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ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍हीं चदरिया–(पंच महाव्रत) प्रवचन–2

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अपरिग्रह—(प्रवचन—दूसरा)

 2 सितंबर 1970,

षणमुखानंद हाल, मुम्‍बई

मेरे प्रिय आत्मन्,

दूसरे महाव्रत “अपरिग्रह’ को समझने के लिए परिग्रह को समझना आवश्यक है। बड़ी भ्रांतियां हैं परिग्रह के संबंध में। परिग्रह का अर्थ वस्तुओं का होना नहीं होता। परिग्रह का अर्थ होता है–वस्तुओं पर मालकियत की भावना। परिग्रह का अर्थ होता है–पजेसिवनेस। कितनी वस्तुएं हैं आपके पास, इससे कुछ तय नहीं होता। आप किस दृष्टि से उन वस्तुओं का व्यवहार करते हैं, आप किस भांति उन वस्तुओं से संबंधित हैं, सब कुछ इस पर निर्भर है। और वस्तुओं के ही नहीं, हम व्यक्तियों के प्रति भी परिग्रही, पजेसिव होते हैं।

हिंसा के संबंध में कुछ बातें मैंने कल आपसे कहीं। परिग्रह, पजेसिवनेस, हिंसा का ही एक आयाम, एक डायमेंशन है। सिर्फ हिंसक व्यक्ति ही पजेसिव, परिग्रही होता है। जैसे ही मैं किसी व्यक्ति पर, किसी वस्तु पर मालकियत की घोषणा करता हूं, वैसे ही मैं गहरी हिंसा में उतर जाता हूं। बिना हिंसक हुए मालिक होना असंभव है। मालकियत हिंसा है। वस्तुओं की मालकियत तो ठीक ही है, व्यक्तियों की मालकियत भी हम रखते हैं।

पति मालिक है पत्नी का। पति शब्द का अर्थ ही मालिक होता है, द ओनर। पति को हम स्वामी कहते हैं। स्वामी का मतलब होता है, मालिक। परिग्रह का अर्थ है–स्वामित्व की आकांक्षा। पिता बेटे का मालिक हो सकता है, गुरु शिष्य का मालिक हो सकता है। जहां भी मालकियत है वहां परिग्रह है, और जहां भी परिग्रह है वहां संबंध हिंसात्मक हो जाते हैं। क्योंकि बिना किसी के साथ हिंसा किये मालिक नहीं हुआ जा सकता; और बिना किसी को गुलाम बनाये मालिक नहीं हुआ जा सकता। और बिना परतंत्रता थोपे पजेसिव होना असंभव है।

लेकिन क्यों है मनुष्य के मन में इतनी आकांक्षा कि वह मालिक बने? क्यों दूसरे का मालिक बनने की आकांक्षा है? दूसरे के मालिक बनने में इतना रस क्यों है?

बहुत मजे की बात है: चूंकि हम अपने मालिक नहीं हैं, इसलिए। जो व्यक्ति अपना मालिक हो जाता है, उसकी मालकियत की धारणा खो जाती है। लेकिन हम अपने मालिक नहीं हैं और उसकी कमी हम जिंदगी भर दूसरों के मालिक होकर पूरी करते रहते हैं।

लेकिन कोई चाहे सारी पृथ्वी का मालिक हो जाये तो भी कमी पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि अपने मालिक होने का मजा और है, और दूसरे के मालिक होने में सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं। अपना मालिक होना एक आनंद है, दूसरे का मालिक होना सदा दुख है। इसलिए जितनी बड़ी मालकियत होती है, उतना बड़ा दुख पैदा हो जाता है। जिंदगी भर हम कोशिश करते हैं कि वह जो एक चीज चूक गई है, कि हम अपने मालिक नहीं हैं, सम्राट नहीं हैं अपने, वह हम दूसरों के मालिक बन कर पूरा करने की कोशिश करते हैं।

यह ऐसे ही है जैसे कोई प्यास को आग से पूरा करने की कोशिश करे और प्यास और बढ़ती चली जाये। आग से प्यास नहीं बुझायी जा सकती। दूसरे का मालिक बन कर अपनी मालकियत नहीं पायी जा सकती। बल्कि बड़े मजे की बात है कि जितना ही हम दूसरे के मालिक बनते हैं, जिसके हम मालिक बनते हैं उसका हमें गुलाम भी बन जाना पड़ता है। असल में मालकियत दोहरी परतंत्रता है। जिसके हम मालिक बनते हैं वह तो हमारा गुलाम बनता ही है, हमें भी उसका गुलाम बन जाना पड़ता है। मालिक अपने गुलाम का भी गुलाम होता है। पति कितना ही पत्नी का मालिक बनता हो, लेकिन गुलाम भी हो जाता है। और सम्राट कितने ही बड़े राज्य का मालिक हो, पूरी तरह गुलाम हो जाता है। गुलाम हो जाता है भय का, क्योंकि जिन्हें हम परतंत्र करते हैं, उन्हें हम भयभीत कर देते हैं। और जिन्हें हम परतंत्र करते हैं, उनकी तरफ से हमारे प्रति विद्रोह और बगावत शुरू हो जाती है। और जिन्हें हम परतंत्र करते हैं, वे भी हमें परतंत्र करना चाहते हैं।

मैंने सुना है कि एक आदमी एक गाय को रस्सी बांध कर जंगल की तरफ ले जा रहा है और एक संन्यासी उस रास्ते से गुजर रहा है। वह आदमी गाय को खींचता हुआ जंगल की तरफ ले जा रहा है। उस संन्यासी ने खड़े होकर उस गांव के लोगों से पूछा कि मैं एक सवाल पूछना चाहता हूं। यह गाय इस आदमी के साथ बंधी है या यह आदमी इस गाय के साथ बंधा है? गांव के लोगों ने कहा, बात सीधी और साफ है, कि गाय आदमी के साथ बंधी है। तो संन्यासी ने पूछा, अगर गाय भाग जाये तो आदमी उसके पीछे भागेगा या नहीं भागेगा? उन लोगों ने कहा, भागना ही पड़ेगा। तो उस संन्यासी ने कहा, गाय बहुत दृश्य रस्सी से बंधी है; और यह आदमी बहुत अदृश्य रस्सी से बंधा है। यह भी गाय को छोड़ नहीं सकता। गाय के गले में रस्सी है जो बहुत साफ है और दिखाई पड़ रही है। इस आदमी के गले में भी गाय की रस्सी है जो बहुत साफ है, पर दिखाई नहीं पड़ रही है।

मालिक और गुलाम में इतना ही फर्क है कि एक की गुलामी दृश्य होती है और दूसरे की गुलामी अदृश्य होती है। इससे ज्यादा कोई भी फर्क नहीं है। हम जिसे गुलाम बनाते हैं वह हमें भी गुलाम बना लेता है। द पजेसर बिकम्स द पजेस्ड। अपरिग्रह खोज है इस बात की कि मैं अपना मालिक कैसे हो जाऊं।

सुना है मैंने, एक फकीर के मरने का वक्त करीब आ गया था। थोड़े-से पैसे उसके पास थे। उसने अपने शिष्यों से कहा कि इस गांव के सबसे गरीब आदमी को मैं ये पैसे दे देना चाहता हूं। तो गांव के सारे गरीब दूसरे दिन इकट्ठे हो गये। लेकिन उसने किसी को गरीब मानना स्वीकार न किया। एक-एक को उसने कहा कि नहीं तू नहीं है, नहीं तू नहीं है। अभी असली गरीब नहीं आया।

और फिर दोपहर सम्राट अपने रथ से निकला तो उसने अपने पैसों की झोली सम्राट के रथ पर फेंक दी। सम्राट को भी पता था कि सबसे गरीब आदमी को वे पैसे मिलने वाले हैं उस फकीर के। उस सम्राट ने हंस कर कहा कि पागल हो गये हो, सबसे अमीर आदमी पर पैसे फेंकते हो? घोषणा की थी सबसे गरीब आदमी के लिए।

तो उस फकीर ने कहा कि जिनके पास कम चीजें हैं उनकी गुलामी भी कम है, उनकी गरीबी भी कम है। तुम्हारे पास चीजें ज्यादा हैं, तुम्हारी गुलामी भी बड़ी है और तुम्हारी गरीबी भी बड़ी है। और मजा यह है सम्राट, कि जिनके पास बहुत कम है शायद उन्होंने और खोज की आशा छोड़ दी हो, किंतु जिनके पास बहुत ज्यादा है उनकी खोज की आशा का भी कोई हिसाब नहीं। तुमसे बड़े गरीब आदमी को मैं इस जमीन पर नहीं जानता हूं। ये पैसे मैं तुम्हें भेंट कर जाता हूं।

शायद उस फकीर का कहना ठीक ही था। बड़े गुलाम वे ही हैं जिन्हें दूसरों के सम्राट होने का भ्रम पैदा हो जाता है। और बड़े गरीब वे ही हैं जो बाहर की संपत्ति से भीतर की गरीबी मिटाना चाहते हैं। और बड़े परतंत्र वे ही हैं जो दूसरों को परतंत्र करके स्वयं की स्वतंत्रता के खयाल में भटकते हैं। कोई भी आदमी किसी को परतंत्र करके स्वतंत्र नहीं हो सकता। परिग्रह, इसी भ्रांति का नाम है।

मैं स्वतंत्र होना चाहता हूं तो मैं सोचता हूं कि किसी को परतंत्र कर लूं तो मैं स्वतंत्र हो जाऊं। लेकिन परतंत्रता दोहरी है। जंजीरें दोनों तरफ कस जाती हैं। जेलखाने में वे जो कैदी बंद हैं वे ही जेल में बंद नहीं हैं। वह जो जेलखाने के बाहर संतरी खड़ा हुआ है वह भी उतना ही बंधा है। एक दीवाल के बाहर बंधा है, एक दीवाल के भीतर बंधा है। न दीवाल के भीतर वाला भाग सकता है, न दीवाल के बाहर वाला भाग सकता है। और बड़े मजे की बात है कि दीवाल के भीतर वाला तो भागने का उपाय भी करे, दीवाल के बाहर वाला भागने का उपाय भी नहीं करता है। वह इस खयाल में है कि स्वतंत्र है।

मैंने सुना है कि डाकुओं के एक गिरोह ने एक नेता को पकड़ लिया। जंगल में निकलती थी कार, गाड़ी रोक ली और डाकुओं के गिरोह ने उस नेता को पकड़ लिया। लेकिन वे डाकू बड़े मजेदार लोग थे। नेता तो बहुत घबड़ाया, लेकिन उन डाकुओं ने कहा, घबड़ाओ मत, क्योंकि हम सजातीय हैं, हम एक ही जाति के हैं। उस नेता ने कहा, मैं मतलब नहीं समझा। तो उन डाकुओं ने कहा कि कई बातों में हमारा बड़ा तालमेल है। तुम्हारे आगे पुलिस चलती है, हमारे पीछे पुलिस चलती है। ज्यादा फर्क नहीं है। तुम पुलिस की तरफ से आगे से बंधे होते हो, हम पीछे से बंधे होते हैं। और ध्यान रहे, आगे पुलिस हो तो भागना जरा मुश्किल है। पीछे पुलिस हो तो भागा भी जा सकता है।

जिंदगी के अनूठे रहस्यों में से एक यह है कि हम जिसे भी बांधते हैं उससे हमें बंध ही जाना पड़ेगा। उसे बांधने के लिए भी बंध जाना पड़ेगा। परिग्रह की बड़ी गहराइयां हैं। उसके सूक्ष्मतम हिस्सों को समझ लेना जरूरी है, तो उसके बाहर के विस्तार को भी समझा जा सकता है।

परिग्रह की पहली जो कोशिश है वह यह है कि मुझे यह खयाल भूल जाये कि मैं परतंत्र हूं। मुझे यह खयाल भूल जाये कि मैं सीमित हूं। मुझे यह खयाल भूल जाये कि मैं अपना मालिक नहीं हूं। लेकिन यह खयाल भुलाया नहीं जा सकता। अगर मैं मालिक नहीं हूं तो नहीं हूं। और कितना ही मैं विस्तार करूं इसे भुलाने का, उस सारे विस्तार के बीच भी मेरे गहरे में मैं जानूंगा कि मैं मालिक नहीं हूं। सिकंदर भी जानता है कि वह मालिक नहीं है, हिटलर भी जानता है कि वह मालिक नहीं है। और जितना ही पता चलता है कि मालिक नहीं हूं, उतना ही वह बाहर की मालकियत को फैलाता चला जाता है, मजबूत करता चला जाता है। जितनी ही बाहर की मालकियत मजबूत होती है, हो सकता है थोड़ी-बहुत देर को भूल जाता हो, लेकिन बार-बार स्मरण लौट आता है कि मैं मालिक नहीं हूं।

हम भीतर मालिक क्यों नहीं हैं? जो भीतर है उसे हम जानते भी नहीं, तो मालिक होना तो बहुत असंभव है।

स्वामी राम अमरीका गये तो अमरीकी प्रेसिडेंट उनसे मिलने आया। और उस अमरीकी प्रेसिडेंट ने राम की बातें बड़ी अजीब सी पायीं। असल में भाषा अलग थी, भाषा अलग होगी ही। संन्यासी जो भाषा बोलता है वह किसी और दुनिया की भाषा है। राम सदा अपने को बादशाह राम कहते थे। उस अमरीकी प्रेसिडेंट ने कहा, मैं जरा समझ नहीं पा रहा। ह्वाट डू यू मीन बाई इट? यह बादशाह राम, इसका मतलब क्या है? आपके पास कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं। कुछ भी तो नहीं है आपके पास सिवाय लंगोटी के। बादशाह कैसे हो?

तो राम ने कहा, यह लंगोटी थोड़ी-सी बाधा है मेरी बादशाहत में। इसलिए घोषणा जरा धीरे करता हूं। ऐसे अब मैं किसी चीज से बंधा हुआ नहीं हूं। बस, यह लंगोटी रह गई है। मैं बादशाह हूं! क्योंकि मुझे कोई भी जरूरत नहीं है। मेरी कोई मांग नहीं है। मेरी कोई चाह नहीं है। यह एक लंगोटी है, यह थोड़ा मुझे बांधे हुए है। और लंगोटी तो मुझे क्या बांधेगी, मैंने ही इसको बांधा हुआ है। इसलिए हम दोनों बंध गये हैं। लंगोटी मुझसे बंध गई है, मैं लंगोटी से बंध गया हूं।

निश्चित ही महावीर अपने को बादशाह कह सकते हैं। महावीर के बड़े भाई ने शायद सोचा होगा कि राज्य छोड़कर चला गया छोटा भाई। सोचा होगा, कैसा पागल है? बड़े के हाथ में सब राज्य दे गया, साम्राज्य दे गया और खुद नंगा होकर फकीर हो गया। नासमझ है। लेकिन बहुत कम लोग समझ पाये कि बादशाह हो गये महावीर, और बड़ा भाई गुलाम रह गया।

बादशाहत इस बात से शुरू होती है कि मैं जो हूं उतना पर्याप्त हूं। इट इज एनफ टु बी वनसेल्फ। कोई कमी नहीं है जिसे मुझे पूरा करना पड़े। कोई कमी नहीं है जिसकी वजह से मैं खाली रहूं। कोई कमी नहीं है जिसके बिना मुझे लगे कि कुछ अधूरा है। बादशाहत एक इनर फुलफिलमेंट है, एक भीतरी आप्तता है। सब है, इसलिए कोई कमी नहीं है। लेकिन सम्राट के पास कुछ भी नहीं है। बहुत है उसके पास, जो दिखाई पड़ता है चारों तरफ, लेकिन वह खुद ही उसके पास नहीं है। और भीतर एक खालीपन है, भीतर एक एंपटीनेस है, एक रिक्तता है।

भीतर हम सब रिक्त हैं। इस रिक्तता को हम फर्नीचर से भरेंगे, इस रिक्तता को हम मकान से भरेंगे, इस रिक्तता को हम धन से भरेंगे। इस रिक्तता को हम यश, पद, प्रतिष्ठा से भरेंगे। फिर भी हम पायेंगे कि सारी पद-प्रतिष्ठाएं इकट्ठी हो गई हैं; सारा धन का ढेर लग गया है, और भीतर की रिक्तता अपनी जगह खड़ी है। बल्कि पहले इतनी दिखाई नहीं पड़ती थी जितनी अब दिखाई पड़ती है, क्योंकि कंट्रास्ट है–बाहर धन के ढेर लग गये हैं तो भीतर की रिक्तता और प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ने लगती है। गरीब आदमी को अपनी गरीबी उतनी साफ कभी नहीं दिखाई पड़ती जितनी अमीर आदमी को अपनी गरीबी दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है।

मेरी दृष्टि में तो अमीरी का एक ही लाभ है कि उससे गरीबी दिखाई पड़ती है। इसलिए मैं सदा अमीरी के पक्ष में रहता हूं। क्योंकि उसके बिना गरीबी कभी दिखाई नहीं पड़ सकती। काले तख्ते पर जैसे सफेद रेखाएं उभर कर दिखाई पड़ने लगती हैं, ऐसे बाहर इकट्ठे हो गये धन में भीतर की निर्धनता प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ने लगती है। सब होता है बाहर और भीतर कुछ भी नहीं होता है। वह जो भीतर की रिक्तता है, उसी को भरने के लिए परिग्रह है।

लेकिन कोई सोच सकता है कि बाहर की चीजें छोड़ दें तो क्या भीतर की रिक्तता मिट जायेगी? यही असली सवाल है, क्या हम बाहर की चीजें छोड़ कर भाग जायें तो भीतर की रिक्तता मिट जायेगी?

अगर बाहर की चीजों के होने से भीतर की रिक्तता नहीं मिटी तो बाहर की चीजों के न होने से कैसे मिटेगी? बाहर की चीजों के होने से भी न मिटी तो बाहर की चीजों के छूटने से कैसे मिट सकती है?

लेकिन आदमी का मन बुनियादी भूलों में घिरा रहता है। पहले वह सोचता है बाहर की चीजों को इकट्ठा करने से भर लूंगा। फिर जब पाता है कि बाहर की चीजें इकट्ठी हो गईं और भराव नहीं आया, तो सोचता है, बाहर की चीजों को छोड़ कर भर लूं। लेकिन पागल हुआ है। जब चीजों से भरा न जा सका, तो चीजों के हटाने से कैसे भर जाएगा?

इसलिए ध्यान रहे, अपरिग्रह का अर्थ बाहर की चीजों को छोड़ना नहीं है। अपरिग्रह का अर्थ भीतर की पूर्णता को पाना है। और जब भीतर पूर्णता भरती है, तो बाहर चीजों को भरने की दौड़ विदा हो जाती है।

इसलिए मैंने कहा, परिग्रह का अर्थ वस्तुओं से नहीं है, परिग्रह का अर्थ पजेसिवनेस से है। एक जनक रह सकता है घर में भी लेकिन जनक परिग्रही नहीं है। परिग्रह तो है बहुत, परिग्रही नहीं है। और एक संन्यासी अपरिग्रही दिखाई पड़ता है, और परिग्रही हो सकता है। अक्सर होता है। क्योंकि उसने दूसरी भूल की है। उसने भूल की है कि चीजों को हटा दूंगा। लेकिन चीजों को हटाने से क्या होगा? भीतर का खालीपन, हो सकता है दिखाई पड़ना बंद हो जाये, इतना हो सकता है। इतना हो सकता है कि चूंकि बाहर चीजें न रह जायें इसलिए बाहर भी खाली हो जाये, भीतर भी खाली हो जाये तो कंट्रास्ट न रह जाये और चीजें दिखाई पड़नी बंद हो जायें। लेकिन भीतर का खालीपन बाहर के खालीपन से भी नहीं मिट सकता। भीतर तो भराव चाहिए, भीतर फुलफिलमेंट चाहिए, भीतर एक पूर्णता का पॉजिटिव जन्म, विधायक जन्म चाहिए तो ही बाहर की पकड़ विदा होगी, अन्यथा विदा नहीं हो सकती।

एक फकीर हुआ है डायोजनीज। नंगा गुजर रहा है जंगल से। शायद महावीर की जोड़ का आदमी पश्चिम में वही हुआ। नग्न ही है। उतना ही मस्त, उतना ही आनंदित, उतना ही स्वस्थ। जंगल से गुजरता है। कुछ लोग गुलामों को बेचने बाजार में जा रहे हैं। उन्होंने देखा इस डायोजनीज को–अकेला, नंगा, स्वस्थ, सुंदर, शक्तिशाली। सोचा, अगर यह पकड़ में आ जाये तो इसके दाम अच्छे मिल सकते हैं। मगर डर लगा उन्हें कि इसे पकड़ भी पायेंगे! थे तो वे आठ, लेकिन डर लगा कि इसे पकड़ भी पायेंगे! शक्तिशाली है बहुत। कहीं झंझट न हो जाये। फिर भी आठ हैं, कोशिश कर ली जाये।

उन्होंने बड़ी ताकत इकट्ठी करके डायोजनीज पर हमला बोला, लेकिन डायोजनीज ने हमले का जवाब तो नहीं दिया; या कहें कि जवाब दिया, लेकिन डायोजनीज के ढंग से दिया। बीच में खड़ा हो गया आंख बंद करके और उनसे कहा कि बोलो क्या इरादे हैं? उसने कोई लड़ाई ही न की। वे सब कंप रहे थे भय से। उसने कहा, आश्वस्त हो जाओ, भयभीत मत होओ। मुझसे तुम्हारा कोई बुरा न होगा। क्योंकि जिसने अपने प्रति बुरा करना बंद कर दिया, वह किसी के प्रति बुरा कैसे कर सकता है? बोलो, क्या इरादे हैं?

वे बहुत घबड़ाये। क्योंकि डायोजनीज उनके हमले का जवाब दे देता तो शायद इतने न घबड़ाते। उन्हें कहने में बड़ी कठिनाई हो गई कि हम तुम्हें गुलाम बनाने आये हैं। वे एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। तो डायोजनीज ने कहा, मत फिक्र करो, बोलो, तुम जो कहोगे वही हो जाएगा। उन्होंने नीचे आंखें झुका कर कहा कि हम बहुत शघमदा हैं, लेकिन हम तुम्हें गुलाम बनाने आये हैं। डायोजनीज ने कहा, यह भी खूब बढ़िया रहा। चलो, हम गुलाम हुए। अब क्या इरादे हैं? उन लोगों ने डायोजनीज की तरफ देखा और उन्होंने कहा कि गुलाम हुए? क्या कोई विरोध न करोगे? डायोजनीज ने कहा, हम अपने मन के मालिक हैं। हम गुलाम होना भी चुन सकते हैं, लड़ाई कुछ भी नहीं है। अब कहां चलना है? तो उन्होंने कहा, हम हाथ में जंजीरें डाल दें। डायोजनीज ने कहा, पागलो, जंजीरों की कोई जरूरत नहीं। हम तो तुम्हारे साथ चल ही रहे हैं। चलो जहां चलना है।

वे डायोजनीज को लेकर बाजार में पहुंचे। भीड़ इकट्ठी हो गई। इतना सुंदर गुलाम शायद ही कभी बिकने आया हो। टिकटी पर खड़ा किया गया डायोजनीज को। और जब नीलाम करने वाले आदमी ने कहा कि जो इस गुलाम को खरीदना चाहे वह बोली शुरू करे। तो डायोजनीज ने कहा, चुप नासमझ, पूछ उनसे कि कौन किसके साथ आया है? वे मेरे पीछे आये हैं कि मैं उनके पीछे आया हूं? बंधा कौन किससे है? मैं उनसे बंधा हूं कि वे मुझसे बंधे हैं? गुलाम शब्द का उपयोग मत करना। हम अपने मालिक हैं। रुक, मैं खुद ही आवाज लगा देता हूं। तो डायोजनीज ने उस टिकटी से खड़े होकर कहा कि अगर कोई एक मालिक को खरीदना चाहे तो एक मालिक बिकने आया हुआ है। भीड़ हैरान हो गई। उन्होंने कहा, मालिक? डायोजनीज ने कहा, मैं अपना मालिक हूं।

यह जो अपनी मालकियत है, यह एक विधायक उपलब्धि है। यह विधायक उपलब्धि हो जाये तो बाहर की पकड़ छूट जाती है। बाहर की पकड़ सिर्फ इसीलिए है कि भीतर की कोई पकड़ नहीं है। हम बाहर पकड़े चले जाते हैं। और जिसको भी हम बाहर पकड़ते हैं उसकी हम हत्या करना शुरू कर देते हैं।

परिग्रह की जो हिंसा है वह यही है कि अगर हम किसी व्यक्ति को पकड़ेंगे बाहर तो हम उसे मारना शुरू कर देंगे। क्योंकि बिना मारे उसे पजेस नहीं किया जा सकता। उसे मारना ही पड़ेगा। अगर एक गुरु एक शिष्य को पकड़ ले तो वह शिष्य को मारना शुरू कर देगा। क्योंकि जिंदा शिष्य शिष्य नहीं बनाया जा सकता। उसे मारना जरूरी है। इसलिए आज्ञाएं, अनुशासन, नियम, मर्यादा उन सब में उसे मारा जाएगा। उसकी स्वतंत्रता काटी जाएगी। जब वह मुर्दा हो जाएगा तभी शिष्य हो सकता है। एक पति अपनी पत्नी को मारना शुरू कर देगा, एक पत्नी अपने पति को मारना शुरू कर देगी। एक मित्र दूसरे मित्र को मारना शुरू कर देगा। क्योंकि जब उसे बिलकुल मार डाला जाये, तभी आश्वस्त हुआ जा सकता है कि वह भाग नहीं जाएगा। वह स्वतंत्र नहीं हो जाएगा।

लेकिन इसमें एक बड़ी आंतरिक कठिनाई है। जब हम किसी व्यक्ति को मार कर उसके मालिक हो जाते हैं तो मालिक होने का मजा चला जाता है। यह कंट्राडिक्शन है। बिना मारे मालिक नहीं हो सकते, और मारा कि मजा गया। क्योंकि मरे हुए के मालिक होने में कोई मजा नहीं आता।

इसलिए एक पत्नी से मन दूसरी पत्नी पर जाता है, दूसरी से तीसरी पर जाता है। एक मकान से दूसरे मकान पर, दूसरे से तीसरे मकान पर। एक गुरु से दूसरे गुरु पर, एक शिष्य से दूसरे शिष्य पर। जिस चीज के हम मालिक हो जाते हैं, वह बेमानी हो जाती है। क्योंकि मालिक होते ही वह मुर्दा हो जाती है, और मुर्दा के मालिक होने में कोई ज्यादा मजा नहीं आता। कोई मजा नहीं है। जिंदा का मालिक होना चाहिए।

इसलिए मालकियत में एक दूसरा विरोधाभास है। और वह विरोधाभास यह है कि मालकियत मारती है और मार कर अप्रसन्न हो जाती है। क्योंकि प्रसन्नता खो जाती है। प्रेयसी जितना सुख देती है उतना पत्नी नहीं देती। लेकिन प्रेयसी को तत्काल पत्नी बनाने की इच्छा होती है। क्योंकि प्रेयसी की मालकियत अनिश्चित है। पत्नी की मालकियत सुनिश्चित है। लेकिन पत्नी बनते ही वह मर गई। मरते ही वह बेमानी हो गई।

इसलिए जिस व्यक्ति को हम पा लेते हैं वह बेमानी हो जाता है। हम उसे भूल जाते हैं, वह अर्थ ही नहीं रह जाता। जो लोग व्यक्तियों को मार-मार कर इकट्ठा करते जाते हैं, वे धीरे-धीरे व्यक्तियों से ऊब जाते हैं। क्योंकि मारने में व्यर्थ श्रम करना पड़ता है। श्रम के बाद फल कुछ भी नहीं मिलता।

इसलिए जो समझदार परिग्रही हैं, चालाक, वे व्यक्तियों को छोड़ कर वस्तुओं पर परिग्रह बिठाने लगते हैं। उनको मारने की झंझट नहीं करनी पड़ती। वे मरी-मराई ही होती हैं। इसलिए जो लोग व्यक्तियों से परेशान होकर ऊब गये हैं, वे धन इकट्ठा करने में, पद इकट्ठा करने में लग जाते हैं। वह ज्यादा सुविधापूर्ण है, कनवीनिएंट है। एक घर में कुर्सी ले आये हैं तो वह मरी हुई ही घर में आती है। उसको कहां रखना है, इसके आप पूरे मालिक हैं। रखना है, नहीं रखना है, आप पूरे मालिक हैं। उसको मारने की जद्दोजहद और परेशानी नहीं होती। और जब हम किसी व्यक्ति को घर में लाते हैं तो उसको भी हम कुर्सी बनाना चाहते हैं। जब तक वह कुर्सी नहीं बनता तब तक हमें बेचैनी रहती है। जब वह कुर्सी बन जाता है तब फिर बेचैनी शुरू हो जाती है।

इसलिए जो चालाक परिग्रही हैं, वे वस्तुओं पर मेहनत करते हैं। जो नासमझ परिग्रही हैं, वे व्यक्तियों पर मेहनत करते रहते हैं। लेकिन दोनों ही अज्ञान की मेहनत हैं। न तो हम व्यक्तियों से भर सकते हैं अपने को, न वस्तुओं से भर सकते हैं अपने को। हमारे हाथ खाली ही रह जायेंगे। भरने की जगह सिर्फ एक है। हम अपने से भर सकते हैं। और कोई भराव नहीं है। इस दुनिया में और कोई भराव है ही नहीं। कभी रहा ही नहीं है। हम सिर्फ अपने से भर सकते हैं। लेकिन अपना हमें कोई पता नहीं है।

इस अपने का कैसे पता लगे? और इस अपने के पता लगने में अपरिग्रह की दृष्टि कैसे सहयोगी हो सकती है? तो एक बात आप से कहना चाहूंगा–जो भी आपके पास है, आल दैट यू हैव, जो भी आपके पास है, उस पर एक दफा गौर से नजर डाल कर देखना कि क्या उससे आप जरा भी, रंचमात्र भी भर सके हैं? जो भी आपके पास है, क्या उसने इंच भर भी कहीं आपको भरा है?

सबके पास कुछ न कुछ है। इस “कुछ’ ने आपको जरा भी भरा हो तो फिर आप इस “कुछ’ को बढ़ाने में लग जाना। थोड़ा भरा है तो और ज्यादा भर सकेगा, और ज्यादा भर सकेगा, और ज्यादा भर सकेगा। लेकिन अगर इस “कुछ’ ने बिलकुल न भरा हो तो फिर थोड़ा समझना पड़ेगा कि यह “कुछ’ कितना ही ज्यादा हो जाये तो भी भर नहीं पाएगा। यह गणित बहुत सीधा है, लेकिन अनुभव हमेशा आशा के सामने हार जाता है। हमारा अतीत का अनुभव तो यही होता है कि परिग्रह भर नहीं पाया, लेकिन भविष्य की आशा यही होती है कि शायद कुछ और मिल जाये, और भर जाये।

सुना है मैंने कि एक गांव में एक आदमी की तीसरी पत्नी मरी और उसने फिर चौथी शादी की। तो गांव के लोग उसे कुछ भेंट करना चाहते थे, लेकिन भेंट करते-करते थक गये थे। तीन दफा शादी कर चुका था। हर बार भेंट कम होती चली गई थी। जब उसने चौथी शादी की तो उम्र भी बहुत हो गई थी और गांव के लोग भी परेशान हो गये थे कि अब क्या भेंट करें। तो गांव के लोगों ने एक तख्ती उसे भेंट की जिस पर लिखा था–अनुभव के ऊपर आशा की विजय। तीन पत्नियों का अनुभव भी उसको चौथी पत्नी से न रोक पाया। पूरा गांव जानता था कि जब तक पत्नी जिंदा रहती है, तब तक वह गांव में पत्नी के जिंदा होने के लिए रोता है। और जब पत्नी मर जाती है तो पत्नी के मरने के लिए रोता है।

अनुभव पर आशा सदा जीत जाती है। परिग्रही का चित्त जो है वह आशा से बंधा हुआ चलता है। अपरिग्रह की दृष्टि तो तभी आयेगी जब आशा पर अनुभव जीते। आपका अतीत, आपका अनुभव पर्याप्त है कहने को कि सब पाकर भी कुछ पाया नहीं गया है। और वे जो राष्ट्रपति के पदों पर पहुंच जाते हैं, वे कुर्सियों पर बैठ कर अचानक पाते हैं कि कुर्सी पर बैठ गये, पाया कुछ भी नहीं गया है।

असल में जहां पाना है वह है दिशा बीइंग की, और जो हम पा रहे हैं वह है दिशा हैविंग की। जो हम पा रहे हैं वे हैं चीजें, और जो हमें पाना है वह है आत्मा। ये चीजें कभी भी आत्मा नहीं बन सकतीं। यह भ्रांत-दौड़ एक जिंदगी नहीं, अनंत जिंदगी चलती है। असल में हम अपने पुराने अनुभवों को भुलाते चले जाते हैं। ऐसा नहीं है कि पिछले जन्म के अनुभव हमारे भूल गये हैं, हमने भुला दिये हैं। हम इसी जन्म के अनुभवों को भुलाते, उपेक्षा करते चले जाते हैं। हम सदा ही अनुभव को इंकार करते चले जाते हैं और हम सोचते हैं कि जो अब तक हुआ उससे भिन्न आगे हो सकता है। अनेक जन्मों का अनुभव भी हमें इस बात से नहीं रोक पाता है कि हम वस्तु को आत्मा न बना सकेंगे। हैविंग, बीइंग नहीं बन सकता है। वह असंभावना है।

लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि असंभव की भी आकांक्षा बड़ी रसपूर्ण होती है। जो नहीं हो सकता, उसको करने का भी दिल होता है। कई बार तो इसीलिए होता है कि वह नहीं हो सकता। अब चांद पर चढ़ने का मजा चला गया। हजारों साल से आदमी को था। चांद पर पहुंचने की आकांक्षा बड़ी रसपूर्ण थी, क्योंकि वह असंभव मालूम पड़ता था। वह इतना असंभव मालूम पड़ता था कि जो लोग चांद पर पहुंचने का खयाल करते थे, उनको हम पागल समझते थे।

अंग्रेजी का तो जो पागल के लिए शब्द है लूनाटिक, उसका मतलब है चांदमारा। वह लूना से बना है। जिस आदमी के दिमाग में चांद छा गया, जो अब चांद पर पहुंचना चाहता है, तो उसको पागल कहते थे। हिंदी में भी पागल के लिए चांदमारा शब्द है। जिस पर चांद का हमला हो गया, जो असंभव से पीड़ित हो गया।

लेकिन हम सब चांदमारे हैं, हम सब लूनाटिक हैं। लूनाटिक इस अर्थ में कि हम सब असंभव के लिए चाहते रहते हैं। सबसे बड़ा असंभव इस जगत में क्या है–द मोस्ट इंपासिबल? चांद पर पहुंचा जा सकता है, इसलिए अब चांद पर पहुंचने वालों को लूनाटिक कहना ठीक नहीं है। अब बात खतम हो गयी। अब यह शब्द बदल देना चाहिए। अब चांदमारा पागल का पर्यायवाची नहीं रहा। अब तो चांद पर बुद्धिमान आदमी पहुंच गये हैं, शायद मंगल पर पहुंचें, फिर शायद किसी तारे पर पहुंचें। लेकिन ये सब कठिन हैं, असंभव नहीं हैं।

असंभव सिर्फ जगत में मेरे हिसाब से एक चीज है और वह यह है कि वस्तु को कभी भी आत्मा नहीं बनाया जा सकेगा–हैविंग कैन नाट बी ट्रांसफार्म्ड इनटू बीइंग। वह एक असंभावना है जो सुनिश्चित रूप से असंभव रहेगी।

इसलिए महावीर या बुद्ध या जीसस उन लोगों को पागल कहते हैं जो परिग्रह में पड़े हैं। परिग्रही, अर्थात पागल। वह एक ऐसे काम में लगा है जो हो ही नहीं सकता है। हो सकता है कि नहीं हो सकता, यही उसका आकर्षण हो। लेकिन आकर्षण से असत्य सत्य नहीं बनते। परिग्रह का सत्य यह है कि वह असंभावना है।

सुना है मैंने कि सिकंदर से डायोजनीज ने एक बार कहा था कि तू अगर पूरी दुनिया पा लेगा, तो तूने कभी सोचा है कि फिर क्या करेगा? सिकंदर, कहते हैं, सुन कर उदास हो गया और सिकंदर ने कहा, यह मेरे खयाल में नहीं आया। ठीक कहते हैं आप। दूसरी तो कोई दुनिया नहीं है। अगर मैं एक पा लूंगा तो फिर क्या करूंगा। एकदम अनएंप्लाएड हो जाऊंगा, बेकार ही हो जाऊंगा। सिकंदर उदास हो गया यह जान कर कि दूसरी दुनिया नहीं है। इसका मतलब? इसका मतलब यह कि जब वह पूरी दुनिया पा लेगा तब कितनी उदासी होगी, अभी तो सिर्फ खयाल है।

आपने कभी सोचा नहीं कि जो आप चाहते हैं, अगर पा लेंगे तो क्या होगा। अगर इस दुनिया में किसी दिन ऐसा इंतजाम किया जा सके जैसा कि कथाओं में वर्णन है, कि स्वर्ग में है–अगर हम कभी इस दुनिया में कल्पवृक्ष बना सके तो प्रत्येक आदमी को महावीर हो जाना पड़ेगा। अगर हम किसी दिन कल्पवृक्ष बना सकें इस दुनिया में, और कल्पवृक्ष के नीचे जो आपने चाहा वह तत्काल मौजूद हो गया, तो सारी दुनिया अपरिग्रही हो जायेगी। कोई परिग्रह नहीं रह जायेगा। क्योंकि जैसे ही कोई चीज आपको तत्काल मिल जाये, आप हैरान होते हैं कि मिलते ही वह बेकार हो गयी। आप फिर पुरानी जगह खड़े हो गये, जहां आप मिलने के पहले थे। वही रुख किसी और चीज के लिए हो गया। आप एक भूख हैं, एक खालीपन, एक रिक्तता, जो हर चीज के बाद फिर आगे आकर खड़ी हो जाती है। आदमी एक क्षितिज की भांति, होरीजन की भांति है।

देखते हैं, आकाश छूता हुआ मालूम पड़ता है जमीन को। चलते चले जायें, लगता है यही रहा पास–दस मील होगा, बीस मील होगा। अभी पहुंच जायेंगे। पहुंचते हैं और पाते हैं कि आकाश बीस मील आगे हट गया। हट नहीं सकता था अगर वहां होता। आपके चलने से आकाश के हटने का कोई संबंध नहीं है। आकाश कभी भी कहीं पृथ्वी को नहीं छूता है, सिर्फ छूता हुआ दिखायी पड़ता है। पृथ्वी गोल है, और इसलिए आकाश छूता हुआ दिखाई पड़ता है। आकाश कहीं भी छूता नहीं।

मनुष्य की वासनाएं सर्कुलर हैं, गोल हैं, और इसलिए आशा उपलब्धि बनती हुई दिखायी पड़ती है, कभी बनती नहीं। मनुष्य की वासनाएं वर्तुलाकार हैं, जैसे पृथ्वी गोल है, और आशा का आकाश चारों तरफ है, तो ऐसा लगता है, ये रहे दस मील। अभी पहुंच जाऊंगा जहां आशा उपलब्धि बन जायेगी, जहां जो मैंने चाहा है, वह मिल जायेगा और मैं तृप्त हो जाऊंगा। दस मील चल कर पता चलता है कि होरीजन आगे चला गया। आकाश आगे बढ़ गया, वह अब और आगे जाकर छू रहा है। फिर हम बढ़ते हैं, और जिंदगी भर बढ़ते रहते हैं, और अनेक जिंदगी बढ़ते रहते हैं।

और मजा यह है कि हमें यह कभी खयाल नहीं आता कि दस मील पहले जो आकाश छूता हुआ दिखायी पड़ता था, वह फिर दस मील आगे दिखायी पड़ने लगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आकाश छूता ही नहीं। अन्यथा आकाश आप से डर कर भाग रहा हो और जमीन को छूने के स्थान बदल रहा हो, ऐसा तो नहीं हो सकता।

फिर और बड़े मजे की बात है कि हमसे दस मील आगे जो और खड़े हैं वे भी भाग रहे हैं और जहां हमें लगता है कि आकाश छूता है, वहां खड़े लोग भी और आगे भाग रहे हैं। उन लोगों के भी जो आगे हैं, जहां उन्हें लगता है कि आकाश छूता है, वे भी भाग रहे हैं। जब सारी पृथ्वी भाग रही हो, तो जिन्हें थोड़ा भी विवेक है, उन्हें यह स्मरण आ जाना कठिन नहीं है कि आकाश पृथ्वी को कहीं छूता ही नहीं। छूना सिर्फ एपियरेंस है, सिर्फ छूता हुआ मालूम पड़ता है। आशा कहीं उपलब्धि नहीं बनती। वासना कहीं तृप्ति नहीं बनती, कामना कहीं पूर्ण नहीं होती, सिर्फ छूती हुई, होती हुई मालूम पड़ती है! और आदमी दौड़ता चला जाता है।

इसलिए परिग्रह के संबंध में अपने अतीत-अनुभव को पूरा-का-पूरा देख लेना जरूरी है। लेकिन हम धोखा देने में कुशल हैं। दूसरे को धोखा देने में उतने कुशल नहीं हैं जितना अपने को धोखा देने में कुशल हैं। दूसरे को धोखा देना बहुत मुश्किल भी है, क्योंकि दूसरा जो है वहां। पर अपने को धोखा देना बहुत आसान है, सेल्फ डिसेप्शन बहुत ही आसान है। हम अपने को धोखा दिये चले जाते हैं।

एक रुपया, मैं सोचता हूं, मुझे मिल जाये तो आनंदित हो जाऊंगा। रुपया मेरे हाथ में आ जाता है, आनंदित बिलकुल नहीं होता। सोचता हूं, दूसरा रुपया मिल जाये; लेकिन दूसरा रुपया भी पहले रुपये की प्रतिलिपि है, कापी है, यह खयाल में नहीं आता। दूसरा भी मिल जाता है। तीसरा रुपया भी मिल जाता है, तीसरा रुपया भी दूसरे की प्रतिलिपि है। वह भी उसी का चेहरा है। तीसरा भी मिल जाता है। ये मिलते चले जाते हैं, मिलते चले जाते हैं। एक दिन मैं पाता हूं कि मैं तो खो गया, रुपये ही रुपये हो गये हैं। लेकिन वह जो पहले रुपये के वक्त जो आकाश कहीं मुझे छूता मालूम पड़ता था, वह करोड़ रुपये के बाद भी वहीं छूता हुआ मालूम पड़ता है। फासला उतना ही है, जितना एक रुपये की आशा में था, उतना ही करोड़ रुपये के बाद फिर पुनः उसी आशा में है।

इसलिए कभी-कभी हमें हैरानी होती है कि करोड़पति भी एक रुपये के लिए इतना पागल क्यों होता है! करोड़पति भी एक रुपये के लिए उतना ही दीवाना होता है जितना जिसके पास एक नहीं है वह होता है; क्योंकि फासला दोनों का सदा बराबर है। आशा और उपलब्धि का फासला वही है। आपके पास कितना है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह जो आगे है, जो नहीं है आपके पास, वह दौड़ाता चला जाता है।

और कई बार तो करोड़पति और भी कृपण हो जाता है, क्योंकि उसके अनुभव ने कहा कि करोड़ रुपये हो गये, फिर भी अभी उपलब्धि नहीं हुई। जीवन तो चुक गया। अब एक-एक रुपये को जितने जोर से पकड़ सके–क्योंकि जीवन चुक रहा है। इधर जीवन समाप्त हो रहा है। जब एक रुपया पास था तो जीवन भी पास था। दौड़ भी थी, ताकत भी थी, पर अब वह भी खतम हो गयी। अब करोड़ रुपये तो पास हो गये हैं, पर जीवन की शक्ति क्षीण हो गयी है। इसलिए बूढ़ा होतेऱ्होते आदमी और परिग्रही हो जाता है, और जोर से पकड़ने लगता है कि अब जिंदगी तो बहुत कम है। जितनी जल्दी, जितना ज्यादा पकड़ा जा सके, जितनी जल्दी जितनी यात्रा की जा सके…!

सुना है मैंने, एलिस नाम की एक लड़की स्वर्ग पहुंच गयी है और वहां जाकर तकलीफ में है। भूखी है, प्यासी है, खड़ी है। दूर की यात्रा है जमीन से स्वर्ग तक की, परियों के देश तक की, और फिर परियों की रानी उसे दिखायी पड़ी, वृक्ष के नीचे खड़ी है और बुला रही है। आवाज सुनायी पड़ती है। आवाजें बड़ी भ्रामक हैं, वे सुनायी पड़ती हैं। हाथ दिखायी पड़ता है। हाथ बड़े भ्रामक हैं, वे दिखायी पड़ते हैं। और उसके आस-पास मिठाइयों का ढेर लगा है, फल-फूल का ढेर लगा है; और वह भूखी लड़की दौड़ना शुरू कर देती है। सुबह है, सूरज उग रहा है। वह भागती है, भागती है। दोपहर हो गयी, सूरज सिर पर आ गया, लेकिन फासला उतना का उतना है।

लेकिन वह लड़की लड़की है, अगर बूढ़ी होती तो रुक कर सोचती भी नहीं। वह लड़की खड़ी होकर सोचती है कि बात क्या है? सुबह हो गयी, दोपहर हो गयी दौड़ते-दौड़ते, और जो इतनी निकट मालूम पड़ती थी रानी, अब भी उतनी ही निकट है! कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। डिस्टेंस वही है! तो वह चिल्ला कर पूछती है कि रानी, यह तुम्हारा देश कैसा है? सुबह से दोपहर हो गयी दौड़ते-दौड़ते, लेकिन फासला कम नहीं होता।

रानी कहती है कि तू थोड़ा धीरे दौड़ती है, इसलिए फासला कम नहीं होता। जरा तेजी से दौड़। तू दौड़ की ताकत कम लगा रही है, दौड़ काफी नहीं है।

यह बात लड़की की समझ में आ जाती है। बूढ़े की समझ में भी आ जाती है तो लड़की की समझ में आ जाये तो बहुत कठिन नहीं। उसकी समझ में आ जाती है कि जरूर फासला इसीलिए पूरा नहीं होता है कि दौड़ कमजोर है। इसलिए वह और तेजी से दौड़ती है। फिर सांझ सूरज ढलने लगता है, लेकिन फासला उतना का उतना ही है। फिर वह चिल्ला कर पूछती है कि अब तो अंधेरा भी उतरने लगा। वह रानी कहती है, तेरी दौड़ कमजोर है। वह लड़की और तेजी से दौड़ती है। अब तो अंधेरा भी काफी छाने लगा है, और रानी का दिखायी पड़ना मुश्किल होने लगा है। अब वह अंधेरे में चिल्ला कर पूछती है, तेरा देश कैसा है! अब तो रात भी उतर आयी, अब पहुंचने की आशा भी खोती है।

रानी की खिलखिलाहट सुनायी पड़ती है और वह कहती है, पागल लड़की, शायद तुझे पता नहीं, दुनिया में सब जगह–जिस पृथ्वी से तू आती है, उस जगह भी–कोई कभी वहां नहीं पहुंचता, जहां पहुंचना चाहता है। फासला सदा वही रहता है, जो शुरू करते वक्त होता है।

जन्म के दिन जितना फासला है, मृत्यु के दिन उतना ही फासला होता है। सिर्फ एक फर्क पड़ता है। जन्म के दिन सूरज निकलता है, मृत्यु के दिन सूरज ढलता है और अंधेरा हो रहा होता है। जन्म के दिन आशाएं होती हैं, मृत्यु के दिन फ्रस्ट्रेशन्स होते हैं, विषाद होता है, हार होती है। जन्म के दिन आकांक्षाएं होती हैं, अभीप्साएं होती हैं, दौड़ने का बल होता है; मृत्यु के दिन थका मन होता है, हार होती है, टूट गये होते हैं। लेकिन फिर भी ऐसा समझने की कोई जरूरत नहीं है कि मरता हुआ आदमी अपरिग्रही हो जाता हो। मरता हुआ आदमी भी यही सोचता है, काश थोड़ी ताकत और होती, और थोड़े दिन और शेष होते तो दौड़ लेता! पहुंच जाता!

ऐसी कथा है कि एक सम्राट की मौत करीब आ गयी। सौ वर्ष पूरे हो गये। मौत भीतर आयी और उसने सम्राट से कहा, मैं लेने आ गयी हूं। आप तैयार हो जायें। मौत सभी के पास आकर कहती है, आप तैयार हो जायें। हम न सुनें, यह बात दूसरी है; हम बहरे बन जायें, यह बात दूसरी है।

सम्राट ने कहा, वक्त आ गया जाने का, लेकिन अभी तो मैं कुछ भी न भोग पाया। अभी तो सब आशाएं ताजी हैं, और अभी कोई चीज पूरी नहीं हुई। अभी मैं कैसे जा सकता हूं? लेकिन मौत ने कहा कि मुझे तो किसी को ले ही जाना पड़ेगा। अगर तुम्हारा कोई बेटा राजी हो तुम्हारी जगह मरने को, तो मैं उसे ले जाऊं! वह अपनी उम्र तुम्हें दे दे। सम्राट ने अपने बेटे बुलाये, बहुत बेटे थे उसके, सौ बेटे थे। बहुत रानियां थीं उसकी। उसने उन सब बेटों से कहा, कौन है जो मुझे अपनी उम्र दे दे, क्योंकि अभी तो मेरा कुछ भी पूरा नहीं हुआ।

लेकिन वे बेटे भी आदमी थे और जब मरता हुआ सौ वर्ष का बूढ़ा भी जिंदा रहना चाहे तो पचास साल का उसका बेटा क्यों जिंदा रहना न चाहे? अस्सी साल का उसका बेटा जिंदा क्यों न रहना चाहे? और बीस साल का उसका बेटा जिंदा क्यों न रहना चाहे? वे निन्यानबे बेटे तो चुप होकर बैठ गये। जो सबसे कम उम्र का बेटा था वह उठ कर खड़ा हुआ। उसकी उम्र कोई पंद्रह-सोलह साल थी। उसने कहा कि मेरी उम्र ले लें। मौत ने उसे बहुत रोका कि पागल तू यह क्या कर रहा है!

उसने कहा कि जब मेरे पिता सौ वर्ष में कुछ पूरा नहीं कर पाये, तो मैं भी क्या पूरा कर पाऊंगा! उनको दे जाता हूं। शायद दो सौ वर्ष में वे कुछ पूरा कर पायें। सौ वर्ष ही तो मेरे पास हैं न! और मेरा भी कोई बेटा शायद ही राजी होगा जिस दिन मुझे उम्र की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि देखता हूं कि निन्यानबे बेटों में से कोई राजी नहीं है, तो मेरा बेटा भी शायद ही कोई राजी होगा। और उस बेटे ने मौत से कहा कि कम-से-कम मुझे यह तो रहेगा कि अपनी कोई आशा विफल न हुई, क्योंकि हमने कोई आशा ही न की। तो आनंद के साथ तो मर सकूंगा। पिता तो बहुत विषाद से मर रहे हैं। इतनी कृपा करना मुझ पर, कि जब सौ साल बाद पिता फिर से मरें, तो मुझे जरा खबर कर देना कि क्या हालत बनी।

सौ वर्ष बीत गये। वर्ष बीतने में देर नहीं लगती। सौ वर्ष बीत गये, मौत फिर से द्वार पर खड़ी हो गयी है आकर। सम्राट ने कहा, लेकिन अभी तो सब आशाएं अधूरी हैं, कोई सपने पूरे नहीं हुए। तब तक उसके पुराने सौ बेटे मर चुके हैं, लेकिन और सौ बेटे पैदा हो गये हैं। उसने कहा, मेरे बेटों को बुलाओ। मौत ने कहा, देखते नहीं आप, दो सौ वर्ष में भी कुछ नहीं हो पाया। उसने कहा, थोड़ा और समय मिल जाये तो शायद पूरा हो जाये।

वह “शायद’, वह “परहेप्स’ आखिरी मृत्यु के क्षणों में भी खड़ा रहता है। शायद पूरा हो जाये! ठीक, सौ बेटे बुलाये गये, फिर एक बेटा राजी हो गया। मौत ने उसे भी समझाया कि तू पागल है। पर उसने कहा, बेहतर हो कि तू हमारे पिता को समझा कि वह पागल हैं। क्योंकि दो सौ वर्ष में कुछ पूरा नहीं हो पाया तो मैं भी क्या कर पाऊंगा? उस बेटे ने मरने के पहले अपने पिता से पूछा कि थोड़ा-बहुत भी पूरा हुआ है दो सौ वर्षों में? उसके पिता ने कहा, थोड़ा-बहुत? कुछ भी पूरा नहीं हुआ। मैं वहीं खड़ा हूं जहां मैं आया था पृथ्वी पर, तब था। तो उस बेटे ने कहा, मैं खुशी से जाता हूं, कोई विषाद नहीं है।

कहते हैं, ऐसा एक हजार साल तक हुआ। वह बूढ़ा एक हजार साल तक जीया। उसके बेटे बदलते चले गये, उसकी उम्र बढ़ती चली गयी, और जब हजारवें वर्ष मौत आयी तो मौत थक चुकी थी, लेकिन वह बूढ़ा नहीं थका था। और मौत ने कहा, बस, अब नहीं। अब काफी हो गया। मैं कब तक आती रहूंगी? तुम अनुभव से सीखते ही नहीं। उस बूढ़े ने कहा, लेकिन अभी तो कुछ भी नहीं हुआ। अभी तो सब वहीं का वहीं रिक्त और खाली है। थोड़ा समय शायद मिल जाये तो कुछ हो सके। यह बात वह दस बार मौत से कह चुका है। इस बूढ़े पर हंसना मत आप, यह कहानी नहीं है, यह हम सबकी कहानी है। यह बात हम भी मौत से हजार बार कह चुके हैं, याद नहीं है। उसको भी याद नहीं था। अगर उसको भी याद होता कि दस बार यही बात कही जा चुकी है, तो शायद दसवीं बार कहने में हिम्मत टूट जाती। वह भी भूल चुका था। उसने मौत से कहा, कौन-सा अनुभव? कैसा अनुभव? उस मौत ने कहा, मैं दस बार आ चुकी हूं। उस बूढ़े ने कहा, मुझे कुछ स्मरण नहीं।

असल में दुख को हम भुलाना चाहते हैं और हम भूल जाते हैं। जो-जो दुख है उसे हम भूल जाते हैं, जो-जो सुख है उसे हम सम्हाल कर रखते हैं। जो-जो दुख है उसे हम छोटा करते जाते हैं, जो-जो सुख है उसे हम धीरे-धीरे मन में बड़ा करते जाते हैं। इसलिए बूढ़ा आदमी कहता है, बचपन में बहुत सुख था। कोई बच्चा नहीं कहता। बच्चा कहता है, कितनी जल्दी बड़े हो जायें। बड़े के पास बहुत सुख मालूम पड़ता है। कोई बच्चा सुखी नहीं है। लेकिन सब बूढ़े कहते हैं, बचपन में बहुत सुख था। बच्चे बहुत जल्दी बड़े होना चाहते हैं। सब बच्चे परेशान हैं, क्योंकि उनको हजार तरह के दुख हैं। बच्चा होना भी बड़ा दुख है बड़ों की दुनिया में। चारों तरफ बड़े हैं और एक छोटा बच्चा है। बड़े गंभीर चर्चा कर रहे हैं और उसे खेलने की आज्ञा नहीं है। और उस छोटे बच्चे को बड़ों की गंभीर चर्चा एकदम निपट नासमझी की मालूम पड़ती है, खेल सार्थक मालूम पड़ता है। सब तरफ दबाव है, सब तरफ आज्ञा है–यह मत करो, वह मत करो। बच्चा बहुत जल्दी बड़ा होना चाहता है कि कब वह बड़ा हो जाये और दूसरों से कह सके कि यह मत करो। लेकिन सब बूढ़े कहते हैं कि बचपन बहुत सुखद था। उन्होंने बचपन के सब दुख भुला दिये।

अब यह बड़े मजे की बात है, आप कहेंगे कि नहीं, एक आदमी अगर सौ बार मरा हो, दस बार मौत आयी हो उसकी, तो भूल नहीं सकता। आप जन्मे थे, आपको याद है जन्म की? निश्चित ही एक बात तो कम-से-कम पक्की है ही, पीछे के जन्मों को हम छोड़ दें, इस बार आप जन्मे हैं इतना तो पक्का ही है। लेकिन आपको कोई याद है जन्म की? जन्म इतनी दुखद प्रक्रिया है कि उसकी याद मन नहीं बनाता। मां जितना दुख झेलती है जन्म देते वक्त, वह कुछ भी नहीं है, जो बेटा झेलता है। और मां तो बहुत जल्दी प्रसव-पीड़ा से मुक्त हो जायेगी। कोई कारण नहीं है, लेकिन बेटा, वह जो दुख झेलता है वह इतना भारी है कि उसे अपनी स्मृति से हटा देता है।

हमारी स्मृति पूरे वक्त चुनाव कर रही है कि क्या बचाना है, क्या हटाना है। अगर हमें कोई बताने वाला न हो कि हम जन्मे हैं, तो हमें पता ही नहीं चलेगा कि हम जन्मे हैं। लेकिन जन्म के वक्त आप थे, जन्म की घटना आपके ऊपर घटी है। जन्म की घटना से आप गुजरे हैं, लेकिन उसकी स्मृति कहां है? उसकी स्मृति नहीं है, क्योंकि वह बहुत दुखद घटना है। मां के अंधकारपूर्ण पेट से, परम विश्राम से, जहां श्वास लेने की तकलीफ भी नहीं है, जहां जीने के लिए भी कुछ करना नहीं पड़ता, सिर्फ जीना है।

मनोवैज्ञानिक तो हजार-हजार अनुभव के आधार पर कहते हैं कि मनुष्य को मोक्ष की जो कल्पना आयी है, वह गर्भ की स्मृति से आयी है। गर्भ में इतनी शांति है, इतना मौन है, टोटल साइलेंस है, कोई श्रम नहीं है। कुछ करना नहीं है, सिर्फ होना है। उस होने की दुनिया से एक झटके के साथ उस दुनिया में आना जहां जिंदा रहना हो तो श्वास भी लेनी पड़ेगी, भोजन भी लेना पड़ेगा, रोना भी पड़ेगा, चिल्लाना भी पड़ेगा। जहां जिंदगी कठिनाइयों से गुजरेगी। उतने बड़े शांत और सुखद अनुभव से इतने बड़े दुखद अनुभव में प्रवेश! बच्चा भूल जाता है।

लेकिन गहरी हिप्नोसिस में आपको याद दिलाया जा सकता है कि आप जब पैदा हुए तो आपका अनुभव क्या था। गहरी सम्मोहन की अवस्था में या गहरे ध्यान में, आपको मां के पेट के अनुभव भी याद दिलाये जा सकते हैं। अगर आपकी मां गिर पड़ी थी तो वह जो चोट लगी थी, उसकी खबर भी आप तक पहुंची थी। वह भी आपकी स्मृति का हिस्सा है, लेकिन हम भूल गये हैं। ठीक ऐसे ही हम भी बहुत बार मरे हैं, जैसा वह राजा ययाति, जिसकी मैं कहानी कह रहा था, दस बार मौत आयी लेकिन भूलता चला गया। उसने कहा, मैं तो तुझे पहचानता ही नहीं हूं। मैं तो सोचता हूं तू पहली बार ही आयी है, थोड़ा समय मुझे मिल जाये तो मैं अपनी आकांक्षाएं पूरी कर लूं। लेकिन उस मौत ने कहा कि नहीं अब बहुत हो चुका। तुम हजार साल के अनुभव से नहीं सीखे, तो तुम करोड़ वर्ष के अनुभव से भी नहीं सीख सकते हो।

जिसे सीखना है वह एक अनुभव से भी सीखता है, जिसे नहीं सीखना है वह अनंत अनुभव से भी नहीं सीखता। हम ऐसे ही लोग हैं, जिन्होंने सीखना बंद कर दिया है। ये जिनको हम महावीर या कृष्ण या बुद्ध कहते हैं, ये वे लोग हैं जो जिंदगी के अनुभव से सीखते हैं। हम ऐसे लोग हैं जो सीखते ही नहीं। हम ऐसे लोग हैं जिन्होंने जान-बूझ कर आंखें बंद कर रखी हैं और सीखेंगे नहीं। और वही करते चले जायेंगे जो हम कर रहे थे; और वही भोगते चले जायेंगे जो हम भोग रहे थे; और वही आशाएं, वही विषाद, वही पुनरावृत्ति और वही चक्र!

कभी आपने शायद खयाल न किया हो, हमारा शब्द है: संसार। संसार का मतलब होता है: द ह्वील, चक्र, जिसमें वही स्पोक बार-बार लौट आते हैं, जिसमें वही धुरी बार-बार घूमने लगती है। वह जो भारत के झंडे पर चक्र बनाया हुआ है, वह उन राजनीतिज्ञों को पता नहीं है कि किसलिए बना लिया है। बस, अशोक के स्तंभ पर बना था तो सोचा कि अशोक का चिह्न है, उसे चुन लिया है।

लेकिन राजनीतिज्ञ कैसे समझ पायेगा कि वह चक्र एक धार्मिक प्रतीक है। और जितने चक्कर में राजनीतिज्ञ रहता है, उतने चक्कर में तो कोई नहीं रहता है। वह तो चक्के के भीतर है, वह तो स्पोक्स को पकड़ कर बैठा हुआ है, घूम रहा है पूरे वक्त। कुछ दूसरे उसको छुड़ाने की भी कोशिश कर रहे हैं, तो भी छूटता नहीं है। वे दूसरे भी उसे छुड़ा कर उसके स्पोक को खुद पकड़ लेना चाहते हैं। और उन्हें कभी खयाल नहीं आता है कि जिस भांति वे उसको छुड़ाने की कोशिश कर रहे हैं, कुछ लोग उनको छुड़ाने की भी कोशिश करेंगे, जब वे पकड़ लेंगे। वह चल रहा है पूरे वक्त।

जगत, संसार, एक चक्र है। जिस चक्र में हम वही किये चले जाते हैं, वही दोहराये चले जाते हैं। कल भी आपने क्रोध किया था, और कल भी आप पछताये थे, और कल भी आपने कसम खायी थी कि अब क्रोध नहीं करेंगे। आज फिर आप क्रोध करेंगे, आज फिर आप पछतायेंगे, आज फिर आप कसम खायेंगे कि क्रोध नहीं करेंगे। कल भी यही होगा, परसों भी यही होगा। हम आदमी हैं या मशीन हैं? यंत्र अगर घूमता चला जाये तो समझ में आता है, आदमी भी घूमता चला जाये तो शक होता है कि यह आदमी है या मशीन है।

लोग कहते हैं कि आदमी जो है वह रेशनल एनिमल है, लेकिन आदमी इसका कोई सबूत नहीं देता। आदमी को देख कर बिलकुल पता नहीं चलता कि आदमी बुद्धिमान है। आदमी से ज्यादा बुद्धिहीन प्राणी खोजना बहुत मुश्किल है। आदमी सीखता ही नहीं। जो बड़ी-से-बड़ी बात सीखने की हो सकती है जिंदगी में, वह यह है कि परिग्रह एक व्यर्थता है। वस्तुएं व्यर्थ हैं, यह मैं नहीं कह रहा हूं। आपके घर में कुर्सी है, यह व्यर्थ है, यह मैं नहीं कह रहा हूं। कुर्सी कैसे व्यर्थ हो सकती है? कुर्सी तो बैठने के काम आती है, आ सकती है। मैं यह नहीं कह रहा कि आपके पास मकान है, वह व्यर्थ है। मकान रहने के काम आ सकता है, आता है, आना चाहिए। वस्तुएं व्यर्थ हैं, यह मैं नहीं कह रहा। वस्तुओं की अपनी सार्थकता है। जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि वस्तुओं से हम अपने को भर लेंगे, इसकी कोई सार्थकता नहीं है। वस्तुएं हमारी आत्माएं बन जायेंगी, इसका कोई उपाय नहीं है।

परिग्रह के प्रति अगर हम थोड़ी-सी भी आंख खोल कर देख लें तो हम अचानक पायेंगे कि हम उस दुनिया में प्रवेश करने लगे हैं, जहां पजेसिवनेस छूटती है, और खोती है, और विदा हो जाती है। फिर जिस दिन हम पकड़ छोड़ देते हैं उस दिन एक घटना घटती है कि हम अकेले ही रह जाते हैं। न तो पत्नी रह जाती है, न मित्र रह जाते हैं, न भाई रह जाते हैं, न मकान रह जाता है। ये सब अपनी जगह हैं। ये एक बड़े खेल के हिस्से हैं।

और यह खेल ठीक वैसा है जैसा लोग शतरंज खेलते हैं। उसमें कोई घोड़ा होता है, कोई हाथी होता है, लेकिन कभी कोई इस भ्रम में नहीं पड़ता कि इस घोड़े पर सवारी की जाये। शतरंज के खेल और नियम के भीतर घोड़ा बड़ा सार्थक है, उसकी अपनी उपयोगिता है, उसकी अपनी चाल है, उसकी अपनी हार और जीत है। लेकिन कभी-कभी लोग शतरंज में भी पागल हो जाते हैं।

इजिप्त में एक सम्राट शतरंज में पागल हो गया। वह धीरे-धीरे इतना पागल हो गया कि उसने असली घोड़े छुड़वा दिये अपने अस्तबलों से और शतरंज के घोड़े बंधवा दिये। वह दिन-रात घोड़ेऱ्हाथियों में जीने लगा शतरंज के, और जब उस पर हमला होने की संभावना आयी तो उसने कहा कि शतरंज के सब घोड़े लगा दो। तब तो उसके दरबार के लोगों ने कहा कि अब दिमाग पूरा खराब हो गया है। अब बड़ी मुश्किल है, इसको कैसे ठीक किया जाये, यह कैसे ठीक होगा?

तो देश के सब विचारक, समझदार लोग, वाइज़ मैन बुलाये गये और उनसे पूछा गया कि यह कैसे ठीक होगा। उन्होंने कहा कि इसने शतरंज के खेल को जिंदगी समझ लिया है। एक बूढ़ा आदमी जो उन बुद्धिमानों में आया हुआ था वह उठ कर जाने लगा। उसने कहा, सम्राट ठीक नहीं होगा। क्योंकि जो ठीक करने आये हैं, इनमें और उसमें बहुत फर्क नहीं है। इसने शतरंज के खेल को जिंदगी समझा हुआ है और इन लोगों ने जिंदगी को शतरंज का खेल बनाया हुआ है। ये दोनों एक से हैं। इनमें बहुत फर्क नहीं है।

उस बूढ़े को उस सम्राट ने पकड़ लिया कि तुम कुछ बुद्धिमानी की बात कह रहे हो। अगर हम दोनों एक से पागल हैं तो तुम कुछ बुद्धिमानी की बात कह रहे हो। मैं क्या करूं? तो उसने कहा कि तुम कुछ मत करो, तुम सिर्फ शतरंज खेलो, जोर से शतरंज खेलो। बड़े शतरंज के खिलाड़ी बुलाये गये और राजा को उनके साथ शतरंज खेलने में लगा दिया गया। साल भर में ऐसा हुआ कि राजा ठीक हो गया और उसके साथ खेलने वाले पागल हो गये। हो ही जायेंगे। राजा ठीक हो गया, क्योंकि साल भर दिन-रात खेलता ही रहा। खेलते-खेलते उसको दिखायी पड़ा कि न तो घोड़ा घोड़ा है, न हाथी हाथी है, सब खेल है।

हम बहुत खेल लिये हैं, हम सब खेल लिए हैं, हम सब खेल रहे हैं। लेकिन हमें अभी शतरंज का घोड़ा, शतरंज का घोड़ा नहीं मालूम पड़ता, घोड़ा ही मालूम पड़ता है।

सारे संबंध जिंदगी के, शतरंज का खेल हैं। उसके नियम हैं। उनका पालन करना चाहिए। और ध्यान रहे, जो आदमी जिंदगी को खेल समझता है, उसको नियम-पालन करना बड़ा आसान हो जाता है, कठिनाई ही नहीं रह जाती। तब यह सब गंभीरता नहीं रह जाती, इसमें कोई मामला ही नहीं रह जाता। इसमें कोई कठिनाई नहीं रह जाती। अगर यह खेल है, तो गंभीरता गयी। देन यू आर नाट सीरियस।

लेकिन कुछ लोग खेल को ही जिंदगी बना लेते हैं, तब वे खेल में भी गंभीर हो जाते हैं, तब खेल में भी तलवारें चल जाती हैं। शतरंज के खिलाड़ियों में तलवारें बहुत दफा चल गयी हैं। अगर शतरंज के घोड़े और हाथी कुछ भी समझते होंगे तो इन खिलाड़ियों पर बहुत हंसे होंगे, कि ये क्या कर रहे हैं? लकड़ी के घोड़ेऱ्हाथियों पर तलवारें चला रहे हैं।

जिंदगी की हमारी जो व्यवस्था है, वह सारी की सारी व्यवस्था अपनी जगह ठीक है। वस्तुएं वस्तुएं हैं, हैविंग हैविंग है, धन धन है, पद पद है। आत्मा कोई भी नहीं। इस स्मरण का नाम परिग्रह से मुक्ति है। परिग्रह छोड़ कर भाग जाने का नाम नहीं है। इसलिए जिन्हें हम संन्यासी कहते हैं साधारणतया, वे इनवर्टेड परिग्रही हैं, वे शीर्षासन करते हुए परिग्रही हैं। वे सिर्फ उल्टे खड़े हो गये हैं, हैं वे आप ही। जो आप हैं, वही वे हैं। बल्कि कई मामलों में वे आपसे भी ज्यादा गंभीर हैं।

मैं तो सोच ही नहीं सकता कि संन्यासी और गंभीर! यह असंभव होना चाहिए। संन्यासी अगर गंभीर है तो उसका मतलब है कि वह सिर्फ शीर्षासन लगा कर खड़ा हो गया संसारी है। गंभीरता का मतलब यह है कि संसार बड़ा सार्थक है। वह जो नासमझियों का जाल है, वह बड़ा कीमती है। इसको कीमत हम दो तरह से दे सकते हैं। इसमें उतर कर, डूब कर, इसको छाती से पकड़ कर। इसे हम एक और तरह से कीमत दे सकते हैं। इससे भयभीत होकर, इससे भाग कर।

एक अंतिम बात। तीन संन्यासी हुए चीन में। जिन्हें मैं संन्यासी कहने को राजी हूं, क्योंकि उन तीन संन्यासियों से ज्यादा गैर-गंभीर आदमी शायद ही हुए हों। उनको लोग जानते नहीं, उनका नाम ही लोगों को पता नहीं है, क्योंकि नाम वगैरह सब खेल की बातें हैं। उन संन्यासियों ने कभी अपना नाम नहीं बताया कि उनका नाम क्या है। जब कोई उनसे पूछता कि तुम कौन हो, तो वे एक-दूसरे की तरफ देखकर हंसते, और इतने जोर से खिलखिलाते कि पूछने वाला भी थोड़ी देर में हंसने लगता। धीरे-धीरे उनकी हंसी गांव भर में फैल जाती। तो लोग उनको इतना ही जानते: द थ्री लाफिंग सेंट्स, तीन हंसते हुए संन्यासी। उनका नाम कुछ रहा नहीं। जब भी उनसे कोई सवाल पूछता तो वे हंसते। उन्होंने हंसने से ही एक उत्तर दिया। जब भी कोई उनसे पूछता कि आप हंसते क्यों हैं हमारे सवालों से? तो वे कहते कि तुम इतनी गंभीरता से पूछते हो कि तुम्हें दिया गया कोई भी उत्तर खतरनाक सिद्ध होगा। तुम उसको भी गंभीरता से पकड़ लोगे।

परिग्रह नासमझी है, तो परिग्रह के खिलाफ साधा गया त्याग भी नासमझी है। चीजों को पकड़ना पागलपन है, तो चीजों को छोड़ कर भागना कम पागलपन नहीं है। चीजों के प्रति मोहग्रस्त होना पागलपन है, तो चीजों के प्रति विरक्त होना कम पागलपन नहीं है। ये दोनों ही पागलपन हैं, एक-दूसरे की तरफ पीठ किये हुए खड़े हैं। और दोनों पागल सोच रहे हैं यही कि कहीं दूसरा मजा न ले रहा हो।

मुझे संन्यासी मिलते हैं जो मुझे कहते हैं कि कई दफा मन में ऐसा संदेह उठने लगता है कि कहीं हमने भूल तो नहीं की? उठेगा, स्वाभाविक है। संन्यासी के मन में यह खयाल उठना स्वाभाविक है कि कहीं मैंने भूल तो नहीं की जो मैं सब छोड़ कर भाग आया। जो लोग वहां भोग रहे हैं, कहीं बड़े आनंद में तो नहीं हैं? और जो भोग रहे हैं वे बड़े परेशान हैं, वे संन्यासियों के पैर छूते रहते हैं जाकर। वे सोचते रहते हैं कि संन्यासी बड़े आनंद में होगा। हम तो बड़े दुख में पड़े हैं।

यह भ्रांति चलती रहती है और हमारे चेहरे धोखा देते रहते हैं। संन्यासी एकांत में संदिग्ध होता है, भीड़ में आश्वस्त हो जाता है। जब लोग उसके पैर छूते हैं, तब उसे पक्का हो जाता है कि नहीं, ये लोग आनंद में नहीं हो सकते, नहीं तो मेरे पैर छूने न आते। एकांत में संदिग्ध हो जाता है, जब भीड़ हट जाती है।

इसलिए अगर किसी को अपने झूठे संन्यास को बनाये रखना हो तो भीड़ अनिवार्य है, अन्यथा बहुत मुश्किल है संन्यास को बनाये रखना। अकेले में संन्यासी संदिग्ध हो जाता है, कि पता नहीं, गांव में लोग आनंद न लूट रहे हों। इसलिए धीरे-धीरे सब संन्यासी गांव में आ जाते हैं। वहां दोहरे फायदे होते हैं। एक तो लोग सामने रहते हैं। दूसरे, लोग पैर छूते हैं, आदर देते हैं तो संन्यासी को भरोसा आता है कि नहीं, अगर ये आनंद में होते तो इधर मेरे पास न आते। त्यागी के पास आ रहे हैं। पर संन्यासी को पता नहीं कि इनके भी संदेह के क्षण हैं। ये भी संदेह से भर जाते हैं कि पता नहीं, संन्यासी आनंद न लूट रहा हो। असल में दूसरा आनंद लूट रहा है, यह खयाल हम सबके मन में होता ही है। क्योंकि दूसरों का हम चेहरा जानते हैं और अपनी आत्मा जानते हैं। अपना दुख परिचित होता है, दूसरे के मुखौटे परिचित होते हैं।

नहीं, न तो वस्तुएं पकड़ने योग्य हैं, न वस्तुएं छोड़ने योग्य हैं। इसलिए अपरिग्रह का अर्थ वैराग्य नहीं है, अपरिग्रह का अर्थ विरक्ति नहीं है, अपरिग्रह का अर्थ विराग नहीं है, अपरिग्रह का अर्थ त्याग नहीं है। यह आखिरी बात ठीक से खयाल में ले लेंगे, अन्यथा मैंने परिग्रह के संबंध में जो कहा, कहीं वह आपको त्यागी न बना दे, कहीं आप संसार को छोड़ कर न भागने लगें, कहीं आप घर-द्वार को छोड़ कर जंगल की राह न ले लें।

नहीं, परिग्रह को जो समझ लेगा, वह छोड़ने की बात भूल कर न करेगा। क्योंकि छोड़ा उसे जा सकता है जिसे कभी पकड़ा गया हो। जो परिग्रह को समझ लेगा, वह पायेगा कि कुछ पकड़ा ही नहीं जा सका है, छोड़ना किसे है? छोड़ कैसे सकते हैं, छोड़ने का उपाय कहां है? जो दूसरा है, जो अन्य है, जो वस्तु है, वह वस्तु है, उसे छोड़ा नहीं जा सकता। मकान मकान है। अपरिग्रह का मतलब यह है कि मकान के भीतर एक आदमी हो, चाहे बाहर हो, वह नान-पजेसिव हो गया; उसका कोई मालकियत का भाव नहीं रहा। अब वह मालिक नहीं है। उसने बाहर की दुनिया में मालकियत खोजनी बंद कर दी। उसका यह मतलब नहीं है कि बाहर की दुनिया को छोड़ कर वह भाग गया। भागेगा कहां? सब जगह जहां जायेगा, बाहर की दुनिया है। और अगर कोई घर छोड़ कर जायेगा और एक वृक्ष के नीचे बैठ जायेगा, और कल दूसरा आदमी आकर संन्यासी उससे कहेगा कि हटो यहां से, इस वृक्ष के नीचे हम धूनी रमाना चाहते हैं, तो वह कहेगा: बंद करो बकवास। इस पर मेरा पहले से कब्जा है। यहां मैं पहले से हूं। यह वृक्ष मेरा है, झंडा देखो वृक्ष के ऊपर लगा है। यह मंदिर मेरा है, यह आश्रम मेरा है।

परिग्रह से भागा हुआ आदमी फिर परिग्रह पैदा कर लेगा। क्योंकि परिग्रह से भागा हुआ आदमी समझ नहीं पाया कि परिग्रह क्या है। वह फिर पैदा कर लेगा। हां, जनता उसको रोकेगी, अनुयायी उसको रोकेंगे। वह सब तरह की चेष्टा करेंगे कि परिग्रह पैदा न हो जाये। वे कहेंगे, मकान मत बनने दो। वे कहेंगे, मंदिर मत बनने दो। वे कहेंगे, आश्रम मत बनने दो। वे कहेंगे, यह मत बनने दो, वह मत बनने दो। वे सब तरफ से रोकेंगे। तब संन्यासी बहुत सूक्ष्म रास्ते खोजेगा। रुपये इकट्ठे करना मुश्किल हो जायेगा तो वह सूक्ष्म रास्ते खोजेगा। वह अनुयायी इकट्ठे करने लगेगा। और जो मजा किसी को तिजोरी के सामने रुपया गिनने में आता है, वही मजा उसको अनुयायियों को गिनने में आने लगेगा कि कितने अनुयायी हो गये। गिनता रहेगा, कहेगा सात सौ, कि हजार, कि दस हजार, कि लाख, कि दो लाख। कितने अनुयायी हैं? कितने शिष्य हैं? कान फूंकने लगेगा, मंत्र बांटने लगेगा और इकट्ठे करने लगेगा आंकड़े। आंकड़े का मजा है–रुपये में हो कि अनुयायियों में हो, कोई फर्क नहीं पड़ता है।

जिंदगी भागने से नहीं समझी जा सकती। जो भागता है वह नासमझी में भाग गया। जिंदगी जहां है वहीं समझने की जरूरत है। और जब समझ ली जाती है तो अचानक हम पाते हैं कि कुछ चीजें एकदम से विदा हो गयीं। छोड़नी नहीं पड़तीं। एकदम से अचानक हम पाते हैं कि पति पत्नी अपनी जगह हैं, लेकिन बीच से पजेसन खो गया, मालकियत चली गई। अब पति पति नहीं है, सिर्फ मित्र रह गया। अब पत्नी पत्नी नहीं है, दासी नहीं है, सिर्फ मित्र रह गई। वह बीच का संबंध अचानक खो गया।

अपरिग्रह का मतलब है हमारे और व्यक्तियों, हमारे और वस्तुओं के बीच के संबंध का रूपांतरण। मालकियत गिर गई। बीच से मालकियत गिर जाये मेरे और किसी के बीच, तो अपरिग्रह फलित हो गया। इसलिए अपरिग्रह त्याग से बहुत कठिन बात है। अपरिग्रह वैराग्य से बहुत कठिन बात है। वैराग्य बहुत सरल बात है। क्योंकि वह दूसरी अति है, और मन का पैंडुलम दूसरी अति पर बहुत जल्दी जा सकता है। जो आदमी बहुत ज्यादा खाना खाता है, उससे उपवास करवाना सदा आसान है। जो आदमी स्त्रियों के पीछे पागल है, उसे ब्रह्मचर्य की कसम दिलवाना बहुत आसान है। जो आदमी बहुत क्रोधी है, उसे अक्रोध का व्रत दिलवाना बहुत आसान है।

लेकिन ध्यान रहे, वह अक्रोध का व्रत भी क्रोधी आदमी ले रहा है। इसलिए जल्दी ले रहा है। अगर कम क्रोधी होता तो थोड़ा सोच कर लेता। अगर और भी कम क्रोधी होता तो शायद लेता ही नहीं। क्योंकि व्रत लेने के लिए भी क्रोध होना जरूरी है। अभी तक वह दूसरों पर क्रोधित था, अब अपने पर क्रोधित हो गया है, और कोई फर्क नहीं है। अभी तक वह दूसरों की गर्दन दबाता था, अब वह व्रत लेकर अपनी गर्दन दबायेगा कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा। अब देखूं कि कैसे क्रोध होता है! अब वह अपनी गर्दन पकड़ लेगा। एक अति से दूसरी अति सदा आसान है। लेकिन जो मध्य में ठहर जाते हैं, वे धर्म को उपलब्ध हो जाते हैं।

कन्फ्यूशियस एक गांव में गया। और उस गांव के लोगों ने कहा कि हमारे गांव में एक बहुत बुद्धिमान आदमी है, आप जरूर उनके दर्शन करें। कन्फ्यूशियस ने कहा, उसे तुम बुद्धिमान क्यों कहते हो? तो उन्होंने कहा कि वह बहुत विचारशील है। कन्फ्यूशियस ने कहा कि ज्यादा विचारशील तो नहीं है? उन्होंने कहा कि ज्यादा, बहुत ज्यादा विचारशील है। एक काम करता है तो तीन बार सोचता है। तो कन्फ्यूशियस ने कहा कि मुझे उस आदमी से बचाओ। मैं वहां न जाऊंगा। पर उन्होंने कहा, आप कैसी बातें कर रहे हैं! क्या वह आदमी बुद्धिमान नहीं है? कन्फ्यूशियस ने कहा, वह जरा ज्यादा बुद्धिमान हो गया, जरा ज्यादा अनबैलेंस्ड हो गया। जो आदमी एक बार सोचता है वह भी अति पर है, जो तीन बार सोचने लगा वह दूसरी अति पर चला गया। दो बार काफी है।

कन्फ्यूशियस का मतलब कुल इतना है कि जो बीच में ठहर जाये, काफी है। वह जो गोल्डन मीन है, वह जो बीच में ठहर जाना है; न त्याग, न भोग। न वस्तुओं की पकड़, न वस्तुओं का छोड़। अपरिग्रह तब फलित होता है, मध्य में फलित होता है।

ये थोड़ी-सी बातें मैंने कहीं। इसमें अपरिग्रह की आप बिलकुल चिंता न करें। आप चिंता करें परिग्रह को समझने की। और ध्यान रखें, परिग्रह को छोड़ने की चिंता भर मत करना, परिग्रह को समझने की चिंता करना। परिग्रह क्यों, क्या, कौन सी कमी पूरी कर रहा है? दो चीजें जिस दिन दिख जायेंगी कि परिग्रह को मैं अपनी आत्मा की भर्ती और पूर्ति करना चाहता हूं, आत्मा के खालीपन और रिक्तता को भरना चाहता हूं, यह असंभव है–एक। और दूसरी बात यह कि जिस चीज से हम बंधते हैं, बांधते हैं, उससे बंध भी जाते हैं और गुलाम हो जाते हैं। और तीसरी कि हमारे सारे अतीत का अनुभव कहता है कि सब मिल जाये फिर भी कुछ नहीं मिलता है। खाली के खाली रह जाते हैं। यह स्मरण पूरा हो जाये तो आप अचानक पायेंगे कि आपकी जिंदगी में अपरिग्रह की किरणें उतरनी शुरू हो गई हैं।

कल हम तीसरे सूत्र अचौर्य पर विचार करेंगे। वह भी परिग्रह की एक और भी सूक्ष्म यात्रा है।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं, और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें!

आज इतना ही।


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का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–3)

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प्रेम पाठ है—विद्रोह का—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 2 अप्रैल, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

हमारे का करे हांसी लोग।

मोरा मन लागा सतगुरु से भला होय कै खोर।

जब से सतगुरु—ज्ञान भयो है, चले न केहु के जोर।।

मातु रिसाई पिता रिसाई, रिसाये बटोहिया लोग।

ग्यान — खड्ग तिरगुन को मारूं, पांच — पचीसो चोर।।

अब तो मोहि ऐसी बनि आवै सतगुरु रचा संजोग।

आवत साथ बहुत सुख लागै, जात वियापै रोग।।

धरमदास बिनवै कर जोरी, सुनु हो बन्दी—छोर।

जाको पद त्रैयलोक से न्यारा, सो साहब कस होय।।

 

साहेब येहि विधि ना मिलै, चित चंचल भाई।

माला तिलक उरमाइके, नाचै अरु गावै।

अपना मरम जानै नहीं, औरन समुझावै।।

देखे को बक ऊजला, मन मैला भाई।।

आंखि मुंदि मौनी भया, मछरी धरि खाई।।

कपट—कतरनी पेट में, मुख वचन उचारी।

अंतरगति साहेब लखै, उन कहां छिपाई।।

आदि अंत की वार्ता, सतगुरु से पावो।

कहै कबीर धरमदास से, मूरख समझावो।।

 

मेरे मन बस गए साहेब कबीर।

हिंदू के तुम गुरु कहावो, मुसलमान के पीर।।

दोऊ दीन ने झगड़ा मांडेव, पायो नाहिं सरीर।।

सील संतोष दया के सागर, प्रेम प्रतीत मति धीर।

वेद कितेब मते के आगर, दोऊ दीनन के पीर।।

बड़े—बड़े संतन हितकारी, अजरा अमर सरीर।

धरमदास की विनय गुसाईं, नाव लगावो तीर।।

 

मझी नहीं हयात की शामो—सहर को मैं

हैरत से देखती रही शम्मो—कमर को मैं

यह कौन गायबाना है, जल्वे दिखा रहा

बेताब पा रही हूं जो अपनी नजर को मैं

मंजिल का होश है, न अपनी खबर मुझे

मुद्दत से तक रही हूं तेरी रहगुजर को मैं

दिल की कली कभी न खिली फिर भी आज तक

हसरत से तक रही हूं नसीमे—सहर को मैं

मेरे जसे—शौक का आलम तो देखिए

सज्दे भी कर रही हूं तो अपने ही दर को मैं

मुड—मुड के देखने पर वह मजबूर हो गए

अब कामयाब पाती हूं अपनी नजर को मैं

यह किसके नक्शे—पा ने हैं थामे मेरे कदम

मंजिल समझ कर बैठ गई रहगुजर को मैं

माना नहीं है कोई तबस्तुम—नवाज आज

फिर भी परख रही हूं किसी की नजर को मैं

आदमी एक खोज है। किसकी, यह भी ठीक—ठीक साफ नहीं। पर खोज है, इतना निश्‍चित। कोई अज्ञात, किसी गहरे अचेतन तल पर प्रश्‍न बन कर खड़ा है।

आदमी एक प्रश्‍न है, एक जिज्ञासा। किसकी, यह भी ठीक पता नहीं। प्रश्‍न किस के संबंध में है, यह भी साफ नहीं। पर प्रश्‍न है, इतना निश्‍चित है।

समझी नहीं हयात की शामो—सहर को मैं।.. .यह जिंदगी की क्या है सुबह और क्या है शाम, कुछ समझ में नहीं आता। कहां है प्रारंभ, कहां है अंत, कुछ समझ में नहीं आता।

समझी नहीं हयात की शामो—सहर को मैं

हैरत से देखती रही शम्मो—कमर को मैं

चांद कहां से, सूरज कहां से; यह विस्तार, यह ब्रह्माण्ड——इसके पीछे कौन छिपा है; क्या इसका राज है?

यह कौन गायबाना है जल्वे दिखा रहा!.. इस सारे उत्‍सव के पीछे कौन छिपा है। कौन है गुप्त इस सारे रहस्य के पीछे! किसके हाथ हैं! किसके हस्ताक्षर हैं। ये गीत किसके गाए हुए ये फूल किसके बनाए हुए हैं!

यह कौन गायबाना है जल्वे दिखा रहा!….. रहा है! यह छिप—छिप कर कौन रहस्यों को प्रकट कर रहा है।

बेताब पा रही हूं जो अपनी नजर को मैं!…… और जब तक इसका पता न चल जाए, तब जाए, तब तक आंखें खोजती ही रहती हैं। तब तक आंखें खोजती ही रहेंगी तब तक प्यास जलती ही रहेगी। और तुम ऊपर—ऊपर से कितने ही अपने को समझाने के उपाय करो, वे सब उपाय देर—अबेर टूट जाएंगे। हर बार विषाद हाथ लगेगा।

इसी गहरी जिज्ञासा को तृप्त करने में आदमी ने संसार का सारा फैलाव कर लिया है। पता नहीं चलता किसकी खोज है, धन खोजने लगता है। पता नहीं चलता किसकी खोज है, पद खोजने लगता है। और फिर एक दिन धन भी पा लेता है बहुत दौड़ कर— —और पाता है कुछ हाथ न लगा। पद भी मिल जाता है— —बहुत जीवन गंवाकर, बहुत जीवन दांव पर लगाकर— — मिलने पर पता चलता है, हाथ राख से भरे हैं, जीवन व्यर्थ गया।

लेकिन जो धन खोजने जाता है, वह भी खोजने तो जा रहा है। जो पद खोजने जाता है, वह भी खोजने जा रहा है। ऐसा आदमी ही खोजना कठिन है जो खोज न रहा हो। क्योंकि आदमी खोज है, एक जिज्ञासा है। जब तक जिज्ञासा का तीर परमात्मा की तरफ नहीं लग जाता, तब तक हमारा भटकाव जारी रहता है। तब तक हम घूमते रहते हैं कोल्हू के बैल की भांति— —उसी रास्ते पर।

यह कौन गायबाना है, जल्वे दिखा रहा

बेताब पा रही हूं जो अपनी नजर को मैं

मंजिल का होश है, न है अपनी खबर मुझे

मुद्दत से तक रही हूं तेरी रहगुजर को मैं

कुछ पता भी नहीं है कि मंजिल क्या है, कहां जाना है, कहां से आते हैं, किसलिए आए हैं, किसलिए जाना है? मंजिल का होश है, न अपनी खबर मुझे! ठन यही पता है कि यह खोजने वाला कौन है! यह कौन मेरे भीतर बेताब है! यह कौन मेरे भीतर बेचैन है! यह कौन मेरे भीतर प्रश्‍न बनकर खड़ा है जो मिटता ही नहीं! धन दो, पद दो, प्रतिष्ठा दो, यश दो, सब दे दो— —और मेरे भीतर यह कौन— सा पात्र है जो भरता ही नहीं, खाली का खाली रह जाता है! फिर आंखें बेताब हो जाती हैं। फिर दिल बेचैन हो जाता है। फिर खोज शुरू हो जाती है।

इसलिए तो एक वासना चुकती भी नहीं कि दूसरी वासना शुरू हो जाती है। क्योंकि खोज तब तक जारी रहेगी जब तक कि ठीक को न खोज लिया जाए। उस ठीक का नाम ही परमात्मा है। तुम उसे क्या नाम देते हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे भीतर ठीक प्रश्‍न के बन जाने का नाम धर्म है। ठीक प्रश्‍न के बन जाने का नाम धर्म है— — और ठीक प्रश्‍न एक ही है, गलत प्रश्‍न हजार हो सकते हैं। जब तक तुम्हारे भीतर ठीक प्रश्‍न निर्मित नहीं हुआ है, ठीक जिज्ञासा नहीं बनी है, तब तक तुम कुछ तो पूछोगे ही। पूछना ही पड़ेगा। आदमी का स्वभाव है। वह आदमी की नियति है। तुम कुछ तो तलाशोगे— — तलाशना ही पड़ेगा। उससे बचने की कोई सुविधा नहीं है। ईश्वर को इनकार कर दो, फिर भी खोज जारी रखनी पड़ेगी। कुछ और खोजोगे। एक बेहतर समाज— — समाजवाद, साम्यवाद! एक सुंदर भविष्य। एक वर्ग— विहीन समाज।… कुछ खोजोगे। लेकिन खोज जारी रहेगी। तुम खोज से नहीं बच सकते। खोज से बचने का कोई उपाय नहीं है।

खोज के साथ एक ही स्वतंत्रता है— — गलत खोज हो सकती है, तब हजार खोजें हो सकती हैं। ठीक खोज होगी तो एक खोज होगी।

स्वास्थ्य तो एक ही होता है, बीमारियां अनेक होती हैं। जब मैं स्वस्थ हो जाऊं, जब तुम स्वस्थ हो जाओ, जब कोई और स्वस्थ हो जाए, तो स्वास्थ्य स्वास्थ्य में भेद नहीं होता। इसलिए कभी भूल कर मत पूछना कि बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट और मुहम्मद में कोई भेद है या नहीं। स्वास्थ्य में भेद होता ही नहीं। भेद बीमारी में होते हैं। तुम्हारी बीमारी अलग, मेरी बीमारी अलग। कोई टी ० बी लिए चल रहा है, कोई कैंसर लिए चल रहा है, कोई कुछ और लिए चल रहा है। लेकिन स्वास्थ्य तो एक होता है, स्वास्थ्य को कोई विशेषण ही नहीं होता।

तुम किसी से यह नहीं पूछते… कोई कहे कि मैं बीमार हूं तो तुम पूछते हो, कौन—सी बीमारी? कोई तुमसे कहे कि मैं स्वस्थ हूं, क्या तुम पूछते हो, कौन— सा स्वास्थ्य? वह बात ही बेहूदी है, वह प्रश्‍न ही व्यर्थ है। स्वास्थ्य तो बस स्वास्थ्य है। इसलिए जो व्यक्ति उपलब्ध हो जाता है, वह हिंदू नहीं होता, मुसलमान नहीं होता, ईसाई नहीं होता। ये बीमारियों के नाम हैं। धार्मिक आदमी बस धार्मिक होता है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि किस घर में पैदा हुआ? इससे क्या फर्क पड़ता है कि किस कुएं से पानी पिया? — —प्यास बुझ गयी। जलस्रोत एक है। घाट अनेक होंगे, लेकिन जलस्रोत एक है। किस बर्तन में पानी भरा…… इससे भी क्या फर्क पड़ता है कि सोने के पात्र थे कि मिट्टी के पात्र थे, कि पूरब की दिशा में बैठ कर पानी पिया था कि पश्‍चिम की दिशा में बैठ कर पानी पिया था। कोई फर्क नहीं पड़ता। उस परमात्मा को अल्लाह कहा था कि राम कहा था, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या नाम दिए थे.. . हमारे दिए नाम हैं। परमात्मा बेनाम है, अनाम है।

मंजिल का होश है, न अपनी खबर मुझे

मुद्दत से तक रही हूं तेरी रहगुजर को मैं

लेकिन राह तो देखी जा रही है : ” आता ही होगा वह!” कौन? उसका हमें साफ कुछ भी पता नहीं। हो भी कैसे पता, उससे कभी मुलाकात नहीं हुई। आंख — भर उसे कभी देखा नहीं। उससे कभी गुप गुफ्तगू नहीं हुई। उससे कभी दो बातें नहीं हुई। उससे परिचय ही नहीं है। मगर तड़प है, खोज है, आकांक्षा है।

दिल की कली कभी न खिली फिर भी आज तक

हसरत से तक रही हूं नसीमे—सहर को मैं

यह दिल की कली खिली तो नहीं आज तक, लेकिन फिर भी सुबह की प्रातःकालीन हवा आएगी और मेरी कली को खिलाएगी और फूल बनाएगी और सूरज निकलेगा और सूरज की रोशनी में मेरी गंध भी लुटेगी और मैं तृप्त होऊंगा——वह आकांक्षा गहरे में बैठी है। वह आकांक्षा ही तुम हो।

अपनी आकांक्षा को ठीक—ठीक परख लेना, पहचान लेना। अपनी आकांक्षा को ठीक—ठीक दिशा दे देनी, इतना ही धर्म का काम है। यह दिशा कौन देगा? यह दिशा कैसे मिलेगी? यह दिशा कहां से आएगी?….. इसलिए सदगुरू का अर्थ है।

आज के सूत्र सदगुरू के संबंध में हैं। सदगुरू का अर्थ है: जिसने पा लिया; जो मंजिल पर आ गया। सदगुरू का अर्थ है: जिसकी अभीप्सा तृप्ति बन गई; जिसके भीतर अब कोई प्रश्‍न नहीं। जिसके भीतर प्रश्‍न नहीं है, उसी के भीतर उत्तर हो सकता है। जब तक प्रश्‍न है तब तक उत्तर नहीं हो सकता। जब तक तुम पूछ रहे हो, तब तक कैसे उत्तर होगा? उत्तर ही होता तो पूछते क्यों? जब तक तुम्हारे भीतर रंचमात्र भी प्रश्‍न रह जाए तो समझना अभी खोज जारी है।

पर ऐसी घड़ी निश्‍चित आती है, जब सारे प्रश्‍न गिर जाते हैं। प्रश्रों के गिराने की प्रक्रिया का नाम ध्यान है। ध्यान उत्तर पाने की चेष्टा नहीं है, ध्यान प्रश्‍न को विदा करने की चेष्टा है, मन को निष्प्रश्र करने की चेष्टा है। जब मन में कोई प्रश्‍न नहीं होता, अर्थात् कोई विचार नहीं होता, क्योंकि सभी विचार प्रश्‍न हैं, चाहे उनके पीछे प्रश्‍न — चिह्न लगा हो या न लगा हो, सभी विचार प्रश्‍न हैं। विचार उठ ही इसलिए रहे हैं कि हमें ज्ञान नहीं है। विचार ज्ञान के अभाव में उठ रहे हैं। जानते ही विचार समाप्त हो जाते हैं। या विचार समाप्त हो जाएं तो जानना हो जाता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जिस व्यक्ति के सारे विचार समाप्त हो गए हैं, जिसके भीतर सन्नाटा छा गया है, जिसके भीतर अब तरंगें नहीं उठती, जिसे अब कहीं जाना नहीं है, जो अब किसी रास्ते पर बैठकर राह नहीं देख रहा है, जिसकी राह पूरी हो गई, जिसकी प्रतीक्षा का अंत आ गया, जो तृप्त है, जिसके भीतर परम संतोष की वर्षा हो गई— — उसे सदगुरू कहा है। उसके पास उत्तर है।

ऐसे किसी व्यक्ति को खोज लेना अत्यंत जरूरी है, जिसके पास उत्तर हो। उससे दोस्ती बना लेना जरूरी है। उसके साथ गांठ बांध लेनी जरूरी है। उसके साथ बंधते ही तुम्हारे जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाता है। उसके पास होने का नाम सत्संग है। उससे जुड जाने का नाम शिष्यत्व है।

आज के सूत्र, धनी धरमदास ने कबीर को पाया, तब लिखे हैं। लेकिन कठिनाइयां आएंगी जो उन्हें आईं।…” हमरे का करे हांसी लोग!” लोग हंसते हैं।

धनी धर्मदास सफल व्यवसायी थे। सब तरह से सफल व्यक्ति थे। खूब धन था, प्रतिष्ठा थी, सम्मान था। और एक दिन अचानक कबीर के साथ पागल हो गए। फिर घर ही न लौटे। फिर घर खबर भेज दी कि लुटा दो जो मेरा है, क्योंकि मेरा कुछ भी नहीं है। और अब मैं वापिस नहीं आ रहा हूं, क्योंकि जिसकी मुझे तलाश थी वह मिल गया है। अब वापस जाना कैसा? वे चरण मिल गए जिनको मैं टटोलता था जन्मों— जन्मों से। अब उनमें झुक गया। अब झुक गया तो उठना कैसा?

सच में जो झुकता है वह फिर कभी उठता नहीं। लोग हंसने लगे होंगे। लोग समझे होंगे पागल हो गए। स्वाभाविक है। लोगों का समझना भी स्वाभाविक है।

लाओत्सु का प्रसिद्ध वचन है : जब सत्य बोला जाए तो जो समझते हैं वे आनन्दित होंगे; जो नहीं समझते हैं वे हंसेंगे। जो नहीं समझते हैं अगर वे न हंसे तो समझना कि सत्य बोला ही नहीं गया। उनका हंसना जरूरी है, क्योंकि उन्होंने झूठों को सत्य मान लिया है। उनके लिए सत्य झूठ मालूम होगा।

हम अपने भीतर जिसको सत्य की तरह पकड़ लिए हैं, उसी से तो तौलेंगे न, वही तो तराजू होगा! किसी ने धन को सत्य समझा है और तुम ध्यान में मग्न हो जाओगे, वह समझेगा कि तुम पागल हो गए। उसके पास एक तराजू है, अगर तुम भी धन की दौड़ में हो तो तुम समझदार हो। जो पद की आकांक्षा से पीड़ित है, जिसके भीतर बस एक ही प्रार्थना है और एक ही पूजा है और एक ही अर्चना है— — दिल्ली चलो! — — अगर वह तुमको देखेगा कि तुम कहीं ओर जा रहे हो, तो समझेगा कि ” पागल हो गए हो। सारी दुनिया दिल्ली जा रही है, तुम कहां जा रहे हो? होश में हो? ” और अगर तुम दिल्ली में ही थे और दिल्ली छोड्कर जाने लगे, तब तो वह निश्‍चित पागल समझेगा— — ” तुम्हारा मस्तिष्क खराब हो गया है। सारी दुनिया आ रही है राज्य— सिंहासन की तरफ, तुम कहां जा रहे हो? ” उसके पास एक तर्क है, उसकी एक भाषा है। पद उसके मापने का ढंग है, उसका मापदंड है। जो पद को छोड़ता है, वह पागल है।

लोग हंसेंगे। हंसना उनकी आत्मरक्षा का उपाय है। अगर वे न हंसे तो अपनी आत्मरक्षा न कर सकेंगे। तुम संन्यस्त हो जाओ और बाजार के लोग अगर तुम पर न हंसे तो बाजार के लोगों को बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर अपना बचाव कैसे करेंगे? निहत्थे हो जाएंगे, नि : शस्त्र हो जाएंगे। तुम अगर सही हो तो वे गलत हो जाएंगे। और कोई इस दुनिया में यह जानकर कि मैं गलत हूं, जी नहीं सकता, बहुत मुश्किल हो जाता है जीना। गलत भी हो आदमी तो मानना पड़ता है कि ठीक हूं। मानकर ही ठीक, जिया जा सकता है।

खयाल रखना, सत्य के साथ ही जी सकते हो तुम। चाहे झूठ के साथ जियो तो उसी को सत्य मान लेना पड़ता है। असत्य को असत्य की तरह जान लेना, फिर उसके साथ जीना असंभव हो जाता है। तुम्हें समझ में आ गया कि जिस नाव में तुम बैठे हो वह कागज की नाव है, फिर कितनी देर बैठे रहोगे? कागज की ही भले हो, मगर तुम यह मानोगे नहीं कि यह कागज की है, तो बैठे रह सकते हो। तुमने एक मकान बनाया है, रेत पर बना लिया है। तुम यह मानना नहीं चाहोगे कि रेत पर बनाया है; क्योंकि रेत पर बनाया है, यह बात साफ हो गई तो तुम मकान से निकल भागोगे, निकलना ही पड़ेगा। वहां खतरा है।… जो तुमसे कहेगा रेत पर मकान बनाया है, तुम उसे पागल कहोगे। और निश्‍चित ही, भीड़ तुम्हारे साथ है, क्योंकि उन सबने भी रेत पर मकान बनाए हैं और उन सबने भी कागज की नावें तैरायी हैं और वे भी सपनों में जी रहे हैं। मत तुम्हारे साथ है। बुद्ध तो कभी कोई एक— आध होता है। कबीर तो कोई एक—आध होता है। बुq बहुत हैं, उनकी संख्या बड़ी है। वे सब तुमसे राजी होंगे, क्योंकि उनका भी निहित स्वार्थ तुम्हारे ही साथ जुड़ा हुआ है तुम गलत हो तो वे भी गलत हैं।

इसलिए तो लोग इतना विवाद करते हैं दुनिया में। विवाद की इतनी जरूरत क्या है? इसलिए इतना विवाद करते हैं कि बिना विवाद के जीना ही मुश्किल हो जाएगा। हिंदू लड़ता है कि मेरी किताब ठीक, मुसलमान लड़ता है मेरी किताब ठीक। दुनिया में सारे लोग अपना विचार ठीक है, इस बात के लिए बड़ा संघर्ष करते हैं। क्यों? असल में जितना उन्हें हर होता है हमारी बात कहीं गलत न हो, उतने ही जोर से संघर्ष करते हैं। कपेंसेशन, एक परिपूरकता है उसमें। जितना तुम भीतर भयभीत होते हो कि कहीं ऐसा न हो कि मैं गलत होऊं, तुम उतने ही आक्रामक ढंग से अपने को सिद्ध करना चाहते हो कि मैं सही हूं। जो आदमी अपने को बहुत आक्रामक ढंग से सही सिद्ध करना चाहता है, पक्का जान लेना कि उसके भीतर भी शक उठने लगा है, उसके भीतर भी संदेह जगने लगा है, संदेह ने सिर उठाया है। वह किसी और को नहीं समझा रहा है, वह जोर से चिल्लाकर अपने को ही समझा रहा है कि मैं ठीक हूं। और वह मत इकट्ठे करेगा, क्योंकि जब बहुत लोग उसके साथ हों तो उसे भरोसा आ जाता है कि इतने लोग गलत नहीं हो सकते; मैं एक गलत हो सकता हूं, इतने लोग गलत नहीं हो सकते।

इसलिए तो लोग भीड़ का हिस्सा बनते हैं। इसलिए तो तुम अकेले खड़े नहीं होते— — हिंदू की भीड़, मुसलमान की भीड़, जैन की भीड़, ईसाई की भीड़। तुम भीड़ के हिस्से बनते हो। तुम अकेले खड़े नहीं होते। तुम कभी यह नहीं कहते कि मैं मैं हूं, व्यक्ति। तुम कहीं— न— कहीं समाज, समूह, क्लब, पार्टी, धर्म… कहीं— न— कहीं अपने को जोड़ते हो। क्योंकि अकेले, शक उठेंगे, संदेह उठेंगे, उनको दबाओगे कैसे? अकेला आदमी गलत हो सकता है; उस हर से बचने के लिए आदमी भीड़ का हिस्सा बन जाता है। भीड़ का हिस्सा बनते ही तुम्हारी चिंता समाप्त हो जाती है। भीड़ में एक बल है; भीड़ में एक सम्मोहन है, एक जादू है। भीड़ का एक मनोविज्ञान है। और जब इसभीड़ के विपरीत कोई चलेगा तो यह भीड़ हंसेगी, जोर से हंसेगी। यह तिरस्कार करेगी। यह इनकार करेगी। यह मजाक उडाएगी। जरूरी है यह। यह इसकी आत्मरक्षा के लिए जरूरी है, अन्यथा इस सारी भीड़ का क्या होगा?

जब बुद्ध ने राजमहल छोड़ा और जब वे राजमहल छोड्कर अपने राज्य से चले गए, तो जिस राज्य में गए उसी राज्य का राजा, उसी राज्य— परिवार के लोग उनको समझाने आए। वे अपना राज्य छोड्कर इसलिए गए थे कि राज्य के भीतर रहेंगे तो पिता आदमियों को समझाने भेजेंगे। मगर वे बड़े हैरान हुए कि जिनसे कोई संबंध न था, जिनसे कोई पहचान न थी, वे राजे भी समझाने आए। यही नहीं, जिनसे उनके पिता की दुश्मनी थी, वे भी समझाने आए। तब तो बहुत बुद्ध चकित हुए कि इनसे तो पिता का जीवनभर विरोध रहा, ये तो दुश मन थे, एक —दूसरे की छाती पर तलवार लिए खड़े रहे। दुश्मन क्यों समझाने आया? दुश मन को तो खुश होना चाहिए कि अच्छा एक हुआ, बरबाद हुआ यह परिवार। क्योंकि बुद्ध अकेले बेटे थे। इकलौता बेटा भाग गया घर से। यह परिवार नष्ट हो गया। बाप बूढा था, इकलौता बेटा भाग गया, अब इस परिवार का कोई भविष्य नहीं है। इस परिवार को नष्ट किया जा सकता है, इसके राज्य को हड़पा जा सकता है। लेकिन नहीं; वे भी समझाने आए। क्यों समझाने आए? क्योंकि बुद्ध ने समस्त राज— परिवारों में तहलका मचा दिया। उनको भी शक होने लगे पैदा : हम यह सिंहासन पर बैठे जो कर रहे हैं वह ठीक है? हम यह जो पद को पकड़े बैठे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जीवन गंवा रहे हैं? कहीं यह भाग आया सिद्धार्थ ही सही न हो!

ये संदेह उठने लगे। ये गहरे संदेह थे। इन गहरे संदेहों को दबाने के लिए एक ही उपाय था— — इसको किसी तरह समझा—बुझाकर वापस कर लो। यह आदमी प्रश्‍न— चिह्न बन गया।

राजाओं ने कहा कि हमारे घर आ जाओ। तुम्हारी पिता से नहीं बनती होगी, कोई फिक्र न करो। अगर पिता से नहीं बनती, हम समझ सकते हैं। यह तुम्हारा राज्य है, इसको अपना समझो। मेरी बेटी जवान है, उससे विवाह कर लो। मेरी अकेली ही बेटी है, तुम्हीं इस राज्य के मालिक हो जाओगे। यह तुम्हारे पिता के राज्य से दोगुना बड़ा राज्य है।

लेकिन बुद्ध हंसते। वे कहते कि छोटे और बड़े राज्य का सवाल नहीं है। राज्य ही व्यर्थ है। मेरा पिता से कोई झगड़ा नहीं है। मेरा कोई विरोध नहीं है किसी से। मुझे इस जीवन की तथाकथित सुख—सुविधा, इस जीवन की तथाकथित पद—प्रतिष्ठा व्यर्थ दिखाई पड़ गई हैं। तब एक खाई से निकला और दूसरी खाई में गिरूं। मुझे क्षमा करो। धन्यवाद तुम्हारी कृपा का! लेकिन जिन राजाओं ने उनसे आकर प्रार्थना की थी, वे सो न सके होंगे रातों में। उनके मन में विचार उठते रहे होंगे कि कहीं यह ठीक न हो। और क्यों न उठेंगे विचार, क्योंकि जिंदगी उन्होंने भी गंवायी है, पाया क्या है? प्रमाण तो सब बुद्ध के पक्ष में हैं, भीड़ उनके पक्ष में है। इस भेद को खयाल में कर लेना।

प्रमाण तो धर्म के पक्ष में है, भीड़ संसार के पक्ष में है। प्रमाण तो ध्यान के पक्ष में है, भीड़ धन के पक्ष में है। तुम भी जीवन से जानते हो, क्या पाया है— —संबंधों में, सफलता में, दौड़— धाप में, आपा— धापी में? गंवाया होगा कुछ, पाया क्या है? लेकिन, अगर तुम इस बात की घोषणा करोगे कि यहां कुछ भी नहीं है… अगर एक चोर घोषणा कर दे कि मैं साधु होता हूं, बाकी चोर हंसेंगे कि पागल हुआ, इसने बुद्धि गंवायी।

”हमरे का करे हांसी लोग। ” धनी धरमदास कहते हैं कि लोग हमारी हंसी क्यों कर रहे हैं? हमने कुछ बुरा तो किया नहीं।

” मोरा मन लागा सदगुरू से, भला होय कै खोर। ” मेरा मन सतगुरु से लग गया है, इसमें लोगों के हंसने का क्या कारण है? अपेक्षा का क्या कारण है? मेरे विरोध का क्या कारण है? और मैं परम सुख को उपलब्ध हो रहा हूं। फिर मेरा गुरु ठीक हो कि गलत हो… ” भला होय कि खोर”… इससे किसी को क्या प्रयोजन है? मैंने धन से मोह लगाया था, कोई हंसा नहीं था। किसी ने मुझसे नहीं कहा था कि धन कहीं बुराई में न ले जाए।

और धेन बुराई में ले जाता है। गरीब आदमी आमतौर से भला होता है; बुरे होने के लिए भी तो सुविधा चाहिए न! पद बुराई में ले जाता है। जिनके पास सत्ता नहीं है, वे बुराई भी करेंगे तो कितनी बुराई कर सकेंगे?

लार्ड ऐक्टन का प्रसिद्ध वचन तुमने सुना है न : पावर करप्ट्स एंड करप्ट्स एब्सोलूटली! उससे मैं राजी नहीं हूं और राजी हूं भी। ऐक्टन ठीक कहता है और ठीक नहीं भी कहता। ठीक इसलिए कहता है कि जो भी सत्ता में जाते हैं, वे सभी सत्ता के द्वारा व्यभिचारित हो जाते हैं। सत्ता उन्हें नष्ट कर देती है। सत्ता उनकी साधुता छीन लेती है। मगर यह सत्ता का कसूर नहीं है, जिस कारण मैं ऐक्टन से सहमत नहीं हूं। यह सत्ता का दोष नहीं है। ये भ्रष्ट लोग थे ही; सिर्फ इनके पास सत्ता नहीं थी, इसलिए साधु बने थे। साधु बिना सत्ता के आदमी बन सकता है। असाधु बनने के लिए सत्ता चाहिए।

अगर अपनी पत्नी के पास ही घर में बैठे रहना हो, इसके लिए बहुत धन की जरूरत नहीं है, लेकिन वेश्या के घर जाना हो तो फिर धन की जरूरत पड़ती है। किसी से झगड़ा इत्यादि न करना हो, शांत जीवन बिताना हो, तो इसके लिए कोई बड़ी सुविधा की जरूरत नहीं है; लेकिन लोगों की छाती पर चढ़ना हो, लोगों की गरदनें काटनी हों, लोगों को नीचा दिखाना हो, फिर सत्ता की जरूरत है।

सत्ता के पीछे राज ही क्या है? लोग क्यों सत्ता चाहते हैं? क्योंकि सत्ता के साथ ही उनके हाथ में श आती है। और शस्‍त्र के साथ वे जो सदा करना चाहते थे और कर नहीं पाते थे, अब कर सकते हैं। सत्ता नहीं किसी को नष्ट करती, सत्ता नहीं किसी को विकृत करती — — विकृत लोग सत्ता की तलाश करते हैं।

इस देश में तुमने देखा? रोज — रोज यह होता रहा। उन्नीस सौ सैंतालीस में जब देश आजाद हुआ तो जो लोग सत्ता में गए। साधु लोग थे, भले लोग थे। किसी ने कभी सोचा नहीं था कि इनमें कुछ बुराई हो सकती है। और भले आदमी कहां खोजते! तकली चलाते थे, चर्खा चलाते थे, खादी पहनते थे, शाकाहारी थे, भजन — कीर्तन करते थे। ” अल्ला ईश्वर तेणे नाम, सबको सन्मति दे भगवान!” — — ऐसी — ऐसी सद्धावनाएं करते थे। और अच्छे आदमी तुम पाते कहां से! सब महात्मा थे। लेकिन सत्ता में गए तो हालत बदल गयी। सत्ता में जाने से ही बदल गयी। तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि भीतर इनके आकांक्षा तो कुछ और थी। ये जो ऊपर — ऊपर से राम — राम जप रहे थे, वह सिर्फ बगल में दबी हुई छुरी को छिपाने का उपाय था।

और यह रोज — रोज होता है। हर बार सत्ता बदलती है दुनिया में और हर बार नए आदमी पहुंचते हैं। जब वे जाने के रास्ते पर होते हैं, तो बड़े साधु होते हैं; सत्ता में पहुंचते ही साधुता धीरे — धीरे विसर्जित हो जाती है। सत्ता आदमी के भीतर छिपे हुए असाधु को प्रकट कर देती है।

धन आदमी के भीतर छिपी हुई बुराई को बाहर ले आता है। धन अतूत है इस लिहाज से। आदमी की पहचान करनी हो तो धन दो। आदमी की परख तभी हो पाएगी जब उसके पास धन हो। उसको धन दे दो पूरा और तुम उसकी असलियत को जान लोगे; असलियत उभरकर ऊपर आ जाएगी। गरीब आदमी को अपनी असलियत भीतर दबाकर रखनी पड़ती है। रखनी ही पड़ेगी, मजबूरी है, कोई और उपाय नहीं है।

बुरा होने के लिए थोड़ी समृद्धि चाहिए, सुविधा चाहिए। बुराई में खतरे हैं, थोड़ी श चाहिए। तुम बुरा करोगे तो दूसरे भी बुरा करेंगे। तुम्हारे पास इतनी श होनी चाहिए कि तुम बुरा करो और दूसरा जवाब न दे सके, मन मारकर रह जाए।

ऐक्टन ठीक कहता है कि सत्ता लोगों को विकृत करती है। लेकिन फिर मैं कहता हूं कि और गहराई से खोजने पर पता चलता है कि विकृत लोग ही सत्ता की तलाश करते हैं। सत्ता का कसूर नहीं है।

लोग हंसे नहीं थे। धरमदास ने खूब धन कमाया, कोई नहीं हंसा। और किसी ने नहीं कहा कि धन का दुरुपयोग होगा — — और धन का सदा दुरुपयोग होता है! और आज कबीर के साथ हो लिया धरमदास, तो लोग हंस रहे हैं और लोग हजार तरह के सवालों का जवाब मांग रहे?

मोरा मन लागा सतगुरु से!… और यह बात मन के लग जाने की है। इसके लिए कोई तर्क नहीं है, इसको स्मरण रखना। ये सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं…। मोरा मन लागा! इसके लिए कोई तर्क नहीं है। यह कोई वैचारिक प्रक्रिया से पहुंची गई निष्पत्ति नहीं है। यह कोई ऐसा नहीं है कि सोचा, विचारा, अनुभव किया— — यह प्रेम है।

वसीयत मीर ने मुझको यही की,

कि सब कुछ होना, तू आशिक न होना।

क्यों? समझदार क्यों कहते हैं कि प्रेमी मत होना? क्योंकि प्रेम इस दुनिया की समझदारी के बिल्कुल विपरीत पड़ जाता है। प्रेम नासमझी है। अगर इस दुनिया के समझदार समझदार हैं तो प्रेम नासमझी है। और अगर प्रेम समझदारी है तो यह सारी दुनिया नासमझी है। अगर प्रेम समझदारी है तो तर्क पागलपन है। दो में से चुनना होगा— —तर्क या प्रेम। जो प्रेम को चुन लेता है वह तर्क को छोड़ देता है। जो तर्क को पकड़ लेता है वह प्रेम से वंचित रह जाता है। तर्क से बहुत चीजें मिलती हैं, प्रेम नहीं मिलता। और प्रेम नहीं मिलता तो परमात्मा नहीं मिलता। तर्क से बहुत चीजें मिलती हैं, लेकिन हृदय खो जाता है। और हृदय खो जाता है तो जीवन का सार खो जाता है। तर्क से बहुत चीजें मिलती हैं, लेकिन उल्लास नहीं मिलता, उत्सव नहीं मिलता। तर्क से लोगों के जीवन रेगिस्तान हो जाते हैं, मरूद्यान नहीं रह जाते, उनमें फिर फूल नहीं खिलते। फूल तो प्रेम से खिलते हैं। फूल तो बेबूझ प्रेम से खिलते हैं।

वसीयत मीर ने मुझको यही की,

कि सब कुछ होना, तू आशिक न होना।

लेकिन बड़ी मुश्किल है। यह आदमी के हाथ में नहीं है। प्रेम तुम्हारे हाथ में तो नहीं है। हो जाता है, किया नहीं जाता। ऐसे ही सदगुरू से भी प्रेम हो जाता है। वह भी होने की ही बात

इश्क पर जोर नहीं, है ये वो आतिश गालिब

कि लगाए न लगे, और बुझाए न बुझे।

— — न तो लगाने से लगती है और न बुझाने आतिश गालिब! यह ऐसी आग है कि लगाए सदा कहते रहे हैं : बचना, सावधान रहना! इसमें प्रेम के उपाय नहीं छोड़े हैं। इस दुनिया

से बुझती है। इश्क पर जोर नहीं, है ये वो न लगे और बुझाए न बुझे। मगर समझदार समझदारों ने यह दुनिया ऐसी बना दी है कि को प्रेम—शुन्य बना दिया है। और मजा यह है कि यही समझदार मंदिर और मस्जिद में भी जाने की बात करते हैं और दुनिया को प्रेम— शून्‍य बना दिया है। और जो दुनिया प्रेम—शुन्‍य है, उसमें मंदिर—मस्जिद झूठे हो जाएंगे।

क्योंकि प्रेमपूर्ण दुनिया में ही वस्तुत : मंदिर उग सकता है। प्रेम — शून्‍य दुनिया में मंदिर जबर्दस्ती थोपा जाता है, उगता नहीं, उसकी जड़ें नहीं होतीं। जैसे किसी उत्सव के दिन तुमने लाकर जबर्दस्ती और वृक्षों को अपने घर में थोप दिया हो, एक — दो दिन हरियाली दिखाई पड़ेगी। उनकी जड़ें नहीं हैं। केले के वृक्ष काट लाए हो और उनको सौंप दिया जमीन को, एक — आध दो दिन हरे रह जाएंगे। पर सब झूठ है।

तुम्हारे मंदिर — मस्जिद ऐसे ही झूठ हैं, क्योंकि जिस दुनिया में तुमने ये मंदिर — मस्जिद आरोपित किए हैं, वह दुनिया प्रेम — शून्‍य है। मंदिर तो प्रेमपूर्ण दुनिया में ही उठ सकता है।

इश्क से लोग मना करते हैं

जैसे कुछ इख्तियार है अपना।

आदमी के हाथ में नहीं है प्रेम। साधारण प्रेम भी आदमी के हाथ में नहीं है। तुम एक स्त्री के प्रेम में पड़ गए, कि एक पुरुष के प्रेम में पड़ गए, कि एक मित्र के प्रेम में पड़ गए——यह भी तुम्हारे हाथ में नहीं है। अचानक तुम पाते हो : किसी से तरंग मेल खा गयी। अचानक तुम पाते हो : किसी के साथ बस संगीत बंध गया, लयबद्धता हो गयी। किसी को देखते ही एक छन्द उमगा, जो तुम्हारे हाथ में नहीं है, जो तुम्हारे बस में नहीं है।

तो सदगुरू के साथ तो यह पागलपन और भी बड़ा होता है। बस प्रेम हो जाता है।

हमने अपने से की बहुत, लेकिन

मर्जे इश्क का इलाज नहीं।

जो प्रेम में पड़ता है वह भी बचना चाहता है। क्योंकि प्रेम अहंकार को डुबाता है, मिटाता है। कौन अपने अहंकार को डुबाना चाहता है! दुनिया भी कहती है बचो, और भीतर अहंकार भी कहता है बचो। दुनिया और अहंकार के बीच सांठ—गांठ है। दुनिया और अहंकार एक ही भाषा बोलते हैं। लेकिन जब प्रेम की किरण उतर आती है तो फिर कोई उपाय नहीं है।

मोरा मन लागा सतगुरु से!…… सौभाग्य का क्षण है ऐसा कि सतगुरु से मन लग जाए। क्योंकि यह परमात्मा की तरफ पहला और अंतिम कदम है। पहला भी और अंतिम भी। इसके बाद कोई और कदम नहीं हैं। एक ही कदम में यात्रा पूरी हो जाती है। क्योंकि सतगुरु के दो काम हैं! एक तरफ से वह दुनिया से तुम्हें तोड़ देता है। और तुम दुनिया से टूटे कि परमात्मा से जुडे। तुम्हें कोई और चीज रोके नहीं है; तुम दुनिया से जुड़े हो, इसलिए परमात्मा से टूटे हो।

इंसान को बे इश्क सलीका नहीं आता

जीना तो बड़ी चीज है, मरना भी नहीं आता।

प्रेम के बिना न तो जीना आता है।… जीना तो बड़ी चीज है, मरना भी नहीं आता। प्रेम दोनों बातें सिखा जाता है — — एक ही झलक में सिखा जाता है। मरना भी सिखा जाता है और जीना भी सिखा जाता है।

तुम ध्यान रखना, जब तक तुम्हारी जिंदगी में कोई ऐसी चीज न हो जिसके लिए तुम मर न सको, तो समझना तुम्हारी जिंदगी में ऐसी कोई चीज नहीं, जिसके लिए तुम जी सको। जीना और मरना साथ घट जाते हैं। जब तुम्हारी जिंदगी में ऐसी कोई चीज होती है कि तुम उसके लिए जिंदगी भी निछावर कर दो, तभी तुम्हारी जिंदगी में अर्थ होता है, त भी तुम्हारी जिंदगी में कोई अभिप्राय होता है, त भी तुम्हारी जिंदगी में कोई गीत होता है।

यह बड़े मजे की बात है, बड़ी विरोधाभासी है। जिसके पास मरने का कारण होता है, उसके पास जीने का कारण होता है। अधिकतर लोगों के पास न तो मरने का कारण है न कोई जीने का कारण है। वे ऐसे धक्के खाते हैं। जीते नहीं, बहे जाते हैं। उनके जीवन में कोई दि श नहीं होती — — कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं? और सब जा रहे हैं, इसलिए वे भी जा रहे हैं। उनसे पूछो ही मत। ऐसे प्रश्‍न शिष्ट नहीं समझे जाते, अशिष्ट समझे जाते हैं। ऐसी बातें पूछो मत। भले लोग, सुसंस्कृत लोग ऐसी बातें नहीं पूछते — — कहां जा रहे हो, क्यों जा रहे हो, किसलिए जा रहे हो? अच्छे — भले लोग भीड़ जहां जाती है, उस तरफ चलते रहते हैं, चुपचाप। अच्छे — भले लोग आज्ञाकारी होते हैं, विद्रोही नहीं होते।

और धर्म विद्रोह है। और प्रेम विद्रोह का पाठ सिखाता है।

कोयल की सदाएं आती हों जब रह—रह के गुलजारों से

इक नग्मए—शीरीं फूट पड़े जब दिल के नाजुक तारों से

उस वक्त हटाके पर्दो को तू काश चमन में दर आए

हस्ती क मेरा जरी — जरी तस्वीरे मसर्रत बन जाए।

कोई घड़ी होती है, कोई बसंत की घड़ी होती है — — जब तुम्हारी आंखें ताजा होती हैं। कोई प्रभात होता है तुम्हारे जीवन में। उस घड़ी में अगर तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति से मिलन हो जाए, जो पा गया है…। संयोग की ही बात है, आयोजन नहीं किया जा सकता।

सदगुरू अतिथि की तरह आता है। तिथि बताकर नहीं आता इसलिए अतिथि। पहले से खबर नहीं हो सक ती कि आ रहा हूं। शायद पहले से खबर हो तो तुम भाग ही जाओ। अनायास घटती है घटना। तुम शायद किसी और ही काम से गए थे। तुम शस्‍त्र किसी और ही वजह से गए थे। तुमने कभी सोचा भी न था कि इतने गहरे जाल में पड़ जाओगे। तुम हिसाब — किताब से न गए थे। हिसाब — किताब किया होता तो गए ही न होते।

हिसाब — किताबी सदगुरूओं के पास नहीं जाते। धनी धरमदास भी नहीं गए थे। धनी धरमदास धनी थे। और जैसे धनी लोग धार्मिक होते हैं, इसी तरह धार्मिक भी थे — — सत्यनारायण की कथा, पूजा— पाठ, यज्ञ— हवन करवाते थे। इसी पूजा, हवन, यज्ञ इत्यादि करवाने की प्रक्रिया में मथुरा गए थे। वहां किसी न कहा कि आप आ ही गए हो, कबीर भी यहां आए हुए हैं, दर्शन कर लो। बहुत साधु— संतों के दर्शन किए थे, सोचा चलो इस साधु का भी कर लें। मगर यह साधु और साधुओं जैसा साधु नहीं था। और तो तुम्हारे साधु— संन्यासी तुम्हारे संसार के ही अंग हैं, तुम्हारी सांत्वना के हिस्से हैं। तुम्हें सोए रखने में नींद की दवा का काम करते हैं। तुम्हें बच्चा नहीं होता, वे यज्ञ करवा देते हैं। धर्म तो तुम्हें फिर दुबारा पैदा न होना पड़े, इसकी प्रक्रिया है; वे दूसरे तक को पैदा करवाने का उपाय करवा देते हैं। तुम्हें चुनाव लड़ना है, वे यज्ञ करवा देते हैं, कि जीत निश्‍चित करवा देते हैं। धर्म तो तुम्हें इसे संसार में हराने की प्रक्रिया है, ताकि तुम यहां हार जाओ तो परमात्मा का स्मरण आए। हारे को हरिनाम! लेकिन वे तुम्हें यहां जीत करवा देते हैं। तुम लाटरी के टिकट खरीदो और यहां तुम्हें लोग मिल जाते हैं, महात्मा, जो आशीर्वाद दे देते हैं।

मैं बम्बई से जब यात्रा करता था बार— बार तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाता था। बम्बई के स्टेशन पर जब बहुत मित्र मुझे छोड़ने आते तो देख लेता गार्ड भी, देख लेता ड्राइवर भी कि इतने लोग आए हैं छोड़ने, जरूर कोई महात्मा होगा। गाड़ी क्या चलती, मैं मुश्किल में पड़ जाता। गार्ड आकर पैर पकड़े पड़ा है कि नंबर बता दीजिए।… किस बात का नंबर? वे कहते : आप तो सब जानते ही हैं, आपको क्या कहना है? मगर एक बार मिल जाए बस लाटरी, सिर्फ एक बार! और आपकी कृपा से क्या नहीं हो सकता!

मुझे बड़ी कठिनाई हो जाती। मैं जितना उनको समझाता कि भई मुझे कोई नंबर वगैरह पता नहीं। और लाटरी मैं दिलवाता नहीं, हरवाता हूं।

वे कहते : नहीं— नहीं, आप भी क्या बात कर रहे हैं? महात्मा कभी ऐसा कर सकते हैं? महात्मा का तो काम ही यह है कि आशीर्वाद दे। आप मुझे टाल नहीं सकते। आज तो नंबर लेकर ही जाऊंगा। एक बार बस, दुबारा फिर आपको नहीं सताऊंगा। बस एक बार हो जाए तो सब ठीक— ठीक हो जाए। अब आप देखिए, मेरी लड़की है, बड़ी हो गई, शादी करनी है। बेटा है नौकरी नहीं लगती। तो कोई ऐसा आप से नाजायज काम नहीं करवा रहा हूं।

तुम्हारे साधु, तुम्हारे महात्मा यही करते रहे हैं सदियों से, वेद से लेकर अब तक। और ऐसे— ऐसे काम करते रहे हैं कि तुम हैरान होओगे। दुश्मन को मारना है, उसके लिए भी तुम्हारा महात्मा आशीर्वाद दे देता है। वेदों में इस तरह की ऋचाएं हैं, जो बड़ी बेहूदी हैं, जिनमें इंद्र से प्रार्थना की गई है कि हे इंद्र! मेरे दुश मन के खेत में फसल न हो, पानी न गिरे; कि मेरे दुश मन की गाय के थन सूख जाएं, उनसे दूध न बहे। जिसने ये प्रार्थनाएं की होंगी वे धार्मिक थे? और जिनने यह प्रार्थनाएं संग्रहीत कीं, वे धार्मिक थे? और जो सदियों से इस किताब को पूजते रहे हैं, वे धार्मिक हो सकते हैं?

लेकिन तथाकथित धर्म ऐसा ही है। वह तुम्हारे संसार का ही फैलाव है, वह उसी का हिस्सा है।

धनी धरमदास बहुत साधुओं के पास गए थे और सभी साधुओं को उन्होंने शांति दी थी। किसी को धन दान कर दिया था, किसी को मकान दान कर दिया था, किसी को मंदिर बनवा दिया था। कबीर के पास जाकर मुश्किल में पड़ गए। भूल से चले गए थे, नहीं तो शायद गए भी नहीं होते। वह जो आंख मिली कबीर से, कुछ बात और हो गई। मोरा मन लागा सतगुरु से!

थी वह निगाहे नाज या नावक का तीर था

मिलते ही आंख रह गया मैं कह के : हाय दिल!

पागल होने की घड़ी आ गयी। मोरा मन लागा सतगुरु से, भला होय कि खोर! और अब यह सवाल ही कहां है कि इससे अच्छा होगा या बुरा होगा। यह अच्छे—बुरे के पार घटना है।

इसलिए तो तुम प्रेमी को कभी नहीं समझा सकते कि इससे बुरा हो जाएगा। वह कहता है, बुरा हो तो बुरा हो जाए। प्रेम इतनी बड़ी घटना है कि बुरा सहा जा सकता है।

रहिमन मैन तुरंग चढ़ि चलिबो पावक माहि।

प्रेम पंथ ऐसो कठिन सब कोई निबहत नाहिं।।

अंतर दांव लगी रहे, धुआ न प्रकटे सोय।

कै जिय जाने आपनो कै जा सिर बीती होय।।

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे माहि।

रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि—बुझि के सुलगाहि।।

यह न रहीम सराहिए, लेन—देन की प्रीत।

प्रानन बाजी राखिए, हार होय कि जीत।।

फिर अब हार होगी कि जीत, यह तो सवाल नहीं उठता। प्राण की बाजी लगानी होती है।.. . प्रेम—पंथ ऐसो कठिन सब कोई निबहत नाहिं। दुकानदारों का यह काम नहीं। यह जुआरियों का काम है। धरमदास जुआरी रहे होंगे। हिम्मतवर थे। दांव पर सब लगा दिया। वह जो आंखों में दिख गया था कबीर के, तय कर लिया कि जब तक मुझे न दिख जाए तब तक अब जीवन में कोई सार नहीं। वह जो कबीर के पास आभा दिखायी पड़ी थी, वह जो रोशनी दमक गयी थी दामिनी की तरह, जब तक मेरे जीवन का भी अंग न हो जाए तब तक सब व्यर्थ है। सब दांव पर लगा दिया। लौटे ही नहीं। कहा : बात खत्म हो हो गई। अब तक जो मिले थे, बस नाममात्र के महात्मा थे; आज महात्मा से मिलना हुआ। अब तक तो जो महात्मा मिले थे, वे धनी धरमदास से ही कुछ पाना चाहते थे; आज पहली दफा कोई महात्मा मिला, जिससे धनी धरमदास को कुछ मिल सकता था— —जिससे वे वस्तुत : धनी हो सकते थे।

मोरा मन लागा सतगुरु से भला होय कि खोर।

जब से सतगुरु—ज्ञान भयो है चले न केहु के जोर।।

और एक बार इस बात की प्रत्यभिज्ञा हो जाए, पहचान हो जाए, रिकग्नीशन हो जाए कि यह रहा सतगुरु, फिर किसी का बस नहीं चलता। फिर सारी दुनिया एक तरफ और सारी दुनिया कहे गलत, तो भी अंतर नहीं पड़ता।

जब से सतगुरु ज्ञान भयो है…….। यह ज्ञान कैसे हो जाता है? शिष्य के उपाय से नहीं होता। शिष्य क्या उपाय करेगा? बस इतना ही शिष्य कर सकता है कि सतगुरु की छाया में मौजूद हो जाए। और क्या कर सकता है? बैठे, उठे, जाए, सत्संग करे——कभी तो घड़ी आएगी सौभाग्य की, जब मिलन हो जाएगा। सतगुरु के पास बैठते—बैठते बैठते—बैठते ऐसी घड़ी आ जाती है, सुनते—सुनते ऐसी घड़ी आ जाती है, जब तुम्हारी श्वास सतगुरु के साथ लयबद्ध हो जाती है, तुम्हारे विचार धीरे—धीरे धीरे—धीरे समाप्त हो जाते हैं। एक सन्नाटा तुम्हारे भीतर छा जाता है। उसी घड़ी कोई उतर आता है अज्ञात से तुम्हारे भीतर। उसी घड़ी तुम्हारा पात्र भर जाता है——अमृत से! और वह स्वाद लगा, फिर किसी का जोर नहीं चलता। फिर तो स्वयं परमात्मा भी आकर तुमसे कहे कि गुरु को छोड़ दो, तो भी तुम नहीं छोड़ सकते। तुम कहोगे: परमात्मा को छोड़ सकता हूं, क्योंकि परमात्मा का मुझे कुछ पता नहीं था। परमात्मा का पता ही मुझे सदगुरू के द्वारा चला है।

कबीर ने कहा है: गुरु गोविंद दोइ खड़े, काके लागू पांव! किसके पैर पहले लगूं? गुरु, गोविंद——इनके बीच चुनाव कबीर को करना पड़ रहा है! क्यों? क्योंकि गुरु ने ही गोविंद जन्माया। गुरु ने आंखें दीं, जिनसे रोशनी दिखाई पड़ी। रोशनी तो रही होगी पहले भी, मगर उसके होने न होने से क्या फर्क पड़ता था! गोविंद तो रहे होंगे पहले भी, लेकिन जब तक गुरु सेतु न बना तब तक गोविंद से कोई संबंध नहीं था। तो कृपा किसकी है?

मात रिसाई पिता रिसाई, रिसाये बटोहिया लोग। साथी—संगी सब नाराज हो गए। मां नाराज हो गयी, पिता नाराज हो गए।

अकसर ऐसा होता है। होगा ही। किसी स्वाभाविक नियम के अनुसार होता है। जब भी तुम गुरु को चुनोगे, पिता निश्‍चित नाराज होगा, मां निश्‍चित नाराज होगी। अगर न हो मां और पिता नाराज, तो तुम धन्यभागी हो। मगर ऐसे बिरले अवसर होंगे। अगर पिता और मां को भी गुरु से कुछ जोड़ बना हो, कभी जीवन में स्वाद लगा हो, तभी यह हो सकता है, नहीं तो नहीं, नाराज होंगे ही। क्यों? मां से तुम्हारा पहला जन्म हुआ——देह का। और गुरु से तुम्हारा दूसरा जन्म होगा। गुरु से मां की प्रतिस्पर्धा हो जाती है। और निश्‍चित ही गुरु तुम्हारी मां से बड़ी मां है। क्योंकि मां से तो केवल देह मिली, गुरु से आत्मा मिलेगी। मां से तो बाहर का जीवन मिला, गुरु से भीतर का जीवन मिलेगा। तो मां को स्पर्धा हो ही जाएगी, जलन हो ही जाएगी। मां गुरु को बर्दाश्त नहीं कर सकेगी। पिता भी बर्दाश्त नहीं कर सकेगा, क्योंकि पिता का अब तक तुम पर कब्जा था। अब किसी का तुम पर इतना कब्जा हो गया कि अगर गुरु कहे कि पिता की काट लाओ गरदन, तो तुम काट कर ले आओगे। यह खतरनाक बात है।

जीसस के बड़े प्रसिद्ध वचन हैं और बड़े कठोर भी——कि ”जब तक तुम अपने माता—पिता को इनकार न करोगे, मेरे पीछे न चल सकोगे। अनलैस यू डिनाय….. जब तक तुम इनकार न करोगे अपने माता—पिता को, मेरे पीछे न चल सकोगे।” ईसाइयों को बड़ी कठिनाई रही है इन वचनों को ठीक—ठीक समझाने की। उनको पता नहीं है कुछ। ये वचन जीसस के पास किसी बुद्ध—परंपरा से आए होंगे। बुद्ध के वचन और भी खतरनाक हैं। बुद्ध ने कहा : जब तक तुम अपने मां—बाप को मार ही न डालोगे, मेरे पीछे न चल सकोगे।

एक सुबह एक संन्यासी विदा हो रहा है, बुद्ध का एक भिक्षु विदा हो रहा है, यात्रा पर जा रहा है बुद्ध का संदेश पहुंचाने। उसने झुककर बुद्ध के चरणों में प्रणाम किया है। सम्राट प्रसेनजित उस दिन दर्शन को आया था, वह भी पास बैठा है। बुद्ध ने उसके सिर पर हाथ रखा है——भिक्षु के। बड़े गद्गद्द होकर आशीर्वाद दिया है। और फिर प्रसेनजित से कहा कि यह भिक्षु अहत है, इसने अपने मां और पिता को मार डाला है। प्रसेनजित तो बहुत घबड़ाया। सम्राट था वह। इस बात की प्रशंसा की जा रही है और यह आदमी हत्यारा है! वह थोड़ा परेशान हुआ। उसने कहा कि यह आदमी कौन है, इसका पता—ठिकाना क्या है? मुझे इसकी खबर क्यों नहीं हो सकी अब तक? इसने मां—बाप को मार डाला!

बुद्ध के भिक्षु हंसने लगे। उन्होंने कहा : आप समझे नहीं। इसने वस्तुत: मां—बाप नहीं मार डाले हैं। आपके नियम—कानून के भीतर नहीं पकड़ा जा सकता है यह आदमी। यह किसी और बड़े नियम के भीतर चल रहा है। बुद्ध जब कहते हैं कि इसने अपने मां—बाप मार डाले हैं तो इसका मतलब यह है कि अब बुद्ध के अतिरिक्त इसके मां—बाप नहीं हैं, और कोई मां—बाप नहीं, बात समाप्त हो गई है। वह नाता गया। वह संबंध गया।

तो गुरु के साथ अड़चन तो है।

मात रिसाई, पिता रिसाई, रिसाए बटोहिया लोग।

ग्यान — खड्ग तिरगुन को मारूं, पांच पचीसो चोर।।

धरमदास कहते हैं : लेकिन मुझे अब फिक्र नहीं है, मेरे हाथ में वैसी तलवार आ गई है कि मां — बाप को मारने में तो क्या रखा है, मित्रों को मारने में क्या रखा है! त्रिगुण, जिनसे यह पूरा अस्तित्व बना है — — सत, रज, तम — — उनको मार डालूंगा। जिनसे यह जीवन बना है, उनको मार डालूंगा। इस जीवन की मूल आधारशिला को तोड़ दूंगा, जड़ को काट दूंगा।…..पांच पचीसो चोर… ये जो पांच इंद्रियों ने पच्चीसों चोर खड़े कर रखे हैं, इन सबको काटकर फेंक दूंगा। तलवार मेरे हाथ लग गई है।

अब तो मोहि ऐसी बनि आवै, सतगुरु रचा संजोग। गुरु का काम ही है संयोग रचना। बुद्ध ने इस संयोग रचने को कहा है : बुद्धक्षेत्र। गीता शुरू होती है——कुरुक्षेत्रे धर्म—क्षेत्रे। वह जो कुरुक्षेत्र था, वह जो युद्ध हो रहा था पांडव और कौरवों के बीच, वह धर्मक्षेत्र था। उसकी गहराई में कोई जाए तो पाएगा कि वह भी कृष्ण का रचा हुआ खेल था। उस संघर्ष से ही कृष्ण के शिष्य साक्षी बन सकते थे और निमित्तमात्र बनकर मुक्त हो सकते थे।

गुरु का काम है संयोग रचना; डिवाइस; उपाय; एक परिस्थिति पैदा करना, जिसमें घटनाएं घटनी शुरू हो जाएं। घटनाएं तो घटती हैं शिष्य के अंतस्तल में, लेकिन बाहर वातावरण रचना होता है। इसी वातावरण को रचने के लिए बहुत उपाय किए गए हैं। बुद्ध ने हजारों लोगों को भिक्षु बनाया; वह यही उपाय था। एक समुदाय निर्मित किया। एक मित्रों की मंडली इकट्ठी खड़ी की। एक संघ निर्मित किया। अकेले—अकेले शायद तुम संसार से न लड़ पाओ। अकेले—अकेले शायद तुम टूट जाओ। अकेले—अकेले शायद तुम डूब जाओ। तुम्हें एक वातावरण दिया। बुद्ध के साथ दस हजार भिक्षु चलते थे। उन दस हजार भिक्षुओं की हवा, उन दस हजार भिक्षुओं की शांति, उन दस हजार भिक्षुओं का आनंद साथ चलता था। उसमें जब कोई नया भिक्षु आकर डूबता था, सरलता से डुबकी मार लेता था। यह दस हजार की तरंग पर सवार हो जाता था।

अब तो मोहि ऐसी बनि आवै, सतगुरु रचा संजोग।

आवत साथ बहुत सुख लागै, जात वियापै रोग।।

अब तो साधु को देखकर ही बड़ा सुख लगता है। अब तो साधु से मिलन हो जाता है तो बड़ा सुख लगता है। अब तो साधु से संबंध टूटता है तो बड़ी पीड़ा होती है, रोग लग जाता है।

साधु किसको कहते हैं? — —जिसके पास बैठकर परमात्मा की याद आए। जिसके पास बैठकर अंतर्यात्रा की स्मृति पकड़े। जिसके पास बैठकर सार सुनाई पड़े, असार छूटे। और स्वभावत : जब साधु के पास बैठकर सत्संग जमेगा, जहां चार दीवाने मिल जाते हैं और परमात्मा की चर्चा होती है, वहां आंसुओ की धार लग जाती है, हृदय नाचने लगते हैं। तो फिर जब विदाई होगी तो पीड़ा भी होगी।… जात वियापै रोग।

खून बन कर मेरी आंखों से टपकने वाले

नूर बन कर मेरी आंखों में समाया क्यों था?

मगर जो नूर बनकर समाएगा, वह खून बनकर टपकेगा भी। पर धीरे—धीरे धीरे—धीरे बाहर साधु के सत्संग की जरूरत समाप्त हो जाती है। अपने ही भीतर का साधु पैदा हो जाता है। तब फिर कोई जरूरत नहीं रह जाती। फिर तुम जहां हो वहीं तीर्थ है। जहां बैठे वहीं काबा। जहां सिर झुकाया वहीं मंदिर। जहां पैर पड़ जाते, वहीं पवित्रता का जन्म हो जाता है।

लेकिन शुरूआत तो साधु—संगति से करनी होगी। साधुओं के प्रेम में पड़ो, पर उसके पूर्व सतगुरु से मिल लेना जरूरी है। नहीं तो साधु को पहचान ही न सकोगे। और असाधु बहुत हैं और साधु कभी कोई बिरला। पहले तो सतगुरु से प्रेम लगे।

इश्क जन्नत है आदमी के लिए।

इशक नेमत है आदमी के लिए।

पहले तो प्रेम लगे सतगुरु से। थोड़ा स्वर्ग का स्वाद तो लगे! थोड़ा वह मंगलदायी अनुभव तो हो! फिर जब सदगुरू दिखाई पड़ गया है, तो फिर जहां भी रो श की छोटी — सी किरण होगी, तुम पहचान लोगे। फिर कहीं जरा — सा तारा टिमटिमाता होगा, तो भी तुम पहचान लोगे। तब तुम सब तरफ सा धु को पहचानने लगोगे। और तब तुम हारे जीवन में एक रूपांतरण हो जाता है। तुम असा धुओं की दुनिया के हिस्से नहीं रह जाते। तुम धीरे — धीरे साधुओं की दुनिया के हिस्से हो जाते हो।

और तुम जैसे होने लगते हो वैसे व्यक्ति तुम्हारे पास आने लगते हैं। और तुम जैसे व्यक्तियों के पास जाने लगते हो वैसे व्यक्तियों की पहचान बढ़ने लगती है। धीरे — धीरे इसी पृथ्वी पर तुम किसी दूसरे ही संसार के हिस्से हो जाते हो। वह दूसरा संसार : बुद्ध क्षेत्र, धर्म क्षेत्र।

धरमदास बिनवै कर जोरी सुनु हो बंदी — छोर। गुरु से कहते हैं कि मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूं! तुमने ही मुझे बंधन से छुड़ाया, तुमने मुझे कारागह से बाहर निकाला।

जाको पद त्रैयलोक से न्यारा सो साहब कस होय।… और अभी तो मैंने गुरु को ही जाना है — — और इतना आनंद इतनी अपूर्व अनुभूति हो रही है, कैसा होगा उसका लोक — — परमात्मा का! अभी तो परमात्मा को जाननेवाले को जाना है, तो भी इतना आनंद झलक रहा है। अभी तो दर्पण में उसकी तस्वीर देखी है। अभी उसकी तस्वीर नहीं देखी। अभी तो पानी की झील में बनता हुआ चांद देखा है। अभी असली चांद नहीं देखा। अभी तो गुरु के भीतर क्या घटा है, यह देखा है। मगर जिसके कारण घटा है, उस मालिक को, उस साहब को… या मालिक!

” साहब ” शस्‍त्र बड़ा प्यारा है। साहब का मतलब : मालिक! गुरु को भी साहब कहते हैं, क्योंकि पहले तो साहब के दर्शन गुरु में ही होते हैं। गुरु में हम अ ब स सीखते हैं साहब का। गुरु, ऐसा समझो कि तुम तैरने गए हो, तो उथले — उथले पानी में तैरना सीखते हो; एक दफे तैरना सीख लिया तो फिर सागरों में तैर जाओ। गुरु तो उथला — उथला पानी है, जहां तुम तैरना सीख सकते हो। गुरु तुम्हारे और परमात्मा के मध्य की कड़ी है। गुरु किनारे और मध्य के बीच कड़ी है। गुरु देह में परमात्मा है। रूप है, आकार है, सीमा है। सीमा है, रूप है, आकार है — — इसलिए तुम संबंधित हो सकते हो, प्रेम कर सकते हो। अरूप को कैसे प्रेम करोगे? निराकार को कैसे प्रेम करोगे? निराकार के प्रेम में गिरोगे कैसे?

तो पहले तो साहब को खोजो गुरु में। फिर गुरु तुम्हें धीरे— धीरे उस साहब से मिला देगा जो निराकार है। आकार का प्रेम धीरे— धीरे निराकार की अनुभूतइ में सहयोगी हो जाता है। रूप को पहचानते—पहचानते अरूप से भी मिलन होने लगता है। स्भूल से पहचान करो तो धीरे— धीरे सूक्ष्म में भी गति हो जाती है।

जाको पद त्रैयलोक से न्यारा सो साहब कस होय।

साहब येहि विधि ना मिलै चित चंचल भाई।… अड़चन क्या है? साहब मिलता क्यों नहीं? क्योंकि चित्त चंचल है। चित्त ठहरता नहीं। चित्त रुकता ही नहीं।

तुमने क्या कभी देखा, जब तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाता है तो चित्त ठहरने लगता है। किसी स्त्री के तुम प्रेम में पड़ गए, फिर तुम लाख कामों में उलझे रहते हो, उसकी याद भीतर बहती रहती है— —सतत धारा की भांति। बाजार में हो— —और उसकी याद भीतर। दुकान पर हो— —और उसकी याद भीतर। काम कर रहे हो— —और उसकी याद भीतर। रात सोते हो, उसका सपना भीतर चलता है। दिन उसकी स्मृति। कुछ भी करते रहते हो, उसकी याद बहती रहती है। एक सातत्य हो जाता है स्मृति का। एक मृंखला बंध जाती है।

तुम्हारे जीवन में बस प्रेम का ही एक अनुभव है, जब तुम्हारे चित्त की चंचलता थोड़ी कम होती है। इसी अनुभव से सीखो। यही प्रेम बहुत विराट होकर गुरु के साथ जुड़ जाए तो चित्त अचंचल हो जाता है।

साहब येहि विधि ना मिलै चित्त चंचल भाई।

माला तिलक उरमाइके नाच अरु गावै।

फिर तुम कितनी ही माला घुमाओ, कितना ही तिलक लगाओ, कितने ही नाचो और गाओ— —अगर प्रेम नहीं लग गया है तो सब थोथा—थोथा है, सब ऊपर—ऊपर है, सब औपचारिक है, क्रियाकांड है। और तुम भेद समझ लेना। क्योंकि क्रियाकांड बहुत प्रचलित है। मंदिर में जाते हो तो फूल चढ़ा देते हो। जरा सोचना, हृदय चढ़ता है या नहीं? मंदिर के सामने से निकले, हाथ जोड़ लेते हो। प्राण जुड़ते हैं या नहीं? नहीं तो उपचार छोड़ दो। उपचार का धोखा मत रखो। उपचार पाखंड है। अगर प्राण न जुड़ते हों तो हाथ मत जोड़ो। और अगर हृदय न चढ़ता हो तो प१३२.::द)ल मत चढ़ाओ। क्या सार होगा हृदय का फूल चढ़े तो ही चढ़े। फिर बाहर का फूल भी उपयोगी हो जाता है। हृदय से जोड़ बन जाए तो कुछ ऐसा नहीं है कि धनी धरमदास कह रहे हैं कि नाचना और गाना मत। धनी धरमदास खुद खूब नाचे और गाए। उन्हीं का गीत तो हम सुन रहे हैं। यह नहीं कह रहे हैं कि नाचना और गाना मत। यही कह रहे हैं कि नाच और गाने में तुम होना, बस नाच ही गाना न हो। ओठों पर ही न हो गीत, रोएं—रोएं में समाया हो। पुकार ऊपर ही ऊपर शब्दों की न हो।

ऐसी नमाज से गुजर, ऐसे इमाम से गुजर

बेसरूर— — जिसमें नशा ही नहीं है, आंखें मदमाती नहीं हैं…! मंदिर चले गए, तुम्हारी आंख में कोई नशा नहीं दिखाई पड़ता। तुम मंदिर से लौटकर डगमगाते नहीं दिखते। शराबी बेहतर है। लड़खड़ाता तो है! तुम लड़खड़ाते ही नहीं हो! इतनी बड़ी मधुशाला में गए और ऐसे ही चले आए! होश संभाले के संभाले! बेहोशी जरा भी लगी नहीं।

तेरा इमाम बेहजर, तेरी नमाज बेसरूर

ऐसी नमाज से गुजर, ऐसे इमाम से गुजर

छोड़ो ऐसी नमाज! छोड़ो ऐसा क्रियाकांड। ऐसी प्रार्थना, जो तुम्हें न शे से नहीं भर देती, जो तुम्हें नचा नहीं देती, जो तुम्हें आनंद — मग्न नहीं कर देती, जो तुम्हारे भीतर मधु श गला के द्वार नहीं खोल देती — — छोड़ो!

जाहिदे कमनिहाद ने रस्म समझ लिया तो क्या

कसदे कयाम और है रस्मे— कयाम से गुजर

एक तो रस्म है— — उपचार। और एक असलियत है— — भाव। तुम किसी से कहते हो, ” मुझे तुमसे प्रेम है ” और भीतर कोई प्रेम नहीं हैं— — तो यह रस्मे— कयाम है। बस एक उपचार निभा रहे हो। कहना चाहिए सो कह रहे हो। फिर तुम्हारा किसी से प्रेम है और शायद तुम कहते भी नहीं, कहने की शायद जरूरत भी नहीं पड़ती, बिना शब्दों के प्रकट हो जाता है। तुम्हारे आने का ढंग कहता है। तुम्हारे देखने का ढंग कहता है। तुम्हारा हाथ हाथ में लेने का ढंग कहता है। तुम्हारी आंखें कहती हैं। तुम्हारा नशा कहता है। और अगर तब तुम कहो भी कि मुझे तुमसे प्रेम है तो उसमें अर्थ होता है। अर्थ प्राणों से आता है। अर्थ शब्दों में कभी नहीं होता। शब्द तो चली हुई कारतूस जैसे भी हो सकते हैं। भीतर बारूद होनी चाहिए।

जाहिदे कमनिहाद ने रस्म समझ लिया तो क्या?

और लोग रस्म समझ कर बैठ गए हैं, निभा रहे हैं। मंदिर जाना चाहिए सो जाते हैं। गणेश— उत्सव आ गया, सो गणेश जी की पूजा करते हैं। न गणेश जी से कुछ लेना है, न पूजा से कोई प्रयोजन है। सदा होता रहा तो करते हैं। बाप—दादे करते रहे हैं तो हम भी करते हैं। एक लकीर है, सो उसको पीटते हैं। मस्जिद जाना है तो मस्जिद जाते हैं। रविवार का दिन है तो चर्च जाते हैं। रविवारीय धर्म से उतरो, पार हटो! रविवारीय धर्म से गुजरो। रस्मे—कयाम से ऐसी नमाज से गुजर, तेरी नमाज बेसरूर!……. नशा चाहिए!

और एक बड़ी अनिवार्य बात खयाल रखना, अगर तुम व्यर्थ न करो तो सार्थक करने की स्‍मृति आए बनी नहीं रहेगी। आएगी ही। क्योंकि मनुष्य एक खोज है। तुम अगर खिलौनों में उलझे रहो, तो तुम असली की तलाश करोगे ही।

तुमने देखा, छोटे बच्चों को हम धोखा देते हैं! मां काम में है और बच्चे को अभी स्तन नहीं दे सकती, उसको एक अनी पकड़ा देती है— — रबर की अनी। बच्चा रबर की अनी मुंह में ले लेता है, आंख बंद करके बड़े मजे में हो जाता है। चूसता है, सोचता है कि स्तन है। स्तन जैसा मालूम पड़ता है। मगर उससे कोई पुष्टि तो मिलेगी नहीं। उससे कोई पोषण तो मिलेगा नहीं। तुमने बच्चे को धोखा दे दिया। धोखे की शुरूआत हो गई। फिर ऐसे ही पंडित — पुजारी तुम्हें अनी दे रहे हैं। हृदय में तो परमात्मा विराजमान नहीं है; बाजार गए और एक मूर्ति खरीद लाए। विराज दिया परमात्मा को घर में और हृदय में जगह नहीं है कोई। तुम अनी ले आए, इससे पोषण नहीं होगा, इससे प्राण रूपांतरित नहीं होंगे। तुम किसको धोखा दे रहे हो? यह खिलौना ले आए। खिलौनों की पूजा में लगे हो?

छोटे— छोटे बच्चे गुइडा — गुड्डी का विवाह रचाते हैं और बड़ी उम्र के बच्चे रामलीला करते हैं। मगर सब खेल है।……. ऐसे इमाम से गुजर, ऐसी नमाज से गुजर।…… इससे तुम छूट जाओ तो तुम ज्यादा देर खाली न रह सकोगे। अगर बच्चे को उसकी अनी छीन ली जाए, वह फिर रोने लगेगा। वह फिर पुकारने लगेगा मां को कि मुझे भूख लगी है। वह अनी धोखा दे रही है।

इसलिए बहुत बार तुम्हें मेरी बातें कठिन लगती होंगी, क्योंकि मैं बहुत चोटें करता हू तुम्हारी उन सब बातों पर जिनको तुमने धर्म समझा है। चोट इसलिए करता हूं कि अनी तुम्हारे मुंह से निकाल ली जाए तो तुम मां को फिर पुकारो, तो तुम्हें अपनी भूख का पता चले, तो तुम्हें अपनी पीड़ा का अनुभव हो। और पीड़ा से प्रार्थना है। पीड़ा से पुकार है। तब एक पुकार उठेगी जो दूर आकाश को भेद देती है, जो सारे अस्तित्व के प्राणों को कंपा देती है।

परमात्मा का उत्तर आ सकता है, मगर तुम्हारी पुकार नहीं आ रही। तुम अपनी अनी लिए बैठे हो। अलग — अलग चूसनियां हैं। किसी की एक ढंग की, किसी की दूसरे ढंग की। किसी के पास एक फैक्ट्री की बनी, किसी के पास दूसरी फैक्ट्री की बनी। कोई गीता को चूस रहा है, कोई कुरान को चूस रहा है। पर सब चूसनियां लिए बैठे हुए हैं। उनकी शस्‍त्र? से पता चल रहा है कि अनी लिए बैठे हैं।… तेरी नमाज बेसरूर!

जागो! धर्म का संबंध तो मतवालेपन का संबंध है। वह दीवानों की बात है। एक बूंद पड़ जाएगी तो नाच उठोगे। एक बूंद ऐसा नचाएगी कि नाच रुकेगा नहीं। और तुम अनी लिए बैठे हो इतने दिन से और कोई नाच पैदा नहीं हुआ। कोई जीवन में आनंद की जरा — सी झलक नहीं, कोई फूल नहीं खिले।

माला—तिलक उरमाइके, नाचै अरु गावै।

अपना मरम जानै नहीं औरन समुझावै।।

और बड़ा मजा चल रहा है इस दुनिया में, जिनको खुद कुछ पता नहीं है वे दूसरों को समझा रहे हैं। समझाने का एक फायदा है : उससे तुम्हें यह बात भूल जाती है कि हमको पता नहीं। समझाने में एक दूसरा और फायदा है कि दूसरे को समझाते— समझाते तुम्हें यह भांति पैदा हो जाती है कि मैं भी समझ गया। दूसरे में उलझकर अपनी याद ही भूल जाती है। दूसरे की चिंताएं, दूसरे के प्रश्रों का जवाब देते— देते तुम्हें याद ही नहीं रहता कि मेरे भी अभी प्रश्‍न हैं जिनके जवाब मिले नहीं। फिर अहंकार को भी बड़ी तृप्ति मिलती है कि मैं जाता और दूसरा अज्ञानी। समझाने का यही तो मजा है। समझानेवाला जानी हो जाता है, जो समझने बैठ गया वह अज्ञानी हो जाता है।

पांडित्य से बचना। पांडित्य जहर है। और यह रोग ऐसा है कि एक बार पकड़ जाए तो बड़ी मुश्किल से छूटता है। कैंसर का इलाज है, पांडित्य का इलाज नहीं है। कैंसर का नहीं है तो हो जाएगा कल इलाज, लेकिन पांडित्य का कभी नहीं रहा और कभी नहीं होगा। कैंसर तो शरीर को मार डालता है, पांडित्य आत्मा को सड़ा डालता है। अपना मरम जानै नहीं, और न समुझावै।

जख्मे—दिल पर दवा तो लग जाए

आंख मेरी जरा तो लग जाए

खून हो—होके दिल टपकता है

इसके मुंह को मजा तो लग जाए

रक्शे—आलम को यूं ही रहने दो

दिल मिरा एक जौ तो लग जाए

क्यों दरे—मैकदा का बंद करें

शेख गुजरे हवा तो लग जाए

उसको दुनिया में ढूंढ ही लेंगे

अपने दिल का पता तो लग जाए

मगर अपने दिल का पता ही नहीं लगता। और परमात्मा को लोग खोजने चल पड़ते हैं, स्वयं को अभी खोजा नहीं।

उसको दुनिया में ढूंढ ही लेंगे

अपने दिल का पता तो लग जाए

खाक ही होके चैन पा जाऊं

मुझको इक बदुआ तो लग जाए

तुझको मेरा पता लगाना है

मेरे आलम में आ, तो लग जाए

लाख वह बेवफा सही ”सलमा”

उसको मेरी वफा तो लग जाए

सबसे महत्वपूर्ण, सबसे प्रथम काम है इस बात को समझना कि मुझे पता नहीं है, कि मैं अज्ञानी हूं, कि मेरा सारा ज्ञान थोथा है, कि मैंने ज्ञान सब उधार लिया है, कि मेरा ज्ञान नगद नहीं है। जिसको अपने अज्ञान का पता है उसने ज्ञान की तरफ पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम उठा लिया।

लेकिन पंडित को यह पता नहीं चल पाता। उसे सब पता है। और उसका पता वैसे ही है जैसे तोतों को पता होता है। तोते को जो कहो, दोहरा दे। और कभी—कभी तो तोता पंडित से ज्यादा बेहतर होता है।

मैंने सुना है कि एक पंडित एक तोता खरीदने गया। उसने तोते की दुकान पर कई तोते देखे। एक तोता उसे पसंद आया। बड़ा शानदार तोता था। पर दुकानदार ने कहा : यह जरा मैं बेचना नहीं चाहता। यह मुझे भी बहुत प्यारा है। यह मेरी दुकान की रौनक और मेरी शान है। पर पंडित ने कहा : जो भी दाम होंगे, दूंगा। मेरा भी मन भा गया है इस तोते पर। इसकी खूबी क्या है?

उसने कहा कि इसकी खूबी यह है कि अगर… इसके बाएं पैर में देखते हो, एक रस्सी बंधी है, धागा पतला—सा, इसको जरा खींच दो तो यह तत्क्षण गायत्री मंत्र बोलता है।

पंडित तो बहुत खुश हुआ कि यह तो बड़ी खूबी की बात है।

और इसके दाएं पैर में जो बंधा है? उसने कहा कि अगर दाएं पैर का खींच दो तो तत्क्षण नमोकार मंत्र बोलता है। यह तोता जैनियों और हिंदुओं दोनों को प्यारा है।

पंडित ने पूछा : और अगर दोनों धागे एक साथ खींच दो?

तोता बोला : अरे बुद्धू! चारों खाने चित नीचे गिर पडूंगा।

कभी—कभी तोते तुम्हारे पंडितों से ज्यादा समझदार होते हैं। दोनों पैर अगर खींचोगे तो गिर ही पड़ेगा चारों खाने चित। पंडित सोचता था कि शायद दोनों पैर एक साथ खींचने से कुछ समन्वय का सूत्र बोलेगा : ” अल्ला ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान! ”……. कि नमोकार मंत्र और गायत्री मंत्र का मिक्श्वर करके बोलेगा या कुछ होगा।

पांडित्य तोता—रटत है। शास्त्र से मुक्त होना पड़ता है सत्य की यात्रा में। शब्द से जागना पड़ता है सत्य की यात्रा में।

अपना मरम जानै नहीं औरन समुझावै।

देखे को बक ऊजला, मन मैला भाई।

देखते हो बगुले को! बिल्कुल गांधीवादी! शुभ खादी के वस्त्र! बगुले को देखते हो! बड़े—बड़े नेताओं के वस्त्र भी थोड़े फीके पड़ जाएं। बगुला बड़ा पुराना गांधीवादी है। सदा से ही शुभ खादी में भरोसा करता है। देखे को बक ऊजला, मन मैला भाई। लेकिन भीतर…।

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन चला जा रहा था एक रास्ते पर। नुमाइश लगी थी। बड़े शुभ वस्त्र पहने हुए— —झकझक, अभी धुलवाए! बूढा हो गया है, बाल भी सफेद, वस्त्र भी सफेद! बड़ा प्यारा लग रहा था! मगर एक सुंदर स्त्री के पीछे हो लिया। बारबार उसे धक्के देने लगा, कहीं टुहनी मारने लगा, कहीं च्योंटिया निकालने लगा।

आखिर उस स्त्री ने कहा कि भले मानस! कुछ खयाल तो करो! अपने सफेद कपड़ों का खयाल करो! अपने सफेद बालों का तो खयाल करो।

मुल्ला ने कहा कि बाई, बालों के सफेद होने से क्या होता है, दिल तो अभी भी काला है। और दिल का ही सवाल है।

पांडित्य बस ऊपर—ऊपर के सफेद वस्त्र हैं, भीतर कुछ भी नहीं है। अहंकार का मजा है। दूसरे को समझाने में मजा आता है। इसलिए तो दुनिया में सलाह जितनी दी जाती है उतनी और कोई चीज नहीं दी जाती। मुफ्त दी जाती है। सलाह देनेवालों का कोई अंत ही नहीं है। और मजा यह भी है कि सलाह इतनी दी जाती है, मगर लेता कोई नहीं। कहते हैं दुनिया में सबसे ज्यादा दी जानेवाली चीज सलाह है और सबसे कम ली जानेवाली चीज भी सलाह है। देनेवाले को देने का मजा है; उसको भी फिक्र नहीं है कि तुम लो। सच तो यह है, उसने अपनी सलाह के अनुसार खुद भी चलकर कभी देखा नहीं है।

एक मनोवैज्ञानिक के पास एक स्त्री गयी। उसका बेटा उसे परेशान कर रहा था, बहुत ऊधमी था, मारपीट भी करनी पड़ती थी। उसने मनोवैज्ञानिक से कहा कि मैं क्या करूं? मनोवैज्ञानिक ने कहा कि यह बिल्कुल ठीक नहीं है। मनोविज्ञान के अनुसार बच्चे को मारना बिल्कुल गलत है, अपराध है। फ्रायड कह गए हैं, एडलर, जुंग भी कह गए हैं, सब बड़े मनोवैज्ञानिक कह गए हैं कि बच्चे को मारना उसको जीवनभर के लिए ग्रंथियों से ग्रस्त कर देना है।

उस स्त्री ने कहा : अच्छा! आपके बच्चे हैं या नहीं?

मनोवैज्ञानिक थोड़ा ढीला पड़ा। उसने कहा कि बच्चे हैं।

तो उस स्त्री ने पूछा : ईमान से मुझे कहो, सच—सच कहो। मनोविज्ञान एक तरफ रखो। कभी उनको मारते हो या नहीं?

अब उसने कहा : अब तुम से क्या झूठ बोलें। अगर ऐसी ही बात पूछती हो, तो आत्मरक्षा के लिए मारना ही पड़ता है।

आत्म—रक्षा के लिए!

तुम जरा खयाल करना, तुम जो सलाह दूसरे को देते हो, कभी स्वयं भी मानी? अगर दुनिया में लोग अपनी सलाहों पर थोड़ा विचार करें तो दुनिया बड़ी शांत हो जाए। लोग सलाहें न दें, पहले उसका उपयोग करें।

आंख मुंदि मौनी भया मछरी धारि खाई।… देखते हो बगुले को, खड़ा रहता है, बिल्कुल मौन साधे, बिल्कुल ध्यान करता। बुद्ध भी थोड़े—बहुत हिलते होंगे, मगर बगुला नहीं हिलता। और एक टांग पर खड़ा होता है! सबसे पुराना योगी है। एक पैर पर खड़े होना, फिर बिल्कुल बिना डूले, एकटक, शांत, मौन… जरा भी नहीं हिलता, क्योंकि हिले तो पानी हिल जाए, तो मछली भाग जाती है।

तुम जरा अपने साधु—महात्माओं के पास गौर से जाकर देखना— —कहीं तुम्हारी मछली को फांसने के लिए आंख बंद करके तो नहीं बैठे हैं? तुमसे कुछ लेने को तो नहीं हैं? तुमसे कुछ पाने की आकांक्षा तो नहीं हैं? और तुम चकित होओगे कि तुम जिनके पास गए हो वे वैसे ही भिखारी हैं जैसे तुम भिखारी हो। उनकी नजर, जो तुम्हें शांत दिखाई पड़ती है, सिर्फ धोखा है। और उनका आसन, जो तुम्हें अडिग दिखाई पड़ता है, केवल धौखा है, पाखंड है। और ऐसा नहीं है कि सभी बगुले हैं, कभी—कभी कोई हंस भी है। मगर बड़ी सावधानी चाहिए। बड़ी सावधानी से चलोगे तो ही सदगुरू को पा सकोगे।

और अकसर ऐसा हो जाता है कि बगुला तुम्हें ज्यादा जंच जाएगा, क्योंकि बगुला तुम्हारे हिसाब से चलता है। वह देखकर चलता है; तुम्हारी क्या—क्या आकांक्षाएं हैं, वह पूरी करता है। तुम अगर कहते हो कि जनेऊ धारण होना चाहिए तो वह जनेऊ धारण करता है। तुम कहते हो माथे पर ऐसा तिलक होना चाहिए, तो वैसा तिलक लगाता है। वह तुम्हारी आकांक्षाएं पूरी करने को बैठा है। वह जानता है तुम्हारी क्या अपेक्षा है। वह पूरी करता है। सदगुरू तुम्हारी कोई अपेक्षा पूरी नहीं करेगा। इसलिए सदगुरू को अकसर तुम पसंद न कर पाओगे।

इसको खयाल में रखना, बगुला तुम्हें अकसर पसंद आ जाएगा, क्योंकि तुमसे मेल खाएगा। वह तुम्हारे लिए ही बैठा हुआ है। तुम्हारे साथ मेल खाने की उसने तैयारी ही कर रखी है। तुम अगर उपवास पसंद करते हो, वह उपवास का ढोंग करेगा। तुम अगर राम—नाम मानते हो तो वह राम—नाम की चदरिया ओढ़े बैठा हुआ है। तुम जो मानते हो, उसने उसका आयोजन किया हुआ है। वह तुम्हीं को फांसने बैठा है, तुम्हें राजी न करेगा तो कैसे?

लेकिन सदगुरू तुम्हें राजी करने नहीं, सदगुरू तुम्हें नाराज करेगा। सदगुरू तुम्हें झकझोरेगा। सदगुरू तुम पर चोट करेगा। तुम तिलमिला उठोगे। तुम नाराज हो जाओगे। तुम शायद कसम खा लोगे कि दुबारा इस जगह नहीं आना है, यह आदमी खतरनाक है। सदगुरू तुम्हारे विचारों से सहमत हो ही नहीं सकता। अगर तुम्हारे विचारों से सहमत हो जाए तो तुम्हारे काम का ही न रहा। सदगुरू के साथ तुम्हें सहमत होना पड़ेगा, सदगुरू तुम्हारे साथ सहमत नहीं होता।

मैं एक घर में मेहमान था। जैन घर था। उन्होंने बड़ा मेरा स्वागत किया और कहा कि आप तो हमें ऐसे हैं जैसे पच्चीसवें तीर्थंकर। मैने कहा : थोड़ा ठहरो! तीन दिन तुम्हारे घर रह

जाऊं, जाते वक्त फिर पूछूंगा। उन्होंने कहा : क्यों? वे थोड़ा चौंके। मैंने कहा : तुम अभी मुझे जानते ही नहीं हो, अभी इतनी जल्दी पच्चीसवां तीर्थंकर मत कहो।

शाम को ही गड़बड़ हो गयी। शाम को ही भोजन का समय आया और एक सज्जन मुझसे मिलने आ गए। बूढे थे, बड़ी दूर से चलकर आए थे, तो मैं उनसे बातचीत में लग गया। गृहणी ने आकर कहा कि समय हो गया, ” अन्‍थउ ” का समय हो गया। सूरज ढला जाता है, आप जल्दी उठिए।

मैंने कहा : सूरज को ढल जाने दो। ये वृद्ध सज्जन बड़ी दूर से आए हैं, इनसे मैं पूरी बात

कर लू।

वह महिला तो चौंककर खड़ी हो गई। उसने कहा : क्या आप रात्रि — भोजन करते हैं? मैंने कहा : मुझे जब भूख लगती है तब भोजन करता हूं। दिन और रात से भोजन का क्या संबंध? भोजन का संबंध भूख से है।

लेकिन उसने कहा कि महावीर स्वामी तो रात्रि — भोजन नहीं करते थे। मैंने कहा : उनके समय में बिजली नहीं थी, मेरे समय में बिजली है। उनके समय में मैं भी होता तो मैं भी रात भोजन नहीं करता।

जब मैं लौटने लगा — — और इस तरह की कई तीन दिनों में घटनाएं घटीं — — जब मैंने पूछा तीसरे दिन चलते वक्त कि क्या विचार है, मैं पच्चीसवां तीर्थंकर हूं कि नहीं? उन्होंने कहा : अब हम नहीं कह सकते। रात्रि — भोजन आप करते हैं! तीर्थंकर रात्रि — भोजन कर ही नहीं सकता।

तो मैने कहा : गया मेरा तीर्थंकर — पद। फिर दुबारा उन्होंने मुझे कभी निमंत्रण नहीं दिया घर में ठहरने का। बात ही खत्म हो गई। मैं किसी काम का ही न रहा। उनसे राजी हो जाता तो मैं पच्चीसवां तीर्थंकर था, लेकिन तब मैं बेकार था। तब वे मेरे गुरु थे, मैं उनका शिष्य था, उनसे मैं राजी हुआ था। जानकर उस दिन मैंने रात्रि — भोजन किया, आमतौर से मैं नहीं करता। उस दिन रात्रि — भोजन करना ही पड़ा, यह मौका मैंने नहीं छोड़ा। यह एक चोट थी जो करनी जरूरी थी।

ऐसे वर्षो में कभी एक — आध मौका कोई आता है, जब किसी को चोट करनी हो तो मैं रात्रि भोजन करता हूं, नहीं तो नहीं करता। क्योंकि बिजली होने से ही क्या होता है? सूरज के साथ भूख तृप्त हो जाए, तो शस्‍त्र के लिए सबसे बेहतर है। मगर इसकी कोई लकीर का फकीर बनाने की जरूरत नहीं है। इस पर कोई जीवन ढालने की जरूरत नहीं है। ये कोई जीवन के और धर्म के नियम नहीं हैं। ये स्‍वास्‍थ्‍य के नियम हैं, हाइजिन के नियम हैं। इनसे किसी धर्म का कोई लेना — देना नहीं है।

यह बिल्कुल ठीक है कि सूरज के साथ भोजन ले लिया जाए। जब सूरज उष्ण होता है तो श में पचाने की क्षमता होती है। जैसे ही सूरज ढल जाता है, श के पचाने की क्षमता ढल जाती है। मगर यह नियम तो स्‍वास्‍थ्‍य का है। स्‍वास्‍थ्‍य का नियम तोड्ने से पाप नहीं होता। स्‍वास्‍थ्‍य का नियम तोड्ने से थोड़ा — बहुत स्‍वास्‍थ्‍य में नुकसान पहुंचता है। और ऐसा कोई एक—आध दिन रात भोजन कर लेने से कोई तुम्हारी पाचन—प्रक्रिया नष्ट नहीं हो जाती है। ऐसा रोज—रोज करते रहो तो होती है।

मगर उस रात मुझे करना ही पड़ा। वह बूढा तो सिर्फ बहाना था। उसे मैंने और बातों में लगाए रखा। थोड़ी रात हो ही जाने दी, क्योंकि वह पच्चीसवां तीर्थंकर होना मुझे नहीं जंच रहा था। मैं किसी का तीर्थंकर नहीं होना चाहता। मैं पिटी—पिटाई किसी परंपरा का हिस्सा नहीं होना चाहता। जब मैं पहला ही हो सकता हूं तो पच्चीसवां क्यों होना? किसको अच्छा लगता है क्यू में खड़ा होना! चौबीस के पीछे खड़े हैं, अभी आगे के तीर्थंकर जब हटेंगे तब नंबर आएगा।

आंखि मुंदइ मौनी भया, मछरी धरि खाई।

कपट—कतरनी पेट में, मुख वचन उचारी।

अंतर गति साहेब लखै, उन कहां छिपाई।।

यह जो पंडित है, यह जो दूसरों को समझा रहा है, यह जो समझाने को ही अपने अहंकार की यात्रा बना लिया है, यह अनिवार्य रूप से तुमसे राजी होगा। यह तुम्हें देखकर चलेगा। तुम जो कहोगे, वही करेगा।

राजनीति का एक नियम है : नेता को सदा अपने अनुयायी के पीछे चलना होता है। अनुयायी जो कहे, नेता उसको और जोर से कहता है। अनुयायी को यह भांति होती है कि नेता ने पहले नारा दिया। यह बात बिल्कुल गलत है। नेता तो जांचता रहता है कि अनुयायी क्या कहने जा रहा है।

मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर बैठकर बाजार से निकल रहा था। एकदम तेजी से चला जा रहा था। लोगों ने कहा : नसरुद्दीन, कहां जा रहे हो? उसने कहा : मुझसे मत पूछो, गधे से पूछो। क्योंकि इस गधे के साथ बड़ी हुज्जत होती है। अगर मैं इसको कहीं ले जाना चाहता हूं तो बीच बाजार में अड़ जाता है, इधर—उधर जाने लगता है। उससे बड़ी बदनामी होती है। लोग कहते हैं, तुम्हारा गधा है मुल्ला और तुम्हीं से नहीं मानता। तो मैंने अब एक तरकीब सीख ली है। जब निकलता हूं, लगाम बिल्कुल छोड़ देता हूं। इससे कहता हूं, बेटा चल जहां जाए, बाजार से वहीं मुझे ले चल। मगर बाजार में प्रतिष्ठा तो रहे कि मेरा गधा मुझे मानकर चलता है।

नेता हमेशा अनुयायी के पीछे चलता है। तुम जो कहो, नेता उसी को जोर से चिल्लाता है। नेता देखता रहता है पीछे लौट—लौट कर कि तुम किस तरफ जा रहे हो, जल्दी से उचक कर तुम्हारे आगे हो जाता है। वही होशियार नेता कहलाता है। उसी को राजनीतिज्ञ कहते हैं, जो देख ले समय के पहले, हवा बदलनेवाली है। वह नई हवा पर सवार हो जाए। वह पुराना ही रट लगाए रखे तो कोई ज्यादा समझदार नेता नहीं है। जनता ही चली गई, वे अकेले ही रह गए। वे चिल्ला रहे हैं, कोई सुननेवाला नहीं है। चूक गए।

नेता को समय की परख होनी चाहिए। मगर नेता नेता नहीं होता, धौखा है नेता का।

सदगुरू कोई नेता नहीं है, राजनीतिज्ञ नहीं है। सदगुरू तुम क्या मानते हो, उसको कहकर नहीं तुम्हें राजी कर लेता। सदगुरू को जैसा दिखायी पड़ता है वैसा कहता है। फिर तुम्हें चोट लगे तो लगे, तुम नाराज होओ तो होओ, सूली चढ़ाओ तो चढ़ाओ, तुम जहर पिलाओ तो पिलाओ। मगर सदगुरू के साथ ही होओगे तो रूपांतरण है। जो तुम्हारे साथ हो गए हैं, जो साधु — संन्यासी, महात्मा तुम्हारे पीछे चल रहे हैं, उनसे तुम्हारे जीवन में क्या क्रांति हो सकती है?… कपट— कतरनी पेट में मुख वचन उचारी। कुछ कहता है और भीतर कुछ और है।

अंतर गति साहब लखै… लेकिन परमात्मा तो अंतर गति जानता है। तुम्हारे कहे को नहीं सुनेगा, तुम्हारे भीतर की गति को पहचनाता है।

उन कहां छिपाई… उससे छिपाने से क्या होगा?… आदि अंत की वार्ता सदगुरू से पाओ। और जैसा परम परमात्मा तुम्हारी अंतर— गति जानता है, वैसे ही सदगुरू तुम्हारी अंतर— गति जानता है।… अंतर गति साहब लखै…। ” साहब ” दोनों के लिए प्रयोग होता है। गुरु तुम्हारे भीतर की गति देख रहा है— — तुम क्या कर रहे हो, क्या सोच रहे हो, कहां जा रहे हो, क्या मांग रहे हो और क्या वस्तुत : तुम्हारे लिए हितकर है? उससे तुम छिपा न सकोगे।

आदि अंत की वार्ता सदगुरू से पाओ।… तुम अपने सिद्धांत छोड़ो। तुम अपने शास्‍त्र छोड़ो। तुम उससे पूछो कि क्या है प्रारंभ, क्या है अंत। तुम उससे सुनो। तुम अपने विचार लेकर उससे मेल बिठाने मत बैठ जाओ, क्योंकि उसमें सब गड़बड़ हो जाएगा। अगर तुम्हारे विचार ही सही होते, तब तो तुम पहुंच ही गए होते। तुम्हारे विचार सही नहीं हैं, इसलिए तो तुम पहुंचे नहीं हो। अब इन्हीं विचारों को लिए अगर तुमने सदगुरू को सुना तो सुना ही नहीं।

कहै कबीर धरमदास से, मूर्ख समझाओ।… कबीर कहते हैं धरमदास से : जाओ, मूर्खो को समझाओ, कि तुम किनकी मान रहे हो! जो तुम्हारी मान रहे हैं, उनकी तुम मान रहे हो। यह खूब पारस्परिक षडयंत्र चल रहा है! तुम किसकी सुन रहे हो? जिनका धर्म उधीर है, जिन्होंने कहीं से पढ़ा है, गुना है, सुना है, जिन्होंने जाना नहीं है, उनके पीछे चल रहे हो?

अंधा—अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़त!

मेरे मन बस गए साहेब कबीर।

धरमदास कहते हैं :

मेरे मन कबीर बस गए।

उस गैरते नाहिद की हर तान पर दीपक,

शोला सा चमक जाए है आवाज तो देखो।

सुनी आवाज, सुनी वाणी, सुना कबीर का शब्द और भीतर कोई शोला—सा चमक गया, दीपक जल गए। सदगुरू अर्थात् दीपक राग। उसे सुनकर अगर तुम्हारे भीतर का दीया न जल जाए तो समझना कि तुम पहचाने नहीं।

मेरे मन बस गए साहेब कबीर।

हिंदू के तुम गुरु कहाओ, मुसलमान के पीर।

दोऊ दीन ने झगड़ा मांडेव, पायो नाहिं सरीर।।

और दोनों धेर्म लड़ रहे हैं, झगड़ रहे हैं। और दोनों के झगड़े के कारण परमात्मा देह नहीं ले पाता है। परमात्मा उतर नहीं पाता है। दोनों के झगड़े के कारण परमात्मा उतर ही नहीं सकता है। दोनों के झगड़े में परमात्मा कट रहा है। धर्मो के झगड़ों ने परमात्मा को मार डाला है।

मैंने सुना है, एक गुरु एक दोपहर, गर्मी की दोपहर सोया। उसके दो शिष्य थे। दोनों सेवा करना चाहते थे, क्योंकि सुना था सेवा से मेवा मिलता है। तो गुरु ने कहा ठीक है सेवा करो। गुरु तो सो गया, दोनों ने गुरु को आधा — आधा बांट लिया कि बायां पैर में सेवा करूंगा, दायां पैर तू सेवा करना। और गुरु को कुछ पता नहीं है। नींद में गुरु ने करवट ले ली, बाएं पैर पर दायां पैर पड़ गया। जिसका बायां पैर था, उसने दूसरे से कहा : हटा ले अपने पैर को! देख हटा ले! मेरे पैर पर तेरा पैर पड़ जाए, यह बदी श त के बाहर है।

उसने कहा : देख लिए हटानेवाले! देख लिए तेरे जैसे हटानेवाले! हो हिम्मत तो हटा दे! अगर मेरा पैर भी छुआ, आज गरदनें कट जाएंगी।

दोनों ने डंडे उठा लिए। उनकी आवाज श प्रेरगुल सुनकर गुरु की नींद खुल गई। उसने आंख बंद पड़े — पड़े सारा मामला समझा कि मामला क्या है? वह तो डंडे उठाकर पिटाई करनी है — — गुरु की पिटाई! क्योंकि ” उसका पैर मेरे पैर पर चढ़ गया है। ” गुरु ने कहा कि हद हो गई, ये दोनों पैर मेरे हैं। तुमसे कहा किसने? तुमने बांटे कैसे? तुम हो कौन इनकी मालकियत करनेवाले?

यह सारा अस्तित्व उसका है, लेकिन बांट बैठे हैं। हिंदू जाकर मस्जिद में आग लगा देते हैं, मुसलमान जाकर मंदिर की मूर्ति तोड़ देते हैं। किसकी मूर्ति, किसका मंदिर, किसकी मस्जिद?

दोऊ दीन ने झगड़ा मांडेव, पायो नाहिं सरीर।….. इनके झगड़े के कारण परमात्मा का अवतरण नहीं हो पाता है। यह पृथ्वी परमात्मा—पूर्ण नहीं हो पाती है।

सील संतोष दया के सागर प्रेम प्रतीत मति धीर।… कहते हैं धरमदास कि कबीर में मुझे सब मिल गया— —सील, संतोष, दया के सागर, प्रेम प्रतीत, मति धीर। यहां मैंने प्रेम को साकार पा लिया है। यहां न हिंदू है न मुसलमान है। यहां भेद नहीं। यहां संप्रदाय नहीं। यहां विभाजन नहीं है अस्तित्व का— —अविभाज्य है।

वेद कितेब मते के आगर… और कबीर को भाषा आती नहीं। कहा है : मसि कागद छुयो नहीं। कभी स्याही और कागज छुआ नहीं। फिर कैसे सब चीजों के सागर हो गए।

वेद कितेब मते के आगर… सारे वेद और सारे कुरान उनसे बोल रहे हैं। यह कैसे घटा? ढाई आंख, प्रेम के पढ़े सो पंडित होय। कबीर ने ढाई अक्षर पढ़े हैं। उन ढाई अक्षरों में जितना है उतना चार वेदों में नहीं, उतना कुरान, बाइबिल में नहीं। असल में कुरान, बाइबिल, वेद, धम्मपद में, गीता में जो बहा है, वह उनसे ही बहा है जिन्होंने ढाई अ क्षर जाने। प्रेम को जान लिया तो परमात्मा को जान लिया।

सील संतोष दया के सागर, प्रेम प्रतीत मति धीर।

वेद कितेब मते के आगर, दोऊ दीनन के पीर।।

बड़े बड़े संतन हितकारी अजरा अमर सरीर।

कबीर के पास जो बैठे, जिन्होंने कबीर का अजर — अमर शस्‍त्र देखा, जिन्होंने कबीर की इस देह के भीतर छिपे हुए अदेही को पहचाना, जिन्होंने कबीर के आकार में निराकार को पकड़ा, वे बड़े — बड़े संत हो गए। कबीर के पास बैठ — बैठ कर बड़े — बड़े संत हो गए।

धरमदास की विनय गुसाईं… हे साहब! धरमदास कहते हैं : मेरी एक ही विनय है — — नाव लगाओ तीर! मेरी नाव को भी किनारे से लगा दो! बहुत तुम्हारा सहारा लेकर पार हो गए, मुझे भी पार करा दो।

शिष्य प्रार्थना ही कर सकता है। शिष्‍य प्रार्थना है। और जिस दिन प्रार्थना पूरी हो जाती है उस दिन घटना घट जाती है। प्रार्थना जब तक कम है, अधूरी है, आशिक है, आधी — आधी है, कुनकुनी है, तब तक परिणाम नहीं होता।

सदगुरू की नाव उस किनारे ले जा सकती है। उस किनारे परमात्मा है। और वह किनारा दूर नहीं। नाव तैयार है। चढ़ने की हिम्मत चाहिए। दुनिया हंसेगी।

… हमरे का करे हांसी लोग। लोग हंसेंगे।

मेरे संन्यासियों से पूछो। लोग उन पर हंसते हैं। लोग उन्हें पागल समझते हैं। लोग समझते हैं सम्मोहित हो गए हैं। फिक्र न करना। लोग सदा ही हंसते रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है, पुरानी परंपरा है। लोग हंसने ही चाहिए। अगर लोग हंसेंगे नहीं, तो संन्यास झूठा होगा। लोग जिन संन्यासियों की पूजा करते हैं, समझना वहां कुछ झूठ है, नहीं तो लोग पूजा नहीं करते। लोग इतने झूठे हैं कि झूठ की ही पूजा कर सकते हैं। लोग जब हंसे, तभी समझना कि कुछ सत्य की बात होनी शुरू हुई, कोई दीवाना पैदा हुआ, कोई मस्ती उतरनी शुरू हुई।

और नाव पर सवार होने की हिम्मत चाहिए। समर्पण, नाव पर सवार हो जाना है। प्रार्थना करने की हिम्मत चाहिए। कंजूसी मत करना प्रार्थना में।

धरमदास की विनय गुसाईं, नाव लगावो तीर।

शिष्य का अर्थ ही इतना होता है कि जिसने अपनी प्रार्थना निवेदन कर दी और जो प्रतीक्षा करता है।

जब कली कोई मुस्कराती है

मेरी आंख अश्क से भर आती है

दूर बजती हो जैसे शहनाई

इस तरह उनकी याद आती है

दिल की किश्ती निकल के तूफां से

आके साहिल पै डूब जाती है

जैसे जमना में अक्से—ताजमहल

दिल में यूं उनकी याद आती है

सुबहे—नौ की किरन उफक के करीब

सुर्ख घूंघट में मुस्कराती है।

गुरु की याद से भरो! साहब की याद से भरो! फिर साहब ही उस पार ले जाता है। सच पूछो तो कोई ले जाता नहीं— —तुम्हारा याद से भर जाना, तुम्हारा प्रार्थना से परिपूर्ण हो जाना ही, ले जाता है।

नाव तो अपने से चलती है। रामकृष्ण ने कहा है, पतवार भी नहीं चलानी पड़ती, सिर्फ पाल खोल देने पड़ते हैं। उसकी हवाएं ले जाती हैं। कोई चलाता नहीं नाव को। मगर नाव में बैठने की हिम्मत चाहिए, क्योंकि यह नाव जाती है अज्ञात की तरफ, अपरिचित की तरफ— — जिससे तुम्हारी पहचान नहीं, जिसे तुमने कभी जाना नहीं, जिसे कभी अनुभव नहीं किया। तुम्हारा परिचित तट छूट जाएगा; और अपरिचित तट, जो दूर कुहासे में छिपा है, पता नहीं हो या नहीं हो!

वह जो नहीं हो, उसकी यात्रा पर निकल जाने के साहस का नाम शिष्यत्व है। और जो भी उतना साहस करता है, संतुष्ट हो जाता है। उस साहस में ही वर्षा हो जाती है।

जुआरी बनो। प्रेम जुआरीपन है।

रहिमन मैं तुरंग चढ़ि चलि हो पावक माहि।

प्रेम पंथ ऐसो कठिन सब कोई निबहत नाहि।।

अंतर दांव लगी रहे धुआ न प्रकटे सोय।

कै जिय जानौ आपनो कै जा सिर बीती होय।।

जे सुलगे ते बुझि गए बुझे ते सुलगे माहि।

रहिमन दाहे प्रेम के बुझि बुझि के सुलगाहि।।

यह न रहीम सराहिए लेन—देन की प्रीत।

लेने—देने का हिसाब मत रखना। लेना—देना यानि व्यवसाय।

यह न रहीम सराहिए लेन—देन की प्रीत।

प्रानन बाजी राखिए हार होय कि जीत।।

और तब निश्‍चित ही जीत होती है। हार कभी हुई नहीं। निरपवाद रूप से जीत हुई है। जिसने दांव लगाया है, वह जीता है।

आज इतना ही।


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ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍हीं चदरिया–(पंच महाव्रत) प्रवचन–3

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अचौर्य—(प्रवचन—तीसरा)

 3 सितंबर 1970,

षणमुखानंद हाल, मुम्‍बई

मेरे प्रिय आत्मन्,

हिंसा का एक आयाम परिग्रह है। हिंसक हुए बिना परिग्रही होना असंभव है। और जब परिग्रह विक्षिप्त हो जाता है, पागल हो जाता है, तो चोरी का जन्म होता है। चोरी परिग्रह की विक्षिप्तता है, पजेसिवनेस दैट हैज गॉन मैड। स्वस्थ परिग्रह हो तो धीरे-धीरे अपरिग्रह का जन्म हो सकता है। अस्वस्थ परिग्रह हो तो धीरे-धीरे चोरी का जन्म हो जाता है। स्वस्थ परिग्रह धीरे-धीरे दान में परिवर्तित होता है, अस्वस्थ परिग्रह धीरे-धीरे चोरी में परिवर्तित होता है।

अस्वस्थ परिग्रह का अर्थ है कि अब दूसरे की चीज भी अपनी दिखाई पड़ने लगी, हालांकि दूसरा अपना नहीं दिखाई पड़ता है। अस्वस्थ परिग्रह का अर्थ है, वह जो इनसेन पजेसिवनेस है, वह दूसरे को तो दूसरा मानती है, लेकिन दूसरे की चीज को अपना मानने की हिम्मत करने लगती है। अगर दूसरा भी अपना हो जाये तब दान पैदा होता है। और जब दूसरे की चीज भर अपनी हो जाये और दूसरा दूसरा रह जाये तो चोरी पैदा होती है।

चोरी और दान में बड़ी समानता है। वे एक ही चीज के दो छोर हैं। चोरी में दूसरे की चीज अपनी बनाने की कोशिश है, दान में दूसरे को अपना बनाने की कोशिश है। चोरी में हम दूसरे की चीज छीन कर अपनी कर लेते हैं। दान में हम अपनी चीज दूसरे की कर देते हैं। एक अर्थ में दान चोरी का प्रायश्चित है। अक्सर दानी कभी अतीत का चोर होता है, और अक्सर चोर भविष्य का दानी हो सकता है। यह जो चोरी है, यह अगर चीजों तक ही संबंधित होती तो बहुत बड़ी बात न थी। जहां तक वस्तुओं की चोरी का संबंध है, इससे कानून, न्याय, राज्य, समाज का जोड़ है। धर्म से तो किसी और गहरी चोरी का संबंध है।

तो ऐसा हो सकता है कि एक दिन आ जाये कि संपत्ति ज्यादा हो, ऐफ्ल्युएंट हो तो वस्तुओं की चोरी बंद हो जाये, लेकिन उस दिन भी अचौर्य का महत्व रहेगा। इसलिए साधारणतः जिसे हम धार्मिक व्यक्ति कहें वह जिस चोरी से रोकने की बात कर रहा है, वह चोरी तो बहुत जल्दी खत्म हो जायेगी। लेकिन कोई महाव्रत कभी खत्म नहीं हो सकता। इसलिए अचौर्य का कोई और गहरा अर्थ भी है, जो सदा सार्थक रहेगा, सदा प्रासंगिक रहेगा। अगर किसी दिन पूरी तरह समाज समृद्ध हो गया तो चोरी तो बंद हो जायेगी। जो वस्तुओं की चोरी है, वह अधिकतर गरीबी के कारण पैदा होती है। लेकिन और भी चोरियां हैं। महाव्रत का संबंध उन गहरी चोरियों से है।

तो पहले उस गहरी चोरी को हम थोड़ा समझें जिसमें हम सब सम्मिलित हैं, वे लोग भी जिन्होंने कभी किसी की वस्तु नहीं चुराई होगी।

चोरी का अर्थ ही क्या है? चोरी का गहरा आध्यात्मिक अर्थ है कि जो मेरा नहीं है, उसे मैं मेरा घोषित करूं। बहुत कुछ मेरा नहीं है जिसे मैंने मेरा घोषित किया है, यद्यपि मैंने कभी किसी की चोरी नहीं की है।

शरीर मेरा नहीं है, लेकिन मैं मेरा घोषित करता हूं। चोरी हो गई, अध्यात्म की दृष्टि से चोरी हो गई। शरीर पराया है, शरीर मुझे मिला है, शरीर मेरे पास है। जिस दिन मैं घोषणा करता हूं कि मैं शरीर हूं उसी दिन चोरी हो गई। आध्यात्मिक अर्थों में मैंने किसी चीज पर दावा कर दिया, जो दावा अनाधिकारपूर्ण है, मैं पागल हो गया। लेकिन हम सभी शरीर को अपना, अपना ही नहीं, बल्कि मैं ही हूं ऐसा मान कर चलते हैं।

मां के पेट में एक तरह का शरीर था आपके पास। आज अगर आपके सामने उसे रख दिया जाये तो खाली आंखों से देख नहीं सकेंगे। बड़ी खुर्दबीन चाहिए जिससे दिखाई पड़ सकेगा और कभी न मानने को राजी होंगे कि कभी यह मैं था। फिर बचपन में एक शरीर था जो रोज बदल रहा है। प्रतिदिन शरीर बह रहा है। अगर हम एक आदमी के जिंदगी भर के चित्र रखें सामने, तो वह आदमी हैरान हो जायेगा कि इतने शरीर मैं था! और मजे की बात है कि इन सारे शरीरों में यात्रा करते वक्त हर शरीर को उसने जाना कि यह मैं हूं।

एक अमरीकन अभिनेता का जीवन मैं पढ़ता था। कई बार संन्यासियों के जीवन थोथे होते हैं, उनमें कुछ भी नहीं होता। जिन्हें हम तथाकथित अच्छे आदमी कहते हैं, अक्सर उनके पास कोई जिंदगी नहीं होती। इसलिए अच्छे आदमी के आसपास कहानी लिखना बहुत मुश्किल है। उसके पास कोई जिंदगी नहीं होती। वह थोथा, समतल भूमि पर चलने वाला आदमी होता है, कोई उतार-चढ़ाव नहीं होते। अक्सर जिसको हम बुरा आदमी कहते हैं, उसमें एक जिंदगी होती है, और उसमें उतार-चढ़ाव होते हैं और अक्सर बुरे आदमी के पास जिंदगी के गहरे अनुभव होते हैं। अगर वह उनका उपयोग कर ले तो संत बन जाये। अच्छा आदमी कभी संत नहीं बन पाता। अच्छा आदमी बस अच्छा आदमी ही रह जाता है–सज्जन। सज्जन याने मिडियॉकर। जिसने कभी बुरे होने की भी हिम्मत नहीं की, वह कभी संत होने की भी सामर्थ्य नहीं जुटा सकता।

इस अभिनेता की मैं जिंदगी पढ़ रहा था। उसकी जिंदगी बड़े उतार-चढ़ाव की जिंदगी है। अंधेरे की, प्रकाशों की, पापों की, पुण्यों की–लेकिन उसका अंतिम निष्कर्ष देख कर मैं दंग रह गया। अंतिम उसने जो निष्कर्ष दिया है, पूरी जिंदगी में जो बात उसे सबसे ज्यादा बेचैन की है, काश वह आपको भी बेचैन कर सके। आखिरी बात उसने यह कही है कि मेरी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मैंने इतने प्रकार के अभिनय किये, जिंदगी में मैंने इतनी एक्टिंग्स कीं, मैं इतने व्यक्ति बना, कि अब मैं तय नहीं कर पाता हूं कि मैं कौन हूं? कभी वह शेक्सपियर के नाटक का कोई पात्र था, कभी वह किसी और कथा का कोई और पात्र था। कभी किसी कहानी में वह संत था, और कभी किसी कहानी में वह पापी था। जिंदगी में इतने पात्र बना वह कि आखिर में कहता है कि मुझे अब समझ नहीं पड़ता कि असली में मैं कौन हूं? इतने अभिनय करने पड़े, इतने चेहरे ओढ़ने पड़े, कि मेरा खुद का चेहरा क्या है वह मुझे कुछ पक्का नहीं रहा।

दूसरी बड़ी गहरी बात उसने कही है कि जब भी मैं किसी पात्र का अभिनय करने मंच पर जाता हूं तब मैं एट-ईज होता हूं। क्योंकि वहां स्वयं होने की जरूरत नहीं होती, एक अभिनय निभाना पड़ता है, तो मैं एकदम सुविधा में होता हूं, मैं निभा देता हूं। “टु स्टेप इन ए रोल इज ईजीयर।’ उसने लिखा है कि एक अभिनय में कदम रखना आसान है। “बट टु स्टेप आउट आफ इट बिकम्स कांप्लेक्स।’ जैसे ही मैं मंच से उतरता हूं उस अभिनय को छोड़ कर, वैसे ही मेरी दिक्कत शुरू हो जाती है कि अब मैं कौन हूं? तब तक तो तय होता है कि मैं कौन था, अब मैं कौन हूं?

हजार अभिनय करके यह तय करना उसे मुश्किल हो गया है कि मैं कौन हूं? कहना चाहिए कि उसकी जिंदगी में अचौर्य का क्षण निकट आ गया है। लेकिन हमारी जिंदगी में हमें पता नहीं चलता। सच बात तो यह है कि कोई अभिनेता इतना अभिनय नहीं करता, जितना अभिनय हम सब करते हैं। मंच पर नहीं करते हैं, इससे खयाल पैदा नहीं होता है। बचपन से लेकर मरने तक अभिनय की लंबी कहानी है। ऐसा एक भी आदमी नहीं है जो अभिनेता नहीं है। कुशल-अकुशल का फर्क हो सकता है, लेकिन अभिनेता नहीं है, कोई ऐसा आदमी नहीं है। और अगर कोई आदमी अभिनेता न रह जाये तो उसके भीतर धर्म का जन्म हो जाता है।

हम चेहरे चुरा कर जीते हैं। हम शरीर को अपना मानते हैं वह भी अपना नहीं है, और हम जिस व्यक्तित्व को अपना मानते हैं वह भी हमारा नहीं है। वह सब उधार है। और जिन चेहरों को हम अपने ऊपर लगाते हैं; जो मास्क, जो परसोना, जो मुखौटे लगा कर हम जीते हैं वह भी हमारा चेहरा नहीं है।

बड़ी से बड़ी जो आध्यात्मिक चोरी है वह चेहरों की चोरी है, व्यक्तित्वों की चोरी है।

बेंजामिन फ्रेंकलिन ने अपने बचपन का एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि बचपन से ही मुझे पूर्ण होने की इच्छा है, तो मैंने बारह नियम तय किये थे जिनका उपयोग करके मैं पूर्ण हो जाऊंगा। उन बारह नियमों में समस्त धर्मों ने जो श्रेष्ठ बातों की चर्चा की है वह सब आ जाते हैं। संयम है, संकल्प है, शील है, शांति है, मौन है, सदभाव है…वह सारे बारह, सब अच्छी बातें उन बारह में आ जाती हैं।

बेंजामिन फ्रेंकलिन ने लिखा है कि लेकिन मैं इनको पाऊं कैसे? तो मैंने एक-एक आचरण का अभ्यास करना शुरू कर दिया। मैंने बुरा बोलना बंद कर दिया, और जब बुरा आये तो उसे दबाने लगा, और रोज रात हिसाब-किताब रखने लगा कि आज मैंने कोई बुरी बात तो नहीं बोली। आज मैंने किसी चीज में असंयम तो नहीं किया। आज मैंने कोई अनाचार तो नहीं किया। आज मैंने चोरी की बात तो नहीं सोची। आज मैंने आलस्य तो नहीं किया। वह हिसाब रखने लगा और रोज-रोज अभ्यास साधने लगा, फिर अभ्यास सध गया।

और बेंजामिन फ्रेंकलिन ने लिखा है कि मैंने अपने आचरण को पूरा साध लिया और तब एक ईसाई साधु ने उसे कहा कि तुमने सब तो साध लिया, लेकिन तुम बड़े अहंकारी हो गये हो। स्वभावतः जिसने सब साध लिया वह अहंकारी हो जायेगा। साधा है, सिद्ध हो गया है, तो अहंकार हो जायेगा। तो उस ईसाई फकीर ने कहा कि एक तेरहवां नियम और जोड़ दो–ह्यूमिलिटी, विनम्रता। बेंजामिन फ्रेंकलिन ने कहा कि मैं उसको भी साध लूंगा। उसने फिर ह्यूमिलिटी भी साध ली, उसने विनम्रता भी साध ली। वह विनम्र भी हो गया।

लेकिन अपने संस्मरण में उसने एक वचन लिखा है जो बड़ा कीमती है। उसने लिखा है कि अंततः लेकिन मुझे ऐसा लगा कि जो भी मेरी उपलब्धि है, इट इज जस्ट एन एपियरेंस, वह सिर्फ दिखावा है। जो भी मैंने साध लिया है, वह सिर्फ चेहरा बन पाया है, वह मेरी आत्मा नहीं बन पायी। स्वभावतः जो भी हम बाहर से साधेंगे वह चेहरा ही बनता है। जो भीतर से आता है वही आत्मा होती है।

हम सब बाहर से ही साधते हैं धर्म को। अधर्म होता है भीतर, धर्म होता है बाहर। चोरी होती है भीतर, अचौर्य होता है बाहर। परिग्रह होता है भीतर, अपरिग्रह होता है बाहर। हिंसा होती है भीतर, अहिंसा होती है बाहर। फिर चेहरे सध जाते हैं। इसलिए धार्मिक आदमी जिन्हें हम कहते हैं, उनसे ज्यादा चोर व्यक्तित्व खोजना बहुत मुश्किल है।

चोर व्यक्तित्व का मतलब यह हुआ कि जो वे नहीं हैं, वे अपने को माने चले जाते हैं, दिखाये चले जाते हैं। आध्यात्मिक अर्थों में चोरी का अर्थ है: जो आप नहीं हैं उसे दिखाने की कोशिश, उसका दावा। हम सब वही कर रहे हैं, सुबह से सांझ तक हम दावे किये जाते हैं।

वह अमरीकी अभिनेता ही अगर भूल गया हो कि मेरा ओरीजिनल-फेस, मेरा अपना चेहरा क्या है, ऐसा नहीं है; हम भी भूल गये हैं। हम सब बहुत-से चेहरे तैयार रखते हैं। जब जैसी जरूरत होती है वैसा चेहरा लगा लेते हैं। और जो हम नहीं हैं, वह हम दिखाई पड़ने लगते हैं। किसी आदमी की मुस्कुराहट देख कर भूल में पड़ जाने की कोई जरूरत नहीं है, जरूरी नहीं है कि भीतर आंसू न हों। अक्सर तो ऐसा होता है कि मुस्कुराहट आंसुओं को छिपाने का इंतजाम ही होती है। किसी आदमी को प्रसन्न देख कर ऐसा मान लेने की कोई जरूरत नहीं है कि उसके भीतर प्रसन्नता का झरना बह रहा है, अक्सर तो वह उदासी को दबा लेने की व्यवस्था होती है। किसी आदमी को सुखी देख कर ऐसा मान लेने का कोई कारण नहीं है कि वह सुखी है, अक्सर तो दुख को भुलाने का आयोजन होता है।

आदमी जैसा भीतर है वैसा बाहर दिखाई नहीं पड़ रहा है, यह आध्यात्मिक चोरी है। और जो आदमी इस चोरी में पड़ेगा उसने वस्तुएं तो नहीं चुराईं, व्यक्तित्व चुरा लिये। और वस्तुओं की चोरी बहुत बड़ी चोरी नहीं है, व्यक्तित्वों की चोरी बहुत बड़ी चोरी है।

इसलिए जिस आदमी को अचौर्य में उतरना हो, उसे पहली बात यह समझ लेनी चाहिए कि वह भूल कर भी कभी व्यक्तित्व न चुराये। महावीर से जो व्यक्तित्व लेगा वह चोर हो जाएगा। बुद्ध से जो व्यक्तित्व लेगा वह चोर हो जायेगा। जीसस से जो व्यक्तित्व लेगा वह चोर हो जाएगा। कृष्ण से जो व्यक्तित्व लेगा वह चोर हो जाएगा।

चोर का मतलब ही यह है कि जिसने जो है वह नहीं, बल्कि जो नहीं था उसको ओढ़ लिया। अब दूसरा कोई आदमी पृथ्वी पर दुबारा महावीर नहीं हो सकता, हो ही नहीं सकता। वे सारी की सारी स्थितियां दुबारा नहीं दोहराई जा सकतीं जो महावीर के होने के वक्त हुईं। न तो वह पिता खोजे जा सकते हैं फिर से जो महावीर के थे। न वह मां खोजी जा सकती है फिर से जो महावीर की थी। न वह आत्मा दुबारा खोजी जा सकती है जो महावीर की थी। न वह शरीर खोजा जा सकता है जो महावीर का था। न वह युग खोजा जा सकता है जो महावीर का था। न वे चांदत्तारे खोजे जा सकते हैं। कुछ भी नहीं खोजा जा सकता। इस जगत में जो क्षण बह गया वह बह गया।

इसलिए दूसरा कोई आदमी जब भी महावीर होने की कोशिश करेगा तो वह चोर महावीर हो जाएगा। दूसरा कोई आदमी अगर कृष्ण होने की कोशिश करेगा तो वह चोर कृष्ण हो जाएगा। कोई आदमी जब भी दूसरा आदमी होने की कोशिश करेगा तो आध्यात्मिक चोरी में पड़ जाएगा। उसने व्यक्तित्व चुराने शुरू कर दिये। और धर्म का हम यही मतलब समझे बैठे हैं: किसी के जैसे हो जाओ, अनुयायी बनो, अनुकरण करो, अनुसरण करो, पीछे चलो, ओढ़ो, किसी को भी ओढ़ो, खुद मत रहो बस, किसी को भी ओढ़ो। इसलिए कोई जैन है, कोई हिंदू है, कोई ईसाई है, कोई बौद्ध है। ये कोई भी धार्मिक नहीं हैं। ये धर्म के नाम पर गहरी चोरी में पड़ गये हैं। अनुयायी चोर होगा ही आध्यात्मिक अर्थों में, उसने किसी दूसरे व्यक्तित्वों को चुरा कर अपने पर ओढ़ना शुरू कर दिया जो वह नहीं है। पाखंड, हिपोक्रेसी परिणाम होगा।

इसलिए जितना तथाकथित धार्मिक समाज, उतना पाखंडी, उतना हिपोक्रेट। उसका कारण है, क्योंकि वहां कोई व्यक्ति वही नहीं है, जो वह है। वहां सभी व्यक्ति वही है, जो वह नहीं है। ऐसा समझें कि कोई व्यक्ति अपनी जगह नहीं है, सब किसी और की जगह खड़े हैं। कोई व्यक्ति अपनी आंखों से नहीं देख रहा है, सब किसी और की आंखों से देख रहे हैं। कोई व्यक्ति अपने होठों से नहीं हंस रहा है, सब व्यक्ति दूसरों के होठों से हंस रहे हैं। कोई व्यक्ति अपने से नहीं जी रहा है, सब व्यक्ति किसी और से जी रहे हैं। जो असंभव है। न तो मैं किसी की जगह जी सकता हूं और न किसी की जगह मर सकता हूं। न मैं किसी के होठ से हंस सकता हूं और न किसी के हृदय से अनुभव कर सकता हूं। मेरा अनुभव अनिवार्यरूपेण निजी होगा। और निजी होगा उसी दिन मैं अचौर्य को उपलब्ध होऊंगा, उसके पहले नहीं हो सकता। मैं जिस दिन स्वयं ही रह जाऊंगा, मेरे पास कोई ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व नहीं होगा, उस दिन मैं अचौर्य को उपलब्ध हो जाऊंगा, अन्यथा मैं चोर बना रहूंगा।

ध्यान रहे, वस्तुओं के चोरों को तो हम जेलों में बंद कर देते हैं, व्यक्तित्वों के चोरों के साथ हम क्या करें? जिन्होंने पर्सनैलिटीज चुराई हैं, उनके साथ क्या करें? उन्हें हम सम्मान देते हैं, उन्हें हम मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में आदृत करते हैं।

ध्यान रहे, वस्तुओं के चोर ने कोई बहुत बड़ी चोरी नहीं की है, व्यक्तित्व के चोर ने बहुत बड़ी चोरी की है। और वस्तुओं की चोरी बहुत जल्दी बंद हो जाएगी, क्योंकि वस्तुएं ज्यादा हो जाएंगी, चोरी बंद हो जाएगी, लेकिन व्यक्तित्वों की चोरी जारी रहेगी। हम चुराते ही रहेंगे, दूसरे को ओढ़ते ही रहेंगे।

इसे आप जरा सोचना कि आप स्वयं होने की हिम्मत जिंदगी में जुटा पाये, या नहीं जुटा पाये? अगर नहीं जुटा पाये तो आपके व्यक्तित्व की अनिवार्य आधार-शिला चोरी की होगी। आपने कोई और बनने की कोशिश तो नहीं की है? आपके चेतन-अचेतन में कहीं भी तो किसी और जैसा हो जाने का आग्रह तो नहीं है? अगर है, तो उस आग्रह को ठीक से समझ कर उससे मुक्त हो जाना जरूरी है। अन्यथा अचौर्य, नो-थेफ्ट की स्थिति नहीं पैदा हो पाएगी। और यह चोरी ऐसी है कि इससे आपको कोई भी रोक नहीं सकता, क्योंकि व्यक्तित्व अदृश्य चोरियां हैं। धन चुराने जाएंगे, पकड़े जा सकते हैं। व्यक्तित्व चुराने जाएंगे, कौन पकड़ेगा? कैसे पकड़ेगा? कहां पकड़ेगा? और व्यक्तित्व की चोरी ऐसी है कि किसी से कुछ छीनते भी नहीं और आप चोर हो जाते हैं। व्यक्तित्व की चोरी आसान और सरल है। सुबह से उठ कर देखना जरूरी है कि मैं कितनी बार दूसरा हो जाता हूं। हम व्यक्ति नहीं हो पाते व्यक्तित्वों के कारण। पर्सनैलिटीज के कारण पर्सन पैदा नहीं हो पाता।

यह शब्द पर्सनैलिटी बड़ा अच्छा शब्द है–यूनान में ग्रीक ड्रामा से आया हुआ शब्द है। यूनान में जो यूनानी ड्रामा होता था उसमें प्रत्येक अभिनेता को अपने ऊपर एक मुखौटा, एक चेहरा ओढ़ना पड़ता था, एक मास्क पहनना पड़ता था। उस चेहरे को परसोना कहते थे। और उस चेहरे से बने हुए व्यक्तित्व को पर्सनैलिटी कहते थे। पर्सनैलिटी का मतलब था जो वो नहीं है वह। पर्सनैलिटी का मतलब कि जो आप नहीं हैं।

इसलिए जितनी बड़ी पर्सनैलिटी हो उतनी बड़ी चोरी होगी। बहुत कुछ चुराया हुआ होगा। एक साधु है, वह महावीर की पर्सनैलिटी लिये हुए है। ठीक महावीर जैसा नग्न खड़ा हो गया है। ठीक महावीर जैसा चलता, उठता, बैठता है। ठीक महावीर जैसा खाता-पीता है। ठीक महावीर के शब्द बोलता है। बिलकुल महावीर हो गया है। लेकिन यह होना बाहर से ही हो सकता है। भीतर से तो वह सिर्फ वही हो सकता है जो है, यह पर्सनैलिटी है।

इसलिए चोरों के पास अक्सर अपना व्यक्तित्व होता है। साधुओं के पास अपना होता ही नहीं। अगर जेलखाने में जायें और चोरों की आंखों में झांकें तो ऐसा लगेगा कि वे जो हैं, हैं। मंदिरों में जायें और साधुओं की आंखों में झांकें तो लगेगा कि वे जो नहीं हैं वही हैं।

बुरा आदमी अक्सर वही होता है, जो है। क्योंकि बुरे को कोई भी ओढ़ता नहीं। अच्छा आदमी अक्सर वही होता है जो नहीं है, क्योंकि अच्छे को ओढ़ने का मन होता है। अच्छा होना तो बहुत कठिन है, ओढ़ना बहुत आसान है। अच्छा होना तो तपश्चर्या है, अच्छा होना आर्डुअस है। लेकिन अच्छे को ओढ़ लेना खेल है, सुविधा है, बहुत कन्वीनिएंट है। फिर अच्छे होने के साथ बड़ी कठिनाइयां हैं; क्योंकि दुनिया अच्छी नहीं है। इसलिए अच्छा होने वाला आदमी दुनिया के साथ मुसीबत में पड़ जाता है। टु बी मॉरल इन ए इम्मॉरल सोसायटी, टु बी गुड इन ए बैड सोसायटी, एक अनैतिक समाज में नैतिक होना बड़ी दुविधा है। एक बुरे समाज में अच्छे होना बड़ी कठिनाई मोल लेना है। यही है तपश्चर्या साधु की।

साधु की तपश्चर्या नंगा खड़ा हो जाना नहीं है। साधु की तपश्चर्या भूखा रह जाना नहीं है। ये बड़ी सस्ती और सरल बातें हैं, जो कोई भी नासमझ साध सकता है। असल में समझ हो तो साधना मुश्किल, ना-समझी हो तो साधना आसान। साधु की तपश्चर्या है: टु बी मॉरल इन ए इम्मॉरल वर्ल्ड, नैतिक होना अनैतिक जगत में तपश्चर्या है। क्योंकि चारों तरफ से चोट पड़ेगी। इसलिए सुविधापूर्ण है वस्त्र ओढ़ लेना। नैतिकता के वस्त्र ओढ़ो, अनैतिक रहो। अनैतिक रहो, दुनिया से कोई तकलीफ नहीं होगी। नैतिकता के वस्त्र ओढ़ो, बाजारों में, सार्वजनिक स्थानों में।

इसलिए हमारे पास दो तरह के चेहरे हैं: प्राइवेट फेसेस, पब्लिक फेसेस। और नियम है कि वह जो व्यक्तिगत चेहरा है, निजी चेहरा है, उसे कभी सार्वजनिक स्थान में मत ले जाना। कोई नहीं ले जाता। कभी-कभी शराब वगैरह कोई पी ले तो भूल हो जाती है, अन्यथा नहीं। कोई शराब पी ले तो भूल जाता है कि पब्लिक प्लेस है और प्राइवेट फेस, तो तकलीफ होती है।

इसलिए भले आदमी शराब पीने से बहुत डरते हैं। बुरे आदमी उतने नहीं डरते हैं, क्योंकि उनका चेहरा सब जानते हैं। उससे बड़ा और बुरा चेहरा उनके पास नहीं है। अगर दुनिया के सब भले आदमियों को इकट्ठा करके शराब पिलाई जा सके तो आपको पता चलेगा कि प्राइवेट फेसेस क्या हैं।

यूनान में एक फकीर था गुरजिएफ। वह तो जब भी कोई आदमी वहां आता तो उससे पहले पूछता कि भले आदमी हो कि बुरे आदमी हो? शायद ही कभी कोई आदमी कहता कि मैं बुरा आदमी हूं। क्योंकि इतना भला आदमी बहुत मुश्किल है खोजना जो कह सके कि मैं बुरा आदमी हूं। अक्सर तो लोग कहते कि कैसी आप बात पूछते हैं! भला हूं, साधना करने आया हूं, साधना करने ही क्यों आता अगर भला न होता? हालांकि हालत उल्टी है, भला आदमी किसलिए साधना करने जाएगा?

गुरजिएफ कहता, पहली साधना यह रहेगी कि पंद्रह दिन शराब पीनी पड़ेगी। अक्सर तो भला आदमी भाग जाता। कल्पना भी नहीं कर सकते कि कोई फकीर और शराब पीने के लिए कहेगा। लेकिन अर्थपूर्ण थी उस गुरजिएफ की बात। वह कहता था पंद्रह दिन तो मैं शराब पिलाऊंगा ताकि मैं तुम्हारा प्राइवेट फेस देख सकूं। अन्यथा मैं किसके साथ बात करूं, अन्यथा मैं किसके साथ व्यवहार करूं, अन्यथा मैं किसको बदलूं? क्योंकि तुम जो दिखाई पड़ रहे हो, अगर इसको मैंने बदला तो बेकार मेहनत हो जाएगी, क्योंकि तुम तो यह हो ही नहीं। यह बदलाहट बेकार। यह रंगरोगन मैं कर दूंगा, यह तुम्हारे मुखौटे पर हो जाएगा, तुम्हारे चेहरे से इसका कोई संबंध नहीं है। और मुखौटा बिलकुल अलग चीज है, तुम उसे कभी भी उतार कर रख सकते हो, बदल सकते हो। तुम मुझसे बेकार मेहनत मत करवाओ। पहले मुझे तुम्हारा ओरिजिनल फेस, तुम्हारा असली चेहरा देख लेने दो।

अक्सर तो अच्छा आदमी भाग जाता शराब का नाम सुन कर ही। भागना ही बता देता कि उस आदमी के भीतर कुछ छिपा है जो प्रकट होने से डरेगा। लेकिन अगर कोई रुक जाता तो बड़ी हैरानी होती। पंद्रह दिन गुरजिएफ उसे शराब ही पिलाये जाता। जितनी ज्यादा से ज्यादा पिला सकता, पिलाता। और उसके असली चेहरे को खोजता।

कैसा दुर्भाग्य कि आदमी के असली चेहरे को खोजने के लिए उसे बेहोश करना पड़ता है। इतनी परतें हैं नकली चेहरों की, चोरी इतनी गहरी है, इतनी लंबी है, अनंत जन्मों की है कि असली चेहरा बहुत-बहुत, बहुत पीछे छिप गया है। एक मुखौटा उतारो तो दूसरा उसके नीचे है। प्याज की तरह आदमी हो गया है। एक छिलका निकालो फिर छिलका, और छिलका निकालो फिर छिलका।

आप इस भ्रम में मत रहना कि प्याज को खोज लेंगे। आप छिलके निकालते जाओ, निकालते जाओ, निकालते जाओ, बस छिलके ही निकलते चले जाएंगे। आखिर में कुछ भी नहीं बचेगा। आखिरी छिलका निकल जाएगा। आप पूछोगे प्याज कहां है? पता चलेगा छिलकों का जोड़ ही प्याज थी, प्याज का अपना कोई अस्तित्व न था।

हम करीब-करीब अनंत जन्मों में इतने व्यक्तित्वों की चोरी किये हैं, हमने इतने मुखौटे ओढ़े हैं कि हमारा अपना तो कोई चेहरा नहीं रह गया है। अगर हमारे छिलके उतारे जाएंगे तो आखिर में शून्य रह जाएगा। लेकिन उसी शून्य से शुरू करना पड़ेगा, क्योंकि उसी शून्य से अचौर्य में गति होगी। उसके पहले कोई गति नहीं हो सकती। अगर एक आदमी को यह पता चल जाये कि मेरा कोई चेहरा ही नहीं है, तो बड़ी उपलब्धि है यह।

आपसे मैं कहना चाहूंगा कि आप चोरी से बचने की कोशिश का नाम अचोरी मत समझ लेना। चोरी से जो बचा है, वह भी चोरी से बचा हुआ चोर है। चोरी जिसने की है चोरी में फंस गया चोर है। वे दोनों चोर हैं। चोरी उनके भीतर है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक की चोरी व्यवहार तक चली गयी है, एक की चोरी मन तक रह गयी है।

लेकिन चोरी का जो असली गहरा आध्यात्मिक, स्पिरिच्युअल अर्थ है, वह यह है कि क्या आपके पास अपना चेहरा है?

नहीं खोज पाएंगे। आइने के सामने खड़े होंगे, वह जो चेहरा दिखाई पड़ेगा, पता चलेगा वह किसी और का है। हालांकि अब तक उसे हमने अपना ही समझा है। फिर ऐसा भी नहीं है कि हमारे पास एक ही चेहरा हो, जिससे हम चौबीस घंटे काम चलाते हों। चौबीस घंटे हमको फंक्शनली इतने बहुत-से चेहरे बदलने पड़ते हैं–पति के सामने पत्नी को कुछ और ही होना पड़ता है; पति पत्नी के सामने कुछ और होता है, अपनी पत्नी के सामने कुछ और होता है, पड़ोसी की पत्नी के सामने कुछ और होता है। तत्काल चेहरा बदल जाता है। अपने मालिक के सामने कुछ और होता है, अपने नौकर के सामने कुछ और होता है। अगर मेरे इस तरफ मालिक को बिठाल दिया जाये और मेरे इस तरफ नौकर को बिठाल दिया जाये तो मेरा नौकर मेरे आधे चेहरे में कुछ और देखेगा, मेरा मालिक मेरे आधे चेहरे में कुछ और देखेगा–मेरे दो चेहरे एक साथ होंगे। इधर नौकर को मैं दबाता हुआ रहूंगा। इधर मालिक की तरफ मैं पूंछ हिलाता हुआ रहूंगा। यह मेरे एक ही साथ मुझे दोनों काम करने पड़ेंगे।

तो कई दफे बहुत लोगों के बीच जब आप होते हैं तो आप गिरगिट हो जाते हैं। इसके साथ कुछ और, उसके साथ कुछ और, इसके साथ कुछ और। बड़ी कठिनाई हो जाती है।

मैंने सुना है नसरुद्दीन के बाबत। नसरुद्दीन की दो प्रेयसियां थीं। विनम्र आदमी रहा होगा, नहीं तो दो प्रेयसियों पर कौन रुकता है। दोनों से अलग-अलग मिलता था। दो प्रेयसी से एक साथ मिलना बहुत कठिन है। क्योंकि दोनों को ऐसे चेहरे दिखाये हैं, जो वायदा किया है कि एक को ही दिखाया है। प्रत्येक से कहा, तेरे सिवाय किसी को प्रेम नहीं करता।

लेकिन प्रेयसियां भी बहुत होशियार हैं, वे तत्काल पता लगा लेती हैं। वे प्रेमी की इतनी खोज नहीं करतीं जितनी प्रेमी की प्रेयसियों की खोज करती हैं। उन दोनों ने पता लगा लिया और एक दिन नसरुद्दीन को फंसा लिया और नसरुद्दीन से कहा, आज तो हम दोनों को एक साथ जवाब दो। नसरुद्दीन ने कहा, गरीब आदमी को इस तरह मत फंसाओ। क्योंकि तुम दोनों अलग-अलग हो तो बड़ी सुविधा रहती है, इतनी देर में मैं चेहरा बदल लेता हूं। लेकिन उन दोनों ने तो उसे पकड़ लिया और कहा, तुम जवाब दो कि हम दोनों में सुंदर कौन है? नसरुद्दीन ने कहा, तुम एक से एक बढ़कर सुंदर हो, तुम एक दूसरे से बढ़कर सुंदर हो।

पता नहीं प्रेयसियां समझ पाईं कि नहीं। शायद ही समझ पायी होंगी, क्योंकि प्रेम से बुद्धि का बहुत कम संबंध है। पता नहीं आप भी समझ पाये कि नहीं! नसरुद्दीन कह रहा है, तुम एक दूसरे से बढ़कर सुंदर हो! क्या कहना! बड़ी गहरी मजाक नसरुद्दीन आदमी से कर रहा है। दोनों चेहरे एक साथ संभालने हों तो बेचारा क्या कर सकता है? गिरगिट हो गया वह। कह रहा है कि तुम दोनों एक दूसरे से बढ़कर हो।

चौबीस घंटे में हम चौबीस चेहरे बदल रहे हैं। चौबीस नहीं और ज्यादा बदलने पड़ते हैं, और यह चेहरों की बदलाहट तनाव पैदा करती है। टेंशन जो है वह चेहरों की बदलाहट है। जिस आदमी के पास एक चेहरा है उस आदमी को तनाव नहीं होता। तनाव का कोई कारण नहीं रहा। तनाव सदा होता है चेहरों को बार-बार बदलने से। इतनी बार बदलना पड़ता है कि बहुत मुश्किल हो जाती है और बीच-बीच जो गैप पड़ता है, जब आप एक चेहरे को उतार कर दूसरा लाते हैं तो बीच का जो गैप होता है वह बहुत एंग्जाइटी पैदा करता है; क्योंकि उस वक्त आपके पास कोई चेहरा नहीं होता है, उस वक्त आप बड़ी कठिनाई में होते हैं। वह ठीक कहता है अमरीकी अभिनेता, “टु स्टेप इन ए रोल इज ईजीअर बट टु स्टेप आउट इज आरडुअस।’ बाहर होना किसी रोल के बड़ा मुश्किल है, लेकिन हमें तो चौबीस घंटा करना पड़ता है। चेहरों को बदलना पड़ता है, बदलना पड़ता है, बदलना पड़ता है।

लेकिन आदमी बहुत होशियार है। जैसे पहले गाड़ियों में कन्वेंशनल गेयर था तो बदलना पड़ता था। अब ऑटोमैटिक गेयर है, उसे नहीं बदलना पड़ता। जो बहुत कुशल लोग हैं उनके पास ऑटोमैटिक गेयर हैं। वे चेहरे बदलते नहीं, चेहरे बदल जाते हैं। चेहरे के बदलने के हमने ऑटोमैटिक गेयर तय कर लिये हैं, अब हमें बदलना नहीं पड़ता। नौकर आया कि चेहरा बदला। मालिक आया कि चेहरा बदला। पत्नी आई कि चेहरा और हुआ। प्रेयसी आई कि चेहरा और हुआ। मित्र आया तो चेहरा और हुआ। अब चेहरा बदलता रहता है। पुराने आदमी को धार्मिक होने में बड़ी सुविधा थी। उसके पास कन्वेंशनल गेयर थे। उसको चेहरा बदलना पड़ता था, इसलिए यह भी पता चलता था कि मैं चेहरा बदल रहा हूं। आधुनिक सभ्यता ने कन्वेंशनल गेयर हटा दिये, जिनको बदलना पड़ता था। अब ऑटोमैटिक गेयर हैं। सभ्य आदमी और असभ्य आदमी में मैं इतना ही फर्क करता हूं, कन्वेंशनल गेयर और ऑटोमैटिक गेयर का, और कोई फर्क नहीं करता हूं।

असभ्य आदमी को चेहरा बदलना पड़ता है। बदलना पड़ने की वजह से उसे हर बार पता चलता है कि मैं कुछ कर रहा हूं। यह मैं क्या कर रहा हूं, उसे कठिनाई होती है। सभ्य आदमी का मतलब है, सभ्यता का अर्थ है, ऐसा प्रशिक्षण जो आपको चेहरे बदलने के कष्ट से बचा देता है। ऐसी शिक्षा जो आपको चेहरे बदलने के कष्ट से बचा देती है। और चेहरे अपने आप बदलने लगते हैं। इसलिए सभ्य आदमी का धार्मिक होना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसको चोरी का पता ही नहीं चलता। उसे गैप का पता ही नहीं चलता, वह जो दो चेहरों के बीच में क्षण गुजरता है, जहां खाली जगह छूट जाती है, उसका उसे पता नहीं चलता। तनाव तो बढ़ता जाता है सभ्य आदमी का, क्योंकि तनाव चेहरे बदलने से पैदा होता है। लेकिन यह चेहरे न बदलूं यह बोध पैदा नहीं होता, क्योंकि गेयर ऑटोमैटिक है। वह अपने आप हो जाता है, इसलिए जितना सभ्य आदमी, उतना धर्म से दूर जाता हुआ मालूम पड़ता है।

जीसस, बुद्ध या महावीर एक असभ्य दुनिया में पैदा हुए थे। सभ्य दुनिया में हम जीसस, बुद्ध और महावीर जैसे हैसियत के आदमी पैदा नहीं कर पा रहे हैं। उसके कारण हैं। बेचैनी तो उससे भी ज्यादा है। असभ्य आदमी इतना बेचैन नहीं था। बेचैनी तो बहुत है, लेकिन यह पता नहीं चलता कि बेचैनी क्यों है? बेचैनी क्यों है, इसका हमें बोध कम हो गया।

तो मैं आप से कहना चाहूंगा अचौर्य को समझने के लिए अपने चेहरे बदलने के प्रति आपको सजग होना पड़ेगा। सजग होने की एक तरकीब है और सजग होने का एक अर्थ है। आप जितने सजग होते हैं किसी भी चीज के प्रति, उसकी गति कम हो जाती है।

कभी आपने फिल्म देखी है। उसकी कभी मशीन बिगड़ जाये, मशीन के बिगड़ने का मतलब क्या? मशीन धीमी चलने लगे, प्रोजेक्टर धीमा चलने लगे तो परदे पर फिल्म की गति क्षीण हो जाती है। तो जो आदमी एकदम से हाथ उठाता मालूम पड़ रहा था परदे पर, फिर दस आदमी धीरे-धीरे हाथ उठाते हुए मालूम पड़ते हैं और हाथों के बीच गैप हो जाता है। जब मैं भी हाथ उठाता हूं तो यह हाथ एक झटके में नहीं उठता, सिर्फ आपकी आंख इतनी गति को पकड़ नहीं पाती अन्यथा हाथ को बीस पोजीशन लेनी पड़ती इतने हटने में। लेकिन अगर गौर से देखें, और मशीन आपकी थोड़ी धीमी हो जाये…और गौर से देखने से धीमी हो जाती है। किसी भी चीज को अगर बहुत गौर से देखें तो प्रक्रिया धीमी हो जाती है, दो कारण से। क्योंकि गौर से देखने के लिए पहले तो आपको खड़ा होना पड़ता है। आपको रुकना पड़ता है। अगर आप अपने चेहरे बदलने की प्रक्रियाओं को गौर से देखें तो प्रक्रिया धीमी हो जाएगी और आप देख सकेंगे कि कब आपका चेहरा बदला और अपने पर हंस सकेंगे कि चेहरा बदल लिया गया।

अचौर्य के महाव्रत में आप अपने चेहरे बदलने को देखना। एक आदमी दूकान से मंदिर की ओर जा रहा है। उसे पता रखना चाहिए कि कब उसने चेहरा बदला, किस स्टेप पर, मंदिर की किस सीढ़ी पर चेहरा बदला गया। दूकान पर वही तो चेहरा नहीं था जो मंदिर में होता है, बदलाहट कहीं तो हुई है जरूर। कहीं उसने चेहरा बदला है। पुरुष वेनीटी बैग वगैरह साथ नहीं रखते, स्त्रियां साथ रखती हैं। बस से उतरने के पहले चेहरा बदलती हैं, साथ में इंतजाम भी रखती हैं। वैसा बहुत भीतरी इंतजाम हम सबके पास है–जहां से हम चेहरे निकालते हैं और बदलते हैं। जब आप घर से मंदिर की तरफ जा रहे हैं तब आप जरा होशपूर्वक जानना कि चेहरा किस जगह बदलता है। किस जगह दूकानदार हटता है और साधक आता है। किस जगह दूकान पर बैठा हुआ आदमी जाता है और मंदिर में प्रवेश करने वाला आदमी आता है। जहां आप जूते उतारते हैं मंदिर के बाहर वहीं तो यह परिवर्तन नहीं होता? जरूरी नहीं है कि वहीं हो। असल में जूते उतरवाये इसलिए जाते हैं वहां कि कृपया अब चेहरा बदलो, अब वह जगह आ गयी जहां आपका पुराना ढंग नहीं चलेगा, जूता यहां उतारो! जहां लिखा रहता है “कृपया जूता यहां’ वहीं नीचे तख्ती होनी चाहिए “कृपया चेहरे यहां’। कई लोग अपने चेहरे लिये भीतर घुस जाते हैं। जूता लिये मंदिर में चले जायें उतनी अपवित्रता नहीं होगी, चेहरा लिये चले गये तो ज्यादा होगी। लेकिन उसका किसी को पता नहीं चलता।

आपको मैं कहना चाहूंगा कि जब आप चेहरे बदलते हैं तो आप जरा होश रखना कि आप कब बदलते हैं। और इसका बड़ा मजा होगा। अब तक आप दूसरों पर हंसे हैं, तब आप अपने पर हंसना शुरू हो जायेंगे। और जब आप जान कर चेहरा बदलेंगे तो चेहरा बदलना मुश्किल हो जायेगा, और धीरे-धीरे आप कहेंगे कि यह क्या पागलपन है? यह मैं क्या अभिनय कर रहा हूं?

धीरे-धीरे चेहरा बदलना कठिन हो जायेगा और जिस दिन चेहरा बदलना कठिन होगा और बीच का अंतराल बढ़ेगा, और कभी-कभी आप बिना चेहरे के रह जायेंगे तब आप का ओरिजिनल फेस जन्मेगा। आपके भीतर आपका चेहरा आना शुरू होगा।

तो एक तो चौबीस घंटे बदलते हुए चेहरों का खयाल रखना, और दूसरा किसी का चेहरा–महावीर का, बुद्ध का, कृष्ण का, क्राइस्ट का, अपना बनाने की कोशिश मत करना। भूल कर मत करना। अनुयायी बनना ही मत, अन्यथा चोर बने बिना कोई उपाय ही नहीं है।

अनुयायी दो चोरी करता है। चेहरा चुराता है जो बहुत सिनसियर अनुयायी होता है। कहना चाहिए जो बहुत सिनसियर चोर होता है, जो बहुत ईमानदारी से चोरी करता है, वह चेहरे चुराता है। जो बेईमानी से चेहरे चुराता है वह चेहरे नहीं चुराता, सिर्फ विचार चुराता है। वह महावीर का चेहरा नहीं ओढ़ता, सिर्फ महावीर का विचार पकड़ लेता है। पंडित के पास सिर्फ विचार की चोरी होती है, तथाकथित साधु के पास चेहरों की चोरी होती है।

तो ध्यान रखना, कुछ कमजोर चोर हैं। वह कहते हैं, चेहरा तो मुश्किल है महावीर का लगाना, लेकिन अहिंसा परमधर्म है, यह तो हम अपने भीतर लिख ही सकते हैं। महावीर का शास्त्र तो पढ़ ही सकते हैं। कृष्ण का चेहरा लगाकर तो जरा कठिनाई है, लेकिन कृष्ण की गीता तो कंठस्थ कर ही सकते हैं।

तो दो तरह की चोरी है–विचार की, चेहरे की। चेहरे की चोरी वाले आदमी को हम बहुत सिनसियर चोर और ईमानदार चोर कहते हैं। क्योंकि इस बेचारे आदमी ने जैसा विचारा वैसा किया भी। ध्यान रखें, जिसने विचार से कुछ किया है वह आदमी चेहरा ओढ़ लेगा। धर्म का कोई संबंध किसी सिद्धांत को तय करके उसके अनुसरण करने से नहीं है। नहीं तो बेंजामिन फ्रेंकलिन वाली घटना घटेगी, एपियरेंसेज पैदा हो जायेंगे, दिखावे पैदा हो जायेंगे।

अक्सर हम कहते हैं, जो विचारते हो उसके अनुसार आचरण करो। यह चोर बनाने का सूत्र है, लेकिन सिनसियर, ईमानदार चोर इससे पैदा होते हैं। हम लोगों से कहते हैं, जो विचारते हो उसका आचरण भी करो, पर हमें पहले यह तो पता लगा लेना चाहिए कि कहीं विचार चोरी से तो नहीं आया है? अन्यथा आचरण और भी गहरी चोरी में ले जायेगा। जब हम किसी से कहते हैं कि इस आदमी का विचार और आचरण बिलकुल एक-सा है, तब हमें पूछ लेना चाहिए कि इसके आचरण से इसका विचार आया है, या इसके विचार से इसका आचरण आया है। अगर इसके आचरण से इसका विचार आया है तब तो यह धार्मिक आदमी है, अगर इसके विचार से इसका आचरण आया है तो यह आदमी चोर है। मगर यह फर्क एकदम से दिखाई नहीं पड़ता।

जब आचरण से कोई विचार आता है, तब उसकी सुगंध और है, क्योंकि आचरण आत्मा से आता है। जब किसी विचार से आचरण आता है तो विचार, शास्त्र से आता है। शास्त्र से आया हुआ विचार खुद भी चोरी है, फिर शास्त्र से आये हुए विचार के अनुसार जीवन को ढाल लेना और बड़ी चोरी है। और जो इस तरह की चोरियों में भटक जाते हैं वे आत्मा को खो देते हैं। उन्हें पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि वे कौन हैं?

नहीं, मैं नहीं कहता हूं कि विचार के अनुसार आचरण। मैं कहता हूं, आचरण के अनुसार विचार। बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे आप, क्योंकि आचरण कहां से लायें? अगर विचार के अनुसार आचरण हो तो विचार तो मिल सकते हैं, आचरण कहां से लायें! आचरण की कोई दूकान नहीं है। आचरण कहीं बिकता नहीं। विचार तो बिकते हैं। विचारों की तो किताबें हैं। आचरणों की कोई किताबें नहीं। आचरण का कोई शास्त्र नहीं है। इसलिए आचरण आप कहां से लायेंगे? अगर महावीर से लायेंगे तो फिर विचार से आया, बुद्ध से लायेंगे तो विचार से आया, कृष्ण से लायेंगे तो विचार से आया। आचरण कहां से लाइयेगा? अगर किसी दूसरे से लायेंगे तो पहले विचार आयेगा। अगर अपने से लायेंगे तो बात और हो जायेगी। तब पहले विचार नहीं आयेगा, पहले अनुभव आयेगा।

अगर चोर आचरण है आपका, तो कृपा करके चोर जैसा विचार करिये। इसमें एक सरलता होगी। आपका आचरण चोर का है, तो चोर जैसा ही विचार करिये। और मैं आपसे कहता हूं कि अगर आपका आचरण चोर का है और विचार भी चोर का है तो आप चोरी के बाहर हो जायेंगे! अगर आपका आचरण चोर का है और विचार अचौर्य का है तो आप चोरी के बाहर कभी नहीं होंगे। क्योंकि आप कहेंगे आचरण तो बाहरी चीज है, असली चीज तो विचार है। ऐसे तो मैं अचोर हूं, मजबूरियों में चोर बन जाता हूं। तो धीरे-धीरे साध लूंगा, आचरण भी बदल लूंगा। जब विचार बदल गया तो आचरण भी बदल जायेगा–व्रत ले लूंगा, कसम खा लूंगा। तो आप जिंदगी भर पोस्टपोन करते रहेंगे, क्योंकि आप भीतरी रूप से अनुभव करेंगे कि विचार तो अचोरी का है। ऐसे तो आदमी मैं भीतर से अच्छा हूं। ऐसी बाहर की परिस्थितियां हैं, कारण हैं, जो चोर बना देते हैं, चोर मैं हूं नहीं।

यह ध्यान रखें आप कि आपका जो व्यवहार है, वह बहुत दूर है आपसे। आपका जो विचार है वह बहुत निकट है। इसलिए अगर हम किसी आदमी को उसके विचार में गलती बतायें तो वह मानने को राजी नहीं होता। अगर हम किसी आदमी को कहें कि तुम्हारे पैर में फोड़ा है, वह झंझट नहीं करता, वह कहता है, इलाज बताइये! लेकिन हम किसी आदमी से कहें कि तुम्हारे मन में रोग है, तो वह लड़ने को तैयार हो जाता है, वह कहता है, आपकी गलती है देखने में।

शरीर के रोग को आदमी स्वीकार कर लेता है, वह बहुत दूर है। मन के फोड़े को वह स्वीकार नहीं करता, वह बहुत निकट है। मन के फोड़े पर चोट उस पर ही चोट है। तो हमने एक तरकीब की है। एक टेक्नीकल तरकीब है हमारी कि हम विचार अच्छे करते हैं, आचरण बुरा करते हैं। इससे सुविधा रहती है। सुविधा यह रहती है कि हम अपने भीतर मानते ही चले जाते हैं कि हम आदमी अच्छे हैं। अगर आपको मैं गाली दूं तो मैं यह नहीं कहूंगा कि मैं गाली देने वाला आदमी हूं; मैं कहूंगा, मैं तो गाली कभी नहीं देता, लेकिन इस आदमी ने गाली दी इसलिए मुझे गाली देनी पड़ी। यही आदमी जिम्मेदार है मेरी गाली को पैदा करवाने में। जब आप किसी से लड़ते हैं तो आप यह नहीं कहते हैं कि लड़ाई मेरे भीतर है। आप कहते हैं, इस आदमी ने लड़ाई की सिच्युएशन पैदा कर दी। मुझे लड़ना पड़ा। ऐसे आदमी मैं लड़ने वाला नहीं हूं। और इसको आप विश्वास भी दे लेंगे क्योंकि भीतर आप कभी लड़ने का विचार तो करते नहीं। विचार तो सदा अहिंसा, अचोरी, अपरिग्रह का करते हैं। शास्त्र तो अहिंसा, अचोरी, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य का पढ़ते हैं। तो विचार तो बड़े अच्छे हैं। आचरण! तो आचरण के लिए दूसरा जिम्मेदार हो जाता है। आप बच जाते हैं। फिर एक और सुविधा होती है, जब विचार अच्छे हैं तो आज नहीं कल ताकत जुटा कर, संकल्प पैदा करके, स्थिति ठीक बनाकर, आचरण भी बदल लेंगे। तो पोस्टपोनमेंट किया जा सकता है।

ध्यान रहे, जिस आदमी को जिंदगी में ट्रांसफार्मेशन लाना हो उसे पोस्टपोनमेंट से बचना चाहिए। स्थगन से बचना चाहिए। वह बहुत कनिंग, बहुत चालाक तरकीब है। एक आदमी कहता है, मैं हूं तो अभी हिंसक लेकिन अहिंसा को मानता हूं। धीरे-धीरे अहिंसक हो जाऊंगा। वह कहेगा, कल हो जाऊंगा, परसों हो जाऊंगा। इस जन्म में हो जाऊंगा, अगले जन्म में हो जाऊंगा, वह उसे पोस्टपोन करता जायेगा और रहेगा हिंसक। लेकिन हिंसक होने की जो पीड़ा है उससे बच जायेगा; क्योंकि अहिंसक होने की आशा उसकी पीड़ा को कम कर देगी। वह कंसोलेटरी है।

तो मैं कहता हूं, चोरी करना तो चोरी का विचार भी करना। और जितने अचोरी के शास्त्र हों उनमें आग लगा देना। और घर में दीवालों पर लिखना कि चोरी परमधर्म है। और अपने हृदय में जानना कि चोरी परम कर्तव्य है। जो चोरी नहीं करता है वह गलती करता है।

अगर आप विचार भी चोरी का करें और आचरण भी चोरी का करें तो आप अपने साथ जी न सकेंगे। क्योंकि तब अपने चोर के साथ कोई भी नहीं जी सकता। और आप पक्के चोर हो जायेंगे। पूरे चोर हो जायेंगे। इसके साथ जीना मुश्किल हो जायेगा। आपकी पूरी पर्सनैलिटी, आचरण में, विचार में, आपका पूरा व्यक्तित्व चोर हो जायेगा। और आपकी आत्मा को इस चोर के साथ जीना मुश्किल हो जायेगा। एक क्षण जीना मुश्किल है।

लेकिन जीने की तरकीब है। वह तरकीब यह है कि हम कल ठीक कर लेंगे। विचार तो अच्छे हैं, आचरण बुरा है। आचरण दूसरों के कारण बुरा है, इस तरह के खयाल को बहुत तरह के प्रमाण भी मिल जाते हैं। जैसे एक आदमी जंगल में चला जाये तो वहां क्रोध नहीं करता। वह कहता है, देखो, क्रोध दूसरे लोग करवाते थे। अब मैं जंगल में आ गया, अब मैं कहां क्रोध कर रहा हूं!

इसलिए साधु जंगल की तरफ भागता है। वहां उसे आश्वासन हो जाता है कि मैं बिलकुल अच्छा आदमी हूं, मैं पहले भी अच्छा आदमी था, बुरे लोगों के बीच में घिरा था, इसलिए सब गड़बड़ हो रही थी। इसलिए पति पत्नी को छोड़कर भाग जाता है और सोचता है, देखो अब तो मैं माया-मोह के बाहर हो गया। उस स्त्री की वजह से माया-मोह पैदा हो रहा था। इसलिए पुरुष शास्त्रों में लिखते हैं, स्त्री नरक का द्वार है! भागे हुए स्त्री से, भाग गये हैं छोड़कर, अब वह कह रहे हैं, स्त्री नरक का द्वार है। क्योंकि वही उलझा रही थी, मैं तो सदा ही मुक्त था, इसके लिए कारण मिल जाते हैं।

अगर हम किसी कुएं में बाल्टी डालें और उसमें पानी न हो तो बाल्टी पानी बाहर नहीं ला सकती। बाल्टी उसी पानी को लाती जो कुएं में होता है। बाल्टी सिर्फ बाहर लाने का काम करती है। जब मैं आपको गाली देता हूं तो मेरी गाली आप में क्रोध पैदा नहीं कर सकती। गाली में क्रोध पैदा करवाने की ताकत ही नहीं है। लेकिन आपके भीतर जो क्रोध के पानी का कुआं भरा हुआ है, गाली बाल्टी बन जाती है, आपके क्रोध को बाहर ले आती है। गाली जो है वह प्रोडक्टिव नहीं है, वह सिर्फ मेनीफेस्टिंग है। वह किसी चीज को पैदा नहीं करती सिर्फ अभिव्यक्त करवाती है। लेकिन एक कुएं में बाल्टी न डाली जाये तो कुआं समझेगा अब पानी है ही नहीं, अब निकालता ही नहीं। वह बाल्टी का कसूर था कि बाल्टी भीतर आती थी और पानी की गड़बड़ पैदा होती थी। मैं तो सदा से खाली हूं, पानी है ही नहीं। देखो, अब कोई बाल्टी नहीं आती। अब कहां पानी निकल रहा है?

हम सब इसी भ्रम में हैं, अकेले में पता नहीं चलता। असल में हमारे व्यक्तित्व का पता ही हमें दूसरों के साथ चलता है। जब हम दूसरे के साथ हैं तभी पता चलता है कि हमारे भीतर क्या-क्या है। दूसरा मौका बनता है, हमें प्रकट होने का।

इसलिए कृपा करके दूसरे को जिम्मेदार मत ठहराना। जिसने भी इस दुनिया में दूसरे को जिम्मेदार ठहराया वह आदमी धार्मिक नहीं हो पाया है। धार्मिक आदमी का मतबल है, टोटल रिस्पांसिबिलिटी इज माइन। टोटल, पूरा का पूरा दायित्व मेरा है। अधार्मिक आदमी का मतलब है कि दायित्व किसी और का है, मैं तो भला आदमी हूं, लोग मुझे बुरा किये दे रहे हैं। कोई आपको बुरा नहीं कर रहा है।

दूसरी तरकीब, आप भीतर अच्छे विचार करते रहते हैं इसलिए आप भीतर जानते हैं कि भीतर तो मैं अच्छा हूं। जब दूसरों के संबंध में आता हूं तो बाहर बुरा हो जाता हूं। इसलिए यह बाहर से बुरा होना दूसरे के कारण है। अच्छे विचार से बचना, अगर अच्छे आचरण को जन्म देना हो। अगर बुरा आचरण है, कृपा करके बुरा विचार करना, पूरी तरह बुरे हो जाना। पूरी तरह बुरे आदमी के साथ जीना मुश्किल है। आधे अच्छे आदमी के साथ जीने की सुविधा बनायी जा सकती है। आधा अच्छा आदमी बुरे आदमी से भी बुरा है। आधे सत्य पूरे असत्यों से बुरे होते हैं। क्योंकि पूरे असत्य से मुक्त हो जायेंगे आप, आधे असत्य से कभी मुक्त नहीं हो सकते। क्योंकि वह जो आधा सत्य है वह बंधन का काम करेगा।

तो मैं आपसे कहूंगा, विचार के अनुसार आचरण मत बनाना। आचरण के अनुसार ही विचार करना। ताकि चीजें साफ हों और अगर चीजें साफ हुईं तो कोई भी आदमी इस दुनिया में बुरे आदमी के साथ नहीं जी सकता। आप भी अपने बुरे आदमी के साथ नहीं जी सकते। और एक दफा यह पता चल जाये कि मैं एक बुरी पर्त के साथ जी रहा हूं तो इस पर्त को उखाड़ फेंकने में उतनी ही आसानी होगी जैसे पैर से कांटा निकालने में होती है। इस बुरी पर्त को फेंक देने में, इस व्यक्तित्व को, इस पर्सनालिटी को, इस प्याज की पर्त को उखाड़ कर फेंक देने में उतनी ही आसानी होगी जैसे शरीर से मैल को अलग कर देने में होती है।

लेकिन अगर कोई आदमी अपने मैल को सोना समझ रहा हो तब कठिनाई हो जाती है। कोई आदमी अपनी बीमारी को अगर मूल्य दे रहा हो, आभूषण समझ रहा हो, तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। अब अगर हम किसी बच्ची की नाक को छेदें तो उसे तकलीफ होगी, लेकिन सोने के आभूषण की आकांक्षा में नाक छिदवाने के लिए कोई भी तैयार हो जाता है। अब शरीर को छेदना पागलपन है। लेकिन सोने की आशा में हम पागलपन करने को भी तैयार हो जाते हैं। अब शरीर को छेदना कुरूपता है, लेकिन सौंदर्य के खयाल में, भ्रम में, हम शरीर को छेदने को राजी हो जाते हैं।

हम बुरे होने को राजी हो गये हैं, क्योंकि बुरे होने के पीछे हम सोने की कील लगाये हुए हैं विचारों की। विचार के अनुसार आचरण कभी मत करना, आचरण के अनुसार विचार करना और तब आपके व्यक्तित्व की सीधी और सच्ची सफाई हो जायेगी। आप जो होंगे वही होंगे, धोखे का उपाय नहीं रह जायेगा। दूसरे के धोखे का डर नहीं है, अपने को धोखा देने का उपाय नहीं रह जायेगा। आप अपने चेहरों को पहचान सकेंगे। और जिस दिन यह चेहरे चारों तरफ से पहचान में आ जाते हैं और इनकी कुरूपता, इनकी गंदगी और इनकी दुर्गंध, इनका कोढ़, जब चारों तरफ से दिखाई पड़ने लगता है, बाहर और भीतर, तब आप इसके साथ रह नहीं सकते। यह ऐसे ही हो जाता है, जब किसी के कपड़ों में आग लगी हो और वह अपने कपड़ों को फेंक कर नग्न हो जाये। ठीक ऐसे ही ट्रांसफार्मेशन होता है। ऐसे ही क्रांति घटित होती है। जब सारा व्यक्तित्व रुग्ण और आग लगा मालूम होता है तब आप उसे फेंक देते हैं। उसे फेंकने के लिए फिर एक क्षण भी विचार नहीं करना पड़ता कि कल फेंकूंगा। ऐसा नहीं है…।

बुद्ध के पास कोई आया और उसने कहा कि महाराज कुछ उपदेश दें। तो बुद्ध ने कहा, करोगे अभी कि कल? उसने कहा, अभी तो बहुत मुश्किल है। तो बुद्ध ने कहा, फिर कल ही आना। जिस दिन करना हो उसी दिन आ जाना। उसने कहा कि नहीं आप उपदेश तो दे दें। वक्त पर काम पड़ेगा, आप मिले न मिले। कभी उपयोग में जरूर लाऊंगा।

बुद्ध ने कहा कि मैं एक गांव से गुजरता था और घर में आग लग गई थी। मैंने उस घर के लोगों को कहा, अभी मत भागो कल भाग जाना। वे कहने लगे, पागल हो गये हो तुम! घर में आग लगी है, कल तक कैसे रुका जा सकता है। तो बुद्ध ने कहा कि जहां तक मैं समझता हूं, तुम जो हो अभी मानते हो कि ठीक हो, इसलिए कल तक ठहरा सकते हो। और जब तुम ठीक ही हो तो मुझे क्यों परेशान करते हो? मैं क्यों व्यर्थ की बातें तुमसे कहूं? जिस दिन तुम्हें पता लगे कि तुम ठीक नहीं हो…। नहीं, उस आदमी ने कहा, मुझे पता तो है मैं ठीक नहीं हूं। आदमी अच्छा नहीं हूं, बुरे काम करता हूं, लेकिन आत्मा तो शुद्ध-बुद्ध है। आत्मा तो शुद्ध ही है सदा। यह सब आचरण, तो आचरण बदल लूंगा, आप उपदेश करें।

हम सब उपदेश ग्रहण करने को बहुत आतुर और उत्सुक हैं। फिर हम सोचते हैं, उसके अनुसार आचरण बना लेंगे। यह आचरण वैसा ही होगा जैसा मंच पर अभिनेता का होता है। पहले उसे स्क्रिप्ट मिल जाती है, पहले उसे ढांचा मिल जाता है नाटक का, फिर उसको कंठस्थ करता है। फिर रिहर्सल करता है। फिर आकर मंच पर दिखा देता है करके कि यह रहा।

अभिनय का मतलब है विचार के अनुसार आचरण, लेकिन आत्मा का मतलब कुछ और है, आचरण के अनुसार विचार। अगर बुरा आचरण है तो बुरा विचार ही करना। टूट जाएंगे आप। आप का व्यक्तित्व बच नहीं सकेगा, बिखर जाएगा। और जिस दिन आपका पुराना व्यक्तित्व पूरा बिखर जाएगा उस दिन उस खाली जगह में उसका जन्म होगा जो आपका असली चेहरा है।

जापान में झेन फकीरों के पास अगर कोई जाता है तो वे बहुत से सवाल उससे पूछते हैं। उनमें से एक सवाल यह भी है कि कृपा करके अपना ओरिजिनल चेहरा प्रकट कीजिए, अपना असली चेहरा दिखाइये? अब नया आदमी आया है उससे कोई फकीर कहता है, असली चेहरा दिखाइये? तो वह कहता है, यही मेरा चेहरा है। तो फकीर कहता है, अगर यही तेरा चेहरा है तो यहां आने की कोई जरूरत नहीं। जा खोज–असली चेहरा लेकर आ। कभी-कभी कुछ हिम्मतवर लोग असली चेहरा लेकर आ जाते हैं। लेकिन वे फकीर भी बहुत अदभुत हैं, वे कहे ही चले जाते हैं कि माना कि यह पिछले से ज्यादा आथेंटिक है, पिछले वाले से ज्यादा गहरा है, लेकिन फिर भी असली नहीं है। अपना असली लेकर आ। उस चेहरे को ला, जो जन्म के पहले तेरे पास था और मौत के बाद तेरे पास होगा। जन्म के पहले कौन-सा चेहरा तेरे पास था, उसे ले आ। या मरने के बाद तेरे पास फिर जो चेहरा होगा, उसे ले आ। कृपा करके यह बीच के चेहरों को यहां मत ला। और जब कोई आदमी आकर बैठ जाता है फेसलेस, बिना चेहरे के, तो वह फकीर कहता है, ठीक है, अब तू असली जगह आ गया।

बड़ी उपलब्धि है फेसलेसनेस। लेकिन हम बहुत डरते हैं। अगर चेहरा खो जाये तो हम बहुत डरते हैं, हम पूछते हैं इससे बड़ी मुश्किल हो गई। फिर हम जल्दी चेहरा बनाने में लगते हैं।

चेहरा खोना ही चाहिए अगर चोरी खोनी है। और वह क्षण आना ही चाहिए जहां आपको पक्का न रह जाये कि मैं कौन हूं। अगर आपको जानना है कि आप कौन हैं, चोर चेहरों को हटाइए, चाहे महावीर से लिये हों, चाहे बुद्ध से, चाहे कृष्ण से, चाहे मुसलमान के, चाहे जैन के, चाहे हिंदू के। उन चेहरों को हटाइए और उसको खोजिए जो आपका है। और जिस दिन आपके सारे चेहरे गिर जायेंगे, अचानक आपके सामने वह रूप प्रगट हो जाता है जो आपका है। जैसे ही वह रूप प्रकट होता है आप अचौर्य को उपलब्ध हो जाते हैं। और जिस आदमी ने व्यक्तित्व चुराने बंद कर दिए, जिसने चेहरे चुराने बंद कर दिए, जिसने आचरण चुराने बंद कर दिए, वह आदमी वस्तुएं नहीं चुरा सकता। वह असंभव है। वह असंभव है, उसका कोई उपाय नहीं रह जाता। जिसने इतनी गहरी चोरियां छोड़ दीं, वह इन क्षुद्र चोरियों के लिए नहीं जाएगा; लेकिन हम क्षुद्र चोरियां छोड़ने में लगे रहते हैं।

एक मित्र मेरे पास आये, उन्होंने मुझसे कहा कि मैं रिश्वत नहीं लेता हूं। बड़े आफिसर हैं। मैंने कहा, अगर पांच रुपये कोई देने आये? उन्होंने कहा, क्या आप फिजूल की बातें करते हैं। मैं लेता ही नहीं रिश्वत। मैंने कहा, कोई पांच सौ देने आये? उन्होंने उतने जोर से नहीं कहा कि क्या फिजूल की बातें करते हैं। उन्होंने कहा, नहीं, नहीं, मैं लेता ही नहीं हूं। मैंने पूछा, अगर कोई पांच हजार रुपया लेकर आये? तो उन्होंने मुझे गौर से देखा, संदेह उनके मन में आ गया। मैंने कहा, अगर कोई पांच लाख लेकर आये? उन्होंने कहा, फिर सोचना पड़ेगा।

तो हमारे चोर होने में हो सकता है मात्राएं हों, डिग्रीज हों। हो सकता है आप दो पैसे न चुराते हों, लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि आप अचोर हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है कि आपने दो पैसे चुराये कि दो लाख चुराये। चोरी में कोई मात्रा हो सकती है? चोरी कम और ज्यादा हो सकती है? दो पैसे की चोरी कम और दो लाख की ज्यादा! दो पैसा कम होंगे, दो लाख ज्यादा होंगे, चोरी तो एक-सी है। चोरी कैसे भिन्न, कम और ज्यादा हो सकती है? चोरी का एक्ट तो टोटल है। दो पैसे चुराऊं तो भी मैं उतना ही चोर होता हूं जितना दो लाख चुराऊं।

तो यह हो सकता है आपके चोरी के अपने मापदंड हैं, मेरे चोरी के अपने मापदंड हैं। मैं दो पैसे चुराता हूं, आप दो लाख चुराते हैं। दो लाख चुरानेवाले, दो पैसे चुराने वाले को जेल में बंद कर सकते हैं। कर सकते हैं, क्योंकि दो पैसा वाले अभी जेल नहीं बना सकते, दो लाख वाले जेल बना सकते हैं। दो लाख वाले चोरों को पकड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि दो लाख वाले चोर दो लाख रुपया किसी को भी चोरी में दे सकते हैं। तो जो मजिस्ट्रेट दो पैसेवाले चोर को सजा दे दे, वह दो लाख वाले चोर को कैसे सजा दे? क्योंकि तब तक तो वह मजिस्ट्रेट भी चोर हो जाएगा। दो लाख के लिए तो वह भी चोरी को राजी हो सकता है। तो बड़े चोर छोटे चोरों को फंसाये चले जाते हैं। बड़े चोर दीवारों के बाहर, छोटे चोर दीवारों के भीतर। होशियार चोर दीवारों के बाहर, नासमझ चोर दीवारों के भीतर। लेकिन पूरा समाज चोर है।

और यह चोरी जब तक हम वस्तुओं के संबंध में ही सोचते रहेंगे तब तक मिटनेवाली नहीं है। यह हो सकता है कि मैं सब छोड़ कर भाग जाऊं और कहूं कि मैं चोरी नहीं करूंगा। लेकिन मेरा भोजन कोई चोर लायेगा, मेरे कपड़े कोई चोर लायेगा, मेरे रहने का आश्रम कोई चोर बनायेगा। इससे क्या फर्क पड़ता है। सिर्फ मैं और भी होशियार चोर हूं। मैं खुद चोरी नहीं करता हूं, दूसरे से करवाता हूं। और कोई फर्क नहीं पड़ जाएगा। लेकिन मैं जिम्मेदारी के बाहर नहीं भाग सकता। चोरी है, समाज चोर है, समाज चोर रहेगा। तब तक, जब तक हम चोरी को वस्तुओं की चोरी समझ रहे हैं। समाज चोर है, क्योंकि हमने बहुत गहरे में सबको चोर होने की ही शिक्षा दी है।

हम एक बच्चे से कहते हैं कि विवेकानंद जैसे हो जाओ। अब इस बच्चे का क्या कसूर है कि विवेकानंद जैसा हो जाये? विवेकानंद बहुत भले थे, लेकिन इस बच्चे की कौन-सी गलती कि विवेकानंद हो जाये? और अगर हो गया तो चोर हो जाएगा। हम कहते हैं, महावीर जैसे हो जाओ। अब कोई गलती की है आपने पैदा होकर? अगर महावीर को ही सिर्फ पैदा होने का हक है पृथ्वी पर तो अब तक दुनिया खतम हो जानी चाहिए। वह हो चुके पैदा, मामला खतम हो गया। अब आपके होने की क्या जरूरत है? तो महावीर की कार्बन कापियों को दुहराने की क्या जरूरत है? जब ओरिजिनल ही हो गई तो अब फिजूल की और मेहनत किस लिए कर रहे हैं? एक महावीर काफी!

नहीं, किसी आदमी को कार्बन कॉपी होने की जरूरत नहीं है। व्यक्तित्व चुराने से बचना, आचरण चुराने से बचना, तब किसी दिन आपकी अपनी आत्मा प्रकट होगी जो अचौर्य को उपलब्ध होती है। और उसके बाद वस्तुओं को तो चुराने का सवाल ही नहीं उठता। वह सवाल ही नहीं है।

यह थोड़ी-सी बातें मैंने कहीं। यह आप कोशिश करने में मत लग जाना अन्यथा यह मेरा उधार विचार हो जाएगा और चोरी शुरू हो जाएगी। चोरी के बहुत सूक्ष्म रास्ते हैं। हो सकता है आप कहें कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, चलें अब यही करें, चोरी शुरू हो गई। कृपा करके यही मत करना जो मैं कह रहा हूं। मैं जो कह रहा हूं उसे समझ लेना, और छोड़ देना। समझ आपके पास रह जाये, विचार नहीं। परफ्यूम रह जाये, फूल नहीं। मैंने जो बात कही वह समझ लेना, फिर उसे यहीं छोड़ जाना। बात से कोई लेना-देना नहीं, समझ आपके साथ चली जाएगी। वह समझ आपकी जिंदगी को बदले तो बदलने देना, न बदले तो न बदलने देना। कृपा करके ऊपर से थोपने की कोशिश मत करना, अन्यथा चोरी जारी रहेगी। और अचोरी कभी उपलब्ध नहीं हो सकती।

कल चौथे सूत्र अकाम पर हम बात करेंगे। मैंने कहा कि जब हिंसा रूप लेती है तो उसका एक रूप परिग्रह है और जब परिग्रह पागल होता है, विक्षिप्त होता है, तो उसका एक रूप चोरी है। कल अकाम की बात करेंगे। अकाम तीनों का आधार है। काम, वासना, डिजायरिंग, चाह, वह हिंसा का भी आधार है। वह परिग्रह का भी आधार है। वह चोरी का भी आधार है। काम इन तीनों के नीचे बैठा है और सरका हुआ है, सबकी जड़ में वह है। कल हम काम को समझेंगे और परसों अप्रमाद को।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

आज इतना ही।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–1)–प्रवचन–13

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आत्‍यंतिक केंद्र में प्रवेश—(प्रवचन—तेहरवां)

सूत्र:

 18—किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो;

दूसरे विषय पर मत जाओ।

यहीं विष्‍यय के मध्‍य में—आंनद।

      19—पावों या हाथों का सहारा दिया बिना सिर्फ नितंबों

            पर बैठो। अचानक केंद्रित हो जाओगे।

      20—किसी चलते वाहन में लयबद्ध झूलने के द्वारा,

            अनुभव को प्राप्‍त हो।

         या किसी अचल वहन में अपने को मंद से मंदतर हो

            अदृश्‍य वर्तुलों में झूलने देने से भी।

      21—अपने अमृत—भरे शरीर के किसी अंग को सूई से

            भेदो और भद्रता के साथ उस भेदन में प्रवेश करो,

            और आंतरिक शुद्धि को उपलब्‍ध होओ।

नुष्‍य का शरीर एक रहस्यमय यंत्र है। और यह दो आयामों में काम करता है। बाहर जाने के लिए तुम्हारी चेतना इंद्रियों के द्वारा यात्रा करती है और संसार से, पदार्थ से मिलती है। लेकिन यह तुम्हारे शरीर के सिर्फ एक आयाम का काम हुआ। तुम्हारे शरीर का एक दूसरा आयाम भी है—वह तुम्हें भीतर ले जाता है। जब चेतना बाहर जाती है तो वह पदार्थ को जानती है। और जब वही चेतना भीतर जाती है तो वह अपदार्थ को जानती है।

यथार्थत: तो कोई विभाजन नहीं है, पदार्थ और अपदार्थ एक हैं। यह सत्य आंख से, इंद्रियों से देखे जाने पर पदार्थ की भांति मालूम होता है। और यही सत्य भीतर. से देखे जाने पर—इद्रियों द्वारा नहीं, बल्कि केंद्र के द्वारा देखे जाने पर—अपदार्थ की भांति मालूम होता है। सत्य तो एक है, लेकिन तुम उसे दो ढंग से देख सकते हो। एक इंद्रियों के द्वारा और दूसरा अतींद्रिय द्वारा।

ये जो केंद्रित होने की विधियां हैं वे तुम्हें तुम्हारे भीतर उस बिंदु पर ले जाने के लिए हैं जहां इंद्रियों का कोई काम नहीं रहता, जहां तुम इंद्रियों के पार चले जाते हो। इन विधियों में प्रवेश करने के पहले तीन चीजें समझने जैसी हैं।

पहली बात। जब तुम आंखों से देखते हो तो आंखें नहीं देखती हैं, वे मात्र देखने के द्वार हैं। द्रष्टा तो आंखों के पीछे है। यही कारण है कि तुम आंखें बंद कर ले सकते हो और तब भी सपने, दृश्य और चित्र देखते रह सकते हो। द्रष्टा तो इंद्रियों के पीछे है, वह इंद्रियों के माध्यम से संसार में गति करता है। लेकिन अगर तुम अपनी इंद्रियों को बंद कर लो तो भी द्रष्टा भीतर बना रहता है।

अगर यह द्रष्टा, यह चेतना केंद्रित हो जाए तो उसे अचानक अपना बोध हो जाता है, वह अपने को जान लेती है। और जब तुम अपने को जान लेते हो तो तुम समग्र अस्तित्व को जान लेते हो, क्योंकि तुम और अस्तित्व दो नहीं हैं।’” लेकिन अपने को जानने के लिए केंद्रित होने की जरूरत है। और केंद्रित होने से मेरा मतलब है कि तुम्हारी चेतना अनेक दिशाओं में बंटी न हो, वह कहीं गति न करती हो, अपने आप में थर हो, अचल हो, आधारित हो; बस भीतर हो।

भीतर होना कठिन लगता है, क्योंकि हमारे मन के लिए भीतर कैसे रहें, इसका विचार भी बाहर जाने जैसा लगता है। हम विचार करने लगते हैं, ‘कैसे’ पर विचार करने लगते हैं। इस भीतर के संबंध में सोचना भी हमारे लिए विचार है। और प्रत्येक विचार बाहर का है, भीतर का नहीं, क्योंकि तुम अपने अंतर्तम केंद्र पर मात्र चेतना हो। विचार बादलों जैसे हैं। वे तुम्हारे पास आए हैं, लेकिन वे तुम्हारे नहीं हैं। सब विचार बाहर से आते हैं, भीतर तुम एक भी विचार नहीं निर्मित कर सकते। प्रत्येक विचार बाहर से आता है, भीतर उसे पैदा करने का कोई उपाय नहीं है। विचार बादलों की भाति तुम्हारे पास आते हैं।

इसलिए जब तुम विचार कर रहे हो तब तुम भीतर नहीं हो, यह याद रहे। विचारणा मात्र बाहर होना है। अगर तुम भीतर के संबंध में, आत्मा के संबंध में भी सोच रहे हो तो भी तुम भीतर नहीं हो। आत्मा, अंतस, भीतर के संबंध के सब विचार बाहर से आए हैं, वे तुम्हारे नहीं हैं। वह जो शुद्ध चेतना है, निरभ्र आकाश की भांति, वही तुम्हारी है। तो क्या किया जाए? भीतर की सीधी—सरल चेतना को कैसे उपलब्ध किया जाए?

इसके लिए कुछ उपाय उपयोग किए जाते हैं, क्योंकि तुम उनके साथ सीधे—सीधे कुछ नहीं कर सकते। कुछ उपाय जरूरी हैं, जिनके द्वारा तुम भीतर फेंक दिए जाते हो, वहां पहुंचा दिए जाते हो। इस केंद्र के साथ सदा परोक्ष रूप से ही कुछ किया जा सकता है, तुम वहां प्रत्यक्ष रूप से नहीं जा सकते। इस बात को बहुत साफ—साफ समझ लो, क्योंकि यह बहुत बुनियादी बात है।

तुम खेल रहे हो। बाद में तुम कहते हो कि खेल बहुत आनंदपूर्ण था, मुझे बहुत सुख मिला, मैंने बहुत मजा लूटा। एक सूक्ष्म सुख पीछे छूट गया है। फिर कोई तुम्हें सुनता है। वह भी सुख की खोज में है। कौन नहीं है? वह कहता है कि तब मैं भी खेलूंगा, क्योंकि अगर खेल से सुख मिलता हो तो मुझे भी यह सुख पाना है। वह खेलता भी है, लेकिन उसका ध्यान सीधे—सीधे सुख, आनंद, खुशी पर है। और तब उसे वह सुख, वह आनंद नहीं मिलता है। सुख तो उप—उत्पत्ति है। अगर तुम समग्रता से खेलते हो, उसमें डूबे हो, तो सुख फलीभूत होता है। लेकिन अगर तुम सतत सुख की चिंता कर रहे हो, उसका पीछा कर रहे हो, तो कुछ भी नहीं होता।

तुम संगीत सुन रहे हो। कोई कहता है कि मुझे बहुत आनंद आ रहा है। लेकिन तुम अगर निरंतर सीधे आनंद के पीछे पड़े रहे तो सुनना भी कठिन हो जाएगा। आनंद के लिए वह फिक्र, वह लालच ही बाधा बन जाएगा। आनंद उप—उत्पत्ति है। तुम उसे सीधे झपट्टा मारकर नहीं ले सकते। वह इतनी नाजुक चीज है कि तुम्हें उसके पास परोक्ष रूप से जाना होगा। कुछ और चीज करो और आनंद घटित होगा। उसके साथ सीधे कुछ नहीं किया जा सकता है।

जो भी सुंदर है, जो भी शाश्वत है, वह इतना नाजुक है, सुकुमार है कि अगर तुमने उसे सीधे पकड़ने की चेष्टा की तो वह नष्ट ही हो जाता है। विधियों और उपायों का यही उपयोग है। ये विधियां तुम्हें कुछ करने को कहती हैं। तुम क्या करते हो, वह महत्वपूर्ण नहीं म् है, लेकिन तुम्हारे मन को करने से, विधि से मतलब रखना चाहिए, उसके फल से नहीं। फल तो आता है, उसे आना ही है। लेकिन वह सदा परोक्ष रूप से आता है। इसलिए फल की फिक्र मत करो। सिर्फ विधि की फिक्र करो; उसे उतनी समग्रता से करो जितनी समग्रता से कर सको, और फल को भूल जाओ। फल घटता है, लेकिन तुम उसकी राह में बाधा बन सकते हो। अगर तुम फल की ही फिक्र करते रहे तो कभी नहीं घटेगा।

और तब एक अजीब बात घटती है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि आपने कहा था कि फलां ध्यान करो तो उससे ऐसा होगा। हम वह ध्यान कर रहे हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा है।

वे सही हैं, लेकिन उन्होंने शर्त भुला दी है। तुम्हें फल को भूल जाना होगा, तभी कुछ होता है। तुम्हें कर्म में समग्रता से जुटना होगा। जितना ही तुम कर्म में होओगे उतना ही शीघ्र फल आएगा। लेकिन फल सदा परोक्ष है। तुम उसके प्रति आक्रामक नहीं हो सकते, हिंसक नहीं हो सकते; वह ऐसी नाजुक घटना है कि उस पर आक्रमण नहीं किया जा सकता। वह तुम्हारे पास तब आता है जब तुम कहीं इस समग्रता से उलझे होते हो कि तुम्हारा आंतरिक आकाश खाली होता है।

ये विधियां सब परोक्ष हैं। आध्यात्मिक घटना के लिए कोई प्रत्यक्ष विधि नहीं है।

अब विधि को लें। केंद्रित होने की छठवीं विधि:

किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो; दूसरे विषय पर मत जाओ। यहीं विषय के मध्य में—आनंद। मैं फिर दोहराता हूं ‘किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो; दूसरे विषय पर मत जाओ’ किसी दूसरे विषय पर ध्यान मत ले जाओ, ‘यहीं विषय के मध्य में—आनंद।’

किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो…।’

प्रेमपूर्वक में कुंजी है। क्या तुमने कभी किसी चीज को प्रेमपूर्वक देखा है? तुम ही कह सकते हो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि किसी चीज को प्रेमपूर्वक देखने का क्या अर्थ होता है। तुमने किसी चीज को लालसा— भरी आंखों से देखा होगा, कामनापूर्वक देखा होगा। वह दूसरी बात है। वह बिलकुल भिन्न, विपरीत बात है। पहले इस भेद को समझो।

तुम एक सुंदर चेहरे को, सुंदर शरीर को देखते हो और तुम सोचते हो कि तुम उसे प्रेमपूर्वक देख रहे हो। लेकिन तुम उसे क्यों देख रहे हो? क्या तुम उससे कुछ पाना चाहते हो? तब वह वासना है, कामना है, प्रेम नहीं। क्या तुम उसका शोषण करना चाहते हो? तब वह वासना है, प्रेम नहीं। तब तुम सच में यह चाहते हो कि मैं कैसे इस शरीर को उपयोग में लाऊं, कैसे इसका मालिक बनूं कैसे इसे अपने सुख का साधन बना लूं।

वासना का अर्थ है कि कैसे किसी चीज को अपने सुख के लिए उपयोग में लाऊं। प्रेम का अर्थ है कि उससे मेरे सुख का कुछ लेना—देना नहीं है। सच तो यह है कि वासना कुछ लेना चाहती है और प्रेम कुछ देना चाहता है। वे दोनों सर्वथा एक—दूसरे के प्रतिकूल हैं।

अगर तुम किसी सुंदर व्यक्ति को देखते हो और उसके प्रति प्रेम अनुभव करते हो तो तुम्हारी चेतना में तुरंत भाव उठेगा कि कैसे इस व्यक्ति को, इस पुरुष या स्त्री को सुखी करूं। यह फिक्र अपनी नहीं, दूसरे की है। प्रेम में दूसरा महत्वपूर्ण है, वासना में तुम महत्वपूर्ण हो।

वासना में तुम दूसरे को अपना साधन बनाने की सोचते हो, और प्रेम में तुम स्वय साधन बनने की सोचते हो। वासना में तुम दूसरे को पोंछ देना चाहते हो; प्रेम में तुम स्वय मिट जाना चाहते हो। प्रेम का अर्थ है देना, वासना का अर्थ है लेना। प्रेम समर्पण है; वासना आक्रमण है।

तुम क्या कहते हो, उसका कोई अर्थ नहीं है। वासना में भी तुम प्रेम की भाषा काम में लाते हो। तुम्हारी भाषा का बहुत मतलब नहीं है। इसलिए धोखे में मत पडो। भीतर देखो और तब तुम समझोगे कि तुमने जीवन में एक बार भी किसी व्यक्ति या वस्तु को प्रेमपूर्वक नहीं देखा है।

एक दूसरा भेद भी समझ लेने जैसा है।

सूत्र कहता है : ‘किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो……।’

असल में अगर तुम किसी पार्थिव, जड़ वस्तु को भी प्रेमपूर्वक देखो तो वह वस्तु व्यक्ति बन जाएगी। तुम्हारा प्रेम वस्तु को भी व्यक्ति में रूपांतरित करने की कुंजी है। अगर तुम वृक्ष को प्रेमपूर्वक देखो तो वृक्ष व्यक्ति बन जाएगा।

उस दिन मैं विवेक से बात करता था। मैंने उससे कहा कि जब हम नए आश्रम में जाएंगे तो वहां हम हरेक वृक्ष को नाम देंगे, क्योंकि हरेक वृक्ष व्यक्ति है। क्या कभी तुमने सुना है कि कोई वृक्षों को नाम दे? कोई वृक्षों को नाम नहीं देता है, क्योंकि कोई वृक्षों को प्रेम नहीं करता। अगर प्रेम करे तो वृक्ष व्यक्ति बन जाए। तब वह भीड़ का, जंगल का हिस्सा नहीं रहा, वह अनूठा हो गया।

तुम कुत्तों और बिल्लियों को नाम देते हो। जब तुम कुत्ते को नाम देते हो, उसे ‘टाइगर’ कहते हो, तो कुत्ता व्यक्ति बन जाता है। तब वह बहुत से कुत्तों में एक कुत्ता नहीं रहा, तब उसको व्यक्तित्व मिल गया। तुमने व्यक्ति निर्मित कर दिया। जब भी तुम किसी चीज को प्रेमपूर्वक देखते हो वह चीज व्यक्ति बन जाती है।

और इसका उलटा भी सही है। जब तुम किसी व्यक्ति को वासनापूर्वक देखते हो तो वह व्यक्ति वस्तु बन जाता है। यही कारण है कि वासना— भरी आंखों में विकर्षण होता है, क्योंकि कोई भी वस्तु होना नहीं चाहता है। जब तुम अपनी पत्नी को, या किसी दूसरी स्त्री को, या पुरुष को, वासना की दृष्टि से देखते हो, तो उससे दूसरे को चोट पहुंचती है। तुम असल में क्या कर रहे हो? तुम एक जीवित व्यक्ति को मृत साधन में, यंत्र में बदल रहे हो। ज्यों ही तुमने सोचा कि कैसे उसका उपयोग करें कि तुमने उसकी हत्या कर दी।

यही कारण है कि वासना— भरी आंखें विकर्षक होती हैं, कुरूप होती हैं। और जब तुम किसी को प्रेम से भरकर देखते हो तो दूसरा ऊंचा उठ जाता है, वह अनूठा हो जाता है। अचानक वह व्यक्ति हो उठता है।

एक वस्तु बदली जा सकती है, उसकी जगह ठीक वैसी ही चीज लायी जा सकती है; लेकिन उसी तरह एक व्यक्ति नहीं बदला जा सकता। वस्तु का अर्थ है जो बदली जा सके; व्यक्ति का अर्थ है जो नहीं बदला जा सके। किसी पुरुष या स्त्री के स्थान पर ठीक वैसा ही पुरुष या स्त्री नहीं लायी जा सकती। व्यक्ति अनूठा है, वस्तु नहीं।

प्रेम किसी को भी अनूठा बना देता है। यही कारण है कि प्रेम के बिना तुम नहीं महसूस करते कि मैं व्यक्ति हूं। जब तक कोई तुम्हें गहन प्रेम न करे, तुम्हें तुम्हारे अनूठेपन का एहसास ही नहीं होता। तब तक तुम भीड़ के हिस्से हो—एक नंबर, एक संख्या। और तुम बदले जा सकते हो।

उदाहरण के लिए, अगर तुम किसी दफ्तर में क्‍लर्क हो या स्‍कूल में शिक्षक हो या विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो, तो तुम्हारी प्रोफेसरी बदली जा सकती है; दूसरा प्रोफेसर तुम्हारी जगह ले लेगा। वह कभी भी तुम्हारी जगह ले सकता है, क्योंकि वहां तुम प्रोफेसर के रूप में काम आते हो। वहां तुम्हारे काम से मतलब है। वैसे ही अगर तुम क्लर्क हो तो कोई भी तुम्हारा काम कर दे सकता है। काम तुम्हारा इंतजार नहीं करेगा। अगर तुम इस क्षण मर जाओ तो अगले क्षण कोई तुम्हारी जगह ले लेगा, और काम चलता रहेगा। तुम एक संख्या थे, दूसरी संख्या से चल जाएगा। तुम एक उपयोग भर थे।

लेकिन फिर कोई इसी क्लर्क या प्रोफेसर के साथ प्रेम में पड़ जाता है। अचानक वह क्लर्क क्लर्क नहीं रह जाता, वह एक अनूठा व्यक्ति हो उठता है। अगर वह मर जाए तो उसकी प्रेमिका उसकी जगह किसी को भी नहीं बिठा सकती। उसे बदला नहीं जा सकता है। तब सारी दुनिया वैसी की वैसी रह सकती है, लेकिन वह व्यक्ति जो इसके प्रेम में था वही नहीं रहेगा। यह अनूठापन, यह व्यक्ति होना प्रेम के द्वारा घटित होता है।

यह सूत्र कहता है. ‘किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो……।’

यह किसी विषय या व्यक्ति में कोई फर्क नहीं करता है। उसकी जरूरत नहीं है। क्योंकि जब तुम प्रेमपूर्वक देखते हो तो कोई भी चीज व्यक्ति हो उठती है। यह देखना ही बदलता है, रूपांतरित करता है।

तुमने देखा हो या न देखा हो, जब तुम किसी खास कार को, समझो वह फिएट है, चलाते हो तो क्या होता है। एक ही जैसे हजारों—हजार फिएट हैं, लेकिन तुम्हारी कार, अगर तुम अपनी कार को प्रेम करते हो, अनूठी हो जाती है, व्यक्ति बन जाती है। उसे बदला नहीं जा सकता; एक नाता—रिश्ता निर्मित हो गया। अब तुम इस कार को एक व्यक्ति समझते हो। अगर कुछ गड़बड़ हो जाए, जरा सी आवाज आने लगे, तो तुम्हें तुरंत उसका एहसास होता है। और कारें बहुत तुनुकमिजाज होती हैं। तुम अपनी कार के मिजाज से परिचित हो कि कब वह अच्छा महसूस करती है और कब बुरा। धीरे—धीरे कार व्यक्ति बन जाती है। क्यों?

अगर प्रेम का संबंध है तो कोई भी चीज व्यक्ति बन जाती है। और अगर वासना का संबंध हो तो व्यक्ति भी वस्तु बन जाता है। और यह बड़े से बड़ा अमानवीय कृत्य है जो आदमी कर सकता है कि वह किसी को वस्तु बना दे।

‘किसी विषय को प्रेमपूर्वक देखो।’

इसके लिए कोई क्या करे? प्रेम से जब देखते हो तो क्या करना होता है? पहली बात : अपने को भूल जाओ। अपने को बिलकुल भूल जाओ। एक फूल को देखो और अपने को बिलकुल भूल जाओ। फूल तो हो, लेकिन तुम अनुपस्थित हो जाओ। फूल को अनुभव करो और तुम्हारी चेतना से गहरा प्रेम फूल की ओर प्रवाहित होगा। और तब अपनी चेतना को एक ही विचार से भर जाने दो कि कैसे मैं इस फूल के ज्यादा खिलने में, ज्यादा सुंदर होने में, ज्यादा आनंदित होने में सहयोगी हो सकता हूं। मैं क्या कर सकता हूं?

यह महत्व की बात नहीं है कि तुम कुछ कर सकते हो या नहीं, यह प्रासंगिक नहीं है। यह भाव कि मैं क्या कर सकता हूं यह पीड़ा, गहरी पीड़ा कि इस फूल को ज्यादा सुंदर, ज्यादा जीवंत और ज्‍यादा प्रस्‍फुटित बनाने के लिए मैं क्या करू, ज्यादा महत्व की है। इस विचार को अपने पूरे प्राणों में गूंजने दो। अपने शरीर और मन के प्रत्येक तंतु को इस विचार से भीगने दो। तब तुम समाधिस्थ हो जाओगे और फूल एक व्यक्ति बन जाएगा।

‘दूसरे विषय पर मत जाओ।’

तुम जा नहीं सकते। अगर तुम प्रेम में हो तो नहीं जा सकते। अगर तुम इस समूह में बैठे किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो तुम्हारे लिए सब भीड़ भूल जाती है और केवल वही चेहरा बचता है। सच में तुम और किसी को नहीं देखते, उस एक चेहरे को ही देखते हो। सब वहां हैं, लेकिन वे नहीं के बराबर हैं, वे तुम्हारी चेतना की महज परिधि पर होते हैं। वे महज छायाएं हैं। मात्र एक चेहरा रहता है। अगर तुम किसी को प्रेम करते हो तो मात्र वही चेहरा रहता है। इसलिए दूसरे पर तुम नहीं जा सकते।

दूसरे विषय पर मत जाओ, एक के साथ ही रहो। गुलाब के फूल के साथ या अपनी प्रेमिका के चेहरे के साथ रहो। और उसके साथ प्रेमपूर्वक रहो, प्रवाहमान रहो, समग्र हृदय से उसके साथ रही। और इस विचार के साथ रहो कि मैं अपनी प्रेमिका को ज्यादा सुखी और आनंदित बनाने के लिए क्या कर सकता हूं।

‘यहीं विषय के मध्य में—आनंद।’

और जब ऐसी स्थिति बन जाए कि तुम अनुपस्थित हो, अपनी फिक्र नहीं करते, अपने सुख—संतोष की चिंता नहीं लेते, अपने को पूरी तरह भूल गए हो, जब तुम सिर्फ दूसरे के लिए चिंता करते हो, दूसरा तुम्हारे प्रेम का केंद्र बन गया है, तुम्हारी चेतना दूसरे में प्रवाहित हो रही है, जब गहन करुणा और प्रेम के भाव से तुम सोचते हो कि मैं अपनी प्रेमिका को आनंदित करने के लिए क्या कर सकता हूं तब इस स्थिति में अचानक, ‘यहीं विषय के मध्य में—आनंद’, अचानक उप—उत्पत्ति की तरह तुम्हें आनंद उपलब्ध हो जाता है। तब अचानक तुम केंद्रित हो गए।

यह बात विरोधाभासी लगती है। क्योंकि सूत्र कहता है कि अपने को बिलकुल भूल जाओ, आत्म—केंद्रित मत बनो, दूसरे में पूरी तरह प्रवेश करो।

बुद्ध निरंतर कहते थे कि जब भी तुम प्रार्थना करो तो दूसरों के लिए करो—अपने लिए नहीं। अन्यथा प्रार्थना व्यर्थ है।

एक आदमी बुद्ध के पास आया और उसने कहा कि मैं आपके उपदेश को स्वीकार करता हूं लेकिन उसकी एक बात मानना बहुत कठिन है। आप कहते हैं कि जब तुम प्रार्थना करो तो अपनी मत सोचो, अपने लिए मत कुछ मांगो; सदा यही कहो कि मेरी प्रार्थना से जो फल आए वह सबको मिले, कोई आनंद उतरे तो वह सब में बंट जाए। उस आदमी ने कहा, यह बात भी ठीक है, लेकिन मैं इसमें एक अपवाद, एक ही अपवाद करना चाहूंगा। और वह यह कि यह कृपा मेरे पड़ोसी को न मिले, क्योंकि वह मेरा शत्रु है। यह आनंद मेरे पड़ोसी को छोड्कर सबको प्राप्त हो।

मन आत्म—केंद्रित है। बुद्ध ने उस आदमी से कहा कि तब तुम्हारी प्रार्थना व्यर्थ है। अगर तुम सब कुछ सबको बांटने को तैयार नहीं हो तो कुछ भी फल नहीं होगा। और सबमें बांट दोगे तो सब तुम्हारा होगा।

प्रेम में तुम्हें अपने को भूल जाना है। लेकिन तब यह बात विरोधाभासी लगने लगती है। तब केंद्रित होना कब और कैसे घटित होगा? दूसरे में समग्ररूपेण संलग्‍न होने से जब। तुम स्वयं को पूरी तरह भूल जाते हो और जब दूसरा ही बचता है, तुम आनंद से, आशीर्वाद से भर दिए जाते हो।

क्यों? क्योंकि जब तुम्हें अपनी फिक्र नहीं रहती तो तुम खाली, रिक्त हो जाते हो। तब आंतरिक आकाश निर्मित हो जाता है। जब तुम्हारा मन पूरी तरह दूसरे में संलग्न है तो तुम अपने भीतर मन—रहित हो जाते हो, तब तुम्हारे भीतर विचार नहीं रह जाते हैं। और तब यह विचार भी कि मैं दूसरे को अधिक सुखी, अधिक आनंदित बनाने के लिए क्या कर सकता हूं जाता रहता है। क्योंकि सच में तुम कुछ नहीं कर सकते। तब यह विचार विराम बन जाता है, तुम कुछ नहीं कर सकते। क्या कर सकते हो? क्योंकि अगर सोचते हो कि मैं कुछ कर सकता हूं तो अब भी तुम अहंकार की भाषा में सोच रहे हो।

स्मरण रहे, प्रेमपात्र के साथ व्यक्ति बिलकुल असहाय हो जाता है। जब भी तुम किसी को प्रेम करते हो, तुम असहाय हो जाते हो। यही प्रेम की पीड़ा है कि तुम्हें पता ही नहीं चलता कि मैं क्या कर सकता हूं। तुम सब कुछ करना चाहोगे, तुम अपने प्रेमी या प्रेमिका को सारा ब्रह्मांड दे देना चाहोगे। लेकिन तुम कर क्या सकते हो? अगर तुम सोचते हो कि यह या वह कर सकते हो तो तुम अभी प्रेम में नहीं हो। प्रेम बहुत असहाय है, बिलकुल असहाय है। और वह असहायपन सुंदर है, क्योंकि उसी असहायपन में तुम समर्पित हो जाते हो।

किसी को प्रेम करो और तुम असहाय अनुभव करोगे। किसी को घृणा करो और तुम्हें लगेगा कि तुम कुछ कर सकते हो। प्रेम करो और तुम बिलकुल असमर्थ हो। तुम क्या कर सकते हो? जो भी तुम कर सकते हो वह इतना क्षुद्र लगता है, इतना अर्थहीन। वह कभी भी पर्याप्त नहीं मालूम पड़ता। कुछ नहीं किया जा सकता है। और जब कोई समझता है कि कुछ नहीं किया जा सकता तब वह असहाय अनुभव करता है। जब कोई सब कुछ करना चाहता है और समझता है कि कुछ नहीं किया जा सकता, तब मन रुक जाता है। और इसी असहायावस्था में समर्पण घटित होता है। तुम खाली हो गए।

यही कारण है कि प्रेम गहन ध्यान बन जाता है। अगर सच में तुम किसी को प्रेम करते हो तो किसी अन्य ध्यान की जरूरत न रही। लेकिन क्योंकि कोई भी प्रेम नहीं करता है, इसलिए एक सौ बारह विधियों की जरूरत पड़ी। और वे भी काफी नहीं हैं।

उस दिन कोई यहां था। वह कह रहा था कि इससे मुझे बहुत आशा बंधी है। मैंने पहली दफा आप से ही सुना है कि एक सौ बारह विधियां हैं। इससे बहुत आशा होती है। लेकिन मन में कहीं एक विषाद भी उठता है कि क्या कुल एक सौ बारह विधियां ही हैं? क्योंकि अगर मेरे लिए वे सब की सब व्यर्थ हुईं तो क्या होगा? क्या कोई एक सौ तेरहवीं विधि नहीं है?

और वह आदमी सही है। वह सही है! अगर ये एक सौ बारह विधियां तुम्हारे काम न आ सकीं तो कोई उपाय नहीं है। इसलिए उसका कहना ठीक है कि आशा के पीछे—पीछे विषाद भी घेरता है। लेकिन सच तो यह है कि विधियों की जरूरत इसलिए पड़ती है कि बुनियादी विधि खो गई है। अगर तुम प्रेम कर सको तो किसी विधि की जरूरत नहीं है। प्रेम स्वयं सबसे बड़ी विधि है।

लेकिन प्रेम कठिन है, एक तरह से असंभव। प्रेम का अर्थ है अपने को ही अपनी चेतना से निकाल बाहर करना और उसकी जगह, अपने अहंकार की जगह दूसरे को स्थापित करना। प्रेम का अर्थ है अपनी जगह दूसरे को स्थापित करना, मानो कि अब तुम नहीं हो और सिर्फ दूसरा है।

ज्या पाल सार्त्र कहता है कि दूसरा नरक है। और वह सही है। वह सही है, क्योंकि दूसरा तुम्हारे लिए नरक ही बनाता है। लेकिन सार्त्र गलत भी हो सकता है, क्योंकि दूसरा अगर नरक है तो वह स्वर्ग भी हो सकता है।

अगर तुम वासना से जीते हो तो दूसरा नरक है। क्योंकि तुम उस व्यक्ति की हत्या करने में लगे हो, तुम उसे वस्तु में बदलने में लगे हो। तब वह व्यक्ति भी प्रतिक्रिया में तुम्हें वस्तु बनाना चाहेगा। और उससे ही नरक पैदा होता है।

तो सब पति—पत्नी एक—दूसरे के लिए नरक पैदा कर रहे हैं, क्योंकि हरेक दूसरे पर मालकियत करने में लगा है। मालकियत सिर्फ चीजों की हो सकती है, व्यक्तियों की नहीं। तुम किसी वस्तु को तो अधिकार में कर सकते हो, लेकिन किसी व्यक्ति को अधिकार में नहीं कर सकते। लेकिन तुम व्यक्ति पर अधिकार करने की कोशिश करते हो। और उस कोशिश में व्यक्ति वस्तु बन जाते हैं। और अगर मैं तुम्हें वस्तु बना दूं तो तुम प्रतिशोध लोगे। तब मैं तुम्हारा शत्रु हूं। तब तुम भी मुझे वस्तु बनाने की कोशिश करोगे। उससे ही नरक बनता है।

तुम अपने कमरे में अकेले बैठे हो। और तभी तुम्हें अचानक पता चलता है कि कोई चाबी के छेद से भीतर झांक रहा है। गौर से देखो कि क्या होता है। तुम्हें कोई बदलाहट महसूस हुई? तुम क्यों इस झांकने वाले पर नाराज होते हो? वह कुछ भी तो नहीं कर रहा है, सिर्फ झांक रहा है। तुम नाराज क्यों हो रहे हो? उसने तुम्हें वस्तु में बदल दिया। वह झांक रहा है और झांककर उसने तुम्हें वस्तु बना दिया, आब्जेक्ट बना दिया। उससे ही तुम्हें बेचैनी होती है।

और वही बात उस आदमी के साथ होगी। अगर तुम उस चाबी के छेद के पास आकर बाहर देखने लगो तो दूसरा व्यक्ति घबरा जाएगा। एक क्षण पहले वह द्रष्टा था और तुम दृश्य थे। अब वह अचानक पकड़ा गया है और तुम्हें देखते हुए पकड़ा गया है। और अब वही वस्तु बन गया है।

जब कोई तुम्हें देख रहा है तो तुम्हें लगता है कि मेरी स्वतंत्रता बाधित हुई, नष्ट हुई। यही कारण है कि प्रेमपात्र को छोड्कर तुम किसी को घूर नहीं सकते, टकटकी लगाकर देख नहीं सकते। अगर तुम प्रेम में नहीं हो तो वह घूरना कुरूप होगा, हिंसक होगा। ही, अगर तुम प्रेम में हो तो वह घूरना सुंदर है, क्योंकि तब तुम घूरकर किसी को वस्तु में नहीं बदलते हो। तब तुम दूसरे की आंख में सीधे झांक सकते हो, तब तुम दूसरे की आंख में गहरे प्रवेश कर सकते हो। तुम उसे वस्तु में नहीं बदलते, बल्कि तुम्हारा प्रेम उसे व्यक्ति बना देता है। यही कारण है कि सिर्फ प्रेमियों को घूरना सुंदर होता है, शेष सब घूरना कुरूप है, गंदा है।

मनस्विद कहते कि तुम किसी व्यक्ति को, अगर वह अजनबी है, कितनी देर तक घूरकर देख सकते हो, इसकी सीमा है।

तुम इसका निरीक्षण करो और तुम्हें पता चल जाएगा कि इसकी अवधि कितनी है। इस समय की सीमा है। उससे एक क्षण ज्यादा घूरो और दूसरा व्यक्ति क्रुद्ध हो जाएगा। सार्वजनिक रूप से एक चलती हुई नजर क्षमा की जा सकती है। क्‍योंकि उससे लगेगा कि तुम देख भर रहे थे, घूर नहीं रहे थे। दृष्टि गड़ाकर देखना दूसरी बात है।

अगर मैं तुम्हें चलते—चलते देख लेता हूं तो उससे कोई संबंध नहीं बनता है। या मैं गुजर रहा हूं और तुम मुझ पर निगाह डालों तो उससे कुछ बनता—बिगड़ता नहीं है। वह अपराध नहीं है, ठीक है। लेकिन अगर तुम अचानक रुककर मुझे देखने लगो तो तुम निरीक्षक हो गए। तब तुम्हारी दृष्टि से मुझे अड़चन होगी और मैं अपमानित अनुभव करूंगा। तुम कर क्या रहे हो? मैं व्यक्ति हूं वस्तु नहीं। यह कोई देखने का ढंग है?

इसी वजह से कपड़े महत्वपूर्ण हो गए हैं। अगर तुम किसी के प्रेम में हो तभी तुम उसके समक्ष नग्न हो सकते हो। क्योंकि जिस क्षण तुम नग्न होते हो, तुम्हारा समूचा शरीर दृष्टि का विषय बन जाता है, कोई तुम्हारे पूरे शरीर को निहार सकता है। और अगर वह तुम्हारे प्रेम में नहीं है तो उसकी आंखें तुम्हारे पूरे शरीर को, तुम्हारे पूरे अस्तित्व को वस्तु में बदल देंगी। लेकिन अगर तुम किसी के प्रेम में हो, तो तुम उसके सामने लज्जा महसूस किए बिना ही नग्न हो सकते हो। बल्कि तुम्हें नग्न होना रास आएगा, क्योंकि तुम चाहोगे कि यह रूपांतरकारी प्रेम तुम्हारे पूरे शरीर को व्यक्ति में रूपांतरित कर दे।

जब भी तुम किसी को वस्तु में बदलते हो तो वह कृत्य अनैतिक है। लेकिन अगर तुम प्रेम से भरे हो तो उस प्रेम— भरे क्षण में यह घटना, यह आनंद किसी भी विषय के साथ संभव हो जाता है।

‘यहीं विषय के मध्य में—आनंद।’

अचानक तुम अपने को भूल गए हो, दूसरा ही है। और तब वह सही क्षण आएगा, जब कि तुम पूरे के पूरे अनुपस्थित हो जाओगे, तब दूसरा भी अनुपस्थित हो जाएगा। और तब दोनों के बीच वह धन्यता घटती है। प्रेमियों की यही अनुभूति है।

यह आनंद एक अज्ञात और अचेतन ध्यान के कारण घटता है। जहां दो प्रेमी हैं वहां धीरे— धीरे दोनों अनुपस्थित हो जाते हैं; और वहां एक शुद्ध अस्तित्व बचता है जिसमें कोई अहंकार नहीं है, कोई द्वंद्व नहीं है। वहां मात्र संवाद है, साहचर्य है, सहभागिता है। उस संयोग में ही आनंद उतरता है। यह समझना गलत है कि यह आनंद तुम्हें किसी दूसरे से मिला है। वह आनंद आया है, क्योंकि तुम अनजाने ही एक गहरी ध्यान—विधि में उतर गए हो।

तुम यह सचेतन भी कर सकते हो। और जब सचेतन करते हो तो तुम और गहरे जाते हो, क्योंकि तब तुम विषय से बंधे नहीं हो। यह रोज ही होता है। जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम जो आनंद अनुभव करते हो उसका कारण दूसरा नहीं है, उसका कारण बस प्रेम है। और प्रेम क्यों कारण है? क्योंकि यह घटना घटती है, यह सूत्र घटता है।

लेकिन तब तुम एक गलतफहमी से ग्रस्त हो जाते हो, तुम सोचते हो कि अ या ब के सान्निध्य के कारण यह आनंद घटा। और तुम सोचते हो कि मुझे अ को अपने कब्जे में करना चाहिए क्योंकि अ की उपस्थिति के बिना मुझे यह आनंद नहीं मिलेगा। और तुम ईर्ष्यालु हो जाते हो। तुम्हें डर लगने लगता है कि अ किसी दूसरे के कब्जे में न चला जाए, क्योंकि तब दूसरा आनंदित होगा और तुम दुखी होओगे। इसलिए तुम पक्का कर लेना चाहते हो कि अ किसी और के कब्जे में न जाए। अ को तुम्हारे ही कब्जे में होना चाहिए, क्योंकि उसके द्वारा तुम्हें किसी और लोक की झलक मिली।

लेकिन जिस क्षण तुम मालकियत की चेष्टा करते हो उसी क्षण उस घटना का सब सौंदर्य, सब कुछ नष्ट हो जाता है। जब प्रेम पर कब्जा हो जाता है, प्रेम समाप्त हो जाता है। तब प्रेमी महज एक वस्तु होकर रह जाता है। तुम उसका उपयोग कर सकते हो, लेकिन फिर वह आनंद नहीं घटित होगा। वह आनंद तो दूसरे के व्यक्ति होने से आता था। दूसरा तो निर्मित हुआ था; तुमने उसके भीतर व्यक्ति को निर्मित किया था, उसने तुम्हारे भीतर वही किया था। तब कोई आब्जेक्ट नहीं था। तब दोनों दो जीवंत निजता थे, ऐसा नहीं था कि एक व्यक्ति था और दूसरा वस्तु। लेकिन ज्यों ही तुमने मालकियत की कि आनंद असंभव हो गया।

और मन सदा स्वामित्व करना चाहेगा, क्योंकि मन सदा लोभ की भाषा में सोचता है। सोचता है कि एक दिन जो आनंद मिला वह रोज—रोज मिलना चाहिए, इसलिए मुझे स्वामित्व जरूरी है। लेकिन यह आनंद ही तब घटता है जब स्वामित्व की बात नहीं रहती। और आनंद दूसरे के कारण नहीं, तुम्हारे कारण घटता है। यह स्मरण रहे कि आनंद तुम्हारे कारण घटता है, क्योंकि तुम दूसरे में इतने समाहित हो गए कि आनंद घटित हुआ।

यह घटना गुलाब के फूल के साथ भी घट सकती है; चट्टान या वृक्ष या किसी भी चीज के साथ घट सकती है। एक बार तुम उस स्थिति से परिचित हो गए जिसमें यह आनंद घटता है, तो वह कहीं भी घट सकता है। यदि तुम जानते हो कि तुम नहीं हो और किसी गहन प्रेम में तुम दूसरे में प्रवेश कर गए—चाहे वह दूसरा वृक्ष हो, आकाश हो, तारे हों, कोई हों—यदि तुम्हारी समस्त चेतना दूसरे की ओर प्रवाहित हो जाए तो अहंकार तुम्हें छोड़ देता है और अहंकार की उस अनुपस्थिति में आनंद फलित होता है।

केंद्रित होने की सातवीं विधि :

पांवों या हाथों को सहारा दिए बिना सिर्फ नितंबों पर बैठो। अचानक केंद्रित हो जाओने चीन में ताओवादियो ने सदियों से इस विधि का प्रयोग किया है। यह एक अदभुत विधि है और बहुत सरल भी।

इसे प्रयोग करो : ‘पांवों या हाथों को सहारा दिए बिना सिर्फ नितंबों पर बैठो। अचानक केंद्रित हो जाओगे।’

इसमें करना क्या है? इसके लिए दो चीजें जरूरी हैं। एक तो बहुत संवेदनशील शरीर चाहिए, जो कि तुम्हारे पास नहीं है। तुम्हारा शरीर मुर्दा है। वह एक बोझ है, संवेदनशील बिलकुल नहीं है। इसलिए पहले तो उसे संवेदनशील बनाना होगा, अन्यथा यह विधि काम नहीं करेगी। मैं पहले तुम्हें बताऊंगा कि शरीर को संवेदनशील कैसे बनाया जाए—खासकर नितंब को।

तुम्हारा जो नितंब है वह तुम्हारे शरीर का सब से संवेदनहीन अंग है। उसे संवेदनहीन होना पड़ता है, क्योंकि तुम सारा दिन नितंब पर ही बैठे रहते हो। अगर वह बहुत संवेदनशील हो तो अड़चन होगी। तुम्हारे नितंब को संवेदनहीन होना जरूरी है। पांव के तलवे जैसी उसकी

दशा है। निरंतर उन क् बैठे—बैठे पता नहीं चलता कि तुम नितंबों पर बैठे हो। इसके पहले क्या

कभी तुमने उन्हें महसूस किया है? अब कर सकते हो, लेकिन पहले कभी नहीं किया। और तुम पूरी जिंदगी उन पर ही बैठते रहे हो—बिना जाने। उनका काम ही ऐसा है कि वे बहुत संवेदनशील नहीं हो सकते।

तो पहले तो उन्हें संवेदनशील बनाना होगा। एक बहुत सरल उपाय काम में लाओ। यह उपाय शरीर के किसी भी अंग के लिए काम आ सकता है। तब शरीर संवेदनशील हो जाएगा। एक कुर्सी पर विश्रामपूर्वक, शिथिल होकर बैठो। आंखें बंद कर लो और शिथिल होकर कुर्सी पर बैठो। और बाएं हाथ को दाहिने हाथ पर महसूस करो। कोई भी चलेगा। बाएं हाथ को महसूस करो। शेष शरीर को भूल जाओ और बाएं हाथ को महसूस करो।

तुम जितना ही उसे महसूस करोगे वह उतना ही भारी होगा। ऐसे बाएं हाथ को महसूस करते जाओ। पूरे शरीर को भूल जाओ। बाएं हाथ को ऐसे महसूस करो जैसे तुम बायां हाथ ही हो। हाथ ज्यादा से ज्यादा भारी होता जाएगा। जैसे—जैसे वह भारी होता जाए वैसे—वैसे उसे और भारी महसूस करो। और तब देखो कि हाथ में क्या हो रहा है।

जो भी उत्तेजना मालूम हो उसे मन में नोट कर लो—कोई उत्तेजना, कोई झटका, कोई हलकी गति, सबको मन में नोट करते जाओ। इस तरह रोज तीन सप्ताह तक प्रयोग जारी रखो। दिन के किसी समय भी दस—पंद्रह मिनट तक यह प्रयोग करो। बाएं हाथ को महसूस करो और सारे शरीर को भूल जाओ।

तीन सप्ताह के भीतर तुम्हें अपने एक नए बाएं हाथ का अनुभव होगा। और वह इतना संवेदनशील होगा, इतना जीवंत। और तब तुम्हें हाथ की सूक्ष्म और नाजुक संवेदनाओं का भी पता चलने लगेगा।

जब हाथ सध जाए तो नितंब पर प्रयोग करो। तब यह प्रयोग करो : आंखें बंद कर लो और भाव करो कि सिर्फ दो नितंब हैं, तुम नहीं हो। अपनी सारी चेतना को नितंब पर जाने दो। यह कठिन नहीं है। अगर प्रयोग करो तो यह आश्चर्यजनक है, अदभुत है। उससे शरीर में जो जीवंतता का भाव आता है वह अपने आप में बहुत आनंददायक है। और जब तुम्हें अपने नितंबों का एहसास होने लगे, जब वे खूब संवेदनशील हो जाएं, जब भीतर कुछ भी हो उसे महसूस करने लगो, छोटी सी हलचल, नन्हीं सी पीड़ा भी महसूस करने लगो, तब तुम निरीक्षण कर सकते हो, जान सकते हो। तब समझो कि तुम्हारी चेतना नितंबों से जुड़ गयी।

पहले हाथ से प्रयोग शुरू करो, क्योंकि हाथ बहुत संवेदनशील है। एक बार तुम्हें यह भरोसा हो जाए कि तुम अपने हाथ को संवेदनशील बना सकते हो तो वही भरोसा तुम्हें तुम्हारे नितंब को संवेदनशील बनाने में मदद करेगा। और तब इस विधि को प्रयोग में लाओ। इसलिए इस विधि में प्रवेश करने के लिए तुम्हें कम से कम छह सप्ताह की तैयारी चाहिए—तीन सप्ताह हाथ के साथ और तीन सप्ताह नितंबों के साथ। उन्हें ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनाना है।

बिस्तर पर पड़े —पड़े शरीर को बिलकुल भूल जाओ, इतना ही याद रखो कि सिर्फ दो नितंब बचे हैं। स्पर्श अनुभव करो—बिछावन की चादर का, सर्दी का या धीरे—धीरे आती हुई उष्णता का। अपने स्नान टब में पड़े—पड़े शरीर को भूल जाओ, नितंबों को ही स्मरण रखो, उन्हें महसूस करो। दीवार से नितंब सटाकर खड़े हो जाओ और दीवार की ठंडक को महसूस करो। अपनी प्रेमिका, पत्नी या पति के साथ नितंब से नितंब मिलाकर खड़े हो जाओ और एक—दूसरे को नितंबों के द्वारा महसूस करो। यह विधि महज तुम्हारे नितंब को पैदा करने के लिए है, उन्हें उस स्थिति में लाने के लिए है जहां वे महसूस करने लगें।

और तब इस विधि को काम में लाओ : ‘पांवों या हाथों को सहारा दिए बिना…।’

जमीन पर बैठो, पांवों या हाथों के सहारे के बिना सिर्फ नितंबों के सहारे बैठो। इसमें बुद्ध का पद्यासन काम करेगा या सिद्धासन या कोई मामूली आसन भी चलेगा। लेकिन अच्छा होगा कि हाथ का उपयोग न करो। सिर्फ नितंबों के सहारे रहो, नितंबों पर ही बैठो। और तब क्या करो? आंखें बंद कर लो और नितंबों का जमीन के साथ स्पर्श महसूस करो। और चूंकि नितंब संवेदनशील हो चुके हैं इसलिए तुम्हें पता चलेगा कि एक नितंब जमीन को अधिक स्पर्श कर रहा है। उसका अर्थ हुआ कि तुम एक नितंब पर ज्यादा झुके हो और दूसरा जमीन से कम सटा है। और तब दूसरे नितंब पर झुक जाओ। फिर तुरंत ही पहले पर वापिस आ जाओ। इस तरह एक से दूसरे नितंब पर बारी—बारी से झुकते जाओ और तब धीरे— धीरे संतुलन लाओ।

संतुलन लाने का अर्थ है कि तुम्हारे दोनों नितंब एक सा अनुभव करते हैं। दोनों के ऊपर तुम्हारा भार बिलकुल समान हो। और जब तुम्हारे नितंब संवेदनशील हो जाएंगे तो यह संतुलन कठिन नहीं होगा। तुम्हें उसका एहसास होगा। और एक बार दोनों नितंब संतुलन में आ जाएं तो तुम केंद्र पर पहुंच गए। उस संतुलन से तुम अचानक अपने नाभि—केंद्र पर पहुंच जाओगे और भीतर केंद्रित हो जाओगे। तब तुम अपने नितंबों को भूल जाओगे, अपने शरीर को भूल जाओगे, तब तुम अपने आंतरिक केंद्र पर स्थित होओगे।

इसी वजह से मैं कहता हूं कि केंद्र नहीं, केंद्रित होना महत्वपूर्ण है। चाहे यह घटना हृदय में या सिर में या नितंब में घटित हो, उसका महत्व नहीं है। तुमने बुद्धों को बैठे देखा होगा। तुमने नहीं सोचा होगा कि वे अपने नितंबों का संतुलन किए बैठे हैं। किसी मंदिर में जाओ और महावीर को बैठे देखो या बुद्ध को बैठे देखो, तुमने नहीं सोचा होगा कि यह बैठना नितंबों का संतुलन भर है। यह वही है! और जब असंतुलन न रहा तो संतुलन से तुम केंद्रित हो गए।

केंद्रित होने की आठवीं विधि :

किसी चलते वाहन में लयबद्ध धूलने के द्वारा अनुभव को प्राप्त हो। या किसी अचल वाहन में अपने को मंद से मंदतर होते अदृश्य वर्तुलों में धूलने देने से भी।

दूसरे ढंग में यह वही है।’किसी चलते वाहन में…..।’ तुम रेलगाड़ी या बैलगाड़ी से यात्रा कर रहे हो। जब यह विधि विकसित हुई थी तब बैलगाड़ी ही थी। तो तुम एक हिंदुस्तानी सड़क पर—आज भी सड़कें वैसी ही हैं—बैलगाड़ी में यात्रा कर रहे हो। लेकिन चलते हुए अगर तुम्हारा सारा शरीर हिल रहा है तो बात व्यर्थ हो गई।

‘किसी चलते वाहन में लयबद्ध झूलने के द्वारा…..।’

लयबद्ध ढंग से झूलो। इस बात को समझो, बहुत बारीक बात है। जब भी तुम किसी बैलगाड़ी या किसी वाहन में चलते हो तो तुम प्रतिरोध करते होते हो। बैलगाड़ी बाईं तरफ

झुकती है, लेकिन तुम उसका प्रतिरोध करते हो; तुम संतुलन रखने के लिए दाईं तरफ झुक जाते हो, अन्यथा तुम गिर जाओगे। इसलिए तुम निरंतर प्रतिरोध कर रहे हो। बैलगाड़ी में बैठे—बैठे तुम बैलगाड़ी के हिलने—डूलने—डुलने से लड़ रहे हो। वह इधर जाती है। तो तुम उधर जाते हो। यही वजह है कि रेलगाड़ी में बैठे—बैठे तुम थक जाते हो। तुम कुछ करते नहीं हो तो थक क्यों जाते हो? अनजाने ही तुम बहुत कुछ कर रहे हो। तुम निरंतर रेलगाड़ी से लड़ रहे हो, प्रतिरोध कर रहे हो।

प्रतिरोध मत करो, यह पहली बात है। अगर तुम इस विधि को प्रयोग में लाना चाहते हो तो प्रतिरोध छोड़ दो। बल्कि गाड़ी की गति के साथ—साथ गति करो, उसकी गति के साथ—साथ झूलों। बैलगाड़ी का अंग बन जाओ, प्रतिरोध मत करो। रास्ते पर बैलगाड़ी जो भी करे, तुम उसके अंग बनकर रहो। इसी कारण यात्रा में बच्चे कभी नहीं थकते हैं।

पूनम हाल ही में लंदन से अपने दो बच्चों के साथ आई है। चलते समय वह भयभीत थी कि लंबी यात्रा के कारण बच्चे थक जाएंगे, बीमार हो जाएंगे। वह थक गई और वे हंसते हुए यहां पहुंचे। वह जब यहां पहुंची तो थककर चूर—चूर थी। जब वह मेरे कमरे में प्रविष्ट हुई, वह थकावट से टूट रही थी, और दोनों बच्चे वहीं तुरंत खेलने में लग गए। लंदन से बंबई अठारह घंटे की यात्रा है, लेकिन वे जरा भी नहीं थके थे। क्यों? क्योंकि अभी वे प्रतिरोध करना नहीं जानते हैं।

एक पियक्कड़ सारी रात बैलगाड़ी में यात्रा करेगा और सुबह वह ताजा का ताजा रहेगा। लेकिन तुम नहीं। कारण यह है कि पियक्कड़ भी प्रतिरोध नहीं करता है। वह गाड़ी के साथ गति करता है। वह लड़ता नहीं है, वह गाड़ी के साथ एक है।

‘किसी चलते वाहन में लयबद्ध झूलने के द्वारा……।’

तो एक काम करो, प्रतिरोध मत करो। और दूसरी बात कि एक लय पैदा करो, अपने हिलने—डुलने में लय पैदा करो, उसे लय में बांधो। उसमें एक छंद पैदा करो। सड़क को भूल जाओ; सड़क या सरकार को गालियां मत दो, उन्हें भूल जाओ। वैसे ही बैल और बैलगाडी को या गाड़ीवान को गाली मत दो, उन्हें भी भूल जाओ। आंखें बंद कर लो, प्रतिरोध मत करो। लयबद्ध ढंग से गति करो और अपनी गति में संगीत पैदा करो। उसे एक नृत्य बना दो।

‘किसी चलते वाहन में लयबद्ध झूलने के द्वारा, अनुभव को प्राप्त हो…..।’

सूत्र कहता है कि तुम्हें अनुभव प्राप्त हो जाएगा।

‘या किसी अचल वाहन में…..।’

यह मत पूछो कि बैलगाड़ी कहां मिलेगी! अपने को धोखा मत दो।

क्योंकि यह सूत्र कहता है ‘या किसी अचल वाहन में अपने को मंद से मंदतर होते अदृश्य वर्तुलों में झूलने देने से भी।’

यहीं बैठे—बैठे हुए वर्तुल में झूलो, घूमो। वर्तुल को छोटे से छोटा किए जाओ—इतना छोटा कि तुम्हारा शरीर दृश्य रूप से झूलता हुआ न लगे, लेकिन भीतर एक सूक्ष्म गति होती रहे। आंख बंद कर लो, और बड़े वर्तुल से शुरू करो। आंख बंद कर लो, अन्यथा जब शरीर रुक जाएगा तब तुम भी रुक जाओगे। आंख बंद करके बड़े वर्तुल बनाओ, बैठे—बैठे वर्तुलाकार झूलो। फिर झूलते हुए वर्तुल को छोटा, और छोटा किए चलो। दृश्य रूप से तुम रुक जाओगे, किसी को नहीं मालूम होगा कि तुम अब भी हिल रहे हो। लेकिन अपने भीतर तुम सूक्ष्म गति अनुभव करते रहोगे। अब शरीर नहीं चल रहा, केवल मन चल रहा है। उसे भी मंद से मंदतर किए चलो और अनुभव करो, वहीं केंद्रित हो जाओगे। किसी वाहन में, किसी चलते वाहन में एक अप्रतिरोधी और लयबद्ध गति तुम्हें केंद्रित कर देगी।

गुरजिएफ ने इन विधियों के लिए अनेक नृत्य निर्मित किए थे। वह इस विधि पर काम करता था। वह अपने आश्रम में जितने नृत्यों का प्रयोग करता था वे सच में वर्तुल में झूमने से संबंधित थे। सभी नृत्य वर्तुल में चक्कर लगाने से संबंधित हैं। बाहर चक्कर लगाना होता, भीतर होशपूर्ण रहना होता। फिर वे धीरे— धीरे वर्तुल को छोटा और छोटा किए जाते हैं। तब एक समय आता है कि शरीर ठहर जाता है, लेकिन भीतर मन गति करता रहता है।

अगर तुम लगातार बीस घंटों तक रेलगाड़ी में सफर करके घर लौटो और घर पर आंख बंद करके देखो तो तुम्हें लगेगा कि तुम अब भी गाडी में यात्रा कर रहे हो। शरीर तो ठहर गया है, लेकिन मन को लगता है कि वह गाड़ी में ही है। वैसे ही इस विधि का प्रयोग करो।

गुरजिएफ ने अदभुत नृत्य पैदा किए और सुंदर नृत्य। इस सदी में उसने सचमुच चमत्कार किया। वे चमत्कार सत्य साईं बाबा के चमत्कार नहीं थे। साईं बाबा के चमत्कार तो कोई गली—गली फिरने वाला मदारी भी कर सकता है। लेकिन गुरजिएफ ने असली चमत्कार पैदा किए। ध्यानपूर्ण नृत्य के लिए उसने सौ नर्तकों की एक मंडली बनाई, और पहली बार उसने न्यूयार्क के एक समूह के सामने उनका प्रदर्शन किया।

सौ नर्तक मंच पर गोल—गोल नाच रहे थे। उन्हें देखकर अनेक दर्शकों के भी सिर घूमने लगते थे—ऐसे सफेद पोशाक में वे सौ नर्तक नृत्य करते थे। जब गुरजिएफ हाथों से नृत्य का संकेत करता था तो वे नाचते थे और ज्यों ही वह रुकने का इशारा करता था, वे पत्थर की तरह ठहर जाते थे और मंच पर सन्नाटा हो जाता था। वह रुकना दर्शकों के लिए था, नर्तकों के लिए नहीं; क्योंकि शरीर तो तुरंत रुक सकता है, लेकिन मन तब नृत्य को भीतर ले जाता है और वहां नृत्य चलता रहता है।

उसे देखना भी एक सुंदर अनुभव था कि सौ लोग अचानक मृत मूर्तियों जैसे हो जाते थे। उससे दर्शकों में एक आघात पैदा होता था, क्योंकि सौ नृत्य, सुंदर और लयबद्ध नृत्य अचानक ठहरकर जम जाते थे। तुम देख रहे हो कि वे घूम रहे हैं, गोल—गोल नाच रहे है और अचानक सब नर्तक ठहर गए। तब तुम्हारा विचार भी ठहर जाता। न्यूयार्क में अनेक को लगा कि यह तो एक बेबूझ, रहस्यपूर्ण नृत्य है, क्योंकि उनके विचार भी उसके साथ तुरंत ठहर जाते थे। लेकिन नर्तकों के लिए नृत्य भीतर चलता रहता था, भीतर नृत्य के वर्तुल छोटे से छोटे होते जाते थे और अंत में वे केंद्रित हो जाते थे।

एक दिन ऐसा हुआ कि सारे नर्तक नाचते हुए मंच के किनारे पर पहुंच गए। लोग सोचते थे कि अब गुरजिएफ उन्हें रोक देंगे, अन्यथा वे दर्शकों की भीड़ पर गिर पड़ेंगे। सौ नर्तक नाचते—नाचते मंच के किनारे पर पहुंच गए हैं। एक कदम और, और वे नीचे दर्शकों पर गिर पड़ेंगे। सारे दर्शक इस प्रतीक्षा में थे कि गुरजिएफ रुको कहकर उन्हें वहीं रोक देगा।

लेकिन उसी क्षण गुरजिएफ ने उनकी तरफ अपनी पीठ कर ली और अपना सिगार जलाने म् लगा, और सौ नर्तकों की पूरी मंडली मंच से नीचे नंगे फर्श पर गिर पड़ी।

सभी दर्शक उठ खड़े हुए, उनकी चीखे निकल गईं। गिरना इस धमाके के साथ हुआ था कि उन्हें लगा कि अनेक दर्शकों के हाथ—पांव टूट गए होंगे। लेकिन एक भी व्यक्ति की चोट नहीं लगी थी, किसी को खरोंच भी नहीं लगी थी।

उन्होंने गुरजिएफ से पूछा कि क्या हुआ कि एक आदमी भी घायल नहीं हुआ, जब कि नर्तकों का नीचे गिरना इतना बड़ा था। यह तो एक असंभव घटना मालूम होती है!

कारण इतना ही था कि उस क्षण नर्तक अपने शरीरों में नहीं थे। वे अपने भीतर के वर्तुलों को मंदतर किए जा रहे थे। और जब गुरजिएफ ने देखा कि वे पूरी तरह अपने शरीरों को भूल गए हैं तब उसने उन्हें नीचे गिरने दिया।

तुम जब शरीर को बिलकुल भूल जाते हो तो कोई प्रतिरोध नहीं रह जाता है। और हड्डी तो टूटती है प्रतिरोध के कारण। जब तुम गिरने लगते हो तो तुम प्रतिरोध करते हो, अपने को गिरने से रोकते हो; गिरते समय तुम गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध संघर्ष करते हो। और वही प्रतिरोध, वही संघर्ष समस्या है। गुरुत्वाकर्षण नहीं, प्रतिरोध से हड्डी टूटती है। अगर तुम गुरुत्वाकर्षण के साथ सहयोग करो, उसके साथ—साथ गिरो, तो चोट लगने की कोई संभावना नहीं है।

सूत्र कहता है : ‘किसी चलते वाहन में लयबद्ध झूलने के द्वारा, अनुभव को प्राप्त हो। या किसी अचल वाहन में अपने को मंद से मंदतर होते अदृश्य वर्तुलों में झूलने देने से भी।’

यह तुम ऐसे भी कर सकते हो, वाहन की जरूरत नहीं है। जैसे बच्चे गोल—गोल घूमते हैं वैसे गोल—गोल घूमो। और जब तुम्हारा सिर घूमने लगे और तुम्हें लगे कि अब गिर जाऊंगा तो भी नाचना बंद मत करो, नाचते रही। अगर गिर भी जाओ तो फिक्र मत करो। आंख बंद कर लो और नाचते रहो। तुम्हारा सिर चक्कर खाने लगेगा और तुम गिर जाओगे। तुम्हारा शरीर गिर जाए तो भीतर देखो; भीतर नाचना जारी रहेगा। उसे महसूस करो। वह निकट से निकटतर होता जाएगा और अचानक तुम केंद्रित हो जाओगे।

बच्चे इसका खूब मजा लेते हैं, क्योंकि इससे उन्हें बहुत ऊर्जा मिलती है। लेकिन उनके मां—बाप उन्हें नाचने से रोकते हैं, जो कि अच्छा नहीं है। उन्हें नाचने देना चाहिए, उन्हें इसके लिए उत्साहित करना चाहिए। और अगर तुम उन्हें अपने भीतर के नाच से परिचित करा सको तो तुम उन्हें उसके द्वारा ध्यान सिखा दोगे।

वे इसमें रस लेते हैं, क्योंकि शरीर—शून्यता का भाव उनमें है। जब वे गोल—गोल नाचते हैं तो बच्चों को अचानक पता चलता है कि उनका शरीर तो नाचता है, लेकिन वे नहीं नाचते। अपने भीतर वे एक तरह से केंद्रित हो गए महसूस करते हैं, क्योंकि उनके शरीर और आत्मा में अभी दूरी बनी है, दोनों के बीच अभी अंतराल है। हम सयाने लोगों को वह अनुभव इतनी आसानी से नहीं हो सकता।

जब तुम मां के गर्भ में प्रवेश करते हो तो तुरंत ही शरीर में नहीं प्रविष्ट हो जाते हो, शरीर में प्रविष्ट होने में समय लगता है। और जब बच्चा जन्म लेता है तब भी वह शरीर से पूरी तरह नहीं जुड़ा होता है, उसकी आत्मा शरीर में पूरी तरह स्थित नहीं होती है। दोनों के बीच थोड़ा अंतराल बना रहता है। यही कारण है कि कई चीजें बच्चा नहीं कर सकता है। उसका शरीर तो उन्हें करने को तैयार है, लेकिन वह नहीं कर पाता।

अगर तुमने खयाल किया हो तो देखा होगा कि नवजात शिशु दोनों आंखों से देखने में समर्थ नहीं होते, वे सदा एक आंख से देखते हैं। तुमने गौर किया होगा कि जब बच्चे कुछ देखते हैं, निरीक्षण करते हैं, तो दोनों आंख से नहीं करते। वे एक आंख से ही देखते हैं, उनकी वह आंख बड़ी हो जाती है। देखते क्षण उनकी एक आंख की पुतली फैलकर बडी हो जाएगी और दूसरी पुतली छोटी बनी रहेगी। बच्चे अभी स्थिर नहीं हुए हैं, उनकी चेतना अभी स्थिर नहीं है। उनकी चेतना अभी ढीली—ढीली है। धीरे— धीरे वह स्थिर होगी और तब वे दोनों आंख से देखने लगेंगे।

बच्चे अभी अपने और दूसरे के शरीर में फर्क करना नहीं जानते हैं। यह कठिन है। वे अभी अपने शरीर से पूरी तरह नहीं जुड़े हैं। यह जोड़ धीरे—धीरे आएगा।

ध्यान फिर से अंतराल पैदा करने की चेष्टा है। तुम अपने शरीर से जुड़ गए हो, शरीर के साथ ठोस हो चुके हो। तभी तो तुम समझते हो कि मैं शरीर हूं। अगर फिर से एक अंतराल बनाया जा सके तो फिर समझने लगोगे कि मैं शरीर नहीं हूं शरीर से परे कुछ हूं। इसलिए झूलना और गोल—गोल घूमना सहयोगी होते हैं, वे अंतराल पैदा करते हैं।

केंद्रित होने की नौवीं विधि:

अपने अमृत— भरे शरीर के किसी अंग को सुई से भेदो और भद्रता के साथ उस भेदन में प्रवेश करो और आंतरिक शुद्धि को उपलब्ध होओ।

ह सूत्र कहता है. ‘अपने अमृत— भरे शरीर के किसी अंग को सुई से भेदो..।’

तुम्हारा शरीर मात्र शरीर नहीं है, वह तुमसे भरा है, और यह तुम अमृत हो। अपने शरीर को भेदो, उसमें छेद करो। जब तुम अपने शरीर को छेदते हो तो तुम नहीं छिदते, सिर्फ शरीर छिदता है। लेकिन तुम्हें लगता है कि तुम ही छिद गए, इसी से तुम्हें पीड़ा अनुभव होती है। और अगर तुम्हें यह बोध हो कि सिर्फ शरीर छिदा है, मैं नहीं छिदा हूं तो पीड़ा के स्थान पर आनंद अनुभव करोगे।

सुई से भी छेद करने की जरूरत नहीं है। रोज ऐसी अनेक चीजें घटित होती हैं, जिन्हें तुम ध्यान के लिए उपयोग में ला सकते हो। या कोई ऐसी स्थिति निर्मित भी कर सकते हो।

तुम्हारे भीतर कहीं कोई पीड़ा हो रही है। एक काम करो। शेष शरीर को भूल जाओ, केवल उस भाग पर मन को एकाग्र करो जिसमें पीड़ा है। और तब एक अजीब बात अनुभव में आएगी। जब तुम पीड़ा वाले भाग पर मन को एकाग्र करोगे तो देखोगे कि वह भाग सिकुड़ रहा है, छोटा हो रहा है। पहले तुमने समझा था कि पूरे पांव में पीड़ा है, लेकिन जब एकाग्र होकर उसे देखोगे तो मालूम होगा कि दर्द पूरे पांव में नहीं है, वह तो अतिशयोक्ति है, दर्द सिर्फ घुटने में है।

और ज्यादा एकाग्र होओ, और तुम देखोगे कि दर्द पूरे घुटने में नहीं है, एक छोटे से बिंदु में है। फिर उस बिंदु पर एकाग्रता साधो, शेष शरीर को भूल जाओ। आंखें बंद रखो और एकाग्रता को बढ़ाए जाओ और खोजो कि पीड़ा कहा है। पीड़ा का क्षेत्र सिकुड़ता जाएगा, छोटे से छोटा होता जाएगा। और एक क्षण आएगा जब वह मात्र सुई की नोक भर रह जाएगा। उस सुई की नोक पर भी एकाग्रता की नजर गडाओ, और अचानक वह नोक भी विदा हो जाएगी और तुम आनंद से भर जाओगे। पीड़ा की बजाय तुम आनंद से भर जाओगे।

ऐसा क्यों होता है? क्योंकि तुम और तुम्हारे शरीर एक नहीं हैं, वे दो हैं, अलग—अलग हैं। वह जो एकाग्र होता है वही तुम हो। एकाग्रता शरीर पर होती है, शरीर विषय है। जब तुम

एकाग्र होते हो तो अंतराल बड़ा होता है, तादात्‍म्‍य टूटता है। एकाग्रता के लिए तुम भीतर सरक जाते हो, शरीर से दूर हो जाते हो। पीड़ा के बिंदु को परिप्रेक्ष्य में लाने के लिए तुम्हें दूर हटना पड़ता है। और यह दूर जाना अंतराल पैदा करता है।

जब तुम पीड़ा पर एकाग्रता साधते हो तो तुम तादत्‍म्य भूल जाते हो, तुम भूल जाते हो कि मुझे पीड़ा हो रही है। अब तुम द्रष्टा हो और पीड़ा कहीं दूसरी जगह है। तुम अब पीड़ा को देखने वाले हो, भोगने वाले नहीं। भोक्ता के द्रष्टा में बदलने के कारण अंतराल पैदा होता है। और जब अंतराल बड़ा होता है तो अचानक तुम शरीर को बिलकुल भूल जाते हो, तुम्हें सिर्फ चेतना का बोध रहता है।

तो तुम इस विधि का प्रयोग भी कर सकते हो।

‘अपने अमृत— भरे शरीर के किसी अंग को सुई से भेदो, और भद्रता के साथ उस भेदन में प्रवेश करो.।’

अगर कोई पीड़ा है तो पहले तुम्हें उसके पूरे क्षेत्र पर एकाग्र होना होगा। फिर धीरे— धीरे वह क्षेत्र घटकर सुई की नोक के बराबर रह जाएगा। लेकिन पीड़ा की प्रतीक्षा क्या करनी, तुम एक सुई से काम ले सकते हो। शरीर के किसी संवेदनशील अंग पर सुई चुभोओ। पर शरीर में ऐसे भी कई स्थल हैं जो मृत हैं, उनसे काम नहीं चलेगा।

तुमने शरीर के इन मृत स्थलों के बारे में नहीं सुना होगा। किसी मित्र के हाथ में एक सुई दे दो और तुम बैठ जाओ और मित्र से कहो कि वह तुम्हारी पीठ में कई स्थलों पर सुई चुभोए। कई स्थलों पर तुम्हें पीड़ा का एहसास नहीं होगा। तुम मित्र से कहोगे कि तुमने सुई अभी नहीं चुभोई है, मुझे दर्द नहीं हुआ। वे ही मृत स्थल हैं। तुम्हारे गाल पर ही ऐसे दो मृत स्थल हैं जिनकी जांच की जा सकती है।

अगर तुम भारत के गावों में जाओ तो देखोगे कि धार्मिक त्योहारों के समय कुछ लोग अपने गालों को तीर से भेद देते हैं। वह चमत्कार जैसा मालूम होता है, लेकिन चमत्कार है नहीं। गाल पर दो मृत स्थल हैं। अगर तुम उन्हें छेदो तो न खून निकलेगा और न पीड़ा होगी। तुम्हारी पीठ में तो ऐसे हजारों मृत स्थल हैं, वहां पीड़ा नहीं होगी।

तो तुम्हारे शरीर में दो तरह के स्थल हैं—संवेदनशील, जीवित स्थल और मृत स्थल। कोई संवेदनशील स्थल खोजो जहां तुम्हें जरा से स्पर्श का भी पता चल जाए। तब उसमें सुई चुभोकर चुभन में प्रवेश कर जाओ। वही असली बात है, वही ध्यान है। और भद्रता के साथ भेदन में प्रवेश करो। जैसे—जैसे सुई तुम्हारी चमड़ी के भीतर प्रवेश करेगी और तुम्हें पीड़ा होगी, वैसे—वैसे तुम भी उसमें प्रवेश करते जाओ। यह मत देखो कि तुम्हारे भीतर पीड़ा प्रवेश कर रही है; पीड़ा को मत देखो, उसके साथ तादात्म्य मत करो। सुई के साथ, चुभन के साथ तुम भी भीतर प्रवेश करो। आंखें बंद कर लो, पीडा का निरीक्षण करो। जैसे पीडा भीतर जाए वैसे तुम भी अपने भीतर जाओ। चुभती हुई सुई के साथ तुम्हारा मन आसानी से एकाग्र हो जाएगा। पीड़ा के, तीव्र पीड़ा के उस बिंदु को गौर से देखो, वही भद्रता के साथ भेदन में प्रवेश करना हुआ।

‘और आंतरिक शुद्धि को उपलब्ध होओ।’

अगर तुमने निरीक्षण करते हुए, तादात्म्य न करते हुए, अलग दूर खड़े रहते हुए, बिना यह समझे हुए कि पीड़ा तुम्हें भेद रही है, बल्कि यह देखते हुए कि सुई शरीर को भेद रही है और तुम द्रष्टा हो, प्रवेश किया तो तुम आंतरिक शुद्धता को उपलब्ध हो जाओगे; तब आंतरिक निर्दोषता तुम पर प्रकट हो जाएगी। तब पहली बार तुम्हें बोध होगा कि मैं शरीर नहीं हूं।

और एक बार तुमने जाना कि मैं शरीर नहीं हूं तुम्हारा सारा जीवन आमूल बदल जाएगा। क्योंकि तुम्हारा सारा जीवन शरीर के इर्द—गिर्द चक्कर काटता है। एक बार जान गए कि मैं शरीर नहीं हूं तुम फिर इस जीवन को नहीं ढो सकते; उसका केंद्र ही खो गया। जब तुम शरीर नहीं रहे तो तुम्हें दूसरा जीवन निर्मित करना पड़ेगा। वही जीवन संन्यासी का जीवन है। यह और ही जीवन होगा, क्योंकि अब केंद्र ही और होगा। अब तुम संसार में शरीर की भांति नहीं, बल्कि आत्मा की भांति रहोगे।

जब तक तुम शरीर की तरह रहते हो तब तक तुम्हारा संसार भौतिक उपलब्धियों का, लोभ, भोग, वासना और कामुकता का संसार होगा। और वह संसार शरीर—प्रधान संसार होगा। लेकिन जब जान लिया कि मैं शरीर नहीं हूं तो तुम्हारा सारा संसार विलीन हो जाता है। तुम अब उसे सम्हालकर नहीं रख सकते, तब एक दूसरा संसार उदय होगा जो आत्मा के इर्द—गिर्द होगा। वह संसार करुणा, प्रेम, सौंदर्य, सत्य, शुभ और निर्दोषता का संसार होगा। केंद्र हट गया, वह अब शरीर में नहीं है। अब केंद्र चेतना में है।

आज इतना ही।


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का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–4)

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मुझे एक झरोखा बना लो—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 3 अप्रैल, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—परमात्मा की स्मृति प्रारंभ कैसे होती है? मैं परमात्मा को याद कैसे करूं? मुझे तो परमात्मा का कोई भी पता नहीं।

 2—अपने भीतर झांकने पर मुझे पता लगा है कि मेरी अनेक वासनाएं रुग्ण हैं, बीमार हैं, विशेषकर नकारात्मक वासनाएं। क्या वासनाएं भी रुग्ण और स्वस्थ होती हैं? और क्या बताने की अनुकंपा करेंगे कि स्वस्थ और रुग्ण वासनाओं में फर्क क्या है?

 3—कुछ दिन से मुझे आपका प्रवचन सुनने का और पुस्तक पढ़ने का अवसर मिला है। यह मेरा सौभाग्य है। परमात्मा के संबंध में इसके पहले मुझे बिल्कुल खिचड़ी जैसा ज्ञान था। अब मुझे विश्वास हो गया है कि अगर आपका आशीर्वाद मिल जाए तो परमात्मा को भी जान सकूंगा। इस संबंध में एक छोटी—सी बात मुझे खटकी हुई है कि अगर हमारी गलती के बिना कोई हमें नुकसान पहुंचाने आए तो उस समय क्या करना उचित होगा?

 4—आप कहते हैं कि जो नाचता—गाता जाता है वही परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर पाता है। लेकिन भक्त—संत तो दर्द और आंसुओ का अर्ध्य लेकर वहां जाने की सलाह देते हैं। यह विरोधाभास स्पष्ट करें।

 5—मैं आप से बहुत—बहुत दूर चला जाना चाहता हूं। लगता है कि पास रहा तो आप मिटाकर रहेंगे।

 

पहला प्रश्‍न :

 

परमात्मा की स्मृति प्रारंभ कैसे होती है? मैं परमात्मा को याद कैसे करूं? मुझे तो परमात्मा का कोई भी पता नहीं है।

 

धुशालाओं में आओ—जाओ। पियक्कड़ों के पास बैठो। जहां शराब ढलती हो वहां से हटो ही मत। सत्संग करो। एक तो यह उपाय है।

परमात्मा से तो तुम्हारी पहचान नहीं। सच, कैसे याद करोगे? किसकी याद करोगे? करोगे भी तो झूठी होगी। हृदय से नहीं उमगेगी। बुद्धि के द्वारा आरोपित होगी। करनी चाहिए, इसलिए करोगे। प्राणों का उससे संवाद नहीं होगा। उसमें तुम्हारे जीवन की धुन नहीं बजेगी। उधार होगी। दो कौड़ी की होगी। ऐसी याद से परमात्मा नहीं पाया जाता है।

तो पहला, सबसे सुगम और सबसे करीब मार्ग है : किसी ऐसे व्यक्ति की आंख में झांको, जिसने परमात्मा जाना हो। क्योंकि जिसने परमात्मा जाना है, उसकी आंख में नशा सदा के लिए शेष रह जाता है। चांद नहीं दिखाई पड़ता तो झील में झांको। झील में प्रतिबिंब दिखाई पड़ेगा। माना कि प्रतिबिंब चांद नहीं है, लेकिन चांद का है। पि१ ३२ र प्रतिबिंब से चांद तक की यात्रा सुगम हो सकेगी। कुछ तो पहचान हो जाएगी। व्यक्ति न देखा, चलो उसकी तस्वीर ही देखी, कुछ तो पहचान हो जाएगी। दर्पण में झलक देखी, उस झलक से ही हृदय तंत्री पर गीत उठना शुरू होता है।

एक अर्थ में सुगम है यह बात, दूसरे अर्थ में कठिन भी। कहां खोजो ऐसे व्यक्ति का? फिर, किसी व्यक्ति में परमात्मा की झलक पड़ी है, यह स्वीकार करना हमारे अहंकार को बड़ा कठिन होता है। परमात्मा की झलक देने वाले व्यक्ति सदा मौजूद रहे हैं, सदा मौजूद हैं। पृथ्वी कभी उनसे खाली नहीं होती। थोड़े होंगे, मगर हैं। और जो खोजता है उसे मिल जाते हैं। प्यासा खोजने निकले तो पानी खोज ही लेता है। भूखा खोजने निकले तो भोजन मिल ही जाता है, देर—अबेर लेकिन नहीं मिलता, ऐसा नहीं है। जिन्होंने भी कभी खोजा है उन्हें मिला है।

लेकिन कठिनाई तुम्हारी तरफ से आती है। तुम्हारा अहंकार यह स्वीकार करने को राजी नहीं होता कि किसी व्यक्ति में परमात्मा की झलक आई है। तुम्हारा अहंकार कहीं झुकने को राजी नहीं होता। तुम्हारा अहंकार हजार बाधाएं खड़ी करता है। तुम्हारा अहंकार पहाड़ बनकर खड़ा हो जाता है बीच में। और पहाड़ बनने की जरूरत भी नहीं है; आंख में जरा—सी ककड़ी भी पड़ी हो, तो भी आंख बंद हो जाती है। और अहंकार का पहाड़ लिए हम चलते हैं। इस पहाड़ के कारण तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। इस पहाड़ को उतार कर रखो।

अहंकार को उतार कर जो रख दे, उसे देर न लगेगी उस व्यक्ति को खोज लेने में, जहां से झलक शुरू हो जाए, जहां से लालसा का जन्म हो, अभीप्सा पैदा हो जाए। सच तो यह है, अगर तुम अहंकार को उतारकर रख दो तो तुम्हें खोजने न जाना पड़ेगा उस व्यक्ति को, वैसे व्यक्ति तुम्हें खोजते चले जाएंगे। सदगुरू तुम्हारे द्वार पर दस्तक देगा। दस्तक शायद बहुत बार दी भी होगी, मगर तुम गहरी नींद में सोए हो। अहंकार बड़ी गहरी निद्रा है। कौन सुनता है दस्तक! और सदगुरूओं की दस्तक बड़ी धीमी होती है, बड़ी सूक्ष्म होती है; चिल्लाने की तरह नहीं होती, कानाफूसी की तरह होती है। बड़ी माधुर्य से भरी होती है! नाजुक होती है। स्त्रैण होती है!

अहंकार उतारकर रखो। परमात्मा की फिक्र छोड़ दो। मैं तुम्हारी बात समझा, तुम्हारा प्रश्‍न समझा, तुम्हारे प्रश्‍न की संगति समझा। ठीक पूछा है तुमने। सा र्थक पूछा है तुमने। यह प्रश्‍न सभी का प्रश्‍न है। करें तो कैसे उसकी याद करें? पुकारना भी चाहें तो किस दि श में पुकारें? किसका नाम लेकर पुकारें? वह है भी? हमें भरोसा भी नहीं आता। अनुभव न हो तो भरोसा कैसे आए? इस दुष्ट — चक्र को तोड़े कैसे? अनुभव हो तो भरोसा आए। और अनुभवी कहते हैं कि भरोसा हो जाए तो अनुभव हो। अब बड़ी अड़चन खड़ी हो जाती है। बिना अनुभव के भरोसा नहीं आता। बिना भरोसे के अनुभव नहीं होता। करें क्या? आदमी बड़ी दुविधा में पड़ जाता है।

तुम्हारा द्वंद्व समझा। तुम्हारी दुविधा समझ में आई। तुम परमात्मा की फिक्र ही मत करो। तुम सिर्फ अपने अहंकार को उतारकर रखो। यह तो कर सकते हो! अहंकार से तुम्हारी भलीभांति पहचान है। अहंकार के ढंग से तुम जिए हो। और अहंकार से तुमने दुख के अतिरिक्त कुछ पाया नहीं। नरकों का ही निर्माण हुआ है तुम्हारे अहंकार से। इसे छोड़ने से कुछ खोएगा नहीं — — दु : ख खो जाएंगे, नरक मिट जाएंगे।

अहंकार से तुमने कभी कोई सुख जाना है? घाव की तरह अहंकार दु : खता है। हर छोटी — छोटी बात दुखाती है। जितना अहंकार होता है उतनी जीवन में पीड़ा होती है। इस पीड़ा के स्रोत को हटा दो। और कोई सदगुरू तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे देगा। या कि तुम अनायास, जिसमें कभी सदगुरू नहीं देखा था, उसमें सदगुरू को पहचान लोगे। कभी — कभी ऐसा होता है कि तुम्हारे पड़ोस में ही मौजूद था और तुमने नहीं सुना। तुम रोज रास्ते पर मिलते — जुलते थे, जयरामजी भी होती थी, और फिर भी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ा।

देखने की आंख चाहिए न! अहंकार वैसी आंख को जन्मने नहीं देता। अहंकार बड़ा पर्दा है।

एक तो उपाय यह है। अगर यह कठिन मालूम पड़े कि अहंकार भी उतरना कहीं आसान तो नहीं, सदगुरू को देखना आसान तो नहीं, फिर एक और उपाय है। वह उपाय है : प्रकृति में तलाश प्रे। झरनों में, वृक्षों में, हवाओं में, चादतारों में! परमात्मा को मत तलाशस्‍त्र, क्योंकि परमात्मा का तो पता नहीं — — सिर्फ तलाश प्रे! अगर है तो मिल जाएगा।

आदमी ने एक दुनिया बना ली है। जो आदमी की बनाई हुई है, उसमें तुम परमात्मा तलाश प्रेगे, नहीं मिलेगा। मंदिरों में मत तलाश। अगर पाना ही हो तो मंदिरों में मत तलाश, मस्जिदों में मत तलाश, गिरजे — गुरुद्वारों में मत तलाश, क्योंकि वे आदमी के बनाए हुए हैं। आदमी के बनाए हुए में परमात्मा का हस्ताक्षर नहीं है। वे मूर्तियां आदमी ने गढ़ी हैं — — तुम जैसे आदमियों ने गढ़ी हैं, जिन्हें खुद भी परमात्मा का कोई पता नहीं है। जिन्हें पता है वे परमात्मा की मूर्ति नहीं गढ़ सकते, क्योंकि वह अमूर्त है। जिन्हें पता है वे उसका मंदिर नहीं बना सकते, क्योंकि यह सारा अस्तित्व उसका मंदिर है। अब और क्या मंदिर? जिन्हें पता है वे तीर्थ निर्मित नहीं करते। प्रत्येक कण तीर्थ है। जहां तुम हो वहां तीर्थ है, क्योंकि हर तरफ परमात्मा ने ही तुम्हे घेरा है। तुम उससे ही घिरे हो।

जैसे मछली सागर के जल से घिरी है, ऐसे तुम परमात्मा से घिरे हो। और मछली तो शायद कभी दुर्घटनावश किसी मछुए के जाल में फंस जाए तो जल के बाहर भी निकल आती है, मगर तुम तो उसके जल के बाहर निकल ही नहीं सकते। उसके अतिरिक्त कोई स्थान नहीं है जहां तुम जा सको। वही है! सब तरफ, सब दिशाओं में! नीचे—ऊपर, आगे—पीछे! उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

परमात्मा अस्तित्व का नाम है।

मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम वृक्षों में परमात्मा को खोजो, क्योंकि फिर तो भूल हो जाएगी। वृक्षों में तुम क्या खोजोगे? अगर तुम कृष्ण को माननेवाले घर में पैदा हुए तो वृक्ष में तुम चाहोगे कि बांसुरी मिल जाए कृष्ण की। वह नहीं मिलेगी।… कि मोर—मुकुट बांधे हुए कृष्ण का दर्शन हो जाए वृक्ष में। वह नहीं होगा। उसके लिए तो मंदिर जाना होगा। और मंदिर झूठे हैं। सब मंदिर झूठे हैं। अस्तित्व के मंदिर के अतिरिक्त और सब मंदिर झूठे हैं। और प्रकृति के वेद के अतिरिक्त सब वेद आदमी के निर्मित हैं।

तुम प्रकृति में तलाशो। मैं नहीं कहता परमात्मा तलाशो— —सिर्फ तलाशो! अगर राख में अंगार होगा, तुम राख में सिर्फ तलाशने जाओगे, अंगार मिल जाएगा। और अंगार है। जीवंत है यह सारा जगत। इसकी जीवन्तता ही तो परमात्मा है। तुम जरा गौर से गहरे झांको।

कुछ ऐसी ही फजा, ऐसी ही शब, ऐसा ही मंजर था

न जाने क्या मुझे भा गया तारों की झिलमिल में

रात तारों की झिलमिल को देखो। उसके साथ झिलमिलाओ। हिलो—मिलो। तुम भी तारे हो जाओ तारों के साथ। पानी की लहरों में झांको। लहर बन जाओ। हवा का झोंका आया, हवा हो जाओ। हरे वृक्ष के पास खड़े होकर हरे हो जाओ। फूल के पास फूल हो जाओ। ऐसे तल्लीन हो जाओ प्रकृति में और तुम परमात्मा को पा लोगे, क्योंकि वह सब तरफ मौजूद है। फिर तो तुम्हें याद अपने—आप आने लगेगी। फिर तो तुम्हारी पहचान गहराने लगेगी।

मैं आह करके अपने खयालों में खो गया

कुछ जिक्र था बहारो— शबे माहताब का

फिर तो कोई चांद की बात करेगा और तुम्हें मालिक की याद आ जाएगी। कोई सूरज की बात करेगा और तुम्हें साहब की याद आ जाएगी। कोई बच्चा हंसेगा— — और तुम्हें उसकी खिलखिलाहट सुनाई पड़ जाएगी। किसी की आंखों में प्रेम के और आनंद के आंसू बहेंगे— —और उन आंसूओं में तुम्हें दर्पण मिल जाएगा, उसकी झलक पकड़ में आ जाएगी।

सहर के झुटपुटे में जब परिंदे चहचहाते हैं

मनाजिर सुबह के जिस दम रसीले गीत गाते हैं

बहारों के जिलौमें दिलरुबा नग्मे लुटाते हैं

हंसी गुचे चमन में सुबह दम जब मुस्कराते हैं

तुम ऐसे में मुझे बेसाख्ता क्यों याद आते हो;

शफक जब झांकती है दामनों से कोहसारों के

फजा में थरथराते हैं तराने आबशारों के

हवा में तैरने लगते हैं नक्शे जूए’— बाले के

बयाबां जब बदल लेते हैं चोले सब्जा जारों के

तुम ऐसे में मुझे बेसाख्ता क्यों याद आते हो;

परी कौसे—कुजा की आस्मां पर जब संवरती है

अदाए—दिलबरी से रंग के सांचो में ढलती है

सबा के मुश्कबू झोंकों से निकहत टूट पड़ती है

बहार आकर चमन की जब गुलों से मांग भरती

तुम ऐसे में मुझे बेसाख्ता क्यों याद आते हो;

कनारे आब का नज्जारा जब मदहोश होता है

दरख्शां रेत का मैदान जब जरपोश होता है।

कंवल आबे — रवा की जीनते — आगोश होता है

हंसी लहरों के दिल में जज्बए पुरजोश होता है

तुम ऐसे में मुझे बेसाख्ता क्यों याद आते हो;

खुनक रातों की भीनी—भीनी जब महकार होती है

सितारों की नजर जब वाकिफे—इसरार होती है

किसी शाइर की चश मे — रूह जब बेदार होती है

मेरे पिदार के तारों में जब झंकार होती है

तुम ऐसे में मुझे बेसाख्ता क्यों याद आते हो?

और अनिवार्यरूपेण उसकी याद आएगी। उसकी स्मृति से तुम भर जाओगे। बेसाख्ता! विवश! तुम चाहोगे भी कि याद न आए तो भी याद आएगी।

आदमी प्रकृति से टूटा है, इसलिए परमात्मा से टूटा है। और आदमी ने धीरे— धीरे अपनी ही बनावट की दुनिया खड़ी कर ली है। हमारे सीमेंट— पत्थरों के मकान, आकाश को छूती हुई गगनचुंबी मंजिलें, हमारे कोलतार और सीमेंट के रास्ते, हमारे बड़े—बड़े कारखाने, हमारी मशीनें— —हमने एक झूठी दुनिया निर्मित कर ली है, आदमी की अपनी। हमने प्रकृति को बाहर कर दिया है। हम प्रकृति के बाहर हो गए हैं। इसलिए अड़चन आ गई है।

नास्तिकों ने नहीं परमात्मा को तुमसे छीना है। कौन नास्तिक की सामर्थ्य है कि किसी से परमात्मा छीन ले? तुमने ही प्रकृति से अपने नाते तोड़ लिए हैं। जिस मात्रा में तुम्हारे प्रकृति से नाते टूट गए हैं, उसी मात्रा में तुम परमात्मा से भी टूट गए हो। तुम्हारी जड़ें उखड़ गई हैं।

मैं समझा तुम्हारी बात। मैं तुम्हारी पीड़ा समझता हूं। तुम्हारे प्रश्‍न का दर्द मेरे खयाल में है। ये दो उपाय हैं। सुगमतम मैं तुमसे कहता हूं यह है। क्योंकि वृक्षों में झांकने में फिर अड़चन होगी। वृक्ष कुछ बोलते नहीं। वृक्ष चुप हैं। उनमें झांकने के लिए बड़ी संवेदनशीलता चाहिए। सदगुरू बोलता है, उसका रोआ—रोआ बोलता है। अगर तुम जरा—सा अहंकार हटाकर रख दो तो ज्योति से ज्योति जल उठे। उसका दीया तुम्हारे बुझे दीए को जला दे।

इसलिए पहले तो मैंने यह सुझाया कि सदगुरू खोजो। अगर यह संभव ही न हो— —बहुत लोगों के लिए संभव नहीं रहा है— —तो उनके लिए फिर एक दूसरा उपाय है: प्रकृति में तलाशो।

लेकिन तुमसे मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मंदिरों में और मस्जिदों में तलाशो। वहां तलाशनेवाले लोग खाली हाथ रह गए हैं। और मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं कि शास्त्रों में तलाशो, क्योंकि शास्त्रों में शब्द हैं और शब्दों के साथ तुम खेल करोगे, तुम पंडित हो जाओगे, प्रज्ञा को उपलब्ध न हो सकोगे। और शास्त्र तुम्हें ज्ञान से भर देंगे, प्रेम से नहीं। और प्रेम से मिलता है परमात्मा, ज्ञान से नहीं।

दूसरा प्रश्‍न :

 

अपने भीतर झांकने पर मुझे लगा है कि मेरी अनेक वासनाएं रुग्ण हैं, बीमार हैं, विशेषकर नकारात्मक वासनाएं। तो क्या वासनाएं भी स्वस्थ और रूग्ण होती हैं? और क्या बताने की कृपा करेंगे कि स्वस्थ और रुग्ण वासनाओं में फर्क क्या है?

 

वासना स्वाभाविक है। प्रकृति की भेंट है। परमात्मा का दान है। वासना अपने—आप में बिल्कुल स्वस्थ है। वासना के बिना जी ही न सकोगे, एक क्षण न जी सकोगे।

सच तो यह है, संसार के पुराने से पुराने शास्त्र एक बात कहते हैं : परमात्मा अकेला था। उसके मन में वासना जगी कि मैं दो होऊं, इससे संसार पैदा हुआ। परमात्मा में भी वासना जगी कि मैं दो होऊं, कि मैं अनेक होऊं, कि मैं फैलूं, विस्तीर्ण होऊं, तो संसार पैदा हुआ! हम परमात्मा की ही वासना के हिस्से हैं, उसकी ही वासना की किरणें हैं।

इसलिए पहली बात : वासना स्वाभाविक है। वासना प्राकृतिक है, नैसर्गिक है। वासना बुरी नहीं है, पाप नहीं है।

जिन्होंने तुमसे कहा वासना पाप है, वासना बुरी है, वासना से बचो, वासना से हटो, वासना से भागो, वासना को दबाओ, काटो, मारो— —उन्होंने वासना को रुग्ण कर दिया। दबाई गई वासना रुग्ण हो जाती है। जो भी दबाया जाएगा वही जहर हो जाता है। दबने से मिटता तो नहीं, भीतर— भीतर सरक जाता है। उसकी सहज प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, क्योंकि तुम उसे प्रकट नहीं होने देते। वह फिर असहज रूप से प्रकट होने लगता है। और असहज रूप से जब वासना प्रकट होती है, तो विकृति, तो रोग, तो रुग्ण। तो तुमने एक सुंदर कुरूप कर डाला।

वस्तु को

वासना तो परमात्मा की दी हुई है, विकृति तुम्हारे महात्माओं की दी हुई है। महात्माओं से सावधान! अपने परमात्मा को महात्माओं से बचाओं। तुम्हारे महात्मा परमात्मा के एकदम विपरीत मालूम होते हैं। और तुम्हें यह समझ में आ जाए कि तुम्हारे महात्मा परमात्मा के विपरीत है; तुम्हें यह दिखाई पड़ जाए कि जो परमात्मा ने दिया है स्वाभाविक, सरल, जो जीवन का आधार है, उसे नष्ट करने में लग हैं— —तो तुम्हारे जीवन से रुग्णता समाप्त हो जाएगी, वासना का रोग विलीन हो जाएगा, विकृति विदा हो जाएगी।

समझो। कामवासना है। स्वाभाविक है। तुमने पैदा नहीं की है। जन्म के साथ मिली है। जीवन का अंग है। अनिवार्य अंग है। तुम्हारे मां और पिता को कामवासना न होती तो तुम न होते। इसलिए शास्त्र ठीक ही कहते हैं कि परमात्मा में वासना उठी होगी, तभी संसार हुआ। तुम्हारे मां और पिता में वासना न उठती तो तुम न होते। तुममें वासना उठेगी तो तुम्हारे बच्चे होंगे।

यह जो जीवन की श्रंखला चल रही है, यह जो जीवन का सातत्य है, यह जो जीवन की सरिता बह रही है, इसके भीतर जल वासना का है।

वासना बुरी नहीं हो सकती, क्योंकि जीवन बुरा नहीं है। जीवन प्यारा है, अति सुंदर है। लेकिन वासना को दबाने में लग जाओ— — और विकृति शुरू हो जाती है। वासना के ऊपर चढ़कर बैठ जाओ, उसकी छाती पर बैठ जाओ, उसको प्रकट न होने दो, उसको दबाओ, काटो, छांटो, कि बस फिर विकृति शुरू होती है। फिर अड़चन शुरू होती है। फिर वासना ऐसे ढंग से प्रकट होने लगती है, जो कि स्वाभाविक नहीं है।

जैसे : एक सुंदर स्त्री को देखकर तुम्हारे मन में अहोभाव का पैदा होना जरा भी अशस्‍त्र नहीं है। सुंदर फूल को देखकर तुम्हारे मन में अगर यह भाव उठता है सुंदर है, तो कोई पाप तो नहीं है। चांद को देखकर सुंदर है, तो पाप तो नहीं है। तो मनुष्य के साथ ही भेद क्यों करते हो? सुंदर स्त्री, सुंदर पुरुष को देखकर सौंदर्य का बोध होगा। होना चाहिए। अगर तुममें जरा भी बुद्धिमत्ता है तो होगा। अगर बिल्कुल जड़बुद्धि हो तो नहीं होगा।

इसलिए सौंदर्य के बोध में तो कुछ बुराई नहीं है, लेकिन तत्क्षण तुम्हारे भीतर घबड़ाहट पैदा होती है कि पाप हो रहा है; मैंने इस स्त्री को सुंदर माना, यह पाप हो गया, कि मैने कोई अपराध कर लिया। अब तुम इस भाव को दबाते हो। तुम इस स्त्री की तरफ देखना चाहते हो और नहीं देखते। अब विकृति पैदा हो रही है। अब तुम और बहाने से देखते हो, किसी और चीज को देखने के बहाने से देखते हो। तुम किस को धोखा दे रहे हो? या तुम भीड़ में उस स्त्री को धक्का मार देते हो। यह विकृति है। या तुम बाजार से गंदी पत्रिकाएं खरीद लाते हो, उनमें नग्न स्त्रियों के चित्र देखते हो। यह विकृति है।

और यह विकृति बहुत भिन्न नहीं है— — जो तुम्हारे ऋषि— मुनियों को होती रही। तुमने क थाएं पढ़ी हैं न, कि ऋषि ने बहुत साधना की और साधना के अंत में अप्सराएं आ गईं आकाश से। उर्वश आ गई और उसके चारों तरफ नाचने लगी। पोरनोग्रेफी नई नहीं है। ऋषि— मुनियों को उसका अनुभव होता रहा है। वह सब तरह की अश्लील भाव— भंगिमाएं करने लगी ऋषि — मुनियों के पास।

अब किस अप्सरा को पड़ी है ऋषि— मुनि के पीछे पड़ने की! ऋषि— मुनियों के पास, बेचारों के पास है भी क्या, कि अप्सराएं उनको जंगल में तलाश जाएं और नग्न होकर उनके आस— पास नाचे! सच तो यह है कि ऋषि — मुनि अगर अप्सराओं के घर भी दरवाजे पर जाकर खड़े रहते तो क्यू में उनको जगह न मिलती। वहां पहले से ही लोग राजा — महाराजा वहां खड़े होते। ऋषि — मुनियों को कौन घुसने देता? मगर कहानियां कहती हैं कि ऋषि— मुनि अपने जंगल में बैठे हैं — — आंख बंद किए, श को जला कर, गला कर, भूखे— प्यासे, व्रत — उपवास किए हुए — — और अप्सराएं उनकी तलाश में आती हैं।

ये अप्सराएं मानसिक हैं। ये उनके मन की दबी हुई वासनाएं हैं। ये कहीं हैं नहीं। ये बाहर नहीं है। यह प्रक्षेपण है। यह स्वप्न है। उन्होंने इतनी बुरी तरह से वासना को दबाया है कि वासना दबते— दबते इतनी प्रगाढ़ हो गई है कि वे खुली आंख सपने देखने लगे हैं, और कुछ नहीं। हैल्यूसिनेशन है, संभ्रम है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, किसी आदमी को ज्यादा दिन तक भूखा रखा जाए तो उसे भोजन दिखाई पड़ने लगता है। और किसी आदमी को वासना से बहुत दिन तक दूर रखा जाए तो उसकी वासना का जो भी विषय हो वह दिखाई पड़ने लगता है। भ्रम पैदा होने लगता है। बाहर तो नहीं है, वह भीतर से ही बाहर प्रक्षेपित कर लेता है। ये ऋषि— मुनियों के भीतर से आई हुई घटनाएं हैं, बाहर से इनका कोई संबंध नहीं है। कोई इंद्र नहीं भेज रहा है। कहीं कोई द्वंद्व नहीं है और न कहीं उर्वशी है। सब इंद्र और सब उर्वशिया मनुष्य के मन के भीतर का जाल हैं।

तो तुम अगर कभी यह सोचते हो कि जंगल में बैठने से उर्वशी आएगी, भूल से मत जाना, कोई उर्वशी नहीं आती। नहीं तो कई ऋषि—मुनि इसी में हो गए हों, बैठे हैं जंगल में जाकर कि अब उर्वशी आती होगी, अब उर्वशी आती होगी! उर्वशी तुम पैदा करते हो, दमन से पैदा होती है। यह विकृति है। इस स्थिति को मैं मानसिक विकार कहता हूं। यह कोई उपलब्धि नहीं है। यह विक्षिप्तता है। यह है वासना की रुग्ण दशा।

तुम्हारे भीतर जो स्वाभाविक है, उसको सहज स्वीकार करो। और सहज स्वीकार से क्रांति घटती है। जल्दी ही तुम वासना के पार चले जाओगे। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वासना में सदा रहोगे। लेकिन पार जाने का उपाय ही यही है कि उसका सहज स्वीकार कर लो। दबाना मत, अन्यथा कभी पार न जाओगे। उर्वशिया आती ही रहेंगी।

तुमने देखा कि चूंकि पुरुषों ने ही ये शास्त्र लिखे हैं, इसलिए उर्वशियां आती हैं। स्त्रियां अगर शास्त्र लिखतीं और स्त्रियां अगर साधनाएं करती जंगलों में, पहाड़ों में, तुम क्या समझते हो उर्वशी आती? स्वयं इंद्र आते। तब उनकी कहानियों में उर्वशी इंद्र को भेजती, क्योंकि उर्वशी से काम नहीं चल सकता था। जो तुम्हारी वासना का विषय है वही आएगा। उन्होंने अप्सराएं नहीं देखी होती, उन्होंने देखे होते कि चलो हिंदकेसरी चले आ रहे हैं, कि विश्व— विजेता मुहम्मद अली चले आ रहे हैं। स्त्रियां देखती उस तरह के सपने कि कोई अभिनेता चला आ रहा है। कल्पना है तुम्हारी।

मनुष्य वासना के पार निश्‍चित जा सकता है, जाता है। जाना चाहिए। मगर वासना से लड़कर कोई वासना के पार नहीं जाता। जिससे तुम लड़ोगे उसी में उलझे रह जाओगे। दुश्मनी सोच—समझ लेना, क्योंकि जिससे तुम दुश्मनी लोग उसी जैसे हो जाओगे। यह राज की बात समझो। मित्रता तो तुम किसी से भी करो तो चल जाएगी, मगर दुश्मनी बहुत सोच—समझकर लेना, क्योंकि दुश्मन से हमें लड़ना पड़ता है। और जिससे हमें लड़ना पड़ता है, हमें उसी की तकनीक, उसी के उपाय करने पड़ते हैं।

हिटलर से लड़ते वक्त चर्चिल को हिटलर जैसा ही हो जाना पड़ा। इसके सिवाए कोई उपाय न था। जो धोखा— धड़ी हिटलर कर रहा था वहीं चर्चिल को करनी पड़ी। हिटलर तो हार गया, लेकिन हिटलरवाद नहीं हारा। हिटलरवाद जारी है। जो—जो हिटलर से लड़े वही हिटलर जैसे हो गए। जीत गए, मगर जब तक जीते तब तक हिटलर उनकी छाती पर सवार हो गया।

जिससे तुम लड़ते हो, स्वभावत : उसके जैसा ही तुम्हें हो जाना पड़ेगा। लड़ना है तो उसके रीति—रिवाज पहचानने होंगे, उसके ढंग—ढौल पहचानने होंगे, उसकी कुंजिया पकड़नी होंगी, उसके दांव—पेंच सीखने होंगे। उसी में तो तुम उस जैसे हो जाओगे।

दुश्मन बड़ा सोचकर चुनना। वासना को अगर दुश्मन बनाया तो तुम धीरे— धीरे वासना के दलदल में ही पड़ जाओगे, उसी में सह जाओगे।

वासना दुश्मन नहीं है। वासना प्रभु का दान है। इससे शुरू करो। इसे स्वीकार करो। इसको अहोभाव से, आनंद—भाव से अंगीकार करो। और इसको कितना सुंदर बना सकते हो, बनाओ। इससे लड़ो मत। इसको सजाओ। इसे मृंगार दो। इसे सुंदर बनाओ। इसको और संवेदनशील बनाओ। अभी तुम्हें स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है, अपनी वासना को इतना संवेदनशील बनाओ कि स्त्री के सौंदर्य में तुम्हें एक दिन परमात्मा का सौंदर्य दिखाई पड़ जाए। अगर चांदत्तारों में दिखता है तो स्त्री में भी दिखाई पड़ेगा। पड़ना ही चाहिए। अगर चांद तारों में है तो स्त्री में क्यों न होगा? स्त्री और पुरुष तो इस जगत की श्रेष्ठतम अभिव्यक्तियां है। अगर फूलों में है——गूंगे फूलों में——तो बोलते हुए मनुष्यों में न होगा? अगर पत्थर पहाड़ों में है——जडु पत्थर—पहाड़ो में ——तो चैतन्य मनुष्य में न होगा… संवेदनशील बनाओ।

वासना से भगो मत। वासना से डरो मत। वासना को निखारो, शद्ध करो। यही मेरी पूरी प्रक्रिया है जो मैं यहां तुम्हें दे रहा हूं। वासना को शद्ध करो, निखारो। वासना को प्रार्थनापूर्ण करो। वासना को ध्यान बनाओ। और धीरे—धीरे तुम चमत्कृत हो जाओगे कि वासना ही तुम्हें वहां ले आयी, जहां तुम जाना चाहते थे वासना से लड़कर और नहीं जा सकते थे।

प्रेम करो। प्रेम से बचो मत। गहरा प्रेम करो! इतना गहरा प्रेम करो कि जिससे तुम प्रेम करो, वहीं तुम्हारे लिए परमात्मा हो जाए। इतना गहरा प्रेम करो! तुम्हारा प्रेम अगर तुम्हारे प्रेम—पात्र को परमात्मा न बना सके तो प्रेम ही नहीं है, तो कहीं कुछ कमी रह गई। तुम्हारे महात्मा कहते हैं कि प्रेम के कारण तुम परमात्मा को नहीं पा रहे हो। मैं तुमसे कहता हूं : प्रेम की कमी के कारण तुम परमात्मा को नहीं पा रहे हो। इस भेद को समझ लेना। इसलिए अगर तुम्हारे महात्मा मुझसे नाराज हैं तो बिल्कुल स्वाभाविक है। अगर मैं सही हूं तो वे सब नाराज होने ही चाहिए।

मैं कह रहा हूं : प्रेम तुममें कम है, इसलिए महात्मा तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। तुम्हारी वासना बड़ी अधूरी है, अपंग है। तुम्हारी वासना को पंख नहीं है। पंख दो! तुम्हारी वासना को उड़ना सिखाओ! तुम्हारी वासना जमीन पर सरक रही है। मैं कहता हूं: वासना को आकाश में उड़ना सिखाओ।

परमात्मा अगर वासना के द्वारा संसार में उतरा है, तो तुम वासना की ही सीढ़ी पर चढ़कर परमात्मा तक पहुंचोगे, क्योंकि जिस सीढ़ी से उतरा जाता है उसी से चढ़ा जाता है। फिर तुम्हें दोहरा कर कह दूं। पुराने शास्त्र कहते हैं : परमात्मा में वासना जगी कि मैं अनेक होऊं। अकेला—अकेला थक गया होगा। तुम भीड़ से थक गए हो, वह अकेला—अकेला थक गया था। वह उतरा जगत में। तुम भीड़ से थक गए हो, अब तुम वापिस एकांत पाना चाहते हो, मोक्ष पाना चाहते हो, कैवल्य पाना चाहते हो, ध्यान—समाधि पाना चाहते हो। चढ़ो उसी सीढ़ी से, जिससे परमात्मा उतरा।

इसलिए मैं कहता हूं : संभोग और समाधि एक ही सीढ़ी के दो हिस्से हैं; दिशा का भेद है, और कोई भेद नहीं है। परमात्मा उतरा है समाधि से संभोग की तरफ, तो संसार बना है, नहीं तो संसार नहीं बन सकता था। तुम चलों संभोग से समाधि की तरफ, तो तुम संसार से मुक्त हो जाओगे। उसी सीढ़ी से चलना होगा, और कोई सीढ़ी नहीं है।

तुम जिस रास्ते से चलकर मुझ तक आए हो, घर जाते वक्त उसी रास्ते से लौटोगे न! तुम यह तो नहीं कहोगे कि इस रास्ते से तो हम अपने घर से दूर गए थे, इसी रास्ते पर हम कैसे अपने घर के पास जाएं, यह तो बड़ा तर्क विपरीत मालूम पड़ता है। नहीं; तुम जानते हो कि तर्क विपरीत नहीं है। जो रास्ता यहां तक लाया है, वहीं तुम्हें घर वापस ले जाएगा; सिर्फ दिशा बदल जाएगी, चेहरा बदल जाएगा। अभी यहां आते वक्त मेरी तरफ मुंह था, जाते वक्त मेरी तरफ पीठ हो जाएगी। आते वक्त घर की तरफ पीठ थी, जाते वक्त घर की तरफ मुंह हो जाएगा। बस इतना—सा रूपांतरण। विरोध नहीं, वैमनस्य नहीं, दमन नहीं, जबर्दस्ती नहीं, हिंसा नहीं।

तुमने पूछा है कि अपने भीतर कभी झांकने पर मुझ लगा है कि मेरी अनेक वासनाएं रुग्ण हैं। देखना, उनका विश्लेषण करना। जो—जो वासनाएं रुग्ण हों, समझ लेना। खोज करोगे, अनुभव में भी आ जाएगा। वे वे ही वासनाएं हैं, जिन—जिनको तुमने दबाया है या जिन— जिनको तुम्ह सिखाया गया है दबाओ। वे रुग्ण हो गई हैं। उन्हें अभिव्यक्ति का मौका नहीं मिला। ऊर्जा भीतर पड़ी—पड़ी सह गई है। ऊर्जा को बहने दो।

झरने रुक जाते हैं तो सह जाते हैं। नदी ठहर जाती है तो गंदी हो जाती है। स्वच्छता के लिए नीर बहता रहना चाहिए। बहते नीर बनो! पानी बहता रहे। बहाव को अवरुद्ध मत करो। नहीं तो तुम बीमार वासनाओं से घिर जाओगे। और बीमार वासनाएं हों तो आत्मा स्वस्थ नहीं हो सकती। वे बीमार वासनाएं आत्मा के गले में पत्थर की चट्टानों की तरह लटकी रहेंगी; आत्मा उठ नहीं सकती आकाश में। वे बीमार वासनाएं घाव की तरह होंगी। उनसे मवाद रिसती रहेगी।

पूछा तुमने: तो क्या वासनाएं भी स्वस्थ और रुग्ण होती हैं?

निश्‍चित ही। स्वीकृत वासना, अहोभाव से अंगीकृत वासना स्वस्थ होती है। अस्वीकृत वासना, इनकार की गई वासना, अस्वस्थ हो जाती है। और जिसे तुम इनकार करते हो, वह बदला मांगती है, वह प्रतिरोध करती है और प्रतिशोध चाहती है। जितना तुम दबाते हो उतना ही वह धक्के मारती है कि मैं प्रकट हो कर रहूंगी।

इसलिए अकसर ऐसा हो जाता है कि तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी सिवाए रुग्ण वासनाओं की गठरी के और कुछ नहीं रह जाते। अगर उनके मन की तुम जांच पड़ताल करो तो बड़े चकित हो जाओगे, वहां सिर्फ रुग्ण वासनाएं हैं। अगर तुम उनके सपनों में झांको तो बहुत भयभीत हो जाओगे; उससे बेहतर सपने तुम देखते हो। इस बात का तुम्हें शायद पता न हो कि साधारण जन गंदे सपने नहीं देखते, या बहुत कम देखते हैं; लेकिन जिनको तुम साधु पुरुष कहते हो, उनके सब सपने गंदे होते हैं। होंगे ही, क्योंकि दिनभर जिसको दबाया है वह रात में बदला लेता है। इसलिए तो साधु—संन्यासी सोने से डरने लगते हैं। नींद कम करने लगते हैं— —पांच घंटे सोओ, चार घंटे सोओ, तीन घंटे। जो साधु जितना कम सोता है, लोग

कहते हैं : ” हां ” यह साधु! दो ही घंटे सोता है। ” मगर यह नींद से डरता क्यों है? इतनी घबड़ाहट? या है? नींद जैसी सुखद प्रक्रिया, नींद जैसी शांत प्रक्रिया! पतंजलि ने तो कहा है : समाधि और सुषुप्ति एक जैसे हैं। गहरी नींद समाधि जैसी ही है। जरा — सा फर्क है। इतना — सा फर्क है। कि समाधि में आदमी जागा होता है और नींद में सोया होता है। मगर दोनों दशाएं एक जैसी हैं, क्योंकि दोनों ही स्थितियों में मन शांत हो गया होता है, विचार विलीन हो गए होते हैं, निर्विचार दशा आ गई होती है।

सुषुप्ति में भी तुम परमात्मा में गिर जाते हो। रोज गिरते हो। इसलिए तो गहरी नींद के बाद सुबह ताजापन लगता है, पुनरुज्जीवन मालूम होता है। फिर लौट आए ताजे होकर! किसी ऊर्जा के स्रोत में नहाकर लौट आए! कुछ पता नहीं कहां गए, कैसे गए, मगर गए। हो श नहीं था, लेकिन गए।

सुषुप्ति है : सोए — सोए परमात्मा में प्रवेश। और समाधि है : जागे — जागे परमात्मा में प्रवेश। प्रवेश तो एक ही है। द्वार एक ही है। सिर्फ इतना ही फर्क है : एक में नींद है, एक में जागरण है। लेकिन तुम्हारे साधु — संन्यासी बड़े घबड़ाते हैं नींद से, बड़े उपाय करते रहते हैं कि किस तरह न सोए। उनका भय क्या है? उनका भय बेचारों का यही है। वे दया — योग्य हैं। जो सो भी नहीं सकते शस्‍त्र से, उन पर दया न करो तो और क्या करो। उनकी कठिनाई यही है कि दिन भर जो — जो दबाया है, समझो कि दिन — भर उपवास किया है, तो वे रात — डरते हैं, कि जब वे सोएंगे तब राजमहल में निमंत्रण मिलने ही वाला है। वे बच नहीं सकेंगे। राजा भोज देने ही वाला है सपने में। और वहां सभी तरह के मिष्ठान होंगे और सब तरह के भोजन होंगे। दिन भर सोचा वही है, लड़े उसी से है।

तुम भी उपवास करके देखो। जिस दिन उपवास करते हो, उस दिन दिन — भर भोजन करना पड़ता है। बारबार भोजन की याद आती है। राह से गुजरते हो, उस दिन फिर जूते की दुकानें नहीं दिखतीं बाजार में, कपड़े की दुकानें नहीं दिखती उस दिन बाजार में — — उस दिन रेस्त्रां और होटल, बस यही — यही दिखाई पड़ते हैं। सब तरफ से भोजन की गंध तैरती आती है — — ये पकौड़े चले आ रहे हैं! ये भजिए चले आ रहे हैं! सारा जगत भोजन बन जाता है। जिसे देखते हो वही याद दिलाता है, भोजन की याद दिलाता है। रोज इसी रास्ते से निकलते थे, मगर तब यह नहीं हुआ था। रोज भोजन किए निकले थे, कुछ दबाया नहीं गया था, कोई रुग्ण नहीं था।

अगर दिन — भर तुम लड़े कि कहीं स्त्री का प्रभाव न पड़ जाए…। और साधु किस तरह से लड़ते हैं कि जिसका हिसाब नहीं है! स्त्री दिखाई न पड़ जाए, तो आंख झुकाकर चलो। जहां स्त्री बैठी हो उस जगह पर मत बैठ जाना! स्त्री जा भी चुकी है, मगर उसकी जगह पर मत बैठ जाना! वह ज गह ही खतरनाक हो गई। तो साधु अपना आसन लेकर साथ चलते हैं कि कहीं कोई किसी के आसन पर बैठना पड़े, पता नहीं कोई स्त्री पहले बैठी रही हो, फिर! कहीं रोग लग जाए! अपना आसन साथ रखते हैं। अपनी पिच्छी साथ रखते हैं, जहां बैठते हैं वहां पहले सफाई कर ली, फिर बैठ गए — — देखकर कि अब कोई खतरा नहीं है। ऐसे हरे हुए लोग

दया – योग्य हैं। इनका जीवन जीवन नहीं है। जिसको मनोवैज्ञानिक कहते हैं – – ” पैरानाया ” भयाक्रांत! कैप रहे हैं। चौबीस घंटे कैप रहे हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए!

और जिससे तुम हरे हो उसकी याद बनी रहती है। वह सब जगह से दिखाई पड़ता है। कोई हिप्पी चला जा रहा है- – लंबे बाल। तुम्हारे मुनि महाराज को स्त्री दिखाई पड़ेगी, पुरुष नहीं दिखाई पड़ सकता। ऐसा मैं अनुभव से कह रहा हूं।

मैं एक साधु के सा थ बैठा था गंगा के किनारे। बचपन के मेरे मित्र थे। फिर मैं असाधु हो गया, वे साधु हो गए। दोनों बैठे बात कर रहे थे उनकी आंखें बारबार तट पर कोई स्नान करने आया उसकी तरफ जाने लगी। मैंने भी देखा कि कौन है। देखा कि एक स्त्री स्नान कर रही है। मैंने उनसे कहा कि यह बात आगे नहीं चल सकेगी। तुम्हारा ध्यान बारबार स्त्री की तरफ जा रहा है। तुम जाकर उसे देख ही आओ।

पीठ थी हमारी तरफ। वे गए, वहां से सिर ठोंकते लौटे कि स्त्री है ही नहीं वह, सिर्फ बाल लंबे हैं, कोई पुरुष है। मगर पीछे से लंबे बाल….।

वासना दबाई हो जिसने, उसके लिए बड़ी कठिनाइयां हैं। उसे कोई छोटी – मोटी चीज भी प्रतीक बन सकती है।

फ्रायड ने इस संबंध में बड़ी खोज की है। जिन लोगों ने अपनी वासना को दबा लिया है, उन्हें स्त्रियां तो दूर, स्त्री की साड़ी लटकी हो, उसमें भी रस होता है। जिसने पुरुष के प्रति अपनी वासना दबा ली हो, उसे हर पुरुष की चीज में रस हो जाता है। यह विकृति है। यह रुग्ण – चित दशा है।

तो फिर डरोगे रात सोने में। क्योंकि सोए कि अड़चन हुई। सोए कि घबड़ाहट आई। जागने में तो किसी तरह अपने को संभाले रहे, संभाल – संभाल चलते रहे। नींद में कौन संभालेगा? नींद में तो सब संभालना बंद हो जाएगा। और जो दिन भर दबा रहा है वह एकदम से प्रकट होगा।

इसलिए तो मनसविद कहते हैं कि तुम्हें जानने के लिए तुम्हें सपनों का विश्लेषण करना पड़ता है। तुम इतने झूठे हो कि तुम्हारे जागरण का तो कोई भरोसा ही नहीं है। तुम्हारा जागरण तो बिल्कुल प्रपंच है। तुम मनोवैज्ञानिक के पास जाओ तो वह कहता है अपने सपने लाओ। रोज – रोज तुमसे कहता है अपने सपने लाओ, सपने लिखवाओ, सपने बताओ, सपने की डायरी बनाओ। तुम सोचते भी हो कि भई तुम्हें जो पूछना हो, मुझसे ही पूछ लो, सपने को क्या देखना? मनोवैज्ञानिक कहता है कि सपने से ही पता चलेगा कि तुम असलियत में क्या हो। जागने में तो तुम धोखा दे सकते हो। और तुम इतने कुशल हो गए हो धोखा देने में कि दूसरे को हीं नहीं दे सकते, अपने को भी दे सकते हो। कुछ लोग तो इतने कुशल हो गए हैं धोखा देने में कि सपने तक में थोड़ा – सा धोखा कर जाते हैं। जैसे तुम्हें अपने बाप की हत्या करनी है, ऐसा तुम्हारे दिल में लगा रहता है कि बाप ने बहुत सताया है, कि सता रहा है, कि बूढा अभी भी जा नहीं रहा है, कब जाएगा कब नहीं जाएगा। ऐसे तुम्हारे मन में विचार चल रहे हैं। मगर पिता पिता है और संस्कृति कहती है, सभ्‍यता कहती है – – आदर दो। इसलिए सब संस्कृतियां, सब सभ्‍यताएं कहती हैं कि पिता को आदर दो, क्योंकि खतरा है, नहीं तो बाप-बेटे के बीच झगड़ा होनेवाला है। बेटे बाप को मार डालेंगे। इसको बचाने के लिए ही सारी सभ्‍यताएं…।

यह बड़े मजे की बात है। अगर तुम सभ्‍यताओं के नियम पहचानने की कोशिश करो तो उनसे राज पता चलता है कि मामला क्या है। इतनी दुनिया की सभ्‍यताएं हैं- -अलग-अलग ढंग, अलग-अलग व्यवस्था, भोजन अलग, कपड़े अलग- -मगर एक बात में सब राजी हैं कि बेटा बाप का सम्मान करें। अनुभव है सभी को कि अगर सम्मान ठोक-ठोक कर बिठाया नहीं गया, तो एक न एक दिन अपमान होनेवाला है। बेटे के द्वारा बाप का। इसलिए उसको बिठा ही देना है ठोक-ठोक कर। फिर वह इतना गहरा बैठ जाता है संस्कार…… मनोवैज्ञानिक कहते हैं, सपने में भी तुम अपने बाप की हत्या नहीं करते, अपने चाचा की कर देते हो, क्योंकि वह पिता जैसे मालूम होते हैं। अब चाचा का कोई हाथ ही नहीं। चाचा की कोई हत्या करना ही नहीं चाहता, तुम खयाल रखना। चाचा से तो दोस्ती होती है। चाचा से तो सबकी दोस्ती होती है। चाचा तो प्यारा आदमी होता है। बाप जैसा होता है और बाप जैसा नहीं होता। मित्रता होती है। न आज्ञा देता है, न जबर्दस्ती स्कूल भेजता है? बल्कि मौका पड़ जाए तो कुछ पैसे भी दे देता है, स्कूल से निकालना हो तो छुट्टी भी निकलवा देता है। चाचा तो भिन्न तरह का आदमी होता है। चाचा को कौन मारना चाहता है!

लेकिन सपने में, मनोवैज्ञानिक कहते हैं, पिता की हत्या करने का भाव सपने तक में आदमी रोक लेता है कि यह बात तो हो ही नहीं सकती। चाचा को मार देता है। चाचा पिता जैसा लगता है। वह प्रतीक बन जाता है।

तुम खयाल करना। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सपने तक में धोखा शुरू हो गया है। आदमी का धोखा इतना गहरा चला गया है! लेकिन सपनों में फिर भी तुम्हारी प्रामाणिकता का पता चल जाता है। अगर तुम्हारे तीन महीने तक के सारे सपने तुम खोलकर रख दो तो तुम्हारी आत्मकथा हो जाएगी- -असली आत्मकथा! असली आत्मकथा उन बातों की नहीं है जो तुम जागकर सोचते हो- -उन बातों की है, जो तुम सोकर सोचते हो। क्योंकि उससे पता चलता है तुम कहां हो। और बड़ी उल्टी बात होगी। ऊपर-ऊपर तुम कुछ थे, भीतर- भीतर तुम कुछ थे। ऊपर-ऊपर तुम इतने शांत थे और भीतर तुमने हत्याएं कर दीं। ऊपर-ऊपर तुम इतने भले मालूम होते थे और भीतर- भीतर तुमने क्या नहीं था जो नहीं किया? बड़े से बड़े अपराधी जो करते हैं, वह हर आदमी अपने सपने में कर लेता है। सपने में तृप्ति मिल जाती है।

रुग्ण मत कर लेना अपनी वासनाओं को, अन्यथा तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। स्वीकार करो। परमात्मा ने जो भी दिया है उसके पीछे राज होगा, उसके पीछे कुछ छिपी होगी संपदा। इनकार मत करो। तुम परमात्मा की जिस चीज को भी इन्कार करोगे, उसके माध्यम से परमात्मा का ही इनकार होगा। इसलिए भक्त कहते हैं : सब स्वीकार कर लो। और अहोभाव से स्वीकार कर लो- -उदासी से नहीं” विवशता से नहीं, मजबूरी से नहीं। और स्वीकार के बाद सरलता से जो तुम्हें मिला है उसको गहराओ। उसको गहराते-गहराते ही तुम पाओगे कि जहां केवल कंकड़-पत्थर और धूल- धेवांस मालूम होती थी, गड्ढ़ा खोदते-खोदते जल के स्रोत मिल गए हैं, कुएं बन गए हैं।

हर वासना से प्रार्थना तक पहुंचने का उपाय है। खुदाई ठीक से करो। मैं तुम्हें जीवन-स्वीकार का धर्म दे रहा हूं। इसमें इनकार नहीं, जरा भी इनकार नहीं। मैं तुम्हें प्रामाणिक मनुष्य होने की कला सिखा रहा हूं। तुम्हें अब तक अप्रमाणिक होने की बातें बताई गई हैं। अब तक तुम्हें जबर्दस्ती अपने को कुछ बना लेने की चेष्टा सिखाई गई है। मैं तुमसे कह रहा हूं : सहजता से तुम हो जाओगे जो तुम होना चाहते हो। सहजता धर्म होना चाहिए। सहज-योग ही एकमात्र योग होना चाहिए।

और अगर तुमने इस संसार को स्वीकार न किया तो इस संसार के बनानेवाले को कैसे स्वीकार कर सकोगे?

वासना का इनकार नास्तिकता है। वासना का स्वीकार आस्तिकता है।

जीस्त को पुरबहार क्या करते

दिल ही था सोगवार क्या करते

आपके गम की बात है वर्ना

खुद को हम बेकरार क्या करते

आपका ऐतबार ही कब था

आपका इंतजार क्या करते

थी हमें क्या बहार से उम्मीद

हम उम्मीदे-बहार क्या करते

जीस्त पर कब हमें भरोसा था

आप पर एतबार क्या करते

थे न जिनको अजीज खारे-चमन

वह भला गुल से प्यार क्या करते

”शमीय:” जब न शब ही रास आई

सुबह का इंतजार क्या करते

थोड़ा समझो।

आपका ऐतबार ही कब था

आपका इंतजार क्या करते

जीवन को ही स्वीकार न करोगे तो जीवन के पीछे छिपे हुए को कैसे स्वीकार करोगे? घूंघट से ही भाग खड़े होओगे तो घूंघट के पीछे जो चेहरा छिपा है, जो प्यारा छिपा है, उसे उघाड़ कैसे पाओगे? यह प्रकृति उसका घूंघट है। वासना प्रा र्थना का घूंघट है। यह सब रूप- रंग उस अरूप और अरंग का घूंघट है। यह सब आकार उस निराकार पर घूंघट है। और बड़े प्यारे हैं। घूंघट भी बड़ा प्यारा है, क्योंकि उसके चेहरे पर है। उसके चेहरे पर होने का कारण सब प्यारा है। इस जगत् में ऐसा कुछ है ही नहीं जो प्यारा न हो। और अगर ऐसा कुछ मालूम पड़े कि प्यारा नहीं है तो फिर से सोचना, सोच- सोच कर फिर- फिर सोचना : कहीं तुम अपनी भूल पाओगे। होनी ही चाहिए तुम्हारी भूल, क्योंकि तुम परमात्मा से ज्यादा बुद्धिमान नहीं हो सकते।

जिससे यह जगत- का प्रवाह आ रहा है, तुम उसमें सुधार करने की सोच रहे हो? तुम्हारी चेष्टा यह है कि तुम परमात्मा को भी सलाह देना चाहते हो कि ऐसा होना चाहिए था। वासना नहीं होनी चाहिए थी। जूरा सोचो तो कि एक बच्चा पैदा हो जिसमें वासना न हो, उसमें क्या होगा? उसमें रीढ़ होगी? वह बच्चा नपुंसक होगा। उसमें जीवन की ऊर्जा होगी, उल्लास होगा? उसमें फूल लग सकते हैं? वह जी सकता है? वह श्वास ही क्यों लेगा? उसमें श्वास ही क्यों चलेगी? तुम उसे धक्का मार दोगे तो उसमें क्रोध नहीं उठेगा। वह बिल्कुल गोबर- गणेश होगा। तुम उसको जैसा बना दोगे वैसा ही बन जाएगा। लीप- पोत दोगे, लीप- पुत जाएगा। उसमें मेधा नहीं होगी, प्रतिभा नहीं होगी। उसमें बगावत नहीं होगी, क्रांति नहीं होगी, आग नहीं होगी। उसमें कोई किरण नहीं होगी, अंधकार होगा। वह बिल्कुल मुर्दा होगा, मिट्टी का लौंदा होगा। उसमें आत्मा नहीं होगी। वासना नहीं होगी तो आत्मा नहीं होगी। वह कभी किसी स्त्री को प्रेम नहीं करेगा। वह अपनी मां को भी प्रेम नहीं कर सकता, खयाल रखना।

बच्चे का मां से प्रेम संसार में पहली स्त्री से प्रेम है। और मनसविद कहते हैं कि आदमी अपने बुढापे तक भी अपनी मां के प्रेम से मुक्त नहीं हो पाता। वह अपनी पत्नी में भी अपनी मां ही खोजता है। बहुत गहरे में मां की खोज चलती है। इसलिए तो पुरुष स्त्रियों के स्तन में इतने उत्सुक होते हैं – – वह मां की खोज है, और कुछ नहीं। स्तन यानी मां का प्रतीक है। वह बच्चे ने पहली दफा जाना था स्त्री का रूप। पहली दफा स्तन ही जाने थे उसने; स्त्री तो बाद में जानी, स्तन पहले जाने। उसकी पहली पहचान दुनिया में स्तन से हुई थी। स्तन ही भोजन थे। स्तन ही उसके लिए प्रेम थ। स्तन ही उसकी सांत्वना थे। रोता था तो स्तन ही, उसके लिए धीरज थे। स्तन ही उसकी सारी आकांक्षा थे। स्तन ही उसकी सारी वासना थे। स्तन ही उसका सब सार थे, सब कुछ थे।

इसलिए ही तो पुरुष स्तन से कभी मुक्त नहीं हो पाता है। चित्रकार स्तनों के चित्र बनाते हैं। मूर्तिकार बड़े – बड़े स्तन गढ़ते हैं, जैसे होते भी नहीं। खजुराहो और कोणार्क स्तनों के मंदिर हैं – – स्तन ही स्तन! कवि स्तन की कविताएं लिखते हैं। फिर उपन्यास हों कि फिल्में हों कि पुराण हों, स्तन की ही चर्चा चलती है। स्त्री से स्तन अलग कर लो और स्त्री में से कुछ खो जाता है, बिल्कुल खो जाता है। क्योंकि वह स्त्री मां बनने के योग्य नहीं रह जाती है। कोई पुरुष उस स्त्री में उत्सुक नहीं होता। स्त्रियां भी इस रहस्य को जानती हैं, तो वे स्तनों को उभारने के उपाय करती हैं। ढंग – ढंग की चोलिया तैयार होती हैं सारी दुनिया में; स्तन कैसे बड़े दिखायी पड़े, इसकी चेष्टा जारी रहती है। झूठे स्तन बनाए जाते हैं। स्तन जवान दिखाई पड़ते रहें।

यह सब क्यों चलता है? इसके पीछे गौर से देखो। इसके पीछे यही है कि बच्चे का पहला अनु भव स्तन से हुआ था। स्तन उसका जगत् का सबसे प्राथमिक अनु भव है और सबसे बहुमूल्य अनु भव है। फिर मां को पहचाना। फिर मां से पहचान उसकी, पहली स्त्री की पहचान थी। यही उसके गहरे में बैठ गई। मनोवैज्ञानिक कहते हैं : इसलिए कोई पति अपनी पत्नी से कभी पूरा प्रसन्न नहीं हो पाता, क्योंकि कोई पत्नी कभी उसकी मां की प्रतिछवि नहीं हो पाती, कुछ न कुछ कमी रह जाती है। और कोई पत्नी उसकी मां बनने को आई भी नहीं है। पति भी कह नहीं सकता कि मैं तुझमें मां खोज रहा हूं, क्योंकि उसके अहंकार के विपरीत जाता है। वह मालिक, कैसे कह सकता है कि मैं मां खोज रहा हूं, लेकिन खोज मां रहा है। बूढे से बूढा आदमी मां की तलाश कर रहा है।

और ठीक इसके विपरीत स्त्री बेटे की तलाश कर रही है। उपनिषदों में एक अदभुत उल्लेख है। ऋषि उन दिनों आशा देते थे, जब कोई नव विवाहित जोड़ा उनके पास आता था तो वे जोड़े को आशा देते थे कि तुम्हारे दस पुत्र हों और अंतत : तुम्हारा पति तुम्हारा ग्यारहवां पुत्र हो जाए। यह बड़ी अदभुत बात है। अंतत : उस दिन विवाह पूरा सफल हुआ, जिस दिन स्त्री मां हो जाएगी और पति फिर बेटा हो जाएगा, उस दिन विवाह सफल हुआ। फिर यात्रा पूरी हो गई, वर्तुल पूरा हो गया।

जिस बच्चे में वासना नहीं होगी उसमें जीवन की ऊर्जा नहीं होगी। वह अपनी मां को प्रेम नहीं कर सकेगा। वह किसी स्त्री को प्रेम नहीं कर सकेगा। वह किसी पुरुष को प्रेम नहीं कर सकेगा। वह कोई मैत्री नहीं बना सकेगा। उसे फूलों में कोई सौंदर्य नहीं दिखाई पड़ेगा, चांदत्तारों में कोई रोता नहीं दिखाई पड़ेगी। उसे इस जगत् में कोई काव्य दिखाई नहीं पड़ेगा, क्योंकि सब काव्य वासना से ही उमगता है।

तुम क्या समझते हो फूल तुम्हारे लिए उगे हैं वृक्षों में कि तुम तोड़ो और मंदिरों में चढ़ाओ? फूल तुम्हारे लिए नहीं उगे है, तुम्हारे मंदिरों में चढ़ने के लिए नहीं उगे हैं। फूल वृक्ष की वासना का हिस्सा है। फूलों के द्वारा वृक्ष तितलियों को लुभा रहा है, मुधमक्खियों को लुभा रहा है। फूलों में वृक्ष ने अपने वीर्य – अणु रखे हुए हैं। मधुमक्खियों में, तितलियों में, उनके पंखों में, उनके पैरों में लगकर वे वीर्य-अणु मादा तक पहुंच जाएंगे। फूल तरकीब है। फूल जाल है।

सोचते हो कोयल है तो कोई भजन गा रही है कि कोई अजान तुम जब कुहू-कुहू पुक,,

कर रही है? वह अपने प्यारे को पुकार रही है। और ध्यान रखना, जो कुहू-कुहू कर रही है कोयल, वह नर कोयल है। वह स्त्री नहीं है। स्त्री तो चुप-चाप बैठी है, जैसी सभी स्त्रियां चुपचाप बैठती हैं। वह पुरुष है जो चेष्टा कर रहा है।

तुमने देखा, वह जो मोर नाचता है, वह पुरुष है! वह जो पंख फैलाता है, वह पुरुष है। स्त्री के पास प्रकृति ने सुंदर पंख नहीं दिए हैं, जरूरत नहीं है। उसका स्त्रैण होना पर्याप्त है। जब दुनिया ज्यादा प्राकृतिक थी तो स्त्रियां गहने नहीं पहनती थी, पुरुष गहने पहनते थे। वही उचित है। वही होना चाहिए। यह जो तुम हिप्पी इत्यादि को देखते हो न, घंटी इत्यादि बांधे हुए, और कुछ… यह ज्यादा ठीक बात है। क्योंकि सारी प्रकृति इसके पक्ष में है कि पुरुष. मोर सुंदर है। फूल सुंदर हैं। कोयल… नर कोयल की आवाज मधुर है। क्यों? वह स्त्री को लुभाता है।

स्त्री तो स्त्री होने के कारण पर्याप्त है, कुछ और चाहिए नही; पुरुष पर्याप्त नहीं है। वह लुभाने जाएगा। तुम देखते हो, मुर्गा कैसी छाती फैलाकर चलता है, कलगी उठा कर चलता है! वह जब तुम भी किसी के प्रेम-तेम में पड़ जाते हो, छाती न भी हो तो कोट में रूई भरवा लेते हो, मगर… कलगी वगैरह न हो तो साफा बांध लेते हो, उसमें कलगी निकाल लेते हो, बने मुर्गा, चले!

यह सारा जगत् वासना का अदभुत खेल है। बच्चा अगर वासना के बिना पैदा होगा, जिएगा ही नहीं, मर जाएगा। और जिसको जगत् से प्रेम पैदा नहीं होगा- -स्त्री का पुरुष से, पुरुष का स्त्री से- -उसको परमात्मा की याद भी नहीं आएगी। क्योंकि प्रेम जब इस जगत् में हम करते हैं और हारते हैं, तब परमात्मा की याद आती है।

जरा समझने की कोशिश करना। इस जगत् का कोई प्रेम जीत नहीं सकता, क्योंकि कोई प्रेम तुम्हारी प्रेम की आकांक्षा को तृप्त नहीं कर सकता। आकांक्षा बहुत बड़ी है- – सागरों को पी जाए, इतनी है! और यहां बूदें तरसने से मिलती है, वे भी नहीं मिलतीं। यहां हर द्वं जो तुम्हारे कंठ में पड़ती है, वस्तुत : तुम्हारी प्यास को और जगा जाती है, घटाती नहीं। तो यहां तुम प्रेम में पडोगे और हारोगे।

मैं तुमसे कहता हूं : प्रेम में जरूर पड़ना। हारोगे नहीं तो तुम परमात्मा को कभी याद नहीं करोगे। हारे का हरिनाम! जब हार जाओगे, बुरी तरह हारोगे, यहां सब तरफ टटोलोगे और न पाओगे और हर जगह से विषाद हाथ लगेगा, असफलता हाथ लगेगी, जहां-जहां जाओगे वहीं से खाली हाथ लौटोगे- -तब एक दिन असहाय अवस्था में आकाश की तरफ आंखें उठाकर पुकारोगे कि अब बहुत हो गया। अब तो तू ही मिले तो कुछ हो!

जब स्त्री और पुरुष के प्रेम से तृप्ति नहीं होगी और अतृप्ति बढ़ती जाएगी, तो ही परमात्मा की तलाश शुरू होती है। जिस बच्चे में वासना नहीं, वह परमात्मा को खोजने नहीं जाएगा। जिस बच्चे में वासना नहीं, वह परमात्मा से अलग हुआ ही नहीं अभी, खोजने का सवाल ही नहीं है। वासना उठी परमात्मा में तो उसने अनेक होने का विस्तार किया अपना।

आपका ऐतबार ही कब था

आपका इंतजार क्या करते

थी हमें क्या बहार से उम्मीद

हम उम्मीदे-बहार क्या करते

जीस्त पर कब हमें भरोसा था

आप पर ऐतबार क्या करते।

जिंदगी पर ही जिसको भरोसा नहीं है, वह जिंदगी को बनानेवाले पर भरोसा नहीं कर सकता।

जीस्त पर कब हमें भरोसा था

आप पर ऐतबार क्या करते।

जिसको कांटों से प्रेम नहीं है, वह फूलों से भी प्रेम नहीं कर सकेगा। और जिसे फूलों से प्रेम है उसे कांटों से भी प्रेम होगा। क्योंकि वह समझेगा कि कांटे और फूल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

थे न जिनको अजीज खारे-चमन

वह भला गुल से प्यार क्या करते

”शमीय:” जब न शब ही रास आई

सुबह का इंतजार क्या करते

जिनको रात ही पसंद न पड़ी, वे सुबह का क्या खाक इंतजार करेंगे? रात पसंद पड़े, रात प्यारी हो, तो सुबह की आशा जगती है, कि सुबह और भी प्यारी होगी, कि सुबह और विराट होगी, कि जब रात ही इतनी सुंदर है तो सुबह का क्या!

देखते हो, धनी धरमदास ने कहा कि जब अपने गुरु में झांककर देखा, जब कबीर में झांककर देखा और इतना प्यारा दर्शन किया तब समझ में आया कि जब गुरु इतना प्यारा है, तो जब उस परम-पुरुष से मिलन होगा, तो कैसा होगा! फिर वाणी कह नहीं पाती। फिर शब्द अधूरे पड़ जाते हैं। फिर मौन ही उसे कह सकता है।

जो भी परमात्मा ने दिया है–बेशर्त कह रहा हूं, जो भी परमात्मा ने दिया है–उसे स्वीकार करो। उसे अंगीकार करो। उसके साथ चलो। और तुम्हारी वासना स्वस्थ रहेगी। और स्वस्थ वासना प्रार्थना तक पहुंचा देती है, अनिवार्यरूपेण पहुंचा देती है।

विकृत वासना–भटक गई। न घर के रहे न घाट के। धोबी के गधे हो जाते हैं लोग, न घर के न घाट के। संसार भी गया और निर्वाण का कुछ पता नहीं चलता। इसी मुसीबत में पड़े हुए तुम्हारे साधु-संन्यासियों को मैं देखता हूं। वे निश्‍चित दया के पात्र हैं। उनके हाथ से सब चला गया। माया भी गई और राम मिले नहीं। माया मिली न राम, दुविधा में दोऊ गए। दुविधा पैदा हो गई उनके मन में –यह चुनना है, यह छोड़ना है, यह पकड़ना है, यह हटाना है। दुविधा पैदा हो गई, द्वंद्व पैदा हो गया।

द्वंद्व वासना को रुग्ण कर देता है।

निर्द्वंद्व जियो! अभय से जियो! परमात्मा तुम्हारा रक्षक है, इतना भय क्या? इतना घबड़ाना क्या? उसने दिया है तो ठीक ही दिया होगा। इस आस्था से जियो। और यही आस्था पहुंचाती है।

तीसरा प्रश्‍न :

 

कुछ दिन से मुझे आपका प्रवचन सुनने का और पुस्तक पढ़ने का अवसर मिला है। यह मेरा सौभाग्य है। परमात्मा के संबंध में इसके पहले मुझे बिल्कुल खिचड़ी जैसा ज्ञान था। इतनी सरलता और सद्विचार से समझानेवाला सदगुरु कभी नहीं मिला था। अब मुझे विश्वास भी हो गया है कि अगर आपका आशीर्वाद मिल जाए तो परमात्मा को जान भी सकूंगा। इस संबंध में एक छोटी -सी बात मुझे खटकी हुई है, प्रकाश डालने की अनुकंपा करें। अगर हमारी गलती के बिना कोई हमें नुकसान पहुंचाने आए तो उस समय हमें क्या करना उचित होगा? क्योंकि आपका संन्यास और संसार एक है। और संसार में ऐसे कई बार मौके आते हैं।

पहली तो बात : या तो ज्ञान होता है या नहीं होता, खिचड़ी ज्ञान जैसी कोई चीज नहीं होती। वह अज्ञान को ही छिपाने का ढंग है। लोग कहते हैं : कुछ-कुछ हमें आता है। कुछ- कुछ आ ही नहीं सकता। या तो पूरा होता है या नहीं होता।

अभी कुछ दिन पहले एक वृद्ध सज्जन आए, कोई तीस साल से संन्यासी हैं। कहने लगे : बहुत दिन से आना चाहता था। तीस साल तक हिमालय में रहा हूं। कुछ-कुछ जाना, और आगे बढ़ने की इच्छा है।

मैंने उनसे कहा कि कुछ-कुछ क्या जाना, वह मुझे बता दो, क्योंकि मैंने यह कभी सुना ही नहीं है कि परमात्मा को कोई थोड़ा-थोड़ा जान सकता है, कि अभी एक छंटाक जाना, फिर दो छंटाक जाना, कि एक सेर जान लिया; या नए मापदंड में एक किलो जान लिया। परमात्मा जाना जाता है तो बस पूरा जाना जाता है, उसके खंड नहीं होते।

लेकिन आदमी का अहंकार बड़ा होशियार है। वह यह नहीं मानना चाहता कि मैं अज्ञानी हूं। वह कहता है : कुछ-कुछ। इतनी तो, वह कहता है, मुझे सुविधा दो।

मैंने उनसे कहा अगर कुछ-कुछ जानते हो तो जो-जो जाना वह मुझे बता दो। उसको अपन फिर बात न करें, उसको छोड़ दें। फिर आगे की बात हो।

वे आख बंद करके बैठ गए। थोड़ा सोचा होगा। बात समझ में उन्हें पड़ी होगी। ईमानदार आदमी थे। आख खोलकर कहा कि मुझे क्षमा करें! नहीं, कुछ भी नहीं जाना। ये तीस साल ऐसे ही गए।

ज्ञान की यात्रा में पहला कदम यही है कि तुम ठीक से समझ लो कि तुम्हें पता है या नहीं है। अगर पता नहीं है तो इस बात को गहरे उतर जाने दो कि मुझे पता नहीं है। इसी भाव से कि मुझे पता नहीं है, यात्रा शुरू हो सकती है। अगर तुम्हें थोड़ा भी पता है कि थोड़ा- थोड़ा खिचड़ी ज्ञान है, वह ज्ञान नहीं है। वह कचरा है।

ज्ञान की खिचड़ी होती ही नहीं, अज्ञान की ही खिचड़ी होती है। खिचड़ी यानी अज्ञान। उसको ज्ञान कहो ही मत। नहीं तो तुम उसको बचाकर रख लोगे। तुम कहोगे: है; माना कि खिचड़ी है, मगर है तो! ज्ञान है, छांट लेंगे। गेहूं-गेहूं अलग कर लेंगे, दाल-दाल अलग कर देंगे। छाटां : जा सकता है।

नहीं, ज्ञान है ही नहीं। ज्ञान, और खिचड़ी! ज्ञान के क्षण में तो सारे द्वंद्व सारी अनेकता, सारे विचार, सब समाप्त हो जाते हैं। न दाल बचती है न गेहूं। खिचड़ी बनाओगे किसकी? दो ही नहीं बचते, मिलाओगे किसको?

अच्छा हुआ, इतना भी समझ में आया खिचड़ी ज्ञान है। यह भी अच्छा हुआ। चलो कुछ तो हुआ। अब एक कदम और आगे उठाओ कि खिचड़ी ज्ञान, ज्ञान नहीं है। नहीं तो खतरा है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, यह तुम्हारी खिचड़ी में पड़ेगा। और यह भी खराब हो जाएगा। तुम्हारी खिचड़ी जीत जाएगी।

सदा ध्यान रखना कि श्रेष्ठ में एक तरह की नाजुकता होती है। अगर पत्थर और फूल को टकरा दोगे तो फूल मर जाएगा, पत्थर नहीं मरेगा। और पत्थर निकृष्ट है और फूल श्रेष्ठ है। श्रेष्ठ में एक नाजुकता होती है। निकृष्ट में नाजुकता नहीं होती, कठोरता होती है। इसलिए अपने पात्र को इस खिचड़ी से खाली कर लो।

तुम कहते हो: ज्ञान की खिचड़ी। मैं कहता हूं : अज्ञान की खिचड़ी। मगर इस खिचड़ी से अपने पात्र को खाली कर लो, ताकि मैं तुम्हारे पात्र में जो डालना चाहता हूं, वह तुम्हारी खिचड़ी में संयुक्त न हो जाए। नहीं तो वह भी विकृत हो जाएगा। उस पर भी रंग चढ़ जाएगा तुम्हारा। उसको भी तुम अपनी भाषा में ढाल लोगे, अपने विचार के अनुकूल बना लोगे। उसको तुम अपने वस्त्र पहना दोगे और उसका सारा रूप खो जाएगा, उसका सारा सौंदर्य नष्ट हो जाएगा।

फिर, तुमने पूछा है कि एक बात मुझे खटकी हुई है कि अगर हमारी गलती के बिना कोई हमें नुकसान पहुंचाने आए

ऐसा कभी हुआ नहीं। तुम अपवाद नहीं हो सकते। तुम्हारी गलती के बिना कोई तुम्हें नुकसान पहुंचाने आएगा ही क्यों? किसको पड़ी है? गलती, हो सकती है, आज न की हो, कल ही हो, परसों की हो, इस जन्म में न की हो, किसी और जन्म में की हो, मगर गलती की होगी। गलती के बिना किसको पड़ी है? किसको तुम में इतना रस है कि तुम्हें परेशान करे और खुद परेशान हो?

एक आदमी बुद्ध के ऊपर मूक गया। बुद्ध ने चादर से मुंह पोंछ लिया और उससे कहा : भाई, कुछ और कहना है? वह तो हक्का- बक्का रह गया, क्योंकि वह तो सोचता था झगड़ा- फसाद होगा, मारपीट होगी। वह तो तैयारी करके आया था, गुंडों को बाहर बिठाकर आया था कि अगर मामला बिगड़ जाए तो बुला लूंगा।

मगर बुद्ध ने कहा : भाई, कुछ और कहना है? उसने कहा : और तो कुछ नहीं कहना है। तो बुद्ध ने कहा कि नमस्कार।

बुद्ध के शिष्य आनंद ने कहा कि यह बात क्या है, आपने कुछ कहा नहीं? बुद्ध ने कहा कि मैं इसकी राह देखता था। इसका कभी अपमान किया है किसी जन्म में, राह देखता था। अगर इसका मिलन न हो पाए तो फिर मुझे आना पड़ेगा। आज यह आ गया अपने- आप, हिसाब-किताब पूरा हो गया। अब इससे आगे मैं कोई और व्यवसाय जारी नहीं रखना चाहता। इसलिए मैंने कहा : भाई, कुछ और कहना है। नहीं तो नमस्कार। कुछ कहना हो कुछ तो कह दो। मुझे कुछ नहीं कहना है। मुझे इसमें अब आगे लेन- देन नहीं करना है। अगर मैं कोई भी प्रतिक्रिया करूं, अच्छी या बुरी, दोनों हालत में संबंध बन जाएगा।

यही तुम फर्क समझो। जीसस ने कहा है : तुम्हारे एक गाल पर कोई चांटा मारे, दूसरा कर देना। बुद्ध नहीं कहते कि एक गाल पर कोई चांटा मारे, दूसरा कर देना। बुद्ध कहते हैं : एक गाल पर कोई चांटा मारे, धन्यवाद दे देना। दूसरा गाल मत करना, क्योंकि दूसरा गाल करने में तुम फिर कुछ कर्म कर रहे हो। अच्छा ही सही, मगर अच्छा भी बांध लेता है- – उतना ही जितना बुरा बांधता है। तुम कुछ करना ही मत। जो दूसरा कर रहा है उसको चुपचाप स्वीकार कर लेना। तुम्हारे किए का प्रत्युत्तर मिल गया, बात पूरी हो गई, बात समात हो गयी यह लेन- देन बंद हुआ। यह खाता समाप्त हुआ। तुम्हारी एक उपद्रव से मुक्ति हो गई।

तुम कहते हो : अगर हमारी गलती के बिना…।

ऐसा तो कभी होता नहीं। और अगर कोई तुम्हारी गलती के बिना… समझ लो तुम्हारा मन नहीं मानता, तुम यही सोचते हो कि हमारी गलती के बिना ही कोई हमें परेशान कर गया है, तो अपनी गलती के लिए वह भोगेगा, तुम चिंता में मत पड़ो। तुम उत्तर देने की विचारणा में मत पड़ो, क्योंकि उत्तर देने में तुम उलझ जाओगे, उसके साथ गुंथ जाओगे। यही तो कर्म का जाल है।

समझो, तुम्हारी गलती से या तुम्हारी ना गलती से… मैं तो कहता हूं कि तुम्हारी गलती के बिना नहीं हो सकता, लेकिन तुम्हें अगर यह समझ में न आए, क्योंकि यह समझने के लिए बड़ी अंतर्दृष्टि चाहिए पड़ेगी, तुम्हारी गलती के बिना ही सही, कोई गलती कर रहा है, तुम परमात्मा पर छोड़ दो। उसकी जो मर्जी! तुम इसे एक परीक्षा समझो कि तुम्हें एक अवसर मिला शांत होने के लिए, तुम्हें एक चुनौती मिली कि विपरीत परिस्थिति में तुम मौन रख सकते हो या नहीं? जब कोई उद्विग्न करे, तब तुम निरुद्धिग्न रह सकते हो या नहीं? जब कोई गाली दे, तब तुम शांत रह सकते हो या नहीं? एक तुम्हें अवसर मिला। इस आदमी को धन्यवाद दो। इसने तुम्हें एक अवसर दिया। इसने गाली दी या तुम्हें नुकसान पहुंचाया और तुम अछूते रहे। तुमने कोई जवाब न दिया। जैसे कुछ हुआ ही नहीं। तुम्हारी चेतना ऐसे रही, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। जैसे यह आदमी आया ही नहीं, इसने गाली दी ही नहीं। जैसे एक सपने में हुआ या तुमने एक फिल्म में देखा या कहानी पढ़ी। मगर तुम्हें इससे कुछ भी हुआ नहीं। तुम दूर ही रहे। तुम साक्षी रहे।

यह साक्षी- भाव ही मुक्ति का सूत्र है। फिर तुम्हारी गलती से हुआ या न गलती से हुआ, कुछ लेना-देना नहीं। दोनों हालत में एक ही काम करना है- -साक्षी रहना है।

” अगर हमारी गलती के बिना कोई हमें नुकसान पहुंचाने आए तो उस समय हमें क्या करना उचित होगा? ”

कुछ भी करोगे तो अनुचित होगा। करना मात्र अनुचित होगा। साक्षी रहना ही उचित होगा। सिर्फ देखते रहना, जैसे तुम द्रष्टा हो; जैसे यह बात किसी और के साथ की जा रही है। तुम दर्शक मात्र हो। तुम इसके भोक्ता नहीं हो। एक। यह तो सबसे ऊंची बात है। अगर हो सके तो साक्षी रहना। अगर यह न हो सके, क्योंकि मैं जानता हूं यह कोई सरल बात नहीं है कि तुम साक्षी रह जाओ। और अगर साक्षी को जिंदगी भर साधोगे, संभालोगे, तो ही रह पाओगे। उस दिन के लिए मत बैठे रहना कि जब कोई गाली देगा तब साक्षी हो जाएंगे। उस दिन फिर तुम न हो पाओगे। जब कोई स्तुति कर रहा हो तब भी साक्षी होना। और जब कोई फूलमालाएं पहना रहा हो गले में, तब भी साक्षी होना, तभी गाली देते वक्त साक्षी हो पाओगे। जब खाना खा रहे होओ, स्नान कर रहे होओ, तब भी साक्षी होना। साक्षी को रचने देना, पचने देना। साक्षी को भीतर प्रविष्ट होने देना। तो ही किसी दुर्दिन में, किसी दुर्घटना में, किसी ऐसी घड़ी में, जहां कि आदमी एक क्षण में डांवाडोल हो जाता है, भूल जाता है- – बच सकोगे। वह तो आखिरी लक्ष्य है। हो सके, उसके ऊपर फिर कुछ भी नहीं।

अगर यह न हो सके तो नंबर दो की बात। नंबर दो से मुक्त होना है, सिर्फ इसलिए कह रहा हूं कि शायद नंबर एक की बात अभी न हो सके। होते-होते होगी। लेकिन नंबर दो की बात अगर करोगे तो नंबर एक की बात सधने में सहारा मिलेगा। नंबर दो की बात यह है : पहले से तय मत करो कि क्या करेंगे; उस घड़ी जो हो जाए परमात्मा के ऊपर छोड्कर हो जाने देना। पहले से तय करने में तो बड़ी गड़बड़ होगी। वह तो अहंकार का हिस्सा हो गया। तुम पहले से तय करके बैठे हो कि कोई गाली देगा तो हम ऐसा करेंगे। कोई अगर ईंट मारेगा तो हम पत्थर से जवाब देंगे; या कोई एक गाल पर चांटा मारेगा, हम दूसरा गाल कर देंगे। दोनों में तुमने पहले से इंतजाम कर लिया, तुमने पहले से सोच लिया। तुम कर्ता बन गए। तुमने समय न आने दिया। तुमने समय में सहज स्फुरणा न होने दी।

आने दो समय। जब कोई गाली देगा, तब सहज स्फुरणा से जीना। जो उस क्षण लगे करने जैसा, वह कर लेना। और कृत्य को अपना मत मानना, उसको परमात्मा पर छोड़ देना। यही कृष्ण ने गीता में अर्जुन को बारबार कहा कि फल उस पर छोड़ दे। कर्ता वही है, ऐसा जान। तू निमित मात्र है।

यह नंबर दो की बात है। लेकिन इससे पहली बात सधने में सहायता मिलेगी। अभी तुम निमित्त बन जाओ। मात्र उपकरण। परमात्मा जो करवाना चाहे करवाए। तुम सिर्फ उसके लिए राजी रहो। फिर न पछताना पीछे लौटकर, न गौरव करना। तुम कर्ता ही नहीं हो, तो पछताना किसको है, गौरव किसको करना है? लौटकर ही मत देखना? जो हो गया हो गया। धीरे- धीरे निमित्त बनते-बनते साक्षी भी बन जाओगे। निमित्त साक्षी बनने की प्रक्रिया है, विधि है।

और इसलिए मैं कहता हूं: संसार से मत भागों। रहो संसार में। क्योंकि वही निमित्त बनने का उपाय है, निमित्त बनने की चुनौती है। और वही साक्षी बनने की संभावना है।

चौथा प्रश्‍न :

 

आप कहते हैं कि जो नाचता-गाता जाता है वही परमात्मा के मंदिर में प्रवेश पाता है। लेकिन भक्त-संत तो दर्द और आंसुओ का अर्ध्य लेकर वहां जाने की सलाह देते हैं। यह विरोधाभास स्पष्ट करने की अनुकंपा करें।

र्द का भी एक गीत है और आंसुओ का भी एक नृत्य है। सच तो यह है, जैसा गीत दर्द से उठता है वैसा गीत और किसी स्रोत से नहीं उठता। और जैसा नृत्य आंसुओ का होता है उतना जीवंत नृत्य किसी और ऊर्जा का नहीं होता। इसलिए विरोधाभास नहीं है।

नाचते-गाते जाओ। नाचने-गाने में सब आ गया- -दर्द भी आ गया, रोना भी आ गया, आंसू भी आ गए। जब मैं कहता हूं नाचते-गाते जाओ, तो मैं यही कह रहा हूं: आस्था से भरे हुए जाओ, मिलन होगा। मिलन होना सुनिधित है। इसमें रत्ती संदेह नहीं है। दर्द तो होता है। जब तक मिलन नहीं हुआ तो दुःख भी होता है, पीड़ा भी होती है।

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीम-कश को

यह खलिश कहां से होती, जो जिगर के पार होता

वह जो तीर लगा है, वह छिद गया है। पार भी नहीं हो गया है, इसलिए बड़ी खलिश होती है।

परमात्मा को पाना है, यह तीर की तरह चु भी है बात हृदय में। जड़ – बुद्धियों को पता नहीं चलती, संवेदनशिल इसको अनु भव कर लेते हैं कि तीर की तरह चु भी है बात। विरह का अनु भव होता है। हम भटक रहे हैं, खोज रहे हैं, प्यासे हैं, भूखे हैं, शरण चाहते हैं, कोई जगह चाहते हैं जहां निश्‍चित होकर विश्राम को उपलब्ध हो जाएं, कोई आकाश चाहते हैं जहां हम लीन हो जाएं।

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीम-कश को

यह खलिश कहां से होती जो जिगर के पार होता

लेकिन, भक्त भगवान को इस विरह के लिए भी धन्यवाद देता है। कोई मेरे दिल से पूछे.. . वह कहता है: कोई मेरे दिल से पूछे। अच्छा ही किया जो तूने तीर मारा और दिल के पार न हुआ, चुभकर रह गया। नहीं तो यह खलिश कहां से होती? यह विरह-अग्नि कैसे जलती? यह प्यास कैसे उठती? मैं तेरी खोज पर कैसे निकलता? खूब किया तूने कि जलाया, नहीं तो यह प्रार्थना कैसे जनमती? खूब किया कि तूने तड़फाया, क्योंकि इंतजार के भी मजे हैं। दर्द से भक्त घबडता नहीं, दर्द को गाता है।

इशरते कतरा है दरिया में फना हो जाना

दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना

वह जानता है इस राज को, धीरे-धीरे अनुभव करने लगता है कि जैसे-जैसे दर्द बढ़ता है वैसे-वैसे दर्द की मिठास बढ़ती है। भक्त का दर्द बड़ा मीठा दर्द है। दर्द ही नहीं है, उसमें बड़ा रस भरा हुआ है।

इशरते कतरा है दरिया में फना हो जाना

दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना

एक हद के पार जब पीड़ा पहुंच जाती है, इतनी बड़ी हो जाती है कि उस पीड़ा में भक्त बिल्कुल डूब जाता है, जैसे बूंद सागर में गिरकर खो जाए।

मुहब्बत का एजाज मैं क्या कहूं

बढ़ा दर्द, बढ़कर दवा हो गया

जानोगे एक दिन कि पीड़ा एक दिन पीड़ा से मुक्ति का कारण हो जाती है- -इतनी बढ़ जाती है।

मुहब्बत का एजाज मैं क्या कहूं

–प्रेम की गरिमा कहीं नहीं जाती, कहना मुश्किल है।

मुहब्बत का एजाज मैं क्या कहूं

बढ़ा दर्द बढ़कर दवा हो गया

बढ़ने दो दर्द! मगर दर्द गीत है दर्द गाता हुआ है, नाचता हुआ है। दर्द उदास नहीं है। पीड़ा मधुर है, मीठी है। और फिर यह जो पीड़ा है, छिपती नहीं। भक्त के आंसुओ से निकलेगी। भक्त के नृत्य में निकलेगी। भक्त के गीत में निकलेगी। भक्त के मौन में निकलेगी।

प्रेम छिपायो ना छिपे जा घट परकट होय।

जो पै मुख बोलै नहीं नैन देत हैं रोय।।

शायद शब्‍द न भी कहें तो आंखे रोकर कह देंगी। मगर वह भी कहने का उपाय है।

तुमने पूछा : आप कहते हैं, जो नाचता- गाता जाता है वही परमात्मा के मंदिर में प्रवेश पाता है। लेकिन भक्त – संत तो दर्द और आंसुओ का अर्ध्य लेकर वहां जाने की सलाह देते हैं। एक ही बात है। मैंने सीधी – सीधी तुमसे आंसुओ और दर्द की बात नहीं कही, क्योंकि उसमें भांति हो जाने की संभावना है। और भांति हुई है संतों के वचन से। लोग समझने लगे कि परमात्मा की तरफ जाने का मतलब बड़े उदास होकर जाना, मुर्दा होकर जाना, लाश की तरह जाना।

रोने- रोने में फर्क है। दर्द – दर्द में भेद है। एक तो रोना है जो दु:ख से निकलता है, विषाद निकलता है। और एक रोना है जो आह्नाद से भी निकलता है। लेकिन तुमने एक ही रोना जाना है- – दु:ख का। कोई मर गया है, तब तुम रोएं हो। घर में बच्चा पैदा हुआ, तब तुम रोए हो? अगर तुम घर में बच्चा पैदा हुआ तब रोएं हो, तो तुम मेरी बात समझ सकोगे। और जो घर में बच्चा पैदा होता है तब रोता है, उसे वह दूसरी कला भी आ जाती है कि कोई मरे तो वह हंस भी सकता है।

मृत्यु यहां हंसने की बात है, क्योंकि मरता कोई कभी नहीं। मृत्यु से ज्यादा झूठी कोई बात नहीं। जन्म यहां रोने की बात है। फिर जीवन उतरा। फिर सुबह हुई। लेकिन रोने में आह्नाद है, उत्सव है।

तुम कभी आनंद के आंसू रोए हो? तो फिर मेरी बात तुम्हें समझ में आ जाएगी। तुम्हारा प्रेमी तुम्हें मिला है और आंखें झर – झर रो उठीं, जैसे सावन में बादल बरसे हों। अगर वैज्ञानिक के पास दु:ख के आंसू और सुख के आंसू ले जाओगे तो उसके रासायनिक विश्लेषण में तो एक ही तरह के होंगे, कुछ भेद न पड़ेगा। दोनों में नमक होगा और बराबर मात्रा में होगा। और दोनों में पानी होगा और बराबर मात्रा में होगा। और सब दूसरे तत्व भी बराबर मात्रा में होंगे। वैज्ञानिक भेद न बता सकेगा कि कौन- सा आंसू सुख में गिरा और कौन- सा दु:ख में गिरा। यही तो बात है समझने की कि कुछ ऐसा भी है जिसको विज्ञान नहीं तौल पाता। कुछ ऐसा भी है जो विज्ञान के तराजू के पार है। कुछ ऐसा भी है जो विज्ञान के विश्लेषण की पकड़ में नहीं आता।

और तुम अनुभव से जानते हो कि कभी तुम प्रेम में भी रोए हो, कभी तुम क्रोध में भी रोए हो। और कभी तुम आनंद में भी रोए हो। और कभी तुम दु:ख में भी रोए हो। और दोनों तरह के रोने में भेद है। एक में गीत होता है, एक में सिर्फ हताशा होती है। एक नाचता हुआ होता है। एक में पक्षाघात होता है, जैसे पैरालिसिस लग गई।

मेरा जोर-गाने पर है, क्योंकि मैं जानता हूं : नाचने-गाने में दुःख अपने से आ जाएगा, मगर वह नाचता-गाता हुआ होगा; मरघट का नहीं होगा, मंदिर का होगा। और आंसू भी अपने-आप सम्मिलित हो जाएंगे, मगर वे आंसू गीत की ही तरन्नुम होंगे, गीत की ही लयबद्धता होंगे, गीत का ही छंद होंगे। वे गीत को ही ताल देंगे, गीत के विपरीत नहीं होंगे। इसलिए मैंने तुम से नहीं कहा कि रोते हुए जाओ, क्योंकि मैं जानता हूं : रोना तुम्हें पता है एक तरह का और तुम उसी को न समझ लो! उसी को बहुत लोग समझकर बैठ गए हैं। जाओ, मंदिर-मस्जिदों में बैठे लोगों को देखो। बैठे हैं, उदास, जड़, लाश की तरह। सब सूख गया है, मरुस्थल हो गया है।

नहीं; यह जीवन जीने का सही ढंग नहीं। यह तो आत्महत्या है- – धीमी- धीमी आत्महत्या है। मैं आत्महत्या का विरोधी हूं।

आखिरी प्रश्‍न :

 

मैं आप से बहुत-बहुत दूर चला जाना चाहता हूं। लगता है कि पास रहा तो आप मिटाकर रहेंगे।

 

ब बहुत देर हो गयी। अब तो समय बीत गया भाग जाने का।

मैंने सुना है, एक महिला अपने जन्म-दिन पर गीत गा रही थी। जन्म-दिन था तो रात देर तक गाती रही।… वीणावादिनी वर दे, वीणावादिनी वर दे! ” मुल्ला नसरुद्दीन उसके पड़ोस में रहता था। उसके सुनने के बर्दाश्त के बाहर हो गया। उसने जाकर दरवाजा खटखटाया और कहा : बाई! गाने से कुछ न होगा, अखबार में विज्ञापन दे।

नाराज था बहुत कि यह क्या बकवास लगा रखी है- -वर दे, वर दे! मगर उस महिला ने सुना ही नहीं, वह अपनी मस्ती में थी, वह गाती रही, गाती रही। दो बज गए, मुल्ला करवट बदलता है, मगर नींद नहीं आती। आखिर वह फिर गया। अब की बार बहुत जोर से दरवाजा खटखटाया और कहा कि दरवाजा खोलो। अगर एक बार और कहा वीणावादिनी वर दे, तो मैं पागल हो जाऊंगा।

कोई उठा बिस्तर से, किसी ने दरवाजा खोला। वह महिला खड़ी थी। उसकी आंखें नींद से भरी हुईं। उसने कहा : क्या कह रहे हैं आप? नसरुद्दीन ने कहा : अगर एक बार और कहा कि वीणावादिनी वर दे तो मैं पागल हो जाऊंगा। उस महिला ने कहा : बहुत देर हो गयी, मुझे तो गाना बंद किए घंटा- भर हो चुका।

यही मैं तुमसे कहता हूं : बहुत देर हो गयी। पागल तो तुम अब हो ही चुके। अब भागकर कहां जाओगे? अब भागने को कोई जगह न बची।

प्रेम जगह छोड़ता ही नहीं। प्रेम के लिए स्थान का अर्थ ही नहीं होता। अब तुम जहां जाओगे मैं पीछा करूंगा। अब कोई उपाय नहीं है। अब तुम जहां जाओगे मुझे अपने से पहले पहुंचा हुआ पाओगे। तुम जाकर बैठ जाओगे हिमालय की गुफा में और तुम मुझे गुफा में बैठा हुआ पाओगे। मेरे शब्द तुम्हें वहां सुनाई पड़ेंगे। मेरी आंखें वहां तुम्हें दिखाई पड़ेंगी। अब देर हो गयी।

तुम कहते हो: मैं आपसे बहुत-बहुत दूर चला जाना चाहता हूं।

बहुत-बहुत पास ही आ जाओ। अगर सच में ही मुझसे मुक्त होना है तो बहुत-बहुत पास आ जाओ, तुम मुझसे मुक्त हो जाओगे। वही उपाय है मुक्त होने का। गुरु से मुक्त होने का एक ही उपाय है : उसके इतने पास आ जाओ कि तुम उससे गुजर जाओ और परमात्मा में प्रवेश हो जाए।

गुरु तो द्वार है। द्वार से गुजरना होता है। गुजर गए, फिर बात समाप्त हो गयी। दूर-दूर जाकर तो और याद आएगी। दूरी से याद बढ़ती है, घटती नहीं। दूरी कब याद को मिटा पायी है? दूरी ने सदा याद को बढ़ाया है।

वैसे तुम कह ठीक ही रहे हो कि लगता है इनकार नहीं कर सकता। वही मेरा काम है तुम हो सकते हो।

क्या पसंद है तुम्हें

भय या अभय?

लय दोनों में है

किंतु मैं तो इन दिनों

प्रलय सोच रहा हूं

सो भी छंद में

स्वर में, सुगंध में!

प्रलय! वही तो गुरु के पास आने का अर्थ कि पास रहा तो आप मिटाकर रहेंगे। उससे मैं यहां। वही मेरा धंधा है। तुम्हें मिटाऊं, तो ही है। सब नष्ट हो जाएगा। तुमने अब तक जैसा अपने को जाना है, नहीं बचेगा। तुमने जो अब तक अपने को पहचाना है, वह नहीं बचेगा। तुम्हारा सारा तादात्म्य, तुम्हारा नाम-पता-ठिकाना सब खो जाएगा। लेकिन तभी तुम्हें पहली दफे अपना असली पता चलेगा, अपना असली ठिकाना याद आएगा।

तुम अभी सराय को घर समझ बैठे हो। मैं तुम्हें तुम्हारा घर देना चाहता हूं। लेकिन तुम्हारी सराय तो छिनेगी।

तुम अभी नकली सिक्कों का ढेर लगाए, संपदा समझ रहे हो। मैं तुम्हें असली संपदा देना चाहता हूं। लेकिन तुम्हें कंकड़-पत्थर तो छोड़ने ही होंगे, तभी तुम्हारी झोली में जगह होगी कि हीरे-जवाहरात भर सको।

तो हर लगता है, यह मैं समझता हूं। और जितने करीब आओगे उतना हर बढ़ेगा। जितना प्रेम बढ़ेगा उतना हर बढ़ेगा। क्योंकि प्रेम का अर्थ ही होता है : अंतिम घड़ी में प्रेम मृत्यु हो जाता है। मगर मृत्यु के बाद ही पुनरुज्जीवन है।

खुदा जाने क्या आफतें सर पर आएं

उन्हें आज फिर महरबां देखता हूं

जैस-जैसे परमात्मा की कृपा तुम पर होगी वैसे-वैसे घबड़ाहट बढ़ेगी।

खुदा जाने क्या आफतें सर पर आएं

उन्हें आज फिर महरबां देखता हूं

आदमी डरता है प्रेम से, सदा से डरता रहा है। इसलिए तो पृथ्वी प्रेम-शुन्‍य हो गई है। इसलिए तो गुरु और शिष्य खो गए हैं, नाम ही रह गए हैं, शब्द ही रह गए हैं। गुरुओं की जगह अध्यापक बचे हैं, शिष्यों की जगह विद्यार्थी। विद्यार्थी और अध्यापक में कोई मृत्यु नहीं घटती, कोई प्रेम नहीं घटता–लेन–देन की बात है। विद्यार्थी गुरु से कुछ खरीद लेता है, गुरु को कुछ दे देता है। बात खत्म हो गयी। प्राणों का आदान-प्रदान नहीं हो पाता।

ए दिल न छेड़ किस्सए-फुर्सुदी इश्क का

उलझा न अहले बज्म को इस खार जार में

लोग डरने लगे हैं। लोग समझते हैं कि यह कांटा है प्रेम। कांटों की झाड़ी है, इसमें उलझ गए तो निकल न पाएंगे। लोग बचकर चलते हैं। साधारण प्रेम भी बहुत उलझा लेता है, तो असाधारण प्रेम का तो कहना ही क्या!

जब तुम्हारे मन में यह भाव उठा है कि अब भाग जाऊं, उसका मतलब ही यह है कि अब भागने का समय निकल गया। यह भाव ही तब उठता है जब समय निकल जाता है। यह समझ ही तब आती है जब उपाय नहीं रह जाता। जब खतरा इतना हो जाता है तभी तो यह खयाल आता है कि अब भाग जाऊं। लेकिन तब भागकर कहां जाओगे?

प्रेम समय और स्थान की दूरी नहीं जानता। प्रेम में समय और स्थान दोनों मिट जाते हैं। प्रेम की निकटता शारीरिक निकटता नहीं है। अगर शारीरिक निकटता ही होती तो तुम दूर जा सकते हो, मगर प्रेम की निकटता तो आत्मिक निकटता है, इसलिए कैसे दूर जाओगे? न तो पास बैठने से कोई पास बैठता है, न दूर जाने से कोई दूर जाता है। प्रेम की निकटता आत्मीय संबंध है।

तुम्हारे मन में भय उठा है, स्वाभाविक। तुम भाग भी जाओ, तुम कसम भी खा लो कि मेरी याद न करोगे, तुम कसम भी खा लो कि अब कभी लौटकर यहां न आओगे, मगर ये कसमें काम न आएंगी। ये कसमें टूट जाएंगी। और तुम न आए तो कोई हर्ज नहीं, मैंने तो कसम नहीं खाई है। मैं तो आ ही सकता हूं।

इस इंतहाए—तर्के-मुहब्बत के बावजूद

हमने लिया है नाम तुम्हारा कभी-कभी

छोड़ भी दोगे, कसम खा लोगे कि अब नहीं नाम लेंगे, मगर फिर भी यह नाम आ जाएगा। फिर भी यह याद आ जाएगी। यह याद बस गयी अब। इसने तुम्हारे भीतर घर कर लिया। यह घर जब कर लेती है तभी भागने का सवाल उठता है। मगर तब तक सदा देर हो गयी होती है।

मैं तेरे गम से बहुत दूर चली जाऊंगी

–किसी प्रेयसी ने गाया है–

मैं तेरे गम से बहुत दूर चली जाऊंगी

तुझको इक यास का उनवान बना जाऊंगी

नूर में डूबी हुई चांदनी रातों की कसम

शबनमी भीगी हुई सावनी रातों की कसम

बर्फ-सी सहमी हुई सुर्मयी रातों की कसम

जगमगाते हुए तारों की बरातों की कसम

मैं तेरे गम से बहुत दूर चली जाऊंगी

तुझको इक यास का उनवान बना जाऊंगी

सर्द रातों में चमकते हुए तारों की कसम

फूल बरसाती हुई मस्त बहारों की कसम

सुबहे-बेदार के शादाब नजारों की कसम

रोदे बानास के सरसब्ज किनारों की कसम

मैं तेरे गम से बहुत दूर चली जाऊंगी

तुझको इक यास की उनवान बना जाऊंगी

जल्वए-हुस्न की हर शाने-जमाली की कसम

इश्क में जब्त की आदाते-मिसाली की कसम

बेनियाजी के हर अंदाजे-जमाली की कसम

अर्शे-आजम के फसूं साज कमाली की कसम

मैं तेरे गम से बहुत दूर चली जाऊंगी

तुझको इक यास का उनवान बना जाऊंगी

लेकिन प्रेयसी शायद दूर जा भी सके, क्योंकि वे नाते शरीर के हैं। यद्यपि प्रेयसी भी दूर नहीं जा पाती, प्रेमी भी दूर नहीं जा पाते। प्रेमी कितने ही दूर हो जाएं, उनके हृदय पास ही धड़कते रहते हैं। लेकिन फिर भी शारीरिक प्रेम में तो यह संभव है कि कोई दूर चला जाए, कसमें खा ले, दूर हट जाए, प्रेम का खतरा देखे और अपने को बचा ले; लेकिन आत्मिक प्रेम में तो यह संभव ही नहीं।

तुम्हारा मेरी देह से थोड़े ही नाता है। मेरा तुम्हारी देह से थोड़े ही नाता है। यह नाता किसी और लोक का है। यह नाता किसी दूसरे ही जगत् का है। जब एक बार बन जाता है तो बन गया। जिंदगी में भी यह नाता रहेगा, मौत में भी यह नाता रहेगा। तुम शरीर भी छोड्कर चले जाओगे, तो भी यह नाता टूटनेवाला नहीं।

इसलिए अब दूर जाने की बजाय, दूर जाने में जितनी शक्ति लगाओगे, अच्छा होगा पास आने में ही लगाओ न! पास ही आ जाओ! इतने पास आ जाओ कि दो-पन न रह जाए, दुई न रह जाए।

और एक बार भी तुम्हारे जीवन में किसी के साथ भी इतनी आत्मीयता की प्रतीति हो जाए कि दुई मिट जाए, तो परमात्मा की पहली झलक तुम्हारे जीवन में आ गयी। क्योंकि परमात्मा दो के पार है। एक झरोखा खुला।

मुझे एक झरोखा बना लो।

आज इतना ही।


Filed under: का सोवै दिन रैन—(धनी धरमदास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

तंत्र–सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–14

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प्रेम को ध्‍यान बनाओ, ध्‍यान को प्रेम—(प्रवचन—चौहदवां)

      प्रश्नसार:

1—समाधि को केंद्रित होना क्‍यों कहते है?

      2—ध्‍यान के बिना कैसे अकेला प्रेम पर्याप्‍त है?

      3—मनुष्‍य संवेदनहीन क्‍यों है?

 पहला प्रश्न :

 यदि बुद्धत्‍व और समाधि का अर्थ समग्र चैतन्‍य, जागतिक चैतन्‍य, सर्वव्‍यापी चैतन्‍य है, तो आश्‍चर्य होता है कि इस जागतिक चैतन्‍य की अवस्‍था को केंद्रित होना क्‍यों कहा जाता है? क्‍योंकि केंद्रित होना एकाग्र होने जैसा लगता है। इस जागतिक चैतन्‍य या समाधि को केंद्रित होना क्‍यों कहते है?

 

केंद्रित होना मार्ग है, मंजिल नहीं। केंद्रित होना साधन है, साध्य नहीं। समाधि को केंद्रित होना नहीं कहते हैं, केंद्रित होना समाधि की विधि है। हालांकि दोनों परस्पर विरोधी मालूम होते हैं। क्योंकि जब कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तब कोई केंद्र नहीं बचता है।

जैकब बोहमे ने कहा है कि जब कोई परमात्मा को प्राप्त होता है तो इस बात को दो ढंग से कहा जा सकता है। या तो कहा जाए कि केंद्र सब कहीं है या कहा जाए कि केंद्र कहीं नहीं है। दोनों का अर्थ एक ही है। केंद्रित होना विरोधाभासी मालूम पड़ता है। लेकिन मार्ग मंजिल नहीं है, साधन साध्य नहीं है। और साधन विरोधी भी हो सकता है।

इसे समझना जरूरी है, क्योंकि ये एक सौ बारह विधियां केंद्रित होने की विधियां हैं। लेकिन एक बार जब तुम केंद्रित हो जाते हो तो तुम्हारा विस्फोट हो जाएगा। केंद्रित होने का अर्थ है कि तुम एक बिंदु पर इकट्ठे हो गए। एक बार तुम एक बिंदु पर इकट्ठे हो गए तो वह बिंदु अपने आप ही विस्फोट को प्राप्त हो जाता है। तब कोई केंद्र नहीं रहता है, या केंद्र ही केंद्र रहता है। इसलिए केंद्रित होना विस्फोट का उपाय है। यह उपाय क्यों है?

अगर तुम केंद्रित नहीं हो तो तुम्हारी ऊर्जा लक्ष्यहीन बनी रहती है, उसका विस्फोट नहीं हो सकता है। ऊर्जा बिखरी—बिखरी रहती है, उसका विस्फोट नहीं हो सकता। विस्फोट के लिए बहुत बड़ी ऊर्जा चाहिए। विस्फोट का अर्थ है कि अब तुम छिन्न—भिन्न नहीं हो, छितराए नहीं हो, एक बिंदु पर इकट्ठे हो। तब तुम आणविक हो जाते हो। और तब तुम सच में आध्यात्मिक अणु हो जाते हो। और जब तुम अणु बनने योग्य केंद्र को उपलब्ध होते हो तभी तुम्हारा विस्फोट संभव है। तब आणविक विस्फोट घटता है।

उस विस्फोट की चर्चा नहीं की जाती है, क्योंकि यह चर्चा संभव नहीं है। इसलिए सिर्फ विधि की चर्चा की जाती है। फल की चर्चा नहीं होती है, उसकी चर्चा असंभव है। लेकिन अगर तुम विधि को प्रयोग में लाओ तो फल पीछे—पीछे आएगा। और उस फल का वर्णन नहीं हो सकता है।

तो स्मरण रहे, धर्म अनुभव की बात कभी नहीं करता है, सिर्फ विधि की बात करता है। वह बताता है कि यह कैसे होगा, लेकिन यह नहीं बताता कि क्या। क्या को तुम पर छोड़ दिया जाता है।’कैसे’ को पूरा करो तो ‘क्या’ अपने आप ही तुम्हारे पास चला आएगा। और उसको कहने का उपाय नहीं है। उसे कोई जान तो सकता है, लेकिन कह नहीं सकता। वह एक ऐसा अनंत—असीम अनुभव है कि वहां भाषा व्यर्थ हो जाती है। वह इतना विराट है कि कोई शब्द उसे अभिव्यक्ति नहीं दे सकता। इसलिए केवल विधि ही दी जाती है।

बुद्ध निरंतर चालीस वर्षों तक कहते रहे कि मुझसे सत्य, ईश्वर, मोक्ष और निर्वाण के संबंध में प्रश्न मत पूछो, इन चीजों के संबंध में प्रश्न ही मत पूछो। बस, इतना पूछो कि वहां कैसे पहुंचा जाए। मैं तुम्हें मार्ग बता सकता हूं लेकिन यह अनुभव नहीं बता सकता, शब्दों में भी नहीं।

अनुभव व्यक्तिगत है, विधि अवैयक्तिक है। विधि वैज्ञानिक है, अवैयक्तिक है, अनुभव सदा वैयक्तिक है, काव्यात्मक है। जब मैं ऐसा भेद करता हूं तो उससे मेरा क्या प्रयोजन है? विधि वैज्ञानिक है, इसका मतलब है कि अगर तुम प्रयोग करो तो केंद्रित होना फलेगा। केंद्र को उपलब्ध होना निश्चित है, यदि उपाय काम में लाया जाए। और अगर केंद्र नहीं फलित होता है तो समझना कि कहीं चूक हो रही है, तुम कहीं विधि में भूल कर रहे हो, उसका पालन नहीं कर रहे हो। विधि वैज्ञानिक है, केंद्र का फलित होना वैज्ञानिक है, लेकिन जब विस्फोट आता है तो वह काव्य बन जाता है।

काव्य से मेरा मतलब है कि प्रत्येक व्यक्ति को यह अनुभव भिन्न ढंग से होगा। इस अनुभव के लिए कोई समान आधार नहीं है। वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति उसे अभिव्यक्त भी भिन्न ढंग से करेगा।

बुद्ध एक ढंग से कहते हैं, महावीर दूसरे ढंग से कहते हैं, और कृष्ण तीसरे ढंग से। मोहम्मद, मूसा, लाओत्से, सब विधि में नहीं, अभिव्यक्ति में एक—दूसरे से भिन्न हो जाते हैं। सिर्फ एक बात में वे एकमत हैं कि वे जो कहते हैं, वह उसे प्रकट नहीं करता है, जो उन्होंने अनुभव किया है। सिर्फ इस बात में वे सहमत हैं। फिर भी वे प्रयत्न करते हैं कि उस बात की ओर कुछ इंगित करें, कुछ कहें। यह असंभव लगता है, लेकिन अगर तुम्हारा हृदय सहानुभूतिपूर्ण है तो कुछ संप्रेषित हो सकता है। लेकिन उसके लिए प्रगाढ़ सहानुभूति, प्रेम और निष्ठा की जरूरत है।

सच तो यह है कि जब कोई बात तुम तक संप्रेषित हो जाती है तो उसका श्रेय कहने वाले से अधिक तुमको है। अगर तुम उसे गहरे प्रेम से और श्रद्धा से ग्रहण कर सको तो कुछ बात तुम तक पहुंच जाती है। लेकिन अगर तुम उसके प्रति आलोचक का भाव रखो तो कुछ भी नहीं पहुंचता। पहली बात तो उसे कहना कठिन है, लेकिन यदि कहा भी जाए तो तुम्हारी आलोचनात्मक वृत्ति के कारण संवाद असंभव हो जाता है।

संवाद बड़ा नाजुक मामला है। यही कारण है कि इन एक सौ बारह विधियों में अनुभव को बिलकुल बाहर छोड़ दिया गया है, उसकी ओर मात्र इशारा किया गया है। शिव बार—बार कहते हैं, ‘यह करो और अनुभव’ और तुरंत चुप हो जाते हैं। वे कहते हैं, ‘यह करो और आनंद’, और फिर चुप हो जाते हैं। आनंद, अनुभव और विस्फोट—और उसके पार तो व्यक्तिगत अनुभव का जगत आता है, जो प्रकट नहीं किया जा सकता है। उसे न प्रकट करना ही अच्छा है, क्योंकि अगर उसको व्यक्त करने की कोशिश की जाए तो वह गलत समझा जाएगा। इसलिए शिव मौन रह जाते हैं। वे सिर्फ विधि की, उपाय की बात करते हैं।

लेकिन केंद्रित होना मंजिल नहीं है, वह महज मार्ग है। और केंद्रित होना विस्फोट में कैसे बदल जाता है? क्योंकि अगर एक बिंदु पर अतिशय ऊर्जा इकट्ठी हो जाए तो वह बिंदु विस्फोट को प्राप्त होगा। बिंदु बहुत छोटा है और ऊर्जा बहुत बड़ी है, इसलिए बिंदु उसे सम्हाल नहीं सकता। विस्फोट अनिवार्य है। जैसे कि इस बल्व में एक खास मात्रा की बिजली समा सकती है, और अगर ज्यादा बिजली हो जाए तो वह फूटेगा। वैसे ही जब तुम्हारे केंद्र पर अतिशय ऊर्जा इकट्ठी हो जाती है तो वह उसे सम्हाल नहीं पाता। फलत: विस्फोट होता है। यह वैज्ञानिक बात है, वैज्ञानिक नियम है।

और अगर केंद्र पर विस्फोट नहीं होता है तो समझना चाहिए कि अभी तुम केंद्रित नहीं हुए हो। एक बार तुम केंद्रित हो गए कि तुरंत विस्फोट घटित होता है। उसमें समय का अंतराल नहीं है। इसलिए अगर विस्फोट घटित नहीं होता है तो समझना कि तुम अभी इकट्ठे नहीं हो, एकाग्र नहीं हुए हो। अभी तुम्हें एक केंद्र नहीं प्राप्त हुआ है, तुम अभी भी बंटे हो, तुम्हारी ऊर्जा नष्ट हो रही है, बाहर जा रही है।

जब ऊर्जा बाहर जाती है तो तुम खाली हो रहे हो, रिक्त हो रहे हो, नष्ट हो रहे हो। और अंत में नपुंसक, निर्जीव हो जाओगे। सच तो यह है कि मृत्यु आती है तो तुम्हें मरा हुआ ही पाती है। तुम एक मृत कोष्ठ हो। तुम निरंतर अपनी ऊर्जा बाहर की तरफ फेंकते हो और तब कितनी भी ऊर्जा हो वह एक अवधि के भीतर चुक जाएगी और तुम रिक्त हो जाओगे। ऊर्जा का बाहर जाना मृत्यु है। तुम प्रत्येक क्षण मर रहे हो, नष्ट हो रहे हो।

कहते हैं कि सूरज भी, जो कि महान ऊर्जा का भंडार है और जो करोड़ों वर्ष का है, निरंतर रिक्त हो रहा है, और चार हजार वर्षों के भीतर वह समाप्त होने वाला है। सूर्य समाप्त होगा, क्योंकि उसके पास फिर विकीरित करने को ऊर्जा नहीं बचेगी। सूर्य प्रतिदिन मर रहा है, क्योंकि उसकी किरणें उसकी ऊर्जा को ब्रह्मांड की सरहदों की ओर—अगर उसकी कोई सरहदें हैं—बहा ले जा रही हैं, उसकी ऊर्जा बाहर जा रही है।

केवल मनुष्य अपनी ऊर्जा को दिशा देने और रूपांतरित करने की क्षमता रखता है। अन्यथा मृत्यु स्वाभाविक घटना है, प्रत्येक चीज मरती है। केवल मनुष्य अमृत को, चिन्मय को जान सकता है।

तो तुम इस पूरी चीज को एक नियम में सीमित कर सकते हो। अगर ऊर्जा बाहर जाती है तो मृत्यु उसका परिणाम है, और तब तुम कभी न जानोगे कि जीवन क्या है! तुम धीरे— धीरे मरना भर जानोगे, जीवित होने की प्रगाढ़ता का तुम्हें पता नहीं चलेगा। अगर किसी चीज की भी ऊर्जा बाहर जाती है तो उसकी मृत्यु अपने आप घटित होती है। और अगर तुम ऊर्जा की दिशा बदल देते हो, बाहर बहने की बजाय वह भीतर को ओर बहने लगे तो रूपांतरण संभव है। तब यह भीतर की ओर बहने वाली ऊर्जा एक बिंदु पर केंद्रित हो जाती है।

वह बिंदु नाभि—केंद्र के पास है, क्योंकि तुम नाभि के रूप में ही जन्म धारण करते हो। तुम अपनी नाभि से ही अपनी मां से जुड़े होते हो। फिर नाभि से ही मां की जीवन—ऊर्जा तुम्हें प्राप्त होती है। और नाभि के विच्छिन्न किए जाने पर ही तुम व्यक्ति बनते हो; उसके ‘पहले तुम व्‍यक्‍ति नहीं हो, मां के ही एक अंग हो। असली जन्म तो नाभि—रज्यू के कटने पर ही घटित होता है। तभी बच्चा अपना जीवन शुरू करता है, अपना केंद्र बनता है। वह केंद्र नाभि के पास होगा, क्योंकि नाभि से ही बच्चे को जीवन—ऊर्जा मिलती है। वही सेतु है। और तुम जानो न जानो, अभी भी नाभि ही तुम्हारा केंद्र है।

इसलिए अगर ऊर्जा भीतर बहने लगे, दिशा बदलने पर जब वह भीतर मुडने लगे, तो वह नाभि—केंद्र पर ही चोट करेगी। और जब ऊर्जा इतनी हो जाएगी कि केंद्र उसे अपने में समा न सके तो विस्फोट घटित होगा। उस विस्फोट में तुम पुन: व्यक्ति नहीं रह जाते। जैसे जब तुम मां से जुड़े थे तो व्यक्ति नहीं थे वैसे ही पुन: तुम व्यक्ति न रहोगे।

अब तुम्हारा एक नया जन्म हुआ। तुम ब्रह्मांड के साथ एक हो गए। अब तुम्हारा कोई केंद्र न रहा, अब तुम ‘मैं’ नहीं कह सकते, क्योंकि अब अहंकार न रहा। बुद्ध, कृष्ण या महावीर ‘मैं’ का प्रयोग किए जाते हैं, लेकिन वह औपचारिक है। उनका अहंकार जाता रहा है, वे नहीं हैं।

बुद्ध मर रहे थे। जिस दिन उनकी मृत्यु होने को थी, अनेक लोग, उनके शिष्य और संन्यासी उनके पास इकट्ठे थे और रो रहे थे। बुद्ध ने पूछा, क्यों रोते हो? उन्होंने कहा कि शीघ्र ही आप विदा हो जाएंगे, इसलिए हम रोते हैं। बुद्ध हंसे और बोले, मैं तो चालीस वर्षों से नहीं हूं। मैं तो उसी दिन मर गया जिस दिन बुद्धत्व को प्राप्त हुआ। चालीस वर्षों से केंद्र नहीं रहा है। मत रोओ, मत दुखी होओ। अब कौन मरता है? मैं हूं ही नहीं।

लेकिन तो भी शब्द का प्रयोग तो करना ही होगा, यह भी बताने के लिए कि मैं नहीं हूं मैं का प्रयोग करना होगा।

ऊर्जा की अंतर्यात्रा ही धर्म का सारा सार है। धार्मिक खोज का वही अर्थ है, कैसे ऊर्जा को भीतर ले जाया जाए। और ये विधियां सहयोगी हैं। लेकिन स्मरण रहे, केंद्रित होना समाधि नहीं है, अनुभव नहीं है। केंद्रित होना समाधि का द्वार है। और जब अनुभव होता है तो केंद्र भी जाता रहता है। इसलिए केंद्रित होना मात्र मार्ग है।

अभी तुम केंद्रित नहीं हो। अभी तो तुम्हारे बहुत से केंद्र हैं, इसलिए केंद्रित नहीं हो। और जब केंद्रित होगे तब एक ही केंद्र रह जाएगा। तब जो ऊर्जा अनेक केंद्रों में चक्कर लगाती थी, वह लौट आती है। उसे ही घर वापिस आना कहते हैं। तब तुम अपने केंद्र पर हो। और तब विस्फोट घटित होता है। और तब फिर केंद्र खो जाता है। लेकिन तब तुम्हारे बहुत से केंद्र नहीं हैं, तब कोई भी केंद्र नहीं है। तुम ब्रह्मांड के साथ एक हो गए। तब अस्तित्व और तुम एक ही अर्थ रखते हो।

उदाहरण के लिए, एक बर्फ का टुकड़ा सागर में तैर रहा है। उस हिमखंड का अपना एक केंद्र है, उसका अपना अलग व्यक्तित्व है। अभी वह सागर से भिन्न है। बहुत गहरे में तो वह सागर से अलग नहीं है, क्योंकि वह एक विशेष तापमान पर स्थित पानी ही है। स्वभावत: सागर के पानी और हिमखंड के पानी में भेद क्या है? वे एक ही हैं, फर्क सिर्फ तापमान का है। फिर सूरज उगता है और मौसम गर्म हो उठता है। और फिर हिमखंड पिघलने लगता है। तब फिर हिमखंड नहीं रहा, वह पिघलकर पानी हो गया। अब तुम उसे नहीं पा सकते, क्योंकि उसकी वैयक्तिकता नहीं रही, उसका केंद्र नहीं रहा, वह सागर के साथ एक हो गया।

वैसे ही तुम में और बुद्ध में, जीसस को सूली देने वालों में और जीसस में, कृष्ण में और अर्जुन में स्वभाव के तल पर कोई अंतर नहीं है। अर्जुन हिमखंड जैसा है और कृष्ण सागर जैसे हैं। स्वभाव में कोई फर्क नहीं है, वे वही हैं। लेकिन अर्जुन का एक रूप है, नाम है; उसका एक पृथक अस्तित्व है, और वह समझता है कि मैं हूं।

इन केंद्रित होने की विधियों के द्वारा तापमान बदलेगा, हिमखंड पिघलेगा, और तब कोई फर्क नहीं रह जाएगा। सागर होने का भाव समाधि है, हिमखंड होना मन है। सागर सा अनुभव करना अ—मन को उपलब्ध होना है। और केंद्रित होना मार्ग है—मार्ग का वह बिंदु जहां हिमखंड रूपांतरित होगा, हिमखंड नहीं रहेगा। रूपांतरण के पूर्व सागर नहीं था, सिर्फ हिमखंड था। रूपांतरण के पश्चात हिमखंड नहीं होगा, सिर्फ सागर होगा। सागर का भाव समाधि है—अपने को समस्त के भाव के साथ एक करना समाधि है।

लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने को समस्त के साथ एक रूप में सोचो। तुम सोच—विचार कर सकते हो, लेकिन सोच—विचार केंद्रित होने के पहले है, वह ज्ञानोपलब्धि नहीं है। तुम स्वयं नहीं जानते हो, तुमने सुना है, पढ़ा है और तुम चाहते हो कि किसी दिन तुम्हें भी यह घटित हो। लेकिन तुम स्वयं इस ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए हो। केंद्रित होने के पहले तुम सोच—विचार कर सकते हो, लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है। और केंद्रित होने के बाद विचार करने वाला कहां रहता है! तब तुम जानते हो। तब यह अनुभव घटित हुआ है। तब तुम नहीं हो, केवल सागर है।

केंद्रित होना उपाय है; समाधि मंजिल है। और समाधि में क्या घटित होता है, उसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा गया है, क्योंकि कुछ कहा ही नहीं जा सकता। और शिव बहुत वैज्ञानिक हैं। कहने में उनका कोई रस नहीं है, इसलिए वे सूत्रों में बोलते हैं। वे एक भी फिजूल शब्द नहीं उपयोग करेंगे। इसलिए वे इंगित करते हैं, इन शब्दों से इंगित करते हैं—अनुभव, आनंद, घटना। इतना ही नहीं, कभी—कभी तो वे सिर्फ ‘तब’ कहकर काम चला लेते हैं—’दो श्वासों के बीच केंद्रित हो, और तब।’ वे ‘तब’ पर ही रुक जाते हैं। और कभी वे कहेंगे कि दो अतियों के मध्य होओ और ‘वह’। ये उनके इशारे है—वह, तब, अनुभव, आनंद, घटना, विस्फोट। और वे वहीं रुक जाते हैं। क्यों त्र: हम तो चाहेंगे कि वे कुछ और कहें। उसके दो कारण हैं।

एक कि उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है। क्यों नहीं व्याख्या की जा सकती? ऐसे विचारक हैं, जैसे कि यूरोप के आधुनिक विधेयवादी, भाषा—विश्लेषक और अन्य, जो कहते हैं कि जो अनुभव किया जा सकता है वह बताया भी जा सकता है।

और उनके कहने में थोड़ी सचाई है। वे कहते हैं कि जिसे तुम अनुभव कर सकते हो उसे कह क्यों नहीं सकते हो? आखिर अनुभव क्या है? तुमने उसको समझा है तो तुम दूसरों को क्यों नहीं समझा सकते हो? इसलिए उनका कहना है कि अगर अनुभव है तो उसे व्यक्त भी किया जा सकता है। और अगर तुम व्यक्त नहीं कर सकते हो तो उसका यही मतलब है कि अनुभव ही नहीं है। तब तुम भ्रम में हो, उलझे हुए हो। जो अभिव्यक्त नहीं कर सकता, वह अनुभव क्या खाक करेगा! इस दृष्टिकोण के कारण वे कहते हैं कि धर्म बकवास है। तुम यह कहते हो कि मैंने अनुभव किया है, तो फिर तुम उसे अभिव्यक्त क्यों नहीं कर सकते?

बहुतों को उनकी बात जमती, लेकिन उनका तर्क निराधार है। धार्मिक अनुभवों की बात छोड़ो, साधारण अनुभव भी, बहुत सरल अनुभव भी नहीं व्यक्त किए जा सकते हैं, न समझाए जा सकते हैं।

समझो कि मेरे सिर में दर्द है। लेकिन अगर तुम्हें कभी सिरदर्द नहीं हुआ हो तो मैं तुम्हें सिरदर्द क्या है, यह नहीं समझा सकता। उसका यह अर्थ नहीं है कि मैं मंदबुद्धि हूं या कि मैं सिर्फ सोचता हूं मैंने अनुभव नहीं किया है। सिरदर्द है और उसे मैं उसकी समग्रता में अनुभव करता हूं उसकी पूरी पीड़ा के साथ अनुभव करता हूं। लेकिन अगर तुम्हें कभी भी सिरदर्द नहीं हुआ है तो मैं मेरा सिरदर्द तुम्हें कभी बता न सकूंगा। ही, अगर तुम्हें भी सिरदर्द का अनुभव है तो कोई समस्या नहीं है, बात बतायी जा सकती है।

बुद्ध की कठिनाई यही है कि उन्हें गैर—बुद्धों के साथ—गैर—बौद्धों के साथ नहीं, क्योंकि गैर—बौद्ध भी बुद्ध हो सकते हैं, जीसस गैर—बौद्ध होकर भी बुद्ध थे—उन्हें गैर—बौद्धों के साथ बात करनी है। बुद्ध को उनसे संवाद करना है जिन्हें अनुभव नहीं हुआ है। यही कठिनाई है। तुम्हें नहीं मालूम कि सिरदर्द क्या है। बहुत हैं जिन्हें सिरदर्द नहीं मालूम है। उन्होंने सिरदर्द का नाम ही सुना है, जिसका कोई मतलब नहीं।

तुम अंधे आदमी को प्रकाश के संबंध में बता सकते हो, लेकिन वह क्या समझेगा? वह प्रकाश शब्द सुनेगा, वह प्रकाश की व्याख्या सुनेगा, वह प्रकाश का पूरा सिद्धात भी समझ सकता है। लेकिन इसके बावजूद प्रकाश शब्द से उस तक कुछ भी संप्रेषित नहीं होगा। जब तक उसे प्रकाश का अनुभव न हो, संवाद असंभव है।

इसलिए यह बात ध्यान में रख लो कि संवाद तभी संभव है जब समान अनुभव वाले दो व्यक्ति परस्पर संवाद करें। हम सामान्य जीवन में परस्पर संवाद कर पाते हैं, क्योंकि हमारे अनुभव समान हैं। लेकिन सामान्य जीवन में भी अगर कोई बाल की खाल उतारने लगे तो कठिनाई होगी।

मैं कहता हूं कि आसमान नीला है। लेकिन यह कैसे निर्णय हो कि नीलेपन के मेरे और तुम्हारे अनुभव एक ही हैं! तय करना संभव नहीं है। मैं नीलेपन की एक छटा देखूं और तुम उसकी दूसरी छटा देखो। लेकिन तब उसे कैसे संप्रेषित किया जाए? मैं इतना ही कहूंगा कि नीला है, तुम भी उतना ही कहोगे। लेकिन नीलेपन की हजार छटाएं हैं; छटाएं ही नहीं, उसके हजार अर्थ हैं। मेरे मन के ढांचे में नीले का एक अर्थ होगा, तुम्हारे मन के ढांचे में दूसरा अर्थ हो सकता है। क्योंकि नीला अर्थ नहीं है, अर्थ तो सदा मन के ढांचे में है।

तो सामान्य अनुभवों में भी संवाद कठिन है। फिर और थोड़े गहन अनुभव हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति प्रेम में पड़ गया है। वह कुछ अनुभव कर रहा है, उसका पूरा जीवन दांव पर है, लेकिन वह बता नहीं सकता कि उसे क्या हो रहा है। वह रो सकता है, वह गा सकता है, नाच सकता है। ये इशारे हैं कि उसे कुछ हो रहा है। लेकिन उसे क्या हो रहा है? जब किसी को प्रेम घटित होता है तो यथार्थत: क्या होता है?

और प्रेम कोई असामान्य घटना नहीं है। किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति प्रेम के प्रभाव में आता है। लेकिन तो भी हम अब तक व्यक्त नहीं कर पाए कि प्रेम की हालत में प्रेमी के भीतर क्याघटित होता है। ऐसे लोग हैं जिन्हें प्रेम बुखार की तरह, रोग की तरह घेरता है।

रूसो कहता है कि युवावस्था मनुष्य—जीवन का शिखर नहीं हो सकती, क्योंकि युवावस्था प्रेम नामक रोग का शिकार होती है। जब तक कोई इतना पौढ़ न हो जाए कि प्रेम सब अर्थ खो बैठे तब तक आदमी का मन धुएं से भरा रहता है। बहुत वृद्धावस्था में ही विवेक संभव होता है। रूसो का खयाल कि प्रेम बुद्धिमान नहीं होने देता है।

लेकिन दूसरे हैं जो और ही ढंग से सोचते हैं। जो लोग सचमुच बुद्धिमान हैं वे प्रेम के संबंध में चुप रह जाएंगे। वे कुछ नहीं बोलेंगे। क्योंकि प्रेम का भाव इतना असीम है, प्रगाढ़ है कि भाषा वहां व्यर्थ हो जाती है। अगर कोई उसे अभिव्यक्त करे तो उसे अपराध— भाव सताएगा, क्योंकि वह असीम के भाव के साथ न्याय नहीं हो सकता, इसलिए वह चुप रह जाएगा। जितना प्रगाढ़ अनुभव होगा उतनी ही अभिव्यक्ति की संभावनाएं कम होंगी।

बुद्ध ईश्वर के संबंध में इसलिए नहीं चुप रहे कि ईश्वर नहीं है। जो लोग ईश्वर के संबंध में बहुत बात करते हैं वे यही बताते हैं कि उन्हें अनुभव नहीं है। बुद्ध मौन रह गए। जब भी वे किसी नगर में पहुंचते, यह घोषणा करा देते कि कोई ईश्वर के संबंध में उनसे प्रश्न न पूछे। जो भी पूछना हो पूछो, लेकिन ईश्वर के संबंध में मत पूछो।

अनुभवहीन पंडितों ने तो बुद्ध के संबंध में यह अफवाह फैलायी कि बुद्ध चुप हैं, क्योंकि नहीं जानते। जानते होते तो कहते क्यों नहीं? और बुद्ध हंस देते थे। लेकिन उनकी हंसी को बहुत थोड़े लोग समझते थे। जब प्रेम नहीं अभिव्यक्त हो सकता तो ईश्वर को कैसे अभिव्यक्ति दी जा सकती है!

तो एक तो बात यह कि अभिव्यक्ति से हानि हो सकती है। यही कारण है कि शिव अनुभव के संबंध में चुप हैं। वे वहीं तक जाते हैं जहां तक अंगुली का इशारा किया जा सके।’तब’, ‘वह’, ‘अनुभव’, ‘आनंद’, ये सबके सब इशारे की अंगुलियां हैं।

दूसरी बात कि किसी ढंग से उसकी थोड़ी अभिव्यक्ति तो की ही जा सकती है। माना कि पूरी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती, आशिक ही हो सकती है, लेकिन अभिव्यक्ति हो सकती है। माना कि यथार्थत: उसे अभिव्यक्त न भी किया जा सके तो भी कुछ समांतर बातें तो बताई ही जा सकती हैं। लेकिन शिव उनका उपयोग भी नहीं करते हैं!

उसका कारण है। कारण यह है कि हमारा मन इतना लोभी है कि जब भी उस अनुभव के संबंध में कहा जाता है तो मन उसको पकड़कर बैठ जाता है। और तब मन विधि को भूल जाता है और सिर्फ अनुभव को याद रखता है। विधि तो प्रयत्न मांगती है, लंबा प्रयत्न, जो कभी—कभी कष्टपूर्ण और खतरनाक होता है। एक लंबे और सतत प्रयत्न की जरूरत है। इसलिए हम विधि को भूल जाते हैं और फल को याद रखते हैं। और फिर फल के सपने देखते हैं, उसके संबंध में कल्पना और वासना का जाल फैलाते हैं। और आदमी आसानी से अपने को धोखा भी दे सकता है, वह कल्पना कर सकता है कि फल प्राप्त हो गया।

कुछ दिन पहले एक व्यक्ति यहां आए थे। वे संन्यासी हैं, बहुत वृद्ध व्यक्ति हैं। तीस वर्ष हुए, उन्होंने संन्यास लिया था। अब उनकी उम्र करीब सत्तर वर्ष की है। उन्होंने कहा कि मैं कुछ पूछने आया हूं कुछ जानने आया हूं। मैंने पूछा कि आप क्या जानना चाहते हैं? अचानक वे बदल गए और उन्होंने कहा कि नहीं, मैं जानने नहीं, सिर्फ आपसे मिलने आया हूं क्योंकि जो भी जाना जा सकता है मैं जान चुका हूं।

तीस वर्षों से वे आनंद के लिए, परमात्म—अनुभव के लिए सपने देखते रहे, वासना पालते रहे, और अब इस उम्र में आकर वे दुर्बल हो गए हैं और मृत्यु करीब आ पहुंची है। और अब उन्होंने यह विभ्रम पैदा कर लिया है कि मैं अनुभव को प्राप्त हूं। मैंने उनसे कहा कि यदि अनुभव है तो चुप ही रहें, मेरे पास जरा देर मौन बैठें; कुछ बोलें मत।

तब वे वृद्ध संन्यासी बेचैन होने लगे। और उन्होंने कहा कि यह मानकर आप कुछ कहें कि मुझे अनुभव नहीं है। मैंने कहा कि मेरे साथ कुछ मानने की बात नहीं है, या तो आपने जाना है या नहीं जाना है। इसके बारे में आपको स्पष्ट होना होगा। अगर आपने जाना है तो चुप रहें, यहां जरा देर रुके और जाएं। और अगर नहीं जाना है तो वैसा साफ कहें।

और तब वे उलझन में पड़ गए। वे कुछ विधियों के बारे में पूछने आए थे। और तब उन्होंने कहा कि सचाई यह है कि मुझे अनुभव नहीं है। लेकिन मैंने ‘अहं ब्रह्मास्मि’ पर इतना विचार किया है, उसको तीस वर्षों तक दिन—रात इतनी बार दोहराया है कि मैं कभी—कभी भूल ही जाता हूं कि यह मेरा विचार ही है, अनुभव नहीं। मैं बिलकुल भूल जाता हूं कि मैंने जाना नहीं है, मैं जो कह रहा हूं वह उधार है।

यह याद रखना कठिन है कि क्या ज्ञान है और क्या अनुभव है। ज्ञान और अनुभव ऐसे घुलमिल जाते हैं कि यह भ्रम आसानी से निर्मित हो जाता है कि तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा अनुभव बन गया है। मनुष्य का मन इतना धोखेबाज है, इतना चालाक है कि यह विभ्रम संभव हो जाता है। यह भी एक कारण है कि क्यों शिव अनुभव के संबंध में चुप रहे। वे उसके संबंध में कुछ नहीं बोलते, वे सिर्फ विधियों की बात किए जाते हैं। फल के संबंध में वे बिलकुल चुप हैं मौन हैं। शिव से तुम्हें धोखा नहीं हो सकता।

और यह भी एक कारण है कि यह किताब, जो किताबों में बहुत—बहुत महत्व की किताब है, इतनी अजानी रह गई। यह विज्ञान भैरव तंत्र संसार की एक अत्यंत महत्वपूर्ण किताब है। कोई बाइबिल, कोई वेद और कोई गीता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन यह पुस्तक सर्वथा अज्ञात रह गई। कारण? कारण कि यह सिर्फ विधियों की बात करती है। और वह तुम्हारे लोभ को फल की आकांक्षा का मौका नहीं देती है।

मन फल चाहता है। मन विधि में उत्सुक नहीं होता, वह अंतिम फल में उत्सुक होता है। और अगर तुम विधि से बचकर फल तक पहुंच सको तो मन बहुत प्रसन्न होता है।

कोई मुझसे पूछता था. इतनी विधियां क्यों? कबीर तो कहते हैं, सहज समाधि भली, फिर विधियों की क्या जरूरत? मैंने उनसे कहा कि अगर तुम सहज समाधि को उपलब्ध हो गए हो तो वाकई विधियों का कोई उपयोग नहीं है। जरूरत भी नहीं है। लेकिन तब तुम यहां किस लिए आए हो? उसने कहा कि मैं अभी उपलब्ध नहीं हुआ हूं लेकिन समझता हूं कि सहज बेहतर है। फिर मैंने पूछा कि तुम क्यों सहज को बेहतर समझते हो? क्योंकि उसमें कोई विधि नहीं बताई जाती है, इसलिए मन को वह भाता है कि चलो कुछ करना नहीं होगा और सब कुछ हो जाएगा।

यही कारण है कि पश्चिम में झेन एक क्रेज बन रहा है। झेन भी कहता है कि अनायास ही सब कुछ होता है, उपलब्धि के लिए कुछ प्रयत्न नहीं करना है। झेन सही है, प्रयत्न की जरूरत नहीं है। लेकिन याद रहे, इस अप्रयत्न की अवस्था तक पहुंचने के लिए एक लंबे प्रयत्न की जरूरत पड़ती है। जहां प्रयत्न की जरूरत न रहे, जहां तुम अकर्म की स्थिति में रह सको, उस बिंदु को पाने के लिए बड़े लंबे प्रयत्न की जरूरत हे।

लेकिन यह सतही धारणा कि झेन प्रयत्न नहीं मांगता है, पश्चिम में बहुत आकर्षक हो गई है। अगर प्रयत्न जरूरी नहीं तो मन कहता है कि यह ठीक चीज है, क्योंकि बिना किए सब कुछ हो जाता है। लेकिन कोई यह नहीं कर सकता। यह इतना सरल नहीं है।

सुजुकी ने झेन से पश्चिम को परिचित कराया, और उसने ऐसा कर सेवा और कुसेवा दोनों कीं। और कालांतर में कुसेवा ही अधिक होगी। सुजुकी बहुत प्रामाणिक व्यक्ति था, इस सदी के सर्वाधिक प्रामाणिक व्यक्तियों में एक था। झेन के संदेश को पश्चिम में पहुंचाने के लिए उसने जिंदगीभर संघर्ष किए। और उसने अकेले अपने प्रयत्न से झेन को पश्चिम पहुंचा दिया। और अब तो लोग उसके लिए पागल हैं। सारे पश्चिम में झेन के प्रेमी हैं, उन्हें झेन से ज्यादा और कुछ नहीं भाता।

लेकिन पूरी बात ही चूक गई। यह आकर्षण सिर्फ इसलिए है क्योंकि झेन कहता है कि न किसी विधि की जरूरत है, न किसी प्रयत्न की। तुम्हें कुछ करना ही नहीं है, वह सहज ही फलित होता है। यह तो ठीक है, लेकिन चूकि तुम सहज नहीं हो, इसलिए यह तुमको नहीं घटित होगा। सहज होने के लिए—यह बहुत बेतुका और विरोधाभासी मालूम होता है—सहज होने के लिए, तुम्हें शुद्ध और निर्दोष बनने के लिए बहुत उपायों की जरूरत होगी। उसके बिना तुम किसी चीज के प्रति भी सहज नहीं हो सकोगे।

इस विज्ञान भैरव तंत्र का अंग्रेजी अनुवाद पाल रेप्स ने किया था। उसने एक सुंदर किताब लिखी है जिसका नाम है, ‘झेन फ्लेश, झेन बोन्स’ और उसके परिशिष्ट के रूप में उसने इस ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ को समाविष्ट किया है। उसने परिशिष्ट में इस एक सौ बारह विधियों वाली पुस्तक को सम्मिलित कर लिया और कहा कि यह झेन के भी पूर्व समय की पुस्तक है।

अनेक झेन अनुयायियों को यह बात पसंद नहीं आई। उन्होंने कहा कि झेन तो कहता है कि किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं है और इस पुस्तक में तो प्रयत्न ही प्रयत्न हैं। यह पुस्तक केवल उपायों की फिक्र करती है और झेन कहता है कि उपाय जरूरी नहीं हैं। उन्होंने कहा कि यह तो झेन विरोधी बात हो गई, इसे पूर्व—झेन कैसे कहा जाए?

सतही तौर पर उनका कहना ठीक है, लेकिन गहरे में वे गलत हैं। क्यों? क्योंकि सहज जीवन को उपलब्ध होने के लिए लंबी यात्रा की जरूरत होगी।

गुरजिएफ के एक शिष्य, आसपेंस्की के पास जब कोई मार्ग पूछने आता तो वह कहता था कि हम मार्ग के संबंध में कुछ नहीं जानते हैं, हम तो कुछ पगडंडियों की बात सिखाते हैं जो मार्ग तक पहुंचाती हैं। हम मार्ग को नहीं जानते। ऐसा मत सोचो कि तुम मार्ग पर ही हो, मार्ग तो अभी तुमसे बहुत दूर है। जहां तुम हो उस बिंदु से मार्ग अभी बहुत दूर है। इसलिए पहले तो तुम्हें मार्ग पर पहुंचना है।

आसपेंस्की बहुत विनम्र व्यक्ति था। और धार्मिक व्यक्ति का विनम्र होना बहुत कठिन बात है—करीब—करीब असंभव। क्योंकि जैसे ही तुम्हें लगता है कि तुम कुछ जानते हो तुम्हारा दिमाग फिर जाता है। पर वह हमेशा कहता, हम मार्ग के बाबत कुछ नहीं जानते। वह अभी बहुत दूर की बात है और उसकी चर्चा की भी अभी जरूरत नहीं। अभी तुम जहां हो वहां से तुम्हें पहले एक राह, एक सेतु, एक पगंडडी बनानी होगी जो तुम्हें मार्ग तक पहुंचा दे।

अभी सहज योग तुमसे बहुत दूर है। तुम जैसे हो, बिलकुल कृत्रिम, बनावटी और संस्कारित हो, सुसंस्कृत हो। जरा भी सहज तुममें नहीं है। मैं दोहराता हूं जरा भी सहज नहीं है तुममें। जब तुम्हारे जीवन में कुछ भी सहज नहीं है तो धर्म कैसे सहज हो सकता है? जब कुछ भी सहज नहीं है तो प्रेम भी सहज नहीं हो सकता। तुम्हारा प्रेम भी सौदा है, तुम्हारा प्रेम भी गणित है, तुम्हारा प्रेम भी प्रयास है। और तब कुछ भी सहज नहीं हो सकता। और तब अचानक ब्रह्मांड में समाहित होना असंभव है। जिस स्थिति में तुम अभी हो उसमें यह असंभव है।

पहले तो तुम्हें अपनी सारी कृत्रिमता को, झूठी धारणाओं को, सारे पूर्वाग्रहों को, अभ्यास—जनित औपचारिकताओं को हटाकर फेंक देना होगा। तभी सहजता घटित हो सकती है। ये विधियां तुम्हें उस जगह ला खड़ा करेंगी जहां फिर कुछ करने को शेष नहीं रह जाता है। तब तुम्हारा होना काफी है। लेकिन मन धोखा दे सकता है, आसानी से धोखा दे सकता है, क्योंकि उससे सांत्वना मिलती है।

शिव कभी फल की बात नहीं करते हैं, केवल विधियों की बात करते हैं। उनके इस जोर को स्मरण रखो। विधि पर उनका जोर है, यह याद रखो। कुछ करो कि वह क्षण संभव हो जब कुछ करना जरूरी नहीं है, जब तुम्हारा केंद्रीय अस्तित्व ब्रह्मांड में सहज विलीन हो जा सकता है। लेकिन उस क्षण को अर्जित करना है।

झेन का आकर्षण गलत कारणों से है। और वही बात कृष्‍णमूर्ति के लिए सच है। वे कहते हैं कि योग की जरूरत नहीं है। असल में वे यह कह रहे हैं कि ध्यान की कोई विधि नहीं है। और वे सही हैं। लेकिन शिव भी सही हैं, जब वे कहते हैं कि ध्यान की एक सौ बारह विधियां हैं। और जहां तक तुम्हारा संबंध है, शिव ज्यादा सही हैं। और अगर तुम्हें कृष्णमूर्ति और शिव में चुनाव करना हो तो शिव को चुनना। कृष्णमूर्ति तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं। तुम्हारी सहायता के लिए यह भी कहा जा सकता है कि कृष्णमूर्ति बिलकुल गलत हैं।

याद रहे, मैं कह रहा हूं तुम्हारी सहायता के लिए। मैं यह भी कहूंगा कि वे हानिकर हैं। यह भी मैं तुम्हारे हित के लिए कह रहा हूं। क्योंकि यदि तुम उनके तर्क में फंस गए तो तुम कभी समाधि को उपलब्ध नहीं होओगे। तब सिर्फ एक निष्पत्ति तुम्हारे हाथ में होगी कि किसी विधि की जरूरत नहीं है। और वह निष्पत्ति खतरनाक है। तुम्हारे लिए विधि जरूरी है।

निश्चित ही एक क्षण आता है जब विधि की जरूरत नहीं रहती है। लेकिन तुम्हारे लिए वह क्षण अभी नहीं आया है। और उस क्षण के आने के पहले उसके बहुत आगे की बात जान लेना खतरनाक है। इसीलिए शिव मौन हैं। वे भविष्य की बात नहीं करेंगे। वे नहीं कहेंगे कि आगे क्या होगा। वे तुम्हें देखते हैं; तुम क्या हो और तुम्हारे साथ क्या करना है, उन्हें बस इससे मतलब है। और कृष्णमूर्ति वे बातें भी बता रहे हैं जिन्हें तुम अभी नहीं समझ सकते।

कृष्‍णमूर्ति के तर्क को समझा जा सकता है। उनका तर्क ठीक है, उनका तर्क सुंदर है। यह अच्छा होगा अगर तुम्हें कृष्णमूर्ति का तर्क याद रहे। वे कहते हैं कि तुम जब किसी विधि का प्रयोग करते हो तो यह तुम्हारा मन ही है जो प्रयोग करता है। और मन के द्वारा किया गया

कोई प्रयोग कैसे मन को विसर्जित कर सकता है? बल्कि वह तुम्हारे मन को और भी मजबूत कर जाएगा। वह भी तुम्हारा संस्कार बन जाएगा, वह भी झूठा ही होगा। ध्यान सहज है, तुम ध्यान के लिए कुछ नहीं कर सकते। क्या तुम प्रेम के लिए कुछ कर सकते हो? क्या प्रेम के लिए किसी विधि का प्रयोग कर सकते हो? और अगर प्रयोग करो तो तुम्हारा प्रेम झूठा होगा। धान को प्रेम

प्रेम घटित होता, उसका अभ्यास नहीं किया जा सकता। और अगर प्रेम का भी अभ्यास नहीं हो सकता है तो ध्यान का अभ्यास कैसे हो सकता है?

तर्क एकदम सही है, सर्वथा सही है। लेकिन यह तुम्हारे लिए नहीं है। क्योंकि इस तर्क को निरंतर सुनने से तुम इससे कंडीशंड हो जाओगे, तुम इससे बंध जाओगे। जिन लोगों ने कृष्‍णमूर्ति को निरंतर चालीस वर्षों से सुना है, वे मेरे देखे सर्वाधिक कंडीशंड लोग हैं। वे कहते हैं कि विधि जरूरी नहीं है, लेकिन वे अब तक कहीं नहीं पहुंचे हैं।

मैं उनसे पूछता हूं कि तुम किसी विधि का प्रयोग भी नहीं करते हो, लेकिन क्या सहजता तुममें फलित हुई है? वे इसका उत्तर नहीं देते हैं। और तब अगर मैं उनसे कहता हूं कि किसी विधि का अभ्यास करो, तो तुरंत उनका संस्कार आड़े आ जाता है और वे कहते हैं कि विधि जरूरी नहीं है। उन्होंने किसी विधि का अभ्यास नहीं किया है और उन्हें समाधि नहीं मिली। और अगर तुम उन्हें कोई साधना बताओ तो वे कहते हैं कि विधि जरूरी नहीं है। ऐसे वे एक द्वंद्व में फंस गए हैं। उन्होंने एक इंच भी गति नहीं की है। और इसका कारण यह है कि उन्हें वह बात बतायी गई जो उनके लिए थी ही नहीं।

यह ऐसे ही है जैसे किसी बच्चे को कामवासना की शिक्षा दी जाए। तुम उसे कुछ बता तो सकते हो। लेकिन बच्चे के लिए वह अर्थहीन होगा। और तुम्हारी सिखावन खतरनाक हो सकती है। क्योंकि तुम उसे संस्कारित कर रहे हो। यह उसकी जरूरत नहीं है, उसे इससे कुछ लेना—देना नहीं है। उसे कामवासना का पता नहीं है, क्योंकि उसकी कामवासना की ग्रंथियां अभी काम नहीं करतीं। उसका शरीर अभी कामुक नहीं हुआ है। अभी काम—केंद्र पर उसकी ऊर्जा नहीं पहुंची है, और तुम उसे काम की शिक्षा दे रहे हो। क्योंकि उसके कान हैं, इसीलिए क्या उसे कोई भी चीज सिखाई जा सकती है? क्योंकि वह सिर हिला सकता है, इसलिए क्या तुम उसे कुछ भी पढा सकते हो?

तुम पढ़ा तो सकते हो, लेकिन तुम्हारी शिक्षा उसके लिए खतरनाक होगी, हानिकर होगी। अभी कामवासना उसकी जिज्ञासा नहीं बनी है। वह उसकी समस्या नहीं है, क्योंकि वह प्रौढ़ता के उस बिंदु पर नहीं पहुंचा है जहां काम अर्थ ग्रहण करता है।

अभी रुको। जब वह प्रौढ़ होगा, जब वह जिज्ञासा करेगा, प्रश्न पूछेगा, तब कहना। और तब भी उतना ही कहना जितनी उसकी जरूरत होगी, ज्यादा नहीं। क्योंकि वह ज्यादा फिर उसके सिर का बोझ बन जाएगा।

यही बात ध्यान के लिए सही है। तुम्हें सिर्फ विधि सिखाई जानी चाहिए, फल नहीं। फल तो छलांग लेने जैसा है। और विधि की सीढ़ी मिले बिना छलांग लेना महज मानसिक क्रिया होगी। और तब तुम सदा विधि से वंचित रहोगे।

यह तो ऐसे ही है जैसे छोटे बच्चे गणित करते हैं। वे किताब उलटकर उत्तर जान ले सकते हैं। किताब के अंत में उत्तर दिए रहते हैं। वे प्रश्न देखने के बाद उत्तर भी खोलकर देख ले सकते हैं। और एक बार बच्चा उत्तर जान ले तो उसे गणित करने की विधि सीखना कठिन हो जाएगा, क्‍योंकि उसकी जरूरत न रही। जब वह उत्तर जान गया तो विधि की क्या जरूरत है? सच तो यह है कि तब वह पूरा गणित विपरीत क्रम से करेगा। तब वह किसी झूठी गलत विधि से उत्तर पर पहुंच जाता है। उसे उत्तर का पता है, इसलिए वह किसी झूठी विधि खोजकर उत्तर पर आ जाएगा। और उलटी प्रक्रिया धर्म के जगत में इतनी प्रचलित है कि मालूम होता है कि वहां हर आदमी बच्चे का गणित कर रहा है।

उत्तर जानना तुम्हारे लिए श्रेयष्कर नहीं है। प्रश्न है, विधि है; उत्तर तुम्हें स्वयं ढूंढना होगा। कोई दूसरा तुम्हें उत्तर बताए, यह ठीक नहीं है। सदगुरु तुम्हें प्रक्रिया करने के पहले उत्तर नहीं बताएंगे। वे तुम्हें प्रक्रिया से गुजरने में मदद करेंगे। अगर तुमने किसी तरह उत्तर जान भी लिया है, अगर तुमने कहीं से उत्तर चुरा भी लिया है, तो सदगुरु कहेगा कि यह गलत उत्तर है। हो सकता है, उत्तर सही हो, तो भी वे कहेंगे कि यह गलत उत्तर है। इसे फेंको, इसकी जरूरत नहीं है। वे तुम्हें उत्तर जानने से तब तक रोकेंगे जब तक तुम स्वयं उत्तर न जान लो।

यही कारण है कि कोई उत्तर नहीं दिया गया है। शिव की प्रिया पूछती है और शिव सरल विधियां बताते हैं। प्रश्न जुट गया, विधियां जुट गईं; समाधान ढूंढना, समाधान जीना तुम पर छोड़ दिया गया है।

इसलिए स्मरण रहे, केंद्रित होना उपाय है, उत्तर नहीं। उत्तर तो जागतिक अनुभव है—सागर होने का अनुभव। तब केंद्र नहीं है।

दूसरा प्रश्न:

 

आपने कहा कि अगर कोई सच में प्रेम कर सके तो मात्र प्रेम पर्याप्त है और तब एक सौ बारह विधियों की जरूरत नहीं है। और सच्‍चा प्रेम क्या है, आपने वह भी समझाया। उससे मुझे विश्वास होता है कि मैं सच में प्रेम करता हूं। लेकिन मुझे जो आनंद ध्यान में अनुभव होता है वह उस परितोष से सर्वथा भिन्न है जो मुझे प्रेम में अनुभव होता है। और मैं ध्यान के बिना रहने की बात भी नहीं सोच सकता। इसलिए यह समझाने की कृपा करें कि ध्यान के बिना प्रेम पर्याप्त कैसे हो सकता है!

हुत सी बातें समझने जैसी हैं। एक कि अगर तुम सच में प्रेम में हो तो तुम ध्यान के बारे में जिज्ञासा ही नहीं करोगे। क्यों? क्योंकि प्रेम ऐसी समग्र उपलब्धि है, ऐसा परिपूर्ण भराव है कि उससे कभी यह भाव नहीं उठ सकता कि कुछ कमी है कि कुछ खालीपन है कि कुछ भरना है कि कुछ और पाना है। और अगर तुम्हें महसूस हो कि कुछ और चाहिए, कुछ कमी है, कुछ और करना है, अनुभव करना है, तो समझना कि तुम्हारा प्रेम महज भावना है, यथार्थ नहीं। मैं तुम्हारे विश्वास पर संदेह नहीं करता, तुम विश्वास कर सकते हो कि तुम प्रेम करते हो। तुम्हारा विश्वास प्रामाणिक भी हो सकता है, तुम किसी को धोखा नहीं दे रहे हो। तुम महसूस कर सकते हो कि तुम प्रेम में हो, लेकिन लक्षण बताते हैं कि तुम प्रेम में नहीं हो। प्रेम में होने के लक्षण क्या?

तीन लक्षण हैं। पहला लक्षण है, परिपूर्ण संतोष, जिसमें कुछ और की जरूरत नहीं रहती, परमात्मा तक की जरूरत नहीं रहती। दूसरा लक्षण है कि उसमें भविष्य नहीं है। प्रेम का यह एक क्षण शाश्वत के समान है। उसमें दूसरा क्षण नहीं है, भविष्य नहीं है, कोई कल नहीं है। प्रेम वर्तमान में घटित हो रहा है। और तीसरा लक्षण है कि प्रेम में तुम समाप्त हो जाते हो, तुम अब नहीं हो। और अगर तुम अब भी हो तो तुमने प्रेम के मंदिर में प्रवेश नहीं किया है।

अगर ये तीनों बातें मौजूद हों तो फिर और क्या चाहिए? अगर तुम नहीं रहे तो फिर ध्यान कौन करेगा? अगर कोई भविष्य नहीं रहा तो सब विधियां व्यर्थ हो गईं। क्योंकि विधियां तो भविष्य के लिए हैं, फल के लिए हैं। और यदि तुम इसी क्षण परितुष्ट हो, परम संतुष्ट हो, तो कुछ करने के लिए प्रेरणा या प्रयोजन क्या है?

मनोवैज्ञानिकों की एक धारा है—और वह आधुनिक चिंतन की एक बहुत महत्वपूर्ण धारा है—जिसका आरंभ विलहेम रेख से होता है। उसने कहा कि प्रेम के अभाव के कारण ही सब मानसिक रुग्णताएं पैदा होती हैं। क्योंकि तुम्हें प्रगाढ़ प्रेम का अनुभव नहीं हो सकता, क्योंकि तुम उसमें समग्रता से नहीं उतर सकते, इसलिए यह अतृप्त प्राणी अनेक आयामों में तृप्ति खोजता है।

जब मैं यह कहता हूं कि अगर तुम प्रेम कर सकते हो तो और कुछ जरूरी नहीं है, तो उससे मेरा यह अर्थ नहीं है कि प्रेम पर्याप्त है। मैं यह कहता हूं कि अगर तुम प्रेम की गहराई में उतर सको तो प्रेम द्वार बन जाता है। तब प्रेम किसी भी अन्य ध्यान की भांति द्वार बन जाता है।

ध्यान क्या करता है? ध्यान भी तीन काम करता है। वह संतोष पैदा करता है, वह तुम्हें वर्तमान में जीने की सुविधा देता है और वह तुम्हारे अहंकार को मिटाता है। सो ध्यान किसी विधि के जरिए ये तीन काम संपन्न करता है। इसलिए तुम ऐसा कह सकते हो कि प्रेम स्वाभाविक विधि है। और अगर स्वाभाविक विधि न उपलब्ध हो तो उसकी जगह कृत्रिम विधियां प्रयोग में लायी जा सकती हैं।

लेकिन कोई व्यक्ति समझ सकता है कि मैं प्रेम में हूं। उसके लिए ये तीन चीजें कसौटी का काम करेंगी। उसे जानना होगा कि उसके तीन लक्षण हैं, कसौटी हैं, मापदंड हैं। उसे देखना होगा कि उसके प्रेम के साथ ये तीन बातें घटित होती हैं अथवा नहीं। अगर वे घटित नहीं होती हैं तो वह और कुछ होगा, प्रेम नहीं होगा।

और प्रेम एक बड़ी घटना है, वह बहुत चीजें हो सकता है। वह वासना हो सकती है, वह महज कामवासना हो सकती है, वह मालकियत की वृत्ति हो सकती है, यह भी हो सकता है कि तुम अकेले नहीं रह सकते और तुम्हें कुछ व्यस्तता चाहिए; तुम भयभीत हो और तुम्हें सुरक्षा के लिए किसी का संग—साथ चाहिए। दूसरे का संग—साथ सुरक्षा का भाव देता है। और वह प्रेम महज काम—संबंध भी हो सकता है।

ऊर्जा को निकास की जरूरत है। ऊर्जा इकट्ठी होती जाती है और बोझ बन जाती है। तब तुम्हें उसे निकालना पड़ता है, बाहर फेंकना पड़ता है। तो तुम्हारा प्रेम महज छुटकारे का उपाय हो सकता है। प्रेम अनेक चीज हो सकता है। प्रेम अनेक चीज है। और सामान्यत: प्रेम प्रेम के अतिरिक्त अनेक चीज है।

मेरे लिए प्रेम ध्यान है। इसलिए इसका उपयोग करो। अपने प्रेमी के साथ ध्यान में उतरो। जब भी तुम्हारा प्रेमी या प्रेमिका पास हो, उसके साथ गहरे ध्यान में उतर जाओ। एक—दूसरे की उपस्थिति को प्रेम की अवस्था बना लो।

सामान्यत: तुम ठीक इसके विपरीत चलते हो। जब प्रेमी साथ होते हैं तो लडते होते हैं। जब वे अलग होते हैं तब एक—दूसरे की सोचते हैं और जब साथ होते हैं तब लड़ते हैं। और फिर अलग होकर एक—दूसरे के संबंध में चिंतन करने लगते हैं। यह सिलसिला चलता रहता है। लेकिन यह प्रेम नहीं है।

तो मैं कुछ सुझाव देता हूं। अपने प्रेमी या अपनी प्रेमिका की उपस्थिति को ध्यान की स्थिति बनाओ। मौन हो जाओ। पास—पास रहो, लेकिन मौन। एक—दूसरे की उपस्थिति को मन के विसर्जन का अवसर बनाओ, इसलिए सोचो मत। अगर प्रेमी के साथ रहकर भी तुम सोचते हो तो तुम प्रेमी के साथ ही नहीं हो। कैसे साथ हो सकते हो? दूर हो, अगर तुम अपनी बात सोच रहे हो और तुम्हारा प्रेमी अपनी बात सोच रहा है। तुम साथ—साथ हो, यह दिखता भर है, लेकिन यथार्थत: तुम दूर—दूर हो। क्योंकि जब दो मन विचार में संलग्न हैं तो वे एक—दूसरे से दो ध्रुवों की दूरी पर हैं।

सच्चे प्रेम का अर्थ तो विचार का विसर्जन है। तो अपने प्रेमी या प्रेमिका की सन्निधि में सोच—विचार बिलकुल बंद कर दो। तभी वह सन्निधि है। और तब तुम अचानक एक हो जाते हो। तब शरीर तुम्हें अलग— अलग नहीं रख सकते, शरीर की किसी गहराई में अवरोध टूट गया है। मौन अवरोध को मिटा देता है। पहली बात यह है।

अपने संबंध को धार्मिक बनाओ। जब तुम सच में प्रेम में होते हो तो प्रेम—पात्र परमात्मा हो जाता है। अगर ऐसा न हो तो भलीभांति समझना कि वह प्रेम संबंध नहीं है। यह असंभव है; प्रेम संबंध अधार्मिक संबंध नहीं हो सकता।

लेकिन क्या तुमने कभी अपने प्रेमी के लिए समादर अनुभव किया है? तुमने अनेक अन्य चीजें महसूस की होंगी, लेकिन समादर नहीं। यह विचार के बाहर मालूम पड़ता है। लेकिन भारत ने बहुत—बहुत प्रयोग किए हैं। यही कारण है कि भारतीय दृष्टि रही है कि पुरुष और स्त्री के बीच का प्रेम संबंध धार्मिक संबंध होना चाहिए, सांसारिक संबंध नहीं। प्रेमी और प्रेमिका दोनों ईश्वरीय हो जाते हैं। तुम उन्हें और किसी ढंग से नहीं देख सकते।

बहुत हैरानी की बात है, क्या तुमने अपनी पत्नी के लिए सम्मान अनुभव किया है? यह बात ही बेतुकी मालूम पड़ती है—पत्नी के लिए सम्मान? प्रश्न ही नहीं उठता है। तुम निंदा अनुभव कर सकते हो, कुछ भी अनुभव कर सकते हो, लेकिन सम्मान नहीं। महज सांसारिक संबंध है, तुम एक—दूसरे का उपयोग कर रहे हो। पत्नी कह सकती है कि मैं पति का आदर करती हूं लेकिन मैंने अब तक ऐसी पत्नी नहीं देखी जो पति का आदर करती हो। परंपरा है कि पति का समादर करे, इसलिए पत्नी कहे जाती है कि मैं समादर करती हूं और वह उसका नाम भी नहीं लेगी। आदर से वह नाम नहीं लेती, ऐसी बात नहीं है। क्योंकि नाम छोड्कर वह सब कुछ कह सकती है। लेकिन महज परंपरा के कारण वह नाम नहीं लेती है।

तो दूसरी बात सम्मान है। प्रेमी या प्रेमिका की उपस्थिति में सम्मान अनुभव करो। अगर तुम अपने प्रेमी या प्रेमिका में परमात्मा को नहीं देख सकते हो तो तुम उसे कहीं भी नहीं देख सकते। फिर तुम उसे वृक्ष में कैसे देखोगे जिससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं है? फिर तुम से पत्थर या झाड़ में कैसे देखोगे जिनके साथ तुम्हारी कोई आत्मीयता नहीं है? अगर तुम अपने प्रेमी में परमात्मा को नहीं देख सकते, नहीं महसूस कर सकते, तो तुम उसे कहीं भी महसूस नहीं करोगे।

और अगर तुमने प्रेमी में परमात्मा को देख लिया तो देर—अबेर तुम उसे सर्वत्र देखोगे। क्योंकि एक बार दरवाजा खुल गया और किसी व्यक्ति में तुम्हें परमात्मा की झलक मिल गई तो तुम फिर उस झलक को कभी न भूल सकोगे। और इस कारण तब हर एक चीज द्वार बन जाएगी। यही कारण है कि मैं कहता हूं कि प्रेम स्वयं ध्यान है।

तो विरोध की भाषा में मत सोचो कि प्रेम करूं कि ध्यान। वह मेरा मतलब नहीं है। प्रेम और ध्यान में चुनाव मत करो। ध्यानपूर्वक प्रेम करो या प्रेमपूर्वक ध्यान करो। कोई विभाजन मत करो। प्रेम बहुत ही स्वाभाविक तत्व है और उसका उपयोग एक माध्यम की भांति किया जा सकता है। तंत्र ने यह उपयोग किया है—न सिर्फ प्रेम का बल्कि कामवासना का भी। तंत्र ने उन्हें माध्यम बना लिया है।

तंत्र कहता है कि गहरे काम—संभोग में ध्यान आसानी से घटित होता है, जितनी आसानी से चित्त की किसी अन्य अवस्था में संभव नहीं है। इसका कारण है कि संभोग स्वाभाविक, जैविक समाधि जैसा है। लेकिन जिस काम—संभोग से हम परिचित हैं वह बहुत विकृत है। इसलिए जब ऐसी बात कही जाती है तो तुम्हें बेचैनी होती है, क्योंकि तुमने जिसे सेक्स जाना है वह सेक्स नहीं है, वह उसकी छाया भर है। और इसका कारण है।

पूरे समाज ने तुम्हारे मन को सेक्स के विरुद्ध संस्कारित किया है। इस दिशा में प्रत्येक आदमी दमित है। इससे स्वाभाविक सेक्स असंभव हो गया है। जब कभी तुम संभोग में होते हो तो एक गहरा अपराध— भाव तुम्हें घेरे रहता है। वह अपराध— भाव अवरोध बन जाता है। और एक बहुत बड़ा अवसर खो जाता है। उस अवसर को तुम अपने भीतर गहरे उतरने के लिए उपयोग में ला सकते हो।

तंत्र कहता है कि संभोग में ध्यानपूर्ण होओ। संभोग को पवित्र महसूस करो, अपने को अपराधी मत महसूस करो। इसे सौभाग्य मानो कि प्रकृति ने तुम्हें ऐसा स्रोत दिया है जिसके जरिए तुम आसानी से और शीघ्रता से समाधि में गहरे उतर सकते हो। और फिर संभोग में मुक्त मन से उतरो, उसमें किसी तरह का दमन या प्रतिरोध मत रहने दो। काम—क्रीड़ा में पूरी तरह डूब जाओ। अपने को भूल जाओ और सभी निषेधों को दूर फेंको। बिलकुल स्वाभाविक रहो।

और तब तुम्हारे शरीर में एक गहरा संगीत पैदा होगा। जब दो शरीर लयबद्ध होंगे तब तुम बिलकुल भूल जाओगे कि तुम हो और फिर भी तुम होगे। तब तुम मैं को भूल जाओगे, मैं बचेगा ही नहीं। तब अस्तित्व अस्तित्व के साथ परस्पर खेलेगा, तब दो नहीं रहेंगे, एक हो जाएंगे। तब कोई विचार नहीं रहेगा, भविष्य समाप्त हो जाएगा; और तुम वर्तमान में, इसी क्षण में होओगे।

बिना अपराध— भाव या निषेध के संभोग को ध्यान बनाओ और तब कामवासना रूपांतरित हो जाती है, वह स्वयं ही द्वार बन जाती है। जब काम द्वार बनता है तो काम की कामुकता समाप्त हो जाती है। फिर एक क्षण आता है जब काम भी समाप्त हो जाता है, सिर्फ उसकी सुवास रहती है। वह सुवास ही प्रेम है। और धीरे—धीरे वह सुवास भी जाती रहती हे, और तब जो बचता है वही समाधि है।

तंत्र कहता है कि किसी चीज को भी शत्रु मत समझो। प्रत्येक ऊर्जा मैत्रीपूर्ण है, सिर्फ उसके उपयोग की कला जाननी है। चुनाव मत करो। अपने प्रेम को ध्‍यान में रूपांतरित करो और वैसे ही ध्यान को प्रेम में। तब तुम जल्दी ही शब्द को भूल जाओगे। और उस यथार्थ को जानोगे जो शब्द नहीं है।

प्रेम शब्द प्रेम नहीं है, ध्यान शब्द ध्यान नहीं है, और ईश्वर शब्द ईश्वर नहीं है। वे मात्र शब्द हैं, लेकिन यदि तुम गहरे प्रवेश कर सको तो ईश्वर, ध्यान और प्रेम सब एक हो जाते हैं।

एक और प्रश्न :

मनुष्य की संवेदहीन्ता के कारण क्या हैं? और उन्हें कैसे दूर किया जाए?

बच्चा जब जन्म लेता है, तो बच्चा असहाय होता है; खासकर मनुष्य का बच्चा तो पूर्णत: असहाय होता है। उसे जीवित रहने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यह निर्भरता एक सौदा है। इस सौदे में बच्चे को अनेक चीजें देनी पड़ती हैं। संवेदनशीलता उनमें से एक है।

बच्चा बहुत संवेदनशील होता है। उसका पूरा शरीर संवेदनशील होता है। लेकिन वह असहाय है, वह स्वतंत्र नहीं है। वह मां—बाप पर, परिवार पर, समाज पर निर्भर है। उसे पराधीन रहना है। इस पराधीनता और असहायपन के कारण उसके मां—बाप, परिवार उस पर बहुत सी चीजें लादते हैं और उसे उनके सामने झुकना पड़ता है। अन्यथा वह जीवित नहीं रह सकता; वह मर जाएगा। इसलिए उसे बहुत सी चीजें बदले में खोनी होती हैं। उनमें से सबसे गहरी और महत्वपूर्ण चीज संवेदनशीलता है। वह अपनी संवेदनशीलता खो देता है। क्यों?

क्योंकि बच्चा जितना संवेदनशील होता है वह उतने कष्ट में पड़ता है, वह उतना ही नाजुक और असुरक्षित होता है। छोटी सी उत्तेजना और वह रोने लगता है। यह रोना मां—बाप बंद कराना चाहते हैं, लेकिन वे कुछ कर नहीं सकते। लेकिन अगर बच्चा हर उत्तेजना को जीता जाए तो वह परिवार के लिए उपद्रव बन जाता है। और बच्चे उपद्रव बन ही जाते हैं। फलत: मां—बाप को बच्चे की संवेदनशीलता को घटाना पड़ता है। बच्चे को प्रतिरोध सीखना पड़ता है। बच्चे को नियंत्रण सीखना पड़ता है। धीरे— धीरे बच्चे का मन दो टुकड़ों में बंट जाता है। तब वह अनेक उत्तेजनाओं को महसूस करना छोड़ देता है, क्योंकि वे उत्तेजनाएं अच्छी नहीं मानी जाती हैं। उनके लिए उसे सजा मिलती है।

बच्चे का पूरा शरीर कामुक होता है। वह अपनी अंगुलियों को चूसता है। वह अपने पूरे शरीर से आनंद लेता है। उसका पूरा शरीर कामुक है, वह अपने पूरे शरीर की छानबीन करता है। यह उसके लिए बड़ी बात है। लेकिन इस छानबीन में एक क्षण आता है जब बच्चा अपनी जननेंद्रिय पर पहुंच जाता है और तब वह एक समस्या बन जाती है। समस्या इसलिए खड़ी होती है कि उसके मां—बाप दमित लोग हैं। जिस क्षण बच्चा अपनी जननेंद्रिय को छूता है, मां—बाप छ होने लगते है।

यह बात गहराई से देखने की है। मां—बाप की मुद्रा जैसे ही बदलती है, बच्चे उसे भांप लेते हैं। उन्हें लगता है कि कुछ भूल हो गई। मां—बाप चिल्लाकर कहते हैं, उसे छुओ मत! तब बच्चे को लगता है कि जननेंद्रिय कोई बुरी चीज है और उसे दबाना जरूरी है। और जननेंद्रिय शरीर का सबसे नाजुक, सबसे जीवंत और सबसे संवेदनशील अंग है। और जब बच्चे को जननेंद्रिय को छूने और उसका आनंद लेने से रोक दिया जाता है तो उसकी संवेदनशीलता का स्रोत ही नष्ट हो जाता है।

यह बच्चा संवेदनहीन हो जाएगा। और वह ज्यों—ज्यों बड़ा होगा, उसकी संवेदनहीनता भी बढ़ती जाएगी। इस सौदे में पहली बलि संवेदनशीलता की चढ़ती है। यह सौदा जरूरी है—लेकिन उतना ही बुरा। और जब तुम्हें यह समझ में आने लगे तो सौदे को रह कर संवेदनशीलता को फिर से प्राप्त करना चाहिए।

इस सौदे का एक दूसरा भी कारण है, वह सुरक्षा है।

मैं कई वर्षों तक एक मित्र के साथ उनके घर में रहता था। पहले ही दिन मैंने देखा कि वे अपने नौकर को देखने से कतराते हैं। वे धनी आदमी हैं, लेकिन वे कभी अपने नौकर की तरफ आंखें नहीं उठाते हैं। वैसे ही वे अपने बच्चों को नहीं देखते हैं। वे दौड़ते हुए अपने बंगले में प्रवेश करते थे और वैसे ही बाहर जाते समय दौड़कर बंगले से निकलते थे और कार में घुस जाते थे।

एक दिन मैंने उनसे पूछा कि बात क्या है? उन्होंने कहा कि अगर नौकरों की तरफ देखूं तो वे सोचते हैं कि मेरा रुख दोस्ताना है और वे तुरंत पैसों की या इस—उस चीज की मांग कर बैठते हैं। वही अड़चन बच्चों से बात करने में है। तब तुम उनके मालिक नहीं रह जाते हो। तब तुम उनका नियंत्रण नहीं कर सकते हो।

इस आदमी ने अपने चारों तरफ संवेदनहीनता का जाल खड़ा कर लिया है। उसे डर है कि नौकर से बात करने पर, उसके साथ सहानुभूति दिखाने पर, उसे कुछ धन या और कुछ देना पड़ेगा। ऐसे हर आदमी देर— अबेर सीख जाता है कि संवेदनशील होना उपद्रव में पड़ना है। तो तुम अपने चारों ओर एक अवरोध खड़ा कर लेते हो, एक सुरक्षा की दीवार बना लेते हो। फिर तुम आसानी से बाहर सड़क पर निकल सकते हो। वहां भिखमंगे भीख मांग रहे हैं और दरिद्रों की झोपड़पट्टियां खड़ी हैं। लेकिन अब तुम्हें उन्हें देखकर कोई भाव नहीं उठता है। सच तो यह है कि तुम उन्हें देखते ही नहीं।

इस कुरूप समाज में आदमी को अपने चारों तरफ एक सूक्ष्म दीवार खड़ी करनी पड़ती है, जहां वह छिपा रहे। अन्यथा खुला रहने पर खतरा है, तब जीवित रहना ही मुश्किल हो जाएगा। संवेदनहीनता का एक बड़ा कारण यह है।

संवेदनहीनता तुम्हें इस कुरूप दुनिया में चैन से जीने की सुविधा जुटाती है, लेकिन इसके लिए तुम्हें बड़ी कीमत अदा करनी पड़ती है। यह सौदा बड़ा महंगा है। इस दुनिया में तो तुम शांति से रह लेते हो, लेकिन परमात्मा में, समग्र में तुम प्रवेश करने से वंचित रह जाते हो। तुम्हारा यह जगत तो सम्हल जाता है, लेकिन तुम्हारा दूसरा जगत खो जाता है। इस जगत के लिए संवेदनहीनता भली है और उस जगत के लिए संवेदनशीलता शुभ है।

अगर तुम सच में उस जगत में उत्सुक हो तो संवेदनशीलता को फिर जगाना जरूरी है। और उसके लिए सुरक्षा की दीवारों को तोड़ना होगा। निश्चित ही, तुम असुरक्षित हो जाओगे। तुम्हें बहुत दुख झेलना पड़ सकता है। लेकिन यह दुख उस आनंद के सामने कुछ नहीं है जो संवेदनशीलता के जरिए हासिल होता है। तुम जितने संवेदनशील हो जाओगे तुममें उतनी ही करुणा का उद्वेग होगा।

लेकिन तुम्हें पीड़ा भी होगी, क्योंकि तुम्हारे चारों तरफ नरक फैला है। चूकि अभी तुम बंद हो इसलिए उसका अहसास नहीं होता है। एक बार खुल जाओगे तो दोनों के प्रति खुल जाओगे—इस दुनिया के नरक के प्रति और उस दुनिया के स्वर्ग के प्रति। तुम दोनों की ओर खुल जाओगे। और यह असंभव है कि कोई एक छोर पर बंद रहे और दूसरे छोर पर खुला। सच तो यह है कि या तो तुम बंद रह सकते हो या खुले। बंद रहने की हालत में दोनों ओर ही बंद रहना होगा, और खुलने की हालत में दोनों ओर खुला रहना पड़ेगा।

स्मरण रखो, बुद्ध आनंद से भरे हैं तो दुख से भी भरे हैं। पर उनका यह दुख अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए है। स्वयं तो वे प्रगाढ़ आनंद में हैं, लेकिन दूसरों के लिए दुखी हैं।

महायान बौद्ध कहते हैं कि जब बुद्ध निर्वाण के द्वार पर पहुंचे तो द्वारपाल ने द्वार खोल दिया, लेकिन बुद्ध ने भीतर प्रवेश करने से इनकार कर दिया। यह एक पौराणिक कथा है, लेकिन बहुत सुंदर है। द्वारपाल ने द्वार खोला, लेकिन बुद्ध ने प्रवेश करने से इनकार कर दिया। द्वारपाल ने कहा कि आप भीतर क्यों नहीं जाते हैं! सदियों—सदियों से हम आपकी प्रतीक्षा करते रहे हैं। रोज सुनते थे कि बुद्ध आ रहे हैं, बुद्ध आ रहे हैं। सारा स्वर्ग आपके लिए पलकें बिछाए है। आप प्रवेश करें! आपका स्वागत है! बुद्ध ने कहा कि जब तक प्रत्येक मनुष्य इस द्वार के भीतर प्रवेश नहीं करता तब तक मैं नहीं प्रवेश करूंगा। मैं यहीं प्रतीक्षा करूंगा। जब तक एक भी मनुष्य बाहर है तब तक स्वर्ग मेरे लिए नहीं है।

बुद्ध दूसरों के लिए दुखी हैं, अपने लिए प्रगाढ़ आनंद में हैं। इस समांतर घटना को देखते हो? तुम स्वयं दुख में हो, गहरे दुख में हो और सोचते हो कि सभी दूसरे जीवन के मजे ले रहे हैं। बुद्ध के साथ ठीक उलटा घटित हुआ है। वे स्वयं प्रगाढ़ आनंद में हैं और जानते हैं कि दूसरे दुखी हैं।

ये विधियां संवेदनहीनता को दूर करने की विधियां हैं। इसे कैसे दूर किया जाए, इस पर हम और भी चर्चा करेंगे।

आज इतना ही।


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ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍हीं चदरिया–(पंच महाव्रत) प्रवचन–4

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अकाम—(प्रवचन—चौथा)

 4 सितंबर 1970,

षणमुखानंद हाल, मुम्‍बई

मेरे प्रिय आत्मन्,

अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, तीन महाव्रतों पर हमने विचार किया है। आज चौथा व्रत है, अकाम। काम मनुष्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण ऊर्जा का नाम है। जिन तीन व्रतों की हमने बात की उन सबके आधार में काम की शक्ति ही काम करती है। यदि काम सफल हो जाये तो परिग्रह बन जाता है। यदि काम स्वयं की हीनता से विफल हो जाये तो चोरी बन जाता है। यदि काम दूसरे के कारण से विफल हो जाये तो हिंसा बन जाता है। काम के मार्ग पर, कामना के मार्ग पर, इच्छा के मार्ग पर, अगर कोई बाधा बनता हो तो काम हिंसक हो उठता है। अगर कोई बाधा न हो, भीतर की ही क्षमता बाधा बनती हो तो काम चोर हो जाता है। और अगर कोई बाधा न हो, भीतर की कोई अक्षमता न हो और काम सफल हो जाये तो परिग्रह बन जाता है। इस काम को गहरे से समझना जरूरी है।

मनुष्य एक ऊर्जा है, एक एनर्जी है। इस जगत में ऊर्जा, एनर्जी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। समस्त जीवन एक ऊर्जा है। वे दिन लद गये कि जब कुछ लोग कहते थे, पदार्थ है। वे दिन समाप्त हो गये।

नीत्से ने इस सदी के प्रारंभ होते समय में कहा था कि “ईश्वर मर गया है।’ लेकिन यह सदी अभी पूरी नहीं हो पाई, ईश्वर तो नहीं मरा, पदार्थ मर गया है। मैटर इज डेड। “मर गया है’ कहना भी ठीक नहीं है। पदार्थ कभी था ही नहीं। वह हमारा भ्रम था, दिखाई पड़ता था। वैज्ञानिक कहते हैं कि पदार्थ सिर्फ सघन हो गई ऊर्जा है, कंडेंस्ड एनर्जी। पदार्थ जैसी कोई चीज ही जगत में नहीं है। वह जो पत्थर है इतना कठोर, इतना स्पष्ट, इतना सब्सटेंसियल वह भी नहीं है। वह भी विद्युत की धाराओं का सघन हो गया रूप है।

आज सारा जगत, विज्ञान की दृष्टि में ऊर्जा का समूह है, एनर्जी है। धर्म की दृष्टि में सदा से ही यही था। धर्म उस शक्ति को परमात्मा का नाम देता था। विज्ञान उस शक्ति को अभी एनर्जी, शक्ति मात्र ही कह रहा है। थोड़ा विज्ञान और आगे बढ़ेगा तो उससे एक और भूल टूट जाएगी। आज से पचास साल पहले विज्ञान कहता था, पदार्थ ही सत्य है। आज विज्ञान कहता है, शक्ति ही सत्य है। कल विज्ञान को कहना पड़ेगा कि चेतना ही सत्य है, कांशसनेस ही सत्य है। जैसे विज्ञान को पता चला कि ऊर्जा का सघन रूप पदार्थ है, वैसे ही विज्ञान को आज नहीं कल पता चलेगा कि चेतना का सघन रूप एनर्जी है।

यह जो ऊर्जा है जीवन की, प्रत्येक व्यक्ति भी इसी ऊर्जा का स्फुलिंग है, इसी ऊर्जा का एक छोटा-सा रूप है। आप भी, मैं भी, सब। यह ऊर्जा, यह शक्ति अगर बाहर की तरफ बहे तो काम बन जाती है, वासना बन जाती है। और अगर भीतर की तरफ बहे तो अकाम बन जाती है, आत्मा बन जाती है। जो भेद है वह सिर्फ दिशा का है। काम जब लौट पड़ता है वापस, अपनी तरफ, रिटघनग होम, वापस घर की तरफ जब कामना लौट पड़ती है, तो अकाम बनता है, आत्मा बनती है। और जब काम ऊर्जा बाहर की तरफ बहती रहती है जीवन से, तो धीरे-धीरे आदमी क्षीण, निर्बल, निस्तेज होता चला जाता है। और वह उसकी कामना से दुनिया में बहुत-सी चीजें पा लेता है, लेकिन एक अपने को भर पाने से वंचित रह जाता है। जिसे हमें पाना है, शक्ति उसी की तरफ जानी चाहिए। अगर हमें बाहर की वस्तुएं पानी हैं तो शक्ति को बाहर जाना पड़ेगा, और अगर हमें भीतर की आत्मा पानी हो तो शक्ति को भीतर जाना पड़ेगा।

ध्यान रहे, काम से मेरा मतलब है, बाहर बहती हुई ऊर्जा। अकाम से मतलब है, भीतर बहती हुई ऊर्जा। शक्ति के दो ढंग हैं–बाहर की तरफ बहे या भीतर की तरफ बहे। जब बाहर की तरह बहती है तो व्यक्ति और सब पा सकता है, सिर्फ स्वयं को खो देता है। और सब पा लेने का भी कोई सार नहीं, अगर स्वयं खो जाये। सारा जगत भी हम पा लें तो भी कोई सार नहीं, अगर उस पाने में मैं ही खो जाऊं। अगर ऊर्जा भीतर की तरफ बहती है तो अकाम बन जाती है।

काम का अर्थ ही है कामना, डिजायर, इच्छा। जब भी हम कोई कामना करते हैं तो हमें बाहर की तरफ बहना पड़ता है, क्योंकि इच्छा कहीं बाहर तृप्ति की आशा बन जाती है। कुछ पाने को है बाहर, तो हमें बाहर की तरफ बहना पड़ता है। हम सब बाहर बहते हुए लोग हैं। हम सब कामनाएं हैं; वी आर डिजायर। चौबीस घंटे हम बाहर की तरफ बह रहे हैं, किसी को धन पाना है, किसी को यश पाना है, किसी को प्रेम पाना है। और बड़ा आश्चर्य तो यह है कि अगर किसी को परमात्मा भी पाना है तो भी वह बाहर की तरफ बहता चला जाता है। वह सोचता है कि कहीं आकाश में परमात्मा बैठा है। किसी को मोक्ष पाना है तो वह भी सोचता है कहीं ऊपर मोक्ष है वह पाना है।

धर्म का बाहर से कोई भी संबंध नहीं है। इसलिए जिनके ईश्वर बाहर हों वह ठीक से समझ लें कि उनका धर्म से कोई नाता नहीं है। जिनका मोक्ष बाहर हो वह ठीक से समझ लें, वह धार्मिक नहीं हैं। जिनके पाने की कोई भी चीज बाहर हो वह समझ लें कि वह कामी हैं। सिर्फ एक ही स्थिति में काम से मुक्ति होती है और वह यह कि हम भीतर बहना शुरू हो जायें। बाहर कोई भी ऑबजेक्ट, बाहर कोई भी पाने की चीज, हमारी ऊर्जा को बाहर की तरफ ले जाती है। और हम धीरे-धीरे खाली होते हैं, समाप्त हो जाते हैं। फिर दूसरा जन्म, फिर एक ऊर्जा लेकर पैदा होते हैं, फिर बाहर की तरफ बहते हैं, फिर समाप्त हो जाते हैं। फिर तीसरा जन्म, फिर ऊर्जा लेकर पैदा होते हैं, फिर बाहर की तरफ बहते हैं और समाप्त हो जाते हैं।

जन्म के साथ हम शक्ति लेकर आते हैं। मृत्यु के साथ हम शक्ति खोकर वापिस लौट जाते हैं। जो व्यक्ति मृत्यु के साथ भी शक्ति लेकर वापिस लौटता है उसे फिर आने की जरूरत नहीं रह जाती है। जन्म के साथ सभी शक्ति लेकर आते हैं। मृत्यु के साथ अधिकतम शक्ति खोकर, निस्तेज, खाली कारतूस, चले हुए कारतूस, जिसकी खोल रह गयी है गोली तो जा चुकी है, उस खोल को लेकर वापिस लौट जाते हैं। जो व्यक्ति मरते क्षण में भी अपनी पूरी ऊर्जा को बचा कर ले जाता है उसे लौटने की जरूरत नहीं पड़ती। जो कबीर की भांति मरते क्षण में कह सकता है कि “ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया’। कुछ खर्च नहीं किया, कुछ खोया नहीं, दौड़े नहीं। चादर संभालो, जैसी दी थी वैसी ही वापिस लौटा देते हैं। जो मृत्यु के क्षण में बिना कुछ खोये वैसा ही वापस लौट जाता है जैसा जन्म के क्षण में आया था, उसे वापिस जन्म लेने की जरूरत नहीं रह जाती। अकाम, जन्म-मृत्यु से मुक्ति है। काम, बार-बार जन्म में लौट आना है। कारण है…।

कोई कामना कभी ठीक अर्थों में पूरी नहीं होती, हो नहीं सकती। और जो बाहर की तरफ दौड़ने का आदी हो गया है, जब भी कोई कामना पूरी होने के करीब होती है तब तक वह नयी कामना बना लेता है। क्योंकि फिर बाहर की तरफ दौड़ेगा कैसे? बाहर की तरफ दौड़ना ही जिसकी जिंदगी बन गयी है। वह, एक इच्छा पूरी हुई नहीं कि दूसरी को जन्मा लेता है। बल्कि एक के पूरे होने के साथ अनेक को जन्मा लेता है, फिर दौड़ना शुरू कर देता है। हम बाहर की तरफ दौड़ती हुई ऊर्जाएं हैं। आऊट गोइंग एनर्जीस। इसलिए हम खाली कारतूसों की तरह मर जाते हैं। इसलिए हमारी मृत्यु एक सौंदर्य नहीं हो पाती और हमारी मृत्यु एक अनुभव नहीं बन पाती। हमारी मृत्यु एक दुख, एक निस्तेज पीड़ा, एक नपुंसकता, एक इंपोटेंस बन जाती है। हम सब भांति टूट कर समाप्त हो जाते हैं। इसलिए मृत्यु में इतनी पीड़ा है। वह पीड़ा मृत्यु की नहीं है। वह पीड़ा निस्तेज खाली हो गये आदमी की है जो सब भांति रिक्त हो गया, जिसमें अब कुछ भी नहीं बचा, सिर्फ खाली खोल रह गया। इसलिए मौत दुख देती है।

लेकिन मौत भी आनंद दे देती है उसे, जो खाली नहीं, भरा हुआ है। हम भरे हुए कैसे रह पायें, इसी सूत्र को समझने के लिए अकाम है। लेकिन अकाम को समझने के पहले काम की समस्त यात्रा समझ लेनी चाहिए। काम किस तरह गति करता है हमारा! हम बाहर की तरफ कैसे बहते हैं, इसे समझ लेना जरूरी है। इसे हम समझ लें तो भीतर की तरफ बहना बड़ी सरल बात है, बड़ी आसान।

हजारों लाखों साल से हमें पता है कि पदार्थ अणुओं से बना है, एटम से बना है, लेकन हम अणु को तोड़ नहीं पाये थे। इस सदी में आकर हमने अणु को तोड़ लिया। अणु को तोड़ते ही बड़ी चमत्कारिक पूर्ण घटना घटी। और वह यह कि एक छोटे से अणु में, हाइड्रोजन के छोटे से अणु में, या किसी भी चीज के छोटे से अणु में, जो आंख से दिखाई नहीं पड़ता, इतनी ऊर्जा छिपी थी कि टूटते ही भयंकर शक्ति का जन्म हुआ। एक छोटे से अणु के विस्फोट से हिरोशिमा में एक लाख लोग तत्काल मृत्यु को उपलब्ध हो गये। एक छोटे से अणु में इतनी ऊर्जा छिपी थी भीतर, कि फूट पड़ा तो इतना विस्फोट हुआ।

विज्ञान ने अणु को तोड़ कर एक बहुत कीमती बात बता दी है, वह यह कि प्रत्येक चीज के भीतर अनंत ऊर्जा छिपी है। अगर टूट जाये तो विस्फोट हो जाता है और सब बाहर बह जाता है। अगर बंद हो जाये…लेकिन हमें तो कभी पता नहीं था कि बंद अणु में इतनी ऊर्जा छिपी है। विज्ञान ने जो काम किया है, धर्म ने उससे ठीक उल्टा काम बहुत पहले कर लिया है। विज्ञान ने तोड़ा है अणु, धर्म ने जोड़ा था। इसीलिए धर्म का नाम है: योग। योग का अर्थ है: जोड़।

मनुष्य की चेतना भी एक अणु है और उस अणु को हम अगर टूटा हुआ रहने दें तो उसमें से सब बह जाता है, अनंत ऊर्जा बह जाती है। अगर वह अणु जुड़ जाये, बंद हो जाये–एनेलीसिस नहीं, विश्लेषण नहीं, टूटे नहीं–सिन्थेथिस हो जाये, संश्लिष्ट हो जाये, इंटीग्रेटेड हो जाये, बंद हो जाये, बिंदु बन जाये, अपने में बिंदु हो जाये, सब तरफ से बाहर खोना बंद हो जाये, तो अनंत ऊर्जा भीतर उपलब्ध हो जाती है। इस अनंत ऊर्जा की अनुभूति अनंत परमात्मा की अनुभूति है। इस अनंत ऊर्जा का अनुभव अनंत आनंद का अनुभव है। इस अनंत ऊर्जा का अनुभव अनंत वीर्य का अनुभव है। इस अनंत ऊर्जा के अनुभव के बाद फिर कुछ अनुभव करने को शेष नहीं रह जाता, सब अनुभव हो जाता है।

लेकिन समझना चाहिए कि आदमी टूटा हुआ अणु है। चेतना का टूटा हुआ अणु है। उसमें छेद है; जैसे कोई छेद वाली बाल्टी से पानी भरता हो। पानी भरा हुआ दिखाई पड़ता है जब बाल्टी पानी में डूबी होती है, और जैसे ही बाल्टी पानी के बाहर निकली कि खाली होनी शुरू हो जाती है। छेद हैं चारों तरफ, ऊपर तक आते-आते सिर्फ पानी के गिरने का शोरगुल भर होता है, पानी आता नहीं, खाली बाल्टी वापस लौट आती है।

जन्म के क्षण में हम सब ऊर्जा से भरे हुए होते हैं। जब तक जन्म नहीं हुआ, तब तक हम भरी बाल्टी होते हैं। जन्म के साथ ही बाल्टी ऊपर उठी कुएं से, और गिरना शुरू हुआ। अगर ठीक से समझें तो जन्म के साथ ही हमारा मरना शुरू हो जाता है; हममें से कुछ रिक्त होना, खाली होना शुरू हो जाता है। हम फूटी बाल्टी की तरह खाली होने लगते हैं। जन्म का पहला क्षण मरने की शुरुआत है। खाली होना शुरू हो गया।

इसीलिए जन्म के पहले क्षण के बाद ही प्रत्येक व्यक्ति मरने के योग्य हो जाता है–कभी भी मर सकता है। अब यह बात दूसरी है कि योग्यता वह कब पूरी करेगा। फिर जीवन भर हम खाली, खाली, खाली होते चले जाते हैं। थोड़ा-बहुत जो जिंदगी में हमें भरेपन का अनुभव होता है वह शायद सुबह हम जब रात के बाद उठते हैं तो थोड़ी देर को लगता है, कुछ भरे हैं। रात भर में ऊर्जा थोड़ी-सी संकलित हो पाती है, क्योंकि इंद्रियों के द्वार बंद हो जाते हैं। आंखें बंद हो जाती हैं, हाथ शिथिल पड़ जाते हैं, कान सुनते नहीं, होठ बोलते नहीं, नाक सूंघती नहीं, सब बंद हो जाता है। द्वार बंद हो जाते हैं। इसलिए सुबह एक ताजगी मालूम पड़ती है। वह ताजगी, वह ताजगी रात को थोड़ी-सी ऊर्जा के ठहर जाने के कारण पता चल रही है।

अगर कोई व्यक्ति अपने पूरे जीवन की ऊर्जा को ठहरा ले तो वह जिस ताजगी का अनुभव करता है उसका हमें कोई भी पता नहीं है। उसका हमें कोई पता नहीं हो सकता। अगर हम अपनी जीवन भर की सब सुबह की ताजगी को इकट्ठा जोड़ लें तो भी उससे कुछ पता नहीं चल सकता। अगर एक व्यक्ति की नींद खो जाये तो फिर जीना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि वह रात जो थोड़ी ऊर्जा इकट्ठी करता है वह भी बंद हो गयी। पंद्रह दिन नींद खो जाये तो आदमी पागल हो जाए। पंद्रह दिन भोजन न मिले तो चल सकता है। पंद्रह दिन नींद न मिले तो कठिनाई होगी।

अगर कोई बीमार है और सो न सके तो चिकित्सक पहले फिक्र करता है कि बीमारी को पीछे देख लेंगे, पहले नींद आ जाए। क्योंकि जिस ऊर्जा से बीमारी को ठीक होना है, वह संकलित होनी चाहिए, संग्रहीत होनी चाहिए, इकट्ठी होनी चाहिए। हम सिर्फ ऊर्जा खो रहे हैं। और काम, ऊर्जा को खोने की विधि है। काम के बहुत रूप हैं, उसमें सर्वाधिक सघन रूप यौन है। इसलिए धीरे-धीरे काम और यौन, काम और सेक्स पर्यायवाची बन गये। भोजन से ऊर्जा मिलती है, नींद से ऊर्जा बचती है, व्यायाम से ऊर्जा जगती है, फिर इस ऊर्जा को हम खर्च करते हैं। इस ऊर्जा का बहुत-सा खर्च तो सिर्फ जीवन-व्यवस्था में व्यय हो जाता है।

इस ऊर्जा का बहुत-सा खर्च तो ऊर्जा को कल भी हम पैदा कर सकें, इसमें खर्च हो जाता है। इस ऊर्जा का बहुत-सा खर्च तो ऊर्जा भीतर जाकर पैदा हो सके…जब आप भोजन लेते हैं भीतर तो बहुत बड़ा चमत्कार घटित होता है। आप साधारण मृत पदार्थ को भीतर ले जाते हैं और आपकी जीवन-ऊर्जा उसे जीवंत बनाती है। नान-आरगेनिक को आरगेनिक बनाती है। उसमें बहुत ऊर्जा व्यय होती है। भोजन ऊर्जा देता है, लेकिन भोजन को करने और भोजन को खून बनाने में ऊर्जा व्यय होती है। चलते हैं तो ऊर्जा व्यय होती है, बैठते हैं तो ऊर्जा व्यय होती है, सोते हैं तो सोने में भी ऊर्जा व्यय होती है, संग्रहीत भी होती है।

इस सारी प्रक्रिया, जीवन की सारी प्रक्रिया के बाद जो थोड़ी-बहुत ऊर्जा आपके पास बचती है, उसका आपने सिवाय काम को यौन में परिवर्तन करने के और कोई उपयोग नहीं किया है। उस ऊर्जा का आप सिर्फ सेक्स में उपयोग करते हैं। इसलिए यह समझ लेने जैसा है कि सब कुछ करके जो बचता है हमारे पास, उसका हम क्या उपयोग कर रहे हैं। उसका उपयोग अगर सिर्फ सेक्स में हो रहा है तो ध्यान रहे, यह सेक्स सिर्फ रिलीफ है। यह यौन सिर्फ ऊर्जा के भार से मुक्ति है।

अब बड़े मजे की बात है। ऊर्जा इकट्ठी करने में चौबीस घंटे खर्च करते हैं, उसे बचाने के लिए आठ घंटे सोते हैं। खाना कमाने के लिए जिंदगी भर मेहनत करते हैं। और फिर जब ऊर्जा आपके पास आती है तो आप उस ऊर्जा के भार से भारी हो जाते हैं। उसे फेंकने के लिए कोशिश करते हैं। यह वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति दिन भर धन कमाये और सांझ जाकर नदी में फेंक आये, क्योंकि दिन भर धन कमाने के लिए पागल रहे, सांझ पाया कि धन ने थैली को बोझिल कर दिया है। और अब बोझ बुरा मालूम पड़ता है तो बोझ से खाली हो लें और नदी में फेंक आये।

हम ऊर्जा इकट्ठी करते हैं पहले, ऊर्जा न हो तो उसका श्रम करते हैं, और जब ऊर्जा पास में आ जाये तो ऊर्जा बोझिल हो जाती है, बर्डनसम हो जाती है, चित्त पर भारी हो जाती है, फिर उसको फेंकना पड़ता है। सेक्स, ऊर्जा को फेंकने के लिए हम उपयोग में लाते हैं। वह सिर्फ रिलीफ है। उससे हम फिर खाली हो जाते हैं।

अब बड़ी एब्सर्ड जिंदगी है आदमी की। कल सुबह उठ कर वह फिर ऊर्जा इकट्ठी करने में लगेगा, कल सांझ तक वह फिर ऊर्जा इकट्ठी करेगा और जब उसके पास ऊर्जा इकट्ठी हो जायेगी तो उसे फेंक कर फिर रिलीफ पायेगा। अजीब पागलपन है! इकट्ठा करना, फेंकना, इकट्ठा करना, फेंकना। अर्थ क्या होगा इस जिंदगी का? प्रयोजन क्या होगा इस जिंदगी में? पायेंगे क्या इस जिंदगी में?

लेकिन यह हमें दिखाई नहीं पड़ता। अगर खाना न मिले तो हम परेशान हैं, खाना मिल जाये तो हम परेशान हैं। अगर शक्ति पास में न हो तो हम दुर्बल हैं, शक्ति पास में हो जाये तो दुर्बल होने को हम फिर आतुर हैं। आदमी एक एब्सडर्डिटी है। जैसा आदमी है, वह बिलकुल ही तर्कहीनता है। जैसा आदमी है, उससे तो जैसे बुद्धि का कोई संबंध नहीं है। जैसे कि कोई झरना सिर्फ इसलिए सरोवर बन रहा है कि जब बन जाये तो दीवाल टूटे और बह जाये। और दीवालें जब टूट जायें तो फिर दीवालें बनायी जायें, फिर झरना भरा जाये और फिर तोड़ा जाये, जिंदगी भर हम इकट्ठा करते और खोते हैं।

यह जिंदगी नहीं हो सकती, कहीं भूल हो रही है। ऊर्जा को इकट्ठा करना तो ठीक है, लेकिन खोने के लिए ही इकट्ठा करना बहुत बेमानी है, बहुत मीनिंगलेस है। अगर कोई आदमी कहे कि मैं इसलिए जन्म लेता हूं कि मर जाऊं, हम कहेंगे कि पागल हो। अगर कोई आदमी कहे कि मैं इसलिए इकट्ठा करता हूं कि खो दूं, तो हम कहेंगे कि तुम पागल हो। कोई आदमी कहे कि मैं इसलिए मकान बनाता हूं कि गिरा दूं, हम कहेंगे तुम्हारा दिमाग ठीक नहीं। लेकिन हम सब की खुद की क्या हालत है? जिंदगी में हम करते क्या हैं? क्या कर रहे हैं! हम जो भी इकट्ठा करते हैं, खोने के लिए इकट्ठा करते हैं।

लेकिन शायद हमने कभी इस तरह सोचा नहीं। हम जो भी इकट्ठा करते हैं वह खोने के लिए इकट्ठा करते हैं! इसलिए साधु-संन्यासी हमसे उल्टा काम शुरू करते हैं। वे इकट्ठा करना कम कर देते हैं जिसमें कि खोने के लिए मौका न रह जाये। लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।

एक आदमी दो पैसे कमाता है सांझ नदी में फेंक आता है। दूसरा आदमी इस डर से कि सांझ नदी में फेंकने से बच सकूं कमाता ही नहीं। लेकिन सांझ को दोनों एक से दरिद्र होते हैं। फेंकने वाले के पास भी दो पैसे नहीं होते। जिसने कमाया नहीं उसके पास भी दो पैसे नहीं होते। ये दोनों दीन होते हैं।

आप जिस-तिस ढंग से ऊर्जा कमाते हैं और काम में व्यय कर देते हैं, यौन में व्यय कर देते हैं। संन्यासी डर के ऊर्जा कमाना बंद कर देता है, उपवास करता है, खाना कम खाता है। अपने शरीर में इतनी ही शक्ति पैदा करता है जितना रोजमर्रा के काम में आ जाये, अतिरिक्त न बचे। अतिरिक्त बचे तो वह मुश्किल में पड़ जायेगा। क्योंकि फिर आपका ही काम उसे करना पड़ेगा। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आप कमा कर खो देते हैं, वह कमाता ही नहीं ताकि खोना न पड़े। लेकिन इससे कोई ऊर्जा बचती नहीं।

अभी अमेरिका की एक विज्ञानशाला में वे एक प्रयोग कर रहे थे। वह हिंदुस्तान भर के संन्यासियों को ठीक से समझ लेना चाहिए। तीस विद्यार्थियों को एक महीने तक भूखा रखा गया और यह समझने की कोशिश की गयी कि भूख और सेक्स का क्या संबंध है? भूख से यौन का क्या संबंध है?

बड़े अदभुत परिणाम हुए। पहले सात दिनों में जब उन्हें भूखा रखा गया तो उनकी यौन-प्रवृत्ति तीव्र हो गयी, उनकी सेक्सुअलिटी बढ़ गयी। लेकिन सात दिन के बाद फिर उनकी यौन-प्रवृत्ति कम होती चली गयी। पंद्रहवें दिन उनके सामने नग्न चित्र भी रखे गये स्त्रियों के, तो वे उत्सुक न रहे। किसी भी तरह उन्हें भड़काया जाये, वे कोई रस न लें। तीस दिन पूरे होतेऱ्होते उन तीसों युवकों में किसी तरह की काम-वासना न रह गयी, किसी तरह का यौन न रहा। वे बिलकुल ठंडे, कोल्ड हो गये, फ्रोजन, जम गये, बिलकुल। उनको हिलाने का कोई उपाय न रहा, सेक्स जैसे विदा हो गया।

फिर उनको भोजन दिया गया। सात दिन में फिर वापस लौटना शुरू हो गया। पंद्रह दिन के बाद वे फिर अपनी जगह वापस लौट गये जहां थे। तीस दिन के बाद वे फिर सामान्य व्यक्ति थे। वही रस, वही यौन, वही वासना फिर उनको पकड़ ली।

हुआ क्या? यौन नष्ट नहीं हुआ, सिर्फ यौन को जो अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए वह नहीं मिली। सांप तो जिंदा रहा, लेकिन चलने की ताकत न रही। सांप पड़ गया बेहोश। पड़ा रहा, प्रतीक्षा करता रहा कि जब शक्ति मिले तो चलूं। फिर शक्ति मिली, फिर सांप हिलने-डोलने लगा, फिर सांप खड़ा हो गया।

इन तीस दिनों के प्रयोग ने यह बताया कि संन्यासी अपने को लंबे अरसे से धोखा दे रहे हैं। हां, अगर इन बच्चों को निरंतर ही कम भोजन पर रखा जा सके, इतना ही भोजन दिया जाये जितना उनके चलने, उठने, बैठने, बात करने में खतम हो जाये शक्ति, तो अब यह बिना सेक्स के जिंदा रह सकेंगे। लेकिन यह अकाम नहीं है, यह सिर्फ मुर्दा काम है, यह मरा हुआ सेक्स है। यह मुर्दा काम है, यह मुर्दा यौन है, यह अकाम नहीं है।

इसलिए जिन लोगों को यह समझ में आ गया कि शक्ति इकट्ठी होती है, फिर उससे मुक्त होने के लिए, रिलीफ के लिए हमें यौन में जाना पड़ता है, उन लोगों ने शक्ति इकट्ठी करनी बंद कर दी। वे भी उसी भ्रांति में हैं, जिस भ्रांति में बाकी लोग हैं।

गृहस्थ और संन्यासी भ्रांतियों के उल्टे छोर हैं। अकाम का यह अर्थ नहीं है। अकाम का अर्थ है, शक्ति तो पैदा हो, लेकिन यौन से विसर्जित न हो, संग्रहीत हो। और जब शक्ति बहुत बड़े पैमाने पर संग्रहित होती है और यौन से विसर्जित नहीं होती, तो वह शक्ति आपके भीतर ऊर्ध्वगमन शुरू करती है। जैसे कि हम एक नदी की बाढ़ को रोक दें, बांध बना दें, तो नदी की जो गहराई थी–समझ लें दस फीट थी, बांध बनाने पर बांध की गहराई सौ फीट हो जायेगी। और नदी जितनी रुकने लगेगी, उतनी ही दीवार बड़ी करनी पड़ेगी और बांध गहरा होता जायेगा और बांध हजार फीट गहरा भी हो सकता है। ऊपर उठने लगेगा। जब भी कोई शक्ति रोकी जाती है, तो ऊपर उठती है, क्योंकि संग्रहीत होती है। जब आपके भीतर शक्ति अतिरिक्त इकट्ठी होने लगती है तो आपके भीतर शक्ति का अंबार लगता है और ऊपर की तरफ उठनी शुरू हो जाती है।

अभी आपकी सेक्स लेवल से ऊपर शक्ति कभी नहीं उठती। बस आपकी जिंदगी का जो सेक्स का तल है, यौन का जो तल है, शक्ति वहां तक जरा-सी भी ऊपर उठी कि आपने उसका व्यय किया, फिर आप अपनी जगह लौट आये। अगर यह शक्ति इकट्ठी हो, तो सेक्स लेवल से ऊपर उठती है। और ध्यान रहे सेक्स मनुष्य का निम्नतम सेंटर है। नीचे से नीचे का द्वार है। उसके ऊपर और बड़े द्वार हैं। अगर यह शक्ति ऊपर उठे तो यह दूसरे द्वार खोलने शुरू करती है।

समझ लें, कि मनुष्य के भीतर सेक्स जैसे छह द्वार और हैं और ऊर्जा एक-एक द्वार पर आती है तो आनंद की गति बढ़ती है और आप हैरान होते हैं। जब सेक्स से ऊपर उठकर दूसरे चक्र पर शक्ति आती है तो आप हैरान होते हैं कि मैं कैसा पागल था, मैं शक्ति को कहां खो रहा था? यहां खोऊं तो बहुत आनंद आता है। उससे बहुत ज्यादा आता है जो पहले केंद्र पर आ रहा था।

जैसे कोई आदमी खदान खोद रहा है। उसे कंकड़-पत्थर मिल जाते हैं। वह उन्हीं रंगीन कंकड़-पत्थरों को लेकर घर आ जाता है। फिर उसे कोई कहता है, पागल, यह तो रंगीन कंकड़-पत्थर हैं; थोड़ा और खोद। वह थोड़ा और खोदता है और उसे तांबा मिल जाता है, वह घर लौट आता है। बाजार में उसे कुछ पैसे उस तांबे के मिल जाते हैं। लेकिन कोई उसे कहता है, पागल तू जरा थोड़ा और खोद। और वह खोदता चला जाता है और चांदी मिलती है, सोना मिलता है और हीरे-जवाहरात मिलते हैं और वह खोदता चला जाता है।

हम व्यक्तित्व की पहली पर्त पर जी रहे हैं–सेक्स की पर्त पर–जहां कि कंकड़- पत्थर से ज्यादा कुछ नहीं मिल सकता। अगर वहां से ऊर्जा इकट्ठी हो और थोड़ी आगे बढ़े, तो दूसरा चक्र खुलना शुरू होता है, जहां कि सुख के तल बदल जाते हैं। और ध्यान रहे, सेक्स के तल पर दूसरे का होना जरूरी है हमारे सुख के लिए। दूसरे चक्र पर दूसरे का होना जरूरी नहीं है, हम अकेले काफी हो जाते हैं। और व्यक्ति मुक्त होने लगता है। सातवें चक्र पर जब ऊर्जा पहुंचती है–आपके मस्तिष्क तक जब ऊर्जा पहुंच जाती है, जब आपकी शक्ति इतनी भर जाती है कि सेक्स सेंटर और सहस्रार के बीच दोनों में शक्ति प्रवाहित होने लगती है, तो कोई उसे कुंडलिनी कहे, कोई उसे कोई और नाम दे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता–जिस दिन आपकी ऊर्जा इतनी इकट्ठी है कि आपके मस्तिष्क के चक्रों को भी चलाने लगती है, उस दिन आप पहली बार आत्मज्ञान को उपलब्ध होते हैं, ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं। उस दिन आप जानते हैं, कि कहां पहुंच गया।

लेकिन हम पहले ही चक्र पर खो जाते हैं। जिंदगी को वह हमारा छिद्र सब कुछ विदा करवा देता है। लेकिन इसका क्या मतलब है? क्या मैं यह कह रहा हूं कि आप सेक्स को दबायें, रोकें? अगर आपने दबाया और रोका तो आप कभी भी न रोक पायेंगे, क्योंकि शक्ति का एक नियम है कि दबाई गयी शक्ति विद्रोही हो जाती है। और जिस शक्ति को जितने जोर से दबाया जाता है, वह उतनी ही जोर से रिपेल करती है और रिएक्ट करती है। किसी शक्ति को भी दबाया नहीं जा सकता। शक्ति को सिर्फ मार्ग दिये जा सकते हैं। ये दो ढंग हैं। शक्ति को नया मार्ग दें तो शक्ति उससे प्रवाहित होने लगती है या शक्ति का पुराना मार्ग रोकें तो शक्ति उसी मार्ग पर जोर से चोट करने लगती है।

तो जो भी लोग सेक्स से लड़ेंगे वे जिंदगी भर के लिए कामुक रह जायेंगे। वे कभी भी काम से बाहर नहीं जा सकते। सेक्स से लड़कर कभी कोई व्यक्ति ऊपर के चक्रों तक नहीं पहुंचा है, जीवन की ऊंचाइयां नहीं छुई हैं। हां, जीवन के ऊपर के चक्रों को गतिमान करके कोई व्यक्ति जरूर सेक्स से मुक्त हो गया है।

ब्रह्मचर्य सेक्स से लड़ाई नहीं है। ब्रह्मचर्य सेक्स से ऊंचे केंद्रों का सक्रिय हो जाना है। इसलिए नेगेटिव मत पकड़ लेना। जैसा कि हजारों साल से इस मुल्क में हम पकड़े हुए हैं। हजारों साल से यह हमारी समझ में आ गया था बहुत पहले, कि यह ऊर्जा अगर रुक जाये तो बड़े आनंद के द्वार खोल देती है। लेकिन यह ऊर्जा रुके कैसे? तो हम रोक लें इसे जबर्दस्ती से। जितना आप रोकेंगे उतनी यह ऊर्जा धक्का देगी और जिस जगह आप रोकेंगे, वहां ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। और जिस चक्र पर ध्यान होगा वह चक्र सक्रिय रहता है। इसलिए जो लोग ऊर्जा को रोकते हैं काम के बिंदु पर, यौन के बिंदु पर, वे यौन के प्रति अति सक्रिय हो जाते हैं। सच तो यह है कि उनका पूरा व्यक्तित्व जननेंद्रिय बन जाता है। वे उसके बाहर नहीं रह जाते। उनका सारा बोध वहीं अटक जाता है। उनकी चेतना वहीं उलझ जाती है। और वह उलझी हुई चेतना जितनी चोट करती है, उतना ही वह केंद्र सक्रिय होता है। और वह केंद्र जब सक्रिय जोर से होता है तो उनके पास एक ही उपाय बचता है, कि भोजन कम कर दें, व्यायाम कम कर दें और मुर्दे की तरह जीने लगें, ताकि ऊर्जा पैदा न हो।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, इससे तो साधारण गृहस्थ अच्छा है। कम से कम ऊर्जा पैदा तो करता है। ऊर्जा पैदा हो तो किसी दिन ऊपर की यात्रा भी हो सकती है। संन्यासी इससे बुरी हालत में है। वह ऊर्जा पैदा ही नहीं करता। हालांकि उसकी ऊर्जा बाहर नहीं जाती, लेकिन उसके पास ऊर्जा होती भी नहीं कि ऊपर जा सके। ऊर्जा चाहिए ही। जो बाहर जाती है, वह भीतर भी जा सकती है। लेकिन जो बाहर जाने योग्य भी नहीं रही, वह भीतर जाने योग्य कभी नहीं रह जाती। जो बाहर की ही यात्रा करने में असमर्थ हो गया है, वह भीतर की यात्रा कभी न कर सकेगा।

इसलिए एक बात तो पहले यह ध्यान में रख लेना कि हमारे पास अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए ही। तो ऊर्जा को पैदा करने का तो पूरा इंतजाम होना चाहिए, लेकिन ऊर्जा को नयी दिशाएं देने का भी इंतजाम होना चाहिए। वह दोत्तीन सूत्र मैं आप से कहूं कि इस ऊर्जा को नयी दिशायें कैसे मिलती हैं!

एक, सिर्फ हम वर्तमान में जी सकें, तो ऊर्जा इकट्ठी होती है और ऊपर की तरफ चलना शुरू हो जाती है। एक पहला सूत्र–लिविंग इन द प्रेजेंट। जो आदमी भी बहुत कल की सोचता है और परसों की सोचता है और आगे का सोचता है और भविष्य में जीने की कोशिश करता है, उसकी ऊर्जा बह जाती है। क्योंकि भविष्य है दूर; और भविष्य से हमारा जो संबंध है वह कामना का ही हो सकता है और कोई संबंध नहीं हो सकता। भविष्य है नहीं, भविष्य होगा। और होगा से हमारा संबंध सिर्फ वासना का हो सकता है, इच्छा का, डिजायर का हो सकता है और कोई संबंध नहीं हो सकता।

जीसस एक गांव के पास से गुजर रहे हैं। और वह अपने शिष्यों को कहते हैं, देखते हो यह लिली के खिले हुए फूल! उन शिष्यों ने कहा, देखते हैं। जीसस ने कहा कि देखो इनका सौंदर्य, देखो इनका खिलना, देखो इनका आनंद और जीसस ने कहा कि सोलोमन– सम्राट सोलोमन जो अपने वैभव के पूर्ण शिखर पर था और जिसके पास सारी पृथ्वी की संपत्ति थी–वह अपने वैभव के पूर्ण शिखर पर भी इतना सुंदर नहीं था, जितने कि यह लिली के जंगली फूल सुंदर हैं। किसी ने पूछा, लेकिन ऐसा क्यों है? तो जीसस ने कहा, सोलोमन हमेशा भविष्य में जी रहा था, यह फूल अभी जी रहे हैं, इनकी ऊर्जा को कामना बनने का मौका नहीं है, इनकी ऊर्जा जीवन बन रही है।

ध्यान रहे, जब भी हम ऊर्जा को कामना बनाते हैं तो भविष्य के कारण बनाते हैं। कामना अर्थात फ्यूचर ओरिएंटेशन। वासना का मतलब है भविष्य में जीने की इच्छा। और जीवन है सदा अभी और यहीं। जिस व्यक्ति ने भविष्य में जीने की इच्छा को अपने जीवन में प्रबल किया, वह बाहर की तरफ बहता रहेगा और उसकी ऊर्जा खोती रहेगी। भविष्य हमारी ऊर्जा को बुरी तरह पी जाता है, एब्जार्ब कर लेता है। वर्तमान में ऊर्जा संग्रहीत होती है। इसलिए जिस व्यक्ति को अपनी ऊर्जा को, अपनी शक्ति को अकाम तक पहुंचाना हो, ब्रह्मचर्य तक पहुंचाना हो, जिसे अपनी ऊर्जा को सत्य और ब्रह्म तक ले जाना हो, जिसे अपनी ऊर्जा को स्वयं तक पहुंचाना हो, उसे भविष्य की इच्छाएं, भविष्य की कामनाएं, भविष्य को धीरे-धीरे क्षीण कर देना चाहिए। उसे जीना चाहिए अभी और यहीं, हियर एंड नाउ। जब आप खाना खा रहे हैं तो सिर्फ खाना खायें। दफ्तर में मत प्रवेश कर जायें खाना खाते वक्त। और जब दफ्तर में बैठें तो दफ्तर में ही बैठें और दफ्तर में बैठकर खाना न खायें। और जब सिनेमा-गृह में जायें तो सिनेमा-गृह में जायें, उस वक्त मंदिर को बिलकुल वहां प्रवेश न करने दें। और जब मंदिर में जायें तो मंदिर में हों, सिनेमा-गृह मंदिर में न आये।

प्रतिपल जहां आप हैं, वहां पूरे होने की कोशिश करें। कठिन होगी यह बात, लेकिन सरल बन जायेगी। कठिन होगी इसलिए कि हमारी आदतें सदा वहां होने की नहीं हैं, जहां हम हैं। सदा वहां होने की हैं जहां हम नहीं हैं। जहां आप होते हैं वहां आप होते ही नहीं। आपका वह जो मन है काम से भरा हुआ, वह कहीं और होता है। जब आप कलकत्ते में होते हैं तो मन बंबई में होता है। जब आप बंबई में होते हैं तो मन कलकत्ते में होता है। जहां हम हैं उस क्षण में हमारा मन वहां नहीं होता, इसलिए जहां हम नहीं हैं वहां से हमें काम का विस्तार करना पड़ता है और जुड़ना पड़ता है। वह जोड़ हमारी ऊर्जा को खोने का रास्ता है। अगर कोई व्यक्ति अभी और यहीं जीने के लिए धीरे-धीरे, धीरे-धीरे समर्थ हो जाए…और सरल है होना। सरल इसलिए है कि अगर आप प्रयोग करेंगे तो आप बहुत हैरान हो जायेंगे कि खाना इतना आनंदपूर्ण कभी भी नहीं था जितना आनंदपूर्ण उस क्षण हो जाता है जिस क्षण आप खाना खाते वक्त पूरे मौजूद हैं, जिस वक्त आप खाना ही खा रहे हैं।

एक झेन फकीर के पास एक सम्राट मिलने गया था। वह फकीर अपने बगीचे में गङ्ढा खोद रहा था। उस सम्राट ने कहा कि मैं आपसे कुछ ज्ञान सीखने आया हूं। तो उस फकीर ने कहा, बैठो और देखो और सीखो। सम्राट बैठ गया, वह फकीर अपना गङ्ढा खोदता रहा। सम्राट ने कहा, कुछ कहियेगा भी? आप तो गङ्ढा ही खोदे चले जा रहे हैं। उस फकीर ने कहा, गौर से देखो–मैं हूं ही नहीं, बस गङ्ढा खोदना ही है। गङ्ढा खोदना ही हो रहा है। मैं हूं ही नहीं। मैं इतना पूरा लीन हूं इस गङ्ढा खोदने में कि मुझे अलग करने की कोई जरूरत नहीं। मैं गङ्ढा खोद रहा हूं ऐसा कहना गलत है। मैं गङ्ढा खोदने की क्रिया हो गया हूं ऐसा ही कहना ठीक है। तुम भी देखने की क्रिया हो जाओ। कृपा करके उस बात को मत सोचो कि जब मैं बोलूंगा तो क्या बोलूंगा, और जब तुम समझोगे तो क्या समझोगे। तुम कृपा करके यहां सिर्फ देखना हो जाओ। उस सम्राट ने कहा, यह तो बड़ा मुश्किल है, सिर्फ देखना। मुझे लौटना भी है। तो उस फकीर ने कहा, लौट जाओ, लेकिन तब लौटना ही हो जाओ। पर उस सम्राट ने कहा, मुझे आपसे कुछ पूछना भी है। तो उस फकीर ने कहा, फिर पूछ लो, फिर प्रश्न ही बन जाओ।

हम जो भी कर रहे हैं, हम वही नहीं हैं। अगर आप क्रोध करते वक्त पूरा क्रोध बन जायें, तो शायद दोबारा क्रोध कर न सकें। लेकिन क्रोध करते वक्त क्षमा मांग रहे हैं भीतर। क्रोध करते वक्त प्रायश्चित कर रहे हैं भीतर। क्रोध करते वक्त जान रहे हैं कि बड़ा बुरा कर रहा हूं। तब आप क्रोध में भी पूरे नहीं हो पाते। प्रेम में भी पूरे नहीं हो पाते। जिस प्रेमी से मिलने के लिए वर्षों तक प्रतीक्षा की, जब वह मिल जाता है तब हम कुछ और सोचते हैं। जिस प्रेमी से मिलने के लिए वर्षों सोचा था, वह जब मिल जाता है और पास बैठ जाता है तब हम उसे भूल जाते हैं और कुछ और सोचने लगते हैं। जिस धन को खोजने के लिए वर्षों मेहनत की थी, जब वह मिल जाता है, तिजोरी में चाबी लगा कर, बाहर बैठ कर हम कुछ और सोचने लगते हैं। हम पूरे वक्त चूकते चले जाते हैं। हम सदा ही भविष्य में अपनी शक्ति को व्यय करते रहते हैं।

अगर शक्ति को संग्रहीत करना है–और शक्ति के संग्रहीत हुए बिना कोई अंतर्यात्रा संभव नहीं है–तो हमें वर्तमान में जीना सीखना होगा। वर्तमान के साथ बड़ी खूबी है। वर्तमान सरकुलर है, राउंड शेप्ड है। एक नदी है, वह वन-डायमेंशनल है। वह भागी जा रही है, वह पूरे वक्त भागी जा रही है सागर की तरफ। वन-डायमेंशनल है, उसमें एक आयाम है। वह भागी जा रही है। एक सरोवर है, वह भाग नहीं सकता, वह गोल है। वह अपने भीतर ही घूमता रह जाता है। सारी भ्रमणऱ्यात्रा उसकी भीतर है। जिस क्षण आप वर्तमान के क्षण में होते हैं, उस क्षण आप सरोवर की भांति हो जाते हैं। गोल, वर्तुलाकार शक्ति आपके भीतर घूमने लगती है। क्योंकि बाहर जाने के लिए कोई मौका नहीं मिलता, मौका मिलता है भविष्य में। कल क्या करूंगा, इससे तत्काल मौका मिल जाता है। कल क्या होगा, तत्काल मौका मिल जाता है। अभी हूं, यहां हूं…।

आप मुझे यहां सुन रहे हैं। अगर आप मुझे सिर्फ सुन रहे हैं, तो आप जरा-सी भी शक्ति नहीं खोयेंगे। आप एक वर्तुलाकार व्यक्तित्व बन गये। नान-डायमेंशनल। अब आपका कोई आयाम न रहा। अब आप बह नहीं सकते, अगर सिर्फ सुन रहे हैं। अगर सुनने के साथ सोच रहे हैं तो आप थक जायेंगे। आपकी शक्ति क्षीण होगी। अगर मैं सिर्फ बोल रहा हूं तो मैं थकने वाला नहीं हूं, अगर मुझे बोलने के साथ सोचना भी पड़ रहा है, तो मैं थक जाऊंगा। अगर कोई भी क्रिया पूरी हो रही है तो शक्ति नहीं खोती, शक्ति संग्रहीत होती है। कोई भी क्रिया अगर टोटल है तो शक्ति संग्रहीत होती है। प्रेम अगर पूर्ण है तो शक्ति लाता है। क्रोध अगर पूर्ण है तो वह भी शक्ति खोता नहीं। जो भी पूर्ण हो जाता है, वह खोता नहीं। और बड़े मजे की बात है कि अगर क्रोध पूर्ण हो जाये तो आप क्रोध से मुक्त हो जाते हैं। क्योंकि वह इतना व्यर्थ मालूम पड़ता है। अगर आप प्रेम में पूर्ण हो जायें तो आप प्रेम से भर जाते हैं। क्योंकि वह इतना बहुत सार्थक मालूम पड़ता है।

जिस क्रिया को पूर्णता से किया जा सके उसे मैं पुण्य कहता हूं। और जिस क्रिया को पूर्णता में किया ही न जा सके, उसे मैं पाप कहता हूं। पाप और पुण्य की और कोई कसौटी जगत में नहीं है।

अगर आप क्रोध को पूरी तरह कर सकते हैं और फिर दुबारा भी कर सकते हैं तो फिर क्रोध पाप नहीं है। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। आप क्रोध को अधूरा करते हैं, इसलिए दुबारा फिर कर पाते हैं। अगर आप क्रोध को एक बार पूरा कर लें, तो आपके चारों तरफ नरक उपस्थित हो जायेगा, जिस नरक को आपने शास्त्रों में पढ़ा है वह आपके आस-पास खड़ा हो जायेगा। और दुबारा आप उस नरक में फिर प्रवेश नहीं चाहेंगे। फिर आप माफी नहीं मांगेंगे किसी से; बस, क्रोध से बाहर हो जायेंगे। आग इतनी जोर से लगेगी कि उससे बाहर होने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं रह जायेगा।

लेकिन हम कुनकुनी आग में जीते हैं, ल्युकवार्म। थोड़ा-थोड़ा करते रहते हैं तो जिंदगी भर चलता रहता है। चुकता भी नहीं और चलता भी रहता है। नरक पूरा बन जाये तो स्वर्ग में जाने में देर नहीं है। लेकिन नरक भी हम इतने धीरे-धीरे बनाते हैं कि वह कभी पूरा नहीं बन पाता, उससे छुटकारा नहीं हो पाता।

इसलिए पहला सूत्र आपसे कहता हूं अकाम की यात्रा के लिए और काम के ऊर्ध्वगमन के लिए, वह है प्रतिपल जीना। संन्यासी का अर्थ घर छोड़ कर भाग जाना नहीं है। संन्यासी का अर्थ: जो प्रतिपल जी रहा है, जो पल के बाहर नहीं जीता, जो अभी जीता है, यहीं जीता है, कहीं और नहीं जीता। जो भी व्यक्ति ऐसी चित्त-दशा में आ जाये, वह संन्यासी है। संन्यास का अर्थ है: टु बी इन द प्रेजेंट, टु बी इन द लिविंग मूमेंट। वह जो जीवंत-क्षण है उसमें अगर हम हैं तो हमारी शक्ति ऊपर उठनी शुरू हो जायेगी।

यह बड़े मजे की बात है कि अगर यह जीवंत-क्षण हमारे चारों ओर से हमें घेर ले–क्रोध में भी हम पूरे हो सकें तो क्रोध से हम मुक्त हो जायेंगे और अगर यौन में भी, सेक्स में भी पूरे हो सकें तो हम सेक्स से मुक्त हो जायेंगे। क्योंकि जो व्यक्ति संभोग के क्षण में, सेक्स के क्षण में, यौन के क्षण में पूरी तरह मौजूद है, वह दुबारा फिर आकांक्षा नहीं करेगा, बात समाप्त हो गई, बात व्यर्थ हो गयी। वह बात इतनी राख हो गयी कि अब दुबारा मुट्ठी बांधने का कोई अर्थ न रहा। लेकिन हम उस क्षण में भी पूरे वहां नहीं हैं। आदमी आतुर है संभोग के लिए। चौबीस घंटे दौड़ रहा है। पूरी जिंदगी दौड़ रहा है। धन कमा रहा है, मकान बना रहा है, बहुत गहरे में सेक्स की तृप्ति की दौड़ चल रही है। सब हो जाये तो वह उसकी तृप्ति कर सके। और फिर जब सेक्स का क्षण आता है तब वह उसमें पूरा नहीं है। तब वह हजार दूसरी बातें सोचने लगता है कि ब्रह्मचर्य अच्छा है, वह सोचने लगता है कि ब्रह्मचर्य परम जीवन है। जब सेक्स का क्षण आता है तब वह यह सोचता है। और जब ब्रह्मचर्य की कसम लेता है तब सेक्स का विचार करता रहता है। यह आदमी पागल है, इनसेन है। यह पागलपन हमारी जिंदगी की ऊर्जा को कभी भी ऊपर की तरफ जाने नहीं देता।

इसलिए पहला सूत्र आपसे कहता हूं: पल-पल जीना। तो आपके भीतर अकाम शुरू हो जायेगा, काम क्षीण होने लगेगा, क्योंकि काम के लिए भविष्य जरूरी है। कामना के लिए कल जरूरी है। सच तो यह है कि कल अस्तित्व में होता ही नहीं, सिर्फ कामना में होता है। इट इज ए बाय प्रोडक्ट आफ डिजायर। कल तो होता ही नहीं, कल तो कहीं है ही नहीं। कल सिर्फ वासना की उत्पत्ति है। भविष्य कहीं है ही नहीं। जो है वह सदा वर्तमान है। भविष्य सिर्फ कामना की उत्पत्ति है।

हम निरंतर कहते हैं कि समय के तीन हिस्से हैं–भविष्य, वर्तमान, अतीत। गलत कहते हैं। समय का तो सिर्फ एक ही रूप है, वर्तमान। समय के तीन रूप नहीं हैं। समय का एक ही रूप है, वर्तमान। समय तो हमेशा नाउ, अभी है। यह भविष्य और अतीत कहां से पैदा हुए? अतीत हमारी स्मृतियों से पैदा हुआ है और भविष्य हमारी कामनाओं से पैदा हुआ है।

पहला सूत्र काम-मुक्ति का: वर्तमान के क्षण में होने की कोशिश। जंगल जाने को नहीं कहता। जहां आप हैं वहीं पूरी तरह हों। भोजन करें तो पूरी तरह और सोयें तो पूरी तरह, स्नान करें तो पूरी तरह। और बहुत छोटी चीजों से शुरू करें।

दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं: सृजनात्मक हों, बी क्रिएटिव। क्योंकि जो आदमी सृजनात्मक नहीं है, उसकी ऊर्जा निरंतर सेक्स से बहना चाहेगी, क्योंकि वह भारी हो जायेगा। उसके पास शक्ति तो होगी, काम नहीं होगा। और हम बहुत “क्रिएटिव’ बिलकुल नहीं हैं। हमारे जीवन में सृजन जैसी कोई चीज नहीं है। हमने कोई चीज ऐसी नहीं बनायी है, जिसे हम कहें सृजनात्मक है। इसका मतलब क्या?

नहीं, आप कहेंगे, हमने बनाया है। हमने कुर्सी बनायी है। हम फर्नीचर बनाते हैं। हम मकान बनाते हैं। हम कपड़े बनाते हैं। हम सृजनात्मक हैं। नहीं, यह सृजन नहीं है।

सृजन और निर्माण का फर्क समझ लें। निर्माण का मतलब है, कोई उपयोगी चीज बनाना, युटीलिटेरियन। कुर्सी पर बैठा जा सकता है, उसका कोई उपयोग है, बाजार में उसका कुछ दाम है, इसलिए कुर्सी का बनाना सृजन नहीं है। प्रोडक्शन, उत्पादन है। लेकिन एक आदमी गीत गाता है, कोई मूल्य नहीं है। एक आदमी एक चित्र बनाता है, कोई मूल्य नहीं है। एक आदमी नाचता है, कोई हेतु, परपजिवनेस नहीं है। सृजन वहां से शुरू होता है जहां यूटीलिटी, उपयोगिता खतम होती है। जहां तक उपयोगिता है वहां तक सृजन नहीं है। आप कुछ जिंदगी में ऐसा भी करते रहें जिसकी कोई उपयोगिता नहीं, सिवाय इसके कि आपको उसे करने में आनंद आता है। जिंदगी में ऐसा कुछ चलता रहे जिसे करने में आपको आनंद आता है, जिसके अंतिम परिणाम से कोई संबंध नहीं है।

वानगाग ने चित्र बनाये, जब उसने बनाये थे तब उनको खरीदने के लिए कोई राजी नहीं था। एक चित्र वानगाग की जिंदगी में बिका नहीं। उसके छोटे भाई ने कभी यह खयाल किया कि बेचारे का एक चित्र नहीं बिका, कितना दुखी न होगा यह! तो उसने एक आदमी को कुछ पैसे दिये और कहा, तू मेरी तरफ से जाकर एक चित्र खरीद ले। कम-से-कम उसे एक तृप्ति तो मिल जायेगी कि उसकी एक चीज तो बिकी। वह आदमी गया।

कोई आदमी चित्र खरीदने आया! वानगाग उसे चित्र बताने लगा। लेकिन वह कोई खरीददार तो न था। वह कोई चित्र को प्रेम करने वाला आदमी नहीं था। वह तो किसी का सिर्फ एजेंट था। पैसे भी किसी और के थे। कोई भी चित्र खरीद लेना था। उसने कोई भी चित्र उठाकर कहा, यह पैसे लो। वानगाग की आंख से आंसू बहने लगे, उसने पैसे वापस कर दिये और कहा, मालूम होता है मेरे भाई ने तुम्हें भेजा है। वापस लौट जाओ।

उसका भाई आया माफी मांगने। तो उसके भाई ने उससे पूछा कि जब तुम चित्र बेचना भी नहीं चाहते तो बनाते किसलिए हो? वानगाग ने कहा, बनाने में ही मिल जाता है वह जो चाहिये। बनाते क्षण में ही मिल जाता है वह जो चाहिए। जब मैं चित्र बनाता हूं, तब सब मुझे मिल जाता है, अब और कुछ चाहिए नहीं।

जब कोई गीत गाता है, तो सब मिल जाता है गाने में। लेकिन हां, अगर गायक भी प्रशंसा के लिए आतुर हो तो बाजारू है। वह सृजनात्मक नहीं है। अगर चित्रकार भी बाजार में बेचने के लिए चित्र बनाता है, तो यह कंस्ट्रक्शन है, प्रोडक्शन है। यह क्रिएशन नहीं है।

हम कहते हैं कि परमात्मा ने जगत बनाया, क्रिएट किया। बनाया नहीं बनाया–बड़े अर्थ की बात नहीं है, लेकिन परमात्मा को हम कहते हैं, उसने सृजन किया। उसका एक ही अर्थ है। हम यह नहीं कहते, प्रोडयूस्ड बाई; परमात्मा ने उत्पादन किया। कम कहते, सृजन किया। सिर्फ इसलिए कि नान-परपज़िव है। परमात्मा को इससे कुछ भी मिलने का नहीं है। परमात्मा को इससे कुछ भी उपलब्ध होने वाला नहीं है। अगर कुछ भी मिला होगा, तो इसके बनाने में ही मिला होगा, इसके बनने में ही मिला होगा, अन्यथा इसके बाहर कुछ मिलने को नहीं।

जिस आदमी की जिंदगी में कुछ ऐसे क्षण हैं जब वह आनंद और सृजन में जीता है, वह आदमी धीरे-धीरे अकाम को उपलब्ध हो जायेगा। क्योंकि काम की दूसरी शर्त है, काम की दूसरी शर्त है: द रिजल्ट! कामना का आखिरी स्रोत, उदगम का, दौड़ का, शक्ति का, एक ही है कि मिलेगा क्या? हम हमेशा पूछते हैं…।

लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान हम करें, लेकिन ध्यान में मिलेगा क्या? उनको पता ही नहीं कि ध्यान का मतलब ही एक ऐसा काम है जिसमें कुछ मिलेगा नहीं, ध्यान ही मिलेगा। और ध्यान के मिलने का अपना अर्थ है।

हम जूता खरीदते हैं, तो जूते का दूकानदार यह नहीं कह सकता कि आप बस आनंद से खरीद लें, मिलेगा कुछ नहीं। नहीं, जूता एक यूटीलिटी है, कोई खरीदेगा नहीं। लेकिन आप अगर जूते की दूकान पर जिस भांति जाते हैं उस भांति मंदिर में गये और पूछा कि प्रार्थना से मिलेगा क्या? तो आप गलत जगह पर पहुंच गये। नहीं, जिंदगी में जो भी महत्वपूर्ण है, उसका परिणाम नहीं है महत्वपूर्ण। उसका होना ही महत्वपूर्ण है। पर हमारी जिंदगी में ऐसा कोई क्षण नहीं है जो अपने में महत्वपूर्ण हो!

जिस व्यक्ति को धर्म के जगत में प्रवेश करना है और जिसे ऊर्जा को ऊपर ले जाना है उसे कुछ ऐसे काम खोजने पड़ेंगे जो काम नहीं हैं। जो सिर्फ खेल हैं, लीलाएं हैं। इसलिए कृष्ण के जीवन को हम चरित्र नहीं कहते। राम के जीवन को चरित्र कहते हैं। राम का जीवन चरित्र है। बहुत गंभीर मामला है। राम हर चीज को बड़ी गंभीरता से ले रहे हैं, उनके लिए खेल नहीं है मामला। उनके लिए जिंदगी एक काम है। कृष्ण के लिए जिंदगी एक खेल है। नाच रहे हैं, तो कुछ मिलने वाला नहीं है। बांसुरी बजा रहे हैं, तो कुछ मिलने वाला नहीं है। राम तो जो भी कर रहे हैं उसमें कम-से-कम चरित्र मिलेगा, मर्यादा मिलेगी, वंश-परंपरा की प्रतिष्ठा मिलेगी। वह सब मिलना है, राम बहुत यूटीलिटेरियन हैं। राम की बुद्धि बहुत उपयोगितावादी है। इसलिए एक धोबी के कहने से वे पत्नी को बाहर फेंक सकते हैं। यूटीलिटी में तकलीफ हो रही है, उपयोगिता में बाधा पड़ रही है। राम की मर्यादा क्षीण हो जायेगी। राम के चरित्र पर धब्बा लग जायेगा। राम की रघुकुल-परंपरा का क्या होगा? यश, वंश, सब उपयोगिता है।

कृष्ण अगर राम की जगह होते तो सीता को फेंक नहीं सकते थे। हो सकता था, खुद ही बांसुरी बजाते हुए भाग जाते। यह हो सकता था, सीता को नहीं फेंक सकते थे। अगर राम की जगह कृष्ण होते तो सीता की अग्नि-परीक्षा नहीं लेते–बहुत बेहूदी बात मालूम पड़ती, बहुत यूटीलिटेरियन मालूम पड़ती। प्रेम की कहीं परीक्षाएं होती हैं? और अगर प्रेम की भी परीक्षा होती है तो फिर इस जिंदगी में बिना परीक्षा के कुछ भी नहीं बचेगा। सीता की परीक्षा ली जा सकी कि तुम आग से गुजरो, क्योंकि प्रेम पवित्र है या नहीं इसका पक्का होना चाहिए। प्रेम अपने आप में ही पवित्र है। प्रेम की और कोई पवित्रता नहीं होती। सीता ने नहीं कहा राम से कि तुम भी गुजरो। तुम भी साथ चले आओ, क्योंकि तुम भी अकेले थे, क्या भरोसा? और स्त्री का तो थोड़ा-बहुत भरोसा हो सकता है, पुरुष का होना जरा मुश्किल है। लेकिन सीता ने नहीं कहा। सीता के लिए जिंदगी एक गंभीरता नहीं है, एक प्रेम है, इसलिए सीता राजी हो गयी। निकल गयी। प्रेम परीक्षा नहीं मांगता, प्रेम सब परीक्षाएं दे सकता है। लेकिन कृष्ण तो बात ही नहीं करते, यह कोई सवाल ही नहीं था। इसलिए कृष्ण के जीवन को हम चरित्र नहीं कहते। कृष्ण के जीवन को हम लीला कहते हैं। वह कृष्ण-लीला है। लीला का मतलब है कि पूरी जिंदगी क्रिएटिव है। परपजिव नहीं है, यूटीलिटेरियन नहीं है। जिंदगी एक खेल है।

धार्मिक आदमी की जिंदगी गंभीर नहीं होती। और जो आदमी गंभीर है वह बोझिल हो जायेगा और जो बोझिल होगा, उसको सेक्स से रास्ता खोजना पड़ेगा।

इसलिए जिंदगी जितनी गंभीर होती जा रही है उतनी सेक्सुअलिटी बढ़ रही है। जिंदगी जितनी सीरियस होती जा रही है उतनी सेक्सुअलिटी बढ़ रही है। क्योंकि जितने आप गंभीर होंगे, उतने तनाव से भर जायेंगे। जितने तनाव से भर जायेंगे, उतनी रिलीफ की जरूरत पड़ेगी। इसलिए जिस मुल्क में जितना तनाव है, उतनी ज्यादा कामुकता बढ़ जायेगी, क्योंकि और कोई रास्ता नहीं दिखता। चित्त बोझिल हो जायेगा। शक्ति को बाहर फेंको, हल्के हो जाओ। एक ही रास्ता रह जायेगा।

दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं–जिंदगी को गंभीरता से मत लेना। डोंट टेक इट सीरियसली, सीरियसनेस इज ए बेसिक डिसीज़। बहुत बुनियादी बीमारी है सीरियस होना। लेकिन आमतौर से हमारा साधु, संन्यासी बहुत सीरियस होता है। सच तो यह है कि अगर चेहरा गंभीर और रोता हुआ न हो तो साधु होने की योग्यता पूरी नहीं होती। क्वालीफिकेशन जरूरी है वह। इसलिए अक्सर रोते हुए लोग साधु-संन्यासी हो जाते हैं। साधु-संन्यासी होने की वजह से रोते हुए दिखाई पड़ते हैं, ऐसा मत समझना; रोते हुए थे, इसलिए साधु-संन्यासी हो जाते हैं। क्योंकि वहां उनके रोने को भी प्रतिष्ठा और आदर मिलने लगता है। वैसे रोते हुए दिखाई देते तो कोई भी पूछता कि यह क्या शक्ल ले कर घूम रहे हो? लेकिन संन्यास में वह शक्ल प्रतिष्ठित हो जाती है।

नहीं, जिंदगी गंभीरता नहीं है। और जो जिंदगी में गंभीर है वह काम से मुक्त नहीं हो सकेगा। जिंदगी खेल बन जाये तो आदमी काम से मुक्त हो जाता है। पर पूरी जिंदगी को नहीं कह रहा हूं कि आप खेल बना लें, शायद वह संभव नहीं है; लेकिन जिंदगी में कुछ तो हो, जो खेल हो। बच्चे इतने हल्के हैं। और ध्यान रहे बच्चे इतने अकामी हैं, उसका कुल कारण इतना है कि बच्चों की जिंदगी गंभीर नहीं है, एक खेल है, जिंदगी एक लीला है। बच्चा खेल रहा है, गंभीर नहीं है। जैसे-जैसे गंभीर होगा, वैसे-वैसे सेक्स उसकी दुनिया में आयेगा।

क्या आपको यह पता है कि सेक्सुअल-मेच्योरिटी की उम्र रोज नीचे गिरती जा रही है? चौदह साल से अमरीका में बारह साल हो गयी, ग्यारह साल हो गयी। कुछ लड़कियां ग्यारह साल में मेच्योर होने लगी हैं और संभावना है कि इस सदी के पूरे होतेऱ्होते मेच्योरिटी की उम्र सात साल तक भी आ सकती है। सात साल…मामला क्या है? लड़कियां हमेशा चौदह साल में मेच्योर होती थीं, ये सात साल में क्यों होने लगीं? असल में सात साल में ही लड़कियां इतनी गंभीर हो गयी हैं अब, जितनी चौदह साल में पहले हुआ करती थीं। जिंदगी सात साल में ही काफी भारी हो गयी। शिक्षा, व्यवस्था, शिष्टाचार, सभ्यता, संस्कृति रोज भारी होती जा रही है। छोटे बच्चे जितने भारी हो जायेंगे, उतनी जल्दी उन्हें शक्ति बाहर फेंकने के लिए सेक्स का मार्ग खोजना पड़ेगा।

इससे उल्टा भी हो सकता है। अगर हम बच्चों को देर तक हल्का रख सकें, बहुत हल्का रख सकें, तो शायद बीस साल, पच्चीस साल तक…।

हम कहानियां सुनते हैं लेकिन हमें पता नहीं है, और जो गुरुकुल चलाते हैं उनको भी पता नहीं है कि मामला क्या है। क्योंकि गुरुकुल चलाने वाले लोग तो आम तौर से गंभीर होते हैं। लेकिन पच्चीस साल तक किसी जमाने में हम गुरुकुल में युवकों को काम के, सेक्स के, बाहर रख सके थे। उसका कारण क्या था? उसका कारण था कि हम पच्चीस साल तक उन्हें गंभीर होने से बचा सके थे। और कोई कारण नहीं था। जितनी गंभीरता बढ़ेगी उतना बोझ बढ़ जायेगा, जितना बोझ बढ़ेगा, तनाव हो जायेगा। जितना तनाव होगा उतना निकास चाहिए। हम पच्चीस साल तक उनको गंभीर होने से बचा सके थे। हमने पच्चीस साल तक उनकी जिंदगी को खेल…न परीक्षाओं की गंभीरता थी, न जिंदगी से लड़ने की गंभीरता थी, न उत्तरदायित्व और रिस्पांसबिलिटी की गंभीरता थी। जिंदगी एक खेल थी जंगल में। उस खेल के बीच सब बहुत आहिस्ता चल रहा था। लकड़ियां काट रहे थे लड़के, जंगल में दौड़ रहे थे, पौधे बना रहे थे, खेती कर रहे थे। कभी घंटा आधा घंटा पढ़ते थे, पढ़ना कोई गंभीर काम नहीं था–फुरसत के क्षण में हुई बातचीत थी, निकट गुरु के बैठ कर थोड़ी बात कर लेते थे। तो पच्चीस साल तक अगर वे काम के बाहर रह जाते थे तो कोई आश्चर्य नहीं। और अगर आज आपके बच्चे चौदह और पंद्रह साल के बाद ही पूरे अडल्ट, पूरे प्रौढ़ और पूरी प्रौढ़ता की कामवासना की मांग कर रहे हैं तो भी कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि आप उन्हें पूरे गंभीर बनाने की योजना किये हुए हैं।

जिस आदमी को अकाम को उपलब्ध होना है उसे जिंदगी से गंभीरता को अलग कर देना चाहिए अन्यथा बोझ हो जायेगा, और बोझ उसे काम में ले जायेगा। कैसे यह होगा? दो-चार काम तो हर आदमी खोज सकता है जब वह गैर-गंभीर है। कभी आप अपने बच्चों के साथ घर में खेलते हैं? आप कहेंगे, कैसी पागलपन की बात कर रहे हैं आप? बच्चों के साथ और खेल! बाप जब भी बेटे से मिलता है तो गंभीर मिलता है। एक तो मिलता ही नहीं, कभी कोई गंभीर मौका आ जाता तो मिलता है। बेटा जब बाप से मिलता है तब गंभीर मिलता है। वह भी बचा रहता है बाप से। बाप को जब कोई उपदेश देना होता है तब बेटे से मिलता है। बेटे को जब कुछ पैसे लेना होता है तब बाप से मिलता है। ऐसे दोनों बच कर निकलते रहते हैं।

नहीं, कभी आप बच्चों के साथ घर में खेलते हैं, इसे जरा प्रयोग करके देखें। वह परिवार परिवार नहीं है जिसके सारे लोग मिलकर एक घंटा खेलते नहीं। और आप हैरान होंगे–एक घंटा आप खेल कर देखें और एक महीने भर में आप फर्क पायेंगे। आपकी सेक्सुअलिटी में फर्क पड़ना शुरू हो गया। एक काम तो मिला गैर-गंभीर होने का। आप घर में बैठ कर करते क्या हैं? अखबार पढ़ते हैं, अखबार बड़ा गंभीर मामला है। करते क्या हैं घर में बैठ कर? छह घंटा दुकान या दफ्तर में बैठने के बाद घर में करते क्या हैं? चित्र बनाते हैं, कभी बैठ कर रंगत्तूलिका…घर की दीवाल रंगते हैं? कैसी बेहूदगी है कि घर की दीवाल भी रंगने के लिए हमें दूसरे आदमी लाने पड़ते हैं, अपनी दीवाल भी नहीं रंग सकते! कभी दीवाल पर कोई चित्र बनाते हैं? जरूरी नहीं कि वह चित्र कोई बड़े चित्रकार जैसे हों, जरूरी यह है कि वह आपसे निकले।

अब बड़े मजे की बात है कि मेरी दीवाल पर अगर किसी दूसरे चित्रकार का चित्र है तो उसे मेरी दीवाल कहने का मुझे हक भी कहां है? उधार है, बासा है। मेरी दीवाल पर मेरे हाथ का चित्र होना चाहिए। कभी घर में बैठ कर नाचते हैं सबको इकट्ठा करके? घर के लोग नाचने लगते हैं…नहीं, आप कहेंगे, यह कैसी बातें कर रहे हैं?

अगर घर में एक आदमी धार्मिक हो जाये तो सबको बैठा कर वह ऐसा उदासी का और ऐसा रोने का वातावरण तैयार करवाता है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। लेकिन घर में अगर आप घंटे भर नाचते हैं…नाचने के लिए विधि और व्यवस्था की जरूरत नहीं कि आप कत्थक या भरतनाटयम् सीखें और कथकली सीखें। कूद तो सकते हैं! अगर एक घंटे घर में आप मौज से कूदते हैं, नाचते हैं, जो गा सकते हैं गाते हैं, जो बजा सकते हैं बजाते हैं, जो पेंट कर सकते हैं पेंट करते हैं, तो आप पायेंगे आपकी जिंदगी में सेक्सुअलिटी कम होने लगी। जो हजार ब्रह्मचर्य के नियम लेने से कम नहीं होगी वह कम होने लगेगी, क्योंकि आपकी जिंदगी में सृजनात्मक काम शुरू हो गया।

हर आदमी दुनिया में छोटा-मोटा कवि है, और हर आदमी छोटा-मोटा चित्रकार है, और हर आदमी छोटा-मोटा संगीतज्ञ है, और हर आदमी छोटा-मोटा नृत्यकार है। और सबको यह सब होना चाहिए। और जब आप इसमें से गुजरेंगे तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे कि आपकी जो वासना थी, जो बोझ था चित्त पर शक्ति का, वह सृजनात्मक हो गया। एक बार शक्ति सृजनात्मक होनी शुरू हो तो ऊपर बहनी शुरू होती है। इससे उल्टा भी होता है, अगर आपकी शक्ति सृजनात्मक न हो पाये तो विध्वंसात्मक हो जाती है।

यह आपको शायद जानकर हैरानी होगी कि हिटलर चित्रकार होना चाहता था, मां-बाप ने चित्रकार नहीं होने दिया। अब किसी दिन भविष्य की अदालत में शायद यह तय करना मुश्किल होगा कि इस बड़े महायुद्ध के लिए, इतने करोड़ों लोगों के मरने के लिए हिटलर जिम्मेदार है कि उसके मां-बाप जिम्मेदार हैं। क्योंकि हिटलर अगर चित्रकार हो जाता तो कम-से-कम दूसरा महायुद्ध तो नहीं होने वाला था। लेकिन हिटलर चित्रकार नहीं हो पाया। उसके भीतर जो ऊर्जा सृजनात्मक बन सकती थी वह अटक गयी, और विध्वंसक हो गयी। वह कुछ बनाता, वह नहीं बन पाया, उसने कुछ मिटाना शुरू कर दिया। ध्यान रहे अगर आप बनायेंगे नहीं तो आप मिटायेंगे जरूर। अगर आप सृजन नहीं करेंगे तो विध्वंस करेंगे। अगर क्रियेट नहीं करेंगे तो डिस्ट्रक्ट करेंगे। इन दो के बीच उपाय नहीं है। और अगर इन दो के बीच आपको टिकना हो तो फिर आपको ऊर्जाहीन, इंपोटेंसी चाहिए, फिर आपके पास ऊर्जा नहीं होनी चाहिए। अगर ऊर्जा होगी तो ऊर्जा कुछ करेगी, विध्वंस करेगी या निर्माण करेगी, सृजन करेगी या तोड़ेगी या मिटायेगी।

तो आप अपनी जिंदगी में–दूसरा सूत्र अकाम की तरफ–सृजनात्मक हों, टु बी क्रियेटिव। दो चार क्षण खोजें, कुछ भी खोजें और सृजन में लग जाएं। बगीचे में काम कर सकते हैं, नाच सकते हैं, गीत गा सकते हैं। गंभीरता को कुछ देर के लिए अलग कर दें, गैर-गंभीर हो जायें, हल्के हो जायें कुछ देर के लिए। जवान न रह जायें, बूढ़े न रह जायें, बच्चे हो जायें। और जो आदमी बुढ़ापे में भी घंटे भर के लिए बच्चा हो जाये तो उसकी जिंदगी बदलनी शुरू हो जाती है। उसकी ऊर्जा फिर बचपन की तरह इकट्ठी होने लगती है।

और तीसरी अंतिम बात…।

एक, पल-पल जीयें; भविष्य और कामना से मुक्त हों; दो, सृजनात्मक बनें; उपयोगिता काफी नहीं है अर्थपूर्ण काम काफी नहीं है, अर्थहीन काम की भी जरूरत है। चरित्र ही बनाने में न लगे रहें। थोड़ी-सी लीला भी जीवन में आने दें। और तीसरी अंतिम बात, जब भी मौका मिल जाए तो होशपूर्वक समस्त इंद्रियों के द्वार बंद करके भीतर देखें।

चौबीस घंटे हम बाहर देखते हैं। जब भीतर देखने का मौका आता है तब हम सो गये होते हैं–तब भीतर देखना नहीं हो पाता। या तो बाहर देखते हैं या नहीं देखते हैं, दो काम हैं हमारी जिंदगी में। दिन भर बाहर देखते हैं, रात में नहीं देखते। या कुछ लोग देखते हैं तो स्वप्न देखते हैं, वह भी बाहर देखना है। वह भी भीतर देखना नहीं है। थोड़ी देर होशपूर्वक चौबीस घंटे में आंख बंद कर के भीतर देखें। क्या मतलब भीतर देखने का? आंख बंद करें और देखने की कोशिश करें। कुछ और मतलब नहीं है। आंख बंद कर लें और देखने की कोशिश करें। सिर्फ कुछ मत करें, आंख बंद कर लें और देखने की कोशिश करें। आंख खोलकर तो हम देख लेते हैं, कोशिश नहीं करनी पड़ती, चीजें दिखाई पड़ जाती हैं। आंख बंद करके कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। अंधेरा दिखाई पड़ेगा तो अंधेरे को ही देखें। बस देखने की कोशिश करें जो भी दिखाई पड़े। हो सकता है कोई चित्र दिखाई पड़े, उसे देखने की कोशिश करें; कोई सपना दिखाई पड़े, उसे देखने की कोशिश करें। भीतर जो भी होता है, इंद्रियों को बंद करके देखने की…।

पहले आंख से शुरू करें, क्योंकि आंख हमारी सबसे महत्वपूर्ण इंद्रिय बन गयी है। फिर भीतर सुनने की कोशिश करें, जो भी सुनाई पड़े उसे सुनने की कोशिश करें। फिर भीतर सूंघने की कोशिश करें, फिर भीतर स्वाद लेने की कोशिश करें। इंद्रियों से जो-जो बाहर किया है, वह-वह भीतर करने की कोशिश करें। और आप दंग हो जायेंगे। भीतर के अपने नाद हैं। भीतर की अपनी ध्वनियां हैं। भीतर के अपने रंग हैं। भीतर के अपने स्वाद हैं। भीतर की अपनी सुगंधें हैं। और धीरे-धीरे वह पैदा होनी शुरू हो जायेंगी। और जिस दिन आपके भीतर का रंग आपको दिखाई पड़ेगा, उस दिन बाहर के रंग एकदम अनरिअल मालूम पड़ने लगेंगे। फिर बाहर जाने की इच्छा बंद होने लगेगी। जिस दिन भीतर का संगीत सुनाई पड़ेगा, उस दिन बाहर का संगीत एकदम बेमानी हो जायेगा, शोरगुल मालूम पड़ेगा। जिस दिन भीतर की सुगंध का अनुभव होगा, उस दिन फ्रेंच बाजारों में बनी सारी परफ्यूमें बिलकुल बेकार मालूम पड़ेंगी। और जिस दिन भीतर के सौंदर्य का बोध होगा, उस दिन बाहर कोई सौंदर्य न रह जायेगा।

तो तीसरा सूत्र, जब भी मौका मिले तो कुछ भीतर करने की कोशिश करें। चौबीस घंटे बाहर ही बाहर न करते रहें। क्योंकि जहां हम करते हैं, ऊर्जा उसी तरफ बहनी शुरू हो जाती है। अगर हम बाहर कुछ करते हैं तो बाहर बहती है। अगर हम भीतर कुछ करते हैं तो भीतर बहती है। जहां काम है, ऊर्जा को वहीं जाना पड़ता है। जहां काम है, ऊर्जा उसी ओर दौड़ पड़ती है। तो भीतर थोड़ा काम करें ताकि ऊर्जा भीतर दौड़ने लगे।

ये तीन सूत्र आप पूरे करें और आप हैरान हो जायेंगे कि जिंदगी से काम चला गया, अकाम उपलब्ध हुआ। ऊर्जा भीतर इकट्ठी होगी, ऊपर उठेगी, अंतस के और द्वार खुलेंगे। अंतस के दूसरे चक्र सक्रिय होंगे और भीतर के रस और भीतर के अमृत झरने लगेंगे। अकाम अंततः अमृत बन जाता है और काम अंततः मृत्यु बन जाता है। काम है मृत्यु की खोज। अकाम है अमृत की खोज।

कल पांचवें और अंतिम सूत्र अप्रमाद पर आप से बात करूंगा। अप्रमाद का अर्थ है: अमूर्च्छा। अप्रमाद का अर्थ है: अवेयरनेस। चार दिन जो हमने कहा है, कल उस साधन की हम बात करेंगे जिससे चार दिन हमने जो कहा है वह उपलब्ध हो सकता है। कल साधन की बात है।

क्या करें कि अहिंसा आ जाये? क्या करें कि अचौर्य आ जाये? क्या करें कि अपरिग्रह आ जाये? क्या करें कि अकाम आ जाये? कौन-सा है मार्ग? कौन-सा है द्वार? कौन-सा है सूत्र?

ये थोड़ी-सी बातें इतने प्रेम और शांति से आपने सुनीं, उससे मैं बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

आज इतना ही।


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का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–5)

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जीवन—ध्‍यान—मंदिर का सोपान—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 4 अप्रैल, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 सूत्र:

हीरा जन्म न बारंबार, समुझि मन चेत हो।।

जैसे कटि पतंग पषान, भए पसु पच्छी।

जल तरंग जल माहि रहे, कच्छा औ मच्छी।।

अंग उघारे रहे सदा, कबहुं न पावै सुक्ख।

सत्य नाम जाने बिना, जनम जनम बड़ दुक्ख।।

सीतल पासा ढारि, दाव खेलो सम्हारी।

जीतौ पक्की सार, आव जनि जैहौ हारी।।

रामै राम पुकारिके, लीनो नरक निवास।

मुड गडाए रहे जिव, गर्भ माहि दस मास।।

नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रकट भे मानुष—देही।

मन बच कर्म सुभाव, नाम सों कर ले नेही।।

लख चौरासी भर्मिके, पायो मानुष—देह।

सो मिथ्या कस खोवते, झूठी प्रीति—सनेह।।

बालक बुद्धि अजान, कछु मन में नहिं जाने।

खेलै सहज सुभाव, जहीं आपन मन माने।।

अधर कलोले होय रह्यो, ना काहू का मान।

भरी बुरी न चित धरै, बारह बरस समान।।

जीवन रूप अनूप, मसी ऊपर मुख छाई।

अंग सुगंध लगाए, सीस पगिया लटकाई।।

अंधे भयो ज्ये नहीं, फटि गई हैं चार।

जोवन जोर झकोर, नदी उर अंतर बाढ़ी।

संतो हो हुसियार, कियो ना बाहू गाढ़ी।।

दे गजगीरी प्रेम की, मदो दसो दुआर।

वा साईं के मिलन में, तुम जनि लावो बार।।

वृद्ध भए पछिताय, जबै तीनों पन हारे।

भई पुरानी प्रीति, बोल अब लागत प्यारे।।

लचपच दुनिया है रही, केस भए सब सेत।

बोलन बोल न आवई, लूटि लिए जम खेत।।

 

 तारों से सोना बरसा था, चश्मों से चांदी बहती थी

फूलों पर मोती बिखरे थे, जर्री की किस्मत चमकी थी

कलियों के लब पर नग्मे थे, शाखों पै वज्द—सा तारी था

खुशबू के खजाने लुटते थे, और दुनिया बहकी—बहकी थी

ऐ दोस्त! तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं

सूरज की नरम सुआओं से कलियों के रूप निखरते हों

सरसों की नाजुक शाखों पर सोने के फूल लचकते हों

जब ऊदे—ऊदे बादल से अमृत की धारें बहती थीं

और हल्की—हल्की खुनकी में दिल धीरे—धीरे तपते थे

ऐ दोस्त! तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं

फूलों के सागर अपने थे, शबनम की सहबा अपनी थी

जर्री के हीरे अपने थे, तारों की माला अपनी थी

दरिया की लहरें अपनी थीं, लहरों का तरन्नुम अपना था

जर्री से लेकर तारों तक यह सारी दुनिया अपनी थी

ऐ दोस्त! तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं

आदमी जीता है स्वप्नों में।

आदमी के जीवन का ताना — बाना दो चीजों से बना है —— एक है स्मृति और एक है आशा। स्मृति है अतीत की ओर आशा है भविष्य की। और दोनों झूठ हैं। क्योंकि न स्मृति का कोई अस्तित्व है और न आशा का। अस्तित्व है वर्तमान का। अतीत वह, जो जा चुका, और अब नहीं है। और भविष्य वह, जो आया नहीं, अभी नहीं है। दोनों के मध्य में, यह जो क्षण है वर्तमान का, यही क्षण परमात्मा का द्वार है। और आदमी इस क्षण से चूकता रहता है। या तो सोचता है अतीत की, जो बीत गया। अतीत के दु : खों के लिए पछताता है, सुखों के लिए फिर — फिर तड़पता है। और या सोचता है भविष्य की। नयी आशा गए, नए सपने संजोता है। नई कल्पनाएं।

अतीत और भविष्य, इनमें आदमी डोलता और जीता है और ऐसे ही जीवन से चूकता चला जाता है। जो वर्तमान में ठहर गया, वही जीवन को उपलb ध होता है।

आज के सूत्र प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की क था, जीवन की व्य था के सूत्र हैं। इन्हें ठीक से समझना।

हीरा जन्म न बारंबार समुझि मन चेत हो।

धनी धरमदास कह रहे है : यह जो जीवन तुम्हें मिला है, हीरे जैसा है और तुम कंकड़ों — पत् थरों में गंवाए दे रहे हो। हीरा जन्म न बारंबार… और फिर मिलेगा या नहीं, कुछ निश्‍चित नहीं। जो अवसर खो जाता है, बड़ी मुश्कि ल से मिलता है। बड़ी मुश्कि ल से यह जीवन भी मिला है। तुम्हें याद भी नहीं कि कितनी पीड़ाएं, कितने संघर्षो, कितनी लंबी यात्राओं के, अनंत यात्राओं के बाद यह जीवन मिला है।

चार्ल्स डारविन ने तो अभी — अभी कुछ वर्षो पहले पश्‍चिम को यह विचार दिया कि मनुष्य विकसित होता रहा है; विकास का सिद्धांत दिया। लेकिन पूरब में विकास की दृष्टि बड़ी पुरानी है, बड़ी प्राचीन है। डारविन ने तो जो विकास की दृष्टि दी, बड़ी छिछली और उथली है। उसमें केवल देह का हिसाब है कि आदमी की देह कैसे विकसित हुई है। पूरब ने जो विकास की दृष्टि दी है, वह बड़ी गहरी है : आत्मा कैसे विकसित हुई है, मनुष्य का चैतन्य कैसे विकसित हुआ है?

वह जो चौरासी कोटियों की बात है, वह काल्पनिक नहीं है। धीरे— धीरे रत्ती—रत्ती लड़कर हम आदमी हो पाए हैं। इंच—इंच लड़कर हम आदमी हो पाए हैं। लंबी थी यात्रा। और धन्यभागी हो कि तुम कि आदमी हो पाए हो। अब इसे ऐसे ही मत गंवा देना। इसलिए कहते हैं ” हीरा जन्म ”!

इस जगत् में मनुष्य के जीवन से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं। और जिस बुरी तरह मनुष्य अपने इन बहुमूल्य क्षणों को गवाता है, उसे देखकर अश्‍चर्य होता है। इतनी कठिनाई से पायी गयी संपदा कीचड़ में गंवा दी जाती है। इस अवसर का यदि तुम उपयोग कर लो तो तुम्हारे जीवन में परम प्रकाश हो जाए। इस हीरे को अगर तुम ठीक से दांव पर लगा दो तो परमात्मा तुम्हारा है। चूके तो फिर पूरा चक्कर है। चूके तो फिर पूरा चाक घूमेगा। तब दुबारा, न मालूम कब, करीब—करीब असंभव—सा मालूम होता है कि फिर दुबारा कब आदमी मनुष्य हो पाए, यह चैतन्य की घड़ी फिर अब कब आएगी! और जब चैतन्य होने का क्षण इतनी आसानी से तुम गंवा देते हो तो इसे कैसे पाओगे दुबारा, कैसे खोजोग, कैसे तलाशोगे?

आदमी जिस तरह अपने जीवन का दुरुपयोग करते हैं, उसे देखकर ऐसे लगता है, वे आदमी हो कैसे गए! चमत्कार मालूम होता है। कैसे पहुंच गए! कैसे उन्होंने इतनी यात्रा पूरी कर ली!

लेकिन अकसर ऐसा हो जाता है, पाने के लिए तुम तड़पते हो किसी चीज को और जब उसे पा लेते हो, बस तभी तुम्हारा रस समाप्त हो जाता है। जिंदगी के सामान्य हिसाब में भी यह देखने में आता है। तुम धन पाना चाहते हो, फिर धन पा लेते हो, और फिर तुम्हारा रस धन में समाप्त हो जाता है।

मनसविद कहते हैं.: चित्रकार को चित्र बनाते देखो। जब वह चित्र बनाता है तो इतने श्रम से बनाता है, भूख भूल जाता है, प्यास भूल जाता है, सब भूल जाता है। धूप है कि गरमी है कि शीत है, उसे कुछ पता नहीं चलता। वह अपने चित्र बनाने में तल्लीन है। वह इतने रसविमुग्ध होकर बनाता है कि लगता है जब चित्र बन जाएगा तो नाचेगा, लेकिन जब चित्र बन जाता है तो वह चित्र को सरकाकर रख देता है। कोई नाच पैदा नहीं होता। वह दूसरे चित्र में उत्सुक हो जाता है, दूसरा चित्र बनाने में लग जाता है।

रवींद्रनाथ ने छह हजार गीत लिखे हैं। जब वे एक गीत बनाते थे, जब गीत बनता था, उतरता था, तो वे द्वार—दरवाजे बंद कर लेते थे, ताकि कोई बाधा न दे। कभी दिन बीत जाता, दो दिन बीत जाते, तीन दिन बीत जाते, भोजन भी न लेते, स्नान भी न करते; कब सोते कब उठते, कुछ हिसाब न रह जाता; बिल्कुल दीवाने जैसे उनकी दशा हो जाती थी; करीब—करीब विक्षिप्त हो जाते थे। और जब गीत पूरा हो जाता तो उसे सरकाकर रख देते। शायद ही अपना गीत दुबारा उन्होंने फिर पढ़ा हो।

लेकिन यह कथा सारे कलाकारों की है, सारे चित्रकारों, सारे गीतकारों की है। और यही कथा प्रत्येक मनुष्य की भी है। मनुष्य होने के लिए हमने कितनी कठिनाई से यात्रा की है, कितने लड़े हैं! और जब मनुष्य हो गए हैं तो बस बात ही सरकाकर रख दी है। अब तो लोग यही पूछते हैं कि समय नहीं कटता, ताश खेलें कि फिल्म देखने चले जाएं, कि किसी से झगड़े कि गाली— गलौच कर लें, किस तरह समय काटें? और इस समय को पाने के लिए तुमने कितनी लंबी यात्रा की थी, कितना दांव पर लगाया था!

यह आदमी के मन का अनिवार्य अंग है कि जब वह पाने के लिए चलता है तब तो सब दांव पर लगा देता है, लेकिन जब मिल जाता है तो बस तत्क्षण मिलते ही सारी उत्सुकता समाप्त हो जाती है। एक स्त्री के पीछे तुम दीवाने थे, फिर उसे पा लिया और पाते ही तुम्हारा सारा उत्साह क्षीण हो जाता है। एक मकान तुम बनाना चाहते थे और कितना सोचते थे, रात सोए नहीं, सपने देखते थे, धन इकट्ठा करते थे; फिर मकान बन गया और बस फिर मकान भूल गया। फिर उस मकान को तुम दुबारा देखते भी नहीं। रहते भी हो उसमें तो तुम कुछ रस—विमुग्ध नहीं हो, तुम कुछ आनंदित नहीं हो।

ऐसा ही जीवन के संबंध में भी हुआ है। और चित्र बनाकर न देखो तो चलेगा। कविता लिख कर फिर न गुनगुनाआ, चलेगा। मूर्ति बनाकर एक तरफ सरका दो, कूड़े— कचरे में डाल दो, चलेगा। क्योंकि ये सब छोटी बातें हैं। लेकिन जीवन बहुत बहुमूल्य है। इसकी कोई कीमत नहीं। यह बेशकीमती है। अमूल्य है। मूल्य के पार है। मूल्यातीत है।

हीरा जन्म न बारंबार… इसलिए धनी धरमदास कहते हैं : इस हीरे को जरा समझ लो। खो दोगे, फिर बहुत पछताओगे। और कुछ चीजें ऐसी हैं कि टूट जाएं तो फिर नहीं जुड़ती, फिर जोड़े नहीं जुड़ती। फिर पूरी लंबी यात्रा करनी होती है——उतनी ही जितनी पाने के लिए की थी। फिर वही पहाड़, फिर वही कंटकाकीर्ण मार्ग, फिर वही चढ़ाइयां। फिर जब तक पहुंचोगे तब तक फिर भूल जाओगे कि पहले एक बार जीवन मिला था, उसको मैं गंवा चुका हूं, अब न गंवाऊं।

तुम क्या सोचते हो, तुम पहली बार मनुष्य हुए हो? इस अनंत काल में तुम अनेक बार मनुष्य हुए होगे। इतना लंबा समय बीता है कि तुम बहुत बार इस घड़ी पर आ गए होगे और बहुत बार तुमने यह घड़ी गंवा दी है। और गंवा कर पछताए भी होगे, मरते वक्त रोए भी होगे। खून टपका होगा तुम्हारी आखों से आंसू बनकर। और तुमने निर्णय किया होगा: अब दुबारा ऐसी भूल न होगी। अगर फिर अवसर मिल जाए तो अब दुबारा ऐसी भूल न होगी। लेकिन जब तक दुबारा अवसर मिलेगा तब तक इतना समय बीत जाता है कि तुम फिर भूल जाते हो।

उपनिषदों में ययाति की कथा है, मुझे बहुत प्रिय है। प्यारी कथा है। कथा ही है, ऐतिहासिक नहीं हो सकती। लेकिन बड़ी मनोवैज्ञानिक है। और पुराण इतिहास हैं भी नहीं। पुराण मनोविज्ञान हैं। मनोविज्ञान की गहराई इतिहास से बहुत ज्यादा है। इतिहास तो कूड़ा— करकट बटोरता है। इसलिए इतिहास में तुम्हें औरंगजेबों और अकबरों और शाहजहां और जहांगीरों की कहानियां मिलती हैं। तैमूरलंग और नादिरशाह, इनकी कहानियां… कूड़ा— करकट! इतिहास में बुद्धों का पता नहीं चलता। इतिहास पर बुद्धों की लकीर बनती नहीं।

क्योंकि जब तक कोई उपद्रव न करें तब तक इतिहास पर उसकी लकीर नहीं बनती। तुम हत्या करो तो अखबार में नाम आता है। तुम चोरी करो तो अखबार में नाम आता है। तुम किसी की छाती में छुरा भोंक दो तो तस्वीर छपती हैं। तुम किसी गिरते आदमी को सड़क पर संभाल लो, कोई खबर नहीं आती। और तुम अपने घर में बैठ कर ध्यान करो, तब तो खबर आएगी ही कैसे। और तुम प्रभु को स्मरण करो तो किसको पता चलेगा? कौन जान पाएगा?

इतिहास अखबारों की कतरन है। पुराने अखबार इतिहास बन जाते हैं। पुराण इतिहास नहीं है। पुराण मनोविज्ञान है। ऐसा हुआ है, ऐसा नहीं—— ऐसा होता है सदा। ऐसी ययाति की कथा है। ययाति मरने के करीब आया। बड़ा सम्राट था। उसके सौ बेटे थे। अनेक रानियां थीं। सौ वर्ष जिया। पूरी उम्र लेकर मर रहा था। लेकिन जब मौत ने दरवाजे पर दस्तक दी और मौत ने कहा : ययाति, तैयार हो जाओ…। भले दिनों की कहानी है। अब तो मौत दस्तक भी नहीं देती। तैयारी का अवसर भी नहीं देती। मौत ने कहा : ययाति तैयार हो जाओ, मैं आ गयी। ययाति चौंका। तुम भी चौंको, अगर मौत आकर एक दिन दरवाजे पर दस्तक दे। इसलिए मैं कहता हूं, यह मनोवैज्ञानिक है।

ययाति चौंका। ययाति ने हाथ जोड़कर कहा कि क्षमा करो, मैं तो जीवन गवाता रहा। सौ वर्ष ऐसे ही बीत गए, पता न चला। मैंने तो व्यर्थ में गंवा दिए दिन। नहीं— नहीं, मुझे ले मत जाओ। एक अवसर मुझे और दो। यह भूल दुबारा न होगी। करने योग्य कुछ कर लूं। किस मुंह से परमात्मा के सामने खड़ा होऊंगा? क्या जवाब दूंगा?

पुरानी कहानी है, मौत को दया आ गयी। मौत ने कहा : ठीक है। लेकिन किसी को मुझे ले जाना ही होगा। तुम्हारा कोई बेटा जाने को राजी हो?

सौ बेटे थे। ययाति ने अपने बेटों की तरफ देखा। ययाति सौ साल का था, उसका कोई बेटा अस्सी साल का था, कोई सत्तर साल का था। वे भी बूढे होने के करीब थे, लेकिन अस्सी साल का बेटा भी नीची नजर कर लिया। सबसे छोटा बेटा उठकर खड़ा हो गया। वह अभी जवान ही था, अभी सत्रह— अठारह का होगा। उसने मौत से कहा : मुझे ले चलो। मौत को उस पर और दया आई। मौत ने कहा कि तेरे और बड़े भाई हैं, वे कोई राजी नहीं होते, तू क्यों जाता है? अपने बड़े भाइयों से क्यों नहीं पूछता, तुम राजी क्यों नहीं होते?

उसने पूछा, अपने बड़े भाइयों से कहा : आप जाने को राजी क्यों नहीं हैं? पिता के लिए जीवन नहीं दे सकते?

बड़े भाइयों ने कहा कि जब पिता सौ साल का होकर जाने को राजी नहीं है, तो हम अभी केवल अस्सी साल के हैं कि सत्तर साल के हैं। अभी तो हमें जीने को और दिन पड़े हैं। और जिस तरह पिता नहीं कर पाया जो करना था, हम भी कहां कर पाए हैं! पिता को तो सौ वर्ष मिले थे, नहीं कर पाया; हमें तो अभी अस्सी वर्ष ही हुए हैं, अभी बीस वर्ष और कायम हैं। अभी हम कुछ कर लेंगे।

फिर भी जवान बेटा तैयार था। उसने कहा : मुझे ले चलो। मौत ने पूछा कि तू मुझे पागल मालूम होता है। तू तो अभी जवान है, अभी तूने कुछ भी नहीं देखा।

उसने कहा : जब सौ वर्ष में मेरे पिता कुछ न देख पाए, तो मैं भी क्या देख पाऊंगा? अस्सी वर्ष में मेरे भाई नहीं देख पाए, सत्तर वर्ष में मेरे भाई नहीं देख पाए, तो मैं भी क्या देख पाऊंगा? मेरे निन्यानवे भाई कुछ नहीं देख पाए, मेरे पिता कुछ नहीं देख पाए। पिता सौ वर्ष में भी मांग कर रहे हैं कि जीवन और चाहिए। इतना ही पर्याप्त है मुझे दिखाने को कि यहां दिन सोए—सोए बीत जाते हैं। तुम मुझे ले ही चलो। मेरा जीवन इतने भी काम आ जाए, मेरे पिता के काम आ जाए, तो भी सार्थक उपयोग हुआ। मैं निरर्थक नहीं गंवाना चाहता। यह कम—से—कम कुछ सार्थक उपयोग है कि मैं पिता के काम आ गया। इतनी तो सांत्वना रहेगी, संतोष रहेगा।

सौ वर्ष बीत गए, फिर मौत आयी और वही की वही बात थी। ययाति फिर रोने लगा। उसने कहा कि क्षमा करो, मैं तो सोचा कि अब सौ वर्ष पड़े हैं, अभी क्या जल्दी है? जी लेंगे। फिर मैं पुराने ही धंधों में लग गया। अभी तो सौ वर्ष थे, बहुत लंबा समय था, वे भी गुजर गए। कब गुजर गए, पता न चला। कैसे गुजर गए, पता न चला। मुझे क्षमा करो। एक अवसर और।

और कहते हैं, कहानी बारबार अवसर देती है। ऐसा एक हजार साल ययाति जिया और जब हजारवें साल में मरा, तब भी रोता हुआ ही मरा।

तुम भी मरते क्षण में जब मौत तुम्हारे द्वार पर आकर खड़ी हो जाएगी, रोओगे कि मैं कुछ कर न पाया; राम का स्मरण न कर पाया; कोई पुण्य का अनुभव न कर पाया; कोई ध्यान का झरोखा न खोल पाया; समाधि की मुझे गंध न मिली। मैंने जाना ही नहीं कि मैं कौन था। मैंने जाना ही नहीं कि अस्तित्व क्या था। मेरा कोई तारतम्य न बैठा। अस्तित्व से मेरा कोई मेल न हुआ। मेरा कोई मिलन न हुआ परमात्मा से। मुझे छोड़ो।

मगर जितनी आसानी से ययाति की कहानी में मौत छोड़ देती है, वैसा नहीं होता। वह तो कहानी है, प्रतीक है। मौत तो ले जाएगी। और दुबारा अवसर कब मिलेगा? ययाति तो भूल जाता था हर अवसर के बाद; दुबारा अवसर तुम्हें मिलेगा, इस बीच न मालूम कितने कल्प बीत गए होंगे, न मालूम कितना समय बह गया होगा, न मालूम गंगा का कितना पानी बह जाएगा! गंगा बचेगी कि नहीं दुबारा जब तुम आओगे! तब तक स्वभावत: तुम फिर भूल गए होओगे।

तुम्हें एक जन्म की स्मृति दूसरे जन्म में नहीं रह जाती। तुम फिर अ ब स से शुरू कर देते हो। शायद इस बार जैसा गंवा रहे हो वैसा पहले भी गंवाया, आगे भी गवाओगे।

जागना हो तो अभी जागो, कल पर मत टालो। टालने में ही आदमी भूला है, भटका है। स्थगित किया कि तुमने टाला, टाला कि तुम चूके। कल का कोई भरोसा है? कल कभी आया है? कल कभी आता है? कल उसका नाम है जो कभी नहीं आता।

हीरा जन्म न बारंबार समुझि मन चेत हो।

तो धनी धरमदास कहते हैं : समझ लो ठीक से। यह हीरे जैसा अवसर फिर —फिर मिले न मिले। और चेत जाओ, जाग्रत हो जाओ। चैतन्य को पैदा कर लो। यह अवसर इसीलिए है कि चैतन्य पैदा हो सके। अगर जीवन में ध्यान पैदा हो जाए तो जीवन सार्थक हो गया। ध्यान मिला तो धन मिला। ध्यान मिला तो तुम भी धनी हुए, जैसे धनी धरमदास।

जीवन एक सीढ़ी है—— ध्यान के मंदिर की। सीढ़ी पर मत बैठे रहो। सीढ़ी का अपने में कोई अर्थ नहीं है। सीढ़ी का प्रयोजन इतना ही है कि तुम मंदिर में पहुंच जाओ। द्वार पर मत जकड़कर बैठ जाओ। द्वार व्यर्थ है। मंदिर में प्रवेश करो। मंदिर का देवता भीतर विराजमान है। जीवन को सीढ़ी बनाओ। जीवन को मार्ग समझो। जीवन मंजिल नहीं है। जीवन गंतव्य नहीं है। जीवन मिल गया तो सब मिल गया, ऐसा मत समझो।

जीवन का उतना ही मूल्य होगा जितना तुम उसमें पैदा कर लोगे। जीवन केवल एक संभावना है। जीवन एक तरह का धन है।

ऐसा समझो, मैंने सुना है, एक कृपण आदमी था। उसके पास सोने की ईंट थीं। वे उसने अपनी तिजोरी में रख छोड़ी थीं। भूखा—प्यासा, रूखा—सूखा खाता था। बस रोज तिजोरी खोलकर अपनी सोने की ईंटों को देख लेता था। उसका बेटा जवान हुआ। उसने देखा, यह भी क्या पागलपन है! हमें खाने को नहीं, पीने को नहीं, ओढ़ने का ठीक वस्त्र नहीं, घर—द्वार ढंग का नहीं——और हमारे पास इतना धन है और बाप कुल इतना करता है कि तिजोरी खोलके, जैसे लोग मंदिर में जाकर भगवा; के दर्शन करते हैं। ऐसे सोने की ईंटे का दर्शन कर लेता है, प्रसन्न होकर, फिर तिजोरी बंद कर देता है! ये जो सोने की ईंटे है, इनका मूल्य केवल संभावना में है, पोटेंशियल है। अगर इनका उपयोग करो तो ही मूल्य है। अगर उपयोग न करो तो सोने की ईंटे रखी हैं तुमने तिजोरी में कि पत्थर की ईंटें रखी हैं, क्या फर्क पड़ता है?

बेटे ने एक होशियारी की। उसने पीतल की ईंटे बनवाईं, सोने का पालिश चढ़वाया और तिजोरी में बदल दीं। बाप वही करता रहा। रोज खोले तिजोरी—— अब तो पीतल की ईंटे थीं—— नमस्कार कर लें। बड़ा प्रसन्न हो जाए। बाप को तो कोई फर्क नहीं पड़ा।

धन तभी पता चलता है कि धन है जब तुम उसका उपयोग करो, अन्यथा निर्धन और धनी में क्या फर्क है? तुम अगर करोड़ों रुपए भी अपनी जमीन में गड़ाकर बैठे हो और भीख मांग रहे हो, तो तुम में और उस भिखमंगे में क्या फर्क है जिसके पास एक पैसा नहीं है? धन का मूल्य उपयोग में है। धन का मूल्य धन में नहीं है, उपयोग में है, उसके विनिमय में, एक्स्चेंज में है। धन जितना चले उतना उपयोगी हो जाता है। जितना तुम उसका रूपांतरण करो उतनी ही उपयोगिता बढ़ती जाती है।

इसलिए कंजूस के पास धन होता ही नहीं, क्योंकि धन गति में है। इसलिए तो अंग्रेजी में धन के लिए जो शब्द है, वह करेंसी है। करेंसी का मतलब : जो चलता रहे, बहता रहे। बहाव, जैसे नदी की धारा बहती है। चलने में। अगर अमरीका बहुत धनी है तो उसका कुल कारण इतना है कि अमरीका एकमात्र देश है जो धन का करेंसी होने का अर्थ समझता है; चलता रहे, बहता रहे। अगर यह हमारा देश गरीब है तो उसका कारण यही है कि हम धन को पकड़ना जानते हैं। और पकड़ते ही धन व्यर्थ हो जाता है। फिर सोने की ईंट में और पीतल की ईंट में कोई फर्क नहीं होता। बचाओ कि धन मर गया, तुमने गरदन घोंट दी। फैलाओ, उपयोग कर लो। जितना उपयोग कर लेते हो उतना उसका अर्थ है।

और यही जीवन—धन के संबंध में भी सच है। जीवन को पकड़कर मत बैठे रहो। कंजूस बनकर मत बैठे रहो। इसका उपयोग करो। फिर उपयोग जितना विराट करना चाहो, कर सकते हो। इससे चाहो तो कचरा खरीद सकते हो, उतना मूल्य होगा तुम्हारे जीवन का। इससे चाहो तो परमात्मा खरीद सकता हो, उतना मूल्य होगा तुम्हारे जीवन का। जीवन तो कोरी किताब है, तुम उस पर जो लिखोगे वही मूल्य हो जाएगा। गालियां लिख सकते हो, गीत लिख सकते हो। सब तुम पर निर्भर है।

लोग मुझसे आकर पूछते हैं: जीवन का अर्थ क्या है? मैं उनसे कहता हूं : जीवन का अपने में कोई अर्थ नहीं होता, अर्थ डालना होता है। जीवन कुछ ऐसा थोड़े ही है कि रेडीमेड अर्थ, कि गए बाजार से और खरीद लाए। जीवन में अर्थ डालना होता है। इसलिए बुद्ध के जीवन में कुछ अर्थ होता है, कृष्ण के जीवन में, क्राइस्ट के जीवन में कुछ अर्थ होता है। तैमूरलंग के जीवन में क्या अर्थ होगा? नादिरशाह के जीवन में क्या अर्थ होगा? खून—खराबा है, अर्थ कहां? मारकाट है, अर्थ कहां?आपाधापी है, अर्थ कहां? अर्थ होता नहीं जीवन में। रखा—रखाया नहीं है कि तुम गए और दरवाजा खोला और अर्थ मिल गया। अर्थ निर्मित करना होता है। अर्थ का सृजन करना होता है। अर्थ के लिए प्रयास करना होता है, प्रार्थना करनी होती है, प्रतीक्षा करनी होती है।

हर आदमी अपने जीवन को अर्थ देता है। अगर तुम्हारे जीवन में अर्थ न हो तो एक बात खयाल में ले लेना: तुमने अर्थ दिया नहीं। अगर तुम्हारी किताब कोरी हो तो उसका अर्थ है: तुमने गीत लिखा नहीं। अगर तुम एक अनगढ़ पत्थर लिए बैठे हो तो कैसे अर्थ होगा?

माइकल एंजिलो एक रास्ते से गुजरता था। और उसने संगमरमर के पत्थर की दुकान के पास एक बड़ा संगमरमर का पत्थर पड़ा देखा——अनगढ़। राह के किनारे। उसने दुकानदार से पूछा कि और सब पत्थर सम्‍हाल कर रखे गए हैं, भीतर रखे गए हैं, यह पत्थर बाहर क्यों डला है?

उसने कहा : यह पत्थर बेकार है। इसे कोई मूर्तिकार खरीदने को राजी नहीं है। आपकी इसमें उत्सुकता है?

माइकल एंजिलो ने कहा : मेरी उत्सुकता है। उसने कहा : आप इसको मुफ्त ले जाए। यह टले यहां से जगह तो खाली हो। बस इतना ही काफी है कि यह टल जाए यहां से। यह आज दस वर्ष से यहां पड़ा है, कोई खरीददार नहीं मिलता। आप ले जाओ। कुछ पैसे देने की जरूरत नहीं है। अगर आप कहो तो आपके घर तक पहुंचवाने का काम भी मैं कर देता हूं।

दो वर्ष बाद माइकल एंजिलो ने उस पत्थर के दुकानदार को अपने घर आमंत्रित किया कि मैंने एक मूर्ति बनाई है, तुम्हें दिखाना चाहूंगा। वह तो उस पत्थर की बात भूल ही गया था।

मूर्ति देखकर तो दंग रह गया, ऐसी मूर्ति शायद कभी बनाई नहीं गई थी! मरियम जब जीसस को सूली से उतार रही है, उसकी मूर्ति है। मरियम के हाथों में जीसस की लाश है। इतनी जीवंत है कि उसे भरोसा नहीं आया। उसने कहा : लेकिन यह पत्थर तुम कहां से लाए? इतना अद्भुत पत्थर तुम्हें कहां मिला?

माइकल एंजिलो हंसने लगा। उसने कहा : यह वही पत्थर है, जो तुमने व्यर्थ समझकर दुकान के बाहर फेंक दिया था और मुझे मुफ्त में दे दिया था। इतना ही नहीं, मेरे घर तक पहुंचवा दिया था।

वही पत्थर है! उस दुकानदार को तो भरोसा ही नहीं आया। उसने कहा : तुम मजाक करते होओगे। उसको तो कोई लेने को भी तैयार नहीं था, दो पैसा देने को तैयार नहीं था। तुमने उस पत्थर को इतना महिमा, इतना रूप, इतना लावण्य दे दिया! तुम्हें पता कैसे चला कि यह पत्थर इतनी सुंदर प्रतिमा बन सकता है।

माइकल एंजिलो ने कहा : आंखें चाहिए। पत्थरों के भीतर देखने वाली आख चाहिए।

अधिकतर लोगों के जीवन अनगढ़ रह जाते हैं, दो कौड़ी उनका मूल्य होता है। मगर वह तुम्हारे ही कारण। तुमने कभी तराश प्र नहीं। तुमने कभी छैनी नहीं उठाई। तुमने कभी अपने को गढ़ा नहीं। तुमने कभी इसकी फिक्र न की कि यह मेरा जीवन जो अभी अनगढ़ पत्थर है, एक सुंदर मूर्ति बन सकती है। इसके भीतर छिपा हुआ क्राइस्ट प्रकट हो सकता है। इसके भीतर छिपा हुआ बुद्ध प्रकट हो सकता है।

वस्तुत : माइकल एंजिलो के जो शब्‍द थे, वे ये थे कि मैंने कुछ नहीं किया है; मैं जब रास्ते से निकलता था, इस पत्थर के भीतर पड़े हुए जीसस ने मुझे पुकारा कि माइकल एंजिलो, मुझे मुक्त करो। उनकी आवाज सुनकर ही मैं इस पत्थर को ले आया। मैंने कुछ किया नहीं है, सिर्फ जीसस के आसपास जो व्यर्थ के पत्थर थे वे छांट दिए हैं, जीसस प्रकट हो गए??

प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा को अपने भीतर लिए बैठा है। थोड़े से पत्थर छांटने हैं, थोड़ी छैनी उठानी है। उस छैनी उठाने का नाम ही साधना है।

और ध्यान रखना, अगर तुम्हें अनगढ़ हीरा भी मिल जाए तो पहचान न सकोगे। जब पहली दफा कोहिनूर जिसको मिला था, वह पहचाना ही नहीं था कि कोहिनूर है। उसने तो अपने बच्चों को खेलने को दे दिया था। रंगीन पत्थर! सोच भी नहीं सकता था कि इतनी बहूमूल्य चीज है। बच्चे खेलते रहे थे, कई दिनों तक खेलते रहे थे। आज कोहिनूर जगत् का सबसे बड़ा हीरा है। और तुम्हें पता है जिस आदमी को मिला था उससे अब वजन कोहिनूर का घटकर एक तिहाई रह गया है। इतना तराश गया है! वजन घट गया है, कीमत बढ़ गई है। वजन रोज घटता गया है और कीमत रोज बढ़ती गई है।

जब कोई आदमी अपने भीतर के हीरे को तराश है तो एक दिन वजन बिल्कुल समाप्त हो जाता है, भारहीन हो जाता है। और मूल्य ही मूल्य रह जाता है। पंख लग जाते हैं। आकाश में उड़ने की क्षमता आ जाती है।

हीरा जन्म न बारंबार समुझि मन चेत हो।।

जैसे कटि पतंग पषान, भए पसु पच्छी।

जल तरंग जल माहि, रहे कच्छा औ मच्छी।।

अंग उघारे रहै सदा, कबहुं न पावै सुक्ख।

सत्य नाम जाने बिना जनम जनम बड़ रुख।।

कहते हैं : जरा देखो, अपने चारों तरफ देखो, कटि पतंगों को देखो, मगर—मच्छियों को देखो। ये जीवन की जो अलग—अलग योनियां हैं, इनको गौर से देखो, ये सब तुम्हारी योनियां हैं। इनसे तुम होकर आए हो। इनसे बड़ी मुश्किल से तुम मुक्त हो सके हो। बड़ी चेष्टा से, बड़े श्रम से, तुम किसी तरह इन कारागहों के बाहर आए हो। तुम्हें मनुष्य की स्वतंत्रता और गरिमा मिली है। ऐसा न हो कि बस सोच लो कि घर आ गया। घर अभी आया नहीं। अभी घर आ सकता है। यह पहला मौका है। मनुष्य होने के बाद घर आने का मौका है, क्योंकि अब तुम चेत सकते हो। चेत जाओ तो परमात्मा का पता चल जाए। जितनी तुम्हारी चेतना ऊंची उठेगी उतनी ऊंचाइयों का तुम्हें पता चलेगा।

और मनुष्य की चेतना अंतिम सीमा तक उठ सकती है। यही तो बुद्धों की कथा है। यही तो नानक की। यही तो कबीर की यही तो मुहम्मद की, मैसूर की। यही तो कथा है उनकी, जो जागे, जो चेते, जिन्होंने अपने जीवन को और बड़े जीवन को पाने के लिए समर्पित किया।

है आखिरत का खौफ गमे—दीनवी के बाद

एक और जिंदगी भी है इस जिंदगी के बाद

एक और जिंदगी भी है, इसे याद करो और तुम बिल्कुल आखिरी किनारे पर आकर खड़े हो, जहां से छलांग लग सकती है। इसलिए ”हीरा जनम” कहा है।

है आखिरत का खौफ, गमे—दीनवी के बाद

एक और भी जिंदगी है इस जिंदगी के बाद

वाइज’ यह बंदगी कहीं बेकार हो न जाए

तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद

लोग अहंकार में जिंदगी गंवा रहे हैं। और कभी—कभी ऐसा भी हो जाता है कि धर्म में भी उत्सुक हो जाते हैं, मगर अहंकार पीछा नहीं छोड़ता, तो अहंकार धर्म को भी नष्ट कर देता है। तब लोग प्रार्थना की अकड़ से भर जाते हैं, साधना की अकड़ से भर जाते हैं।

तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद

अगर नाज किया, अगर अकड़ आ गई, अगर अस्मिता आ गई, अहंकार आ गया, तो बंदगी व्यर्थ हो गई। मनुष्य को इतना चेतना है कि अहंकार के बाहर हो जाए। तुम और बहुत—सी चीजों के बाहर होते आए हो। पत्थर में थे किसी दिन, बाहर हुए; पौधे हुए। पौधे में थे किसी दिन, जमे थे जड़ जमीन में, मुक्त न थे। पशु हुए, चलने की क्षमता आई।

अगर तुम जीवन को गौर से देखो तो जीवन के विकास की कथा स्‍वातंत्रय की कथा है। इसलिए तो हम परम अवस्था को मोक्ष कहते हैं, अंतिम अवस्था को स्वतंत्रता कहते हैं। क्यों? पत्थर से परमात्मा तक की यात्रा को अगर गौर से देखागे तो उसी योनि को हम ऊंची योनि कहते हैं जो पिछली योनि से ज्यादा स्वतंत्र है। चट्टान की स्वतंत्रता पौधों से कम है। पौधे कम से कम हवा में नाच तो सकते हैं, चट्टान उतना भी नहीं कर सकती। पौधे कम से कम ऊपर की तरफ बढ़ तो सकते हैं, चल नहीं सकते, मगर आकाश की तरफ थोड़ी यात्रा तो कर सकते हैं। चट्टान वह भी नहीं कर सकती।

पौधे उदास होते हैं। अब इसके वैज्ञानिक प्रमाण हैं। और आनंदित होते हैं, इसके भी वैज्ञानिक प्रमाण हैं। चट्टान को उतनी भी सुविधा नहीं, उतनी भी स्वतंत्रता नहीं। चट्टान बड़ा कारागह है। एक कैद। जंजीरें ही जंजीरे हैं। लेकिन पौधे की तकलीफ यह है कि उसके पैर जमीन में गड़े हैं, वह चल नहीं सकता। थोड़ा—थोड़ा सरक सकता है। कुछ पौधे हैं जो थोड़ा—थोड़ा सरकते हैं। अगर जल—सोत खत्म हो जाएं तो कुछ पौधे हैं, थोड़ा—बहुत, ज्यादा नहीं, लंबी यात्रा नहीं कर सकते, मगर कुछ फिट सरक सकते हैं। धीरे—धीरे जिस तरफ जलस्रोत हो उस तरफ की जड़ें बड़ी हो जाती हैं; जिस तरफ जलस्रोत न हों, उस तरफ की जड़ें सिकुड़ जाती हैं, टूट जाती हैं। और धीरे—धीरे पौधा सरक पाता है। दलदल में पौधे थोड़ा सरक जाते हैं, क्योंकि जमीन पोली होती है तरल होती है। मगर स्वतंत्रता ज्यादा नहीं है।

पशुओं की स्वतंत्रता ज्यादा है। चल सकते हैं। अगर यहां जल नहीं मिलेगा, तो दस मील दूर जाकर पी सकते हैं। अगर यहां भोजन नहीं मिलेगा तो कहीं और भोजन की तलाश कर लेंगे। स्वतंत्रता बढ़ गई। मगर बहुत ज्यादा नहीं। इसलिए तो बहुत—से पशु पृथ्वी पर रहे और मर गए, उनकी सिर्फ अब लाशें मिलती हैं। क्योंकि हालतें इतनी बदलीं कि वे पशु नई हालतों के लिए अपने को राजी न कर पाए। हालतें रोज बदलती हैं।

समझो कि अचानक सर्दी आ जाए, तो पशु कोट नहीं बना सकता। इतनी स्वतंत्रता उसकी नहीं है। वह मर जाएगा। या बहुत धूप हो जाए तो वह एरकडीशनिग पैदा नहीं कर सकता। वह उतनी स्वतंत्रता उसकी नहीं है। वह बंधा है। उसकी भी एक सीमा है। थोड़ा—बहुत हो तो इंतजाम कर लेता है। धूप हो जाए तो वृक्ष के नीचे बैठ जाता है जाकर। सर्दी हो जाए तो धूप में खड़ा हो जाता है आकर। बस सीमा है।

मनुष्य और आगे बढ़ा। उसने बड? अर्थो में स्वतत्रता पैदा कर ली। वह कई अर्थो में अपना मालिक हो गया। वह प्रकृति से बहुत अर्थो में मुक्त हो गया है। निर्भर नहीं है।

इसलिए मनुष्यों में तुम खयाल रखना, जो जाति जितनी ज्यादा मुक्त होती है उतनी विकासमान होती है। जो जाति अतीत से बहुत दबी होती है और परंपरावादी होती है, विकासमान नहीं होती। क्योंकि उसकी स्वतंत्रता उतनी ही कम हो जाती है। अतीत से दबी हुई जातियां देर—अबेर मर जाती हैं, बच नहीं सकतीं। अतीत से दबे होने का अर्थ यह होता है कि उनके पास ऐसे प्रश्रों के उत्तर हैं, जो प्रश्‍न ही अब नहीं रहे और वे उन्हीं उत्तरों को पकड़े बैठ हैं।

अब जैसे वर्षा नहीं होती तो हिंदू यज्ञ करता है। अब यह उत्तर ही फिजूल हो गया है। अब वर्षा के बेहतर उपाय हैं, मगर तुम यज्ञ कर रहे हो, उसमें लाखों—करोड़ों रुपए जला रहे हो! और कता का तो कोई अंत नहीं है। तुम्हारे मिनिस्टर भी वहां पहुंच जाते हैं यज्ञों में आशीर्वाद लेने।

अगर यह देश मर रहा है, सह रहा है, तो उसका कुल कारण इतना है कि जो बातें हमें कभी की छोड़ देनी चाहिए थीं, उनको हम नहीं छोड़ पाते। हम उनको पकड़े हैं। हमारी छोड़ने की स्वतंत्रता बड़ी कम है।

तुम जानकर चकित होओगे, ऐसे उल्लेख हैं इतिहास में कि कोई जाति चावल ही खाती थी। चावल खत्म हो गया तो वह मर गई, मगर वह गेहूं खाने के लिए राजी नहीं हुई। बड़े सिद्धांतवादी लोग रहे होंगे कि हम तो बस चावल ही खाएंगे, हम गेहूं नहीं खा सकते; कभी हमारे बाप—दादों ने नहीं खाया, तो हम कैसे खा सकते हैं। हमारे बाप—दादे जो करते रहे, वहीं हम करेंगे; हालांकि समय बदल गया, स्थिति बदल गई, ढंग बदल गए।

जीवन नए उत्तर मांगता है, लेकिन तुम अपने बाप—दादों में जड़ें जमाए बैठे हो। तुम्हारे बाप— दादे यज्ञ करते थे जब पानी नहीं गिरता था। अब ज्यादा बेहतर उपाय हैं। पिपरमिंट का छिड़काव कर दो बादलों में और पानी गिरेगा, थोड़ा बर्फ का छिड़काव कर दो बादलों में और पानी गिरेगा। रूस में पानी गिराया जा रहा है। रेगिस्तान लहलहाते हैं, बगीचे हो गए हैं और हिंदुस्तान में लहलहाते बगीचे धीरे— धीरे रेगिस्तान होते जा रहे हैं। और तुम यह यज्ञ कर रहे हो। करोड़ों रुपए यज्ञ में जलाते हो! मजा यह है कि वर्षा होकर और गेहूं तो पैदा नहीं होता; जो तुम्हारे पास थे वे यज्ञ में जल जाते हैं। वर्षा होकर या यज्ञ से गऊ का दूध तो नहीं बढ़ता, लेकिन गऊ के पास जो दूध था, घी था, वह भी यज्ञ में चला जाता है। कता है। जितनी कता होती है उतनी परतंत्रता होती है।

मेरे एक मित्र हैं। संस्कृत के बड़े विद्वान हैं। एक प्रोफेसर है किसी विश्वविद्यालय में। पंडित हैं। ब्राह्मण हैं और बड़े रूढ़िवादी। वे कुछ शास्त्रों की खोज करते हुए तिब्बत गए। तिब्बत रहना उनको मुश्किल हो गया, क्योंकि तिब्बत में तुम पांच बजे ठंडे पानी से स्नान करोगे तो मरोगे। मगर उनके बाप—दादे सदा से करते रहे। तो वह तो पांच बजे ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करना ही है। अब उनको पता नहीं कि बाप—दादे कभी तिब्बत गए नहीं। हिंदुस्तान में जो नहीं करता है सुबह ठंडे पानी से स्नान, वह पागल है और तिब्बत में जो करता है वह पागल है। बस वह जल्दी ही भाग आए। उनकी जो शोध करने गए थे, वह पूरी नहीं कर सके, क्योंकि पांच बजे तो नहाना ही पड़ेगा और पांच बजे नहा लेते तो दिनभर के लिए मुर्दा हो जाते, सब हाथ पैर ठंडे हो जाते। फिर मसाज करो मालिश करो, गरमी दो, तब कहीं वे थोड़े—बहुत गरम होते।

तिब्बत के धर्मशास्त्र कहते हैं : साल में एक बार जरूर नहाना चाहिए। मगर मूढताए कुछ अलग—अलग नहीं है। मेरे पास कुछ तिब्बती लामा आकर एक बार रुके। सारा घर बदबू से भर गया, क्योंकि वे वर्ष में एक बार नहाने का विश्वास रखते हैं। तिब्बत में बिल्कुल ठीक है, वहां धूल भी नहीं जमती, पसीना भी नहीं पैदा होता। भारत में भी आ गए हैं व, मगर वे अपने लबादे वही पहने हुए हैं—— तिब्बती लबादे! यहां आग जल रही है चारों तरफ, वे तिब्बती लबादे पहने हुए हैं। उनके भीतर पसीना ही पसीना इकट्ठा हो रहा है और नहाने का उन्हें खयाल ही नहीं है। मैंने उनसे कहा कि भई या तो तुम रहो इस घर में या मैं रहूं, दोनों साथ नहीं रह सकते। या तो मैं चला।

वे कहने लगे : क्यों? हम तो आपके ही सत्संग के लिए आए हैं। मैंने कहा : सत्संग यह बहुत महंगा पड़ रहा है। यह इतनी बदबू मैं नहीं सह सकता। तुम नहाओ।

उन्होंने कहा : नहाओ! लेकिन हमारे शास्त्र कहते हैं कि साल में एक दफे जरूर नहाना चाहिए, तो हम एक दफे नहाते हैं। मैंने कहा : यहां तुम्हें दिन में दो बार नहाना पड़ेगा। मगर उनको भी अखरता है। ठंडे मुल्कों में, जैसे रूस में या साइबेरिया में, शराब पीना जीवन का अनिवार्य अंग है, जैसे पानी पीना। लेकिन तुम अगर वहां जाओगे और अपना सिद्धांत लगाओगे कि शराब मैं नहीं पी सकता, तो तुम मुश्किल में पडोगे।

स्वतंत्रता का अर्थ होता है : चैतन्य, बोध, समझ। मनुष्य सर्वाधिक स्वतंत्र है, लेकिन मनुष्यों में कुछ जातियों ने ज्यादा स्वतंत्रता अनुभव की है बजाय और जातियों के। जिन जातियों ने ज्यादा स्वतंत्रता अनुभव की है वे विकास के शिखर पर चढ़ गईं। इस देश ने तो सैकड़ों वर्ष ऐसे गंवाए कि हम समुद्र—यात्रा पर नहीं जा सकते थे, क्योंकि समुद्र—यात्रा का उल्लेख शास्त्रों में नहीं है। समुद्र—यात्रा पर जो गया वह म्लेच्छ हो गया। स्वाभाविक था कि जो समुद्र—यात्रा कर सकते थे, वे हमारे मालिक हो गए। होना ही था।

मनुष्य सर्वाधिक स्वतंत्र है और मनुष्य और भी स्वतंत्र हो जाता है अगर उसमें समझ हो। अगर वह समझ पूर्वक जिए, रूढ़ि से न जिए… रूढ़ि से जीने वाला मनुष्य ठीक अर्थो में मनुष्य नहीं है। उसमें कुछ कमी है। उसमें कुछ पशुता शेष है।

परंपरावादी में थोड़ी पशुता शेष रहती है। इसलिए ठीक धार्मिक व्यक्ति परंपरावादी नहीं हो सकता। ठीक धार्मिक व्यक्ति विद्रोही होता है, बगावती होता है। वह अपनी समझ से जीता है, शास्त्र से नहीं। अगर समझ और शास्त्र में विरोध हो तो वह समझ के पीछे जाता है, शास्त्र के पीछे नहीं। परंपरावादी समझ को एक तरफ रख देता है, शास्त्र के पीछे जाता है।

मेरी देशना यही है कि तुम अपनी समझ से जियो। तुम्हारा शास्त्र हो सकता है दस हजार साल पहले लिखा गया था और जब लिखा गया था, तो परिस्थितियां बहुत भिन्न थीं, लोग बहुत भिन्न थे, मान्यताएं बहुत भिन्न थीं। दस हजार साल में आदमी बहुत यात्रा कर आया है। अब तुम्हारे पास दस हजार साल की समझ संगीत हो गई है। तुम शास्त्र से ज्यादा समझदार हो। अगर तुम उपयोग करना अपनी समझ का सीख लो, तो अब शास्त्र में देख— देखकर लौटकर जाने की कोई जरूरत नहीं है। शास्त्र को दस हजार साल में कोई अनुभव नहीं हुआ, वही के वही पड़ा है। शास्त्र कोई अनुभव कर भी नहीं सकता है——जड़ है। लेकिन दस अनुभव करती रही। अनुभव का अंबार हजार साल में आदमी की चेतना विकसित होती रही, बढ़ता चला गया है।

धनी धरमदास कहते हैं : यह अवसर अवसर है, अंत नहीं। और अभी परम स्वतंत्रता घटनी है।

एक और जिंदगी भी है इस जिंदगी के बाद

है आखिरत का खौफ गमे—दीनवी के बाद

एक और जिंदगी भी है इस जिंदगी के बाद

वाइज’ यह बंदगी कहीं बेकार हो न जाए

तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद

पिन्हा हजार गम हैं मसर्रत की ओट में

आंसू कहीं तड़प के न निकलें हंसी के बाद

इसा को है जरूरते—अम्नो—अमा मगर

पैगामे अम्न दीजे न इंशां—कशी के बाद

क्या उनसे रहबरी की तवक्कअ रखे कोई

जो आ सके न राह पै बे—रहरवी के बाद।

बहुत भटकने का एक ही अर्थ है कि भटक — भटक कर कोई सीखे, समझे, जीवन के कड़वे अनु भव से सार निचोड़े। भटकाव का भी मूल्य है। भटकनेवाले भी पहुंचते हैं। इसलिए भटकाव को मैं पाप नहीं कहता, लेकिन भटकाव तुम्हारी आदत न हो जाए। खूब भटक लिए हो! कितने — कितने जीवन के ढंग देख लिए, कितने — कितने रूप देख लिए, कितने — कितने वासना के प्रकार देख लिए, कितनी शैलियों में जी लिए! काफी भटक चुके हो! अब समझ आनी चाहिए।

और समझ के दो सूत्र हैं। एक, कि यह जीवन अपना गंतव्य अपने — आप में नहीं है। यह जीवन सीढ़ी है —— एक और बड़े जीवन के लिए। और दूसरा, कि स्वतंत्रता ही विकास की यात्रा है। स्वतंत्रता ही विकास का आधार है। और स्वतंत्रता ही मापदंड है विकास का। तो अंतिम मुक्ति, अंतिम स्वतंत्रता तो परमात्मा में मिल सकती है——परमात्मा होकर मिल सकती है। उसके पहले तो कुछ न कुछ कमी रह जाएगी, कुछ न कुछ सीमा रह जाएगी, कुछ न कुछ दीवालें घेरे रहेंगी।

आदमी उस जगह है जहां से चाहे तो सारी सीमाएं तोड़ सकता है, एक छलांग में परमात्मा में लीन हो सकता है। आदमी उस जगह है, जहां गंगा पहुंचकर होती है सागर के किनारे। बस एक कदम और कि सागर में उतर जाए।

लेकिन बहुत—से लोग जीवन के अवसर को गंवा देते हैं। वे समझ लेते हैं : बस जीवन मिल गया, सब मिल गया। कुछ धन कमा लें, कुछ पद कमा लें, कुछ प्रतिष्ठा कमा लें, कुछ नाम छोड़ जाएं। लेकिन तब तुम्हारा चाक फिर घूम जाएगा, फिर अ ब स से यात्रा शुरू होगी।

हीरा जन्म न बारंबार समुझि मन चेत हो।

सत्य नाम जाने बिना जनम जनम बड़ दुक्ख।

एक परमात्मा को ही जानकर सुख का अनुभव शुरू होता है। उसके जाने बिना सिर्फ दु:ख है। दु:ख की परिभाषा समझ लेना।

दु:ख की परिभाषा का अर्थ होता है : हमें अपने परम स्वभाव का पता नहीं है, इसलिए दु:ख है। हम जो हैं, हमें उसका पता नहीं है, इसलिए दु:ख है दु:ख आत्म — अज्ञान है। इसलिए हम जो भी करते हैं, गलत हो जाता है। हमें पता ही नहीं है कि हमारे सा थ किस चीज का तालमेल बैठेगा। इसलिए हम जो भी करते हैं, वह गलत हो जाता है। हमें अपने स्वभाव का पता चल जाए, हमारा परमात्मा से संबंध जुड़ जाए, फिर जो भी हमसे होगा ठीक होगा। फिर गलत होता ही नहीं। छऔर जब गलत होता ही नहीं, दु:ख कैसे होगा? दु:ख गलती का फल है। दु:ख गलती का परिणाम है।

सत्य नाम जाने बिना जनम जनम बड़ दुक्ख।

और बहुत दु: ख उठा लिया। और यह अब घड़ी आ गई कि सत्य को जाना जा सकता है। इसे चूक मत जाना

सीतल पासा ढारि, दाव खेलो सम्हा.[:नरी।

धरमदास कहते हैं : अब मौका मत चूको। यह जुआ खेल ही लो। यह जुआ है, क्योंकि यह हिम्मतवरों का काम है, जुआरियों का काम है। इस पर दांव लगाना होगा। और जुआ क्यों कहते हैं इसे? मैं भी इसे जुआ कहता हूं।

धर्म जुआरी का काम है, दुकानदारों का नहीं। दुकानदार हमेशा इस फिक्र में रहता है : कम दांव पर लगाना पड़े और ज्यादा लाभ हो। वही दुकानदारी का अर्थ होता है। लगाना कम पड़े, लाभ ज्यादा हो। जितना कम लगाना पड़े उतना अच्छा। और जितना ज्यादा लाभ हो जाए उतना अच्छा। हानि की संभावना कम से कम रहे, यही दुकानदार की पूरी चित्त दशा है। इसलिए जितना कम लगेगा उतनी कम हानि की संभावना है। दो पैसे लगाए हैं और लाख मिल जाएं, यह उसकी चेष्टा है। अगर खोएंगे तो दो पैसे खोएंगे, कुछ खास नहीं खोएगा मिलेंगे तो काफी मिल जानेवाले हैं।

दुकानदार का मन पूरे समय लाभ की भाषा में सोचता है, हिसाब—किताब और गणित। जुआरी का एक और ढंग है वह सब लगा देता है। वह कहता है: सब इकट्ठा लगा दिया। सब लगाने में खतरा है। मिले तो सब मिल जाएगा और गया तो सब चला जाएगा। खतरा यही है। फिर मिलने का क्या पक्का है? किसी को कभी मिला है, इसका भी क्या पक्का है? पता है बुद्ध को मिला कि नहीं मिला? कौन जाने न मिला हो, झूठ ही कहते हों मिल गया! कैसे तुम भरोसा करो? क्योंकि यह बात तो भीतरी है। यह रस तो भीतरी है। बुद्ध के पास भी कोई प्रमाण तो नहीं है कि हाथ पर रखकर बता दें। मान लो तो मान लो। मगर मानना तो फिर जुआरी का ही काम है।

दुकानदार कहता है : प्रमाण क्या है? आपको ईश्वर मिला, मुझे दिखा दें। आप को समाधि लगी, प्रमाण क्या है? आपको आत्मा का अनुभव हुआ, प्रमाण क्या है? प्रमाण चाहिए, वस्तुगत प्रमाण चाहिए। विज्ञान की प्रयोगशाला में प्रमाण चाहिए।

कोई प्रमाण नहीं है। प्रेम का कोई प्रमाण नहीं है। प्रार्थना का कोई प्रमाण नहीं है। समाधि का कोई प्रमाण नहीं है। परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। प्रमाण क्षुद्र के होते हैं, विराट के नहीं होते। प्रमाण बाहर की बातों के होते हैं, भीतर की बातों के नहीं होते। भीतर की बातें तो भीतर तुम अपने जाओगे तो जानोगे। यह तो बड़ी कठिन बात है। बुद्ध होओगे तब तुम जानोगे कि बुद्ध को जो मिला, वह सच मिला था। मगर इसके पहले तुम नहीं जान सकोगे। फिर मिलने के बाद जाना, तो जानने से सार क्या है? सार तो तब था कि जब दांव पर लगाना था तब पक्का प्रमाण हो जाता कि हां मिलता है, तो दांव लगाने में आसानी हो जाती है। फिर तुम दुकानदार होते तो भी दांव लगा देते।

जुआरी का मतलब है : ज्ञात को अज्ञात के लिए दांव पर लगाना; जो हाथ में है उसको उसके लिए दांव पर लगा देना, जो हाथ में नहीं है। समझदार तो कहते हैं : हाथ की आधी रोटी अच्छी। हाथ में तो है! पूरी रोटी दूर की, उससे तो आधी हाथ की रोटी अच्छी। जुआरी कहते हैं कि आधे से मन तो कभी भरेगा नहीं, एक बार लगा देना चाहिए। मिले तो पूरी मिले या पूरी जाए। इधर पूर्ण या उधर पूर्ण, किसी तरह पूर्ण हो जाए। या तो बिल्कुल पूरे नंगे हो जाएंगे, कुछ न बचेगा; या पूरे भर जाएंगे, सब कुछ मिल जाएगा।

जुआरी का मतलब होता है : या तो सब या कुछ भी नहीं। या तो शुन्‍य या पूर्ण।

सीतल पासा ढारि, दाव खेलो सम्हारी।

धनी धरमदास कहते हैं, जुआ तो खेलना होगा। संभाल कर खेलना। संभालने का मतलब यह होता है कि तैयारी से खेलना। दांव लगाने से पहले दांव लगाने योग्य अपने को बना लेना। दांव क्या लगाना है——अपने को ही दांव पर लगाना है। अपनी जरा कीमत बना लेना, तभी तो दांव पर लगाने का कुछ मजा होगा।

सारी साधनाएं तुम्हें मूल्य देती हैं कि एक दिन तुम अपने को दांव पर लगा सको। एक दिन तुम परमात्मा को कह सको : अब मैं आने को राजी हूं तुम्हारे चरणों में, मुझे स्वीकार कर लो! लेकिन स्वीकार होने के योग्य तो बनना होगा न! बिना स्वीकार होने के योग्य बने तुम्हें परमात्मा नहीं मिल सकेगा। पात्रता तो चाहिए न! तुम उसके चरण के पास पहुंच सको, इसकी पात्रता अर्जित करनी होगी। इसलिए कहते हैं : संभाल कर!

सीतल पासा ढारि……. और पांसा भी शील और संतोष का बना लो, तो ही दांव में जीतोगे। यह जुआ कोई साधारण जुआ नहीं है। यह पांसा भी कोई साधारण पांसा नहीं है। शील और संतोष, दो शब्दों का उपयोग किया है।

संतोष का अर्थ होता है: जो है, उससे मैं तृप्त हूं। जैसा है, उससे वैसा ही तृप्त हूं। इसमें मुझे कोई ज्यादा परेशानी नहीं है। मकान बड़ा हो कि धन ज्यादा हो कि पत्नी और सुंदर हो, कि पति और स्वस्थ हो, कि बेटा और बुद्धिमान हो, इन सब में मुझे ज्यादा रस नहीं है: जैसा है ठीक है। क्योंकि इसमें रस हो तो ऊर्जा इसी में लग जाती है। या तो बड़ा मकान बना लो, या बड़ी आत्मा बना लो। या तो बहुत धन इकट्ठा कर लो, या बहुत ध्यान कमा लो। दोनों एक साथ नहीं हो सकेंगे। तुम दोनों हाथ लड्डू नहीं कमा सकोगे; क्योंकि वही ऊर्जा है, चाहे धन कमाने में लग जाए, चाहे ध्यान जमाने में लग जाए।

तो बाहर की तरफ संतोष, ताकि सारी ऊर्जा भीतर की यात्रा पर लग जाए। संतोष और शील।

शील का अर्थ होता है : जीवन को ऐसे जियो कि जीवन एक कला हो, एक प्रसाद हो। लोग जीवन को ऐसे जी रहे हैं जिसमें न कोई कला है न कोई प्रसाद है, न कोई सौंदर्य—बोध है। लोग जीवन को बड़े आदिम ढंग से जी रहे हैं, अविकसित, असंस्कृत। अपने जीवन को संस्कार दो।

अब तुम देखो, संस्कार का क्या अर्थ होता है? और जैसे ही संस्कार में अंतर पड़ना शुरू होता है, चीजें बदलने लगती हैं। एक आदमी है जिसको फिल्मी संगीत ही संगीत मालूम होता है, जो कि संगीत है ही नहीं, सिर्फ शोरगुल है——और बेहूदा शोरगुल है! जिसके पास थोड़े भी संगीतपूर्ण कान हैं उसको लगेगा : यह कौन उपद्रव कर रहा है? यह क्या पागलपन हो रहा है? हुड़दंग है, जिसको तुम फिल्मी संगीत कहते हो और जिसके लिए लोग बैठकर बड़े दीवाने होकर सिर हिलाते हैं। इससे पता चलता है कि इन सिरों के भीतर कुछ भी नहीं है, भुस भरा है। नहीं तो यह संगीत है? और इनको अगर तुम शास्त्रीय संगीत में बिठा दो तो ये इधर देखते हैं कि यह हो क्या रहा है।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक शास्त्रीय संगीत—सभा में गया। एकदम सुनते ही रोने लगा। आख से आंसू झर—झर होने लगे। पास के आदमी ने पूछा कि नसरुद्दीन, तुम शास्त्रीय संगीत के इतने प्रेमी हो, इसका हमें पता नहीं था। उसने कहा कि प्रेमी! भाड़ में जाए शास्त्रीय संगीत! मैं तो इस संगीतज्ञ को देख कर रो रहा हूं।

उसने पूछा : मतलब?

उसने कहा : मतलब! यह जो कर रहा है आsssss आssss आsssss आsssss. .. ऐसे ही मेरा बकरा कर—करके मर गया था। यह मरेगा। यह बच नहीं सकता। इसका इलाज होना मुश्किल है। मेरे बकरे का भी नहीं हो सका था।

एक परिष्कार चाहिए। शास्त्रीय संगीत के लिए एक परिष्कार चाहिए। मगर तुम समझते हो? अगर शास्त्रीय संगीत को समझने की तुम में कला आ जाए तो तुम परमात्मा के ज्यादा निकट हो जाओगे, ध्यान के ज्यादा निकट हो जाओगे। तुम्हारे भीतर शील का जन्म होगा, क्योंकि जो उतने स्वरपूर्ण संगीत को रसमुग्ध होकर सुनेगा, वह स्वयं भी स्वरपूर्ण हो जाएगा। हम वही हो जाते हैं जो हम अपने भीतर आत्मसात करते हैं।

अब फिल्मी हुड़दंग को तुम संगीत समझ रहे हो? तो स्वभावत: तुम्हारे भीतर भी वही हुड़दंग हो जाएगी। शोरगुल को संगीत समझोगे, तो तुम्हारे भीतर कामुकता जगेगी, प्रार्थना नहीं जगेगी। वासना उभार लेगी, साधना नहीं।

इस देश में शास्त्रीय संगीत का जन्म हुआ था; वह अंग था शील का। वह संस्कार का अंग था। तुम क्या देखते हो, तुम क्या सुनते हो, तुम क्या बोलते हो, तुम क्या पढ़ते हो——उस सब का परिणाम होनेवाला है। तुम्हारी उत्सुकताएं क्या हैं? सुबह से उठकर तुम अखबार मांगते हो, या कि कृष्ण के अद्दत वचन भगवद्रीता पर नजर डालते हो, कि कुरान की प्यारी आयतें दोहराते हो, कि अखबार मांगते हो। अखबार मांगोगे तो दो कोड़ी की आत्मा हो जाएगी, दो कौड़ी का अखबार है। अखबार में पढ़ोगे क्या? यही कि कहां चोरी हुई, कि कहां डाका डाला गया, कि कहां हत्या हुई, कि कौन राजनेता बेईमान सिद्ध हो गया और कौन अभी सिद्ध होने को है आगे। क्या इकट्ठा करोगे? इसको लेकर दिनभर का पाथेय मिल गया! अब तुम चले दिनभर! और न केवल इतना कि तुमने यह कचरा सुबह से अपनी खोपड़ी में भर लिया, अब दिनभर तुम दफ्तर में, बाजार में, दूसरों के दिमाग में यही कचरा डालोगे।

तुम आदमी की बातें सुनकर समझ सकते हो, यह कौन—सा अखबार पढ़ता होगा। वही कचरा दोहराता है वह। कुरान की आयत की बात और है। जीसस के वचनों का सौंदर्य और है, कि गीता के वचन, कि उपनिषद के सूत्र!

थोड़ा परिष्कार दो अपने को, शील दो! धीरे—धीरे, धीरे—धीरे अपने को निखारो—— श्रेष्ठ के लिए, सुंदर के लिए। थोड़े मूल्यों में ऊंचे चढ़ो।

लोग बिल्कुल भौंहे हो गए हैं। उनके कपड़े भौंहे हो गए हैं। उनका उठना—बैठना भौंडा हो गया है। उनके साज—सिंगार भौंहे हो गए हैं। शील खो गया है। आज तय करना मुश्किल ही है कि कौन स्त्री वेश्या है और कौन स्त्री वेश्या नहीं है, सभी वेश्याओं जैसी हो गई हैं। सभी वैसी ही भौंडा श्रृंगार करके चल रही हैं, सभी बाजार में प्रदर्शन कर रही है।

एक शील चाहिए। क्यों? क्योंकि इसी पात्रता से तुम परमात्मा के करीब पहुंचोगे। दांव पर तो लगाओगे, लेकिन अर्थ तो पैदा करो! ले। दांव पर लगाने को तो कुछ होना चाहिए। कुछ मूल्य तो पैदा करो! कुछ कुछ संगीत जन्मने दो। कुछ छंद बंधने दो। तुम्हारा जीवन कुछ सार्थकता

सीतल पासा ढारि, दाव खेलो सम्हारी।

जीतौ पक्की सार, आव जनि जैहो हारी।।

जीत पक्की है, होनी ही है। तैयारी करके पूरे जाओ। और समय मत गंवाओ।… आव जनि जैहो हारी… अगर आयु ऐसे ही गंवा दी तो फिर हार निश्‍चित है। फिर हार ही जाओगे। कल पर मत टालो। समय को मत गंवाओ। एक—एक क्षण बहुमूल्य है, क्योंकि कौन जाने कल हो न हो, दूसरा क्षण आए न आए! प्रत्येक क्षण को ऐसा जियो कि जैसे यह आखिरी क्षण है। प्रत्येक क्षण को ऐसे जियो कि जैसे अब दूसरा क्षण नहीं होगा। हर रात जब सोओ तो आखिरी प्रार्थना करके सोओ। सब तरफ से अपने को समेट लो, संवार लो। इस तरह सोओ कि अगर आज की रात परमात्मा से साक्षात्कार हो और जिंदगी छूट जाए तो तुम उसकी आखों में आंखे डालकर देख सकोगे। तुम्हें अपराधी की तरह आख झुकाकर खड़ा नहीं हो जाना पड़ेगा। और अगर कल फिर सुबह हो तो फिर सुबह को ऐसा मानकर जियो, धन्यवाद उसका! फिर एक दिन और मिला! थोड़ा और निखार लूं! ऐसा निखारते—निखारते, ऐसा धीरे—धीरे पखारते—पखारते, तुम्हारे भीतर वह सौंदर्य पैदा हो जाता है। अनगढ़ पत्थर मूर्ति बन जाता है। तब चढ़ाने की योग्यता आ जाती है।

रामै राम पुकारिके लीनो नरक निवास।

लेकिन लोग राम को पुकारने में भी भौंहे हो गए हैं। वे समझते हैं कि बस राम नाम की चदरिया ओढ़ ली, कि हो गए, अब और क्या करना है? भीतर वही के वही। सब कूड़ा— करकट वही का वही, उसी में बीच में राम—राम भी दोहरा रहे हैं, एक माला जपने लगे। तुम देखते हो, दुकानों पर लोग बैठकर माला जपते रहते हैं। देखते रहते हैं, ग्राहक तो नहीं आया!

मैं एक गांव में रहता था। मेरे सामने ही एक मिठाईवाला था। वह सुबह से ही माला जपता रहता था। और बड़े भक्त! ”भगतजी” ही वे गांव में कहलाते थे। वे एक झोली में हाथ में दिनभर ही माला लिए रहते थे, उनकी माला सरकती ही रहती थी। मगर मैं उनकी भक्ति देखकर बड़ा हैरान होता था। कुत्ता आ गया, वह अपने नौकर को इशारा करेगा—— भगा! माला चल रही है, राम—राम चल रहा है, हाथ से इशारा करेगा——हटा! क्योंकि मिठाई की दुकान, कुत्ता भीतर आ जाए तो माला—वाला सब….। ग्राहक आ गया तो वह इशारा कर देगा आदमी को। दान तक का हाथ से इशारा कर देगा, और माला चल रही है, और राम—राम चल रहा है। उसके ओंठ निष्णात हो गए थे राम—राम दोहराने में। और छोटी—मोटी बात पर उसका लोगों से झगड़ा हो जाता था, तब वह गालियां देने में भी इतना ही कुशल था। उस गांव में ”भगतजी” से बड़ा गाली देनेवाला नहीं था। गालियां भी बड़ी छांटकर देते थे। राम—राम भी जपते थे।

जिस मन में गालियां भरी हैं, उसमें राम—राम का वास कैसे होगा? तुम नरक में राम को पुकार रहे हो! तुम जहर से भरे हुए पात्र में अमृत की आशा लगाए बैठे हो!

सुनो यह वचन, कठोर है। लेकिन समझना। रामै राम पुकारिके, लीनो नरक निवास। कितने ही लोग राम—राम पुकारते रहे और नरक में पड़े हैं। नरक में निवास ले लिया है——राम पुकार— पुकार कर! कठिन लगता है वचन, लेकिन सच है। ऐसा ही है। यह धोखा नहीं दिया जा सकता परमात्मा को। तुम क्या पुकारते हो, इसमें परमात्मा नहीं मिलता; तुम क्या हो, इससे परमात्मा मिलता है। तुम क्या कहते हो, इसका कोई मूल्य नहीं है——तुम क्या हो? तुम्हारी अंतर— ध्चनि होनी चाहिए राम की। तुम्हारी जीवनचर्या होनी चाहिए राम की। तुम्हारा व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि जगत् राम से भरा है, फिर तुम जिससे मिलो उसके प्रति भी तुम्हारा वही सम्मान होना चाहिए जैसा राम के प्रति होता है। जब सब में राम ही व्यास है तो बात बदल गई। तुम राम से ही घिरे हो, कैसे दुव्यवहार करोगे? कैसे दुर्वचन वचन बोलोगे? कैसे कठोर होओगे? कैसे गालियां बकोगे? कैसे निन्दा करोगे?

रामै राम पुकारिके लीनो नरक निवास।

मुड गडाए रहे जिव, गर्भ माहि दस मास।।

और बारबार गर्भ में पड़ना पड़ता है। गर्भ यानी गंदगी, मलमूत्र। उसमें सिर को गड़ाकर पड़े रहना पड़ता है दस महीने तक। और फिर निकलकर तुम फिर वही करने लगते हो जो तुमने पहले किया था।

कब बदलोगे? कब जीवन को नई धुन दोगे?

हीरा जन्म न बारंबार, समुझि मन चेत हो।

नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रकट भे मानुष—देही।

मनुष्य की देह मिली और पुण्य का तुम्हें स्वाद ही नहीं है। तुमने जाना ही नहीं कि पुण्य क्या है। पाप ही जाना, बुराई ही जानी; भलाई का तुम्हें कोई अनुभव नहीं। तुम कहोगे: नहीं, ऐसा नहीं। कुछ—कुछ कभी—कभी भला भी करते हैं। राह पर भिखमंगे को कभी कुछ दो पैसे भी दे देते हैं। और कभी मंदिर में दान भी करते हैं। और कभी व्रत—उपवास भी करते हैं।

लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि धनी धरमदास ठीक कह रहे हैं : तुमने पुण्य नहीं जाना। राह पर तुम जब भिखारी को दो पैसे भी देते हो तब भी तुम्हें देने में आनंद नहीं है। तुम भिखारी को सम्मान से भी नहीं देते हो। तुम भिखारी को राम मानकर भी नहीं देते हो। तुम्हारे देने के कारण कुछ और हैं, हेतु कुछ और हैं। देखते हो, अगर भिखारी रास्ते पर अकेला मिल जाए और कोई न हो रास्ते पर, तो तुम नहीं देते। बीच बाजार में भिखारी पकड़ लेता है। इसलिए भिखारियों को बाजार में खड़े रहना पड़ता है। एकांत में तो तुम उनको दुत्कार देते हो कि ” चल आगे बढ़ ”! भाग यहां से! भला—चंगा शरीर, तुझे क्या करना है मांग कर? ” हजार उपदेश दे देते हो। लेकिन भीड़ में, बाजार में, दुकानदार जहां सब देख रहे हैं, जहां तुम्हारी प्रतिष्ठा का सवाल है, एक भिखारी आकर तुम्हारा पैर पकड़ लेता है, वहां तुम्हें दो पैसे देने पड़ते हैं, तुम देते नहीं। देने पड़ते हैं, क्योंकि दो पैसे में यह प्रतिष्ठा मिल रही है बाजार में कि आदमी बड़ा दानी है, धार्मिक है, भला आदमी है। इसके लाभ हैं। यह तुम सच पूछो तो धंधा ही कर रहे हो। कुछ फर्क नहीं है इसमें। लोग देख रहे हैं कि आदमी देनेवाला है, दयालु है। ये दो पैसे की जगह तुम चार पैसे किसी की जेब से जल्दी काट लोगे, क्योंकि लोग तुम पर ज्यादा भरोसा करेंगे। लोग तुम्हें भला समझेंगे तो भरोसा करेंगे। ये तुमने दो पैसे दिए नहीं, धंधे में लगाए। यह इनवेस्टमेंट है। अकेले में तो तुम उसे हटाते हो, भिखमंगे को। ये तुमने भिखमंगे को दिए ही नहीं। ये तुमने दुकान में ही लगाए। यह दुकान का ही फैलाव है। यह अच्छा विज्ञापन हुआ—— दो पैसे में धार्मिक, दयालु, पुण्यात्मा होने की खबर पहुंच गई गांव में। या अगर तुम कभी भिखारी को देते भी हो तो इस आशा में कि स्वर्ग मिलेगा।

मैंने सुना है, एक आदमी मरा। अकड़ से स्वर्ग में प्रवेश किया। द्वारपाल ने पूछा कि भाई, बड़े अकड़ से आ रहे हो, मामला क्या है? क्या पुण्य इत्यादि किए हैं? क्योंकि पुण्य इत्यादि करनेवाले अकड़ से जाते हैं।

उसने कहा कि तीन पैसे मैंने दान दिए हैं। खाते—बही खोले गए। तीन ही पैसे का मामला था कुल। हेडक्लर्क ने सब देखा— दाखा। उसने अपने असिस्टेंट क्लर्क से पूछा कि भाई क्या करें, तीन पैसे इसने दिए जरूर हैं, लिखे हैं। उसके असिस्टेंट ने कहा : इसको तीन पैसे के चार पैसे ब्याज—सहित वापस कर दो और भेजो नरक। है यह नरक के योग्य ही। तीन ही पैसे दिए और ऐसे अकड़कर आ रहा है जैसे तीन लोक दे दिए हों।

हम दे ही क्या सकते हैं? जो भी हम दे सकते हैं वह तीन ही पैसे का है। खयाल रखना। कहानी को ऐसे ही मत समझ लेना कि तीन ही पैसे दिए तो क्या अकड़ना था! कोई तीन लाख देता, तीन लाख भी तीन ही पैसे हैं। परमात्मा के समक्ष तुम तीन लाख दो कि तीन करोड़ दो, इससे क्या फर्क पड़ता है? इस जगत् की संपदा ही दो कोड़ी की है। सारी संपदा दो कौड़ी की है। इसमें अकड़। 8 लेकिन, लोग सोचते हैं कि स्वर्ग मिल जाएगा। वह भी धंधा है। इस दुनिया में भी दुकान चलाते हैं, वे उस दुनिया में भी दुकान चलाना चाह रहे हैं। पुण्य का तुम्हें पता ही नहीं।

पुण्य का क्या अर्थ होता है? अकारण, आनंद— भाव से किया गया कृत्य। प्रेम से किया गया कृत्य। जिसके पीछे लेने की कोई आकांक्षा ही नहीं है। धन्यवाद की भी आकांक्षा नहीं है। कोई पानी में डूबता था, तुम दौड़कर उसे निकाल लिए, फिर खड़े होकर यह मत राह देखना कि वह धन्यवाद दे, कि कहे कि आपने मेरा जीवन बचाया, आप मेरे जीवनदाता हो! इतनी भी आकांक्षा रही तो पुण्य खो गया।

तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद

तुमने अपने आनंद से बचाया, बात समात हो गयी। तुमने किसी को अपने आनंद से दिया। इसलिए जब तुम किसी को कुछ दो तो देने के बाद धन्यवाद भी देना कि तूने स्वीकार किया। तू इनकार भी कर सकता था।

देखते हो, इस देश में एक परंपरा है——दान के बाद दक्षिणा देने की! वह बड़ी अतूत परंपरा है। वह बड़ी प्यारी परंपरा है। ” दक्षिणा ” का मतलब क्या होता है? दक्षिणा का मतलब होता है : तुमने हमारा दान स्वीकार किया, इसका धन्यवाद। जिसको दिया है वह धेन्यवाद दे, इसकी आकांक्षा है ही नहीं; जिसने दिया है वह धन्यवाद दे कि तुमने स्वीकार कर लिया हमारे प्रेम को; दो कौड़ी थी हमारे पास, तुमने स्वीकार कर लिया, इतने प्रेम से, इतने आनंद से——तुमने हमें धन्यभागी किया, तुमने हमें पुण्य का थोड़ा स्वाद दिया।

पुण्य का कोई भविष्य, फलाकांक्षा से संबंध नहीं है। पुण्य का तो स्वाद अभी मिल जाता है, यहां मिल जाता है।

नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रकट भे मानुष—देही।

मनुष्य का जीवन मिला और पुण्य का पता न चला, तो सार क्या है? जो तुम कर रहे हो, वह तो पशु भी कर लेते हैं, पशु भी कर रहे हैं। इसमें तुम्हें भेद क्या है? तुम अपनी जिंदगी को कभी बैठकर जांचना, तुम जो कर रहे हो, इसमें और पशु के करने में भेद क्या है? तुम रोटी— रोजी कमा लेते हो, तो तुम सोचते हो कि पशु नहीं कर रहे हैं? तुम से ज्यादा बेहतर ढंग से कर रहे हैं, मजे से कर रहे हैं। तुम बच्चे पैदा कर लेते हो, तुम सोचते हो कि कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हो। इस देश में ऐसे ही समझते हैं लोग। बड़े अकड़कर कहते हैं कि मेरे बारह लड़के हैं। जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हो! अरे, मच्छरों से पूछो! हिसाब ही नहीं संख्या का। कीड़े—मकोड़े कर रहे हैं। तुम इसमें क्या अकड़ ले रहे हो? बारह बेटे कौन—सा मामला बड़ा? और मुसीबत बढ़ा दी दुनिया की। एक बारह उपद्रवी और पैदा कर दिए। ये घिराव करेंगे, हड़ताल करेंगे और झंझट खड़ी करेंगे। लेकिन लोग सोचते हैं कि बच्चे पैदा कर दिए तो बड़ा काम कर दिया; मकान बना लिया तो बड़ा काम कर दिया। पशु—पक्षी कितने प्यारे घोंसले बना रहे हैं! उनके लायक पर्याप्त हैं।

तुम जरा सोचना। क्रोध है, काम है, लोभ है, मद, मोह, मत्सर, सब पशुओं में है! फिर तुममें मनुष्य होने से भेद क्या है? तो एक ही बात की बात कह रहे हैं धरमदास कि पुण्य का स्वाद हो, तो तुम मनुष्य हो, तो मनुष्य होने में कुछ भेद पड़ा। इसे खयाल रखना।

अरस्तु ने कहा है: आदमी का भेद यह है कि आदमी में बुद्धि है, विचार है।

हम यह नहीं कहते, क्योंकि विचार तो पशुओं में भी है; थोड़ा कम होगा, मात्रा कम होगी, मगर विचार है। तुम्हारा कुत्ता भी विचार करता है। जब तुम आते हो तो पूंछ हिलाता है। तुम उसे मार भी दो तो भी पूंछ हिलाता है। बड़ा राजनीतिज्ञ है, होशियार है। कूटनीति जानता है कि पूंछ तो हिलानी ही चाहिए।

और कभी — कभी तुमने कुत्ते को देखा! वह सदिंग्‍ध भी होता है कभी — कभी, तो भौंकता भी है, पूंछ भी हिलाता है। दुविधा में है कि मतलब करना क्या? इस वक्त ठीक करना क्या? तो दोनों ही काम कर रहा है कि फिर जो ठीक होगा, वह चलने देंगे; जो ठीक नहीं होगा, वह बंद कर देंगे। अजनबी आदमी आता है तो भौंकता भी है। देखता है, मालिक की त रफ कि मालिक क्या कहता है। पूंछ भी हिलाता है। अगर मालिक प्रेम से बुलाता है अजनबी को, हा थ हिलाता है, भौंकना बंद कर देता है, पूंछ हिलाता रहता है। अगर मालिक हा थ नहीं जोड़ता, नमस्कार नहीं करता, पूंछ हिलना बंद हो जाती है, भौंकना शुरू हो जाता है। कुत्ता भी सोच रहा है, हिसाब लगा रहा है।

चमचागीरी कुत्तों से ही नेताओं ने और नेताओं के चमचों ने सीखी है। कहां से सीखेंगे और? प्रशु — पक्षी भी हिसाब कर रहे हैं, सोच रहे हैं। और कभी — कभी तो बड़ा लंबा हिसाब करते हैं। साइबेरिया में पक्षी रहते हैं। जब वहां सर्दी हो जाती है, तब वे हजारों मील की यात्रा करके उन्हीं तटों पर फिर आ जाते हैं जिन पर पिछले वर्ष आए थे, उनके बाप — दादे आते रहे थे। और हजारों मील की यात्रा फिर पूरी करते हैं, जब बर्फ पिघल जाती है। और बड़ा मजे का मामला है। वे इतने फासले पर होते हैं कि उनको पता भी नहीं हो सकता कि बर्फ कब पिघलेगी, और कभी — कभी बर्फ एक महीने बाद पिघलती है तो वे एक महीने बाद लौटते हैं। और कभी — कभी बर्फ जल्दी जमने लगती है तो वे जल्दी लौट आते हैं। हजारों मील दूर से! वैज्ञानिक कहते हैं कि उनके पास जानने का कोई संवेदन श सा धन है। कोई भीतर करीब — करीब जैसे रेडियो यंत्र जैसी उनके पास कोई सुविधा है कि वे जानते हैं। हिसाब से चलते हैं। अब इतने बड़े आका श में हजारों मील की यात्रा करनी, दि श क खयाल रखना! उनके पास दिश — सूचक यंत्र नहीं है। हवाई जहाज के पाइलट को, हजारों यंत्र हैं उसके पास, सुविधा के लिए। उनके पास कोई यंत्र नहीं है, मगर कभी भूलचूक नहीं होती। उन्हीं तटों पर लौट आते हैं। उन्ही श थानों पर वापस लौट जाते हैं।

मछलियां हजारों मील की यात्रा करती हैं, उन्हीं तटों पर आ जाती हैं। फिर लौट जाती हैं, अपनी जगह वापस लौट जाती हैं। इस पर प्रयोग किए गए हैं और बड़ी हैरानी हुई। एक मछली की जाति है, जो अंडा देने इंग्लैंड आती है, क्योंकि बाप — दादो से वही चलता रहा। परंपरावादी है। इसलिए तो मैं रूढ़िवादी को आदमी नहीं मानता। अब वह अंडे वहीं दे सकती है। कैनेडा के पास रहने लगी है अब। वहां का वातावरण अनुकूल पड़ा है उसे। मगर सदियों से उसके मां — बाप रहे थे… प्राचीन रूप से वह इंग्लैंड के किनारे की मछली है। अब वहां नहीं रहती, मगर अंडे तो बाप — दादे वहीं देते रहे थे। तो अब भी आती है। अंडा रखने के पहले, कई दिनों पहले उसे यात्रा शुरू कर देनी पड़ती है कि अब अंडा रखने का वक्त आ गया। और अंडे रखकर वापस चली जाती है। और तुम चकित होओगे जानकर कि अंडे तो मां रख कर चली जाती है; अंडों से जो बच्चे होते हैं वे कैनेडा की तरफ यात्रा शुरू कर देते हैं। उनको तो कोई बतानेवाला भी नहीं था। मां जा ही चुकी थी। मगर वे कैसे चले कैनेडा की तरफ? इनको कौन कह रहा है? इतनी बड़ी दुनिया में यह हिसाब कैसे चल रहा है?

नहीं, अरस्तु का कहना ठीक नहीं कि मनुष्य की यह विशिष्टता है——विचार करना। विचार तो सारे जगत् में छाया हुआ है। मनुष्य की अगर कोई विशिष्टता होती है तो निर्विचार हो सकती है, विचार नहीं हो सकता। ध्यान हो सकता है, पुण्य हो सकता है। पुण्य का भाव सिर्फ मनुष्य में है।

नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रकट भे मानुष—देही।

मन बच कर्म सुभाव, नाम सों कर ले नेही।।

कहते हैं : मन से, वचन से, कर्म से स्वाभाविक हो जाओ, यही पुण्य है। सरल हो जाओ और फिर तुम्हारा प्रभु के नाम से अपने—आप नेह बन जाएगा।

लख चौरासी भर्मिके, पायो मानुष—देह।

सो मिथ्या कस खोवते झूठी प्रीति— सनेह।।

इतनी कठिनाइयों से पाई यह परम — देह, यह पुण्य — देह, और इसे व्यर्थ की बातों में खो रहे हो! सो मिथ्या कस खोवते झूठी प्रीति— सनेह। और व्यर्थ के प्रेम में लगे हो!

और लोगों के प्रेम भी खूब अजीब हैं! कोई कहता है, मुझे मेरी कार से बहुत प्रेम है। कोई कहता है, आईसक्रीम से बहुत प्रेम है। किसी को कपड़ों से बहुत प्रेम है।

अभी एक महिला आई। उसके पति ने तो संन्यास लिया। मैने उससे पूछा कि तू क्यों बैठी है, जब पति संन्यास में जा रहे हैं? उसने कहा : अब आपसे क्या झूठ बोलना, मुझे साड़ियों से बहुत प्रेम है। अभी मेरा मन नहीं भरा।

कैसे— कैसे प्रेम लोग लगाकर बैठे हैं! प्रेम लगाना हो, परमात्मा से लगाओ।

…..झूठी प्रीति— सनेह। बालक बुद्धि अजान… जीवन की पूरी कथा को बांटते हैं धरमदास।

बालक बुद्धि अजान, कछू मन में नहीं आने।

बचपन होता है। अज्ञान के क्षण होते हैं। सरलता के भी, निर्दोषता के भी। कुछ भी मन में विकार नहीं होते।

खेलै सहज सुभाव, जहीं आपन मन माने।।

——सहजता से बच्चा जीता है।

अधेर कलोले होए रह्यो ना काहू का मान।

——न कोई अहंकार है।

भली बुरी न चित धरे बारह बरस समान।। और भले — बुरे में भी कुछ भेद नहीं होता बच्चे को। अभी द्वंद्व पैदा नहीं हुआ। और सब को समान देखता है। अभी गरीब — अमीर में भेद नहीं है। अभी अपने — पराए में भेद नहीं है। यह पहली द श है बचपन। और यही अंतिम द श प्र होनी चाहिए, तो मनुष्य ने अपने जीवन का वर्तुल पूरा कर लिया। तो उसने हीरा — जन्म व्य र्थ नहीं खोया। चक्र पूरा हो गया। जैसे पैदा हुए थे सरलचित्त, स्वा भाविक, सहज, वैसे ही मरते वक्त पुन : हो जाओ।

——बस यही धेर्म है।

जीसस ने कहा है : जब तक तुम छोटे राज्य में प्रवेश न कर सकोगे।

जोवन रूप अनूप, मसी ऊपर मुख छाई।

फिर आती है जवानी, मसें भीग जाती है, मूछों की रेख निकलने लगती है।

अंग सुगंध लगाय सीस पगिया लटकाई।।

फिर आदमी अपने को संवारता है, सजाता

अंध भयो सूझै नहीं…। और बच्चों की भांति न हो जाओ, मेरे परमात्मा के पास जो आंखें थीं, वे खो जाती हैं। वह निर्दोष सरलता विदा हो जाती है।

अंध भयो सूझै नहीं, फूटि गई हैं चार।… और बाहर की दो फूटती हैं, वह तो ठीक ही है; भीतर की भी दो फूट जाती हैं। चारों आंखें फूट जाती हैं।

झटकै पड़ै पतंग ज्यों…। जैसे पतंगा हर दीए की लौ पर झपट पड़ता है… देखि बिलनी नार… ऐसे हर स्त्री को देखकर जवान आदमी दीवाना होने लगता है; या स्त्री जवान आदमी को देखकर दीवानी होने लगती है। एक नशे की दुनिया शुरू होती है। एक मादकता की दुनिया शुरू होती है। एक श श में, मन में फैलने लगती है।

जोवन जोर झकोर, नदी उर अंतर बाढ़ी।

संतो हो हुसियार, कियो न बाहू गाढ़ी।।

धरमदास कहते हैं.: यह मौका है होशियार होने का। क्यों? क्योंकि इस समय ऊर्जा का बड़ा प्रवाह है। इस समय शक्ति जगी है। यही शक्ति मोह बन सकती है। यही शक्ति महत्वाकांक्षा बन सकती है। यही शक्ति आसक्ति बन सकती है। यही शक्ति ध्यान बन सकती है, वीतरागता बन सकती है।

जवानी बड़ा अहत क्षण है! चाहो तो लगा दो संसार की व्यर्थ बातों में और भटक जाओ। और चाहो तो परमात्मा की यात्रा पर निकल जाओ। इस ऊर्जा पर सवार होकर बड़ी यात्रा हो सकती है।

जोवन जोर झकोर, नदी उर अंतर बाढ़ी।

यह जो उफान उठ रहा है, यह जो प्रेम का तूफान उठ रहा है, इसे अगर क्षुद्र पर बिखरा दिया तो व्यर्थ हो जाएगा। इसे अगर विराट पर लगा दिया.. परमात्मा को। अगर प्रेम ही करना हो तो अगर प्रेयसी ही खोजना हो तो परमात्मा में।

संतो हो हुसियार, कियो न बाहू गाढ़ी।

दे गजगीरी प्रेम की को दसो दुआर।।

प्रेम का तूफान उठ रहा है, दसों द्वार मूद दो। सारी इंद्रियों के, कर्मेदियों के, ज्ञानेंद्रियों के, होकर ऊपर उठने लगे; फैले दसों इंद्रियों के द्वार मूंद दो, ताकि यह प्रेम की ऊर्जा इकट्ठी होकर ऊपर उठने लगे; फैले न बिखरे न यहां वहां न पड़े, रेगिस्‍तान में खो जाए संसार के।

यह ऊर्जा भीतर इकट्ठी हो, इसकी बाढ़ भीतर बांध की तरह बढ़ने लगे, तो ऊपर उठेगी।

तुमने देखा, एक नदी पर बांध बांध देते हैं, तो फिर गहराई बहुत बढ़ जाती है। जो नदी पहले आगे की तरफ भाग रही थी दसों दिशाओं में, यहां—वहां जा रही थी, वह इकट्ठी हो जाती है। और नदी का जल ऊपर की तरफ उठने लगता है। जल ऊपर की तरफ उठने लगता है, यही परमात्मा से मिलने का उपाय है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर की जीवन—ऊर्जा भी ऊपर की तरफ उठ सकती है, ऊर्ध्चगमन हो सकता है। छेद रोक दो।

हम ऐसे हैं जैसे फूटी बाल्टी से कोई पानी भरता हो कुएं से। भर तो जाता है हर बार, मगर जब तक खींचते हैं, ऊपर घाट तक आता है, तब तक सब गिर जाता है। छेद ही छेद हैं। हमारी सारी इंद्रियां छिद्र हैं।

दे गजगीरी प्रेम की को दसो दुआर।

वा साईं के मिलन में तुम जनि लावो बार।।

देरी मत करो। उस साईं से मिलने का कोई अवसर मत खोओ। सारा प्रेम उसी पर समर्पित कर दो।

वृद्ध भए पछिताए, जबै तीनों पन हारे।

भई पुरानी प्रीति, बोल अब लागत प्यारे।।

लचपच दुनिया है रही, केस भए सब सेत।

बोलत बोल न आवई, लूटि लिए जम खेत।।

नहीं तो पीछे पछताओगे। और फिर पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गईं खेत! और जब जीवन की सारी ऊर्जा नष्ट हो गई और जीवन के सारे अवसर खो गए और जब तुम गिरने लगे कब्र में अपनी, फिर पछताने से भी क्या होगा? समय रहते जाग जाओ!

वृद्ध भए पछिताए…….। बूढा होकर हर आदमी पछताता है। सिर्फ वे ही नहीं पछताते, जिन्होंने जीवन का सम्य? उपयोग कर लिया है। वे तो बड़े धन्यभाव से भरे होते हैं। और जब भी कोई व्यक्ति अपनी वृद्धावस्था में धन्यभाव से भरा होता है, तब जानना उसने बाल धूप में नहीं पकाए; नहीं तो शेष सबने धूप में ही पकाए हैं। जब कोई वृद्ध आतरिक गरिमा से भरा होता है; जीवन को जान लिया, जी लिया, पहचान लिया, बुरा — भला सब देख लिया, समझ लिया, सबसे गुजर कर देख लिया, कांटे और फूल सब अनुभव कर लिए, सुख — दु:ख, रात — दिन, शीतताप, सब द्वंद्वों से गुजर चुका और इन द्वंद्वों से गुजरकर धीरे— धीरे एक बात साफ हो गई कि मैं केवल साक्षी हूं, मैं केवल द्रष्टा हूं, मैं सिर्फ देखने वाला हूं, न मैं कर्ता हूं, न भोक्ता हूं—— बस, ऐसी घड़ी में वृद्धावस्था का जैसा सौंदर्य है वैसा किसी अवस्था का नहीं होता।

यह अकारण नहीं है कि इस देश में हमने वृद्धों को बड़ी पूजा दी और सम्मान दिया। उसका कारण यही था। हमने ऐसे वृद्ध देखे हैं, जो जवानी से ज्यादा बड़े सौंदर्य को उपलब्ध हुए थे। हमने ऐसे वृद्ध जाने हैं जिनका वार्द्धक्य मृत्यु का सूचक नहीं था—— परम जीवन का प्रतीक था। नहीं तो वृद्ध को कोई कैसे सम्मान देगा? वृद्ध तो मर रहा है, सह रहा है, गल रहा है। वृद्ध से तो हम छुटकारा चाहते हैं, पूजा की बात कहां! मौत की कोई पूजा करता है? नहीं; लेकिन हमने ऐसे वृद्ध देखे, जो मर नहीं रहे थे —— जो मृत्यु के पार चले गए थे; जो मरने के पहले अमृत का अनुभव कर लिए थे। और तब एक सौंदर्य, एक प्रसाद उतरता है। उसके सामने बच्चे का निर्दोषपन सिर्फ अज्ञान है; जवानी का सौंदर्य सिर्फ देह का है। वृद्ध के पास आत्मा का सौंदर्य पैदा हो जाता है और, सच, वास्तविक निर्दोषता उत्पन्न होती है।

बच्चे की निर्दोषता तो ऐसी है, जो आज नहीं कल खोएगी ही। अज्ञानवश है। वृद्ध की निर्दोषता ज्ञान के आधोर पर खड़ी होती है, फिर खो नहीं सकती। बच्चे ने कमाई नहीं है सरलता, जन्म से मिली है। जल्दी ही समाप्त हो जाएगी। बच्चे को भटकना ही होगा। बच्चे को अपनी निर्दोषता छोड़नी ही होगी। उसके बचाने का कोई उपाय नहीं है। वृद्ध पुन : लौट आया अपने बचपन में, दूसरा जन्म हुआ। वृद्ध द्विज हुआ। और जब कोई वृद्ध द्विज हो जाता है, दुबारा जन्म ले लेता है —— तभी ब्राह्मण।

सब शुद्र की तरह पैदा होते हैं और सभी को ब्राह्मण की तरह मरना चाहिए। कोई जन्म से ब्राह्मण नहीं होता। हो ही नहीं सकता। वह दस महीनों की याद करो : मुड़ गडाए रहे जिव, गर्भ माहि दस मास!

शुद्र का अर्थ होता है : अज्ञानी। देह को ही समझता है—— यह मैं हूं। जिसे अपने चैतन्य का कोई पता नहीं। जिसे अभी सुधि नहीं आई है। जो अभी जागा नहीं है।

ब्राह्मण का अर्थ होता है : जिसने जागा, देखा पहचाना और पाया कि मैं ब्रह्म हूं। अहं ब्रह्मास्मि!

सभी शुद्र की तरह पैदा होते हैं और दुर्भाग्य की बात है कि अधिकतर लोग शुद्र की तरह ही मरते हैं। कभी— कभार कोई ब्राह्मण की तरह मरता है कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कबीर।

लेकिन हर—एक का अधिकार है, जन्म—सिद्ध अधिकार है। तुम चाहो तो यह तुम्हारी मालकियत है। तुम चाहो तो यह तुम्हारा स्वरूप में ही निर्धारित, स्वरूप से ही निर्धारित अधिकार है। इसको कोई छीन नहीं सकता। लेकिन फिर तुम्हें बुढापे को वैसा ही बना लेना होगा जैसा बचपन था।

और बुढापे को अगर बचपन जैसा बनाना हो तो जवानी में ही क्रांति करनी पड़ती है। तुम बुढापे के लिए बैठे मत रह जाना, क्योंकि तब ऊर्जा खो जाएगी। जिस ऊर्जा को तुमने संसार में लगाया है वही तो ऊर्जा है तुम्हारे पास। उसी से परमात्मा को खोज सकते थे। उस ऊर्जा की तो नाव बना ली नरक जाने के लिए, फिर तुम्हारे पास बचेगा क्या?

वृद्ध भए पछिताए…। और जब कुछ नहीं बचता, सब ऊर्जा गई, सब जीवन गया, अवसर गया, तो पछतावा हाथ लगता है।… जब तीनों पन हारे। बचपन भी खो गया, जवानी भी खो गई। अब बुढापा भी जा रहा है। अब सिर्फ मौत बची। अब सिर्फ अंधकार बचा। पछतावा न घेरेगा तो क्या होगा?

भई पुरानी प्रीति बोल अब लागत प्यारे।… अब तो आदमी लौट—लौट कर पुराना सोचने लगता है। बूढे हमेशा पीछे की सोचने लगते हैं, जवानी की याद करते हैं, बचपन की याद करते हैं। वे प्यारे दिन! अब उनके पास कुछ भविष्य नहीं बचा। अब थोथी संपदा रह गई है स्मृति की। अब उसी की उलट—पलट करते रहते हैं।

जिस दिन से तुम पुराने की याद करने लगो, समझना कि बूढे होने लगे। जिस दिन से तुम कहने लगो——”आह। वे प्यारे दिन! वे दिन जब दही—दूध की नदियां बहती थीं! वे दिन, जब घी ऐसा बिकता था और गेहूं ऐसा बिकता…! वे दिन। ”—— जब तुम पुराने दिनों की बात करने लगो रसपूर्ण ढंग से, समझ लेना तुम बूढे हो गए।

जवान भविष्य की बातें करता हैं; बूढा अतीत की बातें करता है। बच्चा वर्तमान में जीता है। अगर बुढापे में तुम अतीत की बातें करो तो सांसारिक बूढे; और अगर भविष्य की बातें करने लगो कि स्वर्ग मिलेगा, क्योंकि मैंने इतना पुण्य किया, मंदिर बनवाया, धर्मशाला भी चलवा दीं, प्याऊ खुलवा दी——तो तुम आध्यात्मिक किस्म के जवान, मगर अभी तुम्हारा लोभ नहीं गया। अभी तुम स्वर्ग में आशा कर रहे हो कि ”अप्सराएं मिलेंगी और शराब के चश्मे मिलेंगे। और वहां कोई मद्यनिषेध थोड़े ही है। वहां तो अभी भी चश्मे बह रहे हैं शराब के, ” मजे से पिएंगे। और फिर यहां हमने इतनी कम पी है और इतने कम बुरे काम किए और अच्छे काम किए, इनका फल तो मिलना ही चाहिए! बैठेंगे कल्पवृक्षों के नीचे और मजा ही मजा करेंगे। ” यह आध्यात्मिक किस्म का बूढा। मगर ये दोनों ही बातें गलत हैं।

वास्तविक जीवन की संपदा तब मिलती है, जब वृद्ध फिर बच्चा हो गया और वर्तमान में जीने लगा। अब न कोई अतीत है, न कोई भविष्य है। अब न कोई स्मृति है और न कोई कल्पना है। ऐसी घड़ी में ही व्यक्ति वर्तमान के द्वार से प्रवेश करता है और कालातीत को उपलब्ध हो जाता है। उस कालातीत का नाम ही परमात्मा है, मोक्ष है।

साक्षी बनो! अन्यथा यह जीवन——हीरा जन्म——ऐसे ही चला जाएगा।

झलक तुम्हारी मैंने पाई सुख—दुःख

ललक गया मैं सुख की बांहों में

जब—जब उसने चुमकारा।

औ ललकारा जब—जब दुःख ने

कब मैं अपना पौरुष हारा;

आलिंगन में प्राण निकलते।

खड्ग तले जीवन मिलता है;

झलक तुम्हारी मैंने पाई सुख—दुःख दोनों की सीमा पर।

सब सुख का बलिदान, तुम्हारे

पांवों की आहट अब आती

सब दुःख का अवसान, तुम्हारी

मूर्ति नयन में ढलती जाती,

जहां न सुख है जहां न दुःख है,

तुम हो एक——दूसरा मैं हूं,

जीभ तीसरी जो गाती है ऐसे क्षण को गीत बनाकर!

झलक तुम्हारी मैंने पाई सुख—दुःख दोनों की सीमा पर।

सुख—दुःख की सीमा पर साक्षी का जन्म है। सुख—दुःख के ठीक मध्य में! न मैं सुख हूं, न मैं दुःख हूं। न मैं देह हूं, न मैं मन हूं। न मैं यह हूं, न मैं वह हूं। नेति—नेति। वहीं साक्षी का आविर्भाव है। और जो साक्षी हो जाता है, केवल वही पछताता नहीं, शेष सब पछताते हैं।

हीरा जन्म न बारंबार, समुझि मन चेत हो।

आज इतना ही।


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ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍हीं चदरिया–(पंच महाव्रत) प्रवचन–5

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अप्रमाद—(प्रवचन—पांचवां)

 5 सितंबर 1970,

षणमुखानंद हाल, मुम्‍बई

मेरे प्रिय आत्मन्,

मनुष्य एक सात मंजिला मकान है, ए सेवन-स्टोरी हाउस, लेकिन हम एक मंजिल में ही जीते और मर जाते हैं। पहले उन सात मंजिलों के नाम आपको समझा दूं। जिस मंजिल में हम जीते हैं, उस मंजिल का नाम कांशस, चेतन है। उस मंजिल के ठीक नीचे दूसरी मंजिल है, जो तलघरे में है, जमीन के नीचे है, अंडरग्राउंड है। उस मंजिल का नाम है अनकांशस, अचेतन। उस मंजिल के भी और नीचे पाताल की तरफ तीसरी मंजिल है, उसका नाम है कलेक्टिव अनकांशस, समष्टि अचेतन। और उसके नीचे भी एक चौथी मंजिल है, और भी नीचे, सबसे नीचे, उस मंजिल का नाम है, कॉस्मिक अनकांशस, ब्रह्म-अचेतन। जिस मंजिल पर हम रहते हैं उसके ऊपर भी एक मंजिल है, उस मंजिल का नाम है सुपर-कांशस, अति-चेतन। उसके ऊपर एक मंजिल है जिसको कहें कलेक्टिव कांशस, समष्टि चेतन। और उसके भी ऊपर एक मंजिल है जिसे कहें काॅस्मिक कांशस, ब्रह्म-चेतन। जहां हम हैं उसके ऊपर तीन मंजिलें हैं और उसके नीचे भी तीन मंजिलें हैं। यह मनुष्य का सात मंजिलों वाला मकान है। लेकिन हममें से अधिक लोग चेतन मन में ही जीते और मर जाते हैं।

आत्मज्ञान का अर्थ है, इस पूरी सात मंजिल की व्यवस्था से परिचित हो जाना। इसमें कुछ भी अपरिचित न रह जाये, इसमें कुछ भी अनजाना न रह जाये। क्योंकि इसमें यदि कुछ भी अनजाना है तो मनुष्य अपना मालिक, अपना सम्राट कभी भी नहीं हो सकता। जो अनजाना है वही उसकी गुलामी है। वह जो अज्ञात है, वह जो अंधकार पूर्ण है, वही उसका बंधन है। वह जो नहीं जाना गया, वह नहीं जीता गया है। अज्ञान ही हार है और ज्ञान ही विजय की यात्रा है।

इस सात मंजिल के भवन में हम सिर्फ एक मंजिल को जानते हैं जिसमें हम अपने को पाते हैं, जहां हम हैं। इस मंजिल में ही जीते रहने का नाम प्रमाद है। इस मंजिल में ही बने रहने का नाम प्रमाद है। प्रमाद का अर्थ है–मूर्च्छा । प्रमाद का अर्थ है–बेहोशी। प्रमाद का अर्थ है–निद्रा। प्रमाद का अर्थ है–तंद्रा। प्रमाद का अर्थ है–सम्मोहित अवस्था, हिप्नोसिस। हम इस एक मंजिल से इस तरह हिप्नोटाइज हो गये हैं, हम इस एक मंजिल से इस तरह सम्मोहित हो गये हैं कि हम इधर-उधर देखते ही नहीं। हमें पता भी नहीं चल पाता है कि हमारे व्यक्तित्व में, हमारे जीवन में, हमारे होने में और भी बहुत फैलाव है।

साधना का अर्थ है, इस प्रमाद को तोड़ना, इस मूर्च्छा को तोड़ना। स्वभावतः इसे मूर्च्छा क्यों कहें? इसे प्रमाद क्यों कहें? एक आदमी के पास सात मंजिल का मकान हो और वह एक ही मंजिल में रहता हो और उसे दूसरी मंजिलों का पता न चले तो हम क्या कहेंगे? क्या वह आदमी जागा हुआ है? यदि वह आदमी जागा हुआ है तो उसके बाकी मंजिलों से अपरिचित रहने की संभावना नहीं है। हां, यही हो सकता है कि एक आदमी अपने मकान की एक ही मंजिल से परिचित हो और छह मंजिलों से अपरिचित हो। यह तभी संभव है जब वह एक मंजिल में सोया हुआ हो, अन्यथा उसे पता चलना शुरू हो जायेगा। हम सोये हुए लोग हैं, इसलिए हम जहां हैं वहीं जी लेते हैं। हमें कुछ और पता नहीं चलता।

पश्चिम का मनोविज्ञान अभी तक इतना ही मानता था कि यह जो चेतन मन है, यह जो कांशस माइंड है, यही मनुष्य है। लेकिन जैसे-जैसे उन्होंने सोच-विचार किया, थोड़ी खोज-बीन की तो फ्रायड को पहली दफा अनुमान आना शुरू हुआ कि नीचे कुछ और भी है। चेतन ही सब कुछ नहीं है, कुछ और नीचे है, और वह ज्यादा महत्वपूर्ण मालूम हुआ। अनकांशस की खोज फ्रायड ने की। अचेतन की खोज की और पश्चिम के मनोविज्ञान ने दो बातें स्वीकार कर लीं, चेतन-मन और अचेतन-मन।

लेकिन फ्रायड की खोज अनुमान है, अनुभव नहीं। अनुभव साधना के बिना नहीं हो सकता। अपनी मंजिल में रहते हुए हमें कभी-कभी शक हो सकता है, नीचे की कुछ आवाज आती है, पता नहीं नीचे भी कुछ हो। कभी-कभी नीचे से धुआं आ जाता है, कभी-कभी नीचे से आग की लपटें आ जाती हैं, और हमें लगता है कि नीचे भी जरूर कुछ होना चाहिए। लेकिन यह अनुमान है। रहते हम अपनी ही मंजिल में हैं, हम नीचे उतर कर नहीं गये, यह अनुभव नहीं है।

फ्रायड ने पश्चिम में जिस अनकांशस की बात की है वह फ्रायड का अनुभव नहीं है, इनफरेंस है, अनुमान है। इसलिए पश्चिम का मनोविज्ञान अभी भी योग नहीं बन पाया। मनोविज्ञान उस दिन योग बन जायेगा जिस दिन अनुमान अनुभव बनता है। और मजे की बात है कि फ्रायड जैसा खोजी आदमी, जो कहता है कि नीचे कुछ और भी है मनुष्य के, जिसका मनुष्य को पता नहीं, वह भी इस नीचे के मन से उसी तरह प्रभावित होता है, जैसे वे लोग प्रभावित होते हैं जिन्हें पता नहीं है।

अनुमान से कोई बहुत फर्क नहीं पड़ सकता। फ्रायड को उसी तरह क्रोध पकड़ लेता है जैसे उन लोगों को पकड़ता है जिन्हें अचेतन का कोई पता नहीं है। फ्रायड को उसी तरह से चिंताएं पकड़ती हैं जैसे उन्हें पकड़ती हैं जिन्हें अचेतन का कोई पता नहीं है। अचेतन का जो काम है वह फ्रायड के ऊपर उसी भांति जारी है जिस भांति उन पर जारी है जिन्हें अचेतन का कोई खयाल नहीं है। अनुमान है, लेकिन अनुमान भी बड़ी बात है। फिर फ्रायड के एक सहयोगी ने काम करते-करते अनकांशस के नीचे का भी अनुमान कर लिया। गुस्ताव जुंग ने कलेक्टिव अनकांशस का भी अनुमान कर लिया कि वह जो अचेतन मन है उसके नीचे भी कुछ चीजें मालूम पड़ती हैं। वहीं सब खतम नहीं हो जाता। लेकिन वह भी अनुमान ही है, अनुभव नहीं है। योग अनुभव की यात्रा है। योग स्पेकुलेटिव नहीं है, योग सिर्फ विचार नहीं है, योग अनुभूति है।

यह जो तीन मंजिलें ऊपर फैली हैं और तीन मंजिलें नीचे फैली हैं, इनका हमें तब तक पता नहीं चलेगा जब तक हम अपनी मंजिल में सोये हुए हैं। इसलिए पहले हम अपने सोये हुए होने के तथ्य को ठीक से समझ लें तो जागने की यात्रा शुरू हो सकेगी।

क्या आपने कभी यह खयाल किया कि आप एक सोये हुए आदमी हैं? शायद नहीं खयाल किया होगा। क्योंकि सोये हुए आदमी को इतना भी पता चल जाये कि मैं सोया हुआ हूं तो जागने की शुरुआत हो जाती है। असल में इतनी बात का भी पता चलना कि मैं सोया हुआ हूं, जागने की खबर है। नींद में यह भी पता नहीं चलता कि मैं सोया हुआ हूं, यह भी पता जागने में ही चल सकता है। पागल को यह भी पता नहीं चलता कि मैं पागल हूं, यह भी गैर-पागल को ही पता चल सकता है। नींद में आपने कभी नहीं जाना कि आप सोये हैं, जागकर आपको पता चलता है कि अरे! मैं सोया हुआ था। सोये हुए होने का अनुभव भी जागने का अनुभव है, नींद का अनुभव नहीं है।

इसलिए मैं आशा नहीं करता कि आपको पता चला होगा कि आप सोये हुए हैं। लेकिन जो जाग गये हैं, वे कहते हैं कि आप सोये हुए हैं। थोड़ी-सी बातें की जा सकती हैं जिनसे शायद आपको खयाल आ जाये।

एक आदमी है, क्रोध करता है, गालियां बकता है। सांझ को क्षमा मांगने आता है और कहता है, माफ करें। जो मैं नहीं कहना चाहता था वह कह गया, इनस्पाइट ऑफ मी! वह कहता है, मेरे बावजूद! मैं नहीं चाहता था, और बातें हो गयीं, माफ करें।

क्या उस आदमी से पूछा जा सकता है कि तुम यदि नहीं चाहते थे तो बातें कैसे हो गयीं? क्या तुम जागे हुए थे या सोये हुए थे?

क्या आपने क्रोध करके हर बार यह अनुभव नहीं किया है कि कुछ जो नहीं करना था वह आपने कर लिया? अगर ऐसा अनुभव किया है तो इसका मतलब है कि जो किया गया वह नींद में किया गया होगा, अन्यथा यह बात उसी वक्त पता चल सकती थी कि जो नहीं करना है वह हम कर रहे हैं।

स्वामी आनंद एक रात मेरे साथ रुके थे, तो उन्होंने एक संस्मरण मुझे सुनाया। उन्होंने कहा कि गांधीजी के बिलकुल प्राथमिक जीवन का…जब वे हिंदुस्तान आये हुए थे और किसी सभा में उन्होंने अंग्रेजों के लिए अपशब्द बोले और गालियां दीं। स्वामी आनंद ने, उन्होंने जो बोला था, उसकी पत्रों में रिपोर्ट की, अखबारों में खबर भेजी, लेकिन स्वामी आनंद ने वे शब्द निकाल दिये जो गांधीजी ने उपयोग किये थे। क्योंकि वे कठोर थे, कटु थे, विषाक्त थे, गालियां थीं, अपशब्द थे, वे अलग कर दिये। और फिर दूसरे दिन स्वामी आनंद गांधीजी के पास वह रिपोर्ट लेकर गये और कहा, मैंने उतनी चीजें अलग कर दीं। तो गांधीजी ने उनकी पीठ ठोंकी और कहा, बहुत ठीक किया जो अलग कर दिया, क्योंकि जो मुझे नहीं कहना चाहिए था वह मैंने कह दिया। स्वामी आनंद मुझसे बोले कि गांधीजी ने मेरी पीठ ठोंकी और कहा कि तुम ठीक पत्रकार हो। मैंने स्वामी आनंद से कहा, आपने गांधीजी के अहंकार की तृप्ति की और गांधीजी ने आपके अहंकार की तृप्ति कर दी। एक दूसरे की पीठ ठोंक दी। मैंने कहा, एक दूसरा प्रयोग कभी किया कि नहीं? गांधीजी ने गालियां न दी हों और आप अखबार में जोड़ कर लिख आते कि गालियां दीं। फिर वे पीठ ठोंकते तो पता चलता! हालांकि दोनों बातें एक-सी हैं।

रिपोघटग झूठी है। स्वामी आनंद ने जो रिपोर्ट की वह झूठ है। अगर गाली दी गयीं थीं तो दी गयीं थीं उन्हें रिपोर्ट किया जाना चाहिए। लेकिन गांधीजी ने कहा, अच्छा किया तुमने वह निकाल दिया, क्योंकि जो मुझे नहीं कहना चाहिए था वह मैंने कहा था। अगर जो नहीं कहना चाहिए था वह कहा था तो गांधीजी उस वक्त होश में थे, या बेहोश थे?

हम पश्चात्ताप इसीलिए करते हैं कि हम बेहोशी में कुछ कर जाते हैं और फिर जब थोड़ा-सा होश का क्षण आता है तो पछताते हैं। होश से जीने वाले आदमी की जिंदगी में पश्चात्ताप नहीं होता, रिपेंटेंस नहीं होता। क्योंकि वह जो कर रहा है वह पूरी तरह जान कर कर रहा है। पश्चात्ताप का कोई कारण ही नहीं है।

क्या आपकी जिंदगी में ऐसे मौके रोज नहीं आये हैं कि जब आप पछताते हैं? अगर पछताते हैं, तो समझ लेना कि आप सोये हुए आदमी हैं। जो आप करते हैं क्या उसके करने का पूरा कारण आपके होश में होता है? आप किसी के प्रेम में पड़ जाते हैं, अंग्रेजी में अच्छा शब्द है, हम कहते हैं कि फालिंग इन लव! शब्द उपयोग करते हैं, फालिंग; शब्द उपयोग करते हैं, प्रेम में गिर जाना। प्रेम में उठ जाना होना चाहिए। राइजिंग इन लव! लेकिन प्रेम में लोग गिरते हैं। उसका कारण है। शब्द ठीक है। शब्द इसलिए ठीक है कि प्रेम हम करीब-करीब सोयी हुई हालत में करते हैं। मूर्च्छित हो जाते हैं।

इसलिए अक्सर प्रेमी कहते हैं कि यह प्रेम मैंने किया नहीं, हो गया! हो गया का क्या मतलब है? नींद में चीजें होती हैं, जागने में की जाती हैं। आपने प्रेम किया है, या हो गया है? अगर हो गया है तो आप बेहोश आदमी हैं, सोये हुए आदमी हैं। आपका प्रेम आपका नहीं है, किसी अचेतन मार्ग से आया है। जब आप क्रोध करते हैं तो आप करते हैं या हो जाता है? अगर करते हैं तब तो ठीक, लेकिन अगर हो जाता है तो फिर आप जागे हुए आदमी नहीं, सोये हुए आदमी हैं।

हम जो भी कर रहे हैं, उसके हम कर्ता हैं या वह सब हमारे ऊपर घटित हो रहा है? एक पंखे का बटन हम दबाते हैं, पंखा चलता है। अगर पंखा दूसरे पंखों से कहता होगा तो यह नहीं कह सकता कि मैं चलता हूं। वह इतना ही कह सकता है कि चलना मुझ पर घटित होता है। हम मशीन हैं कि मनुष्य? हम पर चीजें घट रही हैं, या सचेतन रूप से हम उन्हें कर रहे हैं? नहीं, हम कर नहीं रहे, यही हमारा प्रमाद है।

बुद्ध साधक अवस्था के पहले एक गांव से गुजरते थे। रास्ते पर थे। किसी भिक्षु से बात करते थे और एक मक्खी उनके गले पर आकर बैठ गयी। बातचीत जारी रखी और मक्खी को उड़ा दिया। जैसा हम सबने उड़ाया होता। बातचीत जारी रखी, मक्खी को उड़ा दिया। फिर ठहर गये और आंखें बंद कर लीं। मक्खी तो उड़ गई थी, पर वह जो भिक्षु साथ था बहुत हैरान हुआ, और बुद्ध उस जगह हाथ ले गये जहां मक्खी बैठी थी, अब नहीं थी, और मक्खी को फिर से उड़ाया। उसी मक्खी को, जो अब वहां नहीं थी। उस भिक्षु ने पूछा, आप यह क्या कर रहे हैं? मक्खी तो अब नहीं है। बुद्ध ने कहा कि नहीं, अब मैं उस तरह उड़ा रहा हूं जैसा मुझे उड़ाना चाहिए था! मैंने बेहोशी में मक्खी उड़ा दी। मैं तुमसे बात करता रहा, हाथ ने यंत्रवत मक्खी को उड़ा दिया। मैं पूरे होश में न था, मक्खी के साथ दर्ुव्यवहार हो गया! उड़ा दिया तब मुझे पता चला कि मैंने उड़ा दिया। जब मैं उड़ा रहा था तब मुझे पता ही नहीं था कि मैं उड़ा रहा हूं। तो बुद्ध ने कहा, “अब मैं उस तरह उड़ा रहा हूं जैसे मुझे उड़ाना चाहिए था। होशपूर्वक, कांशसली।

हम सब सोये हुए लोग हैं, हम जो भी कर रहे हैं वह सोये हुए कर रहे हैं। प्रेम, घृणा, दोस्ती, दुश्मनी, क्रोध, क्षमा, प्रायश्चित, सब सोये हुए हो रहा है। अगर हम अपनी जिंदगी का पूरा हिसाब लगायें तो वह हमें स्वप्न जैसी मालूम पड़ेगी। जिंदगी जैसी नहीं मालूम पड़ेगी। अगर आप लौट कर पीछे की तरफ देखें जितनी जिंदगी आपकी गुजर गयी तो वह ऐसी नहीं लगेगी कि जीये आप, वह ऐसी लगेगी जैसे आपको जीया गया। यू हैव बीन लिव्ड। कुछ आपके ऊपर से गुजरता गया है। एक फिल्म की तरह आपके ऊपर से कोई चीज गुजरती गई है। इस अवस्था का नाम प्रमाद है–मैन एस्लीप। रात की नींद की बात नहीं कर रहा हूं, दिन की नींद की बात कर रहा हूं। हम जागे हुए भी सोये हुए हैं। चौबीस घंटे हम सोये हुए हैं। कभी-कभी किसी खतरे के क्षण में थोड़ी देर को जागरण आता है, अन्यथा नहीं।

अगर मैं एक छुरा अचानक आपकी छाती पर रख दूं तो एक क्षण को आप जाग जायेंगे। उस क्षण में आप सोये हुए नहीं होंगे। क्योंकि इमरजेन्सी, संकट का क्षण होगा वह। उस वक्त सोये रहना खतरनाक है। अगर अचानक छाती पर कोई छुरा रख दे तो एक क्षण को कोई चीज आपके भीतर, जो सोयी थी, एकदम जागेगी। तब आप भी न रह जायेंगे, छुरा रखने वाला भी न रह जायेगा, सिर्फ चेतना रह जायेगी जो छुरे के रखने को जान रही है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं चलेगा, यह बहुत क्षणिक होगा। तत्काल भय पकड़ लेगा, भागने लगेंगे, सब खो जायेगा, फिर आप सो जायेंगे।

कभी किसी खतरे के क्षण में, एकाध क्षण को हम जागते हैं। अगर आम आदमी की जिंदगी में जागने के क्षणों का हिसाब लगाया जाये तो अस्सी वर्ष की उम्र में आठ क्षण भी खोजना कठिन है जब वह जागा हुआ हो। इसलिए हमारे मन में खतरे की भी एक इच्छा पैदा होती है। खतरे में भी थोड़ा रस आने लगता है, क्योंकि खतरे में हम जागते हैं। खतरे की एक अपनी सेंसिटिविटी है।

एक आदमी जुए पर दांव लगा देता है। लाख रुपये लगा दिये उसने। अब एक क्षण को वह जागेगा, जब तक यह तय नहीं होता कि हार गया या जीत गया। क्योंकि इतना संकट का क्षण है कि उसकी श्वास रुक जायेगी, उसकी चेतना ठहर जायेगी, और वह प्रतीक्षा करेगा कि क्या हो रहा है। इतना संकट का क्षण है कि वह सो नहीं सकता। शायद आपको पता नहीं होगा कि जुए का आकर्षण जागने के रस से ही आता है। खतरे का आकर्षण जागने के रस से ही आता है। हम हजार तरह के खतरे चुनते हैं, हजार तरह के जुए चुनते हैं, जिनमें हम क्षण भर को जाग पाते हैं। लेकिन वह इतनी क्षणिक घटना है कि हम जाग भी नहीं पाते हैं और फिर सो जाते हैं। और फिर नींद शुरू हो जाती है। इन आकस्मिक उपायों से कोई कभी पूरी तरह जाग नहीं सकता। लेकिन आपको समझाने के लिए मैं कह रहा हूं कि आपको यह प्रमाद की सोयी हुई अवस्था खयाल में आ जाये। अगर आपको यह स्मरण आ जाये कि आप सोये हुए आदमी हैं, और ऐसे काम कर रहे हैं जो नहीं करना चाहते; इस तरह जी रहे हैं, जैसे नहीं जीना चाहते; इस तरह बैठ रहे हैं, उठ रहे हैं, जैसे नहीं उठना-बैठना चाहते; इस तरह के आदमी बनते जा रहे हैं, जिस तरह के नहीं बनना चाहते।

मार्क ट्वेन ने अपने एक संस्मरण में लिखा है, लिखा है कि मैं एक कहानी लिख रहा था और कहानी में मैंने तय किया था कि कौन-कौन सा पात्र क्या-क्या काम करेगा। लेकिन जब कहानी पूरी हुई तो मैंने देखा कि पात्रों ने वह काम तो किया ही नहीं, पात्रों ने तो दूसरा काम कर डाला है। तब मार्क ट्वेन ने लिखा, ऐसा लगता है कि मेरे द्वारा पात्र जन्मे जरूर, लेकिन धीरे-धीरे वे स्वतंत्र हो गये और कुछ ऐसे काम करने लगे जो कि मैं नहीं चाहता था। नायक से जो करवाना चाहता था वह न करके वह कुछ और करने लगे तो अब नायक कहानी का क्या करेगा और कुछ…? नहीं, मार्क ट्वेन समझ नहीं पा रहा। असल में मार्क ट्वेन ने जिस वक्त चाहा था कि पात्र यह करे, वह मार्क ट्वेन ही सोया हुआ है। इसलिए पात्र वही कैसे करेंगे। फिर दूसरा सोया हुआ मार्क ट्वेन कुछ और करवा लेगा, तीसरा कुछ और करवा लेगा।

इसलिए कहानी लेखक जो सोचकर कहानी शुरू करता है, वही कहानी कभी पूरी नहीं होती। कहानी कहीं और पूरी होती है। कवि जहां से कविता शुरू करता है, कविता वहीं पूरी नहीं होती। कविता कहीं और पूरी होती है। क्योंकि कांशस आर्ट तो पैदा ही नहीं हुआ। जिसको सचेतन कला कहें वह अभी पैदा नहीं हो पाई। जिसको आब्जेक्टिव आर्ट कहें वह अभी पैदा नहीं हो पाया। अभी तो सोये हुए आदमी कविताएं लिखते हैं। तो कुछ शुरू करते हैं और कुछ हो जाता है। सोये हुए आदमी चित्र बनाते हैं, कुछ बनाना चाहते हैं कुछ बन जाता है। सोये हुए आदमी कहानियां लिखते हैं, कुछ लिखना चाहते हैं कुछ लिख जाता है। सोये हुए राजनीतिज्ञ दुनिया चलाते हैं, कुछ करना चाहते हैं, कुछ हो जाता है।

सोये हुए आदमी के साथ भरोसा नहीं है। लेकिन कहानी की बात छोड़ दें। जिंदगी में आप जो बनना चाहते थे वह बन पाये? शायद ही दुनिया में एकाध आदमी मिले जो कहे, मैं वही बन गया जो बनना चाहता था। सब आदमी कुछ बनना चाहते हैं।

पहली तो बात यह भी साफ नहीं होती कि क्या बनना चाहते हैं। क्योंकि नींद में कैसे साफ हो सकता है? पता ही नहीं चलता। एक धीमी-सी, सोयी-सी आकांक्षा होती है कि मैं यह बनना चाहता हूं। लेकिन कहीं यह बहुत साफ नहीं होता है कि क्या बनना चाहता हूं। हालांकि यह जरूर पता लगता रहता है कि मैं वह नहीं बन पा रहा हूं जो मैं बनना चाहता था। और जब जिंदगी अंत होती है तो शायद ही कोई आदमी यह कह सके कि मैं वही बनकर जा रहा हूं जो मैं बनना चाहता था। नहीं, सभी आदमी कहीं और पहुंच जाते हैं; जहां वे कभी नहीं पहुंचना चाहते थे। कुछ और बन जाते हैं, जो वे कभी बनना नहीं चाहते थे। जिंदगी कुछ और ही होती है जो कभी नहीं चाहा था उन्होंने कि हो। अगर आप को ऐसा लगे तो समझना कि आप सोये हुए आदमी हैं। मरते वक्त लगे तो फिर बहुत उपाय न रह जायेगा। अभी लगे तो कुछ उपाय हो सकता है। मरते वक्त सभी को लगता है कि जिंदगी बेकार गयी। जो होना चाहते थे वह नहीं हो पाये। हालांकि मरता हुआ आदमी भी साफ-साफ नहीं कह सकता कि क्या होना चाहते थे। लेकिन इतना जरूर उसे लगता है कि कुछ चूक गया कहीं, समथिंग मिसिंग। कुछ खो गया।

आपको भी लग रहा होगा। जिसमें भी थोड़ी बुद्धि है, उसे लगता है कि कोई चीज मिस हो रही है, खो रही है। कोई चीज नहीं हो पा रही है। वही फ्रस्ट्रेशन है, वही दुख है, वही चिंता है, वही पीड़ा है। आदमी की परेशानी यही है, कि प्रेम से वह जो पाना चाहता है, वह पाता है कि वह नहीं मिल पाया। प्रेम में जो करना चाहता है, पाता है कि वह कर ही नहीं पाया। आप तय करके जाते हैं किसी मित्र के घर कि यहऱ्यह बातें करूंगा। जब आप पहुंचते हैं तो आप पाते हैं कि आप कुछ और बातें कर रहे हैं। पति घर लौटता है तो यह तय करके लौटता है कि आज पत्नी से झगड़ा नहीं करना है। सब बातें तय करके लौटता है कि इस तरह व्यवहार करना है, यह कहना है, इस तरह प्रेम प्रकट करना है। पत्नी दिन भर में तय करके रखती है कि अब कल वाली सांझ फिर से न दुहर जाये। वह नहीं करना है, जो कल किया था। फिर अचानक जब वे दोनों आमने-सामने आते हैं तब पता चलता है कि कल की सांझ फिर वापस लौट आयी। जो तय किया था वह खो जाता है, जो नहीं तय किया था वह फिर हो जाता है। यह आदमी सोया हुआ आदमी है कि जागा हुआ आदमी है? नहीं, यह हमारी सोयी हुई अवस्था है।

महावीर ने इसे प्रमाद कहा है। प्रमाद अर्थात सोये हुए होना। यदि यह स्मरण आ जाये कि मैं सोया हुआ हूं तो खोज शुरू हो सकती है। इसलिए अप्रमाद का पहला सूत्र है इस बात की समझ कि मैं सोया हुआ हूं, टु बी अवेयर आफ वन्सस्लीप। वह जो नींद है, उसका पहला बोध। और समझ लें कि जिस दिन आपको यह पता चल जाये कि आप सोये हुए हैं तो फिर सुबह करीब है। क्योंकि यह पता तभी चल सकता है जब नींद टूटने लगे।

नींद को तोड़ने का पहला सूत्र है, नींद को ठीक से पहचान लेना। यह आपसे पहला सूत्र कहता हूं कि आप सोये हुए आदमी हैं, इसे ठीक से समझ लेना। चाहे आप दूकान करते हों तो सोये हुए करते हैं, चाहे मंदिर जाते हों तो सोये हुए जाते हैं, चाहे मित्रता करते हों तो सोये हुए, चाहे शत्रुता करते हों तो सोये हुए। नींद हमारी चौबीस घंटे की स्थिति है।

दूसरी बात, अब इस सोये हुए होने का अनुभव हो जाये, पता चल जाये–और धार्मिक आदमी की शुरुआत इसी बात से होती है कि मैं प्रमादी हूं, इसका उसे अनुभव हो जाये। नहीं, लेकिन कुछ प्रमादी धर्म को भी नींद में साधते रहते हैं। मालाएं फेरते रहते हैं और झपकियां लेते रहते हैं। मंदिर में बैठे रहते हैं और झपकी लेते रहते हैं। व्रत करते रहते हैं और सोये रहते हैं। जैसे वे दूकान करते हैं, वैसे व्रत भी कर लेते हैं। सोये-सोये सब चलता रहता है। धर्म भी सोये-सोये हो जाता है। धर्म सोये-सोये नहीं हो सकता। सोये-सोये सिर्फ अधर्म हो सकता है। इसलिए धर्म के नाम पर भी अधर्म ही होता है। सोया हुआ आदमी धर्म के नाम पर भी अधर्म ही करता है। वह धर्म कर ही नहीं सकता। यह असंभव है। सोये हुए आदमी से धर्म का कोई संबंध नहीं हो सकता। नींद धर्म में नहीं ले जा सकती, नींद अधर्म में ही ले जाती है।

स्मरण आ जाये कि मैं सोया हुआ हूं तो क्या किया जाये?

पहला सूत्र, सोये हुए होने का स्मरण। दूसरा सूत्र, इस नींद को तोड़ने के लिए क्या किया जाये? कौन-सा उपाय है?

और ध्यान रहे, जो आदमी अपनी इस मंजिल की नींद को तोड़ दे, वह इसके नीचे की मंजिल की सीढ़ियों पर पहुंच जाता है, अपने आप। अगर कोई आदमी चेतन मन में जाग जाये तो अचेतन में उतर जाता है। अचेतन में उतरने का सूत्र चेतन मन में जाग जाना है। जैसे कि हम नींद में जाग जायें तो हम जागरण में उतर जाते हैं। चित्त-दशा फौरन बदल जाती है। एक आदमी को नींद में हमने हिला दिया। वह जाग गया तो नींद गयी और जागना शुरू हो गया। दूसरी चित्त-दशा शुरू हो गयी। अगर हम स्वप्न में जाग जायें तो स्वप्न तत्काल टूट जाता है, और हम स्वप्न के बाहर हो जाते हैं। जिस चित्त की अवस्था में हम जी रहे हैं, वह जो कांशस माइंड है हमारा। अगर उसमें हम जाग जायें तो हम अचेतन मन में उतर जाते हैं। अनकांशस में उतर जाते हैं।

और इसके पहले कि मैं समझाऊं कि कैसे जागें, यह भी आपको समझा दूं कि जितने हम नीचे गहरे उतरते हैं, उतने ही हम ऊपर भी उठते जाते हैं। जीवन का नियम ऐसा ही है, जैसा वृक्षों का नियम है। जड़ें नीचे जाती हैं, वृक्ष ऊपर जाता है। साधना नीचे जाती है, सिद्धि ऊपर जाती है। जितनी गहरी जड़ें नीचे उतरने लगती हैं, उतने ही वृक्ष आकाश को छूने ऊपर बढ़ने लगता है। वह जो फूल खिलते हैं आकाश में उनका आधार नीचे पाताल में चली गयी जड़ों में होता है। अगर वृक्ष को ऊपर बढ़ना है तो उसे नीचे भी बढ़ना पड़ता है। उल्टा लगेगा, ऊपर बढ़ने के लिए नीचे भी बढ़ना पड़ता है। साधना सदा नीचे ले जायेगी, गहराइयों में, और सिद्धि सदा ऊपर उपलब्ध होगी, ऊंचाइयों में।

साधना एक डेप्थ है, गहराई है; और सिद्धि एक पीक है, ऊंचाई है। अपने में ही जो नीचे उतरेगा वह अपने में ही ऊपर जाने की उपलब्धि को पाता चला जाता है। सीधे ऊपर जाने का उपाय नहीं है। सीधे तो नीचे जाना पड़ेगा। कांशस से अनकांशस में, अनकांशस से कलेक्टिव अनकांशस में, कलेक्टिव अनकांशस से कास्मिक अनकांशस में। और प्रतिबार जब आप चेतन से अचेतन में जायेंगे तब अचानक आप पायेंगे कि ऊपर का भी एक दरवाजा खुल गया–सुपर कांशस का, अतिचेतन का दरवाजा खुल गया। जब आप कलेक्टिव अनकांशस में जायेंगे तो पायेंगे, ऊपर का एक दरवाजा और खुल गया–वह जो समष्टिगत चेतन है, उसका दरवाजा खुल गया। जब आप कास्मिक अनकांशस में जायेंगे, ब्रह्म अचेतन में जायेंगे तब अचानक आप पायेंगे कि ब्रह्म चेतन का, कास्मिक कांशस का दरवाजा भी खुल गया। जितने आप गहरे उतरते हैं उतने आप ऊंचे उठते जाते हैं। इसलिए ऊंचाई की फिक्र छोड़ दें, गहराई की फिक्र करें। जिस जगह हम हैं वहां से हम कैसे जागें।

अगर कोई आदमी पूछे कि हम तैरना कैसे सीखें? तो उसे हम क्या कहेंगे? उसे हम कहेंगे, तैरना शुरू करो। वह कहेगा, अभी मैं तैरना जानता ही नहीं तो शुरू कैसे कर सकता हूं? तब एक बड़ी उलझन पैदा होगी।

अगर मैं आपको नदी के किनारे ले जाऊं और कहूं कि मैं आपको तैरना सिखाता हूं तो आप कहेंगे, मैं तब तक पानी में नहीं उतरूंगा जब तक मैं तैरना न सीख लूं। और आपका तर्क सही होगा। सभी सही दिखाई पड़ने वाले तर्क जरूरी रूप से सत्य के निकट ले जाने वाले नहीं होते। आपका तर्क बिलकुल सही है कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं, मैं पानी में कैसे उतरूं? पहले मुझे तैरना सिखा दें, फिर मैं पानी में उतर जाऊंगा। यह बिलकुल तर्कयुक्त, लॉजिकल दिखाई पड़ता है। लेकिन मैं आपसे कहूंगा कि जब तक आप पानी में न उतरें तब तक तैरना कैसे सीख सकते हैं? जब आप पानी में उतरेंगे तभी तैरना सीख सकते हैं। अगर पानी में उतरने को राजी नहीं हैं तो तैरना सिखाया नहीं जा सकता। मेरा तर्क भी तर्क है, पूरी तरह सही है। दोनों तर्कयुक्त बातें हैं। लेकिन मेरा तर्क अस्तित्व के निकट है, आपका तर्क सिर्फ विचार का तर्क है। आप विचार में बिलकुल ठीक कह रहे हैं कि बिना तैरना सीखे मैं पानी में कैसे उतरूं! लेकिन आपको कुछ पता नहीं है कि तैरना सीखने के लिए भी पानी में उतरना पड़ता है। और पहली बार जब कोई पानी में उतरता है तो बिना तैरना सीखे ही उतरता है। असल में बिना सीखे, तैरने के लिए उतर जाने से ही सीखने की शुरुआत होती है, तैरने की शुरुआत होती है। हां, इतना है कि बहुत गहरे पानी में मत उतरें, उथले पानी में उतरें, इतने पानी में उतरें कि डूब भी न जायें और इतने पानी में उतरें कि तैर भी सकें। यहीं से शुरुआत करनी पड़ेगी।

तो आपसे मैं कोई परम-जागरण की आकांक्षा नहीं रखता हूं। थोड़े से पानी में उतरना शुरू करें। जहां आप सोये हुए हैं उन छोटी-छोटी क्रियाओं में जागना शुरू करें। रास्ते पर चल रहे हैं, जाग कर भी चल सकते हैं, सो कर भी चल सकते हैं। अधिक लोग सोये हुए चलते हैं। अगर आप किनारे खड़े होकर रास्ते पर चलते लोगों को देखें तो अनेक उनमें से अपने से ही बातचीत करते हुए जाते हुए मालूम पड़ेंगे। कोई हाथ हिला रहा है, किसी को जवाब दे रहा है जो नहीं है; किसी के होंठ कंप रहे हैं, वह किसी से बात कर रहा है जो नहीं है। यह आदमी नींद में है। अगर आप सड़क के किनारे खड़े होकर घंटे भर सड़क पर चलते हुए लोगों को देखें तो आप हैरान हो जायेंगे कि इतने लोग सोये हुए चल कैसे रहे हैं? चलना सिर्फ हैबिट से हो रहा है। चलने के लिए जागने की बहुत जरूरत नहीं है। कभी-कभी कोई हॉर्न बजा देता है तो आदमी चौंक कर हट जाता है। जरा-सा जागता है, बाकी अपने सोये हुए चलता रहता है।

आप अपने घर पर जाकर नहीं पहुंचते। आपके पैर बिलकुल ही मशीन की भांति अपने घर की तरफ मुड़ जाते हैं। आप अपना दरवाजा चढ़ जाते हैं, घंटी दबा देते हैं। इस सब में कोई जागने की जरूरत नहीं होती। यह सब नींद में हो जाता है। हैबीच्युअल है, यह आदत है। साइकिल का हैंडल अपने आप घूम जाता है ठीक जगह पर। यह सब यंत्रवत हो रहा है और आप भीतर सोये रहते हैं। इसलिए हमें आदतों को दोहराने में आसानी पड़ती है, क्योंकि उनमें जागना नहीं पड़ता। नयी आदतें बनाने में कठिनाई होती है, क्योंकि उनके लिए थोड़ा-सा जागना पड़ेगा। फिर जब आदत बन जायेगी तब आप सो जायेंगे। इसलिए हम पुराने कामों को ही करते चले जाते हैं, बार-बार करते चले जाते हैं। क्योंकि वह नींद में चल रहा है सब।

एक आदमी अपनी सिगरेट मुंह में लगा लेता है। माचिस जला कर जला लेता है, पी लेता है, फेंक देता है। कोई नहीं कहेगा कि यह आदमी सोया हुआ है, क्योंकि हम कहेंगे अगर सोया हुआ होता तो हाथ जल जाता। नहीं, फिर भी सोया हुआ है। हाथ जलने के पहले जरा-सा जागेगा कि हाथ न जल जाये, सिगरेट फेंकेगा और वापस सो जायेगा, हैबीच्युअल है। आदत से पता है कि कब सिगरेट जलने के करीब आ गयी है तो हाथ फेंक देंगे। यह सब नींद में हो रहा है।

इन छोटी-छोटी क्रियाओं के प्रति जागना शुरू करना पड़ेगा। पहले उन क्रियाओं से शुरू करें, जो बहुत इनोसेंट हैं। जिनमें कोई ज्यादा झगड़ा नहीं है, बहुत निर्दोष हैं। रास्ते पर चल रहे हैं, खाना खा रहे हैं, स्नान कर रहे हैं, कपड़े पहन रहे हैं, इन बहुत छोटी क्रियाओं से शुरू करें जिनमें बहुत इनवॉल्वमेंट नहीं है, जिनमें बहुत ग्रसित नहीं हैं। हां क्रोध के प्रति जागना जरा गहरे में जाना होगा। यह उथले में है। अभी कपड़ा पहन रहे हैं, जागे हुए पहनें, बहुत हैरान हो जायेंगे। जागे हुए जूते पहनें, बहुत हैरान हो जायेंगे। अजीब लगेगा कि यह कैसी फीलिंग है, यह कैसा अनुभव है, यह तो कभी नहीं हुआ, जूते तो रोज पहनते हैं।

अभी मुझे सुन रहे हैं, सोये हुए सुन सकते हैं, जागे हुए सुन सकते हैं। जब मुझे सुन रहे हैं तो सिर्फ मुझे सुनें ही मत, सुन रहे हैं इसे भी जानते रहें। सिर्फ अगर मुझे सुन रहे हैं और उसको भूल गये जो सुन रहा है तो आप सोये हुए हैं। यह जो तीर है चेतना का, डबल ऐरोड होना चाहिए। दोहरे तीर होना चाहिए इसमें। एक तरफ, मेरी तरफ जो मैं बोल रहा हूं और एक अपनी तरफ जो सुन रहा है। अगर आपकी चेतना इस क्षण में भी दोनों तरफ हो जाये–सुने भी और यह भी जाने कि सुन रहे हैं–तो आप फौरन अनुभव करेंगे कि सुनने की क्वालिटी बदल गयी। अभी यहीं अनुभव करेंगे कि सुनने का गुणधर्म बदल गया, तब विचार न सकेंगे। तब सिर्फ सुन सकेंगे, क्योंकि अगर विचारा तो दूसरा तीर खो जायेगा। वह जो आपकी तरफ जाने वाला तीर है। अगर सिर्फ सुन रहे हैं, अगर सिर्फ देख रहे हैं, तो आपकी चेतना में अभी परिवर्तन शुरू हो जायेगा, नींद टूटने लगेगी और जागरण की किरण आने लगेगी।

छोटी-छोटी क्रियाओं में जागना शुरू कर दें। फिर उन क्रियाओं में जागें जिनके लिए पछताना पड़ता है। क्रोध के लिए, घृणा के लिए, अभद्रता के लिए, उनके लिए जागना शुरू करें। अगर आप अपने जागने में सुबह से उठ कर सांझ तक जागने का प्रयोग करें तो थोड़े ही दिनों में आप एकदम दूसरे आदमी हो जायेंगे। आपका प्रमाद जागने में टूट जायेगा। और इसका सबूत क्या होगा कि आपका जागने में प्रमाद टूट गया? इसका सबूत यह होगा कि नींद में भी आपका जागरण शुरू हो जायेगा। जिस दिन आपकी जागरण में नींद टूटेगी उसी दिन आप नींद में भी कांशसली, सचेतन प्रवेश कर सकेंगे।

कितने मजे की बात है, हम रोज सोते हैं, हजारों बार सोये हैं, लेकिन हमें यह पता नहीं कि नींद क्या है? कब आती है? आप रोज सोते हैं, कितनी बार सोये हैं; लेकिन आपको पता है, नींद कब आती है? और कैसे आती है? और क्या है? नहीं, कुछ पता नहीं हमको। हमें सिर्फ इतना ही पता है कि कब तक हम जागे थे, बारह बजे रात तक जागे थे। फिर नींद कब आयी, किस क्षण में आयी, कैसे आपके ऊपर छा गयी, कैसे आप उसमें डूब गये, इसका आपको कभी पता हुआ है? इसका कोई पता नहीं। जिंदगी भर सोयेंगे। साठ साल आदमी जीता है तो बीस साल सोता है। इतनी बड़ी घटना जिसको बीस साल करनी पड़ती है, इसका भी हमें कोई परिचय नहीं होता कि सोने का अर्थ क्या है? यह सोना क्या है? यह नींद क्या है? क्या घटना घटती है मेरे भीतर?

नहीं, जो जागने में ही जागा हुआ नहीं है, वह नींद में कैसे जागेगा? पहले जागने में जागना पड़ेगा। और जिस दिन आप जाग जायेंगे उस दिन आप बहुत हैरान होंगे। जैसे मैं इस कमरे में बैठा हूं और अंधेरा घिर जाये तो मुझे दिखाई पड़ता है कि अंधेरा छा रहा है, अंधेरा घना हो गया, अंधेरा पूर्ण हो गया। फिर रोशनी आ जाये तो मुझे दिखाई पड़ता है, रोशनी आयी, रोशनी घनी हुई, रोशनी भर गयी। लेकिन मैं दोनों को जानता हूं। न तो आप जानते हैं कि कब आप सोये, कैसे नींद का अंधेरा आपके ऊपर गिरा और कैसे आप नींद में डूब गये; न आप जानते हैं, सुबह नींद कैसे हटी, कैसे समाप्त हुई, कैसे विदा हो गयी। जिस दिन आप जागरण की घड़ियों में जाग जायेंगे और जागने की क्रियाएं जाग कर करने लगेंगे, जैसे खाना होशपूर्वक खायेंगे, कपड़े होशपूर्वक पहनेंगे, रास्ते पर होशपूर्वक चलेंगे…।

महावीर से किसी ने पूछा कि हम क्या करें? तो महावीर ने कहा, क्या करने की उतनी फिक्र मत करो, जो करते हो उसे होशपूर्वक करो।

क्रोध होशपूर्वक करके देखें, लेकिन बहुत कठिनाई होगी। जरा गहरे में है बात। तो फिर एक उपाय करें, एक्टिंग करें किसी दिन क्रोध की, तब आप उसमें आसानी से जाग सकेंगे। आज आप घर जायें तो तय करके जायें कि टूट पड़ना है किसी के ऊपर–बिलकुल एक्टिंग–अकारण, तो आप आसानी से जाग सकेंगे। तय करके जायें। कोई कारण नहीं है पत्नी का–ऐसे भी कोई कारण नहीं होता, लेकिन तब आप बेहोश होते हैं–तय करके जायें कि पत्नी का कोई कारण नहीं, अकारण टूट पड़ना है। और पूरी तरह क्रोध करें तो आप देख पायेंगे क्रोध को! इधर क्रोध चलेगा, इधर भीतर आप देख पायेंगे कि यह क्रोध चल रहा है। और अगर एक्टिंग के क्रोध को भी देख लिया तो दुबारा जो क्रोध होगा वह एक्टिंग हो जायेगी। अगर एक बार हम क्रोध का अभिनय कर सकें तो फिर कभी भी क्रोध बिना अभिनय के नहीं होगा। अभिनय ही हो जायेगा। उसके हमसे भीतरी संबंध ही टूट जायेंगे।

तो जो चीजें गहरी हैं उनको एक्टिंग से शुरू करें। जो चीजें गहरी हैं उन पर होशपूर्वक अभिनय करें तो आप उनमें जाग सकेंगे। और अगर जागने के क्षणों में जागना आ जाये तो फिर नींद के क्षणों में जागना आना शुरू हो जायेगा। जिस दिन आप नींद में जाग जायेंगे, उस दिन आप अनकांशस में प्रवेश करेंगे। कृष्ण ने गीता में उसी की बात कही है कि योगी रात भी जब सब सोते हैं तब जागता है। वह दूसरा चरण है। नींद में अगर आप जाग गये तो आप बहुत हैरान हो जायेंगे। इतने हैरान होंगे कि आपकी पूरी जिंदगी बदल जायेगी। अगर आप रात में नींद में जागे हुए सो सके जो कि एक मिरेकल है, एक बहुत अदभुत चमत्कारपूर्ण घटना है–जिस दिन आप सोये और जागे। एक साथ भीतर जागे और बाहर सोये रहे, उस दिन सुबह आप इतने ताजे उठेंगे जैसी ताजगी का आपको कभी भी पता नहीं है। उस ताजगी का शरीर से कोई संबंध नहीं है। उस ताजगी का बहुत गहरे में आत्मा से संबंध हो जाता है।

जिस दिन आप जागे हुए सो सकेंगे उस दिन आपके स्वप्न तिरोहित होने लगेंगे, क्योंकि आप स्वप्नों के प्रति जाग जायेंगे। ऐसा नहीं है कि बाद में पता चलेगा कि मुझे स्वप्न आया। जब स्वप्न आ रहा है, तभी आप जानेंगे कि स्वप्न आया।

जैसा मैंने आप से कहा कि चेतन मन की क्रियाओं के प्रति जागें तो अचेतन मन में प्रवेश हो जायेगा, फिर अचेतन मन की क्रियाओं के प्रति जागें तो समष्टि अचेतन, कलेक्टिव अनकांशस में प्रवेश हो जायेगा। अचेतन मन की क्रिया है स्वप्न। स्वप्न के प्रति आप जब जागेंगे, तब आप अचानक पायेंगे एक दरवाजा नीचे और खुल गया जो कलेक्टिव अनकांशस का दरवाजा है। वह मेरा अचेतन नहीं है, हम सबका अचेतन है। उस समष्टिगत अचेतन की अपनी क्रियाएं हैं, जिनको धर्मों ने बड़ा महत्व दिया है। बड़े अनुभव हैं, उस अचेतन मन के बड़े गहरे अनुभव हैं, जिनको जुंग ने आर्च-टाइप कहा है, जिनको उसने कहा है धर्म-प्रतीक। उस गहरे अचेतन में, कहें समष्टि अचेतन में ही दुनिया की सारी मायथॉलोजी पैदा हुई। सृष्टि का जन्म, प्रलय की संभावना, परमात्मा के रूप, रंग, आकार, नाद, वे सब उसी में पैदा हुए। वे उसी की क्रियाएं हैं।

तो जो व्यक्ति स्वप्न में जाग जायेगा वह समष्टिगत अचेतन में प्रवेश करेगा और समष्टिगत अचेतन की अपनी क्रियाएं हैं। जिनको लोग धार्मिक अनुभव कहते हैं वे भी धार्मिक अनुभव नहीं हैं, वे भी मानसिक अनुभव हैं समष्टिगत अचेतन के। रंगों का विस्तार, प्रकाशों का उदभव, अभूत-पूर्व सुगंधें, अभूतपूर्व ध्वनियां, वे सब वहां पैदा होंगी। सृष्टि के जन्म और मरण को भी वहां देखा जा सकता है। उस क्षण को भी देखा जा सकता है जब पृथ्वी पैदा हुई और उस क्षण को भी देखा जा सकता है जब पृथ्वी अस्त हो जायेगी। वहीं से दुनिया की सारी मिथ्स ऑफ क्रियेशन पैदा हुई।

इसलिए बड़े मजे की बात है कि दुनिया की सृष्टि के जितने भी सिद्धांत पैदा हुए वह सब समान हैं, एक से हैं। चाहे ईसाई हों या मुसलमान हों, चाहे हिंदू हों, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ा, शब्दों के फर्क पड़े। उसी क्षण में उस चेतना की, उस अवस्था में ही बहुत-सी बातें जानी गयीं जो सारी दुनिया में समान हैं।

जैसे सारी दुनिया में यह एक खयाल है कि कभी कोई एक महाप्रलय आया। ईसाइयों को भी खयाल है कि कभी कोई एक महाप्रलय आया। हिंदुओं को भी खयाल है कि कभी कोई एक महाप्रलय हुआ। सारे जगत के आदिवासियों के पास भी जो कथाएं हैं उनको भी खयाल है कि कभी कोई महाप्रलय हुआ। और बड़े मजे की बात है, इन सबके बीच कोई कम्युनिकेशन नहीं रहा। इनके बीच कोई संवाद नहीं रहा। यह संवाद तो अभी पैदा हुआ। लेकिन इनकी कथाएं तो हजारों-लाखों साल पुरानी हैं। जब ये एक दूसरे से बिलकुल असंबंधित थे। तब भी इनकी कथाएं एक हैं। क्या मामला है? एक ही मामला है। इनका जो कलेक्टिव अनकांशस है, वह एक है हम सबका। इसलिए बहुत गहरे में हम सब एक हैं। इसलिए जो चीजें बहुत गहरे से संबंधित हैं उनमें बहुत फर्क नहीं पड़ता।

जैसे नृत्य कलेक्टिव अनकांशस से पैदा होता है। इसलिए नृत्य को समझने के लिए दूसरे की भाषा जाननी जरूरी नहीं है। एक अंग्रेज नाचता हो तो एक चीनी समझ सकता है। अंग्रेजी समझना जरूरी नहीं है। एक हिंदू नाचता हो तो मुसलमान समझ सकता है।

चित्र है, पेंटिंग है, पेंटिंग के लिए कोई जरूरत नहीं है, किसी की भी भाषा समझने की। पिकासो की पेंटिंग, जो आदमी फ्रेंच नहीं जानता है वह समझ सकता है। कोई जरूरत नहीं है…क्योंकि यह सब के सब हमारे कलेक्टिव अनकांशस से पैदा होने वाली चीजें हैं। यह हम सब जानते ही हैं। इसके लिए एक-दूसरे की भाषा, एक-दूसरे की संस्कृति, एक-दूसरे की सभ्यता, एक-दूसरे के सिद्धांतों से परिचित होने की कोई जरूरत नहीं है।

इसलिए दुनिया के सारे धर्मों के जो प्रतीक हैं, वह सब समान हैं। कई बात में तो इतनी हैरानी की समानता है कि कहना मुश्किल है। जैसे “ओम’ की ध्वनि है वह कलेक्टिव अनकांशस से पैदा होती है। इसलिए “ओम’ की ध्वनि सारी दुनिया के धर्मों में है, सिर्फ थोड़े बहुत हेर-फेर हैं, वह समझने के हेर-फेर हैं। हिंदुओं ने उसे पकड़ा है “ओम’ की तरह। यह हमारे पकड़ने की बात है, क्योंकि पकड़ेगा तो हमारा चेतन मन। तो हमने “ओम’ की तरह पकड़ा है। यहूदियों ने, ईसाइयों ने, “ओमीन’ की तरह पकड़ा है। वह “ओम’ का ही उनका रूपांतरण है। इसलिए आज भी प्रार्थना के बाद वह कहेंगे, आमीन। वह ओमीन; “ओम’ ओमीन उससे निर्मित हुआ है। अंग्रेजी के शब्द हैं, ओमनीसायंट, ओमनीप्रजेंट, वह सब “ओम’ से बने हुए हैं। लेकिन वह निकले हैं बहुत गहरे से। वह संस्कृत से नहीं गये हैं। जैसा कि संस्कृत के ज्ञाताओं को खयाल होता है कि दुनिया की सारी भाषाएं संस्कृत से पैदा हो गयीं। ऐसा नहीं है। दुनिया की भाषाओं में जो समानता है वह कलेक्टिव अनकांशस की समानता है, दुनिया की भाषाएं किसी एक भाषा से पैदा नहीं हो गयीं।

हमारा एक तल है मन का जो हम सबका इकट्ठा है, जैसे सागर के ऊपर लहरें अलग-अलग हैं; लेकिन नीचे सागर इकट्ठा है। ऐसे लहरों की तरह हम अलग-अलग हैं, लेकिन और गहरे, और गहरे सब इकट्ठा है। वह जो इकट्ठापन है उसकी अपनी क्रियाएं हैं, जिसको कबीर ने अनाहत नाद कहा है। हम एक तरह का नाद जानते हैं, चोट से पैदा होने वाला नाद। अगर मैं ताली बजाऊं तो एक नाद पैदा होगा, लेकिन दो तालियां टकरायेंगी तब। अगर मैं तबले पर चोट मारूं तो आवाज गूंजेगी, लेकिन चोट मारूंगा तब। इसको कहेंगे, आहत नाद। चोट से पैदा हुआ, आहत, चोट खाकर पैदा हुई ध्वनि। कलेक्टिव अनकांशस में ऐसी ध्वनियां हैं, जहां चोट नहीं होती और ध्वनियां हैं। इसलिए उनको अनाहत नाद कहा है। बिना चोट किये पैदा हुई ध्वनियां, एक हाथ से बजाई गयी ताली।

झेन फकीर जापान में अपने साधक से कहता है कि एक हाथ से अगर ताली बजाई जाये तो कैसे बजेगी? इसका पता लगाकर आओ। बड़ा मुश्किल है। एक हाथ से ताली कहीं बज सकती है? एक हाथ से ताली कैसे बज सकती है? कभी वह टेबल पर बजाता है, कभी दीवाल पर बजाता है। और गुरु को आकर कहता है कि मैंने बजाई एक हाथ की ताली। और दीवाल पर बजा कर बताता है। गुरु कहता है, दीवाल दूसरा हाथ बन गयी, नहीं चलेगी। एक हाथ से ताली कैसे बजाई जा सकती है, उसका पता लगाकर आओ। वह तब तक पता नहीं लगा सकता जब तक कि वह अनाहत नाद में न उतर जाये। वह उसी में उतारने के लिए कह रहा है, एक हाथ की ताली कैसे बजती है, उसको खोजो।

कलेक्टिव अनकांशस की जो क्रियाएं हैं अगर हम उनके प्रति जाग जायें तो हम कास्मिक अनकांशस में उतर जाते हैं। तब हम ब्रह्म-अचेतन में उतर जाते हैं, जिसको इस मुल्क में प्रकृति कहा गया है। प्रकृति शब्द को समझ लेना उचित होगा। प्रकृति का मतलब होता है, जब सब बना उसके पहले भी जो था। कृति के भी जो पहले है–प्रिक्रियेशन। अगर अंग्रेजी में बनायें शब्द तो बनेगा प्रिक्रियेशन। सृष्टि के पहले से भी जो है। जिससे सब पैदा हुआ। जो पैदा होने के पहले भी था, उसको कहते हैं प्रकृति! वह जो कास्मिक अनकांशस है, वह प्रकृति है। उससे ही सब आया।

अब इसको ऐसा समझ लें। चेतन मन मेरा है, अचेतन मन भी मेरा है, लेकिन कलेक्टिव अनकांशस “हमारा’ है, वह “मेरा’ नहीं है। वह आपका नहीं है, वह हमारा है। कास्मिक अनकांशस हमारा भी नहीं है, सबका है। उसमें पत्थर भी सम्मिलित है। पक्षी भी सम्मिलित हैं। नदी भी सम्मिलित है। पहाड़ भी सम्मिलित हैं। वह प्रकृति है। वहां जो उतर जाये उसके आगे उतरने को नहीं रह जाता। वह बाटमलेस एबिस है। उसके नीचे फिर उतरने का कोई उपाय नहीं, वह शून्य खाई है। इसमें उतरने की प्रक्रिया है–अप्रमाद।

जहां आप हैं वहीं जागना शुरू करें। जिस दिन आप वहां जाग जायेंगे, आपको नीचे के दरवाजे की कुंजी मिल जायेगी। फिर वहां जागना शुरू करें। और नीचे की कुंजी मिल जायेगी। और एक दूसरी प्रक्रिया पूरे समय साथ चलेगी। जब तक आप चेतन में हैं, तब तक आप सुपर-कांशस में, अति-चेतन में नहीं जा सकते, ऊपर नहीं बढ़ सकते। आपकी जड़ों को अनकांशस में उतरना पड़ेगा। जिस दिन आपकी जड़ें अचेतन में उतर जायेंगी उसी दिन आपकी शाखाएं सुपर-कांशस में फैल जायेंगी। ऊपर उठ जायेंगी।

फ्रायड और जुंग, सुपर-कांशस में नहीं पहुंच पाते, क्योंकि वे अनुमान कर रहे हैं। इसलिए वे अनकांशस, कलेक्टिव अनकांशस, इनकी तो बात करते हैं नीचे की, लेकिन ऊपर की उनके पास कोई कल्पना नहीं है।

लेकिन यह जगत सदा एक संतुलन है। यहां जितने नीचे जाने का उपाय है, उतने ही ऊपर जाने का उपाय है। असल में नीचे का अस्तित्व ही नहीं हो सकता, अगर ऊपर का अस्तित्व न हो। ऊपर का और नीचे का अस्तित्व एक साथ ही हो सकता है। अगर बायां न हो तो दायां नहीं हो सकता है, कि हो सकता है? अगर दायां है तो बायां का अस्तित्व जरूर होगा, चाहे पता हो या न हो। क्या नीचे का अस्तित्व हो सकता है ऊपर के बिना? फिर उसे नीचे कैसे कहियेगा? नीचे का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता ऊपर के बिना। क्या दुख का अस्तित्व हो सकता है सुख के बिना? तो फिर उसे दुख कैसे कहियेगा? दुख का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता सुख के बिना।

जिंदगी सदा ही दोहरी है। जितना ऊपर है, उतना नीचे है। जो जो नीचे है वही वही ऊपर भी है। फर्क इतना ही है, नीचे अंडर-ग्राउंड है, अंधेरे में है; ऊपर खुले आकाश में, सूरज की रोशनी में है। जितना नीचे उतरेंगे उतना ही अंधेरा बढ़ता चला जायेगा। और कास्मिक अनकांशस है, प्रकृति है, वह पूर्ण अंधकार है, विराट अंधकार है, अंधकार ही अंधकार है। जितना ऊपर बढ़ियेगा उतना ही प्रकाश बढ़ता जायेगा और वह जो कास्मिक कांशस है, ब्रह्म है, वह पूर्ण प्रकाश है। प्रकाश ही प्रकाश है। लेकिन ऊपर जाने का रास्ता नीचे होकर जाता है। द पीक इज टु बी अचीव्ड वाया द एबिस, वह जो नीचे खाई है उसके द्वारा चोटी पर पहुंचा जाता है। यही सबसे बड़ी साधना की कठिनाई है। यही समझना सबसे ज्यादा कठिन हो जाता है कि ऊपर जाने के लिए नीचे जाना पड़ेगा।

हम सोचते हैं, सीधे ऊपर चले जायें। लेकिन सीधे हम ऊपर नहीं जा सकते। अगर हम सीधे ऊपर जायेंगे तो स्पेकुलेशन शुरू हो जायेगा। फिर हम ऊपर का दर्शन बना लेंगे। सुपर-कांशस, कलेक्टिव-कांशस, कास्मिक-कांशस, इसके हम सिद्धांत बना सकते हैं। लेकिन यह सिद्धांत सिर्फ सिद्धांत होंगे वैचारिक। जो सीधा ऊपर जायेगा वह फिलासफी में चला जायेगा। दर्शन में चला जायेगा। धर्म में नहीं जा सकेगा। जिसे धर्म के अनुभव में जाना है उसे पहले नीचे उतरना पड़ेगा।

यह बड़े मजे की बात है, जिसे संत होना हो उसे बहुत गहरे अर्थों में पापी होना पड़ता है। और जो व्यक्ति गहरे अर्थों में पापी होने से बच गया, वह गहरे अर्थों में संत नहीं हो सकता। यह लगती है बहुत अजीब-सी बात, लेकिन यह ऐसा ही है, यह तथ्य है। इसका कोई उपाय नहीं। इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि बड़े पापी एकदम से बड़े संत हो जाते हैं। और छोटे पापी छोटे ही पापी बने रहते हैं। क्योंकि जो भी जगत में ट्रांसफार्मेशन हैं, रूपांतरण हैं, वे सदा गहराइयों से आते हैं। नीचे उतरना जरूरी है ऊपर जाने के लिए।

नीत्से का एक वचन आपसे कहूं। नीत्से ने कहा है कि जिस वृक्ष को आकाश छूना हो, उस वृक्ष को अपनी जड़ें पाताल तक पहुंचाने की हिम्मत जुटानी पड़ती है। बहुत घबड़ाने वाली बात है नीचे उतरना, क्योंकि वहां अंधकार है। जब आप चेतन से अचेतन में उतरेंगे तो बहुत अंधकार में उतर जायेंगे। लेकिन जितने अंधकार में उतरने की आप हिम्मत जुटाते हैं, उतने प्रकाश के अधिकारी और पात्र हो जाते हैं। पात्रता आती है अंधेरे में उतरने से। साहस आता है अंधेरे में उतरने से। योग्यता आती है अंधेरे में उतरने से।

इसलिए ऊपर की फिक्र छोड़ दें, नीचे की फिक्र करें और एक-एक कदम पर प्रमाद को तोड़ते चले जायें। कहां से शुरू करेंगे? शुरू सदा वहीं से करना पड़ता है, जहां आप हैं। आप जिस मंजिल में हैं उस मंजिल का नाम चेतन है। उस चेतन मंजिल की क्रियाओं को आप प्रमाद छोड़कर करना शुरू कर दें।

बुद्ध के पास आनंद वर्षों तक रहा। एक दिन उसने पूछा कि बड़ी मुसीबत मालूम पड़ती है। कभी-कभी रात को मुझे नींद नहीं आती तो मैं आपको देखता रहता हूं। आप जिस करवट सोते हैं उसी करवट सोये रहते हैं, हाथ भी नहीं हिलाते, पैर भी नहीं बदलते। जिस आसन में, जिस अवस्था में सांझ सिर रखते हैं वैसा ही रात भर रखे रहते हैं। हैरानी होती है। मुझे तो बहुत करवट बदलनी पड़ती है। मुझे तो बहुत हाथ-पैर हिलाने पड़ते हैं। बुद्ध ने कहा, तुझे पता रहता है कि तू हाथ-पैर हिला रहा है, करवट बदल रहा है? आनंद ने कहा, कुछ पता नहीं रहता। सुबह पता चलता है कि जैसा सोया था वैसा नहीं सोया हूं। सिर कहीं था कहीं पहुंच गया। नींद में कैसे पता चल सकता है? बुद्ध ने कहा, मैं जानता हुआ सोता हूं, मैं जानता हुआ ही सोया रहता हूं। जहां हाथ रखा था वहीं हाथ रहता है, जब तक मैं न हटाऊं। हाथ अपने से हट जाये तो मेरी मालकियत गयी। फिर मैं मालिक नहीं रहा। तो आनंद ने कहा, क्या आप रात में भी जागे हुए सोते हैं? बुद्ध ने कहा, निश्चित ही। क्योंकि मैं दिन में जागा हुआ जागता हूं इसलिए रात में जागे हुए सोने का अधिकारी हो गया हूं।

जब तक आप दिन में सोये हुए जागेंगे तब तक तो संभावना नहीं है कि आप जागे हुए सो सकें। जब जागने में सोये रहते हैं तो सोने में तो सोये ही रहेंगे।

जागने में जागना शुरू करना पड़ेगा, वहीं से प्रमाद तोड़ें। महावीर अपने भिक्षुओं को निरंतर कहते थे, विवेक से उठो, विवेक से चलो, विवेक से बैठो। इसका मतलब क्या था? शायद उनके अनेक साधु यही समझते हैं कि…। विवेक से उठने का मतलब, विवेक से बैठने का मतलब जो महावीर के साधुओं ने समझा है, वह महावीर का खयाल नहीं है। महावीर के साधु समझते हैं, “विवेक से चलो’–इसका मतलब है कि किसी के बिछाये हुए बिस्तर पर पैर मत रखना, किसी के बिछाये हुए गलीचे पर मत चलना, सूखी जमीन में चलना, गीली जमीन में मत चलना। “विवेक से खाओ’, तो साधु महावीर का हजारों साल से समझ रहा है कि यह खाना और यह मत खाना। विवेक का मतलब लोगों ने समझा है, डिस्क्रिमिनेशन। विवेक का यह मतलब नहीं है महावीर का।

महावीर का विवेक से मतलब है, होश। महावीर का विवेक से मतलब है, अवेयरनेस, डिस्क्रिमिनेशन नहीं। क्योंकि जहां अवेयरनेस है वहां तो डिस्क्रिमिनेशन अपने-आप आ जाता है छाया की तरह। लेकिन जहां डिस्क्रिमिनेशन है वहां अवेयरनेस का आना कोई जरूरी नहीं है।

महावीर कहते हैं, विवेक से चलो। उसका मतलब है, जानते हुए चलो, होश से चलो कि तुम चल रहे हो। अब इस होश में ये सब आ जायेगा। जो गलत है वह नहीं होगा, क्योंकि होशपूर्वक किसी ने कभी कोई गलत काम नहीं किया, कर नहीं सकता। होशपूर्वक जो भी किया जाता है वह सदा ठीक है। होशपूर्वक पुण्य ही किया जा सकता है, होशपूर्वक पाप नहीं किया जा सकता।

इसलिए महावीर जब कहते हैं, होशपूर्वक खाओ, तो उसका मतलब यह नहीं कि यह खाओ और यह मत खाओ। उसका मतलब है, होशपूर्वक खाओ। खाने की क्रिया होशपूर्वक हो। उसमें यह तो आ ही जाता है, क्या छोड़ो क्या न छोड़ो। वह छूट ही जायेगा। उसे छोड़ने के लिए अलग से व्यवस्था, अलग से नियम बनाने की जरूरत नहीं है। और जो आदमी अलग से नियम बनाता है, वह बता रहा है कि उसका होश अभी नहीं जगा।

मैं जाकर कसम खाता हूं मंदिर में कि मैं दरवाजे से ही निकलूंगा, कभी दीवाल से नहीं निकलूंगा। तो लोग कहेंगे, आप अंधे तो नहीं हैं? क्योंकि यह कसम सिर्फ अंधे ही खा सकते हैं। और ध्यान रहे, अंधा कितनी ही कसम खाये, कभी-न-कभी दीवाल से टकरायेगा ही। अंधे के बस के बाहर है कसम को पूरा करना। और आंख वाला आदमी कभी कसम नहीं खाता कि मैं दरवाजे से निकलूंगा दीवाल से न निकलूंगा। आंख वाला आदमी दरवाजे से निकलता है और दीवाल से नहीं निकलता। क्योंकि आंख होने का मतलब यह है कि वह बताती है कि दीवाल से सिर फूट जायेगा और दरवाजे से रास्ता है। दीवाल से रास्ता नहीं है।

जो विवेक से जीता है वह गलत को नहीं करता, और गलत नहीं करने की कसम भी कभी नहीं खाता। और जो आदमी गलत को न करने की कसम खाता हो तो जान लेना कि उसे विवेक का अभी कोई पता नहीं चला, वह अंधा आदमी है। व्रत सिर्फ अंधे लेते हैं। आंख वाले लोग व्रत नहीं लेते। आंख वाले लोग जिस ढंग से जीते हैं, वह व्रत है! व्रत लिया नहीं जाता। लेकिन हम सब मंदिरों में व्रत ले रहे हैं। हम कसमें खा रहे हैं कि मैं एक साल ऐसा करूंगा, ऐसा नहीं करूंगा। ऐसा खाऊंगा ऐसा नहीं खाऊंगा, ऐसा नहीं पीऊंगा। इसका मतलब यह है कि आपका चित्त तो पीना चाहता है, आपका चित्त तो खाना चाहता है, उस चित्त को रोकने के लिए आप उल्टी कसम खा रहे हैं। मंदिर में खा रहे हैं जिसमें कि भगवान का थोड़ा डर रहे। लोगों के सामने खा रहे हैं कि लोग जरा देखते रहें कि तुमने कहा था सिगरेट नहीं पीऊंगा, अब तुम पी रहे हो। साधु के सामने कसम खा रहे हैं तो जरा भय रहे कि साधु को वचन दिया है तो पूरा करें। लेकिन एक बात पक्की है कि सिगरेट पीने की इच्छा भीतर मौजूद है। वह आदमी होश में नहीं है, इसलिए वह कसम खा रहा है।

कसम किसके खिलाफ खाई जाती है? अपने खिलाफ! और अपने खिलाफ खाई गयी कसमों को पालना बहुत मुश्किल है। और अगर पाल भी ली जायें तो भी उससे कोई हित नहीं है। सिर्फ डैडनिंग, सिर्फ व्यक्तित्व की संवेदना क्षीण होती है और कुछ भी नहीं होता।

नहीं, महावीर जब कहते हैं, “विवेक से चलो’, तो उसका मतलब है चलने की क्रिया होशपूर्वक हो, अप्रमादी हो। प्रमाद में न हो, मूर्च्छित न हो। पैर उठे तो जानो कि उठा। जमीन पर गिरे तो जानो कि गिरा। सिर घूमे तो जानो कि घूमा। बैठ रहे हो तो जानो कि बैठ रहे हो। कोई भी क्रिया बेहोशी में न हो जाये।

इसलिए महावीर से जब किसी ने पूछा कि आप साधु किसको कहते हैं? तो महावीर ने यह नहीं कहा कि जो मुंह पर पट्टी बांधता हो उसको मैं साधु कहता हूं। अगर महावीर ऐसा कहते तो दो कौड़ी के आदमी हो जाते! मुंह-पट्टी की जितनी कीमत है उतनी ही कीमत होती! महावीर ने ऐसा नहीं कहा कि जो नंगा रहता है उसे मैं साधु कहता हूं। अगर वह ऐसा कहते तो बड़े ना-समझ सिद्ध होते और जो जानने वाले थे, वह अनादि-अनंत समय तक उन पर हंसते। नहीं, महावीर ने जो जवाब दिया बहुत अदभुत था। महावीर ने कहा, जो जागा हुआ है उसे मैं साधु कहता हूं, “असुत्ता मुनि’। जो सोया हुआ नहीं है, उसे मैं मुनि कहता हूं। बड़ी अदभुत परिभाषा महावीर ने दी–जो सोया हुआ नहीं, असुत्ता मुनि, नहीं सोया है जो, उसे मैं साधु कहता हूं। पूछने वालों ने पूछा कि आप असाधु किसे कहते हैं? महावीर को कहना चाहिए था कि जो शराब पीता है। लेकिन ऐसा लगता है, महावीर का शराबखानों से कोई संबंध नहीं था। जिनका शराबखानों से संबंध होता है, वह यही समझाये चले जाते हैं कि जो शराब नहीं पीता, मांस नहीं खाता। महावीर का दिखता है किसी बूचरखाने से कोई संबंध नहीं था। जिनका होता है वह यही समझाये चले जाते हैं कि जो मांस नहीं खाता है वह साधु, सिगरेट नहीं पीता है वह साधु। यह करता है, यह नहीं करता। महावीर ने कहा, “सुत्ता अमुनि’, जो सोया हुआ जीता है वह असाधु है। बड़ी हिम्मत की, बड़ी गहरी, बड़ी समझ की बात है।

सिर्फ एक छोटे से सूत्र पर सब-कुछ निर्भर होता है। आप जाग कर जी रहे हैं या सो कर जी रहे हैं। अगर आप जाग कर जी रहे हैं, आपकी जिंदगी में साधुता उतर आयेगी। अगर आप सोकर जी रहे हैं, आपकी जिंदगी में असाधुता के सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता। आप सोये-सोये भी साधु बन सकते हैं, वह बना हुआ साधु होगा। और बने हुए साधु, असाधुओं से भी बदतर हालत में हो जाते हैं। क्योंकि उनको यह भ्रम पैदा हो जाता है कि वह साधु हैं। और जब असाधु को यह भ्रम पैदा हो जाये कि वह साधु है, तब जनम-जनम लग जायेंगे इस भ्रम से छूटने में।

अप्रमाद साधना का सूत्र है। अप्रमाद साधना है। चार दिन जो बात मैंने आपसे की। अहिंसा–वह परिणाम है, हिंसा स्थिति है। अपरिग्रह–वह परिणाम है, परिग्रह स्थिति है। अचौर्य–वह परिणाम है, चोरी स्थिति है। अकाम–वह परिणाम है, कामवासना या कामना स्थिति है। इस स्थिति को परिणाम तक बदलने के बीच जो सूत्र है, वह है–अप्रमाद, अवेयरनेस, रिमेंबरिंग, स्मरण।

प्रत्येक क्रिया स्मरणपूर्वक हो और प्रत्येक क्रिया होशपूर्वक हो। और एक भी क्रिया ऐसी न हो जो कि बेहोशी में हो रही हो। बस, आपकी धर्मऱ्यात्रा शुरू हो जाती है। आप नीचे उतरने लगेंगे और सूत्र वही रहेगा। जब नीचे के दूसरे खंड में पहुंचेंगे तब उसकी क्रियाओं के प्रति फिर अप्रमाद। जब उसकी पूरी क्रियाओं के प्रति जाग जायेंगे तो और नीचे पहुंचेंगे उसके प्रति अप्रमाद। और जितने नीचे पहुंचेंगे उतने ऊपर पहुंचते चले जायेंगे। जिस दिन कोई अपने पाताल की आखिरी पर्त को छू लेता है, उसी दिन अपनी आत्मा की आखिरी अमृत की पर्त उसे उपलब्ध हो जाती है।

जायें पाताल में, ताकि पहुंच सकें मोक्ष में! उतरें गहरे, ताकि छू सकें ऊंचाई को! छुएं नरक को, ताकि उपलब्ध हो सके स्वर्ग! जायें अंधकार में गहरे और गहरे ताकि प्रकाश को पाने की पात्रता मिल सके। अप्रमाद से…और अप्रमाद के अतिरिक्त और किसी बात से यह संभव नहीं होता है। दुनिया में चाहे कहीं भी कुछ भी कहा गया हो, चाहे जिसने कुछ कहा हो–चाहे बुद्ध ने, चाहे महावीर ने, चाहे कृष्ण ने, वह सबका सब, अप्रमाद जैसे छोटे से शब्द में समा जाता है।

कृष्ण कहते हैं, नींद में भी जागो। जीसस कहते हैं, जागे रहो। क्योंकि पता नहीं वह कब आ जाये। ऐसा न हो कि तुम सोये रहो और वह आये परमात्मा, और तुम्हें सोया पाये और लौट जाये। जागो और प्रतीक्षा करो। बी अवेयर एंड अवेटिंग। जीसस की सारी बातचीत इसी सूत्र पर घूमती है कि जागो और प्रतीक्षा करो। और महावीर की पूरी जिंदगी का प्रवचन एक ही बात को बार-बार दोहराता है–होशपूर्वक, विवेकपूर्वक, अप्रमाद से जीओ, मूर्च्छा में नहीं।

दोत्तीन सूत्र और अपनी बात मैं पूरी करूं। पहला सूत्र ठीक से समझ लेना कि आप सोये हुए हैं। समझाने की कोशिश मत करना अपने को कि मैं सोया हुआ नहीं हूं। जस्टीफाई मत करना अपने को कि मैं सोया हुआ नहीं हूं। मन कहेगा कि मैं और सोया हुआ? दूसरे सोये हुए होंगे, मैं तो जागा हुआ आदमी हूं। मैं और सोया हुआ? शास्त्र पढ़ता हूं, सोये हुए कैसे पढ़ सकता हूं? आत्मा, परमात्मा है, ऐसा जानता हूं, सोये हुए कैसे जान सकता हूं? नहीं, मैं सोया हुआ नहीं हूं। दूसरे सोये हुए हैं। सोया हुआ आदमी सदा दूसरे सोये हुए पर टाल कर अपने को जागा हुआ मान लेता है। यह नींद को बचाने का उपाय है, यह सेफ्टी-मेजर है नींद का, और नींद के अपने उपाय हैं बचने के।

ध्यान रखना, नींद टूटने से बचना चाहती है। नींद सब तरह का इंतजाम करती है कि टूट न जाये। अगर आप रात को भूखे सो गये हैं तो नींद भोजन देती है आपको, अपने को बचाने के लिए स्वप्न में। अगर स्वप्न में भोजन न मिले तो नींद टूट जायेगी। तो नींद इंतजाम करती है कि भोजन ले लो–झूठा सही, क्योंकि नींद झूठी चीजें दे सकती है। नींद सच्ची चीजें नहीं दे सकती। भूखे आदमी को स्वप्न में निमंत्रण दिलवा देती है नींद कि सम्राट के घर आज भोज है और आपको निमंत्रण मिला है। और जो आदमी ने अपनी जिंदगी में कभी न खाया वह नींद उसके सामने रख देती है। यह नींद अपने को बचा रही है। आपको पेशाब लगी है नींद में, तो नींद कहेगी बाथरूम में चले जाओ। नींद में ही चले जाओ, उठने की कोई जरूरत नहीं। उठने से नींद टूट जायेगी। आपने अलार्म रखा है चार बजे उठने का, अलार्म की घंटी बजती है। नींद कहती है, अलार्म की घंटी नहीं, मंदिर का घंटा बज रहा है, आराम से सो जाओ!

नींद अपने सेफ्टी-मेजर बनाये हुए है। नींद ने इंतजाम किया हुआ है कि टूट न जाये। तो आपके जागने में भी एक नींद का इंतजाम है। वह इंतजाम यह कि वह आपसे कहेगा, तुम तो जागे हुए हो बाकी लोग सोये हुए हैं। तुम इन्हें जगाने की कोशिश करो तो अच्छा, तुम तो जागे हुए ही हो। अगर आपका मन आपसे कहे कि जागे हुए ही हो तो नींद की इस सुरक्षा से बचना! इस धोखे में मत पड़ जाना।

एक, जिस दिन पता चल जाये कि मैं सोया हुआ हूं, एहसास हो जाये। और कल की कोई जरूरत नहीं, अभी, यहीं, एहसास हो सकता है कि आप सोये हुए हैं। तो फिर जागने का उपाय शुरू करना। छोटी-छोटी क्रियाओं में जागना और जो गहरी क्रियाएं हैं उनका अभिनय करके जागने की कोशिश करना।

अगर संकल्पपूर्वक नींद की तरकीबों से बचते हुए जागने का प्रयास किया जाये तो जो महावीर को संभव हुआ, जो बुद्ध को संभव हुआ, वह आपको भी संभव हो सकता है। पोटेंशियली, बीज रूप से, आपकी वही संभावना है जो किसी की भी है। आप भी वही हो सकते हैं जो जगत में कोई भी कभी हुआ है।

तो जागने की कोशिश करना और जागने की कोशिश जब गहरी हो जाये तो रुक मत जाना, अन्यथा दूसरे चरण पर नींद पकड़ लेगी। दूसरी मंजिल में ही रह जायेंगे। फिर वहां जागने की कोशिश करना। लंबी है यह यात्रा, असंभव नहीं। कठिन है यह यात्रा पर असंभव नहीं। और जो करता है वह कर ही पाता है। और नीचे-नीचे उतरते जाना, ऊपर की फिक्र छोड़ देना। ऊपर के फल अपने से आने लगेंगे। जितने आप नीचे उतरेंगे, उतने ऊपर फूल खिलने लगेंगे। उनकी सुगंध, उनका प्रकाश, उनका आनंद, झरने लगेगा। जैसे-जैसे नीचे जायेंगे वैसे-वैसे ऊपर जाने लगेंगे। और जिस दिन कोई व्यक्ति अपनी गहराई से गहराई को छू लेता है, द अल्टीमेट डेप्थ, जिस दिन परम गहराई को छू लेता है, उसी दिन परम ऊंचाई को छू लेता है। और जिस दिन दोनों छू लेता है, उस दिन गहराई और ऊंचाई एक हो जाती है। दो नहीं रह जाती। उस दिन सब एक हो जाता है।

सात मंजिल का यह मकान जिस दिन पूरा जान लिया जाता है, उस दिन एक हो जाता है। उस दिन फिर इसमें सात मंजिलें भी नहीं रह जातीं। सब बीच के परदे गिर जाते हैं। दीवालें हट जाती हैं। और एक भवन रह जाता है। उस एक का अनुभव ही परमात्मा का अनुभव है! उस एक का अनुभव ही मोक्ष का अनुभव है! उस एक का अनुभव ही अद्वैत का अनुभव है! उस एक का अनुभव ही समाधि का अनुभव है!

इन पांच दिनों में यह थोड़ी-सी बातें मैंने आपसे कहीं। इसलिए नहीं कि मुझे कहने में कुछ मजा आता है, इसलिए नहीं कि आपको सुनने में थोड़ा मनोरंजन हो, बल्कि इसलिए कि शायद कहीं चोट लग जाये! वीणा का कोई तार आपके भीतर कंप जाये! और कोई यात्रा शुरू हो जाये।

अंत में परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि आप अपने को बिना जाने समाप्त न हो जायें। आपकी जानने की, आपकी खोजने की, स्वयं से पूरी तरह परिचित होने की, यात्रा शुरू हो। लेकिन अकेली परमात्मा से की गयी प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं हो सकता। आप से भी मैं प्रार्थना करता हूं कि परमात्मा को थोड़ा सहयोग दें कि आपकी यात्रा पूरी हो सके।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

आज इतना ही।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–15

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शुद्ध चैतन्‍य में प्रवेश की विधियां—(प्रवचन—पंद्रहवां)

सूत्र:

22—अपने अवधान को ऐसी जगह रखो,

जहां तुम अतीत की किसी घटना को देख रहे हो

और अपने शरीर को भी।

रूप के वर्तमान लक्षण खो जाएंगे,

और तुम रूपांतरित हो जाओगे।

      23—अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो।

            इस एक को छोड़कर अन्‍य सभी विषयों की

            अनुपस्‍थिति को अनुभव करो।

            फिर विषय—भाव और अनुपस्‍थिति—भाव को भी

            छोड़कर आत्‍मोपलब्‍ध होओ।

      24—जब किसी व्‍यक्‍ति के पक्ष या विपक्ष में कोई भाव

            उठे तो उसे उस व्‍यक्‍ति पर मत आरोपित करो,

            बल्‍कि केंद्रित रहो।

 र्तमान युग के एक बहुत बड़े तांत्रिक, जार्ज गुरजिएफ का कहना है कि एक ही पाप है और वह तादात्म्य है। और केंद्रित होने के संबंध में जो अगला सूत्र है, दसवां सूत्र है—जिसमें हम आज रात प्रवेश करने जा रहे है—वह इसी तादात्म्य से संबंधित है। इसलिए पहले साफ समझ लेना है कि यह तादात्म्य क्या है।

तुम कभी बच्चे थे, अब नहीं हो। शीघ्र ही तुम जवान हो जाओगे, शीघ्र ही तुम बूढ़े हो जाओगे। और बचपन अतीत में खो जाएगा। जवानी भी चली गई, लेकिन अब भी तुम अपने बचपन से तादात्म्य किए बैठे हो। तुम यह नहीं देख सकते कि यह किसी और के साथ घटित हो रहा है, तुम इसके साक्षी नहीं हो पाते हो। जब भी तुम अपने बचपन को देखते हो, तुम उसके साथ एकात्म अनुभव करते हो; तुम उससे अलग नहीं होते हो। वैसे ही जब कोई अपनी जवानी को याद करता है तो वह उससे एकात्म हो जाता है। लेकिन हकीकत यह है कि यह अब केवल स्वप्न है।

और अगर तुम अपने बचपन को स्‍वप्‍न की तरह देख सको, वैसे ही जैसे पर्दे पर फिल्म देखते हो और उससे तादात्म्य नहीं करते, बस उसके साक्षी रहते हो, अगर ऐसा कर सको तो तुममें एक सूक्ष्म अंतर्दृष्टि का उदय होगा। अगर तुम अपने अतीत को फिल्म की तरह, स्वप्न की तरह देख सको—तुम उसके हिस्से नहीं हो, तुम उसके बाहर हो, और सचमुच बाहर हों—तो बहुत चीजें घटित होंगी।

अगर तुम अपने बचपन के बारे में सोच रहे हो; तुम वह नहीं हो, हो नहीं सकते। बचपन अब एक स्मृति भर है, अतीत स्मृति; तुम उसे देख रहे हो। तुम उससे भिन्न हो, तुम मात्र साक्षी हो। अगर तुम्हें इस साक्षीत्व की प्रतीति हो सके और तुम अपने बचपन को पर्दे पर फिल्म की तरह देख सको, तो अनेक चीजें घटित होंगी।

एक, अगर बचपन स्‍वप्‍न बन जाए और तुम उसे वैसे देख लो, तो अभी तुम जो कुछ हो वह भी अगले दिन स्वप्न हो जाएगा। यदि तुम जवान हो तो तुम्हारी जवानी स्वप्न हो जाएगी। यदि तुम बूढ़े हो तो तुम्हारा बुढ़ापा स्‍वप्‍न हो जाएगा। किसी दिन तुम बच्चे थे, अब वह बचपन स्वप्न बन गया। तुम इस तथ्य को देख सकते हो।

अतीत से शुरू करना अच्छा है। अतीत को देखो और उसके साथ अपना तादात्म्य हटा लो, सिर्फ गवाह हो जाओ। तब भविष्य को देखो, भविष्य के बारे में तुम्हारी जो कल्पना है, उसे देखो और उसके भी द्रष्टा बन जाओ। तब तुम अपने वर्तमान को आसानी से देख सकोगे, क्योंकि तब तुम जानते हो कि जो अभी वर्तमान है, कल भविष्य था और कल फिर वह अतीत हो जाएगा। लेकिन तुम्हारा साक्षी न कभी अतीत है न कभी भविष्य, तुम्हारी साक्षी चेतना शाश्वत है। साक्षी चेतना समय का अंग नहीं है। और यही कारण है कि जो भी समय में घटित होता है वह स्वप्न बन जाता है।

यह भी याद रखो कि जब रात में तुम सपने देखते हो तो सपने के साथ एकात्म हो जाते हो, स्वप्न में तुम्हें यह स्मरण बिलकुल नहीं रहता कि यह स्‍वप्‍न है। सिर्फ सुबह जब तुम नींद से जागते हो तो तुम्हें याद आता है कि वह सपना था, यथार्थ नहीं। क्यों? इसलिए कि अब तुम उससे अलग हो, उसमें नहीं हो; अब एक अंतराल है। और अब तुम देख सकते हो कि यह स्‍वप्‍न था।

तुम्हारा समूचा अतीत क्या है? जो अंतराल है, जो अवकाश है, उससे देखो कि वह सपना है। अतीत अब सपना ही है, सपने के सिवाय कुछ भी नहीं है। क्योंकि जैसे स्वप्न स्मृति बन जाता है वैसे ही अतीत भी स्मृति बन जाता है। तुम सचमुच सिद्ध नहीं कर सकते कि जो भी तुम अपने बचपन के रूप में सोचते हो, वह यथार्थ था या सपना। यह सिद्ध करना कठिन है। हो सकता है वह सपना ही रहा हो; हो सकता है वह सच ही हो। स्मृति नहीं कह सकती है कि वह स्वप्न था या सत्य।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बूढ़े लोग अक्सर अपने स्वप्न और यथार्थ में भेद नहीं कर पाते हैं। और बच्चों को तो हमेशा यह उलझन पकड़ती है, सुबह नींद से जागकर उन्हें यह उलझन होती है। रात उन्होंने स्वप्न में जो देखा था वह सत्य नहीं था, लेकिन सुबह जागकर वे सपने में टूट गए खिलौने के लिए जोर—जोर से रोते हैं।

और तुम भी तो नींद के टूटने के बाद थोड़ी देर तक अपने स्‍वप्‍नों से प्रभावित रहते हो। अगर स्वप्न में कोई तुम्हारा खून कर रहा था तो जागने के बाद भी तुम्हारी छाती धड़कती रहती है, तुम्हारे रक्त का संचालन तेज बना रहता है, तुम्हारा पसीना बहता रहता है और एक सूक्ष्म भय अब भी तुम्हें घेरे रहता है। अब तुम जाग गए हो और स्वप्न बीत गया है, तो भी यह समझने में तुम्हें समय लगता है कि सपना सपना ही था। और जब तुम समझ लेते हो कि सपना सपना था तभी तुम उसके बाहर होते हो, और तब भय नहीं रह जाता।

वैसे ही तुम देख सकते हो कि तुम्हारा अतीत भी एक स्वप्न था। तुम्हारा अतीत स्वप्न था, इसे आरोपित नहीं करना है, इसे जबर्दस्ती अपने पर लादना नहीं है। यह तो अंतर्दृष्टि का परिणाम है। यदि तुम अपने अतीत को देख सको, उससे एकात्म हुए बिना उसे देख सकी, उससे अलग होकर उसे देख सको, तो अतीत स्वप्न हो जाता है। जिसे भी तुम साक्षी की तरह देखते हो वह स्वप्न हो जाता।

यही वजह है कि शंकर और नागार्जुन कह सके कि संसार स्वप्न है। ऐसा नहीं है कि यह स्‍वप्‍न है। वे इतने मूढ़ नहीं थे कि यह संसार उन्हें दिखाई नहीं पड़ता था। इसे स्वप्न कहने में उनका यही अभिप्राय था कि वे साक्षी हो गए हैं, इस यथार्थ जगत के प्रति वे साक्षी हो गए हैं। और जब तुम किसी चीज के साक्षी हो जाते हो तो वह स्वप्न बन जाती है। इसी वजह से व जगत को माया कहते हैं। यह नहीं कि वह यथार्थ नहीं है, उसका इतना ही अर्थ है कि कोई इस जगत का भी साक्षी हो सकता है। और एक बार तुम साक्षी हो जाओ, पूरे बोधपूर्ण हो जाओ तो पूरी चीज तुम्हारे लिए स्‍वप्‍नवत हो जाती है। क्योंकि वह तो है, लेकिन अब तुम उससे एकात्म नहीं हो। लेकिन हम तो तादात्म्य किए ही जाते हैं।

कुछ दिन पहले मैं जीन जेकुअस रूसो की पुस्तक कन्‍फेशंन पढ़ रहा था। यह एक अदभुत पुस्तक है। विश्व—साहित्य में यह पहली किताब है जिसमें किसी ने अपने को पूरा उघाड़कर रख दिया है। रूसो ने जो भी पाप किए थे, जो भी अनैतिकता की थी, सबको उसने पूरी नग्नता में प्रकट कर दिया है। लेकिन अगर तुम उसकी कन्‍फेशंन को पढ़ो तो तुम्हें स्पष्ट पता चलेगा कि रूसो अपने पापों का मजा ले रहा है, वह उनसे आनंदित है। अपने पापों और अनाचारों की चर्चा करते हुए रूसो बहुत आह्लादित मालूम पड़ता है। पुस्तक की भूमिका में रूसो ने लिखा है कि जब अंतिम न्याय का दिन आएगा तो मैं परमपिता से कहूंगा कि तुम मेरी फिक्र मत करो, बस मेरी किताब पढ़ लो। और पुस्तक के अंत में उसने लिखा है कि हे परमपिता! अब मेरी एक ही इच्छा पूरी कर दो, मैंने सब कुछ स्वीकार कर लिया है। अब एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी होकर मेरे कन्‍फेशंन को सुन ले।

अब यह संदेह किया जाता है और सही संदेह किया जाता है कि रूसो ने वे पाप भी स्वीकार किए जो उसने नहीं किए थे। क्योंकि वह पूरी चीज से इतना आह्लादित है, उसने सबके साथ तादात्म्य कर लिया है। रूसो ने एक ही पाप स्वीकार नहीं किया है, और वह है तादात्म्य का पाप। उसने अपने किए और अनकिए सभी पापों के साथ तादात्म्य किया हुआ है। और जो मनुष्य के मन को गहराई में जानते हैं वे कहते हैं कि तादात्म्य मौलिक पाप है।

जब पहली दफा रूसो ने बुद्धिजीवियों के एक समूह के सामने अपनी कन्‍फेशंन पढ़कर सुनाई तब उसे खयाल था कि कोई भूकंपकारी घटना शुरू हो रही है। क्योंकि जैसा उसने कहा, वह पहला व्यक्ति था जिसने इतनी सच्चाई से सब कुछ स्वीकारा था। लेकिन जो सुविधाजन उसे सुन रहे थे वे सुनते—सुनते ऊबने लगे। रूसो बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि उसे खयाल था कि कोई चमत्कार घटित होने जा रहा है।

जब उसने पढ़ना समाप्त किया तब श्रोताओं ने राहत की सांस ली और किसी ने कुछ कहा नहीं। कुछ देर तक पूरा सन्नाटा रहा। रूसो की तो छाती बैठ गई। उसने तो सोचा था कि कोई बड़ी क्रांतिकारी, भूकंपकारी, ऐतिहासिक घटना घट रही है, और यहां सन्नाटा है, और लोग सोच रहे हैं कि कैसे यहां से सरका जाए।

तुम्हारे पापों में कौन उत्सुक है? न कोई तुम्हारे पापों में उत्सुक है, न कोई तुम्हारे पुण्यों में उत्सुक है। लेकिन आदमी है कि वह अपने पुण्य के मजे लेता है और अपने पाप के भी मजे लेता है, कि वह अपने पुण्य से अहंकार को भरता है और अपने पाप से भी अहंकार को भरता है। कन्‍फेशंन लिखकर रूसो अपने को संत—महात्मा समझने लगा था, लेकिन मौलिक पाप अपनी जगह खड़ा था।

समय में हुई घटनाओं के साथ तादात्म्य ही बुनियादी पाप है। जो भी समय में होता है वह स्‍वप्‍नवत है। और जब तक तुम उससे निसंग नहीं होते तब तक तुम नहीं जान सकते कि आनंद क्या है। तादात्म्य दुख है, गैर—तादात्म्य आनंद है।

यह दसवीं विधि तादात्म्य से संबंधित है।

 

केंद्रित होने की दसवीं विधि :

अपने अवधान को ऐसी जगह रखो जहां तुम अतीत की किसी घटना को देख रहे हो और अपने शरीर को भी। रूप के वर्तमान लक्षण खो जाएंगे और तुम रूपांतरित हो जाओगे।

तुम अपने अतीत को याद कर रहे हो। चाहे वह कोई भी घटना हो; तुम्हारा बचपन, तुम्हारा प्रेम, पिता या माता की मृत्यु, कुछ भी हो सकता है। उसे देखो। लेकिन उससे एकात्म मत होओ। उसे ऐसे देखो जैसे वह किसी और के जीवन में घटा हो। उसे ऐसे देखो जैसे वह घटना पर्दे पर फिर से घट रही हो, फिल्माई जा रही हो, और तुम उसे देख रहे हो—उससे अलग, तटस्थ, साक्षी की तरह।

उस फिल्म में, कथा में तुम्हारा बीता रूप फिर उभर जाएगा। यदि तुम अपनी कोई प्रेम—कथा स्मरण कर रहे हो, अपने प्रेम की पहली घटना, तो तुम अपनी प्रेमिका के साथ स्मृति के पर्दे पर प्रकट होओगे और तुम्हारा अतीत का रूप प्रेमिका के साथ उभर आएगा। अन्यथा तुम उसे याद न कर सकोगे। अपने इस अतीत के रूप से भी तादात्म्य हटा लो। पूरी घटना को ऐसे देखो मानो कोई दूसरा पुरुष किसी दूसरी स्त्री को प्रेम कर रहा है, मानो पूरी कथा से तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं है; तुम महज द्रष्टा हो, गवाह हो।

यह विधि बहुत—बहुत बुनियादी है। इसे बहुत प्रयोग में लाया गया—विशेषकर बुद्ध के द्वारा। और इस विधि के अनेक प्रकार हैं। इस विधि के प्रयोग का अपना ढंग तुम खुद खोज ले सकते हो। उदाहरण के लिए, रात में जब तुम सोने लगो, गहरी नींद में उतरने लगो तो पूरे दिन के अपने जीवन को याद करो। इस याद की दिशा उलटी होगी, यानी उसे सुबह से न शुरू कर वहां से शुरू करो जहां तुम हो। अभी तुम बिस्तर में पड़े हो तो बिस्तर में लेटने से शुरू कर पीछे लौटो। और इस तरह कदम—कदम पीछे चलकर सुबह की उस पहली घटना पर पहुंचो जब तुम नींद से जागे थे। अतीत स्मरण के इस क्रम में सतत याद रखो कि पूरी घटना से तुम पृथक हो, अछूते हो।

उदाहरण के लिए, पिछले पहर तुम्हारा किसी ने अपमान किया था; तुम अपने रूप को अपमानित होते हुए देखो, लेकिन द्रष्टा बने रहो। तुम्हें उस घटना में फिर नहीं उलझना है, फिर क्रोध नहीं करना है। अगर तुमने क्रोध किया तो तादात्म्य पैदा हो गया। तब ध्यान का बिंदु तुम्हारे हाथ से छूट गया।

इसलिए क्रोध मत करो। वह अभी तुम्हें अपमानित नहीं कर रहा है, वह तुम्हारे पिछले पहर के रूप को अपमानित कर रहा है। वह रूप अब नहीं है। तुम तो एक बहती नदी की तरह हो जिसमें तुम्हारे रूप भी बह रहे हैं। बचपन में तुम्हारा एक रूप था, अब वह नहीं है। वह जा चुका। नदी की भांति तुम निरंतर बदलते जा रहे हो।

रात में ध्यान करते हुए जब दिन की घटनाओं को उलटे क्रम में, प्रतिक्रम में याद करो तो ध्यान रहे कि तुम साक्षी हो, कर्ता नहीं। क्रोध मत करो। वैसे ही जब तुम्हारी कोई प्रशंसा करे तो आह्लादित मत होओ। फिल्म की तरह उसे भी उदासीन होकर देखो।

प्रतिक्रमण बहुत उपयोगी है, खासकर उनके लिए जिन्हें अनिद्रा की तकलीफ हो। अगर तुम्हें ठीक से नींद नहीं आती है, अनिद्रा का रोग है, तो यह प्रयोग तुम्हें बहुत सहयोगी विधियां होगा। क्यों? क्योंकि यह मन को खोलने का, निर्ग्रंथ करने का उपाय है। जब तुम पीछे लौटते हो तो मन की तहें उघडने लगती हैं। सुबह में जैसे घड़ी में चाबी देते हो वैसे तुम अपने मन पर भी तहें लगाना शुरू करते हो। दिनभर में मन पर अनेक विचारों और घटनाओं के संस्कार जम जाते हैं; मन उनसे बोझिल हो जाता है। अधूरे और अपूर्ण संस्कार मन में झूलते रहते हैं, क्योंकि उनके घटित होते समय उन्हें देखने का मौका नहीं मिला था।

इसलिए रात में फिर उन्हें लौटकर देखो—प्रतिक्रम में। यह मन के निर्ग्रंथ की, सफाई की प्रक्रिया है। और इस प्रक्रिया में जब तुम सुबह बिस्तर से जागने की पहली घटना तक पहुंचोगे तो तुम्हारा मन फिर से उतना ही ताजा हो जाएगा जितना ताजा वह सुबह था। और तब तुम्हें वैसी नींद आएगी जैसी छोटे बच्चे को आती है।

तुम इस विधि को अपने पूरे अतीत जीवन में जाने के लिए भी उपयोग कर सकते हो। महावीर ने प्रतिक्रमण की इस विधि का बहुत उपयोग किया है।

अभी अमेरिका में एक आंदोलन है, जिसे डायनेटिक्स कहते हैं। वे इसी विधि का उपयोग कर रहे हैं, और वह बहुत काम की साबित हुई है। डायनेटिक्स वाले कहते हैं कि तुम्हारे सारे रोग तुम्हारे अतीत के अवशेष हैं—तलछट। और वे ठीक कहते हैं। अगर तुम अपने अतीत में लौटो, अपने जीवन को फिर से खोलकर देख लो, तो उसी देखने में बहुत से रोग विदा हो जाएंगे। और यह बात बहुत से प्रयोगों से सही सिद्ध हो चुकी है।

बहुत लोग किसी ऐसे रोग से पीड़ित होते हैं जिसमें कोई चिकित्सा, कोई उपचार काम नहीं करता है। यह रोग मानसिक मालूम होता है। तो उसके लिए क्या किया जाए? यदि किसी को कहो कि तुम्हारा रोग मानसिक है तो उससे बात बनने की बजाय बिगड़ती है। यह सुनकर कि मेरा रोग मानसिक है, किसी भी व्यक्ति को बुरा लगता है। तब उसे लगता है कि अब कोई उपाय नहीं है। और वह बहुत असहाय महसूस करता है।

प्रतिक्रमण एक चमत्कारिक विधि है। अगर तुम पीछे लौटकर अपने मन की गांठें खोलो तो तुम धीरे— धीरे उस पहले क्षण को पकड़ सकते हो जब यह रोग शुरू हुआ था। उस क्षण को पकड़कर तुम्हें पता चलेगा कि यह रोग अनेक मानसिक घटनाओं और कारणों से निर्मित हुआ है। प्रतिक्रमण से वे कारण फिर से प्रकट हो जाते हैं।

अगर तुम उस क्षण से गुजर सको जिसमें पहले पहल इस रोग ने तुम्हें घेरा था, अचानक तुम्हें पता चल जाएगा कि किन मनोवैज्ञानिक कारणों से यह रोग बना था। तब तुम्हें कुछ करना नहीं है, सिर्फ उन मनोवैज्ञानिक कारणों को बोध में ले आना है। इस प्रतिक्रमण से अनेक रोगों की ग्रंथियां टूट जाती हैं और अंततः रोग विदा हो जाते हैं। जिन ग्रंथियों को तुम जान लेते हो वे ग्रंथियां विसर्जित हो जाती हैं और उनसे बने रोग समाप्त हो जाते हैं।

यह विधि गहरे रेचन की विधि है। अगर तुम इसे रोज कर सको तो तुम्हें एक नया स्वास्थ्य और एक नई ताजगी का अनुभव होगा। और अगर हम अपने बच्चों को रोज इसका

प्रयोग करना सिखा दें तो उन्हें उनका अतीत कभी बोझिल नहीं बना सकेगा। तब बच्चों को अपने अतीत में लौटने की जरूरत नहीं रहेगी। वे सदा यहां और अब, यानी वर्तमान में रहेंगे। तब उन पर अतीत का थोड़ा सा भी बोझ नहीं रहेगा, वे सदा स्वच्छ और ताजा रहेंगे।

तुम इसे रोज कर सकते हो। पूरे दिन को इस तरह उलटे क्रम से पुन: खोलकर देख लेने से तुम्हें नई अंतर्दृष्टि प्राप्त होगी। तुम्हारा मन तो चाहेगा कि यादों का सिलसिला सुबह से शुरू करें। लेकिन उससे मन का निर्ग्रंथन नहीं होगा। उलटे पूरी चीज दुहरकर और मजबूत हो जाएगी। इसलिए सुबह से शुरू करना गलत होगा।

भारत में ऐसे अनेक तथाकथित गुरु हैं जो सिखाते हैं कि पूरे दिन का पुनरावलोकन करो और इस प्रक्रिया को सुबह से शुरू करो। लेकिन यह गलत और नुकसानदेह है। उससे मन मजबूत होगा और अतीत का जाल बड़ा और गहरा हो जाएगा। इसलिए सुबह से शाम की तरफ कभी मत चलो, सदा पीछे की ओर गति करो। और तभी तुम मन को पूरी तरह निर्ग्रंथ कर पाओगे, खाली कर पाओगे, स्वच्छ कर पाओगे।

मन तो सुबह से शुरू करना चाहेगा, क्योंकि वह आसान है। मन उस क्रम को भलीभांति जानता है, उसमें कोई अड़चन नहीं है। प्रतिक्रमण में भी मन उछलकर सुबह पर चला जाता है और फिर आगे चला चलेगा। वह गलत है, वैसा मत करो। सजग हो जाओ और प्रतिक्रम से चलो।

इसमें मन को प्रशिक्षित करने के लिए अन्य उपाय भी काम में लाए जा सकते हैं। सौ से पीछे की तरफ गिनना शुरू करो—निन्यानबे, अट्ठानबे, सत्तानबे। प्रतिक्रम से सौ से एक तक गिनो। इसमें भी अड़चन होगी, क्योंकि मन की आदत एक से सौ की ओर जाने की है, सौ से एक की ओर जाने की नहीं। इसी क्रम में घटनाओं को पीछे लौटकर स्मरण करना है।

क्या होगा? पीछे लौटते हुए मन को फिर से खोलकर देखते हुए तुम साक्षी हो जाओगे। अब तुम उन चीजों को देख रहे हो जो कभी तुम्हारे साथ घटित हुई थीं, लेकिन अब तुम्हारे साथ घटित नहीं हो रही हैं। अब तो तुम सिर्फ साक्षी हो, और वे घटनाएं मन के पर्दे पर घटित हो रही हैं।

अगर इस ध्यान को रोज जारी रखो तो किसी दिन अचानक तुम्हें दुकान पर या दफ्तर में काम करते हुए खयाल होगा कि क्यों नहीं अभी घटने वाली घटनाओं के प्रति भी साक्षीभाव रखा जाए! अगर समय में पीछे लौटकर जीवन की घटनाओं को देखा जा सकता है, उनका गवाह हुआ जा सकता है—दिन में किसी ने तुम्हारा अपमान किया था और तुम बिना क्रोधित हुए उस घटना को फिर देख सकते हो—तो क्या कारण है कि उन घटनाओं को जो अभी घट रही हैं, नहीं देखा जा सके? कठिनाई क्या है?

कोई तुम्हारा अपमान कर रहा है। तुम अपने को घटना से पृथक कर सकते हो और देख सकते हो कि कोई तुम्हारा अपमान कर रहा है। तुम यह भी देख सकते हो कि तुम अपने शरीर से, अपने मन से और उससे भी जो अपमानित हुआ है, पृथक हो। तुम सारी चीज के गवाह हो सकते हो। और अगर ऐसे गवाह हो सकी तो फिर तुम्हें क्रोध नहीं होगा। क्रोध तब असंभव जाएगा। क्रोध तो तब संभव होता है जब तुम तादात्म्य करते हो, अगर तादात्म्य म् नहीं है तो क्रोध असंभव है। क्रोध का अर्थ तादात्म्य है।

यह विधि कहती है कि अतीत की किसी घटना को देखो, उसमें तुम्हारा रूप उपस्थित होगा। यह सूत्र तुम्हारी नहीं, तुम्हारे रूप की बात करता है। तुम तो कभी वहां थे ही नहीं। सदा

किसी घटना में तुम्हारा रूप उलझता है, तुम उसमें नहीं होते। जब तुम मुझे अपमानित करते हो तो सच में तुम मुझे अपमानित नहीं करते। तुम मेरा अपमान कर ही नहीं सकते, केवल मेरे रूप का अपमान कर सकते हो। मैं जो रूप हूं तुम्हारे लिए तो उसी की उपस्थिति अभी है और तुम उसे अपमानित कर सकते हो। लेकिन मैं अपने को अपने रूप से पृथक कर सकता हूं। यही कारण है कि हिंदू नाम—रूप से अपने को पृथक करने की बात पर जोर देते आए हैं। तुम तुम्हारा नाम—रूप नहीं हो, तुम वह चैतन्य हो जो नाम—रूप को जानता है। और चैतन्य पृथक है, सर्वथा पृथक है।

लेकिन यह कठिन है। इसलिए अतीत से शुरू करो, वह सरल है। क्योंकि अतीत के साथ कोई तात्कालिकता का भाव नहीं रहता है। किसी ने बीस साल पहले तुम्हें अपमानित किया था, उसमें तात्कालिकता का भाव अब कैसे होगा! वह आदमी मर चुका होगा और बात समाप्त हो गई है। यह एक मुर्दा घटना है। अतीत से याद की हुई। उसके प्रति जागरूक होना आसान है। लेकिन एक बार तुम उसके प्रति जागना सीख गए तो अभी और यहां होने वाली घटनाओं के प्रति भी जागना हो सकेगा। लेकिन अभी और यहां से आरंभ करना कठिन है। समस्या इतनी तात्कालिक है, निकट है, जरूरी है कि उसमें गति करने के लिए जगह ही कहा है! थोड़ी दूरी बनाना और घटना से पृथक होना कठिन बात है।

इसीलिए सूत्र कहता है कि अतीत से आरंभ करो। अपने ही रूप को अपने से अलग देखो और उसके द्वारा रूपांतरित हो जाओ।

इसके द्वारा रूपांतरित हो जाओगे, क्योंकि यह निर्ग्रंथन है—एक गहरी सफाई है, धुलाई है। और तब तुम जानोगे कि समय में जो तुम्हारा शरीर है, तुम्हारा मन है, अस्तित्व है, वह तुम्हारा वास्तविक यथार्थ नहीं है, वह तुम्हारा सत्य नहीं है। सार—सत्य सर्वथा भिन्न है। उस सत्य से चीजें आती—जाती हैं और सत्य अछूता रह जाता है। तुम अस्पर्शित रहते हो, निर्दोष रहते हो, कुंवारे रहते हो। सब कुछ गुजर जाता है, पूरा जीवन गुजर जाता है। शुभ और अशुभ, सफलता और विफलता, प्रशंसा और निंदा, सब कुछ गुजर जाता है। रोग और स्वास्थ्य, जवानी और बुढ़ापा, जन्म और मृत्यु, सब कुछ व्यतीत हो जाता है और तुम अछूते रहते हो। लेकिन इस अस्पर्शित सत्य को कैसे जाना जाए?

इस विधि का वही उपयोग है। अपने अतीत से आरंभ करो। अतीत को देखने के लिए अवकाश उपलब्ध है, अंतराल उपलब्ध है, परिप्रेक्ष्य संभव है। या भविष्य को देखो, भविष्य का निरीक्षण करो। लेकिन भविष्य को देखना भी कठिन है। सिर्फ थोड़े से लोगों के लिए भविष्य को देखना कठिन नहीं है। कवियों और कल्पनाशील लोगों के लिए भविष्य को देखना कठिन नहीं है। वे भविष्य को ऐसे देख सकते हैं जैसे वे किसी यथार्थ को देखते हैं। लेकिन सामान्‍यत: अतीत को उपयोग में लाना अच्छा है, तुम अतीत में देख सकते हो।

जवान लोगों के लिए भविष्य में देखना अच्छा रहेगा। उनके लिए भविष्य में झांकना सरल है, क्योंकि वे भविष्योन्मूख होते हैं। बूढ़े लोगों के लिए मृत्यु के सिवाय कोई भविष्य नहीं है। वे भविष्य में नहीं देख सकते हैं, वे भयभीत हैं। यही वजह है कि बूढ़े लोग सदा अतीत के संबंध में विचार करते हैं। वे पुन: —पुन: अपने अतीत की स्मृति में घूमते रहते हैं। लेकिन वे भी वही भूल करते हैं। वे अतीत से शुरू कर वर्तमान की ओर आते हैं। यह गलत है। उन्हें प्रतिक्रमण करना चाहिए।

अगर वे बार—बार अतीत में प्रतिक्रम से लौट सकें तो धीरे— धीरे उन्हें महसूस होगा कि उनका सारा अतीत बह गया। और तब कोई आदमी अतीत से चिपके बिना, अटके बिना मर सकता है। अगर तुम अतीत को अपने से चिपकने न दो, अतीत में न अटको, अतीत को हटाकर मर सको, तब तुम सजग मरोगे, तब तुम पूरे बोध में, पूरे होश में मरोगे। और तब मृत्यु तुम्हारे लिए मृत्यु नहीं रहेगी, बल्कि वह अमृत के साथ मिलन में बदल जाएगी।

अपनी पूरी चेतना को अतीत के बोझ से मुक्त कर दो, उससे अतीत के मैल को निकालकर उसे शुद्ध कर दो, और तब तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो जाएगा।

प्रयोग करो। यह उपाय कठिन नहीं है। सिर्फ अध्यवसाय की, सतत चेष्टा की जरूरत है। विधि में कोई अंतर्भूत कठिनाई नहीं है। यह सरल है। और तुम आज से ही इसे शुरू कर सकते हो। आज ही रात अपने बिस्तर में लेटकर शुरू करो, और तुम बहुत सुंदर और आनंदित अनुभव करोगे। पूरा दिन फिर से गुजर जाएगा।

लेकिन जल्दबाजी मत करो। धीरे— धीरे पूरे क्रम से गुजरों, ताकि कुछ भी दृष्टि से चूके नहीं। यह एक आश्चर्यजनक अनुभव है, क्योंकि अनेक ऐसी चीजें तुम्हारी निगाह के सामने आएंगी जिन्हें दिन में तुम चूक गए थे। दिन में बहुत व्यस्त रहने के कारण तुम बहुत—बहुत चीजें चूकते हो, लेकिन मन उन्हें भी अपने भीतर इकट्ठा करता जाता है, तुम्हारी बेहोशी में भी मन उनको ग्रहण करता जाता है।

तुम सड़क से जा रहे थे और कोई आदमी गा रहा था। हो सकता है कि तुमने उसके गीत पर कोई ध्यान न दिया हो, तुम्हें यह भी बोध न हुआ हो कि तुमने उसकी आवाज भी सुनी। लेकिन तुम्हारे मन ने उसके गीत को भी सुना और अपने भीतर स्मृति में रख लिया था। अब वह गीत तुम्हें पकड़े रहेगा, वह तुम्हारी चेतना पर अनावश्यक बोझ बना रहेगा।

तो पीछे लौटकर उसे देखो, लेकिन बहुत धीरे— धीरे उसमें गति करो। ऐसा समझो कि पर्दे पर बहुत धीमी गति से कोई फिल्म दिखायी जा रही है। ऐसे ही अपने बीते दिन की छोटी से छोटी घटना को गौर से देखो, उसकी गहराई में जाओ। और तब तुम पाओगे कि तुम्हारा दिन बहुत बड़ा था। वह सचमुच बड़ा था, क्योंकि मन को उसमें अनगिनत सूचनाएं मिलीं और मन ने सबको इकट्ठा कर लिया।

तो प्रतिक्रमण करो। धीरे— धीरे तुम उस सबको जानने में सक्षम हो जाओगे जिन्हें तुम्हारे मन ने दिनभर में अपने भीतर इकट्ठा कर लिया था। वह टेप रेकार्डर जैसा है। और तुम जैसे—जैसे पीछे जाओगे, मन का टेप पुंछता जाएगा, साफ होता जाएगा। और जब तक तुम सुबह की घटना के पास पहुंचोगे, तुम्हें नींद आ जाएगी। और तब तुम्हारी नींद की गुणवत्ता और होगी। वह नींद भी ध्यानपूर्ण होगी।

और दूसरे दिन सुबह नींद से. जागने पर अपनी आंखों को तुरंत मत खोलो। एक बार फिर रात की घटनाओं में प्रतिक्रम से लौटी। आरंभ में यह कठिन होगा। शुरू में बहुत थोड़ी गति होगी। कभी कोई स्‍वप्‍न का अंश, उस स्‍वप्‍न का अंश जिसे ठीक जागने के पहले तुम देख रहे थे, दिखाई पड़ेगा। लेकिन धीरे— धीरे तुम्हें ज्यादा बातें स्मरण आने लगेंगी, तुम गहरे प्रवेश करने लगोगे। और तीन महीने के बाद तुम समय के उस छोर पर पहुंच जाओगे जब तुम्हें नींद लगी थी, जब तुम सो गए थे।

और अगर तुम अपनी नींद में प्रतिक्रम से गहरे उतर सके तो तुम्हारी नींद और जागरण

की गुणवत्ता बिलकुल बदल जाएगी। तब तुम्हें सपने नहीं आएंगे, तब सपने व्यर्थ हो जाएंगे। अगर दिन और रात दोनों में तुम प्रतिक्रमण कर सके तो फिर सपनों की जरूरत नहीं रहेगी।

अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सपना भी मन को फिर से खोलने, खाली करने की प्रक्रिया है। और अगर तुम स्वयं यह काम प्रतिक्रमण के द्वारा कर लो तो स्वप्न देखने की जरूरत नहीं रहेगी। सपना इतना ही तो करता है कि जो कुछ भी मन में अटका पड़ा था, अधूरा पड़ा था, अपूर्ण था, उसे वह पूरा कर देता है।

तुम सड़क से गुजर रहे थे और तुमने एक सुंदर मकान देखा और तुम्हारे भीतर उस मकान को पाने की सूक्ष्म वासना पैदा हो गई। लेकिन उस समय तुम दफ्तर जा रहे थे और तुम्हारे पास दिवा—स्वप्न देखने का समय नहीं था। तुम उस कामना को टाल गए, तुम्हें यह पता भी नहीं चला कि मन ने मकान को पाने की कामना निर्मित की थी। लेकिन वह कामना अब भी मन के किसी कोने में अटकी पड़ी है। और अगर तुमने उसे वहां से नहीं हटाया तो वह तुम्हारी नींद मुश्किल कर देगी।

नींद की कठिनाई यही बताती है कि तुम्हारा दिन अभी भी तुम पर हावी है और तुम उससे मुक्त नहीं हुए हो। तब रात में तुम स्वप्न देखोगे कि तुम उस मकान के मालिक हो गए हो, और अब तुम उस मकान में वास कर रहे हो। और जिस क्षण यह स्वप्न घटित होता है, तुम्हारा मन हलका हो जाता है।

सामान्यत: लोग सोचते हैं कि सपने नींद में बाधा डालते हैं, यह सर्वथा गलत है। सपने नींद में बाधा नहीं डालते। सच तो यह है कि सपने नींद में सहयोगी होते हैं। सपनों के बिना तुम बिलकुल नहीं सो सकते हो। जैसे तुम हो, तुम सपनों के बिना नहीं सो सकते हो। क्योंकि सपने तुम्हारी अधूरी चीजों को पूरा करने में सहयोगी हैं।

और ऐसी चीजें हैं जो पूरी नहीं हो सकतीं। तुम्हारा मन अनर्गल कामनाएं किए जाता है, वे यथार्थ में पूरी नहीं हो सकती हैं। तो क्या किया जाए? वे अधूरी कामनाएं तुम्हारे भीतर बनी रहती हैं और तुम आशा किए जाते हो, सोच—विचार किए जाते हो। तो क्या किया जाए? तुम्हें एक सुंदर स्त्री दिखाई पड़ी और तुम उसके प्रति आकर्षित हो गए। अब उसे पाने की कामना तुम्हारे भीतर पैदा हो गई, जो हो सकता है संभव न हो। हो सकता है वह स्त्री तुम्हारी तरफ ताकना भी पसंद न करे। तब क्या हो?

स्‍वप्‍न यहां तुम्हारी सहायता करता है। स्वप्न में तुम उस स्त्री को पा सकते हो। और तब तुम्हारा मन हलका हो जाएगा। जहां तक मन का संबंध है, स्वप्न और यथार्थ में कोई फर्क नहीं है। मन के तल पर क्या फर्क है? किसी स्त्री को यथार्थत: प्रेम करने और सपने में प्रेम करने में क्या फर्क है?

कोई फर्क नहीं है। अगर फर्क है तो इतना ही कि स्वप्न यथार्थ से ज्यादा सुंदर होगा। स्वप्न की स्त्री कोई अड़चन नहीं खड़ी करेगी। स्वप्‍न तुम्हारा है और उसमें तुम जो चाहो कर सकते हो। वह स्त्री तुम्हारे लिए कोई बाधा नहीं पैदा करेगी। वह तो है ही नहीं, तुम ही हो। वहां कोई भी अड़चन नहीं है, तुम जो चाहो कर सकते हो। मन के लिए कोई भेद नहीं है, मन स्वप्न और यथार्थ में कोई भेद नहीं कर सकता है।

उदाहरण के लिए तुम्हें यदि एक साल के लिए बेहोश करके रख दिया जाए और उस बेहोशी में तुम सपने देखते रहो तो एक साल तक तुम्हें बिलकुल पता नहीं चलेगा कि जो भी तुम देख रहे हो वह सपना है। सब यथार्थ जैसा लगेगा, और स्वप्न सालभर चलता रहेगा। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर किसी व्यक्ति को सौ साल के लिए कोमा में रखा दिया जाए तो वह सौ साल तक सपने देखता रहेगा, और उसे क्षणभर के लिए भी संदेह नहीं होगा कि जो मैं कर रहा हूं वह स्वप्न में कर रहा हूं। और यदि वह कोमा में ही मर जाए तो उसे कभी पता नहीं चलेगा कि मेरा जीवन एक स्वप्न था, सच नहीं था।

मन के लिए कोई भेद नहीं है, सत्य और स्‍वप्‍न दोनों समान हैं। इसलिए मन अपने को सपनों में भी निर्ग्रंथ कर सकता है। अगर इस विधि का प्रयोग करो तो सपना देखने की जरूरत नहीं रहेगी। तब तुम्हारी नींद की गुणवत्ता भी पूरी तरह बदल जाएगी। क्योंकि सपनों की अनुपस्थिति में तुम अपने अस्तित्व की आत्यंतिक गहराई में उतर सकोगे। और तब नींद में भी तुम्हारा बोध कायम रहेगा।

कृष्ण गीता में यही बात कह रहे हैं कि जब सभी गहरी नींद में होते हैं तो योगी जागता है। इसका यह अर्थ नहीं कि योगी नहीं सोता है। योगी भी सोता है, लेकिन उसकी नींद का गुणधर्म भिन्न है। तुम्हारी नींद ऐसी है जैसी नशे की बेहोशी होती है। योगी की नींद प्रगाढ़ विश्राम है, जिसमें कोई बेहोशी नहीं रहती है। उसका सारा शरीर विश्राम में होता है; एक—एक कोश विश्राम में होता है, वहां जरा भी तनाव नहीं रहता। और बड़ी बात कि योगी अपनी नींद के प्रति भी जागरूक रहता है।

इस विधि का प्रयोग करो। आज रात से ही प्रयोग शुरू करो, और तब फिर सुबह भी इसका प्रयोग करना। एक सप्ताह में तुम्हें मालूम होगा कि तुम विधि से परिचित हो गए हो। एक सप्ताह के बाद अपने अतीत पर प्रयोग करो। बीच में एक दिन की छुट्टी रख सकते हो, किसी एकांत स्थान में चले जाओ। अच्छा हो कि उपवास करो—उपवास और मौन। स्वात समुद्र—तट पर या किसी झाडू के नीचे लेटे रहो और वहां से, उसी बिंदु से अपने अतीत में प्रवेश करो। अगर तुम समुद्र—तट पर लेटे हो तो रेत को अनुभव करो, धूप को अनुभव करो और तब पीछे की ओर सरको। और सरकते चले जाओ, अतीत में गहरे उतरते चले जाओ और देखो कि कौन सी आखिरी बात स्मरण आती है।

तुम्हें आश्चर्य होगा कि सामान्यत: तुम बहुत कुछ स्मरण नहीं कर सकते हो। सामान्यत: अपनी चार या पांच वर्ष की उम्र के आगे नहीं जा सकोगे। जिनकी याददाश्त बहुत अच्छी है वे तीन वर्ष की सीमा तक जा सकते हैं। उसके बाद अचानक एक अवरोध मिलेगा जिसके आगे सब कुछ अंधेरा मिलेगा। लेकिन अगर तुम इस विधि का प्रयोग करते रहे तो धीरे— धीरे यह अवरोध टूट जाएगा और तुम अपने जन्म के प्रथम दिन को भी याद कर पाओगे।

वह एक बड़ा रहस्योदघाटन होगा। तब धूप, बालू और सागर—तट पर लौटकर तुम एक दूसरे ही आदमी होगे।

यदि तुम श्रम करो तो तुम गर्भ तक जा सकते हो। तुम्हारे पास मां के पेट की स्मृतियां भी हैं। मां के साथ नौ महीने होने की बातें भी तुम्हें याद हैं। तुम्हारे मन में उन नौ महीनों की

कथा भी लिखी है। जब तुम्हारी मां दुखी हुई थी तो तुमने उसको भी मन में लिख लिया था। क्योंकि मां के दुखी होने से तुम भी दुखी हुए थे। तुम अपनी मां के साथ इतने जुड़े थे, संयुक्त थे कि जो कुछ तुम्हारी मां को होता था वह तुम्हें भी होता था। जब वह क्रोध करती थी तो तुम भी क्रोध करते थे। जब वह खुश थी तो तुम भी खुश थे। जब कोई उसकी प्रशंसा करता था तो तुम भी प्रशंसित अनुभव करते थे। और जब वह बीमार होती थी तो उसकी पीड़ा से तुम भी पीड़ित होते थे।

यदि तुम गर्भ की स्मृति में प्रवेश कर सको तो समझो कि राह मिल गई। और तब तुम और गहरे उतर सकते हो। तब तुम उस क्षण को भी याद कर सकते हो जब तुमने मां के गर्भ में प्रवेश किया था। इसी जाति—स्मरण के कारण महावीर और बुद्ध कह सके कि पूर्वजन्म है और पुनर्जन्म है। पुनर्जन्म कोई सिद्धात नहीं है, वह एक गहन अनुभव है।

और अगर तुम उस क्षण की स्मृति को पकड़ सको जब तुमने मा के गर्भ में प्रवेश किया था तो तुम उससे भी आगे जा सकते हो, तुम अपने पूर्व—जीवन की मृत्यु को भी याद कर सकते हो। और एक बार तुमने उस बिंदु को छू लिया तो समझो कि विधि तुम्हारे हाथ लग गई। तब तुम आसानी से अपने सभी पूर्व—जन्मों में गति कर सकते हो।

यह एक अनुभव है, और इसके परिणाम आश्चर्यजनक हैं। तब तुम्हें पता चलता है कि तुम जन्मों—जन्मों से उसी व्यर्थता को जी रहे हो जो अभी तुम्हारे जीवन में है। एक ही मूढ़ता को तुम जन्मों—जन्मों में दुहराते रहे हो। भीतरी ढंग—ढांचा वही है, सिर्फ ऊपर—ऊपर थोड़ा फर्क है। अभी तुम इस स्त्री के प्रेम में हो, कल किसी अन्य स्त्री के प्रेम में थे। कल तुमने धन बटोरा था, आज भी धन बटोर रहे हो। फर्क इतना ही है कि कल के सिक्के और थे, आज के सिक्के और हैं। लेकिन सारा ढांचा वही है, जो पुनरावृत्त होता रहा है।

और एक बार तुम देख लो कि जन्मों—जन्मों से एक ही तरह की मूढ़ता एक दुश्चक्र की भांति घूमती रही है तो अचानक तुम जाग जाओगे और तुम्हारा पूरा अतीत स्‍वप्‍न से ज्यादा नहीं रहेगा। तब वर्तमान सहित सब कुछ स्वप्न जैसा लगेगा। तब तुम उससे सर्वथा टूट जाओगे और अब नहीं चाहोगे कि भविष्य में फिर यह मूढ़ता दुहरे। तब वासना समाप्त हो जाएगी। क्योंकि वासना भविष्य में अतीत का ही प्रक्षेपण है, उससे अधिक कुछ नहीं है। तुम्हारा अतीत का अनुभव भविष्य में दुहरना चाहता है। वही तुम्हारी कामना है, चाह है।

पुराने अनुभव को फिर से भोगने की चाह ही कामना है। और जब तक तुम इस पूरी प्रक्रिया के प्रति होशपूर्ण नहीं होते हो तब तक वासना से मुक्त नहीं हो सकते। कैसे हो सकते हो? तुम्हारा समस्त अतीत एक अवरोध बनकर खड़ा है; वह चट्टान की तरह तुम्हारे सिर पर सवार है और वही तुम्हें तुम्हारे भविष्य की ओर धका रहा है। अतीत कामना को जन्म देकर उसे भविष्य में प्रक्षेपित करता है।

अगर तुम अपने अतीत को स्‍वप्‍न की तरह जान जाओ तो सभी कामनाएं बांझ हो जाएंगी। और कामनाओं के गिरते ही भविष्य समाप्त हो जाता है। और इस अतीत और भविष्य की समाप्ति के साथ तुम रूपांतरित हो जाते हो।

केंद्रित होने की ग्यारहवीं विधि:

अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो। इस एक को छोड़कर अन्य सभी विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो। फिर विषय— भाव और अनुपस्थिति— भाव को भी छोड़कर आत्मोपलब्ध होओ।

पने सामने किसी विषय को अनुभव करो।’

कोई भी विषय, उदाहरण के लिए एक गुलाब का फूल है—कोई भी चीज चलेगी।’अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो।’

देखने से काम नहीं चलेगा, अनुभव करना है। तुम गुलाब के फूल को देखते हो, लेकिन उससे तुम्हारा हृदय आदोलित नहीं होता है। तब तुम गुलाब को अनुभव नहीं करते हो। अन्यथा तुम रोते और चीखते, अन्यथा तुम हंसते और नाचते। तुम गुलाब को महसूस नहीं कर रहे हो, सिर्फ गुलाब को देख रहे हो।

और तुम्हारा देखना भी पूरा नहीं, अधूरा है। तुम कभी किसी चीज को पूरा नहीं देखते, अतीत हमेशा बीच में आता रहता है। गुलाब को देखते ही अतीत—स्मृति कहती है कि यह गुलाब है। और यह कहकर तुम आगे बढ़ जाते हो। लेकिन तब तुमने सच में गुलाब को नहीं देखा। जब मन कहता है कि यह गुलाब है तो उसका अर्थ हुआ कि तुम इसके बारे में सब कुछ जानते हो, क्योंकि तुमने बहुत गुलाब देखे हैं। मन कहता है कि अब और क्या जानना है, आगे बढ़ो। और तुम आगे बढ़ जाते हो।

यह देखना अधूरा है। यह देखना देखना नहीं है। गुलाब के फूल के साथ रहो। उसे देखो और फिर उसे महसूस करो, उसे अनुभव करो। अनुभव करने के लिए क्या करना है? उसे स्पर्श करो, उसे शो, उसे गहरा शारीरिक अनुभव बनने दो। पहले अपनी आंखों को बंद करो और गुलाब को अपने पूरे चेहरे को छूने दो। इस स्पर्श को महसूस करो। फिर गुलाब को आंख से स्पर्श करो। फिर गुलाब को नाक से सूंघों। फिर गुलाब के पास हृदय को ले जाओ और उसके साथ मौन हो जाओ। गुलाब को अपना भाव अर्पित करो। सब कुछ भूल जाओ। सारी दुनिया को भूल जाओ। और ऐसे गुलाब के साथ समग्रत: रहो।

‘अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो। इस एक को छोड़कर अन्य सभी विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो।’

यदि तुम्हारा मन अन्य चीजों के संबंध में सोच रहा है तो गुलाब का अनुभव गहरा नहीं जाएगा। सभी अन्य गुलाबों को भूल जाओ। सभी अन्य लोगों को भूल जाओ। सब कुछ को भूल जाओ। केवल इस गुलाब को रहने दो। यही गुलाब, हा यही गुलाब। सब कुछ को भूल जाओ और इस गुलाब को तुम्हें आच्छादित कर लेने दो। समझो कि तुम इस गुलाब में डूब गए हो।

यह कठिन होगा, क्योंकि हम इतने संवेदनशील नहीं हैं। लेकिन स्त्रियों के लिए यह उतना कठिन नहीं होगा। क्योंकि वे किसी चीज को आसानी से महसूस करती हैं। पुरुषों के लिए यह ज्यादा कठिन होगा। ही, अगर उनका सौंदर्य—बोध विकसित हो, जैसे कवि, चित्रकार या संगीतज्ञ का सौंदर्य—बोध विकसित होता है तो बात और है। तब वे भी अनुभव कर सकते हैं। लेकिन इसका प्रयोग करो।

बच्चे यह प्रयोग बहुत सरलता से कर सकते हैं। मैं अपने एक मित्र के बेटे को यह में प्रयोग सिखाता था। वह किसी चीज को आसानी से अनुभव करता था। फिर मैंने उसे गुलाब का फूल दिया और उससे वह सब कहा जो तुम्हें अब कह रहा हूं। उसने यह किया और उसने इसका आनंद भी लिया। जब मैंने उससे पूछा कि कैसा अनुभव करते हो तो उसने कहा कि मैं गुलाब का फूल बन गया हूं मेरा भाव यही है कि मैं ही गुलाब का फूल हूं।

बच्चे इस विधि को बहुत आसानी से कर सकते हैं। लेकिन हम उन्हें इसमें प्रशिक्षित नहीं करते। प्रशिक्षित किया जाए तो बच्चे सर्वश्रेष्ठ ध्यानी हो सकते हैं।

‘अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो। इस एक को छोड्कर अन्य सभी विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो।’

प्रेम में यही घटित होता है। अगर तुम किसी के प्रेम में हो तो तुम सारे संसार को भूल जाते हो। और अगर अभी भी संसार तुम्हें याद है तो भलीभांति समझो कि यह प्रेम नहीं है। प्रेम में तुम संसार को भूल जाते हो, सिर्फ प्रेमिका या प्रेमी याद रहता है। इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम ध्यान है। तुम इस विधि को प्रेम—विधि के रूप में भी उपयोग कर सकते हो। तब अन्य सब कुछ भूल जाओ।

कुछ दिन हुए, एक मित्र अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आए। पत्नी को पति से कोई शिकायत थी, इसलिए पत्नी आई थी। मित्र ने कहा कि मैं एक वर्ष से ध्यान कर रहा हूं। और अब उसमें मैं गहरे जाने लगा हूं तो अचानक मेरे मुंह से रजनीश—रजनीश की आवाज निकलने लगती है। यह आवाज मेरे ध्यान में सहयोगी है। लेकिन अब एक आश्चर्य की घटना घटती है। जब मैं अपनी पत्नी के साथ संभोग करता हूं और संभोग शिखर छूने लगता है तब भी मेरे मुंह से रजनीश—रजनीश की आवाज निकलने लगती है। और इस कारण मेरी पत्नी को बहुत अड़चन होती है। वह अक्सर पूछती है कि तुम प्रेम करते हो या ध्यान करते हो या क्या करते हो? और ये रजनीश बीच में कैसे आ जाते हैं?

उस मित्र ने कहा कि मुश्किल यह है कि अगर मैं रजनीश—रजनीश न चिल्लाऊं तो संभोग का शिखर चूक जाता है। और चिल्लाऊं तो पत्नी पीड़ित होती है, वह रोने —चिल्लाने लगती है और मुसीबत खड़ी कर देती है। तो उन्होंने मेरी सलाह पूछी और कहा कि पत्नी को साथ लाने का यही कारण है।

उनकी पत्नी की शिकायत दुरुस्त है। क्योंकि वह कैसे मान सकती है कि कोई दूसरा व्यक्ति उनके बीच में आए। यही कारण है कि प्रेम के लिए एकांत जरूरी है, बहुत जरूरी. है। सब कुछ को भूलने के लिए एकांत अर्थपूर्ण है।

अभी यूरोप और अमेरिका में वे समूह—संभोग का प्रयोग कर रहे हैं—एक कमरे में अनेक जोड़े संभोग में उतरते हैं। यह मूढ़ता है! आत्यंतिक मूढ़ता है। क्योंकि समूह में संभोग की गहराई नहीं छुई जा सकती; वह सिर्फ काम—क्रीड़ा बन कर रह जाएगी। दूसरों की उपस्थिति बाधा बन जाती है। तब इस संभोग को ध्यान भी नहीं बनाया जा सकता है।

अगर तुम शेष संसार को भूल सको तो ही तुम किसी विषय के प्रेम में हो सकते हो। चाहे वह गुलाब का फूल हो या पत्थर हो या कोई भी चीज हो, शर्त यही है कि उस चीज की उपस्थिति महसूस करो और अन्य चीजों की अनुपस्थिति महसूस करो। केवल वही विषय—वस्तु तुम्हारी चेतना में अस्तित्वगत रूप से रहे।

अच्छा हो कि इस विधि के प्रयोग के लिए कोई ऐसी चीज चुनो जो तुम्हें प्रीतिकर हो। अपने सामने एक चट्टान रखकर शेष संसार को भूलना कठिन होगा। यह कठिन होगा, लेकिन झेन सदगुरुओं ने यह भी किया है। उन्होंने ध्यान के लिए रॉक गार्डन बना रखे हैं। वहां पेड़—पौधे या फूल—पत्ती नहीं होते, पत्थर और बालू होते हैं। और वे पत्थर पर ध्यान करते हैं।

वे कहते हैं कि अगर किसी पत्थर के प्रति तुम्हारा गहन प्रेम हो तो कोई भी आदमी तुम्हारे लिए बाधा नहीं हो सकता है। और मनुष्य चट्टान जैसे ही तो हैं। अगर तुम चट्टान को प्रेम कर सकते हो तो मनुष्य को प्रेम करने में क्या कठिनाई है? तब कोई अड़चन नहीं है। मनुष्य चट्टान जैसे हैं, उससे भी ज्यादा पथरीले। उन्हें तोड़ना, उनमें प्रवेश करना कठिन है।

लेकिन अच्छा हो कि कोई ऐसी चीज चुनो जिसके प्रति तुम्हारा सहज प्रेम हो। और तब शेष संसार को भूल जाओ। उसकी उपस्थिति का मजा लो, उसका स्वाद लो, आनंद लो। उस वस्तु में गहरे उतरो और उस वस्तु को अपने में गहरा उतरने दो।

‘फिर विषय— भाव को छोड्कर……।’

अब इस विधि का कठिन अंश आता है। तुमने पहले ही सब विषय छोड़ दिए हैं, सिर्फ यह एक विषय तुम्हारे लिए रहा है। सबको भूलकर एक इसे तुमने याद रखा था। अब ‘विषय— भाव को छोड्कर।’ अब उस भाव को भी छोड्कर। अब तो दो ही चीजें बची हैं, एक विषय की उपस्थिति है और शेष चीजों की अनुपस्थिति है। अब उस अनुपस्थिति को भी छोड़ दो। केवल यह गुलाब या केवल यह चेहरा, या केवल यह स्त्री या केवल यह पुरुष, या यह चट्टान की उपस्थिति बची है। उसे भी छोड़ दो। और उसके प्रति जो भाव है, उसे भी। तब तुम अचानक एक आत्यंतिक शून्य में गिर जाते हो, जहां कुछ भी नहीं बचता।

और शिव कहते हैं. ‘आत्मोपलब्ध होओ।’ इस शून्य को, इस ना—कुछ को उपलब्ध हो। यही तुम्हारा स्वभाव है, यही शुद्ध होना है।

शून्य को सीधे पहुंचना कठिन होगा—कठिन और श्रम—साध्य। इसलिए किसी विषय को माध्यम बनाकर वहां जाना अच्छा है। पहले किसी विषय को अपने मन में ले लो और उसे इस समग्रता से अनुभव करो कि किसी अन्य चीज को याद रखने की जरूरत न रहे। तुम्हारी समस्त चेतना इस एक चीज से भर जाए। और तब इस विषय को भी छोड़ दो, इसे भी भूल जाओ। तब तुम किसी अगाध—अतल में प्रविष्ट हो जाते हो, जहां कुछ भी नहीं है। वहां केवल तुम्हारी आत्मा है—शुद्ध और निष्कलुष। यह शुद्ध अस्तित्व, यह शुद्ध चैतन्य ही तुम्हारा स्वभाव है।

लेकिन इस विधि को कई चरणों में बांटकर प्रयोग करो। पूरी विधि को एकबारगी काम में मत लाओ। पहले एक विषय का भाव निर्मित करो। कुछ दिन तक सिर्फ इस हिस्से का प्रयोग करो, पूरी विधि का प्रयोग मत करो। पहले कुछ दिनों तक या कुछ हफ्तों तक इस एक हिस्से की, पहले हिस्से की साधना करो। विषय— भाव पैदा करो, पहले विषय को महसूस करो। और एक ही विषय चुके, उसे बार—बार बदलों मत। क्योंकि हर बदलते विषय के साथ तुम्हें फिर—फिर उतना ही श्रम करना होगा।

अगर तुमने विषय के रूप में गुलाब का फूल चुना है तो रोज—रोज गुलाब के फूल का ही उपयोग करो। उस गुलाब के फूल से तुम भर जाओ, भरपूर हो जाओ। ऐसे भर जाओ कि एक दिन कह सको की मैं फूल ही हूं। तब विधि का पहला हिस्सा सध गया, पूरा हुआ।

जब फूल ही रह जाए और शेष सब कुछ भूल जाए, तब इस भाव का कुछ दिनों तक आनंद लो। यह भाव अपने आप में सुंदर है, बहुत—बहुत सुंदर है। यह अपने आप में बहुत प्राणवान है, शक्तिशाली है। कुछ दिनों तक यही अनुभव करते रहो। और जब तुम उसके साथ रच—पच जाओगे, लयबद्ध हो जाओगे, तो फिर वह सरल हो जाएगा। फिर उसके लिए संघर्ष नहीं करना होगा। तब फूल अचानक प्रकट होता है और समस्त संसार भूल जाता है, केवल फूल रहता है।

इसके बाद विधि के दूसरे भाग पर प्रयोग करो। अपनी आंख बंद कर लो और फूल को भी भूल जाओ। याद रहे, अगर तुमने पहले भाग को ठीक—ठीक साधा है तो दूसरा भाग कठिन नहीं होगा। लेकिन यदि पूरी विधि पर एक साथ प्रयोग करोगे तो दूसरा भाग कठिन ही नहीं, असंभव होगा। पहले भाग में अगर तुमने एक फूल के लिए सारी दुनिया को भूला दिया तो दूसरे भाग में शून्य के लिए फूल को भूलना आसानी से हो सकेगा। दूसरा भाग आएगा। लेकिन उसके लिए पहला भाग पहले करना जरूरी है।

लेकिन मन बहुत चालाक है। मन सदा कहेगा कि पूरी विधि को एक साथ प्रयोग करो। लेकिन उसमें तुम सफल नहीं हो सकते हो। और तब मन कहेगा कि यह विधि काम की नहीं है, या यह तुम्हारे लिए नहीं है।

इसलिए अगर सफल होना चाहते हो तो विधि को कम में प्रयोग करो। पहले पहले भाग को पूरा करो और तब दूसरे भाग को हाथ में लो। और तब विषय भी विलीन हो जाता है और मात्र तुम्हारी चेतना रहती है—शुद्ध प्रकाश, शुद्ध ज्योति—शिखा।

कल्पना करो कि तुम्हारे पास दीया है, और दीए की रोशनी अनेक चीजों पर पड़ रही है। मन की आंखों से देखो कि तुम्हारे अंधेरे कमरे में अनेक— अनेक चीजें हैं और तुम एक दीया वहां लाते हो और सब चीजें प्रकाशित हो जाती हैं। दीया उन सब चीजों को प्रकाशित करता है जिन्हें तुम वहां देखते हो।

लेकिन अब तुम उनमें से एक विषय चुन लो, और उसी विषय के साथ रहो। दीया वही है, लेकिन अब उसकी रोशनी एक ही विषय पर पड़ती है। फिर उस एक विषय को भी हटा दो। और तब दीए के लिए कोई विषय नहीं बचा।

वही बात तुम्हारी चेतना के लिए सही है। तुम प्रकाश हो, ज्योति—शिखा हो। और सारा संसार तुम्हारा विषय है। तुम सारे संसार को छोड़ देते हो, और एक विषय पर अपने को एकाग्र करते हो। तुम्हारी ज्योति—शिखा वहीं रहती है, लेकिन अब वह अनेक विषयों में व्यस्त नहीं है। वह एक ही विषय में व्यस्त है। और फिर उस एक विषय को भी छोड़ दो। अचानक तब सिर्फ प्रकाश बचता है, चेतना बचती है। वह प्रकाश किसी विषय को नहीं प्रकाशित कर रहा है।

इसी को बुद्ध ने निर्वाण कहा है। इसी को महावीर ने कैवल्य कहा है, परम एकांत कहा है। उपनिषदों ने इसे ही ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान कहा है। शिव कहते हैं कि अगर तुम इस विधि को साध लो तो तुम ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हो जाओगे।

केंद्रित होने की बारहवीं विधि :

 

जब किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में कोई भाव उठे तो उसे उस व्यक्ति पर मत आरोपित करो बल्कि केंद्रित रहो।

गर हमें किसी के विरुद्ध घृणा अनुभव हो या किसी के लिए प्रेम अनुभव हो तो हम क्या करते हैं? हम उस घृणा या प्रेम को उस व्यक्ति पर आरोपित कर देते हैं। अगर तुम मेरे प्रति घृणा अनुभव करते हो तो उस घृणा के ही कारण तुम अपने को बिलकुल भूल जाते हो और मैं तुम्हारा एकमात्र लक्ष्य या विषय बन जाता हूं। वैसे ही जब तुम मुझे प्रेम करते हो तो भी तुम अपने को बिलकुल ही भूल जाते हो और मुझे अपना एकमात्र विषय बना लेते हो। तुम अपनी घृणा को, प्रेम को या जो भी भाव हो, उसे मुझ पर प्रक्षेपित कर देते हो। उस दशा में तुम आंतरिक केंद्र को भूल जाते हो और दूसरे को अपना केंद्र बना लेते हो।

यह सूत्र कहता है कि जब किसी के प्रति घृणा, प्रेम या और कोई भाव पक्ष या विपक्ष में पैदा हो तो उसको, उस भाव को उस व्यक्ति पर आरोपित मत करो, बल्कि स्मरण रखो कि उस भाव का स्रोत तुम स्वयं हो।

मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। इसमें सामान्य भाव यह है कि तुम मेरे प्रेम के स्रोत हो। लेकिन यह हकीकत नहीं है। मैं ही स्रोत हूं तुम तो महज वह पर्दा हो जिस पर मैं अपने प्रेम को प्रक्षेपित करता हूं। तुम मात्र पर्दा हो, मैं अपना प्रेम तुम पर प्रक्षेपित करता हूं। और मैं कहता हूं कि तुम मेरे प्रेम के स्रोत हो। लेकिन यह तथ्य नहीं है। यह झूठ है। यह मेरी ही प्रेम की ऊर्जा है जिसे मैं तुम पर प्रक्षेपित कर रहा हूं। इस प्रेम की ऊर्जा की प्रभा में पड़कर तुम सुंदर हो जाते हो। हो सकता है किसी के लिए तुम सुंदर न होओ, हो सकता है किसी के लिए तुम बिलकुल कुरूप और विकर्षण भरे होओ। ऐसा क्यों है? अगर तुम ही प्रेम के स्रोत हो तो प्रत्येक व्यक्ति को तुम्हारे प्रति प्रेमपूर्ण होना चाहिए।

लेकिन तुम स्रोत नहीं हो। मैं तुम पर प्रेम आरोपित करता हूं तो तुम सुंदर हो जाते हो। कोई दूसरा व्यक्ति तुम पर घृणा आरोपित करता है और तुम कुरूप हो जाते हो। और हो सकता है कोई तीसरा व्यक्ति तुम्हारे प्रति बिलकुल उदासीन हो, तटस्थ हो। उसने तुम्हें देखा तक न हो। आखिर हो क्या रहा है? हम अपने — अपने भाव दूसरों पर फैला रहे हैं।

यही कारण है कि सुहागरात में चंद्रमा तुम्हें सुंदर, चमत्कारपूर्ण और अपूर्व दिखाई देता है। उस समय सारा संसार तुम्हें अपूर्व मालूम देता है। और हो सकता है उसी रात तुम्हारे पड़ोसी के लिए यह अदभुत रात्रि अस्तित्व में न हो। और अगर उसका बच्चा मर गया हो तो वही चांद उसके लिए उदास, दुखी और असहनीय मालूम पड़ेगा। और वही चांद तुम्हारे लिए इतना मोहक है, मादक है और तुम्हें पागल किए दे रहा है। क्यों? क्या चंद्रमा स्रोत है, आधार है? यह चंद्रमा केवल पर्दा है जिस पर तुम अपने को फैला रहे हो, प्रक्षेपित कर रहे हो।

यह सूत्र कहता है : ‘जब किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में कोई भाव उठे तो उसे उस व्यक्ति पर मत आरोपित करो, बल्कि केंद्रित रहो।’

यहां व्यक्ति की जगह कोई वस्तु भी हो सकती है—विषय के रूप में कुछ भी काम देगा। तुम सदा केंद्रित रहो। याद रहे कि तुम स्रोत हो और विषय की ओर गति करने की बजाय स्रोत की ओर गति करो। जब घृणा का भाव उठे तो घृणा के विषय पर जाने की बजाय उस बिंदु पर जाना बेहतर है जहां से घृणा आ रही है। उस व्यक्ति को मत खोजो जो इस घृणा का विषय है, लक्ष्य है; उस केंद्र को खोजो जहां से घृणा उठ रही है। केंद्र की तरफ चलो, भीतर जाओ। अपनी घृणा या प्रेम या जो भी भाव हो उसे केंद्र की ओर, स्रोत की ओर, उदगम की ओर यात्रा का साधन बनाओ। उदगम पर जाओ, और वहां केंद्रित रहो।

इसे प्रयोग करो। यह बहुत ही मनोवैज्ञानिक विधि है। किसी ने तुम्हारा अपमान किया और तुम क्रोधित हो गए, ज्वरग्रस्त हो गए। अभी तुम्हारा यह क्रोध उस व्यक्ति की तरफ प्रवाहित हो रहा है जिसने तुम्हें अपमानित किया। तुम अपने पूरे क्रोध को उस आदमी पर प्रक्षेपित कर दोगे। लेकिन उसने कुछ भी नहीं किया है। अगर उसने तुम्हें अपमानित किया तो सच में क्या किया? उसने केवल तुम्हें थोड़ा कुरेदा। उसने तुम्हारे क्रोध को उभरने में थोड़ी सहायता कर दी। लेकिन यह क्रोध तुम्हारा है।

वही व्यक्ति बुद्ध के पास जाए और उन्हें अपमानित करे तो वह उनमें कोई क्रोध पैदा नहीं कर सकेगा। वह अगर जीसस के पास जाए तो जीसस उसे अपना दूसरा गाल भी हाजिर कर देंगे। और बोधिधर्म के पास जाए तो वे अट्टाहास कर उठेंगे। यह व्यक्ति—व्यक्ति पर निर्भर है।

इसलिए दूसरा व्यक्ति स्रोत नहीं है। स्रोत सदा तुम्हारे भीतर है। दूसरा सिर्फ स्रोत पर चोट कर रहा है। लेकिन अगर तुम्हारे भीतर क्रोध नहीं है तो क्रोध बाहर नहीं आएगा। यदि तुम बुद्ध को चोट करो तो करुणा आएगी, क्योंकि उनके भीतर करुणा ही है। बुद्ध के भीतर से क्रोध नहीं आएगा, क्योंकि वहां क्रोध नहीं है।

एक सूखे कुएं में बाल्टी डालो तो कुछ भी हाथ नहीं आता। पानी वाले कुएं में बाल्टी डालो और वह पानी से भरकर बाहर आती है। लेकिन पानी कुएं में है, कुआ स्रोत है। बाल्टी तो पानी को बाहर लाने का निमित्त मात्र है।

जो आदमी तुम्हें अपमानित करता है वह बाल्टी का काम करता है; वह तुम्हारे भीतर से तुम्हारे क्रोध, घृणा या किसी भी आग को बाहर ले आता है। तो स्मरण रहे, तुम स्रोत हो।

इस विधि के लिए विशेष रूप से इस बात को ध्यान में रख लो कि दूसरों पर तुम जो भी भाव प्रक्षेपित करते हो उसका स्रोत सदा तुम्हारे भीतर है। इसलिए जब भी कोई भाव पक्ष या विपक्ष में उठे तो तुरंत भीतर प्रवेश करो और उस स्रोत के पास पहुंचो जहां से यह भाव उठ रहा है। स्रोत पर केंद्रित रहो, विषय की चिंता ही छोड़ दो। किसी ने तुम्हें तुम्हारे क्रोध को जानने का मौका दिया है, इसके लिए उसे तुरंत धन्यवाद दो और उसे भूल जाओ। फिर आंखें बंद कर लो और अपने भीतर सरक जाओ। और उस स्रोत पर ध्यान दो जहां से यह प्रेम या क्रोध का भाव उठ रहा है।

भीतर गति करने पर तुम्हें वह स्रोत मिल जाएगा, क्योंकि ये भाव उसी स्रोत से आते हैं। घृणा हो या प्रेम, सब तुम्हारे स्रोत से आता है। इस स्रोत के पास उस समय पहुंचना आसान है जब तुम क्रोध या प्रेम या घृणा सक्रिय रूप से अनुभव करते हो। इस क्षण में भीतर प्रवेश करना आसान होता है। जब तार गर्म है तो उसे पकड़कर भीतर जाना आसान होता है।

और भीतर जाकर जब तुम एक शीतल बिंदु पर पहुंचोगे तो अचानक एक भिन्न आयाम, एक दूसरा ही संसार सामने खुलने लगता है।

इसलिए क्रोध, घृणा या प्रेम जो भी हो उसका उपयोग अंतर्यात्रा के लिए करो। हम सदा दूसरों की तरफ गति करने में इन भावों का उपयोग करते है। जब अपने भाव आरोपित करने के लिए हमें कोई नहीं मिलता तो बड़ी निराशा लगती है, तब हम अपने भावों को निर्जीव वस्तुओं पर भी आरोपित करने लगते हैं। मैंने लोग देखे हैं जो अपने जूतों पर क्रोध करते हैं और क्रोध में उन्हें फेंकते हैं। वे क्या कर रहे हैं? मैंने लोग देखे हैं जो घर के दरवाजे पर क्रोध करते हैं, क्रोध में उसे खोलते हैं, उसे गालियां तक देते हैं। वे क्या कर रहे हैं?

इस प्रसंग में मैं एक झेन अंतर्दृष्टि की चर्चा से अपनी बात समाप्त करूं। एक बहुत बडे झेन सदगुरु लिंची कहा करते थे :

मैं जब युवा था तो मुझे नौका—विहार का बहुत शौक था। मेरे पास एक छोटी सी नाव थी और उसे लेकर मैं अक्सर अकेला झील की सैर करता था। मैं घंटों झील में रहता था।

एक दिन ऐसा हुआ कि मैं अपनी नाव में आंख बंद कर सुंदर रात पर ध्यान कर रहा था। तभी एक खाली नाव उलटी दिशा से आई और मेरी नाव से टकरा गई। मेरी आंखें बंद थीं, इसलिए मैंने मन में सोचा कि किसी व्यक्ति ने अपनी नाव मेरी नाव से टकरा दी है और मुझे क्रोध आ गया।

मैंने आंखें खोलीं और मैं उस व्यक्ति को क्रोध में कुछ कहने ही जा रहा था कि मैंने देखा कि दूसरी नाव खाली है। अब मुझे कुछ करने का कोई उपाय न रहा। किस पर यह क्रोध प्रकट करूं? नाव तो खाली है! और वह नाव धार के साथ बहकर आई थी और मेरी नाव से टकरा गई थी। अब मेरे लिए कुछ भी करने को न रहा। एक खाली नाव पर क्रोध उतारने की कोई संभावना न थी। तब फिर एक ही उपाय बाकी रहा। मैंने आंखें बंद कीं और अपने क्रोध को पकड़कर उलटी दिशा में बहना शुरू किया। और वह खाली नाव मेरे आत्मज्ञान का कारण बन गई। उस मौन रात में मैं अपने भीतर, अपने केंद्र पर पहुंच गया। वह खाली नाव मेरा गुरु थी।

और फिर लिंची ने कहा, अब जब कोई आदमी मेरा अपमान करता है तो मैं हंसता हूं और कहता हूं कि यह नाव भी खाली है। मैं आंखें बंद करता हूं और अपने भीतर चला जाता हूं।

इस विधि को प्रयोग करो। यह तुम्हारे लिए चमत्कार कर सकती है।

आज इतना ही।


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तंत्र–सूत्र–(भाग–1) प्रवचन–16

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अचेतन पाप के पार—(प्रवचन—सोहलवां)

प्रश्‍नसार:

1—दमन के बिना अपने स्‍त्रोत पर लौटने का क्‍या उपाय है?

2—पश्‍चिम के मनोविश्‍लेषक मन के निर्ग्रंथन के उपाय में सफल क्‍यों नहीं हो पाते?

3—क्‍या यह सच नहीं है कि कोई विधि तब तक शक्‍तिशाली नहीं होती जब तक व्‍यक्‍ति को दीक्षित न किया जाए?

4—अगर तादात्‍म्य एकमात्र पाप है तो अनेक विधियां ऐसा क्‍यों कहती है कि किसी चीज के साथ एकात्‍म हो जाओ?

 

पहला प्रश्न :

 अचेतन पाप के कल जिस विधि की आपने चर्चा की उसमें कहा गया की जब कोई भाव किसी व्‍यक्‍ति के पक्ष या विपक्ष में उठे तो उसे उस व्यक्‍ति पर आरोपित मत करो, बल्कि केंद्रित रही। लेकिन जब हम इस विधि का प्रयोग अपने क्रोध, घृणा आदि भावों पर करते हैं तो ऐसा लगता है कि हम अपने मनोभावों का दमन कर रहे हैं और उससे एक दमन— ग्रंथि निर्मित होती है। कृपया समझाए कि इन विधियों का प्रयोग करते हुए दमन— ग्रंथि से कैसे बचा जाए?

अभिव्‍यक्‍ति और दमन एक ही सिक्‍के के दो पहलू है। वि विरोधाभासी है, लेकिन बुनियादी रूप से भिन्‍न नहीं है। अभिव्‍यक्‍ति और दमन दोनों में दूसरा व्यक्ति केंद्र रहता है, दूसरा ही महत्वपूर्ण रहता है। मुझे क्रोध हुआ और मैं उस क्रोध को दमित करता हूं। मैं तुम्हारे विरुद्ध क्रोध को प्रकट करने जा रहा था, अब उसका दमन कर रहा हूं। लेकिन चाहे अभिव्यक्ति हो या दमन, क्रोध तुम पर ही आरोपित हो रहा है। यह विधि दमन के लिए नहीं है। यह विधि अभिव्यक्ति और दमन दोनों के आधार को ही बदल देती है। विधि कहती है कि भाव को दूसरे पर आरोपित मत करो, उसके स्रोत तुम स्वयं हो। चाहे अभिव्यक्ति करो या दमन, तुम स्रोत हो।

यहां अभिव्यक्ति या दमन पर जोर नहीं है, जोर इस बात के जानने पर है कि भाव कहां से उठ रहा है। तुम्हें उस उदगम की ओर यात्रा करनी है, जहां से क्रोध, घृणा और प्रेम का भाव उदित हो रहा है। जब तुम उसका दमन करते हो तो तुम केंद्र की ओर गति नहीं करते, तुम सिर्फ अभिव्यक्ति से लड़ते हो।

यदि मेरे भीतर क्रोध पैदा हुआ है तो सामान्यत: मैं दो काम करूंगा, या तो उसे किसी पर प्रकट करूंगा या उसे दमित करूंगा। लेकिन दोनों स्थिति में मैं दूसरे की फिक्र करूंगा। क्रोध की ऊर्जा से, जो उठकर सतह पर आ गई है, मेरा लेना—देना है। क्रोध का स्रोत यहां मेरी चिंता में नहीं है।

यह विधि दूसरे को बिलकुल भूल जाने को कहती है। यह कहती है कि क्रोध की उठती हुई ऊर्जा को देखो और उसके साथ प्रतिक्रम से अपने भीतर उस स्रोत तक जाओ जहां से वह आती है। और जब वह स्रोत मिल जाए तो उस स्रोत के साथ केंद्रित होकर रहो।

याद रहे, क्रोध के साथ यहां कुछ नहीं करना है। अभिव्यक्ति में क्रोध के साथ तुम कुछ करते हो। इस विधि के प्रयोग में क्रोध के साथ कुछ नहीं करना है। उसमें गहरे उतरो, ताकि जान सको कि उसका जन्म कहां होता है। और जब स्रोत का पता चल जाए तो वहां केंद्रित होना बहुत आसान है। सच तो यह है कि हम यहां क्रोध का उपयोग स्रोत तक जाने की राह के रूप में करते है। इसके लिए क्रोध ही नहीं, कोई भी मनोभाव काम देगा।

जब तुम दमन करते हो तो तुम स्रोत को नहीं खोज रहे हो। तुम केवल उस ऊर्जा के साथ संघर्ष कर रहे हो जो उठी है और प्रकट होना चाहती है। तुम उसे दमित कर सकते हो, लेकिन देर—अबेर वह प्रकट होगी। जागी हुई ऊर्जा के साथ निरंतर संघर्ष संभव नहीं है। वह अभिव्यक्त होगी ही। तुम अगर उसे अ पर न प्रकट कर सके तो ब या स पर प्रकट करोगे। जो भी तुम्हें तुमसे कमजोर मिलेगा, तुम उस ऊर्जा को उस पर प्रकट कर दोगे। और जब तक प्रकट नहीं करोगे तब तक तुम तनावग्रस्त, भारग्रस्त, बोझिल और बीमार अनुभव करोगे। उसे प्रकट होना ही है। तुम उसे सतत दबाकर नहीं रख सकते, कहीं न कहीं से वह ऊर्जा फूट निकलेगी। क्योंकि अगर नहीं निकले तो उसके कारण तुम निरंतर चिंतित रहोगे।

इसलिए दमन यथार्थत: स्थगन है, टालना है। तुम अभिव्यक्ति को टाल भर रहे हो। तुम्हें अपने मालिक पर क्रोध आया है, तुम उसे प्रकट नहीं कर सकते। प्रकट करना लाभप्रद नहीं होगा। तुम उस क्रोध को नीचे सरका दोगे। ऐसा करके तुम महज प्रतीक्षा करोगे और मौका आने पर उसे अपनी पत्नी, बच्चे या नौकर पर प्रकट कर दोगे। घर पहुंचने की देर है और तुम उसे प्रकट कर दोगे। और वहां क्रोध प्रकट करने के लिए तुम कारण भी ढूंढ लोगे। क्योंकि मनुष्य तर्कनिष्ठ प्राणी है। तुम अपने क्रोध को तर्कसम्मत बनाना चाहोगे। उसके लिए कोई भी छोटा सा कारण बहाना बन जाएगा और तुम उस छोटे से कारण को बहुत अर्थपूर्ण बना लोगे। दमन स्थगन का उपाय है। और तुम किसी भाव को महीनों और वर्षों तक स्थगित कर सकते हो। और जो जानते हैं वे कहते हैं कि तुम उन्हें जन्मों—जन्मों तक स्थगित कर सकते हो। लेकिन अंततः उसे प्रकट होना है।

इस विधि को दमन या अभिव्यक्ति से कुछ लेना—देना नहीं है। यह विधि अपने भीतर जाने के लिए, गहरे उतरने के लिए तुम्हारे भाव को मार्ग की तरह उपयोग में लाती है।

गुरजिएफ ऐसी स्थिति पैदा करता था जिसमें तुम अपने क्रोध, घृणा या किसी भी भाव को प्रकट करने के लिए मजबूर हो जाते। वह स्थिति कृत्रिम होती थी, तुम्हें उसका पता भी नहीं चलता। गुरजिएफ अपने शिष्यों के साथ बैठा है और तुमने उसके कमरे में प्रवेश किया। तुम्हें पता नहीं है कि वहां क्या होने वाला है। लेकिन वहां वे लोग तुम्हारे क्रोध को भड़काने के लिए तैयार बैठे हैं। वे कुछ ऐसा व्यवहार करेंगे कि तुम्हारे भीतर क्रोध भड़क उठे। कोई व्यक्ति कुछ बोलेगा और शेष लोग ऐसे अपमानजनक ढंग से पेश आएंगे कि तुम आग—बबूला हो उठोगे। अचानक क्रोध उठ आया और तुम अंगारा बन गए।

और जब गुरजिएफ देखता कि वह बिंदु आ गया जहां से तुम भीतर सरक सकते हो या उसे प्रकट कर सकते हो, जहां क्रोध शिखर पर आ गया और विस्फोट होने वाला है, वह तुमसे कहता कि आंखें बंद करो और अपने क्रोध के प्रति जागो और पीछे लौटी। तब तुम्हें पता चलेगा कि सारी स्थिति तुम्हारे लिए बनाई गयी थी। कोई सच में तुम्हें अपमानित नहीं करना चाहता था। वह एक नाटक था—मनोनाटक।

लेकिन क्रोध तो पैदा हो ही गया और यह जानने पर भी कि वह नाटक था, वह तुरंत विलीन होने वाला नहीं है। वह समय लेगा। अब तुम इस गिरती हुई ऊर्जा के साथ उतर सकते हो और स्रोत पर पहुंच सकते हो। यह ऊर्जा तुम्हें वहां ले जाने में सहयोगी होगी जहां से वह आई है। इस ऊर्जा के सहारे अब तुम मूल स्रोत से संबंधित हो सकते हो।

यह विधि ध्‍यान की सर्वाधिक सफल विधियों में एक है। कोई भी भाव पैदा कर लो। पैदा करने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि दिनभर भाव आते—जाते रहते हैं। और ध्यान के लिए किसी भी भाव का उपयोग कर सकते हो। तब तुम दूसरे व्यक्ति को भूल जाते हो, और तब तुम कुछ दमन नहीं कर रहे हो। तुम सिर्फ उस ऊर्जा के साथ नीचे की ओर गति करते हो जो ऊर्जा ऊपर उठ आई थी। हरेक ऊर्जा स्रोत से आती है। और जब आती है तब मार्ग सक्रिय हो जाता है, और उस मार्ग को तुम प्रतिक्रमण के लिए उपयोग में ला सकते हो। और जिस क्षण ऊर्जा अपने मूल स्रोत पर पहुंचती है, वह उसमें विलीन हो जाती है।

यह दमन नहीं है, ऊर्जा सिर्फ अपने मूल स्रोत में लौट गई है। और जब तुम अपनी ऊर्जा को मूल स्रोत से संयुक्त करने में सक्षम हो जाते हो तो तुम अपने शरीर के, मन के और अपनी ऊर्जा के मालिक हो गए। अब तुम मालिक हो, अब तुम अपनी ऊर्जा नष्ट नहीं कर सकते। एक बार तुम जान गए कि कैसे ऊर्जा को उसके स्रोत पर वापस लौटा लिया जाए तो फिर न दमन की जरूरत है और न अभिव्यक्ति की। अभी तुम क्रोध में नहीं हो। मैं कुछ कहता हूं और तुम क्रोधित हो जाते हो। यह ऊर्जा कहां से आती है? एक क्षण पहले तुम्हें क्रोध नहीं था, लेकिन तुममें ऊर्जा तो थी। वही ऊर्जा क्रोध बन गई। अगर यह ऊर्जा अपने स्रोत में वापस लौट जाए तो तुम वैसे ही हो जाओगे जो क्षणभर पहले थे।

स्मरण रहे, ऊर्जा न क्रोध है, न प्रेम है और न घृणा है। ऊर्जा मात्र ऊर्जा है—तटस्थ ऊर्जा। वही ऊर्जा क्रोध बन जाती है। वही ऊर्जा कामवासना बन जाती है। वही ऊर्जा प्रेम बन जाती है। और वही घृणा भी बन जाती है। वे एक ही ऊर्जा के अलग—अलग रूप हैं। रूप तुम देते हो, रूप तुम्हारा मन देता है, और ऊर्जा उसमें प्रवेश कर जाती है।

ध्यान रहे, अगर तुम गहरे प्रेम में हो तो तुम्हारे पास क्रोध करने के लिए बहुत ऊर्जा नहीं बचेगी। लेकिन अगर तुम प्रेम बिलकुल नहीं करते तो क्रोध के लिए तुम्हारे पास अतिशय ऊर्जा होगी। और उसे प्रकट करने के लिए तुम सदा अवसर की खोज में रहोगे कि क्रोध को प्रकट कर सको। अगर तुम्हारी ऊर्जा कामवासना में प्रकट होती है तो तुममें हिंसा की मात्रा बहुत कम होगी। और अगर वह कामवासना में प्रकट नहीं होती है तो तुम बहुत हिंसक होओगे। यही कारण है कि सेना में सिपाहियों के लिए काम—संबंध निषिद्ध है, वर्जित है। अगर उन्हें काम— भोग में उतरने दिया जाए तो सेनाएं युद्ध के लिए बिलकुल नपुंसक हो जाएंगी। और यही कारण है कि जब कोई सभ्यता शिखर छूती है तो उसकी युद्ध की क्षमता समाप्त हो जाती है।

इसलिए सदा सभ्य और सुसंस्कृत समाज अपने से कम सभ्य समाजों द्वारा पराजित होते आए हैं। यह सदा हुआ है। क्योंकि एक विकसित समाज अपने लोगों की हर जरूरत की फिक्र करता है; इन जरूरतों में कामवासना भी सम्मिलित है। जब कोई समाज सचमुच प्रतिष्ठित और समृद्ध होता है, तब उसके हर सदस्य की कामजन्य आवश्यकता पूरी की जाती है। और जिसकी कामवासना की जरूरत पूरी होती है वह लड़ नहीं सकता है। अगर तुम्हारी कामवासना की जरूरत पूरी नहीं हुई है तो तुम लड़ सकते हो, और आसानी से लड़ सकते हो।

इसलिए अगर दुनिया में शाति चाहिए तो कामवासना के लिए अधिक स्वतंत्रता जरूरी

हो जाती है। और यदि युद्ध चाहिए, हिंसा और रक्तपात चाहिए, तो काम—दमन जरूरी हो जाता, काम—विरोधी दृष्टि जरूरी हो जाती है।

यह बड़ी विरोधाभासी बात है कि एक ओर तथाकथित साधु—महात्मा शाति की चर्चा करते हैं और दूसरी ओर वे कामवासना की निंदा भी किए जाते हैं। एक साथ वे यौन—विरोधी वातावरण बनाते हैं और शाति की जरूरत पर भी बल देते हैं। यह बहुत अनर्गल बात है। उनसे तो हिप्पी ज्यादा ठीक हैं। हिप्पियों का नारा है—प्रेम करो, युद्ध मत करो। यह सही दृष्टिकोण है। अगर तुम सच में प्रेम करो तो तुम युद्ध नहीं कर सकते।

इसीलिए तथाकथित संन्यासी, जिन्होंने अपनी कामवासना का दमन किया है, हमेशा क्रोध और हिंसा से भरे रहते हैं। वे अकारण ही क्रोध और हिंसा से भरे होते हैं, और इतने कि किसी भी क्षण विस्फोट हो सकता है। उनकी सब ऊर्जा अनभिव्यक्त पड़ी है। और जब तक उसे स्रोत से न संयुक्त कर दिया जाए, तब तक सच्चा ब्रह्मचर्य संभव नहीं होगा। तुम काम—दमन कर सकते हो, लेकिन तब वह हिंसा में प्रकट होगा।

तुम्हारी काम—ऊर्जा अगर केंद्र पर पहुंच जाए तो तुम फिर बच्चे की भांति हो जाओगे। बच्चे में तुमसे ज्यादा काम—ऊर्जा है, लेकिन अभी वह अपने स्रोत पर स्थित है। अभी वह शरीर में नहीं गई है, लेकिन जाएगी। जब शरीर तैयार होगा, ग्रंथियां तैयार होंगी, जब शरीर प्रौढ़ होगा, तब काम—ऊर्जा शरीर में चली जाएगी।

बच्चा क्यों इतना निर्दोष है? इसलिए कि उसकी ऊर्जा अभी स्रोत पर है, वहां से अलग नहीं हुई है। वही घटना दूसरी बार घटती है, जब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को प्राप्त होता है। तब उसकी सब ऊर्जा स्रोत में लौट आती है, और वह व्यक्ति बच्चे की भांति हो जाता है। जीसस का यही मतलब है, जब वे कहते हैं कि मेरे प्रभु के राज्य में वे ही प्रवेश कर सकेंगे जो बच्चों की भांति होंगे।

इसका क्या अर्थ है? इसका वैज्ञानिक अर्थ है कि तुम्हारी समूची ऊर्जा अपने स्रोत पर लौट आई है। जब तुम ऊर्जा को अभिव्यक्ति देते हो तो वह बाहर जाती है। अभिव्यक्ति देकर तुम ऊर्जा के लिए बाहर जाने की, स्खलित होने की आदत निर्मित करते हो। और जब तुम ऊर्जा को दमित करते हो, तब ऊर्जा न भीतर जाती है और न बाहर, वह सिर्फ अधर में लटकी रहती है। और अधर में लटकी हुई ऊर्जा बोझ बन जाती है।

यही वजह है कि जब तुम क्रोध निकाल देते हो, तुम हलकापन महसूस करते हो। जब तुम संभोग से गुजर लेते हो तब तुम एक तरह की राहत अनुभव करते हो। वैसे ही जब तुम किसी चीज को नष्ट करके अपनी घृणा को प्रकट करते हो तो तुम्हें चैन सा लगता है।

दमित ऊर्जा बोझ बनी रहती है। तुम्हारा मन उससे भारी बना रहता है। और तुम्हारे सामने दो ही विकल्प हैं। या तो उस ऊर्जा को बाहर फेंको, या उसे पीछे लौटकर अपने स्रोत से संयुक्त होने दो। स्रोत में वापस लौटकर ऊर्जा निराकार हो जाती है। स्रोत पर सब ऊर्जा निराकार होती है।

उदाहरण के लिए, बिजली है, वह भी निराकार है। जब बिजली पंखे में जाती है तो एक रूप ले लेती है, और वही बल्व में प्रवेश कर दूसरा रूप ले लेती है। तुम हजार तरह से उसका उपयोग कर सकते हो। ऊर्जा वही है, और यंत्र के द्वारा उसे आकार मिलता है।

वैसे ही क्रोध एक यंत्र है, काम, प्रेम, घृणा भी यंत्र हैं। ऊर्जा जब घृणा की नहर में जाती है तो घृणा बन जाती है। वही ऊर्जा प्रेम में प्रवेश कर प्रेम बन जाती है। और जब वह अपने स्‍त्रोत पर लौट आती है। तो फिर वह अरूप उर्जा, शुद्ध ऊर्जा बन जाती है। यह अरूप ऊर्जा निर्दोष है। निराकार परम निर्दोष है। यही कारण है कि बुद्ध इतने निर्दोष दिखते हैं। उनकी ऊर्जा स्रोत पर पहुंच गई है।

ऊर्जा को अभिव्यक्त मत करो, क्योंकि वह अपव्यय है। वैसा करके तुम अपनी ही ऊर्जा नष्ट नहीं करते, दूसरे की ऊर्जा भी नष्ट करने में सहयोगी होते हो। और ऊर्जा का दमन भी मत करो। क्योंकि दमित ऊर्जा तनाव में होती है और सदा प्रकट होने की राह खोजती है। तो करना क्या?

यह विधि कहती है कि भाव के साथ कुछ मत करो, बल्कि उस स्रोत की तरफ जाओ जहां से वह भाव आया है। और जब भाव सक्रिय है तब मार्ग भी स्पष्ट है, और उसी क्षण तुम भीतर गति कर सकते हो। भावों का ध्यान के लिए उपयोग करो। उसके अदभुत परिणाम होंगे, जिन पर तुम्हें विश्वास न होगा। और एक बार तुम्हें वह कुंजी मिल गई जो ऊर्जा को उसके स्रोत पर पहुंचा देती है तो तुम्हारे व्यक्तित्व का गुणधर्म ही और हो जाएगा। तब तुम अपनी ऊर्जा नष्ट न करोगे। नष्ट करना मूढ़ता मालूम होगी।

बुद्ध कहते हैं कि जब तुम किसी पर क्रोध करते हो तो उसका अर्थ है कि दूसरे के दुष्कृत्यों के लिए तुम अपने को दंड दे रहे हो। किसी ने तुम्हें अपमानित किया, यह उसका कृत्य है। और क्रुद्ध होकर तुम अपने को दंड देते हो, तुम अपनी ऊर्जा नष्ट करते हो। यही मूढ़ता है।

फिर हम बुद्ध, महावीर और जीसस को सुनकर ऊर्जा का दमन करने लगते हैं। हम सुनते हैं कि क्रोध करना मूढ़ता है तो हम सोचते हैं कि क्रोध नहीं करना चाहिए। और तब हम अपनी ऊर्जा से लड़ते हैं, उसका दमन करते हैं। परिणामस्वरूप हम दमित ऊर्जा के ज्वालामुखी बन जाते हैं, जिसका किसी भी क्षण विस्फोट हो सकता है।

तुम इकट्ठा कर रहे हो। दिनभर का क्रोध इकट्ठा हो गया, फिर महीनेभर का क्रोध इकट्ठा हो गया, फिर वर्षभर का क्रोध, फिर पूरे जीवनभर का क्रोध इकट्ठा हो गया। ऐसे जन्मों—जन्मों का क्रोध भी इकट्ठा हो सकता है। वह सब वहां इकट्ठा है जो किसी भी क्षण फूट सकता है। और तब तुम जीने से भी डरने लगते हो, क्योंकि किसी भी क्षण कोई चिंगारी विस्फोट पैदा कर सकती है। इसलिए तुम भयभीत हो, और तुम्हारा प्रत्येक क्षण खींचातानी बन जाता है।

मनोविज्ञान कहता है कि दमन की बजाय अभिव्यक्ति बेहतर है, लेकिन धर्म ऐसा नहीं कह सकता। धर्म कहता है कि दमन और अभिव्यक्ति दोनों मूढ़ताएं हैं। ऊर्जा को अभिव्यक्ति देकर तुम दूसरे को हानि पहुंचाते हो और अपने को भी। दमन करके तुम अपनी हानि कर रहे हो, और किसी दिन दूसरे की भी हानि करोगे। धर्म कहता है कि स्रोत की तरफ लौट चलो, जहां पहुंचकर ऊर्जा निराकार हो जाती है। तब क्रोध किए बिना ही तुम शक्तिशाली महसूस करोगे। तब तुम ओजस्वी और जीवंत होओगे। तब तुम्हारे जीवन में तीव्रता और त्वरा होगी और तुम्हारी उपस्थिति प्रभावकारी होगी। तब तुम्हें किसी पर प्रभुत्व करने की जरूरत नहीं रहेगी, तुम्हारी उपस्थिति ही कहेगी कि यहां कोई शक्ति का स्रोत आ गया है।

जब तुम किसी बुद्ध या कृष्ण के पास पहुंचते हो तो तुरंत अपने को एक भिन्न ही माहौल में पाते हो। कारण यह है कि बुद्ध और कृष्ण शक्ति के स्रोत बन जाते हैं। उनकी सन्निधि में जाते ही तुम पर चुंबकीय प्रभाव पड़ता है, जादू सा हो जाता है। कोई तुम पर जादू करता नहीं है, कुछ भी नहीं करता है, सिर्फ उपस्थिति काम करती है। तुम्हें लगेगा कि किसी ने तुम्हें सम्मोहित कर दिया। लेकिन बात ऐसी नहीं है। यह बुद्ध की उपस्थिति है जो सम्मोहित कर रही है, क्योंकि बुद्ध की ऊर्जा स्रोत पर पहुंच गई है, वह ऊर्जा केंद्रित होकर निराकार हो गई है। ऐसी उपस्थिति सम्मोहक होती है।

बुद्धत्व प्राप्ति के पूर्व बुद्ध के पांच शिष्य थे। वे सभी तपस्वी थे। तब बुद्ध स्वयं एक बड़े तपस्वी थे। उन्हें अपने शरीर को सताने में बड़ा रस आता था। वे नए—नए ढंगों से, अनेक ढंगों से अपने को सताते थे। एक तरह से वे आत्म—पीड़क थे। और उस समय ये पांचों उनके निष्ठावान शिष्य थे।

और फिर बुद्ध को बोध हुआ कि तपस्या बिलकुल व्यर्थ है, अपने को सताकर कोई बुद्धत्व को नहीं प्राप्त हो सकता है। जब उन्हें यह बोध हुआ तो उन्होंने तपस्या का मार्ग छोड़ दिया। फलत: उनके पांचों शिष्य तुरंत उन्हें छोड्कर अलग हो गए। उन्होंने कहा कि तुम अब तपस्वी न रहे, तुम्हारा पतन हो गया है। और वे सभी कहीं और चले गए।

फिर जब बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए तो सबसे पहले उन्हें अपने इन पांचों शिष्यों का स्मरण आया। कभी वे उनके अनुयायी थे, इसलिए उन्हें पहले उनकी खोज करनी चाहिए। बुद्ध को लगा कि मेरा उनके प्रति एक कर्तव्य है। पहले उन्हें खोजकर वह बताना है जो मुझे मिला है।

तो बुद्ध उन्हें ढूंढने के लिए बोधगया से वाराणसी गए। वे लोग उन्हें सारनाथ में मिले। कथा कहती है कि बुद्ध दूसरी बार लौटकर वाराणसी कभी नहीं गए, सारनाथ कभी नहीं गए। वे सिर्फ इन शिष्यों के लिए आए थे।

जब बुद्ध सारनाथ पहुंचे तो संध्या का समय था। बुद्ध के पांचों शिष्य एक पहाड़ी पर बैठे थे। जब उन्होंने बुद्ध को अपनी ओर आते देखा तो उन्होंने कहा कि यह वही गौतम सिद्धार्थ है जो मार्ग छोड्कर पतित हो गया है; ‘हम उसे कोई आदर नहीं देंगे, हम उसके साथ मामूली शिष्टाचार भी नहीं निभाएंगे। और ऐसा कहकर पांचों ने आंखें बंद कर लीं।

लेकिन जैसे—जैसे बुद्ध उनके निकट पहुंचे, अनदेखे ही उन पांचों के मन बदलने लगे। वे बेचैन हो उठे। और जब बुद्ध बिलकुल उनके पास आ गए तो अचानक उन पांचों की आंखें खुल गईं और वे सीधे बुद्ध के चरणों पर गिर पड़े। बुद्ध ने पूछा कि तुम लोग ऐसा क्यों करते हो? तुमने तो यह तय किया था कि तुम मुझे सम्मान नहीं दोगे। फिर यह क्या?

उन्होंने कहा कि हम कुछ कर नहीं रहे हैं, सब अपने आप हो रहा है। आपको कुछ मिला है, आप एक चुंबकीय शक्ति बन गए हैं और हम आपकी तरफ खिंचे जा रहे हैं। क्या आप हम पर सम्मोहन कर रहे हैं? बुद्ध ने कहा, नहीं, मैं कुछ नहीं कर रहा हूं। लेकिन मुझे कुछ हुआ, कुछ मिला। मेरी समस्त ऊर्जा अपने स्रोत से जा मिली है। इसलिए मैं जहां जाता हूं वहा एक चुंबकीय शक्ति अनुभव होती है।

इसी कारण से सदियों से बुद्ध या महावीर के विरोधी कहते आए हैं कि वे लोग अच्छे नहीं थे, वे लोगों को सम्मोहित कर लेते थे। असल में कोई सम्मोहित नहीं करता है, यह दूसरी बात है कि लोग सम्‍मोहित हो जाते है। जब ऊर्जा मूल स्‍त्रोत से मिलती है तो वह एक चुंबकीय केंद्र पैदा करती है। यह विधि तुम्हारे भीतर वही चुंबकीय केंद्र पैदा करने की विधि है।

दूसरा प्रश्न :

 

कल आपने कहा कि मन को निर्ग्रंथ करने की जो ध्यान— विधियां है, वे बहुत महत्‍वपूर्ण हैं। पश्चिम में सैकड़ों फ्रायडवादी और जुंगवादी मनोचकित्‍सक इन विधियों का प्रयोग कर रहे है, लेकिन व्यक्‍ति की रूपांतरित करने में उन्हें कोई महत्‍वपूर्ण सफलता नहीं मिली है। उनकी असफलता के कारण क्या हैं? उनकी विधि की त्रुटियां क्या हैं?

 

नेक बातें यहां विचारणीय हैं। एक तो यह कि पाश्चात्य मनोविज्ञान अभी मनुष्य की आत्मा में विश्वास नहीं करता है। वह केवल मनुष्य के मन को मानता है। अभी पश्चिम के मनोविज्ञान के लिए मन के पार कुछ नहीं है। और अगर मन के पार कुछ भी नहीं है तो फिर तुम जो भी करोगे उससे मनुष्य का भला नहीं होगा। ज्यादा से ज्यादा उससे मनुष्य को सामान्य बनाया जा सकता है, बस। और यह सामान्य होना क्या है?

सामान्य होना औसत होना है। और अगर औसत व्यक्ति ही सामान्य नहीं है तो सामान्य होने का कुछ भी अर्थ नहीं है। उसका केवल इतना अर्थ होता है कि तुम भीड़ के साथ समायोजित हो गए। पश्चिम का मनोविज्ञान एक ही काम करता है—जब भी किसी व्यक्ति का भीड़ के साथ समायोजन टूट जाता है तो पश्चिमी विधियां फिर से भीड़ के साथ उसका समायोजन जोड़ देती हैं। लेकिन भीड़ को कोई नहीं देखता कि यह भीड़ ठीक है अथवा नहीं।

पूर्वीय मनोविज्ञान के लिए भीड़ मापदंड नहीं है। इस फर्क को स्मरण रखो। पूर्व के मनोविज्ञान के लिए भीड़ मापदंड नहीं है, समाज मापदंड नहीं है। समाज तो खुद रुग्ण है। फिर मापदंड क्या है? हमारे लिए बुद्ध मापदंड हैं। जब तक तुम बुद्ध जैसे नहीं होते तब तक तुम रुग्ण हो। समाज मापदंड नहीं है।

लेकिन पश्चिमी मनोविज्ञान के लिए समाज ही मापदंड है, बुद्ध उनके लिए मापदंड नहीं हो सकते। क्योंकि वे नहीं मानते कि आत्मा जैसी कोई चीज है। और अगर आत्मा नहीं है तो बुद्धत्व भी नहीं हो सकता है। क्योंकि आत्मा का प्रकाशित होना ही बुद्धत्व है। इसलिए पश्चिम का मनोविज्ञान मात्र चिकित्सा है, चिकित्सा का अंग है। वह तुम्हें समायोजित होने में सहयोग देता है। वह अतिक्रमण नहीं है।

पूर्व मन के अतिक्रमण के लिए प्रयत्न करता है। क्योंकि हमारे लिए मानसिक रुग्णताएं नहीं हैं। याद रहे, हमारे लिए मानसिक रोग नहीं हैं। हमारे लिए तो मन ही रुग्णता है, मन ही रोग है। पश्चिम के मनोविज्ञान के लिए मन रोग नहीं है। वह तो तुमको मन समझता है, तुम मन हो। वह मन को रोग कैसे मान सकता है! उसके लिए मन स्वस्थ भी हो सकता है, मन बीमार भी हो सकता है। हमारे लिए मन ही रोग है, मन कभी स्वस्थ नहीं हो सकता है। जब तक तुम मन के पार नहीं जाते, तुम स्वस्थ नहीं हो सकते।

तब तक तुम या तो रुग्ण और समायोजित हो या रुग्ण और असमायोजित हो, लेकिन स्वस्थ नहीं हो। सामान्य आदमी स्वस्थ नहीं। वह सीमा के भीतर रुग्ण है। असामान्य वह है जो सीमा के बाहर चला जाता है। और सामान्य तथा असामान्य में केवल मात्रा का फर्क है गुण का नहीं। तुम्हारे और पागलखाने में रहने वाले के बीच कोई गुणात्मक फर्क नहीं है, सिर्फ मात्रा का फर्क है। वह तुमसे थोड़ा ज्यादा विक्षिप्त है, बस। तुम सीमा के भीतर हो। कामकाज के तल पर तुम चला लेते हो। वह नहीं चला पाता है। वह तुमसे आगे बढ़ गया है। उसकी बीमारी बहुत आगे बढ़ गई है। तुम रास्ते में हो, वह पहुंच गया है।

पश्चिम का मनोविज्ञान इस आगे चले गए आदमी को भीड़ में वापिस लाकर समायोजित कर देता है। वह उसे सामान्य बना देता है। यह ठीक है; जितना हो जाए उतना ही ठीक है। लेकिन हमारे लिए जब तक आदमी मन के पार नहीं जाता है तब तक वह पागल ही है, क्योंकि मन ही पागलपन है। इसलिए हम मन का निर्ग्रंथन करते हैं, ताकि हम उसको जान सकें जो मन के पार है। वे भी मन के निर्ग्रंथन के कुछ उपाय करते हैं, लेकिन उद्देश्य समायोजन है। उनके लिए मन के पार कुछ नहीं है। और खयाल रहे, जब तक तुम स्वयं के पार नहीं जाते, कुछ भी महत्वपूर्ण घटित नहीं होगा। जब तक तुम्हारे लिए तुमसे कुछ पार पाने को नहीं है, तब तक जीवन निरर्थक है।

कुछ और बातें हैं। फ्रायड और फ्रायडवादियों के लिए मनुष्य ऐसा प्राणी है जो सुखी नहीं हो सकता है। उसके होने में ही कुछ है कि आदमी सुखी नहीं हो सकता है। तुम दुखी न होओ, यही काफी है। इतने से संतुष्ट हो जाओ कि तुम दुखी नहीं हो, यही काफी है। तुम सुखी तो हो नहीं सकते। क्यों?

इसलिए कि फ्रायडवादी मनोविज्ञान कहता है कि केवल वृत्ति के अनुकूल जीने से पशुवत जीने से सुख उपलब्ध होता है। लेकिन मनुष्य वैसा नहीं हो सकता। बुद्धि निरंतर हस्तक्षेप करती है, दखल देती है। अगर तुम अपनी बुद्धि को छोड़ दो, तर्क को अलग कर दो, तो सुखी हो सकते हो।

लेकिन तब तुम्हें अपने सुख का बोध नहीं होगा। फ्रायडियन मनोविज्ञान का यही विरोधाभास है। अगर तुम नीचे गिरकर पशु हो जाओ तो सुखी तो हो जाओगे, लेकिन इस सुख का तुम्हें बोध नहीं होगा। और अगर तुम बोधपूर्ण होने की कोशिश करोगे तो सुखी नहीं रह सकते, क्योंकि तब तुम्हारे लिए पशु जैसा होना कठिन हो जाएगा।

और बुद्धि निरंतर हर चीज में हस्तक्षेप करती है। मनुष्य तर्क को छोड़ नहीं सकता, और तर्क के साथ रहना बड़ी मुसीबत है। और यही मनुष्य की समस्या है, पीड़ा है। फ्रायड के अनुसार सुखी होना असंभव है। ज्यादा से ज्यादा तुम यही कर सकते हो, अगर तुम बुद्धिमान हो, कि अपने जीवन को इस ढंग से नियोजित करो कि दुख न हो। लेकिन यह बहुत नकारात्मक बात है।

पूर्वीय मनोविज्ञान के सामने एक विधायक गंतव्य भी है। और वह है कि तुम सुखी हो सकते हो। सुखी ही नहीं, तुम आनंदपूर्ण हो सकते हो। और पूर्वीय मनोविज्ञान यह भी कहता है कि अगर तुम्‍हें पता कि तुम दुखी हो तो उसका इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर सुखी होने की क्षमता है, संभावना है। अन्यथा दुख का बोध नहीं हो सकता। यदि कोई व्यक्ति अंधेरे

को देख सकता है तो उसका अर्थ है कि उसके पास आंखें हैं। और जो अंधेरे को देख सकता है वह प्रकाश को भी देख सकता है।

याद रहे, अंधा व्‍यक्‍ति अंधकार को नहीं देख सकता है। तुम सोचते हो कि अंधे लोग अंधकार में जीते होंगे। इस बात को भूल जाओ। वे अंधेरे को भी नहीं देख सकते हैं, क्योंकि उसके लिए भी आंखें चाहिए। वैसे ही अगर तुम दुख अनुभव करते हो तो सुख भी अनुभव कर सकते हो। सच तो यह है कि अगर तुम सुख नहीं अनुभव कर सकते तो दुख को भी अनुभव करने की कोई संभावना नहीं है। ये ध्रुवीय विपरीतताए हैं।

तुम पूरी तरह सुखी हो सकते हो, लेकिन तब मन व्यर्थ हो जाएगा। इसे ऐसे समझो—अगर तुम नीचे उतरकर सिर्फ शरीर रह जाओ तो तुम सुखी हो जाओगे। फ्रायड भी इस बात से सहमत है कि अगर तुम नीचे गिरकर अपनी बुद्धि को बिलकुल भूल जाओ, अगर तुम पशु जैसे हो जाओ, सिर्फ शरीर रह जाओ, तो तुम सुखी हो जाओगे। लेकिन तब तुम्हें यह होश नहीं रहेगा कि मैं सुखी हूं। मन से तुम जान सकते हो कि तुम सुखी हो, लेकिन तब कठिनाई यह है कि तुम सुखी नहीं हो सकते, क्योंकि मन सदा हस्तक्षेप करता रहता है। शरीर तो सुखी हो सकता है, लेकिन मन उसमें बाधा डालता है।

पूर्व ने एक और संभावना का विकास किया है, और वह है पार जाने की संभावना। फ्रायड कहता है कि तुम पीछे लौटकर और पशु होकर सुखी हो सकते हो, लेकिन इस सुख का बोध नहीं होगा। बोध के लिए मन जरूरी है, मन में होकर ही तुम सुख को जान सकते हो। लेकिन मन के रहते सुखी नहीं हुआ जा सकता है। पूर्वीय अनुसंधान कहता है कि मन के पार जाने से तुम सुखी हो सकते हो और साथ—साथ होशपूर्ण भी। वह तीसरा विकल्प है—मन के पार जाने का विकल्प।

तो ये तीन विकल्प हैं। मनुष्य बीच में है। नीचे पशु का जगत है। जंगल में जाकर पशुओं को देखो, अनजाने ही_ सही, वे सुखी हैं। उन्हें नहीं मालूम है कि वे सुखी हैं, लेकिन तुम जान सकते हो कि वे सुखी हैं। सुबह—सुबह समुद्र—तट पर चले जाओ, या किसी बगीचे में चले जाओ और चिड़ियों की चहचहाहट सुनो। उन्हें भले ही पता न हो, लेकिन तुम जान जाओगे कि वे सुखी हैं। उनकी तरह तुम कभी नहीं गा सके हो। उनकी आंखों में झांककर देखो, कैसी निरभ्र और निर्दोष आंखें हैं! वे पक्षी सुखी हैं, पर तुम सुखी नहीं हो।

नीचे गिरकर केवल शरीर रह जाओ तो तुम सुखी हो जाओगे। या ऊपर उठकर ‘आत्मा हो जाओ तो भी तुम सुखी हो जाओगे। लेकिन मध्य में रहकर तुम सदा तनाव में रहोगे। क्योंकि मन मंजिल नहीं है, वह दो यथार्थों के बीच, शरीर और आत्मा के बीच तनी हुई एक रस्सी है।

तुम्हारी हालत रस्सी पर चलने वाले नट जैसी है। वह कभी चैन में नहीं रह सकता। या तो उसे आगे जाना होगा या पीछे जाना होगा, बीच में खड़ा नहीं रहा जा सकता। तब उसे रस्सी से उतरना होगा। दो ही विकल्प हैं, या तो वह आगे जाए या पीछे जाए। मन भी वैसी रस्सी है, और मन के साथ जीना रस्सी पर चलना है। उसमें असंतुलन और बेचैनी अनिवार्य है। हरेक क्षण चिंता और संताप का क्षण है। मन का जीवन तनाव का जीवन है।’

यही कारण है कि पश्चिम का मनोविज्ञान तुम्हें सामान्य बना देता है, लेकिन वह तुम्हें आत्मोपलब्ध नहीं बना सकता। लेकिन अब पश्चिम भी सोच रहा है, वहां भी नए अंकुर फूट

रहे हो प्रगाढ़ रूप से पूर्व पश्‍चिम में प्रवेश कर रहा।

असल में पूरब के जीतने का वही ढंग है। पश्चिम ने पूरब पर विजय पाई, लेकिन उसका ढंग बड़ा स्थूल था। पूरब के जीतने के अपने रास्ते हैं। वे बहुत सूक्ष्म और शांत हैं। अब पूरब पश्चिमी मन में प्रवेश कर रहा है। किसी हिंसा और संघर्ष के बगैर पूरब पश्चिम के मन में छाता जा रहा है। देर—अबेर पश्चिम के मनोविज्ञान को अतिक्रमण की धारणा, मन के पार जाने की धारणा विकसित करनी होगी।

मन का निर्ग्रंथन दोनों ढंग से सहयोगी सिद्ध हो सकता है। अगर तुम सिर्फ चित्त को सामान्य बनाना चाहते हो तो वह उसमें भी सहयोगी होगा। उस हालत में अतिक्रमण तुम्हारा उद्देश्य नहीं है। और अगर अतिक्रमण उद्देश्य हो तो उसमें भी निर्ग्रंथन सहयोगी होगा। ये विधिया मानसिक शाति के लिए भी काम आ सकती हैं। और ये विधियां उस सच्ची शांति के लिए भी काम आ सकती हैं जो मन की नहीं हैं।

शांति भी दो प्रकार की है। एक तो मन की शांति है और दूसरी शाति है जो मन के पार की है। और मन के नहीं हो जाने पर जो शांति उपलब्ध होती है, वह मन की शांति से सर्वथा भिन्न है। मन की शाति में मन रह जाता है, लेकिन उसकी विक्षिप्तता न्यून हो जाती है।

पश्चिम के मनोविज्ञान को अध्यात्म पर आना होगा, तभी मनुष्य अतिक्रमण कर सकता है। उसको दर्शन भी बनना होगा, और अंततः उसे धर्म बनना होगा। केवल तभी वह मनुष्य को समाधि में ले जा सकता है।

तीसरा प्रश्न:

 

आप ध्यान की अनेक विधियों हमें समझाते रहे है। लेकिन क्‍या हय सच नहीं है कि कोई विधि तब तक बहुत शक्‍तिशाली और कारगर नहीं हो सकती जब तक साधक को उसमे दीक्षित न किया जाये?

कोई भी विधि गुणात्मक रूप से भिन्न हो जाती है जब तुम्हें उसमें दीक्षित किया जाता है। मैं विधियों की चर्चा कर रहा हूं तुम उन्हें प्रयोग में ला सकते हो। तुम उसकी वैज्ञानिक पृष्ठभूमि को और उसके ढंग—ढांचे को जान लो, तो तुम उसे प्रयोग में ला सकते हो। लेकिन दीक्षा से उसकी गुणवत्ता बदल जाएगी। अगर मै तुम्हें किसी विशेष विधि में दीक्षित करूं तो बात और हो जाएगी।

दीक्षा के संबंध में बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। जब मैं तुमसे किसी विधि की चर्चा और व्याख्या करता हूं तो तुम अपने ढंग से उसे प्रयोग में ला सकते हो। विधि तो तुम्हें समझा दी गई है, लेकिन वह तुम्हारे अनुकूल है या नहीं, वह तुम पर काम करेगी या नहीं, या तुम किस ढंग के आदमी हो, ये बातें नहीं बताई गईं। वह संभव भी नहीं है।

दीक्षा में तुम विधि से अधिक महत्वपूर्ण होते हो। जब गुरु तुम्हें दीक्षित करता है तो तुम्हारा निरीक्षण भी करता है। वह खोजता है कि तुम किस ढंग के आदमी हो, कि तुमने पिछले जन्मों में क्या साधना की है, कि तुम ठीक इस क्षण कहां हो, कि इस क्षण तुम किस

केंद्र पर जीते हो, और तब वह विधि के संबंध में निर्णय लेता है, तब वह तुम्हें तुम्हारी विधि देता है। यह वैयक्तिक मामला है। उसमें विधि नहीं तुम महत्वपूर्ण हो। उसमें तुम्हारा अध्ययन, निरीक्षण और विश्लेषण किया जाता है। तुम्‍हारे पूर्वजन्‍म, तुम्‍हारी चेतना, तुम्‍हारा मन, तुम्‍हारा शरीर, सबको काट—पीटकर देखा जाता है। तुम अभी कहां हो, इस बात की पूरी छानबीन की जाती है। क्योंकि यात्रा उसी बिंदु से शुरू होती है जिस बिंदु पर तुम अभी हो।

इसलिए ऐसा नहीं है कि किसी भी विधि से काम चल जाएगा। इतनी छानबीन के बाद गुरु तुम्हारे लिए कोई खास विधि चुनता है। और अगर उसे लगे कि तुम्हारे लिए किसी विधि में कोई हेर—फेर की जरूरत है तो गुरु उतना हेर—फेर करके विधि को तुम्हारे उपयुक्त बनाता है। और तब वह दीक्षा देता है। तब वह विधि देता है।

यही कारण है कि इस बात पर जोर दिया जाता है कि जब तुम किसी विधि में दीक्षित किए जाओ तो तुम उसके बारे में किसी को कुछ मत बताओ। इसे गुप्त इसलिए रखना है कि यह वैयक्तिक है। किसी दूसरे को बताने से न सिर्फ उसका लाभ खो सकता है, बल्कि वह हानिकर भी सिद्ध हो सकती है।

इसलिए गोपनीयता जरूरी है। जब तक तुम उपलब्ध न हो जाओ और तुम्हारे गुरु न कहें कि तुम अब दूसरों को दीक्षित कर सकते हो, तब तक इसके संबंध में अपने पति, अपनी पत्नी, या मित्र से भी एक शब्द नहीं कहना है। यह अत्यंत गोपनीय है, क्योंकि यह खतरनाक है, यह बहुत शक्तिशाली है। यह केवल तुम्हारे लिए चुनी गई विधि है, इसलिए तुम पर ही काम करेगी।

सच तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति इतना अनूठा है कि उसके लिए एक अलग विधि की जरूरत पड़ेगी। और थोड़े ही हेर—फेर के साथ कोई विधि उसके लिए उपयुक्त हो सकती है। यह जो चर्चा मैं इन एक सौ बारह विधियों के संबंध में कर रहा हूं वे सामान्य विधियां हैं, सामान्यीकृत विधियां हैं। वे विधियां हैं जिन पर प्रयोग हुए हैं। यह उनका सामान्य रूप है ताकि तुम उनसे परिचित हो सको, ताकि तुम प्रयोग कर सको। यदि उनमें से कोई तुम्हें जंच जाए, तो तुम उसे जारी रख सकते हो।

लेकिन यह विधि में दीक्षा नहीं है। दीक्षा तो गुरु और शिष्य के बीच बिलकुल वैयक्तिक बात है। दीक्षा एक गुह्य संप्रेषण है। इतना ही नहीं, दीक्षा में और अनेक बातें निहित हैं। तब गुरु को विधि देने के लिए एक सम्यक क्षण का चुनाव करना पड़ता है, ताकि विधि तुम्हारे अचेतन की गहराई में उतर सके।

जब मैं इनकी चर्चा कर रहा हूं तो तुम्हारा चेतन मन सुन रहा है। तुम उन्हें भूल जाओगे। जब चर्चा समाप्तं होगी, तब इन एक सौ बारह विधियों के तुम नाम भी नहीं बता सकोगे। अनेक को तुम पूरी तरह भूल जाओगे। और जो थोड़ी सी विधियां याद रहेंगी वे एक—दूसरे में इतनी उलझी होंगी कि तुम्हें कहना मुश्किल होगा कि कौन क्या है।

इसलिए गुरु को ठीक क्षण खोजना पड़ता है जब कि तुम्हारा अचेतन ग्राहक हो, तभी वह विधि बताता है। ऐसा करने से विधि अचेतन की गहराई में उतर जाती है। इसलिए अनेक बार नींद में दीक्षा दी जाती जब तुम्हारा चेतन मन बिलकुल सोया होता है और अचेतन मन खुला होता है।

यही कारण है कि दीक्षा में समर्पण बहुत जरूरी है। जब तक तुम समर्पित नहीं होते तब तक दीक्षा नहीं दी जा सकती। इसका कारण कि समर्पण के बिना चेतन मन सजग बना रहता है। समर्पण के बाद चेतन मन को छुट्टी दे दी जाती है और अचेतन मन सीधे—सीधे गुरु के संपर्क में होता है। इसलिए दीक्षा का क्षण चुनना बहुत महत्वपूर्ण है।

इतना ही नहीं, दीक्षा के लिए तैयारी भी उतनी ही जरूरी है। तुम्हें तैयार करने में महीनों लग सकते हैं। उसके लिए सम्यक भोजन चाहिए, सम्यक नींद चाहिए। और सब चीजों को एक शांत बिंदु पर इकट्ठा होना चाहिए। तभी तुम्हें दीक्षा दी जा सकती है। दीक्षा एक लंबी प्रक्रिया है, वैयक्तिक प्रक्रिया है। जब तक कोई पूरी तरह समर्पित होने को तैयार नहीं है तब तक दीक्षा संभव नहीं है।

तो मैं यहां तुम्हें इन विधियों में दीक्षित नहीं कर रहा हूं मैं सिर्फ तुम्हें उनसे परिचित करा रहा हूं। अगर किसी को लगे कि कोई विधि उसको गहन रूप से छूती है और उसे उस विधि में दीक्षित होना चाहिए तो ही मैं उसे दीक्षित कर सकता हूं। लेकिन तब यह एक लंबी प्रक्रिया होगी। तब तुम्हारी वैयक्तिकता को पूरी तरह जानना होगा। तब तुम्हें पूरी तरह नग्न हो जाना पड़ेगा, ताकि कुछ भी छिपा न रहे। और तब चीजें आसान हो जाती हैं। क्योंकि जब किसी सम्यक व्यक्ति को किसी सम्यक क्षण में कोई सम्यक विधि दी जाती है तो वह विधि तुरंत कारगर होती है।

कभी—कभी तो ऐसा होता है कि शिष्य दीक्षित होते—होते ही बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है। उसके लिए दीक्षा ही संबोधि बन जाती है। जब गुरु गोपनीयता के साथ और वैयक्तिक ढंग से किसी शिष्य को विधि देता है तो वह विधि जीवंत हो उठती है।

तो यहां जो मैं कह रहा हूं वह दीक्षा नहीं है, इसे याद रखो। यह तो एक सौ बारह विधियों को पुनजीवित करने के लिए, उन्हें प्रकाश में लाने के लिए एक वैज्ञानिक प्रयत्न है। लेकिन अगर कोई उत्सुक होगा तो उसे दीक्षा दी जाएगी। और जब कोई सचमुच उत्सुक होता है तो वह दीक्षा की खोज करता है। किसी विधि पर अकेले—अकेले काम करना बड़ी लंबी प्रक्रिया है। उसमें वर्षों लग सकते हैं, जन्मों लग सकते हैं। और हो सकता है कि इतने लंबे समय तक चलने का धीरज तुम्हारे पास न हो।

दीक्षा से बात बहुत सरल हो जाती है। तब विधि खुद संप्रेषण बन जाती है। तब विधि के जरिए गुरु तुम पर काम करने लगता है। दीक्षा गुरु के साथ जीवंत संबंध है। और जीवंत संबंध निस्संदेह गहरा जाता है। वह तुम्हें बदल देता है और रूपांतरित करता है।

अगला प्रश्न:

आपने जार्ज गुरूजिएफ को उद्धृत करते हुए कहा कि तादात्‍म्‍य ही एक मात्र पाप है। लेकिन यहां अनेक विधियों में तादात्‍म्‍य का उपयोग किया गया है। उदाहरण के लिए, कहा गया है कि अपनी प्रेमिका के साथ एक हो जाओ, गुलाब के फूल के साथ एक हो जाओ, कि गुरु के साथ एक अनुभव करो। और फिर समानुभूति को ध्‍यानपूर्ण और आध्‍यात्‍मिक गुण माना जाता है। इसलिए गुरूजिएफ का यह कथन अंशत: ही सही हो सकता है, और वह भी थोड़ी सी विधियों के प्रसंग में ही।

हीं, यह अंशत: नहीं समग्रत: सही है। लेकिन इसे समझने की जरूरत है। तादत्‍म्य अचेतन प्रक्रिया है। लेकिन जब तुम किसी ध्यान—विधि में तादात्म का उपयोग करते हो तो वह चेतन प्रक्रिया है।

उदाहरण के लिए, तुम्हारा नाम राम है। किसी ने राम को गाली दी तो तुम तुरंत अपमानित अनुभव करते हो, क्योंकि राम नाम के साथ तुम्हारा तादात्म है। लेकिन यह तादात्म चेतन नहीं, अचेतन है। तुम्हारा मन इस तरह कभी नहीं विचार करता है कि लोग मुझे राम कहते हैं, लेकिन मैं राम नहीं हूं; यह सिर्फ नाम है मेरा, वैसे हर कोई अनाम पैदा होता है; नाम दिया हुआ है, कामचलाऊ है; वह आदमी मेरे कामचलाऊ नाम को गाली दे रहा है; इसलिए विचारणीय है कि मैं क्रोध करूं या नहीं। तुम इस तरह कभी तर्क—वितर्क नहीं करते हो। और अगर करो तो तुम्हें कभी क्रोध नहीं होगा। लेकिन होता यह है कि राम को गाली दी जाती है और तुम अपमानित अनुभव करते हो, यद्यपि यह नाम कामचलाऊ और सांयोगिक है। यह तादात्म अचेतन है, चेतन नहीं।

लेकिन जब तुम गुलाब के साथ तादत्‍म्य कर रहे हो तो यह चेतन प्रयत्न है। गुलाब के साथ तुम्हारा पहले से कोई तादात्म नहीं है। तुम गुलाब के साथ तादात्म्य बनाने की चेष्टा करते हो और तुम अपने को भूलने की चेष्टा करते हो। तुम गुलाब के साथ एक होने के प्रयत्न में हो और तुम्हें इसका गहरा बोध है, पूरी प्रक्रिया के प्रति तुम जागरूक हो। यह तुम कर रहे हो। और यदि तादात्म भी सचेतन किया जाए तो वह ध्यान बन जाता है।

और यह भी स्मरण रहे कि अगर किसी ध्यान की विधि को बेहोशी में प्रयोग करो तो वह ध्यान नहीं है। तुम हर सुबह या हर रात प्रार्थना करते हो। यह बिलकुल अचेतन है, तुम्हारी दिनचर्या का हिस्सा है। यह यांत्रिक है। प्रार्थना करते हुए तुम्हें होश नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। प्रार्थना के जो शब्द कहते हो उनके प्रति भी तुम सजग नहीं हो। तुम तोते की तरह उन्हें दोहरा भर रहे हो। यह ध्यान नहीं है।

और अगर तुम स्नान भी होशपूर्वक करते हो तो वह ध्यान है। इस बात को खयाल में रख लो कि जो भी तुम सचेतन, सावधानी से और बोधपूर्वक करते हो वह ध्यान बन जाता है। अगर पूरे होश में बोधपूर्वक तुम किसी की हत्या भी कर दो तो वह ध्यान है।

इसीलिए कृष्ण अर्जुन को कह सके कि डरो मत, मारो—यह जानते हुए मारो कि न कोई मारता है और न कोई मरता है। अर्जुन आसानी से अपने शत्रुओं को बेहोशी में मार सकता है, वह क्रोध से पागल होकर हत्या कर सकता है। यह आसान है। लेकिन कृष्ण कहते हैं कि जागरूक रहो, पूरे होश में रहो और परमात्मा के निमित्त बन जाओ, और यह भी जानो कि कोई न मरता है न मारा जाता है। आत्मा अमर है, शाश्वत है। कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि सिर्फ शरीर मरता है, इसलिए शरीर को मारो।

और अगर अर्जुन इतना ध्यानपूर्ण हो सकता है, इतना जागरूक हो सकता है तो उसमें कोई हिंसा नहीं है। फिर न कोई मरता है और न कोई पाप होता है।

मैं तुम्हें नागार्जुन के जीवन से एक प्रसंग बताता हूं। भारत ने जो महान गुरु पैदा किए हैं, नागार्जुन उनमें से एक थे। वे बुद्ध, महावीर और कृष्ण की क्षमता रखते थे। और नागार्जुन एक दुर्लभ प्रतिभा थी। सच तो यह है कि बौद्धिक तल पर सारी दुनिया में वे अतुलनीय हैं। ऐसी तीक्ष्ण और प्रगाढ़ प्रतिभा कभी —कभी घटित होती है।

नागर्जुन एक नगर से गुजर रहे थे। वह राजधानी है। और नागार्जुन सदा नग्न रहते थे। उस राज्य की रानी को नागार्जुन के प्रति बहुत प्रेम था, बहुत श्रद्धा थी, बहुत भक्ति थी। नागार्जुन भोजन मांगने राजमहल आए। उनके हाथ में लकड़ी का भिक्षापात्र था। रानी ने उनसे कहा कि आप कृपा कर मुझे यह भिक्षापात्र दे दें। मैं इसे आपकी भेंट समझूंगी और इसकी जगह मैंने आपके लिए दूसरा भिक्षापात्र निर्मित कराया है।

नागार्जुन ने भेंट स्वीकार कर ली। दूसरा भिक्षापात्र सोने का बना था और उसमें बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे। वह बहुत कीमती था। लेकिन नागार्जुन ने कुछ नहीं कहा। सामान्यत: कोई संन्यासी उसे नहीं लेता, वह कहता कि मैं सोना नहीं छूता हूं। लेकिन नागार्जुन ने उसे ले लिया। अगर सच में सोना मिट्टी है तो भेद क्या करना? नागार्जुन ने उसे ले लिया।

रानी को यह बात अच्छी नहीं लगी। उसने सोचा कि इतने बड़े संत हैं, उन्हें इनकार करना चाहिए था। स्वयं नग्न रहते हैं, पास में कुछ संग्रह नहीं रखते, फिर उन्होंने इतना कीमती भिक्षापात्र कैसे स्वीकार किया! और अगर नागार्जुन इनकार करते तो रानी उन पर लेने के लिए जोर डालती और तब उसे अच्छा लगता। लेकिन नागार्जुन उसे लेकर चले गए।

एक चोर ने नगर से उन्हें गुजरते हुए देखा। उसने सोचा कि यह आदमी ऐसा बहुमूल्य भिक्षापात्र अपने पास नहीं रख सकेगा, कोई न कोई जरूर इसकी चोरी कर लेगा। एक नंगा आदमी कैसे उसकी रक्षा कर सकता है? और वह चोर नागार्जुन के पीछे हो लिया।

नागार्जुन नगर के बाहर एक मठ में रहते थे और अकेले रहते थे। वह मठ जीर्ण—शीर्ण था। नागार्जुन उसके भीतर गए। उन्होंने अपने पीछे आते हुए इस आदमी की पदचाप सुनी। वे समझ गए कि वह किस लिए पीछे—पीछे आ रहा है, वह मेरे लिए नहीं इस भिक्षापात्र के लिए आ रहा है। अन्यथा इस जरा—जीर्ण मठ में कौन आता! नागार्जुन मठ के अंदर गए और चोर बाहर दीवार के पीछे खड़ा हो गया।

यह देखकर कि चोर बाहर ताक में खड़ा है, नागार्जुन ने भिक्षापात्र को दरवाजे से बाहर फेंक दिया। चोर तो चकित रह गया, उसको कुछ समझ में नहीं आया। यह कैसा आदमी है! नंगा है, इसके पास इतना कीमती पात्र है और यह उसे बाहर फेंक देता है!

तो चोर ने नागार्जुन से कहा कि क्या मैं अंदर आ सकता हूं क्योंकि मुझे एक प्रश्न पूछना है। नागार्जुन ने कहा कि मैंने पात्र को इसीलिए बाहर फेंक दिया कि तुम अंदर आ सको। मैं अभी अपनी दोपहर की नींद लेने जा रहा हूं। तुम भिक्षापात्र लेने अंदर आते, लेकिन मुझसे तुम्हारी मुलाकात नहीं होती। तुम अंदर आ जाओ।

चोर अंदर गया। उसने पूछा कि ऐसी बहुमूल्य वस्तु को आपने फेंक कैसे दिया? मैं चोर हूं। लेकिन आप ऐसे संत हैं कि आपसे मैं झूठ नहीं बोल सकता। मैं चोर हूं। नागार्जुन ने कहा कि चिंता मत करो, हर कोई चोर है। तुम अपनी बात निस्संकोच कहो। फिजूल की बातों में वक्त मत खराब करो।

चोर ने कहा कि कभी—कभी आप जैसे व्यक्ति को देखकर मेरे मन में भी कामना उठती कि काश, इस स्थिति को मैं भी उपलब्ध होता! लेकिन चोर हूं और यह स्थिति मेरे लिए असंभव है। लेकिन मेरी आशा और प्रार्थना रहेगी कि किसी दिन मैं भी ऐसी कीमती चीज फेंक

सकूं। बड़ी कृपा होगी यदि आप मुझे उपदेश करें। मैं अनेक संतों के पास गया हूं। वे मुझे जानते हैं, क्योंकि मैं एक नामी चोर हूं। वे सब यही कहते हैं कि तुम पहले अपने धंधे को छोड़ो, तभी तुम्हें ध्‍यान में गति मिल सकती है। लेकिन यह मेरे लिए असाध्‍य मालूत होता है।मैं चोरी का धंधा छोड़ नहीं सकता। क्या मेरे लिए ध्यान नहीं है?

नागार्जुन ने उत्तर में कहा कि अगर कोई कहता है कि पहले चोरी छोड़ो और तब ध्यान करो, तो उसे ध्यान के बारे में कुछ भी पता नहीं है। ध्यान और चोरी के बीच संबंध क्या है? कोई संबंध नहीं है। तुम जो भी करते हो किए जाओ। और मैं तुम्हें विधि देता हूं तुम उसका प्रयोग करो। तो चोर ने कहा कि ऐसा लगता है कि आपके साथ मेरा तालमेल बैठ सकता है। क्या सच ही मैं अपना धंधा जारी रख सकता हूं? कृपया जल्दी अपनी विधि बताएं।

नागार्जुन ने कहा, तुम सिर्फ होश रखो, बोध बढ़ाओ। जब चोरी करने जाओ तो उसके प्रति भी सजग रहो, होशपूर्ण रहो। जब सेंध लगाओ तब जानते रहो कि मैं सेंध लगा रहा हूं पूरे होश में रहो। जब खजाने से कुछ निकालो तब भी जागरूक रहो, होश के साथ निकालो। तुम क्या करते हो इससे मुझे लेना—देना नहीं है, लेकिन जो भी करो बोधपूर्वक करो। और पंद्रह दिन बाद मेरे पास आना। लेकिन यदि इस विधि का अभ्यास न कर सको तो मत आना। पंद्रह दिन निरंतर अभ्यास करो। जो भी जी में आए करो, लेकिन पूरे सजग होकर करो।

चोर तीसरे ही दिन वापिस आया और उसने नागार्जुन से कहा, पंद्रह दिन का समय बहुत है, मैं आज ही आ गया। आप बड़े चालाक आदमी मालूम होते हैं। आपने ऐसी विधि बताई कि मेरा धंधा चलना मुश्किल है। पूरा होश रखकर मैं चोरी नहीं कर सकता हूं। पिछली तीन रातों से मैं राजमहल जा रहा हूं। मैं खजाने तक गया, उसे खोल भी लिया। मेरे सामने बहुमूल्य हीरे—जवाहरात थे, लेकिन मैं तभी पूरी तरह सजग हो गया। और सजग होते ही मैं बुद्ध की मूर्ति की तरह हो गया, मैं कुछ भी नहीं कर सका। मेरे हाथों ने हिलने से इनकार कर दिया और सारा खजाना व्यर्थ मालूम पड़ने लगा। तीन रातों से मैं लौट—लौटकर राजमहल जाता हूं। समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं! आपने तो कहा था कि इस विधि में धंधा छोड़ने की शर्त नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि विधि में ही कोई छिपी प्रक्रिया है।

नागार्जुन ने कहा, दुबारा मेरे पास मत आना। अब चुनाव तुम्हें करना है। अगर चोरी जारी रखना चाहते हो तो ध्यान को भूल जाओ। और अगर ध्यान चाहते हो तो चोरी को भूल जाओ। चुनाव तुम्हें करना है।

चोर ने कहा, आपने तो मुझे बड़े धर्मसंकट में डाल दिया। इन तीन दिनों में मैंने जाना कि मेरे भी आत्मा है, और जब मैं राजमहल में कुछ चोरी किए बिना वापिस आया तो पहली दफा मुझे लगा कि मैं सम्राट हूं चोर नहीं। ये तीन दिन इतने आनंदपूर्ण रहे हैं कि मैं अब ध्यान नहीं छोड़ सकता। आपने मेरे साथ चालाकी की। अब आप मुझे दीक्षा दें और अपना शिष्य बना लें। और अधिक प्रयोग की जरूरत नहीं है, तीन दिन काफी हैं।

कुछ भी विषय हो, यदि तुम सजग रहो तो सब कुछ ध्यान बन जाता है। तादात्म्य को जागरूक होकर प्रयोग में लाओ, तब वह ध्यान बन जाएगा। बेहोशी में किया गया तादात्म्य पाप है।

तुम सब अनेक चीजों से तादात्म्य किए बैठे हो। यह मेरा है, वह मेरा है—यह तादात्म्य है। यह मेरा देश है, यह मेरा राष्ट्रीय झंडा है—ऐसा भाव तादात्म्य है। अगर किसी ने तुम्‍हारे राष्‍ट्रीय झंड़े को फेंक दिया तो तुम्‍हें क्रोध से भभक उठते हो। लेकिन वह कर क्‍या रहा है? तुम्हारा कोई राष्ट्र नहीं है और सभी राष्ट्रीय झंडे कल्पित हैं, झूठे हैं। बच्चों की तरह उनके साथ खेलना अच्छा है, वे खिलौने ही हैं। लेकिन तुम उनके लिए मरने—मारने पर उतारू हो। एक राष्ट्रीय झंडे के अपमान के लिए देश बनते हैं और नष्ट किए जाते हैं। और यह सब केवल एक कपड़े के टुकड़े के लिए! यह क्या है?

यह सब तुम्हारा तादात्म है। यह तादात्म्य मूर्च्छा में है। और मूर्च्छा पाप।

आज इतना ही।

(प्रथम भाग समाप्‍त)


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ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍हीं चदरिया–(पंच महाव्रत) प्रवचन–6

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अहिंसा (प्रश्नोत्तर)—(प्रवचन—छठवां)

10 नवंबर 1970,

क्रास मैदान, मुम्‍बई

प्रश्‍नसार :

आचार्य श्री, षणमुखानंद हाल में हुए एक प्रवचन में आपने कहा है कि हिंसा-वृत्ति एक बीमारी है और उसे उसके समस्त रूपों में पहचान लेना अहिंसक होने की पहली शर्त है। तो कृपया हिंसा-वृत्ति के जीव-रासायनिक (बायोकेमिकल) तथा साइकिक संरचना पर प्रकाश डालें, ताकि हिंसा को हम अधिक गहराई से पहचान सकें।

नुष्य के लिए हिंसा एक बीमारी है, लेकिन पशु के लिए नहीं। पशु के लिए हिंसा स्वभाव है। पशु के तल पर अहिंसा की कोई संभावना नहीं है, इसलिए हिंसा का उसे कोई बोध भी नहीं है। हिंसा पशु के लिए स्वाभाविक है–अहिंसा असंभव है। मनुष्य के लिए हिंसा पशु से मिला हुआ संस्कार है। लेकिन उसकी विकसित चेतना के लिए रोकने वाली बीमारी है। चेतना जैसे ही विकसित होती है, वैसे ही उसका अतीत भी उसके लिए जंजीरें बन जाता है। जो विकासमान है, उसके लिए रोज ही उसका “कल’ बंधन बन जाता है।

इसलिए जिसे विकास करना है, उसे रोज अपने कल को तोड़कर आगे बढ़ जाना पड़ता है। जो अपने अतीत को मिटाने के लिए राजी नहीं है, वह विकसित होने से इनकार कर रहा है। मैं जो कल था, अगर आज भी वही रहूं तो मेरा आज व्यर्थ गया। और यदि मुझे आज विकसित होना है, तो मेरे लिए कल के पार जाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है; द पास्ट मस्ट बी ट्रांसेंडेड। वह जो अतीत है, उसे अतिक्रमण करना ही होगा। अतीत का अतिक्रमण ही विकास है।

मनुष्य का अतीत है, उसकी पशुता; उसका भविष्य है, उसका परमात्मा होना। लेकिन जो पशु को अतिक्रमण न कर पाये, तो वह परमात्मा के मंदिर में प्रवेश भी नहीं कर सकता। और जिसे भविष्य को उपलब्ध करना है, उसे रोज अतीत के प्रति मरना होता है–डाइंग टु द पास्ट। और जो अतीत के प्रति नहीं मर पाता है, वह रुग्ण हो जाता है, वह बीमार हो जाता है। वह रुग्णता वैसी ही है, जैसे एक छोटे बच्चे को पहनाये गये कपड़े, और वह बच्चा जवान होने पर भी उन कपड़ों को शरीर से उतारने से इनकार करे, तो शरीर रुग्ण हो जाये! शरीर के विकसित होने के साथ ही साथ कपड़ों की बदलाहट जरूरी है। बच्चे के कपड़े बच्चे के लिए स्वाभाविक, युवा के लिए अस्वाभाविक, पीड़ादायी कारागृह बन जाते हैं। बच्चे की वे रक्षा करते रहे होंगे, जवानों के लिए उन कपड़ों से ही अपनी रक्षा करनी जरूरी हो जाती है।

पशुता मनुष्य का अतीत है। हम सभी उस यात्रा से गुजरे हैं जहां हम पशु थे। वैज्ञानिक भी कहते हैं, और जो आध्यात्मिक हैं, वे भी कहते हैं। डार्विन ने तो अभी-अभी थोड़े ही समय पहले ही घोषणा की कि मनुष्य पशु से आया है। लेकिन महावीर ने, बुद्ध ने, कृष्ण ने तो हजारों वर्ष पहले यह घोषणा की थी कि मनुष्य की आत्मा पशु से विकसित हुई है। मनुष्य की पिछली कड़ी पशु की थी। और अगली कड़ी पर कदम रखने के पहले उसे पिछली कड़ी को तोड़ देना पड़ेगा।

मनुष्य एक संक्रमण है; एक बीज का सेतु है–जहां से पशु परमात्मा में संक्रमित और रूपांतरित होता है। लेकिन अतीत बहुत वजनी होता है, क्योंकि परिचित होता है। उससे छूटना इतना आसान नहीं है। उससे मुक्त होना इतना आसान नहीं है। क्योंकि ऐसा मालूम होने लगता है कि हमारा अतीत ही हम हैं। लाखों साल बीत गये जब कभी आदमी गुहा- मानव था, पहाड़ों की कंदराओं में रहता था–जहां न आग थी, न रोशनी का कोई उपाय था–उस वक्त रात के अंधकार से जो भय मनुष्य के मन में समा गया था, वह आज भी उसका पीछा कर रहा है।

अब, न आज अंधकार से कोई भय है, न अंधकार किसी गुहा के बाहर घिरा है, न अंधकार में जंगली पशु आदमियों पर हमला करेंगे। लेकिन अंधकार अभी भी भय का कारण है! लाखों-लाखों वर्ष पहले मनुष्य के मस्तिष्क ने अंधकार से जो भय का संस्कार अर्जित किया था, वह पीछा नहीं छोड़ रहा है, वह उसके साथ ही जुड़ा हुआ है। यह उदारहण के लिए मैंने कहा।

हिंसा भी मनुष्य का पशु जीवन में ग्रहण किया गया संस्कार है। पशु जी नहीं सकता बिना हिंसा के और हम हिंसा के साथ न जी सकेंगे। पशु नहीं जी सकता बिना हिंसा के और आदमी पैदा ही नहीं होता हिंसा के साथ। इसलिए आदमी दस हजार साल से सिवाय लड़ने के और कुछ भी नहीं कर रहा है; जी नहीं रहा है, सिर्फ लड़ रहा है। अगर हम ऐसा कहें कि आदमी सिर्फ लड़ने के लिए ही जी रहा है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

पिछले तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध लड़े गए। और ये युद्ध तो बड़े पैमाने की बात है, चौबीस घंटे भी हम लड़ रहे हैं। चौबीस घंटों में ऐसे क्षण खोजने कठिन हैं, जब हम किसी तरह की लड़ाई में संलग्न न हों। कभी हम धन के लिए लड़ रहे हैं। कभी हम यश के लिए लड़ रहे हैं। कभी हम पद के लिए लड़ रहे हैं। कभी हम शत्रुओं से लड़ रहे हैं। कभी मित्रों से लड़ रहे हैं। और हमारी लड़ाई राजनीति बन जाती है। और कभी हम धन के लिए लड़ रहे हैं और हमारी लोलुपता शोषण बन जाती है। और कभी हम अकारण भी लड़ रहे हैं, क्योंकि लड़ने की वह जो आदत है, वह मांग करती है कि लड़ो।

एक आदमी शिकार करने जा रहा है, वह अकारण लड़ रहा है। खेल में लड़ रहा है। अगर कुछ न हो तो हम ऐसे खेल विकसित करेंगे, जिनसे लड़ने की वृत्ति तृप्त हो। हमारे सब खेल लड़ने के मिनिएचर हैं, वह लड़ने के छोटे-छोटे रूप हैं। खेल हमारी लड़ाइयां हैं–व्यर्थ की लड़ाइयां। जहां कोई कारण नहीं है। और जब लड़ने के लिए कोई कारण न मिले, तो भी हम अकारण लड़ना चाहेंगे। अगर युद्ध में न लड़ सकें, तो शतरंज की गोटियां बिठाकर युद्ध करना चाहेंगे। शतरंज में भी तलवारें खिच जाती हैं, तो बहुत आश्चर्य नहीं है। शतरंज भी, बहुत गहरे में दूसरे को हराने की आकांक्षा है, और दूसरों से लड़ने का रस है।

हमारे सारे खेल युद्ध के रूप हैं। या तो ऐसा कहें कि हमारे सारे खेल युद्ध के रूप हैं या ऐसा भी कह सकते हैं कि युद्ध भी हमारा सबसे भयंकर खेल है। लेकिन आदमी लड़ रहा है। जिन्हें हम संबंध कहते हैं, रिलेशनशिप कहते हैं, वे भी हमारी लड़ाइयां हैं। पति और पत्नी को अगर कोई मंगल ग्रह का यात्री आकर चौबीस घंटे देखता रहे, तो वह यह न मान सकेगा कि ये दोनों आदमी साथ रहने के लिए राजी हुए हैं। वह इतना ही समझ पायेगा कि ये दोनों आदमी इस बात के लिए राजी हुए हैं कि हम चौबीस घंटे लड़ते रहेंगे। शायद जिसे हम परिवार कहते हैं, वह उन लोगों की संस्था है, जिन्होंने यह तय किया हुआ है कि लड़ेंगे भी और हटेंगे भी नहीं! दूर भी न होंगे!

जीवन चारों तरफ हिंसा है। यह हिंसा रोग है मनुष्य के लिए। यह हिंसा अब अनिवार्य नहीं है, पशु के लिए रही होगी।

और साथ में स्मरण रखें, जैसे ही विकास का नया चरण उठाया जाता है, नई जिम्मेदारियों और नए दायित्वों में भी चरण उठ जाता है। एवरी स्टेप आफ इवोल्यूशन इज ए स्टेप इन ग्रेटर रिस्पांसिबिलिटी। वह तो बड़े दायित्व में ले ही जायेगा। जिस दिन से पशु को छोड़कर मनुष्य मनुष्य हुआ है, उसी दिन से अहिंसा उसके दायित्व का हिस्सा हो गई। क्योंकि मनुष्य का फूल खिल ही नहीं सकता हिंसा के बीच, वह प्रेम के बीच ही उसका पूरा फूल खिल सकता है। इसलिए मैंने कहा कि अहिंसा स्वास्थ्य है, हिंसा रोग है। हिंसा से बड़ा शायद और कोई रोग नहीं है।

और हमारे हजार-हजार रोग शायद हिंसा से ही पैदा होते हैं। अगर पागलखाने में जायें तो सौ पागलों में से निन्यान्बे पागल सिर्फ इसलिए पागल हुए मिलेंगे कि साधारण रहकर हिंसा करनी उन्हें असंभव हो गई थी। हिंसा करने के लिए उन्हें पागल होने की स्वतंत्रता जरूरी थी; इसलिए पागल हो जाना पड़ा। अगर हम अपने मानसिक चिकित्सालयों में जायें और मानसिक चिकित्सकों से पूछें तो पता चलेगा कि वह भीतर इकट्ठी हुई हिंसा जब जोर से एक्सप्लोड हो जाती है, जब उसका विस्फोट होता है, तो मन के सारे तंतु बिखर जाते हैं और आदमी विक्षिप्त और रुग्ण हो जाता है।

ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो मानसिक रूप से बीमार न हो। मानसिक रूप से जिन्हें हम नार्मल कहते हैं, स्वस्थ कहते हैं, उसका केवल मतलब इतना ही है–उसका मतलब स्वास्थ्य नहीं है–उसका इतना ही मतलब है कि वह नार्मल पागलपन है। उसका कुल मतलब इतना है कि उतने पागल बाकी लोग भी हैं। वह एवरेज पागलपन है। जिसको हम पागल कहते हैं, वह एबनार्मल है। वह जरा एवरेज से आगे चला गया है। उसने जरा छलांग लगा ली है। शायद हम नब्बे डिग्री पर उबलते हुए पागल हैं, और जिन्हें हम पागल कहते हैं, वे सौ डिग्री पर भाप बन गए पागल हैं। हमारे उनके बीच गुण का कोई अंतर नहीं है, मात्रा का ही भेद है।

पागलखानों में और पागलखानों के बाहर जो लोग हैं, उनके बीच कदमों का ही फासला है। बड़ी दीवालें हम कितनी ही उठायें पागलखानों के चारों तरफ, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। हमारे और पागलों के बीच बहुत ही थोड़े से कदमों का फासला है। और वह फासला भी ऐसा नहीं है, जिसकी तरफ हमारी पीठ हो। वह फासला ऐसा है, जिसकी तरफ हमारा मुंह है। और वह फासला भी ऐसा नहीं है कि हम खड़े हों। वह फासला भी ऐसा है कि हम प्रतिपल उसकी तरफ बढ़ रहे हैं और फासले को कम कर रहे हैं।

जो मनुष्य के मन को देखने में समर्थ हैं, वे कहते हैं कि शायद पूरी मनुष्यता धीरे-धीरे एक पागलखाना होती जा रही है। जिन्हें हम शरीर के रोग कहते हैं, वे भी नब्बे प्रतिशत से ज्यादा मन के रोगों से निर्मित होते हैं और शरीर तक फैलते हैं। और मन का बुनियादी रोग हिंसा है।

हिंसा का क्या मतलब है, वह मैं खयाल दे दूं, तो यह रोग खयाल में आ जाये।

हिंसा का मतलब है ऐसा चित्त, जो लड़ने को आतुर है; ऐसा चित्त, जिसका रस लड़ने में है; ऐसा चित्त, जो बिना लड़े बेचैन हो जाएगा; ऐसा चित्त, जो बिना किसी को चोट पहुंचाए, बिना किसी को दुख पहुंचाए सुख अनुभव न कर सकेगा।

स्वभावतः जो चित्त दूसरे को दुख पहुंचाने को आतुर है, या जिस चित्त का दूसरे को दुख पहुंचाना ही एकमात्र सुख बन गया है, ऐसा चित्त सुखी नहीं हो सकता। ऐसा चित्त भीतर गहरे में दुखी होगा।

एक बहुत गहरा नियम है कि हम दूसरे को वही देते हैं जो हमारे पास होता है; अन्यथा हम दे भी नहीं सकते। जब मैं दूसरे को दुख देने को आतुर होता हूं, तो उसका इतना ही अर्थ है कि दुख मेरे भीतर भरा है और उसे मैं किसी पर उलीच देना चाहता हूं। जैसे, बादल जब पानी से भर जाते हैं, तो पानी को छोड़ देते हैं जमीन पर; ऐसे ही, जब हम दुख से भीतर भर जाते हैं, तो हम दूसरों पर दुख फेंकना शुरू कर देते हैं।

जो कांटे हम दूसरों को चुभाना चाहते हैं, उन्हें पहले अपनी आत्मा में जन्माना होता है; उन कांटों को हम लाएंगे कहां से? और जो पीड़ाएं हम दूसरों को देना चाहते हैं, उन्हें जन्म देने की प्रसव-पीड़ा बहुत पहले स्वयं को ही झेल लेनी पड़ती है। और जो अंधकार हम दूसरों के घरों तक पहुंचाना चाहते हैं, वह अपने दीये को बुझाए बिना पहुंचाना असंभव है।

अगर मेरा दीया जलता हो और मैं आपके घर अंधकार पहुंचाने जाऊं, तो उलटा हो जायेगा–मेरे साथ आपके घर में रोशनी ही पहुंचेगी, अंधकार नहीं पहुंच सकता!

जो व्यक्ति हिंसा में उत्सुक है, उसने अपने साथ भी हिंसा कर ली है–वह कर चुका है हिंसा। इसलिए एक सूत्र और आपसे कहना चाहूंगा, और वह यह कि हिंसा आत्महिंसा का विकास है। भीतर जब हम अपने साथ हिंसा कर रहे होते हैं, तब वही हिंसा ओवरफ्लो होकर, बाढ़ की तरह फैलकर, किनारे तोड़कर स्वयं से दूसरे तक पहुंच जाती है। इसलिए हिंसक कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता, भीतर अस्वस्थ होगा ही। उसके भीतर हार्मनी, सामंजस्य, संतुलन, संगीत नहीं हो सकता। उसके भीतर विसंगीत, द्वंद्व, कान्फ्लिक्ट, संघर्ष होगा ही। वह अनिवार्यता है। जो दूसरे के साथ हिंसा करना चाहता है, उसे अपने साथ बहुत पहले हिंसा कर ही लेनी पड़ेगी। वह पूर्व तैयारी है।

इसलिए, हिंसा मेरे लिए अंतर्द्वंद्व है। दूसरे पर फैलकर दूसरों का दुख बनती है और अपने भीतर जब उसका बीज अंकुरित होता है और फैलता है, तो स्वयं के लिए द्वंद्व और अंतर-संघर्ष, और अंतर-पीड़ा बनती है। हिंसा अंतर-संघर्ष, अंतर-असामंजस्य, अंतर- विग्रह, अंतर-कलह की स्थिति है। हिंसा दूसरे से बाद में लड़ती है, पहले स्वयं से ही लड़ती और बढ़ती है। प्रत्येक हिंसक व्यक्ति अपने से लड़ रहा है।

और जो अपने से लड़ रहा है, वह स्वस्थ नहीं हो सकता। स्वस्थ का अर्थ ही है, हार्मनी। स्वस्थ का अर्थ है, जो अपने भीतर एक समस्वरता को, एकरसता को, एक लयबद्धता को, एक रिदम को उपलब्ध हो गया है।

महावीर या बुद्ध के चेहरों पर संगीत की जो छाप है, वह वीणा लिए बैठे संगीतज्ञों के चेहरों पर भी नहीं है। वह महावीर के वीणा-रहित हाथों में है। वह संगीत किसी वीणा से पैदा होने वाला संगीत नहीं, वह भीतर की आत्मा से फैला हुआ समस्वरता का बाहर तक बिखर जाना है। बुद्ध के चलने में वह जो लयबद्धता है–वह जो बुद्ध के उठने और बैठने में–वह जो बुद्ध की आंखों में एक समस्वरता है, वह समस्वरता किन्हीं कड़ियों के बीच बंधे हुए गीत की नहीं, किन्हीं वाद्यों पर पैदा किये गये स्वरों की नहीं–वह आत्मा के भीतर से सब द्वंद्व के विसर्जन से उत्पन्न हुई है।

अहिंसा एक अंतर-संगीत है। और जब भीतर प्राण संगीत से भर जाते हैं, तो जीवन स्वास्थ्य से भर जाता है; और जब भीतर प्राण विसंगीत से भर जाते हैं, तो जीवन रुग्णता से, डिसीज से भर जाता है।

यह अंग्रेजी का शब्द “डिसीज’ बहुत महत्वपूर्ण है। वह डिस ईज़ से बना है। जब भीतर विश्राम खो जाता है, ईज़ खो जाती है; जब भीतर सब संतुलन डगमगा जाते हैं, और सब लयें टूट जाती हैं, और काव्य की सब कड़ियां बिखर जाती हैं, और सितार के सब तार टूट जाते हैं, तब भीतर जो स्थिति होती है, वह डिसीज है। और जब भीतर कोई चित्त रुग्ण हो जाता है, तो शरीर बहुत दिन तक स्वस्थ नहीं रह सकता है। शरीर छाया की तरह प्राणों का अनुगमन करता है।

इसलिए मैंने कहा कि हिंसा एक रोग है, एक डिसीज है; और अहिंसा रोगमुक्ति है, और अहिंसा स्वास्थ्य है।

जैसे मैंने कहा, अंग्रेजी का शब्द डिसीज महत्वपूर्ण है, वैसा हिंदी का शब्द “स्वास्थ्य’ महत्वपूर्ण है। स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ हेल्थ नहीं होता, जैसे डिसीज का मतलब सिर्फ बीमारी नहीं होती। स्वास्थ्य का मतलब होता है: स्वयं में जो स्थित हो गया है। स्वयं में जो ठहर गया है। स्वयं में जो खड़ा हो गया है। स्वयं में जो लीन हो गया है और डूब गया है। स्वयं हो गया है जो। जो अपनी स्वयंता को उपलब्ध हो गया है। जहां अब कोई परता नहीं, कोई दूसरा नहीं कि जिससे संघर्ष भी हो सके; कोई भिन्न स्वर नहीं, सब स्वर स्वयं बन गए–ऐसी स्थिति का नाम “स्वास्थ्य’ है।

अहिंसा इस अर्थ में स्वास्थ्य है, हिंसा रोग है।

और पूछा है कि बायोकेमिकली, जीव-रसायन की दृष्टि से मैं क्या कहना चाहूंगा।

जीव-रसायन की दृष्टि से भी, बायोकेमिकल दृष्टि से भी हिंसा रुग्णता है। जैसे ही चित्त हिंसा से भरता है, शरीर विषाक्त द्रव्यों से भर जाता है। जैसे ही चित्त हिंसा से भरता है, वैसे ही सारे शरीर में विषयुक्त द्रव्य दौड़ने शुरू हो जाते हैं। शरीर में ग्रंथियां हैं जो पायज़न को इकट्ठा करती हैं, शरीर में ग्रंथियां हैं जो जहरों को अर्जित करके इकट्ठा रखती हैं, समय पर जरूरत पड़े, उसकी सुरक्षा में।

जब आप क्रोध से भरते हैं, तो आपके पास वही खून नहीं रह जाता, जो क्रोध के पहले था। आपका खून पायजन्ड हो जाता है। आपके खून में वे ग्रंथियां उन जहरों को छोड़ देती हैं, जो आपको लड़ने और मरने का पागलपन दे सकें। इसलिए क्रोध की हालत में आप इतना बड़ा पत्थर उठा सकते हैं, जो आपने अक्रोध की हालत में कभी नहीं उठाया था–नहीं उठा सकते थे। क्रोध की स्थिति में आप अपने से ताकतवर आदमी को उठाकर फेंक सकते हैं, जो कि आप शांत स्थिति में कभी सोच भी नहीं सकते थे। आपके शरीर में केमिकल परिवर्तन हो गए। आपका शरीर वही नहीं है। शरीर ने इकट्ठे किए हुए विष छोड़ दिए खून में। अब आप होश में नहीं हैं।

क्रोध टेम्पररी मैडनेस है। क्रोध अस्थायी पागलपन है। और इसलिए आदमी क्रोध में ऐसे काम कर लेता है, जो उसने स्वयं कभी भी न किए होते। इसलिए क्रोध में आदमियों ने हत्याएं की हैं और पीछे जीवन भर रोए हैं, पछताए हैं। और जिंदगी भर कहा है कि यह मैंने कैसे कर लिया? यह मेरे बावजूद हो गया। यह मैंने नहीं किया। यह कैसे हो गया?

क्रोध में हम सब ने वह किया है, जो हमने करना नहीं चाहा था। फिर वह किसने किया है? निश्चित किया हमने ही है, लेकिन वैसे ही किया है जैसे शराब पीकर कोई कर लेता है। लेकिन यह शराब हमारे खून में भीतरी स्रोतों से आती है, इसलिए पता नहीं चलता; शराब हम बाहर की बोतलों से ले जाते हैं तो पता चल जाता है, यह शराब भीतरी स्रोतों से आती है तो पता नहीं चलता।

मनुष्य के शरीर ने लाखों-करोड़ों वर्षों की यात्रा में विषग्रंथियां इकट्ठी की हैं जो कि इमरजेंसी के लिए जरूरी रही हैं; जब वह जानवर था, पशु था, तब बहुत जरूरी रही हैं। एक शेर हमला कर दे किसी पर, तो उसके पास दौड़ने की अमानवीय क्षमता तत्काल पैदा होनी चाहिए। ऐसा नहीं कि वह दौड़ने का अब अभ्यास करेगा, और दौड़ना सीखेगा, और तब भाग सकेगा। नहीं, यह इमरजेंसी है, तत्काल उसके शरीर में इतना पागलपन आ जाना चाहिए कि वह होश छोड़कर भाग सके। क्योंकि अगर होश रखा तो शायद बचना मुश्किल होगा। इसलिए शरीर ने लाखों वर्षों की यात्रा में विषग्रंथियां विकसित की हैं, जो कि इमरजेंसी की हालत में खून में तत्काल, आटोमेटिकली छूट जाती हैं, और आप विक्षिप्त होकर दौड़ सकते हैं।

भय में आदमी कांप रहा है। यह कंपन रासायनिक परिवर्तन है। काम की वृत्ति से पीड़ित हुए आदमी के भीतर अनेक तरह के रासायनिक परिवर्तन हो जाते हैं। अगर जानवरों को काम की, सेक्स की उन्माद-स्थिति में देखें तो एक अनुभव होगा, जो कुछ मनुष्यों में अभी भी शेष है। उनके शरीर से विभिन्न प्रकार की दुर्गंधें या गंधें निकलनी शुरू हो जाती हैं। असल में पशु पहचानते ही तब हैं कि उनकी मादा तत्पर है संभोग के लिए, जब एक विशेष गंध उसके शरीर से निकलनी शुरू हो जाती है। संभोग के क्षण में मनुष्य के शरीर से भी, स्त्रियों के शरीर से भी विशेष गंधें निकलनी शुरू हो जाती हैं। क्योंकि शरीर एक रासायनिक परिवर्तन से गुजर रहा है।

मनुष्य के चित्त में जो होता है, तत्काल उसके शरीर की केमिस्ट्री उसका पीछा करती है। जब आप भोजन लेते हैं, तब आपका शरीर उन द्रव्यों को छोड़ देता है, जो भोजन के पचाने के लिए जरूरी हैं। और जब आप हिंसा से भरते हैं, तो शरीर उन द्रव्यों को छोड़ देता है, जो हिंसा करने में सहयोगी हो सकते हैं।

इसलिए हिंसा केवल मानसिक तथ्य नहीं है, बायोकेमिकल तथ्य भी है। लेकिन, रासायनिक तत्व भी है, जब मैं यह कहता हूं, तो मैं यह नहीं कहता हूं कि केवल रासायनिक तत्व है। वैसा कहनेवाले रसायनविद भी आज मौजूद हैं, जो कहते हैं कि अब आदमी को अहिंसा की शिक्षा देने की कोई जरूरत नहीं। हम कुछ ग्रंथियों को काटकर अलग कर देते हैं, फिर आदमी हिंसा करने में असमर्थ हो जायेगा! वे ठीक कहते हैं थोड़ी दूर तक; लेकिन वे जो सुझाव दे रहे हैं, वे हिंसा करने से भी खतरनाक सुझाव हैं। यह संभव है कि हम आदमियों की कुछ ग्रंथियों को काट दें!

हमने देखा है एक बैल को भी और एक सांड़ को भी। बैल और सांड़ में सिर्फ एक ग्रंथि के कट जाने के फर्क के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। लेकिन कहां बैल की दीनता और कहां सांड़ का गौरव! बैल की आत्मा विकसित नहीं हुई, सिर्फ शरीर दीन हो गया है।

आदमी के शरीर से भी आज नहीं कल वैज्ञानिक उन ग्रंथियों को अलग करने का सुझाव देगा–दे रहा है–दिया जा चुका है; और कोई आश्चर्य नहीं है कि चीन और रूस की तानाशाही सरकारें उस सुझाव पर बहुत जल्दी अमल भी शुरू कर दें!

आदमी के शरीर से भी कुछ ग्रंथियां काटी जा सकती हैं, तब वह हिंसा प्रकट नहीं कर सकेगा–लेकिन अहिंसक नहीं हो जायेगा। ये दोनों अलग बातें हैं। तब वह शरीर से सिर्फ दीन हो जायेगा। वह वैसा ही होगा, जैसे एक बूढ़ा आदमी कामवासना से तो पीड़ित होता है, लेकिन काम की दुनिया में प्रवेश करने में असमर्थ हो जाता है।

नहीं, वह आदमी का विकास नहीं होगा। और वैसा आदमी जिस दिन हम पैदा कर लेंगे, वैसा आदमी विद्रोह नहीं करेगा, बगावत नहीं करेगा। गुलामी उसकी आत्मा बन जायेगी। वह नान रिबेलियस हो जाएगा। सरकारें जरूर चाहेंगी कि आदमी को रासायनिक ढंग से गैर-हिंसक बनाया जा सके। बनाया जा सकता है; लेकिन उससे आदमी पशु से भी नीचे गिर जायेगा, आदमी से ऊपर नहीं जा सकता है।

इसलिए यह भी मैं आपसे कहना चाहूंगा इस संदर्भ में, कि आदमी को बहुत जल्दी सारी दुनिया में इसके खिलाफ भी आवाज उठानी पड़ेगी–कि जीव रसायनविद जो सुझाव दे रहे हैं, वे मनुष्य की आत्मा के बहुत विपरीत और खतरनाक हैं। उन सुझावों से ज्यादा बड़ी गुलामी न तो कभी आई थी न कभी आ सकती है।

एक बड़ी केमिकल-रिवोल्यूशन, एक रासायनिक-क्रांति निकट है। उसके प्राथमिक चरण पर काम होना शुरू हो गया है। मैं कहूंगा कि निश्चित ही हिंसा के लिए शरीर में कुछ तत्व जरूरी हैं। लेकिन उन तत्वों के अलग होने से आदमी की आत्मा अहिंसक नहीं होती, सिर्फ इंपोटेंटली वायलेंट रह जाती है; सिर्फ नपुंसक रूप से हिंसक रह जाती है। हिंसा तो भीतर घुमड़ेगी; आत्मा में डिसीज होगी; आत्मा संगीतरहित होगी, लेकिन उस संगीतरहितता को दूसरे तक पहुंचाने के लिए शरीर असमर्थ हो जायेगा। तब दूसरे तक पहुंचने की असमर्थता हो जायेगी। हम यह बल्ब तोड़ दे सकते हैं, लेकिन बल्ब के तोड़ने से उसमें बहनेवाली बिजली नहीं टूट जाती, लेकिन दिखाई पड़नी बंद हो जाती है। बल्ब से बिजली प्रकट होती है, पर बल्ब बिजली नहीं है। ग्रंथियों से शरीर की हिंसा प्रकट होती है, पर ग्रंथियां हिंसा नहीं हैं।

और दूसरा भी खयाल ले लेना जरूरी है कि जब व्यक्ति के चित्त से हिंसा विदा हो जाती है, तो ये ग्रंथियां जिन्होंने हिंसा को सहयोग दिया था; ये ग्रंथियां जिनके विष और मादक- तत्व फैलकर मनुष्य को विक्षिप्त करते रहे थे; इनके संग्रहीत-स्रोत मनुष्य के जीवन में नई तरह की रासायनिक क्रांति लानी शुरू कर देते हैं।

महावीर के संबंध में कहा जाता है कि उनके पसीने से दुर्गंध नहीं आती थी। यह बात कहानी मालूम होगी। लेकिन बहुत अवैज्ञानिक बात नहीं है। यह संभव है। महावीर के शरीर से सुगंध आती रही हो, न आती रही हो; लेकिन आज नहीं कल मनुष्य के शरीर से सुगंध आ सकती है। क्योंकि जहां से भी दुर्गंध आ सकती है, वहां से सुगंध आ सकती है। सब सुगंधें, दुर्गंधों का रूपांतरण हैं–इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। खाद डाल देते हैं बगीचे में, और फूल सुगंधों से भर जाते हैं। और आज हजारों तरह की जो सुगंधें बाजार में बिकती हैं, अगर उनके बनाने के कारखाने में जायें तो पता चलेगा कि सुगंध, दुर्गंध का ही रूपांतरण है।

अगर शरीर दुर्गंध फेंक सकता है विशेष स्थितियों में, तो कोई कारण नहीं मालूम होता कि विशेष स्थितियों में सुगंध क्यों नहीं फेंक सकेगा! मैं आपको कहता हूं कि महावीर की कथा, कथा नहीं है। शरीर ने सुगंध बहुत बार फेंकी है, आज भी फेंक सकता है। अगर चित्त पूरा रूपांतरित हो जाये और शरीर में इकट्ठे ये जो विषाक्त संग्रह हैं, अगर इनका उपयोग बंद हो जाये; ये बढ़ते चले जायें और इनका उपयोग बंद हो जाये, तो एक बड़ी मजे की घटना घटती है, क्वांटिटेटिव चेंज टर्न्स इनटू क्वालिटेटिव चेंज। जैसे ही परिमाण का अंतर पड़ता है, वैसे ही गुण का अंतर शुरू हो जाता है। निन्यान्बे डिग्री और सौ डिग्री में कोई फर्क नहीं है, सिर्फ मात्रा का फर्क है। लेकिन निन्यान्बे डिग्री तक पानी पानी होता है, सौ डिग्री पर भाप बन जाता है। फर्क क्वांटिटी का है, लेकिन अंततः क्वालिटी का हो जाता है।

सब क्वालिटेटिव चेंज, सब गुणात्मक परिवर्तन मूलतः मात्रा के परिवर्तन हैं। अगर शरीर में ये जो विषाक्त द्रव्य अब तक दुर्गंध फैलाने का काम करते रहे हैं, यदि एक मात्रा से ज्यादा मात्रा में इकट्ठे हो जायें, तो रूपांतरित हो जाते हैं, और शरीर से सुगंध फैलनी शुरू हो जाती है।

अहिंसा की अपनी सुगंध है; हिंसा की अपनी दुर्गंध है। प्रेम की अपनी सुगंध है; काम की अपनी दुर्गंध है। सत्य की अपनी सुगंध है; असत्य की अपनी दुर्गंध है। इसलिए मैं बायोकेमिकली आदमी को अहिंसक बनाने के पक्ष में नहीं हूं। आध्यात्मिक अर्थों में मनुष्य अहिंसक बने, तो उसकी बायोलाजी भी और उसकी बाडी केमिस्ट्री भी रूपांतरित होती है और जिनसे सदा दुर्गंध मिली थी, उनसे सुगंध की सौरभ भी फैलनी शुरू हो जाती है।

 

एक और बात पूछी है। पूछा है कि साइकिक एनोटामी, मनस-संरचना की दृष्टि से हिंसा को रोग कहने का क्या अर्थ हो सकता है?

मानसिक संरचना की दृष्टि से हिंसा, मन का खंड-खंड में टूट जाना है; डिसइंटीग्र्रेशन है। अहिंसा, इंटीग्रेशन है; मन का अखंड हो जाना है।

हमारे पास भी मन है, लेकिन शायद एक वचन में बोलना ठीक नहीं है। कहना चाहिए, हमारे पास मन हैं–मन है नहीं। हम पोली साइकिक हैं, यूनी साइकिक नहीं। हमारे पास एक मन नहीं है, हमारे पास बहु-मन हैं। एक-एक आदमी के पास बहुतेरे मन हैं।

साधारणतः हम सोचते हैं कि एक ही मन है हमारे पास, गलत सोचते हैं। अभी तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं, जुंग कहता है और दूसरे मनोवैज्ञानिक भी कहते हैं कि मनुष्य पोली साइकिक है, बहुचित्तवान है। लेकिन यह जानकर हैरानी होगी कि महावीर ने बहुचित्तता का पहली बार प्रयोग किया था पच्चीस सौ साल पहले। महावीर ने कहा था, मनुष्य बहुचित्तवान है, पोली साइकिक है।

एक चित्त नहीं है आदमी के भीतर, बहुत चित्त हैं। इसीलिए तो सांझ आप तय करते हैं कि कल क्रोध नहीं करूंगा और कल क्रोध करते हैं। आप सोचते हैं, मैं कैसा हूं? कल मैंने तय किया और आज फिर क्रोध करता हूं! संध्या पछताता हूं, सुबह फिर क्रोध करता हूं!

आदमी रोज नई-नई भूलें नहीं करता, वही-वही भूलें बार-बार करता है जिनके लिए हजार बार पछता चुका है, पश्चात्ताप कर चुका है। कारण क्या है? असल में, जो चित्त क्रोध करता है और जो चित्त निर्णय करता है, वे दो चित्त हैं। उन्हें एक दूसरे की खबर भी नहीं मिलती है। उनके बीच कम्यूनिकेशन भी नहीं है।

जब आप तय करते हैं कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा, तो यह चित का एक खंड है जो तय कर रहा है। समझ लें “अ’ तय कर रहा है, और कल सुबह जब उठकर पत्नी पर आप टूट पड़ते हैं, तो यह “ब’ क्रोध कर रहा है। “ब’ के हटते ही “अ’ फिर लौट आता है और पश्चात्ताप करता है कि तय किया था, क्रोध नहीं करूंगा, फिर क्रोध क्यों किया? फिर सांझ को पैर पर जरा जूता लग जाता है किसी का, बस “ब’ सामने आ जाता है और फिर क्रोध प्रगट करता है, “अ’ पीछे हट जाता है। जैसे कि साइकिल के चक्के पर स्पोक ऊपर-नीचे घूमते रहते हैं, ऐसे ही प्रतिपल आपके भीतर चित्तों का परिवर्तन होता रहता है। क्योंकि बहुत चित्त हैं आपके भीतर।

गुरजिएफ कहा करता था कि मैंने एक ऐसे घर के संबंध में सुना है, जिसका मालिक कहीं दूर यात्रा पर गया था; बहुत बड़ा भवन था, बहुत नौकर थे। वर्षों बीत गए, मालिक की खबर नहीं मिली। मालिक लौटा भी नहीं, संदेश भी नहीं आया। धीरे-धीरे नौकर यह भूल ही गए कि कोई मालिक था भी। भूलना भी चाहते हैं नौकर कि कोई मालिक है, वे भी भूल गये! जब कभी कोई यात्री उस महल के सामने से गुजरता और कोई नौकर सामने मिल जाता, तो वह उससे पूछता, कौन है इस भवन का मालिक? तो वह नौकर कहता, मैं। लेकिन आस-पास के लोग बड़ी मुश्किल में पड़े, क्योंकि कभी द्वार पर कोई और मिलता और कभी कोई, बहुत नौकर थे और हरेक कहता कि मालिक मैं हूं। जब भी कोई पूछता कि कौन है मालिक इस भवन का? तो नौकर कहता, मैं। जो मिल जाता वही कहता, मैं। आस-पास के लोग बड़े चिंतित हुए कि कितने मालिक हैं इस भवन के!

फिर एक दिन गांव के सारे लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने पता लगाया, और सारे घर के नौकर इकट्ठे किये तो मालूम हुआ कि वहां कई मालिक थे। तब बड़ी कठिनाई खड़ी हुई, सभी नौकर लड़ने लगे। सभी कहने लगे, मालिक मैं हूं! और जब बात बहुत बढ़ गई तब किसी एक बूढ़े नौकर ने कहा, क्षमा करें, हम व्यर्थ विवाद में पड़े हैं। मालिक घर के बाहर गया है और हम सब नौकर हैं। मालिक लौटा नहीं बहुत दिन हो गए, और हम भूल गए। और अब कोई जरूरत भी नहीं रही याद रखने की, क्योंकि शायद वह कभी लौटेगा भी नहीं।

फिर मालिक एक दिन लौट आया। तो उस घर के पच्चीस मालिक तत्काल विदा हो गए–वे तत्काल नौकर हो गए!

गुरजिएफ कहा करता था, यह आदमी के चित्त की कहानी है।

जब तक भीतर की आत्मा जागती नहीं, तब तक चित्त का एक-एक टुकड़ा, एक-एक नौकर कहता है, मैं हूं मालिक। जब क्रोध करनेवाला टुकड़ा सामने होता है, तो वह कहता है, मैं हूं मालिक। और वह मालिक बन जाता है कुछ देर के लिए और पूरा शरीर उसके पीछे चलता है। शरीर को कुछ पता नहीं है। वह मालिक के पीछे चलता है। फिर पश्चात्ताप करने वाला आ जाता है और वह कहता है, मैं हूं मालिक। और तब शरीर रोता है। वही शरीर जिसने तलवार उठा ली थी, वही आंसू बहाता है। उसको कुछ भी पता नहीं, वह किसी भी मालिक का अनुगमन करता है। जो भी जोर से कहता है, आई एम द मास्टर–शरीर तत्काल उसके पीछे खड़ा हो जाता है। वही मन कहता है, ब्रह्मचर्य, तो शरीर कहता है, बड़ी पवित्र बात है, तैयार हूं। दूसरा खंड कहता है, भोग, तो मन कहता है, बिलकुल राजी हूं। मैं तो मालिक के पीछे चलता हूं।

पोली-साइकिक है आदमी। साइकिक संरचना, उसकी जो मनस की संरचना है, वह कई खंडों की है। मन बहुत खंडों में बंटा है। और जब तक बंटा रहेगा, जब तक अखंड आत्मा बीच में जाग न जाये…हिंसा इन खंडों की आपस की लड़ाई है; इन नौकरों के सबके अपने दावों की, कि मैं मालिक हूं। ये अगर आमने-सामने पड़ जाते हैं तो मन बड़े द्वंद्व में पड़ जाता है। मन चौबीस घंटे लड़ता रहता है कि मालिक कौन है? और ये जो मन के लड़ते हुए खंड हैं, इनकी लड़ाई से जो द्वंद्व और जो पीड़ा और दुख पैदा होता है, वही आदमी दूसरों से भी लड़कर निपटाता रहता है।

यह बहुत मजे की बात है कि अक्सर हम अपनी लड़ाई को बाहर प्रोजेक्ट करते हैं, प्रक्षेप करते हैं! आपके भीतर एक चोर है। आप उस चोर से लड़ रहे हैं। आप उसको दबाए हुए हैं कि चोरी न करने देंगे। अगर आपके पड़ोस में चोरी हो जाये और चोर पकड़ लिया जाये, तो आप सबसे ज्यादा उस चोर की पिटाई करेंगे। क्योंकि आप अपने भीतर एक चोर को दबाए हुए हैं, जिसकी पिटाई आपने बहुत बार करनी चाही है, लेकिन कर नहीं पाये हैं। अब, जब एक चोर बाहर मिल गया है, तो आपके भीतर का चोर प्रोजेक्ट हो जायेगा और आप उसकी पिटाई करेंगे।

चोर की पिटाई के लिए चोर जरूरी है। कोई साधु चोर की पिटाई नहीं कर सकता है; क्योंकि प्रोजेक्शन का उपाय नहीं। इसलिए जितने चोर हैं, वे चोरों के खिलाफ दिन-रात बातचीत करते रहेंगे; जितने बदमाश हैं, वे बदमाशों की निंदा करते रहेंगे; जितने कामातुर हैं, वे काम की निंदा करते रहेंगे। जो भीतर भरा है, हम उसे बाहर प्रोजेक्ट करते हैं।

बर्टें्रड रसेल ने कहीं कहा है, कि जब कोई आदमी बहुत जोर से चिल्लाये कि वह जा रहा है चोर, पकड़ो, पकड़ो, चोरी हो गई, बहुत बुरा हो गया, तो पहले उस आदमी को पकड़ लेना; क्योंकि यह आदमी आज नहीं तो कल चोरी करेगा।

हम अक्सर अपनी बीमारियों को, अपने चित्त के रोगों को दूसरे पर आरोपित कर लेते हैं। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि अगर एक आदमी किसी दूसरे आदमी की निंदा करता हो, तो जिसकी निंदा करता है उसके संबंध में बहुत कुछ नहीं बता पाता है, अपने संबंध में बहुत कुछ बता देता है। उसकी निंदा खबर देती है कि वह क्या प्रोजेक्ट कर रहा है। उसके भीतर कोई लड़ाई जारी है, जिस लड़ाई को वह किसी पर रोप देता है। अगर भीतर कोई लड़ाई जारी न रहे, तो बाहर रोपने का उपाय बंद हो जाता है। बाहर कोई उपाय नहीं है रोपने का।

मनुष्य का चित्त खंडित है। यह उसकी कुंठा का जन्म है। और मनुष्य का चित्त यदि अहिंसक होने लगे, तो अखंड होगा, एक हो जायेगा। और जब चित्त एक हो जाता है, उसमें जब भिन्न स्वर नहीं रह जाते हैं, तो मनुष्य के जीवन में जो आनंद का नृत्य शुरू होता है, जो आनंद की बांसुरी बजती है, उसी बांसुरी के रास्ते लोग परमात्मा तक पहुंच जाते हैं। किसी और रास्ते से न पहुंचे हैं, न पहुंच सकते हैं।

आचार्य श्री, इसी सिलसिले में आगे एक छोटा-सा प्रश्न है कि हिंसा की स्थिति में और अहिंसा की स्थिति में जीवन-ऊर्जा, लाइफ फोर्स की अवस्था में क्या फर्क हो जाता है?

हाड़ों से बहता हुआ पानी भागता है नीचे की तरफ; खड्ड खोजता है, खाई खोजता है, झील खोजता है; पानी अधोगमन करता है, नीचे की तरफ भागता है। फिर यही पानी उत्तप्त होकर भाप बन जाता है। तब आकाश की तरफ दौड़ने लगता है। यही पानी ऊंचाइयां खोजने लगता है, बादलों की छातियों पर सवार होने लगता है, सूरज की यात्रा करने लगता है। पानी वही है, ऊर्जा वही है, एनर्जी वही है, लेकिन रूपांतरण हो गया, क्रांति घटित हो गयी।

हिंसक-चित्त खाई-खड्डे खोजता है, नीचे की तरफ बहता है। अहिंसक-चित्त वाष्पीभूत हो जाता है, पर्वत-शिखर खोजने लगता है, आकाश की यात्रा शुरू हो जाती है, ऊपर की उड़ान शुरू हो जाती है, सूर्य की यात्रा पर निकल जाता है, मोक्ष और परमात्मा की दिशा में उन्मुख हो जाता है।

हिंसक-चित्त सदा दूसरे को खोजता है; दूसरा ही खाई है, द अदर इज द एबिस। अहिंसक-चित्त अपने को खोजता है। स्वयं को खोजना ही ऊंचाई है। क्योंकि दूसरे को जब भी हम खोजेंगे, तभी हम नीचे की तरफ चल पड़े। जब भी हम दूसरे को खोजेंगे, तभी हम नीचे की तरफ चल चुके। क्यों? क्यों मैं कहता हूं कि दूसरा ही खाई है, दूसरा ही अधोगमन है, दूसरा ही नर्क है? वह दूसरा ही क्यों नीचे की तरफ ले जाने का मार्ग है? क्यों? क्योंकि जब हम दूसरे को खोजते हैं, तो एक बात तो पक्की हो गयी कि अपने साथ कोई आनंद नहीं है, स्वयं के साथ कोई आनंद नहीं है।

आदमी जितना दुखी अपने साथ हो जाता है, उतना दुखी अपने दुश्मन के साथ भी नहीं होता। आदमी जितना अपने से ऊब जाता है, उतना कितना ही बोरिंग आदमी हो, उसके साथ भी नहीं ऊबता। आदमी अपने साथ बिलकुल राजी नहीं है, इसका अर्थ क्या है? कोई आदमी खुद को कम्पेनियन नहीं बनाना चाहता–यह बड़े मजे की बात है–और जब कोई दूसरा उसे कम्पेनियन नहीं बनाना चाहता, तो बड़ा दुखी होता है। हालांकि वह खुद रिजेक्ट कर चुका है अपने को! वह खुद कह चुका है कि अपने से दोस्ती नहीं चलेगी! आप घंटे भर भी अपने साथ अकेले में बैठने को राजी नहीं होते। अगर दिन भर अकेले में बैठना पड़े, तो घबड़ा जाते हैं कि आत्महत्या कर लेंगे, कि क्या कर लेंगे। अगर वर्ष भर अकेला रहना पड़े तो क्या जी सकेंगे?

अपने साथ जीना बड़ा कठिन है। क्योंकि अपने साथ केवल वही जी सकता है, जो भीतर आनंद को उपलब्ध है। दूसरे के साथ जीने की आकांक्षा उसी की है, जो भीतर दुख से भरा है। और मैंने कहा कि हिंसा अंतर-दुख है, इसलिए हिंसक-चित्त सदा दूसरे को खोजता है; कभी मित्र के नाम से खोजता है, कभी शत्रु के नाम से खोजता है; लेकिन दूसरे को खोजता है। और इसमें भी बहुत देर नहीं लगती कि जो मित्र था वह शत्रु बन जाता है और जो शत्रु था वह मित्र बन जाता है। असल में किसी को शत्रु बनाना हो, तो उसे भी पहले मित्र तो बनाना ही पड़ता है। मित्र बनाये बिना तो शत्रु बनाना बहुत मुश्किल है–सिर्फ संबंधियों को छोड़कर। क्योंकि संबंधी पहले से ही शत्रु होते हैं! बाकी तो किसी को भी शत्रु बनाना हो, तो पहले मित्र बनाना पड़ता है।

आदमी दूसरे को खोज रहा है क्योंकि अपने से बचना चाहता है। इसलिए मैं कहता हूं, दूसरा खाई है। जो अपने से बचना चाहता है, वह किसी ऊंची यात्रा पर नहीं निकल सकेगा; क्योंकि जो अपने तक ही पहुंचने को राजी नहीं है, वह किस परमात्मा तक पहुंचने की हिम्मत जुटा सकता है? जो अपने ही शिखर छूने को राजी नहीं है, वह किस अस्तित्व के ऊंचे शिखरों की यात्रा पर निकल सकता है? इसलिए हम दूसरे को खोज रहे हैं। और जब भी हम दूसरे को खोज रहे हैं, तब हमसे हिंसा होगी ही।

एक तो उस आदमी का भी साथ है जो अपने साथ जीता है। वह भी दूसरों के साथ जी सकता है, लेकिन दूसरों की उसे जरूरत नहीं है, दूसरे उसकी नेसेसिटी नहीं हैं, दूसरे उसकी अनिवार्यता नहीं हैं। दूसरे उसके पास हो सकते हैं, उसके आनंद में भागीदार बन सकते हैं, लेकिन वह दूसरों पर निर्भर नहीं है, वह कोई डिपेंडेंट नहीं है। दूसरे नहीं होंगे, तो भी वह इतने ही आनंद में होगा।

अगर बुद्ध के पास कोई भी न जाये, तो बुद्ध के आनंद में कोई भी अंतर नहीं पड़ेगा। बुद्ध के पास लाखों लोग जायें, तो भी कोई अंतर नहीं पड़ेगा। लेकिन हमसे एक आदमी एक दिन मुंह फेर ले और न आये, तो बस एकदम हम नर्क में उतर जाते हैं। जिस आदमी की इतनी निर्भरता दूसरे पर हो, वह दूसरे के लिए जंजीरें बनायेगा–कहीं दूसरा फिर न जाये, मुड़ न जाये। वह दूसरे को बांधेगा। वह दूसरे के पैरों में बेड़ियां डालेगा; कभी पत्नी बनायेगा; कभी पति बनायेगा; कभी बेटा बनायेगा; कभी बाप बनायेगा; हजार तरह की बेड़ियों में दूसरे को कसेगा। और जब भी कोई दूसरे को बेड़ियों में कसेगा, तो हिंसा शुरू हो जायेगी। क्योंकि स्वतंत्र करती है अहिंसा; परतंत्र करती है हिंसा। हिंसा दूसरे को गुलाम बनाती है।

गुलामियां बहुत तरह की हैं। मीठी गुलामियां भी हैं, जो कि कड़वी गुलामियों से सदा बदतर होती हैं। क्योंकि कड़वी गुलामियों में एक आनेस्टी, एक सिंसियरिटी होती है, साफपन होता है! मीठी गुलामियां बड़ी खतरनाक होती हैं, शुगर कोटेड होती हैं; भीतर जहर ही होता है, ऊपर से शक्क्र चढ़ी होती है। हम अपने सारे संबंधों में शक्कर चढ़ाए हुए हैं, भीतर तो जहर ही है। जरा सी पर्त हटती है और जहर बाहर निकल आता है। फिर लीप-पोत कर, पर्त को ठीक करके किसी तरह काम चलाते रहते हैं।

लेकिन हमारा यह दूसरे को खोजना एक बात का पक्का सबूत है कि हम अपने साथ होने के आनंद को नहीं पा रहे हैं। फिर हिंसा शुरू होगी। और तब हम दूसरे को खोजते हैं कि उसके बिना जी नहीं सकेंगे। जिसके बिना हम जी नहीं सकेंगे, उसे हम गुलाम बनायेंगे ही, उसे हम पजेस करेंगे ही, उसकी हम मालकियत करेंगे ही, हम उसके मालिक बनेंगे ही। और जिसके भी हम मालिक बनेंगे, उसे हम मिटायेंगे, उसे हम नष्ट करेंगे। क्योंकि मालकियत किसी भी तरह की हो, सब तरह की मालकियत मिटाती है और नष्ट करती है। मालकियत बहुत सटल वायलेंस है, मालकियत बहुत सटल मर्डर है। मालकियत जो है, वह हत्या है किसी की, बहुत धीमे-धीमे। सिकंदर भी गुलाम बनाकर मारता है, हिटलर भी गुलाम बनाकर मारता है। धर्मगुरु भी किसी को गुलाम बनाकर मार डाल सकता है। सब तरह की गुलामियां हैं।

जब भी हम दूसरे को जकड़ लेते हैं, और उसकी गर्दन को पकड़ लेते हैं, और उस पर निर्भर हो जाते हैं, तभी हम उसकी गर्दन में पत्थर की तरह लटक जाते हैं। और यह लटकना नीचे की यात्रा है। इस यात्रा का कोई अंत नहीं है। यह फैलती जाएगी। एक से मन न भरेगा, दूसरा चाहिए, तीसरा चाहिए, हजार चाहिए। राजनीतिज्ञ को लाखों-करोड़ों चाहिए। जब तक वह राष्ट्रपति बन कर सारे मुल्क की गर्दन में न लटक जाये, तब तक उसको तृप्ति नहीं मिल सकती। सबकी गर्दन में लटक जाना चाहिए। सबके लिए वह पत्थर हो जाये बोझीला।

यह जो हमारा चित्त है, जो दूसरे को खोजता है, यह चित्त नीचे की तरफ जा रहा है। इसकी हिंसा बढ़ती चली जायेगी। यह अनेक रूप लेगा। इसके हजार चेहरे होंगे, हजार विधियां होंगी। लेकिन यह दूसरे को दबायेगा, सतायेगा, टार्चर करेगा।

टार्चर करने के बड़े अच्छे ढंग भी हो सकते हैं। बाप अपने बेटे को टार्चर कर सकता है, बेटा बाप को कर सकता है; मां अपने बेटे को कर सकती है, बेटा मां को कर सकता है। और मनस-शास्त्री कहते हैं कि आदमी अब भी कर वही रहा है; एक दूसरे को सता रहा है। लेकिन यह हमें खयाल में नहीं आता।

यह तब तक जारी रहेगा, जब तक कि कोई आदमी अपने साथ आनंदित नहीं है, जब तक कोई आदमी अपने साथ होने को राजी नहीं है। जैसे ही कोई आदमी अपने साथ होने को राजी हुआ, उसकी यात्रा दूसरे से हटकर, बाहर से हटकर…क्योंकि दूसरा सदा बाहर है, द अदर इज आलवेज द आउटर, द अदर इज आलवेज द विदाउट। वह तो बाहर होगा ही। जब तक दूसरे की तरफ खोज जारी रहेगी–वह चाहे पत्नी की हो, चाहे प्रेमिका की, चाहे प्रेमी की और चाहे परमात्मा की–अगर परमात्मा को कोई दूसरे की तरह देख रहा है, तो उसमें हिंसा जारी रहेगी; उसमें हिंसा से मुक्ति नहीं हो सकती।

इसलिए महावीर ने बाहर के परमात्मा को इनकार कर दिया; क्योंकि महावीर को लगा कि अगर गाड इज द अदर, तो हिंसा का रास्ता बन जायेगा। इसलिए बहुत कम लोग समझ पाए महावीर की इस बात को कि वे ईश्वर को क्यों इनकार कर रहे हैं। नासमझों ने समझा कि शायद नास्तिक हैं। नासमझों ने समझा कि शायद ईश्वर नहीं है, इसलिए।

महावीर ने कहा, कोई परमात्मा नहीं है सिवा तुम्हारे। और उसका कुल कारण इतना है कि अगर कोई भी परमात्मा है–दूसरे की तरह, तो वह जो हिंसक-चित्त है, वह उस परमात्मा को भी बाहर जाने का और नीचे जाने का रास्ता बना लेगा। महावीर ने कहा, बाहर कोई परमात्मा ही नहीं है। चलो अपनी तरफ, भीतर। वह आत्मा ही परमात्मा है। और जैसे ही कोई भीतर गया, वैसे ही ऊंचाइयों के शिखर शुरू हुए।

भीतर बड़ी ऊंचाइयां हैं, बाहर बड़ी नीचाइयां हैं। भीतर बड़े गौरीशंकर के शिखर हैं, बाहर बड़े प्रशांत-महासागर की गहराइयां हैं। बाहर कोई उतरता जाये, तो अतल गहराइयों में गिरता जायेगा, जहां अंधकार होगा, जहां दुख होगा, जहां मृत्यु होगी, जहां पीड़ा होगी, जहां नर्क होगा। और कोई भीतर की तरफ बढ़े, स्वयं की तरफ, तो बड़ी ऊंचाइयां होंगी; कैलाश के शिखर होंगे; स्वर्ण-मंदिरों के शिखर होंगे; मुक्ति होगी, मोक्ष होगा, स्वर्ग होगा! वह भीतर की यात्रा है।

जीवन-ऊर्जा जब हिंसा बनती है, तो पतित होती है। और जीवन-ऊर्जा जब अहिंसा बनती है, तो ऊर्ध्वगमन करती है। वह लाइफ-एनर्जी तो एक ही है, जीवन-ऊर्जा तो वही है। कभी बाहर की तरफ जाती है, तो दुख देती है और दुख लाती है; और कभी भीतर की तरफ जाती है, तो सुख देती है और सुख लाती है।

किन्हीं भी क्षणों में, जब भी कभी आपने आनंद को जाना हो, तब आपने पाया होगा, आप एकदम अकेले हैं। किन्हीं भी क्षणों में, जब आनंद की पुलक आप में फैली हो, तब आपने पाया होगा, आप अपने भीतर हैं। किन्हीं भी क्षणों में, जब आनंद की वर्षा की एक बूंद भी आपके भीतर उस अमृत की टपकी हो, तब आपने पाया होगा, कोई नहीं, मैं ही हूं। और सब दुख सदा दूसरे से बंधे हुए पाए गये और सब सुख सदा स्वयं के भीतर ही पाए गये।

हां, ऐसे सुख हैं, जो दूसरों से मिलते हुए मालूम पड़ते हैं, पर मिलते कभी भी नहीं। ऐसे सुख हैं, जो वहम देते हैं कि दूसरों से मिलेंगे, लेकिन जब मिलते हैं, और आंख खुलती है, तो पता चलता है कि खोजा था सुख, पाया है दुख। ऐसे सुख हैं, जो बुलाते हैं दूसरों की तरफ से कि आओ, मैं यहां हूं, और जब हम पास पहुंचते हैं, तो पाया जाता है कि बुलाहट सुख की थी, लेकिन धोखा हो गया। जैसे राम स्वर्ण-मृग के पीछे चले गए थे। और सभी जानते हैं कि स्वर्ण-मृग कहीं होते नहीं। कम से कम राम को तो यह जानना ही चाहिए था कि स्वर्ण-मृग कहीं होते नहीं!

लेकिन वह कथा मीठी है। कथा अर्थपूर्ण है। हम सभी स्वर्ण-मृग के पीछे चले जाते हैं! सब जानते हैं कि नहीं होते हैं और चले जाते हैं। राम चले गए स्वर्ण-मृग को खोजने! कौन होगा पागल, जो राजी होगा कि सोने का और हिरण होगा! होगा कैसे? लेकिन राम भी चले जाते हैं! हमारे भीतर का राम भी चला जाता है! और तब आखिर में हम पाते हैं कि कुछ मिलता नहीं! क्योंकि स्वर्ण-मृग के पीछे जाकर कुछ मिल सकता है?

सुख स्वर्ण-मृग है। जब दूसरे से मिलता हुआ मालूम पड़े, तो समझना कि राम चले अब स्वर्ण-मृग को खोजने, अब सीता की चोरी होकर रहेगी। और जब आप दूसरे के पीछे खोजने चले जाते हैं, तो आपके भीतर की जो अंतरात्मा है–कहिए उसे सीता–उसकी चोरी हो जाती है। हो जाते हैं पतित। फिर लंबा युद्ध है। फिर रावण से संघर्ष है। फिर हत्याएं हैं, फिर खून है। वह एक स्वर्ण-मृग के पीछे जाने से राम की पूरे उपद्रव और हिंसा की दुनिया शुरू हुई। एक स्वर्ण-मृग से यात्रा शुरू हुई उपद्रव की, और फिर जब तक कि पूरी हिंसा नहीं हो गई तब तक वह चली। मेरी दृष्टि में यह एक प्रतीक कथा है, एक पैरेबल है।

हम भी, जब दूसरे में सुख देखकर भागते हैं, तब हम चले स्वर्ण-मृग के पीछे। तब पतन होगा ऊर्जा का। पतन हो गया उसी क्षण, जब हमने माना कि स्वर्ण के मृग होते हैं। पतन हो गया उसी क्षण, जब हमने माना कि दूसरा सुख दे सकेगा। पतन हो गया उसी क्षण, जब हमने माना कि बाहर सुख हो सकता है। और जिंदगी-भर का अनुभव है कि बाहर सिवाय दुख के कभी कुछ मिला नहीं। दूसरे से सिवाय दुख के सुख कब पाया है? हां, खयाल में रहा है कि मिलेगा, मिलेगा, मिलेगा; मिला कभी नहीं है। वह सदा भविष्य में लगता है कि मिलेगा। अतीत में लौटकर देखें, कब मिला है? किसने किसी दूसरे से सुख पाया है? सच तो यह है कि जिससे जितना सोचा था ज्यादा सुख मिलेगा, उससे उतना ज्यादा दुख ही मिला।

इसलिए मां-बाप जिस लड़के का विवाह कर देते हैं, वह पत्नी से उतना दुख नहीं पाता, जितना वह लड़का पा लेता है जो प्रेम-विवाह करता है। प्रेम-विवाह के चट्टान से टकराने की संभावना ज्यादा हो गई, क्योंकि सुख की आकांक्षा ज्यादा हो गई। पोथी-पत्री देखकर जिसका विवाह किया गया, उसने सुख की कभी बहुत आकांक्षा ही नहीं बांधी। इसलिए नाव टकराने के उपाय जरा कम हैं। दुख तो मिलेगा, उसी मात्रा में मिलेगा, जितना पोथी-पत्री से, जन्म-कुंडली देखने से सुख की आशा बंधती होगी, उतना ही मिलेगा। उतना ही दुख मिलता है जीवन में, जितनी सुख की आशा हम बांधते हैं। ज्यादा सुख की आशा बांधनेवाले ज्यादा दुख से भर जाते हैं। जो सुख की आशा नहीं बांधता, उसे दुख देने का उपाय नहीं है।

जीवन-ऊर्जा जब दूसरे की तरफ बहती है, तो हिंसक है। और वह दुख की तरफ बहती है, नर्क की तरफ बहती है। हम सब अपने-अपने नर्क खोज रहे हैं। कुछ लोग कभी-कभी पीछे लौटकर स्वर्ग खोज लेते हैं। जीवन-ऊर्जा जब पीछे, अंदर की तरफ यात्रा करती है, तो ऊर्ध्वगामी है। वह एक ही ऊर्जा है।

जगत में शक्तियां भिन्न नहीं हैं, सिर्फ दिशाएं भिन्न हैं। जगत में शक्तियां अलग-अलग नहीं हैं, सिर्फ ऊर्ध्वगमन और अधोगमन के फासले हैं। आप नीचे उतर रहे हैं मंदिर की सीढ़ियों से, या ऊपर चढ़ रहे हैं मंदिर की सीढ़ियों से? और यह भी हो सकता है कि एक ही सीढ़ी पर आप खड़े हैं और आपका चेहरा नीचे की तरफ है; और दूसरा आपका मित्र भी खड़ा है उसी सीढ़ी पर और उसका चेहरा ऊपर की तरफ है। तो उस एक ही सीढ़ी पर स्वर्ग और नर्क दोनों घटित हो जायेंगे। आपका पड़ोसी, जिसका चेहरा ऊपर की तरफ है, उसी सीढ़ी पर स्वर्ग में होगा। और आपका चेहरा, जिसका नीचे की तरफ है, उसी सीढ़ी पर, आन द सेम स्टेप, आप नर्क में होंगे।

ऐसे नर्क और स्वर्ग की कोई भौगोलिक अवस्थाएं नहीं हैं, चित्त के रुख किस तरफ देख रहे हैं, इस पर सब निर्भर करता है।

हिंसा अधोगमन है जीवन-ऊर्जा का, अहिंसा ऊर्ध्वगमन है।

आचार्य श्री, पिछले प्रवचन में आपने कहा था कि अहिंसा मनुष्य का स्वभाव है और हिंसा मनुष्य की निर्मित है। कृपया इसे पुनः स्पष्ट करेंगे और बताएंगे कि क्या हिंसा प्रकृति-प्रदत्त तथ्य नहीं है?

हिंसा प्रकृति-प्रदत्त तथ्य है, लेकिन मनुष्य का स्वभाव नहीं, पशु का स्वभाव है। और मनुष्य उस स्वभाव से गुजरा है, इसलिए पशु-जीवन के सारे अनुभव अपने साथ ले आया है। हिंसा ऐसे ही है, जैसे कोई आदमी राह से गुजरे और धूल के कण उसके शरीर पर छा जायें, और जब वह महल के भीतर प्रवेश करे, तब भी उन धूल-कणों को उतारने से इनकार कर दे। और कहे कि वे मेरे साथ ही आ रहे हैं; वह मैं ही हूं।

वे धूल-कण हैं, जो पशु की यात्रा पर, मनुष्य की आत्मा पर चिपक गए हैं, जुड़ गए हैं; स्वभाव नहीं है। पशु के लिए स्वभाव है, क्योंकि पशु के लिए कोई चुनाव ही नहीं है। मनुष्य के लिए स्वभाव नहीं है, क्योंकि मनुष्य के लिए चुनाव है।

असल में मनुष्यता शुरू होती है च्वायस से, चुनाव से। मनुष्य शुरू होता है निर्णय से, डिसीजन से। मनुष्य शुरू होता है संकल्प से। मनुष्य चौराहे पर खड़ा है, कोई पशु चौराहे पर नहीं खड़ा है। सब पशु वन डायमेंशनल रास्ते पर होते हैं; एक ही रास्ता होता है, जिसमें कोई चुनाव नहीं है। मनुष्य चौराहे पर खड़ा है। मनुष्य चाहे तो हिंसक हो सकता है, चाहे तो अहिंसक हो सकता है। यह स्वतंत्रता है उसकी। पशु की यह स्वतंत्रता नहीं है। पशु की यह मजबूरी है कि वह जो हो सकता है, वही है

यह भी समझने जैसा मजा है कि पशु वही है, जो हो सकता है। इसलिए पशु के स्वभाव में और पशु के तथ्य में कोई फर्क नहीं होता। पशु के भविष्य में और पशु के अतीत में कोई डिस्टेंस, कोई फासला नहीं होता। पशु के होने में और हो सकने की संभावना में, कोई फर्क नहीं होता। पशु जो हो सकता है, वह है। दैट व्हिच इज पॉसिबल, इज ऐक्चुअल। पशु की ऐक्चुअलिटी और पॉसिबिलिटी में कोई फर्क नहीं है। आदमी का मामला एकदम बदल गया। आदमी जो है, उससे भिन्न हो सकता है। आदमी की एक्चुअलिटी, उसकी पॉसिबिलिटी नहीं है। जो आदमी वास्तविक आज है, कल उससे और कुछ हो सकता है।

इसलिए किसी कुत्ते से हम नहीं कह सकते कि तुम कुछ कम कुत्ते हो; लेकिन आदमी से कह सकते हैं कि तुम कुछ कम आदमी मालूम पड़ते हो। किसी कुत्ते से यदि हम कहेंगे कि तुम कुछ कम कुत्ते हो, तो यह बिलकुल एबसर्ड स्टेटमेंट होगा। इसका कोई मतलब नहीं होगा। सब कुत्ते बराबर कुत्ते होते हैं। कमजोर हो सकते हैं, ताकतवर हो सकते हैं, बीमार हो सकते हैं, स्वस्थ हो सकते हैं–लेकिन कुत्तेपन में कोई फर्क नहीं होगा।

लेकिन आदमियत की मात्राओं में फर्क है। किसी कृष्ण को हम नहीं कह सकते कि तुममें और हिटलर में आदमियत का कोई फर्क नहीं है। किसी बुद्ध को हम नहीं कह सकते कि तुममें और रावण में आदमियत का कोई फर्क नहीं है।

नहीं, किसी से कहना पड़ता है कि आदमियत बहुत कम मालूम पड़ती है। किसी से कहना पड़ता है, आदमियत इतनी ज्यादा है कि भगवान शब्द खोजना पड़ता है। जिन-जिन के लिए हमने भगवान शब्द खोजा, उसका कुल मतलब इतना है कि आदमियत इतनी ज्यादा थी कि आदमी कहना काफी नहीं मालूम पड़ा, ना काफी मालूम पड़ा।

आदमी जो है, वही सब-कुछ नहीं है, बहुत-कुछ हो सकता है। आदमी जो है, उसमें उसका अतीत, पशु की यात्रा उसमें जुड़ी है, वह हिंसा है। आदमी जो हो सकता है, वह उसकी अहिंसा है। आदमी का स्वभाव वह है, जो जब वह अपनी पूर्णता में प्रगट हो, तब होगा। आदमी का तथ्य वह है, जो उसने अपनी यात्रा में अब तक अर्जित किया है।

इसलिए मैं कहता हूं, हिंसा अर्जित है, अहिंसा स्वभाव है। इसलिए हिंसा छोड़ी जा सकती है; अहिंसा सिर्फ पाई जा सकती है, छोड़ी नहीं जा सकती। यह फर्क भी समझ लेना जरूरी है। हिंसा छोड़ी जा सकती है, अहिंसा पाई जा सकती है। और अहिंसा अगर पा ली जाये, तो छोड़ना असंभव है। और आदमी कितना ही हिंसक हो जाये, छोड़ना सदा संभव है; क्योंकि वह स्वभाव नहीं है।

प्रत्येक पापी का भविष्य है; और प्रत्येक पापी का भविष्य एक संत का भविष्य है। हम प्रत्येक पापी से सार्थक रूप से कह सकते हैं कि तुम भविष्य के संत हो। प्रत्येक संत का एक अतीत है; और प्रत्येक संत का अतीत पापी का अतीत है। और हम प्रत्येक संत से सार्थक रूप से कह सकते हैं कि तुम अतीत के पापी हो। लेकिन संत का फिर आगे कोई भविष्य नहीं है।

संत का अर्थ है, जो पूर्ण स्वभाव को उपलब्ध हो गया; जो वही हो गया है, जो हो सकता था। फूल पूरा खिल गया। कली का भविष्य है। कली चाहे तो कली भी रह सकती है और चाहे तो फूल भी बन सकती है। लेकिन फूल फिर लौटकर कली नहीं बन सकता। चाहे, तो भी। फूल फिर फूल हो गया। तो जब हम कली से कहते हैं कि फूल होना तेरा स्वभाव है, तो इसका यह मतलब नहीं है कि हम तथ्य की या फैक्ट की बात कह रहे हैं; हम संभावना की, पोटेंशियलिटी की बात कह रहे हैं। हम कली से कहते हैं कि तेरा फूल होना स्वभाव है; अर्थात तू फूल होना चाहे तो हो सकती है।

लेकिन अगर कोई कली, कली ही बनी रहे, और वह कहे कि तथ्य तो यही है कि मैं कली हूं। इसलिए मैं कली ही रहूंगी; क्योंकि कली होना मेरा स्वभाव है, क्योंकि मैं कली हूं…आदमी अगर कहे कि हिंसा मेरा स्वभाव है, तो वह ऐसी ही बात कह रहा है, जैसी यह भ्रांत कली कह रही है।

आदमी का स्वभाव नहीं है हिंसा, उसके अतीत का अर्जन है, उसके अतीत के संस्कार हैं। हिंसा आदमी की कंडीशनिंग है, जो कि पशु से निकलते वक्त अनिवार्य थी। जैसे कि कोई काजल की कोठरी से निकले और काजल उसके शरीर पर लग जाये, उसके कपड़ों पर लग जाये, जो कि अनिवार्य था। पशु क्षम्य है। अनिवार्य है हिंसा उसके जीवन में होनी। आदमी को क्षमा नहीं किया जा सकता। हिंसा अब उसकी पसंद है, अब अनिवार्य नहीं। अब वह चुन रहा है, इसलिए हिंसा।

अगर कली जिद कर ले कली रहने की, तो रह सकती है। लेकिन यह उसकी अनिवार्यता नहीं; यह उसकी नियति, उसकी डेस्टिनी नहीं है। यह उसका अपना ही भ्रांत निर्णय है। और तब इसकी जिम्मेवार वह स्वयं ही होगी। और किसी परमात्मा के समक्ष पहुंचकर वह यह नहीं कह सकेगी कि मुझे कली ही क्यों रखा? क्योंकि कली के भीतर फूल होने की संभावना परमात्मा ने पूरी दे दी थी। वह फूल हो सकती थी। कली होने की जिम्मेवारी हमारी होगी।

हिंसा, पशु के लिए अनिवार्यता, हमारे लिए जिम्मेवारी है; पशु के लिए तथ्य, हमारे लिए सिर्फ ऐतिहासिक याददाश्त है; पशु का वर्तमान, हमारा अतीत है। चुनाव सामने है। आदमी अहिंसक होने का निर्णय भी ले सकता है और हिंसक होने का भी निर्णय ले सकता है।

इसलिए जब कोई आदमी हिंसक होने का निर्णय लेता है, तो कोई पशु उसका मुकाबला नहीं कर सकता। असल में कोई पशु इतना हिंसक नहीं हो सकता, जितना आदमी हो सकता है। क्योंकि पशु सहज ही हिंसक हैं; और आदमी हिंसक आयोजना से होता है। इसलिए हम चंगेज खां, और तैमूर, और नादिर, और हिटलर, और माओ, और स्टैलिन जैसे हिंसक पशुओं में खोजकर नहीं ला सकते। स्टैलिन के पैरेलल, या चंगेज के समानांतर, अगर हम पशुओं के इतिहास से पूछें कि कोई एकाध पशु हुआ, जो हमारे चंगेज खां के मुकाबले हो? तो पशु कहेंगे, हम बहुत दरिद्र हैं। इस मामले में हमारे पास कोई याददाश्त नहीं है।

एक बड़े मजे की बात है कि कोई भी जानवर सजातीय के प्रति हिंसक नहीं होता, सिवाय आदमी को छोड़कर! कोई जानवर अपनी जाति के जानवर को नहीं मारता, हिंसा नहीं करता। इतनी पहचान पशु की हिंसा में भी है। सिर्फ आदमी अकेला जानवर है, जो आदमी को मारता है।

यह भी बड़े मजे की बात है कि हिंदुस्तानी भेड़िये को भी अगर पाकिस्तानी भेड़िये के पास छोड़ दिया जाये, तो नहीं मारेगा। लेकिन हिंदुस्तानी आदमी को पाकिस्तानी आदमी के पास छोड़ना जोखिम से भरा काम है!

भाषाशास्त्री कहते हैं कि शायद भाषा ने गड़बड़ की है। हो सकता है। जो लिंगविस्ट हैं, उनका खयाल सही मालूम होता है। वे यह कहते हैं, चूंकि दोनों भेड़िये भाषा नहीं बोलते–न पाकिस्तानी भेड़िया उर्दू बोलता है, न हिंदुस्तानी भेड़िया हिंदी बोलता है– इसलिए दोनों पहचान नहीं पाते कि हम फारेनर हैं! और कोई कारण नहीं। लेकिन आदमी एक जिले से दूसरे जिले में फारेनर हो जाता है। गुजराती मराठी के लिए फारेनर है, हिंदी बोलनेवाला तमिल बोलनेवाले के लिए फारेनर है। अगर यही सच है, जो भाषाशास्त्री कहते हैं–और मुझे लगता है इसमें सचाई है–तो क्या ऐसा न करना पड़े किसी दिन कि आदमी को मौन हो जाना पड़े, तभी आदमी आदमी हो सके। शायद, मौन हुए बिना इस पृथ्वी पर आदमियत का पैदा होना कठिन होगा।

लेकिन यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि कोई पशु अपनी जाति के पशु पर हमला नहीं करता, पर आदमी करता है! और कोई पशु अकारण कभी नहीं मारता है–यह भी मजे की बात है–सिर्फ आदमी को छोड़कर। अकारण नहीं मारता, अगर कभी मारता भी है, तो उसकी जरूरत होगी। भूख होती है, तो मारता है। रक्षा करनी होती है, तो मारता है। आदमी बेजरूरत मारता है! कोई जरूरत नहीं होती है, तब भी मारता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मारना होता है, इसलिए जरूरत पैदा करता है! बिना मारे नहीं रह सकता, इसलिए जरूरत पैदा कर लेता है। कभी वियतनाम में जरूरत पैदा करता है, कभी कोरिया में जरूरत पैदा करता है, कभी कश्मीर में जरूरत पैदा करता है।

कोई जरूरत नहीं है। न कश्मीर में कोई जरूरत है, न किसी वियतनाम में, न ही किसी कम्बोडिया में। कहीं कोई जरूरत नहीं है। लेकिन आदमी जरूरत पैदा करता है, क्योंकि बिना जरूरत मारेगा, तो जरा ठीक नहीं लगेगा!

आदमी रेशनल है सिर्फ एक अर्थों में कि वह अपनी बेवकूफियों को भी रेशनलाइज करता है, और किसी अर्थ में रेशनल नहीं है। अरस्तू ने जरूर कहा था कि आदमी एक बुद्धिमान प्राणी है, लेकिन आदमी का अब तक का इतिहास सिद्ध नहीं करता। अरस्तू को इतिहास ने गलत सिद्ध किया है। आदमी सिर्फ बुद्धिमानी एक बात में दिखाता है कि अपनी बेवकूफियों को बुद्धिमानी सिद्ध करने की कोशिश करता है। मारता है, तो भी रेशनलाइज कर लेता है। कहता है कि मारना ही पड़ेगा, क्योंकि यह मुसलमान है! मारना ही पड़ेगा, क्योंकि यह हिंदू है! मारना ही पड़ेगा, क्योंकि यह हिंदुस्तानी नहीं, पाकिस्तानी है! जैसे कि किसी का पाकिस्तानी होना मारने के लिए काफी कारण है! काफी हो गई बात कि एक आदमी मुसलमान है, मारो! आदमी कारण खोजता है। यह आदमी पूंजीपति है, मारना पड़ेगा; यह आदमी कम्युनिस्ट है, मारना पड़ेगा! पुराने कारण जरा पिट जाते हैं, बासे हो जाते हैं, तो नये कारण खोजता चला जाता है। नये कारण ईजाद करता है कि अब चलो, पुराना कारण बेकार हुआ, वह खेल बंद करो, नया खेल खेलो! अभी तक बहुत मारे हिंदू-मुसलमान, चलो अब हिंदू-जैन में हो जाये! हिंदू-जैन का न चले तो चलो गरीब-अमीर में हो जाये। आदमी मारना चाहता है, तो कारण खोज लेता है। पशु बिना कारण कभी नहीं मारते।

मैं यह कह रहा हूं कि अगर हम आदमी की हिंसा को समझें, तो हम पायेंगे कि अगर आदमी हिंसक होता है, तो यह उसका चुनाव है। और इसलिए आदमी इतना हिंसक हो सकता है, जितना कोई पशु नहीं हो सकता। क्योंकि पशु का हिंसक होना सिर्फ स्वभाव है–वह उसका चुनाव नहीं है–इसलिए नादिरशाह उसमें पैदा नहीं हो सकता। इसलिए उसमें महावीर भी पैदा नहीं हो सकते। क्योंकि अहिंसा का भी उसे कोई चुनाव नहीं है। आदमी को अहिंसा का भी चुनाव है।

हमने अगर नादिरशाह, स्टैलिन और माओ की खाइयां देखी हैं, तो हमने महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट की ऊंचाइयां भी देखी हैं। वे दोनों हमारी संभावनाएं हैं। खाइयां, हमारे अतीत का स्मरण है; ऊंचाइयां, हमारे भविष्य की आकांक्षाएं हैं। और शेष अब कल बात करेंगे!

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे मैं बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं,

मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

 


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ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍हीं चदरिया–(पंच महाव्रत) प्रवचन–7

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ब्रह्मचर्य—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 11 नवंबर 1970,

क्रास मैदान, बंबई

प्रश्नोत्तर :

आचार्य श्री, आपने कहा है कि आत्म-अज्ञान ही हिंसा का स्रोत है और कल आपने कहा कि हिंसा-वृत्ति के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेदार है, तो क्या आत्म-अज्ञान के लिए भी मनुष्य स्वयं जिम्मेदार है? क्यों और कैसे, इसे स्पष्ट करें।

 अंधेरी रात हो अमावस की, और कोई अपनी गुहा में बैठा हो अंधकार में डूबा हुआ, तो आंखें बंद रखे या आंखें खुली रखे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आंखें बंद हों, तो भी अंधकार होगा; और आंखें खुली हों, तो भी अंधकार होगा। लेकिन फिर सुबह हो जाये, सूर्य निकल आये, सूर्य की किरणों का जाल उस गुहा के द्वार पर फैल जाये, पक्षी गीत गाने लगें; और फिर भी वह आदमी अपनी आंखें बंद किए बैठा रहे, तो फर्क पड़ता है।

रात के अंधकार में आंखें बंद थीं या खुली थीं, इससे कोई अंतर न पड़ता था। और रात के अंधकार की कोई भी जिम्मेवारी उस गुहा में बैठे हुए आदमी की न थी। अंधकार था; वह स्थिति थी। लेकिन सुबह जब सूरज निकल आया हो, तब भी अगर वह आदमी आंखें बंद किए बैठा रहे, तो जो अंधकार उसे दिखायी पड़ेगा, वह उसकी अपनी जिम्मेवारी होगी। वह चाहे तो आंख खोल सकता है और अंधकार से मुक्त हो सकता है।

पशु का जीवन, अमावस की अंधेरी रात जैसा जीवन है। आत्म-ज्ञान की वहां संभावना नहीं है। पशु को कोई बोध नहीं है, स्वयं के होने का; और कोई विकल्प भी नहीं है, कोई स्वतंत्रता भी नहीं है कि वह स्वयं को जान सके। वह संभावना ही नहीं है। इसलिए पशु को आत्म-अज्ञान के लिए जिम्मेवार नहीं कहा जा सकता। वह अंधेरी रात में है और अंधेरे के लिए जिम्मेवार नहीं है।

इसलिए पशु अगर आत्म-ज्ञान न खोजे, तो उसे दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन आदमी पशु की यात्रा से उस जगह प्रवेश कर गया है, चेतना के उस लोक में जहां सूर्य का प्रकाश है। और अब भी अगर कोई आदमी अंधेरे में है, तो उसकी जिम्मेवारी सिवाय उसके और किसी पर नहीं हो सकती।

हम यदि आत्म-अज्ञानी हैं, तो अपनी आंखें बंद रखने के कारण हैं; वह हमारी स्थिति नहीं है, वह हमारा चुनाव है। प्रकाश चारों तरफ मौजूद है। आदमी उस जगह खड़ा हो गया है विकास के दौर में, जहां से वह स्वयं को जान सकता है। अगर नहीं जानता है, तो स्वयं के अतिरिक्त और कौन जिम्मेवार होगा?

इसका यह अर्थ नहीं कि मैं कह रहा हूं, वह आत्म-अज्ञान का पैदा करनेवाला है। नहीं, आत्म-अज्ञान तो है; लेकिन आदमी उसका विध्वंस नहीं कर रहा है, तो भी जिम्मेवारी उसकी है। वह आत्म-अज्ञान को पैदा करनेवाला नहीं है, लेकिन विध्वंस करनेवाला बन सकता है और नहीं बन रहा है। इसलिए रिस्पांसबिलिटि, जिम्मेवारी आदमी की है।

आदमी आत्म-अज्ञानी हो तो यह उसका अपना ही निर्णय है। आंख उसने ही बंद रखी है। रोशनी की अब कोई कमी नहीं है।

सार्त्र का एक बहुत प्रसिद्ध वचन मुझे स्मरण आता है, प्रसिद्ध भी और अनूठा भी। सार्त्र का वचन है: मैन इज कंडेम्ड टु बी फ्री, आदमी स्वतंत्र होने को विवश है; मजबूर है। सिर्फ एक स्वतंत्रता आदमी को नहीं है, बाकी सब स्वतंत्रताएं उसे हैं। चुनाव करने के लिए आदमी मजबूर है। सिर्फ एक चुनाव आदमी नहीं कर सकता। वह इतना भर नहीं चुन सकता कि “चुनाव न करना’ चुन ले। यह भर नहीं चुन सकता। ही कैन नाट चूज नाट टु चूज, बाकी तो उसे सब चुनाव करना ही पड़ेगा। इसलिए “न करने’ की बात नहीं चुन सकता, क्योंकि यह भी चुनाव ही होगा।

आदमी को प्रतिपल चुनना ही पड़ेगा; क्योंकि आदमी चुनाव की एक यात्रा है, पशु चुनाव की यात्रा नहीं है। पशु जो है, वह है। और अगर पशु जैसा भी है उसकी जिम्मेवारी किसी पर होगी तो परमात्मा पर होगी। आदमी परमात्मा की जिम्मेवारी के बाहर है। पशु के होने की जिम्मेवारी परमात्मा पर होगी। पशु जैसा है, है। वृक्ष जैसे हैं, हैं। उनको हम दोषी नहीं ठहरा सकते और न ही हम उन्हें प्रशंसा के पात्र बना सकते हैं। पर आदमी बाहर हो गया है उस वर्तुल के, जहां से वह चुनाव के लिए स्वतंत्र है।

अब अगर मैं आत्म-अज्ञानी हूं, तो यह मेरा चुनाव है; और आत्म-ज्ञानी हूं, तो यह मेरा चुनाव है। अब अगर मैं दुखी हूं, तो यह मेरा चुनाव है; और आनंदित हूं, तो यह मेरा चुनाव है। आंखें खुली रखूं या बंद, यह मेरा चुनाव है। चारों ओर प्रकाश मौजूद है। अब अंधकार में रहना मेरे हाथ की बात है, और प्रकाश में रहना भी मेरे हाथ की बात है।

इसलिए मैंने कहा कि आत्म-अज्ञान के लिए भी मनुष्य जिम्मेवार है। अब मनुष्य अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकता। अब वह प्रतिपल ज्यादा से ज्यादा जिम्मेवार होता चला जायेगा। मनुष्य की यह जिम्मेवारी ही, उसकी गरिमा और गौरव भी है; यही उसकी मनुष्यता भी है। यहीं से वह पशुता के बाहर निकलता है।

इसलिए यह भी मैं आपसे कहना चाहूंगा कि जिन चीजों में हम बिना चुनाव किये बहते हैं, उन चीजों में हम पशु के तुल्य ही होते हैं।

यह भी बहुत मजे की बात है कि हिंसा आमतौर से हम चुनते नहीं, अतीत की आदत के कारण करते चले जाते हैं। अहिंसा चुननी पड़ती है। इसलिए अहिंसा एक उत्तरदायित्व है और हिंसा एक पशुता है। अहिंसा मनुष्यता की यात्रा पर एक मंजिल है, हिंसा सिर्फ पुरानी आदत का प्रभाव है।

मैंने निश्चित ही कहा है कि हिंसा आत्म-अज्ञान से पैदा होती है। और इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। आत्म-अज्ञान भी हमारा चुनाव है, हिंसा भी हमारा चुनाव है। हम होना चाहें अहिंसक, तो अब कोई हमें रोक नहीं सकता। मनुष्य जो भी होना चाहे, हो सकता है। मनुष्य का विचार ही उसका व्यक्तित्व है; उसका निर्णय ही, उसकी नियति है; उसकी आकांक्षा ही, उसकी अभीप्सा ही, उसका आत्मसृजन है।

इसलिए अब कोई आदमी अपने मन में यह कभी भूल कर भी न सोचे कि वह जो है, उसमें वह क्या कर सकता है? क्रोध है, तो क्या कर सकता है? हिंसा है, तो क्या कर सकता है? अज्ञान है, तो क्या कर सकता है? आदमी को यह कहने का हक नहीं है। जैसे ही आदमी कहता है कि मैं क्या कर सकता हूं, वह यह खबर दे रहा है कि कर सकता है, और अपने को समझाने की कोशिश कर रहा है कि क्या कर सकता हूं! कोई पशु नहीं कहता कि मैं क्या कर सकता हूं? यह सवाल ही नहीं है।

आदमी जिस दिन कहता है, मजबूरी है, मैं क्या कर सकता हूं? हिंसक मुझे होना ही पड़ेगा! उस दिन वह यह कह रहा है कि मैं चुन भी रहा हूं और चुनाव की जिम्मेवारी भी छोड़ रहा हूं। मैं हिंसक हो भी रहा हूं और हिंसक होने का दोष किसी और के कंधों पर–प्रकृति के, परमात्मा के कंधों पर छोड़ रहा हूं।

जिस आदमी ने अपनी आदमियत का बोझ किसी और पर छोड़ा, वह पशुता की दुनिया में वापस गिर जाता है। असल में वह आदमी होने से इनकार कर रहा है। जो आदमी चुनने से इनकार कर रहा है, वह आदमी होने से इनकार कर रहा है। वह यह कह रहा है कि नहीं, हम पशु बेहतर–जहां न कोई चुनाव है, न कोई जिम्मेवारी है, न कोई निर्णय है, न कोई परेशानी है। जो है, वह है। हम वापस लौटते हैं।

शराब पीकर आदमी पशु में वापस लौट जाता है। हिंसा करके आदमी पशु में वापस लौट जाता है। क्रोध करके आदमी पशु में वापस लौट जाता है।

इसलिए क्रोध से भरे व्यक्ति को अगर देखें तो उसमें सिर्फ आदमियत की रूपरेखा भर दिखाई पड़ती है, आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। हिंसा से भरी हुई आंखें देखें, तो उसमें आदमी की आंखें नहीं दिखाई पड़तीं, तत्काल आंखों में एक मेटामार्फोसिस हो जाती है। आंखें बदल जाती हैं। भीतर से कोई छिपा हुआ पशु तत्काल प्रगट हो जाता है। इसलिए क्रोध में, हिंसा में आदमी पशु जैसा व्यवहार करता है; काटता है, चीखता है, नोचता है।

आदमी के नाखून छोटे पड़ गए हैं, क्योंकि उनकी बहुत जरूरत नहीं रह गई है। जंगली जानवर के पास नाखून हैं, जो आपकी हड्डियों तक के मांस को बाहर खींच लायें। लाखों वर्षों से आदमी को अब किसी की हड्डियों तक के मांस को खींचने की जरूरत नहीं रह गई, तो नाखून छोटे हो गए हैं। तो फिर आदमी को छुरी, भाले, बर्छियां बनानी पड़ी हैं। वे सब्स्टीटयूट हैं, जिनसे वह जानवर का काम ले लेता है। क्योंकि नाखून उसके पास छोटे पड़ गये हैं। दांत उसके अब ऐसे नहीं रहे कि वे किसी के मांस को काटकर बाहर निकाल लें, तो उसने हथियार, औजार बनाए; गोलियां बनाई हैं जो आदमी की छाती में धंस जायें।

आदमी ने जितने अस्त्र-शस्त्र खोजे हैं, वह अपनी खो गई पशुता को सब्स्टीटयूट करने के लिए, परिपूरक करने के लिए खोजे हैं। जो जानवरों के पास है वह हमारे पास नहीं है, तो हमें बनाना पड़ा है।

निश्चित ही, जब हमने बनाया है तो जानवरों से बेहतर बना लिया है।

किस जानवर के पास एटम-बम है? किस जानवर के पास सैकड़ों मील दूर बम फेंकने के उपाय हैं? नहीं, जानवर के पास बड़े प्रकृति-प्रदत्त साधन हैं। और आदमी ने अपनी सारी बुद्धिमत्ता का उपयोग करके–करोड़ों जानवरों को इकट्ठा करके भी जो न हो सके, वह एक आदमी कर सकता है। यह आदमी का अपना चुनाव है।

जिस दिन किसी आदमी को यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ जाती है कि जो भी मैं हूं, उसकी जिम्मेवारी मेरी है, उसी दिन से परिवर्तन और रूपांतरण शुरू हो जाता है। जिस आदमी की जिंदगी में अभी यह खयाल है कि जो मैं हूं, हूं; उसमें मेरा कोई वश नहीं, उस आदमी की जिंदगी में धर्म के मंदिर का द्वार कभी भी नहीं खुल सकता।

उत्तरदायित्व मेरा है, और मैं ही निर्णायक हूं अपनी नियति का, इस बात का बोध मनुष्य की जिंदगी को परिवर्तित करता है।

इसलिए मैंने कहा कि आत्म-अज्ञान के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेवार है। जिम्मेवार इन अर्थों में कि वह तोड़ सकता है, और नहीं तोड़ रहा है; मिटा सकता है, और नहीं मिटा रहा है; मुक्त हो सकता है, और नहीं मुक्त हो रहा है।

आचार्य श्री, कृपया समझाएं कि ध्यान-साधना में हिंसक-वृत्तियों का विसर्जन और उदात्तीकरण अर्थात डिजोल्यूशन और सब्लीमेशन किस प्रकार घटित होता है?

हिंसा की वृत्ति अकेली वृत्ति ही नहीं है, हिंसा की वृत्ति के साथ हिंसा के अनेक वेगों का दमन भी संयुक्त है, सप्रेशन भी संयुक्त है। हिंसा की वृत्ति तो है ही, हिंसा करने की आकांक्षा भी है। लेकिन हजार मौकों पर हिंसा करने का उपाय नहीं होता है। हिंसा करना चाहते हैं और नहीं कर पाते हैं। क्योंकि संस्कृति है, सभ्यता है, जीवन की व्यवस्था है, परिस्थितियां हैं, प्रतिकूलताएं हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने किसी क्षण में किसी दूसरे को मार डालने का विचार न किया हो! ऐसा आदमी भी खोजना मुश्किल है, जिसने किसी क्षण में अपने को ही मार डालने का विचार न किया हो! दिन में न किया होगा, तो रात सपने में किया होगा। लेकिन सभी आदमी दूसरों को मार नहीं डालते, और सभी आदमी आत्महत्याएं नहीं कर लेते। सोचते हैं, प्रतिकूलताएं हैं…संभव नहीं हो पाता।

और जब एक बार हिंसा का भाव मन में उठ जाये और प्रगट न हो पाए, तो हिंसा की वृत्ति तो रहती ही है, हिंसा के भाव का वेग भी दमित हो जाता है। यह भी इकट्ठा होने लगता है। हिंसा की वृत्ति तो भीतर बनी ही रहती है, और न की गई हिंसा की, की गई भावनाएं भी संग्रहीत होती चली जाती हैं। एक जन्म की नहीं, अनेक जन्मों की भी इकट्ठी हो जाती हैं। उस संग्रह को भी हम अपने साथ लेकर चल रहे हैं। वृत्ति तो साथ है ही, दबाए हुए वेग भी साथ हैं। इधर वृत्ति रोज नये वेग पैदा करती है और उधर पुराने वेगों का संग्रह बढ़ता चला जाता है। और किसी भी क्षण विस्फोट हो सकता है।

इसलिए हिंसा की वृत्ति से जो मुक्ति है, उस मुक्ति के लिए दो बातें समझ लेनी जरूरी है: हिंसा की वृत्ति का तो विसर्जन होना ही चाहिए, हिंसा के दबे हुए, दबाए गए वेगों का विसर्जन भी जरूरी है। हिंसा की वृत्ति मिटेगी, तो मैं आने वाले भविष्य में हिंसा के वेगों को पैदा नहीं करूंगा, लेकिन मैंने जो अतीत में वेग दबाये हैं, उनका विसर्जन, उनका रेचन, उनकी कैथार्सिस भी होनी जरूरी है।

महावीर ने बहुत सुंदर शब्द कैथार्सिस के लिए प्रयोग किया है। पश्चिम में मनसशास्त्री जिसे कैथार्सिस कहते हैं, रेचन कहते हैं, महावीर ने उसे “निर्जरा’ कहा है। वह बहुत अदभुत शब्द है।

निर्जरा का अर्थ है, विदरिंग अवे। निर्जरा का अर्थ है, किसी चीज का झड़ जाना। कोई चीज जो इकट्ठी है, उसका बिखर जाना। निर्जरा का अर्थ है, अगर ऊपर धूल इकट्ठी हो गई है, तो धूल के कणों को फेंककर अलग कर देना।

बहुत वेग हमारे भीतर इकट्ठे हैं। ध्यान में इनकी निर्जरा, इनकी कैथार्सिस की जा सकती है; और सिर्फ ध्यान में ही की जा सकती है। और कोई उपाय मनुष्य के दबे हुए वेगों की निर्जरा का नहीं है।

ध्यान में कैसे की जा सकती है?

जब आपके मन में किसी को घूंसा मारने की इच्छा पैदा होती है, तब आप एक छोटा सा प्रयोग करके देखेंगे और बहुत हैरान होंगे और यह प्रयोग मैं मजाक में नहीं कह रहा हूं। अमेरिका में एक बड़ी वैज्ञानिक प्रयोगशाला इस प्रयोग को आज कर रही है।

केलिफोर्निया में एक संस्था है, इसालेन इंस्टीटयूट। शायद अमेरिका में एक बहुत कीमती ऋषि आज मौजूद है। उसका नाम है, पर्ल्स। वह जिन लोगों के मन में बड़ी हिंसा है, उनकी आंखों पर पट्टियां बंधवा देता है, तकिए उनके सामने रख देता है, और कहता है, मारो घूंसे और समझो कि दुश्मन सामने है। जिसे तुम्हें मारना है, उसी को मारो!

पहले तो आदमी हंसता है कि तकिए को कैसे मारें! लेकिन किसी दूसरे आदमी को मारने में और तकिए को मारने में हाथ को कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। और किसी आदमी को मारने में और किसी तकिए को मारने में, खून में जो विष पैदा हो गया है, उसके निकलने में भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। दूसरा आदमी भी तकिए से ज्यादा और क्या है?

तो पर्ल्स अपने हिंसक मरीज को कहेगा कि मारो तकिए को!

पहले मरीज हंसेगा, लेकिन पर्ल्स कहेगा, हंसो मत, मारो! मरीज कहेगा, आप भी क्या मजाक करते हैं! लेकिन पर्ल्स कहेगा, थोड़ा मजाक ही सही, लेकिन मारो! मरीज तकिए को मारना शुरू करेगा और थोड़ी ही देर में आस-पास खड़े लोग देखकर हैरान होंगे कि न केवल मारने में उसकी गति आ गई, न केवल वह तकिए से जूझने लगा, न केवल तकिए से वह दुश्मनी निकाल रहा है, बल्कि वह तकिए को चीरेगा, फाड़ेगा, मुंह से काट डालेगा; तकिए के टुकड़े-टुकड़े कर देगा! और जिन लोगों को भी इन प्रयोगों से गुजरना पड़ा है, वे प्रयोग के बाद कहते हैं कि मन बहुत हल्का हो गया है। इतना हल्का कभी भी नहीं था।

ये पर्ल्स क्या कह रहा है? ये यह कह रहा है कि तुमने अब तक हिंसा सकारण निकाली है, किसी पर निकाली है। अब तुम हवा में निकाल लो, किसी पर मत निकालो; क्योंकि जब भी किसी पर निकाली जायेगी, तो उसकी प्रतिक्रियाएं होंगी।

अगर मैं किसी को घूंसा मारूंगा, तो यह घूंसा आकाश में खो नहीं जायेगा, अंतरिक्ष इसको एबजार्ब नहीं कर लेगा। जिसको घूंसा मारूंगा, वह इसका उत्तर देगा। आज देगा, कल देगा, परसों देगा–प्रतीक्षा करेगा, लेकिन उत्तर देगा। और जब मैं किसी को घूंसा मारूंगा, तो हो सकता है वह बुद्ध जैसा, महावीर जैसा कोई आदमी हो, और उत्तर न भी दे, तो भी जैसे ही मैं किसी को घूंसा मारूंगा, तो मेरे मन में भी प्रतिक्रिया और पश्चाताप होगा।

और ध्यान रहे! क्रोध ही बुरा नहीं है, पश्चात्ताप भी उतना ही बुरा है। क्योंकि पश्चात्ताप उल्टा हो गया क्रोध है, पश्चात्ताप शीर्षासन करता हुआ क्रोध है। पश्चात्ताप भी उतना ही बुरा है। असल में पश्चात्ताप करके आदमी फिर से क्रोध करने की तैयारी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करता है। जब एक आदमी रिपेंट करता है और कहता है, बहुत बुरा हुआ कि मैंने क्रोध किया, तब वह अपने मन को यह समझा रहा है कि मैं इतना बुरा आदमी नहीं हूं, एक बुरा काम हो गया है, यह दूसरी बात है।

पश्चात्ताप करके वह अपने अच्छे आदमी को वापस पुनर्स्थापित कर रहा है। वह रीइस्टेबलिश कर रहा है अपनी पुरानी इज्जत को, अपनी ही आंखों में। और जैसे ही वह पुनर्स्थापित हो जायेगा, कल फिर घूंसा मारने के लिए तैयार हो जायेगा। परसों फिर पश्चात्ताप, फिर घूंसा। क्रोध और पश्चात्ताप का एक दुष्ट-चक्र घूमता रहेगा।

और जब हम किसी व्यक्ति को घूंसा मारते हैं, तो न केवल पश्चात्ताप होता है, बल्कि वह घूंसे का उत्तर देगा, इसकी पुनः तैयारी भी शुरू हो जाती है। इसलिए हिंसा फिर एक दुष्ट-चक्र बन जाती है, जिसके बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है।

लेकिन तकिए को अगर एक आदमी घूंसा मार रहा है, तो ऐसा कुछ भी नहीं घटता। तकिए को घूंसा मारने में निर्जरा हो रही है। पर्ल्स तकिए को घूंसा मारने को कह रहा है, क्योंकि जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, वह बहुत आब्जेक्टिव हो गई है। महावीर पच्चीस सौ साल पहले थे। वे कहते, हवा में ही घूंसा मार दो, तकिए की क्या जरूरत है? लेकिन हम कहेंगे, हवा में घूंसा? तकिए को तो फिर भी मारने जैसा लगता है। वह कम से कम आदमी की पीठ जैसा लगता है, पेट जैसा लगता है! तकिए को घूंसा छुयेगा तो ऐसा ही लगेगा कि किसी को छुआ, थोड़ा-सा तो तकिया भी उत्तर देगा।

दुनिया पच्चीस सौ साल में महावीर के बाद वस्तुगत हो गई है। महावीर ने जिस ध्यान की बात की है, उस ध्यान में तकिए की भी कोई जरूरत नहीं है। मैं भी जिस ध्यान की बात करता हूं, उसमें भी तकिए की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन शायद अमेरिका में तकिए के बिना घूंसा मारना और भी मुश्किल हो जायेगा। वस्तुगत कुछ तो होना ही चाहिए। आदमी न सही, तो तकिया ही सही।

महावीर तो तकिए को भी मारने को मना करेंगे। वे तो कहेंगे…पर्ल्स को वे तो कहेंगे, इसमें भी थोड़ी-सी हिंसा हो रही है। यह आदमी तकिए में अपने दुश्मन को प्रोजेक्ट कर रहा है। कोई दुश्मन नहीं है, जिसको चोट पहुंच रही है, लेकिन इस आदमी को किसी को मारने का मजा और रस आ रहा है। यह रस भी हिंसा की धारा को थोड़ा-बहुत जारी रखेगा। इससे हिंसा की पूर्ण निर्जरा नहीं हो जायेगी।

इसलिए पर्ल्स की लेबोरेटरी से गए लोग दो-चार-छह महीने बाद फिर वापस आ जाएंगे और कहेंगे कि हिंसा फिर मन में इकट्ठी हो गई। अब फिर उनको तकिया चाहिए और फिर उनको मारना पड़ेगा।

ध्यान की प्रक्रिया कहती है कि आप किसी की फिक्र छोड़ दें, सब्जेक्टिव वायलेंस कर लें। सब्जेक्टिव वायलेंस का मतलब अपने साथ हिंसा करना नहीं है। सब्जेक्टिव वायलेंस का मतलब है, सिर्फ हिंसा को हो जाने दें–बिना किसी आब्जेक्ट के, बिना किसी विषय के, बिना किसी वस्तु के।

एक आदमी अगर ध्यान में चीख मारकर चिल्लाये, घूंसे मारे, नाचे, कूदे, तो उसके भीतर जो हिंसा के दबे हुए वेग हैं, उनकी निर्जरा होती है। वे गिर जाते हैं। एक घंटे भर के किसी भी दिन के प्रयोग के बाद आप इस बात का अनुभव कर सकते हैं कि आपके भीतर के दबे हुए वेग उड़ गए, आप हल्के होकर कमरे के बाहर आ गए। उस दिन दिनभर आप क्रोध न कर पायेंगे, उतनी आसानी से जितनी आसानी से कल किया था। उतनी आसानी से किसी को घूंसा न बांध पायेंगे, जितनी आसानी से सदा बांधा था। वे ही कारण, जो कल आपकी आंखों को लाल खून से भर देते, आज आपकी आंखों को झील की तरह नीला ही छोड़ जायेंगे। और एक हंसी भी अपने पर आनी शुरू होगी कि जिस हिंसा की ऐसे ही निर्जरा हो सकती थी, उसके लिए अकारण ही मैंने दूसरों को पीड़ा देकर दुष्ट-चक्र निर्मित किये, विसीयस सर्किल बनाए।

महावीर एक गांव के पास खड़े थे और कुछ लोगों ने आकर उन्हें बहुत पीटा। किसी ने उनके कान में खीलें ठोंक दीं। वे खड़े देखते रहे। पीछे किसी ने उनसे पूछा, आपने कुछ भी न कहा? आप कुछ तो बोलते, इतना तो कहते कि अकारण मुझे क्यों मार रहे हो?

तो महावीर ने कहा, अकारण वे नहीं मार रहे थे। उनके भीतर मारने की बात का जरूर ही कोई कारण रहा होगा। हो सकता है, मुझसे संबंधित न हो कारण, लेकिन उनके भीतर तो कारण रहा ही होगा। और फिर मैंने सोचा कि वे मुझे ही मार लें तो बेहतर है, वे किसी दूसरे को मारेंगे, तो बिना मार का उत्तर पाए वापस न लौटेंगे। उनकी हिंसा की निर्जरा हो जाये। तो मुझसे बेहतर आदमी उन्हें खोजना मुश्किल है।

महावीर तकिए की तरह ही व्यवहार किये उन लोगों के साथ।

ध्यान में, दबे हुए समस्त-वेगों की निर्जरा होती है–वे चाहे हिंसा के हों, चाहे क्रोध के हों, चाहे काम के हों, चाहे लोभ के हों–ध्यान में समस्त दबे वेगों की निर्जरा होती है। और जब वेगों की निर्जरा हो जाये, जब सप्रेस्ड, दबी हुई शक्तियां बिखर जायें, तो वृत्ति से छुटकारा पाने में बड़ी आसानी हो जाती है। जब किसी के घर की तिजोरी का सारा धन फिंक जाये, तो तिजोरी को फेंकने में बहुत देर नहीं लगती। तिजोरी को तो आदमी बचाता ही इसलिए है कि उसके भीतर जो धन इकट्ठा है। अगर तिजोरी का सारा धन बांट दिया गया हो, तो तिजोरी को दान करने में बहुत कठिनाई नहीं पड़ती।

हिंसा की वृत्ति से छुटकारा पाना उतना कठिन नहीं पड़ेगा। हिंसा के वेग, जो हिंसा की वृत्ति को तिजोरी बनाकर बैठ गए हैं, उनसे छुटकारा पाना ही पहला सवाल है। और जिस दिन सारे वेग मुक्त हो जाते हैं, उस दिन हिंसा अपनी नग्नता में, अपनी टोटल नेकेडनेस में दिखाई पड़ती है। और जब कोई व्यक्ति हिंसा को उसकी पूरी नग्नता में देखने में समर्थ हो जाता है, तो वह एक क्षण भी हिंसक नहीं रह सकता। क्योंकि हिंसा को उसकी पूरी नग्नता में देखना, उससे मुक्त हो जाना है। वह इतनी पीड़ा है, वह इतनी कुरूपता है, वह इतनी गंदगी है, कि उसमें कोई एक क्षण भी रुकने को राजी नहीं होगा। वह ऐसा ही है हिंसा को उसकी पूरी नग्नता में देखना, जैसे किसी के घर में आग लग गई हो, और लपटों में घर घिर जाए, और फिर कोई आदमी जब लपटों को देख ले, तो एक क्षण भी उस घर में रुकना संभव न हो। वह छलांग लगाये और बाहर निकल जाये। ठीक ऐसे ही हिंसा की लपटों में घिरा आदमी बाहर कूद पड़ता है। लेकिन हिंसा की लपटें दिखाई नहीं पड़तीं, क्योंकि हिंसा की वृत्ति और स्वयं के बीच में न-मालूम कितनी पर्तें हैं दबे हुए वेगों की। उन वेगों के कारण हिंसा की वृत्ति का दर्शन नहीं हो पाता। उसके कारण नेकेड वायलेंस दिखाई नहीं पड़ती। उसके कारण हमेशा ही हमें यही दिखाई पड़ता है कि हिंसा भी हमारी मित्र है, क्योंकि हिंसा का हमें उपयोग करना है। कल कोई दुश्मन होगा, कल कोई हमला करेगा, तो जवाब कैसे देंगे? वे जो बीच में दबे हुए वेग हैं, उनकी लंबी धुएं की पर्तों के कारण हिंसा की नग्नता दिखाई नहीं पड़ती।

ध्यान, वेगों से मुक्ति दिलाकर हिंसा का आमना-सामना, एनकाउंटर करा देता है। और जिस आदमी ने भी हिंसा को देख लिया, वह अहिंसक हो गया। जिस आदमी ने भी हिंसा को पहचान लिया, उसके हिंसक होने के फिर उपाय नहीं रह जाते। क्योंकि कोई भी आदमी जान कर नर्क में उतरने को कभी राजी नहीं होता है। और अगर कभी कोई नर्क में उतरता है, तो वह नर्क को स्वर्ग समझकर ही उतरता है। कोई आदमी कभी आग की लपटों में नहीं उतरता और अगर उतरता है तो आग की लपटों को स्वर्ग का द्वार समझकर ही उतरता है।

ध्यान विसर्जन है, निर्जरा है, कैथार्सिस है। ध्यान का अर्थ है: आपके भीतर जो हो रहा है, उसे अकारण प्रकट हो जाने दें–किसी पर नहीं, शून्य में। उसे शून्य को समर्पित कर दें।

अब जब क्रोध आये, तो एक छोटा-सा प्रयोग करके देख लें। जब क्रोध आये, तो द्वार बंद कर लें और खाली कमरे में क्रोधित हो जायें। पूरा क्रोध कर लें खाली कमरे में। बहुत हंसी आयेगी, क्योंकि बड़ा अजीब मालूम पड़ेगा, एबसर्ड मालूम पड़ेगा। सदा क्रोध दूसरों पर किया है, लेकिन एक बार अकेले में करके देख लें और तब दूसरे पर करना मुश्किल होता जायेगा। पहली दफे अकेले में हंसी आयेगी और दूसरी दफे से दूसरे पर करने में हंसी आने लगेगी। क्योंकि जो पागलपन आप अकेले में भी नहीं कर सकते, वह पागलपन आप सबके सामने कैसे कर सकते हैं? और जो पागलपन अकेले में भी हंसी लाता है, वह चार आदमियों के सामने करके लोगों के मन में आपकी क्या तस्वीर बनाता होगा? इसकी कल्पना कमरे में आईना रखकर और दिल खोलकर क्रोध कर के देख लें। तोड़ना ही हो, तो आईने को तोड़ देना। और उस सारे विध्वंस के बीच खड़े होकर देखना कि आपके भीतर किस तरह के जहर हैं! इनकी निर्जरा होगी। इनकी कैथार्सिस होगी। ये गिर जायेंगे। और इनके गिरने के बाद आप अपनी हिंसा को देखने में समर्थ हो सकेंगे।

हिंसा से मुक्ति के लिए हिंसा का दर्शन अनिवार्य है।

आचार्य श्री, आपने कहा है कि काम-क्रीड़ा में सूक्ष्म हिंसा है। लेकिन क्या संभोग दो व्यक्तियों के परस्पर संपर्क से बायोलाजिकल सुख पैदा करने का आयोजन नहीं है? क्योंकि इस घटना के सुख में दोनों भागीदार होते हैं, इसलिए क्या इसमें म्युचुअल, परस्पर सहानुभूति और प्रेम आधार नहीं है?

षभ से लेकर पार्श्व तक, धर्म को चार सूत्र दिए गए थे। कहें कि धर्म का रथ चार पहियोंवाला था। या कहें कि धर्म के पास चार पैर थे। चतुर्यान था धर्म। महावीर ने एक पांचवां सूत्र जोड़ा–ब्रह्मचर्य। महावीर के पहले पार्श्व तक किसी ने ब्रह्मचर्य को धर्म का सूत्र नहीं बताया था।

यह बड़े मजे की बात है और काफी समझ लेने की। यह आश्चर्यजनक मालूम होगा कि ऋषभ से लेकर पार्श्व तक के चिंतकों ने, अनुभवियों ने ब्रह्मचर्य को धर्म का सूत्र नहीं बताया। क्योंकि पार्श्व तक यही समझा जाता रहा कि जो अहिंसा को पा लेगा, उसके जीवन में ब्रह्मचर्र्य अनायास ही उतर जायेगा। क्योंकि काम अपने आप में एक गहरी हिंसा है, सेक्स अपने आप में एक गहरी हिंसा है।

काम को हिंसा क्यों कहा जा सकता है, इस संबंध में दो-चार सूत्र समझ लेने उपयोगी हैं। और महावीर ने क्यों ब्रह्मचर्य को अलग सूत्र दिया, यह भी थोड़ा सोच लेना उचित होगा।

महावीर का नाम अहिंसा के साथ गहराई से जुड़ा है; इतना कोई दूसरा नाम नहीं जुड़ा है। लेकिन आश्चर्य होगा आपको यह जानकर कि महावीर को अहिंसा से ब्रह्मचर्य को अलग कर देना पड़ा। और अलग कर देने का कुल कारण इतना है कि महावीर जिन लोगों के बीच बात कर रहे थे, वे बहुत गहरी अहिंसा समझने में असमर्थ थे, वे बहुत ही उथली अहिंसा समझ पाते थे। इतनी उथली अहिंसा में काम नहीं आता। अहिंसा जब बहुत गहरी होती है, तभी पता चलता है कि काम-वासना भी हिंसा का एक रूप है। लेकिन पार्श्व तक चर्चा नहीं करनी पड़ी, क्योंकि अहिंसा बड़े गहरे अर्थों में ली जाती रही। क्यों? दो तीन बातें हैं।

एक तो जैसा मैंने कहा कि जैसे ही किसी व्यक्ति को दूसरे की चाह पैदा होती है, वह आदमी दुखी है, इसका सबूत हो गया। जैसे ही कोई व्यक्ति कहता है कि मेरा सुख दूसरे से मिलेगा, वैसे ही वह व्यक्ति दुखी है, यह तय हो गया। और जो अपने से भी सुख नहीं पा सका, वह दूसरे से सुख पा सकेगा, यह असंभव है। भ्रम पा सकता है, सुख नहीं पा सकता; धोखा पा सकता है, सत्य नहीं पा सकता; सपने देख सकता है, लेकिन जाग-जागकर रोयेगा।

दूसरे की आकांक्षा ही इस बात का सबूत है कि अभी सुख का सूत्र नहीं मिला। और दूसरे की आकांक्षा के बिना तो काम नहीं हो सकता, सेक्स नहीं हो सकता! वह दूसरे की आकांक्षा में छिपा है। इसलिए भी काम हिंसा है। और इसलिए भी, कि एक व्यक्ति के पास जो वीर्य-कण हैं, वे जीवित हैं।

आज पृथ्वी पर साढ़े तीन अरब लोगों की संख्या है। एक साधारण व्यक्ति के जीवन में जितने वीर्य-कण बनते हैं, उतने वीर्य-कणों से इतनी संख्या पैदा हो सकती है, सारी पृथ्वी की। और एक व्यक्ति जीवन भर इन वीर्य-कणों का काम के लिए उपयोग करता रहता है। संभोग के दो घंटे के भीतर…जितने वीर्य-कण शरीर से बाहर जाते हैं, वे दो घंटे के भीतर मर जाते हैं। अगर एकाध वीर्य-कण स्त्री के अंडे तक पहुंच गया, तो वह नए जीवन की यात्रा पर निकल जाता है, और शेष वीर्य-कण दो घंटे के भीतर मर जाते हैं। एक संभोग में लाखों वीर्य-कण मरते हैं। ये वीर्य-कण बीज-रूप में जीवन हैं। इनमें से प्रत्येक वीर्य-कण एक मनुष्य बन सकता है। इसलिए एक संभोग में लाखों व्यक्तियों की हत्या तो हो ही रही है। यह लाखों व्यक्तियों की हत्या हिंसा है।

तीसरी बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है। जिस एक व्यक्ति के पैदा होने की संभावना है, अहिंसा को जिन्होंने बहुत गहरे जाना है, वे कहेंगे कि जिसको तुमने जन्म दिया, उसे तुमने मरने के लिए पैदा किया है। असल में जन्म, मरने की शुरुआत है। जन्म एक छोर है, मौत दूसरा छोर होगी।

यदि पिता जन्म के लिए ही जिम्मेवार है, तो आधी जिम्मेवारी ही ले रहा है। मरने की जिम्मेवारी किसकी होगी? मां अगर जन्म देने की ही जिम्मेवारी ले रही है, तो आधी जिम्मेवारी ले रही है। मरने की जिम्मेवारी किसकी होगी? यह तो बड़ा बेईमानी का सौदा हुआ कि जन्म की जिम्मेवारी मां ले ले, पिता ले ले, और मरने की…?

असल में जन्म एक छोर है, मौत उसी का ही दूसरा छोर है। इसलिए पूर्ण-अहिंसक चित्त पिता और मां बनने की जिम्मेवारी लेने में असमर्थ होता है। उसका गहरा कारण है। वह किसी की मृत्यु का कारण नहीं बन सकता। जन्म देना, किसी की मृत्यु का कारण बनना है। भले ही सत्तर साल बाद वह मृत्यु हो। इस टाइम गैप से कोई फर्क नहीं पड़ता। समय के अंतराल से कोई फर्क नहीं पड़ता है। तो काम-क्रीड़ा में जो वीर्य-कण दो घंटे बाद मर जायेंगे, वे तो मर ही जायेंगे, जो वीर्य-कण बचेगा, वह भी सत्तर वर्ष बाद, अस्सी वर्ष बाद मर जायेगा।

काम-क्रीड़ा जन्म के रूप में मृत्यु को ही जन्माती चली जाती है। लेकिन जीवन का सारा धोखा यही है कि पहले दरवाजे पर लिखा होता है–जन्म, और पिछले दरवाजे पर लिखा होता है–मृत्यु। जब आप भीतर प्रवेश करते हैं, तो जन्म का दरवाजा देखकर प्रवेश करते हैं; और जब बाहर निकाले जाते हैं, तब मृत्यु के दरवाजे से निकाले जाते हैं। जीवन का धोखा यही है कि पहले दरवाजे पर, एंटें्रस पर लिखा होता है, सुख। और पीछे के दरवाजे पर लिखा होता है, दुख। जब प्रवेश करते हैं, तब सुख की आकांक्षा में, और जब बाहर निकलते हैं, तो फ्रस्ट्रेटेड, दुख से विक्षिप्त और पागल।

मैंने एक मजाक सुना है। मैंने सुना है कि न्यूयार्क में एक आदमी ने बहुत-सी अजीब चीजें इकट्ठी कर ली थीं और एक अजायबघर बना रखा था। लेकिन चीजें इतनी अजीब थीं कि जो भी आदमी अजायबघर में देखने आते थे, वे देखते ही रहते थे, निकलने को राजी नहीं होते थे! और जब तक वे न निकल जायें, तब तक दूसरे लोग टिकट ले कर द्वार पर खड़े रहते, उनके भीतर आने का सवाल न होता। तो बड़ी मुश्किल हो गई थी। आखिर भीतर के लोगों को बाहर निकालना ही पड़ेगा, क्योंकि दरवाजे पर दूसरे लोग दस्तक दे रहे हैं कि उनको भी भीतर आने दिया जाये! और जो भीतर आता वह बाहर निकलता ही नहीं।

तो उन अजीब चीजों को संग्रहीत करनेवाले आदमी ने एक कारीगिरी, एक कुशलता की। शायद वह कुशलता उसने प्रकृति से ही सीखी होगी! कोई दस-बारह कमरे थे उस अजायबघर में। एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने की तख्ती लगी थी और तीर बना था। पहले कमरे पर तीर लगा होता था–और भी अदभुत चीजें हैं–और तीर अगले कमरे में ले जाता था। और बारहवें कमरे पर सबसे बड़ा तीर लगा था और उस पर लिखा था–और भी सबसे अधिक अदभुत चीजें हैं, जो न कभी देखी हैं, न कभी सुनी हैं! और जब आदमी उस कमरे में से निकलता, तो सीधा सड़क पर पहुंच जाता! और पीछे लौटने का उपाय नहीं था। दरवाजे पर संतरी खड़ा था। फिर लौटना हो, तो टिकट लेकर पहले दरवाजे से ही वापस लौटना पड़ता था। जिस दिन से यह तख्ती लगायी गई, उस दिन से उस म्यूजियम में कभी भीड़ नहीं हुई, क्योंकि वह “और भी अदभुत चीजें’ देखने आदमी सड़क पर पहुंच जाता!

जन्म की तख्ती सामने के द्वार पर है, मृत्यु की तख्ती पीछे के द्वार पर है। अहिंसा को जिन्होंने गहरे जीया है, जिन्होंने जाना है, वे यह भी कहेंगे कि जन्म देना भी हिंसा है।

इन तीन कारणों से काम-क्रीड़ा हिंसा का ही एक रूप है। और दुखी मनुष्य–जैसा मैंने पहले कहा–दूसरे से सुख पाना चाहता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि वह दूसरा आदमी जो आपसे काम-क्रीड़ा में संलग्न हो रहा है, वह भी दुखी है, और आपसे सुख पाना चाहता है! ये दो भिखमंगे एक दूसरे से भीख मांग रहे हैं।

मैंने सुना है कि एक गांव में दो ज्योतिषी थे। वे रोज सुबह अपना ज्योतिष का काम करने बाजार जाते थे। और रास्ते में जब भी मिल जाते, तो एक दूसरे को अपना हाथ दिखा लेते थे कि क्या खयाल है, आज धंधा कैसा चलेगा?

हम सारी जिंदगी ऐसा ही कर रहे हैं। सब दुखी हैं और एक दूसरे से सुख मांग रहे हैं। जिससे मैं सुख मांगने गया हूं, वह मुझसे सुख मांगने आया है! स्वभावतः, इन दो दुखी आदमियों का अंतिम परिणाम दुगुना दुख होगा, सुख नहीं। दुख दुगुना हो जायेगा। बल्कि दुगुना कहना ठीक नहीं, क्योंकि जिंदगी में जोड़ नहीं होते, गुणनफल होते हैं। यहां चीजें जुड़ती नहीं, गुणित हो जाती हैं। यहां चार और चार मिलकर आठ नहीं होते, सोलह हो जाते हैं। जिंदगी में जब दो दुखी आदमी मिलते हैं, तो उनका दुख सिर्फ जुड़ नहीं जाता, उनका दुख कई गुना हो जाता है।

मैं दूसरे को दुख देने का कारण बनूं–हिंसा है। और जब तक मैं दुखी हूं, तब तक मेरे सभी संबंध–जो मैं निर्मित करूंगा–दुख देनेवाले ही होंगे। इसलिए अहिंसक कहेगा, जब तक हिंसा है चित्त में, दुख है चित्त में, तब तक संग ही मत बनाओ, संबंध ही मत बनाओ, क्योंकि सब संबंध दुख को ही फैलायेंगे। असंग हो जाओ, संबंध के बाहर हो जाओ! जिस दिन आनंद भर जाये, उस दिन संबंधित हो जाना!

लेकिन कठिनाई यही है जिंदगी की कि जो दुखी हैं, वे संबंधित होना चाहते हैं; और जो आनंदित हैं, उन्हें संबंध का पता ही नहीं रह जाता! ऐसा नहीं कि वे संबंधित नहीं होते, लेकिन उन्हें पता नहीं रह जाता; कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। अगर उनसे लोगों के संबंध भी बनते हैं, तो सदा वन वे ट्रैफिक होते हैं। दूसरे लोग ही उनसे संबंधित होते हैं। वे तो असंग, अनरिलेटेड खड़े रह जाते हैं। दूसरे ही उन्हें छूते हैं, वे दूसरों को नहीं छू पाते। हां, उनका आनंद जरूर जो उनके निकट आता है उन पर बरसता रहता है। वह वैसे ही बरसता रहता है, जैसे सूरज की किरणें बरसती हैं। वह वैसे ही बरसता रहता है, जैसे वृक्षों में खिले हुए फूल बरसते रहते हैं। किसी के लिए नहीं, वृक्ष के पास बहुत हो गए हैं इसलिए ओवर फ्लोइंग है। चीजें बाढ़ में आ गयी हैं और बरसती रहती हैं।

दुखी आदमी संबंध खोजता है, और जिनसे संबंध खोजता है, सिर्फ उन्हें दुखी छोड़ पाता है। किस आदमी ने संबंध बनाकर सुख पाया? किस आदमी ने संबंधित होकर किसी को सुख दिया? कोई नहीं दे पाता है। यह सारी पृथ्वी दुखी लोगों की पृथ्वी है। और यह सारी पृथ्वी दुखी लोगों के प्रयास से–सुख पाने के और सुख देने के प्रयास से–करोड़-गुना दुखी होकर नर्क बन गई है।

काम-क्रीड़ा हिंसा का एक रूप है, क्योंकि दुखी चित्त की खोज है। अहिंसा आनंदित चित्त का बहाव है। हिंसा दुखी चित्त का, विक्षिप्त रोगों का दूसरों में संक्रमण, इनसैक्सन है। इसलिए पार्श्व तक ब्रह्मचर्य को अलग सूत्र ही नहीं गिना।

महावीर को गिनना पड़ा। क्योंकि महावीर जिस समाज में पैदा हुए, वह एक डेकाडेंट सोसाइटी थी। वह एक मरता हुआ समाज था। महावीर जिस समाज में पैदा हुये वह भारत में उन्नति के शिखर पर पहुंचा हुआ समाज था और जब उन्नति के शिखर पर कोई समाज पहुंच जाता है, तो पतन शुरू हो जाता है। सब शिखर पर पहुंचे हुए समाज, पतित होते हुए समाज होते हैं। जैसे अमरीका आज एक डेकाडेंट सोसाइटी है। उसने एक शिखर छू लिया है। अब पतन होगा। सब चीजों में बिखराव होगा। जहां-जहां शिखर छू लिया जायेगा, वहां-वहां बिखराव होगा।

महावीर जिस समय भारत में पैदा हुए, उस समय, विशेषकर बिहार अपनी उन्नति के स्वर्ण-शिखर पर था। सब तरफ स्वर्ण था। सब तरफ उन्नति ऊंचाई पर थी। सब चीजें सड़ रही थीं और गिर रही थीं। इस समाज के बीच महावीर जैसे व्यक्ति को अहिंसा की बात करनी पड़ी। इस बात को बहुत गहरे तक ले जाना मुश्किल था, क्योंकि जो कान थे, वे बहरे थे।

ऋषभ को जो लोग मिले थे वे सीधे-सरल लोग थे। विकासमान समाज था–डिकाडेंट नहीं। इवाल्व हो रहा था। विकसित हो रहा था। लोग बच्चों की तरह भोले थे, सरल थे, सीधे थे। उनसे बहुत गहरी बात की जा सकती थी और वे गहरी बात सुन सकते थे। अभी वे बहरे नहीं हो गए थे। अभी सभ्यता और संस्कृति के शोर ने उनके कानों को फोड़ नहीं डाला था। अभी उनकी आत्माओं में बच्चों की सरलता और ताजगी थी। अभी वहां गीत पहुंच सकते थे। अभी वहां स्वर पहुंच सकते थे। इसलिए उन्होंने ब्रह्मचर्य की बात ही नहीं की। क्योंकि अहिंसा में ही ब्रह्मचर्य अपने आप समाविष्ट हो जाता था।

लेकिन महावीर को सूत्र पांच कर देने पड़े। चार की जगह एक सूत्र और बढ़ाना पड़ा। क्योंकि उन लोगों को यह समझाना मुश्किल हुआ कि अहिंसा इतनी गहरी हो सकती है कि काम, सेक्स भी हिंसा हो जाये। और इसीलिए तो महावीर के आधार पर जो विचार की परंपरा चली, वह परंपरा अहिंसा की उन गहराइयों को नहीं छू पाई, जो ऋषभ और पार्श्व के मन में थीं। महावीर के आधार पर जो विचार चला, वह विचार–चींटी मत मारो, पानी छान कर पीयो, हिंसा मत करो, किसी को मारो मत, दुख मत दो, मांस मत खाओ–इस तरह की ऊपरी अहिंसा बनकर रह गई।

इसके जिम्मेवार महावीर नहीं हैं। महावीर के आस-पास जो लोग थे, जिनसे उन्हें बात करनी थी, वे लोग जिम्मेवार हैं। इसलिए वह परंपरा बहुत साधारण होकर रह गई।

सोचें, कैसे अदभुत लोग रहे होंगे ऋषभ और पार्श्व, जिन्होंने ब्रह्मचर्य की बात ही नहीं की! क्योंकि उन्होंने कहा, अहिंसक हो जाओ, तो ब्रह्मचर्य तो आ ही जायेगा। उसकी कोई अलग से व्यवस्था देने की जरूरत नहीं थी।

कनफ्यूसियस एक बार लाओत्से के पास गया और लाओत्से से उसने कहा, लोगों को धर्म सिखाना पड़ेगा। तो लाओत्से ने कहा कि तुम्हें पता है वह जमाना, जब लोग इतने धार्मिक थे कि धर्म की कोई बात ही नहीं करता था?

धर्म की बात सिर्फ अधार्मिक समाज में करनी पड़ती है। धार्मिक समाज में धर्म की बात करने की कोई भी जरूरत नहीं है। लाओत्से ने कहा, जमाना था जब लोग धार्मिक थे, तब धर्म की बात करनी व्यर्थ थी। क्योंकि जब लोग धार्मिक हों, तो धर्म की बात नहीं करनी पड़ती। बीमार आदमी के सिवाय स्वास्थ्य की चर्चा और कोई भी नहीं करता। बीमार आदमी चौबीस घंटे स्वास्थ्य की चर्चा करता है। अकसर बीमार आदमी खुद ही धीरे-धीरे डाक्टर हो जाते हैं–स्वास्थ्य की चर्चा करते-करते! बीमार आदमी स्वास्थ्य की पत्रिकाएं पढ़ते हैं, नेचरोपैथी की किताबें पढ़ते हैं! बीमार आदमी स्वास्थ्य की बहुत चर्चा करता है, क्योंकि उस बेचारे को बीमारी इतना सचेतन बनाए रखती है कि स्वास्थ्य की चर्चा से मन को भुलाए रखता है। अनैतिक समाज नीति की चर्चाएं करते हैं, कामुक समाज ब्रह्मचर्य की चर्चाएं करते हैं, पतित समाज उत्थान की चर्चाएं करते हैं, गरीब समाज धन की चर्चा करते हैं। जो नहीं होता, हम उसकी ही चर्चा करते हैं।

महावीर के वक्त में हिंसा बहुत थी, अहिंसा बहुत गहरे नहीं जा सकती थी, इसलिए ब्रह्मचर्य की चर्चा अलग करनी पड़ी। ऋषभ को अहिंसा की चर्चा ही काफी हुई। और शायद ऋषभ के पहले अहिंसा की चर्चा की भी जरूरत न रही हो। क्योंकि अहिंसा की चर्चा भी तभी शुरू होती है, जब हिंसा जोर से चित्त को पकड़ लेती है।

इसलिए मैंने कहा कि काम भी हिंसा का एक रूप है, और अकाम अहिंसा का खिल जाना है।

आचार्य श्री, हम एक बड़ी मुसीबत में पड़ गए हैं! और वह मुसीबत हमारे लिए यह है कि अभी तक हमारी यह धारणा रही थी कि सहानुभूति, सिंपैथी ही अहिंसा का एक अंग है। और हम बहुत दिनों से बराबर इसे मानते रहे थे। लेकिन पंच-महाव्रत प्रवचनमाला के अंतर्गत आपने अहिंसा के संदर्भ में बताया कि सहानुभूति में हिंसा छिपी है, क्योंकि इसमें दूसरा मौजूद है। फिर आपने इसको और आगे बढ़ाया और आपने समानुभूति का उदाहरण देते हुए परमहंस स्वामी रामकृष्ण का जिक्र किया। और जिसमें आपने यह भी बताया कि एक किसान पर जब कोड़े लग रहे थे, उस समय उन कोड़ों के निशान स्वामी रामकृष्ण परमहंस की पीठ पर भी दिखाई पड़ रहे थे।

तो ये सहानुभूति और समानुभूति–ये दो चीजें हिंसा-वृत्ति के संदर्भ में क्या इनमें सूक्ष्म भिन्नता है, यह बताने की कृपा करें। और साथ ही साथ यह बताने की कृपा भी करें कि जिसे आपने समानुभूति का नाम दिया है, क्या वह मानसिक तल की घटना है या आध्यात्मिक तल की बात है?

हानुभूति, सिंपैथी साधारणतः बड़ी मूल्यवान और कीमती चीज समझी जाती रही है–है नहीं। सहानुभूति का अर्थ है, कोई आदमी दुखी है और आप उसके दुख में दुख प्रकट करते हैं; दुखी होते हैं। सहानुभूति का अर्थ है, सह-अनुभूति; दूसरे के साथ-साथ अनुभव करना। लेकिन जो आदमी दूसरे के दुख में दुख अनुभव करता है, वह आदमी दूसरे के सुख में कभी सुख अनुभव नहीं कर पाता! अगर किसी के बड़े मकान में आग लग जाये, तो आप दुख प्रगट करते हैं; लेकिन किसी का बड़ा मकान बन जाये, तो सुख नहीं प्रगट कर पाते!

इस बात को समझ लेना जरूरी है। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह हुआ कि सहानुभूति एक धोखा है। सहानुभूति तभी सच्ची हो सकती है, जब दूसरे के दुख में दुख अनुभव हो और दूसरे के सुख में सुख अनुभव हो।

लेकिन दुख में तो दुख अनुभव हम कर पाते हैं या दिखा पाते हैं, सुख में सुख अनुभव नहीं कर पाते। इसलिए, कर पाते हैं, कहना ठीक नहीं होगा, दिखा पाते हैं, कहना ठीक होगा। जब दूसरा दुखी होता है, तो हम दुख प्रगट कर पाते हैं। अगर हम दूसरे के सुख में भी सुखी हो पायें, तब तो हमारा दुख प्रगट करना वास्तविक होगा। अन्यथा दूसरे के दुख में भी हमें थोड़ा-सा रस आता है; दूसरे के दुख में भी हमें थोड़ा मजा आता है; दूसरे के दुख में भी हम रस भोर होते हैं।

इसलिए जब आप किसी दूसरे के दुख में दुख प्रगट करने जायें, तब जरा अपने भीतर टटोलकर देखना कि कहीं आपको मजा तो नहीं आ रहा है! एक तो मजा यह आता है कि हम सहानुभूति प्रगट करनेवाले हैं और दूसरा आदमी सहानुभूति लेने की स्थिति में पड़ गया है। जब कोई दूसरा आदमी सहानुभूति लेने की स्थिति में पड़ जाता है, तो याचक हो जाता है और आप मुफ्त में दाता हो जाते हैं। दूसरा आदमी जब सहानुभूति लेने की स्थिति में पड़ जाता है, तो आप विशेष और वह दीन हो जाता है। और अपने भीतर आप खोजेंगे, तो अपने दुख प्रकट करने में भी आपको एक रस की उपस्थिति मिलेगी। मिलेगी ही! इसलिए मिलेगी, कि अगर न मिले तो आप दूसरे के सुख में भी पूरी तरह सुखी हो पायेंगे।

लेकिन दूसरे के सुख में तोर् ईष्या भर जाती है, जेलसी भर जाती है, जलन भर जाती है!

दूसरा पहलू इस बात की खबर देता है कि दूसरे के दुख में हम दुखी नहीं हो सकते, लेकिन इसी को हम सहानुभूति कहते रहे हैं। इसी को मैं सहानुभूति कहकर बात कर रहा हूं। इसलिए मैंने दूसरा शब्द चुनना उचित समझा, वह है–समानुभूति, एंपैथी।

सहानुभूति एक तो झूठी होती है, वंचना होती है, और अगर हम यह भी समझ लें कि किसी आदमी की सहानुभूति सच्ची ही हो; वह दूसरे के दुख में दुख अनुभव करे और दूसरे के सुख में सुख अनुभव करे, तो भी हिंसा ही रहती है; अहिंसा नहीं हो पाती। झूठी हो, तब तो निश्चित ही हिंसा होती है; सच्ची हो, तब भी हिंसा ही होती है; अहिंसा नहीं हो पाती। क्योंकि जब तक दूसरा मौजूद है, तब तक अहिंसा फलित नहीं होती। अहिंसा अद्वैत की अनुभूति है। अहिंसा इस बात का अनुभव है कि वहां दूसरा नहीं, मैं ही हूं।

जब दूसरा दुखी हो रहा है, तब ऐसा अनुभव हो कि दूसरा दुखी हो रहा है और मैं भी दुख अनुभव कर रहा हूं–यह अगर झूठा है, तब तो हिंसा होगी ही–अगर सच्चा ही है, तो भी मैं मैं हूं और दूसरा दूसरा है; दोनों के बीच का सेतु नहीं टूट गया है; और जहां तक दूसरा दूसरा है, वहां तक अहिंसा संभव नहीं है। दूसरे को दूसरा जानना भी हिंसा है। क्यों? क्योंकि जब तक मैं दूसरे को दूसरा जान रहा हूं, तब तक मैं अज्ञान में जी रहा हूं; दूसरा, दूसरा है नहीं।

समानुभूति का अर्थ है कि दूसरे को दुख हो रहा है, ऐसा नहीं–मैं ही दुखी हो गया हूं। दूसरा सुखी हो गया है, ऐसा नहीं–मैं ही सुखी हो गया हूं। ऐसा नहीं कि आकाश में चांद प्रकाशित हो रहा है–मैं ही प्रकाशित हो गया हूं। ऐसा नहीं कि सूरज निकला है– बल्कि मैं ही निकल आया हूं। ऐसा नहीं कि फूल खिले हैं–बल्कि मैं ही खिल गया हूं।

एंपैथी का अर्थ है, अद्वैत। समानुभूति का अर्थ है, एकत्व। अहिंसा, एकत्व है।

तो ये तीन स्थितियां हुईं: झूठी सहानुभूति, फाल्स सिंपैथी–जो हिंसा है। सच्ची सहानुभूति–जो हिंसा का बहुत सूक्ष्मतम रूप है। और समानुभूति–जो अहिंसा है।

हिंसा हो या हिंसा का सूक्ष्म रूप हो, सच्ची सहानुभूति हो, झूठी सहानुभूति हो, वे सब मानसिक तल की घटनाएं हैं। समानुभूति, एंपैथी आध्यात्मिक तल की घटना है।

मन के तल पर हम कभी एक नहीं हो सकते। मेरा मन अलग है, आपका मन अलग है। मेरा शरीर अलग है, आपका शरीर अलग है। शरीर और मन के तल पर ऐक्य असंभव है–हो नहीं सकता। सिर्फ आत्मा के तल पर ऐक्य संभव है; क्योंकि आत्मा के तल पर हम एक हैं ही।

जैसे एक घड़े को हम पानी में डुबा दें, भर जाये घड़े में पानी, तो घड़े के भीतर पानी और घड़े के बाहर पानी एक ही है। सिर्फ बीच में एक घड़े की मिट्टी की दीवाल है, जो टूट जाये, तो पानी एक हो जाये।

मन और शरीर की एक दीवाल है, जो दूसरे से मिलने से रोकती है, जो दूसरे के साथ एक नहीं होने देती। हम सब घड़े हैं मिट्टी के, चेतना के बड़े सागर में। घड़े तो अलग होंगे, लेकिन घड़े के जो भीतर है, वह अलग नहीं है। और जो अहिंसा को अनुभव करता है, या जो आत्मा को अनुभव करता है, वह अनुभव कर लेता है कि घड़े कितने ही अलग हों, घड़े के भीतर एक ही विराजमान है।

इस एक का अनुभव अहिंसा है। इसलिए इसमें सहानुभूति नहीं हो सकती। सहानुभूति में दूसरा जरूरी है। इसमें समानुभूति हो सकती है। दूसरा इसमें नहीं बचा है।

समानुभूति, चित्त और मन के पार है। वह बियांड माइंड है। वह मन के भीतर और मन के नीचे नहीं–मन के ऊपर और मन के पार है।

यह जो मन के पार घटना घटती है, यही अध्यात्म है। सिर्फ आध्यामिक कह सकता है, वही जो तुम हो, वही मैं हूं। सिर्फ आध्यात्मिक कह सकता है कि सूरज में जो जल रही है ज्योति, वही इस छोटे-से मिट्टी के दीए में भी जल रही है। सिर्फ आध्यात्मिक कह सकता है कि कण में जो है वही विराट में भी है। सिर्फ आध्यात्मिक कह सकता है कि बूंद और सागर एक ही चीज के दो नाम हैं।

समानुभूति का अर्थ है–बूंद और सागर एक हैं। और जिसने एक बूंद को भी पूरा जान लिया, उसे सागर में जानने को कुछ बाकी नहीं रह जाता। एक बूंद जान ली तो पूरा सागर जान लिया। जिसने अपने भीतर की बूंद जान ली, उसने सबके भीतर के सागर को भी जान लिया। फिर वह मरता नहीं। कैसे मरेगा, क्योंकि वह बचा नहीं। फिर वह अहंकार, वह “मैं’ विदा हो गया, क्योंकि कोई “तू’ नहीं मिला कहीं। जब तक “तू’ मिले, तभी तक “मैं’ बच सकता है। जब “तू’ न मिले तो “मैं’ भी नहीं बच सकता। वह “तू’ और “मैं’ की जोड़ी साथ-साथ है।

मार्टिन बूवर ने आई ऐण्ड दाऊ, एक किताब लिखी है। कीमती किताब है। मैं और तू। मार्टिन बूवर के खयाल से जीवन के सारे संबंध मैं और तू के संबंध हैं। लेकिन एक और जगत भी है, जो मैं और तू के बाहर है, बियांड आई ऐण्ड दाऊ। एक और जगत है, वास्तविक जीवन का–संबंधों का नहीं–जीवन-ऊर्जा का, परमात्मा का, जहां मैं और तू नहीं हैं।

बंगाली में एक छोटा-सा नाटक है, जिसमें कथा है कि एक यात्री वृंदावन गया है। रास्ते में, उसके पास जो सामान था, सब चोरी हो गया। पर सोचा उसने, अच्छा ही है कृष्ण के पास खाली हाथ जाऊं, यही उचित है। क्योंकि भरे हाथ को वे भी कैसे भर पायेंगे! अगर कृष्ण से भरना है, तो खाली हाथ ही लेकर जाऊं, यही उचित है। शायद कृष्ण ने ही चोर भेजे होंगे! उसने धन्यवाद दिया और आगे बढ़ गया।

फिर वह मंदिर के द्वार पर पहुंचा, लेकिन द्वारपाल ने उसे रोक लिया और कहा, भीतर न जा सकोगे। पहले सामान बाहर रख दो। तो उसने कहा, अब तो सामान बचा भी नहीं, वह तो कृष्ण के चोर पहले ही छीन चुके।

नहीं, द्वारपाल ने कहा, पहले सामान बाहर रख दो, फिर भीतर जा सकते हो। यहां तो सिर्फ खाली हाथ ही जा सकते हो।

उस आदमी ने अपने हाथ देखे, वे खाली थे। उसने द्वारपाल के सामने हाथ किए, वे खाली थे। द्वारपाल ने कहा, नहीं, भरे हाथ नहीं जा सकते हो।

पर आदमी ने कहा कि मैं तो अब बिलकुल खाली हाथ ही हूं!

उस द्वारपाल ने कहा, जब तक तुम हो, तब तक कैसे खाली हाथ हो सकते हो? जब तक तुम कहते हो, मैं तो बिलकुल खाली हाथ हूं, तब तक तुम खाली हाथ कैसे हो सकते हो? कम से कम “मैं’ तो तुम्हारे हाथों में भरा ही है। इस “मैं’ को बाहर छोड़ दो।

मैं को बाहर छोड़े बिना कोई परमात्मा के मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता। मैं को छोड़कर जो जीता है, वह एंपैथी को, समानुभूति को उपलब्ध होता है। जिसका मैं मर जाता है, उसके लिए, दूसरों को जो हो रहा है वह भी उसे ही हो रहा है। या उसे का भी सवाल नहीं है, बस हो रहा है। कहीं भी कांटा गड़ता है, तो उसकी पीड़ा उसे भी पहुंच जाती है। कहीं आनंद की बांसुरी बजती है, तो वे भी उसके अपने ही स्वर हो जाते हैं। अब कुछ भी पराया नहीं, अब कुछ भी अजनबी नहीं, अब कुछ भी दूसरा नहीं।

समानुभूति अध्यात्म की श्रेष्ठतम ऊंचाई है। सहानुभूति हमारी कामचलाऊ दुनिया की व्यवहारिकता है। उस सहानुभूति में अक्सर तो निन्यान्बे प्रतिशत झूठी होती है सहानुभूति। हम सिर्फ धोखा देते हैं–दूसरों को ही नहीं, अपने को भी। कभी एक प्रतिशत सच होती है, तब भी मैं और तू कायम रह जाते हैं, घड़े मौजूद रहते हैं। शायद झांककर एक घड़े से दूसरे घड़े में हम देख लेते हैं, लेकिन फिर भी दोनों के बीच एक ही है, एक ही प्रवाहित है–इसका कोई पता नहीं चल पाता है।

समानुभूति मैंने उस तत्व को कहा है, जहां एक ही शेष रह जाता है, जहां दूसरा नहीं है। अद्वैत कहें, ब्रह्म कहें, परमात्मा कहें, और कोई नाम दें; अस्तित्व कहें, एक्जिस्टेंस कहें, कोई और नाम दें; एक ही जहां रह जाता है, वहां जीवन अपनी परम ऊंचाइयों पर, अपने पीक एक्सपीरिएंस पर परम अनुभूति को उपलब्ध होता है। गिराना होता है तू को और मैं को।

उस दिन मैंने यह भी कहा कि मैं और तू का संबंध ही हिंसा है। कठिन होगा थोड़ा, क्योंकि मैं और तू के अतिरिक्त हम कोई भी क्षण नहीं जानते। लेकिन थोड़ा प्रयोग करें, तो शायद क्षणों की झलक मिल जाये।

कभी रेत में, नदी के किनारे बैठकर। लेट जायें, दोनों हाथ-पैर पसार कर। छाती में भर लें रेत को। बंद कर लें आंखें। छिपा लें अपने चेहरे को भी रेत में। भूल जायें यह कि आप हैं और रेत है। तोड़ दें वह बीच की जगह, वह फासला जो रेत को आपसे अलग करता है। रेत की ठंडक को प्रवेश कर जाने दें स्वयं में। स्वयं की गर्मी को प्रवेश कर जाने दें रेत में। अनुभव करें कि फैल गए हैं और एक हो गए हैं उस रेत से।

कभी खुले आकाश में हाथ फैलाकर खड़े हो जायें। आलिंगन कर लें खुले आकाश का, शून्य का। कभी घड़ी भर मौन रह जायें खुले आकाश के साथ। छोड़ दें यह खयाल कि शरीर की सीमा पर मैं समाप्त हो जाता हूं। बढ़ायें अपनी सीमा को। हो जाने दें इतनी ही बड़ी, जितनी आकाश की है।

कभी रात के तारों के साथ, लेट जायें जमीन पर। और रात के तारों को आने दें अपने तक। और जाने दें अपने को तारों तक। और भूल जायें कि वहां तारे हैं और यहां आप हैं। तारे और आपके बीच जो लेन-देन रहे, वही बाकी रह जाये। वह जो कम्युनिकेशन हो, वह जो संवाद हो, वही बाकी रह जाये।

तो बहुत जल्दी, बहुत शीघ्र धीरे-धीरे, अचानक जीवन में एक्सप्लोजन होने लगेंगे। और एहसास होने लगेगा कि न तो उस तरफ कोई तू है और न ही इस तरफ कोई मैं है। शायद एक ही है दोनों तरफ। एक के ही बायें और दायें हाथ दो छोरों पर हैं। एक ही हवा की लहर, जो इधर आई थी, उधर चली गई है।

आप जो श्वास ले रहे हैं, मेरे पास आ जाती है, फिर मेरी हो जाती है। और मैं ले भी नहीं पाता कि निकल जाती है और आपकी हो जाती है। अभी वृक्ष लेता था उसे, अभी पृथ्वी लेती थी उसे, अभी आपने लिया था उसे, अभी मैंने लिया उसे!

जीवन एक सतत प्रवाह है, जीवन एक अखंड धारा है। जीवन एक है, लेकिन हम उस एकता का अनुभव नहीं कर पाते; क्योंकि हम सब ने अपने आसपास परकोटे खींचे हैं, हमने अपनी दीवालें बनायी हैं, हमने सब तरफ से अपने को रोका है और सब तरफ सीमाएं बनायी हैं। ये सीमाएं हमारी कल्पित बनाई गई सीमाएं हैं, ये सीमाएं कहीं हैं नहीं। ये सीमाएं हमने बना रखी हैं, ये सीमायें कामचलाऊ हैं, इन सीमाओं का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है।

अगर एक वैज्ञानिक से पूछें, तो वह भी कहेगा, नहीं है; और अगर एक आध्यात्मिक से पूछें, तो वह भी कहेगा, नहीं है। आध्यात्मिक इसलिए कहेगा कि आत्मा के फैलाव को देखा है उसने। और वैज्ञानिक इसलिए कहेगा कि सब सीमाएं खोजीं और सीमाओं को कहीं पाया नहीं उसने।

वैज्ञानिक से पूछें कि आपका शरीर कहां समाप्त होता है? तो वह कहेगा, कहना मुश्किल है। हड्डियों पर समाप्त होता है? हड्डियों पर समाप्त नहीं होता, क्योंकि हड्डियों पर मांस है। मांस पर समाप्त होता है? मांस पर समाप्त नहीं होता, क्योंकि मांस पर चमड़े की पर्त है। चमड़े की पर्त पर समाप्त होता है? चमड़े की पर्त पर समाप्त नहीं होता, क्योंकि बाहर हवा की अनिवार्य पर्त जरूरी है। अगर वह न रह जाये, तो न हड्डी होगी, न मांस होगा। हवा की पर्त पर समाप्त होता है? नहीं, हवा की पर्त तो दो सौ मील पृथ्वी के पूरे होने पर समाप्त हो जाती है। लेकिन अगर सूरज की किरणें इस हवा के पर्त को न मिलती रहें, तो यह हवा की पर्त भी न रह जायेगी। सूरज तो दस करोड़ मील दूर है। तो मेरा शरीर सूरज पर समाप्त होता है? दस करोड़ मील दूर? तो सूरज भी ठंडा पड़ जायेगा अगर महासूर्यों से उसे प्रकाश की किरण निरंतर न मिलती रहे। तो मेरा शरीर समाप्त कहां होता है?

वैज्ञानिक कहता है, सब सीमाएं खोजीं और सीमाओं को नहीं पाया। आध्यात्मिक कहता है, भीतर देखा और असीम को पाया। आध्यात्मिक कहता है, असीम को पाया; वैज्ञानिक कहता है, सीमाओं को नहीं पाया। वैज्ञानिक नकार की भाषा बोलता है, निगेटिव की। वह कहता है, सीमा नहीं है। आध्यात्मिक पाजिटिव की, विधेय की भाषा बोलता है; वह कहता है, असीम है। लेकिन उन दोनों बातों का मतलब एक है। और आज विज्ञान और धर्म बड़े निकट आकर खड़े हो गए हैं। उनकी सारी घोषणाएं निकट आकर खड़ी हो गई हैं। आज वैज्ञानिक नहीं कह सकता कि आपका शरीर कहां समाप्त होता है। यह शरीर वहीं समाप्त होता है, जहां ब्रह्मांड समाप्त होता होगा। इसके पहले समाप्त नहीं होता।

इस अनुभव को मैं समानुभूति कहता हूं, जब तारे दूर नहीं रह जाते, मेरे भीतर घूमने लगते हैं; जब मैं तारों से दूर नहीं रह जाता और उनकी किरणों पर नाचने लगता हूं; और जब सागर की लहरें दूर नहीं रह जातीं, मेरी ही लहरें हो जाती हैं; और जब मैं दूर नहीं रह जाता, सागर की लहरों पर झाग बन जाता हूं; और जब वृक्षों पर खिले फूल मेरे ही फूल होते हैं, और वृक्षों से गिरे सूखे पत्ते मेरे ही सूखे पत्ते होते हैं; तब मैं अलग नहीं रह जाता हूं।

अलग हम हैं भी नहीं। अलग होने से ज्यादा कोई भ्रम नहीं है। सेप्रेटनेस, अलग होने का खयाल सबसे बड़ा इलूजन है, सबसे बड़ा भ्रम है; लेकिन उसे हम पालकर जीते हैं। उपयोगी है, अगर उसे हम न पालें, तो कठिनाई होगी।

आपका धन है, तो उसे मैं मेरा नहीं कह सकता। आपके कपड़े हैं, और उन्हें मैं उतार कर मेरे नहीं बना सकता। जीवन के व्यवहार में आपकी दुकान है, वह मेरी नहीं है; और आपका मकान है, वह मेरा नहीं है। हालांकि आपके घर मेहमान होता हूं तो आप कहते हैं, सब आपका ही है! लेकिन उसको गंभीरता से लेने की कोई भी जरूरत नहीं है।

जीवन के व्यवहार में सीमाएं काम करती मालूम पड़ती हैं, लेकिन जीवन सिर्फ व्यवहार का नाम नहीं है। जीवन सिर्फ दूकान नहीं है; मकान और कपड़े नहीं है। जीवन केवल आजीविका के उपाय नहीं है। जीवन तिजोरियों में नहीं है, वस्त्रों में नहीं है। जीवन बड़ी बात है। जीवन सिर्फ उपयोगिता, युटीलिटी नहीं है। जीवन आनंद भी है। जीवन लीला भी है, जीवन अपार रहस्य भी है। इसलिए जो उपयोगिता को सब मान लेगा, वह मुश्किल में पड़ जायेगा। उपयोगिता में हम बहुत झूठी बातें करते हैं, पर उनसे काम चलता है, चल जाता है; क्योंकि सारी उपयोगिता माने हुए सत्यों पर चलती है।

मैं किसी के घर रुकता हूं, और कहता हूं, पानी का एक गिलास ले आयें। और वह गिलास में पानी ले आता है! अब तक कोई “पानी का गिलास’ लाता हुआ मिला नहीं। काम चल जाता है, पर झूठ है बिलकुल। पानी का गिलास लाइएगा भी कैसे? पानी का गिलास लाया नहीं जा सकता। लेकिन समझें, हम दोनों समझ गए। वह पानी का गिलास तो नहीं लाता–गिलास तो कांच का लाता है, तांबे का लाता है, पीतल का लाता है–उसमें पानी ले आता है। न तो मैं उससे झगड़ा करता हूं कि आपने मेरी बात मानी नहीं, न वह मुझसे झगड़ा करता है कि आप बड़ी आध्यात्मिक भाषा बोल रहे हैं। काम चल जाता है।

लेकिन जिंदगी कामचलाऊ नहीं है, जिंदगी कामचलाऊपन से ऊपर है। हमारी सब भाषा कामचलाऊ है, उससे इशारे हो जाते हैं, गैस्चर्स हैं; और काम चल जाये, बात पूरी हो जाती है। लेकिन जिसने कामचलाऊपन को, व्यवहार को जिंदगी समझ लिया, वह आदमी जिंदगी के बड़े रहस्यों से वंचित रह जाता है। उसके लिए जिंदगी के परम रहस्य के द्वार खुल ही नहीं पाते। उसके लिए जीवन-वीणा का संगीत बज ही नहीं पाता। उसके लिए परमात्मा पुकारता रहता है, उसे उसकी पुकार सुनायी ही नहीं पड़ती।

यह जो अद्वैत, यह जो असीम-अनंत जीवन है, उपयोगिता में उसे खो मत देना। उसे उपयोगिता के बाहर खोजते ही रहना। उसे मेरेत्तेरे के बाहर अन्वेषण करते ही रहना। उसे उस दिन तक खोजना है, जब तक वह मिल ही नहीं जाता है। उसके मिलन को मैंने समानुभूति कहा है। वही अहिंसा है, वही प्रेम है, वही अद्वैत है, वही मुक्ति है।

एक आखिरी सवाल और पूछ लें।

आचार्य श्री, हिंसा और सामाजिक न्याय का क्या संबंध है? कभी ऐसी चर्चा की जाती है कि अहिंसा और हिंसा दोनों सामाजिक न्याय की रीति ही हैं और माओ, स्टैलिन, हिटलर वगैरह ऐतिहासिक अनिवार्यता थी। आपका इस पर क्या मंतव्य है?

 

हिंसा सामाजिक नीति और नियम नहीं है। और अगर अहिंसा सामाजिक नीति और नियम है, तो हिंसा से कभी छुटकारा नहीं हो सकता। अहिंसा आध्यात्मिक नियम है, सामाजिक नहीं; सोशल नहीं, स्प्रिचुअल।

अगर सामाजिक नियम बनायें हम अहिंसा को, तब तो फिर कभी हिंसा भी जरूरी मालूम होगी। और ऐसा उपद्रव है कि कभी तो अहिंसा की रक्षा के लिए भी हिंसा जरूरी हो जायेगी। एक आदमी अगर किसी पर हिंसा कर रहा है, तो अदालत उस आदमी पर हिंसा करेगी; क्योंकि वह हिंसा कर रहा था। एक राष्ट्र अगर दूसरे के साथ हिंसा करेगा, तो वह राष्ट्र उसे हिंसा से उत्तर देगा; क्योंकि हिंसा का उत्तर देना न्यायसंगत है; हिंसा को झेलना अन्याय है, और अन्याय को झेलना उचित नहीं है।

अहिंसा के जिस सूत्र की मैं बात कर रहा हूं, वह आध्यात्मिक नियम है। और अगर सामाजिक अहिंसा की हम बात करना चाहें, तो सामाजिक अहिंसा का सदा सापेक्ष, रिलेटिव नियम होगा। उसमें हिंसा-अहिंसा दोनों की जगह होगी। उसमें हिंसा भी चलेगी, अहिंसा भी चलेगी। उसमें वे दोनों मिश्रित होंगी। वह मिक्स्ड इकानामी होगी। उसमें अहिंसा और हिंसा एक दूसरे के साथ ही खड़ी रहेंगी, और पहलू बदलते रहेंगे।

समाज के तल पर पूर्ण अहिंसा अभी नहीं पायी जा सकती; अभी तो एक-एक व्यक्ति के तल पर ही पूर्ण अहिंसा पायी जा सकती है। समाज के तल पर कभी हम पा सकेंगे, इसकी आशा भी शायद करनी उचित नहीं है। यह वैसे ही उचित नहीं है, जैसे कि आत्मज्ञान हम किसी दिन समाज के तल पर पा सकेंगे, यह आशा करनी उचित नहीं है।

किसी दिन सारे मनुष्य आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जायेंगे, ऐसी आशा करना भी उचित नहीं है। क्योंकि चुनाव है, और कोई अगर आत्म-अज्ञानी रहना चाहेगा तो उसे आत्मज्ञान के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। आत्मज्ञान की सदा ही स्वतंत्रता रहेगी, चुनाव रहेगा, कोई होना चाहेगा…। हां, हम यह आशा कर सकते हैं कि धीरे-धीरे ज्यादा से ज्यादा लोग आत्मज्ञान को उपलब्ध होते जायेंगे।

लेकिन एक और खतरा है, वह भी मैं आप से कहूं। कि जो व्यक्ति भी आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, वह हमारे इस समाज में वापस लौटना बंद हो जाता है। वह वापस नहीं लौटता। उसके नए जन्म असंभव हो जाते हैं। क्योंकि नए जन्म के लिए आकांक्षा और तृष्णा और कामना जरूरी है। वही लौटता है नए जन्म के लिए, जिसकी कोई कामना शेष रह गई है, और जिसे वह पूरा करना चाहता है। अगर महावीर और बुद्ध भी लौटते हैं एक-एक जन्मों में, तो वे भी इसीलिए लौटते हैं कि कम से कम एक कामना उनकी शेष रह गई कि उन्होंने जो जाना है, उसे वे दूसरों से कहना चाहते हैं। वह भी काफी वासना है! अगर मेरे पास कुछ है, और मैं दूसरों को कहना चाहता हूं, तो भी लौट आऊंगा। लेकिन वह भी वासना है–आखिरी वासना है। वह भी तिरोहित हो जाती है, फिर लौटना कैसे होगा?

जो आत्मज्ञान को उपलब्ध होते हैं, वे तिरोहित हो जाते हैं अंतरिक्ष में। वे किसी विराट कास्मास में, किसी विराट चेतना के साथ एक हो जाते हैं। जो नहीं उपलब्ध होते, वे वापस लौटते चले आते हैं।

इसलिए समाज कभी-कभी आत्मज्ञान के फूल को खिलाता है। लेकिन वह फूल खिला, मुर्झाया कि उसकी सुगंध आकाश में खो जाती है। और फिर समाज चलता रहता है।

समाज आत्मज्ञानी नहीं हो सकेगा, समाज आत्म-अज्ञानी ही बना रहेगा। लेकिन इस आत्म-अज्ञानी समाज में आत्मज्ञानी व्यक्ति का फूल खिलता रहेगा, खिलता रह सकता है, खिलता रहना चाहिए।

समाज के तल पर अहिंसा कभी पूर्ण सत्य नहीं हो सकती। इसलिए जिन लोगों ने सामाजिक तल पर अहिंसा की बात की है, वे हिंसा को भी स्वीकृति देते हैं; और देनी ही पड़ेगी। हिंसा जारी रहेगी। तब हिंसा-अहिंसा दो पहलू होंगे समाज के, जब जो जरूरी हो। जब अहिंसा से काम चले, तो अहिंसा; और जब हिंसा से काम चले, तो हिंसा; जिससे भी काम चल जाये।

हिंदुस्तान में आजादी की लड़ाई चलती थी, तो आजादी की लड़ाई लड़नेवाला अहिंसक था। फिर वही सत्ताधिकारी बना तो हिंसक हो गया। आजादी की लड़ाई अहिंसा से चल सकती थी, क्योंकि हिंसा से चलने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता था। तो उसने आजादी की लड़ाई अहिंसा से चला ली। लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने नहीं सोचा कि अब सत्ता अहिंसा से चलाई जाये। अब सत्ता हिंसा से चल रही है। अंग्रेजों ने इतनी गोली कभी नहीं चलायी थी इस मुल्क में, जितनी उन लोगों ने चलाई, जो अहिंसक हैं।

तो जो अहिंसा को नीति समझता है, समाज की एक कनवीनिएंस समझता है, एक सुविधा समझता है, जरूरत पड़ने पर हिंसक हो जायेगा। हिंसक-अहिंसक होना उसकी सुविधा की बात होगी। लेकिन महावीर को किसी भी भांति हिंसक नहीं बनाया जा सकता। उनके लिए अहिंसा सामाजिक नीति-नियम नहीं, आध्यात्मिक सत्य है। वह कनवीनिएंस नहीं है। वह कोई सुविधा की बात नहीं है कि हम कुछ भी हो जायें। वह उनकी परम नियति है, वह उनकी डेस्टिनी है।

अहिंसा के लिए सब खोया जा सकता है–स्वयं को भी खोया जा सकता है। अहिंसा किसी के लिए नहीं खोयी जा सकती। पर ऐसा अहिंसक होना व्यक्ति के लिए ही संभव है। और अगर कभी किसी समाज ने ऐसे अहिंसक होने की भूल की, तो वह सिर्फ कायर हो जायेगा, अहिंसक नहीं हो पायेगा। और ऐसा हुआ भी।

महावीर की अहिंसा को समाज ने समझा कि हम अपनी अहिंसा बना लेंगे, तो अहिंसक समाज पैदा हो गये! अहिंसक समाज हो नहीं सकता। महावीर की अहिंसा का समाज नहीं हो सकता। महावीर की अहिंसा के सिर्फ इंडिविजुअल व्यक्ति हो सकते हैं। इसलिए जो समाज महावीर की अहिंसा को मानकर अहिंसक होने की कोशिश करेगा, वह सिर्फ कायर, कावर्ड हो जायेगा और कुछ भी नहीं हो सकेगा। लेकिन वह अपनी कायरता को अहिंसा कहेगा। हिंसा न करने की हिम्मत को वह अहिंसा कहे चला जायेगा। लेकिन उसकी भी चमड़ी को जरा उखाड़ें, तो भीतर हिंसा के झरने फूटते हुए मिल जायेंगे। कायर भी बड़ा हिंसक होता है, लेकिन मन ही मन में होता है। समाज अभी अहिंसक नहीं हो सकता–कभी हो सकता है, ऐसा भी मैं नहीं कहता। बहुत मुश्किल है; असंभव ही है। व्यक्ति ही अहिंसक हो सकता है। जिस अहिंसा की मैं बात कर रहा हूं, वह अहिंसा सामाजिक सत्य नहीं, व्यक्तिगत उपलब्धि है।

और दूसरी बात पूछी है कि “क्या हिटलर, मुसोलिनी, स्टैलिन या माओ सामाजिक अनिवार्यताएं हैं?’

अगर वे सामाजिक अनिवार्यताएं हैं, तो वे व्यक्ति नहीं हैं। व्यक्ति है ही वही, जो समाज की अनिवार्यता के ऊपर उठता है; जो समाज की विवशता के ऊपर उठता है; जो स्वतंत्र है; जो चुनाव करता है; जो निर्णय करता है। लेकिन, अगर वे सोशल इनएवीटेबिलीटीज हैं, सामाजिक अनिवार्यताएं हैं, मजबूरी हैं समाज की, तब फिर वे व्यक्ति नहीं हैं। और समाज जिस भांति हिंसक होता है, उस भांति वे भी हिंसक होंगे। और अगर वे व्यक्ति नहीं हैं, तो वे मनुष्य के तल पर नहीं होंगे, वे पशु के तल पर वापस गिर जाते हैं।

मनुष्य के तल पर होने के लिए सामाजिक अनिवार्यता से ऊपर उठना जरूरी है। सिर्फ वही व्यक्ति मनुष्य है, जिसके पास व्यक्तित्व है। जो यह कह सकता है कि जो भी मैं हूं, वह मेरा निर्णय है, समाज का नहीं। जो भी मैं कर रहा हूं, वह मैं कर रहा हूं, समाज मुझसे करवा नहीं रहा है।

लेकिन कम्युनिज्म ऐसा मानता है कि व्यक्ति तो है ही नहीं, समाज ही है। कम्युनिज्म ऐसा मानता है कि व्यक्ति इतिहास निर्मित नहीं करते हैं, इतिहास व्यक्तियों को निर्मित करता है। कम्युनिज्म ऐसा मानता है कि इट इज नाट द कांशसनेस व्हिच डिटरमिंस सोशल कंडीशंस, बट आन द कंट्रेरी, सोशल कंडीशंस आर द बेस व्हिच डिटरमिंस कांशसनेस। समाज की स्थितियां ही चेतना को निर्धारित करती हैं, चेतना समाज की स्थितियों को निर्धारित नहीं करती।

तो कम्युनिज्म के हिसाब से तो व्यक्ति है ही नहीं। माओ नहीं है, हिटलर नहीं है, मुसोलिनी नहीं है, महावीर नहीं हैं, बुद्ध नहीं हैं। लेकिन पता नहीं कम्युनिज्म किस तरह की अवैज्ञानिक बातें विज्ञान के नाम पर कहे चला जाता है! कोई सामाजिक परिस्थिति महावीर को पैदा नहीं कर सकती। और अगर सामाजिक परिस्थिति महावीर को पैदा करती है, तो यह सामाजिक परिस्थिति महावीर के लिए, अकेले के लिए परिस्थिति थी? बिहार में और लाखों लोग थे। यह सामाजिक परिस्थिति ही अगर महावीर को पैदा करती, तो और पचासों महावीर क्यों पैदा नहीं करती? अगर रूस की परिस्थिति लेनिन को पैदा करती है, तो कितने लेनिन पैदा करती है?

नहीं, सामाजिक परिस्थितियां व्यक्तियों को पैदा नहीं करतीं। और करती हों, तो वे व्यक्ति नहीं हैं, सिर्फ सामाजिक घटनाएं हैं। और सामाजिक घटनाएं अहिंसक नहीं हो सकतीं, हिंसक होंगी; क्योंकि वह पशु के तल पर वापस लौट गई बात है।

व्यक्ति चुनाव है। मैं भी इतने से राजी हो जाऊंगा कि माओ या स्टैलिन मनुष्य के तल पर बहुत ऊपर नहीं उठते, पशु के तल पर बहुत नीचे चले जाते हैं। लेकिन आप कहेंगे, “मनुष्य के कल्याण के लिए ही वे हिंसा कर रहे हैं!’

सदा हिंसाएं जब भी की गई हैं, तो कल्याण के लिए ही की गई हैं। मध्यऱ्युग में ईसाई पादरियों ने लाखों लोगों को जलवा डाला–मनुष्य के कल्याण के लिए। मुसलमान हिंदू को मारता है–मनुष्य के कल्याण के लिए! हिंदू को मुसलमान इसलिए नहीं मारता कि हिंदू से उसकी कुछ दुश्मनी है, इसलिए मारता है कि हिंदू बेचारा काफिर है, भटका हुआ है, उसे रास्ते पर लाना है! और न आता हो रास्ते पर तो कम से कम मारकर उसकी आत्मा को अगले जन्म में रास्ते पर लगा दें। हिंदू मुसलमान को इसलिए नहीं मारता कि उसका कुछ बुरा सोचता है; बल्कि इसलिए मारता है कि भटका हुआ है, रास्ते पर लाना है! जैसे गाय को और दूसरे पशुओं को, घोड़ों को, यज्ञों में चढ़ाया जाता रहा–कि यज्ञ में चढ़ाने से ये घोड़े, ये गायें स्वर्ग चली जायेंगी। ऐसे ही, धर्म की बलिवेदी पर, एक-दूसरे के धर्मों के लोगों को लोग चढ़ाते रहते हैं–उनके ही कल्याण के लिए! कम्युनिज्म लाखों लोगों को काट डालता है–उनके ही कल्याण के लिए। फासिज्म लाखों लोगों को काट डालता है–उनके ही कल्याण के लिए।

हिंसा जब प्रखर-रूप से फैलना चाहती है, तो आपके ही कल्याण का मुखौटा पहनकर आती है। चालाक है, साधारण भी नहीं है; कनिंग है। साधारण हिंसा कहती है कि मैं आपको अपने हित में मारना चाहती हूं; और चालाक हिंसा कहती है, आपके ही हित में आपको मारना चाहती हूं।

हर बार आदमी बहाने बदल लेता है। अब इस्लाम और हिंदू और कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट ये सब पुराने बहाने हो गए हैं तो कम्युनिज्म, सोशलिज्म नए बहाने हैं। कुछ दिनों में वे भी पुराने हो जायेंगे, फिर आदमी और नए बहाने खोज लेगा। आदमी को हिंसा करनी है, उसके लिए बहाने खोजता है। बहाने हैं, इसलिए हिंसा नहीं करता है।

अगर हम माओ या स्टैलिन के चित्त का विश्लेषण करें, तो हम उनके भीतर एक विक्षिप्त आदमी को पायेंगे। लेकिन वह विक्षिप्त आदमी बड़ा होशियार है, वह रेशनलाइज करता है। क्रांति, समाज-क्रांति, ऊटोपिया, भविष्य के स्वर्णऱ्युग–इनको लाने के लिए लाखों-लाखों लोगों को काट डाला जाता है।

लेकिन वे स्वर्णऱ्युग कभी नहीं आये, और आदमी सदा से काटा जा रहा है। न तो रूस में आया वह स्वर्ण युग, न चीन में आया; न वह जर्मनी में आया, न वह इटली में आया। सारी दुनिया में कितनी क्रांतियां हो चुकीं, कितने खून हो चुके, पर वह स्वर्णऱ्युग आता ही नहीं! पुरानी क्रांतियां खत्म हो जाती हैं, नई क्रांतियां फिर खून करने लगती हैं, पर वह स्वर्णऱ्युग नहीं आता है! हजारों साल का अनुभव यह कहता है कि आदमी हिंसा करना चाहता है, इसलिए हिंसा के लिए फिलासफीज खोज लेता है, दर्शन खोज लेता है। यह इतिहास की अनिवार्यताएं नहीं, यह व्यक्तियों के भीतर हिंसा की अनिवार्यताएं हैं, जिनके लिए वह इतिहास को मोड़ देता रहता है और इतिहास को भी आधार बना लेता है अपनी हिंसा का।

मेरे लिए अनिवार्यता को स्वीकार करना ही मनुष्य की गरिमा को खो देना है। जो यह कहता है कि कोई अनिवार्यता है जिसे मुझे जीना ही पड़ेगा, वह आदमी गुलाम है, उसने अपनी आत्मा को खो दिया है। जो आदमी कहता है कि कोई अनिवार्यता नहीं है जिसे मुझे मजबूरी में कुछ करना पड़ेगा, जो भी मैं करूंगा वह मेरा चुनाव है, वह आदमी आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। निर्णय, डिसीजन ही मनुष्य के भीतर संकल्प और आत्मा का जन्म है।

शेष कल।


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तंत्र–सूत्र (विज्ञान भैरव तंत्र)–भाग–2

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तंत्र—सूत्र—(विज्ञान भैरव तंत्र)

(भाग—2)

 (ओशो द्वारा भगवान शिव के विज्ञान भैरव तंत्र पर दिए गए 80 प्रवचनों में से 17 से 32 प्रवचनों का संकलन।)

(भूमिका) तंत्र: ह्रदय की तीर्थयात्रा—

नुष्य जैसे-जैसे सुसंस्कृत होता चला गया, तंत्र की जीवन शैली से बिछुडता चला गया। उसने संस्कृति की विशाल प्रतिसृष्टि का सृजन तो किया लेकिन तंत्र की ओर मुख मोड़कर। धीरे- धीरे प्रतिष्ठित समाज से उखड़कर तंत्र, मेघदूत के अभिशप्त यक्ष की भांति अज्ञातवास में समय व्यतीत करने लगा। तंत्र और तांत्रिक, दोनों ही शब्द निंदा व्यंजक हो गये।

सुसंस्कृत मनुष्य के शब्दकोश में तंत्र शब्द कितना ही गर्हित क्यों न हो, वह भेष बदलकर, अन्य उपसर्गों का हाथ थामकर मनुष्य के जीवन में चुपचाप जीता चला आया है। हमें ‘तंत्र’ स्वीकार नहीं है लेकिन स्व-तंत्र या पर-तंत्र का हम खूब प्रयोग करते हैं। किसी के ध्यान में नहीं आता कि वही बहिष्कृत तंत्र ‘स्व’ या ‘पर’ की ओट में हमारे बीच पनप रहा है।

तंत्र से मुक्त होना मुश्किल है क्योंकि तंत्र स्वभाव है। जो स्वयं का होना है उससे हम कैसे दूर जा सकते हैं? कितनी दूर जा सकते हैं? तंत्र की निंदा यही दर्शाती है कि मनुष्य सहज स्वाभाविक जीवन से कितना च्‍यूत हो चुका है।

संस्कृति ने मन को विकसित कर लिया, तन की अवहेलना कर। पुराने संत-महंत कहते रहे, तन पांच तत्वों से बना है; तन मिट्टी है, मिट्टी में मिल जायेगा। तन के तिरस्कार के गीत ध्यानी और योगी युगों-युगों से गाते रहे : काया नहीं तेरी, नहीं तेरी, मत कर मेरी, मेरी।

इस वातावरण में, इन संस्कारों में पला हुआ साधारण आदमी तन के साथ मित्रता कैसे करे? परिणामत: तन एक नेसेसरी इविल, एक अपरिहार्य अशुभ की भांति मनुष्य की छाती पर बोझ बनकर जीता रहा-और उसके साथ तंत्र भी। क्योंकि तंत्र तन को परम आदर देता है। इस शब्द की बुनियाद में ही तन है जो तन के रहस्य में उतरता है वह तन्-त्र।

और तन का मतलब केवल पार्थिव शरीर नहीं है। तन अर्थात आवरण, कवच, पात्र। अस्तित्व की संरचना कुछ ऐसी है कि यहां प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई आवरण है, शरीर है। शब्द, अर्थ का शरीर है। अर्थ, भाव का शरीर है। भाव, विचार का शरीर है। शरीर के बिना कोई वस्तु हो ही नहीं सकती। इस कारण भी तंत्र से मुक्त होना संभव नहीं है। हा, यदि नींव के बिना कभी कोई भवन बनाया जा सके तो जीवन तंत्र से मुक्त हो सकता है।

तंत्र का आरंभ तन से होता जरूर है लेकिन वहीं उसका अंत नहीं है। तंत्र सूक्ष्म से सूक्ष्मतर शरीरों की ओर यात्रा करता है। शरीर, भाव, आत्मा, अस्तित्व, सभी तंत्र का विस्तार हैं। तंत्र की बांहें अति विराट हैं। वे फैलती जाती हैं। उसके आलिंगन में सब समा जाता है-धरती भी, अंबर भी।

तंत्र हृदय की तीर्थयात्रा है। इस तीर्थयात्रा पर जाने के लिए मानवता अब तक तैयार नहीं थी। बुद्धि के अरण्य में खूब भटकने के बाद अब हृदय के सरोवर में रस-स्नान के लिए उसका सूखा कंठ आतुर हुआ है।

एक तरफ तंत्र की राह पर चलनेवाले राही मौजूद हुए और दूसरी तरफ रहगुजर भी प्रकट हो गया। ओशो की गंगोत्री से तंत्र की अदृश्य सरिता समस्त वैभव के साथ प्रवाहित हुई। उन्होंने तंत्र को इतनी प्रतिष्ठा दी कि उस सिंहासन पय एक साथ तंत्र के कई पथ प्रतिष्ठित हुए। तिलोपा का दि सांग ऑफ महामुद्रा, लाओत्से का ताओ और शिव-पार्वती संवाद में गूंथा हुआ विज्ञान भैरव तंत्र, सभी तंत्र के ही विभिन्न रूप हैं। यों तो तंत्र अपनी आत्यंतिक ऊंचाई पर साधना या तपस्या के पार नील आकाश में जीता है लेकिन मनुष्य तो मन की कंटीली झाड़ियों में उलझा हुआ है। उसे अ-मन के अंतरिक्ष में कैसे ले जाया जाये? इस उलझन को सुलझाने के लिए किसी मनीषी ने तंत्र के गुप्त धन को विज्ञान भैरव तंत्र के रूप में उदघाटित किया है।

इन सूत्रों में, शिव पार्वती को बहुत आत्मीयता से मन के पार जाने के उपाय बताते हैं। ये उपाय सूत्रात्मक रूप से विज्ञान भैरव तंत्र में संकलित किये गये हैं। जिन ऋषि या महर्षि ने इन विधियों को खोजा होगा वे जरूर बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक रहे होंगे। वे मन की कार्य प्रणाली को गहराई से समझते हैं। इसीलिए उन्होंने इन विधियों के जरिये मन के पार जाने के छोटे-छोटे द्वार खोज लिए।

प्रत्येक विधि मन को मात देने की युक्ति है। गिने-चुने शब्दों में शिव मन के जंतर-मंतर में उतर कर कुछ झरोखे पार्वती के आगे खोलते जाते हैं-

‘ज्यों ही कुछ करने की वृत्ति हो, रुक जाओ।’

‘किसी पदार्थ को देखे बिना देखो। थोड़े ही क्षणों में तुम बोध को उपलब्ध हो जाओगे।’

‘किसी गहरे कुएं के किनारे खडे होकर उसकी गहराइयों में निरंतर देखते रहो-जब तक विस्मय-विमुग्ध न हो जाओ।’

इन सब विधियों में इंद्रियों के बाहर फैले हुए संसार की निंदा नहीं है। इंद्रियों के साथ मन जो बाहर की ओर प्रवाहित होता रहता है उसका प्रत्याहार है। मन का जगत से नाता तोड़ दो क्योंकि यह नाता झूठ है। जगत अपनी जगह है, सुंदर है, लेकिन उसे हम अपने भीतर क्यों बसा लें? विषयों का संसार मन का आहार है। यह आहार त्याग कर मन को स्वयं के पास ले आने के उपाय तंत्र सिखाता है। एक अर्थ में तंत्र मन का उपवास है। उपवास यानी अनशन नहीं, अपने साथ निवास करना, अपने ही संग रहना।

इन सूत्रों का एक और अर्थपूर्ण पहलू है : इन तंत्र विधियों को अभिव्यक्त करने के लिए ग्रंथ कर्ता ने शिव-पार्वती के युगल को चुना है। इस काम के लिए गुरु -शिष्य को भी चुना जा सकता था। लेकिन उसे शिव-पार्वती अधिक उचित लगे। पार्वती शिव का अभिन्न अंग हैं। वे दोनों एक ही पूर्णता के दो अर्ध हैं। इतनी घनिष्ठता में ही मन का द्वार खोलने की ये छोटी-छोटी कुंजियां दी जा सकती हैं। इन सूत्रों के बहाने शिव अपने शून्य को पार्वती में उंडेल रहे हैं।

ओशो ने भी इन सूत्रों का विवेचन अपने शिष्यों के सामने किया है-शिष्य, जिन्हें वे मित्र कहते हैं। ओशो के साथ उनके शिष्यों का जो नाता है वह प्रेम का है, जान का नहीं। शब्द केवल वाहन हैं, उनमें से बहता हुआ जो चला आ रहा है वह है उनका शून्य, उनकी उमड़ती हुई करुणा।

तंत्र-सूत्र सिर्फ पढने के लिए नहीं कहे गये हैं। इनके प्रयोग में ही इनकी सार्थकता है। यह सदी सौभाग्यशाली है कि ओशो जैसी शिव-चेतना द्वारा ये सूत्र पुनरुज्जीवित हुए हैं। इनके द्वारा ओशो ने तंत्र का द्वारहीन द्वार खोल दिया है जिसमें हर तरह का व्यक्ति प्रवेश कर सकता है।

उदार चरित पुरुषों के लिए कुछ भी त्याज्य नहीं है। मेरे देखे, तंत्र ओशो के उदार हृदय का प्रतीक है। इसका असीम विस्तार हर तरह के खोजी के लिए एक निमंत्रण है।

मा अमृत साधना


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का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–6)

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सत्‍संग की कला: संन्‍यास—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 5 अप्रैल, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 प्रश्‍नसार:

1—क्या यह सच नहीं है कि ज्ञानोपलब्ध लोगों की अनुपस्थिति में—— और वे दुर्लभ लोग सदा नहीं होते——पंडित और पुरोहित ही धर्म की मशाल जलाए रखते हैं?

2—गुरु की निंदा सुनने का हमेशा निषेध किया गया है। ऐसा भी कहा गया है कि कोई गुरु की निंदा करे तो कान भी धो डालना चाहिए। भगवान, आपका प्रेमी तो कभी ही मिलता है; पर आपके निंदक तो हर जगह मिल जाते हैं। ऐसे मौकों पर हमें क्या करना चाहिए?

3—आपके सत्संग में रहकर बड़े ही आनंद का अनुभव हो रहा है और जीवन एक उत्सव नजर आ रहा है। लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है?

4—तन्मयता से किया गया प्रत्येक कार्य साधना है। तो क्या जरूरी है कि परमात्मा की साधना के लिए संन्यास लिया जाए?

5—इस बार सांध्य— दर्शन में लगातार दो दिन प्रभु—पास का सुयोग मिला। पहले दिन कुछ देर आपको देखते रहने के बाद घबड़ाहट होने लगी, धड़कन तेज हो गयी, सिर में चक्कर, नशा जैसा और बेचैनी अनुभव हुई।… यह क्या है?

6—कल प्रवचन के आधे घंटे पहले जब मैंने आपकी ओर गौर से देखा, तब आपके सिर के आसपास शुभ प्रकाश की छाया जैसी कुछ चीज महसूस हुई।… कृपया स्पष्ट करें कि यह क्या हुआ?

7—प्रवचन के समय जब आपको देखती हूं, आपका दर्शन करती हूं, तो आपकी आवाज सुनायी पड़ती है; लेकिन आप क्या कह रहे हैं, उसका ध्यान नहीं रहता। क्या यह मेरी मूर्च्छा है?

8—”साहिब एहि विधि ना मिलै” की बात ने आज ऐसी चोट मारी कि मैं खलबला गयी, धड़कनें बढ़ गयीं, और मैं आंसू की धार में नहा गयी। मेरा भय बह गया। अब कोई आशंका नहीं, भय नहीं। प्रभु, मैं आपकी नाव में बैठ गयी। मुझे संभालना! मेरा स्वीकार करो।

 

पहला प्रश्‍न : क्या यह सच नहीं है कि ज्ञानोपलब्‍ध लोगों की अनुपस्थिति में —— और वे दुर्लभ लोग सदा नहीं होते —— पंडित और पुरोहित ही धर्म की मशाल जलाये रखते हैं?

र्म कोई मशाल नहीं। जिसे जलाए रखना पड़े, वह धर्म नहीं। जिसे हम संभाले, वह धर्म नहीं। जो हमें संभालता है, वही धर्म है।

बिन बाती बिन तेल। न तो धर्म की कोई बाती है, न कोई तेल है। धर्म शुद्ध प्रकाश है। उसके लिए किसी ईंधन की कोई जरूरत नहीं। धर्म का ही विस्तार है। धर्म सा थे हुए है सारे अस्तित्व को। पंडित — पुरोहित धर्म को साधेगा? फिर वह धर्म न रह जाएगा। हिंदू धर्म को पंडित — पुरोहित संभाल कर रखता है। इस्लाम धर्म को पंडित — पुरोहित संभाल कर रखता है। धर्म को नहीं।

धर्म तो तब तुम्हें उपलब्‍ध होता है जब तुम अपने को संभाल लेते हो —— बस तत् क्षण धर्म का दीया जल उठता है। धर्म का दीया तो जला ही हुआ था, सिर्फ तुम आंखें बंद किए थे। अपने को संभाल लेते हो, आंख खुल जाती है।

तुम चेतो। तुम्हारे चेतते ही, तुम्हारे चैतन्य होते ही, तुम चकित हो जाते हो कि मैं जिसे खोज रहा था वह मेरे भीतर सदा से मौजूद था; जिसे मैं दूर खोज रहा था वह मेरे पास था। और जिसे मैं बाहर तलाश था वह मेरे भीतर था।

धर्म तुम्हारा स्वभाव है। धर्म मशाल नहीं। मशाल में तो तेल भी डालना होगा। कभी बुझने लगे मशाल तो संभालना भी होगा। किन्हीं हाथों की जरूरत पड़ेगी। धर्म तो वह है जो सब हाथों को सं भाले हुए है। तुम श्वास धर्म के कारण ले रहे हो। तुम जी धर्म के कारण रहे हो। चांदतारे धर्म कारण चलते हैं। पृथ्वी सं भाली है धर्म के कारण। धर्म इस जगत् को संभालनेवाले नियम का नाम है।

धर्म को पंडित — पुरोहित कैसे संभालेंगे! और अगर पंडित — पुरोहित धर्म को संभालेंगे, तो पंडित — पुरोहितों को संभालेगा? इसे एकबारगी ठीक से समझ लो। पंडित — पुरोहित जिसे संभालते हैं, वह धर्म नहीं है और धर्म नहीं हो सकता है। इसीलिए धर्म नहीं हो सकता क्योंकि पंडित — पुरोहितों के द्वारा सं भाला गया है।

पंडित — पुरोहित खुद अंधे हैं। इन्हें रोशनी दिखी नहीं। जो इन्हें दिखा नहीं, उसे ये संभालेंगे? हां, शास्‍त्र को संभाल लेंगे। शास्‍त्र में थोड़े ही धर्म है। धर्म शून्‍य के अनुभव में है। शब्‍द में धर्म नहीं है, नि:शब्‍द में धर्म है। नि:शब्‍द का इन्हें कुछ पता नहीं है। धर्म मंदिर — मस्जिद में होता तो ये संभाल लेते। मगर धर्म मस्जिद — मंदिर में नहीं है। धर्म बहुत विराट है। सब मंदिर — मस्जिद धर्म के भीतर हैं। धर्म किसी के भीतर नहीं है।

धर्म का अर्थ होता है : हमारे पहले जो था, हमारे बाद भी जो होगा। हम आते हैं, हम जाते हैं —— धर्म रहता है। लेकिन निश्‍चित ही वह धर्म न तो हिंदू हो सकता है, न मुसलमान हो सकता है, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। वह तो शुद्ध धर्म है। उस धर्म को, जब भी तुम जागकर आंख खोलते हो, तुम सदा अपने पास पाते हो, अपने प्राणों में पाते हो, अपनी श्वासों में, अपने हृदय की धड़कनों में। उसे खोजने कहीं भी नहीं जाना पड़ता।

फिर पंडित — पुरोहित क्या संभाल रहे हैं। वे धर्म की लाश संभालते हैं, मशाल नहीं। बुद्ध से धर्म बोला, क्योंकि शून्‍य बोला। बुद्ध के हृदय की वीणा पर वह संगीत उठा जिसको हम अनाहत कहते हैं; वह नाद उठा। धर्म बोला बुद्ध से। बौद्ध धर्म नहीं बोला, खयाल रखना। बुद्ध बौद्ध नहीं थे और न ईसा ईसाई थे और न कृष्ण हिंदू थे। बुद्ध से धर्म बोला। कृष्ण से धर्म बोला। क्राइस्ट से धर्म बोला। पंडित — पुरोहितों ने शब्‍द पकड़े, इकट्ठे किए, संभाले। जो बोला गया था, उसे संभाल कर गठरियां बांध लीं। वेद बने, बाइबिल बनी, कुरान बनी, धम्मपद बना। फिर उन गठरियों को वे संभाल रहे हैं और ढो रहे हैं। और उन पर कचरा जनता जाता है, धूल बैठती जाती है। सदियां उन पर जमती जाती हैं। धूल की परतें पर घनी होती जाती हैं। अब तो शब्‍द भी कहां खो गए, उनका भी पता नहीं है। अब तो ये शब्‍द भी बड़ी धूल—धवांस में खो गए हैं। एक—एक शास्त्र पर इतनी व्याख्याएं लद गयी हैं…। गीता की एक हजार व्याख्याएं हैं! उन एक हजार व्याख्याओं के जंगल से पता लगाना एकदम असंभव है कि कृष्ण ने कहा क्या था। अगर कृष्ण ने हजार बातें कही थीं तो या तो कृष्ण पागल थे या अर्जुन सुन—सुन कर पागल हो गया होगा। कृष्ण ने तो एक ही बात कही होगी। मगर वह क्या है? कैसे जानोगे?

पंडित—पुरोहितों के पास बड़ी व्याख्याएं हैं, तुम कैसे तय करोगे कि क्या कृष्ण ने कहा? एक ही उपाय है : अपने भीतर जाओ। कृष्ण वहां अब भी बोलते हैं। अर्जुन बनो, कृष्ण अब भी बोलते हैं। आनंद बनो और बुद्ध अब भी कहेंगे। अब भी वही कहेंगे जो तब कहा था। बुद्ध और कृष्ण का सवाल नहीं——धर्म बोलता है। बुद्ध एक ढंग हैं धर्म के बोलने के; कृष्ण एक और ढंग हैं। वही बात बोली जाती है जो बुद्ध ने बोली। वही! भाषा अलग होगी, भाव वही हैं। अभिव्यंजना के रंग—ढंग अलग होंगे, मगर अभिव्यंजित वही है। एक ही कहा गया है। सदा एक ही दोहराया गया है। समय जाता है, भाषाएं बदल जाती हैं, प्रतीक बदल जाते हैं, कथाएं बदल जाती हैं दृष्टांत बदल जाते हैं। मगर जिस तरफ इशारे हो रहे हैं, वह नहीं बदलता। उंगलियां बदल जाती हैं इशारा करनेवाली, मगर जिस चांद की तरफ उंगलियां उठी हैं वह चांद वही है। इसे कोई नहीं संभालता।

लेकिन पंडित—पुरोहित कुछ तो संभालते हैं निश्‍चित——लाश संभालते हैं। बुद्ध चले, उनके चरण— चिह्न बने समय की रेत पर, वे उन चरण—चिह्नों को संभालते हैं; वे उन्हीं चरण—चिह्नों की पूजा करते हैं, उन्हीं पर फूल चढ़ाते रहते हैं। बुद्ध के चरण—चिह्नों में बुद्ध नहीं हैं। वह तो गया जो चला था। और जो चला था वह समय की रेत पर पकड़ा नहीं जा सकता। वह शाश्वत है। समय में केवल भनक सुनायी पड़ती है, प्रतिध्वनि आती है। समय में असली चीज पकड़ में नहीं आती।

मैं रास्ते पर चलूं, धूल में मेरे पैर के निशान बन जाएं, तुम उन्हीं निशानों को पकड़ कर बैठ जाओ——चूक हो जाएगी, बड़ी भूल हो जाएगी। उन चरण—चिह्नों की पूजा करने से तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। उन्हें भूलो! उसकी तरफ देखो, जो चला। उसे खोजो, जो चला। उसके कोई चरण—चिह्न नहीं हैं, क्योंकि जो चला है वह देह नहीं है। जो चला है वह आकार नहीं है। जो चला है वह शब्द नहीं है। उसकी तरफ खयाल करो। जरा बुद्ध की आंखों में झांको।

मेरी आंखों में झांको! मेरी देह को भूलो! मैं जो कहता हूं, उसमें बहुत मत उलझ जाना। मैं जो हूं, उससे उलझ जाओ तो पार हो जाओ।

लाश रह जाती है। लेकिन लाशों को रखकर क्या करोगे? तुम्हारी मां चल बसी, बड़ी प्यारी थी——और कौन चाहता है कि मां चली जाए! लेकिन जब चल बसी तो लाश को ले जाते हो न मरघट? इसी देह में तो थी, यह भी सच है; मगर अब नहीं है, यह और भी ज्यादा सच है। जो इस देह में था वह पक्षी तो उड़ गया; वह हंस अब इस पिंजड़े में नहीं है। पिंजड़ा पड़ा रह गया है, हंस उड़ चुका है। हंस उड़ चुका, अब इस पिंजड़े का क्या करोगे? बांधो अर्थी, ले चलो मरघट। रखो आग में, भस्मीभूत हो जाने दो। राख भी बचे, उसे भी गंगा में डुबा आना। सब स्वाहा कर दो। करना ही पड़ता है।

प्रत्येक शास्ता के बाद यही अड़चन खड़ी होती है। शास्‍ता तो चला जाता है। हंसा तो उड़ गया! श पड़े रह जाते हैं। समय की धूल पर पैर के निश मन रह जाते हैं! स्मृतियां रह जाती हैं। लोगों ने जो देखा था, जो सुना था, उसकी याद्दाशतें मन में रह जाती हैं; उन्हीं को लोग संजोकर रख लेते हैं; उन्हीं की पूजा चलने लगती है। उसी को तुम धर्म कहते हो? वह लाश है। उससे छुटकारा होना चाहिए। उससे छुटकारा हो जाए तो तुम असली की तलाश करने लगो। पिंजड़े से मुक्त हो जाओ तो हंस की तरफ आंख उठे। पिंजड़े को ही पूजते रहते हो तो हंस की तरफ देखेगा कौन? तुम्हारी आंखें पिंजड़े से भर जाती हैं। तुम पिंजड़े में ही उलझ जाते हो। तुम पिंजड़े के क्रिया— कांड में ही पड़ जाते हो। वही हो रहा है—— मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में, गिरजे में, वही हो रहा है। पिंजड़े पूजे जा रहे हैं।

मशाल नहीं है धर्म। धर्म आविर्भाव है—— शाश्‍वत का समय में; निराकार का आकार में; शून्‍य का श में। और जब शास्‍ता जीवित होता है बस तभी पकड़ लेना तो पकड़ लिया; तब चूके तो चूके। फिर लकीरें पीटते रहो जीवनभर जन्मों— जन्मों तक, कुछ भी न होगा।

पंडित पुजारी, पुरोहित, मौलवी, पादरी लकीरें पीटते रहते हैं। लकीरों पर लकीरें पीटते रहते हैं। लकीरों को सजाते रहते हैं, संवारते रहते हैं। लकीरों का भूगार करते रहते हैं। और बड़ी कुश से। सदियों — सदियों में वे बड़े कुशल हो गए हैं। बाल की खाल निकालते रहते हैं और कुछ भी नहीं है। और लाश पड़ी रह गयी है, उसमें से बदबू उठ रही है।

देखते नहीं तुम, सभी धर्मों से बदबू उठती हुई? नहीं तो हिंदू मुसलमान लड़ता क्यों, अगर बदबू न उठती होती? धर्म के नाम पर जितना खून हुआ है, किसी और चीज के नाम पर हुआ है? धर्म के नाम पर जितना अनाचार हुआ है, किसी और चीज के नाम पर हुआ है? धर्म के नाम पर आदमी लड़ता ही तो रहा है। प्रेम की बातें चलती रहीं और तलवारों पर धार रखी जाती रही। प्रेम के गीत गाए जाते रहे और गर्दनें काटी जाती रहीं। धर्म के नाम पर कितना पाखंड हुआ है! अब भी जारी है। इस पाखंड के कारण ही मनुष्यता धार्मिक नहीं हो पा रही है।

जब तक झूठ को तुम झूठ की तरह न जानो, सच को तुम सच की तरह देखने में समर्थ न हो पाओगे।

पंडित — पुरोहित से मुक्त होना जरूरी है। उससे मुक्त होकर ही तुम्हें धर्म की पहली दफा थोड़ी— थोड़ी प्रतीति होना शुरू होगी। छोड़ो पंडित — पुजारी को, चांदतारों से दोस्ती करो! फूलों से मुलाकात लो! नदियों— सागरो से पूछो! यह आकाश ज्यादा जानता है। इस आकाश के नीचे पड़ जाओ श मत होकर। इस आकाश को अपने भीतर उतरने दो। यह कोयल की आवाज, ये पक्षियों के गीत—— इनमें कहीं धर्म ज्यादा जीवंत है!

दूसरा प्रश्‍न :

 

गुरु की निंदा सुनने का हमेश निषेध किया गया है। ऐसा भी कहा गया है कि यदि कोई गुरु की निंदा कर रहा हो तो कान भी धो डालना चाहिए। भगवान, आपका प्रेमी तो कभी ही मिलता है; पर आपके निंदक हर जगह पर मिल जाते हैं। हमारी सामर्थ्य भी नहीं है कि हम उनको कुछ समझाएं। ऐसे बहुधा उपलब्ध मौकों पर हमें क्या करना चाहिए? कृपा करके मार्ग स्पष्ट करें।

देवानंद! जिन्होंने कहा है, गुरु की निंदा नहीं सुननी चाहिए वे गुरु न रहे होंगे, बड़े कमजोर लोग रहे होंगे। यह तो असंभव ही है कि गुरु हो और उसकी निंदा न हो। ऐसा तो कभी हुआ ही नहीं।

बुद्ध की कितनी निंदा हुई, इसका तुम्हें कुछ पता है? निंदा इतनी भयंकर रूप से हुई कि इस देश से बुद्ध — धर्म को उखड़ ही जाना पड़ा। बुद्ध इस देश में पैदा हुए, इस देश का धन्यभाग होना था कि बुद्ध इस देश में पैदा हुए, क्योंकि मनुष्य — जाति ने इतना ज्वलंत धर्म का आविर्भाव न पहले कभी देखा था, न पीछे कभी देखा। मगर अभागा यह देश! इतनी निंदा किया बुद्ध की कि इस देश से बुद्ध — धर्म को तिरोहित हो जाना पड़ा।

तुम सोचते हो, जीसस को लोगों ने सम्मान दिया था, फूलमालाएं पहनायी थीं? तो फिर सूली किसको लगी? वही सम्मान था। वही फूलमाला थी।

जीसस अपने गांव गए एक बार। गांव के सिनागाग में उन्हें बुलाया गया। क्योंकि खबरें पहुंच गयी थीं कि जीसस एक तरह के गुरु हैं। और उनसे कहा गया कि बाइबिल से कुछ वचन पढ़कर हमें सुनाओ। जो वचन जीसस ने पढ़कर सुनाए, वे बहुत बार पढ़े थे लोगों ने, जन्मों से लोग दोहराते रहे थे, सदियों से लोग दोहराते रहे थे। पुराने वचन थे। ईजिया नाम के एक पैगंबर के वचन थे। लेकिन जिस ढंग से जीसस ने पढ़े, उस ढंग से किसी ने भी नहीं पढ़े थे। सिवाय ईजिया के उस ढंग से कोई कभी बोला नहीं था।

वचन हैं : ” मैं आ गया। पहचानो मुझे! मेरी तरफ देखो! तुम जिसकी राह देखते थे, वह आ गया। यह मैं रहा!” इसको अगर जीसस ने ऐसा कहा होता कि ईजिया ने कहा है, तो कोई अड़चन न हुई होती। लेकिन जीसस ने कहा कि जो ईजिया ने कहा है, वही मैं भी तुमसे कहता हूं : मैं आ गया जिसकी तुम प्रतीक्षा करते थे! मेरी आंखों में देखो!

और गांव के लोग एकदम पागल हो गए। यह तो कुफ्र हो गया। यह आदमी अपने को पैगंबर कह रहा है! कहां ईजिया और कहां यह गांव के बढ़ई जोसेफ का बेटा! लोगों ने उन्हें खदेड़ दिया चर्च से। उन्हें मारने के लिए पहाड़ी पर ले गए। बामुश्किल जीसस के शिष्य उन्हें बचा सके, नहीं तो वे पहाड़ी से उन्हें फेंक कर उनके ऊपर चट्टान गिरा देना चाहते थे, क्योंकि कुफ्र हो गया। उसी दिन जीसस ने कहा था : किसी तीर्थंकर, किसी पैगंबर का सम्मान उसके अपने ही गांव में नहीं होता।

फिर दोबारा वे अपने गांव नहीं गए। और उसके दो साल के भीतर ही उनको सूली लग गयी। जिस दिन उन्हें सूली लगी, लोगों ने सब तरह का र्दुव्यवहार किया। पहाड़ी पर उस बड़े क्रास को कंधे पर रखवा कर जीसस को खुद क्रास को पहाड़ी पर ढोना पड़ा। बीच में वे गिर पड़े तो उनको कोड़े मार कर उठाया गया कि ढोओ। चढ़ाई थी। भरी धूप थी। भारी क्रास था। उसी दिन जीसस ने अपने शिष्यों की तरफ पीछे फिरकर भीड़ से कहा : जिसे मुझ तक आना है, उसे अपना क्रास अपने कंधे पर ढोना होगा।

जब उन्हें सूली पर लटकाया गया और उनके हाथों में खीले ठोंके गए और पैरों में खीले ठोंके गए, तो उन्हें बड़े जोर की प्यास लगी। धूप थी, दिनभर से कोई पानी नहीं मिला था, भोजन नहीं मिला था। यह पहाड़ी की चढ़ाई, यह क्रास का ले आना! उन्होंने पानी मांगा, लेकिन कोई पानी देने को नहीं था। किसी ने एक चीथड़े में, गंदी नाली पास में बहती थी, उसमें चीथड़े को डुबा कर, उसे बांस में उठा कर जीसस के मुंह के पास कर दिया कि इस पानी के अतिरिक्त तुम्हारे लिए हमारे पास और कोई पानी नहीं। लोग पत्थर मार रहे थे, गालियां दे रहे थे। यह सम्मान था!

यही तुमने सुकरात के साथ किया। यही तुमने मैसूर के साथ किया। यह तुम्हारी पुरानी आदत है। यह आदमियत का सदा का व्यवहार है सदगुरू के साथ।

तो तुम पूछते हो कि गुरु की निंदा सुनने का हमेशा निषेध किया गया है। जिन्होंने कहा होगा, वे गुरु न रहे होंगे। क्योंकि गुरु के साथ अगर तुम जुडे तो निंदा सुननी ही पड़ेगी। निंदा सुनने से ही काम चल जाए तो बहुत। पत्थर भी खाने पड़ सकते हैं। जीवन भी गंवाना पड़ सकता है। यह सब होगा। यह बिल्कुल स्वाभाविक है। यह कीमत चुकानी पड़ती है प्रभु के मार्ग पर।

इसलिए मैं तुमसे यह नहीं कह सकता कि कोई मेरी निंदा करे तो सुनना मत। प्रेम से सुनना! आनंद से सुनना! चलो, कम— से—कम इस बहाने मेरी याद तो कर रहा है कोई! उसे धन्यवाद देना कि चलो इस बहाने तुमने चर्चा तो छेड़ी! कौन जाने, आज जो निंदा कर रहा है, कल प्रेम भी करने लगे! उसके प्रति दुर्भाव मत लेना।

खयाल रखना, प्रेम और घृणा में बड़ा फासला नहीं है। प्रेम घृणा बन सकता है; घृणा प्रेम बन सकती है। वे रूपांतरित हो सकते हैं। तुमने देखा नहीं है, दोस्त ही तो दुश मन बन जाते हैं! तो प्रेम कब घृणा बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। तुम प्रेमियों को नहीं देखते? पति —पत्नी सुबह बैठे थे कितने मगन और सांझ झगड़ा हो गया है और एक — दूसरे को मिटा डालने को तत्पर हो गए हैं। और कल सुबह फिर आनंदित हैं और फिर साथ बैठे हैं। तुम प्रेम और घृणा का यह खेल नहीं देखते? धूप—छांव की तरह यह खेल चलता है।

तो जो आदमी मेरी निंदा कर रहा है, एक बात तो पक्की है कि वह मुझमें उत्सुक हो गया है। यह तो अच्छी बात है। मुझमें रस जगा है। मेरी उपेक्षा तो नहीं कर रहा है, इतनी बात पक्की हो गयी। इसको सौभाग्य समझो। आनंद से सुनना। शांति से सुनना। तुम्हारी शांति और तुम्हारा आनंद ही शायद उस आदमी की घृणा को प्रेम में बदलने का कारण हो जाए। उससे झगड़ना भी मत। उसे समझाने की, बदलने की, उसे चेष्टा में भी मत लग जाना, क्योंकि ऐसी चेष्टाएं सफल नहीं होतीं। लेकिन अगर तुम शांत रह सको, अगर तुम प्रसादपूर्ण रह सको, अगर तुम उसे धन्यवाद दे सको और कह सको कि ” चलो इस बहाने याद तो की, मुझे याद तो करवायी! कांटा ही चुभाया, लेकिन मुझे तो याद आयी! फूल से भी याद आती है, कांटे से भी याद आती है। मैं तुम्हारा धन्यवादी हूं।”…… तो शायद तुम्हारा ऐसा शांत व्यवहार उसे चौंकाए, उसे झकझोर जाए। उससे इतना ही कहना कि निंदा जितनी करनी है उतनी करो, मगर कभी पास आकर देखने की कोशिश भी करो। कभी दो क्षण वहां बैठो भी। हो सकता है तुम्हीं ठीक होओ, तो तुम्हारी धारणा और भी मजबूत हो जाएगी चलने से। और कौन जाने तुम गलत होओ तो एक गलती से छुटकारा हो जाएगा।

जब भी कोई निंदा करे, तुम समझाने की कोशिश मत करना। तुम नहीं समझा पाओगे। यह तर्क—वितर्क का काम नहीं है। यह मामला प्रेम का है। उसे पास ले आओ। यह बीमारी संक्रामक है। उसे निमंत्रण दे दो। उससे कहना कि आओ मेरे साथ, तुम भी चलो। तुम ठीक होओगे तो मैं भी तुम्हारे साथ हो लूंगा कल। कौन जाने तुम गलत होओ। मगर निर्णय के पहले निकट आना तो जरूरी है।

और एक बात खयाल रखना, जो मेरी निंदा कर रहा है वह उत्सुक तो हो गया है। वह निंदा ही इसलिए कर रहा है कि अब अपनी उत्सुकता से घबड़ा रहा है। निंदा एक मनोवैज्ञानिक बचाव का उपाय है। अब वह हर रहा है कि अगर उसने निंदा न की तो कहीं मेरे पास न चला जाए। निंदा के द्वारा वह बीच में दीवालें खड़ी कर रहा है, ताकि जाने के उपाय बंद हो जाएं। मेरे देखे तो शुभ हो रहा है।

तो मैं तुमसे न कहूंगा कि निंदा का निषेध करो और मैं तुमसे यह भी न कहूंगा कि अपने कान भी धो डालना। ऐसे तो दिनभर कान ही धोते—धोते तुम्हारा समय जाया होगा। इन फिजूल की बातों में मत पड़ो। जिन्होंने कहा होगा, दो कौड़ी के लोग रहे होंगे। उन्हें खुद भी अपने होने पर भरोसा न रहा होगा। मुझे भरोसा अपने पर है। तुम चिंता ही न करो। तुम किसी भांति उन्हें मेरे पास ले आओ। और वे आना चाह रहे हैं, इसलिए तो निंदा कर रहे हैं।

एक ही बात खयाल करो: प्रशंसा करनेवाला भी मुझसे जुड गया, निंदा करने वाला भी मुझसे जुड गया। मुझसे वंचित वही रह सकता है जिसको उपेक्षा है। जो कहे——हमें कोई लेना—देना नहीं, न प्रशंसा न निंदा, हमें कुछ लेना—देना नहीं——उसका जुड़ना बहुत मुश्किल है। वही दया योग्य है। अगर समझाना हो तो उसको समझाना——उपेक्षावाले को। चाहे तुम्हारी समझाने से उसे निंदा ही पैदा हो जाए तो भी शुभ है; कम—से—कम निंदा तो होगी, कुछ तो होगा, मेरे खिलाफ तो होगा। मुझसे जुड़ तो गया, मुझसे संबंध तो बन गया।

शत्रुता भी एक तरह की मित्रता है, एक तरह का संबंध है। अब कभी—कभी रात में मैं उसे याद आऊंगा। एकांत बिस्तर पर पड़ा हुआ होगा, कभी सपने में उतरूंगा। कभी सोचेगा भी कि मैंने यह कहा, यह ठीक है या गलत है; तुम उसे सोचने दो, विचारने दो। तुम्हें भयभीत होने का कोई कारण नहीं।

जिन गुरुओं ने तुमसे कहा है कि कान धो डालना, उन्हें दो तरह के हर थे। बड़ा हर तो उन्हें यह था कि कहीं कोई निंदा करता हो तो तुम सुन—सुन कर उससे राजी न हो जाओ। उन्हें हर यह था। मुझे तुम पर भरोसा है। तुम मेरे पास आ ही सके हो उन सब निंदाओं को सुनने के बाद। वे कसौटियां तुम पूरी कर चुके हो। जितनी गालियां तुम सुन सकते थे, वे तुम सुन ही सके हो, अब नयी गाली कोई शायद ही खोज पाए। कोई निंदा करता हो तो उससे कहना : कुछ नई निंदा करो, यह तो मैं सुन चुका हूं, यह तो बहुत बार सुन चुका हूं; इसके बावजूद भी उनसे जुड़ा हूं। कुछ नई निंदा करो, कुछ खोजो, कुछ आविष्कार करो। ये क्या पुरानी पिटी — पिटायी बातें दोहरा रहे हो!

जिन्होंने कहा है, निंदा का निषेध, बचना… और ऐसे शास्‍त्रों में उल्लेख हैं, वे शास्‍त्र कमजोरों के लिखे हुए हैं। ऐसे शास्‍त्र हैं भारत में जिनमें लिखा है… हिंदुओं के पास ऐसे शास्‍त्र हैं, जैनों के पास ऐसे शास्‍त्र हैं। हिंदुओं के शास्‍त्रों में लिखा है : अगर पागल हा थी भी तुम्हारा पीछा कर रहा हो और जैन मंदिर में शरण मिल सकती हो तो भी भीतर मत जाना। क्योंकि जैन निंदक है हिंदुओं के, कहीं निंदा का कोई शब्‍द तुम्हारे कान में पड़ जाए। और ठीक यही बात जैन शास्त्रों में भी लिखी है, इसका उत्तर —— ठीक यही कि अगर पागल हा थी तुम्हारे पीछे — पीछे चल रहा हो और तुम खतरे में हो, जीवन गंवाने का खतरा आ गया हो और हिंदू मंदिर में जाकर शब्‍द मिल सकती हो, जीवन बच सकता हो, तो पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना उचित है, मगर हिंदू मंदिर में मत जाना, क्योंकि वहां कोई जैन धर्म की निंदा का विचार तुम्हारे कान में पड़ जाए!

ये बड़े कमजोर लोग रहे होंगे। यह भी कोई बात हुई? ऐसे बच — बच कर कैसे बचोगे? और इतने बचने का कारण क्या है? क्या तुम्हें भरोसा नहीं है? तुम्हारी श्रद्धा इतनी अधूरी है, इतनी नपुंसक है?

जिसने मुझे चाहा है, जिसने मुझे प्रेम किया है, सब निंदाएं उसके प्रेम की कसौटी होंगी, चुनौतियां होंगी, कि क्या इन सारी निंदाओं के बाद भी प्रेम बच सकता है? बचे तो ही बचाने योग्य था। न बचे तो अच्छा हुआ, झंझट मिटी —— तुम भी मुक्त हुए, मैं भी मुक्त हुआ। मैं कमजोरों से जुडा रहना भी नहीं चाहता। और ऐसे लचर — पचर लोगों को मैं चाहता भी नहीं कि मेरे पास हों। उनका कोई मूल्य नहीं है। व्यर्थ भीड़ थोड़े ही बढ़ानी है यहां। यहां कुछ वस्तुत : काम करना है, भीड़ नहीं बढ़ानी है। यहां वस्तुत : जीवन रूपांतरित करना है। यह प्रयोग श प्रसा है। यहां रसायन खोजी जा रही है तुम्हारे रूपांतरण की। यह कोई बाजार नहीं है। यहां हमारी उत्सुकता इसमें नहीं है कि कितने लोग आते हैं। मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं कि भीड़ में मेरी उत्सुकता हो। भीड़ में मेरी उत्सुकता ही नहीं है। मेरी उत्सुकता व्यक्तियों में है। और व्यक्ति का मतलब होता है विद्रोही। और व्यक्ति का मतलब होता है : जो अपने ढंग से सोचता, अपने ढंग से जीता; जो अपनी श्रद्धा के अनुकूल चलता।

और हर निंदा कसौटी होगी। तुम घबड़ाओ मत। और निंदा तो बढ़ेगी। जैसे — जैसे लोगों को मैं बदलूंगा, वैसे — वैसे निंदा बढ़ेगी। कठिनाइयां रोज बढ़ती जानेवाली हैं, कम होनेवाली नहीं हैं।

जो मेरे साथ जुड़े हैं, वे यह बात सोचकर ही जुडे : तुम्हें अपनी सूली अपने कंधे पर ढोनी ही होगी। मगर जो जानेंगे, वे आनंदित होंगे कि फिर सूली ढोने का एक मौका आया। क्योंकि वही तो परमात्मा के निकट जाने का उपाय है। मृत्यु ही तो पुनर्जीवन का द्वार है।

तुम धन्यभागी हो कि किसी ऐसे आदमी से तुम जुड़े हो, जिसकी बहुत निंदा होगी, हुई है और बहुत होनी है। कठिनाइयां रोज सख्त होती चली जाएंगी, क्योंकि जितना लोगों को दिखाई पड़ेगा कि मुझमें लोग आकर्षित हो रहे हैं उतनी ही उनकी अड़चनें बढ़ती जाएंगी। और ये अड़चनें एक दिशा से नहीं आएंगी, सब दिशाओं से आएंगी। क्योंकि यहां हिंदू हैं मेरे पास, मुसलमान हैं मेरे पास, ईसाई हैं, यहूदी हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, सिक्ख हैं, पारसी हैं। यहां सब धर्मों के लोग मेरे पास हैं, तो सब धर्मों के गुरु मेरे खिलाफ हो जानेवाले हैं। हैं ही। सब मंदिरों से और सब मस्जिदों से मेरे खिलाफ स्वर उठने ही वाला है। यह स्वाभाविक है। कोई एकाध मेरे खिलाफ नहीं होगा। जीसस के खिलाफ तो सिर्फ यहूदी थे और बुद्ध के खिलाफ सिर्फ हिंदू थे। मेरे खिलाफ सारे धर्म होनेवाले हैं, क्योंकि सारे धर्मों को चिंता पैदा होनेवाली है।

यहां मेरे पास पत्र आने शुरू हो गए हैं——सारी दुनिया से पत्र आते हैं। किसी का बेटा आकर संन्यासी हो गया है; वे ईसाई हैं, मां—बाप नाराज हैं। वे धमकियां भेजते हैं कि आपने हमारे बेटे को विकृत कर दिया, विक्षिप्त कर दिया, सम्मोहित कर लिया। किसी की बेटी आकर संन्यस्त हो गयी है; परिवार यहूदी है; वह नाराज है। सारी दुनिया से लोग आ रहे हैं यहां। सारी दुनिया में निंदा होने वाली है। बुद्ध की निंदा तो सिर्फ बिहार में हुई थी; सीमित थी। जीसस की निंदा तो सिर्फ जेरुसलम के आस—पास के छोटे—से इलाके में हुई थी; बड़ी सीमित थी। मेरी निंदा तो असीम होनेवाली है वह एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक दुनिया में होने वाली है। उसके लिए तुम्हें तैयार होना चाहिए।

तो मैं तुमसे नहीं कह सकता कि निंदा मत सुनना। सुननी ही पड़ेगी। आनंद से सुनना, यही कह सकता हूं। और कान वगैरह धोना मत। कान क्या खराब करना है दिनभर धो— धो कर? इतना पानी कान में डालोगे, धीरे— धीरे सुनने इत्यादि की ही क्षमता खो जाएगी। इस फिक्र में ही मत पड़ना। मौज से सुनना। आनंद से सुनना। नाचते हुए सुनना। हंसते हुए सुनना। तुम्हारा हंसना, तुम्हारा मुस्कराना, तुम्हारा नाच——बदलाहट का कारण बनेगा। दूसरा सोचेगा——आखिर तुम प्रश्‍न—चिह्न बन कर खड़े हो जाओगे न! ——दूसरा सोचेगा कि मैं निंदा कर रहा हूं, और यह आदमी उद्विग्न भी नहीं है, जरूर कुछ हो गया है, जरूर कुछ हुआ है। इसे कुछ मिल गया है, जिसका मुझे पता नहीं है। मैं भी जाऊं और एक बार देखूं।”

बस तुम इतना ही कर सको कि तुम्हारा व्यक्तित्व निमंत्रण बन जाए, काफी है; शेष मैं कर लूंगा। तुम ले आओ यहां, शेष तुम मुझ पर छोड़ो। तुम्‍हें सम्‍मोहित कर लिया तो उन्‍हें भी सम्मोहित कर लूंगा। आदमी सब आदमी जैसे हैं।

तीसरा प्रश्‍न :

 

आपके सत्संग में रहकर बड़े ही आनंद का अनुभव हो रहा है और जीवन एक उत्सव नजर आ रहा है। लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है? मन बड़ा लोभी है।

न लोभ के कारण ही बहुत कुछ गवाता है। मन ” लेकिन, किंतु, परंतु ” उठाता है।

पूछते हो: ”आपके सत्संग में रहकर बड़े आनंद का अनुभव हो रहा है।” लेकिन मन बेचैन हो रहा होगा भीतर। वह कह रहा है: ”इतना आनंद अनुभव नहीं होने दूंगा! क्या समझ रखा है?” मन हमेशा, दुःखी होओ, तो प्रसन्न होता है। इसको समझ लेना। इस सूत्र को खयाल में ले लेना। जब भी तुम दुःखी होते हो, मन प्रसन्न होता है, क्योंकि तुम्हारे दुःखी क्षणों में मन मालिक हो जाता है। तुम मन से सलाह लेने लगते हो। तुम पूछते हो: मैं क्या करूं, क्या न करूं? मन दिशा देने लगता है।

दुःखी अवस्था में मन की मालकियत कस जाती है तुम्हारे ऊपर। जब तुम आनंदित होते हो तो मन को एक तरफ रख देते हो। कौन फिक्र करता है मन की! अब तुम आनंदित हो तो मन से कुछ पूछना नहीं है। आनंदित चित—अवस्था मन के पार ले जाने लगती है। मन चिंतित हो उठता है। मन पीछे खींच लेना चाहता है। मन सवाल उठाता है कि क्या समझ रखा है तुमने, यह आनंद है भी? पहली बात, थोड़ा सोचो तो, कहीं कल्पना ही न हो!

मेरे पास लोग आते हैं। मैं उस आदमी की तलाश में हूं जो कभी मेरे पास आकर कहे कि मैं बहुत दुःखी हूं, कहीं यह मेरे मन की कल्पना न हो! आज तक किसी ने कहा नहीं। लेकिन रोज कोई—न—कोई आकर कहता है कि बड़ी हैरानी हो रही है, मैं आनंदित तो हूं, लेकिन सवाल यह उठता है: ”कहीं यह कल्पना न हो?” दुःख पर यह सवाल क्यों नहीं उठता? नरक होता है तो तुम मानते हो कि यथार्थ है और जब स्वर्ग की थोड़ी—सी झलक आती है, तत्क्षण मन सवाल उठाता है कि यह कल्पना होगी, यह सपना होगा। सुख ही हो नहीं सकता। आनंद कहीं होता है? दुःख ही यथार्थ है।

कांटे को ही मानता है मन, फूल को स्वीकार नहीं करता। घावों को ही मानता है मन, फूल को अंगीकार नहीं करता। और जब कभी भूल—चूक से एक फूल तुम्हारे भीतर उतर आता है और एक सुवास तुम्हारे भीतर लहराती है, तो मन संदिग्ध होकर ”किंतु—परंतु” पूछने लगता है। वह कहता है : कल्पना होगी, सपना होगा, तुम किसी भांति में पड़े हो, तुम किसी भूल में उलझ गए हो। यह वातावरण का प्रभाव है। या तुम सम्मोहित कर लिए गए हो। ठीक से सोच लो, फिर कदम आगे बढ़ाना। यहां खतरा है। तुम किसी भ्रम में तो नहीं पड़े जा रहे हो? तुम किसी माया—जाल में तो नहीं उलझ गए हो? किसी जादूगर के हाथों में तो नहीं पड़ गए हो?

मन आनंद पर सदा प्रश्‍न उठाता है। अब यह प्रश्‍न उठाया मन ने: ”लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है? ” दुःख पर नहीं पूछते कभी। जब दुःख होता है तब तुम यह नहीं कहते कि क्षणभंगुर दुःख, क्या चिंता करनी! इतना कहो तो मुक्त हो जाओ। इतना जान लो तो मुक्ति हो जाए। और है क्या मुक्ति?

क्षणभंगुर है। अभी है, अभी चला जाएगा। क्या फिक्र करनी!

नहीं; तब तुम बड़े उद्विग्न हो जाते हो। अब आनंद घट रहा है तो मन कह रहा है: क्षणभंगुर है। मन बड़ा जानी हो गया है। मन बड़ा महात्मा हो गया है। मन कह रहा है क्षणभंगुर है, इसमें उलझ मत जाना! जैसे कि मन के पास किसी शाश्वत आनंद को देने का उपाय है!

अगर क्षणभंगुर दु :ख में और क्षणभंगुर सुख में चुनना हो तो क्या चुनोगे? चलो मान लो कि क्षणभंगुर है, दुःख तुम्हारे शाश्वत हैं? क्षणभंगुर आनंद और क्षणभंगुर दु :ख में अगर चुनाव करना हो तो क्या चुनोगे? तो भी क्षणभंगुर आनंद ही चुनना। क्षणभर को ही सही, है तो आनंद!

फिर और बात समझ लो : जो क्षण में उतर रहा है, वह शाश्वत का हिस्सा हो सकता है। जो झील में बन रहा है चांद, झील में तो क्षणभंगुर है, जरा एक कंकड़ी फेंक दो और कैप जाएगी झील और चांद का प्रतिबिंब टुट जाएगा, बिखर जाएगा, खंड—खंड हो जाएगा। लेकिन जिसका यह प्रतिबिंब है, वह कंकड़ी फेंकने से खंडित नहीं होगा।

तुम्हारे मन में जो छायाएं बनती हैं शाश्वत की, वे क्षणभंगुर होती हैं, क्योंकि मन में सिर्फ क्षणभंगुर ही कुछ हो सकता है। मन तरंगित वस्तु है। उसमें तरंगें उठ रही हैं। लेकिन जिसकी छाया बन रही है, वह शाश्वत है।

सुख और आनंद का यही भेद है। सुख शाश्वत की छाया नहीं है। सुख किसी की छाया नहीं है। सुख लहरों का नाम है। जैसे दु :ख लहरों का नाम है। जिन लहरों को तुम पसंद करते हो, वे सुख; और जिन लहरों को तुम नापसंद करते हो, वे दुःख। और तुमने देखा, तुम्हारे सुख और दुःख में कोई ज्यादा फासला नहीं होता! दु :ख सुख हो सकते हैं, सुख दु :ख हो सकते हैं।

एक सम्राट एक गरीब स्त्री के प्रेम में पड़ गया। सम्राट था! स्त्री तो इतनी गरीब थी कि खरीदी जा सकती थी, कोई दिक्कत न थी। उसने स्त्री को बुलाया और उसके बाप को बुलाया और कहा : जो तुझे चाहिए ले—ले खजाने से, लेकिन यह लड़की मुझे दे—दे। मैं इसके प्रेम में पड़ गया हूं। कल मैं घोडे पर सवार निकलता था, मैंने इसे कुएं पर पानी भरते देखा बस तब से मैं सो नहीं सका हूं।

बाप तो बहुत प्रसन्न हुआ, लेकिन बेटी एकदम उदास हो गयी। उसने कहा, मुझे क्षमा करें! आप कहेंगे तो आपके राजमहल में आ जाऊंगी, लेकिन मेरा किसी से प्रेम है। मैं आपकी पत्नी भी हो जाऊंगी, लेकिन यह प्रेम बाधा रहेगा। मैं आपको प्रेम न कर पाऊंगी।

सम्राट विचारशील व्यक्ति था। उसने सोचा कि यह तो कुछ सार न होगा। कैसे प्रेम हो मुझसे इसका? किससे इसका प्रेम है, पता लगवाया गया। एक साधारण आदमी। सम्राट बड़ा हैरान हुआ कि मुझे छोड्कर उससे इसका प्रेम है! लेकिन प्रेम तो हमेशा बेबूझ होता है। उसने अपने वजीरों को पूछा कि मैं क्या करूं कि यह प्रेम टूट जाए?

तुम चकित होओगे, वजीरों ने जो सलाह दी, वह बड़ी अद्भुत थी। तुम मान ही न सकोगे कि यह सलाह कभी दी गयी होगी। क्योंकि यह सलाह… यह कहानी पुरानी है, फ्रायड से कोई हजार साल पुरानी। फ्रायड यह सलाह दे सकता था। मनोविज्ञान यह सलाह दे सकता है अब। और मनोविज्ञान भी सलाह देने में थोड़ा झिझकेगा। सलाह वजीरों ने यह दी कि इन दोनों को नग्न करके एक खंभे से बांध दिया जाए, दोनों को एक—दूसरे से बांध दिया जाए और खंभे से बांध दिया जाए।

सम्राट ने कहा : इससे क्या होगा? यही तो उनकी आकांक्षा है कि एक — दूसरे की बांहों में ……बध जाए।

उन्होंने कहा : आप फिक्र न करें। बस फिर उनको छोड़ा न जाए, बंधे रहने दिया जाए।

उनको अलिंगन में बांधकर नग्न एक खंभे से बांध दिया गया।

अब तुम जरा सोचो, जिस स्त्री से तुम्हारा प्रेम है, फिर वह कोई भी क्यों न हो, वह इस जगत की सबसे सुंदरी क्यों न हो; या किसी पुरुष से तुम्हारा प्रेम है, वह मिस्टर युनिवर्स क्यों न हों, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता —— कितनी देर आलिंगन कर सकोगे? पहले तो दोनों बड़े खुश हुए, क्योंकि समाज की बाधाओं के कारण मिल भी नहीं पाते थे। जातियां अलग थीं, धर्म अलग थे, चोरी — छिपे कभी यहां — वहां थोड़ी देर को गुफ्तगू कर लेते थे थोड़ी — बहुत। एक — दूसरे के आलिंगन में नग्न! पहले तो बड़े आनंदित हुए, दौड़कर एक — दूसरे के आलिंगन में बंध गए। लेकिन जब रस्सियों से उन्हें एक खंभे से बांध दिया गया तो कितनी देर सुख सुख रहता है! कुछ ही मिनट बीते होंगे कि वे घबड़ाने लगे कि अब अलग कैसे हों, अब भिन्न कैसे हों, अब छूटें कैसे? मगर वे बंधे ही रहे।

कुछ घंटे बीते और तब और उपद्रव शु रू हो गया। मलमूत्र का विसर्जन भी हो गया। गंदगी फैल गयी। एक — दूसरे के मुंह से बदबू भी आने लगी। एक — दूसरे का पसीना भी। ऐसी घबड़ाहट हो गयी। और चौबीस घंटे बंधै रहना पड़ा। फिर जैसे ही उनको छोड़ा, कहानी कहती है फिर वे ऐसे भागे एक — दूसरे से, फिर दुबारा कभी एक — दूसरे का दर्शन नहीं किया। वह युवक तो वह गांव ही छोड्कर चला गया।

यह प्रेम का अंत करने का बड़ा अहत उपाय हुआ, लेकिन बड़ा मनोवैज्ञानिक।

तुम देखते हो, पश्‍चिम में प्रेम उखड़ता जा रहा है, टूटता जा रहा है! कारण? स्त्री और पुरुष के बीच कोई व्यवधान नहीं रहा है, इसलिए प्रेम टूट रहा है। स्त्री और पुरुष इतनी सरलता से उपलब्ध हो गए हैं एक — दूसरे को कि प्रेम बच ही नहीं सकता, प्रेम टूटेगा ही। संयुक्त परिवार नहीं रहा पश्‍चिम में, तो पति और पत्नी दोनों रह गए हैं एक मकान में अकेले। जब मिलना हो मिलें; जो कहना हो कहें; जितनी देर बैठना हो पास बैठें —— कोई रुकावट नहीं, कोई बाधा नहीं। जल्दी ही चुक जाते हैं। जल्दी ही सुख दु:ख हो जाता है।

तुमने देखा, वही संगीत तुम पहली दफा सुनते हो, सुख; दुबारा सुनते हो, उतना सुख नहीं रह जाता। तीसरी बार सुनते हो, सुख और कम हो गया। चौथी बार ऊब पैदा होने लगती है। पांचवीं बार फिर कोई रिकार्ड चढ़ाए तो तुम सोचते हो कि मेरा सिर घूम जाएगा। तुम कहते हो : ” अब बंद करो! अब बहुत हो गया।’’ यही वही संगीत पहली दफा सुख दिया, दूसरी दफा कम, तीसरी दफा और कम। अर्थ शास्‍त्री नियम की बात करते हैं : ” ला आफ डिमिनिशिग रिटर्नश ”। हर बार उसी चीज को दोहराओगे तो सुख की मात्रा कम होती जाती है।

पुराना ढंग प्रेम को बचाने का ढंग था। पति — पत्नी मिल ही नहीं सकते थे। दिन में तो मिल ही नहीं सकते थे। पति — पत्नी भी नहीं मिल सकते, दूसरे की पत्नी से मिलना तो मामला दूर।

पश्‍चिम में तो दूसरे की पत्नी से मिलना भी इतना सरल हो गया है, जितना पहले अपनी पत्नी से भी मिलना सरल नहीं था। दिन भर तो मिल ही नहीं सकते थे। परिवार में बड़े — बूढे थे, बुजुर्ग थे, उनके सामने कैसे मिल सकते थे! रात में भी मिलना बड़ा चोरी — छिपे था। अपनी पत्नी से चोरी — छिपे मिलना! क्योंकि जोर से बोल नहीं सकते थे। छोटे — छोटे घर, जिनमें पचास लोग सोए हुए हैं। चोरी — छिपे, रात के अं धेरे में। ठीक — ठीक पति अपनी पत्नी के चेहरे को जानता भी नहीं था कि वह कैसा है। अं धेरे में जानेगा भी कैसे? कभी घूंघट उठा कर रो श में ठीक से देखा भी नहीं था। प्रेम अगर लंबा जिंदा रह जाता था तो अश्‍चर्य नहीं, क्योंकि प्रेम को, सुख को क्षीण होने का मौका ही नहीं था। दिन — भर अपने काम — धंधे में रहते दोनों और याद जारी रहती।

अभी हालतें उल्टी हो गयी हैं। चौबीस घंटे एक — दूसरे के सामने बैठे हैं, वही खंभा, बंधे हैं। एक — दूसरे से चिढ़ पैदा होती है। पत्नी चाहती है कि कहीं उठो, कहीं जाओ, कुछ करो, यहीं क्यों बैठे हो?

जीवन के बड़े अद्दभुत नियम हैं! सुख और दु:ख में बहुत फर्क नहीं है। वही उत्तेजना सुख है, वही उत्तेजना दु:ख है। पसंद की तो सुख है, ना पसंद की तो दु:ख है। बस नापसंद — पसंद का फर्क है। दोनों तरंगें हैं। दोनों समय के भीतर घट रही हैं। दोनों समय की झील की तरंगें हैं।

आनंद का अर्थ है : समय के पार से कोई चीज आ रही है; समय में उसकी छाया बन रही है। छाया तो क्षण भंगुर छाया होगी। सत्संग में जो आनंद घटता है, वह आनंद क्षण भंगुर है; लेकिन अगर छाया का इशारा समझ लोगे और मूल की तरफ चल पडोगे तो शाश्वत मिल जाएगा।

लेकिन लो भी मन है! वह कहता है : क्षण भंगुर!

फिर और भी एक बात समझ लेना : अगर क्षण भर को तुम्हें आनंदित रहने की कला आ गयी तो तुम पूरे जीवन आनंदित रह सकते हो, क्योंकि एक बार एक ही क्षण तो मिलता है, दो क्षण एक साथ तो मिलते नहीं। अगर एक क्षण को तुम आनंद में रंग लेने की कला जानते हो तो एक ही क्षण मिलता है एक बार, उसको रंग लेना, रंगते जाना, उसमें धुन गुंजाए जाना। कला तो तुम्हारे हाथ में आ गयी।

एक बार में एक ही कदम उठता है। और एक बार में एक ही क्षण मिलता है। एक क्ष ण को आनंदित होने का जिसने राज सीख लिया उसके हाथ से कुंजी मिल गयी; वह कुंजी सारे स्वर्गो के द्वार खोल देगी।

लेकिन पूछनेवाले के मन में लोभ है। और जहां लोभ है वहां संदेह भी होगा।

फिर से प्रश्‍न को पढ़ें तो खयाल में आ जाएगा कहां चूके हैं : ” आपके सत्संग में रह कर बड़े ही आनंद का अनु भव हो रहा है।’’ अनु भव नहीं हो रहा होगा।… ”और जीवन एक उत्सव नजर आ रहा है।’’ ” नजर ” आ रहा होगा। मान लिया होगा कि होना चाहिए आनंद, हो रहा है आनंद। सत्संग में बैठे हैं तो आनंद होना ही चाहिए; नहीं तो यहां बैठे ही किसलिए हैं? मान लिया होगा। या और लोग तुम्हारे आसपास आनंदित होंगे, उनके आनंद की तरंग तुम्हें छू रही होगी। अब उनके बीच तुम गैर—आनंदित बैठे रहो तो बुद्ध मालूम पडोगे, जड़ मालूम पडोगे। जहां लोग मस्त हो रहे हैं वहां तुम भी मस्ती में पड़ जाते हो। लेकिन वह सिर्फ भीड़ का संग—साथ होगा, तुम्हारा अपना अनुभव नहीं।

खयाल रखना, हम भीड़ की भावनाओं से बड़ी जल्दी प्रभावित हो जाते हैं। तुमने देखा, अगर लोग तेजी से चल रहे हों, उनके साथ तुम चलो तो तुम भी तेजी से चलने लगते हो! भीड़ अगर जोश में हो तो तुम भी जोश में आ जाते हो। भीड़ जो करती है वही तुम करने लगते हो। चार हंसते हुए आदमियों के बीच बैठ जाओ, तुम अपनी उदासी भूल जाते हो। और चार उदास लोगों के बीच बैठ जाओ तो तुम अपनी हंसी भूल जाते हो। तुम भीड़ से बड़ी जल्दी प्रभावित हो जाते हो।

यहां सत्संगियों की एकभीड़ है। उसमें यह भी हो सकता है कि तुम्हें कुछ खास आनंद न आ रहा हो; लेकिन दूसरे लोग आनंदित हैं, उनकी तरंग तुम्हें छू जाए, उनकी तरंग तुम्हारी हृदय—वीणा को बजा दे और तुम्हें नजर आने लगे कि आनंद आ रहा है। तभी ”किंतु— परंतु” उठ सकते हैं, नहीं तो नहीं उठ सकते। अगर तुम्हें सच ही आनंद आ रहा है, कौन फिक्र करता है कि क्षणभंगुर है! आनंद क्षणभंगुर भी हो तो शाश्वत दुःखों से बेहतर है। शाश्वत का ही क्या करोगे? खाओगे कि पिओगे, अगर दुःख हुआ शाश्वत। शाश्वत नरक को चुनोगे कि क्षणभंगुर स्वर्ग को चुनोगे? और क्षणभंगुर का भी अगर चुनाव कर लिया, ठीक चुनाव हुआ, तो उसी से धीरे—धीरे यात्रा आगे की खुलती है। एक—एक कदम चलकर आदमी हजारों मील की यात्रा पूरी कर लेता है।

नहीं; लेकिन सवाल उठता है: ”लेकिन क्या इस क्षणभंगुर जीवन का आनंद भी क्षणभंगुर नहीं है? ”

यह जीवन क्षणभंगुर नहीं है। यह जीवन शाश्वत है। बाहर का जीवन होगा क्षणभंगुर, भीतर का जीवन शाश्वत है। देह का जीवन होगा क्षणभंगुर, आत्मा का जीवन शाश्वत है। तुम बच्चे थे, अब जवान हो, कल बूढे हो जाओगे——लेकिन कुछ तुम्हारे भीतर है जो न तो कभी बच्चा था, न जवान हुआ और न बूढा होगा। वही तुम हो। वही तुम्हारा असली जीवन है। सत्संग में उसी की याद दिलायी जाती है, बारबार उसी की याद दिलायी जाती है। उसकी याद से ही आनंद उमगने लगता है। उसकी याद से ही सुगंध फैलने लगती है।

लेकिन लोभ बड़ा कमजोर होता है।

दरिया की जिंदगी पर सदके हजार जानें

मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना

लेकिन भयभीत और लोभी किनारे की मौत ही मरना चाहते हैं, तूफान में जाने से घबड़ाते हैं। और आनंद तूफान है। तुम्हारी साधारण जिंदगी स्थिर हो गयी है, सुरक्षित है। घर है, द्वार है, परिवार है——सब सुरक्षित है। जिस जीवन की तरफ मैं तुम्हें ले चल रहा हूं, वह किनारा छोड़ने का जीवन है; वह मझधार में डूबने का जीवन है।

दरिया की जिंदगी पर सदके हजार जानें

मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना

जो किनारे पर नहीं मरना चाहते, वही मेरे साथ आएं। जिन्हें मौज में उतरना है, जिन्हें दरिया के तूफान में उतरना है, जिन्हें जीवन की चुनौतियों में उतरना है, जो असुरक्षा में जाने को तत्पर हैं, जिन्हें अज्ञात की खोज करनी है —— वे ही मेरे साथ आएं। खतरनाक रास्ता है यह।

जीवन मुफ्त नहीं मिलता —— खतरों से कीमत चुकानी पड़ती है। और जो मेरे साथ आते हैं, वे पीछे लौट — लौट कर न देखें।

रहे हयात में मुडमुड़ के नक्शे—पा को न देख

मह और सितारे की शाने खिराम पैदा कर।

चंद्र—नक्षत्रों की चाल देखी है; वैसी चाल चाहिए।… मुड़—मुड़ के नक्शे—पा को न देखा… पीछे जो चिह्न छूट गए हैं पैरों के, उनको लौट—लौट कर क्या देखना। आंख आगे रखो। और चांदत्तारों के प्रसाद से चलो।… मह औ सितारे की शाने खिराम पैदा कर…।

यह जगत उन्हीं का है जो उस अनंत जीवन के साथ अपने को जोड़ लेने में समर्थ हैं। और अनंत जीवन कोई दूसरा जीवन नहीं है——यही जीवन है, ठीक से देखा गया। क्षणभंगुर ही शाश्वत है——ठीक से देखा जाए तो। और शाश्वत ही क्षणभंगुर मालूम होता है——ठीक से न देखा जाए तो। छाया को पकड़ो तो क्षणभंगुर, मूल को पकड़ लो तो शाश्वत। क्षणभंगुर सही, चलो, इस क्षणभंगुर आनंद के स्वाद को कंठ में उतरने दो। इस क्षणभंगुर आनंद पर श्रद्धा करो। इससे द्वार खुलेगा।

तुम देखते नहीं, दरवाजा खोलते हैं हम, बड़े से बड़ा किले का दरवाजा भी खोलें तो छोटी— सी चाबी से खुलता है। और चाबी जिस छेद में जाती है, वह जरा—सा होता है। मगर विराट दरवाजा खुल जाता है। शुरू में तो आनंद बूंद—बूंद आता है लेकिन बूंद—बूंद से ही तो सागर बन जाता है। बूंद और सागर में कुछ भेद थोड़े ही है। मात्रा का ही भेद है। श्रद्धा रखो।

खिजां की लूट से बरबादिए चमन तो हुई

यकीन आमदे फस्ले—बहार कम न हुआ

बहुत बार आता है पतझड़, लेकिन इससे वसंत पर भरोसा थोड़े ही खो देते हैं। बहुत बार उजड़ जाता है चमन, इससे कुछ आशियां बनाना थोड़े ही छोड़ देते हैं।

श्रद्धा रखो! शाश्‍वत यहां कहीं छिपा है —— कुंजी की तलाश! वही कुंजी जहां मिल जाए, उसी का नाम सत्संग है। और जिसने शाश्‍वत की थोड़ी पहचान कर ली, फिर ऐसा मत समझना कि वह क्षण भंगुर को छोड्कर भाग जाता है। भाग कर कहां जाओगे? सिर्फ क्षण भंगुर को देखने का उसका ढंग बदल जाता है। होता तो यहीं है —— इसी जीवन में, इन्हीं लोगों के साथ, इन्ही वृक्षों में, इन्हीं पहाड़ों में, इन्हीं चांदत्तारों में। होता तो यहीं है। सब ऐसा ही होता है। बाहर से तो कोई भेद पड़ता नहीं, लेकिन भीतर एक क्रांति हो गयी होती है। फिर खेलता रहता है इन्हीं क्षण भंगुर तरंगों से लेकिन अब जानता है कि तरंगें अपने — आप में कुछ भी नहीं हैं —— विराट सागर के अंग हैं। देखते हो

चमन में छेड़ती है किस मजे से गुंच ओ गुल को

मगर मौजे—सबा की पाक दामानी नहीं जाती

सुबह की हवा को देखा है; और किस मौज से छेड़ती है——फूलों को, पत्तियों को। कैसी खिलवाड़ करती है। लेकिन इससे कुछ सुबह की हवा की पवित्रता नष्ट तो नहीं हो जाती।

जो व्यक्ति एक बार उस परम का अनुभव कर लेता है, फिर सब ऐसा ही चलता है। नहीं तो कृष्ण के रास का अर्थ क्या होगा; कृष्ण की बजती बांसुरी का अर्थ क्या होगा; तुम जैसा कोई व्यक्ति अगर वहां होता कृष्ण की गोपियों में और गोपों में, तो पूछता कि ”ठीक है, मगर बांसुरी का स्वर, आखिर है तो बांसुरी का ही सुर, क्षणभंगुर। क्या बजा रहे हो; नाच में क्या रखा है; है तो क्षणभंगुर। इस तुम्हारे आलिंगन में भी क्या रखा है; है तो क्षणभंगुर।” नहीं, अगर तुम पहचानते हो तो क्षणभंगुर नहीं रह जाता। पहचान के साथ ही सब शाश्वत हो जाता है। फिर जीवन एक अपूर्व अभिनय है, लीला है।

मुझको दिल सोज नजारों का खयाल आता है

उजड़े गुलशन की बहारों का खयाल आता है

जब कोई गीत मचलता है मेरे होठों पर

दिल के टूटे हुए तारों का खयाल आता है

डूब जाते हैं वही जोरेतलातुम में नदीम!

जिनको का में कनारों का खयाल आता है

उनको ऐ ”साहिरा” मिलती नहीं मंजिल अपनी

जिनको का में सहारों का खयाल आता है।

सुरक्षा छोड़ो! सहारे छोड़ो! किनारे छोड़ो!

डूब जाते हैं, वही जोरेतलातुम में नदीम।

तूफान में केवल वे ही डूबते हैं, सिर्फ वे ही——

डूब जाते हैं वही जोरेतलातुम में नदीम

जिनको का में कनारों का खयाल आता है

तूफान में क्या किनारों की याद! तूफान में जूझो और तूफान किनारे हो जाते हैं। और जब तक मझधार किनारा न हो जाए, तब तक समझना तुमने अभी जीवन का ठीक—ठीक अर्थ समझा नहीं, अभिप्राय नहीं समझा। जब तक डूबना, उबरना न हो जाए, तब तक समझना परमात्मा से तुम्हारी पहचान नहीं हुई।

उनको ऐ ”साहिरा” मिलती नहीं मंजिल अपनी

जिनको का में सहारों का खयाल आता है

चौथा प्रश्‍न :

 

तन्मयता से किया गया प्रत्येक कार्य साधना है। तो क्या जरूरी कि परमात्मा की साधना के लिए संन्यास लिया जाए?

न्मयता कहां सीखोगे, कैसे सीखोगे? संन्यास और क्या है?

तन्मयता सीखने की एक विधि, एक उपाय। तन्मय होने का एक ढंग, एक शैली। नाम उसे तुम कुछ भी दो।

संन्यास क्या है? जिसे मैं संन्यास कहता हूं, वह क्या है?

मेरे साथ तन्मय होने की एक व्यवस्था।

तुम्हारी तरफ से यह घोषणा कि अब मैं तुम्हारे साथ चलने को राजी हूं जहां ले चलो। तूफान में तो तूफान में। मझधार में तो मझधार में। तुम डुबो तो तुम्हारे साथ डूबने को राजी हूं।

संन्यास का और क्या अर्थ है?

यह खतरा लेना। खतरा ही है। क्योंकि पता नहीं, मैं तुम्हें कहां ले जाऊं! तुम्हें कुछ पता नहीं है कि मैं तुम्हें किस तरफ ले जा रहा हूं। यह नाव कहां जाकर लगेगी, तुम्हें कुछ पता नहीं है। यह नाव मैं बीच में डुबा दूंगा या दूसरे किनारे पर पहुंचाऊंगा, तुम्हें कुछ पता नहीं है। तुम मेरे पास आए, तुमने मेरे हाथ में हाथ थाना और तुम्हारे भीतर एक श्रद्धा का जन्म हुआ——कि चलूंगा, यह खतरा लेने जैसा है। डूबे तो भी खतरा लेने जैसा है।

संन्यास का इतना ही अर्थ होता है कि तुमने अपने अस्त्र—शस्त्र डाल दिए कि तुम मेरे खिलाफ किसी तरह का सुरक्षा का उपाय अब न करोगे।

संन्यास का वही अर्थ होता है जो तुम जब अस्पताल जाते हो और आपरेशन की टेबिल पर लेटते हो और सर्जन के हाथ में छोड़ देते हो कि अब जो हो हो, क्योंकि क्या पता, क्या होगा। ये सर्जन नशे में हो सकता है, शराब ज्यादा पी गया हो कुछ—का—कुछ काट—पीट कर दे। पत्नी से झगड़ कर आया हो। क्रोध में हो। दो इंच की जगह चार इंच काट दे।

मैंने सुना है ऐसा कि एक सर्जन आपरेशन कर रहा था। अपेंडिक्स निकाली। बड़ा कुशल कारीगर था। उसके विद्यार्थी, उसके शिष्य, उसके मित्र सब किनारे खड़े होकर देख रहे थे। उसकी कुशलता की जगत् में ख्याति थी। वह जिस ढंग से निकालता था——उनकी सांसें रुकी रह गयीं। जिस कुशलता से, जिस कारीगरी से उसने अपेंडिक्स निकाली। जब अपेंडिक्स निकल गयी, उनके हाथों से बेतहाशा तालियां बज गयीं। सर्जन को इतना जोश आ गया कि जोश में उसने टेबल पर पड़े हुए आदमी के टांसिल भी निकाल दिए। जोश की वजह से! जैसा तुम कह देते हो न कभी, कोई संगीतज्ञ गा रहा हो, कह देते हो ”वन्समोर”! ताली बजा दी तो वह फिर दोहरा देता है।

अब क्या पता! लेकिन सर्जन के हाथ में जब तुम लेट जाते हो, छोड़ देते हो सब…. यह तो उससे भी बड़ी सर्जरी है। यहां शरीर के ही काटने की बात नहीं, यहां तो मन को काटने की बात है। यहां तो मन कटेगा तो ही तुम कुछ पा सकोगे। यहां तो तुम्हारे अहंकार को काट डालने की बात है।

तुम कहते हो: ”तन्मयता से किया गया प्रत्येक कार्य साधना है।” निश्‍चित। तन्मयता का तुम्हें पता है क्या अर्थ होता है? अगर तुम सत्य की खोज में लगे हो तो तन्मयता से लगने का अर्थ होगा: किसी सदगुरू के साथ एकरूप हो जाना। अगर तुम यहां सुनने बैठे हो तो तन्मयता का अर्थ होगा कि मेरे और तुम्हारे बीच कोई तर्क और कोई विवाद न रह जाये। तुम्हारे—मेरे बीच एक स्वीकार हो। तुम्हारे—मेरे बीच ”नहीं” गिर जाए, ”हां” का भाव उठे। वही संन्यास है।

संन्यास एक क्रांति है। इसलिए तो देखते हो न——लाल रंग क्रांति का रंग है! संन्यास का रंग है, यह आत्मक्रांति है।

सुर्ख कलियां सुर्ख पते सुर्ख फूल

सुर्ख तूफां सुर्ख आधी सुर्ख धूल

और हर सुर्खी में सुर्खिए—शराब

इकिलाबो इकिलाबो इंकिलाब।

यह एक क्रांति है। यह शराब की सुर्खी। यह लाल रग इस बात की सूचना है कि मैं मिटने को तैयार हूं; मैं नया होने को तैयार हूं; कि मैं अपना क्रास अपने कंधे पर रखने को तैयार हूं; कि मुश्किलें आएं कि कठिनाइयां आएं तो भी मैं इस यात्रा को करने को आतुर हूं; कोई भी कीमत चुकानी हो, मैं तैयार हूं।

संन्यास का भाव तो तुम्हारे भीतर उठ आया होगा, इसलिए सवाल उठा है। पूछा है तुमुल पांडे ने। जरूर कहीं भीतर भाव उठता होगा, कहीं प्यास जगती होगी; अन्यथा प्रश्‍न कैसे बनता? अब अगर तुम डरते हो, भागते हो, घबड़ाते हो… हजार कारण होते हैं डरने, भागने, घबड़ाने के… तो फिर तुम पछताओगे। तो फिर एक मौका आया था, जो तुम चूके। फिर किसी—न—किसी दिन तुम कहोगे आंसुओ से भरी हुई आंखों से:

दिल में सोजे—टाम की इक दुनिया लिए जाता हूं मैं

आह तेरे मैकदे से बेपिए जाता हूं मैं

जाते—जाते लेकिन इक पैमा किए जाता हूं मैं

अपने अज्मे—सरफरोशी की कसम खाता हूं मैं

फिर तेरी बज्मे—हसीं में लौटकर आऊंगा मैं

आऊंगा मैं और—ब—अंदाजे—दिगर आऊंगा मैं

आह’ वे चक्कर दिए हैं, गर्दिशे—ऐयाम ने

खोलकर रख दी हैं आंखें तल्खिए—आलाम ने

फितरते—दिल दुश्मने—नग्म: हुई जाती है अब

जिंदगी इक बर्क इक शोल: हुई जाती है अब

सर से पा तक एक खूनी आग बनकर आऊंगा

लाल : जारे रंगो—बू में आग बनकर आऊंगा

जा तो सकते हो, लेकिन खाली हाथ जाओगे। या तो भरे हाथ जाना और या फिर कम—से— कम इस प्यास को लेकर जाना कि ” जाते—जाते लेकिन इक पैमा किए जाता हूं, मैं एक वादा किए जाता हूं।

अपने अज्मे—सरफरोशी की कसम खाता हूं मैं

फिर तेरी बज्मे—हसीं में लौटकर आऊंगा मैं

आऊंगा मैं और — ब — अंदाजे — दिगर आऊंगा मैं

आना ही पड़ेगा।

तुम्हारे भाव को मैं समझा। तुम्हारी आकांक्षा को मैं समझा। तुम्हारे भय को भी समझा। यह सभी का भय है, यह कुछ तुम्हारा ही नहीं। यहां जो संन्यस्त हो गए हैं, उनका भी कभी यही भय था: क्या लोग कहेंगे? लोग हंसेंगे कि पागल समझेंगे? क्या कैसे काम चलेगा? कपड़े पहन कर गैरिक, दुकान कैसे चलेगी? गैरिक कपड़े पहनकर दफ्तर काम कैसे करने जाऊंगा? पिता क्या कहेंगे, मां क्या कहेगी, पत्नी क्या कहेगी, बेटे—बेटियां क्या कहेंगे? नाते—रिश्ते… हजार—हजार बातें। हजार—हजार चिंताएं।

लेकिन कभी ऐसी घड़ी आ जाती है आदमी की जिंदगी में, जब ये सब बातों का कोई मूल्य नहीं रह जाता; जब यह दिखाई पड़ता है कि ये सब बातें ऐसी ही चलती रहेंगी और एक दिन मौत आ जाएगी।

और तुम देखते हो, जब मुर्दे को उठाते हैं तो उसको लाल कपड़ा ओढ़ा देते हैं! मगर तब बहुत देर हो चुकी। अब कुछ सार नहीं कि अब लाल कपड़ा ओढ़ाओ। और जब मुर्दे को ले जाते हैं तो राम—नाम सत्य! अब बहुत देर हो चुकी, अब यहां सुननेवाला कोई भी नहीं रहा। मैं तुम्हें जिंदगी में लाल कपड़ा ओढ़ा देता हूं, अर्थी पर चढ़ा देता हूं, राम—नाम सत्य करा देता हूं।

संन्यास का अर्थ है: जीते जी मर जाना। संन्यास का अर्थ है: ऐसा जो अब तक का जीवन था, वह व्यर्थ था, ऐसा जानकर अब एक नए जीवन की तलाश शुरू होती है।

और जो आज हो सकता हो, उसको कल पर मत छोड़ना। जो अभी हो सकता हो, उसे स्थगित मत करना। न हो सकता है, मजबूरी है। जबर्दस्ती संन्यास लेना, ऐसा नहीं कह रहा हूं। जोर लगा कर संन्यास लेना, ऐसा नहीं कह रहा हूं। ऐसा लिया हुआ संन्यास दो कौड़ी का होगा। सहज भाव उठता हो तो फिर भय की चिंता नहीं लेना। भाव उठता हो तो फिर भाव के साथ बह जाना।

जबर्दस्ती भाव मत उठा लेना। भाव उठता ही न हो; औरों ने संन्यास लिया, यह देखकर संन्यास मत ले लेना। अन्यथा वह झूठ भीतर भाव उठता हो तो फिर दुनिया भी होगा, अभिनय होगा, पाखंड होगा। लेकिन तुम्हारे इनकार करती हो तो चिंता मत करना।

जलाले—आतिशो—बर्को—सहाब पैदा कर

अजल भी कांप उठे वह शबाब पैदा कर

तेरे खसम में है जलजलों का राज निहा

हर—एक गाम पर इक इंकिलाब पैदा कर

बहुत लतीफ है ऐ दोस्त! तेग का बोसा

यही है जाने—जहां इसमें आब पैदा कर

तेरा शबाब अमानत है सारी दुनिया की

तू खार—जारे—जहां में गुलाब पैदा कर

तू इंकिलाब की आमद का इंतजार न कर

जो हो सके तो अभी इंकिलाब पैदा कर

तुम प्रतीक्षा मत करो कि क्रांति आएगी। क्रांति कभी नहीं आती। क्रांति में जाना होता है।

तू इंकिलाब की आमद का इंतजार न कर

जो हो सके तो अभी इंकिलाब पैदा कर

और मैं जिस क्रांति की बात कर रहा हूं कोई सामाजिक—राजनीतिक क्रांति नहीं है। वह क्रांति है——व्यक्ति की क्रांति, आत्मिक क्रांति।

तन्मयता से ही जीवन जिया जाए, यही राज है। लेकिन तन्मयता कहां सीखोगे? तन्मयता सीखने के लिए, कोई जो तन्मय हो गया हो, उसके साथ जुड जाना होगा। किसी की वीणा बज उठी हो, उसकी वीणा के पास तुम अपनी गैर—बजती वीणा रख दो। पास रखे—रखे ही गैर—बजती वीणा के तार भी कैपने लगते हैं बजती वीणा की चोट से। कोई दीया जल गया हो, उसके पास अपने बुझे दीए को रख दो; कभी निकटता की ऐसी घड़ी आएगी कि जलते दीए से ज्योति लपकेगी और बुझे दीए को पकड़ जाएगी।

मेरा कुछ भी नहीं खोता है, तुम्हें बहुत कुछ मिल जाता है। जलता दीया अब भी जल रहा है। हजार दीए जला लिए हों तो कुछ ऐसा मत सोचना कि जलते दीए की कुछ रोशनी कम हो गयी। यही तो मजा है आत्मिक अनुभव का कि बाटो, लुटाओ——न लुटता है, न बटता है, बढ़ता ही चला जाता है, कुछ खर्च नहीं होता।

उपनिषद का वचन तुम्हें याद है? ईशावास्य उस वचन से शुरू होता है: पूर्ण से पूर्ण भी निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। तुम्हें जितना मुझसे निकालना हो निकाल लो, तुम जरा भी संकोच मत करना। संन्यास का इतना ही अर्थ है। लेकिन वे ही निकाल पाएंगे जो मेरे करीब आएंगे। करीब आना यानी संन्यास।

पांचवां प्रश्‍न:

 

इस बार संध्या—दर्शन में लगातार दो दिन प्रभु—पास का सुयोग मिला। पहले दिन कुछ देर आपको देखते रहने के बाद घबड़ाहट होने लगी, धड़कन तेज हो गयी, सिर में चक्कर, नशा जैसा और बेचैनी अनुभव हुई। दर्शन के बाद देर तक यह स्थिति रही। दूसरे दिन आपके पास आने पर आपको प्रणाम कर आंखें बंद कर लीं और ध्यान में डूब गया। पहली बार आपका अहत सान्निध्य पाया——इतना निकट कि खुली आंखों से आपको कभी नहीं देख पाया था। भीतर शीतलता, गहन मौन और शांति बहुत देर तक छायी रही। यह क्या है?

ही सत्संग है। जो मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूं वह खुली आंखों से नहीं देखा जा सकता; उसे देखने के लिए बंद आंख चाहिए। जो मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूं वह अदृशय है। इन आंखों के लिए अदृशय है। बाहर की दो आंखों के लिए अदृशय है। लेकिन भीतर की आंखों के लिए अदृश्य नहीं है।

पहली दफा, धर्मशरणदास! तुम्हें सत्संग का स्वाद आया। अब यह बढ़ता जाएगा। अब इसमें रमो। अब इसको जितना पुकार सको पुकारो। और जल्दी ही तुम अनुभव करोगे कि इसके लिए मेरे पास ही आकर बैठने की कोई जरूरत नहीं है। जब भी तुम मुझे याद करो, कितने ही दूर हजार मील दूर से, तुम्हारी याद पर निर्भर है। अगर याद तुम्हारी पूरी हो जाए और आंख तुम्हारी सच में बंद हो जाए, तो तुम फिर यही पाओगे, सब जगह पाओगे। तुम्हारी असली दीक्षा अब हुई। एक संन्यास था, जो तुमने पहले लिया था; वह तो केवल श्दुरुआत थी। अब असली संन्यास घटा। अब तुम मुझसे भीतर से जुड़े।

शुभ हुआ। अब इस पर पानी सींचो। इस पौधे को कुम्हला जाने मत देना।

छठवां प्रश्‍न :

 

कल प्रवचन के आधे घंटे पहले जब मैंने आपकी ओर गौर से देखा, तब आपके सिर के आसपास शुभ प्रकाश की छाया जैसी कुछ चीज महसूस हुई। पहले इस बात पर मुझे शक हुआ, मगर फिर— फिर देखने की कोशिश की, तब भी वही दिखाई दिया। और अब तक कैसे चूका, यह खयाल आते ही रोया। कृपया स्पष्ट करें कि यह क्या हुआ?

नंदतीर्थ! तुम धन्यभागी हो कि जल्दी ही तुम्हें ऐसा दिखाई पड़ा। वही मैं हूं! जो तुम्हें प्रकाश की छाया की भांति मालूम पड़ा है, वही मैं हूं! यह देह उसकी छाया है। यह देह मूल नहीं है, मूल वही है। वह जो रोशनी तुम्हें दिखाई पड़ी, वही मूल है। यह देह उसके पीछे चलनेवाली छाया है।

मगर हम देह से इतने बंधे हैं कि हमने देह को मूल मान लिया है। इसलिए जब पहली दफा मूल दिखाई पड़ता है तो छाया जैसा मालूम होता है। और जो तुम्हें मेरे भीतर दिखायी पड़ा है, वही तुम्हें जल्दी ही सबके भीतर दिखाई पड़ने लगेगा। इसका कोई संबंध उपलब्ध और गैर— उपलब्ध से नहीं है।

यह आभामंडल प्रत्येक के पास है—— सिर्फ आंख चाहिए देखने की! यह आभामंडल मनुष्यों के पास ही नहीं है, पशु— पक्षियों के पास भी है, और वृक्षों के पास भी है। यह आभामंडल हमारी आत्मा है।

जो तुम्हें हुआ, अब उसका बारबार स्मरण करना। और मेरे ही साथ नहीं, कभी— कभी राह चलते अजनबी के पास भी अनुभव होगा। धीरे— धीरे अनुभव फैलता जाएगा। सभी के भीतर परमात्मा मौजूद है—— उतना ही जितना बुद्ध के, जितना कृष्ण के, जितना क्राइस्ट के भीतर। लोगों को पता न हो, यह दूसरी बात है। खजाना तो भीतर है ही। भूल गए हों, यह दूसरी बात है। उस खजाने से यह रोशनी उठती ही रहती है।

मगर पहली बार देखने में आमतौर से सुविधा हो जाती है, अगर तुम्हारा किसी से बहुत गहरा लगाव और श्रद्धा का संबंध हो। नहीं तो यह देखना मुश्किल हो जाता है। पहली दफा गुरु में दिखता है, फिर धीरे—धीरे सब में दिखायी पड़ने लगता है।

ठीक हुआ आनंदतीर्थ! और जब पहली दफा होता है तो शक भी होता है, संदेह भी होता है—— भांति तो नहीं हो रही? मन हजार प्रश्‍न खड़े करता है। और जब पहली दफे होता है, तब यह भी होता है कि अब तक कैसे चूका? और वह खयाल आते हर एक रोता है। क्योंकि जो इतनी सुगमता से उपलब्ध था, उससे भी हम चूक रहे थे। हम जैसा अभागा कौन!

लेकिन फिक्र न करो, जब भी घर लौट आए तभी जल्दी है। क्योंकि अनंत हैं जो अनंतकाल तक लौटनेवाले नहीं हैं, ऐसी जिद किए बैठे हैं। जब हो जाए तभी जल्दी है। पछताने की चिंता छोड़ो। अब हुआ है, आभारी होओ! धन्यभागी होओ! अहोभाव से भरो! क्योंकि अहोभाव से भरोगे तो और—और होगा।

सातवां प्रश्‍न:

 

प्रवचन के समय जब आपको देखती हूं, आपका दर्शन करती हूं, तब आपकी आवाज सुनायी पड़ती है; लेकिन आप क्या कह रहे हैं उसका ध्यान नहीं रहता। तो क्या यह मेरी मूर्च्छा है, बेहोशी है? कृपा कर मेरा मार्ग—दर्शन करें।

हीं समाधि! बेहोशी नहीं है। अब पहली दफा जैसा मुझे सुनना चाहिए वैसा तुमने सुनना शुरू किया। जो मैं कह रहा हूं वह तो बहाना है——तुम्हें उलझाए रखने का; तुम्हें यहां बिठाए रखने का। जो मैं हूं, उससे ही जुड़ना है। जो शब्द में कहा जा रहा है, वह तो ना—कुछ है। जो शब्दों के बीच में बहा जा रहा है, वही सब कुछ है। दो शब्दों के बीच में जो अंतराल है, जब कभी—कभी मैं क्षणभर को चुप हो जाता हूं, तब सुनोगे——तभी सुना।

मैं क्या कहता हूं वह भूल जाए, उसकी फिक्र मत करना। मैं क्या हूं, वह न भूले।

मूर्च्छा नहीं है। मूर्च्छा जैसी ही है बात, लेकिन मूर्च्छा नहीं है। मूर्च्छा जैसी लगेगी। बेखुदी है। आत्मतल्लीनता है। लेकिन आत्मतल्लीनता भी मूर्च्छा जैसी लगती है। एक नशा छा रहा है।

जाम गिर पड़ता है साकी थरथरा जाते हैं हाथ

तेरी आंखें देख कर नश्‍शा में आ जाती हूं मैं

नशा तो बढ़ना चाहिए। पियक्कड़ बढ़ें, यही तो मेरी चेष्टा है। इस मधुशाला में ज्यादा से ज्यादा लोग पीकर बेखुद हो जाएं, यही तो उपाय है। सुधि खो जाएगी तुम्हें अपनी, और तभी तो परमात्मा की सुधि आएगी।

जब जब वै सुधि कीजिए, तबतब सब सुधि जाहि

आंखिन आंख लगी रहैं, आखैं लागत नाहिं।।

——मतिराम का प्रसिद्ध वचन है। जब—जब वै सुधि कीजिए! जब—जब उसकी याद आती है, जब—जब उसका स्मरण होता है, तबतब सब सुधि जाहिं, तबतब सब याद खो जाती है, सब स्मरण खो जाता है। एक बेखुदी छा जाती है, एक नशा उतर आता है। आंखिन आखि लगी रहैं… और तब उसकी आंखों से जुड़ जाती है। आंखिन—आंखि लगी रहैं, आंखैं लागत नाहिं। फिर आंख बंद नहीं होती। फिर नींद नहीं आती। फिर आंखें थिर हो जाती हैं, अपलक हो जाती हैं।

ऐसा ही कुछ होता होगा। और फिर बड़ा मुश्किल हो जाता है। मतिराम का दूसरा प्रसिद्ध वचन है:

कौन बसत है कौन में, यों कछु कही परै न।

पिय नैनन तिय नैन हैं, तिय नैनन पिय नैन।।

कौन किसमें बसता है, कौन किसमें बस गया है —— कहना मुश्किल हो जाता है! प्यारे के आंख में प्रेयसी बस गयी है, कि प्रेयसी की आंख में प्यारा बस गया है —— तय करना मुश्किल हो जाता है।

”कौन बसत है कौन में, यों कछु कही परै न।’’ कहते नहीं बनता।’’ पिय नैनन तिय नैन हैं, तिय नैनन पिय नैन।’’ फिर धीरे — धीरे तो कौन प्यारा है और कौन प्रेयसी, यह भी तय करना मुश्किल हो जाता है। फिर तो दोनों डूब जाते हैं —— एक बचता है। उसी एक की तरफ चलना है।

शब्‍द भी खो जाएंगे। मेरा रूप — रंग, आकार भी खो जाएगा। तुम्हारे शब्‍द भी खो जाएंगे। तुम्हारा रूप — रंग, आकार भी खो जाएगा। और तब निराकार तुम्हें सब तरफ से घेर लेगा। बाहर भी वही, भीतर भी वही!

आखिरी प्रश्‍न :

 

” साहिब एहि विधि ना मिले ” की बात ने आज ऐसी चोट मारी कि मैं खलबला गयी, धड़कनें बढ़ गयीं और मैं आंसू की धार में नहा गयी। मेरा भय बह गया। अब कोई आशा औका नहीं, कोई भय नहीं। प्रभु, मैं आपकी नाव में बैठ गयी। मुझे संभालना, मैं गिर न जाऊं! मेरा स्वीकार करो!

 

पूछा है गुणा ने। यही तो सत्संग का प्रयोजन है —— बैठे रहो, सुनते रहो; बैठे रहो, सुनते रहो। कब चोट पड़ जाए, कौन जानता है!

साहिब एहि विधि ना मिले! औरों ने भी सुना, गुणा को चोट पड़ी। चोट पड़ने का भी समय होता है। कभी — कभी मन उस पकी हुई अवश था में होता है, जब चोट पड़ जाती है। तब इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, किससे चोट पड़ी। अब यह वचन तो मैंने बहुत बार दोहराया था —— साहिब एहि विधि ना मिले —— अभी भी दोहरा रहा हूं। इस वचन में कुछ नहीं है। गुणा का चित्त उस समय मेरी तरंग में बंध गया होगा, मेरे साथ जुड़ गया होगा। एक क्षण को भेद टूट गया। फिर मैं क्या कह रहा था उस क्षण में, यह सवाल नहीं है। कुछ भी कह रहा होता, जो कहता, उसी से चोट पड़ जाती।

इसलिए झेन फकीरों की तुमने कहानियां सुनी हैं न। शिष्य ध्यान कर रहा है और गुरु ने सिर्फ पास आकर जोर से ताली बजा दी है। अब ताली तो कोई शब्द भी नहीं है। और एक चौंक और एक सन्नाटा छा गया। और शिष्य ने आंखें खोलीं। पुराना गया, नए का जन्म हो गया। अब शिष्य कहेगा कि ”आपने ताली क्या बजा दी, यह ताली अमृत थी! ” यह ताली बस ताली जैसी ताली थी। यह घड़ी अमृत की थी। इसमें कुछ भी हो जाता।

झेन फकीर अपने शिष्यों के सिर पर डंडा भी मार देते हैं। और डंडे मारने से कभी—कभी समाधि फल गयी है। कहां से समाधि फल जाएगी, कहना कठिन है। कब तार मिल जाएगा, कहना कठिन है। इसलिए प्रतीक्षा चाहिए।

इक निगाह कर के उसने मोल लिया

बिक गए आह! हम भी क्या सस्ते

कभी—कभी एक निगाह, जरा—सी एक निगाह——और सब बिक जाता है, सब दांव पर लग जाता है! मगर कब? उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। इसलिए कहा है कि बैठो गुरु के पास, उठो गुरु के पास, चलने दो यह धारा, यह सत्संग बने रहने दो। कब हो जाएगा, किस शुभ घड़ी में——कोई भी नहीं जानता। उसकी कोई भविष्यवाणी भी नहीं हो सकती। ज्योतिषी भी उसके संबंध में कुछ नहीं कह सकते। सिर्फ एक ही चीज है इस जगत् में जो ज्योतिष के बाहर है। क्यों ज्योतिष के बाहर है? क्योंकि एक ही चीज है इस जगत् में जो कर्मजाल के बाहर है। एक ही चीज है इस जगत् में——समाधि——जिसकी घोषणा नहीं हो सकती। क्योंकि समाधि इस जगत् की बात ही नहीं है——उस जगत् से आती है। इस जगत् में तो हम केवल ग्राहक होते हैं।

”साहब एहि विधि ना मिलै की बात ने आज ऐसी चोट मारी कि मैं खलबला गयी।’’

चोट तो रोज ही कर रहा हूं कि तुम खलबलाओ, कि तुम्हारी धड़कनें बढ़े, कि कभी तुम्हारी धड़कनें रुक जाएं, कि कभी तुम्हारी श्वास भीतर जाए और बाहर न आए, और कभी बाहर जाए तो भीतर न आए। कभी एक अंतराल पैदा हो जाए, भूखला टूट जाए, सिलसिला उखड़ जाए। तुम अतीत से बिल्कुल टूट जाओ और नए हो जाओ।

”और मैं आंसू की धार में नहा गयी।’’ आंसुओ में असली गंगा है। जो आंसुओ में नहाना जान लेता है, उसे गंगा मिल गयी। वह जानता है कि पवित्र होने का क्या उपाय है। आंसू चमत्कार है। अगर आंसू ठीक से बह जाएं, आंखों की जन्मों—जन्मों की धूल बहा ले जाते हैं और हृदय का जन्मों —जन्मों का अंधेरा और तमस कट जाता है। रोना जिसने जान लिया उसने प्रार्थना जान ली। अभागे हैं वे, जिन्हें रोने का पता नहीं और जिनकी प्रार्थना कोरे शब्दों की है।

”मेरा भय बह गया।”

जी खोलकर कुछ आज तो रोने दे हमनशीं

मुद्दत हुई है दर्द का दरमां किए हुए

कितने जन्मों से तो रोके बैठे हो आंसुओ को! कितना तो दर्द छिपाए बैठे हो! कहा नहीं, बताया नहीं। बताते भी क्या, कहते भी किससे? कहते भी तो समझता कौन? यहां समझने को कौन है? रोते भी तो लोग हंसते। रोते तो लोग दया करते। इसलिए तो लोगों ने रोक रखा है दर्द, रोक रखे हैं आंसू।

जी खोलकर कुछ आज तो रोने दे हमनशीं

मुद्दत हुई है दर्द का दरमां किए हुए

वह बह गयी होगी धारा, फूट गया होगा बांध।

”मेरा भय बह गया। मैं आंसुओ में नहा गयी। अब कोई आशंका नहीं, कोई भय नहीं।”

यही तो पुण्य का अनुभव है। कल ही तो हम बात करते थे धनी धरमदास की——पुण्य का अनुभव! यही पुण्य का अनुभव है। पवित्रता का अनुभव, पुण्य का अनुभव है। पवित्रता में कहां भय, कहां क्रोध, कहां लोभ, कुछ भी नहीं, सब बह जाता है। मगर ध्यान रखना, लौट—लौटकर आ जाता है।

इसलिए जो हुआ है, उस पर ही रुक नहीं जाना है। लौट—लौटकर आ जाता है। वे जाल इतने पुराने हैं कि क्षणभर को आकाश खुलता है, मगर फिर बादल घिर जाते हैं, घटाटोप! फिर अंधकार छा जाता है। फिर सूरज छिप जाता है। फिर भरोसा नहीं आता कि सूरज दिखायी पड़ा था या मैंने कल्पना की थी। क्योंकि हमारा बादलों का अनुभव तो बहुत पुराना है और सूरज तो कभी क्षणभर को दिखायी पड़ता है।

तो गुणा! भूलना मत! वह जो हुआ वह सत्य था। फिर बादल घिरेंगे, फिर भय आएगा, फिर आशंका आएगी, फिर संदेह उठेंगे। फिर सारे रोग खड़े होंगे मगर उसे याद रखना: जो हुआ है, वह सच था। मेरी गवाही है कि जो हुआ है, वह सच था। और उस सच को फिर— फिर खोजना है। बादलों को फिर—फिर छांटना है।

और इसलिए प्रश्‍न का अंतिम हिस्सा तुम्हारी समझ में आएगा: ”प्रभु, मैं, आपकी नाव में बैठ गयी। मुझे संभालना!” कहीं दूर से भय की धुन आने लगी ——संभालना! कहीं से भय ने सिर उठाया। एकदम चला नहीं गया; यही खड़ा है दरवाजे के पास। वह कह रहा है: ”गुणा! इतनी निर्भीक मत हो जाओ, मैं अभी चला नहीं गया, अभी यही हूं, पास ही हूं, फिर लौट आऊंगा। इतनी जल्दी दोस्ती छोड़ नहीं सकता। पुराना नाता—रिश्ता है, जन्म—जन्म का संबंध है। ये फेरे बहुत पुराने हैं।

”प्रभु, मैं आपकी नाव में बैठ गयी, मुझे संभालना!”

संभालने का भाव——आ गया भय! नहीं तो क्या संभालना है? क्या संभालना है? ”मैं गिर न जाऊं”——आ गया भय। गया सूरज, बादल लौट आए। आंसुओ ने जो क्षणभर को आंखें साफ कर दी थीं, धूल—धवांस फिर लौट आयी।

ऐसा बारबार होगा। इसके पहले कि आंख सदा के लिए खुल जाए और धूल सदा के लिए बह जाए, बहुत बार होगा।

समाधि के पूर्व बहुत बार समाधि की झलकें आती हैं। यह समाधि की एक झलक थी, सुंदर थी। कहना भी कठिन है कि किस तरह की थी। लेकिन कहने की जरूरत नहीं। जब तुम्हारे भीतर घटती है तो जो मुझसे जुडे हैं, मुझे उनकी खबर हो जाती है। जो तुम्हें कह जाता है वही मुझसे कह जाता है।

कागद पर लिखत न बनत कहत संदेश लजात।

कहिहै सब तेरो हियो, मेरे हिय की बात।।

कहने की तो बात भी नहीं है। लेकिन जब तुम्हारे हृदय में कुछ घटता है तो मेरे हृदय में भी घट जाता है। वही संबंध है गुरु और शिष्य का। जिनसे मेरा वैसा संबंध नहीं है, उनके भीतर क्या घटता है, मुझे पता नहीं चलेगा। उनसे मेरे तार नहीं जुडे हैं। हिम्मत हो तो तार जोड़ लो, पीछे बहुत पछताना होगा।

उठें फिर फस्ले—गुल में आरजुओं को जवा कर दें

चलें फिर बुलबुलों को आशनाये गुलसितां कर दें

बसा लो यह बगिया! खिल जाने दो यह फूल! थोड़ी हिम्मत चाहिए।

और ऐसे भी जिंदगी तो जा रही है, चली ही जाएगी, मौत सब छीन ही लेगी —— उसके पहले दांव पर लगा लो।

चश्मेतर। देख गमे—दिल न नुमायां हो जाए

इश्क के सामने और हुस्न पशेमा हो जाए

जानता हूं मैं तमन्ना को गुनाहे—उल्फत

इश्क वह है जो निहा रह के नुमायां हो जाए

प्रेम तो चुपचाप विलीन हो जाता है।

इश्क वह है जो निहा रह के नुमायां हो जाए

——जो बोले भी न, कहे भी न——चुपचाप झुके और लीन हो जाए।

अपनी मजकूरइए—उल्फत का फसाना कह कर

हर रहा हूं कि कहीं वह न पशेमा हो जाए

दागे—उल्फत की तज्जली जो नुमायां हो जाए

शोलएतूर भी इक बार पशेमा हो जाए

जब्ते—गम से नहीं याराए—खामोशी मुझको

तुम जो कुछ पूछो तो मुश्किल मेरी आसा हो जाए

शिष्य तो पूछ भी नहीं सकता। पूछता है तो जानता है कि जो पूछना था वह चूक गया, वह शब्द में नहीं आया। लेकिन शिष्य पूछे या न पूछे, गुरु उत्तर देता ही है। तुम्हारे बहुत से न पूछे गए प्रश्रों के उत्तर भी रोज मैं देता हूं। जिनने नहीं पूछे हैं, उनके उत्तर भी देता हूं। जो मुझसे जुडे हैं उनकी खबर तो हो जाती है; उनकी जरूरत मुझे पता चल जाती है।

जब्ते—गम से नहीं याराए—खामोशी मुझको

तुम जो कुछ पूछो तो मुश्किल मेरी आसा हो जाए

काश यूं बर्क गिरे खिरमने—दिल पर मखफी

जर्रा—जरी मेरी हस्ती का फरोजा हो जाए

काश यूं बर्क गिरे खिरमने—दिल पर! यह जो दिल की खलिहान गिरे——ऐसी गिरे, ऐसी गिरे——”जर्रा—जर्रा मेरी हस्ती का फरोजा हो जाये, कि मेरा कण कण रोशन हो उठे।

शिष्य होने में यही आकांक्षा छिपी है——प्रेम का निवेदन और यह मुझ पर ऐसी कि जर्रा—जरी फरोजा हो जाए… कि एक—एक कण थोड़ी—सी चोट गुणा को हुई। अब इस चोट की प्रतीक्षा करना और है, इस पर कोई बिजली जाए”… कि एक एक कण—रोशन हो उठे।

थोड़ी सी चोट गुणा हो गई। अब इस चोट की प्रतीक्षा करना और इस चोट की प्रार्थना करना और इस चोट की अभीप्सा करना। यह चोट बारबार पड़ेगी। एक बार पड़ गयी तो पहचान हो जाती है। पहचान हो गयी तो फिर बारबार पड़ने लगती है।

तुमने कभी खयाल किया? एक दिन पैर में चोट लग जाती है, फिर दिनभर उसी जगह चोट लगती है——यह तुमने खयाल किया? लगती तो रोज थी चोट, लेकिन पता नहीं चलती थी, अब पता चलती है। पैर में चोट लग गयी, कुर्सी के पास से निकलते हैं, कुर्सी का पैर भी उसमें लग जाता है, फिर चोट मालूम होती है। दरवाजा लग जाता है। बच्चा आकर तो उसी पैर पर खड़ा हो जाता है। दिनभर चोट लगती है। चोट तो रोज लगती थी, मगर एक बार लग गयी तो घाव हो गया। घाव हो गया तो संवेदनशीलता उस स्थल की बढ़ गयी। अब जरा—सा भी लगेगा तो चोट हो जाएगी। धीरे— धीरे संवेदनशीलता गहन होती जाती है।

शिष्य धीरे—धीरे संवेदनशीलता ही हो जाता है। वही संन्यास है।

आज इतना ही।


Filed under: का सोवै दिन रैन—(धनी धरमदास) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

तंत्र–सूत्र–(भाग–2) प्रवचन–17

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अचानक रूकने की कुछ विधियां—(प्रवचन—सत्रहवां)

सूत्र:

25—जैसे ही कुछ करने की वृति हो, रूक जाओ।

26—जब कोई कामना उठे, उस पर विमर्श करो।

फिर, अचानक, उसे छोड़ दो।

27—पूरी तरह थकने तक घूमते रहो,

और तब जमींन पर गिरकर,

इस गिरने में पूर्ण होओ।

जीवन के दो तल हैं, दो संतुलन हैं : एक होने का है, दूसरा करने का।

तुम्हारा होना तुम्हारा स्वभाव है। वह तुम हो, सदा हो, उसे पाने के लिए तुम्हें कुछ करना नहीं है। वह तुम हो ही, वही तुम हो। यह बात भी नहीं है कि वह कुछ है जो तुम्हारे पास है, तुम्हारे अधिकार में है। तुममें और उसमें इतनी दूरी भी नहीं है। तुम ही अपना होना हो, अस्तित्व हो।

करना एक उपलब्धि है। जो कुछ भी तुम करते हो वह बिना किए न होगा। तुम करो तो वह होगा; तुम न करो तो न होगा। जो भी शाश्वत नहीं है वह तुम्हारा होना नहीं है।

जीने के लिए, बचने के लिए तुम्हें बहुत कुछ करना पड़ता है। और तब धीरे—धीरे तुम्हारी सक्रियता तुम्हारे होने को जानने में बाधा बन जाती है। तुम्हारी सक्रियता तुम्हारी परिधि है। तुम उसके सहारे जीते हो, तुम उसके बिना नहीं जी सकते। लेकिन वह सिर्फ परिधि है। वह तुम नहीं हो, वह केंद्र नहीं है। जो कुछ तुम्हारे पास है वह तुम्हारे कृत्य की उपलब्धि है। तुम्हारा अर्जन, तुम्हारी संपदा तुम्हारे कृत्य का फल है। लेकिन इस कृत्य ने, इसकी उपलब्धि ने केंद्र को चारों तरफ से घेर रखा है, आच्छादित कर रखा है। तुम तुम्हारे कृत्यों और उपलब्धियों में बंद हो गए हो।

इन विधियों में प्रवेश करने के पहले पहली विचारणीय बात यह है कि जो तुम्हारे पास है वह तुम्हारा होना नहीं है, और जो तुम करते हो या कर सकते हो वह भी तुम्हारा होना नहीं है। तुम्हारा होना सब करने के पहले है। तुम्हारा होना तुम्हारी सभी उपलब्धियों के पहले है। लेकिन मन है कि वह निरंतर करने और उसकी उपलब्धियों में संलग्न रहता है। मन के पार या मन के पहले तुम्हारा होना है।

यही वह चीज है जिसे सभी धर्म खोजते रहे हैं। और यही वह चीज है जिसे वे सारे लोग खोजते रहे हैं जो मनुष्य—जीवन के बुनियादी सत्य में, उसकी आत्यंतिकता में, तुम्हारे होने के सार—तत्व में उत्सुक रहे हैं। जब तक तुम परिधि और केंद्र के इस भेद को न समझ लोगे तब तक इन सूत्रों को, जिनकी हम चर्चा करने जा रहे हैं, समझना कठिन होगा।

तो इस भेद को भलीभांति समझ लो। जो तुम्हारे पास है—धन, ज्ञान, प्रतिष्ठा—जो भी है, वह तुम नहीं हो। वे तुम्हारे पास हैं, वे तुम्हारी संपदाएं हैं। लेकिन तुम उनसे पृथक हो, भिन्न हो। दूसरी बात कि तुम जो कुछ करते हो वह भी तुम्हारा होना नहीं है। तुम चाहो तो कुछ करो और चाहो तो न करो। मसलन, तुम हंसते हो, यह तुम्हारे हाथ में है। चाहो तो हंसो, चाहो तो न हंसो। तुम दौड़ते हो, यह तुम्हारे हाथ में है। चाहो तो दौड़ो, चाहो तो न दौड़ो। लेकिन तुम्हारा होना तुम्हारे हाथ में नहीं है, उसमें कोई चुनाव नहीं है। तुम अपना होना नहीं चुन सकते, तुम बस हो।

कृत्य चुनाव है, तुम उसे चाहे चुनो और चाहे न चुनो। यह तुम्हारे हाथ में है कि तुम यह काम करो या न करो। तुम साधु बन सकते हो, या तुम चोर बन सकते हो। लेकिन तुम्हारे साधुपन—चोरपन दोनों कृत्य हैं। तुम चुन सकते हो, तुम बदल भी सकते हो। साधु चोर बन सकता है और चोर साधु बन सकता है। लेकिन वह तुम्हारा होना नहीं है, तुम्हारा होना तुम्हारे साधु और चोर होने के पहले है।

जब तुम्हें कुछ करना है तो उसके पहले तुम्हारा होना जरूरी है। होने के बिना तुम्हारा कुछ करना संभव नहीं है। कौन हंसता है? कौन चोरी करता है? कौन साधु बनता है? सब क्रिया के पहले होना अनिवार्य है। कृत्य चुना जा सकता है, अस्तित्व नहीं चुना जा सकता है। तुम्हारा अस्तित्व ही चुनाव करता है। वह चुनने वाला है, चुना जाने वाला नहीं। तुम चुनने वाले को नहीं चुन सकते हो। चुनने वाला बस है। उसके संबंध में तुम कुछ भी नहीं कर सकते।

याद रहे, पाना या करना तुम्हारे साथ वैसे ही है जैसे केंद्र के साथ परिधि है। और केंद्र तुम हो। यह केंद्र आत्मा है—या जो भी नाम तुम देना चाहो—यह केंद्र तुम्हारा सबसे अंतरस्थ बिंदु है। उस तक कैसे पहुंचा जाए?

और जब तक कोई इस अंतरतम को नहीं पा लेता है, नहीं जान लेता है, तब तक वह उस आनंदपूर्ण स्थिति को नहीं पहुंच सकता जो शाश्वत है, जो अमृत है, जो स्वयं परमात्मा है। जब तक कोई इस केंद्र को नहीं उपलब्ध होता है, तब तक उसे पीड़ा, दुख और संताप में रहना पड़ेगा। परिधि नरक है।

ये विधियां इस केंद्र पर पहुंचने के साधन हैं।

पहली विधि :

जैसे ही कुछ करने की वृत्ति हो रुक जाओ।

ये सारी विधियां मध्य में रुकने से संबंधित हैं। जार्ज गुरजिएफ ने पश्चिम में इन विधियों को प्रचलित किया था, लेकिन उसे विज्ञान भैरव तंत्र का पता नहीं था। उसने ये विधियां तिब्बत में बौद्ध लामाओं से सीखी थीं। पश्चिम में उसने इन विधियों पर काम किया और अनेक साधक इन विधियों के द्वारा केंद्र को उपलब्ध हो गए। वह उन्हें स्टॉप एक्सरसाइज, रुक जाने का प्रयोग कहता था। लेकिन इन प्रयोगों का स्रोत विज्ञान भैरव तंत्र है।

बौद्धों ने भी विज्ञान भैरव तंत्र से ही सीखा था। सूफियों में भी ऐसे प्रयोग चलते हैं। सबने विज्ञान भैरव से ही लिया है। दुनिया में ऐसी जो भी विधियां चलती हैं, उन सबका स्रोत—ग्रंथ यही है।

गुरजिएफ बहुत सरल ढंग से इसका प्रयोग करता था। उदाहरण के लिए, वह अपने शिष्यों को नाचने के लिए कहता था। बीस लोगों का समूह नाच रहा है। नाच के बीच ही वह अचानक जोर से कहता, ‘स्‍टॉप!’ और जब गुरूजिएफ रूकने को कहता तो उन्‍हें तुरंत और समग्रत: रुकना पड़ता था। जब और जहां रुकने की आज्ञा होती तभी और वहां ही रुकना अनिवार्य था। उसमें जरा भी हेर—फेर या समायोजन की गुंजाइश नहीं थी। अगर तुम्हारा एक पैर जमीन से ऊपर उठा था और एक पैर पर तुम खड़े थे तो तुम्हें उसी मुद्रा में जम जाना पड़ता।

यह बात अलग है कि तुम गिर जाओ, लेकिन इस गिरने में कोई सहयोग नहीं देना था। अगर तुम्हारी आंखें खुली थीं तो उन्हें खुली रहने देना था। अब तुम उन्हें बंद नहीं कर सकते। यह बात दूसरी है कि वे अपने आप ही बंद हो जाएं। जहां तक तुम्हारा संबंध है तुम्हें सचेतन रूप से ज्यों का त्यों रुक जाना है, तुम्हें पत्थर की मूर्ति जैसा हो जाना है।

और इसके अदभुत नतीजे आते थे। क्योंकि जब तुम सक्रिय होते हो, नाचते होते हो, गतिमान होते हो, और अचानक बीच में रुक जाते हो, तो उससे एक अंतराल पैदा होता है। सभी क्रिया का अचानक बंद होना तुम्हें दो भागों में बांट देता है, तुम्हें तुम्हारे शरीर से अलग कर देता है। अभी तुम और तुम्हारा शरीर दोनों गतिमान थे। तुम अचानक रुक जाते हो। शरीर तब भी गति करना चाहता है। उसका मोमेंटम है। तुम नाच रहे थे तो उसका मोमेंटम है। शरीर इस आकस्मिक ठहराव के लिए तैयार नहीं है। तुम्हें अचानक लगता है कि शरीर अभी भी कुछ करना चाहता है। लेकिन तुम रुक गए हो, इससे एक अंतराल पैदा हो गया। तुम्हें लगता है, तुम्हारा शरीर तुमसे दूर है, बहुत दूर है, जिसमें अभी क्रिया का संवेग भरा है। लेकिन क्योंकि तुम ठहर गए थे और तुम अपने शरीर के साथ, शरीर के संवेग के साथ सहयोग नहीं कर रहे हो, इसलिए तुम उससे पृथक हो जाते हो।

लेकिन तुम अपने को धोखा भी दे सकते हो। जरा सा सहयोग, और अंतराल घटित नहीं होगा। उदाहरण के लिए, तुम कुछ असुविधा अनुभव कर रहे हो, तभी गुरु ने कहा कि रुक जाओ। तुम सुन भी लेते हो, लेकिन अपनी सुविधा बनाकर रुकते हो। इतने से ही सब बात बिगड़ गई, अब कुछ नहीं होगा। तब तुमने अपने को धोखा दिया—गुरु को नहीं। तब तुम चूक गए। तब विधि का पूरा महत्व ही नष्ट हो गया।

जब अचानक रुकने की आवाज सुनाई पड़े, तत्‍क्षण तुम्हें रुक जाना है। अब कुछ भी नहीं करना है। हो सकता है कि जिस मुद्रा में तुम थे वह असुविधाजनक थी। तुम्हें डर था कि तुम गिर जाओगे, तुम्हारी हड्डी टूट जाएगी। लेकिन कुछ भी हो, तुम्हें चिंता नहीं लेनी है। यदि तुमने चिंता ली तो अपने को ही धोखा दोगे।

यह जो अचानक मृतवत होना है यही अंतराल पैदा करता है। रुकना तो शरीर के तल पर होता है, लेकिन रुकने वाला केंद्र है। परिधि और केंद्र अलग—अलग हैं। एकाएक रुकने की घटना में तुम पहली बार अपने को अनुभव करोगे, पहली बार केंद्र को महसूस करोगे।

गुरजिएफ ने इस विधि के जरिए अनेक लोगों की मदद की। इस विधि के कई आयाम हैं, यह विधि कई ढंग से इस्तेमाल होती है। लेकिन पहले इसकी संरचना को समझने की चेष्टा करो। संरचना सरल है। तुम कोई काम करते हो, जब तुम काम में होते हो तो तुम अपने को पूरी तरह भूल जाते हो। तब कृत्य तुम्हारे अवधान का केंद्र हो जाता है।

समझो कि कोई व्यक्ति मर गया है और तुम उसके लिए चीख—चिल्ला रहे हो, आंसू बहा रहे हो। अब तुम अपने को पूरी तरह भूल गए हो। मरने वाला केंद्र हो गया, उसके चारों ओर रोने की, आंसू की, शोक की क्रिया घट रही है। अगर मैं एकाएक कहूं कि रुक जाओ और तुम पूरी तरह रुक जाओ, तो तुम अपने शरीर और कर्म के जगत से सर्वथा अलग हो जाओगे। जब तुम काम में होते हो तो तुम उसमें खो जाते हो। अचानक ठहरना तुम्हारे संतुलन को हिला देता है, वह तुम्हें कर्मों के बाहर कर देता है। और यही चीज तुम्हें तुम्हारे केंद्र पर पहुंचा देती है।

सामान्यत: हम एक काम से दूसरे काम में गति करते रहते हैं, अ से ब में, ब से स में। ज्यों ही तुम सुबह जागते हो, कर्म का जगत शुरू हो जाता है। अब तुम सारा दिन सक्रिय रहोगे। तुम अनेक बार काम बदलोगे, लेकिन एक क्षण को भी निष्कि्रय नहीं रहोगे। निष्‍क्रिय रहना कठिन है। अगर तुम निष्‍क्रिय रहने की कोशिश करोगे तो वही सक्रियता बन जाएगी।

अनेक लोग निष्‍क्रिय होने की चेष्टा करते हैं। वे बुद्ध की तरह बैठ जाते हैं और निष्‍क्रिय होने की चेष्टा करते हैं। लेकिन निष्‍क्रिय होने की चेष्टा कैसे हो सकती है? चेष्टा ही सक्रियता बन जाएगी। तुम निष्‍क्रियता को भी सक्रियता बना लोगे। तुम अपने को जबरदस्ती शांत बना ले सकते हो, लेकिन वह जबरदस्ती खुद मन की क्रिया होगी।

यही कारण है कि अनेक लोग ध्यान में जाने की चेष्टा करते हैं, लेकिन कहीं नहीं पहुंचते हैं। कारण है कि उनका ध्यान भी एक सक्रियता है, एक क्रिया है। क्रिया बदली जा सकती है। तुम एक साधारण गीत गा रहे थे, उसे छोड्कर भजन गा सकते हो। पहले तेज गा रहे थे, अब आहिस्ता गा सकते हो। लेकिन दोनों क्रियाएं हैं। तुम दौड़ रहे हो, तुम चल रहे हो, तुम पढ़ रहे हो, सब कुछ सक्रियता है। तुम प्रार्थना करते हो—वह भी सक्रियता है। तुम एक क्रिया से दूसरी क्रिया में गति करते रहते हो। ऐसे रात सोने तक कर्म जारी रहता है।

और सोते—सोते भी तुम सक्रिय रहते हो, क्रिया रुकती नहीं है। यही कारण है कि स्वप्न घटित होता है, स्वप्न उसी सक्रियता का विस्तार है। नींद में भी क्रिया जारी रहती है। अब तुम्हारा अचेतन सक्रिय है—कुछ करता है, चीजें बटोरता है, कुछ गवाता है, कहीं जाता है। स्वप्न का अर्थ है कि थककर शरीर सो गया है, लेकिन क्रिया किसी तल पर जारी है।

केवल कभी—कभी और वह भी कुछ क्षणों के लिए—आधुनिक मनुष्य के लिए वह भी दुर्लभ है—स्वप्न बंद होता है और तुम गाढ़ी नींद में होते हो। लेकिन यह निष्‍क्रियता अचेतन है। तुम अब चेतन नहीं हो, गहरी नींद में हो, सक्रियता बंद हो गई है। अब कोई परिधि नहीं है; अब तुम केंद्र पर हो, लेकिन सर्वथा थके हुए—अचेतन, मृतवत।

यही कारण है कि हिंदू सदा कहते रहे हैं कि सुषुप्ति और समाधि समान हैं। उनमें एक ही भेद है, लेकिन वह भेद बड़ा है। भेद बोध का है। सुषुप्ति में, स्‍वप्‍नरहित नींद में तुम अपने केंद्र पर होते हो, लेकिन अचेतन। समाधि में भी, जो ध्यान की परम अवस्था है, तुम केंद्र पर होते हो, लेकिन चेतन। यही भेद है, बड़ा भेद है। क्योंकि बेहोश होकर केंद्र पर होने का कोई अर्थ नहीं है। यह ठीक है कि इससे तुम ताजा हो जाते हो, जीवंत हो जाते हो, ऊर्जावान हो जाते हो, सुबह तुम अधिक ताजा और आनंदित रहते हो। लेकिन अगर तुम बेहोश हो, तो केंद्र पर होकर भी तुम आदमी वही रहते हो, जो थे।

समाधि में तुम पूरे होश से, पूरे चैतन्य के साथ प्रवेश करते हो। और जब तुम पूरे चैतन्य के साथ केंद्र पर होते हो तो फिर कभी वह आदमी नहीं रहोगे जो थे। अब तुम जानोगे वे तुम्हारा स्वभाव नहीं हैं।

अचानक रुकने की इन विधियों का उद्देश्य तुम्हें निष्‍क्रियता में डालना है। इसीलिए इस बिंदु का अचानक आना महत्वपूर्ण है। क्योंकि अगर निष्‍क्रिय होने की चेष्टा की जाएगी तो वही चेष्टा सक्रियता बन जाएगी। तो चेष्टा मत करो, बस निष्‍क्रिय हो जाओ। रुक जाओ का यही अर्थ है। अगर तुम दौड़ रहे हो और मैं कहता हूं रुक जाओ। तो तुम तुरंत रुक जाओ, चेष्टा मत करो। अगर चेष्टा करोगे तो चूक जाओगे।

उदाहरण के लिए, तुम यहां बैठे हो कुछ कर रहे हो; मैं कहूं कि रुक जाओ, तो तुरंत, तत्‍क्षण रुक जाओ। एक क्षण भी नहीं खोना है। अगर तुमने कोशिश की, कुछ समायोजन किया और तब कहा कि ठीक, अब मैं रुकता हूं तो तुम चूक गए। इस विधि का आधार ‘अचानक’ शब्द है। रुकने के लिए चेष्टा मत करो; रुक जाओ।

तुम कहीं भी इसका प्रयोग कर सकते हो। तुम स्नान कर रहे हो; अचानक अपने को कहो : स्टॉप! अगर एक क्षण के लिए भी यह एकाएक रुकना घटित हो जाए तो तुम अपने भीतर कुछ भिन्न बात घटित होते पाओगे। तब तुम अपने केंद्र पर फेंक दिए जाओगे। और तब सब कुछ ठहर जाएगा। तुम्हारा शरीर तो पूरी तरह रुकेगा ही, तुम्हारा मन भी गति करना बंद कर देगा। जब स्टॉप कहो तो उस समय श्वास भी मत लो। सब कुछ रुक जाना चाहिए—श्वास भी, शरीर की गति भी।

एक क्षण के लिए भी इस रुकने में स्थित हो जाओ तो तुम पाओगे कि राकेट की गति से अपने केंद्र में अचानक प्रवेश कर गए हो। इसकी एक झलक भी चमत्कारी है, क्रांतिकारी है। यह झलक तुम्हें बदल देगी। फिर धीरे— धीरे इस केंद्र की और भी झलकें तुम्हें मिलेंगी। इसलिए निष्‍क्रियता का अभ्यास नहीं करना है। विधि का उपयोग आकस्मिकता में है, अनपेक्षित होने में है।

इसलिए गुरु उपयोगी हो सकता है।

यह विधि समूह में प्रयोग के लिए है। गुरजिएफ इसे समूह विधि की तरह काम में लाता था। अगर तुम अपने से ही कहो कि रुक जाओ तो उसमें तुम अपने को आसानी से धोखा दे सकते हो। तुम पहले अपनी स्थिति सुविधापूर्ण बना लोगे और तब रुक जाने का हुक्म दोगे। हो सकता है कि सचेतन रूप से तुम इसकी तैयारी न करो। लेकिन तुम अचेतन रूप से भी तैयार हो सकते हो।

लेकिन अगर यह मन का काम है, अगर इसके पीछे कुछ तैयारी है, तो सब बात व्यर्थ हो जाती है। तब यह विधि किसी काम की नहीं रहेगी। इसलिए समूह में इसे करना अच्छा है। वहां एक गुरु रहेगा जो कहेगा कि रुक जाओ। यह गुरु उस क्षण में ऐसा कहेगा जब तुम किसी बहुत असुविधापूर्ण मुद्रा में रहोगे। और तब बिजली की कौंध की तरह कुछ घटित होगा।

सक्रियता का अभ्यास हो सकता है; लेकिन निष्क्रियता का अभ्यास नहीं हो सकता। अभ्यास करने से निष्‍क्रियता सक्रियता हो जाती है। और निष्‍क्रियता अचानक ही आती है।

कभी ऐसा होता है कि तुम कार चला रहे हो और तुम्हें अचानक लगता है कि दुर्घटना होने जा रही है, कि सामने से दुसरी कार तुम्‍हारी कार के इतने करीब आ गई है कि क्षणभर में दोनों टकरा जाएंगी। ऐसे क्षण में आदमी अपने केंद्र पर फेंक दिया जाता है। लेकिन दुर्घटना में भी तुम इसे चूक सकते हो।

मैं एक कार से यात्रा कर रहा था। और एक दुर्घटना हो गई जो कि संभवत: अत्यंत सुंदर घटना थी। मेरे साथ तीन व्यक्ति थे, लेकिन वे बुरी तरह चूक गए। वे पूरी तरह चूक गए। यहां उनके जीवन में एक क्रांति घटित हो सकती थी; लेकिन वे चूक गए। कार पुल से नीचे नदी में गिर गई। नदी सूखी थी। कार पूरी तरह उलट गई थी, और तीनों सज्जन जो मेरे साथ थे रोने—धोने लगे। एक स्त्री भी थी, वह भी चीख—चिल्ला रही थी। वह मेरे बगल में ही थी और चिल्ला रही थी : ‘मैं मर गई, मैं मर गई।’

मैंने उससे कहा कि यदि तू मर गई होती तो यह कहने के लिए यहां कोई नहीं होता! लेकिन वह थर— थर कैप रही थी। उसने कहा, मैं मर गई; मेरे बच्चों का क्या होगा! जब हमने उसे कार के बाहर निकाला तब भी वह कांप रही थी और कहे जा रही थी कि मैं मर गई, मेरे बच्चों का क्या होगा! उसे शांत होने में कम से कम आधा घंटा लगा।

लेकिन वह चूक गई। यह इतनी सुंदर घटना थी, अगर वह सब कुछ एकाएक रोक देती। उस समय कोई कुछ नहीं कर सकता था। कार पुल से नीचे गिर रही थी, उस स्त्री के लिए करने को कुछ नहीं था। कुछ भी नहीं किया जा सकता था। लेकिन मन तो सक्रियता पैदा करने में बहुत सक्षम होता है। वह स्त्री अपने बच्चों के बारे में सोचने लगी और चिल्लाने लगी कि मैं मर गई। ऐसे एक सूक्ष्म अवसर हाथ से चला गया।

अचानक स्थितियों में मन क्यों अपने ही आप ठहर जाता है? मन एक यंत्र है जो यंत्रवत काम करता है; वह वही करता है, जिसे करने को वह अभ्यस्त है। तुम अपने मन को दुर्घटनाओं के लिए प्रशिक्षित नहीं कर सकते। अगर कर सकते हो तो दुर्घटना दुर्घटना न रहेगी। यदि तुम उसके लिए तैयार हो, यदि तुमने उसका रिहर्सल किया हुआ है, तो वे दुर्घटनाएं नहीं कहलाएंगी।

दुर्घटना का अर्थ है कि मन उसके लिए तैयार नहीं है। बात ही इतनी अचानक है, इतनी आकस्मिक है—मानो कोई चीज अज्ञात से कूदकर सामने आ गई हो। मन कुछ भी नहीं कर सकता। वह तैयार नहीं है; वह इसका अभ्यस्त नहीं है। ऐसी स्थिति में इसका ठहर जाना अनिवार्य है, अगर तुम कोई और चीज न शुरू कर दो—कोई ऐसी चीज जिसके लिए तुम्हारा मन अभ्यस्त है।

यह स्त्री, जो अपने बच्चों के लिए चिल्ला रही थी, उसके प्रति बेहोश थी जो तत्‍क्षण हो रहा था। उसे इतना भी होश नहीं था कि मैं जीवित हूं। वर्तमान क्षण उसकी चेतना के सामने से हट गया था। वह उस स्थिति से हटकर अपने बच्चों के, मृत्यु के, अन्य चीजों के पास सरक गई थी। वह पलायन कर गई थी। जहा तक उसके अवधान का संबंध है, वह उस पूरी स्थिति से पलायन कर गई थी। लेकिन जहां तक स्थिति का संबंध है, उसमें कुछ भी नहीं किया जा सकता था, उसमें सिर्फ होशपूर्ण हुआ जा सकता था। जो हो रहा था वह हो रहा था, उसमें केवल बोध पूर्ण हुआ जा सकता था।

जहां तक दुर्घटना के वर्तमान क्षण का संबंध है, उसमें कुछ भी नहीं किया जा सकता है। वह तुम्हारे बस के बाहर की चीज है, मन उसके लिए तैयार नहीं है। मन उसमें काम नहीं कर सकता, इसलिए ठहर जाता है। यही कारण है कि खतरों में एक गुह्म आकर्षण है, अंतर्निहित आकर्षण है। वे दरअसल ध्यान के क्षण हैं।

यदि तुम कार दौड़ा रहे हो और वह नब्बे मील से आगे की रफ्तार पकड़ लेती है, फिर सौ की, एक सौ दस और एक सौ बीस की रफ्तार पकड़ लेती है, तब एक स्थिति आती है, जिसमें कुछ भी हो सकता है और तुम. रोक नहीं सकते। कार अब नियंत्रण के बाहर होती जा रही है। अचानक मन पाता है कि वह कुछ नहीं कर सकता है, वह उसके लिए तैयार नहीं है। तीव्र गति का यही रोमांच है; क्योंकि उस क्षण चुपचाप एक मौन घटित होता है और तुम अपने केंद्र पर पहुंच जाते हो।

ये विधियां किसी दुर्घटना के बिना, किसी खतरे के बिना तुम्हें तुम्हारे केंद्र पर ले जाने में मदद करती हैं। लेकिन ध्यान रहे कि तुम उनका अभ्यास नहीं कर सकते हो। जब मैं कहता हूं कि तुम अभ्यास नहीं कर सकते हो तो मेरा क्या मतलब है? एक तरह से तुम अभ्यास कर सकते हो; तुम एकाएक ठहर सकते हो। लेकिन यह ठहरना एकाएक ही हो। तुम्हें उसका अभ्यास नहीं करना है। तुम्हें उसके बारे में सोचना या आयोजन नहीं करना है कि बारह बजे मैं ठहर जाऊंगा। जब तुम उसके लिए तैयार नहीं हो, अज्ञात को घटित होने दो। अनजाने ही अज्ञात में प्रवेश करो।

यह एक विधि है : ‘जैसे ही कुछ करने की वृत्ति हो, रुक जाओ।’

ह एक आयाम है। जैसे, तुम्हें छींक आ रही है। तुम्हें लगता है कि अब तुम छींकने—छींकने को हो, एक क्षण और, और छींक आ जाएगी; तब मैं कुछ न कर सकूंगा। लेकिन छींकने की वृत्ति के पहले एहसास के साथ ही, जब उसकी पहली—पहली आहट सुनाई पड़े, तभी ठहर जाओ।

तुम क्या कर सकते हो? क्या छींक को रोक सकते हो?

अगर तुम छींक को रोकने की कोशिश करोगे तो वह और जल्दी आएगी; क्योंकि रोकने की चेष्टा तुम्हें सचेत कर देगी और छींक की उत्तेजना को बढ़ा देगी। तुम ज्यादा संवेदनशील हो जाओगे, तुम्हारा पूरा अवधान वहीं इकट्ठा हो जाएगा, और उसी अवधान के कारण छींक जल्दी घटित हो जाएगी। वह असह्य हो जाएगी।

तुम सीधे—सीधे छींक को नहीं रोक सकते; लेकिन तुम अपने को रोक सकते हो। क्या कर सकते हो? तुम्हें एहसास होता है कि छींक आ रही है—ठहर जाओ। छींक को रोकने की कोशिश मत करो; बस तुम स्वयं रुक जाओं। कुछ मत करो। पूरी तरह अचल रहो, जिसमें श्वास का आना—जाना भी न हो। क्षणभर के लिए बिलकुल ठहर जाओ। और तुम देखोगे कि छींकने की वृत्ति वापस लौट गई, खतम हो गई। और वृत्ति के जाने के साथ ही तुम्हारे भीतर कोई सूक्ष्म ऊर्जा मुक्त होकर तुम्हें केंद्र पर ले जाती है।

छींकने के साथ या किसी भी वृत्ति के साथ तुम्हारी कुछ ऊर्जा बाहर जाती है। वृत्ति का अर्थ है कि तुम्हारी कुछ ऊर्जा भारी हो गई है और तुम उसका कोई उपयोग नहीं कर सकते हो। वह ऊर्जा तुम में जज्ब भी नहीं हो सकती; वह सिर्फ बाहर जाना चाहती है, निकास चाहता है।

तुम्हें राहत की जरूरत है। और यही कारण है कि छींकने के बाद तुम अच्छा अनुभव करते हो—एक सूक्ष्‍म सुख की अनुभूति। क्या हुआ? कुछ भी नहीं, तुमने कुछ उर्जा बाहर फेंक दी है जो व्यर्थ थी, फालतू थी, बोझ थी। इसलिए उसके निकल पर तुम राहत अनुभव करते हो। तब तुम्हें अपने भीतर एक सूक्ष्म विश्राम की अनुभूति होती है।

यही वजह है कि पावलफ और बी. एफ स्कीनर जैसे शरीरशास्त्री कहते हैं कि सेक्स भी छींकने जैसा है। वे कहते हैं कि शरीरशास्त्र की दृष्टि से उनमें कोई फर्क नहीं है; सेक्स छींकने जैसा ही है। तुम किसी ऊर्जा से बोझिल हो गए हो और तुम उसे फेंकना चाहते हो। और उसे फेंकने के बाद तुम्हारा शरीर—तंत्र विश्राम में चला जाता है; तुम निर्भार हो जाते हो और अच्छा अनुभव करते हो। शरीरशास्त्री कहते हैं कि यह अच्छा लगना महज निकास है। और शरीरशास्त्री ठीक कहता है। शरीरशास्त्री सही है।

तो जब भी तुम्हें कोई वृत्ति पैदा हो, उदाहरण के लिए कुछ करने की वृत्ति, तो रुक जाओ। न सिर्फ शारीरिक वृत्ति, कोई भी वृत्ति इस काम के लिए उपयोग की जा सकती है। उदाहरण के लिए, तुम पानी पीने जा रहे हो। तुमने गिलास को हाथ में लिया है—वही एकाएक रुक जाओ। हाथ वहीं है, पीने की इच्छा भी वहीं है, प्यास भी वहीं है—लेकिन तुम बिलकुल रुक जाओ। गिलास बाहर है, प्यास भीतर है; हाथों में गिलास है; गिलास पर आंखें हैं; अचानक ठहर जाओ। न श्वास, न गति—मानो तुम मर गए। तब वही वृत्ति, वही प्यास ऊर्जा को मुक्त कर देगी, और वह मुक्त ऊर्जा तुम्हें तुम्हारे केंद्र पर पहुंचा देगी। क्यों? क्योंकि वृत्ति सदा बाहर जाती है। स्मरण रहे, वृत्ति का मतलब ही है बाहर जाती हुई ऊर्जा।

एक और बात खयाल में रख लो कि ऊर्जा सदा गतिमान रहती है। या तो वह बाहर जाती है या भीतर आती है; ऊर्जा कभी ठहराव में नहीं होती है। ये नियम हैं। और यदि तुमने नियमों को समझा तो इस विधि का सूत्र पकड़ में आ जाएगा। ऊर्जा सदा गति है। वह या तो बाहर जाती है या भीतर; पर वह कभी अगति में नहीं होती। वह अगर अगति में है तो वह ऊर्जा ही नहीं है। और ऐसा कुछ भी नहीं है जो ऊर्जा नहीं है। इसलिए प्रत्येक चीज कहीं न कहीं गति कर रही है।

तो जब कोई वृत्ति तुम में पैदा होती है तो उसका मतलब है कि ऊर्जा बाहर जा रही है। इसी से तुम्हारा हाथ गिलास पर चला जाता है। तुम बाहर गए। कुछ करने की इच्छा पैदा हुई। सब सक्रियता गति है— भीतर से बाहर की ओर। जब तुम अचानक ठहर जाते हो तो तुम्हारे साथ ऊर्जा नहीं ठहरती है। तुम अगति में हो; लेकिन ऊर्जा अगति में नहीं हो सकती। और जिस यंत्र के द्वारा वह बाहर गति करती थी, वह मरा नहीं है, मात्र ठहर गया है। तो ऊर्जा क्या करे? वह भीतर जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर सकती। ऊर्जा स्थिर नहीं रह सकती। वह बाहर जा रही थी। तुम रुक गए और यंत्र भी रुक गया। लेकिन जो यंत्र उसे केंद्र पर ले जा सकता है वह मौजूद है। अब वह ऊर्जा भीतर की ओर गति करेगी।

और तुम क्षण— क्षण जाने—अनजाने अपनी ऊर्जा को रूपांतरित कर रहे हो, उसके आयाम को बदल रहे हो। तुम क्रोध में हो; तुम किसी को मारना चाहते हो, कोई चीज नष्ट करना चाहते हो, या कुछ हिंसा करना चाहते हो। इस। क्षण एक प्रयोग करो। किसी मित्र को, अपनी पत्नी को या अपने किसी बच्चे को प्रेम करने लगो। उसे चूमो, उसे गले लगाओ। तुम गुस्से में थे, तुम किसी को मिटाने जा रहे थे; तुम हिंसा पर उतारू थे। तुम्हारा चित्त विध्वंस के लिए तत्पर था; तुम्हारी ऊर्जा हिंसा की ओर गति कर रही थी। और तभी तुम किसी की अचानक और तुरंत प्रेम करने लगते हो।

शुरू में तुम्हें लगेगा, यह तो अभिनय जैसा है। तुम्हें आश्चर्य होगा कि मैं प्रेम कैसे कर सकता हूं मैं तो अभी क्रोध में हूं। लेकिन तुम मन के यंत्र को नहीं समझते हो। इसी क्षण तुम गहरे प्रेम में उतर सकते हो। क्योंकि ऊर्जा जाग गई है, वह उस बिंदु पर पहुंच गई है जहां उसे अभिव्यक्ति चाहिए। ऊर्जा को गति करने की जरूरत है। अगर इसी क्षण तुम किसी को प्रेम करने लगो तो ऊर्जा प्रेम में प्रविष्ट हो जाएगी। और तुम्हें ऊर्जा का वह प्रवाह अभिभूत कर देगा जिसका अनुभव संभवत: तुम्हें पहले कभी नहीं हुआ होगा।

ऐसे लोग हैं जो क्रोध और हिंसा में उतरे बिना प्रेम में नहीं उतर सकते। ऐसे लोग हैं जो गहरे प्रेम में तभी उतर सकते हैं जब उनकी ऊर्जा हिंसात्मक हो उठती है। तुमने ध्यान भला न दिया हो, लेकिन ऐसा रोज होता है। स्त्री—पुरुष संभोग में उतरने के पहले लडाई—झगड़ा करते हैं। पति—पत्नी पहले क्रोध करते हैं, लड़ाई—झगड़े और हिंसा में उतरते हैं, और तब संभोग में। और उन्हें पता भी नहीं होता कि वे क्या कर रहे हैं। हो सकता है, यह उनकी यांत्रिक आदत बन गई हो। लेकिन प्रेम करने से पहले वे लड़ते जरूर हैं। और जिस दिन लड़ाई—झगड़ा नहीं होता, प्रेम भी असंभव हो जाता है।

भारत के गांवों में ऐसी बात खासकर होती है। यहां पत्नी को पीटना आम बात है। और अगर कोई पति पत्नी को पीटना बंद कर दे तो समझा जाएगा कि उसने प्रेम करना बंद कर दिया है। पत्नियां भी यह जानती हैं कि अगर पति उनकी तरफ बिलकुल अहिंसक हो गए हैं तो उनका प्रेम समाप्त हो गया है। उनका न लड़ना बताता है कि अब उनके बीच प्रेम नहीं रहा। ऐसा क्यों है? लड़ाई—झगड़ा और प्रेम इतने जुड़े हुए क्यों हैं?

ऐसा इसलिए है कि एक ही ऊर्जा भिन्न—भिन्न आयामों में गति कर सकती है, और करती है। तुम इसे प्रेम कह सकते हो या घृणा कह सकते हो। वे परस्पर विरोधी दिखते हैं, लेकिन हैं नहीं। क्योंकि एक ही ऊर्जा का खेल है। जो आदमी भयानक रूप से क्रोध नहीं कर सकता, वह उस प्रेम के लिए बेकार हो जाता है जिसे तुम प्रेम समझते हो।

बुद्ध भी प्रेम करते हैं; लेकिन वह सर्वथा भिन्न प्रेम है। इसीलिए बुद्ध उसे करुणा कहते हैं; वे उसे कभी प्रेम नहीं कहते। वह करुणा से अधिक मिलता—जुलता है, तुम्हारे प्रेम से कम; क्योंकि तुम्हारे प्रेम में घृणा, क्रोध, हिंसा सब निहित है।

तो ऊर्जा गति करती है; वह अपनी दिशा बदल सकती है। एक ही ऊर्जा घृणा बन जाती है, और वही प्रेम बन जाती है। और वही ऊर्जा भीतर की ओर गति कर सकती है। इसलिए जब भी कुछ करने की वृत्ति पैदा हो तो रुक जाओ। यह दमन नहीं है। तुम किसी चीज का दमन नहीं कर रहे हो, तुम सिर्फ ऊर्जा के साथ खेल रहे हो। तुम उसके रंग—ढंग को समझ रहे हो; समझ रहे हो कि वह भीतर कैसे काम करती है।

लेकिन ध्यान रहे, वृत्ति सच्ची और प्रामाणिक हो, अन्यथा कुछ भी नहीं होगा। उदाहरण के लिए, तुम्हें प्यास नहीं है, तुम गिलास की ओर हाथ बढ़ाते हो और अचानक रुक जाते हो। इसमें कुछ नहीं होगा। वहां कुछ होने को नहीं है, वहा ऊर्जा गतिमान ही नहीं है।

तुम अपनी पत्नी या अपने पति या मित्र के प्रति प्रेम अनुभव करते हो, तुम उसे गले लगाना चाहते हो—वहीं रूक जाओ। लेकिन इस वृति को प्रामाणिक होना चाहिए। अगर भाव नहीं हो और तुम किसी की सांत्वना के लिए उसे चूमना चाहते हो कि उसे इसकी अपेक्षा थी और तब रुक जाते हो, तो कुछ भी नहीं होगा। इसलिए कुछ नहीं होगा क्योंकि भीतर में ऊर्जा गतिमान नहीं हुई थी।

इसलिए पहली बात याद रखो कि वृत्ति को प्रामाणिक, वास्तविक होना चाहिए। वास्तविक वृत्ति के साथ ही ऊर्जा गति करती है। और जब एक वास्तविक वृत्ति के साथ ऊर्जा गति करती है, और जब एक वास्तविक वृत्ति अचानक रुकती है, तो ऊर्जा भी स्थगित हो जाती है। और जब ऊर्जा को बाहर जाने का मार्ग नहीं मिलता तब वह भीतर मुड जाती है। उसे गति करना ही है, वह स्थिर नहीं रह सकती।

लेकिन हम इतने झूठे हैं कि कुछ भी वास्तविक नहीं मालूम पड़ता। तुम घड़ी देखकर, समय देखकर भोजन करते हो, भूख देखकर भोजन नहीं करते। ऐसे भोजन के पहले रुकने से कुछ नहीं होगा। क्योंकि भूख नहीं थी, भूख की वृत्ति नहीं थी। वहां ऊर्जा गति नहीं करती थी। तुम अगर एक बजे भोजन लेते हो तो एक बजे तुम्हें भूख महसूस होगी। लेकिन यह भूख झूठी है, यह महज यांत्रिक आदत है—मृत आदत। तुम्हारा शरीर भूखा नहीं है। इस वक्त यदि तुम कुछ न खाओ तो तुम्हें कुछ कमी महसूस होगी। लेकिन अगर एक घंटा बिना खाए रह गए तो भूख विदा हो जाएगी। सच्ची भूख तो बढ़नी चाहिए। अगर भूख सच्ची हो तो दो बजे तुम्हें ज्यादा लगेगी। अगर भूख झूठी हो तो दो बजे तुम उसे बिलकुल भूल जाओगे। यथार्थ में दो बजे भूख नहीं रहेगी। यदि तुम कुछ खाना भी चाहो तो भूख नहीं मालूम होगी। यह झूठी और यांत्रिक भूख थी। उसमें ऊर्जा की गति नहीं थी, सिर्फ मन कहता था कि खाने का समय हो गया है।

वैसे ही अगर तुम्हें नींद लग रही हो तो रुक जाओ। लेकिन नींद सच्ची होनी चाहिए। यही समस्या है। और हमारे लिए यही समस्या है। शिव के समय ऐसा नहीं था। जब विज्ञान भैरव तंत्र का उपदेश पहले पहल दिया गया था तो ऐसा नहीं था। मनुष्य प्रामाणिक था; मनुष्यता सच्ची थी, शुद्ध थी। उसके साथ कुछ भी झूठा नहीं था। हमारे साथ सब कुछ झूठा है। तुम प्रेम का ढोंग करते हो; तुम क्रोध का भी ढोंग करते हो। और ढोंग करते—करते तुम भूल जाते हो कि यह ढोंग है या सच। तुम्हारे भीतर जो है, तुम उसे कभी नहीं कहते, कभी नहीं व्यक्त कुरते; तुम उसे व्यक्त करते हो जो नहीं है।

तुम अपना निरीक्षण करो, और तुम यही पाओगे। तुम कहते एक बात हो और सोचते बिलकुल दूसरी बात हो। तुम बिलकुल दूसरी बात कहना चाहते थे; लेकिन अगर तुम सच बोल दो तो तुम किसी काम के न रहोगे। कारण यह है कि समूचा समाज झूठा है, और एक झूठे समाज में तुम झूठे होकर ही रह सकते हो। जितने तुम समाज से समायोजित होगे उतने ही झूठे हो जाओगे। और अगर सच्चे होना चाहोगे तो समाज के साथ ताल—मेल नहीं होगा। तुम उखड़े—उखड़े रहोगे।

यही कारण है कि संन्यास का जन्म हुआ। वह झूठे समाज के कारण आया। बुद्ध को समाज का त्याग इसलिए नहीं करना पड़ा कि उसका कोई अपने में अर्थ था। उसका सिर्फ

निषेधात्मक उपयोग था। झूठे समाज के साथ तुम सच्चे नहीं रह सकते। और यदि रहो तो कदम—कदम पर उसके साथ अनावश्यक संघर्ष करना होगा। उससे ऊर्जा नष्ट होती है। झूठे को छोड़ो ताकि तुम सच्चे हो सको, सब संन्यास का बुनियादी कारण यही था।

अपना निरीक्षण करो कि तुम कितने झूठे हो। अपने दोहरे मन को देखो। तुम कहते एक बात हो और सोचते बिलकुल विपरीत बात हो। साथ ही साथ तुम मन में कुछ कह रहे हो और बाहर कुछ और बोल रहे हो।

ऐसी किसी झूठी वृत्ति के साथ ठहरने से यह विधि काम न करेगी। अपने बाबत कुछ प्रामाणिक खोजो, और उसके साथ ठहरने का प्रयोग करो। सब कुछ झूठ नहीं हो गया है; बहुत चीजें अभी भी वास्तविक हैं। सौभाग्य से कभी—कभी प्रत्येक व्यक्ति वास्तविक होता है, किसी—किसी क्षण में प्रत्येक व्यक्ति प्रामाणिक होता है। तब रुको।

तुम क्रोध में हो, और जानते हो कि क्रोध सच्चा है। तुम किसी को नष्ट करने जा रहे हो या अपने बच्चे को पीटने जा रहे हो। वहां रुको। लेकिन किसी प्रयोजन से नहीं। मत कहो कि क्रोध करना बुरा है, इसलिए मैं रुकता हूं। किसी मानसिक सोच—विचार की जरूरत नहीं है। सोच—विचार से ऊर्जा उसमें ही लग जाती है। यह भीतरी व्यवस्था है। अगर तुम कहते हो कि मुझे बच्चे को नहीं मारना चाहिए, क्योंकि इससे उसका कोई लाभ नहीं होने जा रहा है, और इससे मेरा लाभ भी नहीं होगा, यह व्यर्थ है, किसी काम का नहीं है, तो जो ऊर्जा क्रोध बनने जा रही थी, वह सोच—विचार बन जाएगी। जब तुम सारी चीज पर विचार कर लोगे तो क्रोध की ऊर्जा उतर जाएगी और सोच—विचार में प्रवेश कर जाएगी। उस अवस्था में रुकने पर गति करने के लिए ऊर्जा नहीं रहती है। जब तुम क्रोध में हो तो विचार मत करो। यह मत कहो कि भला है या बुरा। कुछ विचार ही मत करो। एकाएक विधि को स्मरण करो और रुक जाओ।

क्रोध शुद्ध ऊर्जा है—न बुरा है न भला। क्रोध भला भी हो सकता है और बुरा भी—यह उसके परिणाम पर निर्भर है, ऊर्जा पर नहीं। यह बुरा हो सकता है, अगर यह बाहर जाए और किसी को नष्ट करे, अगर यह विध्वंसक हो जाए। वही क्रोध सुंदर समाधि में परिणत हो सकता है, अगर वह भीतर मुड़ जाए और वह तुम्हें तुम्हारे केंद्र पर फेंक दे। तब वह फूल बन जाएगा। ऊर्जा मात्र ऊर्जा है—स्वच्छ, निर्दोष, तटस्थ।

तो विचार मत करो। अगर तुम कुछ करने जा रहे हो तो सोचो मत; केवल ठहर जाओ और ठहरे रहो। उस ठहरने में तुम्हें केंद्र की झलक मिलेगी। तुम परिधि को भूल जाओगे और तुम्हें केंद्र दिखने लगेगा।

‘जैसे ही कुछ करने की वृत्ति हो, रुक जाओ।’

इसका प्रयोग करो। इस संबंध में तीन बातें स्मरण रखो। एक, प्रयोग तभी करो जब वृत्ति वास्तविक हो। दो, रुकने के संबंध में विचार मत करो, बस रुक जाओ। तीन, प्रतीक्षा करो। जब तुम ठहर गए तो श्वास न चले, कोई गति न हो—बस प्रतीक्षा करो कि क्या होता है। कोई चेष्टा न हो।

जब मैं कहता हूं कि प्रतीक्षा करो तो उससे मेरा मतलब है कि आंतरिक केंद्र के संबंध में विचार करने की चेष्टा मत करो। यदि चेष्टा की तो फिर चूक जाओगे। केंद्र की मत सोचो। मत सोचो कि अब झलक आने को है। कुछ भी मत सोचो। मात्र प्रतीक्षा करो। वृत्ति को, ऊर्जा को स्वयं गति करने दो। अगर तुम केंद्र और आत्मा और ब्रह्म के बारे में विचार करने लगे तो ऊर्जा उसी विचारणा में लग जाएगी।

तुम बहुत आसानी से आंतरिक ऊर्जा को गंवा सकते हो। एक विचार भी उसे गति देने के लिए काफी है। तब तुम सोचते चले जाओगे। जब मैं कहता हूं कि ठहर जाओ तो उसका मतलब है पूरी तरह, समग्ररूपेण ठहर जाओ। कुछ भी गति न हो—मानो कि सारा जगत ठहर गया है, कोई गति नहीं है, केवल तुम हो। उस केवल अस्तित्व में अचानक केंद्र का विस्फोट होता है।

दूसरी विधि:

जब कोई कामना उठे उस पर विमर्श करो। फिर अचानक उसे छोड़ दो।

यह पहली विधि का ही दूसरा आयाम है।

‘जब कोई कामना उठे, उस पर विमर्श करो। फिर, अचानक, उसे छोड़ दो।’

तुम्हें कोई इच्छा होती है—चाहे वह कामवासना हो, चाहे प्रेम की इच्छा हो, चाहे भोजन की इच्छा हो। तुम्हें इच्छा होती है तो उस पर विमर्श करो। जब यह सूत्र कहता है कि विमर्श करो तो उसका मतलब होता है कि उसके पक्ष या विपक्ष में विचार मत करो, बल्कि देखो कि वह इच्छा क्या है।

मन में कामवासना पैदा होती है और तुम कहते हो कि यह बुरी है। यह विमर्श करना नहीं हुआ। तुम्हें सिखाया गया है कि कामवासना बुरी है। इसलिए उसे बुरा कहना विमर्श नहीं है। तुम शास्त्रों से पूछ रहे हो। तुम अतीत से पूछ रहे हो। तुम गुरुओं और ऋषियों से पूछ रहे हो। तुम स्वयं कामना पर विमर्श नहीं कर रहे हो। तुम किसी और चीज पर विमर्श कर रहे हो। हो सकता है, वह तुम्हारा संस्कार हो, तुम्हारे पालन—पोषण की शैली हो, तुम्हारी शिक्षा हो, तुम्हारी संस्कृति हो, तुम्हारा धर्म हो। तुम उन पर विचार कर रहे हो, कामना पर विमर्श नहीं।

यह सीधी सी चाह पैदा हुई है। इसमें मन को मत बीच में लाओ। अतीत को, शिक्षा को, संस्कार को मत बीच में लाओ। केवल इस चाह पर विमर्श करो कि यह क्या है। अगर वह सब तुम्हारी खोपड़ी से बिलकुल पोंछ दिया जाए जो तुम्हें तुम्हारे समाज से, मां—बाप से, शिक्षा और संस्कृति से मिला है, अगर तुम्हारा मन पोंछकर अलग कर दिया जाए तो भी कामवासना पैदा होगी। क्योंकि यह वासना तुम्हें समाज से नहीं मिलती है। यह वासना जैविक रूप से तुम में बिल्ट इन है। वह तुम में ही है।

उदाहरण के लिए, एक नवजात शिशु को लो। यदि उसे कोई भाषा न सिखायी जाए तो वह भाषा नहीं जानेगा, भाषा के बिना रहेगा। भाषा एक सामाजिक घटना है; वह सिखायी जाती है। लेकिन जब ठीक समय आएगा तो इस बच्चे को भी कामवासना उठेगी। कामवासना सामाजिक घटना नहीं है; वह जैविक रूप से बिल्ट इन है। सही और प्रौढ़ क्षण आने पर वह पैदा होगी, वह आएगी। वह सामाजिक नहीं है, जैविक है और गहरी है। वह तुम्हारी कोशिकाओं में ही बिल्ट इन है।

तुम्हारा जन्म कामवासना से हुआ है, इसलिए तुम्हारे शरीर की प्रत्येक कोशिका काम—कोशिका है। तुम काम—कोशिकाओं से बने हो! जब तक तुम्हारी बायोलाजी पूरी तरह न

मिटा दी जाए तब तक कामवासना रहेगी। वह आएगी ही; क्योंकि वह है ही। कामवासना बच्चे के जन्म के साथ—साथ आती है, क्योंकि बच्चा मैथुन की उप—उत्पत्ति है। वह कामवासना से ही पैदा होता है। उसका समूचा शरीर काम—कोशिकाओं से बना है। वासना मौजूद है; सिर्फ समय की जरूरत है। जब उसका शरीर प्रौढ़ होगा तो वासना आएगी, और वह उसमें जाएगा। चाहे कोई तुम्हें सिखाए या न सिखाए कि कामवासना बुरी है, कि कामवासना अच्छी है, कि यह नरक है या स्वर्ग है, यह है या वह है, कामवासना सदा मौजूद है।

पुरानी परंपराएं, पुराने धर्म, खासकर ईसाइयत कामवासना के खिलाफ जोरदार प्रचार करती है। यिप्पी और हिप्पी और अन्य नए संप्रदाय इसके विपरीत आंदोलन चला रहे हैं। वे कहते हैं कि कामवासना शुभ है, कि कामवासना में परम सुख है। वे कहते हैं कि संसार में कामवासना ही असली चीज है।

उसे अशुभ कहो या शुभ, दोनों ही सिखावन हैं। किसी सिखावन के मुताबिक अपनी चाह का विचार मत करो। कामना पर, उसकी शुद्धि में, वह जैसी है, एक तथ्य की तरह विमर्श करो। उसकी व्याख्या मत करो। यहां विमर्श का मतलब व्याख्या नहीं है, तथ्य को तथ्य की तरह देखना है। चाह है, उसे सीधा और प्रत्यक्ष देखो। विचारों और धारणाओं को बीच में मत लो। कोई विचार तुम्हारा नहीं है; कोई धारणा तुम्हारी नहीं है। हर चीज तुम्हें दी गई है; हर धारणा उधार है। कोई विचार मौलिक नहीं है, कोई विचार मौलिक नहीं हो सकता। इसलिए विचार को बीच में मत लो। सिर्फ कामना को देखो कि वह क्या है। ऐसे देखो जैसे कि तुम्हें उसके संबंध में कुछ भी पता नहीं है। उसका साक्षात्कार करो। विमर्श का अर्थ यही है।

‘जब कोई कामना उठे, उस पर विमर्श करो।’

उसे तथ्य की तरह देखो; देखो कि वह क्या है। दुर्भाग्य से यह सर्वाधिक कठिन कामों में से एक है। इसके मुकाबले चांद पर जाना कठिन नहीं है, गौरीशंकर पर पहुंचना कठिन नहीं है। चांद पर पहुंचना बहुत जटिल है, अत्यंत जटिल, लेकिन आंतरिक मन के किसी तथ्य के साथ जीने की बात के सामने चांद पर पहुंचना कुछ भी नहीं है। क्योंकि तुम जो भी करते हो उसमें मन बहुत सूक्ष्म रूप से संलग्न रहता है। मन उसमें सदा समाया रहता है, उलझा रहता है।

इस शब्द को देखो, ज्यों ही मैंने कहा कामवासना या संभोग कि तुम तुरंत उसके पक्ष या विपक्ष में कुछ निर्णय ले लेते हो। जिस क्षण मैंने कहा संभोग कि तुम ने व्याख्या कर ली। तुम कहते हो, यह भला है या यह बुरा है। तुम शब्द की भी व्याख्या कर लेते हो।

जब ‘संभोग से समाधि की ओर’ पुस्तक प्रकाशित हुई तो बहुत से लोग मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि कृपा कर यह नाम ‘संभोग से समाधि की ओर’ बदल दीजिए। संभोग शब्द से ही वे घबड़ा जाते हैं। उन्होंने किताब भी नहीं पढ़ी। और वे भी नाम बदलने को कहते हैं जिन्होंने किताब नहीं पढी है। क्यों?

यह शब्द ही तुम्हारे भीतर व्याख्या को जन्म दे देता है। मन ऐसा व्याख्याकार है कि अगर मैंने कहा कि नीबू का रस तो तुम्हारी लार टपकने लगती है। तुमने शब्दों की व्याख्या कर ली।’नीबू का रस’ इन शब्दों में नीबू जैसी कोई चीज नहीं है, लेकिन तुम्हारी लार बहने लगी। अगर मैं कुछ क्षणों के लिए रुक जाऊं तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम्हें लार को निगलना पड़ेगा। क्या हुआ? मन ने व्याख्या कर ली; मन बीच में आ गया।

जब शब्दों से भी तुम तटस्थ नहीं रह सकते, तुम व्याख्या किए बिना नहीं रह सकते, उस समय क्या जब कोई इच्छा उठेगी? इच्छा से अलग रहना, उसका निष्‍पक्ष निरीक्षक होना, मौन और शांत होकर व्याख्या के बिना उसे देखना तो बहुत कठिन होगा।

मैं कहता हूं ‘यह आदमी मुसलमान है।’ जिस क्षण मैं कहता हूं कि यह आदमी मुसलमान है, हिंदू सोच लेता है कि यह आदमी बुरा है। अगर मैं कहूं कि यह आदमी यहूदी है तो ईसाई निर्णय ले लेगा कि यह आदमी अच्छा नहीं है। यहूदी शब्द सुनकर ही ईसाई मन व्याख्या कर लेता है; परंपरागत धारणाएं, दकियानूसी विचार उभरकर ऊपर चले आते हैं। कोई इस यहूदी का विचार नहीं करेगा; एक पुरानी व्याख्या उस पर लाद दी जाएगी।

प्रत्येक यहूदी भिन्न है, प्रत्येक हिंदू भिन्न है और अनूठा व्यक्ति है। तुम किसी हिंदू की व्याख्या सिर्फ इसीलिए नहीं कर सकते क्योंकि तुम और हिंदुओं को जानते हो। तुम यह निर्णय ले सकते हो कि जिन हिंदुओं को मैं जानता हूं वे सभी बुरे हैं। तब भी तुम इस हिंदू को नहीं जानते हो; यह तुम्हारे अनुभव में नहीं आया है। तुम अपने अतीत के अनुभव के आधार पर इस हिंदू की व्याख्या कर रहे हो।

व्याख्या मत करो। व्याख्या विमर्श नहीं है। विमर्श का अर्थ है कि केवल इस तथ्य पर विमर्श करो, केवल इस तथ्य पर, इस तथ्य के साथ जीओ। ऋषियों ने कहा है कि कामवासना बुरी है। हो सकता है कि उनके लिए बुरी रही हो, लेकिन तुम तो नहीं जानते हो। तुममें कामवासना है, और वह कामवासना अभी है। तुम उस पर विमर्श करो, उस पर आंखें गड़ाओ, पर अवधान दो।

‘फिर अचानक, उसे छोड़ दो।’

इस विधि के दो हिस्से हैं। पहला कि तथ्य के साथ रहो, जो हो रहा है उसके प्रति सजग रहो, अवधानपूर्ण रहो। देखो कि जब कामवासना पकड़ती है तो तुम्हारे भीतर क्या—क्या घटित होता है। तुम्हारा शरीर ज्वरग्रस्त हो जाता है, कांपने लगता है। तुम्हें लगता है कि कोई विक्षिप्तता तुम में प्रवेश कर रही है। तुम्हें लगता है कि तुम किसी से आविष्ट हो। इसको अनुभव करो, इस पर विमर्श करो, कोई निर्णय न लो। सीधे तथ्य में प्रवेश करो। यह मत कहो कि यह बुरा है। अगर बुरा कहा तो विमर्श समाप्त हो गया, तुम ने द्वार बंद कर दिया। अब कामवासना की ओर तुम्हारी पीठ है, मुंह नहीं। तुम उससे दूर सरक गए। ऐसे तुम ने एक गहरा और कीमती क्षण गंवा दिया, जिसमें तुम अपने जीवन की एक जैविक पर्त का दर्शन कर सकते थे।

तुम अभी जिस पर्त से परिचित हो वह सामाजिक पर्त है, और तुम उससे ही चिपके हो। वह सतही है। कामवासना तुम्हारे शास्त्रों से गहरी है; क्योंकि वह जैविक है। अगर सभी शास्त्र नष्ट कर दिए जाएं—ऐसा हो सकता है, ऐसा कई बार हुआ है—तो तुम्हारी व्याख्या खो जाएगी। लेकिन कामवासना तब भी रहेगी; वह ज्यादा गहरी है।

सतही चीजों को बीच में मत लाओ। तथ्य पर अवधान दो, उसमें प्रवेश करो, और देखो कि तुम्हें क्या हो रहा है। किसी ऋषि विशेष को, मोहम्मद और महावीर को क्या हुआ, वह प्रासंगिक नहीं है। इस क्षण तुम्हें क्या हो रहा है, इस जीवंत क्षण में जो हो रहा है, वह प्रासंगिक है। उस पर विमर्श करो, उसका ही निरीक्षण करो।

और अब दूसरा हिस्सा; यह सचमुच अदभुत है।

शिव कहते है ‘फिर, अचानक, छोड़ दो।’

यहां ‘अचानक’ को याद रखो। यह मत कहो कि यह खराब है, इसलिए छोड़ रहा हूं। यह मत कहो कि यह खराब है, इसलिए इसे नहीं रखूंगा। यह मत कहो कि यह बुरा है, यह पाप है, इसलिए इसके साथ गति नहीं करूंगा, मैं इसे त्याग दूंगा, मैं इसका दमन कर दूंगा। तब तो दमन घटित होगा, ध्यान नहीं घटित होगा। और दमन अपने ही हाथों अपना एक अमित चित्त निर्मित करना है।

दमन मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है; उसके द्वारा तुम समूचे यंत्र को उपद्रव में डाल रहे हो और उन ऊर्जाओं को दबा रहे हो जो किसी न किसी दिन फूटकर बाहर आएंगी। ऊर्जा तो है ही, सिर्फ दमित हो गई है। न इसे बाहर जाने दिया गया है और न भीतर; उसे सिर्फ दमित कर दिया गया है। वह कोने—कातर में छिप गई है, जहां वह पड़ी रहेगी और विकृत होगी।

और स्मरण रहे, विकृत ऊर्जा ही मनुष्य की बुनियादी समस्या है। जो मानसिक रुग्णताएं हैं, वे विकृत ऊर्जा की उप—उत्पत्ति हैं। तब वह ऊर्जा ऐसे ढंगों में अभिव्यक्त होगी, जिसकी कोई कल्पना नहीं हो सकती। और इन विकृतियों में भी वह फिर अपने को अभिव्यक्त करने की चेष्टा करेगी। और जब वह विकृत रूप में अभिव्यक्त होती है तो बहुत दुख और संताप लाती है। विकृत ऊर्जा की अभिव्यक्ति से संतुष्टि नहीं मिलती है। और अड़चन यह है कि तुम विकृत नहीं रह सकते, तुम्हें विकृति को अभिव्यक्ति देनी होगी। दमन विकृति पैदा करता है। इस सूत्र का दमन से कुछ लेना—देना नहीं है। यह सूत्र यह नहीं कहता कि नियंत्रण करो; यह सूत्र दमन की बात ही नहीं करता है।

यह सूत्र कहता है. ‘अचानक, छोड़ दो।’

तो क्या किया जाए भू: कामना है; कामना पर तुमने विमर्श किया है। अगर कामना पर तुमने विमर्श किया है तो दूसरा भाग कठिन नहीं होगा। तब यह आसान होगा। यदि विमर्श नहीं किया है तो तुम्हारे मन में विचार चलते रहेंगे। मन कहेगा, यह अच्छा है कि कामवासना को हम अचानक छोड़ दें।

तुम छोड़ना चाहोगे। लेकिन वह सवाल नहीं है। यह पसंद तुम्हारी न होकर समाज की हो सकती है। यह पसंद तुम्हारा विमर्श न होकर मात्र परंपरा हो सकती है। इसलिए विमर्श करो। पसंद या गैर—पसंद की बात मत उठाओ। केवल विमर्श करो। और तब दूसरा हिस्सा आसान हो जाएगा। तब तुम कामना को छोड़ सकते हो। कैसे छोड़ सकते हो?

जब किसी चीज पर तुम ने समग्ररूपेण विमर्श किया है तो उसे छोड़ना बहुत आसान हो जाता है। वह इतना ही आसान है जितना मेरे लिए इस कागज को गिराना आसान है।’इसे छोड़ दो।’ क्या होगा? कामना है; उसे तुम ने दबाया नहीं है। कामना है, और वह बाहर जाना चाहती है। वह उठ रही है और उसने तुम्हारे पूरे अस्तित्व को उद्वेलित कर दिया है। सच तो यह है कि जब तुम किसी कामना पर बिना किसी व्याख्या के विचार करोगे तो तुम्हारा पूरा अस्तित्व ही कामना बन जाएगा।

समझो कि कामवासना है और तुम उसके पक्ष या विपक्ष में नहीं हो, उसके संबंध में तुम्हारी कोई धारणा नहीं है, तुम सिर्फ उसे देख रहे हो। तो इस देखने भर से तुम्हारा पूरा अस्तित्व उस कामना में संलग्न हो जाएगा। एक अकेली कामवासना आग की लपट बन

जाएगी। उस लपट में तुम्हारा सारा अस्तित्व जलने लगेगा—मानो कि तुम समग्ररूपेण कामुक हो उठे हो। तब कामवासना काम—केंद्र पर ही सीमित नहीं रहेगी, वह तुम्‍हारे पूरे शरीर पर फैल जाएगी, तुम्हारे शरीर का एक—एक तंतु कांपने लगेगा। कामना अंगारा बन जाएगी; तब उसे छोड़ दो, उससे अचानक हट जाओ। उससे लड़ी मत, इतना ही कहो कि मैं छोड़ता हूं।

तब क्या होगा? ज्यों ही तुम कहते हो कि मैं छोड़ता हूं एक अलगाव घटित होता है। तुम्हारा शरीर, कामोत्तप्त शरीर और तुम दो हो जाते हो। अचानक एक क्षण को भीतर उनके बीच जमीन—आसमान की दूरी पैदा हो गई। शरीर तो आवेग से, कामवासना से उद्वेलित है और केंद्र शांत है, मात्र देख रहा है। स्मरण रहे, वहां कोई संघर्ष नहीं है, सिर्फ अलगाव है। संघर्ष में तुम अलग नहीं होते, जब तुम लड़ते हो, तुम लड़ाई के विषय के साथ एक होते हो। तुम जब मात्र छोड़ देते हो तब तुम अलग होते हो, तब तुम इसे देख सकते हों—मानो तुम नहीं, कोई दूसरा देख रहा है।

मेरे एक मित्र बहुत वर्षों तक मेरे साथ थे। वे सतत धूम्रपान करते थे—चेन स्मोकर थे। और जैसा कि सभी धूम्रपान करने करते हैं, मेरे मित्र ने भी निरंतर उससे छूटने की चेष्टा की। किसी सुबह अचानक तय करते कि अब मैं धूम्रपान नहीं करूंगा, और शाम होते —होते फिर पीने लगते। और फिर वे अपराधी अनुभव करते और अपना बचाव करते और तब कुछ दिनों तक धूम्रपान छोड़ने का नाम भी नहीं लेते। फिर वे यह सब भूल जाते और किसी दिन साहस जुटाकर फिर कहते कि अब मैं धूम्रपान नहीं करूंगा। और मैं सिर्फ हंसता, क्योंकि यह घटना इतनी बार दुहर चुकी थी।

फिर वे खुद भी इस दुश्चक्र से ऊब उठे कि धूम्रपान करना और छोड़ना मानो हमेशा—हमेशा के लिए उनका संगी बन गया था। वे गंभीरता से सोचने लगे कि क्या करूं। और तब उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्या करूं? मैंने उनसे कहा कि पहली बात तो यह कि धूम्रपान का विरोध करना छोड़ दो, धूम्रपान करो और मजे से करो। सात दिनों तक इसका कोई विरोध मत करो, इसे स्वीकार कर लो।

उन्होंने कहा कि यह आप क्या कह रहे हैं! मैं इसके विरोध में रहकर भी इसे नहीं छोड़ सकता, और आप इसे स्वीकारने को कहते हैं। तब तो छोड़ने की जरा भी संभावना नहीं रहेगी। मैंने उन्हें समझाया कि तुम शत्रुता का रुख प्रयोग करके देख चुके, निष्फलता ही हाथ लगी। अब मैत्री के रुख का प्रयोग करो। बस सात दिनों के लिए धूम्रपान का विरोध मत करों।

उन्होंने छूटते ही पूछा कि क्या तब धूम्रपान छूट जाएगा? मैंने उनसे कहा : तुम अब भी उसके प्रति शत्रुता का भाव रखते हो। छोड़ने के भाव में ही शत्रुता है। छोड़ने का विचार ही मत करो। क्या कोई मित्र को छोड़ने का विचार करता है? सात दिन तक छोड़ने की बात ही भूल जाओ। धूम्रपान के साथ रहो, उसके साथ सहयोग करो। जितना संभव हो उतने प्रगाढ़ ढंग से, उतने प्रेम के साथ पीओ। जब तुम धूम्रपान कर रहे हो तो उस समय सब कुछ भूलकर धूम्रपान ही हो जाओ। उसके साथ आराम से रहो, उसके साथ संवाद साध लो। सात दिन तक जितना चाहो उतना धूम्रपान करो, छोड़ने की बात ही भूल जाओ।

ये सात दिन उनके लिए विमर्श के दिन बन गए। वे धूम्रपान के तथ्य को सीधा—साधा देख पाए। वे इसके विरोध में नहीं थे। इसलिए अब वे इसका साक्षात्कार कर सकते थे। जब तुम किसी व्यक्ति या वस्तु के विरोध में होते हो तो तुम उसका साक्षात्कार नहीं कर सकते। विरोध ही बाधा बन जाता है। तब विमर्श कहां? क्या तुम शत्रु पर विमर्श करते हो? तुम उसे देख भी नहीं सकते, तुम उसकी आख से आख नहीं मिला सकते। शत्रु को देखना बहुत कठिन है। तुम उसी व्यक्ति की आखों में आख डालकर देख सकते हो जिसे तुम प्रेम करते हो। प्रेम में ही तुम गहरे उतर सकते हो, अन्यथा आख मिलाना मुश्किल है।

मेरे उन मित्र ने धूम्रपान के तथ्य का गहराई से साक्षात्कार किया। सात दिन तक वे विमर्श करते रहे। उन्होंने विरोध छोड़ दिया था, इसीलिए ऊर्जा सुरक्षित थी। और यह ध्यान बन गया। उन्होंने सहयोग किया और वे धूम्रपान ही बन गए।

सात दिन बाद मेरे मित्र मुझे कहना भी भूल गए कि क्या हुआ। मैं इंतजार कर रहा था कि वे आएंगे और कहेंगे कि सात दिन बीत गए, अब मैं धूम्रपान कैसे छोडूं। वे सात दिन की बात ही भूल गए। तीन सप्ताह गुजर गए तो मैंने ही उनसे पूछा कि आप बिलकुल भूल गए क्या? उन्होंने कहा कि यह अनुभव सुंदर रहा, इतना सुंदर कि अब मैं किसी चीज के विषय में सोचना ही नहीं चाहता। पहली बार मैंने तथ्य के साथ संघर्ष नहीं किया, पहली बार मैं सिर्फ अनुभव कर रहा हूं—उसे जो मेरे साथ घटित हो रहा है।

तब मैंने उनसे कहा, ‘अब जब भी धूम्रपान की वृत्ति पैदा हो, तो उसे छोड़ दो।’ उन्होंने फिर नहीं पूछा कि कैसे छोड़ना है। उन्होंने पूरी चीज पर विमर्श किया था, और उससे ही वह पूरी चीज बचकानी दिखने लगी थी। संघर्ष की गुंजाइश ही न रही। तब मैंने उनसे कहा कि अब जब फिर धूम्रपान की चाह पैदा हो तो उसे देखो और उसे छोड़ दो। सिगरेट को अपने हाथ में ले लो, एक क्षण के लिए रुको और तब सिगरेट को छोड़ दो, गिर जाने दो। और सिगरेट के गिरने के साथ—साथ धूम्रपान की वृत्ति को भी गिर जाने दो।

उन्होंने फिर मुझसे नहीं पूछा कि कैसे छोड़ना है। विमर्श सक्षम बना देता है। तुम छोड सकते हो। और यदि न छोड़ सको तो मानना कि तुमने तथ्य पर विमर्श नहीं किया, मानना कि तुम उसके विरोध में रहे, सतत सोचते रहे कि कैसे छोड़ा जाए। उस हालत में छोड़ना असंभव है। जब एकाएक वृत्ति पैदा हो और तुम उसे छोड दो तो सारी ऊर्जा एक छलांग लेकर भीतर गति कर जाती है।

विधि एक ही है, केवल उसके आयाम भिन्न हैं।

‘जब कोई कामना उठे, उस पर विमर्श करो। फिर, अचानक, उसे छोड़ दो।’

तीसरी विधि :

पूरी तरह थकने तक घूमते रहो और तब जमीन पर गिरकर इस गिरने में पूर्ण होओ। वही है, विधि वही है।

‘पूरी तरह थकने तक घूमते रहो।’

स वर्तुल में घूमो। कूदो, नाचो, दौड़ो, जब तक थक न जाओ घूमते रहो। यह घूमना तब तक जारी रहे जब तक ऐसा न लगे कि और एक कदम उठाना असंभव है। लेकिन यह खयाल रखो कि मन कह सकता है कि अब पूरी तरह थक गए। मन की बिलकुल मत सुनो। चलते चलो, दौड़ते रहो, नाचते रहो, कूदते रहो।

मन बार—बार कहेगा कि बस करो, अब बहुत थक गए। मन पर ध्यान ही मत दो। तब तक घूमना छ जब तक महसूस न —विचारना नहीं, महसूस करना महत्वपूर्ण है—कि शरीर बिलकुल थक गया है और अब एक कदम भी उठाना संभव न होगा और यदि उठाऊंगा तो गिर जाऊंगा। जब तुम अनुभव करो कि अब गिरा तब गिरा, अब आगे चला नहीं जा सकता, शरीर भारी और थककर चूर—चूर हो गया है, ‘तब, जमीन पर गिरकर, इस गिरने में पूर्ण होओ।’ तब गिर जाओ।

ध्यान रहे कि थकना इतना हो कि गिरना अपने आप ही घटित हो। अगर तुमने दौड़ना जारी रखा तो गिरना अनिवार्य है। जब यह चरम बिंदु आ जाए, तब—सूत्र कहता है—गिरो और इस गिरने में पूर्ण होओ।

इस विधि का केंद्रीय बिंदु यही है : जब तुम गिर रहे हो, पूर्ण होओ।

इसका क्या अर्थ है? पहली बात यह कि मन के कहने से ही मत गिरी। कोई आयोजन मत करो। बैठने की चेष्टा मत करो, लेटने की चेष्टा मत करो। पूरे के पूरे गिर जाओ, मानो कि पूरा शरीर एक है और वह गिर गया है। ऐसा न हो कि तुमने उसे गिराया है। अगर तुमने गिराया है तो तुम्हारे दो हिस्से हो गए, एक गिराने वाले तुम हुए और दूसरा गिराया हुआ शरीर हुआ। तब तुम पूर्ण न रहे, खंडित और विभाजित रहे।

उसे अखंडित गिरने दो, अपने को समग्रत: गिरने दो।’गिरो’ शब्द को याद रखो। व्यवस्था नहीं करनी है, मृतवत गिर जाना है।’इस गिरने में पूर्ण होओ।’ अगर इस भांति गिरे तो पहली बार तुम्हें अपने पूरे अस्तित्व का, अपनी पूर्णता का एहसास होगा। पहली बार केंद्र को अखंड, अद्वैत, एक अनुभव करोगे। यह कैसे घटित होगा?

शरीर में ऊर्जा के तीन तल हैं। एक है दैनंदिन कामों का तल। इस तल की ऊर्जा आसानी से चुक जाती है। यह दिनचर्या के कामों के लिए ही है। दूसरा तल आपातकालीन कामों के लिए है, यह ज्यादा गहरा तल है। जब तुम किसी संकट में होते हो तभी इस ऊर्जा का उपयोग करते हो। और तीसरा तल जागतिक ऊर्जा का है, जो अनंत है।

पहले तल की ऊर्जा आसानी से चुक जाती है। यदि मैं तुम्हें दौड़ने को कहूं तो तुम तीन—चार चक्कर लगाकर कहोगे कि मैं थक गया। सच में तुम थके नहीं हो, पहले तल की ऊर्जा समाप्त हो गई है। सुबह में यह इतनी आसानी से नहीं चुकती, शाम में जल्दी चुक जाती है। क्योंकि दिनभर तुमने उसका उपयोग किया है, अब इसे विश्राम की जरूरत है। यही वजह है कि रात में शरीर आराम खोजता है। उसे गहरी नींद की जरूरत होती है। जागतिक ऊर्जा के भंडार से शरीर फिर अगले दिन के काम के लिए जरूरी ऊर्जा ले लेगा। यह पहला तल हुआ।

अभी यदि मैं तुमसे दौड़ने को कहूं तो तुम कहोगे कि मुझे नींद आ रही है। तभी कोई आता है और कहता है कि तुम्हारे घर में आग लग गई है। अचानक तुम्हारी नींद काफूर हो गई, थकावट जाती रही _ तुम ताजा हो गए और दौड़ पड़े। अचानक क्या हुआ? तुम थके थे, लेकिन आपातकाल ने तुम्हें तुम्हारी ऊर्जा के दूसरे तल से जोड़ दिया, और तुम फिर ताजा हो उठे। यह दूसरा तल है।

इस विधि में दूसरे तल की ऊर्जा को चुकाना है। पहला तल बहुत आसानी से चुक जाता है। उसके चुकने पर भी दौड़ते रहो। थकने पर भी दौड़ते रहो। कुछ ही क्षणों में ऊर्जा की एक नई लहर आएगी और तुम फिर ताजा हो जाओगे और तुम्हारी थकावट चली जाएगीं।

अनेक लोग मुझसे आकर कहते हैं कि जब हम साधना शिविर मैं होते है तब एक चमत्‍कार सा होता है कि हम इतना कर लेते है। सुबह में एक घंटा सक्रिय ध्‍यान, जिसमें हम पूरे पागल की तरह ध्यान करते हैं। पिछले पहर भी एक घंटा ध्यान करते हैं। और फिर रात में भी। तीन—तीन बार हम पागलों की तरह ध्यान करते हैं। अनेक लोगों ने कहा है कि यह हमें असंभव सा लगता है, लगता है कि अब और नहीं चलेगा, लगता है कि अगले दिन हाथ—पांव हिलाना भी असंभव होगा। लेकिन कोई थकता नहीं है। रोज तीन—तीन सत्र, और इतना कठिन श्रम, और इसके बावजूद कोई भी नहीं थकता है। ऐसा क्यों है?

ऐसा इसलिए है कि लोग शिविर में दूसरे तल की ऊर्जा से संबंधित हो जाते हैं। यदि तुम अकेले करो तो थक जाओगे। किसी पहाड़ पर जाकर प्रयोग करके देखो, पहले तल के चुकते ही तुम चुक जाओगे, थक जाओगे। लेकिन एक बड़े समूह में, जहां पांच सौ लोग सक्रिय ध्यान कर रहे हों, बात दूसरी है। तुम्हें लगता है, दूसरे लोग जब नहीं थके हैं तो तुमको भी कुछ देर जारी रखना चाहिए। और हरेक आदमी ऐसा ही सोच रहा है कि जब कोई नहीं थका है तो मुझे भी जारी रखना चाहिए। जब सब कोई ताजा और सक्रिय हैं तो मैं ही क्यों थकान अनुभव करूं?

यह समूह— भाव तुम्हें प्रेरणा देता है, शक्ति देता है, और तुम दूसरे तल पर पहुंच जाते हो। और दूसरा तल बहुत बड़ा है—आपातकालीन तल जो है। और जब आपातकालीन तल चुकता है, तब, और तभी, तुम जागतिक तल से, स्रोत से, अनंत से संबंधित होते हो। इसलिए बहुत श्रम की जरूरत है—इतने श्रम की कि तुम्हें लगे कि अब यह मेरे बस के बाहर है।

लेकिन अभी भी यह तुम्हारे वश के बाहर नहीं है। यह सिर्फ तुम्हारे पहले तल की ऊर्जा के वश के बाहर है। जब पहले तल की ऊर्जा चुकती है तो थकावट महसूस होती है। दूसरे तल की ऊर्जा के चुकने पर तुम्हें लगेगा कि अब अगर और ज्यादा किया तो मर जाऊंगा। अनेक लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि जब हम ध्यान की गहराई में उतरते हैं तो एक क्षण आता है कि हम भयभीत हो जाते हैं, आतंकित हो जाते हैं, क्योंकि लगता है कि मृत्यु करीब है, इससे आगे जाने पर मृत्यु निश्चित है।

यह मृत्यु का भय पकड़ता है और लगता है कि ध्यान से बाहर आना नहीं हो सकेगा। यही वह क्षण है, ठीक क्षण, जब तुम्हें साहस की जरूरत होगी। थोड़ा और साहस, और तुम तीसरे तल में प्रविष्ट हो जाओगे। वह सबसे गहरा तल है—आत्यंतिक, अनंत।

यह विधि तुम्हें ऊर्जा के जागतिक सागर में आसानी से उतारने में सहयोगी है।

‘पूरी तरह थकने तक घूमते रहो, और तब, जमीन पर गिरकर, इस गिरने में पूर्ण होओ।’

 

और जब तुम जमीन पर गिरोगे तो पहली बार तुम पूर्ण हो जाओगे—अद्वैत, एक। कोई विभाजन, कोई द्वैत नहीं रहेगा। विभाजनों वाला मन विदा हो जाएगा, और पहली बार वह सत्ता प्रकट होगी जो अविभाजित है, अविभाज्य है।

 

आज इतना ही।


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ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍हीं चदरिया–(पंच महाव्रत) प्रवचन–8

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अपरिग्रह—(प्रवचन—आठवां)

 दिनांक 12 नवंबर 1970,

क्रास मैदान, बंबई

प्रश्नोत्तर :

आचार्य श्री, आप बहुत बार कहते हैं कि भौतिक संपन्नता आध्यात्मिक विकास का आधार है; लेकिन अपरिग्रह पर हुए पिछले प्रवचन में आपने कहा कि कम चीजें हों तो व्यक्ति कम गुलाम होता है, और चीजें अधिक हों तो व्यक्ति अधिक गुलाम हो जाता है। कृपया संपन्नता व अपरिग्रह के इस मौलिक विरोधाभास को स्पष्ट करें, और साथ ही समझायें कि अधिक चीजें व्यक्ति को अधिक गुलाम कैसे बनाती हैं? और पजेसर कैसे पजेस्ड हो जाता है?

संपन्नता आध्यात्मिक जीवन का आधार है, लेकिन आधार से ही कोई भवन निर्मित नहीं हो जाता। आधार भी हो, और भवन न उठाया जाये, यह हो सकता है। भवन तो बिना आधार के कभी नहीं होता, लेकिन आधार बिना भवन के हो सकते हैं। कोई नींव को भरकर ही छोड़ दे तो भवन तो नहीं उठेगा, पर आधार जरूर होंगे। लेकिन भवन हो तो बिना आधार के नहीं होता है।

संपन्नता वीतरागता का आधार है। संपन्न हुए बिना कभी कोई नहीं जान पाता कि संपन्नता व्यर्थ है। धन पाए बिना कभी कोई नहीं जान पाता कि धन से कुछ भी नहीं मिलता है। धन की जो सबसे बड़ी देन है, वह धन नहीं है। धन की सबसे बड़ी देन, धन के भ्रम का टूट जाना है, डिसइल्यूजनमेंट है। धन न मिले, तो धन की व्यर्थता का कभी भी पता नहीं चलता। विपन्न, दीन, दरिद्र, धन से मुक्त होने में बड़ी कठिनाई पायेगा। जो है ही नहीं, उससे मुक्त हुआ भी कैसे जा सकता है? मुक्त होने के लिए होना भी चाहिए। और जो हमें मिल जाता है, केवल उसी से हम मुक्त हो सकते हैं।

इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि संपन्न समाज ही धार्मिक हो पाता है, संपन्नता ही व्यक्ति को धन के ऊपर, अतिक्रमण में ले जाती है।

लेकिन पिछली अपरिग्रह की चर्चा में जब मैंने यह कहा कि थोड़ी चीजें कम बांधती हैं, ज्यादा चीजें ज्यादा बांध लेती हैं, तो हो सकता है–जैसा कि प्रश्न में पूछा गया है–अनेक मित्रों को लगा हो कि इन दोनों में कोई विरोधाभास है। विरोधाभास नहीं है। कम गुलामी से छूटना बहुत मुश्किल है, ज्यादा गुलामी से छूटना ही संभव हो पाता है। जंजीरें बहुत कम हों तो आदमी सह लेता है; जंजीरें बहुत ज्यादा हों, तो बगावत हो जाती है। गरीब आदमी की जंजीरें इतनी कम होती हैं कि उनको तोड़ने का खयाल भी पैदा नहीं होता। अमीर आदमी की जंजीरें बढ़ जाती हैं, तो तोड़ने का ख्याल भी पैदा होता है।

इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। वस्तुओं के बढ़ जाने पर ही पता चलता है कि मैंने व्यर्थ का बोझ इकट्ठा कर लिया है। और ऐसा बोझ, जो मैंने सोचा था कि मुझे मुक्ति देगा; पर मुक्ति उससे नहीं मिली, सिर्फ मैं दब गया। ऐसा बोझ, जिससे मैंने सोचा था कि कोई उड़ान भर सकूंगा; उड़ान नहीं हुई, केवल मेरे पैर चलने में असमर्थ हो गए।

अधिक गुलामी स्वतंत्रता के निकट पहुंचा देती है। और जैसे सुबह होने के पहले अंधेरा बढ़ जाता है, वैसे ही स्वतंत्रता की संभावना के पहले दासता बढ़ जाती है। संपन्न व्यक्ति गहरी गुलामी में है, इसलिए गुलामी का बोध भी होता है। छोटी-मोटी गुलामी के लिए हम एडजेस्ट हो जाते हैं, समायोजित हो जाते हैं। छोटी-मोटी गुलामी को हम पी लेते हैं और सह लेते हैं। पर जितनी बड़ी गुलामी हो, उतना ही सहना मुश्किल होता चला जाता है। और छोटी गुलामी को हम इस आशा में भी सह लेते हैं कि शायद कल गुलामी कम हो जाये।

तो गरीब के पास जो भी कुछ है, उसे छोड़ने का खयाल उसे पैदा नहीं होता; क्योंकि उसकी जिंदगी में तो जो नहीं है, उसको पाने की दौड़ जारी रहती है। अमीर आदमी के पास वह सब हो जाता है जिसे पाने की दौड़ थी, और अब पाने को कुछ भी नहीं रह जाता, फिर भी वह पाता है कि पाया कुछ भी नहीं गया है। पाने को कुछ शेष नहीं रहा, और पाया कुछ भी नहीं गया है, बाहर सब इकट्ठा हो गया और भीतर पूरी रिक्तता खड़ी है। ये क्षण ही संपन्न आदमी के जीवन में आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत करते हैं। यह उसकी पहली किरण है।

लेकिन मैं ऐसा नहीं कहता हूं कि सभी संपन्न आदमी इस क्रांति को उपलब्ध हो जाते हैं। अधिकतर संपन्न आदमी सिर्फ आधार बनाकर ही रह जाते हैं। उनके जीवन में क्रांति का भवन कभी निर्मित नहीं हो पाता। लेकिन उसके भी कारण हैं। और ऐसा भी नहीं है कि गरीब आदमी कभी आध्यात्मिक नहीं हो पाता। गरीब आदमी भी आध्यात्मिक हो जाता है। लेकिन उसके भी कारण हैं।

पहली बात तो यह ठीक से स्मरण में ले लेनी चाहिए कि अनुभव के अतिरिक्त और कोई ज्ञान नहीं है। अनुभव ही ज्ञान है। धन का अनुभव ही धन से मुक्ति लाता है। और अगर एक व्यक्ति इस जीवन में अपनी गरीबी में भी आध्यात्मिक हो गया है, तो उसके किसी न किसी जन्म की यात्रा में धन के अनुभव का कारण मौजूद होगा ही। अन्यथा अनुभव के बिना ज्ञान नहीं है। धन के अनुभव के बिना धन से कोई मुक्त नहीं हो सकता। जिसे हमने जाना नहीं, वह व्यर्थ है, इसे भी हम कैसे जान सकेंगे? जिस दुख को हमने पाया नहीं, वह छोड़ने योग्य है, इस निष्कर्ष पर भी हम कैसे पहुंच सकेंगे? जो अपरिचित है, वह शत्रु है, इसकी पहचान की भी तो कोई संभावना नहीं है।

शत्रु को भी पहचानना हो, तो परिचित हो जाना जरूरी है। और गलत को भी जानना हो, तो गलत से गुजरना पड़ता है। और राह के गङ्ढे उन्हीं को पता होते हैं, जो राह के गङ्ढों में गिरते हैं और भटकते हैं। इसके अतिरिक्त जीवन में कोई उपाय भी नहीं है।

हां, यह हो सकता है–जिसे हम जीवन कहते हैं, वह बहुत छोटा है, पर जीवन की यात्रा बहुत लंबी है–एक आदमी अपने पिछले जन्मों में धन के अनुभव से इतना सेचुरेट, इतना पूरा हो चुका हो कि इस जन्म में गरीबी से भी उसकी अध्यात्म में छलांग संभव हो जाये। अन्यथा और कोई कारण नहीं हो सकता। और अगर इस जन्म में भी कोई आदमी धन को पूरी तरह पाकर भी दीन और दरिद्र बना रहता है, धन को पूरी तरह पाकर भी धन से मुक्त नहीं होता, तो मैं कहना चाहूंगा कि जो धन से मुक्त होता है, उसी ने धन को पूरी तरह पाया है, इसका प्रमाण देता है।

धनी वही है, जो धन को छोड़ पाता है। अगर नहीं छोड़ पाता है, तो उसके भीतर दीन और दरिद्र बैठा हुआ है। अगर इस जन्म में कोई पूरी तरह धन को पाकर भी धर्म की प्यास को जगाने में असमर्थ है, तो इसका एक ही अर्थ है कि उसके बहुत से पिछले जन्म इतनी दीनता और दरिद्रता में कटे हैं कि इतना धन भी उसकी दीनता के अनुभव को नहीं काट पा रहा है। उसके भीतर की दरिद्रता खड़ी ही रह गई है। वह अभी भी भीतर दरिद्र है। धन का अनुभव अभी नया है। अभी वह अनुभव ज्ञान नहीं बन पाया है।

बहुत बार अनुभव से गुजरने पर ज्ञान बनता है। ज्ञान बहुत से अनुभवों का सार-संक्षिप्त है। ज्ञान बहुत से अनुभव के फूलों का इत्र है। इस आदमी के लिए धन का अनुभव पहला है। अभी धन का अनुभव उसका ज्ञान नहीं बन पाया है। जैसे ही धन का अनुभव ज्ञान बनता है, वैसे ही व्यक्ति धन से मुक्त होने लगता है।

मेरी दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।

ऐसे ही मैं निरंतर कहता हूं कि जिसने कभी शास्त्र नहीं जाने, वह कभी शास्त्र से मुक्त न हो सकेगा। जिसने शास्त्रों को जाना, वह शास्त्रों से मुक्त हो जाता है।

ऐसे ही मैं कहता हूं कि जिसने क्रोध नहीं जाना, वह क्रोध से मुक्त न हो सकेगा। लेकिन जिसने क्रोध की पूरी पीड़ा और अग्नि जानी है, वह क्रोध से मुक्त हो जाता है।

ऐसे ही मैं कहता हूं कि जिसने काम नहीं जाना, वासना नहीं जानी, वह कभी काम- वासना से मुक्त न हो सकेगा। जो कामवासना को जान जाता है, वह उसकी परिधि के बाहर हो जाता है।

अनुभव मुक्ति है क्योंकि अनुभव ज्ञान है। धन का अनुभव ही धन के बाहर ले जाता है।

आचार्य श्री, इसी संदर्भ में विरोधाभास पर प्रश्न कर रहा हूं। आप निरंतर कहते हैं और अभी आपने कहा है कि भोग की पूरी गहराइयों में उतर कर ही व्यक्ति कामना और वासनाओं का अतिक्रमण कर पाता है, उनसे मुक्त हो जाता है, लेकिन अपरिग्रह के पिछले प्रवचन में आपने कहा था कि वासनाएं, कामनाएं वृत्ताकार हैं, सर्कुलर हैं, वे कहीं भी तृप्ति नहीं बनतीं। कृपया इस विरोधाभास को स्पष्ट करें।

 

वासनाओं के अनुभव से ही व्यक्ति वासनाओं से मुक्त होता है; क्योंकि अनुभव के अतिरिक्त कोई मार्ग ही मुक्ति का नहीं है। संसार ही द्वार है मोक्ष का; और नर्क ही द्वार है स्वर्ग का; और कारागृह ही द्वार है मुक्ति का। जितनी पीड़ा अनुभव होती है संसार में, वही पीड़ा संसार के पार ले जाने के लिए मार्ग बन जाती है–ऐसा मैं निरंतर कहता हूं। यह भी मैंने कहा कि वृत्तियां कभी तृप्त नहीं होती हैं। वे वर्तुलाकार हैं; सर्कुलर हैं। उनमें दौड़ते जाइए, कहीं अंत नहीं आता। कितना भी दौड़िए, आगे रेखा सदा शेष रह जाती है। और भी दौड़िए–रेखा शेष रह जाती है। जैसे कोई व्यक्ति गोल घेरे में दौड़े तो गोल घेरा कहीं समाप्त नहीं होता, वैसे ही वृत्तियां कहीं समाप्त नहीं होतीं; कोई वृत्ति कभी पूरी तरह तृप्त नहीं होती। लेकिन दूसरी तरफ मैं कहता हूं कि वृत्ति के गहरे अनुभव से ही व्यक्ति मुक्त होता है। ये दोनों बातें विरोधी दिखायी पड़ती हैं–विरोधी हैं नहीं।

व्यक्ति तृप्त नहीं होता गहरे अनुभव से, गहरे अनुभव से मुक्त होता है। तृप्त हो जाये, तब तो मुक्ति की कोई जरूरत ही नहीं है। तृप्त नहीं होता है–यही तो मुक्ति में ले जाने का कारण बनता है। हजार बार दौड़ चुका है एक ही गोल घेरे में–पाता है, वहीं-वहीं दौड़ता है; कोल्हू के बैल की तरह दौड़ता है, पर तृप्ति नहीं होती।

यह अनुभव ही वृत्ति का गहरा अनुभव है कि दौड़ता हूं बहुत, खोजता हूं बहुत, पा भी लेता हूं, फिर भी खाली हाथ रह जाता हूं। और एक बार नहीं, अनेक बार इस अनुभव की गहराई में जो उतर जाता है, ऐसा नहीं है कि उसकी वृत्ति तृप्त हो जाती है, बल्कि ऐसा कि वह दौड़ना बंद करके खड़ा हो जाता है। क्योंकि वह कहता है कि बहुत दौड़ चुका इसी राह पर, कहीं कभी पहुंचा नहीं हूं; वहीं-वहीं वर्तुलाकार दौड़ रहा हूं, कहीं पहुंचता नहीं हूं। यह अनुभव की गहराई है। और अगर उसे लगता है कि दो कदम और दौड़ लूं, तो शायद पहुंच जाऊं, तो समझिए कि अभी अनुभव उसका इतना गहरा नहीं हुआ कि दौड़ने से मुक्ति हो जाये। अगर वह कहे कि एक चक्कर और लगा लूं, शायद अब तक जो नहीं मिला, अब मिल जाये, तो समझना कि अभी भी उसका अनुभव पूरा नहीं हुआ है।

अनुभव के पूरे होने का अर्थ, वृत्ति का तृप्त हो जाना नहीं। अनुभव के पूरे होने का अर्थ, दौड़ का तृप्त हो जाना है। अब दौड़ नहीं रही। जाना बहुत बार है, दौड़े बहुत बार हैं, लेकिन पहुंचे कहीं भी नहीं। अब वह आदमी खड़ा हो जाता है। अब आप उससे कितना ही कहें कि एक कदम पर सोने की खदान है, तो वह कहता है, मैंने हजार कदम चलकर देख लिया, सोने की खदान सिर्फ दिखायी पड़ती है, है नहीं। आप कितना ही कहें कि जरा आगे बढ़ो और सब मिल जायेगा जो चाहा है, तो वह आदमी कहता है, जो-जो मैंने चाहा, वह-वह मैंने कभी नहीं पाया। अब मैं इतना जान गया हूं कि चाहना, पाने का मार्ग नहीं है।

यह अनुभव की गहराई है। वह यह कहता है कि मैं दौड़ा बहुत, पर मंजिल नहीं मिली। आप कहें कि जरा तेजी से दौड़ो तो मंजिल मिल सकती है, वह आदमी कहता है, मैंने बहुत तेजी से दौड़ कर भी देख लिया, मैंने हांफ कर देख लिया, अब मैं पसीने-पसीने हो गया हूं; जन्मों से दौड़ रहा हूं; अब मैं एक बात जान गया हूं कि मंजिल दौड़कर नहीं मिलती। अब मैं खड़े होकर मंजिल पाने की कोशिश और कर लेता हूं।

चाह से मुक्ति, चाह की तृप्ति नहीं है। चाह से मुक्ति, चाह का टोटल, चाह का संपूर्ण रूप से व्यर्थ हो जाना है। संपूर्ण रूप से व्यर्थ हो जाना, मैं कह रहा हूं। अगर आंशिक रूप से चाह व्यर्थ हुई है, तो नई चाह पकड़ लेगी। संपूर्ण रूप से चाह व्यर्थ हो गई है, तो फिर चाह नहीं पकड़ सकेगी।

ऐसी जो चित्त की दशा है–जहां चाह ही व्यर्थ हो गई है–यह फ्रस्ट्रेशन की दशा नहीं है, यह अतृप्ति की दशा नहीं है। क्योंकि जहां फ्रस्टे्रशन है, वहां अभी चाह व्यर्थ है यह पता नहीं चला। फ्रस्ट्रेशन का मतलब है, विषाद का मतलब है, एक चाह पूरी करनी चाही थी, वह पूरी नहीं हुई; लेकिन आशा मन में अभी है कि वह पूरी हो सकती थी। सफल मैंने होना चाहा था, असफल हुआ; लेकिन आशा मन में है कि और कुछ उपाय किए जाते, तो सफल हो सकता था।

वही आदमी विषाद को, चित्त के दुख को, फ्रस्ट्रेशन को उपलब्ध होता है, जिसकी आशा नहीं मरती सिर्फ असफलता आती है। लेकिन जिसकी असफलता ही नहीं, आशा भी मर जाती है, वह अब विषाद को उपलब्ध नहीं होता। वह अचाह को, डिजायरलेसनेस को उपलब्ध हो जाता है। वह खड़ा हो जाता है। वह कहता है, दौड़ना व्यर्थ है। दौड़कर बहुत खोजा, अब खड़े होकर पा लूं।

और मजे की बात है कि जो दौड़कर कभी नहीं मिला, वह खड़े होते ही मिल जाता है। क्योंकि जिसे हम खोज रहे हैं, वह हमारे भीतर है; क्योंकि जिसे हम खोज रहे हैं, वह हमारे साथ है; जिसे हम खोज रहे हैं, वह हमें सदा से ही मिला हुआ है।

इसलिए जितना दौड़ते हैं, उतना ही उससे चूक जाते हैं, जो कि मिला ही हुआ है।

अपने घर में देखने के लिए बाहर दौड़ना बंद करना पड़ेगा। अपने भीतर देखने के लिए बाहर की यात्रा छोड़नी पड़ेगी। जो निकट है, उसे देखने के लिए दूर से आंख लौटानी पड़ेगी। जो हाथ में है, उसे खोजने के लिए, दूसरे की मुट्ठियों को खोलना बंद करना पड़ेगा।

अनुभव की गहराई, वासना की तृप्ति का नाम नहीं है। अगर वासना ही तृप्त हो सकती, तब तो महावीर नासमझ हैं। अगर वासना तृप्त हो सकती, तो बुद्ध पागल हैं। अगर वासना तृप्त हो सकती, तो जीसस की मनस-चिकित्सा होनी चाहिए, साइकोएनालिसिस होनी चाहिए। वासना तृप्त नहीं हो सकती है। बुद्ध ने कहा है, कामना दुष्पूर है। वह कभी पूरी नहीं हो सकती। लेकिन यह अनुभव वासना के बाहर ले जाता है। और जो वासना से नहीं मिला था वह निर्वासना में मिल जाता है।

अनुभव की पूर्णता, वृत्ति की वासना की पूर्ण विफलता का नाम है। और तब अपरिग्रह का फूल खिलता है। जिसकी वृत्तियां गिर गईं, जिसकी चाहें गिर गईं, उसके भीतर अपरिग्रह का फूल खिलता है। तब वह दौड़ता नहीं, ठहर जाता है; खड़ा हो जाता है। तब मंजिल दूर नहीं होती, पैरों के नीचे हो जाती है। तब पाने को कुछ बाहर नहीं होता, तब पाने वाला ही अपने पाने का अंतिम, अपनी दौड़ का अंतिम लक्ष्य बन जाता है। पानेवाला ही, खोजनेवाला ही खोज हो जाता है। द सीकर बिकम्स द सीकिंग, द सीकर बिकम्स द साट।

वह भीतर जो खोज रहा है, वह पाता है कि मैं अपने को ही खोज रहा था। लेकिन शायद दर्पणों में खोज रहा था। बहुत दर्पणों में खोजा, नहीं मिला। अब वह दर्पणों को छोड़कर अपने को देखता है; और पाता है कि दर्पण में मैं कभी मिल भी नहीं सकता था। क्योंकि दर्पण में सिर्फ रिफ्लेक्शन था; दर्पण में मैं ही प्रतिबिंबित हो रहा था; दर्पण में कोई था नहीं सिर्फ भ्रम था, एक वर्चुअल स्पेस का, एक झूठे आकाश का भ्रम था। दर्पण में जो दिखायी पड़ा था, वह कहीं था नहीं, दर्पण में कहीं भी न था। और अगर था तो दर्पण के बाहर था। लेकिन अगर दर्पण में ही कोई खोजने निकल पड़े…!

हम सब दर्पण में खोज रहे हैं–जब तक हम वासना में खोज रहे हैं। जिस दिन बहुत दर्पणों को तोड़कर, और सिर को तोड़कर, दर्पणों से टकराकर, लहूलुहान होकर, एक दिन आदमी दर्पण की तरफ पीठ फेर कर खड़ा हो जाता है, और कहता है: दर्पणों में बहुत खोज चुका, अब दर्पणों में नहीं खोजूंगा, उसी दिन उसे पता चलता है कि जिसे वह खोज रहा था, वह उसका ही प्रतिबिंब था।

वासनाओं के दर्पण में हमने अपने ही चेहरे पकड़े हुए हैं। वासनाओं के दर्पण में हम अपने को ही खोज रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को खोज रहा है। लेकिन वहां खोज रहा है, जहां प्रतिफलन है, रिफ्लेक्शन है। वहां नहीं, जहां सत्य है। सत्य यहां है–खोज रहा है वहां। सत्य अभी है–खोज रहा है कभी। सत्य प्रतिपल है–खोज रहा है भविष्य में। सत्य भीतर है–खोज रहा है बाहर। इस प्रतीति का हो जाना अनुभव की गहराई है।

वासनाएं वृत्ताकार हैं, वे कभी पूरी नहीं होतीं; लेकिन दौड़ने वाला दौड़-दौड़ कर अनुभव को उपलब्ध हो जाता है; और खड़ा हो जाता है। वृत्त को छोड़ देता है। वृत्ताकार, सर्कुलर, वासनाओं से हटकर खड़ा हो जाता है।

और जिस दिन कोई व्यक्ति अचाह में, डिजायरलेसनेस में खड़ा हो जाता है, उस दिन उसको पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता। वह सभी कुछ पा लेता है।

आचार्य श्री, पहले प्रश्न में एक चीज और समझनी है कि वस्तुएं, पजेशंस, अपने मालिक को, पजेसर को कैसे सम्मोहित, पजेस्ड कर लेती हैं? इसके क्या कारण हैं?

मालिक बनने की आकांक्षा में ही गुलामी के बीज छिपे हैं; क्योंकि जिसके हम मालिक बनेंगे, उसका हमें अनजाने में गुलाम भी बन जाना पड़ता है। गुलाम इसलिए बन जाना पड़ता है, क्योंकि जिसके हम मालिक बनते हैं, हमारी मालकियत उस पर निर्भर हो जाती है। उसके बिना हमारी मालकियत नहीं हो सकती। और जब मालकियत किसी पर निर्भर होती है तो हम अपनी मालकियत के मालिक कैसे हो सकते हैं? मालिक तो वह हो गया, जिस पर वह निर्भर है।

अगर दस गुलाम मेरे पास हैं, तो मैं दस गुलामों का मालिक हूं; लेकिन मेरी मालकियत दस गुलामों के होने पर निर्भर है। अगर ये दस गुलाम खो जायें, तो मेरी मालकियत भी खो जायेगी, उनके साथ ही खो जायेगी। उस मालकियत की कुंजी मेरे पास नहीं है, इन दस गुलामों के पास है। ये दस गुलाम बहुत गहरे में मेरे मालिक हो गये हैं, क्योंकि इनके बिना मैं मालिक न हो सकूंगा। और जिनके बिना हम मालिक न हो सकें, उनके हम मालिक कैसे हो सकते हैं? जिनके बिना हमारी मालकियत गिर जायेगी, जाने-अनजाने उनके हम गुलाम हो गए! हम उनसे बंध गए!

और मजे की बात यह है कि गुलाम तो मुक्त भी होना चाहेगा; क्योंकि गुलामी में कोई रहना नहीं चाहता। इसलिए अगर मालिक मर जाये, तो गुलाम प्रसन्न होंगे; लेकिन अगर गुलाम मर जायें, तो मालिक रोयेगा। अब हमें सोचना चाहिए कि गुलाम इन दोनों में कौन था? जो रोता है, या जो हंसते हैं?

मालकियत की आकांक्षा ही गुलाम बना देती है। सिर्फ वही आदमी इस दुनिया में मालिक है, जो किसी का मालिक नहीं होना चाहता है। सिर्फ वही आदमी मालिक हो सकता है, जिसने किसी को गुलाम नहीं बनाया है; क्योंकि उसकी मालकियत को खत्म नहीं किया जा सकता। उसकी मालकियत स्वतंत्र है। और मालकियत अगर स्वतंत्र न हो तो मालकियत कैसे हो सकती है?

वस्तुएं भी हमारी छाती पर बैठ जाती हैं। वस्तुएं भी हमारे ऊपर हो जाती हैं। द पजेसर बिकम्स द पजेस्ड। वह जो वस्तुओं को संभाले हुए है, वह धीरे-धीरे भूल ही जाता है कि वस्तुएं उसकी सेवा के लिए थीं। और उसने कब वस्तुओं की सेवा करनी शुरू कर दी, इसका उसे पता भी नहीं चलता!

नहीं चलेगा पता। नहीं चलेगा इसलिए कि वस्तुएं इस आदमी के पास नहीं आई हैं, यह आदमी वस्तुओं के पास गया है। गुलाम ही जाते हैं, मालिक कभी नहीं जाते। आप जिसके पास जायेंगे, मालकियत उसी को मिल जायेगी।

वस्तुएं आपके पास कभी नहीं आतीं, आप वस्तुओं के पास जाते हैं। आदमी वस्तुओं को खोजता है, वस्तुएं आदमी को नहीं खोजती हैं। तो जिसे आप खोजते हैं, जिसके लिए आप श्रम उठाते हैं, जिसके लिए आप कष्ट झेलते हैं, जिसे आप बामुश्किल से पा पाते हैं, अगर उसे आप छाती पर रखकर संभालें, और उसके नीचे दब जायें, तो बहुत आश्चर्य नहीं; क्योंकि सदा डर है कि वह खो न जाये!

मैंने सुना है कि रयोकान नाम के एक झेन फकीर के घर में एक रात चोर घुस गया। तो रयोकान उस चोर के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और उसने कहा, माफ करना, बड़ी गलत जगह आ गए हो। आठ-दस मील की यात्रा करके भी आए हो और इस गरीब के झोपड़े में तो कुछ भी नहीं है! बस, यह कंबल है एक, इसे तुम ले जाओ।

उसने चोर को वह कंबल दे दिया। रयोकान नंगा हो गया; क्योंकि उसके पास सिर्फ कंबल ही था, और ठंडी रात थी। उस चोर ने बहुत कहा कि आप यह क्या कह रहे हैं! आपके पास कुछ भी नहीं है, फिर भी आप यह कंबल दे रहे हैं!

तो रयोकान ने कहा कि याद रखना! आज तू एक मालिक के घर में घुस गया है। अब तक तू गुलामों के घर में घुसा था। वे कोई भी एक चीज तुझे नहीं दे सकते थे। जिनको तू सोचता है, जिनके पास बहुत है, वे तुझे एक चीज न दे सकते थे। लेकिन अब तू याद रखना कि ऐसे मालिक भी हैं, जिनके पास कुछ नहीं है। असल में वे मालिक इसीलिए हैं कि उनके पास कुछ नहीं है। यह कंबल तू ले जा।

वह चोर कंबल लेकर चला गया। जैसे आज चांद निकला है, ऐसे ही उस रात भी निकला हुआ था। रयोकान अपने दरवाजे पर बैठ गया। सर्द रात! चांद की किरणें! ठंडी हवाएं! वह कांपने लगा।

अगर रयोकान गुलाम आदमी रहा होता, तो उसने कहा होता कि बहुत बुरा हुआ कि कंबल चोरी चला गया, या मैंने कंबल दे दिया। लेकिन वह एक मालिक था। उसके मन में उस लगती हुई सर्दी को देखकर यह खयाल भी नहीं आया कि कंबल चला गया तो बहुत बुरा हुआ।

उसने एक गीत लिखा उस रात। उसने लिखा कि काश, यह चांद भी मैं चोर को भेंट कर सकता! बेचारा चोर, चोरी के चक्कर में है। चांद ऊपर है, इसे देख भी नहीं पा रहा है!

उस रात उसने एक गीत लिखा, काश! आज मैं चांद भी चोर को भेंट कर सकता…! बेचारा चोर…! चोरी के चक्कर में चांद को देख ही नहीं पा रहा है!

यह एक मालिक की बात है।

आप कंबल को ओढ़े हुए दिखाई पड़ते हैं, इस भूल में मत पड़ना। अक्सर कंबल ही आपको ओढ़े रहता है। आप हीरे-जवाहरात गले में पहने हुए दिखाई पड़ते हैं, इस भूल में मत रहना। अक्सर हीरे-जवाहरात ही आपके गले को पहने रहते हैं। आप बड़े मकान में रहते हैं, इस भूल में मत रहना कि आप बड़े मकान में रहते हैं। मकान आपस में चर्चा करते हैं, तो वे आपस में कहते हैं कि मैं भी किस आदमी के भीतर रह रहा हूं! मकान के भीतर आप रहते हों, यह संभव नहीं है; मकान इतना भीतर आपके रहता है कि आप मकान के भीतर कैसे रह सकते हैं!

द पजेसर बिकम्स द पजेस्ड। वह जो वस्तुओं का मालिक है, वस्तुओं का गुलाम हो जाता है। लेकिन इसमें वस्तुओं का कोई कसूर है, ऐसा मत समझ लेना। वस्तुओं का कोई हाथ ही नहीं है, यह बिलकुल इकतरफा लेन-देन है। यह आप ही हैं, जो गुलाम बन जाते हैं। यह आपकी ही दृष्टि और सोचने का ढंग है, जो गुलामी ले आता है। वस्तुओं का इसमें कोई भी हाथ नहीं है। वस्तुएं किसी को क्या गुलाम बनायेंगी? वस्तुओं को तो पता ही नहीं चलता कि किस आदमी को मालिक होने का भ्रम था और किस आदमी को गुलाम होने का भ्रम था। हम ही, आदमी ही अपनी दृष्टियों से घिरता और बंधता है। हाथ में पड़ी हुई जंजीरों के बीच भी कोई आदमी मुक्त हो सकता है, और सोने के आभूषणों में बैठा हुआ आदमी भी कारागृह में हो सकता है।

जिंदगी बड़ी अदभुत है। और आदमी से ज्यादा इरछी-तिरछी चाल चलनेवाला कोई भी प्राणी नहीं है। वह अजीब काम करता रहता है। गुलामियों के नाम बदलकर मालकियत रख लेता है, जंजीरों के नाम बदलकर आभूषण रख लेता है! और कारागृह के भीतर भी अगर हो, तो दीवालों को इतना सजा लेता है कि मालूम पड़ता है कि अपने घर में ही बैठा है!

हम सब अपने-अपने कारागृह की दीवालों को सजाए हुए बैठे हैं। हमने उन्हें बड़े अच्छे नाम दिए हैं। अच्छे नामों में हम खो गए हैं। लेकिन नाम देकर सत्यों को बदला नहीं जा सकता। सत्य सत्य है। और धर्म की शुरुआत सत्यों को उनकी सचाई में जानने से ही शुरू होती है।

अपरिग्रह, धर्म का बुनियादी तत्व है। अपरिग्रह का अर्थ है: इस सत्य को जान लेना कि जब तक मेरे मन में वस्तुओं की चाह है, तब तक मैं वस्तुओं का मालिक नहीं हो सकता हूं। जब तक मैं वस्तुओं को चाहता हूं, तब तक मैं वस्तुओं की गुलामी में रहूंगा ही। मैं उसी दिन वस्तुओं का मालिक हो सकता हूं, जिस दिन वस्तुओं की चाह मेरे भीतर से चली गई।

सुना है मैंने, सुना होगा आपने भी कि एक संन्यासी एक राजमहल में एक रात आया था। उसके गुरु ने उसे भेजा था कि वह जाये और सम्राट के दरबार में जाकर ज्ञान सीख आये। उसका गुरु परेशान हो गया था, नहीं सिखा सका था। तो उस संन्यासी ने कहा कि जब आपके आश्रम में नहीं सीख सका, तपश्चर्या की दुनिया में, तो सम्राट के महल में कैसे सीख सकूंगा? लेकिन गुरु ने कहा, बात मत करो, जाओ! वहीं पूछना।

जब वह दरबार में पहुंचा, तो उसने देखा कि वहां तो शराब के प्याले ढाले जा रहे हैं, और वेश्याएं नाच रही हैं! उसने कहा, मैं भी पागल कहां फंस गया हूं! उस गुरु ने भी खूब मजाक किया है। दिखता है छुटकारा पाना चाहता है मुझसे! लेकिन रात? अब लौटना तो उचित भी नहीं। और उस सम्राट ने संन्यासी की बहुत आवभगत की और कहा, आज रात तो रुक ही जाओ। संन्यासी ने कहा, लेकिन रुकना बेकार है। तो सम्राट ने कहा, कल सुबह स्नान करके भोजन करके वापिस लौट जाना।

रात भर उस संन्यासी को नींद न आ सकी। सोचा, कैसा पागलपन है। जहां शराब ढाली जा रही हो, और जहां वेश्याएं नाचती हों, और जहां धन ही धन चारों तरफ बरसता हो, वहां इस भोग-विलास में कहां ज्ञान मिलेगा? और ब्रह्मज्ञान का मैं खोजी, आज की रात मैंने व्यर्थ गंवाई! सुबह उठा तो सम्राट ने कहा कि चलें, हम महल के पीछे नदी में स्नान कर आयें। दोनों स्नान करने गए।

वे स्नान कर ही रहे थे कि तभी महल से जोर-जोर से आवाजें गूंजने लगी: महल में आग लग गई, महल में आग लग गई। नदी के तट से ही महल से उठी आग की लपटें आकाश में उठती हुई दिखाई पड़ने लगीं।

सम्राट ने संन्यासी से कहा, देखते हैं?

संन्यासी भागा! उसने कहा, क्या खाक देखते हैं? मेरे कपड़े घाट पर रखे हैं! कहीं आग न लग जाये!

लेकिन घाट पर पहुंचते-पहुंचते उसे खयाल आया कि सम्राट के महल में आग लगी है और वह अब भी पानी में खड़ा है, और मेरी तो सिर्फ लंगोटी ही घाट पर रखी है, जिसे बचाने के लिए मैं दौड़ पड़ा हूं! अभी वहां आग पहुंची भी नहीं है! लग सकती है, महल की आग बढ़ जाये और घाट तक आ जाये।

वह वापस लौट कर, खड़े हुए हंसते सम्राट के चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा कि मैं समझ नहीं पा रहा, आपके महल में आग लग गई है और आप यहीं खड़े हैं?

सम्राट ने कहा, उस महल को अगर मैंने कभी अपना समझा होता, तो खड़ा नहीं रह सकता था। महल महल है, मैं मैं हूं। मेरा महल कैसे हो सकता है? मैं नहीं था, तब भी महल था; मैं नहीं रहूंगा, तब भी महल होगा। मेरा कैसे हो सकता है? लंगोटी थी आपकी, महल मेरा नहीं है!

नहीं, सवाल वस्तुओं का नहीं है कि वस्तुएं किसी को पकड़ लेती हैं। सवाल आदमी के रुख, आदमी के ढंग, एटीटयूड, उसके सोचने की विधि और जीवन की व्यवस्था का है। वह कैसे जी रहा है, इस पर सब निर्भर करता है। अगर वह वस्तुओं की चाह से भरा है, तो इससे फर्क नहीं पड़ता है कि वह वस्तु महल है या लंगोटी। अगर वह वस्तुओं की चाह से नहीं भरा है, तो फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि पास में लंगोटी है या महल।

आदमी अपने ही कारणों से गुलाम होता है; और आदमी ही इन्हीं कारणों को तोड़कर मुक्त भी हो जाता है।

आचार्य श्री, आपने अपरिग्रह के तीसरे प्रवचन में कहा है कि महावीर संन्यास के जीवन में आकर बादशाह हो गए, लेकिन उनके बड़े भाई संपन्नता के बीच रहकर भी विपन्न और गुलाम ही रहे। महावीर का आत्मिक समृद्धि उपलब्ध करना, लेकिन भौतिक समृद्धि से परे रहना अर्थात परिग्रह से मुक्त हो जाना, क्या एकांगी व एक-पक्षीय जीवन नहीं है? वे अंतर और बाह्य दोनों समृद्धियों को एक साथ क्यों नहीं स्वीकार कर पाते?

 

हावीर सब छोड़कर चले गए, इसलिए नहीं कि वह समृद्धि थी; बल्कि इसीलिए कि वह समृद्धि नहीं थी। महावीर सब छोड़ कर चले गए, इसलिए नहीं कि वहां कुछ छोड़ने योग्य था; बल्कि इसीलिए कि वहां कुछ भी पकड़ने योग्य न था।

लेकिन हमें दिखाई पड़ता है कि उन्होंने महल छोड़ा; हमें दिखाई पड़ता है, हीरे- जवाहरात छोड़े; हमें दिखाई पड़ता है, धन-दौलत छोड़ी! यह हमें दिखाई पड़ता है। महावीर ने तो कंकड़-पत्थरों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं छोड़ा। हीरे-जवाहरात हमें दिखाई पड़ते हैं। महावीर को हीरे-जवाहरात में कंकड़-पत्थर दिखाई पड़ गये।

ऐसे हीरे-जवाहरात में कंकड़-पत्थरों के अतिरिक्त कुछ है भी नहीं! हां, जिन्होंने महावीर की कथा लिखी है, उन्होंने लिखा है कि इतने हीरे, इतने जवाहरात, इतने माणिक, इतने मोती छोड़े। अगर कोई महावीर से पूछे, तो वे कहेंगे, बड़े पागल हो, कंकड़-पत्थरों के भी अलग-अलग नाम रख लिये हैं? हां, अगर महावीर ने कंकड़-पत्थर छोड़े होते, तो हम भी नहीं कहते कि कंकड़-पत्थर छोड़ रहे हैं! हम सबने छोड़े हैं।

सभी बच्चे कंकड़-पत्थर इकट्ठे करते हैं। और फिर एक दिन बच्चे नहीं रह जाते, कंकड़-पत्थर छोड़ देते हैं। लेकिन किसी बच्चे की जिंदगी में हम नहीं लिखते कि इस बच्चे ने कंकड़-पत्थर छोड़े; क्योंकि हम जानते हैं कि वे कंकड़-पत्थर हैं। जिस दिन हम जानेंगे कि महावीर ने कंकड़-पत्थर ही छोड़े, उस दिन हम न कहेंगे कि उन्होंने कुछ छोड़ा।

नहीं, आश्चर्य यह नहीं है कि महावीर ने क्यों छोड़ा? आश्चर्य यह है कि दूसरे क्यों नहीं छोड़ पाते हैं! महावीर से कोई पूछे, तो वे नहीं कहेंगे कि मैंने कुछ त्यागा; क्योंकि त्यागी तो वह चीज जाती है, जिसमें कोई मूल्य हो। महावीर कहेंगे कि मैंने कुछ भी नहीं त्यागा; क्योंकि जिसमें कोई मूल्य ही नहीं था, उसके त्याग की बात करनी ही व्यर्थ है।

आप रोज अपने घर के बाहर कचरा फेंक देते हैं तो अखबार में खबर नहीं छपाते कि आज इतना कचरा त्यागा। महावीर के लिए जो कचरा हो गया है, उसे त्यागने का हक तो उन्हें देना चाहिए न! कि इतना भी हक उन्हें देने को हम राजी नहीं हैं?

हां, हमें दिक्कत है, क्योंकि हमें वह कचरा नहीं दिखाई पड़ता। एक बच्चे से उसका कंकड़-पत्थर छीन लें, तब आपको पता चल जायेगा। वह रातभर रो सकता है, सपने में चीख सकता है। उसकी सारी संपत्ति छीन ली आपने, जो वह नदी के किनारे से इकट्ठी कर लाया था! आप कहेंगे, पागल है तू! क्योंकि कंकड़-पत्थर ही थे। आपको लगते होंगे कंकड़-पत्थर, बच्चे को सब रंगीन पत्थर हीरे-मोती से ज्यादा कीमती लगते हैं।

असल में बच्चे की चेतना के तल और आपकी चेतना के तल में जो फर्क है, वही कठिनाई है। आपको पत्थर दिखाई पड़ रहे हैं, बच्चे को बहुमूल्य दिखाई पड़ रहे हैं। आप फेंकने का आग्रह करते हैं, बच्चा बचाने का आग्रह करता है। महावीर और हमारे बीच भी वही बच्चे और प्रौढ़ वाला फासला है। फिर एक और नई चेतना भी है, जो महावीर को मिली है। यहां इस जगत में हमें जो भी दिखाई पड़ता है, वह महावीर के लिए निर्मूल्य हो गया है, उसका सारा मूल्य खो गया है।

महावीर कुछ छोड़ते नहीं हैं, चीजें छूट जाती हैं। जो व्यर्थ हो गई हैं, उन्हें ढोना असंभव है। महावीर छोड़कर नहीं जाते हैं। वे जाते हैं, और चीजें छूट जाती हैं। जो व्यर्थ हो गया है उसे साथ ढोना संभव नहीं है।

महावीर के बड़े भाई घर रह गए हैं। महावीर के बड़े भाई दुखी हैं कि उनके छोटे भाई ने भूल की; हीरे-जवाहरात, धन-दौलत, यश, सुख-सुविधा, सब छोड़कर चला गया है। इन दोनों के बीच प्रौढ़ और बच्चे के मन का फासला है। महावीर के बड़े भाई दुखी हैं कि दुख उठाने जा रहा है यह! और महावीर तो दुख उठाने नहीं जा रहे, महावीर तो इतने आनंद से भर गए हैं कि अब दुख का कोई उपाय ही नहीं रह गया है।

लेकिन पूछा जा सकता है कि वे वहीं घर पर भी तो रह सकते थे? जैसा मैंने अभी उस सम्राट की बात कही, जो महल में था, लेकिन महल जिसमें नहीं था। महावीर वहां भी रह सकते थे, लेकिन यह व्यक्ति-व्यक्ति के टाइप और प्रकार की बात है।

महावीर नहीं रह सकते थे, कृष्ण रह सकते हैं। जनक रह सकते हैं, बुद्ध नहीं रह सकते। यह व्यक्तियों की बात है; और व्यक्ति परम स्वतंत्रता है। और नियम एक-दूसरे पर नहीं थोपे जा सकते। महावीर के लिए जो संभव था, वह संभव हुआ। महावीर के भीतर जो फूल खिल सकता था, वह खिला। लेकिन इस फूल के खिलने के भी अपने आनंद हैं। महल में, महल के न होकर रहने का अपना आनंद है। महल के बाहर, वृक्ष के नीचे रहने का अपना आनंद है। और दोनों की कोई तुलना नहीं हो सकती, कोई कंपेरिजन नहीं हो सकता। यह व्यक्तियों पर निर्भर करेगा।

महावीर जब सब छोड़कर चले गये…और वृक्षों के नीचे बैठना, सोना और भिक्षापात्र लेकर गांव-गांव भटकने में कौन-सा आनंद होगा? इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी है, क्योंकि अपरिग्रह के तत्व में यह बड़ी कीमती और बड़ी गहरी बात है।

महावीर की समझ ऐसी है कि जब श्वास मैं नहीं लेता, और जन्म मैं नहीं लेता–जन्म अपने से आता है, श्वास अपने से आती है, मृत्यु अपने से आती है–तो जीवन की व्यवस्था भी मैं अपने ऊपर क्यों लूं? उसे भी परमात्मा पर छोड़ देते हैं कि वही करेगा व्यवस्था। यह परम आस्तिकता का लक्षण है। यह परम आस्तिकता है, व्यवस्था भी क्यों…!

कल सुबह होगी, सूरज निकलेगा नहीं निकलेगा, तो हमने क्या व्यवस्था की है? कल अगर सुबह सूरज नहीं निकला और रात उसने रेजिगनेशन भेज दिया, इस्तीफा दे दिया, या कल सुबह हड़ताल पर चला गया, स्ट्राइक पर चला गया और कल सुबह नहीं निकला, तो हमारे पास क्या उपाय है, हम क्या करेंगे? और कल हवाओं से अगर आक्सीजन विदा हो जाये, और कल अगर जिंदगी असंभव हो जाये, तो हम क्या करेंगे? हमने क्या सुरक्षा की है? क्या व्यवस्था की है? कल अगर पृथ्वी ठंडी हो जाये, या कल अगर पृथ्वी टूट जाये और बिखर जाये–अनेक पृथ्वियां बिखर चुकी हैं, अनेक बिखर रही हैं; अनेक सूरज ठंडे हो चुके हैं, अनेक ठंडे हो रहे हैं–कल अगर यह हो जाये, तो हमने क्या व्यवस्था की है?

महावीर कहते हैं कि इतने बड़े कॉस्मास में, इतने अनंत ब्रह्मांड में, जहां हमारे हाथ में कुछ भी व्यवस्था नहीं है, वहां यह महावीर नाम का आदमी अपने आसपास एक घर की व्यवस्था भी करे, इस नास्तिकता में पड़ने का क्या अर्थ है? महावीर कहते हैं, यह व्यवस्था भी क्यों? जब इतनी अव्यवस्थाएं भी झेलनी पड़ सकती हैं, तो इतनी-सी अव्यवस्था वे और जोड़ देते हैं। इतनी कॉस्मिक अव्यवस्था में, इतनी ब्रह्मांड की असुरक्षा में, मैं बैंक-बैलेंस रखकर भी क्या व्यवस्था कर पाऊंगा?

तो महावीर कहते हैं, यह व्यर्थ का बोझ मैं छोड़ देता हूं। छोड़ देता हूं कि जहां से श्वास आती है, जहां से कल की सुबह आयेगी, जहां से आज का सूरज आया था, और जहां से आज का चांद आया है, और जहां से कल सुबह जड़ों को रस मिलेगा, और जहां से कल वृक्षों में फूल खिलेंगे, और जहां से पक्षी गीत गायेंगे, वहीं से अगर इस परम सत्ता की कोई आकांक्षा इस शरीर को भी जिंदा रखने की है, तो वह रख लेगी; और नहीं रखने की है, तो महावीर की अपनी अब कोई इच्छा शेष नहीं रह गई है।

यह महावीर की इस बात की घोषणा है सब को छोड़कर जाना कि अब मैं अपने लिए नहीं जी रहा हूं। अगर परमात्मा जिलाना चाहता है, तो वह जाने। अब मैं अपनी तरफ से नहीं जी रहा हूं।

इसलिए महावीर की जिंदगी में एक छोटा-सा नियम था, जो मैं आपसे कहूं, जो बड़ा अदभुत है। शायद दुनिया के किसी संन्यासी ने वैसे नियम का उपयोग नहीं किया है। सच तो यह है कि महावीर जैसा संन्यासी खोजना बहुत मुश्किल है। महावीर का एक नियम था कि सुबह जब भीख मांगने निकलते थे, तो वे अपने मन में सुबह के ध्यान में सोच लेते थे कि आज इस शर्त पर भीख मिलेगी तो स्वीकार करूंगा, नहीं तो नहीं करूंगा!

अब भिखारी कभी शर्त नहीं लगाते। भिखारियों की भी कोई कंडिशंस हो सकती हैं? भिखारी बेशर्त मांगते हैं। और महावीर शर्त लगाकर मांगते हैं, क्योंकि वे कोई भिखारी नहीं है। और शर्त भी ऐसी कि दूसरे आदमी को बतायी भी नहीं गई है कि वह कोई इंतजाम न कर ले। शर्त सिर्फ उन्हीं को पता है।

जैसे, वह सुबह शर्त लेकर निकले अपने मन में कि अगर आज काले कपड़े पहने हुए, एक आंख वाली एक गोरी स्त्री मुझे भिक्षा देगी, तो ले लूंगा, अन्यथा नहीं लूंगा।

अब इस गांव का उन्हें कुछ भी पता नहीं है, रात ही इस गांव में आकर वे ठहरे हैं। अब एक आंख वाली गोरी स्त्री काले कपड़े पहने हुए उनको भिक्षा देगी, तो वे स्वीकार कर लेंगे, अन्यथा वह गांव में घूमकर वापस लौट आयेंगे। वे कहेंगे, परमात्मा की मर्जी नहीं थी तो जाने दो, क्योंकि अपनी अब कोई मर्जी जीवन की नहीं है। न मरने की कोई मर्जी है, न जीने की कोई मर्जी है। अपनी तरफ से, वह जो जिजीविषा है, वह जो लस्ट फार लाइफ है, वह अब नहीं है। अब परमात्मा की मर्जी हो तो रखे, मर्जी हो तो उठा ले।

एक बार ऐसा हुआ कि महावीर महीनों तक गांव में जाते रहे और भिक्षा न मिल सकी, क्योंकि उन्होंने एक शर्त ले ली। अब वह शर्त तो बताई नहीं जाती थी, नहीं तो कोई इंतजाम हो जाता। गांव बहुत से उपाय करता, लेकिन वह शर्त पूरी न होती। अब बड़ी मुश्किल हो गई कि महावीर के मन में क्या है। महावीर ने एक शर्त ले ली कि एक राजकुमारी, जो जंजीरों में बंधी हो, जिसका एक पैर मकान के भीतर और एक पैर मकान के बाहर हो, जिसकी आंखों में आंसू हों और ओंठ पर मुस्कुराहट हो, अगर वह भिक्षा देगी, तो ले लेंगे।

तो फिर महीनों भिक्षा नहीं मिली। नहीं मिली, तो भी वे रोज आनंदित गांव जाते और आनंदित वापस लौट आते। सारा गांव दुखी और पीड?ित है, और सारा गांव रो रहा है, गांव भर में भोजन मुश्किल हो गया है। लोग हाथ-पैर जोड़ते हैं और कहते हैं कि स्वीकार करें। लेकिन महावीर कहते हैं, उसकी मर्जी।

महीनों बीत गए। पर एक दिन यह भी हो गया। कारागृह में बंद एक राजकुमारी ने भिक्षा दी। उसकी आंखों में आंसू थे, अपने कारागृह में होने के कारण। ओंठों पर मुस्कुराहट थी, क्योंकि महावीर ने उसकी भिक्षा स्वीकार कर ली थी। वह हंस रही थी। महावीर उसके द्वार पर रुक गए। आंखों में आंसू थे, ओंठ पर मुस्कुराहट थी, एक पैर जंजीरों से बंधा हुआ पीछे था, एक बाहर निकाल पायी थी, क्योंकि एक ही पैर खुला था। महावीर भिक्षा लेकर लौट गए। लेकिन इस भिक्षा के लिए परमात्मा कभी उनको जिम्मेवार नहीं ठहरा सकेगा। अगर कोई जिम्मेवार होगा, तो परमात्मा ही होगा।

यह परम सत्ता में समर्पण है, यह संन्यास का…यह संन्यास की परम अंतिम अवस्था है–जहां व्यक्ति एक श्वास भी अपनी तरफ से नहीं लेता। इसलिए महावीर कह सकते हैं कि मेरे कर्मों का अब कोई फल मेरे लिए नहीं है; और मेरे कर्मों का कोई परिणाम अब मुझसे नहीं बंधा है। अब मैं कुछ कर ही नहीं रहा हूं। अब जो हो रहा है, हो रहा है। करना मेरे हाथ में नहीं है। कर मैं नहीं रहा हूं। अब मेरी कोई इच्छा नहीं है।

लेकिन महावीर का यह अपना व्यक्तित्व है। और हम से भूल हो जाती है, जब हम दो व्यक्तियों में तुलना करने लगते हैं। अगर हम जनक और महावीर की तुलना करें, तो कठिनाई हो जायेगी। जनक का अपना आनंद है। महावीर कहते हैं, परमात्मा को रखना होगा, तो रख लेगा किसी भी हाल में। जनक कहते हैं, परमात्मा ने महल दिया है, तो मैं छोड़नेवाला कौन हूं? जनक कहते हैं, परमात्मा ने राज्य दिया, तो मैं छोड़ने की झंझट में भी क्यों पडूं?

कौन ठीक है, कौन गलत है? दोनों का अपना ढंग है परमात्मा को देखने का। दोनों ही ठीक हैं। हजार तरह के लोग हैं। जीसस अपनी तरह के आदमी हैं; बुद्ध अपनी तरह के, महावीर अपनी तरह के, कृष्ण अपनी तरह के। हमने जब भी उनकी तुलना की है, तब भूल हो जाती है। क्योंकि तुलना में हम किसी एक आदमी की तरफ झुक जाते हैं, जिसकी तरफ हमारे व्यक्तित्व का टाइप झुकता है। और तब हम दूसरे को गलत देखने लगते हैं।

नहीं, कोई कारण नहीं है। इस पृथ्वी पर लाख तरह के व्यक्तित्व खिल गए हैं, लाख तरह के व्यक्तित्वों के खिलने की संभावना है। तुलना की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन गहरे में अगर देखें, तो बात एक ही है। जनक महल में हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि जब परमात्मा ने महल दिया, तो मैं क्यों छोडूं? महावीर जंगल में हैं; लेकिन बात एक ही है। वे कहते हैं, अगर उसको रखना है, तो जंगल में भी महल की तरह रख लेगा। मैं क्यों फिक्र करूं? दोनों एक ही बात कहते हैं; लेकिन दोनों के व्यक्तित्वों के ढंग अलग हैं। वह एक बात ही इन दो व्यक्तियों में अलग-अलग गीत बन जाती है। वह एक बात ही इन दोनों व्यक्तियों में अलग-अलग स्वर ले लेती है। वह एक बात ही इन दोनों व्यक्तियों में अलग- अलग अर्थ बन जाती है। लेकिन वह बात एक ही है।

वह परमात्मा में समर्पण की बात है। यह हमें खयाल में आ जाये, तो तुलना बंद कर देनी चाहिए। यह हमारे खयाल में आ जाये, तो प्रत्येक को, वह जैसा है वैसा ही, उसकी पूर्णता में समझ लेने की कोशिश कर लेनी चाहिए, बिना कंपेरीजन के। और तब एक दिन हम समझ पायेंगे कि हजार फूल हों, लेकिन सौंदर्य एक है; और हजार ढंग के दीये हों, लेकिन ज्योति एक है; और हजार ढंग के सागर हों, लेकिन सभी सागरों का पानी एक-सा खारा है। जिस दिन यह दिखाई पड़ना शुरू होता है, उस दिन व्यक्ति विदा हो जाते हैं और वह जो मौलिक आधारभूत सत्य है, उसका दर्शन हो जाता है।

आचार्य श्री, आज एक और मुश्किल पैदा हो गई है। और वह मुश्किल यह है कि जिस ऊंचाई से अपरिग्रह के बारे में जो प्रश्न पूछे गए हैं, उनका उत्तर आपने उसी ऊंचाई से दिया है, उसी संदर्भ में यह बात सामने आती है कि अपरिग्रह को आप अचाह की संज्ञा देते हैं, डिजायरलेसनेस बताते हैं। सुनने में यह बात बड़ी सार्थक, पाजिटिव लगती है; लेकिन लोग इसे नकारात्मक अर्थों में ले सकते हैं। तब तो सारी वैज्ञानिक खोज और कर्म करने की प्रेरणा ही समाप्त हो जायेगी, सारी प्रगति गतिरुद्ध हो जायेगी। कृपया इसे स्पष्ट करें। साथ ही एक बात और कि महावीर महावीर थे; बुद्ध बुद्ध थे; क्राइस्ट काइस्ट थे; लेकिन उनके अनुयायी उस ऊंचाई को नहीं पा सके कभी भी। और उनके अनुयायियों में एक निष्क्रियता भी पैदा हो गई। नतीजा यह हुआ कि आध्यात्मिक रूप से ऊंचाई को तो नहीं छू सके वे, भौतिक दृष्टि में भी बड़े फीके पड़ गए। ऐसी स्थिति में आपका क्या कहना है?

 

परिग्रह की बात दरिद्रता का बचाव बन सकती है। अपरिग्रह की बात प्रगति का विरोध बन सकती है। अपरिग्रह की बात जीवन की संपन्नता की खोज में बाधा बन सकती है। सभी बातें गलत ढंग से लिए जाने पर विपरीत परिणाम लाती हैं। सभी बातें उलटे ढंग से पकड़े जाने पर जीवन को लाभ नहीं, हानि पहुंचाती हैं। और आदमी जैसा है, उससे गलत ढंग से पकड़े जाने की सदा संभावना है।

एक छोटी-सी कहानी से मैं समझाने की कोशिश करूंगा।

एक गांव है, और उस गांव में एक बहुत बड़ा धनपति है, और जैसे कि धनपति होते हैं, वैसा ही धनपति है–कंजूस। एक पैसा उससे छूट नहीं पाता है। और तो और जो नए भिखारी भी गांव में आते हैं, तो पुराने भिखारी उनसे कह देते हैं कि उस दरवाजे पर मत जाना! उस घर से कभी किसी को कुछ नहीं मिला है!

गांव में एक नया मंदिर बन रहा है। गांव के गरीब से गरीब आदमी ने भी उस मंदिर के लिए कुछ न कुछ दिया है; किसी ने हजार दिया है, किसी ने दस हजार दिए हैं; किसी ने पांच दिए हैं, किसी ने एक ही दिया है। गांव के लोगों ने एक फेहरिस्त बना ली। जिस-जिस आदमी ने जो-जो दिया है, उसकी एक फेहरिस्त बना ली। उन्होंने सोचा कि एक भी आदमी गांव में ऐसा न बचे, जिसने कुछ न दिया हो।

फेहरिस्त लेकर गांव के सौ-पचास खास आदमी उस करोड़पति के द्वार पर भी गए। सोचा उन्होंने कि आज तो हम कुछ लेकर ही लौटेंगे; क्योंकि वह फेहरिस्त देखकर भी प्रभावित न होगा? न प्रभावित हो, तो कम से कम संकोच से तो भर जाता है आदमी!

जब वे फेहरिस्त सुनाने लगे कि फलां ने दस हजार दिए हैं; जिसकी कुछ भी हैसियत नहीं है, उसने दस हजार दिए हैं! जो बिलकुल ही दीनऱ्हीन है, उसने भी हजार दिए हैं! जो रोज ही रोटी कमाता है, उसने भी पांच रुपए दिए हैं! वे फेहरिस्त सुनाते जाते और अमीर की तरफ बीच-बीच में देखते जाते कि उस पर क्या परिणाम हो रहा है! अमीर बहुत उत्सुक होता जाता दिखायी पड़ा, वह प्रभावित होता दिखायी पड़ा। तब तो गांव के लोगों को लगा कि आज काम बन जायेगा। लेकिन पूरी फेहरिस्त सुनने के बाद वह अमीर तो एकदम खड़ा हो गया! उसने कहा, मैं बहुत प्रभावित हो गया हूं! तो गांव के लोगों ने सोचा कि आज हम लोग निष्फल नहीं लौटेंगे। तब उन्होंने कहा, फिर आप भी कुछ दें! जब आप इतने प्रभावित हो गए हैं!

उस अमीर आदमी ने कहा, तुम मेरे प्रभावित होने का मतलब गलत समझे। मैं इसलिए प्रभावित हो गया हूं कि कल से मैं भी गांव में दान मांगना शुरू करने की योजना बनाऊंगा! जिस गांव में सब लोग देने को राजी हों, उस गांव में दान न मांगना बड़ी गलती है। मैं बहुत प्रभावित हो गया हूं!

आदमी ऐसे ही प्रभावित होता रहा है। महावीर महल छोड़कर सड़क पर आ गए। होना तो यह चाहिए था कि जिनके पास महल थे, उन्हें पता चलना चाहिए था कि वे जरूर किसी व्यर्थ दौड़ में लगे हैं। क्योंकि जिसके पास महल था, वह छोड़कर सड़क पर खड़ा हो गया है।

नहीं, यह नहीं हुआ। हुआ यह कि जो झोपड़ों में थे, उन्होंने सोचा कि जब महलवाला ही छोड़कर आ रहा है, तब हमें अपने झोपड़े को महल बनाने की कोशिश क्यों करनी चाहिए? और गरीब अगर अपनी गरीबी में राजी हो जाये, तो कभी भी उस स्थिति को उपलब्ध नहीं हो पाता, जो धन के अनुभव के बाद में मिलती है। वह गरीब ही रह जाता है।

महावीर को भिक्षा मांगते देखकर सम्राटों को शर्म आनी चाहिए थी; सोचना चाहिए था कि जो आदमी सम्राट होकर कुछ न पा सका, वह भिक्षा मांगकर कुछ पा रहा है! नहीं, सम्राटों ने यह नहीं सोचा, भिखारियों ने यह सोचा कि हम बड़े गौरववान हैं। क्योंकि देखो! महलों में नहीं मिला तो अब भीख मांगने आए। हम तो पहले से ही भीख मांग रहे हैं। हम पर परमात्मा की कुछ ज्यादा ही कृपा है।

आदमी…आदमी ऐसा सोचता है। और इसलिए इस बात में सच्चाई है कि भारत की दीनता को बचाने में महावीर से प्रभावित लोगों का हाथ है–पर महावीर का नहीं। भारत की दीनता में, भारत की अवैज्ञानिकता में, भारत की अप्रगति में बुद्ध और महावीर से प्रभावित लोगों का हाथ है–बुद्ध और महावीर का नहीं।

लेकिन बड़ी कठिनाई है! महावीर पर दोष कैसे थोपा जा सकता है? आग है, घर में चूल्हा भी जला देती है और रात अंधेरे में रोशनी भी कर देती है। और किसी के मकान में आग लगानी हो, तो भी काम में आ जाती है। जिसने आग को खोजा था, उस आविष्कारक को कैसे दोष दिया जा सकता है?

ऐटम बम है, जिन वैज्ञानिकों ने बनाया, क्या उनको हिरोशिमा के लिए दोषी ठहराया जा सकता है? नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि अणु की ऊर्जा से तो खेत में हजार गुनी फसल भी आ सकती है। अणु की ऊर्जा से सारी दुनिया के यंत्र चल सकते हैं; आदमी काम से मुक्त हो सकता है। अणु की ऊर्जा से दीनता, दरिद्रता मिट सकती है, सदा के लिए। अणु की ऊर्जा से आदमी की उम्र लंबी हो सकती है। अणु की ऊर्जा से आदमी की संघातक बीमारियां समाप्त हो सकती हैं।

लेकिन आदमी ने यह कुछ भी नहीं किया! आदमी भूखों मर रहे हैं, खेत में फसल न बढ़ी। आदमी कैंसर से मर रहे हैं, कैंसर का इलाज अणु की ऊर्जा से न खोजा गया। बच्चे असमय मर जाते हैं, उनके बचाने की कोई संभावना अणु की ऊर्जा से न खोजी गई। अणु गिराया गया हिरोशिमा पर, कि लाखों आदमी राख हो जायें। क्या किया जा सकता है!

अरब में एक कहावत है कि जब भी कोई नया आविष्कार होता है, तो शैतान सबसे पहले उस पर कब्जा कर लेता है। महावीर का बड़ा आविष्कार है, शैतान ने सबसे पहले कब्जा कर लिया। आइंस्टीन का बड़ा आविष्कार है, शैतान ने सबसे पहले कब्जा कर लिया।

दो ही रास्ते हैं: या तो ये आविष्कार न किए जायें; शैतान के डर से दुनिया में अच्छी चीजें न बनायी जायें; गलत प्रभाव की वजह से दान न मांगा जाये; गलत प्रभाव की वजह से कोई अच्छा काम न हो–क्योंकि गलत प्रभाव पड़ सकते हैं। लेकिन तब भी तो बुरा परिणाम होगा। क्योंकि अगर जो अच्छा न हो पाये, तो भी तो बुरा शेष रह जायेगा।

इसलिए खतरे मोल लेने पड़ते हैं। आदमी गलत लेता है, लेने दें। जो ठीक है, उसे किये ही जाना होगा। आज नहीं कल, आदमी अपनी गलती को, अपने दुख और पीड़ा को समझेगा। और समझेगा कि उसने जिससे स्वर्ग बन सकता था, उससे नर्क बना लिया है।

महावीर गरीबी के समर्थक नहीं हैं, महावीर सिर्फ अमीरी की व्यर्थता के उदघोषक हैं। लेकिन ये दोनों बड़ी अलग बातें हैं।

और दूसरी बात पूछी है। साथ में पूछा है कि महावीर के अनुयायी तो कभी महावीर की ऊंचाई को न पा सके! क्राइस्ट की ऊंचाई को ईसाई नहीं पा सके! बुद्ध की ऊंचाई को बुद्धिस्ट नहीं पा सके!

नहीं पा सके उसका कारण है। क्योंकि अनुयायी कभी ऊंचाई पा ही नहीं सकता; क्योंकि जो आदमी दूसरे के पीछे चलता है, वह अपनी आत्मा को गंवाने का काम करता है। दूसरे के पीछे चलने के लिए अपनी हत्या तो करनी ही पड़ती है। दूसरे का अनुसरण करने के लिए स्वयं के विवेक को तो काटना ही पड़ता है। दूसरे के वस्त्र पहनने के लिए अपने शरीर को छोटा और बड़ा करना ही पड़ता है। दूसरे की आत्मा ओढ़ने के लिए अपनी आत्मा को दबाना ही पड़ता है। अनुयायी कभी ऊंचाई नहीं पा सकता, क्योंकि जिसने अनुयायी होने का तय किया है, उसने सुसाइडल निर्णय लिया है, आत्मघाती निर्णय लिया है।

मैं नहीं कहता कि महावीर के अनुयायी बनें। मैं नहीं कहता कि जीसस के अनुयायी बनें। महावीर को समझ लें, इतना काफी है, और छोड़ दें; जीसस को समझ लें, इतना काफी है, और छोड़ दें। बनें तो सदा आप आप ही बनें, महावीर बनने का आपके लिए कोई उपाय नहीं है; जीसस बनने का कोई उपाय नहीं है।

इसका मतलब यह नहीं है कि जीसस जिस ऊंचाई पर पहुंचे उस तक आप न पहुंच सकेंगे। आप भी पहुंच सकेंगे; लेकिन आप ही होकर पहुंच सकते हैं, जीसस की नकल करके नहीं पहुंच सकते।

अनुकरण नकल है। और ध्यान रहे! कार्बन-कापी जो आदमी बनने की कोशिश करता है, वह मूल-कापी की स्पष्टता नहीं पा सकेगा। और फिर हिंदुस्तानी कार्बन हो तब तो और भी मुश्किल है! फिर तो कुछ समझ में भी आ जाये, यह भी मुश्किल है कि पीछे क्या है। और फिर सेकेंड कापी हो, तब भी ठीक! महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हो गए, पच्चीस सौ साल में हजारों कापियों के बाद आप खड़े हैं! लाखों कापियां गुजर चुकीं, उस कार्बन पर बहुत कापियां हो चुकीं! अब कुछ भी समझ में नहीं आता। लेकिन समझे चले जा रहे हैं, अनुकरण किए चले जा रहे हैं!

अनुयायी कभी भी धार्मिक नहीं होता है। असल में अनुयायी यह कह रहा है कि मैं अपने होने की जिम्मेवारी छोड़ना चाहता हूं। मैं किसी के पीछे चलना चाहता हूं। मैं अंधा होने के लिए तैयार हूं। मैं किसी का हाथ पकड़कर चलूंगा। मुझे कोई कहीं पहुंचा दे। मैं अपने चलने की जिम्मेवारी से इनकार करता हूं।

जिस आदमी ने अपनी आंखों से इनकार किया, और जिस आदमी ने अपने पैरों से इनकार किया, और जिस आदमी ने अपने विवेक की जिम्मेवारी लेने से इनकार किया, वह आदमी कभी भी विकसित नहीं हो सकता। उसने अविकास के सारे उपकरण चुन लिये।

लेकिन सदा हमें यहीं समझाया जाता रहा है कि किसी का अनुकरण करो, किसी जैसे बनो। यह बड़ी खतरनाक शिक्षा है। दुनिया में कोई कभी “किसी जैसे’ नहीं बन सकता है। आज तक बना नहीं, उदाहरण नहीं है। महावीर के पीछे बहुत लोग चले, लेकिन कौन महावीर बन सका है? ऐसा नहीं कि चलनेवालों ने कुछ कम कोशिश की है। यह दोष नहीं थोपा जा सकता। बड़ी कोशिश की है। कई बार तो ऐसा लगता है कि महावीर के पीछे चलनेवालों ने महावीर से भी ज्यादा कोशिश की है। सच तो यह है कि महावीर को महावीर होने में कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। वह स्पांटेनियस है। प्रत्येक को स्वयं होने में कभी बहुत कोशिश नहीं करनी पड़ती, दूसरा होने में ही कोशिश करनी पड़ती है। एफर्ट जो है, कोशिश जो है, वह दूसरा होने में ही करनी पड़ती है।

राम की सीता चोरी चली गई, तो राम को रोने में कोशिश नहीं करनी पड़ी। लेकिन रामलीला में जो राम होता है, उसको करनी पड़ती है, आंसू तो आते नहीं। हो सकता है स्टेज के पीछे से पानी लगाकर आता हो! हो सकता है हाथ में मिर्च लगाए रहता हो! जब सीता खोती हो तो जल्दी आंख मीचने लगता हो, क्योंकि जल्दी आंसू लाने पड़ते हैं। और इतना आसान नहीं है रामलीला में आंसू लाना, आंसू लाने पड़ते हैं। क्या राम को भी आंसू लाने का ऐसा उपाय करना पड़ा होगा? नहीं, राम के लिए जो है वह स्पांटेनियस है, वह सहज है। राम की वह अंतर-अवस्था है।

महावीर का त्याग, महावीर की नग्नता, महावीर के लिए सहजता है। दूसरा आदमी नग्न होने की व्यवस्था से नग्न हो सकता है। लेकिन तब उसकी नग्नता सर्कस की नग्नता होगी, संन्यासी की नग्नता नहीं हो सकती। वह सिर्फ उधार, बारोड, दूसरे का थोपा हुआ होगा। वह ज्यादा से ज्यादा महावीर का ऐक्ट कर सकता है। महावीर नहीं हो सकता।

जीसस, या बुद्ध, या कृष्ण, या राम इनके पीछे चलनेवाले लोग अभिनय कर रहे हैं। इन्होंने आथेंटिक, प्रामाणिक आत्मा को इनकार कर दिया है।

एक बात ध्यान रखनी जरूरी है कि परमात्मा ने प्रत्येक को स्वयं के होने का हक दिया है। और जो आदमी अपने इस हक को छोड़ता है, वह परमात्मा की सबसे बड़ी देन को छोड़ता है। ऐसा आदमी नास्तिक है। ऐसा आदमी यह कह रहा है कि तुमने हम पर बहुत बड़ी जिम्मेवारी दे दी। हम इस योग्य न थे। हमें तो किसी के पीछे चला दो। हम इंजन नहीं हो सकते, हम तो सिर्फ डिब्बे होने लायक हैं जो इंजन के पीछे लगे रहें और उनकी सेंटिंग इधर से उधर होती रहे। तो वह अपनी जिंदगी गुजार लेगा।

नहीं, प्रत्येक आदमी स्वयं होने को पैदा हुआ है–बेजोड़, यूनीक। उस जैसा कोई आदमी इस पृथ्वी पर न पहले हुआ है और न पीछे होगा। परमात्मा कोई मिडियाकर क्रियेटर नहीं है। वह कोई मध्यम-वर्गीय या साधारण कोटि का स्रष्टा नहीं है कि एक ही आदमी को फिर दोबारा पैदा करे। वह रोज नए आदमी को पैदा कर देता है!

मैंने सुनी है एक कहानी। मैंने सुना है कि पिकासो का एक चित्र किसी आदमी ने खरीदा, कोई दस लाख रुपए में। पिकासो की पत्नी से उसने पूछा कि यह चित्र प्रामाणिक तो है न? आथेंटिक तो है न? पिकासो का ही है न?

पिकासो की पत्नी ने कहा, बिलकुल निश्चिंत होकर आप खरीद लें; क्योंकि यह चित्र मेरे सामने ही पिकासो ने बनाया है।

चित्र खरीद लिया गया। वह आदमी पिकासो को यह खबर देने गया। उसने कहा जाकर पिकासो से कि मैंने दस लाख रुपए में आपका एक चित्र खरीदा है। वह चित्र भी साथ ले गया था। पिकासो ने उस चित्र को देखा और कहा कि यह असली नहीं है, आथेंटिक नहीं है।

वह आदमी तो होश खोने लगा। दस लाख रुपए लगाये उसने और पिकासो ने कह दिया कि नहीं, यह प्रामाणिक नहीं है! तो उस आदमी ने कहा, आप कैसी बात कर रहे हैं? आपकी पत्नी ने गवाही दी है कि यह चित्र उसके सामने बना है।

उसकी पत्नी मौजूद थी। उसने भी कहा, आप कैसी बात कर रहे हैं? भूल गए हैं क्या? यह चित्र आपने बनाया है। मैं मौजूद थी।

पिकासो ने कहा, मैंने बनाया जरूर, लेकिन यह आथेंटिक नहीं है।

तब तो और मुश्किल हो गई। अगर पिकासो ने ही बनाया है, तो फिर प्रामाणिक क्यों नहीं है? तब तो उस खरीददार ने कहा, आप मजाक तो नहीं कर रहे हैं?

पिकासो ने कहा, मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। यह चित्र बनाया तो मैंने ही है, लेकिन यह चित्र मैं एक दफा पहले और बना चुका हूं। अब यह सिर्फ उसकी कापी है। और यह कापी कोई दूसरा करे तो भी प्रामाणिक नहीं है, और मैं खुद करूं तो भी प्रामाणिक नहीं है। यह कापी है, ओरिजनल नहीं है। यह खयाल मैं एक दफा पहले प्रगट कर चुका हूं।

लेकिन परमात्मा जो खयाल एक दफे प्रगट कर चुका, दोबारा करता ही नहीं। बुद्ध एक दफा पैदा कर दिए, बात खत्म हो गई। महावीर एक दफा पैदा किये, बात खत्म हो गई। इस पृथ्वी पर खोजने से एक कंकड़ भी आप दूसरे कंकड़ जैसा न खोज पायेंगे, आदमी तो बहुत बड़ी बात है। आप झाड़ का एक पत्ता तोड़ लें तो उसी झाड़ पर दूसरा पत्ता वैसा न खोज पायेंगे, आदमी तो बहुत बड़ी बात है; आदमी तो बहुत ही जटिल चेतना का विकास है।

यहां प्रत्येक आदमी एक शिखर है। और किसी आदमी को यह हक नहीं कि वह किसी का अनुसरण करे। इसका यह मतलब नहीं है कि वह महावीर को समझे न। सच तो यह है कि अनुयायी ही नहीं समझता कभी भी, अनुयायी को समझने की जरूरत ही नहीं होती। असल में जिसको पीछा करना है, वह समझने से बचने के लिए ही पीछा करता है। वह समझने की झंझट में नहीं पड़ता। समझना तो उसे पड़ेगा, जिसे किसी का पीछा नहीं करना है। पीछा तो अपना ही करना है, लेकिन दूसरों ने भी अनुभव लिए हैं। दूसरों की जिंदगी में भी संगीत प्रगट हुआ है। दूसरों ने भी छुआ है जीवन का तार। और दूसरों ने भी जलाए हैं दीये ज्ञान के, प्रज्ञा के। और दूसरों की जिंदगी में भी सुवास उठी है आत्मा की। और दूसरों की जिंदगी में भी नृत्य घटा है परमात्मा का। उनको वह समझने जा रहा है।

इसलिए नहीं कि उनका वह अनुकरण करेगा, बल्कि इसलिए कि शायद इन सब विकसित फूलों को देखकर उसकी कली भी प्यास से भर जाये और फूल बनने को आतुर हो जाये। इसलिए कि शायद दूसरी वीणाओं को सुनकर उसकी वीणा के तार भी झनझना उठें और उसकी वीणा भी गीत गाने को आतुर हो उठे। इसलिए कि शायद दूसरे के पैरों में बंधे घुंघरुओं की आवाज उसके सोये हुए घुंघरुओं की चुनौती बन जाये, वह भी नाच सके।

लेकिन किसी का अनुकरण करने के लिए समझने की जरूरत नहीं है। किसी का अनुकरण करने के लिये समझने की जरूरत ही नहीं है। आंख पर पट्टी बांधिये और चल पड़िये। अनुकरण के लिए अंधा होना बड़ी से बड़ी योग्यता, क्वालिफिकेशन है। समझ बड़ी और बात है।

अपनी जिंदगी को अगर सच्चाई की ओर ले जाना हो, स्वयं को अगर विकसित करना हो, तो भूलकर किसी के अनुयायी मत बनना। और न भूलकर किसी को अनुयायी ही बनाना। दोनों ही खतरनाक बातें हैं। समझना दूसरों को, और अगर जिंदगी में कभी आपका भी फूल खिल जाये, तो रख देना बाजार के बीच सड़क पर कि दूसरे उसे देख लें। शायद उनकी कली को भी चुनौती मिल जाये।

लेकिन उनकी कली जब खिलेगी, तो वह फूल उनके जैसा होगा, आप जैसा नहीं होगा। और उनकी वीणा जब बजेगी, तो संगीत उन जैसा होगा, आप जैसा नहीं होगा।

प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा के द्वार पर अपने ही प्राणों का नैवेद्य लेकर पहुंचना होता है। और प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा के द्वार पर अपनी ही आत्मा को लेकर पहुंचना होता है। उधार आत्माएं लेकर परमात्मा के द्वार पर कभी कोई प्रविष्ट हुआ हो, ऐसी खबर सदियों में कभी भी नहीं सुनी गई है। वहां तो पूछा यही जायेगा कि प्रामाणिक है? आथेंटिक है? अपने को ही लेकर आए हो? किसी और का चेहरा लगाकर तो नहीं आ गए?

उस दरवाजे पर धोखा नहीं दिया जा सकेगा। हो सकता है इस पृथ्वी पर धोखा भी हो जाये। हो सकता है इस पृथ्वी पर नंगा खड़ा हुआ कोई आदमी ठीक महावीर जैसा दिखाई पड़ने लगे। हो सकता है इस पृथ्वी पर कोई पीत-वस्त्र पहने हुए व्यक्ति ठीक बुद्ध जैसा दिखाई पड़ने लगे। हो सकता है इस पृथ्वी पर धोखा हो जाये। लेकिन परमात्मा के सामने सब वस्त्र गिर जायेंगे, और परमात्मा के सामने सब खोलें उघड़ जायेंगी। परमात्मा के सामने जब सब नग्न खड़ा हो जायेगा और परमात्मा के दर्पण में जब अपनी पूरी नग्नता दिखायी पड़ेगी, तो वहां सिवाए उसके कोई भी नहीं मिलेगा, जो आप थे। वहां वह नहीं मिलेगा जो आपने ओढ़ा; वह नहीं मिलेगा जो आपने संभाला; वह नहीं मिलेगा जो आपने अभ्यास किया; वहां तो वही दर्शित होगा, जो आप हैं। उस दिन बड़ा दुख होगा, बड़ी पीड़ा होगी कि कितने जन्म व्यर्थ ही नकल में गंवा दिए, नाटक में गंवा दिए।

जिंदगी दूसरे का अनुसरण नहीं, जिंदगी स्वयं का उदघाटन है। जिंदगी दूसरे जैसे होने की प्रक्रिया नहीं, स्वयं जैसे होने का आयोजन है। और जो इस स्वयं होने की चुनौती को स्वीकार करता है, वह महावीर का अनुयायी नहीं बनेगा, लेकिन वहीं पहुंच सकता है; उसी ऊंचाई पर, जहां महावीर पहुंचे हैं; पहुंच सकता है वहीं, जहां जीसस पहुंचे हैं; पहुंच सकता है वहीं, जहां बुद्ध की समाधि उन्हें ले गई है। उसी निर्वाण में, उसी मोक्ष में, उसी स्वर्ग में, उसी प्रभु के राज्य में प्रत्येक का प्रवेश हो सकता है।

मैं फिर से दोहराता हूं अंतिम बात: परमात्मा की वेदी पर अपने ही प्राणों के खिले फूल का नैवेद्य चढ़ाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।

आज के लिए इतना ही।

शेष कल।


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तंत्र–सूत्र-(भाग–2) प्रवचन–18

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प्रामाणिक होना अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण है—(प्रवचन—अठ्ठाहरवां)

प्रश्‍न—सार:

1—क्‍या अभिव्‍यक्‍ति की उन्‍मुक्‍तता प्रामाणिक

होने की और एक कदम है?

            2—काम—क्रोध आदि पर ध्‍यान देने से बेचैनी सी

                  क्‍यों होती है?

            3—भाववेग में मूर्च्‍छा पकड़ती है, तो रूकें कैसे?

            4—क्‍या दीक्षा और गुरु—कृपा विधियों से अधिक

                  महत्‍वपूर्ण नहीं है?

पहला प्रश्न :

 पिछली रात आपने कहा कि आधुनिक आदमी क्रोध, हिंसा, कामवासना वगैरह को अभिव्‍यक्‍त करने में गैर—प्रामाणिक हो गया है। आप यह भी कहते है कि भारत के विद्यार्थी और उसकी युवा पीढ़ी अपने आवेगों की अभिव्‍यक्‍ति में पश्‍चिम की युवा पीढ़ी से बहुत कम उग्र है। क्‍या इसका अर्थ यह है कि पश्‍चिम के युवक अपनी अभिव्‍यक्‍ति में अधिक प्रामाणिक हो रहे हो? कामवासना और क्रोध में अभिव्‍यक्‍ति की मुक्‍तता क्‍या आवेगात्‍मक अभिव्‍यक्‍ति में प्रामाणिक होने की और गति की सूचक है?

हां कई बातें ख्याल में लेने जैसी हैं। एक, प्रामाणिक होने का अर्थ पूरी तरह तथ्यपूर्ण होना है। आदर्श, सिद्धात, वाद तुम्हें विकृत करते हैं और एक झूठा मुखौटा देते हैं। तुम चेहरे ओढ़ लेते हो, और तब जो कुछ भी तुम दिखाते हो वह तुम नहीं होते हो। यथार्थ खो जाता है, और तुम अचानक अभिनय ही करते हो। तुम्हारा जीवन जीवन कम, नाटक ज्यादा हो जाता है। तुम कुछ अभिनय करते हो जिसमें तुम्हारी आत्मा नहीं रहती है; जिसमें सिर्फ तुम्हारा समाज, तुम्हारी शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता ही होती हैं।

मनुष्य को परिष्कृत किया जा सकता है; लेकिन जितने तुम परिष्कृत होते हो उतने ही तुम कम वास्तविक हो जाते हो। वास्तविक तो तुम्हारी अपरिष्कृत आत्मा है—समाज से अछूती आत्मा।

लेकिन वह खतरनाक है। अगर एक बच्चे को अपने पर ही छोड़ दिया जाए तो वह महज जानवर हो जाएगा; प्रामाणिक तो होगा मगर जानवर होगा; वह आदमी नहीं बनेगा।

यह संभव नहीं है; यह विकल्प संभव नहीं है। हम बच्चे को उस पर ही नहीं छोड़ सकते हैं; हमें कुछ करना होगा। और हम जो भी करेंगे वह उसकी वास्तविक आत्मा को विकृत करेगा। वह बच्चे को आवरण देगा, चेहरे देगा, मुखौटे देगा। वह आदमी बन जाएगा; लेकिन साथ—साथ वह अभिनेता हो जाएगा। वह नकली हो जाएगा, असली नहीं रहेगा। और अगर हम उसे उसके ही ऊपर छोड़ देंगे तो वह जानवर की तरह होगा—प्रामाणिक और वास्तविक—लेकिन वह आदमी नहीं होगा। तो यह एक आवश्यक बुराई है कि हम उसे सिखाएं, उसे परिष्कृत और संस्कारित करें। तब वह आदमी होगा, लेकिन झूठा आदमी होगा।

ध्यान की इन विधियों के साथ तीसरा विकल्प खुलता है। ध्यान की सभी विधियां संस्कार—मुक्त करने की विधियां हैं। जो भी समाज से तुम्हें मिला है वह वापस किया जा सकता है, और तब तुम पशु नहीं रहोगे। तब तुम मनुष्य से भी कुछ अधिक हो जाओगे। तब तुम अतिमानव होगे, और वास्तविक भी। तब तुम पशु नहीं रहोगे।

यह कैसे होता है? बच्चे को शिक्षा और संस्कृति देना जरूरी है। हम उसे उस पर नहीं छोड़ सकते। अगर उसे उसके ऊपर छोड़ िदया जाए तो वह कभी आदमी नहीं होगा। वह जानवर ही रह जाएगा। वह वास्तविक होगा; लेकिन वह संसार से, चेतना के उस आयाम से वंचित रह जाएगा, जो मनुष्य के साथ अस्तित्व में आता है। इसलिए उसे आदमी बनाना ही होगा; हालांकि वह झूठा भी हो जाएगा।

वह झूठा क्यों हो जाएगा? वह झूठा इसलिए हो जाएगा कि उस पर आदमियत ऊपर से थोपी जाएगी। भीतर तो वह जानवर ही रहेगा, और ऊपर से हम उस पर आदमियत आरोपित कर देंगे। फलत: वह विभाजित हो जाएगा, दो में बंट जाएगा। अब जानवर उसके भीतर रहेगा, और आदमी बाहर—बाहर।

यही कारण है कि तुम जो भी कहते हो और जो भी करते हो, उसमें दोहरापन होता है। एक ओर समाज से जो चेहरा मिला है उसे बाहर कायम रखना पड़ता है और दूसरी ओर सतत भीतर के जानवर को भी संतुष्ट रखना पड़ता है। उससे समस्याएं पैदा होती हैं, और हर आदमी बेईमान हो जाता है। तुम जितने आदर्शवादी होगे उतना ही बेईमान होना पड़ेगा। आदर्श कहेगा कि यह करो, और भीतर का जानवर ठीक उसके विपरीत चाहेगा, वह ठीक इसके विपरीत करने को कहेगा। इस हालत में कोई क्या करे?

आदमी अपने को और दूसरों को धोखा दे सकता है। तब वह बाहर झूठा चेहरा ओढ़े रहेगा और भीतर जानवर का जानवर बना रहेगा। वही तो हो रहा है। तुम कामवासना का जीवन जीते हो, लेकिन कभी उसकी चर्चा नहीं करते, चर्चा ब्रह्मचर्य की करते हो। तुम्हारा कामवासना का जीवन अंधेरे में सरक जाता है; समाज से ही नहीं, परिवार से ही नहीं, स्वयं तुम्हारे चेतन मन से भी ओझल हो जाता है। तुम उसे अंधेरे में ऐसे रख देते हो जैसे कि वह तुम्हारे जीवन का हिस्सा ही नहीं है। और तब तुम ऐसे काम किए जाते हो जिनके तुम विरोधी हो, क्योंकि सिर्फ शिक्षा से तुम्हारी जैविक संरचना को नहीं बदला जा सकता।

याद रहे, तुम्हारी बायोलाजी, तुम्हारी जैविक संरचना सिर्फ आदर्श की शिक्षा से नहीं बदली जा सकती है। कोई विद्यापीठ, कोई आदर्शवाद तुम्हारे आंतरिक पशु को नहीं बदल सकता है। भीतर की चेतना तो सिर्फ वैज्ञानिक विधि से बदली जा सकती है। नैतिक सिखावनों से काम नहीं चलेगा; आंतरिक चेतना को समग्रत: बदलने के लिए वैज्ञानिक विधि की जरूरत है। उसके प्रयोग से तुम्हारा दोहरापन मिटेगा, और तुम एक होगे।

पशु अखंड है, एक है। संत भी अखंड है, एक है। लेकिन मनुष्य दोहरा है; क्योंकि वह दोनों के, संत और पशु के बीच में है। तुम यह भी कह सकते हो कि मनुष्य परमात्मा और पशु के बीच में है। मनुष्य ठीक दोनों के मध्य में है। भीतर वह पशु बना रहता है, और बाहर परमात्मा होने का ढोंग करता है। उससे ही तनाव पैदा होता है, संताप पैदा होता है। और तब सब कुछ झूठा हो जाता है।

तो यह हो सकता है कि तुम मनुष्य से नीचे उतरकर जानवर हो जाओ, तब तुम मनुष्य से ज्यादा प्रामाणिक हो जाओगे। लेकिन तब तुम बहुत कुछ गंवा दोगे, परमात्मा होने की संभावना गंवा दोगे। पशु परमात्मा नहीं हो सकता; क्योंकि पशु के पास अतिक्रमण करने के लिए समस्‍याएं नहीं है।

स्मरण रहे कि— पशु परमात्मा नहीं हो सकता, क्योंकि उसके पास रूपांतरित करने के लिए कुछ नहीं है। पशु अपने आपसे तृप्त है। उसको कोई समस्या नहीं है, संघर्ष नहीं है;

इसलिए अतिक्रमण की बात ही नहीं उठती। पशु चेतन भी नहीं है; हालांकि वह प्रामाणिक है। पशु अचेतन रूप से प्रामाणिक है; उसकी प्रामाणिकता अचेतन है।

कोई जानवर झूठ नहीं बोल सकता है। यह असंभव है। ऐसा इसलिए नहीं कि जानवर नीति—नियम पालन करता है। जानवर इसलिए झूठ नहीं बोल सकता है कि उसे इस संभावना का पता ही नहीं है कि झूठ भी बोला जा सकता है। जानवर को सच्चा रहना पड़ता है। लेकिन यह सच्चाई उसका चुनाव नहीं है; यह उसकी मजबूरी है। जानवर सच्चा होने का चुनाव नहीं करता है। उसे सच्चा होने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। वह वही हो सकता है जो वह है। उसके लिए झूठा होने की संभावना नहीं है। उसे संभावनाओं का बोध भी नहीं है।

मनुष्य को इन संभावनाओं का बोध होता है। इसलिए केवल मनुष्य ही झूठा हो सकता है। यह प्रगति है, विकास है। मनुष्य झूठा हो सकता है, और इसीलिए वह सच्चा भी हो सकता है। मनुष्य चुनाव कर सकता है। पशु सच्चा होने को बाध्य है। वह उसकी मुक्ति नहीं, दासता है। अगर तुम सच्चे हो तो वह तुम्हारी उपलब्धि है। क्योंकि तुम अगर चाहते तो झूठे हो सकते थे, तुम्हारे झूठे होने की संभावना खुली थी, लेकिन तुम ने उसका चुनाव न करके सच होने को चुना। यह सचेतन चुनाव है।

लेकिन तब आदमी कठिनाइयों में पड़ सकता है। चुनाव करना सदा कठिन है। मन उसे चुनना चाहता है जो सरल हो, जिसमें सबसे कम प्रतिरोध हो। झूठ बोलना सरल है; झूठा होना सरल है। प्रेमपूर्ण दिखाई देना सरल है; सचमुच प्रेमपूर्ण होना कठिन है। मुखौटा निर्मित करना आसान है; आत्मा निर्मित करना बहुत कठिन है। इसलिए आदमी सरल को, आसान को चुनता है; जिसे पूरा करने में कोई प्रयत्न न लगे, कोई त्याग न करना पड़े, वह उसे चुनता है।

मनुष्य के साथ स्वतंत्रता आती है। पशु महज गुलाम है। मनुष्य के साथ स्वतंत्रता और चुनाव अस्तित्व में आते हैं। और उनके साथ—साथ आती हैं कठिनाइयां और चिंताएं। मनुष्य के साथ असत्य भी आता है, झूठ भी आता है। तुम धोखा दे सकते हो।

यहां तक यह एक आवश्यक बुराई है। मनुष्य वैसे सरल और शुद्ध नहीं हो सकता जैसे पशु होते हैं। मनुष्य ज्यादा सरल और शुद्ध हो सकता है और वह ज्यादा जटिल और अशुद्ध हो सकता है। वह ज्यादा सरल, ज्यादा निर्दोष हो सकता है; लेकिन वह पशुओं की तरह सरल और शुद्ध और निर्दोष नहीं हो सकता।

पशु की निर्दोषता अचेतन है, और मनुष्य चेतन हो गया है। वह अब दो चीजें ही कर सकता है। वह अपने झूठ को जारी रख सकता है; और इस तरह खंडित रहकर वह सदा अपने द्वंद्व में जी सकता है। या वह पूरी घटना के प्रति, जो हुआ है और जो हो रहा है, उसके प्रति होश से भर सकता है, और वह निर्णय कर सकता है कि झूठ में नहीं जीना है। वह सारे झूठ को छोड़ सकता है। वह त्याग कर सकता है, झूठ से मिलने वाले लाभ का त्याग कर सकता है। तब वह फिर से प्रामाणिक हो जाता है।

पर अब यह प्रामाणिकता पशु की प्रामाणिकता से गुणात्मक रूप से भिन्न है। पशु अचेतन है। उसके बस में कुछ नहीं है, वह प्रकृति के द्वारा प्रामाणिक होने को मजबूर है।

लेकिन मनुष्य प्रामाणिक होने का निर्णय ले सकता है। इसके लिए उसे कोई मजबूर नहीं कर सकता।

सच तो यह है कि सब कुछ—समाज, संस्कृति, परिवेश—उसे अप्रामाणिक होने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसलिए प्रामाणिक होना उसका अपना निर्णय है। यह निर्णय तुम्हें आत्मा प्रदान करता है, और यह निर्णय तुम्हें स्वतंत्रता देता है। यह आत्मा, यह स्वतंत्रता न कोई पशु प्राप्त कर सकता है और न झूठा आदमी ही प्राप्त कर सकता है।

स्मरण रहे कि जब भी तुम झूठ बोलते हो, धोखा देते हो, या बेईमानी करते हो, तब तुम वैसा करने को बाध्य हो। वह तुम्हारा निर्णय नहीं है—सच्चा निर्णय नहीं है। आखिर तुम झूठ क्यों बोलते हो? परिणाम के भय के कारण, समाज के कारण तुम झूठ बोलते हो। अगर तुम सच—सच कह दो तो तुम्हें दुख भोगना पड़े। तुम झूठ बोलकर दु:ख से बच जाते हो।

तो असल में समाज तुम्हें झूठ बोलने को मजबूर करता है; वह तुम्हारा अपना चुनाव नहीं है। लेकिन अगर तुम सच बोलते हो तो वह तुम्हारा अपना चुनाव है। कोई तुम्हें सच बोलने को मजबूर नहीं कर रहा है; उलटे सब कुछ तुम पर झूठ कहने के लिए, बेईमान होने के लिए दबाव दे रहा है। इसलिए झूठ और बेईमानी में सुविधा है, सुरक्षा है। तब तुम सत्य चुनकर खतरा मोल ले रहे हो। लेकिन यह तुम्हारा चुनाव है। और इस चुनाव के साथ पहली बार तुम आत्मवान बनते हो।

तो पशु और मनुष्य की प्रामाणिकता में गुणात्मक भेद है। मनुष्य की प्रामाणिकता सचेतन चुनाव से आई है। बुद्ध प्रामाणिक हैं, और उस अर्थ में वे पशु से मिलते—जुलते हैं—सिर्फ एक भेद के साथ। बुद्ध पशु की भांति सरल, शुद्ध और निर्दोष हैं; लेकिन यह भेद है कि वे बोधपूर्ण हैं। उनकी प्रामाणिकता बोधपूर्ण चुनाव है; वे सजग हैं, सावचेत हैं।

प्रश्न है : ‘क्या इसका यह अर्थ है कि पश्चिम का युवक अधिक प्रामाणिक हो रहा है?’ एक अर्थ में, हा। वह ज्यादा प्रामाणिक हो रहा है; क्योंकि वह पशु की ओर झुक रहा है। यह चुनाव नहीं है, बल्कि यह सरलतम उपाय है—वापस गिर जाना। पश्चिम का युवक इस अर्थ में पूरब के युवक से ज्यादा प्रामाणिक है कि अब वह पशुता में ज्यादा गहरे उतर रहा है। पूरब का युवक झूठा है; उसका व्यवहार सच्चा नहीं है, बनावटी है, नकली है।

लेकिन केवल ये दो ही विकल्प नहीं हैं। पूरब का युवक झूठा है, सुसंस्कृत है, परिष्कृत है, वह वह होने को मजबूर हुआ है जो वह यथार्थत: नहीं है। पश्चिम के युवक ने इसके खिलाफ बगावत की है, और वह बगावत पशु की प्रामाणिकता के पक्ष में है।

यही कारण है कि सेक्स और हिंसा ने पश्चिम के युवकों को अधिकाधिक अपनी जकड़ में ले लिया है। एक तरफ से वे ज्यादा प्रामाणिक हैं तो दूसरी तरफ से वे एक बड़ी संभावना चूक रहे हैं।

बुद्ध भी बगावत में हैं और हिप्पी भी बगावत में हैं, लेकिन दोनों की बगावत में फर्क है। उनकी गुणवत्ता भिन्न है। बुद्ध भी संस्कारों के खिलाफ बगावत करते हैं, लेकिन यह बगावत संस्कारों के पार ले जाती है—उस एकता की ओर ले जाती है जो पशु और मनुष्य दोनों से ऊंची। तुम विद्रोह करके नीचे भी जा सकते हो, पशु हो सकते हो। वह भी एकता म् की ओर जाना है। लेकिन यह एकता मनुष्य से निचले तल की एकता है।

लेकिन एक ढंग से यह विद्रोह अच्छा है, शुभ है। क्योंकि एक बार विद्रोह की बात मन में उठ जाए तो वह दिन दूर नहीं है जब तुम समझ लोगे कि यह विद्रोह प्रतिगामी है। विद्रोह तो वह चाहिए जो आगे ले जाए। पश्चिम का युवक देर—अबेर समझेगा कि उसका विद्रोह तो ठीक है, लेकिन उसकी दिशा गलत है। और तब पश्चिम में एक नई मनुष्यता का जन्म संभव हो जाएगा। इस अर्थ में पूरब का नकलीपन किसी काम का नहीं है। प्रामाणिक होना, बगावती होना उससे बेहतर है। बगावती मन को यह जानने में देर नहीं लगती कि उसकी दिशा गलत है। लेकिन एक नकली युवक सदियों तक नकली बना रह सकता है और उसे पता भी नहीं चलेगा कि बगावत की और आगे जाने की संभावना है।

लेकिन इन दोनों में चुनाव करने जैसा कुछ नहीं है। तीसरा विकल्प ही मार्ग है। मनुष्य को संस्कार के खिलाफ विद्रोह करना है, और आगे जाना है। अगर तुम नीचे गिर जाओ तो भी तुम्हें विद्रोह करने का सुख होगा। लेकिन तब वह विद्रोह सृजनात्मक नहीं, विध्वंसक होगा। धर्म गहनतम क्रांति है। लेकिन इस पर तुम ने इस ढंग से विचार न किया होगा। हम धर्म को सर्वाधिक रूढ़ि की तरह लेते हैं—पारंपरिक, रूढ़। लेकिन धर्म रूढ़ि नहीं है, परंपरा नहीं है। धर्म मनुष्य की चेतना में सर्वाधिक क्रांतिकारी तत्व है, क्योंकि यह उस एकता की ओर ले जाता है जो पशु और मनुष्य दोनों से ऊंची है।

ये विधियां उसी क्रांति से संबंध रखती हैं। इसलिए जब शिव कहते हैं कि प्रामाणिक होओ तो उनका यही मतलब है कि नकली मत बनो, झूठे मत बनो। अपने झूठे व्यक्तित्व के प्रति, अपने आवरणों और मुखौटों के प्रति सजग होओ और प्रामाणिक रहो। तुम जो कुछ भी हो, पहले उसको ठीक से देख लो।

असली समस्या यह है कि तुम अपने ही छलावों से छले जाते हो। तुम करुणा की बात करते हो। भारत में करुणा की, अहिंसा की बहुत चर्चा होती है, यहां हरेक आदमी अपने को अहिंसावादी समझता है। लेकिन अगर तुम किसी के कामों को देखो, उसके संबंधों को, उसके उठने—बैठने को देखो, तो तुम पाओगे कि वह हिंसा से भरा है। लेकिन उसे पता नहीं है कि मैं हिंसक हूं। वह अपनी अहिंसा में भी हिंसक हो सकता है। अगर वह दूसरों को अहिंसक होने के लिए मजबूर करता है तो वह हिंसक है। अगर वह खुद को भी अहिंसक बनाने के लिए जबरदस्ती करता है तो वह हिंसक है।

प्रामाणिक होने का अर्थ है कि तुम समझो कि तुम्हारे मन की यथार्थ स्थिति क्या है। विचार और सिद्धात को नहीं समझना है, मन की स्थिति को जानना है। तुम्हारे मन की स्थिति क्या है? तुम हिंसक हो? क्रोधी हो? क्या हो? जब शिव प्रामाणिक होने को कहते हैं तो उनका यही मतलब है। जानो कि तुम्हारी असलियत क्या है, तथ्य क्या है। क्योंकि केवल तथ्य ही बदला जा सकता है, कल्पना या झूठ नहीं बदले जा सकते। अगर तुम्हें अपने को रूपांतरित करना है तो तुम्हें अपनी असलियत से परिचित होना होगा। तुम झूठ को नहीं बदल सकते।

अगर तुम हिंसक हो और सोचते हो कि मैं अहिंसक हूं तो उस हालत में तुम्हारे रूपांतरण की कोई संभावना नहीं है। जो अहिंसा कहीं नहीं है, तुम उसे बदल नहीं सकते। और हिंसा है, लेकिन तुम उसके प्रति बेहोश हो। फिर उसे कैसे बदल सकोगे? इसलिए पहले तथ्यों को वैसे जानो जैसे वे हैं।

तथ्यों को कैसे जाना जाए? बिना किसी व्याख्या के तथ्यों को देखो, उनका साक्षात्कार करो। यही कल के सूत्र में कहा गया था: विमर्श करो । तुम्हारा नौकर कमरे में आया है, तुम उसे कैसे देखते हो, इस पर विमर्श करो। तुम्हारा मालिक दफ्तर में आया है; तुम उसे कैसे देखते हो, इस पर विमर्श करो। देखो कि जिस निगाह से तुम नौकर को देखते हो, क्या उसी निगाह से मालिक को भी देखते हो? क्या तुम्हारी निगाह वही है या इसमें कोई फर्क है?

अगर कोई फर्क है तो तुम हिंसक आदमी हो। तुम मनुष्य को मनुष्य की तरह नहीं देखते हो; तुम्हारी दृष्टि में व्याख्या है। अगर वह धनवान है तो तुम एक ढंग से देखते हो, और अगर वह गरीब है तो दूसरे ढंग से। तुम्हारी निगाह में अर्थशास्त्र होता है। तुम्हारे ठीक सामने जो आदमी है तुम उसे नहीं देखते, तुम उसके बैंक बैलेंस को देखते हो। अगर तुम्हारे सामने कोई गरीब आदमी है तो तुम्हारी निगाह में हिंसा भरी रहती है, अपमान रहता है, हिकारत रहती है। धनी आदमी के लिए तुम्हारी निगाह में सराहना और स्वागत होता है। तुम जो भी करते हो उससे तुम्हारा गहरा लगाव रहता है, उसके लिए तुम फिक्रमंद रहते हो।

तुम जरा अपनी फिक्र को तो देखो। तुम अपने बेटे या बेटी से नाराज हो और तुम कहते हो कि मेरा क्रोध उसके हित में है, उसके भले के लिए है। इसमें जरा गहरे उतरो और परखो कि यह बात कितनी सच है। तुम्हारे बेटे ने तुम्हारी आज्ञा नहीं मानी है, और तुम नाराज हो; लेकिन तुम कहते हो कि मैं उसे उसके हित में बदलना चाहता हूं। लेकिन भीतर देखो और तथ्य पर विचार करो। क्या यह तथ्य है कि तुम उसके हित की सोच रहे हो? या तुम उसकी अवज्ञा के कारण अपमानित अनुभव करते हो?

सच तो यह है कि तुम्हें चोट लगी है; क्योंकि बेटे ने तुम्हारी आज्ञा नहीं मानी है। तुम्हारे अहंकार को चोट लगी है, क्योंकि बेटे ने तुम्हारी नहीं सुनी है। तथ्य तो यह है कि तुम्हारा अहंकार आहत हुआ है। और तुम कह रहे हो कि ऐसी बात नहीं है। तुम कहते हो कि मैं अपने बेटे की भलाई के लिए क्रोध करता हूं। यह सिर्फ बेटे के हित में किया गया क्रोध है। तुम कैसे क्रोध कर सकते हो! तुम तो प्रेमपूर्ण पिता हो, इसलिए क्रोध कर रहे हो। तुम अपने बेटे को इतना प्रेम करते हो और चूंकि वह गलत रास्ते पर जा रहा है, इसलिए प्रेम के कारण क्रोध करके तुम उसे बदलना चाहते हो। तुम कहते हो कि मेरा क्रोध एक अभिनय है।

लेकिन क्या यह तथ्य है? क्या तुम अभिनय कर रहे हो? या तुम इसलिए दुखी हो कि बेटे ने तुम्हारी आज्ञा नहीं मानी? क्या तुम्हें इस बात का पक्का भरोसा है कि जो तुम कहते हो या करते हो वह उसके हित में है?

अपने भीतर उतरो और तथ्य का निरीक्षण करो, तथ्य पर विमर्श करो और प्रामाणिक होओ। यदि उसकी अवज्ञा से तुम्हें चोट लगी है तो इस बात को भलीभांति जानना चाहिए, स्वीकार करना चाहिए। इसको ही प्रामाणिकता कहते हैं। और तभी तुम अपने को बदल सकते हो। क्योंकि तथ्य ही बदले जा सकते हैं, झूठ नहीं। जो कुछ भी तुम कहते हो या करते हो, उसका निरीक्षण खूब गहराई में उतरकर करो। तथ्यों को आंखें गड़ाकर देखो; व्याख्या और शब्दों को उन्हें रंगने मत दो।

इस विमर्श से तुम धीरे— धीरे प्रामाणिक हो जाओगे। और यह प्रामाणिकता पशु की नहीं, संत की प्रामाणिकता होगी। जितना ही तुम जानोगे कि मैं कितना कुरूप हूं जितना ही जानोगे कि मैं कितना हिंसक हूं जितना ही तुम अपने भीतर प्रवेश करके तथ्यों को देखागॅ और अपनी मूर्खताओं को समझोगे, उतने ही तुम जागरूक होते जाओगे। यह जागरूकता ही काम देगी। तब धीरे— धीरे तुम्हारी कुरूपता मुर्झाकर मिट जाएगी। अगर तुम अपनी कुरूपता के प्रति जागरूक हो तो वह कुरूपता नहीं बचेगी।

लेकिन यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारी कुरूपता बनी रहे तो उससे आंखें फेर लो, उसके प्रति बेहोश हो जाओ, और अपने चारों ओर सौंदर्य ही सौंदर्य का आवरण, दिखावा खड़ा कर लो। तब तुम्हें अपनी कुरूपता का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होगा। दूसरे सब उसे देखेंगे, लेकिन तुम नहीं। और यही समस्या है। तुम्हारा बेटा देखेगा कि पिताजी मेरे लिए नहीं, बल्कि अपने लिए नाराज हैं। वे इसलिए नाराज हैं कि उनकी अवज्ञा हुई है और उन्हें चोट पहुंची है। तुम्हारे बेटे को यह बात स्पष्ट दिखाई देगी। तुम अपनी कुरूपता को अपने से भला छिपा लो, दूसरों से नहीं छिपा पाओगे। तुम्हारा चेहरा सबको बता देगा कि तुम हिंसा से भरे हो। तुम अपने को धोखा दे सकते हो कि मैं करुणा कर रहा हूं।

यही कारण है कि हरेक आदमी समझता है कि मैं बहुत महान व्यक्ति हूं यद्यपि कोई उससे राजी नहीं होता है। तुम्हारी पत्नी तुमसे राजी नहीं है कि तुम महान व्यक्ति हो। तुम्हारे बच्चे भी तुमसे इस बात पर राजी नहीं हैं। तुम्हारे मित्र भी तुमसे राजी नहीं हैं।

रूस में एक लोकोक्ति है कि अगर हर कोई अपने मन की बात पूरी की पूरी प्रकट कर दे तो सारी पृथ्वी पर चार मित्र भी नहीं मिलेंगे। असंभव हैं। तुम्हारा मित्र जो तुम्हारे बारे में सोचता है वह तुम्हें नहीं बताता है। इससे ही मित्रता कायम रहती है। लेकिन वह तुम्हारी पीठ पीछे सब कुछ कहता है। और तुम भी उसकी पीठ पीछे अपने मित्र के संबंध में सब कुछ कहते हो। कोई एक—दूसरे को सच्ची बात इसलिए नहीं कहता कि तब मित्रता की संभावना समाप्त हो जाएगी।

क्यों? क्यों कोई तुम्हारे साथ सहमत नहीं है? कारण यह है कि तुम अपने को धोखा दे सकते हो, लेकिन दूसरों को धोखा नहीं दे सकते। सिर्फ आत्म—प्रवंचना संभव है। और जब तुम सोचते हो कि मैं दूसरों को धोखा दे रहा हूं तो भी तुम अपने को ही धोखा दे रहे हो। हो सकता है कि दूसरे तुम्हें धोखा दें, हो सकता है कि तुम दूसरों को धोखा दो, क्योंकि कभी—कभी जान—बूझकर धोखा खाना सुविधाजनक होता है। हो सकता है कि धोखा खाना उस व्यक्ति के लिए लाभदायक हो।

तुम किसी से अपनी महानता की चर्चा करते हो। हर कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अपनी महानता का बखान करता है। तो कोई व्यक्ति तुम्हारे साथ सहमत हो जा सकता है कि तुम महान हो। अगर यह बात उसके लाभ की है तो वह तुम्हें यह समझने का भ्रम देगा कि तुम उसे धोखा दे रहे हो। लेकिन वह अपने भीतर जानता है कि तुम कौन हो। तुम किसी को तब तक धोखा नहीं दे सकते जब तक वह धोखा खाने को राजी न हो। लेकिन यह और बात है।

प्रामाणिकता से मेरा मतलब है कि तुम अपनी असलियत को स्मरण रखो, कि तुम असलियत को व्याख्यओं से बचाओ। व्याख्याओं से बाहर निकलो। व्याख्याओं को अलग करो और सीधे इस तथ्य को देखो कि तुम क्या हो। और डरो मत। तुममें बहुत कुछ कुरूप है। अगर तुम डरोगे तो उसे बदल न पाओगे। कुरूपता है तो उसे स्वीकार करो, उस पर विमर्श करो।

विमर्श का यही अर्थ है : तथ्य को उसकी समग्र नग्नता में देखो। उसके चारों तरफ घूमो, उसकी जड़ तक जाओ। उसका विश्‍लेषण करो, देखो कि वह कौन है, तुम उसकी सहायता किस तरह करते हो, किस तरह तुम उसे पोषण देते हो, संरक्षण देते हो और देखो कि कैसे वह बढ़कर बीज से वृक्ष हो गया है। अपनी कुरूपता को, अपनी घृणा और हिंसा को कैसे मैंने निर्मित किया है, कैसे उन्हें विस्तार दिया है, यह सब देखो। उनकी जड़ों को देखो। उनकी समग्रता में देखो।

और शिव कहते हैं कि अगर तुम समग्रता से विमर्श करो तो तुम अपनी कुरूपता से तुरंत, इसी क्षण मुक्त हो सकते हो। क्योंकि तुमने ही उसे पैदा किया है, तुमने ही उसे संरक्षण दिया है, तुमने ही उसे अपने भीतर जडें जमाने में मदद की है। यह तुम्हारा सृजन है। तुम उसे इसी क्षण छोड़ सकते हो। तुम इसी क्षण उससे मुक्त हो सकते हो। तब उस पर दुबारा नजर डालने की जरूरत न रहेगी।

लेकिन इसके पहले तुम्हें उसे जानना होगा कि वह क्या है। तुम्हें उसके पूरे यंत्र को, उसकी पूरी जटिलता को जानना होगा। और जानना होगा कि कैसे क्षण— क्षण तुम उसे अपना सहयोग देते हो।

यदि कोई तुम्हारा अपमान करता है तो तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होती है? क्या तुमने कभी सोचा है कि वह व्यक्ति सही भी हो सकता है? नहीं सोचा है तो सोचो। देखो। वह सही हो सकता है। संभावना तो यही है कि तुम्हारे संबंध में वह तुमसे ज्यादा सही हो; क्योंकि वह तुमसे अलग है, तुमसे दूर है, वह निरीक्षण कर सकता है।

तो प्रतिक्रिया मत करो। रुको। उसको कहो कि तुमने जो कहा है उस पर मैं विमर्श करूंगा। तुमने मेरा अपमान किया, मैं इस तथ्य पर मनन करूंगा। तुम सही भी हो सकते हो। और अगर तुम सही निकले तो मैं तुम्हें धन्यवाद दूंगा। मुझे विमर्श करने दो। यदि मैंने पाया कि तुम गलत थे तो मैं तुम्हें खबर कर दूंगा।

लेकिन प्रतिक्रिया मत करो। प्रतिक्रिया भिन्न बात है। अगर तुम मेरा अपमान करते हो तो प्रतिक्रिया करने की बजाय मैं तुमसे कहूंगा : ‘रुको। सात दिन के बाद फिर आओ। तुमने जो कहा है मैं उस पर विमर्श करूंगा। तुम सही हो सकते हो। मैं अपने को तुम्हारी जगह रखूंगा, और तब दूरी से अपना निरीक्षण करूंगा। तुम सही हो सकते हो। इसलिए मुझे तथ्य को देखने दो। यह तुम्हारी कृपा थी कि तुमने मुझे बताया; मैं उस पर विमर्श करूंगा। और यदि मुझे लगा कि तुम ठीक थे तो मैं तुम्हें धन्यवाद दूंगा। और यदि तुम गलत निकले तो मैं कह दूंगा कि तुम गलत हो।’ लेकिन प्रतिक्रिया की क्या जरूरत है?

जब तुम मेरा अपमान करते हो तो मैं क्या करता हूं? मैं भी तुरंत ही तुम्हारा अपमान कर देता हूं। यह मेरी प्रतिक्रिया हुई। अपमान के बदले अपमान। लेकिन ऐसा करके मैं विमर्श से चूक जाता हूं। और स्मरण रहे कि प्रतिक्रिया कभी सही नहीं हो सकती। अगर तुम मेरा अपमान करते हो तो तुम मेरे क्रोध की एक संभावना पैदा करते हो। और जब मैं क्रोध करता हूं तो मैं होश में नहीं हूं। मैं तुम्हारे संबंध में कोई ऐसी बात कहता हूं जिसे मैंने कभी सोचा भी नहीं था। और यह भी संभव है कि अभी अपमान के बदले में मैं तुम्हारा अपमान करूं और अगले ही क्षण मुझे इसके लिए पश्चात्ताप होने लगे।

तो प्रतिक्रिया मत करो। तथ्यों पर विमर्श करो। और यदि विमर्श समग्र है तो तुम किसी भी वृत्ति से मुक्त हो सकते हो। यह तुम्हारे हाथ की बात है। वृत्ति है; क्योंकि तुम उससे चिपके हुए हो। तुम चाहो तो उसे इसी क्षण छोड़ सकते हो।

और स्मरण रहे, यह दमन नहीं होगा। जब किसी तथ्य के प्रति तुम विमर्श से भरते हो तो उसमें दमन नहीं होता है। या तो तुम उसे पसंद करते हो और जारी रखते हो, और या तुम उसे नापसंद करते हो और छोड़ देते हो।

दूसरा प्रश्न :

 

पिछली रात जिस विधि की चर्चा हुई उसके अनुसार जब क्रोध, हिंसा या कामवासना का उदय हो तो उस पर विमर्श करना चाहिए और तब अचानक उसे छोडे देना चलिए।

लेकिन जब कोई यह प्रयोग करता है तो कभी— कभी उलझन और बेचैनी सी अनुभव होती है। इन नकारात्‍मक भावों के कारण क्या हैं?

 

क ही कारण है, वह है विमर्श का समग्र न होना। हरेक व्यक्ति क्रोध को समझे बिना क्रोध छोड़ना चाहता है। हरेक व्यक्ति कामवासना को समझे बिना कामवासना से मुक्त होना चाहता है। लेकिन समझ के बिना क्रांति संभव नहीं है। समझ के बिना तुम अपनी समस्याएं बढ़ा लोगे, तुम अपने दुख बढ़ा लोगे।

छोड़ने की बात मत सोचो, सोचो कि कैसे समझें। छोड़ना नहीं, समझना है। त्याग नहीं, बोध। किसी चीज को छोड़ने के लिए उस पर सोच—विचार करने की जरूरत नहीं है, जरूरत है उस चीज की उसकी समग्रता समझने की। अगर तुमने समग्रता से समझ लिया तो रूपांतरण उसका परिणाम है। यदि यह चीज तुम्हारे लिए, तुम्हारे होने के लिए शुभ है तो वह बढ़ेगी, और यदि अशुभ है तो वह विसर्जित हो जाएगी। तो असल बात छोड़ना नहीं है, असली बात है समझना।

तुम क्रोध को क्यों छोड़ना चाहते हो? क्यों? क्योंकि तुम्हें सिखाया गया है कि क्रोध बुरा है। लेकिन क्या तुमने भी समझा है कि क्रोध बुरा है? क्या तुम अपनी गहन अंतर्दृष्टि के जरिए इस वैयक्तिक निष्पत्ति पर पहुंचे हो कि क्रोध बुरा है? अगर तुम अपनी ही आंतरिक खोज के द्वारा इस निष्पत्ति पर पहुंचे हो तो छोड़ने की जरूरत नहीं रहेगी; वह चीज अपने आप ही विदा हो जाएगी। यह जानना पर्याप्त है कि यह जहर है। तब तुम दूसरे ही आदमी हो।

लेकिन तुम सोचे चले जाते हो कि छोडना है, त्याग करना है। यह इसलिए कि दूसरे लोग कहते हैं कि क्रोध बुरा है, और तुम उनसे महज प्रभावित हो गए हो। नतीजा यह है कि तुम सोचते हो कि क्रोध बुरा है, लेकिन जब मौका आता है तो क्रोध करने से चूकते नहीं हो। ऐसे ही एक दोहरा चित्त निर्मित होता है; तुम क्रोध में भी होते हो और सोचते हो कि वह बुरा है। यही अप्रामाणिकता है। अगर तुम सोचते हो कि क्रोध बुरा है और अगर तुम कहते हो कि क्रोध बुरा है, तो समझने की कोशिश करो कि यह तुम्हारा निजी बोध है या किसी दूसरे व्यक्ति ने ऐसा कहा है।

दूसरों के कारण प्रत्येक आदमी अपने इर्द—गिर्द संताप इकट्ठा कर रहा है। कोई कहता

है कि यह बुरा है, और कोई कहता है कि नहीं, यह अच्छा है। और ऐसे सब लोग अपने—अपने विचार तुम पर लाद रहे है। मां—बाप यहीं कर रहे है; समाज यहीं कर रहा। और तब एक दिन तुम दूसरों के विचारों के गुलाम भर हो जाते हो। और तुम्हारा स्वभाव और दूसरों के विचार तुम्हारे भीतर विभाजन पैदा कर देते हैं, तुम स्कीजोफ्रेनिया के, खंडित—चित्तता के शिकार हो जाते हो। तब तुम करोगे कुछ, और मानोगे कुछ और ही।

कृत्य और मान्यता के इस विभाजन से अपराध— भाव पैदा होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपराधी अनुभव करता है। ऐसा नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति अपराधी है, लेकिन इस दोहरे चित्त के कारण हर आदमी अपराधी अनुभव करता है।

सब कहते हैं कि क्रोध बुरा है। सबने तुमसे भी यही कहा है। लेकिन किसी ने तुमको यह नहीं बताया कि क्रोध क्या है और इसे कैसे जानें। हर कोई कहता है कि कामवासना बुरी है। लोग सिखाए चले जा रहे हैं कि कामवासना बुरी है। लेकिन कोई यह नहीं बताता कि कामवासना क्या है और इसे कैसे जानें।

यह प्रश्न अपने बाप से पूछो और वह बेचैन हो जाएगा, वह कहेगा कि यह प्रश्न मत पूछो। वह तुम्हें नहीं बताएगा कि कामवासना क्या है, वह तुम्हें नहीं बताएगा कि तुम संसार में कैसे आए। वह खुद कामवासना से गुजरा है, अन्यथा तुम पैदा ही नहीं होते। लेकिन अगर तुम पूछोगे तो वह बेचैन होगा, क्योंकि उसे भी किसी ने नहीं बताया है कि कामवासना क्या है। उसके मां—बाप ने भी उसे नहीं बताया कि कामवासना बुरी क्यों है।

तुम्हें कोई नहीं बताएगा कि कामवासना क्या है, उसे कैसे जाना जाए, उसमें कैसे गहरे उतरा जाए। लोग इतना ही कहते रहते हैं कि फलां चीज अच्छी है और फलां चीज बुरी है। और इसी लेबलिंग से दुख पैदा होता है, नरक पैदा होता है।

तो किसी भी साधक के लिए, सच्चे साधक के लिए एक बात याद रखने योग्य है, एक बुनियादी बात समझने योग्य है कि मुझे सदा अपने तथ्यों के साथ जीना चाहिए। उन्हें जानने की चेष्टा करो। समाज को अपना आदर्श अपने ऊपर मत लादने दो। दूसरों की आंखों से अपने को मत देखो। तुम्हें आंखें हैं, तुम अंधे नहीं हो। और तुम्हारे आंतरिक जीवन के तथ्य तुम्हारे पास हैं। आंखों को काम में लाओ। विमर्श का यही अर्थ है। और अगर विमर्श हो तो यह समस्या नहीं रह जाती।

लेकिन विमर्श करते हुए कोई कभी—कभी उलझन और बेचैनी महसूस कर सकता है। अगर तुमने तथ्यों को नहीं समझा है तो तुम्हें बेचैनी मालूम होगी। क्योंकि यह सूक्ष्म दमन है। तुम पहले से जानते हो कि क्रोध बुरा है। और मैं तुमसे कहता हूं कि इस पर विमर्श करो तो तुम विमर्श भी इसलिए करते हो कि उससे छुटकारा मिले। छुटकारे की बात सदा तुम्हारे मन में बनी रहती है।

एक के व्यक्ति, उनकी उम्र साठ के करीब होगी, मेरे पास आए थे। वे बहुत धार्मिक किस्म के व्यक्ति हैं; धार्मिक ही नहीं, किसी किस्म के नेता भी हैं। वे बहुत लोगों के गुरु हैं, और उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। वे सदा नीति की शिक्षा देते रहते हैं। और अब साठ साल की उम्र में मेरे पास आकर कहते हैं, आप ही वह आदमी हैं जिनसे मैं अपनी असली समस्या कह सकता हूं कामवासना से मुक्ति कैसे हो?’

और मैंने उन्हें कामवासना से उत्पन्न होने वाले दुखों पर भाषण करते सुना है। उन्होंने इस पर किताबें लिखी हैं; और अपने बेटे—बेटियों को बहुत सताया है।

यदि तुम किसी को सताना चाहते हो तो नैतिकता सबसे अच्छा और सरल उपाय है। उसके जरिए तुम दूसरे व्यक्ति में अपराध— भाव पैदा कर देते हो। यह सबसे सूक्ष्म यातना है; ब्रह्मचर्य की चर्चा करो और तुरंत अपराध— भाव पैदा हो जाता। कारण यह कि ब्रह्मचारी रहना बहुत कठिन है; इसलिए जब तुम ब्रह्मचर्य की चर्चा करते हो तो दूसरा जानता है कि यह नहीं हो सकता, और वह अपराधी अनुभव करता है।

इस तरह अपराध— भाव पैदा करके तुम उसे सता सकते हो। तुमने दूसरे आदमी को ओछा, पतित बना दिया। अब वह कभी चैन से नहीं रहेगा। वह कामवासना में जीएगा और अपने को पापी समझता रहेगा। वह सदा ब्रह्मचर्य की सोचेगा, उसका मन ब्रह्मचर्य का चिंतन करेगा, और उसका शरीर कामवासना में जीएगा। और तब वह अपने शरीर का विरोधी हो जाएगा। तब वह सोचेगा कि मैं यह नहीं हूं यह शरीर बहुत बुरी चीज है। और एक बार तुम ने किसी के भीतर अपराध— भाव पैदा कर दिया कि उसका मन विषाक्त हो जाता है, कि वह बुझ जाता है।

तो वे वृद्ध सज्जन आए और उन्होंने पूछा कि कामवासना से कैसे मुक्त हुआ जाए? मैंने उनसे कहा कि पहले तथ्य के प्रति होशपूर्ण बनें। और वे काफी अवसर खो चुके थे। उनकी कामवासना अब कमजोर पड़ चुकी है; इसलिए होश साधना कठिन होगा। जब कामवासना बलवती होती है, उद्दाम होती है, युवा होती है, तो तुम उसके प्रति आसानी से होशपूर्ण हो सकते हो। तब वह इतनी शक्तिशाली होती है कि उसे देखना, जानना और महसूस करना कठिन नहीं होता है।

इस साठ वर्षीय आदमी को, जब वह दुर्बल और रुग्ण हो चला है, अपनी कामवासना के प्रति सजग होने में बहुत कठिनाई होगी। जब वे युवक थे तब वे ब्रह्मचर्य की सोचते रहे। उन्होंने ब्रह्मचर्य साधा नहीं होगा; क्योंकि उनके पांच बच्चे हैं। लेकिन वे ब्रह्मचर्य का चिंतन करते रहे और अवसर उनके हाथ से चला गया।

मैंने उनसे कहा कि अपने उपदेशों को भूल जाओ, अपनी किताबें जला दो। बिना स्वयं जाने किसी को कामवासना के संबंध में उपदेश मत दो; स्वयं अपनी कामवासना के प्रति जागरूक बनो। मैंने उन्हें जागरूक रहने को कहा।

उन्होंने कहा कि यदि मैं जागरूक रहूं तो कितने दिनों में कामवासना से मुक्त हो जाऊंगा? मन का यही ढंग है। वे जानना भी चाहते हैं तो इसलिए कि काम से छुटकारा हो। मैंने उनसे कहा कि जब आप इसे नहीं जानते हैं तो आप कौन होते हैं निर्णय लेने वाले कि कामवासना से छुटकारा हो? आप इस निष्पत्ति पर कैसे पहुंचे कि कामवासना बुरी चीज है? कैसे तय हुआ? क्या इसे अपने भीतर खोजने की जरूरत नहीं है?

किसी चीज को छोड़ने की बात मत सोचो। त्याग का मतलब है कि दूसरे तुम्हें मजबूर कर रहे हैं। व्यक्ति बनो। समाज को अपने पर आधिपत्य मत करने दो। गुलाम मत बनो। तुम्हें आंखें हैं। तुम्हें चेतना है। फिर तुम्हारी कामवासना है, तुम्हारा क्रोध है, तुम्हारे दूसरे तथ्य है। अपनी आंख का उपयोग करो। अपनी चेतना का उपयोग करो। ऐसा समझो कि तुम अकेले हो, कोई तुम्हें सिखाने वाला नहीं है। तब तुम क्या करोगे?

आरंभ से आरंभ करो; अ ब स से शुरू करो। तब भीतर जाओ। न जल्दी निर्णय लो और न निष्पत्ति निकालो। अगर तुम अपने ही बोध से किसी निष्पत्ति पर पहुंचे तो वह निष्पत्ति रूपांतरण बनेगी। तब तुम्हें कोई असुविधा या बेचैनी नहीं होगी, तब दमन नहीं होगा। और तभी तुम किसी चीज को छोड़ सकते हो।

मैं यह नहीं कहता हूं कि छोड़ने के लिए सजग बनो। स्मरण रहे, मैं कहता हूं कि अगर तुम होशपूर्ण रहे तो छुटकारा हो जाएगा। होश को कामवासना छोड़ने के लिए विधि की तरह उपयोग न करो। छूटना परिणाम है। अगर तुम होशपूर्ण हो तो कोई भी चीज छूट सकती है। लेकिन छोड़ने के लिए निर्णय लेना जरूरी नहीं है। हो सकता है तुम्हें छोड़ने का खयाल भी न आए।

कामवासना है। अगर तुम उसके प्रति पूरे होशपूर्ण हो जाओ तो उसे छोड़ने का निर्णय नहीं लेना पड़ेगा। तब अगर पूरे बोध से तुम कामवासना में रहने का निर्णय लो तो कामवासना का अपना अलग सौंदर्य होगा। और अगर पूरे बोध से तुम उसे त्यागने का निर्णय लो तो तुम्हारे त्याग का भी सौंदर्य अलग होगा।

मुझे ठीक से समझने की कोशिश करो। बोध के साथ जो भी घटित होता है वह सुंदर है, और बोध के बिना जो भी घटित होता है वह कुरूप है। यही कारण है कि तुम्हारे तथाकथित ब्रह्मचारी बुनियादी रूप से कुरूप होते हैं। उनके जीवन का पूरा ढंग ही कुरूप होता है। उनका ब्रह्मचर्य परिणाम के रूप में नहीं आया है; यह उनकी अपनी खोज नहीं है।

अब डी एच. लारेंस जैसे व्यक्ति को देखो, उसका कामवासना का स्वीकार सुंदर है। तुम्हारे ब्रह्मचारियों के त्याग से उसका स्वीकार सुंदर है, क्योंकि उसने कामवासना को पूरे होश से स्वीकारा है। भीतरी खोज के जरिए वह इस निष्पत्ति पर पहुंचा है कि मैं कामवासना के साथ जीऊंगा। उसने तथ्य को स्वीकारा है। इसमें कोई अड़चन नहीं है, कोई अपराध— भाव नहीं है, बल्कि कामवासना गरिमापूर्ण हो गई है। अपनी कामवासना को पूरी तरह जानने वाले, स्वीकार करने वाले, उसे जीने वाले डी .एच. लारेंस का अपना ही सौंदर्य है।

वैसे ही तथ्य को पूरी तरह जानकर उसे छोड़ने वाले महावीर का भी अपना सौंदर्य है। लारेंस और महावीर दोनों सुंदर हैं, दोनों सुंदर हैं। लेकिन यह सौंदर्य कामवासना का सौंदर्य नहीं है, न कामवासना के त्याग का है; यह सौंदर्य बोध का सौंदर्य है।

यह बात भी सदा याद रखने की है कि तुम उसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते जिस पर बुद्ध पहुंचे। उसकी जरूरत भी नहीं है। तुम उस निष्पत्ति पर भी नहीं पहुंच सकते जिस पर महावीर पहुंचे। वह अनिवार्य नहीं है। यदि कोई अनिवार्यता है तो वह एक ही है, वह बोध की — अनिवार्यता है। जब तुम पूरी तरह बोधपूर्ण हो तो जो कुछ होता है वह सुंदर है, दिव्य है।

अतीत के सिद्धों को देखो। शिव पार्वती के साथ बैठे हैं; पार्वती गहन प्रेम—मुद्रा में शिव की गोद में बैठी हैं। तुम इस मुद्रा में महावीर की कल्पना भी नहीं कर सकते—असंभव है। इस मुद्रा में बुद्ध की कभी कल्पना भी नहीं हो सकती है। क्योंकि राम सीता के साथ खड़े हैं, इसलिए जैन उन्हें अवतार मानने के लिए राजी नहीं हैं। वे कहते हैं कि वे अब भी स्त्री के साथ हैं!

जैन राम को अवतार की तरह सोच ही नहीं सकते, इसलिए वे उन्हें महामानव कहते हैं, अवतार नहीं। वे महामानव हैं; लेकिन मानव ही। क्योंकि स्त्री है! स्त्री के रहते हुए तुम मनुष्य के पार नहीं जा सकते, अर्धांगिनी जब तक है तब तक तुम मनुष्य ही हो। जैन कहते है कि राम महापुरुष थे, उससे अधिक नहीं।

अगर तुम हिंदुओं से पूछो तो उन्होंने महावीर की चर्चा तक नहीं की है, उन्होंने अपने शास्त्रों में महावीर के नाम का भी उल्लेख नहीं किया है। हिंदू—चित्त कहता है कि स्त्री के बिना पुरुष अधूरा है, अखंड नहीं। राम अकेले संपूर्ण नहीं हैं; इसलिए हिंदू सीताराम कहते हैं। और वे स्त्री को पहले रखते हैं; वे कभी रामसीता नहीं कहते। वे सीताराम कहते हैं, वे राधाकृष्ण कहते हैं। और एक बुनियादी कारण से वे स्त्री को पहले रखते हैं। कारण है कि पुरुष भी स्त्री से जन्म लेता है, और वह आधा है; स्त्री के साथ वह पूर्ण हो जाता है।

इसलिए कोई हिंदू देवता अकेला नहीं है; उसकी अर्धांगिनी उसके साथ है। सीताराम पूर्ण हैं, वैसे ही राधाकृष्ण पूर्ण हैं। कृष्ण अकेले आधे हैं। राम के लिए सीता को छोड़ना जरूरी नहीं है। कृष्ण के लिए राधा को छोड़ना जरूरी नहीं है। क्यों? वे पूरे बोध को उपलब्ध लोग हैं। शिव से अधिक बोधपूर्ण, शिव से अधिक होशपूर्ण व्यक्ति और कहा मिलेगा? लेकिन वे पार्वती को गोद में लेकर बैठे हैं। इससे समस्या खड़ी होती है। कौन सही है? बुद्ध सही हैं या शिव सही हैं?

समस्या इसलिए पैदा होती है क्योंकि हम नहीं जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी ढंग से खिलता है। बुद्ध और शिव दोनों पूर्ण रूप से जाग्रत पुरुष हैं। लेकिन ऐसा होता है कि बुद्ध इस पूर्ण बोध में कुछ छोड़ देते हैं। यह उनका चुनाव है। शिव अपने पूर्ण बोध में सब कुछ स्वीकार कर लेते हैं। जहां तक ज्ञान का, बुद्धत्व का सवाल है, दोनों एक ही शिखर पर हैं। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति भिन्न—भिन्न होगी।

तो किसी ढांचे में मत पड़ो। कोई नहीं जानता है कि तुम जब बोध को उपलब्ध होगे तो क्या होगा। बुद्धत्व के पहले मत निर्णय लो कि यह छोड़ना है कि वह छोड़ना है। निर्णय ही मत लो। कोई नहीं जानता है। प्रतीक्षा करो। बोधपूर्ण होओ और अपने फूल को खिलने दो। कोई नहीं जानता है कि क्या होगा। प्रत्येक के फूल खिलने की संभावना अलग और अज्ञात है। और तुम्हें किसी का अनुगमन नहीं करना है, क्योंकि अनुगमन खतरनाक है, विध्वंसक है। सब अनुकरण आत्मघात है। प्रतीक्षा करो!

ये सारी विधियां तुम्हारे बोध को जगाने के लिए हैं। और जब तुम बोधपूर्ण हो जाओ तो तुम छोड़ सकते हो या जारी रख सकते हो। जब तक जागे नहीं हो तब तक जो हो रहा है उसे स्मरण रखो, उसे देखो। तुम उसे न सहज स्वीकार कर सकते हो और न छोड़ सकते हो।

तुम्हें कामवासना है। तुम न इसे पूरी तरह स्वीकार करके भूल सकते हो और न उसे छोड़ सकते हो। मैं कहता हूं कि या तो इसे स्वीकार कर लो और भूल जाओ, या फिर छोड़ ही दो और भूल जाओ। लेकिन तुम इन दोनों में से एक नहीं करोगे, तुम सदा दोनों करोगे। तुम स्वीकार करोगे और फिर छोड़ने की सोचोगे। यह दुश्चक्र है। जब भी तुम कामवासना में उतरते हो तो फिर कुछ घंटों के लिए या कुछ दिनों के लिए उसे त्यागने की सोचते हो। लेकिन सच में तुम क्या कर रहे हो? तुम सिर्फ फिर से शक्ति इकट्ठी कर रहे हो। और जब शक्ति इकट्ठी कर लोगे तो तुम फिर कामवासना में उतरने की सोचोगे।

और यह सिलसिला जीवन भर चलेगा। यही सिलसिला अनेक जन्मों से चलता रहा है। लेकिन जब तुम पूरे बोध को उपलब्ध होकर स्वीकार करोगे तो उस स्वीकार में सौंदर्य होगा। और तब अगर त्याग करोगे तो उस त्याग में भी सौंदर्य होगा।

एक बात निश्चित है कि जब तुम जागरूक होते हो तो भूल सकते हो, दोनों ढंग से भूल सकते हो। तब यह समस्या नहीं रहेगी। तब तुम्हारा निर्णय समग्र है, और समस्या गिर जाती है। लेकिन अगर तुम्हें बेचैनी महसूस होती है तो उसका अर्थ है कि तुमने विमर्श नहीं किया है, कि तुम जागरूक नहीं हो। इसलिए अधिकाधिक जागरूक होओ। किसी भी तथ्य पर ज्यादा गहराई से, ज्यादा वैयक्तिक ढंग से, दूसरों की निष्पत्ति को बीच में लाए बिना विमर्श करो।

तीसरा प्रश्न :

जब कोई वृत्ति प्रामाणिक होती है तब मैं बेहोश होता हूं। तो इसमें रुकने का प्रयोग मैं कैसे कर सकता हूं?

 

ह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। जब तुम झूठे हो तो किसी चीज को रोकना आसान है, लेकिन जब तुम सच्चे हो तो रोकना कठिन होता है। जब क्रोध सच्चा होगा तो तुम रुकने की विधि भूल जाओगे। और अगर क्रोध झूठा होगा तो तुम्हें विधि याद रहेगी और तुम उसका उपयोग भी करोगे, लेकिन झूठे क्रोध में विधि का उपयोग कोई अर्थ नहीं रखता है। जहां ऊर्जा नहीं है वहा रुक तो सकते हो, लेकिन यह रुकना व्यर्थ होगा। जब क्रोध सच्चा हो तो उसमें ऊर्जा होती है; और उस हालत में रुकने पर ऊर्जा भीतर की ओर मुड़ती है।

तो क्या किया जाए? होश साधने की चेष्टा करो। सीधे क्रोध से मत शुरू करो, आसान चीजों से शुरू करो। तुम चल रहे हो, उसके प्रति होश रखो। क्रोध से मत शुरू करो, छोटी—छोटी चीजों से शुरू करो। अपने चलने के प्रति सजग होने में कोई समस्या नहीं है। और चलते —चलते अचानक रुक जाओ। आसान चीजों से शुरू कर जटिल चीजों पर जाओ। जटिल चीजों से शुरू मत करो; कामवासना पर तुरंत मत छलांग लगाओ। यह जरा सूक्ष्म है, और उसके लिए गहरे बोध की जरूरत पड़ेगी।

तो पहले हलकी चीजों के साथ होश साधो। तुम चल रहे हो, तुम स्नान कर रहे हो, तुम्हें प्यास लगी है, तुम्हें भूख लगी है—ऐसी चीजों से शुरू करो। ये मामूली चीजें हैं। तुम किसी से कुछ कहने जा रहे हो, रुक जाओ, वाक्य के बीच में ही रुक जाओ। तुम कोई कहानी कहने जा रहे थे जिसे तुम हजार बार कह चुके हो; हर आदमी उसे सुन—सुनकर ऊब चुका है। और तुम फिर कहते हो, ‘एक था राजा…..’, वहीं रुक जाओ।

सरल चीजों से शुरू करो, इससे भी सरल चीजों से शुरू करो। तुम्हारे सिर पर एक मक्खी बैठी है, और तुम उसे हाथ से उड़ाने जा रहे हो; वहीं रुक जाओ। मक्खी जहां है वहीं रहे, और तुम्हारा हाथ भी जहां का तहां रुक जाए। छोटी चीजों के साथ प्रयोग करो, ताकि तुम्हें सजगता के साथ रुकने का एहसास हो सके। और तब जटिल चीजों पर जा। क्रोध बहुत जटिल चीज है। उसकी बजाय किसी यांत्रिक चीज को लो।

तुम हर रोज सुबह बिस्तर से उठते हो। क्या तुमने देखा कि हर रोज तुम एक ही ढंग से बिस्तर से निकलते हो? यदि तुम्हारा दाहिना पांव पहले निकलता है तो यही रोज होता है। कल सुबह जब दाहिना पांव निकलने लगे तो रुक जाओ और उसकी जगह बाएं पाँव को पहले निकलने दो। आसान चीजों से आरंभ करने में एक आदत के सिवाय कुछ नहीं त्यागना है। यदि तुम चलने के समय सदा दाहिना पांव पहले आगे बढ़ाते हो तो अगली बार उसे आगे बढ़ाते हुए रुक जाओ।

किसी भी चीज से काम चलेगा। कोई भी सरल चीज खोज लो। जितनी चीज सरल होगी उतना अच्छा। जब तुम आसान चीजों में निष्णात हो जाओगे और अचानक रुकना सरल हो जाएगा, और जब तुम्हें उसमें होश का एहसास होने लगेगा, तब तुम्हारे भीतर थोड़ी देर को एक मौन, एक शाति का विस्फोट होगा। वह आंतरिक शाति होगी।

गुरजिएफ अपने शिष्यों को ऐसी ही आसान चीजों के द्वारा प्रशिक्षित करता था। जैसे, जब तुम कुछ कहते हो तो सिर हिलाते हो। गुरजिएफ कहता था कि इस बार जब कुछ कहो तो सिर मत हिलाओ। सिर हिलाना एक यांत्रिक आदत है। मैं जब कुछ कहता हूं तो हाथ की एक मुद्रा बनाता हूं। गुरजिएफ कहता कि यह बात बोलते समय इसका ध्यान रखो कि यह मुद्रा न बने। कोई और मुद्रा तुम बना सकते हो; लेकिन इतना स्मरण रहे कि यह बात कहते समय यह मुद्रा मत बनाओ। इतनी सावधानी बरतनी है।

किसी भी चीज से चलेगा। तुम बातचीत शुरू करते हो तो एक विशेष वाक्य से शुरू करते हो। उससे मत शुरू करो। कोई दूसरा आदमी तुम्हें कुछ कहता है, तुम उसे यांत्रिक ढंग से प्रत्युत्तर देते हो। उस ढंग से प्रत्युत्तर मत दो, उसकी जगह कुछ और कहो। या अगर पुरानी चीज ही कहने लग गए तो बीच में ही रुक जाओ। और एक झटके के साथ, अचानक रुक जाओ। और जब तुम धीरे—धीएर इस विधि में निष्णात हो जाओ तो जटिल चीजों को हाथ में लो।

मन की बुनियादी चालाकियों में एक यह है कि वह सदा जटिल चीजों पर छलांग लगाता है। और उसे उसमें विफलता मिलती है। और तब तुम फिर कभी प्रयोग नहीं करोगे। तुम जानते हो, यह होने वाला नहीं है। यह मन की चालाकी है। मन कहेगा कि अच्छा, तुम तो जानते ही हो कि क्रोध में रुकने का प्रयोग सफल नहीं होगा। तब तुम दुबारा प्रयोग नहीं करोगे। इसलिए तीव्र चीजों के साथ प्रयोग करने की बजाय मद्धिम चीजों के साथ प्रयोग करो। और जब मद्धिम चीजों के साथ प्रयोग कर लो तो फिर तीव्र चीजों की ओर बढो। धीरे— धीरे कदम बढ़ाकर मार्ग का अनुभव लो। जल्दी मत करो। अन्यथा कुछ भी नहीं होगा।

अंतिम प्रश्न :

 

विज्ञान भैरव तंत्र की अनेक ध्यान— विधियों के संबंध में सुनकर मैं यह महसूस करने लगा हूं कि आंतरिक द्वार असल में विधियों से नहीं खुलता है; असल में तो वह दीक्षा, गुरु— कृपा जैसी चीजों पर निर्भर करता है। क्या यह सही की नही है? और कब कोई दीक्षा का पात्र बनता है?

 

च तो यह है कि गुरु—कृपा भी एक विधि है। सिर्फ शब्दों को बदलने से कुछ नहीं

बदलता है। गुरु—कृपा का अर्थ है समर्पण। गुरु—कृपा तब मिलती है जब तुम समर्पण करते हो। और समर्पण एक विधि है। अगर तुम समर्पण करना नहीं आता कृपा नहीं प्राप्त होगी।

असल में कृपा दी नहीं जाती, ली जाती है। कोई उसे दे नहीं सकता; लेकिन उसे लिया जा सकता है। बुद्धपुरुष से कृपा बहती है। कृपा उसका स्वभाव है। जैसे दीया जलता है तो उससे प्रकाश झरता है, वैसे ही बुद्धपुरुष से कृपा झरती है। उसे प्रयत्न नहीं करना पड़ता है; कृपा उससे अनायास बहती है। वह है। अगर उसे पा सको तो पा लो। और अगर नहीं पा सको तो बात खतम।

यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ती है, लेकिन यह सच है। गुरु—कृपा देता नहीं है, लेकिन शिष्य उसे पा लेता है। लेकिन शिष्य कैसे हुआ जाए? यह भी फिर एक विधि है। समर्पण कैसे किया जाए? ग्राहक कैसे हुआ जाए?

समर्पण करना सर्वाधिक कठिन है। जब तुम अपना क्रोध समर्पित नहीं कर सकते, दुख समर्पित नहीं कर सकते, तो अपने अस्तित्व को कैसे समर्पित करोगे? जब व्यर्थ की चीजें नहीं समर्पित कर सकते, जब रोग जैसी चीज नहीं दे सकते, तो अपने को कैसे समर्पित करोगे?

समर्पण का अर्थ है समग्र समर्पण। तुम अपने को समग्रत: अपने गुरु के हाथ में छोड़ देते हो। तुम कहते हो: ‘अब मैं नहीं हूं अब आप ही हैं; आप जो चाहें करें।’ और यह कहकर जब तुम प्रतीक्षा करते हो, जब तुम फिर उसके पास यह पूछने को नहीं जाते कि अब आप क्या करेंगे, तब तुमने सच में समर्पण किया। तुम तो समाप्त हो गए; अब पूछने को कुछ भी नहीं रहा। जब ठीक क्षण आएगा तो बात हो जाएगी। लेकिन यह कैसे हो?

इसके लिए भी बहुत सजगता की जरूरत पड़ेगी। सामान्यत: कई कु सोचते हैं कि समर्पण बहुत आसान है। ऐसा सोचना मूढ़ता है। वे सोचते हैं कि तुम गए और गुरु के पैर छू आए और समर्पण हो गया।

समर्पण में पैर छूना हो सकता है, लेकिन सिर्फ पैर छू लेने से समर्पण हो गया ऐसा मत सोचना। समर्पण एक आंतरिक भाव—दशा है। इसमें अपने को मिटाना है, अपने को पूरी तरह पोंछ देना है। केवल गुरु होता है, तुम नहीं होते। बस गुरु होता है।

इसके लिए भी बहुत होश की जरूरत है, बड़ी सजगता की। और यह सजगता क्या है? वह सजगता तब आती है जब तुम विधियों का प्रयोग करते हो और सतत यह अनुभव करते हो कि मैं असहाय हूं। लेकिन प्रयोग करने के पहले ही अपने असहाय होने का निर्णय मत लो। वह गलत निर्णय होगा। पहले विधियों का प्रयोग करो, और प्रामाणिकता से प्रयोग करो। यदि विधियों से ही काम चल गया तो समर्पण की जरूरत नहीं होगी; तब तुम रूपांतरित हो जाओगे।

अगर तुम प्रामाणिक रूप से प्रयोग करते हो, सच में और समग्रत:, अगर तुम अपने को धोखा नहीं देते हो और इसके बावजूद कुछ नहीं होता है, तब तुम्हें असहाय होने का अनुभव होगा, तब तुम अनुभव करोगे कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं। अगर यह भाव गहरा चला जाए, असहायता का यह भाव, तभी तुम समर्पण के योग्य होगे। उसके पहले नहीं।

क्या तुम असहाय अनुभव करते हो? कोई असहाय नहीं अनुभव करता है। कोई नहीं समझता है कि मैं असहाय हूं। हरेक आदमी मानता है कि मैं यह कर सकता हूं यदि मैं चाहूं

तो कर सकता हूं। हरेक आदमी सोचता है कि क्योंकि मैं नहीं चाहता हूं इसलिए नहीं करता हूं यदि चाहूं तो जरूर कर लूंगा, जिस क्षण चाहूंगा उसी क्षण कर लूंगा। न करने का इतना ही कारण है कि मैं अभी नहीं करना चाहता हूं। लेकिन कोई व्यक्ति असहाय नहीं अनुभव करता हे।

लेकिन अगर कोई कहे कि गुरु—कृपा से घटना घट सकती है तो तुम सोचोगे कि मैं इसी क्षण उसके लिए तैयार हूं। जब कुछ करने का सवाल उठता है तो तुम कहते हो कि जब मैं चाहूंगा तब कर लूंगा। और जब कृपा से मिलने का सवाल उठता है तब तुम कहते हो कि अगर दूसरे की कृपा से मिलता हो तो मैं इसी क्षण लेने को तैयार हूं।

तुम असहाय नहीं हो; तुम महज आलसी हो। और दोनों बातों में बहुत फर्क है। आलस्य में कृपा नहीं मिलती है; केवल असहायावस्था में मिलती है। असहायावस्था आलस्य नहीं है। असहायावस्था केवल उन्हें प्राप्त होती है जो पहुंचने के लिए सब प्रयत्न पहले कर चुकते हैं, सब प्रयास कर चुकते हैं। तब तुम असहाय अनुभव करते हो। और तभी तुम किसी के प्रति समर्पित हो सकते हो। और तब तुम्हारा समर्पण एक विधि बन जाएगा।

समर्पण अंतिम विधि है; लेकिन लोग उसका प्रयोग पहले करते हैं। यह अंतिम है, आत्यंतिक है। जब करने से कुछ नहीं होता है, जब असहायावस्था के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है, जब तुम्हारी सारी आशा मिट जाती है और तुम्हारा अहंकार धूल— धूसरित हो जाता है, तब तुम जानते हो कि मुझसे अकेले कुछ नहीं होगा। तब तुम्हारे हाथ गुरु के चरणों की ओर बढ़ते हैं। यह बढ़ना और ढंग का है। तब तुम असहाय होकर, बेसहारा होकर गुरु को खोजते हो। तब तुम पूरे प्राणों से गुरु के चरणों में बैठते हो। तब तुम कृपा पाने के लिए गर्भ बन जाते हो। तब प्रसाद उपलब्ध होता है।

प्रसाद तो सदा उपलब्ध रहा है; वह सदा उपलब्ध है। सभी युग में, सभी काल में बुद्धपुरुष हुए हैं, होते रहे हैं। लेकिन जब तक तुम अपने को खोने को राजी नहीं होगे तब तक उनके संपर्क में न आ सकोगे। हो सकता है, तुम उनके ठीक पीछे या बगल में बैठे होओ, लेकिन संपर्क नहीं होगा।

दूरियां तीन किस्म की होती हैं। एक तो स्थान की दूरी है। तुम वहा बैठे हो और मैं यहां बैठा हूं और इन दो बिंदुओं के बीच दूरी है। यह स्थान की दूरी है। तुम नजदीक सरक आओ तो दूरी कम हो जाएगी। और यदि तुम मुझे छू लो तो दूरी समाप्त हो गई—लेकिन केवल स्थान की दूरी समाप्त हुई।

दूसरी दूरी समय की दूरी है। तुम्हारा प्रेमी मर गया है, तुम्हारा मित्र चल बसा है। स्थान में एक बिंदु पूरी तरह लापता हो गया है। लेकिन तुम अनुभव करोगे कि समय में तुम मित्र के निकट ही हो। आंखें बंद करो और मित्र को पास पाओगे। और हो सकता है कि कोई व्यक्ति तुम्हारे बिलकुल बगल में बैठा हो और वह समय में तुमसे, तुम्हारे दिवंगत प्रेमी से दूर पड़ता हो।

तीसरी दूरी है, वह प्रेम की दूरी है। प्रेमी मर गया है; धीरे— धीरे उससे भी समय की दूरी पैदा हो जाएगी। लोग कहते हैं कि समय सब भुला देता है। लोग कहते हैं कि समय से सब घाव भर जाते हैं। जब समय की भी दूरी लंबी हो जाती है तो स्मृति धुंधली होती—होती मिट जाती है। लेकिन प्रेम की दूरी समय के भी पार है। वह तीसरा आयाम है। अगर तुम किसी को प्रेम करते हो और वह अन्य किसी ग्रह पर रहता है तो भी प्रेम में वह तुम्हारे पास ही होगा। हो

सकता है, वह मर गया हो और तुम दोनों के बीच सदियों की दूरी पैदा हो गई हो; लेकिन प्रेम में कोई दूरी नहीं है।

तो बुद्ध के पास कोई अभी हो सकता है। पच्चीस सौ वर्षों का कोई अर्थ नहीं है; क्योंकि दूरी प्रेम की है। स्थान में बुद्ध नहीं हैं; शरीर जा चुका। समय में पच्चीस सौ वर्षों की दूरी है। लेकिन प्रेम में कोई दूरी नहीं है। अगर कोई बुद्ध के प्रेम में है तो समय और स्थान की दूरियां मिट जाएंगी। तब बुद्ध यहां और अभी हैं। और तुम्हें उनका प्रसाद मिल सकता है।

और तुम बुद्ध के बगल में ही बैठे हो सकते हो। जहां तक स्थान का संबंध है, कोई अंतराल नहीं है। समय में भी कोई अंतराल नहीं है। लेकिन अगर प्रेम नहीं है तो दूरी अनंत है। इसलिए हो सकता है कि कोई बुद्ध के समय में उनके साथ रहकर भी उनके संपर्क में न रहा हो, और कोई यहां और अभी उनके संपर्क में हो सकता है।

प्रसाद प्रेम के आयाम में घटता है। प्रेम में सब कुछ सदा शाश्वत रूप से मौजूद है। इसलिए यदि तुम प्रेम में हो तो प्रसाद घट सकता है। लेकिन प्रेम समर्पण है। प्रेम का अर्थ है कि दूसरा तुम से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। अब तुम दूसरे के जीवन के लिए अपना जीवन दे सकते हो। दूसरा जीए इसके लिए तुम अपने को निछावर कर सकते हो। दूसरा तुम्हारा केंद्र बन गया है। तुम महज परिधि हो। धीरे— धीरे तुम पूरी तरह विलीन हो जाते हो, और दूसरा ही रहता है। उस सम्यक क्षण में प्रसाद उपलब्ध होता है।

तो यह मत सोचो कि कोई गुरु तुम्हें प्रसाद दे सकता है। बस एक असहाय शिष्य बनने की सोचो, जो प्रेम में पूरी तरह समर्पित हो। गुरु तुम्हारे पास आएगा। जब शिष्य तैयार है तो गुरु सदा आता है। यह शारीरिक उपस्थिति का सवाल नहीं है। जब तुम तैयार हो तो प्रेम के किसी अशांत आयाम से प्रसाद उतरता है।

लेकिन प्रसाद को पलायन के रूप में मत सोचो। चूंइक मैं अनेक विधियों पर बोलता हूं इसलिए दो संभावनाएं हैं। तुम उनमें से कुछ पर प्रयोग कर सकते हो, या तुम उलझन में पड़ सकते हो, भ्रांत हो सकते हो। दूसरी बात ज्यादा संभव है। एक के बाद एक, सतत एक सौ बारह विधियों को सुनते —सुनते तुम उलझन में पड़ जाओगे। तुम सोचोगे कि यह मेरे बस की बात नहीं है। इतनी सारी विधियां—क्या करूं क्या न करूं!

तब तुम्हारे मन में यह विचार आ सकता है कि विधियों के जंगल में भटकने की बजाय गुरु—कृपा पाना ज्यादा बेहतर है। तुम सोच सकते हो कि विधियां जटिल हैं और गुरु—कृपा सरल है। लेकिन ऐसा सोचने से ही गुरु—कृपा नहीं मिलती है। इन विधियों को प्रयोग में लाओ। और ईमानदारी से प्रयोग करो। यदि तुम असफल हुए तो वही असफलता तुम्हारा समर्पण बन जाएगी।

समर्पण आत्यंतिक विधि है।

 

आज इतना ही।


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ज्‍यों कि त्‍यों रख दीन्‍हीं चदरियां-(पंच–महाव्रत)- प्रवचन–9

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अचौर्य—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 13 नवंबर 1970,

क्रास मैदान, बंबई

प्रश्नोत्तर :

 आचार्य श्री, अचौर्य पर आपने कहा है कि शरीर, भाव या मन के तल पर किसी दूसरे की नकल या किसी दूसरे का अनुगमन चोरी है। लेकिन जीवन अंतर्संबंधों का एक जाल है; यहां सब जुड़े हुए हैं। तब व्यक्ति अपनी शुद्धतम मौलिकता तथा बाहर से आने वाली सूक्ष्म तरंगों के प्रभाव अथवा आरोपण को किस प्रकार पृथक करे? और वह उससे कैसे बचे?

जीवन अंतर-संबंधों का जाल है, लेकिन जीवन सिर्फ अंतर-संबंध ही नहीं है। अंतर संबंधित होने के लिए भी व्यक्ति चाहिए, अंतर-संबंध भी दो व्यक्तियों के बीच संबंध है; लेकिन दो व्यक्ति भी चाहिए, जिनके बीच संबंध हो सके। तो जीवन, जो हमें बाहर दिखायी पड़ता है वह तो अंतर-संबंध है, लेकिन एक और भी जीवन है भीतर, जो अंतर-संबंधित होता है। वह व्यक्ति अगर न हो, तो अंतर-संबंध सब झूठ हो जाते हैं। जुड़ेगा कौन?

प्रेम एक संबंध है; लेकिन प्रेमी का व्यक्तित्व भी चाहिए। और वह व्यक्तित्व यदि उधार है, तो व्यक्तित्व नहीं है। व्यक्तित्व सदा अपना ही होता है, उधार नहीं। जो उधार है, वह व्यक्तित्व ही नहीं है। वह सिर्फ धोखा है। वह चेहरा है, जो हमने दूसरों को दिखाने के लिए ओढ़ लिया है। उस चेहरे के भीतर कोई भी नहीं है। प्राणवान, निजता लिये हुए, इंडीविजुअलिटी लिये हुए कोई भी नहीं है। जिसे हम साधारणतया व्यक्ति कहते हैं, वह इंडीविजुअल नहीं है, सिर्फ पर्सनैलिटी है। जिसे हम साधारणतया व्यक्ति कहते हैं, वह निजता नहीं है, बल्कि ओढ़े हुए वस्त्रों का समूह है। जैसे प्याज है। प्याज के छिलके को अगर कोई उतारता चला जाये, तो ऐसा लगेगा कि अब इस छिलके के बाद प्याज मिलेगी, अब इस छिलके के बाद प्याज मिलेगी! छिलकों को उतारता चला जाये तो छिलके ही मिलते हैं, प्याज कभी मिलती नहीं। ऐसे ही हम भी एक गठरी हैं, जिसमें सब उधार इकट्ठा होता चला गया है। लेकिन अगर इस उधार व्यक्तित्व के पीछे उतरते चले जायें, तो पीछे शून्य ही हाथ लगेगा। और पीछे यदि आत्मा न हो, निजता न हो, तो सारा जीवन झूठा हो जाता है।

जीवन की गहरी से गहरी चोरी अनुकरण, नकल, अनुसरण है। जब भी कोई व्यक्ति किसी और जैसा बनने की चेष्टा में रत होता है तभी गहरे में चोर हो जाता है। जब भी कोई व्यक्ति किसी और को अपने ऊपर ओढ़ लेता है, तो नकली हो जाता है, असली नहीं रह जाता। आथेंटिक, प्रामाणिक निजता उसकी खो जाती है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि दूसरों से आई हुई तरंगें हम ग्रहण न करें। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि दूसरों से हम संबंधित न हों। दूसरों से हम जरूर ही संबंधित हों, लेकिन स्व को बचाते हुए। क्योंकि फिर संबंधित कौन होगा, अगर स्व भी खो गया। दूसरों से तरंगें आयेंगी, उन्हें लेना भी पड़ेगा; उन्हें लें जरूर, लेकिन वे तरंगें ही न बन जायें। उन्हें लें भी, दें भी; लेकिन उनके पार भी आप बचे रहें; उनसे अछूता भी पीछे कोई खड़ा रहे; उस सारे लेन-देन के बाद भी कोई बच जाये, जो लेन-देन के बाहर है।

अंग्रेजी में एक शब्द है–एक्सटेसी। हमारे पास एक शब्द है–समाधि। समाधि को जो लोग अंग्रेजी में रूपांतरित करते हैं, वे एक्सटेसी करते हैं। एक्सटेसी बड़ा अदभुत शब्द है। एक्सटेसी का मतलब है, बाहर खड़े होना, टु स्टैंड आउट साइड। एक्सटेसी का मतलब है, जीवन की सारी धारा में होते हुए भी हर पल बाहर खड़े होना। जीवन में बहते हुए, जीवन के बाहर भी हमारे भीतर कुछ रह जाये, वही हमारी निजता है, वही हमारा होना है। अगर हम जीवन में पूरी तरह खो गए हैं और हमारे पास हमारे संबंधों के अतिरिक्त कुछ भी न बचा, तो हमने अपनी आत्मा खो दी है।

आत्मा का और कोई अर्थ नहीं है। आत्मा का अर्थ ही यही है कि सब हो फिर भी भीतर, कुछ अछूता, अस्पर्शित, अनटच्ड, बाहर रह जाये। रास्ते पर चल रहे हैं; लेकिन चलते समय भी कुछ आपके भीतर होना चाहिए, जो नहीं चल रहा है। क्रोध से भरे हैं; लेकिन क्रोध से भरे क्षण में भी कोई आपके भीतर होना चाहिए, जो आपके क्रोध को भी देख रहा है। भोजन कर रहे हैं; भोजन करते समय भी कोई आपके भीतर होना चाहिए जो भोजन नहीं कर रहा है, बल्कि जो यह भी जान रहा है कि भोजन किया जा रहा है।

अगर प्रतिपल जीवन के अंतरजाल में हम अपने भीतर किसी को बचा पाते हैं, तो वह जो बचा हुआ है, जो शेष है, द रिमेनिंग, वही हमारी निजता है। उस निजता का जिसके पास अस्तित्व नहीं है, वह आदमी आदमी कहे जाने का हकदार नहीं रह जाता। उसके पास कोई आत्मा नहीं है। उसने अपनी आत्मा खो दी है।

हममें से बहुत कम लोगों के पास इस अर्थों में आत्मा है…बहुत कम लोगों के पास! हम वही हैं–छिलकों का जोड़; वस्त्रों का जोड़; उसके पीछे और कुछ भी नहीं है। इसे भी मैं चोरी कहता हूं। यह चोरी है। किसी का धन चुरा लेना बहुत बड़ी चोरी नहीं है, लेकिन किसी का व्यक्तित्व ओढ़ लेना बहुत बड़ी चोरी है। किसी के वस्त्र चुरा लेना बहुत बड़ी चोरी नहीं है, लेकिन किसी के जैसे बनने की चेष्टा में अपने को खो देना बहुत बड़ी चोरी है। किसी के मकान पर कब्जा कर लेना उतनी बड़ी चोरी नहीं है–चोरी है, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह चोरी नहीं है–पर उतनी बड़ी चोरी नहीं है, जितनी अपनी आत्मा को खोकर किसी आत्मा की छाया बन जाना बड़ी चोरी है।

सुना है मैंने कि एक आदमी की जिंदगी में कुछ देवता नाराज हो गए थे और उन्होंने उसे अभिशाप दे दिया था। वह अभिशाप बड़ा अजीब था। उन्होंने अभिशाप दे दिया था कि आज से तेरी छाया खो जायेगी! वह आदमी हंसा। उसने देवताओं से कहा, छाया से मुझे प्रयोजन भी क्या है? अगर मैं बच गया, तो छाया न होने से मुझे क्या कमी पड़नेवाली है? छाया पड़ती है मेरी या नहीं पड़ती है, इसकी मैंने आज तक न चिंता की, न फिक्र की। तुम पागल तो नहीं हो गए हो? अगर नाराज ही हो गए हो, तो यह अभिशाप कोई बड़े काम का मालूम नहीं पड़ता। लेकिन देवता हंसे, क्योंकि देवता उस आदमी से ज्यादा जानते थे।

वह आदमी अपने गांव में लौटा हंसता हुआ कि देवता भी पागल हो गए मालूम होते हैं। छाया खोने से मेरा क्या खो जायेगा! लेकिन गांव में आकर उसको पता चला कि देवता पागल नहीं हैं, वही मुश्किल में पड़ गया है। जिस आदमी ने भी देखा कि उसकी छाया नहीं पड़ती है, वह उसे देखकर भागा। पत्नी ने द्वार बंद कर लिया। पिता ने कहा, हट जाओ, मेरी आंख के सामने दुबारा मत आना। तुम भूत हो, प्रेत हो–क्या हो? मित्रों ने दरवाजे बंद कर लिए। ग्राहक उसकी दूकान पर आने बंद हो गए। रास्ते से निकलता तो लोग अपने मकानों में अपने बच्चों को बुला लेते कि भीतर आ जाओ, वह आदमी निकल रहा है जिसकी छाया नहीं है। उस आदमी का गांव में जीना मुश्किल हो गया।

अंततः गांव के लोगों ने निर्णय किया कि इस आदमी को गांव के बाहर कर दें। यह आदमी खतरनाक है। ऐसा कभी सुना नहीं कि छाया रहित आदमी हो। और अंततः उस गांव के लोगों ने उस आदमी को बाहर निकाल दिया। तब उस आदमी को पता चला कि छाया खोकर बहुत कुछ खो गया है।

लेकिन उस आदमी को तो हम छोड़ें, हम सिर्फ छाया हैं, आत्मा हमने खो दी है। हमारा कितना खो गया है उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। हम सिर्फ शैडोज हैं, हम सिर्फ छायाएं हैं। उस आदमी की सिर्फ छाया खो गई थी तो वह इतनी मुश्किल में पड़ गया और हमारी तो आत्मा भी खो गई है, तो हम कितनी मुश्किल में न होंगे? लेकिन चूंकि सभी की खो गई है, इसलिए हमें कोई गांव के बाहर नहीं कर देता है। और अगर छाया खो जाए, तो दूसरे को पता भी चल जाता है, लेकिन आत्मा खो जाए, तो सिर्फ स्वयं को ही पता चल सकता है, किसी दूसरे को पता नहीं चल सकता। क्योंकि आत्मा कोई बाह्य घटना नहीं है।

इसलिए अचौर्य की बात समझते समय एक प्रश्न निरंतर अपने से पूछना चाहिए, कुछ भी मेरे पास है जिसे मैं कह सकूं कि मेरी निजता है? जो मैं जन्म के साथ लाया था? जो मैंने जीवन में नहीं सीखा? कुछ भी मेरे पास है, जो जन्म के पहले भी मेरा था?

यदि ऐसा कुछ भी आपको स्मरण आता हो कि आपके पास है, जो जन्म के पहले भी आपके पास था, तो आप आश्वस्त हो सकते हैं कि आप जब मरेंगे, तब भी आपके पास कुछ बच रहेगा। लेकिन अगर जन्म के बाद का ही सब पाया हुआ है, तो मृत्यु उस सब को छीन लेगी। जन्म के पहले का अगर आपके पास कुछ भी है और ऐसा लगता है कि जिसे आपने जीवन से नहीं सीखा, जीवन से नहीं लिया, जीवन से नहीं पाया; जिसे लेकर ही आप आए हैं; जो आपका स्वभाव है; तो मृत्यु से डरने का कोई कारण फिर आपके लिए नहीं है। क्योंकि जो आपने जीवन से नहीं पाया, उसे मृत्यु नहीं छीन पाती।

लेकिन हम सब डरते हैं मरने से। हम डरते हैं इसीलिए–इसलिए नहीं कि मृत्यु दुखदायी है। आज तक किसी ने नहीं कहा कि मृत्यु दुखदायी है–मृत्यु दुखदायी है इसलिए नहीं डरते, बल्कि इसलिए डरते हैं कि जीवन जिसे हम कहते हैं, उसमें हमारे पास ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मृत्यु से बचकर हमारे पास बच सके। वह सब छीन लिया जायेगा। जो भी हमने दूसरों से पाया है, उसे हम कभी मृत्यु के पार नहीं ले जा सकते हैं। चाहे वह धन हो, चाहे वह यश हो, चाहे वह ज्ञान हो, चाहे वह व्यक्तित्व हो, वह कुछ भी हो; जो हमने दूसरों से पाया है, वह मेरा नहीं है।

तो हम चोर हैं। वह जो दूसरों से हमने इकट्ठा कर लिया है, वही हमारी चोरी है। यह बहुत गहरी चोरी है, जिसे अदालत नहीं पकड़ेगी। यह बहुत गहरी चोरी है, जिसका कानून से कोई संबंध नहीं है। यह चोरी एक और बहुत बड़े कानून से संबंधित है, जिस कानून का नाम धर्म है। यह चोरी भी किसी अदालत में पकड़ी जाती है, लेकिन वह अदालत परमात्मा की अदालत है।

क्या हमारे पास कुछ भी हमारा है? जिसे मैं कह सकूं कि सीखा नहीं, अनलर्न्ड; कह सकूं, किसी से लिया हुआ नहीं; कह सकूं कि मैं ही हूं। अगर ऐसा कुछ भी नहीं है, तो हम जिस जीवन को जी रहे हैं, वह चोरी का जीवन है। और ऐसा नहीं है। लेकिन एक बार भी यह स्मरण आ जाये कि मेरे पास ऐसी कोई संपदा नहीं जो मेरी हो, मेरे पास ऐसी कोई निजता नहीं जो मेरी हो, तो जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है।

इसलिए आप यह मत सोचना कि आपने कौड़ी नहीं चुराई। आप यह मत सोचना कि आपने किसी के घर से सामान नहीं चुराया। उस चोरी से धर्म का क्या लेना-देना है! उस चोरी से तो आदमी का कानून ही निपट लेता है। धर्म का तो किसी और चोरी से प्रयोजन है, जो कानून की पकड़ में नहीं आती; जिसका अदालतें निर्णय नहीं कर सकतीं; जो न्यायाधीश की सीमा के बाहर है।

धर्म का उस चोरी से संबंध है, जो प्रभावों की चोरी है, व्यक्तित्वों की चोरी है, चेहरों की चोरी है। और हम सब चुराए हुए से जी रहे हैं। हम सब ऐसे जी रहे हैं, जैसे हम कोई और हों। हम हम नहीं हैं। मैं मैं नहीं हूं, किसी और की तरह जी रहा हूं।

इस अर्थ में मैंने कहा था कि अचौर्य मनुष्य की आत्मा में निजता की उपलब्धि का मार्ग है, और चोरी मनुष्य की आत्मा के खोने की विधि है। यह भाव के तल पर हो सकती है, विचार के तल पर हो सकती है, शरीर के तल पर हो सकती है।

हम चलते तक नहीं अपने जैसे! हम चलना भी दूसरों से सीख लेते हैं। हम विचार भी नहीं करते अपने जैसा; हम विचार भी दूसरों से सीख लेते हैं! हम भाव भी नहीं करते अपने जैसा; हम भाव भी दूसरों से सीख लेते हैं! सुबह आदमी अखबार पढ़ लेता है और फिर दिन भर अखबार में पढ़ी बातों की चर्चा लोगों से करता रहता है! और उसे कभी खयाल नहीं आता कि वह जो बोल रहा है उसमें उसका अपना कुछ भी नहीं है। गीता पढ़ लेता है, फिर जिंदगी भर दोहराये चला जाता है, और कभी नहीं पूछता लौटकर कि मैं जो बोल रहा हूं, उसमें मेरा कुछ भी नहीं!

सब बोलना, सोचना, उठना, बैठना सब सीखा हुआ है। तो ऐसी जिंदगी में आनंद की वर्षा नहीं हो सकती। ऐसी जिंदगी में अमृत की झलक नहीं मिल सकती। ऐसा आदमी रूखा मरुस्थल होगा। क्योंकि झरने सदा प्राणों से बहते हैं, जिनमें हरियाली पैदा होती है। और जो उधार झरने में जीता है, वह उस आदमी की तरह है जो दूसरे के मकानों को गिनकर सोचता है कि मेरे हैं; जो दूसरों की आंखों को गिनकर सोचता है कि मेरी हैं; जो दूसरों के विचारों को गिनकर सोचता है कि मैं विवेकवान हो गया; जो शास्त्रों को संग्रहीत करके समझता है कि ज्ञान आ गया!

ऐसा आदमी इतनी बुनियादी भ्रांति में जीता है कि अपने पूरे जीवन को व्यर्थ गंवा सकता है। और हम गंवा देते हैं। लेकिन एक बार यह सवाल हमारे सामने उठ जाये, तो यह सवाल हमारा पीछा करेगा कि मैं चोर तो नहीं हूं? और अगर यह सवाल हमारा पीछा करने लगे, तो हमें घड़ी-घड़ी दिखायी पड़ने लगेगा कि अभी जो मैं हंस रहा था, वह हंसी मैंने किसी और के होंठों से सीखी है; कि अभी मैं जो रो रहा था, वे आंसू सच्चे न थे; अभी जो मैंने नमस्कार किया, उस नमस्कार में मेरे प्राणों की कोई आहट न थी; कि अभी जो मैंने प्रेम किया, उसमें प्रेम बिलकुल न था, वह मैंने किसी ड्रामा में पढ़ा था; कि अभी जो मैंने बात कही अपने प्रेमी से, वह मेरा किसी फिल्म में सुना हुआ डायलाग था।

काश! आदमी की जिंदगी में यह सवाल उठ जाये, तो आदमी आज नहीं कल, चोरी से मुक्त होने लगता है; उसकी निजता उभरने लगती है; फिर वह अपने ढंग से हंसता है, जीता है। यह दुनिया बहुत सुंदर हो सकती है। यहां अगर लोग हंसते अपने ढंग से हों, रोते अपने ढंग से हों, सोचते अपने ढंग से हों, तो यह दुनिया बहुत प्राणवान और जीवंत हो सकती है।

अभी यह दुनिया जीवंत नहीं है; मुर्दों का एक बहुत बड़ा संग्रह है, जहां सब मरे हुए जी रहे हैं। यद्यपि हमें पता नहीं चलता, क्योंकि हमारे चारों तरफ भी हमारे जैसे ही मुर्दे हैं। हमने भी सुबह अखबार पढ़ा है, पड़ोसी ने भी अखबार पढ़ा है। वह भी अखबार से बोल रहा है, हम भी अखबार से बोल रहे हैं। हमने भी कुरान पढ़ी है, उसने भी कुरान पढ़ी है; वह भी कुरान से बोल रहा है, हम भी कुरान से बोल रहे हैं। उसने भी वहीं से सीखा है, जहां से हमने सीखा है। हमारी बातें तालमेल खाती हैं और ऐसा लगता है कि सब ठीक चल रहा है, लेकिन ठीक कुछ भी नहीं चल रहा है।

इतना दुख नहीं हो सकता, अगर जिंदगी ठीक चलती हो। और जो आदमी अपने को पा ले, उस आदमी की जिंदगी में चाहे और कुछ भी न रहे, अपना होना ही इतना काफी होता है कि कुछ भी न हो, तो भी उसके आनंद को नहीं छीना जा सकता है। उससे सब छीन लिया जाये, लेकिन उसके आनंद को नहीं छीना जा सकता। क्योंकि निजता से बड़ा कोई भी आनंद नहीं है।

जब एक फूल खिलता है अपनी पूर्णता में, तब आनंद की सुगंध चारों तरफ बह उठती है। बस, फूल का पूरा खिल जाना ही उसका आनंद है। आदमी की भी निजता का फूल, इंडीविजुअलिटी का फूल, जब पूरा खिल जाता है, तो जीवन आनंद से भर जाता है। फुलफिलमेंट, आप्त हो जाता है, सब भर जाता है। फिर कुछ भी न हो–धन न हो, यश न हो, पद न हो–तो भी सब कुछ होता है। और यदि यह निजता न हो, तो पद हों बड़े, धन हो बहुत, यश हो काफी, तब भी कुछ नहीं होता, भीतर सब खाली होता है।

आज पश्चिम में एक शब्द की बहुत जोर से चर्चा है। वह शब्द है–एंपटीनेस। आज पश्चिम में जितने बड़े विचारक हैं–चाहे सार्त्र हो, चाहे कामू हो, चाहे मार्सेल हो, और चाहे हाइडेगेर हो–आज पश्चिम के जितने चिंतनशील लोग हैं, वे सब कहते हैं कि हम बड़े रिक्त मालूम हो रहे हैं, हम बिलकुल खाली-खाली हैं। ऐसा लगता है कि हमारे भीतर कुछ भी नहीं है; हम सिर्फ कंटेनर रह गए हैं, कंटेंट बिलकुल नहीं है। हम सिर्फ डब्बा हैं, जिसके भीतर कुछ भी नहीं बचा है। भीतर सब रिक्त है और खाली है।

पश्चिम में आज रिक्तता की बड़ी जोर से चर्चा है; होनी नहीं चाहिए। क्योंकि आज उनके पास धन है बहुत, जितना पृथ्वी पर कभी भी नहीं था। उनके पास महल हैं आकाश को छूते हुए, जिन महलों के सामने अशोक और अकबर के महल झोपड़े हो जाते हैं। उनके पास चांद तक पहुंचने की शक्ति है। उनके पास सारी पृथ्वी को घड़ी आध घड़ी में विनष्ट कर देने का विराट आयोजन है। फिर रिक्तता क्यों है? फिर एंपटीनेस क्यों है? फिर क्या कारण है कि भीतर सब खाली है?

कारण है। बाहर सब है, भीतर कुछ भी नहीं है; आत्मा नहीं है, निजता नहीं है। सब है, सिर्फ आदमी नहीं है। सब है, चांद पर पहुंचने की ताकत है, पर अपने तक पहुंचने की सामर्थ्य नहीं है। धन है बहुत, स्वयं का होना बिलकुल नहीं है। महल हैं बहुत बड़े, पर उसमें रहनेवाला बहुत छोटा, न के बराबर, शून्य!

चोरी का यह परिणाम है। पश्चिम को अचौर्य सीखना पड़ेगा, तो रिक्तता मिटेगी, तो एंपटीनेस मिटेगी। मार्सेल को, कामू को, सार्त्र को निजता, इंडीविजुअलिटी को जगाने के नियम सीखने पड़ेंगे, खोजने पड़ेंगे।

सब जब हो जाये, तभी पता चलता है कि मैं नहीं हूं। और तब जो पीड़ा मन को पकड़ लेती है, वह दुनिया की कोई दरिद्रता नहीं पकड़ा सकती। यह जो अचौर्य है, यह निजता को पाने का सूत्र है; और चोरी स्वयं को खोने का सूत्र है।

आचार्य श्री, आपने कहा है कि हिंदू होना, जैन होना, ईसाई होना, यह सब किसी व्यक्ति के पीछे अनुगमन है, इसलिए यह सब चोरियां हैं। लेकिन हिंदू, जैन, ईसाई, बौद्ध–क्या ये सब उधार व्यक्तित्व हैं? और क्या ये शाश्वत नियमों पर आधारित विभिन्न संस्कृतियां नहीं हैं? क्या इन विभिन्न संस्कृतियों के बीच जीवन का शुभ फलित नहीं हो सकता है? इसमें आप चोरी कैसे देखते हैं?

 

हावीर चोर नहीं हैं, उनसे ज्यादा अचोर व्यक्ति खोजना मुश्किल है; लेकिन महावीर जैन नहीं हैं, महावीर जिन हैं। और जिन और जैन के अंतर को थोड़ा समझ लेना उचित है। जिन वह है, जिसने अपने को जीता; जैन वह है, जो जीतनेवाले के पीछे चलता है। गौतम बुद्ध चोर नहीं हैं, उनसे ज्यादा अचोर व्यक्ति खोजना मुश्किल है; लेकिन गौतम बुद्ध बुद्ध हैं, बौद्ध नहीं हैं। बुद्ध वह है, जो जागा है; बौद्ध वह है, जो जागे हुए के पीछे चलता है।

ऐसे ही, जीसस चोर नहीं हैं, लेकिन जीसस, क्राइस्ट हैं। क्राइस्ट का मतलब, जिसने अपने को सूली दे दी और उसे पा लिया, जो स्वयं को मिटाने से उपलब्ध होता है। लेकिन जीसस क्रिश्चियन नहीं हैं। क्रिश्चियन वह है जो सूली पर लटके हुए आदमी के पीछे चलता है। और फर्क बहुत पड़ जाते हैं। जीसस की गर्दन सूली पर लटकती है और ईसाई की गर्दन में छोटा-सा क्रास लटका रहता है। गर्दनों में क्रास नहीं लटकते, क्रासों पर गर्दनें लटकती हैं। जीसस सूली पर चढ़ते हैं, वे क्राइस्ट हैं; क्रिश्चियन अपने गले में एक सोने की सूली लटका लेता है! एक तो सोने के क्रास नहीं होते, सोने की सूलियां नहीं होती; अगर सोने की सूलियां होंगी, तो सिंहासन किस चीज का बनाइएगा? और सूलियां गलों में नहीं लटकाई जातीं, गले सूलियों पर लटकाये जाते हैं। क्रिश्चियन चोर हैं।

मुहम्मद बात और है, मुसलमान बात और है। मुहम्मद दुनिया में हों, यह सुखद है, सुंदर है; मुसलमान दुनिया में हों, यह खतरनाक है। महावीर दुनिया में हों, स्वागत के योग्य हैं; लेकिन जैन दुनिया में हों, खतरनाक है। बुद्ध बात और है, सुगंध और है; बुद्ध को माननेवाला दुर्गंध है, सुगंध नहीं है। इसके कारण हैं।

पहला कारण तो यह कि जैसे ही किसी व्यक्ति ने यह तय किया कि मैं किसी दूसरे के पीछे चलूंगा, वैसे ही वह अपनी आत्मा को खोने वाला हो जाता है। दूसरे के पीछे चलने का उपाय ही नहीं है। असल में दूसरे के पीछे चलने का मतलब यह है कि यह आदमी जीवन की वास्तविक यात्रा से बचना चाहता है। जो जिन नहीं होना चाहता, वह जैन हो जाता है। जो बुद्ध नहीं होना चाहता है, वह बौद्ध हो जाता है। जो क्राइस्ट होने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, वह क्रिश्चियन हो जाता है। यह समझौता है। क्रिश्चियन होने में कुछ भी नहीं करना पड़ता है। क्राइस्ट होना, जिंदगी को जोखम में डालना है। जैन होने में क्या करना पड़ता है? जिन होना बड़ी तपश्चर्या है। जैन होने में सिर्फ जिनों की पूजा करनी पड़ती है। पूजा खेल है। जिन होने में पूजा नहीं करनी पड़ती, साधना करनी पड़ती है। साधना संकट है; साधना श्रम है; साधना संकल्प है।

असल में जो व्यक्ति अपनी आत्मा को पाने का श्रम नहीं उठाना चाहता, वह किसी तरह की पूजा करके अपने मन के लिए खेल पैदा कर लेता है। जो व्यक्ति स्वयं को नहीं पाना चाहता, वह किसी दूसरे के पीछे चलने का खेल खेलने लगता है। और दूसरे के पीछे चलकर कोई कभी अपने को पा नहीं सका है। क्योंकि दूसरा सदा बाहर है और मैं कितना ही दूसरे के पीछे चलूं, सारी पृथ्वी घूम आऊं, तो भी मैं भीतर नहीं पहुंच जाऊंगा। अगर मुझे भीतर पहुंचना है, तो बाहर चलना बंद करना पड़ेगा। और अनुगमन सदा बाहर चलना है। अनुगमन में सदा बाहर चलना ही होगा; दूसरा बाहर है, उसके पीछे बाहर ही जाना पड़ेगा।

महावीर किसी के पीछे नहीं जाते, जीसस किसी के पीछे नहीं जाते, कृष्ण किसी के पीछे नहीं जाते। यह बड़े मजे की बात है कि जो लोग किसी के पीछे नहीं गए, उनके पीछे कितने लोग चले जाते हैं! बुद्ध किसी के पीछे नहीं जाते, लेकिन बुद्ध के पीछे बहुत लोग चले जाते हैं। अगर बुद्ध से ही कुछ सीखना है तो कम से कम एक बात तो सीख ही लेनी चाहिए कि किसी के पीछे नहीं जाना है। अगर महावीर से ही कुछ सीखना है, तो एक बात सीख लेनी चाहिए कि किसी की पूजा से कुछ भी होनेवाला नहीं है; क्योंकि महावीर किसी की पूजा में नहीं हैं। अगर जीसस से ही कुछ सीखना है, तो एक बात सीख लेनी चाहिए कि परमात्मा को बिना क्रिश्चियन हुए भी पाया जा सकता है। जीसस तो क्रिश्चियन नहीं थे। अगर मुहम्मद से कुछ सीखना है, तो एक बात पक्की सीख लेनी चाहिए कि परमात्मा का मुसलमान से कुछ लेना-देना नहीं है। मुहम्मद तो मुसलमान नहीं थे। परमात्मा मुहम्मद को भी मिल सकता है, जो मुसलमान नहीं हैं।

जिनके पीछे सारी दुनिया चल रही है, वे किसी के पीछे नहीं चलते। और उनके पीछे हम इसीलिए चल रहे हैं कि हम भी वह पा लें, जो उन्होंने पाया! लेकिन हम देखें तो विज्ञान में कहीं भूल हो गई है, गणित में कहीं चूक हो गई है। उन्होंने पाया ही इसलिए कि वे अपने भीतर जाते हैं, और हम पाना चाहते हैं किसी के पीछे जाकर!

पीछे जाना, बाहर जाना है। इसलिए सब तरह के अनुगमन को मैं चोरी कहता हूं! और इस तरह के अनुगमन से संस्कृति पैदा नहीं हुई। संस्कृति के पैदा होने में उल्टी बाधा पड़ी है। और ये सारे अनुयायी सिवाय लड़ने के इस पृथ्वी पर और कुछ भी नहीं करते रहे हैं। इन सारे अनुयायियों ने पृथ्वी को खून और रक्त से भरने के सिवाय फूलों से नहीं भरा है। और चर्च, और मंदिर, और मस्जिद, और गुरुद्वारे मनुष्य को लड़ाने का उपक्रम बन गए, उपकरण बन गए। आदमी का इतिहास धर्मों के युद्धों से भरा है। इन अनुयायियों ने मुहम्मद और महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट को मानकर, कृष्ण और क्राइस्ट बनने की तो कोई घटना नहीं घटायी, लेकिन एक-दूसरे की हत्या करने में बहुत कुशलता दिखायी।

यह हत्या बहुत तरह की है। कुछ लोग तलवारों को लेकर कूद पड़ते हैं, और कुछ लोग केवल विचारों की तलवारें चलाते रहते हैं, सिद्धांतों की। जैन मुसलमान के, मुसलमान हिंदू के, हिंदू ईसाई के, ईसाई बौद्ध के सिद्धांतों का खंडन करते रहते हैं। अगर बहुत जोश आ जाये और सिद्धांतों से लड़ाई-झगड़ा ठीक से न हो सके, तो फिर तलवारें भी खिंच जाती हैं।

आदमी बुद्ध, महावीर और क्राइस्ट के होने की वजह से ज्यादा आनंदित होना चाहिए था, लेकिन इनके होने की वजह से बड़ा उपद्रव हुआ है। बर्ट्रेंड रसल ने कहीं लिखा है कि परमात्मा अगर जीसस को न भेजता, तो क्या हर्जा था? तो कम से कम ईसाई तो न होते। ईसाइयों ने मध्यऱ्युग में सारे यूरोप में लाशें बिछा दीं।

अगर जीसस के लिए बर्ट्रेंड रसल जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को यह प्रार्थना सोचनी पड़ी कि परमात्मा को क्या हर्ज था कि जीसस को न भेजता, इस एक आदमी को न भेजने से पृथ्वी ज्यादा शांत हो सकती थी, कम से कम लड़नेवाला ईसाई तो न होता, तो सोचने जैसा है।

जीसस के आने से पृथ्वी बुरी नहीं हुई। जीसस के आने से तो पृथ्वी में सुगंध बढ़ती; जीसस के आने से तो पृथ्वी पर गीत फैलता; जीसस के आने से तो पृथ्वी धन्यभागी होती; लेकिन हो नहीं पाई, क्योंकि जीसस आए नहीं कि पीछे क्रिश्चियन आ गया। जीसस जो बनाते हैं, क्रिश्चियन मिटा देता है। जीसस कहते हैं, प्रेम करो पड़ोसी को अपने ही जैसा, क्रिश्चियन पड़ोसी के लिए तलवार पर धार रखता है। मुहम्मद कहते हैं कि एक ही परमात्मा है और सभी उसके बेटे हैं; लेकिन मुसलमान उसी के बेटों को काटने निकल पड़ता है। हिंदू कहते हैं, सभी कुछ परमात्मा है, फिर भी शूद्र को छूते वक्त सभी कुछ परमात्मा है, यह वेदांत का खयाल एकदम तिरोहित हो जाता है। बड़े से बड़े ज्ञानी को हो जाता है! मुसलमान के साथ बैठते वक्त सरक कर बैठ जाता है बड़े से बड़ा ज्ञानी, जो कहता है कि ब्रह्म सबमें विराजमान है। अचानक पता चलता है कि ब्रह्म मुसलमान में विराजमान होने से डरता है।

जीसस, कृष्ण, क्राइस्ट, महावीर, बुद्ध, कनफ्यूसियस, इन सबके होने से जगत सौभाग्यशाली था। लेकिन इनके पीछे एक बाढ़ आती है उन उपद्रवियों की, जो संगठन खड़े करते हैं, जो संगठनों को लड़ाते हैं। अनुयायियों के दल खड़े होते हैं, और धर्म राजनीति बन जाता है। जैसे ही धर्म अनुयायियों के हाथ में पड़ता है, संगठित होता है, आर्गनाइज्ड हो जाता है, वैसे ही राजनीति बन जाता है। धर्म संगठन नहीं है। धर्म साधना है। अनुयायी संगठन बनाते हैं। तब साधना एक तरफ और संगठन महत्वपूर्ण हो जाते हैं। और संगठन के जो बाहर हैं, वे दुश्मन हो जाते हैं। जो संगठन के भीतर हैं, वे अपने हैं; और संगठन के जो बाहर हैं, वे पराये हैं।

और इसीलिए हर धर्म, आदमी को खंडों में बांटता चला जाता है। आज पृथ्वी पर कोई तीन सौ धर्म हैं। आदमी तीन सौ खंडों में बंटा हुआ है। धर्म को तो जोड़ना चाहिए, धर्म तोड़ने के लिए नहीं है। लेकिन कौन तोड़ता है? महावीर तोड़ते हैं? मुहम्मद तोड़ते हैं? दो में से एक ही बात हो सकती है–या तो महावीर ही तोड़नेवाले हैं, और या फिर जैन तोड़ने वाला है। या तो मुहम्मद ही तोड़ते हैं, या फिर मुसलमान तोड़ता है। या तो जीसस ही उपद्रवी हैं, या तो क्रिश्चियन उपद्रवी हैं।

मेरी समझ है कि महावीर, जीसस और मुहम्मद उपद्रवी नहीं हैं। क्योंकि जिनके अपने जीवन में उपद्रव की शांति हो गई, वे किसी दूसरे के जीवन में उपद्रव नहीं बन सकते; वे दूसरे के जीवन में भी शांति का ही संदेश हैं। लेकिन उनके पीछे आनेवाला अनुयायी जब खड़ा हो जाता है…।

और अनुयायी के साथ एक रहस्य है। एक साइंटिफिक सूत्र अनुयायी का समझ लेना चाहिए। और यह बड़ा मजेदार मामला है कि अकसर विपरीत आदमी अनुयायी बनते हैं। अकसर अगर महावीर ने सब छोड़ दिया है, तो महावीर के पास चरणों में वे ही लोग आयेंगे जिनके पास सब है। क्यों? अगर महावीर उपवासे रहते हैं, तो महावीर के पास भोजनभट्ट इकट्ठे हो जायेंगे! उसका कारण है। अगर महावीर को भोजन की कोई चिंता नहीं है, तो जो आदमी भोजन को चौबीस घंटे सोचता है, वह सबसे पहले प्रभावित होता है। सोचता है, यह महावीर बड़ा अदभुत आदमी मालूम होता है! मैं तो चौबीस घंटे भोजन के बारे में ही सोचता हूं, रात सपने में भी भोजन करता हूं। और यह आदमी महीनों भोजन नहीं करता! यह महातपस्वी है! वह महावीर के पैरों में पड़ जाता है। महावीर नग्न खड़े हैं, तो जिसको वस्त्रों से बहुत मोह है, और जो शरीर को जरा भी नग्न करने में असमर्थ है, वह महावीर को मानता है, कि यह आदमी साधारण नहीं है।

इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जैन धर्म के अनुयायी कपड़े की दूकान कर रहे हैं सारे मुल्क में। इसमें महावीर की नग्नता का कुछ न कुछ हाथ है। इसमें जरूर कहीं न कहीं कोई बात है।

इसमें आश्चर्य नहीं है कि ईसाइयों ने सारी दुनिया को तहस-नहस किया, और ईयाइयों ने सारी दुनिया पर साम्राज्य फैलाया। कहां जीसस! जिसने कहा था कि जो तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने कर देना; और जिसने कहा था कि जो तुम्हारा कोट छीन ले, उसे तुम कमीज भी दे देना; और जिसने कहा था, जो तुमसे एक मील तक बोझा ढोने को कहे, तुम दो मील तक चले जाना। इस आदमी को माननेवाले लोग सारी दुनिया पर गुलामी ढा देंगे–ये कोट भी छीन लेंगे, कमीज भी छीन लेंगे; ये दो मील की जगह दो हजार मील लोगों को चला देंगे; ये एक गाल पर भी चांटा मारेंगे और दूसरा गाल भी मोड़कर उस पर भी चांटा मार देंगे–यह कभी जीसस ने सोचा न होगा। जीसस जैसे विनम्र आदमी के पास इस तरह के लोग इकट्ठे हो जाएंगे? लेकिन इकट्ठे हो गए!

असल में विरोधी आकर्षित करता है। जैसे स्त्री के प्रति पुरुष आकर्षित होता है, पुरुष के प्रति स्त्री आकर्षित होती है। इसी भांति जीवन में सब आकर्षण पोलर हैं, सब आकर्षण विरोधी के, अपोजिट के हैं; सब आकर्षण में दूसरा आकर्षित होता है। त्यागी के पास भोगी इकट्ठे हो जाते हैं। तपस्वियों के पास जो तपश्चर्या बिलकुल नहीं कर सकते, वे चरणों पर सिर रखकर बैठ जाते हैं। परमात्मा के खोजियों के पास संसार को पागल की तरह पकड़े हुए लोगों की भीड़ जमा हो जाती है। और फिर ये ही अनुयायी बनते हैं। इसलिए तत्काल परवर्शन शुरू हो जाता है। तत्काल, जो महावीर ने कहा, जैन उसे विकृत कर डालते हैं। जो जीसस ने कहा, ईसाई उसे नष्ट कर देते हैं। जो मुहम्मद ने कहा, मुसलमान ही उसे मिटानेवाला बन जाता है। यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है; लेकिन है। विपरीत आकर्षक है।

इसलिए मैं कहता हूं कि समस्त अनुयायियों को पृथ्वी से विदा हो जाने की जरूरत है। मुहम्मद रहें, बुद्ध रहें, उनकी सुगंध रहे, बीच में अनुयायी न हों। महावीर की चर्चा हो, लेकिन अनुयायी न हों। महावीर की बात लोग सुनें, समझें, पढ़ें, लेकिन कोई इस पागलपन में न पड़े कि कहे, मैं उनका अनुयायी हूं। समझें, पढ़ें, सोचें, आनंदित हों, प्रसन्न हों, नाचें, लेकिन पकड़ें मत। काफी हो चुका पकड़ना, और उस पकड़ने के बुनियादी सूत्र का खयाल न होने से बड़ी कठिनाई हो गई है।

वह बुनियादी सूत्र है कि अपोजिट, विरोधी आकर्षक होता है, और हम उसके पास इकट्ठे हो जाते हैं। वह जो इकट्ठा होना है, वही तत्काल दुश्मन के हाथ में चीज चली जाती है। यह जिंदगी में करीब-करीब ऐसा ही नियम है, जैसे पानी में लकड़ी को डालते ही तिरछी हो जाती है–होती नहीं, दिखायी पड़ने लगती है, तत्काल। पानी और हवा के नियम अलग- अलग हैं। जैसे ही लकड़ी हवा में आती है वापस सीधी हो जाती है। पानी में डालो, फिर तिरछी दिखायी पड़ने लगती है। महावीर में जो लकड़ी बिलकुल सीधी है, जैन में बिलकुल तिरछी दिखायी पड़ने लगती है। बुद्ध में जो जीवन सीधा सरल है, बौद्ध में बिलकुल जटिल और तिरछा हो जाता है। मुहम्मद की जिंदगी में जो प्रेम है, वह मुसलमान की जिंदगी में घृणा बन जाता है। जीसस की जिंदगी में जो समर्पण है, वही जीसस के अनुयायी की जिंदगी में आक्रमण बन जाता है। अब अनुयायियों से सावधान होने के लिए काफी इतिहास प्रामाणिक है।

इसका यह मतलब नहीं कि मैं कोई महावीर का दुश्मन हूं। दुश्मन तो उनके अनुयायी हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कोई जीसस का दुश्मन हूं। दुश्मन तो उनके अनुयायी हैं। अगर जीसस को उनकी शुद्धता में बचाना हो, तो अनुयायी के कांच अलग कर देना चाहिए। और किसी आदमी को अनुयायी बनने से कुछ नहीं मिलता। सिर्फ जिसका वह अनुयायी बनता है, उसको भ्रष्ट…उसके सिद्धांतों को, उसके जीवन को विकृत करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर पाता है। वह अपने जीवन को तो ठीक नहीं कर पाता।

मैं अभी एक छोटी-सी कहानी पढ़ रहा था। एक बच्चा अपने पिता से बात कर रहा है। उस बच्चे ने अपनी किताब में से एक कहावत पढ़कर सुनायी है। किताब में लिखा हुआ है कि आदमी उसके संग से पहचाना जाता है। ए मैन इज नोन बाई हिज कंपनी, आदमी अपने संग से पहचाना जाता है। उस लड़के ने अपने पिता से पूछा, क्या यह बात सही है? उसके पिता ने कहा, यह बिलकुल ही सही है। तो उस लड़के ने कहा, अब एक सवाल और पूछना है। एक अच्छा आदमी और एक बुरा आदमी इन दोनों में दोस्ती है। कौन किससे पहचाना जायेगा? बुरा आदमी अच्छे आदमी के साथ है, इसलिए समझना चाहिए कि अच्छा आदमी है? या अच्छा आदमी बुरे आदमी के साथ है, इसलिए समझना चाहिए कि बुरा आदमी है? अब किसको किससे पहचानें? पिता मुश्किल में पड़ गया है!

जीसस पहचाने जा रहे हैं ईसाई के द्वारा, इसलिए जीसस को पहचानना मुश्किल हो गया है। महावीर पहचाने जा रहे हैं जैन के द्वारा, इसलिए महावीर को पहचानना मुश्किल हो गया है। अनुयायी हट जायें, तो इनके फूल अपनी पूरी खूबसूरती में खिल सकें; इनके दीये अपनी पूरी ज्योति में जल सकें; और एक मजा और आ जाए कि हम सारे जगत की संपत्ति के मालिक हो जायें।

अभी जो महावीर को मानता है, वह समझता है कि मुहम्मद उसकी संपत्ति नहीं हैं। और जो मुहम्मद को मानता है, वह समझता है, बुद्ध से मुझे क्या लेना-देना है। उनसे अपना कोई लेना-देना नहीं है। वह और किसी की बपौती हैं, हमारी नहीं। अगर दुनिया में किसी दिन अनुयायी न रहें, तो सारी दुनिया का हेरीटेज, सारी दुनिया की बपौती, प्रत्येक आदमी की बपौती होगी। उसमें सुकरात भी मेरे होंगे, मुहम्मद भी मेरे होंगे, महावीर भी मेरे होंगे। और तब हम ज्यादा संपन्न होंगे। और तब संस्कृति पैदा होगी।

अभी तो संस्कृति पैदा नहीं हो सकी। अभी तो बहुत तरह की विकृतियां हैं और उन विकृतियों को हम अपनी-अपनी संस्कृति कहे चले जाते हैं। मनुष्य की संस्कृति उस दिन पैदा होगी, जिस दिन सारे जगत का सब कुछ हमारा होगा। सोचें इसे एक और उदाहरण से, तो खयाल में आ जाये।

अगर विज्ञान में भी पच्चीस मत बन जायें, तो दुनिया में विज्ञान बनेगा कि मिटेगा? अगर न्यूटन के माननेवाले एक गिरोह बना लें और आइंस्टीन के माननेवाले दूसरा गिरोह बना लें; और न्यूटन के माननेवाले कहें, आइंस्टीन को हम नहीं मान सकते हैं, क्योंकि इसने हमारे गुरु की बातों के कुछ विपरीत बोल दिया है। और मेस्पलान को मानने वाले तीसरा गिरोह बना लें। और फ्रेडहायल को मानने वाले चौथा गिरोह बना लें। और गिरोह बनते ही चले जायें। अभी दोत्तीन सौ वर्षों में पचास जो बड़े वैज्ञानिक हुए हैं, पचास गिरोह हो जायें, तो विज्ञान विकसित होगा कि मरेगा?

विज्ञान विकसित हो सका, क्योंकि वैज्ञानिकों के कोई गिरोह नहीं थे। वैज्ञानिकों ने जो भी दिया है, वह सब वैज्ञानिकों की सामूहिक बपौती है। धर्म संस्कृति पैदा नहीं कर पाया, क्योंकि धर्म के गिरोह बन गए हैं। धर्म के दुनिया में तीन सौ गिरोह हैं, इसलिए धर्म कैसे पैदा हो? अगर ये गिरोह बिखर जायें…!

महावीर ने भी दिया है, महावीर ने एक कोने से सत्य का एक दर्शन दिया है, बुद्ध ने किसी दूसरे कोने से वह दर्शन दिया है, मुहम्मद ने किसी तीसरे कोने से वह दर्शन दिया है, क्राइस्ट उसी की कोई चौथी खबर ले आए हैं। ये सारी की सारी संपत्तियां हमारी हैं, मनुष्य की हैं; और अगर ये सारी संपत्तियां इकट्ठी हों, और हम सब इसके वसीयतदार हों, तो दुनिया में संस्कृति पैदा होगी। अभी तो संस्कृति नहीं है, सिर्फ खंड-खंड विकृतियां हैं। और अगर यह सारी संपत्ति हमारी हो, तो दुनिया में धार्मिक चित्त पैदा होगा। अभी धार्मिक चित्त नहीं, केवल सांप्रदायिक चित्त है, सेक्टेरियन माइंड है; अभी रिलीजियस माइंड दुनिया में नहीं है।

हां, कभी-कभी कोई एक आदमी धार्मिक पैदा होता है, तो उसके आसपास तत्काल सांप्रदायिक इकट्ठे हो जाते हैं। और वह आदमी जिंदगी भर मेहनत करके जो खोज पाता है, उसके आसपास इकट्ठे लोग थोड़े ही दिनों में उसकी मेहनत नष्ट करके विकृत कर देते हैं।

महावीर किसी के भी नहीं हैं, और बुद्ध किसी के भी नहीं हैं; या सबके हैं। कोई उनका मालिक नहीं है, कोई उनका दावेदार नहीं है; या फिर सब उनके दावेदार हैं। यह स्थिति बने, तो धर्म भी एक विज्ञान बन जाये। धर्म है भी विज्ञान। मेरी दृष्टि में तो परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है। लेकिन अब तक बन नहीं पाया है। और धर्म अगर विज्ञान बने, तो जीवन सुसंस्कृत होगा; तो जीवन रिफाइंड होगा; तो जीवन विकसित होगा। अभी तो धर्म विकृति ही बन पाया। क्योंकि संप्रदाय ही निर्मित होते हैं और कुछ भी निर्मित नहीं होता है।

कौन है जिम्मेवार? अनुयायी जिम्मेवार हैं। अगर अनुयायी भी कहीं पहुंच गया होता यह सब उपद्रव करके, तो भी हम कहते। अनुयायी कहीं भी नहीं पहुंच पाता है। कभी पहुंचा नहीं, कभी पहुंच भी नहीं सकेगा, क्योंकि वह मौलिक सूत्र ही भूल गया है।

खोजना है स्वयं को तो भीतर चलना होगा। दूसरे के पीछे जो गया, वह स्वयं को खो सकता है, पा नहीं सकता।

आचार्य श्री, आपने प्याज का उदाहरण देते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति के अनेक चेहरे हैं, मुखौटे हैं–चुराये हुए। और यह मुखौटे तो होंगे, और हर हालत में होंगे। केवल भेद करना पड़ेगा सद-मुखौटों का और असद-मुखौटों का। मैं किसी से घृणा करता हूं, लेकिन जब वह मेरे पास आता है तो मैं मुस्कुराकर उसका स्वागत करता हूं। यह मेरा एक बनावटी चेहरा है, जिसे मैं उसके सामने व्यक्त करता हूं। लेकिन साथ ही साथ मेरे मन में असीम पीड़ा है, दुख है, फिर भी मैं मुस्कुराता हूं। तो यह चेहरा, यह मुखौटा, मेरा सद-मुखौटा होगा। मुखौटा तो जरूर होगा।

आपने मृत्यु को समझा, मृत्यु के रहस्य को समझा, और आप जीवन को जी रहे हैं–यह भी एक प्रकार का मुखौटा हुआ। आपने सत्य पर विजय प्राप्त कर ली, असत्य पर विजय प्राप्त कर ली, और सत्य का उदघोष करते हैं–यह भी एक मुखौटा हुआ। और साथ ही साथ, एक बात और कह दूं कि एक बंसी, जिसकी छाती छिदी हुई है, लेकिन उसकी स्वर-लहरी लोगों पर सम्मोहन डाल देती है। क्या वह बांसुरी का मुखौटा नहीं है? पैर की पायल, जिसकी छाती में कंकड़ गड़े हुए हैं, लेकिन जिससे उसकी झंकार निकलती है, जिससे उसमें संगीत उत्पन्न होता है, क्या वह पायल का मुखौटा नहीं है? अगर यही बात है, तो इन दोनों में भेद तो करना पड़ेगा। और इन दोनों का भेद, मैं आपसे प्रार्थना करूंगा, कि आप समझायें कृपा करके। और साथ ही साथ एक बात और कि यदि जीवन एक विराट अंतर-संबंध है, तो व्यक्तित्व अनेक रूपों में, विधाओं में प्रगट होगा। व्यक्तित्व की इस विभिन्नता को आप नकली मुखौटे कैसे कह सकेंगे?

बालक पैदा हुआ। इस जन्म का नहीं, जन्म-जन्मांतर का संस्कार लेकर साथ में आया। मां से उसे प्रेम मिला, वात्सल्य मिला; पिता से उसे ज्ञान मिला, रास्ता मिला, मार्ग मिला; शिक्षक से उसे वाणी समझने को मिली, विचार करने के लिए प्रेरणा मिली; और संसार में जहां-जहां वह घूमा, उसने कई अनुभव प्राप्त किए। वह प्राप्त अनुभव भी क्या चोरी की श्रेणी में आ जायेंगे? और यदि ऐसा हुआ, तो यह व्यक्तित्व कटकर अलग हो जायेगा। वह संस्कार बनाकर अपना निजी व्यक्तित्व फिर कैसे पैदा कर पायेगा, जब तक कि दूसरे व्यक्तित्वों से कुछ न कुछ अनुभव ग्रहण न करे? ये दो प्रश्न मैं आपके सामने रखता हूं।

मुखौटे का, मास्क का, शायद अर्थ ठीक से समझ में नहीं आ सका। आपके मुंह का नाम मुखौटा नहीं है। जब आप अपने मुंह पर नाटक में एक दूसरा मुख लगा लेते हैं– समझें, रावण का मुंह लगा लेते हैं–तब वह लगाया हुआ मुंह, मुखौटा है। आपका चेहरा मुखौटा नहीं है, लेकिन अपने चेहरे पर जब आप कोई दूसरा नकली चेहरा लगा लेते हैं, जिसकी कोई जड़ें आपके भीतर नहीं होतीं, जिससे आपके प्राणों का कोई भी संबंध नहीं होता, सिर्फ धागे से कान में लटका होता है जो, जिसका हृदय की धड़कन से कोई भी सेतु नहीं होता, तब वह मुखौटा है। मुंह का नाम मुखौटा नहीं है। मुखौटा झूठे मुंह का नाम है, फाल्स फेस का नाम है। पहले तो मुखौटे का ठीक अर्थ समझ लें।

चेहरा मुखौटा नहीं है। लेकिन जरूरी नहीं है कि आप कागज के या प्लास्टिक के बने हुए मुखौटे लगायें, तब झूठा चेहरा पैदा हो। आप इसी चेहरे पर बहुत से झूठे चेहरे पैदा करने में सफल हो जाते हैं। जैसे कहा कि किसी आदमी से मेरी घृणा है, और वह मेरे पास आता है, तब मैं मुस्कुराकर उसका स्वागत करता हूं, पर भीतर घृणा उबलती है। तब यह मुखौटा है। और यह मुखौटा बड़ा खतरनाक है। यह मुखौटा उपयोगी मालूम होता है। इसकी यूटीलिटी दिखायी पड़ती है। इस भांति मैं उस आदमी को अपनी घृणा बताने से अपने को रोक लेता हूं। लेकिन घृणा इससे मिटती नहीं। और खतरा यही है कि मैं उस आदमी को तो धोखा दूंगा ही, धीरे-धीरे मैं अपने को भी धोखा दे लूंगा। और बार-बार झूठी मुस्कुराहट मेरी घृणा को भीतर दबाती जायेगी। और एक दिन मैं भी भूल जाऊंगा कि मैं उसे घृणा करता हूं। बाहर हंसता रहूंगा और भीतर मेरी घृणा छिपी रहेगी।

नहीं, धार्मिक व्यक्ति अगर घृणा अनुभव करता है, तो उसके पास दो ही उपाय हैं: या तो वह घृणा अनुभव न करे तो मुस्कुराये; और अगर घृणा ही अनुभव करनी है, तो कृपा करके मुस्कुराये न, घृणा ही अपने चेहरे से प्रगट कर दे। इसके दो फायदे हैं। यदि वह घृणा अपने चेहरे से प्रगट कर दे, तो घृणा प्रगट करने से जो नुकसान उठाने हैं, वे तो उठाने पड़ेंगे। वे नुकसान उठाने की हिम्मत होनी चाहिए। घृणा प्रकट कर देने से जो नुकसान उठाने पड़ेंगे, घृणा की जो पीड़ा अनुभव करनी पड़ेगी, वही पीड़ा, वही हानि उसे घृणा को बदलने का कारण बनेगी। अन्यथा वह बदलेगा क्यों? जिंदगी में जो नुकसान होंगे घृणा से, जिंदगी में जो बाधा पड़ेगी घृणा से, वही तो कारण बनेगी उसे इस बात के लिए सोचने के लिए मजबूर करने वाली कि वह अपनी घृणा को बदले। क्योंकि घृणा जीवन को नर्क में डाले दे रही है।

लेकिन हम मुस्कुराहट बताकर बाहर स्वर्ग बनाने की कोशिश करते हैं, और भीतर नर्क निर्मित होता चला जाता है। फिर उस नर्क को हम मिटायेंगे कैसे? जिस नर्क की पीड़ा को हम पूरा अनुभव नहीं करते और भीतर छिपा लेते हैं, तो वह पीड़ा मिटने के बाहर हो जाती है।

और एक और मजे की बात है कि जब भीतर घृणा होती है, तो आपके होंठों की मुस्कुराहट से आप ही सोचते होंगे कि आपने मुस्कुराकर दूसरे का स्वागत किया। लेकिन जब भीतर घृणा होती है, तो होंठों पर आई हुई मुस्कुराहट बिलकुल जहरीली हो जाती है, और दूसरा उसे अच्छी तरह देख पाता है कि वह मुखौटा है। बाहर हंस सकते हैं आप, लेकिन भीतर की घृणा को प्रगट होने से रोकना बहुत मुश्किल है। वह प्रगट हो जाती है। होंठ से, आंख से, उठने से, बैठने से, वह सब तरह से प्रगट हो जाती है।

इसलिए जो झूठी मुस्कुराहट थी वह सिर्फ दबाने का काम करती है, उससे कोई कम्युनिकेशन, उससे कोई संदेश नहीं पहुंच पाता। उससे दूसरा प्रसन्न नहीं लौटता है। और कई बार तो दूसरा आदमी इस बात से प्रसन्न ही होगा कि आप एक आथेंटिक और प्रामाणिक आदमी हैं। अगर आपको क्रोध है किसी पर, तो स्पष्ट कह दें कि मुझे क्रोध है, और मैं क्रोधी आदमी हूं। और क्रोध कर लें, और क्रोध की पीड़ा को भोग लें, और क्रोध के परिणाम झेल लें, तो आज नहीं कल, यह क्रोध की अग्नि ही आपको क्रोध के बाहर ले जाने का कारण बनेगी। अन्यथा भीतर क्रोध होगा, बाहर हंसी होगी; और धीरे-धीरे वह क्रोध भीतर इकट्ठा होकर जलाता रहेगा; और बाहर झूठी हंसी, सूखी हंसी, व्यर्थ हंसी फैलती रहेगी निष्परिणाम, बिना किसी परिणाम के। कोई उस हंसी से प्रसन्न नहीं होगा। कोई उस हंसी से आनंदित नहीं होगा। क्योंकि लोग हंसी से आनंदित नहीं होते। हंसी के पीछे पूरा व्यक्तित्व हंसना चाहिए, तभी वह हंसी किसी दूसरे के हृदय को छू पाती है। हंसी के साथ पूरे प्राण हंसने चाहिए, तभी उस हंसी में जीवन होता है। हंसी के साथ सब रोआं-रोआं हंसना चाहिए, तभी उस हंसी में अमृत का वरदान होता है, अन्यथा नहीं होता है।

यह जो हम मुखौटे लगाते हैं, धार्मिक व्यक्ति इन्हीं मुखौटों को उतारने की बात करता है। इसलिए अचौर्य का अर्थ है, ऐसे मुखौटे छोड़ना है। कठिनाई तो होगी, क्योंकि धर्म तपश्चर्या है। धर्म की तपश्चर्या का मतलब धूप में खड़ा होना नहीं है। धर्म की तपश्चर्या का मतलब है जीवन की सब तरह की धूप में खड़े होने की हिम्मत। जब क्रोध है, तो कहें कि क्रोध है। और जब घृणा है, तो कहें कि घृणा है। कम से कम ईमानदार तो बनें। कम से कम सिंसियर तो हों। कह दें कि ऐसा है। उस पीड़ा का अनुभव करें, जीयें उसे। उस जीने में से ही गुजरने से हाथ जलेंगे। जले हुए हाथ ही कल रोकने का कारण बनते हैं। और जिस आदमी पर आपने क्रोध प्रकट किया और कहा कि क्रोध है, जिस आदमी पर आपने घृणा की और कहा कि घृणा है, कल अगर आप उस आदमी के साथ हंसेंगे और प्रेम करेंगे, तो वह समझेगा कि आपमें प्रेम भी है। अन्यथा जिसकी घृणा झूठी है, जो झूठा हंसता है, और जो झूठा रोता है, उसकी जिंदगी में बाकी सब चीजें भी संदिग्ध हो जाती हैं।

इसलिए अगर कभी किसी बाप ने अपने बेटे पर सच-सच क्रोध नहीं किया, तो ध्यान रखना बाप की क्षमा भी बेटा कभी ईमानदारी से स्वीकार नहीं कर पायेगा। वह जानता है, बाप बेईमान है; क्षमा भी पता नहीं…। अगर किसी पत्नी ने अपने पति पर कभी क्रोध नहीं किया, क्रोध को दबाया और छिपाया और मुस्कुराई, तो ध्यान रखना, जब वह सच में भी कभी मुस्कुरायेगी, तब भरोसा करना बहुत मुश्किल होगा; क्योंकि आथेंटिक व्यक्तित्व नहीं है उसके पास। प्रामाणिक व्यक्तित्व नहीं है उसके पास। उसके प्रेम के सच्चे होने की भी संभावना रोज-रोज कम होती जायेगी।

जिसकी घृणा झूठी है, उसका प्रेम सच्चा नहीं हो सकता। जिसका क्रोध झूठा है, उसकी क्षमा सच्ची नहीं हो सकती। जिसकी मुस्कुराहट झूठी है, उसके आंसुओं का क्या भरोसा है? जिंदगी तक सारी की सारी एक झूठ की कहानी हो जाती है।

धर्म इसके खिलाफ बगावत है। धर्म विद्रोह है। धर्म एक रिबेलियन है। धर्म इनसिंसियरिटी के खिलाफ, बेईमानी के खिलाफ ईमानदार होने की घोषणा है। वह कहता है, आंसू होंगे, तो रोयेंगे; मुस्कुराहट होगी, तो हंसेंगे। और जो आदमी इतना ईमानदार होता है, वह बहुत ज्यादा देर तक घृणा से भरा हुआ नहीं रह सकता। उसके कारण हैं। जो आदमी इतना ईमानदार है, वह बहुत दिन तक क्रोध से भरा हुआ नहीं रह सकता। उसके कारण हैं। क्योंकि ईमानदारी इतनी बड़ी घटना है, सिंसियरिटी इतनी बड़ी घटना है कि ऐसे आदमी की जिंदगी में, बेईमानी जहां समाप्त हो गई हो, जहां बेईमानी इनकार कर दी गई हो, वहां क्रोध और घृणा के कांटे लगने मुश्किल हो जाते हैं। क्योंकि बेईमानी बीज है, जिसमें सब कुछ लगता है। अगर वह बीज ही टूट गया, तो बाकी चीजें अपने-आप गिरनी शुरू हो जाती हैं।

यह सिंसियरिटी कि आदमी अपने साथ ईमानदार है, बहुत ज्यादा देर तक क्रोध को बर्दाश्त नहीं कर सकती। क्योंकि जो आदमी अपने साथ ईमानदार है, उसे आज नहीं कल यह दिखाई पड़ना शुरू हो जायेगा कि क्रोध अपने ही हाथ से अपने को ही दुख देना है।

बुद्ध ने कहीं मजाक में कहा है कि जब मैं किसी आदमी को क्रोध करते हुए देखता हूं, तो मुझे बड़ी हंसी आती है। क्योंकि वह आदमी दूसरे की भूल के लिए अपने को दंड दे रहा है। वह कहता है कि इस आदमी ने गाली दी, इसलिए मैं क्रोध कर रहा हूं। गाली उसने दी है, कसूर उसका है, दंड वह अपने को दे रहा है!

क्रोध भीतर जलाता है। कोई आग इतना नहीं जलाती, और कोई आग चमड़ी के भीतर, हड्डियों के भीतर प्रवेश नहीं करती। लेकिन क्रोध की आग आत्मा तक जला डालती है। भीतर सब जला डालती है। भीतर राख कर देती है।

जब एक आदमी साधारण आग में हाथ डालने से हाथ खींच लेता है तो वह आदमी क्रोध की आग में कैसे हाथ डाल पाता है? डाल पाता है इसीलिए, कि उसने कभी पूरी तरह देखा ही नहीं कि वह क्रोध में हाथ डाल रहा है। क्रोध में हाथ डालता है, दिखाता है कि हम फूलों को छू रहे हैं। भीतर घृणा में जलता है, होंठों पर मुस्कुराहट रखता है। यह मुस्कुराहट ही देखता रहता है और अटका रहता है इस मुस्कुराहट में, और हाथ जल जाते हैं भीतर उस आग में।

अगर कोई आदमी झूठी हंसी न हंसे और अपने प्राणों के सारे रुदन को, पीड़ा को, कष्ट को देखे, तो आज नहीं कल, यह जलती हुई आग उसे दिखाई पड़ जाती है। इस दुनिया में इतना नासमझ कोई भी नहीं है कि जो देख ले क्रोध को, देख ले घृणा को, और फिर भी उस में वह रह सके। यह असंभव है। वह उसके बाहर आ जाता है।

इसलिए जब मैंने कहा कि हम मुखौटे लगाकर चोरी करते हैं, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि आप मुस्कुराते हैं तो मुखौटा है। मुस्कुराहट तब मुखौटा होगी, जब भीतर कोई मुस्कुराहट नहीं है, मुस्कुराहट सिर्फ ऊपर है। रोना तब मुखौटा होगा, जब आंसू भीतर बिलकुल नहीं हैं, सिर्फ आंखों में आंसू हैं। स्वागत करना तब मुखौटा होगा, जब भीतर प्राण कह रहे हों कि यह आदमी कहां से आ गया, और बाहर से आप कह रहे हैं, अतिथि देवता हैं। आप आइए, विराजिए! तब अतिथि तो अपमानित होता ही है, देवता भी अपमानित होते हैं।

नहीं, कह दें जैसा है, वैसा ही कह दें। कठिन होगा। वह कठिनाई पैदा होनी ही चाहिए। क्योंकि कठिनाई होगी तो ही मुक्ति होगी। कठिन होगा, घर आए मेहमान से अगर कहें कि आपने बड़े संकट में डाल दिया है; देवता बिलकुल नहीं मालूम पड़ रहे हैं आप–बड़ी कठिनाई होगी, झूठा चेहरा बचाना मुश्किल हो जायेगा। लेकिन इस कठिनाई को सहने से, आज नहीं कल, अतिथि देवता मालूम पड़ सकता है। क्योंकि इतना जो सरल हो जायेगा उसे ही अतिथि देवता मालूम पड़ सकता है। जो इतना कनिंग है, जो इतना चालाक है कि भीतर कह रहा है कि यह दुष्ट कहां से आ गया, और ऊपर से कह रहा है, आप देवता हैं, विराजिए, घर में आनंद छा गया है! इस आदमी को अतिथि देवता कभी भी मालूम नहीं पड़ सकते। यह आदमी अपने साथ इतनी चालाकी कर रहा है कि यह चालाकी इसे कुटिल कर देगी, जटिल कर देगी, तिरछा कर देगी। इसका सारा व्यक्तित्व तिरछा होता चला जायेगा।

पूरी जिंदगी हम इसी तरह की कुटिलताएं इकट्ठी करते हैं और तब सब झूठा हो जाता है। धार्मिक आदमी इस बात की घोषणा है कि वह जटिलता छोड़ेगा, वह सरल होगा; जैसा है, वैसा ही होगा; जैसा है, वैसा ही दिखलायेगा। तब मुखौटे गिरते हैं। और तब आदमी का असली चेहरा प्रकट होना शुरू होता है।

सबके पास असली चेहरे हैं, लेकिन हमने इतने-इतने मुखौटे उन पर ओढ़े हैं कि हमें खुद भी पता नहीं रह गया कि मेरा असली चेहरा कौन-सा है। आईने के सामने भी जब आप खड़े होते हैं, तो सौ में निन्यानबे मौके यही होंगे कि आईने में जिसको देखकर आप हंस रहे होंगे, वह मुखौटा होगा। आईने में भी हम वही नहीं होते, जो हम हैं। आईने में भी अपने को हम वही दिखलायी पड़ना चाहते हैं, जो हम सोचते हैं कि हम हैं। तो आईने के सामने भी आदमी बन-ठन कर खड़ा हो जाता है!

मैंने सुना है एक औरत के संबंध में कि वह बदशकल थी। कोई उसके सामने आईना कर दे, तो वह आईना तोड़ देती थी। वह कहती थी, कहां का रद्दी आईना सामने ले आए, शकल को बिलकुल खराब किये दे रहा है। आईने तोड़ देती थी, क्योंकि आईने में दिखायी पड़ता था कि शकल बदसूरत है, तो कहती थी कि आईना खराब है।

हम सब भी आईने तोड़ना पसंद करेंगे, शकल बदलनी पसंद नहीं करेंगे। लेकिन आईने तोड़ने से शकलें नहीं बदलती हैं, और आईने तोड़ने से जिंदगी नहीं बदलती। जिसे मैं मुखौटा कह रहा हूं, उससे मेरा यह प्रयोजन है कि झूठे चेहरे जो हम आरोपित कर लेते हैं अपने पर, न करें। इसका यह भी मतलब नहीं है कि जिंदगी में चेहरे बदलेंगे नहीं। जिंदगी में चेहरा रोज बदलेगा, लेकिन वह आपका ही चेहरा होना चाहिए। जब जिंदगी में अंधेरा छायेगा, तो आंखों में आंसू भी आयेंगे; कल जब एक मित्र मर जायेगा, तो आंसू भी आयेंगे। और कल जब दूर का बिछुड़ा हुआ साथी मिलेगा, तो हृदय में धड़कनें भी उठेंगी खुशी की, और गीत भी निकलेंगे। चेहरा तो बदलेगा आपका प्रतिपल। उसे बदलना चाहिए। रिस्पांसिव होना चाहिए। लेकिन वह चेहरा आपका ही होना चाहिए।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि एक ही चेहरा बना कर बैठे रहें। फिर तो पत्थर का चेहरा चाहिए। फिर जिंदगी नहीं चल सकती। फिर तो आपके पास एक चेहरा चाहिए, जो पत्थर का हो…।

मैंने सुना है कि अमेरिका के एक बहुत बड़े करोड़पति के पास एक आदमी दान लेने गया। दान उसने छोटा-सा ही मांगा था। लेकिन उस करोड़पति ने कहा कि मैंने एक नियम बना रखा है: मेरी एक आंख नकली है–पत्थर की, और एक असली है। जो आदमी बता दे कि मेरी कौन-सी आंख नकली है, उसी को मैं दान देता हूं। और अब तक कोई बता नहीं पाया है। तुम बताओ। उस आदमी ने देखा और कहा कि आपकी बाईं आंख नकली है। उस करोड़पति ने कहा, हैरान कर दिया तुमने, कैसे पता चला? उस आदमी ने कहा, बाईं आंख में थोड़ी दया मालूम पड़ती है। मैंने सोचा कि इसे पत्थर की होना चाहिए।

चेहरे सख्त और कठोर नहीं हो सकते। सिर्फ मरे हुए आदमी के कठोर हो सकते हैं, जिंदा आदमी के नहीं हो सकते। बच्चे के चेहरे को देखें, जैसे हवा के झोंके बदल रहे हों, ऐसे बदल रहा है। बूढ़े के चेहरे को देखें, जैसे पथरीला हो गया है। बूढ़े चेहरे का मतलब ही यह होता है कि अब सब कुछ तय हो गया, फिक्स्ड हो गया। अब तरलता नहीं है, लिक्विडिटी नहीं है।

नहीं, जब मैं यह कह रहा हूं कि चेहरे मत बदलें, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि चेहरे को पत्थर का कर लें। मैं यह कह रहा हूं कि नकली चेहरे मत बदलें। आपका असली चेहरा तो बदलेगा, प्रतिपल बदलेगा। जब आकाश में चांद निकलेगा, तब वह और होगा; और जब अंधेरी रात होगी, तब वह और होगा; जब सुबह फूल खिलेंगे, तब और होगा; और जब सांझ फूल झरेंगे, तब और होगा; और जब रास्ते पर एक भिखारी दिखायी पड़ेगा, तब और होगा। होगा ही। होना ही चाहिए।

जिंदगी सेंसिटीविटी है, जिंदगी संवेदनशीलता है, और चेहरा तरल होना चाहिए; लेकिन होना आपका चाहिए। तरलता आपकी होनी चाहिए। वह बदलाहट तो प्रतिपल होती रहेगी, क्योंकि प्रतिपल जिंदगी में सब बदल रहा है। यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। यहां सब बदल रहा है। इस प्रतिपल हो रही बदलाहट में आप भी बदलेंगे। हवा के झोंके आयेंगे तो पत्ता पूरब की तरफ उड़ेगा, हवा के झोंके आयेंगे तो पश्चिम की तरफ उड़ेगा, हवा रुक जायेगी तो पत्ते ठहर जायेंगे। जिंदगी ठीक वृक्ष पर लटके हुए पत्ते की तरह है। सब प्रतिपल कंप रहा है। जिंदगी में परिवर्तन के अतिरिक्त और कोई भी स्थिरता नहीं है। जिंदगी में परिवर्तन ही एकमात्र चीज है, जो परिवर्तित नहीं होती है।

हैराक्लाइटस ने कहा है, यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन द सेम रिवर। तुम एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते हो।

एक ही क्षण में भी दोबारा नहीं उतरा जा सकता है। जिंदगी एक नदी है, इसमें सब बदलता रहेगा। लेकिन वह बदलनेवाली चीज आपकी हो, वह चेहरा आपका हो, वह प्रामाणिक हो। आप हों, फिर भले ही बदलते रहें। बदलना जिंदगी है। और इस बदलाहट में भी अगर उसका स्मरण रह सके, जो भीतर इस बदलाहट को भी देखता रहता है, तो समाधि उपलब्ध हो जाती है।

चेहरा आपका हो; बदलते हुए चेहरे की धारा में पीछे साक्षी, विटनेस भी हो, जो देखता रहे। जो देखे कि जब चांद निकलता है, तो आंखें हंसती हैं; जब अंधेरी रात आती है, तो आंखें रोती हैं; और जब फूल महकते हैं, तो मन नाचता है; और जब फूल झरते हैं, तो प्राण रोते हैं; और जब प्रिय-जन मिलते हैं, तो आनंद मालूम होता है; और जब प्रिय-जन बिछुड़ते हैं, तो दुख मालूम होता है–यह सब देखता रहे पीछे कोई आपके। वह पीछे देखनेवाला भी है।

लेकिन चेहरा आपका हो, तो वह देखता भी रहे। नकली, प्लास्टिक के चेहरों में वह देखे भी क्या! वे नहीं बदलते। जब नकली चेहरा आप बदलते हैं, तो चेहरा बदलना पड़ता है–एक चेहरा हटाकर दूसरा लगाना पड़ता है। जब आपका अपना चेहरा बदलता है, तो वही चेहरा जिंदगी के नए सरअंजाम में, जिंदगी की नई धारा में, नया हो जाता है। चेहरा वही होता है, सिर्फ जिंदगी के नए रिस्पांस, जिंदगी के प्रति नई प्रतिध्वनि, उसे नया कर जाती है। लेकिन भीतर कोई जाग कर देखता रहे, तो धीरे-धीरे बदलता हुआ चेहरा संसार मालूम पड़ने लगता है, और न बदलता हुआ साक्षी ब्रह्म मालूम पड़ने लगता है। तब आप अपने भी पार उठ जाते हैं–बियांड योरसेल्फ–अपने भी पार चले जाते हैं। और जब कोई अपने भी पार चला जाता है, तभी परमात्मा में प्रवेश है।

एक सवाल और पूछ लें।

आचार्य श्री, आपने कहा है कि बाहर से व्यक्तित्व और चेहरे आरोपित कर लेना सूक्ष्म चोरी है तथा इससे पाखंड और अधर्म का जन्म होता है। लेकिन देखा जा रहा है कि आजकल आपके आस-पास अनेक नए-नए संन्यासी इकट्ठे हो रहे हैं और बिना किसी विशेष तैयारी व परिपक्वता के आप उनके संन्यास को मान्यता दे रहे हैं। क्या इससे आप धर्म को भारी हानि नहीं पहुंचा रहे हैं? कृपया इसे समझाइए।

हली बात, अगर कोई व्यक्ति मेरे जैसा होने की कोशिश करे, तो मैं उसे रोकूंगा; उसे मैं कहूंगा कि मेरे जैसा होने की कोशिश आत्मघात है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति स्वयं जैसा होने की कोशिश की यात्रा पर निकले, तो मेरी शुभकामनाएं उसे देने में मुझे कोई हर्ज नहीं है। जो संन्यासी चाहते हैं कि मैं परमात्मा के मार्ग पर उनकी यात्रा का गवाह बन जाऊं, विटनेस बन जाऊं, उनका गवाह बनने में मुझे कोई एतराज नहीं है। लेकिन मैं गुरु किसी का भी नहीं हूं। मेरा कोई शिष्य नहीं है। मैं सिर्फ गवाह हूं। अगर कोई मेरे सामने संकल्प लेना चाहता है कि मैं संन्यास की यात्रा पर जा रहा हूं, तो मुझे गवाह बन जाने में कोई एतराज नहीं है। लेकिन अगर कोई मेरा शिष्य बनने आये, तो मुझे भारी एतराज है। तो मैं किसी को शिष्य नहीं बना सकता हूं, क्योंकि मैं कोई गुरु नहीं हूं। अगर कोई मेरे पीछे चलने आये, तो मैं उसे इनकार करूंगा; लेकिन कोई अगर अपनी यात्रा पर जाता हो और मुझसे शुभकामनाएं लेने आये, तो शुभकामनाएं देने की भी कंजूसी मैं करूं, ऐसा संभव नहीं है।

मैं गैरिक वस्त्र नहीं पहनता हूं। मैंने गले में कोई माला नहीं पहनी है। ये जो संन्यासी आपको दिखाई पड़ रहे हैं, इनमें मेरी नकल का कोई कारण नहीं है।

फिर यह भी पूछते हैं आप कि किसी को भी बिना उसकी पात्रता का खयाल किये मैं उसके संन्यास को स्वीकार कर लेता हूं?

जब परमात्मा ने ही हम सब को हमारी बिना किसी पात्रता के स्वीकार किया है, तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हो सकता हूं? हम सबकी पात्रता क्या है जीवन में? और संन्यास के लिए एक ही पात्रता है कि आदमी अपनी अपात्रता को पूरी विनम्रता से स्वीकार करता है। इसके अतिरिक्त कोई पात्रता नहीं है। अगर कोई आदमी कहता है कि मैं पात्र हूं, मुझे संन्यास दें, तो मैं हाथ जोड़ लूंगा; क्योंकि जो पात्र है उसको संन्यास की कोई जरूरत ही नहीं है। और जिसे यह खयाल है कि मैं पात्र हूं, तो वह संन्यासी नहीं हो पायेगा। क्योंकि संन्यास विनम्रता का फूल है। वह ह्यूमिलिटी का फूल है। वह विनम्रता में खिलता है।

जो आदमी पात्रता के सर्टिफिकेट लेकर परमात्मा के पास जायेगा, शायद उसके लिए परमात्मा के दरवाजे नहीं खुलेंगे। लेकिन जो दरवाजे पर अपने आंसू लेकर खड़ा हो जायेगा, और कहेगा कि मैं अपात्र हूं, मेरी कोई भी तो पात्रता नहीं है कि द्वार खुलवाने के लिए कहूं; लेकिन फिर भी प्यास है, आकांक्षा है; फिर भी लगन है, भूख है; फिर भी दर्शन की अभीप्सा है; दरवाजे उसके लिए खुलते हैं।

तो मेरे पास कोई आकर संन्यास के लिए कहता है, तो काफी है, मैं कभी उसकी पात्रता नहीं पूछता। क्योंकि जो संन्यासी होना चाहता है, इतनी उसकी इच्छा क्या काफी नहीं है? जो संन्यासी होना चाहता है, इतनी उसकी प्यास, उसकी प्रार्थना क्या काफी नहीं है? क्या इतनी लगन, अपने को दांव पर लगाने की इतनी हिम्मत काफी नहीं है? और पात्रता क्या होगी? प्यास के अतिरिक्त, और प्रार्थना के अतिरिक्त आदमी कर क्या सकता है? अपने को छोड़ने के अतिरिक्त, समर्पण के अतिरिक्त, सरेंडर के अतिरिक्त आदमी कर क्या सकता है? लेकिन समर्पण के लिए भी कोई पात्रता चाहिए होती है?

पात्र समर्पण नहीं कर पायेंगे; क्योंकि वे समझते हैं कि वे अधिकारी हैं। लेकिन जिन्हें अपनी अपात्रता का पूरा बोध है, वे समर्पण कर पाते हैं। परमात्मा के द्वार पर जो असहाय हैं, अपात्र हैं, दीन हैं, अयोग्य हैं, लेकिन फिर भी जिनका हृदय प्रार्थना से भरा है, उनके लिए परमात्मा का द्वार सदा ही खुला है। लेकिन जो पात्र हैं, सर्टिफाइड हैं, योग्य हैं, काशी से उपाधियां ले आए हैं, शास्त्रों के ज्ञाता हैं, तपश्चर्या के धनी हैं, उपवासों की फेहरिस्त जिनके पास है कि उन्होंने इतने उपवास किए हैं, ऐसे व्यक्ति अपने अहंकार को ही भर लेते हैं। और अहंकार से बड़ी अपात्रता कुछ भी नहीं है।

सभी स्वयं को पात्र समझनेवाले लोग अहंकार से भर जाते हैं। सिर्फ अपने को अपात्र समझनेवाले लोग ही निरहंकार की यात्रा पर निकल पाते हैं। इसलिए मैं उनसे उनकी पात्रता नहीं पूछ सकता हूं। फिर मैं उनका गुरु नहीं हूं, जो उनसे उनकी पात्रता पूछूं। वे मेरे पास सिर्फ इसलिए आए हैं कि मैं उनका गवाह बन जाऊं। इस संबंध में दोत्तीन बातें और कहूं। शायद कल इस बाबत और भी आपसे बात करूंगा तो साफ हो सकेगी।

संन्यास मेरे लिए व्यक्ति और परमात्मा के बीच सीधे संबंध का नाम है। उसमें कोई बीच में गुरु नहीं हो सकता। संन्यास व्यक्ति का सीधा समर्पण है। उसके बीच में किसी के मध्यस्थ होने की कोई भी जरूरत नहीं। और परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। और एक आदमी उसके लिए समर्पित होना चाहे, तो समर्पित हो सकता है। और फिर अपात्र समर्पण से पात्र बनना शुरू हो जाता है। और फिर अपात्र संकल्प, समर्पण, प्रार्थना से पात्र बनना शुरू हो जाता है।

संन्यासी सिद्ध नहीं है, संन्यासी तो सिर्फ संकल्प का नाम है, कि वह सिद्ध होने की यात्रा पर निकला है। संन्यासी तो सिर्फ यात्रा का प्रारंभ-बिंदु है, अंत नहीं है। वह तो सिर्फ शुभारंभ है। वह तो मील का पहला पत्थर है, मंजिल नहीं है। लेकिन मील के पहले पत्थर पर खड़े आदमी से पूछें, जिसने अभी पहला कदम भी नहीं उठाया, उससे पूछें कि मंजिल पर पहुंच गये हो, तो ही चल सकते हो। तो जो मंजिल पर पहुंच ही गया है, वह चलेगा ही क्यों? और जो नहीं पहुंचा है, वह मंजिल कहां से दिखाये कि मैं मंजिल पर पहुंच गया हूं।

पहला कदम तो अपात्रता में ही उठेगा। लेकिन पहला कदम भी कोई उठाता है, यह भी बड़ी पात्रता है; और पहले कदम की भी कोई हिम्मत जुटाता है, तो यह भी बड़ा संकल्प है।

संन्यास मेरी दृष्टि में बहुत और तरह की बात है। संन्यास मेरी दृष्टि में सिर्फ एक बात का स्मरण है कि मैं अब स्वयं को परमात्मा के लिए समर्पित करता हूं; अब मैं स्वयं को सत्य की खोज के लिए समर्पित करता हूं। अब मैं साहस करता हूं कि धार्मिक चित्त की तरह जीने की चेष्टा करूंगा।

इसलिए ये जो गैरिक वस्त्र आपको दिखाई पड़ रहे हैं, ये उनके स्मरण के लिए हैं, रिमेंबरिंग के लिए हैं, कि उनको स्मरण बना रहे हैं कि अब वे वही नहीं हैं, जो कल तक थे। दूसरे भी उन्हें स्मरण दिलाते रहें कि अब वे वही नहीं हैं, जो कल तक थे।

वस्त्रों की बदलाहट से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी अपने वस्त्र बदल सकता है। गले में माला डाल लेने से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी गले में माला डाल सकता है; और माला का उपयोग कर सकता है। गले में डली माला उसके जीवन में आए रूपांतरण की निरंतर सूचना है।

आप बाजार जाते हैं और कोई चीज लानी होती है, तो कपड़े में गांठ बांध लेते हैं। जब भी गांठ याद पड़ती है, खयाल आ जाता है कि कोई चीज लाने को आये थे। गांठ चीज नहीं है; और जिसने गांठ बांध ली, वह चीज ले ही आयेगा, यह भी पक्का नहीं है। क्योंकि जो चीज भूल सकता है, वह गांठ भी भूल सकता है। लेकिन फिर भी जो चीज भूल सकता है, वह गांठ बांध लेता है; और सौ में नब्बे मौकों पर गांठ की वजह से चीज ले आता है।

ये कपड़े, यह माला, यह सारा बाहरी परिवर्तन है, यह संन्यास नहीं है। यह सिर्फ गांठ बांधना है कि मैं एक संन्यास की यात्रा पर निकला हूं; कि उसका स्मरण, कि उसका सतत स्मरण मेरी चेतना में बना रहे। वह स्मरण सहयोगी है।

इस संबंध में कल और आपसे बात कर सकूंगा,

आज के लिए बस।


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का सोवै दिन रैन–(प्रवचन–7)

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प्रेम नाव है—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 6 अप्रैल, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 सूत्र:

सतगुरु सरन में आइ, तो तामस त्यागिये।

ऊंच नीच कहि जाय, तो उठि नहिं लागिये।।

उठि बोलै रारै रार, सो जानो घींच है।

जेहि घट उपजै क्रोध, अधम अरु नीच है।।

माला वाके हाथ, कतरनी कांख में।

सूझै नाहिं आगि, दबी है राख में।।

अमृत वाके पास, रुचै नहिं रांड को।

स्वान को यही स्वभाव, गहै निज हाड़ को।।

का भे बात बनाए, परचै नहिं पीव सों।

अंतर की बदफैल, होइ का जीव सों।।

कहै कबीर पुकारि सुनो धरम आगरा।

बहुत हंस लै साथ, उतरो भव सागरा।।

सूतल रहलौं मैं सखियां, तो विष कर आगर हो।

सतगुरु दिहलै जगाइ, पायौं सुख सागर हो।।

जब रहली जननी के ओदर, परन सम्हारल हो।

जब लौं तन में प्रान, न तोहि बिसराइब हो।।

एक बुंद से साहेब मदिल बनावल हो।

बिना नेव के मदिल बहु कल लागल हो।।

इहवां गावं न ठांव, नहीं पुर पाटन हो।

नाहिन बाट बटोहि, नहीं हित आपन हो।।

सेमल है संसार, भुवा उघराइल हो।

सुंदर भक्ति अनूप, चले पछिताइल हो।।

नदी बहै अगम अपार, पार कस पाइब हो।

सतगुरु बैठे मुख मोरि, काहि गोहराइब हो।।

सतनाम गुन गाइब, सत ना डोलाइब हो।

कहै कबीर धरमदास, अमर घर पाइब हो।।

मुहब्बत एक राज है

वह राज——रूह में रहे जो हुस्न बन के जल्वागर

निगाह जिसके दीद की न ताब लाए उम्र—भर

शऊर से बुलन्‍दतर

मुहब्बत एक राज है।

मुहब्बत एक नाज है

वह नाज——जो हयात को निशाते—जाविदां करे

जमीं के रहनेवालों को जो अर्शे—आशियां करे

न फर्के इ—ओ—आं करे

मुहब्बत एक नाज है।

मुहब्बत एक ख्वाब है

वह ख्वाब —— जिसकी सरखुश पे जन्नतें निसार हों

फसाना साजे—जिंदगी की इशरतें निसार हों

हकीकतें निसार हों

मुहब्बत एक ख्वाब है।

मुहब्बत एक निगार है

तमाम सिदको—सादगी, तमाम हुस्नो—काफिरी

तमाम शोरिशो—खलिश मगर बतर्जे—दिलबरी

शिकस्त जिसकी बरतरी

मुहब्बत इक निगार है।

प्रेम एक रहस्य है। सबसे बड़ा रहस्य! रहस्यों का रहस्य!

प्रेम से ही बना है अस्तित्व और प्रेम से ही समझ में आता है। प्रेम से ही हम उतरे हैं जगत् में और प्रेम की सीढ़ी से ही हम जगत् के पार जा सकते हैं। प्रेम को जिसने समझा उसने परमात्मा को समझा। और जो प्रेम से वंचित रहा वह परमात्मा की लाख बात करे, बात ही रहेगी, परमात्मा उसके अनुभव में न आ सकेगा। प्रेम परमात्मा को अनुभव करने का द्वार है। प्रेम आंख है।

मुहब्बत एक राज है——एक भेद, एक कुंजी——जिससे अस्तित्व के सारे ताले खुल जाते हैं।

वह राज——रूह में रहे जो हुस्न बन के जल्वागर

अगर प्रेम भीतर हो तो आत्मा प्रकाशित हो उठती है।

निगाह जिसके दीद की न ताब लाए उम्र—भर

रूह ऐसी रोशनी से भर जाती है, अगर प्रेम हो, कि आंखें उस रोशनी को देखें तो तिलमिला जाएं, देख न पाएं, देखना चाहें तो देख न पाएं। सूरज का प्रकाश उसके सामने फीका है। चांदतारे टिमटिमाते दीए हैं——उसके सामने, उसके मुकाबले, उसकी तुलना में।

जिसने प्रेम जाना उसने पहली दफा रोशनी जानी। और जिसने प्रेम नहीं जाना उसने जीवन में सिर्फ अंधकार जाना, अंधेरी रात जानी, अमावस जानी, उसकी पूर्णिमा से पहचान नहीं हुई।

शऊर से बुलन्‍दतर

मुहब्बत एक राज है।

संस्कृतियां, सभ्‍यताएं उसके सम क्ष कुछ भी नहीं। इन सबसे बुलंद है —— धर्म, मजहब, संस्कार, रीति — रिवाज, परंपराएं, रूढ़ियां। इन सबसे बुलंद है। इन सबसे बहुत पार है। किन्हीं रीति — रिवाजों में नहीं समाता। किन्हीं सभ्‍यताओं में सीमित नहीं होता। किन्हीं संस्कृतियों में आबद्ध नहीं है।

प्रेम मुक्ति है —— मुक्त आकाश है।

शऊर से बुलंतर

मुहब्बत एक राज है।

उस प्रेम को खोजो, जो हिंदू के पार है, मुसलमान के पार है, कुरान के ऊपर जाता है, गीताएं जहां से नीचे अंधेरी खाइयां हो जाती हैं। उन शिखरों को तलाशो। उन्हीं शिखरों पर परमात्मा का निवास है।

कोई मुझसे पूछता था एक दिन : परमात्मा को कहां खोजें? मैंने कहा : प्रेम में। शायद उसने चाहा होगा कि कहूं हिमालय में। शायद उसने चाहा होगा कि कहूं चांदतारों पर। वह कहीं बाहर खोजना चाहता था और परमात्मा भीतर ही खोजा जा सकता है। और भीतर जाने की गैल, उसका नाम प्रेम है।

मुहब्बत एक नाज है——एक गौरव, एक गरिमा है। जिसे मिल जाती है, वह सम्राट हो जाता है। जो उसके बिना है, गरीब है। जो उसके बिना है, बस वही गरीब है——फिर उसके पास कितनी ही संपदा क्यों न हो, सारे जगत् का साम्राज्य ही क्यों न हो। जिसके पास प्रेम नहीं, उसका पात्र खाली है, वह भिखमंगा है।

मुहब्बत एक नाज है वह नाज——

जो हयात को निशाते—जाविदा करे

प्रेम जीवन को अमरत्व दे देता है, अन्यथा जीवन मरणधर्मा है। इस जीवन में एक ही अनुभव है, जो मरणधर्मा नहीं है। इस जीवन में एक ही स्वाद है, जिसमें अमृत की थोड़ी— सी झलक है।

मुहब्बत एक नाज है वह नाज——

जो हयात को निशाते—जाविदा करे

इस मृत्यु से भरे हुए जीवन को जो अमृत की झलक दे जाता है। रंग देता है इसे अमृत के रंग में। प्रेम की घड़ियों में मृत्यु पर भरोसा नहीं आता। प्रेमी मान ही नहीं सकता कि मृत्यु हो सकती है। जिसने प्रेम जाना, मृत्यु से मुक्त हुआ।

खयाल रखना, जो आदमी जितना प्रेम से हीन होगा उतना ही मृत्यु से भयभीत होता है—— उसी अनुपात में। इस गणित में कभी भूल नहीं होती। जब किसी आदमी को तुम मौत से बहुत डरा देखो तो जान लेना कि उसने जीवन में प्रेम को नहीं जाना। प्रेम को जानता तो मृत्यु से डरता क्यों? क्योंकि प्रेम तो मृत्यु को जानता ही नहीं। प्रेम तो मृत्यु को मानता ही नहीं। प्रेम के लिए मृत्यु एक झूठ है। भय के लिए जिंदगी एक झूठ है। प्रेम के लिए मृत्यु एक झूठ है। भय केवल मृत्यु जानता है। प्रेम केवल जीवन——शाश्वत जीवन——जानता है।

वह नाज——जो हयात को निशात—जाविंदा करे

जमीं के रहनेवालों को जो अर्शे—आशियां करे

प्रेम ही एकमात्र चमत्कार है—— एकमात्र जादू ऊ जमीन पर रहनेवालों को आसमांन में रहना सिखा देता है। जमीन पर रहनेवालों को आसमांन में नीड़ बनाने की कला सिखा देता है। जमीन पर जो सरकते हैं, अचानक आकाश में उड़ने लगते हैं। जिन्हें अपने पंखों का पता ही नहीं था, उन्हें पंख मिल जाते हैं। जिनके जीवन में कोई दिशा नहीं थी, दिशा मिल जाती है।

वह नाज——जो हयात को निशाते—जाविंदा करे

जमीं के रहनेवालों को जो अर्शे—आशियां करे

न फर्के इ—ओ—आ करे

मुहब्बत एक नाज है।

——एक गौरव है, जहां सब भेद गिर जाते हैं, जहां अभेद प्रकट होता है। जहां मैंतू गिर जाते हैं। जहां वह प्रकट होता है। उसका ही नाम परमात्मा है।

प्रेम में न तो मैं होता है, न तू होता है। जहां मैं तू है, वहां प्रेम नहीं। इसलिए तो झगड़े को हम कहते हैं तूनूर मैं—मैं। झगड़े का मतलब होता है : बहुत तू, बहुत मैं; तूतू मैं—मैं। प्रेम का अर्थ होता है : न तू र न मैं; दोनों गए; दुई गयी; द्वैत गया। फिर जो शेष रह जाता है, वही तो परमात्मा है।

ठीक कहा है जीसस ने कि प्रेम ही परमात्मा है। बहुतों ने परिभाषाएं की हैं परमात्मा की, लेकिन जीसस सब को मात दे गए।

मुहब्बत एक ख्वाब है

और ऐसा ख्वाब कि जिसके समक्ष जीवन की सारी वास्तविकताएं झूठी हो जाती हैं। प्रेम एक सपना है——ऐसा सपना जिसके सामने जिन्हें हमने अब तक सच्चाइयां माना है, वे सब फीकी पड़ जाती हैं। हमारी सच्चाइयां उस सपने के सामने प्रेम सत्य का स्वप्न है।

प्रेम सत्य की आकांक्षा है, अभीप्सा है।

प्रेम सत्य के बीज का हृदय में आरोपण है।

प्रेम क्रांति है, क्योंकि तुम उठने लगते हो——जीवन से असीम की तरफ।

मुहब्बत एक ख्वाब है

वह ख्वाब——जिसकी सरखुशी पे जन्नतें निसार हों।

ऐसी मादकता है प्रेम कि उस हजारों स्वर्ग निछावर स्वर्ग नहीं मांगता। इसलिए तो भक्तों ने कहा है

झूठ हो जाती हैं।

की क्षुद्रता से विराटता की तरफ; सीमा

किए जा सकते हैं। जिसने प्रेम जाना वह : हमे तुम्हारा बैकुंठ नहीं चाहिए। हमें

तुम्हारे चरण चाहिए। हमें तुम्हारा प्रसाद चाहिए। हमें तुम्हारी प्रेम से भरी नजर चाहिए। हमें तुम्हारे बैकुंठ नहीं चाहिए। रखो अपने बैकुंठ। दे देना त्यागियोतपस्वियो को। उनको बहुत जरूरत है। तुम अपने स्वर्ग बांट देना किन्हीं और को, जिनको सुखों की आकांक्षा है।

क्यों भक्त इतनी हिम्मत से कह पाता है कि हमें तेरे बैकुंठ नहीं चाहिए? ——तेरे स्वर्ग नहीं चाहिए, हमें तेरे चरणों की धूल में रहने को जगह मिल जाए, हमें तेरी छाया में थोड़ा विश्राम मिल जाए, बस पर्याप्त है। हमें तेरी याद मिल जाए। तेरी सुरति बनी रहे। तेरी सुधि न भूले। क्यों? कारण है पीछे। क्योंकि भक्त ने प्रेम जाना है। और प्रेम जानते ही उसने जाना है कि हजार स्वर्ग भी फीके हैं।

मुहब्बत एक ख्वाब है

वह ख्वाब —— जिसकी सरखु श पे जन्नतें निसार हों

फसाना साजे—जिंदगी की इशरतें निसार हों

इस दुनिया के जितने सुख हैं, सब एकदम दु :ख जैसे हो जाते हैं——जिसने प्रेम जाना। यहां फिर पकड़ने को कुछ भी नहीं रह जाता।

त्यागी को छोड़ना पड़ता है, प्रेमी से छूट जाता है। भेद समझ लेना। भेद बड़ा है, गहरा है। त्यागी को चेष्टा कर—कर के छोड़ना पड़ता है। धन छोडूं——बड़ी मुश्किल होती है! गिन—गिन कर छोड़ना पड़ता है।

रामकृष्ण के पास एक दिन एक आदमी आया। एक बड़ी थैली में हजार स्वर्ण—मुद्राएं भरकर लाया था। रामकृष्ण के चरणों में उसने स्वर्ण—मुद्राओं की थैली उडेली। बड़े जोर से उडेली, बड़ी ऊंचाई से उडेली! खनाखन—खनाखन…….! सारे आश्रम के लोग इकट्ठे हो गए।

रूपए की आवाज किसे नहीं खींच लेती! रुपए जैसा सौंदर्य और संगी लोग दूसरी किसी आवाज में देखते ही नहीं। सब सितार लोगों के लिए व्यर्थ हैं। सब वाद्य बेकार हैं। जहां रुपए की खनाखन हो वहां फिर कोई संगीत नहीं रुचता।

सारे लोग आ गए। जो अपने पूजा—पाठ में बैठे थे, वे भी उठ कर आ गए कि क्या हुआ? और रामकृष्ण बहुत हंसने लगे। रामकृष्ण ने कहा : मेरे भाई, यह तू यहां क्यों लाया? चल अब ले आया तो ठीक, इतने जोर से क्यों पटका? क्या तू दिखाना चाहता है लोगों को कि धन लाया है? तू त्यागी होने का अहंकार भरना चाहता है?

वह आदमी थोड़ा हतप्रभ हुआ। उसने कहा : क्या फिर मैं ले जाऊं? आप स्वीकार नहीं करते?

रामकृष्ण ने कहा : अब ले ही आया, यहां तक बोझ ढोया, अब वापस क्यों बोझ ढोएगा? मैं स्वीकार करता हूं। अब ये स्वर्ण—मुद्राएं मेरी हुईं। इन्हें तू फिर बांध ले पोटली में और जाकर गंगा में डुबा आ।

उस आदमी की तकलीफ तुम समझो। वह लाया था बड़ा ही बहुमूल्य धन और ये पागल रामकृष्ण कहते हैं कि फेंक आ गंगा में! लेकिन अब दे चुका था, अब अपना बस भी न था। बे—मन से गया गंगा की तरफ। बड़ी देर हो गयी, लौटा नहीं तो रामकृष्ण ने कहा : जाओ पता करो, वह आदमी अब तक लौटा क्यों नहीं? इतनी देर लगती है!

लोग गए। वहां उसने भीड़ इकट्ठी कर रखी थी। सैकड़ों लोग इकट्ठे हो गए थे घाट पर। वह एक—एक सिक्के को घाट की सीढ़ी पर बजा—बजा कर फेंक रहा था। जब लौटा तो रामकृष्ण ने कहा : पागल! रुपए इकट्ठे करते हैं तो गिन—गिन कर करने होते हैं; जब फेंकते हैं तो गिन—गिन कर थोड़े ही फेंकते हैं! एकबारगी में थैली डाल देनी थी। छोड़ने में भी गिनती! तो छूटा ही नहीं।

और यही त्यागी की दशा है : छोड़ता है, गिनती रखता है। त्यागी भीतर गिनता रहता है—— कितने लाख मैंने छोड़ दिए! पत्नी कितनी सुंदर थी, छोड़ दी! हाथी—घोड़े और असवार.. राजमहल! खूब कल्पना में उनको बड़ा कर—करके सोचता है कि सब छोड़ दिए, बड़ा त्याग किया है! यह त्याग जबर्दस्ती है, अन्यथा गिनती न होती। प्रेमी छोड़ता नहीं। प्रेमी की आंख बदल जाती है। उसे दिखाई पड़ने लगता है कि सार यहां नहीं——सार परमात्मा में है। छोड़ना क्या है? छूट गया! राख को तो कोई छोड़ता नहीं। धन को ही लोग छोड़ते हैं। जब धन राख की तरह दिखायी पड़ जाता है, फिर छोड़ना क्या है, फिर पकड़ना क्या है? राख न तो पकड़ी जाती है, न छोड़ी जाती है।

मुहब्बत एक ख्वाब है

वह ख्वाब —— जिसकी सरखु श पे जन्नतें निसार हों

फसाना साजे—जिंदगी की इशरतें निसार हों

हकीकतें निसार हों।

ऐसा ख्वाब, ऐसा स्वप्न, जिस पर जिंदगी के तथाकथित सत्य निछावर किए जा सकते हैं।

मुहब्बत एक ख्वाब है

और धन्यभागी हैं वे जिन्होंने प्रेम के इस सपने को देख लिया, क्योंकि यही सपना सच है। और तुम्हारे सब सच झूठ हैं।

मुहब्बत एक निगार है

मुहब्बत एक झलक है परमात्मा की——एक छवि। जैसे चांद बना हो झील में। प्रतिफलन। जैसे दर्पण में तस्वीर बनी हो। प्रेम एक तस्वीर है परमात्मा की। जिसने प्रेम नहीं जाना, वह परमात्मा को पहचान नहीं सकेगा। क्योंकि परमात्मा की और कोई शक्ल—सूरत नहीं है। परमात्मा का कोई और आकार, रूप—रंग नहीं है। प्रेम उसका रंग है, प्रेम उसका ढंग है, प्रेम उसकी छवि है। जिसने प्रेम को पहचान लिया, उसे परमात्मा सब जगह दिखायी पड़ने लगेगा——फूलों में और पत्थरों में, चांदत्तारों में, नक्षत्रों में, लोगों में, पशु—पक्षियों में।

मुहब्बत एक निगार है

तमाम सिदको—सादगी, तमाम हुस्नो—काफिरी

तमाम शोरिशो—खलिश मगर बतर्जे—दिलबरी

शिकस्त जिसकी बरतरी

और प्रेम ऐसा अधृत राज है कि वहां हार—जीत है। शिकस्त जिसकी बरतरी.. जहां हार कर आदमी जीत जाता है, ऐसा जादू है प्रेम!

मुहब्बत एक निगार है

और इस प्रेम की सबसे बड़ी अनुभूतइ सदगुरू के पास होती है। उसी के पास हो सकती है——जो प्रेमपूर्ण हो गया है, प्रेम— मग्न हो गया है, प्रेममय हो गया है——प्रेम हो गया है।

संसार में तो तुम जिसे प्रेम कहते हो, बड़ा टूटा—फूटा है, खंड—खंड है, बड़ा विकृत है। हजार विक्षिप्तताओं में दबा है। हजार गंदगियों में दबा है। हजार तरह की धूले उस पर जम गयी हैं। हजार बाधाओं में पड़ा है।

जिसे तुम संसार में प्रेम करते हो, वह तो कारागह का कैदी है। सदगुरू में जिस प्रेम को तुम देखते हो, वह मुक्त आकाश का पक्षी है। उसी के साथ प्रेम हो जाए तो तुम भी आकाश में उड़ने का साहस जुटा पाते हो। वही है यात्रा——अंतर्यात्रा, तीर्थयात्रा।

सतगुरु सरन में आइ……।

धनी धरमदास कहते हैं : सतगुरु के शरण में आना.. .तो तामस त्यागिए। अगर सदगुरू की शरण आना हो तो एक ही चीज से छुटकारा होना चाहिए——तामस, अहंकार, अस्मिता, मैं— भाव। प्रेम में वही तो बाधा है। धन बाधा नहीं है, पद बाधा नहीं है; तुम्हारी पत्नी, तुम्हारा पति बाधा नहीं है; तुम्हारे बच्चे बाधा नहीं हैं। और बड़ा मजा यह है कि लोग पत्नी—बच्चों को छोड्कर चले जाते हैं, धन—दुकान को छोड्कर चले जाते हैं, बाजार छोड़ देते हैं, समाज छोड़ देते हैं, पहाड़ों पर बैठ जाते हैं। और जिसे छोड़ना था वह भीतर साथ ही चला जाता है। अहंकार साथ ही चला जाता है।

तुमने देखा, तुम्हारे तथाकथित महात्माओं में जितना अहंकार जितना सघन होता है, जितना विकृत रूप से प्रकट होता है, उतना साधारण जनों में भी नहीं होता। स्वाभाविक है यह भी, क्योंकि सब छोड़ दिया। दूसरों में तो अहंकार और—और चीजों में दबा था, महात्मा में बिल्कुल शुद्ध हो जाता है——श्दुद्ध जहर। न धन रहा, न पद रहा, न पत्नी रही, न बच्चे रहे——वे सब बातें गयीं। अहंकार पर से सारी बाधाएं हट गयीं। अब अहंकार रह गया——खालिस। इसलिए अहंकार गहन हो जाता है त्यागी में। और भक्ति के पहले कदम पर ही उसे छोड़ देना होता है, समझ लेना होता है।

सतगुरु शरण में आइ, तो तामस त्यागिए।

मैं हूं, यह बात ही भांति की है। कल तुम नहीं थे, कल तुम फिर नहीं हो जाओगे——इस बीच में जो थोड़ी देर को यह मैं का बबूला उठा है, इस पर इतना भरोसा। कल तुम मिट्टी में थे, कल फिर मिट्टी में जाओगे। यह जो जरा—सी लहर उठ आयी है जीवन की, इस पर बहुत शोरगुल न मचाओ।

जिंदगी साज दे रही है मुझे

सहर और एजाज दे रही है मुझे

और बहुत दूर आसमांनों से

मौत आवाज दे रही है मुझे

जिंदगी के हर कदम पर मौत की आहट भी सुनते रहो। वे दोनों साथ—साथ हैं। जिंदगी के हर क्षण में मौत छिपी है। अगर तुम मौत को ठीक से देखते रहो तो अहंकार को बनने का उपाय न रहेगा। अहंकार बनता है इस भांति में कि मुझे सदा रहना है। अहंकार बनता है इस भांति में कि जैसे मैं सदा से हूं।

कुछ है तुम्हारे भीतर, जो सदा से है; लेकिन उसका तो तुम्हें भी पता नहीं। और जिसे तुम समझते हो अपना होना, वह सदा से नहीं है। यह देह अभी कुछ वर्षो पहले निर्मित हुई और यह देह भी रोज बदलती रही है, थिर नहीं है। पानी की तरह बहती हुई धारा है। और यह मन भी थिर नहीं है; यह भी प्रतिपल बदल रहा है।

जब तुम बच्चे थे, तब की देह में और आज की देह में क्या तारतम्य रह गया है? कल के मन में और आज के मन में क्या संबंध रह गया है? आनेवाला कल अपना मन लाएगा, अपनी देह लाएगा। इस बदलती हुई धारा को तुमने अपना अस्तित्व समझ रखा है? इसी भांति के कारण तुम उसे नहीं देख पाते जो जन्म के भी पहले था और मृत्यु के भी बाद में होगा। बबूले में उलझ जाते हो, बबूले के नीचे छिपे सागर को नहीं खोज पाते।

जैसे ही तुम देखोगे—— गौर से देखोगे—— इस मैं की सच्चाई में झाकोगे, इस मैं की जरा खुदाई करोगे, तुम पाओगे कि यहां कुछ भी पकड़ने जैसा नहीं है। मैं हूं कहां? और ऐसा दिखायी पड़े तो ही सदगुरू की शरण में झुके। झुकने का अर्थ ही यह होता है कि मैं— भाव न रहा।

सतगुरु का क्या अर्थ होता है? —— ऐसा कोई व्यक्ति, जिसमें मैं— भाव नहीं रहा है।

अब ध्यान रखना, सतगुरु को भी ” मैं ” शब्द का उपयोग तो करना ही होगा। वह भाषा की अनिवार्यता है। कृष्ण तक अर्जुन से कहते हैं : मामेकं शरणं तज। मुझ की शरण आजा! मेरी शरण आजा! सर्व धर्मा; परित्यज्य! सब छोड़— छाड़ दे, सब धर्म इत्यादि, मेरी शरण आजा।

जब कोई पढ़ता है, उसके मन में खटका लगता है कि कृष्ण में बड़ा भयंकर अहंकार मालूम होता है—— ” मेरी शरण आ जा!” मैं का उपयोग तो कृष्ण को भी करना पड़ रहा है। भाषा की अनिवार्यता है। अन्यथा कृष्ण में कोई मैं नहीं। और मजा ऐसा है कि कृष्ण ने जब कहा ” मामेकं शरणं तज ” तो वहां कोई अहंकार नहीं था। और जब तुम कहते हो ” मैं तो आपके पैर की धूल ”, तब वहां बड़ा अहंकार होता है।’’ मैं तो कुछ नहीं ” जब तुम कहते हो, तब भी वहां अहंकार होता है।’’ मैं तो नाकुछ ”, तब भी वहां अहंकार होता है।

इसलिए सवाल यह नहीं है कि मैं का उपयोग करोगे कि नहीं—— सवाल यह है कि मैं को भीतर निर्मित होने दोगे कि नहीं। मैं को भीतर देख लेना—— अस्तित्वहीन है, सारहीन है, व्यर्थ की चिंताएं लाता है, व्यर्थ के उपद्रव खड़े करता है; जीवन को कलह से और नरक से भर देता है—— जिस व्यक्ति को ऐसा दिखायी पड़ गया है, उसको हम कहते हैं : सदगुरू। और उसके पास अगर तुम भी झुक जाओ तो जो उसे दिखायी पड़ गया है वह तुममें भी उतर जाए। उसके पास तुम बैठ जाओ तो जो उसे हुआ है तुम्हें भी होने लगे। तुम्हारा भी रंग बदले, तुम्हारा भी ढंग बदले। उसकी आभा तुम्हारे भीतर सोयी हुई आभा को जगाने लगे। उसकी पुकार तुम्हें सुनायी पड़े।

देखा तेरे कूचे में जो नज्जारे—जन्नत

जन्नत में न देखा तेरे कूचे का नजारा

जिसकी गली में, जिसके आसपास, जिसके सान्निध्य में, स्वर्ग की तुम्हें पहली दफा थोड़ी— सी झलक मिले, एक क्षण को सही, एक क्षण को पर्दा हटे——वही सदगुरू! जिसके पास यह घटना घट जाए, वहीं झुक जाना। फिर फिक्र मत करना कि वह हिंदू है कि मुसलमान कि जैन कि ईसाई। फिर फिक्र मत करना। चूकना मत ऐसा अवसर। असली सवाल तो झुकने की कला है; किसके पास झुके, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना झुके।

ऐसी घटनाएं हैं इतिहास में कि कभी—कभी कोई व्यक्ति ऐसे व्यक्ति के पास झुक गया, जिसको अभी खुद भी नहीं मिला था; लेकिन उसका झुकाव इतना परिपूर्ण था कि गुरु को नहीं मिला था, लेकिन शिष्य को मिल गया। झुकने की वजह से मिल गया। और ऐसा भी हुआ है कि बड़े से बड़े सदगुरू के पास लोग रहे, अपने अहंकार से भरे हुए, बुद्ध के पास रहे हैं और क्राइस्ट के पास रहे हैं और नानक के पास रहे और कबीर के पास रहे और अपनी अकड़ से भरे रहे और कुछ भी न मिला।

तो कभी— कभी ऐसा भी हुआ है कि वृक्षों के सामने झुक गए आदमी को मिल गया है, पत्थरों के सामने झुक गये आदमी को मिल गया है——और बुद्धों के पास कोई बैठा रहा और नहीं झुका, तो नहीं मिला। इसलिए एक बात खयाल में ले लेना: सार की बात है झुकना। गुरु तो केवल एक निमित्त मात्र है, उसके बहाने झुक जाना। उसके बहाने झुकने में आसानी होगी। झुकने के लिए जो भी बहाना मिल जाए, चूकना ही मत। समझदार का यही काम है। जहां झुकने का बहाना मिल जाए झुक जाना। और अगर तुम झुकने के लिए बहाना खोजो तो अनंत बहाने हैं। किसी सुंदर स्त्री को देख कर झुक जाना, क्योंकि सब सौंदर्य उसी का सौंदर्य है। किसी खिलखिलाते बच्चे को देख कर झुक जाना, क्योंकि सब खिलखिलाहट उसकी है। किसी खिले हुए फूल को देख कर झुक जाना, क्योंकि जब भी कहीं कुछ खिलता है वही खिलता है, उसके अतिरिक्त कोई है ही नहीं। सूरज के सामने झुक जाना, क्योंकि सब रोशनी उसकी है।

इस देश में इसीलिए तो सूरज भी देवता हो गया, चांद भी देवता हो गया, बादल के भी देवता हो गए। बिजली चमकी तो उसका भी देवता हो गया। इसके पीछे बड़ा राज है। राज है : हमने झुकने के कोई निमित्त नहीं छोड़े। आकाश में बिजली चमकी, हमने वह बहाना भी न छोड़ा; हमने घुटने टेक दिए जमीन पर; हम अपनी प्रार्थना में लीन हो गए। बिजली चमक रही थी। भौतिकवादी दृष्टि का आदमी कहेगा : क्या पागलपन कर रहे हो, बिजली बिजली है, इसके सामने क्या झुक रहे हो?

मैं एक घर में मेहमान था——एक ग्रामीण घर में। अब तो बिजली आ गयी उस गांव में। बिजली जली, अब घर की बिजली है, खुद ही ग्रामीण ने जलायी और खुद ही सिर झुकाकर नमस्कार किया। मेरे साथ एक मित्र बैठे थे——पढ़े—लिखे हैं, डाक्टर हैं। उन्होंने कहा : यह क्या पागलपन है? अब तो बिजली हमारे हाथ में है। अब तो यह कोई इंद्र का धनुष नहीं है। अब तो यह कोई इंद्र के द्वारा लायी गयी चीज नहीं है। यह तो हमारे हाथ में है, हमारे इंजीनियर ला रहे हैं। और तू खुद अभी बटन दबाकर इसको जलाया है।

वह ग्रामीण तो चुप रह गया। उसके पास उत्तर नहीं था। लेकिन मैंने उन डाक्टर को कहा कि उसके पास भला उत्तर न हो, लेकिन उसकी बात में राज है और तुम्हारी बात में राज नहीं है। और तुम्हारी बात बड़ी तर्कपूर्ण मालूम पड़ती है। यह सवाल ही नहीं है कि बिजली कहां से आयी। कुल सवाल इतना है कि झुकने का कोई बहाना मिले तो चूकना मत। जिंदगी जितनी झुकने में लग जाए उतना शुभ है, क्योंकि उतनी ही प्रार्थना पैदा होती है। और जितने तुम झुकते हो उतना ही परमात्मा तुम में झांकने लगता है——झुके हुओं में ही झांकता है!

सतगुरु सरन में आइ तो तामस त्यागिए।

लेकिन सतगुरु उधार नहीं हो सकता। तुम्हें प्रेम का अनुभव हो तो ही…। तुम हिंदू घर में पैदा हुए, हिंदू गुरु के पास गए कि चलो गांव में पुरी के शंकराचार्य आए हुए हैं। मगर तुम्हारा झुकाव सच्चा नहीं हो सकता, औपचारिक होगा। तुम हिंदू की तरह झुक रहे हो, व्यक्ति की तरह नहीं; एक आत्मवान सचेत चेतना की तरह नहीं——हिंदू की तरह। झुक रहे हो, क्योंकि पिता भी झुकते रहे थे, पिता के पिता भी झुकते रहे थे। झुक रहे हो, क्योंकि बचपन से सिखाया गया है कि झुको।

मैं छोटा था तो मेरे पिता को आदत है। घर में कोई भी आए बड़ा—बूढा, कोई भी आए, वे सब बच्चों को बुलाकर कहें कि जल्दी झुको, पैर छुओ। मैंने उनसे कहा कि हम पैर तो छू लेते हैं, मगर हम झुकते नहीं। उन्होंने कहा : मतलब? मैंने कहा : झुका हमें कोई नहीं सकता। यह तो बिल्कुल जबर्दस्ती है। कोई भी ऐरा—गैरा—नत्थू खैरा घर में आ जाता, और बस बुलाए कि चलो, झुको। उस दिन तो उनकी बात मेरी समझ में नहीं आती थी, अब समझ में आती है : वह भी बहाना था। वह भी झुकाना सिखाने का बहाना था। लेकिन उसमें हृदय नहीं हो सकता था। क्योंकि मेरे भीतर कोई प्रीति नहीं उमग रही थी, मेरे भीतर कोई श्रद्धा नहीं जन्म रही थी। तो शरीर झुक जाएगा।

पुरी के शंकराचार्य आ गए, तुम हिंदू हो, तो जाकर शरीर झुक जाएगा। कोई मौलवी आया, तुम मुसलमान हो, तो जाकर झुक जाओगे। मगर क्या तुम्हारा हृदय झुक रहा है? अगर हृदय नहीं झुक रहा है तो इस उपचार से कुछ भी न होगा। और इस उपचार में एक खतरा है कि कहीं तुम इसी उपचार में उलझे न रह जाओ और कहीं ऐसा न हो कि असली झुकने की जगह चूक जाए, तुम वहां जाओ ही नहीं!

मैं सर तो झुकाती हूं तेरे हुक्म में लेकिन

दिल को मेरे राजी व रजा कौन करेगा?

जहां तुम्हारा दिल राजी और रजा हो जाए, जहां अचानक तुम पाओ कि झुकने की गहन आकांक्षा पैदा हो रही है, वहां बाधा मत डालना, बस। बिना उपचार के, बिना कारण के, अहेतुक झुक जाना। और उसी झुकने से पहली क्रांति घटती है——तामस छूटता है।

ऊंच नीच कहि जाय तो उठि नहिं लागिए।।

फिर कोई तुम्हें गाली दे जाए, ऊंचा—नीचा कह जाए, तो धरमदास कहते हैं : अब उसके मुंह मत लगना। क्योंकि तुम हो ही नहीं, कौन तो ऊंचा कहेगा, कौन नीचा कहेगा!

अब खयाल रखना : ऊंच नीचे कहि जाय…। यह बड़े मजे की बात है। हमारे पास ऐसे बहुत—से शब्द हैं, जिनमें विचार करने जैसी बात छुपी है। कोई गाली दे जाता है तो हम कहते हैं : ऊंच—नीच कह गया। नीच कह गया, यह तो ठीक; मगर ऊंच क्यों लगाते हैं? सच तो यह है कि जब कोई प्रशंसा कर जाता है, तब भी बात उतनी ही झूठी और व्यर्थ है, जितनी जब गाली दे जाता है। तो इसका पूरा अर्थ हुआ कि कोई प्रशंसा करे या कि कोई निंदा करे, ऊंच कि नीच, दोनों हालत में तुम अछूते रह जाना।

सदगुरू के पास झुके हो, इसका प्रमाण क्या होगा? यही प्रमाण होगा : ऊंच नीच कहि जाय तो उठि नहिं लागिए।

उसके मुंह मत लग जाना। उससे जूझने मत लगना। कोई प्रशंसा करे तो आह्नाद से मत भर जाना और कोई गाली दे जाए तो उदास, क्रोध से मत भर जाना। क्योंकि जब अहंकार ही नहीं है तो कैसी प्रशंसा और कैसी निंदा? तुम्हीं नहीं हो तो तुम्हारे संबंध में जो भी कहा गया, सब व्यर्थ है। तुम्हीं नहीं हो तो तुम्हारे नाम जितने पत्र लिखे गए हैं, वे सब व्यर्थ हैं। तुम अनाम, तुम्हारा कोई पता नहीं, तो तुम्हारे नाम जो प्रशंसा आयी है, चापलूसी आयी है और जो गाली आयी है, निंदा आयी है——दोनों व्यर्थ हो गयीं।

उठि बोलै रारै रार……। और अगर तुम बोले तो फिर क्रोध से क्रोध बढ़ता है।…. रारै रार! वैर से वैर बढ़ता है।.. .सो जानो घींच। और ऐसा अगर करोगे तो जिंदगी के झगड़े से कभी मुक्त न हो पाओगे, झगड़ा बढ़ता ही जाएगा।

इतना झगड़ा बढ़ गया है जिंदगी में, उसका कारण कहां है? उसका कारण यही है कि सब अपने—अपने अहंकार में अकड़े खड़े हैं; कोई झुकने को राजी नहीं है। और सब की अहंकार की अकड़ एक—दूसरे से टकराती है। सबके अहंकार की अकड़ अनिवार्य रूप से संघर्ष का कारण हो जाती है। फिर जिंदगी की ऊर्जा इसी में खो जाती है, जैसे कि नदी रेगिस्तान में खो जाए।

उठि बोलै रारै रार, सो जानो घींच है।

जेहि घट उपजै क्रोध, अधम अरु नीच है।।

क्रोध को इतना बुरा क्यों कहा है? समस्त धर्मों ने क्रोध की इतनी खिलाफत क्यों की है? कारण है। क्योंकि क्रोध अहंकार का प्रतीक है। अहंकार तो भीतर होता है, क्रोध बाहर आ जाता है। बिना अहंकार के क्रोध आ ही नहीं सकता। अहंकार की दुर्गंध है क्रोध। अहंकार की सड़ाध भीतर हो तो क्रोध की दुर्गंध बाहर आती है।

जेहि घट उपजै क्रोध, अधम अरु नीच है।

सावधान होना। अगर गुरु के चरणों में झुके हो, अगर गुरु खोजा है, तो अब थोड़ा गुरुत्व सीखो। अब थोड़े जीवन में प्रसाद को लाओ। ये सब व्यर्थ की बातें आती हैं और चली जाती हैं।

निकल जाएंगे रफ्ता रफ्ता सब अरना

कोई आह बन कर कोई जान बन कर

यहां कुछ बचता नहीं, सब खो जाता है। जहां सब खो जाना सुनिश्‍चित है, वहां झगड़ा क्या! जहां मेरा कुछ भी नहीं रहेगा, मेरा नाम—निशान नहीं रहेगा, जहां धूल में मिल जाना नियति है——वहां झगड़ा क्या! झगड़ा किस बात का!

आसमां आज भी नालों से हिला सकता हूं

मैं जो खामोश हूं इसका भी सबब है कोई

जो गुरु के साथ जुड़ गया, खामोश होने लगता है। ऐसा नहीं है कि मर गया।

आसमां आज भी नालों से हिला सकता हूं

मैं जो खामोश हूं, इसका भी सबब है कोई

सबब इतना ही है कि अब व्यर्थ हो गया। अब दिखायी पड़ने लगा।

छोटे—छोटे बच्चे खिलौनों पर लड़ते हैं, तुम तो नहीं लड़ते। छोटे—छोटे बच्चे रेत के घर बना लेते हैं नदी के तट पर और लड़ते हैं, तुम तो नहीं लड़ते। और सांझ को तुमने देखा है! छोटे बच्चे भी उन्हीं घरौंदों के लिए बड़े लड़ते थे, दिनभर बड़ा झगड़ा मचाए थे, सांझ हो गयी, मां की आवाज आती है कि अब आ जाओ घर, भोजन का समय हुआ, अपने ही बनाए हुए घरों पर उछल—कूद कर के, मिट्टी में मिला कर बच्चे घर लौट आते हैं। वे भी प्रौढ़ हो गए सांझ होते—होते। दिनभर लड़े थे इन्हीं घरग्लों के लिए, इन्हीं रेत के महलों के लिए।

और हमारे महल भी रेत के महल हैं। कितनी ही चट्टानों से बनाओ; क्योंकि सब चट्टानें रेत हैं, इसलिए सब महल रेत हैं। जो चट्टानें हैं आज, कल रेत हो जाएंगी। जो आज रेत है, कल चट्टानें थीं। यहां कुछ रुकता नहीं, सब बहता चला जाता है। जिसे जीवन की यह प्रतीति होने लगती है, उसके भीतर एक खामोशी…। वह देखता है और हंसता है। कोई गाली दे जाता है तो वह हंस लेता है, चकित होता है।

माला वाके हाथ कतरनी कांख में।

ऐसा आदमी, जो अभी क्रोध से भरा है, अहंकार से भरा है वह बड़े पाखंड में पड़ गया है। इससे तो अच्छा था गुरु का सत्संग न करता। इससे तो अच्छा था मंदिर न आता। इससे तो अच्छा था माला हाथ में न लेता। माला उसे पवित्र नहीं कर पायी, उसने माला को अपवित्र कर दिया है।

माला वाके हाथ कतरनी कांख में।

मुंह में राम, बगल में छुरी! राम— राम तो सिर्फ बहाना है, छुरी चलाने का अवसर खोज रहा है।

सावधानी रखना! ये किसी और के लिए कहे गए वचन नहीं हैं, ये प्रत्येक मनुष्य के लिए सार्थक वचन हैं, संगत वचन हैं। तुम्हारे लिए तो और भी, क्योंकि तुम सत्संग में जुड़े हो।

सूझै नाहिं आगि दबी है राख में।

और कभी—कभी यह भी हो जाता है कि ऊपर—ऊपर से क्रोध भी नहीं करता आदमी, ऊपर— ऊपर से लीप—पोत कर लेता है और भीतर— भीतर आग जलती है। दूसरों को शायद धोखा हो जाए, मगर अपने को तो कैसे धोखा दे पाओगे? अंगारा जो भीतर तुम्हारे है, तुम्हें तो पता ही रहेगा। इसलिए प्रत्येक साधक को अपने भीतर निरंतर आत्म—निरीक्षण में लगे रहना चाहिए; देखते रहना चाहिए कि जो मैं बाहर दिखला रहा हूं वैसा मैं भीतर हूं या नहीं हूं? अगर मेरा बाहर और भीतर, अगर मेरा बहिरंग और अंतरंग एक नहीं है, संगीतबद्ध नहीं है, तो मैं पाखंडी हूं। फिर चाहे मैं दुनिया को धोखा देने में सफल हो जाऊं, पर उसका सार क्या है! परमात्मा को धोखा देने में मैं सफल नहीं हो पाऊंगा। परमात्मा मुझे वैसा ही जान लेगा जैसा मैं अपने को जानता हूं, क्योंकि परमात्मा मेरे भीतर मुझ से भी गहरा बैठा हुआ है। शायद बहुत—सी बातें जो मुझे नहीं दिखायी पड़ती अपने भीतर, वे भी परमात्मा के सामने प्रकट हैं।

ऊपर—ऊपर से लोग बदलाहटें कर लेते हैं और भीतर— भीतर वही के वही रह जाते हैं।

मेरे दिल मायूस में क्योंकर न हो उम्मीद

मुर्झाए हुए फूल में क्या यू नहीं होती?

मुर्झाए फूल में भी यू रह जाती है! सब तरफ से जिंदगी से उदास और हार गए लोग भी, जिंदगी से एकदम मुक्त नहीं हो गए होते, जिंदगी की यू रह जाती है। उस यू को ठीक से पहचानते रहना।

यह बहुत आसान है दुनिया में साधु बन जाना; संत बनना कठिन है। और संत और साधु का फर्क यही है। साधु का मतलब : बाहर, जो सबके लिए साधु हो गया है। जिसके कारण बाहर की दुनिया में अब कोई असाधुता नहीं होती। लेकिन भीतर साधु हुआ कि नहीं? क्योंकि यह हो सकता है तुम बाहर हत्या न करो और भीतर हत्या के विचार करो। अकसर तो ऐसा होता है जो बाहर हत्या नहीं करते वे भीतर हत्या के बहुत विचार करते हैं। जो बाहर हत्या कर लेते हैं शायद भीतर विचार भी नहीं करते। अब विचार करने की क्या जरूरत रही जब कर ही लिया? अकसर ऐसा हो जाता है।

मैं जेलों में बहुत दिन तक जाता रहा। कारागह के कैदियों से मेरे लंबे नाते—रिश्ते बने। मैं चकित हुआ यह बात जानकर कि कारागह में जो कैदी हैं——कोई हत्यारा है, कोई चोर है, कोई कुछ है, कोई जीवनभर के लिए कैद में पड़ा है——उनकी आंखों में एक तरह की सरलता दिखाई पड़ती है, जो कि तथाकथित सज्जनों की आंखों में नहीं दिखायी पड़ती। एक तरह का भोलाभालापन मालूम पड़ता है। और मैंने उनसे पूछा, क्योंकि मेरा रस मनोविज्ञान में है, मैं उनसे बार— बार पूछा कि अपने सपने कहो। अनेक कैदी तो मुझे कहे कि हमें सपने आते ही नहीं। किसी ने कहा, कभी— कभी आते हैं।

” किस तरह के आते हैं ”?

तो मैं चकित हुआ जानकर यह बात कि अपराधी अकसर सपने देखते हैं कि वे साधु हो गए, कि अब अपराध नहीं करते हैं। और साधु, जिनको तुम कहते हो, अकसर सपने देखते हैं कि जो— जो अपराध उन्होंने नहीं किए हैं, वे सपनों में कर रहे हैं। जो चोरियां उन्होंने नहीं कीं, वे सपनों में कर लेते हैं। जो काम— भोग उन्होंने जिंदगी में नहीं किया, वह सपने में कर लेते हैं।

तुम्हारा सपना खबर देता है कि तुमने जिंदगी में क्या नहीं किया, क्योंकि सपना परिपूरक है। दिन में उपवास किया तो रात सपने में भोजन कर लेते हो। दिन में पड़ोस की स्त्री को देखकर मन को संभाल लिया और कहा कि मैं साधु हूं, ऐसी बात उठनी ही नहीं चाहिए मेरे मन में; लेकिन रात पड़ोस की पत्नी को लेकर भाग गए। सपने में! सुबह हंसते हो; मगर जो रात हुआ है, वह अकारण नहीं हुआ है। सपनों में सम्राट बन जाते हो, विजेता हो जाते हो। सारी दुनिया में यश— कीर्ति फैल जाती है। सोने के महलों में रहने लगते हैं।

भिखमंगे अकसर सम्राट होने के सपने देखते हैं। जो नहीं है, उसका सपना होता है। क्योंकि सपना एक तरह की परिपूर्ति है। सपना मन को सांत्वना है।

साधु वह, जो बाहर से तो अच्छा हो गया है। संत वह, जो भीतर से भी अच्छा हो गया है, जिसकी साधुता बाहर और भीतर सम हो गयी है; जिसका तराजू बीच में ठहर गया है; जिसके भीतर सपने में भी बुराई नहीं रही है।

सूझै नाहिं आगि दबी है राख में।

अमृत वाके पास रुचै नहिं रांड को।।

” रांड ” शब्‍द समझना। रांड का अर्थ होता है : विधवा। जो परमात्मा से नहीं जुडे हैं, वे सब विधवा हैं। उन्हें अभी दूल्हा मिला ही नहीं। कबीर ने कहा है : मैं तो राम की दुल्हनियां। कबीर ने कहा है हम तो ब्याहि चले…… हमारा तो विवाह हो गया। हम राम की दुल्हनियां है?

जब तक राम तुम्हारे हृदय में विराजमान नहीं हो गया है, तब तक विधवा ही हो। विधवा अ भागी दश है। और यह आध्यात्मिक वैधव्य तो और भी अभागी दश है। और जन्मों — जन्मों से यह वैधव्य चल रहा है। प्यारे से मिलना हुआ ही नहीं।

अमृत वाके पास…। और मजा ऐसा है कि प्यारा बिल्कुल पास है, अपने से ज्यादा पास है। मांगने की बात है और मिल जाए। खटखटाने की बात है और द्वार खुल जाएं।

जीसस का वचन याद करो : खटखटाओ —— और द्वार खुल जाएंगे! मांगो —— और मिल जाएगा! पूछो —— और मिल जाएगा! खोजो —— और मिल जाएगा! सिर्फ द्वार खटखटाने की बात है।

सूफी फकीर राबिया तो और एक कदम जीसस से आगे बढ़ गयी। फकीर हसन रोज—रोज अपनी प्रार्थनाओं में बैठता था और परमात्मा से कहता था : कब से तेरा द्वार पीट रहा हूं, दरवाजा खोल! अब मुझे भीतर आने दे! मैं सिर पटक रहा हूं तेरे द्वार पर। कब से सिर पटक रहा हूं! मेरे सिर को देख! मेरे माथे को देख! तेरे द्वार के पत्थर पर पटकते—पटकते निशान बन गए हैं, अब द्वार खोल! रोता था, पुकारता था। एक दिन राबिया वहां से गुजरती थी फकीर हसन के दरवाजे के पास से। वह अपनी सुबह की प्रार्थना कर रहा था—— वही रोज की प्रार्थना। राबिया पीछे खड़ी हो गयी। उसने कहा : हसन, सुन! दरवाजा खुला है। नाहक सिर न पीट। अगर भीतर जाना है तो जा, नहीं जाना है तो मत जा। मगर दरवाजा खुला है।

दरवाजा बद कब था?

राबिया अदभुत स्त्री हुई। ——उसी कोटि में, जिसमें बुद्ध और महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट। बड़ी हिम्मतवर स्त्री थी। हसन को पसीना छूट गया था, कहते हैं जब राबिया ने यह कहा कि तू सिर पटक रहा है सिर्फ बचने के लिए; भीतर जाना नहीं है, तो सिर पटकने का बहाना कर रहा है। सिर पटकना क्यों? दरवाजा खुला है।

जीसस ने कहा है : खटखटाओ और दरवाजा खुलेगा। राबिया कहती है : खटखटाने की जरूरत नहीं है, गौर से देखो——दरवाजा खुला है!

अमृत वाके पास, रुचै नहिं रांड को।

प्यारा इतना निकट है, लेकिन हम ऐसे अभागे हैं कि हमें रुचता नहीं। हम कहते हैं परमात्मा कहां? पूछना चाहिए कि परमात्मा कहां नहीं है? हम सोचते हैं परमात्मा होगा कहीं स्वर्ग में। यह तुमने परमात्मा को निष्कासित कर दिया पृथ्वी से। तुमने चालबाजी की। तुम परमात्मा को पास नहीं चाहते, तुमने स्वर्ग में बिठा दिया——दूर, इतने दूर, इतने दूर कि तुम्हारे अंतरिक्षयान भी वहां तक नहीं पहुंच सकेंगे।

हम सदा परमात्मा को दूर बिठाने में बड़ा रस लेते रहे हैं। जब तक हिमालय पर आदमी नहीं जा सकता था, हमने हिमालय पर बिठा रखा था——कैलाश पर। जब आदमी कैलाश पहुंच गया, हमने कहा : अब तो वहां बिठाना मुश्किल है, फिर पास पड़ जाएगा। चांद पर बिठा दिया था। अब मुश्किल आ गयी। अब चांद पर आदमी पहुंच गया। अब हम उसको और आगे सरकाएंगे। हम सरकाते ही रहेंगे। हम परमात्मा को वहां रखते हैं, जहां हम नहीं हैं। क्योंकि परमात्मा के निकट होना खतरनाक है। खतरनाक है इसलिए, कि उस प्यारे पर नजर जाएगी तो तुम्हें मिटना होगा। तुम्हारी बूंद उस सागर में गिर जाएगी तो समाप्त हो जाएगी। अमृत वाके पास, रुचै नहिं रांड को।

हम ऐसे अभागे हैं कि हमें अमृत नहीं रुचता, हमें जहर रुचता है। हमें जहर का स्वाद लग गया है।

स्वान को यही स्वभाव गहै निज हाड़ को।।

हमारी हालत कुत्ते जैसी हो गयी है। कुत्ते को देखा है? सूखी हीइडयां चूसता है, जिनमें कुछ रस नहीं है। कुत्ते सूखी हीइडयों के पीछे दीवाने होते हैं। एक कुत्ते को सूखी हड्डी मिल जाए तो सारे मुहल्ले के कुत्ते उससे लड़ने को तैयार हो जाते हैं। बड़ी राजनीति फैल जाती है। बड़ा विवाद मच जाता है। बड़ी पार्टियां खड़ी हो जाती हैं। कुत्तों को इतनी सूखी हड्डी में रस क्या है? रस तो उसमें है ही नहीं। फिर यह रस कैसा? हड्डी को तो निचोडो भी, मशीनों से, तो भी कुछ निकलने वाला नहीं है——सूखी हड्डी है। फिर होता क्या है?

एक बड़े मजे की घटना घटती है। कुत्ता जब सूखी हड्डी को चूसता है तो उसके मसूढे, उसकी जीभ, उसका तालू सूखी हड्डी की चोट से टूट जाता है जगह—जगह, उससे खून बहने लगता है। वह उसी खून को चूसता है और सोचता है हड्डी से आ रहा है। और कुत्ते का तर्क भी ठीक है, क्योंकि कुत्ते को और इससे ज्यादा पता भी क्या चले! खून गले के भीतर जाता हुआ मालूम पड़ता है——प्रमाण हो गया कि हड्डी से ही आता होगा।

तुम जरा गौर करोगे तो तुमने जिंदगी में जिन बातों को सुख कहा है, वे सब ऐसी ही हैं। हड्डी से सिर्फ तुम्हारा ही खून तुम्हारे गले में उतर रहा है। हड्डी से कुछ नहीं आ रहा है, सिर्फ घाव बन रहे हैं। मगर तुम सोच रहे हो कि बड़ा रस आ रहा है। और जिस हड्डी से रस आ रहा हैD, उसको छोड़ोगे कैसे? अगर कोई छुड़ाना चाहे तो तुम मरने—मारने को तैयार हो जाओगे। कुत्ते जैसी दशा है आदमी की।

तुम सोचते हो धन के मिलने से सुख आता है? तो तुम उसी गलती में हो, जिसमें कुत्ते हैं। धन से सुख नहीं आता, लेकिन आता तो लगता है। तो जरूर कहीं बात होगी। आता तो लगता है, गले से उतरता तो लगता है। क्योंकि धनी आदमी प्रसन्न दिखता है, प्रफुल्लित दिखता है; उसकी चाल में गति आ जाती है। देखा! पैसे पड़े हों खीसे में तो गर्मी रहती है। सर्दी में भी गरमी रहती है!

मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन और उसका बेटा, दोनों एक जंगल से भाग रहे थे, पीछे शेर लगा था। शिकार को गए थे, लेकिन हालत उल्टी हो गयी थी। शेर शिकार कर रहा था। घबड़ाहट में भाग खड़े हुए थे। एक नाले पर छलांग लगायी। बेटा तो बीच नाले में गिर गया, लेकिन मुल्ला बूढा उस पार पहुंच गया। जब दोनों संभले, बैठे, तो बेटे ने पूछा कि यह बात मेरी समझ में नहीं आयी। मैं जवान हूं। मैंने भी छलांग लगायी, पूरी ताकत से लगायी, क्योंकि शेर पीछे लगा है। मगर मैं तो बीच में पड़ गया नाले के और पानी में भीग गया। तुम उस तरफ कैसे निकल गए?

मुल्ला ने कहा : उसके पीछे राज है। उसने अपना खीसा खनखनाया। पुरानी कहानी है। रुपए खनखन—खनखन हुए। उसने कहा : जब भी मैं कहीं जाता हूं तो रुपए खीसे में रखता हूं, इससे गर्मी रहती है। इन रुपयों की वजह से छलांग लग गयी। आज अगर खीसे में रुपए न होते, मैं भी गिरता।

तुम देखते हो, जब तुम्हारे पास रुपए होते हैं तो चाल बदल जाती है! चाल में एक शान आ जाती है! चलते जमीन पर हो, पैर नहीं पड़ते जमीन पर। और जब रुपए नहीं होते, जब पास में कुछ नहीं होता, तो बिल्कुल सिकुड़ जाते हो। चाल में गति ही नहीं मालूम होती। जब पद पर होते हो तब देखा, उड़ने लगते हो!

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि राजनेता जब तक पद पर होते हैं, तब तक स्वस्थ रहते हैं। जैसे ही पद से उतरे कि बीमार होने शुरू हो जाते हैं। राजनेता जब तक जीतते रहते हैं, जब तक विजय—यात्रा बनती रहती है, तब तक जीते हैं, लंबे जीते हैं। और जैसे ही हार आनी शुरू होती है, वैसे ही मौत आनी शुरू हो जाती है। चीन ने अगर हमला न किया होता तो जवाहरलाल नेहरू ज्यादा जिंदा रह सकते थे। चीन के हमले ने तोड़ दिया। प्रतिष्ठा उखड़ गयी। मन डांवाडोल हो गया।

राजनेता पद पर होता है तो एक बल मालूम होता है। बल आ तो रहा है कहीं से। हड्डी में रस तो आ रहा है। कहां से आ रहा है, यह पक्का नहीं हो पाता। धन होता है तो आदमी बल में होता है; ताकत होती है, वजन होता है। धन चला जाता है तो सब गड़बड़ हो जाती है। जैसे ही कोई आदमी राजपद से नीचे उतरता है, उसकी हालत वैसी ही हो जाती है जैसे जब कपड़ा इस्त्री खो देता है, लुंज—पुंज हो जाता है; या जूता बहुत दिन चलते—चलते चलते— चलते टूट—फूट जाता है, सब तरह से सड—गल जाता है।

और एक बार तुम पद से नीचे उतरे कि फिर तुम्हें कोई नहीं पूछता। तो धन और पद से कहीं कोई रस बहता जरूर होगा, नहीं तो इतने लोग दीवाने न होते। कहां से बहता होगा? मनोविज्ञान… और धर्म ने तो मनोविज्ञान में बड़ी गहरी खोजें की हैं, जो आधुनिक मनोविज्ञान अभी पकड़ भी नहीं पाया है; लेकिन पकड़ने के रास्ते पर है। क्या खोज है? खोज यह है कि जब तुम्हारे पास धन होता है तो जो रस आता है, वह धन के कारण नहीं आता। धन के कारण आ ही नहीं सकता, नहीं तो बुद्ध को भी आया होता, महावीर को भी आया होता। फिर किस कारण आता है? अहंकार के कारण आता है। अहंकार बलिष्ठ मालूम होता है। मैं कुछ हूं! पद पर होते हो तो लगता है : मैं कुछ हूं! और मजा यह है कि अहंकार तुम्हारी आत्मा में घाव कर रहा है, तुम्हें मवाद से भर देगा। अहंकार ही नरक पैदा करेगा। लेकिन अहंकार ही रस दे रहा है।

वह हड्डी जो कुत्ता चूस रहा है, वह इसके मुंह में घाव बना रही है। मगर घावों का उसे पता नहीं है। वह तो जब होगा तब देखा जाएगा। और जब उसे पता चलेगा तब शायद वह संबंध भी न जोड़ पाएगा कि हड्डी ने बनाया। हड्डी ने तो रस दिया था। पद पर रस मिल रहा है—— वस्तुत : अहंकार मिल रहा है। धन से रस मिल रहा है——वस्तुत : अहंकार मिल रहा है।

और आज नहीं कल, यही अहंकार नरक पैदा करता है, क्योंकि इसी अहंकार से क्रोध पैदा होता है। इसी अहंकार से लोभ पैदा होता है। इसी अहंकार से मत्सर पैदा होता है। इसी अहंकार सेद् ईष्या पैदा होती है। इसी अहंकार से जीवन संघर्ष बन जाता है। जीवन के सारे नरक का फैलाव इसी अहंकार के घाव से होता है। इसमें मवाद बढ़ती ही चली जाती है।

रस तो कुत्ते को मिलता है निश्‍चित, मगर अपने ही प्राणों का रस मिल रहा है——और चोट पहुंचा कर मिल रहा है——और व्यर्थ की कता कुत्ता कर रहा है। लेकिन आदमी भी वैसा करता है।

अमृत वाके पास रुचै नहिं रांड को।

स्वान को यही स्वभाव गहै निज हाड़ को।।

का भे बात बनाए, परचै नहिं पीव सों।

कहते हैं धनी धरमदास : बातें बनाने से कुछ भी न होगा, जब तक परमात्मा से परिचय न हो। सिद्धांत और शास्‍त्र और दर्शन और बड़ी लफ्फाजी और बड़ा पांडित्य! का भे बात बनाय… इन बातें बनाने से कुछ भी न होगा। तुम्हारा ईश्वर भी तुम्हारी बकवास है। और तुम्हारी प्रार्थना भी तुम्हारी बकवास है। तुम्हें अनुभव कुछ भी नहीं है।… परचै नहिं पीव सों। उस प्यारे से परिचय नहीं हुआ है अभी।

किताब में खोजोगे, परिचय होगा भी कैसे? शब्‍द को पकड़ोगे, परिचय होगा भी कैसे? उधार है तुम्हारा ज्ञान। सब कूड़ा — करकट है। स्वानुभव से कुछ हो तो ही सत्य है, अन्यथा सब असत्य है।

अंतर की बदफैल, होइ का जीव सों। और फिर तुम जितना भी कर रहे हो वह सब व्यर्थ चला जाएगा, क्योंकि भीतर बुनियादी भांति अभी मौजूद है। अंतर की बदफैल अभी भीतर अहंकार मौजूद है। अभी जड़ तो मौजूद है, पते काटते रहो, नए पते निकलते आएंगें।

इसलिए ज्ञानियों ने कहा है : और कुछ करने के पहले एक बुनियादी बात कर लेना —— अहंकार की जड़ काट देना। यही सतगुरु के शब्‍द जानने का अर्थ है। जड़ काट देना, पते मत काटते रहना।

मेरे पास लोग आते हैं। शायद ही कभी कोई आकर यह कहता हो : मैं अहंकार से कैसे छुटकारा पाऊं? लोग आते हैं, वे कहते हैं : क्रोध बहुत है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं? कोई कहता है : लोभ बहुत है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं? कोई कहता है : मोह बहुत सताता है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं? ये सब पते हैं। इनको तुम काटते रहो, नए पते निकलेंगे। सच तो यह है, एक पता काटो, तीन पते निकलते हैं। इसलिए तो कलम करते हैं। वृक्ष को घना करना हो तो कलम करते हैं। जड़ की कोई बात ही नहीं पूछता। और यह भी हो सकता है कि पते भी तुम इसीलिए काटना चाहते हो, ताकि जड़ और मजबूत हो जाए। क्योंकि क्रोध से अहंकार को चोट लगती है, लोग कहते हैं : अरे, क्रोधी! तो गौरव — गरिमा क्षीण होती है। तुम चाहते हो कि लोग कहें अक्रोधी, यह रहा साधु, संत, महात्मा!

तुम तैयार हो —— क्रोध भी छोड़ने को —— अगर लोग तुम्हें महात्मा कहें। तुम तैयार हो —— लोभ भी छोड़ने को —— अगर लोग तुम्हें महात्मा कहें। तुम तैयार हो —— मोह भी छोड़ने को —— अगर लोग तुम्हें महात्मा कहें। लेकिन यह बड़े मजे की बात हो गयी। तुमने पते तो काटे और सब पत्तों की खाद बनाकर जड़ में दे दी। जड़ और मजबूत हो गयी। मजबूत जड़ नए पते पहुंचा देगी, नए पते बन जाएंगे। जो वृक्ष अभी फूल भी नहीं रहा था, शायद फूलने भी लगे। और जो वृक्ष अभी फलवान न हुआ था, शायद फलवान हो जाए।

अंतर की बदफैल, होइ का जीव सों।

फिर तुम कुछ भी करते रहो, कुछ भी नहीं होगा। भीतर का मूल सूत्र बदलो।

कहै कबीर पुकारि, सुनो धेरम आगरा।

धरमदास कहते हैं : कबीर ने मुझे पुकारा। गुरु का अर्थ है : पुकार।

कहै कबीर पुकारि, सुनो धरम आगरा।

कहा धरमदास को कि तेरे भीतर खान है सारे धनों की। आगरा… आगार! तू घर है परमात्मा का। तू निवास है उसका। तू मंदिर है उसका। कहां खोजने जाता है? किस धन में? किस पद में? किस पागलपन में पड़ा है? आंख बंद कर और देख! आंख बंद करके देख!

संसार आंख खोलकर देखा जाता है, परमात्मा आंख बंद करके देखा जाता है। संसार दूर—दूर है, उसके लिए यात्रा करनी पड़ती है; परमात्मा पास—पास है, उसके लिए सब यात्रा छोड़ देनी पड़ती है।

कहै कबीर पुकारि, सुनो धेरम आगरा।

बहुत हंस लै साथ, उतरो भवसागरा।।

और कहा धनी धरमदास को कि तूने तो पा लिया, तुझे तो दिखायी पड़ गया, तूने मेरी पुकार सुन ली।

पुकार सुन लो तो क्षण में हो जाता है मिलन, क्योंकि हमने वस्तुत : परमात्मा को कभी खोया नहीं। जैसे मछली ने सागर नहीं खोया है, लेकिन सागर की याद नहीं है। सागर में ही है और सागर की विस्मृति हो गयी। जिस दिन याद आ जाती है… बस याद की बात है।

स्मरण!… उसी क्षण क्रांति घट जाती है।

पुकार सुन ली धरमदास ने तो क्रांति घट गयी। तो एक वचन में पहले कहते कबीर पुकारि, सुनो धरम आगरा। और दूसरे वचन में कहते हैं : बहुत हंस लै भवसागरा।।——और जब मुझे भी दिखायी पड़ गया तो उन्होंने कहा : अब तू बैठा अब तू इस संपदा को अपने भीतर ही संभाल कर मत रख लेना। बहुत हंस लै औरों को जगा! जो—जो सोए हैं, उनको पुकार! जैसे मैंने तुझे पुकारा, तू औरों को पुकार फैलने दे। ज्योति से ज्योति जले! फैलने दे यह ज्योति। और बहुत हंसों को भवसागर से उतर जा। जो मिला है उसे बांट।

खुदा अगर दिले—फितरत सनात दे तुझको

सकूते लाला—ओ—गुल से कलाम पैदा कर

अगर परमात्मा संपदा दे तो फिर सब कुछ उस संपदा को लुटाने में लगा देना।

सकूते लाला—ओ—गुल से कलाम पैदा कर

तेरी नजर से चमनजार सरमदी बन जाए

कली—कली की जबां से पयाम पैदा कर

फिर एक—एक जीवन की कली से उसका ही संदेश। आंख से, हाथ से, पैर से, उठने—बैठने से, बोलने से, चुप होने से——उसका ही संदेश!

ऐ जवानाने—वतन रूह जवा है तो उठो

आंख इश महशरे—नौ की निगरा है तो उठो

खौफे—बेहुरमती—ओ—फिक्रे जिया है तो उठो

पासे—नामूसे—निगाराने—जहा है तो उठो

उट्ठो नक्कारए—अफलाक बजा दो उठ कर

एक सोए हुए आलम को जगा दो उठ कर

दूर इंसान के सर से यह मुसीबत कर दो

आग दोजख की बुझा दो उसे जन्नत कर दो

जिन में भी थोड़ी सामर्थ्य है, वे पहले अपने भीतर जाएं, जगें! और जब जग जाएं तो जगाए।

बुद्ध ने कहा है : जो जागे और जगाए न, उसका जागरण अधूरा है। क्योंकि जिसे ध्यान उपलब्ध हो, उसे करुणा उपलब्ध न हो——उसका ध्यान अधूरा है। ध्यान का दीया जलता है तो करुणा का प्रकाश फैलता है।

सूतल रहलौं मैं सखियां, तो विष कर आगर हो।

अगर मैं सोता ही रहता तो विष का घर था। जागा तो अमृत हो गया। बस इतना ही फर्क है। जागते—— अमृत, सोते—— विष। विष ही अमृत हो जाता है। इतना ही कीमिया है। इतना ही रसायनशास्‍त्र है। इतना— सा सूत्र है जादू का।

सूतल रहलौं मैं सखियां तो विष कर आगर हो।

सतगुरु दिहलै जगाइ, पायौं सुखसागर हो।।

सदगुरू ने जगा दिया, पुकारा, और मैंने पुकार सुन ली, और चमत्कार हो गया। जहां जहर था वहां अमृत हो गया। जहां मृत्यु थी वहां परमजीवन हो गया। जहां अंधेरा था वहां प्रकाश ही प्रकाश हो गया। पदार्थ बचा ही नहीं, परमात्मा ही परमात्मा हो गया।

जब रहली जननी के ओदर, परन सम्हारल हो।

बड़ा प्यारा वचन है! खूब गौर से समझना। जागकर सुनना।

जब रहली जननी के ओदर, परन सम्हारल हो।

धरमदास कहते हैं : गुरु से संबंधित होना, फिर से गर्भ में प्रवेश करना है; जैसे फिर से मां का गर्भ मिला, क्योंकि गुरु दूसरा जन्म देगा। एक जन्म तो मां से मिला है, जो देह का जन्म है। मां से तो सभी व्यक्ति शुद्र की तरह पैदा होते हैं। दुनिया में कोई ब्राह्मण की तरह न कभी पैदा हुआहै, न होता है; सब शुद्र की तरह पैदा होते हैं।

दुनिया में दो ही जातियां हैं—— शुद्र और ब्राह्मण। पैदा सभी शुद्र की तरह होते हैं और सभी की संभावना है कि ब्राह्मण होकर मरें। लेकिन बहुत कम सौभाग्यशाली ब्राह्मण होकर मरते हैं।

अमृत वाके पास, रुचै नहिं रांड को।

स्वान को यही स्वभाव, गहै निज हाड़ को।।

बिल्कुल पास होती है संपदा हमारी। हम सब ब्राह्मण होकर मर सकते हैं। ब्राह्मण यानि ब्रह्म को जानकर। शुद्र यानि अपने को देह ही मानकर जो जीता है, वही श(द्र। जिनको तुम शुद्र समझते हो वे शुद्र नहीं हैं। और जिनको तुम ब्राह्मण समझते हो वे ब्राह्मण नहीं हैं। ब्राह्मण तो कोई बुद्ध, कोई कबीर, कोई मुहम्मद, कोई जरथुस्त्र। शुद्र तो सारी दुनिया है।

शुद्र यानी सोया हुआ।

ब्राह्मण यानि जागा हुआ।

एक जन्म तो मां से मिलता है; उससे तो सभी शुद्र पैदा होते हैं। और एक जन्म गुरु से मिलता है; उस जन्म के बाद ही कोई ब्राह्मण होता है। जो गुरु के गर्भ से गुजरता है वही ब्राह्मण हो पाता है।

जब रहली जननी के ओदर, परन सम्हारल हो।

धनी धरमदास कहते हैं : जब गुरु से संग जुड़ा तो तुम फिर गर्भ में प्रविष्ट हुए, फिर नया गर्भ मिला। नए जीवन का द्वार खुला। अब तुम जान सकोगे अपने सच स्वरूप को, अपनी सच्चाई को। अब पुनरुज्जीवन होगा। बहुत संभाल कर रहना। क्योंकि मां के पेट में तो बच्चा सोया रहता है, क्योंकि जन्म शुद्र का होनेवाला है। बच्चे को जागने की जरूरत नहीं है। बच्चा चौबीस घंटे सोता है मां के पेट में। जन्म के बाद फिर तेईस घंटे सोता है, फिर बाईस घंटे, फिर अठारह घंटे, फिर आठ घंटे पर ठहर जाता है। आठ घंटे आंख बंद करके सोता है और बाकी सोलह घंटे आंख खोलकर सोता है। मगर नींद जारी रहती है।

गुरु के गर्भ में प्रवेश का अर्थ होता है——ध्यान में प्रवेश। अब जागकर जीना।.. .परन सम्हारल हो! अपने प्रण को संभालना।

जब लौं तन में प्रान, न तेहि बिसराइब हो।

और जब तक प्राण रहें, तब तक भूले न गुरु। भूले न गुरु का संदेश। भूले न उसकी पुकार। सुधि जगती रहे।

गुरु जन्म है और मृत्यु भी। दूसरी बात भी खयाल में ले लेना। मां से जो जन्म मिला था—— देह का——उसकी तो मृत्यु हो जाएगी गुरु के साथ। और गुरु से नया जन्म मिलेगा। नया जन्म तभी मिल सकता है जब पुराने की मृत्यु हो जाए। जब तुम जान लो कि मैं देह नहीं हूं, तभी तुम जान सकोगे कि मैं कौन हूं। पदार्थ नहीं हो तो जान सकोगे कि मैं परमात्मा हूं। तत्वमसि श्वेतकेतु! श्वेतकेतु, वह तू है! तू वह है! लेकिन उसे जानने के पहले इस देह के तादात्म्य से छूटना होगा। यही मृत्यु है।

जहां उजड़ा वहीं तामीर होगा आशियां अपना

तड़पती बिजलियों पर हंस रहा है गुलसिता अपना

एक तरफ तो उजड़ जाएगा आशियां। एक तरफ तो सब जल जाएगा। उसी राख से उठेगा नया जीवन।

तो गुरु कठोर भी होगा। गुरु चोट भी करेगा, तो ही तो जगा सकता है। इसलिए जो गुरु सिर्फ सांत्वना देता हो, बचना, सावधान रहना! वहां से तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति घटनेवाली नहीं है। जो गुरु तुम्हें सांत्वना देता हो, वह तुम्हें लोरी का गीत सुना रहा है। उससे तुम्हारी नींद और गहरी हो जाएगी। जो गुरु तुम्हें जगाना चाहता है, कठोर होगा, झकझोरेगा।

सुबह देखते हो न, तीन बजे रात उठना है, अलार्म बजता है, कैसा क्रोध आता है! अपनी ही घड़ी को पटक देते हैं लोग उठाकर! खुद ही अलार्म भर कर रात सोए थे, अलार्म दुश्मन जैसा मालूम पड़ता है। तुम्हीं जाकर गुरु से प्रार्थना करते हो मुझे जगाओ! लेकिन जब वह जगाएगा तो जन्मों—जन्मों की नींद टूटेगी, बड़ी पीड़ा होगी, बड़े कष्ट होंगे। अगर अपने प्रण की याद रखी तो ही जग पाओगे, अन्यथा भाग जाओगे। करोड़ों में एक—आध गुरु के पास पहुंचता है। फिर जो पहुंचते हैं गुरु के पास, सब टिक नहीं पाते; उनमें से बहुसंख्यक भाग जाते हैं।

पुरानी तिब्बत में कहावत है : हजार बुलाए जाते हैं तो दस पहुंचते हैं; जो दस पहुंचते हैं, उनमें से नौ भाग जाते हैं, एक ही बचता है। मगर जो बच जाए, वह धन्यभागी है। वही ब्राह्मण हो पाता है।

एक बुंद से साहेब मदिल बनावल हो।

बिना नेव के मदिल बहु कल लागल हो।।

इसके दो अर्थ हैं। एक तो अर्थ है, बूंद का अर्थ होता है : वीर्य — बिंदु। परमात्मा ने चमत्कार किया है, एक छोटे — से वीर्य — बिंदु से… सच तो यह है पूरे बिंदु से भी नहीं, क्योंकि एक वीर्य के बिंदु में करोड़ों जीवाणु होते हैं, करोड़ों कोष्ठ होते हैं, सैल होते हैं। एक सैल से ही जीवन निर्मित होता है, पूरे बिंदु से नहीं। एक बार के सं भोग में करीब एक करोड़ सैल होते हैं। एक करोड़ व्यक्ति पैदा हो सकते थे, उनमें से एक, वह भी हमे श नहीं, कभी — कभार पैदा होता है। जो कोष्ठ जीवन बनता है, वह आंख से, नंगी आंख से तो देखा ही नहीं जा सकता; उसके लिए खुर्दबीन चाहिए।

बड़ा चमत्कार किया है! एक अदृशय —— छोटे से कण से सारा जीवन निर्मित हुआ है। देह, मन, तन सब उससे फैले हैं। यह तो एक अर्थ है। एक बूंद से साहेब मदिल बनावल हो। यह जीवन का मंदिर बनाया है। एक छोटी — सी ईंट है, उस पर सारा मंदिर खड़ा है।

बिना नेव के मदिल, बहु कल लागल हो।।

बड़ा चमत्कार मालूम होता है, बड़ा विस्मय मालूम होता है। लेकिन यह कुछ भी नहीं है उस दूसरे चमत्कार के मुकाबले। क्योंकि गुरु ध्यान की एक ही छोटी बूंद से, फिर एक मंदिर बनाता है। वही मंदिर परमात्मा का आवास बनता है। एक छोटी—सी बूंद.. .अदृश्य बूंद ध्यान की, गुरु से शिष्य में गिर जाती है। जो झुका है, उसमें गिर जाती है। बस उसी बूंद के आसपास मंदिर बनना शुरू हो जाता है।

इसलिए श्रद्धा को इतना प्रशंसित किया गया है, इतना गुण गाया गया है श्रद्धा का। क्योंकि श्रद्धा के ही किसी क्षण में बूंद सरक सकती है गुरु से शिष्य में। अगर शिष्य जरा भी संघर्षशील है, विवादी है, जरा भी संदेह से भरा है, संभ्रम में है, तो अपनी सुरक्षा करेगा, बूंद प्रवेश नहीं कर पाएगी।

जैसे स्त्री—पुरुष के बीच संभोग घटता है, उस संभोग में पुरुष से जीवन—ऊर्जा स्त्री में प्रवेश करती है——ठीक वैसा ही संभोग गुरु और शिष्य के बीच बड़े आत्मिक तल पर घटता है। श्रद्धा हो परिपूर्ण, शिष्य बिल्कुल झुका हो, जरा भी संदेह न हो, भरोसा पूरा हो, तो ही वह परम संभोग घट सकता है। उसके घटते ही मंदिर बनना शुरू हो जाता है। कब बूंद सरकती है, इसका तो पता भी नहीं चलता, क्योंकि अदृश्य है। जब मंदिर बन जाता है तभी पता चलता है। तभी लौट कर शिष्य देखता है कि जरूर कभी बूंद प्रवेश कर गयी होगी। कब पहली ईंट रखी गयी, पता नहीं——और बिना नींव के मंदिर बन जाता है! एक चमत्कार है।

एक बूंद से साहेब मदिल बनावल हो।

बिना नेव के मदिल बहु कल लागल हो।।

बड़ा विस्मय होता है।

इहवा गाव न ठांव……।

और एक ऐसे लोक में प्रवेश हो जाता है, जहां न कोई गांव है, न कोई ठांव, न कोई सीमा है, न कोई पता—ठिकाना है।… नहीं पुर पाटन हो।

नाहिन बाट बटोही नहीं हित आपन हो।।

न कोई संगी—साथी है, न कोई अपना—पराया है। एक ऐसे लोक में प्रवेश होता है, जहां मैं तू

के पार हो गए; जहां समय और क्षेत्र के हो जाते हैं।

इहवां गांव न ठांव, नहीं पुर पाटन हो।

नाहिन बाट बटोही, नहीं हित आपन हो।।

सेमल है संसार भुवा उधराइल हो।

सेमर का वृक्ष देखा न! सेमर का फूल है बिखर जाता है। हम बना भी नहीं पाते पार हो गए; जहां टाइम और स्पेस दोनों ही विदा संसार। उड़ जाती है कभी भी रुई। ऐसा ही संसार और बिखर जाता है। हम बनाते ही रहते हैं और बिखर जाता है। सभी अपनी यात्रा के मध्य में ही गिर पड़ते हैं और समाप्त हो जाते हैं। और बना भी हम क्या रहे हैं; बादलों को मुट्ठियों में बांध रहे हैं, कि ओस—कणों को इकट्ठा कर रहे हैं।

सेमल है संसार, भुवा उघराइल हो।

सुंदर भक्ति अनूप, चले पछिताइल हो।

और जिसने इसमें ही अपने को उलझाया, वह पछताएगा बहुत। बहुत—बहुत पछताएगा। क्योंकि यह अवसर अपूर्व था। इस अवसर में सुंदर भक्ति अनूप… प्रेम का दीया जल सकता था, परमात्मा—प्रेम की ज्योति बन सकती थी। मगर हम अंधेरे को ही इकट्ठा करते रहे। हम अंधेरे की ही गठरियां बांधते रहे। हम अंधेरे को तिजोडियों में संभालते रहे।

सुंदर भक्ति अनूप, चले पछिताइल हो।।

नदी बहै अगम अपार, पार कस पाइब हो।

यह जो अपार सागर है——अंधेरे का, मृत्यु क;—इसे पार कैसे करोगे? यह कैसे पार होगा? प्रेम की नाव बनाओ। और सब नावें डूब जाएंगी। धन की नाव डूब जाती है। पद की नाव डूब जाती है। बस एक नाव नहीं डूबी कभी——प्रेम की नाव।

सतगुरु बैठे मुख मोरि काहि गोहराइब हो।।

प्रेम के माध्यम से यह घटना घट गयी कि अब सतगुरु मेरे भीतर बैठ गए हैं। धनी धरमदास कहते हैं : सतगुरु बैठे मुख मोरि, काहि गोहराइब हो। अब तो पुकारने की भी जरूरत नहीं रही। अब तो प्रार्थना की भी जरूरत नहीं रही। अब कैसा भजन, अब कैसा कीर्तन! अब तो स्वास—स्वास उसी में पगी है, उसी में रमी है। रक्त में वही बह रहा है। हृदय में वही धड़क रहा है।

सतगुरु बैठे मुख मोरि, काहि गोहराइब हो। ऐसी घड़ी जरूर आती है अगर शिष्य झुक जाए। और उस छोटी—सी बूंद को——अदृश्य बूंद——को अपने भीतर ले—ले। जैसे सीप बूंद को अपने भीतर ले लेती है और बूंद फिर मोती बन जाती है——ऐसे गुरु की अदृश्य बूंद को शिष्य जब भीतर अपने ले—ले तो मोती बनता है——मोती, जिससे बहुमूल्य और कोई मोती नहीं होता। ऐसी संपदा मिलती है जो अकूत है। ऐसा साम्राज्य मिलता है, जो शाश्वत है। फिर कैसी प्रार्थना! फिर कैसी पूजा! फिर सत्संग पर्याप्त है। और सत्संग भीतर होने लगा तो बाहर की भी जरूरत नहीं रह जाती। जहां शिष्य मगन होकर बैठ जाता है वहीं गुरु से जुड जाता है।

सतगुरु बैठे मुख मोरि, काहि गोहराइब हो।।

सतनाम गुन गाइब, सत ना डोलाइब हो।

अब गाऊं कि न गाऊं, पुकारूं कि न पुकारूं, मगर मेरे भीतर जो सत्य जम कर बैठ गया है वह डुलता नहीं, हिलता नहीं। निस्पंद! निस्तरंग। सतगुरु बैठे मुख मोरि, काहि गोहराइब हो।। अब मैं क्यों पुकारूं? लेकिन कभी—कभी मौज में, कभी—कभी आनंद में पुकारूं भी, तो भी कुछ हर्ज नहीं। भजन करूं या न करूं?

सतनाम गुन गाइब..। कभी—कभी गुण भी गाता हूं। वह भी बहने लगता है, जैसे बाढ़ आ जाती है। रोके नहीं रुकता।

सतनाम गुन गाइब सत न डोलाइब हो। अब चाहे चुप रहूं चाहे बोलूं, उठूं कि बैठूं, कि सोऊ कि जागूं.. सत न डोलाइब हो… वह जो भीतर ठहर गया है सत, अब डोलता नहीं। उसके ठहरते ही सारा जगत् ठहर जाता है। समय ठहर जाता है। उसके ठहरते ही सारे उपद्रव ठहर जाते हैं। उसी ठहराव का नाम मोक्ष है। कृष्ण ने उसी को स्थिर—धी: कहा है, स्थितिप्रज्ञ कहा है।

कहै कबीर धरमदास, अमर घर पाइव हो।।

देखा जब गुरु ने कि सत्य ठहर गया है शिष्य में, तो गुरु ने कहा। गुरु कहेगा। शिष्य को घोषणा नहीं करनी पड़ती। शिष्य को कहने नहीं जाना पड़ता। गुरु ही कह देता है एक दिन कि बस बात हो गयी… अमर घर पाइब हो… कि तूने पा लिया अमर घर! तू अपने घर लौट आया। अब कहीं जाने को नहीं है।

फिर जो मिला है, उसे बांटो।

कहै कबीर पुकारि, सुनो धेरम आगरा।

बहुत हंस लै साथ, उतरो भव सागरा।।

बहके सब जिय की कहत, ठौर कुठौर लखै न।

छिन औरे छिन और से, ए छवि छाके नैन।।

और जब उस परमात्मा की छवि से नैन छक जाते हैं… ए छवि छाके नैन… जब उस परमात्मा की छवि से आंखें भर जाती हैं… बहके सब जिय की कहत… फिर तो एक बहक आ जाती है। जो भी सुनने को राजी हो, जो भी जरा अवसर दे, उसी से कहने का मन होता है। सुसमाचार। बहके सब जिय की कहत…। एक मतवालापन होता है, एक मस्ती होती है। उनको भी कह दें, जो भटकते हैं। उनको भी कह दें जो अभी खोजते हैं, जिनके जीवन में अभी कोई आनंद नहीं आया। बहके सब जिय की कहत….। लेकिन वह एक तरह की बहक है। भक्त जो कहता है : वह कोई पांडित्य नहीं है, वह कोई सुविचारित, रेखाबद्ध, तर्कयुक्त वक्तव्य नहीं है——बहक है। मस्ती है। बेखुदी है।

बहके सब जिय की कहत ठौर कुठौर लखै न।

फिर वह यह भी फिक्र नहीं करता कि कौन पात्र है कौन अपात्र है। ठौर कुठौर लखै न! वह यह भी फिक्र नहीं करता——किससे कहना है, किससे नहीं कहना। फुर्सत कहां है? भेद की सुविधा कहां है। पात्र—अपात्र को देखनेवाला अहंकार कहां? जो कहता है ये पात्र ये अपात्र, उसके भीतर अभी अहंकार शेष है।

मेरे पास लोग आकर कहते हैं कि आप किसी को भी संन्यास दे देते हैं! पात्र हो कि अपात्र, इसकी फिक्र ही नहीं करते!

बहके सब जिय की कहत ठौर कुठौर लखै न।

अब कौन ठीक, कौन गलत! सभी ठीक है अब। छिन औरे छिन और…। एक क्षण इससे कह रहा है भक्त, दूसरे क्षण उससे कह रहा है।

छिन औरे छिन और से, ए छवि छाके नैन।।

ये आंखें जो उसकी छवि से भर गयी हैं, अब सब जगह लुटाने लगती हैं। यह हृदय जो उसकी सुगंध से भर जाता है, उसकी सुवास को लुटाने लगता है। यह भीतर का दीया जो उसके प्रकाश से जगमगा उठता है, यह रोशनी को बांटने लगता है।

कहै कबीर पुकारि, सुनो धरम आगरा।।

बहुत हंस लै साथ, उतरो भवसागरा।।

यही मैं तुमसे भी कहता हूं। तुम्हें रस आए तो बांटना। तुम्हें ज्योति मिले तो कृपणता मत करना। तुम्हें कुछ दिखायी पड़े तो औरों को भी खबर पहुंचा देना। इसकी भी फिक्र मत करना कि वे मानेंगे भी कि नहीं मानेंगे। इसकी भी फिक्र मत करना कि वे पात्र हैं या अपात्र। तुम तो अपनी मस्ती से देना। तुम्हें देने से और मिलेगा। तुम्हें देने से हजार गुना मिलेगा। तुम तो बाढ बन जाना एक मस्ती की।

बहके सब जिय की कहत, ठौर कुठौर लखै न।

छिन औरे छिन और से, ए छवि छाके नैन।।

आज इतना ही।

 


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