की जरूरत नहीं है; क्योंकि उससे कुछ लाभ नहीं होगा। उससे तो नई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी, और एक श्रृंखला निर्मित हो जाएगी। तकिए पर अपने शत्रु या मित्र का नाम लिख दो। याद रहे, हम शत्रु से ज्यादा अपने मित्र से नाराज रहते हैं। तो तुम तकिए पर अपनी पत्नी या पति का चित्र रख दो और उस पर अपनी हिंसा को उतरने दो। तकिए को पीटो, तकिए की हत्या कर दो, जो जी में आए सो उसके साथ करो।

और यह मत समझो कि तुम कोई मूढ़ता का काम कर रहे हो। यही तो तुम असली व्यक्ति के साथ करना चाहते थे; लेकिन वह ज्यादा मूढ़तापूर्ण होता। यह मत सोचो कि यह बेवकूफी है; तुम यही तो हो, तुम बेवकूफ ही तो हो। और तुम सिर्फ दमन करके इस मूढ़ता को नहीं मिटा सकते हो। अपनी इस मूढ़ता को देखो; देखो कि तुम कितने मूढ़ हो। अपने को पूरा—पूरा अभिव्यक्त होने दो; पूरा—पूरा प्रकट होने दो। अगर तुमने ईमानदारी से अपने को प्रकट होने दिया तो तुम पहली बार समझोगे कि तुम्हारे भीतर कैसा क्रोध, कैसी हिंसा छिपी है। तुम एक ज्वालामुखी हो। और यह ज्वालामुखी किसी भी क्षण फूट सकता है; किसी भी स्थिति में यह ज्वालामुखी फूट सकता है। प्रतिदिन फूट रहा है। कोई किसी की हत्या कर देता है। यह आदमी एक दिन पहले तक तुम्हारे जैसा ही सामान्य था; कोई संदेह भी नहीं कर सकता था कि वह हत्या करने वाला है। तुम्हारे विषय में भी किसी को ऐसा संदेह नहीं है, और तुम्हारे मन में हत्या के कितने विचार नहीं भरे हैं! अनेक बार तुमने हत्या करने की सोची है, योजना बनाई है। किसी दूसरे को या स्वयं को ही खत्म करने का विचार बार—बार उठा है। अगर तुम बिलकुल मूढ़ नहीं हो तो जरूर यह विचार उठता होगा।

मनसविद कहते हैं कि बुद्धिमान आदमी जीवन में कम से कम दस बार आत्महत्या करने की सोचता है—कम से कम दस बार! और दूसरे की हत्या का विचार तो दस हजार बार उठता है। यह और बात है कि तुम इसे अमल में नहीं लाते हो। लेकिन तुम कर सकते हो, इसकी संभावना तो सदा है।

ध्यान में अपने क्रोध को समग्र कृत्य बना लो, और फिर देखो कि क्या होता है। तुम उसे अपने पूरे शरीर से निकलता हुआ महसूस करोगे। अगर तुम मौका दोगे तो तुम्हारे शरीर की एक—एक कोशिका उसमें भाग लेगी। तुम्हारे शरीर का रोआं—रोआं हिंसक हो उठेगा। तुम्हारा समूचा शरीर एक विक्षिप्त अवस्था में होगा। वह पागल हो जाएगा।

उसे पागल होने दो। उसे मत रोको, तुम भी नदी के साथ बहो। और जब तूफान शांत होगा तो तुम्हें पहली दफा अपने भीतर किसी गहरे केंद्र की अनुभूति होगी; एक सूक्ष्म शांति का आविर्भाव होगा। और जब क्रोध विदा होगा तो उसके पीछे कोई पश्चात्ताप का भाव नहीं उठेगा। क्योंकि तुमने यह क्रोध किसी दूसरे पर नहीं उतारा, अपराध— भाव की बात ही नहीं उठती। तुम बिलकुल निर्भार हो जाओगे, हलके हो जाओगे। और इस क्रोध के जाने पर जो शांति आएगी वह सच्ची शांति होगी, लादी गई शांति नहीं होगी।

तुम बुद्ध की तरह पद्यासन में, योगासन में बैठ सकते हो। तुम अपने को जबरदस्ती स्थिर बैठा सकते हो। लेकिन तुम्हारे भीतर का बंदर तो उछलता ही रहता है। सिर्फ तुम्हारा शरीर स्थिर है, मन पहले से भी ज्यादा पागल होने लगता है। जब भी तुम ध्यान के लिए बैठो तो निरीक्षण करो कि क्या—क्या होता है। तुम्हारे भीतर कभी उतना शोरगुल नहीं मचता जब तुम ध्यान नहीं करते होते हो, फिर ध्यान के समय ही इतना शोरगुल क्यों मचता है? मन क्यों इतना उपद्रवी हो जाता है, भाग—दौड़ करने लगता है? क्यों इतने विचार बादलों की तरह उमड़ने—घुमड़ुने लगते हैं? क्योंकि शरीर स्थिर है, और इस स्थिरता की पृष्ठभूमि में, इस कंट्रास्‍ट में मन का बानरपन स्‍पष्‍ट होकर अनुभव में आने लगता है।

लेकिन जबरदस्ती लाई गई शांति किसी काम की नहीं है। प्रथम तो तुम उसमें सफल नहीं हो सकते, और यदि सफल भी हुए तो तुम सो जाओगे। जबरदस्ती लाई गई शांति सफल होने पर नींद बन जाती है। जहां तक नींद का संबंध है, यह ठीक है, अन्यथा यह किसी काम की नहीं है।

सच्ची शाति तो सदा तब आती है जब कोई दमित ऊर्जा समग्रत: मुक्त हो जाती है। जो उपद्रव था वह दमित ऊर्जा के कारण था। वह दमित ऊर्जा फूट पड़ने की चेष्टा कर रही थी, वही समस्या थी, वही भीतर उपद्रव था। जब वह मुक्त हो जाती है तो तुम निर्भार हो जाते हो। तब तुम्हारे प्राणों का रोआं—रोआं विश्राम में होता है। विश्राम की उस दशा में ही तुम कह सकते हो कि मैं अक्रोध की दशा में हूं। यह अक्रोध क्रोध के विरोध में नहीं है; यह केवल क्रोध की अनुपस्थिति है।

स्मरण रहे, सत्य सदा अनुपस्थिति है; विपरीत नहीं है। सत्य किसी के विपरीत नहीं है; वह सदा अनुपस्थिति है—लोभ की अनुपस्थिति है, कामवासना की अनुपस्थिति है; ईर्ष्या की अनुपस्थिति है। लेकिन उस अनुपस्थिति में ही तुम्हारे सत्य का फूल खिलता है, क्योंकि रोग चले गए। अब तुम्हारे आंतरिक स्वास्थ्य का फूल खिल सकता है। और जब यह फूल खिलने लगेगा तो तुम क्रोध इकट्ठा नहीं करोगे।

तुम क्रोध इकट्ठा ही इसलिए करते हो क्योंकि तुम स्वयं से वंचित हो, स्वयं को चूक रहे हो। सच तो यह है कि तुम किसी दूसरे पर क्रोधित नहीं हो; तुम अपने पर ही क्रोधित हो। लेकिन तुम उस क्रोध को दूसरों पर प्रक्षेपित करते रहते हो। यदि ऐसा नहीं करोगे तो तुम पागल हो जाओगे। इसलिए तुम क्रोध करने के बहाने ढूंढते रहते हो।

और असल में तुम क्रोध में इसलिए हो, क्योंकि तुम स्वयं को चूक रहे हो, अपनी नियति को चूक रहे हो। जो तुम्हारी संभावना थी वह वास्तविक नहीं हो रही है। तुम्हारे क्रोध का यही कारण है। तुम्हें कुछ भी नहीं घटित हो रहा है, और समय भागा जा रहा है। मृत्यु निकट से निकटतर आ रही है, और तुम रिक्त के रिक्त बने हो। भराव की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। इसलिए तुम्हें क्रोध है। क्योंकि तुम अपनी संभावना को नहीं उपलब्ध हो रहे हो, क्योंकि तुम वह नहीं हो सके हो जो हो सकते हो, इसलिए तुम क्रोधित हो, हिंसक हो। और फिर तुम बहाने खोजते रहते हो। फिर तुम इस या उस व्यक्ति पर अपना क्रोध उतारते रहते हो।

असल में यह क्रोध का प्रश्न नहीं है। अगर तुम इसे क्रोध का प्रश्न बनाते हो तो तुम्हारा निदान गलत है। यह प्रश्न आत्मोपलब्धि का है। क्यों कोई हिंसक है? क्यों कोई विध्वंसक है? क्योंकि वह स्वयं से क्रुद्ध है; क्योंकि वह जैसा है, अपने ही विरोध में है। और तब वह पूरे जगत के विरोध में हो जाता है।

बुद्ध शांत हैं, अहिंसक हैं; इसलिए नहीं कि उन्होंने इसका अभ्यास किया है, बल्कि इसलिए कि वे स्वयं को उपलब्ध हो गए हैं, वे बुद्ध हो गए हैं। उनका फूल समग्रत: खिल गया है; कुछ खिलने को, कुछ मुक्त होने को बाकी नहीं है। वे तृप्त हैं; अस्तित्व के प्रति अहोभाव भर बचा है। अब उन्हें कोई शिकायत नहीं है। अब कुछ भी गलत नहीं है।

जब सच में तुम्हारा फूल खिलता है तो सब कुछ ठीक हो जाता है, सब कुछ शुभ हो जाता है। यही कारण है कि बुद्ध को कोई समस्या नहीं दिखाई पड़ती; सब शुभ है। और यही कारण है कि बुद्ध क्रांतिकारी नहीं हैं। क्रांतिकारी होने के लिए तुम्हें दुख दिखाई पड़ना जरूरी है; तुम्हें चारों ओर उपद्रव, चारों ओर नरक दिखाई पड़ना जरूरी है। क्रांतिकारी होने के लिए यह खयाल जरूरी है कि सब कुछ गलत है। तो तुम क्रांतिकारी हो सकते हो। बुद्ध इसी भूमि पर थे, महावीर इसी भूमि पर थे; लेकिन वे क्रांतिकारी नहीं थे। क्यों? यह प्रश्न उठता है : वे क्यों क्रांतिकारी नहीं थे?

जब कोई अपने साथ विश्राम में होता है, संतुष्ट होता है, तो सब शुभ हो जाता है। वह विध्वंसक नहीं हो सकता; वह सिर्फ सृजनात्मक हो सकता है। उसकी क्रांति सिर्फ सृजनात्मक हो सकती है। लेकिन तुम्हें कुछ भी सृजनात्मक नहीं सूझता; तुम तो सिर्फ विध्वंस देख सकते हो। इसीलिए जब कोई विध्वंस होता है तो वह समाचार बन जाता है; तभी तुम्हारा ध्यान उस पर जाता है।

लेनिन क्रांतिकारी मालूम पड़ता है; बुद्ध क्रांतिकारी नहीं मालूम पड़ते। अभी सारे संसार में क्रांतिकारी हैं, और उनकी संख्या बढ़ती जाती है। कारण क्या है? कारण यह है कि अत्यंत कम लोग अपनी संभावना को वास्तविक बना पाते हैं। वे हिंसक हो जाते हैं और वे विध्वंस करना चाहते हैं। क्योंकि अगर उनके जीवन में अर्थ नहीं है तो वे कैसे समझ सकते हैं कि दूसरों के जीवन में कोई अर्थ है?

महावीर सावचेत हैं कि उनसे एक चींटी की भी, एक मच्छर की भी हत्या न हो; क्योंकि वे आप्तकाम हो गए हैं। अब वे जानते हैं कि एक मच्छर के लिए भी क्या संभव है। मच्छर मच्छर ही नहीं है, वह एक संभावना है, अनंत संभावना है, मच्छर परमात्मा हो सकता है। इसलिए महावीर विध्वंस नहीं कर सकते, यह असंभव है। वे सहायता ही कर सकते हैं। उन्हें बस यही फिक्र है कि कैसे सहारा दें कि छिपी संभावना वास्तविक हो जाए।

तुम केवल एक बीज हो। तुममें एक महान नियति छिपी है; लेकिन कुछ यथार्थ नहीं हो रहा है। संभावना व्यर्थ हो रही है, बीज बीज ही बना रहता है। तब तुम्हें क्रोध होता है। आधुनिक पीढ़ी पुरानी पीढ़ियों से बहुत ज्यादा क्रोधी है; क्योंकि संभावना का बोध ज्यादा है और उपलब्धि बहुत थोड़ी है। नई पीढ़ी को पुरानी पीढी से ज्यादा बोध है कि क्या संभव है, यह पीढ़ी बखूबी जानती है कि बहुत कुछ संभव है। लेकिन कुछ हो नहीं रहा है; संभावना यथार्थ नहीं बन रही है। इसलिए बहुत निराशा है। और जब तुम सृजन नहीं कर सकते हो तो कम से कम विध्वंस तो कर ही सकते हो। विध्वंसक होने में तुम्हें अपनी शक्ति का अहसास होता है।

क्रोध, हिंसा, ये सब विध्वंसक शक्तियां हैं। ये हैं, क्योंकि सृजनात्मकता नहीं है। इन शक्तियों का विरोध मत करो, बल्कि उन्हें मुक्त होने में सहायता दो। उनका दमन नहीं करो, उन्हें विसर्जित होने दो। और तब तुम जिसे इनका विपरीत समझते थे वह उपस्थित हो जाता है। जब ये विध्वंसक शक्तियां विसर्जित हो जाती हैं तो तुम्हें अचानक बोध होता है कि शांति है, प्रेम है, करुणा है। इन गुणों का अभ्यास नहीं करना है। वे तो चट्टानों में छिपे झरने की भांति हैं, तुम चट्टानों को हटा दो और झरना बहने लगता है। झरना चट्टान के विरोध में नहीं है; झरना चट्टान का विपरीत नहीं है। बस चट्टानों के हटते ही एक मार्ग खुल जाता है और झरना प्रवाहित होने लगता है।

प्रेम तुम्‍हारे भीतर झरने की भांति है और क्रोध तुम्‍हारे भीतर चट्टान की भांति है। चट्टान को हटाना भर है। लेकिन तुम तो उसे भीतर की तरफ ही ढकेलते जाते हो, उसे गहरे दबाते जाते हो। और इस भांति तुम झरने को और भी अवरुद्ध कर देते हो।

इस चट्टान को हटाओ। और इस चट्टान से किसी को चोट पहुंचाने की जरूरत नहीं है। तुम किसी को चोट पहुंचाना चाहते हो, क्योंकि तुम्हें नहीं मालूम है कि किसी को चोट पहुंचाए बिना इसे कैसे फेंका जाए। मैं यही सिखाता हूं : किसी को चोट पहुंचाए बिना इसे कैसे फेंका जाए। किसी को भी चोट पहुंचाने की जरूरत नहीं है। और अगर तुम किसी को चोट पहुंचाए बिना इस चट्टान को फेंक सको तो सबको इससे लाभ होगा।

शायद तुम इसको दूसरों के सिरों पर न भी फेंको तो भी चट्टान तो है, और सभी उसे महसूस भी करते हैं। जब तुम क्रोध में होते हो तो तुम चाहे उसे कितना ही छिपाओ, क्रोध का पता चल ही जाता है। तुम्हारे क्रोध की सूक्ष्म तरंगें निकलती रहती हैं; तुम्हारे चारों ओर एक सूक्ष्म दुख की छाया घेरे चलती है। तुम जहां जाते हो, लोग समझते हैं, कोई रोग आ गया। सब तुमसे दूर भागना चाहते हैं; तुम एक विकर्षण पैदा करते हो। तुम्हारा रंग—ढंग ही तुम्हें एक दुर्गंध दे देता है।

शायद तुम्हें पता न हो, जीव—रसायन शास्त्री कहते हैं कि जब कोई प्रेम में होता है या क्रोध में होता है या कामवासना में होता है, तो उसके शरीर से अलग— अलग तरह की गंध निकलती है। यह बात प्रतीकात्मक नहीं है, यथार्थ है। जब तुम क्रोध में होते हो, तुम्हारे शरीर से एक दुर्गंध निकलती है; और जब तुम प्रेम में होते हो तो गंध का गुण भिन्न होता है। और जब कामवासना तुम्हें पकड़ती है तो बिलकुल भिन्न गंध निकलती है।

पशु गंध से ही एक—दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। जब मादा तैयार होती है तो उसकी काम—ग्रंथियों से एक सूक्ष्म गंध निकलती है और उससे ही नर उसकी तरफ आकर्षित होता है। अगर वह गंध नहीं है तो उसका मतलब है कि मादा तैयार नहीं है। यही कारण है कि कुत्ते सूंघते हैं, वे कामवासना को सूंघ सकते हैं।

तुम अगर कामुक हो तो तुम भी एक सूक्ष्म गंध छोड रहे हो। और अगर तुम क्रोध में हो तो भी, क्योंकि भिन्न—भिन्न भावदशा में रक्त—व्यवस्था में भिन्न—भिन्न रसायन पैदा होते हैं। शायद सचेतन रूप से कोई न भी जान सके, लेकिन अचेतन रूप से इसे सभी पहचान लेते हैं। क्रोध में, हिंसा में तुम बोझ हो जाते हो; विकर्षण और विध्वंसक हो जाते हो।

इस विष को अपने से निकालो। और स्मरण रहे, इसे शून्य में निकालना अच्छा है। और आकाश काफी बड़ा है; वह उसे तुम पर वापस नहीं फेंकेगा। आकाश उसे पी जाएगा और तुम हलके हो जाओगे, मुक्त हो जाओगे। तो जो भी करो उसे ध्यानपूर्वक करो, समग्रता से करो—क्रोध को भी, हिंसा को भी, कामवासना को भी।

एकांत में क्रोध करने की बात तो तुम आसानी से सोच सकते हो; लेकिन तुम एकांत में ध्यानपूर्वक संभोग भी निर्मित कर सकते हो। और उसके बाद तुम्हारी गुणवत्ता ही और होगी। जब बिलकुल अकेले हो, कमरे को बंद कर लो और ऐसे गति करो जैसे काम—कृत्य में

करते हो। अपने पूरे शरीर को गति करने दो; उछलो और चीखो, जो जी में आए करो। और उसे समग्रता से करो। सामाजिक निषेध आदि सब भूल जाओ काम—कृत्य में ध्यानपूर्वक और अकेले डूब जाओ। लेकिन अपनी समग्र कामुकता को प्रकट होने दो।

जब दूसरा है तो उसके साथ समाज सदा उपस्थित है। क्योंकि दूसरा व्यक्ति उपस्थित है, समाज उपस्थित है। और इतने गहन प्रेम में होना कठिन है कि तुम्हें लगे कि दूसरा उपस्थित नहीं है। सिर्फ अत्यंत गहन प्रेम में, अति घनिष्ठता में ही संभव है कि तुम अपने प्रेमी या प्रेमिका के साथ ऐसे रहो जैसे कि वह नहीं है।

घनिष्ठता का यही अर्थ है। अगर तुम अपनी प्रेमिका या अपने प्रेमी के साथ एक कमरे में होकर भी अनुभव करो कि तुम अकेले हो, कि तुम्हें किसी दूसरे का डर नहीं है, तो ही तुम संभोग में समग्रता से उतर सकते हो। अन्यथा दूसरे की उपस्थिति सदा ही बाधा पैदा करती है। दूसरा तुम्हें देख रहा है, न जाने वह अपने मन में क्या सोचेगा! हो सकता है कि वह सोचे कि यह क्या करते हो, जानवर की तरह व्यवहार करते हो!

कुछ ही दिन पूर्व एक महिला यहां आई थी। वह अपने पति की शिकायत करने आई थी। उसने कहा : ‘मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकती; वे जब भी मेरे साथ संभोग में उतरते हैं, वे जानवर की तरह व्यवहार करने लगते हैं।’

जब दूसरा उपस्थित है तो दूसरा तुम्हें देख रहा है। उसके देखने में यह प्रश्न हो सकता है कि यह तुम क्या कर रहे हो! और तुम्हें सिखाया गया है कि कुछ चीजें हैं जो करने योग्य हैं, और कुछ चीजें हैं जो करने योग्य नहीं हैं। तो दूसरे की उपस्थिति में तुम्हें बाधा पहुंचती है; तुम काम—कृत्य में समग्र नहीं हो सकते।

लेकिन यदि गहन प्रेम हो तो तुम संभोग में ऐसे उतर सकते हो जैसे कि अकेले हो। और जब दो शरीर एक हो जाते हैं तो वे एक लय में घड़कते हैं; तब द्वैत मिट जाता है, और तब काम अपनी समग्रता में प्रकट हो सकता है।

और काम क्रोध की तरह नहीं है। क्रोध सदा ही कुरूप होता है; काम सदा कुरूप नहीं होता। कभी—कभी काम अत्यंत सुंदर होता है; लेकिन कभी—कभी ही। जब मिलन पूर्ण होता है, जब दो व्यक्ति एक लयबद्धता में खो जाते हैं, जब उनकी श्वासें एक हो जाती हैं, जब उनके प्राण एक वर्तुल में घूमते हैं, जब दो पूरी तरह विलीन हो गए हैं और दोनों शरीर मिलकर एक इकाई हो गए हैं, जब ऋण और धन, स्त्री और पुरुष विदा हो जाते हैं, तब जो काम—कृत्य घटित होता है उससे सुंदर और कुछ भी नहीं हो सकता।

लेकिन ऐसा सदा नहीं होता है। यदि यह संभव न हो तो तुम अकेले ही, एकांत में और ध्यानपूर्वक काम—कृत्य को उन्माद के, पागलपन के शिखर तक पहुंचा सकते हो। अपने कमरे को बंद कर लो, उस पर ध्यान करो, और अपने शरीर को किसी रोक—टोक के बिना गति करने दो। कोई नियंत्रण मत करो!

पति—पत्नी या प्रेमी—प्रेमिका इसमें, विशेषकर तंत्र में, बहुत सहयोगी हो सकते हैं। तुम्हारी पत्नी या तुम्हारा पति या तुम्हारा मित्र बहुत सहयोगी हो सकता है—अगर दोनों गहन रूप से यह प्रयोग कर रहे हों। तब दोनों ही सारा नियंत्रण छोड़ दो। सभ्यता को भूल जाओ—मानो वह कभी थी ही नहीं। अदन के बगीचे में लौट जाओ। ज्ञान के वृक्ष के फल को, उस सेव को फेंक दो। अदन के बगीचे से निकाले जाने के पूर्व के आदम और ईव हो जाओ। पीछे लौट जाओ। निर्दोष पशुओं जैसे हो जाओ, और अपनी कामुकता को उसकी समग्रता में अभिव्यक्त होने दो।

और तुम फिर कभी वही नहीं रहोगे जो थे। दो चीजें घटित होंगी। कामुकता विलीन हो जाएगी। काम बना रह सकता है; लेकिन कामुकता बिलकुल विदा हो जाएगी। और जब कामुकता नहीं है, तो काम दिव्य है। जब काम की मानसिक दौड़ नहीं रहती, जब तुम उसके विषय में सोच—विचार नहीं करते, जब काम तुम्हारा सरल और समग्र कृत्य बन जाता है, जब वह तुम्हारे पूरे प्राणों की—सिर्फ मन की नहीं—संलग्नता बन जाता है, तो वह दिव्य है।

तो पहले कामुकता विदा होगी, और फिर काम भी, सेक्स भी विदा हो सकता है। क्योंकि जब तुम काम के गहरे तलों को जान लोगे तो तुम संभोग के बिना भी उन तलों को उपलब्ध हो सकते हो।

लेकिन जब तक तुमने उन गहरे तलों की झलक भी नहीं जानी है, तब तक तुम्हें उनका खयाल भी कैसे आ सकता है! पहली झलक समग्र काम से प्राप्त होती है। और एक बार उसे जान लिया जाए तो दूसरे उपायों से भी उसे पाया जा सकता है। तब एक फूल को देखते हुए तुम उसी समाधि में हो सकते हो जिसे तुमने अपनी प्रेमिका के साथ गहन मिलन के शिखर पर अनुभव किया था। तब तारों को देखते हुए तुम उसी समाधि में उतर जा सकते हो।

एक बार मार्ग का खयाल आ जाए तो तुम जानते हो कि वह परम आनंद तुम्हारे भीतर ही है। तुम्हारी प्रेमिका तुम्हें उसे जानने में सिर्फ सहयोगी होती है। वैसे ही तुम तुम्हारी प्रेमिका को उसे जानने में सहयोगी होते हो। यह तुम्हारे भीतर ही है! दूसरा तो सिर्फ बहाना था, प्रेरणा था, दूसरा मात्र चुनौती था; उसने तुम्हें उसे जानने में सहयोग दिया जो दरअसल सदा तुम्हारे भीतर ही था।

और ठीक ऐसा ही सदगुरु और शिष्य के बीच घटित होता है। सदगुरु तुम्हें उसे जानने के लिए चुनौती बन सकता है जो सदा तुम्हारे भीतर ही छिपा है। गुरु तुम्हें कुछ देता नहीं है, वह दे नहीं सकता। देने को कुछ है भी नहीं, और जो दिया जा सकता है वह दो कौड़ी का है, क्योंकि वह कोई वस्तु ही हो सकती है। मूल्यवान तो वह है जो दिया तो नहीं जा सकता, लेकिन जिसके लिए तुम्हें प्रेरित किया जा सकता है। सदगुरु सिर्फ तुम्हें प्रेरणा देता है, चुनौती देता है कि तुम उस जगह आ जाओ जहां वह उदघाटित हो जाए जो सदा से मौजूद है। और एक बार तुमने उसे जान लिया तो फिर गुरु की जरूरत न रही।

तो काम विलीन हो सकता है, लेकिन पहले कामुकता विलीन होती है। और तब काम एक शुद्ध, निर्दोष कृत्य बन जाता है। और फिर वह भी समाप्त हो जाता है। तब ब्रह्मचर्य घटित होता है। ब्रह्मचर्य काम के विपरीत नहीं है; वह काम की अनुपस्थिति भर है। और इस भेद को स्मरण रखो, यह तुम्हारे बोध में नहीं है।

पुराने धर्म क्रोध और काम की इस तरह निंदा करते हैं जैसे कि वे एक ही हों, जैसे कि वे एक ही कोटि के हों। लेकिन वे एक ही कोटि के कतई नहीं हैं। क्रोध विध्वंसक है, काम सृजनात्मक है। पुराने धर्म दोनों की निंदा एक ही ढंग से करते हैं—मानो काम और क्रोध, काम और लोभ, काम और ईर्ष्या समान हों। वे समान नहीं हैं। ईर्ष्या सदा विध्वंसक है। ईर्ष्या

कभी सृजनात्मक नहीं होती, उससे कोई सृजन नहीं हो सकता। वैसे ही क्रोध भी सदा विध्‍वंसक है। लेकिन काम के साथ ऐसी बात नहीं है। काम सृजनात्मकता का स्‍त्रोत है। परमात्मा ने सृजन के लिए काम का उपयोग किया है। लेकिन कामुकता ईर्ष्या, क्रोध और लोभ जैसी चीज है; वह सदा विध्वंसात्मक है। काम विध्वंसात्मक नहीं है।

लेकिन हमें शुद्ध काम का पता ही नहीं है, हम सिर्फ कामुकता जानते हैं। जो आदमी अश्लील चित्र देखता है या जो कामुक फिल्म देखने जाता है, वह काम नहीं, कामुकता की खोज में है। मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो अपनी पत्नी के साथ संभोग में उतरने से पूर्व गंदी पत्रिकाओं, पुस्तकों या चित्रों को उलट—पलट कर देख लेते हैं। इन्हें देखकर ही उन्हें कामोत्तेजना होती है। असली पत्नी उनके लिए कुछ नहीं है; एक चित्र, एक नग्न स्त्री का चित्र उनके लिए ज्यादा उत्तेजक होता है। यह उत्तेजना नैसर्गिक नहीं है, यह उनके मस्तिष्क में है। और काम जब मस्तिष्क में चला जाता है तो वही कामुकता है; काम का चिंतन कामुकता है।

काम को जीना, काम को भोगना सर्वथा भिन्न चीज है। और अगर तुम काम को जी सको तो तुम उसके पार जा सकते हो। जो भी चीज समग्रता से जी ली जाए, तुम उसका अतिक्रमण कर जाते हो। तो किसी चीज से डरो नहीं; उसे जीओ। अगर तुम सोचते हो कि यह दूसरों के लिए हानिप्रद हो सकता है तो उसमें अकेले उतरो; तब दूसरों के साथ उसमें मत उतरो। और अगर तुम समझते हो कि यह सृजनात्मक होगा, रचनात्मक होगा, तो कोई भागीदार खोजो, कोई मित्र ढूंढो। तब जोड़े बना लो—तांत्रिक युगल—और फिर काम—कृत्य में पूरी समग्रता से प्रवेश करो। फिर भी यदि तुम्हें लगता है कि दूसरे की उपस्थिति बाधा बन रही है तो इसमें अकेले ही उतरना बेहतर है।

अंतिम प्रश्न:

 

क्या बुद्ध पुरुष भी कभी स्वप्न देखते हैं? क्या आप हमें बुद्ध पुरुषों की नींद कीं गुणवत्ता और स्वभाव के संबंध में कुछ बताने की कृपा करेंगे?

 

हीं, बुद्ध पुरुष स्‍वप्‍न नहीं देख सकते हैं। और अगर तुम्हें स्‍वप्‍न बहुत पसंद हैं तो कभी बुद्ध मत होना। सावधान! स्‍वप्‍न देखना नींद का अंग है। स्‍वप्‍न देखने के लिए पहली चीज यह है कि तुम्हें नींद में जाना होगा। साधारण स्‍वप्‍नों के लिए तुम्हें नींद में उतरना आवश्यक है। नींद में तुम अचेतन हो जाते हो, और जब तुम अचेतन होते हो, तो स्‍वप्‍न घटित होते हैं। वे तुम्हारे अचेतन में ही घटित हो सकते हैं।

बुद्ध पुरुष सोते हुए भी चेतन रहते हैं, वे अचेतन नहीं हो सकते। अगर तुम उन्हें बेहोश करने की दवा, क्लोरोफार्म या वैसी ही कोई चीज भी दे दो तो भी उनकी परिधि ही सोएगी। वे स्वयं जागरूक, सचेतन रहते हैं; उनका चैतन्य खंडित नहीं हो सकता।

कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब सब लोग सोते हैं, योगी जागता है। ऐसा नहीं है कि योगी रात में नींद नहीं लेते, वे भी सोते हैं। लेकिन उनकी नींद की गुणवत्ता भिन्न है; उनका शरीर ही सोता है। और तब उनकी नींद’ सुंदर होती है, वह विश्राम है।

तुम्हारी नींद विश्राम नहीं है। हो सकता है कि तुम्हारी नींद भी श्रम हो, और सुबह उठकर तुम शाम से भी ज्यादा थके—मांदे अनुभव करो। सारी रात सोने के बाद सुबह तुम ज्यादा थकावट अनुभव करते हो। हो क्या रहा है? तुम चमत्कार कर रहे हो!

तुम्हारी सारी रात एक आंतरिक उपद्रव थी। तुम्हारा शरीर विश्राम नहीं कर सका, क्योंकि तुम्हारा मन बहुत सक्रिय था। और मन की सक्रियता शरीर को अनिवार्यत: थकाती है, क्योंकि मन शरीर के बिना सक्रिय नहीं हो सकता। मन की सक्रियता का अर्थ है शरीर की समांतर सक्रियता; फलत: सारी रात तुम्हारा शरीर करवटें बदलता है, सक्रिय रहता है। यही कारण है कि सुबह तुम ज्यादा थके—मांदे महसूस करते हो।

किसी के बुद्ध होने का क्या अर्थ है? एक ही अर्थ है कि अब वह पूर्णत: जाग्रत है, सचेतन है; उसके मन में जो भी चलता है उसका उसे बोध है। और जब तुम बोधपूर्ण होते हो तो कुछ चीजें होनी बिलकुल बंद हो जाती हैं; बोध के आते ही वे बंद हो जाती हैं। यह ऐसे ही है जैसे इस कमरा में अंधेरा है, और तुम एक दीया लाते हो और अंधकार गायब हो जाता है। सब चीजें नहीं गायब होती हैं; किताबों की अलमारिया बनी रहती हैं, हम जो बैठे हैं बैठे रहते हैं। दीया लाने से सिर्फ अंधकार विलीन होता है।

जब कोई व्यक्ति आत्मोपलब्ध होता है तो उसे एक आंतरिक प्रकाश उपलब्ध होता है। वह आंतरिक प्रकाश बोध है; और उस बोध से मूर्च्छा मिटती है, नींद मिटती है—और कुछ नहीं। लेकिन नींद के मिटते ही सब चीजों की गुणवत्ता बदल जाती है। अब वह जो भी करेगा पूरे होश में करेगा, और अब वे चीजें असंभव हो जाएंगी जिनके लिए मूर्च्छा या नींद अनिवार्य है।

अब वह क्रोध नहीं कर सकता है; इसलिए नहीं कि उसने क्रोध न करने का कोई निर्णय लिया है। नहीं, अब क्रोध करना उसके लिए असंभव है। जब तुम बेहोश हो, मूर्च्छित हो, तो ही क्रोध संभव है। मूर्च्छा के जाते ही क्रोध का आधार चला जाता है और क्रोध असंभव हो जाता है। वह घृणा भी नहीं कर सकता, क्योंकि घृणा भी मूर्च्छा में ही संभव है। वह व्यक्ति प्रेम हो जाता है; इसलिए नहीं कि उसने प्रेम का कोई निर्णय लिया है। जब प्रकाश होता है, जब बोध होता है, तो प्रेम प्रवाहित होता है। यह स्वाभाविक है।

तो बुद्ध पुरुष के लिए स्‍वप्‍न देखना असंभव हो जाता है, क्योंकि स्‍वप्‍न देखने के लिए सबसे पहले मूर्च्छा जरूरी है, और वह मूर्च्‍छित नहीं है।

बुद्ध का शिष्य आनंद उनके साथ ही, उनके कमरे में ही सोता था। एक दिन उसने बुद्ध से कहा : ‘यह तो चमत्कार है; यह बहुत अदभुत बात है। आप नींद में कभी करवट नहीं बदलते हैं।’ बुद्ध सारी रात एक करवट ही सोते थे; जिस करवट वे रात सोने के लिए लेटते थे, सुबह नींद से जागते समय भी वे उसी करवट में होते थे। और उनके हाथ भी सारी रात एक ही स्थान पर रखे रहते थे। संभवत: तुमने बुद्ध की शयनमुद्रा की मूर्ति देखी होगी। उसे शयनासन कहते हैं। वे इसी एक आसन में सारी रात सोते थे। आनंद ने वर्षों उन्हें देखा था। जब भी वह बुद्ध को सोए हुए देखता, वे सारी रात एक ही तरह से सोए होते। तो उसने पूछा : ‘मुझे कहें कि सारी रात आप क्या करते हैं? आप एक ही आसन में होते हैं?’

कहते हैं कि बुद्ध ने कहा: ‘सिर्फ एक बार मैंने नींद में करवट बदली थी, लेकिन तब मैं बुद्ध नहीं था। बुद्धत्व के घटित होने के कुछ दिन पूर्व मैंने नींद में करवट ली थी, लेकिन तभी मुझे अचानक बोध हुआ और आश्चर्य हुआ कि मैं करवट क्यों ले रहा हूं! मैंने मूर्च्छा में करवट ली थी, जिसका मुझे कोई होश नहीं था। लेकिन बुद्धत्‍व के बाद उसकी कोई जरूरत न रही। अगर मैं चाहूं तो करवट ले सकता हूं, लेकिन उसकी जरूरत नहीं है। शरीर पूरे विश्राम में है।’

बोध नींद में भी प्रवेश कर जाता है। लेकिन तुम सारी रात एक ही करवट पड़े रह सकते हो और उससे तुम बुद्ध नहीं होगे। तुम उसका अभ्यास कर सकते हो; वह कठिन नहीं है। तुम अपने साथ जबरदस्ती कर सकते हो, और थोड़े ही दिन में तुम इसे साध सकते हो। लेकिन वह कोई बात नहीं है। और अगर तुम जीसस को करवट लेते देखो तो मत सोचना कि वे करवट क्यों लेते हैं! यह उन पर निर्भर है। अगर जीसस नींद में करवट लेते हैं तो भी वे सावचेत हैं। वे चाहें तो करवट ले सकते हैं।

मेरे साथ बिलकुल उलटा हुआ। बोध को उपलब्ध होने के पूर्व मैं सारी रात एक ही करवट सोता था; मुझे नहीं याद है कि मैंने कभी करवट बदली हो। लेकिन उसके बाद से मैं सारी रात करवटें बदलता रहता हूं एक करवट में पांच मिनट रहना काफी है। मैं बार—बार करवट बदलता हूं। मैं इतना बोधपूर्ण हूं कि असल में यह नींद बिलकुल नहीं है।

तो यह व्यक्ति—व्यक्ति पर निर्भर है। लेकिन तुम बाहर से कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते, यह सदा भीतर से संभव होता है।

बुद्ध पुरुष को नींद में भी बोध बना रहेगा; और तब स्वप्न संभव नहीं है। स्वप्न के लिए मूर्च्छा जरूरी है—यह एक बात हुई। और स्वप्न के लिए आधे—अधूरे अनुभव जरूरी हैं—यह दूसरी बात। लेकिन बुद्ध पुरुष के कोई आधे—अधूरे अनुभव नहीं होते; उनकी हर चीज पूरी होती है। उन्होंने भोजन कर लिया तो वे फिर भोजन के संबंध में सोच—विचार नहीं करते हैं। जब उन्हें फिर भूख लगेगी तो वे फिर भोजन ले लेंगे; लेकिन इस बीच वे भोजन की नहीं सोचेंगे। उन्होंने स्नान कर लिया तो वे अब कल के स्नान का विचार नहीं करेंगे। जब उसका समय आएगा, और अगर वे जिंदा रहे, तो वे फिर स्नान कर लेंगे। यदि परिस्थिति ने इजाजत दी तो स्नान हो जाएगा, लेकिन उसके संबंध में कोई विचार नहीं है। कृत्य तो हैं; लेकिन उनके संबंध में विचार नहीं हैं।

लेकिन तुम क्या करते हो? तुम सतत पूर्वाभ्यास करते हो, कल के लिए निरंतर रिहर्सल करते हो। मानो तुम कोई अभिनेता हो और तुम्हें किसी को अपना नाटक दिखाना है। तुम रिहर्सल क्यों करते हो? जब समय आएगा तो तुम तो मौजूद ही रहोगे।

बुद्ध पुरुष क्षण में जीते हैं, कृत्य में पूरे मौजूद होते हैं। और वे इतनी समग्रता से जीते हैं कि कुछ अधूरा नहीं रहता है। जो अधूरा रह जाता है उसे ही स्‍वप्‍न में पूरा करना पड़ता है। स्वप्न परिपूरक है। स्‍वप्‍न इसीलिए आता है क्योंकि मन किसी काम को आधा—अधूरा नहीं छोड़ सकता। अगर कोई चीज अधूरी रह गई है तो मन को बेचैनी महसूस होती है कि कैसे उसे पूरा किया जाए। तब तुम स्‍वप्‍न में उसे पूरा करते हो और तभी चैन पाते हो। यदि वह स्‍वप्‍न में भी पूरा हो जाता है तो मन को विश्राम मिलता है।

तुम्हारे सपने क्या हैं? तुम क्या सपना देखते हो? तुम दिन में जिन कामों को पूरा नहीं कर सके, उन अपूर्ण कामों को स्वप्न में पूरा करते हो। दिन में तुम किसी स्त्री को चूमना चाहते थे, लेकिन चूम न सके। अब तुम स्‍वप्‍न में उसे चूमोगे, और तब तुम्हारा मन चैन पाएगा। उससे तनाव मिट जाता है।

तुम्‍हारे सपने देखने का कारण तुम्‍हारा आधा—अधूरा जीना है; और बुद्ध पुरूष पूर्ण है। वे जो भी करते हैं उसे इतनी पूर्णता से, इतनी समग्रता से करते हैं कि कुछ भी अधूरा नहीं रह जाता है। तब स्वप्न देखने की कोई जरूरत नहीं रहती है। रात में स्‍वप्‍न खो जाते हैं और दिन में विचार खो जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि वे विचार करने में असमर्थ हो जाते हैं। जरूरत होने पर वे विचार कर सकते हैं। यदि तुम उन्हें कोई प्रश्न पूछोगे तो वे तुरंत विचार करेंगे; लेकिन उन्हें किसी पूर्वाभ्यास की जरूरत नहीं है। तुम तो पहले विचार करते हो और तब उत्तर देते हो। लेकिन उनकी विचारणा ही उनका उत्तर होती है, वे जो विचारते हैं वही उत्तर में कहते हैं। ऐसा कहना भी शायद ठीक नहीं है; उनके विचारने और उत्तर देने में कोई अंतराल नहीं होता है; दोनों युगपत होते हैं। उनके विचार साथ ही साथ वाणी से अभिव्यक्त हो जाते हैं।

लेकिन वे कोई पूर्वाभ्यास नहीं करते, वे विचार नहीं करते, वे स्वप्न नहीं देखते; वे जीवन को जीते हैं। और तुम विचार करने और स्‍वप्‍न देखने में ही जीवन को गंवा देते हो।

आज इतना ही।


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–38)

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स्‍वयं का बोध : मुक्‍ति—(प्रवचन—अड़तीसवां)

प्यारे ओशो!

आद्य शंकराचार्य की एक प्रश्नोत्तरी इस प्रकार है—

कस्यास्ति नाशे मनसो हि मोक्ष:

क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।

शल्य परं किं निजमूर्खतेव

के के हयुपास्या गुरुदेववृद्धा:।।

‘किसके नाश में मोक्ष है? मन के नाश में ही।

किसमें सर्वथा भय नहीं है? विमुक्त में।

सबसे बड़ा कांटा कौन है? अपनी मूर्खता ही।

कौन—कौन उपासना के योग्य है? गुरु, देवता और वृद्ध।’

प्यारे ओशो! इन प्रश्नों पर आप क्या कहते हैं?

भयानद! यह सूत्र प्यारा है—सोचने योग्य; ध्याने योग्य।

कस्यास्ति नाशे मनसो हि मोक्ष:।

किसके नाश में मोक्ष है? ‘मन के नाश में ही।’ मन ही बंधन है और बंधन भी ऐसा, जो केवल हमारी प्रतीति में है। नाश करने ‘को वस्तुत: कुछ भी नहीं है, सिर्फ आंख खोलकर देखने की बात है; और मन नष्ट हो जाता है। आंख बंद है तो मन है; आंख खुली कि मन गया।

यूं है जैसे सांझ के धुंधलके में राह पर पड़ी रस्सी को देखकर तुम सांप समझ बैठे; फिर लगे भागने; फिर घबड़ाए बहुत। फिर यूं भी हो सकता है कि फिसल जाए भागने में पैर, तोड़ लो हट्टी—पसली। यूं भी हो सकता है कि इतने घबड़ा जाओ कि हृदय का दौरा पड़ जाए। और वहा कुछ भी न था, बस रस्सी थी, सांप तुम्हारा प्रक्षेपण था। तुमने जरूर देख लिया था; तुम्हारी आति थी। तुमने रस्सी के ऊपर अपने भय को आच्छादित कर दिया था। सांप था नहीं, फिर भी तुम्हारी भी तो टूट गयी, जो थी। और तुम्हारा हृदय तो हानि को पहुंच गया, जो था। जो नहीं है, उसके भी परिणाम हो सकते हैं। अंधेरा भी नहीं है। मगर उसके भी परिणाम तो होते हैं। अंधेरे में चलोगे तो दीवाल से टकरा जाओगे; दरवाजे से निकलना आवश्यक तो नहीं; निकल जाओ, संयोग है। ज्यादा संभावना यही है कि दीवालों से टकराओगे। अंधेरे में चलोगे, फर्नीचर से टकराकर गिर पड़ी, कुछ भी हो सकता है। और अंधेरा नहीं है। अंधेरे की कोई सत्ता नहीं है। अंधेरा केवल प्रकाश का अभाव है। इसलिए तो दीए के जलाते ही अंधेरा नहीं पाया जाता है। और ऐसे ही बोध के जगते ही मन नहीं पाया जाता है। जैसे कोई ले आए रोशनी तो रस्सी मिलेगी, सांप नहीं। फिर क्या पूछोगे, सांप कहां गया? फिर तो प्रश्न भी व्यर्थ हो जाएगा। था ही नहीं, तो जाएगा कैसे?

इसलिए एक बात खयाल रखना : मन के नाश का ऐसा अर्थ मत ले लेना कि मन है और उसका नाश करना है। क्योंकि जो है उसका तो नाश हो ही नहीं सकता। थोड़ी तुम्हें असुविधा होगी, जो मैं कह रहा हूं उसे समझने में। इसलिए ठीक—ठीक उसे दोहरा दूं : जो है उसका नाश नहीं है; और जो नहीं है, बस केवल उसका नाश है। एक छोटे—से रेत के कण को भी मिटा न सकोगे। विज्ञान की सारी सामर्थ्य भी जो पूरी मनुष्य—जाति को नष्ट कर सकती है, जो इस तरह की सात सौ पृथ्वियों को जीवन से विहीन कर सकती है—आज इतने उद्जन बम, एटम बम इकट्ठे हो गए हैं—लेकिन विज्ञान भी एक छोटे—से रेत के कण को मिटा नहीं सकता। जो है, उसे मिटाने का कोई उपाय ही नहीं है। वह रहेगा। रूप बदल सकता है, आकृति बदल सकती है; रहेगा—नये रूपों में, नयी आकृतियों में। और जो नहीं है, केवल वही मिटाया जा सकता है।

इसलिए मैं अपने संन्यासियों से कहता हूं : मैं तुमसे वही छीन लूंगा जो तुम्हारे पास नहीं है और तुम्हें वही दे दूंगा जो तुम्हारे पास है ही। न मुझे कुछ छीनना है; न मुझे कुछ देना है। जो है उसका तुम्हें होश आ जाए और जो नहीं है उसकी तुम्हारी भांति टूट जाए।

मन आभास मात्र है—रस्सी में देखा गया सांप। जरा—सी रोशनी ध्यान की—और मन नहीं पाया जाता है।

शंकराचार्य का यह सूत्र ठीक है :

कस्यास्ति नाशे मनसो हि मोक्ष:।

मोक्ष क्या है? किसमें मोक्ष है? कहां मोक्ष है? छोड़ दो धारणाएं कि कहीं दूर सात आसमानों के पार मोक्ष है। मोक्ष तुम्हारे भीतर है। मन की भ्रांति में उलझे हो, इसलिए दिखाई नहीं पड़ता। सांप में अटक गए, इसलिए रस्सी दिखाई नही पड़ती। जैसे ही मन की आति से जगे… और, मन सच में एक तंद्रा है, एक मूर्च्छा है.. .जैसे ही मन का ऊहापोह गया, मन के विचारों का तांता टूटा, ये मन के रास्ते पर दौड़ते हुए सपने, स्मृतियां, कल्पनाएं, वासनाएं ऐष्णाएं, तृष्णाएं—ये ठहरी, एक क्षण को भी ठहर जाएं तो तत्‍क्षण तुम्हें यह दिखाई पड़ जाएगा कि मैं कौन हूं। मन के ठहरते ही स्वयं का बोध है। और स्वयं का बोध ही मुक्ति है।’मोक्ष’ से फिर कहीं भूल न कर लेना। मोक्ष शब्द में ऐसा लगता है जैसे कुछ भौगोलिक—कहीं। मैं पसंद करता हूं ‘मुक्ति’ बजाय मोक्ष के। क्योंकि मुक्ति में आतरिकता है। मोक्ष में हमने मुक्ति को बाह्य रूप दे दिया। जो भेद मैं भगवत्ता और भगवान में करता हूं जो भेद मैं धर्म और धार्मिकता में करता हूं वही भेद मैं मुक्ति और मोक्ष में करता हूं। मेरा जोर मुक्ति पर है, मोक्ष पर नहीं। मोक्ष में खतरा है। उस शब्द में ऐसा इशारा मालूम होता है—कहीं और, किसी और समय में, किसी और लोक में। और अगर कहीं और है मोक्ष तो मन फिर मिटेगा नहीं। धन को छोड़ देगा, पद को छोड़ देगा, फिर मोक्ष की आकांक्षा से भर जाएगा। और आकांक्षाए सब एक जैसी हैं। हर आकांक्षा मन को जिलाए रखने के लिए काफी है, मन को बनाए रखने के लिए काफी है। हर आकांक्षा मन का पोषण है। आकांक्षा मन की जड़ है। तुमने कुछ भी चाहा तो मन बना रहेगा। और तुमने चाहा ही नहीं, तुमने चाह को ही जाने दिया, कि मन गया। मन यानी चाह। मन यानी ऐष्णा, तृष्णा, महत्याकांक्षा।

इसलिए खयाल रहे, तुम्हारे साधु हैं, संत हैं, महात्मा हैं, अगर तुम उन्हें गौर से जाचोगे, परखोगे, तो पाओगे उनके जीवन में कोई क्रांति नहीं घटी है। ही, आकांक्षा के विषय बदल गये, लेकिन आकांक्षा पूर्ववत् है.। कणमात्र भी भेद नहीं पड़ा है। वे वहीं के वहीं खड़े हैं।’ धन चाहते थे, अब धर्म चाहते हैं; पद चाहते थे, अब परमात्मा चाहते हैं; संसार चाहते थे, अब कैवल्य चाहते हैं। और सारी आकांक्षाओं से अपने मन को सिकोड़ लिया और सारी आकांक्षाओं को एक ही आकांक्षा पर आरोपित कर दिया है। खयाल रहे, जब आकांक्षाएं बहुत बंटी होती हैं तो मन कमजोर होता है क्योंकि विभाजित होता है। धन भी चाहिए, पद भी चाहिए, प्रतिष्ठा भी चाहिए, यह भी चाहिए वह भी चाहिए, हजार चीजें चाहिए, तो मन बंटा होता है, कटा होता है, खंड—खंड होता है। खंड—खंड होता है तो उसकी शक्ति भी कम होती है। लेकिन जिसने अपनी सारी आकांक्षाओं को एक ही बिंदु पर केन्द्रित कर दिया—मोक्ष चाहिए; पद की आकांक्षा को भी लगा दिया, वहीं, धन की आकांक्षा को भी लगा दिया वहीं, प्रतिष्ठा की आकांक्षा को भी लगा दिया वहीं, सारे तीर एक ही दिशा में चलने लगे—उसका मन और भी मजबूत हो जाता है।

इसलिए मेरा अनुभव यह है कि सांसारिक लोगों के पास कमजोर मन होता है और तुम्हारे तथाकथित आध्यात्मिक लोगों के पास बहुत मजबूत मन होता है। उनके बंधन कम न हुए। तुम्हारे बंधन पतले धागों जैसे हैं; उनके बंधन मोटे रस्से हो गये, सब धागों से बुनकर बन गये, सब धागों ने एक ही रस्सा बना दिया। तुम्हारी जंजीरें क्षीण हैं, क्योंकि बहुत हैं। आसानी से तोड़ी जा सकती हैं। उनकी जंजीर को तोड़ना बहुत मुश्किल है। उनकी महाजंजीर हो गई है। सब जंजीरों को ढाल लिया उन्होंने एक जंजीर में।

इसलिए मै अपने संन्यासी को कहता हूं : साधु मत बनना, महात्मा मत बनना, संत मत बनना। भागना मत संसार को छोड़कर, क्योंकि अगर भागोगे संसार को छोड़कर तो आगे कुछ लक्ष्य रखना पड़ेगा। भागोगे किसके लिए? भागना केवल नकारात्मक नहीं हो सकता। भागने में विधायकता होगी। सामने कोई गंतव्य चाहिए, तब कोई भाग सकता है। तुम जब भागते हो तो किसी चीज से ही नहीं भागते, किसी चीज के लिए भागते हो। और तुम जिस चीज के लिए भाग रहे हो संसार छोड़कर, वह और भी कठिन है, वह और भी मुश्किल है। मन मजबूत हो जाएगा। मन जितना था, उससे कहीं ज्यादा सबल हो जाएगा। इसलिए तुम्हारे महात्माओं में जितना अहंकार होगा उतना सांसारिकों में नहीं होता। सांसारिक आदमी तो बेचारा कहता है, ‘हम दीन—हीन, संसार के बंधनों में पड़े।’ महात्मा की अकड़ ही और। लात मार दी धन पर, पद पर, प्रतिष्ठा पर। अरे मोक्ष के लिए सब कुछ छोड़ दिया। मगर मोक्ष के लिए। तो यह मोक्ष अब आखिरी फांसी बनी।

ऐसे मन नहीं जाता। यह मन के जाने का ढंग नहीं है। मन के जाने का तो एक ही ढंग हें और वह है : जागकर मन के स्वरूप को समझ लेना। मन का स्वरूप क्या है? मन का स्वरूप है : और मिले, और मिले, और मिले! मन का स्वरूप यही है : जितना है काफी नहीं। जो है काफी नहीं। जहां हूं वह ठीक नहीं। जैसा हूं वह ठीक होना नहीं। कहीं और होना है, कुछ और होना है, कुछ और पाना है—बस यही मन का स्वरूप है।’और की दौड़’ मन का दूसरा नाम। जिस क्षण तुमने जाना कि जहां हूं जैसा हूं जो हूं मस्त हूं आनंदित हूं न कहीं जाना है, न कुछ होना है, न कुछ पाना है—उसी बोध के क्षण में वह ज्योति तुम्हारे भीतर जगमगा उठती है, जिसमें मन नहीं पाया जाता; वह दीया जल उठता है जिसमें मन का अंधेरा खो जाता है।

लेकिन शंकराचार्य का सूत्र सुंदर है— ‘किसके नाश में मोक्ष है? मन के नाश में ही।’ पर सावधान तुम्हें कर देना चाहता हूं कि मोक्ष पाने के लिए मन का नाश करना, मत सोचने लगना, नहीं तो चूक गए; बात आयी आयी हाथ में और निकल गयी। शंकराचार्य यह नहीं कह रहे हैं कि मन का नाश करो तो मोक्ष पा लोगे। वे यह कह रहे हैं कि मन का नाश जहां हो जाता है वहां जो बचता है, वही मोक्ष है। मोक्ष तुम्हारे भीतर है, मन के पर्दे उसके ऊपर पडे हैं। मन के पर्दे हटा दिए, मोक्ष प्रगट हो गया। मोक्ष तुम्हारी नग्नता है, तुम्हारा स्वरूप है, तुम्हारा स्वभाव है, तुम्हारी निजता है। और मन? मन है तुम्हारा भटकाव; अपने से स्मृत हो जाना, अपने केन्द्र से कहीं और चले जाना। मन है समय, अतीत, भविष्य। और मोक्ष है वर्तमान—अभी और यहीं। इस क्षण के पार देखना ही नहीं; न पीछे, न आगे। इस क्षण में ही ठहर जाओ और तुम्हें मोक्ष मिल गया, क्योंकि इस क्षण में ठहर जाना ही मोक्ष है।

और उन्होंने कहां:

क्‍व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।

’किसमें सर्वथा भय नहीं है?’ अभयानंद ने फिर अनुवाद किया है —मोक्ष में। मैं कहना चाहूंगा, शंकराचार्य का शब्द बिलकुल साफ है। क्यों उसका तुमने मोक्ष में अनुवाद कर दिया? हमारा मन कितनी जल्दी गलतियों में उतर जाता है!

क्‍व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।

’विमुक्तौ’ —उसको तुम कैसे मोक्ष कह रहे हो? विमुक्तता में! विमुक्ति में! तुम्हारे विमुक्त होने में ही भय का नाश है। तुमने उसको भी तत्‍क्षण ‘मोक्ष’ कर दिया। हम भीतर हर बात को बडी जल्दी बाहर की बना देते हैं। हम भीतर टिकने ही नहीं देते, जल्दी बाहर बना देते हैं। क्योंकि बाहर बनाते से ही फिर हमारे लिए गंतव्य मिल जाता है, लक्ष्य मिल जाता है—अब पाकर रहेंगे। अहंकार के लिए नए आयोजन हो जाते है—तो अब विमुक्ति पानी है, मोक्ष पाना है। मगर बाहर का कुछ कर लिया। बात सदा भीतर की है; तुम सुनते हो और तुम्हारे सुनने में ही तत्‍क्षण भूल हो जाती है, रूपांतरण हो जाता है।

अभयानंद ने अनुवाद किया है, ‘किसमे सर्वथा भय नहीं है? मोक्ष में।’ इसका मतलब हुआ कि जब मोक्ष पहुचेंगे तब भय मिटेगा।

कल ही मुझे पत्र मिला है अमरीका से। हरे कृष्ण आंदोलन के प्रधान ने धमकी दी है—धार्मिक धमकी है, जैसा कि धार्मिक लोग सदा से देते रहे—कुछ नयी नहीं। धमकी दी है, अगर आपने हरे कृष्ण आंदोलन के खिलाफ कुछ भी कहां तो आप गोलोक में कभी नहीं पहुंच सकेंगे और आपको सातवें नर्क में पड़ना पड़ेगा।

गोलोक जाना किसको है? कोई सांड हो तो गोलोक जाना चाहे। गोलोक किसको जाना है? अजीब लोग हैं! पहले पूछ भी तो लेना चाहिए कि मुझे गोलोक जाना भी है या नहीं। क्या—क्या लोक बना रखे हैं। महात्मा गांधी बकरी—लोक में गए होंगे, क्योंकि वे बकरी का ही दूध पीते रहे जिंदगी भर; गोलोक में तो उनको कौन घुसने देगा! और भैंस का दूध सम्हलकर पीना! मगर गोलोक में तुम करोगे क्या और गोलोक में तुम होओगे क्या?

इससे मैं चौंका बहुत। चौंका इसलिए कि बेचारे भक्तिवेदांत प्रभुपाद चल बसे, गोलोक में सांड हो गये होंगे।

एक आदमी मरा। उसकी पत्नी एक ज्ञानी के पास गयी, जिसके संबंध में यह खबर थी कि वह प्रेतात्माओं से संबंध जोड लेता है। उसकी पत्नी ने कहां, ‘बस एक बार मुझे मेरे पति से बात करवा दो। इतना मुझे भरोसा आ जाए कि वे ठीक पहुंच गये, तो मेरा दुख हलका हो जाए।’ उस प्रेतात्माविद् ने जंतर—मंतर पढ़े, कुछ धूप—दीप जलाए, लोभान चढ़ाया, हिला—डुला, कुछ अल्ल—बल्ल, आंखें ऊपर चढ़ायी और फिर एकदम आवाज बदलकर बोला कि मैं आ गया। पत्नी ने पूछा कि आप कैसे हैं। उसने कहां. ‘बहुत मजे में हूं बहुत आनंद में हूं। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है, घास ही घास उगा है, फूल खिल रहे हैं, गउएं चर रही हैं।’

पत्नी ने कहां, ‘अरे! यह घास और गउएं, इनकी बात पीछे करना, पहले स्वर्ग के संबध में और कुछ तो बताओ।’

उसने कहां, ‘अरे, यह पास में ही जो गाय खड़ी है, ऐसी सुंदर, हेमा मालिनी को मात दे रही है।’

पत्नी बोली कि तुम भ्रष्ट तो नहीं हो गए, तुम्हारा दिमाग कैसा हो गया? अरे, स्वर्ग में पहुंचकर और कहां की बातें कर रहे हो! पति ने कहां, ‘कौन कहता है कि मैं स्वर्ग में आया? अरे, मैं यहीं पूना में एक सांड हो गया हू_। और क्या प्यारी गऊमाता खडी है! लार टपकी जा रही है! और तू कहां की स्वर्ग की बातें कर रही है! स्वर्ग जाए भाड़ में, मैं चला गऊ माता के पीछे।’

गोलोक में जाना किसको है? गोलोक छोड्कर और कहीं भी मैं जाने को तैयार हूं। गोलोक में करना क्या है? सातवें नर्क में भैजने की मुझे धमकी दी है। मुझे कोई अड़चन नहीं है। सातवां हो कि चौदहवी हो, कोई भी नर्क हो, मैं जाने को राजी हूं। क्योंकि मैं जहां हूं जैसा हूं वहीं आनंदित हूं तो वहीं आनंदित होंगे। सातवें नर्क में क्या बिगड़ जाएगा? मेरा कुछ बिगड़ने वाला नहीं। वहीं सन्यासियों को इकट्ठा कर लेंगे, वहीं सत्संग जमेगा। और ऐसे भी जब मुझे सातवें नर्क जाना पड़ेगा तो मेरे संन्यासी भी वहीं जाएंगे, और कहां जाएंगे! वहीं फिर बसा लेंगे।

ये जो पार की कल्पनाएं हैं——गोलोक, बैकुंठ, स्वर्ग, मोक्ष—स्ब पागलपन है। न तो कहीं कोई स्वर्ग है, न कहीं कोई नर्क। जब तुम अपने में नहीं हो तो नर्क में हो और जब तुम अपने में हो तो स्वर्ग में हो। ये धमकियां किन्हीं और पागलों को देना। जो अपने में है, वह अपना स्वर्ग अपने साथ लिए चलता है। और: जो अपने में नहीं है वह कहीं भी पहुंच जाए, नर्क में ही रहेगा; वह अपना नर्क अपने साथ लिए चलता है।

अभयानंद, शंकर ठीक कहते हैं, ‘किसमें सर्वथा भय नहीं है?’

‘मोक्ष’ अनुवाद न करो—विमुक्ति में। और विमुक्ति का अर्थ हुआ : मन से मुक्ति। विमुक्ति का अर्थ हुआ. समाधि, ध्यान की परम अवस्था।

शल्य परं किं निजमूर्खतेव।

और सबसे बड़ा काटा कौन है? सबसे बड़ा अवरोध क्या है, शल्य क्या है, रुकावट क्या है? अपनी मूढ़ता ही। और तो किसकी मूर्खता तुम्हें बाधा देगी? अपनी मूढ़ता ही।

क्या है हमारी मूढ़ता? हमारी सबसे बड़ी छूता यही है कि हम अज्ञानी हैं और अपने को ज्ञानी समझे बैठे हैं। पता कुछ भी नहीं है और शास्त्रों को अपने चारों तरफ लपेट लिया है; शास्त्रों के वस्त्र बना लिए हैं; राम—नाम की चदरिया ओढ़े बैठे हैं। भीतर समरस बहता नहीं, भीतर कुछ राम का अनुभव नहीं; भीतर तो काम ही काम भरा हुआ है, लेकिन बाहर राम—नाम की चदरिया ओढ़े हुए हैं; वेद पढ रहे हैं, कुरान पढ़ रहे हैं, बाइबिल पढ़ रहे हैं, गुरुग्रंथ साहब पढ़ रहे हैं। लेकिन पढ़नेवाला कहां है, किस अवस्था में है? मूर्च्छित है या होश में है?

एक बात खयाल रहे, अगर मूर्च्छा में हो तो वेद भी पढ़ोगे तो क्या खाक पढ़ोगे! तुम्हारा वेद भी कोकशास्त्र हो जाएगा, और कुछ भी नहीं। तुम कुरान भी पढ़ोगे तो कचरा कर दोगे, तुम ही तो पढ़ोगे न! तुम ही तो अर्थ निकालोगे! कुरान में तो शब्द होंगे, अर्थ कौन देगा? उन शब्दों को भावभंगिमा कौन देगा? उन शब्दों को रूप—रंग कौन देगा? तुम्हारे भीतर जाते—जाते वे तुम्हारे रंग में रंग जाएंगे, तुम जैसे ही मुच्छिर्त हो जाएंगे। लेकिन अगर तुम होश में हो, अगर तुम ध्यान में हो, अगर तुम शात हो, मौन हो, तो फिर वेद को पढ़ने की जरूरत नहीं, क्योंकि तुम्हारे भीतर के वेदों का द्वार खुल गया। फिर कुरान दोहराने की जरूरत नहीं; तुम्हारे भीतर खुद ही आयतें उतरने लगीं। तुम्हारे भीतर वही होने लगा जो मुहम्मद के भीतर हुआ था। फिर क्या तुम उधार और वासे में अटकोगे।

मूढ़ता क्या है? मूढ़ता एक ही है। हम सब अज्ञानी पैदा होते हैं। अज्ञान में कोई खतरा नहीं है। अज्ञानी हम सभी पैदा होते हैं। खतरा तब शुरू होता है जब हम अज्ञान को उधार ज्ञान से डाक लेते हैं। उधार ज्ञान से तक। हुआ अज्ञान—यह मूर्खता है। मूर्खता का दूसरा नाम : पांडित्य, तोतापन। कितने तोते हैं। कोई इमाम है, कोई अयातुल्ला है, कोई पोप है। कितने पुरोहित, कितने पंडित, कितने शास्त्री। और ये सब दोहरा रहे हैं यंत्रवत् मशीन की तरह। इन्हें यह भी पता नहीं है कि ये क्यों दोहरा रहे हैं। इन्हें यह भी पता नहीं कि इनके भीतर ही शास्त्रों का शास्त्र पड़ा हुआ है, जिसे इन्होंने अभी खोला भी नहीं; जिस पर सदियों की गर्द जम गयी है। इनके भीतर वह दर्पण है, जिसमें सत्य की छवि बने मगर यह दर्पण ऐसा धूल में दब गया है कि इन्हें उसका कुछ पता ही नहीं। और धूल इनके ज्ञान की है। इनके शास्त्रों का कचरा ही इनके दर्पण को ताक लिया है। आच्छादित हो गये हैं ये।

अज्ञान में खतरा नहीं है। अज्ञान तो निर्दोषता है। हर बच्चा अज्ञानी पैदा होता है। लेकिन उसका दर्पण साफ होता है। बच्चा मूर्ख नहीं होता। मूर्ख होने के लिए तो यूनिवर्सिटी जाना पड़ता है। मूर्ख होने के लिए तो कम से कम पी .एच .डी., डी लिट् होना ही चाहिए। मूर्ख होने के लिए उपाधियां चाहिए।

‘उपाधि’ शब्द बड़ा प्यारा है, कम से कम हमारी भाषा में तो बड़ा प्यारा है। उपाधि का एक अर्थ बीमारी भी होता और उपाधि का एक अर्थ सम्मानित डिग्री भी होता है। बीमारियां ही हैं, लेकिन अपनी बीमारियों को लोग लगाए फिरते हैं। आदमी को बंदरों जैसी पूंछ नहीं है, तो बेचारा अपनी उपाधियों की पूंछ लगा लेता है; एम .ए., पी .एच .डी., डी लिट्, यह पूंछ बन जाती है उसकी। इससे उसकी पूछ होने लगती है। पूंछ बढ़ जाती है तो पूछ होने लगती है। जितनी लंबी पूंछ.. .देखा न हनुमान जी अपनी पूंछ को बड़ा करते गए, बड़ा करते गए, मतलब यह कि वे होते गए पंडित, होते गए पंडित। अपनी पूंछ का ही उन्होंने सिंहासन बना लिया, उस पर बैठ गए। सभी यही कर रहे हैं : पूंछ को बड़ी करते जा रहे हैं।

मूढ़ता, तुम्हारा तथाकथित जो शास्त्रीय ज्ञान है, उसका ही नाम है। इससे तुम्हारा अज्ञान तो मिटता नहीं, सिर्फ अज्ञान ढंक जाता है। काश तुम अपने अज्ञान को पहचान लो तो मिटाना बहुत आसान है, मगर ढाक लो तो फिर तो पहचानना ही मुश्किल हो गया। जैसे किसी को घाव हो जाए, वह उसको ढांक ले, गुलाब का फूल उसके ऊपर चिपका ले; फिर तो घाव का इलाज कौन करेगा? भीतर मवाद इकट्ठी होती रहेगी, ऊपर फूल सुगंध देता रहेगा। बस ऐसी ही अवस्था है।

शल्य परं किं निजमूर्खतेव।

एक ही शल्य है। एक ही कांटा है कि तुमने अपने अज्ञान को ढाक लिया। उधाड़ो। अज्ञान को पहचानो। अज्ञान को पहचानने से ही ज्ञान की वर्षा शुरू होती है। जिसने अज्ञान को पहचाना, उसे पहचानने में ही वह ज्ञानी हो गया। जिसने अपने अज्ञान को गौर से देखा, उस गौर से देखने में ही वह अज्ञान से अलग हो, गया। देखनेवाला हमेशा दृश्य से अलग हो जाता है, दृश्य से मुक्त हो जाता है।

और तीसरी बात शंकराचार्य ने कही—

के के हयुपास्या गुरुदेववृद्धा।

’कौन—कौन उपासना के योग्य है? गुरु, देवता और वृद्ध।’

अभयानंद, शंकराचार्य का वचन तो बहुत प्यारा है, मगर उसके जो अर्थ लोगों ने किये हैं, बड़े ही नासमझी से भरे हुए हैं। गुरु कौन? जो ज्ञान दे। और ज्ञान दिया नहीं जा सकता। सत्य दिया नहीं जा सकता। मगर लोगों का अर्थ यही है कि गुरु वह जो तुम्हें कुछ सिखाए—वेद सिखाए, कुरान सिखाए, बाइबिल सिखाए, सिद्धांत सिखाए—वही गुरु। जो तुम्हें सिखावन दे, वह गुरु। और देवता कौन? इंद्र और वे सारे लोग जो खूब पुण्य अर्जन करके धर्मशालाएं बनाकर प्याउएं खुलवाकर, मंदिर खड़े करवाकर, स्वर्ग पहुंच गये हैं, वे सब देवता। यहां उन्होंने धर्मशाला खुलवायी, अब वहा गुलछर्रे कर रहे हैं। अरे धर्मशाला खुलवाओगे तो गुलछर्रे तो होने ही वाले हैं, नहीं तो कोई धर्मशाला ही किसलिये खुलवाए। यहां झाड़ लगवाए, वहा कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं। कल्पवृक्ष के नीचे

क्या बैठे हैं, मजा कर रहे हैं। जो चाहिए, यहां चाहा और वहां चीज मौजूद हुई। दुनिया में तो ऐसा है : चाहो आज, वर्षो मेहनत करो, घुटी—पिटी, भारी भीड़— भड़क्का है, सौ—सौ जूते खाओ तब कहीं तमाशा देख पाओ। पहले खुद तमाशा बनो और जब तक तमाशा देखने की हालत आए, तब तक तुम्हारी हालत देखने योग्य न रह जाए। लेकिन कल्पवृक्ष के नीचे तत्‍क्षण घटना घटती है।

तो देवता कौन हैं? जैसे जुगल किशोर बिड़ला। कितने बिड़ला मंदिर बनवाए। वे देवता हो गये। कहते हैं उनको स्वर्ग के द्वार पर स्वागत किया गया, खूब शहनाई बजी, खूब देवी—देवताओं ने घटाल पीटे, खूब भजन—कीर्तन हुआ। थोड़े तो जुगलकिशोर बिड़ला भी हैरान हुए। मेरे परिचत थे। परिचित थे सो उनके संबंध में सच्ची—सच्ची बात ही कहे देता हूं। थोड़ा—संकोच भी हुआ; सोचा तो था कि स्वर्ग मिलेगा, मगर ऐसा स्वागत—समारम्भ भी होगा—रेड कार्पेट वाला स्वागत, एकदम लाल मखमली दरी बिछाकर स्वर्ग के द्वार पर फूलों की मालाएं—फूल जो कभी कुम्हलाते नहीं; अप्सराएं, उर्वशी, मेनका फूलों के हार लिए। जुगलकिशोर जरा चौंके। मंदिर तो उन्होंने बनवाये थे; स्वर्ग जाएंगे, यह भी आश्वासन था। मुझसे पूछा भी था उन्होंने कि मैंने इतने मंदिर बनवाये, इतना पुण्य किया, इतना दान दिया, इतने ट्रस्ट, इस सबका क्या लाभ होगा? मन में कहीं संकोच तो रहा ही होगा, तभी आदमी पूछता है। कहीं भय भी रहा होगा। कहीं यूं ही तो हाथ से पैसा बेकार नहीं जा रहा, कि इधर भी गये उधर भी गये, न रहे घर के न घाट के, हो गये धोबी के गधे।

मै तो हंसकर टाल गया था, क्योंकि सच्ची बात कहूं तो बूढ़े आदमी, मरने के करीब, अब नाहक इनको क्या दुख देना। मरण—शैया पर ही पड़े हैं। सच बात इनसे अब क्या कहो, बहुत देर हो गयी। और सूठ तो मैं कह सकता नहीं, चाहे कोई मरण—शैया पर ही पड़ा हो। सो मैं तो हंसकर टाल गया था। मगर जब उन्होंने देखा तो पूछा उन्होंने द्वारपाल से, क्या इसी तरह सभी का स्वागत होता है? उन्होंने कहां कि नहीं, आपका स्वागत इसलिए हो रहा है कि आपने एम्बेसेडर कार बनवायी। जुगलकिशोर और चौंके कि हद हो गयी, मंदिर बनवाए, धर्मशालाएं खुलवायीं, यज्ञ—हवन करवाए, उनके कारण स्वर्ग नहीं मिल रहा है; एम्बेसेडर कार बनवायी, उसके कारण स्वर्ग मिल रहा है। उन्होंने कहां, मैं कुछ समझा नहीं।

उन्होंने कहां, नहीं, समझे नहीं, आप समझो। आपकी कार के कारण जितने लोगों को राम का स्मरण आया, और किसी के कारण नहीं आया। जो भीतर बैठते हैं, वे राम—राम कहते रहते हैं। जो उसको सड़क से। निकलते देखते है, वे एकदम राम—राम कहकर बगल में हट जाते हैं। क्या गजब की चीज आपने बनवायी, जिसमें हर चीज बजती है, सिवाय हार्न को छोड़कर। मीलों तक एकदम राम—राम जप जाता है। जहां से निकल जाती है एम्बेसेडर कार, दूर—दूर तक सन्नाटा हो जाता है। एकदम लोग ध्यानस्थ हो जाते हैं। उसी के कारण आपका स्वागत हो रहा है।

अब बैठे होंगे कल्पवृक्ष के नीचे, हालांकि करेंगे क्या कल्पवृक्ष के नीचे। यही सोच रहे होंगे कि अब यहां कैसे एम्बेसेडर कार का कारखाना खोलें। खुल जाएगा एकदम कारखाना। यहां सोचा कि वहां खुला।

यहां वृक्ष लगवाओ, वह कल्पवृक्ष मिलेंगे। शास्त्र कहते हैं : यहां एक रूपया दान दो, वहा करोड़गुना पाओ। देखा, लाँटरी बहुत पुरानी चीज है। यह कोई नयी बात नहीं। भारतीय सरकारी को नाहक गालियां मत दो कि ये लाँटरी खेलाना सिखाती है लोगों को। ये तो शास्त्रीय हैं बातें। ये तो धार्मिक है। यह तो महात्मा पहले से ही खेलाते रहे। और कम से कम यहां लाटरी है तो यहीं पैसा मिलता है; वह लॉटरी तो ऐसी है कि पता नहीं आगे मिले न मिले, यह रूपया भी गया। मगर पंडित—पुरोहित धंधा ही अदृश्य का करते हैं; नगद रूपया लेते हैं और उधार आश्वासन देते हैं। वह मिलेगा मरने के बाद। चिट्ठियां लिख देते हैं। हुण्डिया लिखी जाती हैं। हुंडी लिखी जाती है और मुदें के साथ रख दी जाती है कि दिखा देना, भंजा लेना।

तो देवता वे हैं, जो पुण्य करके धर्मशालायें वगैरह बनाकर स्वर्ग में पहुंच गये हैं। यह तुम्हारी धारणा है। फिर स्वभावत: वहा भी वही राजनीति चलेगी, क्योंकि एक पहुंच गया स्वर्ग में, इन्द्र हो गया, तो वह दूसरे महात्मा को इन्द्र नही होने देता। क्योंकि अब दूसरा महात्मा तैयारी कर रहा है, तो इन्द्रासन डोलता रहता है। इन्द्रासन डोलता ही रहता है, शास्त्रों में जब देखो तब ज्यादा काम यही होता है कि इन्द्रासन डोल रहा है। कोई बेचारा ऋषि—मुनि… बस भेज दी अप्सराएं। और ऋषि—मुनि एकदम अप्सराओं के कारण भ्रष्ट हो जाते हैं, देर नहीं लगती। सिर्फ मेरे संन्यासियों को कोई अप्सराएं भ्रष्ट नहीं कर सकतीं, क्योंकि वे अप्सराओं को पहले ही भ्रष्ट कर चुके हैं। अब क्या अप्सराएं उनका भ्रष्ट करेंगी। अगर मेरे संन्यासी के पास उर्वशी वगैरह आएं, तो वह कहेगा—बाई, जा, आगे बढ़! किसी पुराने ढंग के ऋषि—मुनि को खोज। मेरे संन्यासी से तो इन्द्र की छाती कंपती होगी कि अगर ये संन्यासी यहां आ गये तो इन पर कोई पुराने दाव—पेंच चलेंगे नहीं। पुराने दाव—पेंच चल जाते थे बेचारे ऋषि—मुनियों पर, भूखे बैठे हैं, दबाए बैठे हैं वासना को, पत्नियों को छोड़ आए हैं, तो वही—वही उबल रहा है भीतर और यहीं आ गई इसी बीच उर्वशी, अब करें भी तो क्या करें! अब एकदम से भ्रष्ट न हों तो और क्या करें। तो योग— भ्रष्ट होते थे। देवताओं का धंधा यह कि दूसरी को भ्रष्ट करें। यह भी खूब देवता हुए।

ऐसा अर्थ मत करना, नहीं तो शंकराचार्य का पूरा पद व्यर्थ हो जायेगा। और वृद्ध से ऐसा अर्थ मत करना कि जिनकी उम्र ज्यादा है। वृद्ध से उम्र का कोई लेना—देना नहीं, नहीं तो के गधे बहुत हैं। एक से एक पहुंचे हुए गधे हैं। उम्र ही उनकी बस एकमात्र काफी प्रमाण है कि वे जो कहते हैं सो ठीक कहते हैं।

उम्र से कुछ भी नहीं होता। अनुभव ही प्रौढ़ता लाता है और अगर उम्र से ही शंकराचार्य का मतलब हो, तो खुद शंकराचार्य को कोई सम्मान नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे तो तैतीस साल में चल ही बसे। के तो हुए ही नहीं, तैंतीस साल में ही तो खातमा हो गया। तो उनका अर्थ वृद्ध से उम्र नहीं है, प्रौढ़ता है, अनुभव की परिपक्वता है।

और उपासना से भी अर्थ तुम पूजा का मत लेना, नहीं तो सब खराब कर दोगे। मेरा अर्थ समझने की कोशिश करो। कौन—कौन उपासना के योग्य हैं? उपासना शब्द बहुत सीधा है। वे कौन—कौन हैं, जिनके पास बैठने के योग्य हो। उपासना का अर्थ होता है. पास बैठना, उप— आसना। जैसे तुम मेरे पास बैठे हो, यह उपासना है। पास किसके बैठा जा सकता है? पूजा ‘का कोई सवाल नहीं है। पूजा तो छू करते हैं, लोभी करते हैं, किसी लोभ के कारण करते हैं। उपासना का अर्थ है, सत्संग। सत्संग के कौन योग्य है? किसके पास बैठें? वह कौन है जिसके पास बैठने से क्राँति हो जायेगी? जले हुए दीए के पास अगर बुझा हुआ दीया बिठा सको, तो एक निकटता का क्षण है, एक फासला है, जिस फासले की सीमा को पार करते ही बुझा दीया भी जला हुआ दीया हो जाता है।

तुमने हजारों बार जले हुए दीये से बुझे दीये जलाये हैं, हर दीपावली को जलाते हो। वही प्रक्रिया उपासना की है। किसी जले हुए दीये के पास बैठो और पास से पास आते जाओ। ऐसे पास आ जाओ कि तुम्हारा बुझा दीया भी जल उठे। अर्थ है इसका सत्संग।

उनको देखा है..।

उनको इक बार फिर से देखा है।

यूं देखा तो है पहले भी उन्हें,

आज जानो—जिगर से देखा है।

खुद को देखा है उनकी आंखों से?

उनको उनकी नजर से देखा है।

जहां खो जाते हैं राहो—मंजिल,

उनको उस रहगुजर से देखा है।

इधर से देखी है सीढ़ियों पर धूप

चांदनी को उधर से देखा है।

उनमें देखा है इक शब्दों का सनम,

एक चुप्पी को मुखर देखा है।

एक खुशबू जो इस जहां की नहीं,

उनका गुल उस खुशबू से तर देखा है।

सम्हाले चलते हैं वो इक छलकता सागर,

ये उनके पांवों —सर से देखा है।

आंखों से पी है उनके रूप की मय,

और शायद अधर से देखा है।

आंखें ये जब लगीं होने खाली,

तब उन्हें आंख भर के देखा है।

उनको देखा था शहर में इक दिन

अब उन्हें उनके घर से देखा है।

चांद को देखा है जमीं से बहुत

जमीं को चांद पर से देखा हंसी है

हंसी है वादियों का अंधेरा भी

रोशनी के शिखर से देखा है

डुबोने वाले हैं अक्सर साहिल

ये नजारा लहर से देखा है।

कितने नाजुक हैं हकीकतो के महल,

ख्वाब के कांचघर से देखा है।

यूं तो देखा है घड़ी भर को उन्हें,

पर लगे उम्र भर से देखा है।

लंबी पहचान भी है कुछ यूं ताजी,

ज्यूं प्यार की पहली नजर से देखा है।

जले हैं उस तरफ चिरागों — पे — चिराग,

उनका जलवा जिधर से देखा है।

इश्क में बुझके भी जलने की अदा,

इन पतंगों के पर से देखा है।

लस्वों के दायरे हैं कितने छोटे,

ये लस्वों से गुजर के देखा है।

हम भला देखते उन्हें कैसे?

उनके चेहरो — असर से देखा है।

उनको एक बार फिर से देखा है।…..

उपासना का अर्थ है : किसी बुद्धपुरुष के पास बैठना। और बैठने में ही पीना शुरू हो जाता है। बैठना भर आ जाए—मौन, शून्य, खाली निर्विचार, निर्विकार— पीना शुरू हो जाता है।

दीवानगी से काम लिया और पी गये

बेइख्तियार जाम लिया और पी गये।

दैरो—हरम के नाम पे पीना हराम है।

हमने तुम्हारा नाम लिया और पी गये।

दीवानगी से काम लिया और पी गये

बेइख्तियार जाम लिया और पी गये।

याद आ गई किसी की निगाहें झुकी हुई

नजरों से इक सलाम लिया और पी गये

दीवानगी से काम लिया और पी गये।

बेइख्तियार जाम लिया और पी गये।

दुनिया की बेवफाई पे हंस कर उठाया जाम

दुनिया से इंतकाम लिया और पी गये।

दीवानगी से काम लिया और पी गये

बेइख्तियार जाम लिया और पी गये।

बैठो भर, उपासना भर हो जाए कि पीना भी हो जाता है। क्योंकि किसी भी सद्गुरु का सत्संग मयकदा है। कोई भी सद्गुरु शराब से भरी हुई सुराही है। तुम जाम बनो, तुम पास आओ कि शराब छलकने को राजी है, तुम्हारे जाम को भर देने को राजी है। दूर—दूर नहीं, पास—पास, करीब से करीब, निकट से निकट—उस सामीप्य का नाम है, उपासना।

कौन—कौन उपासना के योग्य हैं?

के के हयुपास्या गुरुदेववृद्धा।

गुरु उपासना के योग्य है। गुरु कौन है? वह नहीं जो तुम्हें सत्य दे देता है; वरन्वह जो तुम्हें सत्य की प्यास दे देता है; जो तुम्हें तिश्नाकाम बना देता है; जो तुम्हें प्यास से भर देता है। सत्य तो नहीं दिया जा सकता।

सत्य के संबंध में एक बात, एक शाश्वत नियम : सत्य दिया नहीं जा सकता, मगर लिया जा सकता है। जब एक जलते हुए दीये से दूसरे बुझे हुए दीये में ज्योति जाती है, तो क्या तुम सोचते हो जलते हुए दीये का लुक खो जाता है, कुछ कम हो जाता है? नहीं, बिलकुल नहीं। न कुछ खोता है, न कुछ कम होता है। इसलिए जले हुए दीये ने कुछ भी दिया नहीं, लेकिन बुझे हुए दीये ने कुछ लिया जरूर, बहुत कुछ लिया, सब कुछ लिया। कहां बुझा था; कहां जला हो गया। असल में दीया न कहकर ‘लिया’ कहना चाहिए, क्योंकि दीया देता तो कुछ भी नहीं; जब भी लेता है तो लेता ही है।

मगर हमारी भाषा अजीब तरह के लोग बनाते हैं। चलती हुई चीज को गाड़ी कहते हैं। गाड़ी कहना चाहिए गड़ी हुई चीज को। क्या गजब के लोग हैं, चलती को गाड़ी कहते हैं! कहते हैं, चलती का नाम गाड़ी। अरे तो फिर गाड़ी का नाम क्या? ऐसे ही लिये का नाम दीया रख छोड़ा है।

सद्गुरु देता नहीं, लेकिन शिष्य लेता है। यही उपासना का जादू है। गुरु का कुछ खोता नहीं, शिष्य को सब मिल जाता है। गुरु कौन है? जिसके पास बैठने से मिल जाए। जो दे नहीं और तुम्हें मिल जाए। जिसका कुछ घटे नहीं और तुम्हारा सब भर जाए। जो जितना भरा था उतना ही रहे।

ईशावास्य का प्रसिद्ध वचन है : वह भी पूर्ण है, यह भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। पूर्ण में पूर्ण को जोड़ भी दें तो भी पूर्ण में कुछ बढ़ती नहीं होती, उतना ही पूर्ण।

सद्गुरु उस पूर्ण अवस्था को उपलब्ध है, जिससे तुम जितना चाहो ले लो, पीछे फिर पूर्ण शेष ही रहेगा।

और देवता कौन है? इस शब्द को भी हम समझने की कोशिश करें। देवता शब्द बनता है दिव से। दिव से ही बनता है दिव्य। दिव से ही बनता है दिवस। दिव से ही बनता है अंग्रेजी का डिवाइन। दिव से ही बनता है अंग्रेजी का डे। और तुम चकित होओगे, दिव से ही बनता है—अंग्रेजी का डेविल भी। दिव का अर्थ होता है : प्रकाश। जो प्रकाशमान है। इसलिए दिवस कहते हैं हम, डे कहते हैं। जो प्रकाशवान है वही दिव्य है। जो ज्योतिर्मय है.. .उपनिषद् के ऋषियों ने गाया है : तमसो मा ज्योतिर्गमय। अंधेरे से मुझे ज्योति की तरफ ले चलो। मृत्योर्मा अमृतंगमय। मृत्यु से मुझे अमृत की ओर ले चलो। असतो मा सद्गमय। असत्य से मुझे सत्य की ओर ले चलो। मगर सारी बात आ गयी है एक ही सूत्र में—तमसो मा ज्योतिर्गमय। मुझे अंधेरे से रोशनी की तरफ ले चलो।

जो भी ज्योतिर्मय है, वह देवता। सच में इसलिए चांद को भी देवता कहां, सूरज को भी देवता कहां, अग्नि को भी देवता कहां, क्योंकि वे सब ज्योतिर्मय हैं। और इसलिए गुरु को भी देवता कहां, क्योंकि वह भी ज्योतिर्मय है; और चांद से, सूरज से, अग्नि से ज्यादा ज्योतिर्मय है, क्योंकि चांद एक दिन बुझ जाएगा और सूरज भी एक दिन बुझ जाएगा। कभी नहीं था, कभी नहीं हो जाएगा। एक दिन उसका तेल चुक जाएगा। रोज चुक रहा है। चौबीस घंटे जलेगा तो तेल तो चुकता ही रहेगा। वैज्ञानिक कहते हैं कि संभवत: चार हजार सालों में सूरज बुझ जाएगा। अगर उसके पहले आदमी ने पृथ्वी से किसी और पृथ्‍वी पर अपना आवास कर लिया तो ठीक, अन्यथा पृथ्‍वी बरबाद हो जाएगी, अपने—आप बरबाद हो जाएगी। सूरज बुझा कि सब बुझ जाएगा, जीवन समाप्त हो जाएगा।

कुछ आश्चर्य की बात न होगी कि शायद इसीलिए ही एक गहन आकांक्षा आदमी के किसी अचेतन तल से उठी है कि चलो चांद पर चलें, कि चलो मंगल पर चलें, कि चलो दूर चांद—तारों की खोज करें। आज उसका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं है, लेकिन अचेतन में कहीं यह प्रतीति भीतर मनुष्य के उठ रही है कि यह पृथ्वी के दिन अब थोड़े ही बचे हैं, इस पृथ्वी को छोड़ना ही पड़ेगा। साफ नहीं है यह सब, धुंधला—धुंधला है; लेकिन प्रकृति और जीवन बड़े धुंधलके में काम करता है।

तुमने देखा सैमर के बीज लगते हैं। तो बीज के चारों तरफ सैमर की रूई लपटी रहती है। वह क्यों लपटी रहती है? सैमर बड़ा वृक्ष है। अगर बीज उसमें से गिरे, और वृक्ष के नीचे ही गिरेंगे; तो उनमें से कभी पौधे पैदा न हो सकेंगे। इसलिए सैमर का अचेतन चित्त अपने बीजों के पास रुई को पैदा करता है, ताकि बीज नीचे न गिर सकेंगे। रुई लगी रहेगी तो हवा में उड़ जायेंगे। दूर—दूर निकल जाएंगे। नीचे गिरेंगे तो मर जाएंगे। दूर निकल जाना जरूरी है। कोई सैमर इसलिए अपने बीजों में रुई नहीं चिपकाता कि तुम्हारे तकिए बनें और गद्दे बनें। तुम्हारे तकिए—गद्दों से सैमर को क्या लेना—देना है? अपनी संतति को बचाना है, अपने बीजों को बचाना है। मगर सैमर को इसका कुछ पता नहीं, यह सब अचेतन है।

जिन लोगों ने लोगों को सूलिया लगते देखा, उन्होंने एक अजीब बात देखी कि जब किसी व्यक्ति को सूली लगायी जाती है तो तत्‍क्षण उसकी जननेंद्रिय से वीर्य निकल भागता है, तत्‍क्षण, सूली लगते ही! वैज्ञानिक कहते हैं, इसका एक ही कारण है कि वे जो वीर्य—कण हैं, वे घबड़ा उठते हैं कि आदमी तो मरा, हम कोई राह खोज लें, कहीं जीवन मिल जाए, हम किसी ठीक गर्भ को पा लें! मिलता नहीं उन्हें कोई गर्भ, यह और बात है। मगर निकल भागते हैं, तेजी से निकल भागते हैं। इधर सूली लग रही है, उधर वीर्य कण एकदम निकल भागते हैं।

शायद पृथ्वी के दिन लद गये हैं, यह प्रकृति के अचेतन में साफ है। सूरज के ढलने के दिन करीब आ गये हैं। कोई चार अरब वर्ष सै रोशनी दे रहा है, बहुत हो चुका। चुका जा रहा है। जल्दी ही एक दिन बुझ जाएगा। सूरज भी बुझ जाता है और चांद तो बेचारा बिलकुल उधार है, वह तो सूरज की ही रोशनी लेकर दोहराता रहता है। उसका धंधा तो बिचवयिए का है, दलाल का है। वह तो फलो भाई जहां काम करते हैं शेयर मार्केट में, वहीं काम करता है। इधर से लेना उधर देना। उसके पास अपनी कोई रोशनी नहीं है। सूरज की रोशनी ले लेता है और लौटा देता है, जैसे चांद पर तुम टॉर्च फेंको, दर्पण पर तुम टार्च से रोशनी डालो तो दर्पण लौटा देता है, ऐसे ही चांद लौटाता है। सूरज बुझेगा तो चांद बुझ जाएगा।

लेकिन सद्गुरु की रोशनी कभी नहीं बुझती, क्योंकि वह बिना ईंधन के जलती है। वह अकेली रोशनी है, जो बिना ईंधन के जलती है। ईंधन ही नहीं है, इसलिए बुझने का कोई सवाल ही नहीं। इसलिए सद्गुरु को ही देवता कहां है। वह सद्गुरु का ही दूसरा नाम है, दिव्यता का ही दूसरा नाम है। और सद्गुरु को ही वृद्ध कहां है, उसकी उम्र कुछ भी हो। शंकराचार्य की उम्र तैंतीस ही वर्ष थी लेकिन वे वृद्ध थे। जीसस की उम्र तैंतीस ही वर्ष की थी, लेकिन वे वृद्ध थे। और मोरारजी देसाई की उम्र पचासी वर्ष है, वे वृद्ध नहीं हैं, अभी बाल—बुद्धि से भरे हुए हैं। बालबुद्धि छूता के लिए अच्छा शब्द है। उम्र इनकी तेरह—चौदह साल से ज्यादा नहीं मानी जा सकती, मानसिक रूप से। इससे ज्यादा बुद्धिमत्ता नहीं है। इससे ज्यादा औसत मानसिक उम्र नहीं है!

क्या गजब की बातें करते हैं! ब्रेजनेव आया तो कह दिया कि मुझसे कहां था ब्रेजनेव ने कि पाकिस्तान को खतम करो, इसको सबक सिखाओ। अब ये गांधीवादी, सत्यवादी। एक हो गये राजा हरिश्चन्द्र सत्यवादी, एक हुए मोरारजी देसाई सत्यवादी। दो ही तो सत्यवादी हुए दुनिया में! क्योंकि राजा हरिश्चन्द्र ने सपने में देखा था कि किसी ब्राह्मण को दान कर दिया; इन्होंने पता नहीं किस सपने में सुन लिया कि ब्रेजनेव ने इनसे कहां है। सपने में ही सुना होगा। ब्रेजनेव भी चौंका, सारा रूस चौंका कि यह बात तो कभी कही नहीं गयी। मगर वे जिद पर रहे कि नहीं, कही है। और अब बदल गये, क्योंकि वे कोई प्रमाण तो दे नहीं पाए। अब कहने लगे, ब्रेजनेव ने नहीं कही थी, किसी और ने कही थी। उसका नाम मैं बताना नहीं चाहता। अब नाम बताए भी कैसे उसका! पहले तो यह कि ब्रेजनेव ने कही थी, यह कहां, अब कहने लगे ब्रेजनेव ने नहीं कही थी, किसी और ने कही थी। अब उसका नाम नहीं बताना चाहते, क्योंकि नाम बताएंगे तो फिर सवाल उठेगा कि प्रमाण देना पड़ेगा।

ये बचकानी बातें हैं। अभी रोज कहते फिरते हैं वे जगह—जगह कि आसाम की समस्या का हल मेरे पास है। तो तुम जब प्रधानमंत्री थे तो भाड़ झोंकते रहे? आसाम की समस्या कोई नयी समस्या है? तब तुम क्या करते रहे? तब तुम शिवाम्बुपान करते रहे और अब तुम्हारे पास आसाम की समस्या का हल है।’लेकिन वह भी मैं तब तक नहीं बताऊंगा, जब तक सरकार मुझसे खुद न पूछे।’—तो ज्ञानी जैलसिंह ने उनको पत्र लिखा कि मैं पूछता हूं आप आ जाइये। तो कल मैंने देखा, उन्होंने कहां है कि पहले टिकट भेजिए। किस तरह के लोग है! इन पर टिकट भी नहीं है दिल्ली जाने की। तो इनको मदर टेरेसा के किसी अनाथालय में भरती क्यों नहीं कर देते? दोनों का बड़ा सत्संग रहेगा। क्या बातें करते हैं लोग!

और मैं कहे देता हूं इनको टिकट मैं देने को राजी हूं और जो हल निकलेगा वह वही निकलेगा जो मैं तुम्हें कई दफा कह चुका हूं। एक गांव में चोरी हो गयी थी। कोई बता न सके हल; गांव में एक शेखचिल्ली था, उसने कहां—’मैं बता सकता हूं।’ पुलिस इंस्पेक्टर बहुत खुश हुआ। अधिकारियों ने कहां कि भई बता दो, हम परेशान हैं, कोई नहीं बता पा रहा। गांव के लोगों ने कहां कि भाई, हो न हो यह शायद बता दे। क्योंकि एक दफा गांव में से हाथी निकला था, कोई न बता सका, क्योंकि रात को निकल गया और सुबह हमने उसके पैर रेत में बने देखे। किसी ने हाथी देखा नहीं था, सो इसी ने बताया था। कोई न बता सका, इसने तत्‍क्षण कह दिया, अरे यह कुछ भी नहीं। पांव में चक्की बांधकर हरणा कूदा होय! कुछ भी नहीं, पैर में चक्की बांध कर कोई हरिण कूदा है। इसमें कुछ चिंता की बात नहीं। यह है तो बड़ा ज्ञानी। हम सब रह गये थे, कि इसने बता दिया। तो शायद बता दे।

तो पुलिस अधिकारी ने कहां, कि भाई, बता दो। उसने कहां कि यहां नहीं बताऊंगा; एकांत, बिलकुल अकेले में बताऊंगा।

उसने कहां कि चलो भाई अकेले में…। ले चला गांव के बाहर। काफी दूर निकल गया। अधिकारी भी घबड़ाने लगा कि भाई, यहां कोई भी नहीं दिखाई पड़ता। आदमी क्या जानवर भी नहीं है। कोई गऊमाता भी नहीं चर रही है आस—पास, गोलोक भी पीछे छूट चुका। अब तो बता दे।

उसने कहां, पास आओ, कान में कहूंगा। मजबूरी में उसने कान इसके पास कर दिया। कान में फुसफुसाया कि हो न हो, किसी चोर ने चोरी की है।

टिकिट मोरारजी देसाई को मैं दे दूंगा। तुम जाकर ज्ञानी जैलसिंह के कान में इतना बता दो।

ये शेखचिल्लियों की बातें हैं। ये बचकानी बातें हैं। अब इनको टिकिट चाहिए! टिकिट मिल जाए तो शायद कुछ और, कि लेने के लिए ज्ञानी जैलसिंह को आना चाहिए।

उम्र हो जाने सै ही कोई वृद्ध नहीं होता। केवल सद्गुरु को ही वृद्ध कहां जा सकता है। वृद्ध का अर्थ होता है : जिसने जीवन को देख लिया, पहचान लिया कि व्यर्थ है; जिसने जीवन की असारता देख ली, जिसने जीवन की क्षणभंगुरता पहचान ली; जिसने जीवन में कुछ भी सार न पाया और जीवन में सार न देखकर जिसने मन की सारी दौड़ को समाप्त कर दिया। जो समाधिस्थ है वही सद्गुरु है; वही देवता है, क्योंकि वही दिव्य है, वही ज्योतिर्मय है। और वही है उपासना के योग्य। शंकराचार्य का सूत्र यह प्यारा है।

आज इतना ही।

 

‘साच सांच सो साच’ प्रवचनमाला से

दिनांक22 जनवरी 1981; श्री रजनीश आश्रम पूना।



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गुरू प्रताप साध की संगति–(प्रवचन–10)

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मेरा पथ तो मुक्त गगन—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 30 मई, 1979;

ओशो कम्युन पूना।

प्रश्‍नसार:

1—भगवान! मेरे मन में बहुत द्वन्द्व है कि आपके पास आकर मुझे समाधान मिलेगा या नहीं! मैं बहुत उलझन में हूं। मेरा मन ऐसी चीजों से ग्रस्त है, जो स्वीकार्य नहीं हैं। जब मैं अपने में होती हूं, तो उनके साथ समायोजित हो जाती हूं, लेकिन आपके पास पहुंचकर मेरे उपद्रव बढ़ जाते हैं और मैं घबड़ा जाती हूं। मेरा व्यक्तित्व ज्यादा हठी और संदेहशील हो गया है; इस कारण अभी समर्पण कठिन है। इसके बावजूद मुझे आश्रम आने का जी बहुत होता है।

2—भगवान! झाबुआ के निकट पच्चीस सौ पच्चीस हवन—कुंड बनाकर यज्ञ हो रहा है। सुना है, यह पृथ्वी का सबसे बड़ा यज्ञ है, जिसकी तथाकथित पंडे—पुरोहित और राजनीतिज्ञ बड़ी तारीफ कर रहे हैं।

और दूसरी और आप जिस मंदिर और जीवनत्तीर्थ के निर्माण में लगे हैं, उसमें ये ही लोग बाधा डाला रहे हैं। लगता है, यह इन तथाकथित पंडे—पुरोहितों और राजनीतिज्ञों की सांठ—गांठ है। ऐसा क्यों?

3—भगवान! मैं कवि हूं, क्या सत्य को पाने लिए यह पर्याप्त नहीं है?

 

पहला प्रश्न:

 

भगवान! मेरे मन में बहुत द्वंद्व है कि आपके पास आकर मुझे समाधान मिलेगा या नहीं! मैं बहुत उलझन में हूं। मेरा मन ऐसी चीजों से ग्रस्त है, जो स्वीकार्य नहीं हैं। जब मैं अपने में होती हूं, तो उनके साथ समायोजित हो जाती हूं, लेकिन आपके पास पहुंचकर मेरे उपद्रव बढ़ जाते हैं और मैं घबड़ा जाती हूं। मेरा व्यक्तित्व ज्यादा हठी और संदेहशील हो गया है; इस कारण अभी समर्पण कठिन है। इसके बावजूद मुझे आश्रम आने का जी बहुत होता है।

 

वीणा पटेल! द्वंद्व शुभ लक्षण है। अभागे हैं वे जिन्हें द्वंद्व का अनुभव नहीं होता, क्योंकि जिन्हें द्वंद्व का अनुभव नहीं होता वे निद्वंद्व को कभी अनुभव न कर पाएंगे। उलझन की प्रतीति सुलझने का पहला चरण है। असमाधान से भरा चित्त समाधान की तलाश है।

सिर्फ जड़बुद्धि सोचते हैं कि उलझन नहीं है। सिर्फ जड़बुद्धि द्वंद्व में नहीं होते। जिनके पास थोड़ी विचार की क्षमता है, द्वंद्व तो होगा ही, उलझन तो होगी ही। जीवन की समस्यायें उन्हें दिखाई पड़ेंगी और उन्हें हल करने की छटपटाहट बढ़ेगी। या तो उन समस्याओं को हल करो या फिर उन समस्यों को भुलाओ। भुलाने से मिटेंगी नहीं, फिर—फिर लौट आएंगी, और सबल होकर लौट आएंगी, फिर—फिर उनका आघात होगा, आक्रमण होगा। जीवन ऐसे ही व्वर्थ के संघर्ष में व्यतीत हो जाएगा।

इसलिए जब तू यहां आती है, तो उपद्रव बढ़ जाते हैं क्योंकि समस्यायें स्पष्ट दिखाई पड़ने लगती हैं; जब यहां नहीं आती, तो अपने मन को समझा—बुझा लेती होगी; समस्यायों के प्रति आंख बंद कर लेती होगी; समस्याओं के प्रति पीठ कर लेती होगी; सब ठीक है—ऐसी मान्यता में समायोजन कर लेती होगी। मगर यह समायोजन झूठा है। उस समायोजन का कोई भी मूल्य नहीं; धोखा है, वंचना है। और पीछे बहुत पछताएगी क्योंकि जो समय ऐसी वंचना में गया, वह समय समाधान में लग सकता था।

मेरे पास आने वालों का ऐसा स्वाभाविक अनुभव है। तेरा ही नहीं, जो भी नया—नया मेरे पास आएगा, वह आता तो समाधान की तलाश में है लेकिन पहले तो समस्याओं से सामना करना होगा। जैसे कोई चिकित्सक के पास जाता है, जब जाता है तब तो उसे पता नहीं होता कि बीमारी क्या है, सिर्फ एक आभास होता है कि कुछ गड़बड़ है, जैसा होना चाहिए वैसी देह नहीं है। स्वास्थ्य में कहीं कोई कमी है। मगर कुछ स्पष्ट नहीं होता कि टी.बी. है कि कैसर है, कि कौन—सी मुसीबत भीतर पक रही है? इसलिए बहुत से लोग तो चिकित्सक के पास जाने से भी डरते हैं क्योंकि जाएंगे तो वह अंगुली रख देगा बीमारी पर। वे मानकर बैठे रहते हैं घर कि कुछ छोटी—मोटी बात है, कोई सर्दी—जुकाम है, कोई सिर में दर्द है, ठीक हो जाएगा—एस्प्रो ले लो, एनासिन ले लो। अपने को भुलाते रहो, समझते रहो। या वे ऐसे लोगों के पास जाते हैं जहां कोई ताबीज दे दे, कोई राख दे दे, कोई आशीर्वाद दे दे कि सब ठीक हो जाएगा, बिना इस बात की फिक्र किये कि बीमरी क्या है। बिना निदान के कोई उपचार कर दे, ऐसे लोगों के पास जाते हैं।

चिकित्सक के पास जाने में बीमार थोड़ा डरता है, उसके पैर कंपते हैं। और मैं समझता हूं उसकी अड़चन। घबड़ाता है कि कहीं सच में कोई बड़ी बीमारी न हो! चिकित्सक के पास जाएगा तो समाधान तो मिल सकता है लेकिन समाधान के पहले निदान है और निदान तो घबड़ाएगा। जब पहली दफे तुमसे कोई कहेगा कि तुम्हें टी.बी. है, कि तुम्हें कैसर है, तो पैरों के नीचे की जमीन खिसकी, कि दिन में तारे दिखाई पड़ने लगेंग। सब अस्त—व्यस्त हो जाएगा। अब तक की सब शांति खंडित हो जाएगी। सारा समायोजन तितर—बितर जाएगा। सुलझे हुए धागे उलझ जाएंगे।

एकनाथ के जीवन में ऐसा उल्लेख है। एक युवक एकनाथ के पास आता था। जब भी आता था तो वह बड़ी ऊंची ज्ञान की बातें करता था। एकनाथ को दिखाई पड़ता था, वे ज्ञान की बातें सिर्फ अज्ञान को छिपाने के लिए हैं। एक दिन उसने एकनाथ को पूछा सुबह—सुबह कि एक संदेह मेरे मन में सदा आपके प्रति उठता है। आपका जीवन ऐसा ज्योतिर्मय, ऐसा निष्कलुष, ऐसी कमल की पंखडियों जैसा निर्दोष क्वांरा, लेकिन कभी तो आपके जीवन में भी पाप उठे होंगे? कभी तो अंधेरे ने भी आपको घेरा होगा? कभी आपकी जिंदगी में भी कल्मष घटा होगा? ऐसा तो नहीं हो सकता कि पाप से आप बिलकुल अपरिचित हों! मैं यही पूछना चाहता हूं। आज यही सवाल लेकर आया हूं, ओर चूंकि और कोई मौजूद नहीं है, आज आपको अकेला ही मिल गया हूं, इसलिए निस्संकोच पूछता हूं कि आपके मन में पाप उठता है कभी या नहीं; उठा है। कभी या है नहीं?

एकनाथ ने कहा; यह तो मैं पीछे बताऊं; इससे भी ज्यादा जरूरी बात पहले बतानी है कि कहीं मैं भूल न जाऊं, बातचीत में कहीं अटक न जाऊं, कहीं भूल ही न जाऊं, जरूरी बात चूक न जाए! कल अचानक जब तू जा रहा था तेरे हाथ पर मेरी नजर पड़ी तो मैं दंग रह गया; तेरे उम्र की रेखा समाप्त हो गयी है। सात दिन और जिएगा तू। बस, सातवें दिन सूरज के डूबने के साथ तेरा डूब जाना है। अब तू पूछ क्या पूछता था।

वह युवक तो उठकर खड़ा हो गया। अब कोई पूछने की बात, अब कोई समस्या समाधान, अब कोई जिज्ञासा, अब कोई दार्शनिक मीमांसा…वह तो उठकर खड़ा हो गया, उसने कहा: मुझे कुछ नहीं पूछना है। मुझे घर जाने दो।

एकनाथ ने कहा: बैठो भी, अभी आये, अभी चले, इतनी जल्दी क्या है?

सत्संग होगा चर्चा होगी, तत्व विचार होगा, रोज की ज्ञान की बातें—ब्रह्म, मोक्ष कैवल्य…।

उसने कहा कि छोड़ो भी, आज उनमें मुझे कुछ रस नहीं। वह जवान आदमी एकदम जैसे बूढ़ा हो गया। अभी आया था मंदिर की सीढ़ियां चढ़कर तो उसके पैरों में बल था, लौटा तो दीवाल का सहारा लेकर उतर रहा था, पैर उसके कंप रहे थे। घर जाकर घर के लोगों को कहा; रोना—धोना शुरू हो गया। पास—पड़ोस के के लोग इकट्ठे हो गये। उस दिन तो घर में फिर चूल्हा ही न जला, पास—पड़ोस के लोगों ने लाकर भोजन करवाया। उसने तो भोजन ही नहीं किया; अब क्या भोजन! वह तो बोला ही नहीं, वह तो आंख बंद करके बिस्तर पर पड़ा रहा। सात दिन में उसकी हालत मरणासन्न जैसी हो गयी। बार—बार सातवें दिन पूछता था—सूरज के डूबने में और कितनी देर है? आवाज भी मुश्किल से निकलती थी। घर में रोआ—गायी मची थी। मेहमान इकट्ठे हो गये थे। दूर—दूर से प्रियजन आ गये थे अंतिम विदा देने।

और सूरज डूबने के ठीक पहले एकनाथ ने द्वार पर दस्तक दी। एकनाथ भीतर आये। एकनाथ उसके पास गये। वह तो आंख बंद किये पड़ा था। हाथ से उसकी आंखें खोलीं और कहा कि एक बात तुझे बताने आया हूं। यह तू क्या कर रहा है, ऐसा क्यों पड़ा है?

उसने कहा: और क्या करू? सूरज डूबने में कितनी देर है? ये सात दिन मैंने इतना नर्क भोगा है जितना कभी नहीं। अब तो ऐसा लगता है मर ही जाऊं तो झंझट कटे।

एकनाथ ने कहा कि मैं तुझे तेरे प्रश्न का उत्तर देने आया हूं। वह तूने मुझसे पूछा था न कि आपके मन में पाप कभी उठता है। मैं पूछने आया हूं तुझसे कि सात दिन में तेरे मन में कोई पाप उठा? उस आदमी ने कहा: कहां की बातें कर रहे हो! कैसा पाप, कैसा पुण्य? सात दिन तो कोई विचार ही नहीं उठा, बस एक ही विचार ही था—मौत,मौत, मौत; एक दिन गया, दो दिन गये, तीन दिन गये, चार दिन गये, यह घड़ी—घड़ी बीती जा रही है, पल—पल चूका जा रहा है। सातवां दिन दूर नहीं है, सूरज के डूबते ही सब जाएगा। मौत थी और भी न था। इन सात दिनों में अंधकार था अमावस का और कुछ भी न था। कहां का पाप, कहां का पुण्य?

एकनाथ ने कहा: तो उठ, अभी तुझे मरना नहीं है। तेरी हाथ की रेखा अभी काफी लंबी है। यह तो मैंने सिर्फ तेरे प्रश्न का उत्तर दिया था। ऐसे ही जिस दिन से मुझे मौत दिखाई पड़ गयी है, पाप नहीं उठा। जिसको मौत दिखाई पड़ जाती है पाप नहीं उठता, एकनाथ ने कहा।

ऐसा उत्तर कोई सद्गुरु ही दे सकता है। मगर ऐसे उत्तर महंगे तो हैं। यह सौदा सस्ता तो नहीं है।

वीणा, यहां आएगी तो उपद्रव तो खड़े होंगे। यहां आएगी तो दबे—दबाये प्रश्न उभरेंगे। जिन समस्यों की छाती पर तू बैठ गयी है, वे फिर वापिस तड़फड़ाएंगी। और जिन उलझनों को तूने समझा लिया है अपने को कि सुलझ गयीं, वे फिर दिखाई पड़नी शुरू होंगी।

जिंदगी में समाधान की तलाश के लिए जो जाएगा, पहले तो निदान होगा और निदान दुखद होता है, निदान पीड़ा लाता है। किसी मरीज को कहना कि टी.बी. है, कि कैसर है… चिकिसत्सक को भी बहुत सोचना पड़ता है—कहे कि न कहे! चिकित्सक को भी बहुत सोचना पड़ता है कि कैसे कहे? कैसे धीरे—धीरे कहे? कैसे आहिस्ता—आहिस्ता कि ज्यादा चोट न हो जाए। लेकिन कहना तो पड़ेगा और मैं जिन समस्याओं के संबंध में बात कर रहा हूं, वे छिपाई नहीं जा सकतीं।

तेरा अनुभव ठीक है कि पास पहुंचकर मेरे उपद्रव बढ़ जाते हैं और मैं घबड़ा जाती हूं। लेकिन यह शुभ लक्षण है। इसका अर्थ है कि तूने मुझे सुना। इसका अर्थ है कि तू सोयी नहीं थी। इसका अर्थ है कि मैं तेरे हृदय तक पहूंचा। इसका अर्थ है कि तेरी सांसों में मैं समाया। इसका अर्थ है कि मैंने तुझे बिचलित किया। और जो मुझसे विचलित हो जाता है उसने अच्छी खबर दी, सुसमाचार है। क्योंकि जो मुझसे विचलित हो जाता है, जैसे मेरी बात चोट करती है, उसे मेरी बात जगाएगी भी।

चोट तो करनी पड़ेगी सोयों को जगाना हो तो। हिलाना तो पड़ेगा। उनके सपने तो तोड़ने पड़ेंगे। उनकी बंद आंखों पर ठंडा पानी तो फेंकना पड़ेगा। और वे नाराज भी होंगे। और तुझे नाराजगी भी होती होगी। और तुझे संदेह उठते होंगे स्वभावतः कि इससे तो मैं अपने में ही होती हूं तभी ज्यादा समायोजित होती हूं, यहां आती हूं तो और उलझन बढ़ जाती है। मैं तेरी उलझन नहीं बढ़ा रहा, मैं सिर्फ तेरी दबायी गयी उलझनों को प्रगट कर रहा हूं।

और मुझे तेरा तो पता भी नहीं है, ये तो मनुष्यमात्र की दबायी गयी उलझनें हैं जिनकी मैं चर्चा कर रहा हूं। मैं तो तुझे पहचानता भी नहीं हूं, तुझे देखा भी नहीं। मगर मनुष्य मनुष्य में भेद कहां है! जो अ की मुसीबत है, वही ब की मुसीबत है। थोड़े—बहुत मात्रा के अंतर होंगे, थोड़े रंग—ढंग के भेद होंगे मगर मुसीबतें वही—मौत वही, जीवन वही, जीवन का मौलिक प्रश्न वही कि मैं कौन हूं? कि जीवन की सार्थकता क्या है, कि प्रयोजन क्या है? कि क्यों है यह अस्तित्व?

और तूने कहा कि मेरा मन ऐसी चीजों से ग्रस्त है जो स्वीकार्य नहीं हैं। जब तक तू उन्हें स्वीकार न करेगी तब तक मन ग्रस्त ही रहेगा। अस्वीकार करके कोई विजय नहीं होती क्योंकि जो—जो हम अस्वीकार करते हैं अपने भीतर, वही दबा पड़ा रह जाता है। और जो दबा पड़ा रह जाता है वह अपने अभरने ने का अवसर खोजेगा। मेरे पास आती है, वही उभर आता होगा क्योंकि मैं दमन के विपरीत हूं। जैसे किसी आदमी ने कामवासना को दबा लिया हो और ब्रह्मचर्य का लबादा ओढ़कर बैठ गया हो—यहां मेरे पास आएगा, लबादा सरकने लगेगा। क्योंकि मैं कहता हूं: कामवासना को दबाना नहीं है, जानना है। जानने से जीत है, दबाने में हार है।

कामवासना को जिसने दबाया वह और भी ज्यादा कामवासना से ग्रस्त होता चला जाएगा। उसके रोएं—रोएं में मवाद फैल जाएगी वसाना की। ब्रह्मचर्य जरूर घटता है लेकिन उनको कभी नहीं घटता जो वासना को दबा लेते हैं; उनको घटता है जो वासना में साक्षीभाव को जोड़ देते हैं—दबाते नहीं, उभारकर वासना को पूरा का पूरा देख लेते हैं, आंख भरकर देख लेते हैं। जिन्होंने भी अपनी वासना को आंख भरकर देख लिया है उन्हीं की वासना प्रार्थना में रूपान्तरित हो जाती है। वही वासना जो भटकाती थी, मार्ग बन जाती है। वही सीढ़ी जो नीचे ले जाती है, वही सीढ़ी ऊपर ले जाएगी। और वही रास्ता जो तुम्हें यहां तक ले आया है, वापिस तुम्हें घर ले जाएगा। वासना संसार में ले आयी है, वासना ही परमात्मा में ले जाएगी। फर्क इतना ही होगा कि संसार में आते वक्त पीठ परमात्मा की तरफ थी, मुंह संसार की तरफ था; लौटते वक्त पीठ संसार की तरफ होगा, मुंह परमात्मा की तरफ होगा। लेकिन वासना वही, ऊर्जा वही, शक्ति वही। उसी शक्ति के सहारे तो तुम पानी में डुबकी लगाते हो और उसी शक्ति के सहारे तुम पानी के बाहर निकल आते हो।

जिसने तुम्हें भटकाया है, उसी में सुलझाव छिपा है। जहर में अमृत दबा पड़ा है, खोजी चाहिए। बोधपूर्वक खोज करनी है। इसलिए मेरे पास अगर किसी ने थोप—थापकर ब्रह्मचर्य बिठा लिया हो—और ऐसे काफी लोग हैं इस देश में, ऐसे ही लोग हैं, ऐसे ही लोगों से यह देश भरा है—तो जरूर मेरी बात सुनेंगे तो उनकी वासना में नये अंकुर आने लगेंगे। वह जो अस्वीकार्य है, सिर उठाने लगेगा। वे घबड़ाएंगे। जिन्होंने क्रोध को दबा लिया है, वे घबड़ाएंगे। जिन्होंने लोभ को दबा लिया है, वे घबड़ाएंगे। जिन्होंने दबाया है वह तो मेरे पास आकर थोड़ी घबड़ाहट से भरेंगे। यह स्वाभाविक है।

मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि मेरे पास आने से डर जाओ; तब तो तुम चूक गये एक अवसर। गुरु—परताप साध की संगति! यह कोई सस्ता सौदा नहीं है, यह महंगी यात्रा है। यह जोखम है। यह जुआ है। इसलिए तेरा मन द्वंद्व से भर जाता है और तुझे लगता है कि मुझे समाधान मिलेगा या नहीं।

जो मन द्वंद्व से भरता है वह इसीलिए तो द्वंद्व से भरता है कि निर्द्वद्व होना उसकी क्षमता है। इस बात को ठीक से समझ लो। जो आदमी बीमार हो सकता है, वह स्वस्थ हो सकता है। मुर्दे बीमार नहीं होते। तुमने कभी किसी मुर्दे को बीमार, देखा? मुर्दे बीमार नहीं होते, मुर्दे स्वस्थ भी नहीं हो सकते। मूढ़ द्वंद्व से नहीं भरते, मूढ़ बुद्धता को भी उपलब्ध नहीं होते। द्वंद्व से भरना, चिंतातूर होना, इस बात का लक्षण है कि भीतर विवेक है, भीतर बोध है, चैतन्य है, भीतर समझ है।

लेकिन अब तक उसका सम्यक उपयोग नहीं हुआ है। उसका सम्यक उपयोग हो जाए तो बस कांटों को फूल बना लेने की कला ही तो मैं सिखाता हूं। काम को राम बना लेना है। और कंकड़—पत्थर हीरे—जवाहरातों में बदल जाते हैं। और तब तुम जीवन की समस्याओं के प्रति अनुग्रह अनुभव करोगी। क्योंकि उन्हीं समस्याओं ने सोपान का काम किया है, वे तुम्हें समाधान तक ले आयीं।

लेकिन जो स्वीकार्य नहीं है उसे स्वीकार करना होगा; तुम्हारे स्वीकार करने न करने से न तो कुछ फर्क पड़ता है, न कुछ मिटता है, न कुछ बनता है। जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करो अगर रूपान्तरण चाहिए क्योंकि स्वीकार से ही रूपान्तरण है। अस्वीकार से संघर्ष है। अस्वीकार से खंडित हो जाओगे और कुछ नहीं हो सकता, टुकड़े—टुकड़ों में बंट जाओगे। जो आदमी अपनी कामवासना से लड़ेगा वह दो हिस्सों में हो गया। एक तरफ कामवासना हो गयी उसकी, एक तरफ वह हो गया। और ध्यान रखना कामवासना कोई छोटी बात नहीं है, रोएं—रोएं में समायी है, तुम उसी से पैदा हुए हो, तुम उसी से निर्मित हो। तुम्हारी देह का कण—कण कामवासना से भरा है, उससे लड़ोगे तो अपने से ही लड़ोगे। इस खुद से चलने वाली कुश्ती में कभी विजय नहीं हो सकती, बुरी तरह हारोगे, बुरी तरह टूटोगे और खंड—खंड होकर छितर जाओगे। जैसे पारा छितर जाए ऐसे छितर जाओगे। जैसे कांच को कोई पत्थर पर पटक दे और चकनाचूर हो जाए ऐसे चकनाचूर हो जाओगे।

जीवन को बदलना है। जीवन को ऊंचाइयों पर ले जाना है। जीवन को पंख देना है। तो जीवन में द्वंद्व नहीं होना चाहिए। अपने भीतर द्वैत नहीं होना चाहिए, अद्वैत होना चाहिए। मैं तुम्हें अद्वैत का पहला पाठ सिखाता हूं—तुम जैसे हो वैसे ही अपने को स्वीकार करो। बुरे—भले के निर्णय बड़ी मुसीबत में डाले हुए हैं। क्या बुरा है, क्या भला है—तुम्हें कुछ पता नहीं है। क्या शुभ, क्या अशुभ—तुम्हें कुछ पता नहीं है। मगर दूसरों ने जो सिखा दिया है वही पकड़ बैठा है, उसने ही तुम्हारे प्राण ले लिए हैं।

अगर तुम सारी दुनिया की अलग—अलग जातियों की जीवन व्यवस्था को समझो तो यह बात तुम्हें समझ में आ जाएगी। चीन में लोग सांप का भोजन करते हैं। सांप का भी भोजन करते हैं, यह तुम सोच भी न सकोगे। चीन में सांप का भोजन स्वादिष्टतम भोजनों में एक समझा जाता है। बच्चे बचपन से ही यह बात देखते हैं, किसी को अड़चन नहीं पैदा होती। लेकिन तुम्हारे सामने कोई नाश्ते में सांप को उबालकर रख दे तो तुम तो महीने पन्द्रह दिन भोजन न कर सकोगे, ऐसी ग्लानि पैदा हो जाएगी। जो तुमने सुना है तुम्हें ठीक लगता है। जो तुमने सुन रखा है बचपन से, वह तुम्हारे भीतर ठीक होकर बैठ गया है। उसको तुमने पकड़ लिया है। उस पर पुनर्विचार नहीं किया। उस पर आत्म—निरीक्षण नहीं किया। तुमको कहा गया है, क्रोध बुरा है। लेकिन तुम्हें यह नहीं कहा गया कि इस क्रोध के भीतर ही छिपी करुणा का स्रोत है। क्रोध जरूर बुरा है अगर क्रोध ही रह जाए, लेकिन अगर क्रोध करुणा बन जाए तो क्रोध भी सौभाग्य है।

तुमने कभी यह बात सुनी है कि कोई नपुंसक बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ हो आज तक? न पूरब में, न पश्चिम में, कोई नपुंसक बुद्धत्व को क्यों उपलब्ध नहीं हुआ? क्योंकि काम—ऊर्जा ही न हो तो ब्रह्मचर्य कैसे फले! अगर ब्रह्मचर्य के ही कारण लोग बुद्धत्व को उपलब्ध होते होते तो सब नपुंसक बुद्ध की तरह ही हो जाते।

अभाव किसी काम नहीं आता। ऊर्जा ही नहीं है कामवासना की तो ब्रह्मचर्य का फूल कैसे खिलेगा! तुमने यह बात देखी कि जैनों के चौबीस तीर्थकर क्षत्रिय हैं, बुद्ध भी क्षत्रिय हैं। और इन दो धर्मों ने—जैनों और बौद्धों ने—अहिंसा का पाठ दिया दुनिया को। क्षत्रियों ने और अहिंसा का पाठ दिया! यह थोड़ी बात चौंकाती नहीं? ब्राह्मणों को देना चाहिए था, सो ब्राह्मणों ने तो परशुराम दिये दुनिया को। कि कहते हैं उन्होंने अनेक बार पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया, उठकर फरसा और सफाई कर दी। ब्राह्मणों ने परशुराम दिये और क्षत्रियों ने—महावीर, पार्श्व, नेमी, बुद्ध—अहिंसा के तीर्थकर दिये। यह जरा सोचने जैसी बात है कि ऐसा कैसे हुआ? अगर जैनों के सब तीर्थकर ब्राह्मण होते, बात में बिलकुल तर्क होता, गणित होता। लेकिन जैनों का कोई ब्राह्मण तीर्थकर नहीं है। क्या कारण है? क्षत्रियों के पास ही इतना क्रोध था, इतना प्रज्वलित क्रोध था कि करुणा पैदा हो सकी। करुणा पैदा होने के लिए प्रज्वलित क्रोध की क्षमता चाहिए। यह चमकती हुई धार थी तलवार की जो करुणा बन सकी।

बुद्ध के जीवन में उल्लेख है अंगुलीमाल का। एक आदमी जो नाराज हो गया सम्राट से और उसने घोषणा कर दी कि वह एक हजार आदमियों की गर्दन काटकर उनकी अंगुलियों की माला बनाकर पहनेगा। उसका नाम ही अंगुलमाल हो गया। उसका असली नाम ही भूल गया। उसने लोगों को मारना शुरू कर दिया। वह बड़ा मजबूत आदमी था, खूंखार आदमी था। वह राजधानी के बाहर ही एक पहाड़ी पर अड्डा जमाकर बैठ गया। जो वहां से गुजरता उसको काट देता, उसकी अंगुलियों की माला बना लेता। वह रास्ता चलना बंद हो गया। औरों की तो बात छोड़ो राजा के सैनिक और सिपाही भी उस रास्ते से जाने को राजी नहीं थे। राजा खुद थर—थर कांपता था।

नौ सौ निन्यानबे आदमी उसने मार डाले, वह हजारवें की तलाश कर रहा था। उसकी मां भर उसको मिलने जाती थी, अब तो वह भी डरने लगी। लोगों ने उससे पूछा कि अब तू नहीं जाती अंगुलीमाल को मिलने? उसने कहा: अब खतरा है; अब उसको एक की ही कमी है। अब वह किसी को भी मार सकता है। वह मुझे भी मार सकता है। वह बिलकुल अंधा है। उसको हजार पूरे करने ही हैं। पिछली बार उसकी आंखों में मैंने जो देखा तो मुझे लगा अब यहां आना खतरे से खाली नहीं है। पिछली बार मैंने उसकी आंखों में शुद्ध पशुता देखी। अब मेरी जाने की हिम्मत नहीं पड़ती।

और तभी बुद्ध का आगमन हुआ उस राजधानी में और वे उसी रास्ते से गुजरने वाले थे, लोगों ने रोका कि वहां न जाएं क्योंकि वहां अंगुलीमाल है। आपने सुना होगा, वह हजार आदमियों की गर्दन काटने की कसम खा चुका है। नौ सौ निन्यानबे मार डाले उसने, एक की ही कमी है। उसकी मां तक डरती है। तो वह आपको भी छोड़ेगा नहीं। उसको क्या लेना बुद्ध से और गैर—बुद्ध से।

बुद्ध ने कहा: अगर मुझे पता न होता तो शायद मैं दूसरे रास्ते से भी चला गया होता लेकिन अब जब तुमने मुझे कह ही दिया कि वह ही आदमी की प्रतीक्षा में बैठा है… उसका भी तो कुछ ख्याल करना पड़ेगा। कितना परेशान होगा। जब उसकी मां भी नहीं जा रही और रास्ता बंद हो गया है तो उसकी प्रतिज्ञा का क्या होगा? मुझे जाना ही होगा। और फिर इस आदमी की सम्भावना अनंत है। जिसमें इतना क्रोध है, इतनी प्रज्वलित अग्नि है; जिसमें इतना साहस है, इतना अदम्य साहस है कि सम्राट के सामने, राजधानी के किनारे बैठकर नौ सौ निन्यानबे आदमी मार चुका है और सम्राट बाल बांका नहीं कर सके। वह आदमी साधारण नहीं है, उसके भीतर अपूर्व ऊर्जा है, उसके भीतर बुद्ध होने की सम्भावना है।

बुद्ध के शिष्य भी उस दिन बहुत घबड़ाये हुए थे। रोज तो साथ चलते थे, साथ ही क्यों चलते थे प्रत्येक में होड़ होती थी कि कौन बिलकुल करीब चले, कौन बिलकुल बायें—दायें चले। मगर उस दिन हालत और हो गयी, लोग पीछे—पीछे सरकने लगे। और जैसे—जैसे अंगुलीमाल की पहाड़ी दिखाई शुरू हुई कि शिष्यों और बुद्ध के बीच फलाँगों का फासला हो गया। शिष्य ऐसे घसटने लगे जैसे उनके प्राणों में प्राण ही नहीं रहे, श्वासों में श्वास नहीं रही, पैरों में जाने नहीं रही।

बुद्ध अकेले ही पहुंचे। अंगुलीमाल तो बहुत प्रसन्न हुआ कि कोई आ रहा है। लेकिन जैसे—जैसे बुद्ध करीब आये, बुद्ध की आभा करीब आयी…गुरु—परताप साध की संगति…वह सद्गुरु की आभा करीब आयी वैसे—वैसे अंगुलीमाल के मन में एक चमत्कृत कर देने वाला भाव उठने लगा कि नहीं इस आदमी को नहीं मारना। अंगुलीमाल चौंका; ऐसा उसे कभी नहीं हुआ था। उसने गौर से देखा, देखा भिक्षु है, पीत वस्त्रों में। सुंदर है, अद्वितीय है। उसके चलने में भी एक प्रसाद है। नहीं—नहीं, इसको नहीं मारना। मगर अंगुलीमाल का पशु भी बल मारा। उसने कहा: ऐसे छोड़ते चलोगे तो हजार कैसे पूरे होंगे? द्वंद्व उठा भारी, चिंता उठी भारी—क्या करूं, क्या न करूं? मगर जैसे बुद्ध करीब आने लगे, वैसे अंगुलीमाल की अंतरात्मा से एक आवाज उठने लगी कि नहीं—नहीं, यह आदमी मारने योग्य नहीं है। यह आदमी सत्संग करने योग्य है। यह आदमी पास बैठने योग्य है।

तुम अंगुलीमाल की मुसीबत समझ सकते हो। एक तो उसका व्रत, उसकी प्रतिज्ञा, और एक इस आदमी का आना जिसको देखकर उसके भीतर अपूर्व प्रेम उठने लगा, प्रीति उठने लगी। द्वंद्व तो हुआ होगा वीणा, बहुत द्वंद्व हुआ होगा, महाद्वंद्व हुआ होगा, तुमुलनाद छिड़ गया होगा, महाभारत छिड़ गया होगा उसके भीतर। एक उसके जीवन—भर की आदत, संस्कार और यह एक बिलकुल नयी बात, एक नयी किरण, एक नया फूल खिला, जहां कभी फूल नहीं खिले थे।

जैसे बुद्ध करीब आने लगे कि वह चिल्लाया कि बस रुक जाओ, भिक्षु वहीं रुक जाओ। शायद तुम्हें पता नहीं कि मैं अंगुलीमाल हूं, मैं सचेत कर दूं। मैं आदमी खतरनाक हूं, देखते हो मेरे गले में यह माला, यह नौ सौ निन्यानबे आदमियों की अंगुलियों की माला है! देखते हो मेरा वृक्ष जिसमें मैंने नौ सौ निन्यानबे आदमियों की खोपड़ियां टांग रखी हैं? सिर्फ एक की कमी है, मेरी मां ने भी आना बंद कर दिया है। मैं अपनी मां को भी नहीं छोड़ूंगा, अगर वह आएगी तो उसकी गर्दन काट लूंगा मगर मेरी हजार की प्रतिज्ञा मुझे पूरी करनी है, मैं क्षत्रियों हूं।

बुद्ध ने कहा: क्षत्रिय मैं भी हूं। और तुम अगर मार सकते हो तो मैं मर सकता हूं। देखें कौन जीतता है!

ऐसा आदमी अंगुलीमाल ने नहीं देखा था। उसने दो तरह के आदमी देखे थे। एक—जो उसे देखते ही भाग खड़े होते थे, पूंछ दबाकर और एकदम निकल भागते थे; दूसरे—जो उसे देखते ही तलावार तलवार निकाल लेते थे। यह एक तीसरे ही तरह का आदमी था। न इसके पास तलवार है, न यह भाग रहा है। करीब आने लगा। अंगुलीमाल का दिल थरथराने लगा। उसने कहा कि देखो भिक्षु, मैं फिर से कहता हूं रुक जाओ, एक कदम और आगे बढ़े कि मेरा यह फरसा तुम्हें दो टुकड़े कर देगा।

बुद्ध ने कहा: अंगुलीमाल, मुझे रुके तो वर्षों हो गये, अब तू रुक।

अंगुलीमाल ने तो अपना हाथ सिर से मार लिया। उसने कहा: तुम पागल भी मालूम होते हो। मुझ बैठे हुए को कहते हो तू रुक, और अपने को, खुद चलते हुए को, कहते हो मुझे वर्षों हो गये रुके हुए!

बुद्ध ने कहा: शरीर का चलना कोई चलना नहीं, मन का चलना चलना है। मेरा मन चलता नहीं। मन की गति खो गयी है। वासना खो गयी है। मांग खो गयी है। कोई ईच्छा नहीं बची। कोई विचार नहीं रहा है। मन के भीतर कोई तरंगें नहीं उठतीं। इसलिए मैं कहता हूं कि अंगुलीमाल मुझे रुके वर्षों हो गये, अब तू भी रुक।

और कोई बात चोट कर गयी तीर की तरह अंगुलीमाल के भीतर। बुद्ध करीब आये, अंगुलीमाल बड़ी दुविधा में पड़ा करे क्या! मारे बुद्ध को कि न मारे बुद्ध को?

बुद्ध ने कहा: तू चिंता में न पड़, संदेह में न पड़ दुविधा में न पड़; मैं तुझे परेशानी में डालने नहीं आया। तू मुझे मार, तू अपनी हजार की प्रतिज्ञा पूरी कर ले। मुझे तो मरना ही होगा—आज नहीं कल, कल नहीं परसों। आज तू मार लेगा तो तेरी प्रतिज्ञा पूरी हो जाएगी, तेरे काम आ जाऊंगा। और फिर कल तो मरूंगा ही। मरना तो है ही। किसी की प्रतिज्ञा पूरी नहीं होगी, किसी के काम नहीं आऊंगा। जिंदगी काम आ गयी, मौत भी काम आ गयी; इससे ज्यादा शुभ और क्या हो सकता है! तू उठा अपना फरसा, मगर सिर्फ एक शर्त।

अंगुलीमाल ने कहा: वह क्या शर्त?

बुद्ध ने कहा: पहले तू यह वृक्ष से एक शाखा तोड़ कर मुझे दे दे। अंगुलीमाल ने फरसा उठाकर वृक्ष से एक शाखा काट दी। बुद्ध ने कहा: बस, आधी शर्त पूरी हो गयी, आधी और पूरी कर दे—इसे वापिस जोड़ दे।

अंगुलीमाल ने कहा: तुम निश्चित पागल हो। तुम अद्भुत पागल हो। तुम परमहंस हो मगर पागल हो। टूटी शाखा को कैसे मैं जोड़ सकता हूं

तो बुद्ध ने कहा: तोड़ना तो बच्चे भी कर सकते हैं, जोड़ने में कुछ कला है। अब तू मेरी गर्दन काट मगर गर्दन जोड़ सकेगा एकाध की? नौ सौ निन्यानबे गर्दनें काटीं, एकाध जोड़ सका? काटने में क्या रखा है अंगुलीमाल, यह तो कोई भी कर दे, कोई भी पागल कर दे। मेरे साथ आ, मैं तुझे जोड़ना सिखाऊं। मौत में क्या रखा है, मैं तुझे जिंदगी सिखाऊं। देह में क्या रखा है, मैं तुझे आत्मा सिखाऊं। ये छोटी—मोटी प्रतिज्ञाओं में, अहंकारों में क्या रखा है, मैं तुझे महा प्रतिज्ञा का पूरा होना सिखाऊं। मैं तुझे बनाऊं। मैं आया ही इसलिए हूं कि या तो तू मुझे मारेगा या मैं तुझे मारूंगा। निर्णय होना है, या तो तू मुझे मार या मैं तुझे मारूं।

वीणा, यही मैं तुझसे कहता हूं। मेरे पास जो आये हैं, निर्णय होना है: या तो मैं उन्हें समाप्त करूंगा या वे मुझे समाप्त करेंगे। इस से कम में कुछ हल होने वाला नहीं है। और मुझे समाप्त वे नहीं कर सकेंगे, क्योंकि समाप्त हुए को क्या समाप्त करोगे!

अंगुलीमाल बुद्ध पर हाथ नहीं उठा सका। उसका फरसा गिर गया। वह बुद्ध के चरणों में गिर गया। उसने कहा: मुझे दीक्षा दें। आदमी मैंने बहुत देखे मगर तुम जैसा आदमी नहीं देखा। मुझे दीक्षा दें। बुद्ध ने उसे तत्क्षण दीक्षा दी। और कहा आज से तेरा व्रत हुआ—करुणा। उसने कहा: आप भी मजाक करते हैं, मुझ क्रोधी को करुणा! बुद्ध ने कहा: तुझ जैसा क्रोधी जितना बड़ा करुणावान हो सकता है उतना कोई और नहीं।

गांव भर में खबर फैल गयी, दूर—दूर तक खबरें उड़ गयीं कि अंगुलीमाल भिक्षु हो गया है। खुद सम्राट प्रसेनजित, बुद्ध के दर्शन को तो नहीं आया था लेकिन यह देखने आया कि अंगुलीमाल भिक्षु हो गया है तो बुद्ध के दर्शन भी कर आऊं और अंगुलीमाल को भी देख आऊं कि यह आदमी है कैसा, जिसने थर्रा रखा था राज्य को! उसने बुद्ध के चरण छुए और उसने फिर बुद्ध को पूछा कि मैंने सुना है भन्ते कि वह दुष्ट अंगुलीमाल, वह महाहत्यारा अंगुलीमाल, आपका भिक्षु हो गया, मुझे भरोसा नहीं आता। वह आदमी और संन्यासी हो जाए, मुझे भरोसा नहीं आता।

बुद्ध ने कहा: भरोसा, नहीं भरोसे का सवाल नहीं। यह मेरे दायें हाथ जो व्यक्ति बैठा है जानते हो यह कौन है? अंगुलीमाल है। अंगुलीमाल पीत वस्त्रों में बुद्ध के दायें हाथ पर बैठा था। जैसे ही बुद्ध ने यह कहा कि अंगुलीमाल है, प्रसेनजित ने अपनी तलवार निकाल ली घबड़ाहट के कारण।

बुद्ध ने कहा: अब तलवार भीतर रखों; यह वह अंगुलीमाल नहीं जिससे तुम परिचित हो, तलवार की कोई जरूरत नहीं है। तुम घबड़ाओ मत, कंपो मत, डरो मत; अब यह चींटी भी नहीं मारेगा; इसने करुणा का व्रत लिया है।

और जब पहले दिन अंगुलीमाल भिक्षा मांगने गया गांव में तो जैसे लोग सदा से रहे हैं—छोटे, ओछे, निम्न; जैसी भीड़ सदा से रही है—मूढ़, जो अंगुलीमाल से थर—थर कांपते थे उन सबने अपने द्वार बंद कर लिए, उसे कोई भिक्षा देने को तैयार नहीं। नहीं इतना, लोगों ने अपनी छतों पर, छप्परों पर पत्थरों पर पत्थरों के ढेर लगा लिए और वहां से पत्थर मारे अंगुलीमाल को। इतने पत्थर मारे कि यह राजपथ पर लहूलुहान होकर गिर पड़ा लेकिन उसके मुंह से एक बद्दुआ न निकली।

बुद्ध पहुंचे, लहूलुहान अंगुलीमाल के माथे पर उन्होंने हाथ रखा। अंगुलीमाल ने आंख खोली और बुद्ध ने कहा: अंगुलीमाल लोग तुझे पत्थर मारते थे, तेरे सिर से खून बहता था, तेरे हाथ—पैर में चोट लगती थी, तेरे मन को क्या हुआ?

अंगुलीमाल ने कहा: आपके पास जाकर मन नहीं बचा। मैं देखता रहा साक्षीभाव से। जैसा आपने कहा था हर चीज साक्षीभाव से देखना, मैं देखता रहा साक्षीभाव से।

बुद्ध ने उसे गले लगाया और कहा: ब्राह्मण अंगुलीमाल, अब से तू क्षत्रिय न रहा, ब्राह्मण हुआ। ऐसों को ही मैं ब्राह्मण कहता हूं। अब तेरा ब्रह्म—कुल में जन्म हुआ। अब तूने ब्रह्म को जाना।

मेरे पास तुम आओगे तो पहले तो समस्याएं उठेंगी, दुविधाएं उठेंगी, चिंताएं उठेंगी, द्वंद्व उठेंगे। और यह द्वंद्व बिलकुल स्वाभाविक है कि आपके पास आकर मुझे समाधान मिलेगा या नहीं! यह तो जल पीओ तो ही पता चले। जल बिना पिये कैसे पता चलेगा कि प्यास बुझेगी या नहीं! और दीया जलाये बिना कैसे पता चलेगा कि अंधेरा मिटेगा या नहीं! कोई उपाय नहीं है। एक ही उपाय है अनुभव।

वीणा, अपने को स्वीकार करो। मेरा संन्यास स्वीकार का संन्यास है—इसमें त्याग नहीं है, इसमें पलायन नहीं है, इसमें भगोड़ापन नहीं है, इसमें जीवन को अंगीकार करना है क्योंकि जीवन परमात्मा की देन है, इसमें से कुछ भी निषेध नहीं करना है। हां, रूपान्तरित करना है बहुत, मगर काटना कुछ भी नहीं है, एक पत्ता भी नहीं काटकर गिराना है। इसके पत्ते—पत्ते पर राम लिखा है। इसके पत्ते—पत्ते पर उसके हस्ताक्षर हैं। इस पूरे के पूरे जीवन को ही उसके चरणों के योग्य बनाना है। न कहीं भागना, न कहीं जाना है—यहीं, जहां हो वहीं, जैसे हो वैसे ही तुम्हें परमात्मा के योग्य बनाने की कला मैं सिखाऊंगा।

समाधान मिलेगा, निश्चित मिलेगा। अगर असमाधान है तो समाधान मिलेगा ही। अगर बीमारी है तो चिकित्सा हो सकती है। साक्षीभाव सीखना होगा। यह दमन, अस्वीकार, यह सिखायी गयी बकवास छोड़नी होगी। और तूने पूछा: “मेरा व्यक्तित्व ज्यादा हठी और संदेहशील हो गया है।’ अच्छे लक्षण हैं। “इस कारण अभी समर्पण कठिन है।’ वह बात गलत है। समर्पण करने के लिए संकल्प चाहिए। सिर्फ संकल्पवान ही समर्पण कर सकते हैं। महासंकल्पवान ही समर्पण कर सकते हैं। समर्पण कोई कमजोरों की बात नहीं है। इस दुनिया में जो सबसे बड़ा कार्य है वह समर्पण है। इसलिए विरोधाभास तो लगेगा मेरी बात में। जब मैं कहता हूं कि समर्पण वे ही कर सकते हैं जो महासंकल्पवान हैं, तो तुझे उल्टा तो लगेगा क्योंकि आमतौर से हम सोचते हैं—संकल्प छोड़ना होगा तो समर्पण होगा। लेकिन संकल्प छोड़ने के लिए महासंकल्प चाहिए। कांटे से कांटा निकालना होता है। संकल्प को निकालना हो तो महासंकल्प चाहिए। और एक बार संकल्प महासंकल्प से निकाल दिया गया तब जो शेष रह जाता है वही समर्पण है।

समर्पण संकल्प के विपरीत नहीं है, संकल्प का अभाव है। तो जो मेरे पास आएंगे पहले संकल्पवान होते चले जाएंगे; उसको ही तू हठ कह रही है।

और तू कहती है कि “मन संदेहशील हो गया है।’ वह भी शुभ है। मैं सिखाता ही हूं संदेह। मैं आस्था नहीं सिखाता, आस्था आनी चाहिए। संदेह की सीढ़ियों से चढ़कर श्रद्धा के मंदिर तक पहुंचना चाहिए। संदेह को दबाकर श्रद्धा कर ली, दो कौड़ी की है, उसका कोई मूल्य नहीं। संदेह कर करके श्रद्धा आये, इतना संदेह करो कि संदेह करने को न बचे। इतना संदेह करो कि संदेह संदेह पर भी लागू हो जाए। इतना संदेह करो कि संदेह करते—करते ही गिर जाए और मर जाए। समग्रता से संदेह करो ताकि संदेह के प्राण—पखेरू उड़ जाएं। और तब जो रह जाता है खुला आकाश—वही श्रद्धा है, वही समर्पण है।

एक तो विश्वास है जो दुनिया में सिखाया जा रहा है—हिन्दु, मुसलमान, ईसाई, जैन। ये सब विश्वासी हैं, इनको श्रद्धा नहीं है। इन्होंने संदेह को दबा लिया है, छिपा लिया है, अपने अचेतन मन की काल—कोठारी में डाल दिया है। वह वहां पड़ा है भलीभांति जिंदा, कभी भी निकल आएगा। जरा खुरेचो और बाहर आ जाएगा। जरा किसी की श्रद्धा पर प्रश्न उठाओ और वह नाराज होने लगेगा। क्यों? क्योंकि उसे डर लगता है कि कहीं भीतर के संदेह फिर जाग न जाएं। किसी तरह सुला पाया है, किसी तरह छिपा पाया है, फिर कहीं नग्नता प्रगट न हो जाए। जैसे तुम कपड़ों के भीतर नंगे हो, ऐसे ही तुम संदेहों से भरे हो, श्रद्धा सिर्फ तुम्हारे कपड़े हैं। इन कपड़ों का कोई मूल्य नहीं है।

मैं कोई और ही श्रद्धा सिखाता हूं जो संदेह के विपरीत नहीं है, बल्कि संदेह का उपयोग करती है। संदेह करो, जी भरकर संदेह करो। पूछो, प्रश्न उठाओ। एक ऐसी घड़ी आती है। प्रश्न पूछने की जब सब प्रश्न गिर जाते हैं। और एक ऐसी घड़ी आती है संदेह की महाघड़ी, जब संदेह निष्प्राण हो जाता है।

पश्चिम में एक बहुत बड़ा विचारक हुआ—देकात। उसने अपने जीवन की खोज संदेह से शुरू की। ठीक रास्ता वही है खोज का। उसने कहा: मैं हर चीज पर संदेह करूंगा, जब तक ऐसी चीज न पा जाऊं जिस पर संदेह न कर सकूं। मैं तो कोशिश करूंगा उस पर भी संदेह करने की लेकिन संदेह कर ही न सकूं; लाख करूं उपाय और लाख पटकूं सिर लेकिन संदेह न कर सकूं—जब तक ऐसे किसी स्थान पर न आ जाऊंगा, तब तक संदेह करूंगा। श्रद्धा तो तभी जब संदेह असंभव हो जाएगा।

और वह घड़ी आयी। एक दिन आयी। जरूर आयी। आती है।

मैंने भी अपनी यात्रा संदेह से शुरू की वीणा। मैंने अपनी यात्रा नास्तिकता से शुरू की वीणा! इसलिए मैं जानता हूं उस रास्ते को। वही रास्ता मेरा जाना—माना रास्ता है। उस रास्ते पर जो आने को तैयार हैं उनके साथ तो मेरा संबंध बहुत गहरा बन जाता है। मैं नास्तिकों के लिए हूं। और यह सदी नास्तिकों की है, इसलिए मेरा धर्म इस सदी का धर्म है। आने वाला भविष्य नास्तिकों का है, इसलिए मेरा धर्म भविष्य का धर्म है। आने वाले बच्चे जबरदस्ती नहीं मनवाये जा सकेंगे। तुम उनसे लाख कहो कि ईश्वर है, वे मान नहीं लेंगे। रोज—रोज बुद्धि प्रखर हो रही है, प्रगाढ़ हो रही है। हर पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से ज्यादा जागरूक होती जा रही है, ज्यादा होशपूर्ण होती जा रही है, ज्यादा प्रश्न उठाती है। इतना आसान नहीं है अब कि तुम लोगों को समझा—बुझा दोगे और लोग मान लेंगे। अब तो संदेह का जगत है। अब तो वही धर्म जी सकता है जो संदेह का उपयोग करना जानता हो।

मैं जो धर्म की प्रक्रिया तुम्हें दे रहा हूं उसमें संदेह दुश्मन नहीं है, मित्र है। संदेह पर घार रखनी है।

देकार्त ने संदेह से शुरू किया। ईश्वर पर संदेह किया, स्वर्ग पर संदेह किया, नर्क पर संदेह किया, शैतान पर संदेह किया, यहां तक कि जगत पर संदेह, किया, क्योंकि क्या पता हो, न हो! रात सपने में भी तो मालूम होता है कि बाहर चीजें हैं, और सुबह जागकर पता चलता है कि नहीं हैं। तो हो सकता है अभी हम सपना देख रहे हों। तुम सपना देख रहे होओ कि मुझे सुन रहे हो। जो मुझे रोज सुनते हैं कभी—कभी सपना देखते हैं कि मुझे सुन रहे हैं। कौन जाने तुम सपने में हो कि जागे हो। बहुत संभावना तो सपने में होने की है, जागने की संभावना तो बहुत कम है। क्योंकि जो जाग गया वह तो बुद्ध हो गया।

क्या पक्का है कि जो बाहर है वह है? उसका क्या प्रमाण है? उसका कोई भी प्रमाण नहीं है। उस पर भी संदेह किया देकार्त ने। ऐसे संदेह करता ही गया, करता ही गया, और एक दिन वह महाघड़ी आ गयी, वह महत क्षण आ गया जब संदेह अटक गया। संदेह अटका अपने अस्तित्व पर। “मैं हूं’ इस पर संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि इस पर संदेह करने के लिए भी तुम्हारा होना जरूरी है। तुम अगर कहो कि “मैं नहीं हूं’, तो कौन कह रहा है? तुम अगर कहो कि “मुझे अपने पर संदेह है’, तो किसको संदेह है? यह जो मेरा अस्तित्व है, यह जो आत्मा है, यह संदेह के परे है; इस पर संदेह नहीं हो सकता।

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मित्रों को होटल में…गपसड़ाका मारता था, बात में बात निकल गयी, कह गया—डींग मार रहा था, कह गया—कि मुझ जैसा दानी इस गांव में कोई भी नहीं।

एक मित्र ने कहा: मुल्ला, यह बात जंचती नहीं। और तुम बहुत झूठ बोलते हो, हम मान भी लेते हैं कि जंगल गया था पांच शेर इकट्ठे मार डाले। कि एक तीर से सात पक्षी गिरा दिये। वह हम सब मान लेते हैं लेकिन इसको तो हम न मानेंगे। क्योंकि हम इसी गांव में रहते हैं, तुम्हारा दान कभी देखा नहीं। दान तो दूर कभी तुमने एक दिन हमें चाय—नाश्ते पर घर बुलाया भी नहीं है।

तो मुल्ला ने कहा: आओ, इसी वक्त आओ, भोज का निमंत्रण देता हूं।

तीस—पैंतीस आदमी—होटल का मैनेजर और बैरा सब साथ हो लिए। अकड़ में कह तो गया लेकिन जैसे—जैसे घर करीब आने लगा और जैसे—जैसे पत्नी की शकल याद आयी, वैसे—वैसे घबड़ाने लगा कि अब एक मुसीबत हुई। दरवाजे पर पहुंचकर फुसफुसा कर बोला कि भाइयो, आप भी पति हो, मैं में भी पति हूं। हम सब एक दूसरे की स्थिति जानते हैं। तुम जरा यहीं रुको, पहले जाकर मुझे पत्नी को राजी कर लेने दो। दिन—भर से घर से नदारद हूं, असल में गया था सुबह सब्जी लेने। सब्जी तो लाया ही नहीं हूं और पैंतीस आदमियों को भोज पर ले आया हूं। और दिन—भर की पत्नी खिसियायी बैठी होगी। तो जरा थोड़ा—सा मुझे मौका दो, तुम जरा रुको, मैं भीतर जाकर जरा पत्नी को समझा—बुझा लूं, जरा राजी कर लूं।

मित्रों ने कहा: यह बात जंचती है। सबको अपना—अपना अनुभव है, सभी को बात जंची।

मुल्ला नसरुद्दीन भीतर गया। आधा घंटा बीत गया, लौटा ही नहीं, घंटा बीतने लगा। लोगों ने कहा: अब रात भी होने लगी और देर भी होने लगी, और डेढ़ घंटा बीतने लगा। उन्होंने कहा हद हो गयी, सो गया या क्या हुआ! कितनी देर लग गयी पत्नी को समझाने में? और कोई आवाज भी नहीं आ रही है कि समझा रहा हो, कि पत्नी चिल्ला रही हो, कि बर्तन फेंके जा रहे हों, कि प्लेटें तोड़ी जा रही हों, कुछ भी नहीं हो रहा, सन्नाटा है घर में। आखिर उन्होंने दस्तक दी।

मुल्ला ने अपनी पत्नी से कहा कि कुछ नालायक मेरे साथ आ गये हैं। अब उनसे बचने का एक ही उपाय है, तू ही मुझे बचा सकती है। तू जा और उनसे कह दे कि मुल्ला नसरुद्दीन घर में नहीं है।

पत्नी गयी। दरवाजा खोला। मित्रों ने पूछा कि मुल्ला कहां है? पत्नी ने बिलकुल कहा कि मुल्ला! वे सुबह से घर से गये हैं सब्जी लेने, अभी तक लौटे नहीं। वे घर पर नहीं है।

उन्होंने कहा: अरे, यह तो हद हो गयी। हमारे साथ ही आये हैं, हमने अपनी आंखों से उन्हें घर के भीतर जाते देखा। और एक आदमी का सवाल नहीं कि धोखा खा जाए, पैंतीस आदमी मौजूद हैं। मित्र विवाद करने लगे कि नहीं वह जरूर घर में है।

मुल्ला भी सुन रहा है ऊपर की खिड़की से। अखिर उसके बर्दाश्त के बाहर हो गया कि विवाद ही किये जा रहे हैं। उसने खिड़की खोली और कहा: सुनो जी, यह भी तो हो सकता है तुम्हारे साथ आये हों और पीछे के दरवाजे से चले गये हों।

यह तुम नहीं कह सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं घर में नहीं हूं; क्योंकि तुम्हारा यह कहना तो इतना ही सिद्ध करेगा कि मैं घर में नहीं हूं; आत्मा एक—मात्र तत्व है जिस पर संदेह नहीं उठ सकता। इसलिए मैं तुम्हें परमात्मा नहीं सिखाता, आत्मा सिखाता हूं। आत्मा में डुबकी मारकर परमात्मा का अनुभव होता है। वह अनुभव है। वह श्रद्धा की बात नहीं है, अनुभव की बात है। आत्मा में डुबकी मारने का नाम ध्यान और जब डुबकी लग गयी तो उसका नाम समाधि। अभ्यास का नाम ध्यान, अभ्यास की पूर्णाहुति समाधि। आत्मा में डुबकी लग गयी तो पता चलता है कि “मैं हूं’, और जिसको पता चलता है “मैं हूं’, उसे पता चलता है यही “मैं’ सबके भीतर व्याप्त है। यही अस्तित्व सबके भीतर व्याप्त है। वही परमात्मा है।

वीणा, चिंता न कर। अगर हिम्मत है, अगर साहस है, तो तेरे संदेह का उपयोग कर लेंगे, तेरी हठ का उपयोग कर लेंगे। तेरी जितनी बीमारियां हों सब ला, हम सबका उपयोग कर लेंगे, हम सबकी सीढ़ियां बना लेंगे। कला भी यही है—अनगढ़ से अनगढ़ पत्थर का भी उपयोग किया जा सके। और अब तू भाग भी नहीं सकती।

तू कहती है: “इसके बावजूद मुझे आश्रम आने का जी बहुत होता है।’ एक बार जो यहां आया है, अगर सच में ही आया है; अगर एक बार भी किसी ने मेरी तरंग को अनुभव किया है; एक बार भी किसी ने मुझे अपने हृदय को छूने दिया है; एक बार भी स्वतंत्रता की—जिसके मैं रोज गीत गा रहा हूं—किसी को थोड़ी—सी झलक मिली है; इस आकाश की जिसकी तरफ मैं तुम्हें पुकार रहा हूं कि छोड़ो अपने पींजड़े, कि छोड़ो अपने पींजड़े, चाहे वे सोने के ही क्यों न हों, उड़ों आकाश में, मुक्त गगन में, जिसको एक बार पंख फड़फड़ाने का मजा आ गया है—वह फिर लाख उपाय करे तो भी रुक नहीं सकता, फिर उसे कोई रोक नहीं सकता।

वीणा, तेरा रुकना संभव नहीं है; रोकने में व्यर्थ समय खराब न कर।

तुम रखो स्वर्णपिंजर अपना,

अब मेरा पथ तो मुक्त्त गगन।

गत युग की याद दिलाते हो—

था दुर्ग तुम्हारा वह उन्नत;

प्रासाद दुर्ग में बृहत् और

उसमें वह पिंजर स्वर्णावृत!

पर, वे प्रतीक थे बंधन के,

आडंबर, गर्व, प्रलोभन के;

मैंने तो लक्ष्य बनाए थे

कुछ और दूसरे जीवन के!

अरमान विकल थे यौवन के,

तन बंदी था, मन था उन्मन!

तुम रखो स्वर्णपिंजर अपना,

अब मेरा पथ तो मुक्त गगन!

बंधन में फंसने के पहले

यह सत्य जान मैं था पाया—

नभ छाया है इस धरती की,

धरती है इस नभ की छाया;

दोनों की गोद खुली, चाहे

मैं नभ में मुक्त उड़ान भरूं,

चाहे धरती पर उतर, तृणों,

रजकणों आदि को प्यार करूं;

दानों के बीच नहीं बंधन,

अवरोध, दुराव, परायापन!

तुम रखो स्वर्णपिंजर अपना,

अब मेरा पथ तो मुक्त गगन!

अपना विभ्रम, अपना प्रमाद!

बंध गया एक दिन बंधन में!

वे दिन भी काट लिए मैंने,

छल को पहचाना जीवन में!

अब तोड़ चुका हूं मैं बंधन,

कैसे विश्वास करूं तुम पर?

तुम मुझे बुलाते हो भीतर,

मैं तुम्हें बुलाता हूं बाहर!

देखो तो—स्वाद मुक्ति का क्या,

कैसा लगता है स्वैर पवन!

तुम रखो स्वर्णपिंजर अपना,

अब मेरा पथ तो मुक्त गगन!

नभ—भू से दुर्ग दूर मुझको,

प्रासाद दुर्ग से दूर मुझे,

पिंजर ले गया दूर उससे

भी, बनकर निष्ठुर, कूर, मुझे।

फिर सबके पास लौट आया,

अब धरती मेरी, नभ मेरा।

रजकण मेरे, द्रुम, तृण मेरे,

पर्वत मेरे, सौरभ मेरा!

वह सब मेरा, जो मुक्ति मधुर,

वह रहा तुम्हारा, जो बंधन!

तुम रखो स्वर्णपिंजर अपना,

अब मेरा पथ तो मुक्त गगन!

रोकेंगे लोग तुम्हें—प्रियजन, परिवार के, मित्र। जो न कभी मित्र थे, न कभी प्रियजन थे न कभी परिवार के थे—वे सब अचानक रोकने के लिए परिवार के हो जाएंगे, प्रियजन हो जाएंगे, मित्र हो जाएंगे। जो किसी दुख में कभी काम नहीं आये, वे सब बाधाएं खड़ी करेंगे। मगर उनसे कह दो—

तुम रखो स्वर्णपिंजर अपना,

अब मेरा पथ तो मुक्त गगत!

होगा तुम्हारा पिंजड़ा स्वर्ण का, मुक्ता, हीरे—जवाहरातों से जड़ा, सम्हालो उसे तुम; मेरा तो आकाश है अब। और जो—जो तुम्हें अस्वीकार्य है, उसे स्वीकार करो। धरती को स्वीकार करो। धरती और आकाश दुश्मन नहीं हैं। मृण्मय और चिन्मय संगी हैं, साथी हैं। देह और आत्मा अलग—अलग नहीं हैं। परमात्मा और उसका यह विराट विश्व एक साथ लीन है, तल्लीन है—एक ही स्वर में आबद्ध।

दानों की गोद खुली, चाहे

मैं नभ में मुक्त उड़ान भरूं

चाहे धरती पर उतर, तृणों,

रजकणों आदि को प्यार करूं;

दोनों के बीच नहीं बंधन,

अवरोध, दुराव, परायापन!

तुम रखो स्वर्णपिंजर अपना,

अब मेरा पथ तो मुक्त गगन!

और जिन्होंने भी तुम्हें दमन सिखाया है, विरोध सिखाया है, निंदा सिखायी है, शरीर की दुश्मनी सिखायी है, पदार्थ को पतन और पाप कहा है, उन सबके विदा ले लो। न तो पदार्थ पाप है और न देह पाप है। पदार्थ में भी परमात्मा ही सोया है और देह में भी उसने ही रूप धरा है।

फिर सबके पास लौट आया,

अब धरती मेरी, नभ मेरा।

रजकण मेरे, द्रुम, तृण मेरे,

पर्वत मेरे, सौरभ मेरा।

वह सब मेरा, जो मुक्ति मधुर,

वह रहा तुम्हारा, जो बंधन!

तुम रखो स्वर्णपिंजर अपना,

अब मेरा पथ तो मुक्त्त गगन!

मैं तो तुम्हें खुले आकाश का निमंत्रण देता हूं वीणा। और इस खुले आकाश में ही बच सकोगी, इस खुले आकाश में ही वीणा बन सकोगी।

दुसरा प्रश्न:

 

भगवान! झाबुआ के निकट पच्चीस सौ पच्चीस हवन—कुंड बनाकर यज्ञ हो रहा है। सुना है, यह पृथ्वी का सबसे बड़ा यज्ञ है, जिसकी तथा—कथित पण्डित—पुरोहित और राजनीतिज्ञ बड़ी तारीफ कर रहे हैं।

और दूसरी और आप जिस मंदिर और जीवनत्तीथ्र के निर्माण में लगे हैं, उसमें ये ही लोग बाधा—डाल रहे हैं। इन तथाकथित पण्डित—पुरोहितों और राजनीतिज्ञों की साठ—गांठ है। ऐसा क्यों?

 

कृष्ण वेदान्त! सांठ—गांठ कोई नयी नहीं, बहुत पुरानी, अति प्राचीन, सनातन है। मनुष्यजाति के इतिहास के प्रथम क्षणों में ही एक बात समझ में आ गयी राजनीतिज्ञ को कि पण्डित और पुरोहित को साथ लिए बिना मनुष्य की आत्मा को गुलाम करना असंभव है। और अगर मनुष्य की आत्मा मुक्त हो, तो उसकी देह भी गुलाम नहीं हो सकती। अगर मनुष्य की देह को गुलाम बनाना है तो पहले उसकी आत्मा को गुलाम बनाना होगा।

राजनीतिज्ञ की इच्छा आदमी की देह गुलाम बनाने की है और पंडित—पुरोहित की कला उसकी आत्मा को गुलाम बनाने की है। उन दोनों ने मिलकर एक षडयंत्र रचा है। उन दोनों ने एक साथ मनुष्य की छाती पर बैठे रहने का आयोजन किया है।

सच्चा धार्मिक व्यक्ति न तो पंडित—पुरोहितों से प्रभावित होता है, न राजनीतिज्ञों से प्रभावित होता है। प्रभावित होने जैसे वहां कुछ है भी नहीं। पंडित—पुरोहित सिर्फ तोते हैं। शब्द होंगे उनके पास सुंदर, व्याकरण होगी, भाषा होगी, शास्त्रों के उद्धरण होंगे, लेकिन आत्मा का कोई अनुभव नहीं है। और राजनीतिज्ञ तो इस पृथ्वी पर सर्वाधिक क्षुद्र, सर्वाधिक बुद्धिहीन, सर्वाधिक हीनता—ग्रस्त व्यक्ति है। लेकिन अपनी हीनता को छिपाने को वह हर तरह की चालबाजियां विकसित करता है। बुद्धिमान आदमी चालबाज नहीं होता। यह जानकर तुम हैरान होओगे—जितनी प्रतिभा होती है, उतना आदमी साफ—सुथरा होता है।

प्रतिभा को चालबाजी की जरूरत नहीं। चालबाजी की जरूरत होती है प्रतिभाहीन को क्योंकि वह चालबाजी से प्रतिभा की कमी पूरी करता है। जिसके पास असली सिक्के हैं, वह क्यों नकली सिक्के ढोये? लेकिन जिसके पास असली सिक्के नहीं हैं, वह तो नकली सिक्के ढोयेगा। जिसके पास सुंदर चेहरा है, वह क्यों मुखौटे ओढ़े? लेकिन जिसके पास कुरूप चेहरा है, उसे तो मुखौटे लगाने ही होंगे। जिसके पास सुंदर देह है, वह क्यों आभूषणों की चिंता करे? लेकिन जिसके पास कुरूप देह है, उसे तो सोने में, चांदी में ढांकना होगा।

तुमने देखा यह? स्त्रियां कितनी बेहूदी, बेढंगी, बौढ़म मालूम होती हैं जब चेहरे पर रंग—रोगन पोत लेती हैं, ओंठों पर लिप्स्टिक लगा लेती हैं। सिर्फ फूहड़पन जाहिर होता है। सिर्फ इतना ही जाहिर होता है कि इस स्त्री में बुद्धिमत्ता भी नहीं है। सौन्दर्य तो है ही नहीं, सुबुद्धि भी नहीं है, प्रसाद भी नहीं है।

तुमने स्त्रियां देखी हैं, लदी हैं सोने—चांदी से। जैसे सोने—चांदी की चमक में वे अपनी गैर—चमकती आत्मा को छिपा लेने की चेष्टा कर रही हैं। वैसा ही :राजनीतिज्ञ है उसके पास बुद्धि तो नाममात्र को नहीं। बुद्धि होती तो वैज्ञानिक होता। बुद्धि होती तो कवि होता। बुद्धि होती संगीतज्ञ होता। बुद्धि होती तो आविष्कार करता कुछ। बुद्धि होती तो सृजन करता कुछ। बुद्धि होती तो संत होता, रहस्यवादी होता। राजनीतिज्ञ के लिए किसी भी तरह की योग्यता की कोई जरूरत नहीं है। राजनीति अयोग्यों का धंधा है। लेकिन एक बात में राजनेता कुशल होता है, वह है बेईमानी, वह है चार सौ बीसी। उतनी ही उसकी कला है।

एक राजनेता की पत्नी मर गयी थी। कफन का कपड़ा लेने के लिए राजनेता ने अपने एक चमचे को बाजार भेजा। कुछ समय पश्चात चमचा खाली हाथ लौट आया। चमचा और खाली हाथ लौट आये, ऐसा कभी हुआ न था। चमचा तो जहां भी डालो वहीं से भरकर लौटता है, चमचे का मतलब ही यही होता है। इसलिए राजनीतिज्ञों के पास चमचे इकट्ठे होते हैं क्योंकि राजनीतिज्ञों के पास शक्ति है, सत्ता है, धन है, पद है, प्रतिष्ठा है—चमचे भी थोड़ा—बहुत उसमें से खींचते रहते हैं।

चमचे को खाली हाथ लौटा देखकर राजनेता ने कहा: अरे, तू और खाली हाथ लौट आया! मामला क्या है?

चमचे ने कहा: मालिक, कफन का कपड़ा तो बड़ा महंगा है। दुकानदार एक कफन के कपड़े के पांच रुपये बात रहा है।

नेताजी ने कहा: कया, पांच रुपयें! क्या अंधेर मचा रखा है? एक कफन के पांच रुपये! तुम यहीं ठहरो, मैं जाता हूं कफन लेने के लिए। कुछ समय पश्चात नेताजी प्रसन्न मुद्रा में घर लौटे और उनके हाथ में एक के बजाय तीन कफन के कपड़े थे।

चमचा चौंका, नेता ने तो बाजी मार ली। चमचे ने पूछा: तीनत्तीन कफन, क्या हुआ?

नेताजी ने कहा: देखते हो, तुम तो कहते थे पांच रुपये में एक कफन का कपड़ा मिल रहा है। ये देखो पांच रुपये में तीन कफन खरीद लाया। मैंने दुकान पर जाकर बड़ा तूफान मचा दिया। ऐसा हुल्लड़ किया, घिराव की अवस्था पैदा कर दी। रास्ते पर ट्रेफिक जाम हो गया। ऐसा धूम—धड़ाका मचा कि दुकानदार डरा कि लूट—पाट न हो जाए। बहुत भीड़ इकट्ठी हो गयी। फिर बदनामी के डर से बचने के लिए दुकानदार ने मुझसे कहा ऐसा करो अब आप मानते नहीं तो पांच रुपये में मैं दो कफन दे देता हूं।

दुकानदार ने सोचा था कि दो कफन कोई लेकर क्या करेगा, पत्नी तो एक मरी है। दुकानदारी भी कांईयां, उसने कहा: चलो दो ले लो। उसने एक कफन के ढाई रुपये नहीं कहे, उसने कहा चलो दो कफन ले लो पांच रुपये में, झंझट खत्म करो। सोचा कि दो कोई लेकर क्या करेगा, कफन दो, मरी पत्नी एक।

मगर राजनेता ने कहा: वह छटा कांईयां था लेकिन मैं भी कोई दुह—मुंहा बच्चा नहीं हूं। मैंने कहा ला दे दो। और जब मैंने दो ले लिए पांच रुपये में तो मैंने कहा कि यह तो नियम है बाजार का कि जो ज्यादा चीज खरीदे, एकाध चीज उसको मुफ्त भी देनी चाहिए। दो कफन कभी किसी ने लिए थे तुझसे?

उसने कहा: आज तक तो नहीं लिए।

मैंने कहा कि यह पहली घटना है, तीसरा कफन मुफ्त दे। सो तीन कफन ले आया हूं।

चमचा बोला: लेकिन मालिक, तीन कफन का करोगे क्या?

नेता ने कहा: धबड़ा मत, आखिर एक दिन हमें भी मरना ही तो है तब एक कफन काम आ जाएगा। और फिर छोटा बच्चा अपना, वह भी तो किसी दिन मरेगा, एक कफन उसके काम आ जाएगा।

राजनेता बड़ी दूर की सोचते हैं। अंधे को अंधेरे में दूर की सूझी! बड़े दूर—दूर के हिसाब बैठाते रहते हैं। और उन्होंने पंडितों और पुरोहितों के साथ जो षडयंत्र किया उसमें बड़े दूर की सोची है।

एक बात तय है कि मनुष्य के भीतर धर्म की कोई प्रगाढ़ आकांक्षा है। राजनेता उसकी तो तृप्ति नहीं कर सकता। और जो उसकी तृप्ति कर सकता है, वह मनुष्य का मालिक रहेगा। राजनेता बुद्धों के खिलाफ हैं, महावीर के खिलाफ हैं, जीसस के खिलाफ हैं. मुहम्मद के खिलाफ हैं, कबीर के, भीखा के, खिलाफ हैं। राजनेता उनके खिलाफ हैं जो सच में ही मनुष्य की आत्मा को स्वतंत्र करने का सूत्र देते हैं। जो उसे आकाश का निमंत्रण देते हैं उनके खिलाफ हैं। क्योंकि वे तो मनुष्य की आत्मा को इतनी स्वतंत्रता दे देते हैं कि वे राजनेता को दो कौड़ी का समझेंगे। राजनेता की वे सुनेंगे क्या खाक! राजनेता उन्हें न लूट सकेगा।

राजनेता जीसस को तो सूली चढ़ा देते हैं, मंसूर को मार डालते हैं, सुकरात को जहर पिला देते हैं। और पंडित—पुरोहितों को, शंकराचार्यों को, पोपों को? उनके जाकर चरण छूते हैं। उनके पैर धोते हैं। उनके पैर धोवन का जल पीते हैं। क्यों? क्योंकि एक बात पक्की है कि इनका कमजोर आदमियों की आत्माओं पर बड़ा प्रभाव है।

अभी भी अगर हिन्दुओं के वोट चाहिए हों तो शंकराचार्य के चरण पहले छुओ। अगर मुसलमानों के वोट चाहिए हों तो जामा मस्जिद के शाही इमाम की खुशामद करो। अगर वोट चाहिए हों तो जहां इतना बड़ा यज्ञ हो रहा है वेदान्त, लाखों लोग इकट्ठे होंगे, इस मौके को राजनेता नहीं चूक सकता। इन लाखों लोगों के सामने तिलक इत्यादि लगाकर, यज्ञोपवीत इत्यादि पहनकर वह खड़ा हो जाएगा। वह यह अवसर नहीं चूक सकता विज्ञापन का। वह दिखाएगा लोगों कि मैं बिलकुल धार्मिक। मैं हिन्दु। मेरी यज्ञ में आस्था। मेरी वेद में आस्था। सनातन धर्म की विजय होनी चाहिए। यह देखते हुए कि ये करोड़ रुपये पानी में खराब जा रहे हैं, ये करोड़ रुपये आग में जलाये जा रहे हैं। यह जानते हुए कि यह गरीब देश और गरीब होता जाता है धर्म के नाम पर।

लेकिन राजनेता को इससे चिंता नहीं है। वे जो लाखों लोग इकट्ठे होंगे गांव के भोले—भाले, और भोले—भाले ही लोग इकट्ठे होंगे। कोई यज्ञ देखने बुद्धिमान जाएगा? भोले—भाले लोग इकट्ठे होंगे। उन भोले—भाले लोगों पर राजनेता को…यह अवसर नहीं चूक सकता वह। जहां भीड़ है वहां राजनेता हमेशा खड़ा हो जाएगा, भीड़ चाहे किसी भी लिए क्यों न हो। और राजनेता बिलकुल बर्दाश्त नहीं करता कि लोगों के मन में उनकी बंधी हुई धारणाओं पर कोई संदेह उठाये। राजनेता बर्दाश्त नहीं करता कि संदेह कोई जगाये क्योंकि अगर संदेह धर्म के प्रति जगेगा तो राजनीति ज्यादा देर बच नहीं सकती। जो संदेह धर्म पर उठेगा वह राज नीति पर भी छा जाएगा।

इसलिए राजनेता चाहता है लोग अफीम के नशे में पड़े रहें। पंडित—पुरोहित अफीम उनको खिलाते रहें—यज्ञ, हवन, सत्यनारायण की कथा, चलती रहे अफीम। लोग अफीम में पड़े रहें, राजनेता लूट करता रहे। उस आदमी को तो राजनेता बर्दाश्त ही नहीं करेगा जो कहेगा कि यह शोषण है।

एक नेताजी ने घोषणा की—कुछ जोश में आ गये बोलते हुए—कि देश की गरीबी मिटाने का एक उपाय है। हमारे देश में गधे बहुत हैं—आदमियों से तीन गुने ज्यादा। और अगर आदमियों की भी गिनती उनमें कर लो तो फिर गधे ही गधे हैं। हमारे देश में गधे बहुत हैं नेता ने कहा, अगर गधे के सींग को हम निर्यात कर सकें, बाहर के देशों को भेज सकें या गधे के सींग से कुछ सुंदर चीजें बनाकर बाहर भेज सकें, तो इतनी विदेशी मुद्रा मिलेगी कि धन ही धन हो जाएगा।

बात लोगों को जंच ही रही थी कि एक युवक खड़ा हो गया। उसने कहा कि महाराज, गधे के सींग होते ही नहीं।

युवक के विरोध को गंभीरता से लिया गया। और इस बात की जांच के लिए एक जांच आयोग नियुक्त किया गया कि गधे के सींग होते हैं या नहीं। ऐसी, राजनीति तो ऐसी ही चलती है, उसकी चाल तो बड़ी अद्भुत है। किसी भी गधे को पूछ लेते या सिर्फ देख लेते तो भी काम चल जाता लेकिन जांच आयोग बिठाया गया। कोई रिटायर्ड चीफ जस्टिस सुप्रीम कोर्ट के बनाये गये होंगे। शाह आयोग नहीं, बादशाह आयोग बिठाया गया होगा क्योंकि वह मामला बड़ा गंभीर है।

जांच आयोग नियुक्त्त गया कि गधे के सींग होते हैं या नहीं। आयोग ने अपनी रिपार्ट तीन साल में प्रस्तुत की। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा: प्रश्न यह नहीं है कि गधे के सींग होते हैं या नहीं, बल्कि प्रश्न यह है कि नेताजी को जनता ने चुना है और वे जो कहते हैं वह जनता की आवाज है, अतः उसका विरोध करने वाला असामाजिक तत्व है, और उसे सजा मिलनी ही चाहिए।

तो कौन विरोध करे; नेता तो जनता की आवाज है! और कभी—कभी तो नेता जब जोर से अपने अहंकार में आ जाते हैं, तो अपनी आवाज को आत्मा की आवाज और परमात्मा की आवाज तक कहने लगते हैं, जनता—वनता को तो पीछे छोड़ देते हैं। जैसे यह विनोबाजी को आत्मा की आवाज आ गयी कि गऊ को बचाओ। अद्भुत लोकतंत्र है यह। यहां एक आदमी अपनी इच्छा साठ करोड़ लोगों पर थोप सकता है—यह लोकतंत्र है! कल कोई दूसरे बाबा अनशन कर दें कि मानना पड़ेगा कि गधे के सींग होते हैं। कांस्टीटयूशन में लिखो कि गधे के सींग होते हैं, नहीं तो मैं अनशन करता हूं, मैं मर जाऊंगा। तो मानना पड़ेगा, क्योंकि बाबा कहीं मर न जाएं। ये हत्या की धर्मकियां हैं और इसको लोकतंत्र समझा जाता है।

और विनोबा की तकलीफ क्या थी? तकलीफ कुल एक थी—जसलोक अस्पताल! धीरे—धीरे लोकसभा तो मिटी जा रही, जसलोक सभा बनी जा रही है। सारी लोकसभा जसलोक सभा हो गयी है। वह विनोबा को कष्टपूर्ण हो गया। सारे नेता जसलोक में, परमधाम पवनार कोई भी नहीं आता। तो उन्होंने गऊ माता की पूंछ पकड़ी क्योंकि गऊ माता तो भवसागर पार करवा देती हैं। चले नेता, जसलोक से पवनार चले। गऊ माता ने बड़ी रक्षा की विनोबा की। विनोबा कर पाएंगे गऊ माता की रक्षा यह तो संदिग्ध है लेकिन गऊ माता ने विनोबा की रक्षा कर ली।

इस देश में कुछ भी चलता है, और चलता रहेगा जब तक तुम चलने दोगे। राजनीति अपने थोथे हथकंडे चलाती रहेगी, पंडित—पुरोहित राजनेता के साथ सांठ—गांठ करते रहेंगे। दोनों का लाभ है। क्योंकि पंडित—पुरोहित चाहता है कि राजनेता आएं, प्रधानमंत्री आएं, मंत्री आएं, मुख्यमंत्री आएं, तो जनता बढ़ती है। यह बड़ी पारस्परिक लेन—देन की बात है। पंडित—पुरोहित चाहते हैं कि राजनेता आएं तो जनता आती है; राजनेता चाहते हैं कि जहां जनता आती है, वहां हम हों। ऐसा कोई स्थान नहीं होना चाहिए जहां भीड़—भाड़ हो और हम न हों। तुम्हारे देश के राजनेता करते ही क्या हैं? कुल काम शिलान्यास करेंगे, कहीं उद्घाटन करेंगे। सारे देश के राजनेता इसी काम में लगे रहते हैं जैसे और कोई काम ही नहीं है। पुल का उद्घाटन, होटल का उद्धाटन, अस्पताल का उद्घाटन, कुछ भी, जहां चार आदमी हों वहां राजनेता को होना चाहिए। जहां फोटोग्राफर हों जहां अखबारनवीस हों, वहां राजनेता को होना चाहिए। फिर वहां कुछ भी हो रहा हो हर तमाशे में उसे होना चाहिए।

दिल्ली जाओ तो राजनेता का पता ही नहीं चलता कि वह कहां है। वह भागा हुआ है सारे देश में। काम करने की तो किसी को फूरसत नहीं है, समय भी नहीं है। उद्घाटन से समय मिले तब। मैं तो चाहता हूं कि वे उद्घाटन—मंत्री एक तय ही कर दें। उसका काम ही उद्घाटन, बाकी सब को और कुछ करने दें। वह जहां जरूरत हो वहां उद्घाटन करता रहे। मगर यह वे नहीं कर सकते क्योंकि बिना उद्घाटन के अखबारों में तस्वीर नहीं होती। फिर उद्घाटन चाहे किसी सड़ी—गली होटल का ही क्यों न हो, इससे क्या फर्क पड़ता है! जब बड़े नेता ने उद्घाटन किया तो अखबार में फोटो होती है।

दुनिया में इस तरह की मढ़ता कहीं भी नहीं है जैसी इस देश में है। दुनिया के अखबारों में इस तरह के राजनेता नहीं छाये हुए हैं जैसे इस देश में छाये हुए हैं और न पंडितों का ऐसा प्रभाव है दुनिया में जैसा इस देश में है। ये दोनों मिलकर हमारा दुर्भाग्य हैं। इन दोनों से छूुटकारा चाहिए। धीरे—धीरे जागो और जगाओ लोगों को। पंडित से भी छूटना है, राजनेता से भी छूटना है।

प्रत्येक व्यक्ति को आत्मवान होना चाहिए, अपनी सूझ—बूझ से जीना चाहिए…अप्प दीपो भव…अपने दीये स्वयं बनना चाहिए। मंदिर तुम्हारे भीतर है। यज्ञ अगर होना है तो तुम्हारे भीतर होना है, जीवन अग्नि जलानी है।

उसी महत चेष्टा में मैं संलग्न हूं। निश्चित उस में हजार तरह की बाधाएं, जितनी बाधाएं वे खड़ी कर सकते हैं करते हैं। करेंगे ही क्योंकि यहां न तो कोई राजनेता कभी बुलाया जाएगा उद्घाटन के लिए, न शिलान्यास के लिए। वे खबरें भेजते हैं यहां, यहां उनके चमचे आते हैं, वे कहते हैं कि अगर उद्घाटन करवाएं तो फलां मंत्री आना चाहते हैं, मगर बिना उद्घाटन के नहीं आएंगे। कोई समारोह हो, उसकी अध्यक्षता करवाएं तो फलाने नेता आना चाहते हैं। खबरें लेकर आते हैं लोग उनके। मैं उनको कहता हूं: यहां न कोई उद्घाटन है, न कोई शिलान्यास है। और उद्घाटन और शिलान्यास करना होगा तो संन्यासी करेंगे। यह संन्यासियों का जगत है। यहां दो कौड़ी के राजनेताओं का क्या मूल्य, क्या कीमत? यहां उनकी कोई आवश्यकता नहीं है।

इसलिए स्वभावतः वे बाधाएं डालें, यह भी समझ में आता है। मगर उनकी बाधाएं काम नहीं आएंगी; कभी काम नहीं आयी हैं। सत्यमेव जयते! सत्य है तो उसकी विजय सुनिश्चित है। और सत्य नहीं है तो उसकी हार होनी ही चाहिए, फिर उसकी विजय होनी भी नहीं चाहिए। मैं जो कह रहा हूं अगर सत्य है तो जीतेगा; अगर सत्य नहीं है तो जीतना ही नहीं चाहिए, जीतने का कोई सवाल ही नहीं है; असत्य को तो हारना ही चाहिए।

सुनो मेरी बात, गुनो मेरी बात, थोड़ा डूबो इस रंग में और तुम पहचान सकोगे कि जो मैं कह रहा हूं, वह वही है जो वेदों ने कहा, उपनिषदों ने कहा, कुरान ने कहा, बुद्धों ने कहा, महावीरों ने कहा। भाषा बदल गयी क्योंकि भाषा मैं बसीवीं सदी की बोलूंगा। मेरी अभिव्यक्ति और है—होनी ही चाहिए। सुनने वाले लोग और हैं। इस जगत की ढाई हजार सालों में बड़ी गति हुई है—बैलगाड़ी से हम चांद पर पहुंच गये हैं। ठीक वैसी ही धर्म की भाषा भी बैलगाड़ी से चांद तक पहुंचेगी। धर्म की अभिव्यक्ति और होगी, और धर्म को पहुंचने के नये द्वार खोलने होंगे।

उन नये द्वारों को खोलने का आयोजन चल रहा है। बाधाएं आएंगी जैसे सदा आयी हैं लेकिन बाधाएं कभी भी जीती नहीं। जीसस को मारने से जीसस मारे नहीं जा सके। उनके मारे जाने से ही वे अमर हो गये। बुद्ध को मारे गये पत्थर ही बुद्ध के मंदिरों की आधारशिलाएं बने। सुकरात को जहर दिया, वही अमृत सिद्ध हुआ। फिर वही होगा। आदमी सीखता ही नहीं, वह फिर वही भूलें करता है। वही भूल वह मेरे साथ भी कर रहा है। मगर उस भूल से कोई हानि होने वाली नहीं है, लाभ ही होने वाला है। सत्य को हानि होती ही नहीं।

तीसरा प्रश्न:

 

भगवान! मैं कवि हूं, क्या सत्य को पाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है?

 

दिनेश! कवि होना सुंदर है, जरूरी भी, मगर पर्याप्त नहीं। ऋषि भी होना होगा। कवि के ऊपर की सीढ़ी ऋषि है। भाषा में तो कवि और ऋषि का एक ही अर्थ होता है। लेकिन अस्तित्वगत रूप से कवि और ऋषि में बड़ा भेद होता है। कवि ऐसे देखता है जैसे स्वप्न में देखा, ऋषि देखता है आंख खोले हुए, जागे हुए। ऋषि द्रष्टा है, कवि कल्पनाशील है।

कवि की कल्पना में कभी—कभी सत्य के प्रतिबिम्ब बनते हैं, जैसे आकाश में पूरा चांद हो और झील में प्रतिबिम्ब बने। कवि ऐसा है जैसे झील में बना चांद का प्रतिबिम्ब और ऋषि ऐसा है कि उसने आंख उठाकर आकाश में चांद को देखा। कवि प्रतिबिम्ब के ही गीत गाता रहता है, प्रतिबिम्ब में ही उलझ जाता है। प्रतिबिम्ब का भी अपना सौंदर्य है लेकिन प्रतिबिम्ब फिर भी प्रतिबिम्ब है, मूल कहां! ऋषि मूल की तरफ आंख उठाता है।

कवियों ने गीत गाये हैं लेकिन उनके गीत गाने में कल्पना आधार है; ऋषियों ने भी गीत गुनगुनाये हैं लेकिन उनके गीत गुनगुनाने में सत्य की उद्घोषणा है। उपनिषद् ऋषियों के गीत हैं, कवियों के नहीं। उपनिषद् जो कहते हैं वह देखकर कहा गया है, अनुभव करके कहा गया है। ये भीखा जिसका हम विचार कर रहे हैं, यह ऋषि है। यह गीत गाने को नहीं गा रहा है। यह कोई तुकबंद नहीं है, यह कोई मात्रा और भाषा का गणित नहीं बिठा रहा है। यह कोई तकनीशियन नहीं है, इसके भीतर एक अनुभूति जगी है, आत्मा उभरी है, यह उस आत्मा को उंडेल रहा है। इसका सत्य का साक्षात्कार ही इसका संगीत है, इसका गीत है। यह भी हो सकता है कि इसके गीत में तुम बहुत काव्य न पाओ क्योंकि काव्य इसकी दृष्टि नहीं है। अगर काव्य है तो अनायास है, उसका कोई आयास नहीं है, उसका कोई प्रयोजन नहीं है, उसको कोई लाने की चेष्टा नहीं है। भीखा की दृष्टि से और बहुत बड़े—बड़े…कबीर, नानक, ये सब द्रष्टा हैं। इन सबकी वाणी अटपटी है।

अगर तुम कवियों से तौलो—कालिदास, शेक्सपियर, निराला, पंत, महादेवी, तो तुम पाओगे भेद। कवियों की वाणी—खूब सुसयोजित,खूब निखरी हुई, खूब साफ—सूथरी, खूब चमकदार, परिमार्जित, सुसंस्कृत; और ऋषियों की वाणी—अटपटी, सधुक्कड़ी। अमृत तो ऋषियों की वाणी में है, मगर जिस पात्र में भरा है अमृत वह अनगढ़ है; कवियों की वाणी में अमृत तो नहीं है, मगर पात्र सोने का है; भीतर सब खाली है, मगर पात्र सोने का है। और लोग तो पात्र ही देखते हैं, भीतर देखने वाले बहुत कम हैं।

भीखा का पात्र तो मिट्टी का है, मगर अमृत भरा है। और जिसके पास अमृत है वह पात्र की फिक्र करता है? जिसके पास अमृत नहीं है, वही पात्र को सजाता है, संवारता है क्योंकि वही पात्र में अपने को उलझाता है। वह पात्र को ही सब कुछ मान लेता है।

तुम कहते हो: मैं कवि हूं, क्या सत्य को पाने के लिए यह पर्याप्त नहीं?

जरूरी है। सत्य को पाने के लिए प्रत्येक को कवि होना ही चाहिए। जब मैं कहता हूं प्रत्येक को कवि होना चाहिए तो मेरा मतलब यह नहीं है कि तुम सब गीत रचो, कि तुम सब काव्य रचो, कि तुम मात्रा और छंद सीखो। नहीं—नहीं, जब मैं कहता हूं प्रत्येक को कवि होना चाहिए तो मेरा अर्थ है तुम सौंदर्य के प्रति संवेदनशील होओ, तुम सुबह उगते सूरज के आनंद को लो, तुम पक्षियों के गीत सुनो, तुम वृक्षों की हरियाली को पिओ, तुम फूलों के पास नाचो, मस्ती सीखो, मदमाते बनो, अलमस्त हो जाओ तो तुम कवि हो। फिर तुम गीत रचोगे कि नहीं यह सवाल नहीं है, तुम्हारा जीवन गीत होगा। तुम कविता बनाओगे या नहीं यह सवाल नहीं है, तुम्हारा जीवन काव्य होगा।

जब मैं कहता हूं कवि बनो, सत्य को पाने के लिए कवि होना जरूरी है, तो मैं कह रहा हूं हृदय बनो। खोपड़ी से उतरो, हृदय की तरफ चलो। विचार को हटाओ, भाव में जियो, भक्ति में डूबकी मारो। सत्य की तरफ जाने के लिए यह बड़ा अनिवार्य चरण है, क्योंकि अति संवेदनशील हृदय ही सत्य तक पहुंच पाते हैं।

पहले विचार से उतरो भाव में डूबो—तो तुम कवि हो जाओगे। और अगर भाव से भी गहरे उतर जाओ और आत्मा में डूब जाओ तो तुम ऋषि हो जाओगे।

विचार सबसे ज्यादा दूर है आत्मा से, भाव करीब है, मध्य में है विचार और आत्मा के। लेकिन भाव भी दूर है थोड़ा, भाव की तरंग भी जानी चाहिए, निस्तरंग होना है, निर्बीज होना है, निर्विकल्प होना है, तब आत्मा का अनुभव है।

कवि से भी ऊपर जाना है, ऋषि होना है।

कंठ से तुम गीत गाते,

प्राण से मैं गीत गाता।

दो किनारे हैं कला के, दो दिशाएं वेदना की,

मैं पथिक हूं एक पथ का, दूसरे के तुम पथिक हो;

भिन्न जग में भावधारा और रसधारा हमारी,

एक का मैं हूं उपासक, दूसरी के तुम रसिक हो;

भिन्नता यह स्वस्थ है, कुछ भी नहीं है द्वेष इसमें,

प्राकृतिक है यह कि तुमसे जुड़ सका मेरा न नाता।

कंठ से तुम गीत गाते,

प्राण से मैं गीत गाता।

कवि तो कंठ में रह जाता है, ऋषि प्राण में उतरता है।

तुम खिलो, फूलों कि तुमने कंठ का वरदान पाया,

रूप, आकर्षण, विभव में प्रेम का भगवान पाया;

मैं नहीं लज्जित कि मेरे हृदय ने निज प्रेमपथ में

मौन, संयम, साधना, चिर वेदना, बलिदान पाया।

कंठ के संगीत से कुछ प्राण की भाषा पृथक है,

तुम इसे भूलो भले ही, मैं न इसको भूल पाता।

कंठ से तुम गीत गाते,

प्राण से मैं गीत गाता।

कंठ पर ही मत रुक जाना; कंठ पड़ाव है, मंजिल तो प्राण है।

कंठ—स्वर पर रीझकर जो सिर हिलाते, धन लुटाते,

वे श्रवणवाले सुलभ हैं प्रतिचरण इस विश्वपथ पर,

इसलिए, निश्चिंतता है झूमती स्वर में तुम्हारे,

वेदना गंभीरता में मग्न मेरे प्राण का स्वर;

प्राण जिसके पास, जिसके प्राण में समवेदना है,

प्राण का संगीत सुनने को वही इस ओर आता।

कंठ से तुम गीत गाते,

प्राण से मैं गीत गाता।

मैं भी गा रहा हूं। मैं भी गुनगुना रहा हूं। यह जो मैं कह रहा हूं गद्य नहीं है, पद्य है। ये शब्द नहीं हैं, स्वर हैं। मेरे हाथ में तुम्हें वीणा चाहे दिखाई पड़े और चाहे न दिखाई पड़े, वीणा है। मेरे पैरों में तुम्हें चाहें घूंघर बंधे हुए दिखाई पड़ें या न दिखाई पड़ें, घूंघर हैं। छंद छिड़ा है। मगर छंद अदृश्य का है।

प्राण जिसके पास, जिसके प्राण में समवेदना है,

प्राण का संगीत सुनने को वही इस ओर आता।

कंठ से तुम गीत गाते,

प्राण से मैं गीत गाता।

दिनेश, कवि हो, सुंदर है। कंठ तक आ गये यह भी क्या कम; बहुत तो खोपड़ी में ही उलझे हैं। आधी यात्रा हो गयी, आधी और करो। थोड़ो और नीचे थोड़े और गहरे, थोड़ी और डुबकी मारो।

उनको उद्यान चाहिए वह,

जिसमें रंगीन सुमन अगणित;

दो मुझे जुही की लधु कलिका

तुम श्वेत एक निज स्नेहांकित;

उसमें पाऊं मैं नंदनवन।

उनको वे गंगा कालिंदी

चाहिए, करें जो जग निर्मल;

दो मुझे एक लधु निर्झर, जो

चिर—प्रवहमान हो विमल, सरल;

मैं उसमें पाऊं सिंधु गहन!

उनको वे कर्ण चाहिए, जो

सुनते हुंकार शिखर की हों;

दो मुझे कान वे, जो पुकार

सुनते तल के अंतर की हों;

उनसे कर पाऊं सत्य—श्रवण!

उनको वे नैन चाहिए जो

देखें जग का मोहक वैभव;

वे लोचन दो मुझको जिनमें,

अंतर का रूप बसे अभिनव;

उनसे पाऊं मैं शिव—दर्शन!

मिथ्या को मधुर बनाने का

चाहिए उन्हें रंजित कौशल;

दो मुझे सत्य—शिव—उन्मुखता,

साधन बने जिसका संबल;

उससे हो सुंदर—आवाहन!

कवि की मांग है सौंदर्य की। कवि की मांग है मोहक की, आकर्षक की। कवि अभी भी रूप पर उलझा है, अरूप ने अभी उसे नहीं पुकार। कवि अभी भी गुण में उलझा है, निर्गुण ने उसके द्वार पर दस्तक नहीं दी। और परमात्मा निर्गुण है। और परमात्मा अरूप है, अव्याख्य है। कवि अभी भी भाषा में उलझा है, मौन अभी उसके भीतर सघन नहीं हुआ। और परमात्मा मौन की ही भाषा समझता है।

दिनेश, सुंदर है कि तुम कवि हो। अब एक कदम और। इतनी हिम्मत की, थोड़ी हिम्मत और, जरा साहस और। अब ऋषि बनो। अब डूबो संन्यास में। संन्यास द्वार है ऋषि होने का। संन्यास द्वार है आत्मा को जानने का। संन्यास द्वार है सत्य को जानने का। और धन्यभागी हैं वे जो सत्य को न केवल जानते हैं बल्कि औरों को भी जनाते हैं। तुम कवि हो, जिस दिन सत्य जान सकोगे, तुम्हारे गीतों में सत्य की धारा बहेगी। जिस दिन परमात्मा से तुम्हारा मिलन होगा, उसकी प्रीति तुम्हारे कंठ का उपयोग कर लेगी; उसकी प्रीति तुम्हारी बांसुरी में स्वर बन जाएगी।

कवि हो, सुंदर है, पर इतने पर ही रुक मत जाना। इतने पर ही तृप्त मत हो जाना। इतने जल्दी ठहर मत जाना। यहां और भी सम्पदाएं हैं। यहां बड़ी—से—बड़ी सम्पदा तो तुम्हारी आत्मा की है। और ये तीन तल हैं—विचार का तल सबसे ऊपर, सबसे सतही; भाव का तल मध्य में, विचार से गहरा, लेकिन आत्मा से उथला; और फिर आत्मा का तल, चैतन्य का तल, सबसे गहरा। उस गहराई में ही परमात्मा से सगाई है।

आज इतना ही।

 


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मेरा स्‍वर्णिम बचपन–(प्रवचन–39)

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ऋषि पृथ्‍वी का नमक है—(प्रवचन—उन्‍नतालीसवां)

प्यारे ओशो!

लौकिकाना हि साभूनामर्थं वागनुवर्तते।

ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोग्नुधावति।।

‘लौकिक साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है :

लेकिन जो आदि ऋषि थे, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता था।’

प्यारे ओशो। वसिष्ठ के इस सूत्र को समझाने की अनुकंपा करें।

क्या आदि ऋषि वास्तव में इतने ही श्रेष्ठ थे?

योग प्रतीक्षा! साधु—और लौकिक—वह बात ही विरोधाभासी है। फिर साधु और असाधु में भेद क्या रहा?

असाधु वह—जो लौकिक; जिसकी दृष्टि पदार्थ के पार नहीं देख पाती है, पदार्थ में ही अटक जाती है; अंधा है जो। क्योंकि पदार्थ को ही देखने से बड़ा और क्या अंधापन होगा!

अस्तित्व परमात्मा से भरपूर है—सौंदर्य से, सत्य से, आनंद से; और तुम्हें केवल पदार्थ ही दिखाई पड़ता हो! एक बात जाहिर होती है उससे कि तुम्हारे पास सूक्ष्म को देखने की दृष्टि नहीं; सिर्फ स्थूल तुम्हारी पकड़ में आता है।

असाधु वह जो स्थूल को ही पहचानता है। इतना ही नहीं, जो अपने अहंकार की रक्षा के लिए सूक्ष्म को इनकार भी करता है। क्षमा किया जा सकता है वह व्यक्ति जो कहे कि ‘मैं क्या करूं, अभी तो मुझे स्थूल ही दिखाई पड़ता है! हो सकता है—सूक्ष्म भी हो; खोजूंगा, तलाश्ता, जिज्ञासा करूंगा। मैंने अपने चित्त के द्वार बंद नहीं कर लिये हैं।’

लेकिन वह व्यक्ति क्षमा नहीं किया जा सकता जो कहता हो, ‘पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।’ क्योंकि उसने सूक्ष्म के प्रवेश का मार्ग ही अवरुद्ध कर दिया। अब उसे व्यर्थ ही दिखाई पड़ेगा; सार्थक की कोई प्रतीति नहीं होगी।

इसीलिए वसिष्ठ के इस सूत्र में पहला आक्षेप तो मुझे यह है कि वे कहते हैं :

‘लौकिकाना हि साद्यामर्थ वागनुवर्तते

वह जो लौकिक साधु है, उसकी वाणी अर्थ का अनुसरण करती है।’ ‘लौकिक साधु’ जैसी कोई घटना ही नहीं होती। और अगर होती है, तो फिर उसे साधु न कहो। जिसको परमात्मा की जरा—सी झलक भी न मिलती हो, उसे साधु कहोगे? जिसे किरण भी दिखाई न पड़ती हो, उसे आंखवाला कहोगे? जिसे सौंदर्य का बोध ही न होता हो, उसे कवि कहोगे? सौंदर्य मर्मज्ञ कहोगे? जिसके जीवन में प्रेम की बूंदाबांदी भी न हुई हो, उसे प्रेमी कहोगे?

लौकिक साधु तो सिर्फ पाखंडी है। यद्यपि यह सच है और शायद इसीलिए वसिष्ठ ने यह सूत्र कहां कि ‘सौ साधुओं में से निन्यान्नबे लौकिक साधु हैं।’

ऐसा लगता है, वसिष्ठ कठोर नहीं होना चाहते होंगे, इसलिए बात को मिठास से कह दिया। कबीर जैसे न रहे होंगे। कबीर ने कहां है : ‘कबित खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ।’ कि कबीर बाजार में खड़ा है—लट्ठ हाथ में लिए हुए।

कबिरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ।

जो घर बारे आपना, चलै हमारे साथ।।

‘हो हिम्मत घर को जलाने की, तो आ जाओ, चलो हमारे साथ।’ लट्ठ लिए, कबीर कहते हैं, ‘मैं खड़ा हूं बाजार में!’

कबीर सीधी चोट करते हैं। उस चोट में कहीं कोई समझौता नहीं होता। वसिष्ठ सत्य को भी कहते हैं, तो लीप—पोत देते हैं। उसको भी थोड़ी—सी मिठास, थोड़ी—सी चासनी दे देते हैं!

‘लौकिक साधु’ —ऐसी कोई बात ही नहीं होती। लौकिक होगा—तो साधु नहीं। साधु होगा—तो लौकिक नहीं। यह तो विपरीत को एक साथ जोड़ देना हो गया। यह तो यूं हुआ, जैसे कोई कहे—अंधेरा दिन! यह तो आधी रात उगा हुआ सूरज हो गया!

लेकिन एक अर्थ में वसिष्ठ ठीक कहते हैं कि निन्यान्नबे साधु, सौ में से, ऐसे ही हैं—नाम मात्र के साधु! साधु का वेश है—साधु की आत्मा नहीं। साधु का आवरण है—साधु का अंतस नहीं। और आवरण बड़ी सस्ती बात है। आचरण भी बड़ी सस्ती बात है। कोई कठिनाई नहीं है साधु के आचरण में। थोड़े अभ्यास की बात है। दो बार भोजन न किया, एक बार भोजन किया। यह न खाया, वह न पीया। या जैसा कल डोंगरे महाराज ने बताया कि पानी पीओ, तो पहले प्रभु का स्मरण करो! पानी भी पीओ, तो प्रभु का स्मरण करो! भोजन करो, तो प्रभु का स्मरण करो। अगर अन्न बिना प्रभु के स्मरण के खाया, तो पाप खाया! पानी बिना प्रभु के स्मरण के पीया, तो पाप पीया।

ऐसे एक महापुरुष से मेरा मिलना हो गया था। मैं आगरा से गुजर रहा था; जयपुर से लौटता था; आगरा में कोई छह घंटे का समय था गाड़ी बदलने में। एक मित्र बहुत दिन से पत्र लिखते थे कि ‘कभी आगरा से गुजरें—और आप जरूर गुजरते होंगे, क्योंकि जयपुर की खबरें मिलती हैं। और यहां छह घंटे स्टेशन पर रुकना ही होता होगा, तो मेरे घर को ही पवित्र करें।’

तो मैंने कहां, ‘ठीक।’

उन्हें खबर कर दी। जानता तो नहीं था; पहचानता तो नहीं था; पत्र से ही मुलाकात थी। जो सज्जन लेने आये थे, उन्होंने आते से ही कहां कि ‘बस, जल्दी करिये! कहीं मेरे बड़े भाई न आ जायें!’

मैंने पूछा कि ‘आप ही मुझे पत्र लिखते थे?’

उन्होंने. कहां कि ‘नहीं। पत्र तो मेरे बड़े भाई लिखते हैं। मगर मेरी और उनकी जानी दुश्मनी है। यह मौका मैं नहीं दे सकता कि आपका स्वागत वे करें। सो मैं पहले से ही हाजिर हूं! बटवारा हो गया है। आधे मकान में वे रहते हैं, आधे में मैं रहता हूं। और आपको तो मेरा ही आतिथ्य—ग्रहण स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि मैं ही पहले आया हूं।’

मैंने कहां, ‘मुझे क्या फर्क पड़ता है! और आधा घर तुम्हारा, आधा बड़े भाई का—चलो, तुम्हारे साथ ही चल पड़ता हूं तुम आ गये।’

उनको लेकर बीच रास्ते पर ही पहुंचा था कि बड़े भाई आ गये! एकदम भागे हुए चले आ रहे थे! आते ही से बोले, ‘ओऽऽम्। मैंने पत्र लिखा था’। उन्होंने कहां—’ और यह छोटा भाई आपको कहां ले जा रहा है? यह दुष्ट यहां भी आ गया! चलिये, बैठिये मेरे तांगे में!’

छोटे भाई ने कहां कि ‘देखिये, मैंने पहले ही कहां था कि जल्दी करिये। अगर बड़ा भाई आ गया, तो बस, मुश्किल हो जायेगी!’

और बड़ा भाई था भी पहलवान—छाप! छोटे भाई थे भी दुबले—पतले। तो बड़े भाई ने आव देखा न ताव, उन्होंने तो सामान ही उतारकर मेरा भी हाथ पकड़कर अपने तांगे में बिठा लिया! लेकिन एक उनकी खूबी थी कि कोई भी काम करते थे, तो पहले ‘ओऽऽम् कहते थे! मेरा हाथ पकड़कर उतारा—तो ओऽऽम्! मेरा बिस्तर उतारा—तो ओऽऽम्! हालांकि कर रहे थे बिलकुल गलत काम! क्योंकि वह छोटा भाई बेचारा चुपचाप खड़ा था। अब क्या कहे! और मैं देख रहा था कि अगर वे उसकी पिटाई भी करेंगे, तो पहले—ओऽऽम्!

और वही हुआ।

उनके घर पहुंच गया। बंटवारा कर लिया था घर का, लेकिन एक कक्ष बीच का, बड़ा कमरा था, वह खाली छोड़ रखा था; वह बांटा नहीं था। उसमें दोनों आ—जा सकते थे। बाकी तो प्रवेश असंभव था एक—दूसरे के घर में, मगर एक कमरा छोड़ रखा था। तो जैसे ही मैं बडे भाई के घर में प्रविष्ट हुआ, दरवाजे पर ही उन्होंने कहां, ‘ओऽऽम्। आइये भीतर!’

छोटे भाई ने अपने दरवाजे से कहां कि ‘देखिये, आप इतनी कृपा करिये कि कम से कम बीच के कमरे में रुकिये, वहां मैं भी आ सकता हूं बड़े भाई भी आ सकते हैं। अगर आप उनके ही घर में रुके, तो मैं नहीं आ सकूंगा। मेरे घर में रुके, तो वे नहीं आ सकेंगे!’ मैंने कहां, ‘यह बात तो ठीक है।’

लेकिन बड़े भाई ने कहां, ‘ओऽऽम्!’ और सामान उठाकर वे तो अपने घर में ही ले गये!

बड़े भाई फोटोग्राफर थे, सो उन्होंने कहां, ‘इसके पहले कि छोटा भाई उपद्रव करे, और यह आयेगा बार—बार दरवाजे पर और कहेगा कि मेरे घर आइये, और भोजन करिये; यह करिये, वह करिये; मैं .आपकी तसवीर उतार लूं। इसी के लिए असल में मैंने आपको पत्र लिखा था। यही एक आकांक्षा थी।’

मैंने कहां, ‘जैसी मरजी! अब आपके हाथ में हूं छह घंटे जो करना हो—करिये!’

तसवीर भी क्या उतारी…! हर चीज में ओऽऽम्! बिलकुल डोंगरे महाराज के भक्त थे! प्लग भी लगायें—तो ओऽऽम्! प्लग निकालें, तो ओऽऽम्! मुझे कुर्सी पर बिठा लें—तो ओऽऽम्! कैमरा घुमायें—तो ओऽऽम्! प्लेट लगायें—तो ओऽऽम्! ओऽऽम् से ही सब चीज शुरू हो!

एक कंघी ले आये और मेरे बाल बनाने लगे, और बोले, ‘ओऽऽम्!’

मैंने कहां, देखें, मैं जैसा हूं तुम मुझे वैसा ही छोड़ो!’ एकदम नाराज हो गये। आदमी तो गुस्सेबाज थे ही। कहां, ‘जैसी मरजी!’ओऽऽम् कहकर कंघी फेंक दी और मेरे बाल एकदम छितरा दिये!

जब यह सब चल रहा था, तभी पड़ोस के एक सज्जन आ गये। उनको भी खबर मिल गयी कि मैं आया हूं तो आकर बैठ गये। यह फोटो उतर जाये, तो फिर वे मुझसे कुछ बात करना चाहते थे। तभी बड़े भाई की नौकरानी निकली, और उन सज्जन ने कहां कि, ‘बाई, एक गिलास पानी…!’

गरमी के दिन थे। बस, एकदम बोले, ‘ओऽऽम्! अरे, मर्द बच्चा होकर शर्म नहीं आती, स्त्री से पानी मांगते हो! नल सामने लगा है, भर लो और पी लो! मर्द होकर और स्त्री से पानी मांगना!’

फिर मेरी तरफ धीरे से बोले, ‘ओऽऽम्। यह मेरे भाई का दोस्त है। साले को ठीक किया!’

ओम भी कहते जाते हैं!

ये जो तुम्हारे तथाकथित साधु हैं, ये ओम् का उच्चार भी करते रहेंगे और ‘ओम् के भीतर क्या—क्या नहीं भरा होगा!

क्या—क्या नहीं उपद्रव होंगे!

आचरण भी साध लेंगे, मगर ठीक आचरण से विपरीत इनका भीतर का जीवन होगा—ठीक विपरीत।

दो दिगंबर जैन मुनियों में मारपीट हो गई। होनी तो असंभव ही चाहिए बात। एक तो दिगंबर जैन मुनि, जिसने सब छोड़ दिया, कपड़े भी छोड़ दिये—अब क्या मारपीट को बचा! लोग कहते हैं—’जर, जोरू, जमीन, झगड़े की जड़ तीन’। वे तो तीनों ही छूट गईं, मगर गजब के लोग हैं, फिर भी झगड़ा निकाल लिया! न जर है, न जोरू है, न जमीन है। कुछ भी नहीं है। दिगंबर जैन मुनि—कपड़े भी नहीं हैं, लंगोटी भी नहीं है—अब झगड़े का क्या उपाय है! उसी दिन मुझे पता चला कि वह सूत्र पर्याप्त नहीं है। अरे, झगड़ा ही करना हो तो आदमी कर लेगा। जर, जोरू, जमीन की कोई जरूरत नहीं। जर, जोरू, जमीन तो बहाने हैं, खूंटियां हैं। झगड़ा टांगना है, कहीं भी टल दो। खूंटी हुई, खूंटी पर टल दो। न हुई, खीली पर टल दो। खीली न हुई, तो खिड़की पर टांग दो; कुर्सी पर टांग दो; नहीं तो अपने ही कंधे पर टांग लो—मगर टांग लोगे। कुछ न कुछ उपाय…।

झगड़ा कहां हुआ? दोनों गये थे सुबह मल विसर्जन को। एकांत में झगड़ा हो गया। एक—दूसरे की पिटाई कर दी। पिटाई काहे से की! और तो कुछ था नहीं; पिच्छी रखते हैं जैन मुनि।

पिच्छी रखी जाती है कि कोई चींटी भी न मर जाये। पिच्छी में ऊन का बना हुआ गुच्छा होता है। छोटी—सी डंडी होती है; ऊन का गुच्छा होता है। तो जैन मुनि कहीं बैठे, तो पहले वह पिच्छी से जगह को साफ कर ले। ऊन का गुच्छा इसलिए ताकि पिच्छी की चोट भी न लगे। अगर चींटी भी हो, तो ऊन के धक्के से उसे कोई चोट न लगे; हटा दी जाये; फिर बैठे। स्थान को साफ करके बैठे। वही पिच्छी थी उनके पास। उसमें डंडा भी होता है लेकिन, पिच्छी में! यह महावीर ने सोचा ही न होगा कि पिच्छी तो ठीक है कि चींटी बच जायेगी, मगर डंडा! कभी मौका आ गया, तो काम आ जायेगा। आ गया उस दिन काम। एक—दूसरे ने पिच्छी से पिटाई कर दी! वह डंडे का उपयोग हो गया!

कुछ गांव के ग्रामीण लोगों ने पकड़ लिया उनको एक—दूसरे को मारते हुए। वे पुलिस थाने ले गये। बामुश्किल उनको बचाया गया। जैनियों में बड़ी हड़कंप मची, क्योंकि उनके जैन मुनि इस तरह का व्यवहार करें, जो निरंतर आत्मज्ञान की बात करते हैं! जो जीवन को तपाते, तपश्चर्या क्ररते, साधना करते!

और इनके झगडे का कारण क्या? जब पुलिस ने पूछताछ की, जो झगड़े का कारण था, वह और भी बड़ा मजेदार था! वह जो पिच्छी का डंडा था, बांस का डंडा, उसको भीतर से पोला करके उसमें सौ—सौ के नोट भरे हुए थे! वह उनका बटुआ था—वह जो डंडा था।

अगर जैन मुनियों की पिच्छी देखो, तो डंडा जरूर गौर से देख लेना! क्योंकि वही है उनके पास। और कोई उपाय नहीं है मगर। आदमी इतना होशियार है कि उसको डंडा को पोला करके अंदर उसमें गिड्डयों पर गिड्डयां उन्होंने भर रखी थीं!

झगड़ा यह हो गया कि बटवारा—जो बड़े मुनि थे, वे ज्यादा चाहते थे, छोटे मुनि से। सीनियारिटी का सवाल था! और छोटे मुनि भी बराबर चाहते थे; नहीं तो, वे कहते, ‘हम पोलपट्टी उखाड़ देंगे! षड्यंत्र में कहीं कोई सीनियर—जूनियर होता है! यह कोई सरकारी दफ्तर थोड़े ही है!

इसी पर झगड़ा हुआ। इसी पर मारपीट हो गई। रुपये भी पकडे गये। और जैनियों ने किसी तरह, रिश्वत खिलाकर मामले को दबाया कि कहीं यह पता न चल जाये सबको!

मेरे पास आये कि ‘क्या करना चाहिए!’ मैंने कहां कि ‘ अखबारों में खबर देनी चाहिए! फोटो छापने चाहिए!’

उन्होंने कहां, ‘ आप क्या कहते हो! अरे, हम यह पूछने आये हैं कि इसको किस तरह रफा—दफा करना! क्योंकि मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है। उसमें हमारे धर्म की भी प्रतिष्ठा का सवाल है!’

मैंने कहां कि ‘मेरे लिए भी धर्म की प्रतिष्ठा का सवाल है! और मुनि की प्रतिष्ठा का सवाल है! निन्यान्नबे इस तरह के मुनि उस एक मुनि को डुबाये दे रहे हैं, जो सच्चा होगा। उसको बचाना है कि इन निन्यान्नबे को बचाना है!’

लेकिन लोग निन्यान्नबे को बचाने में लगे हैं; एक डूबे, तो डूब जाये! संख्या का मूल्य है! हर जगह संख्या का मूल्य है।

तो वसिष्ठ इस अर्थ में, प्रतीक्षा, ठीक कहते हैं कि ‘लौकिकानां हि साभूनामर्थं वागानुवर्तते।’ वह जो लौकिक साधु है..! ‘लौकिक’ अर्थात् जो साधु नहीं है, बस, दिखाई पड़ते हैं; नाम मात्र को हैं; लेबल साधु का है, भीतर कुछ और है। भीतर तो लोक ही है। अभी अलोक से कोई संबंध नहीं हुआ; अलौकिक से कोई नाता नहीं हुआ।

मगर ये ही तो तुम्हें मिलेंगे। फिर चाहे मुक्तानंद हों, चाहे अखण्डानंद हों, और चाहे स्वरूपानंद हों—यही तुम्हें मिलेंगे। लौकिक साधु ही तुम्हें मिलेंगे। और तब यह सूत्र बडा सार्थक है।

लौकिक साधु की बात को तुम ठीक से खयाल में ले लो, तो सूत्र में बडी सार्थकता है। सूत्र कहता है : ‘ऐसे साधुओं की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है।’ ऐसे साधुओं के पास अपनी कोई अंतरवाणी तो होती नहीं। अपना कोई अनुभव तो होता नहीं। ऐसी तो कोई प्रतीति होती नहीं कि जिस शब्द को छू दें, वह जीवित हो जाये। ऐसा कोई जादू तो होता नहीं कि मिट्टी को छुए और सोना हो जाये। तो ऐसे व्यक्तियों की वाणी तो शास्त्रों का अनुसरण करेगी। शास्त्र में उनका अर्थ है; जीवन में उनके कोई अर्थ नहीं है। अर्थ गीता में है, वेद में है, कुरान में है, बाइबिल में है, धम्मपद में है। अर्थ स्वयं में नहीं है। और जो अर्थ स्वयं में नहीं है, वह अनर्थ है। उसे अर्थ कहो ही मत। क्योंकि गीता में जो अर्थ है, वह कृष्ण का अर्थ होगा; वह कृष्ण का अनुभव होगा। वह अर्जुन का भी नहीं बन सका! तो तुम्हारा क्या बनेगा?

कभी सोचो इस बात को। कितना सिर मारा कृष्ण ने, तभी तो गीता बनी! काफी सिर मारा! मगर अर्जुन भी बचाव करता गया। वह भी दावपेंच लगाता रहा! बड़ी देर तक यह मल्लयुद्ध चला! और जब अर्जुन ने अंततः यह कहां कि ‘मेरे सब संदेह गिर गये; निरसन हो गया मेरे संदेहों का’—तो भी मुझे भरोसा नहीं आता! मुझे तो यही लगता है कि वह घबडा गया, कि बकवास कब तक करनी! मतलब यह आदमी मानेगा नहीं। यह खोपड़ी खाये चला जायेगा! यहां से बचाऊंगा, तो वहां से हमला करेगा।

तर्क उसका हार गया—वह स्वयं नहीं हारा। क्योंकि महाभारत की कथा इस बात को प्रगट करती है कि जब पांडव मरे और उनका स्वर्गारोहण हुआ, तो सब गल गये रास्ते में ही; अर्जुन भी गल गया उसमें! सिर्फ युधिष्ठिर और उनका कुत्ता, दो पहुंचे स्वर्ग के द्वार तक। अगर अर्जुन को कृष्ण की बात समझ में आ गई थी, और जीवन रूपांतरित हो गया था, तो गल नहीं जाना चाहिए था।

महाभारत की कथा इस बात की सूचना दे रही है कि अर्जुन को भी अनुभव नहीं हुआ। मान लिया—कि अब कब तक तर्क करो! कब तक प्रश्न करो? इससे बेहतर है—निपट ही लो। उठाओ गांडीव—जूझ जाओ युद्ध में। मरो—मारो—झंझट खत्म करो। इस आदमी से बचाव नहीं है! इस आदमी के पास प्रबल तर्क है। मगर तर्क से कोई रूपांतरित नहीं होता। अर्जुन भी रूपांतरित नहीं हुआ। कृष्ण का अर्थ अर्जुन का भी अर्थ नहीं बन सका, जो कि आमने—सामने थे; जिनमें मैत्री थी; संबंध था; एक—दूसरे के प्रति सद्भाव था।

तो तुम्हारे और कृष्ण के बीच तो पांच हजार साल का फासला हो गया! तुम क्या खाक कृष्ण के अर्थ को अपना अर्थ बना पाओगे? तुम्हें तो अपना अर्थ खुद खोजना होगा। हौ, यह बात जरूर सच है, तुम अगर अपना अर्थ खोज लो, तो तुम्हें कृष्ण का अर्थ भी अनायास मिल जायेगा। क्योंकि सत्य के अनुभव अलग—अलग नहीं होते हैं।

सत्य को मैं जानूं कि तुम जानो, कि कोई और जाने; अ जाने कि ब जाने कि स जाने, सत्य का अनुभव तो एक होता है। सत्य का अनुभव हो जाये, तो बाइबिल और वेद और जेन्दावेस्ता—सब के अर्थ एक साथ खुल जायेंगे।

लोग मुझसे पूछते हैं कि ‘क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?’ अब जैसे यह सूत्र मैंने इसके पहले कभी पढ़ा ही नहीं। यह वसिष्ठ का सूत्र भी है, यह भी मुझे पक्का नहीं। यह तो जो प्रश्न पूछा है प्रश्नकर्ता ने, उसको मानकर मैं उत्तर दे रहा हूं। मैंने यह सूत्र कभी पढ़ा नहीं। पढ़ने की कोई जरूरत नहीं।

लोग मुझसे पूछते हैं कि ‘क्या आपने ये सारे शास्त्र पढ़े हैं?’ पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। एक शास्त्र मैंने पढ़ा—अपने भीतर—और उसको पढ़ लेने के साथ ही सारे शास्त्रों के अर्थ प्रगट हो गये। अब तुम कोई भी शास्त्र उठा लाओ, मेरे पास अपनी रोशनी है, जिसमें मैं उसका अर्थ देख लूंगा। इससे क्या फर्क पड़ता है!

मेरे पास दीया जला हुआ है, तुम वेद लाओगे, तो वेद उस दीये की रोशनी में झलकेगा। और तुम कुरान लाओगे, तो कुरान झलकेगी। और तुम धम्मपद लाओगे, तो धम्मपद झलकेगा। तुम जो भी ले आओगे—उस रोशनी में झलकेगा।

दीये को क्या फर्क पड़ता है कि वेद सामने रखा है कि कुरान कि बाइबिल! दीये की रोशनी तो पड़ेगी—सब पर समान, समभाव

तो मैं तो यह भी नहीं कह सकता हूं कि यह वसिष्ठ का सूत्र ही है। हो या न हो, इतना साफ है कि वह जो लौकिक साधु है, जिसको वसिष्ठ ने लौकिक साधु कहां है, उसके पास कोई अपनी अनुभूति की संपदा नहीं होती। भीतर तो वह बिलकुल थोथा होता है। ईश्वर को मानता है—जानता नहीं। और जब तक जाना नहीं, तब तक मानने में कुछ मूल्य है? तब तक मानना असत्य है, बेईमानी है, पाखंड है। जो जाना है, बस, उसको मानना। और जो न जाना हो, तब तक साफ रहे कि मैंने नहीं जाना है, तो कैसे मानूं? कम से कम ईमानदारी तो मत गंवा देना। धार्मिक होने के लिए कम से कम ईमानदारी तो अनिवार्य है।

और तुम्हारे तथाकथित विश्वासियों ने उतनी निष्ठा भी नहीं बरती। कोई हिन्दू बन गया, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन। किसी ने जाना नहीं। यहां तक कि जो नास्तिक बना बैठा है, उसने भी कुछ जाना नहीं; उसने नास्तिकता उधार ले ली है। किसी ने आस्तिकता उधार ले ली है!

तुम्हारा सारा जीवन उधार है! स्वभावत: तुम्हारी वाणी किसी और के अर्थ का अनुसरण करेगी। तुम किसी और का गीत गाओगे। गीत तो गा लोगे, मगर वह थोथा होगा। उसमें कोई गहराई न होगी; ऊपर—ऊपर होगा। शब्द ही शब्द होंगे; शब्दों के भीतर कोई संपदा न होगी। बुझे हुए दीयों की कतार होगी, मगर एक भी दीया जला हुआ नहीं होगा। क्योंकि अगर एक दीया भी जला हो, तो पूरी कतार ही जलाई जा सकती है; सारी दीपावली मनाई जा सकती है।

तो यूं सूत्र ठीक है; सिर्फ ‘लौकिक साधु’ शब्द पर मेरा ऐतराज है। उसे साधु नहीं कहना चाहिए। समय आ गया कि हम उसे साधु न कहें। उसकी दृष्टि लौकिक है, तो क्यों साधु कहना? ही, यह हो सकता है कि घर छोड्कर चला गया हो; लेकिन घर छोड़कर गया, वह भी लौकिकता है।

कैसा मजा है! एक तरफ तो तुम्हारे ये साधु कहते हैं : ‘संसार माया है’ और दूसरी तरफ कहते हैं : ‘संसार त्याग करो।’ माया का भी त्याग हो सकता है? जो है ही नहीं, उसका भी त्याग हो सकता है? यह क्या पागलपन की बात है! रात तुमने सपना देखा कि तुम सम्राट थे; बड़ा तुम्हारा साम्राज्य था। स्वर्ण तुम्हारे महलों में ढेरों से भरा था। हीरे—जवाहरात के अंबार लगे थे। और सुबह तुम्हारी आंख खुली; तुम जाग गये। और तुमने पाया कि वह सपना था! फिर क्या तुमसे यह कहना होगा कि ‘ भैया, सपने का अब त्याग करो। छोड़ो सपने को; वह सपना था!’ और क्या तुम यह कहोगे, ‘छोड़ेंगे भाई। धीरे— धीरे छोड़ेंगे। अभी कैसे छोड़ें! शास्त्र के अनुसार छोड़ेंगे। पचहत्तर वर्ष की उम्र में संन्यास लेंगे, तब छोड़ेंगे! अभी कैसे छोड़ दें! अभी तो भोग लेने दो थोडा। अभी तो यह स्वर्ण—महल, ये हीरे—जवाहरात, यह साम्राज्य, यह मजा—मौज—अभी तो भोग लेने दो! अभी तो मैं जवान हूं। अभी छोड़ने की बात न करो। माना कि तुम जो कहते हो, ठीक ही कहते हो; ठीक ही कहते होओगे। क्यों तुम गलत कहोगे! क्यों तुम मुझे भरमाओगे! तुम साधु पुरुष हो! नमन करता हूं; चरण छूता हूं। तुम्हारी पूजा करूंगा, और याद रखूंगा। मगर समय पकने दो। जब पचहत्तर साल का हो जाऊंगा, तब इस सपने को बिलकुल त्याग कर दूंगा। अरे, छोड़ना तो है ही। संसार माया है। कौन नहीं जानता है! मगर अभी नहीं। अभी समय नहीं। अभी समय आया नहीं।’

क्या तुम ऐसा कहोगे? सपने को सपने की तरह जानने में ही सपना छूट गया। इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कहता। मैं कहता हूं : जब सपना ही है, तो छोड़ना क्या!

छोड़ना नहीं है—जागना है। भागना नहीं है—जागना है।

सदियों से तुम्हें भगोड़ापन सिखाया गया है। और भागने का अर्थ है : मूल्य बदलते नहीं; मूल्य वही के वही रहते हैं। कुछ लोग धन की तरफ दौड़े जा रहे हैं, उनका मूल्य भी धन है—कितना इकट्ठा कर लें। और फिर कुछ लोग हैं जो धन छोड्कर भागे जा रहे हैं। उनका मूल्य भी धन है; उनकी कसौटी भी धन है—कितना छोड़ दें!

तुम त्यागियों को भी नापते हो, तो तराजू वही। राकफेलर को और बिरला को और टाटा को भी नापते हो, तो तराजू वही। और महावीर को, और बुद्ध को नापते हो, तो भी तराजू वही! असली सवाल तराजू का है। जैन शास्त्र वर्णन करते हैं : इतने हाथी, इतने घोड़े, इतना धन, इतना महल—सब महावीर ने छोड़ दिया! यह हाथी—घोड़ों की गिनती, ये धन के अम्बार—उनकी चर्चा शास्त्र इतने रस से करते हैं, कि बात जाहिर है, वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमारे महावीर कोई छोटे—मोटे साधु नहीं थे; बड़े साधु थे! महासाधु थे! देखो, कितना छोड़ा!

मापदण्ड क्या है?

इसीलिए तो कोई गरीब आज तक, न तो हिन्दुओं ने उसे अवतार माना, न बुद्धों ने उसे बुद्ध माना, न जैनों ने उसे तीर्थंकर माना! क्योंकि कसौटी ही पूरी नहीं होती। सवाल यह है कि छोड़ा क्या? कितना छोड़ा? अब तुम कहो, ‘हमने एक लंगोटी छोड़ दी!’ तो वे कहेंगे, ‘भाग जाओ यहां से! लंगोटी छोड्कर और तीर्थंकर होने के इरादे रख रहे हो! राजपाट कहां है? हाथी—घोड़े कितने हैं?’ अब तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी भविष्य में! तीर्थंकर होने मुश्किल हो जायेंगे, क्योंकि राजपाट न रहे। अब तो सिर्फ इग्लैंड में ही तीर्थंकर हो सकते हैं! या ताश के पत्तों में! कहते हैं, बस, पांच ही राजा बचेंगे दुनिया में। चार तो ताश के पत्तों के, और एक इग्लैंड का। और इंग्लैंड का राजा ताश के पत्तों से भी गया—बीता है। ताश के पत्तों में भी कुछ अकड़ होती है; इंग्लैड के राजा में वह भी नहीं है वह सिर्फ नाम मात्र का है। अब तो इंग्लैंड में ही आशा समझो कि बुद्ध पैदा हों; तीर्थंकर पैदा हों; अवतार पैदा हों! भारत में तो असंभव! अब तो राजपाट रहे नहीं। अब साम्राज्य नहीं, हाथी—घोड़े नहीं—छोड़ोगे क्या? क्या कहोगे कि ‘मैंने एक साइकिल छोड़ दी!’ कम से कम घोडा तो हो! क्या छोड़ोगे? और साइकिल छोड्कर दावा करोगे तीर्थंकर होने का! लोग कहेंगे, ‘लाजसंकोच न आयी! अरे, शरम खाओ! है क्या तुम्हारे पास!’

इसीलिए तो कोई कबीर को तीर्थंकर नहीं कहता। हालांकि कबीर में क्या कमी है किसी तीर्थंकर से! मगर कैसे कबीर को तीर्थंकर कहो? जुलाहे—छोडने वगैरह को कुछ है ही नहीं। पकड़ने को ही नहीं है; छोड़ने को कहां से लाओ! रोज बुन लेते हैं कपड़ा, रोज बेच लेते हैं। बस, किसी तरह खाना—पीना चल जाये। वह भी पूरा नहीं चल पाता। उसमें भी बड़ी झंझटें आ जाती हैं।

बड़ी अद्भुत कहानी है; सत्य वेदांत ने लिखकर मुझे भेजी है। बहुत प्यारी है, खूब सोचने जैसी है। और सिर्फ कबीर जैसे आदमी की जिन्दगी में हो सकती है। कबीर की कीमत आंकनी मुश्किल है।

कहानी यह है कि कबीर को तो जो भी घर में आ जाये—और सुबह से बहुत से लोग आ जाते..! कबीर की मस्ती में कौन न डूबना चाहे! कबीर के आनंद में कौन न भागीदार होना चाहे! दूर—दूर से लोग आ जाते। सुबह से कीर्तन छिड़ जाता। नाच होता, गीत होता। भीतर की शराब बहती। लोग मदमस्त होकर पीते! फिर भोजन का समय हो जाता। तो कबीर की आदत थी, वे लोगों से कहते कि ‘ भैया, यूं ही मत चले जाना। अरे, भोजन तो कर जाओ। अब आ ही गये, तो भोजन कर जाओ।’

कभी दो सौ आदमी, कभी तीन सौ आदमी, कभी पांच सौ आदमी! गरीब कबीर की हैसियत क्या! बामुश्किल दिनभर कपडा बुनकर कितना बुनोगे? उधारी चढ़ती जाती! पत्नी परेशान, बेटा परेशान! एक दिन यह हालत हो गई कि जब पत्नी बाजार गई और दुकानदार से उसने भोजन के लिए प्रार्थना की कि घर में दो सौ आदमी बैठे हैं और मेरे पति ने निमंत्रण दे दिया है! मैं पीछे के दरवाजे से भागकर आयी हूं। जल्दी से कुछ चावल दो, घी दो, आटा दो।’

उस दुकानदार ने कहां, ‘अब बहुत हो गया। पहले का कर्ज चुकाओ। यह कर्ज बढ़ता ही जा रहा है। यह चुकेगा कैसे? मेरी दुकान तुम डुबा दोगे! यह कबीर का तो भोजन चले और मेरा भंडा फूटा जा रहा: है। कबीर तो हर किसी को निमंत्रण दे देते हैं! कबीर को पता है कि बरबादी मेरी हो रही है! यह चुकेगा कैसे? कर्ज इतना हो गया है कि अब मैं और नहीं दे सकता।’

पत्नी ने कहां, ‘कुछ भी करो, आज तो देना ही होगा; इज्जत का सवाल है। मैं किस मुंह से जाकर कहूं! लोग बैठे हैं। भोजन तो कराना ही होगा।’

उस दुकानदार की बहुत दिन से कबीर की पत्नी पर नजर थी। कबीर की पत्नी थी; सुंदर रही होगी। कबीर जैसे व्यक्ति की पत्नी हो—असुंदर भी रही होगी, तो सुंदर हो गयी होगी। कबीर का संग—साथ मिला होगा, रंग—रूप निखर आया होगा। प्रसाद उतर आया होगा। जहां चौबीस घंटे कबीर के आनंद की वर्षा हो रही थी, वहां कोई कुरूप कैसे रह जायेगा! सुंदर थी—बहुत सुंदर थी।

नजर तो दुकानदार की बहुत दिन से थी, आज मौका देख लिया उसने कि आज यह फंस गई। उसने कहां कि ‘अगर तेरी सच में ही ऐसी निष्ठा है, तो वायदा कर कि आज रात मेरे पास सोयेगी। तो सारा कर्ज समाप्त कर दूंगा।’

पत्नी ने कहां, ‘जैसी मरजी। भोजन तो कराना ही होगा।’

कबीर की ही पत्नी थी। कोई साधारण लौकिक साधु की पत्नी नहीं थी। कबीर की ही पत्नी थी। यह कबीर के ही योग्य थी बात। उसने कहां, ‘यह ठीक है। अगर तुझे इससे ही हल हो जाता हो, तो ठीक है। यह निपटारा हुआ। और यह अच्छा रास्ता मिल गया! तूने पहले ही क्यों न कहां! यह रोज—रोज की परेशानी कभी की मिट गई होती। ठीक है, सांझ मैं आ आऊंगी।’

वह तो ले आयी। उसने सब को भोजन करवाया। सांझ वर्षा होने लगी। बड़े जोर से वर्षा होने लगी। वह सजी—संवरी बैठी। कबीर ने पूछा, ‘कहीं जाना है या क्या बात है! तू सजी—सवरी बैठी है। बरसा जोर से हो रही है।’

उसने कहां, ‘जाना है, और जरूर जाना है। तुमसे क्या छिपाना है…!’ इसको प्रेम कहते हैं।’तुमसे क्या छिपाना है!’

पूरी कहानी कह दी कि यूं—यूं मामला है।’… कर्ज बहुत बढ़ गया है। आज दुकानदार देने को राजी न था। उसने तो कहां कि आज रात अगर तू मेरे पास आकर रुक जाये, पूरी रात, तो सारा कर्ज माफ कर दूंगा। तो कुंजी हाथ लग गई। अब कोई चिंता नहीं। अब तुम जितनों को निमंत्रण देना हो—दो। यह मूरख इतने दिन तक बोला क्यों नहीं! यह बोल देता, तो कभी की बात खतम हो जाती। यह रोज—रोज की अड़चन तो न होती! तो मुझे जाना है।’

कबीर ने कहां कि ‘बरसा बहुत जोरों की हो रही है। मैं तुझे छोड़ आता हूं!’ यह सिर्फ कबीर ही कह सकते हैं। कबीर ने छाता लिया; पत्नी को छाते में छिपाया। उसे ले गये और कहां कि ‘तू भीतर जा, मैं बाहर बैठा हूं क्योंकि बरसा बंद हो नहीं रही है। जब निपट चुके, तो मैं तुझे घर वापस ले चलूंगा। रात भी अंधेरी है; बरसा भी जोर की है; तो मैं यहां बाहर छप्पर में बैठा रहूंगा।’

कबीर छप्पर में बैठे रहे। पत्नी ने दरवाजे पर दस्तक दी। दुकानदार वैसे तो बड़ी उत्सुकता से राह देख रहा था, लेकिन डर भी रहा था। डर इसलिए रहा था कि पत्नी ने इतनी सहजता से हा भर दी थी कि उसे भरोसा ही न आ रहा था! कि एक दफा भी इनकार न किया। अरे, कोई सती—सावित्री होती, तो फौरन चप्पल निकाल लेती! जो चप्पल निकाले, समझ लेना कि यह सती—सावित्री नहीं है! वह चप्पल निकालना ही जाहिर कर रहा है कि लंपट है।

एकदम ही भर दिया! भरोसा नहीं आ रहा था। और कबीर की पत्नी ऐसा हौ भर दे! न लाज, न संकोच, न विरोध! एक, चेहरे पर बदली भी न आयी! जैसे कोई खास बात ही न हो। आयेगी भी कि नहीं—यह भरोसा नहीं था। सोचता था कि धोखा दे गई। सोचता था कि ले गई सामान; आने—वाने वाली नहीं है।

लेकिन जब द्वार पर उसने दस्तक दी और दरवाजा खोला और पत्नी सामने खड़ी थी! सज—बज कर आयी थी। जो भी घर में सुंदर था, वह पहनकर आयी थी।

घबड़ा गया; दुकानदार घबड़ा गया! पसीना छूट गया। सोचा न था कि पत्नी आ जायेगी। एक दफा तो आंख पर भरोसा न आया। और दूसरी बात देखकर और हैरान हुआ कि इतनी धुआंधार बरसा हो रही है, मूसलाधार, और पत्नी बिलकुल भीगी नहीं है! उसने पूछा कि ‘इतनी मूसलाधार बरसा में मुझे भरोसा नहीं था कि तू आयेगी। मगर आयी—यह ठीक। मगर यह चमत्कार क्या है कि तुझ पर तो बूंद भी नहीं पडी! तेरे कपड़े तो भीगे भी नहीं!’

उसने कहां, ‘भींगते कैसे। अरे, कबीर जो मुझे साथ लेकर आये; खुद भींगते रहे, छाते में मुझे छिपाये रहे। कहने लगे —मै भीग जाऊं, तो कोई बात नहीं, लेकिन तुझे तो अब उस दुकानदार के पास जाना है। उस बेचारे का क्या कसूर कि आज बरसा हो रही है।‘

वह तो दुकानदार और भी लड़खड़ा गया। उसने कहां, ‘कबीर छोड़ गये! कबीर कहां हैं? गये, कि यहीं हैं?’

उसने कहां, ‘गये नहीं। छप्पर में बैठे हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि जब तू निपट जाये, पता नहीं, बरसा रुके न रुके। रात अंधेरी है। तो ले जाने के लिए बैठे हैं! तो जल्दी निपट लो। तुम्हें जो करना हो कर लो, क्योंकि उनको ज्यादा देर बिठाये रखना भी ठीक नहीं। सुबह ब्रह्म—मुहूर्त में फिर उठ आना होता है और फिर भजन—कीर्तन। और भक्त इकट्ठे होंगे!’

पैरों पर गिर पड़ा वह दुकानदार। भागा; कबीर के पैर छुए। कबीर ने कहां कि ‘तू समय खराब न कर। तू अपना काम निपटा; हमें अपना काम करने दे। तू इन बातों में मत उलझ। अरे, यह पैर छूना वगैरह पीछे हो लेगा। सुबह आ जाना; भजन—कीर्तन कर लेना। वहीं पैर भी छू लेना। कार अभी तू अपना काम निपटा।’

उसने कहां, ‘आप कहते क्या हैं! और मुझे न मारो। और मुझे न दुत्कारो! और मुझे गर्हित न करो। और मुझे अपमानित न करो! ‘

कबीर ने कहा, ‘नहीं, तेरा हम कोई अपमान नहीं कर रहे हैं। इन बातों का मूल्य ही क्या है?’

यह होगी ज्ञानी की दृष्टि। कबीर को मैं कहूंगा तीर्थंकर। मेरे लिए कबीर ने कितने घोड़े और कितने हाथी छोड़े, यह सवाल नहीं है। एक बात देख ली कि यह संसार और इसके मूल्यों का कोई मूल्य नहीं है। इसकी नीति कुछ नीति नहीं; इसकी अनीति कुछ अनीति नहीं। सब व्यावहारिक बातें हैं। और उस परम सत्य को कुछ भी नहीं छूता है। वह परम सत्य सदा कुंवारा है; अछूता है। वह जल में कमलवत् है।

मगर कबीर को कौन तीर्थंकर माने! कौन अवतार माने! कौन कबीर को बुद्ध माने? वही मूल्य है। एक बंधा हुआ मूल्य है — धन का।

तो जिनको तुम साधु भी कहते हो, उनको भी तुम साधु लौकिक कारणों से ही कहते हो। उन्होंने कुछ छोड़ दिया। जो तुम्हारे लिए बहुत मूल्यवान था, उन्होंने छोड़ दिया। बस, साधु हो गए!

मगर वसिष्ठ के सूत्र में बात कीमत की है। बात यह है कि ऐसे साधु की वाणी थोथी होगी। वह किसी और के अर्थ का अनुसरण करेगी’। उसके पास अपना तो कोई अर्थ नहों है; अपना कोई साक्षात्कार नहीं है। कहेगा कि ‘मधु मीठा होता है, मगर यह उसका अपना स्वाद नहीं है।

और वसिष्ठ ने कहां : ‘ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति और आदि ऋषि थे, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता थ।।’

प्रतीक्षा, इसमें ‘आदि’ तूने कहां से जोड़ दिया! सूत्र तो सिर्फ इतना है— ‘ऋषीणां…।’ वे जो ऋषि हैं; वे जो ऋषि की अनुदशा को उपलब्ध हुए हैं। इसमें ‘आदि’ का कोई सवाल नहीं। लेकिन हम अनुवाद भी जब करते हैं, तो भी हमारी बुद्धि बीच—बीच में व्याघात उत्पन्न करती है। यह जिसने भी अनुवाद किया हो, उसने ‘आदि ऋषि’ जोड़ दिया! क्योंकि हमारी धारणा यह है कि जो भी होना था श्रेष्ठ—पहले हो चुका। स्वर्णयुग तो बीत चुका; अब तो कलयुग चल रहा है। अब कहां ऋषि! —इसलिए ‘ आदि ऋषि!’ हालांकि सूत्र में कुछ ‘आदि’ का सवाल नहीं है।

सिर्फ सूत्र तो इतना कह रहा है. ‘ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमथोंsनुधावति। वे जो ऋषि हैं, उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता है।’ वे जो भी बोल देते हैं, वही सार्थक हो जाता है। वे जो भी बोल देते हैं…। वे बोलें तो, न बोलें तो; उनका मौन भी सार्थक होता है; उनकी वाणी भी सार्थक होती है। उनकी वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। उन्हें अपनी वाणी को किसी अर्थ के पीछे नहीं चलना होता। वे तो बहते हैं—सरिता की भांति। अर्थ उनके साथ बहता है। इसलिए वे जो भी कहें, उसमें ही गरिमा होती है, गौरव होता है। वे जो भी कहें, उसमें ही सौंदर्य होता है।

‘ऋषि’ शब्द बड़ा प्यारा है। पहले उस शब्द को समझ लो। हमारे पास दो शब्द हैं—सिर्फ हमारे पास दो शब्द हैं, सारी दुनिया में—कवि और ऋषि। दुनिया की सभी भाषाओं में कवि शब्द तो है लेकिन ‘ऋषि’ शब्द नहीं है। दोनों का अर्थ एक होता है, लेकिन थोड़े भेद से। जरा—सा बारीक भेद; यूं बाल बराबर भेद, लेकिन जमीन और आसमान को अलग कर देता है।

कवि का अर्थ है, जिसे सत्य की कभी—कभी झलक मिलती है। और ऋषि का अर्थ है, जो सत्य में ही ठहर गया। कवि का अर्थ है : जो दूर से, बहुत दूर से हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों को देखता है—मगर दूर से। और ऋषि का अर्थ है : जिसने वहीं निवास बना लिया; वह जो हिमाच्छादित शिखरों पर रहने लगा। कवि के लिए सत्य एक किरण की तरह आता है और चला जाता है; एक झलक की तरह; एक हवा का झोंका; यह आया—वह गया! मगर उस झोंके में भी कवि के भीतर फूल खिल जाते हैं।

ऋषि स्वयं ही फूल हो गया। कवि का वसंत आता है, जाता है। ऋषि के लिए वसंत ही एकमात्र ऋतु है। चौबीस घंटे वसंत है। ऋषि का अर्थ है—जिसने ध्यान से सत्य का अनुभव किया; जिसकी आंखें खुल गईं—असली आंखें खुल गई; जिसने पदार्थ में परमात्मा को देख लिया; जिसने संसार में मोक्ष को अनुभव कर लिया। ऐसे ऋषि जो भी बोलें… साधारण से साधारण शब्द भी उनके हाथों में असाधारण अर्थ ले लेते हैं।

और जिनको तुम साधु कहते हो, इनके हाथों में सुंदर से सुंदर शब्द भी बड़े कुरूप हो जाते हैं, अपंग हो जाते हैं।

सारी बात आदमी की है; शब्दों में कुछ नहीं होता; व्यक्तियों में होता है; व्यक्तियों की अनुभूतियों में होता है। अगर व्यक्ति के भीतर आह्लाद है, ईश्वर का उन्माद है, मोक्ष की मस्ती है, तो वह जो भी बोल दे, वही मंत्र है, वही श्लोक है, वही ऋचा है। और अगर व्यक्ति के भीतर वह परम उन्माद नहीं है, तो वह सुंदर—सुंदर शब्दों को बिठाता रहे, जमाता रहे, शायद कविता रच लेगा, भाषा के हिसाब से, व्याकरण के हिसाब से, छंद के हिसाब से, मात्रा के हिसाब से—लेकिन उसमें आत्मा नहीं होगी। वह लाश ही होगी।

लाश भी दिखाई पड़ सकती है बिलकुल आदमी जैसी। लाश को भी तुम खूब सजा सकते हो। पश्चिम में तो लाश को सजाने का धंधा होता है। पश्चिम में तो बड़ा भय है मृत्यु का। होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि ईसाइयत, यहूदी, मुसलमान—भारत के बाहर पैदा हुए तीनों धर्म एक ही जीवन में भरोसा करते हैं। बस, एक ही जीवन; और कोई जीवन नहीं! तो घबड़ाहट स्वाभाविक है। यूं भी आदमी मौत से घबड़ाता है। यहां भी आदमी मौत से घबड़ाता है, जहां कि अनंत जीवनों का विश्वास है। पहले भी हम थे, आगे भी हम होंगे। मगर वह विश्वास ही है। घबड़ाहट तो भीतर होती है कि कौन जाने बचे न बचे! मगर पश्चिम में तो साफ ही है कि बचना नहीं है; एक ही जीवन है। बस, फिर दुबारा लौटना नहीं है। फिर तो कयामत की रात तक पड़े रहना है कब में। तो घबड़ाहट स्वाभाविक है।

जरा सोचो तो, कब आयेगी कयामत। अनंत—अनंत काल तक कब में ही सड़ते रहोगे, सड़ते रहोगे, सड़ते रहोगे। गल जाओगे! हट्टी—हट्टी गलकर मिट्टी हो जायेगी, तब आयेगी कयामत! पता नहीं, आयेगी भी कि नहीं आयेगी! और इतने काल तक तुम्हें पड़े रहना पड़ेगा कब में ही। घबड़ाहट है!

तो मृत्यु को झुठलाने का पश्चिम में बहुत उपाय होता है। इसलिए पश्चिम में एक धंधा ही हो गया है; पूरब में वैसा कोई धंधा नहीं है अभी। पश्चिम में धंधा है—मौत को सजानेवालों का धंधा! काफी लाभवाला धंधा है! जब कोई मर जाता है, तो उस पर हजारों रुपये खर्च होते हैं! उसको सजाया जाता है। जैसे कि कोई अभिनेताओं को सजाता है नाटक में। अब. यह नाटक का अंत ही हो रहा है! आखिरी सजावट कर ही लेनी चाहिए। पटाक्षेप हो रहा है। परदा गिरने का है। गिर ही चुका है।

तो उसके चेहरे को सुंदर बनाते हैं; रंगते हैं; लाली देते हैं उसके गालों को, उसके ओठों को। उसकी आंखों को काजल देते हैं। उसके बालों को रंग देते हैं। अगर बाल न हों, तो झूठे बाल लगा देते हैं। अगर दात गिर गये हों, तो झूठे दात लगा देते है! सुंदर कपड़े पहनाते हैं। इत्र छिड़कते हैं। फूलों से सजा देते हैं। आदमी यूं लगने लगता है, जैसे दूल्हा हो! दूल्हा भी फीका लगे। आदमी यूं लगने लगता है, जैसे यह कोई मरघट नहीं जा रहा है; यह कोई बारात निकल रही है!

फिर खूबसूरत से खूबसूरत ताबूत; कीमती से कीमती ताबूत, उनमें उसकी लाश को सजाया जाता है। धोखा… हर तरह का धोखा! लेकिन लाख उपाय करो, तो भी जिंदा आदमी जिंदा आदमी है, और मरा हुआ आदमी मरा हुआ आदमी है। कितना ही सुंदर लगे।

उतना ही भेद कविता में और ऋचा में है। उतना ही भेद कवि में और ऋषि में है। ऋषि है जीवंत। मात्रा का उसे पता नहीं। अब कोई मीरा की कविताओं में मात्राएं हैं, कि कोई छंद हैं! अगर भाषा और मात्रा और छंद के हिसाब से तौला जाये, तो कबीर और मीरा की गिनती कहीं भी नहीं होगी। तब तो तुलसीदास बड़े कवि मालूम होंगे। कहते भी हैं कि तुलसीदास महाकवि हैं। हैं भी वे महाकवि। बस, लेकिन कवि ही हैं—ऋषि नहीं। कबीर कवि नहीं है—ऋषि है। शब्द अटपटे हैं, लेकिन उन शब्दों के पीछे गहन अर्थ चला आ रहा है। शब्द जीवंत हैं; पंख हैं उनमें। यूं कि अभी उड़ जायें! किन्हीं पिंजरो में बंद नहीं।

तुलसीदास के शब्द कितने ही सुंदर हों, पींजड़ों में बंद हैं। लेकिन तुलसीदास की महिमा! क्योंकि लोग तो व्यर्थ से प्रभावित होते है; सार्थक से तो घबड़ाते हैं क्योंकि सार्थक तो झकझोर देता है। सार्थक तो आता है झंझावात की तरह। धूल झाड़ देता है। और तुमने धूल को समझ रखा है बड़ी कीमती! सो जो तुम्हारी धूल को और जमा दे, वही प्यारा लगता है।

तुलसीदास महाकवि! कबीरदास तो अटपटे हैं। सधुक्कड़ी उनकी भाषा है। पंडित कहते हैं—सधुक्कड़ी। उसके लिए भाषा अलग रख लिया है नाम—सधुक्कड़ी भाषा! संध्या भाषा! उलटबांसी! सीधी बात ही नहीं करते; उलटी बांसुरी बजाते हैं! कुछ का कुछ कहते हैं!

मगर कारण? कारण यह है कि कबीर कोई पढ़े—लिखे व्यक्ति नहीं हैं। कबीर कोई शास्त्रीय व्यक्ति नहीं हैं, मगर सत्य को जाना है। इसलिए बोलचाल की भाषा ही बोलते हैं, मगर उसमें ही वह सारा रस भर दिया है, कि फूल फीके पड़ जायें। वह सारी रोशनी भर दी है, कि चांद—तारे फीके पड़ जायें। छोटे से छोटे वचन, मगर बड़े से बड़े शास्त्रों का निचोड़ आ गया है।

इसलिए प्रतीक्षा, ‘आदि ऋषि’ शब्द मत जोड़ो। ’आदि’ से क्या लेना—देना है? ‘ऋषि’ का ‘आदि’ से क्या संबंध? ऋषि तो आज भी होते हैं। जब भी सत्य को जाना है, तभी ऋषि का जन्म हुआ।

ऋषि का अर्थ तो है : जिसे भीतर की देखने की आंख मिल गई। और तब यह सच है कि ‘ऋषि की वाणी का अनुसरण अर्थ करता है।’ वह अर्थ की चिंता नहीं करता, न व्याकरण की चिंता करता है, न भाषा की चिंता करता है। और इसलिए अनेक बार ऐसा हुआ है कि ऋषियों के बोलने के कारण नयी भाषाएं पैदा हो गयीं।

महावीर ने संस्कृत में नहीं बोला; प्राकृत में बोला। महावीर के बोलने के कारण प्राकृत बनी। संस्कृत में एक पांडित्य है, एक आभिजात्य है। महावीर ने संस्कृत का उपयोग नहीं किया? बोलचाल की भाषा में बोले। उसमें वह पांडित्य नहीं है, लेकिन जीवंतता है।

बुद्ध पाली में बोले। पाली बोलचाल की भाषा है; बे पढ़े—लिखे आदमी की भाषा है। मगर बड़ी प्यारी!

जब लोग शब्दों का उपयोग करते है, तो शब्दों के किनारे घिस जाते हैं, शब्दों में गोलाई आ जाती है, सौंदर्य आ जाता है। लोगों के शब्द घिसते—घिसते बड़े प्यारे हो जाते हैं! और जब भी कभी लोगों पर ऊपर से भाषा थोपी जाती है, तो कभी उस भाषा में प्राण नहीं आते। जैसा इस देश में उपयोग किया गया।

स्वतंत्रता के बाद इस देश में जिन्होंने सबसे बड़ी हानि हिन्दी को पहुंचाई, वे थे—डाक्टर रघुवीर, सेठ गोविंददास। दोनों मेरे निकट से परिचित व्यक्ति थे। और दोनों को मैंने कहां था कि ‘तुम दुश्मन हो हिन्दी के।’ हालांकि दोनों समझे जाते थे कि हिन्दी के सबसे बड़े समर्थक हैं। मगर उन्हीं ने नष्ट किया।

भाषाएं ऐसे ऊपर से नहीं थोपी जातीं। रघुवीर ने कैसी भाषा थोपने की कोशिश की! हालांकि गणित ठीक था उनका; व्याकरण ठीक थी उनकी; सब बातें ठीक थीं। मगर भाषाएं जन्मती हैं; ऐसे थोपी नहीं जातीं। भाषाएं कृत्रिम नहीं होतीं। जनता जब सैकड़ों वर्ष तक उपयोग करती है शब्दों का, तो उन शब्दों में एक रस आ जाता है; एक जीवंतता आ जाती है। निरंतर के चलन से उनमें गोलाई आ जाती है। जैसे नदी में बहते हुए पत्थर गोल हो जाते हैं, शंकरजी की पिण्डी बन जाते हैं। ऐसे प्रत्येक शब्द में…।

रघुवीर के शब्दों में गोलाई नहीं है और बेहूदापन है। हालांकि हिसाब की दृष्टि से बिलकुल ठीक हैं। अब जैसे—’रेलगाड़ी’, तो रेलगाड़ी शब्द का ठीक—ठीक अनुवाद भाषा में करना हो, तो रघुवीर ने बिलकुल ठीक किया—’लोह—पथ—गामिनी’। मगर कौन इसका उपयोग करेगा? जिससे कहोगे, वही हंसेगा! किसी से कहोगे कि ‘लोह—पथ—गामिनी से जा रहे हैं’, तो वह पहले चौंककर देखेगा कि तुम होश में हो कि ज्यादा पी गये! क्या हो गया तुम्हें! लोह—पथ—गामिनी से जा रहे हो! तुम्हें जाने के लिए कुछ और उपाय न बचा! हालांकि लोह—पथ—गामिनी बिलकुल ठीक रेलगाड़ी का ही अनुवाद है। रेल का अर्थ होता है—लोह—पथ। और लोह—पथ पर जो दौड़ती है, वह गामिनी; गमन करती है, बिलकुल ठीक है। लोह—पथ—गामिनी!

इससे तो डाक्टर राममनोहर लोहिया बेहतर आदमी थे। उन्होंने जनता के शब्द चुनने की फिक्र की है। जैसे ‘रिपोर्ट’ की जगह वे ‘रपट’ लिखते थे! क्योंकि गांव का किसान जब कहता है, तो वह कहता है, ‘ भइया, रपट लिखवाई कि नहीं!’ रिपोर्ट घिस —घिसकर ‘ रपट ‘ हो गई। स्‍ ‘ स्टेशन’ घिस —घिसकर ‘टेशन’ हो गया! मगर जो ‘टेंशन ‘ में मजा है —वह ‘स्टेशन’ में नहीं! और जो ‘रपट’ में बात है —वह ‘रिपोर्ट ‘ में नहीं। रपट में एक सचाई है। कबीर तो ‘रपट’ लिखवायेंगे; ‘रिपोर्ट ‘ नहीं लिखवायेंगे! कबीर ‘टेशन’ जायेंगे — ‘स्टेशन ‘ नहीं जा सकते!

अभी पाच सौ साल पहले ही नानक के कारण ‘गुरमुखी’ भाषा पैदा हुई—सिर्फ नानक के कारण। क्योंकि नानक ने पंजाब की लोक— भाषा का उपयोग किया—और एक नयी भाषा को जन्म दे दिया। मगर वह जन्म ऊपर से थोपा हुआ नहीं है; वह कोई कृत्रिम नहीं है। लोग जिस भाषा का उपयोग कर रहे थे, सदियों से, उसी भाषा को छू दिया—और जादू हो गया!

ऋषि की वाणी का अनुसरण अर्थ करता है। ऋषि फिक्र नहीं करता कि शब्द क्या हैं; किन्हीं भी शब्दों को चला देता है। चलते हुए शब्दों को उपयोग में ले आता है, और उनमें बड़े अर्थ के फूल खिल जाते हैं।

यह सूत्र उपयोगी है। लेकिन इसमें से दो बातें छोड़ देना। एक तो ‘लौकिक साधु’ जैसा कोई व्यक्ति होता नहीं। या तो कोई साधु होता है—या लौकिक होता है। और दूसरी बात— ‘ आदि ऋषि’— गलत अनुवाद है। ऋषि सदा होते रहे; आज भी हैं; कल भी होंगे। यह दुनिया उस दिन स्वाद खो देगी जिस दिन ऋषि पैदा न होंगे। जब तक ऋषि हैं, तब तक जमीन पर नमक है; तब तक जीवन में स्वाद है।

ऋषि का अर्थ केवल इतना ही है—जिसने देखा, अनुभव किया, जीया; जो जीकर बोला; जिसके बोलने में हृदय की धड़कन है।

आज इतना ही।

 

‘अनहद में बिसराम’ प्रवचनमाला से

दिनांक 16 नवम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–3) –प्रवचन–47

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मूलाधार से सहस्‍त्रार की ज्‍योति—यात्रा—(प्रवचन—सैतालीसवां)

सूत्र:

70—अपनी प्राण—शक्‍ति को मेरूदंड में ऊपर उठती,

एक केंद्र से दूसरे केंद्र की और गति करती हुई

प्रकाश—किरण समझों; ओरइस भांति तुममें

जीवंतता का उदय होता है।

      71—या बीच के रिक्‍त स्‍थानों में ये बिजली कौंधने

            जैसा है—ऐसा भाव करो।

      72—भाव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी शाश्‍वत उपस्‍थिति है।

नुष्‍य को तीन रूपों में सोचा जा सकता है—सामान्य, असामान्य और अधिसामान्य। पश्चिमी मनोविज्ञान असामान्य मनुष्य की, रुग्ण मनुष्य की सामान्य से, औसत से नीचे गिर गए मनुष्य की चिंता लेता है। और पूर्वीय मनोविज्ञान—तंत्र और योग—अधिसामान्य मनुष्य के दृष्टिकोण से मनुष्य पर विचार करता है, उस मनुष्य के दृष्टिकोण से मनुष्य पर विचार करता है जो सामान्य के, औसत के पार चला गया है। दोनों ही असामान्य हैं। जो मनुष्य रुग्ण है, बीमार है, वह असामान्य है; क्योंकि वह स्वस्थ नहीं है। और जो मनुष्य अधिसामान्य है वह भी असामान्य है; क्योंकि वह सामान्य मनुष्य से ज्यादा स्वस्थ है। भेद ऋण और धन का है।

पश्चिमी मनोविज्ञान मनोचिकित्सा के अंग के रूप में विकसित हुआ। फ्रायड, कै, एडलर तथा दूसरे मनोवैज्ञानिक असामान्य लोगों की, मानसिक रूप से रुग्ण लोगों की चिकित्सा कर रहे थे। इस कारण मनुष्य के प्रति पश्चिम की पूरी दृष्टि भ्रांत हो गई है। फ्रायड बीमार लोगों का अध्ययन कर रहा था। कोई स्वस्थ आदमी क्यों उसके पास जाता! सिर्फ वे लोग उसके पास जाते थे जो मानसिक रूप से रुग्ण थे। उसने उन लोगों का ही अध्ययन किया, और इस अध्ययन से उसने सोचा कि मैंने मनुष्य को समझ लिया।

लेकिन बीमार मनुष्य दरअसल पूरी तरह मनुष्य नहीं हैं। वे रुग्ण हैं, बीमार हैं। और जो चीज उनके अध्ययन पर आधारित होगी वह निश्चित ही पूरी तरह गलत होगी, हानिकारक होगी। यह बात हानिकारक सिद्ध हुई, क्योंकि यह मनुष्य को रुग्णता के दृष्टिकोण से देखती है। अगर चित्त की एक विशेष दशा चुनी जाती है और वह दशा रुग्ण है, बीमार है, तो मनुष्य का पूरा चित्र रोग— आधारित हो जाता है।

इसी दृष्टिकोण के कारण सारा पश्चिमी समाज नीचे गिर गया, क्योंकि रुग्ण मनुष्य उसकी नींव बन गया है, विकृत मनुष्य उसका आधार बन गया है। और अगर तुम सिर्फ असामान्य लोगों का अध्ययन करोगे तो तुम अधिसामान्य लोगों के होने की कल्पना भी नहीं कर सकते। बुद्ध फ्रायड के लिए असंभव हैं, अकल्पनीय हैं। निश्चित ही, फ्रायड के लिए बुद्ध काल्पनिक हैं, पौराणिक हैं; वे उसके लिए सत्य नहीं हो सकते। फ्रायड सिर्फ बीमार लोगों के संपर्क में आया; वे लोग सामान्‍य भी नहीं थे। इसलिए वह सामान्‍य लोगों के संबंध में भी जो कहता है वह असामान्य लोगों के अध्ययन पर आधारित है।

यह ऐसा ही है जैसे कि अगर कोई चिकित्सक, कोई डाक्टर अध्ययन करना चाहे तो वह बीमार लोगों का ही अध्ययन करेगा। कोई स्वस्थ आदमी क्यों उसके पास जाएगा? उसकी जरूरत नहीं है। अस्वस्थ लोग ही उसके पास जाएंगे। और इतने अस्वस्थ लोगों का अध्ययन करके वह अपने मन में मनुष्य का जो चित्र निर्मित करेगा वह निश्चित ही मनुष्य का चित्र नहीं हो सकता है। वह मनुष्य का चित्र नहीं हो सकता है, क्योंकि मनुष्य बस रोग ही रोग नहीं है। और अगर तुम मनुष्य की धारणा रोगों पर आधारित बनाओगे तो उसका दुष्परिणाम पूरे समाज को भोगना पड़ेगा।

पूर्वीय मनोविज्ञान के पास, विशेषकर तंत्र और योग के पास भी मनुष्य की एक धारणा है; लेकिन वह धारणा अधिसामान्य लोगों के, बुद्ध, पतंजलि, शंकर, नागार्जुन, कबीर, नानक जैसे लोगों के अध्ययन पर आधारित है। ये वे लोग हैं जो मनुष्य की क्षमता और संभावना के शिखर पर पहुंचे। इस अध्ययन में निम्नतम का विचार नहीं है, सिर्फ श्रेष्ठतम का विचार है। और जब तुम श्रेष्ठतम का विचार करते हो तो तुम्हारा चित्त एक द्वार बन जाता है; तब तुम जानते हो कि ऊंचाइयां संभव हैं, ऊंचे शिखर संभव हैं।

अगर तुम निम्नतम का विचार करोगे तो कोई विकास संभव नहीं है। उसमें चुनौती नहीं है। और अगर तुम सामान्य हो तो तुम प्रसन्न अनुभव करते हो। यह काफी है कि तुम विक्षिप्त नहीं हो, तुम किसी मानसिक अस्पताल में नहीं हो। तुम अपने को ठीक महसूस कर सकते हो; लेकिन इसमें कोई चुनौती नहीं है।

लेकिन अगर तुम अधिसामान्य की खोज करोगे, अगर अपनी श्रेष्ठतम संभावना की अभीप्सा करोगे, अगर कोई व्यक्ति उस संभावना को उपलब्ध हो चुका है, तो उस संभावना के लिए द्वार खुलता है; तब तुम विकास कर सकते हो। तुमको एक चुनौती मिलती है, और तुम्हें अब अपने से संतुष्ट होने की जरूरत न रही। ऊंचे शिखर संभव हो जाते हैं, दिखने लगते हैं, और तुम्हें पुकारने लगते हैं।

इस बात को अच्छे से समझने की जरूरत है; तो ही तंत्र का मनोविज्ञान समझा जा सकता है। तुम जो कुछ हो वह अंत नहीं है; तुम ठीक मध्य में हो, बीच में हो; यहां से तुम नीचे गिर सकते हो, यहां से तुम ऊपर भी उठ सकते हो। तुम्हारा विकास पूरा नहीं हो गया है। तुम मंजिल पर नहीं हो, तुम अभी मार्ग में हो। तुम्हारे भीतर कोई चीज सतत विकसित हो रही है। तंत्र विकास की इसी संभावना पर अपनी समस्त साधना—पद्धति को आधारित करता है।

और स्मरण रहे, जब तक तुम वही नहीं हो जाते जो हो सकते हो, तब तक तुम तृप्त नहीं हो सकते, कृतार्थ नहीं हो सकते। तुम्हें वह होना ही है जो तुम हो सकते हो। यह अनिवार्यता है। अन्यथा तुम विषाद में पड़ोगे, तुम अर्थहीन अनुभव करोगे; तुम्हें लगेगा कि जीवन व्यर्थ है। तुम किसी तरह जीवन को खींचे जा सकते हो, लेकिन जीवन में उत्कुल्लता नहीं होगी। और तुम कई अन्य क्षेत्रों में सफल भी हो सकते हो, लेकिन तुम अपने ही साथ निष्फल हो जाओगे।

और यही हो रहा है। कोई व्यक्ति बहुत धनवान हो जाता है और लोग सोचते हैं कि वह सफल हो गया, लेकिन वह खुद ऐसा नहीं सोचता। वह अपनी निष्फलता को जानता है। वह जानता है कि धन तो इकट्ठा हो गया है, लेकिन मैं निष्फल हूं। तुम बड़े आदमी हो, लीडर हो, राजनेता हो। सब लोग सोचते है कि तुम सफल हो गए; लेकिन तुम हारे हुए हो।

यह बडी अजीब दुनिया है; यहां तुम अपने को छोड्कर सब की निगाह में सफल हो जाते हो। हर रोज मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि हमारे पास सब कुछ है, लेकिन अब क्या? वे असफल लोग हैं। लेकिन उनकी असफलता क्या है? जहां तक बाहर की चीजों का संबंध है वे असफल नहीं हैं। फिर उन्हें यह असफलता क्यों महसूस होती है?

उनकी आंतरिक संभावना संभावना ही रह गई; उनका आतंरिक बीज बीज ही रह गया। उनका फूल नहीं खिला। वे वहां नहीं पहुंच सके जिसे मैसलो सेल्फ—एक्चुअलाइजेशन कहता है। वे असफल हैं, भीतर से असफल हैं। और अंततः उसका कोई अर्थ नहीं है जो दूसरे समझते हैं; तुम खुद जो समझते हो वही सार्थक है।

अगर तुम समझते हो कि मैं असफल हूं तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि दूसरे तुम्हें नेपोलियन या सिकंदर महान समझते हों। बल्कि उससे तुम्हारा विषाद बढ़ता ही है। सब लोग समझते हैं कि तुम सफल हो, और अब तुम यह नहीं कह सकते कि मैं सफल नहीं हूं। लेकिन तुम जानते हो कि मैं सफल नहीं हूं तुम अपने को धोखा नहीं दे सकते। जहां तक आत्मोपलब्धि का सवाल है, तुम अपने को धोखा नहीं दे सकते। देर—अबेर तुम्हें स्वयं से मिलना होगा और स्वयं में गहरे झांकना होगा कि क्या हुआ। जीवन व्यर्थ चला गया। एक अवसर तुमने गंवा दिया, व्यर्थ की चीजें बटोरने में गंवा दिया।

आत्मोपलब्धि तुम्हारे विकास का उच्चतम शिखर है, जहां तुम्हें गहन परितोष का अनुभव होता है, जहां तुम कह सकते हो कि यह है मेरी नियति जिसके लिए मैं पैदा हुआ था, जिसके लिए मैं यहां पृथ्वी पर हूं। तंत्र उसी आत्मोपलब्धि की फिक्र करता है कि कैसे तुम्हें विकसित होने में सहयोग दे।

और स्मरण रहे, तंत्र को तुम्हारी फिक्र है; उसे आदर्शों से कुछ लेना—देना नहीं है। तंत्र आदर्शों की फिक्र नहीं करता है; वह तुम्हारी फिक्र करता है। तुम जो हो और जो हो सकते हो तंत्र उसकी फिक्र करता है। और यह बहुत बड़ा फर्क है।

अन्य सभी देशनाएं, दूसरे सभी शास्त्र आदर्शों की फिक्र करते हैं। वे कहते हैं कि बुद्ध बनो, जीसस बनो; यह बनो, वह बनो। उनके आदर्श हैं, और तुम्हें उन आदर्शों के अनुरूप बनना है। तंत्र तुम्हें कोई आदर्श नहीं देता है। तुम्हारा अज्ञात आदर्श तुम्हारे भीतर ही छिपा है; वह तुम्हें दिया नहीं जा सकता। तुम्हें बुद्ध नहीं बनना है; उसकी कोई जरूरत नहीं है। एक बुद्ध काफी हैं; पुनरुक्ति का कोई मूल्य नहीं है।

अस्तित्व सदा अनूठा है, वह अपने को कभी नहीं दोहराता है। दोहराना ऊब पैदा करता है। अस्तित्व सदा नया है, नितनूतन है, शाश्वत रूप से नया है। वह बुद्ध को भी दोबारा नहीं पैदा करता है; बुद्ध जैसी सुंदर घटना को भी नहीं दोहराता है।

क्यों? क्योंकि बुद्ध भी यदि दोहराए जाएं तो ऊब ही पैदा करेंगे। और फिर उपयोग क्या है? मौलिक का ही, अनूठे का ही मूल्य है, नकल का कोई मूल्य नहीं है। अगर तुम मौलिक हो सको, स्वयं हो सको, तो ही तुम्हारी नियति पूरी होगी। यदि तुम नकल हो, किसी की अनुकृति हो, तो तुम चूक गए।

तो तंत्र यह कभी नहीं कहता कि इसके जैसे बनो या उसके जैसे बनो, कोई आदर्श नहीं है। तंत्र कभी आदर्शों की बात नहीं करता है; इसीलिए तो इसका नाम तंत्र है। तंत्र विधियों की चर्चा करता है; वह कभी आदर्शों की बात नहीं करता। वह समझाता है कि तुम कैसे हो सकते हो; यह नहीं कि तुम्हें क्या होना है। उस ‘कैसे’ के कारण ही तंत्र का अस्तित्व है; तंत्र शब्द का अर्थ ही विधि है, उपाय है। तुम कैसे हो सकते हो, तंत्र इसकी फिक्र करता है; तुम क्या हो सकते हो, तंत्र इसकी फिक्र नहीं करता।

वह जो ‘क्या’ है वह तुम्हारे विकास से पैदा होगा, तुम्हारी वृद्धि से आएगा। तुम सिर्फ विधि का प्रयोग करो, और धीरे— धीरे तुम्हारी आंतरिक संभावना वास्तविक होती जाएगी। तब वह अज्ञात, अप्रकट संभावना प्रकट हो जाएगी। और जैसे—जैसे वह प्रकट होगी, तुम्हें बोध होगा कि वह क्या है। और कोई नहीं कह सकता कि वह क्या है; जब तक तुम वह हो ही नहीं जाते, कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि तुम क्या हो सकते हो।

तो तंत्र केवल विधियां देता है; वह कभी आदर्श नहीं देता। और यहीं वह सभी नैतिक शिक्षाओं से भिन्न है। नैतिक शिक्षाएं सदा आदर्श देती हैं। अगर वे विधियों की बात भी करती हैं तो वे विधियां सदा किसी आदर्श विशेष के लिए होती हैं। तंत्र तुम्हें कोई आदर्श नहीं देता; तुम स्वयं आदर्श हो। और तुम्हारा भविष्य अज्ञात है। अतीत से मिला कोई भी आदर्श काम का नहीं है, क्योंकि कुछ भी पुनरुक्त नहीं हो सकता। और अगर पुनरुक्त होता है तो वह व्यर्थ है। झेन संत कहते हैं कि स्मरण रखो और सजग रहो। अगर तुम्हें ध्यान में बुद्ध मिल जाएं तो तुरंत उनकी हत्या कर दो; उन्हें वहां टिकने ही मत दो। झेन संत बुद्ध के अनुयायी हैं; तो भी वे कहते हैं कि यदि बुद्ध ध्यान में मिल जाएं तो उन्हें तुरंत समाप्त कर देना। क्योंकि बुद्ध का व्यक्तित्व, बुद्ध का आदर्श इतना सम्मोहक हो सकता है कि तुम स्वयं को भूल जा सकते हो। और अगर तुम स्वयं को भूल गए तो तुम मार्ग से च्युत हो गए।

बुद्ध आदर्श नहीं हैं; तुम स्वयं आदर्श हो, तुम्हारा अज्ञात भविष्य आदर्श है। उसे ही आविष्कृत करना है। तंत्र उसे आविष्कृत करने की विधि देता है। खजाना तुम्हारे भीतर ही है। तो यह दूसरी बात स्मरण रखो। यह मानना बहुत कठिन है कि तुम स्वयं आदर्श हो। मानना कठिन इसलिए है क्योंकि हरेक आदमी तुम्हारी निंदा कर रहा है। कोई व्यक्ति तुम्हें स्वीकार नहीं करता है, तुम खुद भी तो अपने को स्वीकार नहीं करते हो। तुम सतत अपनी निंदा करते रहते हो। तुम सदा किसी दूसरे जैसे होने की भाषा में सोचते रहते हो, और यह गलत है, खतरनाक है। अगर तुम इस तरह सोचते रहोगे तो तुम नकली हो जाओगे, तुम्हारा सब कुछ झूठा हो जाएगा।

अंग्रेजी में नकली के लिए एक शब्द है : फोनी। क्या तुम जानते हो कि यह फोनी शब्द कहां से आता है? यह टेलीफोन से आता है। टेलीफोन के आरंभिक दिनों में संप्रेषण में आवाज इतनी बदल जाती थी कि टेलीफोन से असली आवाज और एक नकली आवाज, दोनों सुनाई पड़ती थीं। नकली आवाज वह थी जो यांत्रिक थी। असली आवाज तो उन शुरू के दिनों म् में न के बराबर सुनाई पड़ती थी। उससे ही नकली के लिए अंग्रेजी में फोनी शब्द आया।

अगर तुम किसी का अनुकरण कर रहे हो तो तुम फोनी हो जाओगे, नकली हो जाओगे; तुम सच्चे नहीं रहोगे। तुम्हें चारों ओर से एक यांत्रिकता घेरे रहेगी, और उसमें तुम्हारी अपनी आवाज, तुम्हारा यथार्थ, तुम्हारा सत्य, सब खो जाएगा। तो नकली मत बनो, प्रामाणिक बनो, सच्चे बनो।

तंत्र को तुम पर भरोसा है। यही कारण है कि तंत्र को मानने वाले इतने थोड़े हैं। कोई व्यक्ति अपने पर भरोसा नहीं करता है। तंत्र तुम पर श्रद्धा करता है, और कहता है कि तुम स्वयं आदर्श हो। इसलिए किसी का अनुकरण मत करो; अनुकरण तुम्हारे चारों ओर एक झूठा व्यक्तित्व निर्मित कर देगा। और तुम उस झूठे व्यक्तित्व को यह सोचकर ढोए जाओगे कि वह तुम्हारा अपना व्यक्तित्व है। लेकिन वह तुम्हारा व्यक्तित्व नहीं है।

तो दूसरी बात स्मरण रखने की यह है कि तुम्हारा कोई निश्चित, नियत आदर्श नहीं है। तुम भविष्य की भाषा में नहीं सोच सकते, केवल वर्तमान की भाषा में सोच सकते हो—प्रत्यक्ष भविष्य की भाषा में ही सोच सकते हो। उसमें ही विकास संभव है।

कोई नियत भविष्य नहीं है। और यह अच्छा है कि भविष्य नियत नहीं है। अन्यथा स्वतंत्रता संभव नहीं होती; अगर भविष्य नियत है तो आदमी रोबोट हो जाएगा, यंत्र—मानव हो जाएगा। तुम्हारा भविष्य नियत नहीं है; तुम्हारी संभावनाएं अनंत हैं। तुम अनेक आयामों में विकास कर सकते हो। लेकिन जो चीज तुम्हें परम परितोष देगी, वह यह है कि तुम विकास करो। और यह विकास इस ढंग से हो कि प्रत्येक विकास और—और विकास का द्वार बने।

विधियां सहयोगी हैं, क्योंकि वे वैज्ञानिक हैं। तुम व्यर्थ के भटकाव से बच जाओगे; तुम्हें बेकार ही इधर—उधर टटोलना नहीं पड़ेगा। अगर तुम किसी विधि का उपयोग नहीं करते हो तो तुम्हें अनेक जन्म लग जाएंगे। तुम मंजिल पर तो पहुंच जाओगे, क्योंकि तुम्हारे अंदर की जीवन—ऊर्जा तब तक गति करती रहेगी जहां से आगे गति करना संभव नहीं होगा। जीवन—ऊर्जा अपने अंतिम बिंदु तक, उच्चतम शिखर तक यात्रा करती रहेगी। यही कारण है कि व्यक्ति को बार—बार जन्म लेना पड़ता है। अपने आप भी तुम पहुंच सकते हो; लेकिन तुम्हें बहुत—बहुत लंबी यात्रा करनी होगी, और वह यात्रा बहुत नीरस और उबाने वाली होगी।

किसी सदगुरु के साथ, वैज्ञानिक विधियों के साथ तुम बहुत समय, अवसर और ऊर्जा की बचत कर सकते हो। और कभी—कभी तो तुम क्षणों में इतना विकास कर सकते हो जितना जन्मों—जन्मों में भी संभव नहीं होगा। अगर सम्यक विधि प्रयोग की जाए तो विकास का विस्फोट घटित होता है।

और ये विधियां लाखों वर्ष तक प्रयोग में लाई गई हैं। ये किसी एक व्यक्ति की ईजाद नहीं हैं; अनेक—अनेक साधकों ने इनके आविष्कार में योगदान दिया है। और यहां इनका सार—सूत्र ही दिया गया है। इन एक सौ बारह विधियों में दुनियाभर की सारी विधियां सम्मिलित हैं; कहीं कोई ऐसी विधि नहीं है जो इन एक सौ बारह विधियों में नहीं है, जो इन एक सौ बारह विधियों में नहीं समाविष्ट की गई है। ये विधियां समस्त आध्यात्मिक खोज का नवनीत हैं।

लेकिन सभी विधियां सभी के लिए नहीं हैं। तो तुम्हें उनका प्रयोग करके देखना होगा। कोई—कोई विधि ही तुम्हारे काम की होगी, और तुम्हें उसे खोजना होगा। दो उपाय हैं। एक कि स्वयं के प्रयोग और भूल के द्वारा कोई विधि तुम्हारे हाथ लग जाए जो काम करने लगे और

तुम विकास करने लगो। फिर तुम उसे जारी रख सकते हो। दूसरा उपाय है कि तुम किसी गुरु के प्रति समर्पित हो जाओ और वह तुम्हारे योग्य विधि चुन दे। ये दो रास्ते हैं, और चुनाव तुम पर निर्भर है। अब विधियों को लें।

पहली विधि :

 

अपनी प्राण— शक्ति को मेरुदंड में ऊपर उठती एक केंद्र से दूसरे केंद्र की ओर गति करती हुई प्रकाश— किरण समझो; और इस भांति तुममें जीवंतता का उदय होता है।

योग के अनेक साधन, अनेक उपाय इस विधि पर आधारित हैं। पहले समझो कि यह क्या है, और फिर इसके प्रयोग को लेंगे।

मेरुदंड, रीढ़ तुम्हारे शरीर और मस्तिष्क दोनों का आधार है। तुम्हारा मस्तिष्क, तुम्हारा सिर तुम्हारे मेरुदंड का ही अंतिम छोर है। मेरुदंड पूरे शरीर की आधारशिला है। अगर मेरुदंड युवा है तो तुम युवा हो। और अगर मेरुदंड बूढ़ा है तो तुम बूढ़े हो। अगर तुम अपने मेरुदंड को युवा रख सको तो बूढ़ा होना कठिन होगा। सब कुछ इस मेरुदंड पर निर्भर है। अगर तुम्हारा मेरुदंड जीवंत है तो तुम्हारे मन—मस्तिष्क में मेधा होगी, चमक होगी। और अगर तुम्हारा मेरुदंड जड़ और मृत है तो तुम्हारा मन भी बहुत जड़ होगा। समस्त योग अनेक ढंगों से तुम्हारे मेरुदंड को जीवंत, युवा, ताजा और प्रकाशपूर्ण बनाने की चेष्टा करता है।

मेरुदंड के दो छोर हैं। उसके आरंभ में काम—केंद्र है और उसके शिखर पर सहस्रार है—सिर के ऊपर जो सातवां चक्र है। मेरुदंड का जो आरंभ है वह पृथ्वी से जुड़ा है; कामवासना तुम्हारे भीतर सर्वाधिक पार्थिव चीज है। तुम्हारे मेरुदंड के आरंभिक चक्र के द्वारा तुम निसर्ग के संपर्क में आते हो, जिसे सांख्य प्रकृति कहता है—पृथ्वी, पदार्थ। और अंतिम चक्र से, सहस्रार से तुम परमात्मा के संपर्क में होते हो।

तुम्हारे अस्तित्व के ये दो ध्रुव हैं। पहला काम—केंद्र है, और दूसरा सहस्रार है। अंग्रेजी में सहस्रार के लिए कोई शब्द नहीं है। ये ही दो ध्रुव हैं। तुम्हारा जीवन या तो कामोन्यूख होगा या सहस्रारोन्यूख होगा। या तो तुम्हारी ऊर्जा काम—केंद्र से बहकर पृथ्वी में वापस जाएगी, या तुम्हारी ऊर्जा सहस्रार से निकलकर अनंत आकाश में समा जाएगी। तुम सहस्रार से ब्रह्म में, परम सत्ता में प्रवाहित हो जाते हो। तुम काम—केंद्र से पदार्थ जगत में प्रवाहित होते हो। ये दो प्रवाह हैं; ये दो संभावनाएं हैं।

जब तक तुम ऊपर की ओर विकसित नहीं होते, तुम्हारे दुख कभी समाप्त नहीं होंगे। तुम्हें सुख की झलकें मिल सकती हैं; लेकिन वे झलकें ही होंगी, और बहुत भ्रामक होंगी। जब ऊर्जा ऊर्ध्वगामी होगी, तुम्हें सुख की अधिकाधिक सच्ची झलकें मिलने लगेंगी। और जब ऊर्जा सहस्रार पर पहुंचेगी, तुम परम आनंद को उपलब्ध हो जाओगे। वही निर्वाण है। तब झलक नहीं मिलती, तुम आनंद ही हो जाते हो।

योग और तंत्र की पूरी चेष्टा यह है कि कैसे ऊर्जा को मेरुदंड के द्वारा, रीढ़ के द्वारा ऊर्ध्वगामी बनाया जाए, कैसे उसे गुरुत्वाकर्षण के विपरीत गतिमान किया जाए। काम या सेक्स आसान है, क्योंकि वह गुरुत्वाकर्षण के विपरीत नहीं है। पृथ्वी सब चीजों को अपनी तरफ नीचे खींच रही है; तुम्हारी काम—ऊर्जा को भी पृथ्वी नीचे खींच रही है। तुमने शायद यह

नहीं सुना हो, लेकिन अंतरिक्ष यात्रियों ने यह अनुभव किया है कि जैसे ही वे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर निकल जाते हैं, उनकी कामुकता बहुत क्षीण हो जाती है। जैसे—जैसे शरीर का वजन कम होता है, कामुकता विलीन हो जाती है।

पृथ्वी तुम्हारी जीवन—ऊर्जा को नीचे की तरफ खींचती है, और यह स्वाभाविक है। क्योंकि जीवन—ऊर्जा पृथ्वी से आती है। तुम भोजन लेते हो, और उससे तुम अपने भीतर जीवन—ऊर्जा निर्मित कर रहे हो। यह ऊर्जा पृथ्वी से आती है, और पृथ्वी उसे वापस खींचती रहती है। प्रत्येक चीज अपने मूलस्रोत को लौट जाती है। और अगर यह ऐसे ही चलता रहा, जीवन—ऊर्जा फिर—फिर पीछे लौटती रही और तुम वर्तुल में घूमते रहे, तो तुम जन्मों—जन्मों तक ऐसे ही घूमते रहोगे। तुम इस ढंग से अनंत काल तक चलते रह सकते हो, यदि तुम अंतरिक्ष यात्रियों की तरह छलांग नहीं लेते। अंतरिक्ष यात्रियों की तरह तुम्हें छलांग लेनी है और वर्तुल के पार निकल जाना है। तब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का पैटर्न टूट जाता है। यह तोड़ा जा सकता है।

यह कैसे तोड़ा जा सकता है, ये उसकी ही विधियां हैं। ये विधियां इस बात की फिक्र करती हैं कि कैसे ऊर्जा ऊर्ध्व गति करे, नये केंद्रों तक पहुंचे; कैसे तुम्हारे भीतर नई ऊर्जा का आविर्भाव हो और कैसे प्रत्येक गति के साथ वह तुम्हें नया आदमी बना दे। और जिस क्षण तुम्हारे सहस्रार से, कामवासना के विपरीत ध्रुव से तुम्हारी ऊर्जा मुक्त होती है, तुम आदमी नहीं रह गए; तब तुम इस धरती के न रहे, तब तुम भगवान हो गए।

जब हम कहते हैं कि कृष्ण या बुद्ध भगवान हैं तो उसका यही अर्थ है। उनके शरीर तो तुम्हारे जैसे ही हैं; उनके शरीर भी रुग्ण होंगे और मरेंगे। उनके शरीरों में सब कुछ वैसा ही होता है जैसे तुम्हारे शरीरों में होता है। सिर्फ एक चीज उनके शरीरों में नहीं होती जो तुममें होती है; उनकी ऊर्जा ने गुरुत्वाकर्षण के पैटर्न को तोड़ दिया है। लेकिन वह तुम नहीं देख सकते; वह तुम्हारी आंखों के लिए दृश्य नहीं है।

लेकिन कभी—कभी जब तुम किसी बुद्ध की सन्निधि में बैठते हो तो तुम यह अनुभव कर सकते हो। अचानक तुम्हारे भीतर ऊर्जा का ज्वार उठने लगता है और तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की तरफ यात्रा करने लगती है। तभी तुम जानते हो कि कुछ घटित हुआ है। केवल बुद्ध के सत्संग में ही तुम्हारी ऊर्जा सहस्रार की तरफ गति करने लगती है। बुद्ध इतने शक्तिशाली हैं कि पृथ्वी की शक्ति भी उनसे कम पड़ जाती है। उस समय पृथ्वी की ऊर्जा तुम्हारी ऊर्जा को नीचे की तरफ नहीं खींच पाती है। जिन लोगों ने जीसस, बुद्ध या कृष्ण की सन्निधि में इसका अनुभव लिया है, उन्होंने ही उन्हें भगवान कहा है। उनके पास ऊर्जा का एक भिन्न स्रोत है जो पृथ्वी से भी शक्तिशाली है।

इस पैटर्न को कैसे तोड़ा जा सकता है? यह विधि पैटर्न तोड्ने में बहुत सहयोगी है। लेकिन पहले कुछ बुनियादी बातें खयाल में ले लो।

पहली बात कि अगर तुमने निरीक्षण किया होगा तो तुमने देखा होगा कि तुम्हारी काम—ऊर्जा कल्पना के साथ गति करती है। सिर्फ कल्पना के द्वारा भी तुम्हारी काम—ऊर्जा सक्रिय हो जाती है। सच तो यह है कि कल्पना के बिना वह सक्रिय नहीं हो सकती है। यही कारण है कि जब तुम किसी के प्रेम में होते हो तो काम—ऊर्जा बेहतर काम —करती है। क्योंकि प्रेम के साथ कल्पना प्रवेश कर जाती है। अगर तुम प्रेम में नहीं हो तो वह बहुत कठिन है; वह काम नहीं करेगी।

इसीलिए पुराने दिनों में पुरुष—वेश्याएं नहीं होती थीं; सिर्फ स्त्री—वेश्याएं होती थीं। पुरुष—वेश्या के लिए काम के तल पर सक्रिय होना कठिन है, अगर वह प्रेम में नहीं है। और सिर्फ पैसे के लिए वह प्रेम कैसे कर सकता है? तुम किसी पुरुष को तुम्हारे साथ संभोग में उतरने के लिए पैसे दे सकती हो; लेकिन अगर उसे तुम्हारे प्रति भाव नहीं है, कल्पना नहीं है, तो वह सक्रिय नहीं हो सकता। स्त्रियां यह कर सकती हैं, क्योंकि उनकी कामवासना निष्‍क्रिय है। सच तो यह है कि उनके सक्रिय होने की जरूरत नहीं है। वे बिलकुल अनासक्त रह सकती हैं; संभव है कि उन्हें कोई भी भाव न हो। उनके शरीर लाशों की भांति पड़े रह सकते हैं। वेश्या के साथ तुम एक जीवित शरीर के साथ नहीं, एक मृत लाश के साथ संभोग करते हो। स्त्रियां आसानी से वेश्या हो सकती हैं, क्योंकि उनकी काम—ऊर्जा निष्‍क्रिय है।

तो काम—केंद्र कल्पना से काम करता है। इसीलिए स्‍वप्‍नों में तुम्हें इरेक्‍शन हो सकता है, और वीर्यपात भी हो सकता है। वहां कुछ भी वास्तविक नहीं है; सब कल्पना का खेल है। फिर भी देखा गया है कि प्रत्येक पुरुष को, अगर वह स्वस्थ है, रात में कम से कम दस दफा इरेक्‍शन होता है। मन की जरा सी गति के साथ, काम का जरा—सा विचार उठने से ही इरेक्‍शन हो जाएगा।

तुम्हारे मन की अनेक शक्तियां हैं, अनेक क्षमताएं हैं; और उनमें से एक है संकल्प। लेकिन तुम संकल्प से काम—कृत्य में नहीं उतर सकते; काम के लिए संकल्प नपुंसक है। अगर तुम संकल्प से किसी के साथ संभोग में उतरने की चेष्टा करोगे तो तुम्हें लगेगा कि तुम नपुंसक हो गए। कभी चेष्टा मत करो। कामवासना में संकल्प नहीं, कल्पना काम करती है। कल्पना करो, और तुम्हारा काम—केंद्र सक्रिय हो जाएगा।

लेकिन मैं क्यों इस तथ्य पर इतना जोर दे रहा हूं? क्योंकि यदि कल्पना ऊर्जा को गतिमान करने में सहयोगी है, तो तुम सिर्फ कल्पना के द्वारा उसे चाहो तो ऊपर ले जा सकते हो और चाहो तो नीचे ले जा सकते हो। तुम अपने खून को कल्पना से गतिमान नहीं कर सकते; तुम शरीर में और कुछ कल्पना से नहीं कर सकते। लेकिन काम—ऊर्जा कल्पना से गतिमान की जा सकती है; तुम उसकी दिशा बदल सकते हो।

यह सूत्र कहता है : ‘अपनी प्राण—शक्ति को प्रकाश—किरण समझो।’ स्वयं को, अपने होने को प्रकाश—किरण समझो।’मेरुदंड में ऊपर उठती हुई, एक केंद्र से दूसरे केंद्र की ओर गति करती हुई।’ रीढ़ में ऊपर उठती हुई।’और इस भांति तुममें जीवंतता का उदय होता है।’

योग ने तुम्हारे मेरुदंड को सात चक्रों में बांटा है। पहला काम—केंद्र है और अंतिम सहस्रार है, और इन दोनों के बीच पांच केंद्र हैं। कोई—कोई साधना—पद्धति मेरुदंड को नौ केंद्रों में बांटती है; कोई तीन में ही और कोई चार में। यह विभाजन बहुत अर्थ नहीं रखता है; तुम अपना विभाजन भी निर्मित कर सकते हो। प्रयोग के लिए पांच केंद्र पर्याप्त हैं। पहला काम—केंद्र है; दूसरा ठीक नाभि के पीछे है; तीसरा हृदय के पीछे है; चौथा केंद्र तुम्हारी दोनों भौंहों के बीच में है—ठीक ललाट के बीच में, और अंतिम केंद्र सहस्रार तुम्हारे सिर के शिखर पर है। ये पांच पर्याप्त हैं।

यह सूत्र कहता है ‘अपने को समझो, ‘ उसका अर्थ है कि भाव करो, कल्पना करो। आंखें बंद कर लो और भाव करो कि मैं बस प्रकाश हूं। यह मात्र भाव या कल्पना नहीं है। शुरू—शुरू में तो कल्पना ही है, लेकिन यथार्थ में भी ऐसा ही है। क्योंकि हरेक चीज प्रकाश से बनी है। अब विज्ञान कहता है कि सब कुछ विद्युत है। तंत्र ने तो सदा से कहा है कि सब कुछ प्रकाश—कणों से बना तुम भी प्रकाश—कणों से ही बने हो। इसीलिए कुरान कहता है कि परमात्मा प्रकाश है। तुम प्रकाश हो!

तो पहले भाव करो कि मैं बस प्रकाश—किरण हूं और फिर अपनी कल्पना को काम—केंद्र के पास ले जाओ। अपने अवधान को वहां एकाग्र करो और भाव करो कि प्रकाश—किरणें काम—केंद्र से ऊपर उठ रही हैं, मानो काम—केंद्र प्रकाश का स्रोत बन गया है और प्रकाश—किरणें वहा से नाभि—केंद्र की ओर ऊपर उठ रही हैं।

विभाजन इसीलिए जरूरी है, क्योंकि तुम्हारे लिए काम—केंद्र को सीधे सहस्रार से जोडना कठिन होगा। छोटे—छोटे विभाजन इसीलिए उपयोगी हैं; यदि तुम सीधे सहस्रार से जुड़ सको तो किसी विभाजन की जरूरत नहीं है। तुम काम—केंद्र के ऊपर के सभी विभाजन गिरा दे सकते हो; और ऊर्जा, जीवन—शक्ति प्रकाश की भांति सीधे सहस्रार की ओर उठने लगेगी।

लेकिन विभाजन ज्यादा सहयोगी होंगे, क्योंकि तुम्हारा मन छोटे—छोटे खंडों की धारणा ज्यादा आसानी से निर्मित कर सकता है। तो भाव करो कि ऊर्जा, प्रकाश—किरणें तुम्हारे काम—केंद्र से उठकर प्रकाश की नदी की भांति नाभि—केंद्र की ओर प्रवाहित हो रही हैं। तत्काल तुम अपने भीतर ऊपर उठती हुई ऊष्मा अनुभव करोगे, शीघ्र ही तुम्हारी नाभि गर्म हो उठेगी। तुम उस गरमाहट को अनुभव कर सकते हो; दूसरे भी उस गरमाहट को अनुभव कर सकते हैं। तुम्हारे भाव के द्वारा तुम्हारी काम—ऊर्जा ऊर्ध्वगामी हो जाएगी, ऊपर को उठने लगेगी।

जब तुम अनुभव करो कि अब नाभि पर स्थित दूसरा केंद्र प्रकाश का स्रोत बन गया है, कि प्रकाश—किरणें वहां आकर इकट्ठी होने लगी हैं, तब हृदय—केंद्र की ओर गति करो, और ऊपर बढ़ो। और जैसे—जैसे प्रकाश हृदय—केंद्र पर पहुंचेगा, जैसे—जैसे उसकी किरणें वहा इकट्ठी होने लगेंगी, वैसे—वैसे तुम्हारे हृदय की धड़कन बदल जाएगी, तुम्हारी श्वास गहरी होने लगेगी, और तुम्हारे हृदय में गरमाहट पहुंचने लगेगी। तब उससे भी और आगे, और ऊपर बढ़ो।

‘अपनी प्राण—शक्ति को मेरुदंड में ऊपर उठती, एक केंद्र से दूसरे केंद्र की ओर गति करती हुई प्रकाश—किरण समझो; और इस भांति तुममें जीवंतता का उदय होता है।’

और जैसे—जैसे तुम्हें गरमाहट अनुभव होगी, वैसे—वैसे ही, उसके साथ—साथ ही, तुम्हारे भीतर एक जीवंतता का उन्मेष होगा, एक आंतरिक प्रकाश का उदय होगा।

काम—ऊर्जा के दो हिस्से हैं एक हिस्सा शारीरिक है और दूसरा मानसिक है। तुम्हारे शरीर में हरेक चीज के दो हिस्से हैं। तुम्हारे शरीर और मन की भांति ही तुम्हारे भीतर प्रत्येक चीज के दो हिस्से हैं : एक भौतिक है और दूसरा अभौतिक। काम—ऊर्जा के भी दो हिस्से हैं। वीर्य उसका भौतिक हिस्सा है। वीर्य ऊपर नहीं उठ सकता; उसके लिए मार्ग नहीं है। इसीलिए पश्चिम के अनेक शरीर—शास्त्री कहते हैं कि तंत्र और योग की साधना बकवास है, वे उन्हें इनकार ही करते हैं। काम—ऊर्जा ऊपर की ओर कैसे उठ सकती है? उसके लिए कोई मार्ग नहीं है, और वह ऊपर नहीं उठ सकती।

वै शरीर—शास्त्री सही हैं, और फिर भी गलत हैं। काम—ऊर्जा का जो भौतिक हिस्सा है, वह जो वीर्य है, वह ऊपर उठ सकता; लेकिन वहीं सब कुछ। सच तो यह है कि वीर्य काम—ऊर्जा का शरीर भर है; वह स्वयं काम—ऊर्जा नहीं है। काम—ऊर्जा तो उसका अभौतिक हिस्सा है, और यह अभौतिक तत्व ऊपर उठ सकता है। और उसी अभौतिक ऊर्जा के लिए मेरुदंड मार्ग का काम करता है; मेरुदंड और उसके चक्र मार्ग का काम करते हैं। लेकिन उसको तो अनुभव से जानना होगा; और तुम्हारी संवेदनशीलता मर गई है।

मुझे स्मरण आता है कि किसी मनोचिकित्सक ने अपने एक रोगी के संबंध में, एक स्त्री के संबंध में एक संस्मरण लिखा है। वह उससे कह रहा था कि कुछ भाव करो, कुछ अनुभव करो। लेकिन मनोचिकित्सक को लगा कि वह जो भी करती थी, वह उसकी अनुभूति नहीं, विचार भर करती थी। वह अनुभूति के संबंध में विचार करती थी, जो कि सर्वथा भिन्न बात है। तो उस चिकित्सक ने अपना हाथ स्त्री के हाथ पर रखा और कहा कि अपनी आंखें बंद करो और बताओ कि तुम क्या अनुभव कर रही हो?

उस स्त्री ने तुरंत कहा कि मैं तुम्हारा हाथ अनुभव कर रही हूं। लेकिन चिकित्सक ने कहा कि यह तुम्हारा अनुभव नहीं है, यह सिर्फ तुम्हारा विचार है, तुम्हारा अनुमान है। मैंने तुम्हारे हाथ में अपना हाथ रखा, और तुम कहती हो कि मैं तुम्हारा हाथ अनुभव कर रही हूं। लेकिन तुम अनुभव नहीं कर रही हो; यह तुम्हारा अनुमान मात्र है। बताओ कि तुम क्या अनुभव कर रही हो?

तो उस स्त्री ने कहा कि मैं तुम्हारी अंगुलियां अनुभव कर रही हूं। लेकिन चिकित्सक ने फिर कहा कि यह भी तुम्हारा अनुभव नहीं, अनुमान ही है। अनुमान मत करो; आंखें बंद करो और वहां जाओ जहां मेरा हाथ है और फिर मुझे बताओ कि क्या अनुभव कर रही हो। तब उस स्त्री ने कहा : ‘ओह, मैं तो पूरी बात ही चूक रही थी, मैं थोड़ा दबाव और गरमाहट अनुभव कर रही हूं।’

जब कोई हाथ तुम्हें स्पर्श करता है तो हाथ नहीं, दबाव और गरमाहट अनुभव होती है। हाथ तो अनुमान भर है; वह बुद्धि है, भाव नहीं। गरमाहट और दबाव अनुभूतियां हैं। अब यह स्त्री अनुभव कर रही थी।

हमने अनुभूति बिलकुल खो दी है; तुम्हें फिर से उसे विकसित करना होगा। केवल तभी इन विधियों को प्रयोग में ला सकते हो। अन्यथा ये विधियां काम नहीं करेंगी। तुम केवल बुद्धि से सोचोगे कि मैं अनुभव करता हूं और कुछ भी घटित नहीं होगा। यही कारण है कि लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि आप तो कहते हैं कि यह विधि बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन कुछ भी घटित नहीं होता है।

उन्होंने प्रयोग तो किया, लेकिन वे एक आयाम चूक गए; वे अनुभव का आयाम चूक गए। तो तुम्हें पहले इस आयाम को विकसित करना होगा। और उसके कुछ उपाय हैं जिन्हें तुम प्रयोग में ला सकते हो।

तुम एक काम करो; अगर तुम्हारे घर में कोई छोटा बच्चा है तो प्रतिदिन एक घंटा उस बच्चे के पीछे —पीछे चलो। बुद्ध के पीछे चलने से उसके पीछे चलना बेहतर और कहीं ज्यादा तृप्तिदायी हो सकता है। बच्चे को अपने चारों हाथ—पांव पर चलने को कहो, घुटनों के बल चलने को कहो, और तुम भी उसी तरह अपने चारों हाथ—पांव पर चलो। बच्चे के पीछे—पाछॅ तुम भी चलो।

और पहली बार तुम्हें अपने में एक नवजीवन का उन्मेष होगा। तुम फिर बच्चे हो जाओगे। बच्चे को देखो, और उसके पीछे—पीछे चलो। बच्चा घर के कोने—कोने में जाएगा वह घर की हरेक चीज को स्पर्श करेगा। न केवल स्पर्श करेगा, वह एक—एक चीज का स्वाद लेगा, वह एक—एक चीज को सूंघेगा। तुम बस उसका अनुकरण करो; वह जो भी करे तुम भी वही करो।

कभी तुम भी बच्चे थे; तुम भी कभी यह सब कर चुके हो। बच्चा अनुभूति की अवस्था में है; वह सोच—विचार नहीं कर रहा है। उसे सुगंध आती है और वह उस कोने की तरफ बढ जाता है जहां से सुगंध आ रही है। उसे एक सेव दिखाई पड़ता है, और वह उसे उठाकर खाने लगता है। तुम भी ठीक बच्चे की तरह स्वाद लो। जब बच्चा सेव खा रहा है तो उसे गौर से देखो; वह उसे खाने में पूरी तरह डूबा हुआ है। उसके लिए सारा संसार खो गया है, सिर्फ सेव बचा है। यहां तक कि सेव भी नहीं है और न बच्चा है; सिर्फ खाना है।

तो एक घंटे तक बच्चे का अनुकरण मात्र करो, वह एक घंटा तुम्हें इतना समृद्ध बना जाएगा जिसका कि हिसाब नहीं। तुम फिर से बच्चे हो जाओगे। तुम्हारी सब सुरक्षा—व्यवस्था गिर जाएगी; तुम्हारा सब कवच गिर जाएगा। और तुम फिर संसार को वैसे ही देखने लगोगे जैसे एक बच्चा देखता है। बच्चा अनुभूति के आयाम से उसे देखता है। और जब तुम्हें लगे कि अब मैं विचार नहीं, अनुभूति के आयाम से देख सकता हूं तो तुम उस कालीन की कोमलता का भी सुख ले सकते हो जिस पर तुम बच्चे की भांति चलते हो। तुम उसके दबाव और गरमाहट को भी महसूस कर सकोगे। और यह सब सिर्फ निर्दोष भाव से एक बच्चे का अनुकरण करने से होता है।

मनुष्य बच्चों से बहुत कुछ सीख सकता है। और देर—अबेर तुम्हारी सच्ची निर्दोषता प्रकट हो जाएगी। तुम भी कभी बच्चे थे, और तुम जानते हो कि बच्चा होना क्या है। सिर्फ उसका विस्मरण हो गया है।

तो अनुभूति के केंद्रों को फिर से सक्रिय होना होगा; तो ही ये विधियां कारगर हो सकती हैं। अन्यथा तुम सोचते रहोगे कि ऊर्जा ऊपर उठ रही है, लेकिन उसकी कोई अनुभूति नहीं होगी। और अनुभूति के अभाव में कल्पना व्यर्थ है, बांझ है। अनुभूति— भरा भाव ही परिणाम ला सकता है।

तुम और भी कई चीजें कर सकते हो, और उन्हें करने में कोई विशेष प्रयत्न भी नहीं है। जब तुम सोने जाओ तो बिस्तर को, तकिए को महसूस करो, उसकी ठंडक को महसूस करो। तकिए को छुओ, उसके साथ खेलो। अपनी आंखें बंद कर लो और सिर्फ एयरकंडीशनर की आवाज को सुनो। घड़ी की आवाज को या चलती सड़क के शोरगुल को सुनो। कुछ भी सुनो। उसे नाम मत दो; कुछ कहो ही मत। मन का उपयोग ही मत करो, बस अनूभूति में जीओ।

सुबह जागने के पहले क्षण में, जब तुम्हें लगे कि नींद जा चुकी है, तो तुरंत सोच—विचार मत करने लगो। कुछ क्षणों के लिए तुम फिर से बच्चे हो सकते हो, निर्दोष और ताजे हो सकते हो। तुरंत सोच—विचार में मत लग जाओ। यह मत सोचो कि क्या—क्या करना है, कब दफ्तर के लिए रवाना होना है, कौन सी गाड़ी पकड़नी है। सोच—विचार मत शुरू करो। उन मूढ़ताओं के लिए तुम्‍हें काफी समय मिलेगा; अभी रुको। अभी कुछ क्षणों के लिए सिर्फ ध्वनियों पर ध्यान दो। एक पक्षी गाता है; वृक्षों से हवाएं गुजर रही हैं; कोई बच्चा रोता है या दूध देने वाला आया है और पुकार रहा है; या वह पतेली में दूध डाल रहा है। जो भी हो रहा हो उसे महसूस करो, उसके प्रति संवेदनशील बनो, खुले रहो। उसकी अनुभूति में डूबो। और तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ जाएगी।

जब स्नान करो तो उसे अपने पूरे शरीर पर अनुभव करो, पानी की प्रत्येक बूंद को अपने ऊपर गिरते हुए महसूस करो। उसके स्पर्श को, उसकी शीतलता और उष्णता को महसूस करो। पूरे दिन इसका प्रयोग करो, जब भी अवसर मिले प्रयोग करो। और सब जगह अवसर ही अवसर है। श्वास लेते हुए सिर्फ श्वास को अनुभव करो, भीतर जाती और बाहर आती श्वास को अनुभव करो; केवल अनुभव करो। अपने शरीर को ही महसूस करो; तुमने उसे भी नहीं अनुभव किया है।

हम अपने शरीरों से भी इतने भयभीत हैं कि कभी कोई अपने शरीर को प्रेमपूर्वक स्पर्श नहीं करता है। क्या तुमने कभी अपने शरीर को ही प्रेम किया है? समूची सभ्यता इस बात से भयभीत है कि कोई अपने को ही स्पर्श करे, क्योंकि बचपन से ही स्पर्श वर्जित रहा है। अपने को प्रेमपूर्वक स्पर्श करना हस्तमैथुन करने जैसा मालूम पड़ता है। लेकिन अगर तुम अपने को ही प्रेम से स्पर्श नहीं कर सकते तो तुम्हारा शरीर जड़ और मृत हो जाएगा। वह दरअसल जड और मृत हो ही गया है।

अपनी आंखों को स्पर्श करो और उस स्पर्श को अनुभव करो; और तुम्हारी आंखें तुरंत ताजी और जीवंत हो उठेंगी। अपने पूरे शरीर को महसूस करो; अपने प्रेमी के शरीर को महसूस करो; अपने मित्र के शरीर को महसूस करो। एक—दूसरे को सहलाओ; एक—दूसरे की मालिश करो। मालिश बढ़िया है। दो मित्र एक—दूसरे की मालिश कर सकते हैं और एक—दूसरे के शरीर को अनुभव कर सकते हैं। तुम अधिक संवेदनशील हो जाओगे।

संवेदनशीलता और अनुभूति पैदा करो। तभी तुम इन विधियों का प्रयोग सरलता से कर सकोगे। और तब तुम्हें अपने भीतर जीवन—ऊर्जा के ऊपर उठने का अनुभव होगा। इस ऊर्जा को बीच में मत छोड़ो; उसे सहस्रार तक जाने दो। स्मरण रहे कि जब भी तुम यह प्रयोग करो तो उसे बीच में मत छोड़ो; उसे पूरा करो। यह भी ध्यान रहे कि इस प्रयोग में कोई तुम्हें बाधा न पहुंचाए। अगर तुम इस ऊर्जा को कहीं बीच में छोड़ दोगे तो उससे तुम्हें हानि हो सकती है। इस ऊर्जा को मुक्त करना होगा। तो उसे सिर तक ले जाओ, और भाव करो कि तुम्हारा सिर एक द्वार बन गया है।

इस देश में हमने सहस्रार को हजार पंखुड़ियों वाले कमल के रूप में चित्रित किया है। सहस्रार का यही अर्थ है : सहस्रदल कमल का खिलना। तो धारणा करो कि हजार पंखुड़ियों वाला कमल खिल गया है, और उसकी प्रत्येक पंखुड़ी से यह प्रकाश—ऊर्जा ब्रह्मांड में फैल रही है। यह फिर एक अर्थों में संभोग है; लेकिन यह प्रकृति के साथ नहीं, परम के साथ संभोग है। फिर एक आर्गाज्म घटित होता है।

आर्गाज्‍म दो प्रकार का होता है। एक सेक्यूअल और दूसरा स्प्रिचुअल। सेक्यूअल

आर्गाज्य निम्नतम केंद्र से आता है और स्तिचुअल उच्चतम केंद्र से। उच्चतम केंद्र से तुम उच्चतम से मिलते हो और निम्नतम केंद्र से निम्नतम से।

साधारण संभोग में भी तुम यह प्रयोग कर सकते हो; दोनों लोग यह प्रयोग कर सकते हो। ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाओ। और तब संभोग तंत्र—साधना बन जाता है; तब वह ध्यान बन जाता है।

लेकिन ऊर्जा को कहीं शरीर में, किसी बीच के केंद्र पर मत छोड़ो। कोई व्यक्ति बीच में आ सकता है जिसके साथ तुम्हें व्यावसायिक सरोकार हो, या कोई फोन आ जाए और तुम्हें प्रयोग को बीच में ही छोड़ना पड़े। इसलिए ऐसे समय में प्रयोग करो जब कोई तुम्हें बाधा न दे, और ऊर्जा को किसी केंद्र पर न छोड़ना पड़े। अन्यथा वह केंद्र, जहां तुम ऊर्जा को छोड़ोगे घाव बन जाएगा और तुम्हें अनेक मानसिक रूणताओं का शिकार होना पड़ेगा।

तो सावधान रहो; अन्यथा यह प्रयोग मत करो। इस विधि के लिए नितांत एकात आवश्यक है, बाधा—रहितता आवश्यक है। और आवश्यक है कि तुम उसे पूरा करो। ऊर्जा को सिर तक जाना चाहिए और वहीं से उसे मुक्त होना चाहिए।

तुम्हें अनेक अनुभव होंगे। जब तुम्हें लगेगा कि प्रकाश—किरणें काम—केंद्र से ऊपर उठने लगी हैं तो काम—केंद्र पर इरेक्‍शन का और उत्तेजना का अनुभव होगा। अनेक लोग बहुत भयभीत और आतंकित स्थिति में मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि जब हम ध्यान शुरू करते हैं, जब हम ध्यान में गहरे जाने लगते हैं, हमें इरेक्‍शन होता है। और वे चकित होकर पूछते हैं कि यह क्या है!

वे भयभीत हो जाते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि ध्यान में कामुकता के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन तुम्हें जीवन के रहस्यों का पता नहीं है। यह अच्छा लक्षण है। यह बताता है कि ऊर्जा उठ रही है, उसे गति की जरूरत है। तो आतंकित मत होओ, और यह मत सोचो कि कुछ गलत हो रहा है। यह शुभ लक्षण है। जब तुम ध्यान शुरू करते हो तो काम—केंद्र ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा जीवंत, ज्यादा उत्तेजित हो जाएगा, और शुरू—शुरू में यह उत्तेजना साधारण कामुक उत्तेजना जैसी ही होगी।

लेकिन केवल आरंभ में ही ऐसा होगा। जैसे—जैसे तुम्हारा ध्यान गहराएगा वैसे—वैसे ऊर्जा ऊपर उठने लगेगी। और जब ऊर्जा ऊपर उठती है तो काम—केंद्र अनुत्तेजित, शांत होने लगता है। और जब ऊर्जा बिलकुल सहस्रार पर पहुंचेगी तो काम—केंद्र पर कोई उत्तेजना नहीं रहेगी; काम—केंद्र बिलकुल स्थिर और शात हो जाएगा; वह बिलकुल शीतल हो जाएगा। अब उष्णता सिर में आ जाएगी।

और यह शारीरिक बात है। जब काम—केंद्र उत्तेजित होता है तो वह गरम हो जाता है। तुम उस गरमाहट को महसूस कर सकते हो, वह शारीरिक है। लेकिन जब ऊर्जा ऊपर उठती है तो काम—केंद्र ठंडा होने लगता है, बहुत ठंडा होने लगता है, और उष्णता सिर पर पहुंच जाती है। तब तुम्हें सिर में चक्कर आने लगेगा। जब ऊर्जा सिर में पहुंचेगी तो तुम्हारा सिर घूमने लगेगा। कभी—कभी तुम्हें घबराहट भी होगी; क्योंकि पहली बार ऊर्जा सिर में पहुंची है, और तुम्हारा सिर उससे परिचित नहीं है। उसे ऊर्जा के साथ सामंजस्य बिठाना पड़ेगा।’

तो भयभीत मत होओ। यह होता है। अगर बहुत सारी ऊर्जा अचानक उठ जाए और सिर में पहुंच जाए तो तुम बेहोश भी हो जा सकते हो। लेकिन यह बेहोशी एक घंटे से ज्यादा देर नहीं रहेगी; घंटे भर के भीतर ऊर्जा अपने आप ही वापस लौट जाएगी या मुक्त हो जाएगी। तुम उस अवस्था में कभी एक घंटे से ज्यादा देर नहीं रह सकते। मैं कहता तो हूं एक घंटा, लेकिन असल में यह समय अड़तालीस मिनट का है। यह उससे ज्यादा नहीं हो सकता; लाखों वर्षों के प्रयोग के दौरान कभी ऐसा नहीं हुआ है।

तो डरो मत; तुम बेहोश भी हो जाओ तो ठीक है। उस बेहोशी के बाद तुम इतने ताजा अनुभव करोगे कि तुम्हें लगेगा कि मैं पहली बार नींद से, गहनतम नींद से गुजरा हूं। योग में इसका एक विशेष नाम है; वे उसे योग—तंद्रा कहते हैं। यह बहुत गहरी नींद है; इसमें तुम अपने गहनतम केंद्र पर सरक जाते हो। लेकिन डरो मत।

और अगर तुम्हारा सिर गरम हो जाए तो वह भी शुभ लक्षण है। ऊर्जा को मुक्त होने दो। भाव करो कि तुम्हारा सिर कमल के फूल की भांति खिल रहा है। भाव करो कि ऊर्जा ब्रह्मांड में मुक्त हो रही है, फैलती जा रही है। और जैसे—जैसे ऊर्जा मुक्त होगी, तुम्हें शीतलता का अनुभव होगा। इस उष्णता के बाद जो शीतलता आती है, उसका तुम्हें कोई अनुभव नहीं है। लेकिन विधि को पूरा प्रयोग करो; उसे कभी आधा—अधूरा मत छोड़ो।

प्रकाश—संबंधी दूसरी विधि:

या बीच के रिक्त स्थानों में यह बिजली कौधंने जैसा है— ऐसा भाव करो

थोड़े से फर्क के साथ यह विधि भी पहली विधि जैसी ही है।

‘या बीच के रिक्त स्थानों में यह बिजली कौंधने जैसा है—ऐसा भाव करो।’

एक केंद्र से दूसरे केंद्र तक जाती हुई प्रकाश—किरणों में बिजली के कौंधने का अनुभव करो—प्रकाश की छलांग का भाव करो। कुछ लोगों के लिए यह दूसरी विधि ज्यादा अनुकूल होगी, और कुछ लोगों के लिए पहली विधि ज्यादा अनुकूल होगी। यही कारण है कि इतना—सा संशोधन किया गया है।

ऐसे लोग हैं जो क्रमश: घटित होने वाली चीजों की धारणा नहीं बना सकते; और कुछ लोग हैं जो छलांगों की धारणा नहीं बना सकते। अगर तुम क्रम की सोच सकते हो, चीजों के कम से होने की कल्पना कर सकते हो, तो तुम्हारे लिए पहली विधि ठीक है। लेकिन अगर तुम्हें पहली विधि के प्रयोग से पता चले कि प्रकाश—किरणें एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर सीधे छलांग लेती हैं तो तुम पहली विधि का प्रयोग मत करो। तब तुम्हारे लिए यह दूसरी विधि बेहतर है।

‘यह बिजली कौंधने जैसा है—ऐसा भाव करो।’

भाव करो कि प्रकाश की एक चिनगारी एक केंद्र से दूसरे केंद्र पर छलांग लगा रही है। और दूसरी विधि ज्यादा सच है, क्योंकि प्रकाश सचमुच छलांग लेता है। उसमें कोई क्रमिक, कदम—ब—कदम विकास नहीं होता है। प्रकाश छलांग है।

विद्युत के प्रकाश को देखो। तुम सोचते हो कि यह स्थिर है; लेकिन वह भ्रम है। उसमें भी अंतराल हैं; लेकिन वे अंतराल इतने छोटे हैं कि तुम्हें उनका पता नहीं चलता है। विद्युत छलांगों में आती है। एक छलांग, और उसके बाद अंधकार का अंतराल होता है। फिर दूसरी छलांग, और उसके बाद फिर अंधकार का अंतराल होता है। लेकिन तुम्हें कभी अंतराल का पता नहीं चलता है, क्योंकि छलांग इतनी तीव्र है। अन्यथा प्रत्येक क्षण अंधकार आता है; पहले प्रकाश की छलांग और फिर अंधकार। प्रकाश कभी चलता नहीं, छलांग ही लेता है। और जो लोग छलांग की धारणा कर सकते हैं, यह दूसरी संशोधित विधि उनके लिए है।

‘या बीच के रिक्त स्थानों में यह बिजली कौंधने जैसा है—ऐसा भाव करो।’

प्रयोग करके देखो। अगर तुम्हें किरणों का क्रमिक ढंग से आना अच्छा लगता है तो वही ठीक है। और अगर वह अच्छा न लगे, और लगे कि किरणें छलांग ले रही हैं, तो किरणों की बात भूल जाओ और आकाश में कौंधने वाली विद्युत की, बादलों के बीच छलांग लेती विद्युत की धारणा करो।

स्त्रियों के लिए पहली विधि आसान होगी और पुरुषों के लिए दूसरी। स्त्री—चित्त क्रमिकता की धारणा ज्यादा आसानी से बना सकता है और पुरुष—चित्त ज्यादा आसानी से छलांग लगा सकता है। पुरुष—चित्त उछलकूद पसंद करता है; वह एक से दूसरी चीज पर छलांग लेता है। पुरुष—चित्त में एक सूक्ष्म बेचैनी रहती है। स्त्री—चित्त में क्रमिकता की एक प्रक्रिया है। स्त्री—चित्त उछलकूद नहीं पसंद करता है। यही वजह है कि स्त्री और पुरुष के तर्क इतने अलग होते हैं। पुरुष एक चीज से दूसरी चीज पर छलांग लगाता रहता है, स्त्री को यह बात बड़ी बेबूझ लगती है। उसके लिए विकास, क्रमिक विकास जरूरी है।

लेकिन चुनाव तुम्हारा है। प्रयोग करो, और जो विधि तुम्हें रास आए उसे चुन लो।

इस विधि के संबंध में और दो—तीन बातें। बिजली कौंधने के भाव के साथ तुम्हें इतनी उष्णता अनुभव हो सकती है जो असहनीय मालूम पड़े। अगर ऐसा लगे तो इस विधि को प्रयोग मत करो। बिजली तुम्हें बहुत उष्ण कर दे सकती है। और अगर तुम्हें लगे कि यह असहनीय है तो इसका प्रयोग मत करो। तब तुम्हारे लिए पहली विधि है; अगर वह तुम्हें रास आए। अगर बेचैनी महसूस हो तो दूसरी विधि का प्रयोग मत करो। कभी—कभी विस्फोट इतना बड़ा हो सकता है कि तुम भयभीत हो जा सकते हो। और यदि तुम एक दफा डर गए तो फिर तुम दुबारा प्रयोग न कर सकोगे। तब भय पकड़ लेता है।

तो सदा ध्यान रहे कि किसी चीज से भी भयभीत नहीं होना है। अगर तुम्हें लगे कि भय होगा और तुम बरदाश्त न कर पाओगे तो प्रयोग मत करो। तब प्रकाश—किरणों वाली पहली विधि सर्वश्रेष्ठ है।

लेकिन यदि पहली विधि के प्रयोग में भी तुम्हें लगे कि अतिशय गर्मी पैदा हो रही है—और ऐसा हो सकता है, क्योंकि लोग भिन्न—भिन्न है—तो भाव करो कि प्रकाश—किरणें शीतल हैं, ठंडी हैं। तब तुम्हें सब चीजों में उष्णता की जगह ठंडक महसूस होगी। वह भी प्रभावी हो सकता है। तो निर्णय तुम पर निर्भर है; प्रयोग करके निर्णय करो।

स्मरण रहे, चाहे इस विधि के प्रयोग में चाहे अन्य विधियों के प्रयोग में, यदि तुम्हें बहुत बेचैनी अनुभव हो या कुछ असहनीय लगे, तो मत करो। दूसरे उपाय भी हैं, दूसरी विधियां भी हैं। हो सकता है, यह विधि तुम्हारे लिए न हो। अनावश्यक उपद्रवों में पड़कर तुम समाधान की बजाय समस्याएं ही ज्यादा पैदा करोगे।

इसीलिए भारत में हमने एक विशेष योग का विकास किया जिसे सहज योग कहते हैं।

सहज का अर्थ है सरल, स्वाभाविक, स्वतःस्फूर्त। सहज को सदा याद रखो। अगर तुम्हें महसूस हो कि कोई विधि सहजता से तुम्हारे अनुकूल पड़ रही है, अगर वह तुम्हें रास आए, अगर उसके प्रयोग से तुम ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा जीवंत, ज्यादा सुखी अनुभव करो, तो समझो कि वह विधि तुम्हारे लिए है। तब उसके साथ यात्रा करो, तुम उस पर भरोसा कर सकते हो। अनावश्यक समस्याएं मत पैदा करो। आदमी की आंतरिक व्यवस्था बहुत जटिल है। अगर तुम कुछ भी जबरदस्ती करोगे तो तुम बहुत सी चीजें नष्ट कर दे सकते हो। इसलिए अच्छा है कि किसी ऐसी विधि के साथ प्रयोग करो जिसके साथ तुम्हारा अच्छा तालमेल हो।

प्रकाश—संबंधी तीसरी विधि:

भाव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी शाश्वत उपस्थिति है

यह विधि भी प्रकाश से ही संबंधित है।

‘भाव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी शाश्वत उपस्थिति है।’

गर तुमने एल. एस डी या उसी तरह के किसी मादक द्रव्य का सेवन किया हो, तो तुम्हें पता होगा कि कैसे तुम्हारे चारों ओर का जगत प्रकाश और रंगों के जगत में बदल जाता है, जो कि बहुत पारदर्शी और जीवंत मालूम पड़ता है।

यह एल .एस .डी के कारण नहीं है। जगत ऐसा ही है, लेकिन तुम्हारी दृष्टि शइमल और मंद पड़ गई है। एल. एस .डी. तुम्हारे चारों ओर रंगीन जगत नहीं निर्मित करता है, जगत पहले से ही रंगीन है, उसमें कोई भूल नहीं है। यह रंगों के इंद्रधनुष जैसा है; रंगों के रहस्यमय लोक जैसा है; पारदर्शी प्रकाश जैसा है। लेकिन तुम्हारी आंखें धुंध से भरी हैं, इसीलिए तुम्हें कभी नहीं प्रतीत होता है कि जगत इतना रंग— भरा है। एल एस डी. सिर्फ तुम्हारी आंखों से धुंध को हटा देता है, वह जगत को रंगीन नहीं बनाता। एल. एस. डी रासायनिक ढंग से तुम्हारी आंखों को उनके अंधेपन से मुक्त कर देता है, और तब अचानक सारा जगत तुम्हारे सामने अपने सच्चे रूप में उदघाटित हो जाता है, प्रकट हो जाता है।

एक बिलकुल नया जगत तुम्हारे सामने होता है। एक मामूली कुर्सी भी चमत्कार बन जाती है; फर्श पर पड़ा जूता नए रंगों से, नई आभा से भर जाता है, सज —जाता है; तब यातायात का मामूली शोरगुल भी संगीतपूर्ण हो उठता है। जिन वृक्षों को तुमने बहुत बार देखा होगा और फिर भी नहीं देखा होगा, वे मानो नया जन्म ग्रहण कर लेते हैं, यद्यपि तुम बहुत बार उनके पास से गुजरे हो और तुम्हें खयाल है कि तुमने उन्हें देखा है। वृक्ष का पत्ता—पत्ता एक चमत्कार बन जाता है।

और यथार्थ ऐसा ही है, एल. एस .डी. इस यथार्थ का निर्माण नहीं करता। एल. एस. डी. तुम्हारी जड़ता को, तुम्हारी संवेदनहीनता को मिटा देता है, और तब तुम जगत को ऐसे देखते हो जैसे तुम्हें सच में उसे देखना चाहिए।

लेकिन एल. एस. डी तुम्हें सिर्फ एक झलक दे सकता है। और अगर तुम एल. एस. डी. पर निर्भर रहने लगे, तो देर—अबेर वह भी तुम्हारी आंखों से धुंध को हटाने में असमर्थ हो जाएगा। फिर तुम्हें उसकी अधिक मात्रा की जरूरत पड़ेगी, और यह मात्रा बढ़ती जाएगी और उसका असर कम होता जाएगा। और फिर यदि तुम एल .एस. डी. या उस तरह की चीजें लेना छोड़ दोगे, तो जगत तुम्हारे लिए पहले से भी ज्यादा उदास और फीका मालूम पड़ेगा; तब तुम और भी संवेदनहीन हो जाओगे।

अभी कुछ दिन पहले एक लड़की मुझसे मिलने आई। उसने कहा कि मुझे संभोग में आर्गाज्य का कोई अनुभव नहीं होता है। उसने अनेक पुरुषों के साथ प्रयोग किया; लेकिन आर्गाज्य का कभी अनुभव नहीं हुआ। वह शिखर कभी आता नहीं; और वह लड़की बहुत हताश हो गई है।

तो मैंने उस लड़की से कहा कि मुझे अपने प्रेम और काम जीवन के संबंध में विस्तार से बताओ, पूरी कहानी कहो। और तब मुझे पता चला कि वह संभोग के लिए बिजली के एक यंत्र का, इलेक्ट्रानिक वाइब्रेटर का उपयोग कर रही थी। आजकल पश्चिम में इसका बहुत उपयोग हो रहा है। लेकिन तुम अगर एक बार पुरुष जननेंद्रिय के लिए इलेक्ट्रानिक वाइब्रेटर का उपयोग कर लोगे, तो कोई भी पुरुष तुम्हें तृप्त नहीं कर पाएगा; क्योंकि इलेक्ट्रानिक वाइब्रेटर आखिर इलेक्ट्रानिक वाइब्रेटर ही है। तुम्हारी जननेंद्रिया जड़ हो जाएंगी, मुर्दा हो जाएंगी। उस हालत में आर्गाज्य, काम का शिखर अनुभव असंभव हो जाएगा। तुम्हें काम—संभोग का शिखर कभी प्राप्त न हो सकेगा। और तब तुम्हें पहले से ज्यादा शक्तिशाली इलेक्ट्रानिक वाइब्रेटर की जरूरत पड़ेगी। और यह प्रक्रिया उस अति तक जा सकती है कि तुम्हारा पूरा काम—यंत्र पत्थर जैसा हो जाए।

और यही दुर्घटना हमारी प्रत्येक इंद्रिय के साथ घट रही है। अगर तुम कोई बाहरी उपाय, कृत्रिम उपाय काम में लाओगे, तो तुम जड़ हो जाओगे। एल .एस .डी. तुम्हें अंततः जड़ बना देगा; क्योंकि उससे तुम्हारा विकास नहीं होता है, तुम ज्यादा संवेदनशील नहीं होते हो। अगर तुम विकसित होते हो तो वह बिलकुल ही भिन्न प्रक्रिया है। तब तुम ज्यादा संवेदनशील होंगे। और जैसे—जैसे तुम ज्यादा संवेदनशील होते हो, वैसे—वैसे जगत दूसरा होता जाता है। अब तुम्हारी इंद्रियां ऐसी अनेक चीजें अनुभव कर सकती हैं जिन्हें उन्होंने अतीत में कभी नहीं अनुभव किया था; क्योंकि तुम उनके प्रति खुले नहीं थे, संवेदनशील नहीं थे।

यह विधि आंतरिक संवेदनशीलता पर आधारित है। पहले संवेदनशीलता को बढ़ाओ। अपने द्वार—दरवाजे बंद कर लो, कमरे में अंधेरा कर लो, और फिर एक छोटी मोमबत्ती जलाओ। और उस मोमबत्ती के पास प्रेमपूर्ण मुद्रा में, बल्कि प्रार्थनापूर्ण भावदशा में बैठो। और ज्योति से प्रार्थना करो : ‘अपने रहस्य को मुझ पर प्रकट करो।’ स्नान कर लो, अपनी आंखों पर ठंडा पानी छिड़क लो और फिर ज्योति के सामने अत्यंत प्रार्थनापूर्ण भावदशा में होकर बैठो। ज्योति को देखो और शेष सब चीजें भूल जाओ। सिर्फ ज्योति को देखो। ज्योति को देखते रहो।

पांच मिनट बाद तुम्हें अनुभव होगा कि ज्योति में बहुत चीजें बदल रही हैं। लेकिन स्मरण रहे, यह बदलाहट ज्योति में नहीं हो रही है; दरअसल तुम्हारी दृष्टि बदल रही है।

प्रेमपूर्ण भावदशा में, सारे जगत को भूलकर, समग्र एकाग्रता के साथ, भावपूर्ण हृदय के साथ ज्योति को देखते रहो। तुम्हें ज्योति के चारों ओर नए रंग, नई छटाएं दिखाई देंगी, जो पहले कभी नहीं दिखाई दी थीं। वे रंग, वे छटाएं सब वहां मौजूद हैं; पूरा इंद्रधनुष वहां उपस्थित है। जहां—जहां भी प्रकाश है, वहा—वहां इंद्रधनुष है; क्योंकि प्रकाश बहुरंगी है, उसमें सब रंग हैं। लेकिन उन्हें देखने के लिए सूक्ष्म संवेदना की जरूरत है। उसे अनुभव करो और

देखते रहो। यदि आंसू भी बहने लगें, तो भी देखते रहो। वे आंसू तुम्हारी आंखों को निखार देंगे, ज्यादा ताजा बना जाएंगे।

कभी—कभी तुम्हें प्रतीत होगा कि मोमबत्ती या ज्योति बहुत रहस्यपूर्ण हो गई है। तुम्हें लगेगा कि यह वही साधारण मोमबत्ती नहीं है जो मैं अपने साथ लाया था; उसने एक नई आभा, एक सूक्ष्म दिव्यता, एक भगवत्ता प्राप्त कर ली है। इस प्रयोग को जारी रखो। कई अन्य चीजों के साथ भी तुम इसे कर सकते हो।

मेरे एक मित्र मुझे कह रहे थे कि वे पांच—छह मित्र पत्थरों के साथ एक प्रयोग कर रहे थे। मैंने उन्हें कहा था कि कैसे प्रयोग करना, और वे लौटकर मुझे पूरी बात कह रहे थे। वे एकांत में एक नदी के किनारे पत्थरों के साथ प्रयोग कर रहे थे। वे उन्हें फील करने की कोशिश कर रहे थे—हाथों से छूकर, चेहरे से लगाकर, जीभ से चखकर, नाक से सूंघकर—वे उन पत्थरों को हर तरह से फील करने की कोशिश कर रहे थे। साधारण से पत्थर, जो उन्हें नदी किनारे मिल गए थे।

उन्होंने एक घंटे तक यह प्रयोग किया—हर व्यक्ति ने एक पत्थर के साथ। और मेरे मित्र मुझे कह रहे थे कि एक बहुत अदभुत घटना घटी। हर किसी ने कहा ‘क्या मैं यह पत्थर अपने पास रख सकता हूं? मैं इसके साथ प्रेम में पड़ गया हूं!’

एक साधारण सा पत्थर! अगर तुम सहानुभूतिपूर्ण ढंग से उससे संबंध बनाते हो तो तुम प्रेम में पड जाओगे। और अगर तुम्हारे पास इतनी संवेदनशीलता नहीं है तो सुंदर से सुंदर व्यक्ति के पास होकर भी तुम पत्थर के पास ही हो, तुम प्रेम में नहीं पड़ सकते।

तो संवेदनशीलता को बढ़ाना है। तुम्हारी प्रत्येक इंद्रिय को ज्यादा जीवंत होना है। तो ही तुम इस विधि का प्रयोग कर सकते हो।

‘भाव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी शाश्वत उपस्थिति है।’

सर्वत्र प्रकाश है; अनेक—अनेक रूपों और रंगों में प्रकाश सर्वत्र व्याप्त है। उसे देखो। सर्वत्र प्रकाश है, क्योंकि सारी सृष्टि प्रकाश की आधारशिला पर खड़ी है। एक पत्ते को देखो, एक फूल को देखो या एक पत्थर को देखो, और देर— अबेर तुम्हें अनुभव होगा कि उससे प्रकाश की किरणें निकल रही हैं। बस, धैर्य से प्रतीक्षा करो। जल्दबाजी मत करो, क्योंकि जल्दबाजी में कुछ भी प्रकट नहीं होता है। तुम जब जल्दी में होते हो तो तुम जड़ हो जाते हो। किसी भी चीज के साथ धीरज से प्रतीक्षा करो, और तुम्हें एक अदभुत तथ्य से साक्षात्कार होगा जो सदा से मौजूद था, लेकिन जिसके प्रति तुम सजग नहीं थे, सावचेत नहीं थे।

‘भाव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी शाश्वत उपस्थिति है।’

और जैसे ही तुम्हें इस शाश्वत अस्तित्व की उपस्थिति अनुभव होगी वैसे ही तुम्हारा चित्त बिलकुल मौन और शात हो जाएगा। तुम तब उसके एक अंश भर होगे; किसी अदभुत संगीत में एक स्वर भर! फिर कोई चिंता नहीं है, फिर कोई तनाव नहीं है। बूंद समुद्र में गिर गई, खो गई।

लेकिन आरंभ में एक बड़ी कल्पना की जरूरत होगी। और अगर तुम संवेदनशीलता बढ़ाने के अन्य प्रयोग भी करते हो, तो वह सहयोगी होगा। तुम कई तरह के प्रयोग कर सकते

हो। किसी का हाथ अपने हाथ में ले लो, आंखें बंद कर लो और दूसरे के भीतर के जीवन को महसूस करो, उसे महसूस करो और उसे अपनी ओर बहने दो, गति करने दो। फिर अपने जीवन को महसूस करो, और उसे दूसरे की ओर प्रवाहित होने दो। किसी वृक्ष के निकट बैठ जाओ और उसकी छाल को छुओ, स्पर्श करो। अपनी आंखें बंद कर लो और वृक्ष में उठते जीवन—तत्व को अनुभव करो। और तुम्हें तुरंत बदलाहट अनुभव होगी।

मैंने एक प्रयोग के बारे में सुना है। एक डाक्टर कुछ लोगों पर प्रयोग कर रहा था कि क्या भावदशा से शरीर में रासायनिक परिवर्तन होते हैं। अब उसने निष्कर्ष निकाला है कि भावदशा से शरीर में तत्काल रासायनिक परिवर्तन होते हैं।

उसने बारह लोगों के एक समूह पर ‘प्रयोग किया। उसने प्रयोग के आरंभ में उन सबकी पेशाब की जांच की; और सबकी पेशाब साधारण, सामान्य पाई गई। फिर हर व्यक्ति को एक विशेष भावदशा के प्रभाव में रखा गया। एक को क्रोध, हिंसा, हत्या, मार—पीट से भरी फिल्म दिखाई गई। तीस मिनट तक उसे भयावह फिल्म दिखाई गई। यह मात्र फिल्म ही थी, लेकिन वह व्यक्ति उस भावदशा में रहा। दूसरे को एक हंसी—खुशी की, प्रसन्नता की फिल्म दिखाई गई। वह आनंदित रहा। और इसी तरह बारह लोगों पर प्रयोग किया गया।

फिर प्रयोग के बाद उनकी पेशाब की जांच की गई; और अब सबकी पेशाब अलग थी। शरीर में रासायनिक परिवर्तन हुए थे। जो हिंसा और भय की भावदशा में रहा वह अब बुझा—बुझा, बीमार था; और जो हंसी—खुशी, प्रसन्नता की भावदशा में रहा वह अब स्वस्थ, प्रफुल्ल था। उसकी पेशाब अलग थी, उसके शरीर की रासायनिक व्यवस्था अलग थी।

तुम्हें बोध नहीं है कि तुम अपने साथ क्या कर रहे हो। जब तुम कोई खून—खराबे की फिल्म देखने जाते हो, तो तुम नहीं जानते हो कि तुम क्या कर रहे हो; तुम अपने शरीर की रासायनिक व्यवस्था बदल रहे हो। जब तुम कोई जासूसी उपन्यास पढ़ते हो, तो तुम नहीं जानते हो कि तुम क्या कर रहे हो; तुम अपनी हत्या कर रहे हो। तुम उत्तेजित हो जाओगे, तुम भयभीत हो जाओगे; तुम तनाव से भर जाओगे। जासूसी उपन्यास का यही तो मजा है। तुम जितने उत्तेजित होते हो, तुम उसका उतना ही सुख लेते हो। आगे क्या घटित होने वाला है, इस बात को लेकर जितना सस्पेंस होगा, तुम उतने ही ज्यादा उत्तेजित होगे। और इस भांति तुम्हारे शरीर का रसायन बदल रहा है।

ये सारी विधियां भी तुम्हारे शरीर के रसायन को बदलती हैं। अगर तुम सारे जगत को जीवन और प्रकाश से भरा अनुभव करते हो, तो तुम्हारे शरीर का रसायन बदलता है। और यह एक चेन रिएक्शन है, इस बदलाहट की एक श्रृंखला बन जाती है। जब तुम्हारे शरीर का रसायन बदलता है और तुम जगत को देखते हो, तो वही जगत ज्यादा जीवंत दिखाई पड़ता है। और जब वह ज्यादा जीवंत दिखाई पड़ता है, तो तुम्हारे शरीर की रासायनिक व्यवस्था और भी बदलती है। ऐसे एक श्रृंखला निर्मित हो जाती है।

यदि यह विधि तीन महीने तक प्रयोग की जाए, तो तुम भिन्न ही जगत में रहने लगोगे, क्योंकि अब तुम ही भिन्न व्यक्ति हो जाओगे।

आज इतना ही।


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गुरू प्रताप साध की संगति–(प्रवचन–11)

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गगन बजयो बेनु—(प्रवचन—ग्यारहवां)

दिनांक 31 मई, 1979;

ओशो कम्युन, पूना।

सूत्र:

ब्राह्मन कहिये ब्रह्म—रत, है ताका बड़ भाग।

नाहिंन पसु अज्ञानता, गर डारे तिन ताग।।

 

संत—चरन में लगि रहै, सो जन पावै भेव।

भीखा गुरु—परताप तें, काढेव कपट—जनेव।।

 

संत चरन में जाइकै, सीस चढ़ायो रेनु।

भीखा रेनु के लागते, गगन बजायो बेनु।।

 

बेनु बजायो मगन ह्लै, छूटी खलक की आस।

भीखा गुरु—परताप तें, लियो चरन में बास।।

 

भीखा केवल एक है, किरतिम भयो अनंत।

एकै आतम सकलघट, यह गति जानहिं संत।।

 

एकै धागा नाम का, सब घट मनिया माल।

फेरत कोई संतजन, सतगुरु नाम गुलाल।।

तिमिर से संघर्ष किरणें कर रही हैं,

उदयगिरि के द्वार खुलते जा रहे हैं!

है तमिस्रा के क्षणों का अंत संमुख,

ज्योति के अरुणाभ क्षण अब आ रहे हैं!

जो चरण रुकता मनुजता का, निशा है;

जो चरण बढ़ता, उषा है वह नवेली;

ज्योति में संपर्क पाती है मनुजता

और तम के आवरण में वह अकेली!

जो निराशा की निशा की मूकता को!

प्रथम कलरव का नवल स्वर दान देती,

तिमिर में अनजाना खोई मनुजता को

जो नए लोचन, नई पहचान देती;

ज्योति वह, जो मुक्त्त हो, बंटती, बिखरती,

साम्य का, औदर्य का वैभव लुटाती;

वह नहीं, जो सिमटती, संकीर्ण होती,

मनुजता,भू, प्रकृति का कल्मष बढ़ाती।

ज्योति वह, जिसमें मनुज देता मनुज को

सरल करुणा, स्नेह, ममता का सहारा;

ज्योति वह, जिसमें मनुजता के शिखर से

द्रवित हो बहती; निखरती भावधारा!

तिमिर वह, जिसमें मनुजता बद्ध होती,

रुद्ध होती, खर्व होती, हीन होती,

घिर परिधि में स्वार्थ की वह कृपणता का

भार ढो—ढोकर निरंतर दीन होती।

अप्रभावित जो प्रतिक्षा की निशा से,

उस सुमन की सतत श्रद्धाभावना से

ज्योति के क्षण अवतरित होते जगत में,

चेतनापथ के पथिक की साधना से।

ज्योति—क्षण आए, न यों ही लौट जावें,

कर्म से इनको चलो सार्थक बनावें!

तृप्ति, सुख, उल्लास, हास, विकास बनकर

मनुजजीवन में अमर ये स्थान पावें!

अनंत—अनंत काल के बीत जाने पर कोई सदगुरु होता है। सिद्ध तो बहुत होते हैं, सद्गुरु बहुत थोड़े। सिद्ध वह जिसने सत्य को जाना; सद्गुरु वह जिसने जाना ही नहीं, जनाया भी। सिद्ध वह जो स्वयं तो पा लिया लेकिन बांट न सका; सद्गुरु वह, पाया और बांटा। सिद्ध स्वयं तो लीन हो जाता परमात्मा के विराट सागर में मगर वह जो मनुष्यता की भटकती हुई भीड़ है——अज्ञान में, अंधकार में, अंधविश्वास म——उसे नहीं तार पाया। सिद्ध तो ऐसे है जैसे छोटी—सी डोंगी मछुए की, बस एक आदमी उसमें बैठ सकता है। सिद्ध का यान, हीनयान है; उसमें दो की सवारी नहीं हो सकती, वह अकेला ही जाता है। सद्गुरु का यान, महायान है; वह बड़ी नाव है; उसमें बहुत समा जाते हैं; जिनमें भी साहस है वे सब उसमें समा जाते है। एक सद्गुरु अनंतों के लिए द्वार बन जाता है।

सिद्ध तो बहुत होते हैं, सद्गुरु बहुत थोड़े होते हैं। और सद्गुरु जब हो तो अवसर चूकना मत।

ज्योति—क्षण आए, न यों ही लौट जावें,

कर्म से इनको चलो सार्थक बनावें!

तृप्ति, सुख, उल्लास, हास, विकास बनकर

मनुजजीवन में अमर ये स्थान पावें!

सद्गुरु का संदेश क्या है? फिर सद्गुरु कोई भी हो——गुलाल हो, कबीर हो कि नानक, मंसूर हो, राबिया कि जलालुद्दीन——कुछ भेद नहीं पड़ता। सद्गुरुओं के नाम ही अलग हैं, उनका स्वर एक, उनका संगीत एक; उनकी पुकार एक, उनका आवाहन एक; उनकी भाषा अनेक होगी मगर उनका भाव अनेक नहीं। जिसने एक सदगुरु को पहचाना उसने सारे सदगुरुओं को पहचान लिया——अतीत के भी, वर्तमान के भी, भविष्य के भी। सदगुरु में समय के भेद मिट जाते हैं——जो पहले हुए हैं, वे भी उसमें मौजूद; जो अभी हैं, वे भी उसमें मौजूद। जो कभी होंगे, वे भी उसमें मौजूद। सदगुरु शुद्ध प्रकाश है जिस पर कोई भी अंधकार की सीमा नहीं।

तिमिर से संघर्ष किरणें कर रही हैं,

उदयगिरि के द्वार खुलते जा रहे हैं!

है तमिस्रा के क्षणों का अंत संमुख,

ज्योति के अरुणाभ क्षण अब आ रहे हैं!

जो झुकेगा सदगुरु के चरणों में उसके लिए द्वार खुलने लगते हैं। झुके बिना ये द्वार नहीं खुलते। जो अकड़ा है उसके लिए तो द्वार बंद हैं। खुला द्वार भी उसके लिए बंद है क्योंकि अकड़ के कारण उसकी आंख बंद है। अहंकार आदमी को अंधा करता है; विनम्रता उसे आंख देती है। जो जितना सोचता है “मैं हूं’, उतना ही परमात्मा से दूर होता है। जो जितना जानता है “मैं नहीं हूं’, उतना परमात्मा के निकट सरकने लगा, उतनी उपासना होने लगी, उतना उपनिषद जगने लगा, उतनी निकटता बढ़ने लगी, उतना सामीप्य। और जिसने जाना कि “मैं हूं ही नहीं’, वह परमात्मा हो जाता है। जिसने जाना कि “मैं हूं ही नहीं’, वह कह सकता है——अहं ब्रह्मास्मि——मैं ब्रह्म हूं।

जो चरण रुकता मनुजता का, निशा है;

जो चरण बढ़ता, उषा है वह नवेली;

ज्योति में संपर्क पाती है मनुजता

और तम के आवरण में वह अकेली!

जिस घड़ी तुम्हारा कदम सत्य की खोज में बढ़ता है, वह प्रकाश है, वह सुबह है। और जिस घड़ी तुम ठिठकते हो, झिझकते हो, अतीत को पकड़ते हो, धारणाओं को पकड़ते हो; शास्त्रों, सिद्धांतों को पकड़ते हो; सत्य की जिज्ञासा नहीं वरन् सिद्धांतों की सुरक्षा पकड़ते हो; सत्य का दूर से आता हुआ आवाहन नहीं, वरन् अतीत से जड़ हो गयी परंपराएं पकड़ते हो——जानना वही अंधकार है, जानना वही अंधापन है।

जो चरण रुकता मनुजता का, निशा है…! वही है रात अंधेरी, अमावास, जब तुम रुक जाते, डर जाते; जब तुम भयभीत हो जाते अज्ञात से, अज्ञेय से, और ज्ञात को पकड़ लेते कि कहीं ज्ञात हाथ से छूट न जाए…! ज्ञात क्या है? हिंदू धर्म ज्ञात है, मुसलमान धर्म ज्ञात है, सिक्ख धर्म ज्ञात है, जैन धर्म ज्ञात है, ईसाई धर्म ज्ञात है, लेकिन परमात्मा धर्म अज्ञात है, सदा अज्ञात है। मंदिर ज्ञात है, मस्जिद ज्ञात है, गिरजा, गुरुद्वारा ज्ञात है, लेकिन उस परमात्मा का निवास अज्ञात है, बिलकुल अज्ञात है। वह सदा ही अज्ञात है।

तो जो अज्ञात में अपनी नाव को उतारने को तैयार हो जाते हैं, उनका ही उससे संबंध होता है। जो बंधे रहते हैं——लीकों में, लकीरों में——वे अटके रह जाते हैं, उनकी जिंदगी अमावस है। और तुम्हारी जिंदगी अभी पूर्णिमा हो सकती है, इसी क्षण पूर्णिमा हो सकती है। अमावस और पूर्णिमा के बीच बस एक कदम का फासला है। अमावस है रुका हुआ कदम, पूर्णिमा है बढ़ा हुआ कदम।

जो चरण रुकता मनुजता का, निशा है;

जो चरण बढ़ता, उषा है वह नवेली;

ज्योति में संपर्क पाती है मनुजता

और तम के आवरण में वह अकेली!

और एक अदभुत घटना है कि जब तक तुम अंधेरे में हो, अकेले हो; और जैसे ही प्रकाश हुआ, तुम अकेले नहीं, सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ है। पौधे, पशु—पक्षी, पहाड़, सरिताएं, सागर, चांदत्तारे, प्रगट—अप्रगट——जो भी है, सब तुम्हारे साथ है। अंधेरे में तुम अकेले हो। अंधेरे में तुम इसीलिए भयभीत हो। प्रकाश में तुम अकेले नहीं हो, अस्तित्व तुम्हारा संगी—साथी है। इसलिए प्रकाश में भय नहीं है, प्रकाश में अभय है।

वह जो ऋषि गाते रहे——

तमसो मा ज्योतिर्गमय…हमें अंधेरे से प्रकाश की तरफ ले चल प्रभु!…

असतो मा सद्गमय…हमें असत्य से सत्य की और ले चल प्रभु!…मृत्योमां अमृतं गमय…हमें मृत्यु से अमृत की और ले चल प्रभु!

क्या तुम सोचते हो उन ऋषियों को शास्त्रों का पता न था? अगर शास्त्रों में सत्य मिलता होता तो वे प्रार्थना करते आकाश से——असतो मा सद्गमय?

क्या उन्हें शब्दों की, सिद्धांतों की, संपदा का कुछ बोध न था? अगर शब्दों और सिद्धांतों से रोशनी मिलती होती, अगर दीया शब्द से ज्योति मिलती होती, अंधेरा कटता होता, तो वे प्रार्थना करते——तमसो मा ज्योतिर्गमय?

और अगर पंडित—पुरोहितों से आश्वासन मिलता होता जीवन की शाश्वतता का, अमरता का, अगर परंपरा से, बंधी—बंधायी धारणाओं से आस्था जगती होती अमरत्व की, तो वे प्रार्थना करते——मृत्योर्मा अमृतं गमय?

उनकी प्रार्थना क्या कह रही है? उनकी प्रार्थना कह रही है——इस किनारे पर जो भी उपलब्ध है, उससे उस किनारे का कुछ पता चलता नहीं। यहां शास्त्र बहुत हैं, सिद्धांत बहुत हैं, शास्त्रों को जानने वाले बहुत हैं, वेद हैं जिन्हें कंठस्थ, कुरान जिनकी जबान पर रखी है——ऐसे तो बहुत हैं, मगर इस किनारे पर उस किनारे की खबर देने वाला कभी—कभार बड़ी मुश्किल से होता है।

इस किनारे पर उस किनारे की खबर तो वही दे सकता है जो उस किनारे पहुंच गया हो। सिद्ध भी उस किनारे पहुंचते हैं मगर वे लौटते नहीं, वे गये सो गये। जैन और बौद्ध शास्त्रों ने उन्हें अर्हत कहा है। गये सो गये। वे फिर लौटते नहीं, वे खबर देने भी नहीं लौटते। डूबे सो डूबे। वे इस किनारे फिर नहीं आते। और जो उस किनारे जाकर इस किनारे आ जाते हैं उन्हें बौद्धों ने बोधिसत्व कहा है, जैनों ने तीर्थकर कहा है। उनकी करुणा अपार है। सत्य का अपूर्व आनंद छोड़कर, ब्रद्म का महासुख छोड़कर, जहां कमल खिले हैं शाश्वतता के, उन्हें छोड़कर लौट आते हैं इस किनारे पर, कंटकाकीर्ण किनारे पर, पीछे जो भटकते आ रहे हैं उन्हें खबर देने——वे सद्गुरु हैं।

ऐसे सद्गुरुओं के साथ तुम एक कदम भी उठा लो तो पूर्णिमा आ जाए जीवन में। ऐसे तो अमावस में और पूर्णिमा में पन्द्रह दिन का फर्क होता है लेकिन मैं जिस अमावस और जिस पूर्णिमा की बात कर रहा हूं, उसमें एक कदम का ही फासला है——समर्पण और पूर्णिमा; अहंकार और अमावस।

जो निराशा की निशा की मुकता को

प्रथम कलरव का नवल स्वर दान देती,

तिमिर में अनजान खोई मनुजता को

जो नए लोचन, नई पहचान देती…

वही वाणी उपनिषद् है, वेद है, कुरान है——वही जीवन्त वाणी जो तुम्हें नयी आंख दे।

तिमिर में अनजान खोई मनुजता को

जो नए लोचन, नई पहचान देती…

परमात्मा को बार—बार आविष्कृत करना होता है क्योंकि बार—बार पंडितों और पुरोहितों के शब्दजाल में परमात्मा का सत्य खो जाता है। बुद्ध ने पाया उसे और बुद्ध के मरते ही पंडित—पुरोहितों की भीड़ में खो गया वह। महावीर ने पाया उसे, महावीर के जाते ही पंडित—पुरोहितों की भीड़ में खो गया वह। यह कुछ स्वाभाविक नियम है कि सत्य तभी तक जीता है, जब तक सत्यधर जीता है; सत्य तभी तक जीता है, जब तक मिट्टी का दीया उस ज्योति को सम्हाले रहता है। इधर मिट्टी का दीया टूटा, उधर ज्योति महाज्योति में लीन हो जाती है। फिर मिट्टी के टूटे—फूटे दीये के पास, बिखर गये तेल के आसपास, पंडित—पुरोहितों का शोरगुल मचता रहता है। सदियां बीत जाती हैं, टूटे—फूटे दीयों की पूजा जारी रहती है——न उनसे नयी आंख मिलती, न नयी अनुभूति मिलती, न नयी पहचान मिलती।

और आश्चर्य तो यह है कि जब भी कोई तुम्हें नयी आंख देने आएगा, तुम उसकी आंखें फोड़ देने को आतुर हो जाते हो। जब तुम्हें कोई नयी पहचान देने आएगा, तुम उसकी गर्दन काट देने को तत्पर हो जाते हो। क्योंकि नयी पहचान के साथ जाना जोखम भरा है। नयी पहचान की साख क्या? क्योंकि नयी पहचान के पीछे अतीत का कोई बल नहीं होता।

अगर मैं तुम्हें नयी आंख दे रहा हूं तो मेरे अतिरिक्त मेरी आंख का और कौन गवाह है? मैं पंडित—पुरोहितों की कतार अपनी गवाही में खड़ी नहीं कर सकता। जो मैंने जाना है, मैं ही उसका गवाह हूं। मैं एक दूसरा व्यक्ति भी गवाही के लिए खड़ा नहीं कर सकता।

जिसका कोई गवाह न हो, उसकी कौन माने? कौन जाने वह भ्रांत हो। कौन जाने उसने सपना देखा हो। कौन जाने सिकी विभ्रम में पड़ा हो। कौन जाने धोखा देता हो, वंचना करता हो। हजार संदेह, शंकायें मन में उठती है। अतीता के साथ ज्यादा भरोसा मालूम होता है। हजारों—हजारों साल से लोग मानते आ रहे हैं, इतने लोग मानते आ रहे हैं, ठीक ही होगी बात, नहीं तो इतने लोग मानते हैं!

हम भीड़ का बड़ा भरोसा करते हैं, हम भेड़ें हैं, हम आदमी नहीं। हम भीड़ का भरोसा करते हैं, सत्य का नहीं। जैसे भीड़ से कुछ तय होता है! अक्सर,निंरतर यह पाया गया है कि भीड़ गलत पायी गयी और व्यक्ति सही पाये गये। न केवल धर्म के उस अलौकिक जगत में बल्कि विज्ञान के लौकिक जगत में भी ऐसा ही होता रहा है।

जब गैलीलियो ने कहा कि “सूरज पृथ्वी का चक्कर नहीं लगाता, पृथ्वी ही सूरज का चक्कर लगाती है’ तो वह अकेला आदमी था। सारी दुनिया मानती थी कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है। अब भी अधिकतर लोग पढ़ तो लेते हैं मगर मानते यही हैं कि सूरज चक्कर लगाता है। अभी भी सारी दुनिया की भाषाओं में शब्द नहीं बदले। संध्या को हम कहते हैं: सूर्यास्त! सूर्य कभी अस्त होता ही नहीं। जब हमारी पीठ हो जाती है उसकी तरफ तो हमें दिखाई नहीं पड़ता; जब हमारी पीठ हो जाती है उसकी तरफ तो हमें दिखाई नहब पड़ता; जब हमारा मूंह हो जाता उसकी तरफ, हमें दिखाई पड़ता है। सूर्य कभी अस्त होता ही नहीं। सूर्यास्त जैसा झूठा कोई शब्द नहीं हो सकता। और हम सुबह कहते हैं सूर्योदय!

यह तो ऐसे ही हुआ कि मैं तुम्हारी तरफ पीठ कर लूं और कहूं कि तुम्हारा अस्त हो गया। और फिर तुम्हारी तरफ मुंह कर लूं और कहूं कि तुम्हारा जन्म हो गया। तुम जैसे थे वैसे के वैसे हो, सिर्फ मैं घूम रहा हूं।

पृथ्वी घूमती है, सूरज थिर है। लेकिन जब गैलीलियो ने यह कहा तो चर्च खिलाफ, धर्मगुरु खिलाफ, पंडित—पुरोहित खिलाफ। उनका डर क्या है? उनका डर यह है कि अगर गैलीलियो सही है तो फिर बाइबिल में जो उल्लेख है कि “पृथ्वी सूरज का चक्कर नहीं लगाती, सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है’ उसका क्या होगा? और अगर शास्त्र में एक भूल मिल जाए तो फिर लोगों को संदेह उठेंगे कि जब एक भूल हो सकती है तो और भूलें भी हो सकती हैं। और जब इस जगत के सूरज के संबंध में तक भूल हो रही है, तो परमात्मा के संबंध में क्या पता कि बाइबिल सच कहती हो, न कहती हो।

घबड़ाहट फैल गयी। गैलीलियो को अदालत में बुलाया गया। गैलीलियो बहुत समझदार आदमी रहा होगा। गैलीलियो से कहा गया, तुम क्षमा मांग लो। वह बूढ़ा हो गया था, सत्तर—पचहत्तर साल का था। तुम क्षमा मांग लो घुटने टेककर, तुमने जो कहा वह गलत है। तुम वक्तव्य दे दो कि सूरज ही चक्कर लगाता है पृथ्वी का, पृथ्वी का। लेकिन मेरी घोषणा से कुछ होगा नहीं——सूरज मेरी मानेगा नहीं, पृथ्वी मेरी सुनेगी नहीं, चक्कर तो पृथ्वी ही लगाएगी।

बड़ा समझदार आदमी रहा होगा। उसने कहा, तुम जिद्द करते हो तो कौन झंझट करे! ठीक है, चलो माफी मांगे लेते हैं। कोई जिद्दी आदमी नहीं था। मगर उसने कहा: मैं क्या करूंगा, मेरी माफी क्या करेगी? मेरे किये न किये कुछ नहीं होता, मेरी कौन सुनता है? तुम्हीं नहीं सुनते, सूरज क्या खाक सुनेगा! आदमी नहीं सुनते, पृथ्वी क्या मेरी मानेगी? जो हो रहा है वह वैसा ही होता रहेगा। गैलीलियो के कहने से फर्क नहीं पड़ता। गैलीलियो तो वही कह रहा है जो हो रहा है।

मगर सारी दुनिया खिलाफ थी। अब हम जानते हैं, गैलीलियो सही था सारी दुनिया गलत थी।

भीड़ हमेशा गलत पायी गयी है…लेकिन फिर भी हमारे मन में एक श्रद्धा है कि जिसे अधिक लोग मानते हैं…। जैसे सत्य भी कोई मत से तय होता है, कि वोट से तय होता है! कितने लोग मानते हैं? अगर सत्य ऐसे तय होता हो तो ईसाई धर्म सत्य है, हिंदु धर्म सत्य नहीं है। अगर सत्य ऐसे तय होता हो तो हिंदु धर्म सत्य है, जैन धर्म सत्य नहीं है। अगर सत्य ऐसे तय होता हो तो पंडित—पुरोहित सही हैं, मैं सही नहीं हूं।

लेकिन सत्य का यह तय होने का ढंग ही नहीं है। सत्य अनुभव से तय होता है। सत्य तो इकहरी गवाहियों से तय होता है। सत्य का साक्षात तो व्यक्ति करता है, भीड़ नहीं करती। आज तक दुनिया में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि दस हजार आदमियों ने सत्य का साक्षात्कार किया हो। सत्य तो जब भी आता है, व्यक्ति के अंतस्ल में आता है, उसकी निजता में आता है, अत्यंत एकांत में। वहां कोई गवाह नहीं होता।

और ऐसे ही व्यक्ति नई आंख दे सकते हैं, नई पहचान दे सकते हैं। और ऐसे ही व्यक्तियों के साथ जो हो जाए वह धन्यभागी है।

ज्योति वह, जो मुक्त हो, बंटती, बिखरती,

साम्य का, औदार्य का वैभव लुटाती;

वह नहीं, जो सिमटती, संकीर्ण होती,

मनुजता, भू, प्रकृति का कल्मष बढ़ाती।

और ज्योति वही है जो मुक्त हो——और जो मुक्त करे। ज्योति वह नहीं है जो बंधी हो और बांधे। कोई हिंदु होने में बंधा है, कोई मुसलमान होने में बंधा है। कोई मस्जिद को कारागृह बना लिया है, कोई मंदिर को। किसी का कारागृह काशी में है, किसी का कारागृह बना लिया है, कोई मंदिर को। किसी का कारागृह काशी में है, किसी कारागृह काबा में है।

ज्योति वह, जो मुक्त हो, बंटती बिखरती,

साम्य का, औदार्य का वैभव लुटाती।

ज्योति तो सारे विशेषण छीन लेती है। मनुष्य को समता देती है, साम्य देती है, मित्रता देती है, शत्रुता नहीं। औदार्य का वैभव लुटाती…ज्योति तो उदार है, अनुदार नहीं। और तुम्हारे ये सब तथाकथित धर्म बहुत अनुदार हैं, इनमें उदारता का नाम भी नहीं है। ये उदारता की बातें भी करें तो थोथी…मुख में राम बगल में छुरी।

वह नहीं, जो सिमटती, संकीर्ण होती,

मनजता, भू, प्रकृति का कल्मष बढ़ाती।

इन सारे तथाकथित धर्मो ने मनुष्य के जीवन में अंधेरा बढ़ाया है, घटाया नहीं। धर्मो के नाम पर जितना खून गिरा है इस पृथ्वी पर और किसी नाम पर नहीं गिरा। धर्मों के नाम पर जितने मकान जलाये गये, लोग जलाये गए, जीवित लोग, उतने किसी और नाम पर नहीं!

और इस सबको तुम धर्म कहे चले जाते हो! कब तुम नई आंख की भाषा सीखोगे? कब तुम पहचान करोगे परमात्मा से? परमात्मा प्रेम है और तुम्हारे ये तथाकथित धर्म तुम्हें घृणा सिखाते हैं, सिर्फ घृणा। ये तथाकथित धर्म मनुष्य को मनुष्य से बांटते हैं, जोड़ते नहीं। और जो तोड़ता है, वह धर्म नहीं; जो जोड़ता है, वही धर्म है।

ज्योति वह, जिसमें मनुज देता मनुज को

सरल करूणा, स्नेह, ममता का सहारा;

ज्योति वह, जिसमें मनुजता के शिखर से

द्रवित हो बहती, निखरती भावघारा!

तिमिर वह, जिसमें मनुजता बद्ध होती,

रुद्ध होती, खर्च होती, हीन होती,

घिर परिधि में स्वार्थ की वह कृपणताका

भार ढो—ढोकर निरतंर दीन होती।

चारों तरफ देखो, तुम्हें प्रमाण मिल जाएंगे आदमी कैसा दीन हो गया है। कौन है इसके लिए उत्तरदायी? किसने मनुष्य की यह दुर्गति की? किसने मनुष्य से उसकी आत्मा छीन ली? किसने मनुष्य से उसकी उदारता छीन ली? किसने मनुष्य की करूणा का घात किया? किसने मनुष्य के जीवन से प्रेम का दीया बुझाया और तुम चकित हो जाओगे कि तुम्हारे मंदिर, मस्जिदों, गुरुद्वारों, शिवालयों, चैत्यालयों, का हाथ है इमें। तुम्हारे मंदिर अब भगवान के मंदिर नहीं, शैतान के मंदिर हैं। मूर्ति भगवान की होगी, हाथ पीछे शैतान के हैं। और तुम जब तक जागोगे नहीं, जब तक तुम खुलकर आंख देखोगे नहीं, तब तक तुम इन्हें जालों में पड़े रहोगे।

जागो! और जागने का एक ही उपाय है—— गुरु—परताप साध की संगति। भीखा के ये वचन सीधे—सादे, सुगम, पर चिनगारियों की भांति हैं। और एक चिनगारी सारे जंगल में आग लगा दे— एक चिनगारी का इतना बल है। हृदय को खोलों, इस चिनगारी को अपने भीतर ले लो। शिष्य वही है जो चिनगारी को फूल की तरह अपने भीतर ले ले। चिनगारी जलाएगी वह सब जो गलत है, वह सब जो व्यर्थ है, वह सब जो कूड़ा—करकट है। चिनगारी जलाएगी, भभकाएगी, वह सब जो नहीं होना चाहिए और उस सबको निखारेगी जो होना चाहिए। चिनगारी असत्य को जलाती है, सत्य को निखारती है। और जो इस अग्नि से गुजरता है, एक दिन कुंदन होकर प्रगट होता है, शुद्ध स्वर्ण होकर प्रगट होता है।

ब्राह्मन कहिये ब्रह्म—रत, है ताका बड़ भाग।

नाहिंन पसु अज्ञानता, गर डारे तिनताग।।

छोटे—से सूत में परम व्याख्या भर दी, छोटे—से सूत्र में सारे वेपों का सार भर, दिया— ब्राह्मन कहिये ब्रह्म—रत. जो ब्रह्म में डूब गया है, वह ब्राह्मण।

ब्राह्मण कोई जन्म से नहीं होता। और जिन्होंने समझ लिया है कि वे जन्म से ब्राह्मण हैं, उनसे ज्यादा भ्रांत और कोई भी नहीं। उनकी स्थिति तो शूद्रों से भी गयी—बीती है। शूद्र को कम—से—कम यह तो ख्याल है कि मै शूद्र हूं। महात्मा गांधी जैसे लोगों ने उसका भी ख्यालमिटाने की कोशिश की है। उसको भी कहा कि हरिजन है तू, शूद्र नहीं। जैसे ब्राह्मण की भ्रांति है कि जन्म से ब्राह्मण, ऐसे अब शूद्र को भी भ्रांति पैदा करवा दी है—— भले—भले लोगों ने, जिनको तुम महात्मा कहते हो——कि तू हरिजन है। हरिजन ब्राह्मण का ही दूसरा नाम हुआ। जिसने हरि को जाना वह हरिजन, जिसने ब्रह्म को जाना वह ब्रह्म, वह ब्राह्मण। हरिजन कह दिया, उसको एक भ्रांति चलती ही थी कि कुछ लोग जन्म से ब्राह्मण हैं, एक दूसरी भ्रांति पैदा करवा दी कि कुछ लोग जन्म से हरिजन हैं। अब हरिजन अकड़े हैं। क्योंकि उनको भी अहंकार जगा है ब्राह्मण होने का। ब्राह्म्ण भी ब्राह्मण नहीं है, हरिजन भी हरिजन नहीं हैं।

मुझसे अगर तुम पूछो तो मैं कहूंगा हम सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं। जन्म से तो हम सब शूद्र होते है——न कोई ब्राह्मण होता न कोई वैश्य होता, न कोई क्षत्रिय होता, न कोई हरिजन होता। जन्म से तो हम सब शुद्र होते हैं क्योंकि जन्म से हम सब अज्ञानी होते हैं। फिर जन्म के बाद हम क्या यात्रा करेंगे इस पर निर्भर करेगा। सौ में निन्यानबे लोग तो शूद्र ही रह जाएंगे। सद्गुरु को न पकड़ेंगे तो शूद्र ही रह जाएंगे। सौ में से एकाध ब्राह्मण हो पाएगा। एकाध भी हो जाए तो बहुत। एकाध भी हो जाए तो काफी।

और सबसे बड़ी जो बाधा है वह यह कि हम जन्म के साथ ही मान लेते हैं कि ब्राह्मण हैं। बस, वहीं चूक हो गयी। जैसे बीमार आदमी मान ले कि मैं स्वस्थ हूं, तो क्यों इलाज करवाये? क्यों चिकित्सक के पास जाए? क्यों निदान करवाये? क्यों औषधि ले? बीमार आदमी मान ले कि मैं स्वस्थ हूं, बात खत्म हो गयी। ब्राह्मण तो बीमार था सदियों से, इधर महात्मा गांधी की कृपा से शूद्र भी बीमार हो गया है। उसको भी हरिजन होने की अस्मिता छायी जा रही है। यह जो हिन्दुओं और हरिजनों के बीच जगह—जगह संघर्ष हो रहा है, इसमें सिर्फ ब्राह्मणों का हाथ नहीं है, ख्याल रखना, इसमें हरिजनों में पैदा हो गयी अकड़ का भी हाथ है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जो हो रहा है वह ठीक हो रहा है। ब्राह्मण जो कर रहे हैं वह तो बिलकुल गलत है, पाप है। मगर लोग अगर यह सोचते हों कि उसमें सिर्फ ब्राह्मणों का हाथ. है, तो गलत बात है, उसमें हरिजन में जो अकड़n

पैदा हो गयी है हरिजन होने की, उसका भी बड़ा हाथ है। और स्वभावत: ब्राह्मण तो गलत रहा है सदियों—सदियों से, इसलिए उसकी अकड़ तो बहुत पुरानी है, मगर ख्याल रखना, नया मुसलमान जोर से नमाज पढ़ता है। और नया मुसलमान रोज मस्जिद जाता है, पुराना मुसलमान कभी चूक—चाक भी जाए। नये मुसलमान की अकड़ बहुत होती है।

तौ जो पागलपन धीरे—धीरे ब्राह्मणों में तो खून में मिल गया था, जिसका उन्हें सीधा—साधा बोध भी नहीं रह गया था, वह नया पागलपन हरिजनों में भी छा गया है। और उनका नया—नया है। और नये रोग खतरनाक होते हैं; उनका आघात खतरनाक होता है। वे बड़ी अकड़ से चल रहे हैं। वे हर चीज में अकड़ खड़ी करते हैं। वह कहता है, हमें मंदिर में जाने दो।

अब बड़े मजे की बात है, महात्मा गांधी जीवन—भर कोशिश किये कि हरि— जनों को मंदिर में प्रवेश मिलना चाहिए। और महात्मा गांधी को इतनी भी समझ न आयी कि जो मंदिर में बैठे जन्मों—जन्मों से पूजा कर रहे हैं उनको क्या खाक कुछ मिला है! जब ब्राह्मणों को ही पूजा करते—करते कुछ नहीं मिला तो ये गरीब हरिजनों को भी उन्हीं मंदिरों में प्रवेश करवाने से क्या मिल जाने वाला है? अगर मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा हरिजनों, भूलकर भी मंदिरों में मत जाना। जो मंदिरों में हैं उनको ही कुछ नहीं मिला, तुम अब इस झंझट में कहां पड़ रहे हो! तुम पर— मात्मा को विराट आकाश में खोजो, इन दीवालों में बद परमात्मा नहीं है।

लेकिन, नहीं महा—रमा गांधी समझा रहे थे कि महाक्रांति है। हरिजनों को मंदिरों में प्रवेश दिलवा देने से महाक्रांति हो जाएगी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तो मंदिरों में बैठे ही हुए थे, इनकी जिंदगी में कौन—सी क्रांति हो गयी? इनकी जिंदगी कूड़ा—करकट है, उसी में तुम हरिजनों को भी सम्मिलित कर दो। और उस कूड़ा— करकट होने के लिए वे दीवाने हो गये। दंगे—फसाद शुरू हो गये।

इस दुनिया में रोग पैदा करवा देना बड़ा आसान है। महात्मा गांधी धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं, राजनैतिक व्यक्ति हैं, उन्होंने हरिजनों का उपयोग राजनैतिक चालबाजी की तरह कर लिया। हरिजन शब्द पुराना है, कोई महात्मा गांधी की अपनी ईजाद नहीं। लेकिन हरिजन हम कहते थे उसको जो हरि का था। नानक, कबीर, दादू, भीखा, ये हरिजन थे। राबिया, मीरा, सहजो, ये हरिजन थे।

हरिजन बड़ी ऊंची बात है। उसका ठीक वही अर्थ है जो ब्राह्मण का। क्योंकि ब्राह्मण का अर्थ मर गया था धीरे—धीरे और शब्द थोथा हो गया था जन्म के साथ जुड़ गया था, इसलिए संतों ने हरिजन खोजा। गांधी ने उस शब्द की भी हत्या कर दी, उसको भी मार डाला।

ऐसे ही विनोबा ने सर्वोदय शब्द की हत्या कर दी। वह भी पुराना शब्द है, कोई सोलह सौ साल पुराना शब्द है। सबसे पहले जैन शास्त्रों में उसका उल्लेख हुआ है। अमृतचन्द्राचार्य ने सबसे पहले उसका उल्लेख किया है सर्वोदय, और बड़ा प्यारा उल्लेख किया है। खराब कर दिया विनोबा ने।

राजनीतिज्ञों के हाथ में असली सिक्के भी चले जाएं तो खोटे हौ जाते हैं। दुष्ट संगति का बुरा प्रभाव पड़ता है। अमृतचन्द्राचार्य ने सर्वोदय की व्याख्या की है——समाधि को उपलब्ध वे लोग, जिनके प्राणों में सबके उदय की आकांक्षा है। सबके—उसमें पत्थर, पौधे, पशु, पक्षी, मनुष्य, सब सम्मिलित हैं। जिनके भीतर समस्त अस्तित्व को समाधि की तरफ ले जाने की महत्वाकांक्षा जगी है, वे सर्वोदयी है।

और आजकल का सर्वोदयी? जिसको विनोबाजी सर्वोदयी कहते हैं, वह क्या है? वह केवल राजनीति के सोपान चढ़ रहा है। सर्वोदय से शुरू करता है क्योंकि सर्वोदय से ही शु_रू करना आसान है। किसी की गर्दन दबानी हो तो पैर दबाने से शुरू करना, ख्याल रखना, गणित ऐसा है, एकदम गर्दन दबाओगे तो किसी की दबा न पाओगे। पहले पैर दबाना। पैर दबवाने को तो कोई भी राजी हो जाएगा। फिर धीरे—धीरे ऊपर बढ़ते जाना, फिर गर्दन दबा देना।

सर्वोदय एक राजनैतिक चालबाजी है। और इसलिए जयप्रकाश नारायण प्रगट होकर रहे। जीवन दान दिया था सर्वोदय के लिए, मगर जीवन का अत हो रहा है इस देश के सबसे गर्हित राजनीतिज्ञों के बीच में।

सुंदर शब्द भी गलत लोगों के हाथ में पड़कर असुंदर हो जाते हैं। ब्राह्मण शब्द बड़ा——प्यारा है, अलौकिक है——ब्रह्म को जो जाने। बुद्ध ने भी यही परिभाषा की है——ब्रह्म को जो जाने, ब्रह्म मे जो रत हो।

ठीक कहते हैं भीखा—

ब्राह्मन कहिये ब्रह्म रत, है ताका बड़ भाग।

लेकिन ब्रह्म में कौन रत हो सकता है? किसकी सामर्थ्य है ब्राह्मण में रत होने की? किसकी सामर्थ्य है ब्राह्मण होने की? उसकी ही सामर्थ्य है जो शून्य— समाधि को जन्मा ले क्योंकि पूर्ण केवल शून्य में उतरता है, और कोई न उपाय कभी था, न है, न होगा। मिटने को जो राजी हो, जीते—जी मर जाने को जो राजी हो, जीते—जी जो कफन ओढ़ ले। तुम देखते हो न इस देश में मुर्दे को कफन ओढाते हैं तो लाल रंग का कफन ओढाते हैं, इसलिए संन्यासी का वस्त्र लाल चुना है, वह कफन है। संन्यासी के लाल वस्त्रों के पीछे बहुत अर्थ हैं, उसमें एक अर्थ कफन का भी है। संन्यासी का अर्थ है जिसने कहा कि यह जिंदगी समाप्त, हो गया बहुत देख लिया बहुत।

जब तक किसी की

मांग में सिंदूर

कर में चूड़ियां

झनझन सुनाती

राग जीवन का।

हमारे द्वार पर आकर न करना

बात मरने की

न भूले भी

कभी लेना खुदा का नाम यदि हो गंध जलने की चिता पर,

हो भले ही सत्य।

लोग तो ऐसै चलते हैं कि अभी बात हीमत करो मृत्यु की। होगा सत्य, चिता पर जब जलेंगे तब देख लेंगे, अभी तो जिंदगी में राग—रंग है, अभी तो चूड़ियां बजती हैं, अभी तो सिंदूर भरा है, अभी तो सगाई हुई, अभी तो ताजा—ताजा सब है।….. जब तक किसी की

मांग में सिंदूर

कर में चूड़ियां

झनझन सुनाती

राग जीवन का।

हमारे द्वार पर आकर

न करना

बात मरने की

न भूले भी

कभी खुदा का लेना नाम

यदि हो गंध जलने की

चिता पर,

हो भले ही सत्य।

इसीलिए तो इस देश में लोगों ने तरकीब खोज ली है। जब आदमी मर जाता है तो उसकी अर्थी के साथ वे कहते हैं: ‘राम नाम सत्य है ‘। जिंदगीभर राम नाम असत्य था, अब ये मुर्दे के आसपास कह रहे हैं राम नाम सत्य है। और यह मुर्दे के लिए कह रहे हैं, अपने लिए नहीं, ख्याल रखना। अगर इनसे तुम पूछो किसके लिए? तो कहेंगे मुर्दे के लिए। अब जो मर ही गये, जो उठकर कह ही नहीं सकते कि भई ठहरो, अभी राम नाम न लो, अभी मुझे चूड़ियों की खनकार सुनाई पड़ती है, अभी रुको। तो ‘राम नाम सत्य है’ इसी क्षण रुक जाएगा। यह अपने लिए नहीं कह रहे हैं।

मैंने सुना है, एक आदमी मरा। स्वर्ग पहुंचा, द्वार पर दस्तक दी। पीछे से पूछा गया ‘कौन हो?’ तो उसने कहा. ”मैं आया हूं पृथ्वी से।’ फिर पूछा गया : ‘विवाहित थे?’ उसने कहा. ‘हां।’ तत्क्षण राजदूत ने द्वार खोल दिये और कहा: ‘स्वागत है, आओ, अदर आओ, क्योंकि विवाहित थे तो नर्क तो तुम देख ही चुके।’

द्वार बंद कर ही नहीं पाया था राजदूत कि फिर किसी ने दस्तक दी। पूछा ‘कौन हो?’ कहा. ‘पृथ्वी से आता हू।’’विवाहित थे” उसनें कहा ‘एक बार नहीं, दो बार।’राजदूत ने कहा ६1 तो फिर अब नरक जाओ, मूर्खो के लिए यहां कोई जगह नहीं।’

एक बार भूल करना समझ में आता है, क्षम्य है, मगर दो बार! और तुमने कितनी बार की? हजारों बार, भूलों ही भूलों से भरी हुई जिंदगी है। और सबसे बड़ी भूल, सबसे बुनियादी भूल, जिसमें और सारी भूलों के पत्ते और शाखाएं लगती हैं, वह अहंकार है।

दो शब्द याद रखो, एक को मैं कहता हू : ‘अहंचर्य ‘—— अहंकार की चर्या; और दूसरे को कहता हूं. ‘ब्रह्मचर्य’—— ब्रह्म की चर्या। बस दो ही तरह के लोग हैं दुनिया में। जो अहंचर्य से जी रहा है, वह शूद्र, जो ब्रह्मचर्या से जी रहा है, वह ब्राह्मण। जो ब्राह्मण की तरफ थोड़ा—थोड़ा झुका है वह क्षत्रिय, जो शूद्र की तरफ थोड़ा—थोड़ा झुका है, वह वैश्य। वे बीच की सीढ़ियां हैं। जिसमें साहस है ब्राह्मण होने का लेकिन अभी कदम उठाया नहीं—वह क्षत्रिय। जिसके भीतर शूद्र से ऊपर उठने की आकांक्षा है मगर अभी साहस नहीं किया——वह वैश्य।

लेकिन मौलिक रूप से दो ही जातियां हैं शूद्र की और ब्राह्मण की। अहंचर्य शूद्र का लक्षण है, ब्रह्मचर्य ब्राह्मण का। लेकिन ब्रह्मचर्य से मेरा वह छोटा—मोटा अर्थ नहीं जो तुम समझते हो कि किसी ने बच्चे पैदा न किये या किसी ने विवाह न किया तो ब्रह्मचर्य हो गया। यह तो ब्रह्मचर्य जैसे विराट शब्द को ऐसा क्षुद्र अर्थ दे देना है जिसकी कोई सीमा नहीं। ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म जैसी चर्या। विवाहित व्यक्ति भी ब्रह्मचर्य को उपलब्‍ध हो सकता है, और अविवाहित भी हो सकता है न उपलब्ध हो। क्योंकि ब्रह्म जैसी चर्या का कोई लेना—देना विवाह या गैर—विवाह से नहीं है; वह तो अंतस—भाव है।

कृष्ण ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हैं वैसे ही जैसे बुद्ध, रंचमाव भेद नहीं। कृष्ण संसार के बीच रहकर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हैं, स्त्रियों के बीच रहकर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हैं; बुद्ध छोड्कर उपक्तध हैं। अगर दोनों में चनना ही हो तो मैं कहूंगा कृष्ण को चुनना क्योंकि संसार को कितने लोग छोड्कर भाग सकते हैं। और अगर सारे लोग भाग जाएंगे तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी। बुद्ध भी जी सके इसलिए कि बाकी लोग नहीं भाग गये थे, इसे भूल मत जाना। बाकी लोग घरों में थे, रोटी पका रहे थे, भोजन बना रहे थे, तो बुद्ध को भिक्षा भी मिल जाती थी। जरा सोचो कि बुद्ध की मानकर सभी लोगों ने कहा होता. अच्छा महाराज, अब हम भी भिक्षु हुए जाते हैं। तो भिक्षा कौन देता? तो शायद बुद्ध को फिर से दुकान खोलनी पड़ती। तो शायद महावीर को फिर सोचना पड़ता अब क्या करना? लौटना पड़ता घर। बुद्ध जी सकते हैं क्योंकि पूरा समाज संन्यासी नहीं है, घर छोड्कर नहीं भाग गया है।

तो बुद्ध का जीवन तो समाज—निर्भर है। एक पूरा समाज चाहिए बौद्ध भिक्षु को सम्हालने के लिए, जैन मुनि को सम्हालने के लिए। इसलिए स्वतंत्रता पूरी नहीं है, इसमें थोड़ी कमी है। इसलिए हम बुद्ध को पूर्ण अवतार नहीं कहते हैं, कृष्ण को पूर्ण अवतार कहते हैं। कारण? कारण साफ है। कृष्ण ठीक संसार के बीच रहकर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होते हैं। यह ज्यादा गहराई, ज्यादा ऊंचाई, ज्यादा गहनता की खोज है। और जीवन के ज्यादा अनुकूल, और परमात्मा की व्यवस्था के ज्यादा करीब है। क्योंकि परमात्मा सर्जक है जीवन का। छोड़ने के लिए जीवन बनाया नहीं गया। जीवन जागने के लिए बनाया गया है, भागने के लिए नहीं।

ब्राह्मन कहिये ब्रह्म—रत, है ताका बड़ भाग।

नाहिन पसु अज्ञानता, गर डारे तिन ताग।।

उनको ब्राह्मण नहीं कहते भीखा——जो पशुवत हैं, जिनके जीवन में सारी पशुता भरी है, जिनके जीवन में दिव्यता की कोई किरण नहीं, दिव्यता तो दूर मनुष्यता की भी कोई आभा नहीं, सिर्फ गले में तीन धागे बांध लिए हैं——गर डारे तिन ताग!

जनेऊ पहन लिया बाह्मण हो गये! गले में तीन धागे डाल लिए और ब्राह्मण हो गये! इतना सस्ता ब्राह्मण होना! यद्यपि गले में जो तीन तागे डाले उनकी भी अपनी अर्थवत्ता है। जिन्होंने पहली दफा खोजे थे उन्होंने तो कुछ सोचकर खोजे थे। वे तीन गुणों के प्रतीक हैं——तामस, राजस, सत्व। और इन तीनों का ऐसा संतुलन होना चाहिए, ये तीनों मिलकर एक हो जाने चाहिए, तो चौथी अवस्था पैदा होती है——गुणातीत।

उस गुणातीत अवस्था का नाम ही ब्रह्मचर्य है। उस गुणातीत अवस्था को जान लेना ही ब्रह्म—भाव है।

जिसके जीवन में केवल तामस है, केवल अंधकार——वह शूद्र। जिसके जीवन में ऊर्जा है, कुछ कर गुजरने की उमंग है, संकल्प है, संघर्ष का बल है—वह क्षत्रिय। दोनों के बीच में वैश्य। जो कुछ कर गुजरने से ऊब गया, जो संकल्प से थक गया, जो संघर्ष की व्यर्थता को जान लिया है, जिसे लगता है कि मेरे किये कुछ भी न होगा, यहां तो जो होता है परमात्मा के किये होता है, उसके प्रसाद से होता है—उसके जीवन में सत्व, वह साधु है, वह संन्यासी है।

और जिन्होंने ये तीनों बातें एक समायोजन मैं बांध लीं, जिनके भीतर ये तीनों स्वर एक संगीत बन गये, जिनके भीतर इन तीनों में कोई विरोध नहीं रहा, क्योंकि तीनों की जरूरत है, जब क्रोध उठे तो आलस्य अच्छा, जब करुणा उठे तो राजस अच्छा। इनमें बुरा कुछ भी नहीं है, बुरा तो संदर्भ से होता है। अब क्रोधी आदमी अगर आलसी हो, तामसी हो, तो क्रोध नहीं करेगा, कौन झंझट में पड़े ‘ तुम गाली भी दे दोगे तो वह कहेगा ठीक है, जाओ।

तुमने कहानी तो सुनी न दो तामसियों की, एक झाडू के नीचे लेटे हैं। जामुन का झाडू है, जामुन पक गये हैं और गिर रहे हैं। आखिर एक ने दूसरे से कहा भई, यह कैसी दोस्ती! आधा घंटे से पड़ा राह देख रहा हू, जामुन भी गिर रहे हैं, मैं भी हूं, तुम भी होँ, तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि एक जामुन उठाकर मेरे मुंह में डाल दो!

उस आदमी ने कहा. जा रे जा, देख ली दोस्ती, अभी एक कुत्ता मेरे कान मेँ मृत रहा था तो तूने भगाया भी नहीं!

एक तीसरा आदमी राह से गुजर रहा था, उसने यह बात सुनी, बहु बड़ा चकित हुआ। उसने आलसी बहुत देखे थे, तामसी बहुत देखे थे, मगर ये तो महापुरुष, ये तो महात्मा समझो तमस के। दया आयी बड़ी, दोनों के मुंह में उठाकर एक—एक जामुन उसने डाल दिये। और जैसे ही चलने को हुआ दोनों ने कहा : अरे रुक भाई, जाता कहां है, गुठली कौन निकालेगा?

अब ऐसा आदमी क्रोध नहीं कर सकता, हिंसा नहीं कर सकता, पक्का समझो। ऐसा आदमी कोई उपद्रव नहीं कर सकता। उपद्रव के खिलाफ उसकी पूरी जीवनचर्या है। उससे अच्छा भी नहीं होगा, उससे बुरा भी नहीं होगा। परम जीवन में यही आलस्य की क्षमता दुर्गुणों के विपरीत बचाव बन जाती hऐ।

फिर ऊर्जा से भरा हुआ व्यक्ति है, राजस से भरा हुआ व्यक्ति है, क्षत्रिय है, वह छोटी—मोटी बात में तलवार निकाल लेता है। जरा. कुछ हो जाए कि मूंछ पर ताव मारने लगता है। वह उपद्रव करने में बड़ा कुशल है। सारा इतिहास उसके उपद्रवों से भरा है। क्षत्रियों को हटा दो दुनिया से, इतिहास एकदम नब्बे प्रतिशत समाप्त हो जाए। बच्चों की झंझट मिट जाए, उनको पढ़ना न पढे इतना उपद्रव।

चीन का एक सम्राट एक झेन फकीर से मिलने गया था। सम्राट की अकड़, क्षत्रिय की अकड़! और जापान में भी क्षत्रिय की अकड़ वैसी ही है जैसी भारत में, भारत से भी ज्यादा। वहा क्षत्रिय का नाम है समुराई। जैसा निखार जापान में हुआ है समुराई का। वैसा भारत में भी नहीं हुआ। बड़े—बड़े राजपूत भी समुराई के सामने फीके पड़ जाए। क्योंकि समुराई ने सदियों—सदियों में जैसी धार धरी है अपनी तलवार पर, वैसी किसी ने दुनिया में नहीं धरी।

वह सम्राट तो समुराई था, फकीर का दर्शन करने गया था। फकीर से कहा कि एक प्रश्न पूछना है जो मेरे मन में सदा उठता है, कोई और जबाब दे नहीं सका। लोग कहते हैं तुम दें सकते हो इसलिए आया हूं। सवाल है मेरा——स्वर्ग क्या, नर्क क्या?

फकीर खिलखिला कर हंसा और उसने कहा ‘जरा अपनी शक्ल भी आईने में देखी थी? शिष्य पास थे उनसे कहा देखो यह शक्ल इनकी——और प्रश्न! शक्ल तो ऐसी है कि मक्खियां भी भिनभिनाने में संकोच करें।

सम्राट तो एकदम आगबबूला हो गया, यह क्या बात हो रही है!

मुंह धोकर आ——उस फकीर ने कहा——चार—छ दिन पहले दाल—भात खाया होगा, वह भी लगा है।

इतना सुनना था कि उस सम्राट ने तो अपनी तलवार निकाल ली, उठाकर बस गर्दन काटने को था, तभी फकीर ने कहा. रुक, यह नर्क का द्वार खुल रहा है। एक झटके से बात समझ में आयी। तलवार वापिस म्यान में गयी। जैसे ही तलवार वापिस म्यान में गयी। और सम्राट के चेहरे पर करुणा का और समझ का भाव दिखाई पड़ा, फकीर ने कहा. यह स्वर्ग का द्वार है। यह तेरा उत्तर है।

जहां करुणा है, वहां स्वर्ग है; जहां क्रोध है, वही नर्क है। जो क्रोध कर सकता है, वह करुणा भी कर सकता है। इसलिए परम समन्वय में शूद्र का तामस दुर्गुण से बचाव बन जाता है और क्षत्रिय का राजस सद्गुण का संकल्प बन जाता

और सत्व है साधुता, सरलता, निर्दोषता——जैसे छोटा बच्चा भोला—भाला, जिसके कागज पर कुछ लिखा नहीं गया। ध्यान से सत्व मिलता है। जब इन तीनों का जोड़ हो जाता है, जब ये तीनों समान अनुपात में होते है, जब इन तीनों का आर्केस्ट्रा पैदा होता है; जब बांसुरी भी बजती है, सितार भी बजता है, और तबले पर थाप भी पड़ती है, और तीनों में तालमेल होता है, और तीनों में एक ही स्वर

संयोजन होता है, जब तीनों की त्रिवेणी बन जाती है, तो तीर्थ निर्मित होता है, तो प्रयागराज निर्मित होता है। इसमें दो तो दिखाई पड़ते हैं, गंगा और यमुना सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए तामस और राजस तो दिखाई पड़ते हैं, सत्व दिखाई नहीं पड़ता, सत्व अदृश्य है, सरस्वती है।

इन तीनों का प्रतीक है जनेऊ, वह त्रिगुणों का प्रतीक तै। मगर प्रतीकों का क्या करोगे टे लोग तो तीन धागे लपेटकर अपने गले में बैठ गये और समझे कि ब्राह्मण हो गये। इतना सस्ता अगर ब्राह्मणत्व मिलता होता तो कठिनाई ही क्या थी, सभी को जनेऊ पहना देते, सभी ब्राह्मण हो जाते।

नाहिंन पसु अज्ञानता….. पशु जैसा अज्ञान है। यह जरा सोचने जैसी बात है। ब्राह्मणों को कहना पशु जैसा अज्ञानी, जरा सोचने जैसी बात है क्योंकि ब्राह्मण पंडित रहे हैं सदियों से, कहना चाहिए ज्ञानी रहे हैं। लेकिन उनका ज्ञान थोथा है, शब्दिक है, शास्त्रीय है, अनुभवगत नहीं, अस्तित्वगत नहीं आत्मिक नहीं। उनका ध्यान तो जगा ही नहीं है तो ज्ञान झूठा होगा। ध्यान कै जगने पर सच्चे ज्ञान की आभा आती है। ध्यान का दीया जले तो ज्ञान का प्रकाश फैलता है। तो जानकारी ही जानकारी है। जानकारी मात्र ज्ञान नहीं है, अज्ञान को छिपा ले भला, मगर ज्ञान इससे उपलब्ध नहीं होता।

इसलिए भीखा कहते हैं. नाहिन पसु अज्ञानता पशुओं जैसा अज्ञान है और तीन धागे गले में लटका लिए और हो गये ब्राह्मण! नहीं, इतना आसान नहीं। ब्राह्मण होना इस जगत की सबसे बड़ी सम्पदा है। ब्राह्मण होना बुद्धों का लक्षण है। बुद्ध ब्राह्मण हैं, महावीर ब्राह्मण हैं, जीसस ब्राह्मण हैं, जरथुस्त्र ब्राह्मण हैं, हालांकि जरथुस्त्र ने ब्राह्मण शब्द शायद सुना ही न हो। शायद जीसस को ब्राह्मण शब्द का कुछ पता ही न हो। इससे क्या फर्क पड़ता है। मगर ब्राह्मण का जो गुण है——स्वानुभव, साक्षात्कार, साक्षीभाव, त्रिगुणातीत——वह उनमें है।

जहां कहीं कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए जो ब्राह्मण है——ब्राह्मण कहिये ब्रह्म— रत——फिर पकड़ लेना उसके चरण। मिल गया तीर्थ, अब डूबना उसमें, डुबकी लेना उसमें।

संत—चरन में लगि रहै, सो जन पावै भेव।

भीखा गुरु—परताप तें, काढेव कपट—जनेव।।

ऐसे चरण कहीं मिल जाएँ तो छोड़ना मत। लाख मन समझाये छोड़ देने को, लाख मन तर्क दे…… क्योंकि मन बड़ा कपटी है, बड़ा चालबाज है, और ऐसी जगह से हटाएगा जहां उसकी मौत होनी निश्चित….. है। मन सद्गुरुओं के खिलाफ बहुत तरह की बातें पैदा करेगा। कारण है——मन अपनी रक्षा करेगा। समझी जा सकती है बात। क्योंकि सद्गुरु के चरण में या तो मन बचेगा या ब्रह्म, दोनों साथ नहीं हो सकते।

जब तुम अंधेरे कमरे में दीया जलाओगे, अगर अंधेरे के पास भी बोलने के लिए शब्द होते तो कहता कि रुको, दीया मत जलाओ, दीये के बड़े खतरे हैं। हजार दीये के खिलाफ दलीलें देता अंधेरा अगर बोल सकता। कहता कि देखो अंधेरे में कैसी शांति है, दीये में सब शांति चली जाएगी। और देखो अंधेरे में तुम्हें कोई देख नहीं सकता, तुम कितने सुरक्षित हो, दीया जल जाएगा, असुरक्षित हो जाओगे।

मैं एक घर में मेहमान था। पुराने ढब का घर था, तो घर के बाद बड़ा आंगन था, आंगन के बाद फिर स्नानगृह, संडास इत्यादि थे। घर का एक बेटा बड़ा डरपोक। उसको रात अगर पाखाना जाना हो तो मां को साथ जाना पड़े। तो उसकी मां ने मुझे कहा कि अब इसकी उम्र भी काफी हो गयी, यह बारह साल का हो गया, छोटा था तब ठीक था। अब भी मुझे दरवाजे पर खड़ा रहना पड़ता है जाकर संडास के, अगर रात को इसको जाना हो। यह भूत—प्रेत से बहुत डरता है। आप इसे समझाएं कि भूत—प्रेत हैं ही नही।

मैंने उस बच्चे को कहा कि तू एक काम कर, अगर तुझे भूत—प्रेत से डर लगता है तो लालटेन ले गये, यह मां को क्यों सताता है ‘

उसने कहा : रहने दीजिए। अंधेरे में तो किसी तरह मै अपने को बचा भी लेता हूं, लालटेन में तो वे मुझे देख ही लेंगे।

मुझे उसकी बात भी जंची। बात तो उसने पते की कही कि अंधेरे में तो किसी तरह हम बचकर यहां—वहां से कि वह उधर खड़ा है, इधर से निकल गये। आप और एक उपद्रव दे रहे हैं——लालटेन! फिर तो वे घेर ही लेंगे, फिर तो बचकर निकलने की भी संभावना न रह जाएगी।

अगर अंधेरा बोल सकता और तुम दीया जलाते तो अंधेरा भी कहता कि अभी तो किसी तरह बचे हो, सुरक्षित हो, दीया जला लिया, हजार झंझटें आएंगी; झझटें को दिखाई पड़ने लगोगे। चोर—बदमाश देख लेंगे कि अरे, घर मे ही बैठे हो। हत्यारे चले आएंगे। अभी अंधेरे में सुरक्षित हो——न कोई देख सकता है.। दृश्य ही नहीं हो, अदृश्य हो। और फिर दीये का भरोसा क्या, तेल चुक जाएगा, बुझ जाएगा, फिर क्या करोगे? मै सदा साथी है। दीये आते हैं, जाते है; अंधेरा सदा है। न मुझे जलाना पड़ता, न बुझाना पड़ता। और तुम देख ही रहे हो, घासलेट का तेल मिलना मुश्किल होता जाता है, दाम बढ़ते जाते। दीया मुफ्त है अंधेरे का, उजाले के दीये में तो पैसे लगते हैं।

अंधेरा भी समझाता, हजार दलीलें निकालता और शायद तुम राजी होते अंधेरे से। अंधेरा कहता देखो मुझमें ही तुम्हें विश्राम मिलता है। रात कुछ रोशनी हो, सो नहीं सकते; रोशनी न हो, सो सकते हो। मैं विश्राम हूं। और विश्राम को ही तो शास्त्रों ने राम कहा है। परम विश्राम को ही समाधि कहा है। तर्क खोजता, शास्त्र के उल्लेख भी करता। कहावत है कि शैतान भी शास्त्र के उल्लेख कर सकता है, तो अंधेरा. भी करता।

मगर अंधेरा बोल नहीं सकता है। पर मन तो बोल सकता है, बक्काड़ है, बोल ही नहीं सकता बड़ा बकवासी है। चु_प नहीं रहता, बोलता ही रहता है। तुम चाहे लाख कहो कि भई चुप रहो, थोड़ी देर तो मुझे शांति लेने दो। वह कहता है कि तुम शांति लो, मैं बोलता रहूंगा। मै अपना अभ्यास जारी रखुंगा। मैं ऐसे चुप होने वाला नहीं हूं। क्यों चुप हो जाऊं? चुप्पी मैं सार क्या है? मन तो अपनी बकवास जारी रखेगा। जब तुम सद्गुरु के चरणों में पहुंचोगे तो सबसे बड़ी सावधान होने की बात है——अपने ही मन से सावधान रहना। चूंकि तुम उस मन से सावधान नहीं रह पाते, इसलिए पंडित—पुरोहित तुम्हें जकड़ लेते हैं, वे मन के प्रतीक हैं बाहर के जगत में। तुम्हारे मन को वे समझा लेते हैं, मन को पकड़ लेते हैं, तुम जकड़ जाते

आधी रात ठगों का डेरा

सावधान रे सावधान!

चूके जरा ठगे जाओगे

फिर धुनकर सिर पछताओगे

काम न दे पायेगा ज्ञान।

बकुल पंख कुल ये मृदु भाषी

दर्शन में हैं परम उदासी

गांठ लगाकर बन जाते हुऐ

नाना जन्मों के विश्वासी

हर लेते अनजाने प्राण।

डसते हैं तो लहर न आती

युग मंगल के अधमविघाती

बिना जाति सूत्रबद्ध ये

सुबह बराती रात घराती

भक्षक दया धर्म ईमान

आओ इनसे लोहा ले लें

मिलकर इनको छलनी कर दें

बटमारों से राह साफ कर

ताप दुखी जीवन का हर लें

मिले धरा को जीवन वाण।

सोचो मत, रुकना घातक है

मद पी कर अंधा पातक है

चलो करो तत्क्षण अभियान

आधी रात ठगों का डेरा

सावधान रे सावधान।

एक तो मन से सावधान होना, तो तुम पंडित से बच सकोगे। क्योंकि जो मन भीतर है, पंडित वही बाहर है। पंडित मन का ही प्रगट रूप है। और मन पंडित का अप्रगट रूप है, वे दोनों जुड़े हैं। इसलिए पंडित की मन पर बड़ी छाप पड़ती है, मन बड़ा प्रभावित होता है।

सद्गुरु मिले तो पंडित से भी छुडाए, मन से भी छुडाए। मगर तुम्हें तैयारी तो रखनी ही पड़े छोड़ने की; तुम्हारे सहयोग के बिना तो कुछ भी न होगा।

संत—चरन में लगि रहै जब मिल जाए कोई चरण ऐसा तो लगी रहे, फिर तो पकड़ ही ले, फिर छोड़े ही न। फिर लाख मन चिल्लाये, लाख मन समझाये, छोड़े ही न।

सो जन पावै भेव…… बस ऐसे ही व्यक्ति को जीवन का भेद और रहस्य पता चल पाता है।

न जी सकता न मर सकता

तड़फता ही रहूंगा क्या?

पपीहे की रटन भी तो

लहर कर बन्द हो जाती

बरस पड़ते दरक कर हैं

गगन से प्रेम के स्वाती।

निशा भर दीप जलने पर

किरण का फूल खिल जाता,

सुना जो साधना करते

उन्हें भगवान मिल जाता

मगर मैं तो तरसता ही

विकल बहता रहूंगा क्या?

न जी सकता न मर सकता

तड़फता ही रहूंगा क्या?

सब तुम्हारे ऊपर निर्भर है। स्वयं को पकड़े बैठे रहे तो तड़फते ही रहोगे भटकते ही रहोगे। फिर रात का कोई अंत नहीं। फिर सुबह नहीं होगी। लेकिन अगर कहीं कोई चरण पा लो जहां प्रेम उमगे, जहां श्रद्धा जन्मे, तो साहस करना, दुस्साहस करना, जोखम उठा लेना। झुक जाना, क्योंकि उसीझुक जाने में जीत है। मिट जाना, क्योंकि उसी मिट जाने में होना छिपा है। गुरु—परताप साध की संगति!

भीखा गुरु—परताप तें काढेव कपट—जनेव।।

अगर पकड़े रहे चरण तो गुरु धीरे—धीरे तुम्हारे कपटी मन को, तुम्हारे चालाक मन को काट देगा। आहिस्ता—आहिस्ता, पता भी नहीं चलेगा, धीरे—धीरे छेनी— हथौड़ी लेकर तुम्हारे मन को गढ़ देगा। तुम्हारे भीतर अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बना देगा परमात्मा की।

संत—चरन में जाइकै, सीस चढ़ायो रेनु।

भीखा रेनु के लागते, गगन बजायो बेनु।।

भीखा अपने अनुभव की कहते हैं कि जब मैं अपने गुरु के चरणों में गया— संत—चरन में जाइकै, सीस चढायो रेनु——तो पैर छूने का तो मेरा अधिकार न था। सुनते हो? भीखा कहता है, पैर छूने का तो मेरा अधिकार न था, मैंने तो पैरों के नीचे पड़ी हुई जो धूल थी उसे सिर पर चढ़ाया। उतना ही बहुत था लेकिन, उतना ही काफी था।

भीखा रेनु के लागते, गगन बजायो बेनु….. और जैसे ही मेरे सिर पर वह धूल लगी, आकाश में दुदुम्भी बजी, आकाश में संगीतछिड़ गया अनाहत का, ओंकार बज उठा, परमात्मा को पहली दफा सुना, उसका निनाद सुना।

—भीखा रेनु के लागते, गगन बजायो बेनु… उसकी वीणा बजी, उसकी बांसुरी बजी, अनाहत की, आकाश की, बरखा हो गयी संगीत की।

सावन के दिन फिर आये हैं झूला डालो रे।

धानी चुनरी पहने धरती

करती नव शृंगार

पगली बदली लुटा रही है

मोती धुआधार

पायल बांध जोहते मोर उन्हें नचा लो रे।

संग की सखी सहेली पागल

गाने वाली हैं

और यहां राधा रस भींगी

मद मतवाली हैं

छिप छिप श्याम बजाते मुरली कजरी गा लो रे।

उठो दमक कर बिजली दमके

बिछुआ झन झन झन

मरने दो मरने वालों को

झरने दो रस कण

फिर न मिलेगा अबस अहेरी उठो छका लो रे।

सावन के दिन फिर आये हैं झूला डालो रे।

काश झुक सको तो सावन आ जाए, घिर आयें सावन की बदलियां, मोर नाच उठें, कोयल गाये, पपीहे पुकारें……! सावन के दिन फिर आये हैं, झूला डालो रे! ….फिर जीवन एक उत्सव है, एक उत्साह है, एक उमंग है। फिर जीवन ऐसा नहीं है जैसा तुमने अब तक जाना——कुली की तरह बोझ ढो रहे हो, बोझ भी अपना नहीं दूसरों का।

धानी चुनरी पहने धरती

करती नव शृंगार

पगली बदली लुटा रही है

मोती धुआंधार

पायल बांध जोहते मोर उन्हें नचा लो रे।

एक बार तुम सुन लो वेणु आकाश की, एक बार तुम सुन लो अनाहत का नाद, एक बार बस, एक बार तुम्हारे कान में एक स्वर भी समाविष्ट हो जाए—— फिर तुम वही न रह सकोगे, जो तुम थे। गया पुराना, आया नया। नयी खुली आख, नये मिले प्राण, नया मिला जीवन, हुए तुम द्विज! और द्विज जो हो जाए वही ब्राह्मण है।

सग की सखी सहेली पागल

गाने वाली हैं

और यहां राधा रस भींगी

मद मतवाली हैं

छिप छिप श्याम बजाते मुरली कजरी गा लो रे।

श्याम की बांसुरी तो बज ही रही है। कभी रुक सकती ही नहीं, अहर्निश बज रही है। आज भी बज रही है, उतनी ही जितनी पहले बजती थी, जरा भी भेद नहीं है। वह शाश्वत नाद है, सिर्फ हम बहरे हैं। और हम बहरे हैं, अपने अहंकार से हमने कानों को बंद कर रखा है। हम अंधे हैं, हमने अहंकार की पट्टियां अपनी आंखों पर बांध रखी हैं। हमारा हृदय अनुभव नहीं करता, भाव—रस नहीं उठता। छाती पर पत्थर बांध लिए हैं अहंकार के। बनो राधा, नाचो, गाओ, गुनगुनाओ! छिप छिप श्याम बजाते मुरली कजरी गा लो रे।

उठो दमक कर बिजली दमके

बिछुआ झन झन झन

मरने दो मरने वालों को

झरने दो रसकण

फिर न मिलेगा अबस अहेरी उठो छका लो रे।

और जब कोई सद्गुरु मिल जाए तो चूकना मत, क्योंकि पता नहीं फिर कब, किन जन्मों में, कितने जन्मों में, मिले न मिले… फिर न मिलेगा अबस अहेरी उठो छका लो रे!

और जब सद्गुरु तीर साधे तुम्हारे हृदय पर, खोल देना अपनी छाती। मरने की तैयारी दिखाना। मरने की तैयारी जो दिखाये वही शिष्य है। मरने की तैयारी जो दिखाये उसी का नव जन्म होता है।

बेनु बजायो मगन है, छुटी खलक की आस।

और जब से यह बीन सुनी है, जब से यह अनाहत का नाद सुना——छुटी खलक की आस——तब से दुनिया में अब कोई आकांक्षा नण्प्रीं, कोई वासना नहीं। सुनो, समझो, तुम्हें अब तक यही समझाया गया है—पहले संसार छोड़ो, फिर अनाहत का नाद सुनाई पड़ेगा। लेकिन भीखा कुछ और कह रहे हैं, वही कह रहे जो मैं तुमसे रोज कहता हूं——बेनु बजायों मगन है, छुटी खलक की आस। जब बांसुरी बजने लगी तब संसार की आशा छूटी, तब संसार से वासना छूटी।

अंधेरा पहले नहीं हटता। कोई कहे कि अंधेरा हट जाए फिर दीया जलाएंगे, दीया कभी नहीं जलेगा। दीया जलता है तो अंधेरा हटता है। त्याग से ध्यान नहीं मिलता, ध्यान से त्याग फलता है।

इसलिए मैं अपने संन्यासियों को नहीं कहता कुछ छोड़ो। मैं तो कहता हूं पाओ। छोड़ना क्या? छोड़ने की भाषा क्या? छोड़ने की भाषा भिखमंगे की भाषा है। सम्राटों की भाषा सीखो। पाओ! संसार छोड़ना नहीं, परमात्मा को पाना है। एक विधायक अभियान, नकारात्मक नहीं। यह छोड़ो, वह छोड़ो। कैसे छोटे— छोटे छोड़ने में लोग लगे हैं और सोचते हैं इस छोड़ने से परमात्मा मिलेगा। एक सज्जन ने नमक छोड़ दिया खाना, वे सोचते हैं परमात्मा मिलेगा। छोड़ा क्या तुमने नमक खाना छोड़ा, मिलेगा परमात्मा, ब्रह्मज्ञान हो जाएगा नमक खाना छोड़ने से! थोड़ी देह को तकलीफ होगी जरूर क्योंकि देह को नमक की जरूरत है। नमक के बिना तुम थोड़े सुस्त हो जाओगे, थोड़े निढाल हो जाओगे, ऊर्जा क्षीण हो जाएगी, मगर परमात्मा कैसे मिल जाएगा?

किसी ने नमक छोड़ दिया है, किसी ने घी छोड़ दिया है। कोई एक दिन उपवास करता है, एक दिन भोजन लेता है। ये देह के जो तुम आयोजन कर रहे हो इनसे परमात्मा के मिलने का क्या सबंध? जैन मुनि एक ही बार भोजन लेते हैं। उन्हें पता होना चाहिए अफ्रीका में एक जाति है, पूरा का पूरा कबीला एक ही बार भोजन लेता है, सदियों से। तुम चौंकोगे कि क्यों एक ही बार भोजन लेता है क्योंकि तुम्हें दो बार भोजन लेने की आदत पड़ी है। सिर्फ आदत की बात है। अमरीका में लोग पांच बार भोजन लेते हैं दिन में, वे हैरान होते हैं कि तुम दो ही बार में कैसे निपटा लेते हो

जो पांच बार लेता होगा उसको हैरानी होगी ही कि दो बार लेने वाले लोग महात्यागी। और जो एक ही बार में निपटा लेता है और भी हैरानी होगी कि वह तो महात्यागी। अभ्यास की बात है। शरीर इतना ले लेता है एक ही बार में कि चौबीस घंटे काम चल जाए।

इससे कुछ परमात्मा के मिलने का संबंध नहीं, नहीं तो उस कबीले के सारे लोग परमात्मा को उपलब्ध हो जाएं, सब ब्रह्मज्ञानी हो जाएं। कोई रात पानी नहीं पीता इससे थोड़ी तकलीफ तुम्हें होगी ठीक, लेकिन इससे परमात्मा के मिलने का क्या संबंध है। परमात्मा को तुमने कोई दुष्ट समझा है कि तुम अपने को सताओ तो वह प्रसन्न हो? यह तो बड़ी उलटी—सी बात है कि एक बच्चा अपने को सताये तो मां का प्रेम उस पर बढ़े! मां तो उलटी पिटाई कर देगी उसकी कि यह क्या नासमझी है, कि नमक छोड़ दिया, इससे मेरा प्रेम कैसे मिलेगा? कि एक दफे खाना नहीं खाऊंगा।

अगर परमात्मा है तो तुम्हारे तथाकथित मुनि इत्यादिओं से दूर ही दूर रहेगा, इनसे बचेगा। ये रास्ते पर कहीं भूल—चूक से मिल जाएंगे तो गली में से निकल भागेगा। ये रुग्णचित्त लोग हैं। नकार हमेशा रोग लाता है। नकारात्मकता जीवन का धर्म नहीं है——विधायकता। नहीं, नहीं——हां। हां को हां कहो।

भीखा कहते हैं : बेनु बजायो मगन है…… और जब आकाश की वीणा सुन ली तो भीतर की वीणा भी बज उठी। उसके संघात में बजउठती है। जब आकाश का प्रकाश तुम पर पड़ता है, तुम्हारे भीतर की ज्योति जग उठती है। सोयी थी, आख खोल देती है।

बेनु बजायो मगन ह्वै, छुटी खलक की आस।

और तब से एक चमत्कार हुआ कि जो वासना छोड़े—छोड़े नहीं छूटती थी—— धन की, पद की, प्रतिष्ठा की——वह अचानक कहां तिरोहित हो गयी पता नहीं चलता। जैसे दीया जला और अंधेरा तिरोहित हो गया।

भीखा गुरु—परताप तें, लियो चरन में बास।।

फिर तो बस चरण नहीं छोड़े। फिर भीखा गुलाल को छोड्कर नहीं गये। फिर तो उन चरणों में ही रेणु होकर रह गये, वहीं धूल हो गये। अब कहा जाना? अब जाने को जगह कहां बची?

भीखा केवल एक है, किरतिम भयो अनंत।

और जब अनाहत जाना तो पता चला कि है तो एक, हमें अनेक दिरवाई पड़ता है क्योंकि हमारे पास सत्य को देखने वाली आख नहीं, हमारी आख कृत्रिम

एक राजमहल में कांचों ही कांचों से दीवाल बनी थी। दर्पण ही दर्पण के टुकड़ों से दीवाल बनी थी। राजा का कुत्ता एक रात भूल से भवन में बंद रह गया। तुम उसकी अड़चन समझो, वही आदमी की अड़चन है। उसने आख खोलकर चारों तरफ देखा। रात हुई, बिजली जली, जब तक बिजली न जली थी तब तक तो वह निश्चित बैठा रहा, जब बिजली जली तो उसने देखा एक कुत्ता नहीं, लाखों कुत्ते हैं चारों तरफ। छोटे—छोटे कांच, दर्पण के टुकड़े दीवालों पर लगे हैं। हर दर्पण के टुकड़े में एक कुत्ता है। कुत्ते ही कुत्ते हैं। इतने कुत्ते उस कुत्ते ने नहीं देखे थे। उसकी तो सांस बंद होने लगी। उसने कहा मारे गये। भागने की भी जगह नहीं दिखाई पड़ती। भागोगे भी कहां? चारों तरफ लाखों कुत्तों ने घेर रखा है। वही कर सकता था जो करना जानता था——भौंका, भौंका तो लाखों कुत्ते भौंके। झपटा तो लाखों कुत्ते झपटे। टूट पड़ा कुत्तों पर तो कुत्ते उस पर टुट पड़े, ऐसा उसे मालूम पड़ा। टकरा गया दीवालों से। सिर फूट गया, लहूलुहान हौ गया। रात—भर भौंकता रहा, टकराता रहा; भौंकता रहा, टकराता रहा। … सुबह उसकी लाश मिली और सारी दीवालों पर उसके खून के दाग मिले।

ऐसी आदमी की हालत है। हमारे पास सत्य को देखने वाली आख नहीं। हमने अभी अपने को ही नहीं देखा, हम और क्या देखेंगे! आत्म—दर्शन भी नहीं हुआ, हम दूसरों को देख रहे हैं! और दूसरों की आंखों में अपनी छवि देख रहे हैं। ये दूसरों की आंखें बस दर्पण हैं। चारों तरफ हजारों लोग हैं, हजारों चलते— फिरते दर्पण हैं, घूमते हुए आईने हैं। और उन सब आईनो में तुम अपने को देख रहे हो। वे तुम्हारी आंखों में देखते हैं, तुम उनकी आंखों में देखते हो! कोई कह देता है बड़े प्यारे, तो चित्त खिल जाता है, और कोई कह देता है चलो हटो—हटो, आगे बढ़ो, सिर न खाओ, तो चित्त बढ़ा दुखी हो जाता है। किसी दर्पण में सुंदर दिखाई पड़ जाते हो तो मगन हो जाते हो, किसी’ दर्पण में कुरूप दिखाई पड जाते हो तो चित्त ग्लानि से भर जाता है। और इतने दर्पण हैं, और इन सब दर्पणों की अलग—अलग भाषा है——कोई कुछ, कोई कुछ, कोई कुछ——ये सब दर्पण अलग— अलग ढंग के हैं।

और इन सब दर्पणों से तुम अपना मन्तव्य इकट्ठा करते हो कि मैं कौन हूं! ये चिंदियां इकट्ठी कर लेते हो अलग—अलग लोगों से। इन मब चिन्दियों को इकट्ठा बनाकर तुमने अपनी आत्मा समझ ली है।

यह आत्मा नहीं है। ऐसे आत्मा नहीं जानी जाती। आत्मा जानने के लिए किसी दर्पण की जरूरत नहीं है। फिर दर्पण में तुम देखोगे क्या? अपने को ही देखोगे। आखिर कुरते को दर्पण में कुत्ता ही दिखाई पड़ा था न?

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन को राह से चलते वक्त एक दिन एक दर्पण पड़ा मिल गया, राह के किनारे। दर्पण उसने कभी देखा नहीं था। उठाकर देखा, बहुत चौंका, सोचा कि बिलकुल पिताजी जैसी तस्वीर मालूम होती है। पिताजी तो मर भी चुके, मगर आज पता चला कि बड़ी रंगीन तबियत के आदमी थे; फोटो उतरवायी! सोचा भी नहीं था कभी कि पिता और ऐसी रंगीन तबियत के आदमी थें, पांच दफा नमाज पड़ते थे। हद हो गयी। जल्दी से खीसे में छिपा ली कि अब किसी को पता चलना ठीक नहीं। बड़ा नाम था उनका, बड़े महात्मा थे, कोई को पता चल जाए कि तस्वीर उतरवायी थी तो और बदनामी होगी। अब मरे पर क्या बदनामी, अब तो स्वर्गीय हो चुके, जो हो गया सो हो गया। घर में चलकर छिपा दूंगा।

गया ऊपर, मचान पर चढ़ गया घर में और छिपा रहा था दर्पण।. अब पत्नियों से तुम कुछ छिपा तो सकते नहीं कि छिपा सकते हो? आज तक कोई पति नहीं छिपा पाया, कुछ भी नहीं छिपा पाया। छिपाओ कि पकड़े गये। सब पति जानते हैं कि छिपाने में कोई सार ही नहीं है; पत्नी खोज ही लेगी। देख लिया पत्नी ने कि ऊपर मचान पर चढ़ा कुछ कर रहा है। उसने कहा ठीक कर लेने दो पहले। कुछ छिपाता होगा।

जब मुल्ला उतर कर नीचे आ गया और दोपहर को भोजन इत्यादि कर के सो गया तो पत्नी ऊपर चढ़ी। खोज—खाज कर दर्पण देखा, तो देखा——अरे, इस रांड के चक्कर में पड़ा है! बुढ़ापे में इधर फोटो छिपा कर रख रहा है! उठ आये तो इसे छटी का दूध याद दिला दूंगी।

आखिर दर्पण में तुम देखोगे क्या? दर्पण में तुम्हारी ही तस्वीर दिखाई पड़ेगी और तुम्हारी तस्वीर भी सिर्फ तुम्हारे बहिरंग की तस्वीर होगी, तुम्हारे अंतरंग की तो कोई तस्वीर नहीं बनती। कोई दर्पण नहीं है, और कोई कैमरा नहीं है जो तुम्हारी आत्मा की तस्वीर ले। एक्स-रे भी वहां तक नहीं जाती। हड्डियों तक पहुंच जाती है, मगर आत्मा तक तो कोई तस्वीर लेने का उपाय नहीं है। उसे जानना है।

भीखा केवल एक है……

जिसने उसे जाना, उसनै फिर एक को जान लिया। अपने भीतर जाना, सबके भीतर जान लिया।

…..किरतिम भयो अनंत।

एकै आतम सकल घट, यह गति जानहिं संत।।

एक ही समाया है। जो मुझमें, वही तुम में। एक ही समाया है। वही परमात्मा में, वही पत्थर में। इसी सत्य को प्रगट करने के लिार सबसे पहले हमने पत्थर की मूर्तियां बनायी थीं। मगर सत्य तो खो जाते हैं, प्रतीक खो जाते हैं, गलत लोगों के हाथ में पड़कर अच्छी से अच्छी चीजें व्यर्थ हो जाती हैं। इस महा सत्य को प्रगट करने के लिए कि वही परमात्मा है, वही पत्थर भी, हमने पत्थर की प्रतिमाएं बनायी थीं। ताकि तुम्हें याद रहे, ताकि तुम्हें याद दिलायी जाती रहे कि निकृष्ट में भी श्रेष्ठ छिपा है, क्षुद्र में भी विराट छिपा है, कण-कण में भी अनंत का आवास है।

एकै आतम सकल घट, यह गति जानहिं संत।।

और जो ऐसा जान ले वह संत। संत की प्यारी परिभाषा हो गयी। जो एक को जान ले. वह संत, जो अनेक में भटका रहे, भरमाता रहे, भटकाता रहे–असंत। संत जैन नहीं हो सकता। संत हिन्दू नहीं हो सकता। संत मुसलमान नहीं हो सकता। अगर हो तो समझना कि संत नहीं। संत को कैसे विशेषण बचेंगे? एक को ही देखेगा तो कैसे विशेषण बचेंगे? मंदिर भी उसका, मस्जिद भी उसकी, गुरुद्वारा भी उसका।

मै अमृतसर में था तो अमृतसर के गुरुद्वारा के प्रधानों ने मुझे निमंत्रित किया। निमंत्रित किया तो मैं गया। जो प्रधान मुझे दिखाने ले गय अंदर अमृत- सर के स्वर्ण-मंदिर को, उन्होंने पहली ही बात दरवाजे पर कही कि एक बात आपको पहले ही बता दूं कि सिक्ख धर्म ही एक ऐसा धर्म है जहां हिंदू-मुसलमान का भेद नहीं।

मैंने कहा : अगर भेद नहीं है तो बात ही क्यों उठाते हो? अगर भेद नहीं है तो यह बात ही क्यों उठाते हो? जरूर कुछ भेद होगा। इस अभेद की चर्चा में भी भेद है। हिंदू-मुसलमान में कोई भेद नहीं तो तुमको पहचान पता चल जाती है कौन हिंदू, कौन मुसलमान?

कहने लगे यहां सबको आने देते है–हिंदू को भी, मुसलमान को भी।

मैंने कहा : जब तुम यह कहते हो कि सबको आने देते हैं, हिंदू को भी, मुसलमान को भी, तो तुम भेद रखते हो। तुम नानक को पहचाने नहीं, चूक गये। कहीं रुकावट है, कहीं रुकावट नहीं, मगर भेद तो जारी है।

वे बड़े परेशान थे मुझे भीतर ले जाकर। मैंने उनसे पूछा कि आप बहुत परेशान मालुम होते है’। सुबह-सुबह का वक्त और: सर्दी के दिन थे और उनके माथे पर पसीना, तो मैने पूछा कि मामला क्या है?

उन्हेंने कहा. अब आपसे छिपाना क्या, और बिना कहे रहा भी नहीं जाता क्योंकि फिर पीछे बहुत झंझट होगी। आप टोपी नहीं लगाये हुए हैं और बिना टोपी गुरुदारे मे जाना अपमान हो जाएगा। जल्दी से उन्होंने अपना रूमाल निकाला और कहा कि यह मैं आपके सिर पर बांध देता हूं।

मैंने उनसे कहा. अब तुम्हारा निमंत्रण मान लिया है तो चलो यह बेहूदगी भी सहृगा। और जब आ ही गया हूं तब इतनी छोटी सी बात के लिए लौटना, तुम्हें दुखी भी नहीं करूंगा। और भी बहुत लोग इकट्ठे हो गये हैं, वे भी दुखी होंगे। चलो बांध दो। मगर मैंने उनसे कहा कि तुम सोचते हो सिर पर कपड़े के बांध देने से सम्मान हौ जाएगा? मैने उनसे कहा कि मैं नंगे सिर भी जाऊं तो र्भा सम्मान है और तुम कितनी भी पगड़ियां बांधकर जाओ तो भी सम्मान नहीं।

सम्मान हार्दिक बात है, टोपी न टोपी का क्या सवाल है! और परमात्मा किसी को टोपी लगाकर भेजता भी नहीं इस दुनिया में। कम-से-कम टोपी तो लगाता ही अगर थोड़ा भी शिष्टाचार होता। न सही लंगोट, न सही चूड़ीदार पाजामा, न सही अचकन मगर कम-से-कम टोपी..!

मुल्ला नसरुद्दीन के द्वार पर एक दिन एक आदमी ने दस्तक दी; पत्नी सहित मिलने आया था। मुल्ला ने डरते-डरते जरा-सा दरवाजा खोला, पति-पत्नी दोनों चौंक गये-टोपी लगाये बिलकुल नंगा…। अब दोहरी जिज्ञासा उठी एक तो नंगा क्यों? और नंगा ही होना है तो टोपी क्यों? अब आ गये तो एकदम लौट भी न सके और मुल्ला भी कुछ. कह नहीं सका, कहना ही पड़ा कि आइए बिराजिए। बिराज तो गये, पत्नी तो बड़ी इधर-उधर देखे, पति ने पूछा कि एक सवाल उठता है कि आप नंगे क्यों हैं?

तो मुल्ला ने कहा कि नंगा इसलिए हूं कि इस समय कोई आता ही नहीं मिलने, तो गर्मी के दिन काहे के लिए कष्ट भोगना? अपनी मस्ती से नंगे बैठे हैं। अब तो पत्नी से न रहा गया। पत्नी ने कहा कि ठीक है यह जिज्ञासा का तो हल हो गया, फिर टोपी क्यों लगायी है?

तो मुल्ला ने कहा : अरे, कभी कोई भूल-चूक से आ ही जाए तो कम-से-कम टोपी तो सिर पर रहे, इज्जत हो जाएगी।

यही कहानी मैंने उनसे कही। मैंने कहा : तुम कहते हो तो ठीक है बांध दो रूमाल इज्जत हो जाएगी, मगर यह इज्जत बस दिखावा है। अगर मेरे हृदय में इज्जत है तो टोपी से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा और अगर हृदय में इज्जत नहीं है तो भी टोपी से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। मगर चलो तुम्हें कम—से—कम तुम्हें पसीना न आये तुम्हें परेशानी न हो, तुम्हें लोग पीछे हैरान न करें इसलिए बंधवाए लेता हूं। नानक के लिए नहीं बंधवा रहा हूं यह रूमाल, यह तुम्हारे लिए बंधवा ले रहा हूं यह सिर्फ तुम्हारा ध्यान रखकर। और मै ने उनसे कहा. अभी तो तुम बताते थे हिन्दू— मुसलमान में कोई फर्क नहीं है, अब टोपी और न टोपी में भी फर्क है!

संत कौन है?

एकै आतम सकल घट, यह गति जानहिं संत।।

परिचय अगर न होता तुमसे तो गीत कहां लिख पाता मैं?

पूनम का चांद बहुत सुन्दर

जग पर अमृत बरसाता है

पर ज्वार नहीं जब तक उठता

जाना किसने क्या नाता है?

आंखें यदि परछ नहीं पातीं कैसे मुक्ता चुंग पाता मैं?

परिचय का प्यार न अब पाहुन

घर में रस का नित नूतन स्वर

जिसकी पुलकन म मैं पाता

हंस हंस कर नित जीने का वर

वरदान बहुत मिल जाते पर दानी कहां कहा जाता मैं?

ये गीत मुझे उतने ही प्रिय

किरणें जितनी प्रिय शशि—रवि को

नीरव वंशी की स्वर लहरी

सुधि—बुधि दे जाती है कवि को।

पा जाता गूंगे सा मैं गुड़ सुंदर किसको कह पाता मैं।

संत को जो मिलता है वह गूंगे का गुड़ है।

आंखें यदि परछ नहीं पातीं कैसे मुक्ता चुग पाता मैं?… उसको आख मिलती है नवीन, नये लोचन, देख पाता है—क्या मुक्ता है, क्या कंकड़—पत्थर। हंसा तो मोती चुगैं! उसे दिखाई पड़ने लगते हैं कि क्या मोती हैं! वह मोती सब जगह चुन लेता है। उसे कुरान में भी मोती मिल जाएंगे और वेद में भी, उपनिषद में भी, धम्मपद में भी। इन्हीं मोतियों की तो तुमसे चर्चा कर रहा हूं रोज—रोज। मुझसे लोग पूछते हैं कि आप कितने संतों पर बोल चुके हैं, कितनों पर बोलेंगे?

मैं तो मोतियों पर बोल रहा हूं, संतों से क्या लेना—देना है! जहां—जहां मोती हैं, जहां—जहां मोती दिखाई पड़ते हैं, बोले बिना नहीं रहा जाता। मोतियों की तुम्हें खबर दे रहा हूं। कौन जाने किस घड़ी, किस शुभमुहूर्त में तुम्हारी भी आख खुल जाए और मोती पहचान में आ जाएं। भीखा का गीत चलता हो तब पहचान में आ जाएं, कबीर का गीत चलता हो तब पहचान में आ जाएं, कि मंसूर की वार्ता होती हो तब पहचान मे आ जाएं——कौन जाने किस महूर्त, किस घड़ी, किस शुभ क्षण में तुम्हारी आख रवुल जाए और मोती तुम पहचान लो। मगर एक दफा पहचान लो तो बस फिर चूकोगे नहीं, फिर भटकोगे नहीं।

एकै धागा नाम का, सब घट मनिया माल।

फेरत कोई संतजन, सतगुरु नाम गुलाल।।

एकै धागा नाम का. यह सारा अस्तित्व ऐसे है जैसे माला। माला में गुरिये तो दिखाई पड़ते हैं, धागा दिखाई नहीं पड़ता। तो गुरिये हैं हम सब, सारा अस्तित्व गुरिये जैसा है और इसके भीतर बंधा हुआ धागा है जो इस सारे अस्तित्व को एक समायोजन में लिए है, आबद्ध किये है। गुरिये बिखर नहीं जाते, माला टूट नहीं जाती। वह अदृश्य धागा ही परमात्मा है, उसे राम कहो, अल्लाह कहो——जो भी नाम देना हो दो।

एकै धागा नाम का, सब घट मनिया माल।

बाकी तो सब माणिक हैं, मनिये हैं, मोती हैं, मोतियों में ही मत उलझे रहना। मोतियों को परखो, मोतियों में गहरे उतरो और तुम एक ही धागे को पाओगे। भीखा में डुबकी मारो वही धागा। कबीर में डुबकी मारो वही धागा। नानक में डुबकी मारो वही धागा। ऐसे रोज—रोज डुबकी लगाकर तुम्हें उसी धागे को पकड़ाने की कोशिश कर रहा हू।

फेरत कोई संतजन… तुम जो मालाएं फेरते हो उनका कोई मूल्य नहीं है। तुम तो गुरियों में ही अटक जाते हो, जो धागे को पकड़ लेता है वह कोई संतजन…। फेरत कोई संतजन, सतगुरु नाम गुलाल।।

भीखा कहते हैं, मैं तो गुलाल को पहचानता हूं, वह उनके गुरु का नाम है। मैंने गुलाल में ही बुद्ध देख लिए, मैंने गुलाल में ही महावीर देख लिए, मैंने गुलाल में ही मुहम्मद देख लिए। मैं तो गुलाल से पहचाना इसलिए गुलाल मेरे हृदय में बसे हैं। गुलाल के बहाने सब सद्गुरु मेरे हृदय में बसे हैं। मगर मेरी श्रद्धा और मेरे प्राण तो गुलाल के चरणों में अर्पित हैं क्योंकि उनके ही पद रेणु को माथे पर रखकर

…… भीखा रेनु के लागते, गगन बजायो बेनु….. क्योंकि ईश्वर ने उनके ही चरणों में झुकने पर मुझ पर वर्षा की थी अमृत की। मेरे लिए तो गुलाल सब कुछ हैं।

शिष्य के लिए तो उसका अपना गुरु सब कुछ है, सारे गुरु उसमें समाहित हैं। उसे अपना अपने गुरु की बूंद में सारे सागर समाहित मालूम होते हैं। इसलिए उसे कहीं जाने की कोई जरूरत भी नहीं रह जाती, कोई प्रयोजन भी नहीं रह जाता। वह तो टिक जाता है वह तो एक जगह ठहर जाता है। मगर ये घड़ियां रोज—रोज इस जमीन पर कम होती गयी हैं; ऐसा सौभाग्य—क्षण रोज—रोज कम होता चला गया है। सतगुरु मुश्किल, अब तो शिष्य भी मुश्किल हो गये हैं। सत—गुरु तो सदा मुश्किल थे लेकिन शिष्य इतने मुश्किल नहीं थे——खोजी थे, तलाशी थे, जीवन को दांव पर लगाने वाले लोग थे।

आज अपनी ही धरा पर सिर उठाना भी मना है

क्या नहीं अब तक सुनी है

एक बौने की कहानी?

क्या नहीं तुम जानते हो

बलि चढ़ा था एक दानी?

आज बौनों की धरा पर गुनगुनाना भी मना है।

जो न सहना चाहिए वह

घात हंस हंस सह रहा हूं,

मानना मत, इसलिए मै

बात ऐसी कह रहा हूं;

रक्त से भींगी धरा पर डग बढ़ाना भी मना है।

अब नहीं है गीत गाने का जमाना,

अब नहीं है मीत पाने का जमाना,

साधना और सिद्धि का दानी न कोई,

ढूंढते सब घात करने का बहाना,

मुस्कराओ मत यहां पर, गीत गाना भी मना है।

अब तो हालत बड़ी बुरी हुई, आकाश का गीत तो क्या सुनोगे, अपना गीत भी गाने की सामर्थ्य नहीं है। और अगर गाओ तो गुनगुनाना मना है, हजार पाबंदियां हैं, हजार संगीनों के पहरे हैं। आदमी की गर्दन को रोज—रोज राज्य, चर्च, पंडित, पुरोहित, कसते चले गये हैं, इस कसी हुई गर्दन में से गीत उठे तो उठे कैसे?

आज’ बौनों की धरा पर गुनगुनाना भी मना है।

और बहुत छोटे—छोटे बौने लोग बड़े शक्ति में बैठ गये हैं, इसलिए कहीं कोई गीत गाये, कहीं कोई प्रतिभा का जन्म हो, कहीं ईश्वर का पदार्पण हो, तो उन सब को अड़चन हो जाती है, बौने बहुत नाराज हो जाते हैं।

अब तो सिर्फ वे थोड़े से लोग ही सत्य की तलाश में निकल सकते हैं जिन्हें जीवन को भी चुका देने की तैयारी है, जो जोवन को भी अर्पित कर सकते हैं, जो हजार कठिनाइयां, हजार मुसीबतें, झेलने को राजी हैं। मगर ये सब मुसीबतें झेलने जैसी हैं। जिस दिन सत्य का गीत जनमेगा, जिस दिन वह वीणा बजेगी उस दिन तुम पाओगे जो हमने किया था, वह तो कुछ भी नहीं है, जो मिला है, वह अपार है। हमारा प्रयास तो बूद जैसा था, जो पाया है, वह सागर है।

गुरु—परताप साध की संगति।

 

आज इतना।

(समाप्‍त)


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–40)

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चरैवेति, चरैवेति…..ओ स्‍वर्णयुग!—(प्रवचन—चालीसवां)

प्यारे ओशो!

कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:।

उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन्:।।

चरैवेति। चरैवेति।।

‘जो सो रहा है वह कलि है, निद्रा से उठ बैठने वाला द्वापर है, उठकर खड़ा हो जाने वाला त्रेता है, लेकिन जो चल पडता है, वह कृतयुग, सतयुग, स्वर्ण —युग बन जाता है।

इसलिए चलते रहो, चलते रहो।’

प्यारे ओशो! ऐतरेय ब्राह्मण के इस सुभाषित का

अभिप्राय समझाने का अनुग्रह करें।

नित्यानंद! यह सूत्र मेरे अत्यंत प्यारे सूत्रों में से एक है—जैसे मैंने ही कहां हो। मेरे प्राणों की झनकार है इसमें। सौ प्रतिशत मैं इससे राजी हूं। इस सूत्र के अतिरिक्त सतयुग की, द्वापर की, त्रेता की, कलियुग की जो भी परिभाषाएं शास्त्रों में की गई हैं, सभी गलत हैं। यह अकेला सूत्र है जो सम्यक् दिशा में इशारा करता है। यह सूत्र सतयुग से लेकर कलियुग तक की धारणा को समय से मुक्त कर लेता है; समाज से मुक्त कर लेता है; अतीत, भविष्य, वर्तमान से मुक्त कर लेता है और इसे प्रतिष्ठित कर देता है व्यक्ति की चेतना में, व्यक्ति के जागरण में, उसकी समाधि में।

और मेरे लेखे, न तो समाज सत्य है, न समय सत्य है; सत्य है तो केवल व्यक्ति। चूकि व्यक्ति के पास स्पंदित प्राण है; जीवन है, बोध है, आत्मा है। समाज के पास न तो कोई आत्मा है, न कोई हृदय का स्पंदन है, न जागने की कोई संभावना है। जागनेवाला ही वहां कोई नहीं; विवेक ही वहां कोई नहीं। और समय तो मनुष्य की वासनाओं का विस्तार है।

अतीत का कोई अस्तित्व नहीं। जो बीता सो बीता, अब कहीं भी नहीं है, सिवाय तुम्हारी स्मृतियों में। जैसे यात्री गुजर जाए और धूल उड़ती रह जाए; उड़ती हुई धूल यात्री नहीं है। जैसे गीत विदा हो जाए और गज रह जाए; गज गीत नही है। मंदिर की घंटियां बज चुकी हों और मंदिर के सन्नाटे में उनकी गज थोड़ी देर तक छाई रहे, वैसी ही तुम्हारी स्मृति है—अतीत की धूल से ज्यादा नहीं; अतीत के धुएं से ज्यादा नहीं; जो जा चुका है उसकी अनुगूंज। तुम्हारी स्मृति के सिवाय अस्तित्व नहीं है कोई अतीत का।

और भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। भविष्य अभी आया ही नहीं है, उसका अस्तित्व कैसे होगा? लेकिन जो विक्षिप्त हैं वे अतीत में और भविष्य में ही जीते हैं। जो विमुक्त हैं वे वर्तमान में जीते हैं। क्योंकि वर्तमान ही केवल है। उसका न तुम्हारी स्मृति से कोई संबंध है और न तुम्हारी वासना से।

अतीत है स्मृतियों का संग्रह। जिन मुर्दों को तुम ढो रहे हो, वह अतीत है। जिन्हें तुम लो रहे हो वे लाशें हैं—सड़ गई, उनसे दुर्गंध उठ रही है। उस दुर्गंध ने तुम्हारा नर्क बना दिया है। मगर तुम लाशों को छोड़ते नहीं। तुम लाशों को सजाते हो। तुम लाशों की पूजा करते हो। तुम मुर्दों के भक्त हो। तुम मृत्यु के आराधक हो। और फिर अगर तुम्हारा जीवन इसी मृत्यु के नीचे दब जाता है, इसी जहर से विषाक्त हो जाता है तो कुछ आश्चर्य नहीं। यह स्वाभाविक निष्पत्ति है। और अगर किसी तरह अतीत से छूटे भी तो एक पागलपन से छूटते नहीं कि तत्‍क्षण दूसरे पागलपन में प्रवेश कर जाते हो। वह दूसरा पागलपन है. भविष्य। अतीत है स्मृति और भविष्य है वासना, कल्पना—ऐसा हो, ऐसा हो जाए। और जैसा तुम चाहते हो वैसा कभी न होगा। कभी हो भी जाए भूले—चूके से, कभी संयोगवशात् वैसा हो भी जाए—तुम्हारे किए तो नहीं, लेकिन संयोग से हो जाए—तो भी तृप्ति नहीं आएगी।

यहां जो असफल होते हैं वे तो असफल होते ही हैं और सौ में निन्यान्नबे प्रतिशत असफल होते हैं, और यहां जो सफल होते हैं, उनकी असफलता और भी बड़ी है। असफलों से भी ज्यादा बड़ी है, क्योंकि जो असफल हुआ उसके मन में तो अभी भी आशा होती है कि शायद कल जीत द्वार खटखटाए। अभी उसका भविष्य समाप्त नहीं होता। अभी वासना आज से हटकर कल पर चली जाती है। वही तो वासना का ढंग है। वह हमेशा आगे सरकती रहती है। अतीत है तुम्हारी पीछे पड़नेवाली छाया और भविष्य है तुम्हारी आगे पड़नेवाली छाया। छायाओं का क्या भरोसा? तुम आगे हटते हो, छाया और आगे हट जाती है। छाया माया है। इस छाया को तो तुम माया नहीं कहते, संसार को माया कहते हो। जो है उसको माया कहते हो और जो नहीं है उसके साथ विवाह रचाए बैठे हो, उसके साथ गठबंधन कर लिया है। और जो ‘नहीं है’ में जीएगा वह खाली ही रह जाएगा, रिक्त ही मरेगा।

कभी संयोग से यह भविष्य पूरा भी हो जाए.. .याद रखना, संयोग से; तुम्हारे किए से कुछ भी नहीं हो सकता। तुम बहुत छोटे हो, अस्तित्व बहुत बड़ा है। जैसे बूंद सागर से लड़े, क्या जीतने की उम्मीद? जैसे पत्ता उसी वृक्ष से लड़े जिससे उसे रसधार मिल रही है, क्या कोई संभावना है विजय की? हार सुनिश्चित है। लेकिन कभी भूले—चूके, दांव कहीं ठीक ही लग जाए, तो और भी बड़ी हार, और भी बड़ी पराजय, और भी बड़ा विषाद घेर लेता है। क्योंकि जीत तो हाथ लगती है, लेकिन जीत ने जो भरोसे दिए थे, जो वायदे किए थे, वे कुछ भी पूरे नहीं होते। जिस दिन जीत हाथ में लगती है, उस दिन पता चलता है : जीत से बड़ी कोई हार नहीं। क्योंकि जीवन जिसके लिए लगा दिया, जिसे सोना समझकर दौड़े थे… और छोटे—छोटे लोग ही नहीं, तुम्हारे मर्यादा पुरुषोत्तम राम तक स्वर्ण—मृग के पीछे दौड़ रहे हैं। असली सीता को गंवा बैठे—नकली स्वर्ण—मृग के पीछे! और यह सबकी कथा है : असली को गंवा बैठते हैं लोग नकली के पीछे। सोने के मृग के पीछे भागे। पागल से पागल आदमी को भी समझ में आ जाएगा कि सोने के मृग कहीं होते हैं!

जगत को तो कहते हैं : मृग—मरीचिका। यही राम जगत को तो कहते हैं कि जैसे सपने में देखा गया, माया, मृग—मरीचिका। जैसे कि मृग प्यासा भटक जाए मरुस्थल में और दूर उसे सरोवर दिखाई पड़े। और यही राम सोने के मृग के पीछे दौड़ रहे हैं। किसकी मरीचिका बड़ी है? अगर मृग को मरुस्थल में प्यास के कारण दूर सूरज की किरणों के पड़ने से… सूरज की किरणों का एक ढंग है—जब खाली रेत पर वे पड़ती हैं और रेत उत्तप्त हो जाती है, तो उत्तप्त रेत किरणों को वापिस लौटाने लगती है। उन किरणों की लौटती हुई तरंगें दूर से यूं मालूम पड़ती हैं जैसे कि पानी लहरें ले रहा हो—मालूम ही नहीं पड़ती हैं, प्रमाण सहित मालूम पड़ती हैं। क्योंकि जब सूरज की किरणें वापिस लौटती हैं तो उनकी लहरें जलवत् ही होती हैं। तरंगें होती हैं और उन तरंगों में पास खड़े वृक्षों की प्रतिच्छाया बनती है जैसे सरोवर में बनती है।.. .उस प्रतिच्छाया को देखकर मृग को भरोसा आ जाता है, तर्क पूरा हो जाता है : पानी होना ही चाहिए, नहीं तो छाया कैसे बनेगी? और प्यास इतनी है कि पानी को मान लेने की स्वाभाविकता है। प्यास जितनी बढ़ जाती है उतनी ही आंखें प्यास से आच्छादित हो जाती हैं। जहां पानी नहीं है वहां भी पानी दिखाई पढ़ने लगता है—और फिर प्रमाण सहित।

तो मृग अगर धोखा खा जाए, क्षमा—योग्य है; मगर राम को मैं क्षमा न कर सकूंगा—राम तो बिलकुल अक्षम्य हैं। ये बातें तो ज्ञान की… और जो कर रहे हैं वह मृग से भी गया—बीता। सोने का मृग नहीं होता, इसे बुद्ध से भी बुद्ध आदमी को भी समझने में अड़चन न आएगी। लेकिन राम सोने के मृग के पीछे चले गए और गंवा बैठे सीता को।

और राम ही गलती में थे, ऐसा नहीं था; सीता भी गलती में थी। क्योंकि जब राम चिल्लाए दूर जंगल से कि मुझे बचाओ, मैं खतरे में पड़ गया हूं तो सीता ने धक्के दिए लक्ष्मण को कि तू जा। राम कह गए थे पहरा देना। लक्ष्मण दुविधा में पड़ गया—राम की मानूं कि सीता की मानूं? और सीता ने ऐसी चोट की लक्ष्मण पर कि तिलमिला उठा। कहीं घाव तो था, छू दिया सीता ने। वह घाव और सीता का छूना बड़ा अर्थपूर्ण है। सीता ने कहां, ‘मुझे पहले से ही पता है कि तेरी नजर मुझ पर है, कि राम अगर मर जाएं तो तू मुझ पर कब्जा कर ले।’

और सीता ने यह बात यूं ही नहीं कहीं होगी। लक्ष्मण के इरादे नेक इरादे रहे होंगे? और इसीलिए तो हम पति के छोटे भाई को देवर कहते थे। देवर का मतलब होता था : दूसरा वर। बड़ा विदा हो तो सीनियारिटी देवर की है। देवर का मतलब ही यह होता है कि नंबर दो। पहला नबर हटे कि नंबर दो कब्जा करे।’देवर’ शब्द अच्छा नही है, घृणित है। उस शब्द का उपयोग भी नहीं होना चाहिए। दूसरा वर! पंक्ति में खड़ा है कि बड़े भैया, अब जाओ भी! अब बहुत हो गया। अब कुछ थोड़ा जो बचा—खुचा है, मुझ गरीबदास को भी मिले!

यह लक्ष्मणदास पहले से ही इरादा यूं रखते थे। सीता ने चोट गहरी की। और चोट असली रही होगी, नहीं तो लक्ष्मण मुस्कुराकर टाल जाता। कहता : ‘हंसी—मजाक न कर भाभी। मैं जानेवाला नहीं हूं।’ लेकिन यह चोट कहीं पड़ी, घाव को छू गयी, मवाद निकल आयी। गुस्से में आ गया। यह गुस्सा यूं ही नहीं आता। जब तुम्हें कोई गाली देता है और गाली अगर खल जाती है तो मतलब यह था कि उसने छू दिया कोई तुम्हारा कोमल अंग, जिसे तुम बचाए फिरते थे।

मुझे इतनी गालियां पड़ती हैं, कोई चिंता नही, कोई कोमल अंग नहीं, कुछ छिपाया नहीं। मजा लेता हूं कि कैसे—कैसे प्यारे लोग हैं, कितना श्रम उठाते हैं! जितनी मेहनत गालियां देने में करते हैं, इतने में उनका गीत फूट सकता है। जितना श्रम मुझे गालियां देने में बिता रहे हैं, इतना श्रम अगर गीतो में लगा दें तो उनके जीवन में भी झरने बह उठें! उन पर मुझे दया आती है।

लेकिन लक्ष्मण क्रोध में आ गया। चल पड़ा। इधर लक्ष्मण भी छोड़कर चला गया, मतलब वह भी मानता है कि खतरा है, स्वर्ण—मृग सच्चा है, स्वर्ण—मृग के साथ पैदा हुआ खतरा सच्चा है। राम, जो कि परमात्मा के पर्यायवाची हैं इस देश में, अर्थात् सर्वव्यापी हैं, लेकिन इतना न समझ पाए, यह सोने के मृग में व्याप्त न हो पाए। सर्वज्ञ हैं, सब जानते हैं और इतना न जान पाए कि सोने के मृग नहीं होते। यह कैसी सर्वज्ञता, यह कैसा सर्वव्यापीपन? यह सब बकवास है। और सर्व शक्तिशाली हैं, तो सर्व शक्तिशाली को क्या खतरा हो सकता है, जो वह चिल्लाए कि मुझे बचाओ? अब इसको कौन बचाएगा, सर्व शक्तिशाली को कौन बचाएगा?

लेकिन अंधे लोग अंधी धारणाओं में जीते चले जाते है—न प्रश्न उठाते, न पूछते। एक बार पुनर्विचार तो करें। और यूं सीता चोरी गयी।… और सीता वास्तविक थी! और सीता का यह अपहरण, इसमें तीनों का हाथ है—राम का, लक्ष्मण का, सीता का। रावण का अकेला जुम्मा नहीं है। रावण नंबर चार है। अगर इन तीन ने गलती न की होती तो रावण चुरा न सकता था।

लेकिन यही सबकी दशा है। अतीत में जी रहे हैं—जो नहीं है। और भविष्य में जी रहे हैं—जो नहीं है। और ‘जो है’ उसको गंवा रहे हैं।

इस सूत्र ने समय से सतयुग की और कलियुग की धारणा को मुक्त कर दिया। वही चेष्टा मैं कर रहा हूं। तुम्हें समझाया गया है कि सबसे पहले कृतयुग था, सतयुग था, स्वर्ण—युग था। यह बकवास है। इसका तो मतलब हुआ—आदमी का हास हो रहा है, पतन हो रहा है, आदमी नीचे गिर रहा है। पहले सब श्रेष्ठ था, अब सब अश्रेष्ठ हो गया है। समय जब पूर्ण संतुलित था, तब कृतयुग था, सतयुग था। जो करते, उसका तत्‍क्षण फल मिलता था—इसलिए कृतयुग। सतयुग : क्योंकि जो बोलते वही सत्य होता, कहीं कोई झूठ न था। स्वर्ण—युग : कहीं कोई दीनता न थी, दासता न थी, दरिद्रता न थी।

ये सब बातें झूठ हैं। जितने पीछे जाओगे उतनी दरिद्रता थी, उतनी दीनता थी, उतनी गुलामी थी। राम के समय में बाजारों में आदमी बिकते थे। गोभी, टमाटर, आलू—इसी तरह आदमी, उनकी नीलामी होती थी। उनको टिकटियों पर खड़ा करके दाम लगाए जाते मुल्ला नसरुद्दीन कल पिटा—पिटाया आया था। पट्टियां बंधी थीं, पलस्तर हाथ पर चढ़ा था। मैंने कहां, ‘क्या हुआ? किसी कार, ट्रक, रेलगाड़ी किसके नीचे आ गए?’

उसने कहां, ‘कुछ नहीं। पति हूं पत्नी के नीचे आ गया। जरा—सी भूल हो गयी और ऐसी गति हुई, ऐसा मारा उसने कि छठी का दूध याद दिला दिया।’

मैंने पूछा, ‘ऐसी क्या भूल हो गयी जो इतना नाराज हो गयी पत्नी? आखिर क्या?’

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहां, ‘अब क्या कहूं! अब क्या और कहकर अपनी फजीहत कराऊं? एक सपने के पीछे सब हुआ।’

मैंने पूछा, ‘सपने के पीछे!’

उसने कहां, ‘हां, पत्नी ने एक रात पहले सपना देखा और कहने लगी कि बड़ा अजीब सपना था, फजलू के पिता, कहे बिना नहीं रहा जाता। मैंने देखा एक जगह मस्तिष्क नीलाम हो रहे हैं। कोई मस्तिष्क दस हजार में, कोई पच्चीस हजार में, कोई पचास हजार में। पूछा मैंने कि ये मस्तिष्क इतने—इतने दाम के? तो पता चला कि कोई वैज्ञानिक का मस्तिष्क है, कोई संत का मस्तिष्क है, कोई गणितज्ञ का, कोई संगीतज्ञ का, कोई कवि का, कोई चित्रकार का, बड़े कीमती हैं।’

मुल्ला नसरुद्दीन ने पूछा, ‘यह भी तो बता, मेरा भी मस्तिष्क नीलाम हो रहा था कि नहीं?’

उसने कहां, ‘हो रहा था। उसी नीलामी को देखकर तो मेरी नींद टूटी।. एक रुपये के दर्जन। बंडल में बंधे थे। बाकी सब तो अलग—अलग बिक रहे थे, तुम्हारा तो दर्जन में बिक रहा था। और रुपये के दर्जनभर! और बेचनेवाला कह रहा था कि अगर और चाहिए तो और भी दे दूं। इनको खरीदता ही कौन है!’

स्वभावत: मुल्ला को चोट लगी, सदमा पहुंचा भारी। सो उसने कहां, ‘मैंने भी दूसरे दिन बनाकर एक सपना बोल दिया। उसी से यह मेरी हालत हुई। दूसरे दिन सुबह मैंने भी कहां कि मैंने भी एक सपना देखा कि नीलाम हो रहे हैं मुंह। एक से एक बकवासी! किसी की कीमत पचास हजार, क्योंकि वह राष्ट्रपति है। किसी की कीमत लाख, क्योंकि वह प्रधानमंत्री है। किसी की कीमत पच्चीस हजार, क्योंकि वह बड़ा कवि है। किसी की कीमत पंद्रह हजार, वह बड़ा संगीतज्ञ है, बड़ा गायक।’

पत्नी ने कहां, ‘ और मेरा भी मुंह नीलाम हो रहा था कि नहीं?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहां, ‘हो रहा था! अरे तेरे मुंह में ही तो नीलामी चल रही थी!’

‘बस यह सुनते ही—अब आप देख ही रहे है—कि जो मेरी गति हो गयी!’

तुम जी रहे हो सपनों में। अतीत भी सपना है, भविष्य भी सपना है। एक जा चुका, एक आया नहीं। और इन दो पाटों के बीच पिस रहे हो। लेकिन ये कहांनियां तुम्हें यही कहे जा रही हैं कि पहले था कृतयुग, वहा तुम जो करते वही हो जाता। उस समय यह कहांवत सच न थी : मैन प्रपोजिस एंड गाड डिस्पोजिस।’ आदमी प्रस्तावित करता है और ईश्वर इनकार कर देता है।’ यह उस समय बात नहीं होती थी। तुमने प्रस्ताव किया और परमात्मा ने स्वीकार किया, तत्‍क्षण; वह कृतयुग था। सभी लोग कल्पवृक्षों के नीचे बैठे थे, यूं समझो। जो चाहा, हुआ! सतयुग था, कोई झूठ नहीं बोलता था। लोग मकानों पर ताले नहीं लगाते थे।

यह सब बकवास है। यह बिलकुल बकवास है। दीनता भयंकर थी। राम के समय में बाजारों में स्त्रियां और पुरुष बिक रहे थे, इससे ज्यादा दीनता और क्या होगी? र्दारेद्रता भयंकर थी। ही, यह और बात है कि दरिद्र की दरिद्रता इतनी भयंकर थी कि वह बगावत भी करने का विचार नहीं कर सकता था। बगावत के लिए भी थोड़े सुख का स्वाद चाहिए। बगावत हमेशा मध्यवर्गीय लोगों से उठती हैं, दरिद्रों से नहीं उठती, दीनों से नहीं उठती, भिखमंगों से नहीं उठती। तुमने कोई क्रांतिया भिखमंगों से होते हुए नहीं देखी होंगी कि भिखमंगों ने क्रांति कर दी। भिखमंगे ने तो स्वाद ही नहीं जाना सुख का, क्रांति कैसे करेगा? ये तो मध्यवर्गीय लोग हैं। कार्ल—मार्क्स और लेनिन और एंजिल्स और माओत्से—तुंग और स्टेलिन, सब मध्यवर्गीय लोग हैं। बातें करते हैं गरीब की। गरीब को भड़काते हैं, क्योंकि उसी के बल पर खड़े हो सकते हैं। अमीर के खिलाफ खड़े होना है। अमीर को तो भड़का नहीं सकते। गरीब को भड़का सकते हैं। मगर ध्यान रखना कि जो भड़कानेवाला है वह दोनों के बीच में है; न वह गरीब है, न वह अमीर है, वह मध्य में है, त्रिशंकु की भांति है। उसने थोड़ा—सा सुख पाया है अमीरी का और बहुत दुख पाया है गरीबी का। अब उसको भरोसा है कि अगर थोड़ी चेष्टा करे तो अमीर हो सकता है। गरीब का सहारा लेना पड़ेगा।

इसलिए क्रांतियां मध्यवर्गीय लोग करते हैं। गरीब का उपयोग करते हैं क्रांति में। कटता हमेशा गरीब है। चाहे अमीर काटे चाहे मध्यवर्गीय काटे—कटेगा गरीब।

मेरे पिता के पिता सीधे—सादे ग्रामीण आदमी थे, मगर वे कुछ कहांवतें बड़ी कीमती बोलते थे। कपड़े की उनकी छोटी—सी दुकान थी और वे ग्राहक से पहले ही पूछ लेते थे, ‘क्या इरादे हैं? दाम ठीक—ठीक बता दूं? मील— भाव नहीं होगा फिर। या कि मोल— भाव करना है? तो फिर उस हिसाब से चलूं। एक बात खयाल रखना कि तरबूज छुरे पर गिरे कि छुरा तरबूज पर गिरे, हर हालत में तरबूज कटेगा। इसलिए जो तुम्हारी मर्जी। कटोगे तुम ही।’

और उनसे लोग राजी होते थे, यह कहांवत ग्रामीण को जंचती थी कि बात तो सच है, चाहे खरबूज को गिराओ छुरे पर और चाहे छुरे को गिराओ खरबूज पर, कोई छुरा कटनेवाला नहीं है। सो वे उनसे राजी हो जाते थे कि आप, मोल— भाव करने में कोई सार नहीं है जो ठीक—ठीक भाव हो वह बता दें। कि जब कटना ही मुझे है तो जितना कम कटू उतना ही बेहतर। तो छुरे पर ही छोड़ देना ठीक है।

गरीब कटता रहा हमेशा। उस समय में इतना कटता था कि उसकी चीख भी नहीं निकलती थी। और यह भी बात झूठ है कि घरों में ताले नहीं लगते थे। नहीं तो बुद्ध और महावीर और ऋग्वेद के समय में हुए जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, ये सब किसको समझा रहे हैं कि चोरी मत करो! अगर चोरी होती नहीं थी तो ये पागल है—ये तीर्थंकर और ये बुद्ध और ये सारे संत—महात्मा, सब विक्षिप्त हैं, इनका दिमाग खराब है। यह हो सकता है कि लोगों को ताला बनाना न आता हो, यह मेरी समझ में आ सकता है। ताला बनाने के लिए भी थोड़े विज्ञान का विकास चाहिए। या यह भी हो सकता है कि ताला लगाएं क्या, भीतर कुछ हो बचाने को तो ताला लगाएं! और ताले पर खर्चा क्या करना! ताला भी तो खरीदने के लिए कुछ हैसियत चाहिए। फिर ताला लगाने के लिए भी तो भीतर कुछ चाहिए, नहीं तो ताला वैसे ही लगाकर चोरों को निमंत्रण दो! वे ताला देखकर ही आएंगे। जिस घर में ताला नहीं लगा है उसमें कोई चोर आएगा? लेकिन चोरी निश्चित होती थी, क्योंकि वेदों तक में चोरी के खिलाफ वक्तव्य हैं।

दुनिया में जो सबसे पुराना शिलालेख मिला है; वह शिलालेख कहता है : चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, धोखाधडी मत करो, यह आदमियत का पतन है। वह सात हजार साल पुराना शिलालेख बेबीलोन में मिला है। उसमें जो वक्तव्य हैं वे विचारणीय हैं। उसमें कहां गया है कि पत्नियां पतियों की नहीं मानती; बाप की बेटे नहीं मानते; कोई किसी की नहीं सुनता; शिष्य गुरुओं के साथ बगावत कर रहे हैं। ये किस बात की खबर देते हैं ये शिलालेख? ये इस बात की खबर देते हैं कि दुनिया आज से भी बदतर थी आज से भी बुरी थी।

युद्धों के समर्थन में सारे शास्त्र हैं। एक शास्त्र ने भी युद्ध का विरोध नहीं किया है। आज दुनिया में लाखों लोग हैं, जो युद्ध के विरोध में हैं। सारे शास्त्र स्त्रियों की गुलामी के पक्ष में हैं। आज करोडों लोग हैं जो स्त्रियों की मुक्ति के आंदोलन में सहयोगी हैं। सभी शास्त्रों ने गुलाम को, दास को समझाया है कि यही तेरी नियति है, यही तेरा भाग्य है, विधाता ने तेरी खोपडी में लिख दिया है, अब इससे बचने का कोई उपाय नहीं, सहज भाव से गुजार ले। लेकिन किसी ने क्रांति का उद्घोष नहीं दिया है। क्या खाक कृतयुग था यह? क्या खाक सतयुग था यह? ही, रहा होगा स्वर्ण —युग कुछ लोगों के लिए।

लोग कहते हैं कि भारत कभी सोने की चिडिया थी। जिनके लिए तब थी, उनके लिए अब भी है। बिड़ला के लिए, टाटा के लिए, सिंघानिया के लिए, साहू के लिए अब भी सोने की चिड़िया है। इनके लिए तब भी थी। इनके लिए हमेशा थी। लेकिन यह कोई पूरे भारत के सबंध में सचाई नहीं है।

असल में जिस देश में जितनी गरीबी होती है उस देश में थोड़े—से लोगों के पास अपार संपदा जुड़ ही जाएगी। यह अनिवार्य है। अपार संपदा जुड़ ही तब सकती है जबकि बहुत बड़ी गरीबी का विस्तार हो। जैसे कि पिरामिड बनाया जाता है तो नीचे बड़ी बुनियाद रखनी होती है, फिर धीरे— धीरे पिरामिड छोटा होता जाता है, फिर शिखर होता है पिरामिड का। अगर शिखर लाना हो तो नीचे बड़ी बुनियाद डालनी होगी।

और तुम्हें याद होना चाहिए, पिरामिड किन लोगों ने बनाए? जिन्होंने बनाए उनके पास सोना था, खूब सोना था। लेकिन एक—एक पिरामिड के बनने में हजारों लोगों की जानें गयीं, क्योंकि उन पत्थरों को चढ़ाने में…… आसान मामला नहीं था, मशीनें न थीं…… कोड़ों के बल वे पत्थर चढ्वाए गए। एक—एक पत्थर को ढोने में कभी—कभी हजार—हजार लोगों की पीठों पर कोड़े पड़ते थे। हजार लोग घोड़ों की तरह जुटे हुए थे और उनके पीछे कोड़े पड़ रहे थे। उन कोड़ों की मार के पीछे, अपनी जान को बचाने के लिए, लहूलुहान छातियों को लिए हुए लोगों ने वे पत्थर चढ़ाए। अब पिरामिड के सौंदर्य की खूब चर्चा होती है।

अब ताजमहल को देखने दूर—दूर से लोग आते हैं। जरूर जिसके पास सोना था, उसने ताजमहल बनवाया। लेकिन जिन लोगों ने बनवाया, तीन पीढियां लगीं ताजमहल के बनने में, उन सबके हाथ कटवा दिए गए, ताकि फिर ताजमहल जैसी कोई दूसरी कृति न बन सके। और जिस स्त्री के लिए ताजमहल बनवाया गया था, उससे कुछ खास लगाव था बनवानेवाले का ऐसा नहीं। क्योंकि उसकी और भी सैकड़ों स्त्रियां थीं। यह अपने ही अहंकार की उद्घोषणा थी। यह किसी मुमताज के लिए बनवायी गयी कब्र न थी। ऐसी तो बहुत मुमताजें बादशाह के पास थीं। यह मुमताज भी किसी और की औरत थी और जबरदस्ती छीनी गयी थी। इससे क्या लेना—देना था! बादशाह को तो मकबरा बनाना था।

और शाहजहां, जिसने यह मकबरा बनवाया, उसके बेटे को यह बात साफ थी—औरंगजेब को—कि यह मकबरा अहंकार का प्रतीक है। शाहजहां एक और मकबरा बनवा रहा था यमुना के दूसरी तरफ। यह मकबरा सफेद संगमरमर से बनवाया गया था, दूसरा मकबरा काले संगमरमर से बनवाया जा रहा था। वह मकबरा खुद शाहजहां की कब बननेवाली थी। वह इससे भी बडा होनेवाला था। स्वभावत: पत्नी के मुकाबले पति का मकबरा बड़ा होना चाहिए! वह इससे भी विशाल होनेवाला था। दुनिया वंचित ही रही गयी, उसकी सिर्फ बुनियाद रखी जा सकी। और औरंगजेब ने शाहजहां को कैद कर लिया। और उसने कहां, ‘यह मकबरा नहीं बनेगा। ये अहंकार के शिखर नहीं उठेंगे।’ उसने मकबरा नहीं बनने दिया।

जब शाहजहां कैद कर लिया गया तो उसने एक ही प्रार्थना की औरंगजेब से कि और मुझे कुछ नहीं चाहिए, लेकिन तीस बच्चे मुझे दे दो जिनको मैं पढाऊं—लिखाऊं। दिनभर बैठा—बैठा खाली, दिन गुजारना मुश्किल है।

औरंगजेब ने अपने संस्मरणों में लिखवाया है कि शाहजहां को हुकूमत करने का रस जाता नहीं। अब तीस बच्चों की छाती पर मूंग दलेगा। अब इन तीस बच्चों के बीच में ही सम्राट बनकर बैठेगा। अब इन तीस बच्चों को ही सताएगा, आज्ञा देगा। पुरानी आदतें नहीं जातीं।

जरूर कुछ लोगों के पास धन था, होने ही वाला था, क्योंकि सबका धन छीन लिया गया था।

सोने की चिड़िया भारत न कभी था, न आज है। लेकिन कुछ लोगों के पास सोना था, खूब सोना था। सारा देश चूस लिया गया था। इसको स्वर्ण—युग कहते हो? यह धारणा प्रचारित की गयी है पंडितो के द्वारा कि सब सुंदर बीत चुका; अब आगे सिर्फ अंधेरा है, निराशा है। इसलिए अब निराशा को अंगीकार करो, अंधेरे को जीओ। शाति से जीओ, संतोष से जीओ, ताकि भविष्य में परमात्मा तुम्हारे संतोष के लिए तुम्हें पुरस्कार दे।

यह क्रांति का गला घोंटने का उपाय है। इन पंडितो ने यह प्रचारित किया है कि जब सतयुग था तो समय चार पैरों पर खड़ा था। जैसे कुर्सी में चार पैर होते हैं तो संतुलित होती है। फिर आया त्रेता; तो समय की एक टल टूट गयी। जैसे तिपाई होती है, तीन पैरों पर। संतुलन अब भी रहा, लेकिन वह संतुलन न रहा जो चार पैरों से होता है। तिपाई जल्दी उलट सकती है, जरा—सा धक्का देने से उलट सकती है। तीन ही टलें हैं उसकी, इसलिए त्रेता। फिर द्वापर; एक टांग और टूट गयी। अब तो दो पैर पर समय खड़ा हुआ। और ये दो पैर भी ऐसे नहीं जैसे बैलगाड़ी के होते हैं, बल्कि यूं समझो जैसे साइकिल के होते हैं। पैडल मारते रहो, मारते रहो, तो चलता है; जरा पैडल रुका कि साइकिल भी गिरी, तुम भी गिरे, हाथ—पैर भी टूटे। और सबसे बुरी हालत है कलियुग की; कलियुग यानी जब एक ही पैर बचा। अब हर आदमी लंगड़ा है और हर आदमी बैसाखी लिए है। हर आदमी काना है और हर आदमी का एक कान सड़ चुका है। हर आदमी का एक फेफड़ा मर चुका है। हर आदमी आधा लकवा खा गया है। यह कलियुग है। अब आगे सिर्फ कब है और कुछ भी नहीं। प्रतीक्षा करो। एक पैर तो कब में तुम्हारा जा ही चुका है। एक ही बाहर बचा है। अब ज्यादा की कुछ आशा न करो। अब जीवन में सुख की संभावना मत मानो। अब क्या तीर्थंकर होंगे? अब क्या अवतार होंगे? अब क्या बुद्ध होंगे? अब तो बुद्धओं में ही रहना है और बुद्ध ही रहना है। कोई इस बुद्धपन से छुटकारे का उपाय नहीं।

यह निराशा पंडित फैला रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है। और जिस देश के मन में ये निराशा के भाव बैठ जाएं, उसका भविष्य शमिल हो गया। इसलिए नहीं कि भविष्य शमिल था। इस धारणा ने धूमिल कर दिया और स्वभावत: हर धारणा में एक दुश्‍चक्र होता है। जब तुम एक धारणा मानकर चलते हो कि अब भविष्य अंधकारपूर्ण है तो तुम इस ढंग से जीते हो कि प्रकाश तो होना नहीं है, इसलिए प्रकाश लाने की जरूरत क्या? घर में तेल हो, बाती हो, दीया हो, माचिस हो तो भी तुम दीया जलाते नहीं। जब दीया जलना ही नहीं है, जब यह समय के ही अनुकूल नहीं है, तो क्यों खाक मेहनत करनी, अंधेरे में ही जीओ! और जब अंधेरे में जीते हो तो स्वभावत: तुम्हारी धारणा को पोषण मिलता है कि ठीक कह गए संत, ठीक कह गए महंत, ठीक कह गए ऋषि—मुनि कि आगे अंधेरा ही अंधेरा है। अंधेरा ही तो दिख रहा है। अंधेरा बढ़ता ही जा रहा है। तुम्हारी धारणा के कारण दीया नहीं जलाते हो क्योंकि आगे अंधेरा है, दीया जलनेवाला नहीं है। जैसे कि अंधेरे ने कभी दीए को आया है! अंधेरे की क्या कूबत है, क्या बिसात है कि दीए को बुझा दे? अंधेरा नपुंसक है। अंधेरा है ही नहीं। जब दीया जलता है तो तुम लाकर टोकरी भर अंधेरा भी उसके ऊपर डाल दो तो भी दीया बुझेगा नहीं। लेकिन अंधेरे के डर से लोग दीया नहीं जला रहे हैं, तो फिर तो अंधेरा रहेगा। और जब अंधेरा रहेगा तो स्वभावत: धारणा को पोषण मिलेगा कि ठीक कहां, ठीक कहां शास्त्रों ने कि अंधेरा ही अंधेरा है!

तुम जीवन को सुंदर बनाने की चेष्टा छोड़ दिए तो सड़ गए। सड़ गए तो तुम्हारे ऋषि—मुनि सही गिद्ध हो रहे हैं कि यह तो होना ही था, यह तो पहले ही कह गए थे लोग। मानो या न मानो, मगर जो होना है वह होना है। जो बदा है वह होना है। इस तरह भारत को भाग्यवादी बना दिया है।

मैं इस सूत्र से पूरा राजी हूं क्योंकि यह सूत्र क्रांतिकारी है, आग्नेय है। यह सूत्र तुम्हारी समझ में आ जाए तो तुम्हें धर्म की नयी परिभाषा, एक नया बोध पैदा हो, एक नयी किरण जगे।

कलि: शयानो भवति.. …इसने अर्थ ही बदल दिया। यह सूत्र कहता है : ‘जो सो रहा है वह कलि है।’ इसने संबंध ही तोड़ दिया समय से। इसने संबंध जोड दिया मूर्च्छा से।

और यही बुद्धपुरुषों का अनुदान है इस जगत को कि तुम्हारे कीटों को भी फूलों में बदल देते हैं; तुम्हारी मूढ़ताओं को भी बोध की दिशा देते हैं; तुम्हारे अंधविश्वासों को भी श्रद्धा का आयाम बना देते हैं।

‘जो सो रहा है वह कलि है।’ जो मूर्च्‍छित है वह अगर हजार साल पहले था तो भी कलियुग में था और दस हजार साल पहले था तो भी कलियुग में था। उसके सोने में कलियुग है।

कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:।

निद्रा से उठ बैठनेवाला द्वापर है। और जो कभी भी निद्रा से उठ बैठा, जिसने झाड़ दी निद्रा, जो लेटा नहीं बैठ गया—वह द्वापर है। जब भी बैठ गया—आज तो आज, अतीत में तो अतीत में, भविष्य में तो भविष्य में—जब भी बैठ गया तब द्वापर है।

उतिष्ठस्त्रेता भवति…।और जो उठ खड़ा हुआ वह त्रेता है।’

सो रहे हैं सारे लोग। मूर्च्‍छित हैं सारे लोग। उन्हें यह भी पता नहीं वे कौन हैं, क्यों हैं, किसलिए हैं, कहां से आते हैं, कहां जाते हैं, क्या है उनका स्वभाव? यह मूर्च्छा है। अपने से अपरिचित होना मूर्च्छा है।

अपने से परिचित होने की पहली किरण—जब तुम नींद से उठ बैठे, आंख खोली, बैठ गए; तो द्वापर का प्रारंभ। ये तुम्हारी चेतना के चरण हैं, समय के नहीं।

… कृतं संपद्यते चरन्।’ और जो चल पड़ता है वह कृतयुग बन जाता है।’ सोना, उठ बैठना, चल पड़ना—जो चल पड़ा, वह कृतयुग है। उसके जीवन में स्वर्ण—विहान आ गया। गति आ गयी तो जीवन आ गया। गत्यात्मकता आ गयी तो उषा आ गयी! तो रात टूट गयी, पूरी तरह टूट गयी… चरैवेति चरैवोइत! इसलिए ऐतरेय उपनिषद् यह सूत्र देता है चलते रही, चलते रहो। रुकना ही मत। अनंत यात्रा है। इसकी कोई मंजिल नहीं। यात्रा ही मंजिल है। यात्रा का हर कदम मंजिल है। अगर तुम हर कदम को उसकी परिपूर्णता में जीओ तो कहीं और मंजिल नहीं; यहीं है, अभी है, वर्तमान में है—भविष्य में नहीं, अतीत में नहीं। तुम्हारे बोध में है, तुम्हारे बोध की समग्रता में है।

मैं इस सूत्र से पूर्णतया राजी हूं. चरैवेति चरैवेति! चलते रही, चलते रहो। कहीं रुकना नहीं है। रुके कि मरे। रुके कि सड़े।

बहते रहे तो स्वच्छ रहे।

और यह देश सड़ा इसलिए कि रुक गया और कब का रुक गया! यह अब भी स्वर्ण—युग की बातें कर रहा है, सतयुग की, कृतयुग की बातें कर रहा है। यह अभी भी बकवास में पड़ा हुआ है, अभी भी रामलीला देखी जा रही है। अभी भी बुद्ध रासलीला कर रहे हैं। हर साल वही नाटक—सदियों से चल रहा है वही नाटक। नाटक में भी कुछ नया जोड्ने की सामर्थ्य नहीं है और कहीं कुछ नया जोड़ दिया जाए तो उपद्रव हो जाता है।

रीवा के एक कालेज में रामलीला खेली उन्होंने—युवकों ने। जरा बुद्धि का उपयोग किया। युवक थे, जवान थे, तो थोड़ी बुद्धि का उपयोग किया। सो उन्होंने रामचंद्र जी को सूट—बूट पहना दिए टाई बौध दी, हैट लगा दिया। अब हैट, सूट—बूट और टाई के साथ धनुष—बाण जंचता नहीं, सो बंदूक लटका दी। स्वाभाविक है, हर चीज की एक संगति होती है। अब इसमें कहां धनुष—बाण जमेगा! अब इनके पीछे सीता मैया को चलाओ तो उनमें भी बदलाहट करनी पड़ी। सो एड़ीदार जूते पहना दिए मिनी स्कर्ट पहना दी। जनता नाराज भी हो और झांक—झांककर भी देखे। भारतीय जनता! भारतीय मन तो बड़ा अद्भुत मन है! लोग बिलकुल झुके जा रहे। किसी से पूछो, क्या ढूंढ रहे हो, वह कोई कहता मेरी टोपी गिर गयी, कोई कहता मेरी टिकट गिर गयी। सभी का कुछ न कुछ गिर गया है। लोग झांक—झांककर देख रहे हैं और नाराज भी हो रहे हैं कि यह क्या मजाक है! रामलीला के साथ मजाक!

और जब सीता मैया ने सिगरेट जलायी, तब बात बिगड़ गयी। लोग उचककर मंच पर चढ़ गए। जिन रामचंद्र जी और सीता मैया के हमेशा पैर छूते थे, उनकी पिटाई कर दी, पर्दा फाड डाला। और इसी धूम— धक्का में सीता मैया की स्कर्ट भी फाड़ डाली। अरे ऐसा अवसर कौन चूके! .सीता मैया की फजीहत हो गयी। ब्लाउज वगैरह फाड़ दिए। वह तो भला हो कि सीता मैया वहां थीं ही नहीं, गांव का एक छोकरा था। सो और गुस्सा आया। सो छोकरे की और पिटाई की कि हरामजादे, शर्म नहीं आती, सीता मैया बना है!

वही रामलीला, वही नाटक! सदियां बीत गयीं, हम रुके पड़े हैं। हम डबरे हो गये हैं।

चरैवेति, चरैवेति! बहो, चलो, गतिमान होओ। छोडो अतीत को। ये जंजीरें तोडो। यह मूर्च्छा छोडो। थोड़ा होश सम्हालो। ध्यान की सारी प्रक्रियाएं होश को सम्हालने की प्रक्रियाएं हैं। ध्यान से ही ये सूत्र पूरा हो सकता है. कलि: शयानो भवति। ध्यान से ही तो तुम उठोगे। यह विचारों की तंद्रा तभी तो —टूटेगी। यह खोपड़ी में भरा कचरा सदियों—’सदियों का, तभी तो जलेगा। ध्यान की अग्नि ही इसे राख कर सकती है।

… संजिहानस्तु द्वापर:।

और आंख खुली तो उठ ही बैठोगे। कब तक पड़े रहोगे? जिसकी आंख खुली उसे दिखाई पड़ने लगेगा कि फूल खिल गए हैं, सूरज निकल आया, पक्षी गीत गा रहे हैं। अब पड़े रहना मुश्किल हो जाएगा। यह जीवन का आकर्षण और जीवन का सौंदर्य! ये परमात्मा के छुपे हुए ढंग तुम्हें बुलाने के! यह उसका निमंत्रण है। जागे कि सुनाई पड़ा। और तब उठकर चल पड़ोगे—तलाश में सत्य की, तलाश में सौंदर्य की, तलाश में भगवत्ता की। और जो चल पड़ा उसने पा लिया। क्योंकि जो चल पड़ा वही कृतयुग बन जाता है, वही सतयुग बन जाता है।

सतयुग में कोई पैदा नहीं होता। सतयुग अर्जित करना होता है। पैदा तो हम सब कलियुग में होते हैं। फिर हममें से जो जाग जाता है, वह त्रेता। जो उठ बैठता है, चल पडता है, वह कृत। और जो चलता ही रहता है, वही भगवान है, वही भगवत्ता को उपलब्ध है। इसलिए भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति के साथ चलना भी मुश्किल हो जाता है। वह चलता ही जाता है।

कितने लोग मेरे साथ चले और ठहर गए! जगह—जगह रुक गार, मील के पत्थरों पर रुक गए! जिसकी जितनी औकात थी, सामर्थ्य थी, वहां तक साथ आया और रुक गया। फिर उसे डर लगने लगा कि और चलना अब खतरे से खाली नहीं। किसी मील के पत्थर को उसने मंजिल बना लिया और वह मुझसे नाराज हुआ कि मैं भी क्यों नहीं रुकता हूं मैं भी क्यों और आगे की बात किए जाता

मेरे साथ सब तरह के लोग चले। जैन मेरे साथ चले, मगर वहीं तक चले जहां तक महावीर का पत्थर उन्हें ले जा सकता था। महावीर का मील का पत्थर आ गया कि वे रुक गए। और मैंने उनसे कहां, महावीर से आगे जाना होगा। महावीर को हुए पच्चीस सौ साल हो चुके। इन पच्चीस सौ सालों में जीवन कहां से कहां पहुंच गया, गंगा का कितना पानी बह गया! महावीर तक आ गए, यह सुंदर, मगर आगे जाना होगा। उनके लिए महावीर अंतिम थे; वहीं पड़ाव आ जाता है, वहीं मंजिल हो जाती है।

मेरे साथ बौद्ध चले, मगर बुद्ध पर रुक गए। मेरे साथ कृष्ण को माननेवाले चले, लेकिन क्या पर रुक गए। मेरे साथ गांधी को माननेवाले चले, लेकिन गांधी पर रुक गए। जहां उन्हें लगा कि उनकी बात के मैं पार जा रहा हूं वहां वे मेरे दुश्मन हो गए। मैंने बहुत मित्र बनाए, लेकिन उनमें से धीरे— धीरे दुश्मन होते चले गए। यह स्वाभाविक था। जब तक उनकी धारणा के मैं अनुकूल पड़ता रहा, वे मेरे साथ खड़े रहे। मेरे साथ तो वही चल सकते हैं, जिनकी धारणा ही चरैवेति—चरैवेति की है, जो चलने में ही मंजिल मानते हैं। जो अन्वेषण में ही, जो शोध में ही, अभियान में ही गंतव्य देखते हैं। गति ही जिनके लिए गंतव्य है, वही मेरे साथ चल सकते हैं। क्योंकि मैं तो रोज नयी बात कहता रहूंगा। मेरे लिए तो रोज नया है। हर रोज नया सूरज ऊगता है, जो डूबता है वह डूब गया। जो जा चुका, जा चुका—बीती ताहि बिसार दे!

लेकिन यहां भी लोग आ जाते हैं, वे प्रश्न लिखकर पूछते हैं, उनके मैं जवाब नहीं देता हूं कि आपने पंद्रह साल पहले यह कहां था। पंद्रह साल पहले जिसने कहां था वह कब का मर चुका। मैं कोई वह आदमी हूं जो पंद्रह साल पहले था? कितने वसंत आए, कितने वसंत गए! कितने दिन ऊगे, कितनी रातें आयीं! कितना बीत गया पंद्रह साल में! वे पंद्रह साल पहले को पकड़े बैठे हैं। वे प्रश्न पूछते हैं कि अब हम उसको मानें कि आज जो आप कह रहे हैं उसको मानें?

मैं जो आज कह रहा हूं उसको मानो और वह भी सिर्फ आज कह रहा हूं कल भी कहूंगा, इसका कोई पक्का मत समझना। मुझे कहीं नहीं ठहरना है। ठहरना मृत्यु है। ठहर—ठहरकर ही तो गंदे डबरे हो गए। कोई मुहम्मद पर ठहर गया, मुसलमान हो गया—एक गंदा डबरा हो गया। अब लाख तुम इसके आसपास शोरगुल मचाओ, बैंड—बाजे बजाओ, कि कुरान की आयतें पढ़ो, कि कपूर जलाओ, कि लोभान का धुआं उड़ाओ, कि ताज—ताजिए बनाओ, कि वली साहब नचाओ, सब कुछ करो, वह गंदा डबरा वहा है। और उसकी गंदगी छिपती नहीं।

जो कृष्ण के साथ रुक गए वे कब के रुक गए! वहा तो कीचड़ ही कीचड़ है। अब तो वहा पानी पीने योग्य भी नहीं। उस कीचड़ में अब कुछ केंचुए मिल जाएं तो मिल जाएं, कृष्ण तो न मिलेंगे। और हंस अब उस कीचड़ में नहीं उतरेंगे। और परमहंसों की तो तुम बात ही मत करो। कहां कीचड़ और कहां परमहंस! मगर उस कीचड़ को ही लपेटे जो बैठे हैं, तुमको परमहंस मालूम पडते हैं, क्योंकि कीचड़ कृष्ण की है। कृष्ण की राख चढ़ाए जो बैठे हैं, तुम सोचते हो—’अहा, यह रहे महात्मा!’ यह सब धोखा— धड़ी है। कृष्ण खुद आज लौटकर आएं तो इनके साथ राजी नहीं हो सकते। कृष्ण तो चरैवेति चरैवेति को मानेंगे। कृष्ण को तो फिर से गीता कहनी पड़ेगी, जैसे मुझे कहनी पड़ रही है।

मैंने कृष्ण की गीता कह दी है, अब शीघ्र ही मुझे अपनी गीता कहनी पड़ेगी। निश्चित ही उसमें कृष्ण की काफी फजीहत होने वाली है। उर्सा की तैयारी करवा रहा हूं धीरे— धीरे राजी कर रहा हूं तुम्हें। अब राम की रामायण फिर से लिखनी पड़ेगी। और राम से ऐसी बातें कहलवानी होंगी जो कि हिंदुओं को बिलकुल न जंचेंगी। क्योंकि वे तो वही बातें सुनना चाहेंगे जो राम ने पहले कही थीं—चाहे उन बातों का अब कोई संदर्भ हो या न हो, कोई पृष्ठभूमि हो या न हो।

इसलिए मुझसे कभी भूलकर न पूछो कि मैंने पंद्रह साल पहले क्या कहां था। पंद्रह साल की तो बात छोड़ो, पंद्रह दिन पहले क्या कहां था उसकी भी मत पूछो। उसकी भी छोड़ो, कल मैंने क्या कहां था, उसकी भी मत पूछो।

पिकासो एक चित्र बना रहा था और उसके एक मित्र ने कहां कि मैं एक बात पूछना चाहता हूं। तुमने हजारों चित्र बनाए, सबसे सुंदर चित्र कौन—सा है? पिकासो ने कहां, ‘यही जो अभी मैं बना रहा हूं। और यह तभी तक जब तक बन नहीं गया है, बन गया कि मेरा इससे नाता टूट गया। फिर मैं दूसरा बनाऊंगा। और निश्चित ही दूसरा मेरा श्रेष्ठतम होगा, क्योंकि इसको बनाने में मैंने कुछ और सीखा, इसको बनाने में मेरे हाथ और सधे; इसको बनाने में मेरे रंगों में और निखार आया; इसको बनाने में और सूझ—बूझ जगी।’

अब तुम मुझसे पूछते हो, मैंने गीता पर यह कहां था पंद्रह साल पहले, कि महावीर पर बीस साल पहले यह कहां था। तब से मेरे हाथ बहुत सधे। तब से मेरी तूलिका बहुत निखरी। तब से मेरे गो में नए उभार आए। उस बकवास को जाने दो। वह बात ऐतिहासिक हो गयी। मैं तो आज जो कह रहा हूं बस उससे जो राजी है वह मेरे साथ है। और उसे यह स्मरण रखना है कि मुझसे राजी होना चरैवेति चरैवेति से राजी होना है। कल मैं आगे चल पडूंगा, तब तुम यह न कह सकोगे कि कल ही तो हमने यह तंबू गाडा था और अब उखाडना है और हम तो इस भरोसे में गाडे थे कि आ गए!

मैं तुम्हारे सब भरोसे तोड़ दूंगा। मैं तो तुम्हें खानाबदोश बनाना चाहता हूं।’खानाबदोश’ शब्द बड़ा प्यारा है। खाना का अर्थ होता है. घर; जैसे मयखाना। खाना का अर्थ होता है : घर,… दवाखाना! बदोश का अर्थ होता है. कंधे पर।’दोश’ यानी कंधा, बदोश यानी कंधे पर। खानाबदोश बडा प्यारा शब्द है। इसका मतलब—जिसका घर कंधे पर; जो चल पड़ा है, चलता ही रहता है, चलता ही जाता है, जो रुकता ही नहीं है सत्य की इस अनंत यात्रा में। और इसका सौंदर्य यही है कि यह यात्रा अनंत है, कहीं समाप्त नहीं होती, इसका पूर्ण—विराम नहीं आता है। जिस दिन पूर्ण—विराम आ जाएगा उस दिन फिर करोगे क्या? फिर जीवन व्यर्थ हुआ। फिर आत्महत्या के सिवाय कुछ भी न सूझेगा।

इसलिए जिनने तुम्हें धारणा दी है कि मोक्ष आ गया कि सब आ गया, कि मुक्ति आ गयी कि सब आ गया, कि समाधि आ गयी कि सब आ गया, उन्होंने तुम्हें गलत धारणा दी है। उन सबने तुम्हें कहीं ठहर जाने का मुकाम बता दिया है।

और तुम सब ठहर जाने को इतने आतुर हो, चलना ही नहीं चाहते तुम, पहली तो बात। तुम कलि में ही रहना चाहते हो। की ल: शयानो भवति कोई कह दे कि शैया ही, जहां तुम सो रहे हो। यही जगह तो है! देखो न, विष्णु शयन कर रहे हैं शेषनाग पर! ये विष्णु सदा से कलियुग में हैं। इनकी नींद नहीं टूटी। और वह जो नाग है, वह हजार—हजार फनों से उनकी रक्षा कर रहा है। बड़ी जहरीली रक्षा है यह। वह इन्हें उठने भी नहीं देगा। वे उठे कि उसने फुफकारा—’कहां जाते हो, लेट रह बच्चा, कहां जाता है?’ यह शैया कोई छोड़नेवाली नहीं है। और अगर किसी तरह इनसे बच भी जाए तो लक्ष्मी मैया हैं, वह पैर दबा रही हैं।

सावधान उन लोगों से जो पैर दबाते हैं, क्योंकि दबाते—दबाते वे गर्दन दबाएंगे। आखिर वे भी तो आगे बढ़ेंगे न— चरैवेति चरैवेति! कोई पैर पर ही रुके रहेंगे? बचना हो तो पैर ही दबाने से बचना। इसलिए मैं किसी को पैर नहीं दबाने देता, क्योंकि मैं जानता हूं पैर दबानेवाला धीरे— धीरे आगे बढ़ेगा और अंततः गर्दन पर आएगा। सब सेवक गर्दन पर आ जाते हैं। सभी सेवक नेता हो जाते हैं। वही गर्दन पर आ जाना है। वे कहते हैं, ‘देखो हमने कितनी देश—सेवा की! अब क्या जरा तुम्हारी गर्दन न दबाएं? तो फिर देश—सेवा किसलिए की? अरे इतनी सेवा की, कुछ तो पुरस्कार दो! इतने पैर दबाए, अब थोड़ी तो गर्दन भी दबाने दो! अब यह मजा हम ही लेंगे, कोई दूसरा तो नहीं ले सकता। पैर हमने दबाए और गर्दन कोई और दबाए यह कभी न होने देंगे।’ और जो पैर दबाते—दबाते गर्दन तक आ गया है, उसको तुम रोक भी न पाओगे। तुम रोकने का समय पहले ही चूक गए।

दो शिष्य एक गुरु के पैर दबा रहे थे। दोपहर का वक्त, गरमी के दिन। गुरु रहे होंगे कोई गुरुघंटाल। असली गुरु पैर नहीं दबवाएगा। असली गुरु क्यों पैर दबवाएगा? और लंगड़ों से क्या पैर दबवाना? अंधों से क्या पैर दबवाना? सोए हुओं से क्या पैर दबवाना? ये तो कुछ उपद्रव करेंगे ही। तो गुरु तो नहीं रहे होंगे, गुरुघंटाल रहे होंगे। दोनों पैर दबा रहे थे। दो ही शिष्य थे उनके। सो हर चीज में बटवारा करना पड़ता था। एक ने बाया पैर लिया था, एक ने दायां। गुरु ने करवट बदली। बायां पैर दाएं पैर पर चढ़ गया। जिसका दायां पैर था, उसने कहां, ‘हटा ले अपने बाएं पैर को! अगर मेरे पैर पर तेरा पैर चढ़ा तो भला नहीं।’

लेकिन जिसका पैर चढ़ गया था, उसने कहां, ‘अरे देख लिए ऐसे धमकी देनेवाले! किसकी हिम्मत है जो मेरे पैर को नीचे उतार दे, जब चढ़ ही गया तो चढ़ ही गया? चढ़ेगा! कर ले जो तुझे करना हो!’

उसने कहां, ‘देख, हटा ले! मान जा!’ वह उठा लाया लट्ठ। उसने कहां, ‘वह दुचली बनाऊंगा तेरे पैर की…।’ मगर दूसरा भी कुछ पीछे तो छूट जानेवाला नहीं था। सोए हुए आदमियों के साथ यही तो खतरा है। दूसरा तलवार उठा लाया। उसने कहां, ‘हाथ लगा, लकड़ी चला मेरे पैर पर और देख तेरे पैर की क्या गति होती है! ही झटके में फैसला कर दूंगा।’

इस आवाज में, शोरगुल में गुरु की नींद खुल गयी। सुना आंखें बंद किए—किए कि यह मामला बिगड़ा जा रहा है। उसने कहां, ‘भाइयो, जरा ठहरो! यह भी तो खयाल करो कि पैर मेरे हैं।’

उन्होंने कहां, ‘आप शात रहिए! आपको बीच—बीच में बोलने की कोई जरूरत नहीं है। जब बटवारा हो चुका तो हो चुका। यह इज्जत का सवाल है। आप शांत रहो।’

यही हाल विष्णु का होगा इधर सांप फनफना रहा, उधर लक्ष्मी मैया पैर दबाते—दबाते जमाने हो गए, गर्दन तक तो पहुंच ही गयी होंगी। वह गर्दन दबा रही होंगी। विष्णु उठ भी नहीं सकते, वे कलि—काल में ही हैं। और वही तुम्हारे अवतार बनते हैं। वही कभी राम बन जाते, कभी परशुराम बन जाते। वही कभी कृष्ण बन जाते। उनका धंधा एक ही है। यूं समझो कि असलियत में तो वे वहीं रहते हैं अपनी शैया पर, पता नहीं कौन उनकी जगह नाटक कर जाता है! यह सब नाटक—चेटक चल रहा है। यह एक ही आदमी भारत की छाती पर चढ़ा हुआ है और वह शैया पर सो रहा है। कलियुग जारी है, सदियों से जारी है। इसको तोड्ने का समय आ गया है।

उठो! निद्रा छोड्कर बैठो। उठकर खड़े हो जाओ और फिर चलो। जो चल पड़ता है, वही कृतयुग बन जाता है। इसलिए मैं तुम्हारे इन सारे धर्मों की धारणाओं का स्पष्ट विरोध करता हूं जो कहते है आज कोई तीर्थंकर नहीं हो सकता। तीर्थंकर होने का किसी समय से कोई संबंध नहीं है। जैन कहते हैं ‘तीर्थंकर चौबीस ही हो सकते हैं, वे हो गए।’ अगर चौबीस ही हो सकते हैं, समझ लो यह भी मान लो।.

एक जैन मुनि से मेरी बात हो रही थी। कहते थे, चौबीस ही हो सकते हैं। मैंने कहां, ‘चलो यह भी मान लो, तो जो चौबीस हुए, यही वे चौबीस थे इसका कोई प्रमाण है? इनमें हो सकता है एक भी असली न हो और अभी चौबीस होने को हों। प्रमाण क्या है इनके चौबीस होने का? यह भी मान लो कि चौबीस ही हो सकते हैं, चलो कौन झगड़ा करे, चौबीस—पच्चीस कोई भी संख्या चलेगी, मगर ये ही चौबीस थे, महावीर ही चौबीसवें थे और ऋषभदेव ही पहले थे, यह क्या पक्का है?’

ऋग्वेद में ऋषभदेव का नाम है, तो जैन घोषणा करते हैं कि हमारा धर्म ऋग्वेद से पुराना हैं। मगर हिंदू दयानंद जैसे व्यक्ति यह मान नहीं सकते। वे ऋषभदेव को ऋषभदेव पढ़ते ही नहीं। वे पढ़ते हैं—वृषभदेव! सांड! नदीबाबा! वे ऋषभदेव को ऋषभदेव मानते ही नहीं, वे वृषभदेव मानते हैं।

अब वृषभदेव तुम्हारे पहले तीर्थंकर थे? यह जैन मानने को राजी न होंगे। और क्या सबूत कि जो प्रथम था वह कोई छाती पर लिखवाकर आया था, कोई सर्टिफिकेट, प्रमाण—पत्र लेकर आया था?

मेरी आलोचना निरंतर अखबारों में की जाती है कि मैं स्व—घोषित भगवान हूं। मैं ऐसे पूछता हूं तुम्हारा कौन—सा भगवान था जो सर्टिफिकेट लेकर आया था? अगर मैं स्व—घोषित हूं तो कौन था जो स्व—घोषित नहीं था? आखिर महावीर का दावा खुद का दावा था। महावीर के समय में आठ और लोग थे जो दावेदार थे। यह और बात है कि वे आठों हार गए महावीर से तर्क में। मगर इससे यह सिद्ध नहीं होता कि जो तर्क में जीत गया था, जो वकालत में जीत गया था, वह असली था।

और तर्क में ही जीतना हो तो मुझे कोई ‘अड़चन है? अगर तर्क से ही प्रमाणित हो सकता हो, तब तो मेरी जीत सुनिश्चित है। तर्क की तो बखिया मैं अच्छी तरह उखेड़ सकता हूं इसमें मुझे कोई अड़चन नहीं है। तुम्हारे बड़े से बड़े तार्किकों की धज्जी उड़ाई जा सकती है, इसमें कुछ भी नहीं। इनको चारों खाने चित्त करने में कोई अड़चन नहीं, क्योंकि इनके तर्क भी पिटे—पिटाए हैं और पुराने हैं। अब तर्क नए दिए जा सकते हैं, जिनका इनको पता भी नहीं था, जिनका इनको होश भी नहीं था, जिनको उठाने की इनकी हिम्मत भी नहीं हो सकती।

अब कौन कहेगा कि विष्णु महाराज कलियुग में जी रहे हैं? किसी ने आज तक नहीं कहां। मगर साफ है। शैया पर—जब देखो तब शैया पर लेटे हुए हैं। जिंदा भी हैं कि मर गए, यह भी शक है। और सांप फुफकार रहा है, मर ही चुके होंगे। कब तक जिंदा रहोगे सांप पर? और सोना, यह भी कोई ढंग है? अरे उठो भी, नहाओ— धोओ भी, कम से कम दतौन वगैरह करो, कुछ चाय—नाश्ता करो। कुछ भजन—पूजन करो, कुछ तो करो! यह मुर्दे की तरह पड़े हो; यह आसन न हुआ, शवासन हो गया।

कौन लेकर आया था प्रमाण —पत्र? महावीर के समय में संजय वेलट्ठिपुत्त था, जो कह रहा था, ‘मैं चौबीसवा तीर्थंकर हूं।’ उसका कसूर अगर कोई था तो एक ही था कि वह आदमी जरा दीवाना था और मस्त था। महावीर जैसा नियमबद्ध नहीं था, इसलिए भीड़— भाड़ इकट्ठी न कर पाया। मस्तों का वह दुर्भाग्य है। उनकी मस्ती के कारण भीड़ उनके पास इकट्ठी नहीं हो सकती, कुछ मस्त इकट्ठे हो सकते हैं। संजय वेलट्ठिपुत्त जोरदार बातें कहता था। जैसे महावीर ने कहां कि सात नर्क होते हैं। उसने कहां, ‘गलत! ये सात तक ही गए होंगे। अरे सात सौ नर्क हैं, मैं सब पूरी आखिरी छानबीन कर आया। और सात सौ ही स्वर्ग हैं। ये सातवें स्वर्ग तक गए होंगे, इसलिए बेचारे सातवें तक की बातें करते हैं। जो जहां तक गया है वहां तक की बात करता है। मैंने ऊपर से नीचे तक सब छानबीन कर डाली।’

यह मस्ती में कही हुई बात .है। यह मजाक कर रहा है वह कि क्या बकवास लगा रखी है सात की! और फिर सात की ही बात हो तो सात सौ की क्यों न हो! अरे फिर कंजूसी क्या?

संजय वेलट्ठिपुत्त मस्ताना आदमी था। मक्खली गोशालक दावेदार था कि मैं असली चौबीसवा तीर्थंकर हूं! वह महावीर का पहले शिष्य था। फिर देखा उसने जब महावीर हो सकते हैं चौबीसवें तीर्थंकर तो मैं क्यों नहीं हो सकता! सो अलग हो गया और उसने घोषणा कर दी। महावीर को स्वभावत: नाराजगी तो हुई कि मेरा ही शिष्य, बारह साल मेरे साथ रहा और मेरी ही बातें करता है और मेरे ही खिलाफ दावेदारी करता है। महावीर उस गांव गए जहां मक्‍खली गोशालक ठहरा हुआ था। उस धर्मशाला में ठहरे और मक्‍खली गोशालक से कहां कि मैं मिलना चाहता हूं। मक्‍खली गोशालक मिला। उन्होंने पूछा कि तू मेरा शिष्य था। उसने कहां, इससे सिद्ध होता है कि आप अज्ञानी।

महावीर ने कहां, ‘इससे कैसे सिद्ध होता है कि मैं अज्ञानी?’

गोशालक ने कहां, ‘आप पहचान ही नहीं पाए। यह देह वही है, मगर वह आत्मा तो गयी। इसमें चौबीसवें तीर्थंकर की आत्मा प्रविष्ट हो गयी है, जो तुम्हारी शिष्य कभी नहीं रही। तुम अभी तक देह पर अटके हो। तुम्हें देह ही दिखाई पड़ रही है। अरे आत्मा को देखो! यह क्या अज्ञान है?’

महावीर कहते रहे, ‘यह झूठ बोल रहा है।’ और लोगों को भी बात जंची कि यह आदमी अजीब बातें कर रहा है, कि इसकी आत्मा तो जा चुकी और चौबीसवें तीर्थंकर की आत्मा इसमें प्रवेश कर गयी! मगर वह भी मस्त किस्म का आदमी था; उसके शिष्य भी मस्तमौला थे। इसलिए भीड़— भाड़ इकट्ठी नहीं हो सकी। मगर बात तो उसने मजे की कही। वह भी मजाक में ही कही थी।

ऐसे और भी लोग थे। अजित केशकंबली था। खुद गौतम बुद्ध थे। गौतम बुद्ध ने इनकार किया है कि महावीर तीर्थंकर हैं, सर्वज्ञ हैं। कैसे सर्वज्ञ हैं, क्योंकि बुद्ध ने कहां, ‘मैंने उन्हें ऐसे घरों के सामने भिक्षा मांगते देखा जिस घर में वर्षों से कोई नहीं रहता। ये क्या खाक सर्वज्ञ हैं, इनको यह भी पता नहीं कि यह घर खाली है, उसके सामने भिक्षा मांगते खड़े हैं! जब पडोस के लोग कहते हैं कि वहां कोई रहता ही नहीं, आप बेकार खड़े हैं, तब ये आगे हटते हैं। और ये तीन काल के ज्ञाता और इनको इतना भी ज्ञान नहीं कि घर खाली हैं! दरवाजे के पीछे देख नहीं पाते और तीन काल देख रहे हैं, त्रिलोक इनकी आंखों के सामने हैं! ये कैसे तीर्थंकर हैं! सुबह उठकर चलते हैं रास्ते पर अंधेरे में, कुत्ते की पूंछ पर पैर पड़ जाता है; जब कुत्ता भौंकता है तब पता चलता है कि पूंछ पर पैर पड़ गया है।’

ये बुद्ध ने महावीर के संबंध में बातें कही हैं। तो कौन तीर्थंकर है? किसके पास दावा है? किसके पास सर्टिफिकेट है? या कि तुम सोचते हो कि कोई तीर्थंकर, कोई अवतार वोट से तय होता है? तो किसको वोट मिली थी? और वोट अगर मिलती तो ये सब हार गए होते। बुद्ध को कितनी वोट मिलती। जीसस को कितनी वोट मिलती? मुहम्मद को कितनी वोट मिलती। आज की संख्या मत गिनना। आज तो करोड़ों की संख्या है जीसस के पीछे। कोई एक अरब आदमी ईसाई हैं। मगर जीसस को जब सूली लगी तो एक भी शिष्य वहा मौजूद नहीं था, सब भाग खड़े हुए। एक शिष्य ने पीछा करने की कोशिश की थी रात में, तो जीसस ने कहां था कि देख, मत पीछे आ। मैं तुझे जानता हूं। सुबह मुर्गा बोले, इसके पहले तीन बार तू मुझे इनकार करेगा। लेकिन उसने कहां, ‘कभी नहीं, कभी नहीं! मैं और इनकार करूं! मेरा समर्पण पूरा है!’

वह चल पड़ा। दुश्मन जीसस को पकड़कर चले, जंजीरें बांधकर चले। रात थी अंधेरी, मशालें लेकर चले और वह भी उस भीड़ में सम्मिलित हो लिया। लेकिन भीड़ को शक हुआ—यह आदमी कुछ अपरिचित मालूम पड़ता है। यह अपने वाला नहीं है। और कुछ संदिग्ध दिखता है, कुछ डरा—डरा भी, कुछ भयभीत भी, कुछ आह्लादित भी नहीं मालूम होता कि जीसस पकड़ लिए गए हैं, सब प्रसन्न हो रहे हैं कि अब खात्मा हो गया इस आदमी का, यह उपद्रव मचा रहा था। सिर्फ यह आदमी उदास दिखता है। पकड़ लिया कि तुम कौन हो, क्या तुम जीसस के शिष्य हो? उसने कहां कि नहीं, मैं तो एक परदेसी हूं। जेरुसलम की तरफ जा रहा था। रात अंधेरी है, तुम्हारे पास मशालें हैं, इसलिए साथ हो लिया। और तुम भी जेरुसलम जा रहे हो, सोचा कि ठीक है, रास्ते में किस—किससे पूछूंगा! अंधेरी रात है, कोई मिले न मिले।

जीसस पीछे लौटे और उन्होंने कहां, ‘देख, अभी मुर्गे ने बांग भी नहीं दी!’ और यह घटना तीन बार घटी; मुर्गे के बांग देने के पहले तीन बार घटी। इनसे वोट मिल सकता था? और ये दस—बारह लोग थे कुल, उनमें से ही एक ने तीस रुपये में जीसस को बेचा था—जुदास ने। कितने लोग उन्हें वोट देने जाते? कौन हिम्मत करता वोट देने की, जो मुर्गे के बांग देने के पहले इनकार कर दिए थे! और जीसस के पास कौन—सा सर्टिफिकेट था परमात्मा का कि वे ही ईश्वर के इकलौते बेटे हैं?

मुझ पर आलोचना की जाती है कि मै स्व—घोषित भगवान हूं। मैं तुमसे कहता हूं इसके सिवाय तो कोई उपाय ही नहीं है, कभी नहीं रहा। आखिर आंख वाला ही घोषणा कर सकता है कि मुझे प्रकाश दिखाई पड़ रहा है। अंधों से वोट लेनी पड़ेगी, कि अंधों का सर्टिफिकेट चाहिए पड़ेगा?

मैं जब विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण हुआ तो मैं प्रथम कोटि में विश्वविद्यालय में प्रथम आया था। स्वभावत: मुझे निमंत्रण मिला शिक्षा—मंत्रालय से कि अगर मैं चाहूं तो मेरे लिए पहला अवसर है प्रोफेसर हो जाने का। मैं गया। मैंने कहां, ‘ठीक, आपका निमंत्रण आया, मैं राजी हूं।’

उन्होंने कहां, ‘लेकिन कागज—पत्र आप सब ले आए हैं?’

मैंने कहां, ‘यह रहा सर्टिफिकेट जो जाहिर करता है कि मैं प्रथम श्रेणी में प्रथम आया हूं। और क्या चाहिए?’

‘उन्होंने कहां, ‘चरित्र का प्रमाण —पत्र चाहिए।’

मैंने कहां, ‘यह जरा मुश्किल है।’

उन्होंने कहां, ‘क्यों, इसमें क्या मुश्किल है? क्या आप अपने विश्वविद्यालय के उपकुलपति का चरित्र का प्रमाण—पत्र नहीं ला सकते?

मैंने कहां, ‘ला सकता हूं लाने में कोई अड़चन नहीं। आ रहा था तो उन्होंने मुझसे कहां था, लेकिन मैंने इनकार किया, क्योंकि मैं उनको चरित्र का सर्टिफिकेट नहीं दे सकता तो उनसे मैं कैसे चरित्र का सर्टिफिकेट लूं? शराबी—कबाबी, वेश्यागामी—कौन—से गुण हैं जो उनमें नहीं हैं? उनसे मैं क्या चरित्र का सर्टिफिकेट लूं?’

मैंने उनसे पूछा, ‘आप सोचते हैं आपसे मैं चरित्र का सर्टिफिकेट ले सकता हूं? पहले आप यह तो पूछो कि मैं आपको चरित्र का सर्टिफिकेट दे सकता हूं?’

सो बात वहीं बिगड़ गयी। शिक्षा —मंत्री ने कहां, ‘फिर जरा मुश्किल आएगी।’…’ फिर क्या किया जाए?’ —

मैंने कहां, ‘मैं ही चरित्र का सर्टिफिकेट लिख सकता हूं अपने बाबत।’

उन्होंने कहां, ‘ऐसा नियम नहीं है।’

तो मैंने कहां, ‘आप जिसके दस्तखत कहें उसके दस्तखत कर सकता हूं।’

उन्होंने कहां, ‘यह कैसे होगा?’

मैंने कहां, ‘यह आप कार्बन—कापी समझें। और जिसके दस्तखत मैं करता हूं उससे दस्तखत मैं ले लूंगा, मूल कापी मेरे पास रहेगी। आप मूल कापी चाहेंगे तो मूल कापी आपको लाकर दे दूंगा।’

तो मेरे प्रोफेसर थे डाक्टर एस. के. सक्सेना, उनके नाम से मैंने सर्टिफिकेट लिख दिया। शिक्षा—मंत्री थोड़े हिचके—बिचके, मगर मेरा रंग—ढंग देखकर उनको समझ में आ गया कि इस आदमी से झंझट लेना ठीक भी नहीं। सो उन्होंने सर्टिफिकेट रख लिया, मुझे नौकरी भी मिल गयी। मैंने डाक्टर एस के. सक्सेना से जाकर कहां कि यह मेरा सर्टिफिकेट है? आपके दस्तखत मैंने किए हैं, आप इसकी मूल प्रति बना दें।

उन्होंने कहां, ‘जिंदगी हो गयी मेरी सर्टिफिकेट लिखते, मूल प्रति पहले बनायी जाती है, फिर उसकी सर्टिफाइड कापी होती है!’ मैंने कहां, ‘मेरे साथ कोई नियम काम नहीं करता। आपको एतराज अगर हो जो मैंने अपने बाबत लिखा है इसमें, तो आप मत मूल प्रति दें। आप सर्टिफिकेट पढ़ लें।’

सर्टिफिकेट में मैंने जो लिखा था वह शिक्षा—मंत्री ने भी पढ़ा नहीं था, सिर्फ रख लिया था। जब डाक्टर एस. के. सक्सेना ने उसको पढ़ा, कहने लगे कि तुमने क्या लिखा है कि मैं परम अज्ञानी हूं कि मेरे चरित्र का कोई ठिकाना नहीं कि मैं आज कुछ हूं कल कुछ हूं मैं भरोसे का आदमी नहीं हूं! यह चरित्र का सर्टिफिकेट है?

मैंने कहां, ‘अंधों को देना है, अंधों से लेना है। आंखवाला और करे क्या? तुम सिर्फ दस्तखत करो। न शिक्षा—मंत्री ने पढा, न तुम पढ़ो।’

उन्होंने जल्दी से दस्तखत किए। उन्होंने कहां कि तुम मुझसे कहते, मैं सुंदर सर्टिफिकेट लिखता। मैंने कहां, ‘तुमसे मैं सर्टिफिकेट ले सकता नहीं। वही अड़चन है। तुम भी जानते हो कि मैं तुमसे सर्टिफिकेट नहीं ले सकता।’

उन्होंने कहां, ‘वह मैं जानता हूं। सच में मैं अधिकारी भी नहीं हूं।’ वे आदमी बड़े ईमानदार थे। वे इतने ईमानदार आदमी थे कि उनके घर मैं ठहरता था तो वे सिगरेट भी नहीं पीते थे, शराब भी नहीं पीते थे। मैंने उनसे कहां, ‘यह बात अनाचार की है। इससे मुझे कष्ट होता है। मैं आपके घर ठहरना बंद कर दूंगा, क्योंकि मैं किसी में दमन नहीं लाना चाहता। यह दमन है। आप दिनभर सिगरेट पीते हैं, मेरी मौजूदगी में आप बिलकुल सिगरेट नहीं पीते, तकलीफ होती होगी। यह पाप मैं सिर पर न लूंगा। और सिगरेट पीने में हर्ज क्या है? अरे साल दो साल पहले… जल्दी मरोगे! सो ऐसे भी जीकर क्या कर रहे हो? और कई लोग कतार में खड़े हैं जो राह देख रहे हैं कि तुम मरो तो वे प्रधान हो जाएं। तुम जब तक न मरो तब तक वे विभाग के अध्यक्ष नहीं हो सकते। सो जी भरकर पीओ। शराब में क्या हर्जा है? यूं ही बेहोश हो, अब और क्या बेहोश होओगे? और बेहोश आदमी से और क्या अपेक्षा की जा सकती है? क्या ध्यान पीएगा? तुम मेरा लाज—संकोच करोगे तो मैं यहां नहीं आऊंगा, क्योंकि मेरा लाज—संकोच दमन बने तो जिम्मेवारी मेरी हो जाती है। ही, तुम्हारी समझ में आ जाए कि यह मूर्खता है और छूट जाए, तब बात और। तब फिर मैं रहूं या न रहूं तुम्हारे घर में, फिर तुम्हें सिगरेट नहीं पीनी चाहिए, शराब नहीं पीनी चाहिए। मेरी मौजूदगी के कारण तो दमन होगा।’

इसलिए वे कहने लगे कि यह तो मैं जानता हूं कि मेरे प्रमाण—पत्र का कोई अर्थ नहीं। मगर इसी तरह के प्रमाण—पत्रों के अर्थ समझे जा रहे हैं।

जो लोग मुझसे पूछते हैं स्व—घोषित भगवान आप कैसे, उनसे मैं कहना चाहता हूं : जिसने भगवत्ता जानी वही घोषणा करेगा। बुद्ध ने स्वयं घोषणा की कि मैं परम निर्वाण को उपलब्ध हुआ हूं। किसका और सर्टिफिकेट है? मुहम्मद ने खुद घोषणा की कि मेरे ऊपर परमात्मा की किताब उतरी है। किसका और सर्टिफिकेट है? कोई गवाह है? हालत तो यह है कि खुद मुहम्मद को भी शक हुआ था कि यह किताब परमात्मा की मुझ पर उतर रही है या मैं पागल हो रहा हूं! जब किताब उतरी तो वे घर भागे हुए आए, उन्हें बुखार चढ़ गया। यह मुहम्मद की सादगी, सरलता का सबूत है। उन्होंने अपनी पत्नी से कहां कि जितनी भी दुलाइयां हों घर में, सब मेरे ऊपर डाल दे। मुझे कुछ हो गया है। या तो मैं सन्निपात में हूं क्योंकि मुझसे ऐसी बातें निकल रही हैं जो मेरी नहीं, मैंने कभी सोची नहीं। ऐसी सुंदर आयतें मेरे. भीतर गज रही हैं। ऐसे सुंदर गीत जो निश्चित ही मेरे नहीं हैं, जिन पर मेरा कोई हस्ताक्षर नहीं है। तो या तो मैं सन्निपात में हूं कि मुझे कुछ का कुछ हो रहा है, अल्ल—बल्ल, जो मेरे वश के बाहर है और या, फिर मैं कवि हो गया हूं जो कि और भी बदतर है। क्योंकि सन्निपात से तो आदमी का इलाज है, कवि हो गए तो फिर कोई इलाज ही नहीं। जहां न पहुंचे शशि, वहा पहुंचे कवि! इनका तो कुछ हिसाब ही नहीं है।

लेकिन आयशा, उनकी पत्नी ने कहां कि मुझे कुछ कहो, क्या हो रहा है तुम्हारे भीतर? मुहम्मद ने पहले अपनी आयतें सुनायी। आयशा ने कहां, ‘तुम भूल में हो। आयशा उनसे उम्र में बहुत बड़ी थी। इसलिए कभी—कभी अपनी उम्र से ज्यादा उम्र की स्त्री से शादी करना फायदे की बात है। काफी बड़ी थी। मुहम्मद छब्बीस साल के थे, आयशा चालीस साल की थी। अनुभवी थी। मां की उम्र की थी। उसने आयतें सुनीं। उसने कहां, इससे सुंदर सूत्र तो मैंने कभी सुने नहीं! न तो तुम सन्निपात में हो, न तुम कवि हो। तुम पर परमात्मा के वचन उतरे हैं। ये वचन इतने प्यारे हैं कि परमात्मा के ही हो सकते हैं।’

उसने भरोसा दिलाया, तब कहीं मुहम्मद को भरोसा आया। आयशा उनकी पहली शिष्या थी—पहली मुसलमान। उसने ही सहारा दिया तो मुहम्मद हिम्मत जुटा पाए औरों से कहने की। मगर बहुत सम्हल—सम्हल करकदम चले। लेकिन प्रमाण क्या था? भीड़— भाड़ ने तो मुहम्मद को माना नहीं। जगह—जगह से उखाड़े गए। एक—एक गांव से भगाए गए। जिंदगीभर लोग उनको मारने के पीछे पड़े रहे। इनसे तुम वोट ले सकते थे?

मेरे जैसे व्यक्ति को तो अपनी घोषणा स्वयं ही करनी होगी। और मेरे जैसे व्यक्ति को पचाना केवल थोडे—से छातीवाले लोगों की बात हो सकता है।

इसलिए मैं तुमसे कहता हूं : यह सूत्र मैंने ही कहां होगा। यह सूत्र और कौन कहेगा? यह सूत्र बिलकुल मेरे हृदय की आवाज है। यह मेरी आयत है—

कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:।

उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन्।

चरैवेति। चरैवेति।।

‘बहुतेरे हैं घाट’ प्रवचनमाला से

दिनांक 23 मार्च 1981; श्री रजनीश आश्रम पूना

 


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–41)

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परिशिष्‍ट—1

भारत : एक अनूठी संपदा

प्‍यारे ओशो!

भारत में आपके पास होना, दुनिया में और कहीं भी आपके सान्निध्य में होने से अधिक प्रभावमय है। प्रवचन के समय आपके चरणों में बैठना ऐसा लगता है जैसे संसार के केंद्र में, हृदय—स्थल में स्थित हों। कभी—कभी तो बस होटल के कमरे में बैठे—बैठे ही आंखें बंद कर लेने पर मुझे महसूस होता है कि मेरा हृदय आपके हृदय के साथ धड़क रहा है।

सुबह जागने पर जब आसपास से आ रही आवाजों को सुनती हूं तो वे किसी भी और स्थान की अपेक्षा, मेरे भीतर अधिक गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं। ऐसा अनुभव होता है कि यहां पर ध्यान बडी सहजता से, बिना किसी प्रयास के, नैसर्गिक रूप से घटित हो रहा है।

क्या भारत में आपके कार्य करने की शैली भिन्न है, अथवा यहां कोई ”प्राकृतिक बुद्ध— क्षेत्र ”जैसा कुछ है?

लतीफा! भारत केवल एक भूगोल या इतिहास का अंग ही नहीं है। यह सिर्फ एक देश, एक राष्ट्र, एक जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है। यह कुछ और भी है — एक प्रतीक, एक काव्य, कुछ अदृश्य सा — किंतु फिर भी जिसे छुआ जा सके! कुछ विशेष ऊर्जा—तरंगों से स्पंदित है यह जगह, जिसका दावा कोई और देश नहीं कर सकता।

इधर दस हजार वर्षों में सहस्रों लोग चेतना की चरम विस्फोट की स्थिति तक पहुंचे हैं। उनकी तरंगें अभी भी जीवंत हैं। उनका असर अभी भी हवाओं में मौजूद है। तुम्हें सिर्फ एक विशेष तरह की ग्राहकता की संवेदनशीलता की, उस अदृश्य को ग्रहण करने की क्षमता की जरूरत है — जो इस अद्भुत भूमि को घेरे हुए है।

अद्भुत इसलिए कहां, क्योंकि इसने सिर्फ एक ही खोज — सत्य की खोज के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया। इस देश ने बड़े फिलासफर पैदा नहीं किए — तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा — न प्लेटो, न अरस्‍तू; न थामस एक्‍युनस, न कांट; न हीगल, न ब्राडले; और न ही बर्ट्रेंड रसेल। भारत के पूरे अतीत ने एक भी फिलासफर को जन्म नहीं दिया — और वे सत्य की खोज में संलग्न

निश्चित ही उनकी खोज, अन्य देशों में की जा रही खोज से सर्वथा भिन्न थी। दूसरे देशों में लोग सत्य के संबंध में चिंतन कर रहे थे। भारत में वे सत्य के बारे में विचार नहीं कर रहे थे — क्योंकि कोई सत्य के विषय में भला क्या विचार कर सकता है! या तो सत्य को जानते हो, या नहीं जानते हो। चिंतन—मनन असंभव है, फिलासफी की संभावना ही नहीं, वह तो बिलकुल ही फिजूल और व्यर्थ की मेहनत है। वह तो एक अंधे आदमी द्वारा प्रकाश के संबंध में सोचने—विचारने जैसी बात है — क्या खाक चिंतन कर सकता है वह? हो सकता है वह बड़ा प्रतिभाशाली हो, महान तर्कशास्त्री हो, पर इससे क्या फर्क पड़ता है? न प्रतिभा की जरूरत है और न तर्कों की। जरूरत तो है बस आंखों की — जो देख सकें।

प्रकाश देखा जा सकता है, पर सोचा नहीं जा सकता। सत्य भी देखा जा सकता है, किंतु विचारा नहीं जा सकता। इसीलिए भारत में हमारे पास ‘फिलासफी’ का समानार्थी शब्द ही नहीं है। सत्य की खोज को हम दर्शन कहते हैं, और ‘दर्शन’ का मतलब होता है — ‘देखना’। फिलासफी का अर्थ है सोचना—विचारना, और स्मरण रहे कि विचार—प्रक्रिया हमेशा वर्तुलाकार होती है, इर्द — गिर्द घूमती है… बस विषय में, विषय में और विषय में.. वह कभी भी अनुभूति के केंद्र बिंदु पर नहीं पहुंचती।

पूरी दुनिया में भारत ही एक ऐसी भूइम है, जिसने अद्भुत रूप से अपनी सारी प्रतिभा को सत्य को जानने और सत्य ही हो जाने के प्रयास में एकाग्र कर दिया, समर्पित कर दिया।

भारत के पूरे इतिहास में एक भी बड़ा वैज्ञानिक तुम न पाओगे। ऐसा नहीं कि यहां बुद्धिमान और कुशल लोग न हुए, कि प्रतिभाएं नहीं जन्मी। गणित की आधारशिला भारत में रखी गई थी, किंतु अल्वर्ट आइंस्टीन यहां पैदा नहीं हुआ। चमत्कारिक रूप से यह पूरा देश किसी बाह्य खोज में उत्सुक ही नहीं था।’पर’ की पहचान नहीं, वरन् स्वयं को जानना ही यहां एकमात्र लक्ष्य रहा।

कम से कम दस हजार सालों से लाखों—करोड़ों लोग सतत एक ही प्रयास में जुटे रहे, उसके पीछे सब कुछ बलिदान कर दिया — विज्ञान, तकनीकी विकास, समृद्धि। उन्होंने दरिद्रता, रुग्णता, बीमारिया और मृत्यु को भी स्वीकार कर लिया, परंतु सत्य की खोज को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा… इससे एक खास किस्म का वातावरण निर्मित हुआ, कुछ विशेष तरह की तरंगों का सागर जो चारों ओर से तुम्हें घेरे है।

यदि कोई थोड़े से भी ध्यानी चित्त को लेकर यहां आता है, तो उसे उन तरंगों का संस्पर्श होगा। ही, अगर एक पर्यटक की भांति आते हो तो तुम चूक जाओगे। तुम मंदिरों, महलों, खंडहरों को, ताजमहल, खजुराहो, और हिमालय को तो देख लोगे, पर भारत को नहीं देख पाओगे। तुम असली भारत से बिना मिले ही भारत से गुजर जाओगे। यद्यपि वह सब ओर व्याप्त था, पर तुम संवेदनशील न थे, ग्राहक न थे। तुम कुछ ऐसा देखकर लौटोगे जो वास्तविक भारत नहीं, सिर्फ उसका अस्थि—पंजर है, आत्मा नहीं। तुम्हारे पास उस अस्थि—पंजर के फोटोग्राफ्स होंगे, उनका एलबम बनाओगे और सोचोगे कि भारत घूम आए, भारत को जान लिया.. .यह स्वयं को धोखा दे रहे हो तुम।

एक आध्यात्मिक पहलू भी है। न तो तुम्हारे कैमरा उसके चित्र लेने में, और न ही तुम्हारे शिक्षा—संस्कार उसे पकड़ने में सक्षम हैं। जर्मनी, इटली, फ्रांस, इंग्लैंड किसी भी देश में जाकर तुम वहा के लोगों से मिल सकते हो। वहा के भूगोल से, इतिहास और अतीत से भलीभांति परिचित हो सकते हो। लेकिन जहां तक भारत का प्रश्न है, ऐसा नहीं किया जा सकता। यदि अन्य देशों की श्रेणी में भारत को गिना, तो प्रारंभ से ही तुमने चूक कर दी, क्योंकि उन देशों में वैसा आध्यात्मिक आभामंडल नहीं है। उन्होंने एक भी गौतम बुद्ध, महावीर, नेमीनाथ और आदिनाथ को जन्म नहीं दिया। एक भी कबीर, फरीद या दादू पैदा नहीं किया। उन्होंने बड़े वैज्ञानिकों, कवियों, कलाकारों, चित्रकारों और सभी प्रकार के प्रतिभा—संपन्न व्यक्तियों को तो पैदा किया, पर रहस्यदर्शी ऋषि भारत की मोनोपली है, एकाधिकार है, कम से कम अभी तक तो रहा है।

और ऋषि एक बिलकुल ही भिन्न प्रकार का मनुष्य है। वह मात्र प्रतिभावान ही नहीं, एक महान् चित्रकार या कवि ही नहीं — वह तो दिव्यता का माध्यम है, भगवत्ता के लिए एक पुकार और आमंत्रण है। वह भीतर दिव्यता के उतरने के लिए द्वार खोलता है। और हजारों सालों से लाखों ऋषियों ने द्वार खोले हैं — इस देश की हवाओं को दिव्यता से भरने के लिए। मेरे लिए वह दिव्य वातावरण ही वास्तविक भारत है। परंतु उसे जानने के लिए तुम्हें एक विशेष प्रकार की भावदशा में होना होगा।

लतीफा, चूकि— तुम शांत होने का प्रयास कर रही हो, ध्यान में डूब रही हो, इसलिए वास्तविक भारत को तुम स्वयं के संपर्क में आने दे पा रही हो। ही, तुम ठीक कहती हो जिस सरलता से इस गरीब देश में तुम सत्य को उपलब्ध कर सकती हो, वैसा किसी और जगह पर संभव नहीं। यह अत्यंत दीन—हीन है पर फिर भी इसकी आध्यात्मिक वसीयत इतनी समृद्ध है कि अगर तुम अपनी आंखें खोलकर उसे देख सको तो बहुत आश्चर्यचकित हो जाओगी। शायद यही एकमात्र मुल्क है जो बड़ी गहनता से चैतन्य के विकास में संलग्न रहा, किसी और चीज में नहीं। दूसरे सभी मुल्क और हजारों चीजों में व्यस्त रहे। लेकिन इस मुल्क का एक ही लक्ष्य, एक ही उद्देश्य रहा कि कैसे मनुष्य की चेतना उस बिंदु तक उठ सके, जहां भगवत्ता से मिलन हो। कैसे भगवत्ता और मनुष्य करीब आएं!

और यह किसी इक्के—दुक्के आदमी की नहीं, करोड़ों—करोड़ों व्यक्तियों के जीवन की बात है। कोई एक दिन, महीना, या साल का सवाल नहीं, सहस्रों वर्षों की सतत् साधना है। स्वभावत: इस देश में सब ओर एक अत्यंत ऊर्जामय क्षेत्र निर्मित हो गया है, वह पूरी जगह पर छाया है। तुम्हें सिर्फ तैयार (संवेदनशील) होना है।

यह संयोग मात्र ही नहीं है कि जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्सुक हो उठता है, अचानक वह पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है जितने पुराने प्रमाण और उल्लेख मौजूद हैं। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व, सत्य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। ईसामसीह भी भारत आए थे। ईसामसीह की तेरह से तीस वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्लेख नहीं है। —और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्योंकि तैंतीस की उम्र में तो उन्हें सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से तीस तक के सत्रह सालों का हिसाब गायब है! इतने समय वे कहां रहे, और बाइबिल में उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्हें जान—बूझकर छोड़ा गया है, कि वह एक मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसामसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं।

यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्मे, यहूदी की तरह जिए, और यहूदी की तरह मरे। स्मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्होंने तो—ईसा’ और ‘ईसाई’ ये शब्द भी नहीं सुने थे। फिर क्यों उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्यों? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक—ठीक जवाब है, न ही यहूदियों के पास। क्योंकि इस व्यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। वे उतने ही निर्दोष थे, जितनी कि कल्पना की जा सकती है।

…..पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्म था। पढे—लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्पष्ट देख लिया कि वे पूरब से विचार ला रहे हैं, जो कि गैर—यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ला रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्हें समझ आएगा कि क्यों वे बार—बार कहते हैं— ” अतीत के पैगम्बरों ने तुमसे कहां था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे, तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है, तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।’’ यह पूर्णत: गैर—यहूदी बात है। उन्होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।

वे जब भारत आए थे—तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए, पर ने इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्क उसमें डूबा हूआ था: उनकी करुणा, क्षमा, और प्रेम के उपदेशों को पिए हुआ था। जीसस कहते हैं कि ”अतीत के पैगम्बरों द्वारा यह कहां गया था” —कौन, हैं ये पुराने पैगम्बर? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगम्बर हैं : इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस, — ”कि ईश्वर बहुत ही हिंसक है, और वह कभी क्षमा नहीं करता!? ”

यहां तक कि उन्होंने ईश्वर के मुंह से भी ये शब्द कहलवा दिए हैं। पुराने टेस्टामेंट के ईश्वर के वचन हैं, ”मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं चाचा नहीं। मैं क्रोधी और ईर्ष्यालु और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं हैं, वे सब मेरे शत्रु हैं।’’

और ईसामसीह कहते है कि ‘’मैं तुमसे कहता हूं : परमात्मा प्रेम है।’’ यह खयाल उन्हें कहां से आया कि परमात्मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाय दुनिया में कहीं भी परमात्मा को प्रेम कहने का कोई और उल्लेख नहीं है।

उन सत्रह वर्षों में जीसस इजिप्त, भारत, लद्दाख, और तिब्बत की यात्रा करते रहे। और यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परम्परा में बिलकुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं से एकदम विपरीत थीं।

तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि अंततः उनकी मृत्यु भी भारत में हुई। और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे, तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्या हुआ? आजकल वे कहां हैं? क्योंकि उनकी मृत्यु का तो कोई उल्लेख है ही नहीं!

सचाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्योंकि यहुदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब—करीब अडतालीस घंटे लग जाते हैं। चूकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं, तो बूंद—बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्वस्थ है तो साठ घंटे से भी ज्यादा लोग जीवित रहे ऐसे उल्लेख हैं। औसत अड़तालीस घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छह घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छह घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।

यह एक मिलीभगत थी (जीसस के शिष्यों की) पोंटियस पॉयलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वह रोमन वायसराय था। क्योंकि जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्य के आधीन था, और इस निर्दोष युवक की हत्या में उसे कोई रुचि नहीं थी। उसके दस्तखत के बगैर यह हत्या नहीं हो सकती थी, और उसे अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए, वह एक जीसस मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॉयलट दुविधा में था : यदि वह जीसस को छोड देता है, तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह इस व्यक्ति को सूली देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा मगर उसके स्वयं के अंतःकरण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्यक्ति की हत्या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था।

तो उसने शिष्यों के साथ यह व्यवस्था की कि शुक्रवार को, जितनी संभव हो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूकि सूर्यास्त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार के कामधाम बंद कर देते हैं; फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्थगित किया जाता रहा; ब्यूरोक्रेसी तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अत: जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया, और सूर्यास्त के पूर्व ही उन्हें जीवित उतार लिया गया, यद्यपि वे बेहोश थे, क्योंकि शरीर से रक्त स्राव हुआ था, और कमजोरी आ गई थी। फिर जिस गुफा में उनकी देह को रखा गया वहां का चौकीदार.. .पवित्र दिन के पश्चात् यहूदी उन्हें पुन: सूली पर चढ़ाने वाले थे, मगर वह चौकीदार, गुफा का रक्षक रोमन था… इसीलिए यह संभव हो सका कि शिष्यगण जीसस को बाहर निकाल लिए और फिर जूडिया के भी बाहर गए।

जीसस ने भारत में आना क्यों पसंद किया? क्योंकि अपनी युवावस्था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्होंने अध्यात्म का और ब्रह्म का परम स्वाद इतनी निकटता से चखा था, कि उन्होंने वहीं लौटना चाहा। तो जैसे ही स्वस्थ हुए वे वापस भारत आए और फिर एक सौ बारह साल की उम्र तक जिए।

काश्मीर में अभी भी उनकी कब है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रु भाषा में है.. स्मरण रहे भारत में कोई यहूदी नहीं रहते। उस शिलालेख पर खुदा है ”जोशुआ” —वह हिब्रु भाषा में ईसामसीह का नाम है।’जीसस’ ‘जोशुआ’ का ग्रीक रूपांतरण है।’जोशुआ यहां आए’—समय, तारीख वगैरह सब दी हैं।’ एक महान सद्गुरु, जो स्वयं को भेड़ों का गड़रिया पुकारते थे, अपने शिष्यों के साथ शांतिपूर्वक एक सौ बारह साल की दीर्घायु तक यहां रहे।’ इसी वजह से वह स्थान ‘भेड़ों के चरवाहे का गांव’ कहलाने लगा। तुम वहां जा सकते हो, वह शहर अभी भी है— ‘पहलगाम’, उसका काश्मीरी में वही अर्थ है— ‘गड़रिए का गांव ‘।

वे यहां रहना चाहते थे, ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सकें। एक छोटे से शिष्य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्होंने मरना भी यहीं चाहा, क्योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहां जीवन एक सौंदर्य है, और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहां मरना भी अत्यंत अर्थपूर्ण है।

केवल भारत में ही मृत्यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्तुत: तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।

इससे भी अधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मूसा (मोजिज) ने भी भारत में आकर देह त्यागी। उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्थान में बनी हैं। शायद जीसस ने ही महान सद्गुरु मूसा के बगल वाला स्थान स्वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्यों काश्मीर में आकर मृत्यु में प्रवेश किया?

मूसा ईश्वर के देश ‘इजराइल’ की खोज में यहूदियों को इजिप्त के बाहर ले गए थे। उन्हें चालीस वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्होंने घोषणा की कि ‘यही है वह जमीन, परमात्मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं तथा अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालो, अब तुम सश्रालो।’ क्योंकि जब उन्होंने इजिप्त से यात्रा प्रांरभ की थी, तब की पीढ़ी लगभग समाप्त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गए, जवान बूढ़े हो गए नए बच्चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ शुरुआत की थी, वह अब बचा ही नहीं था। मूसा करीब—करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थे। उन्होंने युवा लोगों को शासन और व्यवस्था का कार्यभार सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए।

यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्त्रों में भी, उनकी मृत्यु के संबंध में, उनका क्या हुआ इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। हमारे यहां (काश्मीर में) उनकी कब है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिब्रु भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।

मूसा भारत आना क्यों चाहते थे? केवल मृत्यु के लिए? ही, कई रहस्यों में से एक रहस्य यह भी है कि यदि तुम्हारी मृत्यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं वरन् भगवत्ता की ऊर्जा—तरंगें हों, तो तुम्हारी मृत्यु भी एक उत्सव और निर्वाण बन जाती है।

सदियों से, सारी दुनिया से साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनशील हैं; उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्वी पर कहीं और नहीं है। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है।

लतीफा, तुम ठीक कहती हो। सिर्फ थोड़ा और खुलो, शांत और शिथिल होओ, थोड़ा और समर्पण की भावदशा में डूबो, तो मनुष्य के लिए जो बड़े से बड़ा संभव है—ऐसा महानतम खजाना यह गरीब देश तुम्हें दे सकता है।

आज इतना ही।

‘रजनीश उपनिषद्’ से अनुवादित एक प्रश्नोत्तर— प्रवचनांश

दिनांक 8 सितम्बर 1986 सुमिला, बंबई ( भारत)


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मेरा स्‍वर्णिम भारत–(प्रवचन–42)

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परिशिष्‍ट—2

शब्द जो साकार हो गया है…

शब्द साकार हुआ था पहले—पहल यहीं, भारत में;

विपाशा, वितस्ता, शतदु, सरस्वती किसी पुण्य—सलिला के तट पर।

आंखें मूंदे, मौन खड़ा था ऋषि, शब्द का अनुसंधान करते; उसे लय में पिरोते।

सहसा कुहासा—सा छटा; पूरब कुछ लाल—लाल—सा दिखा;

हवा कुछ इठलाती—सी लगी और पाखियों का संगीत दिगन्तों तक फैल गया।

उसने कहां, ‘प्रकाश हो’ और प्रकाश हो गया!

.. .वह भगवान था। भगवत्ता उस समय उसमें अवतरित हुई थी। ऋषियों की यह परंपरा सनातन है। सरस्वती के किनारे भरतों के कुल में जन्मा बालक मंत्र—दर्शन करने लगा, विश्वामित्र बन गया। उसकी रची ऋचाएं श्रुति बनीं, स्मृतियों ने सहेजा उन्हें।

…..वह शब्द—मात्र था,

जो समोशरण में खिरता था

चैत्यों में गुंजित था;

सारनाथ से फैल रहा था।

मछुहारों की बस्ती में

तट से दूर,

बीच धार से आती हुई ईसू की आवाज,

वह शब्द ही तो थी!

शब्द स्वयं अपनी अंतऊर्जा से दमकता है। उसे बांधा नहीं जा सकता, कैद नहीं किया जा सकता; वह ”नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ”वाली अमर्त्य स्थिति में पहुंचा हुआ होता है।

रजनीश आज की दुनिया का वह शब्द है, जो साकार है। आकार की उम्र होती है, और शब्द की कोई उम्र नहीं होती। आकार से निराकार की ओर होती है शब्द की यात्रा।

रजनीश भी कभी सिर्फ शब्द रह जायेगा। अभी तो यह आकार से जुड़ा है; इसीलिए मेरे जैसे और भी अनेक मिल जायेंगे, जो कहेंगे—’वह मेरे साथ कुएं में कूदकर नहाया था।’ या ‘रॉय सर की फिलॉसफी क्लास में वह ऐसे —ऐसे सवाल उठाता था’, या ‘जबलपुर की तारण जयंती में वह इस प्रकार सभी धर्मों के आचार्यों के बीच अपनी अनोखी बातें बोलता था’, या ‘इस तरह क्लास में पढ़ाता था।’—गरज ये कि हम सभी जो इस तरह सोचते या बोलते हैं; बस, हमारी पहुंच सिर्फ आकार तक ही है, उसमें निहित या मेरा स्वर्णिम भारत उससे निःसृत शब्द से जब तक हमारा सरोकार नहीं होता, हमारा उससे जुड़ना कोई मानी नहीं रखता।

मैंने इस बीच उसके शब्दों से सरोकार साधा है। ज्यों—ज्यों पास होता जाता हूं शब्द गहरे होते जाते हैं। शब्द की शक्ति उजागर होने लगती है और हमें भीतर ही कुछ घटित होता—सा महसूस होता है।

शब्द से क्रांति घटित होती है। मजे की बात यह है कि हम अभी तक शब्द को भी जड़ बना देने की साजिशों के शिकार होते रहे हैं। शब्द की हत्या से बड़ा कोई और पाप नहीं होता। रजनीश ने शब्द हत्या के पाप के खिलाफ अपने समय की दुनिया को आगाह किया है। उसने जीवन को जितनी सरल समग्रता में देखा—दिखाया है; वह हमें उन सभी मुद्दों पर नये सिरे से सोचने की प्रेरणा देता है, जिन पर सोचना, हम कतिपय जड़ मान्यताओं के वशीभूत हो, कब का बंद कर चुके हैं। रजनीश ने इस ‘विचार—बंद’ की घातक स्थिति को साहस और मजबूती के साथ तोड़ा है।

वर्तमान दुनिया गवाह है इस बात की कि एक अकेला निहत्था आदमी, जो सिर्फ बोलता है; वह समूचे विश्व की पाखंडी व्यवस्थाओं पर हावी है, वे उसके होने—मात्र से घबराए हुए हैं, उसे अपनी धरती पर हवाई—जहाज से नीचे कदम रखने की भी इजाजत नहीं देते। वह भी नटखट बालक—सा अपना काफिला लिए उनके सभी आंगन खूद आता है। जहां उसके चरण पड़ते हैं, रंगोली—सी बिछ जाती है।

आरेगॉन के बंजरों में नखलिस्तान लहलहा उठता है। सरकारें सशंक हैं। वे किसी किस्म की रिस्क लेना नहीं चाहतीं, अपने मूल अस्तित्व को लेकर। रजनीश इनकी असलियत जानता है, और कमबख्त चुप भी तो नहीं बैठता; चुप भी रहता है तो बोलता है; बडी—बड़ी आंखों से, हाथों के कोमल संचालन से, मोहनी—मुस्कान से, अंग—प्रत्यंग से बोलता है।

उसके शब्द साकार हो रहे हैं; वे नाच रहे हैं; वे उत्सवित हो रहे हैं।

सरकारें चौंकी हुई हैं। उन्हें मालूम है कि उनके पांव के नीचे की धरती ठोस नहीं है। वे एक अवैज्ञानिक प्रक्रिया के तहत अपनी—अपनी जनताओं पर शासन जमाए हुए हैं। सत्ता का शब्द हावी है दुनिया पर, रजनीश में इसे उलट देने की ताकत है; वह शब्द की सत्ता का विश्व—प्रतीक बन चुका है।

दुनिया भर की सरकारें डरी हुई हैं उससे। वह उनकी नक्‍शों पर खींच ली गई खूनी लकीरों को नकारता है। वह एक विश्व—व्यवस्था का पक्षधर है; जो प्रेम पर आधारित हो। प्रेम से ज्यादा ठोस आधार और कुछ नहीं। वह कबीर के ढाई आखर को आधार—रूप में स्वीकारता है। और नकारता है, आधुनिक विश्व की कूटनीतिक—संबंधों वाली कुत्सित लचर व्यवस्था को। उसके पास आज के मनुष्य की हर ज्वलंत समस्या का प्रेमाधारित; पूर्ण तर्क—सम्मत समाधान है।

अब रजनीश के नाम से नाक— भौं सिकोड़कर अपना बोगस आभिजात्य प्रदर्शित करने का पाखंड हास्यास्पद हो गया है। रजनीश के नाम को हल्के—फुल्के ढंग से अपनी यौन—कुण्ठाओं की जुगाली के लिए इस्तेमाल करने वाली रुग्ण मानसिकता भी हतप्रभ है। रजनीश सुनने—समझने की चीज है। रजनीश एक रोशनी का नाम है—शब्द की रोशनी! उसके पास हमारे सुलगते सवालों के सहज रसभीगें मीठे मानवीय जवाब हैं। हमारी ज्वलंत समस्याओं के सम्यक् समाधान हैं, उसके पास।

रजनीश एक विराट नकार का विश्वव्यापी शब्द है। वह सारी जडताओं को नकारता है और अंकुर सहेजता है—अंकुर जिन्हें विकसित होना है, नये मनुष्य के लिए।

कार्ल मार्क्स ने नकार की शृंखला को प्रगति का आधार निरूपित करते समय अपनी स्थापनाओं की नियति को भी समझ लिया था।

रजनीश स्वयं साफ—साफ कहता है कि उसे अंतिम सत्य मत मानो; उसके शब्दों को आजमाओ, अपने घावों पर मरहम की तरह लगाओ और देखो मनुष्य की छाती के रिसते हुए छाव ठीक होते हैं या नहीं। रजनीश शब्द को आजमाने की चुनौती देता है और जिस दिन विश्व—मानव शब्द की शक्ति के रूप में उठ खड़ा होगा; क्रांति हो जायेगी! —एक नये युग की शुरुआत! निश्चित ही वह बेहतर समय होगा। रजनीश कलियुग को यहीं पूर्ण विराम लगा देना चाहता है।

वह आगाह करना चाहता है, उस खतरे से जो पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व से जुडा है। वर्तमान व्यवस्था कै रहते युद्धों से ऊपर उठा नहीं जा सकता। इनकी अपनी तुच्छ अस्मिताओं की रक्षा के लिए युद्ध जरूरी हैं। और युद्ध अब पटा—बनैटी का खेल नहीं रह गया है। भोले विज्ञान ने इनकी भस्मासुरी विध्वंसक क्षमता को वरदान दे दिया है। रजनीश वह ‘मोहिनी’ है, जो नचाते—नचाते इस भस्मासुर का हाथ इसके अपने ही सिर पर रखवा देने में सक्षम है।

नये इंसान के अभ्‍युदय के लिए पुराने पाखंड को भस्म होना ही होगा। रजनीश के शब्द उस आग की तरह हैं, जिसमें नया युग—सत्य कुन्दन बन रहा है। रजनीश एक पूर्णपुरुष हैं, जिसने अर्थ— धर्म—काम—मोक्ष चारों पुरुषार्थ हस्तगत किये हैं। वह एक जीवन—शैली है, जीवन को उसकी सहज सम्पूर्णता में जीने का एक तरीका है, जो शुद्ध वैज्ञानिक सोच पर आधारित है और सर्वोपरि मानवीय है। हमारे अपने भीतर शताब्दियों—सहस्राब्दियों से जड़ीभूत होते पाखंड को खुरच फेंकने का एक सशक्त उपक्रम है, रजनीश और आज नहीं तो कल शब्द की सत्ता स्थापित होगी और सत्ता के शब्द झूठे पड़ जाएंगे।

सत्ता वह धर्मों—सम्प्रदायों की हो, राष्ट्रों—कबीलों की हो, अन्याय की नींव पर ज्यादा दिनों तक टिकी नहीं रह सकती। रजनीश वह भोर का पाखी है, जो हमें सूर्योदय की सूचना दे रहा है और क्षितिज अरुण हो रहे हैं..!

—राजेन्द्र अनुरागी (सुप्रसिद्ध कवि व साहित्यकार)

94/13 तुलसीनगर

भोपाल 462005


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