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कृष्‍ण–स्‍मृति

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कृष्ण-स्मृति

                 ओशो

(ओशो द्वारा कृष्ण के बहु-आयामी व्यक्तित्व पर दी गई 21 र्वात्ताओं एवं नव-संन्यास पर दिए गए एक विशेष प्रवचन का अप्रतिम संकलन। यही वह प्रवचनमाला है जिसके दौरान ओशो के साक्षित्व में संन्यास ने नए शिखरों को छूने के लिए उत्प्रेरणा ली और “नव संन्यास अंतर्राष्ट्रीय’ की संन्यास-दीक्षा का सूत्रपात हुआ।)

बसे बड़ा कारण तो यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं। साधारणतः संत का लक्षण ही रोता हुआ होना है। जिंदगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही नाचते हुए वयक्ति हैं। हंसते हुए, गीत गाते हुए। अतीत का सारा धर्म दुखवादी था। कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का सारा धर्म उदास, आंसुओं से भरा हुआ था। हंसता हुआ धर्म मर गया है और पुराना ईश्वर, जिसे हम अब तक ईश्वर समझते थे, जो हमारी धारणा थी ईश्वर की, वह भी मर गई है।

जीसस के संबंध में कहा जाता है कि वह कभी हंसे नहीं। शायद जीसस का यह उदास व्यक्तित्व और सूली पर लटका हुआ उनका शरीर ही हम दुखी-चित्त लोगों को बहुत आकर्षण का कारण बन गया। महावीर या बुद्ध बहुत गहरे अर्थों में इस जीवन के विरोधी हैं। कोई और जीवन है परलोक में, कोई मोक्ष है, उसके पक्षपाती हैं। समस्त धर्मों ने दो हिस्से कर रखे हैं जीवन के–एक वह जो स्वीकार योग्य है और एक वह जो इनकार के योग्य है।

 

ओशो


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कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–1)

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हंसते व जीवंत धर्म के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 20 जुलाई, 1970;

सी. सी. आई. चैंबर्सं, मुम्‍बई।

“कृष्ण के व्यक्तित्व में आज के युग के लिए क्या-क्या विशेषताएं हैं और उनके व्यक्तित्व का क्या महत्त्व हो सकता है? इस पर कुछ प्रकाश डालें?’

 कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है। अनूठेपन की पहली बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में, लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया कि कृष्ण का समसामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य की समझ से बाहर हैं। भविष्य में ही यह संभव हो पाएगा कि कृष्ण को हम समझ पाएं।

इसके कुछ कारण हैं।

सबसे बड़ा कारण तो यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं। साधारणतः संत का लक्षण ही रोता हुआ होना है। जिंदगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही नाचते हुए वयक्ति हैं। हंसते हुए, गीत गाते हुए। अतीत का सारा धर्म दुखवादी था। कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का सारा धर्म उदास, आंसुओं से भरा हुआ था। हंसता हुआ धर्म मर गया है और पुराना ईश्वर, जिसे हम अब तक ईश्वर समझते थे, जो हमारी धारणा थी ईश्वर की, वह भी मर गई है।

जीसस के संबंध में कहा जाता है कि वह कभी हंसे नहीं। शायद जीसस का यह उदास व्यक्तित्व और सूली पर लटका हुआ उनका शरीर ही हम दुखी-चित्त लोगों को बहुत आकर्षण का कारण बन गया। महावीर या बुद्ध बहुत गहरे अर्थों में इस जीवन के विरोधी हैं। कोई और जीवन है परलोक में, कोई मोक्ष है, उसके पक्षपाती हैं। समस्त धर्मों ने दो हिस्से कर रखे हैं जीवन के–एक वह जो स्वीकार योग्य है और एक वह जो इनकार के योग्य है।

कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसलिए, इस देश ने और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है, कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा है। राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे ही परमात्मा हैं। और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का कारण है। और वह कारण यह है कि कृष्ण ने सभी कुछ आत्मसात कर लिया है।

अल्बर्ट श्वीत्ज़र ने भारतीय धर्म की आलोचना में एक बड़ी कीमत की बात कही है, और वह यह कि भारत का धर्म जीवन-निषेधक, “लाइफ निगेटिव’ है। यह बात बहुत दूर तक सच है, यदि कृष्ण को भुला दिया जाए। और यदि कृष्ण को भी विचार में लिया जाए तो यह बात एकदम ही गलत हो जाती है। और श्वीत्ज़र यदि कृष्ण को समझते तो ऐसी बात न कह पाते। लेकिन कृष्ण की कोई व्यापक छाया भी हमारे चित्त पर नहीं पड़ी है। वे अकेले दुख के एक महासागर में नाचते हुए एक छोटे-से द्वीप हैं। या ऐसा हम समझें कि उदास और निषेध और दमन और निंदा के बड़े मरुस्थल में एक बहुत छोटे-से नाचते हुए मरूद्यान हैं। वह हमारे पूरे जीवन की धारा को नहीं प्रभावित कर पाए। हम ही इस योग्य न थे, हम उन्हें आत्मसात न कर पाए।

मनुष्य का मन अब तक तोड़कर सोचता रहा, द्वंद्व करके सोचता रहा। शरीर को इनकार करना है, आत्मा को स्वीकार करना है। तो आत्मा और शरीर को लड़ा देना है। परलोक को स्वीकार करना है, इहलोक को इनकार करना है। तो इहलोक और परलोक को लड़ा देना है। स्वभावतः, यदि हम शरीर का इनकार करेंगे, तो जीवन उदास हो जाएगा। क्योंकि जीवन के सारे रस-स्रोत और सारा स्वास्थ्य और जीवन का सारा संगीत और सारी संवेदनाएं शरीर से आ रही हैं। शरीर को जो धर्म इनकार कर देगा, वह पीतवर्ण हो जाएगा, रक्तशून्य हो जाएगा। उस पर से लाली खो जाएगी। वह पीले पत्ते की तरह सूखा हुआ धर्म होगा। उस धर्म की मान्यता भी जिनके मन में गहरी बैठेगी, वे भी पीले पत्ते की तरह गिरने की तैयारी में संलग्न, मरने के लिए उत्सुक और तैयार हो जाएंगे।

कृष्ण अकेले हैं जो शरीर को उसकी समस्तता में स्वीकार कर लेते हैं, उसकी “टोटलिटी’ में। यह एक आयाम में नहीं, सभी आयाम में सच है। शायद कृष्ण को छोड़कर…कृष्ण को छोड़कर, और पूरे मनुष्यता के इतिहास में जरथुस्त्र एक दूसरा आदमी है, जिसके बाबत यह कहा जाता है कि वह जन्म लेते से हंसा। सभी बच्चे रोते हैं। एक बच्चा सिर्फ मनुष्य-जाति के इतिहास में जन्म लेकर हंसा। यह सूचक है। यह सूचक है इस बात का कि अभी हंसती हुई मनुष्यता पैदा नहीं हो पाई। और कृष्ण तो हंसती हुई मनुष्यता को ही स्वीकार हो सकते हैं। इसलिए कृष्ण का बहुत भविष्य है। फ्रायड-पूर्व धर्म की जो दुनिया थी, वह फ्रायड-पश्चात नहीं हो सकती है। एक बड़ी क्रांति घटित हो गई है, और एक बड़ी दरार पड़ गई है मनुष्य की चेतना में। हम जहां थे फ्रायड के पहले, अब हम वहीं कभी भी नहीं हो सकेंगे। एक नया शिखर छू लिया गया है और एक नई समझ पैदा हो गई है। वह समझ समझ लेनी चाहिए।

पुराना धर्म सिखाता था आदमी को दमन और “सप्रेशन’। काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, सभी को दबाना है और नष्ट कर देना है। और तभी आत्मा उपलब्ध होगी और तभी परमात्मा उपलब्ध होगा। यह लड़ाई बहुत लंबी चली। इस लड़ाई के हजारों साल के इतिहास में भी मुश्किल से दस-पांच लोग हैं जिनको हम कह पाए कि उन्होंने परमात्मा को पा लिया। एक अर्थ में यह लड़ाई सफल नहीं हुई। क्योंकि अरबों-खरबों लोग बिना परमात्मा को पाए मरे हैं। जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल थी। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई माली करोड़ हजार पौधे लगाए और एक पौधे में फूल आ जाएं, और फिर भी हम उस माली के शास्त्र को मानते चले जाएं, और हम कहें कि देखो एक पौधे में फूल आए! और हम इस बात का खयाल ही भूल जाएं कि पचास करोड़ पौधे में अगर एक पौधे में फूल आते हैं, तो यह माली की वजह से न आए होंगे, यह माली से किसी तरह बच गया होगा पौधा, इसलिए आ गए हैं। क्योंकि माली का प्रमाण तो बाकी पचास करोड़ पौधे हैं जिनमें फूल नहीं आते, पत्ते नहीं लगते, सूखे ठूंठ रह जाते हैं।

एक बुद्ध, एक महावीर, एक क्राइस्ट अगर परमात्मा को उपलब्ध हो जाते हैं, द्वंद्वग्रस्त धर्मों के बावजूद भी, तो यह कोई धर्मों की सफलता का प्रमाण नहीं हैं। धर्मों की सफलता का प्रमाण तो तब होगा, माली तो तब सफल समझा जाएगा, जब पचास करोड़ पौधों में फूल लगें और एक में न लग पाएं, तो क्षमा योग्य है। कहा जा सकेगा कि यह पौधे की गलती हो गई। इसमें माली की गलती नहीं हो सकती। पौधा बच गया होगा माली से, इसलिए सूख गया है, इसलिए फूल नहीं आते हैं।

फ्रायड के साथ ही एक नई चेतना का जन्म हुआ और वह यह कि दमन गलत है। और दमन मनुष्य को आत्महिंसा में डाल देता है। आदमी अपने से ही लड़ने लगे तो सिर्फ नष्ट हो सकता है। अगर मैं अपने बाएं और दाएं हाथ को लड़ाऊं तो न तो बायां जीतेगा, न दायां जीतेगा, लेकिन मैं हार जाऊंगा। दोनों हाथ लड़ेंगे और मैं नष्ट हो जाऊंगा। तो दमन ने मनुष्य को आत्मघाती बना दिया, उसने अपनी ही हत्या अपने हाथों कर ली।

कृष्ण, फ्रायड के बाद जो चेतना का जन्म हुआ है, जो समझ आई है, उस समझ के लिए कृष्ण ही अकेले हैं जो सार्थक मालूम पड़ सकते हैं। क्योंकि पुराने मनुष्यजाति के इतिहास में कृष्ण अकेले हैं जो दमनवादी नहीं हैं। वे जीवन के सब रंगों को स्वीकार कर लिए हैं। वे प्रेम से भागते नहीं। वे पुरुष होकर स्त्री से पलायन नहीं करते। वे परमात्मा को अनुभव करते हुए युद्ध से विमुख नहीं होते। वे करुणा और प्रेम से भरे होते हुए भी युद्ध में लड़ने की सामर्थ्य रखते हैं। अहिंसक-चित्त है उनका, फिर भी हिंसा के ठेठ दावानल में उतर जाते हैं। अमृत की स्वीकृति है उन्हें, लेकिन जहर से कोई भय भी नहीं है। और सच तो यह है, जिसे भी अमृत का पता चल गया है उसे जहर का भय मिट जाना चाहिए। क्योंकि ऐसा अमृत ही क्या जो जहर से फिर डरता चला जाए। और जिसे अहिंसा का सूत्र मिल गया, उसे हिंसा का भय मिट जाना चाहिए। ऐसी अहिंसा ही क्या जो अभी हिंसा से भी भयभीत और घबड़ाई हुई है! और ऐसी आत्मा भी क्या जो शरीर से भी डरती हो और बचती हो! और ऐसे परमात्मा का क्या अर्थ जो सारे संसार को अपने आलिंगन में न ले सकता हो। तो कृष्ण द्वंद्व को एक-साथ स्वीकार कर लेते हैं और इसलिए द्वंद्व के अतीत हो जाते हैं। “ट्रांसेंडेंस’ जो है, अतीत जो हो जाना है, वह द्वंद्व में पड़कर कभी संभव नहीं है; दोनों को एक साथ स्वीकार कर लेने से संभव है।

तो भविष्य के लिए कृष्ण की बड़ी सार्थकता है। और भविष्य में कृष्ण का मूल्य निरंतर बढ़ता ही जाने को है। जब कि सबके मूल्य फीके पड़ जाएंगे और द्वंद्व-भरे धर्म जब कि पीछे अंधेरे में डूब जाएंगे और इतिहास की राख उन्हें दबा देगी, तब भी कृष्ण का अंगार चमकता हुआ रहेगा। और भी निखरेगा क्योंकि पहली दफे मनुष्य इस योग्य होगा कि कृष्ण को समझ पाए। कृष्ण को समझना बड़ा कठिन है। कठिन है इस बात को समझना कि एक आदमी संसार को छोड़कर चला जाए और शांत हो जाए। कठिन है इस बात को समझना कि संसार के संघर्ष में, बीच में खड़ा होकर और शांत हो। आसान है यह बात समझनी कि एक आदमी विरक्त हो जाए, आसक्ति से संबंध तोड़कर भाग जाए और उसमें एक पवित्रता का जन्म हो। कठिन है यह बात समझनी कि जीवन के सारे उपद्रव के बीच, जीवन के सारे उपद्रव में अलिप्त, जीवन के सारे धूल-धवांस के कोहरे और आंधियों में खड़ा हुआ दिया हिलता न हो, उसकी लौ कंपती न हो–कठिन है यह समझना। इसलिए कृष्ण को समझना बहुत कठिन था। निकटतम जो कृष्ण के थे वे भी नहीं समझ सकते हैं। लेकिन पहली दफा एक महान प्रयोग हुआ है। पहली दफा आदमी ने अपनी शक्ति का पूरा परीक्षण कृष्ण में किया है। ऐसा परीक्षण कि संबंधों में रहते हुए असंग रहा जा सके, और युद्ध के क्षण पर भी करुणा न मिटे। और हिंसा की तलवार हाथ में हो, तो भी प्रेम का दिया मन से न बुझे।

इसलिए कृष्ण को जिन्होंने पूजा भी है, जिन्होंने कृष्ण की आराधना भी की है उन्होंने भी कृष्ण के टुकड़े-टुकड़े करके किया है। सूरदास के कृष्ण कभी बच्चे से बड़े नहीं हो पाते। बड़े कृष्ण के साथ खतरा है। सूरदास बर्दाश्त न कर सकेंगे। वह बाल कृष्ण को ही…। क्योंकि बाल कृष्ण अगर गांव की स्त्रियों को छेड़ देता है तो हमें बहुत कठिनाई नहीं है। लेकिन युवा-कृष्ण जब गांव की स्त्रियों को छेड़ देगा तो फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा। फिर हमें समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि हम अपने ही तल पर तो समझ सकते हैं। हमारे अपने तल के अतिरिक्त समझने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है। तो कोई है जो कृष्ण के एक रूप को चुन लेगा, कोई है जो दूसरे रूप को चुन लेगा। गीता को प्रेम करने वाले गीता की चर्चा में न पड़ेंगे, क्योंकि कहां राग-रंग और कहां रास और कहां युद्ध का मैदान! उनके बीच कोई तालमेल नहीं है। शायद कृष्ण से बड़े विरोधों को एक-साथ पी लेने वाला कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। इसलिए कृष्ण की एक-एक शकल लोगों ने पकड़ लिया। है। जो जिसे प्रीतिकर लगी है, उसने छांट लिया है, बाकी शकल को उसने इनकार कर दिया है।

गांधी गीता को माता कहते हज, लेकिन गीता को आत्मसात नहीं कर सके। क्योंकि गांधी की अहिंसा युद्ध की संभावनाओं को कहां रखेगी? तो गांधी उपाय खोजते हैं; वह कहते हैं यह जो युद्ध है, यह सिर्फ रूपक है, यह कभी हुआ नहीं। यह मनुष्य के भीतर अच्छाई और बुराई की लड़ाई है। यह जो कुरुक्षेत्र है, यह कोई बाहर युद्ध का मैदान नहीं है, और ऐसा नहीं है कि कृष्ण ने कहीं अर्जुन को किसी बाहर के युद्ध में लड़ाया हो। यह तो भीतर के युद्ध की रूपक-कथा है। यह एक “पैरेबल’ है, यह एक कहानी है। यह एक प्रतीक है। गांधी को कठिनाई है। क्योंकि गांधी का जैसा मन है, उसमें तो अर्जुन ही ठीक मालूम पड़ेगा। अर्जुन के मन में बड़ी अहिंसा का उदय हुआ है। वह युद्ध छोड़कर भाग जाने को तैयार है। वह कहता है, अपनों को मारने से फायदा क्या? और वह कहता है, इतनी हिंसा करके धन पाकर भी, यश पाकर भी, राज्य पाकर भी मैं क्या करूंगा? इससे तो बेहतर है मैं सब छोड़कर भिखमंगा हो जाऊं। इससे तो बेहतर है कि मैं भाग जाऊं और सारे दुख वरण कर लूं, लेकिन हिंसा में न पडूं। इससे मेरा मन बड़ा कांपता है। इतनी हिंसा अशुभ है।

कृष्ण की बात गांधी की पकड़ में कैसे आ सकती है? क्योंकि कृष्ण समझाते हैं कि तू लड़। और लड़ने के लिए जो-जो तर्क देते हैं, वह ऐसा अनूठा है कि इसके पहले कभी भी नहीं दिया गया था। उसको परम अहिंसक ही दे सकता है, उस तर्क को।

कृष्ण का तर्क यह है कि जब तक तू ऐसा मानता है कि कोई मर सकता है, तब तक तू आत्मवादी नहीं है। तब तक तुझे पता नहीं है कि जो भीतर है, न वह कभी मरा है, न कभी मर सकता है। अगर तू सोचता है कि मैं मार सकूंगा, तो तू बड़ी भ्रांति में है, बड़े अज्ञान में है। क्योंकि मारने की धारणा ही भौतिकवादी की धारणा है। जो जानता है, उसके लिए कोई मरता नहीं है। तो अभिनय है–कृष्ण उससे कह रहे हैं–मरना और मारना लीला है, एक नाटक है।

इस संदर्भ में यह समझ लेना उचित होगा कि राम के जीवन को हम चरित्र कहते हैं। राम बड़े गंभीर हैं। उनका जीवन लीला नहीं है, चरित्र ही है। लेकिन कृष्ण गंभीर नहीं हैं। कृष्ण का चरित्र नहीं है वह, कृष्ण की लीला है। राम मर्यादाओं में बंधे हुए व्यक्ति हैं, मर्यादाओं के बाहर वे एक कदम न बढ़ेंगे। मर्यादा पर वे सब कुर्बान कर देंगे। कृष्ण के जीवन में मर्यादा जैसी कोई चीज ही नहीं है। अमर्याद। पूर्ण स्वतंत्र। जिसकी कोई सीमा नहीं, जो कहीं भी जा सकता है। ऐसी कोई जगह नहीं आती जहां वह रुके, ऐसी कोई जगह नहीं आती जहां भयभीत हो और कदम को ठहराए। यह अमर्यादा भी कृष्ण के आत्म-अनुभव का अंतिम फल है। तो हिंसा भी बेमानी हो गफ है वहां, क्योंकि हिंसा हो नहीं सकती। और जहां हिंसा ही बेमानी हो गई हो वहां अहिंसा भी बेमानी हो जाती है। क्योंकि जब तक हिंसा सार्थक है और हिंसा हो सकती है, तभी तक अहिंसा भी सार्थक है। असल में हिंसक अपने को मानना भौतिकवाद है, अहिंसक अपने को मानना भी उसी भौतिकवाद का दूसरा छोर है। एक मानता है मैं मार डालूंगा, एक मानता है मैं मारूंगा नहीं, मैं मारने को राजी नहीं हूं। लेकिन दोनों मानते हैं कि मारा जा सकता है।

ऐसा अध्यात्म युद्ध को भी खेल मान लेता है। और जो जीवन की सारी दिशाओं को–राग की, प्रेम की, भोग की, काम की, योग की, ध्यान की, समस्त दिशाओं को एक साथ स्वीकार कर लेता है, उस समग्रता के दर्शन को समझने की संभावना रोज बढ़ती जा रही है, क्योंकि अब हमें कुछ बातें पता चली हैं, जो हमें कभी पता नहीं थीं। लेकिन कृष्ण को निश्चित ही पता रही हैं।

जैसे हमें आज जाकर पता चला है कि शरीर और आत्मा जैसी दो चीजें नहीं हैं। आत्मा का जो छोर दिखाई पड़ता है, वह शरीर है; और शरीर का जो छोर दिखाई पड़ता है, वह आत्मा है। परमात्मा और संसार जैसी दो चीजें नहीं हैं। परमात्मा और प्रकृति जैसा द्वंद्व नहीं है कहीं। परमात्मा का जो हिस्सा दृश्य हो गया है, वह प्रकृति है। और जो अब भी अदृश्य है, वह परमात्मा है। कहीं भी ऐसी कोई जगह नहीं है जहां प्रकृति खत्म होती है और परमात्मा शुरू होता है। बस प्रकृति ही लीन होते-होते-होते-होते परमात्मा बन जाती है। परमात्मा ही प्रगट होते-होते प्रकृति बन जाता है। अद्वैत का यही अर्थ है। और इस अद्वैत की अगर हमें धारणा स्पष्ट हो जाए, इसकी प्रतीति हो जाए, तो कृष्ण को समझा जा सकता है।

साथ ही भविष्य में और क्यों कृष्ण की सार्थकता बढ़ने को हैं और कृष्ण क्यों मनुष्य के और निकट आ जाएंगे? अब दमन संभव नहीं हो सकेगा। बड़े लंबे संघर्ष और बड़े लंबे ज्ञान की खोज के बाद ज्ञात हो सका है कि जिन शक्तियों से हम लड़ते हैं वे शक्तियां हमारी ही हैं, हम ही हैं। इसलिए उनसे लड़ने से बड़ा कोई पागलपन नहीं हो सकता। और यह भी ज्ञाता हुआ है कि जिससे हम लड़ते हैं, हम सदा के लिए उसी से घिरे रह जाते हैं। और यह भी ज्ञात हुआ है कि जिससे हम लड़ते हैं उसे हम कभी रूपांतरित नहीं कर पाते। उसका “ट्रांसफार्मेशन’ नहीं होता।

अगर कोई व्यक्ति यौन से लड़ेगा तो उसके जीवन में ब्रह्मचर्य घटित हो सकता है तो एक ही उपाय है कि वह अपनी काम की ऊर्जा को कैसे रूपांतरित करे। काम की ऊर्जा से मैत्री साधनी है। क्योंकि हम सिर्फ उसी को बदल सकते हैं जिससे हमारी मैत्री है। जिसके हम शत्रु हो गए, उसको बदलने का सवाल नहीं। जिसके हम शत्रु हो गए उसको समझने का भी उपाय नहीं है। समझ भी हम उसे ही सकते हैं जिससे हमारी मैत्री है।

तो जो हमें निकृष्टतम दिखाई पड़ रहा है वह भी श्रेष्ठतम का ही छोर है। पर्वत का जो बहुत ऊपर का शिखर है, वह, और पर्वत के पास की जो बहुत गहरी खाई है, ये दो घटनाएं नहीं हैं। ये एक ही घटना के दो हिस्से हैं। यह जो खाई बनी है, यह पर्वत के ऊपर उठने से बनी है। यह जो पर्वत ऊपर उठ सका है, यह खाई के बनने से ऊपर उठ सका है। ये दो चीजें नहीं हैं। ये पर्वत और खाई हमारी भाषा में दो हैं, अस्तित्व में एक ही चीज के दो छोर हैं।

नीत्शे का एक बहुत कीमती वचन है। नीत्शे ने कहा है कि जिस वृक्ष को आकाश की ऊंचाई छूनी हो, उसे अपनी जड़ें पाताल की गहराई तक पहुंचानी पड़ती हैं। और अगर कोई वृक्ष अपनी जड़ों को पाताल तक पहुंचाने से डरता है, तो उसे आकाश तक पहुंचने की आकांक्षा भी छोड़ देनी पड़ती है। असल में जितनी ऊंचाई, उतने ही गहरे भी जाना पड़ता है। जितना ऊंचा जाना हो उतना ही नीचे भी जाना पड़ता है। नीचाई और ऊंचाई दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज के दो आयाम हैं और वे सदा समानुपाती हैं, एक ही अनुपात में बढ़ते हैं।

मनुष्य के मन ने सदा चाहा कि वह चुनाव कर ले। उसने चाहा कि स्वर्ग को बचा ले और नर्क को छोड़ दे। उसे चाहा कि शांति को बचा ले, तनाव को छोड़ दे। उसने चाहा शुभ को बचा ले, अशुभ को छोड़ दे। उसने चाहा प्रकाश ही प्रकाश रहे, अंधकार न रह जाए। मनुष्य के मन ने अस्तित्व को दो हिस्सों में तोड़कर एक हिस्से का चुनाव किया और दूसरे का इनकार किया। इससे द्वंद्व पैदा हुआ, इससे द्वैत हुआ। कृष्ण दोनों को एक-साथ स्वीकार करने के प्रतीक हैं। और जो दोनों को एक-साथ स्वीकार करता है, वही पूर्ण हो सकता है। नहीं तो अपूर्ण ही रह जाएगा। जितने को चुनेगा, उतना हिस्सा रह जाएगा; और जिसको इनकार करेगा, सदा उससे बंधा रहेगा। उससे बाहर नहीं जा सकता है। जो व्यक्ति काम का दमन करेगा, उसका चित्त कामुक-से-कामुक होता चला जाएगा। इसलिए जो संस्कृति, जो धर्म काम का दमन सिखाता है, वह संस्कृति कामुमता पैदा करवाती है।

काश कृष्ण को माना जा सका होता, तो शायद दुनिया से कामुकता विदा हो गई होती। लेकिन कृष्ण को नहीं माना जा सका। बल्कि हमने न मालूम कितने-कितने रूपों में कृष्ण के उन हिस्सों का इनकार किया जो काम की स्वीकृति हैं। लेकिन अब यह संभव हो जाएगा, क्योंकि अब हमें दिखाई पड़ना शुरू हुआ है कि काम की ऊर्जा, वह जो “सेक्स एनर्जी है, वही ऊर्ध्वगमन करके ब्रह्मचर्य के उच्चतम शिखरों को छू पाती है। जीवन में किसी से भागना नहीं है और जीवन में किसी को छोड़ना नहीं है, जीवन को पूरा ही स्वीकार करके जीना है। उसको जो समग्रता से जीता है वह जीवन की पूर्णता को उपलब्ध होता है। इसलिए मैं कहता हूं कि भविष्य के संदर्भ में कृष्ण का बहुत मूल्य है और हमारा वर्तमान रोज उस भविष्य के करीब पहुंचता है जहां कृष्ण की प्रतिमा निखरती जाएगी और एक हंसता हुआ धर्म, एक नाचता हुआ धर्म जल्दी निर्मित होगा। तो उस धर्म की बुनियादों में कृष्ण का पत्थर जरूर रहने को है।

“महाभारत युद्ध में कृष्ण एक प्रमुख भूमिका में थे। वे चाहते तो युद्ध रोक सकते थे। लेकिन वैसा नहीं हुआ। और परिणाम–एक भारी विध्वंस! स्वभावतः विध्वंस की भारी जिम्मेदारी कृष्ण पर जाती है। क्या कृष्ण के लिए यह उचित था–या उन पर लांछन लग सकता है?’

 

युद्ध और शांति के संबंध में भी बात वही है। फिर हम चाहते हैं कि शांति ही बचे, संघर्ष न बचे। फिर हम चुनाव शुरू करते हैं। और जगत जो है, वह द्वंद्वों का सम्मिलन है। और जगत जो है, वह विरोधी स्वरों का समवेत संगीत है। जगत इकसुरा नहीं हो सकता।

मैंने सुना है कि एक आदमी कोई वाद्ययंत्र बजाता था। और वह तार पर एक ही जगह उंगली रखकर घंटों उसी को रगड़ता रहता। उसके घर के लोग तो परेशान हो ही गए थे, उसके पास-पड़ोस के लोग भी परेशान हो गए थे। और अनेक लोगों ने उससे प्रार्थना की कि हमने बहुत वाद्य बजाने वाले देखे, लेकिन सभी का हाथ सरकता है, सभी के भिन्न स्वर निकलते हैं, तुमने यह क्या राग ले रखा है? तो उस आदमी ने कहा, वह अभी ठीक स्थान खोज रहे हैं, मैंने ठीक स्थान पा लिया है। तो मैं अब एक ठीक स्थान पर रुका हुआ हूं। मुझे अब कोई खोज की जरूरत नहीं है।

हमारा मन कर सकता है कि हम एक ही स्वर चुन लें जीवन का। लेकिन एक ही स्वर सिर्फ मृत्यु में हो सकता है। जीवन विरोधी स्वरों पर ही खड़ा होगा। तुमने अगर कभी किसी मकान के दरवाजे पर “आर्च’ बना देखा हो, तो उसमें विरोधी ईंटें दोनों तरफ से लाकर हम मकान के द्वार पर अड़ा देते हैं। विरोधी ईंटें एक-दूसरे के विरोध में खड़े होने की वजह से भवन को उठा लेती हैं। कोई सोच सकता है कि ईंटें एक ही दिशा में लगा दी जाएं। फिर भवन गिरेगा, फिर भवन बनेगा नहीं।

जीवन की सारी व्यवस्था विरोधी स्वरों के तनाव पर है। युद्ध भी उस तनाव का हिस्सा है। और युद्ध ने नुकसान ही पहुंचाए, ऐसा जो सोचते हैं, वह गलत सोचते हैं, वह अधूरा देखते हैं। अगर हम मनुष्यता के विकास को समझने चलें तो हमें पता चलेगा। मनुष्यता के विकास का अधिकतम हिस्सा युद्धों के माध्यम से हुआ है। आज मनुष्य के पास जो कुछ है वह सब उसने प्राथमिक रूप से युद्धों में खोजा है। अगर आज हमें दिखाई पड़ते हैं कि सारी पृथ्वी पर रास्ते फैल गए हैं, तो पहली दफे रास्ते युद्धों के लिए बने थे, फौजों को भेजने के लिए बने थे। वह दो आदमियों को मिलाने के लिए नहीं बने थे, बारात ले जाने के लिए नहीं बने थे, वह युद्ध के लिए बने थे पहली बार। जितने भी साधन हैं–अगर आज हम बड़े मकान देख रहे हैं, तो पहले बड़ा मकान नहीं बना था, बड़ा किला बना था और वह युद्ध की जरूरत थी। पहली दीवाल दुश्मन के खिलाफ लड़ने के लिए बनाई गई। फिर दीवालें बनीं, फिर अब आकाश को छूते हुए मकान हैं। आज हम सोच भी नहीं सकते कि आकाश को छूता हुआ मकान युद्ध की जरूरत है। मनुष्य के पास जितनी भी संपन्नता है और जितने भी साधन हैं और जितना भी वैज्ञानिक आविष्कार है, वह सब युद्ध के माध्यम से हुआ।

असल में युद्ध ऐसे तनाव की स्थिति पैदा कर देता है, ऐसी चुनौती कि हमारे भीतर जो सोयी शक्तियां हैं, उन सबको जागकर सक्रिय होना पड़ता है। शांति के क्षण में हम आलस्य में हो सकते हैं, तमस में हो सकते हैं, युद्ध हमारे राजस को उभारता है। हमारे भीतर सोयी हुई शक्तियों को चुनौती के मौके पर उठना ही पड़ता है। इसलिए युद्ध के क्षण में हम साधारण नहीं रह जाते, हम असाधारण हो जाते हैं। और मनुष्य का मस्तिष्क अपनी पूरी शक्ति से काम करने लगता है। और युद्ध में एक छलांग लग जाती है मनुष्य की प्रतिभा की, जो कि शांति के कालों में, वर्षों में, सैकड़ों वर्षों में नहीं लग पाती।

अनेक लोगों का ऐसा खयाल है कि अगर कृष्ण ने महाभारत का युद्ध रोका होता तो भारत बहुत संपन्न होता। और भारत ने बड़े विकास के शिखर छू लिए होते। बात इससे बिलकुल उलटी है। अगर कृष्ण जैसे दस-पांच लोग भारत के इतिहास में हमें मिले होते और हमने एक महाभारत नहीं, दस-पांच महाभारत लड़े होते तो हम विकास के शिखरों पर होते।

महाभारत को हुए अंदाजन पांच हजार से ज्यादा वर्ष हुए होंगे। पांच हजार वर्षों में फिर हमने कोई बड़ा युद्ध नहीं किया। बाकी हमारी लड़ाइयां बहुत दिवालिया, “बैंकरप्ट’ हैं। बाकी हमारी लड़ाइयों की बड़ी कोई कीमत नहीं है। वे छोटे-मोटे झगड़े हैं। उनको युद्ध कहना भी ठीक नहीं है। पांच हजार वर्षों से हमने कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ा। अगर युद्ध की वजह से हानि होती है और विध्वंस होता है, तो हमें पृथ्वी पर सबसे ज्यादा संपन्न और विकासमान होना चाहिए था। लेकिन हालतें उलटी हैं। जिन मुल्कों ने युद्ध लड़े हैं, वे बहुत विकासमान हैं और बहुत संपन्न हैं। पहले महायुद्ध के बाद लोग सोच सकते थे कि जर्मनी अब सदा के लिए टूट जाएगा, लेकिन दूसरे महायुद्ध में जर्मनी पहले महायुद्ध के जर्मनी से अनंतगुना शक्तिशाली होकर प्रगट हुआ–सिर्फ बीस साल के फासले पर। कोई सोच भी नहीं सकता था कि पहले महायुद्ध के बाद दूसरा महायुद्ध जर्मनी कर सकेगा। दो-चार सौ साल तक भी कर सकेगा, इसकी भी संभावना नहीं थी। लेकिन बीस साल में जर्मनी अनंतगुना शक्तिशाली होकर बाहर आ गया। पहले महायुद्ध ने उसकी शक्तियों को जिस तीव्रता पर पहुंचा दिया, उस तीव्रता का उसने उपयोग कर लिया।

अभी पिछले दूसरे महायुद्ध में लगता था कि अब शायद युद्ध कभी होना बहुत मुश्किल हो जाएगा, और जो देश सबसे ज्यादा मिटे थे–जर्मनी और जापान–वह दोनों के दोनों फिर संपन्न होकर खड़े हो गए। आज जापान को देखकर कोई कह सकता है कि बीस साल पहले एटम बम इसी मुल्क पर गिरा था? आज जापान को देखकर कोई नहीं कह सकता। हिंदुस्तान को देखकर जरूर हम कह सकते हैं कि यहां एटम बम गिरते ही रहे होंगे। हमारी दुर्दशा देखकर लगता है कि यहां जैसे युद्ध होता ही रहा होगा।

महाभारत के कारण हिंदुस्तान का अहित नहीं हुआ। महाभारत की छाया में हिंदुस्तान में जो शिक्षक पैदा हुए, वे सब युद्ध-विरोधी थे। और उन्होंने महाभारत का शोषण किया। और कहा कि ऐसा युद्ध और ऐसी हिंसा। नहीं, अब न युद्ध करना है, न ही अब हिंसा करनी है। अब लड़ना नहीं है। महाभारत के पीछे कृष्ण की क्षमता के व्यक्तियों की शृंखला नहीं हम पैदा कर पाए। अन्यथा महाभारत में जिस ऊंचाई को हमारे देश की चेतना की लहर ने छुआ था, हम हर बार उससे ज्यादा ऊंचाई की लहर को छू सकते थे। और शायद आज हम पृथ्वी पर सबसे ज्यादा संपन्न और सबसे ज्यादा विकसित समाज होते।

यह भी सोचने जैसा है कि महाभारत जैसा युद्ध विपन्न समाजों में घटित नहीं होता। युद्ध के लिए भी संपन्न होना जरूरी है। और संपन्नता के लिए भी युद्ध का घटना जरूरी है। असल में वह चुनौती के क्षण हैं। कृष्ण ने जिस युद्ध में हमें उतारा था, वह युद्ध में अगर हम सतत उतरे होते…क्योंकि इसे हम सोचें, आज करीब-करीब पश्चिम उस जगह है जहां महाभारत के दिनों में हम पहुंच गए थे। आज जितने अस्त्रों-शस्त्रों की बात है, करीब-करीब वे सभी अस्त्र-शस्त्र किसी-न-किसी रूप में महाभारत में प्रयोग किए गए। बड़ा संपन्न, बड़ा प्रतिभाशाली और बहुत वैज्ञानिक उन्नत शिखर था। उस युद्ध से कुछ हानि नहीं हो गई। उस युद्ध के बाद यह निराशा का क्षण हमें पकड़ा। उस निराशा के क्षण का दुरुपयोग हुआ। उस निराशा के क्षण ने पश्चिम में भी पकड़ा है कुछ को। पश्चिम भी भयभीत हो गया है। और पश्चिम का अगर पतन होगा, तो वह पश्चिम में जो शांतिवादी है उसकी वजह से होगा। अगर पश्चिम ने शांतिवादी की बात मान ली, तो पश्चिम पतित हो जाएगा। वह वहीं पहुंच जाएगा, जहां महाभारत के बाद हम पहुंचे।

हिंदुस्तान ने शांतिवादी की बात मान ली। इसलिए पांच हजार वर्ष का लंबा चक्कर चला। इसे थोड़ा सोचना जरूरी है। कृष्ण युद्धवादी नहीं हैं, लेकिन युद्ध को भी जीवन के खेल का हिस्सा मानते हैं। युद्धखोर नहीं हैं, किसी को मिटाने की कोई आकांक्षा नहीं है, किसी को दुख देने का कोई खयाल नहीं है, युद्ध न हो उसके सारे उपाय उन्होंने कर लिए थे, लेकिन, जीवन की और सत्य की और धर्म की कीमत पर युद्ध को बचाने के लिए राजी न थे। आखिर किसी भी चीज के बचाने की एक सीमा है। आखिर युद्ध को भी तो हम इसीलिए नहीं करना चाहते कि जीवन को कोई नुकसान न पहुंचे। लेकिन अगर युद्ध के न होने से ही जीवन को नुकसान पहुंचा जा रहा हो, तो फिर क्या अर्थ रह जाएगा? आखिर शांतिवादी यही तो कहता है कि युद्ध न हो, कि कहीं शांति खंडित न हो जाए। लेकिन अगर युद्ध के न होने से ही शांति खंडित हो रही हो, तो फिर एक निर्णायक युद्ध की सामर्थ्य चाहिए।

तो कृष्ण असल में युद्धखोर या युद्धवादी नहीं हैं, लेकिन, युद्ध से भयभीत और युद्ध से भागे हुए पलायनवादी भी नहीं हैं। कृष्ण कहते हैं, युद्ध न हो तो ठीक। लेकिन युद्ध होना ही हो, तो भागना ठीक नहीं हैं। और अगर युद्ध होना ही हो, और ऐसा क्षण आ जाए कि मनुष्य के मंगल के लिए और मनुष्य के हित के लिए युद्ध अनिवार्य हो जाए तो इस अनिवार्य युद्ध को फिर आनंद से स्वीकार करना। फिर उसे बोझ की तरह ढोना भी ठीक नहीं है। क्योंकि जो बोझ की तरह युद्ध में जाएगा फिर उसकी हार सुनिश्चित है। जो सिर्फ रक्षा के लिए युद्ध में जाएगा, उसकी हार भी सुनिश्चित है। क्योंकि रक्षा के भाव से भरा हुआ “डिफेंसिव’ जो चित्त है, वह लड़ने में सामर्थ्य और शौर्य नहीं दिखा पाता। वह सिर्फ बचाव के उपाय करता रहता है और सिकुड़ता जाता है। तो कृष्ण लड़ने को भी आनंद बनाने को कहते हैं। दूसरे को दुख पहुंचाने का सवाल नहीं है। लेकिन जिंदगी में चुनाव सदा अनुपात के हैं–शुभ फलित होगा या अशुभ? जरूरी नहीं है कि युद्ध से अशुभ ही फलित हो। कभी न युद्ध करने से अशुभ फलित हो सकता है। अब यह देश हमारा एक हजार साल तक गुलाम रहा। यह हमारे युद्ध करने की क्षमता की क्षीणता का परिणाम था। पांच हजार वर्ष से गरीब और दीन-हीन, यह हमारे शौर्य और हमारे व्यक्तित्व में जो अभय चाहिए उसकी कमी का परिणाम है। जो फैलाव चाहिए, विस्तार का जो भाव चाहिए, उसकी कमी का परिणाम है।

तो कृष्ण के कारण नुकसान नहीं हुआ, कृष्ण की शृंखला नहीं पैदा हो सकती, हम और कृष्ण पैदा नहीं कर सके, इसलिए नुकसान हुआ। और कृष्ण के युद्ध के बाद स्वाभाविक था कि निराशावादी स्वर प्रमुख हो। सदा होता है। और निराशावादी शिक्षक लोगों को समझाएं कि व्यर्थ है यह सब। और देखो कितनी हानि हो गई। और वह स्वर हमारे मन में बैठ गया, और पांच हजार साल से हम डरी हुई कौम हैं। और जो कौम मरने से डर जाए, युद्ध से डर जाए, वह कौम बहुत गहरे में जीने से भी डर जाती है। तो हम जीने से भी डर गए हैं। हम कंप रहे हैं–न हम जी रहे हैं, न हम मर रहे हैं। हम दोनों के बीच में एक त्रिशंकु की भांति हैं।

अब मेरी समझ यह है कि बर्ट्रेंड रसल, या गांधी, या विनोबा, इनकी बात अगर दुनिया मान लेगी तो नुकसान होगा। युद्ध से भय की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अब पृथ्वी युद्ध के लिए बहुत छोटी पड़ गई है, यह बात जरूर सच है। असल में युद्ध के लिए भी जगह चाहिए। हमारे पास साधन इतने बड़े हो गए हैं कि अब पृथ्वी पर युद्ध नहीं हो सकता, यह बात जरूर सच है। लेकिन यह इसलिए सच नहीं है कि शांतिवादी की बात भय के कारण मानने योग्य है, यह इसलिए सत्य है कि अब हमारे पास साधन बड़े हैं, पृथ्वी छोटी है। अब पृथ्वी पर युद्ध बिलकुल बेमानी है। अब युद्ध की शकल बदलेगी, अब युद्ध का विस्तार और बढ़ेगा। चांदत्तारों पर, मंगल पर, ग्रहों-उपग्रहों पर कहीं युद्ध शुरू होंगे। वैज्ञानिकों का अंदाज है कि अंदाजन पचास करोड़ ग्रह होने चाहिए सारे जगत में, जिन पर जीवन होगा। कम-से-कम। तो आज जो भयभीत हो गया है कि हाइड्रोजन बम मत बनाओ और एटम बम मत बनाओ, अगर इसकी, भयभीत आदमी की बात को मान लिया गया, तो इस जगत के विस्तार पर जो अभियान हो सकता है, जो यात्रा हो सकती है, वह नहीं हो सकेगी। और पृथ्वी जरूर उस जगह पहुंच गई है जहां युद्ध बेमानी है। लेकिन यह इसलिए नहीं हुआ है…यह भी समझने जैसी बात है।

युद्ध आज अर्थहीन हो गया है, इसलिए नहीं कि शांतिवादी की बात समझ में आ गई, युद्ध इसलिए अर्थहीन हो गया है कि युद्ध के विज्ञान का पूरा विकास हो गया है, “टोटल वार’ का विकास हो गया है। युद्ध इतना समग्र हो गया है अब कि पृथ्वी पर लाना बिलकुल बेमानी है, क्योंकि युद्ध का तभी तक कोई अर्थ है जब कोई जीतता हो और कोई हारता हो। अब जो युद्ध है उसमें कोई जीतेगा नहीं, कोई हारेगा नहीं। उसमें दोनों एक-साथ मर जाएंगे। अब युद्ध का पृथ्वी पर कोई मतलब नहीं है। और मैं मानता हूं कि इसी वजह से पृथ्वी अब एक हो जाएगी, अब एक “ग्लोबल विलेज’ से ज्यादा उसकी हालत नहीं है। एक छोटा-सा गांव जमीन हो गई है। शायद गांव से भी छोटी। दो गांव के बीच यात्रा में जितना समय लगता था, अब पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाने में उतना समय नहीं लगता है। तो पृथ्वी इतनी छोटी हो गई है कि अब युद्ध पृथ्वी पर बेमानी है। और पृथ्वी पर अगर युद्ध होता है तो वह नासमझ बात होगी। इसका यह मतलब नहीं है कि युद्ध न हो, इसका यह मतलब भी नहीं है कि युद्ध अब नहीं होंगे, युद्ध तो होते रहेंगे। लेकिन अब नई भूमियों पर होंगे। नई यात्राएं होंगी उनकी, और नए अभियान होंगे। युद्ध बंद नहीं हुआ, इतने समझाने वालों के बाद भी। वह बंद नहीं हो सकता, वह जीवन का हिस्सा है।

अब यह बड़े मजे की बात है कि युद्ध से क्या-क्या पैदा हुआ। अगर हम बहुत गौर से देखें, तो हमारे सारे सहयोग की, कोआपरेशन की सारी व्यवस्था युद्ध के लिए पैदा हुई। “कोआपरेशन फॉर कांफ्लिकट’। सारा सहयोग संघर्ष के लिए है। अगर जमीन पर युद्ध न हो तो कोई “कोआपरेशन’, कोई सहयोग भी नहीं होगा।

तो कृष्ण को समझना बहुत जरूरी है। कृष्ण शांतिवादी नहीं हैं, कृष्ण युद्धवादी नहीं हैं। असल में वाद का मतलब ही होता है कि दो में से हम एक को चुनते हैं। कृष्ण अ-वादी हैं। कृष्ण कहते हैं, शांति से शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। युद्ध से शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। मेरा मतलब समझाने का है–कृष्ण कहते हैं जिससे मंगल-यात्रा गतिमान होती हो, जिससे धर्म विकसित होता हो, जिससे जीवन में आनंद की संभावना बढ़ती हो, स्वागत है उसका। ऐसा स्वागत चाहिए भी।

हमारा देश अगर कृष्ण को समझा होता, तो हम इस भांति नपुंसक न हो गए होते। हमने बहुत अच्छी-अच्छी बातों के पीछे बहुत-बहुत न-मालूम कैसी कुरूपताएं छिपा रखी हैं। हमारी अहिंसा की बात के पीछे हमारी कायरता छिपकर बैठ गई है। हमारे युद्ध-विरोध के पीछे हमारे मरने का डर छिपकर बैठ गया है। लेकिन हमारे युद्ध न करने से युद्ध बंद नहीं होता, हमारे युद्ध न करने से कोई और हम पर युद्ध जारी रखता है। हम लड़ने न जाएं इससे लड़ाई बंद नहीं होती, सिर्फ हम गुलाम बनते हैं। और फिर भी हम लड़ाइयों में घसीटे जाते रहे। यह बड़े मजे की बात है। हम नहीं लड़े, कोई हम पर हावी हो गया, हमें गुलाम बना लिया और फिर हम उसकी फौजों में लड़ते ही रहे। लड़ाई तो कुछ बंद नहीं हुई। कभी हम मुगल की फौज में लड़े, कभी हम तुर्क की फौज में लड़े, कभी हम हूण की फौज में लड़े। हम खुद ही न लड़े, गुलाम भी रहे और अपनी गुलामी को बचाने के लिए लड़ते रहे। फिर हम अंग्रेज की फौज में लड़े। लड़ाई तो बंद नहीं हुई। हां, इतना ही हो गया कि हम अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ते, अपने जीवन के लिए लड़ते, फिर हम अपनी परतंत्रता के लिए लड़े कि हमारी परतंत्रता कैसे बनी रहे, इसके लिए भी हमारा आदमी मरता रहा। यह दुखद फलर हुआ। यह महाभारत के कारण नहीं। यह फिर से हम महाभारत की हिम्मत न जुटा पाए, उसके कारण।

इसलिए मैं कहता हूं कि कृष्ण को समझना थोड़ा मुश्किल तो है। बहुत आसान है समझ लेना एक शांतिवादी की बात, क्योंकि वह एक पहलू चुन लेता है। बहुत आसान है युद्धवादी की बात–एक हिटलर, एक मुसोलिनी, एक चंगेज, एक तैमूर, नेपोलियन, सिकंदर–युद्धखोरी की बात समझने में भी बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि वह कहते हैं कि युद्ध ही जीवन है। शांतिवादी हैं–रसल हैं, गांधी हैं–उनकी बात भी समझ लेनी बहुत आसान हैं। वह कहते हैं कि नहीं, शांति ही जीवन है। कृष्ण की बात समझनी बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह कहते हज कि जीवन दोनों द्वारों से गुजरता है। वह शांति से भी गुजरता है, वह युद्ध से भी गुजरता है। और अगर तुम्हें शांति बनाए रखनी है तो तुम्हें युद्ध की सामर्थ्य रखनी होगी। और अगर तुम्हें युद्ध जारी रखना है तो तुम्हें शांति में तैयारी भी करनी होगी। ये दो पैर हैं जीवन के। इनमें से एक को भी काटा तो लंगड़े और पंगु हो जाते हैं। चंगेज और तैमूर और मुसोलिनी भी लंगड़े हैं और गांधी और रसल भी लंगड़े हैं। इनके एक-एक पैर हैं। इनसे गति नहीं हो सकती। और इसलिए अगर एक-एक पैर वाले आदमी रहें, तो फिर “पीरियाडिकल फैशन’ रहता है। एक पैर मुसोलिनी का और एक पैर गांधी का। दुनिया ऐसी चलती है। दो पैर तो चाहिए ही–एक पैर मुसोलिनी का चलता है, एक गांधी का चलता है। एक फैशन मुसोलिनी की होती है, फिर एक फैशन गांधी की होती है। जब मुसोलिनी अपना युद्ध कर लेता है और हिटलर और स्टेलिन अपने युद्ध को गुजार जाते हैं, तब रसल और गांधी और बिनोबा की बात हमको एकदम अपील करने लगती है। दस-बीस साल इनकी बात अपील करती है, तब तक यह इतना लंगड़ा पैर ज्यादा देर नहीं चलता, दूसरे पैर की जरूरत पड़ जाती है, फिर कोई माओ खड़ा होगा, फिर कोई खड़ा होगा, फिर युद्ध बीच में आ जाएगा।

कृष्ण के पास दोनों पैर हैं। कृष्ण लंगड़े आदमी नहीं हैं। और मैं मानता हूं कि दोनों पैर प्रत्येक के पास होने चाहिए। जो आदमी लड़ न सके, उसमें कुछ कमी होती है। और जो आदमी लड़ न सके, वह आदमी ठीक अर्थों में शांत भी नहीं हो सकता। वह लंगड़ा हो जाता है। जो आदमी शांत न हो सके, वह विक्षिप्त हो जाता है। और जो आदमी शांत न हो सके वह लड़ेगा कैसे? लड़ने में एक निर्णायक बात तय होनी है कि सारी दुनिया को शांतिवादी बनाना है? एक तरह का मुर्दापन छा जाएगा। जो कि संभव नहीं है, कोई मानेगा नहीं। शांतिवादी अपना जुलूस निकालता रहेगा और शांति के झंडे लगाता रहेगा–कोई मानने वाला नहीं है, कोई जीवन रुकता नहीं है–युद्धखोर, अपनी युद्ध की तैयारी करता रहेगा। फैशन बदलते रहते हैं। दस-बीस साल उसका प्रभाव रहता है, दस-बीस साल इनका प्रभाव रहता है। और ये दोनों एक-दूसरे के साझे में काम चलाते हैं।

कृष्ण की बात समग्र जीवन की है, और अगर हमारी समझ में आ जाए तो न तो शांति को छोड़ने की जरूरत है, न युद्ध को छोड़ने की जरूरत है। युद्ध के तल रोज बदलते जाएंगे, निश्चित ही। क्योंकि कृष्ण कोई चंगेज नहीं हैं। किसी की हत्या करने के लिए, किसी को दुख देने के लिए उनकी कोई आतुरता नहीं है। लेकिन युद्ध के तल बदलते जाएंगे।

अब हम देखें कि युद्ध कितने प्रकार से तल बदलता है।

अगर आदमी आदमी से न लड़े, तो सब आदमी मिलकर प्रकृति से लड़ना शुरू कर देते हैं। अब यह जरा सोचने जैसी बात है कि जिन कौमों में युद्ध चलते रहे, उन्हीं कौमों में विज्ञान भी विकसित हुआ, क्योंकि लड़ने की क्षमता है उनमें। वह आदमी से भी लड़ते हैं, जब फिर वक्त मिलता है तो प्रकृति से भी लड़ लेते हैं। लेकिन हमारी कौम ने महाभारत के बाद प्रकृति से भी कोई लड़ाई नहीं लड़ी। बाढ़ से भी नहीं लड़े, आंधी से भी नहीं लड़े, पहाड़ से भी नहीं लड़े, प्रकृति के किसी तत्त्व से नहीं लड़े, इसलिए विज्ञान विकसित नहीं हो सका। क्योंकि वह तो प्रकृति से लड़ेंगे तो विकसित होगा। आदमी लड़ता रहे तो आज जमीन की प्रकृति से लड़ेगा और जमीन के राज खोल लेगा, कल वह चांदत्तारों की प्रकृति से लड़ेगा; उसका अभियान रुकेगा नहीं।

इसलिए ध्यान रहे कि जो समाज युद्ध में डूबे और उबरे, वे ही समाज चांद पर भी अपने आदमी को उतार पाए हैं। हम नहीं उतार पाए, शांतिवादी नहीं उतार पाया। और चांद आज नहीं कल, युद्ध के अर्थ में बड़ा कीमती है। जिसके हाथ में चांद होगा, उसके हाथ में पृथ्वी होगी। क्योंकि आने वाले युद्ध की मिसाइल्स जिसके हाथ में चांद पर लग जाएंगी, पृथ्वी उसके हाथ में होगी। इसलिए अब झगड़ा पृथ्वी से हट गया है। अब यह तो सब जिसको कहें कि “फिलस्फाइज्ड़’ हैं–वियतनाम है, या कम्बोडिया है, या कुछ और है; हिंदुस्तान-पाकिस्तान हैं–यह सब कोई लड़ाई-झगड़े नहीं हैं, ये सिर्फ नासमझों के चित्त को उलझाए रखने की तरकीबें हैं। कि वह यहां उलझे रहेंगे। असली लड़ाई अब दूसरे तल पर शुरू हो गई है। चांद पर जाने की दौड़ का बहुत गहरा अर्थ दूसरा ही है। वह अर्थ यह है कि जिसके हाथ में कल चांद होगा, उसको पृथ्वी पर कोई चुनौती देने का उपाय नहीं रह जाएगा। उसके एटम और उसके हाइड्रोजन बम की तोपें चांद से पृथ्वी की तरफ लगी होंगी। एक-एक मुल्क के ऊपर उड़कर बम गिराने की जरूरत न रह जाएगी, मुल्क अपने-आप बम की तोप के सामने आते रहते हैं चौबीस घंटे में। वह घूमती रहती है पृथ्वी और पूरे वक्त सामने आते रहते हैं, अपने-आप। कोई अलग-अलग किसी मुल्क पर जाकर एटम को गिराने की जरूरत नहीं है। तो इसलिए इतनी दौड़ थी, और इतना खर्च करके–कोई एक अरब अस्सी करोड़ डालर खर्च हुआ एक आदमी को चांद पर उतारने में। यह कोई खेल नहीं था, इसमें कुछ कारण है पीछे। और कौन पहले उतार देता है यह जरूरी था।

यह दौड़ अब वैसी ही है जैसे एक दिन दौड़ आज से कोई तीन सौ साल पहले यूरोप से एशिया की तरफ लग गई थी और सारे जहाज एशिया की तरफ भागे जा रहे थे–पोर्तगीज भी, स्पैनिश भी और अंग्रेज भी, और सब, फ्रेंच भी और जर्मन भी, सब भागे जा रहे थे। तीन सौ साल पहले जैसे एशिया की जमीन पर कब्जा करना जरूरी हो गया था विस्तारवादी के लिए, विकास के लिए। अब वह बेमानी हो गया, अब कोई मतलब नहीं। एशिया के लोग समझ रहे हैं कि हमारी स्वतंत्रता की लड़ाई ने हमको आजाद किया है, इसमें आधी ही सचाई है। आधी सचाई तो दूसरी है, और वह यह है कि अब एशिया की जमीन पर कब्जा करने का कोई मतलब नहीं रह गया है, अब वह बात खतम हो गई है। वह दौर खतम हो गया है। अब तो कहीं लड़ाई और दूसरी जमीन पर कब्जा करने की है। वहां दृष्टि और जगह चली गई है, अब वहां दौड़ है। कल चांदत्तारों पर और दूर तक दौड़ हो जाएगी। शक्ति का एक अभियान है जीवन। उस अभियान में जो मुर्दानगी को पकड़ लेते हैं, वह धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं।

हम ऐसी ही नष्ट हो गई कौम हैं। और इसलिए भी कृष्ण का संदेश बड़ा अर्थपूर्ण है–हमारे लिए ही हीं, मैं मानता हूं कि पश्चिम भी उस जगह खड़ा हो गया है जहां उसे निर्णायक लड़ाई शायद पृथ्वी पर एक बार और लड़नी पड़े। निश्चित ही पृथ्वी पर नहीं होगी, अगर पृथ्वी के प्रतियोगियों में भी लड़ाई होगी तो चांद या मंगल पर होगी। पृथ्वी पर कोई अर्थ नहीं है लड़ाई लड़ने का, क्योंकि दोनों मर जाएंगे। अगर उन दोनों को भी लड़ना है तो उन दोनों को भी किसी दूसरे ग्रह-उपग्रह पर ही लड़कर तय करना पड़ेगा कि कौन जीतता है।

इस निर्णायक लड़ाई में भी क्या होगा, शायद हालतें फिर वैसी ही खड़ी हो गई हैं जैसी महाभारत के समय। महाभारत के समय भी दो वर्ग थे। एक वर्ग था जो निपट भौतिकवादी था, जिसकी पूरी दृष्टि शरीर के अतिरिक्त किसी को स्वीकार नहीं करती थी। जिसकी दृष्टि भोग के अतिरिक्त किसी तरह के योग के लिए कोई क्षमता न रखती थी। आत्मा का होना न होने की बात थी। जिंदगी थी भोग, लूट-खसोट। जिंदगी शरीर से और शरीर की इंद्रियों के बाहर कोई अर्थ न रखती थी। एक वर्ग। उसी वर्ग के खिलाफ वह संघर्ष हुआ था। कृष्ण को उस संघर्ष को करवाना पड़ा था। जरूरी हो गया था कि शुभ की शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों, वह अशुभ की शक्तियों के सामने खड़ी हो जाएं।

आज फिर करीब-करीब हालत वैसी हो गई है और हो जाएगी बीस साल के भीतर। एक तरफ भौतिकवाद, “मटीरियलिज्म’ अपनी पूरी ताकत के साथ खड़ा हो गया जाएगा, और दूसरी तरफ फिर कमजोर ताकतें होंगी शुभ की। शुभ में एक बुनियादी कमजोरी है। वह लड़ने से हटना चाहता है। अर्जुन भला आदमी है। अर्जुन शब्द का मतलब होता है, सीधा-सादा। तिरछा-इरछा जरा-भी नहीं। अ-रिजु। बहुत सीधा-सादा आदमी है। सरल चित्त है। देखता है कि फिजूल की झंझट कौन करे, हट जाओ। अर्जुन सदा ही हटता रहा है। वह जो अ-रिजु आदमी है, जो सीधा-सादा आदमी है, वह हट जाता है। वह कहता है, मत झगड़ा करो, जगह छोड़ दो। कृष्ण अर्जुन से कहीं ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं। कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं है। लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है, और सरलता पलायन नहीं है। वह जम कर खड़े हो गए हैं, वे नहीं भागने देंगे। शायद फिर पृथ्वी दो हिस्सों में बंट जाएगी। सदा ऐसा होता है, कि निर्णायक, “डिसीसिव मॉमेंट’ आ जाते हैं, जब फिर लड़ने की बात होती है। उसमें गांधी और विनोबा और रसल काम नहीं पड़ेंगे। क्योंकि एक अर्थ में वे सब अर्जुन हैं। वे कहेंगे, हट जाओ; वे कहेंगे, मर जाओ लेकिन लड़ो मत।

कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर जरूरत है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए। शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत रखनी चाहिए। निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो नहीं सकता। क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। लेनि अशुभ जीत न पाए, इसलिए लड़ाई है।

तो धीरे-धीरे दो हिस्से दुनिया के बंट जाएंगे, जल्दी ही, जहां एक हिस्सा भौतिकवादी होगा और एक हिस्सा स्वतंत्रता, लोकतंत्र, व्यक्ति और जीवन के और मूल्यों के लिए होगा। लेकिन क्या ऐसे दूसरे शुभ के वर्ग को कृष्ण मिल सकते हैं? मिल सकते हैं। क्योंकि जब भी मनुष्य की स्थितियां इस जगह आ जाती हैं जहां कि कुछ निर्णायक घटना घटने को होती है, तो हमारी स्थितियां उस चेतना को भी पुकार लेती हैं उस चेतना को भी जन्म दे देती हैं। वह व्यक्ति भी जन्म जाता है। इसलिए भी मैं कहता हूं कि कृष्ण का भविष्य के लिए बहुत अर्थ है। और जब साधारण, सीधे-सादे, अच्छे आदमियों की आवाजें बेमानी हो जाएंगी–क्योंकि बुरा आदमी अच्छे आदमी की आवाजों से न डरता है, न भय खाता है, न रुकता है। तो वह बढ़ता चला जाता है। बल्कि अच्छा आदमी जितना सिकुड़ता है, बुरे आदमी के लिए उतना ही आनंदपूर्ण हो जाता है।

महाभारत के बाद हिंदुस्तान में बहुत अच्छे आदमी हुए–बुद्ध हैं, महावीर हैं–इनकी अच्छाई की कोई कमी नहीं है। इनकी अच्छाई की कोई सीमा नहीं है। लेकिन इनकी अच्छाई के प्रभाव में मुल्क सिकुड़ गया। हमारा चित्त सिकुड़ गया। और उस सिकुड़े हुए चित्त पर सारी दुनिया के आक्रामक टूट पड़े। आक्रमण करने ही हम नहीं जाते हैं, आक्रमण को बुलाते भी हमीं हैं। और जब तुम किसी को मारते हो, तभी तुम जिम्मेवार नहीं होते, जब तुम किसी की मार खाते हो तब भी तुम जिम्मेवार होते ही हो। क्योंकि किसी के चेहरे पर चांटा मारना भी एक कृत्य है जिसमें पचास प्रतिशत तुम जिम्मेवार हो, पचास प्रतिशत वह आदमी जिम्मेवार है जिसने चांटे को निमंत्रित किया है। सहा, “पैसीविटी’ दिखाई, स्वीकार किया, बुलाया कि मारो। अगर तुम पर कोई चांटा मारता है तो पचास “परसेंट’ तुम भी जिम्मेवार होते हो, तुम बुलाते हो।

अच्छे आदमियों की एक लंबी कतार ने–निपट अच्छे आदमियों की लंबी कतार ने–इस मुल्क के मन को सिकोड़ दिया, और हमने बुलाया, आमंत्रण दिया कि आओ। हमारा आमंत्रण मानकर बहुत लोग आए। उन्होंने हमें वर्षों तक गुलाम रखा, दबाया, परेशान किया। अपनी मौज से वे चले भी गए। लेकिन हम अभी भी, हमारी मनोदशा संकोच की ही है। हम फिर किसी को बुला सकते हैं। अगर कल माओ प्रवेश कर जाए इस मुल्क में, तो उसके लिए जिम्मेदार अकेला माओ नहीं होगा। लेनिन ने बहुत वर्षों पहले एक भविष्यवाणी की थी कि मास्को से कम्यूनिज्म पेकिंग और कलकत होता हुआ लंदन पहुंचेगा। उसकी भविष्यवाणी बड़ी सही मालूम पड़ती है। पेकिंग तो पहुंच गया। कलकत्ते में उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी है। लंदन ज्यादा दूर नहीं है। अब कलकत्ते में कम्यूनिज्म को प्रवेश करने में कोई कठिनाई नहीं है; क्योंकि भारत का का मन सिकुड़ा हुआ है। वह आ जाएगा, उसको स्वीकार करके देश और दब जाएगा।

इसलिए इस देश को तो कृष्ण पर पुनर्विचार करना ही चाहिए।

“कृष्ण यदि आज होते तो यह विश्व जो दो गुटों में बंटा है, उसमें किस गुट का पक्ष लेते?’

सल में जब भी ऐसे संकट का क्षण होता है जब कि निर्णय करना हो कि कौन शुभ है, कौन अशुभ है, तो सदा ही कठिनाई होती है। उस दिन भी आसान नहीं थी बात। क्योंकि दुर्योधन ही नहीं था उस तरफ, उस तरफ भीष्म भी थे, उस तरफ अच्छे लोग भी थे। और कृष्ण ही नहीं थे, अर्जुन ही नहीं थे इस तरफ, इस तरफ भी बुरे लोग थे। निर्णायक क्षण में तय करना सदा ही मुश्किल होता है। लेकिन, मूल्य कुछ निर्धारण करते हैं।

दुर्योधन किसलिए लड़ता था? आदमी उसके पास अच्छे थे या बुरे, यह उतना, बड़ा मूल्यवाननहीं है, वह लड़ किसलिए रहा था? उस लड़ने के मूल्य क्या थे, “वैल्यूज’ क्या थे? कृष्ण अगर लड़ने को प्रेरित कर रहे थे अर्जुन को तो मूल्य क्या थे? एक तो बड़े-से-बड़ा जो निर्णायक मूल्य था वह था न्याय, “जस्टिस’। न्याय क्या है? न्याययुक्त क्या था? तो आज फिर हमें निर्णय करना पड़े कि न्याययुक्त क्या है, न्याय क्या है? अब जैसे मेरी समझ में स्वतंत्रता न्याय है, परतंत्रता अन्याय है। जो “ग्रुप’, जो वर्ग, जो गुट मनुष्य को किसी तरह की परतंत्रता में ढकेलता हो, वह अन्याय का पक्ष है। उस तरफ अच्छे आदमी भी हो सकते हैं, क्योंकि अच्छे आदमी भी जरूरी नहीं है कि बहुत दूरद्रष्टा हों। “कनफ्यूज्ड’ होते हैं। उनको भी पता नहीं हो सकता है कि वह जो कर रहे हैं वह बुरे पक्ष में जा रहा है।

स्वतंत्रता बहुत ही कसौटी की बात है। मनुष्य की स्वतंत्रता जिस बात से बढ़ती हो, ऐसा समाज, ऐसा जगत चाहिए। जिस बात से स्वतंत्रता कम होती हो, ऐसा समाज और ऐसा जगत नहीं चाहिए। स्वभावतः जो लोग परतंत्रता भी लाना चाहें, वे भी परतंत्रता शब्द का उपयोग नहीं करेंगे। क्योंकि उस शब्द का तो कोई उपयोग सुनके ही हट जाएगा। वे भी ऐसे शब्द खोजेंगे जिनसे परतंत्रता आती हो, लेकिन परतंत्रता का भाव न पता चलता हो। ऐसा एक नया शब्द समानता है, “इक्वालिटी’। यह शब्द बहुत चालाकी से भरा हुआ है। और कुछ लोग हैं जो स्वतंत्रता को एक तरफ काट कर समानता की गुहार पर हैं। वे कहते हैं, समानता चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि समानता के बिना स्वतंत्रता कैसे हो सकती है? वे कहते हैं, प्राथमिक चीज समानता है। और वे यह भी कहते हैं, समानता के बिना स्वतंत्रता कैसे हो सकती है? और यह बात समझ में पड़ेगी अनेकों को कि ठीक ही तो बात है, जब तक सब लोग समान नहीं हैं तो सब लोग स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं। और तब इस समानता को लाने के लिए अगर स्वतंत्रता भी काटनी पड़ती हो तो फिर हम तैयार हो जाते हैं।

अब यह बड़ा मजेदार तर्क है। समानता इसलिए लानी है कि स्वतंत्रता आ सके, और स्वतंत्रता इसलिए काटनी पड़ती है क्योंकि समानता लानी है। और एक बार स्वतंत्रता खोने के बाद उसे लाना बहुत असंभव है। उसे कौन लाएगा? मैं तुमसे कहता हूं, यहां सब इकट्ठे हैं, मैं इन सबको कहता हूं कि तुम सबको समान करने के लिए सबको पहले जंजीर पहनानी पड़ेगी। क्योंकि जंजीर बिना पहनाए, किसी का सिर बड़ा है, किसी के हाथ लंबे हैं, किसी के पैर छोटे हैं, इन सबको काटा नहीं जा सकता। तो सबको समान करने के लिए पहले जंजीरें डाल दी जाती हैं, फिर सबके हाथ-पैर काटकर हम सबको समान कर देंगे। लेकिन जो सबको समान करेगा, वह तो असमान रह ही जाएगा। वह तो आपके बाहर रह जाएगा, उसके हाथ तो खुले होंगे, जंजीरें नहीं होंगी और उसके हाथ में तलवार होगी। और एक बार जब सबके हाथों में जंजीर रहेगी और कुछ लोगों के हाथ में तलवारें होंगी और हाथ-पैर कट चुके होंगे, तब तुम करोगे क्या?

ऐसा खयाल था माक्र्स का कि एक बार समानता लाने के लिए स्वतंत्रता खोनी पड़ेगी, व्यक्तिगत स्वतंत्रता नष्ट करनी पड़ेगी; एक अधिनायकशाही, एक “डिक्टेटरशिप’ चाहिए होगी; फिर जब पूरा हो जाएगा काम समानता का तब स्वतंत्रता दे दी जाएगी। लेकिन जिनके हाथ में इतनी ताकत होगी सबको समान करने की, वह स्वतंत्रता देंगे? लक्षण नहीं दिखाई पड़ते हैं। बल्कि जितनी ताकत उसकी बढ़ जाती है और जितना आदमी पंगु हो जाता है, उतनी ही स्वतंत्रता की बात ही खतम हो जाती है, क्योंकि तुम पूछ नहीं सकते, आवाज भी नहीं उठा सकते, बगावत नहीं कर सकते।

समानता की आड़ में स्वतंत्रता कटेगी। और स्वतंत्रता एक बार कट जाए, तो लौटना बहुत मुश्किल मामला है। क्योंकि जब स्वतंत्रता कट जाती है तो काटनेवाला स्वतंत्रता की भविष्य की संभावनाओं को भी काट देता है। और दूसरी बात यह है कि स्वतंत्रता तो एक बिलकुल ही सहज तत्व है। जो प्रत्येक को मिलना चाहिए और समानता बिलकुल असहज बात है जो मिल नहीं सकती। यह अ-मनोवैज्ञानिक है कि हम आदमी को समान करें। आदमी समान हो नहीं सकता। आदमी समान है नहीं। आदमी मूलतः असमान है, स्वतंत्रता जरूर चाहिए, और इसलिए स्वतंत्रता चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जो हो सकता है वह हो सके, उसे उसका पूरा मौका चाहिए।

तो मेरी दृष्टि में स्वतंत्रता का पक्ष कृष्ण का पक्ष है, समानता का नहीं हो सकता। स्वतंत्रता हो तो धीरे-धीरे असमानता कम हो सकती है। ध्यान रहे, मैं कह रहा हूं, असमानता कम हो सकती है। यह नहीं कह रहा हूं कि समानता आ सकती है। स्वतंत्रता रहे तो असमानता धीरे-धीरे कम हो सकती है। लेकिन समानता अगर जबर्दस्ती थोप दी जाए, तो स्वतंत्रता कम होती चली जाएगी। जबर्दस्ती थोपी कोई भी चीज परतंत्रता का ही पर्याय है। तो मूल्य चुनने पड़ेंगे। व्यक्ति का मूल्य कीमती है।

सदा से ही जो अशुभ है, वह व्यक्ति को मूल्य नहीं देना चाहता, क्योंकि व्यक्ति ही विद्रोह का तत्व है। इसलिए अशुभ की शक्तियां समूह को मानती हैं, व्यक्ति को नहीं मानतीं। और यह भी जानकर तुम हैरान होओगे कि अगर तुम्हें कोई अशुभ कार्य करना हो, तो व्यक्ति से करवाना बहुत मुश्किल है, समूह से करवाना सदा आसान है। एक अकेले हिंदू से मस्जिद में आग लगवानी बहुत मुश्किल है। हिंदुओं की भीड़ से लगवानी बहुत आसान है। एक अकेले मुसलमान से एक हिंदू बच्चे की छाती में छुरा घुसवाना बहुत कठिन है, लेकिन मुसलमान की भीड़ से बहुत आसान है। असल में जितनी बड़ी भीड़ होती है, आत्मा उतनी कम हो जाती है। क्योंकि आत्मा के होने का जो तत्व है वह व्यक्तिगत दायित्व है, “इंडिवीजुअल रिसपांसिबिलिटी’ है। जब मैं तुम्हारी छाती में छुरा भोंकता हूं, तो मेरा अंतःकरण कहता है कि क्या कर रहे हो? लेकिन जब मैं सिर्फ एक भीड़ के साथ चलता हूं और आग लगती है, तो मैं सिर्फ भीड़ का एक हिस्सा होता हूं, मेरा अंतःकरण कभी भी नहीं कहता तुम क्या कर रहे हो? मैं कहता हूं, लोग कर रहे हैं। हिंदू कर रहे हैं, मैं तो सिर्फ साथ हूं। और कल मुझे कभी व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। अशुभ जो है वह सदा ही समूह को आकर्षित करना चाहता है। अशुभ जो है वह भीड़ पर निर्भर करता है। और अशुभ चाहता है कि व्यक्ति मिट जाए, भीड़ रह जाए। शुभ व्यक्ति को स्वीकार करता है और चाहता है भीड़ धीरे-धीरे खतम हो जाए, व्यक्ति रह जाएं। व्यक्ति रहेंगे तो संबंध रहेंगे, लेकिन वह भीड़ नहीं होगी, वह समाज होगा।

अब इसे भी थोड़ा समझ लेने जैसा है, जहां व्यक्ति हों, वहीं समाज हो सकता है। और जहां व्यक्ति की सत्ता कम हो जाए वहां सिर्फ भीड़ होती है, समाज नहीं होता। समाज और भीड़ में इतना ही फर्क है। व्यक्तियों के अंतर्संबंध का नाम समाज है, लेकिन व्यक्ति होने चाहिए। मैं स्वतंत्र रूप से तुमसे, स्वतंत्र व्यक्ति के साथ जब संबंधित होता हूं, तो समाज होता है। एक जेलखाने में समाज नहीं होता, सिर्फ भीड़ होती है। कैदी भी संबंधित होते हैं, एक-दूसरे को देखकर हंसते भी हैं, एक-दूसरे को सिगरेट-बीड़ी भी भेज देते हैं, लेकिन भीड़ होती है, समाज नहीं होता। वे सब वहां इकट्ठे किए गए हैं। अपनी स्वतंत्रता का उनका चुनाव नहीं है। इसलिए स्वतंत्रता, व्यक्ति, व्यक्तित्व, आत्मा, धर्म और अदृश्य और अज्ञात की संभावना जिस पक्ष की तरफ प्रबल होगी–प्रबल कह रहा हूं, क्योंकि निर्णायक नहीं होता बहुत कि इस पक्ष के तरफ है और इसकी तरफ बिलकुल नहीं है। राम और रावण लड़ते हों, तो भी पक्का नहीं होता, बहुत साफ नहीं होता। क्योंकि रावण में भी थोड़ा राम तो होता है और राम में भी थोड़ा रावण तो होता ही है। कौरवों में भी थोड़ा पांडव तो होता है, पांडवों में भी थोड़ा कौरव होता ही है। ऐसा अच्छे से अच्छा आदमी नहीं है पृथ्वी पर जिसमें बुरा थोड़ा-सा न हो। और ऐसा बुरा आदमी भी नहीं खोजा जा सकता, जिसमें थोड़ा-सा अच्छा न हो। इसलिए सवाल सदा अनुपात का और प्रबलता का है। स्वतंत्रता, व्यक्ति, आत्मा, धर्म, ये मूल्य हैं, जिनकी तरफ शुभ की चेतना साथ होगी।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5)

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पतंजलि—योग सूत्र

(भाग—5)

ओशो

धर्म कोई अहंकार का खेल नहीं है।

तुम कोई अहंकार की खोज में संलग्न नहीं हो, बल्कि तुम तो समग्र को उपलब्ध करने का प्रयास कर रहे हो, और समग्र तभी संभव हो पाता है जब अहंकार के खेलों के सारे प्रकार छोड़ और त्याग दिए जाएं, जब तुम न बचो, बस परमात्मा रहे।

मैं तुम्हें एक प्रसिद्ध सूफी कहानी ‘पवित्र छाया’ सुनाता हूं।

एक बार की बर्ति— है, एक इतना भला फकीर था कि स्वर्ग से देवदूत यह देखने आते थे कि किस प्रकार sए एक व्यक्ति इतना देवतुल्य भी हो सकता है। यह फकीर अपने दैनिक जीवन में, बिना इस बात ,को जाने, सदगुणों को इस प्रकार से बिखेरता था जैसे सितारे प्रकाश और फूल सुगंध फैलाते हैं। उसके दिन को दो शब्दों में बताया जा सकता था—बांटों और क्षमा करो—फिर भी ये शब्द कभी उसके होंठों पर नहीं आए। वे उसकी सहज मुस्कान, उसकी दयालुता, सहनशीलता और सेवा से अभिव्यक्त होते थे। देवदूतों नें परमात्मा से कहा : प्रभु, उसे चमत्कार कर पाने की भेंट दें।

परमात्मा ने उत्तर दिया, उससे पूछो वह क्या चाहता है।

उन्होंने फकीर से पूछा, क्या आप चाहेंगे कि आपके छूने भर से ही रोगी स्वस्थ हो जाए।

नहीं, फकीर ने उत्तर दिया, बल्कि मैं तो चाहूंगा परमात्मा ही इसे करें।

क्या आप दोषी आत्माओं को परिवर्तित करना और राह भटके दिलों को सच्चे रास्ते पर लाना पसंद करेंगे?

नहीं, यह तो देवदूतों का कार्य है, यह मेरा कार्य नहीं कि किसी को परिवर्तित करूं।

क्या आप धैर्य का प्रतिरूप बन कर लोगों को अपने सदगुणों के आलोक से आकर्षित करते हुए और इस प्रकार परमात्मा का महिमा मंडन करना चाहेंगे?

नहीं, फकीर ने कहा, यदि लोग मेरी ओर आकर्षित होंगे तो वे परमात्मा से विमुख होने लगेंगे। तब आपकी क्या अभिलाषा है? देवदूतों ने पूछा।

मैं किस बात की अभिलाषा करूं? मुस्कुराते हुए फकीर ने पूछा, यह कि परमात्मा मुझे अपना आशीष प्रदान करे, क्या इससे ही मुझको सब कुछ नहीं मिल जाएगा?

देवदूतों ने कहा. आपको चमत्कार मांगना चाहिए या किसी चमत्कार की सामर्थ्य आपको बलपूर्वक दे दी जाएगी।

बहुत अच्छा, फकीर बोला, यह कि मैं भलाई के महत् कार्य उन्हें जाने बिना कर सकूं।

अब देवदूत परेशानी में पड़ गए। उन्होंने आपस में विचार—विमर्श किया और इस योजना को सुनिश्चित कर दिया। फकीर की छाया भले ही उससे पीछे पड़े या किसी एक ओर पड़े, जिस ओर भी पड़ेगी उस को रोग—मुक्त करने की, दर्द को मिटाने की और पीड़ा को हरने की क्षमता प्रदान कर दी गई, जिससे कि वह इसे जान ही न सके।

जब भी वह फकीर रास्ते से गुजरता, उसकी छाया या तो उसके एक तरफ पड़ती या पीछे पड़ती तो उससे सूखे रास्ते हरियाली से भर जाते, इधर उधर के वृक्ष पुष्पित हो जाते, सूखे जल स्रोतों में पानी की स्वच्छ धार बहने लगती, बच्चों के मुरझाए हुए चेहरे खिल उठते, और दुखी स्त्री—पुरुष हर्षित हो उठते। लेकिन वह फकीर तो बस अपने दैनिक जीवन में वैसे ही सदगुणों को बिखेरता रहा—जैसे कि सितारे प्रकाश और फूल सुगंध बिखेरते हैं, उसे पता ही न लगता। लोग उसकी विनम्रता का सम्मान करते हुए शांतिपूर्वक उसके पीछे चलते, वे उससे कभी उसके चमत्कारों का उल्लेख भी न करते। जल्दी ही वे रासका नाम भी भूल गए और उन्होंने उसको ‘पवित्र छाया’ नाम दे दिया।

ओशो


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–81

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पंचभूतों पर अधिपत्‍य—(प्रवचन—पहला)

योग—सूत्र:

(विभुतिपाद)

बहिरकल्पिता वृत्तिर्महाविदेहा तत: प्रकाशावरणक्षय:।।44।।

चेतना के आयाम को संस्पर्शित करने की शक्‍ति मनस शरीर के परे है, अत: अकल्पनीय है, महाविदेह कहलाती है.।…इस शक्ति के द्वारा प्रकाश पर छाया हुआ आवरण हट जाता है।

 स्‍थूल स्वरूपस्वान्वयार्थवत्वसंयमाक्सजय:।। 45 ।।

उनके स्थूल, सतत, सूक्ष्‍म, सर्वव्यापी और क्रियाशील स्वरूप पर संपन्न हुआ संयम,

पंचभूतों, पाँच तत्‍वों पर आधिपत्‍य ले आता है।

ततोउणिमादिप्रादुर्भाव: कायसंपत्‍तद्धर्मानाभिधातश्‍च।। 46।।

इसके उपरांत अणिमा आदि, देह की संपूर्णता और देह को बाधित करने वाले

तत्‍वों के निर्मूलन की उपलब्‍धि प्राप्‍त होती है।

रूपालावण्‍यवलवज्रसंहननत्‍वानि कायसंपत्।। 47।।

सौंदर्य, लावण्‍य, शक्‍ति और वज्र सी कठोरता,

ये सभी मिल कर संपूर्ण देह का निर्माण करती है।

तंजलि का योग—सूत्र कोई दार्शनिक व्यवस्था नहीं है। यह अनुभवात्मक है। यह एक उपकरण है, जिससे कुछ किया जाना है। लेकिन फिर भी इसमें एक दर्शन समाहित है। यह भी तुम्हें इस बात की बौद्धिक समझ देने के लिए कि तुम कहा जा रहे हो, क्या खोज रहे हो। यह दर्शन प्रयोग करने जैसा है, उपयोगी है, इससे उस क्षेत्र का जिसकी सीमाओं का तुम अन्वेषण करने जा रहे हो संपूर्ण चित्र खिंच जाता है; लेकिन इस दर्शन को समझना पड़ेगा।

पतंजलि के दर्शन के बारे में पहली बात, मनुष्य के व्यक्तित्व को वे पांच बीजों, पांच शरीरों में बांटते हैं। उनका कहना है कि तुम्हारे पास सिर्फ एक शरीर ही नहीं है; तुम्हारे पास पर्त दर पर्त देहें हैं; वे पांच हैं। पहले शरीर को वे ‘अन्नमय कोष’, भोजन—काया, पार्थिव—देह कहते हैं। जो पृथ्वी से बनी है और लगातार भोजन द्वारा पोषित होती रहती है। भोजन पृथ्वी से मिलता है। यदि तुम भोजन करना छोड़ दो तो तुम्हारा अन्नमय कोष क्षीण होने लगेगा। अत: व्यक्ति को इस बात के प्रति बहुत सजग रहना पड़ता है कि वह क्या खा रहा है, क्योंकि उसका निर्माण इसी से हो रहा है, और यह उसे लाखों ढंग से प्रभावित करता है, क्योंकि देर—अबेर तुम्हारा भोजन मात्र खाद्य सामग्री ही नहीं रहता, यह तुम्हारा रक्त, तुम्हारी अस्थियां, तुम्हारी मांस—मज्जा बन जाता है। यह तुम्हारे अस्तित्व में प्रवाहित होकर तुम्हें प्रभावित करता है। अत: भोजन की शुद्धता एक परिशुद्ध अन्नमय कोष, एक शुद्ध भोजन—काया निर्मित करती है।

और अगर पहला शरीर शुद्ध है, हलका है, निर्भार है, तो ही दूसरे शरीर में प्रवेश करना सुगम हो जाता है। अन्यथा यह कठिन होगा, तुम बोझिल होते हो। क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया है कि जब भी तुमने अधिक मात्रा में और भारी भोजन किया हो, तो तुरंत ही तुम्हें एक आलस्य की अनुभूति, एक नींद सी महसूस होने लगती है। तुम्हारा मन सो जाने की मांग करने लगता है, तुरंत ही जागरूकता खोने लगती है। जब पहला शरीर बोझिल हो तो तीक्ष्ण बोध का जागना कठिन हो जाता है। अत: सभी धर्मों में अनाहार इतना महत्वपूर्ण हो गया है। लेकिन अनाहार का विज्ञान है और इसे मूढ़तापूर्वक नहीं अपनाया जाना चाहिए।

अभी उस रात को ही एक संन्यासिनी मुझसे कह रही थीं कि वह उपवास करती रही है और उसका सारा शरीर, समग्र अस्तित्व, अस्तव्यस्त, पूर्णत: अव्यवस्थित हो गया है। अब उसका पेट ठीक ढंग से कार्य नहीं कर रहा है। और जब आमाशय ठीक से कार्य न कर पा रहा हो तो सारा शरीर कमजोर हो जाता है। जीवंतता क्षीण होने लगती है और तुम जिंदा नहीं रह पाते। तुम धीरे— धीरे असंवेदनशील और अंततः मृत हो जाते हो।

लेकिन अनाहार महत्वपूर्ण है। जब कोई अन्नमय कोष की क्रिया विधि को समझ चुका हो, तो ही इसको अत्यधिक सावधानी पूर्वक अपनाया जाना चाहिए। इसको किसी ऐसे व्यक्ति के दिशा निर्देशन में, जो अपने अन्नमय कोष के सारे आयामों में गतिमान हो चुका हो, न सिर्फ गतिमान वरन वह उसके पार भी जा चुका हो, और जो अन्नमय कोष को एक साक्षी की भांति देख सकता हो, के उचित मार्ग—निर्देशन में किया जाना चाहिए। अन्यथा अनाहार घातक हो सकता है।

इसके बाद भोजन की उचित मात्रा और उचित गुणवत्ता का अनुपालन करना होता है। फिर अनाहार की जरूरत नहीं रहती।

फिर भी अन्नमय कोष महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह तुम्हारा पहला शरीर है। और अधिकतर लोग अपने पहले शरीर से इतने चिपके होते हैं कि कभी दूसरे की ओर गतिमान नहीं होते। लाखों लोगों को इस बात का बोध ही नहीं है कि उनके पास पहले के पीछे छिपा हुआ एक गहरा शरीर एक दूसरी देह भी है। पहली पर्त बहुत स्थूल है।

दूसरे शरीर को पतंजलि ‘प्राणमय कोष’, ऊर्जा—शरीर, विद्युत—काया कहते हैं। दूसरा विद्युत क्षेत्रों से बना है। इसी शरीर पर एक्युपॅक्चर कार्य करता है। दूसरा शरीर पहले से अधिक सूक्ष्म है। और जो लोग पहले से दूसरे की ओर बढ़ने लगते हैं वे अत्यधिक आकर्षक, चुंबकीय, सम्मोहक और ऊर्जा—पुंज बन जाते हैं। यदि तुम उनके पास जाओगे तो स्फूर्ति और जीवंतता महसूस करोगे।

यदि तुम ऐसे व्यक्ति के पास जाते हो जो सिर्फ अपने अन्न—शरीर में जी रहा है, तो तुम रिक्तता अनुभव करोगे, वह तुम्हें सोख लेगा। अनेक बार तुम ऐसे लोगों के संपर्क में आते हो और यह महसूस करते हो कि वे तुम्हें सोखते हैं। जब वे हट जाते हैं तो तुम्हें खालीपन का, रिक्तता का अहसास होता है, जैसे कि किसी ने ऊर्जा को शोषित कर लिया हो। पहला शरीर शोषक है, और यह बहुत स्थूल भी है। यदि तुम अन्न—शरीर उन्मुख लोगों के साथ बहुत अधिक रहते हो, तो तुम सदा बोझिलता, तनाव, ऊब, नींद और ऊर्जा विहीनता का अनुभव करोगे, सदा अपनी ऊर्जा के निचले पायदान पर रहोगे और उच्चतर विकास में लगाने के लिए तुम्हारे पास कोई ऊर्जा नहीं बचेगी।

इस प्रकार का, पहले प्रकार का, अन्नमय कोष उन्मुख व्यक्ति खाने के लिए जीता है—वह खाता है और खाता है और खाए चला जाता है। और यही उसका संपूर्ण जीवन है। एक अर्थ में वह बचकाना रहता है। संसार में आकर जो सबसे पहला काम करता है वह है हवा खींचना और दूध अना। बच्चे को संसार में आकर पहला कार्य भोजन—काया की सहायता का करना पड़ता है, और यदि कोई भोजन से आसक्त रहता है, तो वह बचकाना बना —रहता है। उसके विकास में बाधा आती है।

यह दूसरा शरीर, प्राणमय कोष, तुम्हें नई स्वतंत्रता देता है, तुम्हें ज्यादा आकाश देता है। दूसरा शरीर पहले से. बड़ा है, यह तुम्हारे भौतिक शरीर तक ही सीमित नहीं है। यह भौतिक शरीर के अंदर है और यही भौतिक शरीर के बाहर है। यह सूक्ष्म वायु की, ऊर्जा—मंडल की भांति तुम्हें घेरे हुए है। अब तो उन्होंने सोवियत रूस में यह खोजा है कि इस ऊर्जा—शरीर के चित्र लिए जा सकते हैं। वे इसे बायो—प्लाज्मा कहते हैं, लेकिन इसका सही अभिप्राय है, प्राण। इस ऊर्जा, एलान वाइटल, या जिसे ताओवादी ‘ची’ कहते हैं, का अब चित्र खींचा जा सकता है। अब यह करीब—करीब वैज्ञानिक बात है।

और सोवियत रूस में एक बड़ा अविष्कार, किया गया है, वह यह कि इस के पूर्व तुम्हारा भौतिक शरीर किसी रोग से पीड़ित हो, ऊर्जा शरीर इससे छह माह पूर्व ही पीड़ित हो जाता है। फिर यही भौतिक शरीर को घटता है। यदि तुम्हें टीबी. या कैंसर या कोई और बीमारी होने वाली हो तो तुम्हारे ऊर्जा शरीर में छह माह पूर्व से इसके लक्षण दिखने लगते हैं। भौतिक शरीर का कोई परीक्षण, कोई जांच कुछ नहीं दर्शाता है, लेकिन विद्युत शरीर इसे दिखाने लगता है। पहले यह प्राणमय कोष में प्रकट होता है, तभी यह अन्नमय कोष में प्रविष्ट होता है। अत: अब वे कहने लगते हैं कि बीमार पड़ने से पूर्व ही किसी व्यक्ति का इलाज करना संभव है। यदि ऐसा संभव हो गया तो मानव—जाति रोगी नहीं होगी। इसके पहले कि तुम अपनी बीमारी के बारे में जानो, किरलियान विधि द्वारा लिए गए तुम्हारे फोटो बता देंगे कि तुम्हारे भौतिक शरीर को कोई बीमारी होने वाली है। इसे प्राणमय कोष में ही रोका जा सकता है।

यही कारण है कि योग में श्वसन की शुद्धता पर इतना ज्यादा जोर दिया जाता है। क्योंकि प्राणमय कोष एक सूक्ष्म ऊर्जा से निर्मित है जो श्वास के साथ तुम्हारे शरीर के भीतर संचारित होती है। यदि तुम ठीक से श्वास लेते हो तो तुम्हारा प्राणमय, कोष स्वस्थ, समग्र और जीवंत रहता है। ऐसा व्यक्ति कभी थकान अनुभव नहीं करता, वह सदा कुछ भी करने को तत्पर रहता है, ऐसा व्यक्ति सदा प्रतिसंवेदी रहता है, सदा ही वर्तमान पल की प्रतिसवेदना हेतु, इस क्षण की चुनौती स्वीकारने के लिए तैयार रहता है। वह सदा तैयार है। तुम उसे किसी भी क्षण बिना तैयारी के नहीं पाओगे। ऐसा नहीं है कि वह भविष्य की योजना बनाता है, नहीं, बल्कि उसके पास इतनी ऊर्जा है कि जो कुछ भी हो वह प्रतिसवेदना हेतु तैयार है। उसके पास ऊर्जा का अतिरेक होता है। ताई—ची प्राणमय कोष पर कार्य करता है। प्राणायाम प्राणमय कोष पर कार्य करता है।

और यदि तुम जानते हो कि प्राकृतिक रूप से श्वास कैसे ली जाए, तो तुम अपने दूसरे शरीर तक विकसित हो जाओगे। और दूसरा शरीर पहले शरीर से अधिक ताकतवर है। और दूसरा शरीर पहले शरीर की तुलना में ज्यादा दिन जीवित रहता है।

जब कोई मरता है तो लगभग तीन दिन तक तुम उसका बायो—प्लाज्मा देख सकते हो कभी कभी इसे गलती से उसका भूत समझ लिया जाता है। भौतिक शरीर मर जाता है, लेकिन ऊर्जा शरीर सतत गतिशील रहता है। और जिन लोगों ने मृत्यु के बारे में गहरे प्रयोग किए हैं, वे कहते हैं कि जो व्यक्ति मर गया है उसे यह विश्वास करने में कि वह मर गया है, तीन दिन तक बहुत कठिनाई होती है, क्योंकि वही रूप, पहले से ज्यादा जीवंत, पहले से ज्यादा स्वस्थ, पहले से ज्यादा सुंदर उसके चतुर्दिक होता है। यह इस पर निर्भर है कि तुम्हारे पास कितना बड़ा बायो—प्लाज्मा है, यह तेरह दिन या और ज्यादा भी अस्तित्व में रह सकता है।

योगियों की समाधियों के आस—पास… भारत में जिन्होंने समाधि उपलब्ध कर ली है उनके शरीर को .छोड़ कर हम सभी के शरीर जला देते हैं। हम एक निश्चित कारण से उनका शरीर नहीं जलाते। जब शरीर को जला दिया जाता है तो बायो—प्लाज्मा पृथ्वी से दूर जाने लगता है। तुम इसे कुछ दिन अनुभव कर सकते हो, लेकिन फिर यह ब्रह्मांड में विलीन हो जाता है। लेकिन यदि भौतिक शरीर बचा हुआ हो तो बायो— प्लाज्मा इससे जुड़ा रह सकता है। और ऐसे व्यक्ति का जो समाधि को उपलब्ध कर चुका है, जो सबुद्ध हो चुका है, यदि उसका बायो—प्लाज्मा उसकी समाधि के आस—पास रह .सके, तो इससे बहुत से व्यक्ति लाभान्वित होंगे। इसी भांति कई लोगों ने अपने गुरु को देहत्याग के बाद साकार देखा है।

अरविंद आश्रम में, अरविंद के शरीर को विनष्ट नहीं किया गया, जलाया नहीं गया, समाधि में रखा गया है। कई लोगों का अनुभव है कि जैसे उन्होंने अरविंद को इसके आस—पास देखा है। या कभी—कभी उन्होंने, अरविंद जिस प्रकार चला करते थे, वैसी ही पदचाप सुनी है। और कभी—कभी वे उनके सम्मुख आ खड़े होते हैं। ये अरविंद नहीं हैं, यह बायो—प्लाज्मा है। अरविंद तो जा चुके, लेकिन बायो—प्लाज्मा, प्राणमय कोष, सदियों तक बना रह सकता है। यदि कोई व्यक्ति अपने प्राणमय कोष के साथ सच में ही लयबद्ध था, तो यह बना रह सकता है। यह अपना निजी अस्तित्व बनाए रख सकता है।

स्वाभाविक श्वसन क्रिया समझ लेनी चाहिए। छोटे बच्चों को देखो, वे स्वाभाविक ढंग से श्वास लेते हैं। यही कारण है कि वे ऊर्जा से इतने भरपूर होते हैं। मां—बाप थक जाते है, परंतु वे नहीं थकते।

एक बच्चा दूसरे बच्चे से कह रहा था, मुझमें इतनी ऊर्जा है कि मेरे जूते सात दिन में ही फट जाते हैं। दूसरा बोला : यह तो कुछ भी नहीं, मेरे अंदर इतनी ऊर्जा है कि मेरे कपड़े तीन दिन में पहनने लायक नहीं रहते हैं।

तीसरे ने कहां. यह भी कुछ नहीं है, मैं तो ऊर्जा से इतना ओतप्रोत हूं कि एक घंटे में ही मेरे माता— पिता हताश हो जाते हैं।

अमरीका में उन्होंने एक ऐसा प्रयोग किया कि एक अत्यांधिक ऊर्जावान व्यक्ति, जिसकी पहलवान जैसी देह थी और जो बहुत शक्तिशाली था, से एक छोटे से बच्चे की नकल करने को और उसका अनुसरण करने को कहा गया। जो कुछ भी बच्चा करे, पहलवान को वही करना था, बस आठ घंटे तक उसकी नकल उतारना था। चार घंटे में ही पहलवान की हालत पतली हो गई, वह थक कर गिर पड़ा, क्योंकि बच्चे ने इसका बहुत आनंद लिया और उसने, उछलना, कूदना, चीखना, चिल्लाना शुरू कर दिया। और पहलवान को तो उसकी नकल करना ही था। पहलवान शिथिल पड़ गया, वह बोला, वह मुझे मार ही डालेगा, आठ घंटे? मैं नहीं बर्क। अब मैं और कुछ नहीं कर सकता। वह एक महान मुक्केबाज था, लेकिन मुक्केबाजी एक अलग बात है। तुम एक बच्चे से मुकाबला नहीं कर सकते।

यह ऊर्जा कहां से आती है? यह प्राणमय कोष से आती है। बच्चा स्वाभाविक ढंग से श्वास लेता है, तो निसंदेह अधिक प्राण भीतर लेता है, ज्यादा ची उसमें जाती है, और यह उसके उदर में एकत्रित हो जाती है। उदर संचय का स्थान है, कुंड है। बच्चे का निरीक्षण करो यही है श्वास लेने का उचित ढंग। जब एक बच्चा श्वास लेता है, उसका वक्ष पूर्णत: अप्रभावित रहता है। उसका उदर ऊपर और नीचे होता है। वह तो जैसे पेट से ही श्वास लेता है। सारे बच्चों का एक अलग सा पेट होता है; ऐसा पेट उनके श्वास लेने के ढंग और ऊर्जा के कुंड के कारण होता है।

श्वास लेने का उचित ढंग यही है। याद रखो, अपना वक्ष बहुत ज्यादा उपयोग में नहीं लाना है। कभी कभार आपातकाल में यह इस्तेमाल किया जा सकता है। तुम अपनी जान बचाने को दौड़ रहे हो, तब सीने का प्रयोग किया जा सकता है। यह आपातकालीन उपाय है। जब तुम उथली, तेज श्वास ले सकते हो और दौड़ सकते हो। लेकिन सामान्यत: तो छाती का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। और एक बात याद रखनी है, छाती का उपयोग आपात स्थिति में ही किया जाना चाहिए, क्योंकि आपात स्थिति में स्वाभाविक श्वास चलना कठिन है, क्योंकि यदि तुम स्वाभाविक श्वास लेते रहे तो तुममें इतनी थिरता और शांति रहेगी कि न तुम दौड़ सकोगे, न तुम लड़ सकोगे। तुम इतने विश्रांत और अखंड होगे, बुद्ध की भांति; और आपात स्थिति में—जैसे घर में आग लगी हो। यदि तुम स्वाभाविक ढंग से श्वास लेते रहे, तो तुम कुछ भी बचा नहीं पाओणे। या जंगल में कोई चीता तुम पर छलांग लगा दे और तुम स्वाभाविक ढंग से स्वास लेते रहे, तो तुम्हें कोई चिंता ही न होगी। तुम कहोगे, ‘ठीक है, वह जो करना चाहता है करने दो।’ तुम अपने को बचाने लायक भी न रहोगे।

अत: प्रकृति ने एक आपात उपाय दिया है, छाती का प्रयोग आपात विधि है। जब कोई चीता तुम पर हमला करे तो तुम्हें स्वाभाविक श्वसन क्रिया छोड़नी पड़ेगी, और तुम्हें छाती से श्वास लेनी पड़ेगी। तब तुम्हारे पास दौड़ने, संघर्ष करने या ऊर्जा के त्वरित उपयोग की अधिक क्षमता हो जाती है। और आपातकालीन परिस्थितियों में केवल दो विकल्प होते हैं, भागो या लड़ो। दोनों के लिए बड़ी सतही लेकिन सघन ऊर्जा की, ऊपरी, लेकिन हलचल भरी, तनाव पूर्ण स्थिति की जरूरत होती है।

अब अगर तुम छाती से ही श्वास लिया—करते हो, तुम्हारे मन में अनेक तनाव आने लगेंगे। यदि तुम लगातार छाती से ही श्वास लेते हो तो तुम सदा भयभीत रहोगे। क्योंकि छाती से श्वास लेना सिर्फ भयंकारी परिस्थितियों के लिए है। और अगर तुमने इसे आदत बना लिया है तो तुम लगातार, भयभीत, तनावग्रस्त, सदा भागने को आतुर रहोगे। कहीं शत्रु नहीं है, लेकिन तुम शत्रु के वहां होने की कल्पना कर लोगे। इसी भांति विभ्रामकता निर्मित होती है।

पश्चिम में भी कुछ लोगों ने, अलेक्येंडर, लावेन या दूसरे जीव—ऊर्जा वालें लोगों ने, जो जीव—ऊर्जा पर कार्य कर रहे हैं, इस घटना को देखा है। यह ऊर्जा ही प्राण है। उन्होंने यह अनुभव किया कि जो लोग भयभीत है, उनकी छाती तनावग्रस्त है और वे बहुत उथली श्वास लिया करते हैं। यदि उनकी श्वास को गहरा किया जा सके, कि वह उदर को, हारा केंद्र को छूने लगे, तब उनका भय तिरोहित हो जाता है। यदि उनकी मांस—पेशियों को विश्रांत किया जा सके, जैसा कि रोल्फिंग में किया जाता है.. .इदा सेल्फ ने शरीर की आंतरिक संरचना को परिवर्तित करने की कुछ सुंदर विधियां अविष्कृत की हैं, क्योंकि अगर तुम कई वर्षों से गलत ढंग से श्वास लेते आ रहे हो तो तुमने मांस—पेशियों का एक ढंग विकसित कर लिया है, यह ढंग तुम्हें उचित ढंग से या गहरी श्वास नहीं लेने देगा और बीच में अवरोध बन जाएगा। और यदि तुम कुछ सेकंड याद रख सको कि गहरी श्वास लोगे; फिर जब तुम अपने कौम में उलझ जाओगे, तुम पुन: उथली छाती से श्वास लेना शुरू कर दोगे। मांस—पेशियों के ढंग को बदलना पडेगा। एक बार यह पेशी विन्यास बदल जाए, भय मिट जाता है, तनाव खो जाता है। रोलफिग अत्यधिक सहायक होती है। लेकिन काम तो प्राणमय कोष दूसरे शरीर, बायो—प्लाज्मा बॉडी, जीवन—ऊर्जा देह, ची शरीर, या जो कुछ भी नाम तुम इसे देना चाहो, पर हो रहा होता है।

एक बच्चे को ध्यान से देखो,— यही श्वास लेने का स्वाभाविक ढंग है, और उसी प्रकार से श्वास लो। जबतुम श्वास भीतर लो तब अपने पेट को ऊपर उठने देना और श्वास छोड़ते समय पेट को भीतर आने दो। इस बात को ऐसी लय में’ होने दो कि यह तुम्हारी ऊर्जा का एक गीत, एक नृत्य, एक लयबद्धता, एक समस्वरता सा बन जाए। और तुम इतना विश्रांत इतना जीवंत, इतना ऊर्जस्वी अनुभव करोगे, जिसकी तुमने कभी कल्पना भी न की होगी कि इतनी जीवंतता संभव है।

अब आता है तीसरा शरीर ‘मनोमय कोष’, मनस—शरीर। तीसरा दूसरे से बड़ा, दूसरे से सूक्ष्मतर, दूसरे से उच्चतर है। पशुओं के पास दूसरा शरीर तो है परंतु तीसरा शरीर नहीं है। जानवर कितने प्राणवान होते हैं। एक शेर को चलते हुए देखो। कितनी सुंदरता, कितना प्रसाद, कैसी शान है। मनुष्य को इससे सदा ईर्ष्या रही है। एक हिरन को दौड़ते हुए देखो। कैसा निर्भार सा, कितनी ऊर्जा, कैसी महत ऊर्जा की घटना है। मनुष्य को सदा इससे ईर्ष्या रही है। लेकिन मनुष्य की ऊर्जा उच्चतर की ओर बढ़ रही है।

तीसरा शरीर मनोमय कोष, मनस—शरीर है। यह विराट है, दूसरे से अधिक विस्तृत है। और यदि तुम इसका विकास नहीं करते, तो तुम मनुष्य होने की संभावना मात्र बने रहोगे, वास्तविक मनुष्य नहीं होंगे।’मैन’ शब्द मन, मनोमय से आया है। अंग्रेजी शब्द ‘मैन’ भी संस्कृत मूल ‘मन’ से आता है।’मैन’ का हिंदी अर्थ मनुष्य भी उसी मूल ‘मन’, मनस से आया है। यह मन ही है जो तुम्हें मनुष्य बनाता है। लेकिन करीब—करीब, तुम्हारे पास यह है नहीं। इसके स्थान पर तुम्हारे पास एक संस्करित यांत्रिकता है। तुम अनुकरण से जीते हो। ऐसे में तुम्हारे पास मन नहीं होता। जब तुम अपनी स्वयं की, सहजस्फूर्त जिंदगी जीना शुरू कर देते हो, जब अपने जीवन की समस्याओं का हल तुम खुद करते हो, जब तुम उत्तरदायी हो जाते हो, तो ही तुम मनोमय कोष में विकसित होने लगते हो। तब मनस शरीर विकसित होता है।

सामान्यत: तुम हिंदू मुसलमान या ईसाई हो तब तुम्हारे पास उधार का मन होता है यह तुम्हारा मन नहीं है। हो सकता है कि जीसस मनोमय कोष के महत् विस्फोट को उपलब्ध हुए हों, और फिर लोग बस उसी को दोहराए जा रहे हैं। यह पुनरुक्ति तुम्हारा विकास नहीं बनेगी। यह पुनरुक्ति एक रुकावट होगी। पुनरुक्ति मत करो बल्कि समझने की कोशिश करो। और— और जीवंत, प्रामाणिक और उत्तरदायी बनो। यदि भटकने की संभावना भी हो तो भटक जाओ। क्योंकि अगर तुम गलती करने सेइrइr बहुत ज्यादा डरे हुए हो तो विकसित होने का कोई उपाय नहीं है। गलतियां अच्छी बात है। गलतियां की जानी चाहिए। वही गलती दुबारा कभी न करो। लेकिन गलती करने से कभी डरो मत। वे लोग जो गलतियां करने से बहुत डरे हुए हैं कभी विकसित नहीं होते। वे आगे बढ़ने से भयभीत हैं, अत: अपने स्थान पर जमे रहते हैं। वे जीवित नहीं हैं।

मन का विकास तभी होता है जब तुम परिस्थितियों का सामना, मुकाबला, स्वयं के भरोसे करते हो। उन्हें सुलझाने के लिए तुम अपनी ऊर्जा प्रयोग में लाते हो। सदा राय मत मांगते रहो। अपने जीवन की बागडोर अपने हाथ में थामो। जब मैं कहता हैं, अपने अनुसार जीयो तो मेरा यही अभिप्राय है। तुम मुश्किल में पड़ोगे, दूसरों का अनुगमन करना सुरक्षित है, समाज के पीछे चलना, बंधी—बधाई लीक पर चलना, परंपरा का, शास्त्रों का अनुकरण करना, सुविधाजनक है। यह बहुत आसान है क्योंकि हर कोई अनुकरण कर रहा है—तुम्हें तो बस झुंड का मुर्दा हिस्सा भर बनना है, तुम्हें तो भीड़ जहां जा रही है उसके साथ जाना है, इसमें तुम्हारी कोई जिम्मेवारी नहीं है। लेकिन तुम्हारा मनस—शरीर, तुम्हारा मनोमय—कोष, इससे अत्यधिक पीड़ित होगा, इसका विकास नहीं होगा। तुम्हारे पास अपना निजी मन नहीं होगा, और तुम बहुत कुछ, बहुत सुंदर और कुछ ऐसे से चूक जाओगे जो उच्चतर विकास के लिए सेतु है।

अत: सदा याद रखो, जो कुछ भी मैं तुमसे कहता हूं तुम इसे दो ढंग से ग्रहण कर सकते हो। तुम इसे मेरी प्रमाणिकता मान कर अपना सकते हो।’ ओशो ने ऐसा कहा है, अत: सत्य ही होना चाहिए।’ तब तुम पीड़ा उठौओगे, तब तुम्हारा विकास नहीं होगा। जो कुछ भी मैं कहता हूं उसे सुनो, समझने की कोशिश करो, इसे अपने जीवन में उतारो, देखो यह कैसे कार्य करता है, और फिर अपने निजी निष्कर्षों पर पहुंचो। वे समान हो सकते हैं, वे समान नहीं हो सकते हैं। वे पूर्णत: एक से कभी नहीं हो सकते। क्योंकि तुम्हारा एक अलग व्यक्तित्व, एक अनूठा अस्तित्व है। जो कुछ भी मैं कह रहा हूं मेरा निजी है। बड़े गहरे ढंग से इसकी जड़ें मेरे भीतर उतरी हुई हैं। तुम उन्हीं निष्कर्षों तक पहुंच सकते हो, परंतु वे हूबहू एक से नहीं होंगे। अत: मेरे निष्कर्ष तुम्हारे निष्कर्ष नहीं बना दिए जाने चाहिए। तुम मुझे समझने का प्रयास करो, तुम सीखने की कोशिश करो, लेकिन तुम्हें मुझसे जानकारी एकत्रित नहीं करना चाहिए, तुम्हें मुझसे निष्कर्ष एकत्रित नहीं करना चाहिए। तब तुम्हारा मनस शरीर विकसित होगा।

लेकिन लोग त्वरित विधि अपनाते हैं। वे कहते हैं, ‘यदि आपने जान लिया 1 बात खतम। हमें प्रयास और प्रयोग करने की जरूरत ही क्या है? हम आपमें विश्वास करेंगे।’ विश्वासी का कोई मनोमय कोष नहीं होता। उसके पास एक छद्य मनोमय कोष है, जो उसके अस्तित्व से नहीं आया है वरन बाहर से जबरन आरोपित कर दिया गया है।

अब मनोमय कोष से उच्चतर, मनोमय कोष से विराट, यह है. ‘विज्ञानमय कोष’, यह है भाव— शरीर। यह बहुत—बहुत विस्तीर्ण है। अब इसमें कोई कारण नहीं है, यह तर्कातीत है, अत्यधिक सूक्ष्म हो गया है, यह है भाव—बोध। यह वस्तुओं के स्वभाव में सीधे देख लेना है। यह उनके बारे में सोचने का प्रयास नहीं है। आंगन में एक सरू का वृक्ष है, तुम बस उसे देखते हो, तुम इसके बारे में सोचते नहीं, भाव में ‘किसी के बारे में’ कुछ नहीं होता। तुम बस वहां मौजूद होते हो, ग्रहणशील होकर, और सत्य स्वयं अपनी प्रकृति तुम पर उदघाटित कर देता है। तुम प्रक्षेपित नहीं करते। तुम किसी तर्क, निष्पत्ति, या ऐसी किसी बात की तलाश में नहीं होते। तुम तो खोज भी नहीं रहे होते। तुम मात्र प्रतीक्षारत होते हो, और सत्य प्रकट हो जाता है, यह एक उदघाटन है। भाव—शरीर तुम्हें क्षितिज की सीमाओं के बहुत आगे ले जाता है, लेकिन अभी एक शरीर और है।

यह पांचवां शरीर है. ‘आनंदमय कोष’, आनंद—काया। यह वास्तव में पहुंच के पार है। यह शुद्ध आनंद से निर्मित है। भाव का भी अतिक्रमण हो गया है।

याद रहे, ये पांच बीज, मात्र बीज हैं, इनके पांचों के पार है तुम्हारी वास्तविकता। ये तुम्हें घेरे। हुए बीजावरण मात्र हैं। पहला बहुत स्थूल है, छह फीट के शरीर में तुम लगभग पूरे ही समाए हुए हो। दूसरा उससे बड़ा है, तीसरा और भी बड़ा है, चौथा इससे भी बड़ा, और पांचवां बहुत बड़ा है। लेकिन फिर भी ये बीजावरण हैं। सभी सीमित हैं। यदि सारे बीजावरण गिरा दिए जाएं और तुम अपनी वास्तविकता में अनावृत खड़े हो, तो तुम असीम हो। यही कारण है कि योग कहता है : तुम परमात्मा हो! अहं—ब्रह्मास्मि। तुम्हीं हो वह ब्रह्म! अब तुम स्वयं ही परम सत्य हो, अब सारे अवरोध गिराए जा चुके हैं।

जरा इसे. समझने की कोशिश करना। ये अवरोध तुम्हें वर्तुलों के रूप में घेरे हुए हैं। पहला अवरोध अत्याधिक कठोर है। इसके पार जाना बहुत कठिन है। लोग अपनी भौतिक देह में सीमित रहते हैं और सोचते हैं कि यह भौतिक जीवन ही सारा जीवन है। इसमें मत ठहरो। भौतिक—शरीर, ऊर्जा—शरीर के लिए एक सोपान मात्र है। ऊर्जा—शरीर भी, मनस—शरीर के लिए एक सोपान है। यह भी भाव—शरीर के लिए स्वयं मैं एक चरण है। वह भी आनंद—काया के लिए एक सीढ़ी है। और आनंद—काया से तुम छलांग लगाते हो, अब कोई सीढ़ियां नहीं हैं, तुम अपने अस्तित्व के अतल शून्य में, जो शाश्वत और अनंत है, छलांग लगा देते हो।

ये पांच बीज हैं। इन पांच बीजों से संबंधित? पंचभूतों, पांच महातत्वों के लिए योग के पास एक अलग देशना है। जैसे कि तुम्हारा शरीर भोजन, पृथ्वी से निर्मित है, पृथ्वी पहला तत्व है। याद रखो, इसका इस धरती से कुछ लेना—देना नहीं है। तत्व का अर्थ यह है कि जहां भी पदार्थ है। यह पृथ्वी है; यह पदार्थ पृथ्वी है, यह स्थूल पृथ्वी है। तुममें यह शरीर है; तुम्हारे बाहर सबकी देहें हैं। सितारे भी इसी मिट्टी से बन— हैं। जो भी अस्तित्व रखता है मिट्टी से बना है, मृण्मय है। पहला आवरण पार्थिव है।

पांच भूतों का अर्थ है : पांच महातत्व—पृथ्वी, अग्नि जल, वायु, आकाश।

तुम्हारा पहला शरीर अन्नमय कोष, भोजन—काया से पृथ्वी संबंधित है। अग्नि तुम्हारे दूसरे शरीर ऊर्जा—शरीर, बायो—प्लाज्मा, ची, प्राणमय कोष से संबंधित है, इसमें अग्नि का गुण होता है। तीसरा जल है, यह मनोमय कोष, मनस—शरीर से संबंधित है, इसमें जल का गुण होता है। मन का निरीक्षण करो, कैसे यह प्रवाह की भांति, सदा गतिशील, नदी की भांति, गतिमान रहता है। चौथा है वायु, लगभग अदृश्य, तुम उसे देख नहीं सकते, फिर भी यह वहा होती है, तुम इसे मात्र अनुभव कर सकते हो, यह ‘भाव—शरीर, विज्ञानमय कोष से संबंधित है। और तब आता है आकाश, ईथर, तुम इसे अनुभव नहीं कर सकते, यह हवा से भी अधिक सूक्ष्म हो जाता है। तुम इसका विश्वास कर सकते हो, श्रद्धा कर सकते हो कि यह वहां है। यह शुद्ध आकाश है, यह आनंद है।

लेकिन तुम शुद्ध आकाश से शुद्धतर, ‘शुद्ध आकाश से भी सूक्ष्मतर हो। तुम्हारा यथार्थ ऐसा है कि करीब—करीब वह है ही नहीं। यही कारण है कि बुद्ध कहते हैं : अनन्ता, अनात्मा। तुम्हारा आत्म अनात्म जैसा है, तुम्हारा अस्तित्व करीब—करीब अनअस्तित्व जैसा है। अनअस्तित्व क्यों? क्योंकि यह सारे स्थूल तत्वों से काफी परे है। यह मात्र होना है। इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है, कोई व्याख्या इसके लिए पर्याप्त नहीं है।

ये हैं पांच भूत, पांच महातत्व, जो तुम्हारे भीतर के पांच कोषों, शरीरों से संबंधित हैं।

फिर तीसरा विचार सूत्र। मैं चाहता हूं कि तुम इन सभी को समझ लो, क्योंकि जिन सूत्रों पर हम चर्चा करने जा रहे हैं उनको समझने में वे उपयोगी होंगे। अब बात आती है सात चक्रों की। चक्र का वास्तविक अर्थ अंग्रेजी शब्द ‘सेंटर’ से नहीं है। सेंटर शब्द इसे परिभाषित या वर्णित या ठीक से अनुवादित नहीं कर सकता। क्योंकि जब हम कहते है केंद्र तो यह कोई स्थिर चीज प्रतीत होता है। और चक्र का अर्थ है कोई गतिशील चीज। चक्र शब्द का अर्थ है : पहिया, घूमता हुआ पहिया। अत: चक्र तुम्हारे अस्तित्व में एक गतिशील केंद्र है, करीब—करीब एक भंवर, एक बुलबुला, एक चक्रवात के केंद्र की भांति। यह गतिशील है, यह अपने चारों और एक ऊर्जा क्षेत्र निर्मित करता है।

सात चक्र। पहला एक सेतु है और अंतिम भी एक सेतु है, शेष पांच, पांच महाभूतों, पांच महातत्वों और पांच बीजों से संबंधित हैं। काम एक सेतु है, तुम्हारे और स्थूलतम, प्रकृति, कुदरत के बीच। सहस्त्रार, सातवां चक्र भी एक सेतु है, तुम्हारे और अतल शून्य, परम के बीच एक पुल। ये दोनो सेतु हैं शेष पांच चक्र पांच तत्वों और पांच शरीरों से संबंधित हैं। यह है पतंजलि की व्यवस्था की रूप—रेखा। याद रहे कि यह स्वैच्छिक है। इसे एक उपाय की भांति प्रयोग किया जाना है एक सिद्धांत की भांति इस पर परिचर्चा नहीं करनी है। यह किसी धर्मशास्त्र का कोई सिद्धात नहीं है। यह मात्र एक उपयोगी मानचित्र है। तुम किसी क्षेत्र में, किसी अनजाने, अनूठे देश में जाते हो, और तुम अपने साथ एक नक्‍शा लेकर जाते हो। वह नक्‍शा वास्तव में उस क्षेत्र को चित्रित नहीं करता, एक क्षेत्र को कोई नक्‍शा कैसे चित्रित कर सकता है? नक्‍शा कितना छोटा होता है, वह क्षेत्र कितना विशाल। नक्‍शे पर नगर एक बिंदु होते हैं। ये बिंदु बड़े—बड़े शहरों से कैसे संबंधित हो सकते हैं? नक्‍शे पर सड़के सिर्फ एक रेखा की भांति होती हैं। सड़के सिर्फ एक रेखा कैसे हो सकती हैं? पहाड़ों का बस एक निशान होता है, नदियों का बस एक रेखांकन होता है। और छोटी—मोटी नदियों को तो छोड़ दिया जाता है। केवल बड़ी नदिया अंकित की गई होती हैं। यह एक मानचित्र है; यह कोई सिद्धांत नहीं है।

केवल पांच शरीर नहीं हैं, बहुत से शरीर हैं, क्योंकि दो शरीरों के —बीच में उनको जोड्ने के लिए एक और चाहिए, और इसी भांति और, और। तुम एक प्याज की तरह हो पर्त दर पर्त, लेकिन ये पांच पर्याप्त है। हूं…. .ये खास देहे हैं, मुख्य शरीर। अत: इसके बारे में ज्यादा चिंता न करो। हूं.., क्योंकि बौद्ध कहते है कि सात शरीर हैं और जैन कहते है कि नौ शरीर हैं। कुछ भी गलत नहीं है और कुछ विरोधाभास भी नहीं है, क्योंकि यह सिर्फ नक्शे, की बात है। यदि तुम विश्व का मानचित्र देख रहे हो तो बड़े शहर और बड़ी नदियां भी उसमें नहीं दिखेंगी। यदि तुम एक देश का नक्‍शा देख रहे हो, तो ऐसी कई चीजें दिखेंगी जो विश्व के नक्‍शे में नहीं थीं। और अगर तुम एक प्रांत का नक्‍शा देखो, तो कई और चीजें प्रकट हो जाएंगी। और यदि एक जिले का नक्‍शा देख रहे हो निःसंदेह और अधिक। और एक ही शहर का तब और बहुत चीजें…। और यदि बस एक मकान का तब और और…..। चीजें प्रकट होती जाती है, यह इस पर निर्भर होता है।

जैन कहते हैं, नौ; बुद्ध कहते हैं, सात; पतंजलि कहते हैं, पांच। ऐसी विचारधाराएं हैं जो बस तीन की बात करती हैं। और वे सभी सही हैं, क्योंकि वे किसी तर्क पर परिचर्चा नहीं कर रहे हैं, वे तुम्हें कार्य करने के लिए कुछ उपकरण मात्र दे रहे हैं।

और मेरे देखे पांच लगभग सही संख्या है। क्योंकि पांच से अधिक, बहुत हो जाता है और पांच से कम बहुत थोड़ा। पांच करीब—करीब सही जान पड़ते हैं। पतंजलि बहुत संतुलित विचारक हैं।

अब इन चक्रों के बारे में कुछ बातें। पहला चक्र, पहला गतिशील चक्र है काम का—मूलाधार। यह तुम्हें प्रकृति के साथ जोड़ता है, यह अतीत के साथ जोड़ता है, और यही भविष्य के साथ जोड़ता है:—। तुम्हारा जन्म दो व्यक्तियों की काम—क्रीड़ा से हुआ था। तुम्हारे माता—पिता की काम—क्रीड़ा तुम्हारे जन्म का कारण बन गई। तुम अपने माता—पिता से और उनके माता—पिता से और उनके माता—पिता से और इसी भांति और पीछे तक काम—केंद्र द्वारा जुड़े हो। सारे अतीत से तुम काम—केंद्र द्वारा ही संबंधित हो, और यह धागा काम—केंद्र द्वारा जुड़ता चला गया है। और यदि तुम किसी बच्चे को जन्म दो तो तुम भविष्य से जुड़ जाओगे।

जीसस ने कई बार और बड़े कठोर ढंग से जोर देकर कहा है, ‘यदि तुम अपनी माता से और अपने पिता से घृणा नहीं करते, तुम मेरे पास आकर मेरा अनुगमन नहीं कर सकते।’यह बात करीब—करीब कठोर, लगभग अविश्वसनीय जान पड़ती है कि जीसस जैसे व्यक्ति, भला वे इतने कठोर शब्द क्यों बोलेंगे? और वे तो करुणा के अवतार हैं और वे साक्षात प्रेम हैं। वे क्यों कहते हैं, ‘यदि तुम. मेरा अनुगमन करना चाहते हो, तो अपनी माता से घृणा करो, अपने पिता से घृणा करो। इसका अभिप्राय है : काम— प्रसंग से बाहर निकलो। वे जो कह रहे हैं उसका प्रतीकात्मक अर्थ है : काम—केंद्र के पार जाओ। तबै तत्‍क्षण तुम अतीत से और संबंधित नहीं रहते, भविष्य से और संबंधित नहीं रहते।

यह काम है जो तुम्हें समय का हिस्सा बनाता है। एक बार तुम काम से पार चले जाओ, तुम शाश्वत का एक भाग बन जाते हो, समय का भाग नहीं रहते। तब अचानक केवल वर्तमान का ही अस्तित्व बचता है। तुम वर्तमान हो, लेकिन अगर तुम खुद को काम—केंद्र द्वारा देखते हो तो तुम अतीत भी हो, क्योंकि तुम्हारी आंखों में तुम्हारी माता और तुम्हारे पिता का रंग होता है, और तुम्हारे शरीर में लाखों पीढ़ियों के परमाणु और कोशिकाएं विद्यमान होंगी। तुम्हारी सारी रचना, जैव संरचना एक लंबे सातत्य का हिस्सा है। तुम एक बड़ी श्रृंखला की कडी हो।

भारत में यह कहा जाता है कि जब तक तुम एक संतान को जन्म न दो तुम अपने माता—पिता का कर्ज नहीं चुका सकते। यदि तुम चाहते हो कि अतीत का ऋण ‘तुम से हट जाए, तो तुम्हें भविष्य निर्मित करना पड़ेगा। यदि तुम वास्तव में ऋण—मुक्त होना चाहते हो, तो अन्य कोई उपाय नहीं है। तुम्हारी मां तुम्हें प्रेम करती थी, तुम्हारे पिता तुम्हें प्रेम करते थे, अब तुम क्या कर सकते हो? वे विदा हो चुके। तुम मां बन सकती हो बच्चों की, तुम उनके पिता बन सकते हो और प्रकृति का ऋण उसी कोष में जमा कर सकते हो जहां से तुम्हारे मां—बाप आए, तुम आए, तुम्हारे बच्चे आएंगे।

काम एक महत श्रृंखला है। यह विश्व की, संसार की सारी श्रृंखला है, और यह दूसरों से जुड़ाव है। क्या तुमने इस पर ध्यान दिया है? जिस पल तुम कामुक अनुभव करते हो, तुम दूसरे के बारे में सोचने लगते हो। जब तुम कामुक अनुभव नहीं करते, तुम कभी भी दूसरे के बारे में नहीं सोचते। जो व्यक्ति काम से परे है, वह दूसरे से भी परे है। वह समाज में रह सकता है, पर वह समाज में नहीं होता। वह भीड़ में चल रहा होता है, पर वह अकेला चलता है। और ऐसा व्यक्ति जो कामुक है, वह अकेला एवरेस्ट के शिखर पर बैठा हुआ हो सकता है, लेकिन वह दूसरे के बारे में सोचेगा। उसे ध्यान करने के लिए चंद्रमा पर भेजा जा सकता है परंतु वह दूसरे के बारे में ही ध्यान करेगा।

काम दूसरों से जुड्ने का सेतु है। जैसे ही काम तिरोहित होता है श्रृंखला भंग हो जाती है। पहली बार तुम एक व्यक्ति बन जाते हो। यही कारण है कि लोग भले ही काम से अत्यधिक ग्रस्त हैं, लेकिन वे इसके साथ कभी प्रसन्न नहीं होते, क्योंकि इसके दोनों तरफ धार है। यह तुम्हें दूसरों से जोड़ता है, यह तुम्हें वैयक्तिक नहीं होने देता। यह तुम्हें तुम नहीं होने देता है। यह तुम्हें ढांचों में, गुलामियों में, बंधनों में रहने को बाध्य करता है। लेकिन अगर तुम नहीं जानते कि इसका अतिक्रमण कैसे हो, तो तुम्हारी ऊर्जा को प्रयोग करने का यही एक मात्र रास्ता है। यह एक सुरक्षा वाल्व बन जाता है।

जो लोग पहले चक्र, मूलाधार पर ही जीते हैं केवल मूढ़ कारण से जीते हैं। वे ऊर्जा निर्मित किए चले जाते हैं और जब वे इससे अति बोझिल हो जाते हैं तब वे उसे फेंकते रहते हैं। वे खाते हैं, वे कार्य करते हैं, वे सोते हैं, वे ऊर्जा निर्मित करने के बहुत से कार्य करते हैं। फिर वे कहते हैं, इसका क्या करें? यह बहुत भारी है। फिर वे इसे फेंक देते हैं। यह एक बड़ा दुष्‍चक्र प्रतीत होता है। जब वे इसे फेंक देते हैं तो फिर खालीपन अनुभव; करते हैं। वे इसे नये ईंधन से, नये भोजन से, नये कार्य सेर पुन: भरते हैं और फिर जब ऊर्जा वहां होती है तो वे बहुत भरापन महसूस हो रहा है। कहते हैं, किसी भांति इससे भी छुटकारा पाना है। और काम सिर्फ एक छुटकारा बन जाता है, ऊर्जा एकत्रित करने, ऊर्जा फेंकने, ऊर्जा एकत्रित करने, ऊर्जा फेंकने का एक दुश्‍चक्र। यह बेतुका जान पड़ता है।

जब तक तुम्हें इस बात का पता नहीं लगता कि तुम्हारे भीतर कुछ उच्चतर केंद्र भी हैं, जो इस ऊर्जा को समाहित कर सकते हैं, सृजनात्मक रूप से प्रयुक्त कर सकते हैं, तुम इसी काम के दुष्‍चक्र में बंधे रहोगे। इसीलिए तो सारे धर्म किसी भी भांति काम नियंत्रण पर जोर देते हैं। यह दमनकारी हो सकता है, यह खतरनाक हो सकता है। यदि नये चक्र नहीं खुल रहे हैं और तुम ऊर्जा को बांधे चले जाते हो, उसकी निंदा करते हुए, दबाते हुए उसके’ साथ जबरदस्ती करते हुए, तो तुम एक ज्वालामुखी पर बैठे होते हो। किसी भी दिन विस्फोट होगा, तुम विक्षिप्त हो जाओगे। तुम पागल हो जाने वाले हो। तब बेहतर यही है कि इससे छुटकारा पा लिया जाए। लेकिन ऐसे केंद्र हैं जो इस ऊर्जा को सोख सकते हैं, और महत्तर अस्तित्व, और महानतर संभावनाएं तुम्हारे सामने उदघाटित हो सकती हैं।

याद रखो, हम पिछले कुछ दिनों से दूसरे केंद्र की, काम—केंद्र के निकट, हारा की, मृत्यु के केंद्र की चर्चा कर रहे हैं। यही कारण है कि लोग काम के पार जाने से भयभीत हैं, क्योंकि जिस क्षण ऊर्जा —काम से पार जाती है, यह हारा केंद्र को छूती है और व्यक्ति भयग्रस्त हो जाता है। यही कारण है कि लोग प्रेम में गहरे उतरने से भी भयभीत हैं, क्योंकि जब तुम प्रेम में गहरे उतरोगे तो काम—केंद्र ऐसी लहरें निर्मित करेगा कि इन लहरों के द्वारा केंद्र में प्रविष्ट होने से भय उपजेगा।

अत: मेरी पास अनेक लोग आते हैं, वे पूछते हैं, हम अन्य लिंगी से इतना भयभीत क्यों हैं? पुरुषों से या स्त्रियों से, हम इतना भयाक्रांत क्यों महसूस करते हैं?

यह अन्य लिंगी का भय नहीं है। यह स्वयं कामवासना का ही भय है। क्योंकि यदि तुम काम में गहरे उतरो, तो वह केंद्र और सक्रिय हो जाता है। बड़े ऊर्जा— क्षेत्र निर्मित करता है। और वे ऊर्जा— क्षेत्र हारा—केंद्र को अध्यारोपित करना आरंभ कर देते हैं। क्या तुमने इस पर ध्यान दिया है? काम—क्रिया के चरमोत्कर्ष पर तुम्हारी नाभि के ठीक नीचे कुछ गतिशील होता है, कंपित होता है। यह कंपन हारा से काम—केंद्र के सम्मिलन का है। यही कारण है कि लोग काम से भी भयभीत हो जाते हैं। विशेषत: लोग गहन अंतरंगता, काम के चरमोत्कर्ष से भयभीत होते हैं। लेकिन दूसरे केंद्र का भेदन, इसका खुलना और इसमें प्रविष्ट होना अनिवार्य है। जब जीसस कहते हैं, जब तक कि तुम मरने को तैयार न् हो, तुम्हारा पुनर्जन्म नहीं हो सकता है, तो उनका अभिप्राय यही है।

अभी दो या तीन दिन पहले ही, ईस्टर के दिन किसी ने पूछा था, ‘आज ईस्टर है, ओशो, क्या आप कुछ कहेंगे?’ मेरे पास कहने के लिए एक ही बात है, कि हर दिन ईस्टर है, क्योंकि जीसस के पुनर्जीवित होने का, उनकी सूली और पुनर्जीवन का, उनकी मृत्यु और उनके पुनर्जन्म का दिन ही ईस्टर है। यदि तुम हारा केंद्र में जाने को .तैयार हो तो हर दिन एक ईस्टर है। पहले तुम्हें सूली लगेगी, तुम्हारा क्रास तुम्हारे भीतर हारा—केंद्र में है। तुम उसे पहले से ही अपने साथ लिए हो, तुम्हें बस इस की ओर जाना है और तुम्हें इसके माध्यम से मरना है, और तभी हो जाता है पुनर्जीवन।

एक बार तुम हारा—केंद्र में मर जाओ, मृत्यु खो जाती है। तब पहली बार तुम एक नये जगत, एक नये आयाम से परिचित होते हो। तब तुम हारा से उच्चतर केंद्र, नाभि—केंद्र को देख सकते हो। और यह नाभि— केंद्र पुनर्जीवन बन जाता है, क्योंकि नाभि—केंद्र हीं सर्वाधिक ऊर्जा संरक्षक केंद्र है। यह ऊर्जा का संचायक

और एक बार तुमने जान लिया कि तुम काम—केंद्र से हारा में चले गए हो, अब तुम यह भी जान लेते हो कि अंतर्यात्रा की संभावना है। तुमने एक द्वार खोल लिया है। अब जब तक तुम सारे द्वार न खोल लो तुम आराम नहीं कर सकते। अब तुम देहरी पर नहीं रुके रह सकते, तुमने महल में प्रवेश पा लिया है। तब तुम एक के बाद एक द्वार खोल सकते हो।

ठीक मध्य में है हृदय का केंद्र। हृदय—केंद्र उच्चतर और निम्नतर को विभाजित करता है। पहला है काम केंद्र, फिर हारा, फिर नाभि, और फिर आता है हृदय—केंद्र। इसके नीचे तीन केंद्र हैं, इससे उपर तीन केंद्र हैं। हृदय है एकदम बीच में।

तुमने सोलोमन की मुद्रा देखी होगी। यहूदी धर्म में विशेष कर कव्वाली विचारधारा में सोलोमन की मुद्रा सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रतीकों में से एक है। सोलोमन की सील हृदय—केंद्र का प्रतीक है। काम अधोगामी है, अत: काम अधोमुखी त्रिभुज की भांति है। सहस्त्रार ऊर्ध्वगामी है, अत: सहस्त्रार एक ऊर्ध्व उन्मुख त्रिभुज है। और हृदय ठीक मध्य में है, जहां काम त्रिकोण सहस्त्रार के त्रिकोण से मिलता है। दोनों त्रिभुज मिलते हैं, एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं और यह षटकोणीय सितारा बन जाता है, यही है सोलोमन की सील। सोलोमन की सील हैं—हृदय।

एक बार तुमने हृदय—केंद्र खोल लिया, तो तुम उच्चतम संभावनाओं के लिए उपलब्ध हो जाते हो। हृदय से नीचे तुम मानव रहते हो, हृदय के पार तुम अति—मानव बन जाते हो।

हृदय—केंद्र के बाद है कंठ—चक्र, फिर है तीसरी आख का केंद्र, और फिर सहस्रार।

हृदय है प्रेम की अनुभूति। हृदय है प्रेम से आप्लावित होना, प्रेम ही हो जाना। कंठ है अभिव्यक्ति, संवाद, बांटना इसे, दूसरों को देना। और अगर तुम दूसरों को प्रेम देते हो, तो तीसरी आख का केंद्र सक्रिय हो जाता है। एक बार तुम देना आरंभ कर दो, तुम ऊंचे और ऊंचे जाने लगते हो। एक व्यक्ति जो लिए चला जाता हो, वह नीचे, नीचे और नीचे चला जाता है। जो व्यक्ति दिए चला जाए, वह उच्चतर, उच्चतर और उच्चतर होता जाता है। कंजूस होना सबसे बुरी अवस्था है, जिसमें आदमी गिर सकता है। और दानी वह महत्तम संभावना है, जिसको व्यक्ति उपलब्ध हो सकता है।

पांच शरीर, पांच महाभूत, और पांच केंद्र और दो सेतु। यही है रूप—रेखा, मानचित्र। इस ढांचे के पीछे योगियों का सारा प्रयास है कि हर कहीं संयम आए, इस प्रकार व्यक्ति प्रकाश से ओतप्रोत ज्ञानोपलब्ध हो जाए।

अब सूत्र :

‘चेतना के आयाम को संस्पर्शित करने की शक्ति, मनस—शरीर के परे है, अत: अकल्पनीय है महाविदेह कहलाती है। इस शक्ति के द्वारा प्रकाश पर छाया हुआ आवरण हट जाता है।’

जब तुम मनस—शरीर का अतिक्रमण कर लेते हो, तो पहली बार तुम्हें यह पता लगता है कि तुम मन नहीं हो वरन साक्षी हो। मन से नीचे तुम्हारा इससे तादात्म्य बना हुआ है। एक बार तुम जान लो कि विचार, मानसिक प्रतिबिंब, धारणाएं, वे सभी विषयवस्तु हैं, तुम्हारी चेतना में तैरते बोदल हैं, तुम तत्‍क्षण उनसे अलग हो जाते हो।

‘चेतना के आयाम को संस्पर्शित करने की शक्ति मनस—शरीर से परे है, अत: अकल्पनीय है महाविदेह कहलाती है।’

तुम देहातीत हो जाते हो। महाविदेह का अर्थ है. जो देह के पार है, जो अब किसी शरीर में सीमित नहीं रहा, जो यह जान गया कि वह स्थूल हो या सूक्ष्म, देह नहीं है, जिसने यह जान लिया कि वह असीम है, उसकी कोई सीमा नहीं है। महाविदेह का अर्थ है : जो यह जान गया कि अब उसकी कोई सीमा न रही। सारी सीमाएं सीमित करती हैं, बांध लेती हैं, और वह उन्हें तोड़ सकता है, छोड़ सकता है और अनंत आकाश के साथ एक हो सकता है।

स्वयं को असीम की तरह जानने का यह क्षण वही क्षण है।

‘इस शक्ति के द्वारा प्रकाश पर छाया आवरण हट जाता है।’

तब वह आवरण गिर जाता है जो तुम्हारे प्रकाश को छिपाए हुए था। तुम एक प्रकाश की भांति हो जो कई—कई आवरणों से ढंका है। धीरे— धीरे एक—एक आवरण हटाया जाना है। इससे और—और प्रकाश अनावृत होता जाएगा।

मनोमय—कोष, मनस—शरीर एक बार गिर जाए, तुम ध्यान बन जाते हो, तुम अ—मन हो जाते हो। यहां हमारा पूरा प्रयास मनोमय कोष से पार जाने का है, कैसे इस बात के प्रति बोधपूर्ण हुआ जाए कि मैं विचार—प्रक्रिया नहीं हूं।

‘उनके स्थूल, सतत, सूक्ष्म, सर्वव्यापी और क्रियाशील स्वरूप पर संपन्न हुआ संयम, पंचभूतों, पांच तत्वों पर आधिपत्य ले आता है।’

यह पतंजलि के सर्वाधिक सारगर्भित सूत्रों में से एक है और भविष्य के वितान के लिए अति महत्वपूर्ण है। एक न एक दिन वितान इस सूत्र का अर्थ खोज ही लेगा। वितान पहले से ही इस पथ पर अग्रसर है। यह सूत्र यह कह रहा है कि संसार के सभी तत्व, पंच महाभूत—पृथ्वी, वायु, अग्नि आदि, शून्य से जन्मते हैं और पुन: विश्रांति के लिए शून्य में समा जाते हैं। हर चीज शून्य से आती है और थक जाने पर विश्राम हेतु पुन: शून्य में समा जाती है।

अब विज्ञान, विशेषत: भौतिकविद इस बात से राजी हैं कि पदार्थ शून्य से जन्मा है। वे पदार्थ में जितना गहरे उतरे उतना ही अधिक उन्होंने खोजा कि वहां पदार्थ जैसा कुछ भी नहीं है। जितना गहरे वे गए, पदार्थ और—और अप्राप्य होता गया और अंतत: उनके हाथ कुछ न लगा। कुछ न बचा, मात्र रिक्तता, एक शुद्ध अंतराल। इस शुद्ध अंतराल से हर चीज का जन्म होता है। यह अतर्क्य प्रतीत होता है, लेकिन जीवन अतार्किक है। आधुनिक संपूर्ण वितान अतर्क्य प्रतीत होता है। क्योंकि यदि तुम तर्क से आबद्ध रहो तो तुम सत्य में प्रविष्ट नहीं हो सकते। और निसंदेह जब तर्क और यथार्थ में चुनाव करने की बात हो तो तुम तर्क को कैसे चुन सकते हो? तुम्हें तर्क का परित्याग करना पड़ता है

अभी पचास साल पहले जब वैज्ञानिकों को पता लगा कि क्वांटा, विद्युतकण बड़े ही अजीब ढंग से व्यवहार करता है, एक झेन मास्टर की भांति, अविश्वसनीय, बेतुका…। कभी—कभी वे तरंग की भांति दिखते हैं और कभी—कभी कणों की भांति दिखते हैं। अब इसके पहले यह स्पष्ट अवधारणा थी कि कोई चीज या तो कण हो सकती है या तरंग। वही एक चीज उसी क्षण .में दोनों एक साथ नहीं नहीं हो सकती है। एक कण और एक तरंग? इसका अर्थ हुआ कि कोई चीज बिंदु और रेखा दोनों, एक ही समय में एक साथ है। असंभव। यूक्लिड राजी न होगा। अरस्तु तो बस इंकार करेगा, कि तुम पागल हो गए हो। बिंदु बिंदु होता है, और रेखा एक पंक्ति में अनेक बिंदुओं का नाम है, अत: यह कैसे संभव है कि कोई बिंदु उसी समय एक बिंदु रहते हुए रेखा भी हो। बेतुकी बात है यह। यूक्लिड तथा अरस्तु ही मान्य थे। बस पचास साल पहले ही उनका सारा ढांचा ढह गया, क्योंकि वैज्ञानिकों को पता लगा कि क्वांटम, विद्युतकण, दोनों प्रकार से एक ही समय में व्यवहार करता है।

तर्कशास्त्रियों ने विवाद खड़े कर दिए और उन्होंने कहा, ‘यह संभव नहीं है।’ भौतिकविदों ने कहा, ‘हम क्या कर सकते है? यह संभव या असंभव का प्रश्न नहीं है, यह ऐसा है। हम कुछ नहीं कर सकते। यदि क्वांटम अरस्तु की नहीं मान रहा है, तो हम क्या कर सकते हैं? यह इस ढंग से व्यवहार कर रहा है, और यदि क्‍वांटम गैर—यूक्लिड ढंग से व्यवहार कर रहा है और यूक्लिड की ज्यामिती का अनुगमन नहीं कर रहा है. तो हम क्या कर सकते हैं? यह इस ढंग से व्यवहार कर रहा है। और हमें सत्य तथा वास्तविकता के व्यवहार को ही स्वीकारना पड़ेगा।’ मानव चेतना के इतिहास के बड़े निर्णायक क्षणों में से एक है यह बात। फिर ऐसा विश्वास सदा से था कि किसी चीज से ही कोई और चीज बन सकती है। बात बहुत सीधी और सहज है, ऐसा होना ही चाहिए। ना—कुछ में से कुछ कैसे निकल सकता है। तो पदार्थ मिट जाता है, और वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पेर पहुंचे कि सब कुछ ना—कुछ से ही जन्मा है और सब कुछ पुन: ना—कुछ में ही विलीन हो जाता है। अब वे ब्लैक होल्स (कृष्ण—विवर) की बात कर रहे हैं। ये ब्लैक होल्स विराट शून्यता के छिद्र हैं। मैं इसे विराट ना—कुछपन कह रहा हूं क्योंकि यह ना—कुछपन मात्र कोई अनुपस्थिति नहीं है। यह ऊर्जा से अपूरित है, लेकिन यह ऊर्जा ना—कुछपन की है। वहां पाने के लिए कुछ भी नहीं है, किंतु वहां ऊर्जा है। अब वे कह रहे हैं कि अस्तित्व में कृष्ण—विवर होते हैं। वे सितारों के समांतर हैं। सितारे सकारात्मक हैं, और हर सितारे के समांतर एक ब्लैक होल है। सितारा ‘है’, ब्लैक होल ‘नहीं है।’ और हर तारा जब थक जाता है, बोझिल हो जाता है तब ब्लैक होल बन जाता है। और हर ब्लैक होल जब आराम कर चुका होता है तो तारा बन जाता है।

पदार्थ अ—पदार्थ में परिवर्तित होता रहता है। पदार्थ अ—पदार्थ बन जाता है, अ—पदार्थ पदार्थ बन जाता है। जीवन मृत्यु बन जाता है, मृत्यु जीवन बन जाती है। प्रेम घृणा बन जाता है, घृणा प्रेम बन जाती है। ध्रुवीयताएं लगातार बदलती रहती हैं।

यह सूत्र कहता .है ‘उनके स्थूल, सतत, कम, सर्वव्यापी और क्रियाशील स्वरूप पर संपन्न हुआ संयम, पंचभूतों, पांच तत्वों पर आधिपत्य ले आता है।’

पतंजलि यह कह रहे हैं कि यदि तुम अपने साक्षीभाव के सच्चे स्वरूप को समझ गए हो, और तब तुम एकाग्र होते हो, तुम किसी पदार्थ पर संयम साधते हो, तो तुम इसे प्रकट या लुप्त कर सकते हो। तुम चीजों को मूर्तमान करने में सहायक हो सकते हो क्योंकि वे ना—कुछ से आती हैं। और तुम चीजों को अमूर्त होने में सहायक हो सकते हो।

भौतिकविदों के लिए यह अब भी जानना शेष बचा है कि यह संभव है या नहीं। यह तो घट रहा है कि पदार्थ बदलता है और अपदार्थ बन जाता है, अपदार्थ बदलता है, पदार्थ बन जाता है। इन पचास सालों में उन्हें अनेक बेतुकी बातें पता लगी हैं। यह युग सर्वाधिक क्षमतावान युग है, जिसमें इतना अधिक ज्ञान का विस्फोट हुआ है कि इस सबको एक व्यवस्था में सीमित कर पाना लगभग असंभव प्रतीत होता है। व्यवस्था कैसे बनाई जाए? पचास साल पहले तक स्वयं में संपूर्ण सिद्धात बनाना बहुत सरल था। अब असंभव है। वास्तविकता ने हर तरफ से अपनी उपस्थिति इस भांति दर्ज कराई है कि सारे मतवाद, सिद्धांत, प्रणालियां छिन्न—भिन्न हो गए हैं। वास्तविकता इन सभी की तुलना में कहीं ज्यादा सिद्ध हुई है।

वैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा हो रहा है। पतंजलि का कहना है कि ऐसा किया जा सकता है। यदि ऐसा घट रहा है तो उसे घटने पर बाध्य क्यों नहीं किया जा सकता? जरा देखो। तुम पानी गर्म करते हो, सौ डिग्री पर यह भाप बन जाता है। आग की खोज किए जाने से पूर्व भी, यह सदा से होता रहा है। सूर्य की किरणें सागर और नदियों से पानी वाष्पित कर रही थीं और बादल बन रहे थे और पानी नदियों में फिर वापस आ रहा था, पुन: भाप बन रहा था। फिर आदमी ने आग खोज ली, और उसने पानी को गर्म करना, इसको वाष्पित करना शुरू कर दिया।

जो कुछ भी घट रहा है, उसे घटित करवाने के लिए विधियां और उपाय खोजे जा सकते हैं। यदि यह पहले से ही हो रहा है, तो यह वास्तविकता के विपरीत नहीं है। अब तुम्हें सिर्फ यह ज्ञात करना है कि इसे कैसे घटाया जाए यदि पदार्थ अ—पदार्थ बन जाता है, अ—पदार्थ पदार्थ बन जाता है, यदि चीजें ध्रुवीताएं बदलती हैं, चीजें ना—कुछ में खो जाती हैं और चीजें ना—कुछ में से प्रकट हो जाती है, यदि यह सब कुछ पहले से ही हो रहा है—तो पतंजलि का कहना है कि ऐसी विधियां और उपाय खोजे जा सकते हैं जिनके द्वारा इन्हें घटित करवाया जा सके। और वे कहते हैं कि यह है उपाय, यदि तुमने पांच बीजों के परे, अपने अस्तित्व को .पहचान लिया है तो तुम चीजों को मूर्तमान या चीजों को अमूर्त कर सकते हो।

वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं के लिए अब भी यह खोजना बाकी रह गया है कि यह संभव है या नहीं। किंतु यह सत्य सदृश प्रतीत होता है। इसमें कोई तार्किक समस्या नहीं दिखती।

‘इसके उपरांत अणिमा, आदि, देह की संपूर्णता, और देह को बाधित करने वाले तत्वों की शक्ति के निर्मूलन की उपलब्धि प्राप्त होती है।’

और अब आती हैं आठ सिद्धियां, योगियों की आठ शक्तियां। पहली है अणिमा, और फिर लघिमा और गरिमा आदि। योगियों की ये आठ शक्तियां हैं कि वे अपने शरीर को अदृश्य कर सकते हैं, या वे अपने शरीर को छोटा, इतना छोटा बना सकते हैं कि यह दिखाई ही न पड़े, या वे अपने शरीर को इतना बड़ा कर सकते हैं, जितना चाहे उतना बड़ा कर लें। शरीर को छोटा, बड़ा, या पूर्ण अदृश्य बनाना, या कई स्थानों पर एक साथ प्रकट होना, यह सभी उनके नियंत्रण में होता है।

यह असंभव प्रतीत होता है, लेकिन जो कुछ भी असंभव लगता था वह देर— अबेर संभव होता जाता है। मनुष्य के लिए उड़ना असंभव था, किसी को इस पर यकीन नहीं था। राइट ब्रदर्स को सिरफिरा, सनकी समझा जाता था। जब उन्होंने अपने पहले वायुमान का अविष्कार किया, वे इसे लोगों को बताने से इतने भयभीत थे, कि यदि उन्हें पता लग गया तो इन्हें पकड़ कर अस्पताल में भरती कर दिया जाएगा। पहली उड़ान, पूरी तरह से किसी को बताए बिना, केवल यही दोनों वहां थे, संपन्न की गई। और उन्होंने अपना पहला वायुयान एक तहखाने में छिप कर बनाया, ताकि कोई भी यह जान न पाए कि वे क्या कर रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति को विश्वास था कि वे पूर्णत: पागल हो चुके हैं, भला कभी कोई उड़ा है? उनकी पहली उड़ान मात्र साठ सेकेंड की थी—केवल साठ सेकेंड्स—लेकिन इसने सारे इतिहास को, सारी मानवता को, अदभुत रूप से बदल दिया। यह संभव हो गया। कभी किसी ने सोचा भी न था कि परमाणु को विभाजित किया जा सकता है। यह विखंडित हुआ, और अब मानव पुन: पहले जैसा कभी नहीं हो पाएगा।

ऐसी बहुत सी बातें घटी हैं जिन्हें सदा असंभव समझा जाता रहा था। हम चांद पर पहुंच गए। यह असंभव का प्रतीक था। दुनिया की सभी भाषाओं में ‘चांद को छूने की कोशिश मत करो’ जैसी अभिव्यक्तियां हैं। इसका अभिप्राय है, असंभव की अभीप्सा मत करो। अब ये कहावतें हमें बदलनी पड़ेगी। और सच तो यह है कि एक बार हम चांद पर पहुंच गए, अब कोई भी हमारा रास्ता नहीं रोक सकता है। अब हर चीज उपलब्ध हो गई है, यह केवल समय का सवाल है।

आइंस्टीन ने कहा था कि यदि हम एक ऐसा वाहन आविष्कृत कर सकें जो प्रकाश के वेग से चलता हो तो व्यक्ति यात्रा करता रहेगा और उसकी आयु नहीं बढ़ेगी। यदि वह एक ऐसे अंतरिक्षयान में जाता है जो प्रकाश के वेग से चलता है, और उस समय वह तीस साल का हो, तो जब वह तीस साल की यात्रा के बाद लौटेगा तो वह तीस साल का ही होगा। उसके मित्र और भाई—बंधु तीस साल बड़े हो चुके होंगे। उनमें से कुछ तो मर भी चुके होंगे। लेकिन वह यात्री तीस साल का ही होगा। कैसी बेतुकी बात कह दी। आइंस्टीन का कहना है कि जब कोई प्रकाश के वेग से यात्रा करता है तो समय और इसका प्रभाव मिट जाता है। एक व्यक्ति अनंत आकाश की यात्रा पर जाकर पाच सौ वर्ष बाद वापस आ सकता है। यहां के सारे लोग मर चुके होंगे, उसे कोई नहीं पहचानेगा, और वह किसी को नहीं पहचानेगा किंतु वह उसी उम्र का होगा। तुम्हारी आयु पृथ्वी की गति के कारण बढ़ रही है। यदि वह प्रकाश के समान हो जाए; जो वास्तव में अत्यधिक है, तो तुम्हारी आयु बिलकुल भी न बढ़ेगी।

पतंजलि कहते हैं कि अगर तुमने इन सभी पांच शरीरों का अतिक्रमण कर लिया हो, इन सभी पांच तत्वों के पार जा चुके हो तो तुम ऐसी अवस्था में हो कि जिस चीज का तुम चाहो नियंत्रण कर सकते हो। मात्र एक विचार कि तुम छोटा होना चाहते हो, तुम छोटे हो जाओगे। यदि तुम बड़ा होना चाहते हो, तो बड़े हो जाओगे। यदि तुम अदृश्य होना चाहोगे तौ तुम अदृश्य हो जाओगे।

यह कोई अनिवार्य नहीं कि योगियों को इसे करना ही चाहिए। ऐसा कभी सुना नहीं गया कि सबुद्धों ने यह किया। पतंजलि ने स्वयं भी ऐसा किया हो इसकी जानकारी नहीं है। पतंजलि क्या कह रहे हैं, वे सारी संभावनाओं को उदघाटित कर रहे हैं।

वस्तुत: जो व्यक्ति अपने उच्चतम अस्तित्व को उपलब्ध कर चुका हो, वह किसलिए छोटा होने की सोचेगा? किसलिए? वह इतना मूर्ख नहीं हो सकता। किसलिए? वह क्यों हाथी जैसा होना चाहेगा? इसमें क्या सार है? और वह अदृश्य क्यों होना चाहेगा? लोगों के कुतुहल, उनके मनोरंजन में वह रस नहीं ले सकता। वह जादूगर तो नहीं है। लोग उसकी वाह वाही करें उसे इसमें कोई रस नहीं होगा। किसलिए? वास्तव में जिस क्षण कोई व्यक्ति अपने अस्तित्व की परम ऊंचाई पर पहुंचता है उसकी सारी इच्छाएं खो जाती हैं। जब आकांक्षाएं तिरोहित हो जाती हैं तभी सिद्धियां प्रकट होती हैं। दुविधा तो यही है कि शक्तियां तभी आती हैं जब तुम उन्हें प्रयोग करना नहीं चाहते वस्तुत: वे सिर्फ तब आती हैं, जब वह व्यक्ति जो सदा से उन्हें पाना चाहता था, मिट गया होता है।

अत: पतंजलि यह नहीं कह रहे हैं कि योगी लोग ऐसा करेंगे। कभी उन्होंने ऐसा किया हो ऐसी कोई जानकारी भी नहीं है। और कुछ लोग जो इन्हें करते हैं, वस्तुत: वे इन्हें कर नहीं सकते वे केवल चालबाज हैं।

अब सत्य साईंबाबा जैसे लोग स्विस घड़ियों को प्रकट किए जा रहे हैं। ये सभी चालबाजिया है और किसी को भी इन चालबाजियों के झांसे में नहीं पड़ना चाहिए। जो कुछ भी सत्य साईंबाबा कर रहे हैं, वह सारे संसार में हजारों जादूगरों द्वारा, बहुत सरलता से किया जा सकता है, किंतु तुम कभी जादूगरों के पास जाकर उनके पैर नहीं छूते, क्योंकि तुम जानते हो कि वे चालबाजी कर रहे हैं। लेकिन अगर ऐसा कोई व्यक्ति जो धार्मिक समझा जाता है, यही चालबाजी कर रहा हो, तो तुम सोचते हो कि यह चमत्कार है।

पतंजलि के योग—सूत्रों का यह भाग तुम्हें यह बताने के लिए है कि ये बातें संभव हैं, लेकिन वे कभी वास्तविक नहीं हो पातीं, क्योंकि जो व्यक्ति इनकी कामना रखता था, इन शक्तियों के माध्यम से अहंकार की पूर्ति करना चाहता था, अब वहां नहीं होता। चमत्कारिक शक्तियां तुमको तब उपलब्ध होती हैं जब तुम उनमें उत्सुक नहीं रहते। यह अस्तित्व की व्यवस्था है। यदि तुम कामना करोगे, तुम अक्षम रहोगे। यदि तुम कामना न करो, तो तुम अतिशय सामर्थ्यवान हो जाते हो। इसे मैं बैंकिंग का नियम कहता हूं। यदि तुम्हारे पास धन नहीं है, कोई बैंक तुम्हें धन नहीं देगा, यदि तुम्हारे पास धन है तो हरेक बैंक तुम्हें धन देने को तैयार है। तुम्हें जब जरूरत नहीं है, सब कुछ उपलब्ध है, जब तुम्हें जरूरत है, कुछ भी नहीं मिलता।

’सौंदर्य, लालित्य, शक्ति और बज सी कठोरता ये सभी मिल कर संपूर्ण देह का निर्माण करते हैं।’

पतंजलि इस शरीर की बात नहीं कर रहे हैं। यह शरीर सुंदर हो सकता है, परंतु परिपूर्ण सुंदर कभी नहीं हो सकता। दूसरा शरीर इससे अधिक सुंदरे हो सकता, तीसरा और भी ज्यादा क्योंकि वे केंद्र के निकट आ रहे होते हैं। सौंदर्य तो केंद्र का है। जितना दूर यह जाएगा उतना ही यह सीमित हो जाएगा। चौथा शरीर तो और भी सुंदर है। पांचवां तो करीब—करीब निन्यानबे प्रतिशत संपूर्ण है।

लेकिन वह जो तुम्हारा अस्तित्व, तुम्हारा यथार्थ है, सौंदर्य, लालित्य, शक्ति और वज्र सी कठोरता उसमें है। यह वज सी कठोरता है, और उसी समय कमल की मृदुलता भी है। यह सुंदर है किंतु सुकुमार नहीं—सशक्त है। यह शक्तिपूर्ण है, पर मात्र कठोर नहीं है। इसमें सारे विपरीत मिल जाते हैं.. .जैसे कि कमल का फूल हीरों से बना हो या कमल के फूलों से हीरा बना हो, क्योंकि वहां पुरुष और स्त्री का सम्मिलन और अतिक्रमण होता है। क्योंकि वहां सूर्य और चंद्रमा मिलते हैं और अतिक्रमण हो जाता है।

योग के लिए .हठ पुराना शब्द है।’हठ’ शब्द अत्यधिक महत्वपूर्ण है।’ह’ का अर्थ है सूर्य।’ठ’ का अर्थ है : चंद्रमा। और ‘हठ’ का अर्थ है. सूर्य और चंद्रमा का मिलन। सूर्य और चंद्र का मिलन योग है, यूनियो मिस्टिका है।

हठ योगियों के अनुसार मनुष्य के शरीर में ऊर्जा की तीन धाराएं होती हैं। एक को ‘पिंगला’ कहते हैं, यह दाईं धारा है, मस्तिष्क के बाएं हिस्से से जुड़ी है—सूर्य—नाड़ी। फिर दूसरी धारा है ‘इड़ा’, बाईं धारा, दाएं मस्तिष्क से जुड़ी है—चंद्र—नाड़ी। और तब एक तीसरी धारा है, मध्यधारा, सुषुम्ना, केंद्रीय, संतुलित, यह सूर्य और चंद्रमा दोनों से एक साथ मिल कर बनी है।

सामान्यत: तुम्हारी ऊर्जा या तो ‘पिंगला’ द्वारा गतिमान होती है या ‘इड़ा’ द्वारा। योगी की ऊर्जा सुषुम्ना द्वारा प्रवाहित होने लगती है। यह कुंडलिनी कहलाती है। तब ऊर्जा इन दोनों दाएं और बाएं के ठीक मध्य से प्रवाहित होती है। तुम्हारे मेरुदंड के साथ ही इन धाराओं का अस्तित्व है। एक बार उर्जा मध्यधारा से प्रवाहित होने लगे, तुम संतुलित हो जाते हो। तब व्यक्ति न स्त्री होता है न पुरुष, न कोमल न कठोर, या दोनों पुरुष—स्त्री, कोमल और कठोर। सुषुम्ना में सारी ध्रुवीयताएं विलीन हो जाती हैं और सहस्रार सुषुम्ना का शिखर है।

अगर तुम अपने अस्तित्व के निम्नतम बिंदु मूलाधार, काम—केंद्र पर रहते हो, तो तुम्हारी गति या तो ‘इड़ा’ से होगी या ‘पिंगला’ से होगी, सूर्य—नाड़ी या चंद्र—नाड़ी, और तुम विभाजित रहोगे। और तुम दूसरे की खोज करते रहोगे, तुम दूसरे की कामना करते रहोगे, तुम स्वयं में अधूरापन अनुभव करोगे, तुम्हें दूसरे पर आश्रित रहना पड़ेगा।

जब तुम्हारी अपनी ऊर्जाएं अंदर मिल जाती हैं तो काम—ऊर्जा का विस्फोट, ब्रह्मांडीय चरम ऊर्जा का विस्फोट, घटता है, जब इड़ा और पिंगला मिल कर सुषुम्ना में समा जाती हैं, तब व्यक्ति पुलक से, पुलक के सातत्य से भर उठता है। तब व्यक्ति आनंदित, निरंतर आनंदमग्न रहता है। तब इस आनंद का कोई अंत नहीं है। फिर वह व्यक्ति कभी नीचे नहीं आता, तब वह कभी भी अधोगामी नहीं होता। व्यक्ति शिखर पर ही रहता है। ऊंचाई का यह बिंदु व्यक्ति का अंतर्तम केंद्र, उसका समग्र अस्तित्व बन जाता है। इसे फिर से खयाल में ले लो, मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि यह एक मानचित्र है। हम किन्हीं वास्तविक चीजों की बात नहीं कर रहे हैं। ऐसे भी मूढ़ लोग हो गए हैं, जिन्होंने मानव शरीर का विच्छेदन करके यह देखने की कोशिश भी की कि इड़ा और पिंगला और सुषुम्ना कहां हैं और वे उन्हें कहीं नहीं मिलीं। ये सिर्फ संकेत हैं, प्रतीक हैं। ऐसे भी मूढ़ हुए हैं जिन्होंने चक्रों की खोज में कि वे कहां हैं, मानव— शरीर का विच्छेदन किया है। एक चिकित्सक ने भी यह सिद्ध करने के लिए कि कौन सा चक्र, शरीर क्रिया वैज्ञानिकों के हिसाब से, बिलकुल ठीक—ठीक किस स्थान पर हैं, एक पुस्तक लिख डाली है। ये मूढ़तापूर्ण कोशिशें हैं।

योग उस ढंग से वैज्ञानिक नहीं है। प्रतीकात्मक है यह; योग एक महत प्रतीक है। यह कुछ दिखाता रहा है और जब तुम अंतस में उतरोगे, तुम इसे पाओगे, लेकिन इसे खोजने के लिए शरीर का विच्छेदन कोई उपाय नहीं है। शव—परीक्षण के द्वारा तुम्हें ये चीजें नहीं मिलेंगी। ये जीवंत घटनाएं हैं। और ये सारे सूत्र मात्र प्रतीकात्मक हैं, उनसे बंधना नहीं है और न उनसे कोई आसक्ति बांधो, न कोई अवधारणा बनाओ, तरल बने रहो। संकेत ग्रहण करो और यात्रा पर निकल पड़ो।

एक शब्द और है, ऊध्वरेतस। इसका अर्थ है: ऊर्जा की ऊर्ध्वगामी यात्रा। अभी तुम काम—केंद्र पर टिके हुए हो, और इस केंद्र से ऊर्जा का अधोगमन होता रहता है। ऊध्वरेता का अर्थ है कि तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की ओर जाने लगी है। यह एक नाजुक, बहुत सूक्ष्म घटना है और इसके साथ कार्य करते समय बहुत सावधान रहना पड़ता है। यदि तुम सचेत नहीं हो तो बहुत संभावना है कि तुम विकृत व्यक्ति बन जाओ। यह खतरनाक है। यह एक सांप की तरह है, तुम एक सांप से खेल रहे हो। यदि तुम्हें नहीं पता कि क्या करना है, तो खतरा है। तुम जहर के साथ खेल रहे हो।

और अनेक लोग विकृत हो चुके हैं, क्योंकि ऊर्ध्वगमन के लिए, ऊध्वरेता होने के लिए उन्होंने अपनी काम—ऊर्जा को दमित करने की कोशिश की। वे ऊपर को कभी नहीं गए। वे सामान्य लोगों से भी अधिक विकृत हो गए।

मैं एक कहानी पढ़ रहा था। एबी ने अपने मित्र इस्सी से कहा, ही, मैं अपने पुत्र को लेकर डरा हुआ हूं। एक बड़ी निराशाजनक स्थिति पैदा हो गई है। तुम्हें पता है कि उसे वैसी शिक्षा दिलाने के लिए, जो हमने प्राप्त नहीं की, हमने कितना संघर्ष किया। मैंने उसे देश के सर्वश्रेष्ठ बिजनिस स्कूल में पढ़ने भेजा, और अब क्या हुआ? वह मेरी परिधानों की फैक्ट्री में दस बजे सुबह आता है, ग्यारह बजे चाय वगैरह के लिए वक्त बरबाद करता है, बारह बजे लंच के लिए उठ जाता है, दो बजे से पहले लौटता नहीं, और दो से चार माडल्स के साथ यूं ही समय गुजारता है। कितना बेकार सिद्ध हुआ वह बड़ा होकर।

इस्सी ने कहा : एबी, तुम्हारी परेशानी तो कुछ भी नहीं है, मेरी तो तुमसे हजार गुनी ज्यादा है। तुम्हें पता है कि हमने अपने पुत्र को वह शिक्षा दिलाने के लिए, जो हमें नहीं मिली, कितना संघर्ष किया है। मैंने उस देश के सर्वश्रेष्ठ बिजनिस स्कूल में पढ़ाया। और अब क्या होता है? वह सुबह दस बजे मेरी फैक्ट्री में आता है, ग्यारह बजे वह चाय के लिए समय खराब करता है, बारह बजे लंच के लिए उठ जाता है, दो बजे से पहले लौटता नहीं, और दो से चार बजे के बीच वह माडल्स के साथ समय बिताता है। कितना बेकार सिद्ध हुआ वह बड़ा होकर!

लेकिन इस्सी यह मुझसे हजार गुनी खराब स्थिति कहां हुई? यह तो वही कहानी है जैसी मैंने तुम्हें बताई है।

एबी, तुम एक बात भूल रहे हो, मेरा पुरुष परिधानों का काम है।

समझे? यदि तुम यह नहीं जानते कि काम—ऊर्जा के साथ क्या किया जाए और तुम इसके साथ यूं ही खिलवाड़ करने लगे तो या तो तुम्हारी ऊर्जा आत्मरति की या समलैंगिकता की और मुड़ जाएगी या हजारों प्रकार की विकृतियों में से कुछ भी हो सकता है। अत: बेहतर यही है कि इसे जैसी यह है वैसी ही रहने दो। इसीलिए सदगुरु की आवश्यकता है। वह जो जानता है कि तुम कहां हो, तुम किधर जा रहे हो, और अब क्या होने वाला है, वह जो तुम्हारा भविष्य देख सकता है और वह जो देख सकता है कि ऊर्जा ठीक मार्ग पर प्रवाहित हो रही है या नहीं। अन्यथा तो यह पूरा संसार ही काम विकृतियों के झंझट में उलझा हुआ है।

दमन कभी मत करना। विकृत होने से बेहतर है कि सामान्य और स्वाभाविक बने रहो। लेकिन केवल सामान्य होना पर्याप्त नहीं है। और ज्यादा की संभावना है। रूपांतरण करो। ऊध्र्वरेता होने का मार्ग दमन का नहीं—रूपांतरण का है। और यह केवल तब हो सकता जब तुम अपने शरीर को शुद्ध करो, मन को शुद्ध करो, तुम वह सारा कचरा फेंक दो जो तुमने शरीर और मन में एकत्रित कर रखा है। शुद्धता, प्रकाश, निर्भारता के साथ ही तुम ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन में सहयोगी हो पाओगे।’

साधारणत: यह कुंडली मारे सांप की भांति होती है; इसीलिए हम इसे कुंडलिनी, या कुंडली कहते हैं। कुंडली का अर्थ है : ‘सर्पिल—वर्तुल।’ जब यह अपना सिर उठाती है और ऊपर की ओर जाती है तो यह अदभुत अनुभव है। जब भी यह किसी उच्चतर केंद्र से गुजरती है, तुम्हें उच्चतर से उच्चतर अनुभव घटेंगे। प्रत्येक केंद्र पर बहुत कुछ तुम पर उदघाटित होगा, तुम एक महाग्रंथ हो जाओगे। लेकिन ऊर्जा को केंद्रों से होकर गुजरना पड़ता है, तभी वे केंद्र तुम्हारे समक्ष अपना सौंदर्य, अपनी देशना, अपना काव्य, अपना गीत, अपना नृत्य उदघाटित करते हैं। और प्रत्येक केंद्र का ऊर्जा शिखर अपने निम्नतर केंद्र से श्रेष्‍ठर होता है।

काम— भोग का शिखर अनुभव निम्नतम है। हारा का शिखर अनुभव उच्चतर है। उससे भी उच्चतम है नाभि का शिखर अनुभव। हृदय का, प्रेम का, और भी उच्चतर है। तब उससे उच्चतर है कंठ, सृजनात्मकता, सहभागिता का। फिर उससे उच्चतर है तीसरी आख, जीवन जैसा है उसे वैसा ही देखने की दृष्टि, बिना किसी प्रक्षेपण के—सत्य को निर्धूम देखने की स्पष्ट दृष्टि का अनुभव। और सातवें केंद्र सहस्रार का तो उच्चतम है।

यह एक मानचित्र है। यदि तुम चाहो, तो तुम ऊपर की ओर जा सकते हो, ऊध्वईरेता हो सकते हो। लेकिन कभी भी सिद्धियों, शक्तियो के लिए ऊध्र्वरेता बनने की कोशिश मत करना; ये मूढ़ताएं हैं। तुम कौन हो यह जानने के लिए ऊध्वईरता बनने का प्रयास करो। शक्ति के लिए नहीं शांति के लिए शांति को अपना लक्ष्य होने दो, शक्ति नहीं।

यह अध्याय विभूतिपाद कहलाता हैं। विभूति का अर्थ है : ‘शक्ति।’ पतंजलि ने यह अध्याय सम्मिलित इसलिए ‘किया कि उनके शिष्य और वे लोग जो उनका अनुसरण कर रहे हैं, उन्हें सावधान किया जा सके कि रास्ते में बहुत सी शक्तियां घट सकती हैं, किंतु उनमें तुम्हें उलझना नहीं है। एक बार तुम शक्ति में उलझे, एक बार तुम शक्ति के फेर में पड़े, तुम परेशानी में पड़ जाओगे। तुम उस बिंदु से बंध जाओगे और तुम्हारी उड़ान थम जाएगी। और व्यक्ति को उड़ते ही जाना है, परम अंत तक, जब तक कि शून्यता न खुले और तुम ब्रह्मांडीय आत्मा में पुन: समाहित हो जाओ।

शांति को होने दो तुम्हारा साध्य।

आज इतना ही।


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कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–2)

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इहलौकिक जीवन के समग्र स्वीकार के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—दूसरा)

 दिनांक 26 सितंबर, 1970;

मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, आपको श्रीकृष्ण पर बोलने की प्रेरणा कैसे व क्यों हुई? इस लंबी चर्चा का मूल आधार क्या है?’

 सोचना हो, बोलना हो, समझना हो, तो कृष्ण से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्ति खोजना मुश्किल है। ऐसा नहीं कि और महत्वपूर्ण व्यक्ति हुए हैं, लेकिन कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम और भविष्य के लिए ज्यादा है। सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय के कम से कम पांच हजार वर्ष पहले पैदा हुए। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के पहले पैदा होते हैं, और सभी गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं। बस महत्वपूर्ण और गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति में इतना ही फर्क है। और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते हैं।

महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बहुत पहले पैदा हो जाता है। और कृष्ण तो अपने समय के बहुत पहले पैदा हुए हैं। शायद आनेवाले भविष्य में हम कृष्ण को समझने में योग्य हो सकेंगे। अतीत कृष्ण को समझने में योग्य नहीं हो सका।

और यह भी खयाल कर लें कि जिसे हम समझने में योग्य नहीं हो पाते, उसकी हम पूजा करना शुरू कर देते हैं। जो हमारी समझ के बाहर छूट जाता है, उसकी हम पूजा करने लगते हैं। या तो हम गाली देते हैं, या प्रशंसा करते हैं, दोनों ही पूजाएं हैं–एक शत्रु की है, एक मित्र की है। जिसे हम नहीं समझ पाते, उसे हम भगवान बना लेते हैं। असल में अपनी नासमझी को स्वीकार करना बहुत कठिन होता है। दूसरे को भगवान बना देना बहुत आसान होता है। लेकिन दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जिसे हम नहीं समझ पाते उसे हम क्या कहें–उसे हम भगवान कहना शुरू कर देते हैं। भगवान कहने का मतलब है कि जैसे हम भगवान को नहीं समझ पा रहे हैं वैसे ही इस व्यक्ति को भी नहीं समझ पा रहे हैं। जैसा भगवान बेबूझ है, वैसा ही यह व्यक्ति भी अबूझ है। जैसे भगवान रहस्य है, वैसा ही यह व्यक्ति भी रहस्य है। जैसे भगवान को हम नहीं छू पाते, पकड़ पाते, स्पर्श कर पाते, वैसे ही इस व्यक्ति को भी नहीं छू पाते, नहीं पकड़ पाते। जैसे भगवान सदा ही जानने को शेष रह जाता है वैसा ही यह व्यक्ति भी सदा जानने को शेष रह जाता है।

समय के पहले जो लोग पैदा हो जाते हैं, उनकी पूजा शुरू हो जाती है। लेकिन अब वह वक्त करीब आ रहा है जब कृष्ण की पूजा से अर्थ नहीं होगा, कृष्ण को जीना शुरू हो सकेगा, कृष्ण को जिया जा सकेगा। ठीक इसीलिए कृष्ण को चुना चर्चा के लिए, क्योंकि आने वाले भविष्य के संदर्भ में सबसे सार्थक व्यक्तित्व उन्हीं का मुझे मालूम पड़ता है। तो दोत्तीन बातें इस संबंध में आपसे कहूं।

एक बात, कृष्ण को छोड़कर दुनिया के समस्त अदभुत व्यक्ति–चाहे महावीर, चाहे बुद्ध, चाहे क्राइस्ट, या कोई और–ये सभी परलोक के लिए जी रहे थे। आने वाले किसी जीवन के लिए, आने वाले किसी लोक के लिए; परलोक के लिए, मोक्ष के लिए, स्वर्ग के लिए। मनुष्य का पूरा अतीत पृथ्वी पर इतना दुखद था कि पृथ्वी पर तो जीना ही संभव नहीं था। मनुष्य का पूरा अतीत इतनी पीड़ाओं, इतनी “सफरिंग’, इतनी कठिनाइयों का था कि इस पृथ्वी के जीवन को स्वीकार करना मुश्किल था। तो अतीत के समस्त धर्म पृथ्वी को अस्वीकार करने वाले धर्म हैं, सिर्फ एक कृष्ण को छोड़कर। कृष्ण इस पृथ्वी के पूरे जीवन को पूरा ही स्वीकार करते हैं। वे किसी परलोक में जीने वाले व्यक्ति नहीं, इसी पृथ्वी पर, इसी लोक में जीने वाले व्यक्ति हैं। बुद्ध, महावीर का मोक्ष इस पृथ्वी के पार कहीं दूर है, कृष्ण का मोक्ष इसी पृथ्वी पर, यहीं और अभी है।

इस जीवन की, जिसे हम जानते हैं, इस जीवन की इतनी गहरी स्वीकृति किसी व्यक्ति ने कभी भी नहीं दी है। आने वाले भविष्य में पृथ्वी पर दुख कम हो जाएंगे, सुख बढ़ जाएंगे और पहली बार पृथ्वी पर त्यागवादी व्यक्तियों की स्वीकृति मुश्किल हो जाएगी। दुखी समाज त्याग को स्वीकार कर सकता है, सुखी समाज त्याग को स्वीकार नहीं कर सकता। दुखी समाज में त्याग, संन्यास, “रिनंसिएशन'; क्योंकि दुखी समाज में कोई कह सकता है, सिवाय दुख के जीवन में क्या है, हम छोड़कर जाते हैं। सुखी समाज में यह नहीं कहा जा सकता कि जीवन में सिवाय दुख के क्या है। अर्थहीन हो जाएगी यह बात।

इसलिए त्यागवादी धर्म की कोई बात भविष्य के लिए सार्थक नहीं है, विज्ञान उन सारे दुखों को अलग कर देगा जो जिंदगी में दुख मालूम पड़ते थे। बुद्ध ने कहा है, जन्म दुख है, जीवन दुख है, जरा दुख है, मृत्यु दुख है, ये सब दुख हैं। दुख अब मिटाए जा सकेंगे। जन्म दुख नहीं होगा–न मां के लिए, न बेटे के लिए। जीवन दुख नहीं होगा, बीमारियां काटी जा सकेंगी। जरा नहीं होंगी और बुढ़ापे से आदमी को जल्दी ही बचा लिया जा सकेगा और जीवन को भी लंबा किया जा सकता है। इतना लंबा किया जा सकता है कि अब विचारणीय यह नहीं होगा कि आदमी क्यों मर जाता है, विचारणीय यह होगा कि आदमी इतना लंबा क्यों जीये? यह बहुत निकट भविष्य में सब हो जाने वाला है। उस दिन बुद्ध का वचन–जन्म दुख है, जरा दुख है, जीवन दुख है, मृत्यु दुख है, बहुत समझना मुश्किल हो जाएगा। उस दिन कृष्ण की बांसुरी सार्थक हो सकेगी। उस दिन कृष्ण का गीत और कृष्ण का नृत्य सार्थक हो सकेगा। उस दिन जीवन सुख है, यह चारों ओर नाच उठेगी घटना। जीवन सुख है, इसके फूल चारों ओर खिल जाएंगे। इन फूलों के बीच में नग्न खड़े हुए महावीर का संदर्भ खो जाता है। इन फूलों के बीच में जीवन के प्रति पीठ करके जानेवाले व्यक्तित्व का अर्थ खो जाता है। इन फूलों के बीच में तो जो नाच सकेगा वही सार्थक हो सकता है। भविष्य में दुख कम होता जाएगा और सुख बढ़ता जाएगा, इसलिए मैं सोचता हूं कि कृष्ण की उपयोगिता रोज-रोज बढ़ती जानेवाली है।

अभी तक हम सोच नहीं सकते कि धार्मिक आदमी के ओठों पर बांसुरी कैसे है। अभी तक हम सोच ही नहीं सकते हैं कि धार्मिक आदमी और मोर का पंख लगाकर नाच कैसे रहा है। धार्मिक आदमी प्रेम कैसे कर सकता है, गीत कैसे गा सकता है। धार्मिक आदमी का हमारे मन में खयाल ही यह है कि जो जीवन को छोड़ रहा है, त्याग रहा है, उसके ओंठों से गीत नहीं उठ सकते, उसके ओंठ से दुख की आह उठ सकती है। उसके ओंठों पर बांसुरी नहीं हो सकती है। यह असंभव है। इसलिए कृष्ण को समझना अतीत को बहुत ही असंभव हुआ। कृष्ण को समझा नहीं जा सका। इसलिए कृष्ण बहुत ही बेमानी, अतीत के संदर्भ में बहुत “एब्सर्ड’, असंगत थे। भविष्य के संदर्भ में कृष्ण रोज संगत होते चले जाएंगे। और ऐसा धर्म पृथ्वी पर अब शीघ्र ही पैदा हो जाएगा जो नाच सकता है, गा सकता है, खुश हो सकता है। अतीत का समस्त धर्म रोता हुआ, उदास, हारा हुआ, थका हुआ, पलायनवादी, “एस्केपिस्ट’ है। भविष्य का धर्म जीवन को, जीवन के रस को स्वीकार करने वाला, आनंद से, अनुग्रह से नाचने वाला, हंसने वाला धर्म होने वाला है।

जीवन की यह जो संभावना है–जीवन की यह जो भविष्य की संभावना है, इस भविष्य की संभावनाओं को खयाल में रखकर कृष्ण पर बात करने का मैंने विचार किया है। हमें भी समझना मुश्किल पड़ेगा, क्योंकि हम भी अतीत के दुख के संस्कारों से ही भरे हुए हैं। और धर्म को हम भी आंसुओं से जोड़ते हैं, बांसुरियों से नहीं। शायद ही हमने कभी ऐसा आदमी देखा हो जो कि इसलिए संन्यासी हो गया हो कि जीवन में बहुत आनंद है। हां, किसी की पत्नी मर गई है और जीवन दुख हो गया है और वह संन्यासी हो गया। किसी का धन खो गया है, दिवालिया हो गया है, आंखें आंसुओं से भर गई हैं और वह संन्यासी हो गया। कोई उदास है, दुखी है, पीड़ित है, और संन्यासी हो गया है। दुख से संन्यास निकला है। लेकिन आनंद से? आनंद से संन्यास नहीं निकला। कृष्ण भी मेरे लिए एक ही व्यक्ति हैं जो आनंद से संन्यासी हैं।

निश्चित ही आनंद से जो संन्यासी है वह दुख वाले संन्यासी से आमूल रूप से भिन्न होगा। जैसे मैं कह रहा हूं कि भविष्य का धर्म आनंद का होगा, वैसे ही मैं यह भी कहता हूं कि भविष्य का संन्यासी आनंद से संन्यासी होगा। इसलिए नहीं कि एक परिवार दुख दे रहा था इसलिए एक व्यक्ति छोड़कर संन्यासी हो गया, बल्कि एक परिवार उसके आनंद के लिए बहुत छोटा पड़ता था। पूरी पृथ्वी को परिवार बनाने के लिए संन्यासी हो गया। इसलिए नहीं कि एक प्रेम जीवन में बंधन बन गया था, इसलिए कोई प्रेम को छोड़कर संन्यासी हो गया, बल्कि इसलिए कि एक प्रेम इतने आनंद के लिए बहुत छोटा था, सारी पृथ्वी का प्रेम जरूरी था, इसलिए कोई संन्यासी हो गया। जीवन की स्वीकृति और जीवन के आनंद और जीवन के रस से निकले हुए संन्यास को जो समझ पाएगा, वह कृष्ण को भी समझ पा सकता है।

नहीं, भविष्य में अगर कोई कहेगा कि मैं दुख के कारण संन्यासी हो गया तो हम कहेंगे कि दुख से कोई संन्यासी कैसे हो सकता है। और दुख से जो संन्यास निकलेगा वह आनंद में ले जाने वाला नहीं होगा। दुख से जो संन्यास निकलेगा वह ज्यादा-से-ज्यादा उदासी में ले जा सकता है, आनंद में नहीं ले जा सकता। क्योंकि दुख से जो संन्यास निकलेगा वह दुख को कम ही कर सकता है ज्यादा-से-ज्यादा, आनंद को पैदा नहीं कर सकता। दुख की स्थितियों को छोड़कर आप दुख को कम कर लेंगे, लेकिन आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकते। आनंद से जिस संन्यास का जन्म होगा, जो गंगा आनंद से पैदा होगी, वही आनंद के सागर तक पहुंच सकती है। क्योंकि तब आनंद को बढ़ाना ही साधना होगी। अतीत की साधना दुख को कम करने की साधना थी। और दुख को कम करने वाला साधक दुख को कम कर लेगा, लेकिन यह “निगेटिव’, नकारात्मक होगा, ज्यादा-से-ज्यादा उपलब्धि उसकी उदासी की होगी, जो दुख का क्षीणतम रूप है। इसलिए संन्यासी हमारा उदास, हारा हुआ, भागा हुआ है, जीता हुआ, जीवंत, आनंद से नाचता हुआ संन्यासी नहीं है।

कृष्ण मेरे लिए आनंद के संन्यासी हैं। आनंद के संन्यास की संभावना के कारण जानकर ही मैंने चुना कि उन पर बात करूं। ऐसा नहीं है कि कृष्ण पर बातें नहीं की गईं। लेकिन कृष्ण पर जिन्होंने बातें की हैं वे भी दुख से भरे हुए संन्यासी थे। इसलिए कृष्ण की आज तक की व्याख्या कृष्ण के साथ अन्याय करती रही है। करेगी ही। अगर शंकर कृष्ण की व्याख्या करेंगे तो एक उलटा ही आदमी कृष्ण की व्याख्या कर रहा है। शंकर की व्याख्या कृष्ण के साथ न्यायसंगत नहीं हो सकती। कृष्ण की व्याख्या अतीत में संगत हो ही नहीं सकी। क्योंकि जो व्याख्याकार थे, जो कृष्ण पर कह रहे थे, बोल रहे थे, वे सब दुख से आए हुए थे। वे इस जगत को माया सिद्ध करना चाहते थे, वे इस जगत को दिव्य कह रहे हैं। इसलिए कृष्ण के लिए सब स्वीकार है। अस्वीकार है ही नहीं। “टोटल एक्सेप्टबिलिटी’ का, समस्त को स्वीकार लेने का ऐसा व्यक्तित्व कभी पैदा ही नहीं हुआ है।

धीरे-धीरे रोज जब हम बात करेंगे तो बहुत-सी बातें खयाल में आ सकेंगी। लेकिन मेरे लिए कृष्ण शब्द भविष्य के लिए इंगित और बहुत सूचक है। इसलिए इस पर बात करने को तय किया है।

“आपने अभी कहा कि बुद्ध और महावीर जैसे संन्यासी दुखवादी हैं। लेकिन संन्यास उनके वैभवपूर्ण जीवन से निकला है, संन्यास उनके वैभव का अगला चरण है, इसलिए उसके आधार में आप दुख को नहीं रख सकेंगे।’

 

हीं, मैंने महावीर और बुद्ध को दुखवादी संन्यासी नहीं कहा। अतीत का संन्यास दुखवादी था। महावीर का व्यक्तित्व भी अगर हम देखें, और बुद्ध का व्यक्तित्व अगर देखें, तो भी जीवन को छोड़ने वाला है। महावीर और बुद्ध दुखवादी हैं, ऐसा मैंने नहीं कहा, क्योंकि मैं महावीर और बुद्ध को मानता हूं कि उन्होंने पाया है। महावीर का दुख बहुत भिन्न है। महावीर का दुख सुख की ऊब है। बुद्ध का दुख सुख से ऊब जाना है। उनका दुख सुख का अभाव नहीं है, “एब्सेंस’ नहीं है। ऐसा नहीं है कि महावीर को सुख की कमी थी इसलिए वे संन्यासी हो गए। न, अति सुख हो जाए तो सुख व्यर्थ हो जाता है। लेकिन फिर भी वे सुख को छोड़कर गए। छोड़ना उन्हें अब भी सार्थक है। सुख तो निरर्थक हुआ, लेकिन छोड़ना सार्थक रहा। कृष्ण को सुख भी व्यर्थ है, छोड़ना भी व्यर्थ है। कृष्ण के लिए व्यर्थता की गहराई बहुत ज्यादा है।

समझें।

अगर मैं किसी चीज को पकड़ता हूं, तो भी मेरे लिए उसमें कुछ अर्थ है। और अगर मैं उसे छोड़ता हूं तो भी निषेधात्मक अर्थ है। नहीं छोडूंगा तो दुख पाऊंगा। इतना अर्थ तो है ही। महावीर और बुद्ध का संन्यास दुख से निकला है, ऐसा मैं नहीं कहता। सुख से ही निकला। सुख की ऊब से निकला। वे किसी और बड़े सुख की खोज में इस सुख को छोड़कर चले गए। कृष्ण में उनसे भेद है। कृष्ण किसी बड़े सुख की खोज में इस सुख को छोड़कर नहीं जाते, इस सुख को भी उस बड़े सुख की खोज की सीढ़ी ही बनाते हैं। इसे छोड़कर नहीं जाते। इस सुख में और उस सुख में उन्हें विरोध नहीं दिखाई पड़ता। वह जो बड़ा सुख है, इसी सुख का विस्तार है। वह इसी गीत की अगली कड़ी है, वह इसी नृत्य का अगला चरण है। वह जो बड़ा सुख है, वह जो आनंद है, वह इस सुख का विरोधी नहीं है। बल्कि कृष्ण के लिए इस सुख में भी उस बड़े आनंद की ही झलक है, यह इसकी ही शुरुआत है।

बुद्ध और महावीर भी सुख से ही जाते हैं, लेकिन उनकी दृष्टि छोड़ने की दृष्टि है। वह जो छोड़ने की दृष्टि है वह हम दुखवादियों को और भी महत्वपूर्ण मालूम पड़ी है। बुद्ध और महावीर सुख से ऊबकर गए हैं, लेकिन हम दुखी लोगों को ऐसा लगा है कि दुख से ही गए हैं। तो बुद्ध और महावीर की व्याख्या भी हमने जो की है वह भी दुखवादियों की व्याख्या है। जैसे कृष्ण के साथ अन्याय हुआ, उससे थोड़ा कम सही, लेकिन बुद्ध और महावीर के साथ भी अन्याय हुआ है।

हम दुखी हैं। हम जब छोड़कर जाते हैं तो दुख के कारण छोड़कर जाते हैं। बुद्ध और महावीर जब छोड़कर जाते हैं तो सुख के कारण छोड़कर जाते हैं। हममें और बुद्ध और महावीर में भी फर्क है। हमारे छोड़ने का मूल आधार दुख होता है, उनके छोड़ने का मूल आधार सुख होता है। हैं तो वे भी सुख से ही गए हुए संन्यासी, लेकिन कृष्ण और उनमें भी एक फर्क है और वह फर्क यह है कि वे सुख को छोड़कर गए हैं, कृष्ण छोड़कर नहीं जा रहे हैं। कृष्ण स्वीकार कर ले रहे हैं जो है। असल में सुख को छोड़ने योग्य भी नहीं पा रहे हैं। भोगने योग्य का सवाल ही नहीं है, छोड़ने योग्य भी नहीं पा रहे हैं। जीवन जैसा है उसमें कुछ भी रद्दोबदल करने की कृष्ण की कोई इच्छा नहीं है।

एक फकीर ने कहीं कहा है अपनी एक प्रार्थना में कि हे परमात्मा, तू तो मुझे स्वीकार है लेकिन तेरी दुनिया नहीं। सभी फकीर यही कहेंगे कि तू तो मुझे स्वीकार है, लेकिन तेरी दुनिया नहीं। ये नास्तिक से उलटे हैं। नास्तिक कहता है, तेरी दुनिया तो स्वीकार है, तू नहीं। आस्तिक कहता है, तेरी दुनिया तो स्वीकार नहीं है, तू स्वीकार है। ये दोनों एक ही सिक्के के दोहरे पहलू हुए। कृष्ण की आस्तिकता बहुत अदभुत है। कहना चाहिए, कृष्ण ही आस्तिक हैं। तू भी स्वीकार है, तेरी दुनिया भी स्वीकार है। और यह स्वीकृति इतनी गहरी है कि कहां तेरी दुनिया समाप्त होती है और कहां से तू शुरू होता है, यह तय करना मुश्किल है। असल में तेरी दुनिया भी तेरा फैला हुआ हाथ है और तू ही तेरी दुनिया का छिपा हुआ अंतर्मम है। इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं है।

कृष्ण समस्त को स्वीकार कर रहे हैं, इसे ध्यान में रखना जरूरी है–दुख को भी नहीं छोड़ रहे हैं, सुख को भी नहीं छोड़ रहे हैं। जो भी है उसे छोड़ ही नहीं रहे, छोड़ने का भाव ही नहीं है। छोड़ने की बात ही नहीं है। छोड़ने से ही, अगर हम ठीक से समझें तो व्यक्ति शुरू हो जाता है। जैसे ही हम छोड़ते हैं, मैं शुरू हो जाता हूं। लेकिन अगर हम कुछ छोड़ते ही नहीं, तो मेरे होने का उपाय ही नहीं है। इसलिए कृष्ण से निरहंकारी व्यक्तित्व खोजना मुश्किल है। और निरहंकारी हैं इसलिए ही उन्हें अहंकार की बात करने में भी कोई कठिनाई नहीं होती है, वह अर्जुन से कह सकते हैं–तू सबको छोड़कर मेरी शरण में आ जा। यह बड़े मजे की बात है, यह बड़े अहंकार की घोषणा है। इससे ज्यादा “इगोइस्ट’ घोषणा क्या होगी कि कोई आदमी किसी से कहे–तू सबको छोड़कर मेरी शरण में आ जा! लेकिन हमको भी दिखाई पड़ता है कि यह अहंकार की घोषणा है, कृष्ण को दिखाई नहीं पड़ा होगा? इतनी अकल तो रही ही होगी, जितनी हममें है। इतना तो कृष्ण को भी दिखाई पड़ सकता है कि यह अहंकार की घोषणा है, लेकिन इसे वे बड़ी सहजता से कर सके। यह वही आदमी कह सकता है, जिसके पास अहंकार हो ही नहीं। यह वही आदमी कर सकता है, आ जा मेरी शरण में, जिसको मेरे का कोई पता नहीं है। इसलिए जब वह कह रहे हैं कि आ जा मेरी शरण में, तब वह यही कह रहे हैं कि शरण में आ जा। छोड़ दे सब। अपना होना छोड़ दे और जीवन जैसा है उसे स्वीकार कर ले।

बड़े मजे की बात है, कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू युद्ध में लड़ जा। अगर दोनों की बातों को देखें तो अर्जुन ज्यादा धार्मिक मालूम पड़ता है। कृष्ण की बात बहुत धार्मिक नहीं मालूम पड़ती। कृष्ण कहते हैं, लड़। अर्जुन कहता है, मारूंगा, दुख होगा, पीड़ा होगी, अपने हैं, प्रियजन हैं, संबंधी हैं, मित्र हैं, गुरु हैं। इनको मारूंगा, बहुत दुख होगा। इन सबको मारकर मैं बड़े-से-बड़ा सुख भी न चाहूंगा। इससे तो बेहतर है कि मैं भाग जाऊं और भीख मांग लूं। आत्मघात कर लूं, वह भी सरल मालूम पड़ता है बजाय इन सबको मारने के। कौन धार्मिक होगा जो कहेगा कि कृष्ण को जो अर्जुन कह रहा है वह गलत कह रहा है। सभी धार्मिक कहेंगे, ठीक कहता है; अर्जुन के मन में धर्म-बुद्धि पैदा हुई है। लेकिन कृष्ण उससे कहते हैं कि तू विचलित हो गया; तेरी धर्म-बुद्धि नष्ट हो गई है। क्योंकि कृष्ण यह कहते हैं कि तू पागल, तू सोचता है किसी को मार सकेगा! कोई मरता है कभी! तू सोचता है कि ये जो खड़े हैं, तू इन्हें बचा सकेगा? कोई किसी को बचा सका है कभी? तू सोचता है, तू युद्ध से बच सकेगा, तू अहिंसक हो सकेगा। लेकिन जहां “मैं’ है, खुद को बचाना है, वहां अहिंसा हो सकती है कभी?

नहीं, जो आ गया है उसे स्वीकार कर, अपने को छोड़ और लड़। जो सामने है उसमें डूब। सामने युद्ध है। सामने कोई मंदिर नहीं है। सामने कोई प्रार्थना नहीं चल रही है, सामने कोई भजन-कीर्तन नहीं हो रहा है कि उसमें डूब। सामने युद्ध है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, इसमें तू डूब। अपने को छोड़। तू कौन है! और एक बहुत मजे की बात कहते हैं कि जिन्हें तू देखता है कि मरेंगे, मैं जानता हूं कि वे पहले ही मर चुके हैं। वे सिर्फ मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तू ज्यादा-से-ज्यादा निमित्त हो सकता है। तू अपने को ऐसा मत मान कि तू मार रहा है, क्योंकि तब तू निमित्त न रह जाएगा, कर्ता हो जाएगा। तू ऐसा भी न मान कि अगर तू छोड़कर भागेगा तो तू सोचेगा, कि तूने बचाया; तब भी भ्रम होगा। तेरे बचाने से ये न बचेंगे, तेरे मारने से ये न मरेंगे। तू इसमें पूरा हो, इसमें पूरा डूब। जो तुझ पर आ गया है, तू उसे पूरा निभा। और पूरा तू तभी निभा सकता है जब तू अपनी बुद्धि को छोड़े। तू यह छोड़े कि मैं हूं, और मैं के दृष्टिकोण से देखना छोड़। इसको अगर ठीक से समझें तो इसका मतलब क्या हुआ?

इसका मतलब यह हुआ कि अगर कोई “मैं’ के दृष्टिकोण को छोड़े तो कर्ता न रह जाएगा, अभिनेता ही रह सकता है। मैं राम हूं और मेरी सीता खो जाए तब मैं जिस भांति रोऊंगा, एक रामलीला में काम करूं और सीता खो जाए, तब भी रोऊंगा। हो सकता है रोना मेरा असली राम के रोने से ज्यादा कुशल हो। होगा ही। क्योंकि असली राम को “रिहर्सल’ का कोई मौका नहीं है। सीता एक ही बार खोती है। जब खो जाती है तभी पता चलता है। इसकी कोई पूर्व तैयारी भी नहीं होती है। और राम पूरे कर्ता की तरह डूब जाते हैं। चिल्लाते हैं, रोते हैं, दुखी हैं, पीड़ित हैं। इसलिए राम को इस देश ने कभी पूर्ण अवतार नहीं कहा। पूरे अभिनेता वे नहीं हैं। “एक्टिंग’ अधूरी है। करते हैं। और चूक-चूक जाते हैं। कर्ता हो जाते हैं। इसलिए राम के व्यक्तित्व को हम “चरित्र’ कहते हैं। अभिनेता का कोई चरित्र नहीं होता। अभिनेता की लीला होती है, खेल होता है। इसलिए कृष्ण के चरित्र को हम “लीला’ कहते हैं।

कृष्ण की है लीला, वह कृष्ण-लीला है। राम का है चरित्र, वह है चरित्र। चरित्र बड़ी गंभीर चीज है। उसमें होना पड़ता है, चुनाव करना पड़ता है कि यह करना है और यह नहीं करना है, यह शुभ है और यह अशुभ है। अर्जुन चरित्रवान बनना चाहता था और कृष्ण उसको लीलावान बनाने के लिए उत्सुक हैं। अर्जुन कहता था मैं यह न करूं, यह बुरा है, और यह करूं जो अच्छा है। कृष्ण कहते हैं जो आ जाता है, तू अपने को बीच में खड़ा मत कर और जो आ जाता है उसे होने दे। यह पूर्ण स्वीकृति है। इस पूरी स्वीकृति में कुछ भी छोड़ना नहीं है। बड़ी कठिन है बात। क्योंकि पूर्ण स्वीकृति का मतलब है, न अब कुछ अशुभ है, न कुछ शुभ है। न अच्छा है, न बुरा है; न सुख है, न दुख है। पूर्ण स्वीकृति का मतलब है कि हमारी जो द्वंद्वात्मक सोचने की व्यवस्था है, वह जो हम दो में तोड़कर ही सोचते हैं, न कोई मरेगा। इसलिए तू बेफिक्री से खेल। कृष्ण यह कह रहे हैं कि वह जो तेरे द्वंद्व में सोचने की आदत है कि यह ठीक है, यह मैं करूं और यह ठीक नहीं है, यह मैं न करूं, यह तू छोड़; इस पृथ्वी पर जो भी है वह परमात्मा है, इसलिए ठीक और गैर-ठीक का फासला नहीं किया जा सकता।

बड़ी कठिन है यह बात।

नैतिक मन को बड़ी कठिन पड़ेगी। इसलिए कृष्ण नैतिक मन को जितने कठिन पड़े हैं, उतना अनैतिक आदमी कठिन नहीं पड़ता। अनैतिक आदमी को नैतिक आदमी निपट जाता है कहकर कि बुरा है। कृष्ण को क्या कहे? बुरा कहते भी नहीं बनता, क्योंकि आदमी बुरा दिखाई पड़ता नहीं। अच्छे कहने की हिम्मत जुटाने वाले बहुत कम लोग हैं, क्योंकि अच्छा कहो तो यह आदमी ऐसी बातों में अर्जुन को डाल रहा है कि जो बुरी हैं।

इसलिए गांधी जी ने जब कृष्ण पर बात शुरू की तो उनको बड़ी कठिनाई हो गई। क्योंकि सच तो यह था कि गांधी जी से मेल-जोल था अर्जुन का, कृष्ण का कोई भी मेल-जोल नहीं हो सकता। कृष्ण युद्ध में कुदा रहे हैं, गांधी क्या करें! कृष्ण इतने बुरे हों कि साफ-साफ तय हो जाए कि बुरे हैं, तो गांधी छुटकारा पा सकते हैं। लेकिन वह साफ-साफ तय हो नहीं सकता, क्योंकि कृष्ण को बुरा और भला दोनों स्वीकार हैं। वह भले भी हैं–चरम कोटि के भले हैं और चरम कोटि के बुरे हैं एक साथ। तो उनका भोलापन तो साफ है। उनका बुरापन भी है। उस बुरेपन को गांधी क्या करें। तो गांधी को सिवाय इसके कोई उपाय नहीं रह जाता कि वह कहें यह सारा युद्ध “पैरेबल’ है, कहानी है; “मिथ’ है, पुराण-कथा है, युद्ध कभी हुआ नहीं। क्योंकि कृष्ण असली युद्ध में कैसे अर्जुन को उतार सकते हैं, अगर युद्ध असली में हुआ हो तो फिर युद्ध हिंसा हो जाएगी। तो गांधी को एक ही उपाय है कि वह कहें कि यह सारी कथा है। और यह जो युद्ध हो रहा है, यह असली युद्ध नहीं है। और गांधी पुराने द्वंद्व पर वापस लौट जाते हैं जिसके खिलाफ कृष्ण हैं, वह कहते हैं, यह अच्छाई और बुराई का युद्ध है। ये पांडव अच्छे हैं, और ये कौरव बुरे हैं, और वह पुराना अच्छे और बुरे का द्वंद्व वापस खड़ा कर लेते हैं कि अच्छाई और बुराई का युद्ध हो रहा है, और कृष्ण कह रहे हैं कि अच्छे की तरफ से लड़। यह रास्ता उन्हें खोज लेना पड़ा। पूरी कथा को झूठ कहना पड़ा। पूरी कथा को काव्य कहना पड़ा। लेकिन गांधी को…बहुत वक्त हुआ, कृष्ण और गांधी के बीच पांच हजार साल का फासला पड़ता है, इसलिए किसी पांच हजार साल पुरानी कहानी को “मिथ’ कहना, कल्पना कहना कठिन नहीं है।

जैनों को इतना फासला नहीं था। इसलिए जैन कृष्ण की कथा को कहानी नहीं कह सके, वह घटना घटी है। जैन-चिंतन उतना ही पुराना है जितना वेद पुराने हैं। जैनों के पहले तीर्थंकर का नाम वेद में उपलब्ध है। हिंदू और जैनों की प्राचीनता बिलकुल बराबर है। जैन इनकार नहीं कर सकते थे कि युद्ध नहीं हुआ, और कृष्ण ने युद्ध नहीं करवाया। लेकिन जैन क्या करें, अगर उनको भी सुविधा होती तो जो गांधी ने किया, जो कि बहुत गहरे मन से जैन थे–शरीर से हिंदू थे, मन से जैन थे–गांधी तो पुराण कहकर टाल सके पर जैन नहीं टाल सकते थे, वह समसामयिक थे। उनको कृष्ण को नर्क में डालना पड़ा। उन्हें अपने शास्त्रों में लिखना पड़ा कि कृष्ण नर्क गए। इतनी बड़ी हिंसा करवा के आदमी नर्क न जाए, तो फिर चींटी न मारने वाले का क्या होगा? और इतनी बड़ी हिंसा करके भी कोई नर्क न जाए, तो मुंह पर पट्टी बांधने वाले को स्वर्ग कैसे मिलेगा? बहुत मुश्किल हो जाएगा। कृष्ण को नर्क में डालना ही पड़ेगा।

लेकिन यह समसामयिक लोगों का वक्तव्य है। अगर वक्त ज्यादा गुजर जाता तो कृष्ण की अच्छाई इतनी थी कि नर्क में डालना मुश्किल हो जाता। मुश्किल उनको भी पड़ा। इसलिए उनको दूसरी कहानी भी गढ़नी पड़ी। आदमी तो अदभुत था यह। युद्ध तो करवाया था, वह सच है। नाचा था स्त्रियों के साथ, वह सच है। स्त्रियों के कपड़े उघाड़कर झाड़ पर बैठ गया था, वह भी सच है। आदमी अच्छा था, काम बुरे किए थे, वह भी सच है। तो नर्क में डालकर भी तो चैन नहीं पड़ सकता न, इतने अच्छे को नर्क में डाल दें तो फिर अच्छे आदमी भी तो संदिग्ध हो जाएंगे कि इतना अच्छा आदमी नर्क में डाल दिया! अच्छे आदमियों को फिर पक्का नहीं हो सकता स्वर्ग जाने का। इसलिए जैनों को दूसरी बात भी तय करनी पड़ी कि कृष्ण आनेवाले कल्प में पहले जैनत्तीर्थंकर होंगे। नर्क में डालना पड़ा, आनेवाले कल्प में पहले तीर्थंकर की जगह भी देनी पड़ी। यह “बैलेंस’, संतुलन खोजना पड़ा, क्योंकि इस आदमी को नर्क में भेजने जैसा आदमी तो नहीं है। लेकिन भेजना ही पड़ेगा, क्योंकि वह नैतिकता कहती है कि यह आदमी ठीक तो नहीं है। और इस आदमी का व्यक्तित्व कहता है कि यह आदमी तो तीर्थंकर होने योग्य है। तो यही रास्ता बन सकता था कि इसे अभी फिलहाल नर्क में डालो, भविष्य में पहला तीर्थंकर बनाओ। आनेवाले–जब सारी सृष्टि नष्ट हो जाएगी और पहली फिर से सृष्टि शुरू होगी तो पहला तीर्थंकर। यह “कांपनसेशन’ है, यह सांत्वना है अपने मन को, कृष्ण को इससे कुछ लेना-देना नहीं है! अपने मन को कि इस आदमी को नर्क में डालते हैं, इसके लिए “कांपनसेशन’ भी करना पड़ेगा। गांधी के लिए सुविधा है कि वह एक साथ निपटा दें दोनों बात। न नर्क में डालें, न पहला तीर्थंकर बनाएं, पूरी कहानी को कह दें कहानी है। युद्ध कभी हुआ नहीं सिर्फ एक प्रबोधकथा है। अच्छाई और बुराई के बीच युद्ध हो रहा है। गांधी की भी तकलीफ वही है जो जैनों की है, वह अहिंसा की तकलीफ है। अहिंसा नहीं मान सकती कि हिंसा की कोई भी जगह हो सकती है। वह वही तकलीफ है जो शुभ की तकलीफ है। शुभ कैसे माने कि अशुभ की भी कोई सुविधा हो सकती है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, जगत द्वंद्व का मेल है; वहां दोनों एक-साथ हैं। न ऐसा कभी हुआ कि हिंसा न हो, न ऐसा कभी हुआ कि अहिंसा न हो। इसलिए जो भी एक को चुनते हैं वह अधूरे को चुनते हैं और कभी भी तृप्त नहीं हो सकते। ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि अंधेरा न हो, ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रकाश न हो। इसलिए जो एक को चुनते हैं वे अधूरे को चुनते हैं। और अधूरे को चुनने वाला तनाव में पड़ा ही रहेगा, क्योंकि वह आधा मिट सकता नहीं, वह सदा मौजूद है।

और मजा तो यह है कि जिस आधे को हम चुनते हैं वह उस बाकी आधे पर ही ठहरा होता है जिसको हम चुनते नहीं, यद्यपि इनकार करते हैं।

सारी अहिंसा हिंसा पर ही खड़ी होती है। और सारा प्रकाश अंधेरे के ही कारण होता है। सारी भलाई अशुभ की ही पृष्ठभूमि में जन्मती और जीती है। सब संत दूसरे छोर पर वे जो बुरे आदमी खड़े हैं, उनसे ही बंधे होते हैं। “पोलेरिटीज’ जो हैं वे सभी एक-दूसरे से बंधी होती हैं, ऊपर नीचे से बंधा है, बुरा भले से बंधा है, नर्क स्वर्ग से बंधा है। ये ध्रुव हैं एक ही सत्य के और कृष्ण कहते हैं, दोनों को स्वीकार करो, क्योंकि दोनों हैं। दोनों से राजी हो जाओ, क्योंकि दोनों हैं। चुनाव ही मत करो। अगर कहें तो कृष्ण पहले आदमी हैं, जो “च्वॉइसलेसनेस’, चुनावरहितता की बात करते हैं। वह कहते हैं, चुनो ही मत। चुना कि भूल में पड़े, चुना कि भटके, चुना कि आधे का क्या होगा? वह आधा अभी है। और हमारे हाथ में नहीं है कि वह नहीं हो जाए। हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है, वह है। हम नहीं थे तब भी था, हम नहीं होंगे तब भी होगा।

लेकिन नैतिक मन या जो अब तक धार्मिक समझा जाता रहा है, उसकी बड़ी कठिनाई है। वह द्वंद्व में जीता है, वह शुभ और अशुभ को बांटकर जीता है। उसका सारा मजा अशुभ की निंदा में है, तभी वह शुभ में मजा ले पाता है। संत का सारा मजा असंत के विरोध में है, अन्यथा वह मजा नहीं ले पाता। स्वर्ग जाने का सारा सुख नर्क में गए लोगों के दुख पर खड़ा है। अगर स्वर्ग में जो लोग हैं उनको एकदम पता चल जाए कि नर्क है ही नहीं तो स्वर्ग के लोग एकदम दुखी हो जाएंगे। अगर नर्क है ही नहीं तो बेकार सब मेहनत गई। और वे चोर और वे बदमाश, जिन्हें नर्क भेजना चाहा था वे सब स्वर्ग में ही आ गए हैं। क्योंकि वे जाएंगे कहां। स्वर्ग में जो रस है वह नर्क में दुख भोगने वाले लोगों पर खड़ा है; अमीर का जो सुख है वह गरीब की गरीबी में है, अमीर की अमीरी में नहीं है। अच्छे आदमी का जो सुख है वह बुरे आदमी के बुरे होने में है, अच्छे आदमी के अच्छे होने में नहीं। इसलिए जिस दिन सारे लोग अच्छे हो जाएंगे उस दिन साधु का मजा चला जाएगा। साधु बिलकुल अर्थहीन मालूम पड़ेगा। हो सकता है साधु कुछ लोगों को तैयार करे कि तुम असाधु हो जाओ क्योंकि मेरा क्या होगा। उसका कोई अर्थ नहीं है। इस जगत की सारी अर्थवत्ता विरोध में है, और इस जगत को जो पूरा देखेगा वह पाएगा कि जिसे हम बुरा कहते हैं वह अच्छे का ही छोर है। जिसे हम अच्छा कहते हैं, वह बुरे का छोर है।

कृष्ण चुनावरहित हैं, कृष्ण समग्र हैं, “इंटीग्रेटेड’ हैं और इसलिए पूर्ण हैं। इसलिए हमने किसी दूसरे व्यक्ति को पूर्ण होने की बात नहीं कही। क्योंकि वह अधूरा होगा ही। राम कैसे पूर्ण हो सकते हैं, वह अधूरे होंगे ही। आधे का उनका चुनाव है। जो नहीं चुनता वही पूरा हो सकता है। लेकिन जो नहीं चुनता उसे कठिनाइयों में पड़ना पड़ेगा, क्योंकि उसकी जिंदगी में वह भी कभी-कभी दिखाई पड़ेगा जो अंधेरा है और वह भी कभी-कभी दिखाई पड़ेगा जो उजेला है। उसकी जिंदगी धूप-छांवों का ताल-मेल होगी। उसकी जिंदगी सीधी और एकरस नहीं हो सकती। एकरस जिंदगी उनकी ही हो सकती है जिनका चुनाव है। एक जिंदगी के कोने को वे साफ-सुथरा कर सकते हैं, लेकिन जिस कचरे को उन्होंने हटाया है वह जिंदगी के किसी दूसरे कोने में इकट्ठा होता रहेगा। लेकिन जिसने पूरे ही मकान को स्वीकार कर लिया है और कचरे को भी स्वीकार कर लिया है और धूप को भी, और अंधेरे को भी, और…अब उसका क्या होगा। उस आदमी के बाबत हम अपनी दृष्टि से नजर बना सकते हैं। हमारा चुनाव ही हमारी नजर होगी। हम कह सकते हैं कि यह आदमी बुरा है, क्योंकि हम बुरा अगर देखना चाहें तो उसमें दिखाई पड़ जाएगा। हम कह सकते हैं यह आदमी भला है, क्योंकि हम भला देखना चाहें तो उसमें दिखाई पड़ जाएगा। और उसमें दोनों हैं। दोनों भी हमारी भाषा की वजह से कहना पड़ते हैं, उसमें तो एक ही है। लेकिन उस एक के ही दोनों पहलू हैं।

इसलिए, बुद्ध और महावीर को मैं मानता हूं कि उनका चुनाव है। वे शुभ हैं, पूर्ण शुभ हैं और इसलिए पूर्ण नहीं हो सकते। क्योंकि पूर्ण में वह अशुभ का क्या होगा? बुद्ध और महावीर और कृष्ण को एक साथ खड़ा करें तो हमें बुद्ध और महावीर ज्यादा जंचेंगे। ज्यादा आकर्षक मालूम होंगे, ज्यादा साफ-सुथरे और निखरे दिखाई पड़ेंगे। वहां धब्बा ही नहीं है उनकी चादर पर। चादर बिलकुल साथ-सुथरी है। एकदम शुभ्र है। उसमें काले की कोई गोट भी नहीं है। महावीर और कृष्ण अगर साथ-साथ खड़े हों तो हमें भी महावीर ही जंचेंगे। कृष्ण थोड़े-थोड़े संदेह में छोड़ जाएंगे। कृष्ण सदा ही संदेह में छोड़ गए हैं। इस आदमी में दोनों बातें एक साथ हैं। यह महावीर जैसा शुभ्र भी है, और अशुभ में किस को रखें महावीर के मुकाबले? यह चंगेज या हिटलर जैसा अशुभ भी होने की हिम्मत रखता है। अगर हम महावीर को युद्ध में तलवार लेकर खड़ा कर सकें–जो हम कर न सकेंगे–तो वैसा है यह आदमी। या अगर हम चंगेज को राजी कर लें कि वह महावीर जैसा हो जाए, सब छोड़कर नग्न खड़ा हो जाए, शांत और निर्मल हो जाए–जो हम न कर सकेंगे–तो वैसा है यह आदमी। लेकिन इस आदमी के साथ क्या करें, निर्णय क्या करें? कृष्ण के साथ सब निर्णय टूट जाते हैं जो निर्णय लेते ही नहीं। कृष्ण के साथ निर्णय लेने वाला चित्त बहुत जल्दी भाग जाएगा। क्योंकि जब उसे शुभ्र दिखाई पड़ेगा तब पैर पकड़ लेगा और जब अशुभ दिखाई पड़ेगा तब क्या करेगा?

इसलिए कृष्ण के भक्तों ने भी चुनाव किया है । अगर सूर कृष्ण की बहुत चर्चा करते हैं तो बालपन की बहुत चर्चा करते हैं। बाद का हिस्सा छोड़ देते हैं। सूर की हिम्मत के बाहर है। सूर तो बहुत कमजोर हिम्मत के आदमी हैं। आंखें फोड़ ली हैं एक स्त्री को देखने के डर से। अब जरा सोचने जैसा है कि सूरदास ने, कहीं ये आंखें किसी स्त्री के प्रेम में न डाल दें और कहीं ये आंखें किसी वासना में न ले जाएं, आंखें फोड़ ली हैं; यह आदमी, यह आदमी कृष्ण को पूरा स्वीकार कर सकेगा? बड़ा प्रेम है सूर का कृष्ण से, शायद कम ही लोगों का ऐसा प्रेम रहा है, तो फिर क्या करे यह? कृष्ण को इसे दो हिस्सों में बांटना पड़ेगा। बालपन के कृष्ण को यह पकड़ लेगा, युवा कृष्ण को यह छोड़ देगा। क्योंकि युवा कृष्ण समझ के बाहर है। क्योंकि युवा कृष्ण समझ में आ सकता था अगर आंखें फोड़ लेता। सूरदास से संगत बैठ जाती। लेकिन युवा कृष्ण की आंखें–ऐसी आंखें ही कम लोगों के पास रही होंगी। इतनी स्त्रियां आकर्षित हो जाएं ऐसी आंखें पाना बहुत मुश्किल है। बड़ा मुश्किल है। बड़ा सवाल यह नहीं है कि इतनी स्त्रियां आकर्षित हुईं, बड़ा सवाल यह है कि एक ही आदमी की आंखों पर। यह आकर्षण असाधारण रहा होगा। ये आंखें “मेग्नेटिक’ रही होंगी, ये आंखें बड़ा चुंबक रही होंगी। सूरदास के पास इतनी कीमती आंखें नहीं थीं। क्योंकि सूरदास ही उत्सुक थे, कोई स्त्री उत्सुक थी इसका मुझे पता नहीं है।

सूरदास कैसे चुनाव करेंगे, क्या करेंगे? तो बच्चे को पकड़ लेंगे, स्वीकार कर लेंगे कि बाल-कृष्ण। इसलिए कृष्णों पर रचे गए शास्त्र भी चुनाव के शास्त्र हैं। सूरदास किसी और कृष्ण को पकड़ते हैं, केशवदास किसी और कृष्ण को पकड़ते हैं। केशव बाल-कृष्ण में बिलकुल उत्सुक नहीं हैं। केशव का मन राग और रंग का मन है। केशव का मन युवा का मन है। वह आंख फोड़ने वाला मन नहीं है। रात भी आंख बंद करनी न पड़े ऐसा मन है। तो केशव क्या करेंगे? केशव बाल-कृष्ण की बात ही भूल जाएंगे, उससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह उस कृष्ण को चुन लेंगे जो नाच रहा है। इसलिए नहीं कि कृष्ण के नाच को समझ रहे हैं वह, बल्कि इसलिए कि नाचनेवाला उनका मन है। इसलिए कृष्ण पर नाचना थोप देंगे। उस कृष्ण को पकड़ लेंगे जो स्त्रियों के वस्त्र लेकर वृक्ष पर चढ़ गया है नग्न छोड़कर। इसलिए नहीं कि कृष्ण जिस तरह उन स्त्रियों को नग्न छोड़ गया था, उसे केशव समझ सकते हैं, बल्कि इसलिए कि स्त्रियों को नग्न करना चाहते हैं। तो केशव का अपना चुनाव है, सूर का अपना चुनाव है। भागवत अलग कृष्ण की बात करती है, गीता अलग कृष्ण की बात करती है। ये सब चुनाव बंट गए हैं। क्योंकि यह आदमी पूरा है और इसे पूरा पचा लेने का साहस पूरे आदमी में ही हो सकता है। अधूरा आदमी इसमें से बांट लेगा, छांट लेगा, कहेगा इतने तक ठीक, इसके आगे आंख बंद कर लेते हैं, इसके आगे तुम नहीं हो। या इसके आगे होओगे भी तो वह कहानी है। या इसके आगे होओगे भी तो नर्क में फल पाओगे। और इसके आगे भी तुम थे तो हमारे काम के नहीं हो। हमारे काम के यहां तक। इसलिए कृष्ण के व्यक्तित्व पर मील के पत्थर लगा दिए गए हैं। सबने अपना-अपना हिस्सा बांट लिया है। जिसको जो प्रीतिकर लगता है वह चुन लेता है। लेकिन कृष्ण एक सागर की तरह हैं, जिसमें हम अपने घाट भला बना लें, वह घाट पूरे सागर पर नहीं बनता, वह हमारे घाट की ही जमीन पर बनता है, हम पर ही बनता है। वह सागर का बंधन नहीं है। वह हमारी समझ की सूचना है।

इसलिए मैं तो पूरे कृष्ण की बात करूंगा। इसलिए बात बहुत जगह अबूझ हो जाएगी। और बात बहुत मुश्किल में डाल देगी। और बात बहुत जगह आपकी समझ के बाहर जाने लगेगी। वहां आप समझ के बाहर चलने की भी हिम्मत करना। नहीं तो आप अपनी समझ की जगह रह जाएंगे और मील का पत्थर आ जाएगा और उसके आगे का कृष्ण आपके काम का न रह गया। और कृष्ण अगर हैं काम के तो पूरे-के-पूरे हैं। कोई भी व्यक्ति पूरा ही काम का होता है। काट-काटकर मुर्दा अंग हाथ में आते हैं, जिंदा आदमी समाप्त हो जाता है। इसलिए जिन्होंने भी कृष्ण को काटा है, किसी के हाथ में हाथ कृष्ण का, किसी का पैर है, किसी की आंख है, किसी का गला है। लेकिन पूरे कृष्ण हाथ में नहीं हो सकते। पूरे कृष्ण को हाथ में होने की तो एक ही संभावना है कि आप पूरे को बिना चुने समझने को राजी हो जाएं, और यह समझना बड़े आनंद की यात्रा होगी, क्योंकि इस समझने में आप भी पूरे हो सकते हैं। इस समझने में आप का भी पूरा होना यह शुरू हो जाएगा। अगर इस समझने के लिए आप राजी हुए और चुनाव न किया, तो आप अचानक भीतर पाएंगे कि आप के भी विरोधी छोर घुलने-मिलने लगे, आप में भी धूप-छांव एक होने लगी। आपके भीतर भी वह जो कटा-कटा व्यक्तित्व है, वह अखंड होने लगा। आप भी योग को उपलब्ध होने लगे। कृष्ण के योग का एक ही अर्थ है, अखंड, एक हो जाना।

योग की दृष्टि अखंड ही हो सकती है। योग का मतलब है, “दि टोटल’, जोड़। इसलिए कृष्ण को महायोगी कहा जा सकता। योगी तो बहुत हैं, लेकिन वे भी योगी नहीं हैं, क्योंकि जोड़ वहां नहीं है, सब चुनाव है। “च्वाइसलेसनेस’ वहां नहीं है।

इस अखंड कृष्ण की चर्चा कठिन तो पड़ेगी, बहुत कठिन पड़ेगी, क्योंकि बुद्धि की जो “कटेग्रीज़’ हैं, बुद्धि के सोचने के जो मापदंड हैं, वे बंटे हुए हैं। बटखरे हैं बुद्धि के, बांट हैं। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है कि किसी के पास पुराने बांट हैं और किसी के पास नए बांट हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि मीट्रिक प्रणाली के बांट हैं कि पुराना सेर और पुराना पाव और छटांक है, इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि चाहे पुरानी हो, चाहे नई; बुद्धि चाहे अतीत की हो, चाहे आज की; चाहे “अल्ट्रा माडर्न’ हो, चाहे “अल्ट्रा एनशिएंट’ हो; चाहे कितनी ही प्राचीन बुद्धि हो–शास्त्रों की हो–और चाहे कितनी ही नई हो–विज्ञान की हो–इससे फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि का एक धर्म है। वह बांटकर चलती है, तोड़कर चलती है। निर्णय करती है, यह ठीक और यह गलत।

अगर आपको कृष्ण को समझना हो, तो इन दस दिनों में निर्णय ही मत करना। इन दस दिनों में सुनना, समझना, निर्णय मत करना। और जहां-जहां नासमझी की जगह आ जाए कि अब समझ में नहीं आता, वहां-वहां फिकिर मत करना और नासमझी में भी जाने की हिम्मत करना। “इर्रेशनल’ बहुत जगह आ जाएगा, क्योंकि कृष्ण को “रेशनल’ नहीं बनाया जा सकता। कृष्ण को बुद्धिगत नहीं बनाया जा सकता। और वह जो अबुद्धि है, या बुद्धि-अतीत जो है, वह भी वहां है। वह जो बुद्धि-अतीत है, वह जो “ट्रांसेंड’ करता है, बुद्धि के पार चला जाता है, वह भी वहां है।

इसलिए कृष्ण को तर्कयुक्त ढांचों में बिठाना असंभव है। वह तर्क मानते नहीं, वह खंड मानते नहीं। वह सब खंडों में बहते चले जाते हैं। वह हमारे घाट मानते नहीं, सब घाटों को छूते हैं। इसलिए कठिनाई तो पड़ेगी। बड़ी कठिनाई यही पड़ेगी कि आपका घाट चुकने लगेगा और कृष्ण न चुकेंगे। वह कहेंगे, मैं आगे भी हूं। तुम्हारा घाट भी मैं छूता हूं, लेकिन और घाट भी मैं छूता हूं। मैं बुरे के घाट पर भी लहरें पहुंचाता हूं, भले के घाट पर भी लहरें पहुंचाता हूं। शांति का मेरा छोर नहीं, और युद्ध में मैं चक्र लेकर भी खड़ा हो जाता हूं। प्रेम का मेरा अंत नहीं, लेकिन तलवार से गर्दन भी काट सकता हूं। संन्यासी मैं पूरा हूं, लेकिन गृहस्थी होने में मुझे कोई पीड़ा नहीं है। परमात्मा से मेरा बड़ा लगाव है, लेकिन संसार से रत्ती भर कम नहीं है, संसार से भी उतना ही है। न मैं संसार के लिए परमात्मा को छोड़ सकता, न मैं परमात्मा के लिए संसार को छोड़ सकता हूं। मैंने तो पूरे के लिए राजी होने की कसम ले ली है। मैं हर रंग में रहूंगा।

इसलिए कृष्ण को अभी तक पूरा भक्त नहीं मिला। अर्जुन भी नहीं था। नहीं तो इतनी मेहनत न करनी पड़ती। युद्ध के मैदान पर गीता जैसा लंबा वक्तव्य देना पड़ा हो, तो हम सोच सकते हैं अर्जुन कैसा शंकाशील, कैसा संदेही, कैसा तर्क उठाने वाला–सब तरह की कोशिश की होगी; युद्ध के क्षण में, रणभेरी बज चुकी हो, सेनाएं आमने-सामने खड़ी हो गई हों, युद्ध का घंटानाद शुरू हो गया हो और वहां इतनी लंबी गीता समझानी पड़े। तो अर्जुन राजी नहीं हो गया होगा। उसकी बुद्धि बार-बार जोर मारती रही है कि आप ऐसा भी कहते हो और आप ऐसा भी कहते हो। वह बार-बार सवाल जो उठाता है, वह “कंट्राडिक्शन’ के हैं। वह कृष्ण से कहता है कि आपमें विरोधाभास है। आप एक तरफ ऐसा भी कहते हो और दूसरी तरफ ऐसा भी कहते हो! यह आप दोनों बातें कहते हो! उसके सारे सवाल गीता में बड़े तर्कसंगत हैं। वह यही कह रहा है कि तुम यह भी कहते हो और यह भी कहते हो? दोनों बातें एक साथ! तो फिर मेरी समझ में नहीं आता। अब तुम मुझे फिर से समझाओ। समझा नहीं पाते। समझा नहीं पाएंगे–कृष्ण जैसा पूरा व्यक्ति भी समझा नहीं पाता। समझाने से थक जाते हैं तो फिर दूसरा उपाय करना पड़ता है। अपने को पूरा दिखा देते हैं। यह समझाने का कोई उपाय नहीं। यह आदमी मानता ही नहीं, और यह तर्क जो उठाता है ठीक ही उठाता है। कृष्ण भी समझते हैं कि यह तर्क ठीक ही है, क्योंकि एक बात इससे उलटी पड़ती है, एक बात इससे उलटी पड़ती है–दोनों “इनकंसिस्टेंट’ हैं। तो इसको समझाओ कैसे! अर्जुन यही कहता है कि “कंसिस्टेंसी’ चाहता हूं, संगति चाहता हूं; हे कृष्ण! संगति बताओ! तुम जो कहते हो उससे मुझे भ्रमजाल में मत डालो, उससे तुम मुझे “कन्फ्यूज्ड’ मत करो। लेकिन कृष्ण उसका “कन्फ्यूज’ किए चले जाते हैं। वह दोनों बातें, एक वक्तव्य देते नहीं कि तत्काल दूसरा देते हैं जो इसका खंडन कर जाता है। करुणा, ममता भी समझाए चले जाते हैं, हिंसा भी करवाने की बात कहे चले जाते हैं।

ऐसा जो आदमी है, उसके पास फिर एक उपाय ही रह गया। थक गया सब। थक गए बुरी तरह। वह अर्जुन मानता नहीं, और युद्ध की घड़ी बढ़ी जाती है, और युद्ध पर सब सारथी और सब योद्धा, सब तैयार हैं, लगामें खिंच गई हैं और यह आदमी मानता नहीं। और इसी आदमी पर सब निर्भर है। यह भाग जाए तो सब गड़बड़ हो जाए। यह सारा खेल, यह सारा नाटक, यह बड़ा इतना इंतजाम, यह सब व्यर्थ हो जाए। वह उसको समझाए जाते हैं, आखिर थक जाते हैं, फिर वह उसको अपना पूरा रूप ही दिखा देते हैं। पूरे रूप को देखकर वह घबड़ा जाता है। कोई भी घबड़ा जाएगा। पूरे रूप का मतलब ही यह है, पूरे रूप का मतलब ही यह है कि वह सारे विरोधाभासों के साथ इकट्ठे मौजूद हो जाते हैं। उनके भीतर सब दिखाई देने लगता है–जन्म भी और मरण भी, एक साथ। हमें सुविधा पड़ती है, सत्तर साल पहले जन्म होता है, सत्तर साल बाद मरना होता है। दोनों में इतना फासला होता है, कि हम व्यवस्था बिठा लेते हैं कि जन्म अलग चीज, मृत्यु अलग चीज। एक साथ जन्म और मृत्यु दिखने लगते हैं उनके भीतर। एक साथ जगत बनता है और विसर्जित होता दिखाई पड़ने लगता है। एक साथ बीज और वृक्ष दिखाई पड़ने लगते हैं। एक साथ प्रलय आती है और सृजन होने लगता है। तो वह घबड़ा जाता है। वह कहता है कि अब बंद करो अपना यह रूप। मैं मर जाऊंगा! मैं इसे और नहीं देख सकता, इसे बंद करो! लेकिन इसके बाद वह सवाल नहीं उठाता। इसके बाद एक बार उसे दिखाई पड़ जाता है कि जिन्हें हम असंगतियां कहते हैं, विरोध कहते हैं, वे एक ही सत्य के हिस्से हैं, तो अब वह सवाल नहीं उठाता है, वह युद्ध में चला जाता है। इसका यह मतलब मत समझ लेना कि वह राजी होकर गया है। राजी होकर नहीं जा पाता है। दिखाई पड़ गया उसे, लेकिन उसकी बुद्धि सवाल उठाती है। बुद्धि का काम ही सवाल उठाना है।

तो जितने सवाल आपको मुझसे उठाने हों, उठाना, लेकिन कृष्ण को समझने में सवाल मत उठाना। सवाल आप उठाना, आपकी सारी बुद्धि मुझ पर लगाना, लेकिन कृष्ण बहुत जगह बुद्धि को छोड़कर निर्बुद्धि में प्रवेश करने लगेंगे, वहां बहुत धैर्य की, बहुत साहस की–उससे बड़ा कोई साहस नहीं–वहां जरूरत पड़ेगी, वहां चलने को राजी होना। आपका प्रकाशित क्षेत्र खो जाएगा। अंधेरा शुरू होगा। आपके द्वार-दरवाजे वहां दिखाई नहीं पड़ेंगे, वहां साफ-सुथरे रास्ते नहीं होंगे, वहां सब “मिस्टीरियस’ और रहस्यपूर्ण हो जाएगा। वहां चीजें पुरानी शक्ल और पुरानी रूपरेखा और पुराने आकार में नहीं होंगी। वहां सब आकार डांवाडोल हो जाएंगे। वहां सब संगतियां गिर जाएंगी, सब विरोध गिर जाएंगे और तभी आपको उस विराट के निकट पहुंचने का मौका मिल सकेगा। और अगर आप राजी हुए तो कुछ ऐसा नहीं है कि अर्जुन की कोई विशेष योग्यता थी कि उसको विराट दिखाई पड़े। ऐसी कोई विशेष योग्यता का पात्र न था, सभी उतनी योग्यता के पात्र हैं, और जो सवाल अर्जुन ने उठाए थे वह कोई भी उठा सकता है। लेकिन अगर आप भी उस रहस्यपूर्ण में, उस “मिस्टीरियस’ में, वह जो बुद्धि के पार चला जाता है, चलने को राजी हुए, तो विराट की प्रतीति आपको भी हो सकती है। वह विराट आपके सामने भी आ सकता है। उस विराट को ही लाने की मैं कोशिश करूंगा, उस विराट का व्यक्तिवाची नाम कृष्ण है, कृष्ण से कुछ बहुत लेना-देना नहीं है। वह जो विराट है, समस्त का जोड़ है, उसका ही प्रतीकवाची नाम कृष्ण है।

इसलिए बहुत बार कृष्ण से चर्चा इधर-उधर छूट जाएगी तो उससे घबड़ा मत जाना। मैं तो उस विराट की तरफ ही पूरे समय कोशिश करूंगा। और अगर आप राजी हुए तो वह घटना घट सकती है। और कुरुक्षेत्र में ही घटे, ऐसा कुछ नहीं है, मनाली में भी घट सकती है।

“भगवान श्री, चर्चा को आगे बढ़ाने के पहले पीछे का एक “प्वाइंट’ छूट गया था जो स्पष्ट कर लूं। बुद्ध की दुख की धारणा जीवन का तथ्य है और तथ्य को सामने रखने में क्या गलती है? जैसा सामान्य जीवन अभी है, क्या उसमें दुख नहीं है?’

दुख जीवन का तथ्य है; लेकिन दुख ही जीवन का तथ्य नहीं है, सुख भी जीवन का तथ्य है। और जितना बड़ा तथ्य दुख है, उससे छोटा तथ्य सुख नहीं है और जब हम दुख को ही तथ्य मानकर बैठ जाते हैं तो अतथ्य हो जाता है। “फिक्शन’ हो जाता है, क्योंकि सुख कहां छोड़ दिया। अगर जीवन में दुख ही होता तो बुद्ध को किसी को समझाने की जरूरत न पड़ती। और बुद्ध इतना समझाते हैं लोगों को, फिर भी कोई भाग तो जाता नहीं। हम भी दुख में रहते हैं, लेकिन फिर भी भाग नहीं जाते। दुख से भिन्न भी कुछ होना चाहिए जो अटका लेता है, जो रोक लेता है। किसी को प्रेम करने में अगर सुख न हो, तो इतने दुख को झेलने को कौन राजी होगा। और कण भर सुख के लिए पहाड़ भर अगर आदमी दुख झेल लेता है, तो मानना होगा कि कण भर सुख की तीव्रता पहाड़ भर दुख से ज्यादा होगी। सुख भी सत्य है।

समस्त त्यागवादी सिर्फ दुख पर जोर देते हैं, इसलिए वह असत्य हो जाता है। समस्त भोगवादी सुख पर जोर देते हैं, इसलिए वह असत्य हो जाता है। भौतिकवादी सुख पर जोर देते हैं इसलिए वह असत्य हो जाता है, क्योंकि वे कहते हैं, दुख है ही नहीं। वे कहते हैं, दुख है ही नहीं, सुख ही सत्य है। तब ध्यान रहे, आधे सत्य असत्य हो जाते हैं। सत्य होगा तो पूरा ही होगा, आधा नहीं हो सकता। कोई कहे जन्म ही है, तो असत्य हो जाता है। क्योंकि जन्म के साथ मृत्यु है। कोई कहे, मृत्यु ही है, तो असत्य हो जाता है, क्योंकि मृत्यु के साथ जन्म है।

जीवन दुख है, ऐसा अगर अकेला ही प्रचारित हो, तो यह अतथ्य हो जाता है। हां लेकिन, जीवन सुख-दुख है, ऐसा तथ्य है। और अगर इसे और गौर से देखें, तो हर सुख के साथ दुख जुड़ा है, हर दुख के साथ सुख जुड़ा है। अगर इसे और गहरे देखें तो पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि दुख कब सुख हो जाता है, सुख कब दुख हो जाता है। “ट्रांसफरेबल’ है, “कन्वर्टिबल’ भी है। एक दूसरे में बदलते भी चले जाते हैं। रोज यह होता है। असल में “एम्फेसिस’ का ही शायद फर्क है। जो चीज आज मुझे सुख मालूम पड़ती है, कल दुख मालूम पड़ने लगती है। जो कल मुझे सुख मालूम पड़ती थी, आज दुख मालूम पड़ने लगती है। अभी मैं आपको गले लगा लूं, सुख मालूम पड़ता है। फिर मिनट-दो मिनट न छोडूं, दुख शुरू हो जाता है। आधा घड़ी न छोडूं तो आसपास देखते हैं कि कोई पुलिसवाला उपलब्ध होगा कि नहीं होगा। अब यह कैसे होगा छूटना? इसलिए जो जानते हैं, वे आपके छूटने के पहले छोड़ देते हैं। जो नहीं जानते, वे अपने सुख को दुख बना लेते हैं और कोई कठिनाई नहीं है। हाथ लिया हाथ में नहीं कि छोड़ना शुरू कर देना, अन्यथा बहुत जल्दी दुख शुरू हो जाएगा। हम सभी अपने सुख को दुख बना लेते हैं। सुख को हम छोड़ना नहीं चाहते, तो जोर से पकड़ते हैं, जोर से पकड़ते हैं तो दुख हो जाता है। फिर जिसको इतने जोर से पकड़ा फिर उसको छोड़ने में भी मुश्किल हो जाती है।

दुख को हम एकदम छोड़ना चाहते हैं। छोड़ना चाहते हैं, इसलिए दुख गहरा हो जाता है। पकड़े रहें, दुख को भी तो थोड़ी देर में पाएंगे सुख हो गया। दुख का मतलब है कि शायद हम अपरिचित हैं, थोड़ी देर में परिचित हो जाएंगे। सुख का भी मतलब है, शायद हम अपरिचित हैं, और थोड़ी देर में परिचित हो जाएंगे। और परिचय सब बदल देगा।

मैंने सुना है एक आदमी के बाबत, वह एक नए गांव में गया। किसी आदमी से उसने रुपये उधार मांगे। उस आदमी ने कहा, अजीब हैं आप भी! मैं आपको बिलकुल नहीं जानता और आप रुपये मांगते हैं। उस आदमी ने कहा, मैं अजीब हूं कि तुम! मैं अपना गांव इसलिए छोड़कर आया, क्योंकि वहां लोग कहते हैं, हम तुम्हें भली भांति जानते हैं, कैसे उधार दें? और तुम इस गांव में कहते हो कि जानते नहीं हैं, इसलिए न देंगे। तो जब भलीभांति जान लोगे तब दोगे? लेकिन पुराने गांव में सब लोग भलीभांति जानते थे। और वहां इसलिए नहीं देते थे। अब मैं कहां जाऊं? ऐसा भी कोई गांव है, जहां मुझे भी रुपये उधार मिल सकें?

हम सब भी, हम जो तोड़कर देखते हैं उससे कठिनाई शुरू होती है। नहीं, ऐसा कोई गांव नहीं है। सब गांव एक जैसे हैं।

ऐसी कोई जगह नहीं है जहां सुख-ही-सुख है। ऐसी कोई जगह नहीं है जहां दुख-ही-दुख है। इसलिए स्वर्ग और नर्क सिर्फ कल्पनाएं हैं। वह हमारी इसी कल्पना की दौड़ है। एक जगह हमने दुख-ही-दुख इकट्ठा कर दिया है, एक जगह हमने सुख-ही-सुख इकट्ठा कर दिया है। नहीं, जिंदगी जहां भी है वहां सुख भी है, दुख भी है। नर्क में भी विश्राम के सुख होंगे और स्वर्ग में भी थक जाने से दुख होंगे।

बर्ट्रंड रसल ने कहीं एक बात कही है कि मैं स्वर्ग न जाना चाहूंगा, क्योंकि जहां सुख-ही-सुख होगा, वहां सुख कैसे मालूम पड़ेगा? जहां कोई बीमार ही न पड़ता होगा, वहां स्वास्थ्य का पता चलेगा? नहीं पता चलेगा। और जहां भी चाहिए वह मिल जाता होगा, वहां मिलने का सुख होगा? मिलने का सुख न मिलने की लंबाई से आता है। इसलिए तो जो चीज मिल जाती है, समाप्त हो जाती है। प्रतीक्षा में ही सब सुख होता है। जब तक नहीं मिलता, नहीं मिलता, सुख-ही-सुख होता है। मिला कि हाथ एकदम खाली हो जाते हैं। हम फिर पूछने लगते हैं, अब किस के लिए दुखी हों? अर्थात अब हम किसके लिए सुख मानें प्रतीक्षा में? अब हम किसकी प्रतीक्षा करें? अब हम क्या पाने की राह देखें, जिसमें सुख मिले?

रथ चाइल्ड नाम का एक बहुत बड़ा अरबपति मर रहा था। एक कहानी उसके बाबत प्रचलित है, पता नहीं सच है या झूठ। उसने अपने बेटे से कहा कि तूने देख ही लिया होगा मेरी जिंदगी से कि अरबों रुपये हों, तब भी सुख नहीं मिलता। धन सुख नहीं है, संपत्ति सुख नहीं है। उसके बेटे ने कहा, देख लिया आपकी जिंदगी से, लेकिन एक बात भी देखी कि धन पास में हो तो अपने मन का दुख चुना जा सकता है। उस बेटे ने कहा, धन पास हो, तो “यू कैन हैव योर ओन च्वाइस आफ सफरिंग। एण्ड दि च्वाइस इज ब्लिसफुल’। उसने कहा कि वह जो चुनाव है, वह बड़ा सुख का है। इतना मैं जानता हूं कि सुखी तो आप न थे, लेकिन जो भी दुख चाहते थे, चुन लेते थे। एक गरीब आदमी जो भी दुख चाहे, नहीं चुन सकता। गरीब और अमीर के दुख में बहुत फर्क नहीं होता, चुनाव में फर्क होता है। गरीब को उसी स्त्री के साथ दुख भोगना पड़ता है जो मिल गई। अमीर वे स्त्रियां चुन लेता है जिनके साथ दुख भोगना हो। लेकिन यह भी कोई कम सुख है।

जिनको हम सुख-दुख कहते हैं, बहुत गहरे में जाएंगे तो वे एक ही चीज के दो रूप हैं, एक ही चीज के दो हिस्से हैं, शायद एक ही चीज की घनताएं, “डेंसिटीज’ हैं। फिर जो दुख मेरे लिए दुख है, वह आपके लिए सुख हो सकता है। मेरे पास अगर करोड़ रुपये हैं और अगर पचास लाख रुपये मैं खो दूं, तो मेरे पास पचास लाख रुपये बचेंगे लेकिन मैं दुखी हो जाऊंगा। और आपके पास अगर पचास लाख रुपये नहीं हैं और आपको पचास लाख मिल जाएं, तो हम दोनों की स्थिति एक होगी–मेरे पास भी पचास होंगे और मैं रोऊंगा छाती पीटकर, आपके पास भी पचास होंगे और आप नाचेंगे छाती पीटकर। हम दोनों की स्थिति एक होगी। पचास मेरे पास भी होंगे, लेकिन मैंने पचास खोए हैं। और पचास आपके पास भी होंगे, लेकिन आपने पचास पाए हैं। लेकिन ध्यान रहे, आप कितनी देर तक छाती पीटकर नाचेंगे, क्योंकि जिसके पचास लाख हो जाते हैं उसके पास पचास लाख खोने की संभावना हो जाती है। और मैं कितनी देर रोऊंगा पचास लाख खो गए उनके लिए? क्योंकि जो पचास लाख खोता है वह फिर पचास लाख पैदा करने में लग जाता है, खोजने में लग जाता है।

नहीं, न तो मेरा सुख आपका सुख बन सकता, न मेरा दुख आपका दुख बन सकता और न ही मेरा आज का दुख मेरा कल का सुख बन सकता। न ही मेरा अभी जो सुख है वह क्षण भर बाद भी सुख होगा यह मैं कह सकता। सुख और दुख आकाश में आ गई बदलियों जैसे हैं–आते हैं, जाते हैं–लेकिन दोनों ही सत्य हैं। दोनों ही सत्य हैं, यह भी कहना पड़ता है क्योंकि हमारी सारी भाषा दो को मानकर चलती है। एक ही सत्य है, जो कभी सुख जैसा दिखाई पड़ता है, कभी दुख जैसा दिखाई पड़ता है। सुख और दुख हमारे “इंटरप्रेटेशंस’ हैं। सुख और दुख हमारी व्याख्याएं हैं। हम किस चीज की व्याख्या करते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है। हम क्या व्याख्या करते हैं? सुख और दुख स्थितियां कम, व्याख्याएं ज्यादा हैं और व्याख्याएं हजारों चीजों पर निर्भर होती हैं, वह हम पर निर्भर होती हैं हजार चीजें।

लेकिन दोनों ही एक साथ सत्य हैं अगर यह स्मरण में आ जाए, तो फिर बुद्ध का सत्य अधूरा मालूम पड़ेगा, “एम्फेटिक’ मालूम पड़ेगा। हालांकि कारगर होगा। बुद्ध को शिष्य मिल जाएंगे, करोड़ों, कृष्ण को नहीं मिल सकेंगे। चार्वाक को अनुयायी मिल जाएंगे, अरबों, कृष्ण को नहीं मिल सकेंगे। दोनों चुनाव करते हैं, और एक अति का चुनाव करते हैं, और साफ कह देते हैं कि चीजें ऐसी हैं। और जब हमें चीजें वैसी दिखाई पड़ती हैं तो हम कहते हैं कि बिलकुल ठीक कहते हैं। तुम्हें भी बुद्ध हर हालत में ठीक दिखाई न पड़ेंगे। तुम्हें भी उस हालत में दिखाई पड़ेंगे जब तुम दुख में हो। अगर तुम दुख में नहीं हो तो बुद्ध ठीक दिखाई मालूम नहीं पड़ेंगे। सुखी आदमी बुद्ध की उपेक्षा कर जाएगा; जो अभी सुखी अपने को समझ रहा है। दुखी होते ही से बुद्ध के वचन सार्थक होने शुरू हो जाएंगे। इसमें बुद्ध सार्थक हो रहे हैं कि आप बुद्ध के वचन के निकट आ रहे हैं।

लेकिन कृष्ण हमेशा बेबूझ रहेंगे, आप चाहे दुख में हों तो बेबूझ रहेंगे, आप चाहे सुख में हों तो भी बेबूझ रहेंगे। कृष्ण तो आप दोनों में एक साथ, एक जैसे राजी हो जाएं, तब आपकी सूझ-बूझ में आना शुरू होंगे। जिस दिन आप कह सकें कि दुख है तो भी राजी, सुख है तो भी राजी; और जिस दिन आप कह सकें कि दुख है, यह भी आने वाला सुख है, सुख है और यह भी आने वाला दुख है; और जिस दिन आप कह सकें कि हम इन दोनों को अलग नाम ही नहीं देते, अब हमने नाम देना ही बंद कर दिया है, अब जो आ जाता है, आ जाता है, अब हम व्याख्या ही नहीं करते, उस दिन आप कहां होंगे? उस दिन आप आनंद में होंगे। उस दिन आप सुख में भी नहीं होंगे, दुख में भी नहीं होंगे–आपने व्याख्याएं बंद कर दी हैं। जिस आदमी ने व्याख्याएं बंद कर दी हैं घटनाओं की, वह आदमी आनंद में प्रविष्ट हो जाता है। और जो आनंद में है वह कृष्ण को समझ सकेगा। वही समझ सकेगा।

आनंद का मतलब यह नहीं है कि अब दुख नहीं आएंगे। आनंद का मतलब यह है कि अब आप ऐसी व्याख्या नहीं करेंगे जो उन्हें दुख बना दे। आनंद का यह मतलब नहीं है कि अब सुख-ही-सुख आए चले जाएंगे, नहीं, आनंद का इतना ही मतलब है कि अब आप वे व्याख्याएं छोड़ देंगे जो उन्हें सुख बनाती थीं, या, सुख की सतत मांग करवाती थीं। अब चीजें जैसी होंगी होंगी–धूप धूप होगी, छाया छाया होगी। कभी धूप होगी, कभी छाया होगी। और अब आप उनसे प्रभावित होना बंद हो जाएंगे, क्योंकि अब आप जानते हैं चीजें आती हैं, चीजें चली जाती हैं। और आप पर सब आता है और सब चला जाता है, फिर भी आप आप ही रह जाते हैं। और यह जो रह जाना है, यह जो “रिमेनिंग’, यह जो पीछे आपकी चेतना है, यही कृष्ण-चेतना है। जो “कृष्ण-कांशसनेस’ कहें, वह यह घड़ी है जब सुख और दुख आते हैं और जाते हैं और आप देखते रहते हैं; आप कहते हैं, सुख आया, सुख गया, और यह भी दूसरों की व्याख्या है, मेरी नहीं। यह भी दूसरे इसको सुख कहते हैं, जो आया; और दूसरे इसको दुख कहते हैं, जो आया; यह भी मेरी व्याख्या नहीं है। ऐसा हो रहा है, मुझसे गुजर रहा है। तब आप आनंदित होंगे।

कृष्ण के लिए जो सार्थक है जीवन का शब्द, वह आनंद है। दुख और सुख दोनों सार्थक नहीं हैं। वह आनंद को ही बांटकर पैदा किए गए हैं। जिस आनंद को आप स्वीकार करते हैं उसे सुख कहते हैं और जिस आनंद को स्वीकार नहीं करते उसको दुख कहते हैं। वह आनंद को दो हिस्सों में बांटकर पैदा की गई व्याख्या है। इसलिए जब तक आप उस आनंद को स्वीकार करते हैं, वह सुख है; और जब स्वीकार नहीं करते हैं, वह दुख हो जाता है। आनंद सत्य है, पूर्ण सत्य है। इसलिए आनंद से उलटा कोई शब्द नहीं है। सुख का उलटा दुख है। प्रेम का उलटा घृणा है। बंधन का उलटा मुक्ति है। आनंद का कोई उलटा शब्द नहीं है। आनंद से उलटी कोई अवस्था ही नहीं है। आनंद से उलटी भी अगर कोई अवस्था है तो यह सुख-दुख की ही कह सकते हैं, और कोई उलटी अवस्था नहीं है। इसलिए स्वर्ग के खिलाफ नर्क है, लेकिन मोक्ष के खिलाफ कुछ भी नहीं है। क्योंकि मोक्ष आनंद की अवस्था है। उसके खिलाफ कोई जगह बनाने का उपाय नहीं है। मोक्ष का मतलब ही यही है कि अब सुख-दुख दोनों के लिए एक-सा राजीपन आ गया, एक-सी स्वीकृति का भाव आ गया।

अब तुम आगे बढ़ो नहीं तो मुश्किल में पड़ेंगे।

 

“कृष्ण को पूर्णावतार कहने के क्या-क्या कारण हैं? कुछ और नए कारण बताएं। और चौंसठ कलाओं के संदर्भ में सविस्तार प्रकाश डालें।’

 

हीं, पूर्ण को कहने का और कोई कारण नहीं है। जो व्यक्ति भी शून्य हो जाता है, वह पूर्ण हो जाता है। शून्यता पूर्ण की भूमिका है। अगर ठीक से कहें तो शून्य ही एकमात्र पूर्ण है। इसलिए आप आधा शून्य नहीं खींच सकते। ज्यामेट्री में भी नहीं खींच सकते। आप अगर कहें कि मैंने आधा शून्य खींचा, तो वह शून्य नहीं रह जाएगा, आधा शून्य होता ही नहीं। शून्य सदा पूर्ण ही होता है। पूरा ही होता है। अधूरे का कोई मतलब ही नहीं होता। शून्य के दो हिस्से कैसे करियेगा? और जिसके दो हिस्से हो जाएं उसको शून्य कैसे कहियेगा? शून्य कटता नहीं, बंटता नहीं, “इंडिविजिबल’ है। विभाजन नहीं होता। जहां से विभाजन शुरू होता है, वहां से संख्या शुरू हो जाती है। इसलिए शून्य के बाद हमें एक से शुरू करना पड़ता है। एक, दो, तीन, यह फिर संख्या की दुनिया है। सब संख्याएं शून्य से निकलती और शून्य में खो जाती हैं। शून्य एक मात्र पूर्ण है।

शून्य कौन हो सकता है? वही पूर्ण हो सकता है। कृष्ण को पूर्ण कहने का अर्थ है। क्योंकि यह आदमी बिलकुल शून्य है। शून्य वह हो सकता है जिसका कोई चुनाव नहीं। जिसका चुनाव है, वह तो कुछ हो गया। उसने “समबडीनेस’ स्वीकार कर ली। उसने कहा कि मैं चोर हूं, यह कुछ हो गया। शून्य कट गया। उसने कहा मैं साधु हूं, यह कट गया, शून्य कट गया। यह आदमी कुछ हो गया। इसने कुछ होने को स्वीकार कर लिया, “समबडीनेस’ आ गई, “नथिंगनेस’ खो गई। अगर कृष्ण से कोई जाकर पूछे कि तुम कौन हो, तो कृष्ण कोई सार्थक उत्तर नहीं दे सकते हैं। चुप ही रह सकते हैं। कोई भी उत्तर देंगे तो चुनाव शुरू हो जाएगा। वह कुछ हो जाएंगे। असल में जिसको सब कुछ होना है, उसे न-कुछ होने की तैयारी चाहिए।

झेन फकीरों के बीच एक कोड है। वे कहते हैं: “वन हू लांग्स टु बी एवरीव्हेयर, मस्ट नॉट बी ऐनीव्हेयर’। जिसे सब कहीं होना हो, उसे कहीं नहीं होना चाहिए। या न-कहीं होना चाहिए। जो सब होना चाहता है, वह कुछ नहीं हो सकता। कैसे कुछ होगा? कुछ और सबका क्या मेल होगा? चुनाव नहीं। “च्वाइसलेसनेस’ शून्यता ला देती है। फिर आप जो हैं, हैं। लेकिन, कह नहीं सकते कौन हैं, क्या हैं? इसलिए अर्जुन उनसे पूछता है कि आप बताएं आप कौन हैं? तो उत्तर नहीं देते, अपने को ही बता देते हैं। उसमें वे सब हैं। पूर्ण का बहुत गहरा कारण तो उनका शून्य व्यक्तित्व है। जो कुछ है, वह अड़चन में पड़ेगा। क्योंकि जिंदगी ऐसी जगह उसको ले जाएगी जहां उसका कुछ होना बंधन हो जाएगा। अगर मैंने कुछ भी होने का तय किया, तो जिंदगी उन घड़ियों को भी लाएगी जब मेरा कुछ होना ही मेरे लिए मुश्किल पड़ जाएगा।

कबीर के घर बहुत लोग रुकते थे और कबीर सबको कहते, खाना खा जाओ। और एक दिन बड़ी मुश्किल हो गई। कबीर के बेटे ने कहा, कब तक यह चलेगा? हम उधारी से दबे जाते हैं। तो कबीर ने कहा, उधारी लेते रहो । तो उसके बेटे ने कहा, चुकाएगा कौन? कबीर ने कहा, जो देता है वही चुका भी लेगा। हम क्यों फिकिर करें! लेकिन बेटे की समझ में न आया। वह गणित और हिसाब-किताब का आदमी! उसने कहा कि इन बातों से नहीं चलेगा, यह कोई अध्यात्म नहीं है। यहां जिनसे हम लेते हैं, वे मांगते हैं। और न देंगे तो चोर हो जाएंगे, बेईमान सिद्ध होंगे। तो कबीर ने कहा, सिद्ध हो जाना। इसमें हर्ज क्या है। और अगर लोगों ने हमें बेईमान कहा तो हमारा क्या बिगड़ जाएगा। लेकिन बेटे ने कहा कि यह हमारे बर्दाश्त के बाहर है। आप कृपा करके इतने उपद्रव में न डालकर, लोगों से खाना खाएं यहां यह आग्रह करना बंद कर दें। कबीर ने कहा, होगा तो हो जाएगा।

लेकिन दूसरे दिन फिर लोग आए और कबीर ने कहा, खाना खाकर जाना, और लोगों ने खाया और उनके लड़के ने कहा कि वह नहीं हुआ। कबीर ने कहा कि मैं कोई वचन नहीं दे सकता, क्योंकि मैं कोई बंधन में नहीं पड़ सकता। हो जाएगा तो हो जाएगा। किसी दिन नहीं कहूंगा तो नहीं कहूंगा, और जब तक होता है, कहना निकलता है, तो कहता हूं। उस लड़के ने कहा, फिर अब ज्यादा नहीं चल सकती बात। अब तो मुझे चोरी ही करनी पड़ेगी, उधार भी देने को गांव में कोई तैयार नहीं है। तो कबीर ने कहा, पागल, यह पहले ही क्यों न सोचा, उधारी की झंझट से बच जाते। लेकिन बेटा बड़ी मुश्किल में पड़ गया क्योंकि कबीर, साधु, सदा अच्छी बात कहता, यह हो क्या गया है? लेकिन बेटे ने कहा परीक्षा कर लें, कहीं यह मजाक तो नहीं है।

तो रात उसने कबीर को उठाया कि मैं चोरी को जाता हूं, आप भी साथ चलेंगे? कबीर ने कहा, जब उठा ही लिया है तो चला चलता हूं। बेटे ने सोचा, क्या सच में ही यह चोरी को राजी हो जाएंगे! लेकिन बेटा भी कबीर का था। उसने कहा कि इतनी जल्दी लौट जाना ठीक नहीं, हो सकता है मजाक ही हो। वह गया, उसने जाकर दीवाल तोड़नी शुरू की, सेंध लगाई। कबीर किनारे खड़े हैं। उसने देखा कि अभी भी कुछ नहीं कहते कि अब बस रुक जाओ, मजाक बंद। लेकिन वह डर रहा है। कबीर उसे कहते हैं, डरते क्यों हो? वह कहता है, डरें न और! और मजे की बात सुनिए वह कहता है कि, चोरी कर रहे हैं और डरें न! कबीर ने कहा, डरते हो इसलिए अपने को चोर समझ रहे हो। नहीं तो और कारण ही क्या है चोर समझने का? डरो मत, और ठीक से खुदाई करो, नहीं तो घर के लोग…नाहक नींद खराब हो जाएगी। तो बेटे ने किसी तरह तो खुदाई की। उसने सोचा कि शायद मजाक यहां खतम हो जाएगी। उसने कहा, अब भीतर चलें? कबीर ने कहा, चलो। वे भीतर गए। उन्होंने गेहूं का एक…कोई धन तो चुराना न था, भोजन की ही तकलीफ थी, तो एक गेहूं का बोरा खींचकर बाहर निकाला। जब बोरा बाहर निकल आया, कबीर ने कहा कि अब तो सुबह भी होने के करीब हो गई, नींद में कोई बाधा भी न पड़ेगी, घर के लोगों को जगाकर कह आओ कि हम एक बोरा चुराए लिए जाते हैं। तो उसके बेटे ने कहा, चोरी करने आए हैं कि कोई साहूकारी करने आए हैं। कबीर ने कहा, लेकिन घर के लोगों को परेशानी होगी कि कहां गया, क्या हुआ, ढूंढ़ने की मुसीबत होगी।

कबीर की इस घटना को कबीर को मानने वाला छांट ही जाता है। क्योंकि यह तो बेबूझ हो गई बात। कबीर साधु हैं कि कबीर चोर हैं? तय करना मुश्किल है। चोर होने में कोई कमी नहीं है, चोरी की गई है। साधु होने में जरा शक नहीं, क्योंकि कहता है–डरता क्यों है? क्योंकि कहता है, जगाकर घर के लोगों को खबर कर दें, उनको परेशानी न हो, वे खोजें न कि कौन ले गया, नाहक मुसीबत में न पड़ें। लड़का कहता है, घर में खबर करूंगा जाकर तो वे चोर समझेंगे। कबीर कहता है, चोरी तो की है तो चोर हैं। इसमें वे समझेंगे तो वे गलत तो न समझेंगे। तो ठीक ही समझेंगे। तो वह लड़का कहता है, गांव भर में खबर फैल जाएगी कि तुम चोर हो। कौन आएगा तुम्हारे पास? तो कबीर ने कहा, तेरी मुसीबत मिटेगी; न कोई आएगा, न मैं खाने के लिए कहूंगा। मगर वह लड़के के समझ में नहीं आता, वह सारी बात उलटी होती चली जाती है।

कृष्ण के पूरे होने का दूसरा अर्थ है कि कृष्ण के जीवन में वह सब कुछ है जो कि एक ही जीवन में होना मुश्किल है। असंभव लगता है। सब कुछ है–विरोधी, ठीक विरोधी। कृष्ण से ज्यादा असंगत, “इनकंसिस्टेंट’ व्यक्तित्व नहीं है। जीसस के व्यक्तित्व में एक संगति है, महावीर के व्यक्तित्व में एक संगति है, बुद्ध के व्यक्तित्व में एक तर्क है, एक संगतिपूर्ण व्यवस्था है, एक “सिस्टम’ है। बुद्ध का एक हिस्सा समझ लो, तो पूरे बुद्ध समझ में आ जाते हैं। रामकृष्ण ने कहा है कि एक साधु समझ लो तो सब साधु समझ में आ जाते हैं। यह कृष्ण की बाबत न लगेगा। रामकृष्ण ने कहा कि समुद्र की एक बूंद समझ लो तो पूरा समुद्र समझ में आ जाता है। यह कृष्ण की बाबत न लगेगा। समुद्र एकरस है, एक बूंद चखो तो खारी है, दूसरी बूंद चखो तो खारी है–सब नमक ही है। लेकिन कृष्ण में शक्कर भी मिल सकती है; और पक्का नहीं है कि पड़ोस की बूंद में शक्कर हो। कृष्ण का व्यक्तित्व जो है, सब-रस है।

ठीक ऐसा ही उनके व्यक्तित्व में सारी कलाएं हैं। कृष्ण कलाकार नहीं हैं, क्योंकि कलाकार में एक ही कला होती है। कृष्ण कला ही हैं। तब सब पूरा हो जाता है। और इसलिए जिन्होंने उनको देखा, जाना, पहचाना, उनको सब तरह की अतिशयोक्ति करनी पड़ी। हम सब के बाबत “एक्जजरेशन’ से बच सकते हैं या एक ही दिशा में “एक्जजरेट’ कर सकते हैं, कृष्ण के साथ कठिनाई खड़ी हो जाती है। क्योंकि हमारे पास जो अति आखिरी शब्द हैं वे हमें उपयोग करने पड़ेंगे। और कठिनाई और बढ़ जाती है कि इससे विपरीत अति का शब्द भी उपयोग करना पड़ेगा। वे ठंडे और गर्म एक साथ हैं। ऐसे पानी भी ठंडा और गर्म एक साथ ही होता है। हमारी व्याख्या से कठिनाई खड़ी हो जाती है। हम ठंडे और गर्म को अलग-अलग कर देते हैं। हम बांट देते हैं दो हिस्सों में। लेकिन अगर हम पानी से पूछें कि तुम ठंडे हो या गर्म? तो पानी क्या कहेगा? पानी कहेगा कि अपना हाथ डालकर देखिए तो आपको पता चल सकता है। क्योंकि असली सवाल मेरे ठंडे और गर्म होने का नहीं है, असली सवाल आप ठंडे हैं कि गर्म, इसका है।

अगर आप गर्म हैं तो पानी ठंडा मालूम पड़ सकता है, आप ठंडे हैं तो पानी गर्म मालूम पड़ सकता है। पानी का गर्म और ठंडा होना आपके प्रति “रिलेटिव’ है, आपके प्रति सापेक्ष है। इसलिए अगर आप एक हाथ सिगड़ी पर रखकर गर्म कर लें और एक बर्फ पर रखकर ठंडा कर लें और फिर एक ही बालटी में डाल दें तो आप उसी मुश्किल में पड़ जाएंगे जो कृष्ण के साथ खड़ी होती है। तब पानी ठंडा-गरम दोनों मालूम पड़ेगा। एक हाथ कहेगा ठंडा है, एक हाथ कहेगा गर्म है। तब आप सिर पीट लेंगे, आप कहेंगे मेरे हाथ बड़ी गड़बड़ खबर देते हैं। हाथ ठीक खबर दे रहे हैं। हाथ ने सदा ही ठीक खबर दी है। हाथ असल में जो भी खबर देता है वह अपनी अपेक्षा में, अपनी सापेक्षता में, अपनी “रिलेटीविटी’ में देता है। वह यह कहता है कि मेरे और पानी के बीच क्या संबंध है।

तो अगर आप किसी कृष्ण को प्रेम करने वाली राधा से पूछेंगे तो वह कुछ और खबर देगी कि कृष्ण कौन हैं। वह इसे पूर्ण भगवान शायद न भी कहे। या शायद कहे भी। उस पर निर्भर होगा। कृष्ण पर निर्भर नहीं होगा। राधा पर ही निर्भर होगा, वह “रिलेटिव’ है। अगर राधा ने किसी और स्त्री के साथ कृष्ण को नाचते देख लिया तो भगवान कहना उसे बहुत मुश्किल पड़ेगा। अब यह पानी बिलकुल ठंडा मालूम पड़ेगा। पानी भी न मालूम पड़े, यह भी हो सकता है। लेकिन अगर कृष्ण राधा के साथ नाचे हैं तो वह इतना पूरा नाचते हैं उसके साथ भी कि उसे लगता है कि पूरे ही उसके हैं। तब वह उन्हें भगवान भी कह सकती है। सभी राधाएं, जब कोई उनके साथ पूरा नाचता है तो उसे भगवान कह देती हैं, लेकिन क्षण भर में वह आदमी शैतान भी हो सकता है। लेकिन ये सारे वक्तव्य सापेक्ष वक्तव्य हैं। अर्जुन से पूछियेगा, पांडवों से पूछियेगा, तो कृष्ण भगवान मालूम होंगे, कौरवों से पूछियेगा तो यह आदमी भगवान कैसे मालूम होगा। इस आदमी से ज्यादा शैतान और कौन होगा; यही तो उनकी पराजय बनता है, यही तो उनकी मृत्यु बनता है।

कृष्ण कौन हैं, ये हजार वक्तव्य हो सकते हैं। लेकिन बुद्ध कौन हैं, इसके बाबत वक्तव्य हजार नहीं होंगे। क्योंकि बुद्ध जो हैं वह सब सापेक्ष संबंधों में अपने को अलग कर लेते हैं, इसलिए वह एकरस हैं। उन्हें कहीं से भी चखो, वे खारे ही हैं। इसलिए बुद्ध के बाबत हमारे “स्टेटमेंट’ का, वक्तव्य का क्या अर्थ हो सकता है। कृष्ण हमारे “स्टेटमेंट’ को धोखा दे जाएंगे। और चूंकि उन्होंने सभी वक्तव्यों को धोखा दिया, इसलिए मैं कहता हूं कि वह पूर्ण हैं। कोई वक्तव्य उनको पूरा नहीं घेर पाता, बाकी रह जाता है और उलटे वक्तव्य से घेरना पड़ता है। और सभी वक्तव्य मिलकर ही उनको घेर पाते हैं, विरोधी हो जाते हैं।

कृष्ण की पूर्णता का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि कृष्ण के पास अपने जैसा कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह खाली अस्तित्व हैं, “एक्जिस्टेंस’ हैं। अस्तित्व हैं, बस, खाली हैं, कहें कि दर्पण की तरह हैं। जो उनके सामने आ जाता है, वही उसमें दिखाई पड़ता है। “ही जस्ट मिरर्स’। जो भी दिखाई पड़ जाता है वही दिखाई पड़ता है। जब आपको अपनी शक्ल उसमें दिखाई पड़ती है तो आप सोचते हैं, मेरे जैसे हैं। और आप हटे नहीं कि वह शक्ल गई नहीं, और कृष्ण फिर खाली हैं। और जो भी सामने आता है, वह अपने जैसा बता देता है। ये सभी खबर देते हैं कि कृष्ण मेरे जैसे हैं। गीता में जिसने भी झांका उसने कह दिया कि गीता मेरी जैसी है, इसलिए हजार टीकाएं हो गईं। बुद्ध के वचनों की इतनी टीकाएं नहीं हैं। उसका कारण है। जीसस के वचनों की इतनी टीकाएं नहीं हैं। दस-पांच टीकाएं हैं, तो भी उनमें फासले बहुत कम हैं। असल में हजार अर्थ कृष्ण पर ही थोपे जा सकते हैं, बुद्ध पर थोपे नहीं जा सकते। बुद्ध जो कहते हैं, “डेफिनिट’ है, सुनिश्चित है। वक्तव्य पूरा-का-पूरा है, साफ है, सुथरा है, तर्कयुक्त है। वह जो कहते हैं उसमें थोड़े-बहुत फर्क हो सकते हैं हमारी बुद्धि के अनुसार, लेकिन बहुत फर्क नहीं हो सकते। अब महावीर पर अगर कोई बहुत झगड़ा भी हुआ है, तो केवल दो पंथ बन सके। उनमें भी बहुत ज्यादा झगड़ा नहीं है, बहुत छोटी बातों पर झगड़ा है–कि महावीर नग्न थे या नहीं थे, इस पर झगड़ा है, महावीर के वक्तव्य पर झगड़ा नहीं है। श्वेतांबरों दिगंबरों में महावीर के वक्तव्य पर कोई झगड़ा नहीं है। महावीर का वक्तव्य साफ है। महावीर पर पंथ नहीं खड़े किए जा सकते, लेकिन कृष्ण पर भी पंथ खड़े नहीं किए जा सकते, लेकिन कारण बिलकुल उलटा है। कृष्ण पर पंथ खड़े करो तो लाख खड़े हो जाएं। और फिर भी कृष्ण पीछे बाकी बच जाएंगे कि नए पंथ बनाना चाहे कोई तो नई भूमि उपलब्ध हो जाएगी।

इसलिए कृष्ण पर पंथ तो खड़े नहीं हुए, व्याख्याएं खड़ी हो गईं। बहुत अनूठी घटना घटी कृष्ण पर। जीसस पर पंथ खड़े हो गए, व्याख्याएं हो गईं, दो या तीन व्याख्याएं हो गईं, दो या तीन पंथ हो गए। कृष्ण पर पंथ खड़ा नहीं हो सका इस अर्थ में, व्याख्याएं खड़ी हुईं। गीता की हजार व्याख्याएं हैं, और एक व्याख्या दूसरी व्याख्या की बिलकुल दुश्मन हो सकती है। रामानुज जो व्याख्या करेंगे, शंकर को कह सकते हैं तुम बिलकुल ही मूढ़ हो, तुम कुछ जानते ही नहीं, तुम्हें कृष्ण का कुछ पता ही नहीं। शंकर जो व्याख्या करेंगे, उसमें रामानुज को कह सकते हैं बिलकुल नासमझ हो, तुम्हें कुछ पता ही नहीं। और दोनों सही हो सकते हैं। कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन, कारण सिर्फ इतना है कि कृष्ण का व्यक्तित्व सुनिश्चित नहीं है, अनिश्चित है। उसकी रूपरेखा नहीं है, निराकार है। इस अर्थों में भी पूर्ण हैं, क्योंकि सिर्फ पूर्ण ही निराकार हो सकता है।

और जो भी व्याख्याएं हैं, इसलिए मैं कहता हूं कि गीता की कोई भी व्याख्या कृष्ण की व्याख्या नहीं है। जिन्होंने व्याख्या की है, उनकी ही व्याख्याएं हैं। शंकर जो जानते हैं उसकी व्याख्या गीता में खोज लेते हैं, मिल जाती है। वह शंकर खोज लेते हैं कि जगत माया है। रामानुज खोज लेते हैं कि भक्ति मार्ग है। तिलक खोज लेते हैं कि कर्म द्वार है। गांधी गीता में भी खोज लेते हैं कि अहिंसा सत्य है। इसमें कोई अड़चन नहीं आती किसी को भी। कृष्ण किसी को बाधा नहीं देते, सबका स्वागत है। दर्पण की तरह हैं, अपनी शक्ल देखो और हट जाओ। बाकी वहां कोई दर्पण की अपनी कोई “फिक्स्ड इमेज’ नहीं है। फोटो-फिल्म की तरह नहीं है। फोटो-फिल्म भी “मिरर’ का काम करती है, दर्पण का काम, लेकिन सिर्फ एक बार। फिर “फिक्सड’ हो जाती है। एक दफा आपकी तस्वीर उसमें झलकती है, फिर खत्म हो जाती है। फिल्म खत्म हो जाती है, तस्वीर पकड़ जाती है। इसलिए हम फोटो की यह फिल्म को कह सकते हैं, यह किसकी फिल्म है, यह किसकी फोटो है? लेकिन दर्पण किसका है? जो झांकता है उसका ही है। और जब कोई नहीं झांकता तब दर्पण किसका? तब दर्पण खालीपन को ही “मिरर’ करता रहता है। खालीपन को ही दर्शाता रहता है। खालीपन को ही दिखाता रहता है, खाली कमरा ही झलकता रहता है। कमरा नहीं होगा, कुछ और होगा, वह झलकता रहेगा। शून्य होगा, शून्य झलकेगा। जो होगा वह झलकता रहेगा। इन अर्थों में कृष्ण को पूर्ण कहता हूं।

लेकिन और बहुत अर्थों में धीरे-धीरे रोज-रोज खयाल आएगा कि और बहुत-बहुत अर्थों में वह पूर्ण हैं। और पूर्ण बहुत अर्थों में ही होंगे, क्योंकि अगर एकाध अर्थों में ही पूर्ण हैं तो अपूर्ण हो जाएंगे। क्योंकि एक अर्थ में जो पूर्ण है, उस अर्थ में तो महावीर भी पूर्ण हैं, एक अर्थ है। जीसस भी पूर्ण हैं, एक अर्थ है। एक व्यक्तित्व की पूर्णता तो जीसस हैं ही। यानी, शायद उस तरह के व्यक्तित्व में कुछ बचा नहीं है जो कि जीसस में नहीं है। जैसे गुलाब पूर्ण है। चमेली की तरह नहीं, गुलाब की तरह। चमेली की तरह गुलाब कैसे पूर्ण हो सकता है? चमेली की तरह चमेली ही पूर्ण होती है। लेकिन चमेली गुलाब की तरह पूर्ण नहीं हो सकती।

बुद्ध पूर्ण हैं, महावीर पूर्ण हैं, क्राइस्ट पूर्ण हैं बहुत और अर्थों में, बहुत अपूर्ण अर्थों में। एक व्यक्तित्व की दिशा को उन्होंने पूरा छू डाला है। उस दिशा में कुछ बाकी नहीं छोड़ा। लेकिन कृष्ण की पूर्णता बहुत भिन्न है। वह “वन-डायमेंशनल’ नहीं है, एक-आयामी नहीं है। “मल्टी-डायमेंशनल’ है। वह बहु-आयामी हैं। वह सभी दिशाओं में प्रवेश कर जाते हैं। वह चोर हैं तो पूरे चोर हैं आर साधु हैं तो पूरे साधु हैं। याद करते हैं, तो पूरा याद करते हैं, भूलते हैं तो पूरा ही भूल जाते हैं। इसलिए जब छोड़कर चले गए एक जगह को, तो उस जगह को भूल गए हैं। अब उस जगह के लोग परेशान हैं, रो रहे हैं, चिल्ला रहे हैं और कृष्ण को बहुत कठोर ठहरा रहे हैं। बाकी वह बेचारा कठोर जरा-भी नहीं है। या, पूर्ण है कठोरता में। जरा भी नहीं है इन अर्थों में कि जो पूरा याद करता है, वह आदमी पूरा भूल जाता है। जो आधा-आधा याद करता है, वह आधा-आधा याद भी रखता है। दर्पण आपको पूरा झलका देता है, मामला खतम हो गया, बात निपट गई, आप चले गए, खाली हो गया। कृष्ण जहां पहुंच गए हैं, वहां दर्पण बन रहा है बन रहा है। अब जो उसको दिखाई पड़ रहा है, वह दिखाई पड़ रहा है; जिसको प्रेम करना पड़ रहा है उसको वह प्रेम कर रहे हैं और जिससे लड़ना पड़ रहा है उससे लड़ रहे हैं। जो उनके सामने है, वह है। पर यह “मल्टी-डायमेंशनल’ है।

तो पूर्णता कृष्ण की बहु-आयामी है। और एक आयाम में पूर्ण होना ही बहुत कठिन है, “आरडुअस’ है। एक आयाम में पूर्ण होना आसान मामला नहीं है। और बहु-आयाम में पूर्ण होना तो, कठिन कहना भी उचित नहीं है, कहना चाहिए असंभव है। लेकिन असंभव भी घटित होता है, और तभी चमत्कार हो जाता है। जब असंभव घटित होता है तो “मिरेकल’ हो जाता है। कृष्ण का व्यक्तित्व बिलकुल चमत्कार है। वह बिलकुल “मिरेकल’ है।

हम सब तरह के व्यक्तियों की तुलना खोज सकते हैं। महावीर और बुद्ध के व्यक्तित्व बड़े निकट हैं–सन्निकट हैं, बड़े पड़ोसी व्यक्तित्व हैं। हेर-फेर बड़े छोटे हैं। अगर महावीर और बुद्ध के व्यक्तित्व में हम फर्क खोजने जाएं तो बहुत थोड़े फर्क हैं। न के बराबर हैं। जो फर्क हैं, वह भी कहना चाहिए कि बाह्य व्यक्तित्व के फर्क हैं। भीतरी अंतरात्मा बड़ी एक। एक-जैसी। लेकिन कृष्ण की तुलना हम खोजने जाएं तो मुश्किल में पड़ जाएंगे। इस पृथ्वी पर अब तक नहीं हो सकी।

स्वभावतः इस तरह के असंभव व्यक्तित्व के कुछ फायदे होंगे, कुछ नुकसान होंगे। जो व्यक्ति सभी आयामों में पूर्ण होगा, वह किसी भी एक आयाम में पूर्ण व्यक्तित्व के सामने उस आयाम में फीका पड़ जाएगा। स्वभावतः। क्योंकि महावीर की सारी शक्ति एक आयाम में लगती है। अगर उस आयाम में कृष्ण महावीर के साथ खड़े होंगे, फीके पड़ जाएंगे। क्योंकि उनकी शक्ति बहु-आयामी है, वह सब मैं फैली हुई है। इसलिए अगर एक-एक के सामने कृष्ण को हम खड़ा करें, तो कृष्ण जीत न पाएंगे। क्राइस्ट के साथ हार जाएंगे, एक-साथ अगर खड़ा करें। अगर उसी आयाम में खड़ा करें तो कृष्ण जीत नहीं सकते। लेकिन अगर हम समग्र व्यक्तित्व को सोचें, तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी। महावीर, बुद्ध और क्राइस्ट जीत नहीं सकते। बहु-आयामी व्यक्तित्व हैं। एक ऐसे फूल की हम कल्पना करें जो जुही भी हो जाता है कभी, जो कमल भी हो जाता है कभी, कभी गुलाब भी हो जाता है; कभी घास का फूल भी हो जाता है और कभी आकाश-कुसुम भी हो जाता है, सब हो जाता है, जब भी हम जाते हैं तब पाते हैं कि वह कुछ और हो गया। इस फूल के मुकाबले किसी फूल को हम रखेंगे तो वह जीत जाएगा, क्योंकि गुलाब गुलाब ही है। उसे गुलाब होने का…उसकी सारी शक्ति, सारी ऊर्जा गुलाब होने में लग गई है। इसको कभी चमेली भी होना पड़ता है, इसको कभी जुही भी होना पड़ता है। इसके प्राण इतने फैले हुए हैं, इतने विस्तीर्ण हैं कि सघन नहीं हो सकते। तो कृष्ण के व्यक्तित्व में एक विस्तार है, एक “एक्सटैंशन’ है, इसलिए “डेंसिटी’ उतनी नहीं हो सकती, जितनी महावीर या बुद्ध के व्यक्तित्व में है। घनत्व नहीं हो सकता। फैलाव है, अंतहीन फैलाव है। इसलिए कृष्ण की पूर्णता का अर्थ अनंतता है। महावीर की पूर्णता का अर्थ एक दिशा को पूरा उपलब्ध कर लेना है। उस दिशा में उन्होंने कुछ भी नहीं छोड़ा है। अब कोई भी साधु इस जगत में कुछ भी पा सकता है, तो उतना ही पा सकता है जितना महावीर ने पा लिया है, उससे ज्यादा नहीं पा सकता।

लेकिन, इसलिए कृष्ण को पूर्ण अनंतता के अर्थ में, विस्तार के अर्थ में, फैलाव के अर्थ में समझेंगे, “मल्टी-डायमेंशनल के अर्थ में। फिर जो व्यक्ति एक “डायमेंशन’ में पूर्ण होगा, स्वभावतः दूसरे “डायमेंशन’ में बिलकुल अपरिचित हो जाएगा। दूसरे आयाम में उसकी कोई गति नहीं होगी। कृष्ण कुशलता से चोरी भी कर सकते हैं। महावीर एकदम बेकाम चोर साबित होंगे। पकड़े ही जाने वाले हैं। कृष्ण कुशलता से युद्ध भी लड़ सकते हैं, बुद्ध न लड़ सकेंगे। जीसस की हम कल्पना ही कर सकते हैं कि बांसुरी बजा सकते हैं, लेकिन कृष्ण सूली पर चढ़ सकते हैं। कृष्ण को सूली पर चढ़ने में दिक्कत न आएगी। बिलकुल मजे से चढ़ जाएंगे। इसकी कल्पना करने में कोई आंतरिक कठिनाई न पड़ेगी कि कृष्ण को सूली लग जाए। इसमें कोई “इनहेरेंट’, कोई “इंट्रिसिक’, कोई भीतरी तकलीफ नहीं मालूम होगी। लेकिन क्राइस्ट बांसुरी बजाएं, इसमें बड़ा मुश्किल है। कृष्ण क्राइस्ट के व्यक्तित्व में सोचा ही नहीं जा सकता। ईसाई तो कहते हैं कि “जीसस नेवर लाफ्ड’, जीसस कभी हंसे ही नहीं। हंसे ही नहीं, तो बांसुरी बजाना तो बहुत…और पैर पर पैर रखकर और ओंठ पर बांसुरी रखकर, मोर-मुकुट बांधकर खड़े हो जाना, क्राइस्ट कहेंगे कि इससे सूली बेहतर! यह सूली से कठिन पड़ेगा। सूली बिलकुल “ऐट ईज’ है। जीसस सूली पर बड़े मजे से चढ़ गए। सूली पर लटककर वे जितने खुश थे, मैं समझता हूं जिंदगी में कभी नहीं थे। सूली पर लटककर वह कह सके, इन सबको माफ कर देना। सूली पर लटककर वह बड़ी शांति से गुजर सके। यह आयाम उनका आयाम है, इस आयाम में उन्हें कोई अड़चन न आई। यह सिर्फ पूरा हो रहा है। जो घटना होने ही वाली थी, जिस दिशा में वे यात्रा कर रहे थे, वह पूरी होने वाली है। वह एक बगावती हैं, एक “रिबेलियस’ आदमी हैं, क्रांतिकारी आदमी हैं। “रिबेलियन’ का यह अंत हो सकता था। जीसस कह भी सकते थे कि सूली लगेगी, और न लगती तो जरा ऐसे ही लगता कि असफल हुए। सूली लगेगी ही।

कृष्ण का मामला बहुत मुश्किल है। कृष्ण के मामले में “प्रिडिक्शन’ नहीं हो सकता कि क्या होगा। कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यह आदमी सूली पर मरेगा, कि यह आदमी फूल-हारों में मरेगा, कि यह आदमी बड़ी भीड़ में मरेगा, क्या होगा?…मरे तो वह एक ऐसी जगह कि चुपचाप एक वृक्ष के नीचे लेटे थे। कुछ बात ही न थी मरने की। और किसी ने समझा कि हिरण दिखाई पड़ रहा है, उनका पैर, और किसी ने तीर मार दिया, और वह मर गए। इतनी “एक्सिडेंटल’ मौत किसी की भी नहीं है। सबकी मौत में भी एक निश्चय है, कृष्ण की मौत बिलकुल अनिश्चित है। और ऐसे मरते हैं वह, बेकाम ढंग से, कि जिसकी कोई “यूटिलिटी’ नहीं मालूम होती, कोई उपयोगिता नहीं मालूम होती। और आदमी की पूरी जिंदगी भी इसकी उपयोगिताहीन थीं, “नॉन-युटिलिटेरियन’ थी, मौत भी। जीसस की मौत काम आई है। सच तो यह है कि अगर जीसस को सूली न लगी होती, तो दुनिया में “क्रिस्चिएनटी’ होती ही नहीं। जीसस की वजह से नहीं है, “क्रास’ की वजह से है। इस आदमी को कौन जानता है, इसको कोई खयाल में भी नहीं था यह आदमी। सूली महत्वपूर्ण बनी। इसलिए “क्रास’ प्रतीक बन गया ईसाइयत का। क्योंकि वही है घटना, जिसने ईसाइयत को जन्म दिया। आज जीसस दुनिया में हैं तो उसका मतलब है, वह “क्रूसीफिक्सन’ की वजह से हैं।

लेकिन कृष्ण की मौत तो बड़ी बेमानी है, बड़ी अजीब-सी है। यह भी कोई मरने का ढंग है। ऐसे भी कोई आदमी मरते हैं! आप लेटे हैं वृक्ष के नीचे, यह भी कोई…मरना चुनना चाहिए ऐसा कि कोई तीर मार दे, बिना कुछ खबर सुने, बिना कुछ बात हुए, अकारण। कोई ऐतिहासिक घटना नहीं बनती मौत से कृष्ण की। बस, ऐसे ही आते हैं और चले जाते हैं जैसे फूल खिलते हैं और मुर्झा जाते हैं। कब गिर जाते हैं सांझ, कुछ पता नहीं चलता; कौन-सी हवा का झोंका गिरा जाता, उस पर कोई सील नहीं होती। “मल्टी-डायमेंशनल’ होने के कारण, बहु-आयामी होने के कारण, कुछ कहा नहीं जा सकता कि क्या हो जाएगा, कृष्ण के व्यक्तित्व में कौन-कौन से फूल खिलेंगे, नहीं कहा जा सकता।

इसको आखिरी बात इस तरह सोचें कि अगर महावीर और पचास साल जिंदा रहें तो हम कह सकते हैं कि जिंदगी कैसी होगी। अगर जीसस और पचास साल जिंदा रहते, तो क्या होने वाला है वह हम कह सकते हैं। “प्रेडिक्टबिल’ है, ज्योतिषी की पकड़ के भीतर है। अगर दस साल महावीर को और मौका दिया जाए जिंदा रहने का तो कठिनाई न होगी कि हम कहानी लिख दें कि वह क्या-क्या करेंगे। कब सुबह उठेंगे, कब सांझ सो जाएंगे, वह भी तय किया जा सकता है। क्या खाएंगे, क्या पिएंगे, उनका “मेनू’ तय हो सकता है। क्या बोलेंगे, क्या नहीं बोलेंगे, वह साफ जाहिर है। दस साल भी वह जो करेंगे, वह पिछले दस साल की ही पुनरुक्त्ति होने वाली है। एकरस जो हैं, समुद्र के खारे पानी की तरह जो हैं। लेकिन कृष्ण को अगर दस दिन भी मिल जाएं–दस साल बहुत हैं–तो इस दस दिन में क्या-क्या होगा इस दुनिया में, बिलकुल नहीं कहा जा सकता। क्योंकि पिछली कोई पुनरुक्ति होने वाली नहीं है। यह आदमी किसी हिसाब से जी ही नहीं रहा है, गैर-हिसाब से जी रहा है। जो हो जाएगा वह हो जाएगा। इन अर्थों में भी एक “इनफिनिटी’ है। कहीं चीजें पूरी होती नहीं मालूम पड़तीं।

अब यह आखिरी अर्थ मैं देता हूं, पूर्ण सिर्फ वही जो पूरा होता मालूम नहीं पड़ता। जो पूरा हो जाता है, वह किसी अर्थ में समाप्त हो जाता है। अब यह बहुत उलटा लगेगा। क्योंकि हमारा आमतौर से खयाल यह होता है कि पूर्ण का मतलब यह है कि जो समाप्त हो जाता है। जिसके आगे कुछ बचता नहीं। अगर आपका ऐसा अर्थ है पूर्ण का, तो आपमें “वन-डायमेंशनल परफेक्शन’ का खयाल है आपको। आपको एक आयाम में पूर्णता का खयाल है। कृष्ण की पूर्णता ऐसी नहीं है जो समाप्त हो जाती है। कृष्ण की पूर्णता का मतलब यह है कि कितना ही यह आदमी जिए और चले और रहे, यह समाप्त नहीं होने वाला है। यह सदा शेष रह जाएगा। इसलिए उपनिषदों ने पूर्ण की जो व्याख्या की है, वही ठीक है। उपनिषद कहते हैं, पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। अगर हम कृष्ण से हजार कृष्णों को निकालते चले जाएं तो भी वह आदमी पीछे शेष रह जाएगा और फिर कृष्णों को निकाल सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं पड़ेगी। उसे कोई अड़चन न आएगी, क्योंकि वह कुछ भी हो सकता है।

महावीर को हम आज पैदा नहीं कर सकते। आज पैदा करना मुश्किल हो जाएगा महावीर को। क्योंकि महावीर एक “सिचुएशन’ में, एक विशेष परिस्थिति में, एक आयाम में पूर्ण हुए हैं। वह आयाम उसी स्थिति में पूर्ण हो सकता है। जीसस को आज पैदा नहीं किया जा सकता। अगर आज जीसस को हम पैदा करें, कोई सूली ही नहीं लगाएगा, पहली बात। वह कितना ही शोरगुल मचाएं, लोग कहेंगे, “निगलेक्स हिम’। क्योंकि पहले गलती की सूली लगाकर तो “क्रिश्चिएनिटी’, आज एक अरब आदमी ईसाई हो गए हैं, अब आज कोई यहूदी सूली नहीं लगाएगा जीसस को। वह कहेगा, अब झंझट में मत पड़ो इस आदमी के। इसको जो कहना है कहने दो, इसको जो करना है करने दो। क्योंकि जीसस जिंदा रहकर बहुत थोड़े लोगों को उत्सुक कर पाए। मरकर उन्होंने उत्सुकता बहुत पैदा की। जीसस के वक्त में जिस दिन एक लाख आदमी सूली लगाने जीसस को इकट्ठे हुए, तो सिर्फ आठ-दस आदमी ऐसे थे जो उनको प्रेम करने वाले थे–एक लाख आदमियों में। वे आठ-दस भी इतने हिम्मतवर नहीं थे कि अगर उनसे कोई पूछता कि तुम जीसस के साथी हो तो वे कहते कि हम साथी हैं! वे कहते कि नहीं, हम जानते ही नहीं। जीसस को सूली लग जाने के बाद जिसने उनकी लाश नीचे उतारी वह कोई सज्जन, अच्छे घर की महिला नहीं थी, क्योंकि अच्छे घर तक जीसस का प्रभाव पहुंचना मुश्किल था। वह एक वेश्या थी। वह हिम्मत जुटा सकी कि अब मेरा और क्या कोई बिगाड़ेगा। तो इसलिए जीसस की लाश तो एक वेश्या ने उतारी। किसी भले घर की औरत को यह मौका नहीं था।

अभी भी! मैं सोचता हूं भले घर की औरत जीसस को अभी भी नहीं उतारेगी। जीसस को आज “निगलेक्ट’ किया जा सकता है, क्योंकि उनके वक्तव्य बड़े “इनोसेंट’ हैं। और दूसरा खतरा है कि अगर “निगलेक्ट’ न किया जाए, तो दूसरा खतरा है कि हम उनको पागल समझ लें। क्योंकि जिन बातों पर झगड़ा हुआ है वह यह था कि जीसस कहते हैं, मैं ईश्वर हूं। हम कहेंगे, कहने दो, बिगड़ता क्या है, इसमें हर्ज क्या है? कहो ईश्वर हो। जीसस को होने के लिए वही “मॉमेंट’ चुनना पड़े जो था। इसलिए जीसस “हिस्टारिक’ हैं। इसलिए आप ध्यान रखें कि सिर्फ जीसस को मानने वाले लोगों ने “हिस्ट्री’ पैदा की दुनिया में। बाकी लोग “हिस्ट्री’ पैदा नहीं कर सके। इतिहास जीसस से शुरू होता है। इसलिए आकस्मिक नहीं है कि सन् और सदी जीसस से चलती है। आकस्मिक नहीं है। जीसस एक “हिस्टारिक’ घटना हैं और एक खास “हिस्टारिक मॉमेंट’ में ही हो सकते हैं।

कृष्ण की हमने कोई कहानी नहीं लिखी। कोई पक्का पता नहीं है कि यह आदमी किस तारीख में हुआ और किस तारीख में मरा। इसका पता रखना बेकार है। यह किसी भी तारीख में हो सकता है। इसकी कोई पक्की तारीख रखना बेकार है। यह कभी भी हो सकता है। यह किसी भी स्थिति में काम आ जाएगा। क्योंकि इसको कोई झंझट ही नहीं है अपने होने की। किसी भी स्थिति में वही हो जाएगा। इसका अपना कोई आग्रह नहीं है कि मैं ऐसा होऊंगा। अगर आपका आग्रह है कि आप ऐसे होंगे तो आपको एक विशेष स्थिति की जरूरत पड़ेगी। अगर आपका कोई आग्रह नहीं है, आप कहते हैं कि चलेगा–महावीर तो नग्न होने का आग्रह करेंगे। कृष्ण जो हैं वह पतली मोहरी का फुलपैंट भी पहन सकते हैं; कोई अड़चन न आएगी, बल्कि वह कहेंगे कि यह पहले क्यों नहीं बनाया, उसी वक्त? हम उसी वक्त पहने सकते थे। इतना होने की संभावना अनंत है। उन्हें अड़चन न आएगी। उन्हें कोई युग अड़चन नहीं दे सकता। वे किसी भी युग में खड़े हो जाएंगे और राजी हो जाएंगे, उसी युग के हो जाएंगे। और उसी युग में उनका फूल खिल सकता है।

इसलिए मैं कहता हूं कि सभी–महावीर, बुद्ध या जीसस “हिस्टारिक पर्सनेलिटी’, ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वह हुए हैं और कृष्ण नहीं हुए। हुए तो कृष्ण भी हैं। लेकिन कृष्ण इस अर्थ में “हिस्टॉरिक’ नहीं हैं, इस अर्थ में ऐतिहासिक नहीं हैं। कृष्ण पुराण-पुरुष हैं, कथा-पुरुष हैं, अभिनेता हैं। वे कभी भी हो सकते हैं, उनका चरित्र का कोई मोह नहीं है। वह विशेष राधा को न मांगेंगे, कोई भी राधा कारगर हो सकती है। विशेष समय न मांगेंगे, कोई भी समय उनके लिए अर्थपूर्ण हो सकता है। जरूरी नहीं कि वह बांसुरी ही बजाएं, किसी भी युग का वाद्य उन्हें काम दे जाएगा।

इस अर्थ में पूर्ण हैं कि हम उनमें से कितना ही निकाल लें, वह व्यक्ति फिर शेष रह जाता है, वह फिर हो सकता है।

 

और प्रश्न होंगे तो कल।

आज दोपहर भी तीन से चार तो प्रश्न होंगे। आपके मन में जो भी प्रश्न हों वे लिखकर दें।

 


Filed under: कृष्‍ण--स्‍मृति Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–82

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चुनाव नरक है—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्‍न—सार:

1—‘ओशो, आप मुझसे बहने के लिए कहते हैं, यह कैसे संभव है?

 2—‘मैं अनुत्तरदायी अनुभव करता हूं और उलझ जाता हूं कि संन्यास क्या है?

 3—ओशो समस्या क्या है?

 4—‘आप कहते हैं, वही गलती दुबारा मत करो, यह कैसे हो पाएगा?

 5—क्या आप किसी बात को गंभीरता से नहीं ले सकते?

 6—‘क्या मुल्ला नसरुद्दीन आश्रम में कोई समूह चलाएंगे?

 7—‘संन्यास आपका आशीष है या मेरा सत्याग्रह?

 8—‘आपके स्त्रोत से पीकर भी प्यास कम नहीं हुई है?

 

प्रश्न:

 

ओशो, आप मुझसे बहने को कहते हैं एक बेजान से बोझ मन के साथ मेरा शरीर इतना भारी है कि मुझे लगता है यदि मैने बहना चाहा जे कहीं मैं डूब न जाऊं अत घबड़ा कर मैने तैरना जारी रखा है?

 

हना जीवन का समग्ररूपेण नया ढंग है। तुम्हें संघर्ष करने की आदत है, तुम धारा के विपरीत तैरने के आदी हो। यदि तुम किसी के साथ संघर्ष करो तो अहं पोषित होता है। यदि तुम संघर्ष न करो तो बस अहंकार विलीन हो जाता है। अहंकार का अस्तित्व बनाए रखने के लिए संघर्ष को जारी रखना परम आवश्यक है। इस ढंग से या उस ढंग से, चाहे सांसारिक मामला हो या आध्यात्मिक मामला, लेकिन संघर्ष करते रहो। चाहे दूसरों से संघर्ष करो या स्वयं से संघर्ष, लेकिन संघर्ष जारी रखो। जिन लोगों को तुम सांसारिक कहते हो वे दूसरों से संघर्षरत हैं और जिन्हें तुम आध्यात्मिक कहते हो स्वयं के साथ संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन बुनियादी बात वही रहती है।

सच्ची दृष्टि का जन्म सिर्फ तभी होता है जब तुम संघर्ष बंद कर देते हो। तब तुम मिटने लगते हो, ‘क्योंकि संघर्ष के अभाव में अहंकार एक पल भी नहीं टिक. सकता। इसके लिए लगातार पैडल चलाते रहना पड़ता है। यह एक साइकिल की भांति है। यदि तुम पैडल चलाना बंद कर दो तो यह गिरेगी ही, यह ज्यादा देर नहीं चल पाएगी। संभवत: पहले से निर्मित संवेग के कारण थोड़ी—बहुत चलती रहे, लेकिन अहं के लिए, इसे जिंदा रखने के लिए तुम्हारा सहयोग जरूरी है। और यह सहयोग संघर्ष, प्रतिरोध के द्वारा ही किया जाता है।

जब मैंने तुमसे बहने को कहा, तो मेरा अर्थ यह है कि तुम ब्रह्मांड के इतने छोटे सूक्ष्म अंश हो कि उसके साथ संघर्ष करने की बात ही बेतुकी है। तुम किसके साथ संघर्ष कर रहे हो? सारा संघर्ष मूलत: परमात्मा के विरुद्ध है, क्योंकि वही है तुम्हारे चारों ओर। यदि तुम धारा के विपरीत तैरने की कोशिश कर रहे हो, तुम परमात्मा के विरोध में जाने का प्रयास कर रहे हो। यदि वह नीचे सागर की ओर प्रवाहित हो रहा हो, तो उसका अनुसरण करो।

जब तुम नदी के साथ बहना शुरू कर देते हो, तो तुम्हारे भीतर एक पूर्णत: भिन्न गुणवत्ता का उदय होगा। उस पार का कुछ अवतरित होगा। तुम वहां नहीं होगे, तुम बस एक खालीपन, एक विराट शून्यता, एक ग्राह्यता बन जाते हो। जब तुम संघर्ष करते हो, तो तुम सिकुड़ जाते हो। जब तुम संघर्ष करते हो, तो तुम छोटे हो जाते हो। जब तुम संघर्ष करते हो, तो तुम कठोर हो जाते हो। जब तुम संघर्ष नहीं करते—तुम समर्पण करते हो, तो जैसे कमल अपनी पंखुड़ियां खोल रहा हो इस भांति तुम खुल जाते हो, तब तुम ग्रहण करते हो। निर्भय होकर तुम गतिशील हो जाते हो, जीवन के साथ गतिमान, नदी के साथ प्रवाहित होने लगते हो।

तुम्हारा प्रश्न है : ‘आप मुझसे बहने को कहते हैं, लेकिन मैं भयभीत हूं; यदि मैंने बहना चाहा तो मैं डूब जाऊंगा।’

यदि तुम डूबते हो, यह शुभ है, क्योंकि सिर्फ अहंकार ही डूब सकता है, तुम नहीं। जब तुम संघर्षरत हो, वस्तुत: तुम्हारे अंतर्तम से तुम्हारा अहंकार ही संघर्ष कर रहा होता है। तुम डूबोगे। लेकिन उस डूबने से ही तुम पहली बार बहने के योग्य होओगे, तुम्हारा बहना पहली बार तभी संभव हो सकेगा। जब तुम चुनाव करते हो तो तुम अहंकार चुन लेते हो। चुनावरहित रहो, जीवन को तुम्हारे लिए चुनाव करने दो और तुम अहंकार—शून्य हो जाओगे। तुम जब भी चुनोगे नरक ही चुनोगे। चुनाव नरक है। मत चुनो। अपने हृदय में जीसस की इस प्रार्थना को— ‘तेरी मर्जी पूरी हो, तेरा राज्य आए’ गूंजने दो। उसे ही तुम्हारे लिए करने दो।

खुद को मिटा दो, डुबा दो, अस्तित्व के उस तल से हट जाओ, और तब अचानक तुम वही मनुष्य नहीं रहते, तुम अति मानव हो। तुम्हारा सारा: जीवन परमानंद से ओतप्रोत हो जाएगा।

मैं तुमसे एक कहानी कहना चाहूंगा।

एक अभागी आत्मा नरक के द्वार पर पहुंची, और शैतान ने खुद ही उसका साक्षात्कार लिया।’तुम्हें कौन से समूह में जाना पसंद आएगा?’ उस पर तिरछी निगाह डालते हुए वह बोला, समूह! क्या मतलब है आपका? नवआगंतुक ने पूछा।

तुम समझो,. शैतान बोला, हमारे पास यहां पर हर प्रकार की यंत्रणाएं हैं, और हम लोगों को इन्हें खुद के लिए पसंद करने की अनुमति देते हैं। हमरा विश्वास लोकतंत्र में है, और हम तानाशाही प्रवृत्ति के नहीं हैं। और यहां कोई आपातकाल भी नहीं चल रहा है।’ अपना चुनाव तुम्हें खुद ही करना है। लेकिन यह चुनाव सदा के लिए होगा, यह बात समझ लो, इसे याद रखना, अत: तुम्हें अपने लिए सावधानी पूर्वक चुनाव करना चाहिए। मैं तुम्हें सारी जगह दिखा दूंगा।

इस प्रकार शैतान उसे नरक में सब जगह ले गया। एक समूह कीचड़ में लोट लगा रहा था और कीट—पतंगे उसे लगातार खाए जा रहे थे। एक और समूह लालु—लाल तपते हुए त्रिशूलों द्वारा भेदा जा रहा था। एक और समूह यातना—यंत्र पर खींचा जा रहा था। इसी प्रकार और भी थे और नवआगंतुक इन्हें देख कर काफी निराशा महसूस कर रहा था।

फिर शैतान उसे एक ऐसे समूह में ले गया जहां सारे निवासी एक खास किस्म के, बेहद बदबूदार मल से भरे गर्त में कमर तक डूबे खड़े थे और चाय पी रहे थे।

यह कोई ज्यादा बुरा नहीं लगता, उसने सोचा, मैं यही समूह चुनूंगा, उसने शैतान से कहा।

क्या तुम पक्के तौर से कह रहे हो, शैतान ने पूछा, याद रहे, तुम फिर अपना मन नहीं बदल सकोगे, और यह हमेशा—हमेशा और हमेशा के लिए है।

नहीं, मेरा फैसला अटल है, मेरे लिए यही ठीक है,. नये नरकजीवी ने कहा।

बहुत अच्छा, शैतान ने कहा, इसमें चले जाओ।

और जैसे ही वह अभागा जीव उसमें कूदा, एक सीटी बजी और आवाज सुनाई दी, बस बहुत हुआ, चलो सभी लोग सिर के बल खड़े हो जाओ, चाय का समय खत्म हो गया है।

यदि तुम चुनाव करो तो तुम नरक चुनते हो। चुनाव नरक है। इसी प्रकार से तुमने—चुनाव करके ही खुद के चारों ओर अपना नरक निर्मित कर लिया है। जब तुम चुनाव करते हो तो तुम परमात्मा को तुम्हारे लिए नहीं चुनने देते।

कृष्णमूर्ति चुनावरहितता पर जोर दिए चले जाते हैं। यह सारी कहानी का सिर्फ एक छोर है। दूसरा छोर यह है कि अगर तुम चुनावरहित हो तो परमात्मा तुम्हारे लिए चुनता है। चुनावरहित रहो, यह कहानी का आधा भाग हैं—मात्र एक आरंभ। जिस क्षण तुम चुनावरहित होते हो, जीवन प्रवाहित होता है। तुम वहां नहीं होते—जीवन प्रवाहित होगा। और तुम नरक के सिवाय कुछ भी नहीं हो। जैसे ही तुम स्वयं एवं परमात्मा के बीच से हट जाते हो, वही चुनाव करता है। वह सदा से ही तुम्हारे लिए चुनता रहा है। एक कहावत है जिसमें कहा गया है, ‘मनुष्य प्रस्तावित करता है परंतु ईश्वर इसे समाप्त कर देता है।’ वास्तविकता इससे बिलकुल विपरीत है, ईश्वर प्रस्तावित करता है और मनुष्य इसे मिटाए चला जाता है। जब तुम्हें अचुनाव के सौंदर्य और उसके साथ बहने की अनुभूति हो जाती है तो फिर तुम कभी नहीं चुनोगे। क्योंकि जब भी तुम चुनते हो तुम नरक चुनते हो, और जो कुछ भी तुम चुनते हो तुम नरक को ही चुनते हो।

इसलिए मैं चाहूंगा कि तुम डूबो, मेरे आशीष के साथ डूबो।

जब जीसस कहते हैं कि जो खुद से चिपकेंगे अपने आप को खो देंगे, और जो खो देने को राजी हैं वे पा लेंगे, तो उनका अभिप्राय ठीक यही है। जब सूफी कहते हैं, अपनी मौत से पहले ‘मर जाओ, और तब तुम अमर हो जाओगे, तो उनका मतलब भी यही है।

अहंकार की मृत्यु समर्पण द्वारा ही घटती है। लोग आकर मुझसे पूछते हैं, ‘निर—अहंकारी कैसे बनें?’ लेकिन तुम निर—अहंकारी होने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते। जो कुछ भी तुम करोगे वही तुम्हें पुन: अहंकारी बना देगा। तुम कोशिश कर सकते ही, अहंकार को अनुशासित करो, लेकिन तुम निर— अहंकारी न हो पाओगे क्योंकि जो भी तुम करते हो, अहंकार को बढ़ाता ही है। जिस क्षण तुम कर्ता बन जाते हो, चाहे किसी भी ढंग से, तुम विनम्र होने का प्रयास कर सकते हो, लेकिन अगर तुम्हारी विनम्रता अभ्यास से आई है, तुम्हारे द्वारा आरोपित की गई है, तब कहीं गहराई में विनम्रता के भीतर अहंकार ताज पहने बैठा रहेगा, और यह कहता रहेगा, ‘देखो मैं कितना विनम्र हूं।’

मैंने एक —व्यक्ति के बारे मे सुना है, जो महान मनस्विद एडलर, जिसने हीनता—ग्रंथि, इनफिरिआरिटी काम्पलेक्स शब्द ईजाद किया था, से मिलने गया। उस व्यक्ति का मनोविश्लेषण किया गया। कुछ माह बाद और बड़े परिश्रम के उपरांत एडलर ने उससे कहा अब तुम ठीक हो गए हो। उस व्यक्ति ने कहा : हां, मैं भी महसूस करता हूं कि मैं ठीक हूं। अब मैं ऐसा व्यक्ति हूं जिसमें दुनिया की सबसे सुंदर हीनता—ग्रंथि है—सारे संसार की सर्वश्रेष्ठ हीनता—ग्रंथि।

हीनता की ग्रंथि और वह भी सबसे सुंदर और सर्वश्रेष्ठ? ऐसा संभव है; यह रोज ही घटता है। तुम हीनता की ग्रंथि के बारे में भी अहंकारी हो सकते हो। तुम्हारी हीनता की ग्रंथि के बारे में भी तुममें श्रेष्ठता की ग्रंथि हो सकती है। मनुष्य कितना विचित्र होता है।

धार्मिक व्यक्तियों के पास जाकर उनकी शक्लें देखो। वे हर प्रकार से विनम्रता दिखाते हैं, लेकिन उनसे परिचित होने के लिए तुम्हें उनके भीतर जरा गहरे उतरना पड़ेगा। गहरे में उनका अहंकार यह महसूस करते हुए मुझसे ज्यादा विनम्र कोई और नहीं है, अति प्रसन्न रहता है। यदि तुम किसी धार्मिक व्यक्ति से कहो, मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिल गया है जो आपसे ज्यादा विनम्र है, तो उसे चोट पहुंचेगी, वह अपमानित महसूस करेगा, उससे ज्यादा विनम्र कोई नहीं हो सकता, यह असंभव है। लेकिन अहंकार का कुल प्रयास यही तो है—मुझसे ज्यादा अच्छा मकान किसी के पास न हो, मेरी कार से ज्यादा अच्छी कार किसी पास न हो, किसी का चेहरा मुझसे अधिक सुंदर न हो, मुझसे ज्यादा जानकारी किसी के पास न हो। ऐसी तुलना में पड़ कर स्वयं को बेहतर समझना ही तो है अहंकार।

इसे बदलने के लिए तुम कुछ भी नहीं कर सकते। तुम तो बस इस बात को देख सकते हो कि तुम्हारी ओर से कुछ भी किए जाने की कोई जरूरत नहीं है। और एक बार तुम इसे गिरा दो, बल्कि यह कहना उचित रहेगा कि एक बार तुम्हारी गहरी समझ में यह गिर जाए—तुम जीवन के प्रति खुल जाते हो। तब एक खुले कक्ष में बहती शीतल समीर की भांति जीवन तुममें से प्रवाहित होने लगता है। अभी तुम एक बंद कमरे जैसे हो, सारी खिड़कियां—दरवाजे बंद हैं, न कोई प्रकाश किरण तुममें प्रविष्ट होती है, न कोई ताजी हवा का झोंका तुममें होकर गुजरता है। तुम अपनी गुफा में हो, बंद। और निःसंदेह अगर तुम्हें दम घुटने जैसा लगे तो यह स्वाभाविक है।

लेकिन मैं जानता हूं कि खुद को डूबने देना कठिन है। इसमें समय लगता है। कुछ झलकियां चाहिए। कभी—कभी बहते जाओ, तैसे मत, महसूस करो कि नदी तुम्हें लिए जा रही है। कभी बाग में बस बैठ जाओ, चुनाव मत करो। ऐसा मत कहो कि क्या सुंदर है और क्या कुरूप। विभाजन मत करो, बस प्रत्येक वस्तु के प्रति मात्र वहां उपस्थित रहो। कभी बाजार में टहलने निकल पड़ो, न निंदा, न प्रशंसा, कुछ कहना मत। बहुत से ढंगों से सीखो कि कैसे बिना मूल्यांकन किए बस मौजूद रहा जाए। क्योंकि जिस क्षण तुम मूल्यांकन करते हो, तुमने चुनाव कर लिया। जिस क्षण तुमने कहा, यह अच्छा है, तुम कह रहे हो, ‘मैं इसे पाना चाहता हूं।’ जिस क्षण तुम कहते हो, यह बुरा है, तुम कह रहे हो, ‘मैं इसे नहीं चाहता; मैं इसे पाना नहीं चाहता हूं।’ जिस क्षण तुमने कहा, यह स्त्री खूबसूरत है, तुममें कामना उठ गई। जिस पल तुमने कहा, यह स्त्री बदसूरत है, तुम विकर्षित हो चुके होते हो। तुम पहले से ही भले और बुरे की, सुंदर और कुरूप की द्वैत की पकड़ में फंस चुके होते हो, तुम्हारे भीतर चुनाव प्रविष्ट हो चुका है।

अहंकार के ढंग बहुत सूक्ष्म हैं। व्यक्ति को बहुत सजग रहना होता है।

और एक बार—बस एक पल के लिए ही तुम जान लो कि अहंकार वहां नहीं है, तुम इसे निर्मित नहीं कर रहे हो—अचानक सारे द्वार खुल जाते हैं, और हर ओर से, सारी दिशाओं से जीवन तुम्हारी और उमड़ने लगता है। यह उमड़ना अति सुकोमल है। अगर तुम जागरूक नहीं हो, तो तुम इसे जान भी न पाओगे, महसूस भी न कर सकोगे। परमात्मा का स्पर्श बहुत सूक्ष्म होता है, इसकी अनुशन के लिए बहुत संवेदनशील होने की जरूरत है।

अभी उस दिन मैं हब उस्टर ह्यूस की एक छोटी सी कविता पढ़ रहा था।

नहीं भेजता प्रभु अपने वचन

हो जल का जैसे तीव्र प्रवाह

उग्र तूफान और जल प्लावन

बहा ले जाता हम को आह।

शीत में हरी शाख हो खड़ी

झलक दिखाता हो दिनेश

धरा पर कोमल रिमझिम झड़ी

ऐसे वह आता है सर्वेश।

…….धरा पर कोमल रिमझिम झड़ी, ऐसे वह आता है सर्वेश।

गहन समर्पण, संवेदनशीलता, जागरूकता में अचानक तुम किसी ऐसे भाव से भर उठते हो जिसे तुमने पहले कभी न जाना था। यह हमेशा से वहां था, लेकिन इसकी संचेतना होने के लिए तुम अति स्थूल थे। यह सदा से वहां था, लेकिन तुम संघर्ष में, अहंकार को पोषित करने के उपायों में इस कदर उलझे हुए थे कि तुम कभी पीछे मुड कर इसे महसूस न कर सके। यह वहां सदा मौजूद था पर तुम उपस्थित नहीं थे। यह हमेशा से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था, लेकिन तुम घर लौटना भूल चुके थे। अहंकार को गिरा देना ही घर लौटने का उपाय है।

इसलिए खुद को डुबा दो। यहां मैं तुम्हें इसी की सारी कला सिखा रहा हूं। यदि मैं कुछ भी सिखा रहा हूं तो मैं तुम्हें मृत्यु सिखा रहा हूं। क्योंकि मैं जानता हूं केवल मृत्यु द्वारा ही पुनर्जीवन मिलता है।

प्रश्न:

 

आज सुबह आप उत्‍तरदायी होने की आवश्यकता पर, दूसरों पर निर्भर न होने पर और एकाकी होने पर बोले। मैं समझता हूं कि इन बातों से बचने का बहाना करने के लिए मैं संन्‍यास ले रहा हूं—हर बार आपसे पूछते रहना अब मैं क्‍या करूं, जब मैं उदास और अकेला होता हूं तो आपको उपस्‍थिति की पुकार, कल्‍पना करता हूं, कि खालीपन को भरते हुए आप मेरे पास आते है। मैं उनुत्‍तरदायी अनुभव करता हूं, और फिर से उलझ जाता हूं कि संन्‍यास क्‍या है?

गर तुम किसी दूसरे पर निर्भर रहे तो तुम सदा उलझे रहोगे, क्योंकि तब समझ तुम्हारी नहीं होगी। और समझ उधार नहीं ली जा सकती। अत: कुछ समय के लिए तुम खुद को मूर्ख बना सकते हो। लेकिन बार—बार सच्चाई प्रकट होती रहेगी और तुम उलझन में पड़ जाओगे। इसलिए उलझन से बचने का एकमात्र उपाय है—खुद को तर्क में मत समझाओ। उलझन से बचने का एकमात्र उपाय—आत्मनिर्भर होना, सचेत होना और जागरूक होना है।’जागरूकता को स्थगित मत करो।

जब कभी तुम किसी पर निर्भर होने लगते हो तुम जागरूकता से बच रहे हो। और एकदम शुरू से ही तुम्हें इसके लिए शिक्षित और संस्कारित किया गया है। मां—बाप, अधिकारी, समाज, शिक्षाविद, राजनेता सभी तुम्हें इस भांति संस्कारित करते रहते हैं कि तुम हमेशा दूसरों पर निर्भर रहो। तभी तुम्हें उनके अनुसार चलाया जा सकता है, तुम पर अधिकार जमाया जा सकता है। तभी तुम्हें दमित और शोषित किया जा सकता है, तुम्हें गुलामी की हालत में लाया जा सकता है। तुम अपनी आजादी खो देते हो।

ऐसी है तुम्हारे मन की दशा। जब तुम मेरे पास आते हो तो तुम इसी मनःस्थिति के साथ आते हो। निःसंदेह कोई और ढंग है भी नहीं। और तुरंत तुम्हारा मन तुम्हारी इसी मनःस्थिति से कार्य करने लगता है, तुम मुझ पर निर्भर होने लगते हो। लेकिन मैं तुम्हें यह सब नहीं करने दे रहा हूं। तुम्हें बार—बार धकेल कर मैं तुम्हें बार—बार तुम पर फेंक दूंगा। क्योंकि मैं तुम्हें तुम्हारी स्वयं की समझ पर निर्भर रखना चाहता हूं तभी यह कुछ स्थायित्वपूर्ण होगी, फिर तुम कभी उलझन में न पड़ोगे।

उलझाव आ ही जाता है.. .मैं तुमसे कुछ कहता हूं तुम इसमें विश्वास करना शुरू कर देते हो, परंतु यह तुम्हारी अपनी दृष्टि, तुम्हारा स्वयं का बोध नहीं होता है। फिर कल जिंदगी में कुछ घटता है और तुम मुश्किल में पड़ते हो। मुश्किल इसलिए आती है कि तुमने यंत्रवत सीखा है, तुमने मेरी बातें याद कर ली हैं। अब तुम इस उधार की समझ के द्वारा प्रतिसंवेदित करने की कोशिश— करोगे। जीवन प्रतिपल बदलता है। मेरी इस पल की समझ अगले पल ही तुम्हारे किसी काम की न रहेगी। मेरी इस समझ को स्थायी संदर्भ नहीं बनाया जा सकता। और अगर तुमने इसे शाब्दिक रूप से, बौद्धिकता से, मानसिक रूप से ही ग्रहण किया हो और तुम इसे साथ लिए फिरो, तो तुम बार—बार उलझन में पड़ोगे क्योंकि जीवन हमेशा तुम्हारी इस तथाकथित समझ को बेकार सिद्ध करता रहेगा।

जीवन केवल असली समझ पर भरोसा करता है। असली का अर्थ है : तुम्हारी अपनी, प्रामाणिक, जिसका तुममें जन्म हुआ हो।

मैं यहां तुम्हें जानकारी देने के लिए नहीं हूं मैं यहां तुम्हें सिद्धात देने के लिए नहीं हूं यही तो सदियों से किया जा रहा है और आदमी सदा से अज्ञानी बना रहा है। तुम्हें उस सत्य के प्रति सचेतन करने को हूं जो तुम्हारे पीछे तुममें छिपा है, वह है प्रकाश—स्रोत। उस स्रोत पर दस्तक दो, उस प्रकाश को अपने भीतर ज्योतिर्मय होने दो। और तभी तुम्हारे पास कुछ जीवंत होगा। तब जीवन में जो भी समस्याएं आएंगी, तुम उन्हें अपने अतीत की जानकारी से नहीं सुलझाओगे, तुम उन्हें वर्तमान में सुलझाओगे। तुम उनका सामना अपनी वर्तमान समझ से करोगे।

मैं जो कुछ भी कहता हूं वह हमेशा अतीत बन जाएगा। इस पल में मैंने कहा और उस पल में तुमने सुना, इस बीच यह अतीत में जा चुका होता है और जीवन बदलता चला जाता है, यह एक सतत प्रवाह है। यह किसी विराम को नहीं जानता, विश्राम को नहीं जानता।

इसलिए बार—बार तुम उलझन में पड़ोगे।

और मेरे साथ तो एक समस्या और भी है। .यदि अगले पल में तुम वही प्रश्न पूछोगे तो भी मैं वही उत्तर दुबारा नहीं दूंगा। क्योंकि मैं प्रतिसंवेदित करता हूं। मैं उत्तर नहीं देता। मैं अपने पुराने उत्तर याद नहीं रखता—मैं प्रति संवेदना करता हूं। तुम्हारा प्रश्न वहां है, मैं यहां हूं मैं पुन: प्रतिसवेदना करूंगा। और अगर तुम मेरे उत्तर एकत्रित करते गए, तो तुम न केवल उलझोगे वरन तुम पागल हो जाओगे। क्योंकि उनमें तुम कोई समस्वरता या कोई सुसंगति न पाओगे। वे असंगत हैं। मैं कर भी क्या सकता हूं? जीवन ही असंगत है। यदि मुझे जीवन के प्रति सच्चा रहना है तो मुझे अपने वक्तव्यों में असंगत होना पड़ेगा। यदि मैं अपने वक्तव्यों के प्रति सच्चा होना चाहूं तो मैं जीवन के साथ छल करूंगा। और मैं जीवन के प्रति सच्चा होना चाहूंगा। मैं अपने अतीत का विश्वास तोड़ सकता हूं लेकिन मैं वर्तमान के साथ विश्वासघाती नहीं हो सकता। मैं अपने वक्तव्यों के विपरीत जा सकता हूं लेकिन मैं वर्तमान जीवन के इस पल के विपरीत नहीं जा सकता।

इसलिए उलझन तो होगी। किसी दिन मैं कुछ कहूंगा और किसी दिन मैं कोई और बात कह दूंगा। यदि तुम तुलना करो, अगर मेरे वक्तव्यों में संगति की खोज करो, तो तुम परेशानी में, गहरी परेशानी में पड़ोगे। ऐसा मत करो। तुम तो बस मुझे सुनो। और मेरे उत्तरों को मत याद करो, मेरी प्रतिसंवेदना को सीखो। जो मैंने कहा उसकी चिंता मत करो, उस भंगिमा को देखो जिससे मैंने कहा है। उस ढंग को देखो जिससे मैं एक प्रश्न, एक परिस्थिति को प्रतिसंवेदित करता हूं। उत्तर नहीं बल्कि मेरी जीवंत प्रतिसंवेदना ही महत्वपूर्ण है।

और अगर तुम जीवंत प्रतिसंवेदना सीख सको तो तुम उत्तरदायी हो जाते हो। रिस्पासिबिलिटी शब्द का मेरा अर्थ शब्दकोश में दिए गए अर्थ से भिन्न है। शब्दकोश में रिस्पासिबिलिटी का अर्थ कर्तव्य, प्रतिबद्धता, जैसे कि तुम किसी दूसरे के प्रति जवाबदेह हो, इस प्रकार का है। यह शब्द करीब—करीब भद्दा है। मां अपने बच्चे से कहती रहती है, याद रहे, तुम्हारा उत्तरदायित्व मेरे प्रति है।’पिता अपने पुत्र से कहे चला जाता है, तुम मेरे प्रति जवाबदेह हो, याद रखो। समाज व्यक्तियों से कहता रहता है, तुम हमारे प्रति, समाज के प्रति जवाबदेह हो, याद रहे। और तुम्हारे तथाकथित ईश्वर के अवतार भी, वे भी लोगों से कहते रहे, तुम हमारे प्रति, मेरे प्रति जिम्मेदार हो।

जब मैं रिस्पासिबिलिटी शब्द का प्रयोग करता हूं तो मेरा अभिप्राय है तुम्हारी जीवंतता, प्रतिसवेदनात्मक जीवंतता। तुम इस पल में अपने अस्तित्व के अतिरिक्त किसी अन्य के प्रति उत्तरदायी नहीं हो। तुम प्रतिसंवेदना के लिए उत्तरदायी हो। खुले हृदय से, ग्रहणशील होते हुए संवेदित होने के लिए। बंद मुट्ठियों के साथ नहीं बल्कि खुले हाथों से। कुछ रोकते या छिपाते हुए नहीं, स्वयं को पूर्णत: खोलते हुए, जीवन के प्रति गहन श्रद्धा के साथ, चालाक और कुटिल होने की कोशिश न करते हुए। ऐसे में तुम जीवन के साथ प्रतिपल बहते रहते हो… क्योंकि जीवन बदलता रहता है, इसलिए तुम्हारा प्रतिसंवेदन भी बदलता रहेगा।

कई बार गर्मी होती है और तुम धूप में नहीं बैठ सकते हो, तो तुम्हें छाया की जरूरत पड़ेगी। कभी बहुत सर्दी होती है और तुम छाया में नहीं बैठ सकते हो, तुम धूप में बैठना चाहोगे, लेकिन तब कोई भी तुमसे यह नहीं कहने जा रहा है कि तुम्हारा बर्ताव बहुत असंगत है, उस दिन तुम छांव में बैठे थे, और अब तुम धूप में बैठे हो? सुसंगत बनो। चुनाव करो! यदि तुम धूप में बैठना चाहते हो, संगत बनाते हुए धूप में बैठे रहो।’ तुम इस बेतुकेपन पर हंसोगे, लेकिन लोग तुमसे जीवन में यही उम्मीद लगाते हैं।

तुम्हारे चारों ओर सब कुछ बदल रहा है, स्थायी विचारों के चक्कर में मत पड़ो वरना तुम संशयग्रस्त हो जाओगे।

और दूसरे जो कहते हैं, उसे मत सुनना, अपने हृदय की सुनो।

मैंने सुना है,

जिस बात से मनुष्य—जाति पीढ़ियों से भयभीत थी वह हो गई एक नाभिकीय प्रक्रिया अनियंत्रित हो गई और सारा भूमंडल विस्फोटित हो गया, जिससे वहां के सारे जीवधारी मारे गए।

स्वभावत: परलोक के द्वार पर भयंकर उलझन खड़ी हो गई। एक ही समय में इतनी सारी आत्माएं जो आ पहुंची, अत: सेंट पीटर ने कई नोटिस लगा दिए जिनके पीछे आत्माएं अपने वर्ग के अनुसार पंक्ति बद्ध होकर खड़ी रहें।

एक जगह लिखा था. मालिकों कि लिए। दूसरी जगह. वे पुरुष जो अपनी पत्नियों के नियंत्रण में हैं।’मालिकों के लिए’ वाले स्थान में केवल एक आत्मा खड़ी थी, जब कि दूसरे सूचना—पट के पीछे इतनी लंबी लाइन थी कि वह आकाश—गंगा तक पहुंच रही थी।

सेंट पीटर ने उस अकेली आत्मा से उत्सुकता वश कहा केवल तुम ही यहां हो, ऐसा कैसे हो गया? मुझे नहीं पता, पत्नी ने मुझे यहां खड़े होने को कहा, उत्तर मिला।

कभी तो पत्नी कहती है, कभी पति कहता है, कभी पिता, तो कभी मां, और कभी गुरु। किसी ने यहां तुमसे खड़े होने को कहा है और तुम नहीं जानते, क्यों? सुनिश्चित करो कि तुम यहां क्यों खड़े हो? सुनो। यह थोड़ा जटिल है। यदि तुम किसी का अनुगमन भी करना चाहते हो तो अपने हृदय की सुनो, क्या तुम ऐसा ही चाहते हो। मैं ऐसा नहीं कहता कि किसी का अनुगमन मत करो, क्योंकि अगर तुम्हारा दिल कहता है कि अनुगमन करो, तब तुम क्या करोगे? लेकिन हृदय की बात सुनो, अपनी अनुभूति को पहले अनुभव करो, क्योंकि अंततः अपने हृदय के लिए तुम्हीं जिम्मेवार होगे। और सब कुछ बाद में आता है, तुम ही प्राथमिक हो। अपने संसार का केंद्र तुम ही हो।

अगर तुम मेरा अनुगमन करने का चुनाव करते हो या तुम मेरे द्वारा दीक्षित होना चुनते हो, यदि तुम मेरे प्रति समर्पण का चुनाव करते हो, पहले अपनी अनुभुति को अनुभव करो। वरना तुम बार—बार उलझन में पड़ोगे, और बार—बार तुम सोचने लगोगे, ‘मैं यहां क्या कर रहा हूं। तुम सोचने लगोगे, ‘मैंने संन्यास क्यों लिया? क्यों? क्योंकि कोई और कह रहा है इसलिए इसे मत लेना। इसे अनुभव करो। तब उलझन कभी नहीं उठेगी। तब यह उठ ही नहीं सकती, तब उलझन का कोई सवाल ही नहीं है।

उलझन एक गलत क्रियाकलाप है। यदि तुम अपने केंद्र से कार्य करते हो, तो उलझन कभी नहीं पैदा होती। यदि तुम किसी और व्यक्ति के केंद्र से कार्य करो तो लगातार उलझन पैदा ही होती रहेगी—और लोग दूसरों की समझ, सलाहकारों, विशेषज्ञों की राय से कार्य कर रहे हैं। वे उनके द्वारा जी रहे हैं। लोगों ने अपना जीवन पूरी तरह से दूसरों के हाथों में छोड़ रखा है। इसे महसूस करो, अनुभूति के उदय की प्रतीक्षा करो। धैर्य रखो, जल्दबाजी में मत पड़ी। और अगर तुमने अनुभूति को ठीक से महसूस कर लिया है तो तुम्हारी जड़ गहरी है और यही जड़ तुम्हें बल प्रदान करेगी, और यही जड़ किसी उलझन को तुम्हारे पास ठहरने ही नहीं देगी।

प्रश्न:

 

समस्या क्या है?

ब तुम मेरे लिए समस्या निर्मित कर रहे हो। यह प्रश्न ऐसा ही है, जैसे कोई आए और पूछे पीलापन क्या है? या ‘पीला रंग क्या है’? पीले फूल होते हैं, पुराने पीले पत्ते होते हैं, पीला सुनहरा सूर्य होता है और भी हजारों चीजें हैं जो पीली हैं, लेकिन क्या तुमने पीलापन देखा है। पीली चीजें तुमने देखी हैं, लेकिन पीलापन! उसे किसी ने नहीं देखा, कोई देख भी नहीं पाएगा।

समस्याएं ही समस्याएं हैं, लेकिन तुम कभी नहीं जान पाते कि समस्या क्या है; तब प्रश्न निरपेक्ष है। समस्या जैसा कुछ भी नहीं है। समस्याएं इसीलिए हैं क्योंकि तुम्हारे भीतर का अंतर्द्वंद समस्या है। तुम्हारे भीतर दो मन हैं, तभी समस्या उठती है। तुम नहीं जानते कहां जाऊं, इस रास्ते या उस रास्ते, तभी समस्या उठ खड़ी होती है। तुम्हारे भीतर के द्वैत का प्रश्न ही समस्या है, तुम यह करना चाहते हो, और तुम वह भी करना चाहते हो, और समस्या उपजती है। लेकिन अगर तुम एक हो तो, कोई समस्या नहीं हैं। तुम सहजता से चलते हो। जब कभी भी तुम इस प्रकार का निरपेक्ष प्रश्न—समस्या क्या है या पीलापन क्या है या प्रेम क्या है पूछते हो, तो बात कठिन हो जाती है।

संत अगस्तीन ने कहा है : मैं जानता हूं समय क्या है, लेकिन जब लोग मुझसे पूछते हैं, समय क्या है, मैं अचानक दिग्भ्रमित हो जाता हूं। हरेक व्यक्ति जानता है समय क्या है, लेकिन अगर कोई पूछता है, बिलकुल ठीक—ठीक बताओ यह क्या है, तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम यह दिखा सकते हो कि समय क्या है, लेकिन अपने शुद्धतम रूप में, निरपेक्षत: समय है क्या?

लेकिन मैं समझता हूं कि यह समस्या क्यों आ खड़ी हुई है। कुछ ऐसे लोग हैं जो इतने संशयग्रस्त हैं कि वे तय नहीं कर सकते कि समस्या क्या है। वे इतने संशयग्रस्त हैं, ऐसे चौराहे पर खड़े हैं कि समाधान क्या है यह तो बहुत दूर की बात है, अभी तो वे यह भी तय नहीं कर पाए हैं कि समस्या क्या है। बहुत हैं ऐसे लोग, क्योंकि तुमने अपनी भावनाओं से अपने. अस्तित्वगत हृदय से संपर्क खो दिया है। इसलिए समाधान ही नहीं, बल्कि समस्या भी दूसरे के द्वारा दी जाती है। तुम मुझसे पूछ रहे हो कि मैं तुम्हें बताऊं कि तुम्हारी समस्या क्या है। तुम मुझ पर न सिर्फ समाधान के लिए निर्भर हो, तुम मुझ पर समस्या के लिए भी निर्भर हो। लेकिन अतीत में यह इसी भांति होता चला आया है।

जब लोग मेरे पास आते हैं तो मैं तुरंत ही यह देख सकता हूं कि उनके पास अपनी समस्या है या वे इसे उधार मांग कर लाए हैं। अगर कोई ईसाई आता है तो वह ऐसी समस्या लेकर आता है जिसे कोई हिंदू कभी नहीं ला सकता। यदि कोई यहूदी आता है तो वह ऐसी समस्या लाता है जिसे कोई ईसाई कभी नहीं ला सकता। जब कोई जैन आता है तो वह बिलकुल ही अलग समस्या लेकर आता है जिसे कोई हिंदू कभी नहीं ला सकता। क्या होता है? ये समस्याएं जीवन की समस्याएं नहीं हो सकती हैं, क्योंकि जीवन की समस्याएं यहूदी, हिंदू ईसाई या जैन नहीं हो सकती हैं, जीवन की समस्याएं केवल जीवन की समस्याएं ही हैं। ये समस्याएं सैद्धांतिक हैं, वे सिखाई गई हैं। उनको समस्याएं भी सिखाई जाती है—अब पूछने को क्या बचा?

मानवता का बहुत चालाक लोग शोषण करते रहे हैं। पहले वे सिखाते हैं कि क्या पूछा जाए, और फिर उनके पास उत्तर भी होता है। यदि तुम सही प्रश्न पूछो तो वे सही उत्तर दे देते हैं। और दोनों ही झूठे हैं क्योंकि प्रश्न भी उन्हीं के द्वारा सिखाया गया है और फिर वही तुमने पूछा। और वे तुम्हें केवल वे ही प्रश्न सिखाते हैं जिनका उत्तर वे दे सकते हों। इस प्रकार खेल अच्छी तरह, बिलकुल बढ़िया ढंग से चलता रहता है।

अगर तुम किसी जैन साधु के पास जाओ और तुम्हें जैनों ने न सिखाया हो कि कौन सो प्रश्न पूछना है, तुम समस्या खड़ी कर दोगे, तुम वहां घबड़ाहट फैला दोगे। क्योंकि तुम ऐसे प्रश्न पूछोगे जिनके लिए परंपरा नें—उनकी परंपरा ने—उत्तर तैयार नहीं कर रखे हैं। यदि तुम किसी जैन से पूछो, परमात्मा ने संसार ‘ मरो बनाया, तो वह हैरान रह जाएगा, क्योंकि उसके धर्म—सिद्धांत में कोई परमात्मा है ही नहीं, उसके धर्म—सिद्धांत में कभी भी कुछ बनाया नहीं गया है, यह संसार सदा, सदा और सदा से विद्यमान है। सृष्टि रचना कभी हुई ही नहीं। अत: अगर तुम पूछ लो कि परमात्मा ने संसार क्यों बनाया, तो एक जैन के लिए तुम्तारा प्रश्न बिलकुल बेतुका है, क्योंकि न कोई परमात्मा है और न कोई सृष्टि, यह संसार सदा से है। ‘सृष्‍टि’ शब्द ही जैन— भाषावली में नहीं हैं, क्योंकि सृष्टि का मतलब होता है : स्रष्टा का अस्तित्व, और जब कोई सृष्टि ही नहीं हुई तो कोई स्रष्टा कैसे हो सकता है? यह संसार है, लेकिन यह कोई सृष्टि नहीं है। यह शाश्वत है, असृजित है; यह सदा से मौजूद रहा है।

कभी भी सैद्धांतिक प्रश्न मत पूछो, क्योंकि यह उधार लिया हुआ है। अस्तित्वगत प्रश्न खोज लो। पता लगाओ कि तुम्हारी कठिनाई क्या है। जान लो कि तुम्हारा जूता कहां काटता है। अपनी निजी समस्याओं को जानो।

और हो सकता है कि तुम्हारी समस्या किसी दूसरे की समस्या न हो, इसलिए दूसरा इस बात पर राजी ही न हो कि यह एक समस्या है। समस्याएं व्यक्तिगत होती हैं वे कोई जागतिक घटना नहीं हैं। मेरी समस्या मेरी समस्या है, तुम्हारी समस्या तुम्हारी समस्या है। वे तुम्हारे अंगूठों की छाप की तरह ही अलग—अलग हैं, और उन्हें होना ही चाहिए।

जब मैं देखता हूं लोग उधार की समस्याएं पूछ रहे हैं, उन पर तुम्हारे हस्ताक्षर नहीं हैं, और तब वे निरर्थक हो जाती हैं—पूछने योग्य भी नहीं हैं, तो उत्तर के योग्य भी नहीं होती हैं। तुम्हारी समस्याओं पर तुम्हारे हस्ताक्षर होने चाहिए। उन्हें तुम्हारे जीवन से, उसके संघर्ष, चुनौतियों, तुम्हारी प्रतिसंवेदनाओं, और उनका सामना करने की क्षमता से उठना चाहिए।

मैंने सुना है, अंतत: विवाह के दलाल ने कोहेन को उस लड़की से मिलने के लिए राजी कर ही लिया। उसे सुंदर, प्रतिभाशाली, शिक्षित और ढेरों रुपये—पैसे वाली बताया गया था।

कोहेन उससे मिला, पसंद किया, और विवाह कर लिया।

एक ही दिन बाद वह उस विवाह के दलाल के पास पहुंचा और क्रोधित होकर बोला, तुमने मेरे साथ गंदा मजाक किया है, ओह, उसने खुद ही माना है कि वह पूना के आधे पुरुषों के साथ सो चुकी है। तो क्या हुआ, आखिर पूना है ही कितना बड़ा, दलाल ने उत्तर दिया।

तुम्हारी समस्या दलाल की समस्या नहीं है। तुम्हारी समस्या तुम्हारी है, किसी और की नहीं। याद रहे अगर यह व्यक्तिगत समस्या है तो ही सुलझाई जा सकती है क्योंकि यह सच्ची है। यदि तुमने इसे परंपरा, समाज या किसी और से उधार ले लिया है तो इसका कभी उत्तर नहीं दिया जा सकेगा क्योंकि पहली बात तो यही है कि यह तुम्हारी समस्या ही नहीं थी। जैसे कि तुमने किसी से कोई बीमारी सीख ली हो।

अभी उस रात को ही मैं पढ़ रहा था कि एक प्रसिद्ध चिकित्सक के क्लीनिक में एक नोटिस, विशेषकर महिलाओं के लिए, लगा था, उसमें लिखा कृपया अन्य महिलाओं के साथ अपनी बीमारियों और लक्षणों के बारे में बात न करें—लक्षणों का आदान—प्रदान न करें, क्योंकि यह डाक्टर को उलझा देगा। डाक्टर की प्रतीक्षा करती हुई महिलाएं बात तो करेंगी ही, और एक—दूसरे के लक्षणों से प्रभावित भी जरूर होंगी। और निश्चित रूप से यह डाक्टरों को उलझाता है, क्योंकि फिर वह नहीं जान पाता कि बात क्या है।

ऐसे भी लोग हैं जो अखबारों में दवाओं के विज्ञापन पढ़ कर बीमारियां ले लेते हैं। मैने एक आदमी के बारे में सुना है जिसने आधी रात में अपने चिकित्सक को फोन किया। निःसंदेह आधी रात में अपनी नींद तोड़े जाने से डाक्टर क्रोधित हुआ। उसने फोन उठाया, पूछा, बात क्या है? और उस व्यक्ति ने बीमारी का वर्णन करना शुरू कर दिया। डाक्टर ने कहा: संक्षेप में बताएं, मैंने भी समाचार पत्रिकाओं में यह लेख पड़ा है, संक्षिप्त करें।

लोग अपनी बीमारियां पत्रिकाओं से सीख लेते हैं। जरा अपने मन को देखो। यह इतना नकलची है कि यह दूसरों की समस्याओं से प्रभावित हो सकता है, और तुम्हें इतना प्रभावग्राही बना सकता है कि तुम उसे अपनी समस्या के रूप में सोच सकते हो। फिर इसे सुलझाने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि पहली बात तो यही है कि यह तुम्हारी समस्या है ही नहीं।

मेरे देखने में यही आया है : अगर कोई समस्या असली है तो ही इसे सुलझाया जा सकता है। मैं समस्या को इसी भांति परिभाषित करता हूं : यह कि इसे सुलझाया जा सकता है। यदि इसे सुलझाया न जा सके तो यह समस्या नहीं है। कोई रोग, तब ही रोग है, जब कि उसका इलाज किया जा सके। सभी रोगों का उपचार हो सकता है, सैद्धांतिक रूप से संभव है ही। लेकिन अगर तुम्हें बीमारी है ही नहीं, तो तुम्हें असाध्य बीमारी है। तब कोई सहायता न कर सकेगा, तब यह सिर्फ तुम्हारे मन में ही है। कोई दवा तुम्हारी सहायता नहीं कर सकती।

इसलिए समस्या के बारे में समझने वाली पहली बात तो यह कि इसे अस्तित्वगत होना चाहिए, सैद्धांतिक, वैचारिक, दर्शन शास्त्रीय नहीं। बल्कि इसे दर्शन शास्त्रीय न होकर मनोवैज्ञानिक होना चाहिए, और इसे जीवन के संघर्ष से उपजना चाहिए।

क्योंकि तुम मृत विचारों में जकड़े हुए हो, इसी से तुम्हारी नब्बे प्रतिशत समस्याएं जन्मती हैं, और तुम उन्हीं विचारों से चिपकते हो। जब कोई ऐसी परिस्थिति सामने आती है जो तुम्हारे विचारों के अनुकूल न हो, तभी समस्या उठ खड़ी होती है—और तुम विचार बदलने के स्थान पर परिस्थिति को बदलने की कोशिश करने लगते हो। यदि तुम्हारे सामने ऐसी स्थिति आ जाए जो तुम्हारी विचार पद्धति से मेल न खाती हो, तो तुम अपनी विचार पद्धति बदलने के स्थान पर उस परिस्थिति को बदलने की जी—तोड़ कोशिश करते हो, तभी समस्या का जन्म होता है।

हमेशा अपने मन को बदलने को तैयार रहो क्योंकि जीवन को तुम्हारी मान्यताओं के अनुसार नहीं बदला जा सकता है। लेकिन हमने सीख रखा है कि जीवन को किस ढंग से देखें, कैसे उसकी व्याख्या करें, हम बंधी बधाई लीक पर चलते रहते हैं।

मैं तुमसे एक कहानी कहना चाहता हूं—

एक छोटा सा आदमी अपने बॉस से बहुत भयभीत रहा करता था। एक दिन उसने अपने साथ के कर्मचारी को बताया कि वह बीमार है। उसका मित्र बोला, तुम अपने घर क्यों नहीं चले जाते?

ओह! मैं ऐसा नहीं कर सकता।

क्यों नहीं कर सकते? नासमझ मत बनो, उसे कभी पता नहीं चलेगा, वह तो आज यहां है भी नहीं।

अंतत: वह व्यक्ति राजी हो गया और घर चला गया। जब वह वहां पहुंचा, उसने खिड़की से देखा—और उसका बॉस वहीं था, उसकी पत्नी के आलिंगन और चुंबन में व्यस्त। इसलिए वह दौड़ता हुआ वापस कार्यालय में पहुंचा! क्या खूब मित्र हो तुम भी, उसने अपने सहकर्मी से कहा, मैं तो फंसता—फंसता बचा।

सोचने का बस वही पुराना ढंग। परिस्थिति बिलकुल अलग थी। उसने अपने बॉस को पकड़ लिया होता, लेकिन वही पुराना विचार कि उसका बॉस हमेशा उसे ही पकड़ना. चाहता है।

जीवन का निरीक्षण करो, और अपने मन से मत चिपको। तुम्हारी नब्बे प्रतिशत समस्याएं बिना किसी परेशानी के मिट जाएंगी। तुम्हारी दस प्रतिशत समस्याएं बचेंगी, वे अस्तित्व गत हैं। और उनकी वहां जरूरत भी है, क्योंकि तुम्हें उनके माध्यम से विकसित होना है। यदि वे भी मिट जाएं तो तुम विकसित नहीं होगे। संघर्ष की जरूरत है। दर्द की आवश्यकता है। पीड़ा की जरूरत है। क्योंकि इसी से तुम्हारा संकेंद्रण होगा, यह तुम्हें और जागरूक बनाएगी। और अगर तुम इसका अतिक्रमण कर सके तो तुम्हें वही आनंद उपलब्ध होगा जो किसी समस्या से पार पाने में मिलता है।

यह पर्वतारोहण जैसा है। तुम पहाड़ पर ऊपर की ओर जा रहे हो—थके हुए, पसीना—पसीना, श्वास कठिनाई से चल पार रही है, चोटी पर पहुंचना असंभव मालूम पड़ रहा है, और तभी तुम शिखर तक पहुंच गए, और तुम आकाश के नीचे लेटे हो, और तुम शिथिल हो गए हो, और तुम आराम कर रहे हो, फिर भी तुम प्रसन्न हो कि तुमने चढ़ाई करने का निर्णय लिया था। लेकिन एक कठिन चढ़ाई के बाद ही होता है। तुम उस शिखर पर हेलिकाप्टर से भी जा सकते हो, लेकिन तब तुमने इसे अर्जित नहीं किया है। इसलिए जो व्यक्ति शिखर पर हेलिकाप्टर द्वारा पहुंचता है, और वह व्यक्ति जो अपने पैरों पर चल कर गया है, अलग शिखरों पर पहुंचते हैं। वे कभी भी एक ही शिखर पर नहीं पहुंचते। तुम्हारे साधन तुम्हारे साध्य बदल देते हैं। जो व्यक्ति हेलिकाप्टर से उतारा गया है, उसे कुछ अच्छा लगेगा, वह कहेगा, ही, यह खूबसूरत है। उसका हर्ष उस आदमी जैसा होगा जिसका पेट खाने से एकदम भरा हुआ है, और तभी एक सुस्वादु भोजन की एक प्लेट उसके सामने आ जाती है, वह कहता है, अच्छा है। वह इसे थोड़ा बहुत चख सकता है—जरा सा, लेकिन उसका पेट इतना ज्यादा भरा है कि उसे जरा भी भूख नहीं है। और उसके पास एक ऐसा व्यक्ति खड़ा है जो भूखा है।

शिखर तक पहुंचने के लिए व्यक्ति में अभीप्सा भी होनी चाहिए। और यह अभीप्सा तुम्हारे चढ़ने के साथ—साथ बढ़ती है। तुम अधिकाधिक अभीप्सा से भरते हो, तुम और—और थकते जाते हो, तुम और— और तत्पर होते जाते हो… और जब तुम शिखर पर पहुंच जाते हो तो तुम विश्राम करते हो। तुमने इसे अर्जित किया है।

जीवन में बिना अर्जित किए तुम्हें कुछ नहीं मिल सकता और जब तुम जीवन के साथ चालाकी करने की कोशिश करते हो तो तुम अनेक अवसरों को खो दोगे।

इसलिए उन समस्याओं को छोड़ दो जो तुम्हारी नहीं हैं। उन समस्याओं को छोड़ दो जिन्हें तुमने दूसरों से सीख लिया है। उन समस्याओं को छोड़ो जो तुम्हारे जड़ मताग्रहों से जन्मी हैं। तरल हो जाओ, गतिमय हो। प्रतिपल अतीत के प्रति मरो और पुन: जन्म लो ताकि तुम पर कोई मान्यता, जीवन के प्रति कोई जड़ दृष्टिकोण हावी न रहे, और तुम सदा खुले, उपलब्ध और प्रतिसंवेदनात्मक रहो। तब सिर्फ वे समस्याएं ही रहेंगी जिनकी आवश्यकता है, जो तुम्हारे विकास का एक अवयव हैं।

जैसा कि मैं देखता हूं लोग हैं जो डरें में बंधा जीवन जी रहे हैं, वह सच्चा जीवन नहीं है, बस खोखली मुद्राएं मात्र हैं। उनकी समस्याएं भी अर्थहीन, खोखली हैं। कोई आता है और पूछता है, क्या परमात्मा है? यह समस्या खोखली है। तुम्हें परमात्मा से क्या लेना—देना? तुमने तो अभी स्वयं को ही नहीं जाना। प्रारंभ से ही आगे बढ़ो, प्रारंभ से ही शुरू करो। तुमने तो अभी जानने वाले को ही नहीं जाना। तुम्हें तो यह भी नहीं पता कि तुम्हारे भीतर की यह जागरूकता क्या है। और तुम परमात्मा के बारे में पूछ रहे हो, तुम उस परम जागरूकता के बारे में पूछ रहे हो, आत्यंतिक जागरूकता के बारे में? और जो जागरूकता तुम्हें भेंट स्वरूप मिली हुई है, उसके बारे में तुमने जाना भी नहीं। जो पुष्प तुम्हारे हाथ में है उसके बारे में तुमने सीखा ही नहीं और तुम परम खिलावट के बारे में पूछ रहे हो। मूढ़तापूर्ण है यह बात।

परमात्मा के बारे में सब कुछ भूल जाओ। बिलकुल अभी तो अपने अस्तित्व में प्रवेश .करो और देखो परमात्मा ने तुम्हें क्या दिया है, समग्र अस्तित्व ने तुम्हें क्या दिया है। और अगर तुम इसे जान सके तो तुम्हारे लिए और भी द्वार खुल जाएंगे। जितना तुम जानते हो उतने ही ज्यादा रहस्य अनावृत हो जाते हैं। और परमात्मा तो परम रहस्य है—जब तुमने और सब कुछ जान लिया, और अब जानने को कुछ न बचा, और तुम जीवन की सारी पीड़ाओं, संतापों और दुश्चिताओ को झेल चुके हो, सिर्फ तब। परमात्मा अंतिम उपहार है, तुम्हें इसे अर्जित करना पड़ेगा।

ऐसे प्रश्न मत पूछो जो तुम्हारे साथ असंगत हों।

और खोखली मुद्राओं का, ढर्रे में बंधा जीवन मत जीयो। लोग चर्च चले जाते हैं, खोखला प्रयास है यह। वे वहां कभी जाना नहीं चाहते थे; फिर तुम क्यों जा रहे हो? क्योंकि हर कोई जा रहा है, क्योंकि यह एक सामाजिक औपचारिकता है, क्योंकि अगर तुम चर्च जाओगे तो लोग अच्छा समझते हैं, क्योंकि इससे तुम्हें एक प्रकार का सम्मान मिलता है। ये लोग जीसस के पास नहीं गए होते, लेकिन वे चर्च जाते हैं। चर्च सम्मानित हैं, जीसस कभी न थे। जीसस के पास जाना मुश्किल था। जीसस के पास जाना, तुम्हारी प्रतिष्ठा को दांव पर लगाना था।

तुम यहां हो, तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगानी पड़ती है, क्योंकि मेरे पास आने से तुम्हें कोई प्रतिष्ठा तो मिलने से रही। उसे खो तो सकते हो, परंतु पा नहीं सकते। यह औपचारिक नहीं हो सकता, क्योंकि महज एक औपचारिकता के लिए कोई क्यों इतना कुछ दांव पर लगाएगा? यह तो बस हृदय की बात हो सकती है।

लोग अपनी प्रार्थनाएं करते हैं, क्योंकि ऐसा किया जाना है, खोखली चेष्टा है यह। उनके हृदयों में कोई प्रेम नहीं है, उनके हृदयों में कोई अहोभाव नहीं है और वे प्रार्थना किए चले जा रहे हैं। तब ऐसी समस्याएं उठती हैं जो व्यर्थ हैं।

सिर्फ वही करो—जिसके लिए तुममें भावना हो।

मैंने सुना है, लगभग अस्सी वर्ष की आयु के भूतपूर्व रेलवे कर्मचारी का घर रेलवे लाइन के निकट था, वह रिटायर हो चुका था, जो भी मालगाड़ी वहां से गुजरती वह उसके डिब्बे गिना करता था। इसकी कोई जरूरत तो नहीं थी, बस पुरानी आदत भर थी। एक रविवार को पारिवारिक पिकनिक के दौरान उसके पुत्र ने गौर किया कि वह गुजरती हुई ट्रेन की उपेक्षा कर रहा है, उसने पूछा, क्यों, आप डिब्बों को क्यों नहीं गिन रहे हैं?

के आदमी ने जवाब दिया, मैं रविवार को काम नहीं करता।

अपने जीवन का निरीक्षण करो, उसे ज्यादा सच्चा, प्रामाणिक, वास्तविक बनाओ। अर्थहीन मुद्राओं के साथ मत चलो, वरना तुम्हारे प्रश्न भी अर्थहीन होंगे। वे समस्याओं की भांति प्रतीत होंगे, परंतु वे वास्तविक समस्या नहीं होंगे।

अब असली समस्या और नकली समस्या में अंतर क्या है? झूठी समस्या वह है जिसे हल किया जा सके, फिर भी कुछ न सुलझे। और सच्ची समस्या वह है जो भले ही हल न हो, फिर भी इसे सुलझाने के प्रयास में ही बहुत कुछ सुलझ जाए। इस प्रयास में ही तुम और सजग, और जानकार, और समझदार हो जाते हो। तुम अपने बारे में इतना कुछ जान लेते हो, जितना तुमने पहले कभी न जाना था

समस्या स्वयं का सामना करने का, अपने अंतस की तीर्थयात्रा पर निकलने का एक अवसर है। समस्या तो एक द्वार है। इसका अपने अस्तित्व में उतरने कि लिए उपयोग कर लो।

तो मेरा उत्तर है : समस्या विकास का एक अवसर है। समस्या परमात्मा की भेंट, दिव्यता से एक चुनौती है। इसका सामना करो, इसका अतिक्रमण करने के, इससे ऊपर जाने के उपाय खोजो और तुम अदभुत रूप से लाभान्वित होंगे।

प्रश्न:

 

आप कहते है, वही गलती दुबारा मत करो। जब तक मैं अपने मन को, मूल्‍यांकन, तुलना और निर्णय हेतु बीच में न लाऊं, तब तक मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं? और तब मुझे न कहना पड़ता है।

 

ब मैं कहता हूं एक गलती को दुबारा मत करो, तो मैं मूल्यांकन, निर्णय, तुलना करने को नहीं कह रहा हूं। मैं तो देखने को कह रहा हैजब तुम गलती कर रहे होते हो, इसे ऐसी समग्रता से देखो कि तुम्हें दिख जाए कि यह गलती है। इस देखने में ही यह गिर जाती है, तुम उसे कभी दोहरा नहीं पाओगे।

उदाहरण के लिए, अगर तुमने अपना हाथ आग में डाला और यह जल गया है। अगली बार जब तुम आग के पास होगे तो क्या तुम अरस्तु का न्यायिक तर्क प्रयोग करोगे, कि यह भी एक आग है, सारी अग्निया जलाती हैं, इसलिए मुझे अपना हाथ इसमें नहीं डालना चाहिए। क्या तुम अतीत के अनुभव से तुलना करोगे? क्या तुम मूल्यांकन करोगे? यदि तुमने ऐसा किया तो तुम वही गलती दुबारा करने से बच नहीं पाओगे। क्योंकि, तब तुम्हारा मन कहेगा, शायद यह आग कुछ अलग किस्म की है। और कौन जाने कि आग ने अपनो जीवन—शैली बदल ली हो। हो सकता है कि अब वह वैसा ही व्यवहार न करे। हो सकता है उस समय वह क्रोध में थी और इस समय वह क्रोध में नहीं है। और कौन जानता है कि कब क्या हो?

वह मन जो मूल्यांकन करता है, निर्णय करता है, तुलना करता है, वह तो यह दिखा ही रहा है कि उसको बात समझ में नहीं आ पाई है। वरना मूल्यांकन और तुलना की जरूरत क्या है? यदि तुमने एक तथ्य को देख लिया है तो वह तथ्य ही पर्याप्त है। तुम आग से बचोगे।

अत: जब तुम अनुभवों से गुजर रहे होतो सजग रहो, अंधे’ और बहरे मत बनो। मैं पीछे देखने को नहीं कह रहा हूं। मैं तो अभी इसी समय में देखने के लिए कह रहा हूं जहां कहीं भी तुम हो वहीं, और यदि यह गलती है तो, यह स्वत: ही गिर जाएगी। एक गलती को गलती की भांति जानने से ही यह गिर जाती है। यदि यह खुद से ही नहीं गिर रही है तो इसका अभिप्राय यही है कि तुमने अभी पूरी तरह से नहीं जान पाया कि यह गलती है। कही न कहीं या किसी रूप में यह भ्रम बना रहता है कि यह गलती नहीं है।

लोग आकर मुझसे कहते हैं, हमें पता है क्रोध बुरा है, और हम यह जानते हैं कि यह जहरीला है, और हम जानते हैं कि हमारे लिए घातक है, लेकिन करें क्या? हम तो क्रोधित होते ही रहते हैं? वे क्या कह रहे हैं? वे कह रहे हैं कि उन्होंने सुना है लोग कहते हैं कि क्रोध बुरा है, उन्होंने शास्त्रों में पढ़ लिया है कि क्रोध जहरीला है लेकिन इसे उन्होंने स्वयं नहीं जाना है, अन्यथा बात समाप्त हो गई होती।

सुकरात ने कहा है ज्ञान ही सदगुण है। श्रेष्ठ है यह कथन। वह कहता है, जानने का अर्थ है, हो जाना। एक बार तुम जान लो कि यह दीवाल है, द्वार नहीं, तो तुम बार—बार जाकर अपना सिर उससे नहीं टकराते। एक बार पता चल गया कि यह दीवाल है तब तुम द्वार की खोज करते हो। एक बार तुम्हें द्वार मिल गया तो तुम सदा ही द्वार से होकर गुजरते हो। यहां कोई बार—बार पिछले अनुभव के बारे में सोचने, तुलना करने, निश्चय करने और निष्कर्ष निकालने का प्रश्न नहीं उठता है।

मैंने सुना है, एक बहरा पादरी स्वीकारोक्तिया, कनफेशंस सुन रहा था, तभी एक आदमी कठघरे में आया, कदमों पर झुका और बोला, ओह फादर, मैंने एक जघन्य कृत्य कर डाला है। मैंने अपनी मां की हत्या कर दी।

क्या? का पादरी कान के पीछे हाथ रख कर बोला।

मैंने अपनी मां की हत्या कर दी है, दोषी व्यक्ति कुछ जोर से बोला

क्या बात हुई, जरा जोर से कहो, ईश्वर के उस दूत ने आशा दी।’

मैंने अपनी मां की हत्या कर दी है, परेशान पापी जोर से चिल्लाया।

आह! पादरी ने कहा, कितनी बार?

बहरा आदमी तो बहरा आदमी है, अंधा आदमी तो अंधा आदमी है। यदि तुम अनुभव की बात नहीं सुनते, यदि तुमने अपने अनुभव के प्रति कान बंद कर रखे हैं, तब तुम बार—बार और बार—बार उसी को पुनरुक्त करते रहोगे। वस्तुत: तुम पुनरुक्ति कर रहे हो यह कहना भी ठीक नहीं है. तुम इसी को पुन: कर रहे हो, एक नये काम की तरह—क्योंकि पिछली बार तुम चूक गए थे। यह कोई पुनरुक्ति नहीं है।

मेरी समझ ऐसी है. कि कोई गलती कभी दोहराई नहीं जाती, यदि एक बार तुमने इसे गलती की भांति समझ लिया तो काफी है। यदि तुम इसे दोहराते हो तो इसका मतलब है कि तुम इसे नये ढंग से कर रहे हो, क्योंकि अतीत अभी तक तुम्हारी चेतना में प्रविष्ट नहीं हुआ है। तुम इसे दुबारा पहली बार कर रहे हो लेकिन यह पुनरुक्ति नहीं है। अगर तुम इसे समझ चुके हो तो इसको दोहराया नहीं जा सकता। समझ एक कीमिया है, यह तुम्हें रूपांतरित करती है।

इसलिए मैं तुम्हें बहुत चालाक, हिसाबी—किताबी, और सदा यह सोचने वाला कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है, और क्या करना है और क्या नहीं करना है, और क्या नैतिक है, क्या अनैतिक है, यह बनने को नहीं कह रहा हूं। मैं यह सब नहीं कह रहा हूं। मैं तो सिर्फ इतना कह रहा हूं कि तुम जहां से भी गुजरो पूर्ण सजगता से गुजरो ताकि जो कुछ भी गलत है दोहराया न जाए।

जागरूकता का यही सौंदर्य है कि जो कुछ भी सही है उसका इससे संवर्धन होता है, और जो कुछ भी गलत है वह इसके द्वारा विनष्ट हो जाता है। जागरूकता शुभ के लिए जीवन ऊर्जा की भांति और अशुभ के लिए मृत्यु ऊर्जा की भांति है। जागरूकता शुभ के प्रति आशीष और अशुभ के प्रति अभिशाप के रुप में कार्य करती है। यदि तुम पाप के लिए मेरी परिभाषा पूछो तो यह मेरी परिभाषा है. जो कुछ भी परिपूर्ण जागरूकता के साथ किया जा सके पाप नहीं है; वह जो पूर्ण जागरूकता के साथ न किया जा सके पाप है। वह जिसे बिना जागरूकता के ही किया जा सके पाप है, और वह जो सिर्फ जागरूकता में ही किया जा सके पुण्य है। इसलिए पाप और पुण्य के बारे में भूल जाओ। जागरूकता और गैर—जागरूकता को याद रखो।

विकास का केंद्रीय तत्व होश और बेहोशी के मध्य में है और अधिक होशपूर्ण हो जाओ और बेहोशी को कम करो। अपनी ऊर्जा को जागरूकता से और अधिक प्रदीप्त होने के लिए अर्पित करो, बस यही तो है।

प्रश्न:

 

प्‍यारे ओशो, क्‍या आप किसी बात को गंभीरता से नहीं ले सकते?

 

मैं एक चीज को बहुत गंभीरता से लेता हूं चुटकुलों को मैं बहुत गंभीरता से लेता हूं। और इस पर तो तुमने भी जरूर ध्यान दिया होगा। जब मैं कोई चुटकुला सुनाता हूं तो मैं कभी नहीं हंसता हूं मैं वास्तव में इसे गंभीरता से लेता हूं। चुटकुले के सिवाय संसार’ में और कुछ भी गंभीर नहीं है।

प्रश्न:

 

अगर मुल्ला नसरूद्दीन अश्रम में आ जाए, तो क्‍या आप उन्‍हें किसी समूह—चिकित्‍सा में सम्‍मिलित करेंगे? या आप उनसे उनका खुद का समूह चलाने को कहेंगे? यदि ऐसा हो तो यह समूह किस प्रकार का होगा?

 

मैंने पहले भी ऐसा किया है, लेकिन बात नहीं बनी। मुल्ला नसरुद्दीन तो नेताओं का नेता है, उसे किसी समूह में भागीदार की भांति नहीं रखा जा सकता। उसका अहंकार ऐसा नहीं होने देगा। मैंने उससे पूछा था, उसने कहा, ठीक है, आप मुझे नेता बना सकते हैं। मैंने उसे एक अवसर दिया, एक तीन दिवसीय ग्रुप; और सारे मूढ़ और सारे बुद्धिमान लोग भागीदारी के लिए एकत्रित हो गए। क्योंकि मुल्ला नसरुद्दीन में दोनों प्रकार के लिए आकर्षण है। जो मूर्ख हैं वे उसे मूर्ख समझते हैं, जो बुद्धिमान हैं वे उसे बुद्धिमान व्यक्ति समझते हैं। वह होशियार है या वह सीमा पर है—वह दोनों ओर खड़ा हुआ है। उसे एक मूर्ख की तरह प्रस्तुत किया जा सकता है; उसकी कभी भी हुए सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्ति की तरह भी व्याख्या की जा सकती है।

वह समूह के सम्मुख खड़ा हुआ और बोला, क्या आपको पता है कि मैं आपको क्या सिखाने जा रहा हूं?

निसंदेह प्रत्येक व्यक्ति ने कहा. हमें कैसे पता होगा? हम नहीं जानते।

उसने कहा. यदि आपको यह नहीं पता, इतना भी नहीं पता, तो मैं कुछ नहीं सिखाऊंगा, क्योंकि आप लोग इस योग्य नहीं हैं।

वह चला गया। अगले दिन मैंने उसे फिर से राजी किया। पुन. वह वहां गया और भागीदारों से पूछा, क्या आप जानते हैं, मैं क्या सिखाने जा रहा हूं?

अब तक उन लोगों ने भी कुछ सीख लिया था, अत: उन्होंने कहा. हां, हमें पता है।

वह बोला : तब इसकी आवश्यकता ही क्या है? यदि आपको पता ही है तो आप जानते हैं, और वह चला गया।

मैंने तीसरे दिन फिर उसे जाने के लिए राजी कर लिया। वह वहां खड़ा हुआ, उसने पूछा, क्या आपको पता है कि मैं आपको क्या सिखाने जा रहा हूं।

अब तक लोग कुछ और ज्यादा सीख चुके थे; वे बोले, हां, हममें से आधे लोग जानते हैं और आधे नहीं जानते।

उसने कहा : यह बिलकुल ठीक है, इसलिए वे लोग जो जानते हैं, उनको बता दें जो नहीं जानते। मेरे यहां मौजूद रहने की जरूरत ही क्या है?

मुल्ला नसरुद्दीन एक बहुत—बहुत पुराना सूफी उपाय है। यह व्यक्ति कभी हुआ हो या न हुआ हो, यह निश्चित नहीं है। शायद वह रहा हो, शायद वह कभी न हुआ हो। ऐसे बहुत से देश हैं जो उस पर अपना दावा करते हैं। ईरान उसे अपना कहता है; वहां ईरान में मुल्ला नसरुद्दीन की एक कब भी है।. सोवियत रूस भी उस पर अपना दावा करता है। कुछ और देश भी हैं जो अपना दावा करते हैं। लगभग अत मध्यपूर्व यह दावा करता है कि वह उनका है। और ऐसे बहुत से स्थान हैं जहां पर उसके दफनाए जाने की बात की जाती है।

हो सकता है कि कभी उसका अस्तित्व रहा हो, हो सकता है न रहा हो, परंतु उसका प्रभाव अदभुत है। जो कुछ भी उसने किया या जो कुछ भी’ उसके द्वारा किया गया कहा जाता है, वह अत्याधिक, बहुत अर्थपूर्ण है—जैसे कि इस कहानी में जब उसने पूछा, क्या आपको पता है मैं क्या सिखाने जा रहा हूं? प्रत्येक ने कह दिया : नहीं। लेकिन कोई भी मौन नहीं रहा। नहीं, कहना सरल है, नास्तिक होना बहुत आसान है। और अगर तुम्हारे पास ‘नहीं’ का दृष्टिकोण है तो यह कठिन है, तब तुम्हें सिखाना कठिन है। अगले दिन प्रत्येक ने कहा : ही, क्योंकि वह जो कहना चाहता था वे उसे सुनने के लिए बहुत लोभ से भरे थे। उनकी ही उनके लोभ से आई थी, और लोभ को कभी संतुष्ट नहीं किया जा सकता। और मुल्ला बोला : यदि आप जानते ही हैं तो बताने में क्या सार है? तीसरे दिन उन्होंने खुद को और अधिक चालाक, और होशियार सिद्ध करने की कोशिश की। उन्होंने कहा : हमने दो विकल्पों के लिए प्रयास किया, अब तीसरे की कोशिश की जाए, एकमात्र बची हुई बात रह गई थी : हममें से आधे जानते हैं और हममें से आधे नहीं जानते। अब वे मुल्ला को ठिकाने लगाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन तुम उसको ठिकाने नहीं लगा सकते। वह तो करीब—करीब पारे जैसा है; वह तुम्हारे हाथ से फिसल जाता है। उसने कहा : एकदम ठीक। जब आपमें से आधे लोग जानते ही हैं और आधे लोग नहीं जानते, तब जो जानते हैं वे उनको बता दें जो नहीं जानते, तो फिर मेरी यहां जरूरत ही क्या है, मेरा समय क्यों बरबाद करते हैं।

पहले वे बोले नहीं, कोई चुप न रहा फिर उन्होंने कहा ही, लेकिन कोई भी चुप न रहा; फिर उन्होंने हां ओर ना दोनों एक साथ बोल दिए, लेकिन कोई चुप नहीं था।

वह लौट कर मेरे पास आया और उसने कहा : इन लोगों को सिखाया नहीं जा सकता, क्योंकि जो लोग मौन हों, उन्हीं को सिखाया जा सकता है।

मौन शिष्यत्व है। अगर यहां तुम पहले से ही ज्ञानी होकर आए हो, तो तुम्हें सिखाया नहीं जा सकता। अगर तुम यहां नकार का दृष्टिकोण, नास्तिक की दृष्टि, संदेह और शक लेकर आए हो तो तुम्हें सिखाया नहीं जा सकता। या अगर तुम कहो कि मुझे थोड़ा सा मुझे पता है और थोड़ा मैं नहीं जानता, तो भी तुम्हें सिखाया नहीं जा सकता। तुम चालाक बन रहे हो। क्योंकि ये तीन दृष्टिकोण हैं—नहीं कहने वाले का, ही कहने वाले का, और उसका जो दोनों नावों पर यात्रा करने की कोशिश कर रहा है, जिसका प्रयास है कि केक खा भी लिया जाए और केक पूरा साबुत भी रहे, जो चालबाज है—तो संसार में ये जो तीन प्रकार के व्यक्ति हैं, ये सभी समझने में असमर्थ हैं।

केवल उसे जो मौन है, जो अपने मौन के द्वारा उत्तर देता है, और मुक्त—हृदय है, उसी को। सखाया जा सकता है। इस कहानी का यही मतलब है।

मुल्ला नसरुद्दीन को जितना ज्यादा हो सके उतना पढ़ो, और उसे समझने का प्रयास करो। वहां तुम्हारे लिए महत् आशीष बन सकता है क्योंकि वह हास—परिहास के माध्यम से सिखाता है। उसकी?’ प्रत्येक कहानी अपने गर्भ में अदभुत अर्थ समाए हुए है, लेकिन तुम्हें इसे अनावृत करना पड़ेगा। इसीलिए मैं कहता हूं कि ऐसे लोग हैं जो उसे मूर्ख समझते हैं। वे बेस एक कहानी पढ़ते हैं और वे हंसते हैं, फिर उनके लिए बात समाप्त हो गई। वे इसे बस एक चुटकुला समझते हैं। ऐसा नहीं है। कोई चुटकुला महज एक चुटकुला नहीं होता। अगर तुम बुद्धिमान हो तो तुम इसके भीतर झांकोगे, आखिर असली बात क्या है। और एक बार तुम इसके आंतरिक अर्थ की झलक भर पा लो, तुम अत्यधिक प्रसन्न हो जाओगे। तुम एक नये आयाम के प्रति सजग होने लगोगे।

अब मुल्ला नसरुद्दीन को पश्चिमी देशों में भी पढ़ा जाता है, लेकिन लोग चूक रहे हैं। वे सोचते हैं कि वे सिर्फ मजाक भर हैं। वे मजाक ही नहीं हैं। वे हास—परिहास के माध्यम से तुम्हें उस परम पावन को सिखाने का उपाय हैं। और इसे सिर्फ हास्य के माध्यम से ही सिखाया जा सकता है—केवल हास्य के माध्यम से। क्योंकि सिर्फ हास्य ही तुम्हें विश्रांत कर सकता है। और परमात्मा को गहन विश्रांति में ही जाना जा सकता है। जब तुम हंसते हो तो तुम्हारा अहंकार खो जाता है। जब हंसी यथार्थ में प्रामाणिक होती है, पेट की हंसी, जब तुम्हारा सारा शरीर इस परमानंद की ऊर्जा से स्पंदित होता है, जब हंसी तुम्हारे सारे अस्तित्व पर फैल जाती है, जब तुम बस इसी में खो जाते हो, तभी तुम परमात्मा के लिए खुलते हो। गंभीर लोग कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचे। वे पहुंच ही नहीं सकते। परमात्मा ऐसा खतरा मोल नहीं लेगा। हूं…..वे तो उसे उबा कर मार ही है.. डालेंगे।

एक छोटे बच्चे को पहली बार चर्च में लाया गया। उसने लोगों के चेहरे देखे—लटके हुए उदास, गंभीर। सारा माहौल कुछ ऐसा जान पड़ा जैसे कि कोई मर गया हो। घर लौट कर मां ने पूछा, तुम्हें कैसा लगा? उसने कहा : मुझे सच कह देना चाहिए। मुझे लगा जैसे ईश्वर को वहां कुछ बुरा लग रहा हो।

मां ने कहा. तुम्हारा मतलब क्या है?

वह बोला : ऐसे लटके चेहरे देख कर तो ईश्वर को ऊब जाना चाहिए। और मम्मी क्या इसी प्रकार के लोग हरेक रविवार को आते हैं?

ही, निःसंदेह, वे ही लोग। इनमें से कुछ ऐसे हैं जो वहा चालीस—पचास सालों से आर रहे हैं।

बच्चा अत्यधिक उदास हो गया, उसने कहा : ईश्वर के बारे में सोचो, हर रविवार को वे ही उदास लोग, वे ही चेहरे, उसे तो ऊब कर मरने की हालत में पहुंच जाना चाहिए।

तुम परमात्मा तक हंसी के माध्यम से पहुंचते हो। मैं तुम्हें हंसी सिखाता हूं। तुम परमात्मा तक नाचते हुए, गाते हुए, हर्षित, प्रफुल्लित, उत्सव मनाते हुए पहुंचते हो। हंसना सीखो।

और जब तुम हंस रहे हो तो देखो तुम्हारे भीतर क्या घट रहा है। वरना तुम इसके सारे सौंदर्य से चूक जाओगे। जब तुम हंस रहे होते हो तो देखो’ कैसे अचानक अहंकार यहां नहीं होता। देखो किस भांति मन एक क्षण को ठहर गया होता है। एक महीन से क्षण में मन वहां नहीं होता—वहां कोई विचार नहीं होता। जब तुम गहराई से हंसते हो तो वहा कोई विचार नहीं बचता।. :

हंसी ध्यानमयी है… और औषधियुक्त है। भौतिक शरीर के लिए यह औषधिमय है; आध्यात्मिक शरीर के लिए ध्यानमय।

मैं चाहूंगा कि मुल्ला नसरुद्दीन किसी ग्रुप को आरंभ करे, लेकिन यह मुश्किल प्रतीत होता है। वह दुष्कर व्यक्ति है।

 

प्रश्न :

प्‍यारे ओशो, आपके दिव्‍य संगीत ने मेरे आस्‍तित्‍व के किसी गहनतर तल को छू लिया है। जब मैं पहली बार आया था मैं संन्यास के लिए पूरी तरह तैयार था। मेरा संन्‍यास आपका आशीष था या मेरा सत्‍याग्रह, यह बात मुझे साफ पता नहीं है। आप कहते है, आओ मेरा अनुसरण करो। लेकिन आपका अनुसरण कैसे हो, क्‍योंकि में तो आपको जानता ही नहीं? कभी—कभी आपकी सुवास महसूस करता हूं और कभी—कभी वह खो जाती है।

जब मैं कहता हूं आओ मेरा अनुसरण करो, मैं अपने ज्ञान का अनुसरण करने को नहीं कह रहा हूं। जब मैं कहता हूं आओ मेरा अनुसरण करो, मैं कह रहा हूं कि आओ और अपने ज्ञान के बिना मैं जो हूं उसका अनुसरण करो। जब मैं कहता हूं आओ मेरा अनुसरण करों तो मैं तुम्हें अशात की ओर आने को कह रहा हूं। मैं तुम्हें अज्ञेय की ओर आने का निमंत्रण दे रहा हूं। जब मैं कहता हूं आओ, मेरा अनुसरण करो तो मैं अपना अनुसरण करने को नहीं कह रहा हूं—क्योंकि मैं नहीं हूं। मैं तुम्हें एक विराट शून्यता में आमंत्रित कर रहा हूं।

एक बार तुम द्वार में प्रविष्ट हो जाओ, तुम्हें न तो मैं मिलूंगा न तुम। तुम्हें कुछ पूर्णत: भिन्न ही मिलेगा। यही है जिसे लोगों ने परमात्मा कहा है।

और मुझे पता है कि कई बार तुम मेरे अस्तित्व की सुवास की अनुभूति में समर्थ होओगे और कई बार यह खो जाएगी, क्योंकि ऐसी भाव—दशाएं होती हैं जब तुम मेरे निकट होते हो, और ऐसी भाव—दशाएं होती हैं जब तुम मुझसे दूर, बहुत दूर होते हो। जब तुम निकट होते हो तो सुवास आएगी; जब तुम दूर होओगे तो तुम इसे खो दोगे। अत: उन भाव—दशाओं की अनुभूति का प्रयास करो जब तुम मुझसे निकटता महसूस करते हो, और उन भाव—दशाओं में ज्यादा से ज्यादा रहो, उन भाव—दशाओं में और—और विश्रांत हो जाओ।

यह मेरे और तुम्हारे बीच के भौतिक अंतराल की बात नहीं है। यह आध्यात्मिक अंतराल का प्रश्न है। यदि हंसते समय तुम्हें मुझसे निकटता अनुभव हो और अचानक यह सुवास तुम्हारे नासापुटों और अस्तित्व को भर दे, तो और हंसना सीखो। अगर तुम्हें केवल यहीं पर, बस मुझे देखते हुए, जब विचारों की आपाधापी न होती हो, यह सुवास अनुभव होती हो, तो विचारों को और—और विदा करना सीखो। जो कुछ भी तुम महसूस कर रहे हो, उस सुनिश्चित भाव—दशा के प्रति और—और उपलब्ध हो जाओ, और मेरी सुवास तुम्हारी सुवास बन जाएगी। क्योंकि यह न मेरी है न तुम्हारी, यह परमात्मा की सुवास है।

प्रश्न:

 

ओशो, पाँच महीनों तक स्‍त्रोत से पीकर भी मेरी प्‍यास कम नहीं हुई, इसने मुझे और प्‍यासा कर दिया है। आपके पानी में निश्‍चित ही कुछ अनूठापन है।

 

ध्यान के समय मुझे यह सुनाई पड़ा:

मधुर—जल की एक छोटी सी झील,

छिपी है श्यामल जंगल में,

वही उद्गम है सागर का।

ओशो, आप मीठे और नमकीन हैं;

और इस क्षण में बहुत नमकीन।

मैं यहां जाने के कारण उदासी अनुभव कर रही हूं

मैं इस स्रोत तक पुन: वापस आना चाहती हूं

पीती रहूं तब तक कि मैं इतना भर जाऊं

कि मैं स्रोत में गिर पडूं।

यह आनंद उर्मिला ने पूछा है।

यह सच है, ऐसा ही है। जितना अधिक तुम मुझे पियोगी, उतना ही तुम प्यासी हो जाओगी। क्योंकि मैं तुम्हें तृप्त करने वाला नहीं हूं। मैं तुम्हें और—और अतृप्त बनाता चला जाऊंगा, क्योंकि यदि तुम मुझसे तृप्त हो गईं तो तुम कभी परमात्मा तक नहीं पहुचोगी।

मैं यहां अधिक प्यास निर्मित करने के लिए हूं। मैं यहां तुम्हें और भूखा बना देने के लिए हूं। ताकि एक दिन तुम बस प्यास, बस भूख, शुद्ध भूख ही रह जाओ। उस क्षण में तुम विस्फोटित और तिरोहित हो जाती हो और परमात्मा मिल जाता है। अगर तुम मुझसे ही तृप्त हो गईं, तो मैं तुम्हारा मित्र नहीं शत्रु बन जाऊंगा, क्योंकि तब तुम मुझसे और मेरे उत्तरों से बंध जाओगी।

मैं अधिक से अधिक एक द्वार हो सकता हूं। मुझसे होकर गुजर जाओ, मुझसे बंधो मत। यात्रा का आरंभ मेरे साथ होता है, इसका अंत मुझ पर नहीं होता।

और मैं जानता हूं कि तुम्हें उदासी अनुभव हो रही होगी। लेकिन अपनी उदासी के प्रति सजग हो जाओ और इससे तादात्म्य मत बनाओ। यह वहा है, तुम्हारे चारों ओर, लेकिन यह तुम नहीं हो। इस अवसर का भी अधिक जागरूक, अधिक साक्षी होने में उपयोग करो। और अगर तुम अपनी उदासी के साक्षी हो सको, तो उदासी मिट जाएगी। और अगरु तुम अपनी उदासी के प्रति सजग हो सको तो तुम सजगता के द्वारा इसके मिटने में सहायक हो सकती हो, जहां कहीं भी तुम जाओ मैं तुम्हारे साथ आऊंगा। हो सकता है तब स्रोत तक वापस आने की जरूरत ही न पड़े, क्योंकि अपने साक्षीभाव में तुम चाहे कहीं रहो, तुम मेरे निकट रहोगी। तुम स्रोत के निकट होओगी।

स्रोत कोई तुमसे बाहर नहीं है। और जब तुम वास्‍तव में मुझे सुनती हो तो यह किसी ऐसे व्यक्ति को सुनना नहीं है जो तुम्हारे बाहर हो। यह किसी ऐसे को सुनना है जो तुम्हारे भीतर है। यह तुम्हारी अपनी आंतरिक आवाज है। जब तुम मेरे प्रेम में पड़ती हो तो वस्तुत: जो हुआ है वह यह कि तुम पहली बार अपने प्रति प्रेम में पड़ी हो।

आज इतना ही।


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कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–3)

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सहज शून्यता के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 26 सितंबर 1970;

मनाली (कुलू)

“सारी गीता में कृष्ण परम अहंकारी मालूम पड़ते हैं। लेकिन आपने सुबह के प्रवचन में कहा कि निरहंकारी होने से ही कृष्ण कह सके कि सब छोड़कर मेरी शरण में आ, मैं ही सब कुछ हूं, आदि। लेकिन बुद्ध और महावीर ऐसा नहीं कहते हैं। क्या इनकी निरहंकारिता भिन्न-भिन्न है? उनका मौलिक अंतर क्या है?’

निरहंकारिता दो ढंग से उपलब्ध हो सकती है। एक तो इस ढंग से उपलब्ध हो सकती है कि कोई अपने को मिटाता चला जाए, अपने को समाप्त करता चला जाए, अपने को काटता चला जाए और ऐसी घड़ी आ जाए कि फिर काटने को कुछ न बचे। तो निरहंकारिता उपलब्ध होती है। लेकिन यह निरहंकारिता “निगेटिव’ है, नकारात्मक है। और इसमें एक अहंकार बहुत गहरे में शेष रह ही जाएगा कि मैंने अपने अहंकार को काट दिया है।

एक और ढंग से भी निरहंकारिता उपलब्ध होती है कि कोई अपने को फैलाता चला जाए और इतना बड़ा करता चला जाए कि उसके अलावा फिर कुछ शेष ही न रह जाए, वही शेष रह जाए, सब उसमें समा जाए, तब भी निरहंकारिता, तब भी “इगोलेसनेस’ उपलब्ध होती है। लेकिन तब पीछे कहने को इतना भी नहीं रह जाता कि मैं निरहंकारी हो गया हूं।

जो लोग अहंकार को काटकर चलेंगे, वे लोग अंततः आत्मा को उपलब्ध होंगे। आत्मा का अर्थ होगा, उनका अंतिम अहंकार शेष रह जाएगा कि मैं हूं। मैं की और सारी चीजें नष्ट हो जाएंगी, शुद्ध “मैं’ ही शेष रह जाएगा। लेकिन जो व्यक्ति अहंकार को काटकर चलेगा, वह कभी परमात्मा को उपलब्ध नहीं होगा। जो व्यक्ति अहंकार को भी विस्तीर्ण करता चला जाएगा, इतना विस्तीर्ण कि सब उसमें समा जाए, उस दिन आत्मा का बोध नहीं रह जाएगा, परमात्मा का ही बोध रह जाएगा।

कृष्ण का जो व्यक्तित्व है, यह “पाजिटिव’ है। वह विधायक है, वह निषेधात्मक नहीं है। वे जीवन में किसी भी चीज का निषेध नहीं करते। वे अहंकार का निषेध भी करते नहीं। वे तो कहते हैं, अहंकार को इतना बड़ा कर लो कि सभी उसमें समा जाए। तू बचे ही न, तो फिर स्वयं को मैं कहने का कोई उपाय न रह जाए। हम अपने को “मैं’ तभी तक कह सकते हैं जब तक “तू’ बाहर अलग खड़ा है। तू के विरोध में ही मैं की आवाज है। तू गिर जाए, तू न बचे, तो मैं भी बचेगा नहीं। मैं इतना बड़ा हो जाए–इसलिए उपनिषद के ऋषि कह सके: “अहं ब्रह्मास्मि’। वह यह कह सके, मैं ही ब्रह्म हूं। इसका यह मतलब नहीं है कि तू ब्रह्म नहीं है। इसका मतलब यह है कि तू तो है ही ब्रह्म, मैं ही हूं। हवाओं में जो लहरा रहा है वह भी मैं ही हूं और जो वृक्षों में लहर खा रहा है, वह भी मैं हूं। वह जो जन्मा है वह भी मैं ही हूं, जो मरेगा वह भी मैं ही हूं। वह जो पृथ्वी है वह भी मैं ही हूं, जो आकाश है वह भी मैं ही हूं। मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है। इसलिए अब मैं के बचने की भी कोई जगह नहीं बची। मैं किससे कहूं कि मैं हूं? किसके विरोध में कहूं कि मैं हूं? तो कृष्ण का पूरा का पूरा व्यक्तित्व विराट के साथ फैलाव का है, विस्तार का है। इसलिए कृष्ण कह सकते हैं, मैं ब्रह्म हूं। इसमें कोई अहंकार नहीं है। यह भाषा में ही मैं का प्रयोग है, मैं जैसा कोई पीछे बचा नहीं है।

एक दूसरा रास्ता, जो मैंने कहा निषेध का है, नकार का है, इनकार का है, तोड़ने का है, त्याग का है–छोड़ते जाएं। धन “मैं’ को मजबूत करता है, धन को छोड़ दें। अमीर का अहंकार होता है, लेकिन गरीब का नहीं होता है, इस भूल में मत पड़ जाना। गरीब का भी अहंकार होता है। वह गरीब होता है, “पुअर इगो’ होता है। धन का दावा नहीं कर सकता। गृहस्थी का अहंकार होता है, लेकिन संन्यासी का नहीं होता है ऐसा मत सोचना। संन्यासी का भी अहंकार होता है। अगर मैं छोड़ता चला जाऊं तो जिन-जिन चीजों से अहंकार बढ़ता है, मजबूत होता है, वह सब छोड़ दूं–धन छोड़ दूं, मकान छोड़ दूं, पत्नी छोड़ दूं, बच्चे छोड़ दूं, घर-द्वार छोड़ दूं, तो मेरे अहंकार को टिकने की कोई जगह न रह जाएगी, कोई खूंटी न रह जाएगी जहां मैं अहंकार को टांग सकूं और कह सकूं कि मैं धनी हूं, कह सकूं कि मैं ज्ञानी हूं, कह सकूं कि मैं त्यागी हूं, ऐसी कोई जगह न रह जाएगी, लेकिन इससे मैं मिट नहीं जाऊंगा। और जब मेरे मैं को टिकने के लिए कोई खूंटी नहीं रहेगी, तो मैं फिर बहुत सूक्ष्म में मुझसे ही टिका रह जाएगा। फिर आखिर में मैं ही रह जाऊंगा।

यह जो मैं का सूक्ष्मतम अनुभव है, यह निषेध से उपलब्ध होगा। बहुत लोग इसमें अटके रह जा सकते हैं, बहुत से लोग अटक कर रह जाते हैं, क्योंकि यह दिखाई भी नहीं पड़ता, यह बहुत सूक्ष्म है। धनी का अहंकार दिखाई पड़ता है, त्यागी का कैसे दिखाई पड़ेगा। लेकिन धनी का अहंकार क्या है–कि मेरे पास धन है। त्यागी का अहंकार क्या है–कि मैंने त्याग किया है, मैंने धन छोड़ा है। गृहस्थी का अहंकार दिखाई पड़ता है–कि यह रहा उसका घर, यह रही उसकी सीमा, संन्यासी का अहंकार दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन उसकी भी सीमाएं हैं। वह हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, जैन है। उसके भी आश्रम हैं, उसकी भी सीमाएं हैं, उसके भी बंधन हैं, वह भी अटका है। लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। यह जो घड़ी है निषेध की, इसमें कोई अटक सकता है। अगर अटक जाए, तो लगेगा बिलकुल निरहंकारी क्योंकि वह मैं शब्द का भी उपयोग न करेगा, मैं भी छोड़ देगा, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके भी पार जाना पड़ेगा।

महावीर और बुद्ध इसके पार तो चले जाते हैं, लेकिन यह पार जाना, उस आखिरी सूक्ष्म मैं के पार जाना उन्हें बहुत ही कठिन पड़ता है। वही असली तपश्चर्या है उनकी। बड़ी तपश्चर्या की बात हो जाती है। क्योंकि जो मेरे पास था, जो मेरा था, उसको तो छोड़ दिया गया है, अब मैं ही बचा हूं, अब इसको कैसे छोडूंगा? इसको कैसे छोड़ियेगा? इसलिए निषेध की प्रक्रिया से अगर हजार लोग चलेंगे तो एक ही आदमी निरहंकारिता तक पहुंचता है, नौ सौ निन्यानबे आदमी सूक्ष्म मैं पर खड़े होकर रह जाते हैं। महावीर तो निकल जाएंगे, लेकिन महावीर के पीछे चलने वाला संन्यासी अटक जाएगा। अति दुरूह है यह बात। सहारे तोड़ देना तो बहुत आसान है। जिन-जिन सहारों से मेरा मैं मजबूत होता है, मैं उनको गिरा दूं, लेकिन फिर मैं बच रहूंगा, उसको कैसे गिराऊंगा?

तो निषेध से चलने वाले व्यक्ति की जो तकलीफ है वह आखिरी क्षण में है और विधेय से चलने वाले की जो तकलीफ है, वह पहले क्षण में है। पहले “स्टेज’ पर विधेय से चलने वाले की बड़ी कठिनाई आती है कि तू को कैसे इनकार कर दूं? तू है, दिखाई पड़ रहा है, उसको कैसे इनकार करें? कृष्ण की साधना की पहली तकलीफ पहले चरण पर है–असली तकलीफ आखिरी चरण पर है। पहले बहुत आसान है मामला। आखिरी क्षण में जब कि मैं के सब सहारे टूट जाएंगे और शुद्ध मैं बच रहेगा, “प्योरीफाइड इगो’ रह जाएगी, उसको कैसे छोड़ियेगा। उसको छोड़ने का क्या करियेगा आप?

पहले चरण पर जो करना पड़ेगा विधायक-साधक को, वही अंतिम चरण पर निषेध के साधक को करना पड़ेगा। पहले चरण पर विधेय का साधक क्या करेगा? वह तू में भी मैं को खोजने की कोशिश करेगा। निषेध का साधक अंतिम चरण पर क्या करेगा? मैं में भी तू को खोजने की कोशिश करेगा। अगर उसे मैं में भी तू मिल जाए, तब तो ठीक। बहुत कठिनाई हो जाएगी। लेकिन तू में मैं को देखना बहुत आसान है, मैं में तू को देखना बहुत कठिन है। और शुद्ध मैं में तो और कठिन हो जाता है, क्योंकि बहुत सूक्ष्म मैं का भाव बचता है। वह इतना बारीक हो जाता है कि उसमें तू को कहां समायें। बुद्ध और महावीर की कठिनाई आती है आखिरी चरण में। इसलिए बुद्ध या महावीर की साधना में आखिरी चरण के पहले से भी गिरना संभव है। आखिरी कदम के पहले भी कोई लौट सकता है, रुक सकता है, अटक सकता है। आखिरी छलांग…और जब पूरी जिंदगी इस मैं को बचाया पूरी साधना में, तो आखिरी क्षण में एकदम से छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

छोड़ा जा सकता है। एक ही रास्ता है कि इस मैं के बिंदु में तू दिखाई पड़ जाए। इसलिए महावीर या बुद्ध की जो आखिरी साधना की कड़ी है, उसका नाम है–केवल ज्ञान। ज्ञानी न रह जाए, सिर्फ ज्ञान रह जाए। जानने वाला न रह जाए, सिर्फ जानना रह जाए, तो उस जानने में झलक मिल सकती है एकता की। आखिरी मुक्ति मैं से मुक्ति है। मैं को मुक्त नहीं होना है, मैं से मुक्त होना है। लेकिन जो पीछे आता है, उसको कठिनाई हो जाती है। वह यही पूछता रहता है कि मुझे मोक्ष कैसे होगा? “मुझे’ कभी मोक्ष हुआ ही नहीं। जब भी मोक्ष हुआ है तो “मुझ’ से हुआ है। इसलिए महावीर की साधना-परंपरा में जो लोग पीछे आएंगे, उनके अहंकार के पोषण की बड़ी सुविधा है। महावीर की साधना में चलने वाला साधक अति अहंकारी हो जाए तो आश्चर्य नहीं। त्याग, तपश्चर्या उसके अहंकार को मजबूत करते चलेंगे। कठोर होता जाएगा, सख्त होता जाएगा। आखिर में सब छूट जाएगा और एक मैं की गांठ बच जाएगी। उसको तोड़ना बहुत मुश्किल पड़ेगा। वह टूट सकती है, टूटी है। महावीर को टूटी है। उस क्षण के अलग प्रयोग हैं कि वह मैं की गांठ कैसे छूट जाए।

कृष्ण की साधना में, कृष्ण के व्यक्तित्व में मैं की गांठ को पहले ही तोड़ देना है। जिस बीमारी को आखिरी में गिराना पड़े, उसे इतनी देर तक ढोना भी उचित नहीं है। इतनी देर में वह संक्रामक भी बनेगी, और “क्रॉनिक’ भी हो जाएगी। उसे पहले ही तोड़ देना है। इसलिए जिसको महावीर “केवल ज्ञान’ कहेंगे, वह अंतिम घड़ी में आ जाएगा। जिसको कृष्ण साक्षीभाव कहेंगे, वह पहली ही घड़ी में आ जाएगा। पहले ही क्षण से इस सत्य को जानना है कि मैं अलग नहीं हूं। लेकिन अगर मैं अलग नहीं हूं तो फिर त्याग बेमानी हो जाएगा। छोड़ेंगे किसको? मैं ही हूं। छोड़ेगा कौन? जिसे छोड़कर जा रहा हूं, वह भी मैं ही हूं। भागूंगा कहां से? जहां से भाग रहा हूं वह भी मैं ही हूं। भागूंगा कहां? जहां भागना है, वह भी मैं ही हूं।

रवीन्द्रनाथ ने एक बहुत गहरी मजाक यशोधरा से करवाई है, बुद्ध के लिए। बुद्ध जब ज्ञान लेकर वापस लौटे हैं, तो यशोधरा उनसे पूछती है कि मुझे सिर्फ एक सवाल पूछना था, आप आ गए हैं तो पूछ लूं। मैं तुमसे यह पूछना चाहती हूं कि जो तुमने जंगल जाकर पाया, वह क्या इस घर में मौजूद नहीं था? और बुद्ध बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। क्योंकि अगर वह यह कहें कि वह इस घर में मौजूद था–था तो ही, क्योंकि जो जंगल में मिलता है वह घर में भी मिल सकता है–अगर वह यह कहें कि वह यहां भी मौजूद था, तो यशोधरा कहेगी कि मैंने कहा था कि मत जाओ। निश्चित ही उसने कहा था। रात जब गए थे तो उसे बिना बताए ही जाना पड़ा था। और अगर वह यह कहें कि वह यहां भी था जो जंगल में था, तो यशोधरा कहेगी, पागलपन किया इतने दिन? जो यहीं था, उसे खोजने वहां गए? अगर वे यह कहें कि वह यहां नहीं था, जंगल में ही है, तो गलत होगा, क्योंकि बुद्ध अब जानते हैं कि वह यहां भी है जो जंगल में मिला है।

कृष्ण कहीं छोड़कर नहीं जा रहे हैं। बुद्ध को जो आखिरी घड़ी में दिखाई पड़ता है, वह कृष्ण को पहली घड़ी से ही दिखाई पड़ रहा है। बुद्ध जो आखिरी क्षण में जान पाते हैं कि वही है सब जगह, वह कृष्ण पहले से जान रहे हैं कि वही है सब जगह।

मैंने एक फकीर के संबंध में सुना है कि वह एक गांव के किनारे पड़ा रहा जीवन भर। और जब भी कोई उससे पूछता कि तुम कुछ साधना नहीं कर रहे हो, तो वह कहता, किसे साधूं? जिसे साधूंगा, वह साधा ही हुआ है। कोई उससे पूछता है कि तुम कहीं जाते दिखाई नहीं पड़ते। वह कहता, मैं कहां जाऊं? जहां पहुंचना था वहां मैं पहुंचा ही हुआ हूं। कोई उससे पूछता, तुम्हें कुछ पाना नहीं है? तो वह कहता, जिसे पाना है, वह सद से प्राप्त है। यह फकीर क्या साधना करे?

इसलिए कृष्ण की साधना विकसित नहीं हो पाई। कृष्ण का साधक कहीं भी न मिलेगा जो साधना कर रहा हो। साधना किसकी करनी है? साधना उसकी की जा सकती है जो नहीं मिला है और मिल सकेगा। साधना उसकी की जा सकती है जो नहीं पाया है, और पाया जा सकता है। साधना संभावना की है। साधना उपलब्धि की कभी नहीं होती। जो है ही, उसको कैसे पाइएगा? बुद्ध को भी आखिरी क्षण में जब ज्ञान हुआ और किसी ने पूछा कि आपको क्या मिला, हमें बताएं? बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं; जो मिला ही हुआ था, उसका पता भर चला है। जो था ही मेरे पास, लेकिन मुझे पता नहीं था, अब मैंने जाना कि यह तो मेरे पास ही था। मिला कुछ भी नहीं है, जो था ही उसका पता चला है। जब नहीं था पता, तब भी वह इतना ही, कमी कुछ भी न थी। लेकिन बुद्ध यह आखिरी क्षण में कहते हैं।

कृष्ण यह पहले क्षण में कहेंगे। कृष्ण कहेंगे, कहां जा रहे हो? क्योंकि जहां जाना चाहते हो वहां तो तुम खड़े हो। जिसे तुम मंजिल कह रहे हो वह तो तुम्हारा मुकाम ही है, जहां तुम खड़े ही हो। किस तरफ दौड़ रहे हो? क्योंकि जहां तुम दौड़कर पहुंचोगे, वहां तो तुम पहुंचे ही हुए हो।

इसलिए बुद्ध और महावीर के जीवन में साधना का काल है, फिर सिद्धि की अवस्था है। कृष्ण सदा ही सिद्ध हैं, उनके जीवन में साधना का कोई काल नहीं है। कृष्ण ने कब साधा सत्य को, पता है आपको? कौन-सा ध्यान किया? कौन-सा योग किया? किस जंगल में गए? कौन-सी तपश्चर्या की? कौन-से उपवास किए? कौन-सा आसन, कौन-से व्यायाम? कृष्ण के जीवन में साधना जैसी कोई चीज ही नहीं दिखाई पड़ती। साधना है ही नहीं।

बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण में सिद्ध होते हैं, कृष्ण जैसे सिद्ध हैं ही। तब साधना कैसी, साधना किसकी? ये बुनियादी फर्क हैं। और कृष्ण को जो दिखाई पड़ रहा है, उसमें अहंकार का कोई उपाय नहीं है क्योंकि तू है ही नहीं कहीं। कबीर की बात सुबह मैं कर रहा था। कबीर ने एक दिन अपने बेटे को जंगल में भेजा है घास काट लाने को। जैसे यहां पौधे हवा में नाच रहे हैं, ऐसे ही वह जंगल में गया है, हंसिया लेकर घास काट रहा है, सुबह से सांझ होने लगी है और वह नहीं लौट रहा है। कबीर परेशान हो गए और सबने कहा कि कुछ पता लगाओ, घास काटने में इतनी देर की कोई जरूरत न थी, दोपहर तक आ जाना था। फिर सांझ भी हो गई। अब अंधेरा भी घिर जाएगा थोड़ी देर में। लोगों ने कहा तो कबीर और सारे लोग खोजने निकले कि वह कहां गया है? देखा जाकर घास में, गले-गले घास में वह खड़ा है। खड़ा कहना गलत है। हवाएं नाच रही हैं, वह भी नाच रहा है। जैसे वृक्ष नाच रहे हैं, पौधे नाच रहे हैं, घास के पत्ते नाच रहे हैं, वह भी नाच रहा है। उसे हिलाया, उसने आंख खोली। उन सबने कहा, तुम यह क्या कर रहे हो? घास काटी नहीं? उसने कहा, अच्छी याद दिलाई! हंसिया उठाया। उसने कहा, अब तो सांझ भी हो गई है, लोगों ने कहा अब वापिस चलो। लेकिन तुम दिन भर क्या किए? उस लड़के ने कहा, मैं घास हो गया था। मैं भूल ही गया कि मैं भी हूं। मैं भूल ही गया कि वह घास है और उसको काटना है। इतनी आनंद की थी सुबह, सब इतना नाचता हुआ था कि मैं पागल नहीं था कि नाचते हुए समय और काटने में लग जाऊं, मैं नाचने लगा। और फिर तो मुझे याद ही न रही कि कौन घास है और कौन कमाल है जो काटने आया है। यह तो आप आए तो आपने मुझे खयाल दिला दिया।

कृष्ण इतने नाचने में मगन हो गए इस जगत में। कबीर का बेटा तो घास के साथ नाचा, कृष्ण इस पूरे जगत के साथ नाचे। इसके चांदत्तारों के साथ नाचे, इसके स्त्री-पुरुषों के साथ नाचे, इसके फूलों के साथ नाचे, इसके कांटों के साथ नाचे। वह इस जगत के साथ नाचने में ऐसे लीन हो गए कि कौन है मैं, कौन है तू, इसकी कोई जगह न रही। इस क्षण जो निरहंकार उपलब्ध हुआ, वह महावीर और बुद्ध को अत्यंत तपश्चर्या, “आरडुअस’ लंबी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर उपलब्ध होता है। वे बहुत दौड़कर उस जगह आते हैं, जहां से कृष्ण कभी दौड़े ही नहीं। वे बहुत यात्रा करके उस जगह का पता लगा पाते हैं, जहां से उन्होंने यात्रा शुरू की थी।

इसलिए कृष्ण साधक नहीं हैं। कृष्ण को साधक कहना ही मुश्किल है। कृष्ण सिद्ध हैं और इस सिद्ध अवस्था में, इस चित्त की दशा में जो भी उन्होंने कहा है, उसमें हमें अहंकार दिखाई पड़ सकता है। क्योंकि वह जो शब्द हम उपयोग करते हैं मैं का, वह वह भी कर रहे हैं, लेकिन हमारे और उनके मैं की अभिव्यक्ति और अर्थ में बड़ा फर्क है, “कनोटेशन’ में बड़ा फर्क है। जब हम कहते हैं मैं, तो मतलब होता है, इस शरीर के भीतर जो कैद है, वह। और जब कृष्ण कहते हैं मैं, तो वह कहते हैं, जो सब जगह फैला है, वह। इसलिए हिम्मत से कह सकते हैं अर्जुन को कि सब छोड़ और मेरी शरण में आ। यह अगर शरीर के भीतर घिरा हुआ मैं होता, तो इतनी हिम्मत से नहीं कही जा सकती ऐसी बात। और अगर यह शरीर के भीतर बंद मैं होता तो अर्जुन भी कहता कि आप कैसी बात कर रहे हैं? मैं आपकी शरण में क्यों आऊं? फिर तो अर्जुन के मैं को भी चोट लगती। क्योंकि जब भी एक तरह से मैं बोलता है तो दूसरी तरफ से मैं में प्रतिध्वनि पैदा होती है। अगर आप मैं की भाषा बोलते हैं तो दूसरा आदमी तत्काल मैं की भाषा बोलना शुरू कर देता है। मैं एक-दूसरे की भाषा बड़े ढंग से पहचानते हैं और तत्काल प्रतिक्रिया में सन्नद्ध हो जाते हैं। लेकिन कृष्ण कह सके कि तू मेरी शरण में आ। क्योंकि इस शरण का अर्थ है, समस्त की शरण। इसका अर्थ है कि यह सब जो फैला हुआ है, इसकी शरण में चला जा, तू अपने को छोड़।

निरहंकार महावीर और बुद्ध को भी आता है, लेकिन लंबी यात्रा के बाद। और महावीर और बुद्ध की यात्रा पर चलने वाले बहुत से साधकों को कभी नहीं आएगा, क्योंकि वह आखिरी बात है जो वह कर पाएं, न कर पाएं। लेकिन कृष्ण की धारा में जो बहेगा, वह तो पहली ही बात है; न कर पाएं तो उस धारा में बह ही नहीं सकते। महावीर के साथ बहुत दूर तक चल सकते हैं अपने मैं को बचाकर। कृष्ण के साथ तो पहले कदम पर ही नहीं चल सकते। चलना ही है तो मैं छोड़कर ही चलना होगा। नहीं तो चल ही न पाएंगे। महावीर के साथ बहुत दूर तक ताल-मेल बैठ सकता है हमारे मैं का, कृष्ण के साथ नहीं बैठ सकता। पहले क्षण में ही यह जानना होगा। “द फर्स्ट इज़ द लास्ट’, कृष्ण के लिए। महावीर और बुद्ध’ के लिए, “द लास्ट इज़ द फर्स्ट’। वह जो आखिरी है, वह पहला है। और कृष्ण के लिए जो पहला है वही आखिरी है। यह फर्क खयाल में आ जाए–बड़ा फर्क है, बहुत बुनियादी फर्क है–खयाल में आ जाए तो सारी स्थिति और होगी।

कृष्ण के साथ साधना क्या करियेगा? नाच सकते हैं, गीत गा सकते हैं, डूब सकते हैं। साधना क्या करियेगा? या इसको ही साधना कहें तो बात और है। इसलिए कृष्ण किसी से और कोई अपेक्षा नहीं करते। जब पहला ही चरण निरहंकारिता का है तब और अपेक्षा नहीं की जा सकती। महावीर और बुद्ध के पास जाकर आप कहेंगे कि मैं अहंकारी हूं, मैं क्या करूं? तो वह आपको बता सकते हैं। वह कहेंगे, पहले यह छोड़ो, पहले वह छोड़ो, अहंकार को पीछे देख लेंगे। कृष्ण के पास जाकर आप कहेंगे कि मैं अहंकारी हूं, तो वह कहेंगे, कोई रास्ता ही न रहा। क्योंकि अहंकार ही जाए, वही तो शुरुआत है। इसलिए कृष्ण कोई साधकों का संघ नहीं बना सके। बहुत मुश्किल थी बात। साधक तो वही कहेगा, बस ठीक है, यही पहली बात; अहंकार तो छूटता नहीं, धन छोड़ सकता हूं। कृष्ण कहेंगे कि धन छोड़ने से क्या होगा। धन छोड़कर भी बीमारी तो वही रहेगी।

एक आदमी आया है, वह कहता है कि केंसर है मुझे, केंसर तो नहीं छोड़ सकता, सिर घुटवा सकता हूं। घुटवा लें, इससे कोई अंतर नहीं, इससे कोई संगति नहीं। केंसर अपनी जगह रहेगा। सिर घुटवाने के बाद भी फिर केंसर को ही ठीक करना पड़ेगा। वह आदमी कहता है, मैं कपड़े भी छोड़ सकता हूं। कृष्ण कहेंगे, कपड़े छोड़ने से कुछ लेना-देना नहीं है। महावीर और बुद्ध उसको लौटा नहीं देंगे। महावीर और बुद्ध के द्वार पर सभी को प्रवेश हो जाएगा। वह सभी के लिए तैयार हैं, कि ठीक है, जो तुम कर सकते हो वह करो, आखिरी बात आखिरी में देखेंगे। लेकिन कृष्ण कहते हैं, आखिरी बात करो तो ही मेरे मकान में प्रवेश है। इसलिए कृष्ण का मकान करीब-करीब खाली रह गया। उसमें प्रवेश बहुत मुश्किल हुआ। इसलिए “आर्डर्स’ खड़े नहीं हो सके। महावीर के साथ पचास हजार संन्यासी चलते थे। संभव था यह। कृष्ण के साथ मुश्किल है। पचास हजार निरहंकारी आदमी पहले दिन कैसे खोजियेगा?

महावीर और बुद्ध को अगर हम ठीक से कहें तो “ग्रेजुअल एनलाइटेनमेंट’ की बात है वह, क्रमिक। क्रम की बात हमें समझ में आती है। एक रुपये से दो रुपये हो सकते हैं, तीन रुपये हो सकते हैं, चार रुपये हो सकते हैं, हमारी समझ में आता है। लेकिन गरीब एकदम अमीर हो सकता है, यह हमारी समझ में नहीं आता। कृष्ण जो बात कर रहे हैं, वह “सडन एनलाइटेनमेंट’ की है। वह कहते हैं, नाहक इतनी परेशानी क्यों करते हो? एक रुपया है तब भी तुम गरीब हो, एक रुपये वाले गरीब हो; दो रुपया है तब भी तुम गरीब हो, दो रुपये वाले गरीब हो; तीन रुपया है तब भी तुम गरीब हो, तीन रुपये वाले गरीब हो। करोड़ हैं तो भी तुम गरीब हो, करोड़ रुपये वाले गरीब हो। कृष्ण कहते हैं, हम तुम्हें सम्राट बनाते हैं, रुपये का तुम हिसाब-किताब छोड़ो। रुपये से भी छूट सकता है, दो से भी छूट सकता है, तीन से भी छूट सकता है, करोड़ से भी छूट सकता है। हम तुम्हें सम्राट ही बनाए देते हैं–बना क्या देते हैं, हम तुम्हें याद दिलाना चाहते हैं कि तुम सम्राट हो। इसलिए महावीर और बुद्ध की पद्धति साधना है, कृष्ण की पद्धति सिर्फ “रिमेंबरिंग’ है, स्मरण है। स्मरण करो कि तुम कौन हो, बस मामला पूरा हुआ जाता है। “जस्ट रिमेंबर’।

एक कहानी मैंने सुनी है, वह मैं आपसे कहूं।

मैंने सुना है कि एक सम्राट ने अपने बेटे को निकाल बाहर किया, नाराज था। एक ही बेटा था। निकाल बाहर कर दिया तो बेटा कुछ भी न जानता था–सम्राट के बेटे क्या जान सकते हैं! न वह पढ़ा-लिखा था, वह कुछ भी नहीं कर सकता था। हां, कभी शौक में कुछ गीत गाना और कुछ नाचना सीखा था, तो सड़कों पर भीख मांगने लगा और नाचने लगा। और नाच-नाचकर भीख मांगने लगा। लेकिन बाप ने उसे देश के बाहर निकालने की आज्ञा दे दी थी, तो अपने देश में तो नहीं कर सकता, देश छोड़ देना पड़ा।

फिर बाप बूढ़ा हुआ। इस बात को वर्षों बीत गए और वह लड़का भूल गया कि मैं सम्राट था। दस साल जो भीख मांगे, उसको याद ही कैसे रहे कि वह सम्राट है। था तो वह सम्राट ही। और दस साल जब उसने भीख मांगी थी, तो वह रोज सम्राट होने का ज्यादा अधिकारी होता चला गया था। क्योंकि उसका बाप बूढ़ा होता चला गया था। एक ही बेटा था। उसके जूते फट गए हैं और धूप है तेज और एक रेगिस्तानी मुल्क में भटक रहा है और वह एक होटल के सामने जहां साधारण-सी, गंदी-सी होटल वहां भीख मांग रहा है और लोगों के सामने बर्तन फैला रहा है, कह रहा है कुछ पैसे दे दें, क्योंकि जूते की जरूरत है, धूप बढ़ती जाती है, पैर पर फफोले पड़ गए हैं। सम्राट बूढ़ा हुआ। उसने अपने वजीरों को खोजने भेजा कि उस बेटे को वापिस लौटा लाओ। क्योंकि यह अब राज्य कौन संभालेगा? न किसी के संभालने से तो बेहतर है कि वह जो नासमझ है वही संभाले।

सम्राट के वजीर उसे खोजने गए। बड़ी मुश्किल से सम्राट का प्रधान वजीर उस गांव में पहुंच गया जहां वह भीख मांग रहा है। रथ सामने आकर रुका तब वह अपने टूटे हुए टीन के बर्तन में भीख मांग रहा था, बजा रहा था और कह रहा था–कुछ पैसे मिल जाएं तो मैं जूते खरीद लूं! रथ रुका, वजीर नीचे उतरा। चेहरा पहचाना हुआ था। कपड़े वही थे जो दस साल पहले पहने निकला था। फट गए थे, चीथड़े हो गए थे। नंगे पैर था, चेहरा सांवला और काला पड़ गया था। वजीर नीचे उतरा, वजीर ने उसके पैर छुए और कहा कि पिता ने क्षमा कर दिया है और वापिस बुलाया है। एक क्षण, एक का भी हजारवां हिस्सा, और वह जो हाथ में टीन का ठीकरा था वह फिंक गया! उस युवक की आंखें एकदम बदल गईं। वह भिखारी नहीं रहा, सम्राट हो गया। उसने वजीर को कहा, जाओ, शीघ्र जूते खरीदो, अच्छे कपड़े लाओ, स्नान का इंतजाम करो। वह रथ पर बैठ गया। वह जिनसे भीख मांगता था, जो न कुछ थे उस होटल में, वह सब भीड़ लगाकर खड़े हो गए और उन्होंने देखा यह आदमी दूसरा है, वह उनकी तरफ देख भी नहीं रहा है। वह उनको पहचानता भी नहीं है। उन्होंने कहा, अरे, हमें भूल गए! उसने कहा, तुम्हें तभी तक याद रख सकता था, जब तक अपने को भूले हुए था। जब अपनी याद आ गई, अब भूल जाओ उस आदमी को जो भीख मांगता था। उन्होंने कहा, अभी क्षण भर पहले! और उसने कहा कि मुझे याद आ गई।

कृष्ण की प्रक्रिया इतनी ही है कि आदमी को सिर्फ इतनी याद दिलाने की बात है कि तुम कौन हो। यह साधने की बात नहीं है, स्मरण की है। और उस याद के साथ ही एक क्षण में सब बदल जाता है, टीन का ठीकरा बाहर फिंक जाता है। जिनसे हम भीख मांग रहे थे, अचानक हाथ खींच लेते हैं, हम खुद ही सम्राट हो जाते हैं। लेकिन यह सम्राट होना “सडन’ है। और ध्यान रहे, सम्राट कोई आदमी “सडन’ ही होता है। भिखारी “ग्रेजुअल’ होता है। सम्राट होने के लिए भी कोई सीढ़ियां हों तो आखिरी सीढ़ी पर खड़े होकर आप थोड़े अच्छे ढंग के भिखारी होंगे, और कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। पैसे वाला भिखारी होंगे, और कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन भीख जारी रहेगी। और एक दिन आपको छलांग लगानी पड़ेगी, वहां जहां आप “ग्रेजुअली’ चढ़-चढ़कर पहुंचे हैं, वहां से कूद जाना पड़ेगा। लेकिन यह घड़ी महावीर और बुद्ध की साधना में आखिरी क्षण आती है, जिस दिन छलांग लगानी पड़ती है। कृष्ण के मामले में पहले ही आ जाती है। कहते हैं, छलांग लगाओ आगे, फिर दूसरी बात। फिर दूसरी बात ही करने की कोई जरूरत नहीं होती, छलांग लगाने की बात है।

गीता में पूरे वक्त अर्जुन को वह कुछ खास नहीं समझा रहे हैं, सिर्फ याद दिला रहे हैं कि तू कौन है। वह कोई उपदेश नहीं दे रहे हैं, वह सिर्फ चोटें दे रहे हैं कि तू कौन है। वह किसी को समझा नहीं रहे, किसी को जगा रहे हैं। वह सिर्फ हिला रहे हैं, झकझोर रहे हैं कि तू उठकर देख कि तू कौन है! तू भी कहां छोटी-छोटी बातों में पड़ा है कि यह मर जाएगा, वह मर जाएगा! तू जागकर देख, कोई कभी मरा ही नहीं है। तू कब मरा! मगर वह नींद में है, और अपने सपने में है, वह यही पूछे जा रहा है कि यह मेरा भाई है, यह मेरा रिश्तेदार है, यह मेरा गुरु है, इनको मैं कैसे मारूं! वह सपने में ही है। कृष्ण उसको समझा नहीं रहे हैं, उसको धक्के दे रहे हैं कि तू नींद खोल, जरा आंख खोलकर देख, क्या सपना देख रहा है। या तो सभी सबके हैं, या कोई किसी का नहीं है। दोनों हालत में मतलब एक है। या तो सभी लोग मर ही जाते हैं, तब मारने न मारने से कोई फर्क नहीं पड़ता; या मरते ही नहीं है, तब भी मारने न मारने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।

कृष्ण की जीवन-चिंतना स्मरण की है। इसलिए साधना नहीं है वह। वह सीधे सिद्ध होने में छलांग है। हम उतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, इसलिए हम कहते हैं यह अपना काम नहीं। हम तो कहीं जाएं जहां धीरे-धीरे, एक-एक कदम हम चलेंगे। लेकिन हर कदम पर आप अपने को बचाते हुए चलेंगे, ध्यान रखना। इसीलिए तो छलांग नहीं लगाते, छलांग लगाने में बच नहीं सकते। बचने में खतरा है। आप कहते हैं, हम तो एक-एक कदम चलेंगे जिसमें अपने को बचाकर चलें। लेकिन जिसको आप बचा रहे हैं, वह आखिरी कदम में भी बचा रहेगा। और वह फिर भी कहेगा कि अपने को बचाकर किसी तरह निकल जाओ मोक्ष। अपने को बचाकर कोई मोक्ष में प्रवेश नहीं कर सकता। अपने को खोकर ही प्रवेश कर सकता है। यह आखिरी क्षण में वही दिक्कत आएगी। और मैं मानता हूं कि जो दिक्कत आखिरी क्षण में आनी हो, वह पहले क्षण में ही आ जाए। क्योंकि इतना समय क्यों व्यय करना है, इतना समय क्यों व्यर्थ खोना।

आखिरी क्षण में महावीर और बुद्ध का जो स्मरण आता है, वह स्मरण है, वह साधना का फल नहीं है। लेकिन हमने साधना देखी है। एक आदमी गांव में बीस चक्कर लगाता है, फिर उसे स्मरण आता है कि मैं कौन हूं। एक आदमी एक ही चक्कर लगाता है, उसे स्मरण आता है कि मैं कौन हूं। कोई-कोई चक्कर नहीं लगता है, उसे स्मरण आता है। लेकिन हम जो देखने वाले हैं, हम कहेंगे, इस आदमी को बीस चक्कर लगाने से कोई “काज़-इफेक्ट’ का संबंध नहीं है, यह बात जरा आपको ठीक से समझ लेनी चाहिए।

महावीर ने क्या किया और महावीर को क्या हुआ, इसमें कोई “काज़ल लिंक’ नहीं है। इसमें कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है कि महावीर ने ऐसा किया, इसलिए ऐसा हुआ। अगर ऐसा है तो फिर जीसस को नहीं हो सकेगा, क्योंकि जीसस ने वह कुछ भी नहीं किया जो महावीर ने किया। फिर बुद्ध को नहीं हो सकेगा, क्योंकि बुद्ध ने वह कुछ भी नहीं किया जो महावीर ने किया। अगर सौ डिग्री पानी गर्म होने से ही भाप बनता है, तो तिब्बत में बनाया जाए, हिंदुस्तान में बनाया जाए, चीन में बनाया जाए, अमरीका में बनाया जाए, वह सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। उसका सौ डिग्री पर भाप बनना “कॉज़ल’ है, उसमें कार्य-कारण है।

आध्यात्मिक जीवन “कॉज़ल’ नहीं है। उसमें कार्य-कारण नहीं है। इसलिए तो आध्यात्मिक जीवन मुक्त हो सकता है। कार्य-कारण की शृंखला में मुक्ति कभी भी नहीं हो सकती। कार्य-कारण का मतलब ही बंधन है। हर चीज पिछली चीज से बंधी है। और जो चीज पिछली चीज से बंधी है, वह अगली चीज से बंधी होगी। उसमें “चेन सीरीज़’ है, सब चीजें बंधी हैं। अगर पानी भाप बनेगा तो अभी तक पानी के नियमों से बंधा था, अब भाप के नियमों में बंध जाएगा। अगर पानी बर्फ बन जाएगा तो अभी तक पानी के नियमों से बंधा था, अब बर्फ के नियमों से बंध जाएगा। आगे, पीछे, दोनों तरफ बंधन होंगे। जिसको मुक्ति कहते हैं, वह “नॉन-कॉज़ल’ है, उसके पीछे कोई कारण नहीं है, कि इस कारण से फलां आदमी मुक्त हुआ, यह-यह कारण से मुक्त हुआ, क्योंकि इसने इतना उपवास किया इसलिए मुक्त हुआ है। तब तो कोई भी आदमी उतना उपवास करे तो मुक्त होना चाहिए। लेकिन यह नहीं होता।

सौ डिग्री पर कोई भी पानी गर्म होता है, भाप बनता है। लेकिन कोई भी आदमी उपवास करे तो मुक्त नहीं होता है। महावीर करते हैं तो होते हैं। कोई भी आदमी नग्न खड़ा हो जाए तो मुक्त हो जाएगा? नहीं होता। बहुत लोग ऐसे ही नग्न हैं, कपड़े ही नहीं है। लेकिन महावीर खड़े हो जाते हैं और मुक्त हो जाते हैं। तो नग्नता से मुक्ति का कोई “कॉज़ल-रिलेशनशिप’ है, कोई कार्य-कारण-संबंध है? अगर संबंध है तो फिर सबको करना ही पड़ेगा। नहीं, संबंध नहीं है। असल में मुक्ति का अर्थ ही कार्य-कारण की शृंखला के बाहर हो जाना है। वह जो कार्य-कारण की शृंखला है कि ऐसा करने से ऐसा होता है, ऐसा न करने ऐसा नहीं होता, इस सबके बाहर हो जाना ही मुक्ति का अर्थ है। असल में कार्य-कारण की सीमा में जो बंधा है, उसी का नाम पदार्थ है और कार्य-कारण की सीमा के जो बाहर है, उसी का नाम परमात्मा है।

लेकिन, किस जगह इसके बाहर होंगे आप? हम प्रत्येक घड़ी को कार्य-कारण से जोड़ते हैं। अभी मैं एक कहानी कह रहा था–

एक आदमी एक ट्रेन में सवार हुआ है, पहली दफा। उसके गांव के लोगों ने उसकी जन्म-जयंती मनाई है। पचहत्तर साल का हो गया है, बूढ़ा है और गांव गरीब है, उसको क्या भेंट दें! तो उन्होंने सोचा कि हमारे गांव में कभी कोई ट्रेन पर सवार नहीं हुआ है–पहली दफा ट्रेन चली–तो हम सब गांव के लोग चंदा करके इसको ट्रेन पर भेज दें। तो उसको ट्रेन पर भेजा। साथ में एक मित्र और उसके ट्रेन पर गया है। वे दोनों सवार हुए। पहली दफा गाड़ी में बैठे। बड़े आनंदित हैं और तभी गाड़ी में चीजें बिकने आ गईं। कुछ उन्होंने पाकिट-खर्च भी उनको दिया था कि कुछ खरीद भी करना आते-जाते। आनंद लेना। एक सोडा बेचने वाला, एक आदमी सोडा बेच रहा है। उन्होंने कहा, पता नहीं क्या खतरनाक चीज है, लेकिन पहले कोई पीता हो तो अपन देख लें। एक आदमी ने लेकर पिआ तो उन्होंने कहा, ठीक है, पिआ तो जा सकता है। पर उन्होंने कहा, एक ही लें पहले। आधा तुम पी लो, आधा मैं पी लूं। क्योंकि जंचे भी, न जंचे। तो उन्होंने एक सोडे की बॉटल ली। एक आदमी ने आधी बोतल पी। पहले दफे पी थी, और जैसे ही उसने बोतल पी वैसे ही ट्रेन एक “टनल’ में, एक बोगदे में प्रवेश की। वह आधे के आगे पीता चला गया तो दूसरे ने रोका, उसने कहा कि तुम आधे के आगे जा रहे हो। उसने बोतल नीचे की, आंखें खोलीं, घनघोर अंधेरा था। तो उसने दूसरे आदमी को कहा कि, “डोंट टच दिस स्टफ, आई हैव बीन स्ट्रक ब्लाइंड’। इसको छूना ही मत, मैं अंधा हो गया हूं। भूलकर मत पीना, अब जो हो गया मेरे साथ, हो गया।

स्वभावतः वह जो अंधेरा घटित हुआ था, वह उसके लिए “कॉज़ल लिंक में ही सोच सकता है–सोडा पीने से आंखें एकदम अंधी हो गईं। हम जिंदगी में इसी भाषा में सोचते हैं। इससे बड़ी भ्रांतियां पैदा होती हैं। मुक्ति का जो अनुभव है, वह “बियांड द कॉज़ल लिंक’ है। वह हमारे सब कार्य-कारण के बाहर है। बुद्ध ने जो किया है उसके कारण वह उसको उपलब्ध नहीं हुए, उसके करने के बावजूद उपलब्ध हुए, “इनस्पाइट आफ दैट’। महावीर ने जो किया है उसके कारण उपलब्ध नहीं हुए, उसको करने के बावजूद उपलब्ध हुए हैं। इसलिए कोई अगर महावीर की पूरी नकल भी कर ले तो उपलब्ध नहीं होगा। पूरी नकल कर ले, “टोटल’, कि उसमें एक अंक भी कम देने की गुंजाइश न रह जाए, उसको सौ परसेंट आंकड़े देने पड़ें कि अब इसमें कोई कमी नहीं रह गई, फिर भी नहीं होगा। उसका कोई संबंध नहीं है।

मुक्ति “एक्सप्लोजन’ है, एक विस्फोट है, कार्य-कारण की शृंखला के बाहर।

कृष्ण यह कहते हैं कि अगर यह खयाल में आ जाए तो वह अभी हो सकता है। पात्र-अपात्र का सवाल नहीं है, सभी पात्र हैं। साधना का उतना सवाल नहीं है। लेकिन कुछ लोग थोड़ा चक्कर खाएंगे। उनको अगर अपने घर भी आना हो तो वह पूरी बस्ती में घूमे बिना नहीं आ सकते। उनके लिए जरूरी होगा कि पूरा गांव घूम आएं। कुछ लोग, अपने पास भी उनको आना है तो “वाया दि अदर’, वह दूसरे के बिना अपने पास भी नहीं आ सकते। उनका रास्ता ही वह है। फिर हमारे अपने-अपने चक्कर हैं। वह चक्कर हम पूरा करेंगे। लेकिन कृपा करके अपना ही चक्कर पूरा करें, तब भी ठीक है। दूसरे ने जो चक्कर पूरा किया है, उसको करने निकल जाते हैं आप, तब बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। वह आपका चक्कर ही नहीं है। कोई दूसरा उस चक्कर से अपने तक आया था, लेकिन आप वह नहीं हैं, आप दूसरे आदमी हैं। आप उस चक्कर से नहीं आ सकते हैं अपने तक।

पहली बार जब उपनिषद पश्चिमी भाषाओं में अनुवादित हुए, तो वहां जिन लोगों ने पढ़ा उनकी पहली जो तकलीफ हुई वह यही थी, कि इनमें कोई साधना तो बताई नहीं है। क्या करना, क्या नहीं करना; क्या खाना, क्या नहीं पीना; क्या पहनना, क्या नहीं पहनना; क्या बुरा है, क्या भला है; यह सब इसमें कुछ बताया हुआ नहीं है। ये किस तरह के धर्मग्रंथ हैं। क्योंकि बाइबिल में सब बहुत साफ है। क्या करो, क्या न करो, यह बहुत साफ है। “कमांडमेंट’ जाहिर है; यह कहना है और यह नहीं करना है। यह तो धर्मग्रंथ है। यह उपनिषद किस तरह का धर्मग्रंथ है, जिसमें कोई चर्चा ही नहीं; जिसमें कोई साधना की प्रक्रिया नहीं, आचरण की कोई व्यवस्था नहीं। कठिन है समझना कि बाइबिल में जो उपदेश है, वह धर्म से उसका कोई लेना-देना नहीं है, वह सिर्फ “रिमेंबरिंग’ की बात है। वे यह कह रहे हैं कि तुम स्मरण करो। जिसे तुम भूल गए हो, जो तुम हो, जो तुम इसी वक्त हो, उसे स्मरण करो। इसे कहीं पाने नहीं जाना है, अभी और यहीं हो ही तुम। सिर्फ स्मरण करो। यह सिर्फ विस्मृति है।

कृष्ण की दृष्टि में, जो हमें पाना है वह सिर्फ विस्मृत हुआ है, खोया नहीं है। जो हमें पाना है, वह हम भूल गए हैं, बस इससे ज्यादा नहीं है। वह हमें याद नहीं रहा है। इसलिए पहले ही चरण में उसको याद करो और कूद जाओ। इसलिए जो साधनाएं और जो नैतिकताएं और जो व्यवस्थाएं धर्म देगा, वह कृष्ण नहीं दे रहे हैं। कृष्ण का अहंकार, पहले ही क्षण में नहीं है। और जो आदमी भी आंख खोलकर देखेगा, उसका अहंकार नहीं रह जाएगा। आंख बंद करके हम जीते हैं, इसलिए अहंकार रह जाता है। ऐसा नहीं है कि आप कहेंगे, कृष्ण को हुआ, मुझे क्यों नहीं होता है? आप आंख बंद करके जीते हैं। आपने कभी अपने जन्म के संबंध में सोचा कि किसने आपको पैदा किया? आपने पैदा किया? कम-से-कम इतना तो तय है कि आपने पैदा नहीं किया। आप जैसे हैं, ऐसा आपको आपने नहीं बनाया, इतना तो तय है। लेकिन हमें भी वहम पैदा हो जाता है। हमारे बीच में भी कई “सेल्फ-मेड’ पागल होते हैं, वह सोचते हैं, मैंने अपने को बनाया। वह भगवान तक को तकलीफ नहीं देते उनको बनाने की, वह खुद ही पर अपना सब थोप लेते हैं। तो मैंने अपने को बनाया–“सेल्फ-मेड’। न हम अपने को बनाते, हमारा होना भी हमारे हाथ में तो नहीं है। ऐसे सीधे-से सत्य भी हमें दिखाई नहीं पड़ते कि मेरा होना भी मेरे हाथ में कहां है! मैं हूं, इसके लिए मेरी जिम्मेवारी कहां है! मैं नहीं होता, तो मैं किससे शिकायत करने जाता? जो नहीं हैं वहां शिकायत कर रहे हैं? नहीं होता तो नहीं होता, हूं तो हूं। मैं ऐसा हूं तो ठीक, और ऐसा नहीं होता, और-जैसा होता तो क्या करता!

अगर हम जीवन के तथ्यों में थोड़ी आंख डालकर देखें तो हमें दिखाई पड़ेगा, न जन्म हमारे हाथ, न मृत्यु हमारे हाथ, हमारे भी हमारे हाथ में नहीं हैं। जरा अपने हाथ से अपने ही हाथ को पकड़ने की कोशिश करें तो पता चलेगा। कुछ भी हमारे हाथ में नहीं हैं। जहां कुछ भी हमारे हाथ में नहीं है, वहां “मैं’ कहने का अर्थ क्या है, प्रयोजन क्या है? जहां सभी कुछ संघट है, जहां सभी कुछ एक-साथ घट रहा है–कहा नहीं जा सकता कि आज बगीचे में जो फूल खिले हैं, अगर वह आज नहीं खिलते तो जरूरी था कि मैं फिर भी यहां होता। कोई नहीं कह सकता। आमतौर से हम कहेंगे, इससे क्या संबंध है; बगीचे में फूल नहीं होते, तो भी मैं यहां हो सकता था। जरूरी नहीं है। वह जो बगीचे में एक फूल खिला है, उसकी मौजूदगी और मेरा होना एक ही होने के दो छोर हैं।

अभी सूरज शांत हो जाए तो हम सब यहीं शांत हो जाएंगे। सूरज बहुत दूर है। करोड़ों मील दूर है। उसके होने पर हम निर्भर हैं; और सूरज भी किन्हीं महासूर्यों के होने पर निर्भर है, और वे महासूर्य भी और किन्हीं महासूर्यों के होने पर निर्भर हैं–सब निर्भर है। यहां जीवन “इंटरडिपेंडेंट’ हैं, हम छोटे-छोटे द्वीप नहीं हैं, हम महासागर हैं, यहां सब इकट्ठा है। इसको जरा ही आंख खोलकर देख लें तो कोई याद दिलाना पड़ेगा कि मैं और तू हमारे मानवीय आविष्कार हैं, और बड़े गलत आविष्कार हैं! वह दिखाई पड़ जाए तो उसका स्मरण आ जाए जो है। वह दिखाई न पड़े तो उसका स्मरण मुश्किल होगा। तब तक हम अपने को मैं माने चले जाएंगे, दूसरे को तू माने चले जाएंगे और एक कल्पना में, एक पुराण में जी लेंगे; एक “मिथ’ में जी लेंगे।

कृष्ण पहले ही चरण में कहते हैं स्मरण करो, और कुछ मत करो। बस स्मरण करो। कौन हो, क्या हो, कहां हो, इसका स्मरण करो और सब प्रगट हो जाएगा।

“भगवान श्री, पूर्णता के संबंध में एक प्रश्न था। आपने सुबह कहा कि पूर्णता का मूल लक्षण आप शून्यता मानते हैं। बुद्ध भी तो परम शून्य थे। क्या उन्हें पूर्ण नहीं कहा जा सकता? और इसी के साथ क्या शून्यता स्वयं में बहु-आयामी नहीं है?

 

दोत्तीन बातें।

एक तो, बुद्ध शून्यता पर पहुंचे, जैसा मैं अभी कह रहा था। बुद्ध शून्यता पर पहुंचे। वह उनका “अचीवमेंट’ है। वह उन्होंने पाया। वे शून्य हुए। जो शून्यता पाई जाएगी, वह “वन डायमेंशनल’ हो जाती है। उसकी एक दिशा हो जाती है। वह पाने वाले पर निर्भर हो जाती है।

इसको ऐसा समझें। असल में मैं अपने भीतर से जिस चीज को शून्य कर दूंगा, जिस चीज को काट डालूंगा, अलग कर दूंगा, वह समाप्त हो जाएगी, मेरे भीतर से हट जाएगी। एक तरह का शून्य उपलब्ध होगा। लेकिन वह शून्यता किसी चीज का अभाव होकर आएगी। एक और शून्यता है, जो हम लाते नहीं, जो हमारे होने के बोध में ही जनमती है। हम हैं ही शून्य, हम होते नहीं शून्य। शून्यता हमारा स्वभाव है। ऐसे हम हैं ही। जिस दिन शून्यता हमारा स्वभाव होती है, साधन नहीं, अभ्यास नहीं, उपलब्धि नहीं, उस दिन शून्यता बहु-आयामी, “मल्टी-डायमेंशनल’ हो जाती है। हमने किसी चीज को खाली करके अपने को शून्य नहीं किया है। हम शून्य हैं ही, इसको स्मरण किया है।

तो बुद्ध की जो शून्यता हमें दिखाई पड़ती है, वह शून्यता लाई हुई है। और जो शून्यता लाई हुई है, वही हमें दिखाई पड़ती है। कृष्ण में हमें शून्यता कभी नहीं दिखाई पड़ी। कृष्ण को तो लोग कहेंगे, बहुत भरे-पूरे आदमी हैं, बहुत “ऑकुपाइड’ आदमी हैं। कृष्ण की “प्रेजेंस’ तो अनुभव होती है, कृष्ण में “एब्सेंश’ अनुभव नहीं होती। कृष्ण में कुछ मौजूद है, यह तो पता चलता है, कृष्ण खाली हैं, यह पता नहीं चलता। पता हमें चलता है कि बुद्ध खाली हैं। उसका कारण है कि जो हम में भरा है, उसको बुद्ध ने निकाल दिया है, इसलिए बुद्ध खाली लगते हैं। अगर हम में क्रोध है, तो बुद्ध ने उसे निकल दिया; अगर हम में हिंसा है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; अगर हम में राग है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; अगर हम में मोह है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; जिससे हम भरे हैं, बुद्ध उससे खाली हैं। इसलिए हमें लगता है कि वह शून्यता है। बुद्ध शून्य हुए। असल में जिससे हम भरे हैं, वह उनमें नहीं है। हम उनकी शून्यता को पहचान लेते हैं। कृष्ण की शून्यता हमें पहचान में नहीं आती। क्योंकि इस आदमी में अगर लोभ नहीं है, तो भी यह आदमी जुआ खेलने बैठ सकता है। अगर इस आदमी में क्रोध नहीं है, तो यह आदमी हाथ में चक्र लेकर कैसे उतर जाता है युद्ध में! अगर इस आदमी में हिंसा नहीं है, तो अर्जुन को क्यों उकसाता है हिंसा के लिए? अगर इसमें राग नहीं है, तो यह प्रेम क्यों करता है? जिससे हम भरे हैं, वह हमें कृष्ण में दिखाई पड़ता है, कृष्ण की शून्यता हमारी पकड़ में नहीं आ सकती।

बुद्ध की शून्यता को अगर ठीक से समझें, तो वह किसी चीज की “एब्सेंश’ है, जो हम में मौजूद है। तो हम पहचान लेते हैं। असल में जिस-जिस को हम मनुष्यता की बीमारियां कहते हैं, बुद्ध में उनका अभाव है। जहां तक मनुष्य के बीमार होने का संबंध है, बुद्ध बिलकुल शून्य हैं। आदमी की कोई बीमारियां उनमें नहीं हैं। बस यहीं तक बुद्ध हमें दिखाई पड़ते हैं। इसके बाद बुद्ध एक और छलांग लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। वह छलांग जो बुद्ध इस शून्यता के बाद लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। वह छलांग जो बुद्ध इस शून्यता के बाद लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। बुद्ध मर रहे हैं और आखिरी क्षण में भी उनके शिष्य उनसे पूछते हैं कि जब आप मर जाएंगे तो आप कहां जाएंगे? कहीं तो होंगे आप! मोक्ष में होंगे? निर्वाण में होंगे? कैसे होंगे? बुद्ध कहते हैं, मैं कहीं नहीं होऊंगा, मैं होऊंगा ही नहीं। यह उनके पकड़ में नहीं आता। क्योंकि वह मानते हैं, जिसने लोभ छोड़ा, क्रोध छोड़ा, मोह छोड़ा, उसे कहीं होना चाहिए? हां, जमीन पर नहीं, मोक्ष में होना चाहिए, लेकिन कहीं होना चाहिए! बुद्ध कहते हैं, मैं कहीं भी नहीं होऊंगा। मैं ऐसे ही मिट जाऊंगा जैसे पानी पर खींची गई रेखा मिट जाती है। जब हम पानी पर रेखा खींचते हैं तब वह होती है, और जब मिट जाती है तब बुद्ध पूछते हैं–वह कहां जाती है? कहीं चली जाती? कहीं रहती? बस मैं पानी पर खींची गई रेखा की तरह मिट जाऊंगा। मैं कहीं भी नहीं होऊंगा। बुद्ध की यह बात उनके शिष्यों की समझ में नहीं आती। कृष्ण इस पानी पर खींची गई रेखा की तरह जिंदगी भर जीते हैं, इसलिए कोई शिष्य भी नहीं खोज पाते, तो किसी को भी समझ में नहीं आते।

बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण में उस छलांग को भी पूरा करते हैं, जो एक “डायमेंशनल नथिंगनेस’ से, एक-आयामी शून्यता से परम शून्य में छलांग हो जाती है, लेकिन उस शून्य को पकड़ नहीं पाते हम, उसको हम देख नहीं पाते। और कृष्ण के साथ हमारी कठिनाई और ज्यादा हो जाती है क्योंकि वह शून्य में जीते ही हैं। वह रेखा किसी दिन मिटेगी, नहीं, ऐसा नहीं, वह प्रतिपल खींचते हैं और मिट जाती है। न केवल खींचते हैं और मिट जाती है, बल्कि उससे विपरीत रेखा भी खींच देते हैं। रेखाएं-रेखाएं हो जाती हैं, सब मिटता है, सब होता रहता है। बुद्ध शून्यता को किसी दिन उपलब्ध होते हैं, कृष्ण शून्य ही हैं। और इसलिए कृष्ण की शून्यता को पकड़ना मुश्किल होता है।

जिस दिन बुद्ध शून्य होते हैं, उस दिन जहां तक बुद्ध के भीतर जो कैद थी चेतना, जो अस्तित्व, वह मुक्त होकर विराट के साथ एक हो जाता है। लेकिन उस दिन वह बुद्ध नहीं रह जाते–उस दिन वह जो गौतम सिद्धार्थ पैदा हुआ था; उससे कोई संबंध नहीं है। वह जो भीतर एक शून्य था अस्तित्व का, वह विराट अस्तित्व के साथ एक हो गया। इसलिए उस विराट अस्तित्व के साथ एक हो गए उस शून्य की कोई कथा नहीं है हमारे पास। लेकिन कृष्ण पूरे जीवन ऐसे जीते हैं कि उस शून्य की हमारे पास एक कथा है, कि अगर बुद्ध भी उस शून्य के बाद जगत में जिएं, तो कैसे जिएंगे। वह तो हमें मौका नहीं मिलता, वह मौका हमें कृष्ण में मिलता है।

बुद्ध का शून्य होना और समाप्त हो जाना एक साथ घटित होते हैं, कृष्ण का शून्य होना और होना एक साथ चलते हैं। अगर बुद्ध पूर्ण निर्वाण को, महानिर्वाण को पाकर वापस लौट आएं, तो वह कृष्ण-जैसे होंगे। फिर वह चुनाव नहीं करेंगे–फिर वह यह नहीं कहेंगे, यह बुरा है और यह भला है। फिर वह छोड़ेंगे-पकड़ेंगे नहीं। फिर वे कुछ भी नहीं करेंगे, फिर वे जिएंगे। कृष्ण वैसे जीते ही हैं। जो बुद्ध की परम उपलब्धि है, कृष्ण का वह सहज जीवन है। और इसलिए बहुत कठिनाई है। परम उपलब्ध लोग तो समाप्त हो जाते हैं, उपलब्ध होते-होते खो जाते हैं, इसलिए हमें बहुत परेशानी में नहीं डालते। जब तक वे होते हैं, हमारी नैतिक धारणाओं की परिपुष्टि उनसे होती मालूम पड़ती है। लेकिन, यह आदमी होता ही शून्य है और इसलिए हमारी किसी नैतिक मान्यता को इससे पुष्टि नहीं मिलती। यह हमारा सारा-का-सारा अस्तव्यस्त कर जाता है। यह आदमी हमें बड़े भ्रम में छोड़ जाता है। हम समझ ही नहीं पाते कि अब क्या करें और क्या न करें? असल में बुद्ध और महावीर से करने के सूत्र निकलते हैं; कृष्ण से होने का सूत्र निकलता है। बुद्ध और महावीर से “डूइंग’ के लिए रास्ता मिलता है, कृष्ण से सिर्फ “बीइंग’ के लिए रास्ता मिलता है। कृष्ण सिर्फ “हैं’।

एक झेन फकीर से किसी आदमी ने जाकर पूछा है कि मुझे ध्यान सिखाएं। तो उस फकीर ने कहा कि तुम मुझे देखो और सीख लो। वह आदमी बहुत मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि वह फकीर अपने बगीचे में गङ्ढे खोद रहा है। उसने थोड़ी देर तो देखा, उसने कहा कि गङ्ढा खोदना मैं बहुत देख चुका हूं, मैंने बहुत खोदे हैं, आप कृपा करके ध्यान सिखाएं। तो उस फकीर ने कहा कि अगर तुम मुझे देखकर नहीं सीख सकते, तो मैं और कैसे सिखा सकता हूं; मैं ध्यान हूं! मैं जो भी कर रहा हूं, वह ध्यान है। मेरे गङ्ढे खोदने को ठीक से देखो। उस आदमी ने कहा, मुझे तो लोगों ने भेजा था कि बड़े ज्ञानी के पास भेज रहे हैं, मैं भी कहां आ गया। गङ्ढा खोदना ही मुझे देखना होता तो मैं कहीं भी देख लेता। उस फकीर ने कहा, एक-दो दिन रुक जाओ।

कभी वह फकीर खाना खाने बैठता, कभी वह सो जाता, कभी वह स्नान करता, कभी वह गङ्ढा खोदता, कभी बीज बोता, दो दिन में वह आदमी घबड़ा गया, उसने कहा, मैं ध्यान सीखने आया हूं, इन सब बातों में मुझे कोई मतलब नहीं है। तो उस फकीर ने कहा, लेकिन मैं करना नहीं सिखाता, मैं होना सिखाता हूं। अगर तुम मुझे गङ्ढा खोदते देखो तो समझो कि ध्यान कैसे गङ्ढा खोदता है। अगर तुम मुझे खाना खाते देखते हो, तो देखो कि ध्यान कैसे खाना खाता है? मैं ध्यान करता नहीं, मैं ध्यान हूं। उस आदमी ने कहा, मैं भी किस पागल के पास आ गया! मैंने सदा यही सुना था कि ध्यान किया जाता है, अब तक मैंने सुना नहीं कि कोई ध्यान होता है। उस फकीर ने कहा, यह तो बहुत मुश्किल सवाल है कि पागल हम दोनों में से कौन है। और हम दोनों तो इसको तय कर ही न सकेंगे।

हम सबने प्रेम किया है, हम कभी प्रेम नहीं हुए हैं, इसलिए अगर कोई आदमी हमारे बीच आ जाए जो प्रेम है, तो मुश्किल में डाल देगा। क्योंकि हम तो प्रेम करते हैं। “लव एज़ एक ऐक्ट’ हमारे लिए आता है। “लव एज़ बीइंग’ हमारे लिए कभी नहीं है। इसको प्रेम करते, उसको प्रेम करते, कभी करते, कभी नहीं करते, वह हमारा कामधाम है। लेकिन एक आदमी जो प्रेम है, वह हमें मुश्किल में डाल देता। उसका होना प्रेम है। वह जो भी करता है वह प्रेम है। वह जो नहीं करता, वह भी प्रेम है। वह लड़ता है तो प्रेम है, वह गले लगता है तो प्रेम है–वह जो भी करता है। वह आदमी हमें मुश्किल में डाल देगा। हम उससे बहुत कहेंगे कि भाई, हमें प्रेम करो; वह कहेगा प्रेम मैं कैसे करूं, मैं प्रेम हूं; प्रेम तो वे कर सकते हैं जो प्रेम न हों।

कृष्ण की यही कठिनाई है। कृष्ण का अस्तित्व शून्य है, शून्य हुए नहीं है वह। उन्होंने कुछ खाली नहीं किया, उन्होंने कुछ हटाकर जगह रिक्त नहीं बनाई, उन्होंने तो जो है, उसको स्वीकार कर लिया, स्वीकार कर लिया इसलिए शून्य हो गए। इस शून्यता में और बुद्ध और महावीर की शून्यता में आखिरी क्षण के एक क्षण पहले तक फर्क रहेगा। बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण तक होंगे कुछ। आखिरी छलांग में न-कुछ हो जाएंगे। लेकिन कृष्ण पूरे जीवन न-कुछ हैं। यह शून्यता, जिसको कहें “लिविंग नथिंगनेस’, जीवंत शून्यता है। बुद्ध और महावीर की शून्यता जीवंत नहीं है। जीने के आखिरी क्षण तक तो वे उस शून्यता से भरे रहते हैं जो शून्यता हम पहचान लेते हैं कि यह-यह खाली किया है, आखिरी क्षण में छलांग लेते हैं। इसलिए महावीर और बुद्ध, दोनों कहेंगे, लौटना नहीं है। लौटना नहीं है। लेकिन कृष्ण राधा से कह सकता है कि हम बहुत बार पहले भी आए और नाचे, और बहुत बार फिर भी आएंगे और नाचेंगे।

बुद्ध और महावीर के लिए शून्यता महामृत्यु है। उसके बाद कोई लौटना नहीं है, खो जाना है। वह आवागमन का बंद हो जाना है। कृष्ण कह सकता है कि आवागमन से मुझे क्या डर है? मैं शून्य हूं ही। मुझे मोक्ष में और ज्यादा क्या मिलेगा। मैं जहां हूं वहां मोक्ष है ही। मैं आता रहूंगा। इसलिए वह बड़ी अदभुत बात कहते हैं। वह अर्जुन से कहते हैं कि जब भी मुसीबत हो, मैं आ सकता हूं। जब भी धर्म की ग्लानि हो, मैं आ जाऊंगा। ऐसा बुद्ध और महावीर नहीं कह सकते। ऐसा उनका कोई वक्तव्य नहीं है कि दुनिया में मुसीबत हो, अंधेरा हो, बीमारी हो, तकलीफ हो, अधर्म हो, तो मैं आ जाऊंगा। क्योंकि वह कहेंगे, मैं आऊंगा कैसे, मैं तो मुक्त हो चुका होऊंगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं, तुम फिक्र मत करना, कोई मुसीबत हो तो मैं आ सकता हूं। आ सकने का यह मतलब नहीं है कि आ जाएंगे। आ सकने का कुछ मतलब यह है कि इस आदमी को आने-जाने में कोई फर्क नहीं है, इससे कोई बाधा नहीं पड़ती। यह शून्य है ही, इसलिए आने से क्या बिगड़ेगा; कुछ भी नहीं बिगड़ेगा।

शून्यता का यह फर्क है।

और महावीर और बुद्ध शून्यता को मुक्ति के अर्थों में ही ले पाएंगे, क्योंकि उनके जीवन भर मुक्ति की आकांक्षा ही उनकी साधना है। इसलिए जब शून्यता आएगी तो वे कहेंगे, हम मुक्त हुए, विश्राम में गए। अब लौटते नहीं हैं। “प्वाइंट आफ नो रिटर्न’, अब इससे लौटना नहीं है। अब लौटने का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि लौटने का उनके लिए एक ही मतलब साफ होगा कि वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, वही जंजाल, वही संसार, वही उपद्रव, वही मुसीबत। अब लौटना नहीं है। अब हम सबके बाहर हुए। इसलिए शून्य की घटना जब उनके चित्त में घटेगी तो वह डूब जाएंगे उसमें, खो जाएंगे विराट में। वह नहीं लौटने की बात कर सकते। लेकिन कृष्ण के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। वह क्रोध में भी वही हैं, प्रेम में भी वही हैं, राग में भी वही हैं, सब में भी वही हैं। इसलिए वह कहेंगे, अगर लौटना है तो मजे से लौट आएंगे। उसमें कोई तकलीफ नहीं है। इधर कोई बेचैनी, कोई कठिनाई नहीं होती। आना-जाना हो सकता है। इसमें बाधा नहीं है। इसलिए वह कह सकते हैं। उनका शून्य जीवंत है।

लेकिन अनुभूति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। चाहे महावीर और बुद्ध का शून्य आपको मिल जाए तो भी आप आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे। चाहे कृष्ण का शून्य आपको मिल जाए तो भी आप आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे। लेकिन महावीर और बुद्ध का आनंद जो है, वह विश्राम में ले जाएगा। कृष्ण का जो आनंद है, वह हो सकता है विराट सक्रियता में ले जाए। तो अगर हम ऐसा शब्द बना सकें, “एक्टिव वॉयड’, सक्रिय शून्य, तो कृष्ण पर लागू होगा। अगर हम ऐसा कोई बना सकें, निष्क्रिय शून्य, “नॉनएक्टिव वॉयड’, तो वह महावीर और बुद्ध पर लागू होगा। अनुभूति तो आनंद की ही होगी, लेकिन एक आनंद सृजनात्मक हो जाएगा और एक आनंद लीन हो जाएगा। वह फर्क है। एकाध सवाल और पूछ लें तो फिर हम बैठें।

“बुद्ध पूर्णता अर्थात महाशून्यता के बाद भी तो चालीस-बयालीस साल जीते हैं?’

बुद्ध जीते हैं। महावीर भी चालीस साल जीते हैं, बुद्ध भी चालीस साल, बयालीस साल जीते हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैं मरने के पहले कि वह जो निर्वाण मुझे हुआ था चालीस साल पहले, वह निर्वाण था, अब जो हो रहा है, वह महानिर्वाण है। पहले निर्वाण में बुद्ध ने वही शून्य पाया था जो हमें दिखाई पड़ता है। दूसरे महानिर्वाण में बुद्ध उस शून्य को पाते हैं जो हमें दिखाई नहीं पड़ता, जो कृष्ण को दिखाई पड़ सकता है। तो बुद्ध तीस-चालीस साल जीते हैं। उस जीने में भी परम शून्य नहीं हैं। उस जीने में भी एक छोटी-सी बाधा तो है ही। उस जीने में भी अभी कष्ट है। अभी होना चल रहा है। इसलिए बुद्ध अगर गांव-गांव जा भी रहे हैं, तो वह करुणावश जा रहे हैं, आनंदवश नहीं। अगर वह दूसरे को समझा रहे हैं तो करुणा के कारण, कि जो मुझे मिला है मैं आपको भी कह दूं कि शायद आपको मिल जाए। लेकिन कृष्ण अगर दूसरे को कुछ कह रहे हैं, तो आनंद के कारण, वह कोई करुणा के कारण नहीं। कृष्ण में करुणा को न खोज पाओगे तुम।

बुद्ध का व्यक्तित्व “कम्पैसन’ है। चालीस साल करुणावश वह जा रहे हैं, आ रहे हैं, लेकिन, वह आखिरी क्षण की प्रतीक्षा है जब यह आना-जाना भी छूट जाएगा। इससे भी मुक्ति होगी। इसलिए बुद्ध कहते हैं, दो तरह के निर्वाण हैं। एक निर्वाण वह है, जो समाधि से मिलता है। और एक महानिर्वाण है, जब कि शरीर भी खो जाता है–मन ही नहीं खोता है, शरीर भी खोता है। वही परम निर्वाण है। परम शून्य उससे ही मिलेगा।

कृष्ण के लिए ऐसा नहीं है। कृष्ण के लिए निर्वाण और महानिर्वाण दो नहीं हैं, एक ही हैं।

…सवाल तो सुबह अब होंगे, इसलिए हवा आनंद ही देगी।

 


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन-83

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तत्‍क्षण बोध—(प्रवचन—तीसरा)

(विभुतिपाद)

योग—सूत्र:

ग्रहणस्वरूपास्मिजन्वयार्थवत्यसंयमादिन्द्रियजय:।।48।।

उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्वव्यापकता और क्रियाकलापों पर संयम साधने से ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।

ततो मनोजवित्व विकरणभाक प्रधानजयक्य।।49।।

इसके उपरांत देहू के उपयोग के बिना ही तत्‍क्षण बोध और प्रधान (पौद्गलिक जगत) पर पूर्ण स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।

सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्यं सबंज्ञातृत्व च।। 5०।।

सत्व और पुरुष का विभेद बोध होने के उपरांत ही अस्तित्व की समस्त दशाओं का ज्ञान और उन पर प्रभुत्व उदित होता है।

व्याख्य की व्याख्या करने में पतंजलि की कुशलता अनुपम है। कभी भी कोई उनसे आगे निकल पाने में समर्थ नहीं हो पाया है। उन्होंने चेतना के आंतरिक संसार का जितना ठीक संभव हो सकता है, वैसा मानचित्रण कर दिया है; उन्होंने लगभग असंभव कार्य कर दिखाया है।

मैंने रामकृष्ण के बारे में एक कथा सुनी है :

एक दिन वे अपने शिष्यों से बोले, आज मैं तुम्हें सारी बात बता दूंगा, और कुछ भी रहस्य नहीं रखूंगा। उन्होंने चक्रों की स्पष्ट व्याख्या की, और हृदय तथा कंठ—चक्र तक उनसे संबंधित अनुभवों को भी व्यक्त कर दिया, और तब दोनों भौंहों के मध्य के बिंदु की ओर संकेत करते हुए कहा : परम सत्ता का प्रत्यक्ष शान होता है, और जब मन यहां आता है तो व्यक्ति को समाधि का अनुभव होता है। एक झीना सा पारदर्शी आवरण ही तब परम सत्ता और व्यक्तिगत सत्ता के मध्य में बचा रहता है। तब साधक को अनुभव होता है…। इतना कह कर, जैसे ही उन्होंने परम सत्ता के साक्षात के बारे में विस्तार से बताना शुरू किया, वे समाधि में डूब गए, और सुध—बुध खो बैठे। जब समाधि टूटी और वे वापस सामान्य अवस्था में लौटे, तो उन्होंने फिर इसका वर्णन करने का प्रयास किया और पुन: समाधि में चले गए, फिर वे अपनी सुध—बुध खो बैठे। कई कोशिशों के बाद रामकृष्ण के आसू बह निकले, वे रोने लगे, और अपने शिष्यों से बोले कि इसके बारे में कुछ बताना असंभव है।

लेकिन रामकृष्ण ने कोशिश की, उन्होंने अनेक उपायों से, विभिन्न दिशाओं से, समझाने का प्रयास किया, और उनके पूरे जीवन भर सदा यही होता रहा। जब कभी वे तृतीय नेत्र के चक्र के पार जाते और सहस्रार की ओर बढ़ने लगते, वे किसी आंतरिक भाव से इस कदर वशीभूत हो जाते कि सिर्फ इसकी स्मृति मात्र से, इसे वर्णित करने की कोशिश से ही, वे डुबकी लगा जाते। घंटों वे अचेत पड़े रहते। यह स्वाभाविक था क्योंकि सहस्रार का आनंद ऐसा है कि व्यक्ति करीब—करीब उसके पूर्ण नियंत्रण में हो जाता है। यह आनंद ऐसा सागर सा असीम है कि व्यक्ति पर आच्छादित होकर उसे अपने में समा लेता है। जब व्यक्ति तीसरे नेत्र का अतिक्रमण कर लेता है तो वही व्यक्ति नहीं रह जाता।

रामकृष्ण ने कोशिश की और असफल रहे, वे इसका वर्णन नहीं कर सके। बहुत से अन्य लोगों ने तो इसका प्रयास भी नहीं किया। लाओत्सु इसी के कारण अपने पूरे जीवन भर ताओ के जगत के बारे में कुछ भी कहने से इनकार करता रहा। इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता, और जिस क्षण तुम इसे कहने की कोशिश करते हो तुम एक आंतरिक चक्रवात में, भंवर में गोता खा जाते हो। तुम खो जाते हो, डूब जाते हो। तुमने एक ऐसे सौंदर्य और अदभुत आनंद में स्नान कर लिया होता है कि तुम एक शब्द भी नहीं बोल सकते’।

लेकिन पतंजलि ने एक असंभव कार्य किया है। उन्होंने प्रत्येक चरण को, प्रत्येक एकीकरण को, प्रत्येक चक्र को, इसकी क्रिया विधि को, और इसका अतिक्रमण कैसे करें, सहस्रार तक ही नहीं वरन उसके भी आगे, जितना संभव था उतना ठीक बताया है। प्रत्येक चक्र पर, ऊर्जा के प्रत्येक चक्र पर, एक निश्चित एकीकरण घटता है। जरा इसको समझो।

काम—केंद्र, पहले केंद्र पर, जो सर्वाधिक आदिम और सर्वाधिक प्राकृतिक है, सभी के लिए उपलब्ध है, बाहरी और भीतरी के बीच एकीकरण घटता है। निःसंदेह यह क्षणिक है। जब एक स्त्री का पुरुष से मिलन होता है या पुरुष का स्त्री से मिलन होता है। तो यह एक क्षण को जरा से समय के लिए जहा, बाहरी और भीतरी एक दूसरे से मिलते हैं और एकरूप होकर एक—दूसरे में विलीन हो जाते हैं, आता है। काम का, शिखर अनुभव का, यही सौंदर्य है कि दो ऊर्जाएं, परिपूरक ऊर्जाएं मिलती हैं और एक संपूर्णता बन जाती ‘हैं। लेकिन यह क्षणिक होता है, क्योंकि यह मिलन, सर्वाधिक स्थूल अवयव, देह के माध्यम से होता है। देह केवल सतह का ही स्पर्श कर सकती है, लेकिन यह वास्तव में एक—दूसरे में प्रवेश नहीं कर सकती। यह बर्फ के टुकड़ों की तरह है। अगर तुम दो बर्फ के टुकड़ों को पास—पास रखो तो वे एक दूसरे को छू सकते हैं लेकिन अगर वे पिघल कर पानी बन जाए तो वे मिल जाते हैं और एक दूसरे में विलीन हो जाते है। तभी वे आत्यांतिक केंद्र तक पहुंचते हैं। और अगर पानी वाष्पित हो जाए तब यह मिलन बहुत, बहुत गहरा हो जाता है। तब वहां न मैं, न तू न भीतर, न बाहर, कुछ नहीं रहता।

यह पहला केंद्र, ‘काम—केंद्र’ तुम्हें एक निश्चित एकरूपता देता है। इसी कारण काम का इतना अधिक आकर्षण है। यह स्वाभाविक है अपने आप में यह लाभप्रद और अच्छा है, लेकिन अगर तुम यहीं रुक गए तो तुम महल के दरवाजे पर रुक गए हो। दरवाजा अच्छा है यह तुम्हें महल के भीतर ले आता है, किंतु यह कोई ऐसा स्थान नहीं है जहां तुम्हारा वास हो सके, यह कोई सदा के लिए रुक जाने का स्थान भी नहीं है… और अन्य केंद्रों पर उच्चतर एकीकरण के उस आनंद से जो तुम्हारी प्रतीक्षा में है, तुम चूक जाओगे। और उस आनंद, हर्ष और प्रसन्नता की तुलना में काम का सौंदर्य कुछ भी नहीं है, कामवासना का सुख कुछ भी नहीं है। यह तो बस तुम्हें क्षणिक झलक भर दिखाता है।

दूसरा चक्र है ‘हारा।’ हारा—केंद्र पर जीवन और मृत्यु मिल जाते हैं। अगर तुम दूसरे चक्र पर पहुंचे हो तो तुम एकीकरण के उच्चतर शिखर अनुभव पर पहुंच जाते हो। जीवन मृत्यु से मिलता है, सूर्य चंद्रमा से मिल रहा होता है। और अब मिलन भीतरी है, इसलिए यह मिलन अधिक स्थिर, अधिक स्थायी हो सकता है, क्योंकि तुम किसी अन्य पर निर्भर नहीं हो। अब तुम्हारा मिलन तुम्हारे अपने आंतरिक पुरुष या अपनी आंतरिक स्त्री से हो रहा होता है।

तीसरा चक्र है. ‘नाभि।’ वहां पर विधायक और नकारात्मक, धनात्मक विद्युत और ऋणात्मक विद्युत का मिलन होता है। उनका मिलन जीवन और मृत्यु के मिलन से भी उच्चतर है, क्योंकि विद्युत— ऊर्जा, प्राण, बायो—प्लाज्मा या जीव—ऊर्जा, जीवन और मृत्यु से भी गहरी है। इसका जीवन से पूर्व अस्तित्व होता है, यह मृत्यु के बाद भी अस्तित्व में रहती है। जीवन और मृत्यु का अस्तित्व जीव—ऊर्जा के कारण ही है। जीव—ऊर्जा का नाभि पर यह मिलन तुम्हें एक होने का, समग्र होने का, एकीकृत होने का उच्चतर अनुभव दे देता है।

इसके बाद है : ‘हृदय।’ हृदय—चक्र पर निम्नतर और उच्चतर मिलते हैं। हृदय—चक्र पर प्रकृति और पुरुष, काम और आध्यात्म, सांसारिक और असांसारिक का—या तुम इसे कह सकते हो स्वर्ग. और पृथ्वी का मिलन घटता है। यह थोड़ा और उच्चतर है क्योंकि पहली बार उस पार का कुछ उदित होता है—तुम क्षितिज पर सूर्य का उदय होते देख सकते हो। अभी भी तुम्हारी जड़ें पृथ्वी में ही हैं, पर तुम्हारी शाखाएं ,आकाश में विस्तीर्ण हो रही हैं। तुम एक संगम बन गए हो। इसीलिए हृदय का केंद्र, जो सामान्यत: उपलब्ध, सर्वाधिक परिशुद्ध और सर्वोच्च है—प्रेम का अनुभव प्रदान करता है। प्रेम का अनुभव पृथ्वी कार स्वर्ग का सम्मिलन है, इसलिए एक ढंग से यह पार्थिव है और दूसरे ढंग से स्वर्गिक है।

यदि जीसस परमात्मा को प्रेम की भांति परिभाषित करते हैं, तो यह है इसका कारण, क्योंकि मानवीय चतना में प्रेम उच्चतम झलक मालूम पड़ता है।

आमतौर से लोग कभी भी हृदय—केंद्र के पार नहीं जाते हैं। हृदय—केंद्र पर पहुंचना भी कठिन, करीब—करीब असंभव प्रतीत होता है। लोग काम—केंद्र पर रहते हैं। अगर उन्हें योग, कराटे, अकीडो, ताई—ची का गहरा प्रशिक्षण दिया जाए तो वे दूसरे केंद्र हारा पर पहुंच जाते हैं। यदि उन्हें श्वास, प्राण की गहरी क्रिया विधि सिखाई जाए तो वे नाभि—केंद्र पर पहुंचते हैं। और अगर उन्हें सिखाया जाए कि किस प्रकार से पृथ्वी से परे देखना है, देह के पार देखना है और कैसे इतनी गहराई से और इतनी संवेदना से देखना है कि तुम स्थूल में और अधिक सीमित न रहो, और सूक्ष्म तुम्हारे भीतर अपनी पहली किरणें भेज सके, तो ही हृदय—चक्र।

भक्ति के सारे मार्ग, भक्ति—योग, हृदय—केंद्र पर कार्य करते हैं। तंत्र काम—केंद्र से शुरू करता है। ताओ हारा—केंद्र से शुरू होता है। योग नाभि—केंद्र से शुरू होता है। भक्ति—योग, उपासना और प्रेम के मार्ग सूफी आदि, वे हृदय—केंद्र से आरंभ होते हैं।

हृदय से ऊपर है : ‘कंठ—चक्र।’ पुन: वहां एक दूसरा और ज्यादा श्रेष्ठ और अधिक सूक्ष्म एकीकरण घटता है। यह प्राप्त करने का और बांट देने का केंद्र है। जब बच्चा जन्म लेता है तो वह कंठ—केंद्र से ग्रहण करता है। पहले उसमें कंठ—चक्र के द्वारा जीवन प्रविष्ट होता है—वह हवा खींचता है, श्वास लेता है और फिर वह अपनी मां से दूध चूसता है। बच्चा कंठ—चक्र द्वारा कार्य करता है, लेकिन यह आधा काम है और जल्दी ही बच्चा इसके बारे में भूल जाता है। वह बस ग्रहण ही करता है। अभी तो वह दे नहीं सकता। उसका प्रेम निष्क्रिय है। और अगर तुम प्रेम मांग रहे हो, तो तुम किशोरवय रहोगे, तुम बचकाने बने रहोगे। जब तक तुम वयस्क नहीं होते कि तुम प्रेम दे सको, तुम परिपक्व नहीं हो पाए हो। प्रत्येक व्यक्ति प्रेम की चाह रखता है, प्रेम मांगता है, और देने वाला करीब—करीब कोई भी नहीं है। सारे संसार में यही तो पीड़ा है। और हरेक व्यक्ति जो मांगता है वह सोचता है कि वह दे रहा है, विश्वास करता है कि वह दे रहा है।

मैंने हजारों लोगों में झांक कर देखा है, सभी प्रेम के लिए भूखे हैं, प्रेम के लिए प्यासे हैं, लेकिन कोई किसी भी रूप में देने की कोशिश नहीं कर रहा है। और वे सभी यही विश्वास करते हैं कि वे दे रहे हैं लेकिन उन्हें मिल नहीं रहा है। जब तुम देते हो तो स्वाभाविक तौर से तुम्हें मिलता भी है। यह किसी और ढंग से कभी नहीं होता। जिस क्षण तुम देते हो, प्रेम तुम्हारी और उमड़ पड़ता है। इसका लोगों और व्यक्तियों से कुछ भी लेना देना नहीं है। इसका संबंध परमात्मा की ब्रह्मांडीय ऊर्जा से है।

कंठ—चक्र लेने और देने का मिलन है। तुम इससे लेते हो और इसी से देते हो। जीसस का कथन कि तुम्हें दुबारा बालवत होना पड़ेगा का यही अर्थ है। यदि तुम इस बात को योग की शब्दावली में अनुवाद करो तो इसका अर्थ होगा : दुबारा तुम्हें कंठ—चक्र पर आना पड़ेगा। बच्चा धीरे— धीरे इसे भूलता जाता है।

अगर तुम फ्रायड के मनोविज्ञान में देखो, तो तुम्हें इसके समतुल्य बात उसमें भी मिलेगी। फ्रायड का कहना है कि बच्चे की पहली अवस्था मौखिक है, दूसरी गुदीय है, और तीसरी जननेंद्रिक है। फ्रायड का सारा मनोविज्ञान तीसरे पर आकर समाप्त हो जाता है। निस्संदेह यह मनोविज्ञान बहुत अपर्याप्त, बहुत निम्नतल का, बहुत आशिक है, और मनुष्य के नितांत निचले स्तर के क्रियाकलापों से संबंधित है। मौखिक अवस्था, हां, ठीक है, बच्चा कंठ—केंद्र का उपयोग बस ग्रहण करने के लिए करता है। और जब वह ग्रहणशील हो जाता है तो उसका अस्तित्व गुदा उन्मुख हो जाता है।

क्या तुमने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि कुछ लोग अपनी मृत्यु पर्यंत मौखिक अवस्था को ही पकड़े रहते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें तुम धूम्रपान करता हुआ पाओगे, ये मौखिक अवस्था के लोग हे। वे अभी भी यही सब किए जा रहे हैं… धुंआ, सिगरेट, सिगार इन सबसे ऐसी अनुभूति होती है जैसे कि मां के दूध जैसी कोई उष्ण चीज उनके कंठ—चक्र से होकर प्रवाहित हो रही है, और वे मौखिक अवस्था में ही सीमित रहते हैं, वे कुछ दे नहीं सकते। अगर कोई व्यक्ति अधिक धूम्रपान करता है, रोग स्मोकर है, तो लगभग हमेशा ही वह प्रेम देने वाला नहीं होता। वह मांग करता है, लेकिन वह देगा नहीं।

वे लोग जो अत्यधिक धूम्रपान कर रहे हैं सदैव स्त्रियों के स्तनों में अत्यधिक रुचि रखते हैं। ऐसा होगा ही, क्योंकि सिगरेट चुचुक, निपल का विकल्प है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जो लोग धूम्रपान नहीं करते हैं वे स्त्रियों के स्तनों में रुचि नहीं रखते हैं। जो धूम्रपान करते हैं वे उत्सुक हैं, जो धूम्रपान नहीं करते है वे भी उत्सुक हैं; वे या तो पान चूस रहे होंगे या च्‍यूइंगम या कुछ और, या वे लोग बस पोर्नोग्राफी, नग्‍न—चित्रण में रुचि रखते होंगे, या वे लगातार स्तन से ही ग्रस्त रहते होंगे, उनके मन में, उनके स्वप्न में, उनकी कल्पना की, मन की उड़ान में स्तन है और उनके चारों ओर स्तन ही स्तन घूमते रहते हैं। वे मौखिक अवस्‍था के लोग हैं, उसमें अटके हुए।

जब जीसस कहते हैं कि तुम्हें दुबारा बच्चे जैसा हो जाना है, तो उनका अभिप्राय है कि तुम्हें कंठ—चक्र वापस लौटना पड़ेगा, लेकिन देने वाली एक नई ऊर्जा के साथ। सारे सृजनात्मक लोग देने वाले होते है। हो सकता है कि वे तुम्हारे लिए कोई गीत गाएं, या कोई नृत्य करें, या कोई कवित लिखें, या कोई चित्र बनांए, या तुम्हें कहानी सुनाएं। इन सभी के लिए कंठ—चक्र को देने के एक केंद्र की शांति प्रयुक्त किया जाता है। लेने और देने का मिलन कंठ—चक्र पर घटित होता है। ग्रहण करने की और बांट देने की क्षमता बड़ी से बड़ी एकात्मकताओं में से एक है।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो केवल लेने में ही समर्थ हैं, वे दुखी रहेंगे, क्योंकि तुम मात्र लेकर कभी धनी नहीं बनते, तुम देकर ही समृद्ध बनते हो। वस्तुत: जिसे तुम दे सको सिर्फ वही तुम्हारा है। यदि तुम न दे सको तो यह मात्र तुम्हारा विश्वास ही है कि वह तुम्हारा है, यह तुम्हारा नहीं है, तुम इसके मालिक नही हो। अगर तुम अपना धन नहीं दे सकते तो तुम इसके मालिक नहीं हो, तब तो धन ही मालिक है। अगर तुम इसे दे सको, तो निश्चित रूप से तुम ही मालिक हो। यह विरोधाभास जैसा ही दिखता है, लेकिन मैं इसे फिर से दोहरा दूं तुम उसी के मालिक हो सकते हो जिसे तुम दे सको। जिस क्षण तुम देते हो उसी क्षण में तुम मालिक, समृद्ध हो जाते हो। देना तुम्हें समृद्धि प्रदान करता है।

कंजूस लोग संसार मे सबसे दुखी और दरिद्र लोग हैं—दरिद्रों से भी दरिद्र। वे दे ही नहीं सकते, वे अटक गए हैं। वे जमा करते चले जाते हैं। उनके द्वारा जमा किया हुआ उनके अस्तित्व पर एक बोझ बन जाता है, यह उन्हें मुक्त नहीं करता। वस्तुत: अगर तुम्हारे पास कुछ है, तो तुम और मुक्त हो जाओगे। लेकिन कंजूसों को तो देखो, उनके पास काफी है, लेकिन वे बोझ से दबे हैं, वे मुक्त नहीं हैं। उनसे तो भिखारी भी ज्यादा मुक्त हैं। उनको क्या हो गया है? उन्होंने अपने कंठ—चक्र का उपयोग सिर्फ लेने के लिया किया है। न सिर्फ उन्होंने अपने कंठ—चक्र का उपयोग देने में नहीं किया है, बल्कि वे फ्रायड द्वारा बताए गए दूसरे केंद्र, गुदा तक भी नहीं पहुंचे हैं। ये लोग सदैव जमा करने वाले, कंजूस, कब्जग्रस्त होते है; हमेशा कब्ज से पीड़ित रहते हैं। याद रखो, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कब्ज से पीड़ित सभी लोग कंजूस होते हैं, अन्य कारण भी हो सकते हैं, लेकिन कंजूस निश्चित तौर से कब्ज के शिकार होते हैं।

फ्रायड कहता है कि स्वर्ण और मल में कुछ समानता होती है। दोनों पीले दिखते हैं। और जो लोग कब्ज से पीड़ित हैं वे स्वर्ण के प्रति बहुत ज्यादा आकर्षित रहते हैं। अन्यथा सोने का कोई अस्तित्वगत मूल्य नहीं है। न तुम इसे खा सकते हो, न तुम इसे पी सकते हो। तुम इससे क्या कर सकते हो? अस्तित्वगत रूप से एक गिलास पानी भी अधिक मूल्यवान है। लेकिन सोना इतना मूल्यवान क्यों बन गया? लोग सोने के प्रति क्यों इतने आसक्त हैं? वे लोग मौखिक अवस्था से गुदीय अवस्था में नहीं गए हैं। वे अपने आंतरिक अस्तित्व में कोष्ठबद्धता के शिकार हैं। अब उनका सारा जीवन उनकी इस कोष्ठबद्धता को प्रतिबिंबित करेगा, वे सोने के संग्राहक बन जाएंगे। सोना प्रतीकात्मक है। पीलापन ही उन्हें ऐसे विचार प्रदान करता है।

क्या तुमने छोटे बच्चों का निरीक्षण किया है? उन्हें शौचालय जाने के लिए राजी करना करीब—करीब दुष्कर ही होता है, उनको शौचालय भेजना उनके साथ लगभग जबरदस्ती करने जैसा ही है। और फिर वे इस बात पर भी जोर देते रहते हैं, कुछ नहीं हो रहा है, क्या वापस आ सकता हूं? वे कंजूसी का पहला पाठ पढ़ रहे होते हैं—कैसे रोक कर रखा जाए। किस प्रकार से उसे भी जो व्यर्थ है, उसे भी जिसको अगर तुम अपने भीतर रोक लो, तो जो हानिकारक है किस भांति न दिया जाए, कैसे रोका जाए। उनके लिए जहर तक को छोड़ पाना, इसका त्याग करना कठिन है।

मैंने दो बौद्ध भिक्षुओं के बारे में सुना है। उनमें से एक कंजूस और जमाखोर था और वह रुपया एकत्रित करके अपने पास रखता रहता था, और दूसरा उसके इस मूर्खतापूर्ण ढंग पर हंसा करता था। जो कुछ भी उसके सामने आए वह उसका उपयोग कर लेगा, वह इसे कभी जमा करके नहीं रखेगा। एक रात वे नदी पर पहुंचे। शाम हो गई थी, सूर्य अस्त हो रहा था, और वहां ठहरना खतरनाक था। उन्हें दूसरे किनारे पहुंचना ही था, उस पार एक नगर था, इस पार तो बस जंगल ही जंगल था।

जमा करने वाला कहने लगा, अब, तुम्हारे पास रुपये बिलकुल भी नहीं हैं, इसलिए हम नाव वाले को भुगतान नहीं कर सकते, इस बारे में तुम क्या कहते हो? तुम जमा करने के खिलाफ थे; अब अगर मेरे पास जरा भी रुपया नहीं हो तो हम दोनों मर जाएंगे, तुम समझे इस बात को? उसने कहा धन की जरूरत पड़ती है। वह व्यक्ति जो त्यागने में विश्वास रखता था, हंसा, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। फिर जमा करने वाले ने किराया चुकाया और उन्होंने नदी पार कर ली, वे उस पार पहुंच गए। जमा करने वाला फिर कहने लगा, अब इस बात को याद कर लो, अगली बार मुझसे विवाद मत करना, तुम्हें समझ आई? धन सहायता करता है। धन के बिना हम दोनों मर गए होते। उस किनारे पर पूरी रात—जंगली जानवरों के बीच, जिंदगी खतरे में थी।

दूसरा भिक्षु हंसा और उसने कहा लेकिन हम नदी पार इसलिए कर पाए कि तुमने धन खर्च किया। यह जमा करने के कारण संभव नहीं हो पाया कि हम जिंदा बच गए। अगर तुम धन को पकड़े रहने पर ही जोर देते और तुम नाव वाले को किराया न चुकाते तो हम मर गए होते। यह इसलिए हुआ कि तुम त्याग सके, कि तुम इसे छोड़ सके, तुमने इसे दिया—इसी कारण हम जिंदा बचे हैं।

विवाद अब तक जारी है। लेकिन स्मरण रहे, मैं इसके विरोध में नहीं हूं मैं पूर्णत: इसके पक्ष में हूं। किन्‍तु इसको उपयोग करो। इसे रखो, इस पर मालकियत करो, लेकिन तुम्हारी मालकियत तभी प्रकट होती है जब तुम इसे देने में समर्थ होते हो। कंठ—चक्र पर यह नया संश्लेषण घटित होता है। तुम स्वीकार कर सकते हो और तुम प्रदान कर सकते हो।

ऐसे लोग हैं जो एक अति से दूसरी अति पर चले जाते हैं। पहले वे देने में असमर्थ थे, वे केवल ले ही सकते थे, फिर वे बदल जाते हैं, वे दूसरी अति पर पहुंच जाते है—अब वे दे सकते हैं किंतु ले नहीं सकते। यह भी असंतुलित ढंग है। वास्तविक व्यक्ति भेंटें स्वीकार करने और उन्हें देने में समर्थ होता है। भारत में तुम्हें ऐसे अनेक संन्यासी, अनेक तथाकथित महात्मा मिल जाएंगे जो धन नहीं छुएंगे। अगर तुम उन्‍हें कुछ दो, तो वे पीछे हट जाएंगे, जैसे कि तुमने कोई सांप या कोई जहरीली वस्तु उनके सामने ला दी है। वह पीछे को हटना यही दिखाता है कि अब वे दूसरी अति पर चले गए हैं, अब वे ले पाने में असमर्थ हो चुके हैं। दुबारा उनका कंठ—चक्र आधा कार्य कर रहा है। और कोई केंद्र तब तक वास्तविक रूप से सक्रिय नहीं होता जब तक कि वह पूरी तरह कार्यरत न हो, जब तक कि चक्र पूरे ढंग से न घूमे, घूमता जाए और ऊर्जा क्षेत्रों का निर्माण करे।

फिर है ‘तृतीय नेत्र’ का चक्र। तृतीय नेत्र के चक्र पर दायां और बायां मिलता है, पिंगला और इड़ा मिलते हैं और सुषुम्ना बन जाते हैं। मस्तिष्क के दोनों गोलार्ध तृतीय नेत्र पर मिलते हैं; यह दोनों नेत्रों के ठीक मध्य में है। एक नेत्र दाएं का प्रतिनिधित्व करता है, दूसरा नेत्र बाएं का प्रतिनिधित्व करता है, और यह ठीक बीचोंबीच में है। तृतीय नेत्र पर इन बाएं और दाएं मस्तिष्कों का मिलन होता है, यह बहुत उच्च संश्लेषण है। लोग इस बिंदु तक ही व्याख्या करने में समर्थ रहे हैं। इसीलिए रामकृष्ण भी तृतीय नेत्र तक ही व्याख्या कर पाए। और जब उन्होंने अंतिम, सहस्रार पर घटने वाले परम संश्लेषण के बारे में बात करना आरंभ किया, वे बार—बार मौन में, समाधि में चले गए। यह इतना अधिक था कि वे इसमें डूब गए। यह बाढ़ की भांति था, वे इसके द्वारा सागर की ओर बहा दिए गए। वे अपने आप को चैतन्य, जाग्रत नहीं रख सके।

परम संश्लेषण ‘सहस्रार’ शीर्ष चक्र पर घटित होता है। इस सहस्रार के कारण ही सारे संसार में राजा, सम्राट, महाराजा और महारानिया मुकुट का प्रयोग करते हैं। यह औपचारिक हो चुका है, लेकिन मूलत: इस बात को माना गया था कि जब तक तुम्हारा सहस्रार सक्रिय न हो तुम राजा कैसे बन सकते हो, महाराजा कैसे बन सकते हो? जब तक कि तुम स्वयं पर शासन न कर सको तुम लोगों पर शासन कैसे कर सकते हो? मुकुट के प्रतीक में रहस्य छिपा है। रहस्य यह है कि वही व्यक्ति जो शीर्ष चक्र पर, अपने अस्तित्व के परम संश्लेषण तक पहुंच गया है सिर्फ वही राजा या रानी बन सकता है और कोई नहीं। केवल वही दूसरों पर शासन करने में समर्थ है, क्योंकि वह स्वयं का शासक बन चुका है, वह अपने आप का मालिक बन गया है, अब वह दूसरों के लिए सहायक हो सकता है।

वास्तव में जब तुम सहस्रार तक पहुंच जाते हो, तो एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल खुलता है, तुम्हारे भीतर का मुकुट खिल उठता है। इसकी तुलना किसी बाहरी मुकुट से नहीं की जा सकती, लेकिन तब यह एक प्रतीक बन जाता है। और सारे संसार में ऐसा प्रतीक अस्तित्व में रहा है। इससे यही प्रदर्शित होता है कि प्रत्येक जगह पर लोग इस विधि से या उस विधि से सहस्रार पर घटने वाले इस परम संश्लेषण के प्रति जाग्रत और चैतन्य हुए हैं। यहूदी कपाल टोपी का उपयोग करते हैं; सहस्रार के ठीक ऊपर होती है। हिंदू बालों का एक गुच्छा उस जगह रहने देते हैं, वे इसे चोटी, शिखा कहते हैं। ये बाल ठीक उसी स्थान पर बढ़ाए जाते हैं जहां सहस्रार है या होना चाहिए। कुछ ऐसे ईसाई समाज हैं जो ठीक उसी स्थान को केशरहित कर लेते हैं। जब कोई सदगुरु शिष्य को आशीष देता है तो अपना हाथ वह उसके सहस्रार पर रखता है, और अगर शिष्य वास्तव में ग्रहणशील समर्पित है तो उसे अचानक काम—केंद्र से सहस्रार की ओर ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन की अनुभूति होती है।

कभी—कभी जब मैं तुम्हारे सिर को स्पर्श करता हूं और तुम अचानक कामुक हो जाते हो, तो भयभीत मत होना, सिकुड़ मत जाना, क्योंकि ऐसा ही होना चाहिए। ऊर्जा काम—केंद्र पर है, यह अपनी कुंडली को खोलना शुरू कर देती है। तुम डर जाते हो, तुम सिकुड़ते हो, तुम इसका दमन करते हो—क्या हो रहा है? और अपने सदगुरु के चरणों में बैठे हुए कामुक हो जाना जरा अशोभनीय, घबड़ा देने वाला लगता है। ऐसा नहीं है। इसे होने देना, इसे घटने देना, और शीघ्र ही तुम पाओगे कि इसने पहले केंद्र को और दूसरे केंद्र को पार कर लिया है। और अगर तुम समर्पित हो तो एक क्षण में ही ऊर्जा सहस्रार पर गतिमान हो गई होती है, और तुम अपने भीतर एक नई खिलावट की अनुभूति करोगे। यही कारण है शिष्य को अपना सर नीचे झुकाना होता है ताकि सदगुरु उसका सर छू सके।

विषयी और विषय का, बाह्य और अंतर का पुन: अंतिम संश्लेषण घटता है। काम— भोग में बाहरी और भीतरी मिलते तो हैं, किंतु क्षण भर के लिए ही। सहस्रार में वे सदा के लिए मिल जाते हैं।

इसी कारण मैं कहता हूं व्यक्ति को संभोग से समाधि की ओर यात्रा करनी पड़ेगी। संभोग में निन्यानबे प्रतिशत सेक्स है और एक प्रतिशत सहंस्रार। सहस्रार में निन्यानबे प्रतिशत सहस्रार है, एक प्रतिशत सेक्स। दोनों संयुक्त हैं, वे ऊर्जा की गहरी धाराओं द्वारा जुड़े हुए हैं। इसलिए अगर तुमने सेक्स का आनंद लिया है तो अपना घर वहां मत बनाओ। सेक्स सहस्रार का एक झरोखा मात्र है। सहस्रार तुम्हें हजारों गुना आशीष, आनंद देने जा रहा है। बाह्य और अंतस मिलते हैं, मैं और तू मिलते हैं, पुरुष और स्त्री मिलते हैं, यिन और यांग मिलते हैं और यह मिलन परम है। फिर कोई बिछुड़ना नहीं होतो, फिर कोई अलगाव नहीं होता।

इसी को योग कहते हैं। योग का अभिप्राय है दो का मिल कर एक हो जाना। ईसाईयत में रहस्यदर्शियों ने इसे यूनियो मिष्टिका कहा है, यह योग का बिलकुल ठीक अनुवाद है। यूनियो मिष्टिका, रहस्यमय एकत्‍व। सहस्रार पर अल्फा और ओमेगा, आरंभ और अंत मिल जाते हैं। काम—क्रेंद्र में है आरंभ। काम— केंद्र तुम्हारा अल्फा है, समाधि तुम्हारा ओमेगा है। और जब तक कि अल्फा और ओमेगा न मिलें, जब तक कि तुम इस परम एकता को उपलब्ध न कर लो, तुम दुखी रहोगे, क्योंकि वही तुम्हारी नियति है। तुम अतृप्त रहोगे। तुम संश्लेषण के इस उच्चतम शिखर से ही परितृप्त हो सकते हो।

अब सूत्र :

उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्वव्यापकता, और क्रिया—कलापों पर संयम साधने से, ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।’

समझने के लिए पहली बात यह है कि तुम्हारे पास संवेदी इंद्रियां हैं, किंतु तुम संवेदना खो चुके हो। तुम्हारे संवेदी अंश लगभग संवेदना शून्य, मृत हैं। वे तुम्हारे शरीर पर बस हैं भर, लेकिन उनमें ऊर्जा प्रवाहित नहीं हो रही है, वे तुम्हारे अस्तित्व के जीवंत अंग नहीं हैं। तुम्हारे भीतर कुछ मृतप्राय: हो चुका है, यह ठंडा, अवरुद्ध हो गया है। हजारों वर्षों के दमन के कारण सारी मानव—जाति के साथ यही घट गया है। और शरीर के विरोध में चली आ रही विचार धाराओं और संस्कारबद्धताओं के हजारों वर्षों ने तुम्हें पंगु बना दिया है, तुम बस नाम के लिए जीवित हो।

अत: पहला काम यही किया जाना है : तुम्हारे संवेदी अंगों को वास्तविक रूप से जीवंत और संवेदनशील होना चाहिए, केवल तभी उन पर स्वामित्व हो सकता है। तुम देखते हो परंतु तुम गहराई से नहीं देखते। तुम वस्तुओं की सतह भर देखते हो। तुम स्पर्श करते हो लेकिन तुम्हारे स्पर्श में कोई उष्णता नहीं है। तुम्हारे स्पर्श से कुछ भी अंदर और बाहर प्रवाहित नहीं होता। तुम सुनते भी हों—पक्षी गीत गाए चले जाते हैं और तुम सुनते हो, और तुम कह सकते हो, ही, मैं सुन रहा हूं और तुम गलत हों—तुम सुन रहे हों—लेकिन यह कभी तुम्हारे अस्तित्व के अंतर्तम केंद्र तक नहीं पहुंचता। यह तुम्‍हारे भीतर नृत्य करता हुआ प्रविष्ट नहीं होता, यह तुम्हारे भीतर खिलावट में, तुम्हारी पर्त्तों के खुलने में सहायता नहीं करता।

इन ज्ञानेंद्रियों को पुन: ऊर्जावान कर देना है। ध्यान रहे, योग शरीर के विरोध में नहीं है। योग कहता है, शरीर के पार जाओ; लेकिन यह शरीर के विरुद्ध नहीं है। योग कहता है, शरीर का उपयोग करो, इसके द्वारा उपयोग में मत आओ; लेकिन यह शरीर के विरोध में नहीं है। योग कहता है, शरीर तुम्हारा मंदिर है। तुम शरीर में हो, और शरीर इतनी सुंदर संघटना है, इतनी जटिल और इतनी सूक्ष्म, इतनी रहस्यपूर्ण और इसके माध्यम से कितने ज्यादा आयाम खुलते हैं। और ये ज्ञानेद्रिया ही एकमात्र द्वार और झरोखे हैं जिनके द्वारा तुम परमात्मा तक पहुंचोगे—इसलिए उनको मुर्दा मत होने दो। उन्हें और— जीवंत बनाओ। उन्हें तरंगित, स्पंदित और स्टेनले केलेमैन की शब्दावली में ‘प्रवाहमान’ होने दो। यह बिलकुल ठीक शब्द है : उन्हें एक धारा की भांति प्रवाहित होने दो, उमड़ने दो। तुम्हें यह अनुभूति हो सकती है। तुम्हारा हाथ अगर यह ऊर्जा की धारा की भांति प्रवाहित हो रहा है, तो तुम्हें स्पंदन की अनुभूति महसूस होगी, तुम्हें अहसास होगा कि हाथ के भीतर कुछ प्रवाहित हो रहा है और संपर्क बनाना चाहता है, संबंधित होना चाहता है।

जब तुम किसी स्त्री या पुरुष को प्रेम करते हो और तुम उसका हाथ अपने हाथ में लेते हो, यदि तुम्हारा हाथ प्रवाहित नहीं हो रहा है, तो ऐसा प्रेम किसी काम का नहीं है। अगर तुम्हारा हाथ ऊर्जा से स्पंदित और प्रकंपित नहीं हो रहा है और तुम्हारी स्त्री या तुम्हारे पुरुष में ऊर्जा नहीं उंड़ेल रहा है, तो बिलकुल आरंभ से ही यह प्रेम करीब—करीब मृत है। तब यह शिशु जिंदा नहीं जन्मा है। तब जल्दी या देर में तुम समाप्त हो जाओगे—तुम समाप्त हो ही चुके हो। इसे पहचानने में थोड़ा समय खर्च होगा, क्योंकि तुम्हारा मन भी कुंठित है, अन्यथा तुमने इसमें प्रवेश ही न किया होता, क्योंकि यह पहले से ही मृत है। तुम किसलिए इसमें प्रविष्ट हो रहे हो? तुम्हें चीजों को पहचानने में समय लगता है क्योंकि तुम्हारी संवेदनशीलता, प्रतिभा, बुद्धिमत्ता इतनी ज्यादा धुंधली और संशयग्रस्त है।

केवल एक प्रवाहमान प्रेम ही आनंद का, हर्ष का, उल्लास का स्रोत बन सकता है। लेकिन उसके लिए तुम्हें प्रवाहमान ज्ञानेंद्रियों की आवश्यकता पड़ेगी।

कभी—कभी तुम्हें इसकी झलक मिल सकती है; और हरेक व्यक्ति को जब वह बच्चा होता है यह मिलती है। तितली के पीछे भागते हुए किसी बच्चे को देखो। वह प्रवाहमान है, जैसे किसी भी क्षण वह अपने शरीर से बाहर छलांग लगा सकता है। किसी बच्चे को जब वह गुलाब के फूल को देख रहा हो, देखो, उसकी आंखें, उनकी चमक, वह प्रदीप्ति जो उसकी आंखों में आ जाती है, देखो, वह प्रवाहमान है। उसकी आंखें पुष्प की पंखुड़ियों पर नृत्य सा कर रही होती हैं।

यही है होने का ढंग—नदी समान हो जाओ। और केवल तभी इन संवेदकों पर मालकियत संभव है। वस्तुत: लोगों ने बहुत गलत दृष्टिकोण अपनाया हुआ है। वे सोचते है कि अगर तुम्हें अपनी ज्ञानेंद्रियों का मालिक बनना हो तो उन्हें करीब—करीब मृत बना लो। लेकिन तब मालकियत करने में क्या सार है? तुम हत्या कर सकते हो और तुम्हीं मालिक हो। तुम लाश पर बैठ सकते हो। लेकिन तब मालिक होने में क्या सार रहा? लेकिन यह आसान लगता है, पहले उन्हें मार डालो और फिर तुम मालकियत कर सकते हो। अगर शरीर इतना शक्तिशाली, और तीव्र महसूस होता हो तो इसे कमजोर बनाओ और तुम यह महसूस करने लगोगे कि तुम मालिक हो। लेकिन तुमने शरीर को मार डाला है। ध्यान रहे, जीवित पर मालकियत की जानी चाहिए, मुर्दा चीजों पर नहीं, वे किसी काम की न होंगी।

लेकिन यह सुगम उपाय का रूप खोजा गया, इसलिए संसार के सारे धर्म इसका उपयोग कर रहे हैं। धीमे— धीमे अपने शरीर को नष्ट करते जाओ। शरीर से अपना संबंध विच्छेद कर लो। संपर्क में मत रहो, खुद को परे हटा लो। उदासीन हो जाओ। तब तुम्हारा शरीर करीब—करीब एक मुर्दा पेड़ हो जाएगा, अब इस पर नई पत्तियां नहीं उगती हैं, न ही इसमें फूल लगते हैं, न ही अब पक्षी इस पर विश्राम करने आते हैं। यह बस एक मरा हुआ ठूंठ होता है। निस्संदेह तुम इस पर मालकियत कर सकते हो, लेकिन अब इस मालकियत से तुम्हें क्या मिलने वाला है?

यही समस्या है; इसी कारण लोग समझ नहीं पाते कि पतंजलि क्या कह रहे हैं।

‘उनकी बोध की शक्ति पर संयम साधने से…।’

किंतु उन्हें शक्तिशाली होना पड़ेगा। वरना तुम यह भी अनुभव न कर पाओगे कि शक्ति क्या है। ये ज्ञानेंद्रिया शक्ति से इतनी आपूरित होनी चाहिए, उन्हें शक्ति की उस ऊंचाई पर होना चाहिए, कि तुम उन पर संयम साध सको, तुम उन पर ध्यान कर सको।

अभी तो जब तुम एक फूल को देखते हो, तो फूल वहां है, लेकिन क्या तुमने अपनी आंखों को महसूस किया है? तुम फूल को देखते हो, लेकिन क्या तुमने अपनी आंखों की शक्ति को अनुभव किया है? इसे वहां होना चाहिए क्योंकि तुम फूल को देखने के लिए अपनी आंखों का उपयोग कर रहे हो। और निस्संदेह आंखें किसी भी फूल से ज्यादा सुंदर हैं क्योंकि सभी फूलों का शान तुम्हें आंखों के माध्यम से होता है। आंखों के द्वारा ही तुम्हें फूलों के संसार की जानकारी हो पाई है, किंतु क्या तुमने कभी आंखों की शक्ति को अनुभव किया है। वे संवेदना से लगभग शून्य, मृतप्राय: हैं। वे निष्क्रिय, बस झरोखे जैसी, ग्रहणशील हो गई हैं। वे अपनी विषय वस्तु तक नहीं पहुंचती। और शक्ति का अर्थ है सक्रिय होना। शक्ति का अभिप्राय है कि तुम्हारी आंखें गतिशील होकर फूलों को करीब—करीब छू ही लें, तुम्हारे कान गतिशील होकर पक्षियों के गीतों को करीब—करीब स्पर्श ही कर लें, तुम्हारे हाथ तुम्हारे भीतर की सारीऊर्जा के साथ जो उनमें केंद्रित हो गई हो गतिमान हो और तुम्हारे प्रिय को स्पर्श करें। या तुम घास पर लेटे हो, तुम्हारा सारा शरीर शक्ति से आपूरित, घास से संपर्क बना रहा है, घास से संवाद कर रहा है। या तुम नदी में तैर रहे हो, नदी की गुनगुनाहट सुन रहे हो और उसके साथ धीमे स्वरों में संवाद कर रहे हो—संपर्क में हो, संवाद कर रहे हो, लेकिन शक्ति की जरूरत है।

इसलिए पहली बात जो मैं चाहता हूं कि तुम करो वह यह कि जब तुम देखो, तो वास्तव में देखो, आख ही बन जाओ, बाकी सब कुछ भूल जाओ। अपनी संपूर्ण ऊर्जा को आंखों से होकर प्रवाहित होने दो, और तब तुम्हारी आंखें एक आंतरिक फुहार से स्नान करके स्वच्छ हो जाएंगी और तुम यह देखने में समर्थ हो जाओगे कि अब वृक्ष वैसे ही न रहे, उनकी हरीतिमा अब पहले जैसी नहीं है, यह और हरी हो गई है, जैसे कि इससे धूल हट गई हो। धूल वृक्षों पर नहीं थी, यह तुम्हारी आंखों पर थी। और तब तुम पहली बार देखोगे, और तुम पहली बार सुनोगे।

जीसस अपने शिष्यों से कहे चले जाते हैं, अगर तुम्हारे पास कान हैं, सुनो। अगर तुम्हारे पास आंखें हैं, देखो। वे एकदम अंधे नहीं थे, और वे एकदम बहरे भी नहीं थे। उनका क्या अभिप्राय है? उनका अर्थ यह है कि तुम लगभग बहरे हो गए हो, लगभग अंधे हो गए हो। तुम देखते हो फिर भी तुम नहीं देखते। तुम सुनते हो फिर भी तुम नहीं सुनते। यह शक्ति नहीं है, यह ऊर्जा नहीं है, यह जीवंतता नहीं है।

‘उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप पर संयम साधने से…।’

तब तुम यह देख पाने में समर्थ हो जाओगे कि तुम्हारी ज्ञानेंद्रियों का वास्तविक स्वरूप क्या है। यह दिव्य है। तुम्हारी देह अपने में दिव्य को समाए हुए है। यह परमात्मा है, जिसने तुम्हारी आंखों के माध्यम से देखा है।

मुझे मास्टर इकहार्ट का एक प्रसिद्ध कथन याद आता है। जिस दिन वह जागा, और संबोधि को प्राप्त हुआ, उसके मित्रों और शिष्यों और बंधुओं ने पूछा, आपने क्या देखा? वह हंसा। सारी ईसाइयत में वह ही एक मात्र ऐसा है जो झेन मास्टर के बहुत करीब है, करीब—करीब झेन मास्टर ही है। वह हंसा उसने कहा : मैंने उसको नहीं देखा, उसने स्वयं को मेरे माध्यम से देख लिया है। परमात्मा ने मेरे द्वारा अपने आप को देख लिया है। ये आंखें उसकी हैं। और क्या खेल है, क्या लीला है। उसने खुद को मेरे द्वारा देखा। जब तुम ज्ञानेंद्रियों के स्वरूप की वास्तविक अनुभूति करोगे तो तुम्हें अनुभव होगा कि वे दिव्य हैं। यह परमात्मा ही है जिसने तुम्हारे हाथ के द्वारा गति की है। यह परमात्मा का हाथ है। सारे हाथ उसी के हैं। यह परमात्मा ही है। जिसने तुम्हारे द्वारा प्रेम किया है, सारे प्रेम संबंध उसी के हैं। उसके अतिरिक्त और हो भी क्या सकता है? हिंदू इसे लीला, परमात्मा का खेल कहते हैं। कोयल के रूप में जो तुम्हें बुला रहा है, वह वही है, और जो तुम्हारे द्वारा सुन रहा है वह भी वही है। यह वही और सिर्फ वही है जो हर स्थान पर व्याप्त है।

‘उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्वव्यापकता और क्रियाकलापों पर संयम साधने से ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।’

यह शब्द ‘अस्मिता’ समझ लेने जैसा है, क्योंकि हमारे पास संस्कृत में अहंकार के लिए तीन शब्द हैं और अंग्रेजी में’ केवल एक ही शब्द है। इससे कठिनाई उत्पन्न होती है। इस सूत्र में संस्कृत का शब्द है ‘अस्मिता’ अत : पहले मैं तुम्हें इसे समझता हूं।

ये तीन शब्द हैं : अहंकार, अस्मिता, आत्म। सभी का अर्थ है ‘मैं’। अहंकार का अनुवाद ईगो के रूप में किया जा सकता है, यह बहुत स्थूल है, इसमें मैं पर अत्यधिक जोर है। अस्मिता के लिए अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है। अस्मिता का अर्थ है : हूं—पन, मैं हूं। अहंकार में जोर ‘मैं’ पर है, अस्मिता में जोर ‘हूं पर है। हूं—पन, अहंकार से अधिक शुद्ध है। फिर भी यह वहां है, किंतु एक बिलकुल ही अलग रूप में हूं—पन। और ‘आत्म’, हूं—पन भी खो गया है। अहंकार में ‘मैं है; अस्मिता केवल ‘हूं और आत्म में यह भी मिट चुका है। आत्म में शुद्ध अस्तित्व है, न मैं और न हूं—पन का प्रयोग है।

इस सूत्र में अस्मिता, हूं—पन का प्रयोग है। स्मरण रखो कि अहंकार मन का होता है, ज्ञानेंद्रियों में कोई अहंकार नहीं होता। उनमें एक निश्चित हूं—पन है, परंतु अहंकार नहीं होता। अहंकार मन का है। तुम्हारी आंखों के पास कोई अहंकार नहीं होता, तुम्हारे हाथों के पास कोई अहंकार नहीं है, उनके पास एक निश्चित हूं—पन है। यही कारण है कि अगर तुम्हारी त्वचा को बदलना पड़े और किसी अन्य की त्वचा प्रत्यारोपित कर दी जाए तो तुम्हारा शरीर उसे अस्वीकार कर देगा, क्योंकि शरीर को पता है कि यह मेरी नहीं है। इसलिए तुम्हारे शरीर के ही दूसरे किसी भाग से, जैसे जांघ की त्वचा निकाल कर प्रत्यारोपण करना पड़ता है, तुम्हारी अपनी त्वचा का प्रत्यारोपण करना पड़ता है। अन्यथा शरीर उसे अस्वीकार कर देगा, तुम्हारा शरीर इसे स्वीकार नहीं करेगा—यह मेरी नहीं है। शरीर के पास कोई मैं नहीं है, लेकिन इसके पास हूं—पन है।

अगर तुम्हें रक्त की आवश्यकता हो तो हर किसी का रक्त काम न पड़ेगा। शरीर हर प्रकार के रक्त को स्वीकार नहीं करेगा, केवल एक विशेष प्रकार का रक्त ही चाहिए। उसके पास इसका अपना हूं—पन है। यही स्वीकार किया जाएगा, कोई अन्य रक्त अस्वीकृत कर दिया जाएगा। शरीर के पास अपने अस्तित्व की एक निजी अनुभूति है। बहुत अचेतन, बहुत सूक्ष्म और शुद्ध, लेकिन यह वहां होती है।

तुम्हारी आंखें तुम्हारी हैं, तुम्हारे अंगूठे की छाप की भांति। तुम्हारी हर चीज तुम्हारी है। अब शरीर विज्ञानी कहते हैं कि प्रत्येक का हृदय अलग है, अलग आकार का है। शरीर क्रिया विज्ञान की पुस्तकों में जो चित्र तुम्हें मिलेगा वह वास्तविक चित्र नहीं है, यह बस औसत है, यह कल्पना द्वारा बनाया गया है। अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति का हृदय अलग आकार का है। यहां तक कि हर व्यक्ति का गुर्दा भी अलग आकार का है। इन सभी अंगों पर उन व्यक्तियों के हस्ताक्षर होते हैं, हर व्यक्ति इतना अनूठा है। यही है हूं—पन।

तुम यहां दुबारा फिर कभी नहीं होगे, तुम यहां पहले कभी नहीं थे, इसलिए सावधानी पूर्वक, सजग होकर और प्रसन्नता पूर्वक जीयो। अपने अस्तित्व की गरिमा के बारे में सोचो। जरा सोचो तुम कितने श्रेष्ठ और अनूठे हो। परमात्मा ने तुम्हें बहुत कुछ दिया है। कभी अनुकरण मत करो क्योंकि वह एक धोखा होगा। स्वयं जैसे बनो। इसी को अपना धर्म बन जाने दो। शेष सब कुछ राजनीति है। हिंदू मत बनो, मुसलमान मत बनो, ईसाई मत बनो। धार्मिक बनो, लेकिन केवल एक ही धर्म है, और वह है स्वयं ही, प्रामाणिक रूप से स्वयं ही, हो जाना।

‘उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्व व्यापकता और क्रियाकलापों पर संयम साधने से ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध होता है।’

और अगर इन चीजों पर ध्यान लगाओ तो तुम मालिक हो जाओगे। ध्यान स्वामित्व लाता है, ध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है जो स्वामित्व लाता हो। अगर तुम अपनी आख पर ध्यान करो तो पहले तुम गुलाब का फूल देखोगे, धीरे— धीरे तुम उस आख को देखने में समर्थ हो जाओगे जो देख रही है। तब तुम आख के स्वामी हो गए हो। एक बार तुमने देखने वाली आख को देख लिया, तुम स्वामी हो गए। अब तुम इसकी सारी ऊर्जाओं का उपयोग कर सकते हो, और वे सर्वव्यापक हैं। तुम्हारी आंखें उतनी सीमाबद्ध नहीं है जैसा कि उन्हें तुम समझते हो। वे ऐसी और भी बहुत सी चीजें देख सकती हैं जिन्हें तुमने नहीं देखा है। वे ऐसे कई रहस्यों को अनावृत कर सकती हैं जिनका तुम्हें सपने में भी खयाल नहीं आया होगा। लेकिन तुम अपनी आंखों के स्वामी नहीं हो, और तुमने उनका उपयोग बहुत अनजाने ढंग से बिना यह जाने कि तुम क्या कर रहे हो, किया है।

और वस्तुओं के संपर्क में बहुत अधिक रहने के कारण तुम अपनी आंखों का कर्तापन भूल चुके हो। अगर तुम किसी के साथ रही तो ऐसा होता है कि धीरे— धीरे उसके प्रभावक्षेत्र में आ जाते हो। तुम वस्तुओं के संपर्क में इतना अधिक रहे हो कि तुम अपनी’ ज्ञानेंद्रियों की आंतरिक गुणवत्ता भूल चुके हो। तुम वस्तुओं को देखते हो, लेकिन अपने देखे जाने को तुम कभी नहीं देखते। तुम गीतों को सुनते हो, लेकिन तुम कभी उन सूक्ष्म तरंगो को, अपने अस्तित्व की ध्वनि को, जो तुम्हारे भीतर चली जाती हैं, कभी नहीं सुनते।

मैं तुमसे एक कहानी कहना चाहूंगा:

एक अत्यंत आवारा व्यक्ति में गजब का आत्मविश्वास था। उसने एक जगमगाते रेस्तरां में छक कर भोजन किया और मैनेजर से कहने लगा मेरे प्रिय महोदय, मुझे आपके यहां का भोजन बहुत पसंद आया है, लेकिन दुर्भाग्य से मैं इसमें से किसी भी चीज का दाम नहीं चुका सकता, मेरे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है। अब क्रोधित मत हों। जैसा कि आप देख सकते हैं कि मैं पेशेवर भिखारी हूं। मैं अतिशय प्रतिभाशाली भिखारी भी हूं। मैं बाहर जाकर केवल एक घंटे के अंदर ही उतनी धन राशि ला सकता हूं जितना मुझ पर इस खाने के लिए आपका बकाया है। लेकिन फिर भी स्वाभाविक ही है कि आप मेरे लौटने की बात का भरोसा नहीं कर सकते हैं, यह बात मैं पूरी तरह सें समझता हूं। मेरा साथ देने के लिए आपका स्वागत है, लेकिन क्या आप जैसा कोई व्यक्ति जो इतने सुप्रसिद्ध रेस्तरां का मालिक है, मेरे जैसे स्तर के आदमी के साथ देखा जाना पसंद करेगा? नहीं। इसलिए श्रीमन् हमारी छोटी सी समस्या का एकदम सही समाधान मेरे पास है। मैं यहां आपकी प्रतीक्षा करूंगा और आप बाहर जाकर तब तक भीख मांग लें जब तक कि इस भोजन का मूल्य आपके पास एकत्रित न हो जाए।

अगर तुम भिखारी का साथ पकड़ोगे तो तुम भिखारी हो जाओगे। वह तुम्हें अपनी तरह का बनाने के लिए हजारों ढंग सुझा देगा।

हमने विषय वस्तुओं के साथ अपना संबंध इतने लंबे समय से बनाया हुआ है कि अपने विषयी स्वरूप को हम भूल बैठे हैं। हम बाहर की ओर इतने दिनों से केंद्रित रहे हैं, कि अपने व्यक्ति होने को भूल चुके हैं। वस्तुओं से इस दीर्घकालीन जुड़ाव ने तुम्हारी अपनी ही प्रतिभा को नष्ट कर दिया है। तुमको वापस घर लौटना पडेगा।

योग में जब तुम अपनी देखती हुई आख को देखना आरंभ करते हो, तो तुम्हें सूक्ष्म ऊर्जा का संज्ञान होता है। वे इसे तन्मात्रा कहते हैं। जब तुम अपनी देखती हुई आख को देख पाते हो तो आंखों के एकदम पीछे तुम्हें ऊर्जा की एक विराट मात्रा दिखाई पड़ती है। यह आख की ऊर्जा, तन्मात्रा है। कान के पीछे तुम्हें ऊर्जा का विशाल संचय मिलता है, यह कान की तन्मात्रा है। अपने यौनांगों के पीछे तुम्हें बहुत सारी संचित ऊर्जा मिलती है, यह कामवासना की तन्मात्रा है। और इसी भांति और जगहों पर है। हर कहीं पर, क्योंकि तुम्हारी ज्ञानेंद्रियों के पीछे ऊर्जा का अप्रयुक्त कुंड है। एक बार तुम इसे जान लो तुम इस ऊर्जा को अपनी आंखों में प्रवाहित कर सकते हो, और तब तुम्हें वे दृश्य दिखाई पड़ेंगे जो कभी—कभी कवि देखते है, चित्रकार देखते हैं। तब तुम्हें ऐसी ध्वनियां सुनाई पड़ेगी जिन्हें कभी—कभी कवि सुनते हैं, संगीतकार सुनते हैं। और तब उन चीजों को छिपाओगे जिन्हें कभी—कभी दुर्लभ क्षणों में सिर्फ प्रेमी ही जानते हैं:, किस भांति छूना है।

तुम जीवंत, प्रवाहमान हो उठोगे।

सामान्यत: तो तुम्हें यही सिखाया जाता है कि अपनी ज्ञानेंद्रियों को दमित किस प्रकार करो, न कि उन्हें जानो। यह बहुत मूढ़तापूर्ण है, लेकिन बहुत सुविधाजनक है।

ऐसा हुआ, एक गांव में विवाह के बाद दूल्हा और दुल्हन घोड़ागाड़ी में बैठ कर अपने फार्म हाउस की और चल दिए। सड़क पर लगभग एक मील चलने के बाद घोड़ा लड़खड़ा गया—यह हुआ : एक! दूल्हा चिल्लाया।

वे चलते गए, और घोड़ा फिर लड़खडाया—यह हुआ. दो! दूल्हा चिल्ला कर बोला।

जैसे ही वे फार्म हाउस के निकट पहुंचे, घोड़ा फिर से लड़खड़ा गया—यह हुआ. तीन। दूल्हा चिल्लाया और सीट के पीछे से बंदूक उठा कर उसने गोली घोड़े के सिर के पार कर दी।

दुल्हन तो भौचक्की सी बैठी रही। फिर उसने बड़े निश्चित ढंग से अपने नये वर को बताया कि उसके इस कृत्य के बारे में उसने क्या सोचा? वह उस समय तक चुप बैठा रहा, जब तक कि वह शात न हो गई फिर उसने उसकी और संकेत किया और चिल्लाया, यह हुआ : एक!

यह दंपति अगले साठ वर्षों तक सुखपूर्वक जीए।

किंतु यह प्रसन्नता वास्तविक प्रसन्नता नहीं हो सकती। बंदूक की नोक से दमन करना आसान है, लेकिन तब इन दो लोगों के बीच किस प्रकार का प्रेम घटा होगा? सदैव ही बंदूक दोनों के बीच में खड़ी रही होगी और पत्नी सदा भयभीत रही होगी कि अब किसी भी क्षण वह कहने जा रहा है—अब यह हुआ. दो! अब यह हुआ तीन! और खत्म।

तुमने अपनी ज्ञानेंद्रियों के साथ, अपने शरीर के साथ यही किया हुआ है। तुमने इसका दमन किया है। लेकिन तुम असहाय थे। मैं यह नहीं कहता कि इसके दमन के लिए तुम उत्तरदायी हो। तुम्हारा लालन— पालन ही इस प्रकार से हुआ है, किसी ने तुम्हारी ज्ञानेंद्रियों को स्वतंत्रता नहीं दी। इसी प्रकार से हुआ है किसी ने तुम्हारी ज्ञानेंद्रियों को स्वतंत्रता नहीं दी। प्रेम के नाम पर केवल दमन जारी रहता है। माता—पिता, लोग, समाज, वे सभी दमन किए चले जाते हैं। धीरे— धीरे वे तुम्हें एक तरकीब सिखा देते हैं, और तरकीब है—खुद को स्वीकार मत करो, इनकार करो। हर बात को एक निश्चित अनुरूपता दे दी जानी है। तुम्हारी प्रचंडता को तुम्हारी आत्मा के अंधेरे भाग में धकेल दिया जाता है और एक छोटा सा कोना, ड्राइंग रूम की भांति साफ कर दिया जाता है जहां तुम लोगों से मिल सको, उनके साथ बैठ सको और जी सको और अपने प्रचंड अस्तित्व, अपने यथार्थ अस्तित्व के बारे में सब कुछ भूल सको। तुम्हारे पिता लोग और तुम्हारी माताएं भी इसके लिए उत्तरदायी नहीं हैं क्योंकि उनका लालन पालन भी इसी भांति हुआ था।

इसलिए कोई भी उत्तरदायी नहीं है। लेकिन एक बार तुम इसे जान लो, और तुम कुछ भी न करो तो तुम उत्तरदायी हो जाते हो। मेरे निकट रहते हुए, मैं तुम्हें बहुत अधिक उत्तरदायी बनाने जा रहा हूं क्योंकि तुम इसे जान लोगे, और तब तुमने यदि कुछ न किया तो तुम उत्तरदायित्व किसी और पर नहीं थोप सकोगे। फिर तो तुम्हीं उत्तरदायी होने जा रहे हो।

अब तुम जानते हो कि किस भांति तुमने अपनी ज्ञानेंद्रियों को नष्ट किया है और किस प्रकार से उन्हें पुनजावित करना है। कुछ करो। दमनकारी मन को पूर्णत:, बंदूक को पूर्णत:, तिलांजलि दो। स्वयं को अवरोध मुक्त करो। पुन: प्रवाहमान हो जाओ। अपने अस्तित्व से दुबारा जुड़ना शुरू करो। अपनी ज्ञानेंद्रियों से फिर से संबंधित होना शुरू करो। तुम एक काटी गई टेलीफोन लाइन जैसे हो। सब कुछ पूर्णत: ठीक दिखता है, टेलीफोन मौजूद है, लेकिन लाइन कटी हुई है। इसे पुन: जोड़ लो। अगर इसे काटा जा सकता है तो इसे दुबारा जोड़ा भी जा सकता है। दूसरों ने इसे काट दिया है क्योंकि उन्हें भी ऐसे ही सिखाया गया था, लेकिन तुम इसको दुबारा जोड़ सकते हो।

मेरे सारे ध्यान प्रयोग तुम्हें प्रवाहमान ऊर्जा प्रदान करने के लिए हैं। इसीलिए मैं उन्हें सक्रिय विधियां कहता हूं। पुराने ध्यान प्रयोग कुछ न करते हुए मात्र मौन बैठना भर थे। मैं तुम्हें सक्रिय विधियां देता हूं क्योंकि जब ऊर्जा का प्रवाह तुममें उमड़ रहा होता है तो तुम शांत बैठ सकते हो, यह काम देगा, लेकिन ठीक अभी, पहले तो तुम्हें जीवंत होना पड़ेगा।

‘इसके उपरांत देह के उपयोग के बिना ही कबण बोध और प्रधान (पौद्गलिक जगत) पर पूर्ण स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।’

अगर तुम तन्मात्राओं, अपनी ज्ञानेंद्रियों की सूक्ष्म ऊर्जाओं को देख सकते हो तो तुम अपने बोध का बिना इन स्थूल अवयवों के, उपयोग करने में समर्थ हो जाओगे। यदि तुम्हें पता है कि आख के पीछे ऊर्जा का एक संचित कुंड है तो तुम आंखों को बंद करके ऊर्जा को सीधे ही प्रयोग कर सकते हो। तब तुम अपनी आंखों को खोले बिना ही देखने में सक्षम हो जाओगे। दूरबोध, दिव्य—दृष्टि, दूरस्थ श्रवण यही तो है।

सोवियत रूस में एक स्त्री है जिस पर वैज्ञानिक ढंग से खोज—बीन की गई है, वह किसी भी वस्तु को बीस फीट की दूरी से मात्र ऊर्जा द्वारा खींच लेती है। वह अपने हाथों को, बीस फूट दूर से, हिलाती है। जैसा कि तुमने किसी सम्मोहन कर्ता को हस्त संचालन करते देखा होगा। वह केवल रेखांकन मुद्राएं बनाती है। पंद्रह मिनट के भीतर ही, चीजें उसकी और खिसकने लगती हैं। उसने उन्हें छुआ भी नहीं। यह जानने के लिए कि क्या होता है, काफी जांच—पड़ताल की गई। और उस स्त्री का इस आधे घंटे के प्रयोग से कम से कम आधा पाउंड वजन कम हो जाता है। निश्चित रूप से वह किसी रूप में ऊर्जा गंवा रही है।

यही है जिसे योग तन्मात्रा कहता है। साधारणत: जब तुम किसी चीज, किसी पत्थर, किसी चट्टान को उठाते हो तो ऊर्जा का हाथों के माध्यम से उपयोग करते हो। तुम इसे उठा कर चलते हो तुम उसी ऊर्जा को हाथों द्वारा उपयोग में लाते हो। लेकिन अगर तुमने इस ऊर्जा को सीधे ही जाना है तो तुम हाथ का प्रयोग बंद कर सकते हो। वस्तु को वह ऊर्जा सीधे ही सरका सकती है। टेलीपैथी, दूर—बोध का भी यही ढंग है— तुम— लोगों के विचार सुन या पढ़ सकते हो या दूर—दूर के दृश्य देख सकते हो। एक बार तुम तन्मात्रा को, उस सूक्ष्म ऊर्जा को जान लो, तो तुम्हारी आंखों द्वारा प्रयुक्त की जा रही है, तो आंखों का उपयोग समाप्त किया जा सकता है। एक बार तुम जान लो यह ज्ञानेंद्रिय नहीं है जो कार्य कर रही है, बल्कि ऊर्जा है तो तुम ज्ञानेंद्रिय से मुक्त हो।

मैंने एक कहानी सुनी है

एक लड़के ने, कोहेन और गोल्डबर्ग, थोक विक्रेता के यहां फोन किया।

कृपया मेरी मिस्टर कोहेन से बात कराएं।

मैं क्या कहूं श्रीमान, मिस्टर कोहेन बाहर गए हैं, स्विच बोर्ड आपरेटर लड़की ने कहा।

तब मेरी मिस्टर गोल्डबर्ग से बात कराएं।

मैं क्या कहूं श्रीमान, मिस्टर गोल्डबर्ग तो इस समय फंसे हुए हैं।

ठीक है, मैं कुछ देर बाद फोन करूंगा।

दस मिनट बाद

कृपया, मिस्टर गोल्डबर्ग को फोन दें।

मैं क्या कहूं श्रीमान, मिस्टर गोल्डबर्ग अभी तक फंसे ‘हुए हैं।

मैं फिर फोन करूंगा।

आधा घंटे बाद :

मिस्टर गोल्डबर्ग से बात कराएं।

मुझे सख्त अफसोस है श्रीमानजी, लेकिन मिस्टर गोल्डबर्ग अभी तक फंसे हैं।

मैं फिर फोन करूंगा।

फिर और आधा घंटा बीत गया

मिस्टर गोल्डबर्ग।

मेरे पास आपको देने कि लिए बुरी खबर है श्रीमान, मिस्टर गोल्डबर्ग अभी’ तक फंसे हुए हैं।

लेकिन देखिए यह कितना विचित्र है, इस तरह आप व्यापार का संचालन कैसे कर सकेंगे? एक पार्टनर पूरी सुबह बाहर गया हुआ है।

और दूसरा घंटों कहीं फंसा हुआ है। वहां क्या हो रहा है?

अच्छी बात है श्रीमान, देखिए, जब कभी भी मिस्टर कोहेन बाहर जाते हैं वे मिस्टर गोल्डबर्ग को बांध कर जाते हैं।

तुम्हारे भीतर भी यही कुछ हो रहा है। जब कभी भी तुम अपनी आंखों के द्वारा, हाथों के माध्यम से, यौनांगों द्वारा, कानों से बाहर की और गति करते हो, जब भी बहिर्गामी होते हो, सतत रूप से एक प्रकार का प्रतिबंध और बांधा जाना निर्मित होता रहता है। धीरे— धीरे तुम एक विशेष इंद्रिय के साथ बंध जाते हो, आंखें या कान, क्योंकि यही हैं जिनसे तुम बार—बार बाहर जाते हो। फिर धीरे— धीरे तुम उस ऊर्जा को भूल जाते हो जो बाहर जा रही है।

इंद्रियों के साथ इस प्रकार से बंधन में बंधना ही सारा जगत, संसार है। स्वयं को इंद्रियों के बंधन से कैसे मुक्त करें? और एक बार तुम संवेदी अंगों के साथ बंध जाओ, तुम उनके परिप्रेक्ष्य में ही सोचेने लगते हो। तुम स्वयं को भूल जाते हो।

एक और कहानी:

एक शिष्य संसार को छोड़ कर अपने गुरु का अनुसरण करने की तीव्र अभीप्सा रखता था, लेकिन उसने कहा कि उसकी पत्नी और परिवार उसे इतना अधिक प्रेम करते हैं कि वह अपना घर छोड़ने में असमर्थ है।

गुरु ने एक योजना बनाई। इस व्यक्ति को कुछ ऐसे यौगिक रहस्य सिखा दिए गए जिनसे देखने वालों को ऐसा प्रतीत हो कि वह मर गया है। अगले दिन उस व्यक्ति ने इन निर्देशों का पालन किया और उसकी पत्नी तथा परिवार के लोग उसके शरीर के चारों ओर एकत्रित होकर विलाप करने, शोक मनाने लगे। गुरु उनके दरवाजे पर एक जादूगर का रूप बना कर आया और उस परिवार से कहने लगा, यदि वे इस व्यक्ति को इतना ही प्रेम करते हैं तो वह उसे पुन: जीवित कर सकता है। उसने बताया अगर कोई और उसके स्थान पर मर जाए, जादूगर की यह दवा पी ले, तो वह व्यक्ति जी उठेगा।

परिवार के हर सदस्य ने अपने जीवन को बचाने की आवश्यकता के उचित कारण गिना दिए, और उसकी पत्नी कहने लगी, जो कुछ भी हो, अब तो वे मर ही गए हैं, हम किसी प्रकार गुजारा कर लेंगे।

इस पर वह योगी उठ खड़ा हुआ और बोला, हे नारी, अगर तुम मेरे बिना रह सकती हो, तो मैं अपने गुरु के साथ जा सकता हूं। उसने अपने गुरु की ओर देखा और कहा. अब हमें चलना चाहिए श्रीमान, आदरणीय सदगुरु, मैं आपका अनुगामी बनूंगा।

इंद्रियों के साथ बन जाने वाला यह जुड़ाव इस तरह का है जैसे कि तुम इंद्रियां ही बन गए हो, जैसे कि तुम उनके बिना जी ही नहीं सकोगे, जैसे कि तुम्हारा सारा जीवन उनमें ही सिमटा हो। लेकिन तुम उन्हीं तक सीमित नहीं हो। तुम उनको त्याग सकते हो, और फिर भी तुम जीवित रह सकते हो, और एक उच्चतर तल पर जीते हो। कठिन है। जैसे कि तुम एक बीज को फुसलाना चाहो, मर जाओ और जल्दी ही एक सुंदर पौधे का जन्म होगा। वह कैसे विश्वास कर सकता है, क्योंकि उसे तो मरना होगा। और आज तक किसी बीज ने नहीं जाना कि उसकी मृत्यु से एक नया अंकुर फूटता है, एक नया जीवन उदित होता है। इसलिए इस पर विश्वास कैसे किया जाए? या अगर तुम एक अंडे के पास जाते हो और तुम भीतर के पक्षी को राजी करना चाहते हो कि बाहर आ जाओ, लेकिन पक्षी को कैसे विश्वास आए कि अंडे के बिना भी जीवन की कोई संभावना है? या अगर तुम मां के गर्भ में बच्चे से बात करो और उसे बताओ, बाहर आ जाओ, भयभीत मत हो। लेकिन उसे तो गर्भ के बाहर का कुछ पता भी नहीं पता। यह गर्भ ही उसका सारा जीवन रहा है, उसे तो बस इतना ही पता है। वह भयभीत है। ठीक यही परिस्थिति है, इंद्रियों से घिरे हुए, हम एक सीमित अवस्था, एक कारागृह में जीते हैं।

व्यक्ति को थोड़ा साहसी, हिम्मतवर होना पड़ेगा। ठीक अभी तुम जहां भी हो और तुम जैसे भी हो, तुम्हारे साथ कुछ भी घटित नहीं हो रहा है। अपने जोखिम उठाओ। अशात में उतरो। फिर जीवन के नये ढंग को पाने का प्रयास करो।

‘इसके उपरांत देह के उपयोग के बिना ही तत्‍क्षण बोध और प्रकृति, पौद्गलिक जगत पर पूर्ण स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।’

अब तक तुम पौद्गलिक जगत के वशीभूत रहे हो। एक बार तुम जान लो कि तुम्हारे पास पौद्गलिक जगत से पूर्णत: मुक्त, अपनी ऊर्जा है, तो तुम मालिक बन जाते हो। अब संसार तुम पर और अधिक कब्जा नहीं रख पाता, तुम इसके स्वामी हो। केवल वही जो त्याग सकते हैं असली मालिक बन जाते हैं।’सत्व और पुरुष का विभेद बोध होने के उपरांत ही अस्तित्व की समस्त दशाओं का ज्ञान और उन पर प्रभुत्व उदित होता है।’

और सत्व और पुरुष, बुद्धिमत्ता और जागरूकता के मध्य सूक्ष्मतम विभेद को जानना होगा। स्वयं को शरीर से अलग समझना बहुत सरल है। शरीर इतना स्थूल है कि तुम्हें इसकी प्रतीति हो सकती है, तुम यह नहीं हो सकते। तुमको इसके भीतर होना चाहिए। यह देखना अत्यंत सरल है कि तुम आंखें नहीं हो सकते। तुम्हें तो वह होना चाहिए जो आंखों के द्वारा देखता है, पीछे छिपा है; वरना आंखों के द्वारा कौन देखेगा? तुम्हारा चश्मा तो देख नहीं सकता। चश्मे के पीछे आंखों की जरूरत होती है। तुम्हारी आंखें भी चश्मे की भांति हैं। वे —बश्मा ही हैं, वे देख नहीं सकतीं। देखने के लिए कहीं पीछे तुम्हारी आवश्यता है। लेकिन सूक्ष्मतम तादात्म्य बुद्धि के साथ होता है। तुम्हारी सोचने की सामर्थ्य, तुम्हारी बुद्धि की समझ की क्षमता, यही सूक्ष्मतम चीज है। जागरूकता और बुद्धिमत्ता के बीच विभेद कर पाना बेहद कठिन है। किंतु इनमें भेद किया जा सकता है।

धीमे— धीमे, कदम दर कदम, पहले तो यह जान लो कि तुम देह नहीं हो। इस समझ की गहरे में विकसित, संघनित होने दो। फिर यह जानो कि तुम इंद्रियां नहीं हो। इस समझ को विकसित, घनीभूत होने दो। फिर यह जानो कि तुम तन्मात्राएं, ज्ञानेंद्रियों के पीछे के ऊर्जा—कुंड नहीं हो। इस बात को भी विकसित और संकेंद्रित होने दो। और तब तुम यह देख पाने में समर्थ हो जाओगे कि बुद्धि भी ऊर्जा का एककुंड है। यह एक सहभागी कुंड है जिसमें तुम्हारी आंखें अपनी ऊर्जा उड़ेलती हैं, कान अपनी ऊर्जा उड़ेलते हैं, हाथ अपनी ऊर्जा उड़ेलते हैं। सारी इंद्रियां नदियों की भांति हैं और बुद्धिमत्ता केंद्रीय स्थान है, जिसमें वे सूचनाएं लेकर आती हैं और उड़ेल देती हैं।

जो कुछ भी तुम्हारा मन जानता है, वह इंद्रियों द्वारा दिया गया है। तुमने रंग देख लिए हैं, —तुम्हारा मन इन्हें जानता है। यदि तुम वर्णांध, रंगों के प्रति अंधे हो, यदि तुम हरा रंग नहीं देख सकते, तब तुम्हारा मन हरे के बारे में कुछ भी नहीं जानता है। बर्नार्ड शॉ ने यह बात जाने बिना कि वह वर्णांध है अपना सारा जीवन जी लिया। इसको जान पाना बहुत मुशकिल है, लेकिन संयोगवश घटी एक घटना ने इसके बारे में सचेत कर दिया। एक बार उसके एक जन्म—दिवस पर किसी ने उसे एक सूट भेंट में दिया लेकिन उसके साथ टाई नहीं थी। तो वह एक ऐसी टाई खोजने बाजार में गया जो उस सूट के साथ मेल खा सके। सूट का रंग हरा था लेकिन वह पीली टाई खरीदने लगा। उसकी सचिव यह देख रही थी, वह बोली, आप क्या कर रहे हैं? यह मेल नहीं खाती। सूट हरा है और टाई पीली है। वह बोला क्या इन दोनों के बीच कोई अंतर है? वह सत्तर साल जी चुका था बिना यह जाने कि वह पीला रंग नहीं देख सकता। उसे हरा दिखता था। अब पीला उसके मन का भाग नहीं था। उसकी आंखों ने मन में ऐसी सूचना कभी नहीं पहुंचाई थीं।

आंखें सेवकों जैसी, सूचना संग्राहकों, पी. आर. ओं. की भांति हैं—सारे संसार में करती हुईं, सूचनाएं बनाए एकत्रित करती हुईं उन्हें मन में उड़ेलती रहती हैं, वे मन को पोषित करती रहती हैं। मन ही केंद्रीय कुंड है।

पहले तुम्हें इस बात के प्रति सचेत होना पड़ेगा कि तुम आख नहीं हो, न ही वह ऊर्जा हो जो आख के पीछे छिपी है, तभी तुम यह देख पाने में समर्थ हो सकोगे कि प्रत्येक ज्ञानेंद्रिय मन में उडेली जा रही हैं, तुम मन भी नहीं हो, तुम वह हो जो उसे उड़ेला जाता देख रहा है, तुम तो सिर्फ किनारे पर खड़े हो, सारी नदियां समुद्र में उडेली जा रही है, तुम द्रष्टा हो, साक्षी हो।

स्वामी राम ने कहा है : वितान को परिभाषित करना दुष्कर है, लेकिन संभवत: इसका सर्वाधिक आवश्यक तत्व है उसके अध्ययन में लगना, जो प्रेक्षक से बाहर है। ध्यान की विधियां ऐसा रास्ता दिखाती हैं जो व्यक्ति को उसकी अपनी आंतरिक अवस्थाओं के परे ले जाता है। ध्यान की विधियां ऐसा रास्ता दिखाती हैं जिससे व्यक्ति अपनी आंतरिक अवस्थाओं का अतिक्रमण कर लेता है।—और ध्यान का चरम बिंदु यह जान लेना है कि जो कुछ भी तुम जान लेते हो वह तुम नहीं हो। जो कुछ भी जानी गई वस्तु के रूप में आ गया है वह तुम नहीं हो; क्योंकि तुम्हें एक वस्तु नहीं बनाया जा सकता। तुम सदा से ही आत्मनिष्ठ, ज्ञाता, ज्ञानी, जानने वाले रहे हो। और ताता को भी शात नहीं बनाया जा सकता है।

यही है पुरुष, जागरूकता। यही है आत्यंतिक समझ जो योग से उदित होती है। इस पर ध्यान करो।

आज इतना ही।


Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद

कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–4)

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स्वधर्म-निष्ठा के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 27 सितंबर, 1970;

प्रात: ,मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, कृष्ण का जन्म आज से कितने वर्ष पहले हुआ था? इस संबंध में आज तक क्या शोध हुई है? आपका अपना निर्णय क्या है? और क्या समाधिस्थ व्यक्ति इसका ठीक उत्तर नहीं दे सकता है?’

कृष्ण कब जन्मे, कब मरे, इसका कोई हिसाब नहीं रखा गया है। न रखने का कारण है।

जिन्हें हम सोचते हैं कि जो कभी जन्मते नहीं और कभी मरते नहीं, उनका हिसाब रखना हमने उचित नहीं माना। हिसाब उनका रखना है, जो कभी जन्मते हैं और मरते हैं। उनका हिसाब रखने का क्या अर्थ है, जो कभी जन्मते ही नहीं और मरते ही नहीं। ऐसा नहीं है कि हिसाब हम नहीं रख सकते थे। इसमें कोई कठिनाई न थी। लेकिन वैसा हिसाब कृष्ण के व्यक्तित्व के बिलकुल ही खिलाफ पड़ता है। हमने कोई तिथि-वार का हिसाब कभी नहीं रखा।

पूरब के मुल्कों ने अपने महापुरुषों के जन्म और मृत्यु का कोई हिसाब रखने की कोशिश नहीं की, पश्चिम के मुल्कों ने ही कोशिश की है। उसका कारण है। और जब से पश्चिम का प्रभाव पूरब पर पड़ा है, तब से हमने भी फिकिर की है। उसका भी कारण है। पश्चिम की एक “धारणा’ है, सभी उन धर्मों की जो यहूदी-परंपरा में पैदा हुए–चाहे ईसाइयत, चाहे इस्लाम–उनकी धारणा है एक की जन्म की। एक जन्म और मृत्यु के बीच में सब समाप्त हो जाता है। न उसके पीछे कुछ, न उसके आगे कुछ। फिर कोई जन्म नहीं है।

स्वभावतः, जिनकी ऐसी धारणा हो कि एक जन्म-तिथि और मृत्यु-तिथि के बीच जीवन पूरा हो जाता है, न उसके पीछे, न उसके आगे जीवन की कोई यात्रा है, उन्हें जन्म और मृत्यु की तिथि को अगर रखने का बहुत मोह रहा हो तो आकस्मिक नहीं है। लेकिन जिन्होंने ऐसे जाना हो कि जन्म बहुत बार होता है, बहुत बार आता है और जाता है, अनंत बार आना होता है, अनंत बार जाना होता है, वह हिसाब भी रखें तो कितना हिसाब रखें? कैसे हिसाब रखें? उनका हिसाब रखना उनके अपने ही विचार को झुठलाना होगा। इसलिए उन्होंने हिसाब नहीं रखा।

जानकर ही यह हुआ है, सोचकर यह हुआ है, समझ कर यह हुआ है। हिसाब नहीं रख सकते थे, ऐसी कोई कमी के कारण नहीं हुआ है। संवत-सन् नहीं थे हमारे पास, ऐसा नहीं हैं। दुनिया में सबसे पुराना संवत हमने ही पैदा किया है। लेकिन जानकर हमने यह बात छोड़ दी।

दूसरी बात पूछी है कि क्या समाधिस्थ व्यक्ति यह नहीं बता सकता कि ठीक तारीख क्या है, जब कृष्ण पैदा हुए?

गैर-समाधिस्थ बता भी दे, समाधिस्थ बिलकुल नहीं बता सकता। क्योंकि समाधि का समय से कोई संबंध नहीं है। समाधि जहां शुरू होती है वहां समय समाप्त हो जाता है। समाधि “नॉनटेंपोरल’ है, समय का उससे कोई वास्ता नहीं है। वह कालातीत है। समाधि का अर्थ ही है, समय के बाहर हो जाना। जहां घड़ी-पल मिट जाते हैं, जहां परिवर्तन खो जाता है। जहां वही रह जाता है जो सदा से है। जहां अतीत नहीं होता, जहां भविष्य नहीं होता, जहां सिर्फ वर्तमान रह जाता है। जहां घड़ी के कांटे एकदम ठहर जाते हैं और नहीं चलते। समाधि क्षण में घटित नहीं होती, क्षण के बाहर घटित होती है।

तो समाधिस्थ तो बिलकुल नहीं बता सकेगा। कृष्ण कब पैदा हुए और मरे, यह तो बता नहीं सकेगा, समाधिस्थ यह भी बता नहीं सकेगा कि मैं कब पैदा हुआ और कब समाप्त हो जाऊंगा। समाधिस्थ इतना ही कह सकेगा, कैसा पैदा होना, कैसा मरना। न मैं कभी पैदा हुआ, न मैं कभी मरूंगा। अगर समाधिस्थ से हम पूछें कि यह जो समय की धारा बह रही है, यह जो क्षण आते हैं और जाते हैं, यह कुछ आता है, व्यतीत हो जाता है; कुछ आता है, आर रहा है; कुछ अतीत हो गया है, कुछ भविष्य है; इसके संबंध में क्या खयाल है? समाधिस्थ कहेगा, न कुछ आता है, न कुछ जाता है। जो यहां है, वहीं है। सब वहीं ठहरा है। जाने और आने का खयाल, समय की धारणा, गैर-समाधिस्थ मन की धारणा है–“टाइम एज़ सच’। समय मन की ही उत्पत्ति है। जैसे ही हम मन के बाहर गए, वहां कोई समय नहीं है। इसे दोत्तीन बातों में समझने की कोशिश करें–

समय मन की उत्पत्ति है जब हम कहते हैं, तो बहुत कारणों से कहते हैं। पहला कारण तो यह है कि अगर आप सुख में हैं तो समय सिकुड़ जाता है। अगर आप दुख में हैं तो समय फैल जाता है। अगर आप किसी प्रियजन से मिल रहे हैं तो घड़ियां जल्दी भागती मालूम पड़ती हैं, और किसी शत्रु से मिलते हैं तो बड़ी मुश्किल से गुजरती मालूम पड़ती हैं। घड़ी अपने ढंग से कांटे घुमाए चली जाती है, लेकिन मन! अगर रात घर में कोई मर रहा है, मरणशैया पर पड़ा है, तो रात कटती हुई मालूम नहीं होती। रात बहुत लंबी हो जाती है। ऐसा लगता है कि अब यह रात शुरू हुई तो समाप्त होगी कि नहीं होगी। घड़ी अपने ढंग से घूमती है। लेकिन ऐसा लगता है, आज घड़ी घूम रही है या नहीं घूम रही है? कांटे धीमे चल रहे हैं? लेकिन कोई प्रियजन आ गया है, रात ऐसे बीत जाती है जैसे क्षण में बीत गई। और डर लगता है कि अब बीती, अब बीती, जल्दी बीत रही है, घड़ी जल्दी क्यों चल रही है? घड़ी जल्दी नहीं चलती है, घड़ी अपने ढंग से चलती रहती है, लेकिन मन की स्थितियों पर समय का माप निर्भर करता है।

आइंस्टीन से लोग पूछा करते थे कि तुम्हारी यह “रिलेटिविटी’ की, तुम्हारी यह जो सापेक्षता की धारणा है, यह हमें समझाओ। तो आइंस्टीन कहता था, यह बड़ा कठिन है। और शायद जमीन पर दस-बारह आदमी हैं जिनसे मैं बात कर सकता हूं इस संबंध में, सभी से बात नहीं कर सकता। लेकिन फिर भी तुम्हारे समझ में आ सके, ऐसा मैं तुम्हें उदाहरण देता हूं…आइंस्टीन इसे समझाने को एक छोटा-सा उदाहरण दिया करता करता था। वह कहता था, अगर किसी आदमी को गर्म स्टोव के पास बिठा दिया जाए, तो समय और तरह से बीतता है। उसे अपनी प्रेयसी के पास बिठा दिया जाए तो समय और तरह से बीतता है। हमारा सुख, हमारा दुख हमारे समय की लंबाई को तय करता है।

समाधि सुख और दुख के बाहर है। समाधि आनंद की अवस्था है। वहां कोई लंबाई ही नहीं रह जाती। वहां समय बचता ही नहीं। समाधि के क्षण में तो कोई नहीं कह सकता है कि कृष्ण कब पैदा हुए, कब विदा हुए, समाधि के क्षण में तो कोई कहेगा कि कृष्ण हैं ही। उनका होना शाश्वत है। और कृष्ण का होना ही शाश्वत नहीं है, होना तो हमारा भी शाश्वत है। सब होना शाश्वत है।

रात आप स्वप्न देखते हैं, शायद कभी खयाल न किया हो कि स्वप्न में समय की स्थिति बिलकुल बदल जाती है जागने से। एक आदमी ने झपकी ली है क्षण-भर की और वह सपना देखता है इतना बड़ा जिसे देखने में वर्ष-भर लग जाए। वह देखता है उसका विवाह हो गया, उसके बच्चे हो गए, वह बच्चों की शादियां कर रहा है–वर्षों लग जाएं। क्षण-भर झपकी लगी है और आंख खुली है, वह हमें कहता है, इतना लंबा सपना देखा। हम उससे कहेंगे, पागल हो गए हो? इतना लंबा सपना क्षण-भर में कैसे देखोगे? अभी तो तुम जागते थे, अभी तुम जरा-सी झपकी लिए, आंख लगी ही थी और खुल गई, इस पलक झपने में तुम इतना लंबा सपना देख कैसे सकोगे? वह कहेगा, देख कैसे सकूंगा नहीं, मैंने देखा।

स्वप्न में मन बदल जाता है इसलिए समय की धारणा बदल जाती है। गहरी नींद में, सुषुप्ति में समय नहीं रह जाता। इसलिए आप जब बताते हैं कि रात बहुत गहरी नींद आई, तब भी आप जो समय का पता लगाते हैं वह समय का पता गहरी नींद से नहीं लगता, वह कब आप सोए, और कब आप जागे, इन दो छोरों के बीच में जो गुजर गया उसका हिसाब आप रख लेते हैं। लेकिन अगर आपसे कोई पूछे कि आपको बताया न जाए कि कब आप सोए कब आप जागे, तो आप कितनी देर सोए? आप बता न सकेंगे। मैं एक स्त्री को देखने गया, वह नौ महीनों से बेहोश है, और चिकित्सक कहते हैं वह तीन साल तक बेहोश रहेगी, और शायद बेहोशी में ही मरेगी। संभावना कम है कि उसका होश वापस आए। अगर तीन साल बाद वह स्त्री होश में आई, तो क्या बता सकेगी कि वह तीन साल तक बेहोश थी? इधर घड़ी हजारों बार घूम गई होगी, इधर कैलेंडर हजारों बार कट गया होगा, लेकिन वह स्त्री कुछ न बता सकेगी कि वह तीन साल बेहोश थी।

सुषुप्ति में चित्त सो जाता है, इसलिए वहां भी समय का कोई बोध नहीं रह जाता। समाधि में चित्त खो जाता है, समाप्त हो जाता है, रहता ही नहीं। समाधि अ-चित्त, “नो माइंड’ की अवस्था है।

समाधि से कोई पता नहीं चलेगा कि कृष्ण कब हुए और कब नहीं हुए।

एक झेन फकीर हुआ है, रिंझाई। उसने एक दिन सुबह अपने वक्तव्य में कहा कि पागलो, कौन कहता है कि बुद्ध हुए? तो उसके सुननेवालों ने कहा, आपका दिमाग तो ठीक है न? आप और कहते हैं, कौन कहता है बुद्ध हुए? बुद्ध के ही मंदिर में रहता है वह फकीर। बुद्ध की ही मूर्ति पर चढ़ाता है फूल! बुद्ध की मूर्ति के सामने नाच लेता है। बुद्ध का प्रेमी है। और एक दिन सुबह कहता है, कौन कहता है कि बुद्ध हुए? तो लोगों ने कहा, आप पागल तो नहीं हो गए? और उस रिंझाई ने कहा, पागल मैं था। क्योंकि हो तो वही सकता है जो एक दिन न भी हो जाए। लेकिन जो सदा है, उसके होने का क्या अर्थ! आज मैं तुमसे कहता हूं, बुद्ध कभी नहीं हुए, ये सब झूठी कहानियां हैं। लोगों ने कहा, शास्त्र कहते हैं कि हुए, चले इस पृथ्वी पर, उठे-बैठे, बोले, गवाहियां हैं इस बात की, चश्म?दीद गवाह हैं। और उस फकीर ने कहा, छाया चली होगी, छाया उठी होगी, छाया रही होगी। बुद्ध कभी उठते, कभी बैठते, कभी चलते! “दि शैडो’।

जो पैदा होता है, जो मरता है, वह हमारी छाया से ज्यादा नहीं है, वह हम नहीं हैं। इसलिए जानकर हिसाब नहीं रखा गया, सोचकर हिसाब नहीं रखा गया। धर्म इतिहास नहीं है। इतिहास होता है उसका जो आता है, जाता है–इति वृत्त–शुरू होता है, समाप्त होता है; आदि होता है, अंत होता है। धर्म इतिहास नहीं है। धर्म सनातन है। सनातन का अर्थ होता है, जो सदा है। उसमें कोई तिथियों का हिसाब नहीं रखा गया। इसलिए कोई समाधिस्थ व्यक्ति न कह सकेगा कब पैदा हुए, कब न हुए। कहने की कोई जरूरत भी नहीं है। कहने का कोई अर्थ भी नहीं है। कहना सिर्फ नासमझी से निकलता है। हम ही कब हुए हैं और कब नहीं हो जाएंगे! सदा से हैं, “इटर्निटी’, शाश्वतता है।

लेकिन हमें तो समय का हिसाब है पूरे वक्त। सुबह होती है, सांझ होती है; घड़ियां बीतती हैं, गुजरती हैं; हमें समय का खयाल है। हम समय से ही सब नापते चलते हैं। हमारे पास एक गज है समय का, हम उससे ही नापते हैं। हमारा नापना स्वाभाविक है, सत्य नहीं। हमारी समझ जैसी है वैसा हमारा नाप है। हमारा नाप वैसा ही है जैसे कुएं के मेढक ने सागर से आए मेढक से कहा था कि तेरा सागर कितना बड़ा है? कुएं में छलांग लगाई–आधे कुएं में–और कहा, इतना बड़ा? सागर से आए मेढक ने कहा, माफ कर, तेरे कुएं से कोई हिसाब न बैठेगा! तो उसने कहा, और क्या बड़ा होगा! उसने पूरी छलांग लगाई, कुएं के एक कोने से दूसरे कोने तक पूरी छलांग लगाई, कहा, इतना बड़ा? लेकिन जब सागर के मेढक की आंखों में फिर भी संदेह देखा तो उस कुएं के मेढक ने कहा, तेरा दिमाग खराब मालूम होता है, कुएं से बड़ी कोई जगह है! एक और रास्ता है, उसने कहा, आखिरी माप तुझे बताए देता हूं। उसने कुएं का पूरा गोल चक्कर लगाया और उसने कहा, इतना बड़ा? सागर के मेढक ने कहा कि भाई, तेरे कुएं से हम सागर को नापेंगे तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। यह कोई इकाई ही नहीं बनती। कुएं के मेढक ने कहा, बाहर हो जाओ कुएं के! कुएं से बड़ी कोई चीज कभी देखी है? आकाश भी कुएं बराबर ही देखा है। जब भी उस कुएं के मेढक ने ऊपर देखा तो आकाश भी कुएं के बराबर ही दिखाई पड़ा था। उसने कहा, आकाश, जो सबसे बड़ी चीज है, वह भी कुएं से बड़ी नहीं है। सागर क्या तुम्हारा आकाश से भी बड़ा हो जाएगा।

हम समय के कुएं में जीते हैं। सब चीजें आती हैं, जाती हैं। सब चीजें बंटी हैं। कुछ है जो अतीत हो गया, कुछ है जो भविष्य है, और बड़ा छोटा-सा क्षण वर्तमान का है–जो आता भी नहीं कि चला जाता है। हम पूछते हैं कि किस क्षण में कौन हुआ? हम किसी भी क्षण में अपने को अनुभव करते हैं, किसी कुएं में कैद, इसलिए हम पूछते हैं कि वे किस कुएं में थे? किस क्षण की सीमा में थे?

नहीं, न जीसस, न बुद्ध, न महावीर, न कृष्ण, कोई समय की सीमा में नहीं बांधे जा सकते। हम बांधते हैं, वह हमारी सीमाओं का आग्रह है। जिस दिन पश्चिम की समझ और थोड़ी बढ़ेगी, उस दिन वह क्राइस्ट के जन्म-दिन और मृत्यु-दिन को भूल जाएगा, छोड़ देगा। पूरब की समझ इस मामले में बहुत गहरी रही है। इसके कारण कई अजीब घटनाएं घट गई हैं। इसलिए हमारे जो सोचने के ढंग हैं और कहने के ढंग हैं, वह दुनिया नहीं समझ पाती।

अगर हम तीर्थंकरों की उम्र की बात पूछने जाएं तो कोई लाखों वर्षों जीता है, कोई करोड़ों वर्ष जीता है। अब यह कोई कैसे मानेगा! यह नहीं हो सकता है! यह कोई मानेगा नहीं। मानने की बात भी नहीं है। समझने की बात है। अगर कुएं के बराबर होगा; और क्या कहेगा! लाख कुएं के बराबर होगा, करोड़ कुएं के बराबर होगा। कोई संख्या तो होनी ही चाहिए, कुएं से ही नापा जाना चाहिए सागर। तो जो अनादि हैं, जो सनातन हैं, उनको हम कहेंगे, करोड़ वर्ष है उनकी उम्र। लेकिन वर्ष तो मौजूद रहेगा ही, उससे ही हम नापेंगे। जिनका ओर-छोर नहीं, तो हम कहेंगे, जमीन पर उनके पैर होते हैं, सिर आकाश को छूता है, लेकिन फिर भी गज और फीट से नाप चलेगा। जो जानते थे, उन्होंने ये सब नाप, सब मापदंड तोड़ दिए। उन्होंने कहा, हम यह हिसाब ही छोड़ दें। हम यह हिसाब रखते ही नहीं। बिना हिसाब के कृष्ण हैं। समाधिस्थ इस संबंध में इतना ही कहेगा, वे सदा हैं।

“भगवान श्री, क्राइस्ट का हिसाब रखा जा सका, वह १९७० साल पहले हुए, तो क्या कृष्ण का हिसाब नहीं रखा जा सकता?’

 

खा जा सकता था। आसपास जो लोग थे उन पर निर्भर करती है यह बात। जीसस के आसपास जो लोग थे, उन पर निर्भर हुआ। जीसस ने नहीं रखा है हिसाब। क्योंकि जीसस के अगर वचन देखो तो समझोगे। जीसस का एक वचन है–अब्राहम एक पैगंबर हुआ, जीसस के सैकड़ों वर्ष पहले–जीसस से किसी ने पूछा कि अब्राहम तो आपके पहले हुए, तो जीसस ने कहा, “नो, बिफोर अब्राहम वाज़, आइ वाज़’। इसके पहले कि अब्राहम था, मैं था। इसका क्या मतलब हुआ? जीसस ने तो “टाइम’ तोड़ दिया, जीसस ने तो समय तोड़ दिया। अब्राहम तो सैकड़ों-हजारों साल पहले हुआ। लेकिन जीसस कहता है, अब्राहम होने के पहले मैं था। लेकिन जो लोग थे, उनके पास समय की एक धारणा थी; उन्होंने कोई सागर नहीं देखा था, उन्होंने कुएं देखे थे। उनको यह बात बड़ी “मिस्टीरियस’ लगी और उन्होंने कहा, ठीक है, कहते हैं, कुछ रहस्य की बात होगी, लेकिन वे समझे नहीं कि वह समय की धारणा तोड़ने की बात है।

जीसस को कोई पूछता है कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में खास बात क्या होगी? तो जीसस कहते हैं, “देअर शैल बी टाइम नो लांगर’। एक खास बात होगी कि वहां समय नहीं होगा। लेकिन जो लोग आसपास थे। रेकॉर्ड जीसस थोड़े ही इकट्ठा करते हैं; रेकॉर्ड कृष्ण थोड़े ही रखते हैं, रेकॉर्ड आसपास के लोग रखते हैं। कृष्ण के आसपास जो लोग थे वैसे लोग जीसस को नहीं मिले। इस मामले में, इस जमीन पर जो लोग पैदा हुए उनका सौभाग्य बहुत और है। कृष्ण के आसपास जो लोग थे वैसे लोग जीसस को नहीं मिले। जीसस के आसपास क, ख, ग, की कक्षा के लोग थे। इसलिए तो उन्होंने उनको सूली पर लटका दिया, क्योंकि वह आदमी इतना बेबूझ हो गया कि सिवाय मारने के कोई उपाय न रहा। हम कृष्ण को, महावीर को या बुद्ध को सूली नहीं दिए, इसका कारण यह नहीं है कि जीसस से कुछ कम खतरनाक लोग थे ये, इसका कुल कारण इतना ही है कि हम, एक लंबी यात्रा है इस देश की जिसमें हमने बहुत खतरनाक लोगों को सहा है। जिनमें हमने बहुत खतरनाक लोग देखे, जिनमें हमने बहुत अलौकिक, अदभुत आदमी देखे। हम धीरे-धीरे राजी हो गए और हमारे पास कुछ समझ पैदा हो गई, जिसका हम उपयोग कर सके। इसका उपयोग जीसस के वक्त में नहीं हो सका। इसका उपयोग मुहम्मद के वक्त में नहीं हो सका। मुहम्मद के पास वे लोग न थे जो महावीर के पास थे। जीसस के पास वे लोग न थे जो कृष्ण के पास थे। इसलिए फर्क पड़ा। इसलिए ही फर्क पड़ा, और कोई कारण नहीं है।

यह समझ लेना चाहिए ठीक से कि न तो कृष्ण ने कुछ लिखा है, न क्राइस्ट ने लिखा है, जिन्होंने सुना है उन्होंने लिखा है।

क्राइस्ट एक गांव में ठहरे हुए हैं। भीड़ लगी है लोगों की उन्हें देखने, और तभी भीड़ में आवाज आती है कि रास्ता दो। जीसस की मां मिलने आ रही है। तो क्राइस्ट हंसते हैं, और वह कहते हैं कि मेरी कैसी मां! क्योंकि मैं पैदा कब हुआ! लेकिन रेकॉर्ड रखने वालों ने तारीख तय रखी। उन्होंने लिख लिया कि वह कब पैदा हुए। अब यह आदमी कहता है, कैसी मेरी मां, कौन मेरी मां? मैं कब पैदा हुआ? मैं सदा से हूं। रेकॉर्ड लिखने वालों ने यह भी लिख दिया कि उन्होंने ऐसा कहा और यह भी लिख दिया कि वह कब पैदा हुए।

कृष्ण को जो रेकॉर्ड लिखने वाले लोग मिले, वह ज्यादा समझदार थे। उन्होंने कहा, जो आदमी कहता है मैं सदा से हूं; जो अर्जुन से कहता है कि यह मैं तुम को ही नहीं समझा रहा, इसके पहले मैंने फलाने को समझाया था, इसके और पहले मैंने फलाने को समझाया था; और ऐसा नहीं है कि तुम को समझा कर ही सब चुक जाएगा, मैं आता रहूंगा और समझाता रहूंगा; और यह जो सामने लोग खड़े हैं, तुम सोचते हो मर जाएंगे तो तुम पागल हो, नासमझ हो, यह पहले भी हुए और मर गए हैं, और उसके पहले भी हुए थे, अभी मरेंगे और फिर होते रहेंगे; इस आदमी की जन्म-तिथि लिखना ठीक न थी, अन्यायपूर्ण था। नहीं लिखी गई।

इतिहास खोज करेगा तो मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि हमने जानकर रेकॉर्ड गंवाए। हमने सब उपाय किए हैं कि रेकॉर्ड बचाए न जा सकें। हमने सब उपाय किए हैं कि तिथि का कोई पता ही न रहे। उपनिषद किसने लिखे, वेद किसने लिखे, लेखक का नाम जानकर गंवाया गया है। क्योंकि वह जो कह रहा था, वह कह रहा यह मैं नहीं कह रहा हूं, यह परमात्मा बोल रहा है, कोई जरूरत नहीं है, मुझे छोड़ा जा सकता है। मेरे बिना काम चल सकता है। पश्चिम में रेकॉर्ड रखे हैं। जीसस जगह-जगह कहते हैं, यह मैं नहीं बोल रहा हूं, वह परम पिता जो आकाश में है वही बोल रहा है। “नाट आई, बट माई फादर स्पीक्स’। लेकिन लिखने वाला तो लिखेगा कि जीसस के वचन हैं।

इस वजह से यह कोई कमी नहीं है इस देश की कि इस देश के पास कोई “हिस्टॉरिक सेन्स’ नहीं है। ऐसा नहीं है कि इतिहास का कोई बोध नहीं है हमारे पास। लेकिन इतिहास के बोध को हमने जानकर झुठलाया है, क्योंकि हमारे पास इतिहास के कुएं से भी बड़ा एक बोध है, “इटर्निटी’ का, शाश्वतता का बोध है। हमें घटनाओं का उतना मूल्य नहीं है जितना घटनाओं के भीतर छिपी हुई आत्मा का मूल्य है। हमने इस बात की फिकिन नहीं कह कि कृष्ण ने क्या खाया और क्या पिआ, हमने इस बात की फिकिर की कि वह कौन था कृष्ण के भीतर जो खाने को भी देखता था, पीने को भी देखता था। हमने इसकी फिकिर नहीं की कि वह कब पैदा हुए और कब मरे, हमने इसकी फिकिर की कि वह कौन था जो पैदा होने में आया और मौत में विदा हुआ। वह कौन था जो भीतर था। हमने उस “इनरमोस्ट स्पिरिट’ की, उस भीतरी अंतरात्मा की चिंता की। उसके लिए कोई तारीखें अर्थपूर्ण नहीं हैं।

“भगवान श्री, यह तो ठीक है कि कृष्ण या क्राइस्ट जैसे लोगों को आत्मिक व्यक्तित्व “इटरनल’ है, लेकिन वर्णित-शरीर तो आता है और जाता है, हम कृष्ण के वर्णित-शरीर की काल-गणना जानना चाहते हैं। कृष्ण-लीलाएं कब हुईं, महाभारत कब हुआ? ये स्थूल घटनाएं तो जानी जा सकती हैं। इसकी कुछ जानकारी हो।’

रीर का जिनके लिए मूल्य है, उनके लिए स्थूल घटनाओं का भी मूल्य है। शरीर को जो छाया समझते हैं, उनके लिए कोई मूल्य नहीं रह जाता। कृष्ण कहते ही नहीं कि यह जो शरीर दिखाई पड़ रहा है, यह मैं हूं। जीसस भी नहीं कहते कि यह शरीर जो दिखाई पड़ रहा है यह मैं हूं। वे खुद ही इनकार कर जाते हैं कि इस पर खयाल मत करना, क्योंकि यह मैं नहीं हूं, अगर इसका तूने हिसाब रखा तो वह मेरा हिसाब नहीं होगा। बुद्ध के मरने के बाद पांच सौ वर्षों तक बुद्ध की कोई प्रतिमा नहीं बनाई गई, क्योंकि बुद्ध ने कहा था कि तुम मेरी प्रतिमा बनाना, इस शरीर की मत बनाना। मगर अब कैसे हम बुद्ध की प्रतिमा बनाएं। तो पांच सौ वर्ष तक बुद्ध के मरने के बाद, बुद्ध जिस वृक्ष के नीचे बैठते थे, बोधिवृक्ष–जहां वह घटना घटी जिससे वे बुद्ध हुए–उस वृक्ष का ही चित्र बनाकर जगह नीचे खाली छोड़ देते थे।

स्थूल-देह छाया से ज्यादा नहीं है। उसके हिसाब रखने का कोई प्रयोजन भी नहीं है। जिन्होंने भी उसका हिसाब रखा है, उन्होंने इसीलिए हिसाब रखा है कि उन्हें सूक्ष्म का कोई पता नहीं है, जिन्हें भी सूक्ष्म का पता है, उनके लिए स्थूल व्यर्थ हो जाता है। आप अपने सपनों का कोई हिसाब रखते हैं? कौन-से सपने आपने देखे और कब देखे? सपने देखते हैं और भूल जाते हैं। क्यों हिसाब नहीं रखते? क्योंकि उन्हें सपना समझ लेते हैं। कृष्ण की जो जिंदगी हमें दिखाई पड़ती है, वह सपने से ज्यादा नहीं है। जीसस ने कौन-से सपने देखे, हमने हिसाब रखा है? वह हिसाब हमने नहीं रखा। हो सकता है कभी वह जमाना आए कि आदमी पूछने लगे कि तुम्हारे कृष्ण हुए तो उन्होंने कोई सपने देखे थे या नहीं देखे थे? हुए होंगे तो सपने तो जरूर देखे होंगे। और अगर सपने देखे ही नहीं तो होने में भी शक हो जाता है। यह बात हो सकती है कभी, अगर सपने बहुत महत्वपूर्ण बन जाएं और कोई कौम सपनों का बहुत हिसाब रखने लगे, तो ठीक है, उनका हिसाब भी महत्वपूर्ण हो जाएगा। और जिस आदमी के सपनों का हमें कोई पता न होगा, उस आदमी के होने का भी संदेह हो जाएगा। जिस जिंदगी को हम स्थूल कहते हैं, कृष्ण या क्राइस्ट या महावीर या बुद्ध उस जिंदगी को सपना समझते हैं। और अगर उनके आसपास के लोगों को भी यह समझ में आ गया हो कि वह सपना है तो हिसाब नहीं रखा जाएगा। हिसाब नहीं रखा गया। हिसाब न रखा जाना बहुत सूचक है। हिसाब रखा गया होता तो समझा जाता कि लोगों ने कृष्ण को नहीं समझा और इसलिए हिसाब रख लिया।

मैं कह रहा था कि पांच सौ वर्ष तक बुद्ध की प्रतिमा नहीं बनी। कोई चित्र नहीं बना। अगर काई चित्र भी बनाता था तो वह बोधिवृक्ष का चित्र बनाता था और नीचे जगह खाली छोड़ देता था, जहां बुद्ध होने चाहिए। खाली जगह! बुद्ध एक खाली जगह ही थे। पांच सौ साल बाद चित्र और मूर्तियां बनाई गईं क्योंकि पांच सौ साल में वे लोग खो गए जिन्होंने समझा था कि बुद्ध की स्थूल जिंदगी तो सिर्फ सपना है। और पांच सौ साल में लोग प्रमुख हो गए जिन्होंने कहा, हिसाब तो रखना पड़ेगा–बुद्ध पैदा कब हुए, बुद्ध मरे कब, बुद्ध ने कहा क्या? उनकी शक्ल कैसी थी? उनका शरीर कैसा था। वह सब हिसाब बहुत बाद में रखा गया। ज्ञानियों ने हिसाब नहीं रखा, जब ज्ञानी खो गए तो अज्ञानियों ने हिसाब रखा। स्थूल शरीर का हिसाब अज्ञान से ही जन्मता है।

और फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि कृष्ण न भी हुए हों। कोई फर्क नहीं पड़ता। कृष्ण के होने से आपको क्या फर्क पड़ सकता है? कोई फर्क नहीं पड़ता। नहीं, लेकिन हम कहेंगे कि नहीं, अगर कृष्ण न हुए हों तो हमें फर्क पड़ जाएगा। क्या फर्क पड़ जाएगा? कृष्ण हुए या न हुए, इससे कोई फर्क न पड़ेगा। कृष्ण के होने की जो संभावना है आंतरिक, वह हो सकती है या नहीं हो सकती है, यह सवाल है। यह सवाल नहीं है कि कृष्ण हुए या नहीं, सवाल यह है कि ऐसा व्यक्ति हो सकता है या नहीं हो सकता। हो जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। हो सकता है, या नहीं हो सकता। अगर हो सकता है, तो हुए तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, और अगर नहीं हो सकता है, तो भी हुए हों तो कोई फर्क नहीं पड़ता। समाधिस्थ-चित्त को तो इससे कोई प्रयोजन नहीं है। अगर मुझसे कोई आकर कहे कि वह हुए ही नहीं क्योंकि कोई रेकॉर्ड नहीं है, तो मैं कहूंगा कि मानो कि नहीं हुए। हर्ज क्या है। सवाल यह है ही नहीं। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि ऐसा आदमी संभव है? ऐसे आदमी की “पासिबिलिटी’ है? अगर आपके मन को यह समझ में आ जाए कि ऐसा आदमी संभव है, तो आदमी जिंदगी बदल सकती है। यह भी पक्का हो जाए, पत्थर मिल जाएं लिखे हुए कि वह हुए हैं, सारी कहानी मिल जाए और आपका मन इस बात को मानने को राजी न हो कि ऐसा व्यक्ति हो सकता है, तो आप कहेंगे कि नहीं, लिखा है पत्थरों पर, लिखा है किताबों में, लेकिन कहानी होगी, यह आदमी हो नहीं सकता, क्योंकि इसकी संभावना नहीं है।

कृष्ण के होने की संभावना है। इसलिए हुए, इसलिए हो सकते हैं, इसलिए हैं भी। लेकिन आंतरिक व्यक्तित्व को ध्यान में लेने की जरूरत है।

हमें तो शरीर दिखाई पड़ता है, वह जो आंतरिक है वह दिखाई नहीं पड़ता। तो हम बहुत उत्सुक होते हैं उस शरीर में। बुद्ध मर रहे हैं और कोई उनसे पूछता है कि आप मरने के बाद कहां होंगे? तो बुद्ध उससे कहते हैं, कहीं भी नहीं, क्योंकि पहले भी मैं कहीं नहीं था। और जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है वह मैं नहीं हूं, और जो मुझे दिखाई पड़ रहा है वह मैं हूं। इसलिए बाहर की जिंदगी सिर्फ देखी गई एक कहानी और एक नाटक हो जाती है। उसका कोई मूल्य नहीं है।

उसका मूल्य नहीं है, इस बात को जोर से कहने के लिए हमने कोई हिसाब नहीं रखा है। और हम की आगे भी उसका कोई हिसाब देने वाले नहीं हैं।

लेकिन इस मुल्क का मन कमजोर पड़ा है और वह भयभीत भी हुआ है। उसे डर पैदा हो गया है कि क्राइस्ट तो “हिस्टॉरिक’ मालूम पड़ते हैं, ऐतिहासिक मालूम पड़ते हैं, हमारे कृष्ण की कहानी मालूम पड़ते हैं। यह कृष्ण और क्राइस्ट के मुकाबले हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है। क्राइस्ट के लिए तो प्रमाण है। मुल्क का मन कमजोर हुआ है। हमारा चित्त भी उन्हीं धारणाओं से प्रभावित हुआ है, जिन धारणाओं ने क्राइस्ट की जिंदगी को बचाकर रखने की कोशिश की है। तो हम भी पूछते हैं, उन्हीं बातों को, जो बेमानी हैं। अच्छा तो होगा जिस दिन हमारी हिम्मत फिर बढ़ सके तो हम उनसे कह सकेंगे, तुम भी पागल हो, क्राइस्ट जैसा आदमी हुआ और तुम मरने और जीने की तारीखों का हिसाब रखते रहे। तुमने समय गंवाया। इतने कीमती आदमी की बाबत इतनी गैर-कीमती जानकारी रखने की कोई जरूरत नहीं है।

इसलिए मैं कहता हूं, उसकी चिंता ही न करें। उसकी चिंता आपके मन की खबर देती है कि आपके लिए महत्वपूर्ण क्या है। जन्म और मरण? शरीर का होना? घटनाएं? यह बाहर की परिधि है जीवन की। या वह महत्वपूर्ण है जो इन सबके बीच खड़ा है, इन सबके भीतर खड़ा है–अलिप्त, असंग? वह सब जो इनके भीतर साक्षी की भांति खड़ा है, वह महत्वपूर्ण है? अगर आप भी मरने के क्षण में लौट कर देखेंगे तो आपको पूरी जिंदगी जो बीत गई, सपने में और आपकी जिंदगी में फर्क क्या रह जाएगा? आज भी आप लौटकर देखें अपनी पिछली जिंदगी को तो वह आप जिए थे सच में, या सपना देखा था, इन दोनों में फर्क कैसे कर पाएंगे? आप कैसे तय कर पाएंगे कि सच में ही मैं यह जीआ था जो मुझे याद आता है, या मैंने सपना देखा था?

च्वांग्त्से ने एक बहुत गहरी मजाक की है। च्वांग्त्से एक दिन सुबह उठा और उसने कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं, सब इकट्ठे हो जाओ, मेरी मुश्किल को हल करो। उसके आश्रम के सारे लोग इकट्ठे हो गए। बड़े हैरान हुए, क्योंकि उन सबकी मुश्किलें च्वांग्त्से हमेशा हल करता था, वह भी मुश्किल में पड़ सकता है यह उन्होंने सोचा भी नहीं था। उन्होंने पूछा, तुम और मुश्किल में! हम तो सोचते थे, तुम मुश्किल के पार चले गए। च्वांग्त्से ने कहा, मुश्किल ऐसी ही है, जिसको पार की मुश्किल कह सकते हो। तो उन्होंने कहा, क्या है सवाल तुम्हारा? च्वांग्त्से ने कहा, रात मैंने एक सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूं और फूलों पर उड़ रहा हूं। तो उन्होंने कहा, इसमें क्या मुश्किल है? हम सभी सपने देखते हैं। च्वांग्त्से ने कहा, मामला खतम नहीं होता। सुबह मैं उठा और मैंने देखा कि मैं फिर च्वांग्त्से हो गया हूं। अब सवाल यह है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि तितली सो गई हो और सपना देख रही हो कि च्वांग्त्से हो गई है। अगर आदमी सोकर सपना देख सकता है, अगर आदमी सपने में तितली हो सकता है, तो तितली सपने में आदमी हो सकती है। तो मैं तुमसे यह पूछता हूं कि असली क्या है? रात मैंने जो सपना देखा तितली होने का, वह च्वांग्त्से सपना देख रहा था? या, अब तितली सपना देख रही है? अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं।

उस आश्रम के लोगों ने कहा, यह हमसे हल न हो सकेगा। आपने तो हमें भी मुश्किल में डाल दिया। अभी तक तो हम निश्चिंत हैं कि रात जो देखते हैं वह सपना है, और दिन में जो देखते हैं वह असलियत है। लेकिन च्वांग्त्से ने कहा, पागलो, जब रात तुम जो देखते हो तो दिन में जो देखा था वह भूल जाता है; उसी तरह, जैसे दिन में जब तुम जागते हो तो वह भूल जाता है जो सपना था। बल्कि एक और मजे की बात है, दिन में जागकर रात का सपना तो थोड़ा याद भी रह जाता है, लेकिन रात में सपने में सोते वक्त दिन का जागा हुआ बिलकुल याद नहीं रह जाता है। अगर याददाश्त निर्णायक है, तो रात का सपना ज्यादा असलियत होगा दिन के सपने से। और अगर एक आदमी सोया रहे, सोया रहे और न जागे, तो कैसे सिद्ध कर पाएगा कि जो वह देख रहा है वह सपना है। सपने में तो सपना सत्य ही मालूम होता है। सपने में तो सपना सपना नहीं मालूम होता।

असल में जिसे हम जिंदगी कहते हैं, जिसे हम स्थूल कहते हैं, वह कृष्ण जैसे व्यक्तित्व के लिए सपने से ज्यादा नहीं है। जो उनके पास थे उनकी भी समझ में आ गया है कि वह सपना है। इसलिए कोई हिसाब नहीं रखा गया। यह जानकर हुआ है, यह होशपूर्वक छोड़ा गया “रेकॉर्ड’ है। इसके छोड़ने में सूचना है, इंगित है कुछ, कि इसका हिसाब तुम भी मत रखना। इस हिसाब में पड़ना ही मत। इसमें पड़ जाओगे तो शायद उसका पता न चल सके जो हिसाब के बाहर खड़ा हंस रहा है।

“भगवान श्री, हम पूर्णतया सहमत हैं, कृष्ण के संबंध में हमें जानने की कोई आवश्यकता नहीं है कि वह कब पैदा हुए, कब उनका मरण हुआ। हमारा मतलब इससे है कि कृष्ण कैसे जिए, उन्होंने क्या कहा, उनके जीवन की कथा का क्या रहस्य है? अभी-अभी थोड़ा पहले आपने कहा कि धर्म इतिहास नहीं है, धर्म सनातन है। फिर जब कृष्ण गीता के अध्याय तीन और श्लोक पैंतीस में कहते हैं कि दूसरे के धर्म से अपना गुणरहित धर्म भी अति उत्तम है; अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है, दूसरे का धर्म भयावह है, तो कृष्ण का आशय किस धर्म से है? उस धर्म से जो रूढ़िगत है, जो व्यक्तिगत है; अथवा, उस धर्म से जो शाश्वत है, और सनातन है और सबका है? धर्म को अच्छा और बुरा, अपना और पराया कहने की क्या जरूरत थी कृष्ण को?’

 

हुत जरूरत थी। कृष्ण जब कहते हैं कि स्वयं के धर्म में मर जाना भी श्रेयस्कर है–“स्वधर्मे निधनम् श्रेयः’, और दूसरे के धर्म में मरना बहुत भयावह है, तो दोत्तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं।

एक तो यह कि यहां धर्म से अर्थ हिंदू, ईसाई, मुसलमान, जैन का नहीं है। यहां जो धर्म का फासला वे कर रहे हैं, वह “स्व’ और “पर’ का है। वह स्व कौन है, हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। यहां जो सवाल है वह “निजता’ और “परता’ का है। यहां वे यह कह रहे हैं कि तुम नकल में मत पड़ना, तुम किसी और के रास्ते पर मत चलने लगना। तुम किसी और को “इमीटेट’ मत करने लगना, तुम किसी और का अनुकरण मत करने लगना। तुम किसी और के अनुयायी मत हो जाना। तुम किसी को गुरु मत बना देना। तुम अपने गुरु रहना। तुम अपनी निजता को किसी से आच्छादित मत हो जाने देना। तुम किसी के पीछे मत चल पड़ना। क्योंकि कोई कहीं जा रहा है, हो सकता है वह उसकी निजता हो और तुम्हारे लिए परतंत्रता बन जाए–और बनेगी ही। महावीर के लिए जो निजता है, वह किसी दूसरे के लिए निजता नहीं हो सकती। क्राइस्ट के लिए जो मार्ग है, वह किसी दूसरे के लिए मार्ग नहीं हो सकता।

उसके कारण हैं।

हम कहीं भी जाएंगे तो हम स्वयं होकर ही जा सकते हैं। पहुंचकर खो जाएगा स्व, लेकिन अभी है। और जिस दिन स्व खो जाएगा, उस दिन पर भी खो जाएगा। उस दिन जो धर्म उपलब्ध होगा, वह धर्म शाश्वत है, सनातन है। लेकिन अभी हम सागर की तरह नहीं हैं, नदियों की तरह हैं। अभी हर नदी को अपने रास्ते से जाना होगा सागर तक। सागर में पहुंचकर नदियां भी खो जाएंगी, रास्ते भी खो जाएंगे। लेकिन यह बात नदियों से की जा रही है। कृष्ण नदी से कहते हैं, अपना मार्ग छोड़कर दूसरी नदी के मार्ग पर मत पड़ जाना। दूसरी नदी का अपना मार्ग है, अपनी गति है, अपनी दिशा है। वह अपने मार्ग, अपनी गति, अपनी दिशा से सागर तक पहुंचेगी। और तू भी नदी है। तू अपना मार्ग, अपनी गति, अपना रास्ता बनाना और सागर तक पहुंच जाना। नदी है तो सागर तक पहुंच ही जाएगी। कोई नदी बंधे-बंधाए रास्तों पर नहीं चलती। कोई जीवन बंधे-बंधाए रास्तों पर नहीं चल सकता। और जब भी हम दूसरे का अनुकरण करेंगे तब हमारे लिए बंधा-बंधाया रास्ता “रेडीमेड’ मिल जाता है। तब हम आत्मघाती होने शुरू हो जाते हैं। तब हम अपने को मारने लगते हैं और दूसरे को ओढ़ने लगते हैं। अगर कोई मेरे पीछे चलेगा, तो वह अपने को मारेगा। उसे ध्यान मुझ पर रखना पड़ेगा। जो मैं करता हूं, वैसा वह करे। जैसा मैं जीता हूं, वैसा वह जिए। जैसा मैं उठता हूं, वैसा वह उठे। वह अपने को मारेगा, मुझे ओढ़ेगा। और मुझे कितना ही ओढ़ ले, तो भी मैं उसके लिए वस्त्र से ज्यादा नहीं हो सकता। मैं वस्त्र ही रहूंगा। गहरे-गहरे में तो वह वही रहेगा जो है। गहरे में तो वह वही रहेगा जिसने ओढ़ा है। वह वह नहीं हो सकता जो ओढ़ा गया है। वह ओढ़ने वाला तो भीतर अलग ही खड़ा रहेगा।

तो कृष्ण जब कहते हैं–“स्वधर्मे निधनम् श्रेयः’, तो वह यह कहते हैं कि अपने ढंग से मर जाना भी श्रेयस्कर है, दूसरे के ढंग से जीना भी श्रेयस्कर नहीं। क्योंकि दूसरे के ढंग से जीने का मतलब ही जिये हुए मरना है। अपने ढंग से मरने का अर्थ भी नए जीवन को खोज लेना है। अगर मैं अपने ढंग से मर सकता हूं, और मरने में भी निजता रख सकता हूं, तो मेरी मौत भी “ऑथेंटिक’ हो जाएगी, प्रामाणिक हो जाएगी। मेरी मौत है। मैं मर रहा हूं। लेकिन हमने अपनी जिंदगी को भी उधार और “बारोड’ कर लिया है, वह भी “ऑथेंटिक’ नहीं है। तो कृष्ण कहते हैं, जीवन में तो प्रामाणिक होना। और प्रामाणिक होने का एक ही अर्थ है कि निजता को बचाना। चारों तरफ से हमले होंगे, चारों तरफ से लोग होंगे जो चाहेंगे कि आओ, मेरे पीछे आ जाओ। असल में अगर कोई और मेरे पीछे चले तो मेरे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। अगर एक चले तो, दो चलें तो, दस चलें तो, लाख चलें तो बड़ी तृप्ति मिलती है। तब मुझे लगता है कि मैं कुछ ऐसा हूं जिसके पीछे चलना पड़ता है। मैं कुछ हूं। और जो भी मेरे पीछे चलेगा, उसे मैं गुलाम बनाना चाहूंगा। उसे मैं पूरी तरह गुलाम बनाना चाहूंगा। उस पर मैं अपनी आज्ञा, अपना अनुशासन पूरा थोप देना चाहूंगा। मैं उसकी स्वतंत्रता जरा-सी भी बचने न देना चाहूंगा। क्योंकि उसकी स्वतंत्रता मेरे अहंकार को चुनौती होगी। तो मैं चाहूंगा वह मिट जाए। मैं ही उस पर आरोपित हो जाऊं। सभी गुरु यही करेंगे।

और जब कृष्ण यह कह रहे हैं तब बहुत अदभुत बात कह रहे हैं, जो कि गुरु कहने की हिम्मत नहीं कर सकता, सिर्फ मित्र कर सकता है। इसलिए ध्यान रहे, कृष्ण अर्जुन के गुरु नहीं हैं। सिर्फ सखा हैं। और कभी भी गुरु की जगह खड़े नहीं होते, सिर्फ मित्र की जगह खड़े होते हैं। गुरु सारथी बनकर नहीं बैठ सकता था। गुरु कहता मैं बैठूंगा रथ में, तू सारथी बन। गुरु कहता मैं और लगाम पकडूं! और घोड़ा चलाऊं! मैं बैठूंगा रथ में, तू घोड़ा बन, तू लगाम बन। कृष्ण बैठ सके सारथी बनकर, यह बहुत अदभुत घटना है। घटना यह कहती है कि नाता मित्रता का है। मित्रता में नीचे और ऊपर कोई नहीं होता। जब कृष्ण अर्जुन से यह कह रहे हैं कि तू स्व को खोज, तू निजता को खोज, वह जो तेरी “इंडिविजुऍ?लिटी’ है, वह जो तेरा होना है, उसको प्रामाणिक रूप से पहचान और वही तू बन, तू उससे भिन्न मत करना, किस कारण से उस क्षण उन्हें यह कहना पड़ा?

अर्जुन की पूरी अंतरात्मा क्षत्रिय की है। वह एक लड़ाके की, एक “फाइटर’ की है। उसका रोआं-रोआं लड़नेवाले का है। वह एक सैनिक है। बातें वह संन्यासी की कर रहा है। बातें वह कर रहा है संन्यासी की। बातें वह भगोड़े की कर रहा है, योद्धा की नहीं। है वह लड़ने वाला। अगर वह जंगल में भी संन्यास लेकर बैठ जाएगा और उसे सिंह दिखाई पड़ेगा, तो भजन नहीं करेगा, जूझ जाएगा। वह आदमी न तो ब्राह्मण है, न वह आदमी वैश्य है, न वह आदमी शूद्र है। न वह श्रम करके आनंद पा सकता है, न वह ज्ञान की चर्चा करके आनंद पा सकता है, न वह धन कमा कर आनंद पा सकता है। उसका आनंद चुनौती में है। उसका आनंद कहीं जूझ जाने में है। वह किसी अभियान में ही अपने को पा सकता है, किसी “एडवेंचर’ में ही अपने को पा सकता है। लेकिन बातें वह दूसरी कर रहा है। वह “स्वधर्म’ से च्युत हो रहा है। तो कृष्ण उससे कहते हैं कि तू लड़ाका है, तू “एस्केपिस्ट’ नहीं है, तू भगोड़ा नहीं है, तू बातें पलायनवादी की कर रहा है। तू कहता है कि ये मर जाएंगे, कि मैं मर जाऊंगा, कि मर जाने से बड़ा बुरा हो जाएगा, यह क्षत्रिय ने मरने-मारने की बात कब की है। तू कहीं किसी और को तो नहीं ओढ़ रहा है? कहीं तूने सुनी-सुनाई बातें तो नहीं अपने ऊपर ओढ़ लीं? क्योंकि सुनी-सुनाई बातें ओढ़कर तू कुछ कर न पाएगा, तू भटक जाएगा। तू जो है, उसकी खोज कर। अगर तू ब्राह्मण ही है तो कृष्ण न कहेंगे उसको कि तू लड़। कृष्ण कहेंगे, अगर तू ब्राह्मण ही है तो जा।

वह अर्जुन भी कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकता कि वह ब्राह्मण है। वह ब्राह्मण है ही नहीं। उसके सारे व्यक्तित्व की जो धार है, वह तलवार की है। उसके हाथ में तलवार हो तो ही वह निखरेगा। युद्ध के गहरे क्षण में ही वह अपनी आत्मा को खोज पाएगा। उसे अपनी आत्मा और कहीं मिलनेवाली नहीं है। इसलिए वह उससे कहते हैं कि अपने धर्म में मर जाना भी बेहतर है। तू क्षत्रिय होकर मर जा। अगर तुझे मारना भी न जंचता हो, तो मरना तो जंच ही सकता है। तू लड़ और मर जा, लेकिन लड़ने से मत भाग। क्योंकि उससे भागकर तू जियेगा जरूर, लेकिन वह मरा हुआ जीना होगा, वह “डेड लाइफ’ होगी। और “डेड लाइफ’ से “लिविंग डेथ’ बेहतर है।

धर्म से वहां प्रयोजन हिंदू, मुसलमान, ईसाई से नहीं है। धर्म से वहां प्रयोजन निजताओं से है। और इस मुल्क ने निजताओं को चार बड़े विभागों में बांटा है। जिनको हम वर्ण कहते रहे हैं, वह मोटे विभाजन हैं निजताओं के। ऐसा नहीं है कि दो ब्राह्मण एक-जैसे होते हैं, या दो क्षत्रिय एक-जैसे होते हैं। नहीं, दो क्षत्रिय भी दो-जैसे होते हैं। लेकिन फिर भी क्षत्रिय होने की एक समानता, एक “सिमिलेरिटी’ उनमें होती है। और मनुष्य को बहुत खोज-बीन करके चार हिस्सों में बांटा है। कोई है, जो सेवा किए बिना रस न पा सकेगा। ऐसा नहीं है कि वह नीचा है। वहां भूल हो गई। वहां जिन्होंने जाना था, वह उनके ऊपर जो नहीं जानते थे उन्होंने नियम ठहरा दिए। जिन्होंने जाना था, उनका कहना कुल इतना था कि कोई है जो सेवा करके ही कुछ आनंद पा सकेगा। उससे उसकी सेवा छीन ली जाए, वह आनंदरिक्त हो जाएगा, उसकी आत्मा खो जाएगी। अब कोई स्त्री मेरे पास आती है, वह कहती है, दो क्षण मुझे पैर दाब लेने दें। न मैंने उससे कहा, न मैंने उससे आग्रह किया, न इस पैर दाबने से उसे कुछ मिलेगा, लेकिन उसे क्या हो रहा है? वह पैर दाबकर जरूर कुछ पाएगी। मुझसे कुछ मिलेगा नहीं, अपनी आत्मा पाएगी। मुझसे कुछ नहीं मिल सकता। लेकिन अगर सेवा उसका रस है तो वह अपनी आत्मा पाएगी, वह अपनी निजता पाएगी।

कोई है, जो सब धन छोड़ सकता है ज्ञान के लिए। भूखा मर सकता, भीख मांग सकता, घर-द्वार छोड़ सकता है। हमें बड़ी हैरानी होगी। एक वैज्ञानिक है, वह एक जहर को अपनी जीभ पर रख सकता है इस बात का पता लगाने के लिए कि आदमी इससे मर जाता है? मरेगा, लेकिन ब्राह्मण है वह, ज्ञान की उसकी खोज है। वह अपनी आत्मा को पा लेगा, जहर को जीभ पर रख कर जान लेगा कि हां, इससे आदमी मर जाता है। इसको शायद कहने को भी न बचे वह, या हो सकता है कह पाए किसी तरह। या कुछ जहर तो ऐसे हैं, जिनको वह कह न पाएगा, लेकिन उसका मर जाना ही कह देगा। इससे भी वह तृप्त होगा। इससे भी वह अपनी आत्मा को पा लेगा। हमें बड़ी हैरानी होगी कि पागल है यह आदमी! हजार सुख थे इस दुनिया में, उन्हें छोड़कर जहर की जांच करने गया! कोई और रास्ता न था? कुछ और जांच नहीं कर सकता था? जांच ही कर लेनी थी तो कुछ और कर लेता! इसे क्या हो गया? इसके चित्त की जो धारा है, वह जानने की है। इसे सेवा से कोई रस न मिलेगा। इसे कोई कितना ही कहे कि पैर दबाने से किसी के मुझे बहुत रस आता है, यह कहता है कि अगर तुम्हें आता हो, तुम मेरे पैर दबा दो। बाकी मैं तो नहीं दबाता। मुझे कुछ नहीं आता। इसकी समझ के बाहर पड़ेगा।

कोई है जो किसी युद्ध के क्षण में–वह युद्ध चाहे किसी भांति का हो–उस युद्ध के क्षण में ही वह अपनी पूरी चमक को पा लेता है। उसकी पूरी चमक युद्ध के क्षण में ही निखरती है। वह एक क्षण को उस जगह पहुंच जाए जहां सब दांव पर लग जाता है! वह जुआरी है, वह बिना दांव पर लगाए नहीं जी सकता। छोटे-मोटे दांव से उसका काम नहीं होगा कि वह रुपये दांव पर लगा दे। इससे उसे कोई तृप्ति न मिलेगी। वह जब तक अपने पूरे जीवन को दांव पर न लगा दे, जहां कि पल-पल तय करना मुश्किल हो जाए कि जिंदगी कि मौत, उस क्षण में ही उसके भीतर जो छिपा है वह प्रगट होगा और फूल बन जाएगा। वह क्षत्रिय है।

कोई है–कोई राकफेलर, कोई मार्गन–और बड़े मजे की बात है कि मार्गन से किसी दिन मजाक में एक सेक्रेटरी ने कहा कि जब मैं आपको नहीं जानता था, तब तो मैं सोचता , सपने देखता था कि कभी मैं भी मार्गन हो जाऊं, लेकिन जब आपके निकट आया और निजी सेक्रेटरी की तरह रहा, तो अब मैं आपसे कहना चाहता हूं कि अगर भगवान मुझे फिर से मौका दे, तो मैं मार्गन तो कभी न होना चाहूंगा। मार्गन से तो मार्गन का सेक्रेटरी ही बेहतर है, सेक्रेटरी ने कहा। मार्गन ने कहा, तुम्हें मुझमें ऐसी क्या तकलीफ दिखाई पड़ती है? तो उस सेक्रेटरी ने कहा, मैं बड़ा हैरान हूं, आपके दफ्तर के चपरासी साढ? नौ बजे दफ्तर पहुंचते हैं; दस बजे क्लर्क पहुंचते हैं, साढ़े दस बजे सेक्रेटरीज पहुंचते हैं, बारह बजे डाइरेक्टर्स पहुंचते हैं; तीन बजे डाइरेक्टर्स चले जाते हैं, चार बजे सेक्रेटरीज चले जाते हैं, पांच बजे क्लर्क चले जाते हैं, साढ़े पांच बजे चपरासी चले जाते हैं, आप दफ्तर सुबह सात बजे पहुंच जाते हैं और शाम को सात बजे जाते हैं! तो मैं तो आपका चपरासी भी होऊं तो भी ठीक है। आप यह क्या कर रहे हैं?

मार्गन को वह आदमी न समझ सकेगा। मार्गन के पास वैश्य का चित्त है। वह तृप्त हो रहा है, वह अपनी आत्मा को खोज रहा है। वह हंसता है, वह कहता है, चपरासी होकर साढ़े नौ बजे आने में कहां वह आनंद है, जो मालिक होकर सुबह सात बजे आने में है। माना कि डाइरेक्टर तीन बजे चले जाते हैं, लेकिन डाइरेक्टर ही हैं बेचारे, चले ही जाएंगे। मैं मालिक हूं। अब यह व्यक्ति किसी गहरी मालकियत में ही तृप्त हो सकता है।

इस मुल्क ने हजारों-लाखों व्यक्तियों का हजारों साल के अध्ययन के बाद यह तय किया था कि आदमी चार मोटे विभाजन में बांटे जा सकते हैं। इस विभाजन में कोई नीचे-ऊपर न था, कोई “हायरेरिकी’ न थी। लेकिन बहुत जल्दी, जो नहीं जानते थे उन्होंने “हायरेरिकी’ तय कर दी कि कौन नीचे, कौन ऊपर। उससे कष्ट खड़ा हो गया। वर्ण की तो अपनी वैज्ञानिकता है, लेकिन वर्ण-व्यवस्था का अपना दंश है। वर्ण को व्यवस्था बनाने की जरूरत नहीं है। वह एक “इनसाइट’ है, एक अंतर्दृष्टि है मनुष्य के व्यक्तित्वों में। और व्यक्तित्व ऐसे हैं।

तो कृष्ण अर्जुन से यह कह रहे हैं कि तू ठीक से पहचान ले तू है कौन! और तू जो है, उसी में मर। और तू जो नहीं है, उसमें जीने का पागलपन मत कर। और इस स्व के होने में वर्ण ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि वर्ण बहुत मोटे विभाजन हैं। दो व्यक्ति भी एक-जैसे नहीं हैं, एक-एक व्यक्ति अपने ही जैसा है, “युनीक’ है, बेजोड़ है। असल में परमात्मा कोई “मेकेनिक’, कोई यंत्रविद नहीं है, एक “क्रिएटर’ है, एक स्रष्टा है। अगर रवींद्रनाथ से कोई कहे कि एक कविता जो आपने लिखी थी वैसी ही दूसरी लिख दो, तो रवींद्रनाथ कहेंगे, तुमने क्या मुझे चुका हुआ समझा है? खत्म हुआ समझा है? क्या मैं मर गया? जो कविता मैंने एक दफा लिख दी, लिख दी, बात खत्म हो गई। अब दुबारा मैं वही लिखूं तो मतलब हुआ कि मेरा कवि मर चुका। अब मैं दूसरी कविता लिख सकता हूं। कोई चित्रकार दुबारा वही चित्र नहीं बना सकता है।

एक दफे बहुत मजे की घटना घटी। पिकासो का एक चित्र तीन या चार लाख रुपये में बिका। जिसने खरीदा था वह पिकासो के पास दिखाने लाया और उसने कहा, यह “ऑथेंटिक’ तो है न, प्रामाणिक तो है न? आपका ही है न बनाया हुआ? कोई नकल तो नहीं है? पिकासो ने कहा, “ऑथेंटिक’ नहीं है, नकल है। तूने मुफ्त पैसा खराब किया। उस आदमी ने कहा, क्या कह रहे हैं आप? लेकिन आपकी पत्नी ने गवाही दी है कि आपने ही बनाया है। पिकासो की पत्नी आ गई और उसने कहा, यह बात तो आप गलत कह रहे हैं। यह चित्र तो आपका बनाया हुआ है, मैंने आपको बनाते देखा है, ये दस्तखत आपके हैं, यह नकल नहीं है। पिकासो ने कहा, यह मैंने कब कहा कि मैंने नहीं बनाया, यह मैंने नहीं कहा। इसका पिकासो से क्या लेना-देना है! इसको कोई दूसरा चित्रकार भी उतार सकता था। इसको बनाते वक्त मैं “क्रिएटर’ नहीं था। इसको बनाते वक्त मैं सिर्फ “इमीटेटर’ था। बस “इमीटेट’ कर दिया हूं। तो मैं यह नहीं कह सकता कि यह प्रामाणिक है। पिकासो का बनाया हुआ मैं नहीं कह सकता। पिकासो का उतारा हुआ! किसी पिछले पिकासो की नकल है यह। वह जो पहला चित्र था, “ऑथेंटिक’ था, वह मैंने बनाया था, वह मैंने उतारा नहीं था।

परमात्मा सृजन कर रहा है। वह एक-सा दूसरा पत्ता नहीं बनाता, एक-सा दूसरा फूल नहीं बनाता; एक-सा दूसरा कंकड़ नहीं बनाता, एक-सा दूसरा आदमी नहीं बनाता। और चुक नहीं गया है। जिस दिन चुक जाएगा उस दिन वह “रिपीट’ करना शुरू कर देगा। वह “नान-ऑथेंटिक’ आदमी बनाने लगेगा। अभी वह महावीर एक दफे बनाता है, कृष्ण एक दफे बनाता है, बुद्ध एक दफा, आपको भी एक ही दफा बनाता है। आपको भी दुबारा नहीं दोहराया था। यह बड़ी गरिमा की बात है, बड़े गौरव की। आप एक दफे ही बनाए गए हैं–न पहले, न पीछे, न आगे। अब आप नहीं दोहराए जाएंगे।

तो जो आप हैं, उसकी निजता को आप नकल में मत गंवा देना, क्योंकि परमात्मा तक ने नकल नहीं की, उसने आपको नया बनाया। और आप कहीं उसको नकली मत कर देना। इसलिए कृष्ण कहते हैं–“स्वधर्मे निधनम् श्रेयः’… अपने ही धर्म में मर जाना बेहतर है… “परधर्मो भयावहः’… दूसरे का धर्म बहुत भय का है। उससे बचना, उससे सावधान रहना। उससे भयभीत रहना। भूलकर भी दूसरे के रास्ते मत जाना, भूलकर भी दूसरा बनने की कोशिश मत करना। स्वयं बनने की चेष्टा ही धर्म है–नदी के लिए। सागर के लिए तो न कोई स्वयं है, न कोई पर है। लेकिन वह सिद्धि की बात है। वह आखिरी जगह है जहां हम पहुंचते हैं। जहां से हम चलते हैं, वह वह जगह नहीं है। जहां से हम चलते हैं वहां से हमें व्यक्ति की तरह चलना होगा। जहां हम पहुंचते हैं वहां हम अव्यक्ति हो जाते हैं। वहां न कोई स्व है, न कोई पर है। लेकिन उस जगह पहुंचेंगे आप स्व की तरह, पर की तरह वहां आप कभी न पहुंचेंगे। उसको ध्यान में रखकर वह बात कही गई है।

“भगवान श्री, मुझे लगता है, “स्वधर्मे निधनम् श्रेयः’ समझाते हुए कृष्ण ने अर्जुन को दबाया। वह अपने क्षत्रियत्व को लांघ कर शायद ब्राह्मण बनना चाहता था। जब उसे विषाद हुआ, कारुण्य हुआ, तब वह स्वधर्म में जाता था, कृष्ण ने रोककर उसको फिर क्षत्रियत्व में लाने का प्रयास किया।

और दूसरी बात यह भी है कि आपने कहा कृष्ण अर्जुन को स्वतंत्र करते हैं, दबाते नहीं। किंतु, गीता का जब प्रारंभ होता है तब अर्जुन शिष्य बनकर कृष्ण को कहता है–“शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’। बाद में गीता की सारी धारा गुजरती है और उसकी पूर्णाहुति पर अर्जुन का ऐसा वचन मिलता है–“करिष्ये वचनं तव’। क्या इससे यह भनक नहीं आती कि कृष्ण ने अर्जुन पर “गुरुडम’ स्थापित की, जिसके प्रभाव या दबाव में ही अर्जुन को कहना पड़ा–“करिष्ये वचनं तव’?’

 

समें दोत्तीन बातें समझनी चाहिए।

एक, कि अर्जुन के व्यक्तित्व को थोड़ा भी समझेंगे, तो यह नहीं कहा जा सकता कि क्षत्रिय होना उसकी निजता नहीं है। वह क्षत्रिय ही है। और जब विषाद उसे पकड़ता है, तब वह विषाद क्षण-भर को आई हुई घटना है। अर्जुन को विषाद पकड़ने का कारण भी कोई मर जाएगा, यह नहीं है, अर्जुन को विषाद पकड़ने का कारण है–अपने लोग मर जाएंगे। अगर अर्जुन के सामने युद्ध के मैदान में सगे-संबंधी न होते तो अर्जुन बिलकुल मूलियों की तरह उन्हें काट सकता था।

अर्जुन को विषाद हिंसा के कारण नहीं पकड़ रहा है, ममत्व के कारण पकड़ रहा है। अर्जुन को ऐसा नहीं लग रहा है कि मारना बुरा है यह तो फिर वह “रेशनलाइजेशंस’ खोज रहा है। असली बुनियादी विषाद तो यह है कि अपने ही प्रियजन हैं। कोई सगे बंधु हैं, कोई रिश्तेदार हैं। गुरु सामने खड़े हैं, जिनसे सब सीखा, वह द्रोण हैं। पितामह भीष्म हैं। कौरव भी सब भाई हैं, जिनके साथ बचपन में खेले और बड़े हुए। जिनको कभी सोचा नहीं कि मारना पड़ेगा। विषाद का कारण अगर हिंसा होती, अर्जुन अगर यह कहता कि मारना बुरा है, मुझे विषाद पकड़ता है मारने से–तो मारता तो वह बहुत पहले से रहा था, यह कोई मारने से कोई भय उसे न लगता था। भय लग रहा है अपनों को मारने में। एक ममत्व उसे पकड़ रहा है। इसलिए ब्राह्मण होने की बात नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण होने का मतलब ही है कि ममत्व छूटे।

सच तो यह है कि कृष्ण जो कह रहे हैं वह ममत्व छोड़ने को कह रहे हैं। अगर अर्जुन यह कहता कि मारना ही मेरे मन में नहीं उठता, तो कृष्ण ने ये बातें न कही होतीं जो कही हैं। कृष्ण महावीर को नहीं समझा सकते थे। ऐसे महावीर भी क्षत्रिय के घर में जन्मे थे। व्यवस्था से क्षत्रिय थे। जैनियों के चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय हैं। उनमें से कोई एक भी दूसरे वर्ण में नहीं जन्मा है। बुद्ध भी क्षत्रिय हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि दुनिया में अहिंसा का विचार क्षत्रियों से पैदा हुआ। कारण है उसका। जहां हिंसा सघन थी, वहीं अहिंसा का खयाल भी पैदा हो सकता था। जहां चौबीस घंटे हिंसा-ही-हिंसा थी, वहीं अहिंसा का खयाल भी पैदा हो सकता था। इसलिए क्षत्रियों से अहिंसा का खयाल जन्मा। महावीर को कृष्ण न समझा सकते थे। क्योंकि महावीर यह नहीं कह रहे थे कि ये मेरे हैं। वे यह नहीं कह रहे थे। उनका विषाद यह नहीं था कि मेरों को कैसे मारूं, मेरों को तो वह बिलकुल बिना विषाद के छोड़कर चले आए थे। मेरों को तो कोई सवाल न था। नहीं, उनका प्रश्न ही और था। वह प्रश्न यह था कि मारना ही क्यों? मारने का प्रयोजन ही क्या? मारने का अर्थ ही क्या? मारने में धर्म ही नहीं है, यह उनका सवाल होता। और अगर कृष्ण उनसे कहते कि “स्वधर्मे निधनम् श्रेयः’, तो वह कहते, मेरा स्वधर्म यह है कि मैं न मारूं और मर जाऊं। वह कृष्ण से कहते कि तुम अपनी बात मुझे मत कहो। वह पर-धर्म हो जाएगा।

अगर ठीक यही गीता महावीर से कही होती, तो महावीर रथ से उतरते, नमस्कार करते और जंगल चले जाते। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। अर्जुन को ये बातें जंच गईं। जंच गईं, उसका कारण यह नहीं है कि कृष्ण जंचा सके। जंच गईं इसलिए कि था तो वह क्षत्रिय, “टेंप्रेरी फेज़’ आ गई थी उसमें इन बातों की, कि ये मर जाएंगे, ये मेरे हैं, ये फलां हैं, ढिकां हैं। ये सारी-की-सारी बातें “टेंप्रेरी’ थीं, इसलिए कि कृष्ण हटा सके। यह आकाश न था उसके मन का, आ गई बादल थे, जो हटाए जा सकते थे। अगर यह उसके मन का आकाश होता तो कृष्ण के हटाने का सवाल न उठता, और न हटाने की वे कोशिश करते। न हटाने के लिए वह समझाते। हटाने की बात ही नहीं उठती थी। गीता घटती ही नहीं, अगर यह कृष्ण के खयाल में होता कि यह आकाश है इसके मन का। लेकिन आकाश अचानक नहीं आता। उसकी पूरी जिंदगी अर्जुन की कहती है कि उसका आकाश तो क्षत्रिय का है। उसका पूरा जीवन कहता है। उसका आकाश नहीं है।

इसलिए कृष्ण जिसे हटाते हैं, वह “टेंप्रेरी फेज’ है। और मैं मानता हूं कि अगर वह स्वधर्म होता, तो अर्जुन को हटाने की जरूरत क्या है? कृष्ण यही तो कह रहे हैं कि अपने स्वधर्म में मर जाना बेहतर है। अर्जुन कहता कि मेरा स्वधर्म है कि मैं मर जाऊं, अब आप मुझे क्षमा करें, अब मैं जाता हूं। बात खतम हो गई है। क्योंकि मेरा स्वधर्म है कि मैं मर जाऊं, अब आप मुझे क्षमा करें, अब मैं जाता हूं। बात खतम हो गई है। क्योंकि कृष्ण यह कहां कह रहे हैं कि तू परायी बात मान ले, वह यही तो कह रहे हैं कि जो तेरा स्वधर्म है उसे पहचान। सारी चेष्टा, पूरी गीता में, अर्जुन का जो स्व है उसे अर्जुन पहचाने, इसके लिए है। अर्जुन के ऊपर कोई चीज थोपने की आकांक्षा नहीं है।

दूसरी बात आप कहते हैं, वह भी सोचने जैसी है।

मैंने यह कहा कि कृष्ण गुरु नहीं हैं, सखा हैं। मैंने यह नहीं कहा कि अर्जुन शिष्य नहीं हैं। यह मैंने कहा नहीं। अर्जुन शिष्य हो सकता है, वह अर्जुन की तरफ से संबंध है। वह संबंध कृष्ण की तरफ से नहीं है। और अर्जुन शिष्य है। वह सीखना चाहता है। सीखना चाहता है, इसलिए पूछता है। प्रश्न शिष्य करते हैं, सीखना चाहते हैं इसलिए पूछते हैं। अर्जुन पूछता है, पूछने का अपना अनुशासन है। पूछना हो तो नीचे बैठना पड़ता है। वह पूछने का हिस्सा है। पूछना हो तो हाथ फैलाने पड़ते हैं। पूछना हो तो समझने की उत्सुकता दिखानी पड़ती है। पूछना हो तो विनम्रता से समझना पड़ता है। इसमें कृष्ण नहीं कह रहे हैं उसको कि वह विनम्र हो, इसमें वह यह नहीं कह रहे कि वह नीचे बैठे। वह गुरु नहीं हैं, उनकी तरफ से वह मित्र हैं। मित्र हैं इसलिए समझा रहे हैं। उनकी तरफ से मित्रता की ही बात है। इसलिए इतना ज्यादा समझा पाए। अगर गुरु होते तो बहुत जल्दी नाराज हो गए होते। कहते कि बस, अब बहुत हुआ। जो मैं कहता हूं, मान! संदेह करना ठीक नहीं, शक करना उचित नहीं, गुरु पर श्रद्धा रख! जब मैं कहता हूं लड़, तो लड़! समझाने की क्या जरूरत है! नहीं, इतनी लंबी गीता कृष्ण की तरफ से इस बात की सूचना है कि समझाने के लिए वह निरंतर तत्पर है। इसमें कहीं भी वे जल्दबाजी में नहीं हैं। अर्जुन बार-बार वही सवाल उठाता है। सवाल नए नहीं हैं। गीता में सब सवाल घूम-फिर कर फिर वहीं हैं। लेकिन कृष्ण उससे एक बार भी नहीं कहते कि तू फिर वही पूछ लेता है। तू फिर वही पूछ लेता है! (अब क्रियानंद पूछ रहे हैं, वह बार-बार वही पूछ रहे हैं…श्रोताओं का हास्य…लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।)

गुरु होगा तो नाराज होगा, कहेगा कि बस, तुम यह पूछे चुके, हम कह चुके, अब समझो और मानो। नहीं, यह कोई सवाल नहीं है। आप बार-बार पूछते हो, उसका मतलब यह है कि नहीं समझ में आया, फिर समझाने की कोशिश जारी रहेगी। तो इतनी लंबी गीता संभव हो पाई। यह गीता कृष्ण का दान नहीं है, अर्जुन की कृपा है। अर्जुन पूछे चला जा रहा है। अर्जुन पूछे चला जा रहा है। इसलिए कृष्ण को कहते जाना पड़ता है। और बाद में, जो हमें ऐसा लगता है कि कृष्ण ने करवा लिया–जो हमें ऐसा लगता है कि कृष्ण ने करवा लिया, अर्जुन तो भाग रहा था, इतना समझाकर कृष्ण ने युद्ध में अर्जुन को डाल दिया, यह हमें लग सकता है। यह हमें इसलिए लग सकता है कि अर्जुन भाग रहा था, फिर भागा नहीं। युद्ध किया। लेकिन कृष्ण पूरे समय अर्जुन को मुक्त ही कर रहे हैं, और वह जो हो सकता है, जो होने की उसकी क्षमता है, उसे प्रगट कर रहे हैं। उसे जाहिर कर रहे हैं। और अगर पूरी गीता सुनकर भी अर्जुन कहता है कि सुना सब, लेकिन मैं जाता हूं, तो कृष्ण उसे हाथ पकड़कर रोकनेवाले नहीं थे। कोई रोकने वाला नहीं था।

बड़े मजे की बात है कि कृष्ण ने युद्ध में भाग न लेने का निर्णय लिया था। खुद वह युद्ध में लड़ने वाले नहीं थे। युद्ध में लड़ने वाला अर्जुन को समझा रहा है कि युद्ध में लड़। खुद वह युद्ध के बाहर खड़े हैं। युद्ध में लड़ने वाला नहीं है। जरूर बड़ी महत्व की बात है। अर्जुन को भी अगर यह खयाल आ जाए कि कृष्ण अपने को मेरे ऊपर थोप रहे हैं…तो उचित तो यही होता कि कृष्ण समझाते कि भाग जा, क्योंकि मैं खुद ही लड़ नहीं रहा हूं। कृष्ण का एक नाम आपको पता है? वह है, रणछोड़दास–युद्ध से जो भाग खड़े हुए! यह रणछोड़दास समझा रहे हैं कि लड़। अगर अपने को ही थोपना हो कृष्ण को, तो कहना चाहिए बिलकुल ठीक, तू मेरा शिष्य हुआ, चलो हम दोनों भाग जाएं। नहीं, अपने को थोपने की बात जरा-भी नहीं दिखाई पड़ती है। क्योंकि कृष्ण सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि ऐसा मैं समझता हूं कि तू क्षत्रिय है। ऐसा मैं तुझे जानता हूं बहुत निकट से कि तू क्षत्रिय है। जितने निकट से तू भी अपने को नहीं जानता उतने निकट से मैं तुझे पहचानता हूं कि तू क्षत्रिय है। तुझे इतना खयाल दिला रहा हूं। यह पूरी गीता में इतना ही खयाल दिलाने की बात है कि तू कौन है। और फिर जब तुझे खयाल आ जाए, तुझे जो भला लगे तू कर। होता है वही जो कृष्ण समझा रहे हैं, इसलिए हमें यह खयाल आ सकता है कि उन्होंने वही करवा लिया जो वे चाहते थे।

लेकिन कृष्ण कुछ भी नहीं चाह रहे हैं। इस अचाह के कई अदभुत कारण हैं। कृष्ण खुद अकेले लड़ रहे हैं अर्जुन की तरफ से, उनकी सारी फौजें लड़ रही हैं दूसरी तरफ से। लड़ने वालों के ये ढंग नहीं हैं। कि खुद की फौजें दुश्मन की तरफ से लड़ें। कृष्ण लड़ रहे हैं पांडवों की तरफ से और कृष्ण की सारी फौजें–अकेले कृष्ण को छोड़कर–लड़ रही हैं कौरवों की तरफ से। लड़ने वालों के ये ढंग कभी सुने नहीं गए! अगर ये ढंग हैं लड़ने वालों के तो सब लड़ने वाले गलत हैं, यही आदमी लड़ने वाला ठीक है। हिटलर राजी हो सकता है कि फौजें लड़ें दुश्मन की तरफ से? राजी नहीं हो सकता। फौजें होती इसलिए हैं कि अपनी तरफ से लड़ें। लड़ने वाले का चित्त लड़ने का पूरा इंतजाम करता है। यह बड़ी अजीब लड़ाई चल रही है। इसमें एक आदमी है जो लड़ रहा है इस तरफ से, उसकी सारी फौजें लड़ रही हैं दुश्मन की तरफ से। यह आदमी कोई लड़ने में बहुत रसवाला नहीं है। लड़ने से इसे बहुत प्रयोजन नहीं है। लेकिन स्थिति लड़ने की है। और इसलिए अपने को भी दो हिस्सों में बांटा है उसने, कि बाद में आप उसको दोषारोपित न कर सकें, दोषारोपण न कर सकें।

कृष्ण की स्थिति बहुत ही अदभुत है। उनके सारे व्यक्तित्व की बनावट बहुत अदभुत है। और यह लड़ाई भी बड़े मजे की है! सांझ हो जाती है, युद्ध बंद हो जाता है, और सब एक-दूसरे के खेमों में गपशप करने चले जाते हैं। और एक-दूसरे से जाकर पूछने लगते हैं, आज कौन मर गया और कौन क्या हो गया? संवेदना भी प्रगट करने जाते हैं। सांझ को गपशप जमती है। बड़ी अजीब लड़ाई है! यह लड़ाई ऐसी नहीं लगती है कि दुश्मनों की है। दुश्मनी जैसे नाटक है, जैसे खेल है, जैसे अपरिहार्यता है। एक “इनइवीटेबिलिटी’ है जो ऊपर आ गिर पड़ी है लेकिन कोई दुश्मनी नहीं मालूम पड़ती है। सांझ हो जाती है, बिगुल बज जाते हैं, युद्ध बंद हो गया है, और पता लगाना मुश्किल है कि कौन कहां है। सब एक-दूसरे के खेमों में चले गए हैं। और एक-दूसरे के खेमों में चर्चा चल रही है। दुख-संवेदना भी है कि कौन मर गया। अकेले कृष्ण का ही मामला ऐसा नहीं है, बहुत-से मामले ऐसे हैं कि कोई उस तरफ से लड़ रहा है, उसका कोई साथी इस तरफ से लड़ रहा है। और कैसे मजे की बात है कि युद्ध समाप्त हो जाता है और कृष्ण ही सलाह देते हैं पांडवों को कि वे भीष्म से जाकर शांति का पाठ ले लें। भीष्म से! जो उस तरफ से युद्ध का अग्रणी है। उस तरफ से युद्ध का सेनापति है। युद्ध का जो सेनापति है दुश्मन की तरफ से, उससे शांति का पाठ लेने के लिए है, शिष्य की तरह बैठ जाते हैं लोग जाकर। भीष्म का जो संदेश है वह “शांति पर्व’ है। बहुत अजीब बात है! बड़ी “मिरेकुलस’ है। दुश्मन से कभी कोई शांति का पाठ लेने गया है! दुश्मन से अशांति के पाठ लिए जाते हैं। और उसके पास जाने की जरूरत नहीं होती।

मरते हुए भीष्म से शांति का पाठ लिया जा रहा है! धर्म का राज समझा जा रहा है! युद्ध साधारण युद्ध नहीं है। युद्ध बहुत असाधारण है। और इस युद्ध के मैदान पर खड़े हो गए योद्धा साधारण लड़ाई में गए हुए सैनिक नहीं हैं। इसलिए इसे गीता धर्मयुद्ध कह पाती है। इस युद्ध को धर्मयुद्ध कहने का कारण है।

कृष्ण समझा-बुझाकर युद्ध नहीं करवा लेते हैं। कृष्ण समझा-बुझाकर अर्जुन के क्षत्रिय होने को प्रगट कर देते हैं। एक मूर्तिकार का मुझे स्मरण आता है। एक मूर्तिकार एक पत्थर में मूर्ति खोद रहा है। कोई आदमी देखने आया है उसके मूर्ति बनाने को। पत्थर छिदते जाते हैं, छेनी पत्थर काटती चली जाती है। फिर मूर्ति उघड़ने लगती है। फिर पूरी मूर्ति उघड़ जाती है। और फिर वह जो देखने आया है, वह कहता है, तुम अदभुत कारीगर हो। तुमने जैसी मूर्ति को बनाई ऐसी मैंने किसी को बनाते नहीं देखा। वह कहता है, माफ करना, तुम कुछ गलत समझे। मैं मूर्ति को बनाने वाला नहीं हूं, सिर्फ उघाड़ने वाला हूं। इधर से निकलता था, इस पत्थर में मुझे मूर्ति दिखाई पड़ी, तो जो गैरजरूरी पत्थर थे वे भर मैंने अलग किए हैं। इधर से गुजरता था, मूर्ति मुझे दिखाई पड़ी इस पत्थर में कि अरे, इस पत्थर में एक मूर्ति छिपी है। मैंने सिर्फ गैरजरूरी पत्थर अलग कर दिए हैं और मूर्ति जो छिपी थी वह प्रगट हो गई है। मैं बनाने वाला नहीं हूं, सिर्फ उघाड़ने वाला हूं।

अर्जुन को कृष्ण सिर्फ उघाड़ते हैं, बनाते नहीं। वह जो था वह उघाड़ देते हैं। उनकी छेनी सिर्फ गैरजरूरी पत्थर अलग कर देती है। बाद में जो अर्जुन होता है, वह अर्जुन का होना है, उसकी निजता है। ऐसा वह आदमी था। पर हमें तो लगेगा कि मूर्ति बनाई है। यह आदमी क्या कह रहा है कि बनाई नहीं है? हमने बनाते देखी है। हमने छेनी से पत्थर काटते देखा है। लेकिन यह एक मूर्तिकार का कहना नहीं है, बहुत मूर्तिकारों का कहना है कि उन्हें मूर्तियां पत्थरों में पहले दिखाई पड़ती हैं, फिर वे उन्हें उघाड़ते हैं; पत्थर बोलते हैं मूर्तिकार से कि आओ इधर, इधर कुछ छिपा है, इसे उघाड़ दो। सभी पत्थर काम नहीं आते, सभी पत्थर बेमानी हैं। किसी पत्थर में जहां छिपा होता है, उस निजता को उघाड़ा है। इसलिए पूरी गीता एक उघाड़ने की प्रक्रिया है। उसमें अर्जुन जैसा हो सकता था, वैसा प्रगट हुआ है।

(हां, क्रियानंद पूछो!…अब सब पूछने लगोगे तो मुश्किल हो जाएगी…हां, बोलो…हां, एक मिनिट…)

“आप एक शब्द बहुत इस्तेमाल करते हैं, और वह शब्द है–“अदभुत’। वही शब्द मैं आप पर निरूपित करता हूं, और मैं आपसे यह पूछता हूं–क्या आप अदभुत नहीं हैं!…और अक्सर मुझे लगता है कि मैं भी अदभुत हूं।’

 

(हन आत्मीय हास्य…)। इसे बाद में लेंगे।

“आपने कहा कि कृष्ण अर्जुन के गुरु नहीं मित्र हैं, और इसलिए वे अर्जुन की लंबी शंकाओं का धैर्यपूर्वक स्वागत करते हैं। लेकिन, गीता में ही वे अन्यत्र अर्जुन को कहते हैं–“संशयात्मा विनश्यति’। ऐसा वे अर्जुन के मन में बार-बार उठते संशय को देखकर ही कहते थे। लेकिन संशयात्मा अर्जुन नष्ट नहीं हुआ, उलटे कौरव नष्ट हो गए। कृपया इसे समझाएं।’

 

संशयात्मा विनष्ट हो जाते हैं, यह बड़ा सत्य है। लेकिन संशय के अर्थ समझने में भूल हो जाती है। संशय का अर्थ संदेह नहीं है। संशय का अर्थ “डाउट’ नहीं है। संशय का अर्थ “इनडिसीसिवनेस’ है। संशय का अर्थ है, अनिर्णय की स्थिति।

संदेह तो बड़े निर्णय की स्थिति है, संदेह अनिर्णय नहीं है। संदेह भी निर्णय है, श्रद्धा भी निर्णय है। संदेह नकारात्मक निर्णय है, श्रद्धा विधायक निर्णय है। एक आदमी कहता है, ईश्वर है, ऐसी मेरी श्रद्धा है। यह एक निर्णय है, एक “डिसीजन’ है। एक आदमी कहता है, ईश्वर नहीं है, ऐसा मेरा संदेह है। यह भी एक निर्णय है। यह “निगेटिव डिसीजन’ है। एक आदमी कहता है कि पता नहीं ईश्वर है, पता नहीं ईश्वर नहीं है। यह “इनडिसीसिवनेस’ है। यह संशय है। संशय विनाश कर देता है, क्योंकि वह अनिर्णय में छोड़ देता है।

अर्जुन को जब कृष्ण कहते हैं कि तू संशय में मत पड़, निर्णायक हो, निश्चयात्मक हो, “डिसीसिव’ हो; निश्चयात्मक बुद्धि को उपलब्ध हो, तू निश्चय कर कि तू कौन है, तू संशय में मत पड़ कि मैं क्षत्रिय हूं कि मैं ब्राह्मण हूं कि संन्यास लेने को हूं, तू निर्णय कर; तू स्पष्ट निर्णय को उपलब्ध हो अन्यथा तू विनष्ट हो जाएगा। “इनडिसीजन’ विनाश कर देगा, तू भटक जाएगा, तू खंड-खंड हो जाएगा। तू अपने ही भीतर विभाजित हो जाएगा और लड़ जाएगा और टूटकर नष्ट हो जाएगा। “डिसइंटिग्रेटेड’ हो जाएगा।

संशय को अक्सर ही संदेह समझा गया है और वहां भूल हो गई है। मैं संदेह का पक्षपाती हूं और संशय का पक्षपाती मैं भी नहीं हूं। मैं भी कहता हूं, संदेह बहुत उचित है और संदेह के लिए कृष्ण जरा-भी इनकार नहीं करते। संदेह के लिए तो वह बिलकुल राजी हैं कि तू पूछ! पूछ का मतलब ही संदेह है। तू और पूछ। पूछने का मतलब ही संदेह है। लेकिन वह यह कहते हैं कि तू भीतर संशय से मत भर जाना। “कन्फ्यूज्ड’ मत हो जाना। संभ्रम से मत भर जाना। ऐसा न हो कि तू तय करने में असमर्थ हो जाए कि क्या करणीय है, क्या न-करणीय है; क्या करूं, क्या न करूं! “ईदर-ऑर’ में मत पड़ जाना। या यह या वह, ऐसे मत पड़ जाना।

एक विचारक हुआ है, सोरेन कीर्कगार्द। उसने एक किताब लिखी–“ईदर ऑर’। किताब का नाम है–“यह या वह?’ किताब ही लिखी होती, ऐसा नहीं था, उसका व्यक्तित्व भी ऐसा ही था–यह या वह? उसके गांव में, कोपनहेगन में उसका नाम ही लोग भूल गए और “ईदर-ऑर’ उसका नाम हो गया। और जब वह गलियों से निकलता, तो लोग चिल्लाते, “ईदर ऑर’ जा रहा है। क्योंकि वह चौरस्तों पर भी खड़ा होकर सोचता है कि इस रास्ते जाऊं कि उस रास्ते से! ताले में चाबी डालकर सोचता है–इस तरफ घुमाऊं कि उस तरफ! एक स्त्री को प्रेम करता था, रोजीना को। फिर उस स्त्री ने विवाह का निवेदन किया तो जीवन-भर निर्णय न कर पाया–करूं, कि न करूं! यह “डाउट’ नहीं है, यह “इनडिसीसिवनेस’ है।

तो कृष्ण जो अर्जुन से कहते हैं, वह कहते हैं तू संशय में पड़ेगा तो नष्ट हो जाएगा। संशय में जो भी पड़े वे नष्ट हो गए, क्योंकि संशय खंडित कर देगा। तू ही विरोधी हिस्सों में बंट जाएगा। खंड-खंड होकर टूटेगा, तुझे अखंड होना चाहिए। और निर्णय से आदमी अखंड हो जाता है। अगर आपने जिंदगी में कभी भी कोई “डिसीजन’ लिया है, कभी भी कोई निर्णय किया है, तो उस निर्णय में आप कम-से-कम क्षण-भर को तो तत्काल अखंड हो जाते हैं। जितना बड़ा निर्णय, उतनी बड़ी अखंडता आती है। अगर कोई समग्ररूपेण एक निर्णय कर ले जीवन में तो उसके भीतर “विल’, संकल्प पैदा हो जाता है। वह एक हो जाता है, एकजुट, योग को उपलब्ध हो जाता है।

तो कृष्ण की पूरी चेष्टा संशय मिटाने की–संदेह मिटाने की नहीं, क्योंकि संदेह तो तू पूरा कर, संशय को मिटा। और, मैं संदेह का पक्षपाती हूं। मैं कहता हूं, संदेह जरूर करें। संदेह करने का मतलब है, उस समय तक संदेह की छेनी का उपयोग करें, जब तक श्रद्धा की मूर्ति निखर न आए। तो तोड़ते जाएं, तोड़ते जाएं, आखिर तक लड़ें, संदेह करें, किसी को मान न लें। तोड़ते जाएं, लड़ते जाएं, तोड़ते जाएं, एक दिन वह घड़ी आ जाएगी कि मूर्ति निखर आएगी; तोड़ने को कुछ बचेगा नहीं। अब तोड़ना अपने को ही तोड़ना होगा। अब कुछ तोड़ने को न बचा। मूर्ति पूरी प्रगट हो गई है, अब व्यर्थ पत्थर अलग हो गए हैं, अब श्रद्धा उत्पन्न होगी।

संदेह की अंतिम उपलब्धि श्रद्धा है और संशय की अंतिम उपलब्धि विक्षिप्तता है। पागल हो जाएगा आदमी, कहीं का न रह जाएगा, सब खो जाएगा। उस अर्थ में समझेंगे तो खयाल में बात आ सकती है।

(…ऐसा एक-दो दिन रख लेंगे जब सब पूछ सकेंगे)।

 


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–84

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किसी वास्‍तविक प्रचंड स्‍त्री को खोज लो—(प्रवचन—चौथा)

प्रश्‍न—सार:

1—मैं बूढ़ा होने से सदा भयभीत क्‍या रहता हूं?

 2—क मेरी तीन समस्याएं हैं : कामुक अनुभव करना, दसरे की खोज और मन में बना रहना कृपया मुझे मार्ग दिखाएं?

 3—जीवन—साथी का होना या न होना किस प्रकार से व्‍यक्‍ति की अंतर—उम्मुखता और आध्यात्मिक विकास को प्रभावित करता है?

 4—अवरोध हैं मेरे भीतर उन्हें किस भांति हटाया जाए?

 

प्रश्न:

 

मैं बूढ़ा होने से सदा भयभीत क्‍यों रहता हूं? मुझे इससे छुटकारा पाने का मार्ग दिखाएं?

 

जीवन, यदि ठीक से जीया गया है, वास्तव में जीया गया है, तो कभी मृत्यु से भयभीत नहीं होता। अगर तुमने अपना जीवनजीया है, तुम मृत्यु का स्वागत करोगे। यह एक विश्राम, एक गहन निद्रा की भांति आएगी। यदि तुमने अपने जीवन के शिखर को, ऊंचाइयों को जीया है तो मृत्यु एक सुंदर विश्रांति, एक आशीष है। लेकिन अगर तुम जीए ही नहीं हो तो निःसंदेह मृत्यु भय उत्पन्न करती है। यदि तुम जी ही नहीं पाए हो तो निश्चित रूप से मृत्यु तुम्हारे हाथों से समय, जीवित रहने के सारे भविष्य के अवसरों को छीन लेगी। अतीत में तुम ठीक से जी नहीं पाए, और अब भविष्य भी नहीं रहेगा, भय उठ खड़ा होता है। भय, मृत्यु के कारण नहीं, बल्कि अनजीए जीवन के कारण उठता है।

और मृत्यु के इस भय के कारण, वृद्धावस्था भी भयप्रद होती है क्योंकि यह मृत्यु का पहला कदम है। अन्यथा वृद्धावस्था भी सुंदर है। यह तुम्हारे अस्तित्व की संपूर्णता, विकास की परिपक्यता है। यदि तुम क्षण— क्षण उन सभी चुनौतियों को जो जीवन तुम्हें देता है, जीते हो, और तुम उन सभी अवसरों का जिन्हें जीवन ने तुम्हारे लिए खोला है उपयोग कर लेते हो, और यदि तुम उस अज्ञात में, जिसमें जीवन तुम्हें पुकारता और निमंत्रित करता है, उतरने का साहस करते हो, तो वृद्धावस्था एक परिपक्वता है। वरना वृद्धावस्था एक रोग है।

दुर्भाग्य से अनेक लोग बस उम्र ही बढ़ाते हैं, वे उससे संबंधित परिपक्वता के बिना के हो जाते हैं। तब वृद्धावस्था एक बोझ होती है। तुम शरीर से उमरदार हो गए हो लेकिन तुम्हारी चेतना किशोरावस्था में रहती है। तुम शरीर से तो के हो गए लेकिन अपने आंतरिक जीवन में तुम परिपक्व नहीं हुए हो। आंतरिक प्रकाश का अभाव है, और प्रतिदिन मौत निकट आ रही है; निःसंदेह तुम कांपोगे और तुम भयभीत होगे और तुम्हारे भीतर एक महत संताप उठने लगेगा।

जिन्होंने जीवन को ढंग से जीया है, वे वृद्धावस्था को गहन स्वागत भाव से स्वीकार करते हैं, क्योंकि वृद्धावस्था मात्र इतना बताती है कि अब वे खिलने जा रहे हैं, कि वे अब फलवान होने जा रहे हैं, कि जो भी उन्होंने उपलब्ध किया है अब वे उसे बांटने में समर्थ हो जाएंगे।

साधारणत: वृद्धावस्था कुरूप होती है, क्योंकि यह बस एक रोग है। तुम्हारी दैहिक संरचना विकसित नहीं हुई है, वरन और—और रुग्ण, कमजोर और अशक्त हो गई होती है। वरना तो वृद्धावस्था जीवन का सर्वाधिक सुंदर समय है। बचपन की सारी मूर्खता जा चुकी है, यौवन की सारी वासना और उत्ताप जा चुका है.. .एक शांति उदित होती है, मौन, ध्यान, समाधि।

वृद्धावस्था आत्यंतिक रूप से सुंदर है, और इसे ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि सारा जीवन इसी ओर बढ़ता है। इसको तो शिखर होना चाहिए। शिखर आरंभ में ही कैसे हो सकता है? शिखर मध्य में कैसे हो सकता है? किंतु अगर तुम यह सोचते हो कि तुम्हारा बचपन शिखर था, जैसा कि बहुत लोग सोचते हैं, तो निःसंदेह तुम्हारा सारा जीवन एक संताप हो जाएगा, क्योंकि अपना शिखर तो तुम पा चुके हो—अब तो सब कुछ एक पतन, अधोगमन है। अगर तुम सोचते हो कि युवावस्था शिखर है, जैसा बहुत से लोग सोचते हैं, तो निःसंदेह पैंतीस वर्ष के बाद तुम दुखी, उदास हो जाओगे, क्योंकि प्रतिदिन तुम खोओगे, खो रहे होओगे, खोते जाओगे, और पा कुछ भी नहीं रहे होओगे। ऊर्जा खो जाएगी, तुम कमजोर हो जाओगे, तुम्हारे भीतर बीमारियां घुस आएंगी और मृत्यु द्वार पर दस्तक देने लगेगी। घर खो जाएगा और अस्पताल दिखने लगेगा। तुम प्रसन्न कैसे हो सकते हो? नहीं, लेकिन पूरब में हमने कभी नहीं माना कि बचपन या जवानी शिखर है। शिखर तो ठीक अंत के लिए प्रतीक्षा करता है।

और यह अगर उचित ढंग से हो तो धीरे— धीरे तुम उच्चतर से उच्चतर शिखरों तक पहुंचते हो। मृत्यु वह उच्चतम शिखर, चरम उत्कर्ष है, जिसे जीवन उपलब्ध करता है।

किंतु हम जीवन को क्यों चूकते जा रहे हैं? क्यों हम केवल बूढ़े हुए चले जाते हैं, परंतु परिपक्व नहीं होते। कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ी जरूर हो गई है, कहीं पर तुम्हें गलत मार्ग पर डाल दिया गया है, कहीं न कहीं तुम गलत रास्ते पर डाले जाने से राजी हो गए हो। इस समझौते को तोड़ना पड़ेगा; इस अनुबंध में आग लगानी पड़ेगी। इसी को मैं संन्यास कहता हूं एक समझ कि अब तक मैं गलत ढंग से जीया हूं—मैंने समझौते किए हैं, वास्तव में जीया नहीं हूं।

जब तुम छोटे बच्चे थे तो तुमने समझौते किए, तुमने अपने अस्तित्व को ना—कुछ के लिए बेच डाला। जो भी तुम्हें मिला वह कुछ नहीं मात्र कूड़ा—कर्कट है। छोटी—छोटी बातों के लिए तुमने अपनी आत्मा को खो दिया। तुम स्वयं के स्थान पर कुछ और होने को राजी हो गए, यहीं पर तुम अपने रास्ते से चूक गए। मां चाहती थी कि तुम कुछ बनो, पिता चाहते थे कि तुम कुछ बनो, समाज चाहता था कि तुम कुछ बनो, और तुम राजी हो गए। धीरे— धीरे तुमने स्वयं न होने का फैसला कर लिया। और तब से तुम कुछ और होने का दिखावा करते रहे हो।

तुममें परिपक्वता नहीं आ सकती, क्योंकि कोई और परिपक्व नहीं हो सकता। यह नकली है। यदि मैं एक मुखौटा लगा लूं तो मुखौटा परिपक्व नहीं हो सकता, यह मृत है। मेरा चेहरा परिपक्व हो सकता है, लेकिन मेरा मुखौटा नहीं। और. तुम्हारे मुखौटे की उम्र बढ़ती जाती है। मुखौटे के पीछे छिपे हुए तुम विकसित नहीं हो रहे हो। तुम केवल तभी विकसित हो सकते हो जब तुम स्वयं को स्वीकार कर लो कि तुम कोई अन्य नहीं, स्वयं ही होने जा रहे हो।

गुलाब की झाड़ी हाथी हो जाने के लिए राजी हो गई है; हाथी गुलाब की झाड़ी हो जाने को तैयार है। गरुड़ चिंतित है, बस मनोचिकित्सक के पास जाने ही वाला है, क्योंकि उसे कुत्ता बनने की इच्छा है; और कुत्ता अस्पताल में पड़ा है क्योंकि वह गरुड़ की भांति उड़ना चाहता है। मानव—जाति के साथ यही घट गया है। कुछ और हो जाने के लिए राजी हो जाना सबसे बड़ी आपदा है, तुम्हारा विकास कभी न हो सकेगा।

तुम कभी भी किसी और तरह विकसित नहीं हो सकते। तुम केवल तुम्हारी भांति परिपक्व हो सकते हो। ’चाहिए’ को छोड़ देना पडेगा, और तुम्हें इस बात से ज्यादा मतलब नहीं रखना है कि लोग क्या कहते हैं? उनकी राय क्या है? वे होते कौन हैं? तुम यहां पर स्वयं होने के लिए हो। तुम यहां किसी की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए नहीं हो, और हर व्यक्ति इसी कोशिश में लगा हुआ है। पिता का निधन हो चुका है और तुम उस वादे को पूरा करने के प्रयास में हो जो तुमने उनसे किया था। और वे खुद अपने पिता से किया गया वादा पूरा करने की कोशिश में संलग्न रहे, और इसी भांति चलता रहा था, यह मूढूता बिलकुल आरंभ तक जाती है।

समझने का प्रयास करो, और साहस करो—और अपना जीवन अपने स्वयं के हाथों में ले लो। अचानक तुम्हें ऊर्जा का उद्वेलन महसूस होगा। जिस क्षण तुम निर्णय लेते हो, ‘मैं अब स्वयं ही होने जा रहा हूं और कोई दूसरा नहीं। जो भी कीमत हो, लेकिन मैं स्वयं होने जा रहा हूं।’ —उसी क्षण तुम एक बड़ा परिवर्तन देखोगे, तुम जीवंत अनुभव करोगे तुम्हें अनुभव होगा कि ऊर्जा प्रवाहित हो रही है, धड़क रही है।

जब तक यह नहीं घटता तुम वृद्धावस्था से भयभीत रहोगे, क्योंकि तुम इस तथ्य को अनदेखा कैसे कर सकते कि तुम समय नष्ट कर रहे हो, और जी नहीं रहे हो और वृद्धावस्था आई जा रही है, और तब तुम जी पाने के योग्य नहीं रहोगे। इस तथ्य को देखने से तुम कैसे बच सकते हो कि मृत्यु प्रतीक्षारत है और रोज—रोज वह निकट और निकट, निकटतर आती जा रही है, और तुम तो अभी जीए ही नहीं? तुम्हें तो गहन संताप होगा ही।

इसलिए अगर तुम मुझसे पूछते हो कि क्या करूं, तो मैं तुमसे आधारभूत बात कहूंगा। और यह सदा ही आधारभूत प्रश्न रहा है। कभी भी दूसरी बातों से परेशान मत होओ, क्योंकि उनको तुम बदल सकते हो, फिर भी कुछ बदलेगा नहीं। आधारभूत को बदल दो।

उदाहरण के लिए, क्या है दूसरी बात?

‘मैं का होने से सदा भयभीत क्यों रहता हूं? मुझे इससे छुटकारा पाने का मार्ग दिखाएं।’

यह प्रश्न ही भय के कारण उठ रहा है। तुम ‘इससे छुटकारा पाना’ चाहते हो, इसे समझना नहीं चाहते हो, इसलिए निःसंदेह तुम किसी व्यक्ति या विचारधारा के चंगुल में फंसने जा रहे हो जो तुम्हारी इससे छुटकारा पाने में सहायता करे। मैं तुम्हारी इससे छुटकारा पाने में सहायता नहीं कर सकता। वस्तुत: समस्या ही वही है। मैं चाहूंगा कि तुम समझो और अपना जीवन बदलो। यहां समस्या से छुटक्टरा पाने का प्रश्न है ही नहीं, यह तो तुम्हारे मुखौटे से, तुम्हारे झूठे ओढ़े गए व्यक्तित्व—जिस ढंग से तुमने होने का प्रयास किया है और जो सच्चा रास्ता नहीं है—से छुटकारा पाने का प्रश्न है। तुम प्रामाणिक—नहीं हो। तुम अपने स्वयं के प्रति निष्ठावान नहीं हो, तुम अपने अस्तित्व को छलते रहेहो। तो अगर तुम पूछते हो— पुरोहित हैं, दर्शनशास्त्री हैं, और जननायक हैं, यदि तुम जाओ और उनसे पूछो कि इससे छुटकारा कैसे पाऊं? वे कहेंगे, ‘आत्मा कभी की नहीं होती। चिंता मत करो। बस याद कर लो कि तुम आत्मा हो। यह तो शरीर है, तुम शरीर नहीं हो।’ उन्होंने तुम्हें सांत्वना दे दी। हो सकता है कि एक क्षण के लिए तुम अच्छा अनुभव करो, लेकिन इससे तुम्हें कोई सहायता न मिलेगी, यह तुम्हें बदलने नहीं जा रहा है। कल फिर पुरोहित के प्रभाव से बाहर होते ही तुम इसी नाव में होगे।

और कमाल की बात है कि तुम कभी भी पुरोहित की ओर नहीं देखते, वह स्वयं भयभीत है। तुम दर्शनशास्त्री की ओर कभी नहीं देखते, वह खुद डरा हुआ है’।

मैंने सुना है, एक नया धर्माधिकारी अत्यधिक श्रम कर रहा था, और परीक्षणों से पता लगा कि उसके फेंफडे बुरी तरह प्रभावित हो गए हैं। चिकित्सक ने कहा कि लंबे समय तक आराम करना नितांत आवश्यक है। धर्माधिकारी ने विरोध करते हुए कहा कि उसके लिए अपना कार्य छोड़ पाना संभव नही हो सकेगा।

ठीक है, डाक्टर बोला, आपके पास चुनाव है—स्वर्ग या स्विटजरलैंड?

धर्माधिकारी थोड़ी देर कमरे में टहलता रहा और तब उसने कहा : आप जीत गए स्विटजरलैंड ही ठीक है।

जब जीवन और मृत्यु का प्रश्न हो तो, पुरोहित, दर्शनशास्त्री, वे लोग भी जिनके पास तुम पूछने जाते हो—वे भी जी नहीं पाए हैं। अधिक संभावना तो इस बात की है कि उन्होंने तो उतना भी नहीं जीया, जितना तुम जीए हो; वरना वे पुरोहित नहीं हो सकते थे। पुरोहित बनने के लिए उन्होंने अपने जीवन को पूर्णत : इनकार कर दिया। साधु, संन्यासी, महात्मा हो जाने के लिए उन्होंने अपने अस्तित्व को पूरी तरह नकार दिया है, और समाज जो कुछ भी उनसे चाहता है उसे उन्होंने मान लिया है। वे इससे संपूर्णत: राजी हो गए हैं। वे अपने आप से, अपनी स्वयं की जीवन ऊर्जा से राजी न हुए, और वे नकली, मूढ़तापूर्ण बातों— प्रशंसा, सम्मान से राजी हो गए।

और तुम जाते हो और पूछते हो उनसे। वे स्वयं ही कांप रहे हैं। कहीं गहरे में वे स्वयं ही भयभीत हैं। वे और उनके शिष्य, सभी एक ही नाव में सवार हैं।

मैंने सुना है, वेटिकन में पोप बहुत ज्यादा बीमार पड़ गए, और एक संदेश जारी हुआ कि सेंट पीटर्स की बॉलकनी से कार्डिनल एक विशेष उदघोषणा करेंगे।

जब वह दिन आया, तो प्रख्यात चौक निष्ठावानों से खचाखच भर गया। वयोवृद्ध कार्डिनल ने कांपती हुई आवाज में कहा : ‘पवित्र आत्मा (पोप) को केवल हृदय प्रत्यारोपण द्वारा ही बचाया जा सकता है, और आज यहां एकत्रित हुए सभी भले कैथेलिकों से मैं दान के लिए निवेदन करता हूं।’

उसने हाथ में पंख थामे हुए आगे कहा : ‘मैं यह पंख आपके बीच गिरा दूंगा, और जिस पर भी यह गिरता है, उस व्यक्ति को पवित्र परमात्मा के द्वारा पवित्र पिता का जीवन बचाने के लिए चुन लिया गया

जब उसने वह पंख गिराया……और चारों तरफ जो भी सुना जा सकता था, वह था बीस हजार श्रद्धालु रोमन कैथेलिकों का धीमे— धीमे फूंक मारना।

प्रत्येक व्यक्ति भयभीत है। अगर पवित्र पिता जिंदा रहना चाहते हैं तो इन बेचारे कैथेलिकों को क्यों दानी बनाया जाए?

मैं तुम्हें कोई सांत्वना नहीं देने जा रहा हूं। मैं तुमसे नहीं कहने जा रहा हूं ‘आत्मा शाश्वत है। चिंता मत करो, तुम कभी नहीं मरोगे। केवल शरीर ही मरता है।’ मुझे पता है कि यह सत्य है, लेकिन इस सत्य को कठिन रास्ते से अर्जित करना पड़ता है। तुम किसी और के द्वारा इसके बारे में कहे गए कथन और वक्तव्य से नहीं सीख सकते। यह कोई वक्तव्य नहीं है, यह एक अनुभव है। मैं जानता हूं कि ऐसा है, लेकिन तुम्हारे लिए यह नितांत अर्थहीन है। तुम तो यह भी नहीं जानते कि जीवन क्या है। तुम यह कैसे जान सकते हो कि शाश्वतता क्या है? तुम समय में जीने में समर्थ तो हो नहीं पाए हो, तुम शाश्वतता में जीने में समर्थ कैसे हो पाओगे?

कोई अमर्त्य के प्रति तभी जागरूक होता है जब वह मृत्यु को स्वीकार करने में समर्थ हो चुका हो। मृत्यु के द्वार के माध्यम से अमर्त्य अपने आपको प्रकट करता है। मृत्यु अमर्त्य के लिए अपने आपको तुम पर उदघाटित करने का एक उपाय है.. .लेकिन भय के कारण तुम अपनी आंखें बंद कर लेते हो और तुम अचेत हो जाते हो।

नही, मैं तुम्हें इससे छुटकारा पाने की कोई विधि, कोई सिद्धांत, नहीं देने जा रहा हूं। इसके लक्षण उत्पन्न हुए हैं। यह शुभ है कि यह बात तुम्हें संकेत देती रहती है कि तुम झूठी जिंदगी जी रहे हो। यही कारण है कि वहां भय है। इस संकेत को समझो और लक्षण को बदलने की चेष्टा मत करो, बल्कि मूलभूत कारण को बदलो।

एकदम आरंभ से ही हर बच्चे को गलत जानकारी, गलत सूचनाएं दी जाती हैं, उसे गलत दिशा, गलत निर्देश दे दिए जाते हैं। ऐसा जानबूझ कर नहीं किया जाता, क्योंकि माता—पिता भी उसी जाल में हैं, उन्हें भी गलत दिशा दिखाई गई थी। उदाहरण के लिए यदि कोई बच्चा अधिक ऊर्जावान है, तो परिवार असहजता महसूस करता है, क्योंकि अधिक ऊर्जा वाला बच्चा घर में एक उपद्रव है। कुछ भी सुरक्षित नहीं है, बिलकुल सुरक्षित नहीं है। वह ऊर्जावान बच्चा हर चीज तोड़—फोड़ देगा। उसे रोकना पड़ेगा। उसकी ऊर्जा को अवरोधित करना पड़ेगा, उसकी जीवंतता को कम करना होगा। उसको निंदित, दंडित करना पड़ेगा। और जब वह ढंग से व्यवहार करे सिर्फ तब पुरस्कृत करना पड़ेगा। और तुम क्या अपेक्षा रखते हो? तुम उससे लगभग एक वृद्ध व्यक्ति बन जाने की उम्मीद रखते हो—वह ऐसी किसी वस्तु को जिसे तुम मूल्यवान समझते हो कोई हानि न पहुंचाए। एक घडी को बचाने की खातिर तुम एक बच्चे को नष्ट करते हो। या अपनी क्राकरी बचाने के लिए तुम बच्चे को नष्ट कर डालते हो। या अपना फर्नीचर बचाने के लिए। वरना उस पर इस छोर से उस छोर तक खरोंच आ जाएगी। तुम परमात्मा की भेंट, एक नव—आगंतुक अस्तित्व, को नष्ट करते हो। तुम फर्नीचर को खरोंचे जाने से बचाने के लिए बच्चे का अस्तित्व खरोंचते रहते हो।

धीरे— धीरे बच्चा तुम्हारा अनुगमन करने को बाध्य हो जाता है, क्योंकि वह असहाय है, वह तुम पर आश्रित है, उसका जीवित रहना तुम पर निर्भर है। जीवित रहने की खातिर वह मृत होने को राजी हो जाता है। बस जीवित रहने की खातिर; क्योंकि तुम उसे दूध और भोजन देते हो, और उसकी देखभाल करते हो। यदि तुम उसके इतने अधिक विरोध में हो तो वह कहां जाएगा? धीरे— धीरे वह अपना अस्तित्व तुम्हें बेचता जाता है। जो कुछ भी तुम कहते हो, धीरे— धीरे वह मान लेता है। तुम्हारे पुरस्कार और तुम्हारे दंड ही वे उपाय हैं जिनके द्वारा तुम उसे दिग्भ्रमित करते हो।

धीरे— धीरे वह अपने अंतस की आवाज से अधिक तुम पर विश्वास करने लगता है, क्योंकि वह जानता है कि उसके भीतर की आवाज हमेशा उसे झंझट में डालती है। उसके भीतर की आवाज सदा उसके लिए दंड दिलवाने वाली सिद्ध हुई है। इसलिए सजा और उसके भीतर की आवाज संयुक्त हो जाते हैं। और जब कभी भी वह अपनी आंतरिक आवाज नहीं सुनता और तुम्हारा अंधानुकरण करता है, उसे पुरस्कृत किया जाता है। जब कभी भी वह स्वयं होता है. उसे दंडित किया जाता है; जब कभी भी वह स्वयं नहीं होता उसे पुरस्कृत किया जाता है। यह तर्क स्पष्ट है।

धीरे— धीरे तुम उसे उसकी अपनी जिंदगी से भटका देते हो—। धीरे— धीरे वह भूल जाता है कि उसकी आंतरिक आवाज क्या है। अगर लंबे समय तक तुम इसे न सुनो तो फिर तुम इसे नहीं सुन सकते।

किसी भी क्षण अपनी आंखें बंद कर लो—तुम्हें अपने पिता, अपनी माता, अपने साथियों, अध्यापकों की आवाजें सुनाई पड़ेगी, और तुम कभी अपनी आवाज नहीं सुनोगे। अनेक लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, आप भीतर की आवाज के बारे में कहते हैं; हम इसे कभी नहीं सुनते, वहां तो भीड़ लगी है। जब जीसस कहते हैं, अपने पिता और माता से घृणा करो, वे वास्तव में तुम्हारे माता—पिता से घृणा करने को नहीं कह रहे हैं, वे कह रहे हैं, उन पिता और उन माता से घृणा करो जो तुम्हारे भीतर अंतश्चेतना बन गए हैं। घृणा करो, क्योंकि यह एक सर्वाधिक कुरूप समझौता है—आत्मघाती अनुबंधन, जो तुमने किया है। घृणा करो, इन आवाजों को मिटा डालो, ताकि तुम्हारी आवाज मुक्त और स्वतंत्र की जा सके; जिससे कि तुम अनुभव कर सको कि तुम कौन हो और तुम क्या होना चाहते हो।

आरंभ में निःसंदेह तुम पूर्णत: खोया हुआ अनुभव करोगे। यही तो ध्यान में घटता है। अनेक लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, हम तो रास्ता खोजने आए थे, इसके विपरीत ध्यान प्रयोगों से यह —भी पूर्णत: खोया हुआ लग रहा है 1 इससे शात होता है कि दूसरों की पकड़ ढीली पड़ रही है, इसलिए तुम अपने को खोया हुआ महसूस करते हो, क्योंकि दूसरों की वे आवाजें तुम्हें निर्देश दे रही थीं, और तुमने उनमें विश्वास करना शुरू कर दिया था। तुमने उनमें इतने लंबे समय से विश्वास किया है वे तुम्हारे दिशा— निर्देशक बन चुके थे। अब, जब तुम ध्यान करते हो तो ये आवाजें मिट जाती हैं। तुम जाल से मुक्त हो गए हो। दुबारा तुम बच्चे बन जाते हो, और तुम नहीं जानते कि कहां जाना है। क्योंकि सारे मार्गदर्शक खो गए हैं। पिता की आवाज वहां नहीं है, मां की आवाज वहां नहीं है, अध्यापक वहां नहीं है, स्कूल नहीं रहा अचानक तुम अकेले हो। व्यक्ति भय अनुभव करने लगता है, मेरे मार्ग—निर्देशक कहां चले गए? कहां हैं वे लोग जो हमेशा मुझे उचित रास्ते की ओर ले जाते थे?

वास्तव में कोई भी तुम्हें सही रास्ते पर नहीं ले जा सकता, क्योंकि सारे पथ—प्रदर्शन गलत होने वाले हैं। कोई नेता सही नेता नहीं हो सकता है, क्योंकि नेतृत्व, जैसा भी है, गलत ही है। जिसको भी तुम नेतृत्व की अनुमति देते हो, तुम्हें कुछ हानि ही पहुंचाएगा, क्योंकि वह कुछ करना, तुम पर कुछ थोपना, तुम्हें एक ढांचा देना शुरू कर देगा, और तुम्हें तो एक संरचना विहीन जीवन, सारे ढांचों, संदर्भों, अनुबंधों से मुक्त, सारी संरचना और चरित्र से मुक्त, अतीत से मुक्त होकर इसी क्षण में जीवन को जीना है।

इसलिए सारे मार्गदर्शक दिशा भ्रम देते हैं। और जब वे खो जाते हैं, और तुमने उनमें इतने लंबे समय से विश्वास किया है कि अचानक तुम्हें खालीपन अनुभव होता है, तुम खालीपन से घिरे होते हो और सारे रास्ते विलुप्त हो जाते हैं। जाना कहां है?

व्यक्ति के जीवन में यह बड़ा क्रांतिकारी समय होता है। तुम्हें इससे साहसपूर्वक गुजरना होता है। यदि तुम निर्भय होकर इसमें रुके रहे, तो शीघ्र ही तुम अपनी आवाज को जो लंबे समय से दमित है, सुनना आरंभ कर देते हो। शीघ्र ही तुम इसकी भाषा सीखना आरंभ कर दोगे, क्योंकि तुम इसकी भाषा ही भूल चुके हो। तुम वही भाषा जानते हो जो तुम्हें सिखाई गई है। और यह भाषा, अंदर की भाषा, शाब्दिक नहीं होती। अनुभूतियों की भाषा है यह। और सभी समाज अनुभूतियों के विरोध में हैं; क्योंकि अनुभूति एक जीवंत घटना है, यह विद्रोही है। विचार मृत होता है, यह विद्रोही नहीं होता। अत: प्रत्येक समाज ने तुम्हें सिर में रहने को बाध्य किया है, तुम्हें तुम्हारे सारे शरीर से निकाल कर सिर में धकेल दिया है।

तुम केवल सिर में जीते हो। यदि तुम्हारा सिर काट दिया जाए और तभी अचानक तुम अपने बिना सिर के शरीर को देखो, तो तुम इसको पहचान नहीं सकोगे। केवल चेहरे ही पहचाने जाते हैं। तुम्हारा सारा शरीर सिकुड़ चुका है, नरमी, कांति, तरलता खो चुका है। यह एक लकड़ी के लट्ठे की भांति लगभग मृत वस्तु है। तुम इसका उपयोग करते हो, कार्यात्मक रूप में यह चलता रहता है लेकिन इसमें कोई जीवन नहीं है। तुम्हारा सारा जीवन सिर में समा गया है। वहां अटक गया है, तुम मृत्यु से भयभीत हो क्योंकि तुम्हारे रहने का एक मात्र स्थान, एक मात्र स्थान जिसमें तुम रह सकते हो, तुम्हारे सारे शरीर में होना चाहिए। तुम्हारे सारे जीवन को तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर में विस्तारित और प्रवाहित होना चाहिए। इसे एक नदी, एक धारा बनना पड़ेगा।

एक छोटा बच्चा अपने जननांगों से खेलना आरम्भ करता है। तुरंत ही उसके माता—पिता चिंतित हो जाते हैं— ‘इसे बंद करो।’ यह चिंता उनके स्वयं के दमनों से आती है—क्योंकि वे भी रोके गए थे। अचानक वे उद्विग्न हो उठते हैं एक दुश्चिंता उनमें उठती है, क्योंकि उन्हें कुछ बातें सिखाई गई थीं कि ऐसा करना गलत है। उन्हें कभी अपने जननांगों को नहीं छूने दिया गया। बच्चे को कैसे इसकी अनुमति हो? वे बच्चे को उसके जननांग न छूने के लिए बाध्य करते हैं, वे बच्चे को दंडित करते हैं।

बच्चा क्या कर सकता है? वह यह नहीं समझ पाता कि जननांगों में गलत क्या है? वे उसके हाथों उसकी नाक, उसके पांवों के अंगूठों की भांति ही उसका एक अंग हैं, वह अपने शरीर के हरेक स्थान को छू सकता है, किंतु जननांगों को नहीं। और यदि वह बारंबार दंडित किया जाता है तो निःसंदेह अपनी ऊर्जा को वह जननांगों से बलात वापस भेजना आरंभ कर देता है। इसे वहां प्रवाहित नहीं होने देना चाहिए क्योंकि अगर यह उस ओर प्रवाहित होती है तो वह उनसे खेलना चाहता है। और यह सुखद है, और कुछ भी गलत नहीं है, बच्चा यह देख नहीं पाता कि इसमे गलत क्या है। वास्तव में यह शरीर का सबसे सुखदायी अंग है।

लेकिन मां—बाप भयभीत हैं, और बच्चा उनके चेहरे और उनकी आंखें देख सकता है : अचानक ही— वे सामान्य व्यक्ति थे—जिस क्षण वह अपने जनन अंगों को स्पर्श करता है वे असामान्य बन जाते हैं, लगभग पागल से। उनमें कुछ इतनी कठोरता से बदलता है कि बच्चा भी भयभीत हो जाता है—कुछ न कुछ गलती अवश्य होनी चाहिए इसमें। यह कुछ न कुछ गलत माता—पिता के मन में है, बच्चे के शरीर में नहीं है, लेकिन बच्चा कर ही क्या सकता है?

इस स्थिति को, इस घबड़ाहट भरी परिस्थिति को दर—किनार करने भर से ही, सर्वाधिक सुंदर अनुभूतियों में से एक को इतनी गहराई तक दमित किया गया है कि स्त्रियों ने चरम सुख, ऑर्गाज्म को अनुभव ही नहीं किया है। भारत में स्त्रियां अभी भी नहीं जानती कि चरम सुख क्या है। उन्होंने इसके बारे में कभी सुना ही नहीं है; वास्तव में वे यही जानती हैं कि यौनानद पुरुषों के लिए है, स्त्रियों के लिए नहीं। बेहूदी बात है यह, क्योंकि परमात्मा उग्र पुरुषवादी नहीं है, और वह पुरुषों के पक्ष और स्त्रियों के विरोध में नहीं है। उसने एक समान रूप से प्रत्येक को दिया है। लेकिन लड़कियों पर लड़की की तुलना में अधिक रोकथाम की जाती है, क्योंकि समाज पुरुष—प्रधान है। अत: उनका कहना है, लड़के तो लड़के हैं, अगर तुम उन्हें रोक दो, तब भी वे कुछ न कुछ तो कर ही लेंगे। लेकिन लड़कियां, उन्हें तो संस्कृति, नैतिकता, शुद्धता, कौमार्य का प्रतिमान बनना पड़ता है। उन्हें अपने जननांगों को छूने की जरा भी अनुमति नहीं है। इसलिए बाद में चरम सुख उपलब्ध करना कैसे संभव है, क्योंकि ऊर्जा उस रास्ते जाती ही नहीं है?

और क्योंकि ऊर्जा उस रास्ते नहीं जाती है, हजारों समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। स्त्रियां उन्मादी, हिस्टेरिकल हो जाती हैं। पुरुष यौन से अत्यधिक ग्रसित हो जाते हैं। स्त्रियां करीब—करीब उदास और अवसादग्रस्त हो जाती हैं, क्योंकि वे काम—अनुभव का आनंद नहीं ले सकतीं, इसके करीब—करीब विरोध में हो जाती हैं। और पुरुष यौन में बहुत अधिक रुचि रखने लगते हैं, क्योंकि सारे अनुभवों में कुछ न कुछ छूट जाता है। पुरुष यह अनुभव करता रहता है कि वह कुछ चूक रहा है, कुछ चूक रहा है, अत: और अधिक काम—अनुभव में करूं, इसे कई स्त्रियों के साथ करूं। यह समस्या नहीं है। तुम एक के साथ चूकते जाओगे; तुम अनेक के साथ चूकते जाओगे। समस्या तुम्हारे भीतर है : तुम्हारी ऊर्जा जननांगों के द्वारा प्रवाहित नहीं हो रही है।

और इस ढंग से, सारी ऊर्जा धीरे— धीरे सिर में धकेल दी जाती है। हमारे पास हेड क्लर्क, हेड

सुपरिनटेंडेंट, हेड मास्टर जैसे शब्द हैं, सभी हेड्स हैं। ’हैड्स’ का प्रयोग श्रमिकों के लिए होता है।’हेड्स, प्रधान, श्रेष्ठतर लोग हैं—राज्यों के ‘हेड्स।’ ‘हैड्स’ मात्र हाथों से काम करने वाला, महत्वहीन। भारत में ब्राह्मण ‘हेड्स’ हैं। और बेचारे शूद्र तो हाथ भी नहीं हैं—पांव, पैर हैं। हिंदू शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि परमात्मा ने ब्राह्मणों को सिर के रूप में और शूद्रों को पैर के रूप में रचा है और क्षत्रियों, योद्धाओं को, बांहों, हाथों, शक्ति तथा व्यापारियों, वैश्यों को पेट की भांति रचा है। लेकिन ब्राह्मण सिर हैं।

सारा संसार ब्राह्मण बन गया है। यही समस्या है—प्रत्येक व्यक्ति सिर में जी रहा है, और सारा शरीर संकुचित हो गया है। जरा कभी दर्पण के सामने खड़े होकर देखो कि तुम्हारे सारे शरीर को क्या हो गया है। तुम्हारा चेहरा बहुत जीवंत लगता है, जीवन की लालिमा से आलोकित, लेकिन तुम्हारा सीना? —सिकुड़ा हुआ। तुम्हारा पेट? —लगभग यंत्रवत, यांत्रिक ढंग से कार्य करता चला जाता है। तुम्हारा शरीर…….

यदि लोग नग्न खड़े हों, उनके शरीरों को देख कर ही तुम जान सकते हो कि अपने जीवन में वे किस ढंग का कार्य कर रहे हैं। यदि वे श्रमजीवी हैं, उनके हाथ जीवंत, मांसल होंगे। यदि वे सिर का उपयोग करने वाले—बुद्धिजीवी, प्रोफेसर्स, उप—कुलपति और उस प्रकार के बकवासी लोग हैं—तब तुम उनके सिरों को बहुत प्रभापूर्ण, लालिमायुक्त देखोगे। यदि वे पुलिसवाले या डाक बांटने वाले हों, तो उनकी टांगें बेहद मजबूत होंगी। लेकिन तुम किसी के पूरे शरीर, सारे शरीर को एक सा विकसित नहीं देखोगे, क्योंकि कोई भी व्यक्ति एक संपूर्ण जैविक इकाई की भांति नहीं जी रहा है।

व्यक्ति को एक समग्र जैविक इकाई की भांति जीना चाहिए। संपूर्ण शरीर पर पुन: ध्यान दिया जाना है। क्योंकि पैरों के द्वारा तुम पृथ्वी के संपर्क में हो, तुम्हारा पृथ्वी से गहन संवाद होता है—यदि तुम अपनी टांगों और उनकी शक्ति से असंबद्ध हो और वे मुर्दा अंग बन कर रह गई हैं, तो अब पृथ्वी से तुम्हारा संबंध विच्छेद हो चुका है। तुम उस वृक्ष जैसे हो जिसकी जड़ें मृत या सड़ी हुई, कमजोर हो चुकी हैं; अब यह वृक्ष अधिक समय जीवित नहीं रह पाएगा और समग्रता से स्वस्थ होकर पूर्णत: जी न सकेगा। तुम्हारे पैरों को पृथ्वी में जड़ें जमाने की जरूरत है, वे ही तुम्हारी जड़ें हैं।

कभी एक छोटा सा प्रयोग करो। कहीं भी समुद्र के किनारे नदी के तट पर नग्न हो जाओ, बस धूप में नग्न—और कूदना, धीरे— धीरे दौड़ना, और अपनी ऊर्जा को अपने पैरों से, अपनी टांगों द्वारा पृथ्वी में प्रवाहित होते हुए महसूस करो। धीरे— धीरे दौड़ते रहो और टांगों के माध्यम से अपनी ऊर्जा को पृथ्वी में जाता हुआ अनुभव करो। फिर कुछ मिनट धीरे— धीरे दौड़ने के बाद बस शांत होकर पृथ्वी में जड़ें जमा कर खड़े हो जाओ, और बस पृथ्वी के साथ अपने पैरों का एक संवाद का अनुभव करो। अचानक तुम्हें पृथ्वी के साथ अपनी जड़ों का गहन जुड़ाव का गहरा और ठोस अनुभव होगा। तुम देखोगे, पृथ्वी संवाद करती है; तुम देखोगे, तुम्हारे पैर संवाद करते हैं, पृथ्वी और तुम्हारे मध्य एक वार्तालाप हो रहा है।

यह जुड़ाव खो चुका है। लोगों की जड़ें उखड़ चुकी हैं, वे अब जुड़े हुए नहीं रहे। और तब वे जी नहीं पाते। क्योंकि जीवन सारे शरीर से संबद्ध है केवल सिर से नहीं।

पश्चिम में कुछ वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में वे कुछ प्रयोग कर रहे हैं जहां कि कुछ सिरों को जीवित रखा गया है। एक बंदर का सिर उसके शरीर से काट लिया गया, उसे कुछ ऐसे यांत्रिक़ उपकरणों सें जोड़ा गया जो शरीर की भांति कार्य करते हैं। सिर सोचता रहता है, स्वप्न देखता रहता है। सिर इससे प्रभावित नहीं हुआ, जरा भी नहीं।

जो घटना घटी है, वह यही तो है। पश्चिम की कुछ प्रयोगशालाओं में ही नहीं, हरेक आदमी के साथ यही घटा है। तुम्हारा सारा शरीर एक यांत्रिक चीज बन कर रह गया है, केवल तुम्हारा सिर ही जीवित है। यही कारण है कि सिर में इतनी ज्यादा आपाधापी, इतने सारे विचार, इतना अधिक सोच—विचार है। लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, इसको कैसे रोकें? किस भांति इसे रोकें यह समस्या नहीं है। समस्या है कि इसको सारी देह में किस प्रकार प्रसारित किया जाए। निःसंदेह यह बहुत अधिक भरा है क्योंकि सारी ऊर्जा वहीं है—और यह इतनी अधिक ऊर्जा वहन करने में समर्थ नहीं, इसीलिए तुम पगला जाते हो, तुम बहक जाते हो।

पागलपन हमारी संस्कृति द्वारा उत्पन्न एक रोग है; यह सांस्कृतिक बीमारी है.। पृथ्वी पर कुछ ऐसी आदिम संस्कृतियां रही हैं जहां पागल आदमी हुए ही नहीं, जहां विक्षिप्तता कभी थी ही नहीं। और अब भी तुम इसे देख सकते हो, उन समाजों में जो आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध नहीं है, शैक्षिक स्तर पर जहां सार्वभौमिक शिक्षा की आपदा अभी तक नहीं आई है, जहां लोग अब भी मात्र अपने सिरों में ही नहीं है बल्कि अन्य अंगों में भी हैं—भले ही आशिक रूप में हों, लेकिन फिर भी कहीं ऊर्जा का कुंड होता है, पैरों में हो, पेट में ऊर्जा का कुंड हो—भले ही वे उसके संपर्क में नहीं हैं, असंबद्ध कुंड हैं, लेकिन फिर भी ऊर्जा कहीं न कहीं फैली हुई है—सब ओर फैली हुई है— भलीभांति वितरित है, तो पागलपन कभी—कभार ही घटता है। जितना अधिक कोई समाज सिर—उन्मुख हो जाता है उतना ही पागलपन।

यह इस प्रकार है कि एक सौ दस वोल्ट के तार से तुम एक हजार वोल्ट की बिजली प्रवाहित करने का जबरन प्रयास करो—तो हर चीज छिन्न—भिन्न हो जाएगी। सिर को भली प्रकार से कार्य करने कि लिए ऊर्जा की अल्प मात्रा की आवश्यकता है। सिर में अत्यधिक ऊर्जा, फिर वह निरंतर कार्यरत रहता है, इसे पता नहीं कब रुकना है, क्योंकि ऊर्जा को विसर्जित कैसे किया जाए? यह सोचता है, विचारता है, विचार करता चला जाता है, और स्वप्न पर स्वप्न देखता रहता है दिन—रात, साल दर साल व्यतीत होते जाते हैं, सत्तर वर्ष तक। जरा सोचो तो। बस इतना ही है तुम्हारा जीवन।

निस्संदेह व्यक्ति बुढ़ापे से भयभीत हो जाता है। समय गुजर रहा है। असंदिग्ध रूप से व्यक्ति स्वभावत: मृत्यु से भयभीत हो जाता है। मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है। और तुम बस सिर में चक्कर काट रहे हो। किसी और स्थान पर तो तुम गए ही नहीं, जीवन का सारा परिक्षेत्र अस्पर्शित ही रह गया। जीयो अपने सारे शरीर में गतिशील हो। इसे गहन प्रेम से स्वीकारो अपने शरीर के साथ करीब— करीब प्रेम में ही पड़ जाओ। यह एक दिव्य भेंट, वह मंदिर है जहां परमात्मा ने बसने का निर्णय लिया है। फिर वृद्धावस्था का कोई भय नहीं रहेगा; तुम परिपक्व होने लगोगे। तुम्हारे अनुभव तुम्हें परिपक्व करेंगे फिर वृद्धावस्था एक रोग की भांति नहीं होगी, यह एक सुंदर घटना होगी। सारा जीवन इसी के लिए तैयारी है। यह रुग्णता कैसे हो सकती है? सारे जीवन तुम इसकी ओर अग्रसर हुए हो। यह शिखर है, वह अंतिम गीत और नृत्य जो तुम संपन्न करने जा रहे हो।

और कभी किसी चमत्कार की प्रतीक्षा मत करो। तुम्हीं को कुछ करना पड़ेगा। मन कहता है कि ऐसा कुछ या वैसा कुछ होगा और फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा। यह इस प्रकार से नहीं होने जा रहा है। चमत्कार नहीं घटते।

मैं एक कहानी सुनाता हूं:

एक दुर्घटना में एबी की दोनों टांगें टूट गईं। हड्डियां जोड़ दी गईं और एबी ने जिम्मेवार बीमा कंपनी पर क्षतिपूर्ति के लिए दावा दायर कर दिया। उसका आरोप था कि वह सदा के लिए अपाहिज हो गया है और अब उसे सारी जिंदगी व्हील चेयर पर गुजारनी पड़ेगी। बीमा कंपनी ने परिस्थिति का जायजा लेने के लिए शल्य चिकित्सकों को नियुक्त किया। उन्होंने रिपोर्ट दी कि हड्डियां पूरी तरह से ठीक हो चुकी हैं, कि एबी कोहेन अब चलने में समर्थ हैं, और वे केवल बहानेबाजी कर रहे हैं। फिर भी जब यह मुकदमा अदालत में पहुंचा तो न्यायाधीश को व्हील चेयर पर बैठे इस बेचारे पर दया आ गई और उसने क्षतिपूर्ति के रूप में दस हजार पाउंड की राशि दिए जाने का आदेश कर दिया। एबी अपने लिए चैक लेने व्हील चेयर से ही मुख्यालय पहुंचा।

‘मिस्टर कोहेन, मैनेजर ने कहा, यह मत सोचना कि तुम बच कर निकल जाओगे। हम जानते हैं कि तुम बहानेबाजी कर रहे हो। और मैं तुम्हें बता दूं कि हम तुम्हारे लिए एक बड़ी रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। रात—दिन हम तुम्हारे ऊपर निगाह रखने वाले हैं। हम तुम्हारे फोटो खींचते रहेंगे और अगर हमने सबूत पेश कर दिया कि तुम चल—फिर सकते हो, तो न केवल तुम्हें क्षतिपूर्ति वापस करनी होगी बल्कि झूठी शपथ लेने का परिणाम भी भुगतना होगा।

मिस्टर मैनेजर, मैं तो सदा के लिए अपंग होकर इस व्हील चेयर में बैठ गया हूं।

बहुत अच्छा, यह रहा दस हजार पाउंड का चैक, आप इससे क्या करने का इरादा रखते हैं?

अच्छा, मिस्टर मैनेजर, मैं और मेरी पत्नी, हम दोनों हमेशा से भ्रमण करना चाहते थे। इसलिए हम नावें के ऊपरी भाग से यात्रा आरंभ करेंगे और स्कैन्दिनेविया (प्रभाव डालने के लिए उसने अपनी अंगुली से नीचे संकेत किया) से गुजर कर, फिर स्विटजरलैंडइr? इटली, ग्रीस—और मुझे तुम्हारे एजेंट और जासूस जो कि मेरा पीछा कर रहे होंगे, की जरा भी फिकर नहीं है; मैं तो अपाहिज हुआ अपनी कुर्सी पर बैठा रहूंगा—तो स्वाभाविक है कि हम इजरायल जा रहे होंगे, फिर ईरान और भारत और इसे पार करते हुए (उसने अंगुली से प्रभाव डालने के लिए संकेत किया) जापान और तब फिलीपाइंस— और मैं तो अभी भी व्हील चेयर पर होऊंगा, इसलिए मुझे तुम्हारे जासूसों की जो अपने कैमरे लेकर मेरा पीछा कर रहे हैं, कोई चिंता नहीं है, और वहा से हम आस्ट्रेलिया के आर—पार जाएंगे और फिर दक्षिण अमरीका और वहां से सीधे मैक्सिको पहुंचेंगे (उसने रास्ते को संकेत से बताया) और याद रहे, मैं अब भी अपाहिज होकर व्हील चेयर पर बैठा हूं। इसलिए तुम्हारे जासूसों का उनके कैमरों के साथ क्या उपयोग रहा ?—फिर कनाडा। और वहां से हम फ्रांस को पार करते हुए लॉर्डस नामक स्थान को देखने जाएंगे, और वहां तुम देखोगे—एक चमत्कार।

लेकिन असली जीवन में चमत्कार नहीं घटते। तुम्हारे लिए कोई लॉर्डस नहीं है। अगर तुम अपंग हो तो तुम्हीं को कुछ करना पड़ेगा—क्योंकि यह तुम्हीं हो जिसने, कुछ ऐसी बात स्वीकार करके जो नितान्त मूढ़तापूर्ण है, स्वयं को अपंग कर लिया है।

फिर भी मैं जानता हूं कि तुम्हें इसे स्वीकारना पड़ा है। जीवित रहने के लिए तुम मृत रहने का निर्णय करते हो। जिंदा रह पाने के लिए तुमने अपने अस्तित्व को बेच दिया है।

किंतु अब उस मूढ़ता की बात को जारी रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम इससे बाहर हो सकते हो।

प्रश्न:

 

अधिक समय तो मैं कामुक अनुभव करता हूं, और मेरी आंखें दूसरे की खोज करती रहती है। और मैं मन में भी बहुत अधिक बना रहता हूं, जहां तक मैं स्‍वयं को समझता हूं, ये तीन ही मेरी मूलभूत समस्‍याए है। मैं इन समस्‍याओं की बदलियों में धिरा रहता हूं, इसलिए जैसे मुझे आपको सुनना चाहिए, उस प्रकार से नहीं सून पाता हूं, कृपया मुझे मार्ग दिखाएं।

 

ये समस्याएं नहीं हैं। तुमने इनको समस्याएं बना लिया है। और एक बार तुम एक सरल बात को भी समस्या की तरह देख लो, यह समस्या बन जाती है—यह है नहीं। यह तुम्हारी दृष्टि, तुम्हारा देखने का ढंग है।

‘अधिक समय तो मैं कामुक अनुभव करता रहता हूं और मेरी आंखें दूसरे की खोज करती रहती हैं।’

तो इसमें क्या समस्या है? समस्या कहां है? यह तो इस प्रकार हुआ कि कोई भूखा व्यक्ति भोजन के बारे में सोचता है और रेस्तरांओं की खोज करता रहता है। इसमें गलत क्या है? क्या तुम कहोगे कि वह समस्याग्रस्त है और उसे इससे बाहर निकलना ही है? यदि वह समस्या से बाहर आता है तो वह मर जाएगा, उसे भोजन खोजना ही है। प्रेम भोजन है, एक अति सूक्ष्म भोजन।

‘अधिकतर समय तो मैं कामुक अनुभव करता हूं और मेरी आंखें दूसरे की खोज करती रहती हैं।’

स्वाभाविक है। तुम भोजन खोज रहे हो, और तुम भूखे हो। लेकिन लोगों ने तुमको पढ़ाया है कि कामवासना समस्या है। यह समस्या नहीं है। यह शुद्ध ऊर्जा है। यह दिव्य है। इसमें समस्या जैसा तो कुछ भी नहीं है। यदि तुम ऊर्जा को स्वीकार न करो, यदि तुम इसके साथ प्रवाहित मत हो, तो तुम समस्या निर्मित कर सकते हो। और मुझे पता है, यदि तुम इसके साथ प्रवाहित हो, एक दिन तुम अतिक्रमण कर लोगे। तुम उच्चतर तल पर पहुंचोगे, तुम इस पर आरूढ़ होओगे, और तुम अधिक और अधिक ऊंचाइयों पर पहुंचोगे। यह एक सुंदर ऊर्जा है, जो तुम्हें परम आत्यंतिक तक ले जा सकती है, लेकिन अगर तुम इसमें से समस्या बना लो तो तुम इससे सदा—सदा के लिए ग्रसित रहोगे। और जितना अधिक तुम इसके साथ संघर्ष करोगे उतना ही अधिक कामवासना और काम—ऊर्जा तुम पर पलट वार करेगी। इसे पलट वार करना पड़ता है, क्योंकि यह जीवन संरक्षक ऊर्जा है।

तुम काम—ऊर्जा से निर्मित हो। अगर तुम्हारे माता—पिता ने सोचा होता कि यह समस्या है, तो तुम यहां नहीं होते। तुम इसी समस्या से आए हो, तुम्हारा अस्तित्व इसी समस्या के कारण है। क्योंकि तुम्हारे माता— पिता समस्या नहीं सुलझा सके, इसीलिए तुम यहां हो।

मेरे देखने में आया है कि जो व्यक्ति कामवासना को समस्या की तरह देखता है, कभी अपने माता— पिता के प्रति सम्मानपूर्ण नहीं हो सकता। वह कैसे सम्मान करे? जरा देखो। यह तो सीधा सा गणित है। तुम अपने पिता के प्रति सम्मानपूर्ण कैसे हो सकते हो? वे तुम्हारी मां के साथ कुछ गंदा व्यवहार कर रहे थे। वस्तुत: तुम तो उस व्यक्ति की तुरंत हत्या कर देना चाहोगे। और तुम अपनी मां का सम्मान कैसे कर सकते हो? वह भी एक कामुक व्यक्ति थी, जैसे कि कोई दूसरी स्त्री, एकदम पशुवत। तुम अपनी मां के चरण स्पर्श कैसे कर सकते हो? असंभव। जब तक तुम कामवासना को एक भेंट, एक दिव्य भेंट के रूप में न स्वीकारो, तुम अपने पिता और माता का सम्मान नहीं कर सकते।

गुरजिएफ अपने शिष्यों से कहा करता था : उसने इसे अपने घर पर लिख रखा था, कि जब तक तुम अपने पिता और माता का सम्मान नहीं करते, यहां प्रवेश मत करो। और गुरजिएफ जैसा व्यक्ति भी लिखने के लिए इससे श्रेष्ठ और कुछ न पा सका? ‘यदि तुम अपने पिता और माता का सम्मान नहीं करते हो, तो यहां प्रवेश मत करो।’ लेकिन उसने एक सरल ढंग से बहुत बातें कह दी हैं। केवल वही व्यक्ति जो काम—ऊर्जा को पूरी तरह से स्वीकार करता है अपने पिता और माता का सम्मान कर सकता है। अन्यथा तो तुम दिखावा कर सकते हो, तुम सम्मान नहीं कर सकते।

और यदि तुम सोचते हो कामवासना एक समस्या है, कोई बीमारी है, जिससे तुम्हें छुटकारा पाना है, तो क्या तुम अपने बच्चों से प्रेम कर पाओगे? तुम अपने बच्चों से कैसे प्रेम कर सकतें हो? वे एक समस्या से, एक रोग से, आए हैं। तुम उनसे घृणा करोगे। तुम दिखावा कर सकते हो कि तुम उन्हें प्रेम करते हो लेकिन तुम जानते हो कि वे तुम्हारी समस्या की अभिव्यक्तियां हैं। वे सदैव तुम्हें एक कामुक व्यक्ति की तरह इंगित करेंगे। वे संसार में एक प्रमाण की तरह जाएंगे कि तुम पशुवत थे, कि तुम कामवासना के पार नहीं जा पाए थे। वे एक प्रमाण होंगे, तुम्हारा स्तर से नीचे गिरे होने का स्थायी प्रमाण।

नहीं, मैं तुमसे कहना चाहूंगा कि कामवासना समस्या नहीं है। यह एक शुद्ध ऊर्जा है। और यदि तुम इससे बचते हो, तो निःसंदेह तुम सदैव खोजते रहोगे। तब यह एक मनोग्रस्तता बन जाएगी। फिर तुम पूर्णत: इससे ग्रसित हो जाओगे और यह एक विकृति बन जाएगी। तब जो कुछ भी तुम देखोगे, तुम्हें उसमें कामवासना ही दिखाई पड़ेगी, और कुछ भी नहीं। और तुम इतने ग्रस्त हो सकते हो कि तुम पागल हो सकते हो।

फ्रायड ने कहा कि पागल होने वाले सौ लोगों में से कम से .कम नब्बे लोग निश्चित रूप से कामवासना—दमित काम के कारण पागल होते हैं। कामवासना को समझा जाना है, इसे सृजनात्मक रूप से उपयोग करना है। यह जाग्रत जीवन, अग्नि, जीवंतता है। तुम्हारा निर्माण इसी से हुआ है, प्रत्येक व्यक्ति इसी से निर्मित. है।

इससे बचने के लिए ईसाई लोग यह सिद्ध करने का प्रयास करते रहे कि जीसस का अब तार ‘कुंवारी’ मेरी से हुआ है—इसी बात से बचने के लिए कि जीसस कैसे सामान्य काम से संबंध से अवतरित हो सकते।१। और उन्हें पता है कि वे इस बात को प्रमाणित करने में सभी सफल नहीं हो सके हैं।

मैं एक कहानी पढ़ रहा था

एक सुंदर युवा स्त्री एक चिकित्सक कें पास आई। चिकित्सक ने उसकी जांच की और बोला : मिस ‘गप गर्भवती हैं?

वह स्त्री बोली : नहीं, कभी नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, यह असंभव है। मैंने तो कभी किसी पुरुष का संसर्ग किया ही नहीं, इसलिए ऐसा कैसे हो सकता है?

चिकित्सक बोला : लेकिन यह तो निश्चित तथ्य है, उस स्त्री ने इनकार किया, वह बोली : यह असंभव है, ऐसा नहीं हो सकता। मेरा किसी पुरुष से कभी साथ हुआ ही नहीं।

तब वह चिकित्सक बोला : ठहरिए, मुझे अपना सामान बांध लेने दें। मैं आपके साथ चल रहा हूं। वह स्त्री बोली. क्यों? किसलिए?

उसने कहा इस बार मैं चूकूंगा नहीं। मैंने सुना है कि पूर्व से ‘वर्जिन मेरी’ का दर्शन करने तीन विद्वान आए थे। इस बार मैं चूकूंगा नहीं, मैं आ रहा हूं मैं उन तीन विद्वानों को देखना चाहता हूं।

बस एक घबड़ाहट भरी परिस्थिति से बचने के लिए ही—जीसस! एक कामुक प्रेम संबंध से जन्म लें? लेकिन यह अनुयायियों की मूढ़ता ही दर्शाता है।

हमने भारत में कभी ऐसा नहीं किया। हम बुद्ध, महावीर, राम, कृष्णी सभी को काममय प्रेम संबंध से जन्मा हुआ स्वीकार करते हैं। हमने इस भाषा में कभी नहीं सोचा कि काम पाश्विक है। बुद्ध का जन्म भी इसी से होता है। हमें पता है कि कमल उस कीचड़ से बहुत अलग है जिससे यह आता है, लेकिन यह कीचड़ से आता है। कीचड़ का सम्मान करना पड़ता है, वरना सारे कमल खो जाएंगे। हां, पानी गंदला है लेकिन ‘तुम्हें इसमें जीना है, तुम्हें इसमें होकर गुजरना है, तुम्हें इससे पार जाना है, इसके ऊपर, कहीं दूर, कमल की भांति खिलना है। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि कमल गंदले कीचड़ से आता है। यह परिवर्तित रूप है, यह उत्कांति है।

पतंजलि का पूरा प्रयास यही है. तुम्हें बताना कि काम—केंद्र से सहस्रार तक यह वही ऊर्जा है, नये रूपांतरणों से गुजरती हुई, हरेक चक्र पर एक नया दृष्टिकोण, एक नई संभावना, नये पंख, खिलती हुई और—और पंखुड़ियां। काम—केंद्र पर एक कमल है—चार पंखुड़ियों वाला कमल, लेकिन कमल है। भले ही चार पंखुड़ियों वाला हो, किंतु फिर भी कमल ही है। सहस्रार पर यह सहस्र दल कमल बन जाता है, लेकिन फिर भी है तो कमल ही—एक हजार पंखुड़ियों वाला, जैसे कि लाखों सूर्यों और चंद्रमाओं का मिलन हो रहा है। ऊर्जा का एक महत संलयन और संश्लेषण, लेकिन उसी ऊर्जा का। वही ऊर्जा आयुष्मान हो गई है, विकसित हुई है, खिल उठी है।

इसलिए मैं तुमसे जो पहली बात कहना चाहूंगा. कृपा करके कामवासना को समस्या की भांति मत देखो। यह समस्या नहीं है। अन्यथा यह समस्या बन जाएगी।

अगर कुछ मूढ़ शिक्षाओं के कारण, जो तुम्हारे ऊपर थोप दी गई हैं, और तुम उनके लिए संस्कारित हो चुके हो, तुम अपने जीवन में इससे बचना चाहते हो तो यह समस्या बन जाएगी। यह तुम्हारा पीछा करेगी—। यह करीब—करीब प्रेत बन जाएगी, सदा तुम्हारे साथ रह कर तुमसे बातचीत करती रहेगी। यह एक अंदरूनी वार्ता बन जाएगी और तुम हर ओर देख रहे होगे, हर ओर, गहरे में अतृप्त आत्मा के साथ। तुम करीब—करीब एक भिखमंगे बन जाते हो, भीख ही भीख मांगते हुए और दोषी अनुभव करते हुए, लगभग किसी अपराधी की तरह बुरा अनुभव करते हुए। केवल एक दृष्टिकोण के कारण। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम धार्मिक लोगों से, चर्च से, मंदिर से, पुरोहित से, अत्यांधिक प्रभावित रहे हो।

मैं तुमसे एक कहानी कहना चाहता हूं :

एक पुराने अनुभवी चिकित्सक ने, जिसका पुत्र अभी मेडिकल कॉलेज से स्नातक हुआ था, उसे अपने व्यवसाय के बारे में कुछ टिप्स देने का निर्णय लिया। एक दिन उसका पुत्र भी अस्पताल के राउंड पर निकले अपने चिकित्सक पिता के साथ था। जिस पहले रोगी को उन्होंने देखा, उसे उसके पिता ने धूम्रपान में कमी लाने को कहा।

आप इस निष्कर्ष पर किस प्रकार पहुंचे? पुत्र ने पूछा।

बस जरा उसके कमरे में चारों ओर निगाह तो दौड़ाओ, और देखो सिगरेट के कितने सारे टोटे पड़े हैं, उसका उत्तर था।

दूसरे रोगी को इतनी अधिक चॉकलेट न खाने के लिए कहा गया। पुन: वह नया चिकित्सक विस्मित हुआ, कैसे जाना? वह बोला।

तुम देखते ही नहीं हो, पिता ने कहा, यदि तुमने देखा होता तो तुमने उस स्थान पर चारों ओर पड़े चॉकलेट के बहुत सारे खाली बाक्स देख लिए होते।

मैं सोचता हूं कि आपकी बात मेरी समझ में अब आ चुकी है, पुत्र ने कहा। अगले रोगी को मुझे देखने दें।

उस महिला से जो तीसरी रोगी थी, पुत्र ने चर्च, धर्म और पादरियों से परहेज करने को कहा। आश्चर्यचकित पिता ने अपने पुत्र से पूछा कि वह विचित्र निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा, क्योंकि वार्तालाप में तो चर्च का कहीं उल्लेख तक नहीं हुआ था और उस स्थान पर चारों ओर कहीं चर्च हो भी नहीं सकते। ठीक है पिताजी, यह इस प्रकार से हुआ, पुत्र ने कहा, आपने ध्यान दिया कि मैंने थर्मामीटर गिरा दिया था? जब मैं इसको उठाने के लिए नीचे झुका तो मुझको पलंग के नीचे धर्म—उपदेशक लेटा हुआ दिखाई पड़ा।

यही है जो मैं देखता हूं : तुम्हारे पलंग के नीचे धर्म—उपदेशक है, तुम्हारे पलंग के ऊपर एक धर्मोपदेशक है, उस स्थान पर चारों ओर मंदिर और चर्च हैं। इनको त्यागो, थोड़ा और मुक्त हो जाओ।

‘अधिक समय तो मैं कामुक अनुभव करता हूं और मेरी आंखें दूसरे की खोज करती रहती हैं। और मन में भी बहुत अधिक बना रहता हूं।’

यही होगा तुम्हारे साथ। क्योंकि यदि तुम कामवासना से लडोगे तो और कहां जाओगे। तब सारी कामवासना एक मानसिक वस्तु बन जाएगी। फिर यह सिर में चली जाएगी। फिर तुम इसके बारे में सोचोगे, कल्पना करोगे, इसके स्वप्न देखोगे। और वे सपने संतुष्ट नहीं कर सकते क्योंकि खाने के बारे में कोई स्वप्न संतुष्ट नहीं कर सकता। तुम खाने के बारे में कल्पनाएं और राजाओं के महलों से प्राप्त निमंत्रण के बारे में कल्पनाएं करते रह सकते हो, लेकिन इससे कोई मदद न मिलेगी। जब तुम स्वप्न से बाहर आओगे तो पुन: तुम्हें भूख अनुभव होगी, कुछ ज्यादा ही भूख। स्‍वप्‍न के बाद तुम और अधिक असंतुष्ट अनुभव करोगे—और बार—बार यही होगा, क्योंकि तुम एक वास्तविकता, जीवन के एक सत्य, एक तथ्य, जिसे स्वीकार किया जाना है, प्रयोग किया जाना है, सृजनात्मक रुप से रूपांतरित किया जाना है, से बच रहे हो।

मुझे पता है, यह संभव है कि एक दिन तुम्हारी ऊर्जा सहस्रार में चली जाएगी, लेकिन इसको एक परिपक्व ऊर्जा के रूप में गति करने दो। एक दिन तुम्हारे जीवन से कामवासना बस खो जाएगी, फिर तुम इसके बारे में नहीं सोचोगे। तब तुम्हारे लिए यह और अधिक कल्पनाचित्र नहीं रहेगी। यह बस तिरोहित हो जाएगी। जब तुमने उसी ऊर्जा के उच्चतर चरमोत्कर्ष को उपलब्ध कर लिया है तो निम्नतर चरम सुख का कोई आकर्षण नहीं रहता। लेकिन तब तक यह मनोविलास की वस्तु बनी रहेगी।

और अगर कामवासना जननेंद्रियों में है तो यह शुभ है, क्योंकि यही वह उचित स्थान है जहां इसे होना चाहिए। यदि यह सिर में है, तो तुम उपद्रव में हो। गुरजिएफ अपने शिष्यों से कहा करता था कि यदि प्रत्येक चक्र उसी स्थान पर सक्रिय हो जहां इसे सक्रिय होना चाहिए तो व्यक्ति स्वस्थ रहता है। जब चक्र परस्पर अतिक्रमण करते हैं और उनका स्वाभाविक पथ खो जाता है और ऊर्जा ऊल—जलूल ढंग से गति करती है… अगर तुम लोगों के सिर में झरोखे बना सको तो तुम्हें वहां उनके जननांग दिखाई पड़ेंगे, क्योंकि कामवासना वहां पहुंच गई है, और निःसंदेह यदि तुम उपद्रव में हो, तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। ऐसा होना ही है।

अपनी ऊर्जा को उसके स्वाभाविक केंद्र पर ले आओ, प्रत्येक ऊर्जा को इसके स्थान पर ले आओ। तभी यह ढंग से कार्य करती है। तब तुम अंग उपांग की समग्र क्रियाशीलता के गुंजार की ध्वनि को भी सुन सकते हो। यह एक सुव्यवस्था से क्रियारत कार की भांति है। हूं……? तुम इसे चलाते हो और तुम अपने चारों ओर इसकी गज की आवाज अनुभव कर सकते हो।

लेकिन जब चीजें गड़बड़ हो जाती हैं, तब निःसंदेह तुम अस्तव्यस्त उलटे—पुलटे हो जाते हो। कुछ भी वहां नहीं होता, जहां इसे होना चाहिए। हरेक चीज अपने स्वाभाविक केंद्र से खो चुकी होती है और किसी दूसरे स्थान पर अध्यारोपण करती हुई, छिपती हुई, पलायन करती हुई मिलती है। तुम एक अव्यवस्था बन जाते हो। और यही तो है पागलपन।

एक बार ऐसा हुआ:

एक पादरी मर गया और उसने स्वयं को स्वर्ग के द्वार पर खड़ा पाया। जैसे ही उसे भीतर लेने के लिए द्वार धीरे— धीरे खोला गया उसे एक अदभुत धूमधाम मालूम पड़ी, और फिर सारे सामान्य और विशिष्ट देवदूत, थलचर और नभचर स्वर्गदूत, सिंहासनारूढ़ और अधिष्ठाता, संत और धर्म के बलिदानी, ये सभी क्रमबद्ध रूप से अपने पदानुसार उसका सम्मान करने को अनुशासित ढंग से आए।

बहुत अच्छा, मैं तो गदगद हो गया, पादरी ने सेंट पीटर से पूछा, क्या स्वर्ग में आने वाले हर पादरी का आप ऐसा ही स्वागत—सत्कार करते हैं?

ओह नहीं, सेंट पीटर ने कहा, ऐसा इसलिए हुआ कि तुम यहां प्रवेश करने वाले पहले पादरी हो। और मैं तो इस पर भी शक करता हूं। पादरी स्वर्ग में प्रवेश नहीं पा सकते क्योंकि पादरी समग्र नहीं हो सकते। तो फिर वे पवित्र कैसे हो सकते हैं? असंभव।

और तुम मुझसे पूछते हो : ‘मैं इने समस्याओं की बदलियों से घिरा रहता हूं इसलिए जैसे मुझे आपको सुनना चाहिए उस प्रकार से नहीं सुन पाता हूं। कृपया मुझे मार्ग दिखाएं।’

तुम अभी तक मार्ग—निर्देशकों से उकताए नहीं। वे ही तुम्हारी समस्या हैं। और तुम अभी, तक ‘चाहिए’ से ऊबे नहीं हो। यही तुम्हारी पीड़ा है, सारा संताप है। सभी ‘चाहिए’ छोड़ दो, सारे मार्ग— निर्देशकों को हटा दो। यही एक मात्र मार्ग—निर्देशन मैं तुम्हें दे सकता हूं। पूर्णत: अकेले हो जाओ, उााऐर अपने भीतर की आवाज को सुनो। जीवन पर श्रद्धा रखो किसी और पर ‘नहीं। और जीवन सुंदर और आंतरिक रूप से मूल्यवान है। और यदि तुम जीवन के विरोध में हर किसी को सुनते हो, तो तुम भटक जाओगे।

इसलिए मैं उसे ही सच्चा सदगुरु कहता हूं जो तुम्हें तुम्हारी भीतरी आवाज वापस देने में सहायक हो। वह तुम्हें अपनी आवाज नहीं देता है। तुम्हें तुम्हारी स्वयं की खोई हुई आवाज पुन: पा लेने में सहायता देता है। वह तुम्हें निर्देशित भी नहीं करता, वास्तव में तो वह तुमसे सारे मार्गु—निर्देशक छीन लेता है ताकि तुम स्वयं अपने मार्ग—निर्देशक बन जाओ और तुम अपने जीवन को अपने हाथों में ले सको और तुम उत्तरदायी बन सको।

बार—बार किसी से पूछना, ‘मुझे क्या करना चाहिए?’ यही अनुत्तरदायित्व है।

और यही कारण है कि तुम मेरे साथ सदा झंझट में महसूस करते रहते हो। तुम चाहोगे कि मैं चम्मच से निवाला तुम्हारे मुंह में रख दूं ताकि तुम्हें कुछ भी न करना पड़े। मुझे ही सब कुछ करना चाहिए। चबाना और सब कुछ और मुझे तुम्हें चम्मच से खिलाना चाहिए। यह मैं नहीं करने वाला हूं क्योंकि यही तो दूसरों ने तुम्हारे साथ किया है और तुम्हें नष्ट कर दिया है।

मैं तुम्हें प्रेम करता हू। मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं तुम्हें अत्यंत प्रेम करता हू मेरे लिए ऐसा कर पाना असंभव है। मैं तुम्हें उत्तरदायी, अपने जीवन का दायित्व स्वयं सम्हालने वाला बनाना चाहता हूं। तुम अपने जीवन का दायित्व कब सम्हालोगे? तुम बच्चे नहीं हो, तुम असहाय नहीं हो।

मेरी सहायता तो तुम्हें इसी प्रकार से मिलेगी, तुमको बस तुम बना कर तुमको उस दिशा की ओर गतिशील करने में सहायक होकर, जो तुम्हारी नियति है।

प्रश्न:

 

आपने व्यक्ति भीतर सूर्य और चंद्र सम्मिलन और उसके पार जाने को कहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने से बाहर का जीवन—साथी होना उसके महत्‍व से कहीं ज्‍यादा उलझाव और पीड़ादायक है। जीवन साथी होना या न होना किस प्रकार से व्‍यक्‍ति की अंतर उन्‍मुखता और आध्‍यात्‍मिक विकास को बढाता या घटता है, कृपाया इसे स्‍पष्‍ट करें।

प्रश्न उलझाव का नहीं है। प्रश्न अनुभव की समृद्धि का है। यह तो उलझाव भरा ही होगा। तुम अकेले उलझन में हो, जब कोई पुरुष मित्र या महिला मित्र, ‘किसी पुरुष या स्त्री से तुम्हारा संग—साथ हो जाता है, तो निःसंदेह दो उलझे हुए व्यक्ति साथ—साथ हो जाते हैं। और यह कोई सामान्य जोड़ जैसा नहीं है, यह तो गुणा हो जाने वाला है। चीजें निश्चित रूप से उलझ जाती हैं।

लेकिन उसी जटिलता के द्वारा ही तुम्हें राह खोजनी है। यह एक चुनौती है। वह प्रत्येक स्त्री या पुरुष जिनसे तुम्हारा संपर्क होता है एक महान चुनौती है। तुम इन चुनौतियों से बच सकते हो। यही तो महात्मागण सदा से करते आ रहे हैं—संसार से पलायन, चुनौती से बच निकलना। निःसंदेह तुम अधिक स्थिरता, शांति अनुभव करोगे, तुम्हारा जीवन उलझन भरा नहीं होगा, किंतु तुम बहुत निर्धन होगे। और जब मैं कहता हूं निर्धन तो मेरा अभिप्राय है कि तुम अत्यंत अनुभवहीन अपरिपक्व होंगे। क्योंकि तुम परिपक्वता कहां से पा लोगे? जीवन जो समृद्धि और अनुभव लाता है वे तुम्हें कहां से मिल जाएंगे? और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है—इसे खरीदा नहीं जा सकता, इसे उधार नहीं लिया जा सकता। यह कोई हिमालय में भी नहीं छिपा है कि तुम जाओ और इसे खोद कर निकाल लाओ, यह वहां नहीं है। यह जीवन में निहित है, व्यक्तियों के साथ है, यह संबंधित होने में है।

इसलिए मैं जानता हूं कि यह जटिल है, लेकिन बस जटिलताओं की खातिर यदि तुम सोचते हो कि अकेले रहना उत्तम रहेगा तो तुम्हारा अकेलापन आध्यात्मिक होने नहीं जा रहा है। यह कायर का अकेलापन होगा, बहादुर आदमी का नहीं।

मैं तुमसे एक कहानी कहना चाहूंगा:

एक व्यक्ति जिसको बहुत कम सुनाई पड़ता था, अपने चिकित्सक से मिलने गया, उसने उसका भलीभांति परीक्षण किया और बोला, सत्तर वर्ष की आयु के लिहाज से आपकी सेहत काफी अच्छी है। क्या आप धूम्रपान करते हैं? चिकित्सक ने पूछा।

आपने क्या कहा? वृद्ध व्यक्ति ने पूछा।

मैंने पूछा, क्या आप धूम्रपान करते हैं? चिकित्सक ने जोर से कहा।

जी ही, वृद्ध व्यक्ति ने बताया।

अधिक मात्रा में? चिकित्सक ने पूछा।

कौन? वृद्ध व्यक्ति बोला।

क्या आप अधिक मात्रा में धूम्रपान करते हैं? चिकित्सक ने पूछा।

सिगरेट, सिंगार और कभी—कभी पाइप, ही, मैं सारा वक्त धूम्रपान करता रहता हूं उसने उसे बताया।

पीते हैं? चिकित्सक ने पूछा।

नौ बजे के बाद, वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया।

नहीं, नहीं, चिकित्सक ने कहा, क्या आप शराब पीते हैं?

जी ही, मैं कुछ भी पी लूंगा, वह बोला।

मेरा अनुमान है कि आप देर रात तक जागते हैं, खूब सारी पार्टियां? महिलाओं का साथ? अब तक चिकित्सक भी थोड़ा तंग आ चुका था।

निश्चित रूप से। और मैं लंबे समय तक यही कुछ करना चाहता हूं।

ठीक है, चिकित्सक ने कहा, मुझे भय है, आपको इस सब में कमी करनी पड़ेगी। क्या? वृद्ध व्यक्ति कम सुनाई पड़ने के कारण नहीं बल्कि आश्चर्य के कारण चिल्ला कर बोला!

आपको इस सब में कटौती करनी पड़ेगी, चिकित्सक ने चिल्ला कर कहा।

बस, ज्यादा बेहतर सुनने के लिए? वृद्ध व्यक्ति ने कहा, नहीं, धन्यवाद।

केवल जटिलताओं से बचने के लिए? नहीं, कभी नहीं। यह तो कायर का ढंग है। समस्याओं से कभी मत भागों। वे सहायक हैं आत्यांतिक रूप से सहायक हैं। विकास की स्थितियां हैं वे।

और यदि तुम किसी स्त्री की खोज में हो तो गौ जैसी पाने का प्रयास न करो। फिर कम जटिल हो जाएगी यह बात। एक असली स्त्री को खोजो जो तुम्हें हर तरह की झंझट में डालेगी। तभी तुम्हारे साहस की परख होगी।

एक नवयुवक ने सुकरात से पूछा, महोदय, क्या मैं विवाह करूं? और इसीलिए उसने सुकरात से पूछा क्योंकि वह सोच रहा था कि विवाह न करना पड़े। और तब उसे यह बात पूछने के लिए बिलकुल ठीक आदमी मिल गया, क्योंकि अपनी पत्नी के कारण सुकरात ने बहुत कष्ट उठाए थे। वह सच में भयंकर थी, मगरमच्छ जैसी। वह सुकरात को पीटा करती थी, उसने उसके चेहरे पर गर्म चाय की केटली उड़ेल दी थी और उसे जला दिया था—उसका आधा चेहरा सारे जीवन जला हुआ ही रहा। इतना सुंदर व्यक्ति, इतना सुंदर इनसान सुकरात जैसा, और उसे बहुत भयंकर स्त्री मिली थी। इसीलिए इस नवयुवक ने पूछा। सुकरात ने कहा : हां, अगर तुम मेरी बात सुनो तो विवाह कर लो। दो संभावनाएं हैं। यदि पत्नी मेरी पत्नी जैसी हो तो तुम मेरी तरह के महान दार्शनिक बन जाओगे। और यदि तुम्हें: कोई सुशील पत्नी मिल गई तो निःसंदेह तुम अपने जीवन का आनंद लोगे। दोनों संभावनाएं अच्छी ही हैं।

उसने कहा : तुम मेरी तरह के एक महान दार्शनिक बन जाओगे, बस लगातार बकझक, यह ध्यान में एक बड़ी सहायता है। धीरे— धीरे व्यक्ति अनासक्त होने लगता है। उसे होना ही पड़ेगा। व्यक्ति को अनुभव होने लगता है, यह सब कुछ भ्रम है, माया है।

इसलिए जीवन में जटिलताओं से मत बचो, क्योंकि जीवन का मतलब ही है जटिलताएं। सीखो उनसे होकर गुजरो, क्योंकि विकसित होने का यही एकमात्र ढंग है।

एक आवारा व्यक्ति ने किसी का दरवाजा खटखटाया, एक लंबी—चौड़ी विशाल और कठोर चेहरे वाली स्त्री ने दरवाजा खोला।

भागों यहां से, तुम कमबख्त आवारा, वह चिल्लाई। अगर तुम गए नहीं तो मैं अपने पति को बुलाती हूं।

मैं सोचता हूं ऐसा नहीं हो सकेगा,, वे घर में नहीं हैं, आवारागर्द ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया।

तुमने यह कैसे जाना? स्त्री ने पूछा।

क्योंकि, आवारा व्यक्ति बोला, जब कोई आदमी तुम जैसी औरत से शादी करता है तो वह केवल खाना खाने के समय ही घर में होता है।

यह प्रश्न आलोक ने पूछा है। आलोक, किसी वास्तविक प्रचंड स्त्री को खोज लो।

प्रश्न :

अब मुझको ऐसा लगता है कि जब तक कोई तैयार न हो, कुछ भी संभव नहीं है। मैं कई वर्षों से कुंजी खोज रहा था, मैंने कई बार आपसे भी पूछा, किंतु आप खामोश रहे। ओशो, एक दिन अचानक आपने मेरे हाथ में कुंजी रख दी। अब कुंजी मेरे पास है। लेकिन मैं स्‍वयं को ताला खोलने में असमर्थ हूं। मेरे भीतर अवरोध है। कुंजी मेरे पास है। मेरे सामने ताला भी है। फिर भी तब यह क्‍या हो रहा है? आप उपस्‍थितं है, मेरी असहाय अवस्‍था को देखिए। एक समय में सोचा करता था कि मेरे पास कुंजी नहीं है। और अशांत था, अब मेरे पास मेरी कुंजी है और मैं अधिक अशांत हूं। कृपया मेरी सहयता करें। ओशो, मैं जानता हूं कि आप सदा सहायता करते है, अवरोध है मेरे भीतर। कृपया मुझे बताएं उन्‍हें किस भांति हटाया जाए जिससे कि…….जिससे कि……

 

हली बात, जो कुंजी मैंने तुम्हें दी थी, नकली कुंजी है। क्योंकि असली कुंजी दी ही नहीं जा सकती। तुम्हें इसे अर्जित, इसे उपलब्ध करना पड़ेगा। क्योंकि तुम इस कदर मेरे पीछे पड़ गए थे, तो मैंने कहा, ठीक है, यह रखो, अब अपना सिर दीवाल से मत टकराते रहो। उस कुंजी को फेंक दो। तुम्हारे साथ कुछ भी गलत नहीं है, वह कुंजी नकली है। सारी कुंजियां नकली हैं। क्योंकि ताला तुम्हारा है। किसी और के पास से तुम्हें उसकी कुंजी कैसे मिल सकती है? तुम्हीं तो ताला हो! तुम्हें कुंजी अपने भीतर निर्मित करनी है, जिस प्रकार तुमने ताला बना लिया है।

और एक बार तुमने कुंजी बना ली, ताला विलुप्त हो जाता है; ऐसा नहीं है कि कुंजी को ही इसे खोलना पड़ता है। एक बार तुम जान लो, समस्या तिरोहित हो जाती है। ऐसा नहीं है कि समस्या का समाधान करने के लिए तुम्हें अपना ज्ञान प्रयोग करना पड़ता है। एक बार समझ आ जाए समस्या मिट जाती है। कुंजी और ताले का मिलन कभी नहीं होता। ताला वहां है ही इसलिए क्योंकि कुंजी नहीं है। जब कुंजी वहां होती है तो ताला बस खो जाता है, यह बचता ही नहीं।

और मैं कुंजी दे ही नहीं सकता। वह सारा कुछ जो उधार का है और ज्यादा झंझट पैदा करने वाला है, क्योंकि तुम तो पहले से ही जटिल हो और अब यह उधार की चीज तुम्हें और अधिक उलझनग्रस्त बना देती है।

मैंने सुना है, एक अति व्यस्त बिजनेस एक्वजूक्यूटिव डाक्टर से मिलने गया, उसे बताया गया कि उस पर काम का बोझ बहुत ज्यादा है और उसे व्यायाम करना चाहिए।

एक पहिया ले लीजिए और कार में चलने के बजाय इसे चलाते हुए रोज आफिस आएं—जाएं, इससे आप नये आदमी हो जाएंगे, डाक्टर ने बताया।

तो उसने एक पहिया खरीदा और जैसा डाक्टर ने कहा था करने लगा। प्रतिदिन वह इसे चलाता हुआ जाता और कार्यावधि में उसे गैरेज में रख दिया जाता। एक शाम जब वह किसी तरह घर को चला उसे पता लगा कि पहिया खो गया है, गैरेज वाले ने कहा, किसी गलती से उसका पहिया किसी और को दे दिया गया है। लेकिन चिंता न करें श्रीमान, उसने कहा, हम बिना कोई कीमत लिए कल दूसरा ला देंगे।

एक्जिक्यूटिव बोला : कल? कल से तुम्हारा क्या मतलब है? मैं आज रात अपने घर कैसे पहुंच पाऊंगा?

यदि समझ वहां नहीं हो, तो सारी विधियां सहायक होने के स्थान पर बाधाएं बन जाती हैं।

और अगर समझ मौजूद ही नहीं और तुम मेरी आंखों से देखना शुरू कर दो तो तुम्हारी आंखें देखना बंद तो नहीं कर देंगी, वे मेरी आंखों के माध्यम से देखती रहेंगी। इससे तो बहुत उलझन होने वाली है। एक और कहानी :

‘मैंने सुना है कि तुम्हारे पति ने घर की आग से पूरी की पूरी भौंहें जला डाली हैं? एक महिला ने अपनी सहेली से पूछा।

हां, उत्तर आया, लेकिन चिकित्सक ने उनका बेहतरीन इलाज किया। दरअसल उसने कुत्ते के पिछले पांव से बाल लेकर उनकी नई भौंहें प्रत्यारोपित कर दीं।’

यह तो आश्चर्यजनक है, उसकी मित्र ने कहा, अब कैसा चल रहा है?

ओह, कोई ज्यादा बुरा भी नहीं है, वह बोली, मैं तुम्हें बता दूं अब भी उन्हें कुछ समस्या है। जब भी बिजली के खंबे के पास से गुजरते हैं तो वे भौचक्के हो जाते हैं।

 

आज इतना ही।


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कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–5)

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“अकारण‘ के आत्यंतिक प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—पांचवां)

 दिनांक 27 सितंबर, 1970;

सांय, मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, श्रीकृष्ण के जन्म के समय क्या सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक स्थितियां थीं, जिनके कारण कृष्ण जैसी आत्मा के अवतरण होने का आधार बना? कृपया इस पर प्रकाश डालें।’

कृष्ण जैसी चेतना के जन्म के लिए सभी समय, सभी काल, सभी परिस्थितियां काम की हो सकती हैं। कोई काल, कोई परिस्थिति कृष्ण जैसी चेतना के पैदा होने का कारण नहीं होती है। यह दूसरी बात है कि किसी विशेष परिस्थिति में वैसी चेतना को विशेष व्यवहार करना पड़े। लेकिन ऐसी चेतनाएं काल-निर्भर नहीं होतीं। सिर्फ सोए हुए लोगों के अतिरिक्त काल पर कोई भी निर्भर नहीं होता। जागा हुआ कोई भी व्यक्ति अपने समय से पैदा नहीं होता। बल्कि बात बिलकुल उलटी है–जागा हुआ व्यक्ति अपने समय को अपने अनुकूल ढाल लेता है। सोए हुए व्यक्ति समय के अनुकूल पैदा होते हैं।

लेकिन हम सदा ऐसा सोचते रहे हैं कि कृष्ण शायद इसलिए पैदा होते हैं कि युग बहुत बुरा है, इसलिए पैदा होते हैं कि बहुत दुर्दिन हैं। इस समझ में बुनियादी भूल है। इसका मतलब यह हुआ कि कृष्ण जैसे व्यक्ति एक “कॉज़ल चेन’ में पैदा होते हैं, एक कार्य-कारण की शृंखला में पैदा होते हैं। इसका मतलब हुआ कि हमने कृष्ण के जन्म को भी “युटिलिटेरियन’ कर लिया, हमने उपयोगिता में ढाल दिया। इसका यह भी मतलब हुआ कि कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी हम अपनी सेवा के अर्थों में ही देख सकते हैं, और किसी अर्थों में नहीं देख सकते।

अगर रास्ते के किनारे फूल खिलें, तो राह से गुजरने वाला सोच सकता है कि मेरे लिए खिल रहा है। मेरे लिए सुगंध दे रहा है। हो सकता है अपनी डायरी में लिखे कि मैं जिस रास्ते से गुजरता हूं, मेरे कारण मेरे लिए फूल खिल जाते हैं। लेकिन फूल निर्जन रास्तों पर भी खिलते हैं। फूल किसी के लिए नहीं खिलते, फूल अपने लिए खिलते हैं। किसी दूसरे को सुगंध मिल जाती है, यह बात दूसरी है।

कृष्ण जैसे व्यक्ति किसी के लिए पैदा नहीं होते। अपने आनंद से ही जन्मते हैं। दूसरों को सुगंध मिल जाती है, यह बात दूसरी है। और ऐसा कौन-सा युग है, जिस में कृष्ण जैसा व्यक्ति पैदा हो तो हम उससे कोई उपयोग न लें सकेंगे? सभी युगों में ले लेंगे। सभी युगों में जरूरत है। सभी युग पीड़ित हैं, सभी युग दुखी हैं। तो कृष्ण जैसा व्यक्ति तो किसी भी क्षण में उपयोगी हो जाएगा। सुगंध ही चाह किस को नहीं है! किस के नासापुट सुगंध के लिए आतुर नहीं हैं! फूल किसी भी रास्ते पर खिले, और कोई भी गुजरे तो सुगंध ले लेगा। मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि कृष्ण जैसे व्यक्तियों को “युटिलिटेरियन’, उपयोगिता की भाषा में सोचना ही गलत है।

लेकिन हमारी मजबूरी है। हम हर चीज को उपयोग में सोचते हैं, किस उपयोग में आएगी? निरुपयोगी का हमारे लिए कोई मूल्य ही नहीं है, “परपजलेस’ का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं है। आकाश में बादल चलते हैं तो सोचते हैं कि शायद हमारे खेतों में वर्षा करने के लिए चलते हैं। अगर घड़ियां आपके हाथों पर बंधी सोच सकें, तो वे शायद यही सोचेंगी कि हम बंध सकें, इसलिए यह आदमी पैदा हुआ है। निश्चित ही चश्मे अगर सोच सकें, तो वे सोचेंगे कि हम लग सकें, इसलिए ये आंखें पैदा हुई हैं। लेकिन वे सोच नहीं सकते, इसलिए मजबूरी है। आदमी सोच सकता है तो वह हर चीज को “इगोसेंट्रिक’ कर लेता है। वह अपने अहंकार को केंद्र पर लेता है। वह कहता है, सब मेरे लिए है। कृष्ण जन्मते हैं तो मेरे लिए, बुद्ध जन्मते हैं तो मेरे लिए, फूल खिलते हैं तो मेरे लिए, चांदत्तारे चलते हैं तो मेरे लिए। आदमी के लिए सब चल रहा है। आकाश में चांदत्तारे चलते हैं वे भी हमारे लिए, सूरज निकलता है वह भी हमारे लिए है। यह दूसरी बात है कि सूरज के निकलने से हम रोशनी ले लेते हैं, लेकिन हमें रोशनी देने को सूरज नहीं निकलता है।

जिंदगी की धारा उपयोगिता की धारा नहीं है। उपयोगिता की भाषा में ही सोचना गलत है। जिंदगी में सब हो रहा है, किसी के लिए नहीं, होने के लिए ही। फूल खिल रहे हैं अपने आनंद में, नदियां बह रही हैं अपने आनंद में, बादल चल रहे हैं अपने आनंद में, चांदत्तारे चल रहे हैं अपने आनंद में। आप किस के लिए पैदा हुए हैं? आप किस कारण पैदा हुए हैं? आप अपने आनंद में ही जी रहे हैं। और कृष्ण जैसा व्यक्ति तो पूरी तरह अपने आनंद में जी रहा है। ऐसा व्यक्ति कभी भी पैदा हो जाए तो हम जरूर उसका कुछ उपयोग करेंगे। सूरज कभी भी निकले तो हम उसकी रोशनी अपने घरों में ले जाएंगे। और बादल कभी भी बरसें, हम फसल पैदा करेंगे। और फूल कभी भी खिलें, हम उनकी मालाएं बनाएंगे। लेकिन इस सब के लिए यह नहीं हो रहा है।

लेकिन निरंतर हम इसी भाषा में सोचते हैं–महावीर क्यों पैदा हुए? कौन-सी राजनैतिक स्थिति थी जिससे महावीर पैदा हुए? बुद्ध क्यों पैदा हुए? कौन-सी सामाजिक स्थिति थी जिससे बुद्ध पैदा हुए? ध्यान रहे, इसमें एक और खतरनाक बात है, और वह यह है कि व्यक्ति की चेतना सामाजिक परिस्थितियों से पैदा होती है, ऐसा माक्र्स का सोचना था। माक्र्स कहता था कि चेतना परिस्थितियां नहीं बनाती, परिस्थितियों से चेतना जन्मती है। लेकिन जो नहीं हैं कम्यूनिस्ट, वह भी इसी तरह सोचते हैं। उन्हें पता नहीं होगा कि जिन लोगों ने भी कभी यह कहा है कि इस कारण से महावीर पैदा हुए, इस कारण से कृष्ण पैदा हुए, वे यह कह रहे हैं कि समाज की परिस्थितियां उनके जन्म का कारण हैं। नहीं, समाज की परिस्थितियां उनके जन्म का कारण नहीं हैं। और समाज की ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं है जो कृष्ण जैसी चेतना को जन्म दे दे। समाज तो बहुत पीछे होता है कृष्ण जब पैदा होते हैं। समाज तो बहुत पीछे होता है, कृष्ण जैसी चेतना को जन्म देने की क्षमता उसकी नहीं है। बल्कि कृष्ण ही पैदा करके उस समाज को नई दिशाएं अनजाने में दे जाते हैं। नए मार्ग दे जाते हैं, नई शक्ल, नई रूपरेखा दे जाते हैं।

मैं परिस्थितियों को बहुत मूल्य नहीं देता। मैं मूल्य चेतना को “कांशसनेस’ को ज्यादा देता हूं। और आपसे यह कहना चाहूंगा कि जीवन उपयोगितावादी नहीं है, जीवन खेल जैसा है, लीला जैसा है। एक आदमी जा रहा है रास्ते पर। उसे कहीं पहुंचना है। उसे कोई मंजिल, कोई मुकाम, उसे किसी काम के लिए जाना है। यह आदमी भी चलता है रास्ते पर। एक आदमी सुबह घूमने निकला है। उसे कहीं पहुंचना नहीं है, कहीं जाना नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, सिर्फ घूमने निकला है। लेकिन कभी आपने खयाल किया है कि वही रास्ता, जब आप काम करने के लिए निकलते हैं, तो बोझिल हो जाता है और वही रास्ता जब आप घूमने के लिए निकलते हैं, तो आनंदपूर्ण हो जाता है। वे ही पैर, जब काम करने को जाते हैं तो भारी हो जाते हैं। वे ही पैर, जब फिर घूमने को जाते हैं तो पर लग जाते हैं, हलके हो जाते हैं। वही आदमी जब काम करने जाता है तो उसके सिर पर मनों बोझ होता है; और उसी रास्ते पर, उन्हीं कदमों से, उतनी ही दूरी पूरी करता है–सिर्फ घूमने के लिए–तब कोई हिसाब नहीं उसके आनंद का, कोई बोझ नहीं होता है।

कृष्ण जैसे व्यक्ति किसी काम के लिए नहीं जीते। उनकी जिंदगी घूमने जैसी है, कहीं जाने जैसी नहीं। उनकी जिंदगी एक खेल है। निश्चित ही जिस रास्ते वे गुजरते हैं, उस रास्ते पर अगर कांटे पड़े हों, तो उसे हटा देते हैं। यह बिलकुल दूसरी बात है। यह भी उनके आनंद का हिस्सा है। लेकिन कृष्ण उस रास्ते से कांटों को हटाने के लिए नहीं निकले थे। निकले थे और कांटे पड़े थे तो वे हटा दिए हैं। और उस रास्ते पर अगर कोई आदमी यह न सोचे कि वह कोई “ट्रैफिक’ के, पुलिस के आदमी हैं कि उसके लिए खड़े थे वहां, रास्ता बताने को। वह वहां से निकले थे, आपने पूछा है, उन्होंने बता दिया। यह सब “नान-कॉज़ल’ है। इसके कार्य-कारण की कोई शृंखला नहीं है। इसलिए मैं कृष्ण को या बुद्ध को, या क्राइस्ट को, या महावीर को हमारी शृंखला में सोचने के लिए तैयार नहीं हूं। वे घटित होते हैं अकारण। या कहें कि उनके कारण उनके आंतरिक हैं, हमारे सामाजिक और बाह्य कारण नहीं हैं।

व्यक्ति की आत्मा और व्यक्ति की चेतना का अर्थ ही यही है कि व्यक्ति की चेतना भीतर परम स्वतंत्र है। उसे कोई बांधता नहीं। उसे कोई बांध नहीं सकता।

एक बहुत बड़े ज्योतिषी के संबंध में मैंने सुना है कि उसके गांव के लोग उस ज्योतिषी से बहुत परेशान हो गए थे। वह जो भी कहता था, वह ठीक निकल जाता था। तब उस गांव के दो युवकों ने सोचा कि कभी तो एक बार इस ज्योतिषी को गलत करना जरूरी है। सर्दी के दिन थे, वे अपने बड़े “ओवर कोट’ के भीतर एक कबूतर को छिपाकर उस ज्योतिषी के पास पहुंचे और उस ज्योतिषी से उन्होंने कहा कि इस कोट के भीतर हमने एक कबूतर छिपा रखा है, हम आपसे पूछने आए हैं कि वह जिंदा है या मरा हुआ है? वे यह तय करके आए थे कि अगर वह कहे जिंदा है, तो भीतर उसकी गर्दन मरोड़ देनी है। मरा हुआ कबूतर बाहर निकालना है। अगर वह कहे मरा हुआ है, तो कबूतर को जिंदा ही बाहर निकाल दें। एक दफा तो मौका होना ही चाहिए कि ज्योतिषी गलत हो जाए। उस बूढ़े ज्योतिषी ने नीचे से ऊपर देखा, और उसने जो वक्तव्य दिया वह बहुत अदभुत था। उसने कहा, “इट इज इन योर हैंड’। उसने कहा, न कबूतर जिंदा है, न मरा है, तुम्हारे हाथ में है। तुम्हारी जैसी मर्जी। उन युवकों ने कहा, बड़ा धोखा दे दिया आपने!

जिंदगी हमारे हाथों में है। और कृष्ण जैसे लोगों के तो बिलकुल हाथों में है। वे जैसे जीना चाहते हैं, वैसा ही जीते हैं। न कोई समाज, न कोई परिस्थिति, न कोई बाहरी दबाव उसमें कोई फर्क ला पाता है। उनका होना अपना होना है। निश्चित ही कुछ फर्क हमें दिखाई पड़ते हैं, वे दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि हमारे बीच जीते हैं, बहुत-सी घटनाएं घटती हैं, जो हमारे बीच घटती हैं जो कि नहीं घटी होतीं अगर किसी और समय में वे होते। लेकिन वे गौण हैं, “इर्रेलेवेंट’ हैं, असंगत हैं, उनसे कृष्ण के आंतरिक जीवन को कोई लेना-देना नहीं है।

इसलिए कृपा करके, कृष्ण किसी समाज के लिए पैदा नहीं होते, न किसी राजनैतिक स्थिति के लिए पैदा होते हैं। न किसी के बचाने के लिए पैदा होते हैं। हां, बहुत लोग बच जाते हैं, यह बिलकुल दूसरी बात है। बहुत लोगों को रास्ता मिल जाता है, यह बिलकुल दूसरी बात है। कृष्ण तो अपने आनंद में खिलते हैं; और यह खिलना वैसे ही अकारण है जैसे आकाश में बादलों का चलना, जमीन पर फूलों का खिलना, हवाओं का बहना। यह उतना ही अकारण है। लेकिन हम इतने अकारण नहीं हैं, इसलिए कठिनाई होती है समझने में। हम तो कारण से जीते हैं। हम तो किसी को प्रेम भी करते हैं तो भी कारण से करते हैं। प्रेम भी हम कारण से कहते हैं, प्रेम का फूल भी अकारण नहीं खिल पाता। हम बिना कारण के तो कुछ भी कर ही नहीं सकते। और ध्यान रहे, जब तक आपकी जिंदगी में बिना कारण के किसी करने का जन्म न हो, तब तक आपकी जिंदगी में धर्म का भी जन्म नहीं होगा। जिस दिन आपकी जिंदगी में कुछ अकारण भी होने लगे, कि आप बिना कारण करते हैं, “अनकंडीशनल’, कोई वजह नहीं थी करने की, करने का आनंद ही एकमात्र वजह थी।

“आपने कहा कि कृष्ण का जन्म अकारण है। लेकिन गीता में कृष्ण ही कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है, तबत्तब मुझे आना पड़ता है। कृपया इसे स्पष्ट करें।’

हां, कृष्ण कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है, तबत्तब मुझे आना पड़ता है।

इसका क्या मतलब होगा फिर?

यह वही व्यक्ति कह सकता है, जो परम स्वतंत्र हो। आप तो नहीं कह सकते कि जब-जब ऐसा होगा, मैं आऊंगा। आप यह भी नहीं कह सकते कि अगर ऐसा नहीं होगा तो मैं नहीं आऊंगा। हमारा आना बंधा हुआ आना है। लंबे कर्मों का बंधन है हमारा, “कॉज़ल चेन’ है। हम ऐसा वायदा नहीं कर सकते; हम ऐसी “प्रॉमिस’ नहीं दे सकते। हम हिम्मत भी नहीं कर सकते ऐसा वायदा करने की। कृष्ण यह भी हिम्मत कर रहे हैं। इस हिम्मत का भी कारण वही है कि वे किसी कारण से नहीं जीते हैं बंधकर, उनकी मौज है, इस मौज से कुछ भी निकल सकता है। यह वायदा स्वतंत्र चेतना से ही संभव है। अगर कृष्ण कहते हैं मैं आ जाऊंगा ऐसी स्थिति अगर हुई, तो स्थिति के कारण नहीं कृष्ण आ जाएंगे, अपनी स्वतंत्रता के कारण आ जाएंगे। स्थिति के कारण नहीं। कृष्ण यह नहीं कहते हैं कि अगर ऐसी स्थिति हुई, तो मजबूरी है। ऐसा नहीं है। यह “प्रॉमिस’ है, यह वचन है। आ जाऊंगा, ऐसी स्थिति हुई। लेकिन यह वचन कौन दे सकता है?

एक बहुत अदभुत घटना महाभारत में है। सुबह है एक दिन, भीम और युधिष्ठिर अपने घर के बाहर बैठे हैं, और एक भिखारी भीख मांगने आ गया, और युधिष्ठिर ने उससे कहा कि तुम कल आ जाना। अभी थोड़ा काम में हूं, अच्छा हो कि कल आ जाओ।

भिखारी चला गया। भीम बैठकर यह सुनता था। उसने पास में पड़ा हुआ ढोल उठा लिया और बजाता हुआ और गांव की तरफ भागा। युधिष्ठिर ने कहा, यह क्या कर रहे हो? तो उसने कहा, समय न चूक जाए मैं गांव में खबर कर दूं कि मेरे भाई ने कल के लिए वचन दिया है, मेरा भाई समय का मालिक हो गया। मुझे पता नहीं था कि तुम समय के मालिक हो गए हो। तुम कल बचोगे, पक्का है? कल यह भिखारी बचेगा, पक्का है? कल तुम दोनों मिल सकोगे, यह पक्का है? तुमने समय को जीत लिया, मैं जाऊं गांव में खबर कर दूं। क्योंकि मुझे कुछ भरोसा नहीं कि अगर घड़ी-दो घड़ी चूका तो मैं बचूंगा कि नहीं। इसलिए मैं ढोल लेकर दौड़ता हूं। युधिष्ठिर ने कहा ठहरो, मुझसे भूल हो गई। यह वचन तो केवल वे ही दे सकते हैं जो परम स्वतंत्र हैं, भिखारी को वापिस बुला लो। जो मुझे देना है, आज ही दे दूं, कल का कोई भरोसा नहीं है।

लेकिन कृष्ण कल का वायदा नहीं कर रहे हैं, बड़ा लंबा वायदा है। वायदा यह है कि जब भी, तब मैं आ जाऊंगा। यह कोई कैदी नहीं कर सकता वायदा। एक कारागृह में हम किसी कैदी को डाल दें, वह वायदा नहीं कर सकता। यह वायदा तो परम स्वतंत्रता ही कर सकती है कि मैं आ जाऊंगा। कोई जंजीरें नहीं हैं। लेकिन ध्यान रहे यह परिस्थितियों के कारण नहीं आना है, यह स्वतंत्र चेतना के कारण यह वायदा है।

इस फर्क को ठीक से समझ लेना।

इस वायदे में भी कृष्ण की सिर्फ इतनी ही सूचना है कि समय से, परिस्थितियों से मेरा कोई बंधन नहीं है। मैं स्वतंत्र हूं। यह स्वतंत्रता की ही घोषणा है। लेकिन कई बार घोषणाएं बड़ी उलटी होती हैं; तब हम बड़ी कठिनाई में पड़ जाते हैं। हम सोचते हैं, कृष्ण को भी आना पड़ेगा। जैसे पानी को गर्म करते हैं तो सौ डिग्री पर उसे भाप बनना पड़ता है। अगर पानी किसी दिन मुझसे कहे, मत घबड़ाओ, अगर गर्मी कम होगी तो नब्बे डिग्री पर भी भाप बन जाऊंगा, तो उस दिन समझना कि पानी स्वतंत्र हो गया, अब कोई सौ डिग्री का बंधन न रहा। ऐसे आश्वासन परिपूर्ण स्वतंत्रता के बोध से निकलते हैं। जहां परतंत्रता बिलकुल गिर गई है, वहां से ऐसे फूल खिल जाते हैं स्वतंत्रता के, आश्वासन के; अन्यथा नहीं खिलते।

नहीं, कोई कृष्ण जैसा व्यक्ति आपके कारण नहीं आता है, अपने कारण आता है। हम सब बंधे हुए चलते हैं।

“भगवान श्री, एक “कंडीशन’ उन्होंने रखी है–“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्…'; उसका क्या अर्थ है?’

“साधुओं की रक्षा के लिए और दुष्टों के अंत के लिए मैं आऊंगा।’ ठीक है।

दोनों का एक ही मतलब है। दुष्टों के अंत के लिए का भी वही मतलब है। दुष्ट का अंत कब होता है, यह थोड़ा समझने जैसा है।

दुष्ट का अंत कब होता है? मार डालने से? मार डालने से दुष्ट का अंत नहीं होता। क्योंकि कृष्ण भलीभांति जानते हैं कि मारने से कुछ मरता नहीं। दुष्ट का अंत तभी होता है जब उसे साधु बनाया जा सके, और कोई उपाय नहीं। मारने से दुष्ट का अंत नहीं होता। इससे सिर्फ दुष्ट का शरीर बदल जाएगा, और कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। दुष्ट का अंत एक ही स्थिति में होता है, जब वह साधु हो जाए। और बड़े मजे की बात है कि दूसरी बात उन्होंने कही कि साधुओं की रक्षा के लिए। साधुओं की रक्षा की जरूरत तभी पड़ती है जब वे दिखावटी साधु रह जाएं, अन्यथा नहीं पड़ती। एक साधु की रक्षा की क्या जरूरत होगी? साधु को भी रक्षा की जरूरत पड़ेगी तो फिर तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। साधुओं की रक्षा के लिए आऊंगा, इसका मतलब है, जिस दिन साधु झूठे साधु होंगे, असाधु होंगे, उस दिन मैं आऊंगा। सिर्फ असाधु के लिए ही रक्षा की जरूरत पड़ सकती है, जो दिखाई पड़ता हो साधु हो। अन्यथा साधु को क्या रक्षा की जरूरत हो सकती है? और कृष्ण आएंगे भी तो साधु कहेंगे, आप नाहक मेहनत न करें, हम अपनी असुरक्षा में भी सुरक्षित हैं। साधु का मतलब ही यह होता, “सिक्योर इन हिज इनसिक्योरिटी’। अपनी असुरक्षा में जो सुरक्षित है, उसी का नाम साधु है। अपने खतरे में भी जो “एट ईज’ है, उसी का नाम साधु है। साधु का मतलब ही यही है कि जिसके लिए अब कोई असुरक्षा न रही, जिसके लिए कोई “इनसिक्योरिटी’ न रही। कृष्ण को क्या जरूरत होगी उसको बचाने की?

यह वचन बहुत मजेदार है, इसमें कृष्ण यह कहते हैं कि साधुओं को बचाने आना पड़ेगा। जिस दिन साधु साधु नहीं होगा, असाधु ही साधु दिखाई पड़ेंगे, उस दिन बचाने आना पड़ेगा और उसी दिन दुष्टों को भी बदलने की जरूरत पड़ेगी। नहीं तो यह काम तो साधु भी कर ले सकते हैं, इसके लिए कृष्ण की क्या जरूरत है? कृष्ण की जरूरत उसी दिन पड़ सकती है। दुष्ट को मारने का काम तो कोई भी कर ले सकता है। हम सभी करते हैं, अदालतें करती हैं, दंड करता है, कानून करता है, यह सब दुष्टों को मारने का काम है; दुष्टों को बदलने का काम, “ट्रांसफार्मेशन’ का काम नहीं है। दुष्ट साधु बनाए जा सकें। लेकिन जिस दुनिया में साधु भी असाधु होगा, उस दुनिया में दुष्ट की क्या स्थिति होगी?

लेकिन इस वाक्य को भी बड़ा अजीब समझा गया है। साधु समझते हैं, हमारी रक्षा के लिए आएंगे। और जिसको अभी रक्षा की जरूरत है, वह साधु नहीं है। और दुष्ट समझते हैं कि हमें मारने के लिए आएंगे। दुष्टों का समझना ठीक है क्योंकि दुष्ट दूसरे को मारने को उत्सुक और आतुर रहते हैं, उनको एक ही खयाल आ सकता है कि हमें मारने को। लेकिन कोई मारा तो जा नहीं सकता, वह वापिस लौटकर वही हो जाता है। वह नासमझी कृष्ण नहीं कर सकते।

“दुष्टों के विनाश के लिए’। दुष्ट का विनाश ऐसा होता है साधुता से। “साधुओं की रक्षा के लिए’। साधुओं की रक्षा की जरूरत पड़ती है जब साधु सिर्फ “एपियरेंस’, दिखावा रह जाता है। भीतर उसकी कोई आत्मा साधुता की नहीं रह जाती। यह वचन बहुत अदभुत है।

लेकिन साधुजन बैठकर अपने मठों में इस पर विचार करते रहते हैं कि बड़ी अपने ऊपर कृपा है! जब दिक्कत आएगी तो जरूर आएंगे। दिक्कत, तो! और साधु अपने मन में इससे भी तृप्ति पाता है कि जो-जो हमें सता रहे हैं वे दुष्ट हैं। साधु की दुष्ट की यही परिभाषा होती है, कि जो-जो साधु को सता रहा है, वह दुष्ट है। जबकि साधु की आंतरिक व्यवस्था यह है कि जो उसे सताए, वह भी उसे मित्र मालूम होना चाहिए, दुष्ट नहीं मालूम होना चाहिए। अगर सताने वाला शत्रु मालूम पड़ने लगे, दुष्ट मालूम पड़ने लगे, तो यह जो सताया गया है साधु नहीं है। साधु का तो मतलब यह है कि जिसे अब शत्रु दिखाई नहीं पड़ता। उसे सताओ तो भी दिखाई नहीं पड़ता। तो साधु बैठकर सोचते रहते हैं–अर्थात असाधु बैठकर सोचते रहते हैं–कि हमारी रक्षा के लिए, और ये जो दुष्ट हमें सता रहे हैं इनके नाश के लिए वे आएंगे। इसलिए गीता के इस वचन का बड़ा पाठ चलता है। इस वचन पर बड़े मन से, भाव से लोग लगे रहते हैं।

लेकिन उन्हें पता नहीं कि यह वचन साधुओं के लिए बड़ी मजाक है। इस वचन में बड़ा व्यंग्य है। व्यंग्य गहरा है और ऊपर से एकदम दिखाई नहीं पड़ता है। कृष्ण जैसे लोग जब मजाक करते हैं तो गहरी ही करते हैं! कोई साधारण मजाक नहीं करेंगे, सदियां लग जाती हैं मजाक को समझने में। कहावत है कि अगर कोई मजाक कही जाए तो सुनने वाले लोग तीन किश्तों में हंसते हैं। पहले तो वे लोग हंसते हैं जो उसी वक्त समझ जाते हैं, दूसरे लोग इन हंसते हुए लोगों को देखकर हंसते हैं कि कुछ मामला हो गया। तीसरे लोग कुछ भी नहीं समझते। वे सिर्फ यह सोचकर कि कहीं हम नासमझ न समझे जाएं, सब हंस रहे हैं तो हमें हंस देना चाहिए। मजाक को समझने में भी वक्त लग जाता है। और कृष्ण जैसे लोग जब मजाक करते हैं तब तो बहुत वक्त लग जाता है। अब इस वचन में बड़ा व्यंग्य है, बड़ी मजाक है। गहरी मजाक है साधु के ऊपर। और वह मजाक यह है कि एक वक्त आएगा कि साधु को भी रक्षा की जरूरत पड़ेगी।

“भगवान श्री, पुराण-कथाओं के आधार पर पता चलता है कि कृष्ण ही राम का रूप लेकर आते हैं और राम ही कृष्ण का रूप लेकर आते हैं। ये दोनों व्यक्ति क्या एक ही हैं? इस संबंध में आप प्रकाश डालें।’

 

स संबंध को दोत्तीन बातें समझने से समझा जा सकता है।

जगत की सृजन की जो प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया में सदा से ही जिन्होंने खोज की है उन्होंने पाया कि वह प्रक्रिया तीन चीजों पर निर्भर है। वह “थ्री फोल्ड’ है। अभी विज्ञान ने भी जब खोज किया अणु की, तो उसने पाया कि अणु भी गहरे में तोड़ने पर तीन चीजों में टूट जाता है। वह जो अंतिम हमारी उपलब्धि है विज्ञान की, वह भी कहती है, “इलेक्ट्रॉन’, “प्रोटॉन’, और न्यूट्रॉन’ में अणु टूट जाता है। जिन लोगों ने धर्म के जगत में बड़ी गहरी अंतर्दृष्टि पाई थी, उन्होंने भी जगत को तीन हिस्सों में तोड़कर देखा था। विष्णु उन्हीं तीन के एक हिस्से हैं।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ये तीन शब्द धर्म के द्वारा जगत की सृजन-प्रक्रिया के तीन हिस्सों के नाम हैं। और इन तीनों के तीन अर्थ हैं। इसमें ब्रह्मा जन्मदाता, स्रष्टा, बनानेवाला, “क्रिएटिव फोर्स’ है। इसमें शंकर, शिव–महेश–विध्वंस, प्रलय, विनाश, अंत की शक्ति है। विष्णु इन दोनों के बीच में है–संस्थापक, चलानेवाला। मृत्यु है, जन्म है और बीच में फैला हुआ जीवन है। जिसकी शुरुआत हुई है, उसका अंत होगा। और शुरुआत और अंत के बीच में फैला हुआ जीवन है। जिसकी शुरुआत शिव के बीच की यात्रा हैं। ब्रह्मा की एक दफे जरूरत पड़ेगी सृजन के क्षण में। और शिव की एक बार जरूरत पड़ेगी विध्वंस के क्षण में। और विष्णु की जरूरत दोनों बिंदुओं के मध्य में। सृजन और विध्वंस, और दोनों के बीच में जीवन। जन्म और मृत्यु, और दोनों के बीच जीवन।

ये तीन जो नाम हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश के, ये व्यक्तियों के नाम नहीं हैं। ये कोई व्यक्ति नहीं हैं, ये सिर्फ शक्तियों के नाम हैं। और जैसा मैंने कहा, सृजन की तो एक दिन जरूरत पड़ती है, फिर विध्वंस की एक दिन जरूरत पड़ती है, लेकिन बीच में जीवन की जो जरूरत है, वह जीवन की जो ऊर्जा है, “लाइफ एनर्जी’, या जिसको बर्गसन ने “एलान वाइटल’ कहा है, वही विष्णु है। इसलिए इस देश के सभी अवतार विष्णु के अवतार हैं। असल में सभी अवतार विष्णु के ही होंगे। आप भी अवतार विष्णु के ही हैं। अवतरण ही विष्णु का होगा। जीवन का नाम विष्णु है। ऐसा न समझ लेना कि जो व्यक्ति राम था, वही व्यक्ति कृष्ण है। नहीं, जो ऊर्जा, जो “एनर्जी’, जो “एलान वाइटल’ राम में प्रगट हुआ था, वही कृष्ण में प्रगट है–और वही आप में भी प्रगट हो रहा है। और ऐसा नहीं है कि जो राम में प्रगट हुआ था वही रावण में प्रगट नहीं हो रहा है। हो तो वही प्रगट हो रहा है। वह जरा भटके हुए विष्णु हैं, और कोई बात नहीं है। वह जरा रास्ते से उतर गई जीवन-ऊर्जा है, और कोई बात नहीं है।

समस्त जीवन का नाम विष्णु है। समस्त अवतरण विष्णु का है। लेकिन भूल होती रही है, क्योंकि हम विष्णु को ही व्यक्ति बना लिए। राम एक व्यक्ति नहीं हैं। कृष्ण एक व्यक्ति हैं, विष्णु व्यक्ति नहीं हैं। विष्णु केवल शक्ति का नाम है।

लेकिन पुरानी सारी अंतर्दृष्टियां काव्य में प्रगट हुईं। इसलिए स्वभावतः काव्य प्रत्येक शक्ति को व्यक्तिवाची बना लेता है। बनाएगा ही अन्यथा बात नहीं हो सकती, और उससे बड़ी पहेलियां पैदा हो जाती हैं।

मैंने सुना है, एक आदमी मर रहा है। वह मरणशैया पर पड़ा है। वह ईसाई है और चर्च का पादरी उसे आखिरी प्रायश्चित्त कराने आया है, “रिपेंटेंस’ कराने आया है। नियमानुसार उस मरते हुए आदमी से उस पुरोहित ने पूछा, “डू यू बिलीव इन गॉड दि फादर?’ वह आदमी चुप रहा। फिर दुबारा उससे पूछा कि “डू यू बिलीव इन गॉड दि सन?’ वह आदमी फिर भी चुप रहा। फिर उस पुरोहित ने पूछा कि “एंड डू यू बिलीव इन गॉड दि होली घोस्ट?’ ये ईसाइयों के तीन नाम हैं। गॉड, सन, होली घोस्ट। परमात्मा, पुत्र और पवित्र आत्मा। ये उनके तीन नाम हैं। तो उसने पूछा कि क्या तुम पितारूपी परमात्मा में विश्वास करते हो? क्या तुम पुत्ररूपी परमात्मा में विश्वास करते हो? क्या तुम पवित्र आत्मारूपी परमात्मा में विश्वास करते हो? उस मरते हुए आदमी ने अपने आसपास खड़े हुए लोगों से कहा, “लुक, हियर आय एक डाइंग एंड दिस फेलो इज आस्किंग मी पजॅल्स!’ इधर तो मैं मर रहा हूं, और यह सज्जन पहेलियां पूछ रहे हैं! स्वभावतः, उस मरते हुए आदमी को ये पहेलियां थीं। मरते हुए आदमी को ही पहेलियां नहीं हैं, हम जीवित आदमियों को भी बड़ी-से-बड़ी पहेली जीवन की पहेली है।

क्या है यह जीवन? कैसे जन्मता, कैसे चलता, कैसे समाप्त होता? क्या है इसकी ऊर्जा? जो इसे फैलाती, चलाती, सिकोड़ती, विदा करवा देती। विज्ञान वैज्ञानिक ढंग के नाम देता है। वह कहता है, “इलेक्ट्रॉन’ हैं, “प्रोटॉन’ हैं, “न्यूट्रॉन’ हैं। ये तीन भी बड़े मजे के शब्द हैं। इनमें एक विधायक शक्ति का नाम है, “प्रोट्रॉन’। “पॉजिटिव इलेक्ट्रॉन’, विधायक विद्युत। कहना चाहिए ब्रह्मा। दूसरा शब्द है, “इलेक्ट्रॉन’। वह “निगेटिव इलेक्ट्रिसिटी’, निषेधात्मक विद्युत। कहना चाहिए, शिव, शंकर। और तीसरा है “न्यूट्रॉन’ जो दोनों के बीच डोलता और जोड़ता है। कहना चाहिए, विष्णु। वह सिर्फ भाषा एक विज्ञान की है, एक धर्म की है, उससे ज्यादा फर्क नहीं है। सारा जीवन विष्णु का अवतरण है। फूल खिलते हैं तो विष्णु खिलते हैं, हवाएं बहती हैं तो विष्णु बहते हैं। नदियां दौड़ती हैं तो विष्णु दौड़ते हैं। वृक्ष बड़े होते हैं तो विष्णु बड़े होते हैं। आदमी जन्मता है, बढ़ता है, जीता है, तो विष्णु। सब घड़ियां मृत्यु की शंकर की हैं। जब आदमी मरता है, तब विष्णु “चार्ज’ सौंप देते हैं, तत्काल। वह शंकर के हाथ में चला जाता है मामला। इसीलिए तो शंकर को कोई अपनी लड़की देने को राजी नहीं होता था। मृत्यु के हाथों में कौन लड़की को दे! विध्वंस के हाथों में कौन स्त्री को दे, जो कि मूलतः सृजन की धारा है।

विष्णु के अवतार का मतलब यह नहीं है कि विष्णु नाम के व्यक्ति राम में हुए, फिर कृष्ण में हुए, फिर किसी और में हुए। नहीं, विष्णु नाम की ऊर्जा राम में उतरी, कृष्ण में उतरी, सब में उतरती है, उतरती रहेगी। शंकर नाम की ऊर्जा है, उसे विदा देती रहेगी। इस तरह समझेंगे तो बात सीधी और साफ समझ में आ सकती है। फिर पहेली नहीं रह जाती, फिर पहेली नहीं है।

जीवन में कोई भी चीज निर्माण करनी हो तो जो न्यूनतम संख्या है, वह तीन है। इससे न्यून संख्या से काम नहीं चलेगा। दो से काम नहीं चलेगा। एक से तो चल ही नहीं सकता। एक तो बिलकुल एकरूप हो जाएगा सब। एक रंग, एकरस हो जाएगा। सब वैविध्य खो जाएगा। दो भी काफी नहीं है क्योंकि दो को जोड़ने के लिए सदा तीसरे की जरूरत पड़ेगी। अन्यथा वे अजुड़े रह जाएंगे, अनजुड़े रह जाएंगे, अलग-अलग रह जाएंगे। न्यूनतम जो संभावना है जगत की, विकास की, वह तीन से शुरू होती है। तीन से ज्यादा हो सकता है, तीन से कम करना मुश्किल पड़ेगा। लेकिन वे तीन भी एक की ही शक्लें हैं। इसलिए हमने त्रिमूर्ति बनाई। इसलिए हमने इन देवताओं को अलग-अलग नहीं रखा। क्योंकि अलग-अलग रखने से भूल हो जाती है। क्योंकि अगर ये तीन देवता अलग हों, तो फिर इनको जोड़ने की जरूरत पड़ जाएगी, और यह अंतहीन, “इनफिनिट रिग्रेस’ हो जाएगी। इसमें कोई हिसाब लगाना मुश्किल हो जाएगा कि कहां रुकें। इसलिए ये तीन चेहरे एक ही ऊर्जा के, एक ही “एलान वाइटल’ के, एक ही जीवन-शक्ति के तीन चेहरे हैं। वही जन्म लेता, वही चलाता, वही विदा करता है। लेकिन, “ऑफिशियली’ तीन हिस्सों में हम बांटते हैं। वे तीन हिस्से जो हैं, “ऑफिशियल डिवीजन’ हैं। वह सिर्फ काम का बंटवारा है, “डिवीजन आफ लेबर’ है। जीवन-ऊर्जा तीन हिस्सों में बंटकर सारे जगत का विस्तार करती है।

“श्रीकृष्ण की लीलाएं अनुकरणीय हैं या चिंतनीय? जो अनुकरण करने जाएगा, वह पतित नहीं होगा?’

 

रे हुए आदमियों को कृष्ण से जरा दूर रहना चाहिए!…(सब तरफ हास्य)…ठीक सवाल पूछते हैं।

अनुकरणीय कृष्ण तो क्या, कोई भी नहीं है। और ऐसा नहीं है कि कृष्ण का अनुकरण करने जाएगा, तो पतित होगा। किसी का भी अनुकरण करने जाएगा तो पतित होगा। अनुकरण ही पतन है। कृष्ण के संबंध में लेकिन हम विशेष रूप से पूछते हैं। महावीर के संबंध में नहीं पूछेंगे ऐसा, बुद्ध के संबंध में नहीं पूछेंगे, राम के संबंध में नहीं पूछेंगे ऐसा। कोई नहीं कह सकेगा कि राम का अनुकरण करने जाएंगे तो पतन हो जाएगा। अकेले कृष्ण पर यह सवाल क्यों उठता है? राम का तो हम अपने बच्चों को समझाएंगे कि अनुकरण करो। कृष्ण के मामले में कहेंगे, जरा सावधानी से चलना। इसीलिए तो, हमारा डरा हुआ मन!

लेकिन मैं आपसे कहता हूं, अनुकरण ही पतन है, किसी का भी अनुकरण पतन है। अनुकरण किया कि आप गए, आप खो गए। न तो कृष्ण अनुकरणीय हैं, न कोई और। वे सब चिंतनीय हैं, सब विचार करने योग्य हैं। बुद्ध भी, महावीर भी, क्राइस्ट भी, कृष्ण भी। और मजे की बात यह है कि बुद्ध पर विचार करने में इतनी कठिनाई न होगी। और न क्राइस्ट पर विचार करने में इतनी कठिनाई होगी। असली कठिनाई कृष्ण पर ही विचार करने में पैदा होगी। क्योंकि महावीर, बुद्ध या क्राइस्ट का जीवन विचार की पद्धतियों में समाया जा सकता है। उनके जीवन का ढंग मर्यादा है। उनके जीवन का ढंग सीमा है। कृष्ण का जीवन विचार में पूरा समा नहीं सकता। उनके जीवन का ढंग अमर्याद है, असीम है, उसको कहीं सीमा नहीं है। हमारी तो सीमा आ जाएगी, और वह हमसे कहेंगे, और आगे; वह हमसे कहेंगे, और आगे। हमारी तो जगह आ जाएगी जहां से आगे जाने में खतरा है, वह कहेंगे, और आगे।

लेकिन कृष्ण ही चिंतनीय बन जाते हैं इसलिए और भी ज्यादा। क्योंकि मेरी दृष्टि में वही चिंतनीय है जो अंततः चिंतन के पार ले जाए। चिंतन अंतिम बात नहीं है, चिंतन प्राथमिक चरण है। एक क्षण आना चाहिए जब चिंतन के ऊपर भी उठा जा सके। लेकिन चिंतन के ऊपर वही उठ आएगा जो चिंतन को डगमगा दे। और चिंतन के ऊपर वही उठ आएगा जो चिंतन को घबड़ा दे। और चिंतन के ऊपर वही उठ आएगा जो चिंतन में न समाए और चिंतन के बाहर चला जाए।

सभी चिंतनीय हैं। सभी सोचने योग्य हैं। अनुकरणीय तो सिर्फ आप ही हैं अपने लिए, और कोई नहीं। अपना अनुकरण करें, समझें सबको; अपने पीछे जाएंगे, किसी के पीछे न जाएं। समझें सबको, जाएं पीछे अपने।

लेकिन भय क्या है? कृष्ण के साथ सवाल क्यों उठता है? भय है। और भय यही है कि हमने अपनी जिंदगी को दमन की, “सप्रेशन’ की जिंदगी बना रखा है। हमारी जिंदगी जिंदगी कम, दबाव ज्यादा है। हमारी जिंदगी खालीपन नहीं है, “फ्लावरिंग’ नहीं है, कुंठा है। इसलिए डर लगता है कि अगर कृष्ण को हमने सोचा भी, तो कहीं ऐसा न हो कि जो हमने अपने में दबाया है, वह कहीं फूटकर बहने लगे। कहीं ऐसा न हो कि जो हमने अपने में रोका है, उसके रोकने के लिए जो हमने तर्क दिए हैं, वे टूट जाएं और गिर जाएं। कहीं ऐसा न हो कि हमने अपने भीतर ही अपनी बहुत-सी वृत्तियों को जो कारागृह में डाला है, वे बाहर निकल आएं, और वे कहें कि हमें बाहर आने दो। डर भीतर है। घबराहट भीतर है। लेकिन इसके लिए कृष्ण जिम्मेदार नहीं हैं। इसके लिए हम जिम्मेदार हैं। हमने अपने साथ यह दर्ुव्यवहार किया है। हमने अपने साथ ही यह अनाचार किया है। हमने अपने पूरे व्यक्तित्व को कभी न जाना, न स्वीकार, न जिआ। हमने उसमें बहुत कुछ दबाया है। और थोड़ा-बहुत जीने की कोशिश की है।

हम ऐसे लोग हैं, जैसे कि सभी लोग होते हैं साधारणतः, अगर किसी के घर में जाएं तो वह अपने बैठकखाने को साज-संवारकर, ठीक करके रख देता है। यह ड्राइंग रूम की दुनिया अलग है। लेकिन किसी के ड्राइंग रूम को देखकर यह मत समझ लेना कि यह उसका घर है। यह उसका घर है ही नहीं। न वह वहां खाना खाता, न वह वहां सोता, यहां वह सिर्फ मेहमानों का स्वागत करता है। यह सिर्फ चेहरा है जिसको वह दूसरों को दिखाता है। ड्राइंग रूम घर का हिस्सा नहीं है। ड्राइंग रूम घर से अलग बात है। इसलिए किसी का ड्राइंग रूम देखकर उसके घर का खयाल मत करना। उसका घर तो वहां है, जहां वह सोता है, लड़ता है, झगड़ता है, खाता है, पीता है, वहां उसका घर है। ड्राइंग रूम किसी का भी घर नहीं है। ड्राइंग रूम चेहरा है, “मास्क’ है, जो हम दूसरों को दिखाने के लिए बनाए हुए हैं। इसलिए ड्राइंग रूम जिंदगी की बात नहीं है। ऐसे ही हमने जिंदगी के साथ भी किया है। जिंदगी में हमने ड्राइंग रूम बनाए हैं, हमने चेहरे बनाए हैं, जो दूसरों को दिखाने के लिए हैं। वह हमारी असलियतें नहीं हैं, हमारा असली घर भीतर है–अंधेरे में डूबा हुआ, अचेतन में दबा हुआ। उसका हमें कोई पता भी नहीं है। हमने भी उसका पता लेना छोड़ दिया है। हम खुद भी डर गए हैं। यानी हम ऐसे आदमी हैं जो खुद भी अपने घर से डर गया है और वह ड्राइंग रूम में ही रहने लगा है। और खुद भी भीतर जाने में घबराता है। तो जिंदगी उथली हो ही जाएगी।

इससे कृष्ण से डर लगता है, क्योंकि कृष्ण पूरे घर में रहते हैं। और उन्होंने पूरे घर को बैठकखाना बना दिया है, और वह हर कोने से अतिथि का स्वागत करते हैं। जहां से भी आओ, वह कहते हैं, चलो यहीं बैठो। उनके पास बैठकखाना अलग नहीं है। उनकी पूरी जिंदगी खुली हुई है। उसमें जो है, वह है। उसका कोई इनकार नहीं, उसका कोई विरोध नहीं। उसको उन्होंने स्वीकार किया है। हम डरेंगे, हम हैं “सप्रेसिव’, हम हैं दमनकारी। हमने अपनी जिंदगी के निन्नयानबे प्रतिशत हिस्से को तो अंधेरे में ढकेल दिया है। और एक प्रतिशत को जी रहे हैं। वह निन्नयानबे प्रतिशत पूरे वक्त धक्के मार रहा है कि मुझे मौका दो जीने का। वह लड़ रहा है, वह संघर्ष कर रहा है, सपनों में टूट रहा है। जागने में भी टूट पड़ता है। रोज-रोज टूटता है, हम फिर उसे धक्का देकर पीछे कर आते हैं। जिंदगी भर इसी संघर्ष में बीत जाती है, उसको धकाते हैं, पीछे करते हैं। अपने से ही लड़ने में आदमी हार जाता है और समाप्त हो जाता है। इससे डर है कि अगर कृष्ण को समझा–यह बिना बैठकखाने का आदमी, यह बिना चेहरे का आदमी, इसकी पूरी जिंदगी एक जैसी है, सब तरफ से द्वार खोल रखे हैं इसने, कहीं से भी आओ स्वागत है, कुछ दबाया नहीं, अंधेरे को भी स्वीकार करता है, उजाले को भी स्वीकार करता है, कहीं इसे देखकर हमारी आत्मा बगावत न कर दे हमारे दमन से। कहीं हम ही अपने खिलाफ बगावत न कर दें। वह जो हमने इंतजाम किया है कहीं टूट न जाए, इसलिए डर है।

लेकिन यह डर भी विचारना।

यह डर कृष्ण के कारण नहीं है, यह हम जिस ढंग से जी रहे हैं उसके कारण है। अगर सीधा-साफ आदमी है और जिंदगी को सरलता से जीआ है, वह कृष्ण से नहीं डरेगा। डरने का कोई कारण नहीं है। जिंदगी में अगर कुछ भी नहीं दबाया है, कृष्ण से नहीं डरेगा। डरने का कोई कारण नहीं है। हमारे डर को भी हमें समझना चाहिए कि हम क्यों डर रहे हैं? और अगर हम डर रहे हैं, तो यह हमारी रुग्ण-अवस्था है, यह हम बीमार हैं। यह हम विक्षिप्त हैं और हमें इस स्थिति को बदलने की कोशिश करनी चाहिए। इसलिए कृष्ण तो बहुत विचारणीय हैं। लेकिन हम कहेंगे कि हम तो अच्छी-अच्छी बातों पर विचार करते हैं। क्योंकि अच्छी-अच्छी बातें हमें अपने को दबाने में सहयोगी बनती हैं। हम तो बुद्ध का वचन पढ़ते हैं जिसमें कहा है कि क्रोध मत करना। हम तो जीसस का वचन पढ़ते हैं जिसमें कहा है, शत्रु को भी प्रेम करना। हम कृष्ण से तो डरते हैं। यह डर! इस डर का तीर किस तरफ है? कृष्ण की तरफ कि अपनी तरफ?

और अगर कृष्ण से डर लगता है तब तो बड़ा अच्छा है। कृष्ण आपके काम पड़ सकते हैं। आपको खोलने में, उघाड़ने में, आपको नग्न करने में, आपको स्पष्ट-सीधा करने में काम पड़ सकते हैं। उनका उपयोग कर लें–उनको आने दें, उनको विचारें, बचें मत, भागें मत। उनके आमने-सामने खड़े हो जाएं। “एनकाउंटर’ होने दें। यह मुठभेड़ अच्छी होगी। इसमें अनुकरण नहीं करना है उनका। इसमें समझना ही है उनको। उनको समझने में ही आप अपने को समझने में बड़े सफल हो जाएंगे। उनको समझते-समझते ही आप अपने को भी समझ पाएंगे। उनको समझते-ही-समझते हो सकता है आप खुद अपने को समझने में अदभुत साक्षात्कार को उपलब्ध हो जाएं और जान पाएं कि यह तो मैं भी हूं, यही तो मैं हूं।

एक मित्र मेरे पास आए, और उन्होंने कहा, कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं, क्या आप इसमें भरोसा करते हैं? मैंने कहा कि छोड़ो इसे, मैं तुमसे पूछता हूं कि तुम्हारे मन में सोलह हजार से कम स्त्रियां तृप्ति दे सकती हैं? उन्होंने कहा, क्या कहते हैं आप? मैंने कहा, यह कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं या नहीं, सवाल बड़ा नहीं है, कोई पुरुष सोलह हजार स्त्रियों से कम पर राजी नहीं है। कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं अगर ऐसा पक्का हो जाए तो वह हमारे भीतर का जो पुरुष है वह घोषणा करेगा, तो फिर देर क्यों कर रहे हो? उससे हमें डर है। वह भीतर बैठा हुआ पुरुष हमें डरा रहा है। लेकिन उससे डरकर, भागकर, बचकर कुछ भी हो नहीं सकता है। उसका सामना करना पड़ेगा, समझना पड़ेगा।

इस संबंध में और भी बात कल कर सकेंगे।

…वर्षा आती है तो ध्यान में आनंद आएगा।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–85

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अहंकार का अंतिम आक्रमण—(प्रवचन—पांचवां)

योग—सूत्र:

(विभुतिपाद)

तद्वैराग्यादैपि दोषबीणखूये कैवस्युमू।। 51।।

इन शक्तियों से भी अनासक्त होने से, बंधन का बीज नष्ट हो जाता है। तब आता है कैवल्य, मोक्ष।

स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रैसक्गात्।। 52।।

तब विभिन्न तलों की अधिष्ठाता, अधिभौतिक सत्ताओं के द्वारा भेजे गए निमंत्रणों के प्रति आसक्ति या उन पर गर्व से बचना चाहिए, क्योंकि यह अशुभ के पुनर्जीवन की संभावना लेकर आएगा।

द्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्।

‘इन शक्तियों से भी अनासक्त होने से, बंधन का बीज नष्ट हो जाता है। तब आता है कैवल्य,

मोक्ष।

इस संसार में ही अनासक्त होना काफी कठिन है लेकिन जब आध्यात्मिक संसार अपने द्वार खोलता है तो अनासक्त होना और भी अधिक कठिन है। दूसरी स्थिति में कठिनाई लाखों गुनी है, क्योंकि सांसारिक शक्तियां वास्तविक शक्तियां नहीं हैं। वे नपुंसक हैं और वे तुम्हें कभी संतुष्ट नहीं करतीं, वे तुम्हें कभी परितृप्त नहीं करती। वस्तुत: संसार में की गई प्रत्येक नई उपलब्धि और अधिक इच्छाएं उत्पन्न करती है। तुम्हें संतुष्ट करने के स्थान पर यह तुम्हारे मन को नये अभियानों पर भेजती है, इसलिए संसार में तुम कोई भी शक्ति उपलब्ध कर लो, तुम इसे नई इच्छाएं निर्मित करने में ही प्रयोग करते हो।

संसार में तुम चाहे जितना धन कमा लो, तुम इसका और अधिक धन पाने के लिए निवेश करते हो। फिर और धन आता है, तुम इसे और धन के लिए निवेश करते हो, और इस भांति यह चलता चला जाता है। बस साधन, साधन और साधन और साध्य कभी निकट नहीं आता। इसलिए एक मूढ़ व्यक्ति भी कभी न कभी यह जान लेता है कि वह एक दुष्‍चक्र में घूम रहा है और इससे बाहर आने का कोई रास्ता दृष्टिगोचर नहीं होता—सिवाय इसके कि इसे छोड दिया जाए। एक समझदार व्यक्ति के लिए—वह व्यक्ति जो जीवन के बारे में सोच विचार करता है, इस पर चिंतन करता है—यह बात सुस्पष्ट है।

इसलिए सांसारिक चीजों में अनासक्ति इतनी कठिन नहीं है, किंतु जब इन आंतरिक शक्तियों, मानसिक शक्तियों की बात आती है, तो वे तुम्हारे अस्तित्व के इतने निकट हैं, इतनी अधिक संतोषप्रद हैं, कि उनसे अनासक्त रह पाना करीब—करीब असंभव सा है। लेकिन यदि तुम अनसक्त नहीं हो तो तुमने पुन: एक संसार निर्मित कर लिया और तुम परम मुक्ति से बहुत ही दूर बने रहोगे।

क्योंकि जिस पर भी तुम कब्जा करते हो, वही तुम पर अधिकार कर लेता है, अत: त्याग सम्पूर्ण, समग्र रूप से परिपूर्ण, होना चाहिए। तुम्हें प्रत्येक वह वस्तु जिस पर भी तुम्हारा स्वामित्व संभव हो, अपने निरावृत स्वभाव के अतिरिक्त, छोड़ देना पड़ेगी। जिसका त्याग न किया जा सके, केवल उसी को शेष छोड़ा जा सकता है। जिसका बलिदान किया जा सके उसका बलिदान कर देना चाहिए।

इस सूत्र में पतंजलि करीब———करीब असंभव की मांग कर रहे हैं, लेकिन समझ के माध्यम से यह भी संभव हो जाता है। आध्यात्मिक शक्तियों से संपन्न होना, बहुत संतोषप्रद और महत्ता प्रदान करने वाला होता है, यह अहंकार को इतना सूक्ष्म, इतना शुद्ध आनंद प्रदान करता है कि तुम इसमें कोई दंश अनुभव न कर पाओगे। यह तुम्हें कभी निराश नहीं करता। सांसारिक वस्तुओं में काफी कुछ निराशा होती है— वस्तुत: निराशा के अतिरिक्त और कुछ होता भी नहीं। लोग इसे देखने से किस प्रकार बच सकते हैं यह भी एक चमत्कार है। लोग किस भांति अपने आप को धोखा देते रह सकते हैं और यह विश्वास किए चले जाते हैं कि अभी भी कुछ आशा है, यह एक चमत्कार है। बाहर का संसार निराशाजनक है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है।

तुम चाहे जितना बड़ा मकान बना लो, या राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक रूप से चाहे जितने भी ‘शक्तिशाली हो जाओ, मृत्यु तुमसे सभी कुछ छीनने जा रही है—इसे समझने के लिए कोई बहुत ज्यादा बुद्धिमानी की आवश्यकता नहीं है—लेकिन आंतरिक शक्तियां, उन्हें मृत्यु भी छीन नहीं सकती। वे मृत्यु के परे हैं। और वे कभी भी तुम्हें निराश नहीं करतीं। वे तुम्हारी शक्तियां हैं, तुम्हारी साकार हुई संभावनाएं हैं। उन्हें त्याग देने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, उनको छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन पतंजलि यह कह रहे हैं कि उनका भी त्याग करना पड़ेगा। अन्यथा तुम दृश्यों के संसार में—पुन एक अहंकार के खेल में जीना आरंभ कर दोगे। और धर्म कोई अहंकार का खेल नहीं है।

तुम कोई अहंकार की खोज में संलग्न नहीं हो, बल्कि तुम तो समग्र को उपलब्ध करने का प्रयास कर रहे हो, और समग्र तभी संभव हो पाता है जब अहंकार के खेलों के सारे प्रकार छोड़ और त्याग दिए जाएं, जब तुम न बचो, बस परमात्मा रहे।

मैं तुम्हें एक प्रसिद्ध सूफी कहानी ‘पवित्र छाया’ सुनाता हूं।

एक बार की बात— है, एक इतना भला फकीर था कि स्वर्ग से देवदूत यह देखने आते थे कि किस प्रकार sए एक व्यक्ति इतना देवतुल्य भी हो सकता है। यह फकीर अपने दैनिक जीवन में, बिना इस बात ,को जाने, सदगुणों को इस प्रकार से बिखेरता था जैसे सितारे प्रकाश और फूल सुगंध फैलाते हैं। उसके दिन को दो शब्दों में बताया जा सकता था—बांटों और क्षमा करो—फिर भी ये शब्द कभी उसके होंठों पर नहीं आए। वे उसकी सहज मुस्कान, उसकी दयालुता, सहनशीलता और सेवा से अभिव्यक्त होते थे। देवदूतों नें परमात्मा से कहा : प्रभु, उसे चमत्कार कर पाने की भेंट दें।

परमात्मा ने उत्तर दिया, उससे पूछो वह क्या चाहता है।

उन्होंने फकीर से पूछा, क्या आप चाहेंगे कि आपके छूने भरसे ही रोगी स्वस्थ हो जाए।

नहीं, फकीर ने उत्तर दिया, बल्कि मैं तो चाहूंगा परमात्मा ही इसे करें।

क्या आप दोषी आत्माओं को परिवर्तित करना और राह भटके दिलों को सच्चे रास्ते पर लाना पसंद करेंगे?

नहीं, यह तो देवदूतों का कार्य है, यह मेरा कार्य नहीं कि किसी को परिवर्तित करूं।

क्या आप धैर्य का प्रतिरूप बन कर लोगों को अपने सदगुणों के आलोक से आकर्षित करते हुए और इस प्रकार परमात्मा का महिमा मंडन करना चाहेंगे?

नहीं, फकीर ने कहा, यदि लोग मेरी ओर आकर्षित होंगे तो वे परमात्मा से विमुख होने लगेंगे। तब आपकी क्या अभिलाषा है? देवदूतों ने पूछा।

मैं किस बात की अभिलाषा करूं? मुस्कुराते हुए फकीर ने पूछा, यह कि परमात्मा मुझे अपना आशीष प्रदान करे, क्या इससे ही मुझको सब कुछ नहीं मिल जाएगा?

देवदूतों ने कहा. आपको चमत्कार मांगना चाहिए या किसी चमत्कार की सामर्थ्य आपको बलपूर्वक दे दी जाएगी।

बहुत अच्छा, फकीर बोला, यह कि मैं भलाई के महत् कार्य उन्हें जाने बिना कर सकूं।

अब देवदूत परेशानी में पड़ गए। उन्होंने आपस में विचार—विमर्श किया और इस योजना को सुनिश्चित कर दिया। फकीर की छाया भले ही उससे पीछे पड़े या किसी एक ओर पड़े, जिस ओर भी पड़ेगी उस को रोग—मुक्त करने की, दर्द को मिटाने की और पीड़ा को हरने की क्षमता प्रदान कर दी गई, जिससे कि वह इसे जान ही न सके।

जब भी वह फकीर रास्ते से गुजरता, उसकी छाया या तो उसके एक तरफ पड़ती या पीछे पड़ती तो उससे सूखे रास्ते हरियाली से भर जाते, इधर उधर के वृक्ष पुष्पित हो जाते, सूखे जल स्रोतों में पानी की स्वच्छ धार बहने लगती, बच्चों के मुरझाए हुए चेहरे खिल उठते, और दुखी स्त्री—पुरुष हर्षित हो उठते।

लेकिन वह फकीर तो बस अपने दैनिक जीवन में वैसे ही सदगुणों को बिखेरता रहा—जैसे कि सितारे प्रकाश और फूल सुगंध बिखेरते हैं, उसे पता ही न लगता। लोग उसकी विनम्रता का सम्मान करते हुए शांतिपूर्वक उसके पीछे चलते, वे उससे कभी उसके चमत्कारों का उल्लेख भी न करते। जल्दी ही वे उसका नाम भी भूल गए और उन्होंने उसको ‘पवित्र छाया’ नाम दे दिया।

यही है अंतिम बात, व्यक्ति को पवित्र छाया, परमात्मा की छाया मात्र बन जाना पड़ेगा। केंद्र का स्थानांतरित हो जाना ही वह बड़ी से बड़ी क्रांति है, जो किसी व्यक्ति के साथ घट सकती है। अब तुम अपने केंद्र न रहे, परमात्मा तुम्हारा केंद्र बन जाता है। तुम उसकी छाया की भांति जीते हो। तुम शक्तिशाली नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे पास शक्तिशाली होने के लिए कोई केंद्र नहीं है। तुम सदगुणी नहीं हो, तुम्हारे पास सदगुणी होने के लिए कोई केंद्र नहीं है। तुम तो धार्मिक भी नहीं हो, तुम्हारे पास धार्मिक होने के लिए कोई केंद्र नहीं है। तुम तो बस नहीं हो, एक विराट रिक्तता है, जिसमें कोई भी व्यवधान था अवरोध नहीं, जिससे कि परमात्मा तुम्हारे भीतर से बिना अवरोध के, अस्पर्शित, अनिर्वचनीय प्रवाहित हो सके—ताकि दिव्यता तुम्हारे भीतर से जैसी वह है, वैसी नहीं जैसी तुम्हारी अभिलाषा है कि उसे होना चाहिए, प्रवाहित हो सके। वह तुम्हारे केंद्र से होकर नहीं गुजरता है, कोई केंद्र है ही नहीं। केंद्र खोया हुआ है।

इस सूत्र का यही अर्थ है कि अंतिम रूप से तुम्हें अपने केंद्र का भी बलिदान करना पडेगा जिससे कि तुम पुन: अहंकार की भांति न सोच सको तुम ‘मैं’ न बोल सको, अपने आपको पूर्णत: विनष्ट करना है, अपने आपको पूर्णत: मिटा डालना है। तुम्हारा कुछ भी नहीं है बल्कि इसके विपरीत तुम ही परमात्मा के हो। तुम पवित्र छाया बन जाते हो।

इसकी कल्पना भी कठिन है क्योंकि अनुपयोगी कूड़े—कबाड़ तक से अनासक्त हो पाना भी कठिन बात है। तुम इस आशा में इकट्ठा करते चले जाते हो कि जो कुछ तुम एकत्रित करते हो तुम्हें परितृप्त कर सकता है। तुम शान, धन, शक्ति, प्रतिष्ठा एकत्रित किए चले जाते हो। तुम तो बस संचय करते जाते हो। तुम्हारा सारा जीवन भरने में लगता है। और निःसंदेह अगर तुम एक मुर्दा बोझ बन जाते हो तो इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है। यही तो तुम कर रहे हो—धूल एकत्रित कर रहे हो और सोचते हो जैसे कि यह सोना है।

यदि अहंकार की आख से देखा जाए दो कौड़ी की चीज भी बहुत मूल्यवान मालूम होती है। अहंकार सबसे बड़ा धोखेबाज, सबसे बड़ा छलिया है। यह तुमसे झूठ बोलता चला जाता है, और यह भ्रम, स्वप्न, प्रक्षेपण निर्मित करता रहता है। इसका निरीक्षण करो। यह बहुत सूक्ष्म है। इसके ढंग बहुत सूक्ष्म हैं, और यह बेहद चालाक है। यदि एक दिशा में तुम इसे रोकते हो तब यह दूसरी दिशा में चला जाता है। यदि तुम एक रास्ता रोको, तो यह दूसरा रास्ता खोज लेता है, और यह कार्य इतनी चालाकी भरे ढंग से करता है कि तुम सोच १नी नहीं सकते कि यह दूसरा रास्ता भी अहंकार का ही है।

मैंने एक की औरत के बारे में सुना है, जिसने सीढियों से नीचे गिर कर अपनी टांग तोड़ ली थी. चिकित्सक ने उसकी टांग पर प्लास्टर चढ़ा दिया और उसे चेतावनी दी कि वह सीढियों से चढ़ना उतरना बंद कर दे। हड्डी जुड्ने में छह महीने लगे और तब चिकित्सक ने घोषणा की कि अब प्लास्टर हटाया जा सकता है।

क्या अब मैं सीढ़ियों पर चढ़ सकती हूं? की स्त्री ने पूछा।

जी हां, चिकित्सक ने कहा।

अरे वाह, मुझे खुशी हुई, वह खिलाखिला कर बोली, मैं ड्रेन पाइप से चढ़ उतर कर परेशान हो चुकी हूं।

अगर तुम अहंकार का जीने से आना रोक दो तो यह ड्रेन पाइप से आ जाता है, लेकिन यह आता है।

अपने तथाकथित धार्मिक लोगों को देखो। उन्होंने सब कुछ त्याग दिया है—लेकिन उन्होंने त्याग को नहीं छोड़ा। उन्होंने सब कुछ त्याग दिया है; अब वे अपने त्याग से चिपक रहे हैं। उनका त्याग ही उनकी संपदा, उनका ड्रेन पाइप बन गया है। अब भी वे उसी अहंकार पर आरूढ़ हो रहे हैं, लेकिन एक ज्यादा चालाक और सूक्ष्म ढंग से, इतना सूक्ष्म कि न सिर्फ दूसरे धोखा खा रहे हैं बल्कि वे स्वयं भी धोखे में हैं।

देखो, तुम एक सांसारिक व्यक्ति हो; फिर एकदिन तुम्हें निराशा अनुभव होती है। हर किसी को एक दिन ऐसा ही लगता है, इसमें कोई विशेष बात है भी नहीं। फिर तुम धार्मिक होने लगते हो और तुम इसके बारे में बहुत अहंकारी महसूस करने लगते हों—तुम धार्मिक हो रहे हो। तुम दूसरों को पापियों, सांसारिक व्यक्तियों की तरह देखते हो। तुम धार्मिक हो, तुम तो संन्यासी हो गए हो, तुमने त्याग कर दिया है। जरा देखो तो, शत्रु दूसरे दरवाजे से भीतर आ चुका है। संसार का त्याग नहीं किया जाना है; अहंकार का त्याग किया जाना है। इसलिए व्यक्ति को ऐसा न होने देने के लिए बहुत ही ज्यादा सावधान रहना पड़ता है।

याद रखना अहंकार का दमन नहीं किया जा सकता। इसे तो बस समझ की उष्मा के माध्यम से, समझ की अग्नि के द्वारा वाष्पित किया जा सकता है। यदि तुम इसका दमन करो, तो यह आसान है। तुम विनम्र बन सकते हो, तुम सरल बन सकते हो लेकिन यह तुम्हारी सरलता के पीछे छिप जाएगा।

एक महिला ने अपने चिकित्सक से कहा कि उसे निश्चित तौर से पता है कि उसे कोई भयानक बीमारी हो गई है। चिकित्सक ने उसे मूर्खतापूर्ण बात करने से रोकते हुए कहा : उसे वह बीमारी है या नहीं यह जानना उसके लिए संभव नहीं हो सकता, क्योंकि ‘इस बीमारी में’, वह बोला, कहीं कोई बेचैनी नहीं होती है। अत: .उस महिला के पास इसे जानने का: कोई उपाय नहीं है।

लेकिन डाक्टर साहब, वह चिकित्सक से कहने लगी, बिलकुल यही तो मुझे अनुभव होता है—कहीं कोई बेचैनी ही नहीं है। बीमारी है।

तुम अपने आपको धोखा देते रह सकते हो, और तुम उसके लिए तर्क खोज सकते हो और ऊपरी सतह पर वे बहुत तर्कपूर्ण दिखते हैं—ऊपर से वे करीब—करीब प्रमाण ही लगते हैं—लेकिन उनके भीतर झांको तो।

और याद रखना कि यह किसी और का काम नहीं है। इसको देखना तुम्हारा ही काम है। भले ही सारा संसार इसे देख ले, लेकिन यदि तुमने इसको नहीं देखा तो यह व्यर्थ है।

अब आधुनिक मनोविज्ञान धीरे— धीरे व्यक्तिगत चिकित्सा से सामूहिक चिकित्सा की ओर अग्रसर हो रही है, और उसका एकमात्र कारण यही है कि मनोचिकित्सक के लिए रोगी को, एक—एक आदमी को, इस बारे में समझा पाना कि वह अपने साथ क्या कर रहा है, बेहद कठिन है। रोगी के बारे में उसकी मनोग्रथियों के बारे में, उसके तार्किक निष्कर्षों, दमनों के बारे में, उसके आत्मभ्रमों और मूढूताओं के बारे में, एक—एक आदमी को समझा पाना कठिन है। लेकिन एक समूह में यह आसान हो जाता है, क्योंकि सारा समूह इस मूर्खता को, इसके स्पष्ट रूप को, देख सकता है कि वह किसी बात से आसक्त है और अनावश्यक रूप से परेशान हुआ जा रहा है। सारा समूह इसे देख सकता है, और सारे समूह की समझ, उस आदमी की समझ की तुलना में जो तुम्हारे ऊपर कार्य करती, अधिक गहरे, अधिक व्यापक ढंग से कार्य कर सकती है। यही कारण है कि सामूहिक मनोचिकित्सा बढ़ती जा रही है और व्यक्तिगत मनोचिकित्सा मिटती जा रही है।

सामूहिक मनोचिकित्सा से व्यापक स्तर पर लाभ होता है। बीस लोग एक समूह में कार्य कर रहे हैं तो उन्नीस लोग इस बात के प्रति सचेत हो जाते है कि तुम कुछ ऐसा कर रहे हो जो तुम करना तो नहीं चाहते थे लेकिन जिससे तुम अभी भी चिपके हुए हो।

एक संन्यासी मेरे पास आया, बहुत भला व्यक्ति है, लेकिन वह खुशी से फूला नहीं समा रहा था। क्योंकि मैंने उसे सुंदर सा नाम दिया था। मैं तो प्रत्येक को सुंदर—सुंदर नाम देता हूं। उसने इसी को अहंकार का उपाय बना लिया। वह बोला : ओशो, आप तो अदभुत हैं। आपने मुझे इतना सुंदर नाम दिया है—यह तो बिलकुल ठीक—ठीक मुझे ही परिभाषित करता है। तुम्हारे नाम तुम्हारा प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। ये मेरी आशाएं हैं, वास्तविकताएं नहीं। ये मेरे सपने हैं, यथार्थ नहीं हैं। मैंने उस संन्यासी को पुकारा : सत्यानंद— वह आनंद जो सत्य से, साक्षात से आता है। हूं……यह परम है। लेकिन उसने कहा : ओशो, सत्यानंद! आपने ठीक से, बिलकुल ठीक से मुझे समझ लिया है। मैं आपकी समझ से बहुत प्रभावित हूं।

अब मैं सचेत हुआ कि यह तो बहुत ही गलत हो गया है। यह एक गलतफहमी बन गया है। मुझे उसको यह नाम नहीं देना चाहिए था। मैं उसे उसकी खुशफहमी से वापस लाना चाहता था। इसीलिए जब कुछ मिनटों के बाद उसने कहना आरंभ किया, ‘मैं क्रोध, लोभ यह और वह नहीं चाहता, ये जानवरों जैसी बाते हैं। मैं बोला : ‘कायर मत बनो।’ अचानक वह क्रोधित हो गया। कायर! आप मुझे कायर कहते हैं? लगा जैसे मुझे पीटने को तत्पर हो रहा हो। वह चिल्लाया—सत्यानंद के बारे में पूरी तरह भूल चुका था—और उसने अपना बचाव शुरू कर दिया। आपने मुझे कायर क्यों कहा? मैं कायर तो नहीं। और मैंने उससे कहा : अगर तुम कायर नहीं हो तो तुम बचाव क्यों कर रहे हो? तब तुम सरलता से कह सकते हो आप गलत हैं, या इसकी भी जरूरत नहीं है। तुम कायर नहीं हो तो तुम इसके बारे में फिकर क्यों कर रहे हो? तुम गुस्से से लाल—पीले क्यों हो गए? तुम पूरी आवाज में क्यों चिल्ला रहे हो? तुम इस कदर पागल क्यों हो गए? मैंने अवश्य ही तुम्हारी दुखती रग पर हाथ रख दिया है।

उस समय वहां मौजूद प्रत्येक व्यक्ति इस बात के प्रति सचेत हो गया कि वह व्यक्ति किसी बात को छुपा रहा है, और बहुत उग्रतापूर्वक उसका बचाव कर रहा है, किंतु केवल वही इसको नहीं देख सका। यदि तुम एक समूह में लंबे समय तक कार्य करो तो धीरे से तुम्हे सचेत होना ही पड़ेगा कि सारा समूह देख रहा है कि तुम कुछ मूर्खतापूर्ण मूढ़ता का कृत्य कर रहे हो। जो तुम्हारे इच्छाओं के विपरीत है—तुम्हारी अपनी परितृप्ति के विरोध में, तुम्हारे अपने विकास के प्रतिकूल है। तुम एक बीमारी से चिपक रहे हो और तुम कहते रहते हो—मैं इससे छुटकारा पाना चाहता हूं।

तुम्हारे अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि तुम गलत कर रहे हो। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि तुम अहंकारी हो—सिवाय तुम्हारे। केवल तुम ही सोचते हो कि तुम एक विनम्र व्यक्ति, एक सरल व्यक्ति हो। हर व्यक्ति तुम्हारी जटिलता को जानता है। हर व्यक्ति तुम्हारे दोहरे मापदंड को जानता है। तुम्हारे अतिरिक्त प्रत्येक, तुम्हारे पागलपन को जानता है। तुम इसका बचाव करते रहते हो। और विनम्रता, व्यवहारिकता .और औपचारिकता के कारण समाज में कोई तुम्हें बताएगा भी नहीं। इसलिए समूह सहायक है—क्योंकि यह विनम्र नहीं होने वाला है। यह सत्यपूर्ण होने जा रहा है। और जब बहुत सारे लोग कहते हैं कि यह रही तुम्हारी समस्या, और इसे बिलकुल ठीक से बता दें, और इसे इंगित करें, और तुम्हारे घाव पर अपनी अंगुलियां रख दें और यह दुखने लगे…। तुम्हे सचेत कर पाना, व्यक्ति से व्यक्ति के सम्पर्क द्वारा बहुत कठिन है क्योंकि तुम सोच सकते हो कि यह व्यक्ति गलत हो सकता है, लेकिन बीस लोग? बीस लोगों के गलत होने की संभावना कम है, और तुम्हें वापस अपने पर लौट कर इस बात को देखना पड़ता है।

यही कारण है कि बुद्ध ने एक बड़े संघ का, भिक्षुओं के बड़े वर्ग का, दस हजार भिक्षु—निर्माण किया। समूह मनोचिकित्सा का यह पहला प्रयोग श्र। यह एक महत् प्रयोग था।

यही तो मैं कर रहा हूं। सोलह हजार सन्यासी—मनोचिकित्सा का एक महानतम प्रयोग। एक समुदाय, एक कम्यून, जिसमें तुम्हें बोधपूर्ण होस ही पड़ेगा वरना तुम इस कम्यून के हिस्से नहीं होगे, यहां हर कोई तुम्हारी गलती को देख रहा है, समझ रहा है और तुम्हें इसे दिखा रहा है। क्योंकि संन्यासी औपचारिक या विनम्र होने के लिए नहीं बने हैं। वह बकवास जरा भी नहीं। यहां पर संन्यासी स्वयं को रूपांतरित करने के लिए और दूसरों के रूपांतरण के लिए परिस्थिति निर्मित करने के लिए है।

देखो, जब भी कोई तुम्हारे बारे में कोई दोष इंगित करे तो क्रोधित मत हो जाओ। इससे तुम्हें कोई मदद नहीं मिलने वाली है। पागल मत बनो। इससे तुम्हारी कोई सहायता नहीं होगी। इस बात को देखने की कोशिश करो। दूसरा सही भी हो सकता है, और दूसरे के सही होने की संभावना अधिक है क्योंकि वह तुमसे इतना अलग है, वह तुमसे काफी दूर है। वह तुम्हारे साथ संयुक्त नहीं है। सदैव लोगों की बात सुनो कि वे तुम्हारे बारे में क्या कह रहे हैं। निन्यानबे प्रतिशत तो वे सही होंगे, उनके गलत होने की संभावना मात्र एक प्रतिशत है। वरना वे गलत नहीं है। वे गलत कैसे हो सकते हैं क्योंकि उनके पास तुम्हारे बारे में अनासक्त दृष्टिकोण है।

यही कारण है कि तुम्हारे घावों को दर्शाने के लिए सदगुरु की आवश्यकता होती है। और यह केवल तभी संभव है जब तुम्हारे भीतर गहरा सम्मान और श्रद्धा हो। यदि तुम क्रोधित हो जाओ और तुम संघर्ष करना आरंभ कर दो, तो तुम्हारे भीतर कोई सम्मान और श्रद्धा नहीं है। यदि यहां पर तुम अपनी रुग्णता और बीमारियों का बचाव करने के लिए हो, तो यह तुम्हारे लिए नहीं है—यहां मत ठहरो। यहां पर अपना समय नष्ट करने में क्या सार है?

यदि मैं कहता हूं कि तुम कायर हो और तुम इस बात को देख नहीं सकते बल्कि तुम संघर्ष करो और मेरे सामने यह सिद्ध करो कि तुम कायर नहीं हो, तब सीधी बात यह है कि यहां पर रुकने में कोई सार नहीं। मेरे साथ संबंध समाप्त हो गया है। अब तुम्हारे लिए मैं सहायक नहीं हो सकता हूं। जब मैं तुमसे कोई बात कहता हूं तो तुम्हें उस तथ्य में देखना पड़ेगा। मैं तुम्हें क्यों कायर कहूंगा? तुम्हारे साथ मेरा कोई लेन—देन नहीं है और तुम्हारे कायरपन में भी मेरा कुछ नहीं जा रहा है। मैं बस करुणावश कहता हूं क्योंकि मैं देखता हूं कि बीमारी वहां है। और जब तक तुम इसे न जानो, जब तक इसका निदान न हो, तुम इससे छुटकारा कैसे पा सकते हो?

यदि चिकित्सक तुम्हारी नब्ज पर हाथ रखता है और कहता है कि तुम्हें बुखार है और तुम उस डाक्टर पर छलांग लगा दो और लड़ना आरंभ करो। आप क्या कह रहे हैं? मुझे भला कैसे बुखार हो सकता है? नहीं, आप गलत है, मैं पूर्णत: स्वस्थ हूं। तो पहली बात यह है कि तुम चिकित्सक के पास गए ही क्यों थे? स्वास्थ्य का प्रमाणपत्र लाने भर को?

तुम यहां हो, इसे याद रखो, तुम यहां अपनी बीमारियों के लिए पहचाने जाने के लिए और उनके न होने का प्रमाणपत्र पाने के लिए नहीं हो। तुम यहां निदान, परीक्षण, रोग उन्मूलन के लिए आए हो, ताकि तुम्हारा यथार्थ स्वरूप उदित हो सके, खिल सके। लेकिन यदि तुम बचाव कर रहे हो—तो बचाव करना तुम्हारे हाथ में है। यह मेरा कार्य नही, इसका बचाव करो। लेकिन तब तुम पीड़ित होओगे। फिर मेरे पास मत आना और मत कहना कि मैं पीडा में हूं मैं तनावग्रस्त हूं।

संसार से भीतर की ओर गतिमान हो पाना बहुत कठिन है, क्योंकि अंदर तो तुमने रुग्णताएं और बीमारियां छुपा रखी हैं। वे तुम्हें बाहर जाने को बाध्य करती हैं। यह ध्यान हटाने का एक उपाय है। यही कारण है कि इतने अधिक सदगुरु तुम्हें सिखाते रहे हैं कि भीतर जाओ, स्वयं को जानो। लेकिन तुम वहां कभी नहीं जाते। तुम इसके बारे में बात करते हो, तुम इसके बारे में पढ़ते हो, तुम इस विचार की सराहना करते हो, लेकिन तुम भीतर कभी नहीं जाते। क्योंकि भीतर तुम्हारे पास केवल अंधकार और घाव और बीमारियां हैं। तुम उन चीजों को छिपाए हुए थे जो अच्छी नहीं हैं, तुम्हारे लिए स्वास्थ्य प्रदायक नहीं हैं। लेकिन तुम इसके विपरीत उन्हें नष्ट करने के स्थान पर उनकी सुरक्षा करते रहे हो। जब तुम द्वार खोलते हो…… और तुम्हें इतनी दुर्गंध, इतनी धूल, इतनी कुरूपता अनुभव होती है जैसे कि नरक खुल गया है। तुम तुरंत ही द्वार बंद कर देते हो और तुम सोचना आरंभ कर देते हो कि आखिर बात क्या है?

बुद्ध, कृष्ण, जीसस वे सभी सिखाते रहे हैं कि भीतर जाओ और तुम परम आनंद, शाश्वत आनंद को उपलब्ध होगे, लेकिन तुम द्वार खोलते हो और तुम दुखस्वप्न में पहुंच जाते हो। यह दुखस्वप्न तुम्हारे दमनी से निर्मित हुआ है। सतह पर तुम सरल हो, गहरे में तुम बहुत जटिल हो। ऊपर से तो तुम्हारा चेहरा एक बहुत ही भोले व्यक्ति का है, गहराई में तुम बहुत कुरूप हो।

इस दमनात्मकता के कारण तुम भीतर नहीं देख सकते, और तुम्हें खुद को लगातार दूसरी ओर मोड़ते रहना पड़ता है—रेडियो सुनना, टीवी. देखना, अखबार पढ़ना, दोस्तों से मिलने जाना। जब तक कि तुम सो न जाओ तब तक बस समय बरबाद करते रहना। जिस क्षण तुम सोकर उठते हो, फिर से तुम दौड़ना आरंभ कर देते हो। तुम किससे भाग रहे हो? तुम अपने आप से भाग रहे हो।

अपने अस्तित्व में झांकने के लिए स्वयं को अवकाश दो, तब अचानक तुम देखोगे कि वस्तुओं के साथ कोई आसक्ति नहीं है। यह हो कैसे सकता है? यह असंगत है।

मैंने एक बहुत सुंदर कहानी, एक सूफी कहानी सुनी है—स्वर्णिम—द्वार।

दो लोगों ने प्रार्थना की और उनके रास्ते अलग हो गए। एक ने संपत्ति और शक्ति एकत्रित की, लोगों का कहना था कि वह प्रसिद्ध तो था, लेकिन उसके मन में शांति नहीं थी। दूसरे ने लोगों के दिलों को, उनके अपने छिपे हुए भयों के अंधकार में दीयों की भांति जगमगाते हुए देखा। उसे भी समृद्धि और शक्ति मिली और उसकी संपदा, उसकी शक्ति, प्रेम थी। जब सरलता से दयालुतापूर्वक, कोमलता से वह अपने सहयात्रियों को अपने प्रेम की सारी संपदा और क्षमता के साथ स्पर्श करता था तो अंतस का प्रकाश सुस्पष्ट हो जाता और साहस और शांति से दमकने लगता।

एक दिन दोनों ही लोग उस ‘स्वर्णिम—द्वार’ के सम्मुख खड़े थे, जिससे होकर प्रत्येक व्यक्ति को उस पार के विराट जीवन हेतु गुजरना पड़ता था। देवदूत ने प्रत्येक आत्मा से पूछा : तुम अपने साथ क्या लेकर आए हो? तुम्हारे पास देने के लिए क्या है?……

परमात्मा सदैव पूछता है. तुम अपने साथ क्या लेकर आए हो? तुम्हारे पास देने के लिए क्या है? परमात्मा तुम्हें दिए चला जाता है, लेकिन अंततः अंतिम दिन, इसके पूर्व कि तुम उसके भवन में प्रविष्ट हो वह पूछता है, अब तुम मेरे लिए क्या लेकर आए हो? मेरे लिए तुम्हारी क्या भेंट है?

…….उस व्यक्ति ने जो प्रसिद्ध था, अपनी उपलब्धियों को दुबारा गिना। क्योंकि न जाने कितने लोगों को वह जानता था, जाने कितने स्थानों पर वह गया था, जाने कितने काम उसने किए थे—और न जाने कितनी वस्तुएं उसने एकत्रित कर रखी थीं।

लेकिन देवदूत ने उत्तर दिया : यह सब स्वीकार्य नहीं है, ये कार्य जो तुमने किए हैं तुमने अपने लिए किए हैं, मुझे इनमें कोई प्रेम नहीं दिखाई पड़ता।…

यदि अहंकार है, तो प्रेम नहीं हो सकता। इसे याद रखो। बाद में मैं इस पर चर्चा करूंगा, क्योंकि यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण चीजों में से ही एक है; यदि अहंकार है, तो प्रेम नहीं हो सकता है।

…….और वह प्रसिद्ध व्यक्ति स्वर्णिम—द्वार के बाहर डूब गया और रोया…

पहली बार वह अपनी सारी कोशिशों की व्यर्थता को देख पाया। यह एक सपने जैसी थी जो बीत गया और उसके हाथ खाली रह गए। यदि तुम वस्तुओं से बहुत ज्यादा भरे हुए हो तो किसी न किसी दिन तुम्हें दिखेगा कि तुम्हारे हाथ खाली हैं। यह स्वप्न ही था जिसे तुम अपने हाथों में उठाए हुए थे; वे सदा से खाली थे। तुम तो बस स्वप्न ही देख रहे थे कि उनमें कुछ है। क्योंकि तुम खालीपन से भयभीत थे, तुमने किसी वस्तु की कल्पना कर ली थी, तुमने विश्वास किया था। तुमने कभी गहराई से नहीं देखा कि वास्तव में वहां कुछ है भी या नहीं।

… और वह प्रसिद्ध व्यक्ति स्वर्णिम—द्वार के बाहर डूब गया और रोया। वह दयालु हो पाने के लिए समय ही नहीं निकाल पाया था…

प्रेम कर सकने के लिए अति व्यस्त रहा था, अरपने आप में बेहद उलझा रहा था, व्यर्थ की चीजों की उसे बहुत चिंता रही थी, और सार की चीजों पर विचार नहीं कर सका था।

……तब देवदूत ने दूसरे की आत्मा से पूछा और तुम क्या लेकर आए हो? तुम्हारे पास देने के लिए क्या है?

और उसने उत्तर देते हुए कहा. कोई मेरा नाम नहीं जानता। लोग मुझे घुमक्कड़, स्वप्‍नदर्शी कहा करते थे। मेरे दिल में थोड़ा सा प्रकाश था, और बस वही मेरे पास था, मैंने उसे लोगों की आत्माओं के साथ बांटा है…

पागलों के इस संसार में असली लोग स्‍वप्‍नदर्शी जैसे लगते हैं। संतों को सदैव घुमक्कड़, स्वप्‍नदर्शी, कवि, कल्पना—लोक जीवी, कहीं और रमने वाले, जलज भक्षी, नाभि दृष्टा के रूप में जाना गया है।

असली लोगों को इसी प्रकार के नाम दिए जाते हैं, क्योंकि यह संसार कागजी लोगों का है। वे असली नहीं हैं। कागजी लोग जब भी वे किसी असली आदमी के संपर्क में आते हैं, उसे स्‍वप्‍नदर्शी, कवि कहते हैं। उसकी निंदा करने का उनका यह उपाय है, और अपने आप को बचाने की भी यही तरकीब है।

… और उसने उत्तर देते हुए कहा. मेरा नाम कोई नहीं जानता, लोग मुझे घुमक्कड़, स्‍वप्‍नदर्शी कहा करते थे। मेरे हृदय में थोड़ी सी रोशनी थी—और कुछ भी नही, बस दिल में थोड़ी सी रोशनी—और जो मेरे पास थी उसे मैंने लोगों की आत्माओं के साथ बांटा।

फिर देवदूत ने कहा : हे भाग्यवान! तुम्हारे पास सबसे अच्छी भेंट है। यही है प्रेम। सदा और सदैव और—और बांटने के लिए पर्याप्त और उपलब्ध रहता है।’प्रविष्ट हो जाओ…’

प्रेम का यही सौंदर्य है; जितना अधिक तुम देते हो उतना ही अधिक यह तुम्हारे पास होता है। इसे अपने जीवन की कसौटी बन जाने दो। उसका संचय मत करो जो देने से खोता हो, केवल उसी का संचय करो जो देने से संचित होता है। केवल उसी को एकत्र करो जो बांटने से बढ़ता और विकसित होता है। वही मूल्यवान है जिसे तुम बांट सको और इसके बांटने मात्र से ही यह बढ़ता है और तुम्हारे पास पहले से भी ज्यादा हो जाता है।

‘सदा और सदैव और—और बांटने के लिए पर्याप्त और उपलब्ध रहता है। प्रविष्ट हो जाओ।’

तब घुमक्कड़ ने कहा. लेकिन पहले मुझे अपने भाई के साथ प्रेम बांट लेने दो, ताकि हम दोनों द्वार से जा सकें।

देवदूत खामोश रहा; उसी क्षण उस सरल घुमक्कड़ के चारों ओर तेज प्रकाश का दीप्तिमान आवरण प्रकट हुआ, जिसने उसे और उसके मित्र दोनों को आच्छादित कर लिया।

स्वर्णिम—द्वार पूरी तरह खुल गया और वे दोनों साथ साथ उसके अंदर चले गए।

उसने अंतिम क्षण में भी बांटा। यही वास्तविक समृद्धि है। कोई कंजूस कभी धनवान नहीं होता। यदि तुम सांसारिक वस्तुओं से आसक्त हो तो तुम धनवान नहीं हो। समृद्धि हृदय से उपजती है। समृद्धि है हृदय का गुण—प्रेम से आलोकित होना।

भारत के गहनतम कवियों में से एक रवींद्रनाथ टैगोर ने एक कविता लिखी है।’मेरे हृदय का प्रिय’ संक्षेप में वह कविता इस प्रकार है।

एक बार बंगाल के एक छोटे से गांव में पड़ोस की एक तपस्विनी महिला मुझसे मिलने आई… और यह केवल एक कविता नहीं है; यह एक सत्य घटना पर आधारित है।

…उसका नाम था, सर्वखिपी, जो उसे गांव वालों ने दिया था। इसका अर्थ है, ‘वह स्त्री जो सभी बातों के बारे में पागल है……’

सर्वखिपी, जो सारी बातों के बारे में पागल है। न सिर्फ एक बात में वह पागल है बल्कि सभी मामलों में वह पागल है—पूरी तरह पागल।

.. .उसने अपनी सितारों सी आंखें मेरे चेहरे पर टिका दीं और मुझ से पूछने लगी, ‘तुम वृक्षों की छांव में मुझसे मिलने कब आ रहे हो।’ निश्चित रूप से उसने मेरी हालत दयनीय कर दी, जो उसके अनुसार दीवालों के पीछे कैद था, सभी के विशाल मिलन स्थल से जहां उसका निवास था, से दूर, निर्वासित।

ठीक उसी क्षण मेरा माली अपनी टोकरी लेकर आ गया, और जब उस महिला ने समझा, मेरी मेज पर रखे फूलदान में रखे फूल ताजे आए फूलों को लगाने के लिए फेंके जाने वाले हैं, वह दुखी दिखी और मुझसे बोली, तुम सदैव पढ़ने और लिखने में व्यस्त रहते हो, तुम देखते नहीं हो, फिर उसने फेंके हुए फूलों को अपनी हथेलियों मे उठाया, उन्हें चूमा और उन्हें अपने मस्तक पर लगाया, और सम्मानपूर्वक अपने—से बुदबदाई, ‘मेरे हृदय के प्रिय।’

मैंने अनुभव किया कि इस स्त्री ने प्रत्येक वस्तु के हृदय में व्याप्त असीम व्यक्तित्व का प्रत्यक्ष दर्शन करके पूरब की आत्मा का वास्तव में प्रतिनिधित्व किया।

प्रेम पूरब कं।— आत्मा है। प्रेम मनुष्य की आत्मा है। प्रेम परमात्मा की आत्मा है। यहां पर प्रेम ही एक मात्र समृद्धि है, एकमात्र प्रसन्नता है।

अत: यदि तुम वस्तुओं से अत्यधिक आसक्त हो, तो तुम प्रेमी नहीं हो सकते। केवल अनासक्त मन ही स्वयं को उस आकाश की ओर उठा सकता है जिसे हम प्रेम कहते हैं। इसके बारे में काफी गलतफहमियां हैं।

वे लोग जो संसार त्यागते और वैरागी बनते हैं लगभग उसी के साथ प्रेम—विहीन भी हो जाते हैं, तो कुछ न कुछ गड़बड़ है। क्योंकि प्रेम से ही इसका निर्णय होता है, यही इसका परीक्षण, इसकी कसौटी है। यदि संसार के प्रति तुम्हारा वैराग्य तुम्हें प्रेम—विहीन बना रहा है, तो इसका अर्थ है कि कुछ खटास उत्पन्न हुई है। तुम्हारा वैराग्य सत्य, .प्रमाणिक, सच्चा नहीं है, यह झूठा है। क्योंकि तुम प्रेम से भयभीत हो। तो यह प्रदर्शित करता है कि तुम संबंधित होने से डरते हो, इसलिए तुम उन’ सभी परिस्थितियों से बचाव कर रहे हो जिनमें प्रेम पुष्पित हो सकता है—क्योंकि गहरे में तुम घबड़ा गए हो कि यदि प्रेम पुष्पित हो गया तो तुम पुन: आसक्त हो जाओगे।

यही कारण है कि तुम्हारे तथाकथित महात्मा प्रेम से इतना अधिक डरे हुए हैं। वे एक स्थान पर तीन दिन से अधिक नहीं ठहरेंगे। इतना भय किस लिए? क्योंकि यदि तुम एक स्थान पर और अधिक दिन रुके रहे, तो तुम लोगों के प्रति प्रेम अनुभव करने लगोगे। कोई प्रतिदिन तुम्हारे पांव दबाने आएगा और तुम उसके लिए प्रेम अनुभव करने लगोगे। कोई स्त्री प्रतिदिन तुम्हारे लिए भोजन लेकर आएगी और तुम उसके प्रति प्रेम अनुभव करने लगोगे। एक खास किस्म का लगाव, और पुन: आसक्त हो जाने का भय उठ खड़ा होगा, अत: इससे पूर्व कि तुम आसक्त हो जाओ वहां से चले जाओ।

ये तथाकथित वैरागी लोग मात्र भयभीत लोग हैं। वे एक गहरे आतंक में जीते हैं। जीवन के वास्तविक तल को वे कभी स्पर्श नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह सदैव प्रेम द्वारा संस्पर्शित होता है।

स्मरण रहे, यदि तुम्हारा वस्तुओं से वैराग्य सच्चा है, समझ से आया है, जागरूकता से विकसित हुआ है, तो तुम और अधिक प्रेमपूर्ण हो जाओगे। क्योंकि वही ऊर्जा जो राग में संलग्न थी मुक्त हो जाएगी। यह जाएगी कहां? तुम्हारे पास तुम्हारे उपयोग हेतु अधिक मात्रा में ऊर्जा रहेगी। आसक्ति प्रेम नहीं है; यह अहंकार का—कज्जा करने का, अधिकार करने का, उपयोग करने का ढंग है। यह हिंसा है; यह प्रेम नहीं है। जब यह ऊर्जा मुक्त हो जाती है, अचानक तुम्हारे पास प्रेम करने के लिए ऊर्जा का अतिरेक उपलब्ध हो जाता है। जो सच में ही अनासक्त है वह प्रेम से आपूरित होगा, और उसके पास बांटने के लिए सदा ही और—और रहेगा, और उसे प्रेम के नये स्रोत मिलते चले जाएंगे। उसका स्रोत असीम है।

‘इन शक्तियों से भी अनासक्त होने से,…….’

और परम अनासक्ति तभी आती है जब तुम्हें कुछ चमत्कार, सिद्धियां, शक्तियां उपलब्ध हो चुकी हों—जब तुम कुछ कर सको—कुछ ऐसा जो चमत्कारी हो, कुछ ऐसा जो अविश्वसनीय हो। यदि तुम उनसे आसक्त हो गए, तो कभी न कभी तुम पुन: संसार में वापस आ जाओगे। सावधान हो जाओ। अहंकार का, तुम पर यह अंतिम आक्रमण है; इसके चंगुल में मत फंसना। तुम पर अहंकार अपना अंतिम जाल फेंक रहा है।

‘इन शक्तियों से भी अनासक्त होने से, बंधन का बीज नष्ट हो जाता है।…’

बंधन का बीज है—आसक्ति! और मुक्ति का बीज है प्रेम। और वे किस कदर एक से दिखाई पड़ते हैं। वे नितांत विपरीत हैं, आसक्ति है प्रेम—विहीनता और प्रेम सदा अनासक्त है। अंतर कहां है?

तुम किसी स्त्री या पुरुष से प्रेम करते हो और तुम आसक्ति अनुभव करते हो। तुम्हें आसक्ति क्यों अनुभव होती है? आसक्ति का बस यही अर्थ है—तुम चाहोगे कि यह स्त्री कल भी तुम्हारे साथ हो। कल और उसके बाद आने वाले अगले दिन भी तुम इस स्त्री को अपने कब्जे में रखना चाहोगे। यह बस यही प्रदर्शित करता है कि तुम आज प्रेम कर पाने समर्थ नहीं हो सके, अन्यथा कल की अवश्यकता ही न होती। कल की चिंता कौन करता है? कल के बारे में कौन जानता है? कल कभी नहीं आता। यह उसी मन में आता है जो आज जी नहीं रहा है। तुमने आज इस स्त्री को प्रेम नहीं किया इसलिए तुम कल के आने की प्रतीक्षा कर रहे हो ताकि तुम प्रेम कर सको। तुम्हारा प्रेम अपूर्ण, अधूरा है। उस अधूरे प्रेम के लिए आसक्ति उपजती है। तब यह स्वाभाविक है, तर्क युक्त है। तुम कुछ चित्रित कर रहे हो, और चित्र अधूरा है, तुम चाहोगे कि चित्र पूरा करने के लिए कल भी कैनवास तुम्हारे पास रहे।

जीवन में एक बहुत गहरा नियम है; यह हर बात को पूर्ण करना चाहता है। कली फूल बनना चाहती है; बीज अंकुर बनना चाहता है।

हर चीज पूर्णता की ओर जा रही है, इसलिए जो कुछ भी तुम अपूर्ण छोड़ देते हो वह मन में अभिलाषा बन जाता है और कहता है : ‘इस स्त्री पर कब्जा कर लो। तुमने अभी प्रेम किया ही कहां है; अभी तुम उसके अस्तित्व के इस छोर से उस छोर तक गए ही नहीं, अभी भी उसमें बहुत कुछ अनजाना बचा हुआ है, अभी भी उसमे काफी संभावनाएं हैं जो साकार होना शेष हैं—अस्तित्व के कई गीत हैं, और नर्तन करने को कई नृत्य हैं।’ —आसक्ति उठ खड़ी होती है। कल की जरूरत है, कल के बाद परसों की जरूरत है, भविष्य की आवश्यकता है। और यदि तुम वर्तमान में जीने के लिए जरा भी समर्थ नहीं हो, तो भविष्य के जीवन की भी आवश्यकता है, और लोग एक—दूसरे से वादे किए चले जाते हैं, ‘हम अगले जन्म में भी पति—पत्नी बने रहेंगे।’ यह तो बस सही प्रदर्शित करता है कि लोग जीने में नितांत असमर्थ हो गए हैं। वरना आज का दिन स्वयं में पर्याप्त है।

इस क्षण में यदि तुम अपना प्रेम पूर्ण कर लो, यदि तुमने अपने समग्र हृदय से प्रेम किया हैनरी तरह समर्पित होकर, इसमें डूब कर, यदि तुमने कुछ भी पीछे बचा कर नहीं रखा है—तब कल का विचार कभी नहीं उठता है, कल का विचार उठना असंभव हो जाता है। यह सदैव तभी आता है जब कि कुछ अतृप्त रह गया हो, तभी तुम भविष्य की अभिलाषा रखते हो। यदि तुमने अपनी स्त्री को आज प्रेम कर लिया है और मृत्यु आ जाती है तो तुम इसे स्वीकार कर लोगे। या अगर स्त्री किसी और के प्रेम में पड़ जाती है, तो तुम अलविदा कहोगे—उदास लेकिन दुखी नहीं। और उदासी में एक सौंदर्य है, और दुख कुरूप है। उदास, आसक्ति के कारण नहीं, उदास इसलिए कि तुम्हारा प्रेम अब भी तुम्हारे भीतर उमड़ रहा है लेकिन जो व्यक्ति इसको समझ सकता, दूर जा रहा है। उदास किंतु परितृप्त। वहां कोई शिकायत नहीं है, कोई ईर्ष्या नहीं।

किंतु यदि तुमने पूरी तरह प्रेम किया हो तो ऐसा कभी नहीं होता, कि स्त्री जा सके, या पुरुष जा सके। यदि तुमने समग्रता से प्रेम किया है तो यह असंभव है, क्योंकि पूर्ण प्रेम इतनी गहनता से तृप्त करता है कि कोई किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकता। दूसरे का स्वप्न देखना भी असंभव है। स्वप्न इस व्यक्ति के साथ मिली अतृप्ति के कारण ही जन्मता है। तुम अन्य स्त्रियों के बारे में सोचते हो क्योंकि तुम्हारा अपनी स्त्री के साथ तृप्तिदायी संबंध नहीं रहा है। तुम अन्य पुरुषों के बारे में विचार करती हो क्योंकि मन स्वयं को उड़ेल देना चाहता था और यह इस संबंध में सम्भव नहीं हो पाया। इसलिए मन सारी जगह में दौड़ता—फिरता रहता है। कोई स्त्री या पुरुष जो सड़क से होकर गुजर रहा हो, तुम्हें उसके प्रति प्रेम अनुभव होने लगता है।

और अगर तुम्हारा प्रेम इतना अधिक हताश हो चुका हो कि तुम यह कल्पना भी न कर सको कि किसी व्यक्ति से अब प्रेम कर पाना संभव है तो तुम कुत्तों और बिल्लियों से प्रेम करना आरंभ कर देते हो। यह थोड़ा कम जटिल प्रतीत होता है—आलोक को यह बात नोट कर लेनी चाहिए। यह थोड़ा कम जटिल प्रतीत होता है।

एक कुत्ते को प्रेम करना सरल है……एक बिल्ली को प्रेम करना कुछ अधिक कठिन है। इसी कारण से पुरुष’ स्त्रियों को बिल्लियां कहते हैं। बिल्ली के बारे में कुत्ते से कम पूर्वानुमान किया जा सकता है, वह कुत्ते से अधिक चतुर है—उसके पास अपना मन होता है। तुम कुत्ते को लात मार सकते हो और वह फिर वापस आ जाएगा; तुम बिल्ली को लात मारो, वह पुन: कभी नहीं आएगी। समाप्त। सदैव तलाक के लिए तैयार।

लोग पशुओं के प्रेम में पड़ जाते हैं। कैसा दुर्भाग्य है। मैं नहीं कह रहा हूं कि पशुओं को प्रेम मत करो; मैं कह रहा हूं कि उन्हें मनुष्य का विकल्प मत बनाओ। तुम्हें मनुष्यों से इतना गहरा प्रेम करना चाहिए कि तुम्हारा प्रेम अतिशय होने लगे और यह पशुओं तक भी पहुंच जाए। फिर यह पूरी तरह भिन्न होगा। तब यह वृक्षों तक भी पहुंच जाता है। तब यह पूर्णत: भिन्न होता है। तब यह चट्टानों तक भी पहुंच जाता है; क्योंकि तुम प्रेमातिरेक में रहते हो। प्रेम का एक असीम स्रोत, किसी में भी तुम्हारा प्रेम समा नहीं पाता। यह अतिशय होता है, उद्वेलित होता है, उमड़ता चला जाता है। फिर यह पशुओं तक पहुँच जाता है, तो इसमें बिल्कुल ही भिन्न गुणवत्ता होती है।

लेकिन मनुष्यों के साथ द्वार बंद हो, तो तुम्हें प्रेम के लिए किसी को खोजना पड़ता है, वरना तुम बहुत अधिक हताशा अनुभव करोगे, संबंध की आवश्यकता होती है, तब तुम कुत्तों, बिल्लियों से नाता जोड़ते हो।

कभी—कभी यह भी असंतोषपूर्ण सिद्ध होता है, क्योंकि कुत्तों का व्यक्तित्व है, बिल्लियों का भी व्यक्तित्व होता है—उनकी भी अपनी निजी विचारधारा, अपने निजी विचार होते हैं, वे अपनी चीजें करना चाहते हैं। कोई कुत्ता तुम्हारी इच्छाएं पूरी करने के लिए नहीं होता है। जब तुम कुत्ते को टहलाने ले जा रहे हो तो तुम सोच सकते हो कि तुमने कुत्ते को बस में कर लिया है, कि तुम उस कुत्ते के मालिक हो;, क्योंकि तुमने कुत्ते से कभी नहीं पूछा कि वह क्या सोचता है। वह सोचता है कि वह तुम्हारा मालिक है, और उसने इस मनुष्य को काबू में कर रखा है। मैंने कुत्तों को एक दूसरे से बात करते हुए सुना है।

जब पशुओं से भी प्रेम करना कठिन हो जाता है तब लोग वस्तुओं—मकान, कार, मोटर साइकिल से प्रेम करना आरंभ कर देते हैं। और वे इन चीजों के बारे में बेहद रोमांटिक भी हो जाते हैं।

मैंने एक व्यक्ति को देखा है, वह मेरे घर के ठीक सामने ही रहता था। उसे अपने स्कूटर से इतना प्रेम था कि मैंने उसे लगभग रोमांटिक ढंग से ही स्कूटर साफ करते हुए जैसे कि वह अपनी स्त्री को साफ कर रहा हो, देखा है। इधर से, उधर से देखना और इतनी प्रसन्नता अनुभव करना। और वह कभी उसका उपयोग भी न करता, क्योंकि वह गंदा हो जाएगा। वह अपनी पुरानी मोटर साइकिल पर ही सवारी करता। मैंने कई बार उससे कहा : तुम यह क्या कर रहे हो? तुम्हारे पास कितना सुंदर स्कूटर है। वह कहता, यह है, लेकिन वर्षा आने की संभावना है, आप देखते हैं, बादल छाए हुए हैं, या इस समय तेज गर्मी है, स्कूटर की चमक फीकी पड़ सकती है। नहीं मैंने उसे कभी इसका उपयोग करते नहीं देखा। वह तो बस इसे साफ करता, इसकी देखभाल करता। स्कूटर ही उसका प्रिय था।

यह मानवीय चेतना का अधोगमन है। तुम जितना आसक्त होते हो उतना ही तुम निम्नस्तरीय हो जाते हो; जितनी कम आसक्ति उतना अधिक तुम उठते हो, उड़ते हो।

और वहां पर वह पल आता है जिसके बारे में पतंजलि तुमसे बात कर रहे हैं, जब तुम आध्यात्मिक शक्तियों से संपन्न हो जाते हो। याद रहे, उनसे आसक्त मत हो जाना, क्योंकि वे वास्तव में सुंदर हैं, बहुत तृप्तिदायी हैं। तुम उन्हें बस में रखना पसंद करोगे। योग में बहुत से लोग योग के कारण नहीं, कैवल्य, मोक्ष के कारण नहीं, बल्कि विभूतियों, सिद्धियों के कारण रुचि रखते हैं। वे योग का अध्ययन करते हैं, वे गुरुओं के पास जाते हैं—वे चमत्कार करना चाहते हैं।

‘इन शक्तियों से भी अनासक्त होने से, बंधन का बीज नष्ट हो जाता है।…’

पुन: बंधन में बंध जाने की यह अंतिम संभावना है। यदि तुम इसके पार जा सको तो बीज दग्ध हो जाता है।

‘……तब आता है कैवल्य, मोक्ष।’ तभी मिलता है मोक्ष।

तब तुम पूरी तरह मुक्त हो—स्वतंत्रता, परिपूर्ण स्वतंत्रता—किसी चीज से भी आसक्त नहीं और प्रेम से ओतप्रोत, समग्र अस्तित्व पर अपना प्रेम बरसाते हुए.. .सारे अस्तित्व के लिए वरदान और अपने लिए आशीष।

लेकिन व्यक्ति को हर कदम पर सचेत रहना पड़ता है। मन चालाक है। और तुम सोचते रह सकते हो, हां, जब चमत्कार आएंगे तो मैं उनसे आसक्त होने नहीं जा रहा हूं। दुबारा सोचो, तुम अपने भीतर कहीं एक इच्छा को सक्रिय पाओगे। उन्हें आने दो, फिर हम देखेंगे, पहले उनको आने तो दो। किसे फिकर पड़ी है कैवल्य, मोक्ष की? वे तो लक्ष्य मालूम नहीं पड़ते। बस मुक्त, स्वतंत्र होने के लिए? इसमें भी कोई बात है?

लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, इस ध्यान से हमें छुटकारा कैसे मिलेगा? मैं कहता हूं और अधिक ध्यान करो। वे कहते है, किंतु बात है क्या? शांति? शांति तो सही है, लेकिन हमें इससे कौन सी असली शक्ति मिलने जा रही है?

शांति लक्ष्य जैसी मालूम नहीं पड़ती। शक्ति—कुछ ऐसा जिससे तुम कुछ कर सको, कुछ ऐसा जिसके द्वारा तुम कुछ साबित कर सको।

मैंने एक कहानी सुनी है, एक बहुत अच्छी कहानी।

मुझे बताओ तो तुम कैथेलिक लोग कैथेड्रल्स बनाने के लिए इतना धन कहां से पा जाते हो? एक रबाई ने अपने मित्र से पूछा।

अच्छा, एबी, देखो हम कैथेलिकों के पास एक व्यवस्था है जिसको कन्फेशन, पश्चात्ताप कहा जाता है। जब कभी कोई व्यक्ति कुछ गलत करता है, वह चर्च आता है, अपना पाप स्वीकार करता है, दान—पात्र में कुछ डालता है, और उसे क्षमा कर दिया जाता है, और इस उपाय से हम’ धन की बड़ी राशि एकत्रित कर लेते हैं।

वास्तव में, क्या आश्चर्यजनक व्यवस्था है। हम शायद अपने सिनागॉग में इसे उपयोग कर सकें। लेकिन पहले आज की रात मुझे अपने साथ आने दो ताकि तुम किस प्रकार कार्य करते हो मैं उदाहरण सहित समझ लूं।

ठीक है एबी, एक पादरी के रूप में मेरे लिए इसकी सख्त मनाही है कि तुमको मैं अपने साथ रखूं लेकिन यह देखते हुए कि पिछले कई सालों से तुम मेरे इतने अच्छे मित्र रहे हो, मैं तुम्हें बस, इस बार की अनुमति दूंगा।

उसी शाम वे पश्चात्ताप कक्ष में बैठ गए, पादरी सामने बैठा था, और एबी, अत्याधिक उत्सुकतापूर्वक, पीछे। उसी समय पर्दे के पीछे से एक पुरुष की आवाज सुनाई दी

फादर, मैंने जघन्य पाप किया है।

तुमने क्या किया है, मेरे बेटे?

पिछली रात मैंने दो औरतों के साथ सहवास किया है।

ठीक है, तब तुम दान—पात्र में दो पाउंड रख दो, तुम्हारे पाप क्षमा कर दिए जाएंगे।

एबी बेहद रोमांचित हो गया। अब दूसरे व्यक्ति की आवाज सुनाई पड़ी :

फादर, मैंने घनघोर पाप किया है

तुमने क्या किया है, मेरे बेटे?

पिछली रात मैंने तीन औरतों के साथ समागम किया है

ठीक है, तब तीन पाउंड दान—पात्र में डाल दो, और तुम्हारे पाप क्षमा कर दिए जाएंगे, मेरे बेटे।

एबी अब अपने आपको और ज्यादा नहीं रोक पाया :

धन कमाने का क्या तरीका है; कितनी आश्चर्यजनक व्यवस्था है। मेरा एक काम कर दो। अगला मामला मुझे सौंप दो, ताकि मैं जरा थोड़ा अभ्यास कर लूं।

ठीक है, एबी, कायदे की बात तो यह है कि इसकी अनुमति नहीं है, लेकिन यह देखते हुए कि तुम वर्षों से मेरे दोस्त रहे हो, मैं तुम्हें केवल इस मामले की अनुमति देता हूं।

अत: उन्होंने स्थान बदल लिए और एबी सामने प्रतीक्षा में बैठ गया। इस बार एक महिला की आवाज सुनाई दी :

फादर मैंने भीषण पाप किया है।

अब, अब यह क्या है जो तुमने कर डाला?

पिछली रात मैंने चार पुरुषों के साथ संसर्ग किया है।

अब पांच पाउंड दान पात्र में डालो और मैं तुम्हें एक और पुरुष के संसर्ग की इजाजत देता हूं।

देखो! मन अत्यंत लोभी है, अहंकार और कुछ नहीं बल्कि लोभ है।

पतंजलि ने यह अध्याय लिखा, अनेंक लोगों का अनुभव है कि अगर वे इसे न लिखते तो उत्तम रहता। लेकिन उनके पास बहुत वैज्ञानिक मन है। वे संभव हो सकने वाली सारी बात का नक्‍शा खींचना चाहते थे, और उन्होंने यह अध्याय बस लोगों को सचेत करने के लिए लिखा कि ऐसी चीजें घटती हैं। जहां तक मेरा संबंध है, मैं सोचता हूं कि उन्होंने इसे सम्मिलित करके बिलकुल उचित कार्य किया है, क्योंकि अनभिज्ञता में तुम पर लोभ के हावी होने की अधिक संभावना है। यदि तुम्हें पता है और तुम सारे मामले को समझते हो और तुम जानते हो कि अहंकार का अंतिम आक्रमण कहां होने वाला है, तो तुम अधिक सावधानीपूर्वक तैयारी कर सकते हो, और जब यह होता है तो तुम असावधान होकर नहीं फंस सकोगे।

मैं पूर्णत: प्रसन्न हूं कि उन्होंने ‘विभूतिपाद’ सिद्धियों और शक्तियों के बारे में यह अध्याय लिखा है, क्योंकि भले ही तुम उनकी खोज में न हो वे अपने आप से घट सकती हैं। जितना तुम अंदर की ओर विकास करते हो बहुत सी चीजें अपने आप से घटने लगती हैं। ऐसा नहीं है कि तुम उनको खोज रहे हो या उनकी तलाश में हो—वे तो परिणाम हैं। प्रत्येक चक्र की अपनी शक्तियां होती हैं। जब तुम उनसे होकर गुजरते हो, वे तुम्हारे लिए उपलब्ध हो जाती हैं। व्यक्ति जहां जा रहा है, वहां से जान कर गुजरना और सतर्क रहना शुभ है।

‘तब विभिन्न तलों की अधिष्ठाता, अधिभौतिक सत्ताओं के द्वारा भेजे गए निमंत्रणों के प्रति आसक्ति या उन पर गर्व से बचना चाहिए, क्योंकि यह अशुभ के पुनर्जीवन की संभावना लेकर आएगा।’

जब ये शक्तियां घटने लगती हैं तुम्हें उच्चतर सत्ताओं से, अधिभौतिक सत्ताओं से निमंत्रण मिलने लगते हैं। तुमने थियोसोफिस्टों के बारे में अवश्य सुना होगा या तुमने अवश्य पढ़ा होगा। उनका सारा कार्य इन्हीं अधिभौतिक सत्ताओं से संबंध है। वे उन्हें ‘दि मास्टर्स’ कहा करते थे। ऐसी अधिभौतिक सत्ताएं हैं जो मनुष्यों से संवाद करती रहती हैं। और जब कभी तुम ऊपर उठते हो तुम उनके लिए उपलब्ध हो जाते हो, तुम उनके साथ और लयबद्ध हो जाते हो। तुम्हें अनेक निमंत्रण, अनेक संदेश मिलते हैं।

यही है जिसको मुसलमान पैगाम, संदेश कहते हैं, और वे मोहम्मद को पैगंबर, संदेश प्राप्त करने वाला व्यक्ति कहते हैं। वे उनको अवतार नहीं कहते, वे उन्हें ईश्वर का अवतरण नहीं कहते। वे उन्हें बुद्ध, वह व्यक्ति जो ज्ञानोपलब्ध हो गया है नहीं कहते; वे उन्हें जिन, वह जिसनें जीत लिया है नहीं कहते; वे उन्हें मसीहा, क्राइस्ट भी नहीं कहते। नहीं। उनके पास इसके लिए अति परिशुद्ध, वैज्ञानिक शब्दावली है; वे उन्हें संदेशवाहक, पैगंबर कहते हैं। इसका अभिप्राय बस यही है कि वे ऊंचे उठ गए हैं और अब वे कार्यरत नहीं रहे, कुछ और सत्ताएं, उच्चतर सत्ताएं उन पर अधिकार कर चुकी हैं। वे एक माध्यम बन गए हैं।

और यही है भी। मोहम्मद अनपढ़ थे; यह सोच पाना या कल्पना कर पाना करीब—करीब असंभव ही है कि उन्होंने कुरान जैसे सुंदर काव्य का सृजन कर लिया होगा। यह अतुलनीय रूप से सुंदर है। यह महानतम गीतों में से एक है; और यदि तुम किसी को इसका गायन करते सुन सको तो तुम तुरंत ही इससे प्रभावित हो जाओगे। भले ही तुम इसका अर्थ न समझो, इसमें अतिशय शक्ति है। इसकी ध्वनि में ही तुम्हें प्रकंपित करने की अत्याधिक शक्ति है।

मोहम्मद अनपढ़ थे, जानते ही नहीं थे कि कैसे पढ़ा जाता है, कैसे लिखा जाता है, साहित्य और शब्दों के संसार के बारे में वे कुछ भी नहीं जानते थे। अचानक ही एक पर्वत पर ध्यान करते समय वे उपलब्ध हो गए, और उन्हें सुनाई पड़ा— ‘पढ़ो।’ यह शब्द ‘पढ़ो।’ लेकिन उन्होंने कहा मैं कैसे पढ सकता हूं? ‘कुरान’ शब्द का अभिप्राय है— ‘पढ़ो।’ मैं कैसे ‘पढ़’ सकता हूं? मैं तो जानता भी नहीं, मोहम्मद ने कहा, और वे बहुत अधिक घबड़ा गए। किसने कहा यह? उनको कहीं कोई दिखाई भी न पड़ा। दुबारा आवाज आई— ‘पढ़ो।’ यह उनके अपने हृदय से आ रही थी; वे एक माध्यम बन गए थे। और निःसंदेह वे अपने अतीत के बारे में सोच रहे थे, और यह आवाज उनके भविष्य के बारे में कुछ कह रही थी। यह आवाज कह रही थी, मैं पढ सकता हूं चिंता मत करो। बस पढ़ो—मैं तुम्हारे माध्यम से पढ़ रहा होऊंगा। तुम गाओ—मैं तुम्हारे माध्यम से गा रहा होऊंगा। तुम कहो, मैं तुम्हारे माध्यम से कह रहा होऊंगा। बस जरा अपने आप को रास्ते से हटा लो।

यह इतना विचित्र, इतना अप्रत्याशित था कि उन्हें तेज बुखार हो गया; वे इतना अधिक परेशान जो थे। वे घर आए, बीमार पड़ गए। उनकी पत्नी ने पूछा, क्या हो गया है? सुबह तो आप बिलकुल भले— चंगे थे, और इतना तेज बुखार? वे बोले, मैं तुम्हें एक बात कहता हूं : या तो मैं पागल हो गया हूं या उस पार से कुछ घटित हुआ है। मुझे विश्वास ही नहीं होता कि मैं किसी काम के योग्य भी हूं लेकिन मैंने एक आवाज सुनी है जो कहती है, पढ़ो! गाओ! और मैं नहीं जानता कि क्या गाऊं—और यही नहीं, मैंने गाना शुरू भी कर दिया। मैंने खुद को वे बातें कहते हुए सुना जिनके बारे में मैंने कभी सोचा भी नहीं था, और वे परिपूर्ण काव्य की भांति, लय, ताल और सब कुछ के साथ बाहर आ रही थीं। मैं तो इस पर विश्वास ही नहीं कर सकता। या तो मैं पागल हो गया हूं या मुझ पर किसी ने कब्जा कर लिया है। अब मैं तुम्हारा वही पति नहीं रहा जो सुबह घर से गया था, दौड़ो और किसी वैद्य को बुला कर लाओ, मुझे उपचार की आवश्यकता है। मैं लगातार पागल होता जा रहा हूं। और मुझे अब भी यही आवाज सुनाई पड़ रही है— गाओ! और सुंदर कविताएं मेरे भीतर उतर रही हैं और मेरे हृदय को भरती जा रही हैं।

पत्नी उनकी पहली शिष्या थी। उसने उनके चरणस्पर्श किए। वह उनके चारों ओर प्रभामंडल देख सकी। यह ज्वर नहीं था; यह उनके आभामंडल का प्रथम प्रस्फुटन था। वे ज्वरग्रस्त महसूस कर रहे थे, क्योंकि यह इतना उत्तप्त, इतना नया था, और वे परेशान हो गए थे, क्योंकि वे तैयार नहीं थे, उन्हें ऐसी कोई आशा नहीं थी, उन्होंने इसके लिए कोई योजना नहीं बनाई थी।

यदि उन्हें पतंजलि के बारे में पता होता तो ऐसा नहीं हुआ होता। पतंजलि ने हर बात लिख दी है; उन्होंने सारी यात्रा, अंतर्यात्रा का नक्‍शा बना दिया है। तो वे इस सूत्र को समझ गए होते। इस सूत्र की आवश्यकता थी।

‘तब विभिन्न तलों की अधिष्ठाता, अधिभौतिक सत्ताओं के द्वारा भेजे गए निमंत्रणों के प्रति आसक्ति या उन पर गर्व से बचना चाहिए, क्योंकि यह अशुभ के पुनर्जीवन की संभावना लेकर आएगा।’

लेकिन पतंजलि कहते हैं, स्मरण रखो, जब तुम उच्चतर तलों के वाहक बन जाओ, गर्व करना मत आरंभ करो, अपने आप को चुने हुए कुछ में या चयनित अनुभव करना मत आरंभ करो। ऐसा मत अनुभव करने लगो कि तुम्हें छांटा गया, चुना गया, चयनित किया गया है और तुम विशिष्ट हो। अन्यथा यही तुम्हारे पतन का कारण बन जाएगा।

एक सूफी कहानी है

एक मुर्शिद के मुर्शिद का मुर्शिद, जब कि अभी वह युवा ही था, लोगों के एक समूह में बोल रहा था। इस समूह में एक बड़ी आंखों वाला दरवेश साधारण भूरे वस्त्र पहने बैठा हुआ था। यह दरवेश लगातार वक्ता की ओर देखता रहा। उसने ऐसी जानने वाली दृष्टि से उसे देखा कि वक्ता घबड़ा गया और वहां से हट गया। वक्तव्य समाप्त होने पर यह दरवेश उसके पास गया और उससे बोला कि वह उसे दीक्षा देने के लिए भेजा गया है। ऐसा नहीं हो सकता, मेरे पिता पहले से ही मेरी दीक्षा के लिए व्यवस्था कर चुके हैं।

मैंने तुम्हें बताया कि मुझे भेजा गया है, दरवेश ने कहा।

कोई बात नहीं, मुझे अपने पिता की इच्छा को पूरा करना चाहिए, युवक के द्वारा इस प्रकार से जोर देने पर दरवेश वापस लौट गया।

उस रात उस व्यक्ति ने स्वप्न देखा कि उसके पिता उसे दरवेश द्वारा दीक्षित हो जाने के लिए कह रहे हैं। प्रातःकाल में वह दरवेश उसके कमरे में यह कहते हुए आया कि उसे दीक्षा देने उसको भेजा गया है। क्या तुम एक दिन पहले की बात भी याद नहीं रख सकते? जाओ, मेरे पिता मेरी दीक्षा के लिए व्यवस्था कर रहे हैं।

दरवेश ने उसको देखा, वह अपनी आंखों में मुस्कुराया और बोला, क्या तुम अपना सपना भूल चुके हो?

इस पर वह व्यक्ति नतमस्तक हो गया और दरवेश द्वारा दीक्षित हो गया। इसके बाद कई दिनों तक यह व्यक्ति जीवन और पवित्र ग्रंथों के बारे में, हर प्रकार के प्रश्न इस दरवेश से पूछता रहा, जिनको उसने कंधे उचका कर अनुत्तरित छोड़ दिया। एक रात वह युवक अपने कमरे में बैठा सोच रहा था कि निश्चित रूप से वह इस शिक्षक के साथ कहीं नहीं पहुंचेगा जो उसके प्रश्नों के मामले में अज्ञानी प्रतीत होता है। इसी विचार के समय दरवेश वहां प्रविष्ट हुआ और उसने फुसफुसा कर गहरे विश्वास के साथ कहा : ‘तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मैं हूं।’

अब ये कहानियां बस कहानियों जैसी लगती हैं—पौराणिक, काल्पनिक, रूपक जैसी, या अधिक से अधिक प्रतीकात्मक। ऐसा नहीं है। वे वास्तविक हैं। यदि तुम तैयार हो, तुरंत ही उच्चतर तलों से संदेशों पर संदेश तुम पर आना आरंभ हो जाते हैं। वे लंबे समय से प्रतीक्षरत थे कि कोई व्यक्ति ग्रहणशील केंद्र बन जाए। जब ऐसा घटे, तो उनको इनकार मत करना। जब ऐसा हो, तो खुले और उपलब्ध रहना। पहली बात, अपने हृदय को, श्रद्धा को, खोल देना। और दूसरी बात, गर्व अनुभव मत करना। यदि तुम ये दो काम कर सके, परमात्मा तुम्हारे माध्यम से कार्य करना आरंभ कर देता है। तुम एक बांसुरी, एक पोला बांस बन जाते हो, वह तुम्हारे माध्यम से गाना आरंभ कर देता है।

लेकिन एक बार गर्व आ गया, गीत बंद हो जाता है। एक बार तुमने श्रेष्ठ समझना आरंभ किया नहीं कि गीत कमजोर पड़ने लगता है। यह अनेक लोगों के साथ हो चुका है। वे श्रेष्ठतर संसार, उच्चतर संसार, अधिभौतिक विश्व के संपर्क में आए और तभी उन्होंने गर्व अनुभव करना आरंभ कर दिया; तुरंत ही या कुछ समय के अंतराल में यह संपर्क पुन: खो गया, वे सामान्य हो गए।

किंतु तब वे बहुत बड़े धोखेबाज बन गए, क्योंकि वे यह स्वीकार नहीं कर सकते हैं कि अब संपर्क खो चुका है। मैंने ऐसे कई लोग देखे हैं जिनके पास वास्तव में चमत्कारी शक्तियां थीं, लेकिन तब वे अभिमानी हो गए। तभी शक्ति खो गई और फिर वे सामान्य जादूगर बन गए, क्योंकि वे यह विचार स्वीकार नहीं कर सकते कि अब वे ऐसा नहीं कर सकते हैं। वे यह किया करते थे, ऐसा एक बार हो चुका है।

यही तो हुआ है सत्य साईंबाबा के साथ। वे संपर्क में आए थे। पहला काम जो उन्होंने किया था वह उनसे नहीं हुआ था, लेकिन अब सब कुछ वे ही कर रहे हैं। पहली बात तो बस घट गई थी, लेकिन फिर उन्हें चमत्कारों का नशा, विशिष्टता का अभिमान हो गया। अब जो कुछ भी वे कर रहे हैं वह मात्र धोखाधड़ी है, अब उन्हें अपनी प्रतिष्ठा कायम रखनी है। अब वे एक आम जादूगर से भी निम्नस्तरीय हैं, क्योंकि कम से कम एक आम जादूगर यह मानता तो है कि वह तरकीबें कर रहा है।

किंतु यह तर्कयुक्त प्रतीत होता है। एक बार तुम कुछ कर सकते थे, और अब तुम उसे न कर सको, तब किया क्या जाए? इसके विकल्प में तुम कुछ और करते हो। तुम कुछ सीखना और कुछ करना आरंभ कर देते हो, किसी भी प्रकार से अपना वह स्तर यथावत रखना है, जो तुमने अपने चतुर्दिक निर्मित कर लिया है, अपनी छवि जो तुमने अपने चारों ओर बना रखी है।

जब कभी तुम्हारे साथ कुछ घटित हो—और यह अनेक के साथ होने वाला है, क्योंकि मैंने बहुत सी विधियां तुम्हारे लिए उपलब्ध करवा दी हैं; यदि तुम उनमें गहरे उतरते हो, तो अनेक चीजें तुम्हारे लिए उपलब्ध होने जा रही हैं—पहली बात यह कि उपलब्ध रहो; दूसरी बात यह इस पर गर्व मत करो। इसे एक तथ्य की भांति ग्रहण कर लो, इसका प्रदर्शन कभी मत करो।

और यदि यह तुम पर बलपूर्वक आए, तो शक्तियों से कहो कि तुम्हें एक छाया मात्र बना दे कि तुम्हें किसी प्रकार से पता ही न लगे कि तुम्हारे माध्यम से क्या घट रहा है। क्योंकि अगर तुम जान गए, तो पूरी संभावना है कि तुम्हारा पतन हो जाए, तुम अहंकार का संचय आरंभ कर दो—मैं यह कर सकता हूं मैं वह कर सकता हूं—और तुम निम्नतर की ओर फिसलने लगो।

आज इतना ही।


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कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–6)

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जीवन के बृहत् जोड़ के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—छठवां)

 दिनांक 28 सितंबर, 1970;

प्रात:, मनाली (कुलू)

“श्रीकृष्ण के गर्भाधान व जन्म की विशेषताओं व रहस्यों पर सविस्तार प्रकाश डालने की कृपा करें। और क्राइस्ट की जन्म-स्थितियों से साम्य हो तो उसे भी स्पष्ट करें।’

कृष्ण का जन्म हो, या किसी और का जन्म हो, जन्म की स्थिति में भेद नहीं है। इसे थोड़ा समझना जरूरी है। लेकिन सदा से हम भेद देखते आए हैं। वह कुछ प्रतीकों को न समझने के कारण।

कृष्ण का जन्म होता है अंधेरी रात में, अमावस में। सभी का जन्म अंधेरी रात में होता है और अमावस में होता है। जन्म तो अंधेरे में ही होता है। असल में जगत की कोई भी चीज उजाले में नहीं जन्मती, सब कुछ जन्म अंधेरे में ही होता है। एक बीज भी फूटता है तो जमीन के अंधेरे में जन्मता है। फूल खिलते हैं प्रकाश में, जन्म अंधेरे में होता है।

असल में जन्म की प्रक्रिया इतनी रहस्यपूर्ण है कि अंधेरे में ही हो सकती है। आपके भीतर भी जिन चीजों का जन्म होता है वे सब गहरे अंधकार में जन्मती है। बहुत “अनकांशस डार्कनेस’ में पैदा होती है। एक चित्र का जन्म होता है, तो मन की बहुत अतल गहराइयों में जहां कोई रोशनी नहीं पहुंचती जगत की, वहां होता है। समाधि का जन्म होता है, ध्यान का जन्म होता है, तो सब गहन अंधकार में। गहन अंधकार से अर्थ है, जहां बुद्धि का प्रकाश जरा भी नहीं पहुंचता। जहां सोच-समझ में कुछ भी नहीं आता, हाथ को हाथ नहीं सूझता है।

कृष्ण का जन्म जिस रात में हुआ, कहानी कहती है कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था, इतना गहन अंधकार था। लेकिन कब कोई चीज जन्मती है जो अंधकार में न जन्मती हो! इसमें विशेषता खोजने की जरूरत नहीं है। यह जन्म की सामान्य प्रक्रिया है।

दूसरी बात कृष्ण के जन्म के साथ जुड़ी है–बंधन में जन्म होता है; कारागृह में। किस का जन्म है जो बंधन और कारागृह में नहीं होता है? हम सभी कारागृह में जन्मते हैं। हो सकता है कि मरते वक्त तक हम कारागृह से मुक्त हो जाएं, जरूरी नहीं है। हो सकता है हम मरें भी कारागृह में। जन्म एक बंधन में लाता है, सीमा में लाता है। शरीर में आना ही बड़े बंधन में आ जाना है, बड़े कारागृह में आ जाना है। जब भी कोई आत्मा जन्म लेती है तो कारागृह में जन्म लेती है।

लेकिन इस प्रतीक को ठीक से नहीं समझा गया। इस बहुत काव्यात्मक बात को ऐतिहासिक घटना समझकर बड़ी भूल हो गई। सभी जन्म कारागृह में होते हैं; सभी मृत्युएं कारागृह में नहीं होतीं। कुछ मृत्युएं मुक्ति में होती हैं। कुछ; अधिक कारागृह में होती हैं। जन्म तो बंधन में होगा, मरते क्षण तक अगर हम बंधन से छूट जाएं, टूट जाएं सारे कारागृह, तो जीवन की यात्रा सफल हो गई।

कृष्ण के जन्म के साथ एक और तीसरी बात जुड़ी है और वह यह है कि जन्म के साथ ही उनके मरने का डर है। उन्हें मारे जाने की धमकी है। किस को नहीं है? जन्म के साथ ही मरने की घटना संभावी हो जाती है। जन्म के बाद–एक पल बाद भी मृत्यु घटित हो सकती है। जन्म के बाद प्रतिपल मृत्यु संभावी है। किसी भी क्षण मौत घट सकती है। मौत के लिए एक ही शर्त जरूरी है, वह जन्म है। और कोई शर्त जरूरी नहीं है। जन्म के बाद एक पल जिआ हुआ बालक भी मरने के लिए उतना ही योग्य हो जाता है जितना सत्तर साल जिआ हुआ आदमी होता है। मरने के लिए और कोई योग्यता नहीं चाहिए, जन्म भर चाहिए। कृष्ण के जन्म के साथ ही मौत की धमकी है, मरने का भय है। सबके जन्म के साथ वही है। जन्म के बाद हम मरने के अतिरिक्त और करते ही क्या हैं? जन्म के बाद हम रोज-रोज मरते ही तो हैं। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह मरने की लंबी यात्रा ही तो है। जन्म से शुरू होती है, मौत पर पूरी हो जाती है।

लेकिन कृष्ण के जन्म के साथ एक चौथी बात भी जुड़ी है कि मरने की बहुत तरह की घटनाएं आती हैं, लेकिन वे सबसे बचकर निकल जाते हैं। जो भी उन्हें मारने आता है वही मर जाता है। कहें कि मौत ही उनके लिए मर जाती है। मौत सब उपाय करती है और बेकार हो जाती है। उसका भी बड़ा मतलब है। हमारे साथ ऐसा नहीं होता। मौत पहले ही हमले में हमें ले जाएगी। हम पहले हमले से ही न बच पाएंगे। क्योंकि सच तो यह है कि करीब-करीब मरे हुए लोग हैं, जरा-सा धक्का और मर जाएंगे। जिंदगी का हमें कोई पता भी तो नहीं है। उस जीवन का हमें कोई पता ही नहीं है जिसके दरवाजे पर मौत सदा हार जाती है।

कृष्ण ऐसी जिंदगी हैं जिस दरवाजे पर मौत बहुत रूपों में आती है और हारकर लौट जाती है। बहुत रूपों में। वे सब रूपों की कथाएं हमें पता हैं कि कितने रूपों में मौत घेरती है और हार जाती है। लेकिन कभी हमें खयाल नहीं आया कि इन कथाओं को हम गहरे में समझने की कोशिश करें। सत्य सिर्फ उन कथाओं में एक है, और वह यह है कि कृष्ण जीवन की तरफ रोज जीतते चले जाते हैं और मौत रोज हारती चली जाती है। मौत की धमकी एक दिन समाप्त हो जाती है। जिन-जिन ने चाहा है, जिस-जिस ढंग से चाहा है कृष्ण मर जाएं, वे-वे ढंग असफल हो जाते हैं और कृष्ण जिए ही चले जाते हैं। इसका मतलब है। इसका मतलब है, मौत पर जीवन की जीत। लेकिन ये बातें इतनी सीधी, जैसा मैं कह रहा हूं, कही नहीं गई हैं। इतने सीधे कहने का पुराने आदमी के पास उपाय नहीं था। इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

जितना पुरानी दुनिया में हम वापस लौटेंगे, उतना ही चिंतन का जो ढंग है वह “पिक्टोरिअल’ होता है, चित्रात्मक होता है, शब्दात्मक नहीं होता। अभी भी रात आप सपना देखते हैं, कभी आपने खयाल किया कि सपनों में शब्दों का उपयोग करते हैं कि चित्रों का? सपनों में शब्दों का उपयोग नहीं होता, चित्रों का उपयोग होता है। क्योंकि सपने हमारे आदिम भाषा हैं, “प्रिमिटिव लैंग्वेज’ हैं। सपने के मामले में हममें और आज से दस हजार साल पहले के आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। सपने अभी भी पुराने हैं, “प्रिमिटिव’ हैं, अभी भी सपना आधुनिक नहीं हो पाया। अभी भी कोई आदमी आधुनिक सपना नहीं देखता है। अभी भी सपने तो वही हैं जो दस हजार साल, दस लाख साल पुराने थे। गुहा-मानव ने गुफा में सोकर रात में जो सपने देखे होंगे, वही “एयरकंडीशंड’ मकान में भी देखे जाते हैं। बस, कोई और फर्क नहीं पड़ा है। सपने की खूबी है कि उसकी सारी अभिव्यक्ति चित्रों में है।

अगर एक आदमी बहुत महत्वाकांक्षी है तो सपने में महत्वाकांक्षा को वह क्या करेगा? चित्र बनाएगा। हो सकता है उसके पंख लग जाएं और वह आकाश में उड़ जाए। सभी महत्वाकांक्षी लोग उड़ने का सपना देखेंगे, “एम्बीशस माइंड’ उड़ने का सपना देखेगा। उड़ने का मतलब है सब के ऊपर हो जाना। उड़ने का मतलब है कि कोई सीमा न रही ऊपर उठने की। जितना चाहो, उठ सकते हो। पहाड़ नीचे छूट जाते हैं, आदमी नीचे छूट जाते हैं, चांदत्तारे नीचे छूट जाते हैं और आदमी ऊपर उठता चला जाता है। महत्वाकांक्षा शब्द का उपयोग सपने में नहीं होगा। उड़ने के चित्र का उपयोग होगा। इसलिए तो हम अपने सपने समझने में असमर्थ हो गए हैं। क्योंकि दिन में हम जो भाषा बोलते हैं, वह शब्दों की है, रात जो सपना देखते हैं, वह चित्रों का है। दिन में जो भाषा बोलते हैं वह बीसवीं सदी की है, रात जो सपना देखते हैं, वह आदिम है। इन दोनों के बीच लाखों साल का फासला है। इसलिए सपना क्या कहता है, यह हम नहीं समझ पाते।

जितना पुरानी दुनिया में हम लौटेंगे–और कृष्ण बहुत पुराने हैं, इस अर्थों में पुराने हैं कि आदमी जब चिंतन शुरू कर रहा है, आदमी जब सोच रहा है जगत और जीवन के बाबत, अभी जब शब्द नहीं बने हैं और जब प्रतीकों में, चित्रों में सारा-का-सारा कहा जाता है और समझा जाता है, तब कृष्ण के जीवन की घटनाएं लिखी गई हैं। उन घटनाओं को “डिकोड’ करना पड़ता है। उन घटनाओं को चित्रों से तोड़कर शब्दों में लाना पड़ता है। इसलिए ध्यान रहे कि क्राइस्ट का जीवन भी करीब-करीब कृष्ण जैसा ही शुरू होता है। उसमें बहुत फर्क नहीं है। इसलिए बहुत लोगों को यहां तक भ्रम पैदा हो गया था–अभी भी कुछ लोगों को है–कि क्राइस्ट हुए ही नहीं, यह कृष्ण की ही कथा है जो यात्रा करके और जेरूसलम तक पहुंच गई है। क्योंकि जन्म की कथा में बड़ा साम्य है। अंधेरी रात में, मृत्यु के भय से घिरे हुए, जीसस का जन्म होता है। यहां कंस धमकी दे रहा है कृष्ण की मृत्यु की। वहां हिरोद सम्राट जीसस को हत्या की धमकी दे रहा है। यहां कंस ने बच्चे कटवा डाले हैं कि उसका मानने वाला पैदा न हो जाए, वहां हिरोद ने बच्चे कटवा डाले हैं कि उसका मारने वाला पैदा न हो जाए।

नहीं, लेकिन कृष्ण की कहानी क्राइस्ट की कहानी नहीं है। जीसस अलग ही व्यक्ति हैं, अलग ही उनकी यात्रा है। लेकिन प्रतीक दोनों समान हैं। और प्रतीक इसलिए दोनों समान हैं कि “प्रिमिटिव माइंड’ एकदम समान होता है। यह आपसे कहने जैसी बात है कि चाहे अंग्रेज सपना देखे और चाहे चीनी सपना देखे और चाहे जापानी सपना देखे, सपने की भाषा एक है। हमारी बोलने की भाषाएं अलग हैं। “मिथ’, पुराण की भाषा एक है। तो जो प्रतीक पुराने मन में उठे थे कृष्ण के जन्म के साथ जुड़ गए, वे ही प्रतीक जीसस के जन्म के साथ जुड़ गए। लेकिन यह एक व्यक्ति होने का भ्रम और एक कारण से पैदा हुआ कि जीसस का नाम तो जीसस है, लेकिन बाद में उनके साथ जुड़ गया क्राइस्ट। “क्राइस्ट’ शब्द को कृष्ण शब्द का रूपांतर माना जा सकता है। मैं एक आदमी को जानता हूं, जिनका नाम क्रिष्टो बाबू है। मैंने उनसे पूछा कि यह कैसा नाम है? उन्होंने कहा, नाम तो मेरा कृष्ण है, लेकिन अंग्रेजी में लिखते-लिखते धीरे-धीरे क्रिष्टो हो गया। मैंने कहा, हद्द हो गई बात। मैंने उनसे कहा क्या आपको पता है कि कुछ लोगों का यह खयाल है कि कृष्ण शब्द ही “क्राइस्ट’ हो गया है? इसकी संभावना है।

जीसस तो अलग व्यक्ति हैं। लेकिन इस बात की संभावना है कि कृष्ण शब्द यात्रा करते-करते “क्राइस्ट’ हो गया हो। क्योंकि जीसस की “क्राइस्ट’ एक पदवी है, जैसे कि वर्द्धमान की पदवी महावीर है। वर्द्धमान घर का नाम है। बाद में जब वे ज्ञान को उपलब्ध हो गए तो महावीर नाम हो गया। बुद्ध घर का नाम नहीं है, गौतम सिद्धार्थ घर का नाम है। जब वे ज्ञान को उपलब्ध हुए तो बुद्ध हो गए। जीसस घर का नाम है। जब वे ज्ञान को उपलब्ध हुए तो क्राइस्ट हो गए। अब यह क्राइस्ट शब्द हो सकता है कि कृष्ण से ही गया हो, इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। यह कहा जा सकता है। लेकिन, जीसस का व्यक्तित्व अलग व्यक्तित्व है। जन्म की घटनाओं में जरूर तालमेल है। दो व्यक्ति हैं, वे एक नहीं हैं। जन्म की घटनाओं का तालमेल एक ही व्यक्ति के जन्म के कारण नहीं है। जन्म की घटनाओं का तालमेल एक ही तरह के अचेतन मन में पैदा हुए प्रतीकों का है।

कार्ल गुस्ताव जुंग ने मनुष्य के मन के संबंध में एक बहुत अदभुत खोज की है, जिस खोज को वह “आर्च टाइप’ कहते हैं। वह कहते हैं, मनुष्य के गहरे मन में कुछ “आर्च टाइप’ हैं, कुछ मनुष्य के गहरे मन में बुनियादी प्रतीक हैं, जो सारी दुनिया में समान हैं। वे दोहराते रहते हैं। क्राइस्ट और कृष्ण की जन्म-कथा में वे ही प्रतीक दोहरे हैं। और मैंने जैसा कहा, इस जन्म को, इस जन्म की घटना को ठीक से समझें तो यह सभी के जन्म की घटना है।

और कृष्ण शब्द को भी थोड़ा समझना जरूरी है।

कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, जो आकृष्ट करे, जो आकर्षित करे; “सेंटर आफ ग्रेविटेशन’, कशिश का केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है जिस पर सारी चीजें खिंचती हों। जो चुंबक का काम करे। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक अर्थ में कृष्ण का जन्म है, क्योंकि हमारे भीतर जो आत्मा है, वह कशिश का केंद्र है। वह “सेंटर आफ ग्रेविटेशन’ है जिस पर सब चीजें खिंचती हैं और आकृष्ट होती हैं। शरीर खिंचकर उसके आसपास निर्मित होता है, परिवार खिंचकर उसके आसपास निर्मित होता है, समाज खिंचकर उसके आसपास निर्मित होता है, जगत खिंचकर उसके आसपास निर्मित होता है। वह जो हमारे भीतर कृष्ण का केंद्र है, आकर्षण का जो गहरा बिंदु है, उसके आसपास सब घटित होता है। तो जब भी कोई व्यक्ति जन्मता है, एक अर्थ में कृष्ण ही जन्मता है। वह जो बिंदु है आत्मा का, आकर्षण का, वह जन्मता है, और उसके बाद सब चीजें उसके आसपास निर्मित होनी शुरू होती हैं। उस कृष्ण-बिंदु के आसपास “क्रिस्टलाइजेशन’ शुरू होता है और व्यक्तित्व निर्मित होते हैं। इसलिए कृष्ण का जन्म एक व्यक्ति-विशेष का जन्मपात्र नहीं है, बल्कि व्यक्तिमात्र का जन्म है।

अंधेरे का, कारागृह का, मृत्यु के भय का अर्थ है। लेकिन, हमने कृष्ण के साथ उसे क्यों जोड़ा होगा? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जो कृष्ण की जिंदगी में घटना घटी होगी कारागृह में वह नहीं घटी है। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि वह बंधन में पैदा हुए होंगे, वे नहीं हुए हैं। मैं इतना ही कह रहा हूं कि वे बंधन में पैदा हुए हों या न हुए हों, वे कारागृह में जन्मे हों या न जन्मे हों, लेकिन कृष्ण जैसा व्यक्ति जब हमें उपलब्ध हो गया तो हमने कृष्ण के व्यक्तित्व के साथ वह सब समाहित कर दिया है जो कि प्रत्येक आत्मा के जन्म के साथ समाहित है।

ध्यान रहे, महापुरुषों की कथाएं जन्म की हमसे उल्टी चलती हैं। साधारण आदमी के जीवन की कथा जन्म से शुरू होती है और मृत्यु पर पूरी होती है। उसकी कथा में एक “सिक्वेंस’ होता है, जन्म से लेकर मृत्यु तक। महापुरुषों की कथाएं फिर से “रिट्रास्पेक्टिवली’ लिखी जाती हैं। महापुरुष पहचान में आते हैं बाद में। और उनकी जन्म की कथाएं फिर बाद में लिखी जाती हैं। कृष्ण जैसा आदमी जब हमें दिखाई पड़ता है तब तो पैदा होने के बहुत बाद दिखाई पड़ता है। वर्षों बीत गए होते हैं उसे पैदा हुए। जब वह हमें दिखाई पड़ता है तब वह कोई चालीस-पचास साल की यात्रा कर चुका होता है। फिर इस महिमावान, इस अदभुत व्यक्ति के आसपास कथा निर्मित होती है। फिर हम चुनाव करते हैं इसकी जिंदगी का, फिर हम “रीइंटरप्रीट’ करते हैं, फिर से व्याख्याएं शुरू होती हैं। फिर से हम इसके पिछले जीवन में से घटनाएं चुनते हैं, घटनाओं का अर्थ देते हैं। इसलिए मैं आप से कहूं कि महापुरुषों की जिंदगी कभी भी ऐतिहासिक नहीं हो पाती है, सदा काव्यात्मक हो जाती है। पीछे लौटकर निर्मित होती है।

पीछे लौटकर जब हम देखते हज तो हर चीज प्रतीक हो जाती है और दूसरे अर्थ ले लेती है। जो अर्थ घटित हुए क्षण में कभी भी न रहे होंगे। और फिर कृष्ण जैसे व्यक्तियों की जिंदगी एक बार नहीं लिखी जाती, हर सदी बार-बार लिखती है। हजारों लोग लिखते हैं। जब हजारों लोग लिखते हैं तो हजार व्याख्याएं होती चली जाती हैं। फिर धीरे-धीरे कृष्ण की जिंदगी किसी व्यक्ति की जिंदगी नहीं रह जाती। कृष्ण एक संस्था हो जाते हैं, एक “इंस्टीटयूशन’ हो जाते हैं। फिर वे समस्त जन्मों के सारभूत हो जाते हैं। फिर मनुष्य मात्र के जन्म की कथा उनके जन्म की कथा हो जाती है। इसलिए व्यक्तिवाची अर्थों में मैं कोई मूल्य नहीं मानता हूं। कृष्ण जैसे व्यक्ति व्यक्ति रह ही नहीं जाते। वे हमारे मानस के, हमारे चित्त के, हमारे “कलेक्टिव माइंड’ के प्रतीक हो जाते हैं। और हमारे चित्त ने जितने भी जन्म देखे हैं वे सब उनमें समाहित हो जाते हैं।

इसे ऐसा समझें–

एक बहुत बड़े चित्रकार ने एक स्त्री का चित्र बनाया–एक बहुत सुंदर स्त्री का चित्र। लोगों ने उससे पूछा कि यह कौन स्त्री है, जिसके आधार पर इस चित्र को बनाया है? उस चित्रकार ने कहा, यह किसी स्त्री का चित्र नहीं है। यह लाखों स्त्रियां जो मैंने देखी हैं, सब का सारभूत है। इसमें आंख किसी की है, नाक किसी की है, इसमें ओंठ किसी के हैं, इसमें रंग किसी का है, इसमें बाल किसी के हैं, ऐसी स्त्री खोजने से नहीं मिलेगी, ऐसी स्त्री सिर्फ चित्रकार देख पाता है। और इसलिए चित्रकार की स्त्री पर बहुत भरोसा मत करना, उसको खोजने मत निकल जाना, क्योंकि जो मिलेगी वह नहीं मिलेगी, साधारण स्त्री मिलेगी। इसलिए दुनिया बहुत कठिनाई में पड़ जाती है क्योंकि हम जिन स्त्रियों को खोजने जाते हैं वे कहीं हैं नहीं, वे चित्रकारों की स्त्रियां हैं, कवियों की स्त्रियां हैं, वे हजारों स्त्रियों का सारभूत हैं। वे इत्र हैं हजारों स्त्रियों का। वे कहीं मिलने वाली नहीं हैं। वे हजारों स्त्रियां मिल-जुल कर एक हो गई हैं। वह हजारों स्त्रियों के बीच में से खोजी गई धुन है।

तो जब कृष्ण जैसा व्यक्ति पैदा होता है, तो लाखों जन्मों में जो पाया गया है, उस सबका सारभूत उसमें समा जाता है। इसलिए उसे व्यक्तिवाची मत मानना। वह व्यक्तिवाची है भी नहीं। इसलिए अगर उसे कोई इतिहास में खोज करने जाएगा तो शायद कहीं भी न पाए। कृष्ण मनुष्य मात्र के जन्म के प्रतीक बन जाते हैं–एक विशेष मनुष्यता के, जो इस देश में पैदा हुई; इस देश की मनुष्यता ने जो अनुभव किया है वह उनमें समा जाता है। जीसस में समा जाता है किसी और देश का अनुभव, वह सब समाहित हो जाता है। हम अपने जन्म के साथ जन्मते हैं और अपनी मृत्यु के साथ मर जाते हैं। कृष्ण के प्रतीक में तो जुड़ता ही चला जाता है। अनंत काल तक जुड़ता चला जाता है। उस जोड़ में कभी कोई बाधा नहीं आती। हर युग उसमें जोड़ेगा, हर युग उसमें समृद्धि करेगा, क्योंकि और अनुभव इकट्ठे हो गए होंगे। और वह उस “कलेक्टिव आर्च टाइप’ में जुड़ते चले जाएंगे।

लेकिन मेरे लिए जो मतलब दिखाई पड़ता है, वह मैंने आपसे कहा। ये घटनाएं घट भी सकती हैं, ये घटनाएं न भी घटी हों। मेरे लिए घटनाओं का कोई मूल्य नहीं है। मेरे लिए मूल्य कृष्ण को समझने का है कि इस आदमी में ये घटनाएं कैसे हमने देखीं। और अगर इनको हम ठीक से देख सकें तो ये घटनाएं हमें अपने जन्म में भी दिखाई पड़ सकती हैं। और जिस व्यक्ति को अपने जन्म में कृष्ण के जन्म का तालमेल मिल जाए, हो सकता है वह अपनी मृत्यु तक पहुंचते-पहुंचते अपनी मृत्यु में भी कृष्ण की मृत्यु के तालमेल को उपलब्ध हो सके।

“भगवान, कल आपने कहा कि “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’, और कि ” मैं युग-युग में जन्म लेता हूं धर्म की संस्थापना के लिए, साधुओं के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए’, कृष्ण ने एक मजाक किया। मुझे ऐसा लगता है कि गीता का कृष्ण तो मजाक नहीं करता था। भागवत का कृष्ण शायद मजाक करता है। और हमने एक अजीब तरह का “अनक्रिटिकल एटीच्यूड’ अपनाकर गीता के कृष्ण व भागवत के कृष्ण को मिला लिया और उनको एक ही व्यक्ति मान लिया–कि गीता वाले ने भी मजाक कर दिया। तो सोचना पड़ेगा कि गीता के कृष्ण के संबंध में हम कुछ कहें तो यह व्यक्ति एक है, जो हजार-दो हजार साल पहले एक व्यक्ति की कल्पना का कृष्ण है। भागवत का कृष्ण कोई और है। और उन दोनों को एक करके अगर हम तालमेल बिठाना चाहें तो कहीं-कहीं बात उल्टी पड़ेगी। गीता स्वयं भी इस तरह है कि शंकर उसमें कुछ और देख रहे हैं, लोकमान्य तिलक कुछ और देख रहे हैं, आप कुछ और अर्थ देख रहे हैं। तो सोचना यह होगा कि क्या गीता कृष्ण के जीवनदर्शन का प्रामाणिक संकलन है?’

हली बात तो यह, कि कल मैंने कहा कि साधुओं के परित्राण के लिए, और दुष्टों के विनाश के लिए, मैं आता रहूंगा, इसमें कृष्ण ने गहरी मजाक की है। इस संबंध में तो जो मैंने कहा था, कल मैंने आपसे कहा। लेकिन मैंने यह नहीं कहा कि “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’, इसमें कृष्ण ने मजाक की है, यह मैंने नहीं कहा। तो थोड़ा-सा इस संबंध में समझ लें, फिर और प्रश्न के आगे बढ़ें।

कृष्ण जब कहते हैं, सब धर्मों को छोड़कर तू मुझ एक की शरण में आ–सब धर्मों को छोड़कर। जगत में धर्म तो एक ही हो सकता है। लेकिन जो धर्मों को बहुत देख रहा है, वह बड़ी भ्रांति में पड़ेगा। सब धर्मों को छोड़कर, इसका अर्थ ही यही है कि विशेषणवाची जो भी धर्म हों उसे छोड़कर। अनेक को छोड़कर, तू मुझ एक की शरण में आ। कृष्ण यह भी कह सकते थे कि तू मेरी शरण में आ। लेकिन जो शब्द है, वह बहुत अदभुत; वह है, “मामेकं शरणं व्रज’। मुझ एक की शरण में! माम् एकम्। यहां कृष्ण व्यक्ति की हैसियत से बोल ही नहीं रहे हैं, यहां तो धर्म की हैसियत से बोल रहे हैं। यहां तो वे धर्म ही हैं। सब धर्मों को छोड़कर धर्म की शरण में आ। अनेक को छोड़कर एक की शरण में आ। एक बात।

दूसरी बात, यहां वह यह बोल रहे हैं, मुझ एक की शरण में आ। अगर इसे बहुत गहरे में हम समझें, तो यह बहुत मजेदार बात है। मैं की शरण में आ, लेकिन जब मैं बोलता हूं मैं, तो मेरा मैं होता है। वह आपके लिए तू हो जाएगा, मैं नहीं रह जाएगा। आपके लिए मैं तो आपका ही मैं होगा, मेरा मैं नहीं हो सकता। अगर कृष्ण का यह अर्थ हो कि तू कृष्ण की शरण में आ, तो यह तो तू की शरण हो जाएगी, यह मैं की शरण न होगी। लेकिन कृष्ण का अगर यही अर्थ हो कि तू मेरी शरण में आ, तो अर्जुन का मैं कृष्ण नहीं है। अर्जुन का मैं, अर्जुन का मैं है। वह उसकी शरण में जाएगा। वह पूरा स्वधर्म की शरण में चला जाएगा।

यह कृष्ण ने मजाक में नहीं कहा है। वह वक्तव्य बहुत अदभुत है और गहरा है। और इसकी गहराइयों का कोई हिसाब नहीं है। मनुष्यों ने जितने भी वक्तव्य दिए हैं इस पृथ्वी पर, शायद ही कोई वक्तव्य इसकी गहराई को छूता हो। अनेक को छोड़कर एक की, तू को छोड़कर मैं की, विशेषणवाची धर्मों को छोड़कर धर्म की शरण में आ।

लेकिन इसमें और गहराइयां हैं।

अगर अर्जुन कहे कि मैं अपने ही मैं की शरण में जाऊंगा तब भी वह कृष्ण को नहीं समझा। क्योंकि शरण में जाने वाले को मैं छोड़ देना पड़ता है। शरण का अर्थ ही है कि मैं छूट जाए, समर्पण का अर्थ ही है कि मैं न बचे। अगर अर्जुन कहे कि मत्त अपने ही मैं की शरण में जाता हूं, तो भी नहीं समझ पाया बात को। शरण का अर्थ ही है कि जहां मैं न हो। शरण का अर्थ ही है कि मैं को छोड़कर आ। यह भी बड़ी कठिन बात और जटिल बात हो गई। अपनी ही शरण में आ, अपने को छोड़कर। धर्म की शरण में आ, धर्मों को छोड़कर। एक की शरण में आ, अनेक को छोड़कर। लेकिन जिसके पास एक भी बच रहेगा, उसके पास अनेक भी बच रहेगा। एक की हम कल्पना ही नहीं कर सकते अनेक के बिना। इसलिए जिसे एक की शरण में आना है, उसे एक को भी छोड़ देना पड़ेगा। संख्या ही छोड़ देनी पड़ेगी।

इसलिए बाद में जब यह खयाल में आया है कि एक शब्द भ्रांति पैदा कर सकता है, अनेक के खिलाफ एक शब्द भ्रांति पैदा कर सकता है, जब बाद में यह खयाल में आया, तो “एक-वाद’, हमने नहीं बनाया, फिर हम “अद्वैत’ की बात करने लगे। हमने कहा, एक की नहीं, दो की शरण में मत आ, दो से बच। फिर एक कहने में भी संकोच हुआ, क्योंकि डर हुआ कि एक पकड़ा जा सकता है। इसलिए एक नया शब्द गढ़ना पड़ा जो “निगेटिव’ है, नकारात्मक है–एक नहीं, “अद्वैत'; दो नहीं, इतना ही ध्यान रखना कि दो न हों। और स्मरण रहे, अगर एक भी बचा तो दूसरा रहेगा, क्योंकि एक को जानना दूसरे के परिप्रेक्ष्य में ही, दूसरे के “पर्सपेक्टिव’ में ही संभव है। अगर मैं जान रहा हूं कि मैं हूं तो तू के बिना नहीं जान सकता हूं। नहीं तो मैं कहां शुरू होऊंगा और कहां खत्म होऊंगा। तो जो भी जान रहा है मैं हूं, वह तू के विरोध में ही जान सकता है। तू रहेगा ही। तो ही मैं हो सकता हूं। अगर कोई कह रहा है, एक ही है सत्य, तो भी अभी उसका जोड़ बता रहा है कि उसे दूसरा दिखाई पड़ रहा है, जिसको वह इनकार कर रहा है। इसलिए इस वक्तव्य की बड़ी गहराइयां हैं।

पहला तो स्मरण रखें कि यह कृष्ण की शरण के लिए नहीं कहा गया है। यह अर्जुन को आत्मशरण होने के लिए कहा गया है। दूसरी बात खयाल रखें, यह अर्जुन के अहंकार की शरण के लिए नहीं कहा गया है। यह निरहंकार स्वभाव की शरण के लिए कहा गया है। तीसरी बात खयाल रखें कि यह धर्मों के त्याग के लिए कहा गया है और धर्मों के त्याग में कोई विशेष धर्म नहीं बचता है। सभी धर्मों के त्याग के लिए कहा गया है–सर्वधर्मान्। ऐसा नहीं कि हिंदू को बचा लेना, और बाकी को छोड़ देना। सबको छोड़ देना है। क्योंकि जब तक कोई किसी धर्म को पकड़े है, तब तक धर्म को उपलब्ध न हो सकेगा। जब तक कि कोई किसी धर्म को पकड़े हुए है तब तक उस निर्विशेष धर्म को कैसे उपलब्ध होगा जो किसी विशेषण में नहीं बंधता है। धर्म को छोड़ देना, धर्मों को छोड़ देना, विशेषण को छोड़ देना, कृष्ण को छोड़ देना, संख्या को छोड़ देना, मैं को छोड़ देना, अहंकार को छोड़ देना, फिर जो शेष रह जाए, वही धर्म है। यह मजाक में नहीं कहा गया है।

और दूसरी बात जो पूछी कि हम फर्क करें गीता के कृष्ण का और भागवत के कृष्ण का। जिन मित्र ने पूछी है, वे थोड़े बाद में आए; जो मैं पहले कहा हूं, उनके खयाल में नहीं है, थोड़ी-सी बात कहूं।

हमारा मन चाहेगा कि हम भेद करें। क्योंकि भागवत के कृष्ण में और गीता के कृष्ण में तालमेल बिठाना हमारी बुद्धि में नहीं पड़ सकेगा। वे बड़े अलग आदमी मालूम पड़ते हैं, अलग ही नहीं, विरोधी आदमी मालूम पड़ते हैं। गीता के कृष्ण बड़े गंभीर, भागवत के कृष्ण एकदम गैर-गंभीर। उनके बीच हम तालमेल नहीं बिठा सकेंगे। तो हम तो तोड़ना चाहेंगे कि ये दो आदमी हैं। या तो हम चाहेंगे कि ये दो आदमी हैं, या फिर कृष्ण “सिजोफ्रेनिक’ हैं–इसमें दो आदमी हैं इस आदमी के भीतर कि कभी यह एक तरह की बात करने लगता है, कभी दूसरी तरह की। तो उनके फिर “पीरियड्स’ होते हैं–छः महीने वे शांत होते हैं, छः महीने अशांत होते हैं। कि छः महीने वे आनंदित होते हैं, छः महीने वे बड़े उदास हो जाते हैं। कि सुबह ठीक होते हैं, सांझ और कुछ हो जाते हैं। या तो हम समझें कि कृष्ण “मल्टी-साइकिक’ हैं, बहुत चित्त हैं कृष्ण के, बहुचित्तवान हैं, बहुत आदमी हैं कृष्ण के भीतर। एक रास्ता तो यह है समझने का। इसका मतलब हुआ कि कृष्ण जो हैं, वह भीतर खंड-खंड में बंटे हैं–विरोधी खंडों में।

दूसरा रास्ता यह है–यह मनोवैज्ञानिक का रास्ता होगा–अगर कृष्ण को मनोवैज्ञानिक समझने जाए, अगर फ्रायड को हम कहें कि कृष्ण का तुम विश्लेषण करो, तो फ्रायड कहेगा, “सिजोफ्रेनिक’। यह आदमी अनेक चित्तों में बंटा हुआ आदमी है। अगर हम इतिहासज्ञ से कहें, तो वह कहेगा कि यह दो कालों में घटे हुए दो आदमी होने चाहिए, एक आदमी नहीं हो सकता। यह इतिहासज्ञ की व्याख्या होगी, क्योंकि उसकी कल्पना के बाहर है कि एक आदमी और इतने आदमियों जैसा हो सके। तो वह कहेगा, भागवत के कृष्ण कोई और हैं, गीता के कृष्ण कोई और हैं। तो वह कहेगा कि यह कृष्ण, वह कृष्ण; वह दस-पच्चीस कृष्णों को निर्मित करेगा कि ये अलग-अलग हैं। ये एक नहीं हो सकते।

लेकिन, मैं आपसे कहना चाहता हूं कि न मैं फ्रायड की सलाह मानूंगा….मनोवैज्ञानिक की सलाह मैं मानने को राजी नहीं हूं। नहीं हूं इसलिए कि “सिजोफ्रेनिक’, खंडित व्यक्तित्व कृष्ण जैसे आनंद को उपलब्ध नहीं होता है। न ही मैं इतिहासज्ञ की बात मानने को तैयार हूं, क्योंकि उसकी तकलीफ भी उसी बात से उठ रही है। उसकी तकलीफ यह है कि हम कैसे मानें कि एक आदमी और यह सब कर सकेगा। यह बहुत आदमी होने चाहिए अलग-अलग काल में, या एक ही काल में, लेकिन होने चाहिए अलग-अलग आदमी। जो मनोवैज्ञानिक एक ही आदमी के भीतर करता है वह इतिहासज्ञ समय के भीतर अलग-अलग व्यक्तियों को बांटकर करेगा।

मेरी तो अपनी दृष्टि यह है कि एक कृष्ण यह हैं और यही कृष्ण की महत्ता है। इसको अगर हम काट देते हैं तो कृष्ण बेमानी हो जाते हैं। उनका मूल्य ही खत्म हो जाता है। कृष्ण का महत्व ही यही है कि वे एकसाथ सब कुछ हैं। उनका महत्व ही यह है कि वे एकसाथ विरोधी हैं और उन विरोधों में एक “हार्मनी’ है। उन विरोधों में एक संगीत है। जो कृष्ण बांसुरी बजाकर नाच सकता, वह कृष्ण चक्र लेकर लड़ सकता। इन दो कृष्णों में कोई विरोध नहीं है। जो कृष्ण मटकी फोड़ सकता, वह कृष्ण गीता जैसा गंभीर उद्घोष कर सकता। जो कृष्ण चोर हो सकता, वह गीता का परम योगी हो सकता। ये सब एकसाथ एक व्यक्ति है, यही कृष्ण की महत्ता है। यही कृष्ण के व्यक्तित्व की निजता है। जो क्राइस्ट में उपलब्ध नहीं होगी, बुद्ध में उपलब्ध नहीं होगी, महावीर में उपलब्ध नहीं होगी, राम में उपलब्ध नहीं होगी।

कृष्ण विरोधों के बीच समागम हैं–समस्त विरोधों का समागम। और मैं इसे इसलिए भी कह पाता हूं कि मैं देखता हूं कि इन विरोधों को विरोधी होने की कोई वजह नहीं है। समस्त जीवन का सत्य ही विरोधों का समागम है। सारा जीवन ही विरोधों पर खड़ा है। और उन विरोधों में कोई “डिस्कार्डेन्स’ नहीं है। उनमें कोई विसंगितता नहीं है, उसमें संगीत है। जो आदमी बच्चा होता है, वही आदमी बूढ़ा हो जाता है। इसमें कोई विरोध नहीं है। अगर मैं आपसे पूछूं कि किस दिन आप बच्चे थे और किस दिन जवान हुए, तो बताना बहुत मुश्किल हो जाएगा। अगर मैं आपसे पूछूं कि अप जवान थे, अब बूढ़े हो गए, किस दिन आप बूढ़े हुए? तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। उनको बांटना मुश्किल होगा। शब्दों में जवानी और बुढ़ापा विरोधी मालूम पड़ते हैं–शब्दों में। जवानी और बुढ़ापा विरोधी मालूम पड़ते हैं, लेकिन किस दिन जवानी समाप्त होती है और बुढ़ापा शुरू होता है? किसी भी दिन ऐसा नहीं होता। जवानी रोज बुढ़ापा बनती चली जाती है। हम जवान को कह सकते हैं कि यह होने वाला बूढ़ा है। हम बूढ़े को कह सकते हैं, यह हो गया जवान है। और कोई फर्क नहीं कर सकते।

हम शांति और अशांति को दो चीजें मानते हैं, लेकिन कभी आपने खयाल किया कि वह कौन-सी जगह है जहां शांति अलग होती और अशांति शुरू होती है। शब्दों में विरोधी हैं, “डिक्शनरी’ में खोजने जाएंगे तो शांति और अशांति का विपरीत अर्थ है। शब्दकोश में खोजेंगे तो सुख और दुख विरोधी हैं, लेकिन जिंदगी में देखने जाएंगे तो पाएंगे कि सुख दुख बन जाता है, दुख सुख बन जाते हैं। शांति अशांति हो जाती है, अशांति शांति बन जाती है। जन्म मृत्यु हो जाती है, मृत्यु जन्म हो जाती है। सुबह सांझ हो जाती है, दिन अंधेरा हो जाता है। प्रकाश अंधकार बन जाता है, अंधकार प्रकाश बन जाता है। जीवन समस्त विरोधों का समागम है। यहां ऋण और धन विपरीत नहीं हैं, एक ही शक्ति के खेल हैं।

जीवन की अगर इस अर्थवत्ता को हम देखें, इस शाश्वत “हार्मनी’ को, संगीत को हम देखें, तो फिर कृष्ण हमें समझ में आ सकेंगे। इसलिए कृष्ण को हम पूर्ण अवतार कह सके। वे जीवन के पूरे प्रतीक हैं। बुद्ध नहीं जीवन के पूरे प्रतीक हैं। बुद्ध जीवन में जो शुभ है, जो सुबह है, जो प्रभात है, जो प्रकाश है, उसके ही प्रतीक हैं। सांझ का क्या होगा? रात के अंधेरे का क्या होगा? पूर्णिमा तो आप सम्हाल लेंगे, अमावस का क्या होगा? अमृत तो आप ले लेंगे, जहर का क्या होगा? इसलिए बुद्ध साफ-सुथरे हैं। इसलिए कोई नहीं कहेगा कि फलां किताब के बुद्ध अलग हैं और फलां किताब के बुद्ध अलग हैं। कोई कारण नहीं कहने का। सब किताबों के बुद्ध एक हैं। कोई नहीं कहेगा कि बुद्ध का “सिजोफ्रेनिक’ है, इसमें कई खंड हैं, नहीं कोई कहेगा। एक, अखंड है। एकरस है। लेकिन कृष्ण में यह सवाल उठेगा।

और हम बजाय अपने मन को समझाने के लिए, अपनी “कैटेग्रीज’ को बचाने के लिए कृष्ण को कई व्यक्तियों में बांटें, इससे अच्छा होगा अपनी “कैटेग्रीज’ छोड़ें और अपने इस चित्त को एक तरफ फेंकें और कृष्ण को पूरा देखें। मैं नहीं कहता अलग हुए भी हों तो मुझे फिकिर नहीं है। मुझे इसकी चिंता नहीं है। हो सकता है कि ऐतिहासिक सिद्ध करें कि फासला है दो हजार साल का भागवत के कृष्ण में और गीत के कृष्ण में। मैं फिक्र न करूंगा, मैं कहूंगा, मुझे फासला नहीं है। मेरे लिए तो कृष्ण का अर्थ ही तभी है जब यह एक व्यक्ति है। अगर यह एक व्यक्ति नहीं है, तो व्यर्थ हो गया, इसका कोई अर्थ न रहा। हुए हों, न हुए हों, इससे मुझे प्रयोजन नहीं है। मैं मानता हूं कि जीवन की पूर्णता जब भी किसी व्यक्ति में फलित होगी, तो उसमें अनेक व्यक्ति एकसाथ फलित होंगे। जीवन की पूर्णता जब भी किसी व्यक्ति में फलित होगी, तो उसकी असंगतियों में एक संगति होगी। उसके विरोधों में एक अविरोध होगा। उसके व्यक्तित्व में विरोधी छोर होंगे, लेकिन जुड़े होंगे। हो सकता है धागे हमें दिखाई न पड़ें, हमारी आंखें कमजोर हैं बहुत।

ऐसा ही समझें कि अगर मैं एक मकान की सीढ़ियों पर चढ़ रहा हूं, तो नीचे की सीढ़ी मुझ दिखाई पड़ती हो और बीच की सीढ़ियां दिखाई न पड़ें और आखिरी सीढ़ी दिखाई पड़ती हो, तो क्या मैं कभी भी सोच सकूंगा कि पहली सीढ़ी और आखिरी सीढ़ी में कोई जोड़ है? कभी भी न सोच सकूंगा। बीच की सीढ़ियां भी दिखाई पड़ जाएं तो मैं कह सकूंगा, पहली और आखिरी सीढ़ी दो सीढ़ियां नहीं हैं, एक ही सीढ़ी के दो हिस्से हैं। पहली सीढ़ी पर शुरू होती है यात्रा, आखिरी सीढ़ी पर पूरी होती है। यह एक ही चीज का विस्तार है। कृष्ण के व्यक्तित्व की जो बीच की सीढ़ियां हैं वह हमें दिखाई नहीं पड़तीं, क्योंकि हमारे ही व्यक्तित्व की बीच की सीढ़ियां हमें दिखाई नहीं पड़ीं। वे जो “लिंक्स’ हैं, वे हमें दिखाई नहीं पड़ते। आपने अपनी अशांति भी देखी, शांति भी देखी। दोनों के बीच का क्षण देखा? वह नहीं देखा है। आपने प्रेम भी देखा और घृणा भी देखी। लेकिन दोनों के बीच की यात्रा देखी है कि प्रेम किस भांति घृणा बनता है? घृणा किस भांति प्रेम बनती है? आपने मित्रता भी साधी, शत्रुता भी साधी, लेकिन कभी यह देखा कि मित्रता किस कीमिया से, किस “केमिकल’ प्रक्रिया से शत्रुता बन जाती है? और शत्रुता किस कीमिया से मित्रता बन जाती है?

केमिस्ट हुए–अलकेमिस्ट–जो इस कोशिश में लगे थे कि लोहा सोने में कैसे बदल जाए। लेकिन लोग उनको समझ न पाए। लोग समझे कि सच में ही वे लोहे को सोना बनाने में लगे हैं। वे सिर्फ यह कह रहे थे कि अगर लोहा है तो कहीं-न-कहीं सोने से जुड़ा होगा। यह हो नहीं सकता कि लोहा और सोना जुड़ा न हो। कहीं-न-कहीं कोई “लिंक’, कहीं-न-कहीं कोई बीच की कड़ी होगी जो हमें दिखाई नहीं पड़ रही है। यह हो नहीं सकता कि जगत “अनलिंक्ड’ हो। अगर वहां फूल खिला रहा है और यहां मैं बैठा हूं तो कहीं-न-कहीं कोई “लिंक’ होगा। और अगर मैं प्रसन्न हूं तो उस प्रसन्नता में फूल की प्रसन्नता कहीं भागीदार होगी। हो सकता है, कड़ी हमें दिखाई न पड़ती हो। और वहां फूल कुम्हला जाए और मैं उदास हो जाऊं और कड़ी दिखाई न पड़े। जीवन जोड़ है, इसमें सब जुड़ा है।

“अलकेमिस्ट’ कहते थे कि लोहा है और सोना है, तो कहीं जोड़ होगा। हम कोई रास्ता खोज ही लेंगे जिसमें सोना लोहा बन जाए और लोहा सोना बन जाए। इस खोज में थे। लेकिन इतनी ही खोज न थी, वे यह कह रहे थे कि जिसको हम नीचा कहते हैं वह ऊंचे से जुड़ा होगा। “द बेसर मस्ट बी लिंक्ड विद हायर’। नहीं तो हो नहीं सकता। कहीं-न-कहीं सेक्स परमात्मा से जुड़ा होगा। जुड़ा होना चाहिये। कहीं-न-कहीं जमीन आकाश से जुड़ी होगी। जुड़ी होनी चाहिये। कहीं-न-कहीं जन्म मृत्यु से जुड़ा होगा। जुड़ा होना चाहिये। बिना जुड़े हो कैसे सकता है? संभव नहीं रह जायेगा। जड़ कहीं-न-कहीं चेतना से जुड़ा होगा। पत्थर कहीं-न-कहीं आत्मा से जुड़ा होगा। जुड़ा होना चाहिये। अन्यथा हो कैसे सकता है? इस बड़े जोड़ के प्रतीक की तरह कृष्ण हैं।

मैं तो कहता हूं, यह व्यक्ति हुआ, ऐसा ही हुआ। इतिहास दलीलें जुटाए, मैं उठाकर कचरे में फेंक दूंगा। मनोवैज्ञानिक बताए, मैं कहूंगा तुम्हारा दिमाग खराब है। तुम अभी समझ न पाओगे। क्योंकि तुमने खंडों का साफ-सुथरापन समझा है, तुमने सभी खंडों का जोड़ अभी नहीं समझा है। फ्रायड बहुत खोज करता है। जितना वह आदमी जानता है क्रोध के संबंध में, शायद कम आदमी जानते होंगे। लेकिन कोई जरा धक्का मार दे, तो क्रोध उसे भी आ जाता है। तो यह जानकारी बड़ी बाहरी हो गई। पर बहुत खोज करता है। फ्रायड जितना पागलपन के संबंध में जानता है शायद कोई जानता हो। लेकिन फ्रायड खुद पागल हो सकता है, कभी भी “पोटेंशियल’ है। किसी भी क्षण पागल हो सकता है। मौके आ जाते हैं जब वह पागलपन करता है।

मनोवैज्ञानिक क्या कहता है, इसका बहुत मूल्य मेरे लिए नहीं है, क्योंकि कृष्ण मन के बाहर गए व्यक्ति हैं, मन के पार गए व्यक्ति हैं। कृष्ण मन के पार गए व्यक्ति हैं। और एक और तरह की अखंडता है, जो आत्मा की अखंडता है, जो एक ही साथ सबमें हो सकती है, सब मनों में हो सकती है, सब तरह के मनों में हो सकती है। इसलिए मैं एक ही व्यक्ति मानकर बात करूंगा।

“गीता आप प्रामाणिक वचन मानेंगे कृष्ण के?’

पूछते हैं, गीता को प्रामाणिक वचन मानेंगे कृष्ण के?

कृष्ण जैसा व्यक्ति हुआ हो तो गीता जैसा वचन प्रामाणिक ही होगा। यह सवाल नहीं है कि कृष्ण ऐसा बोला कि नहीं बोला। सवाल यह है कि कृष्ण बोलेगा तो ऐसा ही बोल सकता है। और अगर कृष्ण ने न बोला हो और व्यास ने ही गीता लिखी हो, तो कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि व्यास लिख नहीं सकता अगर कृष्ण जैसा व्यक्ति न हो। व्यास को भी कहना पड़े–व्यास लिखे, कोई फर्क नहीं पड़ता है–लेकिन व्यास भी तो गीता बोलेगा न! इससे क्या फर्क पड़ता है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर कृष्ण बोले, व्यास बोले, कोई अ, ब, स कोई और बोले, लेकिन गीता बोलने के लिए एक भीतर कोई चाहिए न! यह गीता आसमान से पैदा नहीं होती। कहीं से पैदा होती है। नाम से क्या फर्क पड़ता है! उस आदमी का नाम व्यास है, कि कृष्ण है, कि क्या है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

इसलिए मैं उल्टी तरह से सोचता हूं। मैं यह नहीं कहता कि गीता का वचन प्रामाणिक वचन है कृष्ण का। गीता-वचन प्रामाणिक है या नहीं; मैं यह कहता हूं, गीता है, यह प्रमाण है, कृष्ण की खबर है। इस तरह ही देखता हूं, गीता है, यह बोली गई, यह कही गई, यह लिखी गई, यह अस्तित्व में है। यह बिना कृष्ण के अस्तित्व में नहीं हो सकती। एक आदमी तो चाहिए न जो यह बोले, जो यह लिखे! वह कौन था, इससे क्या फर्क पड़ता है? उसका नाम क्या था, इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन एक चेतना तो चाहिए न जिससे इसका जन्म हो। गंगोत्री प्रमाण नहीं है गंगा के लिए, गंगा प्रमाण है गंगोत्री के लिए। गंगा है तो हम कह सकते हैं कि गंगोत्री होगी। चाहे हो न हो; चाहे मिले, चाहे न मिले; चाहे खोज पाएं या न खोज पाएं, लेकिन गंगा है तो गंगोत्री होगी। गीता है तो कृष्ण होंगे। गीता से कृष्ण की तरफ चलना मुझे उचित मालूम पड़ता है, क्योंकि गीता अभी है। कृष्ण की तरफ से गीता की तरफ चलेंगे तो झंझटें पड़ेंगी। क्योंकि उसमें डर हो सकता है कि कृष्ण न हों, और तब फिर गीता संदिग्ध हो जाए, और फिर गीता को हमें कोई और आदमी खोजना पड़े। लेकिन, हम बड़े पागलपन का काम करते हैं।

“श्रीमद्भागवत में वस्त्रहरण-लीला के प्रसंग में कृष्ण का नैसर्गिक “इरोटिक गेस्चर’ सुस्पष्ट है। वर्णन है कि गोपिकाओं की अक्षत योनियां देखकर कृष्ण प्रसन्न हुए। और वस्त्र लेने के लिए लज्जावश गोपिकाएं गुह्यांग हाथ से ढांककर बाहर आती हैं, तब कृष्ण कहते हैं कि तुमने जल देवता का नग्न नहाकर अपराध किया है, इसलिए पापशमन हेतु मस्तक पर दोनों हाथ जोड़ उन्हें नमस्कार कर वस्त्र ले जाओ। बाद में भागवतकार लिखते हैं कृष्ण ने कुमारिकाओं को ठगकर लज्जा त्याग करवाया। इस संदर्भ में निरावरणता के सर्वप्रथम पुरस्कर्ता कृष्ण के आप समर्थ अनुगामी हैं, मगर आपके खयाल और जर्मनी आदि देशों के “न्यूडिस्ट क्लब’ के खयाल में क्या बुनियादी फर्क है? वस्त्र सभ्यता का प्रतीक है, संस्कृति चमड़ी है। इस त्वचा का आवरण अलग करने से जो अस्थि-पंजर दिखाई पड़ेगा, इससे हम प्राकृतिक रूप में दिखाई पड़ेंगे, मगर बर्बर भी दिखाई पड़ेंगे। यह खयाल “बैक टु प्रिमिटिज्म, बैक टु जंगल’ नहीं होगा? घड़ी के कांटे को पीछे घुमाने की विधि को आप आप बाद में “प्रोग्रेस’ कह सकोगे?’

 

हली बात, सिग्मंड फ्रायड का “लिबिडो’ का खयाल बहुत कीमती है। “लिबिडो’ को अगर हम ठीक शब्द दें, तो उसका अर्थ होगा, काम-ऊर्जा, “सेक्स-एनर्जी’। मनुष्य के जीवन में ही नहीं, सारी सृष्टि के जीवन में, सृजन में काम-ऊर्जा गुह्यतम छिपी है। पुराण कहते हैं, ब्रह्मा ने जगत बनाया तो काम से पीड़ित होकर। सृजन होगा ही नहीं कामना के बिना। समस्त सृजन कामना से ही आविर्भूत होता है। जो भी है, वह काम का ही विस्तार है। जीवन की समस्त लीला, जीवन की सारी अभिव्यक्ति–चाहे फूल खिलते हों, चाहे पक्षी गीत गाते हों–काम-ऊर्जा का ही खेल हो। ऐसा समझें, जैसे काम-ऊर्जा का एक सागर है और उसमें अनंत-अनंत लहरें उठती हैं, अनंत-अनंत रूपों में। स्वयं परमात्मा ही बहुत गहरे में काम-ऊर्जा का केंद्र है।

कृष्ण के जीवन में काम-ऊर्जा की सहज, निश्छल स्वीकृति है। सहज स्वभाव का अंगीकार है। न कहीं कोई निषेध है, न कहीं कोई दमन है। जैसा है जीवन, वैसा अनुग्रहपूर्वक, अनुग्रहभाव से उसे जीने की सहजता है। इसलिए कृष्ण की घटनाओं को जो लोग दबाने, बदलने, शक्ल देने की कोशिश करते हैं, वे केवल अपनी अपराध-वृत्तियों, अपने दमित काम, अपने चित्त के रोगों की खबर देते हैं। निश्चित ही यह कोशिश की जाती रही है कि जिस कृष्ण ने गोपियों के वस्त्र लिए और वृक्ष पर चढ़ गए, वह बहुत छोटे थे। हमें बड़ी राहत मिलेगी अगर वे बहुत छोटे हों। उससे हम उनको स्वीकार करने में सुलभता पाएंगे। लेकिन छोटे बच्चे भी एक-दूसरे को नग्न देखना चाहते हैं। बहुत छोटा बच्चा भी उत्सुक है जानने को–लड़की भी, लड़का भी। और यह जिज्ञासा अत्यंत स्वाभाविक है। जैसे ही एक बच्चे को–वह चाहे लड़की हो, चाहे लड़का–जैसे ही अपने शरीर का बोध शुरू होता है, वैसे ही उसे यह भी बोध शुरू होता है कि लड़की भी है घर में, बहन भी है उसकी, जिसके शरीर में कुछ फर्क है। लड़की को भी बोध होता है कि लड़का है, उसके शरीर में कुछ फर्क है। यह बोध इतना कठिन न हो, अगर लड़के और लड़कियां सहज ही घर में नग्न भी होते हों। लेकिन बड़े-बूढ़े इतने कामग्रसित हैं, इने “आब्सेस्ड’ हैं कि छोटे-छोटे बच्चों को भी जल्दी वस्त्र पहनाने के लिए आतुर होते हैं। यह उनकी आतुरता इतनी ज्यादा है कि छोटे बच्चे एक-दूसरे को नग्न सहजता से नहीं देख पाते। तो कृष्ण ने ही कोई, अगर यह भी मान लें कि उनकी उम्र छोटी रही हो, तो नहाती हुई लड़कियों के वस्त्र लेकर वे वृक्ष पर चले गए हों, तो इसमें कुछ बहुत नया नहीं है। सभी छोटे बच्चे लड़कियों को नग्न देखना चाहते हैं। न नदी उपलब्ध है अब, न वृक्ष उपलब्ध हैं अब, न नदी पर नहाती हुई लड़कियां उपलब्ध हैं। तो बच्चों को नए-नए रास्ते खोजने पड़ते हैं।

फ्रायड ने एक खेल का उल्लेख किया है, डाक्टर के खेल का। छोटे बच्चे लड़कियों को बीमार करके लिटाकर डाक्टर का खेल शुरू करेंगे और उनको नग्न देखना चाहेंगे। यह बड़ी सहज जिज्ञासा है, इसमें कुछ बुरा नहीं है। यह बहुत स्वाभाविक है कि हम एक-दूसरे से परिचित होना चाहें। यह हमारे शरीर-परिचय की बिलकुल प्राथमिक कड़ी है। तो अगर कृष्ण छोटे भी रहे हों, तब भी संभव है। लेकिन उम्र ज्यादा भी रही हो, तब भी असंभव नहीं है। हमारे लिए असंभव हो जाएगा, कृष्ण के लिए असंभव नहीं है। क्योंकि कृष्ण जीवन को सहज जीते हैं, जैसा है उसे स्वीकार करते हैं। और जिस संस्कृति में वह पैदा हुए होंगे, वह संस्कृति भी बहुत सहजता को स्वीकार करती होगी। अगर कृष्ण हमारे समाज में पैदा हुए होते, तो हमने इस उल्लेख को ही काट दिया होता। हम इस उल्लेख को कभी लिखते ही नहीं। जिन लोगों ने इस उल्लेख को सहजता से लिखा है, उनके मन में कोई भी ऐसा भाव न रहा होगा कि कुछ गलत हुआ है। नहीं तो गलत को हम छांट देते। हजारों साल तक यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि कृष्ण कैसा आदमी है। यह अभी हमने उठाना शुरू किया है। यह सवाल नहीं उठाता है। जिस संस्कृति में कृष्ण की यह घटना घटी होगी, वह संस्कृति इसको सहज स्वीकार कर ली होगी। यह कोई कृष्ण ही कपड़े चुराकर अगर चले गए होते, तो अनूठी घटना अगर होती, तो इसकी निंदा भी होती। यह और भी कृष्ण यह करते रहे होंगे, ये और लड़के भी यह करते रहे होंगे, ये और बालगोपाल भी यह करते रहे होंगे।

लड़कियां भी बहुत कम उम्र की रही होंगी, यह नहीं माना जा सकता। इतनी उम्र की तो रही होंगी जहां से लड़कियों को लड़कियां होने का बोध शुरू हो जाता है। जहां से शर्म शुरू हो जाती है। जहां से वे काम के मामले में, “सेक्स’ के मामले में, यौन के मामले में भिन्न हैं; उनके पास कुछ छिपाने को है; जहां से उन्हें छिपाने का बोध शुरू होता है, वह वही बोध है जहां से कोई दूसरा उन्हें जानने और देखने को उत्सुक होता है। ये दोनों एक ही घड़ी, एक ही उम्र की बात है। तो कृष्ण जिस उम्र के रहे होंगे उससे बहुत भिन्न उम्र की लड़कियां नहीं रही होंगी। कृष्ण देखने को उत्सुक हैं उन्हें नग्न, ये लड़कियां कृष्ण न देख पाएं, इसके लिए आतुर हैं।

इस मामले में एक बात बहुत समझ लेनी जरूरी है कि पुरुष-चित्त और स्त्री-चित्त में जो बहुत से फर्क हैं, उनमें एक फर्क यह भी है। पुरुष स्त्री को नग्न देखना चाहता है, वह “वोयूर’ है। स्त्री पुरुष को नग्न नहीं देखना चाहती है, इतनी उसकी उत्सुकता नहीं है। वह “वोयूर’ नहीं है। इसलिए बड़े मजे की बात है। लेकिन पुरुष स्त्री को नग्न देखना चाहता है। इसीलिए दुनिया में इतनी नग्न स्त्रियों की प्रतिमाएं हैं। पुरुषों की नहीं हैं। और अगर कहीं पुरुषों की नग्न प्रतिमाएं हैं, तो वे उन संस्कृतियों में पैदा हुईं, जो कि “होमोसेक्सुअल’ थीं। जैसे, यूनान में पैदा हुईं। सुकरात और प्लेटो के वक्त में पैदा हुईं, जो कि “होमोसेक्सुअल’ वक्त है। जिसमें कि पुरुष पुरुषों को भी काम-विषय बनाते थे, “सेक्स आब्जेक्ट’ बनाते थे, तो वह भी पुरुषों ने ही बनाई हैं वे मूर्तियां नग्न पुरुषों की। स्त्रियां नग्न पुरुषों में बिलकुल उत्सुक नहीं हैं। इसलिए ऐसी कोई पत्रिका नहीं निकलती जिसमें नग्न पुरुषों की तस्वीरें देखकर स्त्रियां प्रसन्न होती हों, वे बिलकुल प्रसन्न नहीं होतीं। लेकिन ऐसी बहुत पत्रिकाएं निकलती हैं जिनमें नग्न स्त्रियों की तस्वीरें देखकर पुरुष बड़े प्रसन्न होते हैं। स्त्रियों को समझ में नहीं आता कि पुरुषों को यह क्या पागलपन है।

कभी आपने शायद खयाल न किया हो कि प्रेम के गहरे-से-गहरे क्षण में पुरुष जरूर स्त्री को नग्न करना चाहेगा। स्त्री उनकी उत्सुक नहीं होगी। बल्कि पुरुष नग्न भी हो, तो प्रेम के गहरे क्षण में पुरुष की आंख खुली रहेगी, स्त्री की आंख बंद हो जाएगी। अगर स्त्री का चुंबन भी लिया जा रहा हो तो वह आंख बंद कर लेगी। देखने में उसका बहुत रस नहीं है। “एब्ज़ार्व’ कर लेने में, पी लेने में, हो जाने में उसका रस है, देखने में उसका रस नहीं है। पुरुष देखने में बहुत रसपूर्ण है। और पुरुष की यह देखने की उत्सुकता है, यह स्त्री को छिपने की उत्सुकता का जन्म बन जाती है। वह अपने को छिपाना शुरू कर देती है। इसलिए स्त्री छिपाए जा रही है। लेकिन स्त्री की बड़ी मुश्किल है। अगर वह बहुत ज्यादा छिपा ले, तो पुरुष के लिए अनाकर्षक हो जाती है। इसलिए स्त्री को दोहरा काम करना पड़ता है। छिपाना भी पड़ता है और उघाड़ना भी पड़ता है। उसकी दोहरी मुसीबत है। उसको एक ही चीज से दोहरे काम करने पड़ते हैं। उन्हीं कपड़ों से छिपाना पड़ता है खुद को, उन्हीं कपड़ों से उघाड़ना पड़ता है खुद को। तो जिन कपड़ों से स्त्री अपने को छिपाती है, उन्हीं से उघाड़ने का भी काम लेती है। क्योंकि, छिपाना तो वह पुरुष की जो जिज्ञासा की जो “क्याूरिआसिटी’ है, उससे वह भयभीत है। वह उसकी समझ के बाहर है। तो अपने को छिपाती है। लेकिन इस पुरुष के लिए उसे आकर्षक भी होना है, क्योंकि इस पुरुष के लिए अगर वह आकर्षक नहीं है तो बेमानी है। तो उसे उघाड़ना भी है। तो स्त्रियां एक बड़ी जिच में पड़ी रहती हैं, सदा–उघाड़ो भी, ढांको भी। इधर से ढांको, उधर से उघाड़ो। यह अंग ढांको, वह अंग उघाड़ो। उनको पूरे वक्त इन दोनों के बीच एक तालमेल और एक संतुलन और एक “बैलेंस’ बनाए रखना पड़ता है।

तो वे स्त्रियां अगर पानी से अपने गुह्य अंगों को ढांककर निकली हों, तो बिलकुल स्वाभाविक है। यह घटना बड़ी सहज है। और कृष्ण ने अगर उनसे कहा हो कि हाथ जोड़कर देवता को नमस्कार करो, तो यह भी बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कुछ कठिनाई नहीं है। यह पुरुष-चित्त है। और कृष्ण सीधे, सहज पुरुष-चित्त हैं–कहना चाहिए, पूरे पुरुष-चित्त हैं। और इसके बाबत न कोई दमन है, न कोई विरोध है। और जिन्होंने ये कथाएं लिखीं, वे भी बड़े सहज लोग रहे होंगे, उन्होंने सीधी-सीधी बातें लिख दी हैं, जैसी थीं। उनके मन में अभी तक कोई ऐसा मामला नहीं आया था, न कोई ऐसे सिद्धांत आ गए थे जो कहते कि यह क्या लिख रहे हो? और कृष्ण जिसे तुम भगवान बना रहे हो, उसके बाबत ऐसी बात लिखकर तुम दिक्कत डाल रहे हो। बाद के लोगों को बड़ी कठिनाई होगी कि यह भगवान कैसा था! भगवान ही ऐसा हो सकता है। इतना सरल और सहज, इतना “स्पांटेनियस’ भगवान ही हो सकता है, आदमी नहीं हो सकता। आदमी तो “स्पांटनियस’ हो ही नहीं सकता, वह तो “प्रीप्लांड’ है। इतना जरूर मैं कहूंगा कि कृष्ण ने यह “प्लानिंग’ न की होगी। इतना मैं कहूंगा। इसका कोई “ब्लू प्रिंट’ नहीं रहा होगा, कि लड़कियां अपने अंग छिपा लेंगी तो मैं उनसे कहूंगा कि हाथ जोड़ो। बस यह हुआ होगा कि लड़कियों ने अंग छिपाए होंगे, कृष्ण ने कहा होगा कि हाथ जोड़ो नदी के देवता को, क्या करती हो? नाराज कर दिया नदी के देवता को! पर यह “स्पांटेनियस’, सहज। और इस सहजता को इसी तरह वर्णित किया जिन लोगों ने, वे अदभुत रहे होंगे। सरल रहे होंगे, सीधे रहे होंगे। घटनाओं में काट-छांट नहीं की है। “इम्प्रूवमेंट’ नहीं किया है कोई घटनाओं पर। चीजों को छोड़ दिया है जैसी वे थीं। पीछे हमको कठिनाई होती चली गई है। पीछे हम मुश्किल में पड़ते चले गए। ऐसी बहुत घटनाएं हैं जो हमें पीछे दिक्कत में सालती हैं। क्योंकि पीछे हमारे नए सिद्धांत और नई धारणाएं और नई नैतिकताएं नए खयाल दे देती हैं और वह हमको पीछे की तरफ लौटकर उनको हमें लागू करना पड़ता है। फिर कठिनाई खड़ी हो जाती है।

तो मैं तो मानता हूं कि काम-ऊर्जा की जो सहजतम अभिव्यक्ति हो सकती है, वह कृष्ण में हुई है। उसमें उन्होंने कोई बाधा नहीं मानी है। वह सहज जिए हैं। और उनके समाज में, जिसमें वह थे, उसने सहज स्वीकार कर लिया था। वह समाज भी सहज होगा।

दूसरी बात पूछी है, कि मैं भी पुरस्कर्ता हूं। एक अर्थ में हूं। ऐसा नहीं कि वस्त्रों का विरोधी हूं। अगर वस्त्रों का विरोधी हूं, तो मैं घड़ी के कांटों को पीछे की तरफ घुमाता हूं। वस्त्रों की उपादेयता है, वस्त्रों का अर्थ है, वस्त्रों का प्रयोजन है। लेकिन वस्त्रों की कोई नैतिकता नहीं है, वस्त्रों की कोई “मॉरलिटी’ नहीं है। प्रयोजन है। सर्दी है और वस्त्र जरूरी हैं। गर्मी है और और तरह के वस्त्र जरूरी हैं। और आप रास्ते पर जाने के लिए हैं, तो भी वस्त्र जरूरी हैं, क्योंकि कोई आपको नग्न न देखना चाहे तो आपको दिखाने का हक नहीं है, वह “ट्रेसपास’ है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई हमें नग्न देखने को राजी नहीं है तो हम अपने घर पर भी नग्न होने को स्वतंत्र न रह जाएं, या किन्हीं घड़ियों में हम नग्न न हो सकें। नहीं, नग्नता और वस्त्र ऐसे ही होने चाहिए जैसे जूते हैं। घर पर हम जूता नहीं पहनकर घूम रहे हैं, उतार देते हैं, बाहर पहनकर चले जाते हैं। लेकिन घर में जूता उतारकर कोई नहीं कहता कि तुम नंगे हो गए। हो तो गए हैं, पैर तो नंगे हो ही गए।

कपड़े सहजता से लिए जाएं, उनका दंश न रह जाए। और सहजता से वे तभी लिए जाएं, उनका दंश न रह जाए। और सहजता से वे तभी लिए जा सकते हैं जब नग्नता भी सहजता से ली जाए, नहीं तो नहीं लिए जा सकते हैं। तब कपड़े एक नैतिक अर्थ ले लेते हैं, जो उनमें बिलकुल नहीं है। मनुष्य ने बहुत कपड़े ओढ़ डाले। इतने कपड़े ओढ़ डाले कि उन कपड़ों की वजह से उसे कपड़े उघाड़ने के हजार तरह के प्रयत्न करने पड़ते हैं। उससे अनैतिकता पैदा होती है।

मैं मानता हूं कि अगर हम नग्नता को सहज स्वीकार कर लें, जैसा कि हम नग्न पैदा होते हैं। कपड़ों के भीतर भी नग्न ही रहते हैं, नग्न ही मरते हैं। परमात्मा ने हमें नग्न ही पैदा किया है। वह सहजता है। इसका यह मतलब नहीं है कि हम नंगे ही रहें। परमात्मा ने हमें जैसा पैदा किया है उसमें हम बहुत फर्क करते हैं। परमात्मा धूप डाल रहा है, हम छाता लगाए हुए हैं। इसमें हम कोई परमात्मा का विरोध नहीं कर रहे हैं। क्योंकि छाता लगाने से जो छाया आती है वह भी परमात्मा के नियम का हिस्सा है। उसमें कोई विरोध नहीं है। सिर्फ हम हमारे लिए जो मौज का है वह हम कर रहे हैं, और इतनी स्वतंत्रता हमें है कि हम धूप में बैठें कि छाया में। लेकिन अगर किसी दिन कोई आदमी छाया में बैठने को नैतिकता बना ले और धूप में जाने को पाप बना दे, तो फिर छाया में बैठना बड़ा बोझिल हो जाएगा। और फिर धूप में जाना अपराध हो जाएगा–और लोग चोरी से धूप में जाने लगेंगे, जो कि बड़ी सहज बात है। जिसमें चोरी से जाने का कोई कारण न था, अब अकारण हम चोरी पैदा कर रहे हैं, अकारण हम अनैतिकता पैदा करवा रह हैं। अकारण “कंडेमनेशन’ पैदा कर रहे हैं, अकारण लोगों को अपराधी सिद्ध करवा रहे हैं और उनको “गिल्ट’ दे रहे हैं, जिसको देने की कोई जरूरत न थी।

तो मैं मानता हूं कि नग्नता एक सत्य है जीवन का, उसे सरलता से स्वीकार करने की बात है। उससे भागने की कोई जरूरत नहीं है। भागने के कारण पच्चीस उपाय कर रहे हैं। सड़क-सड़क पर नंगे पोस्टर लगे हैं, वे बिलकुल न लगेंगे। अगर हम सहज नग्नता को स्वीकार कर लें, अगर घर में कभी लोग नग्न भी बैठते हों, कभी नदी के किनारे नग्न नहाते भी हों, कभी मित्रों के बीच नग्न गपशप भी करते हों, कभी नग्न बैठकर धूप भी लेते हों–ऐसा नहीं कि कपड़े छोड़कर भाग जाएं; कपड़े छोड़कर भागेंगे तो घड़ी का कांटा पीछे लौटेगा। और अगर कपड़े छोड़कर भागते नहीं हैं, नग्नता को भी स्वीकार करते हैं, तो जो लोग नग्न थे उनको कपड़ों का जो फायदा नहीं था, वह हमें होगा; और जो लोग सिर्फ कपड़ा पहने हुए हैं और कपड़ों से जो परेशानी में पड़ गए हैं, उस परेशानी में हम न होंगे। और इसलिए इसे मैं विकास कहूंगा। यह आगे जाना होगा। यह अकेले नंगे लोगों से भी आगे जाना होगा, अकेले कपड़े ढंके लोगों से भी आगे जाना होगा।

र्न्यूडिस्ट-क्लब’ बगावत हैं। “न्यूडिस्ट-क्लब’ एक प्रतिक्रिया हैं उस समाज की जिन्होंने कपड़े बहुत थोप दिए हैं। मैं “न्यूडिस्ट-क्लब’ के पक्ष का नहीं हूं। यानी इसका मतलब यह हुआ कि एक तरफ पूरा समाज बीमार होता है और एक तरफ अस्पताल बनाते हैं। मैं कहता हूं, बीमार ही क्यों हों! “न्यूडिस्ट-क्लब’ की जरूरत जो है, वह यह जो “आब्सेस्ड’ लोग हैं कपड़े से, इनकी वजह से पैदा होती है। अगर हम “आब्सेसन’ अलग कर लें, तो “न्यूडिस्ट-क्लब’ की कोई जरूरत नहीं रह जाती। अगर हम सहजता से घर में बाप बेटे के साथ नग्न नहा सके, मां बेटे के साथ नग्न नहा सके तो हैरान होंगे आप इस बात को जानकर कि अगर घर में मां अपने बेटे के साथ नग्न नहा सके तो यह बेटा किसी लड़की को रास्ते पर धक्का देने में असमर्थ हो जाएगा। इसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। यह बिलकुल बेमानी बात हो जाएगी। स्त्री और पुरुष के बीच का फासला इतना कम हो जाएगा कि धक्का मारकर फासला कम करने की कोई जरूरत नहीं है। धक्का मारकर भी फासला ही कम किया जा रहा है, और कुछ किया नहीं जा रहा है। और चूंकि आहिस्ता से हाथ रखने कोई उपाय नहीं है, इसलिए धक्का मारा जा रहा है। अगर कोई स्त्री मुझे अच्छी लगे और उसका हाथ मैं हाथ में लेकर कहूं कि मुझे हाथ बहुत प्यारा लगता है, एक क्षण हाथ में ले सकता हूं, और समाज इतना सहज हो कि वह कहे कि ठीक है, यह हाथ आपको प्यारा लगा, धन्यवाद–मेरे हाथ को इतना प्यारा लगने का भी तो धन्यवाद होना चाहिए–तो फिर धक्का मारना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन वह नहीं संभव हुआ है। हम फूलों को धक्के नहीं मारते; हम खड़े होकर देख लेते हैं, रास्ते से गुजर जाते हैं। अगर कल फूल कोई कानून बना लें, और फूल भी पुलिस के आदमी खड़े कर लें और कहें कि कोई देखेगा तो ठीक नहीं होगा, तो फिर फूलों के साथ ज्यादती शुरू हो जाएगी। फिर अनैतिकता शुरू हो जाएगी।

असल में अति नैतिकता का आग्रह अनैतिकता का जन्म बन जाता है, “टू मच मॉरैलिटी क्रिएट्स इम्मॉरैलिटी’। ज्यादा नैतिक हुए कि आप अनैतिक होंगे फिर। तो बहुत कपड़े पहन लिए तो “न्यूडिस्ट-क्लब’ है। मैं कोई “न्यूडिस्ट-क्लब’ के पक्ष में नहीं, क्योंकि मैं बहुत कपड़े वालों के पक्ष में नहीं। मैं कहता हूं, सहजता से जिंदगी जैसी है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। और कृष्ण बड़े अदभुत प्रतीक हैं। वह सहज जीवन में जो है, उसकी सहज स्वीकृति है।

“भगवान श्री, आपने इसकी ओर यथार्थ इंगित किया कि आप किसी पक्ष में नहीं हैं। पर जैसा कि आपने अभी कहा कि किसी का हाथ प्यारा लगे तो उस हाथ को सहज समाज में आप ले सकें, वह एक “नार्मल सिचुएशन’ हो सकती है। मगर तक तो आपसे यही प्रश्न पूछना मुनासिब होगा कि आप “इम्मॉरैलिटी’ की व्याख्या क्या करते हैं? क्योंकि आप हाथ कहेंगे, ऐसे दूसरा कोई और अंगों की मांग करेगा। क्या उससे व्यक्ति के जीवन में “कान्फ्लिक्ट’ नहीं पैदा हो जाएगी? क्या कोई पति दिक्कत में नहीं पड़ जाएगा?

साथ दूसरा भी एक प्रश्न है कि जो कृष्ण वस्त्रहरण कर सके, वही कौरव-सभा में द्रौपदी का चीर पूरा भी कर सके। ये कृष्ण के व्यक्तित्व के दो छोर हुए। द्रौपदी का वस्त्र पूर्ण करते कृष्ण अलौकिक हैं, लोकोत्तर हैं, चमत्कारिक हैं। क्या यह केवल अदभुत दृष्टांत नहीं हो सकता? द्रौपदी के वस्त्र को पूर्ण करने वाले कृष्ण काले थे। श्रीमद्भागवत में उनके रंग के वर्णन के लिए तीन विशेषण दिए गए हैं–शुक्ल, पीत और कृष्ण। कवियों ने बहुत-बहुत कल्पनाएं कीं कि कृष्ण क्यों काले हैं फिर भी मतवाले हैं, इत्यादि। आप भी कुछ कहें।’

हां तक सहजता का संबंध है, शरीर के किसी अंग में और हाथ में कोई फर्क नहीं है। फर्क हमें दिखाई पड़ता है, क्योंकि फर्क हमने पैदा कर लिया है। फर्क निर्मित है। फर्क है नहीं। शरीर के सभी अंग एक जैसे हैं। हाथ में और किसी अंग में कोई फर्क नहीं है। हमें फर्क दिखाई पड़ता है, क्योंकि हमने शरीर में भी खंड कर लिए हैं। शरीर का कोई हिस्सा है जो बैठकखाने जैसा है, जिसको सब देख सकते हैं। शरीर का कोई हिस्सा है जो गोडाऊन जैसा है, जिसके लिए “लाइसेंस’ चाहिए। हमने शरीर को कई हिस्सों में बांटा हुआ है। ऐसे शरीर अखंड और इकट्ठा है। इसमें कोई हिस्से का कोई फर्क नहीं है। और जिस दिन मनुष्य सच में पूरा स्वस्थ होगा और सहज होगा, उस दिन कोई फर्क नहीं होगा।

लेकिन आपका यह कहना ठीक है कि इसे किस सीमा तक? अगर कोई व्यक्ति किसी का हाथ हाथ में ले लेता है, तो सोचा जा सकता है कि ठीक है। लेकिन, दो बातें विचारणीय हैं। जिस सहज समाज की मैं बात करता हूं, या जिस सहज संभावना की बात करता हूं, दूसरे व्यक्ति का हाथ लेते वक्त जैसे किसी दूसरे व्यक्ति को व्यर्थ ही, अकारण बाधा डालना ठीक नहीं है, वैसे ही दूसरे व्यक्ति का हाथ लेते वक्त व्यर्थ ही, अकारण ही दूसरे व्यक्ति को कष्ट न हो, वह भी सहजता का हिस्सा है। क्योंकि जब मैं किसी व्यक्ति का हाथ लेता हूं तो किसी व्यक्ति का हाथ ले रहा हूं, और मेरे लिए आनंदपूर्ण हो सकता है उसका हाथ लेना, लेकिन अगर उसको दुखपूर्ण है, तो उसको भी स्वतंत्रता तो है ही। मैं अपना आनंद लेने के लिए हकदार हूं तो दूसरा भी अपने आनंद का ध्यान रखने के लिए हकदार है। अगर मुझे अच्छा लग रहा है किसी का हाथ हाथ में लेना तो यह भी जानना जरूरी है कि उसे अच्छा लग रहा है या नहीं लग रहा है। मैं अपने सुख के लिए स्वतंत्र हूं तो वह भी अपने सुख के लिए स्वतंत्र है। जहां से यह दूसरा व्यक्ति शुरू होता है वहां से ही हमारी स्वतंत्रता पर दूसरे की स्वतंत्रता की जिम्मेदारी भी शुरू हो जाती है। वह बिलकुल सहज है, स्वाभाविक। क्योंकि आप आएं और मुझे गले से लगा लें, लेकिन मुझे इससे सिर्फ घबड़ाहट होती हो, तो आप आप आनंद लेने के हकदार हैं, लेकिन मैं भी तो अपनी घबड़ाहट से बचने का हकदार हूं। इसलिए सहज समाज निवेदन करेगा। ये निवेदन ही हो सकते हैं। और इनकी स्वीकृति अनिवार्य नहीं है; क्योंकि दूसरा व्यक्ति शुरू हो गया तत्काल।

मैं किस बात को नैतिकता कहता हूं, आपने पूछा, मैं किस बात को “मॉरेलिटी’ कहता हूं? मैं इस बात को नैतिकता कहता हूं। मैं इस बात को नैतिकता कहता हूं कि दूसरे व्यक्तित्व का सम्मान, दूसरे व्यक्ति का उतना ही सम्मान जितना मेरा सम्मान मेरी दृष्टि में है, इसको मैं नैतिकता कहता हूं। इसके अतिरिक्त मेरे लिए कोई नैतिकता नहीं है। और मैं मानता हूं कि और जितनी नैतिकताएं हैं वे सब इसके नीचे अपने-आप फलित होती हैं। दूसरे व्यक्ति का मेरे ही जितना सम्मान नैतिकता का मूल है। जिस दिन मैं अपने को दूसरे व्यक्ति के ऊपर रखता हूं उसी दिन मैं अनैतिक हो जाता हूं। जिस दिन मैं दूसरे व्यक्ति का साधन की तरह उपयोग करता हूं और मैं साध्य हो जाता हूं, उस दिन मैं अनैतिक हो जाता हूं। प्रत्येक व्यक्ति अपने-आप में साध्य है, “एंड’ है। जब तक मैं इसका स्मरण रखता हूं, तब तक मैं नैतिक होता हूं।

आपने पूछा है कि एक पति को तो बुरा लगता है। लग सकता है। असल में पति एक प्रकार की अनैतिकता है। एक तरह की “इम्मॉरेलिटी’ है। असल में पति इस बात की घोषणा है कि उसने एक पत्नी को सदा के लिए अपना साधन बना लिया है। पति इस बात की घोषणा है कि उसने एक व्यक्ति को खरीद लिया है। पति इस बात की घोषणा है कि वह एक व्यक्ति का मालिक हो गया है, “ओनरशिप’ हो गई है। व्यक्तियों की मालकियत नहीं हो सकती। मालकियत सिर्फ वस्तुओं की हो सकती है। और व्यक्तियों की मालकियत अनैतिक है।

तो मेरे हिसाब में तो विवाह एक अनैतिकता है। प्रेम एक नैतिकता है, विवाह एक अनैतिकता है। और जिस दिन दुनिया अच्छी होगी, उस दिन दो व्यक्ति जीवन भर साथ रह सकते हैं, लेकिन वह साथ रहना कोई “कांट्रेक्ट’ नहीं होगा। यह साथ रहना कोई सौदा नहीं होगा, यह साथ रहना कोई संस्था नहीं होगी, यह साथ रहना उनके प्रेम का प्रतिफल होगा। यह उनका प्रेम है कि वे साथ रह रहे हैं। जिस दिन प्रेम कानून बनता है, उस दिन प्रेम की हत्या हो जाती है।

जिस दिन मैं किसी स्त्री से कह सकता हूं कि मैं हकदार हूं तुमसे प्रेम मांगने का, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो, उस दिन प्रेम कानून बन गया। उस दिन पत्नी अगर कहे कि आज तो मैं प्रेम के क्षण में नहीं हूं–और प्रेम के “मूड’ होते हैं, प्रेम के क्षण होते हैं। इस योग्य बहुत कम लोग हैं जो चौबीस घंटे प्रेम में हैं। चौबीस घंटे प्रेम में वही हो सकता है जो प्रेम हो गया है। साधारणजन तो किसी क्षण में प्रेम में होता है, चौबीस घंटे प्रेम में नहीं होता। लेकिन कानून तो क्षण नहीं देखेगा। मैं अपनी पत्नी से कह सकता हूं कि मैं इस वक्त प्रेम चाहता हूं। प्रेम मांगा जा सकता है, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो। और उसे प्रेम देना पड़ेगा। और जब प्रेम देना पड़ता है तब वह प्रेम नहीं रह जाता। लेकिन पत्नी अगर कहे कि आज तो प्रेम का क्षण ही नहीं है, इस क्षण तो आप मेरे कोई भी नहीं हैं–क्योंकि नाता तो सिर्फ प्रेम का ही है, इस वक्त प्रेम ही नहीं है–इस वक्त आप ऐसे ही पराए हैं जैसे कोई और पराया है, तो कठिनाई खड़ी होगी कानून में।

लेकिन हम यह भी समझें कि क्या यह संभव है जो हमने बनाया है नीति के नाम पर? हमने नीति के नाम पर बहुत-सी असंभावनाएं थोप दी हैं और उन असंभावनाओं की वजह से बहुत अनैतिकता पैदा हुई है। मैं आज एक व्यक्ति को प्रेम करता हूं, क्या मैं पक्का वायदा कर सकता हूं कि कल मैं किसी दूसरे व्यक्ति को प्रेम नहीं करूंगा? कैसे कर सकता हूं? यह बिलकुल असंभव है। अभी कल आया नहीं, अभी वह व्यक्ति भी मुझे नहीं मिला जिससे कि मेरा प्रेम हो सकता है, मैं वायदा कैसे कर सकता हूं? और अगर मैंने वायदा किया, तो कल उपद्रव यह होगा कि कल वह व्यक्ति तो आ जाएगा–वह मेरे वायदे को देखता नहीं–कल वह चित्त की घड़ी भी आ जाएगी–वह भी मेरे वायदे को नहीं देखती–कल एक घटना घट सकती है जब मैं किसी के प्रति प्रेमपूर्ण हो जाऊं, लेकिन तब मेरा वायदा बीच में खड़ा हो जाएगा। तब दोहरी कठिनाई होगी। या तो मैं चोरी से किसी के प्रेम में हो जाऊं, जो कि अनैतिकता होगी। क्योंकि जिस दिन दुनिया में प्रेम को भी चोरी से किसी के प्रेम में हो जाऊं, जो कि अनैतिकता होगी। क्योंकि जिस दिन दुनिया में प्रेम को भी चोरी से करना पड़े, उस दुनिया में और क्या है जिसको हम ईमानदारी से कर सकेंगे? एक तरफ यह होगा कि मैं चोरी से प्रेम करूं और दूसरी तरफ यह होगा कि जिससे मैंने प्रेम का वायदा किया है उसके साथ मैं प्रेम का अभिनय करूं। क्योंकि अब उसके साथ प्रेम कैसे हो सकेगा! और जिस दुनिया में प्रेम का भी अभिनय करना पड़ता हो, वहां किस चीज का आचरण किया जा सकेगा?

तो मैं पति को, विवाह को अनैतिकताएं मानता हूं, जो एक अनैतिक समाज ने ईजाद की हैं। और उनके साथ ही हजार तरह की अनैतिकताएं पैदा होती हैं। जब हम पति को, पत्नी को बहुत जोर से कस देते हैं, वेश्या पैदा हो जाती हैं। फौरन पैदा हो जाती हैं। वेश्या जो है, वह सती-सावित्रियों की रक्षा है। सती-सावित्री बचानी है तो वेश्या पैदा करनी पड़ेगी। लेकिन स्त्रियां भी पसंद करेंगी कि उनका पति एक वेश्या के पास चला जाए, बजाए पड़ोसी की पत्नी से प्रेम में पड़ जाए। क्योंकि प्रेम में “इनवॉल्वमेंट’ है, खतरा है। पड़ोसी की पत्नी के प्रेम में अगर पति पड़ जाए, तो पत्नी को खतरा है। वेश्या के पास चला जाए तो कोई खतरा नहीं है। वह वापस सुबह लौट आएगा। और यह पैसे का सौदा है, इसमें कोई खतरा नहीं है। इसलिए पत्नियां वेश्याओं के लिए राजी हो गईं, प्रेम के लिए राजी नहीं हुईं।

अब जब इस सब को मैं ऐसा कहता हूं, तो आप जो कहते हज ठीक कहते हैं कि “टैबूज़’ से भरा हुआ आदमी, हजार तरह के संस्थान, हजार तरह के संस्कार, हजार तरह की आदतें, हजार तरह की नैतिकताओं में पला हुआ आदमी, वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। मैं आपसे कहता हूं, वह बड़ी मुश्किल में पड़ा ही हुआ है। मैं जो कह रहा हूं, उससे वह मुश्किल के बाहर जा सकता है। वह मुश्किल में पड़ा ही हुआ है। कहां है वह आदमी, जो मुश्किल में नहीं है? सब आदमी मुश्किल में पड़े हैं। लेकिन, अगर मुश्किल पुरानी है, तो हमें दिखाई नहीं पड़ती। अगर मुश्किल आदतन हो गई, तो दिखाई नहीं पड़ती। अगर बीमारी स्थायी है, तो हम उसे भूल जाते हैं। मैं जो कह रहा हूं वह नई मुश्किल होगी। नई मुश्किल इसलिए नहीं है कि मैं जो कह रहा हूं उससे आदमी की जिंदगी में मुश्किलें आएंगी, मैं जो कह रहा हूं उससे एक मुश्किल होगी कि पुरानी मुश्किल आदतें छोड़नी पड़ेंगी। पुरानी मुश्किल के संस्कार छोड़ने पड़ेंगे। और अगर किसी दिन पृथ्वी इस बात के लिए राजी हो सकी कि हम जीवन को सहज कर लें, और जीवन पर असंभावनाएं न थोपें, तो कृष्ण जैसे लाखों व्यक्तित्व पैदा हो सकते हैं। कोई एक ही कृष्ण पैदा हो, यह जरूरी नहीं है। सारी पृथ्वी कृष्णों से भर सकती है।

आखिरी प्रश्न उन्होंने पूछा है कि कृष्ण के बहुत रंगों की बात हुई है। बहुत रंगों के आदमी थे! रंगीन आदमी थे! एक रंग में उनको नहीं बताया जा सकता। इसी कारण। बहुत रंग के आदमी थे। कई रंग एकसाथ थे उस आदमी में। शरीर तो एक ही रंग का रहा होगा, लेकिन आदमी कई रंग का था। फिर देखने वाली आंखों पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि कौन-सा रंग दिखाई पड़ता है। तो जिनने जिस आंख से देखा होगा, उन्हें वे रंग दिखाई पड़ गए होंगे। हां, एक आदमी भी तीन हालातों में तीन रंग देख सकता है। क्योंकि एक ही आदमी तीन हालातों में एक ही आदमी कहां रहता है? कभी जब मैं प्रेम में होता हूं तब आपको दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और जब मैं क्रोध में होता हूं तब दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और कभी आप मेरे प्रति प्रेम में होते हैं तब दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और कभी जब आप मेरे प्रति क्रोध में होते हैं तो दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और वे रंग रोज बदलते रहते हैं। रंग प्रतिपल बदलते रहते हैं। सब बदलता रहता है। यहां थिर कुछ भी नहीं है। इस जगत में थिरता जैसी बात ही झूठ है। यहां सब बदल रहा है। लेकिन, अधिक लोगों ने उनमें सांवला रंग ही देखा। उसके कुछ कारण हैं।

ऐसा लगता है कि सांवला रंग उनकी थिरता का स्थायित्व गुण रहा होगा। यानी वे सांवले रंग में ही अथिर होते रहे होंगे। वह चंचल रहे होंगे, सांवले रंग में ही। इस मुल्क के मन में सांवले रंग के लिए कुछ आग्रह हैं। असल में गोरा रंग उतना सुंदर कभी भी नहीं होता, जितना सांवला रंग सुंदर होता है। उसके कई कारण हैं। लेकिन आमतौर से हमें गोरा रंग सुंदर दिखाई पड़ता है, क्योंकि गोरे रंग की चमक में बहुत-सी असुंदरताएं छिप जाती हैं। और काले रंग में कुछ भी नहीं छिपता, इसलिए काला आदमी मुश्किल से कभी सुंदर होता है। गोरे आदमी बहुत सुंदर होते हैं क्योंकि काला रंग कुछ छिपाता नहीं है, सीधा प्रगट कर देता है। सफेदी की चमक में बहुत-सी चीजें छिप जाती हैं। इसलिए गोरे रंग के बहुत-से आदमी सुंदर दिखाई पड़ेंगे, काले रंग का कभी-कभी कोई आदमी सुंदर होता है। लेकिन जब काले रंग का कोई सुंदर होता है, तो गोरे रंग का सुंदर आदमी एकदम फीका पड़ जाता है। इसलिए हमने राम को भी सांवला, कृष्ण को भी सांवला–हमने जिनको भी सुंदर देखा उनको हमने सांवले रंग में देखा। सांवले रंग का सौंदर्य “रेअरिटी’ है। वह बहुत “रेअर’ है। सफेद रंग के सुंदर बहुत लोग होते हैं। वह कोई “रेअरिटी’ नहीं है। वह कोई बहुत विशेषता नहीं है। सफेद रंग का सुंदर होना बड़ी साधारण बात है, सांवले रंग का सुंदर होना बड़ी असाधारण बात है।

कुछ और भी कारण हैं। सफेद रंग में गहराई नहीं होती, “डेप्थ’ नहीं होती, फैलाव होता है। इसलिए सफेद शक्ल “फ्लैट’ होती है, “डीप’ नहीं होती। नदी देखी है, जब गहरी हो जाती है तब सांवली हो जाती है। सांवले रंग में एक “डेप्थ’ है। फैलाव नहीं है, एक “इनटेंसिटी’ है। सांवला चेहरा चेहरे पर ही समाप्त नहीं होता, उसमें भीतर कुछ “ट्रांसपेरेंट’ भी होता है। उसमें पर्तें होती हैं। सांवले आदमी के चेहरे के भीतर चेहरे, चेहरे के भीतर चेहरों की पर्तें होती हैं। हां, गोरा आदमी “फ्लैट’ होता है, उसका चेहरा साफ, जो है सामने होता है। इसलिए गोरे रंग से बहुत जल्दी ऊब पैदा हो जाती है। सांवले रंग से ऊब पैदा नहीं होती। उसमें नए रंग दिखाई ही पड़ते चले जाते हैं। और कृष्ण जैसा आदमी ऐसा आदमी है कि उससे ऊब पैदा हो नहीं सकती।

अभी आप जानकर हैरान होंगे कि पश्चिम की सारी सुंदरियां सांवला होने के लिए बड़ी दीवानी हैं। सागर के तट पर लेटी हैं। किसी तरह धूप थोड़ी सांवली कर दे। क्या पागलपन आ गया है? असल में जब भी कोई संस्कृति अपने शिखर पर पहुंचती है, तब फैलाव कम मूल्य का रह जाता है, गहराई ज्यादा मूल्य की हो जाती है। हमको पश्चिम का आदमी सुंदर दिखाई पड़ता है, पश्चिम का आदमी जानता है कि अब सौंदर्य गहराई में खोजना है, हो चुकी वह बात। अब पश्चिम की सुंदर स्त्री सांवला होने की कोशिश में लगी है। इसलिए पश्चिम का सुंदरतम आदमी भी “ट्रांसपेरेंट’ नहीं होता। उसका चेहरा बोथला हो जाता है। वह सफेद रंग की खराबी है।

वह सफेद रंग की खूबियां हैं, कि बहुत लोग सुंदर हो सकते हैं सफेद रंग में। सफेद रंग की खराबी है, कि उसमें बहुत गहरा सौंदर्य नहीं हो सकता। इसलिए सांवले रंग पर हमने देखा। मैं नहीं मानता कि कृष्ण सांवले रहे ही होंगे यह कोई जरूरी नहीं है। हमने सांवला देखा। इतना प्यारा आदमी था कि हम उसको गोरा नहीं सोच सके। हमने उनको सांवला सोचा। वे सांवले हो भी सकते हैं, वह मेरे लिए गौण है।

मेरे लिए तथ्य बहुत गौण हैं। मेरे लिए काव्य बहुत महत्वपूर्ण हैं। हम न सोच सके इस आदमी को गोरा, क्योंकि यह इतने रंग का आदमी था, इतना गहरा आदमी था, और इसके चेहरे में झांकते जाने, झांकते जाने का मन होता था, डूबते जाने का मन होता था। इसमें और गहराइयां थीं, जो उघड़ती चली जाती थीं। इसलिए बहुत रंग में एक व्यक्ति ने भी देखा और बहुत लोगों ने भी देखा, पर एक स्थायी रंग में हमने सोचा है, वह है सांवला रंग। श्याम नाम ही उनको इसलिए दे दिया। श्याम का मतलब है, काले। कृष्ण का मतलब भी है, काला। न केवल हमने सोचा, बल्कि हमने नाम भी जो उन्हें दिए उसमें सांवलापन था। श्याम कहा, कृष्ण कहा, वे सब काले रंग के ही प्रतीक हैं।

और एक बात उन्होंने पूछी है कि एक तरफ उघाड़ते हैं वस्त्रों को कृष्ण, दूसरी तरफ उघड़ती हुई द्रौपदी पर वस्त्र फेंकते हैं। असल में जिसने कभी उघाड़ा नहीं, वह जिंदगी भर उघाड़ता ही रहता है। लेकिन जिसने उघाड़कर देख लिया, अब वह वस्त्र ढांक सकता है।

ढांकने और उघाड़ने में एक और बड़ा फर्क है।

प्रेम तो उघाड़ने की आज्ञा दे सकता है। प्रेम उघाड़ना चाहता है। लेकिन द्रौपदी प्रेम से नहीं उघाड़ी जा रही थी। द्रौपदी बड़ी घृणा से उघाड़ी जा रही थी। द्रौपदी को देखने वाली आंखें प्रेम की जिज्ञासा से भरी हुई आंखें न थीं। जो घटना है, उस घटना का मेरे लिए मूल्य नहीं–जैसा मैं निरंतर कहता हूं, मेरे लिए तथ्यों का कोई मूल्य नहीं। कोई चमत्कार ऐसा घटा हो कि दूर से कोई कृष्ण ढांकते रहे हों, मैं मानता हूं कि ये सब प्रतीक हैं। कृष्ण ने किसी-न-किसी तरह उस दिन द्रौपदी को उघाड़ने से रोका होगा, इतना ही मैं मानता हूं। किसी-न-किसी तरह कृष्ण उस दिन द्रौपदी के उघड़ने में बाधा बन गए होंगे, इतना ही मैं मानता हूं। लेकिन कवि जब इसको लिखेगा तो कविता बन जाएगी। और जब कविता बनेगी, और बाद में जब हम कविता को तथ्य बनाते हैं, तब “मिकरेल’ मालूम होने लगते हैं। बाकी कविता ही एकमात्र “मिकरेल’ है और कोई मामला नहीं है। कृष्ण किसी-न-किसी तरह उस दरबार में नग्न की जाती द्रौपदी के लिए बाधा बन गए होंगे। वह बाधा अनिवार्य हो गई होगी।

और यह बड़े मजे की बात है कि कृष्ण का नाम है कृष्ण, द्रौपदी का एक नाम कृष्णा है। सच तो यह है कि कृष्ण जैसा शानदार आदमी नहीं हुआ और कृष्णा जैसी शानदार स्त्री नहीं हुई। द्रौपदी का कोई मुकाबला नहीं है। हमने बहुत सीता और दूसरों की चर्चा की है, द्रौपदी की जरा कम की है। क्योंकि हमें बड़ी तकलीफ है द्रौपदी के साथ। वह पांच पतियों की पत्नी है, वह हमें भारी पड़ गई। लेकिन ध्यान रखें, एक ही पति की पत्नी होना भी बड़ी मुश्किल बात है। पांच पतियों की पत्नी होना असाधारण स्त्री का काम हो सकता है।

कृष्ण का बड़ा प्रेम है कृष्णा से। गहरे-से-गहरे उनकी प्रेयसियों में से वह है। इसलिए प्रेम इस क्षण में काम न आए तो कब काम आए। पर वह बात अलग है। वह तो कभी द्रौपदी पर चर्चा करेंगे, तब।

“भागवत में उल्लेख है…जो कृष्ण पर अहमदाबाद में हमने बात की थी और आपने बताया था कि शुक्र का विनियोग होते हुए भी वसुदेव और देवकी का जो संभोग हुआ था, वह आध्यात्मिक संभोग था, जिसकी वजह से कृष्ण मिले…मगर कृष्ण के सोलह हजार रानियों या आठ प्रतिभावान पटरानियों के साथ संबंध होने पर भी कृष्ण या राम, दोनों के पुत्र उतने प्रतिभावान नहीं हुए। इससे क्या यह नतीजा निकल सकता है कि राम या कृष्ण ने आध्यात्मिक संभोग अपनी पत्नियों के साथ किया ही नहीं?’

समें दो बातें समझ लेनी उचित होंगी।

एक तो आध्यात्मिक संभोग का यह अर्थ नहीं है कि मैं शारीरिक संभोग की कोई निंदा कर रहा हूं। आध्यात्मिक संभोग से मेरा सिर्फ इतना ही अर्थ है कि दो व्यक्तियों के शरीर नहीं मिले हैं, आत्मा भी मिली है। शरीर के मिलन से पैदा होता है, वह उन ऊंचाइयों को उपलब्ध नहीं हो सकता, जो आत्मा के मिलन से पैदा होता है और ऊंचाइयों को उपलब्ध होता है। कृष्ण का जन्म मैं आध्यात्मिक संभोग का फल मानता हूं। क्राइस्ट का जन्म भी आध्यात्मिक संभोग का फल मानता हूं। इसीलिए क्राइस्ट के जानने वाले लोग यह कह सके कि क्राइस्ट का जन्म भी हो गया लेकिन “मेरी’ वर्जिन बनी रही, क्वांरी बनी रही। क्योंकि शरीर के तल पर कोई वासना और कोई गहरी कामना न थी। आत्मा के तल पर मिलन हुआ था, शरीर छाया की तरह उसके पीछे गया था। इसलिए छाया पर उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है।

लेकिन यह सवाल निश्चित ही महत्वपूर्ण है कि फिर कृष्ण के बच्चे हैं, राम के बच्चे हैं, इनका क्या हुआ?

इसके और कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि कृष्ण से बड़ा बेटा तो पैदा होना असंभव है। वसुदेव से बड़ा बेटा पैदा हो सकता है। वसुदेव साधारणजन हैं। कृष्ण तो ऊंचाई हैं, आखिरी से आखिरी जो हो सकती है। कृष्ण जैसे पिता से जो भी बेटा होगा, वह इतिहास में सदा भुला दिया जाएगा। वह सदा कृष्ण जैसे व्यक्ति की छाया में पड़ जाता है। जैसे विंध्याचल में जो पहाड़ की ऊंचाई बड़ी ऊंचाई हो सकती है, वही ऊंचाई एवरेस्ट के पास आकर बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी। चीजें तो दिखाई पड़ती हैं न! कृष्ण के पीछे कोई भी नहीं दिखाई पड़ सकता। इसलिए जो लोग “पीक’ को छूते हैं जीवन की, आखिरी ऊंचाई को छूते हैं, उनसे बहुत अच्छे बेटे नहीं उपलब्ध हो पाते। कभी नहीं हो सके हैं। न बुद्ध से हो सका, न कृष्ण से हो सका, न राम से हो सका, न महावीर से हो सका, किसी से नहीं हो सका।

इसका कारण सिर्फ इतना है कि इतनी बड़ी ऊंचाई पर ये खड़े हैं कि लव-कुश कितने ही ऊंचे हों, राम की छाया में ही खो जाएंगे। ये लव-कुश किसी और के घर पैदा हुए होते, तो ये भी इतिहास में नाम छोड़ जाते। साधारणजन न थे। लेकिन नाम छोड़ जाना तो सदा “रिलेटिव’ और “कंपेरेटिव’ है। राम के साथ नाम नहीं छोड़ सकते। साधारण बेटे न थे ये दोनों। राम को साधारण बेटा हो भी नहीं सकता। लेकिन सवाल तो राम से तुलना का पड़ेगा इतिहास में। दशरथ बहुत साधारण पिता हैं। दशरथ को कोई जानता भी नहीं अगर रात पैदा न होते। दशरथ का कोई अर्थ भी न होता। राम हुए हैं इसलिए दशरथ का कोई नाम है। छोटे बाप के घर बड़ा बेटा पैदा हो जाता है, तो बाप भी बड़ा हो जाता है और बड़े बाप के घर बड़ा बेटा भी पैदा हो जाता है, तो छोटा हो जाता है।

संभोग तो आध्यात्मिक ही था। जो पैदा हुए हैं आध्यात्मिक से ही पैदा हुए हैं। लेकिन हमारी तौल तो “रिलेटिव’ होगी सदा, “कंपेरेटिव’ होगी, तुलना होगी।

वह कहानी हम सबको पता है कि अकबर ने एक लकीर खींची और दरबार के लोगों से कहा कि बिना छुए इसे छोटा कर दो। और कोई उसे छोटा न कर पाया, और बीरबल ने एक बड़ी लकीर उसके पास खींच दी। उस लकीर को छुआ नहीं और वह लकीर छोटी हो गई। लकीर उतनी ही रही।

लव-कुश जो हैं, हैं, लेकिन राम की लकीर बहुत बड़ी है। उसके नीचे वे एकदम खो जाते हैं। राम की लकीर न होती, तो लव-कुश भी दिखाई पड़ते। इतिहास उनके भी चरण-चिह्नों का स्मरण रखता। लेकिन उनकी जरूरत न रही। राम के पीछे आकर उनका कोई अर्थ नहीं।

“लिबिडो’, काम-ऊर्जा का उल्लेख, आया है। आध्यात्मिक संभोग की बात भी आई है। इसी कड़ी में एक बड़ा ही नाजुक और स्पष्ट प्रश्न है। बांसुरी कृष्ण की है, संगीत के मधुर सुर राधा के हैं। गीत कृष्ण के अधरों के हैं, उस गीत की काव्य-माधुरी राधा की है। नृत्य कृष्ण का है, किंतु उनके चरणों में गति और झंकार राधा की है। ऐसा अभिन्न व्यक्तित्व है कृष्ण का और राधा का। तभी तो हम राधाकृष्ण तो कहते हैं, लेकिन विवाहित होते हुए भी रुक्मिणी-कृष्ण कोई नहीं कहता। राधा को कृष्ण से अलग कर दिया जाए तो कृष्ण का जीवन भी औरों की तरह ही उदास-उदास और अधूरा-अधूरा-सा लगने लगेगा। और मजे की बात यह है कि कृष्ण की अनंत लीलाओं के आधारग्रंथ भागवत में राधा का कहीं नाम नहीं आया है। कोई बात नहीं। लेकिन कृष्ण के जीवन की समग्रता में शक्ति और प्रेमरूप राधा का क्या भावात्मक या “सेक्सुअल’ संबंध है, इस पर प्रकाश डालने का एकमात्र अधिकारी है, भगवान श्री, आप-जैसा कृष्ण!’

जो लोग शास्त्रों में खोजते हैं, उनके लिए बड़ी कठिनाई रही है इस बात से कि राधा का कोई उल्लेख ही नहीं है। और तब कुछ ने तो यह भी कहना शुरू कर दिया कि राधा जैसा कोई व्यक्तित्व कभी हुआ भी नहीं। राधा बाद के युगों के कवियों की कल्पना है। स्वभावतः जो इतिहास में जीते हैं, तथ्यों में जीते हैं, उनके लिए कठिनाई है। राधा का उल्लेख बहुत बाद के ग्रंथों में शुरू होता है। किसी प्राचीन ग्रंथ में राधा का कोई उल्लेख नहीं होता।

मेरी हालत बिलकुल उल्टी है। मैं मानता हूं कि राधा का उल्लेख न होने का कुल कारण इतना है कि राधा कृष्ण से इतनी एक और लीन हो गई कि अलग उल्लेख की कोई जरूरत नहीं। जो अलग थे, उनका उल्लेख है। जो अलग न थी और छाया की तरह थी, उसके उल्लेख की कोई जरूरत नहीं। उल्लेख करने के लिए भी तो किसी का अलग होना जरूरी है। रुक्मिणी अलग है। वह कृष्ण को प्रेम करती हो सकती है, कृष्णमय नहीं है। कृष्ण से उसके संबंध हो सकते हैं, कृष्ण में आत्मसात नहीं है। संबंध तो उनके ही होते हैं, जो अलग हैं। राधा का कोई संबंध नहीं है कृष्ण से। राधा कृष्ण ही है। इसलिए अगर उसका उल्लेख न किया गया हो, तो मैं मानता हूं न्याययुक्त है, उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए।

तो एक तो यह बात खयाल लें, उसके उल्लेख न होने का कारण है। वह छाया की तरह अदृश्य है। इतनी भी अलग नहीं, इतनी भी भिन्न नहीं कि उसे कोई जाने और पहचाने। इतनी भी अलग नहीं, इतनी भी भिन्न नहीं कि कोई उसे नाम भी दे, कोई जगह भी दे। इस कारण।

दूसरी बात, यह भी सच है कि राधा के बिना कृष्ण का व्यक्तित्व एकदम अधूरा रह जाएगा। अधूरा इसलिए रह जाएगा कि मैंने कहा कि कृष्ण पूरे पुरुष हैं। इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। ऐसे पुरुष बहुत कम हैं जगत में, जो पूरे पुरुष हों। प्रत्येक पुरुष के भीतर उसका भी स्त्री-अंग होता है, और प्रत्येक स्त्री के भीतर उसका भी पुरुष-अंग होता है। मनस को जानने वाले लोग कहते हैं कि प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष है, प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री है। जो फर्क है वह सिर्फ “डिग्रीज’ का, क्रमों का है। जिसे हम पुरुष कहते हैं, वह साठ फीसदी पुरुष है, चालीस प्रतिशत स्त्री है। इसलिए ऐसे भी पुरुष हैं जो स्त्रैण मालूम पड़ते हैं, और ऐसी भी स्त्रियां हैं जो पुरुष मालूम पड़ती हैं। अगर मात्रा बहुत ज्यादा है भीतर स्त्री की, तो पुरुष पर हावी हो जाएगी। अगर पुरुष की मात्रा बहुत ज्यादा है, तो स्त्री पर हावी हो जाएगी। लेकिन इस अर्थों में भी कृष्ण पूर्ण हैं, जो मैं कह रहा था। वे पूर्ण पुरुष हैं। उनके भीतर स्त्री का कोई तत्व ही नहीं है। या जैसे मीरा को मैं कहूंगा, वह पूरी स्त्री है। उसके भीतर पुरुष का कोई तत्व ही नहीं है। और जब भी कोई पूर्ण पुरुष होगा, तब एक अर्थ में अधूरा पड़ जाएगा, उसको पूरी स्त्री जरूरी है। अन्यथा वह अधूरा पड़ जाएगा। हां, अधूरा पुरुष जी सकता है बिना स्त्री के। उसके भीतर अपनी स्त्री भी है, जिससे काम चलता है। लेकिन कृष्ण जैसा पुरुष, अनिवार्य रूप से उसकी राधा उसके साथ खड़ी हो जाएगी। और उसे पूर्ण स्त्री चाहिए।

अब यह भी बड़े मजे की बात है कि पूर्ण स्त्री और पूर्ण पुरुष का थोड़ा अर्थ भी हम समझें। और भी उसके अर्थ हैं।

पुरुष की जो गहरी-से-गहरी गहराई है, वह आक्रामक है, “एग्रेसिव’ है। स्त्री की गहरी-से-गहरी गहराई है, वह समर्पण की है, “सरेंडर’ की है। कोई भी स्त्री पूरी स्त्री न होने से कभी पूरा समर्पण नहीं कर पाती। कोई भी पुरुष पूरा पुरुष न होने से कभी पूरा आक्रामक नहीं हो पाता। इसलिए दो अधूरे स्त्री और पुरुष जब मिलते हैं, तो निरंतर कलह और संघर्ष चलता है। चलेगा। क्योंकि स्त्री के भीतर कुछ है, जो आक्रामक भी है। वह आक्रमण भी करती है। कुछ है जो सम्पर्क भी है, वह समर्पण भी करती है। किसी क्षण में वह पुरुष के हाथ भी दाबती है, पैर भी दाबती है, उसके पैर पर सिर भी रखती है। और किसी क्षण में वह बिलकुल ही विकराल हो जाती है और पुरुष की गर्दन दबाने को उत्सुक हो जाती है। ये दोनों रूप उससे निकलते हैं। पुरुष किसी क्षण बड़ा आक्रामक होता है, बिलकुल दबा डालना चाहता है। और किसी क्षण वह बिलकुल दब्बू हो जाता है और स्त्री के पीछे घूमने लगता है। वे दोनों उसके भीतर हैं।

रुक्मिणी का कृष्ण के साथ बहुत गहरा मेल नहीं हो सकता, उसके भीतर पुरुष है। राधा पूरी डूब सकी, वह अकेली निपट स्त्री है, वह समर्पण पूरा हो गया। वह समर्पण पूरा हो सका। कृष्ण का किसी ऐसी स्त्री से बहुत गहरा मेल नहीं बन सकता जिसके भीतर थोड़ा भी पुरुष है। अगर कृष्ण के भीतर थोड़ी-सी स्त्री हो तो उससे मेल बन सकता था। लेकिन कृष्ण के भीतर स्त्री है ही नहीं। वह पूरे ही पुरुष हैं। पूरा समर्पण ही उनसे मिलन बन सकता है। इससे कम वह न मांगेंगे, इससे कम में काम न चलेगा। वह पूरा ही मांग लेंगे। हालांकि पूरा मांगने का मतलब यह नहीं है कि वह कुछ न देंगे, पूरा मांगकर वह पूरा ही दे देंगे। इसलिए हुआ ऐसा पीछे कि रुक्मिणी छूट गई, जिसका उल्लेख था शास्त्रों में, जो दावेदार थी। और भी दावेदार थीं, वे छूटती चली गईं। और जो बिलकुल गैर-दावेदार था, जिसका कोई दावा ही नहीं था, जिसे कृष्ण अपनी है ऐसा भी नहीं कह सकते थे–राधा तो पराई थी, रुक्मिणी अपनी थी। रुक्मिणी से संबंध संस्थागत था, विवाह का था। राधा से संबंध प्रेम का था, संस्थागत नहीं था–जिसके ऊपर कोई दावा नहीं किया जा सकता था, जिसके पक्ष में कोई “कोर्ट’ निर्णय न देती कि यह तुम्हारी है, आखिर में ऐसा हुआ कि वे जो अदालत से जिनके लिए दावा मिल सकता था, जो कृष्ण से “मेंटिनेंस’ मांग सकती थीं, वे खो गईं, और यह स्त्री धीरे-धीरे प्रगाढ़ होती चली गई, और वक्त आया कि रुक्मिणी भूल गई, और कृष्ण के साथ राधा का नाम ही रह गया।

और मजे की बात है कि राधा ने सब छोड़ा कृष्ण के लिए, लेकिन नाम पीछे न जुड़ा, नाम आगे जुड़ गया। कृष्ण-राधा कोई नहीं कहता, राधा-कृष्ण हम कहते हैं, जो सब समर्पण करता है, वह सब पा लेता है। जो बिलकुल पीछे खड़ा हो जाता है, वह बिलकुल आगे हो जाता है।

नहीं, राधा के बिना कृष्ण को हम न सोच पाएंगे। राधा उनकी सारी कमनीयता है। राधा उनका सारा-का-सारा जो भी नाजुक है, वह सब है, जो “डेलीकेट’ है, वह है। राधा उनके गीत भी, उनके नृत्य का घुंघरू भी, राधा उनके भीतर जो भी स्त्रैण है वह सब है। क्योंकि कृष्ण निपट पुरुष हैं, और इसलिए अकेले कृष्ण का नाम लेना अर्थपूर्ण नहीं है। इसलिए वह इकट्ठे हो गए, राधाकृष्ण हो गए। राधाकृष्ण होकर इस जीवन के दोनों विरोध इकट्ठे मिल गए हैं। इसलिए भी मैं कहता हूं कि यह भी कृष्ण की पूर्णताओं की एक पूर्णता है।

महावीर को किसी स्त्री के साथ खड़ा करके नहीं सोचा जा सकता। स्त्री असंगत है। महावीर का व्यक्तित्व स्त्री के बिना है। महावीर की शादी हुई, विवाह हुआ, बच्ची हुई; लेकिन महावीर का एक पंथ दिगंबरों का मानता है कि नहीं, उनका विवाह नहीं हुआ, न उनकी कोई बच्ची हुई। मैं मानता हूं कि शायद ऐतिहासिक तथ्य यही है कि उनका विवाह हुआ हो, बच्ची हुई हो, लेकिन मनोवैज्ञानिक तथ्य दिगंबर जो कहते हैं वही ठीक है कि महावीर जैसे आदमी के साथ स्त्री को जोड़ना ही बेमानी है। हुआ भी हो तो नहीं माना जा सकता। महावीर कैसे किसी स्त्री को प्रेम करेंगे। असंभव। महावीर के पूरे व्यक्तित्व में कहीं कोई वह छाया भी नहीं है। बुद्ध के साथ स्त्री थी, लेकिन छोड़कर चले गए। क्राइस्ट के साथ भी स्त्री को जोड़ना मुश्किल है। वे निपट क्वांरे हैं। “बैचलर’ होने में उनकी अर्थवत्ता है। इस अर्थ में भी वह सब अधूरे हैं। इस जगत की व्यवस्था में जैसे धन विद्युत अधूरी है ऋण विद्युत के बिना, जैसे विधेय अधूरा है निषेध के बिना, ऐसे स्त्री और पुरुष का एक परम मिलन भी है। स्त्री और पुरुष का न कहें, स्त्रैणता और पौरुषता का; आक्रामकता का और समर्पण का; जीतने का और हारने का।

अगर हम कृष्ण और राधा के लिए कोई प्रतीक खोजने निकलें, तो सारी पृथ्वी पर चीन भर में एक प्रतीक है जिसे वह “यिन’ और “यांग’ कहते हैं। बस एक प्रतीक है, चीनी भाषा में, क्योंकि चीनी भाषा तो “पिक्टोरियल’ है, चित्रों की है, उसके पास एक प्रतीक है, जिसे वे जगत का प्रतीक कहते हैं। उसमें एक गोल वर्तुल है और वर्तुल में दो मछलियां एक-दूसरे को मिलती हुई–आधा सफेद, आधा काला। काली मछली में सफेद गोल एक घेरा, सफेद मछली में काला एक घेरा और पूर्ण एक वर्तुल। दो मछलियां पूरी तरह मिलकर एक गोल घेरा बना रही हैं। एक मछली की पूंछ दूसरे के मुंह से मिल रही है, दूसरी मछली का मुंह पहली की पूंछ से मिल रहा है। और दोनों मछलियां मिलकर पूरा गोल घेरा बन गई हैं। “यिन एंड यांग’। एक का नाम “यिन’, एक का नाम “यांग’ है। एक ऋण, एक धन। वे दोनों मिलकर इस जगत का पूरा वर्तुल हैं।

राधा और कृष्ण पूरा वर्तुल हैं। इस अर्थ में भी वे पूर्ण हैं। अधूरा नहीं सोचा जा सकता कृष्ण को। अलग नहीं सोचा जा सकता। अलग सोचकर वे एकदम खाली हो जाते हैं। सब रंग खो जाते हैं। पृष्ठभूमि खो जाती है, जिससे वे उभरते हैं। जैसे हम रात के तारों को नहीं सोच सकते रात के अंधेरे के बिना। अमावस में तारे बहुत उज्जवल होकर दिखाई पड़ने लगते हैं, बहुत शुभ्र हो जाते हैं, बहुत चमकदार हो जाते हैं। दिन में भी तारे तो होते हैं, आप यह मत सोचना कि दिन में तारे खो जाते हैं। खोएंगे भी बेचारे तो कहां खोएंगे! दिन में भी तारे होते हैं–आकाश तारों से भरा है अभी भी–लेकिन सूरज की रोशनी में तारे दिखाई नहीं पड़ सकते। अगर आप किसी गहरे कुएं में चले जाएं, तो दोत्तीन सौ फीट गहरा कुआं हो तो आपको उस गहरे कुएं से तारे दिन में भी दिखाई पड़ सकते हैं। क्योंकि बीच में अंधेरे की पर्त आ जाती है; फिर तारे दिखाई पड़ सकते हैं। रात में तारे आते नहीं सिर्फ दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि अंधेरे की चादर फैल जाती है। और अंधेरे की चादर में तारे चमकने लगते हैं।

कृष्ण का सारा व्यक्तित्व चमकता है राधा की चादर पर। चारों तरफ से राधा की चादर उन्हें घेरे है। वह उसमें ही पूरे-के-पूरे खिल उठते हैं। कृष्ण अगर फूल हैं तो राधा जड़ है। वह पूरा-का-पूरा इकट्ठा है। इसलिए उनको अलग नहीं कर सकते। वह युगल पूरा है। इसलिए राधाकृष्ण पूरा नाम है, कृष्ण अधूरा नाम है।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–86

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केवल परमात्‍मा जानता है—(प्रवचन—छठवां)

प्रश्‍नसार:

1—उपद्रव की स्थितियों के मध्‍य गहरे—और—गहरे कैसे संभव हो सकता है?

 2—जब मैं आपसे निकटता अनुभव करती हूं, उन क्षणों में मैं हंसना चाहती हूं।

ऐसा क्यों होता है?

 3—इन रोगों का उपचार .कैसे हो; कृपणता, बकवास रहना, अभिनेता व्यक्तिव और अभिमान। क्या इनसे निबटने के लिए ध्यान प्रर्याप्‍त है?

 4—में यह व्यक्‍ति जो प्रत्येक सुबह श्वेत वस्त्रों में उस कुर्सी पर बैठता है, कौन है?

 

प्रश्न: —

 

शरीर और—और संवेदनशील होता जा रहा है। यह और तेज गति से स्‍पंदित होता प्रतीत होता है। जितना अधिक चेतना और बोध पर कार्य होता है, सचेतन बोध होता जाता हे। पूर्व की ध्‍यान की अवस्‍थाओं या स्‍थितियों से ध्‍यान की न तुलना हो पा रही है। न पहचान बन रही है। शोर और सांसारिक ऊहापोह के मध्‍य में ग्रहणशील, निष्‍क्रिय ध्‍यान के लिए कम समय और अवकाश और शांत परिस्‍थितियां मिल पा रही है। फिर भी कुछ घट रहा है। तार्किक समझ के क्षीण होने की पृष्‍ठभूमि में भी आपके प्रति अगाध श्रद्धा है। यदि आप चाहें तो कृपया समझाएं वास्‍तव में क्‍या घटित हो रहा है? और स्‍पष्‍ट: उपद्रव की स्‍थितयों के मध्‍य गहरे और गहरे जाना कैसे संभव हो सकता हे।

 

हली बात, और सर्वाधिक आधारभूत बातों में से एक बात सदैव याद रखनी है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म अराजकता में ही होता है। और कोई अन्य उपाय है भी नहीं। यदि तुम दुबारा जन्म पाना चाहते हो, तुम्हें परिपूर्ण अव्यवस्था से होकर गुजरना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारे पुराने व्यक्तित्व को छिन्न—भिन्न करना पड़ेगा। तुम टूट कर बिखर जाओगे। तुमने अपने बारे में जो कुछ भी विश्वास किया था वह धीरे— धीरे खोने लगेगा। वह सब जिससे तुमने अपना तादात्म्य किया हुआ था, मंद, धुंधला हो जाएगा। वह ढांचा जो समाज ने तुम्हें दिया हुआ है, वह चरित्र जो समाज ने तुम्हारे ऊपर थोप दिया था, खंड—खंड होकर गिर पड़ेगा। पुन: तुम बिना चरित्र के खड़े हो जाओगे जैसे कि तुम अपने जन्म के समय पहले दिन थे।

सब कुछ अस्त—व्यस्त हो जाएगा, और उस अराजकता में से, उस शून्यता में से तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। इसीलिए मैं बार—बार कहता हूं कि धर्म बड़ी हिम्मत की बात है। यह मृत्यु है, एक विराट मौत, लगभग आत्महत्या, स्वैच्छिक रूप से तुम मर जाते हो। और तुम नहीं जानते कि क्या होने जा रहा है, क्योंकि तुम यह जान भी कैसे पाओगे कि क्या होने जा रहा है? तुम तो मृत हो, इसलिए श्रद्धा की आवश्यकता होती है।

इसीलिए साथ में, सतत रूप से, अराजकता के साथ ही साथ मेरे प्रति एक श्रद्धा विकसित हो रही है, फिर भयभीत होने की कोई आवश्यकता न रही। श्रद्धा सम्हाल ही लेगी। यदि साथ में श्रद्धा इसके साथ ही साथ न विकसित हो रही होती, तब खतरा हो सकता है, तब व्यक्ति विक्षिप्त हो सकता है। अत: वे लोग जिनमें श्रद्धा नहीं है, उनको वास्तव में ध्यान में नहीं उतरना चाहिए। यदि वे ध्यान में उतरेंगे, वे मरने लगेंगे, और उनको खड़े हो पाने के लिए कोई भूमि, कोई सहारा देने वाला माहौल नहीं मिलेगा।

अनेक लोग मेरे पास आते हैं और मुझसे पूछते हैं, ‘यदि हम संन्यास न लें तो क्या आप हमारी सहायता नहीं करेंगे?’ मैं तुम्हारी सहायता हेतु तैयार रहूंगा, किंतु तुम इसे लेने के लिए तैयार नहीं होओगे। क्योंकि यह केवल मेरे देने का प्रश्न नहीं है, यह तुम्हारे लेने का भी प्रश्न है। मैं उड़ेल रहा होऊंगा, लेकिन यदि श्रद्धा नहीं है तो तुम इसको ग्रहण नहीं कर पाओगे। और जब कोई श्रद्धा नहीं तो इसको तुम पर उड़ेलने का कोई औचित्य भी नहीं है। तुम जितना ग्रहणशील होगे उतनी मात्रा को ही ग्रहण करोगे। संन्यास तुम्हारी गहरी श्रद्धा का प्रतीक भर है, इसे दर्शाता है कि अब तुम मेरे साथ जा रहे हो—जब सारा तर्क कहे मत जाओ, तब भी, जब तुम्हारा मन प्रतिरोध करे और कहे, यह तो खतरनाक है, तुम असुरक्षा के संसार में जा रहे हो, तब भी। जब तुम्हारा मन तुम्हें, तुम्हारे चरित्र और तुम्हारे रंग—ढंग को बचाने का प्रयास करें, तब भी, यदि तुम मेरे साथ जाने को तैयार हो, तो तुम्हारे भीतर श्रद्धा है।

श्रद्धा कोई भावनामात्र नहीं है; यह भावुक होना नहीं है। यदि तुम सोचते हो कि यह केवल भावुक लोगों के लिए है, तो तुम गलत हो। गहरी भावुकता में तुम कह सकते हो, मुझको श्रद्धा है, लेकिन यह कोई बहुत सहायक नहीं होने जा रहा है, क्योंकि जब सभी कुछ खो रहा होगा, तब जो पहली चीज खोएगी वह तुम्हारी श्रद्धा है। यह बहुत कमजोर, नपुंसक है। श्रद्धा को इतना गहरा और ठोस होना चाहिए कि यह भावुकता जैसी न हो, यह कोई भावदशा नहीं है, यह तुम्हारे भीतर का कुछ ऐसा स्थायी भाव है, कि चाहे जो कुछ भी हो, कम से कम तुम श्रद्धा नहीं खोओगे।

यही कारण है कि मैं तुमसे छोटी चीजें करने के लिए कहता हूं। वे अर्थपूर्ण नहीं दिखाई पड़ती हैं। मैं गैरिक वस्त्र पर जोर देता हूं। कभी—कभी तुम सोचते होगे क्यों? इसमें क्या बात है? क्या मैं गैरिक वस्त्रों के बिना ध्यान नहीं कर सकता? तुम ध्यान कर सकते हो; यह बात जरा भी नहीं है। मैं तुमसे कुछ ऐसा करवा रहा हूं जो तर्कयुक्त नहीं है। गैरिक वस्त्रों के लिए कोई कारण नहीं है, इसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है। कोई व्यक्ति किसी भी रंग के कपड़े पहन कर ध्यान कर सकता है और शान को उपलब्ध हो सकता है। मैं तुमको कुछ तर्कहीन बातें परीक्षण की भांति दे रहा हूं कि तुम मेरे साथ चलने को तैयार हो। मैं तुमको मूर्ख बना देने के लिए तुम्हारे गले में माला डाल देता हूं जिससे तुम संसार में मूर्ख की भांति जाओ। लोग तुम्हारे ऊपर हंसेंगे, वे सोचेंगे कि तुम पागल हो गए हो। यही तो मैं चाहता हूं क्योंकि यदि तुम मेरे साथ तब भी चल सके, जब कि मैं तुम्हें लगभग पागल बनाए दे रहा हूं तो ही मुझे पता लगता है कि जब वास्तविक संकट आएगा तुम श्रद्धावान रहोगे।

तुम्हारे चारों ओर ये संकट कृत्रिम रूप से खड़े किए गए हैं। वे बिना किसी कारण के आत्यंतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। उनकी महत्ता तर्क से गहरी है। सभी सदगुरुओं ने यह किया है।

जब इब्राहीम, एक सूफी सदगुरु अपने सदगुरु के पास दीक्षा के लिए आया, इब्राहीम एक सुलान था, और सदगुरु ने उसको देखा और उसने कहा : अपने वस्त्र त्याग दो, मेरा जूता ले लो और नंगे होकर बाजार में जाओ और मेरे जूते को अपने सर पर मारो। उसके पुराने शिष्यगण, वे लोग जो चारों ओर बैठे हुए थे, उन्होंने कहा : यह बहुत कठोरता है, ऐसा क्यों? आपने हमसे कभी ऐसा नहीं कहा? आपने हमसे कभी गी कहा—नग्न हो जाओ और बाजार जाओ और अपने सिर पर आपके जूते को मारो, आप सुलान इब्राहीम के प्रति इतने कठोर क्यों हैं?

सदगुरु ने कहा : क्योंकि उसका अहंकार तुम्हारे अहंकार से बड़ा है। वह एक सुल्तान है, और मुझे उसे गिराना है, वरना आगे का कार्य संभव न हो सकेगा।

लेकिन इब्राहीम ने कोई सवाल न पूछा, उसने बस वस्त्रो का त्याग कर दिया। यह उसके लिए अत्याधिक कठिन रहा होगा—उसी राजधानी में जहां वह सदैव सुल्तान की तरह रहा था, उसको हमेशा से करीब—करीब अतिमानव की भांति समझा गया था, गलियों से गुजरना, जिसमें वह कभी गया भी न था, और उस पर भी नग्न होकर, अपने सर पर जूता मारते हुए। लेकिन वह गया, शहर में घूमा। उसकी हंसी उड़ाई गई, बच्चों ने उसके ऊपर पत्थर फेंकना शुरू कर दिए—स्व भीड़, एक बड़ी भीड़ उसका उपहास और हंसी उड़ाने लगी, जैसे कि वह पागल हो गया हो। लेकिन वह नगर में चारों ओर घूमा और वापस लौट आया।

सदगुरु ने कहा : तुम्हें स्वीकार किया जाता है, अब सब कुछ सम्भव है, तुम खुल गए हो।

तो इसका क्या कारण है? यदि तुम समझो, तो तुम समझ जाओगे कि वह उसके अहंकार को तोड्ने का एक उपाय है। जब अहंकार चला जाता है, श्रद्धा आ जाती है।

संन्यास तो बस एक उपाय है, एक ढंग है, यह देखने का, क्या तुम मेरे साथ आ सकते हो? मैंने तुम्हारे लिए इसे करीब—करीब नामुमकिन बना दिया है—मेरे चारों ओर उड़ने वाली अफवाहें। मैं उन्हें सहारा देता रहता हूं। और मैं तुमसे भी कहूंगा कि जितनी अफवाहें निर्मित कर सकते हो तुम भी करो। सत्य की चिंता मत करो, अफवाहें उड़ाओ। जो लोग इन अफवाहों के बावजूद मुझसे संपर्क करने में समर्थ हो पाएंगे, वे ही उचित, साहसी, हिम्मतवर लोग होंगे। उनके लिए बहुत कुछ संभव है।

इसलिए पहली बात यहां पर उपद्रव बहुत जान कर निर्मित किया गया है। इसलिए ऐसा मत सोचो कि यह किसी प्रकार की समस्या है। नहीं यह एक उपाय है।

और हर किसी के पास जाकर उपद्रव के बारे में मत पूछो, वरना वह सोचेगा कि तुम पागल हो रहे हो। मनोचिकित्सक के पास जाकर मत पूछो क्योंकि सारी मनोचिकित्सा, मनोविश्लेषण लोगों की एक बहुत ही गलत ढंग से सहायता करने के प्रयास में संलग्न हैं। वे तुम्हें एक समायोजित व्यक्ति बनाने की कोशिश करते हैं। यहां मेरा पूरा प्रयास तुम्हारे सभी समायोजन तोड्ने के लिए है। जिसे मैं सृजनात्मक उपद्रव कहता हूं इसे वे कुसमायोजन कहेंगे। और वे चाहते हैं कि हर कोई सामान्य हो जाए, बिना कभी यह सोचे हुए कि कौन सामान्य है।

समाज, बहुमत, भीड़ सामान्य है। कहां है कसौटी? किसे सामान्य के रूप में सोचा जाना चाहिए? कोई मापदंड नहीं है। भारत में किसी बात को सामान्य समझा जाएगा; उसी बात को चीन में सामान्य नहीं माना जाएगा। कोई बात जिसे स्वीडन में सामान्य समझा जाता है; उसी को भारत में सामान्य नहीं समझा जाएगा। प्रत्येक समाज का विश्वास है कि अधिकतर लोग सामान्य हैं। ऐसा नहीं है। और किसी व्यक्ति को भीड़ के साथ समायोजित होने के लिए बाध्य करना कोई रचनात्मकता नहीं है, यह बहुत प्राणहीन करने वाला कृत्य है।

समायोजन उन लोगों के लिए अच्छा हो सकता है जो समाज को प्रभावित कर रहे हैं, लेकिन यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है। प्रत्येक समाज पुरोहितों, शिक्षकों, मनोचिकित्सकों का उपयोग बगावती लोगों को वापस लाने के लिए, उन्हें तथाकथित सामान्यपन और समायोजन में वापस धकेलने के लिए करता है। वे सभी स्थापित समाज की, यथास्थिति की सेवा करते हैं। वे सभी उस वर्ग की सेवा करते हैं जो प्रभावशाली है।

अब वे सोवियत रूस में यही कर रहे हैं। यदि कोई व्यक्ति साम्यवादी नहीं है तो कुसमायोजित है। वे उसको मानसिक चिकित्सालय में रखते हैं, वे उसको अस्पताल में भरती करा देते हैं। वे उसकी चिकित्सा करते हैं। अब सोवियत रूस में साम्यवादी न होना एक प्रकार की बीमारी है। कैसी मूर्खता है? उनके पास शक्ति है। वे तुम्हें बिजली के झटके देंगे, वे तुम्हारा मस्तिष्क निर्मल, ब्रेन—वॉश करेंगे, वे तुम्हें शामक औषधियां देंगे ताकि तुम मंदमति हो जाओ। और जब तुम अपनी आभा, अपनी मौलिकता खो चुके होओगे, जब तुम अपनी निजता खो चुके होओगे और तुम व्यक्तित्व विहीन हो गए होओगे, वे तुमसे कहते हैं, ‘अब तुम सामान्य हो।’

याद रखो, मैं यहां तुम्हें सामान्य बनाने या समायोजित करने के लिए नहीं हूं। मैं यहां तुमको अविभाजित व्यक्ति बनाने के लिए हूं। और तुम भी अपनी नियति के अतिरिक्त अन्य किसी मानदंड को पूरा करने के लिए नहीं हो। मैं तुम्हें सीधे ही देख रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुमको ‘इसकी’ भांति हो जाना है; क्योंकि इसी प्रकार तो तुम्हें विनष्ट किया गया है, इसी प्रकार तुम्हारे तथाकथित चरित्र का निर्माण किया गया है। यही चरित्र एक रोग है, यह बीमारी है, इसी प्रकार से तुम बंध गए हो, पीडित हो। मुझको इसे विनष्ट, छिन्नभिन्न करना पड़ेगा, ताकि तुम मुक्त हो सको, ताकि पुन: तुम ऊंची उड़ान भरना आरंभ कर सको, पुन: तुम अपने स्वयं के अस्तित्व के रूप में सोचना आरंभ कर दो, पुन: तुम एक व्यक्ति बन सको।

समाज ने इसे इतना अधिक प्रदूषित कर दिया है, तुम्हें इतना अधिक भ्रष्ट कर दिया है, कि जब भी ऊहापोह की अवस्था आती है तुम भयभीत हो जाते हो—हो क्या रहा है? क्या मैं दीवाना हुआ जा रहा हूं। एक बहुत प्रसिद्ध कहानी’ मैंने सुनी है, जब महारानी मेरी अमरीका यात्रा पर गईं और उनको सर्वाधिक प्रसिद्ध मनस्विद से मिलने को कहा गया।

परिचारिका ने सम्मानपूर्वक महारानी मेरी को भीतर आमंत्रित किया और मनस्विद से बोली : मैं रूमानिया की महारानी से आपकी भेंट करवाना चाहूंगी।

मनस्विद ने महारानी की ओर देखा और पूछा : कितने समय से वे सोचा करती हैं कि वे महारानी हो गई हैं?

क्योंकि मनस्विद सदैव उन्हीं लोगों की चिकित्सा कर रहा है जिनमें से कोई सोचता है कि वह सिकंदर है, कोई सोचता है कि वह चंगीज खान है, कोई सोचता है कि वह हिटलर है, कोई सोचती है कि वह क्लियोपेत्रा है। अत: निःसंदेह वह सोच ही न पाया कि महारानी मेरी रोमानिया की सम्राशी स्वयं आई हैं। उसने सोचा, और कोई स्त्री पागल हो गई है, कितने समय से वे सोचा करती है कि वे महारानी हो गई हैं? मैंने एक और कहानी सुनी है

एक मनोचिकित्सक के पास एक रोगी को उसके मित्र लेकर आए, उन्होंने चिकित्सक को बताया कि वह व्यक्ति विभ्रमों से पीड़ित है कि बहुत शानदार किस्मत उसकी प्रतीक्षा में है। वह दो पत्रों की अपेक्षा कर रहा था जो उसे सुमात्रा में रबड़ की पौध और दक्षिण अफ्रीका में कुछ खानों के नामों के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे।

यह एक पेचीदा मामला था, और मैंने इस पर कठोर परिश्रम किया है, मनोचिकित्सक ने अपने कुछ साथियों को बताया, और जैसे ही मैंने उस व्यक्ति को ठीक कर दिया, दोनों पत्र आ गए।

सचेत रहो। वे दो पत्र वास्तव में आ सकते हैं।

और भयभीत मत हो। भय उठता है, क्योंकि जैसे ही तुम अकेले चलना आरंभ करते हो भय उठ खड़ा होता है। व्यक्ति को असुरक्षा अनुभव होती है। शक उठ खड़ा होता है कि क्या मैं सही हूं? क्योंकि सारी भीड़ तो एक दिशा में जा रही है, तुमने अकेले चलना आरंभ कर दिया है। भीड़ के साथ संदेह कभी नहीं उठता, क्योंकि तुम सोचते हो. लाखों लोग इस दिशा में जा रहे हैं, इसमें कुछ तो बात होना चाहिए, कुछ है अवश्य। भीड़ का मन तुम पर हावी हो जाता है। इतने अधिक लोग गलत नहीं हो सकते, उन्हें सही होना चाहिए।

मैंने एक मनोवैज्ञानिक के बारे में सुना है जो पिकनिक पर गया था। वे ठीक स्थान खोजने के प्रयास में थे; तभी समूह के एक सदस्य ने उनको आने के लिए कहा। यह एक सुंदर स्थान है, वह बोला, सही स्थान। विशाल वृक्ष, छाया, साथ में प्रवाहित होती नदी, और पूर्णत: शांत।

मनोवैज्ञानिक ने कहा. हां, दस लाख चीटियां गलत नहीं हो सकतीं।

दस लाख चीटियां गलत नहीं हो सकतीं। जहां भी पिकनिक स्पॉट हो चीटियां एक साथ एकत्रित हो जाती हैं—मक्खियां और चीटियां। यही है हमारे भीतर का गणित, कि इतने सारे लोग, कि वे गलत नहीं हो सकते हैं। अकेले में व्यक्ति का सर चकराता है। भीड़ के साथ, इस ओर, उस ओर, सामने, पीठ पीछे, चारों तरफ लोग, व्यक्ति को बिलकुल ठीक लगता है। इतने सारे लोग जा रहे हैं; वे ठीक दिशा में ही जा रहे होंगे। और प्रत्येक व्यक्ति यही सोच रहा है।

कोई नहीं जानता कि वे कहां जा रहे हैं। वे जा रहे हैं क्योंकि सारी भीड़ जा रही है। और यदि तुम प्रत्येक व्यक्ति से निजी तौर पर पूछो, क्या तुम ठीक दिशा में जा रहे हो? वह कहेगा, मुझे नहीं पता, क्योंकि सारा संसार जा रहा है, इसीलिए मैं जा रहा हूं।

यहां पर मेरा सारा प्रयास तुम्हें सामूहिक मन से बाहर लाने के लिए, तुम्हें एक अविभाजित व्यक्तित्व बनाने में सहायता देने के लिए है। आरंभ में तुमको ऊहापोह का सामना करना पड़ेगा। और गहरी श्रद्धा की आवश्यकता होगी, आत्यंतिक श्रद्धा की आवश्यकता पड़ेगी। अन्यथा तुम सामूहिक मन से बाहर तो आ सकते हो, लेकिन हो सकता है कि तुम व्यक्तिगत मन में न आ सको, तब तुम पागल हो जाओगे। यही तो खतरा है। श्रद्धा के बिना ध्यान में जाना खतरनाक है। मैं तुम्हें इसमें जाने के लिए नहीं कहूंगा, मैं तुमसे कहूंगा कि सामान्य रहना बेहतर है, चाहे सामान्य रहने का कुछ भी अर्थ हो। समाज के साथ समायोजित होकर रहो। लेकिन अगर वास्तव में तुम एक महत्, महानतम अभियान पर जाने के लिए तैयार हो तो श्रद्धा करो। और तब ऊहापोह के लिए प्रतीक्षा करो।

तुम जितना अधिक सजग हो जाते हो, तो निःसंदेह तुम इसके प्रति कम बोधपूर्ण होते हो। क्योंकि कोई जरूरत नहीं है। सजग होना पर्याप्त है। सजग होने का बोध एक तनाव बन जाएगा। आरंभ में ऐसा ही है। तुम कार चलाना सीखना शुरू करते हो, निःसंदेह तुम ज्यादा परेशान होते हो, तुम्हें बहुत सी चीजों का खयाल रखना होता है—पहिया, गियर, क्लच, एक्सीलेरेटर, ब्रेक, सड़क, और यदि तुम्हारी पत्नी पिछली सीट पर बैठी हो.. .व्यक्ति को अत्याधिक होशपूर्ण होना पड़ता है, क्योंकि बहुत सारी चीजों को एक साथ सम्हालना पड़ता है। आरंभ में यह करीब—करीब असंभव ही प्रतीत होता है। फिर क्रमश: हर समस्या मिट जाती है, तुम आराम से कार चलाते रहते हो, तुम किसी मित्र से बात कर सकते हो, तुम रेडियो सुन सकते हो, तुम कोई गाना गा सकते हो या तुम ध्यान कर सकते हो। और फिर भी वहां कोई समस्या नहीं होती,

अब ड्राइविंग एक सहज स्‍फूर्त घटना बन चुकी है। तुम इसको जानते हो, अत: अब इसके प्रति आत्म— चेतन होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

जब तुम ध्यान करते हो तो ठीक यही घटता है। आरंभ में तुम्हें चेतना के प्रति बोधपूर्ण होना पड़ता है। इससे एक तनाव, एक थकान आती है। धीरे— धीरे, जैसे—जैसे होश प्रगाढ़ होता है तब इसके प्रति सजग रहने की कोई आवश्यकता नहीं रहती है, यह अपने से ही श्वसन क्रिया की भांति होता रहता है, तुमको इसके प्रति सजग रहने की कोई आवश्यकता नहीं, यह स्वत: होता है। वास्तव में तो ध्यान के बाद की अवस्थाओं में यदि तुम अपनी जागरूकता को लेकर बहुत अधिक चिंतित होते हो, तो यह एक अवरोध होगा, जैसे कि यदि तुम अपनी श्वास प्रक्रिया के प्रति सजग हो जाओ तो तुम तुरंत ही इसकी प्राकृतिक लयबद्धता को भंग कर दोगे। यह स्वाभाविक रूप से जारी रहती है, तुम्हें बीच में पडने की कोई आवश्यकता नहीं है।

और बोध को इतना स्वाभाविक हो जाना चाहिए.. .केवल तब ही यह संभव है; तुम सो रहे हो तब भी, बोध का प्रकाश सतत है, प्रदीप्त है, ज्योति जलती रहती है—जब तुम गहन निद्रा में हो तब भी।

और प्रश्न के बारे में अंतिम बात, तार्किक समझ के क्षीण होने की पृष्ठभूमि में भी आपके प्रति श्रद्धा अगाध है। तार्किक समझ तो समझ जरा भी नहीं है। यह नाम का भ्रम है। तर्क के माध्यम से व्यक्ति कभी कुछ नहीं समझता। व्यक्ति को जो अनुभव होते हैं बस वह उन्हीं को समझता है। तर्क एक झूठ है। यह तुम्हें भ्रामक अनुभूति देता है कि हां, तुम समझ चुके हो।

केवल अनुभवों के माध्यम से ही व्यक्ति समझता है, केवल अस्तित्वगत अनुभूति के माध्यम से ही समझ संभव है।

उदाहरण के लिए, यदि मैं प्रेम के बारे में बात करता हूं तुम इसको तार्किक रूप से समझ लेते हो, क्योंकि तुम भाषा जानते हो, तुम्हें शब्द—विज्ञान की जानकारी है, तुम्हें शब्दों का अर्थ पता है, तुम वाक्यों की संरचना से परिचित हो, और तुम्हें इसके लिए प्रशिक्षित क्रिया गया है, इसलिए तुम समझ जाते हो कि मैं क्या कह रहा हूं; लेकिन तुम्हारी समझ प्रेम के बारे में होगी, यह प्रेम की बिलकुल ठीक समझ नहीं होगी। यह प्रेम के बारे में होगी, यह प्रत्यक्ष समझ नहीं होगी। और प्रेम के बारे में तुम चाहे कितने ही तथ्य और सूचनाएं एकत्रित करते चले जाओ, तुम इस संकलन के माध्यम से कभी प्रेम को जानने में समर्थ नहीं हो सकोगे। तुम्हें प्रेम में उतरना पड़ेगा, तुम्हें इसका स्वाद लेना पड़ेगा, इसमें विलीन होना पड़ेगा, साहस करना होगा, केवल तब तुम प्रेम को समझ पाओगे।

तार्किक समझ तो बस एक बहुत उथली समझ है। और अधिक अस्तित्वगत बनो। यदि तुम प्रेम के बारे में जानना चाहते हो, तो पुस्तकालय में जाने और दूसरों ने प्रेम के बारे में क्या कहा हुआ है उनका मत जानने के स्थान पर प्रेम में उतर जाना उत्तम है। यदि तुम ध्यान करना चाहते हो, पुस्तकों से ध्यान के बारे में सब कुछ सीखने के बजाय सीधे ही ध्यान में जाओ, इसका अनुभव लो, इसका आनंद लो, इसमें प्रवेश करो, इसको अपने चारों ओर घटने दो, इसे अपने भीतर घटने दो, तभी तुम जान लोगे।

तुम बिना नृत्य किए ही कैसे जान सकते हो कि नृत्य क्या है? इसे पुस्तकों के द्वारा जानना असंभव है। यहां तक कि किसी नर्तक को नृत्य करते हुए देख कर जानना भी काफी कठिन है, तब भी यह जानना नहीं है, क्योंकि तुम इसका बाह्य रूप देखते हो, बस शरीर की हलचल। तुम नहीं जान सकते कि नर्तक के भीतर क्या घट रहा है? उसमें कैसी लयबद्धता उत्पन्न हो रही है? कैसी चैतन्यता, कैसा बोध, कैसा मणिभीकरण, कैसा संकेंद्रण उसमें निर्मित हो रहा है? तुम इसे देख नहीं सकते, तुम इसका अनुमान नहीं लगा सकते। बाहर से यह उपलब्ध नहीं है, और तुम नर्तक के भीतरी संसार में प्रवेश नहीं कर सकते। वहां पहुंचने का एकमात्र उपाय है—नर्तक बन जाना है।

जो कुछ भी सुंदर, गहन और श्रेष्ठ है उसे जीना ही पड़ता है।

श्रद्धा जीवन की श्रेष्ठतम बातों में से एक है। प्रेम से भी श्रेष्ठ; क्योंकि प्रेम घृणा को जानता है। श्रद्धा को इसके बारे में कुछ भी नहीं पता। प्रेम अभी भी द्वैत में है, घृणा का भाग छिपा रहता है, यह अभी छूट नहीं पाया है। तुम एक क्षण में ही अपने प्रिय से घृणा कर सकते हो। कुछ भी इसका कारण बन सकता है और घृणा वाला भाग ऊपर आ जाता है और प्रेम वाला भाग नीचे चला जाता है। प्रेम में यह केवल आधा भाग ही है जिसे तुम प्रेम कहते हो, बस सतह के ठीक नीचे घृणा सदैव प्रतीक्षारत रहती है कि छलांग लगा कर तुम पर कब्जा जमा सके। और यह तुम्हारे ऊपर हावी हो जाती है। प्रेमी लड़ते रहते हैं, सतत संघर्ष। किसी व्यक्ति ने प्रेम के बारे में एक पुस्तक लिखी है, उसका शीर्षक सुंदर है दि इंटीमेट एनिमी, अंतरंग शत्रु। प्रेमी शत्रु भी है।

किंतु श्रद्धा प्रेम से श्रेष्ठतर है, यह अद्वैत है। इसे घृणा का जरा भी पता नहीं है। यह किसी ध्रुवीयता, किसी विपरीत को नहीं जानती है। यह बस एक ही है। यह शुद्धतम प्रेम है—घृणा से परिशुद्ध किया गया प्रेम, प्रेम जिसने घृणा के भाग को पूर्णत: त्याग दिया है, प्रेम जो खट्टे अनुभव, कटु अनुभव में नहीं बदल सकता, प्रेम जो लगभग अपार्थिव, दूसरे संसार का हो चुका है।

अत: केवल वे ही, जो प्रेम करते हैं, श्रद्धा कर सकते हैं। यदि तुम प्रेम और श्रद्धा से बचना चाहते हो, तो तुम्हारी श्रद्धा बहुत निम्न स्तर की होगी, क्योंकि यह अपने साथ घृणा वाला भाग सदैव लिए हुए होगी। तुम्हें पहले अपनी ऊर्जा को प्रेम में से गुजारना होगा, ताकि तुम प्रेम और घृणा के द्वैत के प्रति बोधपूर्ण हो सको। तब वह हताशा होगी जो घृणा वाले भाग से आती है, फिर अनुभव के माध्यम से एक समझ का जन्म होगा और तब तुम घृणा वाले भाग को त्याग सकते हो। तभी शुद्ध प्रेम, परम सार, शेष रहता है। पुष्प भी वहां नही होता, बस सुगंध मात्र होती है, तब तुम श्रद्धा में ऊर्ध्वगमन करते हो।

निःसंदेह इसका तार्किक समझ से कुछ भी लेना देना नहीं है। वास्तव में तो तार्किक समझ जिस मात्रा में खोती है उतनी ही श्रद्धा उत्पन्न होगी। एक अर्थ में श्रद्धा अंधी और एक अर्थ में श्रद्धा दृष्टि की एक मात्र सुस्पष्टता है। यदि तुम तर्क से सोचो तो श्रद्धा अभी दिखेगी। बुद्धिवादी सदैव श्रद्धा को अंधा कहेंगे। यदि तुम श्रद्धा को अनुभव के माध्यम से देखो तो तुम हंसोगे, तुम कहोगे, मुझे पहली बार अपनी ‘आंखें उपलब्ध हुई हैं। तो वहां श्रद्धा ही एकमात्र सुस्पष्टता है। दृष्टि, क्रोध और घृणा के किसी बादल के बिना अत्यंत पारदर्शी, नितांत निर्मल हो जाती है।

प्रश्न: — दो—तीन माह पूर्व प्रवचन के दौरान मैं खूब रोया करती थी। जब आप भले ही कोई हंसी की बात न कहे रहे हो। तब भी। जब मैं आपके निकटमा अनुभव करती हूं उन क्षणों में मैं हंसना और हंसना चाहती हूं। ऐसा क्‍यों है?

लेकिन क्यों? किसलिए? हंसो। इसे एक प्रश्न और समस्या क्यों बनाती हो?

यह कृष्ण राधा ने पूछा है। पहले वह पूछा करती थी : ‘मैं क्यों रो रही हूं?’ अब किसी प्रकार से, किसी चमत्कार से वह रो नहीं रही है, बल्कि हंस रही है; लेकिन समस्या बनी हुई है।

हमें समस्याओं से क्यों चिपकते हैं? भले ही तुम प्रसन्नता अनुभव करो, अचानक मन कहता है क्यों? जैसे कि प्रसन्‍नता भी कोई बीमारी है। व्याख्या की आवश्यकता पड़ती है, तार्किक व्याख्या की आवश्यकता होती है; वरन प्रसन्नता भी मूल्यवान न होगी।

यह सतत जारी है। मैं देखता हूं लोग मेरे पास आते हैं, वे परेशान हैं, वे पूछते हैं, क्यों? मैं समझ सकता हूं जब तुम पीड़ा अनुभव कर रहे हो तो यह पूछना स्वाभाविक है, मैं समझ सकता हूं कि व्यक्ति पूछता है, क्यों? लेकिन मैं जानता हूं कि उनका ‘क्यों’ उनके संताप से गहरा है। शीघ्र ही वे प्रसन्नता भी अनुभव करने लगते हैं, और पुन: वे वहां हैं—बहुत परेशान, क्योंकि वे प्रसन्न हैं। अब ‘क्यों’ पीड़ा है।

मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं

एक मनोचिकित्सक के कार्यालय में एक व्यक्ति आता है और कहता है, डाक्टर साहब, मैं तो पागल हुआ जा रहा हूं मैं सोचता रहता हूं कि मैं जेब्रा हूं। हर बार जब मैं दर्पण में खुंद को देखता हूं अपने पूरे शरीर को काली धारियों से भरा हुआ पाता हूं।

मनोचिकित्सक ने उसको शांत करने का प्रयास किया—शात हो जाएं, शांत हो जाएं—चिकित्सक कहता है, अब बस शांत हो जाएं, घर जाएं और ये गोलियां खा लें, रात्रि में अच्छी नींद सोए, और मैं आश्वस्त हूं कि काली धारियां पूरी तरह से मिट जाएंगी।

तो वह बेचारा घर चला जाता है और दो दिन बाद लौटता है। वह कहता है, डाक्टर साहब, मुझको बहुत फायदा हुआ है। क्या आपके पास सफेद धारियों के लिए भी कोई गोली है?

लेकिन समस्या जारी रहती है।’

एक बार ऐसा हुआ, कोई व्यक्ति एक पागल नवयुवक को मेरे पास लेकर आया। उस नवयुवक के मन में एक भ्रामक विचार था कि सोते समय उसकी नाक या मुंह से होकर एक मक्खी उसके शरीर में प्रविष्ट हो गई है और यह उसके भीतर भिनभिनाती रहती है। इसलिए निःसंदेह वह बहुत परेशानी में था। वह इधर को मुड़ता, उधर को मुड़ता और अपने अंदर घूमते दरवेशों के कारण ढंग से बैठ भी न पाता, वह सो भी नहीं सकता, एक सतत उपद्रव। इस आदमी के साथ क्या किया जाए? इसलिए मैंने उनसे कहा : तुम बिस्तर पर लेट जाओ, दस मिनट आराम करो, और जो किया जा सकता है हम करेंगे।

मैंने उसे एक चादर ओढ़ा दी जिससे वह देख न सके कि क्या हो रहा है, और कुछ मक्खियां पकड़ने को सारे घर में इधर—उधर दौड़ता फिरा। यह मुश्किल था, क्योंकि मैंने पहले कभी मक्खी पकड़ी नहीं थी। लेकिन लोगों को पकडने के अनुभव से सहायता मिली। किसी भी तरह से मैं तीन मक्खियां पकड़ सका। उन्हें मैंने एक बोतल में बंद किया उस आदमी के पास लाया, उसके ऊपर कुछ ऊटपटांग तरह से हस्त संचालन किय तब उसे आंखें खोलने को कहा और उसे मैंने वह बोतल दिखाई।

उसने उस बोतल को देखा। वह बोला, जी हां, आपने कुछ मक्खियां पकड़ ली हैं, लेकिन ये छोटी वाली हैं, बड़ी वाली अभी भी भीतर हैं—और वे बहुत बड़ी हैं। अब मामला कठिन हो गया। इतनी बड़ी मक्खियां कहां से लाई जातीं? उसने कहा : मैं आपका बहुत—बहुत आभारी हूं कम से कम आपने छोटी मक्खियों से छुटकारा दिला दिया है, लेकिन बडी मक्खियां वास्तव में बहुत बड़ी हैं।

लोग उलझे रहते हैं। यदि तुम एक ओर से उनकी सहायता करो, वे उसी समस्या को दूसरी ओर से ले आएंगे—जैसे कि निश्चित तौर से उसकी गहरी जरूरत हो। इसको समझने का प्रयास करो। समस्या के बिना जीना बेहद कठिन है, मानवीय स्तर पर करीब—करीब असंभव। क्यों? क्योंकि समस्या तुम्हें घबड़ा देती है। समस्या से तुम्हें कार्य मिल जाता है। समस्या से तुम्हें किसी व्यस्तता के बिना व्यस्तता मिल जाती है। समस्या तुम्हें उलझाए रखती है। यदि कोई समस्या न हो तो तुम अपने अस्तित्व की परिधि से चिपके नहीं रह सकते’। तुम केंद्र द्वारा आकर्षित कर लिए जाओगे।

और तुम्हारे अस्तित्व का केंद्र रिक्त है। बिलकुल पहिए के धुरे की भांति होता है यह। रिक्त धुरे पर पूरा पहिया घूमता है। तुम्हारा अंतर्तम केंद्र रिक्त, कुछ नहीं, ना—कुछपन, शून्य, खाली, खाई की भांति है। तुम उस खालीपन से भयभीत हो, इसलिए तुम पहिए की परिधि से चिपके रहते हो, अथवा यदि तुम थोड़े साहसी हो तो अधिक से अधिक तुम तीलियों से चिपके रहते हो; लेकिन तुम धुरे की ओर कभी नहीं बढ़ते। व्यक्ति भयभीत, कंपित अनुभव करने लगता, है।

समस्याएं तुम्हारी सहायता करती हैं। सुलझाने के लिए कोई समस्या हो तो तुम भीतर कैसे जा सकते हो? लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, हम भीतर जाना चाहते हैं, लेकिन कुछ समस्याएं हैं। वे सोचते हैं, क्योंकि समस्याएं हैं इसीलिए वे भीतर नहीं जा रहे हैं। असली बात बिलकुल दूसरी है; क्योंकि वे भीतर जाना नहीं चाहते, वे समस्याएं निर्मित करते हैं।

इस समझ को अपने भीतर जितना संभव हो सके उतनी गहराई तक उतर जाने दो, तुम्हारी सभी समस्याएं बनावटी हैं।

मैं तुम्हारी समस्याओं का, बस शिष्टाचारवश उत्तर दिए चला जाता हूं। वे सभी बनावटी, बुनियादी रूप से अर्थहीन हैं। लेकिन वे तुमको स्वयं की उपेक्षा करने में सहायता देती हैं, वे तुम्हें भटकाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कोई भीतर कैसे जा सकता है? पहले तो इतनी सारी समस्याएं पड़ी हैं सुलझाने के लिए। लेकिन एक समस्या सुलझती है कि तुरंत दूसरी उठ खड़ी होती है। और यदि तुम निरीक्षण करो, देखो, तो तुम्हें पता लगेगा कि दूसरी समस्या में भी वही गुणधर्म है जो पहली में था। इसको सुलझाने का प्रयास करो; तीसरी आ जाती है, विकल्प तुरंत तैयार है।

मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं :

मनोचिकित्सक : तुम किशोरवय बच्चे एक उपद्रव हो। तुम्हारी भीतर उत्तरदायित्व की कोई भावना ही नहीं है। भौतिक पदार्थों के बारे में भूल जाओ और विज्ञान, गणित और उन जैसे विषयों के बारे में सोचो। तुम्हारी गणित कैसी है?

रोगी : कोई बहुत अच्छी तो नहीं है।

मैं तुम्हारी तथ्यात्मक सूचना के लिए एक परीक्षण करूंगा। अब मुझे कोई नंबर बताओ।

रायल 3447, यही वह स्टोर है जिसमें मेरी प्रेमिका कार्य करती है।

मुझे कोई फोन नंबर नहीं चाहिए, बस कोई साधारण सा नंबर बता दो।

ठीक है, सैंतीस।

यह ठीक है, अब कृपया दूसरा नंबर बताओ।

बाईस।

और फिर।

सैंतीस।

अच्छा, ठीक है, देखो यदि तुम चाहो तो तुम्हारा मन दूसरी दिशाओं में भी कार्य कर सकता है। बिलकुल ठीक, 37, 22, 37, क्या फिगर है?

पुन: गर्लफ्रेंड पर वापसी, यदि फोन नंबर से नहीं तो आकड़ों से यही चलता चला जाता हैं, अनंत तक।

सारतत्व को देखो। पहली बात तो कि तुम समस्याएं क्यों निर्मित करना चाहते हो? क्या वे वास्तव में समस्याएं हैं? क्या तुमने अपने आपसे सर्वाधिक मूलभूत प्रश्न पूछा है : क्या वास्तव में समस्याएं हैं, या तुम उन्हें निर्मित कर रहे हो, और तुम उन्हें निर्मित करने के आदी हो गए हो, और तुम उनके साथ रहते हो और यदि समस्याएं न हो तो अकेलापन अनुभव होता है? तुम संतापग्रस्त भी रहना पसंद करोगे, लेकिन तुम रिक्त होना नहीं चाहोगे। लोग अपनी पीड़ाओं तक से चिपकते हैं किंतु रिक्त होने को राजी नहीं हैं।

मैं रोज इसे देखता हूं। एक दंपति आते हैं। दोनों वर्षों से झगड़ रहे हैं, वे कहते हैं कि पंद्रह वर्षों से वे लड़ा करते हैं। पंद्रह वर्षों से विवाहित हैं और लगातार लड़ रहे हैं और एक—दूसरे के लिए नरक निर्मित कर रहे हैं। तब तुम अलग क्यों नहीं हो जाते? तुम पीड़ा से क्यों चिपक रहे हो? या तो बदल जाओ या अलग हो जाओ। अपना सारा जीवन बर्बाद करने में क्या सार है? लेकिन मैं देख सकता हूं कि क्या घट रहा है। वे अकेले होने के लिए तैयार नहीं हैं। कम से कम पीड़ा से उनको साथ तो मिलता है। और वे नहीं जानते कि अब यदि वे अलग हो जाते हैं वे अपने जीवन को किस भांति संचालित करने जा रहे हैं। वे लगातार चलने वाले संघर्ष, क्रोध, बकवास, लड़ाई और हिंसा के एक निश्चित ढांचे में समायोजित हो चुके हैं। उन्होंने इसकी तरकीब सीख ली है। अब वे नहीं जानते कि किसी और के साथ, एक अलग परिस्थिति में, भिन्न व्यक्तित्व के साथ, कैसे रहा जाए। किसी और के साथ कैसे रहा जाए? वे और कुछ जानते भी नहीं उन्होंने संताप की एक विशिष्ट भाषा सीख ली है। अब वे इसमें क्षमता और कौशल अनुभव करते हैं। किसी नये व्यक्ति के साथ होने का अर्थ है दुबारा अ ब स से आरंभ करना। पंद्रह साल एक निश्चित कार्य व्यापार में संलग्न रहने के बाद व्यक्ति कहीं और जाने में भयग्रस्त अनुभव करता है।

मैंने एक बड़े फिल्म स्टार के बारे में सुना है, जो एक मनोचिकित्सक के पास गया और बोला, मुझमें संगीत की कोई प्रतिभा नहीं है, अभिनय की कोई योग्यता नहीं है। मैं कोई खूबसूरत, सजीला व्यक्ति नहीं हूं। मेरा चेहरा कुरूप है, मेरा व्यक्तित्व बहुत दुर्बल है। मुझे क्या करना चाहिए? और वह एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता है।

इस पर वह मनोचिकित्सक बोला. लेकिन आप अभिनय छोड़ क्यों नहीं देते? यदि आपको लगता है कि आप में कोई प्रतिभा नहीं है, कोई मेधा नहीं है, और यह वह कार्य नहीं है जिसे आपको करना है, तो आप इस कार्य से हट क्यों नहीं जाते?

उसने कहा : क्या? इसमें बीस साल काम करने के बाद, और अब जब कि मैं करीब—करीब एक प्रसिद्ध सितारा बन चुका हूं?

तुम्हारी पीड़ाओं में भी तुम्हारा निवेश है। देखो। जब एक समस्या हटे बस देखो, वास्तविक

समस्या तुरंत ही किसी और पर स्थानांतरित हो जाएगी। यह ऐसा ही है जैसे कोई सर्प अपनी केंचुली उतारता रहता है, लेकिन सांप वही रहता है। यह ‘क्यों?’ ही सर्प है। जब तुम रोया करती थी तब भी यही चिंतित था। अब रोना बंद हो चुका है, तुम हंस रही हो। सांप अपनी पुरानी केंचुली से बाहर आ गया है। अब समस्या है, क्यों?

क्या तुम बिना किसी ‘क्यों’ के जीवन को नहीं सोच सकतीं? तुम जीवन को समस्या क्यों बना लेती हो?

एक व्यक्ति किसी यहूदी से बात कर रहा था, और वह व्यक्ति प्रश्नों के उत्तर को अन्य प्रश्नों द्वारा देने की यहूदी आदत से बहुत नाराजगी अनुभव कर रहा था। नाराज होकर अंत में उस व्यक्ति ने कहा : तुम यहूदी लोग प्रश्नों का उत्तर प्रश्नों द्वारा ही क्यों दिया करते हो?

यहूदी ने उत्तर दिया : हम ऐसा क्यों न करें?

लोग एक वर्तुल में घूमते चले जाते हैं। हम ऐसा क्यों न करें, फिर एक प्रश्न पूछ लिया गया।

जरा इस के भीतर देखो। यदि तुम हंस रही हो, सुंदर है यह बात। वास्तव में यदि तुम मुझसे पूछो तो रोना भी सुंदर बात थी, इसमें कुछ भी गलत नहीं था। यदि तुम मुझसे वास्तव में पूछती हो, तब मैं कहूंगा जो कुछ भी है, स्वीकारो। यथार्थ को स्वीकार करो, और तब रोना भी सुंदर है, और ‘क्यों?’ की पूछताछ में उलझने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि यह पूछताछ तुम्हें तथ्यात्मकता से भटका देती है। तब रोना महत्वपूर्ण नहीं है—तुम क्यों रो रही हो। कारण की तलाश करते हुए, तब वास्तविक खो जाता है और तुम कारण का पीछा करती रहती हो, यह कहां है? तुम्हें कारण कहां मिल सकता है? तुम कारण कैसे पा सकती हो? तुम्हें संसार की प्राथमिक उत्पत्ति तक जाना पड़ेगा, वहां कभी कोई आरंभ नहीं हुआ था।

जरा सोचो। ’क्यों?’ का उत्तर देने के लिए आत्यंतिक रूप से तुम्हें संसार के बिलकुल आरंभ तक जाना पड़ेगा। और कोई आरंभ कभी था ही नहीं। संसार हमेशा से, सदा और सदा रहा है।

जीने के लिए किसी प्रश्न की आवश्यकता नहीं है। और उत्तरों की प्रतीक्षा मत करो, प्रश्नों को गिराना आरंभ कर दो। जीयो, और तथ्य के साथ जीयो। रोना—चिल्लाना हो, रोओ। इसका आनंद लो। यह एक सुंदर घटना है, विश्रांतिदायक, निर्मल करने वाली, शुद्ध करने वाली। हंसना सुंदर है, हंसो। हंसी को अपने ऊपर मालकियत कर लेने दो। ऐसे हंसो कि तुम्हारा सारा शरीर इससे आंदोलित और इसके साथ कंपित हो। यह शुद्ध करने वाला होगा, यह जीवंतता देने वाला होगा, यह तुम्हें पुन: ताजगी से भर देगा।

लेकिन तथ्य के साथ रहो। कारणों में मत जाओ। अस्तित्वगत के साथ रहो इसकी चिंता मत लो कि यह इस भांति क्यों है, क्योंकि इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता है। बुद्ध ने अपने शिष्यों से कई बार कहा, प्रश्न मत पूछो, कम से कम पराभौतिक प्रश्न तो पूछो ही मत, क्योंकि वे मूढ़ताएं हैं। यथार्थ के साथ रहो।

जीवन आत्यंतिक रूप इतना सुंदर है, इसे अभी क्यों नहीं जी रही हो? रोना, यह जीवन की एक मुद्रा है, हंसना भी जीवन की एक मुद्रा है। कभी कभी तुम दुखी होती हो। यह जीवन की एक मुद्रा, एक भाव— दशा है। सुंदर है। कभी कभी तुम आनंदित हो और हर्ष से प्रफुल्लित हो रही हो, और नृत्य कर रही हो। यह भी अच्छा और सुंदर है। जो कुछ भी घटता है, इसे स्वीकार करो, इसका स्वागत करो, और इसके साथ रहो; और तुम देखोगी कि धीरे धीरे तुमने प्रश्न पूछने की और जीवन से समस्याएं निर्मित करने की आदत त्याग दी है।

और जब तुम समस्याएं निर्मित नहीं करती, जीवन अपने सारे रहस्य खोल देता है। यह उस व्यक्ति के सम्मुख कभी नहीं खुलता जो प्रश्न पूछता चला जाता है। जीवन अपने को अनावृत करने को तैयार है यदि तुम इसे समस्या न बनाओ। यदि तुम समस्या बनाती हो तो तुम्हारा यह निर्माण ही तुम्हारी आंखें बंद कर देता है। तुम जीवन के प्रति आक्रामक हो जाती हो।

वैज्ञानिक प्रयास और धार्मिक प्रयास के बीच यही भेद है। वैज्ञानिक एक आक्रामक व्यक्ति है, जो सदा जीवन से सत्य छीनने का प्रयास करता है, जीवन को सत्य प्रदान करने के लिए बाध्य करता है— करीब—करीब बंदूक की नोक पर, हिंसक ढंग से। धार्मिक व्यक्ति जीवन के समक्ष बंदूक के साथ खड़ा होकर प्रश्न नहीं पूछा करता। धार्मिक व्यक्ति जीवन के साथ बस विश्रांत हो जाता है, बहता है इसके साथ, और जीवन धार्मिक व्यक्ति के लिए इतने अधिक रहस्य उदघाटित कर देता है, जो वह वैज्ञानिक के सामने कभी न करता। वैज्ञानिक तो सदा मेज से नीचे गिरने वाले जूठन के टुकड़ों को एकत्रित करता रहता है। वैज्ञानिक को कभी अतिथि की भांति निमंत्रण नहीं मिलने वाला है। जो जीवन को प्रेम करते हैं, इसका स्वागत करते हैं, इसे किसी प्रश्न के साथ नहीं बल्कि श्रद्धापूर्वक, हर्ष के साथ स्वीकार करते हैं, वे ही अतिथि बन जाते हैं।

प्रश्न: इन रोगों का बिलकुल सही उपचार कैसे हो?

 

हला : कृपणता।

दूसरा. बकवास करना, पूर्णत्व की चिंता करते रहना।

तीसरा : अभिनेता व्यक्तित्व, अर्थात सदैव ऐसा व्यवहार करना जैसे कि यह कोई नाटक हो।

चौथा : अभिमान, इसमें उसके बारे में अभिमान सम्मिलित है जिसे मैंने बाद में अपनी शांतिमयता के रूप में सोचना आरंभ कर दिया है।

क्या इनसे निबटने के लिए ध्यान पर्याप्त है, या किसी अतिरिक्त चीज की आवश्यकता पड़ती है, जैसे कि होशपूर्वक उनमें अति तक संलग्न हो जाना, या उन्हें नजर अंदाज करने का प्रयास, या शायद सचेतन रूप से उनकी उपेक्षा करना?

कृपणता तुम्हारे भीतर करीब—करीब एक अंत—निर्मित गुण बन चुकी है। समाज का पूरा ढांचा इसे निर्मित करता है। यह चाहता है कि तुम लोगों से चीजें छीन लो और दो मत। यह तुम्हें महत्वाकांक्षी बनाता है, और महत्वाकांक्षी व्यक्ति कृपण हो जाता है। महत्वाकांक्षा कोई भी हो, सांसारिक, असांसारिक— लेकिन महत्वाकांक्षी व्यक्ति कृपण हो जाता है। क्योंकि वह सदैव भविष्य की तैयारी कर रहा है, वह जीना और बांटना सहन नहीं कर सकता। वह कभी भी अभी और यहीं नहीं होता। यदि उसके पास धन है, तो यह धन भविष्य के लिए है, अभी के लिए नहीं है। और भविष्य में तुम किस भांति बांट सकते हो? बांटना तो केवल वर्तमान में ही संभव है। उसके पास अपने बुढ़ापे के लिऐ बन है। या लोग हैं जिनके पास उनका चरित्र और सद्गुण, उनके भविष्य के जीवन के लिए, स्वर्ग के लिए हैं। वे इसी समय कैसे बांट सकते हैं? वे संचय कर रहे हैं, भविष्य में कभी घटने वाली किसी बड़ी घटना की तैयारी में संलग्न हैं। इस समय वे निर्धन हैं।

सभी महत्वाकांक्षी लोग निर्धन हैं, और उनकी निर्धनता के कारण वे कृपण हो गए हैं। वे सभी कुछ पकड़ते चले जाते हैं। व्यर्थ की चीजें वे जोड़ते रहते हैं।

एक व्यक्ति के साथ मैं रहा करता था। मैं यह देख कर हैरान था कि उनका पूरा घर एक कबाड़खाना था। उस घर में तो रहना भी कठिन था; वहां कोई स्थान बचा ही न था। और वे जो भी मिले लगातार

एकत्रित किए चले जाते थे। एक दिन मैं टहलने गया था, उनको मैंने सड़क के किनारे पड़ा हुआ साइकिल का एक हैंडिल उठाते हुए देखा, बस एक हैंडिल। उन्होंने चारों तरफ देखा, और उन्हें दिखा कि उन्हें कोई भी नहीं देख रहा है, वे हैंडिल उठा कर अपने घर ले आए, जब मैं वापस लौटा, मैं उनके घर चला गया और कहा, ‘वह हैंडिल कहां है?’

वे थोड़ा सा घबडाए, उन्होंने कहा : क्या आपने इसे देखा था?

मैं वहां था।

लेकिन वे कहने लगे, यह एक अच्छी चीज है। और कौन जानता है? धीरे— धीरे मैं पूरी साइकिल एकत्रित कर सकूं। और इसमें गलत भी क्या है? और मैंने इसको चुराया नहीं है, कोई इसको फेंक गया था।

इस भांति वे चीजें एकत्रित करते चले गए—व्यर्थ की वस्तुएं—लेकिन वे सदैव भविष्य के बारे में सोचते रहते हैं। किसी दिन ये चीजें उपयोगी हो जाएंगी; किसी दिन उनकी जरूरत पड़ सकती हैं। कौन जाने?

तुम अपने घर में ऐसा नहीं कर रहे होओगे, लेकिन तुम सभी अपने हृदय में यही करते हो। यदि तुम अपने हृदय में, अपने मन में उतर कर देखो, तुम्हें यह कबाड़खाने जैसा लगेगा। तुमने कभी इसे साफ नहीं किया है। तुम इसमें कचरा भरते जाते हो, और फिर तुम भारी हो जाते हो, और तब तुम बोझिलता अनुभव करते हो, और तब तुम उपद्रव में फंसा हुआ अनुभव करते हो। और फिर आंतरिक कुरूपता का जन्म होता है।

लेकिन संताप के आधार को समझने का प्रयास करो। यह भविष्य में कहीं और रहने के विचार में निहित है। यदि तुम्हें अभी और यहीं रहना हो तो तुम कभी कृपणतापूर्वक नहीं जी सकते? क्योंकि तुम बांट सकते हो। कोई भी चीज किसलिए एकत्रित की जाए? संचय किस लिए? ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है, कल हो ही, यह नहीं भी हो सकता है। बांटा क्यों न जाए? आनंदित क्यों न हुआ जाए? इसी क्षण जीवन तुम्हारे भीतर खिल रहा है। इसका आनंद लो, इसे बांटो। क्योंकि इसको बांटने से यह सघन हो जाता है। बांटने से, यह और अधिक जीवंत हो जाता है। बांटने से इसकी वृद्धि होती है और विकास होता है।

अत: सारी बात यह समझ लेना है कि भविष्‍य नहीं है। भविष्य को महत्वाकांक्षी मन द्वारा निर्मित किया जाता हैं। भविष्य समय का हिस्सा नहीं है। यह महत्वाकांक्षा का भाग है। क्योंकि महत्वाकांक्षा को गति करने के लिए स्थान की आवश्यकता होती है। तुम महत्वाकांक्षा को अभी तृप्त नहीं कर सकते। तुम जीवन को अभी और यहीं परितृप्त कर सकते हो, लेकिन महत्वाकांक्षा को नहीं। महत्वाकांक्षा जीवन के विपरीत है, जीवन विरोधी है।

जरा स्वयं को और दूसरों को देखो। लोग तैयारी कर रहे हैं, किसी दिन वे जीना आरंभ करेंगे। वह दिन कभी नहीं आता। वे करते जाते हैं तैयारी और वे मर जाते हैं। यह कभी नहीं आएगा क्योंकि यदि तुम तैयारियों में बहुत अधिक संलग्न रहे तो, वह एक लगाव बन जाएगा। तुम बस तैयार होंगे, तैयारी करोगे और तैयारी करते चले जाओगे। यह इसी भांति है कि कोई व्यक्ति भविष्य के किसी उपयोग के लिए भोज्य पदार्थों का संचय करता चला जाए और भूखा रहता रहे, भुखमरी का शिकार हो जाए, और मरने लगे। यही तो है जो लाखों व्यक्तियों के साथ घट रहा है। वे बहुत अधिक सामान से घिरे हुए, जिसका उपयोग किया जा सकता था, मर जाते हैं। वे सुदरतापूर्वक जी सकते थे।

तुम्हारी महत्वाकांक्षा के अतिरिक्त और कोई तुम्हारा रास्ता नहीं रोक रहा है।

अत: कृपणता महत्वाकांक्षा का भाग है।

यह प्रश्न बोधिधर्म ने पूछा है। वह बहुत महत्वाकांक्षी है। सांसारिक अर्थों में नहीं—उसे बड़ा मकान नहीं चाहिए उसे बड़ी कार की जरूरत नहीं है, उसे बड़े बैंक एकाउंट की आवश्यकता नहीं है। नहीं, उस ढंग से वह सरल है, बहुत सरल, लगभग महात्मा। उसके पास ज्यादा कुछ नहीं है और उसे इसकी चिंता भी नहीं है। लेकिन वह संबुद्ध होना चाहता है। यही है उसकी समस्या। और उसको संबुद्ध हो जाने की बहुत जल्दी है।

सारी मुढ़ताओं को गिरा दो। अभी और यहीं जीयो। भविष्य में किसी संबोधि की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम अभी यहीं जीयो, तुम संबुद्ध हो। जिस दिन तुम यह जान लोगे कि जीवन को इसी समय, अभी यहीं जीया जाना चाहिए तुम संबुद्ध हो। जब व्यक्ति कभी अतीत के बारे में नहीं सोचता और न ही भविष्य की सोचता है। यह पल पर्याप्त है, अपने आप में काफी है। सारा संताप खो जाता है।

संताप है क्योंकि तुम— जीने में समर्थ नहीं हो। इसलिए तुम लक्ष्य निर्मित करते हों—संबोधि एक लक्ष्य है, इससे तुम्हें एक अनुभूति मिलती है कि तुम महत्वपूर्ण हो, कि तुम कुछ कर रहे हो, तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण है तुम कोई अर्थहीन जीवन नही जो रहे है।, तुम एक महान आध्यात्मिक खोजी हो। सभी अहंकार की यात्राएं हैं।

संबोधि कोई लक्ष्य नहीं है। यह परिणाम है। तुम इसे खोज नहीं सकते। तुम इससे कोई लक्ष्य नहीं बना सकते। यह इच्छा की वस्तु नहीं बन सकता है। जब तुम इच्छा रहित होकर अभी यहीं जीना आरंभ कर देते हो, अचानक यह वहां होती है। परिणाम है यह। यह ऊर्जस्वी जीवन, एक जीवंत व्यक्तित्व का— इतना जीवंत और इतना सघन, इतना प्रज्वलित, कि इसी क्षण में वह समय में इतना गहरा उतर जाता है कि वह शाश्वत को स्पर्श कर लेता है, का परिणाम है।

समय में दो गतियां है। पहली, एक पल से दूसरे पल की ओर—क्षैतिज—अ से ब को, ब से स को, स से द को। इसी भांति तुम जीया करते हो, इसी प्रकार से इच्छा चलती हैं—क्षैतिज। एक वास्तविक रूप से जीवंत व्यक्ति, संवेदनशील, जागरूक व्यक्ति अ से ब की ओर नहीं जाता, वह अ में गहरे उतरता है, अ में और गहरे उतरता है, और गहरे और गहरे और गहरे, उसकी गति ऊर्ध्वाधर होती है।

जीसस के क्रास का यही अर्थ है। क्रास ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज दोनों है। क्रास के क्षैतिज भाग पर जीसस के हाथ फैले हैं। उनका पूरा शरीर ऊर्ध्वाधर भाग पर है। हाथ कर्म के प्रतीक है; कर्म क्षैतिज दिशा में गति करते हैं। अस्तित्व ऊर्ध्वाधर दिशा में गतिमान होता है।

अत: कर्म में बहुत अधिक डूबे मत रहो, अस्तित्व में और—और डूबो। और यही है ध्यान का सब कुछ। बिना कुछ किए होना सीखना है यह। कैसे हुआ जाए बिना कुछ किए। बस होना। और तुम इसी क्षण में गहरे और गहरे और गहरे उतरना आरंभ कर देते हो। और समय मैं यही ऊर्ध्वाधर गति शाश्वतता है।

तुम्हारे भीतर दोनों मिलते हैं—समय और शाश्वतता। अब इसका निर्णय तुम्हीं को करना है। यदि तुम महत्वाकांक्षा में जाते हो, तुम्हारी गति समय में होगी; और समय में मृत्यु का अस्तित्व है। यदि तुम इच्छा में गति करो तो तुम समय में जाओगे और समय में मृत्यु का अस्तित्व है। मृत्यु, अहंकार, इच्छा, महत्वाकांक्षा वे सभी क्षैतिज रेखा के अवयव हैं।

यदि तुम इसी क्षण में खोदना आरंभ करो और ऊर्ध्वाधर गति करो, तुम निर अहंकार हो जाते हो, तुम इच्छा विहीन हो जाते हो, तुम महत्वाकांक्षा शून्य हो जाते हो। लेकिन अचानक तुम जीवन से प्रज्जलित हो उठते हो, तुम जीवन की घनीभूत ऊर्जा हो। परमात्मा ने तुमको अधिकृत कर लिया है।

ऊर्ध्वाधर गति करो, और सारे संताप खो जाते हैं।

बकवास करना, पूर्णत्व की चिंता करते रहना, यह भी तुम्हारे ऊपर थोपा गया है। तुम्हें पूर्ण होना सिखाया गया है। वास्तविक बात समग्र होना है, पूर्ण नहीं; कोई भी पूर्ण नहीं हो सकता, क्योंकि पूर्णता एक स्थिर बात है। जीवन है गति। जीवन में कुछ भी पूर्ण नहीं हो सकता क्योंकि अधिक पूर्णता, और अधिक पूर्णता संभव है। यह विकसित होता जाता है, कोई अंत नहीं हैं इसका। एक सतत विकास है यह, सातत्य है! यह सदा विकासमान है, सदैव क्रांति घटती है इसमें। यह कभी उस बिदु पर नहीं आता जहां तुम कह सको, ‘अब यह पूर्ण हैं।’

पूर्णता एक छद्म विचार है, लेकिन अहंकार इसे चाहता है। अहंकार पूर्ण होना चाहता है, अत: यह तुमसे बकवास करता रहता है—पूर्ण हो जाओ। तब यह तनाव, पागलपन और विक्षिप्तताएं निर्मित करता है और अहंकार बनाए चला जाता है; अहंकार के खेल। अभी उसी दिन मैं एक परिभाषा पढ़ रहा था। इस परिभाषा में बताया गया है, न्यूरोटिक वह व्यक्ति है जो हवाई किले बनाता है, और साइकोटिक व्यक्ति वह है जो उन किलों में रहता है, और मनोचिकित्सक वह है जो किराया जमा करता है। यदि तुम न्यूरोटिक या साइकोटिक बनना चाहते हो तो पूर्ण होने का प्रयास करो।

और अभी तक पृथ्वी पर जितने भी धर्म हैं—संगठित धर्म, चर्च—लोगों को पूर्ण होना सिखाते रहे हैं। जीसस ने उसे नहीं सिखाया, ईसाईयत ने सिखाया है। बुद्ध ने उसे नहीं सिखाया, लेकिन बौद्ध धर्म ने सिखाया है। सभी संगठित धर्म लोगों को पूर्ण होना सिखाते रहे हैं। बुद्ध, जीसस, लाओत्सु, उन्होंने कुछ बिलकुल भिन्न बात कही है; उन्होंने कहा, समग्र हो जाओ। ’समग्र’ में और ‘पूर्ण होने’ में क्या अंतर है? पूर्ण होना क्षैतिज रेखा है, पूर्णता भविष्य में कहीं है। समग्र होने को इसी क्षण में किया जा सकता है, इसी क्षण, यहां, अभी; इसे किसी समय की आवश्यकता नहीं है। समग्र हो जाना, प्रमाणिक हो जाना, तुम हो जाना—जों कुछ भी तुम हो, जैसे भी तुम हो, वही हो जाना है।

सामान्यत: तुम एक बहुत ही सीमित जीवन जीते हो। तुम अपनी ऊर्जा को पूरा खेल नहीं खेलने देते। विखंडित है जीवन। तुम किसी से प्रेम करना चाहते हो, लेकिन तुम पूरी तरह प्रेम नहीं करते। अब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अपने प्रेम को पूर्ण प्रेम बना दो। यह संभव नहीं है, क्योंकि पूर्ण प्रेम का अभिप्राय होगा कि अब और विकास संभव ही न रहा। यह मृत्यु हो जाता है। मैं कहता हूं अपने प्रेम को पूरा, समग्र बनाओ। प्रेम समग्रतापूर्वक करो। जो कुछ भी तुम्हारे भीतर है, इसे पकड़ कर मत रखो 1 इसे पूरी तरह दो, पूर्णता में दो। दूसरे में पूरी तरह प्रवाहित हो जाओ:, .रोको मत। यही एक मात्र चीज है जो तुम्हें समग्र बना देगी।

यदि तुम तैर रहे हो, पूरी तरह तैसे। यदि तुम चल रहे हो, पूरी तरह चलो। चलने में बस चलना ही बन जाओ, और कुछ भी नहीं। यदि तुम खा रहे हो, तो पूरी तरह खाओ।

किसी व्यक्ति ने एक बड़े झेन मास्टर चो चाऊ से पूछा : अपनी संबोधि के पूर्व आप क्या किया करते थे?

उसने कहा : मैं लकडियां काटा करता था और कुएं से पानी लाया करता था।

उस व्यक्ति ने पूछा : अब, जब कि आप संबुद्ध हो चुके हैं, आप क्या किया करते हैं?

उसने कहा : वही, मैं लकड़ियां काटता हूं और कुएं से पानी लाता हूं।

वह व्यक्ति थोड़ा चकराया, उसने कहा : लेकिन तब अंतर क्या है?

चो चाऊ ने कहा : अंतर बहुत है। पहले मैं साथ ही साथ बहुत सी चीजें और भी करता रहता था। लकड़ी काटते समय मैं अनेक चीजों के बारे में सोचता। कुएं से पानी लाते समय मैं अनेक चीजों के बारे में सोचता, लेकिन अब मैं बस पानी लाता हूं मैं बस लकड़ी काटता हूं। यहां तक कि काटने वाला भी खो चुका है। बस काटना, बस काटना; वहां कोई नहीं है।

यह तुम्हें समग्रता की अनुभूति देगा। समग्रता को अपना सतत अवधान बनाओ। इसे स्मरण रखो। पूर्णता का विचार त्याग दो। यह तुम्हें तुम्हारे माता—पिता, अध्यापकों, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, चर्चों.. .द्वारा दिया गया है.. .लेकिन उन सभी ने तुम्हें विक्षिप्त बना दिया है। सारा संसार विक्षिप्तता से पीड़ित हो रहा है।

एक मां अपने छोटे से बच्चे को एक मनोचिकित्सक के पास ले गई, और उसने पूछा, डाक्टर, क्या दस वर्ष का कोई बच्चा एलिजाबेथ टेलर जैसी फिल्म स्टार से विवाह कर सकता है?

डाक्टर ने कहा : निःसंदेह नहीं, मैडम, यह नितांत असंभव है।

मां ने अपने छोटे से बच्चे की ओर देखा और बोली : देखो, मैंने तुमसे क्या कहा था? अब बाहर जाओ और तलाक ले लो।

न केवल बच्चा विक्षिप्त है, मां भी है—और मां उससे अधिक ही है। विक्षिप्त लोग विक्षिप्त बच्चों को जन्म देते हैं।

अनेक बार लोग मुझसे पूछते हैं—अनुराग ने बहुत बार पूछा है—मैंने कभी उत्तर नहीं दिया—आप अपने संन्यासियों को बच्चे पैदा करने की अनुमति क्यों नहीं देते? आप डाक्टर फड़नीस को इतना अधिक कष्ट क्यों देते हैं? पहले मैं चाहूंगा कि तुम विक्षिप्तता से मुक्त हो जाओ; वरना तुम विक्षिप्त बच्चों को जन्म दोगे। यह संसार विक्षिप्तता से भरा हुआ है। कम से कम इसे बढ़ाओ मत। मेरा जनसंख्या से कोई लेना देना नहीं है; यह राजनेताओं की चिंता है। मेरी चिता है विक्षिप्तता। तुम विक्षिप्त हो, अपनी इसी विक्षिप्तता से तुम बच्चों को जन्म देते हो।

वे तुम्हारे लिए भी एक उपद्रव हैं। क्योंकि तुम अपने आपसे इतना ऊबे हुए हो कि तुम्हें कुछ उपद्रव चाहिए। बच्चे सुंदर उपद्रव हैं। वे और ज्यादा परेशानियां उत्पन्न करते हैं। तुम्हारी परेशानियां पुरानी हो चुकी हैं, तुम उनसे ऊब चुके हो। तुम भी नई परेशानियां चाहोगे। पति पत्नी से ऊब गया है, पत्नी पति से ऊबी हुई है। वे चाहेंगे कि कोई उनके मध्य आकर खडा हो; एक शिशु। अनेक शादियां बच्चों के कारण बची हुई हैं। वरना वे बिखर गई होती। एक बार बच्चे हो जाएं मां बच्चों के प्रति जिम्मेवारी के बारे में सोचने लगती है, पिता बच्चों के प्रति कर्तव्य के बारे में विचारना आरंभ कर देता है। अब एक सेतु है।

और माता और पिता दोनों अपनी स्वयं की समस्याओं, चिंताओं और पागलपन से बोझिल हैं। इन बच्चों को वे क्या देने जा रहे हैं? क्या है देने के लिए उनके पास? वे प्रेम के बारे में बात करते हैं, किन्तु वे हिंसक है। उनका प्रेम पहले से ही विषाक्त है, वे नहीं जानते प्रेम क्या है, और फिर प्रेम के नाम पर वे उत्पीड़न करते हैं। प्रेम के नाम पर वे बच्चों में जीवन को नष्ट करने का प्रयास करते हैं। वे उनका जीवन सांचे में डाल देते हैं। प्रेम के नाम पर वे मालकियत करते हैं, वे अधिकार जमाते हैं। और निःसंदेह बच्चे बहुत असहाय हैं, इसलिए जो तुम करना चाहते हो करो। उनको पीटो, उन्हें उस प्रकार से या उस प्रकार से ढाल दो, अपनी अतृप्त इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को ढोने के लिए उन्हें बाध्य करो, ताकि जब तुम मर जाओ तो वे तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं लादे होंगे और वे उसी मूढ़ता को करने के प्रयास में रहेंगे जिसे तुम करने की कोशिश कर रहे हो।

मैं चाहूंगा कि तुम बच्चों को जन्म दो, लेकिन पिता बनना, मां बनना इतना सरल नहीं है।

एक बार तुम समग्र हो, फिर मा बन जाओ, पिता बन जाओ, तब तुम ऐसे बच्चे को जन्म दोगे जो स्वतंत्रता होगा, जो स्वास्थ्य और समग्रता होगा, जो अनुग्रह से भरा होगा, और वह संसार के लिए एक भेंट होगा। और वह संसार को जैसा यह है उससे कुछ बेहतर बनाएगा। अन्यथा नहीं, वरना तुम ही पर्याप्त हो!

‘आप मुझको उस व्यक्ति के साथ एक ही कमरे में क्यों रखते हैं?’ क्रोधित रोगी ने पागलखाने के डाक्टर से पूछा।

अस्पताल में भीड़ अधिक हो गई है, डाक्टर ने समझाया। क्या वह कोई परेशानी पैदा कर रहा है? परेशानी, अरे वह तो पागल है! वह कमरे में चारों ओर यह कहते हुए देखता रहता है, ‘न शेर हैं, न चीते हैं, न हाथी हैं’, और सारे समय कमरा उन से भरा रहता है!

पागल लोग सोचते हैं कि दूसरे पागल हैं। पागल लोग कभी नहीं सोचते हैं कि वे पागल हैं। एक बार कोई पागल यह पहचान ले कि वह पागल है, तो वह सामान्य होने के रास्ते पर चल पड़ता है।

अपने पागलपन को देखने का प्रयास करो, इसे पहचानो। इससे तुम्हें सामान्य होने में सहायता मिलेगी।

बकवास करना, पूर्णत्व की चिंता करते रहना। समग्र होने का प्रयास करो। अन्यथा यह पूर्णत्व तुम्हें पगला देगा। समग्र हो जाओ। जो कुछ तुम करना चाहते हो करो, लेकिन इसे समग्रतापूर्वक करो। इसमें विलीन हो इसमें पिघल— जाओ, और तुम्हें धीरे—धीरे अपने अस्तित्व में खिलावट मिलने लगेगी। फिर, तब वहां तुम्हारे भीतर पूर्णता का कोई खयाल न बचेगा।

लेकिन तुम अपूर्ण विभाजित, खंड—खंड हो। इसीलिए लगातार यह विचार उठता रहता हैं, कैसे पूर्ण हुआ जाए? समग्र हो जाओ, और यह विचार अपने आप से गिर जाएगा।

‘अभिमान’ और ‘अभिनेता व्यक्तित्‍व’। नि:संदेह वे लोग जो पूर्ण। होने के लिए प्रयास रत हैं, अभिनेता व्यक्तित्व ही बन जाएंगे। उनके पास मुखौटे होंगे, वे स्वयं को मुखौटों के पीछे छिपा लेंगे। वे दूसरों को अपनी सच्चाई नहीं देखने देंगे। वे सदैव कुछ कुछ का कुछ दिखाने का प्रयास करेंगे, वे पाखंडी बन जाएंगे। वे सदा अभिनय करने की कुछ दिखाने की कोशिश करेंगे। उन्हें पता है कि वे कौन हैं, और वे सिद्ध करने का प्रयास करेंगे कि वे कोई और हैं।

और कठिनाई यह है कि भले ही वे दूसरों को समझाने में सफल न हो पायें लेकिन—स्वयं को समझा पाने में वे सदैव सफल हो जाते हैं। इसी प्रकार से विक्षिप्तता का आरंभ होता है।

चाहे जो भी मूल्य हो, बस स्वयं हो जाओ। चाहे जो भी मूल्‍य हो, स्वयं हो जाओ। निष्ठावान बनो। आरंभ में बहुत भय होगा, क्योंकि तुम सोचते हो कि तुम एक महान व्यक्ति हो, और अचानक तुम स्वयं करेगा, लेकिन को एक सामान्य व्यक्ति के रूप में प्रकट कर देते हो। भय होगा, अहंकार आहत अनुभव करेगा, लेकिन इसे आहत अनुभव करने दो। वस्तुत: इसे भूखा रहने और मर जाने दो। इसको मर जाने मैं सहायता दो सामान्य हो जाओ, सरल हो जाओ और तुम अधिक समग्र हो जाओगे और तनाव विलीन हो जाएंगे और लगातार अभिनय करने की कोई जरूरत न रहेगी। लगातार अभिनय करते रहना, प्रदर्शन के झरोखे.. सतत खड़े रहना, बस देखते रहना कि लोग क्या सोच रहे हैं, और तुम्हें यह सिद्ध करने के लिए कि तुम विशिष्ट हो, क्या करना पड़ेगा—यह कितना बड़ा तनाव है। लेकिन जरा दूसरों के बारे में भी सोच लो, वे भी यही काम कर रहे हैं।

सारा संसार बहुत अधिक चिंता में है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति कुछ ऐसा सिद्ध करने की कोशिश कर रहा है जो वह नहीं है, और दूसरे भी वही कर रहे हैं। और कोई यह देखना नहीं चाहता कि तुम महान हो। वे जानते हैं कि तुम महान नहीं हो, क्योंकि वे तुम्हारी महानता में कैसे विश्वास कर सकते हैं? वे स्वयं ही महान हैं। तुम भी जानते हो कि तुम्हारे अतिरिक्त कोई और महान नहीं है। भले ही तुम ऐसा न कहो, लेकिन गहरे में हर व्यक्ति यही विश्वास करता रहता है।

मैंने सुना है कि अरब देशों में एक मजाक प्रचलित है कि जब भी परमात्मा किसी नये मनुष्य की रचना करता है उसके साथ वह एक चाल खेलता है। वह उसके कान में फुसफुसाता है, मैंने अब तक जितने व्यक्ति बनाए हैं तुम उनमें सर्वश्रेष्ठ हों—महानतम। किंतु वह ऐसा प्रत्येक व्यक्ति के साथ करता रहा है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वयं की महानता को लेकर आश्वस्त है।

पृथ्वी पर चलने का प्रयास करो। यथार्थ वादी बनो। और यदि तुम सामान्य हो, तो तुम अचानक अनेक द्वारों को खुलता हुआ देखोगे, जो तुम्हारी तनावग्रस्त अवस्था के कारण बंद थे। विश्रांत हो जाओ। और निःसंदेह अभिमान बार बार अनेक रूपों ‘मैं आ जाता है, अत: निरीक्षण करो। और सदा याद रखो कि यह सूक्ष्म ढंगों से आएगा, इसलिए अपने निरीक्षण को और शुद्ध, सही, सजग बनाओ।

ही, ध्यान से काम चल जाएगा। और किसी बात की आवश्यकता नहीं है। बस जरा सा ध्यान और करो, जिससे कि तुम चीजों को स्पष्टता से देख सको।

प्रश्न :

 

ओशो, धीरे—धीरे मुझे अनुभव है कि आप मैं है। किंतु फिर यह व्‍यक्‍ति जो श्‍वेत वस्‍त्रों में प्रत्‍येक सुबह उस पर बैठता है कौन है?

 

जी. ओ के, अब मुझे इस गुप्त संकेत जी. ओके का अर्थ समझाने दो। यही मेरा उत्तर है।

लंदन हास्पिटल केर ‘चिकित्सकों ने एक नवागत डाक्टर को सारा अस्पताल दिखाया। उसने फाइलिंग की व्यवस्था को देखा और उनके द्वारा अपनाई गई संकेताक्षर व्यवस्था के अच्छे विचार से प्रभावित हुआ—डिप्थीरिया के लिए डी, मीजिल्स के लिए एम, टधूबर क्‍यूलोसिस के लिए टी बी, और इसी प्रकार से और सब। सभी बीमारियां पूरी तरह से नियंत्रण में थी सिवाय एक के जिसका संकेताक्षर था— जी. ओ के।

मैंने देखा है कि आपके यहां एक सत्यानाशी महामारी है, जी. ओ के। उसने कहा : लेकिन यह जी. ओ के है क्या बला?

ओह! उनमें से एक ने कहा : जब हम निदान नहीं कर पाते हैं हम लिख देते हैं : जी. ओके, गॉड ओनली नोज, केवल परमात्मा जानता है।

मैं नहीं जानता कि यहां इस कुर्सी पर बैठा हुआ और तुमसे बात करता हुआ यह व्यक्ति कौन है। केवल परमात्मा जानता है। जी. ओ के।

आज इतना ही।



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कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–7)

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जीवन में महोत्सव के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 28 सितंबर, 1970;

सांय, मनाली (कुलू)

“आपने कहा कि आप विवाह को अनैतिक कहते हैं। और सर्वाधिक विवाह कृष्ण करते हैं। क्या वे विवाह रूपी अनैतिकता को प्रोत्साहित करते हैं?’

 विवाह को अनैतिक कहा मैंने, विवाह करने को नहीं। जो लोग प्रेम करेंगे, वे भी साथ रहना चाहेंगे। इसलिए प्रेम से जो विवाह निकलेगा, वह अनैतिक नहीं रह जाएगा। लेकिन हम उल्टा काम कर रहे हैं। हम विवाह से प्रेम निकालने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि नहीं हो सकता। विवाह तो एक बंधन है और प्रेम एक मुक्ति है। लेकिन जिनके जीवन में प्रेम आया है, वे भी साथ जीना चाहें, स्वाभाविक है। लेकिन साथ जीना उनके प्रेम की छाया ही हो। जिस दिन विवाह की संस्था नहीं होगी, उस दिन स्त्री और पुरुष साथ नहीं रहेंगे, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। सच तो मैं ऐसा कह रहा हूं कि उस दिन ही वे ठीक से साथ रह सकेंगे। अभी साथ दिखाई पड़ते हैं, साथ रहते नहीं। साथ होना ही संग होना नहीं है। पास-पास होना ही निकट होना नहीं है। जुड़े होना ही एक होना नहीं है।

विवाह की संस्था को मैं अनैतिक कह रहा हूं। और विवाह की संस्था चाहेगी कि प्रेम दुनिया में न बचे। कोई भी संस्था सहज उदभावनाओं के विपरीत होती है। क्योंकि तब संस्थाएं नहीं टिक सकतीं। दो व्यक्ति जब प्रेम करते हैं, तब वह प्रेम अनूठा ही होता है। वैसा प्रेम किन्हीं दो व्यक्तियों ने कहीं किया होता है। लेकिन दो व्यक्ति जब विवाह करते हैं तब वह अनूठा नहीं होता। तब वैसा विवाह करोड़ों लोगों ने किया है। विवाह एक पुनरुक्ति है, प्रेम एक मौलिक घटना है। जितना विवाह प्रभावी होगा, उतना ही प्रेम का गला घुटता चला जाएगा। लेकिन, जिस दिन हम प्रेम को प्राथमिकता दे सकेंगे जीवन में और दो व्यक्तियों का साथ रहना एक समझौता नहीं होगा, उनके प्रेम का सहज फल होगा, उस दिन विवाह नहीं होगा इस अर्थ में जिस तरह आज है। न इस तरह तलाक होगा, जैसा आज है। दो व्यक्ति साथ रहना चाहें, यह उनका आनंद है। इसमें समाज को कोई बाधा नहीं है।

मैंने विवाह संस्था की तरह अनैतिक है, ऐसा कहा। विवाह प्रेम की छाया की तरह बिलकुल स्वाभाविक है। उसमें कोई अनैतिकता नहीं है।

“भगवान श्री, विवाह के संबंध में आपने अभी-अभी जो चर्चा की, उसे ध्यान में रख यह भी दर्शाने की कृपा करें कि जिस दिन हम प्रेम का आधार बनाएंगे, उस दिन बच्चों का क्या होगा? वे किसके कहलाएंगे? और, क्या ये “सोशल प्रॉब्लम’ नहीं बन जाएंगे?’

 

हुत-सी कठिनाइयां दिखाई पड़ेंगी। लेकिन वे कठिनाइयां इसलिए दिखाई पड़ती हैं कि हम पुरानी धारणाओं को आधार बनाकर ही सोचते हैं। जैसे, सच तो यह है कि जिस दिन हम प्रेम को परम मूल्य दे सकें, उस दिन बच्चे व्यक्तियों के हैं, ऐसा मानने की बात ही बेमानी है। बच्चे हैं भी नहीं व्यक्तियों के। सदा थे भी नहीं। एक युग था जब पिता का तो कोई पता नहीं चलता था, मां का ही पता होता था। मातृसत्ता का युग था। इसलिए जानकर आपको हैरानी होगी कि पिता शब्द बहुत पुराना नहीं है। काका, “अंकल’ शब्द ज्यादा पुराना है। मां बहुत पुराना शब्द है और पिता बहुत नया शब्द है। पिता तो आया तब, जब हमने विवाह की व्यक्तिगत व्यवस्था सुनिश्चित कर दी, अन्यथा पिता का तो कोई पता न चलता था। कबीले के सभी लोग पितातुल्य थे। मां का पता चलता था। पूरा कबीला बच्चों के प्रति प्रेमपूर्ण भाव रखता था। और बच्चे चूंकि किसी के भी नहीं थे, इसलिए सभी के थे। किसी के हैं, इससे फायदा पहुंचा है, ऐसा नहीं है। बच्चे सभी के होंगे, फायदा और बड़ा पहुंच सकता है।

जिस दिन हम प्रेम को आधार बनाएंगे, उस दिन बच्चों का क्या होगा? सवाल उठता है, क्या वह “सोशल प्रॉब्लम’ बन जाएंगे? नहीं, अभी बच्चे सामाजिक समस्या हैं, क्योंकि अभी हमने बच्चों को व्यक्तियों के ऊपर छोड़ दिया है। और फिर भविष्य में जो नित-नवीन बहुत कुछ संभव होता जा रहा है, उसे देखते हुए समझ लेना चाहिए कि हमने जो पीछे आधार बनाए थे वे कोई टिकने वाले नहीं हैं।

जैसे, पुरानी दुनिया में बच्चों के पैदा होने के लिए कम-से-कम बाप का जिंदा होना तो जरूरी था। भविष्य में नहीं रहेगा। आज भी नहीं है। अगर मैं मर जाऊं तो भी मेरे वीर्यकण संरक्षित रखे जा सकते हैं हजार साल तक, दस हजार साल तक। मैं तो नहीं रहूंगा, मेरा बच्चा दस हजार साल बाद पैदा हो सकता है। मां अब तक अनिवार्य रही है, लेकिन भविष्य में अनिवार्य नहीं रह जाएगी। जिस दिन भी हम व्यवस्था, खोज ही लिए हैं करीब-करीब, उस दिन हम मां को नौ महीने पेट में बच्चे को ढोने का व्यर्थ बोझ नहीं देंगे। उस दिन बच्चे को हम, जो मां के पेट में सुविधा उपलब्ध हो सकती है वह यंत्र में भी सुविधा उपलब्ध हो सकती है और ज्यादा व्यवस्थित उपलब्ध है। उस दिन तो कौन मां है, कौन पिता है, कहना मुश्किल हो जाएगा। हमें पूरा ढांचा बदलना पड़ेगा। पूरी समाज की स्त्रियां मां हैं और पूरे समाज के पुरुष पिता हैं। और उन बच्चों को सबका होकर बड़ा होना पड़ेगा। निश्चित ही सब बदलेगा।

जो मैं कह रहा हूं, वह वैज्ञानिक ढंग से भी जो काम दुनिया में चल रहा है, उसकी वजह से भी जरूरी हो जाएगा। अभी हमें खयाल में नहीं आता, क्योंकि हम पुराने ढंग से सोचते चले जाते हैं। आपके घर बच्चा पैदा होता है, तो आप डाक्टर की दवाई लाते हैं, सबसे अच्छे डाक्टर की। आप यह नहीं सोचते कि मैं इसका पिता हूं तो मैं खुद ही दवाइयां बनाकर इसको पिला दूं। आप कपड़ा बनवाते हैं, सबसे अच्छे दर्जी से, यह नहीं सोचते कि मैं इसका पिता हूं तो मैं ही कपड़ा बनाकर पहनाऊं। अगर समझ थोड़ी और गहरी बढ़ेगी तो आप यह भी न चाहेंगे कि आपका बच्चा आपके वीर्यकण से ही पैदा हो, अगर इससे अच्छा वीर्यकण समाज में उपलब्ध हो सकता है। अच्छा है कि आपका बच्चा लंगड़ा-लूला पैदा न हो, अच्छा है कम बुद्धि का पैदा न हो। अच्छा है कि श्रेष्ठतम बीज उसे उपलब्ध हो सके। मां भी न चाहेगी कि मां होने के लिए वह नौ महीने बच्चे को पेट में घसीटे, जब कि उससे बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हो गई हैं, बच्चा ज्यादा स्वस्थ पैदा हो सकता हो, ज्यादा बुद्धिमान पैदा हो सकता हो। तो मां और पिता का अब तक जो “फंक्शन’ रहा है, वह भविष्य में रहने वाला नहीं है। और जिस दिन मां और पिता का “फंक्शन’ विदा हो जाएगा, उस दिन आपके विवाह का क्या वजूद रह जाता है, विवाह का क्या आधार रह जाता है। उसका कोई मतलब नहीं रह जाता। उस दिन प्रेम ही आधार रह जाता है। टेक्नॉलॉजी भी मनुष्य को उस जगह ला रही है, मनुष्य के मन की समझ भी उस जगह ला रही है, जहां व्यक्तिगत दावेदारी समाप्त हो जाती है।

इसका यह मतलब नहीं है कि सारी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। हर नए प्रयोग के साथ नई समस्याएं होती हैं। बड़ा सवाल यह नहीं है कि समस्याएं रोज बेहतर होती जाएं। कल की समस्याओं से आज की समस्याएं बेहतर हों। ऐसा नहीं है कि हम विवाह को हटा देंगे तो मनुष्य और मनुष्य के बीच के सारे संघर्ष विदा हो जाएंगे। नहीं लेकिन वे संघर्ष विदा हो जाएंगे जो विवाह के कारण ही पैदा होते हैं और वे काफी बड़ी मात्रा में हैं। कुछ नई बातें पैदा होंगी, कुछ नई समस्याएं पैदा होंगी। पृथ्वी पर रहने के लिए समस्याएं जरूरी हैं। उनको हम हल करेंगे, उन्हीं में हमारा विकास है। उनसे हम लड़ेंगे और आगे बढ़ेंगे।

एक बात जरूर ध्यान में ले लेने जैसी है, और कठिनाई उसी से आती है। कठिनाई इससे आती है कि जिस ढांचे में हम रहने के आदी हो गए हैं, उस ढांचे की समस्याओं को भी हम सहने के आदी हो गए हैं। अगर उससे बेहतर व्यवस्था भी मिल सकती हो, तो उस बेहतर व्यवस्था के साथ नई समस्याएं मिलेंगी जिनके हम आदी नहीं हैं। और उससे कठिनाई होती है। लेकिन बुद्धि का काम यही है कि वह उन समस्याओं को समझे, हल करे, और सोचे कि पुरानी समस्याओं से अगर बेहतर समस्याएं मिलती हों, तो हम परिवर्तन करें। ऐसा मेरा मानना यह है कि मनुष्य के जीवन में जब तक प्रेम का फूल पूरी तरह न खिले, तब तक उसके व्यक्तित्व में रौनक, तब तक उसके व्यक्तित्व में जिसको हम कहें नमक, वह नहीं उत्पन्न होता। उसका जीवन फीका-फीका हो जाता है। और मैं मानता हूं कि फीके व्यक्तित्व के बजाय समस्याओं से भरे हुए तेज और चमकदार व्यक्तित्व का मूल्य है। एक छोटी-सी कहानी, फिर हम दूसरा सवाल लें–

मैंने सुना है कि एक बगीचे में एक छोटा-सा फूल–घास का फूल–दीवाल की ओट में ईंटों में दबा हुआ जीता था। तूफान आते थे, उस पर चोट नहीं हो पाती थी। ईंटों की आड़ थी। सूरज निकलता था, उस फूल को नहीं सता पाता था, उस पर ईंटों की आड़ थी। बरसा होती थी, बरसा उसे गिरा नहीं पाती थी, क्योंकि वह जमीन पर पहले ही से लगा हुआ था। पास में ही उसके गुलाब के फूल थे।

एक रात उस घास के फूल ने परमात्मा से प्रार्थना की कि मैं कब तक घास का फूल बना रहूंगा। अगर तेरी जरा भी मुझ पर कृपा है तो मुझे गुलाब का फूल बना दे। परमात्मा ने उसे बहुत समझाया कि तू इस झंझट में मत पड़, गुलाब के फूल की बड़ी तकलीफें हैं। जब तूफान आते हैं, तब गुलाब की जड़ें भी उखड़ी-उखड़ी हो जाती हैं। और जब गुलाब में फूल खिलता है, तो खिल भी नहीं पाता है कि कोई तोड़ लेता है। और जब बरसा आती है तो गुलाब की पंखुड़ियां बिखर कर जमीन पर गिर जाती है। तू इस झंझट में मत पड़, तू बड़ा सुरक्षित है। उस घास के फूल ने कहा कि बहुत दिन सुरक्षा में रह लिया, अब मुझे कुछ झंझट लेने का मन होता है। आप तो मुझे बस गुलाब का फूल बना दें। सिर्फ एक दिन के लिए सही, चौबीस घंटे के लिए सही। पास-पड़ोस के घास के फूलों ने समझाया, इस पागलपन में मत पड़, हमने सुनी हैं कहानियां कि पहले भी हमारे कुछ पूर्वज इस पागलपन में पड़ चुके हैं, फिर बड़ी मुसीबत आती है। हमारा जातिगत अनुभव यह कहता है कि हम जहां हैं, बड़े मजे में हैं। पर उसने कहा कि मैं कभी सूरज से बात नहीं कर पाता, मैं कभी तूफानों से लड़ नहीं पाता, मैं कभी बरसा को झेल नहीं पाता। उन पास के फूलों ने कहा, पागल, जरूरत क्या है? हम ईंट की आड़ में आराम से जीते हैं। न धूप हमें सताती, न बरसा हमें सताती, न तूफान हमें छू सकता।

लेकिन वह नहीं माना और परमात्मा ने उसे वरदान दे दिया और वह सुबह गुलाब का फूल हो गया। और सुबह से ही मुसीबतें शुरू हो गईं। जोर की आंधियां चलीं, प्राण का रोआं-रोआं उसका कांप गया, जड़ें उखड़ने लगीं। नीचे दबे हुए उसके जाति के फूल कहने लगे, देखा पागल को, अब मुसीबत में पड़ा। दोपहर होते-होते सूरज तेज हुआ। फूल तो खिले थे, लेकिन कुम्हलाने लगे। बरसा आई, पंखुड़ियां नीचे गिरने लगीं। फिर तो इतने जोर की बरसा आई कि सांझ होते-होते जड़ें उखड़ गईं और वह वृक्ष फूलों का पौधा जमीन पर गिर पड़ा। जब वह जमीन पर गिर पड़ा तब वह अपने फूलों के करीब आ गया। उन फूलों ने उससे कहा, पागल, हमने पहले ही कहा था। व्यर्थ अपनी जिंदगी गंवाई। मुश्किलें ले लीं नई अपने हाथ से। हमारी पुरानी सुविधा थी, माना कि पुरानी मुश्किलें थीं, लेकिन सब आदी था, परिचित था, साथ-साथ जीते थे, सब ठीक थे। उस मरते हुए गुलाब के फूल ने कहा, नासमझो, मैं तुमसे भी यही कहूंगा कि जिंदगी भर ईंट की आड़ में छिपे हुए एक घास का फूल होने से चौबीस घंटे के लिए गुलाब का फूल हो जाना बहुत आनंदपूर्ण है। मैंने अपनी आत्मा पा ली, मैं तूफानों से लड़ लिया, मैंने सूरज से मुलाकात ले ली, मैं हवाओं से जूझ लिया, मैं ऐसे ही नहीं मर रहा हूं, मैं जीकर मर रहा हूं। तुम मरे हुए जी रहे हो।

निश्चित ही जिंदगी को अगर हमें जिंदा बनाना है, तो बहुत-सी जिंदा समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। लेकिन होनी चाहिए। अगर हमें जिंदगी को मुर्दा बनाना है, तो हो सकता है हम सारी समस्याओं को खत्म कर दें, लेकिन तब आदमी मरा-मरा जीता है।

तो मैं मानता हूं कि नई समस्याएं तो होंगी ही, होनी ही चाहिए, और मनुष्य को इतना भरोसा और आत्मविश्वास होना चाहिए कि वह नई समस्याओं से जूझ सकेगा। कोई कारण नहीं है। अभी हमने जो व्यवस्था बनाई है, वह सारी-की-सारी व्यवस्था भय पर खड़ी है। सब तरह के भय, सब तरह के “फियर’। उसका उद्गम ही “फियर ओरियेंटेशन’ है। वह उसी में से जन्मती है कि ऐसा हो जाएगा, ऐसा हो जाएगा, ऐसा हो जाएगा, इसका क्या होगा, उसका क्या होगा। यह सब भय सोचकर हम घर में रुके रह जाते हैं। और हम कभी यह नहीं सोचते कि हमको हो क्या रहा है? क्या होगा, इस डर से नया कदम नहीं उठाते और जो हो रहा है उसको देखते नहीं, क्योंकि उसे देखेंगे तो नया कदम उठाना पड़ेगा। और फिर पता नहीं क्या हो जाए। इसलिए जैसा है उसे हम बोझ की तरह ढोए चले जाते हैं।

मैंने शायद ही, इधर मुझे लाखों लोगों से मिलने का मौका आया है, बहुत निकट से उनकी आंखों में, उनके हृदय में झांकने का मौका आया, मैंने ऐसा पुरुष नहीं देखा जो विवाह से तृप्त हो। मैंने ऐसी स्त्री नहीं देखी जो विवाह में आनंदित हो। लेकिन अगर उनसे भी कहा जाए तो वे कहेंगे कि ये-ये समस्याएं उठ जाएंगी। लेकिन बड़ा मजा यह है कि तुम यहां समस्या के बिना जी रहे हो, वहां की समस्याओं का तुम्हें पता है, खयाल है; सिर्फ चौबीस घंटे उनमें गुजरते हो, इसलिए पता नहीं चलता। आदी हो गए हो। वह तो हम पिंजड़े के पंछी को भी अगर कहें कि खुले आकाश में उड़, तो वह कहेगा, बहुत दिक्कतें आएंगी, यहां सब सुरक्षा है। दिक्कतें आएंगी भी। और पिंजड़े के पंछी को और भी आ जाएंगी क्योंकि उसे खुले आकाश में उड़ने का अनुभव भी नहीं रहा है। लेकिन, माना कि पिंजड़े में बड़ी सुरक्षा है, लेकिन कहां खुले आकाश का आनंद, कहां पिंजड़े की सुरक्षा। तो कब्र में भी बहुत सुरक्षा है।

 

“स्वामी सहजानंद का आरोप है कि कृष्ण की रसिक-पद्धति से लोग तरे हैं कम, मरे हैं ज्यादा। उसके दो कारण हैं। एक तो कृष्ण की गोपी बनकर ही भक्ति करने की पद्धति, जैसे गुजरात में “महाराज लायबल केस’ बना। और दूसरा जीवन को उत्सव मानने में मनुष्य की भोगवृत्ति को मिलता हुआ प्रोत्साहन।

दूसरा सवाल कि रामभक्त हनुमान में जो ब्रह्मचर्य, शौर्य, प्रेरणा और वैराग्य-विवेक के गुण मिलते हैं और उनमें जितनी प्रवृत्तिवादी “एक्टिविटी’ है, उतनी कृष्णभक्त मीरा, नरसी और सूरदास में नहीं है। मतलब यह कि कृष्ण-पूजक अंतर्मुखी प्रवृत्ति के ज्यादा हैं और सामाजिक कार्य की दिशा में उनका योगदान नहीं-जैसा है। आपके विचार?

तीसरा सवाल कि कृष्ण, राम, महावीर तथा बुद्ध किसी को चित्रकारों ने और पुराणकारों ने दाढ़ी-मूंछ नहीं बतलाई, सिर्फ क्राइस्ट को है। इसका क्या मतलब है?’

हली बात, जीवन एक काम है या उत्सव? अगर जीवन एक काम है, तो बोझ हो जाएगा। अगर जीवन एक काम है, तो कर्तव्य हो जाएगा। अगर जीवन एक काम है, तो हम उसे ढोएंगे और किसी तरह निपटा देंगे। कृष्ण जीवन को काम की तरह नहीं, उत्सव की तरह, एक “फेस्टिविटी’ की तरह लेते हैं। महोत्सव है एक। जीवन एक आनंद का उत्सव है, काम नहीं है। ऐसा नहीं है कि उत्सव की तरह लेते हैं तो काम नहीं करते हैं। काम तो करते हैं। लेकिन काम उत्सव के रंग में रंग जाता है। काम नृत्य-संगीत में डूब जाता है। निश्चित ही, बहुत काम न हो पाएगा इस भांति, थोड़ा ही हो पाएगा। “क्वांटिटी’ ज्यादा नहीं होगी, लेकिन “क्वालिटी’ का कोई हिसाब नहीं है! परिणाम तो कम होगा, मात्रा कम होगी, लेकिन गुण बहुत गहरा हो जाएगा।

कभी आपने सोचा कि काम वाले लोगों ने, जो हर चीज को काम में बदल देते हैं, जिंदगी को कैसा तनाव से भर दिया है। जिंदगी की सारी “एंग्जाइटी’, सारी चिंता, यह अति कामवादी लोगों की उपज है। वे कहते हैं, करो, एकदम करते रहो, करो या मरो। उनका नारा यह है–“डू ऑर डाय’। जिंदा हो तो करो कुछ, अन्यथा मरो। कोई एक काम करो। और उनके पास कोई और दृष्टि नहीं है, लेकिन किसलिए करो? आदमी करता किसलिए है? आदमी करता इसलिए है कि थोड़ी देर जी सके। और जीने का क्या मतलब होगा फिर? फिर जीने का मतलब उत्सव होगा। हम काम भी इसलिए कर सकते हैं कि किसी क्षण में हम नाच सकें। लेकिन काम इतने जोर से पकड़ लेता है कि फिर नाचने का तो मौका ही नहीं आता, गीत गाने का मौका ही नहीं आता; बांसुरी बजाने के लिए फुर्सत कहां रह जाती है, दफ्तर से घर हैं, घर से दफ्तर हैं; घर दफ्तर आ जाता है दिमाग में बैठकर, दिमाग में बैठकर दफ्तर घर पहुंच जाता है, सब गड्डमड्ड हो जाता है, सब उलझ जाता है; फिर जिंदगी भर दौड़ते रहते हैं इस आशा में कि किसी दिन वह क्षण आएगा, जिस दिन विश्राम करेंगे और आनंद ले लेंगे। वह क्षण कभी नहीं आता। वह आएगा ही नहीं। कामवृत्ति वाले आदमी को वह क्षण कभी नहीं आता है।

कृष्ण जीवन को देखते हैं उत्सव की तरह, महोत्सव की तरह, एक खेल की तरह, एक क्रीड़ा की तरह। जैसा कि फूल देखते हैं, जैसा कि पक्षी देखते हैं, जैसा कि आकाश के बादल देखते हैं, जैसा कि मनुष्य को छोड़कर सारा जगत देखता है। उत्सव की तरह। कोई पूछे इन फूलों से कि खिलते किसलिए हो, काम क्या है? बेकाम खिले हुए हो? तारों से कोई पूछे कि चमकते किसलिए हो? काम क्या है? पूछे कोई हवाओं से, बहती क्यों हो? काम क्या है?

मनुष्य को छोड़कर जगत में काम कहीं भी नहीं है। मनुष्य को छोड़कर जगत में महोत्सव है। उत्सव चल रहा है प्रतिपल। कृष्ण इस जगत के उत्सव को मनुष्य के जीवन में भी ले आते हैं। वे कहते हैं, मनुष्य का जीवन भी इस उत्सव के साथ एक हो जाए। ऐसा नहीं है कि उत्सव में काम नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि हवाएं नहीं दौड़ रही हैं। दौड़ रही हैं। ऐसा नहीं है कि चांदत्तारे नहीं चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि फूलों को खिलने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता है, बहुत कुछ करना पड़ता है। लेकिन करना गौण हो जाता है, होना महत्वपूर्ण हो जाता है। “डूइंग’ पीछे हो जाती है, “बीइंग’ पहले हो जाता है। उत्सव पहले हो जाता है, काम पीछे हो जाता है। काम सिर्फ उत्सव की तैयारी होती है। दुनिया की सारी आदिम जातियों के पास अगर हम जाएं तो वह दिन भर काम करते हैं, ताकि रात नाच सकें; रात ढोल बजे और गीत हो। लेकिन सभ्य आदमी के पास जाएं तो वह दिन भर काम करता है, रात भर काम करता है। और उससे कोई पूछे कि वह काम किसलिए कर रहा है? तो वह कहता है, कल विश्राम कर सकें। विश्राम को “पोस्टपोन’ करता है, काम को करता चला जाता है, फिर वह कल कभी नहीं आता। तो मैं कृष्ण के इस महोत्सववादी रुख से राजी हूं। फिर मेरा देखना यह है कि इतना काम करके भी आदमी ने कर क्या लिया? अगर काम करना अपने में ही लक्ष्य है, तब तो बात दूसरी है। लेकिन इतना काम करके हमने कर क्या लिया है?

सिसीफस की कहानी है कि देवताओं ने उसे श्राप दिया है कि वह एक पत्थर की चट्टान को पहाड़ पर चढ़ाकर ले जाए और जब वह “पीक’ पर, चोटी पर पहुंचेगा तो पत्थर फिर खिसक कर नीचे चला जाएगा। सिसीफस फिर नीचे जाए, फिर पहाड़ तक खींचे तो वह फिर नीचे चला जाएगा। सिसीफस फिर नीचे जाएगा। वह सिसीफस नीचे से ऊपर तक खींचता है, बड़े काम में लगा रहता है, पहाड़ पर पहुंचता है, फिर पत्थर नीचे खिसक जाता है, फिर वह नीचे आता है, फिर वह पत्थर को ऊपर चढ़ाने लगाता है। काम वाले आदमी की जिंदगी सिसीफस की जिंदगी हो जाती है। चढ़ाता रहता है पत्थरों को, पत्थर गिरते रहते हैं, वह चढ़ाता रहता है। कभी चढ़ाने में लगा रहता है, कभी नीचे गए पत्थर को दौड़कर पकड़ने में लगा रहता है। लेकिन पूरी जिंदगी में वह क्षण नहीं आता जब विराम हो, विश्राम हो, उत्सव हो। वह हो नहीं सकता।

इन काम करने वाले लोगों ने सारी दुनिया को “मैड हाउस’ बना दिया है, बिलकुल पागलखाना कर दिया है। और एक-एक आदमी पागल हो गया है। सब दौड़े जा रहे हैं कि कहीं पहुंचना है, यह मत पूछो…मैंने सुना है एक आदमी के बाबत कि वह तेजी से टैक्सी में सवार हुआ और उसने कहा, जल्दी चलो। टैक्सी वाले ने जल्दी टैक्सी चला दी। थोड़ी देर बाद उसने पूछा, लेकिन चलना कहां है? उसने कहा, यह सवाल नहीं है, सवाल जल्दी चलने का है।

हम सब जिंदगी में ऐसे ही सवार हैं। जल्दी चलो। कहां जा रहे हैं आप? सब चिल्ला रहे हैं, “हरी अप’। लेकिन कहां? जोर से करो जो भी कर रहे हो। लेकिन क्यों? क्या होगा इसका फल? क्या पाने की इच्छा है? उसका कुछ पता नहीं। लेकिन इतना समय भी नहीं कि इसको सोचें। इतने में देरी हो जाएगी, पड़ोसी आगे निकल जाएगा। हम सब भागे जा रहे हैं। काम करने वाले लोगों ने, ये अति कामवादी, जिनको दिखाई पड़ता है कि काम ही सब कुछ है, उन्होंने भारी नुकसान पहुंचाए हैं। एक नुकसान तो इन्होंने पहुंचाया है कि जिंदगी से उत्सव के क्षण छीन लिए हैं। दुनिया में उत्सव कम होते जा रहे हैं। रोज कम होते जा रहे हैं। उत्सव की जगह मनोरंजन आता जा रहा है, जो कि बहुत भिन्न बात है। उत्सव की जगह मनोरंजन आ रहा है, जो बिलकुल भिन्न बात है। उत्सव में स्वयं सम्मिलित होना पड़ता है, मनोरंजन में दूसरे को सिर्फ देखना पड़ता है। मनोरंजन “पैसिव’ है, उत्सव बहुत “एक्टिव’ है। उत्सव का मतलब है, हम नाच रहे हैं। मनोरंजन का मतलब है, कोई नाच रहा है, हमने चार आने दिए और देख रहे हैं। लेकिन कहां नाचने का आनंद और कहां नाच देखने का आनंद। इतना काम हमने कर लिया है कि शाम थक जाते हैं, तो किसी को नाचते हुए देखना चाहते हैं।

कहीं, कामू ने कहीं एक बात लिखी है कि जल्दी वह वक्त आ जाएगा कि आदमी प्रेम भी अपने नौकरों से करवा लिया करेंगे। उसके लिए फुर्सत भी तो चाहिए। काम से फुर्सत कहां है? एक नौकर रख लेंगे घर में कि तू प्रेम का काम कर दिया कर, क्योंकि मुझे तो फुर्सत नहीं होती। इतना काम में लगा हुआ हूं कि यह प्रेम का गोरखधंधा…प्रेम तो उत्सव है। प्रेम से कुछ फल तो निकलता नहीं आगे। अपने में ही जो है, है। तो इसको कौन करेगा? काम वाले लोग नहीं करेंगे। इसके लिए तो सेक्रेटरी रखा जा सकता है, जो इसको निपटा लेगा। काम की अति दौड़ ने उत्सव के क्षण गंवा दिए हैं और उत्सव से जो पुलक आती थी जीवन में, जो थिरक आती थी, वह खो गई है। इसलिए कोई आदमी प्रसन्न नहीं है, प्रमुदित नहीं है, खिला हुआ नहीं है।

इसका “सब्स्टीच्यूट’ हमें खोजना पड़ा मनोरंजन। क्योंकि कोई तो क्षण चाहिए जब हम कुछ न करें, विश्राम में हों। लेकिन हम जो मनोरंजन खोजे हैं, वह उधार उत्सव है। दूसरा कर रहा है और हम देख रहे हैं। वह ऐसे है जैसे दूसरा प्रेम कर रहा है, हम देख रहे हैं। फिल्म में आप क्या करते हैं? कोई प्रेम कर रहा है, आप देख रहे हैं। कृपा करें, आप भी प्रेम करें, यह “सब्स्टीच्यूट’ काम न करेगा। यह बिलकुल झूठा है, कागजी है, इससे कोई हल होने वाला नहीं है। इससे आप खयाल में होंगे कि काम हो गया, लेकिन आपकी वह जो प्रेम की आकांक्षा थी, वह नहीं तृप्त होगी। वह और भूखी हो जाएगी, और प्यासी हो जाएगी।

कृष्ण उत्सववादी हैं, वह जीवन को एक महालीला, एक महा उत्सव की तरह लेते हैं। इन काम करने वालों ने जगत को कोई फायदा पहुंचाया हो, ऐसा तो नहीं दिखाई पड़ता, जगत को उलझाया बुरी तरह। जटिल बहुत कर दिया। और इतना जटिल हो गया वह कि आदमी उसमें जी सके ठीक से, यह भी कठिनाई मालूम होने लगी है।

यह भी ठीक है कि अगर हम राम के भक्त को देखें–हनुमान को देखें, तो वह बड़े कर्मठ, निष्ठावान, ब्रह्मचारी, शक्त्तिशाली, वह सब दिखाई पड़ते हैं। कृष्ण का भक्त वैसा नहीं दिखाई पड़ता। मीरा है–नाचती है, गाती है, लेकिन वह बात नहीं दिखाई पड़ती। वह दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि राम जिंदगी को काम की तरह देखते हैं। कृष्ण जिंदगी को उत्सव की तरह देखते हैं। उत्सव की तरह देखना बात ही और है। लेकिन, अगर आपको चुनाव करना पड़े कि हनुमान के साथ चौबीस घंटे रहना कि मीरा के साथ, सोचना पड़ेगा। थोड़ा सोचना पड़ेगा। तब आपको पता चलेगा कि हनुमान से अगर छुट्टी रहे तो ठीक। इनका करियेगा क्या? इनके साथ चौबीस घंटे गुजारना एक कमरे में मुश्किल हो जाएगा। मीरा के साथ चौबीस जिंदगी भी गुजारी जा सकती है। यह भी सच है कि कृष्ण भक्त, कृष्ण को प्रेम करने वाला, वह जो “आउटर एक्टिविटी’ है, वह जो “एक्स्ट्रोवर्शन’ है, वह जो बहिर्मुखता है, उससे धीरे-धीरे हटता जाता है। वह किसी भीतरी गहरे रस में डूबता जाता है। डूबेगा। क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है कि तुम बड़ा अदभुत खो रहे हो, ना-कुछ के लिए।

और जिस दिन दुनिया में मीराएं बढ़ जाएं उस दिन दुनिया में बड़ी शांति होगी, हनुमान बढ़ जाएं तो बड़ा उपद्रव होगा। गांव-गांव अखाड़े खुल जाएंगे और जगह-जगह उपद्रव होने लगेगा। तो एकाध हनुमान चल सकते हैं एकाध गांव में, ज्यादा नहीं चल सकते। मीरा, मीरा का तारतम्य, मीरा का संबंध जीवन के बहुत गहरे तलों से है। हनुमान बेचारे काम करने वाले एक सेवक हैं, एक “वालंटियर’ हैं। “वालंटियर’ को जैसा होना चाहिए, वैसे वे हैं। वे किसी के लिए जी रहे हैं–काम में लगे हैं, धुन के पक्के हैं, सेवक हैं, वह सब ठीक है। लेकिन, मीरा के आनंद की धुन “बीइंग’ की धुन है, “डूइंग’ की नहीं। वह कुछ करने का मजा नहीं है, होने के क्षण का मजा है। होना ही आनंदपूर्ण है। और अगर गीत वह गा रही है तो गीत गाना काम नहीं है, उसके होने के आनंद से निकली हुई अभिव्यक्ति है। वह इतने आनंद में है कि उससे गीत ही निकल सकता है।

तो मैं चाहूंगा कि जगत धीरे-धीरे संगीत से भरे, गीत से भरे, नृत्य से भरे, उत्सव से भरे। और जिसको हम बाहर का जगत कहते हैं, काम की जो दुनिया है, इस काम की दुनिया का इतना ही उपयोग है कि हम इसमें इतने दूर तक हों जितने दूर तक भीतर जाने के लिए जरूरी हो। इससे ज्यादा होने की जरूरत नहीं है। और रोटी कमानी पड़ेगी, लेकिन रोटी कमाना जिंदगी नहीं है। रोटी कमानी ही इसलिए पड़ती है कि कमा लिया और फिर जिएं। लेकिन कुछ लोग रोटी पर रोटी का ढेर लगाते चले जाते हैं। वे खाना भूल जाते हैं। जब तक रोटियां इकट्ठी हो पाती हैं तब तक भूख भी मर चुकी होती है, क्योंकि इतने दिन खाया नहीं। तब वे अचानक खड़े रह जाते हैं कि क्या करें?

सिकंदर हिंदुस्तान आता था तो वह डायोजनीज से मिला था। डायोजनीज ने उससे पूछा था कि तुम कहां जा रहे हो? यह क्या कर रहे हो? सिकंदर ने कहा कि पहले मुझे एशिया माइनर जीतना है। डायोजनीज ने कहा कि समझा। फिर क्या इरादा है? उसने कहा, हिंदुस्तान जीतना है। फिर? उसने कहा, सारी दुनिया जीतना है। डायोजनीज ने पूछा, फिर?…वह ऐसा रेत पर लेटा था, सुबह धूप निकली थी, नग्न रेत पर पड़ा था…उसने कहा, फिर? सिकंदर ने कहा कि फिर तो विश्राम का इरादा है। डायोजनीज खूब खिलखिलाकर हंसने लगा, और पीछे मांद में उसका कुत्ता, जो इसका साथी था उसे आवाज दी कि सुन, इधर आ। यह पागल सिकंदर को देख। हम अभी आराम कर रहे हैं, यह इतना उपद्रव करके आराम करेंगे। और सिकंदर से डायोजनीज ने कहा, अगर आखिर में आराम ही करना है, आओ, लेट जाओ, नदी के तट पर। जगह यहां काफी है। हम दोनों समा जाएंगे। और मैं आराम कर ही रहा हूं, सिकंदर। इतना करके आराम ही करने का इरादा है न? तो आराम तो अभी किया जा सकता है। सिकंदर ने कहा, बात तो तुम्हारी जंचती है, लेकिन अभी नहीं कर सकता हूं, पहले सब जीत लूं। तो डायोजनीज ने कहा, जीत से और विश्राम का क्या संबंध है? क्योंकि हम बिना जीते कर रहे हैं। सिकंदर ने कहा, बात तो जंचती है, लेकिन अब तो मैं निकल चुका यात्रा पर। आधा नहीं लौट सकता हूं। तो डायोजनीज ने कहा, आधे ही लौटोगे, किसकी यात्रा कब पूरी होती है। और यह हुआ, हिंदुस्तान से लौटकर सिकंदर वापस यूनान नहीं पहुंच पाया, बीच में ही मर गया।

सब सिकंदर मर जाते हैं। आधी यात्रा पर मर जाते हैं। रोटियां इकट्ठी हो जाती हैं, खाने का वक्त नहीं आता। साज-सामान इकट्ठा हो जाता है, बजाने का वक्त नहीं आता। साज ठोंक-पीटकर ठीक कर लिया जाता है। लेकिन जब तक ठोंक-पीट पूरी होती है तब तक हाथ शून्य हो चुके होते हैं, फिर कुछ करने को नहीं बचता।

नहीं, जीवन को तो लेना पड़ेगा उत्सव से ही, वही जीवन की धुनें हैं। आपसे कोई पूछे–गहरे में आप ही अपने से पूछें–कि आप जो कर रहे हैं, वह जीने के लिए कर रहे हैं कि करने के लिए जी रहे हैं? तो आपको उत्तर साफ हो सकेगा। और तब आपको कृष्ण बहुत निकट मालूम पड़ेंगे। आप जीने के लिए कर रहे हैं सब कुछ, करने के लिए नहीं जी रहे हैं। और अगर जीने के लिए कर रहे हैं सब कुछ, तो फिर ठीक है, इतना ही करना काफी है जितने से जिया जा सके। ज्यादा क्यों करना? उसका कोई अर्थ नहीं है।

स्वभावतः, अगर यह वृत्ति फैल जाए तो बहुत से उपद्रव बंद हो जाएंगे। क्योंकि बहुत से उपद्रव हमारे अत्यधिक करने से पैदा हो रहे हैं। दुनिया ज्यादा शांत, ज्यादा आनंदमय, ज्यादा प्रफुल्लित, ज्यादा प्रमुदित होगी। निश्चित ही कुछ बातें चली जाएंगी–चिंताएं चली जाएंगी, तनाव चले जाएंगे, पागलखाने चले जाएंगे, हजारों मानसिक बीमारियां चली जाएंगी, यह जरूर नुकसान होगा। इतनी चीजें चली जाएंगी।

इसलिए मैं तो कहूंगा कि मैं कृष्ण के उत्सववादी चित्त के साथ राजी हूं।

इस देश में न राम को, न कृष्ण को, न बुद्ध को, न महावीर को–जैनों के चौबीस तीर्थंकर में किसी को भी नहीं–दाढ़ी-मूंछ नहीं है उनकी प्रतिमाओं में, न ही उनके चित्रों में।

क्या कारण होंगे इसके पीछे?

ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि इन सबको दाढ़ी-मूंछ नहीं रही होगी। एकाध को हो सकता है न रही हो, सबको न रही होगी, ऐसा मैं नहीं मान सकता। तथ्यगत वह नहीं है। लेकिन फिर भी, हमने नहीं दी है। तो कुछ कारण होंगे। कई कारण हैं।

बड़ा कारण। पहला कारण तो दाढ़ी-मूंछ आने के पहले व्यक्ति की जो वय है, वह सबसे ज्यादा “फ्रेश’ और ताजी है। उसके बाद फिर सब ढलने लगता है। वह ताजगी का, “फ्रेशनेस’ का आखिरी क्षण है। उसके बाद चीजें उतरनी शुरू हो जाती हैं। हमने इन लोगों का ताजगी का अनंत सागर अनुभव किया है। इन्हें हमने कभी उतरते नहीं देखा जिंदगी में, इन्हें हमने सदा ताजे देखा है। ऐसा नहीं कि ये बूढ़े नहीं हुए, ऐसा नहीं कि इनका शरीर नहीं ढला। ऐसा नहीं कि इनके जीवन में वार्द्धक्य के क्षण नहीं आए। वह सब आए, लेकिन इनकी चेतना को हमने सदा किशोर देखा है। “इटर्नल यंग’। उन्हें हमने कभी भी–उनकी चेतना की जो हमारी समझ है वह हमने पाई है कि वह सदा ही किशोर है। वे उतने ही ताजे हैं, उनकी ताजगी में, उनकी चेतना की ताजगी में कभी कोई फर्क नहीं पड़ा है। और ये सारी मूर्तियां और सारे चित्र व्यक्तियों के चित्र नहीं हैं, व्यक्तियों की मूर्तियां नहीं हैं। उन व्यक्तियों के भीतर हमने जो झांका है, उसके चित्र हैं। “कांस्टेंट फ्रेशनेस’, एक युवापन, जो सदा उनके साथ है। कृष्ण को बूढ़ा हम सोच भी नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। ऐसा नहीं है कि वे बूढ़े नहीं हुए। वे बूढ़े हुए लेकिन हम सोच नहीं सकते इस आदमी को, यह बूढ़ा कैसे होगा! और कुछ ऐसे बच्चे भी होते हैं जिनको हम सोच भी नहीं सकते कि ये बच्चे हैं, वे पहले से ही बूढ़े होते हैं।

अभी एक गांव में मैं गया और एक लड़की ने मुझसे कहा–उसकी उम्र कोई तेरह-चौदह साल थी–उसने मुझे कहा कि मुझे तो मुक्ति चाहिए। अब यह लड़की बूढ़ी हो गई। मैंने उससे कहा कि तू बूढ़ी हो गई? मुक्ति की बात! अभी जीया भी नहीं। अभी बंधन में पड़ी भी नहीं, अभी खुलने की बात। लेकिन पर उसने कहा कि मेरे घर में तो, बड़ा धार्मिक घर है, वह मुझे अपने घर ले गई, धार्मिक घर जैसा होता है–उदास, मरा हुआ, मां भी मरी हुई, सारा घर उपवास की छाया में दबा हुआ। स्वभावतः। तो यह लड़की बूढ़ी हो गई। अगर इस लड़की का चित्र बनाना पड़े, तो उसको चौदह साल की उम्र देना “अनआथेंटिक’ होगा, अप्रामाणिक होगा। इस लड़की का चित्र बनाना पड़े, तो कैमरा तो चित्र उसका लेगा उसमें चौदह साल आएंगे, लेकिन अगर कोई चित्रकार इसका चित्र बनाए तो अस्सी साल की उम्र बनानी चाहिए। इसके चित्त की उम्र वह हो गई।

बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम, ये सदा “यंग’ हैं। लेकिन, हम पच्चीस साल का भी बना सकते थे उनका चेहरा, तब उन पर दाढ़ी-मूंछ होती। वह तेरह-चौदह साल वाला चेहरा, जिसकी दाढ़ी-मूंछ नहीं है, वह हमने क्यों बनाया? उसके पीछे कारण हैं। जो चीज शुरू हो गई, फिर उसका अंत आता है। अगर दाढ़ी-मूंछ हो गई शुरू, अब वह जाएगी भी, गिरेगी भी, बुढ़ापा आएगा भी। तो इसलिए हमने उस जगह से, जहां से वह शुरू ही नहीं हुई है, उसको हमने “लास्ट प्वाइंट’ समझ लिया। उसके बाद हमने उनका चित्रण नहीं किया। एक कारण।

दूसरा कारण, पुरुष के मन में सौंदर्य का जो खयाल है, वह स्त्रैण है। पुरुष के मन में सौंदर्य की जो प्रतिमा है, वह स्त्री की है। पुरुष के मन में सौंदर्य की प्रतिमा पुरुष की नहीं है। और ये सारे कवि, और ये सारे चित्रकार, और ये सारे शास्त्रकार पुरुष हैं। अगर कृष्ण को सुंदर बनाना है–और सुंदर बनाना ही है, क्योंकि कृष्ण से ज्यादा सुंदर क्या हो सकता है–तो जो चेहरे की शक्ल होगी, वह स्त्रैण होगी। इसलिए बुद्ध की, कृष्ण की, सबके चेहरे की शक्ल स्त्रैण है। चेहरे पर जो बिंब है, वह स्त्री का है। पुरुष का नहीं है। पुरुष की समझ सौंदर्य की स्त्रैण है। इसलिए सारी दुनिया में जैसे हमारी समझ बढ़ती चली गई, पुरुष ने अपनी दाढ़ी-मूंछ काटकर अलग कर दी। कारण वही है। पहले उसने राम, बुद्ध की साफ की, बाद में अपनी साफ कर दी। उसके मन में खयाल है कि चेहरा तो स्त्री का सुंदर है। तो स्त्री के चेहरे जैसा कैसे उसका चेहरा हो जाए, इसकी चेष्टा में सतत लगा हुआ है।

हालांकि यह बात स्त्री की तरफ से सच नहीं है। यह बात स्त्री की तरफ से सच नहीं है। स्त्री के मन में जो सौंदर्य का अर्थ है, वह सदा पुरुष जैसा है। स्त्री के मन में दूसरी स्त्री बहुत सुंदर नहीं मालूम हो सकती। स्वभावतः, स्त्री के मन में जो सौंदर्य का बिंब है, वह पुरुष के चिह्न का है। अगर स्त्रियां राम, कृष्ण और बुद्ध की मूर्तियां और चित्र बनातीं, तो मेरी अपनी समझ है कि उसमें दाढ़ी-मूंछ अनिवार्य होती। क्योंकि स्त्रियों को वह जंचता ही नहीं, वह स्त्रैण मालूम पड़ते हैं। और मैं आज भी नहीं मानने को राजी हूं यह कि दाढ़ी-मूंछ अलग करने के बाद स्त्री को कोई चेहरा बहुत प्रीतिकर लगता है। नहीं लग सकता। क्योंकि जिस चेहरे से दाढ़ी-मूंछ विदा हो गई, उस चेहरे से पुरुष का कुछ हिस्सा विदा हो जाता है। हो जाता है। आप जरा उल्टा करके सोचें, कि स्त्रियां दाढ़ी-मूंछ लगा लें, तब आपको कितनी प्रीतिकर लगेंगी? आप भी दाढ़ी-मूंछ काटकर उतने ही प्रीतिकर लगते होंगे। स्त्रियां चाहे कहें, चाहे न कहें, क्योंकि स्त्रियों को कहने की स्वतंत्रता भी नहीं रह गई है। उनके सोचने के ढंग भी पुरुष ने तय कर दिए हैं। इसलिए वे कभी “असर्ट’ भी नहीं कर सकती हैं। लेकिन आप ध्यान रखें कि जब भी किसी युग में पुरुष-सौंदर्य प्रगट होता है, तो दाढ़ी-मूंछ लौट आती है। दाढ़ी-मूंछ की रौनक वापिस लौट आती है। लेकिन, कभी भी, कहीं भी, जब भी कहीं ऐसा होता है कि पुरुष-सौंदर्य स्थापित होता है, तो दाढ़ी-मूंछ वापिस लौट आती है। लेकिन वह स्त्री को देख-देखकर अगर हम अपना चेहरा निर्धारित करेंगे, तो उसमें दाढ़ी-मूंछ चली जाएगी।

स्त्रियां भी पुरुष जैसे होने की बड़ी कोशिश में लगी रहती हैं। सारी दुनिया में चल रही है दौड़। स्त्रियां पुरुष जैसे कपड़े पहना चाहेंगी, क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का अर्थ पुरुष है। पुरुष जैसी घड़ियां बांधना चाहेंगी, क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का अर्थ पुरुष है। पुरुष जैसे काम करना चाहेंगी क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का प्रतीक पुरुष है। अगर स्त्रियों का समाज किसी दिन जीत गया–जिसका कि डर रोज-रोज पैदा होता जा रहा है–क्योंकि पुरुष काफी दिन मालकियत कर लिया, अब पलड़ा बदलेगा। बहुत दिन हो गई, आप स्त्री के ऊपर बैठे-बैठे, अब स्त्री आपके ऊपर आएगी। जिस दिन स्त्री आपके ऊपर आएगी, कुछ आश्चर्य न होगा कि स्त्री दाढ़ी-मूंछ लगाने की कोशिश करे। कोई आश्चर्य न होगा। आज हमें आश्चर्य लगता है, क्योंकि वह घटना हमारे खयाल में नहीं आती। वैसे वह और तरह से दाढ़ी-मूंछ लगाने की कोशिश में लगी हुई है। वह ठीक पुरुष जैसे होने की कोशिश में लगी हुई है–सब भांति वह पुरुष के बगल में खड़ी हो जाए, पुरुष की दूसरी “कॉपी’ बनकर। पुरुष भी उस कोशिश में लगा रहा है। यह “एब्सर्ड’ कोशिश है। इसका कोई मतलब नहीं है।

जिन चित्रकारों ने, जिन मूर्तिकारों ने कृष्ण, राम और बुद्ध की मूर्तियां अंकित की हैं, वे पुरुष हैं और स्त्रैण सौंदर्य उनके मन में है, इसलिए ये कोई चित्र और प्रतिमाएं “आथेंटिक’ नहीं हैं, प्रामाणिक नहीं हैं। अगर आप जैनों के चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएं देखें तो आपको पता चल जाएगा कि वे बिलकुल एक जैसे हैं। अगर उनके नीचे बने हुए चिह्न अलग कर दिए जाएं तो उनमें कोई फर्क नहीं है। अगर बुद्ध और महावीर की प्रतिमाओं पर से सिर्फ कपड़े का भेद अलग कर दिया जाए तो वे बिलकुल एक जैसी हैं, उनमें कोई फर्क नहीं रह जाता। क्या ये सब शक्लें एक जैसी रही होंगी? नहीं, ये शक्लें एक जैसी नहीं हो सकतीं। एक जैसी शक्लें कब होती हैं! लेकिन बनाने वाले चित्रकार के पास एक जैसे प्रतीक हैं। वह बुद्ध को बनाने वाला चित्रकार भी बुद्ध की मूर्ति को सुंदरतम बनाने की कोशिश कर रहा है। महावीर का चित्रकार भी महावीर की मूर्ति को सुंदरतम बनाने की कोशिश कर रहा है। और तब वह सुंदरतम बनाने की कोशिश में वे शक्लें एक जैसी हो जाने वाली हैं। वे करीब-करीब एक-जैसी हो गई हैं।

“कर्म उतना ही करना काफी है जितने से जिआ जा सके, ज्यादा क्यों करना, अगर यह वृत्ति रह जाए और कर्म करने वाले न हों तो मीरा के हाथ में तंबूरा भी नहीं आए और हम जो “टेप’ कर रहे हैं भगवान श्री का प्रवचन, वह “टेपरिकार्डर’ और “लाउड-स्पीकर’ भी नहीं हो। वह भी कर्म की ईज़ाद है, वही प्रश्न रह जाता है। कृपया इसे समझाएं? और जीवन को उत्सव मनाने वालों से गरीबी कैसे दूर होगी?’

 

हां, यह भी सोचने जैसा है कि मीरा के हाथ में जो तंबूरा आया, वह कर्म करने वाले लोगों की वजह से आया कि उत्सव मनाने वाले लोगों की वजह से आया? तंबूरा कर्म करने वाले पैदा नहीं करते। कुदाली बनाते हैं, तंबूरा नहीं बनाते। तंबूरे का कर्म से कोई लेना-देना नहीं है। कुदाली बनाते हैं, कुल्हाड़ी बनाते हैं, तलवार बनाते हैं, तंबूरा बनाने से कर्म करने वाले का क्या लेना-देना! तंबूरा तो बनाते ही वे लोग हैं जो जिंदगी को खेल की तरह ले रहे हैं। जिंदगी में जो भी श्रेष्ठ आया है, चाहे तंबूरा हो, चाहे ताजमहल हो, वह उन लोगों के मन से आता है, उन लोगों के सपनों से आता है, जो जिंदगी को एक उत्सव बना रहे हैं। स्वभावतः, ये उत्सव मनाने वाले लोगों भी उन लोगों का उपयोग करेंगे, जो जिंदगी को काम समझे हुए हैं। लेकिन जो लोग उसे काम समझकर कर रहे हैं, वे भी चाहते तो उत्सव समझकर कर सकते थे। मैं मानता हूं कि आप ताजमहल को देखकर जितने आनंदित होते हैं, उतना ताजमहल की ईंट रखने वाले मजदूर आनंदित नहीं हुए, वे काम कर रहे थे। जिन्होंने ताजमहल बनाया था वे उतने आनंदित नहीं थे, उनके लिए वह काम था। लेकिन, क्या वजह है, क्या ईंट उत्सव की तरह नहीं रखी जा सकती? मैं एक कहानी निरंतर कहता हूं–

एक मंदिर बन रहा है और एक आदमी वहां से गुजरा है और उसने पत्थर तोड़ते एक आदमी से, मजदूर से पूछा है कि तुम क्या कर रहे हो? तो उस आदमी ने उसकी तरफ देखा भी नहीं और क्रोध से कहा कि अंधे तो नहीं हो? देखते नहीं कि पत्थर तोड़ रहा हूं? आंखें हैं कि नहीं? वह आदमी आगे बढ़ा। और उसने दूसरे मजदूर से पूछा–हजारों मजदूर पत्थर तोड़ रहे हैं–उसने दूसरे से पूछा कि मेरे मित्र, क्या कर रहे हो? उस आदमी ने उदासी से अपनी छैनी-हथौड़ी नीचे रख दी, उस आदमी की तरफ देखा और कहा कि दिखाई तो यही पड़ रहा है कि पत्थर तोड़ रहा हूं, ऐसे रोटी कमा रहा हूं। बच्चों के लिए, बेटों के लिए, पत्नी के लिए रोटी कमा रहा हूं। उसने फिर अपना तोड़ना शुरू कर दिया। वह आदमी तीसरे आदमी के पास पहुंचा जो मंदिर की सीढ़ियों के पास पत्थर तोड़ रहा था और गीत भी गा रहा था। उसने उससे पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने कहा, क्या कर रहा हूं? भगवान का मंदिर बना रहा हूं। उसने फिर पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया और गीत गाना शुरू कर दिया। ये तीनों आदमी एक ही काम कर रहे हैं, तीनों पत्थर तोड़ रहे हैं। लेकिन इन तीनों का सोचने का ढंग पत्थर तोड़ने के बाबत भिन्न है। वह जो तीसरा आदमी है, उसने पत्थर तोड़ने को उत्सव बना लिया है।

मैं नहीं कहता हूं कि लोग गरीबी न मिटाएं, मैं नहीं कहा हूं कि लोग यंत्र न बनाएं, मैं नहीं कहता हूं कि लोग समृद्धि पैदा न करें, लेकिन इस सबको भी उत्सव की तरह ही, इस सबको भी काम की तरह नहीं। गरीबी अगर काम की तरह मिटाई गई, तो हो सकता है गरीबी तो मिट जाए, लेकिन गरीब आदमी दुनिया से नहीं मिटेगा। लेकिन अगर गरीबी उत्सव की तरह मिटाई गई, तो हो सकता है गरीबी उतनी जल्दी शायद न भी मिटे, लेकिन गरीब आदमी मिट सकता है।

हम जो कह रहे हैं, उसके प्रति हमारा “ऐटिटयूड’ क्या है, वह सवाल है। और जब इस “ऐटिटयूड’ का, इस भाव का परिवर्तन होता है, तो हमारी सारी गतिविधि बदल जाती है। एक माली भी सुबह आकर इस बगीचे में काम करता है, लेकिन इसे उत्सव की तरह नहीं ले पाता। कौन उसे रोक रहा है कि उत्सव की तरह न ले? माना कि वह रोटी कमा रहा है, रोटी बराबर कमा रहा है, कमाए, लेकिन यह खिलते हुए फूलों को उत्सव की तरह न ले, यह कौन रोक रहा है? और इनको उत्सव की तरह न लेकर वह कौन-सा ज्यादा कमा ले रहा है। मैं तो मानता हूं कि अगर वह इसको आनंद की तरह ले, इसको…काम तो है ही, रोटी कमा ही रहा है, वह गौण है…लेकिन उसके चित्त में प्रमुख अगर यह फूलों का आनंद और इनके खिलने की खुशी हो जाए, तो वह माली, सिर्फ नौकर नहीं रह जाएगा, वह बहुत गहरे अर्थों में इन फूलों का मालिक भी हो जाएगा, बिना मालिक बने। और जब फूल खिलेंगे तब उसे एक आनंद भी मिलेगा, जो अकेले काम से कभी नहीं मिल सकता है। गरीबी भी मिटानी है, दुख भी मिटाना है, लेकिन वह काम की भांति नहीं; वह भी जीवन के उत्सव में सब लोग सम्मिलित हो सकें, इसलिए।

जब मैं कहा हूं कि गरीबी मिटानी है, तो मेरा मतलब बहुत ज्यादा यह नहीं होता कि गरीब बहुत तकलीफ में है इसलिए मिटानी है। मेरा मतलब इतना ही होता है कि गरीब रहते हुए जीवन के महोत्सव में भागीदार होना बहुत मुश्किल है, इसलिए मिटानी है। मैं जब गरीबी मिटाना चाहता हूं, तो मेरे लिए मतलब इतना ही नहीं है कि उसका पेट खाली है, वह भर दिया जाए किसी तरह। न, मेरे मन में खयाल यह है कि उसकी आत्मा को भरना मुश्किल पड़ेगा, जब तक पेट नहीं भर जाता। और उसकी आत्मा तो उत्सव से भरेगी, पेट काम से भरेगा।

और आत्मा की तरफ अगर ध्यान हो तो हम जीवन के सब कामों को उत्सव बना ले सकते हैं। उस खेत में हम गङ्ढे भी खोद सकते हैं और गीत भी गा सकते हैं। सदा से ऐसा था ही। आज फैक्ट्री उतनी आनंदपूर्ण नहीं रह गई। लेकिन आज नहीं कल, मैं आपसे कहता हूं, फैक्ट्री में गीत वापस लौटेगा। किसान अपने खेत पर काम कर रहा था, वह काम तो था ही, लेकिन वह गीत भी गा रहा था। उसके गीत की वजह से काम में बाधा नहीं पड़ती थी, काम में सिर्फ गति आती थी। लेकिन फैक्ट्री में तो गीत गाने की सुविधा नहीं है। वहां सिर्फ काम रह गया है, सात घंटे। आदमी थका हुआ लौट आता है, टूटा हुआ आता है। आज नहीं कल, और जिन मुल्कों में इस पर काम चलता है, खोज होती है, वह मुल्क इसके करीब आते जा रहे हैं कि फैक्ट्री में जो आदमी काम कर रहा है, अगर अकेला काम ही रहेगा, तो खतरा है बहुत। इसके काम को आनंद में रूपांतरित करना होगा। बहुत दिन दूर नहीं, जबकि फैक्ट्री में भी गीत गाया जा सके। और उत्सव के लिए क्षण खोजे जा सकें। खोजने ही पड़ेंगे, अन्यथा आदमी उदास और रिक्त होता चला जाएगा।

एक स्त्री घर में खाना बना रही है। वह खाना ऐसे भी बना सकती है जैसा होटल में रसोइया बनाता है। तब काम हो जाएगा। वह खाना ऐसे भी बना सकती है जब कोई अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करता है और खाना बनाता है। तब काम उत्सव हो जाएगा। और दोनों हालत में काम होता है।

इसलिए मैंने ऐसा कहा।

“आपने कहा कि कृष्ण चित्त की भूमिका से ऊपर उठ गए हैं। और यह भी कहा कि चित्त की सहज प्रेरणाओं से प्रेरित होकर उन्होंने गोपियों के वस्त्रों का अपहरण किया। जो व्यक्ति चित्त के ही ऊपर उठ गया, क्या वह भी चित्त की सहज प्रेरणा से प्रेरित होगा? और अगर होगा तो पशु भी इस प्रकार उसके ही समान हो गया?’

मैंने कहा कि कृष्ण चित्त के पार हो गए थे। इसका मतलब यह नहीं कि कृष्ण का चित्त नहीं रह गया था।

चित्त के पार होने का मतलब इतना ही है कि चित्त के पार जो है, कृष्ण उसे भी जान गए, पहचान गए थे। चित्त तो था ही। समाहित था। कृष्ण का व्यक्तित्व चित्त से बड़ा व्यक्तित्व हो गया था, उसमें चित्त की भी जगह थी।

चित्त के पार हो जाने के दो अर्थ हो सकते हैं। चित्त की दुश्मनी में पार हो गए हों, तो चित्त कटकर अलग टूट जाता है। लेकिन अगर चित्त की मैत्री में पार हुए हैं, तो चित्त सम्मिलित होता है, समाहित होता है। इस बड़ी घटना में जो चित्त के पार घट रही है, चित्त भी अपना हिस्सा रखता है, वह भी अपनी जगह होता है। जब मैं कहता हूं कि मैं शरीर के पार हो गया, तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं शरीर नहीं रह गया। इसका केवल इतना ही मतलब है कि मैं सिर्फ शरीर नहीं रह गया। शरीर तो हूं ही, और भी कुछ हूं, “समथिंग एडेड’, “समथिंग प्लस’। शरीर कट नहीं गया, कुछ और भी जुड़ गया। कल तक मैं सोचता था, शरीर ही हूं, अब मैं जानता हूं कि और भी कुछ हूं। शरीर तो हूं ही, वह जो और कुछ है उसने शरीर के होने को मिटा नहीं डाला, और “रिच’ और समृद्ध कर दिया। आत्मा भी हूं। और जब कोई व्यक्ति जानता है परमात्मा को भी, तो ऐसा नहीं है कि आत्मा मिट जाती है, तब यह जानता है कि परमात्मा भी हूं। और आत्मा और चित्त, सब उस बड़े विराट में समाहित होते चले जाते हैं। कुछ खोता नहीं, जुड़ता जाता है।

तो कृष्ण को जब मैं कहता हूं चित्त के पार हो गए थे, तो मेरा मतलब यह है कि उन्होंने उसे भी जान लिया था जो चित्त के पार फैला है। लेकिन चित्त तो वे थे ही। वह दुश्मन नहीं हैं चित्त के। वह चित्त के शत्रु नहीं हैं, उससे लड़कर पार नहीं हो गए थे, उसको जीकर पार हो गए थे। और इसलिए जब मैं कहता हूं कि उनके सहज चित्त से जो उठा था वह हुआ था, तो मेरा मतलब यही है कि अब उनके भीतर सब सहज ही हो सकता है।

चित्त में, असहज तभी तक होता है जब तक चित्त के भीतर हमारी लड़ाई होती है। एक हिस्सा कहता है करो, एक कहता है मत करो। लड़ाई होती है। तब चीजें असहज हो जाती हैं। जब पूरा चित्त इकट्ठा होता है, तो जो होना होता है, वह हो जाता है, जो नहीं होना होता, वह नहीं होता है। तब सहज होता है। लेकिन यह बात बहुत अच्छी पूछी है कि फिर पशुओं में और उनमें फर्क क्या रह जाएगा?

एक हिसाब से बिलकुल नहीं, एक हिसाब से बहुत ज्यादा। एक हिसाब से बिलकुल नहीं। पशु भी सहज हैं, लेकिन बिना जानते हुए, बेहोशी में। कृष्ण भी सहज हैं, लेकिन जानते हुए, होश में। सहजता समान है, बोध भिन्न है। पशु भी सहज है, जो हो रहा है हो रहा है। लेकिन इसका पशुओं को कोई बोध नहीं है कि जो हो रहा है, वह हो रहा है। इसकी कोई “अवेयरनेस’, इसकी कोई प्रज्ञा नहीं है। यंत्रवत हो रहा है। कृष्ण को जो हो रहा है, इसका साक्षी भी पीछे खड़ा है, जो देख रहा है कि ऐसा हो रहा है। पशु के पास साक्षी नहीं है।

कृष्ण चित्त के पार चले गए हैं, पशु अभी चित्त के पहले हैं। कृष्ण चित्त के “बियांड’, पशु चित्त के “बिलो’। अभी पशु के पास चित्त भी नहीं है, अभी पशु के पास शरीर ही है। “इंस्टिंक्ट’ हैं, अभी वृत्तियां हैं, और ये यंत्रवत काम करा रही हैं और वह काम कर रहा है। अभी पशु के पास चित्त भी नहीं है। इसलिए चित्त के पार जो गया है उसमें और चित्त के नीचे जो है, एक तारतम्य होगा।

बहुत पुरानी, फकीरों में एक कहावत है कि जब कोई परम ज्ञान को उपलब्ध होता है तो परम अज्ञानी जैसा हो जाता है। उसमें थोड़ी सचाई है। क्योंकि परम अज्ञानी में…जैसा हम जड़भरत को जानते हैं। अब जड़भरत नाम दिया है, उस परम ज्ञानी को! लेकिन हो गया वह जड़ जैसा। एक अर्थ में जो पूर्ण ज्ञान है, वह उस पूर्ण अज्ञान जैसा मालूम पड़ेगा। कम-से-कम पूर्णता तो समान है, एक बात वह दोनों में है। ज्ञान में भी कोई बेचैनी नहीं रह गई, क्योंकि सब जान लिया गया। अज्ञान में कोई बेचैनी नहीं है क्योंकि अभी कुछ जाना ही नहीं गया है। बेचैनी होने के लिए कुछ तो जाना जाना चाहिए! पशु, जो हो रहा है, इसको उसे कोई बोध नहीं है। कृष्ण, जो हो रहा है, हो रहा है, बोध पूरा है। यह अबोध में नहीं हो रहा है। इसलिए हम कहते हैं, जब संत अपने पूरे व्यक्तित्व को उपलब्ध होता है तो वह बच्चों जैसा हो जाता है।

जीसस से कोई पूछता है कि आपके प्रभु के राज्य में क्या होगा? या जो आदमी प्रभु को उपलब्ध हो जाएगा वह कैसा होगा? तो जीसस कहते हैं, वह व्यक्ति जो प्रभु को उपलब्ध हो जाएगा, बच्चों जैसा होगा। लेकिन जीसस यह नहीं कहते कि बच्चे उसे उपलब्ध हो गए हैं। नहीं तो सभी बच्चे उपलब्ध हो गए हों। न, वह कहते हैं, बच्चों जैसा, बच्चा नहीं। बच्चों जैसा, “जस्ट लाइक चिल्ड्रन’। अगर वह कहें कि बच्चा हो जाएगा, तो फिर बच्चे तो बच्चे हैं ही, फिर इसमें और उपद्रव की क्या जरूरत है। नहीं, बच्चा अभी नीचे है। “बिलो’ है; वह “बियांड’ होगा। बच्चे को अभी तनाव में जाना पड़ेगा, वह तनाव में जाकर निकल चुका है। बच्चा अभी “पोटेंशियली’ सब बीमारियां लिए हुए है, वह सारी बीमारियों के पार हो गया है। अभी पशु को उन सारी बीमारियों से गुजरना पड़ेगा जो आदमी की हैं, और कृष्ण उन सारी बीमारियों के पार गुजर गए हैं। इतना फर्क है और इतनी समानता भी है।

“भगवान श्री, आपने स्वधर्म और निजधर्म की चर्चा की, उसमें जो श्लोक का पहला भाग है वह यह कहता है कि स्वधर्म विगुण भी श्रेष्ठ है। स्वधर्म अगर निजता है, तो वह विगुण, गुणरहित कैसे हो सकता है? क्या कोई निजता गुणरहित भी होती है?’

 

से आखिरी सवाल समझें, फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे। पूछते हैं कि स्वधर्म विगुण होगा, गुणरहित होगा, ऐसा कैसे हो सकता है? निजता विगुण कैसे हो सकती है?

इसमें दो बातें खयाल में लेनी जैसी हैं। एक तो, चीजें अपने मूल में सदा ही निर्गुण, विगुण होती हैं। सिर्फ अभिव्यक्ति में गुण उपलब्ध होता है। जैसा अभी एक बीज है। अभी यह विगुण है, अभी इसमें कोई गुण नहीं है। सिर्फ बीज होने का गुण है। सिर्फ “पोटेंशियलिटी’ है। इसमें लाल फूल खिलेंगे, अभी खिले नहीं हैं। कल यह फूल बन जाएगा। तब लाल फूल खिलेंगे। फूल गुणवान हो जाएगा। उसकी सुगंध होगी खास, उसका रंग होगा खास, उसका व्यक्तित्व होगा खास, लेकिन बीज में चीजें गुणशून्य हैं। अभिव्यक्ति में प्रगट होकर गुण को उपलब्ध होंगी।

जगत गुण है, परमात्मा निर्गुण है। परमात्मा बीज-रूप है। जब प्रगट होता है तब गुण दिखाई पड़ते हैं, जब अप्रगट हो जाता है तो गुण खो जाते हैं। एक आदमी अच्छा है, एक आदमी बुरा है; एक आदमी चोर है, एक आदमी साधु है; दोनों सो गए, दोनों विगुण हो गए। सुषुप्ति में कोई गुण नहीं रह जाता–साधु साधु नहीं रह जाता, चोर चोर नहीं रह जाता। और सुषुप्ति में निजता के बहुत करीब होते हैं, एकदम करीब होते हैं, वहां कोई गुण नहीं रह जाता। सुषुप्ति में चोर चोर नहीं है, साधु साधु नहीं है। हां, जागेंगे तो चोर चोर हो जाएगा, साधु साधु हो जाएगा। जागते ही गुण आएंगे, सोते ही गुण सो जाएंगे। सुषुप्ति में हम अपनी निजता के बहुत करीब होते हैं, समाधि में तो हम निजता में ही पहुंच जाते हैं। तो ठीक निजता का जो अनुभव है, स्वभाव का जो अनुभव है, वह निर्गुण होगा। लेकिन स्वभाव की जो अभिव्यक्ति है, “मेनीफेस्टेशन’ है, वह सगुण होगी। सगुण और निर्गुण दो चीजें नहीं हैं। सगुण और निर्गुण विरोधी चीजें नहीं हैं। सगुण निर्गुण की अभिव्यक्ति का नाम है। और निर्गुण सगुण के अप्रगट अवस्था का नाम है।

तो स्वभाव की दो स्थितियां होंगी, निजता की दो स्थितियां होंगी। एक तो वह निजता, जो अप्रगट है, बीज-रूप है, गर्भ में है; अभी प्रगट नहीं हो गई, अभी सोई है, अपने में डूबी है। लीन है। और एक वह निजता, जो प्रगट हो गई। और जब प्रगट होती है निजता तो आकार ले लेती है, गुण ले लेती है। असल में कोई अभिव्यक्ति निराकार नहीं हो सकती, और कोई अभिव्यक्ति निर्गुण नहीं हो सकती। जैसे ही कोई चीज प्रगट होगी, उसका रूप, रंग, आकार प्रगट होगा। प्रगट होने का मतलब ही यह है कि उसे रूप, रंग में होना पड़ेगा।

एक छोटी-सी कहानी याद आती है। एक झेन कहानी है। एक झेन साधु अपने शिष्यों को चित्र बनाना सिखाता है। चित्रों से ध्यान के मार्ग पर ले जाता है। कहीं से भी जाया जा सकता है। जगत में जो भी कोई जगह है, वहीं से ध्यान तक जाया जा सकता है। उसके दस शिष्य एक दिन सुबह इकट्ठे हुए हैं और उसने कहा कि तुम जाओ और एक चित्र की मैं तुम्हें रूपरेखा देता हूं। वह रूपरेखा यह है कि एक गाय, घास से भरे मैदान में, घास चर रही है। तुम यह चित्र बना लाओ। लेकिन ध्यान रहे चित्र निर्गुण हो।

वे दसों चित्रकार गए और बहुत मुश्किल में पड़ गए। फकीर का काम ही यह है कि किसी को मुश्किल में डाले। और कोई काम नहीं है। क्योंकि मुश्किल में डाले तो शायद स्वयं का खयाल भी आ जाए। वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए कि निर्गुण कैसे होगा यह? रंग का तो उपयोग करना पड़ेगा। कम-से-कम गाय को आकार तो देना पड़ेगा, घास भी बनानी तो पड़ेगी।

नौ चित्रकार बनाकर लाए। उन्होंने ऐसा बनाया कि बहुत साफ-साफ न दिखाई पड़े, लेकिन फिर भी गाय तो थी ही। घास भी ऐसा बनाया, ठीक “एब्सटे्रक्ट आर्ट’ का उपयोग किया होगा कि चीजें साफ-सुथरी नहीं हैं। लेकिन फिर भी रंग का उपयोग करना पड़ा। एक-दूसरे के चित्र देख कर वे पूछने लगे, गाय कहां है? तो एक चित्रकार ने यह भी कहा कि जब मैं बना रहा था तब तो मुझे पक्का पता था, अब मुझे जरा शक है। क्योंकि निर्गुण बनाने की कोशिश की है, तो अब मैं पक्का नहीं कह सकता, किस जगह है? लेकिन उस गुरु ने नौ के ही चित्र फेंक दिए और कहा कि निर्गुण में रंग कैसा? गाय कैसी? दसवां आदमी खाली कोरा कागज लेकर आ गया। उसने कहा, यह रहा। तो उन बाकी नौ चित्रकारों ने पूछा कि गाय कहां है? उसने कहा, गाय ने चर लिया। चीजें लौट गईं। यह निर्गुण चित्र है। गाय घर चर रही है, लेकिन चर चुकी है। घास समाप्त हो गई, कोरा कागज रह गया।

निर्गुण निजता की जो बहुत गहराई है, वहां तो सब निराकार है, निर्गुण है; विगुण, गुणरहित है। अभिव्यक्ति जब गाय घास चरती है तब प्रगट होती है। फिर घास भी आती है, फिर गाय भी आती है, फिर सब खेल होता है। फिर सब विदा हो जाता है।

यह जगत का इतना बड़ा विस्तार कभी विगुण में था। कभी यह सब शून्य में जन्मा, कभी यह फिर शून्य में समाहित हो जाएगा। सब जन्मता है, सब समाहित हो जाता है। जहां से जन्मता है, वहीं लौट जाता है। और वह जो शून्य की अवस्था है उसमें पूर्ण छिपा है, अपने पूर्ण गुणों को लेकर, लेकिन विगुण है, निर्गुण है, अभी उसमें गुण नहीं आया, अभी आएगा।

इस अर्थ में निजता के दो रूप हुए–सभी चीजों के दो रूप हैं–“मैनिफेस्टेड’, “अनमैनिफेस्टेड'; प्रगट, अप्रगट। प्रगट में गुण दिखाई पड़ते हैं, अप्रगट में निर्गुण रह जाता है।

इसलिए कृष्ण को भी दो तरफ से देखना है–एक तो उनका जो दिखाई पड़ता है व्यक्तित्व, और एक वह जो दिखाई पड़ता है। जो अश्रद्धालु है, वह सिर्फ उसी को देख पाएगा जो दिखाई पड़ता है। और जिसके जीवन में श्रद्धा भी जन्मी है, वह उसको भी देख पाएगा जो नहीं दिखाई पड़ता है। तर्क, चिंतन, मनन, विचार, “मैनिफेस्टेड’ से आगे नहीं जाएगा, प्रगट के आगे नहीं जाएगा, गुण के आगे नहीं जाएगा। ध्यान, प्रार्थना, श्रद्धा, “अनमैनिफेस्टेड’ में प्रवेश कर जाएगी। वह जो नहीं दिखाई पड़ता है, जो अदृश्य है, उसमें प्रवेश कर जाएगा। लेकिन जो अभी “मैनिफेस्टेड’ को भी नहीं पकड़ पाते वे “अनमैनिफेस्टेड’ को नहीं पकड़ पाएंगे।

इसलिए तर्क का, विचार का एक काम है कि वह वहां तक पहुंचा दे, उस सीमांत तक, जहां अभिव्यक्त समाप्त होता है और अनभिव्यक्त शुरू होता है। फिर वहां छलांग लगानी पड़ेगी। फिर वहां अपनी बुद्धि से कूद जाना पड़ेगा। फिर अपने ही चित्त के आगे चले जाना होगा। फिर “बियांड वनसेल्फ’ फिर खुद को ही पार कर जाना होगा। फिर खुद को ही “ट्रांसेंड’ कर जाना होगा। लेकिन उसका यह मतलब नहीं है कि जो जाएगा, फिर ज्ञान में जो दिखाई पड़ेगा, उसमें जो पहले जाना था वह कट जाएगा। नहीं, वह उसमें समाहित हो जाएगा। और जिस दिन “मैनिफेस्टेड’ और “अनमैनिफेस्टेड’, प्रगट और अप्रगट दोनों इकट्ठे हो जाते हैं, उस दिन एब्सोल्यूट, जिसको हम पूर्ण सत्य कहें, उसका साक्षात्कार है।

अब दोत्तीन बातें ध्यान के संबंध में समझ लें। एक तो, जो प्रयोग हमने पहले दिन किया था, दस मिनिट शांत खड़े रहना थोड़े से ही मित्रों को संभव हो पाता है, कोई बीस प्रतिशत लोगों को। अस्सी प्रतिशत लोगों को, पुराना जो आजोल या नारगोल में ध्यान का प्रयोग चलता था, वही ठीक पड़ जाता है। इसलिए आज से हम आजोल में किए गए प्रयोग को ही जारी रखेंगे। और दोनों तरह के प्रयोग जारी रखें तो मेरे सुझाव में कठिनाई होगी और आपको कनफ्यूजन होता है, वह कठिनाई खड़ी हो जाती है। इसलिए इस प्रयोग को, कुछ नए मित्र होंगे, वे समझ लें।

सबसे पहले तो संकल्प करना है, चालीस मिनट आंख बंद रखने का। कुछ भी हो जाए, आंख नहीं खोलनी है। बहुत मन होगा कि खोलें। लेकिन अगर भीतर देखना हो तो बाहर देखना थोड़ी देर के लिए छोड़ देना जरूरी है। और इस संकल्प का भी बड़ा फायदा है। अगर चालीस मिनट भी आंख सतत बंद रखी जा सकी, तो आपकी विल, आपके संकल्प को जागृति होती है।

तो जब मैं कहूं कि चालीस मिनट आंख बंद रहेगी, तो जब तक मैं न कहूं, तब तक आपको नहीं खोलनी है। कभी किसी की भूल से खुल जाती है–खोलता नहीं, अचानक खुल जाती है–तो उसे तत्काल बंद कर लेनी है। उसके लिए कोई परेशान नहीं होना है।

दूसरी बात, संकल्प हम करेंगे हाथ जोड़कर परमात्मा के समक्ष कि हम अपनी पूरी शक्ति लगाएंगे। एक बार हमें साफ होना चाहिए कि हमें पूरी शक्ति लगानी है। यह पक्का खयाल होना चाहिए कि पूरी शक्ति लगानी है। क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि कुछ पानी अट्ठानबे डिग्री से वापस लौट आते हैं और भाप नहीं बन पाते, दो ही डिग्री का फासला था, थोड़ी और ताकत लगाते तो पार हो जाते–लेकिन दो इंच पहले लौट आए। और कुछ पता नहीं है कि वह सीमा कहां आती है जहां से पार होते हैं। इसलिए आप अपनी तरफ से पूरी शक्ति ही लगाएं।

पहले चरण में दस मिनट तक गहरी श्वास लेनी है। जिनको श्वास की कोई तकलीफ हो, वे धीमे लें, लेकिन गहरी लें। और जिनको कोई तकलीफ न हो, वे श्वास को गहरे होने की फिक्र न करें–फास्ट होने की फिक्र करें, तेजी की फिक्र करें। जिनको श्वास की कोई तकलीफ है, वे आहिस्ता से गहरी ले जाएं, जितनी गहरी जा सके। और गहरी बाहर निकाल दें धीरे से, गहराई की फिक्र कर लें। जिनको श्वास की कोई तकलीफ नहीं है और जिन मित्रों ने आजोल में प्रयोग किया है, वे फास्ट ब्रीदिंग करें, तेजी से भीतर ले जाएं, तेजी से बाहर फेंकें, जैसे धौंकनी चलती है लुहार की। पूरा खाली कर देना है सारी श्वास और नई ताजी हवाएं भीतर ले जानी हैं।

पांच मिनट के प्रयोग के बाद ही आपके शरीर के भीतर विद्युत का संचार शुरू हो जाएगा, “इलेक्ट्रिफाइड’ आप होने लगेंगे। और शरीर में कंपन शुरू होंगे तो उनको होने देना है। अगर शरीर नाचने भी लगे इस बीच तो फिकर नहीं करनी, नाचने देना है। दस मिनट तक गहरी श्वास, तेज श्वास पर प्रयोग करेंगे।

दस मिनट के बाद मैं कहूंगा कि अब आप अपने शरीर को सहयोग करें। तो शरीर नाचता हो तो नाचें, रोता हो तो रोएं, हंसता हो तो हंसें, चिल्लाता हो तो चिल्लाएं। इन दस मिनट में शरीर जो भी करता हो उसको को-आपरेट करें, उसे पूरा सहयोग दें। अगर हाथ थोड़ा सा हिल रहा है तो आप पूरी तरह उसको हिला डालें। अगर थोड़े से नाच रहे हैं तो पूरी तरह नाच हो जाएं।

कुछ मित्र कहते हैं कि उन्हें कुछ भी नहीं होता।

हमारे दमन की परतें गहरी हैं। तो जैसे आप गहरी श्वास ले रहे हैं वह भी आप कर रहे हैं। अपने आप वह भी नहीं हो रहा है। वैसे ही जो भी आपको सुविधापूर्ण लगता हो वह आप करना शुरू कर दें, होने की भी प्रतीक्षा मत करें। एक-दो दिन करेंगे, फिर वह होना शुरू हो जाएगा। धारा टूट जाएगी। नाचना है तो नाचने लगें। चिल्लाना है, चिल्लाने लगें। कुछ तो करें! उस दस मिनट में जो भी करना चाहें करें, लेकिन करें पूरी ताकत से। उसमें फिर संकोच न लें।

और तीसरे दस मिनट में नाचना जारी रहेगा, अपने मन के भीतर पूछना है, मैं कौन हूं? इतने जोर से पूछना है कि बस मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? यही धुन रह जाए। दो मैं कौन हूं के बीच में जगह न छूटे। हो सकता है कि आप जोर से पूछें तो बाहर आवाज निकलने लगे, तो कोई डर की जरूरत नहीं, बाहर भी निकलने दें। नाचना जारी रखें, कूदना जारी रखें और मैं कौन हूं? यह पूछें।

तीस मिनट पूरे होने पर फिर दस मिनट के लिए हम विश्राम में चले जाएंगे। ये पूरे पहाड़ विश्राम में हैं, ये पूरे पौधे विश्राम में हैं, हम इनके साथ एक हो जाएंगे। यहां जो लोग देखने के लिए इकट्ठे हो गए हैं, उनसे मेरी प्रार्थना है कि वे बिलकुल चुपचाप खड़े होकर देखते रहेंगे, जरा बात नहीं करेंगे। देखें मजे से, आराम से बैठ जाएं, लेकिन बात बिलकुल नहीं करें ताकि यहां बाधा न पड़े।

अब आप लोग अपनी-अपनी जगह खड़े हो जाएं, थोड़े फैल जाएं।

बातचीत न करें। वातावरण को खराब न करें। चुपचाप खड़े हो जाएं। आपके खड़े होने से बातचीत का क्या संबंध? चुपचाप अपनी-अपनी जगह खोज लें, थोड़ा फासला कर लें। क्योंकि लोग कूदेंगे, नाचेंगे, तो उनको जगह रहे। और जिनको जोर से तेजी से कूदना है, वे थोड़ा भीड़ के बाहर खड़े हों। किसी को भी बीच में कपड़े अलग करने का खयाल आ जाए तो संकोच की जरूरत नहीं है, चुपचाप अलग कर दें। पहले ही किसी को खयाल हो कि उसे सुविधा होती है कपड़ा अलग करने में, वह पहले ही अलग कर दे सकता है। बीच में भी खयाल आ जाए, चुपचाप कपड़े उतार कर रख दें, उसकी चिंता न करें।

ठीक है, मैं मान लूं कि आपने अपनी जगह देख ली, आपके आस-पास जगह थोड़ी है ऐसा खयाल रख कर खड़े हों। क्योंकि यह प्रयोग तो बहुत तीव्र है। और बहुत तीव्रता से परिणाम होंगे। इसलिए जगह बना कर खड़े हों।

देखें, यहां पीछे जो लोग खड़े हैं बातचीत नहीं चलेगी। देखें, जो लोग देखने आ गए हैं, वे मजे से देखें। अपनी जगह पर खड़े रहें या बैठ जाएं, लेकिन बातचीत बिलकुल न करें, जिससे ध्यान करने वालों को कोई बाधा न हो। इतनी भर कृपा करें।

आंख बंद कर लें। आंख बंद कर लें। यह आंख चालीस मिनट के लिए बंद होती है। अब चालीस मिनट तक आंख नहीं खोलनी है। संकल्पपूर्वक आंख बंद रखनी है। जब तक मैं न कहूं तब तक आंख नहीं खोलनी है।

दोनों हाथ जोड़ लें। परमात्मा को साक्षी रख कर संकल्प कर लें। चारों तरफ वह मौजूद है। संकल्प करें। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा।

अब शुरू करें। तीव्र और गहरी श्वास शुरू करें।

जोर से, जोर से, जोर से, गहरी और तेज।…जोर से, जोर से, पूरी ताकत लगानी है। फेफड़ों को खाली कर देना है, सारी श्वास बाहर-भीतर, बाहर-भीतर, जैसे लुहार की धौंकनी चलती है, ऐसी ताकत से पूरी तरह खाली कर डालें। शरीर की शक्ति जागनी शुरू हो जाएगी, भीतर विद्युत फैलने लगेगी। शरीर डोलने-नाचने लगेगा, नाचने दें। आप पूरी ताकत श्वास पर लगाएं। जो भी हो रहा है होने दें, आप श्वास पर पूरी ताकत लगाएं। देखें, चूकें न, पूरी ताकत से फेफड़ों को ताजा कर लें। सब बाहर फेंक दें। सब कचरा बाहर कर दें।….

जोर से, जोर से, जोर से, गहरी श्वास, तेज श्वास।…जोर से, जोर से, गहरी श्वास, गहरी श्वास, पूरी शक्ति लगा दें।…

पांच मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं। अपने को बिलकुल बदल डालें। पूरी शक्ति जागेगी, उसे जागने दें। देखें, पीछे न रहें। कोई पीछे न रह जाए। अपनी तरफ खयाल करें, पूरी शक्ति लगाएं। गहरी, गहरी, गहरी, डोलने दें शरीर को, नाचने दें शरीर को। गहरी, गहरी और गहरी श्वास। गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, तेज और गहरी।…

जोर से, जोर से, दो मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे। जो पूरी शक्ति लगाएगा वही दूसरे में जा भी सकेगा। दो मिनट के लिए अपने को पूरा दांव पर लगा दें। श्वास, श्वास, श्वास ही श्वास रह जाए। इस श्वास के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है जगत में बस, बाहर-भीतर, बाहर-भीतर, श्वास ही श्वास। शक्ति जागेगी, शरीर डोलेगा, कांपेगा, नाचेगा, उसकी फिक्र न करें, रोकें न। गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास।…गहरी श्वास, जोर से, जोर से।…

एक मिनट बचा है, मैं जब कहूं एक, दो, तीन, तो पूरी ताकत लगा देनी है। एक, लगाएं, पूरी ताकत लगाएं।…दो, पूरी ताकत लगाएं।…तीन, एक मिनट के लिए अब पूरी ताकत लगा दें।…

बिलकुल ठीक, बिलकुल ठीक, थोड़ा और–लगाएं, पूरी ताकत लगाएं। कुछ सेकेंड हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे।…बिलकुल ठीक, कुछ सेकेंड और–पूरी ताकत।…

अब दूसरे चरण में प्रवेश करें, शरीर को जो होता है होने दें। अब दूसरे चरण में प्रवेश करें, नाचें, डोलें, चिल्लाएं, रोएं, हंसें, जो भी करना है पूरी ताकत से करें। शुरू करें, दस मिनट के लिए नाचें, दिल खोल कर नाचें।…

जोर से, जोर से, नाचें–पूरी ताकत लगाएं; हंसें, जोर से हंसें; चिल्लाना है, जोर से चिल्लाएं, शरीर को को-आपरेट करें, पूरा साथ दें। नाचें, नाचें, नाचें, हंसें, रोएं, चिल्लाएं।…

नाचें, नाचें, नाचें। जोर से, आनंद से नाचें, पूरे आनंद भाव से नाचें। हंसें, रोएं, चिल्लाएं, जो भी हो रहा है पूरे आनंद भाव से करें। कमी न करें, कंजूसी न करें, पूरी ताकत से करें। आनंद से, आनंद से, नाचें, नाचें, नाचें।…

जोर से, जोर से, जोर से, पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगा कर नाच लें, सब गिर जाने दें, मन में जो भी है। पूरी ताकत से नाचें। हंसें, रोएं, चिल्लाएं, तीव्रता से और शरीर को जो भी हो रहा है पूरी ताकत से करें। नाचें, नाचें, नाचें, जोर से। कोई खड़ा न रह जाए, पूरी ताकत लगाएं, अपनी जगह पर ही लेकिन–दूसरी जगह पर न जाएं। पूरे जोर से।…

जोर से, जोर से, बिलकुल थका डालें, बिलकुल थका डालें। अब दो ही मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम तीसरे चरण में प्रवेश करेंगे। नाचें, दिल खोल कर रोएं, हंसें, चिल्लाएं।…

जोर से, जोर से; चिल्लाना है, जोर से चिल्लाएं; हंसना है, जोर से हंसें; नाचना है, जोर से नाचें। जोर से, जोर से, दिल खोल कर पूरा खाली कर लें, जो भी हो रहा है होने दें। बिलकुल ठीक, बिलकुल ठीक, और जोर से, और जोर से, नाचें, नाचें, नाचें।…

जोर से, जोर से, पूरी घाटी गूंज जाए। नाचें, चिल्लाएं, जोर से। कुछ सेकेंड बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, पूरी ताकत लगा दें। नाचें, हंसें, चिल्लाएं, पूरी ताकत लगा दें।…बहुत ठीक, बहुत ठीक, कुछ सेकेंड और हैं, पूरी ताकत लगाएं।…

अब तीसरे चरण में प्रवेश करें, नाचना जारी रखें, भीतर पूछें, मैं कौन हूं? नाचना जारी रखें, भीतर पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? दस मिनट में मन को थका डालना है। पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? तूफान उठा दें। भीतर बिलकुल तूफान उठा दें। नाचें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एक ही सवाल भीतर, नाचें, और पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें, पूछें, भीतर और गहरे और गहरे और गहरे, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें। पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?…

नाचें, नाचें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? यह पूरी घाटी गूंजने लगे एक ही सवाल से, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? कोई फिकर नहीं, बाहर आवाज निकल जाए निकल जाने दें। पूछें, मैं कौन हूं?…

पूछें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? नाचते रहें, नाचते रहें, कूदते रहें, पूछें, मैं कौन हूं? बाहर आवाज निकल जाए कोई फिकर नहीं।…

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें, थोड़ा ही समय और बचा है। तीन मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम विश्राम में चले जाएंगे। थका डालें अपने को, पूरी तरह थका डालें। नाचें, चिल्लाएं, पूछें, मैं कौन हूं?…

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? दो मिनट बचे हैं–पूरी ताकत लगाएं। मैं जब कहूं एक, दो, तीन तब पूरी शक्ति से कूद पड़ें। मैं कौन हूं? नाचें, नाचें, नाचें, मैं कौन हूं? चिल्लाएं, पूछें, मैं कौन हूं? नाचें, पूछें, मैं कौन हूं?…

मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एक मिनट बचा है, पूछें, जोर से पूछें, नाचें और पूछें, मैं कौन हूं? एक, पूरी ताकत लगा दें। दो, पूरी ताकत लगा दें। तीन, पूरी ताकत लगा दें। दिल खोल कर चिल्लाएं और पूछें, मैं कौन हूं?…

नाचें, कुछ सेकेंड जोर से नाचें और चिल्लाएं, मैं कौन हूं?…

नाचें, नाचें और पूछें, मैं कौन हूं? जोर से पूछें, मैं कौन हूं?…

बस! अब रुक जाएं। ठहर जाएं। अब सब छोड़ दें, नाचना छोड़ दें, पूछना छोड़ दें। अब बिलकुल दस मिनट के लिए विश्राम में पड़ जाएं। दस मिनट के लिए अब सब छोड़ दें–नाचें भी नहीं, पूछें भी नहीं, शांत पड़े रहें–दस मिनट के लिए मौन में डूब जाएं। जैसे बूंद सागर में खो जाती है ऐसे खो जाएं। चारों ओर वही परमात्मा है, उसके साथ एक हो जाएं। जैसे मिट गए, जैसे मर गए, जैसे समाप्त हो गए। अब वही बचा, परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। हम तो नहीं हैं।…

परमात्मा ही परमात्मा है। चारों ओर वही है, स्मरण करें, बाहर भी वही भीतर भी वही, आती श्वास भी उसकी जाती श्वास भी उसकी। चारों ओर परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। स्मरण करें, स्मरण करें, प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया है, आनंद ही आनंद शेष रह गया है, रोआं-रोआं आनंद से भर गया है। भीतर प्रकाश ही प्रकाश भर गया है। अमृत की वर्षा हो रही है, डूब जाएं, नहा लें, परमात्मा के सिवाय और कोई नहीं है। स्मरण करें, स्मरण करें, पहचानें, हम तो मिट ही गए परमात्मा ही शेष रह गया।…

आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश, अमृत ही अमृत। खो गई बूंद सागर में, खो गई बूंद सागर में, वही रह गया, वही है, परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पहचानें, पहचानें, स्मरण करें, परमात्मा ही परमात्मा, चारों ओर वही है। वृक्षों में वही, आकाश में वही, भीतर वही, बाहर वही। स्मरण करें, स्मरण करें, स्मरण करें।…

आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश, डूब जाएं, डूब जाएं, खो जाएं, खो जाएं, बिलकुल खो जाएं, बूंद सागर में गिर गई।…

परमात्मा के अतिरिक्त और कोई नहीं है। वही है, चारों ओर वही है, सब कुछ वही है, स्मरण करें, स्मरण करें, पहचानें। आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश।…

सब शांत हो गया, भीतर आनंद के झरने फूट रहे हैं। सब अंधकार मिट गया, भीतर प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। सब आकार मिट गए, निराकार ही मौजूद रह गया। पहचानें, पहचानें, सब रूप खो गया, अरूप ही शेष रह गया। स्मरण करें, स्मरण करें।…

अब दोनों हाथ जोड़ लें, परमात्मा को धन्यवाद दे दें। दोनों हाथ जोड़ लें, सिर झुका लें, उसके अज्ञात चरणों में गिर जाएं, समर्पित हो जाएं। धन्यवाद दे दें।

उसकी अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। जोड़े रहें हाथ। झुकाए रहें सिर। उसकी अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है।

देखें, देखने वाले चुपचाप खड़े रहें, बातचीत न करें।

उसकी अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। अब दोनों हाथ नीचे गिरा लें। धीरे-धीरे आंख खोलें। आंख न खुलती हो तो दोनों हाथ आंख पर रख लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। उठते न बने तो दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे-धीरे उठ आएं।

जो पड़े रह जाएं और पड़े रहना चाहें थोड़ी देर, उन्हें कोई दूसरा न उठाए। और जो लोग कैम्पस में उठ गए हैं ध्यान के बाहर, वे धीरे-धीरे चले जाएंगे। किसी को बैठे रहना है, पड़े रहना है, वह पड़ा रहे। छह बजे उन्हें उठा दिया जाएगा। बाकी जो लोग उठ गए हैं, धीरे-धीरे जाएं।

ध्यान की हमारी बैठक पूरी हो गई।

 


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कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–8)

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क्षण-क्षण जीने के महाप्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—आठवां)

 दिनांक 29 सितंबर, 1970;

प्रात:, मनाली (कुलू)

“भगवान श्री, कृष्ण के बाल्यकाल की तथा अन्य इतनी कथाएं हैं–जैसे चाणूर तथा मुष्टिक नाम के पहलवानों को पछाड़ना; कंस-वध; कालिया-मर्दन; कीर्ति, अघ, बक, घोटक, पूतना आदि असुरों का नाश; दावानल को पी जाना; इत्यादि-इत्यादि। तो, क्या ये सब सत्य कथाएं हैं, या प्रतीक हैं? और इनमें से कौन-कौन सी लक्षणाएं और प्रतीक हैं। साथ ही, गीता के वचन “विनाशाय च दुष्कृताम्’ से आप अर्थ लेते हैं कि दुष्टों का परिवर्तन करते हैं, उनका सुधार करते हैं। लेकिन कृष्ण ने उपरोक्त दुष्टों का वध क्यों किया और कराया?’

स संबंध में एक बात तो सबसे पहले यह समझनी जरूरी है, जो कि सदा से ही लोगों को उलझन में डालती रही है; छोटा-सा बच्चा है कृष्ण, इतने शक्तिशाली लोगों को हरा कैसे सकेगा? लोगों के पास एक ही उपाय था इस पहेली को हल करने का। और वह उपाय यह था कि वह कृष्ण को भगवान मान लें, परम शक्तिवान मान लें। फिर सारी पहेलियां हल हो जाती हैं। लेकिन इसका भी मतलब गहरे में यही हुआ कि छोटी शक्ति पर बड़ी शक्ति विजय पा जाती है। कोई राक्षस है, कोई शक्तिशाली पहलवान है, कृष्ण दिखाई पड़ते हैं छोटे, लेकिन वे महाशक्तिवान हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इस तरह की व्याख्या ने कृष्ण के व्यक्तित्व को समझा ही नहीं। इस तरह की जो व्याख्या है, वह मूलतः गलत, भ्रांत है। क्योंकि उसमें जो आधार में बात है, वह यही है कि बड़ी शक्ति छोटी पर जीत जाती है। मैं कुछ और कहना चाहूंगा, उसे समझना जरूरी होगा।

इस जगत में जो जीतना नहीं चाहता, वह जीत जाता है और जो जीतना चाहता है, वह हार जाता है। इन सारी कथाओं में मेरे लिए अर्थ ऐसा है–जो जीतना नहीं चाहता, वह जीत जाता है, जो जीतना चाहता है, वह हार जाता है। असल में जीतने की चाह में ही बहुत गहरे में हार छिपी है। और जो जीतना नहीं चाहता, इस भाव में ही वह जीता ही हुआ है यह भाव छिपा है। इसे ऐसा समझें अगर कि जो आदमी जीतना चाहता है, वह गहरे में “इनफीरिऑरिटी कांप्लेक्स’ से पीड़ित है। जो आदमी जीतना चाहता है, वह हीनभाव से पीड़ित है। वह जानता तो है कि हीन है, जीतकर सिद्ध करना चाहता है कि हीन नहीं है। जो आदमी जीतने के लिए आतुर ही नहीं है, वह अपनी श्रेष्ठता में प्रतिष्ठित है। उसे कहीं कोई हीनता ही नहीं है जिसे असिद्ध करने के लिए जीत अनिवार्य हो।

इसे अगर हम “ताओ’ से समझेंगे तो बहुत आसानी हो जाएगी।

लाओत्से ने एक दिन अपने मित्रों को कहा है कि मुझे जिंदगी में कोई हरा नहीं सका। तो एक व्यक्ति ने उससे खड़े होकर पूछा कि वह राज हमें भी बताओ, वह “सीक्रेट’, क्योंकि जीतना तो हम भी चाहते हैं और हम भी चाहते हैं कि कोई हमें हरा न सके। लाओत्से हंसने लगा, उसने कहा कि फिर तुम न समझ सकोगे उस राज को। क्योंकि तुमने पूरी बात भी न सुनी और बीच में ही पूछ बैठे। मैंने कहा था, मुझे जिंदगी में कोई हरा न सका…पूरा वाक्य तो कर लेने दो। लाओत्से ने पूरा वाक्य किया, उसने कहा, मुझे जिंदगी में कोई हरा न सका, क्योंकि मैं हारा ही हुआ था। मैं पहले से ही हारा हुआ था। मुझे जीतना मुश्किल था, क्योंकि मैंने जीतना ही नहीं चाहा था। तो उसने उन लोगों से कहा कि तुम अगर सोचते हो कि तुम मरे राज को समझ जाओगे, तो गलती में हो। तुम जीतने की आकांक्षा करते हो, वही तुम्हारी हार बन जाएगी। सफलता की आकांक्षा ही अंत में असफलता बनती है, और जीवन की अति आकांक्षा ही अंत में मृत्यु बन जाती है, स्वस्थ होने का पागलपन ही बीमारी में ले जाता है। जिंदगी बहुत अदभुत है। यहां हम जिस चीज को बहुत जोर से मांगते हैं, उसी को खो देते हैं। जिस चीज को हम मांगते नहीं, वह मिल जाती है। असल में हम मांगते नहीं, इसका मतलब ही यही है कि वह मिली ही हुई है।

कृष्ण बड़े शक्तिशाली हैं इसलिए जीत जाते हैं, ऐसा मैं न कहूंगा, क्योंकि यह तो फिर वही शक्ति का पुराना कानून हुआ कि छोटी मछली को बड़ी मछली खा जाती है, इसमें कृष्ण की कोई विशेषता न होगी। अगर राक्षस बड़े शक्तिशाली होते तो वे जीत जाते। यह तो फिर गणित हुआ शक्ति का। यह तो गणित हुआ तराजू पर वजन का कि जहां वजन ज्यादा था, वहां नीचे बैठ जाएगा। इसमें कृष्ण की कोई बड़ी जीत नहीं है। लेकिन जिन लोगों ने भी आज तक कृष्ण की जीत की व्याख्या की है, वह इसी तरह सोच सके। क्योंकि उनके पास एक ही गणित है।

जीसस का एक वचन है, “ब्लेसेड आर द मीक, बिकाज़ दे शैल इनहेरिट द अर्थ’। धन्य हैं विनम्र, क्योंकि पृथ्वी का राज्य उन्हीं का होगा। बड़ी उलटी बात है। धन्य हैं विनम्र क्योंकि पृथ्वी के मालिक वे ही होंगे। कृष्ण जीतने को बिलकुल आतुर ही नहीं हैं। बच्चे जीतने को आतुर होते भी नहीं, सिर्फ खेलने को आतुर होते हैं। जीत बड़े बाद में आती है, जब चित्त बड़े बीमार हो जाते हैं, रुग्ण हो जाते हैं। कृष्ण तो खेल रहे हैं। वह बड़े राक्षसों से लड़ रहे हैं, तब भी खेल में हैं। राक्षस जीतने के लिए आतुर हैं, और एक विनम्र बच्चे से, जिसे जीतने का कोई खयाल ही नहीं। जो अभी खेल रहा है। जो एकदम मासूम और नाजुक है। उससे वे राक्षस हार जाते हैं। हार जाएंगे।

जापान में एक कला है, जिसका नाम है, जूडो। या दूसरा है, जिजुत्सू। इस कला के संबंध में दोत्तीन बातें खयाल में ले लें तो बड़ा अच्छा होगा। जूडो कुश्ती की कला है, लेकिन उसका राज बड़ा उलटा है। जूडो की कला जो सीखता है लड़ने के लिए, उसके नियम हमारी लड़ाई के नियम से बिलकुल उलटे हैं। अगर मैं आपसे लडूं, तो मैं आप पर चोट करूंगा। आप चोट का बचाव करेंगे। आप मुझ पर चोट करेंगे, मैं चोट का बचाव करूंगा। यह साधारण लड़ने का नियम है। जूडो का नियम उलटा है। जूडो का नियम यह है कि मैं आप पर हमला कभी न करूं, जिसने हमला किया है वह हार जाएगा; क्योंकि हमले में शक्ति व्यय होती है। मैं हमले को उकसाऊं, दूसरे को प्रेरित करूं कि वह हमला करे। और मैं बिलकुल “एट ईज़’, अपने में रहूं, मैं जरा भी हिलूं-डुलूं भी नहीं। मैं कुछ करूं ही नहीं, मैं सिर्फ दूसरे को उकसाऊं कि वह हमला करे। मैं उसे क्रोधित करूं, मैं उसे भड़काऊं, मैं उसे जलाऊं और मैं शांत रहूं। और जब वह हमला करे तो मैं “रेज़िस्ट’ न करूं। जब वह मेरे ऊपर चोट करे, घूंसा मारे, तो मैं उसके घूंसे के विरोध में अपने शरीर को अकड़ाऊं न। शरीर को ढीला और “रिलेक्स’ छोड़ दूं कि उसको घूंसा मेरा शरीर पी जाए।

कभी आपको खयाल है कि एक शराबी के साथ बैठ जाएं एक बैलगाड़ी में और बैलगाड़ी उलट जाए रास्ते में, तो आपको चोट लगेगी, शराबी को नहीं लगेगी। कभी सोचा कि राज क्या है? शराबी ज्यादा ताकतवर है, इसलिए चोट नहीं लगी? आप कमजोर हैं, इसलिए चोट लग गई? नहीं, जब गाड़ी उलटी तो आप होश में हैं। गाड़ी के उलटते ही आपको लगा कि अब चोट लगेगी, अब मैं बचूं। और आप सख्त हो गए, “स्ट्रेन्ड’ हो गए; आपकी नसें, आपकी हड्डियां सब मजबूती से जमीन के खिलाफ खड़ी हो गईं बचाव के लिए। आप कड़े हो गए। शराबी को पता ही नहीं है कि गाड़ी उलट गई। या गाड़ी पहले से ही उलटी हुई थी उनके लिए, उसमें कोई खास फर्क नहीं है। वह गिर गए, वह गिरने के साथ “को-ऑपरेट’ किए। उन्होंने गिरने के साथ सहयोग किया–वह जमीन के खिलाफ अकड़े नहीं, जमीन के साथ एक हो गए। तो शराबी जब गिरता है तो वह बोरे की तरह गिरता है। इसलिए शराबी रोज रात गिरते हैं, चोटें नहीं खाते। आप उतने गिरें तो पता चल जाए। बच्चे रोज गिरते हैं, हड्डियां नहीं टूटती हैं। आप उतने गिरें तो एक ही दिन में सब नष्ट हो जाए। क्या बात है? बच्चे की ताकत ज्यादा है कि बच्चा गिरता है, हड्डी नहीं टूटती? नहीं, बच्चा गिरने के साथ भी एक हो जाता है। विरोध नहीं करता गिरने का। गिरने में भी साथ देता है। गिरते वक्त भी राजी होता है। “एक्सेप्टिबिलिटी’ है गिरते वक्त।

तो जूडो की कला कहती है कि जब तुम्हें कोई मारे, तब तुम राजी हो जाओ पिटने को, और जरा भी कहीं भीतर से विरोध न करना। बड़ी कठिन कला है। राजी हो जाना, पी जाना उसके घूंसे को। तो एक तो खुद हमला मत करना, क्योंकि हमले में शक्ति व्यय होती है। और जब कोई दूसरा घूंसा मारे, तो उसके घूंसे को भी पी जाना, तो उसकी शक्ति भी तुम्हें मिल जाती है। और इसलिए जूडो में बड़ा पहलवान हार सकता है और कमजोर आदमी जीत सकता है। जीत जाता है।

मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि कृष्ण जूडो जानते थे। सभी बच्चे जूडो जानते ही हैं। वही उनकी जिंदगी का राज है, बच्चे की जिंदगी का। कृष्ण जीत सके अगर–सभी कथाएं ऐतिहासिक हैं, यह मैं नहीं कह रहा हूं; मैं तो उसके भीतर जो मनोवैज्ञानिक सत्य है उसकी बात कर रहा हूं–कृष्ण अगर जीत सके, तो खेल था उनके लिए, अभिनय था। मौज थी, मजा था। हमलेवर वे न थे, जीतने किसी को निकले न थे। कोई दूसरा जीतने आया था। और मैं मानता हूं कि कृष्ण जैसे बच्चे पर अगर किसी पहलवान ने हमला किया, तो हम कह सकते हैं कि यह पहलवान हार जाएगा। क्योंकि जो बच्चे पर हमला करने गया है, वह भीतर से बड़ा हारा हुआ आदमी होना चाहिए। बहुत, उसके भीतर बहुत “कांफिडेंस’ होना नहीं चाहिए। उसके भीतर आत्मविश्वास बिलकुल नहीं है। एक छोटे-से बच्चे पर इतना बड़ा पहलवान हमला करने गया है, यही इस बात की सूचना है कि यह हारेगा। यह हार ही चुका है। इसको लड़ने की कोई जरूरत नहीं थी। इसको पहले ही मान लेना था कि हार चुका है। हम सदा हमला जब करते हैं किसी पर, हमला करने को उत्सुक होते हैं जब किसी पर, तब बहुत गहरे में हमने उससे अपनी हीनता स्वीकार कर ली। असल में जो श्रेष्ठ हैं वे किसी पर हमला करते ही नहीं, क्योंकि ऐसा कोई आदमी नहीं दिखाई पड़ता जिससे वे हीन हैं और हमला करें। हमले की कोई जरूरत नहीं होती। भीतर की हीनता का कीड़ा हमला करवा देता है।

कृष्ण का कमजोर होना, बालक होना, कृष्ण का लड़ने के लिए आतुर न होना, कृष्ण का किसी पर जीतने के लिए आकांक्षी न होना ही राज है। घटनाएं ऐतिहासिक हैं या नहीं, यह मुझे मतलब नहीं, लेकिन जूडो की पूरी-की-पूरी “फिलासफी’, जुजुत्सू की पूरी-की-पूरी कला कृष्ण की जिंदगी में शुरू होती है। मैं तो कहूंगा कि कृष्ण जो हैं वह जुजुत्सू के पहले मास्टर हैं। न तो किसी को जापान में पता है, न किसी को चीन में पता है, न किसी को हिंदुस्तान में पता है कि इस आदमी के सारी विजय का राज क्या है। इस आदमी के विजय का राज ही यही है कि यह विजय करना ही नहीं चाहता, इसे खेल है सब। उस खेल में यह तल्लीन हो जाता है। दूसरा तनावग्रस्त है, दूसरा चिंतित है, जीने को आतुर है, परेशान है, वह अपने भीतर बंटा और कटा हुआ है, टूट रहा है, अपने-आप हार जाएगा। बच्चे को हराना मुश्किल है, यही अर्थ है।

“भगवान श्री, यशोदा को मुख में ब्रह्मांड का दर्शन कराना और अर्जुन को युद्ध में विश्वरूप का दर्शन कराना, इन दोनों घटना विशेष का आप तात्पर्य बतलाएं और यह भी बताएं कि क्या दिव्य-दृष्टि देकर वापस भी ली जा सकती है, जैसा कि कृष्ण ने अर्जुन को देकर वापस ले ली थी?’

 

आंखें नहीं हैं हमारे पास, अन्यथा सब जगह हमें विराट का दर्शन हो जाए। आंखें नहीं हैं हमारे पास, अन्यथा सभी जगह ब्रह्मांड है। कृष्ण तो सिर्फ निमित्त हैं। यशोदा को दिखाई पड़ सहता है ब्रह्मांड उनके मुख में। ऐसे भी किस मां को अपने बेटे के मुख में ब्रह्मांड नहीं दिखाई पड़ता है! ऐसे भी किस मां को अपने बेटे में ब्रह्म नहीं दिखाई पड़ता! खो जाता है धीरे-धीरे, यह बात दूसरी। लेकिन, पहले तो दिखाई पड़ता है! यशोदा को दिखाई पड़ सका कृष्ण के मुंह में विराट, ब्रह्म, ब्रह्मांड, सभी मां को दिखाई पड़ता है। लेकिन यशोदा पूरे अर्थों में मां थी, इसलिए पूरी तरह दिखाई पड़ सका है। और, कृष्ण पूरे अर्थों में बेटा था, इसलिए निमित्त बन सका। इसमें कुछ “मिकरेल’ नहीं है। इसमें कोई चमत्कार नहीं है। अगर आप प्रेम से मुझे भी देख सकें, तो ब्रह्मांड दिखाई पड़ सकता है। देखने वाली आंखें चाहिए, एक। और योग्य निमित्त चाहिए। एक छोटे-से फूल में दिख सकता है सारा जगत। है भी छिपा। यहां अणु-अणु में विराट छिपा है। एक छोटी-सी बूंद में पूरा सागर छिपा है। एक बूंद को कोई पूरा देख ले तो पूरा सागर दिख जाएगा।

अर्जुन को भी दिखाई पड़ सका, वह भी कुछ कम प्रेम में न था कृष्ण के। ऐसी मैत्री कम घटित होती है पृथ्वी पर, जैसी वह मैत्री थी। उस मैत्री के क्षण में अगर कृष्ण निमित्त बन गए और अर्जुन को दिखाई पड़ सका, तो कुछ आश्चर्य नहीं है, न कोई चमत्कार है। और ऐसा नहीं है कि एक ही बार ऐसा हुआ है, ऐसा हजारों बार हुआ है। उल्लेख नहीं होता है, यह बात दूसरी है; संगृहीत नहीं होता है, यह बात दूसरी है।

यह जरूर समझने जैसा है कि क्या दी गई दिव्य-दृष्टि वापस ली जा सकती है?

न तो दिव्य-दृष्टि दी जा सकती है, और न वापस ली जा सकती है। किसी क्षण में दिव्य-दृष्टि घटित होती है और खो सकती है। दिव्य-दृष्टि एक “हैपेनिंग’ है। किसी क्षण में आप अपनी चेतना के उस शिखर को छू लेते हैं, जहां से सब साफ दिखाई पड़ता है। लेकिन उस शिखर पर जीना बड़ा कठिन है। जन्म-जन्म लग जाते हैं उस शिखर पर जीने के लिए। उस शिखर से वापिस लौट जाना पड़ता है। जैसे जमीन से आप छलांग लगाएं, तो एक क्षण को जमीन के “ग्रेवीटेशन’ के बाहर हो जाते हैं। खुले आकाश में, मुक्त पक्षियों की तरह हो जाते हैं। एक क्षण के लिए। लेकिन बीता नहीं क्षण कि आप जमीन पर वापिस हैं। एक क्षण को पक्षी होना आपने जाना। ठीक ऐसे ही चेतना का “ग्रेवीटेशन’ है, चेतना की अपनी कशिश है, चेतना के अपने चुंबकीय तत्त्व हैं जो उसे नीचे पकड़े हुए हैं। किसी क्षण में, किसी अवसर में, किसी “सिचुएशन’ में आप इतनी छलांग ले पाते हैं कि आपको विराट दिखाई पड़ जाता है–एक क्षण को। जैसे बिजली कौंध गई हो। फिर आप वापिस जमीन पर आ जाते हैं। निश्चित ही अब आप वही नहीं होते जो इस दर्शन के पहले थे। हो भी नहीं सकते। क्योंकि एक क्षण को भी अगर इस विराट को देख लिया, तो अब आप वही नहीं हो सकते जो पहले थे। आप दूसरे हो गए। लेकिन वह जो दिखा था, वह खो गया।

जैसे रात अंधेरी है और बिजली कौंध जाए। एक क्षण को फूल दिखाई पड़ें, पहाड़ दिखाई पड़ें और खो जाएं, फिर घना अंधकार हो जाए। लेकिन अब मैं वही नहीं हूं, जो पहले अंधकार में था। पहले तो मुझे पता भी नहीं था कि पहाड़ भी हैं, वृक्ष भी हैं, फूल भी हैं। अब मुझे पता है। अंधकार घना है। लेकिन अब उन फूलों को अंधकार मुझसे छीन नहीं सकता। अब उन पहाड़ों को अंधकार मुझसे छीन नहीं सकता। वे मैंने जान लिए, अब वे मेरे हिस्से हो गए हैं। अब मैं जानता हूं, चाहे देखूं और चाहे न देखूं; चाहे पता चले, चाहे पता न चले; लेकिन बहुत गहरे में मैं जानता हूं, चाहे देखूं और चाहे न देखूं; चाहे पता चले, चाहे पता न चले; लेकिन बहुत गहरे में मैं जानता हूं कि पहाड़ हैं, वृक्ष हैं, फूल हैं। उनकी अज्ञात सुगंधें मुझे छुएंगी, उनकी अज्ञात हवाओं में मुझे संदेश मिलेगा। अंधकार उन्हें छिपा सकता है, अब लेकिन मुझसे मिटा नहीं सकता।

दिव्य-दृष्टि कोई देता नहीं। लेकिन कृष्ण कहते मालूम पड़ते हैं कि मैं तुझे दिव्य-दृष्टि देता हूं। इससे कठिनाई पैदा होती है। असल में आदमी की भाषा बड़ी उलझन से भरी है। यहां हमें ऐसे शब्दों के प्रयोग करने पड़ते हैं जो कि वस्तुतः जीवंत नहीं हैं। यहां हमें देने-लेने की बात बोलनी पड़ती है। हम अक्सर कहते हैं कि मैं फलां व्यक्ति को प्रेम देता हूं। लेकिन प्रेम दिया जा सकता है? प्रेम कोई वस्तु है, जो दे देगा? प्रेम घटित होता है, दिया नहीं जाता। लेकिन भाषा ऐसा कहती है कि मैं प्रेम देता हूं। मां कहती है, मैं बेटे को प्रेम देती हूं। किसी मां ने बेटे को कभी प्रेम दिया है? प्रेम हुआ है। “इट हैज़ हैपेंड’, वह घटित हुआ है, दिया नहीं गया। ठीक उसी तरह भाषा की बात है, और ज्यादा बात नहीं है। न कोई प्रेम देता है, न कोई लेता है। प्रेम घटता है। घट भी सकता है, खो भी सकता है। ऊंचाइयां घटती हैं और खो जाती हैं। ऊंचाइयों पर रहना मुश्किल है। हिलेरी और तेनसिंग एवरेस्ट पर गए। झंडा गाड़ा, वापिस लौट आए। एवरेस्ट पर रहना मुश्किल है। ऊंचाइयों पर रहना मुश्किल है। लेकिन एवरेस्ट पर किसी दिन रहा जा सकेगा, हम इंतजाम कर लेंगे–लौटना नहीं होगा, रुक भी सकेंगे, चेतना की ऊंचाइयों पर रुकना तो बहुत मुश्किल होता है। बहुत मुश्किल हो जाता है चेतना की ऊंचाइयों पर रुकना।

लेकिन, रुका जाता है। कृष्ण जैसे व्यक्ति रुकते हैं। अर्जुन जैसे व्यक्ति छलांग लगाते हैं, देखते हैं, वापिस लौट आते हैं। यह घटना घटती है, यह लेना-देना नहीं है। लेकिन हमारी भाषा लेने-देने में सोचती है। इससे बहुत कठिनाई होती है। हम कहते हैं, हमने फलां व्यक्ति को सहानुभूति दी। सहानुभूति कोई देता है? बस घटती है। जो ठीक शब्द है, वह यह है कि कृष्ण और अर्जुन के बीच उस क्षण में दिव्य-दृष्टि घटी। उसमें कृष्ण निमित्त बने, अर्जुन छलांग लगाने वाला बना। लेकिन भाषा में इसे कैसे कहेंगे? भाषा में इसे ऐसे ही कहेंगे कि दिव्य-दृष्टि दी। जैसा मैंने कहा कि मैं यहां बैठा हूं और अगर मुझे पूरे प्रेम से कोई खुली आंख से देख सके तो कुछ घट सकता है। लेकिन जब आपको घटेगा तो आप भी कहेंगे कि आपने दिया। लेकिन मैं कहां देने वाला हूं! शायद भाषा में कहना पड़े तो मैं भी कहूं कि मुझसे आपको मिला। लेकिन मुझसे क्या मिल सकता है!

“केमिस्ट्री’ में शब्द है, उसे समझना चाहिए। वह है, “केटेलेटिक एजेंट’। “केटेलेटिक एजेंट’ उस चीज को कहते हैं जिसकी मौजूदगी में कोई चीज घट जाती है। लेकिन वह कोई भी भाग नहीं लेता। जैसे कि, उदाहरण के लिए, हाइड्रोजन और आक्सीजन को अगर हमें मिलाना हो और पानी बनाना हो, तो बीच में विद्युत की मौजूदगी चाहिए। अगर बीच में विद्युत मौजूद न हो, तो हाइड्रोजन आक्सीजन अलग-अलग रहेंगे, मिल न सकेंगे। आकाश में भी जो बिजली चमकती है वह इसीलिए चमकती है, अन्यथा आकाश के हाइड्रोजन और आक्सीजन पानी नहीं बन सकेंगे। वह बिजली की चमक की वजह से पानी बन जाता है बादल। लेकिन बड़ी खोज करके भी यह पता नहीं चलता है कि बिजली का कोई “कंट्रीब्यूशन’ है। कोई “कंट्रीब्यूशन’ नहीं है। बिजली कुछ करती नहीं। आक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाने के लिए बिजली कुछ भी नहीं करती। बिजली से कुछ भी नहीं जाता, लेकिन सिर्फ मौजूदगी, “जस्ट प्रेज़ेंस’, उसकी मौजूदगी भर जरूरी है। उसकी बिना मौजूदगी के नहीं होगा। उसकी मौजूदगी में हो जाएगा। ऐसे “केमिस्ट्री’ में बहुत “केटेलेटिक एजेंट’ हैं जिनकी मौजूदगी जरूरी है। लेकिन सब तरफ की नाप-जोख से पता चलता है कि उनसे कुछ जाता नहीं, उनसे कुछ खोता नहीं, उनसे कुछ होता नहीं।

कृष्ण जो हैं, वह “केटेलेटिक एजेंट’ हैं। और जिनको हम अब तक गुरु समझते रहे हैं वह बड़ी भ्रांति है। दुनिया में कोई गुरु नहीं हैं, सिर्फ “केटेलेटिक एजेंट’ हैं। चेतना में भी घटनाएं घट सकती हैं किसी की मौजूदगी में, जो कि बिना मौजूदगी में शायद न घटें। कृष्ण की मौजूदगी में घटना घटती है। अर्जुन बेचारा निश्चित ही कहेगा कि आपने मुझे दी। रामकृष्ण की मौजूदगी में विवेकानंद को कुछ घटित होता है। विवेकानंद जरूर ही कहेंगे कि आपने मुझे दिया। और रामकृष्ण अगर भाषा में, बहुत झंझट में न पड़ना चाहते हों तो वह भी कहेंगे, ठीक है। भाषा की झंझट में कभी लोग पड़ना भी नहीं चाहते…मेरे जैसे लोगों को छोड़कर। लेने-देने से काम चल जाता है। लेकिन वह शब्द उचित नहीं है, “एप्रोपिएट’ नहीं है। ठीक जगह पर नहीं है। और आदमी के पास दूसरा कोई शब्द भी नहीं है।

एक चित्रकार से पूछें, वानगाग से पूछें। पूछें कि तुमने यह जो चित्र बनाया…तो वानगाग कहेगा, मैंने बनाया नहीं है, यह मुझसे बना। मगर हम कहेंगे, इससे क्या फर्क पड़ता है? फर्क बहुत पड़ता है। और हो सकता है इस झंझट में वानगाग भी न पड़े और वह कहे कि हां, मैंने बनाया है। क्योंकि सारी दुनिया ने देखा उसे बनाते हुए। यह कोई झूठी बात नहीं है। गवाह मिल जाएंगे कि यह आदमी बना रहा था। लेकिन वानगाग की अंतरात्मा तो कहती है कि मैंने बनाया नहीं, मुझसे बना। यह घटना घटी। यह एक “हैपेनिंग’ है, यह “डूइंग’ नहीं है। यह मेरे भीतर से हुआ। यह मैंने नहीं बनाया, यह मुझसे बनवा लिया गया। मैं सिर्फ मौजूद था, मैं सिर्फ गवाह था।

तो दिव्य-दृष्टि की जो घटना घटी है कृष्ण- अर्जुन के बीच, वह एक बार नहीं, बहुत बार घटी है। कभी बुद्ध- मौगल्लान के बीच घटी है, कभी बुद्ध-सारिपुत्त के बीच घटी है, कभी महावीर-गौतम के बीच घटी है, कभी जीसस और ल्यूक के बीच घटी है, कभी रामकृष्ण-विवेकानंद के बीच घटी है, हजारों-लाखों दफे घटी है। वह चमत्कार नहीं है। इस जगत में चमत्कार होते ही नहीं। अज्ञान नहीं समझ पाता और चमत्कार समझ लेता है। सब चमत्कार अज्ञान से पैदा होते हैं। चमत्कार हो ही नहीं सकते। जो भी हो रहा है, सब सत्य है, सब तथ्य है। इस जगत में सब तथ्य है, सब सत्य है। लेकिन जब हम नहीं समझ पाते तो चमत्कार हो जाता है।

“क्या दिव्य-दृष्टि घबराने वाली होती है, जैसी अर्जुन को हुई है?’

पूछा जाता है कि क्या दिव्य-दृष्टि घबड़ाने वाली होती है? जैसा अर्जुन घबड़ा गया था। घबड़ाने वाली हो सकती है। अगर पूर्व तैयारी न हो, तो अचानक पड़ा हुआ सुख भी घबड़ा जाता है। लाटरी मिल जाए तो पता चलता है। गरीबी बहुत कम लोगों की जान ले पाती है, अमीरी एकदम से टूट पड़े तो आदमी मर ही जाए।

मैं एक कहानी निरंतर कहता रहता हूं कि एक आदमी को लाटरी मिल गई। उसकी पत्नी बहुत घबड़ाई, क्योंकि एकदम पांच लाख रुपये मिल गए थे। वह बहुत डरी और उसने सोचा कि पति तो अभी दफ्तर गया है–वह किसी दफ्तर में क्लर्क है–वह लौटेगा, पांच रुपये भी मुश्किल से मिलते हैं, पांच लाख! पता नहीं झेल पाएगा कि नहीं झेल पाएगा। तो पास में चर्च था, वहां गई और पादरी से कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं, पति लौटते होंगे और आते से ही एक बड़ी खतरनाक खबर देनी है कि पांच लाख की लाटरी मिल गई है। कहीं ऐसा न हो कि उनके हृदय पर आघात ज्यादा पड़ जाए। उस पादरी ने कहा, घबड़ाओ मत, मैं आ जाता हूं।

पादरी आकर बैठ गया। उसकी पत्नी ने कहा कि करेंगे क्या? उसने कहा कि इस सुख को “इंस्टालमेंट’ में देना पड़ेगा, टुकड़ों में देना पड़ेगा। आने दो पति को। मैंने योजना बना रखी है। पति आया तो उसने कहा कि तुम्हें पता है, पचास हजार रुपये तुम्हें लाटरी में मिले हैं? सोचा कि पहले पचास हजार। जब पचास हजार सह लेगा तो कहेंगे, नहीं, लाख। जब लाख भी सह जाएगा, देखेंगे नहीं मरता है, तो डेढ़ लाख, ऐसा बढ़ेंगे। लेकिन उस क्लर्क ने कहा कि पचास हजार मिल गए हैं! सच कहते हैं? अगर पचास हजार मिल गए हैं तो पच्चीस हजार तुम्हें चर्च को देता हूं। हार्ट फेल हो गया पादरी का। पच्चीस हजार, उसने कहा! क्या कह रहे हो? पच्चीस हजार इकट्ठे पड़ गए उस पर।

अर्जुन पर जो घटना घटी, वह बहुत आकस्मिक थी। सारिपुत्त या मौगल्लान पर जो घटना घटी, वह आकस्मिक नहीं थी। उसकी बड़ी पूर्व तैयारियां थीं। जो लोग ध्यान की दिशा में यात्रा कर रहे हैं, उनके लिए दिव्यता का अनुभव कभी भी घबड़ाने वाला नहीं होगा। लेकिन जिन लोगों ने ध्यान की दिशा में कोई यात्रा नहीं की है, उनके लिए दिव्यता का प्राथमिक अनुभव बहुत घबड़ाने वाला, बहुत “शैटरिंग’। क्योंकि इतना आकस्मिक है और इतना आनंदपूर्ण है कि दोनों बातों को ही सहना मुश्किल हो जाता है। इतना आकस्मिक है, इतना आनंदपूर्ण है कि हृदय की धड़कन रुक सकती है, ठहर सकती है, प्राण अकुला जा सकते हैं। दुख कभी इतना नहीं घबड़ाता, क्योंकि दुख की हमारी आदत होती है, सदा तैयारी होती है। दुख तो रोज ही हम भोगते हैं। सुबह से सांझ तक दुख में ही जीते हैं। दुख ही दुख में पलते हैं और बड़े होते हैं। दुख हमारा ढंग है जीने का। इसलिए बड़े-से-बड़े दुख आ जाएं तो भी हम दो-चार दिन में निपट जाते हैं, फिर अपनी जगह लौट आते हैं। लेकिन सुख हमारे जीवन का ढंग नहीं है। अगर छोटा-सा भी सुख आ जाए, तो रात की नींद हराम हो जाती है। चैन खो जाती है। और अर्जुन पर जो सुख उतरा, वह साधारण सुख न था, वह आनंद था। और एक क्षण में उतर आया था, उसकी “इंटेंसिटी’ बहुत थी। वह घबड़ा गया और चिल्लाने लगा कि बंद करो, वापिस लो। मेरी सामर्थ्य के बाहर है यह देखना। स्वाभाविक था यह, यह बिलकुल स्वाभाविक है। बहुत मजे की बात है, लेकिन ऐसा ही है।

दुनिया में इतने शक्तिशाली लोग तो बहुत हैं जो बड़े-से-बड़े दुख को झेल लें, इतने शक्तिशाली लोग बहुत कम हैं जो बड़े सुख को झेल लें। प्रार्थनाएं हम सुख के लिए करते हैं, लेकिन अगर एकदम से मिल जाए तो पता चले, कि हम चिल्लाएं कि बस बंद करो, यह नहीं सहा जा सकेगा, इसे वापिस लौटा लो। इसलिए भगवान भी “इंस्टालमेंट’ में सुख देता है। क्षण-क्षण, धीरे-धीरे, मुश्किल-मुश्किल से; बहुत रोओ, बहुत चिल्लाओ, बहुत मांगो, धीरे-धीरे। और जब कभी आकस्मिक घट जाती है घटना, बड़ी तीव्रता के किसी क्षण में, तो घबराने वाली होती है।

“भगवान श्री, पहले प्रश्न का दूसरा हिस्सा रह गया था–“विनाशाय च दुष्कृताम्’ से आप अर्थ लेते हैं, दुष्टों का नाश नहीं, परिवर्तन। लेकिन कृष्ण ने बहुत से दुष्टों का वध क्यों किया, उन्हें परिवर्तित क्यों नहीं किया?’

ह भी समझना चाहिए।

हमें जो वध दिखाई पड़ता है, कृष्ण के लिए वह वध नहीं है। जो भी गीता को समझते हैं, समझ सकेंगे। हमें जो वध मालूम पड़ता है, वह कृष्ण के लिए वध नहीं है, एक। कृष्ण की तरफ से न कोई मारा जाता है, न कोई मारा जा सकता है। फिर कृष्ण क्या कर रहे हैं? लेकिन हमें तो दिखाई पड़ता है कि उन्होंने किसी राक्षस को, किसी पूतना को, किसी को मार डाला।

इसको समझने के लिए थोड़े गहरे जाना पड़ेगा और समझ के बाहर के कुछ सूत्र भी खयाल में लेने पड़ेंगे। अगर इसे ठीक से धर्म के पूरे विज्ञान की भाषा में समझें, तो इसका मतलब केवल इतना हुआ कि एक विशेष राक्षस या एक विशेष दुष्ट के संस्थान को नष्ट कर दिया। एक विशेष दुष्ट के संस्कारों के जाल को, शरीर को, चित्त को पूरी तरह नष्ट कर दिया। और उसके भीतर की आत्मा को पुरानी आदतों के जाल और संस्कारों से मुक्त कर दिया। धर्म के अर्थों में इतना ही होगा। और अगर कृष्ण को ऐसा दिखाई पड़ता है कि यह आदमी इस शरीर के साथ रूपांतरित नहीं हो सकता, तो इसके लिए नए शरीर की यात्रा पर भेज देना सहयोगी होता है। अगर यह शरीर उतनी जड़ता को उपलब्ध हो गया है कि अब इसमें परिवर्तन असंभव है, इसे नया शरीर मिल जाए तो आसान होगा। जैसे एक बूढ़े आदमी को अगर स्कूल भेजना हो, एक सत्तर साल के आदमी को अगर प्राइमरी स्कूल में भर्ती कराना हो, तो जिस दिन विज्ञान के पास सुविधा हो जाएगी, हम भी वही करेंगे जो कृष्ण ने किया। विज्ञान के पास धीरे-धीरे सुविधा होती जा रही है। तब हम इस बूढ़े आदमी को प्रौढ़-शिक्षा में भर्ती न करेंगे। बल्कि इस बूढ़े आदमी को नया बच्चे का शरीर देना चाहेंगे। क्योंकि प्रौढ़ को शिक्षित करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि वह इतना शिक्षित हो चुका होता है, उसकी स्लेट पर इतना लिखा जा चुका होता है कि अब उस पर नए अक्षर की रेखाएं खींचनी बड़ी कठिन हो जाती हैं, और खिंच भी जाएं तो दिखाई भी नहीं पड़तीं। और आदतों का जाल इतना घना हो जाता है कि उन आदतों के जाल से छूटना मुश्किल हो जाता है। समझ में आ जाए तो भी आदतों का जाल पीछा करता है। खयाल में भी आ जाए तो भी आदतों का ताल पीछा करता है।

इसलिए यह बड़े मजे की बात है कि रावण राम के हाथों से मरकर धन्यवाद दे पाता है। कृष्ण के हाथों से जो मरे हैं, वे भी धन्यवाद दे पाते हैं। बहुत गहरी अंतरात्मा में उनके धन्यवाद उठता है। एक जाल टूटा। एक जाल नष्ट हुआ। और एक नई यात्रा क, ख, ग से शुरू हो सकती है। लेकिन हमें तो यही दिखाई पड़ेगा कि मार डाला उस आदमी को। अगर मेरी तरफ से समझें तो मैं कहूंगा, नई जिंदगी दी उस आदमी को। नई शुरुआत दी उस आदमी को। उसकी यात्रा को फिर क, ख, ग से शुरू किया। सफेद, “क्लीन’ स्लेट दी, साफ-सुथरी उसे स्लेट दे दी।

कृष्ण के हिसाब में, या मेरे हिसाब में, कोई मरता नहीं। मरने का कोई उपाय नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि आप हिंसा करने निकल जाएं और किसी को भी मारने लगें। हां, उस दिन आपको मारने की आज्ञा दी जा सकती है जिस दिन आपको यह पता चल जाए कि कोई मरता नहीं। लेकिन ध्यान रहे उस दिन मरने की भी खुद की तैयारी इतनी ही होनी चाहिए, तभी पता चला समझा जाएगा। तो कृष्ण वह तैयारी पूरी दिखाते हैं। मौत के मुंह में वह जगह-जगह उतर जाते हैं। वही कसौटी है। छोटा-सा बच्चा, भयंकर सर्प से जूझ जाता है। छोटा-सा बच्चा है, महाशक्तिशाली राक्षसों से उलझ जाता है। क्या खबर क्या दे रहा है? वह खबर केवल इतनी दे रहा है कि मरता कोई नहीं। मौत एकमात्र असत्य है। “द ओनली इलूज़न’। एकमात्र भ्रम है। एकमात्र माया है, जो है नहीं और दिखाई पड़ती है। मृत्यु यदि असत्य है, तो फिर हम शरीर को बदलने की भी जरूरत अनुभव कर सकते हैं।

ऐसा समझें। आपकी एक “किडनी’ खराब हो गई है और डाक्टर उसे अलग करके दूसरी “किडनी’ लगा देता है। तो हमें कोई तकलीफ नहीं होती। लेकिन एक अर्थ में आपका शरीर बदल दिया गया है। आपका हृदय खराब हो गया है और आपको दूसरा फेफड़ा प्लास्टिक का लगा दिया जाता है। एक अर्थ में आपका शरीर बदल दिया गया। अभी हम पार्ट्स में बदल पा रहे हैं, लेकिन आज नहीं कल, हम पूरे शरीर को बदल पाएंगे, इसमें कठिनाई नहीं है। अभी तक प्रकृति शरीर को बदलती थी, कृष्ण के जमाने तक में विज्ञान इतना विकसित न था कि वह वैज्ञानिक को कहते कि इस राक्षस के शरीर को बदल दो। प्रकृति को ही सौंपना पड़ता, गर्दन काटकर प्रकृति को सौंप देते कि बदलो। भविष्य में इस बात की संभावना हो जोगी कि अगर हम किसी अपराधी को, किसी “क्रानिक क्रिमिनल’ को, किसी ऐसे आदमी को कि जिसको किसी तरह नहीं बदला जा सकता–सजा नहीं देंगे, उसके पूरे शरीर को रूपांतरित कर देंगे। यह आदमी की विज्ञानशाला में भी कल हो सकेगा। तभी हम कृष्ण को पूरा समझ पाएंगे, उसके पहले समझना बहुत मुश्किल है, क्योंकि अभी हमारे पास बहुत साफ तथ्य नहीं हैं।

इसलिए मैं नहीं मानता हूं कि दुष्टों को नष्ट किया; मैं मानता हूं, दुष्टों को रूपांतरित किया। सिर्फ रूपांतरण की यात्रा पर वे भेज दिए गए हैं। वे प्रकृति की प्रयोगशाला में वापिस लौटा दिए गए हैं। प्रकृति की “वर्कशाप’ में वापिस भेज दिए गए हैं कि कृपा करके इनको फिर से शरीर दो, फिर से आंखें दों, फिर से मन दो, ताकि इनकी फिर से नई यात्रा शुरू हो सके।

“इस प्रकार नया शरीर मिलने भर से अतीत के संस्कारों व मन वाला सूक्ष्म शरीर भी बदल जाता है क्या?’

 

ह अपने-आप नहीं बदल जाता, लेकिन कृष्ण जैसे आदमी के हाथ से मरने का मौका मिले तो उसमें बहुत फर्क पड़ता है। सभी को नहीं मिलता, बहुत पुण्य कर्मों के फल से मिलता है।

साधारणतः नहीं बदल जाता। अगर एक आदमी मरता है, तो शरीर ही बदलता है, उसके भीतर का और कुछ भी नहीं बदलता। लेकिन कृष्ण जैसे आदमी के हाथ से मरना बड़ी भारी घटना है, क्योंकि “एजेंट’ मौजूद है। उस आदमी की मौजूदगी में यह घटना घट रही है तुम्हारे मरने की, और तुम्हारे शरीर के छूटते ही उस आदमी के व्यक्तित्व से जो सूक्ष्मतम किरणों का जाल फैलता है, वह तुममें “एब्जार्व’ हो जाएगा, उसे तुम पकड़ पाओगे, वह तुम पी जाओगे। जो तुम्हारा शरीर बाधा दे रहा था कृष्ण से मिलने से, वह बीच से हट जाएगा तो कृष्ण से मिलना आसान हो जाएगा। उस मिलने में बहुत कुछ होगा। वह मिलन अर्जुन के लिए ऐसे ही हो पाता है क्योंकि अर्जुन इस शरीर के बाहर छलांग लगा पाता है। हम प्रेम में शरीर के बाहर छलांग लगा लेते हैं। शत्रुता में हम शरीर के बाहर नहीं छलांग लगाते, शरीर के भीतर शरीर को दुर्ग की तरह बनाकर बैठ जाते हैं।

प्रेम और घृणा का वही फर्क है। अगर मेरा आपसे प्रेम है, आपका मुझसे प्रेम है, तो प्रेम की घड़ी में हम एक-दूसरे के शरीर के बाहर छलांग लगा जाते हैं, और वहां मिल जाते हैं जहां शरीर नहीं मिलते। लेकिन अगर मेरी आपसे घृणा है, तो हम दोनों अपने-अपने शरीरों को दुर्ग बनाकर, किले बनाकर भीतर बैठ जाते हैं। शरीर के बाहर बिलकुल नहीं निकलते। आपका शरीर मुझे दिखाई पड़ता है, आपको मेरा शरीर दिखाई पड़ता है, हमारा मिलन ज्यादा-से-ज्यादा शरीर के तल पर हो सकता है, और कहीं नहीं हो सकता। लेकिन प्रेम में शरीर के बाहर छलांग लगा जाते हैं।

अर्जुन को मारने की जरूरत नहीं पड़ती बदलने के लिए, क्योंकि वह प्रेम से भरा है। किसी को मारने की जरूरत पड़ती है बदलने के लिए, क्योंकि वह घृणा से भरा है, उसके दुर्ग को ढहा देना होगा। तब वह शरीर के बाहर आ जाएगा। और घड़ी वही पैदा हो जाएगी जो अर्जुन के साथ बिना मारे होती है। वह किसी दुष्ट के साथ मारकर पैदा होती है। लेकिन कृष्ण की अनुकंपा दोनों पर बराबर है। उसमें कोई फर्क नहीं है। लेकिन मैंने कहा कि यह समझ के थोड़ा बाहर हो जाएगा। इसलिए इसे समझने की कोशिश मत करना, सुनना, और भूल जाना।

“भगवान श्री, मार्शल मैकलूहान का सूत्र है: “मीडियम इज मेसेज’, माध्यम ही संदेश है। किसी आलोचक ने “मेसेज’ की जगह “मसाज’ शब्द रख लिया और अभिनव अर्थ प्रदान किया। वैसे ही हम कृष्ण की मुरली को जीवात्मा की परमात्मा को प्रेम-पुकार कहें तो क्या बाधा है?

महाभारत के समय कृष्ण का पांचजन्य शंख बजाना, तथा बांसुरी के साथ सुदर्शन चक्र का होना, क्या ये कोई प्रतीकात्मक अर्थ रखते हैं?

रासक्रीड़ा के अंतर्गत भागवत में एक श्लोक है, जिसमें ब्रज-सुंदरियों के साथ खेलते कृष्ण का वर्णन–“यथा अर्भक स्व प्रतिबिंब विभ्रमः’, यह “इमेज’, यह भाव-कल्पना क्या अर्थ रखता है? और एक रहस्यवादी कहते हैं कि जीवात्मा का अहंकार परमात्मा का भोजन है। क्या इसी विधान के अनुलक्ष्य में रासलीला करते कृष्ण गोपिकाओं के अहंकार-मर्दन के लिए अचानक अदृश्य हो गए थे?’

मार्शल मेकलूहान अदभुत विचारक हैं। उनका वक्तव्य “मीडियम इज मेसेज’–माध्यम ही संदेश है–बड़ा कीमती है। ऐसा सदा से नहीं समझा जाता रहा। समझा ऐसा जाता रहा है कि संदेश अलग बात है, माध्यम अलग बात है। संदेश माध्यम के द्वारा प्रगट होता है, लेकिन संदेश ही माध्यम नहीं है और माध्यम ही संदेश नहीं है। द्वैतवादी दृष्टि सदा ही इस तरह के फासले तोड़ती है। वह “डुआलिस्ट माइंड’ सब चीजों को दो हिस्सों में तोड़ लेता है। वह कहता है, शरीर अलग है, आत्मा अलग है। शरीर माध्यम है, आत्मा संदेश है। वह कहता है, गति अलग है, गतिवान अलग है। वह कहता है, प्रकाश अलग है, प्रकाशवान अलग है। वह कहता है, जगत अलग है, परमात्मा अलग है।

ठीक यह जो द्वैतवादी दृष्टि है, वही अभिव्यक्ति के माध्यम और अभिव्यक्ति के संदेश में चलती रही है। मार्शल मेकलूहान को मैं अद्वैतवादी कहता हूं। उसे पता है या नहीं, यह मैं नहीं जानता, मैं उसे अद्वैतवादी कहता हूं। उसने माध्यम और संदेश के संबंध में पहली दफा अद्वैत की घोषणा की है। वह यह कह रहा है कि जो आप कहते हैं वह, और जिस ढंग से आप कहते हैं और जिस मार्ग से और विधि से और माध्यम से आप कहते हैं, ये दो चीजें नहीं हैं, ये एक ही चीज हैं। इसे समझने के लिए थोड़ी-सी बातें समझनी जरूरी होंगी।

एक मूर्तिकार एक मूर्ति बनाता है। लेकिन मूर्तिकार अलग होता है, मूर्ति अलग होती है। इसे हम देख सकते हैं साफ। मूर्ति बनती जाती है, और मूर्तिकार बनाता जाता है, फिर मूर्ति बन जाती है, मूर्तिकार अलग खड़ा हो जाता है, मूर्ति अलग खड़ी हो जाती है। बड़ा ही गहरा अद्वैतवादी चाहिए, जो कह सके कि मूर्तिकार और मूर्ति एक हैं। बड़ी कठिनाई पड़ेगी। हमारी आंखें गवाही न देंगी। हमारे हाथ स्वीकार न करेंगे। हमारा मन, हमारी बुद्धि कहेगी, क्या पागलपन की बातें कर रहे हो? मूर्तिकार और मूर्ति अलग हैं। कल मूर्तिकार मर जाएगा और मूर्ति रहेगी। बहुत गहरी आंखें चाहिए जो कहें कि अब मूर्तिकार मर कैसे सकेगा जब तक मूर्ति रहेगी! बहुत गहरी आंखें चाहिए, जो देख सकें कि अब मूर्तिकार कितना ही दूर चला जाए लेकिन दूर जा कैसे सकेगा! अब “स्पेस’ का संबंध न रहा। अब इन दोनों के बीच एक आत्मिक एकता है, एक तादात्म्य है, जो अब अनंत तक रहेगा, जो नहीं मिट सकता। लेकिन, मूर्तिकार के साथ देखने में हमें बहुत कठिनाई पड़ेगी, इसलिए इस उदाहरण को छोड़ दें, नृत्यकार को लें, और कृष्ण के ज्यादा निकट पड़ेगा वह।

नाच रहा है एक नर्तक। नर्तक और नृत्य दो हैं या एक? यहां बहुत आसानी पड़ेगी। नर्तक को अलग कर लें तो नृत्य खो जाता है, नृत्य को अलग कर लें तो नर्तक नर्तक नहीं रह जाता, साधारण आदमी हो जाता है। नर्तक और नृत्य एक हैं। बांसुरी और बांसुरीवादक एक हैं। गीत और गायक एक हैं, प्रकृति और परमात्मा एक हैं। कहा जाने वाला और जिस माध्यम से कहा गया, वह एक है। लेकिन बहुत-सी चीजों में देखने में आसानी पड़ेगी, क्योंकि हमारी स्थूल आंखें भी पहचान सकेंगी कि बात ठीक है कि नर्तक और नृत्य एक हैं। लेकिन, अगर बहुत द्वैतवादी दृष्टि हो, तो यहां भी हम दो में तोड़ सकते हैं। बिलकुल तोड़ सकते हैं। क्योंकि नृत्य तो बाहर होने वाली प्रगट एक क्रिया है और नर्तक भीतर छिपा एक प्राण है। प्राण नहीं नाच रहा, प्राण तो नाच के बीच खड़ा है। नाच बाहर चल रहा है। द्वैतवादी कह सकता है कि नर्तक चाहे तो अपने नृत्य को देख सकता है, साक्षी हो सकता है। तब वह दो हो जाएंगे। जो हमें दो दिखाई पड़ते हैं वह भी एक हो सकते हैं गहरी दृष्टि से, जो हमें एक दिखाई पड़ता है, उथली दृष्टि से वह भी दो हो सकता है।

लेकिन, बांसुरी बजाई जा रही है। कहां है वह जगह, जहां से बांसुरी बजाने वाले ओंठ और बांसुरी अलग होते हैं? और अगर वे सच ही अलग हैं तो ओंठ बांसुरी बजा कैसे सकते हैं? फिर तो बीच में “गैप’ पड़ जाएगा, बीच में जगह छूट जाएगी। ओंठ अलग हो जाएंगे, बांसुरी अलग हो जाएगी। जुड़ेंगे कैसे, एक कैसे होंगे? स्वर ओंठों पर पैदा होंगे, बांसुरी तक पहुंचेंगे कैसे? नहीं, बांसुरी और ओंठ अलग-अलग दिखाई भर पड़ते हैं। अगर ठीक से समझें तो बांसुरी ओंठों का बढ़ा हुआ रूप है। “इंस्ट्रूमेंटल’ रूप है, बढ़ गया आगे, फैल गया आगे।

ऐसा और तरह से समझें–जैसा मार्शल मैकलूहान को पसंद पड़े, वैसा समझें। एक दूरबीन है, हम आंख पर लगाकर देखते हैं आकाश की तरफ। जो तारे हमें नहीं दिखाई पड़ते थे खुली आंख से, वे दूरबीन से दिखाई पड़ने लगेंगे। दूरबीन और आंख अलग हैं, या कि ऐसा कहें कि दूरबीन आंख का बढ़ा हुआ रूप है? विज्ञान ने आंख को बढ़ा दिया। दूरबीन को जोड़कर आंख बड़ी हो गई। जब मैं अपने हाथ से आपको छूता हूं, तो मैं छूता हूं या मेरा हाथ छूता है? दिखता तो मेरा हाथ छूता हुआ है। लेकिन मेरे हाथ और मुझमें कहीं फासला है, कहीं फर्क है, कहीं कोई अंतराल है, कहीं कोई जगह है, जहां मैं खत्म होता हूं, मेरा हाथ शुरू होता है? नहीं, मेरा हाथ मेरा “एक्सटेंशन’ है, मेरा बढ़ाव है। और समझ लें कि हाथ में मैं एक लकड़ी ले लूं और फिर लकड़ी से आपको छूऊं, तब आप शायद कहेंगे अब आप नहीं छू रहे हैं। लेकिन अब भी मैं ही छू रहा हूं, लकड़ी मेरे हाथ का और भी बढ़ाव है। जब टेलीफोन से मैं आपसे बात कर रहा हूं तब भी मेरे ओंठ ही बात कर रहे हैं। टेलीफोन सिर्फ मेरे ओंठों का वैज्ञानिक बढ़ाव है। अगर हम इस भांति देखें, तो दूरबीन से मैं तारों को देख सकता हूं, इसका मतलब ही यही है कि तारों और मेरी आंख के बीच कोई आंतरिक संबंध होना चाहिए, अन्यथा देख कैसे सकूंगा? कान से तो मैं तारों को नहीं देख पाता, आंख से मैं संगीत को नहीं सुन पाता। आंख और तारों के बीच कोई तालमेल, कोई जोड़, कोई “हार्मनी’ चाहिए। कोई अंतर्संबंध चाहिए, कोई “इंटिमेसी’ चाहिए। तो दूरबीन ही नहीं है मेरा बढ़ाव, तारे भी मेरी आंख के बढ़ाव हैं। या उलटी तरफ से सोचें, तो तारों का बढ़ाव मेरी आंख है। तब हमें अद्वैत दिखाई पड़ेगा। तब चीजें हमें एक दिखाई पड़ेंगी। तब चीजों में हमें एक अंतफलाव दिखाई पड़ेगा। और तब सब एक हो जाएगा। “देन मीडियम इज द मेसेज’। तब फिर माध्यम ही संदेश है और संदेश ही माध्यम है।

ठीक पूछते हैं कि कृष्ण की यह बांसुरी और ये बांसुरी पर बजाए गए स्वर परमात्मा की तरफ की गई प्रार्थनाएं नहीं हैं? प्रार्थना मैं न कहूंगा। क्योंकि कृष्ण जैसा आदमी प्रार्थना नहीं करता। प्रार्थना किससे करेगा? प्रार्थना में थोड़ा फासला हो जाता है। प्रार्थना में थोड़ा भेद हो जाता है। प्रार्थना में प्रार्थी अलग हो जाता है उससे, जिससे प्रार्थना करता है। प्रार्थना द्वैत है। इसे थोड़ा समझना अच्छा होगा।

प्रार्थना द्वैत है। नहीं, कृष्ण बांसुरी बजाते वक्त प्रार्थना में नहीं, ध्यान में हैं। ध्यान अद्वैत है। और प्रार्थना और ध्यान शब्द में यही फर्क है। प्रार्थना द्वैतवादी की खोज है। वह कहता है, इधर मैं हूं, उधर परमात्मा है, निवेदन करता हूं। ध्यान अद्वैतवादी की स्थिति है। वह कहता है; वहां कोई परमात्मा नहीं, यहां मैं नहीं, बीच में दोनों के सब हैं। कृष्ण की बांसुरी प्रार्थना का उठा हुआ गीत नहीं, ध्यान से उठा हुआ स्वर है। यह किसी परमात्मा से की गई प्रार्थना नहीं, यह स्वयं को दिया गया धन्यवाद है। “सेल्फ कांग्रेचुलेशन’ है, स्वयं को दिया गया धन्यवाद है। स्वयं के प्रति प्रगट गई अनुगृहीत भावना। यह अनुग्रह-भाव है, यह “ग्रेटीटयूड’ है, “प्रेयर’ नहीं। यह अनुग्रह-बोध है, यह अहोभाव है, क्योंकि प्रार्थना में पैर उतने मुक्त नहीं हो सकते जितने अहोभाव में होते हैं। प्रार्थना में संकोच और डर तो बना ही रहता है। प्रार्थना में भय और आकांक्षा तो बनी ही रहती है। प्रार्थना सुनी जाएगी, नहीं सुनी जाएगी, इसका संशय तो बना ही रहता है। कोई प्रार्थना सुनने वाला है या नहीं, इसका संदेह तो खड़ा ही रहता है।

अनुग्रह में कोई सवाल नहीं रह जाता। कोई सुनता है या नहीं सुनता है, यह सवाल ही नहीं है। कोई गुनता है, नहीं गुनता है, यह सवाल ही नहीं है। कोई मानेगा, नहीं मानेगा, यह सवाल ही नहीं है। यह किसी के लिए “एड्रेस्ड’ नहीं है। ध्यान जो है, “अनएड्रेस्ड’ है। इस पर किसी का कोई पता ही नहीं है। सीधा अनुग्रह का भाव है, जो समस्त के प्रति निवेदित है। आकाश सुने तो सुने, फूल सुने तो सुने, बादल सुने तो सुने, हवाएं ले जाएं तो ले जाएं न ले जाएं तो न ले जाएं। इसके पीछे कोई आकांक्षा नहीं है। “देअर इज नो एंड टु इट’। यह अपने-आप में पूरी है बात। बांसुरी बज गई है, बात खत्म हो गई है। कृष्ण ने अपने हृदय को निवेदन कर दिया, “अनएड्रेस्ड’। यह किसी के प्रति नहीं है निवेदन। यह निपट निवेदन है। इसीलिए कृष्ण आनंद से बजा सके इस बांसुरी को। मीरा उतने आनंद से नहीं नाच सकी। मीरा ध्यान में नहीं है, प्रार्थना में है। मीरा के लिए कृष्ण वहां पराए की तरह खड़े हैं। कितने ही निकट हों, पर पराए हैं। कितने ही पास हों, पर फिर भी दूर हैं। और कितने ही हों, फिर भी एक नहीं हो गए हैं।

इसलिए मीरा के नाचने में वह स्वतंत्रता नहीं है, जो कृष्ण के नाचने में है। मीरा के घुंघरुओं में परतंत्रता का तो थोड़ा-सा स्वर है। मीरा के भजन में दुख है, पीड़ा है। कृष्ण की बांसुरी में सिवाय आनंद के और कुछ भी नहीं है। मीरा के भजन में आंसू भी हैं–“एड्रेस्ड’ है न भजन, किसी का पता लिखा है; पहुंचेगा नहीं, सुनेगा नहीं; पता नहीं आएगा, नहीं आएगा; सेज उसने तैयार कर रखी है, निवेदन भेज दिया है, प्रतीक्षा जारी है। मीरा के भजन के पीछे कोई लक्ष्य है। मीरा के भजन के पीछे कोई आकांक्षा है, अभीप्सा है, इसलिए मीरा की आंख में आंसू भी हैं, मीरा के मन में प्रतीक्षा भी है, पूरी होगी कि नहीं होगी आकांक्षा, इसका भय भी है। इसका कंपन भी है। कृष्ण के मन में कोई कंपन नहीं है। ये ध्यान से उठे हुए स्वर हैं, किसी परमात्मा के प्रति प्रेरित नहीं, बल्कि किसी परमात्मा से ही उठे हुए हैं। अनंत के प्रति विस्तीर्ण, “अनएड्रेस्ड’, कोई पता-ठिकाना नहीं है। कृष्ण किसीलिए बांसुरी नहीं बजा रहे हैं, अकारण बजा रहे हैं। या इसीलिए बजा रहे हैं कि अब और करने का कोई कारण नहीं रहा, अब बांसुरी ही बजाई जा सकती है।

आमतौर से हम बांसुरी को चैन से जोड़ते हैं। हम कहते हैं, फलां आदमी चैन की बांसुरी बजा रहा है। असल में बांसुरी का मतलब ही यह है कि कोई आदमी चैन में है। कोई आदमी “एट ईज’ हो गया, अब बांसुरी बजाने के सिवाय कोई बचा नहीं कुछ करने को। नाहक का काम है, बेकार काम है, कुछ फल तो होता नहीं। कुछ आता तो नहीं, कुछ मिलता तो नहीं। लेकिन कुछ मिल गया है, कुछ पा लिया गया है, वह फूट-फूटकर बह जाता है।

“भगवान श्री, आप बहुधा कहा करते हैं कि “प्रेयर इज ए स्टेट आफ कांशसनेस’। और कभी-कभी यह भी कहा करते हैं कि “प्रेयर इज ए स्टेट आफ ग्रेटीटयूड’। तब फिर “प्रेयर’ अद्वैत क्यों न होगा?’

 

हीं, ऐसा मैं कभी नहीं कहता। मैं ऐसा कभी नहीं कहता कि “प्रेयर इज ए स्टेट आफ माइंड’। मैं कहता हूं, “प्रेयरफुलनेस इज ए स्टेट आफ माइंड’। “प्रेयरफुलनेस’। प्रार्थना नहीं, प्रार्थनामयता। प्रार्थना नहीं, प्रार्थनापूर्ण होना।

एक आदमी सुबह प्रार्थना कर रहा है, यह और बात है। एक आदमी उठता है, बैठता है, चलता है और प्रार्थनापूर्ण है। वह जूता भी पहनता है तो प्रार्थनापूर्ण है। वह जूते को भी उठाकर रखता है तो ऐसे ही रखता है जैसे भगवान की मूर्ति को रखता हो। वह आदमी प्रार्थनापूर्ण है। वह रास्ते के किनारे एक फूल के पास खड़ा होता है तो भी वैसे ही खड़ा होता है जैसे स्वयं परमात्मा उसके सामने खड़ा हो तो खड़ा होगा। यह आदमी प्रार्थनापूर्ण है, यह कभी प्रार्थना कर नहीं रहा है। इसने प्रार्थना कभी की नहीं। “प्रेयर’ को नहीं कहता हूं मैं कभी कि वह चेतना है। “प्रेयरफुलनेस’, प्रार्थनापूर्ण हृदय। यह बड़ी और बात है। प्रार्थनापूर्ण हृदय का मतलब फिर ध्यान हो जाता है, फिर कोई फर्क नहीं रहता।

प्रार्थना तो करते ही वे हैं, जो प्रार्थनापूर्ण नहीं हैं। प्रार्थनापूर्ण प्रार्थना करेगा कैसे? वह तो प्रार्थना को जीता है, वह तो प्रार्थना होता है। वह कुछ और करता ही नहीं, और कर ही नहीं सकता। प्रार्थना तो वही करेगा जो और कुछ भी करता रहता है। दुकान भी करता है, घृणा भी करता है, क्रोध भी करता है, बाजार भी करता है, कुछ और भी करता है, उसी में प्रार्थना भी उसकी बड़े कामों की “लिस्ट’ में एक चीज है, एक “आइटम’ है। उसको भी करता है। लेकिन प्रार्थनापूर्ण तो वह है कि दुकान भी करता है तो प्रार्थना करता है।

अब कबीर है, कबीर कपड़ा भी बुन रहा है, तो कोई उससे कहता है कि तुम अब क्यों कपड़ा बुनने में लगे हो? तो वह कहता है, यह मेरी प्रार्थना है। वह कहता है, मैं चलता हूं तो वह मेरा ध्यान है, मैं उठता हूं तो वह मेरा ध्यान है, मैं खाता हूं तो वह मेरा ध्यान है, मैं कपड़ा बुनता हूं तो वह मेरा ध्यान है। वह कहता है–साधो, सहज समाधि भली। जो करते हो, वही समाधि है; वही मेरा ध्यान है, वही मेरी प्रार्थना है। वह बाजार बेचने जा रहा है कबीर अपने कपड़ों को, तो नाचता हुआ चला जा रहा है। वह बाजार में ग्राहक उससे कपड़ा खरीदने आए हैं तो वह उनसे कहता है कि राम, ऐसी बढ़िया चीज मैंने पहले कभी बनाई नहीं, इसमें प्रार्थना को भी इसके धागे-धागे में मैंने बुन दिया है। राम कहता है उसे कबीर, जो खरीदने आया है। अब इसके लिए न कोई खरीददार है, न कोई बेचनेवाला है। इधर राम ही बनाने वाला है, राम ही पहनने वाला है। इधर राम ही बुनने वाला है, राम ही बुना जा रहा है। यह स्थिति प्रार्थनापूर्ण है, यह “प्रेयरफुल’ है। इसलिए कबीर को कभी किसी ने प्रार्थना करते नहीं देखा कि वह मस्जिद में चला गया हो और चिल्ला रहा हो, अजान कर रहा हो। कि कभी मंदिर में चला गया हो और कह रहा हो, हे भगवान! बल्कि वह निरंतर कह रहा है कि क्या तुम्हारा भगवान बहरा है, जो तुम इतने जोर से चिल्ला रहे हो? ऐ मुल्ला, तू इतनी जोर से क्यों चिल्लाता है, क्या तेरा भगवान बहरा है? क्योंकि हम तो बिना चिल्लाए ही पाते हैं कि वह सुन लेता है। हम तो बिना कहे पाते हैं कि वह समझ लेता है। तू इतने जोर से क्यों चिल्ला रहा है? क्या तेरा भगवान बहरा हो गया है? तो कबीर मजाक करते हैं बहुत उन सबकी जो प्रार्थना कर रहे हैं। और यह आदमी प्रार्थनापूर्ण है, इसलिए मजाक कर सकता है। अन्यथा मजाक नहीं कर सकता। तो प्रार्थनापूर्ण होने को तो मैं कहता हूं, प्रार्थना के लिए नहीं कहता हूं।

“वह चक्र-सुदर्शन और पांचजन्य के बारे में प्रश्न था, तथा रासक्रीड़ा के संबंध में–“यथा अर्भक स्व प्रतिबिंब विभ्रमः’?’

 

कृष्ण के व्यक्तित्व से जुड़ी हुई सारी बातों के बड़े प्रतीक अर्थ हैं। होने ही चाहिए। कृष्ण जैसे व्यक्ति के साथ जो भी जुड़ा है, वह निर्मूल्य नहीं हो सकता। अमूल्य हो सकता है। लेकिन हम उसका मूल्य भी समझ पाएं तो बहुत है, अमूल्य को समझना तो थोड़ी कठिनाई की बात है।

कृष्ण का पांचजन्य, उनका शंख बड़े प्रतीक अर्थ रखता है। आदमी की पांच इंद्रियां हैं, आदमी के पांच द्वार हैं, आदमी अपने पांच द्वारों के माध्यम से उद्घोष करता है। उसके जीवन का सारा उद्घोष पांच द्वारों के किया गया उद्घोष है–उसकी आंख से, उसकी नाक से, उसके कान से, उसके मुंह से। पांच इंद्रियां पांच द्वार हैं जगत से हमारे संबंध के। और जब कथाकार कहते हैं कि कृष्ण ने पांचजन्य बजाया, उसका कुल मतलब इतना है कि युद्ध में वे अपनी पांचों इंद्रियों सहित समग्र रूप से मौजूद हुए। इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं है। युद्ध उनके लिए कोई एक काम न था, उनके लिए कोई चीज काम न थी। कबीर जैसा कपड़ा बेचने बाजार चला गया था, पूरा-का-पूरा, ऐसे ही कृष्ण पांचजन्य बजाकर उद्घोष करते हैं कि मैं पूरा-का-पूरा युद्ध में आ गया हूं। कुछ पीछे छोड़ आया नहीं। वह पीछे छोड़कर चलते ही नहीं। वह पूरे-के-पूरे, जहां होते हैं पूरे होते हैं। इसलिए पांच इंद्रियों के प्रतीक पांचजन्य को वह बजाते हैं और वह कहते हैं कि मेरी समस्त इंद्रियों सहित मैं यहां मौजूद हूं। मेरी मौजूदगी की घोषणा है। वह सारे शंख अपनी-अपनी मौजूदगी की घोषणा करते हैं। सबके शंखों के अलग-अलग नाम हैं। और प्रत्येक अपना-अपना शंख बजाता है, वह उसकी घोषणा है। प्रत्येक शंख का अलग-अलग स्वर है। और प्रत्येक शंख का प्रत्येक व्यक्ति के आंतरिक व्यक्तित्व से संबंध है। लेकिन कृष्ण के शंख का मुकाबला कोई भी नहीं है। समग्र रूप से वहां कोई भी उपस्थित नहीं है, समग्र रूप से वह अकेले ही उपस्थित हैं। और मजे की बात है कि वही वहां युद्ध करने को उपस्थित नहीं है। वह आदमी वहां लड़ने आया ही नहीं, “नानकमीटेड’, वहां खड़ा है।

सच बात यह है कि पूरा वही खड़ा हो सकता है जिसका कोई “कमिटमेंट’ नहीं है। अगर “कमिटमेंट’ है तो अधूरे ही खड़े होंगे आप। “कमिटमेंट’ में कुछ-न-कुछ पीछे छूट ही जाता है, कुछ बाकी रह जाता है। कम-से-कम वह तो छूट ही जाता है जो “कमिट’ करता है। वह पीछे छूट जाता है। “वन कैन बी टोटल ओनली व्हेन वन इज अनकमीटेड’। जब कोई भी “कमिटमेंट’ नहीं हैं तब तो कोई बात ही नहीं है। हम पूरे ही होते हैं, कोई वजह ही नहीं है। इसलिए कृष्ण वहां युद्ध करने को आए नहीं, लेकिन पूरे युद्ध में हैं। और पांचजन्य इनकी घोषणा देता है कि यह आदमी पूरा यहां मौजूद है। “टोटल प्रेजेंस’ की खबर वह पांच इंद्रियों के प्रतीक पांचजन्य से होगी। यह आदमी युद्ध में मौजूद है। युद्ध करने को मौजूद नहीं। इसका केवल मतलब इतना है कि यह तय करके आया नहीं। युद्ध करने का कोई भी निर्णय इसके मन में नहीं है। युद्ध से इसे कोई प्रयोजन भी नहीं है, इसे कुछ मिलने-जाने वाला भी नहीं है, इसका युद्ध से कोई संबंध भी नहीं है। “नो-पार्टी ‘ है यह आदमी। कौन जीतता है, कौन हारता है, इससे इसे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। इसका अपना कोई हित, कोई स्वार्थ नहीं है। लेकिन फिर भी यह आदमी एक क्षण आता है युद्ध का और युद्ध में उतर जाता है और सुदर्शन चक्र को हाथ में ले लेता है–वह उनके चक्र का नाम है।

वह नाम भी बड़ा प्रतीकात्मक है।

असल में जिन लोगों ने काव्य लिखे उन्होंने शब्दों के साथ बड़ी मेहनत की है। काव्य का तो प्राण ही शब्द है। और शब्दों के साथ बड़ी उन्होंने छेनी-हथौड़ी लेकर सैकड़ों वर्ष तक मेहनत की है।

अब कृष्ण का जो चक्र है, उसको नाम दिया है सुदर्शन का। मृत्यु का वह वाहक है और नाम सुदर्शन का है। मृत्यु देखने में सुंदर नहीं होती, न सुदर्शन होती है, लेकिन कृष्ण के हाथ में मृत्यु भी सुदर्शन बन जाती है। उतना ही अर्थ है। हम एटम बम को सुदर्शन चक्र का नाम नहीं दे सके। एटम जैसा ही संघातक है वह। अचूक है उसकी चोट। मौत उसकी निश्चित है उससे। वह छूटता है तो बस मारकर ही लौटता है। मृत्यु जहां बिलकुल निश्चित हो, वहां भी हम उस मृत्यु के शस्त्र को सुदर्शन कहेंगे? लेकिन कहा तो है। असल में कृष्ण जैसे आदमी के हाथ में मृत्यु भी सुदर्शन हो जाती है। हिटलर जैसे आदमी के हाथ में फूल भी सुदर्शन नहीं रह जाता है। सवाल यह नहीं है कि क्या है आपके हाथ में, सवाल सदा यही है कि हाथ किसका है। कृष्ण के हाथ से मरना भी आनंदपूर्ण हो सकता है। और उस युद्ध के स्थल पर खड़े हुए मित्र और विपक्षी भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनके हाथ से मरना आनंदपूर्ण हो सकता है। वह भी सौभाग्य का क्षण हो सकता है। इसलिए उनके शस्त्र को भी नाम जो देते हैं हम, वह सुदर्शन का नाम दिया है।

एक क्षण आता है युद्ध का, वह सुदर्शन हाथ में लेकर युद्ध में कूद पड़ते हैं। यह उनके “स्पांटेनियस’, सहज होने का प्रतीक है। ऐसा आदमी क्षण में जीता है, “मॉमेंट टु मॉमेंट’। ऐसा आदमी पिछले क्षण से बंधा हुआ नहीं होता है। अगर ठीक से समझें तो ऐसे आदमी की कोई “प्रॉमिस’ नहीं होती। संभवतः जेसपर्स ने आदमी की परिभाषा की है–बहुत परिभाषाएं आदमी की की जा सकती हैं, कोई कहता है, “मैन इज ए रेशनल बीइंग’, मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है। जेसपर्स ने जो परिभाषा की है वह है, “मैन इज ए प्रॉमिसिंग एनिमल’। आदमी जो है, वह वचन देने वाला प्राणी है। कृष्ण आदमी नहीं हैं। वह वचन देता नहीं। हां, गांधी उनमें आएंगे, वचन देन वाले प्राणियों में आएंगे। कृष्ण वचन देनेवाला प्राणी नहीं है। क्षण में जीने वाला आदमी है। जो क्षण ले आएगा, वैसा जिएगा। अगर क्षण ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी तो यह अपने को रोकेगा नहीं। क्षण अगर युद्ध ले आया, तो युद्ध में उतर जाएगा। क्षण-क्षण जीवन का जो अर्थ होता है–और निश्चित ही केवल क्षण-क्षण जीने वाला आदमी ही मुक्त जी सकता है। क्योंकि जिसने वचन दिए हैं, वह अतीत से बंध जाता है। जो पीछे से बंध जाता है, जो पीछे से बंधकर जीने लगता है, उसकी भविष्य की स्वतंत्रता रोज संकीर्ण होती चली जाती है। और अतीत भविष्य पर बोझिल होने लगता है।

तो कृष्ण लड़ने में उतर जाते हैं। आए नहीं थे लड़ने को, युद्ध करने का कोई खयाल न था, कोई बात न थी, उतर जाते हैं युद्ध में। यह बड़ी कठिनाई की बात रही है। जो लोग कृष्ण पर सोचते रहे हैं, उन्हें बड़ी मुश्किल की बात रही है कि वह युद्ध में क्यों उतर गए? कारण सिर्फ इतना ही है कि वैसा आदमी भरोसे का आदमी नहीं है। “ही कैन नाट बी रिलाइड अपॉन।’ ऐसे आदमी पर बिलकुल पक्का भरोसा नहीं किया जा सकता। ऐसा आदमी जो स्थिति होगी वैसा जिएगा। और आप उससे यह नहीं कह सकते कि कल तो आप ऐसे थे, आज आप ऐसे? वह कहेगा, कल अब नहीं है। गंगा का पानी बहुत बह चुका। अब गंगा जहां है, वहां है। आज मैं ऐसा हूं; और कल मैं कैसा होऊंगा, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कल आएगा, तभी हम जानेंगे। इस तरह के आदमी की भविष्यवाणी नहीं बताई जा सकती। ज्योतिषी ऐसे आदमी के साथ हार जाते हैं। ज्योतिषी ऐसे आदमी के साथ कभी नहीं जीत पाते। क्योंकि ज्योतिषी बताता है भविष्य को। वह आज के आदमी को देखकर कहता जाएगा। क्योंकि कृष्ण कल क्या करेंगे, यह बिलकुल नहीं कहा जा सकता। आज के कृष्ण से कुछ निकलता ही नहीं कल के कृष्ण के लिए। कल का कृष्ण कल पैदा होगा, आज का कृष्ण आज पैदा हुआ है।

इसे थोड़ा ठीक से देख लें।

दो तरह की जिंदगियां होती हैं। एक जिंदगी होती है, शृंखलाबद्ध। और एक जिंदगी होती है, “एटॉमिक’। एक जिंदगी होती है “सीरीज़’ की तरह, और एक जिंदगी होती है अणुओं की तरह। जो आदमी शृंखला में जीता है, उसके कल और आज के बीच सेतु होता है। उसका आज उसके कल से निकलता है। उसकी जिंदगी उसके मरे हुए हिस्सों से निकलती है। उसका ज्ञान उसकी स्मृति से निकलता है। उसका आज का होना उसके कल की राख से निकलता है, उसकी जिंदगी का फूल उसकी कब्र पर खिलता है।

लेकिन एक दूसरा जीवन है। यह जीवन शृंखला का जीवन नहीं है, आणविक जीवन है। उसमें आज का होना कल से नहीं निकलता, आज से ही निकलता है। यह आज का जो सारा अस्तित्व है, इससे ही निःसृत होता है। मेरे कल का जो शृंखलाबद्ध स्मृति का अस्तित्व है, मेरा जो संस्कार का अस्तित्व है, मेरी जो “कंडीशनिंग’ है, उससे नहीं निकलता है मेरा आज का होना। आज के इस विराट अस्तित्व से, आज के “एक्ज़िस्टेंस’ से, आज के अस्तित्व से निःसृत होता है। “एक्ज़िस्टेंसियल’ है। आज के क्षण से निकलता है, आने वाले क्षण में फिर उस क्षण से निकलता है, फिर आने वाले क्षण में उस क्षण से निकलता है। शृंखला ऐसे जीवन में भी होती है, लेकिन सेतुबद्ध नहीं होती। रोज-रोज प्रतिपल निकलता है। ऐसा आदमी हर क्षण को जीता है और हर क्षण को मर जाता है। आज जीता है, आज मर जाता है। आज रात सोता है, आज के लिए मर जाता है। कल सुबह फिर जीता है, फिर जगता है। प्रतिपल जीना और प्रतिपल मर जाना–“डाइंग टु एवरी मॉमेंट’, तभी वह प्रतिपल नया होकर जन्म लेता है। तो प्रतिपल नया है और कभी पुराना नहीं पड़ता। वैसा आदमी सदा जवान है। ऐसा आदमी सदा युवा है, ऐसा आदमी सदा ताजा है। और उसका जो होना निकलता है वह समग्र अस्तित्व से निकलता है, इसलिए उसका होना भागवत है।

हम भगवान का जो अर्थ करें, मैं जो करूं भगवान का अर्थ, वह यही है। भगवान का जीवन “एटामिक’ है, आणविक है, “एक्ज़िस्टेंसियल’ है, अस्तित्व से निकलता है, सत से निकलता है, रोज-रोज प्रतिपल, पल-पल निकलता है, होता है। उसका न कोई अतीत है, न कोई भविष्य है, सिर्फ वर्तमान है। कृष्ण को अगर भगवान कहा जा सका, भागवत चेतना कहा जा सका, “डिवाइन कांशसनेस’ कहा जा सका, उसका और कोई अर्थ नहीं है। उसका यह मतलब नहीं है कि कहीं कोई भगवान बैठा है और वह इस आदमी में उतर आया है। इसका इतना ही मतलब है कि भगवान अर्थात समग्र, “दि टोटल’, इस आदमी का होना समग्र से ही निकलता चला जाता है। इसलिए इस आदमी में अगर हम कभी “कंसिस्टेंसी’ खोजने जाएं तो थोड़ी दिक्कत में पड़ेंगे। ऐसे आदमी में अगर हम संगति खोजने जाएं, शृंखला खोजने जाएं, तो हमें बहुत-सी चीजों को “इगनोर’ करना पड़ेगा। या बहुत-सी चीजों को जबर्दस्ती समझाना पड़ेगा। या बहुत-सी चीजों को किसी तरह तालमेल बिठाना पड़ेगा। या कहना पड़ेगा लीला है। जब हमारी समझ में नहीं पड़ेगा तो कहना पड़ेगा समझ में नहीं पड़ता है, लीला है। लेकिन कठिनाई और अड़चन जो आ रही है वह “सीरियल एक्ज़िस्टेंस’ और “स्पांटेनियस एक्ज़िस्टेंस’–शृंखलाबद्ध अस्तित्व और सहज अस्तित्व, इनको न समझने से आती है।

“भगवान श्री, राम का जीवन तो वाल्मीकि ने राम के होने के पहले लिख दिया था। वे भी भगवान थे। तो उनका जीवन शृंखलाबद्ध कैसे हुआ?’

ह सवाल बहुत अच्छा पूछा है। यह पूछा है कि राम का जीवन तो वाल्मीकि ने राम के होने के पहले लिख दिया था।

लिखा जा सकता है। राम का जीवन लिखा जा सकता है। वह मर्यादा के आदमी थे। यह मजाक छिपी है उसमें कि वाल्मीकि ने जो पहले लिखा राम का जीवन, उसका मतलब कुल इतना है कि राम आदमी ऐसे हैं कि उनका जीवन पहले ही से लिखा जा सकता है कि वह क्या करेंगे। वह चरित्र है। क्या करेंगे, क्या नहीं करेंगे, इसके बाबत पहले से पक्का हुआ जा सकता है। ऐसा नहीं है कि वाल्मीकि ने लिख दिया था। इस घटना में बड़ा मजाक छिपा हुआ है, और इस मुल्क ने बड़े गहरे मजाक किए हैं जो कि हम पकड़न नहीं पाते। इस घटना में यह छिपा है, कि इतना बंधा हुआ जीवन है राम का कि राम के जीने के पहले ही वाल्मीकि कवि लिख सकता है। इतना “सीरियल एक्ज़िस्टेंस’ है। राम के बाबत पक्का हुआ जा सकता है कि तुम क्या करोगे? राम पैदा न हों, उसके पहले कहा जा सकता है कि यह आदमी पैदा होकर क्या करेगा? ऐसा नहीं है कि वाल्मीकि ने पहले लिख दिया। लिखा तो पीछे ही गया, लेकिन राम का जीवन “सीरियल’ होने की वजह से यह मजाक प्रचलित हो गया उन वर्गों में, जो मजाक का मतलब समझते हैं। यह मजाक प्रचलित हो गया कि राम की भी कोई जिंदगी है, यह तो एक चरित्र है, जैसे कि एक फिल्म लिखी जाती है। पहले लिख दी जाती है, फिर खेली जाती है। यह तो पहले लिख दी गई है, इसकी “स्क्रिप्ट’ पहले लिखी जा सकती है। राम का मामला सब सुनिश्चित है, “सर्टेन’ है, उसके बाबत कहा जा सकता है कि सीता चोरी जाएगी तो राम क्या करेंगे। यह भी कहा जा सकता है कि सीता को लंका से ले आएंगे तो अग्नि-परीक्षा जरूर लेंगे। यह सब कहा जा सकता है। और इतने के बावजूद भी, अग्नि-परीक्षा हो जाए फिर भी एक धोबी कह देगा कि हमें संदेह है, तो निकाल बाहर करेंगे। यह सब मामला, बिलकुल पक्का है। कृष्ण के मामले में पक्का कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

“भगवान श्री, आप मार्टिन बूबर की भाषा में कृष्ण को “इंटरप्रीट’ करते हैं?’

हीं, मार्टिन बूबर घूम-फिर कर द्वैतवादी है। मार्टिन बूबर अद्वैतवादी नहीं है। असल में मार्टिन बूबर की जो जड़ें हैं, वे हिब्रू और ज्यू विचार में हैं। तो मार्टिन बूबर जो कहता है वह ज्यादा-से-ज्यादा मैं और तू के बीच गहरी-से-गहरी आंतरिकता पैदा हो, संबंध पैदा हो, इसके लिए तो आतुर है। मैं और तू–“आई’ और “यू’ के बीच एक बड़ा आंतरिक भाव पैदा हो–इतना भाव हो कि मैं तू तक बह जाए, तू मैं तक आ जाए, लेकिन मैं और तू को मिटाने की तैयारी मार्टिन बूबर की नहीं है। असल में मार्टिन बूबर जिस परंपरा से आता है, उस परंपरा में ही द्वैत को मिटाने की तैयारी नहीं है। जीसस को यहूदियों ने सूली इस वजह से दी कि जीसस ने ऐसे वक्तव्य दे दिए जो अद्वैतवादी थे। जीसस ने कह दिया–“आई एंड माइ फादर आर वन’। यह खतरनाक हो गया। यहूदी विचार इसको न समझ सका। यहूदियों ने कहा, यह बर्दाश्त के बाहर है। तुम कितना ही कुछ कहो, परमात्मा ऊपर है और तुम चरणों में हो। तुम यह घोषणा नहीं कर सकते कि तुम परमात्मा हो। मुसलमानों ने सूफियों को सताया और सूलियां दीं। इसका कारण वही यहूदी विचार की परंपरा है। जब मंसूर ने कहा, अनलहक–मैं ही ईश्वर हूं–तो फिर बर्दाश्त के बाहर हो गया। कहा कि तुम कितने ही ऊपर उठो, लेकिन तुम ईश्वर नहीं हो सकते। मुहम्मद को भी ईश्वर होने का दर्जा नहीं दे सका मुसलमान। मुहम्मद को भी कहा, संदेशवाहक है, पैगंबर है, अवतार नहीं है। क्योंकि ईश्वर अलग है और हम अलग हैं। हम उसके चरणों में हो सकते हैं। ऊंची-से-ऊंची ऊंचाई जो है, वह उसके चरणों में है।

“सुपरमैन’ हो गया न वह? मैं ही ब्रह्म हो जाता हूं का क्या तात्पर्य?’

सुपरमैन’ कहना मुश्किल है। जब हम कहते हैं कि मैं ब्रह्म हो जाता है, तो “मैन’ बचता ही नहीं। आदमी बचता ही नहीं। जब मैं ब्रह्म हो जाता है तो ब्रह्म ही बचता है। आदमी नहीं बचता। वह “शियर ट्रांसेडेंस’ है, उसके बाद कुछ बचता नहीं। बस, अतिक्रमण है।

राम के बाबत संभव है। मजाक गहरा है। लेकिन हम बहुत गंभीर लोग हैं, और जो लोग राम वगैरह पर विचार करते हैं वे भारी गंभीर लोग हैं, वे मजाक को नहीं समझ पाते, वे बेचारे गंभीरता से व्याख्याएं किए चले जाते हैं। मजाक यह है कि राम तुम आदमी ऐसे हो कि वाल्मीकि कवि तुम्हारी कथा पहले ही लिख दे सकता है। इससे ज्यादा कुछ नहीं, इससे ज्यादा कोई दिक्कत तुम में नहीं है।

“शृंखलाबद्ध जीवन में और सहज जीवन में स्मृतियां क्या खतम हो जाएंगी?’

हीं, शृंखलाबद्ध जीवन में आपका होना आपकी स्मृति से निकलेगा। सहज जीवन में आपका होना अपनी स्मृति का उपयोग करेगा। इतना फर्क होगा। आप तो प्रतिपल नए होंगे, सहज जीवन में, अगर आप चाहेंगे तो आपकी स्मृति का उपयोग करेंगे! स्मृति आपके चित्त के संग्रह में पड़ी रहेगी, मौजूद रहेगी, मिट नहीं जाएगी, बनी रहेगी। लेकिन वह ऐसे ही होगी जैसे आपके घर में नीचे के तलघर में बहुत-सा सामान भरा है, जब जरूरत होती है, आप निकाल लेते हैं। इसलिए बुद्ध ने जो नाम दिया है, उसको नाम दिया है, उन्होंने कहा है, आगार; कहा है, आवास। स्मृति-आगार। वह एक संग्रह है, “स्टोरहाउस आफ कांशसनेस’। चेतना का एक संग्रह है। जो पड़ा है एक तरफ। जब जरूरत आपको होगी–आपके “स्पांटेनियस’ एक्ज़िस्टेंस’ को भी जरूरत पड़ेगी स्मृति की। आपको अपने घर वापस लौटना होगा, तो आपको अपने घर की स्मृति की जरूरत पड़ेगी। आप उसका उपयोग करेंगे।

“अर्जुन को समझाते वक्त क्या पुराण-स्मृतियों ने “प्राब्लम’ नहीं दिया?’

ह दूसरी बात है, वह दूसरी बात है। अभी जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि सहज जीवन वाले व्यक्ति की स्मृति नष्ट हो जाएगी। स्मृति पूरी ताजी, पूरी जीवंत मौजूद रहेगी, लेकिन सहज जीवन वाली चेतना प्रतिपल नई होकर उसका उपयोग करेगी, उसकी मालिक होगी। शृंखलाबद्ध जीवन की चेतना में नया व्यक्ति होगा ही नहीं, पिछली स्मृतियां ही नए व्यक्ति को जन्म देती रहेंगी। वह मालिक हो जाएंगी स्मृतियां, और व्यक्ति गुलाम हो जाएगा।

अब आप जो पूछते हैं, क्या पूछते हैं?

“कृष्ण-अर्जुन के आपस के जो “रिलेशंस’ हैं, वहां कृष्ण क्या किसी वक्त स्मृति-आगार से कुछ उपयोग नहीं किए, और पूरे समय अपना जीवन “स्पांटेनियस’ रखा?’

जीवन तो हर वक्त “स्पांटेनियस’ है। स्मृति का उपयोग वह करते हैं, वह तो मैं कह रहा हूं। वह मैं कह रहा हूं, स्मृति का उपयोग करने में वह मालिक हैं, और आप अपनी स्मृति के उपयोग करने में मालिक नहीं हैं। स्मृति ही आपका उपयोग कर रही है। आप नहीं कर रहे हैं उपयोग।

एक आदमी आपके पास बैठा है। आप उससे पूछते हैं, आप किस जाति के हैं? वह कहता है, मैं मुसलमान हूं। बस, मुसलमान के बाबत आपकी एक स्मृति है, आप इस आदमी पर लागू कर देंगे। इस मुसलमान से उसका कोई लेना-देना नहीं है। आपके गांव में कोई मुसलमान गुंडा होगा, उसने मंदिर में आग लगा दी होगी, यह बिचारे से उसका कोई संबंध नहीं है। अब आप दूर सरक कर बैठ गए, कि मुसलमान है! अब आप स्मृति के गुलाम हुए। अब आपने स्मृति की गुलामी शुरू कर दी। हिंदुस्तान के हिंदू किसी मुसलमान को मार डालेंगे, पाकिस्तान के किसी हिंदू से बदला लिया जाएगा। क्या पागलपन है! स्मृति काम कर रही है। बस, स्मृति से ही आप जी रहे हैं। किसी और को मार रहे हैं किसी और के लिए। दो मुसलमानों के बीच क्या संबंध है? दो हिंदुओं के बीच क्या संबंध है? लेकिन नहीं, मुसलमान के बाबत आपकी स्मृति हर मुसलमान पर आप लागू कर लेंगे। बड़ी गलती बात कर रहे हैं। स्मृति आपको उपयोग कर रही है, आप स्मृति का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। अगर आप कर रहे होते तो आप कहते, ठीक है, यह आदमी “एक्स’ मुसलमान है, वह “वाई’ मुसलमान था, इसका उसका कोई मतलब नहीं है। ठीक है, इतना हम समझें कि तुम उसी धर्म को मानते हो, जिसको वह आदमी मानता था। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! इससे आप सरकेंगे नहीं दूर, इससे आप कोई निर्णय नहीं लेंगे। इससे इस आदमी की बाबत आप पूर्वधारणा तय नहीं करेंगे। इस आदमी को देखेंगे, समझेंगे, उस समझ से ही आप जियेंगे।

सहज जीवन स्मृति का उपयोग है। शृंखलाबद्ध जीवन स्मृति की दासता है।

“आपने कहा कि कृष्ण के हाथों जो मरता है वह पुण्य-कर्म का फल है। और यह बात जब आप कहते हैं तो मन में एक आनंददायक पीड़ा होती है। एक दूसरा प्रश्न करूं, जवाब दें, न दें। जो यह नाटक आप कर रहे हैं, यह क्या अकारण ही है?’

बिलकुल अकारण है। बिलकुल अकारण है, हूंऽऽ…। यह नाटक हो रहा है, हूंऽऽ…।

और पुण्य-कर्म का फल है, ऐसा जब कहता हूं तो मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि इस जीवन में जो भी घटित होता है, इस “मैनिफेस्टेड’, इस प्रगट जगत में जो भी घटित होता है, वह अकारण नहीं है। कृष्ण से अगर मिलना भी हो जाता है, तो भी इस घटना के जगत में कृष्ण से मिलना भी आकस्मिक और “एक्सिडेंटल’ नहीं है। तो कृष्ण के हाथ से मरना तो हो ही नहीं सकता आकस्मिक। इस जगत में आकस्मिक कुछ भी नहीं है। किसी से हम मिले हैं, मिल रहे हैं; किसी से हम लड़े हैं, लड़ रहे हैं; किसी से हम प्रेम में हैं, प्रेम कर रहे हैं; किसी के हम मित्र हैं, किसी के हम शत्रु हैं, यह हमारे पूरे होने से, हमारे पूरे अनंत होने से निकला है। इस होने में आकस्मिकता नहीं है। प्रगट जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है। और जब प्रगट जगत में कुछ अकारण प्रगट होता है, तब हमें चमत्कार मालूम होने लगता है। क्योंकि वह अप्रगट जगत की खबर लाता है। कृष्ण का होना बिलकुल अकारण है। अर्जुन से कृष्ण का संबंध अकारण नहीं है। अर्जुन से कृष्ण की तरफ तो बिलकुल ही अकारण नहीं है।

इसे थोड़ा समझने में कठिनाई पड़ेगी।

कृष्ण जैसे व्यक्ति के साथ हमारे संबंध “वन वे ट्रैफिक’ के होते हैं। हम उसे प्रेम करते हैं। वह हमें प्रेम करता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। वह प्रेमपूर्ण है, बस इतना ही कहा जा सकता है। हम उसके पास जाते हैं, उसका प्रेम हमें मिलता है। इसलिए यह हो सकता है कि हम समझते हों कि वह हमें प्रेम करता है। लेकिन वह सिर्फ प्रेमपूर्ण है। हम उसके पास जाते हैं, प्रेम हम पर भरता है। हमारी तरफ से हम प्रेम करते हैं। लेकिन “वन वे ट्रैफिक’ है। दूसरी तरफ से प्रेम आता नहीं, दूसरी तरफ प्रेम है। हमारी तरफ से जाता है हमको आता हुआ मालूम पड़ता है, वह हमारी समझ है।

कृष्ण की तरफ से किसी का मारा जाना बिलकुल अकारण है। लेकिन जो मारा गया है, वह अकारण नहीं है। उसकी तरफ से कारण है। वह अपनी जिंदगी की लंबी शृंखलाबद्ध व्यवस्था में जी रहा है, वह कोई सहज जीवन नहीं है उसका। असल में राक्षस का जीवन सहज कैसे हो सकता है! या जिनका भी जीवन सहज नहीं है उनका जीवन राक्षस से अन्यथा कैसे हो सकता है! उसका जीवन सहज नहीं है, शृंखलाबद्ध है, वह तो अपने अतीत से जी रहा है। इसलिए अगर वह कृष्ण के हाथ से मरता है, तो उसके अतीत की शृंखला के आगे ही जुड़ी हुई यह कड़ी है। उसके अतीत से ही निकलती है। कृष्ण के लिए अकारण है। वह नहीं मरता तो कृष्ण उसको ढूंढ़ते हुए नहीं फिरते। वह आ गया है सामने, बात और है। अगर कृष्ण किसी को प्रेम कर रहे हैं, वह नहीं मिलता तो वह उसे ढूंढ़ते नहीं फिरते। वह सामने आ गया है, बात और है। अगर कृष्ण को कोई भी न मिले, वह अकेले जंगल में बैठे हों, तो भी प्रेम करते रहेंगे–उस जंगल के शून्य को, उस निपट एकांत को, उस निर्जन को उनका प्रेम मिलता रहेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

“आप जो कुछ कृष्ण के बारे में कह रहे हैं, उनके गुणों को वर्णन कर रहे हैं, और ऐसा लगता है जैसे उनकी भक्ति के प्रवाह में हम बह गए हैं। ऐसा क्या संभव नहीं है कि उनमें कुछ दोष भी हों? क्या यह जरूरी है कि उनके हर कर्म को “जस्टिफाई’ ही करते चलें–चाहे वह रासलीला हो, चाहे वह वस्त्रहरण हो, चाहे अश्वत्थामा मारा गया हो यह झूठ बुलवाना हो युधिष्ठिर जैसे आदमी से? इस धारा में ही यदि हम सोचते चलें तो मुझे लगता है कि बहुत वैज्ञानिक हमारी “एप्रोच’ न हो पाएगी।’

ह बात बहुत ठीक है। यह बात बिलकुल ठीक है कि हम कृष्ण में थोड़े दोष क्यों न देखें? लेकिन, देखने की कोशिश वैज्ञानिक होगी? देखने की चेष्टा वैज्ञानिक होगी? नहीं, हम दोष न देखें, ऐसा अगर तय करके चलें, वह भी वैज्ञानिक न होगा। हम दोष देखें ही, ऐसा सोच कर चलें, वह भी वैज्ञानिक न होगा। वैज्ञानिक तो इतना ही होगा कि हम कृष्ण को देखें, और कृष्ण जैसे दिखाई पड़ें वैसा देखें। मुझे जैसे दिखाई पड़ रहे हैं वैसा मैं कर रहा हूं। आप भी वैसा ही देखें ऐसा आग्रह करूं, तो अवैज्ञानिक हो जाएगा। आपको वैसे दिखाई पड़ जाएं, ठीक है, न दिखाई पड़ जाएं, ठीक है। आपको दोष दिखाई पड़ें, बराबर देखें, मेरी बिलकुल न मानें। मुझे जैसे दिखाई पड़ रहे हैं, मैं वैसे ही देख सकता हूं। अन्यथा देखने की कोशिश करूं तो बात वैज्ञानिक हो जाएगी, वह सिर्फ कोशिश हो जाएगी।

दूसरी बात–दूसरी बात भी सोचने जैसी है कि वैज्ञानिक “एप्रोच’! थोड़ा सोचने जैसा है कि क्या जगत में सभी चीजें ऐसी हैं जिन पर वैज्ञानिक “एप्रोच’ लागू हो सके? क्या कुछ चीजें ऐसी भी हैं जिन पर वैज्ञानिक “एप्रोच’ लागू करना अवैज्ञानिक हो? कुछ चीजें ऐसी हैं। अब जैसे प्रेम पर हम वैज्ञानिक ढंग से सोच ही नहीं सकते हैं, उपाय ही नहीं है। यह प्रेम का होना ही अवैज्ञानिक है। अगर हम वैज्ञानिक ढंग से सोचें तो हमें इनकार ही करना पड़ेगा कि प्रेम है ही नहीं। यानी और कोई अंत नहीं होगा उसका। उसका परिणाम सिर्फ एक ही होगा कि हमें प्रेम को इनकार करना पड़ेगा। प्रेम का होना ही अवैज्ञानिक है। अब इसमें कठिनाई जो है, कि या तो प्रेम को अवैज्ञानिक ढंग से सोचना पड़े–और मैं मानता हूं कि यही वैज्ञानिक होगा प्रेम के बाबत। यही “साइंटिफिक एटीटयूड’ होगी, क्योंकि प्रेम जैसा है वैसा ही सोचियेगा न? और या फिर हम प्रेम के संबंध में वैज्ञानिक ढंग से सोचें और पाएं कि प्रेम है ही नहीं।

इसे हम ऐसा समझें–

जैसा मैंने अभी कहा था, आंख देखती है, कान सुनते हैं। अगर हम आंख के ढंग से कान की सुनी हुई चीजों को सोचें तो मुश्किल हो जाएगी। आंख तो कह देगी कि कान देखते ही नहीं। स्वभावतः। और आंख सुन सकती नहीं। तो आंख यह तो मानेगी कैसे कि कान सुनते हैं? आंख यह दो बातें तय करेगी। पहली बात तो यह तय करेगी कि कान देखते नहीं, जो कि ठीक है, उसका तय करना। दूसरी बात वह यह तय करेगी कि कान सुनते नहीं–क्योंकि आंख तो सुन सकती नहीं–जो कि गलत होगा उसका तय करना।

वैज्ञानिक जो प्रक्रिया है, वह प्रक्रिया ऐसी है कि उसकी पकड़ में “मैटर’ के अतिरिक्त और कुछ कभी आता नहीं। पदार्थ के अतिरिक्त और कभी कुछ आता नहीं। आंख की पकड़ में प्रकाश के अतिरिक्त और कभी कुछ आता नहीं। कान की पकड़ में ध्वनि के अतिरिक्त और कभी कुछ आता नहीं। वैज्ञानिक प्रक्रिया जो है, “साइंटिफिक एप्रोच’ जो है, उसकी “मेथडॉलाजी’ ऐसी है कि उसकी पकड़ में पदार्थ के अतिरिक्त कभी कुछ आता नहीं। फिर एक ही उपाय रह जाता है कि वैज्ञानिक कह दे कि पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अब तो वैज्ञानिक और मुसीबत में पड़ गया है। क्योंकि पदार्थ को खोजते-खोजते वह उस जगह पहुंच गया, जहां कि अब पदार्थ भी पकड़ में नहीं आता। तो इस पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में विज्ञान को यह स्वीकृति देनी पड़ी कि कुछ ऐसा भी है जो हमारी पकड़ में नहीं आता। अगर वह इनकार कर दें कि “इलेक्ट्रान्स’ नहीं हैं क्योंकि हमारी पकड़ में नहीं आते, तो फिर “एटम’ छूट जाता है पकड़ से–क्योंकि वह पकड़ में आता है लेकिन वह उन्हीं पर खड़ा है जो पकड़ में नहीं आते।

इसलिए अब विज्ञान को पिछले बीस साल में बड़ा सिर झुकाकर एक स्वीकृति देनी पड़ी है, वह यह है कि कुछ है जो हमारी पकड़ में नहीं आता, लेकिन है। लेकिन विज्ञान एकदम स्वीकृति नहीं देगा। वह यह कहता है कि आज नहीं कल, वह हमारी पकड़ में आ जाएगा। हम कोशिश करते रहेंगे पकड़ने की। लेकिन और भी बहुत-सी चीजें, हो सकता है किसी दिन “इलेक्ट्रान’ पकड़ में आ जाएं, लेकिन लगता नहीं कि किसी दिन प्रेम भी किसी प्रयोगशाला की पकड़ में आ जाएगा। और अगर हम प्रेम को पकड़ने गए, तो शायद हो सकता है फेफड़ा पकड़ में आ जाए, हृदय पकड़ में नहीं आएगा। इसलिए वैज्ञानिक मानने को तैयार नहीं हैं कि हृदय जैसी कोई चीज आपके भीतर है। वह कहता है, फुफ्फस है, फेफड़ा है, सब है, यह हृदय की बातचीत मत करो, यह कविता है। वह कहता है, हृदय जैसी कोई चीज नहीं है। लेकिन हम कैसे मान लें कि हृदय नहीं है। क्योंकि हमारे अपने-अपने निजी अनुभव में तो हृदय आता है। बहुत क्षण हैं जब हम फेफड़े से नहीं जीते, हृदय से जीते हैं। फेफड़े से तो हम चौबीस घंटे जीते हैं, लेकिन कुछ क्षण ऐसे भी आ जाते हैं जो फेफड़े के ऊपर हावी हो जाते हैं और हृदय के हो जाते हैं। और ऐसा हृदय कभी-कभी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम फेफड़े को बलिदान कर देते हैं हृदय के लिए।

एक आदमी मर जाता है प्रेम के लिए। फेफड़ा जिलाए रखता है, और एक आदमी मर जाता है उस हृदय के लिए जो है ही नहीं। मगर अब एक आदमी मरता है, अब इसके लिए क्या करेंगे? या तो हम कह दें कि यह मरा ही नहीं, यह मरना झूठ है। मगर यह आदमी मरा। हमने मजनूं को देखा, यह हृदय के पीछे दीवाना है। या तो हम कह दें यह दीवानगी झूठ है, लेकिन झूठ भी कहिए तो भी क्या, यह है तो! इसको इनकार कैसे करिएगा, मजनूं है तो! यह गलत होगा, पागल होगा, लेकिन कहीं है तो! इसका होना भी है तो! यह लैला को सोचता है, काव्य करता है, गीत गाता है, भीतर जीता है, लेकिन कहीं जीता तो है! और फेफड़े की जांच करने से कहीं लैला पकड़ में आती नहीं, लेकिन इसके हृदय में कहीं चलती चली जाती है। इसके फेफड़े की हम सब जांच करते हैं, लैला कहीं पकड़ में आती नहीं, लैला का प्रेम कहीं पकड़ में नहीं आता। इसके फेफड़े को रखते हैं तो धड़कन पकड़ में आती है, खून की गति पकड़ में आती है, आक्सीजन पकड़ में आती है, सब पकड़ में आती है, एक चीज चूक जाती है, जिसके लिए यह पूरे फेफड़े को छोड़ने को तैयार है। यानी जिस प्रेम के लिए सब छोड़ने को तैयार है–यह सांस, यह फेफड़ा, यह फुफ्फस, यह शरीर–वह पकड़ में नहीं आती। या तो–दो ही उपाय हैं–या तो हम कह दें कि वह है नहीं। लेकिन कैसे कह दें? और या फिर यह उपाय है कि हम वैज्ञानिक ढंग को छोड़कर किसी और ढंग से उसे खोजें।

कृष्ण, वैज्ञानिक ढंग की पकड़ से अगर हम चलेंगे तो एक महापुरुष रह जाएंगे। जिनमें दोष भी होंगे, अच्छाईयां भी होंगी, बुराइयां भी होंगी। लेकिन ध्यान रहे, वह कृष्ण न रह जाएंगे। मैं जिस कृष्ण की तलाश की बात कर रहा हूं, वह किसी एक महापुरुष की बात नहीं कर रहा हूं। मैं एक “फेनामिना’, एक घटना की बात कर रहा हूं। यह घटना वैज्ञानिक पकड़ से समझ में नहीं आएगी। और इतना तो आप समझ ही सकते हैं कि मैं आदमी विज्ञान-विरोधी नहीं हूं। यानी मैं विज्ञान को वहां तक खींचता हूं जहां तक वह कई बार खिंचता भी नहीं। जहां वह बिलकुल सांस तोड़कर, दम तोड़कर गिर जाता है तभी छोड़ता हूं। नहीं तो मैं खींचता ही चला जाता हूं आखिरी दम तक उसको। मुझ पर अगर कोई इल्जाम भी हो सकता है तो वह अति वैज्ञानिकता का हो सकता है, कम वैज्ञानिकता का नहीं हो सकता। मैं खींचता तो बहुत हूं, लेकिन मैं क्या करूं? एक जगह आ जाती है जहां विज्ञान दम तोड़ देता है। और दो उपाय हैं, या तो मैं भी वहीं खड़ा रह जाऊं, लेकिन मुझे आगे भी “स्पेस’ दिखाई पड़ती है।

“तो क्या कभी-कभी मन और हृदय, विचार और भाव एक नहीं हो जाते?’

 

ई बार एक हो जाते हैं। और जब वे एक हो जाते हैं तब बड़ी महत्वपूर्ण घटना घटती है।

हां, वह यह पूछ रहे हैं कि कभी-कभी मन और हृदय, विचार और भाव एक नहीं हो जाते?

हो जाते हैं। बहुत गहरे में तो एक होते ही हैं। बहुत ऊपर ही अलग-अलग होते हैं। जैसे वृक्ष की शाखाएं ऊपर अलग-अलग होती हैं और नीचे पींड में एक हो जाती हैं। ऐसा ही विचार भी हमारी एक शाखा है हमारे होने की। भाव भी हमारी एक शाखा है, हमारे होने की। ऊपर-ही-ऊपर अलग-अलग होते हैं, बहुत गहरे में तो एक होते हैं। और जिस दिन हम यह जान लेते हैं कि विचार और भाव एक हैं, उस दिन विज्ञान और धर्म दो नहीं रह जाते। उस दिन विज्ञान की एक सीमा हो जाती है, और एक अतिक्रमण का जगत भी हो जाता है जहां धर्म शुरू होता है।

कृष्ण धर्मपुरुष हैं। और मैं उन्हें धर्मपुरुष की तरह ही बात कर रहा हूं। और जैसे वे मुझे दिखाई पड़ते हैं वैसी ही मैं बात कर रहा हूं। उसमें आप उन्हें वैसा मानकर चलेंगे, ऐसा आग्रह जरा भी नहीं है। मुझे जैसा दिखाई पड़ते हैं, उसमें से अगर थोड़ा-सा भी आपको दिखाई पड़ा, तो वह आपको बदलनेवाला सिद्ध हो सकता है।

फिर अब कल बात करेंगे।

 


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–87

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उच्‍चतम ज्ञान: संपूर्ण अभी—(प्रवचन—सातवां)

योग—सूत्र–

(‘विभूतिपाद’)

क्षणतत्कमयौ: संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्।। 53।।

वर्तमान क्षण पर संयम साधने से क्षण विलीन हो जाता है, और आने वाला क्षण परम तत्व के बोध से जन्मे ज्ञान को लेकर आता है।

 जातिलक्षमदेशैरन्यतानवच्छेदात् तुल्ययोस्तत: प्रतिपत्ति:।। 54।

इससे वर्ग, चरित्र या स्थान से न पहचाने जा सकने वाली समान वस्तुओं मे विभेद की योग्यता आती है।

तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम्।। 55।।

यथार्थ के बोध से उत्पन्न उच्चतम ज्ञान, सारी वस्तुओं और प्रक्रियाओं के भूत, भविष्य और वर्तमान से संबंधित समस्त विषयों की तत्क्षण पहचान के परे है, और यह वैश्विक प्रक्रिया का अतिक्रमण कर लेता है।

मय क्या है? अब पतंजलि समयातीत प्रश्न, सनातन प्रश्न पूछते हैं; और वे इस पर ‘ ‘विभूतिपाद’ ‘ के ठीक समापन पर आते हैं, क्योंकि समय को जानना महानतम चमत्कार है। यह जान लेना कि समय क्या है, जीवन क्या है को जान लेना है। यह जानना कि समय क्या है, यह जान लेना है कि सत्य क्या है। इसके पूर्व कि हम सूत्रों में प्रवेश करें, अनेक बातें समझना पड़ेगी; वे इन सूत्रों का परिचय बनेंगी।

सामान्यत: जिसे हम समय कहते हैं वह वास्तविक समय नहीं है। वह क्रमागत (क्रोनोलॉजिकल) समय है। अत: स्मरण रखो कि समय का विभाजन और वर्गीकरण तीन ढंगों से किया जा सकता है। एक है : ‘क्रमागत’ दूसरा है : ‘मनोवैज्ञानिक’ और तीसरा है. ‘वास्तविक।’ क्रमागत समय वह है जिसे घड़ी बताती है। यह उपयोगी है, यह वास्तविक नहीं है। यह समाज द्वारा स्वीकार कर लिया गया एक भरोसा भर है। हम एक दिन को चौबीस घंटों में बांटने पर सहमत हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर एक वर्तुल पूरा करने में चौबीस घंटे लगाती है यह नितांत स्वैच्छिक है, हमने इसको चौबीस घंटों में विभाजित करने का निर्णय लिया गया हुआ है। फिर हमने प्रत्येक घंटे को साठ मिनटों में बांटने का निर्णय किया। इसी रूप में विभाजित करने की कोई आत्यंतिक आवश्यकता नहीं है। कोई और सभ्यता किसी और ढंग से बांट सकती है। हम एक घंटे को सौ मिनटों में बांट सकते हैं और कोई हमें रोकने नहीं जा रहा है। फिर प्रत्येक मिनट को हमने साठ सेकेंड में बांट रखा है। यह भी स्वैच्छिक है, मात्र उपयोगिता हेतु। यह घड़ी वाला समय है। इसकी आवश्यकता है, वरना समाज बिखर जाएगा।

सामान्य मानक जैसी कोई बात आवश्यक है—धन, चलने वाली मुद्रा की भांति। एक सौ रुपये का नोट या एक दस डालर का बिल, या और कुछ यह एक सामान्य विश्वास है जिसे समाज उपयोग करने के लिए सहमत हो गया है। लेकिन इसका अस्तित्व से कुछ भी लेना—देना नहीं है। यदि पृथ्वी से मनुष्य विलुप्त हो जाता है तो पाउंड स्टर्लिंग, डालर, रुपये सभी तुरंत मिट जाएंगे। मनुष्य के बिना पृथ्वी तुरंत ही बिना धन की हो जाएगी। चट्टानें होंगी, फूल अब भी खिलेंगे, वसंत आएगा और पक्षी गीत गाएंगे, और पतझड़ में पुरानी पत्तियां गिर जाएंगी, लेकिन वहां धन जरा भी न होगा। भले ही सड्कों पर धन के ढेर लगे हों, लेकिन यह धन जरा भी न होगा, क्योंकि इसको धन कहने के लिए एक आदमी की आवश्यकता होगी, इसे धन की भांति सम्मान देने के लिए एक मनुष्य चाहिए।

सरकार वचन दिए चली जाती है, प्रत्येक नोट पर एक वचन लिखा होता है, यदि तुम इस नोट को बैंक में प्रस्तुत करो, तो वित्तीय गवर्नर दस रुपये के बराबर मूल्य का सोना देने का वचन देता है। यह मात्र एक वचन है। जब वचन लेने के लिए ही कोई न हो, तो मुद्रा खो जाती है।

जब मनुष्य पृथ्वी पर न हो, घड़ियां समय बताना जारी रख सकती हैं, लेकिन यह समय जरा भी न होगा। किसी को उनकी चिंता न होगी, कोई उनकी ओर देखेगा भी नहीं। यदि मनुष्य वहां न हो तो बड़ी वाला समय तुरंत रुक जाएगा, यह मनुष्य निर्मित है, एक सामाजिक उप—उत्पत्ति है।

कोई समाज जितना ऊपर जाता है—और जब मैं कहता हूं ऊपर जाता है, तो मेरा आशय है कि यह जितना जटिल हो जाता है उतना ही वह और अधिक क्रमागत समय से ग्रस्त हो जाता है। आदिम मानव के पास बड़ी का कोई उपयोग नहीं है। यदि तुम उसको एक घड़ी उपहार में दो, तो वह बस आश्चर्यचकित हो जाएगा, यह किसलिए? वह इसका क्या करेगा? एक सभ्य मनुष्य घड़ी के बिना जी ही नहीं सकता। सभ्य समाज में घड़ी के बिना जी पाना करीब—करीब असंभव है क्योंकि पूरा समाज घड़ी के अनुसार जी रहा है, कभी कभी तो असंगत स्थितियों में भी।

मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं:

जैसे ही डाक्टर साहब सोने को तैयार हुए दरवाजे को जोर से खटखटाने की आवाज आई। वे उठ खड़े हुए और दरवाजे पर खड़े व्यक्ति से पूछा. क्या बात है?

मुझे एक कुत्ते ने काट लिया है, वह व्यक्ति बोला।

अच्छा, क्या तुम नहीं जानते कि मेरा रोगियों को देखने का समय बारह से तीन के बीच है?

जी ही, कराहते हुए रोगी ने कहा लेकिन कुत्ता यह नहीं जानता और उसने मुझे चार बज कर बीस मिनट पर काट लिया। अब मुझे क्या करना चाहिए?

कुत्ते घड़ियों में भरोसा नहीं करते, और मामले असंगत अंत तक जा सकते हैं।

एक बार तुम घड़ी के अनुसार सोच लो तो तुम भूल जाते हो कि यह मात्र उपयोगी है। यह वास्तविक समय नहीं है।

एक और डाक्टर की कहानी

अस्पताल के स्वागत विभाग में लगे सूचना—पट पर लिखा था; आपातकालीन दुर्घटनाओं का पंजीकरण। एक घायल और गंदला व्यक्ति लड़खड़ाता हुआ अंदर आया। उसकी पट्टियां खून से लथपथ हो गई थीं, दोनों पैर कांप रहे थे, वह खून का रिसाव रोकने के लिए अपनी बांह कस कर पकड़े हुए था। वह घिसटता हुआ डेस्क तक पहुंचा और कराहते हुए कहा : डाक्टर, डाक्टर।

रिसेपानिस्ट ने पूछा : महोदय, क्या आपने पहले से ही मिलने का समय ले रखा है?

यह इस आश्रम में भी हो सकता है, यह शीला के डेस्क पर घट सकता है।

एक बार क्रमागत समय को बहुत गंभीरता से ले लिया जाए तो व्यक्ति बाकी सब कुछ भूल जाता है। सारा पश्चिम समय से बहुत अधिक ग्रस्त है। प्रत्येक कार्य को ठीक समय से किया जाना है।

मेरे एक मित्र, अपने एक अंग्रेज मित्र के साथ, इंगलैंड की यात्रा पर थे, और वे मुझसे कहने लगे कि इंगलैंड में सब कुछ इतना औपचारिक हो गया है कि आप—चाय का समय, संध्या भोजन का समय, दोपहर के भोजन का समय जैसे शब्द सुनते हैं, उनका अभिप्राय क्या है? समय से भोजन के समय का निर्धारण कैसे किया जा सकता है जब तक कि तुम्हें भूख महसूस न हो रही हो? जब तुम कहते हो : भोजन का समय, तो इसका अर्थ है : भूख का समय—अब भूखे हो जाओ! और यदि तुम भूखे न हुए, तो तुम्हारे साथ कुछ गडबड़ है। चाय के समय का अर्थ है, अब चाय के लिए तैयार हो। यदि तुम्हारे भीतर इसकी चाहत नहीं है तो तुम्हारे साथ कुछ गड़बड़ है; तुम्हें चाय पीना पड़ेगी। धीरे— धीरे लोग अपनी भूख, अपनी असली प्यास को भूल गए हैं। सब कुछ समय पर खाना— पीना है। घड़ी निर्णय करती है। घड़ी शासक बन चुकी है, वह शासन करती है। यह बहुत अवास्तविक संसार हैं—घड़ी द्वारा शासित।

अब शिक्षाशास्त्री हैं, मनोवैज्ञानिक हैं, जो माताओं को बताए चले जाते हैं कि वे अपने शिशु को निश्चित समयों पर हर तीन घंटे बाद दूध दिया करें। बच्चा रो रहा है, बच्चा आ है; उसकी मां घड़ी की ओर देखती है। अभी समय नहीं हुआ है। बच्चा भूखा है, यह कोई चिंता करने की बात नहीं है। घड़ी को देखा जाना चाहिए। क्योंकि जब बच्चा भूखा है, तो बच्चे का विश्वास नहीं किया जाता है, वरन डाक्टर का। अब यह कोई डाक्टर का काम नहीं है कि वह हस्तक्षेप करे। लेकिन एक बार तुम अवास्तविक से ग्रस्त हो जाओ, अनेक अवास्तविक चीजें तुम्हारे जीवन में आ जाती हैं।

मैंने सुना है, एक आयरिश व्यक्ति पैट सीडी से गिर गया और जमीन पर बेहोश पड़ा था। उसके गये ओर भीड़ एकत्रित हो गई और एक डाक्टर को बुलाया गया, डाक्टर ने तुरंत कह दिया कि यह श्वास मर गया है। पैट ने अपनी आंखें खोलीं और इस आरोप का तत्परता से विरोध किया।’शsऽ

पैट, ‘बगल में खड़े एक व्यक्ति ने उसे टोका, ‘कुछ भी बोलो मत, निश्चित रूप से डाक्टर तुमसे बेहतर जानता है।’

यदि तुम जीवित हो और डाक्टर कहे कि तुम मर चुके हो, तो तुमको मुर्दा व्यक्ति की भांति व्यवहार करना पड़ेगा—क्योंकि निसंदेह विशेषज्ञ जानता है और वह सबसे बढ़िया जानता है।

क्रमागत समय के साथ विशेषज्ञों का संसार अस्तित्व में आया, क्योंकि तुमने वास्तविकता में लगी अपनी जड़ों को विस्मृत कर दिया है। प्रत्येक बात के लिए तुम्हें किसी और से पूछना पड़ता है। लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, ‘ओशो, कृपया हमें बताइए कि हमें कैसा लग रहा है?’ तुम्हें कैसा लग रहा है, तुम्हें पता होना चाहिए। लेकिन मैं समझता हूं। वास्तविकता के साथ स्पर्श, संपर्क, संबद्धता खो चुकी है। यहां तक कि तुम्हें कैसा लग रहा है, तुम्हें उसे जानने के लिए भी किसी के पास पूछने जाना पड़ता है, जिसे पता है तुम्हें किसी और पर भरोसा करना पड़ता है। यह दुर्भाग्य है, लेकिन यह धीमे चरणों में घटा है और मानव—जाति इसके प्रति जागरूक नहीं रही है।

क्रमागत समय अब प्रयोग नहीं किया जा रहा है। अब यह कोई साधन भर न रहा, यह करीब—करीब साध्य हो गया है। याद रखो, यह नकली समय है। इसका वास्तविकता से जरा भी लेना—देना नहीं है। इससे गहराई में, बस इसके नीचे ही, एक और समय है, यह भी यथार्थ नहीं है, लेकिन क्रमागत समय से अधिक वास्तविक है; वह है मनोवैज्ञानिक समय। तुम्हारे भीतर एक घड़ी है, जैविक घड़ी। पुरुषों से अधिक स्त्रियां इसके प्रति संवेदी होती हैं। बहुत लंबे समय तक वे भी संवेदी नहीं रह पाएंगी क्योंकि वे हर भांति से पुरुषों की नकल करने की कोशिश में लगी हुई हैं। अभी भी उनका शरीर भीतरी घड़ी के अनुरूप कार्य करता है। प्रत्येक अट्ठाइस दिन बाद उन्हें मासिक धर्म होता है। शरीर भीतरी घड़ी की तरह, जैविक घड़ी के रूप में कार्य करता है।

यदि तुम निरीक्षण करो, तो तुम देखोगे कि प्रतिदिन एक निश्चित समय पर भूख लगती है। यदि तुम ठीक—ठाक और स्वस्थ हो, तब आवश्यकताएं एक निश्चित क्रमबद्धता ग्रहण कर लेती हैं, और वही क्रम पुनरुक्त होता रहता है। यह केवल तभी भंग होता है, जब तुम स्वस्थ न हो, अन्यथा शरीर सुचारु रूप से, एक सरल ढंग से संचालित होता रहता है। और यदि तुम्हें उस प्रारूप की जानकारी है, तो तुम उस व्यक्ति की तुलना में अधिक जीवंत होओगे जो घड़ी के अनुसार जीता है’। तुम सत्य के अधिक निकट हो।

क्रमागत समय निश्चित होता है, इसे निश्चित होना ही पड़ेगा, क्योंकि यह सामाजिक अनिवार्यता है; लेकिन मनोवैज्ञानिक समय तरल है, यह उतना ठोस नहीं है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी मानसिक ढंग, अपना निजी मन होता है। क्या तुमने कभी देखा है? जब तुम प्रसन्न होते हो, तो समय तेज चलता है। तुम्हारी घड़ी तेज नहीं चलेगी, घडी को तुमसे कुछ भी लेना—देना नहीं है। यह अपने हिसाब से

चलती है—साठ सेकेंड में वह एक मिनट चलती है, साठ मिनट में वह एक घंटा चलती है। वह चलती रहेगी, भले ही तुम प्रसन्न हो या अप्रसन्न हो, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि तुम अप्रसन्न हो तुम्हारा मन एक अलग समय में होगा, यदि तुम प्रसन्न हो तो तुम्हारा मन एक अलग समय में होगा। यदि अचानक तुम्हारा प्रियपात्र आता है, अप्रत्याशित रूप से द्वार पर दस्तक देता है, तो समय करीब—करीब रुक जाता है। घंटों बीत जाएंगे—तुम भले ही कुछ न कर रहे हो, बस हाथ पकड़े हुए हो, बैठे हुए हो, और चंद्रमा को देख रहे हो—घटों बीत जाएंगे, और ऐसा प्रतीत होगा कि कुछ मिनट ही बीते हों। जब तुम प्रसन्न होते हो समय बहुत, बहुत ही तेज चलता है। जब तुम अप्रसन्न होते हो, किसी का निधन हो गया है, कोई ऐसा जिसको तुमने चाहा था उसकी मृत्यु घटित हो गई है—तब समय, बहुत, बहुत, बहुत ही धीरे— धीरे गुजरता है।

अभी उस रात्रि को ही मीरा आई। कुछ माह पूर्व उसके पति की मृत्यु हो गई। वह उसकी मृत्यु के बाद मुझसे मिलने आई थी, और मैंने उससे कहा था, चिंता मत करो, घाव ठीक हो जाएगा। इसमें थोड़ा वक्त लगेगा, करीब—करीब तीन माह लगेंगे। लेकिन वे तीन महीने एक औसत समय है क्योंकि यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है। अब वह पिछली रात दुबारा आई और उसने कहा : ‘अब पांच महीने बीत चुके हैं और पीड़ा अभी भी है। निःसंदेह कम है, किंतु यह अभी भी है, यह गई नहीं है, और आपने कहा था कि तीन महीनों में पीड़ा विदा हो जाएगी।’ मैं जानता हूं। कभी कभी इसमें एक वर्ष लगता है, कभी यह छह माह लेती है, कभी इसके विदा होने में तीन माह भी नहीं लगते, तीन दिन ही पर्याप्त होते हैं। यह क्रमागत नहीं है, यह मनोवैज्ञानिक है। यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है, संबंधों पर निर्भर है कि तुम और तुम्हारे पति के मध्य किस प्रकार का संबंध रहा था।

और मैं जानता हूं कि संबंध अच्छा नहीं था। इसीलिए घाव अच्छा तो होगा लेकिन इसमें लंबा समय लगेगा। यह विरोधाभासी प्रतीत होता है, किंतु ऐसा ही होता है। यदि तुमने किसी व्यक्ति को प्रेम किया था और उसकी मृत्यु हो जाती है, तुम्हैं उदासी अनुभव होगी, लेकिन तुम शीघ्र ही सामान्य हो जाओगे। कोई घाव नहीं होगा। तुमने उस व्यक्ति को प्रेम किया था, उसमें जरा भी अपूर्णता नहीं थी। लेकिन मीरा और उसके पति के बीच संबंध अच्छे नहीं थे, वर्षों से वे करीब—करीब अलग ही थे। वह प्रेम करना चाहती थी पर प्रेम कर नहीं पाई। वह उसके साथ रहना चाहती थी पर ऐसा हो न सका। अब पति विदा हो चुका है, और उसके साथ रह पाने की मीरा की सारी आशाएं भी उसी के साथ मिट गई हैं। उसके अरमान थे, उसकी इच्छा थी, वह चाहती थी, किंतु यह नहीं हो सका। अब वह व्यक्ति विदा हो गया, अब कोई संभावना नहीं है। अब उस पर अकेलेपन का ठप्पा लग गया है, अब उस व्यक्ति को प्रेम करने का कोई उपाय नहीं है। उसके जीवित रहते, वह प्रेम न कर पाई, उनके मध्य समस्याएं थीं; अब वह व्यक्ति विदा हो गया, इसलिए कोई संभावना न बची। अब यह घाव बहुत धीरे— धीरे, बहुत धीरे— धीरे भरेगा। और जब यह भर जाएगा तो भी सदा उसके चारों ओर एक खास किस्म की उदासी छाई रहेगी।

किसी भी अपूर्ण चीज को गिरा देना कठिन है। चीजें पूरी पक जाती हैं और तब अपने से ही गिर जाती हैं। जब कोई पक जाता है, यह गिर पड़ता है। निःसंदेह वृक्ष को कुछ क्षण महसूस होता है कि कुछ खो गया है, फिर यह भूल जाता है। समाप्त हो गई बात, क्योंकि पके हुए फलों को गिर जाना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति को मरना पडेगा। जब वह व्यक्ति जीवित था—तुमने प्रेम किया, और तुमने आत्यंतिक रूप से और समग्रता से प्रेम किया, तुम तो करीब—करीब परितृप्त हो; तुम और अधिक की मांग नहीं कर सकतीं। जैसा कि यह था यह पहले से ही बहुत अधिक था। तुम आभारी हो कि परमात्मा ने तुम्हें इतना अधिक समय दिया। वह उस व्यक्ति को थोड़ा पहले भी वापस बुला सकता था, लेकिन उसने तुमको पर्याप्त समय दिया और तुमने प्रेम किया। प्रेम में एक पल भी शाश्वतता बन जाता है। तुम इतना अधिक प्रसन्न हो कि समय रुक जाता है। एक छोटा सा जीवन बहुत, बहुत अनंत हो जाता है। लेकिन यह इस प्रकार से नहीं हो सका है, इसलिए मैं मीरा की पीड़ा को समझ सकता हूं।

लेकिन उसे इस बात का सामना करना पड़ेगा और इसे समझना पड़ेगा। यह केवल पति की मृत्यु का ही प्रश्न नहीं है। यह कोई इतनी बड़ी समस्या नहीं है। पतियों की मृत्यु होती है, पत्नियों की मृत्यु होती है, यह कोई बड़ी समस्या नहीं है, स्वाभाविक है यह। समस्या यह है कि प्रेम नहीं घट सका। यह एक स्वप्न, एक इच्छा बना रहा और अब यह अतृप्त रहेगा। तुम्हें वह व्यक्ति पुन: नहीं मिल सकता, अत: यह अध्याय पूरा नहीं किया जा सकता। यह अपूर्णता एक घाव की भांति कार्य करेगी। इसीलिए इसने अधिक लंबा समय ले लिया है। यह थोड़ा और अधिक समय लेगी।

मनोवैज्ञानिक समय तुम्हारा आंतरिक समय है, और हम सदैव ही क्रमागत समय, .ग्रीनविच समय में जीया करते हैं—यह वैयक्तिक नहीं है। मनोवैज्ञानिक समय व्यक्तिगत है और यह प्रत्येक का अपना निजी होता है। यदि तुम प्रसन्न हो, तुम्हारा समय का बोध धीमा हो जाता है। यदि तुम अप्रसन्न हो, समय की लंबाई बढ़ जाती है। यदि तुम ध्यान में गहरे उतरो समय रुक जाता है। वस्तुत: पूरब में हम मन की अवस्थाओं को समय से मापते रहे हैं। यदि समय पूर्णत: रुक जाता है तो यह आनंद की अवस्था है। यदि समय बहुत अधिक धीमा हो जाए तो यह संताप की अवस्था है।

ईसाइयत में कहा गया है कि नरक शाश्वत है। बर्ट्रेंड रसल ने एक पुस्तक लिखी है : वॉय आई एम नॉट ए क्रिश्चियन? मैं ईसाई क्यों नहीं हूं? इसमें वह बहुत से तर्क देता है कि वह ईसाई क्यों नहीं है। उसके तर्कों में से एक यह है कि ‘मैं भरोसा नहीं कर सकता कि नरक शाश्वत हो सकता है, क्योंकि जो भी पाप हों, वे सीमित हैं। तुम असीमित पाप नहीं कर सकते हो। इसलिए सीमित पापों के लिए असीमित दंड—यह अन्यायपूर्ण है।’ यह तर्क सीधा है। कोई भी बर्ट्रेड रसल के विरोध में तर्क नहीं दे सकता; वह एक साधारण तथ्य कह रहा है। वह स्वयं कहता है, ‘यदि मुझे उन सभी पापों का दंड दे दिया जाए जो मैंने अपने पूरे जीवन में किए हैं, तो भी यह चार वर्ष के कारावास से अधिक नहीं होगा। और यदि वे पाप भी सम्मिलित कर लिए जायें जो मैंने नहीं किए हैं बल्कि केवल सोचे हैं तो अधिक से अधिक आठ वर्ष, और थोड़ा सा बढ़ाए तो दस वर्ष। लेकिन अनंत, शाश्वत नरक?’ तब परमात्मा बहुत प्रतिशोधपूर्ण प्रतीत होता है, दिव्य नहीं मालूम पड़ता, ईश्वर जैसा नहीं लगता बहुत भयानक, शैतानी ताकत की तरह दिखाई पड़ता है।

क्योंकि तुमने एक स्त्री से प्रेम कर लिया जो तुम्हारी पत्नी नहीं थी, अब तुम दंडित होगे—अनंत काल तक। यह बहुत अधिक है। तुमने कोई इतना बड़ा पाप नहीं कर दिया है। प्रेम में पड़ना मानवीय है, और जब कोई प्रेम में पड़ जाता है तो यह तय करना कठिन है कि ऐसी स्त्री से प्रेम किया जाए या नहीं, जो किसी और की पत्नी है। हूं. …प्रेम करीब—करीब अंधा होता है। यह तुम पर हावी हो जाता है।

हां, बर्ट्रेड रसल ठीक प्रतीत होता है, उसके तर्क उचित ही प्रतीत होते हैं, किंतु मैं कहता हूं कि तर्क उचित नहीं है। वह असली बात से चूक गया है। और किसी ईसाई धर्मशास्त्री ने अभी तक उसको इस बिंदु पर उत्तर नहीं दिया है। वे उत्तर नहीं दे सकते क्योंकि वे भी भूल चुके हैं। वे सिद्धांतों की बातें करते रहते हैं, लेकिन वे वास्तविकताओं को विस्मृत कर चुके हैं। जब जीसस कहते हैं कि नरक शाश्वत है तो उनका अभिप्राय मनोवैज्ञानिक समय से है, न कि क्रमागत समय से। ही, यदि उनका अभिप्राय क्रमागत समय होता तो किसी व्यक्ति को शाश्वत नरक में डाल देना नितांत असंगत है। उनका अभिप्राय है मनोवैज्ञानिक समय। उनका अभिप्राय यह है कि नरक में एक क्षण भी अनंत काल जैसा प्रतीत होगा। यह बहुत अधिक धीमा हो जाएगा क्योंकि तुम इस प्रकार से संताप और दर्द में होंगे कि एक क्षण भी अनंतकाल जैसा प्रतीत होगा। तुम्हें अनुभव होगा कि यह किसी भी समय समाप्त नही होगा, यह मिटने वाला नहीं है। तुम्हें लगेगा कि इसका सातत्य जारी है, चल रहा है, चलता जा रहा है।

यह समय के बारे में कुछ नहीं कहता, यह तुम्हारी उस अनुभूति के बारे में कुछ बताता है जब तुम गहरी पीड़ा और कष्ट में होते हो। और निःसंदेह नरक दर्द की चरम अवस्था है। और जीसस बिलकुल सही हैं, बर्ट्रेड रसल गलत है, लेकिन बर्ट्रेड रसल इसे गलत समझा क्योंकि जीसस ने ठीक मनोवैज्ञानिक समय नहीं कहा था। वे कहते हैं, अनंतकाल, क्योंकि उन दिनों यही भाषा समझी जाती थी। ऐसी विशिष्टता से बोलने की कोई आवश्यकता न थी।

मनोवैज्ञानिक समय व्यक्तिगत होता है। तुम्हारे पास अपना है, तुम्हारी पत्नी के पास उसका है, तुम्‍हारे पुत्र के पास उसका है, और सभी भिन्न हैं। संसार में संघर्षों का यह भी एक कारण है। तुम हार्न बजा रहे हो और पत्नी खिड़की से कहती है, मैं आ रही हूं और वह दर्पण के सम्मुख खड़ी रहती है और तुम हार्न पर हार्न बजाए जा रहे हो कि समय हुआ जा रहा है और हमारी ट्रेन छूट जाएंगी, और वह क्रोधित हो उठती है, और तुम क्रोध में आ जाते हो। हो क्या रहा है? प्रत्येक पति चिढ़ा हुआ है कि वह तो ड्राइवर की सीट पर बैठा हुआ है और हार्न बजाए जा रहा है और पत्नी अभी तक तैयार हो रही है, तैयार ही हो रही है। अभी भी वह साड़ी का चुनाव कर रही है। अब रेलगाड़ियां इस बात की चिंता नहीं लेतीं कि तुमने कौन सी साड़ी पहनी हुई है, वे समय पर चली जाती हैं। पति बहुत अधिक हैरान है, क्या चल रहा है। दो विभिन्न मनोवैज्ञानिक समय विवाद में हैं।

पुरुष क्रमागत समय पर पहुंच गया है; स्त्री अभी भी मनोवैज्ञानिक समय में जीती है। जहां तक मैं देखता हूं स्त्रियां कलाई घड़ी का उपयोग करती हैं, लेकिन आभूषण की भांति। मैं नहीं देखता कि वे वास्तव में उनका उपयोग करती हों, विशेषत: भारत में तो नहीं। मैं ऐसी कई महिलाओं के संपर्क में आया हूं जो यह भी नहीं जानती कि समय कैसे देखा जाए, और उनके पास घड़ियां हैं, सुंदर सोने की घड़ियां— वे उन पर धन खर्च सकती हैं।

बच्चा एक बिलकुल ही भिन्न संसार में जीता है। बच्चे के पास अपना स्वयं का मनोवैज्ञानिक समय है, पूरी तरह से बिना जल्दबाजी का, करीब—करीब स्वप्न में। वह तुम्हें नहीं समझ सकता, तुम उसको नहीं समझ सकते। तुम बहुत दूर हो, जोड्ने का कोई उपाय भी नहीं है। जब एक वृद्ध व्यक्ति किसी बच्चे से बात कर रहा होता है, तो वह जैसे दूसरे ग्रह से बोल रहा होता है, यह बात बच्चे तक कभी नहीं पहुंचती। बच्चा देख नहीं पाता कि इतनी अधिक जल्दबाजी क्यों, किसलिए?

मनोवैज्ञानिक समय नितांत वैयक्तिक है। इसीलिए क्रमागत समय महत्वपूर्ण हो गया है, वरना कहां मिला जाए, कैसे कार्य किया जाए किस भांति कुशल हुआ जाए? यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी अनुभूति के अनुसार कार्यालय में आता है तो कार्यालय चला पाना असंभव है। यदि प्रत्येक व्यक्ति उसके अपने समय पर स्टेशन आता है तो रेलगाड़ी कभी न जाएगी। सभी को सुविधा देने वाला कुछ निश्चित करना पड़ता है।

क्रमागत समय इतिहास है, और मनोवैज्ञानिक समय पुराण है। इतिहास और पुराण के मध्य यही अंतर है। पश्चिम में इतिहास लिखा गया और पूरब में पुराण। यदि तुम पूछो कृष्ण का जन्म कब हुआ, बिलकुल सही—सही दिनांक, कहीं से कोई उत्तर नहीं आएगा। और इतिहासकारों के लिए यह सिद्ध करना आसान है कि यदि तुम यह नहीं सिद्ध कर सकते ऐतिहासिक रूप से कि किस तारीख को, कितने बजे, किस स्थान पर, कृष्‍ण का जन्म हुआ था—यदि तुम वह स्थान और समय जहां कृष्‍ण जन्म की घटना घटी थी न दिखा सको—तो यह संदेहास्पद है कि कृष्‍ण का जन्म कभी हुआ भी था या नहीं।

पूरब ने कभी यह चिंता नहीं की। पूरब इसकी सारी असंगतता पर हंसता है। कृष्‍ण के जन्म से ऐतिहासिक समय का क्या लेना—देना है? हमारे पास कोई अभिलेख नहीं है। या हमारे पास अनेक अभिलेख हैं जो विरोधाभासी हैं, एक—दूसरे का खंडन कर रहे हैं।

लेकिन देखो, मेरा जन्म ग्यारह दिसंबर को हुआ था। यदि यह सिद्ध कर दिया जाए कि ग्यारह दिसंबर को मैं नहीं जन्मा था, क्या यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण होगा कि मैं कभी पैदा ही नहीं हुआ था? पूरब में कोई अपना जन्म—दिन भी याद नहीं रखता। अभी उसी दिन विवेक अपने पिता के जन्म—दिन के बारे में चिंतित थी। शायद यह सत्ताइस हो, या कोई अन्य दिन, और वह चिंतित थी, यदि वह लिखती है और उनसे पूछती है तो उसके माता—पिता अपमान अनुभव करेंगे। और मैंने उसको बताया कि मुझे अपनी मां का जन्म—दिन, अपने पिता का जन्म—दिन नहीं पता है, और मैं तो यह भी नहीं जानता कि उन्हें स्वयं पता है भी या नहीं। किंतु इससे यह कदापि सिद्ध नहीं हो सकता कि वे कभी थे ही नहीं या उनका जन्म ही नहीं हुआ।

पूरब ने पुराण लिखे हैं। पुराण पूर्णत भिन्न हैं, ये मनोवैज्ञानिक समय के अनुरूप हैं।

क्रमागत समय रेखीय रूप में, एक सरल रेखा में चलता है। इसीलिए पश्चिम में कहा जाता है कि सूर्य के नीचे नया कुछ भी नहीं है—लेकिन इतिहास कभी अपने आप को दोहराता नहीं है। समय एक रेखा में चलता है अत: इतिहास एक पंक्ति में स्वयं को किस भांति दोहरा सकता है। हर घटना अनूठी प्रतीत होती है। पूरब में हम कहते हैं कि इतिहास एक चक्र है। यह सीधी रेखा में नहीं चलता, इसकी गति वर्तुलाकार है। और पूरब में हम कहते हैं सूर्य के नीचे नया कुछ भी नहीं है और इतिहास स्वयं को लगातार दोहराता रहता है। यह सभी पुनरुक्ति है, अत: क्यों चिंता करना कि कृष्‍ण कब जन्मे?

पूरब में हम कहते हैं कि हर युग में कृष्ण बार—बार जन्म लेते हैं, यह एक चक्र है। सृजन और विनाश के मध्य के हर युग में कृष्ण बार—बार जन्म लेते है। उनका रूप भिन्न हो सकता है, उनका नाम अलग हो सकता है, लेकिन वे बार बार जन्म लेते हैं, इसलिए चिंता क्यों करनी? बस इसका वर्णन कर दो कि वे कौन हैं और गैर—जरूरी विवरणों की बहुत अधिक चिंता मत लो, इसलिए कृष्ण का यह रूप हो सकता है कि किसी विशिष्ट कृष्ण का न हो। यह सभी कृष्णावतारों का समन्वित रूप भी हो सकता है। यह इसी प्रकार का है।

यदि तुम पूछो, ‘क्या बुद्ध की मूर्ति उनका सही प्रतिरूप है?’ यह नहीं है। फिर भी यह सत्य है कि बुद्ध को इसी भांति का होना चाहिए। यह प्रश्न नहीं है कि यह बुद्ध—गौतम सिद्धार्थ, शुद्धोदन के पुत्र, जो एक निश्चित तारीख को कपिलवस्तु में जन्में थे, क्या इस मूर्ति की भांति थे। नहीं यह बात ही नहीं है। लेकिन इस मूर्ति में सभी बुद्ध सदैव समाहित हैं। उनका प्रतिनिधित्व है। यह मूर्ति बस बुद्धत्व की है, किसी विशेष बुद्ध की नहीं है। इसमें सारे बुद्ध समा गए हैं।

अब पश्चिम के लिए यह कठिन है। तुम बुद्ध और महावीर की मूर्तियों के बीच अंतर नहीं कर सकते हो, बस एक छोटा सा चिह्न उनके पैरों के नीचे होता है, वरना उनमें तुम कोई भेद नहीं कर सकते हो। जैनों के चौबीस तीर्थंकर, चौबीस महान सदगुरु हैं, लेकिन तुम कोई अंतर नहीं कर सकते हो। किसी जैन मंदिर में जाओ और बस देखो, वे सभी एक सी दिखती हैं। ऐसा हो ही नहीं सकता कि चौबीस व्यक्ति एक से हों। असंभव। दो व्यक्ति कभी एक से नहीं हो सकते, लेकिन वे मूर्तियां बाहर का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। वे अंतर अनुभूति का प्रतिनिधित्व करती हैं। ही, दो व्यक्ति एक हो नहीं सकते लेकिन दो अनुभूतियां एक सी हो सकती हैं।

जब तुम प्रेम में पड़ते हो और कोई दूसरा भी प्रेम में पड़ता है तो प्रेम एक सा ही होता है। जब तुम ध्यान करते हो, तथा कोई और भी ध्यान करता है तो ध्यान एक जैसा ही है। जब तुम संबुद्ध होते हो और कोई दूसरा भी संवुद्ध होता है तो संबोधि एक ही है। ये जैन तीर्थंकरों की चौबीस मूर्तियां चौबीस व्यक्तियों की नहीं हैं बल्कि उस एक अवस्था की है जो उनमें प्रतिबिंबित हुई। वे सभी प्रतिनिधि हैं।

अगर तुम जैन तीर्थंकर को देखो, तो तुम्हें बहुत लंबे कान दिखाई पड़ेंगे जो करीब—करीब उनके कंधों को छूते हैं। अब जैन कहते हैं कि सारे तीर्थंकरों के कान लंबे थे। और ऐसे मूढ़ हैं जो सोचते हैं कि महावीर के कान वास्तव में इतने अधिक लंबे थे।

मुझे एक जैनी, आचार्य तुलसी ने अपने एक सम्मेलन में निमंत्रित किया था, उनके कान बहुत लंबे हैं, इसलिए उनका एक शिष्य मेरे पास आया और बोला, ‘आचार्य तुलसी जी महाराज को देखिए, उनके कान कितने लंबे हैं। यह महान सदगुरु होने का प्रतीक है। जल्दी ही अपने किसी ‘अगले जन्म में वे तीर्थंकर होने वाले हैं।’ संयोगवश या किसी इत्तेफाक से एक गधा उधर से गुजरा, अत: मैंने उस शिष्य से कहा : ‘आचार्य गधे जी महाराज को देखिए। वे पहले से ही तीर्थंकर हैं।’ वह शिष्य उस बात से इतना क्रोधित हो गया, वह मेरे पास कभी नहीं आया।

लंबे कान मात्र इस बात का प्रतीक हैं कि ये लोग सुनने में समर्थ हैं, बस यही बात है। वे ध्वनि को, ध्वनि—विहीन ध्वनि को, एक हाथ की ताली की ध्वनि को सुनने में समर्थ थे। वे सत्य को सुनने में समर्थ थे। ये प्रतिमाएं मात्र प्रतीकात्मक हैं, ऐसा नहीं है किं वे किसी वास्तविक व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। ऐसी गलत ढंग की व्याख्या मूढ़तापूर्ण है। पुराण—कथा प्रतीकात्मक हैं। ऐसा कहा जाता है कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ था। अब भीतर की शांति की एक अवस्था का नाम अयोध्या है, इसका अयोध्या नाम के नगर से कुछ भी लेना—देना नहीं है। नगर का नाम अंतस की अयोध्या जैसी दशा एक बहुत शांतिपूर्ण, मौन, आनंदित अवस्था के प्रतिनिधि के रूप में रखा गया है। निःसंदेह उस अवस्था से राम को जन्म लेना ही होगा।

जीसस का कुंआरी माता से जन्म का यही अर्थ है। ऐसा नहीं है कि वास्तव में उनका जन्म कुंआरी मेरी से हुआ हो, नहीं, बल्कि अस्तित्व की शुद्धता कुंआरेपन, भोलेपन और अविकृत पवित्रता से ही उनका जन्म हुआ था। यही उनका असली गर्भ था।

ये प्रतीकात्मक बातें हैं, ये पुराण कथाएं हैं। वे ऐतिहासिक नहीं हैं।

इतिहासकार अनावश्यक विवरण, बकवास एकत्रित करते रहते हैं। तुम जरा इतिहास की किसी पुस्तक में देखो। तुम आश्चर्यचकित हो जाओगे। इतने सारे लोग इतना मूर्खतापूर्ण कार्य क्यों कर रहे हैं? तिथियां, तिथियां और तिथियां और नाम, नाम और नाम और वे चलते चले जाते हैं। और हजारों लोग अपना सारा जीवन बरबाद कर देते है और वे इसे शोध कहते हैं। और फिर पत्रकार हैं, संपादक, समाचार पत्र के कार्यकर्ता हैं, वे सभी क्रमागत समय में जीते हैं। वे बस संसार की अनावश्यक बातों को समाचार लिखने के लिए खोजते रहते हैं

सत्य कभी समाचार नहीं बनता, क्योंकि यह सदैव वहां है। यह घटित नहीं होता, यह पहले से ही घट चुका है। असत्य समाचार है।

किसी ने जार्ज बर्नार्ड शॉ से पूछा. स्माचार क्या है? उसने कहा. जब कोई कुत्ता किसी आदमी को काट ले, तो यह समाचार नहीं है; लेकिन जब कोई मनुष्य किसी कुत्ते को काट ले, तो यह समाचार है, क्योंकि समाचार को कुछ नया होना चाहिए। मनुष्य को कुत्ते द्वारा काटा जाना कोई समाचार नहीं, क्योंकि इसमें नया कुछ भी नहीं है। ऐसा तो सदा से होता रहा है, और यह हमेशा ऐसे ही होगा। लेकिन जब कोई मनुष्य कुत्ते को काट लेता है तो निश्चित रूप से यह समाचार है।

तुम्हें पत्रकारों से अधिक सतही और ओछे व्यक्ति कहीं न मिलेंगे। वे लोग व्यर्थ की चीजें खोज लेने में कुशल होते हैं। पत्रकार निकम्मे राजनेता होते हैं। राजनेता समाचार निर्मित करते हैं, पत्रकार समाचार एकत्रित करते हैं। पत्रकार राजनेताओं की छाया की भांति है। इसीलिए समाचार पत्र पूरी तरह राजनेताओं से भरे होते हैं, इस छोर से उस छोर तक, आदि से अंत तक, बस राजनीति, राजनीति, राजनीति। पत्रकार वह व्यक्ति है जो समाचार बनाने में असफल हो गया है, अब वह इन्हें एकत्रित करता है। उसका राजनेता से ठीक वही संबंध है जो आलोचक का कवि से होता है; जो कवि बनने में असफल रहता है, वही आलोचक बन जाता है।

मैंने एक प्रसिद्ध अभिनेता के बारे में सुना है। एक फिल्म में उसे एक घोड़े की आवश्यकता पड़ी, और एक घोड़े का मालिक ‘अपना घोड़ा लेकर आया। यह एक सामान्य घोड़ा था, लेकिन घोड़े के मालिक ने उसकी बहुत अधिक प्रशंसा करना आरंभ कर दी, और वह बोला, यह कोई आम घोड़ा नहीं है। इसकी कद काठी को मत देखिए उसकी आत्मा को देखिए। यह एक बहुत श्रेष्ठ घोड़ा है। और इसने इतनी अधिक फिल्मों में काम किया है कि उसको आप करीब—करीब एक अभिनेता ही कह सकते हैं।

ठीक उसी समय घोड़े ने जोर से हवा छोड़ी, तेज आवाज हुई।

वह अभिनेता बोला : मैं देख सकता हूं यह सिर्फ अभिनेता ही नहीं है, यह एक समीक्षक भी है। पत्रकार, समीक्षक, इतिहासकार, राजनेता, वे सभी ऐतिहासिक समय, जीवन की बाहरी परिधि से संबद्ध हैं, और सबसे व्यर्थ और अनुपयोगी प्रयास जो संसार में चलता रहता है—इतना महत्वपूर्ण हो गया है। हमने इसको इतना महत्वपूर्ण इसीलिए बना दिया है क्योंकि हम भूल गए हैं कि घड़ी ही जीवन नहीं है। मनोवैज्ञानिक समय स्वप्न का समय है। पुराण, काव्य, प्रेम, कला, चित्रकारी, नृत्य, संगीत, भाव, ये सभी मनोवैज्ञानिक समय से जुड़े हैं। तुम्हें मनोवैज्ञानिक समय की ओर उन्मुख होना पड़ेगा। क्रमागत समय बहिर्मुखी मन के लिए है। मनोवैज्ञानिक समय अंतर्मुखी, वह जिसने अंतरात्मा की ओर जाना आरंभ कर दिया है, के लिए है।

मनोवैज्ञानिक समय में खतरे भी हैं। इसीलिए वे लोग जो क्रमागत समय से आसक्त हैं, मनोवैज्ञानिक समय के विरोध में हैं। इसमें खतरे हैं। एक खतरा यही है कि तुम इसके जाल में फंस सकते हो। तब तुम करीब—करीब पागल हो जाओगे, क्योंकि तुम समाज के, संसार के लोगों के संपर्क से हट जाते हो। मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं

एक भला दिखने वाला आदमी अपने एक पुराने मित्र से गपशप में इतना व्यस्त हो गया कि उसे समय का होश नहीं रहा। अचानक उसने अपनी घड़ी पर निगाह डाली और बोला. अरे मित्र, तीन बज रहे हैं और मैंने अपने मनोचिकित्सक से तीन बजे का समय लिया हुआ है, और वहां तक पहुंचने में कम से कम पंद्रह मिनट तो लगेंगे ही।

उसके मित्र ने कहा : अब परेशान होने की जरूरत नहीं है, तुम कुछ ही मिनट देर से पहुंचोगे।

तुम उसे जानते नहीं, यदि मैं ठीक समय से वहां नहीं पहुंचा तो वह मेरे बिना ही शुरू हो जाएगा। स्वप्न को यथार्थ मान लेने का खतरा है। अपनी कल्पनाओं में बहुत अधिक विश्वास कर लेने का खतरा है। तुम अपनी आंतरिक कल्पना, अपने स्वप्न—संसार से इतना अधिक ग्रस्त हो सकते हो कि तुम एक वहम में जी सकते हो, लेकिन इन खतरों के साथ भी इसे समझना और इससे होकर गुजरना आवश्यक है। लेकिन याद रखो, यह एक सेतु है, जिससे होकर गुजर जाना है। जब तुमने इसको पार कर लिया, तो तुम वास्तविक समय के सम्मुख आ जाओगे।

क्रमागत समय शरीर से संबद्ध है, मनोवैज्ञानिक समय मन से जुड़ा है, वास्तविक समय तुम्हारे

अस्तित्व से। क्रमागत समय बहिर्मुखी मन है, मनोवैज्ञानिक समय अंतर्मुखी मन है, और वास्तविक समय मनातीत है।

किंतु व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक समय से गुजरना पड़ता है। उस क्षेत्र के पार पूर्ण होश से जाना पड़ता है। तुम्हें वहां अपना ठिकाना नहीं बनाना चाहिए। यदि तुम वहां अपना आवास बना लों तो तुम विक्षिप्त हो जाते हो। यही उन बहुत सारे लोगों के साथ हो गया है जो पागलखानों में हैं। वे क्रमागत समय को भूल चुके हैं, वे वास्तविक समय में नहीं पहुंचे, और उन्होंने पुल पर, मनोवैज्ञानिक समय में रहना आरंभ कर दिया है। इसी कारण उनकी सच्चाई व्यक्तिगत और निजी बन गई है। एक पागल व्यक्ति अपने निजी संसार में रहता है, और वह व्यक्ति जिसको तुम सामान्य कहते, सार्वजनिक संसार में रहता है। सार्वजनिक संसार लोगों के साथ है, निजी संसार तुम में सीमित है, लेकिन वास्तविक संसार न तो निजी है और न ही सार्वजनिक, यह सार्वभौम है, यह दोनों के पार है। और व्यक्ति को दोनों के परे जाना पड़ता है।

एक आदमी सड़क के आवारागर्द के रूप मे जाना जाता था। वह एक दुर्घटना के बाद अस्पताल में पड़ा हुआ था।

डाक्टर ने नर्स से पूछा. सुबह इसका क्या हाल रहा?

वह बोली : ओह! वह अपना दायां हाथ बाहर किए रहता है।

आह! डाक्टर ने कहा. वह मोड़ पर मुड़ रहा है।

सड्कों पर भटकने वाला, मोटर साइकिल जिसकी लत बन चुकी हो, अपनी नींद में भी तेज रफ्तार बनाए रहता है। जो कुछ भी तुम अपने सपनों में करते हो वह तुम्हारी इच्छा, तुम्हारे लक्ष्य, तुम क्या पाना चाहते हो, को प्रतिबिंबित करता है।

आदिम समाज मनोवैज्ञानिक समय में जीया करते हैं। पूरब मनोवैज्ञानिक समय में जीता रहा है, पश्चिम क्रमागत समय में जीया करता है। यदि तुम पर्वतों के पीछे और जंगलों में काफी भीतर रहने वाले छिपे हुए समाजों में जाकर देखो, तो तुम पाओगे कि वे पूरी तरह मनोवैज्ञानिक समय में जीते हैं। कुछ ऐसे भी आदिम समाज हैं जहां स्वप्न वास्तविकता से अधिक महत्वपूर्ण हैं, और सुबह नाश्ते से पहले बच्चों को पहला काम यही करना पड़ता है कि वे अपने बड़ों को अपने स्वप्न सुनाया करते हैं। पहली बात है, मनोविश्लेषण। नाश्ते से पहले ही बड़ों के सामने स्वप्न का वर्णन कर दिया जाना है। और वे एक साथ एकत्रित होते हैं और वे स्वप्न का ‘विश्लेषण करते हैं। और फिर वे बच्चे को कुछ करने के लिए कहते हैं, क्योंकि स्‍वर्ण प्रतीकात्मक है और यह प्रदर्शित करता है कि कुछ किए जाने की जरूरत है।

उदाहरण के लिए एक बच्चे ने स्वप्न में देखा कि वह एक मित्र से लड़ रहा है, और सुबह वह इस बात को अपने बड़ों को बताता है। वे इसकी व्याख्या करेंगे, और वे इस बच्चे को उपहारों और मिठाइयों और खिलौनों के साथ उसके घर, उसी बच्चे के पास भेजेंगे जिससे वह स्वप्न में लड़ रहा था और उसे वे उपहार दिए जाएं और उसको वह स्वप्न बताया जाए, क्योंकि उसने एक अपराध किया है।

पश्चिम में तुम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। तुमने किया क्या है? तुमने कुछ नहीं किया, तुमने केवल स्वप्न देखा, लेकिन उस विशेष आदिवासी समुदाय का कहना है कि तुमने स्वप्न देखा क्योंकि तुम इस प्रकार की कोई बात करना चाहते थे, वरना क्यों ऐसा स्वप्न आया? एक छिपी हुई दमित इच्छा रही होगी यह। जहां तक मन का संबंध है, तुमने ऐसा कर लिया है। जाओ और उस बच्चे को बता दो ताकि तुम्हारे चारों ओर कोई सूक्ष्म क्रोध न बना रहे। उससे पूरी बात कह दो और उससे क्षमा मांग लो और इन उपहारों को उसे भेंट में दे दो।

स्वप्न की लड़ाई के लिए असली उपहार…..किंतु उस समुदाय में एक चमत्कार घट गया है। धीरे— धीरे जब बालक बड़ा होता है वह स्वप्न देखना छोड़ देता है। स्वप्न खो जाते हैं। उस आदिम समाज के अनुसार वयस्क व्यक्ति वही है जिसे स्वप्न नहीं आते। सुंदर मालूम पड़ती है यह बात। निःसंदेह मनोविश्लेषक उस समाज की प्रशंसा नहीं करेंगे, क्योंकि उनका सारा धंधा चौपट हो जाएगा।

एक युवती अपने चिकित्सक से मिलने गई और चिकित्सक ने उससे पूछा कि पिछली रात तुमने स्वप्न में क्या देखा? उस युवती ने बताया कि उसे कल पूरी रात कोई स्वप्न ही नहीं आया। इस पर वह मनोचिकित्सक बहुत क्रोधित हुआ और बोला. देखो, यदि तुम अपना गृहकार्य नहीं करोगी तो मैं तुम्हारी मदद कैसे कर पाऊंगा?

स्वप्न देखना एक गृहकार्य है और मनोविश्लेषक तुम्हारे स्वप्नों पर जीता है। वह उनका विश्लेषण किए चला जाता है। किंतु यह कुछ असंगत बात है। तुम अपने स्वप्नों का विश्लेषण स्वयं नहीं कर सकते कोई और इसे कैसे कर सकता है? क्योंकि मनोवैज्ञानिक समय निजी है, इसलिए तुम्हारे स्वप्‍नों को तुमसे बेहतर और कोई समझ ही नहीं सकता है। सपने तुम्हारे हैं, कोई दूसरा उनको किस प्रकार समझ सकता है? उसकी व्याख्याएं झूठ होने वाली हैं। उसकी व्याख्याएं उसके द्वारा की जाएंगी। जब कोई फ्रायड तुम्हारे स्वप्न का विश्लेषण करता है, तो उसकी व्याख्या भिन्न होगी। जब जुग उसी स्वप्न का विश्लेषण करता है, तो उसकी व्याख्या अलग होगी। जब एडलर उसी स्वप्न का विश्लेषण करता है, तो उसकी व्याख्या और किस्म की होती है। अत: इसके बारे में क्या सोचा जाना चाहिए? तुमने एक स्वप्न देखा है और तीन महान मनोविश्लेषकों ने तीन अलग ढंगों से इसको समझाया।

फ्रायड हर बात को कामवासना की ओर मोड़ देता है। चाहे तुम जो स्वप्न देखो, कोई अंतर नहीं पड़ता। वह उसे कामवासना से संबद्ध करने का उपाय खोज लेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि वह कामवासना से ग्रसित था। वह एक महान अग्रदूत था, उसने एक बड़ा द्वार खोल दिया, लेकिन वह भयग्रस्त था, और वह कामवासना से डरा हुआ था, और वह दूसरी कई चीजों से भी आतंकित था। वह इतना भयग्रस्त था कि उसको सड़क पार करने में भय लगता था, यह उसके बड़े भयों में से एक था। अब तुम यह नहीं सोच सकते बुद्ध सड़क पार करने से भयभीत हों। यह आदमी स्वयं ही रुग्ण है। वह लोगों के साथ बातचीत करने से इतना घबड़ाता था, तभी तो उसने मनोविश्लेषण निर्मित किया। मनोविश्लेषण में मनोविश्लेषक एक पर्दे के पीछे बैठता है और रोगी एक कोच पर लेटता है और बोलता रहता है और मनोविश्लेषक केवल सुनता है—कोई संवाद नहीं। वह संवाद से भयभीत था। व्यक्तिगत मुलाकातों में, आमने—सामने की बातचीत में वह सदा असहज रहता था। अब उसका सारा मन उसकी व्याख्या में समा गया है। यह स्वाभाविक है, इसे ऐसे ही होना चाहिए।

जुंग हर बात को, प्रत्येक चीज को धर्म पर ले आता है। स्वप्न में तुम चाहे कुछ भी देखो, वह इसकी व्याख्य इस भाति करेगा कि यह धार्मिक स्वप्न बन जाएगा। वही स्वप्न फ्रायड के साथ कामुक हो जाता है, जुग के साथ यह धार्मिक हो जाता है। एडलर के साथ यह राजनीति बन जाता है। हर बात महत्वाकांक्षा है। और प्रत्येक व्यक्ति हीनता की ग्रंथि से पीड़ित है। और प्रत्येक व्यक्ति और शक्ति प्राप्त करने के लिए—शक्ति की आकांक्षा हेतु प्रयासरत है। और अब तो सारे संसार में हजारों मनोविश्लेषक हैं जो विभिन्न विचारधाराओं के हैं। जितनी विविध विचारधाराएं ईसाइयत में हैं उतनी ही हैं। बहुत से वाद हैं और हर मनोविश्लेषक अपना स्वयं का वाद आरंभ कर देता है। और किसी को रोगी की फिकर नहीं कि यह उसका स्वप्न है।

मनोविश्लेषकों की समस्याएं उनके विश्लेषणों और व्याख्याओं में समा जाती हैं। सहायता करने का यह कोई ढंग नहीं है। वस्तुत: यह तो चीजों को और अधिक जटिल बना देने वाला है। एक बेहतर समाज तुम्हें सिखाएगा कि अपने स्वप्न का किस भांति विश्लेषण किया जाए, अपने स्वयं के स्वप्नों का मनोविश्लेषण कैसे किया जाए। क्योंकि तुमसे अधिक तुम्हारे स्वप्न के बारे में कोई नहीं जानता, क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्त तुमसे और निकट अन्य कोई हो ही नहीं सकता।

एक सुंदर युवा महिला मनोचिकित्सक से मिलने गई। वह कुछ सेकंड उस महिला का मुख देखता रहा और बोला : कृपया यहां मेरे पास आओ। तब अचानक उसको अपनी बांहों में लेकर मनोचिकित्सक ने उसका चुंबन लिया, फिर उसको अपने से अलग करके वह कहने लगा, मेरी समस्या का तो समाधान हो गया है, अब बताओ तुम्हारी क्या समस्या है?

उनकी अपनी समस्याएं हैं। उनकी अपनी मनोग्रस्तताएं हैं, मनःस्थितिया हैं।

पूरब में मनोविश्लेषण जैसा कभी कुछ नहीं रहा है। ऐसा नहीं है कि हमें मनोवैज्ञानिक संसार के बारे में कुछ पता नहीं है। हमें संसार के किसी भी समाज की तुलना में इसका अधिक गहराई से

बोध रहा है, लेकिन हमने सहायता के लिए एक नितांत भिन्न प्रकार का व्यक्ति निर्मित किया है, हम उस व्यक्ति को गुरु कहते हैं। गुरु और मनोविश्लेषक में क्या अंतर है? अंतर यह है कि मनोविश्लेषक के पास अभी भी समस्याएं हैं अनसुलझी, लेकिन गुरु के पास कोई समस्या नहीं है। जब तुम्हारे पास कोई समस्या न हो तभी तुम्हारी दृष्टि सुस्पष्ट होती है, तभी तुम स्वयं को दूसरे की स्थिति में रख सकते हो। जब तुम्हारे पास कोई समस्याएं कोई मनोग्रस्तताएं, कोई जटिलताएं कुछ भी नहीं होता, तुम मन से पूर्णत: निर्मल होते हो, मन तिरोहित हो चुका है, तुम अ—मन को उपलब्ध हो चुके हो, तभी, तभी तुम देख सकते हो। तब तुम निजी ढंग से व्याख्या नहीं करोगे। तुम्हारी व्याख्या सार्वभौमिक होगी, वह अस्तित्वगत होगी।

और तीसरा है वास्तविक, अस्तित्वगत समय। वास्तविक समय समय जरा भी नहीं है, क्योंकि वास्तविक समय शाश्वतता है। मैं तुम्हें इसे समझाता हूं।

क्रमागत समय स्वैच्छिक होता है। पश्चिम में जेनो ने इसे बहुत पहले हीर सिद्ध कर दिया है। पूरब में नागार्जुन ने इस बात को इतनी गहराई से सिद्ध किया है कि उसे कोई कभी खंडित नहीं कर पाया। वस्तुत: जेनो और नागार्जुन दोनों व्यक्तियों को कोई तर्क में हरा नहीं सका है। उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता, उनके तर्क अत्याधिक गहरे और परम हैं। जेनो और नागार्जुन कहते हैं कि समय की, क्रमागत समय की संपूर्ण अवधारणा असंगत है। उन दोनों व्यक्तियों के बारे में और उनके द्वारा किए गए क्रमागत समय के विश्लेषण के बारे में मैं तुम्हें कुछ बातें और बताता हूं।

उन्होंने समय के विश्लेषण की चरम ऊंचाइयां छू ली हैं। अभी तक कोई भी उनसे आगे निकलने में या उनके तर्कों में सुधार करने में सफल नहीं हो पाया है। उन्होंने पूछा ‘समय क्या है?’ तुमने बताया : ‘यह एक प्रक्रिया है। एक क्षण अतीत में चला जाता है, मिट जाता है, एक और क्षण भविष्य से वर्तमान में आता है, समय के एक अंतराल के लिए वहां ठहरता हैं, फिर पुन: अतीत में चला जाता है, तिरोहित हो जाता है, ‘ यह है समय की प्रक्रिया। तुम्हारे पास एक समय में केवल एक क्षण होता है, दो क्षण कभी एक साथ नहीं होते। अतीत, भविष्य और बस उनके ठीक बीच में अंतराल में वर्तमान।

अब नागार्जुन और जेनो प्रश्न उठाते हैं, वह क्षण कहां से आता है? क्या भविष्य पहले से ही अस्तित्व में है? यदि अस्तित्व में नहीं है तो वह क्षण अन अस्तित्व से किस भांति आ सकता है? अब वे उलझन खड़ी कर देते हैं। वे कहते हैं, वर्तमान का क्षण अतीत में कहां चला जाता है? क्या यह अभी भी अतीत में संचित है? यदि तुम कहो ही, यह अभी भी अतीत में उपस्थित है, तो यह अभी अतीत नहीं हुआ है। यदि तुम कहो कि यह भविष्य में था, और बस अभी यह हमारे समक्ष उदघाटित हुआ है, यह भविष्य में सदा से था, तब नागार्जुन और जेनो कहते हैं तब तुम इसे भविष्य नहीं कह सकते, यह सदा से वर्तमान था। यदि भविष्य है, तो यह भविष्य नहीं है क्योंकि भविष्य का अर्थ है जो अभी नही है। यदि अतीत है, तो यह अतीत नहीं है, क्योंकि अतीत का अर्थ है जो अस्तित्व से बाहर हो गया है।

इसलिए जो भी विकल्प तुम चुनते हो.. .यदि तुम कहो कि भविष्य नहीं है और अचानक शून्य में से वर्तमान का क्षण प्रकट हो जाता है, वे दोनों हंसते हैं। वे कहते हैं, ‘तुम मूर्खतापूर्ण बात कह रहे हो। अनअस्तित्व से अस्तित्व किस प्रकार आ सकता है? और किस भांति अस्तित्ववान पुन: अनअस्तित्व में चला जाता है? वे कहते हैं, ‘यदि दोनों ओर अनअस्तित्व है तो ठीक बीच में अस्तित्व कैसे हो सकता है? इसे भी अनअस्तित्व होना चाहिए। तुम भ्रम में थे।’

फिर वे कहते हैं, तुम समय को एक प्रक्रिया ऊहने हो? तुम्हारा कथन है कि एक क्षण दूसरे से जुड़ा हुआ है? नागार्जुन और जेनो तुमसे पूछते हैं, दो क्षण हैं, वे किस प्रकार से संबंधित हैं? क्या ज्यू दोनों के मध्य कोई तीसरा क्षण भी है जो उनको जोड़ता है। फिर वे एक कठिनाई पैदा कर देते हैं, क्योंकि संबंध बनाने के लिए एक सेतु की जरूरत होती है। दो चीजों को जोड्ने के लिए, अतीत को वर्तमान से जोड्ने के लिए, और वर्तमान को भविष्य से जोड्ने के लिए सेतुओं की आवश्यकता पड़ती है। तो इन सेतुओं का अस्तित्व कहां है? वे सेतु क्या हैं? वे समय से ही निर्मित हो सकते हैं। इसलिए एक क्षण और दूसरे क्षण के मध्य में उन दोनों को जोड्ने के लिए एक क्षण और है। इसलिए दो के स्थान पर वहां तीन हैं, लेकिन फिर उनको भी जोड़ना पड़ेगा। एक अनंत श्रृंखला बन जाती है।

मेरी दो अंगुलियों की ओर देखो। इन दो को जोड़े जाने की आवश्यकता है, वे तीन अंगुलियां बन जाती हैं। अब एक के स्थान पर दो स्थान, दो अंतराल हो गए। उन्हें जोड़ा जाना है; वे पांच हो गए हैं। अब जोड़े जाने के लिए और अधिक रिक्त स्थान हो जाते हैं और इसी प्रकार यह चलता रहता है।

नागार्जुन और जेनों के अनुसार क्रमागत समय एक उपयोगिता है। यह सारभूत नहीं है। वास्तविक समय कोई प्रक्रिया नहीं है, क्योंकि नागार्जुन का कहना है यदि समय स्वयं में प्रक्रिया हो तो इसे एक और समय की जरूरत होगी। उदाहरण के लिए तुम चलते हो। तुम्हें समय की आवश्यकता होती है। तुमको अपने घर से, इस च्चांगत्सु सभागार में, मेरे पास आना है। तुमको यहा तक आने में पंद्रह मिनट लगे। यदि समय न हो तुम यहां कैसे आ सकोगे, क्योंकि चलने के लिए समय की जरूरत है, चलना एक प्रक्रिया है, तुम्हें समय चाहिए। सभी प्रक्रियाओं को समय की जरूरत पडती है। अब नागार्जुन कहते हैं, ‘यदि तुम कहते हो समय स्वयं में एक प्रक्रिया है तो इसको एक महा समय, एक अतिरिक्त समय की आवश्यकता होगी। और वह भी एक प्रक्रिया है, तो उसे भी एक अन्य समय, महा, महा समय…,’पुन: अनंत श्रृंखला खड़ी हो जाती है। फिर तुम इसका समाधान नहीं खोज सकते।

नहीं, समय, वास्तविक समय प्रक्रिया नहीं है, यह समकालिकता है। भविष्य, भूत, वर्तमान तीन भिन्न चीजें नहीं हैं, अत: उनको जोड्ने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह शाश्वत अभी है, यह निरंतरता है। ऐसा नहीं है कि तुम्हारी बगल से समय गुजर रहा है। यह कहां जाएगा? इसे होकर गुजरने के लिए किसी और माध्यम की आवश्यकता पड़ेगी, और यह कहां जाएगा, और यह कहां से आएगा? यह वहां है; बल्कि यह यहां है। समय है। यह कोई प्रक्रिया नहीं है।

क्योंकि हम पूर्ण समय को देख नहीं सकते—हमारी आंखें संकुचित हैं, सीमित हैं। हम एक छोटी सी खिड़की से देख रहे हैं, इसीलिए ऐसा प्रतीत होता है कि तुम एक बार में एक ही क्षण को देख सकते हो। यह तुम्हारी सीमा है, समय का विभाजन नहीं है। क्योंकि तुम संपूर्ण समय को जैसा कि यह है नहीं देख सकते, क्योंकि अभी तक तुम समग्र नहीं हो, इसीलिए तुम समय का विभाजन भूत, वर्तमान, भविष्य में करते हो।

अब सूत्र:

‘वर्तमान क्षण पर संयम साधने से क्षण विलीन हो जाता है, और आने वाला क्षण परम तत्व के बोध से जन्मे ज्ञान को लेकर आता है।’

 

यदि तुम समय की प्रक्रिया पर, उस क्षण पर जो है, उस क्षण पर जो चला गया, उस क्षण पर जो आने वाला है, अपनी समाधि चेतना को ले आओ, यदि तुम अपनी समाधि ले आओ, अचानक परम तत्व का ज्ञान हो जाता है। क्योंकि जिस क्षण तुम समाधि के साथ देखते हो—वर्तमान, भविष्य और भूत का विभेद खो जाता है, वे विलय हो जाते हैं। उनमें विभाजन झूठा है। अचानक तुम शाश्वत के प्रति बोधपूर्ण हो जाते हो तिब समय समकालिकता है। कुछ भी जा नहीं रहा है, कुछ भी भीतर नहीं आ रहा है, सब कुछ है, मात्र है।

यह ‘है—पन’ परमात्मा के रूप में जाना जाता है; यही ‘है—पन’ ईश्वर की अवधारणा है।

‘वर्तमान क्षण पर संयम साधने से क्षण विलीन हो जाता है, और आने वाला क्षण परम तत्व के बोध से जन्मे शान को लेकर आता है।’

यदि तुम समय को सतोरी, समाधि की आंखों से देख सको, समय तिरोहित हो जाता है।

लेकिन यह अंतिम चमत्कार है, इसके उपरांत सिर्फ कैवल्य, मुक्ति है। जब समय खो जाता है, सब कुछ खो जाता है—क्योंकि इच्छा, महत्वाकांक्षा, प्रेरणा का सारा संसार वहां है, क्योंकि हमारे पास समय ही गलत अवधारणा है। समय निर्मित किया गया है; समय एक प्रक्रिया की भांति—भूत, वर्तमान, के रूप में—इच्छाओं द्वारा निर्मित किया गया है। पूरब के संतों की श्रेष्ठतम अंतर्दृष्टियों में से एक बात यही है कि प्रक्रिया के रूप में समय वास्तव में इच्छा का प्रक्षेपण है। क्योंकि तुम किसी चीज की इच्छा रखते हो, तुम भविष्य निर्मित करते हो। और क्योंकि तुम आसक्त होते हो, तुम अतीत निर्मित करते हो। क्योंकि तुम उसे नहीं छोड़ सकते जो अब तुम्हारे सामने नहीं रहा, और तुम इससे चिपके रहना चाहते हो, तुम स्मृति निर्मित करते हो। और क्योंकि वह जो अभी नहीं आया तुम इसकी अपने निजी ढंग से अपेक्षा करते हो, तुम भविष्य निर्मित करते हो। भविष्य और अतीत मन की अवस्थाएं हैं, समय के भाग नहीं हैं। समय शाश्वत है। यह बंटा हुआ नहीं है। यह एक है, समग्र है।

क्षण तत्कमयो संयमाद्विवेकज ज्ञानम्।

जिसने यह जान लिया कि क्षण और समय की प्रक्रिया क्या है, वह परम के प्रति बोधपूर्ण हो जाता है; समय के बोध से व्यक्ति को परम का बोध प्राप्त हो जाता है। क्यों? क्योंकि परम की सत्ता. वास्तविक समय की भांति है।

तुम क्रमागत समय में जीते हो, तो तुम समाचार पत्र के संसार में जीते हो—तब तुम राजनेताओं, पागल, महात्वाकांक्षी लोगों के संसार में जीते हो। या अगर तुम मनोवैज्ञानिक समय में जीते हो, तो तुम पागल, सनकी, या कल्पना, स्वप्न, काव्य के संसार में जीते हो।

एक नया डाक्टर पागलखाने में चारों तरफ देख रहा था। उसे एक रोगी मिला, उस डाक्टर ने रोगी से पूछा, आप कौन हैं?

वह व्यक्ति तन कर खड़ा हो गया और बोला, मैं श्रीमान, नेपोलियन हूं।

डाक्टर ने पूछा : वास्तव में? आपसे यह किसने कहा?

उस रोगी ने कहा : ईश्वर ने बताया, और कौन बता सकता है?

पड़ोस के बिस्तर पर पड़े हुए एक छोटे से आदमी ने ऊपर की ओर देखा और बोला, मैंने नहीं कहा। पागलखानों में जाओ; यह जाने लायक स्थान है। बस लोगों को देखो। वे एक कल्पना के संसार में जी रहे हैं। वे सामूहिक संसार से पूरी तरह बाहर चले गए हैं और वे सार्वभौमिक संसार में नहीं जा पाए हैं, वे मध्य में लटके हैं, वे सीमा रेखा पर हैं।

मनोचिकित्सक यह देख कर बहुत हैरान हुआ कि उसकी रोगी युवा महिला उसके कार्यालय के बाहर खड़ी है और बेहद परेशान दीख रही है। उसे अभी उसकी चिकित्सा करते हुए आधा घंटा ही हुआ था। उसने पूछा. क्या मामला है? वह बोली ओह, मुझे पता नहीं है कि मैं आ रही हूं या जा रही हूं। मनोचिकित्सक ने कहा बिलकुल ठीक यही बात है, इसीलिए तुम मुझसे मिलने आई हो।

ओह। वह बोली : तब आप कौन हैं?

मैं तुम्हारा मूर्ख चिकित्सक हूं झल्ला कर वह बोला।

सीमा रेखा का एक संसार निर्मित हो जाता है। यदि तुम क्रमागत संसार से संपर्क खो देते हो और तुम्हारा संपर्क सार्वभौम, परम से नहीं जुड़ पाता, तो अचानक तुम नहीं जान पाते कि तुम आ रहे हो या जा रहे हो:। सब कुछ संदेहास्पद हो जाता है, हर बात संशय उत्पन्न करती है, तुम स्वयं पर भरोसा नहीं कर सकते, तुम्हें अपनी आंखों पर भरोसा नहीं आता, तुम किसी पर भरोसा नहीं कर पाते। तुम बंद हो जाते हो, सीमित हो जाते हो। तुम झरोखा विहीन अस्तित्व, एक मोनैड, एक इकाई बन जाते हो। यही तो नरक है। तुम स्वयं से बाहर नहीं आ सकते, तुम पंगु हो गए हो।

स्मरण रखना, ध्यानी पागल के संसार से होशपूर्वक गुजरता है—होशपूर्वक। और होशपूर्वक गुजरना शुभ है, क्योंकि यदि तुम होशपूर्वक नहीं गुजरोगे तो इस बात की पूरी संभावना है कि तुम अचेतन में इसके शिकार हो जाओ। इसमें जबरदस्ती धकेले जाने की तुलना में इससे जाग्रत, होशपूर्वक होकर गुजरना श्रेयस्कर है। यदि जीवन तुम्हें इसमें धकेल दे तो तुम इससे बाहर निकलने में समर्थ न हो सकोगे। यह बहुत ही दुष्कर है।

और मनोचिकित्सक तुम्हारी केवल क्रमागत संसार में वापस लौटने में सहायता कर सकता है। सदगुरु और मनोचिकित्सक में यही अंतर है। मनोचिकित्सक उस व्यक्ति को जो ‘मनोवैज्ञानिक’ में खो गया है वापस क्रमागत में—आघात चिकित्सा से, बिजली के झटकों से, इंसुलिन के झटकों सें—क्योंकि तुम अत्याधिक आघातग्रस्त हो—वापस ले आता है। अचानक तुम्हारा स्वप्न तोड़ दिया जाता है। तुम थोड़े से चौकन्ने हो जाते हो, तुम क्रमागत संसार में वापस लौट आते हो।

सदगुरु, यदि तुम मनोवैज्ञानिक समय में खो चुके हो, तो तुम्हें और पीछे ले जाकर तुम्हें सार्वभौम में ले जाता है। अब तुम कभी क्रमागत समय के संसार का हिस्सा नहीं बन पाओगे, बल्कि तुम सार्वभौम के हिस्से हो जाओगे।

‘इससे वर्ग, चरित्र या स्थान से न पहचाने जा सकने वाली समान वस्तुओं में विभेद की योग्यता आती है।’

एक बार तुम परम को जान लो तो तुम्हारे भीतर एक बिलकुल भिन्न प्रकार के शान का उदय होता है। अभी तो तुम वस्तुओं को केवल बाहर से जानते हों—कोई आता है तुम कपड़ों को देखते हो और तुम सोचते हो, हां, वह एक स्त्री है या एक पुरुष है। एक वृक्ष को तुम देखते हो और तुम इसको पहचान लेते हो—यह चीड़ का वृक्ष है, क्योंकि तुम इसके बारे में जानते हो। एक व्यक्ति को तुम देखते हो और उसके स्टेथस्कोप के कारण तुम यह जान लेते हो कि वह चिकित्सक है। लेकिन चीजों के ये बाह्य संकेत हैं। वह चिकित्सक नहीं हो सकता है, वह कोई छद्य वेशधारी भी हो सकता है। और चीड़ का वृक्ष चीड़ का वृक्ष नहीं हो सकता है, वह चीड़ के वृक्ष जैसा दिखाई पड़ सकता है। और वह स्त्री स्त्री नहीं हो सकती है, हो सकता है कि वह अभिनय कर रही हो; वह पुरुष भी हो सकती है, वह ‘शी’ के स्थान पर ‘ही’ भी हो सकती है। तुम इसके बारे में पूर्णत: निश्चित नहीं हो सकते, क्योंकि तुम उसे केवल बाहर से ही जानते हो।

जब समय खो जाता है और शाश्वत तुम्हें चारों ओर से घेर लेता है, जब समय एक प्रक्रिया नहीं रह जाता बल्कि ऊर्जा का एक कुंड, सनातन, अभी हो जाता है, तब तुम वस्तुओं के भीतर प्रवेश करने और बाहर की परिभाषाओं के बिना ज्ञान में समर्थ हो जाते हो।

यही है जो सदगुरु और शिष्य के मध्य घटित होता है। उसे वास्तव में तुमसे पूछने की आवश्यकता नहीं है। वह तुम्हारे परम अस्तित्व से झांक सकता है। तुम्हारे भीतर वह खड़ा हो सकता है—न सिर्फ तुम्हारी आपाद मस्तक देह में, बल्कि तुम्हारे अस्तित्व के भीतर। वह तुम्हारे अंतर्तम शून्य में पूरी तरह समा जाता है। वह तुम बन सकता है और वहां से देख सकता है।

‘यथार्थ के बोध से उत्पन्न उच्चतम ज्ञान, सारी वस्तुओं और प्रक्रियाओं के भूत, भविष्य और वर्तमान से संबंधित समस्त विषयों की तत्‍क्षण पहचान के परे है, और यह वैश्विक प्रक्रिया का अतिक्रमण कर लेता है।’

और प्रक्रिया के संसार का अतिक्रमण कर लेता है, और सभी प्रक्रियाओं के संसार का अतिक्रमण कर लेता है।

तारक सर्व विषय सर्वथाविषयमक्रम चेति विवेकजं शानम्।

आंखों के माध्यम से हम वास्तविकता का केवल एक भाग ही देख सकते हैं। उस भाग के कारण जीवन एक प्रक्रिया जैसा प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, तुम सड़क के किनारे लगे हुए एक वृक्ष के नीचे बैठे हो और सड़क सुनसान है और तभी अचानक एक व्यक्ति बाईं तरफ से सड़क पर प्रकट होता है, वह दाईं दिशा में चला जाता है; कुछ दूरी चलने के बाद पुन: वह निगाह से ओझल हो जाता है। एक व्यक्ति है जो वृक्ष के ऊपर चढ़ा बैठा है; इससे पहले कि वह व्यक्ति तुम्हारे सम्मुख आए, वह उस व्यक्ति को जो वृक्ष पर बैठा है, दिखाई पड़ गया। जब वह व्यक्ति तुम्हारी आंखों से ओझल हो गया है तो उस व्यक्ति के लिए जो वृक्ष पर बैठा हुआ है वह ओझल नहीं हुआ है; किंतु कुछ समय के बाद वह व्यक्ति उसके लिए भी ओझल हो जाएगा। लेकिन कोई हेलीकाप्टर में हो; अब उसकी दृष्टि और दूर जाती है; उस व्यक्ति का चलना जारी रहता है—इससे पहले जब तुम्हें पता लगा कि वह सड़क पर था और उसके बहुत बाद तक जब वह तुम्हारी दृष्टि से ओझल हो गया था।

क्या घटित हो रहा है? वस्तुओं के साथ बिलकुल ठीक यही मामला है। जितना ऊपर तुम उठते हो, जितना तुम सहस्रार के निकट पहुंचते हों—तुम जीवन के वृक्ष पर चढ़ रहे हो। सहस्रार देख पाने के लिए उच्चतम बिंदु है। उससे ऊंची कोई और ऊंचाई नहीं है। सहस्रार से तुम चीजों को देखते हो, हर चीज सतत गतिमान है और गतिशील रहती है। न कोई रुकता है, न कुछ मिटता है।

कठिन है यह बात; यह उतनी ही कठिन है जैसे कोई भौतिकविद चरम इलेक्ट्रान, क्वांटा के बारे में समझाए, कि यह तरंग और कण, दोनों एक साथ, बिंदु और रेखा दोनों हैं।

तुम एक वायुयान में बैठ कर गंगा के ऊपर से उड़ान भर रहे हो, और गंगा बह रही है, यदि मैं तुमसे पूछूं क्या गंगा एक प्रक्रिया है? क्या गंगा प्रवाहित हो रही है या यह कि गंगा है? तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे, दोनों। तुम कहोगे, गंगा है, क्योंकि तुम इसको एक छोर से दूसरे तक एक साथ ही देख सकते हो। तुम गंगा को हिमालय में देख सकते हो, तुम गंगा को मैदानों में देख सकते हो, तुम गंगा को सागर में गिरता हुआ देख सकते हों—एक ही साथ—अतीत, वर्तमान, भविष्य खो गए हैं। एक निश्चित ऊंचाई से देखने पर तुम्हारे लिए पूरी गंगा उपलब्ध है। यह है और फिर भी तुम जानते हो कि यह प्रवाहित हो रही है। यह दोनों है—होना और हो जाना, यह दोनों है, तरंग और कण, बिंदु और रेखा है, और फिर भी एक प्रक्रिया है।

यह विरोधाभासी है, यह विरोधाभासी प्रतीत होता है, क्योंकि हमें नहीं पता कि ऊंचाई से चीजें कैसी दिखाई पड़ती हैं।

सूत्र कहता है : ‘यथार्थ के बोध से उत्पन्न उच्चतम शान अतिक्रमण कर लेता है… ‘

यह सभी द्वैतों का, और प्रक्रिया की ध्रुवीयताओं का, स्थैतिक और गतिशील, तरंग और कण जीवन और मृत्यु का, अतीत और भविष्य का—सभी द्वैतों का, सभी ध्रुवीयताओं का अतिक्रमण कर लेता है। यह परे है।’तारक सर्वविषयं’ —यह शान की सभी वस्तुओं का अतिक्रमण कर लेता है।

‘..….सभी विषयों की तत्‍क्षण पहचान को समाहित किए हुए है…’और इस चेतना के लिए ‘सर्वज्ञ’ शब्द प्रयोग किया जाता है। यह समझने में बहुत कठिन है, इस बात को समझ पाना करीब—करीब असंभव है। इसका अभिप्राय है परम समझ वाला व्यक्ति, यदि वह तुम्हारी ओर देखता है, वह तुमको एक साथ ही—जब तुम मां के गर्भ में थे और तुम्हारा जन्म हो रहा था; इसके साथ ही साथ तुम बड़े हो रहे थे और तुम बच्चे थे, और तुम युवक बन गए और तुमने एक स्त्री के साथ विवाह किया था, और फिर तुम उसके प्रेम में पड़ गए थे; फिर तुम्हारे यहां बच्चों का जन्म हुआ, और तुम के हो गए, और तुम मर गए, और लोग तुम्हारी शवयात्रा में जा रहे हैं—सभी कुछ एक साथ देख लेता है। सभी कुछ एक साथ दिखाई दे जाता है।

समझने में दुरूह है यह बात लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? एक बच्चे का जन्म हो रहा है। इसी क्षण अभी उसकी मृत्यु कैसे हो सकती है? वह या तो बच्चा है, या युवक है या वृद्ध है; या तो गर्भ में है या ताबूत में है, या तो पालने में है या कब में है। क्योंकि यह हमारा विभाजन है, क्योंकि हम सच्चाई को नहीं देख सकते।

सोवियत रूस में एक वैज्ञानिक ने कलियों का इतनी संवेदनशील फिल्म पर चित्र उतारा है, ऐसा प्रयास पहले कभी किसी ने नहीं किया था, और चित्र फूल का आया है। चित्र कली का उतारा गया है लेकिन चित्र में फूल आ गया है। अभी भी यह कली है। क्या हुआ है? क्योंकि साथ ही साथ कली फूल भी है। तुम इसे नहीं देख सकते, क्योंकि तुम केवल खंडों में देखते हो, पहले तुम इसे कली की भांति देखते हो, फिर कुछ पंखुड़ियां खुलती हैं, फिर कुछ और खुलती हैं, फिर कुछ और खुलती हैं, फिर पूरा फूल खिल जाता है। लेकिन एक बहुत संवेदनशील कैमरे से किरलियान फोटोग्राफी ने सत्य में गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान कर दी है। तुम एक कली का चित्र उतार सकते हो और फूल का चित्र आ जाता है। क्योंकि जब कली वहां है, कहीं गहरे में कली के चारों ओर, ऊर्जा के रूप में फूल पहले ही खिल चुका है। उसकी दृश्य पंखुड़ियां इसका अनुगमन करेंगी, लेकिन ऊर्जा क्षेत्र पहले ही खिल चुका है। यह वहां है। और बाद में जब असली फूल खिला; वे यह देख कर हैरान रह गए कि पहले लिया गया चित्र आत्यंतिक रूप से ठीक वही था। बाद में वे इसकी असली फूल से तुलना कर सके जो ठीक पूर्व में उतारे गए चित्र का प्रतिरूप था।

कभी किसी दिन ऐसा संभव हो सकेगा कि हम एक बीज का चित्र उतारें और एक ही चित्र न आए बल्कि अनेक चित्र आ जाएं बीज का, अंकुर का, कलियों का, फूलों का, वृक्ष का, और वृक्ष के गिर जाने का, और उस वृक्ष के मिट जाने का।

‘तारक.. सर्वथाविषयक्रमं.. ‘—सामान्यत हम प्रत्येक चीज को क्रमिक प्रक्रिया में, क्रम में, क्रमबद्ध प्रक्रिया में देखते हैं—एक बच्चा युवा होता है, युवक वृद्ध हो जाता है—धीरे— धीरे, जैसे कि पर्दे पर कोई फिल्म धीरे— धीरे दिखाई जा रही हो। इसी भांति हम इसे देखा करते हैं। लेकिन परम ज्ञान पूर्ण और निरपेक्ष है। एक ही क्षण में सब कुछ उदघाटित हो जाता है।

आमतौर से हम अंधेरी रात में एक छोटी टार्च लेकर घूमते हैं। जब यह टार्च हमें एक वृक्ष दिखाती है, तो दूसरे वृक्ष अंधकार में छिपे होते हैं। जब यह टार्च दूसरे वृक्षों की ओर मुड़ती है, तो पहले वाला वृक्ष अंधकार में चला जाता है। तुम रास्ते का केवल एक भाग ही देख पाते हो। लेकिन परम ज्ञान बिजली चमकने की तरह है अचानक तुम एक दृष्टि में ही सारा जंगल देख लेते हो।

ये सभी बस प्रतीक हैं।.. .हूं. .इन प्रतीकों को बहुत अधिक न फैलाओ, न खींचो। क्या घटता है, बस वे इसका सूक्ष्म संकेत देने के लिए हैं। सच्चाई तो यह है कि इसे कहा ही नहीं जा सकता।

तो क्रमागत समय है—राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र, धन, वस्तुएं बुद्धि, बाजार, वाल स्ट्रीट। मनोवैज्ञानिक समय है—स्वप्न, पुराण, काव्य, प्रेम, कला, भाव, चित्रकारी, नृत्य, नाटक। वास्तविक समय है—अस्तित्व, विज्ञान और धर्म।

विज्ञान अस्तित्व में विषयगत दिशा से प्रवेश करने का प्रयास कर रहा है और र्ज्र,उसी सच्चाई में विषयीगत दिशा से प्रवेश का प्रयास है, और योग दोनों का संश्लेषण है।

‘साइंस’ शब्द सुंदर हैं, इसका अर्थ है : देखने की क्षमता। इसका बिलकुल ठीक अर्थ वही है जो भारतीय शब्द ‘दर्शन’ का अर्थ है। दर्शन शब्द को फिलासफी की भांति अनुवादित नहीं किया जाना चाहिए; इसे और ठीक ढंग से साइंस, देखने की क्षमता के रूप में अनुवादित करना चाहिए।

विज्ञान परम में वस्तु के माध्यम से प्रविष्ट होने का प्रयास कर रहा है बाहर की ओर से। धर्म उसी परम में विषयी के माध्यम से प्रविष्ट होने का प्रयास कर रहा है। और योग उच्चतम संश्लेषण है, योग दोनों है—धर्म और विज्ञान दोनों साथ—साथ।

योग विज्ञान से परे है और धर्म के पार है। योग न हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई—यह धर्मों के परे है। और निसंदेह यह विज्ञान से भी आगे है, क्योंकि यह मनुष्य का विज्ञान है—यह स्वयं वैज्ञानिक का विज्ञान है। यह परम को स्पर्श करता है। यही कारण है, मैं इसे अल्फा और ओमेगा, आदि और अंत, यूनियो मिष्टिका, रहस्यमय मिलन, परम संश्लेषण कहता हूं।

आज इतना ही।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–88

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समलैंगिकता के बारे में सब कुछ—(प्रवचन—आठवां)

प्रश्‍नसार:

1—यदि मृत्यु ही आनी है, तो जीने में क्या सार है?

 2—प्यारे ओशो, क्या आप वास्तव में बस एक मनुष्य हैं, जो सबुद्ध हो गया?

 3—दिव्यता के भीतर कैसे प्रवेश हो?

 4—क्या लोगों को अपनी समलैंगिक प्रवृत्तियों का दमन करना चाहिए?

 

पहला प्रश्न:

 

जीवन के आने वाले दिन, यदि कोई हों तो, तो कितने अज्ञात और अनिश्‍चित है? इन दिनों मेरे भीतर एक गहरी अनुभूति उठ रही है। कि व्‍यक्‍ति को जीवन के शेष वर्षों में बस जीते रहना है। कैसे? क्‍यों? किसलिए? कुछ भी स्‍पष्‍ट नहीं है। किंतु यह अनुभूति गहराती जाती है। इसलिए मैं क्‍या खा रहा हूं, मैं क्‍या कर रहा हूं। चारों और क्‍या घट रहा है। किसी से मुझे पर कोई अंतर नहीं पड़ता।

अपनी आरंभिक बाल्‍यावस्‍था से ही, जब कभी भी मैं किसी शव को देखता था, सदा ही यह विचार मेरे मन में कौंध जाता है यदि मृत्‍यु ही आनी है तो जीने सार क्‍या है?

अपने बचपन के उन दिनों से एक प्रकार कि अरूचि ने मेरे जीवन के सारे ढंग—ढांचे को घेर रखा है। और संभवत: यही वह कारण हो सकता है कि क्‍यों धर्म में मेरी रूचि जगी और आप तक पहुंच सका।

क्‍या ऐसी अनुभूतियां मेरे लिए हानिकारक होने जा रही है?

निश्चित रूप से। वे हानिकारक होने जा रही हैं क्योंकि तुमने धर्म की सारी बात को गलत समझा हुआ है। पहली बात : जीवन अनिश्चित है; इसीलिए यह सुंदर है। यदि यह पूर्व निर्धारित होता तो कौन इसे जीना चाहेगा? यदि हरेक बात पहले से ही तय कर दी गई हो और जिस दिन तुम्हारा जन्म हो रेलवे की समयसारणी की तरह यह तुम्हारे हाथ में थमा दी जाए जिससे कि तुम जान लो और राय— मशविरा कर सको कि कब और कहां क्या होने जा रहा है; ऐसा जीवन जीना कौन चाहेगा? इसमें कोई काव्य नहीं होगा। इसमें कोई खतरे नहीं होगा। इसमें जरा भी जोखिम नहीं होगा। इसमें विकसित होने का कोई अवसर नहीं होगा। यह पूर्णत: निरर्थक होगा। फिर तुम मात्र एक रोबोट होओगे, एक यांत्रिक वस्तु।

यांत्रिकता के जीवन की भविष्यवाणी की जा सकती है किंतु मनुष्य की नहीं, क्योंकि मनुष्य कोई यंत्र नहीं है। उसका जीवन न तो वृक्ष जैसा है, न ही पक्षी जैसा। तुम जितने अधिक जीवंत होते हो उतना ही अधिक भविष्य के बारे में कम कहा जा सकता है। पक्षी के जीवन की तुलना में वृक्ष के जीवन के बारे में अधिक भविष्यवाणी की जा सकती है। मनुष्य के जीवन की तुलना में पक्षी के जीवन के बारे में कम भविष्यवाणी की जा सकती है। और बुद्ध के जीवन के बारे में तुम्हारे जीवन की तुलना में जरा सी भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है।

भविष्यवाणी से मुक्त होने का अर्थ है : स्वतंत्रता। भविष्यवाणी से बंधने का अभिप्राय है : नियतिवाद। यदि तुम्हारे बारे में भविष्यवाणी की जा सके तो तुम आत्मा नहीं हो, तब तुम नहीं हो। भविष्यवाणी से बंधे होने —का अभिप्राय है कि तुम मात्र एक जैविक यांत्रिकता हो।

लेकिन ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी सोच है कि जीवन जीने योग्य नहीं है, क्योंकि इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। ये वे ही लोग हैं जो ज्योतिषियों के पास जाते हैं। ये वे ही लोग हैं जिनको भाग्य बताने वाले मिलते रहते हैं। ये लोग मूर्ख हैं; ज्योतिषी और भाग्य बताने वाले, वे तुम्हारी मूर्खता पर जीते हैं।

पहली बात तो यह है कि यह विचार कि आने वाला कल निश्चित है और जाना जा सकता है, इसकी सारी जीवंतता नष्ट कर देगा। तब तुम्हारा हाल ऐसा होगा जैसे कि तुम एक फिल्म को दूसरी बार देख रहे हो। तुम सब कुछ जानते हो—अब क्या होने जा रहा है, अब क्या होने वाला है। तुम एक ही फिल्म को दूसरी बार, तीसरी बार और चौथी बार देख कर ऊब क्यों जाते हो? यदि तुमको एक ही फिल्म को बार— बार देखने के लिए बाध्य कर दिया जाए, तो तुम पागल हो जाओगे। पहली बार में तुम उत्सुक, जीवंत होते हो। तुम आश्चर्य करते हो कि क्या होने जा रहा है। तुम्हें नहीं पता कि क्या होने वाला है, इसीलिए तुम्हारी रुचि इसमें है, रुचि की लौ प्रज्वलित रहती है।

जीवन एक रहस्य है; इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। लेकिन ऐसे अनेक लोग हैं जिनको भविष्य जाना हुआ जीवन प्रिय लगता है क्योंकि फिर कोई भय नहीं होगा। हर बात निश्चित होगी, किसी चोज के बारे में कोई संदेह नहीं रहेगा।

किंतु क्या वहां विकसित होने का कोई अवसर भी होगा? क्या बिना खतरा उठाए कभी किसी का विकास हो सका है? खतरे के बिना क्या कोई कभी अपनी चेतना को प्रखर कर पाया है? भटक जाने की संभावना के बिना उचित रास्ते पर चलते रहने में क्या कोई सार है? शैतान के विकल्प के बिना क्या परमात्मा को उपलब्ध करने की कोई संभावना है?

विकल्प की आवश्यकता है, विपरीत को तुम्हें आकर्षित और अमित करना चाहिए। चुनाव का जन्म ही तब होता है। तुमको और अधिक संवेदनशील और जीवंत और जागरूक होना पड़ता है। लेकिन यदि सब कुछ पूर्व निश्चित हो और हर बात पहले से ही जानी जा सकती हो, तब जागरूक होने में क्या सार रहा? तुम जागरूक हो या नहीं इसका कोई अंतर नहीं पड़ेगा। जब कि अभी यहां इससे बहुत अधिक अंतर हो जाता है।

मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि तुम जितना अधिक होशपूर्ण होते जाते हो उतना ही तुम्हारे बारे में भविष्यवाणी कम होती जाती है, क्योंकि तुम पदार्थ, जिसके बारे में पहले से ही बताया जा सकता है, से ऊपर और ऊपर तथा दूर और दूर होते जाते हो। हम जानते हैं कि यदि तुम पानी को उष्णता के एक निश्चित तापमान तक गर्म करो तो पानी भाप बन जाता है। यह पहले से बताया जा सकता है। किंतु मनुष्य के साथ यही बात नहीं है। तुम अपमान का कोई माप तय नहीं कर सकते जहां मनुष्य क्रोधित हो जाता है। हर व्यक्ति कितना अनूठा है। एक बुद्ध कभी भी क्रोधित नहीं हो सकते, भले ही तुम किसी सीमा तक अपमान करो।

और यह बात तुम्हें पता है, कभी—कभी तुम जरा से उकसाने पर क्रोधित हो सकते हो, या कभी किसी के उकसाए बिना ही गुस्से से खौलने लगते हो बिना किसी उष्णता के, और कभी बहुत अधिक उकसाए जाने पर भी तुम उत्तेजित नहीं हो पाते हो। यह इस पर निर्भर करता है कि उस क्षण में तुम कितना अच्छापन अनुभव कर रहे थे, उस क्षण तुम कितना बोधपूर्ण अनुभव कर रहे थे।

भिखारी प्रातःकाल भीख मांगने आते हैं, संध्या को नहीं आते क्योंकि वे मनोविज्ञान की एक सरल बात समझ चुके हैं कि प्रातःकाल लोगों में बांटने की भाव—दशा अधिक होती है—वे अधिक जीवंत होशपूर्ण, विश्रांत होते हैं। संध्या तक वे थके और शक्तिहीन और संसार से ऊब चुके होते हैं, उनसे कुछ पाने की आशा रखना असंभव है। जब लोगों को अपने में अच्छी अनुभूति हो रही हो तभी वे बांटते हैं। यह उनकी आंतरिक अनुभूति पर निर्भर है।

स्मरण रखो कि जीवन सुंदर है क्योंकि तुम और—और जीवंत होने में समर्थ हो। कल की चिंता करने की जरूरत नहीं है। आज जीयो। और आने वाले कल को अपना आज मत नष्ट करने दो। और आज इतना मुक्त होकर चलो कि आने वाला कल तुम्हारे लिए और स्वतंत्रता लेकर आए।

कभी भविष्य कथन की बात मत पूछो। खुले रहो। जो कुछ घटता है इसे घटित होने दो, इससे होकर निकल जाओ। यह परमात्मा की भेंट है। इसमें कोई गहरा अर्थ अवश्य होना चाहिए।

‘जीवन के आने वाले दिन, यदि कोई हों तो, कितने अज्ञात और अनिश्चित हैं? इन दिनों मेरे भीतर एक गहरी अनुभूति उठ रही है कि व्यक्ति को जीवन के शेष वर्षों में बस जीते रहना है।…’

‘बस जीना है?’ फिर तो तुम्हारा जीवन एक ऊब बन जाएगा। और तुम इसका अर्थ यह निकाल सकते हो कि यह धार्मिक जीवन है। यह नहीं है। ऊबा हुआ व्यक्ति धार्मिक व्यक्ति नहीं है। आनंदित व्यक्ति ही धार्मिक व्यक्ति है।

लेकिन मैं जानता हूं बहुत से ऊबे हुए लोग धार्मिक होने का दिखावा करते हैं। अनेक लोग जो जीवन में नपुंसक, असृजनात्मक थे, किसी प्रकार की प्रसन्नता के लिए पात्र नहीं थे—जीवन के विरोध में हो गए हैं, जीवन—निषेधक हो गए हैं, और उन्होंने जीवन को निंदित करने, कि जीवन व्यर्थ है, कि इसमें कोई सार नहीं है, कि यह मात्र एक दुर्घटना है, कि यह एक उपद्रव है, इससे बाहर आ जाओ, इसे नष्ट कर दो की एक लंबी परंपरा निर्मित कर दी है। इन लोगों को तुम महात्मा कहते हो, इन्हें तुमने महान संत कहा है। ये बस विक्षिप्त हैं। इनको चिकित्सकीय देखभाल की जरूरत है। इन्हें अस्पताल में भर्ती करने की आवश्यकता हैं। तुम्हारे निन्यानबे प्रतिशत तथाकथित संत विकृत हैं, लेकिन वे अपनी विकृति को इस भांति छिपा रहे हैं कि तुम असली बात नहीं देख सकते।

ईसप की एक कथा है:

एक लोमड़ी अंगूर पाने के लिए कूदने का प्रयास कर रही थी। वे पके हुए और ललचाने वाले थे और उनकी सुगंध लोमड़ी को करीब—करीब पागल किए दे रही थी, लेकिन अंगूरों का गुच्छा उसकी पहुंच से बहुत दूर था। लोमड़ी उछली, और उछली, पहुंच न सकी, असफल रही, फिर उसने चारों ओर देखा— कहीं किसी ने उसकी असफलता को देख तो नहीं लिया है?

एक नन्हा खरगोश एक झाड़ी के नीचे छिपा हुआ था, और उसने कहा : क्या हुआ मौसी? आप अंगूरों तक पहुंच नहीं सकीं?

वह बोली : नहीं, बेटा यह बात नहीं है, अंगूर अभी तक पक नहीं पाए हैं, वे खट्टे हैं।

यही तो है जो तुमने अब तक धर्म के नाम पर जाना है—अंगूर खट्टे हैं—क्योंकि उन लोगों को वे मिल नहीं पाते, वे उन तक पहुंच नहीं सकते। ये लोग असफल हैं।

धर्म का असफलता से कुछ भी लेना—देना नहीं है। यह परितृप्ति, फलित होना, पुष्पित होना, परम ऊंचाई, शिखर है। अब्राहम मैसलो जब कहता है कि धर्म का संबंध ‘शिखर अनुभवों’ से है, तो वह सही है।

लेकिन जरा चर्चों में, आश्रमों में, मंदिरों में बैठे अपने धार्मिक लोगों की सूरतें देखो, उदास ऊबे हुए लंबे चेहरे बस मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब आकर उनको ले जाए। जीवन—निषेधक, जीवन—विरोधी, मतांधतापूर्वक जीवन के विरोध में, और जहां कहीं भी उन्हें जीवन दिखाई देता है वे उसे मार देने और नष्ट करने के लिए आतुर हो जाते हैं। वे तुम्हें चर्च में हंसने की अनुमति नहीं देंगे, वे तुम्हें चर्च में नृत्य न करने देंगे, क्योंकि जीवन का कोई भी लक्षण दिखाई दिया और वे परेशानी में पड़ जाते हैं, क्योंकि जीवन का कोई भी लक्षण दिखाई दिया और वे जान जाते हैं कि हम इससे चूक गए, हम इस तक नहीं पहुंच पाए।

धर्म असफलताओं के लिए नहीं है। यह उनके लिए है जो जीवन में सफल हुए हैं, जिन्होंने जीवन को इसके गहनतम तल तक, इसे इसकी गहराई और ऊंचाई तक, समस्त आयामों में जीया है, और जो इस अनुभव से इतना अधिक समृद्ध हो गए हैं कि वे इसका अतिक्रमण करने को तैयार हैं, ये लोग कभी जीवन—विरोधी नहीं होंगे वे जीवन को स्वीकार करने वाले होंगे। वे कहेंगे, जीवन दिव्य है। वस्तुत: वे कहेंगे, ‘परमात्मा के बारे में सब कुछ भूल जाओ, जीवन परमात्मा है।’ वे प्रेम के विरोध में नहीं होंगे क्योंकि प्रेम जीवन का परम रस है। वे कहेंगे, ‘प्रेम परमात्मा के दिव्य शरीर में संचारित होते हुए रक्त की भांति है। जीवन के लिए प्रेम ठीक ऐसा ही है जैसा कि तुम्हारे शरीर के लिए रक्त। वे इसके विरोध में कैसे हो सकते हैं?’

यदि तुम प्रेम—विरोधी हो जाओ तो तुम सिकुडने लगोगे। वास्तविक रूप से धार्मिक व्यक्ति विस्तीर्ण होता है, फैलता चला जाता है। यह चेतना का फैलना है, सिकुड़ना नहीं।

भारत में हमने परम सत्य को ब्रह्म कहा है।’ब्रह्म’ शब्द का अर्थ है : जो विस्तीर्ण होता चला जाता है, आगे और आगे, और आगे, और इसका कोई अंत नहीं है। यह शब्द ही सुंदर है, इसमें एक गहन अर्थवत्ता है। आगे बढता हुआ विस्तार—जीवन, प्रेम, चेतना का यह अनंत फैलाव, यही तो है परमात्मा।

सावधान रहो, क्योंकि जीवन—निषेधक धर्म बहुत सस्ता है; तुम्हें यह बस ऊब जाने से ही मिल सकता है। यह बहुत सस्ता है, क्योंकि यह तुमको बस असफल होने से ही, बस असृजनात्मक होने से ही, बस आलसी, निराश, उदास होने से मिल सकता है। यह वास्तव में सस्ता है। लेकिन असली धर्म प्रमाणिक धर्म बड़ी कीमत पर मिलता है; तुम्हें जीवन में स्वयं को ही देना होगा। तुम्हें मूल्य चुकाना पड़ेगा। इसे अर्जित किया जाता है, और इसे कठिन पथ से अर्जित किया जाता है। व्यक्ति को जीवन से होकर गुजरना पड़ता है—इसकी उदासी, इसकी प्रसन्नता जानने के लिए; इसकी असफलता, इसकी सफलता जानने के लिए; धूप के दिन और बादलों का मौसम जानने के लिए; गरीबी और अमीरी जानने के लिए; प्रेम को और घृणा को जानने के लिए; जीवन की गहनतम चट्टानी तलहटी नरक को छू पाने के लिए और ऊपर उड़ान भर कर उच्चतम शिखर स्वर्ग को स्पर्श कर पाने के लिए जीवन में से होकर जाना पड़ता है। व्यक्ति को सभी आयामों में, सभी दिशाओं में गति करनी पड़ती है, कुछ भी ढंका हुआ नहीं रहना चाहिए। धर्म है अनावृत करना, यह जीवन से आवरण हटाना है।

और निःसंदेह पीड़ा इसका हिस्सा है। कभी भी केवल हर्ष की भाषा में मत सोचो, अन्यथा शीघ्र ही तुम जीवन से बाहर, इसके संपर्क से परे हो जाओगे। जीवन हर्ष और विषाद दोनों है। वास्तव में बेहतर तो यही होगा कि हम इसको हर्ष—विषाद कहें, इनके बीच और तक अच्छा नहीं लगता, क्योंकि यह बांटता है। हर्ष—विषाद, स्वर्ग—नरक, दिन—रात, सर्दी—गर्मी, प्रभु—शैतान—जीवन विपरीत ध्रुवीयताओं का परम अवसर है। इसे जीयो, साहस करो, खतरे में उतरो, जोखिम लो और तब तुम्हें धार्मिक समझ का एक नितांत भिन्न आयाम उपलब्ध हो जाएगा, जो जीवन के खट्टे और मीठे अनुभवों से आता है।

एक व्यक्ति जिसने केवल मधुर अनुभवों को जाना है और कभी भी कटु अनुभवों को नहीं जाना, अभी मनुष्य कहने योग्य नहीं है, वह अभी भी निर्धन है, धनी नहीं। वह व्यक्ति जिसने प्रेम, इसका सौंदर्य और इसका डर नहीं जाना है; वह व्यक्ति जिसने प्रेम, इसका आनंद और इसका संताप नहीं जाना है; वह व्यक्ति जिसने मिलन को और विरह को भी जाना है; एक व्यक्ति जिसने आगमन को और प्रस्थान को भी जान लिया, उसने बहुत कुछ जान लिया है। वह जो कमजोरी से जीया है, आज नहीं ता कल बीमार पड़ जाएगा और ऊब जाएगा और बोर हो जाएगा।

जीवन एक परम चुनौती है।

इसलिए यदि तुम कहते हो : ‘व्यक्ति को अपने जीवन के शेष वर्षों में बस जीते रहना है।’

फिर ये शेष वर्ष जीवन के नहीं होंगे। तुम अपनी मृत्यु से पूर्व मर चुके होओगे।

मैंने सुना है, एक सुंदर स्त्री स्वर्ग के स्वर्णिम द्वार पर पहुंची। सेंट पीटर भी उसको देख कर कांप उठे। वह स्त्री वास्तव में सुंदर थी, सेंट पीटर भी उसकी आंखों में आंख डाल कर न देख सके। उन्होंने उसकी फाइलें देखना आरंभ कर दीं और उन्होंने कहा : तुम कहां रही हो? तुम क्या करती रही हो? क्या तुम पृथ्वी पर कोई पाप किया था?

उस स्त्री ने कहा : नहीं,’ कभी नहीं।

सेंट पीटर को विश्वास नहीं हुआ। क्या तुम्हारा विवाह हुआ था?

उसने कहा. नहीं, मैं सेक्स में कभी उत्सुक नहीं रही।

क्या तुम कभी किसी पुरुष के साथ रही हो?

वह बोली : नहीं, मैं कुंआरी हूं।

और इसी प्रकार प्रश्नोत्तर होते रहे। सेंट पीटर ने सारे अभिलेख देख लिए, वे सभी कोरे थे। उसने कोई पाप नहीं किया था, लेकिन यदि तुमने कोई पाप न किया हो तो तुम कुछ पवित्र कार्य कैसे कर सकोगे? वे चिंतित हो गए।

उस स्त्री ने पूछा : क्या बात है? मैं एक पवित्र स्त्री हूं।

सेंट पीटर ने कहा : तुम एक गलत खयाल में जीती रही हो। संत हो पाने के लिए व्यक्ति को पापी बनना पड़ता है। तुम्हारा ‘अभिलेख नितांत कोरा है। अब मेरे पास पूछने के लिए केवल एक ही प्रश्न है : तीस सालों में तुम कहा रही हो?

वह बोली : क्या मतलब है आपका?

सेंट पीटर ने कहा: तुम पिछले तीस वर्षों से मरी हुई हों—तुम्हें तो यहां पहले ही आ जाना चाहिए था। जी नहीं पाई हो तुम।

तुम्हारे तथाकथित संतों को भी इसी बात का सामना करना पड़ेगा। वे जीए ही नहीं। और इसे मैं अधार्मिक कहता हूं। इस अवसर को जो परमात्मा ने तुम्हें दिया है, नकारना अधार्मिकता है। इसे उसकी समग्रता— में न जीना अधार्मिकता है। यदि परमात्मा ने तुम्हें इस भांति बनाया है कि तुम्हारे भीतर पाप उठता है, तो बहुत अधिक चिंता मत लो। इसमें कोई अर्थ होना ही चाहिए; इसे तुम्हारे विकास का एक भाग होना चाहिए।

बाइबिल की कहानी सुंदर है। ईश्वर ने अदम से कहा, ‘ज्ञान के वृक्ष का फल मत खाना:।’ उसने अदम के साथ एक चाल खेली। यह निश्चित रूप से उसको उकसाने की एक तरकीब थी। उकसाने का तुम इससे बेहतर उपाय नहीं खोज सकते। ईश्वर का बगीचा बहुत विस्तीर्ण था। यदि अदम पर यह बात छोड़ दी गई होती तो वह उस वृक्ष को अब तक न खोज पाया होता। जरा सोचो। ईश्वर का बगीचा इतना विस्तृत है कि अदम, यदि उसको उसकी अपनी अक्ल के सहारे छोड़ दिया गया होता तो उस वृक्ष को अभी तक न खोज पाया होता। ईश्वर को तो यह बात पता ही थी। ईसाई इसे इस प्रकार से नहीं समझाते हैं, लेकिन मुझे पता है कि ईश्वर ने एक चाल खेली थी। उसने अदम को मूर्ख बनाया। अचानक उसने कहा, ‘याद रहे, इस वृक्ष का फल कभी मत खाना।’यह वृक्ष अदम के मन में एक सतत अटकन बन गया। अब अदम ढंग से सोने में समर्थ न हो पाएगा, रात में वह उस वृक्ष के स्वप्न देखेगा। और जब ईश्वर ने ऐसा कहा है तो इसमें कोई बात अवश्य होना चाहिए। और ईश्वर स्वयं इस वृक्ष से फल खाता है! यह असंभव है। यह उस पिता के समान है जो धूम्रपान करता है और बच्चे से कहे चला जाता है धूम्रपान कभी मत करना, यह बहुत बुरा है, और तुम ऐसा करोगे तो कष्ट उठाओगे।’

निःसंदेह अदम को इसे खाना पड़ा, लेकिन दोषी ईश्वर है। उसे दोषी होना पडेगा, क्योंकि वही सारे मामले का आधार है। इसलिए यदि पाप होता है तो उसे अपराधी होना पड़ेगा, यदि पुण्य होता है तो उसी को इसका कारण होना पड़ेगा। सभी कुछ उसका है। परम गहराई में तुम सदैव वहां उसी को पाओगे। और तभी से वह हंस रहा होगा।

अदम समझ नहीं सका, थोड़ी मनोवैज्ञानिक समझ की जरूरत थी। यह कोई धार्मिक प्रश्न नहीं है, यह एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। और ईश्वर भी शांति से बैठ कर कोई प्रतीक्षा नहीं कर रहा था, क्योंकि हो सकता है अदम बहुत अधिक आज्ञाकारी हो और शायद न खाए; इसीलिए सांप.. .उसको एक वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ी। ईश्वर ने यह अवश्य अनुभव कर लिया होगा कि अदम अत्याधिक विनम्र, आशाकारी अच्छा लड़का प्रतीत होता है, तो उसे एक लड़की ईव और एक सांप को बीच से लाना पड़ा।

सांप ईव को उकसाता है और ईव अदम को उकसाती है। अब यह मामला सरल हो गया। अदम ईव पर उत्तरदायित्व डाल सकता है, ईव सांप पर जिम्मेवारी थोप सकती है। और निःसंदेह सांप बोल नहीं सकते—वे बाइबिल नहीं लिख सकते और वे ईश्वर पर उत्तरदायित्व नहीं डाल सकते। लेकिन उत्तरदायित्व उस ईश्वर का ही है।

एक ही अधर्म है और वह है जीवन को, प्रेम को इनकार करना। और केवल एक ही धर्म है और वह है इसे इसकी समग्रता में स्वीकार करना और निर्भय होकर इसमें संलग्न हो जाना। इसलिए यह दृष्टिकोण हानिकारक है।

‘कैसे? क्यों? किसलिए—कुछ भी स्पष्ट नहीं है।’

लेकिन इसको स्पष्ट क्यों होना चाहिए? पहली बात तो यह है कि तुम यह क्यों चाहते हो कि इसे स्पष्ट होना है। और यदि यह नितांत स्पष्ट हो जाए, तो सारी बात खो जाएगी, सारा खेल खत्म हो जाएगा। यदि हरेक बात अत्याधिक स्पष्ट हो, तो फिर कोई विकल्प नहीं होता। तब तुम भटक नहीं सकते। फिर तुम हमेशा ठीक काम करोगे यदि सब कुछ पूर्णत: स्पष्ट हो। फिर तुम ठोकर नहीं खा सकते, फिर तुम अंधकार में नहीं जा सकते, और परमात्मा से अधिक दूर नहीं जा सकते हो।

लेकिन वह चाहता है कि तुम अधिक दूर जाओ, क्योंकि केवल तभी जब तुम बहुत, बहुत दूर चले गए हो तभी घर वापस लौटने की प्यास जगती है।

वास्तव में आधुनिक मनोविज्ञान बिलकुल ठीक यही कह रहा है कि प्रत्येक बच्चे को मां से दूर जाना पड़ता है। पहले बच्चा गर्भ में है, फिर एक दिन उसे गर्भ से बाहर आना पड़ता है। वह मां से बहुत दूर जाने का आरंभ है। अब वह और अधिक मां का भाग नहीं रहा। फिर गर्भनाल काट दी जाती है, वह स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करना आरंभ कर देता है। लेकिन फिर भी वह मां से, स्तन से चिपकेगा, क्योंकि अब भी वही उसका पूर्ण अस्तित्व है—गर्भ से बाहर आने के बाद भी। लेकिन फिर भी वह मां से चिपकता रहेगा, वह मातृत्व के परिवेश में रहेगा। लेकिन फिर उसे भी विदा होना पड़ेगा। बच्चा बड़ा हो रहा है। एक दिन दूध रुक जाता है, स्तन वापस ले लिया जाता है, और मां बच्चे को और अधिक आत्मनिर्भर होने के लिए बाध्य करती है। अब उसे अपना स्वयं का भोजन चुनना है और उसे अपना स्वयं का भोजन चबाना है। फिर और भी—उसे विद्यालय यां छात्रावास में जाना पड़ता है। फिर और दूर, वह और दूर चला जाता है। फिर एक दिन वह किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाता है; यह अंतिम कदम है।

इसीलिए माताएं अपनी पुत्र—वधुओं को कभी माफ नहीं कर सकती हैं। असंभव। क्योंकि सहारे का आखिरी तिनका भी—उन्होंने उनके पुत्र को पूर्णत: मां से छीन लिया गया है। अब पुत्र संपूर्ण रूप से स्वतंत्र हो गया है। उसका अपना स्वयं का परिवार है, उसने अपनी स्वयं की दुनिया बसा ली है। अब वह मां से और अधिक आसक्त नहीं रहा है।

ठीक—ठीक यही घटना चेतना के संसार में घट रही है। मनुष्य को मां से दूर जाना पड़ता है। और स्मरण रखना कि परमात्मा माता अधिक है पिता के बजाय। मनुष्य का जन्म परमात्मा के गर्भ से हुआ है, तब वही देखभाल करता है।

जरा देखो, वह वृक्षों की अधिक देखभाल, पशुओं की अधिक देखभाल, पक्षियों की अधिक देखभाल करता है—यही तो है गर्भ। ये लोग अभी भी गर्भ के भीतर हैं। मनुष्य के बारे में वह इतना सावधान नहीं है; मनुष्य को स्वतंत्र होना पड़ेगा। क्या तुमने नहीं देखा है कि मनुष्य का जन्म संसार के सबसे असहाय जीव की भांति होता है? क्योंकि परमात्मा अपनी सहायता वापस ले रहा है, स्वयं को हटा ले रहा है। वृक्ष उसके गर्भ में हैं, पक्षी उसके गर्भ में हैं, पशु उसके गर्भ में हैं। वे मनुष्य के पूर्वज हैं।

पुनर्जन्म का, विकास का सारा सिद्धात यही है। पूरब में हम कहते है कि प्रत्येक व्यक्ति इन सभी स्थितियों से होकर गुजर चुका है। कभी तुम शेर थे, कभी तुम कुत्ते थे, कभी तुम एक वृक्ष थे, और एक बार तो तुम चट्टान भी थे। फिर तुम मनुष्य हो गए। मनुष्य का अभिप्राय है कि तुम गर्भ से बाहर आ गए। ईडन का बगीचा परमात्मा का गर्भ है।

अदम को निष्कासित किया गया। हूं—……निष्कासन शब्द अच्छा नहीं है। यदि हमने पूरब में बाइबिल की कहानी लिखी होती, तो हमने कहा होता ईश्वर ने मनुष्य को अपने से अधिक दूर विकसित होने के लिए भेजा। क्योंकि यदि तुम लगातार अपनी मां के चारों ओर घूमते रहो, तो विकसित होना कठिन है। यदि तुम लगातार मां के दूध पर ही जीते रहो, तो विकसित होना असंभव हो जाएगा। तुम बचकाने रहोगे। और तुमको किसी स्त्री के प्रेम में पड़ना पड़ता है, वह भी इतना अधिक कि यदि वह स्त्री कहती है कि अपनी मां की हत्या कर दो, तुम अपनी मा की हत्या करने के बारे में सोचना शुरू कर दोगे। इसी प्रकार से ईव ने अदम को फुसलाया, ‘इस फल को खा लो।’ इस कहानी की .क्या अर्थवत्ता है? अर्थवत्ता यह है कि अदम ने ईश्वर के आदेश के विस्ज ईव की राय को चुना। सरल है यह बात। उसने कहा, ठीक है, उस बूढ़े आदमी को छोड़ दो। चिंता मत लो। उसने मूर्ख ईव की राय को चुन लिया।

और निःसंदेह स्त्रियां बहुत तर्कयुक्त नहीं होती हैं, वे भावुकताओं में जीती हैं। उसे राय दी गई एक सांप द्वारा। हूं…….जरा इसकी असंगतता को तो देखो—बस एक भावुकता। लेकिन जब कोई पत्नी जोर देती है तो पति को बात मानना ही पड़ती है।

अदम को संसार में आगे भेजा गया, निकाला नहीं गया। ईश्वर किसी को कैसे निकाल सकता है? यह असंभव है, उसकी करुणा ऐसा न होने देगी। और तुम्हारे विकास का यह एक हिस्सा है कि तुमको दूर जाना चाहिए और गलतियां करनी चाहिए, क्योंकि केवल तभी धीरे— धीरे तुम बोधपूर्ण, जागरूक हो जाओगे। और तुम्हारी स्वयं की जागरूकता से गलतियां विदा होने लगेंगी, तुम घर वापस आ जाओगे। और तुम ईश्वर को सदैव तुम्हारे स्वागत हेतु तैयार पाओगे।

ईश्वर तुम्हारा स्रोत है, और यह उस सबका स्रोत है जो तुम्हारे साथ घटता है।

मत पूछो, ‘कैसे? क्यों? किसलिए?—कुछ भी स्पष्ट नहीं है।’ हां, इसे उसी ढंग का होना पड़ता है। यदि सब कुछ स्पष्ट हो तो विकसित होने की आवश्यकता हीं नहीं है। क्योंकि कुछ भी स्पष्ट नहीं है तुमको जागरूकता में विकसित होना है जिससे कि चीजें स्पष्ट हो जाएं।

मुल्ला नसरुद्दीन अस्पताल में था। उसको आंख की कुछ तकलीफ थी। एक सप्ताह के बाद डाक्टर ने उससे पूछा. नसरुद्दीन क्या दवाइयों से तुम्हें कुछ फायदा हो रहा है?

उसने कहा : निश्चित तौर से, अब मैं और स्पष्टता से और साफ ढंग से देख सकता हूं। उदाहरण के लिए परिचारिकाएं अब रोज—रोज सामान्य आम रूप—रंग की होती जा रही हैं।

जब तुम स्पष्टता से देख सकते हो तो निःसंदेह परिचारिकाएं और—और आम रंग—रूप की हो जाती हैं। जब तुम्हें साफ न दिखाई देता हो तो हर स्त्री सुंदर होती है।

यदि सब कुछ स्पष्ट हो, तो तुम्हारी आंखें साफ करने की कोई जरूरत ही न रह जाएगी। सारी बात यही है, सारा खेल यही है कि चीजें स्पष्ट नहीं हैं। इसलिए तुमको अपने मन में अधिक स्पष्टता लानी पड़ती है जिससे कि तुम अपने लिए रास्ते का चुनाव कर सको। चीजें एक अराजकता में है। तुमको अपने भीतर जागरूकता लानी पड़ती है ताकि तुम अराजकता में अपना रास्ता चुन सको और उचित ढंग से चल सको। अराजकता वहां समझ—बूझ कर है, इसे वहां होना ही है। शैतान के कारण अराजकता नहीं है वहां यह परमात्मा के कारण है।

यह जिग सा पज़ल, उलझन भरी पहेली, की भांति है। हूं……यदि सब कुछ स्पष्ट है तो पहेली का मतलब ही क्या है न’ एक छोटे बच्चे को तुम जब जिग सा पज़ल देते हो, तो तुम सारे टुकड़ों को मिला देते हो, तुम बच्चे को दिग्म्रमित कर देते हो और फिर तुम बच्चे से कहते हो, अब तुम इसे ठीक से लगाओ। इसे सुव्यवस्थित करने में वह वास्तव में अधिक जागरूक, संलग्न, एकाग्रचित्त, ध्यानपूर्ण हो जाता है। यदि तुम उसे हल की हुई पहेली दे दो, तो उसे इस पहेली को देने में क्या अर्थ है?

यह संसार एक उलझन भरी पहेली है और परमात्मा इसे गड्ड—मड्ड कर हमें दिग्म्रमित करता रहता है। यही तो मैं यहां तुम्हारे साथ कर रहा हूं। किसी प्रकार से तुम अपनी जिग सा पजल को ठीक से जमाने का प्रयास करते हो, मैं पुन: कुछ करता हूं और गड्ड—मड्ड कर देता हूं और तुम्हें दिग्भ्रमित कर देता हूं। क्योंकि जितना तुम्हें पहेली पर कार्य करना पड़ेगा तुम उतना ही अधिक बोधपूर्ण हो जाओगे। तुम्हें अच्छा लगेगा कि मैं तुमको एक निश्चित प्रश्नोत्तरी दे दूं जैसा कि ईसाई लोग अपने अनुयायियों को देते हैं। कुछ लोग मेरे पास आ जाते हैं, मूर्ख लोग हैं वे, वे कहते हैं, आपकी पुस्तकों से जान पाना कि आप क्या चाहते हैं बहुत कठिन है, ओशो। माओत्से तुंग की ‘लाल किताब’ की भांति एक छोटी हाथ में आ सकने वाली जिसे जेब में रखा जा सके, ऐसी एक छोटी पुस्तक बना दीजिए, और यह पुस्तक बिलकुल ठीक—ठीक संक्षिप्त में यह बता दें कि आप क्या चाहते हैं।

मैं तुमको कोई ‘लाल किताब’ नहीं देने जा रहा हूं क्योंकि फिर बात ही क्या बची। तुमने इसे पसंद कर लिया, मामला खत्म, किसी जागरूकता की जरूरत ही नहीं है। तुमने बस लाल किताब में देखा और सब कुछ स्पष्ट हो गया। सभी लाल किताबें जला देने के योग्य हैं। कोई भी चीज जो तुम्हारे जीवन की पहेली को सुलझा देती है, तुम्हारी शत्रु है, क्योंकि पहेली सुलझते ही तुम अचेतनता में छलांग लगा दोगे। पहेली को और जटिल बनाया जाना है। इसीलिए यदि लाओत्सु से काम न चल सके तो मैं पतंजलि को ले आता हूं। यदि पतंजलि से न हो पाए तो मैं बुद्ध को ले आता हूं। यदि वे असफल हों तो जीसस, महावीर। और फिर मैं लोगों को खोज लाता हूं : तिलोपा, नरोपा। किसी ने उनके बारे में अधिक चिंता नहीं की। और मैं तुमको उलझाता चला जाऊंगा।

यदि इस दिग्भ्रम में तुम स्पष्ट हो गए, तुम्हारे चारों ओर की चीजें नहीं.. .स्पष्टता आंतरिक होना चाहिए। स्पष्टताएं दो प्रकार की होती हैं। एक है तुम्हारे चारों ओर की चीजों की व्यवस्था में—आंतरिक सज्जाकार द्वारा फर्नीचर व्यवस्थित कर दिया गया—हर चीज अपने स्थान पर है—लेकिन फिर भी तुम स्पष्ट नहीं हो। चीजें व्यवस्थित हैं और उन्होंने तुमसे इनको स्पष्ट करने का अवसर ले लिया है। फिर एक दूसरी स्पष्टता है—चीजें जैसी वे हैं वैसी ही रहती हैं, लेकिन तुम बोध की प्रगाढ़ता उपलब्ध कर लेते हो। और— और सजग हो जाते हो तुम। तुम चीजों को गहराई से देखते हो, तुम और—और स्पष्टता से देखना आरंभ कर देते हो। चीजें वही हैं लेकिन तुम भिन्न हो। परिवर्तन तुम पर घटा है, संसार में नहीं।

और एक धार्मिक व्यक्ति तथा साम्यवादी, समाजवादी, राजनैतिक व्यक्ति के मध्य यही भेद है। वे सभी संसार को छांट रहे हैं—मार्क्स, माओ, स्टैलिन। वे सभी संसार को, पहेली को जमाने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। वे तुम्हारे लिए भोजन चबा रहे हैं, और वे तुम्हें छोटे बच्चे बनाने का प्रयास कर रहे हैं ताकि तुम राज्य के आश्रय पर जीवित रह सको—और सरकार द्वारा हर चीज स्पष्ट कर दी गई है, हर चीज का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है, और हर चीज को उसके उचित स्थान पर रख दिया गया है, जिससे कि तुम अपने सिर पर बिना कोई चिंता लिए बस घूमो—फिरो।

मैं बाहर के संसार में इस प्रकार के व्यवस्थाकरण के पक्ष में नहीं हूं बाह्य संसार को एक सुंदर अव्यवस्था बना रहना चाहिए जिससे कि तुम्हें अंतस की जागरूकता के लिए संघर्ष करना पड़े। मुझे

आशा है कि तुम इस बात को समझ सकते हो। यदि एक अंधेरी रात में तुम अकेले चल रहे हो, तुम अधिक चौकन्ने होकर, अधिक सावधानी से चलते हो। यदि तुम दिन के पूर्ण प्रकाश में एक राजमार्ग पर चल रहे हो, तो निःसंदेह किसी जागरूकता और बोध की जरूरत नहीं पड़ती है।

क्या कभी तुम. किसी भुतहा मकान में रात में अकेले रुके हो? तुम सो ही न पाओगे। आयन में पेडू से सूखा पत्ता गिरने की हलकी सी आवाज, बस और तुम उछल पड़ोगे। कोई बिल्ली चूहे पर झपटती है और तुम कूद पड़ोगे। जरा सा हवा का झोंका और तुम हाथ में टार्च लेकर खड़े हो जाते हो।

मैंने एक आदमी के बारे में सुना है, जिसने एक चुनौती स्वीकार की और भुतहा घर में रुक गया। उसी समय जब वह विश्राम करने जा रहा था बिस्तर पर बैठे हुए उसने वेटर से जो उसके लिए दूध लेकर आया था, पूछा मुझे एक बात बताओ, क्या पिछले कुछ सालों में यहां कुछ अप्रत्याशित घटा है? उस वेटर ने कहा पिछले बीस साल से तो नहीं।

उस व्यक्ति ने राहत महसूस की—बीस साल पहले कुछ हुआ होगा। फिर वेटर जाने लगा। उसने कहा : ठहरो! जरा मुझे बताओ, बीस साल पहले क्या हुआ था?

वेटर ने कहा. बीस साल पहले एक बहुत अप्रत्याशित घटना घटी। एक व्यक्ति इसी पलंग पर सोया था, .जिस पर आप बैठे हैं, और अगली सुबह वह नाश्ता करने नीचे उतरा। दुबारा कभी ऐसा नहीं हुआ, और इससे पहले भी कभी नहीं हुआ था। हम लोग तो उसका इंतजार भी नहीं कर रहे थे, लेकिन वह सीढ़ियों से उतरता हुआ नीचे आया।

अब क्या तुम इस व्यक्ति के चौकन्ने न रहने के बारे में सोच सकते हो? क्या तुम सोच सकते हो कि इस— आदमी को नींद आई होगी? नींद की गोलियों से भी काम न चलेगा। यदि तुम उसको मारफिया का इंजेक्शन दे दो तो वह भी कार्य न करेगा। उसकी जागृति एक बहुत घनीभूत चीज बन जाएगी।

बुद्ध अपने शिष्यों को सारी रात मरघट में रुकने के लिए भेजा करते थे—बस और जागरूक होने के लिए। क्योंकि जब तुम मरघट में अकेले हो, तुम सो नहीं सकते। वास्तव में जागरूक होने के लिए कोई प्रयास करने की जरूरत ही नहीं है। जागरूकता आसान हो जाती है। यह वास्तव में सुंदर है, तुम्हें भी कभी—कभी ऐसी कोशिश करना चाहिए।

स्पष्टता को तुम्हारे पास तुम्हारी चेतना की आंतरिक गुणवत्ता में आना पड़ेगा, ‘कैसे? क्यों? किसलिए?—कुछ भी स्पष्ट नहीं है।’ यह आत्यंतिक सुंदर बात है, इसको इसी भांति होना चाहिए।

और मैं तुमसे एक बात और कहना चाहता हूं जीवन स्वयं के लिए है। इसका कोई बाह्य मूल्य नहीं है, आंतरिक है यह। जीवन का उद्देश्य कभी मत पूछो, क्योंकि तुमने गलत प्रश्न पूछा है, तुम असंगत प्रश्न पूछते हो। जीवन परम है, उससे परे कुछ भी नहीं है। जीवन स्वयं के लिए जीता है।

गुलाब एक गुलाब है, एक गुलाब ही है—जीवन और अधिक जीवन के लिए जीता है, और अधिक जीवन फिर और अधिक जीवन के लिए जीता है। लेकिन उसमें कोई बाह्य मूल्य नहीं है, तुम ‘क्यों’ का उत्तर नहीं दे सकते।

और तुम इस बात को समझ सकते हो. यदि तुम ‘क्यों’ का उत्तर दे सके, फिर दुबारा प्रश्न खड़ा हो जाएगा। यदि तुम कहो, जीवन का अस्तित्व परमात्मा के लिए है, तो परमात्मा का अस्तित्व किसलिए है? उसके होने का क्या उद्देश्य है? और जब इस पूछताछ को कहीं जाकर रुकना ही है, तो पहले इसको शुरू ही क्यों किया जाए? तुम कहते हो, ‘परमात्मा ने जीवन का सृजन किया? फिर परमात्मा का सृजन किसने किया?’ नहीं, मैं ऐसा नहीं कहता। मैं कहता हूं परमात्मा जीवन है। उसने जीवन का सृजन नहीं किया है, वही जीवन है।

इसलिए यदि तुम नास्तिक हो तो मेरे साथ कोई समस्या नहीं है। हूं…..तुम ‘परमात्मा’ शब्द को छोड़ सकते हो। यह केवल भाषागत प्रश्न है। यदि तुम्हें ‘परमात्मा’ शब्द पसंद हो, अच्छी बात है। यदि तुम्हें पसंद नहीं है, बहुत अच्छी बात है।’जीवन’ से काम चल जाएगा। क्योंकि मैं शब्दों के बारे में चिंता नहीं करता। मैं शब्दों के बारे में तर्क नहीं करता। परम सत्य को तुम किस नाम से पुकारते हो, किसे चिंता है? जीवन, परमात्मा, अल्लाह, राम, कृष्‍ण—या तुम्हारी कल्पना को जो आकृष्ट करे—जिहोवा, ताओ, ये सभी शब्द हैं, किसी ऐसे सूक्ष्म की ओर संकेत कर रहे हैं कि उसकी अभिव्यक्ति असंभव है।

लेकिन यदि तुम मुझसे पूछो, ‘जीवन’ अत्याधिक सुंदर प्रतीत होता है यह।’ईश्वर’ के साथ ही तुम्हें किसी प्रकार के चर्च की बू आती है, और दुर्गंध है यह, यह अच्छी नहीं है।’जीवन’ के साथ तत्कण, पुष्प, वृक्ष, पक्षी…। क्या तुमने अपने मन के प्रतिसंवेदन, प्रतिक्रिया का निरीक्षण किया है? मैं कहता हूं ‘ईश्वर’ सुनते ही तुम्हारे मन में कैथेडूल्स, मनुष्य निर्मित चीजें—पादरी, पोप उभर आते हैं। निःसंदेह बड़ा नाटकीय है यह, लेकिन थोड़ा सा असंगत भी है—उनके लंबे सजावटी चोगे, मुकुट और पाखंड। मैं कहता हू ‘जीवन’ कोई कैथेड्रल, कोई मंदिर तुम्हारी चेतना में नहीं उभरता है। प्रवाहित होती नदियां, खिलते हुए फूल, गाते हुए पक्षी, चमकता हुआ सूर्य, हंसते और दौड़ते हुए बच्चे, प्रेम करते हुए लोग, यह आकाश, यह पृथ्वी।’जीवन’ वास्तव में और सुदर, कम भ्रष्ट है। यह पादरियों के हाथों में नहीं पड़ा है, वे इसके सौंदर्य को नष्ट और भ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हो सके हैं। वे अभी इसको आकार देने के लिए काट—छांट नहीं कर सके हैं, यह अभी भी कृत्रिम न हो सका है। जीवन प्राकृतिक रहा है।

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि यही तो परमात्मा है : परम प्राकृतिक।

कभी मत पूछो जीवन क्यों है, क्योंकि उत्तर कौन देने जा रहा है? जीवन के अतिरिक्त कुछ और है भी नहीं।

और यह मत सोचो कि जब कोई उद्देश्य होगा तो ही तुम्हें जीना होगा, अन्यथा तुम कैसे जी सकोगे? मुझे नहीं दीखती है यह बात। फूल खिलते हैं, वे किसी ‘क्यों’ को नहीं जानते हैं, और वे सुंदरतापूर्वक खिलते हैं। और मैं कल्पना नहीं कर सकता कि यदि उनको सिखाया जाए कि तुम्हारे खिलने का एक उद्देश्य है, तो वे किस प्रकार और अच्छे ढंग से खिलेंगे, मुझे ऐसा नहीं दीखता। वे बस उसी ढंग से खिलते हैं। वे अपनी ओर से महत्तम प्रयास कर रहे हैं। क्या तुम सोचते हो कि यदि कोयल को बता दिया जाए कि गाने का क्या उद्देश्य है, तो वह बेहतर ढंग से गा रही होगी।

मैं सदा से सोचता हूं कि जानवर आदमी पर अवश्य हंस रहे होंगे। मनुष्य के बारे में पशुओं के मध्य कई चुटकुले अवश्य प्रचलित होंगे। मनुष्य को पृथ्वी पर बहुत भद्दी, असंगत घटना होना चाहिए।

एक फूल खिलता है, तो उसे खिलने के लिए किसी उद्देश्य की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन तुम्हें उद्देश्य चाहिए। तुम किसी को प्रेम कर सकते हो, लेकिन क्या उद्देश्य है? प्रेम को किसी उद्देश्य की आवश्यकता है? तो तुम सारी बात से चूक जाओगे। ऐसे भी लोग हैं जो प्रेम भी उद्देश्यपूर्वक करते हैं।

जीवन अर्थशास्त्र नहीं है। यह आंतरिक रूप से मूल्यवान है। और एक बार तुम यह समझ लो, एक महत् उत्कांति तुम्हें घट जाती है। फिर तुम बस श्वास लेते हो, और श्वास लेना बहुत सुंदर, बहुत शांतिदायक, बहुत आशीषमयी हो जाता है। तब हर क्षण स्वयं में अर्थ बन जाता है। अर्थ कहीं बाहर नहीं है। फिर तुम इस क्षण को उसी के लिए जीते हो। तुम गाते हो, क्योंकि तुम्हें गाने से प्रेम है। तुम नृत्य करते हो, क्योंकि नृत्य करना अति सुंदर है। तुम प्रेम करते हो, क्योंकि प्रेम जैसा और कुछ भी नहीं है। यदि तुम उद्देश्य पूछो तब तुम्हारा मन वेश्या का है। वेश्या प्रेम कर सकती है, लेकिन इसमें एक उद्देश्य निहित है। जो सदैव पूछते रहते हैं कि जीवन का क्या उद्देश्य है? उन लोगों के पास वेश्या का मन है। जीवन को जैसा यह है वे स्वीकार नहीं कर सकते हैं। इसको अर्थपूर्ण बनाने के लिए उन्हें कुछ और चाहिए।

जरा समझने का प्रयास करो, प्रत्येक क्षण अपने आप में पर्याप्त है, और प्रत्येक कृत्य अपने आप में परिपूर्ण है; और जो कुछ भी तुम करते हो करना स्वयं में एक गरिमा है। कुछ और नहीं चाहिए।

और तब अचानक तुम मुक्त हो जाते हो। क्योंकि एक व्यक्ति जो उद्देश्य उन्मुख है कभी मुक्त नहीं हो सकता। उद्देश्य सदा भविष्य में होता है। आज तुम किसी ऐसी चीज के लिए जीते हो जो कल होने जा रही है, कौन जाने, तुम ही मर जाओ। फिर तुम एक अतृप्त जीवन जीयोगे, और कल पुन: तुम किसी भविष्य के कल के लिए जीयोगे, क्योंकि प्रत्येक कल आज बन कर आता है और तुमने गलत ढंग से आज को कल के लिए बलिदान करना सीख रखा है।

यदि तुम उद्देश्य के प्रश्न से आसक्त हो चुके हो, तुम पूछते चले जाओगे। चाहे जो कुछ भी हो तुम पूछोगे ‘इसका क्या उद्देश्य है?’ लोग मेरे पास आकर पूछते हैं, आप हमें ध्यान करने को कहते हैं लेकिन क्या उद्देश्य है इसका? ध्यान करने के लिए किस उद्देश्य की आवश्यकता पड़ती है? ध्यान इतना शांत है, आनंद से इतना ओतप्रोत है, किसी और उद्देश्य की आवश्यकता नहीं है। यह किसी और बात के लिए साधन नहीं है। यह स्वयं में साध्य है।

”इसलिए मैं क्या खा रहा हूं मैं क्या कर रहा हूं चारों ओर क्या घट रहा है, किसी से मुझ पर कोई अंतर नहीं पडता।’’ तुम असंवेदनशील और मूढ़ होते जा रहे हो। यह मत समझो कि यह धर्म है। यह बस धीमा आत्मघात है। तुम अपने अस्तित्व को विषाक्त कर रहे हो। और अधिक होशपूर्ण हो जाओ, और अधिक जागरूक हो जाओ, और अधिक संवेदनशील हो जाओ। क्योंकि यदि तुम संवेदनशील नहीं हो, जीवन तुम्हारे पास से होकर गुजरता चला जाएगा और तुम इसको जी न पाओगे, तुम अस्पर्शित रहोगे। जीवन तुम्हारे ऊपर बरसता चला जाएगा और तुम बंद रहोगे, तुम इसके प्रति खुले नहीं होगे। परमात्मा तुमको देता चला जाएगा, लेकिन तुम नहीं लोगे। अधिक संवेदनशील, अधिक प्रत्युत्तरपूर्ण बनो। वीणा के तार जैसे होओ। हूं…..कोई बस इसे छूता भर है, और प्रतिसंवेदना होती है। तार जीवित है। ढीले मत रहो, अन्यथा वहीं प्रतिसंवेदना नहीं होगी। निःसंदेह बहुत तन मत जाओ नहीं तो तुम टूट जाओगे।

धर्म की पूरी कला यही है कैसे संतुलित हुआ जाए? कैसे असंयत न हुआ जाए? वीणा के तारों को सम्यक तनाव में, परिपूर्ण साम्यता में, पूर्ण संतुलन में—न इस ओर, न ही उस ओर, बस ठीक मध्य मे, ठीक—ठीक बीच में रहना चाहिए। तुम इसे छुओ—अभी तुम इसे छू भी न पाए हो—और यह प्रत्युत्तर देता है।

लोग कहते हैं कि यदि एक वीणा के स्वरों को एक गुरु सही रूप से उचित ढंग से बिठा दे और तुम इसको कमरे के एक कोने में रखो, अब तुम एक दूसरी वीणा बजाओ, तो कोने में रखी यह वीणा उस वीणा के संगीत का प्रत्युत्तर देना आरंभ कर देती है। —यह प्रत्युत्तर देती है, क्योंकि झंकार, कंपन, स्पंदन इस तक पहुंचते हैं। जब एक वीणा से अत्यधिक सुंदर कंपन उत्सर्जित होने लगते हैं, इनका प्रसार होता है, ये सारे कमरे को भर देते हैं, और दूसरी वीणा पूर्णत: तैयार, न अधिक ढीली, न अधिक कसी, बस मध्य में, वहां प्रतीक्षारत है, तत्‍क्षण वे सूक्ष्म कंपन इससे टकराते हैं, बिना किसी इंसानी हाथ के स्पर्श के यह प्रत्युत्तर देना आरंभ कर देती है, यह जीवंत हो उठती है। जीने का यही ढंग है।

ध्यान तुमको बस संतुलित, मध्य में, विर्श्रात, शांत, आनंदित करने के लिए है, ताकि जब जीवन तुम्हारे पास आता है… और यह हर क्षण आ रहा है। इसकी लाखों भेंटें हैं, तुम उनसे चूकते जाते हो, क्योंकि तुम तैयार नहीं हो। तुम उस बहरे आदमी के समान हो जो बैठा हो और कोई वीणा बजा रहा है। तुम इससे चूकते रहते हो।

मैंने एक महान संगीतकार के बारे में सुना है, जिसने एक अन्य महान संगीतज्ञ तानसेन के बारे में सुना कि जब तानसेन अपनी वीणा बजाता है, तो उसे सुनने पशु भी एकत्रित हो जाते हैं। वह इसकी सत्यता को जानना चाहता था। वह जंगल में चला गया और उसने अपनी वीणा बजाना आरंभ कर दिया, धीरे— धीरे पशुओं ने आना आरंभ कर दिया। बहुत भीड़ एकत्रित हो गई—हाथी, जेब्रा, चीता, तेंदुआ, लोमडिया, भेडिए—हर प्रकार के पशु छोटे और बड़े, और वे ठगे से रह गए, सम्मोहित हो गए। और तभी अचानक एक घड़ियाल आया, और संगीतकार पर झपटा और उसको एक ही बार में समूचा निगल गया। सारे पशु बहुत क्रोधित हो उठे, उन्होंने कहा. ‘यह क्या बेवकूफी है?’ घड़ियाल ने अपने हाथ कानों पर रखे और बोला. ‘क्या? तुम क्या कह रहे हो?’

घड़ियाल बहरा था। बहरे मत बनो, अंधे मत बनो। जीवंत प्रत्युत्तर देने वाले बनी।

परमात्मा हर पल तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। यदि तुम असंवेदनशील हो गए, तो तुम्हें यह दस्तक नहीं सुनाई पड़ेगी। जीसस कहते हैं खटखटाओ और तुम्हारे लिए द्वार खोल दिया जाएगा। मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हें द्वार पर दस्तक देने की भी आवश्यकता नहीं है, परमात्मा द्वार पर दस्तक दे रहा है। सुनो, वास्तव में तो परमात्मा तुमको हर ओर से खोज रहा है। यह खोज एक पक्षीय नहीं है कि केवल तुम ही खोज रहे हो, वह भी तुम्हें खोज रहा है। लेकिन तुमको उपलब्ध होना पड़ेगा।

और उपलब्ध होने का यह कोई ढंग नहीं है।

‘अपनी आरंभिक बाल्यावस्था से ही, जब कभी भी मैं किसी शव को देखता था, सदा ही यह विचार मेरे मन में कौंध जाता कि यदि मृत्यु ही आनी है तो जीने में क्या सार है?’

इसीलिए तो जीने में सार है, क्योंकि मृत्यु को आना ही है। यदि कोई मृत्यु न होती और तुम यहां सदा, सदा और सदा के लिए रहने वाले होते, जरा सोचो तो क्या होगा। तुम ऊब कर मर जाओगे। तुम मृत्यु के लिए प्रार्थना करना आरंभ कर दोगे।

सिकंदर महान के बारे में एक सुंदर कहानी है। जब वह भारत आया, वह अनेक कारणों से भारत आया था—भारत विजय के लिए, भारत के बुद्धिमान व्यक्तियों से मिलने के लिए और उस कुएं की खोज करने जिसके बारे में उसने सुन रखा था कि यदि तुम इसका पानी पी लो तो तुम अमर हो जाते हो। मुझे नहीं पता कि यह कहानी कहां तक सच है, मैं इसकी गवाही तो नहीं दे सकता, लेकिन यह सुंदर है। और सत्य होने के लिए कहानी को सुंदर होना चाहिए। सौंदर्य के अतिरिक्त कोई और सत्य नहीं है। वह यात्रा करता रहा और उसने अनेक बुद्धिमान व्यक्तियों से पूछा, और अंतत: उसको वह कुआं मिल ही गया। लेकिन वह इस बात से बड़ा हैरान था कि जिन लोगों ने उसे कुएं का रास्ता बताया उनकी इसमें अधिक रुचि नहीं थी। यह एक अविश्वसनीय बात थी। और वह अंतिम व्यक्ति जिसने उसको ठीक—ठीक कुएं तक पहुंचाया, उसको वहां रुक कर सिकंदर की प्रतीक्षा करने में भी रुचि नहीं थी।

सिकंदर ने पूछा. क्या तुम शाश्वत जीवन में उत्सुक नहीं हो? क्या तुम अमर होना नहीं चाहते?

वह व्यक्ति हंसा, वह बोला. मैंने जीवन के बारे में काफी कुछ सीखा है। यह इच्छा बचकाने मनों की उपज है। लेकिन आप इसे पूरा करें।

एक सीढ़ियों वाला रास्ता कुएं की ओर जाता था। वह भीतर गया। वह बस पानी पीने ही जा रहा था कि वहां पर बैठा एक कौआ बोला : ठहरो! एक मिनट सुनो तो। यह मूढ़ता मत करो। मैं इसे कर चुका हूं। अब मैं संताप में हूं क्योंकि मैं मर नहीं सकता। मैं कई हजार वर्ष जी चुका हूं। अब मेरे हृदय में केवल एक ही प्रार्थना है : ईश्वर मरने में मेरी सहायता करो। और अब मैं बुद्धिमान व्यक्तियों को खोजता—फिरता हूं ‘क्या कोई ऐसा कुआं है जो इस मूढ़ता के प्रतिकूल कार्य कर सके? मैं एक मूर्ख कौआ हूं इसलिए मैंने यह हरकत कर डाली। कृपा करें, आप दुबारा सोचें, फिर आप कभी मर नहीं सकेंगे।

ऐसा कहा जाता है कि सिकंदर ने इस पर विचार किया और तुरंत ही उस कुएं से भाग खड़ा हुआ, क्योंकि इस बात की पूरी संभावना थी कि वह प्रलोभन में फंस जाता। उसने पानी नहीं पीयों।

जरा सोचो यदि मृत्यु न हो, जीवन से बहुत कुछ खो जाएगा। विपरीत ध्रुवीयता के बिना सब कुछ फीका, निराश हो जाता है। यह तो ऐसा ही है जैसे कि केवल दिन ही हो और विश्राम करने के लिए कोई रात ही न हो—और बस दिन, और बस दिन ही दिन… और झुलसाने वाली गर्मी, और छिपने का कोई स्थान नहीं, अंधेरे में खो जाने की कोई जगह नहीं, कोई ऐसा स्थान नहीं जहां आराम से सोकर स्वयं को भुलाया जा सके। कठिन होगा यह, यह बहुत दुष्कर और बे—मतलब का होगा। विश्राम की आवश्यकता होती है। मृत्यु विश्राम है।

इसलिए यदि तुमने शवों को मरघट या श्मशान घाट ले जाते हुए देखा है, तो तुमने कुछ खास नहीं देखा। और यदि तुमने सोचा कि अब जीवन अर्थहीन है, तब तुम असली बात से चूक गए। किसी शव को देख कर याद करो कि मृत्यु आ रही है। इस अवसर का जितनी सघनता से संभव हो सके जीवंत होने में उपयोग कर लो, फिर वहां विश्राम है। इस विश्राम को अर्जित करो।

और यह उन बातों में से एक है जो मैं तुम्हें बताना चाहूंगा, यदि तुम अच्छी तरह न जी पाए तो तुम अच्छी तरह मर न पाओगे। तुम्हारी मृत्यु भी बस फीकी होगी। इसमें कोई उत्ताप न होगा, इसमें कोई सौंदर्य न होगा। यदि तुम प्रगाढ़ता से जीते हो, तो तुम प्रगाढ़ता से मरते हो। यदि तुम प्रसन्नतापूर्वक जीते हो, तो तुम प्रसन्नतापूर्वक मरते हो। तुम्हारे जीवन का स्वाद तुम्हारी मृत्यु द्वारा शिखर पर पहुंचा दिया जाता है। मृत्यु एक उत्कर्ष है, उत्थान है। यदि तुम एक सुंदर गीत गा रहे थे, तो मृत्यु उसका आरोह, उच्च्तम शिखर है।

मृत्यु जीवन के विरोध में नहीं है। मृत्यु पृष्ठभूमि है। यह जीवन को और समृद्ध बनाती है। यह जीवन को और जीवंत बनाती है। यह जीवन को चुनौती देती है।

‘अपने बचपन के उन दिनों से, एक प्रकार की अरुचि ने मेरे जीवन के सारे ढंग—ढांचे को घेर रखा है, और संभवत: यही वह कारण हो सकता है कि क्यों धर्म में मेरी रुचि जागी और मैं आप तक पहुंच सका।’

हो सकता है। यह कारण हो सकता है कि तुम क्यों मुझ तक पहुंच सके। लेकिन अब यही कारण होगा कि तुम मुझे समझ पाने में समर्थ न हो पाओगे। यह तुम्हें मेरे द्वार तक ले आया है, किंतु यह तुम्हें मेरे हृदय तक नहीं ला पाएगा।

कृपा करो, अब उसे छोड़ दो, क्योंकि यहां मैं जीवन सिखा रहा हूं। निःसंदेह मैं मृत्यु भी सिखा रहा हूं लेकिन मेरी मृत्यु एक सुंदर सत्य है और तुम्हारा जीवन एक कुरूप तथ्य है। मैं तुमको एक जादुई कीमिया सिखा रहा हूं : मृत्यु को भी किस भांति एक सुंदर अनुभव में रूपांतरित कर लिया जाए। निःसंदेह जब मृत्यु भी सुंदर हो गई है तो जीवन और अधिक सुंदर हो ही जाएगा। सामान्य धातुओं को स्वर्ण में किस भांति बदला जा सके, यही तो मैं यहां सिखा रहा हूं।

हो सकता है कि अपने इन विचारों के कारण तुम यहां आ गए हो, लेकिन अब उन्हें त्याग दो, अन्यथा वे तुम्हारे और मेरे मध्य में अवरोध हो जाएगे।

प्रश्न: प्‍यारे ओशो, क्या आप वास्तव में बस एक मनुष्‍य है, जो संबुद्ध गया?

मामला बस जरा उलटा है; एक ईश्वर जो खो गया था और जिसने स्वयं को पुन: पा लिया, एक परमात्मा जिसने विश्राम किया और गहरी नींद सोया और मनुष्य होने का स्वप्न देखा और अब जागा हुआ है। और यही तुम्हारे बारे में भी सच है। तुम मात्र मनुष्य नहीं हो, तुम सभी परमात्मा हो, तुम केवल स्वप्न देख रहे हो कि तुम मनुष्य हो। यह कोई ऐसा नहीं है कि मनुष्य को परमात्मा हो जाना है, यह तो परमात्मा को ही जरा सा जागना है, तभी मनुष्य होने का स्वप्न खो जाता है।

पूर्वीय ढंग और पश्चिमी ढंग में यही अंतर है। पश्चिम उच्चतम को निम्नतम से समझाने का प्रयास करता है। यदि तुम्हें समाधि लग जाए—उदाहरण के लिए रामकृष्ण समाधिस्थ हो जाते है, असीम में खो जाते हैं—फ्रायड से पूछो, वह कहेगा कि यह दमित कामवासना की एक अभिव्यक्ति है। समाधि को कामवासना द्वारा समझाया जाना है। मुझसे कामवासना के बारे में पूछो, और मैं कहूंगा कि यह समाधि की पहली झलक है।

उच्चतम को निम्नतम तक नहीं गिराया जाना है। निम्नतम को ऊपर उठा कर उच्चतम तक ले जाना है।

मार्क्स से पूछो और वह कहेगा कि चेतना और कुछ नहीं बल्कि पदार्थ का उपउत्पादन है। मुझसे पूछो, मैं कहूंगा पदार्थ और कुछ नहीं बल्कि चेतना का आभास है।

पूरब में हमने कीचड़ को, उस गंदी कीचड़ को कमल द्वारा समझाने का प्रयास किया है। पश्चिम में तुमने कमल को उस गंदी कीचड़ के द्वारा समझाने का प्रयास किया जिससे वह आता है। और इससे महत् अंतर पड़ जाता है। जब तुम कमल को उस गंदी कीचड़ के द्वारा समझाने का प्रयास करते हो जिससे यह आया है, तो कमल खो जाता है, तुम्हारे हाथ में केवल गंदी कीचड़ ही बचती है। सारा सौंदर्य, सारी महत्ता, सारा सत्य खो जाता है, तुम्हारे हाथ में मात्र गंदगी ही रह जाती है। प्रत्येक बात को निम्नतम तक गिराया जा सकता है, क्योंकि उच्चतम और निम्नतम परस्पर संयुक्त हैं। सीढ़ी का ऊपर वाला पायदान सबसे नीचे वाले पायदान से जुड़ा हुआ है। इसलिए इसमें कुछ भी गलत नहीं प्रतीत होता है, लेकिन यहां बहुत कुछ अंतर पड़ जाता है, जिसे समझ लेना महत्वपूर्ण है।

यदि तुम गंदी कीचड़ को कमल द्वारा परिभाषित करते हो और तुम कहते हो, जब इस गंदी कीचड़ से कमल का उद्भव हो सकता है, तो यह गंदी कीचड़ भी वास्तव में गंदी नहीं है, वरना इसमें से कमल का जन्म कैसे हो सकता है? कमल इसके भीतर छिपा हुआ है। हम भले ही इसमें कमल को न देख सकें— यह हमारे देख पाने की सीमा हैं—यदि तुम कमल के द्वारा गंदी कीचड़ की व्याख्या करोगे, तो गंदी कीचड़ खो जाती है : तुम्हारे हाथ कमल के फूलों से भर जाते हैं।

अब चुनाव तुम्हारे हाथ में है। पूरब तुम्हें अचानक समृद्ध, श्रेष्ठ, दिव्य बना देता है। पश्चिम तुम्हें अचानक बहुत साधारण, पार्थिव बना देता है, यह तुम्हें घटा कर वस्तुएं बना देता है और मनुष्यों में जो भी शानदार है वह शक, संदेह के घेरे में आ जाता है।

स्मरण रखो, तुम परमात्मा से परमात्मा तक का विकास हो। इनके मध्य में यह संसार है। यही कारण है कि हम इसे स्वप्न कहते हैं। माया, स्वप्न : परमात्मा स्वप्न देखता है कि वह खो गया है। इसका मजा लो, कुछ भी गलत नहीं है इसमें। आज नहीं तो कल तुम जाग जाओगे और तुम हंसोगे; यह एक स्वप्न था।

यदि तुम मनोविश्लेषकों से परमात्मा के बारे में पूछो, वे कहेंगे, यह तुम्हारी कल्पना की कोई बात है। तुम शंकर से पूछो, तुम पूरब के संतों से पूछो, और वे कहेंगे कि तुम परमात्मा की कल्पना हो। आत्यंतिक सुंदर है। तुम परमात्मा की कल्पना में कुछ हो, परमात्मा तुम्हारी कल्पना कर रहा है, तुम्हारा स्वप्न देख रहा है। फ्रायड से पूछो, वह कहेगा, परमात्मा? तुम स्वप्न देख रहे हो, तुम किसी चीज की कल्पना कर रहे हो।

दोनों सत्य हैं। और चुनाव तुम्हारे हाथ में है। यदि तुम सदा के लिए निराशा, संताप, पीड़ा में रहना चाहते हो—तो पाश्चात्य ढंग को चुन लो। यदि तुम बिना किसी शर्त के खिलना और प्रमुदित होना चाहते हो—तो पूर्वीय ढंग चुनो।

प्रश्न:

ओशो, आप बेहतरीन कातिल है। आपके साथ एक साल गुजरा है, और धीमे—धीमें आपका जहर मेरे मन में काम कर रहा है। जब कभी भी कुरूप और गंदा दिखने का बहाना करता हूं, सभी कुछ तकलीफ देह हो जाता है। लेकिन अब इस बेदह ऊहापोह में दिव्‍यता के अंदर आने के लिए एक छोटा सा दरवाजा कैसे पाऊं?

सकी चिंता दिव्यता को करने दो। तुम चिंता क्यों करते हो? तुम तो बस स्वयं हो जाओ। वह अपना रास्ता खोज लेगी।

और तुम सही हो, मैं कातिल हूं लगभग एक हत्यारा।

एक अस्पताल में कोई व्यक्ति मर रहा था, और उसने डाक्टर से कहा : ‘डाक्टर साहब मुझे बहुत अधिक चिंता लगी रहती है, ऐसा लगता जैसे कि मैं मर रहा हूं।

डाक्टर ने कहा. चिंता मत करो, इसको मुझ पर छोड़ दो।

यही तो मैं तुमसे कहता हूं चिंता मत करो, इसको मुझ पर छोड़ दो। मैं तुमको मार दूंगा। क्योंकि तुम्हें नई स्वतंत्रता, जीवन को एक नई शैली देने का यही एक मात्र उपाय है। मैं तुम्हें सूली देता हूं ताकि तुम्हारा पुनर्जन्म हो सके।

प्रश्न:

 

आप सेक्‍स के बारे में बहुत सी बात रहे हो। जो अच्‍छी बात है, क्‍योंकि एक लंबे समय से इसको अंधेरे में रखा गया था। जो भी हो मैंने व्‍यक्‍तिगत रूप से आपको कभी समलैंगिकता के बारे में बोलते नहीं सुना है। केवल बहुत ही संक्षेप में और वस्‍तुत: आप इसको निम्‍नतम पर रखते रहे है। कृपया क्‍या आप इसके बारे में बात करेंगे, क्‍योंकि ‘यह विकृत कृत्‍य’ जैसा कि आप इसे कहते है, चाहे जो भी इसका कारण हो, समलैंगिकता संसार में थी और है। क्‍या चंद्र पक्ष का सूर्य पक्ष से संगम नहीं हो सकता, फिर शरीर चाहे जो हो? क्‍या तंत्र केवल विषमलिंगी लोगों के लिए ही है? क्‍या लोगों को अपनी समलैंगिक प्रवृतियों का दमन करना चाहिए?

हली बात, प्रश्नकर्ता ने अपने प्रश्न पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इससे स्पष्ट होता है कि वह भी इसके बारे में अपराध—बोध से ग्रस्त है। वह नहीं चाहता कि उसका नाम जाना जाए। प्रश्न के साथ हस्ताक्षर न करके उसने समलैंगिकता को पहले ही निदिंत कर दिया है।

मैं किसी बात के विरोध में नहीं हूं लेकिन मैं अनेक बातों के पक्ष में हूं। मैं पुन: कहता हूं मैं किसी बात के विरोध में नहीं हूं लेकिन मैं अनेक बातों के पक्ष में हूं। मैं कीचड़ के विरोध में नहीं हूं लेकिन मैं कमल के पक्ष में हूं। सेक्स का रूपांतरण किया जाना चाहिए। यदि इसका रूपांतरण न हो, तो तुम अपने अस्तित्व की निम्नतम पायदान पर बने रहोगे। अत: समझने के लिए पहली बात है, मैं सेक्स के बारे में बात करता हूं जिससे कि तुम इसको समझ सको और इसका अतिक्रमण कर सको।

समलैंगिकता तो विषमलैंगिकता से भी निम्नतल पर है। इसमें गलत कुछ भी नहीं है, तुम्हारी सीढ़ी में अभी एक निचली पायदान और है। उसका भी अतिक्रमण किया जाना है। इसलिए पहली बात, सेक्स का अतिक्रमण किया जाना है। याद करने के लिए दूसरी बात, समलैंगिकता और नीचे की पायदान है।

प्रत्येक बच्चा आत्मलिगी जन्म लेता है, हर बच्चा आत्मरति दशा में है। यह एक अवस्था है, बच्चे को उससे पार जाना है। हर बच्चा अपने यौन—अंगों से खेलना पसंद करता है। और यह सुखदायक है इसमें गलत कुछ भी नहीं है, लेकिन यह बचकाना है। यह सेक्स की पहली सीख है, एक पूर्व तैयारी, तैयार हो जाना, तैयारी है। लेकिन यदि तुम पैंतीस, चालीस, साठ वर्ष के हो गए हो और भी आत्मरति दशा में हो, तो कुछ गड़बड़ है।

जब मैं कहता हूं कुछ गड़बड़ है, तो मेरा अभिप्राय मात्र यही है कि तुम विकसित होने में समर्थ नहीं हो सके हो, तुम्हारी मानसिक आयु कम रह गई है।

आत्मरति की अवस्था के बाद, जिसे मैं आत्मलिंगी कहता हूं बालक समलिंगी हो जाता है। दस वर्ष की आयु के आस—पास बालक समलिंगी हो जाता है। वह उन शरीरों में अधिक उत्सुक हो उठता है जो उसके शरीर जैसे हैं। यह एक स्वाभाविक विकास है। पहले वह अपने स्वयं के शरीर में उत्सुक था, अब वह शरीरों में रुचि रखता है जो उसके समान है—लड़का लड़कों में रुचि लेता है, एक लड़की लड़कियों में रुचि लेती है। यह एक स्वाभाविक अवस्था है। लेकिन लड़का स्वयं से दूर जा रहा है, अपनी काम—ऊर्जा को, कामेच्छा को, अन्य लडकों की ओर गतिशील कर रहा है। और यह प्राकृतिक लगता है। क्योंकि अन्य लड़के उसे अन्य लड़कियों की तुलना में अपने समान लगते हैं। लेकिन उसने एक कदम उठा लिया है; वह समलिंगी हो गया है।, ठीक है, कुछ भी गलत नहीं है इसमें, लेकिन यदि साठ वर्ष की आयु में अब भी तुम समलैंगिक हो, तो तुम मंदबुद्धि हो, तुममें लड़कपन है। इसीलिए समलैंगिक लोगों में लड़कपन वाला ढंग कायम रहता है और वे खुश दीखते हैं। यह निश्चित है कि वे विषमलिंगियो से अधिक खुश दिखाई पड़ते हैं। उनके चेहरों में भी लड़कपन की छाप रहती है। अपनी समलैंगिकता को छिपाना बहुत कठिन है तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी आंखें, सब कुछ इसे प्रदर्शित करता है। तुम लड़कपन में रुके रहते हो। इससे होकर गुजर जाना शुभ है, लेकिन इससे आसक्त होना गलत है।

फिर तीसरी अवस्था आती है, विषमलैंगिकता। लड़का लडकी में रुचि रखने लगता है, लड़की लड़के में रुचि रखने लगती है। जहां तक सेक्स जा सकता है यह उच्चतम अवस्था है, लेकिन इसकी भी एक सीमा है। यदि तुम बयालीस वर्ष के बाद भी सेक्स में रुचि रखते हो तो किसी बात से चूक रहे हो तुम। फिर तुमने इसको ढंग से नहीं जीया है, वरना जिस समय तुम बयालीस वर्ष के हो…। चौदह वर्ष की आयु में तुम वास्तव में काम संबंध में, बच्चे को जन्माने में, माता या पिता बन पाने में सक्षम हो जाते हो। तुम्हें तैयार करने में चौदह वर्ष लगते हैं। दूसरे चौदह वर्ष बाद अट्ठाइस वर्ष के आस—पास तुम अपनी कामुकता के शिखर पर होते हो। अगले चौदह वर्ष बाद, बयालीस वर्ष की आयु में तुम वापस लौटने लगते हो। वर्तुल पूरा हो गया है। जुग ने कहा है, ‘चालीस वर्ष की आयु के बाद जो भी मेरे पास आता है, उसकी समस्या धार्मिक है।’ यदि बयालीस वर्ष की आयु के बाद भी तुम कामवासना को लेकर परेशान हो और समस्या ग्रस्त हो, तो तुम्हारे जीवन में कही चूक हो गई है।

इसके चौदह वर्ष बाद, छप्पन वर्ष की आयु में व्यक्ति काम से बस मुक्त हो जाता है। और चौदह वर्ष, छप्पन से सत्तर तक पुन: दूसरा बचपन। मृत्यु से पूर्व तुमको उसी बिंदु पर पहुंचना पड़ता है, जैसे कि तुम जन्म के समय थे, वर्तुल पूरा हो गया, बच्चे हो गए तुम। जीसस जब कहते हैं. ‘जब तक कि तुम बच्चे जैसे न हो जाओ, तुम मेरे परमात्मा के राज्य में प्रवेश न कर सकोगे।’ तो उनका यही अभिप्राय है। यह करीब—करीब सत्तर वर्ष का वर्तुल है। यदि तुम अस्सी वर्ष या सौ वर्ष जीते हो तो इसमें अंतर पड़ जाएगा, फिर तुम उस हिसाब से बांट सकते हो।

मैं किसी बात के विरुद्ध नहीं हूं लेकिन मैं तुम्हारी किसी स्थान से चिपक जाने में सहायता भी नहीं करूंगा। चलते रहो, चलते रहो, किसी स्थान से आसक्त मत हो जाओ। अवसर का उपयोग कर लो, लेकिन रुको मत।

कुछ कहानियां:

एक परेशान दीख रहे व्यक्ति ने लड़खड़ाते हुए एक मनोचिकित्सक के कक्ष में प्रवेश किया और बोला डाक्टर. साहब आपको मेरी सहायता करनी होगी। प्रत्येक रात्रि मुझे स्वप्न आता है कि एक वीरान टापू पर मैं एक दर्जन सुनहरे, एक दर्जन काले और एक दर्जन लाल बालों वाली सुंदरियों, जिनमें प्रत्येक एक से बढ़ कर एक सुंदर हैं, के साथ रह रहा हूं।

तुम तो संसार के सर्वाधिक भाग्यशाली व्यक्ति हो, डाक्टर ने कहा, अब मेरी मदद तुम्हें किसलिए चाहिए?

मेरी समस्या, रोगी ने कहा, यह है कि स्वप्न में मैं पुरुष होता हूं।

इसे सेक्स गए तुम? वरना मैं एक चुटकुला और सुनाता हूं।

सेना के दो अवकाश प्राप्त कर्नल अपने क्लब में बैठे हुए बातें कर रहे थे।

क्या तुमने के कार्सटेयर्स के बारे में कुछ सुना है? पहले ने पूछा।

नहीं तो, क्या हुआ उसे? दूसरे ने पूछा।

उसको भारत में एक महाराजा के सैन्य सलाहकार के रूप में नौकरी मिल गई। एक दिन वह जंगल में भाग गया और वहीं का निवासी हो गया। अब वह एक वृक्ष पर बंदर के साथ रहता है।

अरे भगवान। दूसरा कर्नल आश्चर्य से बोला, यह बंदर है या बंदरिया?

निःसंदेह बंदरिया ही है। के कार्सटेयर्स के शौक विचित्र हैं।

समलैंगिकता मंदमति अवस्था है, लेकिन पश्चिम में यह और— और अधिक प्रभावी होती जा रही है। इसके कारण हैं, मैं तुम्हें उनमें से कुछ बताना चाहूंगा।

अपनी जंगली दशा में कोई पशु कभी समलैंगिक नहीं होता, लेकिन चिड़ियाघर में वे समलैंगिक हो जाते हैं। अपनी जंगली दशाओं में पशु कभी भी समलिंगी नहीं होते, लेकिन चिड़ियाघरों में जहां वे स्वतंत्र नहीं हैं, और उनके पास आवश्यक स्थान नहीं है, और वहां बहुत अधिक भीड़ में जीते हुए वे समलिंगी बन जाते हैं। यह संसार बहुत भीड़ भरा हुआ जा रहा है, यह चिड़ियाघर जैसा अधिक लगता है, सारे नैसर्गिक विकास खो रहे हैं और लोग अत्याधिक तनावग्रस्त होते जा रहे हैं। समलैंगिकता के बढ़ते जाने का एक कारण यह है।

दूसरी बात, पश्चिम में सेक्स को प्रतिबद्धता की तुलना में मजे के रूप में अधिक सोचा जाता है। व्यक्ति अस्थायी संबंध रखना चाहता है। किसी स्त्री के साथ संबद्ध हो जाना मुसीबत में फंस जाना है। एक स्त्री के साथ जीते रहने का अभिप्राय है गहरी संलग्नता—बच्चे, परिवार, नौकरी, मकान, कार और हजारों चीजें साथ में चली आती है। एक बार स्त्री आ जाए, सारा संसार उसके पीछे चला आता है। पाश्चात्य मन संलग्न होने से और— और भयभीत होता जा रहा है, लोग असंलग्न रहना पसंद करते हैं। समलैंगिक संबंधों में असंलग्न रह पाना विषमलिंगी संबंधों की तुलना में अधिक सरल है। कोई बच्चे नहीं, और तुरंत ही प्रतिबद्धता लगभग नहीं के बराबर हो जाती है।

तीसरा कारण. पश्चिम में नारी मुक्ति आंदोलन, कि पुरुषों ने अब तक स्त्रियों का दमन किया है, के कारण स्त्रियां समलैंगिक, लेसबियन होती जा रही हैं। और पुरुष ने सताया है, यह अब तक की बड़ी से बड़ी दासता रही है। स्त्रियों के समान कोई वर्ग जुल्म का इस कदर शिकार नहीं हुआ है। अब उसकी प्रतिक्रिया, बगावत हो रही है। पश्चिमी महिलाओं के संगठन हैं जो लेसबियनवाद, समलैंगिकता को प्रोत्साहित करते हैं—पुरुषों के साथ के सारे संबंधों से बाहर निकल आना है। शत्रु को प्रेम करना भूल जाओ। पुरुष शत्रु हैं; पुरुष से हर प्रकार के संबंधों से हट जाना है। स्त्री को प्रेम करना बेहतर है, स्त्री स्त्री से प्रेम करती है।

स्त्रियां और—और आक्रामक होती जा रही हैं। पुरुष उनसे संबंध रखने से और—और भयभीत होता जा रहा है।

ये परिस्थितियां समलैंगिकता को उत्पन्न कर रही हैं, लेकिन यह एक विकृति है। यदि तुम इसमें हो, मैं तुम्हारी निंदा नहीं करता, मैं केवल यह कहता हूं कि अपनी अनुभूतियों में गहरे उतरो, और अधिक ध्यान करो, और धीरे— धीरे तुम देखोगे कि तुम्हारी समलैंगिकता विषमलैंगिकता में परिवर्तित हो रही है। यदि तुम आत्मरति अवस्था में हो, तो मैं चाहूंगा कि तुम समलिंगी हो जाओ, बेहतर है यह। यदि तुम समलैंगिक हो, तो मैं चाहूंगा कि तुम विषमलिंगी हो जाओ, यह बेहतर है। यदि तुम पहले से ही विषमलिंगी हो, तो मैं चाहूंगा कि तुम ब्रह्मचारी हो जाओ, यह बेहतर है। लेकिन आगे बढ़ते रहो।

मैं किसी बात की निंदा नहीं करता हूं।

प्रश्नकर्ता कहता है. ‘…..समलैंगिकता संसार में थी और है।’

ठीक है यह बात। ट्यूबरक्लोसिस भी थी और अब भी है, कैंसर भी, लेकिन यह तो इसके लिए कोई तर्क न हुआ। वास्तविक रूप से बेहतर संसार और—और विषमलिंगी हो जाएगा। क्यों? क्योंकि स्त्री और पुरुष या यिन और यांग जब मिलते हैं वर्तुल पूर्ण हो जाता है, जैसे कि ऋणात्मक विद्युत और धनात्मक विद्युत मिलती है और वर्तुल पूर्ण हो जाता है। जब पुरुष पुरुष से मिलता है, यह ऋणात्मक विद्युत का ऋणात्मक विद्युत से मिलना है या धनात्मक विद्युत का धनात्मक विद्युत से मिलना है, इससे आंतरिक ऊर्जा का वर्तुल निर्मित नहीं होगा। यह तुमको अधूरा छोड़ देगा। यह कभी तृप्तिदायी नहीं होगा। समझ लो, यह सुविधापूर्ण हो सकता है। यह सुविधापूर्ण हो सकता है किंतु यह कभी तृप्तिदायी नहीं हो सकता है। और सुविधा नहीं, तृप्ति लक्ष्य है।

याद रखो कि यदि अपने अंतस में तुमको एक दिन कामवासना के पार जाने की चाह है, कि ब्रह्मचर्य को उदित होना है, कि शुद्धतम कामरहितता उपजनी है, तो स्वाभाविक ढंग से चलना श्रेष्ठ है। मेरी समझ यही है कि विषमलिंगी के लिए समलिंगी की तुलना में कामवासना के पार जाना सरलतर है। क्योंकि एक पायदान कम है, तो समलिंगी के लिए यहां अधिक श्रम और अनावश्यक प्रयास की आवश्यकता होगी।

लेकिन फिर भी मैं किसी बात के विरोध में नहीं हूं। यदि तुम्हें अच्छा लगता है तो इसका निर्णय तुम्हीं को करना पड़ता है। मैं इसे कोई पाप नहीं कहता, और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि यदि तुम समलैंगिक हो तो तुमको नरक में फेंक दिया जाएगा। मूढ़तापूर्ण है यह सब। यदि तुम समलिंगी हो तो तुम किसी बात से—वह जब यिन—यांग का मिलन होती है, वह अनुभव जब धनात्मक से ऋणात्मक मिलता है, रात—दिन मिलते हैं, से चूक जाओगे। तुम किसी बात को खो, दोगे। ऐसा नहीं है कि तुमको नरक में फेंक दिया जाएगा, लेकिन तुम अपने जीवन से कुछ ऐसा खो दोगे जो स्वर्ग का है।

लेकिन फिर भी निर्णय तुमको ही करना पड़ेगा। मैं तुम्हें कोई धर्माज्ञा नहीं दे रहा हूं।

असली बात तो यह है कि धार्मिक आशाओं ने वह परिस्थिति निर्मित की है, जिसमें पहली बार समलैंगिकता का जन्म हुआ था। यह जानकर तुमको आश्चर्य होगा कि संसार में समलैंगिकता का कारण धर्म रहे हैं, क्योंकि उन्होंने जोर दिया कि पुरुष साधुओं को एक मोनेस्ट्री में रहना पडेगा, स्त्री साध्वियों को एक दूसरी मोनेस्ट्री में रहना होगा और वे परस्पर मिल नहीं सकते। बौद्धों, जैनों, ईसाइयों, सभी ने हजारों पुरुषों को एक झुंड में और हजारों स्त्रियों को एक दूसरे झुंड में रहने के लिए बाध्य कर दिया था, और उन दोनों के बीच के सारे सेतु तोड़ दिए थे। वे समलैंगिकता के लिए पहली उपजाऊ भूमि थे। उन्हीं ने यह परिस्थिति निर्मित की थी, क्योंकि काम एक ऐसी गहरी इच्छा है कि यदि तुम इसके प्राकृतिक निकास द्वार को रोक दो तो यह विकृत हो जाता है। किसी भी प्रकार से अपने को अभिव्यक्त करने का ढंग और उपाय खोज लेता है।

सेना में लोग आसानी से समलैंगिक हो जाते हैं। लड़कों के छात्रावासों में और लड़कियों के छात्रावासों में लोग सरलता से समलिंगी बन जाते हैं। यदि संसार से समलैंगिकता को मिटाना हो तो पुरुष और स्त्री के बीच के सभी अवरोध समाप्त करने होंगे। छात्रावासों को दोनों, लड़कों और लड़कियों के लिए एक साथ होना चाहिए। और सेना को केवल पुरुषों की नहीं होना चाहिए, इसमें स्त्रियों को भी भर्ती करना चाहिए। और क्लब केवल लड़कों के नहीं होना चाहिए। यह खतरनाक है। और मोनेस्ट्रियों को उभयलिंगी होना चाहिए, वरना समलैंगिकता प्राकृतिक है।

लेकिन यह विकृति है, एक रोग है। जब मैं कहता हूं रोग तो मैं इसकी निंदा नहीं कर रहा हूं मैं इसे करुणावश रोग कह रहा हूं। जब कोई ट्धूबरक्लोसिस से पीड़ित हो, तो हम उसकी निंदा नहीं करते। हम उसकी इससे मुक्त हो पाने में सहायता करते हैं। इसलिए जब लोग मेरे पास आते हैं और स्वीकारते हैं कि वे समलैंगिक हैं, तो मैं कहता हू चिंता मत करो, मैं यहां हूं न, मैं तुमको इससे बाहर ले आऊंगा।

यदि तुम सजग नहीं हो, यदि तुम इसका रूपांतरण नहीं कर रहे हो, तो कामवासना जीवन के परम अंत तक महत्वपूर्ण रहती है। और कामयुक्त रहते हुए मर जाना एक कुरूप मृत्यु है। व्यक्ति को उस बिंदु तक आ चूकना चाहिए जहां कामवासना बहुत पीछे छूट चुकी हो।

थल एवं जल सैन्य क्लब के तीन बहुत पुराने सदस्य ब्रांडी और सिगार की चुस्कियों के बीच घबड़ा देने वाले क्षणों के बारे में चर्चा कर रहे थे।

पहले दो ने अपने जीवन की घटनाओं को दूर अतीत की स्मृतियों में जाकर शर्माते हुए बयान किया और जब तीसरे सज्जन की बारी आई तो उसने बताया कि वह किस प्रकार नौकरानी के शयनकक्ष में की— होल से झांकता हुआ रंगे हाथ पकड़ा गया। अरे हां, उनमें से एक ने मुस्कुरा कर कहा. निश्चित रूप से अपने बचपन के दिनों हम कितने शरारती थे।

बचपन के दिन! नहीं भाई, तीसरे बुजुर्ग ने कहा, यह तो कल रात की बात है।

किंतु कुरूप है यह। वृद्ध व्यक्ति को पुन: छोटे बच्चे के जैसा हो जाना चाहिए। क्योंकि जb कामवासना खोती है, सारी इच्छाएं तिरोहित हो जाती हैं। जब काम मिट जाता है, दूसरों में रुचि समाप्त हो जाती है। समाज से, संसार से, पदार्थ से संपर्क ही कामवासना है। जब कामवासना मिट जाती है, अचानक तुम श्वेत मेघ की भांति पवन विहार करने लगते हो। तुम जड़ों से छूट चुके हो, अब तुम्हारी जड़ें इस संसार में नहीं रहीं।

और जब तुम्हारी ऊर्जा नीचे की ओर निम्नाभिमुख, अधोमुखी नहीं है, तभी यह ऊर्ध्वगामी होने लगती है और सहस्रार पर पहुंच जाती है, जहां कि परम कमल ऊर्जा की प्रतीक्षा कर रहा है कि वह आए और खिलने में इसकी सहायता करे।

आज इतना ही।


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कृष्‍ण–स्‍मृति–(प्रवचन–9)

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विराट जागतिक रासलीला के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 28 सितंबर, 1970;

संध्‍या, मनाली (कुलू)

“रासबिहारी होते हुए भी श्रीकृष्ण ब्रह्मचारी कहलाए, इसका मर्म क्या है? आज के आधुनिक समाज में रासलीला का क्या महत्व होगा? कृपया इस पर भी प्रकाश डालें।’

 रास को समझने के लिए पहली जरूरत तो यह समझना है कि सारा जीवन ही रास है। जैसा मैंने कहा, सारा जीवन विरोधी शक्तियों का सम्मिलन है। और जीवन का सारा सुख विरोधी के मिलन में छिपा है। जीवन का सारा आनंद और रहस्य विरोधी के मिलन में छिपा है। तो पहले तो रास का जो “मेटाफिजिकल’, जो जागतिक अर्थ है, वह समझ लेना उचित है; फिर कृष्ण के जीवन में उसकी अनुछाया है, वह समझनी चाहिए।

चारों तरफ आंखें उठाएं तो रास के अतिरिक्त और क्या हो रहा है? आकाश में दौड़ते हुए बादल हों, सागर की तरफ दौड़ती हुई सरिताएं हों, बीज फूलों की यात्रा कर रहे हों, या भंवरे गीत गाते हों, या पक्षी चहचहाते हों, या मनुष्य प्रेम करता हो, या ऋण और धन विद्युत आपस में आकर्षित होती हों, या स्त्री और पुरुष की निरंतर लीला और प्रेम की कथा चलती हो, इस पूरे फैले हुए विराट को अगर हम देखें तो रास के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो रहा है।

रास बहुत “कॉस्मिक’ अर्थ रखता है। इसके बड़े विराट जागतिक अर्थ हैं। पहला तो यही कि इस जगत के विनियोग में, इसके निर्माण में, इसके सृजन में जो मूल आधार है, वह विरोधी शक्तियों के मिलन का आधार है। एक मकान हम बनाते हैं, एक द्वार हम बनाते हैं, तो द्वार में उल्टी ईंटें लगाकर “आर्च’ बन जाता है। एक-दूसरे के खिलाफ ईंटें लगा देते हैं। एक-दूसरे के खिलाफ लगी ईंटें पूरे भवन को सम्हाल लेती हैं। हम चाहें तो एक-सी ईंटें लगा सकते हैं। तब द्वार नहीं बनेगा, और भवन तो उठेगा नहीं। शक्ति जब दो हिस्सों में विभाजित हो जाती है, तो खेल शुरू हो जाता है। शक्ति का दो हिस्सों में विभाजित हो जाना ही जीवन की समस्त पर्तों पर, समस्त पहलुओं पर खेल की शुरुआत है। शक्ति एक हो जाती है, खेल बंद हो जाता है। शक्ति एक हो जाती है तो प्रलय हो जाती है। शक्ति दो में बंट जाती है तो सृजन हो जाता है।

रास का जो अर्थ है, वह सृष्टि की जो धारा है, उस धारा का ही गहरे-से-गहरा सूचक है। जीवन दो विरोधियों के बीच खेल है। ये विरोधी लड़ भी सकते हैं, तब युद्ध हो जाता है। ये दो विरोधी मिल भी सकते हैं, तब प्रेम हो जाता है। लेकिन लड़ना हो कि मिलना हो, दो की अनिवार्यता है। सृजन दो के बिना मुश्किल है। कृष्ण के रास का क्या अर्थ होगा इस संदर्भ में?

इतना ही नहीं है काफी कि हम कृष्ण को गोपियों के साथ नाचते हुए देखते हैं। यह हमारी बहुत स्थूल आंखें जो देख सकती हैं, उतना ही दिखाई पड़ रहा है। लेकिन कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना साधारण नृत्य नहीं है। कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना उस विराट रास का छोटा-सा नाटक है, उस विराट का एक आणविक प्रतिबिंब है। वह जो समस्त में चल रहा है नृत्य, उसकी एक बहुत छोटी-सी झलक है। इस झलक के कारण ही यह संभव हो पाया कि उस रास का कोई कामुक अर्थ नहीं रह गया। उस रास का कोई “सेक्सुअल मीनिंग’ नहीं है। ऐसा नहीं है कि “सेक्सुअल मीनिंग’ के लिए, कामुक अर्थ के लिए कोई निषेध है। लेकिन बहुत पीछे छूट गई वह बात। कृष्ण कृष्ण की तरह वहां नहीं नाचते, कृष्ण वहां पुरुष तत्व की तरह ही नाचते हैं। गोपिकाएं स्त्रियों की तरह वहां नहीं नाचती हैं, गहरे में वे प्रकृति ही हो जाती हैं। प्रकृति और पुरुष का नृत्य है वह।

तो जिन लोगों ने उसे कामुक अर्थ में ही समझा है, उन्होंने नहीं समझा है, वे नहीं समझ पाएंगे। वहां अगर हम ठीक से समझें तो पुरुष शक्ति और स्त्री शक्ति का नृत्य चल रहा है। वहां व्यक्तियों से कोई लेना-देना नहीं है। “इंडिवीजुअल्स” को कोई मतलब नहीं है। इसलिए यह भी संभव हो पाया कि एक कृष्ण बहुत गोपियों के साथ नाच सकता। अन्यथा एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ नाच नहीं सकता है। एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ एक-साथ प्रेम का खेल नहीं खेल सकता है। और प्रत्येक गोपी को ऐसा दिखाई पड़ सका कि कृष्ण उसके साथ भी नाच रहा है। प्रत्येक गोपी को अपना कृष्ण मिल सका। और कृष्ण जैसे हजार में बंट गए। और हजार गोपियों हैं तो हजार कृष्ण हो गए।

निश्चित ही, इसे हम व्यक्तिवाची मानेंगे तो कठिनाई में पड़ेंगे। विराट प्रकृति और विराट पुरुष के सम्मिलन का वह नृत्य है। नृत्य को ही क्यों चुना होगा इस अभिव्यक्ति के लिए? जैसा मैंने सुबह कहा, नृत्य निकटतम है अद्वैत के। निकटतम अद्वैत के है। नृत्य निकटतम है उत्सव के। नृत्य निकटतम है रहस्य के।

इसे एक तरफ से और देखें–

मनुष्य की पहली भाषा नृत्य है, क्योंकि मनुष्य की पहली भाषा “गेस्चर’ है। आदमी जब नहीं बोला था तब भी हाथ-पैर से बोला था। आज भी गूंगा नहीं बोल सकता, तो हाथ-पैर से बोलता है। “गेस्चर’ से, मुद्रा से बोलता है। भाषा तो बहुत बाद में विकसित होती है। तितलियां भाषा नहीं जानतीं, लेकिन नृत्य जानती हैं। पक्षी भाषा नहीं जानते, लेकिन नृत्य जानते हैं। “गेस्चर’, मुद्रा, इशारा पहचानते हैं। यह सारी प्रकृति पहचानती है।

इसलिए रास के लिए नृत्य ही क्यों केंद्र में आ गया, उसका भी कारण है।

“गेस्चर’ की भाषा, इशारे की भाषा गहनतम है, गहरी-से-गहरी है। मनुष्य के चित्त के बहुत गहरे हिस्सों को स्पर्श करती है। जहां शब्द नहीं पहुंचते, वहां नृत्य पहुंच जाता है। जहां व्याकरण नहीं पहुंचती, वहां घुंघरू की आवाज पहुंच जाती है। जहां कुछ समझ में नहीं आता है, वहां भी नृत्य कुछ समझा पाता है। इसलिए, दुनिया के किसी कोने में नर्तक चला जाए, समझा जा सकेगा। आवश्यक नहीं है कि भाषा कोई उसे समझने के लिए जरूरी हो। यह भी आवश्यक नहीं है कि कोई सभ्यता और कोई संस्कृति की विशेष आवश्यकता हो उसे समझने के लिए। नर्तक कहीं भी चला जाए, समझा जा सकेगा। मनुष्य के अचेतन में, “कलेक्टिव अनकांशस’ में, सामूहिक अचेतन में भी नृत्य की भाषा का खयाल है।

यह जो नृत्य चल रहा है चांद के नीचे, इस नृत्य को साधारण नृत्य मैं नहीं कहता हूं इसीलिए कि यह किसी के मनोरंजन के लिए नहीं हो रहा है, किसी को दिखाने के लिए नहीं हो रहा है। कहना चाहिए एक अर्थों में “ओवरफ्लोइंग’ है। इतना आनंद भीतर भरा है कि वह सब तरफ बह रहा है। और इस आनंद के बहने के लिए अगर दोनों विरोधी शक्तियां एक-साथ मौजूद हों तो सुविधा हो जाती है। पुरुष बह नहीं पाता है, अगर स्त्री मौजूद न हो। कुंठित और बंद हो जाता है। सरिता नहीं बन पाता, सरोवर बन जाता है। स्त्री नहीं बह पाती, अगर पुरुष उपलब्ध न हो। बंद है। उन दोनों की मौजूदगी तत्काल उनके भीतर जो छिपी हुई शक्तियां हैं, उनका बहाव बन जाती है। वह जो हमने निरंतर स्त्री-पुरुष का प्रेम समझा है, उस प्रेम में भी वही बहाव है। काश, हम उसे व्यक्तिवाची न बनाएं, तो वह बहाव बड़ा पारमार्थिक अर्थ ले लेता है।

स्त्री और पुरुष के बीच जो आकर्षण है, वह आकर्षण एक-दूसरे की निकटता में उनके भीतर स्त्री पुरुष के पास अपने को हल्का अनुभव करती है। अलग-अलग होकर वे “टेंस’ और तनाव से भर जाते हैं। वह हल्कापन क्या है? उनके भीतर कुछ भरा है जो बह गया और वे हल्के हो गए, पीछे “वेटलेसनेस’ छूट जाती है। लेकिन हम स्त्री और पुरुष को बांधने की कोशिश में लगे रहते हैं। जैसे ही हम स्त्री और पुरुष को बांधते हैं, नियम और व्यवस्था देते हैं, वैसे ही बहाव क्षीण हो जाते हैं। वैसे ही बहाव रुक जाते हैं। व्यवस्था से जीवन की गहरी लीला का कोई संबंध नहीं है। और कृष्ण का यह रास बिलकुल ही अव्यवस्थित है। कहना चाहिए बिलकुल “केऑटिक’ है। “केऑस’ है। नीत्से का एक बहुत अदभुत वचन है, जिसमें उसने कहा है, “ओनली आउट ऑफ केऑस स्टार्स आर बॉर्न’, सिर्फ गहन अराजकता से सितारों का जन्म होता है। जहां कोई व्यवस्था नहीं है, वहां सिर्फ शक्तियों का खेल रह जाता है। बहुत जल्दी कृष्ण मिट जाते हैं व्यक्ति की तरह, शक्ति रह जाते हैं। बहुत शीघ्र गोपियां मिट जाती हैं व्यक्ति की तरह, सिर्फ शक्तियां रह जाती हैं। स्त्री और पुरुष की शक्ति का वह नृत्य गहन तृप्ति लाता है। गहन आनंद लाता है। और “ओवरफ्लोइंग’ बन जाता है, वह आनंद फिर बहने लगता है। और फिर उस नृत्य से वह सारा आनंद चारों ओर जगत के कण-कण तक व्याप्त हो जाता है।

कृष्ण जिस चांद के नीचे नाचे हैं, वह चांद तो आज भी है; जिन वृक्षों के नीचे नाचे हैं, उन वृक्षों का होना आज भी है; जिन पहाड़ों के पास नाचे हैं, वे पहाड़ भी आज हैं। जिस धरती पर नाचे हैं, वह धरती भी आज है। कृष्ण से जो बहा होगा उस क्षण में, वह सब इनमें छिपा है और यह सब उसे पी गया है।

अब ये वैज्ञानिक एक बहुत नई बात करते हैं। वे यह कहते हैं कि व्यक्ति तो विदा हो जाते हैं लेकिन उनसे छोड़ी हुई तरंगें सदा के लिए रह जाती हैं। व्यक्ति तो विदा हो जाते हैं लेकिन उन्होंने जो जिआ, उसके संघात, उसकी “वेव्ज’, वह सब-की-सब पूरे अस्तित्व में समा जाती हैं और लीन हो जाती हैं। उस पृथ्वी पर जहां कृष्ण नाचे, उस पृथ्वी पर आज भी कोई नाचे तो कृष्ण की प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। जहां उन्होंने बांसुरी बजाई, जिन पहाड़ों ने उस बांसुरी को सुना, उन पहाड़ों के पास आज भी कोई बांसुरी बजाए तो प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। जिस यमुना के तट ने उन्हें देखा और जाना और जिसने उनके स्पर्श को अनुभव किया, उस यमुना के तट पर आज भी नृत्य हो तो व्यक्ति मिट जाता है, वह अव्यक्ति फिर घेर लेता है।

रास को स्त्री और पुरुष के बीच विभक्त जो विराट की शक्ति है, उसके मिलन, उसकी “ओवरफ्लोइंग’ का प्रतीक मैं मानता हूं। और इस भाषा में अगर हम ले सकें, तो आज भी रास का उपयोग है और सदा रहेगा। इधर मैंने निरंतर अनुभव किया है, जो मैं आप से कहूं, ध्यान के लिए हम बैठते हैं, कई बार मित्रों ने मुझे कहा कि स्त्रियों को अलग कर दें, पुरुषों को अलग कर दें। ये दोनों अलग रहेंगे तो सुविधा होगी। उनकी सुविधा की दृष्टि नासमझी से भरी हुई है। वे नहीं जानते हैं कि स्त्रियां अगर इकट्ठी कर दी जाएं एक ओर और पुरुष एक ओर इकट्ठे कर दिए जाएं तो यह बिलकुल सजातीय, एक-सी शक्तियां इकट्ठी हो जाती हैं, और इनके बीच जो बहाव की संभावना है वह कम हो जाती है। लेकिन उन्हें खयाल में नहीं है। मेरी तो समझ ही यही है कि अगर ध्यान हम कर रहे हैं तो स्त्रियां और पुरुष एकदम सम्मिलित और मिले-जुले हों। उन दोनों की समझ के बाहर कुछ घटनाएं घटेंगी, जो उनकी समझ से उसका कोई संबंध भी नहीं है। उन दोनों की मौजूदगी, और अकारण मौजूदगी–कोई आप अपनी पत्नी के पास नहीं खड़े हैं–अकारण मौजूदगी आपके भीतर से कुछ बहने में, प्रगट होने में, निकल जाने में, “केथार्सिस’ में सहयोगी होगी। स्त्री के भीतर से भी कुछ बह जाने में सहयोग मिलेगा।

मनुष्य जाति के चित्त का इतना बड़ा तनाव, इतना बड़ा “टेंशन’ स्त्री और पुरुष को दो जातियों में तोड़ देने से पैदा हुआ है। स्कूल में, कालेज में हम लड़के और लड़कियों को पढ़ा रहे हैं, दो हिस्सों में बांट कर बिठाया हुआ है। जहां भी स्त्री और पुरुष हैं, हम उनको बांट रहे हैं। जब कि जगत की पूरी व्यवस्था विरोधी शक्तियों के निकट होने पर निर्भर हैं। और जितनी यह निकटता सहज और सरल हो, उतनी ही परिणामकारी है।

रास का मूल्य सदा ही रहेगा। रास का मूल्य उसके भीतर छिपे हुए गहन तत्त्वों में हैं। वह तत्त्व इतना ही है कि स्त्री और पुरुष अपने-अपने में अधूरे हैं, आधे-आधे हैं। निकट होकर वे पूरे हो जाते हैं। और अगर “अनकंडीशनली’ निकट हों, तो बहुत अदभुत अर्थों में पूरे हो जाते हैं। अगर “कंडीशंस’ के साथ, शर्तों के साथ निकट हों, तो शर्तें बाधाएं बन जाती हैं और उनकी पूर्णता पूरी नहीं हो पाती। जब तक पुरुष है पृथ्वी पर, जब तक स्त्री है पृथ्वी पर, तब तक रास बहुत-बहुत रूपों में जारी रहेगा। यह हो सकता है कि वह उतनी महत्ता और उतनी गहनता और उतनी ऊंचाई को न पा सके जो कृष्ण के साथ पाई जा सकी। लेकिन अगर हम समझ सकें तो वह पाई जा सकती है। और सभी आदिम जातियों को उसका अनुभव है। दिन भर काम करने के बाद आदिम जातियां रात इकट्ठा हो जाएंगी–फिर स्त्री-पुरुष, पति-पत्नी का सवाल न रहेगा, स्त्री और पुरुष ही रह जाएंगे–फिर वे नाचेंगे आधी रात, रात बीतते-बीतते, और फिर सो जाएंगे, वृक्षों के तले, या अपने झोपड़ों में। नाचते-नाचते थकेंगे, और सो जाएंगे। और इसलिए आदिवासी के मन में जो शांति है, और आदिवासी के मन में जैसी प्रफुल्लता है, और आदिवासी की दीनता में, हीनता में भी जैसी गरिमा है, वह सभ्य-से-सभ्य आदमी भी सारी सुविधा के बाद उपलब्ध नहीं कर पा रहा है। कहीं कोई चूक हो रही है, कहीं कोई बहुत गहरे सत्य को नहीं समझा जा रहा है।

“भगवान श्री, रामावतार में जैसे अहिल्या का शिला-व्यक्तित्व राम का इंतजार करता था और शिला में से अहिल्या हुई, इसी तरह कृष्णावतार में भगवान कृष्णचंद्र का जो समागम कुब्जा के साथ हुआ, क्या उसका कोई “स्प्रिचुअल’ अर्थ घटाते हैं? वह क्या है, उसे कृपया स्पष्ट करें।’

जीवन में सभी कुछ, सभी समय घटित नहीं होता है; क्षण हैं, जिनके लिए प्रतीक्षा करनी होती है। समय है, जिसकी राह देखनी होती है। अवसर हैं, जिनके लिए रुकना पड़ता है। बहुत-बहुत आयामों में इस बात को देखना जरूरी है।

पत्थर की तरह पड़ी हुई कोई स्त्री-नहीं मैं कहता हूं कि पत्थर ही हो गई होगी, पत्थर हो जाना कवि की कल्पना है–लेकिन, कोई स्त्री जो राम से ही खिल पाएगी और राम के स्पर्श से ही खिल पाएगी, जब तक राम न मिलें तब तक पत्थर ही रहती है। ऐसा नहीं है कि कोई शिला की तरह पड़ी थी। वह तो कवि की व्यवस्था है, सोचने के ढंग हैं, और कवि के “मेटाफॅर’ हैं। लेकिन जो स्त्री राम के स्पर्श से ही खिल सकती है और जीवंत हो सकती है और चेतना पा सकती है, कोई किसी और का स्पर्श उसे जड़ ही छोड़ जाएगा। कहानी का मर्म इतना ही है कि हर एक की अपनी प्रतीक्षा है। हर एक की अपनी “अवेटिंग’ है। और क्षण आए बिना वह घटित नहीं होती है। जो पत्थर की तरह पड़ी थी, पत्थर ही हो गई थी, और यह सोचने जैसा है–जब तक किसी स्त्री को उसका प्रेम न मिल जाए, तब तक वह पत्थर ही होती है। तब तक उसके भीतर सब शिलाखंड हो गया होता है। और उसके पास हृदय पथरीला हो गया होता है। जब तक उसे उसका प्रेमी न मिल जाए, तब तब उसे उसके प्रेम का स्पर्श, जब तक उसे उसके प्रेम की छाया और जब तक उसे प्रेम की ऊष्मा न मिल जाए, तब तक उसके भीतर कुछ पत्थर की तरह ही पड़ा रह जाता है। वह अनंतकाल तक पत्थर ही रहेगा।

इसे एक तरह से और समझ लेना चाहिए। स्त्री जो है, “पैसिविटी’ है। स्त्री जो है, वह ग्राहक अस्तित्व है, “रिसेप्टिव एक्जिसटेंस’ है। “एग्रेसिव’ नहीं है, आक्रामक नहीं है, ग्राहक है। स्त्री के व्यक्तित्व में गर्भ ही नहीं है, उसका चित्त भी गर्भ की भांति है। इसलिए अंग्रेजी का शब्द “वूमन’ तो बहुत मजेदार है। उसका मतलब है, “मैन विद ए वूंब’। स्त्री जो है, वह गर्भसहित एक पुरुष है। स्त्री का समस्त अस्तित्व ग्राहक है, “रिसेप्टिव’ है। आक्रामक नहीं है। पुरुष का सारा व्यक्तित्व आक्रामक है, ग्राहक बिलकुल नहीं है। और यह दोनों “कांप्लिमेंटरी’ हैं, और स्त्री और पुरुष का सब कुछ “कांप्लिमेंटरी’ है। जो पुरुष में नहीं है वह स्त्री में है, जो स्त्री में नहीं है वह पुरुष में है। इसलिए वे दोनों मिलकर पूरे हो पाते हैं।

स्त्री की जो ग्राहकता है, वह प्रतीक्षा बन जाएगी और पुरुष का जो आक्रमण है, वह खोज बनती है। अहिल्या जो शिलाखंड की तरह प्रतीक्षा करेगी, राम नहीं प्रतीक्षा करेंगे। राम अनेक पथों पर खोजेंगे। यह बड़े मजे की बात है कि शायद ही किसी स्त्री ने कभी प्रेम-निवेदन किया हो। प्रेम-निवेदन लिया है, किया नहीं है। शायद ही किसी स्त्री ने अपनी तरफ से प्रेम में “इनीशिएटिव’ लिया हो, अपनी तरफ से पहल की हो। ऐसा नहीं है कि स्त्री पहल नहीं करना चाहती, ऐसा भी नहीं है कि पहल उसके भीतर पैदा नहीं होती, लेकिन उसकी पहल प्रतीक्षा ही बनती है। उसकी पहल मार्ग ही देखती है, राह देखती है और अनंत जन्मों तक देख सकती है। असल में जब भी स्त्री आक्रमण करती है, तभी उसके भीतर से कुछ स्त्रैण खो जाता है, और तभी वह कम आकर्षक हो जाती है। उसकी अनंत प्रतीक्षा में ही उसका अर्थ और उसका व्यक्तित्व, उसकी आत्मा है। अनंत काल तक प्रतीक्षा चल सकती है लेकिन स्त्री आक्रमण नहीं कर सकती। वह जाकर किसी से कह नहीं सकती कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। वह जिसे प्रेम करती है, उससे भी नहीं कह सकती है। वह यही प्रतीक्षा करेगी कि वह जो उसे प्रेम करता है, कभी कहे, और कहने पर भी उसका हां एकदम सीधा नहीं आ जाता। उसका हां भी न की शकल लेकर ही आता है। उसका सारा “गेस्चर’ कहेगा, उसका सारा व्यक्तित्व कहेगा, हां। लेकिन उसकी वाणी कहेगी, ना। क्योंकि अगर वह जल्दी हां कहे तो उसमें भी आक्रमण थोड़ा-सा हो जाता है। वह ना ही कहती चली जाएगी। पुरुष ही पहल करेगा।

कृष्ण के लिए भी कोई प्रतीक्षारत हो सकता है। और, कृष्ण के बिना शायद कोई स्त्री उस हर्ष को, उस प्रफुल्लता को, उस खिल जाने को उपलब्ध ही न हो सके। तो इस देश के नियमों में एक बहुत अदभुत नियम था, वह समझ लेने जैसा है। वह नियम यह था कि स्त्री साधारणतः, सामान्यतया न आक्रमण करती, न निवेदन करती, न प्रार्थना करती। लेकिन, यदि कभी स्त्री प्रार्थना करे तो पुरुष का इनकार अनैतिक है क्योंकि यह बहुत “रेयर’ मामला है। एक स्त्री तो निवेदन करती नहीं, लेकिन यदि कभी स्त्री निवेदन करे तो पुरुष का इनकार अनैतिक है। और अगर पुरुष इनकार करे, तो उसने अपने पुरुषत्व से इनकार कर लिया। यह नियम इसलिए बनाया जा सका कि ऐसे यह सामान्य घटने वाला नियम नहीं है, ऐसा होता नहीं है। लेकिन कभी ऐसे क्षण आते हैं। अर्जुन के जीवन में एक उल्लेख है और उल्लेख मैं आपको याद दिलाना चाहूं।

अर्जुन एक वर्ष के ब्रह्मचर्य की साधना कर रहा है। और एक सुंदर युवती ने उसे देखकर, उस साधनारत अर्जुन को देखकर उससे निवेदन किया है कि मैं चाहूंगी कि मुझे तुम्हारे जैसे बेटे, तुम्हारे जैसे पुत्र उपलब्ध हों। यह भी बड़े मजे की बात है कि स्त्री अगर निवेदन भी करेगी, तो भी प्रेयसी और पत्नी बनने का न कर पाएगी, मां बनने का कर पाएगी। अर्जुन बहुत मुश्किल में पड़ गया है। वह एक वर्ष का ब्रह्मचर्य का काल व्यतीत कर रहा है। ब्रह्मचर्य तोड़ा नहीं जा सकता। और नियम! और नियम बड़ा अर्थपूर्ण है और बड़ा पुरुषगत है। नियम कि स्त्री निवेदन करे तो अस्वीकार करना अनैतिक है। और अर्जुन अनैतिक भी न होना चाहेगा। पुरुष-ऊर्जा से जब किसी ने, किसी ग्राहक शक्ति ने निवेदन किया हो और अगर पुरुष-ऊर्जा बहने से इनकार कर दे, तो वह पुरुष-ऊर्जा न रही। अर्जुन बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। लेकिन अर्जुन ने कहा कि मैं तैयार हूं, पर पक्का कहां है कि मेरे पुत्र मेरे जैसे होंगे? इसलिए अच्छा हो कि तू मुझे ही पुत्र मान ले। मैं तेरा पुत्र हुआ जाता हूं। तेरी आकांक्षा पूरी हो जाएगी। मेरे जैसे पुत्र ही चाहिए न! मेरा पुत्र मेरे जैसा होगा, यह पक्का कहां है? इसलिए मैं तेरा पुत्र हुआ जाता हूं।

ऐसी ठीक एक घटना बर्नार्ड शॉ के जीवन में है। एक फ्रेंच अभिनेत्री ने बर्नार्ड शॉ को निवेदन किया–सुंदरतम अभिनेत्री है। उसने बर्नार्ड शॉ को लिखा एक पत्र और कहा कि मैं आपसे विवाह करना चाहती हूं। पश्चिम की स्त्री यद्यपि स्त्री होने से काफी दूर चली गई है, लेकिन फिर भी वह निवेदन मां का ही कर सकी। उसने भी निवेदन में यह कहा कि मैं चाहती हूं, ऐसे बेटे हों हमारे जिनको मेरा सौंदर्य मिल जाए और तुम्हारी बुद्धि मिल जाए। कहता हूं कि पश्चिम की स्त्री स्त्री होने से काफी दूर चली गई है, फिर भी निवेदन मां का ही कर पाई। स्त्री मां होने के निवेदन में कहीं भी हीन अनुभव नहीं करती। क्योंकि स्त्री मां होने का जब निवेदन करती है तब भी वह निवेदन नहीं है। हीन होती नहीं मां होने में वह। वह पुरुष से कहीं पीछे पड़ती नहीं, नीचे कहीं उतरती नहीं। मां होने में तो पुरुष का छोटा-सा उपयोग भर है, फिर तो वह पूरा खुद ही कर लेती है। लेकिन पत्नी होने में बात और है। पुरुष का थोड़ा-सा उपयोग नहीं है। पुरुष का फिर पूरा ही उपयोग है।

बर्नार्ड शॉ को भी वही मुसीबत है जो अर्जुन को हुई होगी। लेकिन अर्जुन पूरब की हवा में पला हुआ था, इसलिए जो उत्तर दिया वह पूरब का था। बर्नार्ड शॉ ने जो उत्तर दिया वह पश्चिम का है। इसलिए बर्नार्ड शॉ के उत्तर की बेहूदगी बड़ी साफ है। बर्नार्ड शॉ ने उसे पत्र लिखा कि देवी, इससे उल्टा भी हो सकता है जैसा आप कहती हैं। ऐसा भी हो सकता है कि आपकी बुद्धि मिल जाए हमारे बेटों को और मेरी शक्ल-सूरत मिल जाए! पूरब में कोई पुरुष ऐसा उत्तर नहीं दे सकता था। यह तो स्त्री-शक्ति का सीधा अपमान हो गया। स्त्री के द्वारा किए गए निवेदन का सीधा इनकार हो गया। और इनकार भी शिष्ट न रहा, अशिष्ट हो गया।

कृष्ण के लिए कुब्जा की प्रतीक्षा है। वह प्रतीक्षा जन्मों की है। कृष्ण इनकार नहीं कर सकते। इनकार ही कृष्ण के जीवन में नहीं है। और अगर कुब्जा चाहे कि शरीर के तल पर संभोग हो तो कृष्ण उसका भी इनकार नहीं कर सकते, क्योंकि कृष्ण के मन में शरीर का भी कोई विरोध नहीं है। शरीर भी है, शरीर की अपनी जगह है। शरीर ही सब कुछ नहीं है, यह बात दूसरी है, लेकिन शरीर भी है। और शरीर की अपनी जगह है, अपना रस है, अपना आनंद है। शरीर का अपना होना है। कृष्ण के मन में उसकी भी काई निषेध बात नहीं है। कृष्ण एक-साथ शरीर और आत्मा को पी गए हैं, एक-साथ पदार्थ और परमात्मा को ले गए हैं। इसलिए कृष्ण के द्वारा स्त्री-शक्ति का अपमान ही होगा। वे शरीर के तल पर भी संभोग करने को राजी हैं। कुब्जा की जो आकांक्षा है, वह पूरा करने को राजी हैं। इस राजी होने में कोई उन्हें राजी होने की चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है। इस राजी होने में कोई प्रयास नहीं है। इस राजी होने में, जो घटित हो रहा है उसकी सहज स्वीकृति है।

कठिन पड़ता है हमें। कृष्ण का शरीर के तल पर संभोग हमें कठिन पड़ता है, क्योंकि हम द्वैतवादी हैं। हम शरीर और आत्मा को अलग-अलग मानकर चलने वाले लोग हैं। मेरे देखे–और ऐसा ही देखना कृष्ण का भी है–कि शरीर और आत्मा दो नहीं हैं, संभोग और योग दो नहीं हैं, पदार्थ और परमात्मा दो नहीं हैं। शरीर आत्मा का वह छोर है जो हमारी आंखों और हाथों के पकड़ में आ जाता है। और आत्मा शरीर का वह छोर है जो हमारे हाथ, आंख और बुद्धि की पकड़ के बाहर छूट जाता है। शरीर दृश्य आत्मा है और आत्मा अदृश्य शरीर है। और दोनों एक हैं, और ये कहीं टूटते नहीं, कहीं खंडित नहीं होते। शरीर के तल पर जिसे हम संभोग कहते हैं, आत्मा के तल पर वही योग है। शरीर के तल पर जिसे हम संभोग कहते हैं, आत्मा के तल पर वही समाधि है। कृष्ण के मन में संभोग और समाधि में विरोध नहीं है। संभोग ही समाधि तक द्वार बन जाता है। समाधि ही संभोग तक उतर कर अपनी किरणें पहुंचाती है।

लेकिन कुब्जा की बात कुब्जा जाने। कुब्जा के लिए क्या है, इसे कृष्ण से कोई…कृष्ण के लिए क्या है, वह मैं कह रहा हूं। कुब्जा की ऐसी भूमिका है, ऐसा मुझे नहीं लगता। उसके लिए संभोग समाधि बन सकता है, ऐसा भी मुझे नहीं लगता। लेकिन यह प्रयोजन के बाहर है। कुब्जा ने जो मांगा है, जितना उसका पात्र है, कृष्ण उतने पात्र को भी भरने को राजी हैं। वे नहीं कहते कि तेरे पास सागर जैसा पात्र चाहिए, क्योंकि मेरे पास सागर जैसा देने को है। कुब्जा कहती है, मेरे पास तो छोटा-सा भिक्षापात्र है; इसमें सिर्फ शरीर ही समाता है। इसमें आत्मा वगैरह की मुझे कुछ खबर नहीं है। तो कुब्जा के पात्र को वह इसलिए खाली न लौटा देंगे कि सागर जैसा पात्र लेकर वह नहीं आई। नहीं, कृष्ण कहेंगे जितना पात्र है उतना ले जाओ। इसलिए शरीर के तल पर भी कृष्ण का मिलन संभव हो सका है।

“आपने आज प्रातः राम और कृष्ण की तुलना की, मीरा और हनुमान की तुलना की। हमारी परंपरा राम और कृष्ण, मीरा और हनुमान, दोनों को ही समकक्ष रखती है। कोई उनमें “इनफीरियर’ है, या “सुपीरियर’ है, ऐसा भाव नहीं रखती। यह हो सकता है कि हनुमान की निजता वही हो जो वह हैं। राम की निजता वही हो जो वह हैं, और हममें कुछ लोग ऐसे हों जिन्हें हनुमान और राम की निजता ही अनुकूल पड़े। तो क्या यह परधर्म न होगा कि वे हनुमान और राम को कुछ “इनफीरियर’ मानकर कृष्ण और मीरा का ही मार्ग अपनाना चाहें?’

मैंने जो कहा, उसमें किसी को “इनफीरियर’ नहीं कहा, सिर्फ भिन्न-भिन्न कहा। हीन नहीं कहा, अलग-अलग कहा। और जिसकी निजता हनुमान के करीब पड़ती है, वह मेरे कहने से हनुमान को हीन न मान सकेगा। अब मेरी निजता में तो हनुमान करीब नहीं पड़ते हैं। तो मैं किसी और की निजता का ध्यान रखकर झूठा वक्तव्य नहीं दे सकता हूं। मुझसे आपने पूछा है। मैंने ही उत्तर दिया है। मुझे अगर चुनना हो, तो मीरा चुनने जैसी लगेगी। मुझे अगर चुनना हो, तो राम छोड़ देने जैसे लगेंगे और कृष्ण चुनने जैसे लगेंगे। और मुझे क्या लगेंगे, उसके कारण मैंने कहे। ऐसा नहीं है कि आप कृष्ण को चुनें और राम को छोड़ें। समझ लें मेरी बात को, उतना काफी है। आपकी निजता आपको जहां ले जाए वहीं जाना है।

मेरी दृष्टि में, राम का व्यक्तित्व मर्यादित है और मैं मानता हूं कि राम को मानने वाले लोग भी नहीं कहेंगे कि अमर्यादित है। असल में राम को मानने वाले लोग भी राम को इसीलिए मानते हैं कि वह मर्यादा में हैं। और जिन-जिन के चित्त मर्यादा में जीते हैं, उन-उनके लिए राम अनुकूल पड़ेंगे। लेकिन मैं कह यह रहा हूं कि मर्यादा का मतलब सीमा होता है। सीमा के बाहर भी चीजों का होना है। सीमा के बाहर भी सत्य है। इसलिए पूर्ण सत्य को तो अमर्याद ही घेर सकेगा, पूर्ण सत्य को मर्यादित नहीं घेर सकता। पूर्ण सत्य को तो कृष्ण ही घेर सकेंगे, राम नहीं घेर सकते। और ऐसा नहीं है कि आपकी परंपरा ने भेद नहीं किया है। आपकी परंपरा भी राम को कभी पूर्ण अवतार नहीं कहती है। कृष्ण को ही पूर्ण अवतार कहती है। आपकी परंपरा भी फर्क निश्चित करती है।

हनुमान और मीरा की बाबत कभी आपकी परंपरा ने तुलना भी की है, यह भी मुझे पता नहीं है। तुलना भी नहीं की है। राम और कृष्ण की बाबत तो तुलना आपकी परंपरा में है और उसमें कृष्ण पूर्ण अवतार हैं। और यह भी साफ है कि राम को मानने वाला कृष्ण को नहीं मान सका है। कान भी बंद कर लिए हैं उसने कि कृष्ण का नाम न पड़ जाए। और कृष्ण को मानने वाला राम को कुछ भी नहीं समझ पाया है। स्वाभाविक है। लेकिन तथ्य की बात कहूं, क्योंकि मैं तो किसी को मानने वाला नहीं, मुझे जैसा दिखाई पड़ता है, वह मैं कहता हूं। मैं किसी का मानने वाला नहीं हूं। मैं न कृष्ण का मानने वाला हूं, न राम का मानने वाला हूं। मुझे तो जो दिखाई पड़ता है वह यह है कि राम का एक व्यक्तित्व साफ-सुथरा, निखरा। उतना निखरा और साफ-सुथरा व्यक्तित्व कृष्ण का नहीं है। हो नहीं सकता। वही उसकी गहराई है। राम ने एक बड़े जंगल का छोटा-सा हिस्सा काट-कूट कर साफ-सुथरा कर लिया है। वहां से वृक्ष हटा दिए हैं, लताएं हटा दी हैं, घास काट दिया है, पत्थर हटा दिए हैं। वह जगह बड़ी साफ-सुथरी, बैठने योग्य हो गई है। लेकिन वह विराट जंगल भी है, जो उस जगह को चारों तरफ से घेरे हुए हैं। अस्तित्व उसका भी है।

डी.एच.लारेंस निरंतर कहा करता था कि कब हम आदमी को जंगल की तरह देखेंगे? अभी तक हमने आदमी को बगिया की तरह देखा है। राम एक बगिया हैं, कृष्ण एक विराट जंगल हैं, जिसमें कोई व्यवस्था नहीं है, जिसमें क्यारियां कटी हुई और साफ-सुथरी नहीं हैं, जिसमें रास्ते बने हुए नहीं हैं, पगडंडियां तय नहीं हैं; जिसमें भयंकर जंतु भी हैं, हमलावर शेर भी है, सिंह भी है, अंधेरा भी है, चोर-डाकू भी हो सकते हैं, जीवन को खतरा भी हो सकता है। कृष्ण का व्यक्तित्व तो एक विराट जंगल की भांति है–अनियोजित, “अनप्लांड; जैसा है वैसा है। राम का व्यक्तित्व एक छोटी-सी बगिया की तरह है, “किचन गार्डन’ की तरह है जो आपने अपने घर के बगल में लगा रखा है। सब साफ-सुथरा है। कोई खतरा नहीं है, कोई जंगली जानवर नहीं हैं। मैं नहीं कहता कि आप “किचन गार्डन’ से ऊब जाएंगे तो पाएंगे कि जंगल में ही असली राज है। वह हमारा लगाया हुआ नहीं है।

आपकी परंपरा ने राम और कृष्ण में तो तुलना कर ली है, लेकिन मीरा और हनुमान में नहीं की। मीरा और हनुमान में करने का बहुत कारण भी नहीं है। लेकिन, कल बात उठी, इसलिए मैंने कहा। मैंने कहा कि हनुमान, जब राम ही “किचन गार्डन’ हैं, तो हनुमान को कहां रखियेगा? एक गमला ही रह जाएंगे। जब मैं राम को कहूंगा कि एक छोटी-सी बगिया हैं बंगले के बाहर लगी हुई–बंगले के बाहर बगिया होनी चाहिए, और बंगले के बाहर जंगल नहीं लगाया जा सकता वह भी मुझे भलीभांति ज्ञात है। लेकिन फिर भी बगिया बगिया है, जंगल जंगल है। और कभी-कभी जब बगिया से ऊब जाते हैं तो जंगल की तरफ जाना पड़ता है। और एक दिन ऊब जाना चाहिए बगिया से, वह भी जरूरी है। तो हनुमान को कहां रखियेगा? हनुमान तो फिर एक गमला रह जाते हैं। बहुत साफ-सुथरे हैं। कई बार राम से भी ज्यादा साफ-सुथरे हैं। क्योंकि और छोटी जगह घेरते हैं, इसलिए और साफ-सुथरे हो सकते हैं।

“हनुमान नर्तन करते हैं कभी-कभी?’

र्तन कर सकते हैं। नर्तन कर सकते हैं, बंगले के बगीचे पर जब हवा बहती है तो उसके पौधे भी नाचते हैं। और गमले में लगे पौधे पर भी जब हवा बहती है, तो वह भी डोलता है। लेकिन जंगल में तांडव चलता है। उसकी बात ही और है। हम उससे ही तो घबड़ाते हैं। वह नर्तन विराट है, हमारे “कंट्रोल’ के बाहर है। यह नर्तन हमारे भीतर है। हनुमान नर्तन करते हैं, लेकिन राम की आज्ञा मान लेंगे। मीरा नर्तन करती है और कृष्ण भी अगर रोकें तो नहीं रुकेगी। फर्क बड़े बुनियादी हैं। मीरा कृष्ण को भी डांट-डपट देगी। हनुमान न डांट-डपट सकेंगे। मीरा कृष्ण को भी कह देगी, बैठे एक तरफ, हटो रास्ते से, नाच चलने दो, बीच में मत आओ। वह हनुमान न कर सकेंगे। हनुमान एक आज्ञाकारी व्यक्ति हैं, एक “डिसिप्लिंड’ आदमी हैं।

दुनिया में “डिसिप्लिन’ की जरूरत है, बिलकुल है। अनुशासन की जरूरत है। लेकिन, जीवन में जो भी विराट है, जो भी गहन-गंभीर है, वह सब अनुशासनमुक्त है। वह जीवन में जो भी सुंदर है, सत्य है, शिव है, वह बिना किसी अनुशासन के अचानक फूट पड़ता है। तो मुझे तो जैसा दिखाई पड़ा, वह मैंने कहा है। ऐसे हनुमान हैं, ऐसी मीरा है। मेरे देखे में चुनाव मेरा मीरा का है, आपसे नहीं कहता। और भिन्नता कहता हूं। हीनता और श्रेष्ठता क्या है, वह हरेक व्यक्ति अपनी तय करेगा। अपने से ही तय होगी वह। किसी को हनुमान श्रेष्ठ दिखाई पड़ सकते हैं। उससे वह सिर्फ इतनी ही खबर देगा कि उसकी श्रेष्ठता का मापदंड क्या है? और जब मैं कहता हूं कि मीरा कहीं श्रेष्ठ दिखाई पड़ती है तो उसका कुल मतलब इतना है कि मेरी श्रेष्ठता का अर्थ क्या है? इसमें हनुमान और मीरा गौण हैं, खूंटियों की तरह हैं, मैं अपने को उन पर टांगता हूं।

 

“भगवान श्री, श्रीकृष्ण की गो-भक्ति को आप किस दृष्टि से देखते हैं? उत्क्रांति की प्रक्रिया में डार्विन के वानर को मनुष्य-देह का पूर्वगामी और आत्मा के विकास में आपके अनुसार गो-माता को पूर्वगामी मानने को अगर राजी हों, तो स्पष्ट नहीं होता कि समस्त पशुजाति में गाय ही आत्मा के साथ क्या ताल्लुक रखती है! क्या कृषि-प्रधान देश होने के कारण हम गाय को माता कहते हैं? गो-वध के संबंध में आपका क्या खयाल है?’

 

चार्ल्स डार्विन ने जब सबसे पहले यह बात कही कि आदमियों के शरीर को देखकर ऐसा मालूम पड़ता है कि वह बंदरों की ही किसी जाति की शृंखला की आगे की कड़ी है, तो स्वीकार करना बहुत मुश्किल हुआ था। क्योंकि जो आदमी परमात्मा को अपना पिता मानता रहा हो, वह आदमी अचानक बंदर को अपा पिता मानने को राजी हो जाए, यह कठिन था। एकदम परमात्मा की जगह बंदर बैठ जाए, तो अहंकार को बड़ी गहरी चोट थी। लेकिन कोई रास्ता न था। डार्विन जो कह रहा था, प्रबल प्रमाण थे। डार्विन जो कह रहा था उसके लिए समस्त वैज्ञानिक साधन सहारा दे रहे थे। इसलिए विरोध तो बहुत हुआ, लेकिन धीरे-धीरे स्वीकार कर लेना पड़ा। इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं था।

बंदर के शरीर और आदमी के शरीर में इतनी ही निकटता है, बंदर की बुद्धि और आदमी की बुद्धि में भी इतनी ही निकटता है, बंदर के जीने और होने के ढंग और आदमी के जीने और होने के ढंग में भी इतनी निकटता है कि यह इनकार करना मुश्किल है कि आदमी किसी-न-किसी रूप में बंदर की कड़ियों से जुड़ा हुआ है। आज भी जब हम रास्ते पर चलते हैं तो हमारे बायें पैर के साथ दायां हाथ हिलता है। जरूरत नहीं है अब कोई, “मोशन’ के लिए कोई जरूरत नहीं है। आप दोनों हाथ बिलकुल रोक कर चलें तो भी चल सकते हैं। दोनों हाथ कट जाते हैं तो भी आदमी इतनी ही गति से चलता है। लेकिन बायें पैर के साथ दायें हाथ का हिलना, डार्विन कहेगा, बंदर जब चारों हाथ-पैर से चलता था, तब की आदत है, वह छूटती नहीं। वह अभी भी आप जब चलते हैं, तो बस, उल्टे हाथ के साथ उल्टा पैर जुड़ जाता है। वह चार हाथ-पैर से कभी-न-कभी मनुष्य जाति का कोई पूर्वज चलता रहा है। अन्यथा इसका कोई कारण नहीं है। जहां बंदर की पूंछ है, वहां वह अभी खाली जगह हमारे पास है, सबके पास है, जहां पूंछ होनी चाहिए थी, लेकिन अब है नहीं। वह हड्डी, जहां पूंछ जुड़ी होनी चाहिए थी, वह “लिंकेज’ हमारे शरीर में है। पूंछ तो नहीं है, लेकिन वह “लिंकेज’ है। वह खबर देती है कि कभी पूंछ रही होगी।

इस लिहाज से हनुमान बड़े कीमती आदमी हैं। डार्विन को कुछ पता नहीं था हनुमान का, नहीं तो बड़ा प्रसन्न होता। अगर उसको हनुमान का पता चलता, तो वह बड़ा प्रसन्न होता। क्योंकि हनुमान का बंदर होना, ऐसा मालूम पड़ता है कि हनुमान उस बीच-कड़ी के आदमी होंगे, जब वह पूरे बंदर भी नहीं रह गए थे, पूरे आदमी भी नहीं हो गए थे। कहीं “लिंकेज’ बीच की होनी चाहिए। हां, “ट्रांजिटरी पीरियड’ के आदमी होने चाहिए। क्योंकि बंदर एकदम से आदमी नहीं हो गए होंगे, लाखों साल तक बंदर आदमी होते रहे होंगे। कुछ चीजें गिरती गई होंगी, कुछ बढ़ती गई होंगी। लाखों साल में ऐसा हुआ होगा कि कड़ी टूट गई, कुछ बंदर बंदर रह गए और कुछ आदमी हो गए और बीच का हिस्सा गिर गया। वह जो बीच का हिस्सा गिर गया, हनुमान उसी के कहीं-न-कहीं प्रतीक हैं। वह जो बीच का हिस्सा, अब उपलब्ध नहीं है–उसको खोजा जा रहा है बहुत, और सारी जमीन पर हजार तरह की, लाख तरह की खोजें चलती हैं कि हम उस बीच की कड़ी की हड्डियों को खोज लें जो आदमी और बंदर के बीच में रही होंगी। हनुमान की हड्डियां कहीं मिल जाएं तो काम आ सकती हैं। डार्विन ने जब यह कहा, तो कठिन हुआ था, लेकिन धीरे-धीरे स्वीकृत हुआ। क्योंकि प्रमाण प्रबल थे और पक्ष में थे। मैं एक दूसरी बात भी कहता हूं, और वह मैं यह कहता हूं कि आदमी के शरीर का जहां तक विकास है, आदमी का शरीर बंदर के विकास की अगली कड़ी है, लेकिन जहां तक आदमी की आत्मा का संबंध है, वहां तक आदमी की आत्मा गाय की आत्मा की अगली कड़ी है। आदमी के पास आत्मा की जो यात्रा है वह तो गाय से होकर आई है और शरीर की जो यात्रा है, वह बंदर से होकर आई है। निश्चित ही जैसे प्रमाण डार्विन बंदर से आदमी होने के लिए जुटा सकता है, ठीक वैसे प्रमाण इस बात के लिए नहीं जुटाए जा सकते, लेकिन दूसरे तरह के प्रमाण जुटाए जा सकते हैं।

गाय को मां कहने का कारण सिर्फ कृषि करने वाला देश नहीं है। क्योंकि बैल को हमने पिता नहीं कहा। गाय को मां कहने का कारण सिर्फ गाय की कृषि-प्रधान देश में उपादेयता और उपयोगिता मात्र नहीं है। अगर यह सिर्फ उपादेयता होती, तो उपादेय चीजों को हम मां नहीं बना लेते हैं! कोई कारण नहीं है। रेलगाड़ी को कोई मां नहीं कहता, बहुत उपादेय है। और रेलगाड़ी के बिना एक क्षण नहीं चला जा सकता। हवाई जहाज को कोई मां नहीं बना लेता। बहुत उपादेय है। दुनिया में उपादेय के लिए कुछ-न-कुछ रही हैं, जिनकी “यूटिलिटी’ रही है, लेकिन जिस चीज की “यूटिलिटी’ हो, उसको मां कहने का क्या संबंध है? “यूटिलिटी’ हो तो ठीक है, मां कहने का कोई वास्ता नहीं है। मां कहने के पीछे कोई और कारण है।

वह कारण, मेरे अपने अनुभव में, जैसे बंदर पिता है डार्विन के हिसाब से, वैसे गाय मां है। यह किन आधारों पर मैं कहता हूं? इसके सारे आधार “साइकिक रिसर्च’ के ही आधार हो सकते हैं। मनस की, और “जाति-स्मरण’ के आधार हो सकते हैं। हजारों योगियों ने निरंतर इस पर प्रयोग करके यह अनुभव किया कि वह जितने पीछे लौटते हैं, जब तक याद आती है, तब तक मनुष्य के जन्म होते हैं, लेकिन मनुष्यों के जन्मों के पीछे जो स्मरण आना शुरू होता है, वह गाय का जन्म शुरू हो जाता है। अगर आप अपने पिछले जन्मों की स्मृति में उतरेंगे, तो बहुत से जन्म तो मनुष्य के होंगे–सबके, कुछ के कम, कुछ के ज्यादा–यह “जाति-स्मरण’ के परिणामों का फल है। जिन लोगों ने “जाति-स्मरण’ पर प्रयोग किए, अपने पिछले जन्म की स्मृतियों की खोजबीन की, उन्होंने पाया कि आदमी की स्मृतियों के बाद जो पहली पर्त मिलती है, वह पर्त गाय की स्मृति की है। इस गाय की स्मृति के आधार पर गाय को मां कहा गया।

ऐसे भी, अगर हम सारे पशु-जगत में खोजने जाएं, तो गाय के पास जैसी आत्मा दिखाई पड़ती है, वैसी किसी दूसरे पशु के पास दिखाई नहीं पड़ती। अगर हम गाय की आंख में झांकें, तो जैसी मानवीयता गाय की आंख में झलकती है वैसी मानवीयता किसी दूसरे पशु की आंख में नहीं झलकती। जैसी सरलता, जैसी विनम्रता गाय में दिखाई पड़ती है वैसी किसी दूसरे पशु में नहीं दिखाई पड़ती है। आत्मिक दृष्टि से गाय विकसिततम मालूम पड़ती है, समस्त पशु-जगत में। उसकी आत्मिक गुणवत्ता साफ स्पष्ट रूप से सर्वाधिक विकसित मालूम पड़ती है। उसका यह जो विकसित होना है, यह भी प्रमाण बन सकता है, खयाल दे सकता है कि अगला चरण गाय का जो होगा, वह आत्मिक छलांग का होगा। बंदर की अगर हम शारीरिक बेचैनी समझें, तो हमें खयाल में आ सकता है कि यह जल्दी अपने शरीर के बाहर छलांग लगाएगा। यह रुक नहीं सकता। यह इसी शरीर से राजी नहीं हो सकता। बंदर राजी ही नहीं है किसी चीज से। वह पूरे वक्त बेचैन और चंचल और परेशान है। आपने ध्यान किया, जब बच्चे पैदा होते हैं तो उनकी आंखों में गाय का भाव होता है और शरीर में बंदर की व्यवस्था होती है। छोटे बच्चे को देखें, तो शरीर तो उसके पास बिलकुल निपट बंदर का होता है, लेकिन आंख में झांकें तो गाय की आंख होती है।

इसलिए मैं कहता हूं कि गाय को मां कहने का कारण है। यह सिर्फ कृषि-प्रधान होने की वजह से ऐसा नहीं हुआ। इसके “साइकिक’, इसके बहुत मानसिक खोजों का कारण है। अब दुनिया में जब “साइकिक रिसर्च’ बढ़ती चली जाती है, तो मैं नहीं समझता हूं कि बहुत देर लगेगी कि इस देश की इस खोज को समर्थन विज्ञान से मिल जाए। बहुत देर नहीं लगेगी, समर्थन मिल जाएगा।

कठिनाई क्या होती है?

अगर हम हिंदुओं के अवतार देखें तो हमें खयाल में आ सकता है। हिंदुओं का अवतार मछली से शुरू होता है और बुद्ध तक चला जाता है। पहले यह बात बड़ी मुश्किल की थी कि मछली का अवतार! मत्स्य का अवतार! पागल तो नहीं हैं आप! लेकिन अब जब विज्ञान और जीवशास्त्र कहता है कि जीवन का पहला अस्तित्व मछली से शुरू हुआ, तब हमें बड़ी मुश्किल पड़ जाती है। अब आज मजाक नहीं उड़ा सकते इस बात का। आज इस बात का मजाक उड़ाना मुश्किल हो गया, क्योंकि विज्ञान कहने लगा। और विज्ञान की कुछ ऐसी छाप है हमारे मन पर कि फिर हम मजाक नहीं उड़ा सकते। विज्ञान कहता है कि मछली ही शायद पहला जीवन का विकसित रूप है। फिर मछली से ही सारा विकास हुआ। मछली इस देश ने पहला अवतार माना है–अवतार का कुल मतलब होता है, चेतना का अवतरण। शायद मछली पर जीवन-चेतना पहली बार उतरी। इसलिए मछली को अवतार कहने में बुरा नहीं है। यह भाषा धर्म की है। और जब विज्ञान कहता है कि मछली पहला जीवन मालूम पड़ती है, तब भाषा उसके पास विज्ञान की हो जाती है। हमारे पास एक अवतार और भी अदभुत है–नरसिंह अवतार। जो आधा पशु और आधा मनुष्य का अवतार है। जब डार्विन कहता है कि बीच में कड़ियां रही होंगी जो आधी पशुता की और आधी मनुष्यता की रही होंगी, तब हमें कठिनाई नहीं होती, लेकिन नरसिंह अवतार को पकड़ने में कठिनाई होती है। वह भाषा धर्म की है। लेकिन उसके भी पीछे गहन अंतर्दृष्टियां समाविष्ट हैं।

गाय मां है, उन्हीं अर्थों में, जिन अर्थों में बंदर पिता है। और डार्विन ने फिक्र की शरीर की, क्योंकि पश्चिम शरीर की चिंता में संलग्न है। इस देश ने फिक्र की आत्मा की, क्योंकि यह देश आत्मा की चिंता में संलग्न है। इस देश को इसकी बहुत फिक्र नहीं रही कि शरीर कहां से आता है–कहीं से भी आता हो, लेकिन आत्मा कहां से आती है, यह हम जरूर जानना चाहते रहे हैं। इसलिए हमारी “एम्फेसिस’ शरीर के विकास पर न होकर आत्मा के विकास पर गई है।

दूसरी बात पूछी है कि गो-वध के संबंध में मेरा क्या खयाल है?

मैं किसी वध के पक्ष में नहीं हूं। तो गो-वध के पक्ष में होने की तो बात ही नहीं उठती। लेकिन मैं पक्ष में हूं या नहीं, इससे वध रुकेगा नहीं। परिस्थितियां गो-वध कराती ही रहेंगी। मैं मांसाहार के पक्ष में नहीं हूं। लेकिन, मांसाहार के पक्ष में हूं या नहीं, इससे फर्क नहीं पड़ता। परिस्थितियां ऐसी हैं कि मांसाहार जारी रहेगा। जारी इसलिए रहेगा कि आज भी हम इस स्थिति में नहीं हो पाए कि शाकाहारी भोजन सारे जगत को दे सकें। सारा जगत तो बहुत दूर है, अगर एक मुल्क भी पूरा शाकाहारी होने का निर्णय कर ले, तो मर जाएगा। शाकाहारी होने के लिए जो सारी व्यवस्था हमें जुटानी चाहिए, वह हम जुटा नहीं पाए। इसलिए मांसाहार मजबूरी की तरह जारी रहेगा, “नेसेसरी इविल’ की तरह। गो-वध भी जारी रहेगा “नेसेसरी इविल’ की तरह।

और बड़े मजे की बात यह है कि जो लोग गो-वध बंद हो इसके लिए आतुर हैं, वह गो-वध से जो मिलता है लोगों को, उसको देने के लिए उनकी कोई चेष्टा नहीं है। गो-वध किसी दिन बंद हो सकेगा, हो सकता है। और मैं मानता हूं कि वह गो-वध भी बंद उनकी वजह से होगा जो गो-वध बंद करने के बिलकुल पक्ष में नहीं हैं। यह गो-वध बंद करने वाले लोगों की वजह से बंद नहीं होने वाला है, क्योंकि बंद करने की वह कोई व्यवस्था नहीं जुटा पाते। बस सिर्फ नारेबाजी, या कानून, या नियम, इनसे कुछ होने वाला नहीं है। आज भी जमीन पर सर्वाधिक गायें हमारे पास हैं, और सबसे कमजोर और सबसे मरीज। जिनके पास बहुत कम गायें हैं और जो बहुत गो-वध करते हैं, उनके पास बड़ी स्वस्थ, बड़ी जीवंत गायें हैं। एक-एक गाय भी चालीस किलो दूध दे सके। हमारी गाय आधा किलो भी दे तो भी बड़ी कृपा है! इन अस्थिपंजरों को हम जिंदा रखने की कोशिश में लगे हैं। इनको जिंदा रखने की कोशिश “इनडायरेक्ट’ ही हो सकती है। भोजन के अतिरिक्त साधन इकट्ठे करने जरूरी हैं। अभी तक भी शाकाहारी ठीक से मांसाहारी के योग्य भोजन का उत्तर नहीं दे पाए हैं। उनकी बात सही है, उनका तर्क उचित है।

यह बड़े मजे की बात है कि गाय भी गैर-मांसाहारी है और बंदर भी गैर-मांसाहारी है। शरीर भी आदमी का जहां से आया है वह गैर मांसाहारी प्राणी से आया है, और आत्मा भी जहां से आई है वह भी गैर-मांसाहारी प्राणी से आई है। छोटी-मोटी चींटियों वगैरह को बंदर कभी खा गए, बात अलग, ऐसे मांसाहारी नहीं है। गाय तो मांसाहारी है ही नहीं। मजबूरी में मांस खा जाए, बात अलग; खिला दे कोई बात अलग। ये दोनों यात्रापथ गैर-मांसाहारी हैं और आदमी मांसाहारी क्यों हो गया? आदमी के शरीर की पूरी व्यवस्था गैर-मांसाहारी है। उसके पेट की अस्थियों का ढांचा गैर-मांसाहारी का है। उसके चित्त के सोचने का ढंग गैर-मांसाहारी का है। लेकिन आदमी मांसाहारी क्यों हैं? मांसाहार आदमी की मजबूरी है, मांसाहारी होना। अभी तक शाकाहार का हम पूरा भोजन नहीं जुटा पाए।

इसलिए मेरी अपनी समझ में, गो-वध जारी रहेगा। जारी नहीं रहना चाहिए। जारी रखना पड़ेगा। जारी नहीं रखना चाहिए, और सिर्फ उसी दिन रुक सकेगा जिस दिन हम “सिंथेटिक फूड’ पर आदमी को ले जाने के लिए राजी हो जाएं। उसके पहले नहीं रुक सकता है। जिस दिन हम भोजन के मामले में वैज्ञानिक भोजन पर आदमी को ले जाएं, उस दिन रुक सकेगा। इसलिए मेरी चेष्टा गो-वध बंद हो, न हो, इसमें जरा भी नहीं है। यह सब बिलकुल फिजूल बातें हैं, जिनको चलाकर हम समय खराब करते हैं और कुछ होता नहीं, हो सकता नहीं। मेरी चिंता इसमें है कि आदमी को हम ऐसा भोजन दे सकें जो उसे मांसाहार से मुक्त कर सके। “सिंथेटिक फूड’ के बिना अब पृथ्वी में पर कोई रास्ता नहीं है। अब जमीन से पैदा हुआ भोजन काम नहीं कर सकेगा, अब तो हमें फैक्ट्री में बनाई गई गोली भोजन के लिए उपयोग में लानी पड़ेगी। साढ़े तीन अरब और चार अरब के बीच संख्या डोलने लगी है मनुष्य की। इस संख्या के लिए भोजन का कोई उपाय नहीं। और यह संख्या रोज बढ़ती जाएगी, हमारे सब उपाय के बावजूद बढ़ती जाएगी। और गो-वध तो बहुत दूर की बात है, हो सकता है तीस-चालीस साल के भीतर आंदोलन शुरू करना पड़े कि नर-वध किया जाए, आदमी को खाया जाए। जैसे आज एक आदमी मरता है तो हम उससे कहते हैं कि अपनी आंख “डोनेट’ कर दो, हम मरते हुए आदमी से कहेंगे, अपना मांस “डोनेट’ कर जाओ। और कोई उपाय नहीं रह जाएगा। संख्या इतनी तीव्र होगी तो इसके सिवा कोई उपाय नहीं रह जाएगा। और जो आदमी अपना मांस “डोनेट’ कर जाएगा, उसकी हम इज्जत करेंगे, जैसे अभी हम आंख वाले की करते हैं। वह कह जाएगा कि मरने के पहले तुम मुझे काट-पीटकर खा लेना। बहुत जल्दी वह वक्त आ जाएगा कि जो कौमें लोगों को जलाती हैं, लाशों को, वह अनुचित और अन्यायपूर्ण मालूम होने लगेगा। और ऐसा कोई आज ही हो गया, ऐसा नहीं, मनुष्य को खाने वाली जातियां थीं, जिनके पास कुछ और खाने को न था, वह मनुष्य को खाती रही हैं। यहां मनुष्य को खाने की स्थिति करीब आई जाती है, वहां हम आंदोलन चलाए जाते हैं गो-वध को रोकने का। यह नहीं चलेगा, इसमें कोई वैज्ञानिकता नहीं है।

लेकिन गो-वध रुक सकता है, सभी वध रुक सकते हैं। हमें भोजन के संबंध में बड़े क्रांतिकारी कदम उठाने की जरूरत है। गो-वध के मैं पक्ष में नहीं हूं, लेकिन गो-वध विरोधियों के भी पक्ष में नहीं हूं। गो-वध विरोधी निपट नासमझी की बातें करते हैं। उनके पास कोई बहुत बड़ी योजना नहीं है जिससे कि गो-वध रुक सके। रुक तो जाना चाहिए। गऊ आखिरी जानवर होना चाहिए जो मारा जाए। वह विकास की पशुओं में आखिरी, मनुष्य के पहले की कड़ी है। उस पर दया होनी जरूरी है। उससे हमारे बहुत आंतरिक संबंध हैं। उनका ध्यान रखना जरूरी है। लेकिन, यह ध्यान तक तक ही रखा जा सकता है जब सुविधा हो सके, अन्यथा नहीं रखा जा सकता है। एक छोटी-सी कहानी मैं कहूं–

परसों ही रास्ते में मैं कह रहा था। एक पादरी एक चर्च में व्याख्यान करने को गया है। कोई तीन-चार मील का फासला है और पहाड़ी रास्ता है, ऊंचा-नीचा रास्ता है, बूढ़ा पादरी है। उसने गांव के अपने एक तांगेवाले को कहा कि मुझे वहां तक पहुंचा दो, जो तुम पैसे लो, ले लेना। उस तांगेवाले ने कहा कि ठीक है, पैसे तो ठीक हैं, लेकिन मेरा बूढ़ा घोड़ा है गफ्फार, उसका जरा ध्यान रखना पड़ेगा। तो उसने कहा, यह तो ठीक ही है, तुम जितनी दया घोड़े पर करते हो, उससे कम मैं नहीं करता। घोड़े का ध्यान रखा जाएगा।

फिर यात्रा शुरू हुई। कोई आधा मील बीतने के बाद ही चढ़ाई शुरू हुई, तो उस तांगेवाले ने कहा, अब कृपा करके आप नीचे उतर जाएं। घोड़ा बूढ़ा है, और ध्यान रखना जरूरी है। पादरी नीचे उतर गया। फिर ऐसा ही चलता रहा। घाट आता, पादरी को नीचे उतरना पड़ता। कभी-कभी घाट और ज्यादा आ जाता, तो तांगेवाले को भी नीचे उतरना पड़ता। चार मील के रास्ते पर मुश्किल से एक मील पादरी तांगे में बैठा, तीन मील नीचे चला। और जो असली जगह जहां तांगे की जरूरत थी वहां पैदल चला और जहां तांगे की जरूरत नहीं थी वहां तांगे में बैठा। जब वे चर्च के पास पहुंच गए और तांगेवाले को पादरी ने पैसे चुकाए तो उसने कहा पैसे तो तुम लो, लेकिन एक सवाल का जवाब देते जाओ। मैं तो यहां भाषण देने आया, समझ में आता है। तुम पैसा कमाने आए, वह भी समझ में आता है। गफ्फार को किसलिए लाए हो? हम दोनों आते तो भी आसान पड़ता। इस बेचारे गफ्फार को किसलिए लाए हो?

जीवन आवश्यकताओं में जिआ जाता है, सिद्धांतों में नहीं। आदमी मरने के करीब है, गाय नहीं बचाई जा सकती। गाय बचाई जा सकती है, आदमी इतने “एफयुलेंस’ में हो जाए कि गाय को बचाना “एफॅर्ड’ कर सके। फिर गाय भी बचाई जा सकती है। फिर और जानवर भी बचाए जा सकते हैं। क्योंकि गाय अगर एक कड़ी पीछे है, तो दूसरे जानवर थोड़ी और कड़ी पीछे हैं। मछली भी मां तो है, जरा रिश्ता दूर का है। और तो कुछ बात नहीं है। अगर गाय मां है, तो मछली मां क्यों नहीं है? जरा रिश्ता दूर का है, बस इतना ही फर्क है। लेकिन जैसे-जैसे आदमी समृद्ध होता चला जाए, सुविधा जुटाता जाए, वह गाय को ही क्यों बचाएगा, वह मछली को भी बचाएगा।

बचाने की दृष्टि तो साफ होनी चाहिए। लेकिन बचाने का आग्रह सुविधाएं न हों तो मूढ़तापूर्ण हो जाता है।

अब ध्यान के लिए बैठें, शेष फिर कल पूछेंगे।


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पतंजलि: योगसूत्र–(भाग–5) प्रवचन–89

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कैवल्‍य: परम एकांत—(प्रवचन—नौवां)

योग—सूत्र:

(विभूतिपाद)

सत्त्वपुरुषके शुद्धिसाम्पे कैबल्‍यम्।। 56।।

जब पुरुष और सत्व के मध्य शुद्धता में साम्य होता है, तभी कैवल्य उपलब्ध हो जाता है।

 छान्दोग्य उपनिषद में एक सुंदर कथा है। आओ हम इसी से आरंभ करें।

सत्‍यकाम ने अपनी मां जाबाला से पूछा. मां, मैं परम ज्ञान के विद्यार्थी के रूप में जीवन जीना चाहता हूं। मेरा पारिवारिक नाम क्या है? मेरे पिता कौन हैं?

मेरे बच्चे, मां ने उत्तर दिया, मुझे ज्ञात नहीं; अपनी युवावस्था में जब मैं सेविका का कार्य करती थी तो मैंने अनेक पुरुषों का संसर्ग करते हुए अपने गर्भ में तुम्हें धारण किया था, मैं नहीं जानती कि तुम्हारा पिता कौन है—: मैं जाबाला हूं और तुम सत्यकाम हो, इसलिए तुम स्वयं को सत्यकाम जाबाल कहो।

तब वह बालक उस समय के महान ऋषि गौतम के पास गया और उनसे स्वयं को शिष्य की भांति स्वीकार किए जाने के लिए कहा। वत्स, तुम किस परिवार से हो? ऋषि ने पूछा।

सत्यकाम ने उत्तर दिया. मैंने अपनी मां से पूछा था कि मेरा गोत्र, पारिवारिक नाम क्या है? और उन्होंने उत्तर दिया : मुझे शात नहीं; अपनी युवावस्था में जब मैं सेविका का कार्य करती थी तो मैंने अनेक पुरुषों का संसर्ग करते हुए अपने गर्भ में तुम्हें धारण किया था, मैं नहीं जानती कि तुम्हारा पिता कौन है— मैं जाबाला हूं और तुम सत्यकाम हो, इसलिए तुम स्वयं को सत्यकाम जाबाल कहो, श्रीमन् अत: मैं सत्यकाम जाबाल हूं।

ऋषि ने उससे कहा : एक सच्चे बाह्मण, सत्य के सच्चे खोजी के सिवा यह कोई नहीं कह सकता। वत्स, तुम सत्य से विचलित नहीं हुए हो। मैं तुम्हें उस परम ज्ञान की शिक्षा दूंगा।

साधक का पहला गुण प्रमाणिक होना, सत्य से विचलित न होना, किसी प्रकार से भी धोखा न देना है,। क्योंकि यदि तुम दूसरों को धोखा देते हो, तो अंततोगत्वा अपनी धोखेबाजियो से तुम ही धोखा खाते हो। यदि तुम एक ही झूठ को अनेक बार बोलो तो यह तुमकी करीब—करीब सच जैसा ही प्रतीत होने लगता है। जब दूसरे तुम्हारे झूठों में विश्वास करने लगते हैं, तो तुम भी उनमें विश्वास करना आरंभ कर देते हो। विश्वास छूत की बीमारी है।

इसी प्रकार से हम उस उपद्रव में आ गए हैं, जिसमें हम अभी हैं।

पहला असत्य जिसको हमने सत्य की भांति स्वीकार कर लिया है वह है, मैं शरीर हूं। हर व्यक्ति इसमें विश्वास रखता है। तुम ऐसे समाज में जन्में हो, जिसको विश्वास है कि हम शरीर हैं। प्रत्येक शरीर की भांति प्रतिक्रिया करता है, कोई भी आत्मा की भांति प्रत्युत्तर नहीं देता।

और प्रतिक्रिया तथा प्रत्युत्तर के बीच का भेद याद रखो। प्रतिक्रिया यांत्रिक है, प्रत्युत्तर सजग, बोधपूर्ण, चेतन है। जब तुम एक बटन दबाते हो और पंखा घूमना आरंभ कर देता है तो यह प्रतिक्रिया है। जब तुम बटन दबाते हो, तो पंखा सोचना शुरू नहीं करता कि क्या मैं घूमूं या न घूमूं। जब तुम प्रकाश खोलते हो, विद्युत प्रत्युत्तर नहीं देती, यह प्रतिक्रिया करती है। यह यांत्रिक है। बिजली के सक्रिय हो जाने में और तुम्हारे द्वारा बटन दबाए जाने में कोई अंतराल नहीं होता। वहां विचार का, जागरुकता का, चेतना का, जरा सा अंतराल भी नहीं होता।

यदि तुम अपने जीवन में प्रतिक्रिया करते चले जाओ—किसी ने तुम्हारा अपमान किया है और तुम क्रोधित हो उठे, किसी ने कुछ कह दिया है और तुम उदास हो गए, किसी ने कुछ बात कह दी है, तुम अति प्रसन्न हो गए हों—यदि यह प्रतिक्रिया है, बटन दबा कर सक्रिय हो जाने की प्रतिक्रिया, तो धीरे— धीरे तुम विश्वास करना आरंभ कर दोगे कि तुम शरीर हो।

यह शरीर एक यांत्रिकता है। यह तुम नहीं हो। तुम इसमें रहते हो, यह तुम्हारा आवास है, लेकिन तुम यह नहीं हो। तुम पूर्णत: भिन्न हो।

यह वह पहला झूठ है जो जीवन को पंगु बना देता है। फिर एक दूसरा असत्य है कि मैं मन हूं। और यह पहले से अधिक गहरा है, स्पष्ट है, क्योंकि मन शरीर की तुलना में तुम्हारे अधिक निकट है। तुम विचार सोचते रहते हो, स्वप्न देखते रहते हो और वे तुम्हारे इतना निकट आ जाते हैं, कि तुम्हारे अस्तित्व को करीब—करीब छूने लगते हैं, तुमको चारों ओर से घेरे हुए, तुम उनमें भी विश्वास करने लगते हो। तब तुम मन हो जाते हो। मन भी प्रतिक्रिया करता है।

जिस क्षण तुम प्रत्युत्तर देना आरंभ करते हो तुम आत्मा हो जाते हो। प्रत्युत्तर का अभिप्राय है कि अब तुम यांत्रिक ढंग से प्रतिक्रिया नहीं कर रहे हो। तुम मनन करते हो, तुम ध्यान करते हो, तुम अपनी चेतना को निर्णय करने के लिए अंतराल देते हो। निर्णायक तत्व तुम हो। कोई तुम्हारा अपमान करता है, प्रतिक्रिया में निर्णायक तत्व वह है। तुम बस प्रतिक्रिया करते हो, वह तुम्हारी क्रिया को प्रभावित करता है। प्रत्युत्तर में तुम निर्णायक तत्व हो; किसी ने तुम्हारा अपमान किया है—यह बात प्राथमिक नहीं है, यह बात दूसरे स्थान पर है। तुम इस पर विचार करते हो। तुम निर्णय करते हो यह करना है या वह करना है। तुम इससे उद्वेलित नहीं हुए हो। तुम अस्पर्शित रहते हो, तुम अलग रहते हो, तुम दृष्टा बने रहते हो।

इन दोनों असत्यों को खंडित करना पड़ेगा। ये आधारभूत असत्य हैं, मैं उन लाखों असत्यों को नहीं गिन रहा हूं जो आधारभूत नहीं है। तुम स्वयं का नाम के साथ तादात्म्य किए चले जाते हो। नाम महज एक उपयोगिता एक लेबल है। तुम नाम के साथ नहीं आते हो और तुम नाम के साथ जाते भी नहीं हो। नाम तो बस समाज के द्वारा उपयोग में लाया जाता है, किसी समाज में नाम के बिना रह पाना कठिन होगा। वरना तो तुम नाम विहीन हो। फिर तुम सोचते हो कि तुम किसी धर्म, किसी निश्चित जाति से जुडे हुए हो। तुम सोचते हो कि तुम एक व्यक्ति से संबंधित हो जो तुम्हारा पिता है, एक स्त्री जो तुम्हारी माता है। हां तुम उनके माध्यम से आए हो, लेकिन तुम उनसे संबंधित नहीं हो। वे रास्ता रहे हैं, तुमने उनसे यात्रा की है किंतु तुम भिन्न हो।

खलील जिब्रान की श्रेष्ठ कृति ‘दि प्रॉफेट’ में एक स्त्री मसीहा अलमुस्तफा से पूछती है, हमें हमारे बच्चों के बारे में कुछ बताइए, और अलमुस्तफा कहता है, वे तुम्हारे द्वारा आते है, लेकिन तुम्हारे नहीं हैं, उनको प्रेम करो, किंतु अपने विचार उन पर आरोपित मत करो। उन्हें प्रेम करो, क्योंकि प्रेम स्वतंत्रता देता है, लेकिन उन पर मालकियत मत करो।

तुम्हारा अंतर्तम केंद्र किसी से संबद्ध नहीं है, इस पर किसी की मालकियत नहीं है। यह कोई वस्तु नहीं है, इस पर मालकियत नहीं की जा सकती। तुम्हारी देह पर मालकियत की जा सकती है, तुम्हारे मन पर भी मालकियत की जा सकती है।

जब तुम मुसलमान हो जाते हो, तो तुम्हारे मन पर लोगों की मालकियत हो जाती है, जो स्वयं को मुसलमान कहते हैं। जब तुम हिंदू हो जाते हो, तुम्हारा मन उन लोगों द्वारा अधिकृत कर लिया जाता है, जो स्वयं को हिंदू कहते हैं। जब तुम साम्यवादी हो जाते हो, तुम पर दास कैपिटल, का कब्जा हो जाता है। जब तुम ईसाई बन जाते हो तुम पर बाइबिल का स्वामित्व होता है। जब तुम स्वयं को देह के रूप में सोचते हो, तो तुम स्वयं काले या गोरे की भांति सोच लेते हो।

तुम्हारा अंतर्तम केंद्र न ईसाई है, न हिंदू तुम्हारा अंतर्तम केंद्र न तो गोरा है, न काला, तुम्हारा अंतर्तम केंद्र न तो साम्यवादी है और न ही गैर—साम्यवादी। तुम्हारा अंतर्तम केंद्र शरीर और मन से नितांत अलग रहता है। यह शरीर से परे है और मन से उच्चतर है। मन इसे छू नहीं सकता, शरीर इस तक पहुंच नहीं सकता।

महर्षि गौतम ने सत्यकाम जाबाल को क्यों स्वीकार कर लिया? वह सच्चा था। वह धोखा दे सकता था, उसका भटक जाना आसान था। इस संसार में लोगों से कहते फिरना, मैं नहीं जानता, मेरा पिता कौन है, अत्यंत अपमान जनक है। और मां भी सच्ची थी। बच्चे को धोखा दे देना आसान है, क्योंकि बच्चे के पास यह खोजने का कोई साधन नहीं है कि तुम उसे धोखा दे रही हो या नहीं। जब कोई बच्चा अपनी मां से पूछता है, संसार को किसने बनाया? तो मां के लिए यह कह देना बहुत सरल है, ईश्वर ने संसार को बनाया—बिना इस बात को जरा भी जाने कि वह क्या कह रही है।

यही इस बात का मूलभूत कारण है कि बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो वे अपने मां—बाप के करीब— करीब विरोधी क्यों हो जाते हैं; वे उनको कभी क्षमा नहीं कर सकते, क्योंकि मां—बाप ने बहुत अधिक झूठ बोला है। उन्होंने बच्चों की नजर में अपनी सारी इज्जत खो दी है। माता—पिता कहे चले जाते हैं, क्यों? हमने तुमको प्रेम किया। हमने तुमको बड़ा किया। हम जो सर्वश्रेष्ठ कर सकते थे, वह हमने किया। बच्चे हमारा सम्मान क्यों नहीं करते? तुमने अपने असत्यों के कारण अवसर खो दिया है। एक बार बच्चा खोज लेता है कि माता और पिता असत्य बोल रहे हैं, सारा सम्मान खो जाता है। एक छोटे असहाय बच्चे से धोखा? उन बातों को कहना जिनके बारे में तुम्हें कुछ भी पता नहीं?

—वह जाबाला एक दुर्लभ मां थी। उसने कहा, मुझे शात नहीं, तुम्हारा पिता कौन है? उसने स्वीकार किया कि जब वह युवा थी तो वह अनेक पुरुषों के साथ रही थी, उसने अनेक पुरुषों को प्रेम किया था, इसलिए वह नहीं जानती है कि पिता कौन है। एक सच्ची मां। और बच्चा भी बहादुर था। उसने यही अपने गुरु से कहा, उसने ठीक—ठीक वे ही शब्द दोहरा दिए जो मां ने कहे थे।

यह सत्य गौतम को जंच गया। और उन्होंने कहा, तुम एक सच्चे ब्राह्मण हो। यह ब्राह्मण होने की परिभाषा है, एक सच्चा व्यक्ति ही ब्राह्मण है। ब्राह्मण को किसी जाति से कुछ भी लेना देना नहीं है। यह शब्द ही ब्रह्म से आता है, इसका अर्थ है परमात्मा का खोजी, एक सच्चा प्रमाणिक खोजी।

स्मरण रखो जितना अधिक तुम असत्यों में संलग्न होते जाते हो, आरंभ में वे चाहे कितने लाभकारी प्रतीत होते हों, अंत में तुम पाओगे कि उन्होंने तुम्हारे समग्र अस्तित्व को विषाक्त कर दिया है।

प्रमाणिक बनो। यदि तुम प्रमाणिक हो तो कभी न कभी तुम खोज हो लोगे कि तुम देह नहीं हो। क्योंकि प्रमाणिकता एक असत्य में विश्वास नहीं करती रह सकती है। स्पष्टता का उदय होता है, आंखें और ग्रहणशील हो जाती हैं और तुम देख सकते हो कि तुम शरीर में निश्चित रूप से हो लेकिन तुम शरीर नहीं हो। जब हाथ टूट जाता है तो तुम नहीं टूटते। जब तुम्हारे पांव में अस्थिभंग होता है तो तुम खंडित नहीं होते। जब सर में दर्द होता है, तो तुम सरदर्द को जानते हो, तुम स्वयं तो सरदर्द नहीं हो। जब तुम्हें भूख अनुभव होती है, तुम जानते हो कि भूख लगी है, लेकिन तुम भूखे नहीं हो। धीरे— धीरे मूलभूत असत्य विनष्ट हो जाता है। तब तुम और गहराई में जा सकते हो और अपने विचारों, स्‍वप्‍नों को अपनी चेतना में तैरता हुआ देख सकते हो। तभी तुम विभेद कर सकते हो, अंतर कर सकते हो—जिसे पतंजलि विवेक कहते हैं—तभी तुम विभेद कर सकते हो कि क्या बादल है और क्या आकाश।

विचार रिक्त स्थान में घूमते बादलों की भांति हैं। वह रिक्त स्थान ही वास्तविक आकाश है, बादल नहीं — वे आते हैं और चले जाते हैं। विचार नहीं बल्कि वह रिक्त स्थान, जिस में वे विचार प्रकट और विलीन होते हैं।

अब मैं तुम्हें तुम्हारे अस्तित्व की एक परम आधारभूत यौगिक संरचना के बारे में बताता हूं।

जैसे कि भौतिकविद सोचते हैं कि यह सब और कुछ नहीं बल्कि इलेक्ट्रानों, विद्युत—ऊर्जा से निर्मित है, योग की सोच है कि यह सब और कुछ नहीं वरन ध्वनि—अणुओं से निर्मित है। अस्तित्व का मूल तत्व, योग के लिए, ध्वनि है, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं बल्कि एक तरंग है। जीवन और कुछ नहीं बल्कि ध्वनि की एक अभिव्यक्ति है। ध्वनि से हमारा आगमन होता है और पुन: हम ध्वनि में विलीन हो जाते हैं। मौन, आकाश, शून्यता, अनस्तित्व, तुम्हारा अंतर्तम केंद्र, चक्र की धुरी है। जब तक कि तुम उस मौन, उस आकाश तक न आ जाओ, जहां तुम्हारे शुद्ध अस्तित्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता, मुक्ति उपलब्ध नहीं होती। यह योग का संरचना तंत्र है।

वे तुम्हारे अस्तित्व को चार पर्तों में बांटते हैं। मैं जो तुमसे बोल रहा हूं यह अंतिम पर्त है। योग इसको वैखरी कहता है, इस शब्द का अर्थ है : फलित, पुष्पित हो जाना। लेकिन इसके पूर्व कि मैं तुमसे बोलूं इसके पूर्व कि मैं किसी बात का उच्चारण करूं, यह मेरे लिए एक अनुभूति का आकार, एक अनुभव का रूप ग्रहण कर लेती है, यह तीसरी पर्त है। योग इसे मध्यमा, बीच की कहता है। लेकिन इसके पूर्व कि भीतर कुछ अनुभव हो यह बीज—रूप गतिशील होता है। सामान्यत: तुम इसका अनुभव नहीं कर सकते हो जब तक कि तुम बहुत ध्यानपूर्ण न हो, जब तक कि तुम पूरी तरह से इतने शांत न हो चुके हो कि ऐसे बीज में जो अंकुरित भी न हुआ हो, में होने वाले प्रकंपन को भी अनुभव कर सको, जो बहुत सूक्ष्म है। योग इसे पश्यंती कहता है, पश्यंती का अर्थ है. पीछे लौट कर देखना, स्रोत की ओर देखना। और इसके परे तुम्हारा आधारभूत अस्तित्व है जिससे सब कुछ निकलता है, यह ‘परा’ कहलाता है। परा का अर्थ है : जो सबसे परे है।

अब इन चार पर्त्तों को समझने का प्रयास करो। परा सभी रूपों से परे कुछ है। पश्यंती बीज के समान है। मध्यमा वृक्ष जैसी है। वैखरी फलित हो जाने, पुष्पित हो जाने जैसी है।

मैं पुन: छान्दोग्य उपनिषद से एक कथा तुम्हें सुनाता हूं :

उस वटवृक्ष से मेरे लिए एक फल तोड़ कर तो लाना, महर्षि उद्दालक ने अपने पुत्र से कहा।

यह लीजिए पिताश्री, श्वेतकेतु ने कहा।

इसे तोड़ो।

यह टूट गया, ऋषिवर।

इसके तुम्हें भीतर क्या दिखाई दे रहा है?

इसके बीज, असंख्य हैं ये तो।

उनमें से एक को तोड़ो।

यह टूट गया, ऋषिवर।

तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?

कुछ नहीं, ऋषिवर, बिलकुल कुछ भी नहीं।

पिता ने कहा. वत्स, वह सूक्ष्म सार जिसको तुम वहां नहीं देख पा रहे हो, उसी सार—तत्व से यह वटवृक्ष अस्तित्व में आता है। विश्वास करो वत्स कि यह सार—तत्व है, जिसमें सारी चीजों का अस्तित्व है। यही सत्य है। यही स्व है। और श्वेतकेतु वही तुम हो—तत्वमसि श्वेतकेतु!

वटवृक्ष एक बड़ा वृक्ष है। पिता ने एक फल लाने को कहा, श्वेतकेतु उसे लेकर आया। फल वैखरी है—वह चीज पुष्पित हो चुकी है, फल लग गए। फल सर्वाधिक परिधिगत घटना है, मूर्तमान होने की पराकाष्ठा। पिता कहता है, इसे तोड़ो। श्वेतकेतु उसे तोड़ता है—लाखों बीज हैं उसके भीतर। पिता कहते हैं, एक बीज चुन लो, इसे भी तोड़ो। वह उस बीज को भी तोड़ता है। अब हाथ में कुछ न रहा। अब बीज के भीतर कुछ भी नहीं है। उद्दालक ने कहा : इस शून्यता से बीज आता है, इस बीज से वृक्ष का जन्म होता है, वृक्ष में फल लगते हैं। लेकिन आधार है—शून्यता, मौन, आकाश, अमूर्त, निराकार, पार, वह जो सबसे परे है।

वैखरी की अवस्था में तुम बहुत अधिक संशयग्रस्त होते हो, क्योंकि तुम अपने अस्तित्व से सर्वाधिक दूर हो। यदि तुम अपने अस्तित्व में थोड़ा गहरे उतरो, जब तुम ‘मध्यमा’ के तीसरे बिंदु के निकट आते हो तब तुम अपने अस्तित्व के और समीप आ जाते हो। यही कारण है कि इसे मध्यम, सेतु कहा जाता है। इसी प्रकार से एक ध्यानी अपने अस्तित्व में प्रवेश करता है। इसी प्रकार से मंत्र का प्रयोग किया जाता है

जब तुम किसी मंत्र का प्रयोग करते हो और तुम उसे लयपूर्वक दोहराते हो—ओम ओम ओम.. .पहले इसे जोर से दोहराना है वैखरी। फिर तुमको अपने ओंठ बंद करना पड़ते हैं और अंदर इसे दोहराना होता है—ओम ओम ओम.. .कोई ध्वनि बाहर नहीं आती : मध्यमा। फिर तुम्हें भीतर दोहराना भी छोड़ देना पड़ता है दोहराना स्वत: होता है; इसके साथ तुम इस भांति लयबद्ध हो जाते हो कि जब तुम इसे दोहराना छोड़ देते हो और यह अपने आप से ही जारी रहता है—ओम ओम ओम… अब इसको दोहराने के स्थान पर तुम श्रोता बन जाते हो, तुम सुन सकते हो, निरीक्षण कर सकते हो और देख सकते हो : यह पश्यंती बन गया है। पश्यंती का अर्थ है. पीछे लौट कर स्रोत को देखना। अब तुम्हारी आंखें स्रोत की ओर घूम गई हैं तब धीरे— धीरे यह ओम भी निराकार में विलीन हो जाता है अचानक वहां शून्यता होती है और कुछ भी नहीं होता। तुम ओम ओम ओम… नहीं सुनते; तुम कुछ भी नहीं सुनते। न तो वहां सुनने के लिए कुछ होता है, न ही सुनने वाला होता है। सभी कुछ तिरोहित हो चुका है।)

‘तत्वमसि श्वेतकेतु!’ उद्दालक ने अपने पुत्र से कहा, तुम वही हो। वही शून्यता, जहां मंत्रोच्चारक और मंत्रोच्चार दोनों विलीन हो चुका है।

अब यदि तुम वस्तुओं से अत्याधिक आसक्त हो, तो तुम वैखरी की दशा में रहोगे। यदि तुम अपने शरीर से अत्याधिक आसक्त हो, तो तुम मध्यमा की दशा में रहोगे। यंदि तुम अपने मन से अत्याधिक आसक्त हो, तुम पश्यंती की अवस्था में रहोगे। और यदि तुम जरा भी आसक्त नहीं हो, तो अचानक तुम परा में, जो परे है, जो सबके पार है, उसमें विलीन हो जाते हो। यही मुक्ति है।

मुक्त होने का अभिप्राय है. घर वापस लौट आना। हम दूर निकल गए हैं, हूं. .जरा देखो। शून्यता से बीज आता है, फिर बीज से अंकुर, और फिर एक विशाल वृक्ष, फिर फल और फूल। चीजें कितनी दूर तक जाती हैं। लेकिन फल पुन: पृथ्वी पर वापस गिर पड़ता है; वर्तुल पूरा हुआ। मौन आरंभ है, मौन ही अंत है। शुद्ध आकाश से हमारा आगमन होता है और शुद्ध आकाश में हम चले जाते हैं। यदि वर्तुल पूरा न हो तो तुम्हारा अस्तित्व किसी विशेष बात से ग्रसित रहेगा, जहां पर तुम लगभग जड़ हो जाओगे। और तुम गतिशील न हो पाओगे, और तुम गत्यात्मकता, ऊर्जा, जीवन को खो चुके होते हो।

योग तुमको इतना जीवंत कर देना चाहता है कि तुम जीवन का सारा वर्तुल पूर्ण कर सको, और तुम पुन: ठीक प्रारंभ पर आ सको। अंत और कुछ नहीं वरन ठीक प्रारंभ है। लक्ष्य और कुछ नहीं वरन स्रोत है। ऐसा नहीं है कि हम कोई पहली बार परमात्मा को उपलब्ध करने जा रहे हैं। पहली बात तो यह कि वह हमारे पास था। हमने उसे खोया है। हम उसे पुन: प्राप्त, उपलब्ध कर रहे होंगे। परमात्मा कभी कोई खोज नहीं होता, यह सदैव पुनखोंज है। हम उस शांति, मौन और आनंद के गर्भ में रहे थे, लेकिन हम बहुत दूर निकल गए थे।

बहुत दूर निकल जाना भी विकास का ही एक अंग था, क्योंकि यदि तुम अपने घर से कभी बाहर नहीं निकले हो, तुम कभी न जान पाओगे कि घर क्या है। यदि तुम घर से कभी बहुत दूर नहीं गए, तो तुम अपने घर का सौंदर्य, शांति, सुविधा और विश्राम कभी न जान पाओगे। अपने स्वयं के घर आने के लिए व्यक्ति को अनेक द्वारों पर दस्तक देनी ‘पड़ती है। अपने आप पर वापस लौटने के लिए व्यक्ति को अनेक चीजों से ठोकर खानी पड़ती है। उचित पथ पर आ पाने के लिए व्यक्ति को भटकना पड़ता है।

विकास के लिए यह आवश्यक, परम आवश्यक है, किंतु किसी एक स्थान से आसक्त नहीं होना है। लोग आसक्त हैं। कुछ लोग अपने शरीर से, अपनी शारीरिक आदतों से आसक्त हैं। कुछ लोग अपने मन, विचारधाराओं, विचारों, स्‍वप्‍नों के ढंग—ढांचों से आसक्त हैं।

कठोपनिषद कहता है. ‘विषयों से परे ज्ञानेंद्रिया हैं। ज्ञानेंद्रियों से परे मन है। मन के पार बुद्धि है। बुद्धि के पार आत्मा है। आत्मा के पार अरूप है। अरूप से परे ब्रह्म है। और ब्रह्म के पार कुछ भी नहीं है।’ यही अंत है, शुद्ध चैतन्य।

और इस शुद्ध चैतन्य को अनेक पथों से उपलब्ध किया जा सकता है। असली बात पथ नहीं है। असली बात है साधक की प्रमाणिकता। मेरा जोर इसी पर है।

तुम किसी भी पथ से यात्रा कर सकते हो। यदि तुम निष्ठावान और प्रमाणिक हो तो तुम लक्ष्य पर पहुंचोगे। कुछ पथ कठिन हो सकते हैं, कुछ पथ सरलतर हो सकते हैं, किन्हीं के दोनों ओर हरियाली हो सकती है, कुछ मरुस्थलों से होकर निकल सकते हैं, किन्हीं के चारों ओर सुंदर दृश्यावलियां हो सकती हैं, कुछ ऐसे हो सकते हैं जिनके चारों ओर कोई दृश्यावली न हो, यह दूसरी बात है; लेकिन यदि तुम निष्ठावान और ईमानदार और प्रमाणिक और सच्चे हो तब प्रत्येक पथ लक्ष्य तक ले जाता है। श्रीमद्भगवतगीता में कृष्ण ने कहा है. लोग चाहे जिस रास्ते पर यात्रा करें वह मेरा पथ है। इससे अंतर नहीं पड़ता कि वे किस रास्ते पर कहा चल रहे हैं, वह मुझ तक लाता है।

तो इसे सरलतापूर्वक एक बात में संक्षिप्त किया जा सकता है कि प्रमाणिकता ही पथ है। इससे अंतर नहीं पड़ता कि तुम कौन से पथ पर चलते हो, यदि तुम प्रमाणिक हो तो प्रत्येक पथ उसी तक ले जाता है। और इससे विपरीत बात भी सत्य है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि तुम किस पथ पर चलते हो, यदि तुम प्रमाणिक नहीं हो तो तुम कहीं नहीं पहुंचोगे। तुम्हारी प्रमाणिकता ही तुम्हें घर वापस लाती है और कोई नहीं। सारे पथ दूसरे स्थान पर हैं। आधारभूत बात है. प्रमाणिक होना, सच्चा होना।

एक सूफी कहानी है:

किसी व्यक्ति ने सुना कि यदि वह सूर्योदय के समय मरुस्थल में एक निश्चित स्थान पर दूर स्थित पर्वत की ओर मुंह करके खड़ा हो जाए तो उसकी छाया से किसी गढ़े हुए बड़े खजाने का पता लग जाएगा। उस व्यक्ति ने दिन की पहली किरण फूटने से पूर्व ही अपना स्थान छोड़ दिया और वहां पहुंच कर सूर्योदय के समय निर्धारित स्थान पर खड़ा हो गया। रेत की सतह पर उसकी लंबी और पतली छाया पड़ रही थी। कितना किस्मत वाला हूं मैं, उसने सोचा और स्वयं को विशाल खजाने के मालिक की भांति अपनी कल्पना में देखा। उसने खजाने के लिए खुदाई आरंभ कर दी। वह अपने कार्य में इतना रम गया कि उसको ध्यान ही न रहा कि सूर्य आकाश में ऊपर उठ रहा है और उसकी छाया छोटी होती जा रही है, और

तभी उसने इस बात को देखा। अब यह अपने पुराने आकार से लगभग आधी हो गई थी। उसे चिंता हुई और वह पुन: नये स्थान पर खोदने लगा। कुछ घंटों बाद, दोपहर में वह व्यक्ति पुन: वहीं खड़ा हुआ। अब उसकी कोई छाया नहीं थी। वह बहुत चिंतातुर हो गया। उसने रोना और चिल्लाना शुरू कर दिया—उसका सारा श्रम व्यर्थ गया था। अब कहां है वह स्थान?

तभी एक सूफी सदगुरु वहां से निकला, जो उस पर हंसने लगा और बोला, छाया अब बिलकुल ठीक खजाने की ओर संकेत कर रही है। वह तुम्हारे भीतर है।

सारे रास्ते उस तक पहुंचा सकते हैं क्योंकि एक अर्थ में वह मिला ही हुआ है। वह तुम्हारे भीतर है। तुम कुछ नया नहीं खोज रहे हो। तुम कुछ ऐसा खोज रहे हो जिसे तुम भुला चुके हो, और तुम वास्तव में इसे कैसे भूल सकते हो? यही कारण है हम आनंद की खोज किए चले जाते हैं क्योंकि हम इसे भुला नहीं सकते। यह हमारे भीतर प्रतिध्वनित होता रहता है। आनंद की खोज, हर्ष की खोज, सुख की खोज और कुछ नहीं बल्कि परमात्मा की खोज है। तुमने संभवत: ‘परमात्मा’ शब्द प्रयोग न किया हो, इससे कोई अंत्र नहीं पड़ता, लेकिन आनंद की सारी खोज परमात्मा की खोज है—किसी ऐसी बात की खोज है जिसे थे कि तुम्हारा था और तुमने उसे खो

तुम जानते दिया।

इसीलिए सारे संतों ने कहा है : ‘स्मरण करो।’ बुद्ध इसे ‘सम्यक स्मृति, ‘ ठीक से याद रखना, कहते हैं। नानक इसे ‘नाम—स्मरण, ‘ नाम को याद रखना, पते को याद करना, कहते हैं। क्या तुमने नहीं देखा है कि अनेक बार ऐसा होता है—तुम्हें कोई बात पता है, तुम कहते हो, ‘यह ठीक मेरी जीभ की नोक पर रखी है, लेकिन फिर भी याद नहीं आ रही है।’ परमात्मा तुम्हारी जीभ की नोक पर है।

एक छोटे से स्कूल में रसायन विज्ञान के अध्यापक ने ब्लैक बोर्ड पर एक रासायनिक यौगिक का सूत्र लिख दिया और उसने एक छोटे से बच्चे को खड़े होकर बताने को कहा कि यह सूत्र किस यौगिक का प्रतिनिधित्व करता है? बच्चे ने देखा और वह बोला : सर, यह तो बस मेरी जीभ की नोक पर रखा है, लेकिन मुझे याद नहीं आ रहा है।

शिक्षक ने कहा : इसे थूक दो! इसे फौरन थूक दो! यह पोटेशियम साइनाइड, तीव्रतम विष है।

परमात्मा भी जीभ की नोक पर है। और मैं तुमसे कहूंगा, इसे गटक लो! इसको गटक जाओ! इसे बाहर मत थूको! यह परमात्मा है! उसे तुम्हारे रक्त में घुल—मिल जाने दो। उसे अपने अंतर्तम की तरंगों का अवयव बन जाने दो। उसको अपने अस्तित्व के भीतर का गीत, नृत्य बन जाने दो।

शरीर के साथ यह तादात्म एक आदत है और कुछ नहीं। जब बच्चा पैदा होता है तो उसे पता नहीं होता कि वह कौन है और मां—बाप को कुछ पहचान निर्मित करना पड़ती है, अन्यथा वह इस संसार में खो जाएगा। उन्हें उसको बताना पड़ता है कि वह कौन है। वे भी नहीं जानते हैं। उन्हें एक झूठा लेबल निर्मित करना पड़ता है। उसको वे एक नाम दे देते है, वे उसे एक दर्पण दे देते हैं और वे उससे कहते हैं, देखो, यह है तुम्हारा चेहरा। देखो, यह है तुम्हारा नाम है। देखो, यह है तुम्हारा घर है। देखो, यह है तुम्हारी जाति, तुम्हारा धर्म, तुम्हारा देश। ये पहचाने उसे अनुभव करने में सहायक होती हैं कि वह—बिना जाने कि वह कौन है, कौन है। ये आदतें हैं।

फिर धीरे— धीरे उसका मन विकसित होना आरंभ होता है। यदि वह हिंदू घर में जन्मा है, तो वह गीता पढ़ता है, गीता की बात सुनता है। यदि उसका जन्म ईसाई घर में हुआ है, तो उसे चर्च लाया जाता है। एक नई पहचान आरंभ हो जाती है, यह अंतर्तम पहचान है—वह ईसाई, हिंदू मुसलमान बन जाता है। उसका जन्म भारत में हुआ था, वह भारतीय बन जाता है। चीन में वह चीनी बन जाता है। और वह स्वयं को उस देश की परंपराओं से संबद्ध करना आरंभ कर देता है। एक चीनी व्यक्ति स्वयं को चीनी परंपरा और इतिहास, चीन के अतीत से पहचानता है। फिर व्यक्ति घर जैसा अनुभव करता है—उसकी जड़ें सारी परंपरा में होती हैं। यदि व्यक्ति भारतीय है, उसकी जड़ें भारतीय परंपरा में होती हैं, व्यक्ति बेघर नहीं होता। उस व्यक्ति ने परंपरा में, देश में, इतिहास में, महानायकों—राम, कृष्य में अपना ठिकाना बना लिया है—वह अब घरेलूपन अनुभव करता है। व्यक्ति ने अपना स्थान खोज लिया है, लेकिन यह कोई वास्तविक स्थान नहीं है। यह पहचान मात्र एक उपयोगिता है।

और फिर यह आदत इतनी मजबूत हो जाती है कि यदि किसी दिन तुम्हें पता लगे कि जो तुम स्वयं को समझ रहे थे—भारतीय, हिंदू मुसलमान, ईसाई, चीनी, कितना मूढ़तापूर्ण है यह सब, वह तुम नहीं हो—लेकिन फिर भी पुरानी आदत छूटेगी नहीं।

बर्ट्रेड रसल ने लिखा है कि उसे पता है कि अब वह ईसाई नहीं रहा, लेकिन किसी वजह से वह बार— बार इसे भूलता रहता है। वह सारे संस्कार…। तुम परंपरा के विरोध में जा सकते हो, लेकिन फिर भी तुम इससे चिपकोगे। वे लोग भी जो क्रांतिकारी हो गए, अपनी परंपरा से, भले ही वह नकारात्मक ढंग हो, आसक्त रहते हैं। यदि कोई हिंदू हिंदू धर्म के विरोध में चला जाता है, फिर भी वह कृष्‍ण के विरोध में बात करेगा, फिर भी वह राम के विरोध में बात करेगा। यदि कोई मुसलमान अपनी परंपरा के विरोध में जाता है, फिर भी वह कुरान की आलोचना करेगा; निःसंदेह अब वह आलोचना कर रहा है, मोहम्मद की आलोचना कर रहा है, किंतु वह परंपरा से चिपका रहता है।

यथार्थत: विद्रोही वह है जो परंपरा को इतनी गहराई से, इतना आत्यंतिक रूप से त्याग देता है कि वह इसके विरुद्ध भी नहीं होता। वह न पक्ष में होता है, न विपक्ष में, तब व्यक्ति मुक्त है। यदि तुम विरोध में हो, तो तुम अभी भी मुक्त नहीं हो। यदि तुम किसी बात के विरोध में हो, तो तुम पाओगे कि तुम उसी चीज से बंध गए हो, एक गांठ लग गई है।

और आदतें अचेतन में चली जाती हैं। मैं एक बहुत बड़े विद्वान, बहुत प्रसिद्ध, बहुत शिक्षित और वास्तव में महान बुद्धिजीवी को जानता हूं। वे एक लंबे समय, कोई चालीस सालों से जे. कृष्णमूर्ति के अनुयायी थे। और जब कभी वे मुझे मिलने आएंगे, वे बार—बार कहेंगे, ध्यान व्यर्थ बात है। आप लोगों को क्या सिखा रहे हैं? कृष्‍णमूर्ति कहते हैं—ध्यान व्यर्थ बात है, सारे मंत्र बस पुनरुक्तियां हैं; और सभी ध्यान—प्रयोग, सभी विधियां मन को संस्कारित करती हैं। और मैं ध्यान नहीं करता।

मैंने उन पर सत्य की चोट करने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा की। फिर वे बीमार पड़े, उन्हें दिल का दौरा पड़ा। उनको देखने के लिए मैं भागा हुआ गया और वे दोहरा रहे थे. राम राम राम…….मैं इस पर विश्वास न कर सका। मैंने उनका सिर हिलाया और कहा. यह आप क्या कर रहे है? राम राम राम…….आप तो कृष्णमूर्ति के अनुयायी हैं। क्या आप भूल गए?

वे बोले, उस बारे में सब कुछ भूल जाएं। मैं मर रहा हूं। और कौन जाने? हो सकता है कि कृष्णमूर्ति गलत हों। और बस राम राम राम दोहराने में कोई हर्जा भी नहीं है, और इससे बहुत सांत्वना मिल रही है। इस आदमी को क्या हुआ? चालीस साल तक कृष्णमूर्ति को सुना, लेकिन उसका हिंदू मन वहीं रहा। अंतिम क्षण में मन प्रतिक्रिया आरंभ कर देगा। नहीं, वे विद्रोही नहीं हैं। वे सोच रहे थे कि वे विद्रोही हैं। वे हर बात से संघर्ष कर रहे थे, वे उस सभी के विरोध में थे जो हिंदू कहते हैं, और अंतिम क्षण में उनकी विचारधारा की हवाई इमारत ढह जाती है।

जीवन आमतौर पर एक आदत, एक यांत्रिक आदत है और कुछ नहीं। जब तक कि तुम जागरूक न हो, जब तक कि तुम वास्तविक रूप से बोधपूर्ण न हो जाओ, इससे बाहर आ पाना दुष्कर होगा।

मैंने एक जुआरी के बारे में सुना है

एक पुराना जुआरी मर गया और उसका भूत कई सप्ताहों तक इधर—उधर उदास होकर घूमता रहा। यद्यपि वह स्वर्ग में प्रवेश का अधिकारी था, लेकिन उसने पाया कि वह इस स्थान से ऊब चुका है—न जुआ, न कोई जुआरी, तो स्वर्ग या बहिश्त में जाने का क्या उपयोग?

आखिरकार उसने सेंट पीटर से पूछ ही लिया कि क्या वह बाहर जाकर अन्य स्थानों को एक बार देख सकता है?

मुझे भय है कि यह असंभव है, सेंट पीटर ने कहा, यदि तुम नीचे वहां चले गए तो तुमको पुन: प्रवेश की अनुमति नहीं मिलेगी।

लेकिन मैं तो बस चारों ओर एक निगाह डालना चाहता हूं जुआरी के भूत ने कहा।

अब सेंट पीटर उसे एक विशिष्ट पास जारी करने के लिए सहमत हो गए जिससे उसे चौबीस घंटे बाहर रहने की अनुमति मिल रही थी।

बाहर निकल कर जुआरी ने नरक का एक चक्कर लगाया, और वह आया तो जो पहली चीज उसने देखी, वह थी उसके पुराने परिचितों का समूह पोकर खेल रहा था। लेकिन उन्होंने उसे अपने खेल में शामिल करने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसके पास धन नहीं था।

मैं इस मामले को जल्दी ठीक कर दूंगा, उसने कहा और वह बरामदे से नीचे उतर कर चला गया। दस मिनट बाद ही वह दस डालर के नोटों की गड्डियां दिखाता हुआ लौट आया।

इतने सारे रुपये तुम्हें कहां से मिल गए? उनमें से एक ने पूछा।

मैंने अपना पास बेच दिया है, जुआरी ने उत्तर दिया।

आदतें बहुत कुछ कर सकती हैं, तुम स्वर्ग को भी इनकार कर सकते हो। आदत के प्रभाव में तुम करीब—करीब अचेतन और असहाय होते हो। यही कारण है कि योग का जोर तुम्हारी ग्रंथियों के प्रति अधिक जागरूकता लाने पर है। जितना अधिक तुम याद रख सकते हो याद रखी कि तुम शरीर नहीं हो। और एक बात और याद रखो, आदत को तोड़ना कठिन है, लेकिन यदि तुम इसके स्थान पर दूसरी आदत बना लो तो यह उतना कठिन नहीं है। और यह ऐसे ही हुआ करता है, लोग आदतों को बदलते चले जाते हैं। यदि तुम उनसे कहो, तुम शरीर नहीं हो, वे सोचना शुरू कर देंगे कि वे मन हैं। फिर कुछ नहीं बदलता है, बस आदत का नाम बदल जाता है।

यही मैं देखता हूं। यदि मैं किसी को कहूं धूम्रपान छोड़ दो, वह पान खाना आरंभ कर देता है। यदि मैं उसे पान खाना छोड़ने को कहूं वह च्‍यूइंगगम चबाना शुरू कर देता है। और यदि तुम उसे इससे भी रोक दो, वह बहुत अधिक बोलना आरंभ कर देता है, यह भी वही बात है। आरंभ में वह बस धूम्रपान कर रहा था, कम से कम वह स्वयं को ही नुकसान पहुंचा रहा था किसी और को नहीं। अब वह धूम्रपान नहीं कर सकता, इसलिए वह बहुत अधिक बोलता है; अब वह दूसरों की शांति और मौन को भी नष्ट कर रहा है। धूम्रपान करने वाला एक प्रकार से अच्छा है, वह अपने तक सीमित रहता है। स्त्रियां बहुत अधिक बातचीत किया करती हैं, एक बार वे धूम्रपान आरंभ कर दें, उनकी बातचीत कम हो जाती है।

वस्तुत: तुमने भी ध्यान दिया होगा, जब कभी तुमको घबड़ाहट अनुभव होती है, तुम धूम्रपान आरंभ कर देते हो। यह धूम्रपान तो बस घबड़ाहट से बचने के लिए है। और यही तब भी होता है जब तुम बातचीत शुरू करते हो। तुमको घबड़ाहट अनुभव हो रही है, तुम स्वयं को किसी बात के द्वारा वहां से हटा देना चाहते हो।

मैंने एक सुंदर कहानी सुनी है

एक अठारह वर्षीय नवयुवक के क्रिया—कलापों से उसके माता—पिता बेहद चिंतित रहा करते थे। क्योंकि वह अपने सजीले वस्त्र पहनने के लिए अपने कमरे में घंटों व्यतीत कर देता था, उसे अपने जूते पॉलिश करने और अपने बाल संवारने में बहुत सारा समय लगता था, फिर वह सीधे रसोई घर में जाता और अपने बाएं कान पर गाजर का पौधा चिपका कर नृत्य करने के लिए डिस्को में चला जाता था। स्वाभाविक था कि उसके माता—पिता यह सब देख कर चिंतित हुए और उन्होंने उसको मनोचिकित्सक के पास जाने के लिए राजी कर लिया। वह मनोचिकित्सक के कार्यालय में दूल्हे की भांति सजा— धजा, अपने बाएं कान पर अजवाइन का पौधा लगा कर प्रविष्ट हुआ। चिकित्सक ने कोमलता से बातें करते हुए उसे बताया कि उसके माता—पिता उसके तर में चिंतित है, और फिर उसने पूछा, आप अपने बाएं. कान में अजवाइन का पौधा क्यों लगा रखा है? क्या इसका कोई खास कारण है?

लड़का थोड़ा आश्चर्यचकित दिखा और बोला, निःसंदेह कारण है। मम्मी के पास आज गाजरें नहीं थीं।

अब यदि गाजर छोड़ दी जाए, तो अजवाइन……लेकिन लोग आदतें बदलते रहते हैं।

कभी—कभी ऐसा भी होता है कि तुम गंदी आदत को अच्छी आदत में बदल सकते हो, और हर व्यक्ति प्रसन्न होगा, और प्रत्येक संतुष्ट हो जाएगा। लेकिन योग संतुष्ट नहीं होगा। तुम धूम्रपान छोड़ सकते हो और तुम मंत्र का जाप आरंभ कर सकते हो। अब यदि तुम एक दिन अपना मंत्र न दोहराओ तो तुमको वैसी ही बैचेनी होगी जैसी कि तुमको तब होती थी जब तुम धूम्रपान किया करते थे, और यदि तुम एक दिन धूम्रपान न कर पाए—दिनचर्या का पालन करने की वही अभिलाषा, जो कुछ तुम किया करते थे यांत्रिक रूप से वही करने की इच्छा। तुम गंदी आदत को अच्छी आदत में बदल सकते हो, लेकिन आदत फिर भी आदत रहती है। समाज की निगाहों में यह अच्छा दिख सकता है, लेकिन तुम्हारे आंतरिक विकास के लिए इसका कोई अर्थ नहीं है।

सारी आदतें छोड़ देनी पड़ेगी। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम अस्तव्यस्त हो जाओ, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जीवन को पूरी तरह उत्तप्त होकर ऊलजलूल ढंग से टेढ़ा—मेढ़ा होकर जीया जाए; नहीं, बल्कि अपने जीवन का निर्णय अपने होश से होने दो।

यह संभव है कि तुम सुबह जल्दी ही पांच बजे, एक आदत की तरह सोकर उठ सकते हो, और यह भी संभव है कि आदत की भांति नहीं बल्कि होश के माध्यम से सुबह जल्दी ही पांच बजे सोकर उठ जाएं। और दोनों इतने भिन्न हैं, उनकी गुणवत्ता पूर्णत: अलग है। जब कोई व्यक्ति बस एक आदत की भांति पांच बजे सोकर उठता है तो वह बस उतना ही यांत्रिक है जितना कि वह व्यक्ति जो आदतवश नौ बजे सोकर उठता है। दोनों एक ही नाव में सवार हैं। और जो व्यक्ति पांच बजे सोकर उठा है वह भी उतना ही मूढ़ है जितना कि वह व्यक्ति जो नौ बजे सोकर उठता है, क्योंकि मूढ़ता इससे जरा भी संबंधित नहीं है कि तुम कब सोकर उठते हो। मूढ़ता का सवाल तब उठता है कि तुम आदत से जीते हो या बोध से।

यदि तुम होशपूर्वक जीते हो तो तुम सजग रहोगे। भले ही सुबह के नौ बजे हों, लेकिन यदि तुम बोधपूर्वक सोकर उठे हो तो तुम संवेदनशील होओगे, तुम चीजों को स्पष्टता से देखोगे, और हर चीज सुंदर होगी। एक लंबे आराम के बाद, सारी ज्ञानेंद्रियों के विश्राम कर चुकने के बाद वे पुन: जीवंत और अधिक जीवंत हो जाएंगी। धूल लुप्त हो चुकी है, सब कुछ स्पष्ट है। अपनी परा— अवस्था की गहराई में विश्राम करके, तुम अपनी नींद में सारे विचारों को, शरीर को भुला कर, सबसे परे, तुम अपने घर की यात्रा कर चुके हो। वहां से तुम पुन: युवा, ताजे होकर वापस आते हो। लेकिन यदि यह केवल एक आदत है तो यह किसी अन्य आदत की भांति व्यर्थ है।

धर्म कोई आदत का सवाल नही है। यदि तुम चर्च या मंदिर में मात्र एक आदत, एक औपचारिकतावश, एक का पालन करते हुए, जो तुम्हें करना ही है, तुमको इसके लिए प्रशिक्षित किया गया है, चले जाते हो, तो यह व्यर्थ है। यदि तुम मंदिर में सजग होकर जाते हो, तो मंदिर की घंटियां तुम्हारे लिए एक अलग अर्थ, एक भिन्न महत्व रखेंगी। वे मंदिर की घंटियां तुम्हारे हृदय में कुछ झंकृत कर देंगी। तब चर्च की शांति तुम्हें एक नितांत नवीन ढंग से घेर लेगी।

अत: स्मरण रखें, यह कोई आदत का प्रश्न नहीं है। धर्म कोई अभ्यास का प्रश्न नहीं— है। तुम्हें समझना ही होगा, और इसी भांति पतंजलि तुम्हें धीरे— धीरे और—और समझ देते हुए, तुम्हें पथ के बारे में और—और बताते हुए यहां तक ले आए हैं।

जितना अधिक तुम स्पष्ट हो जाते हो उतना ही अधिक तुम हर कहीं, हर पत्ती, हर फूल पर लिखा हुआ संदेश पढ़ सकते हो। यह संदेश परमात्मा का है। उसके हस्ताक्षर सभी जगह हैं। तुम्हें भगवतगीता में जाने की कोई जरूरत नहीं है, तुमको बाइबिल और कुरान में जाने की कोई आवश्यकता नहीं रही। कुरान और भगवतगीता और बाइबिल सारे अस्तित्व पर लिखे हुए हैं। तुमको केवल गहराई से देखने वाली आंखों की आवश्यकता है।

मैंने सुना है, लंदन की एक विवाहित नवयुवती को विश्वास था कि वह गर्भवती थी और वह इसकी पुष्टि हेतु चिकित्सक के पास गई। डाक्टर ने शीघ्रता से उसकी जांच की और आश्वस्त किया कि उसका अनुमान सही है। फिर उसको आश्चर्यचकित करते हुए उस डाक्टर ने रबर—स्टैंप लेकर उसके उदर पर लगा दी और कहा, बस सब हो गया।

उस महिला ने अपने पति को यह विचित्र घटना सुनाई, तो पति ने पूछा, इसमें क्या लिखा है? ठीक है, इसे पढ़ लो, उसने उत्तर दिया।

पति ने देखा कि लिखावट पढ़े जाने के लिए बहुत छोटी थी, लेकिन आवर्धक लेंस से सब कुछ साफ दिखने लगा। उसमें लिखा था, जब आप इसे आवर्धक लेंस के बिना पढ़ सकें तो अपनी पत्नी को अस्पताल ले आएं।

अभी तो तुमको—बुद्ध के जीसस के कृष्ण के पतंजलि के आवर्धक लेंस की आवश्यकता पड़ती है। और फिर भी तुम पढ़ नहीं सकते क्योंकि तुम्‍हारी आंखें लगभग अंधी हैं। एक बार तुम्हारी आंखें साफ हो जाएं, तो उसका संदेश हर कहीं है। और यह संदेश इतना स्पष्ट है कि तुम तो बस हैरान रह जाओगे कि इतने दिनों से तुम इससे चूकते कैसे रहे, तुम इसे देख कैसे न पाए। यह हर तरफ था, चारों ओर था, प्रत्येक दिशा और, आयाम से वह तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे रहा था।

किंतु यदि शरीर में जीते हो तो तुम इसको नहीं सुनोगे। यदि तुम मन में जीते हो, तो तुम इसे थोड़ा बहुत सुनोगे, लेकिन फिर इसके बारे में सिद्धात गढ़ लोगे और तुम चूक जाओगे। यदि तुम मन से और गहराई, पश्यंती में, जहां ध्यान तुम्हें ले जाते हैं, उतरो तो तुम संदेश को पढ़ने में समर्थ हो जाओगे और तुम सिद्धांतीकरण का शिकार नहीं बनोगे, तुम दार्शनिक विवेचना नहीं करोगे। ओर एक बार तुम इसके बारे में दार्शनिक विवेचना न करो, एक बार तुम परमात्मा के बारे में विचार न करो थी— तुम उसको देखो, और चारों ओर, इधर उधर भटकने के स्थान पर सीधे ही उसमें प्रविष्ट हो जाओ, तो तुम पश्यंती का अतिक्रमण कर लेते हो, बीज प्रस्फुटित हो जाता है। तुम परा, उस पार की खाई, शून्यता में गिर जाते हो।

वर्तुल पूरा हो गया; मौन से मौन तक, आकाश से आकाश तक, परमात्मा से परमात्मा तक। आरंभ परमात्मा है और अत भी परमात्मा है। आदि और अंत—वह दोनों है।

अब सूत्र :

सत्वपुरुषयो शुद्धि साम्ये कैवल्यम्।

‘जब पुरुष और सत्व के मध्य शुद्धता में साम्य होता है, तभी कैवल्य उपलब्ध होता है।’

योग अस्तित्व को दो में बांटता है। अमूर्त एक है, लेकिन मूर्त दो है, क्योंकि मूर्तमान होने की प्रक्रिया में ही चीजें दो हो जाती हैं? उदाहरण के लिए, तुम एक गुलाब की झाड़ी को, सुंदर पुष्पों को देखते हो। तुम बस देखते हो, तुम कुछ कहते नहीं हो। तुम बस गुलाब को देखते हो, अपने भीतर एक शब्द भी नहीं बोलते। यह अनुभव एक है। अब यदि तुम किसी से कहना चाहो, ये फूल सुंदर हैं, जिस क्षण तुम कहते हो, ये फूल सुंदर हैं, तुमने कुरूपता के बारे में भी कुछ कह दिया है। वे फूल कुरूप नहीं हैं। सौंदर्य के साथ कुरूपता प्रविष्ट हो जाती है। यदि कोई पूछता है, सौंदर्य क्या है? तुम्हें इसकी व्याख्या करने के लिए कुरूपता का उपयोग करना पड़ेगा।

यदि तुम किसी स्त्री को देखो और कोई शब्द तुम्हारे भीतर न उठे, तो यह अनुभव एक अद्वैत है। जिस क्षण तुम कहते हो, मैं तुमसे प्रेम करता हूं तुम घृणा को भीतर ले आए हो। क्योंकि प्रेम को घृणा के बिना नहीं समझाया जा सकता! दिन को रात के नहीं समझाया जा सकता और जीवन को मृत्यु के बिना नहीं समझाया जा सकता। समझाने के लिए_ विपरीत को भीतर लाना पड़ता है।

वैखरी की दशा में सब कुछ सुस्पष्ट, द्वैत है, रात्रि दिवस से भिन्न है मृत्यु जीवन से अलग है, सौंदर्य कुरूपता से भिन्न है, प्रकाश अंधकार से अलग है—हर चीज अरस्तु के ढंग से विभाजित है, उनके मध्य कोई सेतु नहीं है। थोड़ा गहरे उतरो। मध्यमा की अवस्था में विभाजन आरंभ हो जाता है। किंतु इतना स्पष्ट नहीं होता, दिन और रात, संध्या या प्रात: की भांति मिलते हैं, विलय हो जाते हैं। थोड़ा और गहरे उतरो। पश्यंती की दशा में, वे बीज—रूप में हैं, अभी द्वैत का उदय —नहीं हुआ है, तुम कह नहीं सकते कि क्या चीज क्या है; हर चीज में भेद नहीं किया जा सकता। थोडा और गहरे उतरी। परा की अवस्था अदृश्य या अदृश्य—कोई विभाजन नहीं है।

अभिव्यक्ति की दशा में योग वास्तविकता को दो में बांटता है : पुरुष और प्रकृति। प्रकृति का अर्थ है : पदार्थ। पुरुष का अभिप्राय है : चैतन्य। अब जब तुम शरीर—मन के साथ, प्रकृति के साथ, कुदरत के साथ, पदार्थ के साथ, तादात्म्य कर लेते हो, तो दोनों प्रदूषित हो जाते हैं। प्रदूषण सदैव द्विपक्षीय होता है। उदाहरण के लिए यदि तुम पानी और दूध को मिला दो, तो तुम कहते हो, अब दूध शुद्ध नहीं रहा लेकिन तुमने कुछ नहीं देखा, पानी भी अब शुद्ध नहीं रहा। क्योंकि पानी, मुक्त में मिल जाता है अत: कोई चिंता नहीं लेतीं; यह तो एक बात है; लेकिन जब तुम पानी और दूध मिलाते हो, दोनों अशुद्ध हो जाते हैं। यह बात कुछ खास है, क्योंकि दोनों शुद्ध थे—पानी पानी था, दूध दूध था—दोनों शुद्ध थे। यह एक चमत्कार है। दो शुद्धताएं मिलती हैं और दोनों अशुद्ध हो जाती हैं।

अशुद्धता में कुछ भी निंदा योग्य नहीं है। इसका अर्थ बस यह है कि विजातीय पदार्थ प्रविष्ट ही गया है। यह केवल इतना कहता है कि कुछ ऐसा जिसका अंतर्तम स्वभाव भिन्न है प्रविष्ट हो गया वह यही बात है।

यह सूत्र बहुत सुँदर है। ’विभूतिपाद’ इस सूत्र पर समाप्त हो जाता है, यह सूत्र इसकी पराकाष्ठा है। यह सूत्र कहता है : जब तुम देह के साथ तादात्‍मय कर लेते हो, तो तुम अशुद्ध हो, देह अशुद्ध है। जब तुम मन के साथ तादात्म्य कर लेते हो, तो तुम अशुद्ध हो, मन अशुद्ध है। जब तुमने तादात्म नहीं किया हुआ हो, दोनों शुद्ध हो जाते हैं।

अब यह विरोधाभास जैसा प्रतीत होगा। एक सिद्ध या एक बुद्ध वह है जिसने पा लिया है उसका मन शुद्धता में कार्य करता है। उसकी मेधा शुद्धता में कार्य करती है, उसकी सारी प्रतिभाएं शुद्ध हो जाती हैं। और उसकी चेतना शुद्धता में कार्य करती है। दोनों अलग हैं—दूध दूध है, पानी पानी है। दोनों पुन: शुद्ध हो गए हैं।

यह सूत्र कहता है : ‘जब पुरुष और सत्व के मध्य शुद्धता में साम्य होता है, तभी कैवल्य उपलब्ध हो जाता है।’

सत्य, प्रकृति, कुदरत, पदार्थ की पराकाष्ठा है। सत्य का अभिप्राय है बुद्धिमत्ता और पुरुष का अर्थ है बोध। यह तुम्हारे भीतर लगी हुई सूक्ष्मतम गांठ है, क्योंकि वे काफी समान हैं। बुद्धिमत्ता और बोध इतने समान हैं कि अनेक बार तुम सोचना आरंभ कर सकते हो कि बुद्धिमान व्यक्ति बोधपूर्ण व्यक्ति होता है। ऐसा नहीं है।

आइंस्टीन बुद्धिमान हैं, आत्यंतिक रूप से बुद्धिमान हैं, लेकिन वे बुद्ध नहीं हैं, वे बोधपूर्ण नहीं हैं। वे सामान्य व्यक्ति से भी कम बोधपूर्ण हो सकते हैं—क्योंकि वे अपनी बुद्धि में बहुत अधिक संलग्न हैं। ऐसा हुआ कि आइंस्टीन बस से कहीं जा रहे थे, परिचालक, कंडक्टर ने आकर टिकट के लिए उनसे रुपये मांगे। उन्होंने उसको रुपये दे दिए। परिचालक ने आइंस्टीन को छुट्टे पैसे वापस किए। आइंस्टीन ने उनको गिना और गिनने में गलती कर बैठे—जब कि वे संसार के महानतम गणितज्ञ थे—और उन्होंने कहा : तुमने मुझको पूरे पैसे वापस नहीं किए हैं, मुझे कुछ सिक्के और दो।

कंडक्टर ने पैसे दुबारा गिने, वह बोला : क्या आपको अंक—ज्ञान नहीं है?

उसे पता नहीं था कि ये सज्जन अल्वर्ट आइंस्टीन हैं। गणित के क्षेत्र में ऐसी महान प्रतिभा कभी नहीं हुई।

और परिचालक ने कहा : क्या आपको अंक—ज्ञान नहीं है?

अंकों के बारे में इन सज्जन से अधिक कभी किसी ने नहीं जाना, लेकिन क्या हो गया?

जो लोग प्रतिभाशाली होते हैं, लगभग हमेशा ही वे भुलक्कड़ होते हैं। वे अपनी बुद्धिमत्ता से इतने अधिक आसक्त और संचालित होते हैं कि बाहर के संसार की अनेक बातों में वे भुलक्कड़ हो जाते हैं।

मैंने एक महान मनोविश्लेषक, एक बेहद बुद्धिमान व्यक्ति के बारे में सुना है। वह अपने प्रयोगों में इतना अधिक खो गया कि दो या तीन दिन तक वह अपने घर ही नहीं गया। उसकी पत्नी चिंतित हुई। तीसरे दिन वह और अधिक प्रतीक्षा न कर सकी तो उसने फोन किया और वह बोली, तुम क्या कर रहे हो? वापस लौटो, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूं। और रात्रि—भोज तैयार है।

वह बोला, ठीक है, मैं आ जाऊंगा। पता क्या है?

वह पूरी तरह से भूला हुआ था—अपनी पत्नी, और घर और पता भी।

बुद्धिमत्ता अनिवार्यत: जागरूकता नहीं है। जागरूकता अनिवार्य रूप से बुद्धिमत्ता है। एक व्यक्ति जो जागरूक है, बुद्धिमान होता है; लेकिन एक व्यक्ति जो बुद्धिमान है, उसका जागरूक होना आवश्यक नहीं है; इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है। लेकिन दोनों बहुत पास हैं। बुद्धिमत्ता शरीर—मन का भाग है और जागरूकता परम का, पार का, पुरुष का अवयव है।

आकाश पृथ्वी से मिलता है। वह बिंदु, वह क्षितिज जहां आकाश पृथ्वी से मिलता है, वही बिंदु है वहां से तादात्म को पूर्णत: भंग करना है—वहां से जहां बुद्धिमत्ता और जागरूकता मिलते हैं। दोनों बहुत समान हैं। बुद्धिमत्ता शुद्धीकृत पदार्थ है, इतना परिशुद्ध कि तुम इसमें जा सकते हो और कोई सोच सकता है कि ‘मैं जागरूक हो चुका हूं।’ इसी कारण से बहुत से दर्शनशास्त्री अपना जीवन व्यर्थ गंवा देते हैं, वे सोचते हैं कि बुद्धिमत्ता ही उनकी जागरूकता है। धर्म जागरूकता की खोज है, दर्शनशास्त्र बुद्धिमत्ता की खोज है।

‘जब पुरुष और सत्व के मध्य शुद्धता में साम्य होता है, तभी कैवल्य उपलब्ध हो जाता है।’

लेकिन कैवल्य कैसे उपलब्ध हो? पहले तुम्हें सत्य, बुद्धिमत्ता की शुद्धि उपलब्ध करनी पड़ेगी। अत: और गहरे उतरो। वैखरी है मूर्तमान बुद्धिमत्ता, मध्यमा है संसार के लिए नहीं बल्कि केवल तुम्हारे लिए मूर्तमान बुद्धिमत्ता, पश्यंती है बीज—रूप में बुद्धिमत्ता, और परा है जागरूकता। धीरे— धीरे स्वयं को विरक्त करो, विवेकपूर्वक देह को एक यंत्र, एक माध्यम, एक ठिकाने के रूप में देखना आरंभ करो, और तुम इसको जितना अधिक संभव हो सके उतना स्मरण करो। धीरे— धीरे यह स्मरण स्थायी हो जाता है। फिर मन पर कार्य आरंभ कर दो। स्मरण रखो कि तुम मन नहीं हो। यह स्मरण तुम्हें भिन्न होने में सहायता करेगा।

एक बार तुम शरीर—मन से अलग हो जाओ, तुम्हारा सत्य शुद्ध हो जाएगा। और तुम्हारा पुरुष सदैव शुद्ध था, बस पदार्थ के साथ तादात्म्य के कारण ही यह अशुद्ध प्रतीत हो रहा था। एक बार दोनों दर्पण शुद्ध हो जाएं, कुछ भी प्रतिबिंबित नहीं होता। दोनों दर्पण आमने—सामने हैं, कुछ भी प्रतिबिंबित नहीं हो रहा है, वे रिक्त रहते हैं।

परम शून्यता की यह दशा मुक्ति है। मुक्ति संसार से नहीं है। यह तादात्म्य से मुक्ति है, तादात्म्य मत करो, किसी बात के साथ तादात्म्य मत करो। सदैव स्मरण रखो कि तुम साक्षी हो, साक्षी के बिंदु को मत खोओ, फिर एक दिन आंतरिक बोध हजारों सूर्यों के साथ उगने की भांति उदित हो जाता है।

यही है जिसको पतंजलि कैवल्य, मुक्ति कहते हैं।

इस शब्द कैवल्य को समझना पड़ेगा।

भारत में विभिन्न स्हस्यदर्शियों द्वारा परम अवस्था के लिए भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है। महावीर इसे मोक्ष कहते हैं। मोक्ष का ठीक से अनुवाद ‘परममुक्ति’ की भांति किया जा सकता है, कोई बंधन नहीं है, सारे बंधन गिर चुके हैं। बुद्ध ने ‘निर्वाण’ शब्द प्रयुक्त किया है, निर्वाण का अभिप्राय है : ‘अहंकार का मिट जाना।’ जैसे कि तुम प्रकाश बुझा दो और बस लौ विलीन हो जाए, बस इसी प्रकार से अहंकार का प्रकाश खो जाता है, तुम्हारा वजूद मिट जाता है। बूंद समुद्र में विलीन हो गई है या सागर बूंद में समा गया है। यह विलय हो जाना, तिरोहित हो जाना है।

पतंजलि ‘कैवल्य’ का प्रयोग करते हैं, इस शब्द का अभिप्राय है ‘परम एकांत।’ यह न तो मोक्ष है और न निर्वाण। इसका अर्थ है : परम एकांत; तुम इस अवस्था में आ चुके हो जहां तुम्हारे लिए कोई और नहीं होता। किसी अन्य का अस्तित्व नहीं है, केवल तुम, सिर्फ तुम, बस तुम। वस्तुत: अपने आपको ‘मैं’ पुकारना संभव नहीं है, क्योंकि ‘मैं’ का प्रयोग ‘तू के संदर्भ में होता है और ‘तू मिट चुका है। तुम मोक्ष मुक्ति में हो इसे और अधिक कहते रहना संभव नहीं है, क्योंकि जब सारे बंधन खो गए हैं तो मुक्ति का क्या अर्थ रह गया? यदि कारागृह संभव है तो मुक्ति भी संभव है। तुम मुक्त हो क्योंकि बस पड़ोस में ही कारागृह का अस्तित्व है। तुम कारागृह के भीतर नहीं हो, अन्य लोग हैं जो कारागृह के भीतर हैं, लेकिन सिद्धांतत: संभवत: किसी भी दिन तुमको भी कारागृह में डाला जा सकता है। यही कारण है कि तुम मुक्त हो, लेकिन यदि कारागृह पूरी तरह से, अत्यंतिक रूप से, मिट चुका हो, तो स्वयं को मुक्त कहने का क्या अर्थ रहा।

कैवल्यम्, मात्र एकांत। लेकिन याद रखो, इस एकांत का तुम्हारे अकेलेपन से कुछ भी लेना—देना नहीं है। अकेलेपन में दूसरे का अस्तित्व, उसका अनुभव होता है, उसकी अनुपस्थिति का अनुभव किया जाता है। यही कारण है कि अकेलापन एक उदास घटना है। तुम अकेले हो, इसका अर्थ है. तुम दूसरे की आवश्यकता अनुभव कर रहे हो। एकांत, जब दूसरे की आवश्यकता तिरोहित हो चुकी है। तुम अपने आप में पर्याप्त हो, अपने आप में परम हो, कोई आवश्यकता नहीं, कोई अभिलाषा नहीं, कहीं जाना नहीं। इसीलिए पतंजलि कहते हैं : तुम घर आ गए हो। उनकी परिभाषा में यही मुक्ति है, उनके लिए यही निर्वाण या मोक्ष है।

तुम पर भी झलकियां आ सकती हैं। यदि तुम शांत बैठ जाओ और स्वयं को अलग कर लो…। पहले स्वयं को वस्तुओं से अलग कर लो। अपनी आंखें बंद कर लो, संसार को भूल जाओ, यदि उसका अस्तित्व है भी तो उसे स्वप्न की भांति लो। फिर अपने विचारों को देखो और स्मरण रखो कि तुम विचार नहीं हो, वे तैरते हुए बादल हैं। अपने आप को उनसे अलग कर लो. वे खो चुके हैं। फिर एक विचार उठता है कि तुम अलग हो। यह पश्यंती है। उसे भी गिरा दो, क्योंकि वरना तुम वहीं अटक जाओगे। उसे ‘भी गिरा दो, इस विचार के भी बस साक्षी हो रहो। अचानक तुम्हारी शून्यता का विस्फोट हो जाएगा। यह मात्र एक क्षणांश के लिए हो सकता है—लेकिन तुम्हारे पास ताओ का, योग और तंत्र का स्वाद होगा, तुम्‍हारे पास सत्य का स्वाद होगा। और एक बार यह तुम्हें मिल जाए तो इस तक पहुंचना सरलतर और सरलतर हो जाता है। इसे होने दो, इसके प्रति खुले रहो, इसके लिए उपलब्ध रहो। प्रतिदिन यह और—और सरलतर हे। जाता है। जितना अधिक तुम इस पथ पर यात्रा करते हो उतना ही पथ अधिक सुस्पष्ट हो जाता

एक दिन तुम भीतर जाते हो और कभी बाहर नहीं लौटते.. .कैवल्यम्। यही है जिसको पतंजलि परम मुक्ति कहते हैं। पूरब में यही लक्ष्‍य है।

पूरब के लक्ष्य पाश्चात्य लक्ष्यों से कहीं अधिक ऊपर पहुंचते हैं। पश्चिम में स्वर्ग अंतिम बात प्रतीत होती है; पूरब में ऐसा नहीं है। ईसाई, मुसलमान, यहूदी उनके लिए स्वर्ग अंतिम बात है; इसके परे कुछ भी नहीं है। लेकिन पूरब में हमने और कार्य किया है, हमने सत्य में और गहरी खुदाई की है। हमने उसे परम अंत तक खोदा है, जब तक अचानक खुदाई शून्यता के सम्मुख न पहुंच जाए और अब खोदने के लिए कुछ न रहे।

स्वर्ग एक अभिलाषा है, प्रसन्न रहने की इच्छा है; नरक एक भय है, अप्रसन्न रहने का भय। नरक है संचित संताप, स्वर्ग है हर्ष का संचय। लेकिन वे मुक्ति नहीं हैं। मुक्ति तब है जब तुम न पीड़ा में हो और न हर्ष में। स्वतंत्रता तभी है जब द्वैत गिरा दिया गया हो। स्वाधीनता तभी है जब न तो नरक हो और न स्वर्ग : कैवल्यम्। तब व्यक्ति अपनी परम शुद्धता को उपलब्ध कर लेता है।

पूरब में लक्ष्य रहा है, और मैं सोचता हूं कि इसी को सारी मानवता का लक्ष्य होना चाहिए।

आज इतना ही।


Filed under: पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) Tagged: अदविता नियति, ओशो, मनसा, स्‍वामी आनंद प्रसाद
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